यहाँ पर योग अश्वमेध, आंतरिक अश्वमेध, वज्रदण्ड, निरालम्बस्थान, निरालम्ब चक्र, ब्रह्म चक्र, निराधार चक्र, निराधारस्थान, अष्टम चक्र, वज्रदण्ड चक्र, त्रिशंकु, अष्टवसु सिद्धि, द्वादश आदित्य सिद्धि, एकादश रुद्र सिद्धि, इंद्र सिद्धि, प्रजापति सिद्धि आदि बिंदुओं पर बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान बस होने ही वाला था I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का छियासठवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का पांचवां अध्याय है I
इस चित्र का वर्णन… अष्टम चक्र का वर्णन, निरालम्ब चक्र का वर्णन, निरालम्बस्थान का वर्णन, अष्टम चक्र और शिव शक्ति योग, अष्टम चक्र और राम नाद, निरालम्बचक्र का वर्णन, निरधारचक्र का वर्णन, निरधार स्थान का वर्णन, निरालम्ब स्थान का वर्णन, …
इस चित्र में…
- जो नीचे के भाग में शरीर के भीतर का नीला और श्वेत प्रकाश है, वह पूर्व में बताया गया शिव शक्ति योग है I इस शिव शक्ति योग के समय पर नाभि क्षेत्र का अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग) नाभि से ऊपर की ओर उठता है, और मस्तिष्क के सहस्रार चक्र में चला जाता है I
- जब यह अमृत कलश सहस्रार चक्र (अर्थात सहस्र दल कमल या ब्रह्मरंध्र चक्र) में जाता है, तो इस कमल के पत्ते इस कलश की ऊर्जा को धारण करके, बहुत बड़े आकार के दिखाई देने लगते हैं I लेकिन इस चित्र में मस्तिष्क के ऊपर के सहस्र दल कमल के हजार पत्तों के स्थान पर केवल दस को ही सांकेतिक रूप में दिखाया गया है I ऐसे समय पर सहस्रार चक्र के पत्ते विशालकाया श्वेत सागर जैसे आकार के प्रतीत होते हैं, इसीलिए इस चित्र में इन पत्तों को बहुत बड़ा दिखाया गया है I
- और सहस्रार चक्र से यह अमृत कलश शिवरंध्र के स्थान पर जाकर, एक सुनहरे दण्ड में प्रवेश करता है, जिसको वज्रदण्ड कहा जाता है I
- यह वज्रदण्ड एक प्रकाशमान सुनहरे वर्ण के दण्ड के समान होता है और इसी को इस चित्र में मस्तिष्क के ऊपर के भाग में दिखाया गया है I ऐसा इसलिए दिखाया गया है क्यूंकि यह वज्रदण्ड, सहस्रार चक्र (अर्थात मस्तिष्क के ऊपर का सहस्र दल कमल) से भी ऊपर होता है, जिसके कारण यह वज्रदण्ड शरीर के भीतर नहीं बल्कि कपाल से बाहर की ओर होता है (अर्थात कपाल की हड्डी से भी ऊपर की ओर होता है) I
- इस वज्रदण्ड के भीतर वज्रमणि (अर्थात हीरा) के प्रकाश होता है, इसीलिए इस चित्र में सुनहरे वर्ण के भीतर यह वज्रमणि का प्रकाश भी दिखाया गया है I
- वज्रदण्ड के भीतर वह राम नाद सुनाई देता है, जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया गया था और जिसका नाम शिव तारक मंत्र था I
- और जब यह अमृत कलश वज्रदण्ड से भी आगे जाता है, तब यह अष्टम चक्र में पहुँच जाता है I
- सिद्धों ने इस अष्टम चक्र को निरालम्ब चक्र और निरालम्बस्थान भी कहा था I
- क्यूंकि वज्रदण्ड से यह निरालम्ब चक्र जुड़ा हुआ नहीं होता है, इसलिए यह निरालम्ब चक्र उस अंधकारमय अनंत शून्य में, जो योगमार्ग में साधक के सहस्रार से आगे होता है और जो शरीर के बाहर को ओर होता है और जिसको इस चित्र में भी अंधकार रूप में दिखाया गया है, उसके भीतर ही लटका हुआ सा होता है I
- और ऐसा होने के कारण इसको निरधार चक्र और निराधारस्थान भी कहा जाता है I
- इसलिए ऊपर के चित्र में सुनहरे वज्रदण्ड और श्वेत वर्ण के निरालम्ब चक्र के मध्य के स्थान में एक अंधकारमय दशा दिखाई गई है I यह अन्धकारमय दशा शून्य ब्रह्म है I
- और उसी शून्य ब्रह्म ने इस पूरे चित्र (और इसकी दशाओं) को घेरा भी हुआ है I शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत होता है और अनंत ही शून्य I
- शून्य ब्रह्म में शून्य का शब्द प्रकृति की प्राथमिक (अर्थात शून्य) दशा का द्योतक है, और ब्रह्म का शब्द अनंत (अर्थात अनंत-ब्रह्म) का द्योतक है I
- क्यूंकि परंपरा के शब्द में भी, परम शब्द ब्रह्म का और परा शब्द प्रकृति का (अर्थात प्रकृति के नवम कोष या परा प्रकृति का), इसलिए परंपरा वही होती है जिसमें ब्रह्म (अर्थात भगवान्) और प्रकृति (अर्थात देवी या ब्रह्मशक्ति) का योग होता है I
और यही दशा शून्य ब्रह्म की भी है, जिसमें शून्य का शब्द प्रकृति का और ब्रह्म का शब्द अनंत (ब्रह्म) का द्योतक है I
और क्यूँकि शून्य ब्रह्म वह दशा है जो ब्रह्माण्डातीत है, अर्थात ब्रह्माण्डोदय से पूर्व की है, इसलिए यह शब्द (अर्थात शून्य ब्रह्म) परंपरा की उस दशा को दर्शाता है, जो ब्रह्माण्ड के उदय से भी पूर्व की थी I
और यही शुन्य ब्रह्म का शब्द उस महाप्रलय को भी दर्शाता है, जिसकी दशा ब्रह्माण्ड के अस्त होने के पश्चात आती है I
शून्य ब्रह्म ही श्रीमन नारायण हैं जिन्होंने पञ्च कृत्य को धारण किया हुआ है I
और इन्ही पञ्च कृत्य को जब कोई जीव धारण करता है, तो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वह जीव अतिमानव कहलाता है I
जो योगी अतिमानव कहलाया जाता है, वह ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में श्रीमन नारायण का स्वरूप ही होता है I
- यह वज्रदण्ड, कपाल की हड्डी से ऊपर होता है, इसलिए यह स्थूल शरीर के भीतर नहीं होता, बल्कि स्थूल शरीर से बाहर की ओर होता है I
और निरालम्ब चक्र तो इस वज्रदण्ड से भी ऊपर होता है, इसलिए यह चक्र भी शरीर से बाहर ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
जबकि इस वज्रदण्ड का वर्ण सुनहरा होता है, लेकिन इस सुनहरे वर्ण के वज्रदण्ड के अंदर की ओर एक हीरे जैसा प्रकाश भी होता है I
और जब साधक की चेतना इस वज्रदण्ड के भीतर से जा रही होती है, तब वह चेतना राम नाद का शब्दात्मक साक्षात्कार करती है, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया था I इसलिए वज्रदण्ड का शब्द राम है I वज्रदण्ड के भीतर ही योगमार्ग के राम का शब्दात्मक साक्षात्कार होता है I इसी साक्षात्कार को अथर्ववेद 10.2.31 में भी सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दर्शाया गया है I
और जब वह चेतना उस वज्रदण्ड को भी पार करती है, तब वह चेतना एक श्वेत वर्ण के चतुर्दल कमल में चली जाती है, जो उस अंधकारमय आकाश में लटका हुआ सा होता है, अर्थात उस चतुर्दल कमल का कोई आधार नहीं होता (या नीव नहीं होती) I
इसीलिए ऊपर के चित्र में उस चतुर्दल कमल को लटका हुआ दिखाया गया है और यही वह कारण है कि ऊपर के चित्र में सुनहरे वर्ण के वज्रदण्ड और श्वेत वर्ण के चतुर्दल कमल के मध्य में रिक्त स्थान छोड़ा गया है I
जब योगी की चेतना इस चतुर्दल कमल (अर्थात अष्टम चक्र या निरालम्ब स्थान) को पार करती है तब वह देखती है कि इस कमल के चार पत्तों में से तीन पत्ते उस चेतना के दायीं ओर हैं और एक पत्ता बायीं ओर है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
यह चतुर्दल कमल जो वज्रदण्ड से थोड़ा ऊपर होता है, उसको ही सिद्धों ने निरालम्ब चक्र और निरालम्बस्थान कहा था I ऐसा इसलिए कहा था क्यूंकि यह चक्र आधार रहित होता है, अर्थात यह चक्र उस अंधकारमय आकाश में स्वतंत्र रूप से लटका हुआ होता है I
और क्यूंकि इस चक्र का कोई आलम्बन अर्थात आधार नहीं होता, इसलिए इसको निरालम्ब चक्र, निरधारचक्र, निरधारस्थान और निरालम्ब स्थान भी कहा गया था I
यह अध्याय, वज्रदण्ड और निरालम्ब चक्र के बारे में ही है I
अष्टचक्र क्या है, अष्टम चक्र क्या है, अष्टम चक्र का योग, अष्टम चक्र का योगी, अष्टम चक्र का योगी अतिदुर्लभ है, अष्टम चक्र अतिदुर्लभ योग है, … निरालम्ब चक्र क्या है, निरालम्ब चक्र का योग, निरालम्ब चक्र का योगी, निरालम्ब चक्र का योगी अतिदुर्लभ है, निरालम्ब चक्र अतिदुर्लभ योग है, … निरालम्बस्थान क्या है, निरालम्बस्थान का योग, निरालम्बस्थान का योगी, निरालम्बस्थान का योगी अतिदुर्लभ है, निरालम्बस्थान अतिदुर्लभ योग है, … आंतरिक योगमार्ग की श्रेणियां, योगमार्ग की श्रेणियां, …
इस अध्याय में जाने से पूर्व, इन अष्ट चक्रों को बताना पड़ेगा I
- मूलाधार चक्र, मूल चक्र, मूल कमल, … यह मेरुदण्ड के सबसे नीचे के भाग की ओर होता है I और इसका स्थान लिंग और गुदा के मध्य में, गुदा के अति समीप ही होता है I इसी चक्र का चित्त और उसके भीतर बसे हुए संस्कारों से नाता होता है, इसलिए यह मूल कमल भी कहलाता है I पञ्च सरस्वती विद्या में इस चक्र की दिव्यता भारती सरस्वती हैं I इस चक्र के देवता कार्य ब्रह्म हैं I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो अपान प्राण ही है, उनका नाता रक्त सरस्वती से ही है I
- स्वाधिष्ठान चक्र, देवी चक्र, काम चक्र, देवी कमल, काम कमल, … यह मूलाधार से कोई 3-4 ऊँगली ऊपर की ओर होता है I यह काम कमल भी कहलाता है क्योंकि यह विशुद्ध काम को दर्शाता है I मुख्यतः इसी चक्र का प्राण से नाता होता है और पञ्च प्राण में भी इसका नाता मुख्यतः व्यान प्राण से होता है I पञ्च सरस्वती विद्या में इस चक्र को मूलाधार और मणिपुर चक्रों से जो नाड़ी जोड़ती है, उसकी दिव्यता भारती विद्या सरस्वती हैं और इसके अतिरिक्त इस चक्र की निराकार प्राणमय दिव्यता शारदा सरस्वती हैं I इस चक्र के देवता निराकार सदानंद ब्रह्म हैं, जिनको सच्चिदानंद भी कहा जाता है I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो व्यान प्राण ही है, उनका नाता माँ शारदा सरस्वती के माया शक्ति स्वरूप से ही है I
- मणिपुर चक्र, नाभि चक्र, नाभि कमल, उदर चक्र, … यह नाभि क्षेत्र में, मेरुदण्ड में ही होता है, इसलिए यह नाभि कमल भी कहलाता है I इसी से मन का नाता होता है I इसी चक्र से थोड़ा सा आगे की ओर अमृत कलश होता है I मन, हृदय या मस्तिष्क में नहीं, बल्कि नाभि क्षेत्र में ही होता है I मन के देवता सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति हैं I पञ्च विद्या सरस्वती में इस चक्र की दिव्यता भारती विद्या हैं I इस चक्र के देवता हिरण्यगर्भ ब्रह्म है I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो वज्रमणि (अर्थात हीरा) के समान प्रकाशमान होती हैं, उनका नाता विशुद्ध सत्त्व को दर्शाती हुई हीरे के समान प्रकाशमान और सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा की अर्द्धांगिनी, हीरे के प्रकाश को धारण करी हुई, ब्रह्मलोक में ही पितामह के साथ ही बैठी हुई विशुद्ध सत् रूपी माँ सरस्वती हैं जो सगुण निर्गुण ब्रह्म की और उन्ही ब्रह्म के ही विशुद्ध सत् स्वरूप में द्योतक हैं I
- अनाहत चक्र, हृदय कमल, हृदय चक्र, … यह हृदय क्षेत्र में होता है, इसलिए यह हृदय कमल भी कहलाता है I पञ्च सरस्वति में इस चक्र की दिव्यता शारदा सरस्वति हैं I इस चक्र के देवता परब्रह्म हैं I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो प्राण प्राण ही है उनका नाता माँ हेमा सरस्वती से ही है I
- विशुद्ध चक्र, चक्र, कमल, … यह कंठ क्षेत्र में होता है, इसलिए यह कंठ कमल भी कहलाता है I पञ्च विद्या में इस चक्र की दिव्यता पञ्च मुखा गायत्री (गायत्री सरस्वती) हैं I इस चक्र के देवता विश्वरूप ब्रह्म हैं I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो उदान प्राण ही है, उनका नाता माँ नील सरस्वती से ही है I
- आज्ञा चक्र, भ्रूमध्य चक्र, भ्रूमध्य कमल, नयन कमल, नयन चक्र, नैन चक्र, नैन कमल, … यह भ्रूमध्य में होता है, इसलिए यह नैन कमल भी कहलाता है I इस चक्र के देवता अर्धनारिश्वर हैं, जो सगुण आत्म हैं I पञ्च विद्या में इस चक्र की दिव्यता सावित्री सरस्वती हैं I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, और जो उदान प्राण ही है, उनका नाता माँ सरस्वती के इस स्वरूप से है जो अज ब्रह्म (अर्थात अजन्मे ब्रह्म) की दिव्यता होती है I
- सहस्रार चक्र, सहस्र दल चक्र, सहस्र दल कमल, शिखर चक्र, शून्य चक्र, शिखर कमल, शून्य कमल, ब्रह्मरंध्र चक्र, ब्रह्मरंध्र कमल, … यह मस्तिष्क से ऊपर और मूलतः थोड़ा आगे के भाग में होता है I क्यूंकि यह शिखर पर ही होता है, इसलिए यह शिखर कमल भी कहलाता है I और क्यूँकि मस्तिष्क के ऊपर और थोड़ा आगे के भाग की कपाल की हड्डी में बसे हुए ब्रह्मरंध्र को पार करके शून्य का साक्षात्कार होता है, इसलिए यह शून्य चक्र या शून्य कमल भी कहलाता है I पञ्च सरस्वती विद्या में इस चक्र की दिव्यता ब्रह्माणी सरस्वती हैं I इस चक्र के देवता पूर्णब्रह्म हैं I
और इसके अतिरिक्त, इस चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, उनका नाता उन महासरस्वती से है, जो महाब्रह्म प्रजापति (प्रजापति का महाब्रह्म स्वरूप) की अर्धांगनी (अर्थात दिव्यता) ही होती हैं I
- वज्रदण्ड से आगे निरालम्ब चक्र, अष्टम चक्र, निरालम्ब स्थान, ब्रह्म कमल, ब्रह्मलोक कमल, ब्रह्मलोकचक्र, ब्रह्मचक्र, … यह आठवाँ चक्र है, जो सहस्रार के शिवरंध्र नामक स्थान से ऊपर जो सुनेहरा दण्ड है, और जो वज्रदण्ड कहलाता है, उससे भी आगे (अर्थात ऊपर) होता है I क्यूंकि यह कमल आधार रहित होता है, अर्थात उस शून्य ब्रह्म में ही लटका सा रहता है इसलिए इसको निरालम्ब चक्र और निराधार चक्र कहा गया है I पञ्च सरस्वती विद्या में, इस चक्र की दिव्यता ब्रह्माणी विद्या हैं I इस चक्र के देवता शून्य ब्रह्म हैं I
और इसके अतिरिक्त, वज्रदण्ड चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, उनका नाता उन स्वर्ण सरस्वती से है, जो सावित्री सरस्वती भी कहलाती हैं और जो कार्य ब्रह्म (प्रजापति का कार्यब्रह्म अर्थात महेश्वर या योगेश्वर स्वरूप) की अर्धांगनी (अर्थात दिव्यता) ही होती हैं I
और इसके अतिरिक्त, निरालम्ब चक्र की जो प्राण ऊर्जाएँ (प्राण शक्ति) होती हैं, उनका नाता उन सरस्वती से है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म (प्रजापति का हिरण्यगर्भ ब्रह्मस्वरूप) की अर्धांगनी (अर्थात दिव्यता) ही होती हैं I
इसलिए यह दोनों चक्र की ऊर्जाएं, उन्ही माँ सरस्वती के दोनों ऊपर के स्वरूप को दर्शाते हैं, और जिनमें से वज्रदण्ड चक्र, सरस्वती के योगेश्वरी स्वरूप को और निरालम्ब चक्र उन्ही सरस्वती के कैवल्य स्वरूप को दर्शाते हैं I
इस अध्याय में इसी निरालम्ब चक्र, अर्थात अष्टम चक्र के बारे में बात होगी I
आगे बढ़ता हूँ…
अष्टम चक्र के योगी अतिदुर्लभ होते हैं, इस बिंदु के बारे में बताता हूँ…
अष्टम चक्र को ही निरालम्ब स्थान और निरालम्ब चक्र कहा जाता है I
अधिकांश योगीजनों की चेतना जब इस निरालम्ब चक्र पर चली जाती है, तो उनका देहावसान ही हो जाता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि जो स्थान ही निरालम्ब है, उसपर बैठा हुआ योगी उस जीव जगत से नाता कैसे रख सकता है जो निरालम्ब नहीं है I इसी कारण से इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में बस कुछ ही योगी ऐसे हुए हैं, जिनकी चेतना इस अष्टम चक्र पर चली गई थी और इसके पश्चात भी वह अपनी काया रख पाए थे I
निरालम्बस्थान का इस समस्त जीव जगत से कुछ नाता नहीं है I इसलिए जब कोई योगी उस निरालम्ब स्थान पर चला जाता है, तब उस योगी का नाता इस समस्त जीव जगत से नाता ही टूट जाता है I और क्यूँकि योगी का शरीर तो इस जगत का ही अंग है, इसलिए जब योगी की चेतना निरालम्ब चक्र पर चली जाती है, तब उस योगी का शरीर तो जीव जगत में रहता है, और उसकी चेतना जीवातीत और जगतातीत हो जाती है I ऐसी दशा में अधिकांश योगीजन अपनी काया का परित्याग करे बिना भी नहीं रह पाते हैं I
इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में बस कुछ विरले ही योगी हुए हैं, जो उस निरालम्बचक्र पर जाकर भी, अपनी काया को रख पाए हैं I और ऐसा योगी ही वह होते हैं, जिनकी चेतना निरालम्बस्थान से नीचे की ओर आ पाती है, अर्थात पुनः शरीर में लौट आती है I
अधिकांश योगीजन तो निरालम्ब स्थान पर जाकर, वहीँ से आगे चले जाते हैं, जिससे वह शरीर में लौट ही नहीं पाते हैं I और ऐसा होने के कारण, उनके इसी निरालम्ब चक्र के साक्षात्कार के तुरंत बाद, देहावसान ही हो जाता है I
ऐसा होने के कारण, जो योगी इस साक्षात्कार के पश्चात अपनी काया को रख पाते हैं, वह अतिदुर्लभ ही हैं I इसलिए अष्टम चक्र के जीवित साक्षात्कारी मिलते ही नहीं हैं I
और यह भी वह कारण है कि बस सप्तम चक्र तक के ज्ञाता ही अधिकांशतः मिलेंगे… कई सहस्र वर्षों के पश्चात कोई अष्टम चक्र का ज्ञाता जो इस साक्षात्कार के बाद भी अपनी काया में रह पता होगा, वो मिल पाएगा I
और एक बात कि इस अष्टम चक्र से आगे कोई योग सिद्धि है भी नहीं, इसलिए यही योगमार्ग की गंतव्य सिद्धि है और इसका सिद्ध योगी गंतव्य सिद्ध I
अब इस अष्टम चक्र के योगी के बारे में बताता हूँ…
अष्टम चक्र का योगी ऐसा ही कहेगा…
बाह्य मार्ग ही पतन के मार्ग है I
आंतरिक मार्ग ही उत्कर्ष के पथ हैं I
बाह्य मार्गों से कलियुग प्रबल होता है I
आंतरिक मार्गों से सत्युग स्थापित होता है I
स्वयं ही स्वयं में का वाक्य ही सत्युग मार्ग है I
स्वयं ही स्वयं में के मार्ग में कलियुगी प्रभाव नहीं है I
और ऐसा योगी यह भी कहेगा ही…
ब्रह्म ही ब्रह्म रचना और रचना का तंत्र हुआ है I
रचना में ही ब्रह्म बसा है, और ब्रह्म में ही रचना बसी हुई है I
जितना दिव्य ब्रह्म है, उतनी दिव्य उसकी रचना और रचना का तंत्र है I
ब्रह्म को जानने का मार्ग भी उसकी रचना से ही स्वयं ही स्वयं में प्रशस्त होता है I
इस अष्टम चक्र का योगी यह भी कहेगा…
यदि कलह क्लेश को जाना है, तो बाह्य मार्गों में जाओ I
यदि उत्कर्ष पथ पर जाना है, तो स्वयं ही स्वयं में बस जाओ I
स्वयं ही स्वयं में के वाक्य का मार्ग, ब्रह्म की ओर लेकर जाता है I
इस स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य के मार्ग का गंतव्य निरालम्ब चक्र ही है I
इस मार्ग के गंतव्य का योगी, ब्रह्म, ब्रह्म रचना और रचना तंत्र भी होता है I
ऐसा होने के पश्चात भी वह योगी उसके अपने आत्मस्वरूप से निर्बीज ब्रह्म ही है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब इस आंतरिक योगमार्ग के सिद्धों के प्रकार पर बात होगी I
आंतरिक योगमार्ग के सिद्धों की प्रधानतः तीन श्रेणियां होती हैं I
- नीचे की श्रेणी… वह सिद्ध जिनकी चेतना मेरुदण्ड से ऊपर की ओर उठती हुई सहस्रार चक्र (अर्थात सहस्र दल कमल) में गई है I
- मध्यम श्रेणी… वह सिद्ध जिनकी चेतना सहस्र दल कमल पार करी है और उससे ऊपर जो सुनहरा वज्रदण्ड है, उसमें चली गई है I
- ऊपर की श्रेणी… वही सिद्ध जिनकी चेतना वज्र दण्ड से भी ऊपर गई है और इस अष्टम चक्र में ही पहुँच गई है I
यहाँ पर इस ऊपर की श्रेणी की बात होगी I
योग अश्वमेध क्या है, योग अश्वमेध सिद्धि, आंतरिक अश्वमेध सिद्धि, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्धि, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, आंतरिक अश्वमेध क्या है, योग अश्वमेध मार्ग, आंतरिक अश्वमेध मार्ग, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्ध, योग मार्ग का अश्वमेध, अश्वमेध यज्ञ सिद्धि, अश्वमेध यज्ञ सिद्ध, अश्वमेध यज्ञ, निरालम्ब चक्र का सिद्ध, निरालम्ब चक्र सिद्धि, निरालम्बस्थान का सिद्ध, निरालम्बस्थान सिद्धि, निराधार चक्र का सिद्ध, निराधार चक्र सिद्धि, … निराधारस्थान का सिद्ध, निराधार स्थान सिद्धि, … अष्टवसु सिद्धि क्या है, द्वादश आदित्य सिद्धि क्या है, एकादश रुद्र सिद्धि क्या है, इंद्र सिद्धि क्या है, प्रजापति सिद्धि क्या है, अष्टवसु सिद्धि मार्ग, द्वादश आदित्य सिद्धि मार्ग, एकादश रुद्र सिद्धि मार्ग, इंद्र सिद्धि मार्ग, प्रजापति सिद्धि मार्ग, अष्टवसु सिद्ध, द्वादश आदित्य सिद्ध, एकादश रुद्र सिद्ध, इंद्र सिद्ध, प्रजापति सिद्ध, …
अष्टम चक्र को ही निरालम्ब चक्र और निरालम्ब स्थान कहा जाता है I पूर्व के अध्याय में बताया गया अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग), नाभि से ऊपर उठकर इसी निरालम्ब चक्र में जाता है, और इस निरालम्बस्थान को पार भी करता है I अमृत कलश की इसी पार करी हुई दशा ही ऊपर के चित्र में, सबसे ऊपर के भाग में दिखाया गया है I
ऊपर के चित्र में इसी अमृत कलश को निरालम्ब चक्र से ऊपर दिखाया गया है I और ऐसा इसलिए दिखाया गया है क्यूंकि इस चित्र की दशा में वह अमृत कलश निरालम्ब चक्र से भी परे जा चुका है I
जीवों के इतिहास में यह अमृत कलश शनैः शनैः ही सही, लेकिन भरता रहता है I यह अमृत कलश नाभि क्षेत्र में होता है, और यह एक लिंग रूप में होता है I साधकगणों के भक्तिबल, योगबल, साधनाबल और सत्कर्म आदि बलों के प्रभाव से इस अमृत कलश में एक श्वेत वर्ण का तरल (या द्रव) पदार्थ भरता ही रहता है I
यह श्वेत वर्ण का तरल या द्रव पदार्थ ही अमृत कहलाता है, और क्यूंकि इस कलश में यह अमृत भरा हुआ होता है, इसलिए इसको अमृत कलश भी कहा गया है I इस कलश में अमृत पूर्णरूपेण भरने में तो चौरासी लाख योनियों से भी अधिक लग जाती हैं, और इतनी योनियों के पश्चात जब वह जीव मानव योनि में प्रकट होता है, तब भी यह पूर्ण भरा हुआ नहीं होता I और मानव रूप में भी जब वह जीव कई बार जन्म लेता है और योगी होकर रहता है, तब जाकर यह अमृत कलश भरता है I जब यह अमृत कलश भर जाता है तभी यह कलश नाभि से ऊपर उठता है और जहाँ ऊपर उठने का मार्ग भी शक्ति शिव योग ही है I
शिव शक्ति योग के समय, यह अमृत कलश नाभि से ऊपर उठा हुआ अंततः निरालम्ब चक्र में पहुँच जाता है, और उस निरालम्बचक्र को जब यह अमृत कलश पार करता है, तब ही वह साधक इस अध्याय का साक्षात्कार करता है I
जितना यह अमृत कलश उस श्वेत ऊर्जा से भरा हुआ होगा, उतना ही उस साधक के पास योगबल, तपबल, भजनबल, सत्कर्म आदि बल होगा I इसलिए इस अमृत कलश की ऊर्जा की मात्रा देख कर भी यह जाना जा सकता है कि साधक के जीव इतिहास में उसनें कितना तपादि बल अर्जित करा है I
और जब यह नाभि कलश, अमृत से भर जाता है, तब ही यह अमृत कलश ऊपर की ओर उठता है I इसका अर्थ हुआ कि जबतक यह नाभि कलश, अमृत से भरा हुआ नहीं होगा, तबतक यह ऊपर, अर्थात सहस्रार की ओर (या सहस्रार से ऊपर निरालम्ब स्थान की ओर) उठेगा भी नहीं I
इस कलश का अमृत से भर जाना इस बात का प्रमाण भी है, कि अब वह साधक मुक्तिमार्ग की उस दशा पर जाने का पात्र हुआ है, जो ब्रह्म रचना से ही अतीत है I जो ब्रह्म रचना से अतीत है, वही तो कैवल्य मोक्ष (कैवल्य मुक्ति) है I
आगे बढ़ता हूँ…
इस योगमार्ग में जब वह अमृत कलश निरालम्ब चक्र में पहुंचकर, इस चक्र को भी पार कर जाता है, तब योगमार्ग के दृष्टिकोण से ऐसे योगी का एक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होता है I
ऐसा योगी उस आंतरिक अश्वमेध का सिद्ध माना जाता है जिसका सूक्ष्म सांकेतिक वर्णन अथर्ववेद 10.2.31, अथर्ववेद 10.2.32 और अथर्ववेद 10.2.33 में किया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
किन्तु इस योग मार्ग के अश्वमेध के पड़ाव भी होते हैं, इसलिए अब इन पड़ावों को बताता हूँ…
वैदिक वाङ्मय में प्रधानतः तैंतीस कोटि देवी देवता कहे गए हैं I इन्ही देवताओं की योगमार्गी संख्याओं के अनुसार ही आंतरिक अश्वमेध के पड़ाव भी होते हैं I
यह तैंतीस कोटि देवी देवता ऐसे बताए जाते हैं और इनके पाद (पड़ाव) भी ऐसे ही होते हैं…
अष्ट वसु…
- यह आठ वसु हैं I
- इन अष्ट वसु के 2 पाद होते हैं I
- इसलिए इनकी कुल पाद संख्या 8 x 2 = 16 होती है I
द्वादश आदित्य…
- यह बारह आदित्य हैं I
- इन द्वादश आदित्य के 3 पाद होते हैं I
- इसलिए इनकी कुल पाद संख्या 12 x 3 = 36 होती है I
एकादश रुद्र…
- यह ग्यारह रुद्र हैं I
- इन एकादश रुद्र में पञ्च प्राण, पञ्च उपप्राण और आत्मशक्ति होती है I
- पञ्च उपप्राण के 4 पाद होते हैं, इसलिए इनकी कुल पाद संख्या 5 x 4 = 20 होती है I
- और इन पञ्च उपप्राणों के अतिरिक्त जो पञ्च प्राण होते हैं, उनके 5 पाद होते हैं, इसलिए इन पञ्च प्राणों की कुल पाद संख्या 5 x 5 = 25 होती है I
- तो यहाँ हमने देखा कि पञ्च प्राणों और पञ्च उपप्राणों की पाद संख्या एक समान नहीं होती I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि व्यान प्राण में ही उसका धनञ्जय उपप्राण समाहित स्वरूप में निवास करता है I
- और इन पञ्च प्राणों और पञ्च उपप्राणों के अतिरिक्त, एक आत्म शक्ति होती है जो ब्रह्म शक्ति ही होती है, और ऐसा होने के कारण इसकी कुल पाद संख्या 2 होती है I
- इसलिए एकादश रुद्र की कुलपाद संख्या 16 + 25 + 2 = 47 होती है I
देवराज इंद्र…
- यह एक देवराज इंद्र हैं I
- देवराज इंद्र ही परमात्मा स्वरूप हैं I इसलिए इनका एक पाद ही होता है और इनकी कुल पाद संख्या भी 1 x 1 = 1 ही होती है I
प्रजापति…
- यह एक प्रजापति हैं I
- प्रजापति ही महाब्रह्म हैं I
- इंद्र से आगे जो प्रजापति का साक्षात्कार मार्ग है, उसमें 8 + 1 मध्यवर्ती दशाएं होती हैं I
- यह नौ मध्यवर्ती ही प्रजापति साक्षात्कार मार्ग के 8 + 1 पाद हैं I
- और ऐसा होने के कारण, प्रजापति की कुल पाद संख्या 9 होती है I
अब इन तैंतीस कोटि देवी देवता की योगमार्ग के अनुसार संख्या और उसका क्रम बताता हूँ…
- द्वादश आदित्य तक जो संख्या आती है, वह 16 +36 = 52 होती है I
- एकादश रुद्र तक जो संख्या आती है, वह 52 + 47 = 99 होती है I
- देवराज इंद्र तक जो संख्या आती है, वह 99 + 1 = 100 होती है I
- प्रजापति तक जो संख्या आती है, वह 100 + 9 = 109 होती है I
- लेकिन यहाँ पर मैं प्रजापति सिद्धि के एक सौ एकवें भाग तक ही बतलाऊँगा I इस बिंदु के अन्य सभी भाग आगे के एक अध्याय, जो शिवलिंग प्रदक्षिणा का होगा, उसमें बताए जाएंगे I
इसलिए योग अश्वमेध सिद्धि के अनुसार, …
- अष्ट वसु सिद्धि की पूर्णप्राप्ति के लिए साधक उसके अपने समस्त जीव इतिहास में 16 बार इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करना होगा I
- द्वादश आदित्य सिद्धि की पूर्णप्राप्ति के लिए साधक उसके अपने समस्त जीव इतिहास में 52 बार इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करना होगा I
- एकादश रुद्र सिद्धि की पूर्णप्राप्ति के लिए साधक उसके अपने समस्त जीव इतिहास में 99 बार इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करना होगा I
- देवराज इंद्र सिद्धि की पूर्णप्राप्ति के लिए साधक उसके अपने समस्त जीव इतिहास में 100 बार इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करना होगा I
- प्रजापति सिद्धि की पूर्णप्राप्ति के लिए साधक उसके अपने समस्त जीव इतिहास में 109 बार इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करना होगा I
और जहाँ इस प्रजापति सिद्धि का मार्ग, एक सौ एकवी आंतरिक अश्वमेध से जाता हुआ, अंततः शिवलिंग प्रदक्षिणा के अनुसार ही पाया जाता और जहाँ इस प्रदक्षिणा मार्ग में नौ पड़ाव होते हैं I
लेकिन यहाँ पर मैं प्रजापति सिद्धि के एक सौ एकवें भाग तक ही बतलाऊँगा I इस बिंदु के अन्य सभी भाग आगे के एक अध्याय, जो शिवलिंग प्रदक्षिणा का होगा, उसमें बताए जाएंगे I
आगे बढ़ता हूँ…
अब ध्यान देना क्यूंकि मैं ऊपर बताई गई संख्याओं के अनुसार योग अश्वमेध सिद्धि के प्रभेदों को बता रहा हूँ I
जब कोई साधक अपने सम्पूर्ण जीव इतिहास में आंतरिक अश्वमेध को…
सोलह बार पूर्ण करता है, तो वह अष्ट वसु स्वरूप पाता है I
बावन बार पूर्ण करता है, तो वह द्वादश आदित्य स्वरूप पाता है I
निन्यानवे बार पूर्ण करता है, तो वह एकादश रुद्र का स्वरूप पाता है I
एक सौ बार पूर्ण करता है, तो वह देवराज इंद्र का स्वरूप प्राप्त करता है I
एक सौ एक बार पूर्ण करता है, तो प्रजापति स्वरूप के मार्ग पर चल पड़ता है I
और जब एक सौ नौ बार पूर्ण करता है, तो प्रजापति का पूर्ण स्वरूप ही पा जाता है I
टिप्पणियाँ: प्रजापति के पूर्ण स्वरूप सिद्धि में…
- एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध के पश्चात, एक सौ नौ आंतरिक अश्वमेध तक साधक शिवलिंग परिक्रमा पथ पर ही जाता है I
- और इसी शिवलिंग प्रदक्षिणा से ही साधक इस परिक्रमा को पूर्ण करके, प्रजापति स्वरूप पा जाता है I
- और जहाँ वह स्वरूप भी…
ब्रह्मत्व नामक सिद्धि कहलाती है I
ऐसे ब्रह्मत्व सिद्धि में ब्रह्म ही शिव होते हैं और शिव ही ब्रह्म I
- ऐसी सिद्धि में…
शिवत्व के ब्रह्म स्वरूप को ही ब्रह्मत्व कहते हैं I
ब्रह्म के कल्याणकारी शिव स्वरूप को ही शिवत्व कहते हैं I
ब्रह्मत्व को शिवत्व से जोड़ता हुआ पथ, विष्णुत्व से होकर जाता है I
और अंततः वह ब्रह्मत्व पथ, शाक्तत्व और गणपत्व से भी होकर जाता है I
जो योगी ब्रह्मत्व की शिवलिंगात्मक परिक्रमा पूर्ण करा होगा, वही अतिमानव है I
यही ब्रह्मत्व पथ की शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा है, जो एक सौ एक योग अश्वमेध से, एक सौ नौ योग अश्वमेध के पथ को दर्शाती है I
इस प्रदक्षिणा के बारे में आगे की एक अध्याय में बतलाऊँगा I
टिप्पणियाँ:
- यदि यहाँ पर प्रजापति के लिए बताई गई पाद संख्या का मार्ग हम पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुख सदाशिव के मार्गों में जोड़कर देखेंगे, तो यह मार्ग वैसा ही हो जाएगा जैसे शिवलिंग प्रदक्षिणा का होता है, और जिसमें शिवलिंग से बहती हुई गंगा की धारा के ऊपर से जाया नहीं जाता है (अर्थात शिव लिंग से बाहर की ओर बहती हुई गंगा धारा को पार नहीं किया जाता है) I इस शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा के बारे में एक आगे की अध्यय श्रंखला में बताऊंगा जिसका नाम भारत भारती मार्ग होगा I
- इसलिए एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध के समय ही साधक पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुखी सदाशिव की प्रदक्षिणा कर पाता है, और जहाँ वह प्रदक्षिणा मार्ग भी शिवलिंग प्रदक्षिणा के समान ही होता है और इसमें नौ स्पष्ट पाद होते हैं I यह संपूर्ण ग्रंथ और इसका सम्पूर्ण मार्ग भी इसी एक सौ एकवें योग अश्वमेध का ही है I इस ग्रंथ के समस्त अध्याय, इसी एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध का मार्ग ही दर्शा रहे हैं I
- ऐसे शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा मार्ग में, समस्त दिव्यताओं और देवत्व बिंदुओं की प्रदक्षिणा भी स्वतः ही पूर्ण हो जाती है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि यह प्रदक्षिणा उन पञ्चब्रह्म की ही होती है, जिनमें समस्त देवी देवता सहित, उनके देवत्व बिंदु भी बसे हुए होते हैं I
- इसलिए ऐसी प्रदक्षिणा में पञ्च देव सहित, उनके समस्त स्वरूपों की प्रदक्षिणा भी स्वतः ही हो जाती है I क्यूँकि पञ्च देव के अतिरिक्त, कोई और दिव्यता भी नहीं हैं, इसलिए इसी प्रदक्षिणा पथ में समस्त देवत्व आदि बिंदुओं की प्रदक्षिणा भी होती है I
- ऐसी प्रदक्षिणा से साधक ब्रह्मत्व को भी प्राप्त हो सकता है I इसलिए शिवलिंग की जो प्रदक्षिणा करी जाती है, वह ब्रह्मत्व पथ ही है, और जहाँ वह…
ब्रह्मत्व ही शिवत्व होता है, और शिवत्व ही ब्रह्मत्व I
- और जहाँ वह…
शिवत्व ही शाक्तत्व होता है I
और शाक्तत्व भी शिवत्व ही होता है I
इस प्रदक्षिणा में प्रणव ही विष्णुत्व पथ है I
- और इस प्रदक्षिणा में…
जो अंत दशा आती है, वही गणपत्व है I
- इसलिए शिवलिंग की वैदिक प्रदक्षिणा, ब्रह्मत्व, शिवत्व, शाक्तत्व, विष्णुत्व और गणपत्व, पाँचों सिद्धियों को और उनके पञ्च देवताओं को समान रूप में दर्शाती है I और जहाँ वह…
पंच देव भी ब्रह्मा (सूर्य), विष्णु, रुद्र, देवी और गणेश हैं I
- इसलिए शिवलिंग परिक्रमा में पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुखी सदाशिव सहित, इनमें बसे हुए पञ्च देव, पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्र, अन्तःकरण चतुष्टय और पञ्च प्राणों आदि की भी प्रदक्षिणा ही होती है I
- और इसी शिवलिंग परिक्रमा में, पञ्च विद्या और दस महाविद्या सहित, नव दुर्गा, अष्ट मातृका, अष्ट भैरवि और उनके भैरवगण, चौसठ योगिनी, आदि दिव्यताओं की भी प्रदक्षिणा ही जाती है I
- और इसी शिवलिंग परिक्रमा में, तैंतीस कोटि देवी देवताओं की प्रदक्षिणा भी जाती है I
- और इसी शिवलिंग प्रदक्षिणा के वैदिक पथ में पञ्च कृत्य की प्रदक्षिणा भी हो जाती है I
यही कारण है कि वैदिक शिवलिंग प्रदक्षिणा मार्ग में इन सभी बिंदुओं की प्रदक्षिणा भी हो जाती है I
इस ब्रह्मत्व पथ की शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा के समय, उस शिवलिंग से जो गंगा का प्रवाह होता है, उसपर न तो चरण डाले जाते हैं, और न ही उस गंगा को काटा (अर्थात उसके ऊपर से जाया) जाता है I
और सांकेतिक रूप से वैदिक शिवलिंग प्रदक्षिणा योग अश्वमेध के एक सौ आंतरिक अश्वमेध से लेकर, उसी योग अश्वमेध के एक सौ नौवें योग अश्वमेध तक की द्योतक है I
और जहाँ यह एक सौ से लेकर एक सौ नौवाँ योग अश्वमेध ही वह ब्रह्मत्व पथ है, जिसमें ब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताएं, सिद्धियाँ और लोकादि भी बसे हुए हैं I
यह मार्ग इन सभी सिद्धियों को दर्शाता है I
लेकिन इस ब्रह्मत्व पथ की शिवलिंगात्मक परिक्रमा के बारे में एक बाद के अध्याय में चित्रों सहित बतलाऊँगा I
आगे बढ़ता हूँ…
अब आंतरिक अश्वमेध के प्रभेदों के अनुसार साधक की उत्कर्ष गति को बताता हूँ… जब साधक…
एक बार आंतरिक अश्वमेध को सिद्ध करता है, तो वह मुक्ति को प्राप्त होता है I
इसलिए अधिकांश योगीजन पहले योग अश्वमेध के पश्चात ही मुक्त हो जाते हैं I
इस सिद्धि से योगी स्वतंत्र होता है, इसलिए वह मुक्ति को आगे ठेल भी सकता है I
यदि इसके बाद भी साधक मुक्ति ना चाहे, तो ही वह आगे के अश्वमेध में जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
इस प्रथम अश्वमेध सिद्धि के पश्चात यदि उस योगी ने अपनी मुक्ति को नहीं अपनाया, तो ही वह इससे आगे के अश्वमेध के मार्गों में जाएगा I
क्यूंकि इन आगे के योग अश्वमेध के बारे में पूर्व में बताया जा चुका है, इसलिए अब मैं इस अध्याय के अगले भागों में जाता हूँ…
त्रिशंकु कौन, त्रिशंकु क्या है, त्रिशंकु सिद्धि, त्रिशंकु योगी, इंद्रासन सिद्धि, इंद्रलोक पर विजय, योगी त्रिशंकु क्यों होता है, त्रिशंकु किसे कहते हैं, त्रिशंकु की दशा, … इंद्र सिद्धि की प्राप्ति, इंद्र सिद्धि का त्याग, …
पूर्व में बताया था, कि जब योगी एक सौ आंतरिक अश्वमेध पूर्ण करता है, तो वह इंद्र स्वरूप को प्राप्त होता है I अध्याय का यह भाग इसी एक सौवी योग अश्वमेध सिद्धि से संबद्ध है I
अध्याय के इस भाग में मैं पहले ही बता देता हूँ कि इस महाब्रह्माण्ड के पूरे इतिहास में, जब्कि बहुत योगीजनों ने इंद्र सिद्धि को पाया है, और ऐसी प्राप्ति के पश्चात उन्होंने इंद्रासन पर अपना अधिकार भी सिद्ध किया है, लेकिन इन सब योगीजनों में से जो योगी इंद्रपद को धारण किए हैं, उनकी संख्या बहुत ही कम रही है I ब्रह्माण्ड के इतिहास में ऐसा इसलिए हुआ है क्यूंकि उस एक सौवें आंतरिक अश्वमेध की उत्कृष्ट उत्कर्ष स्थिति में विराजित हुआ योगी, इंद्रपद को धारण करना ही नहीं चाता है I
जब इस महाब्रह्माण्ड के ब्रह्मा ने आज के इंद्र देव को इंद्रपद दिया था, तो आज के जो इंद्र हैं, उन्होंने भी इंद्रपद को धारण करने के लिए मना ही कर दिया था I और ऐसा ही पूर्व की अधिकांश इंद्र ने भी कहा ही है I
अधिकांश योगी जो इंद्रपद पर विराजने के अधिकारी होते हैं, वह उस इंद्रपद को धारण करना ही नहीं चाहते हैं, क्यूंकि इस पद से योगी देवराज ही हो जाता है, और ऐसा होने के कारण उस योगी पर समस्त महाब्रह्माण्ड को उत्कर्ष पथ पर चलित रखने का भार ही आ जाता है I और क्यूंकि अधिकांश जीव उत्कर्ष पथ पर जाना ही नहीं चाहते हैं, इसलिए इंद्रपद पर विराजमान उस उत्कृष्ट योगी के लिए, अपने कर्तव्य का निर्वाहन कर्मा ही एक बहुत कठिन परीक्षा सी ही हो जाती है I
क्यूंकि इंद्र ही देवराज हैं और क्यूंकि देवताओं का राजन, देवताओं के समस्त लोकों सहित (अर्थात देवलोकों सहित) और उन देवताओं की ब्रह्माण्ड के जिस भी लोक में उपासना आदि होती है, उन सब लोकों का आदिपत्य भी पा लेता है, और क्यूँकि देवता तो ब्रह्माण्ड के समस्त लोको, दशाओं और दिशाओं (अर्थात उत्कर्ष मार्गों) में होते ही है, इसलिए ऐसा होने के कारण, इंद्र ही ब्रह्माण्ड सम्राट हो जाता है I
देवराज इंद्र ब्रह्माण्ड सम्राट भी इसलिए होते है, क्यूंकि कोई दशा, दिशा और लोकादि है ही नहीं, जो ब्रह्म के देवत्व में बसा हुआ नहीं है I और क्यूँकि समस्त ब्रह्माण्ड में ही ब्रह्म व्यापक है, इसलिए समस्त ब्रह्माण्ड (अर्थात ब्रह्माण्ड के समस्त भागों) में उस देवत्व के मूल में, उस देवत्व के देवता भी हैं I
ऐसा होने के कारण भी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, इंद्र केवल देवराज ही नहीं हैं, बल्कि ब्रह्माण्ड सम्राट ही हैं I और इसीलिए उस देवराज इंद्र पर सारे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य ही आ जाता है I क्यूंकि इतने विशालकाय आधिपत्य का एक बहुत बड़ा भार भी होता है, इसलिए वह विरल और उत्कृष्ट योगी जिसने एक सौ आंतरिक अश्वमेध पूर्ण किए हैं, वह इस अतिरिक्त भार को धारण करना ही नहीं चाहता है I
और क्यूँकि इंद्र एक उत्कृष्ट योगी ही हो सकता है, और क्यूँकि उत्कृष्ट योगीजन प्रत्याहार में ही बसे हुए होते हैं, इसलिए कोई इंद्र जैसा उत्कृष्ट योगी समस्त महाब्रह्माण्ड का सार्वभौम सम्राट बनना ही नहीं चाहता है I
आगे बढ़ता हूँ…
जैसे किसी देश का वैदिक सम्राट उस देश का देवत्व स्वरूप ही कहलाता है, और जैसे किसी लोक का वैदिक सम्राट उस लोक के देवता का शरीरी स्वरूप ही होता है, वैसे ही महा ब्रह्माण्ड के वैदिक सम्राट, जो देवराज इंद्र ही हैं, वह महाब्रह्माण्ड के देवता स्वरूप ही होते हैं I
और क्यूँकि महाब्रह्माण्ड के देवता, वह सार्वभौम सर्वव्यापक परमात्मा ही हैं, इसीलिए वैदिक मनीषियों ने इंद्र देव को परमात्मा स्वरूप तक कहा है I
वैसे भी तो देवराज होने के कारण, इंद्र इस समस्त महाब्रह्माण्ड के सम्राट ही हैं और महाब्रह्माण्ड सम्राट होने के कारण, देवराज इंद्र, परमात्मा स्वरूप ही हैं I
यही कारण है, कि अन्य देवता तो केवल कारण जगत को ही दर्शाते हैं, पर इंद्रदेव का लोक (अर्थात इंद्रलोक) महाकारण जगत से ही संबद्ध होता है… और जहाँ वह महाकारण ही सगुण निराकार स्वरूप में वह हिरण्यगर्भ ब्रह्म होते हैं, जिनसे महाब्रह्माण्ड का उदय होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
जब हम मानव सहित, समस्त जीवों के पितामह ब्रह्माजी ने इस ब्रह्माण्ड की संरचना करी थी, तो जब उन्होंने एक पूर्व के ब्रह्माण्ड के एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्ध योगी को उस नवीनतम ब्रह्माण्ड में यह इंद्रपद प्रदान करने की बात करी थी, तो उस योगी ने इस पद को लेने के लिए ही मना कर दिया था I और ऐसा ही पूर्व के ब्रह्माण्डों के समस्त योगीजनों ने भी किया था I
जब ब्रह्मा को कोई एक सौ आंतरिक अश्वमेध का सिद्ध योगी मिला ही नहीं, जो उनके द्वारा प्रदान करे हुए इंद्रपद को धारण करना चाहता था, तो उन योगीजनों को मनाने के लिए, ब्रह्मा ने इंद्रासन को की एक आर्शीवाद दिया था, जिसको आगे के एक भाग में बताया गया है I
पर ऐसे आशीर्वाद के पश्चात, भी अधिकांश योगीजनों ने इंद्रपद को धारण करने को मना ही किया था I किन्तु कुछ ऐसा योगी भी थे, जिन्होंने पितामह ब्रह्मा की बात मान ली थी I
और अभी के महाब्रह्माण्ड में ऐसे योगी ही इंद्रपद को समय समय पर धारण करते रहे हैं I
और इस ब्रह्माण्ड की रचना के पश्चात, जैसे जैसे यह ब्रह्माण्ड आगे चलता गया, वैसे वैसे कुछ और योगीजन भी इसी एक सौवी आंतरिक अश्वमेध सिद्धि को पाए और इन योगीजनों में से कुछ आगामी समय के इंद्र भी बनते चले गए I और वह सब योगीजन भी इंद्रपद को धारण करने को इसलिए ही माने थे, क्यूंकि उनको पितामह ब्रह्मा जी के इंद्रासन पर आशीर्वाद का पता ही था I
अब आगे बढ़ता हूँ…
अब इंद्र सिद्धि सहित, त्रिशंकु नामक दशा को बताता हूँ…
सतयुग और त्रेतायुग के सूर्यवंशी इश्कवाकु वंश का मैं ही वह सम्राट था, जिसका नाम सत्यव्रत था, जो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का शिष्य हुआ था और और आगे चलकर जो त्रिशंकु कहलाया था I वैसे भगवान् राम भी इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए थे I
आगे बढ़ता हूँ…
जब योगी एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्ध करता है, तब उसके साथ एक विचित्र घटना घटती है, जिसको अब बताता हूँ I
इस अध्याय से पूर्व के अध्याय में बताया था, कि आंतरिक अश्वमेध में योगी का नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश) नाभि क्षेत्र से ऊपर उठकर निरालम्ब स्थान पर ही चला जाता है I
ऐसी ऊर्ध्वगति में वह कलश, वज्रदण्ड से बाहर निकलकर, उस निरालम्ब चक्र को तीन बार पार करता है और तीन बार पुनः वज्रदण्ड में लौट आता है I निरालम्ब चक्र को तीन बार पार करने पर और तीन बार पुनः वज्रदण्ड में लौटने के पश्चात, वह अमृत कलश आधी बार पुनः उठता है I
आधी बार से मेरा तात्पर्य है कि वह कलश निरालम्ब चक्र मे पुनः जाता तो है, किन्तु उसको पार नहीं करता है I
जब वह अमृत कलश वज्रदण्ड के भीतर होता है, तो वह साधक राम नाद सुनता है, जिसके दो भाग होते हैं, जिमनें एक भाग तो रा शब्द का होता है, जो रकार कहलाता है…और दूसरा भाग म शब्द का होता है, जो मकार कहलाता है I
और जब वह कलश निरालम्ब चक्र को पार करता है, तब वह साधक खकार नाद सुनता है, जिसमें ख का शब्द सुनाई देता है I और इन तीन खकार का स्वरूप भी ख ख ख, ऐसा ही सुनाई देता है I
इसका अर्थ हुआ कि जब भी वह अमृत कलश निरालम्ब चक्र (अष्टम चक्र) को पार करता है, तब वह साधक से ख शब्द को तीन तीन बार सुनता है I और क्यूंकि वह अमृत कलश तीन बार निरालम्ब चक्र को पार करता है, इसलिए इस पूरी प्रक्रिया में वह साधक इस ख़ शब्द को नौ बार सुनता है I और इसी प्रक्रिया में वह साधक राम शब्द (अर्थात र और ममम शब्द की योगदशा) को तीन बार सुनता है I
आगे बढ़ता हूँ…
अपने पूर्व जन्म में जब इंद्रदेव एक उत्कृष्ट योगी थे, तब उन्होंने अपने समस्त जीव इतिहास के समय में एक सौवाँ आंतरिक अश्वमेध सिद्ध करा था I
और ऐसी सिद्धि के पश्चात, उसका इंद्रासन प्राप्त हुआ था I ऐसा इसलिए था क्यूंकि जिस योगी ने अपने पूरे जीव इतिहास में एक सौ योग अश्वमेध किए होते हैं, वही इंद्रासन पर विराजमान होने का पात्र बनता है I
इंद्र देव वह योगी ही हो सकता है, जिसने अपने समस्त जीव इतिहास में एक सौ आंतरिक अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए होते हैं I
और इसके अतिरिक्त, इंद्रदेव ही चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा के प्राथमिक शिष्य भी होते हैं I ऐसा होने के कारण, जब ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उस ब्रह्माण्ड के देवराज का चयन करते हैं (अर्थात किसी इंद्र को चुनते हैं) तो वह योगी वही होता है, जो उन चतुर्मुखा पितामह का शिष्य रहा होगा I
लेकिन इस ब्रह्माण्ड के उदय होने के पश्चात, जब इस ब्रह्माण्ड के रचैता और हम सब जीवों के पितामह (चतुर्मुखा ब्रह्मा) ने प्रथम इंद्र को चुना था, तो उस इंद्र ने विनम्रतापूर्वक इंद्रासन ग्रहण करने के लिए मना कर दिया था I लेकिन इस बिंदु को तो मैं पूर्व में बता ही चुका हूँ, इसलिए अब आगे बढ़ता हूँ I
ऐसी दशा में उन इंद्र को मनाने के लिए, पितामह ब्रह्मा ने उस इंद्रासन को ही आशीर्वाद दे दिया था, और जो ऐसा था…
केवल मेरे द्वारा नियुक्त इंद्र ही इंद्रासन पर विराजमान हो पाएगा I
इंद्रासन पर मेरा यह अनुग्रह, समस्त श्रापादि से भी अधिभावी होगा I
इंद्रासन पर यह अनुग्रह समस्त योगसिद्धियों से भी अधिभावी होगा I
मेरे ब्रह्माण्ड में मेरा यह आशीर्वाद कोई भी अवहेलना नहीं कर पाएगा I
मेरे द्वारा नियुक्त इंद्र का इंद्रासन कोई भी दीर्घकाल तक ले नहीं पाएगा I
इसलिए चाहे इंद्रलोक पर ही क्यों न विजय हो जाए, इंद्रासन इंद्र का ही रहेगा I
मेरा आशीर्वाद, इंद्रासन और इंद्र पर, मेरे संपूर्ण ब्रह्माण्डीय समय में बना रहेगा I
इसलिए चाहे इंद्रलोक पर कई बार दूसरी सत्ताओं का कब्ज़ा हुआ है, लेकिन पितामह ब्रह्मा के इस आशीर्वाद के कारण, न तो कोई सत्ता उस इंद्रासन पर एक देव-दिवस से अधिक रह पायी है और न ही कभी इंद्रासन से इंद्र वंचित ही हुआ है I और यही वह एकमात्र कारण है कि चाहे किसी राक्षस आदि सत्ता ने इंद्रलोक ही क्यों न जीता हो, लेकिन इंद्रासन सदा ही इंद्र का रहा है I
और यह भी वह कारण है, कि जब भी इंद्रलोक पर किसी और सत्ता ने आक्रमण किया है, तब वह सत्ता चाहे इंद्रलोक ही क्यूँ न जीत गई हो, लेकिन इसके पश्चात भी वह सत्ता इंद्रासन पर एक देव-दिवस से अधिक समय तक विराजमान ही नहीं हो पाई है I
और यही वह कारण है, कि चाहे इंद्र को ही क्यों न श्राप दिया जाए, इंद्रासन तो फिर भी इंद्र देव का ही रहा है I
इंद्रासन पर पितामह ब्रह्मा के इसी अनुग्रह के कारण, ब्रह्माण्डीय इतिहास में चाहे इंद्र ही क्यों न भ्रष्ट हो जाए, या उस इंद्र को ही श्राप मिल जाए, अथवा उसके इंद्रलोक पर ही कोई विजयश्री पा ले, अथवा कोई योगी इंद्र सिद्धि को ही क्यों न पा जाए, या किसी और कारण से ही कोई उस इंद्रासन पर विराजने का पात्र बन जाए, लेकिन इंद्र से इंद्रासन तबतक कोई और नहीं पा सकता, जबतक वह इंद्र अपना देवराज पद का निर्धारित समय पूर्ण न कर ले I
और जब वह इंद्र अपना समय पूर्ण कर लेगा, तब पितामह ब्रह्मा ही आगामी इंद्र को चुन सकते है… और कोई भी नहीं I
और आगामी इंद्र के इंद्रासन पर भी पितामह का यही अनुग्रह बना रहता है, और तब तक बना रहेगा, जबतक हमारे पितामह का यह ब्रह्माण्ड रहेगा I इसलिए जबतक आगे के समय में वह महाप्रलय नहीं आएगी जिससे यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही नष्ट हो जाएगा, तबतक पितामह का यह आशीर्वाद, इंद्रासन पर पूर्णरूपेण बना ही रहेगा I
आगे बढ़ता हूँ…
पूर्व में बताया था कि योगी एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्धि से योगी देवराज इंद्र स्वरूप को पाता है I लेकिन इस सिद्धि के पश्चात जो होता है, उसमें वह योगी इंद्रासन का ही पात्र बन जाता है I
जब योगी अष्टम चक्र को सौवीं बार पार करके, सौवें आंतरिक अश्वमेध सिद्धि को पाता है, तब वह योगी इंद्र के समान ही हो जाता है I
ऐसी दशा में वह योगी एक ऐसे सिद्ध शरीर को प्राप्त करता है जिसका नाता इंद्रलोक से ही नहीं, बल्कि इंद्रदेव, उनके इंद्रासन और इंद्रपद नामक सिद्धि से भी होता है I
उस सिद्ध शरीर को प्राप्त करके, और उस सिद्ध शरीर का आलम्बन लेकर वह योगी उसे सिद्ध शरीर रूपी वाहन में बैठकर इंद्रलोक को जाता है I और इंद्रलोक पहुंचकर वह योगी इंद्र देव और उनके इंद्रासन के समक्ष खड़ा हो जाता है I
क्यूंकि इंद्र देव की एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्धियां हैं, इसलिए जो योगी एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध को पूर्ण करेगा, वह ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, इंद्रा के बराबर हो जाएगा I
और क्यूंकि ब्रह्माण्ड में केवल एक ही इंद्रा होता है, इसलिए ऐसी दशा में या तो वह इंद्र, इंद्रासन पर विराजमान रह सकता है, या वह योगी (जो इंद्र सिद्धि को पाया है वह उस इंद्रासन पर बैठ सकता है) I
आगे बढ़ता हूँ…
क्यूंकि पूर्व कालों का एक उत्कृष्ट योगी ही इंद्र बन सकता है, इसलिए मेरे उस पूर्व जन्म में जो हुआ, मैं उसको बताता हूँI
- उस जन्म में जब मेरे गुरुदेव जो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र थे, उनके द्वारा प्रदान किए हुए योगमार्ग से, मैं इंद्रलोक से संबद्ध वह सिद्ध शरीर प्राप्त किया था, तो उस सिद्ध शरीर के स्वरूप में मैं स्वतः ही इंद्रलोक में पहुँच गया I
- और जब ऐसा हुआ तो संपूर्ण दैविक ब्रह्माण्ड में हड़कंप ही मच गया क्यूंकि देवताओं को इस सिद्ध शरीर की काट ही पता नहीं थी I देवराज इंद्र को भी इस सिद्धि की काट नहीं थी, और ऐसा इसलिए था क्यूंकि उनकी भी यही सिद्धि होती है I
- ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि जबतक योगी इसके आगे की सिद्धि, जो एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध की होती है, उसको को नहीं पाएगा, तबतक उस योगी को इस इंद्रासन की सिद्धि की काट भी पता नहीं होगी I और क्यूंकि इंद्र के पास भी यह सिद्धि नहीं है, इसलिए उनको भी इसकी काट नहीं पता थी (और आज भी पता नहीं है) I
- इंद्रलोक में पहुंचकर, वह सिद्ध शरीर उस इंद्रासन से समक्ष खड़ा हो गया और उसने देवराज और इनकी राजगद्दी, दोनों को प्रणाम किया I
- इंद्र को पता था, कि अब उसका वह इंद्रासन नहीं है क्यूंकि जब भी कोई योगी इंद्रासन को ही सिद्ध करता है, तो उस समय के इंद्र से या तो वह योगी युद्ध करेगा या इंद्र को ही उस योगी को अपना इंद्रासन समर्पित करना होगा I ऐसा इसलिए है क्यूंकि दैविक ब्रह्माण्ड का एक ही सम्राट, अर्थात इंद्र हो सकता है I
- पर क्यूंकि वह सिद्ध शरीर तो अब इंद्रलोक में ही पहुंचकर, इंद्रदेव के सामने खड़ा हो गया था, और क्यूंकि इंद्र एक उत्कृष्ट योगी ही हो सकता है, इसलिए इंद्र अपने सिंहासन से उठे, और उन्होंने मुझे अपना इंद्रासन देने की बात कही I
- उस समय मैं दुविधा में था, क्यूंकि यदि इंद्रासन ले लूँगा, तो समस्त दैविक ब्रह्माण्ड ही नहीं, बल्कि महाकारण जगत से नीचे जो भी है, उसका सारा भार भीमुझ पर आ जाएगा I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इंद्र देवराज होने के कारण, दैविक, सूक्ष्म और स्थूल जगत के भी एकमात्र और सार्वभौम वैदिक सम्राट होते हैं (अर्थात प्रकृति और भगवान् दोनों के दृष्टिकोण से ही इंद्र देव सम्राट होते हैं) I
- जब इंद्र के ऐसे कहने पर मैं इसपर विचार कर रहा था, कि मैं वह इंद्रासन लूँ या नहीं, तब पितामह ब्रह्मा की वह पूर्व की वाणी आई, जिसमें उन्होंने उनके अपने रचित ब्रह्माण्ड में, इंद्रासन को अपना वह अनुग्रह प्रदान करा था, जिसके बारे में पूर्व में बताया गया है I
- पितामह ब्रह्मा की वह पूर्व कलो की वाणी सुनकर, तो इंद्रासन लिया ही नहीं जा सकता था क्यूंकि यदि में ले भी लेता, तो भी अपने ही पितामह की वाणी को असत्य ही सिद्ध करता I
- इसलिए मैंने जाना की इंद्रासन लेने पर मेरा ही नाश था, क्यूंकि उन पितामाह से चली आ रही वंश परंपरा का ही तो मैं अंग था… वह मेरे ही पितामह की परंपरा तो थी, जिसका मेरे इंद्रासन पर विराजमान होते ही नाश हो जाता, क्योंकि ऐसा करते ही मेरे पितामह की वाणी ही असत्य घोषित हो जाती I
- मैंने सोचा कि… शब्द ही तो ब्रह्म होता है… ज्ञान और शब्द का सर्वव्यापक प्राणमय योग ही तो ब्रह्म शक्ति स्वरूपा प्रकृति कहलाती है I इसलिए यदि पितामह के अनुग्रह रूप में इंद्रासन को दिए हुए ब्रह्मदेव के शब्द ही असत्य हो गए, तो ब्रह्म भी तो असत्य ही घोषित कर दिया जाएगा I और इसके अतिरिक्त उन ब्रह्म की शब्द और ज्ञान की सार्वभौम प्राणमय योग स्वरूपा प्रकृति भी असत्य ही घोषित कर दी जाएगी I और ऐसी दशा में न तो ब्रह्म सत्य रह रह पाएगा और न ही प्रकृति सत्यपथ स्वरूप में रह पाएगी I
- मैंने यह भी सोचा, क्यूंकि उत्कर्ष पथ भी तो प्रकृति से ही होकर जाता है, और प्रकृति का अभिन्न अंग ही होता है, इसलिए मेरे इंद्रासन पर विराजमान होते ही वह उत्कर्ष पथ भी सत्यमय नहीं रह पाएगा I ऐसी दशा तो न तो उत्कर्ष पथ बचेगा और न ही कोई ब्रह्मपथ (मुक्तिपथ) I
- आत्माएं तो जीव रूप में अंततः मुक्ति को प्राप्त होने हेतु ही आई थी, इसलिए जब मुक्तिपथ ही नहीं बचा, तो जीव जगत अराजक हुए बिना भी कहा रह पाएगा I इससे तो संपूर्ण जीव जगत ही अराजकता को पाएगा और अंततः घोर नरक तुल्य ही हो जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
- जब यह जाना, तो मैंने उस इंद्रपद की सिद्धि को ही त्यागने का मन बनाया और देवराज इंद्र को कहा, कि मैं अपने पितामह की वाणी को असत्य नहीं बना सकता I मैं ब्रह्म शक्ति स्वरूपा माँ प्रकृति से जाते हुए उत्कर्षादि पथ को भी असत्य की ओर लेकर जाने का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता, इसलिए भी मुझे कृपया क्षमा करें I
- और इसके पश्चात मैंने (अर्थात उस सिद्ध शरीर ने जो इंद्रलोक गया था) इंद्रदेव को कुछ ऐसा ही कह दिया… यह इंद्रासन पर आपका ही अधिकार रहेगा… मुझे आप देवराज का इंद्रासन नहीं चाहिए I
आगे बढ़ता हूँ…
- लेकिन जब कोई सिद्धि पाई जाती है, तो उसको त्यागना भी बहुत कठिन प्रक्रिया होती है, और यहाँ तो इंद्रासन की ही सिद्धि को त्यागने को सोच रहा था I
- और क्यूँकि इंद्रासन सिद्धि की प्राप्ति के पश्चात जबतक उसको त्यागोगे नहीं, तक तक इंद्रासन से दूर भी नहीं हो पाओगे, इसलिए मैं (अर्थात वह सिद्ध शरीर जो इंद्रलोक गया था) वहीँ खड़ा हुआ इसपर विचार करने लगा, की इस सिद्धि को त्यागा कैसे जाएगा I
- कुछ समय तक उपयुक्त प्रत्याहार और धारणा बनाकर, धयान में जाकर सोचा तो भाव आया, कि क्यूंकि इस आंतरिक अश्वमेध को पूर्णरूपेण त्यागा नहीं जा सकता, क्यों न इसका अधित्याग मार्ग खोजा जाए I
- और पितामह ब्रह्मा के अनुग्रह के अनुसार, मैं (अर्थात वह सिद्ध शरीर जो इंद्रलोक गया था) तो इंद्रलोक में एक देव दिवस से अधिक भी नहीं रह सकता था इसलिए इस अर्धत्याग का मार्ग भी शीघ्र ही खोजना था I ऐसा इसलिए था क्यूंकि यदि इससे अधिक समय तक इंद्रलोक में भी रह गया, तो भी पितामह ब्रह्मा की इंद्रासन के बारे में पूर्व कालों में कही गई वह अनुग्रह रूपी वाणी… झूठी हो जाएगी I
- इसलिए मैंने सोचा कि इस सिद्धि का पूर्णरूपेण त्याग तो बाद में सोचेंगे, अभी बस इसका अर्ध त्याग मार्ग ही खोजता हूँ I यह इसलिए करना होगा, ताकि इस सिद्धि को शीध्र त्याग कर, इंद्रलोक से लौटा जाए नहीं तो पितामह ब्रह्मा के इंद्रासन पर अनुग्रह की ही अवहेलना हो जाएगी (उपेक्षा या निरादर हो जाएगा) I
- और इस भाव में मैंने उस सौवें आंतरिक अश्वमेध के साढ़े तीन भागों में से, अंतिम अर्धभाग का त्याग इंद्रासन के समीप खड़े हुए ही कर दिया I और उस अंतिम अर्धभाग को त्यागकर, उसकी सिद्धि को पितामह ब्रह्मा को ही समर्पित कर दिया I
- और इस त्याग के समय, मैंने मन में पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती को यही बोल दिया…
आपका सबकुछ आपको ही अर्पण I
मैं भी आपका, आपको ही अर्पण I
- और इसी अर्पण के कुछ समय पश्चात, मेरा वह ब्रह्मत्व पथ ही प्रारम्भ हुआ, जिसको इस ग्रंथ में, अपने इस जन्म से पूर्वजन्म की गुरुदक्षिणा पूर्ती हेतु बता रहा हूँ… क्यूंकि उन गुरुदेव, बुद्ध भगवान् ने ऐसा ही कहा था I
टिपण्णी: पूर्व में बताया था कि योग अश्वमेध में साढ़े तीन भाग होते हैं I इनमें से तीन भागों से जाकर ही योगी उस अंतिम अर्धभाग को प्राप्त होता है I और जब ऐसा होता है तब ही यौगिक अश्वमेध सिद्ध होता है I
- जैसे ही उस अंतिम अर्धभाग को त्यागा, तत्क्षण ही मेरा सिद्ध शरीर इंद्रलोक से नीचे मृत्युलोक की ओर तीव्र गति से गिरने लगा I ऐसा इसलिए हुआ, क्यूंकि वह सिद्धि अब परिपूर्णता में नहीं रह पाई थी, जिसके कारण मेरा सिद्ध शरीर भी अब इंद्रलोक में निवास नहीं कर सकता था I
- लेकिन क्यूंकि जल्दीबाजी में मैंने इस एक सौवें अश्वमेध सिद्धि के केवल उस अंतिम अर्धभाग को ही त्याग था, इसलिए मैं मृत्युलोक में भी नहीं रह सकता था I ऐसा इसलिए था, क्यूंकि मृत्युलोक में निवास करने के लिए (अर्थात इस मृत्युलोक के स्थूल देह में पुनः लौटने के लिए) तो मुझे वह सिद्धि पूर्णरूपेण त्यागनी पड़नी थी I लेकिन पितामाह की अनुग्रह स्वरूप वाणी और इंद्रासन को दिए गए आश्वासन का मान रखने हेतु मैंने तो केवल उस सिद्धि का अंतिमार्ध भाग ही त्यागा था I
- इसी कारणवश मेरा वह इंद्रलोक का सिद्ध शरीर न तो किसी दैविक लोक में रह पाया, और न ही इस स्थूल मृत्युलोक में ही वह सिद्ध शरीर लौट पाया I ऐसा होने के कारण मैं न तो इंद्रलोक में रह पाया और न ही मृत्युलोक में पड़े हुए अपने स्थूल शरीर में भी नहीं लौट पाया I
- वह सिद्ध शरीर बस सूक्ष्म लोक में ही पहुँच पाया… और उस सूक्ष्म जगत से नीचे के इस स्थूल जगत में, जहाँ मेरा स्थूल शरीर पड़ा हुआ था, वहां तो वह सिद्ध शरीर लौट ही नहीं पाया I और एक दशा ऐसी भी आई जहाँ इंद्रलोक से नीचे की ओर तीव्रगति से गिरता हुआ वह सिद्ध शरीर, स्थिर होकर बस उल्टा ही लटका रहा I
आगे बढ़ता हूँ…
- मेरे गुरुदेव ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को इस बात का पता चल गया था, इसलिए उन्होंने देवताओं से अपने उग्र व्यहार में बात करी कि मेरे शिष्य के साथ तुमने ऐसा क्यों होने दिया I
- और गुरुदेव ने तो यह भी कहा था कि मेरे इस शिष्य के साथ तुम देवताओं ने छल करा है, इसलिए में इसके लिए एक नए लोक न निर्माण करूंगा और उसी लोक से अपने शिष्य के लिए आगे का उत्कर्ष पथ प्रशस्त करूंगा I
- गुरुदेव का आवेश देखकर, गुरुदेव और देवताओं ने शीघ्र ही मेरे लिए एक लोक निर्माण करा, जो इस पृथ्वी लोक से दक्षिण ध्रुव की ओर था I और वह लोक स्थूल जगत का नहीं, बल्कि उसी सूक्ष्म दशा का था, जिसमें मेरा उस समय का शरीर फंसा हुआ था I
आगे बढ़ता हूँ…
उस नए लोक के निर्माण के पश्चात, जब मुझे गुरुदेव उस नए लोक में भेज रहे थे, तो उन्होंने ऐसा कहा था…
- इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए तुम्हें पुनः आंतरिक अश्वमेध को एक सौ एकवी बार सिद्ध करना होगा I जबतक यह नहीं होगा तबतक तुम्हें ऐसा ही रहना होगा, क्यूंकि अब कोई और विकल्प नहीं है I
- लेकिन वह मार्ग जो एक सौ आंतरिक अश्वमेध से, एक सौ एकवें योग अश्वमेध की ओर जाता है, उसमें योगी को पुनः छः शास्त्रों में जाना होता है और उन मार्गों को पुनः सिद्ध भी करना होता है I
- ऐसे पथ में बहुत समय भी लग जाता है, किन्तु इसके सिवा अब और कोई विकल्प भी नहीं है I
और गुरुदेव ने यह भी कहा था…
क्यूंकि यह पथ जिस पर तुम जाओगे, वह दुर्गम है और विप्लव से भरा हुआ है, इसलिए इस पथ पर तुम अब बताए जा रहे सिद्धांतों का पालन करना, ताकि तुम इस मार्ग पर सुगमता पूर्वक जा सको, और शीघ्र ही इसको सिद्ध भी कर सको I
जबकि यह मार्ग विप्लव से भरा हुआ है, किंतु इसकी सिद्धि जो ब्रह्मत्व कहलाती है, वह असंभव तो बिलकुल नहीं है I क्यूंकि इस त्रिशंकु की दशा से बाहर निकलने के लिए, तुम्हें इंद्रासन सिद्धि से ही आगे जाना होगा, इसलिए तुम्हारे पास एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्धि के सिवा कोई और विकल्प भी नहीं है… ऐसा ही मानो I
और गुरुदेव यह भी बोले थे, कि यह आगामी पथ जो एक सौ एकवी आंतरिक अश्वमेध सिद्धि का है, और जो ब्रह्मत्व नामक सिद्धि को प्रदान करता है, तुम उसको मेरी गुरुदक्षिणा मान कर ही उस पथ पर गमन करो I तुम्हारी एक सौ एकवी अश्वमेध सिद्धि ही मेरी गुरुदक्षिणा होगी I
और जबतक तुम इस गुरुदक्षिणा को पूर्ण नहीं करोगे, तबतक मैं भी इसी मृत्युलोक के दैविक भाग में, एक सिद्ध शरीर धारण करके निवास करूंगा I ऐसे निवास के समय, मैं तुम्हें भटकने भी नहीं दूंगा… इसलिए निश्चिंत रहो, विजयश्री तुम्हारी ही होनी है I
और गुरुदेव बोले थे कि इस उत्कर्ष पथ पर गमन करते समय, जो तुम्हे वह एक सौ एकवी अश्वमेध सिद्धि प्रदान करेगा, जिससे तुम ब्रह्मत्व में ही स्थापित हो जाओगे, जब तुम उस लोक में निवास कर रहे होंगे जिसको तुम्हारे लिए ही निर्माण करा गया है, तुम्हें वैराग्य को धारण करके ही रहना होगा I
ऐसे समय पर तुम…
- शिव को अपने परमगुरु मनोगे I
- विष्णु को सनातन गुरु मनोगे I
- देवी के समस्त स्वरूपों को मातृ गुरु मानोगे I
- ब्रह्मदेव को पितामह गुरु मनोगे I
- इंद्र देव को राजन गुरु (गुरु सम्राट) मानोगे I
- बृहस्पति को देव गुरु मानोगे I
- उस नवीन लोक में निवास करते समय, जो तुम्हारे लिए निर्माण करा गया है, जबकि तुम परकाया प्रवेश से ही लौटाए जाओगे क्यूंकि तुम योनि जन्म प्रक्रिया से अतीत ही हो, किन्तु तब भी अपने आगामी जन्मों की माता को जननी गुरु ही मानोगे I
- और अपने उन आगामी जन्मों के पिता को, उनकी संपूर्ण वंश परंपरा के समस्त पितरों का ही स्वरूप जानकर, पितृ गुरु ही मानोगे I
- जबतक तुम उस एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध को सिद्ध नहीं करोगे, स्वयं को परमशिव जो निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हैं, उनके और माँ अदि पराशक्ति के अधीन करोगे… और अपने भाव साम्राज्य में ऐसे ही निवास करोगे I
- और जबतक ऐसे रहोगे, यदि उन सर्वमाता अदि पराशक्ति जो मूल प्रकृति ही हैं, उनको जब भी तुम्हारी आवश्यकता आएगी, तुम उनके लिए सदैव प्रस्तुत रहोगे और उनके ही कार्य करोगे I तुम जब भी लौटोगे, उन अदिपराशक्ति की इच्छा अनुसार ही लौटोगे I वह सर्वमाता तुम्हे जिस भी स्थान पर या वंश परंपरा में लौटेंगी, तुम उसी में लौटोगे I वह सर्वमाता तुम्हे जो भी कार्य देंगी, तुम वही करोगे I
- उस लोक में जो तुम्हारे लिए निर्माण करा गया है, तुम अकेले ही रहोगे क्यूंकि उस लोक में तुम्हारे सिवा कोई और जीव होगा भी नहीं I
- और जबतक तुम्हें ऐसा आदेश न आ जाए, तबतक तुम मेरे बताए गए इन बिंदुओं की धारणा में वैरागी होकर ही रहोगे I और जब तुम्हें किसी कार्य के लिए इस या किसी और लोक में लौटाया जाए, तब भी तुम उन सब लोकों में भी इसी धारणा में रहोगे I
- जब तुम्हे किसी लोक में कोई कार्य करने हेतु लौटाया जाएगा, तब तुम उतना ही कार्य करोगे जीतने का तुम्हें देवी ने आदेश दिया होगा… न इससे अधिक और न ही इससे न्यून I
- और जैसे ही तुम्हारा कार्य सम्पन्न होगा, तुम्हारा देहावसान भी हो जाएगा I ऐसा इसलिए होगा ताकि तुम उस लोक में, जिसमें तुम्हें किसी कार्य को करने हेतु लौटाया जाएगा, अधिक निवास न कर सको I जितना इन मृत्यु या नीचे के लोकों में अधिक निवास होता है, उतनी ही अधिक सम्भावना त्रुटियां होने की भी होती है I इसलिए उन अधम लोकों में जैसे ही तुम्हारे कार्य सम्पन होंगे, वैसे ही उन नीचे के लोकों से तुम्हारा देहावसान भी हो जाएगा I
- उन सभी लोकों में लौटाए जाने के समय, तुम जन्म भी परकाया प्रवेश से लोगे और तुम्हारा देवहसान भी योगमार्ग से ही होगा I और उन लोकों में माँ अदि पराशक्ति के आदेशानुसार आते जब भी उनका आदेश आए, तुम आते जाते, और उसी समय में तुम एक एक करके ही, सही लेकिन उन छह के छह शास्त्रों से परे भी जाओगे I
- यह मार्ग होगा तो बहुत कठिन, क्यूंकि उन लोकों के जीवों के समान तो तुम बिलकुल नहीं होगे I ऐसा होने के कारण उन लोकों के जीव ही तुम्हें बहुत पीड़ाएँ देंगे, किन्तु तुम तुम्हारे लक्ष्य से नहीं भटकोगे और इसी महायुग में तुम उस एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध को सिद्ध भी करोगे और ऐसी सिद्धि के पश्चात, ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाओगे I
- और जब ऐसा होगा, तो तुम अभी के समान त्रिशंकु भी नहीं रह पाओगे, और अपनी अभी की दशा को पार कर जाओगे I
- वैसे तो इस त्रिशंकु की दशा को पार करने के लिए योगीजनों को कई कल्प भी लग जाते हैं, कुछ को तो कई महाकल्प ही लग गए थे, किन्तु मेरे इस बताए गए मार्ग पर यदि तुम गमन करोगे, तो इसी महायुग के अंत से पूर्व ही तुम अपनी अभी की विचित्र दशा से परे चले जाओगे I
- किन्तु ऐसा होने के लिए तुम्हे इन सभी बिन्दुओं के सार को धारण करके ही इस पथ पर जाना होगा I इस महायुग में तुम एकमात्र रहे हो जो इस त्रिशंकु नामक विचित्र दशा को पाए हो, पर क्यूंकि तुमने स्वेच्छा से ही और पितामह ब्रह्मा के अनुग्रह का मान रखने के लिए ही इस दशा को अपनाया है, इसलिएजैसे जैसे दैविक आदि जगत को तुम्हारे इस त्याग का आभास होगा, वैसे वैसे यह संपूर्ण ब्रह्म रचना ही तुम्हारे साथ खड़ी होने लगेगी और तुम्हारे साथ भी देने लगेगी I किन्तु इसमें भी कई सौ सहस्रा वर्ष लग जाएंगे क्यूंकि यह ज्ञान तो शनैः शनैः ही हो पाएगा ब्रह्मरचना और उसकी दिव्यताओं (ऊर्जाओं) को I जब ऐसा होगा, तब ही तुम अपने अंतिम जन्म में लौटाए जाओगे और इस एक सौ एकवें योग अश्वमेध को पाओगे I
- जबतक तुम उस लोक में रहोगे जो तुम्हारे लिए ही निर्माण करा गया है, और जबतक तुम दैवी आदेश के अनुसार किसी और लोक में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से लौटाए जाओगे, तबतक तुम…
भीतर से शाक्त, बाहर से शैव और धरा पर ब्राह्मण के समान रहोगे I
- जब तुम किसी लोक में माँ आदि पराशक्ति द्वारा किसी कार्य के लिए लौटाए जाओगे, तब तुम्हें यदि यह बिंदु स्मरण में न रहें, तो केवल इनका सार धारण कर लेना I ऐसी दशा में भी तुम अंततः अपनी अभी की त्रिशंकु दशा से पार हो जाओगे I
- चाहे तुम त्रिशंकु स्वर्ग में निवास करो या माँ आदि पराशक्ति के आदेशानुसार किसी और लोक में जाओ, तुम्हारा आंतरिक वैराग्य ही इस मार्ग में सिद्धि की कुंजी रहेगी I और वैराग्य भी पूर्ण तब होता है, जब योगी “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता है और जहाँ उसके स्वयं के सिवा, कुछ और अथवा कोई और होता ही नहीं है I
- और जिस भी जन्म में तुम इस एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध सिद्धि को पाने के पात्र होंगे, उसी जन्म में श्रीमन नारायण तुम्हारे भीतर ही अपनी आंतरिक अवतरण प्रक्रिया रचेंगे, और तुम्हे इस सिद्धि का मार्ग पर डाल देंगे I
- जबतक यह पात्रता नहीं आएगी, तबतक यदि तुम्हें मेरे बताए गए यह बिंदु स्मरण न रहे, तो केवल इनके मूल सारभूत को धारण करके, वैरागी होकर अपने कार्य करना I
- केवल श्रीमन नारायण ही इस दशा से आगे का मार्ग जानते हैं, जो “ब्रह्म ही ब्रह्म में” कहलाती है और जो रुद्र मार्ग भी है I इसलिए जब वह तुम्हारे भीतर ही अवतरित हो जाएंगे, तब से तुम उन श्रीमन नारायण के आदेशानुसार ही चलना… और ऐसी दशा में मेरे वाक्यों का पालन न करना I
- क्यूंकि तुम तुम्हारे पूर्व जन्मों में ब्रह्मद्रष्टा ऋषि भी रहे हो, और तुम महर्षि भी रहे हो, इसलिए तुम्हारे को जब माँ आदि पराशक्ति उनके अपने किसी कार्य के लिए किसी लोक में लौटाएंगी, तब ऐसा भी हो सकता है कि तुम्हे तुम्हारी पूर्व जन्मों की सिद्धियों के कुछ भाग प्रदान कर दिए जाएं I किन्तु क्यूंकि उन आगामी जन्मों में भी तुम इसी एक सौ एकवी योग अश्वमेध सिद्धि के मार्ग पर रहोगे, इसलिए ऐसे तुम जन्मों में तुम्हें कष्ट कुछ न्यून मात्रा में ही सही, किन्तु आएँगे अवश्य I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि तुम उस मार्ग पर जा रहे हो जिसके व्याधियाँ आती ही हैं I और ऐसा ही तुम्हारे उस जनम तक होगा, जिसमें तुम इस सिद्धि को प्राप्त होकर, ब्रह्मत्व को ही प्राप्त करोगे I
- तुम्हारी अभी की दो पत्नियों में से, एक तुम्हारे उन सभी आगामी जन्मों के परकाया प्रवेश के पश्चात, तुम्हारे पीछे पीछे जन्म लेती रहेगी I और दूसरी पत्नी तुम्हारे अंतिम जन्म में तुम्हारे परकाया प्रवेश प्रक्रिया से जन्म लेने के पश्चात जन्म लेगी I इन दोनों से सुदूर रहना और और ऐसा करने से जब तुम ब्रह्मत्व प्राप्ति के पश्चात, और उस अन्तिम जन्म के प्रारब्ध पूर्ती के पश्चात देहावसान करोगे, तब इनकी मुक्ति भी हो जाएगी I यदि तुम अपने आगामी जन्मों में इनमें से किसी से भी विवाह कर लोगे, तो तुम्हें पुनः पुनः वहीं से प्रारम्भ करना पड़ेगा जहाँ तुम अभी खड़े हो I लेकिन यह बिंदु तब लागू नहीं होगा, यदि तुम सम्राट रूप में, अथवा मानव योनि से अतिरिक्त किसी और योनि में लौटाए जाओगे I
टिपण्णी: उन दोनों में से एक के साथ तो मैंने ऐसा ही पाया है I किसी जन्म में वह मेरी पड़ोसन बनकर आई, किसी में मेरे घर की दासी की पुत्री बनकर आई, किसी और में घर के सामने बैठे हुए भिक्षुक की पुत्री बनकर आई, तो किसी और जन्म में कुछ और होकर ही आई I लेकिन उसके यह सब जन्म वहीं हुए थे जहाँ मेरे उन जन्मों के पिताजी का ग्रह था I और इस जन्म में भी ऐसा ही हुआ है जब वह दोनों ही लौट आई हैं I ऐसी दुर्लभ देवियाँ तो केवल माँ दुर्गा के अनुग्रह के कारण, सनातन धर्म में ही पाई जाती है और ऐसी समस्त देवियों के लिए मैं यही कह सकता हूँ… ॐ गौरि नारायणि नमोऽस्तुते I
आगे बढ़ता हूँ…
अब आगे बढ़ता हूँ और त्रिशंकु की दशा को योगमार्ग के अनुसार बताता हूँ…
जैसा पूर्व में बताया था कि योग अश्वमेध में वह अमृत कलश (जो ऊपर के चित्र में भी निरालम्ब चक्र के ऊपर दिखाया गया है) साढ़े तीन बार ऊपर उठता है और इतनी ही बार वज्रदण्ड में पुनः लौटता है I
और इन साढ़े तीन बार में जो आधा भाग है, वह उस अमृत कलश के निरालंबस्थान से तीन बार ऊपर नीचे जाने के पश्चात ही आता है I इस अंतिम अर्धभाग में वह अमृत कलश, निरालम्ब चक्र को पार नहीं करता है, बल्कि इस चक्र तक जाकर पुनः नीचे की ओर, वज्रदण्ड और निरालम्ब चक्र के मध्य भाग में (जो ऊपर के चित्र में, वज्रदण्ड और निरालम्ब स्थान के मध्य में खाली स्थान है) लौट आता है I और कुछ समय यहाँ रुकने के पश्चात ही वह अमृतकलश नीचे (अर्थात शरीर की ओर आने लगता है I
इसलिए इस सिद्धि में, जब वह अमृत कलश को तीन बार उस निरालम्ब चक्र को पार कर चुका होगा, तब ही वह अमृत कलश आधा ऊपर उठेगा जिससे वह योगी इस सिद्धि को पूर्णरूपेण पाएगा I
पर इसका तो यह भी अर्थ हुआ कि यह साढ़े तीन बार ऊपर नीचे जाकर ही योग अश्वमेध सिद्धि पूर्ण होता है I
यदि यह ऊपर नीचे जाने की संख्या साढ़े तीन के अंक से कम हुई, तो यह सिद्धी पूर्ण नहीं कहलाएगी I
अब ध्यान देना…
इसलिए जब एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्ध करके इंद्रलोक में जाकर और इंद्रासन के समीप खड़े हुए इस अंतिम अर्धभाग को त्यागा था, तो मेरी यह एक सौवी योग अश्वमेध सिद्धि पूर्ण नहीं रह पाई थी I
ऐसी दशा में मेरा अधिकार उस इंद्रासन पर भी समाप्त हो गया था I लेकिन ऐसी दशा में भी मेरी एक सौवी योग अश्वमेध सिद्धि पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हुई थी, बल्कि उसका मैं तब भी सिद्ध ही रह गया था I
उस अंतिम अर्धभाग के त्याग से अंतर केवल इतना पड़ा था, कि उस एक सौ योग अश्वमेध के पश्चात, जो मेरा अधिकार इंद्रासन पर आया था, वह उस अंतिम अर्धभाग को त्यागने के पश्चात, नहीं रह पाया था I और ऐसा होने पर भी मेरा वह योग अश्वमेध लुप्त अथवा समाप्त नहीं हुआ था I
त्रिशंकु वह योगी होता है, जिसने एक सौ आंतरिक अश्वमेध सिद्ध किए हैं, और इसके पश्चात वह एक सिद्ध शरीर को प्राप्त करके, उस शरीर धारण करके इंद्रलोक में जाता है और ऐसी सिद्धि के पश्चात वह योगी इंद्रासन पर विराजमान होने का अधिकारी हो जाता है I और ऐसा होने के पश्चात, उसने अपने उस एक सौवें योग अश्वमेध के साढ़े तीन भागों में से, एक अंतिम अर्धभाग त्यागा है I ऐसा होने के कारण उसके पास केवल तीन भाग ही रह गए हैं I
और क्यूंकि जब वह चेतना ऊपर निरालम्ब चक्र में उठकर, पुनः वज्रदण्ड में लौटती है, तब वह रा का शब्द (अर्थात रा नाद जो पूर्व के एक अध्याय में बताया गया था) एक विकराल रूप में इन्द्रियों को झंझोड़ने वाले शंखनाद के सामान होता है, इसलिए इस नाद को योग शंख भी कहा जाता है I मेरे पूर्व जन्मों में यह योग शंख सिद्धि भी कहलाती थी I योग अश्वमेध सिद्धि में ऐसे नाद रूप में साढ़े तीन बार यह शंख के सामान रा नाद सुनाई देता है I
और क्यूंकि वह योगी इंद्रासन के समीप ही इस सिद्धि के अंतिम अर्ध भाग को त्याग देता है, इसलिए ऐसा करने के पश्चात उसके पास केवल तीन शंख नाद की सिद्धि ही रह जाती है, जो सौवीं योग अश्वमेध सिद्धि के परिपेक्ष में उस योगी का इंद्रासन पर अधिकार पूर्णतः नहीं रख पाती I
और क्यूंकि इस त्याग से उस योगी की वह अश्वमेध सिद्धि पूर्ण होने पर भी अपूर्ण ही रह जाती है (क्यूंकि उस सौवें अश्वमेध से प्राप्त हुआ इंद्रासन पर अधिकार नहीं रह पाता है), इसलिए योगमार्गों के अनुसार ऐसा योगी को त्रिशंकु कहलाता है I त्रिशंकु योगमार्ग की दशा है, न की किसी और मार्ग की I
कई सहस्र-सहस्र वर्षों में ही कोई योगी ऐसी सिद्धि को पाता है I इसलिए यह एक दुर्लभ सिद्धि ही है I लेकिन इस सिद्धि का ऐसा होने पर भी, इस कलयुग की काली काया के कारण, इस त्रिशंकु शब्द को एक विकृत रूप में ही बताया जाता है I
और केवल इस त्रिशंकु सिद्धि को ही नहीं, बल्कि कलियुग की काली काया के प्रभाव में आकर, तो इंद्र को भी एक विकृत स्वरूप में ही बताया जाता है I और ऐसा तब भी हुआ है, जब वेदादि मार्गों के मनीषी मानते भी हैं, की इंद्र ही देवराज हैं और ऐसे विकृत रूप में इंद्रदेव को बताकर भी वह, उन देवी देवताओं की उपासना भी करते हैं, जो देवराज इंद्र के सार्वभौम इंद्रासन के ही आधीन हैं… वाह रे कलियुगी प्रपंच I
और ऐसे मनीषी यह जानते भी हैं, कि राजन ही परमात्मा का सगुण साकारी स्वरूपा होता है, इसलिए यदि किसी लोक में महाब्रह्माण्ड के राजन को ही बुरा भला कहोगे, तो जिस लोक मैं यह त्रुटि आएगी, उस लोक पर परमात्मा का अनुग्रह ही क्षीण हो जाएगा I
और ऐसा होने पर उस लोकादि दशा में, उत्कर्षादि मार्गों में विकृतियां आई हुए भी नहीं रह पाएंगी I जब ऐसा होगा, तो उन अनादि अनंत और सनातन निसर्ग सिद्ध परम्पराओं का भी नाश होने लगेगा और मनोलोक के ग्रंथ और मार्गादि प्रकट होने लगेंगे I
इस कलयुग के छोटे से कालखण्ड में भी यही हुआ है, इसलिए जबकि अभी के समय पर तो कलियुग और द्वापरयुग का संधिकाल चल रहा है, किन्तु ऐसी दशा में भी जो चिन्ह आदि इस लोक में दिखाई दे रहे हैं, वह तृतीय और चतुर्थ चरण के भी हैं I यही होता है जब देवराज को ही बुरा भला बोलोगे और वो भी उन देवराज को जो एक उत्कृष्ट योगी हैं, और जिनको इस जीव जगत के रचैता ने ही चुना था, और वो भी इस सम्पूर्ण महाब्रह्माण्ड के सार्वभौम सम्राट और परमात्मा स्वरूप में I
इस कलियुग में इंद्र देव सहित, उनकी इंद्रासन सिद्धि (अर्थात एक सौवे योग अश्वमेध सिद्धि) और यहाँ बताई जा रही त्रिशंकु सिद्धि (अर्थात उस सौवें योग अश्वमेध के अंतिम अर्धभाग के त्याग प्रमाण की सिद्धि), तीनों को ही विकृत स्वरूप में बायता गया है, और यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है I
यह दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए है, क्यूंकि त्रिशंकु की स्थिति जिसका नाता एक सौ योग अश्वमेध सिद्धि से है, उसकी दशा को इस समस्त ब्रह्माण्ड के इतिहास में बहुत कम योगी पाए हैं I और त्रिशंकु तो वह इंद्रासन सिद्ध होता है, जिसने पितामह (ब्रह्मा) की वाणी का मान रखने के लिए ही अपनी दुर्गति स्वेच्छा से ही अपनाई थी इसलिए वह योगी जो त्रिशंकु हुआ है,वह तो त्यागि ही है I
और यौगिक और वैदिक मार्गों में तो त्याग ही अंतिम सिद्धांत और मार्ग होता है I और क्यूंकि इस कलियुग के मनीषियों ने ऐसा उस त्यागि योगी को ही बुरा भला कहा था, इसलिए भी इसी कलियुग में न उनका लोक आदि के दृष्टिकोण से और न ही परलोकादि के दृष्टिकोण से उद्धार हुआ है I
क्यूंकि राजन ही उत्कर्षादि उत्कृष्ट मार्गों का रक्षक होता है, और क्यूँकि देवराज इंद्र ही इस महाब्रह्माण्ड में योग और वेदादि मार्गों के रक्षक सम्राट हैं, इसलिए इंद्र को बुरा भला बोलने के कारण, इन दोनों उत्कर्ष मार्गों का, इनकी परम्पराओं और सम्प्रदाओं का लगभग नाश सा ही हो गया है I और जो आज दिखाई भी दे रहा है, वह तो इन मार्गों के एक प्रतिशत से भी कम ही है I
त्रिशंकु तो वह विरला सिद्ध और त्यागि ही होता है, जो न मुक्ति में और न ही बंधन में होता हुआ भी, इंद्रासन सिद्ध करता है और ऐसा करने के पश्चात, वह स्वेच्छा से अपना ही पतन मार्ग अपनाता है, ताकि पितामह (ब्रह्मा) की वाणी असत्य न हो जाए I
और इस कलियुग ने जो मूर्खानंद प्रकट किए हैं, गुरुजनों के स्वरूप में, उन्होंने इस उत्कृष्ट त्याग सिद्धि को ही एक विकृत स्वरूप में प्रकट कर दिया है I और ऐसा करने से इस धरा पर न तो त्याग, और न ही इंद्र का अनुग्रह ही परिपूर्ण रह पाया (क्यूंकि इंद्र को पता है कि त्रिशंकु ने उसके लिए ही अपना पतन करा था) और न ही पितामह ब्रह्मा का अनुग्रह ही रह पाया (क्यूंकि पितामह को भी पता है की उस त्रिशंकु ने उनकी वाणी का मान रखने के लिए ही स्वेच्छा से अपना पतन पथ अपनाया था) I
क्यूंकि इंद्र, वेदमार्ग, योगमार्ग, उत्कर्ष पथ और देवत्व सिद्धि सहित, परमात्म पथ, धर्म पथ, प्रशस्त मानबिन्दुओं, उत्कृष्ट परम्पराओं, विशुद्ध सम्प्रदायों और सार्वभौम राजतंत्र के भी द्योतक हैं, इसलिए कलियुग में इनसे संबद्ध सब के सब बिंदु भी विकृत ही हुए हैं I इन्ही और बहुत से कारणों से, इस भूलोक पर पितामह ब्रह्मा का अनुग्रह भी समाप्त हुआ है, इसलिए पुरुषार्थ चतुष्टय जिसका नाता ब्रह्मलोक के बीस भागों में से, ऊपर के चार भागों से होता है, उनका प्रभाव भी इस कलियुग के कालखण्ड में लुप्त सा ही हुआ है I इस कलियुग के कालखण्ड में देवराज इंद्र और पितामह ब्रह्म और उनके मार्ग से दूर रहना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बिन्दु रहा है, क्यूंकि इससे अधिकांश मानव जाति उत्कर्ष के दृष्टिकोण से ही, पथ भ्रष्ट सी ही हो गई है I
आगे बढ़ता हूँ…
और अब त्रिशंकु होने के के बाद की दशा बताता हूँ…
इसके पश्चात मैं उसी लोक में चला गया जिसका निर्माण मेरे लिए ही करा गया था I
और उस लोक में, मैं अकेला ही रहा और जब-जब माँ आदि पराशक्ति के आदेशानुसार मुझे किसी लोक में किसी कार्य करने हेतु भेजा गया, तब ही मैं अपने उस एकान्तवास के लोक से लौटा… अन्यथा वहीं पड़ा रहा I और उन सभी जन्मों में मैंने जैसे ही अपना कार्य सम्पन्न करा, मेरा देहावसान भी हो गया I
केवल उन जन्मों में जिनमें मैं सम्राट स्वरूप में लौटा था, ऐसा नहीं हुआ… अन्य सभी जन्मों में तो ऐसा ही हुआ था, कि जैसे ही मेरा उन जन्मों का निर्धारित कार्य सम्पन्न होता था,वैसे ही मेरे प्राण विसर्गी हो जाते थे, और ऐसी अवस्था में मेरे प्राण सहस्रार को पार कर जाते थे, जिससे मेरा देहावसान भी हो जाता था I
और जिन जन्मों में ऐसा नहीं हुआ था, उनमें भी मेरा देहावसान किसी न किसी कारणवश अकस्मात् ही हो जाता था, और वह भी तब, जब मैं उस जन्म में माँ आदि पराशक्ति द्वारा दिए हुए कार्यों को समाप्त कर लेता था I
ऐसे कई जन्मों के पश्चात मैं यह भी जाना, की जीव एक ऐसे वाहन में बैठा हुआ है, जिसमें वह स्वयं ही उस वाहन का चालक है और स्वयं ही उस वाहन में बैठा हुआ एकमात्र यात्री ी और जहां वह वाहन भी इस महाब्रह्माण्ड के समस्त लोकलोकान्तरो में समय समय पर गमन करता है ी और इस जन्म के परिपेक्ष में, मेरा वह वाहन इस पृथ्वी लोक पर आकर खड़ा हुआ है और मैं उस वाहन से बाहर निकलकर, एक सनातन यात्री के समान, इस पृथ्वी लोक में एक पर्यटक होकर ही निवास कर रहा हूँ I
इसलिए मैं यह जाना कि…
जीव एक सनतान यात्री है I
जीव की काया एक सनातन वाहन ही है I
जीव इस महाब्रह्माण्ड के समस्त लोकों से जाता है I
जीव महाब्रह्माण्ड में सनातन यात्री के स्वरूप में ही निवास करता है I
और जहाँ वह यात्रा भी अखण्ड रूप में, एक लोक से दूसरे में चलती ही रहती है I
और अपने सम्पूर्ण जीव इतिहास को जानकार, मैं यह भी जाना कि जब जीव की वह अखण्ड यात्रा समाप्ति का समय आता है, तब ही वह जीव…
उस मूल में चला जाता है जिससे उसका प्राथमिक उदय ब्रह्मरचना में हुआ था I
मूल ही उस जीव की अखण्ड सनातन, अनादि कालों से चल रही यात्रा का गंतव्य है I
इसलिए इस जन्म में उस एक सौ एकवें योग अश्वमेध के पश्चात मैं यह भी जाना, कि…
जीव का उदय मूल ही उस जीव के उत्कर्षमार्गो का अंतिम गंतव्य होता है I
इस ब्रह्मरचना का जो उदयमूल था, वही इस ब्रह्मरचना का अंतिम गंतव्य है I
जिस दशा से वह अपने जीव रूप में आया था, उसी को ही वह गंतव्य में पाएगा I
इसलिए जीव मूर्ख ही रहा होगा, कि उसने उस दशा से प्रारम्भ किया जो मुक्ति ही थी I
और इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग से मैं यह भी जाना, कि…
जीव जगत के मूल में और गन्तव्य, दोनों में वही ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति हैं I
वह ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग से साक्षात्कार होते हैं I
और जहाँ यह योग भी आंतरिक अश्वमेध मार्ग से ही साक्षात्कार होता है I
इसलिए हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग ही पूर्ण ब्रह्म सिद्धि का मार्ग होता है I
और इसी योग का एक सौ एकवां भाग ही ब्रह्मत्व सिद्धि का मार्ग है I
और ऐसे ब्रह्मत्व पथ में मैं यह भी जाना, कि…
उस ब्रह्मत्व सिद्धि के भी नौ स्पष्ट और पृथक सिद्धि भाग होते हैं I
इनमें से चार भाग पञ्चब्रह्म के और चार पञ्चमुखी सदाशिव के होते हैं I
इनके अतिरिक्त एक और भाग जो इनके मध्य में है, वो विष्णुत्व द्योतक है I
उस ब्रह्मत्व ने ही शिवत्व, शाक्तत्व, विष्णुत्व और गणपत्व को धारण करा हुआ है I
आगे बढ़ता हूँ… I
और उन पूर्व जन्मों में जब में त्रिशंकु था, जैसे ही वह देहावसान की प्रक्रिया चलित होती थी, वैसे ही मैं स्वतः ही योगमार्ग से जाकर, उसको पूर्ण करता था और ऐसे योगमार्ग में मैं योग सुषुप्ति में जाकर, अपनी काया को त्यागता था, जिससे मेरा वह देह त्याग एक लम्बी सुषुप्ति के समान ही तबतक रहता था, जबतब मुझे माँ आदि पराशक्ति पुनः किसी और कार्य के लिए, किसी लोक में नहीं लौटती थीं I
ऐसा करते करते मैं इस जन्म में लौटाया गया, और इस जन्म में मैंने वह एक सौ एकवां योग अश्वमेध पूर्ण भी किया… और अपनी पूर्व की त्रिशंकु नमक दशा से आगे चला गया I
इस संपूर्ण महायुग में मैं ही एकमात्र ऐसा हुआ हूँ, जो त्रिशंकु पद को पाया था I
और ऐसा होने के अतिरिक्त, इस समस्त ब्रह्म कल्प में मैं ही एकमात्र योगी रहा हूँ, जो एक ही महायुग के समय में त्रिशंकु होकर, उस दशा से उसी महायुग के कालखण्ड में ही बाहर भी आ गया है (अर्थात त्रिशंकु की दशा से परे भी चला गया है) I
और ऐसा एकमात्र होने के मूल में जो गुरुतत्त्व है, वह ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ही हैं और जो मेरे उस जन्म के गुरु थे (और आज भी है) जब मैं वह सम्राट सत्यवर्त था, जो त्रिशंकु हुआ था I उनके कहे अनुसार चलकर ही में ऐसा कर पाया हूँ I
और अपने अनुभवों से में यह बोल सकता हूँ, कि आज कोई भी शास्त्र अथवा शास्त्रज्ञ कुछ भी बोले, मैं इतना तो जान ही चुका हूँ कि इस कलियुग की काली काया ने योगमार्गों के कुछ मूल बिंदु विकृत किए ही हैं, जिसमें से एक उसी योग अश्वमेध सिद्धि का है जिसका नाता अथर्ववेद 10.2.31, 10.2.32 और 10.2.33 से भी है I
आगे बढ़ता हूँ…
तो अब उन पूर्व जन्मों में से कुछ को बताता हूँ, जो इसी महायुग के कालखण्ड में हुए थे…
- एक जन्म में ब्रह्मविद और वेदविक स्वरूप में सम्राट रूप में लौटाया गया था I उस सम्राट का नाम कार्य ब्रह्म के नाम से संबद्ध था I और उसी जन्म में जब मेरी पुत्री का अपरहण हुआ, तो मैं अपने देह को त्यागकर, एक वानर सम्राट के देह में गया और अपनी पुत्री को उस दुष्ट से छुड़वाने हेतु युद्ध में भी गया I
- एक और जन्म में मैं भगवान् दत्तात्रेय के चार कुक्कुरो में से ऋग्वेद को दर्शाती हुई कुक्करी था I उस कुक्करी वाले जन्म से पूर्व, वह उन्हीं भगवान् का एक अवधूत शिष्य भी था, और उसके जन्म का अधिकांश समय इंद्रपुरी (अर्थात आज का तिब्बत) में ही बीता था और वह भी वहां, जहाँ आज भी देवराज इंद्र का सिंहासन छिपा के रखा गया है I
- वह दानव वंश का योगी, जो माँ माया का सिद्ध हुआ था, और जिसका नाम अहम् शब्द का भी द्योतक था I उस दानव को भारत खण्ड से देश निकाला दिया गया था क्यूंकि उसने उस समय के सम्राट और उसके चमचों को उनका वास्तविक स्वरूपा, शक्ति से संबद्ध उस ज्ञानमय दर्पण दिखाया गया था जिसके पश्चात उसे मिलना तो मृत्युदण्ड था, लेकिन क्यूंकि उस समय के कुछ ऋषिगण और सिद्ध आदि गण उसके साथ खड़े हो गए गण थे, इसलिए उस सम्राट ने उसको देश निकाला देकर ही दण्डित करा था I देश निकाले के पश्चात वह दानव पाताल पुरी (अर्थात आज का उत्तरी और दक्षिण अमेरिका) गया था, और उस पातालपुरी में उसने सात सभ्तयाताएँ बसाई थी, जो सप्त गोत्रों और वर्णाश्रम चतुष्टय के अनुसार थी और जिनके मूल में प्रजापति ही थे I
और इस जन्म में मैं उन सभ्यताओं में से कुछ तो देखकर भी आया हूँ, और वह सभ्तयाताएँ आज भी उन्ही प्रजापति की हैं I
उन सभ्यताओं के ज्ञान के मूल में हिरण्यगर्भ सूक्त, प्रजापति सूक्त, ब्रह्म सूक्त आदि वैदिक वाङ्मय के अंग थे, और अपने मूल रूप से आज भी वह सभ्यताएँ इन्ही का अनुसरण करती हैं I
- धर्म नाम का सिद्ध जिसनें धुनि की परंपरा स्थापित करी थी, और जो परमगुरु शिव की आदिनाथ परंपरा का था… और जो चौरासी में से भी एक था I
- अघोर मार्ग का लेकिन वैष्णव योगी जिसने योग सूत्रों को विशुद्ध करके उनका ज्ञान उनको बांटा था जो उस समय, उस ज्ञान के वास्तविक पात्र थे I उसनें सत्ताईस वर्ष की आयु से पूर्व ही अपना कार्य संपन्न करके, योगमार्ग से अपने देह को त्याग दिया था I उसका दिया हुआ योगमार्ग आज भी पालन करा जाता है किन्तु दुर्भाग्यवश उस योगमार्ग को बनियों और राजनेताओं में अपनी बपौती सा ही बना रखा है, जिसके कारण इन सब मनीषियों का अंततः पतन ही होगा I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि…
योगी कभी बनिया नहीं हो सकता I
और बनिया कभी भी योगी नहीं हुआ है I
योग और वेद परंपरागत पत्रोँ को ही बांटा जाता है I
योग और वेद का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष व्यापार नहीं होता I
राजतंत्र में बसकर, स्वयं की ख्याति हेतु योगमार्ग का प्रयोग नहीं होता I
धर्म पीठों और गद्दियों पर बैठकर ही योगमार्ग को पत्रों में बांटा जा सकता है I
- और इस जन्म से पूर्व मैं भगवान बुद्ध का वह शिष्य जिसको भगवान् ने मैत्री नाम दिया था I
और आगे चलकर वह एकमात्र योगी था जो वैदिक वाङ्मय में महर्षि भी कहलाया था और बौद्ध पंथ में वह अर्हत और बिधिसत्त्व भी कहलाया गया था I
भगवान बुद्ध का जन्म कोई पांचवी, छठी, सातवीं या दसवी शताब्दी ईसापूर्व में नहीं हुआ था, बल्कि उनका जन्म बीसवीं शताब्दी ईसापूर्व में हुआ था I
भगवान बुद्ध का मार्ग सांख्य, सिद्ध और दर्शन के योग का था I
और मैं भगवान् बुद्ध से सांख्य सीखने ही लौटाया गया था I अब इस जन्म की कुछ बातें बताता हूँ I
जब भगवन बुद्ध ने बुद्धत्व पाया था, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग सिद्धि का ही अभिन्न अंग होता है, और जो इस अध्याय श्रंखला का अभिन्न अंग भी है, तब इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मनाद गूंजने लग गया था I
जब कोई योगी इस निरालम्ब चक्र का सिद्ध होता है, तो ब्रह्मनाद, ब्रह्माण्डीय दशाओं में गूंजने लगता है I और भगवान बुद्ध की ऐसी सिद्धि के पश्चात भी यही ब्रह्मनाद गूंजने लग गया था I
जब भगवान् बुद्ध को यह सिद्धि प्राप्त हुई थी, तो उन छह शास्त्रों में से जिनसे पार जाने के लिए मुझे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा था, और जो उनकी गुरुदक्षिणा भी थी, मेरा बस एक ही मार्ग शेष था और जो सांख्य था I
भगवान् बुद्ध सांख्य के शिखर पर भी विराजमान हुए थे, इसलिए मुझे उनसे इस मार्ग की दीक्षा लेने की प्रबल इच्छा प्रकट हुईI और मैं इस अवसर को गवाना भी नहीं चाहता था, क्यूंकि इस चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में, सांख्य के पूर्ण सिद्ध विरले ही होते हैं I
उस ब्रह्मनाद (अर्थात मकार के शब्द) को सुनकर, मैंने माँ आदि पराशक्ति को विनती करी थी कि यदि संभव हो, तो मुझे जन्म दिलाया जाए ताकि में उन उत्कृष्टम योगी का सानिध्य पा सकूं और अपने अंतिम पड़ाव जो सांख्य है, उसको सिद्ध कर सकूं I
इस विनती के पश्चात,माँ आदि पराशक्ति के अनुग्रह से मैं परकाया प्रवेश से एक ब्राह्मण परिवार में लौटाया गया था I और जब मेरी आयु कोई सात वर्ष के समीप रही होगी, तो मेरे माता पिता ने मुझे भगवान बुद्ध को समर्पित कर दिया था और मैं भगवान् का नन्हा विद्यार्थी हुआ था… जो आज भी हूँ I
जब दीक्षा और शक्तिपात आदि सम्पन्न हुआ, तो मैंने भगवान् के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करी, कि मुझे गंतव्य पर जाने की अनुमति दी जाए I
भगवान् बुद्ध को मैंने यह प्रार्थना इसलिए करी थी क्यूंकि शिखर का मार्ग, गुरु आदेश से ही प्रशस्त होता है न की किसी मनघडंत प्रक्रिया से I
मेरी इस इच्छा पर भगवन् बोले…
एक ही ब्रह्माण्ड में, एक ही समय में, दो योगी एक ही शिखर पर नहीं हो सकते I
इसलिए, उस शिखर पर जाने के लिए तुम्हें अगले जन्म तक प्रतीक्षा करनी होगी I
इस उत्तर के पश्चात तो मैं उनके पीछे ही पड़ गया और बोलता ही गया कि मुझे अनुमति दीजिए… किन्तु भगवान् नहीं माने I
और मेरे बहुत बार ऐसे बोलने के पश्चात वह मुझे बोले…
अपने आगामी जन्म में शिखर पर जाओगे I
वही जन्म तुम्हारा अंतिम भीहोगा I
किन्तु यह उत्तर सुनकर भी मैं संतुष्ट नहीं हुआ और भगवान् को बोलता ही गया, कि देखिये इस दशा में फंसे हुए मुझे बहुत समय हो गया है, इसलिए मुझे इसी जन्म में इस विचित्र दशा को पार करना है… इसलिए मुझ अधम पर कृपा करके मुझे अनुमति दीजिए I
और मैंने भगवान् को यह भी बोला कि जिस आगामी जन्म की आप बात कर रहे हैं, तबतक तो कलियुग बहुत प्रबल हो चुका होगा I
उस प्रबल कलियुग में तो इस गुप्त मार्ग के गुरु भी नहीं मिलेंगे… तो मुझे मार्गदर्शन कैसे मिलेगा… गुरु बिना तो गति भी गंतव्य तक नहीं जाती I जो गति गंतव्य तक ही नहीं जाती, वही तो दुर्गति होती है और इसीलिए तो मैं अब तक दुर्गतियों के विविध प्रकारों और स्वरूपों में ही फंसा रहा हूँ I
तो उस समय वह गंतव्य मार्ग कैसे प्रशस्त होगा… इसलिए मुझ अधम पर कृपा करके, मुझे इसी जन्म में शिखर पर जाने की अनुमति दें I
लेकिन भगवान् बुद्ध यही बोलते गए…
गुरु हो या न हो, मार्गदर्शक हो या न हो, उस जन्म में तुम शिखर पर जाओगे ही I
उस आगामी जन्म में तुम्हें शिखर पर विराजमान होने से कोई रोक ही नहीं पाएगा I
इसलिए, उस शिखर पर जाने के लिए तुम्हें अगले जन्म तक प्रतीक्षा करनी होगी I
जब ऐसे ही विनती करते हुए बहुत समय निकल गया, तब एक दिन भगवान् मुझे बोले…
तुम्हारा आगामी जन्म मेरी गुरुदक्षिणा ही मानो I
तुम अपने आगामी जन्म में ही शिखर पर जा पाओगे I
गंतव्य प्राप्त होकर, अपना ज्ञान जहाँ तक संभव हो, बांट देना I
पक्षी ऊँची उड़ान तब भरता है जब पंख बड़े होते हैं और वह हल्का होता है I
इसलिए जब गंतव्य साक्षात्कार हो जाए, तो उसका ज्ञानादि बाँटकर हलके हो जाना I
और उस समय भगवान् यह भी बोले थे…
जब ऐसा हो जाए तो जिस भी लोक में मैं हूँ, वहीँ पर आकर मुझे बता देना I
और जबतक यह सब कुछ नहीं करोगे, मेरी गुरुदक्षिणा पूर्ण भी नहीं मानी जाएगी I
भगवान् का यह उत्तर सुनकर मैं समझ ही गया, कि आगामी जन्म अवश्यम्भावी ही है… और वही अंतिम जन्म भी होगा I
और इसके पश्चात मैं शांत हुए बिना भी नहीं रह पाया क्यूंकि जब गुरु, दीक्षा शक्तिपात अदि के पश्चात अपनी दक्षिणा की बात ही रख देते हैं, तो वह दशा विकल्पहीन ही हो जाती है I
और क्यूंकि उस पूर्व जन्म में मेरा लौटाया जाना भी भगवान् का सानिध्य पाने के लिए ही हुआ था, इसलिए भगवान के निर्वाण से कोई एक पक्ष पूर्व, योगमार्ग से ही मेरा देहावसान हो गया था I
और मेरे अभी के जन्म के एक कारण में से, उन्ही गुरु भगवान् बुद्ध की गुरुदक्षिणा भी है I और इस ग्रंथ के लिखे जाने के मूल कारण में भी उन्ही भगवान् की गुरुदक्षिणा ही है I
और इस जन्म में, उनकी गुरुदक्षिणा के अनुसार ही मैं भगवान् के अभी के लोक में गया था I और जैसे ही मैं उनके लोक में पहुँचा, भगवान् मंदहास धारण करके अपने आसन से उठे और मेरा हाथ पकड़कर मुझे उनके लोक के तीन और योगीजनों से भी मिलवाए I
भगवान् का यह लोक, ब्रह्मलोक के सोलह नीचे के लोकों को पार करने के पश्चात, जब चेतना ऊपर के चार लोकों में जाती हैं, और जो पुरुषार्थ चतुष्टय के द्योतक होते हैं, तो उन चार में से जो लोक मोक्ष पुरुषार्थ का द्योतक है, उस लोक में गुरुदेव तीन और योगीजनों के साथ ही निवास करते हैं I
उन गुरुदेव और तीनों योगजनों के साथ कुछ समय बिताकर, मैं पुनः अपने स्थूल शरीर में लौटा था I
और इस जन्म में मैं ही में यह जान पाया, कि यह गुरुदक्षिणा तो वास्तव में गुरु अनुग्रह ही था I ऐसा मैं इसलिए जाना क्यूँकि…
- मुझे पूर्व जन्म में रोक कर, उन्होंने अपनी उस पवित्र इच्छा शक्ति का प्रमाण दिया, जिसका नाता सदाशिव के सद्योजात मुख से है, और जो पश्चिम दिशा की ओर देखने वाला मुख है I
- उनकी गुरुदक्षिणा ही उनका मुझ अधम पर अप्रत्यक्ष कृपादान था, जो उनके तिरोधान कृत्य का द्योतक था और जिसका नाता सदाशिव के तत्पुरुष मुख से होता है, जो पूर्व दिशा की ओर देखने वाला मुख है I
- यह अप्रत्यक्ष कृपादान इस बात का प्रमाण भी था, कि वह ज्ञानमय योगी थे और जहाँ ज्ञान का नाता सदाशिव के अघोर मुख से होता है, जो दक्षिण दिशा की ओर देखने वाला मुख है I
- उनका कलियुग के प्रभाव से बचाव के लिए जो कवच मुझे मिला था, वह परा शक्ति का प्रमाण था, जो सदाशिव के वामदेव मुख की होती है और जो उत्तर दिशा की ओर देखता है I
- उनका वह अनुग्रह, कि आगामी जन्म में तुम गंतव्य पर जाओगे, वह आदि परा शक्ति का प्रमाण है, जिनका नाता सदाशिव के ईशान मुख से होता है और जो गंतव्य (अर्थात ऊपर की ओर, या आकाश की ओर, या मुक्ति की ओर) को देखता है I
आगे बढ़ता हूँ…
पूर्व के कालों में भी मैं कई बार लौटा हूँ I तो अब उन जन्मों में से मैं कुछ को बताता हूँ…
- इसी महायुग में, वह सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट जिसनें इस धरा को कृषि गोरक्ष दिया था I इस जन्म में मेरा नाम पृथ्वी महाभूत पर था I
- इसी महायुग में, वह चन्द्रवंशी चक्रवर्ती सम्राट जिसनें इस धरा को वैदिक राजतंत्र दिया था I इस जन्म में मेरा नाम आकाश महाभूत पर था I
- इसी महायुग में, वह ब्रह्मार्षि जिसका नाम पीपल के वृक्ष पर था, और जिसमें अपने उस जन्म के गुरुदेव, जो अघोर मुख (अर्थात महादेव) ही थे, उनसे पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान पाकर, उन गुरुदेव के आदेशानुसार ही इस धरा में कुछ विशिष्ट पात्रों को दिया था I आज जो वेद चतुष्टय, धाम चतुष्टय और मठ चतुष्टय आदि दिखाई देते हैं, वह सब उसी दिए हुए ज्ञान के अनुसार बसाए गए हैं I
- महाभारत काल में भी में वह पक्षी था, जो युद्ध के समय अर्जुन का दूत था और अर्जुन के रथ के ध्वज के नीचे ही बैठा करता था I
आगे बढ़ता हूँ और एक और पूर्व जन्म के बारे में बताता हूँ…
- इस ब्रह्म कल्प के प्रथम मन्वन्तर में मैं स्वयंभू मनु का शिष्य, गणित था I उस जन्म में मैंने…
शून्य का ज्ञान, शून्य समाधि के अनुसार दिया था I
शून्य अनंत का ज्ञान, असंप्रज्ञात समाधि से दिया था I
निर्जीव ब्रह्म का ज्ञान, निर्बीज समाधि के अनुसार दिया था I
और अनंत ब्रह्म का ज्ञान, निर्विकल्प समाधि के अनुसार दिया था I
गणित के एक से नौ अंकों का ज्ञान, प्रकृति के नवम कोशों से दिया था I
और जहां उस शून्य ब्रह्म में शून्य भी बसा हुआ होता है और अनंत भी I
इसलिए उस शून्य ब्रह्म में …
शून्य ही अनंत रूप होता है I
शून्य के गंतव्य में अनंत होता है I
अनंत ही शून्य स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है I
और अनंत के मूल में भी वही शून्य ही पाया जाता है I
और जहाँ…
शून्य साक्षात्कार का मार्ग, शक्ति शिव योग से ही होता हुआ जाता है I
इस मार्ग में, शिव शक्ति योग केवल सहस्रार चक्र तक सीमित होता है I
इसलिए, इस शून्य को योगगणित के चिंन्ह रूप में ऐसा दिखाया जाता है I
इस चिन्ह में नीला वर्ण शिव का है और श्वेत वर्ण शक्ति का I यही चिन्ह शिव शक्ति के शून्यात्मक योग को दर्शाता है I और क्यूंकि यह अंतहीन गोला ही है, इसलिए इस योग से भी साधक उन अनंत ब्रह्म के शून्य स्वरूप का ज्ञाता हो जाता है I और जहाँ एक ही शून्य के भीतर, अनंत संख्या में शून्य बसे हुए होते हैं और ऐसा होने पर भी वह शून्य सा ही प्रतीत होता है I
आगे बढ़ता हूँ और असंप्रज्ञात समाधि से शून्य ब्रह्म और उनका योग गणित का चिन्ह बताता हूँ…
शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत होता है, और अनंत ही शून्य होता है I
शून्य ब्रह्म साक्षात्कार मार्ग, शक्ति शिव योग से ही होता हुआ जाता है I
इस साक्षात्कार में, शिव शक्ति योग निरालम्ब चक्र तक ही चला जाता है I
इसलिए, इस शून्य ब्रह्म को योगगणित के चिंन्ह रूप में ऐसा दिखाया जाता है I
इस असंप्रज्ञात समाधि के मूल में भी वही शक्ति शिव योग होता है I किन्तु पूर्व के शून्य से यह आगे की दशा होती है, क्यूंकि इस समाधि में योगी की चेतना सहस्रार से आगे जो निरालम्ब चक्र है, उसमें जाकर ही इस शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करती है I
और जहाँ वह काले वर्ण के शून्य ब्रह्म ही…
पञ्च कृत्य धारण करे हुए श्रीमन नारायण हैं I
और इन्हीं को भगवान जगन्नाथ भी कहा जाता है I
इसी असंप्रज्ञात समाधि के साक्षात्कार को ऋग्वेदीय नासदीय सूक्त में, अंधकार ने अंधकार को ढका है, ऐसा कहा गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
और इसी ज्ञान के कारण मुझे उस जन्म के गुरुदेव स्वयंभू मनु ने गणित ही पुकारा था I
क्यूंकि मूल ज्ञान और उस ज्ञान के उत्कर्ष पथ के योग स्वरूप को उद्भासित करने वाला भी महर्षि कहलाया जाता है, और क्यूँकि गणित एक मुलात्मक ज्ञान ही है, इसलिए गुरुदेव ने ही मुझे महर्षि की उपाधि दी थी I
और इस उपाधि के कारण, मैं गणिताचार्य भी कहलाया था I
आगे बढ़ता हूँ और कुछ और पूर्व जन्मों को बताता हूँ…
- उस गणित के जन्म के पश्चात, में ही वह चक्रवर्ती सम्राट था, जिसके नाम का अर्थ आगे बढ़ने वाला ज्ञान और चेतना होती है, और जिसने उस समय के अन्य ऋषियों का सानिध्य पाकर, इस सम्पूर्ण चतुर्दश भुवन में ही वैदिक आर्य धर्म स्थापित कर दिया था I
- इसके अतिरिक्त एक और स्वयंभू मन्वन्तर का जन्म नीचे बताया गया है I
मेरी मुक्ति क्यों नहीं हुई, मैं मुक्त क्यों नहीं हुआ, मुक्त न होने का कारण, अब तक मुक्ति न होने का मूल कारण, …
मैंने पूर्व में बताया था, कि योगी इस आंतरिक अश्वमेध को एक बार ही पूर्ण करके, मुक्तिलाभ कर सकता है… और ऐसा ही अधिकांश योगीजन करते भी हैं I
किन्तु कुछ योगीजन उस मुक्ति से वंचित हो जाते हैं अथवा स्वयं को स्वयं ही उस मुक्ति से कुछ समय अथवा किसी योगदशा प्राप्ति तक वंचित कर लेते हैं I ऐसे योगीजन प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होकर ही किसी न किसी रूप में परकाया प्रवेश से आते जाते रहते हैं क्यूंकि इस आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के पश्चात वह योगी, योनिजन्म लेने की दशा से परे चले जाते हैं (अर्थात इस आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के पश्चात, वह योगीजन योनि जन्म लेने के अधिकारी ही नहीं रह पाते हैं) I
उसी स्वयंभू मन्वन्तर में, मैं ब्रह्मर्षि क्रतु का मनस पुत्र हुआ था I
वैसे क्रतु ऋषि के कोई 60,000 मनस पुत्र थे और यह सब के सब कोई 5 से 6 इंच की लम्बाई के ही थे I
कृतु ऋषि ने अपने सभी मनस पुत्रों को आदेश दिया था, कि जबतक तुम सब एक-एक करके, एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्धि नहीं पाओगे, तबतक तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी I और ऐसे समय तक तुम प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होकर ही रहोगे और किसी न किसी लोक में आते जाते रहोगे I
क्यूंकि इस जनम तक यह बिंदु पूर्ण ही नहीं हुआ था, इसलिए योग अश्वमेध सौ सीढ़ियों के पश्चात भी,मेरी मुक्ति नहीं हो पाई थी I और इसी सिद्धि को प्राप्त होकर क्रतु ऋषि से सभी मनस पुत्र मुक्त होंगे I
आगे बढ़ता हूँ…
उस जन्म में मुझे कृतु ऋषि ने एक स्थान पर भेजा था, जो आज के दक्षिण अमेरिका के चिली नामक देश के अन्टोफगास्ता नामक स्थान के समीप की एक पहाड़ी पर है I इस जन्म में मैं उस स्थान पर गया हूँ I
ब्रह्मर्षि क्रतु ने भी अपने मनस पुत्रों को माँ अदि पराशक्ति के आधीन रहने को कहा था I
और क्यूंकि इस जन्म तक यह एक सौ एकवां योग अश्वमेध सिद्ध ही नहीं हुआ था, इसलिए मेरी मुक्ति तब भी नहीं हो पाई थी, जबकि मैं स्वयंभू मन्वन्तर से ही मुक्ति का पात्र रहा था I
अष्टम चक्र सिद्धि, निरालम्ब चक्र सिद्धि, निरालम्बस्थान सिद्धि, … अष्टम चक्र और मुक्ति, निरालम्ब चक्र और कैवल्य, निरालम्ब स्थान और मोक्ष, अष्टम चक्र सिद्धि और योगभ्रष्ट, निरालम्ब चक्र सिद्धि और प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, निरालम्ब स्थान सिद्धि और योगभ्रष्ट, … अष्टम चक्र सिद्धि और मानव परिवर्तन, निरालम्ब चक्र सिद्धि और मानव परिवर्तन, निरालम्बस्थान सिद्धि और मानव परिवर्तन, निराधार चक्र सिद्धि और मानव परिवर्तन, निराधारस्थान सिद्धि और मानव परिवर्तन, …
जब योगी सहस्रार को पार करता है और इसके पश्चात वह वज्रदण्ड से होता हुआ निरालम्ब स्थान को सिद्ध करता है तब एक अश्वमेध पूर्ण होता है I
जब भी यह सिद्धि प्राप्तहोती है तब इसके पश्चात योगी कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हो जाता है I इस ब्रह्म कल्प में मेरी यह दशा स्वयंभू मन्वन्तर में ही आई थी I
किन्तु मैं उस कैवल्य मोक्ष को धारण नहीं कर पाया था क्यूंकि मेरे मनस पिता ब्रह्मर्षि क्रतु ने कहा था कि जबतक तुम योग अश्वमेध एक सौ एक बार सिद्ध नहीं कर लेते, तबतक तुम मुक्त नहीं हो पाओगे I
और क्यूंकि इस प्रथम अश्वमेध सिद्धि के पश्चात, यदि योगी मुक्ति को प्राप्त ही न हो पाए तो वह प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही हो जाता है, इसलिए उस स्वयंभू मन्वन्तर में प्रथम आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के पश्चात, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था I
और क्यूंकि ब्रह्मर्षि क्रतु ने अपने सारे मनस पुत्रों के लिए भी ऐसा ही कहा था, और हम सभी पुत्र उसी प्रथम योग अश्वमेध सिद्धि को उसी स्वयंभू मन्वन्तर में ही पाये थे, इसलिये ऐसा ही क्रतु ऋषि के समस्त मनस पुत्रों के साथ भी हुआ था I
वैसे तो क्रतु ऋषि के 72,000 मनस पुत्र थे, किन्तु उनमें से कोई 12,000 ने उसी स्वयंभू मन्वन्तर में ही एक सौ एक योग अश्वमेध यज्ञ पूर्ण कर लिए थे, और यह 12,000 कैवल्य मोक्ष को प्राप्त भी हुए थे, इसलिए स्वयंभू मन्वन्तर के पश्चात, केवल हम 60,000 मनस पुत्र ही शेष रहे थे I
पर उसी स्वयंभू मन्वन्तर में हम सभी मनस पुत्रों ने कम से कम एक योग अश्वमेध तो सिद्ध कर ही लिया था I और तब से हम सब योगभ्रष्ट भी हुए हैं और समय समय पर, माँ आदिपराशक्ति के आदेशानुसार किसी न किसी लोक में आते जाते रहते हैं I
ऋषि क्रतु, ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य भी थे I और इसके अतिरिक्त वह अपनी ज्ञान उपाधि के अनुसार, महर्षि भी थे I इनके अतिरिक्त, वेदद्रष्टा और ब्रह्मदृष्टा होने के कारण वह ब्रह्मार्षि भी थे I वह मुख्यतः अथर्ववेद के ऋषि थे और अयमात्मा ब्रह्म के ही सगुण साकार… मानव रूप थे I
ब्रह्मर्षि क्रतु ने अपने मनस पुत्रों को ऐसा इसलिए कहा था, क्यूंकि उनको पता रहा होगा की इस पृथ्वी लोक सहित, समस्त चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में योगमार्ग जीवित रखने के लिए, समय समय पर यह योग अश्वमेध सिद्ध होने ही होंगे I
वेद और योगमार्ग को जीवित केवल योग अश्वमेध का सिद्ध ही रख पाता है, और ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि किसी भी लोक में जैसे ही कोई योगी इस सिद्धि को पाता है, वैसे ही उस लोक के परमाणु उस योगी की ऐसी योग सिद्धि के प्रभाव से, योगी होने लगते हैं I
जब ऐसा होता है तब मानव जाति में एक बहुत बड़ी योग की लहर चल पड़ती है, जिससे आगे के समय में समस्त मानव जाति ही योग मार्गी होने लगती है I
और इसके अतिरिक्त, जब भी किसी लोक में आंतरिक अश्वमेध सिद्ध जन्म लेता है, तब भी वह लोक के मानव योगी होने लगते हैं I
यही वह कारण था, कि 1970 ईसवी के दशक के मध्य भाग के समीप से ही इस विश्व में राजयोग की लहर,शनैः शनैः ही सही, लेकिन दौड़ने लगी थी I और जैसे ही 2011 ईस्वी में वह एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध सिद्धि हुआ, यह योगमार्ग की लहर व्यापक भी होने लगी थी I
इसी एक सौ एकवी आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के समय, जो 2011 से ही प्रारम्भ हुआ था, तीन भारतीय नेताओं ने एक गुप्त बैठक करके, एक गुप्त गुठ बनाया था और शिखर पर जाने का मन बनाया था I और उन्हीं में से एक नेता आज भी भारत के राज शिखर पर विराजमान है I उसकी प्रेरणा में भी वही एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध के परमाणु हैं, जिनके बारे में यहां बताया गया था I
जब भी कोई योगी इस आंतरिक अश्वमेध को एक सौ एक बार सिद्ध कर लेता है, तब इस योग सिद्धि के परमाणु उस योगी की काया से बाहर निकलने लगते हैं और उस पृथ्वी लोक सहित, चतुर्दश भवन में ही व्यापक होने लगते हैं I जब ऐसा होता है तब मानव जाति ही नहीं, बल्कि समस्त जीव जगत का आंतरिक परिवर्तन प्रारम्भ हो जाता है I
ऐसी दशा के पश्चात्, और कुछ आगे के समय में जो भी जीव उस परिवर्तन में भाग नहीं लेता है अथवा भाग लेना ही नहीं चाहता है, वह स्वयं ही स्वयं को नष्ट करने के मार्ग पर चलित हो जाता है I जब ऐसा होता है, तब ऐसे सभी मानव और उनके पंथ कलह क्लेश के कारण बनने लगते हैं I और शनैः शनैः या तो वह उस परिवर्तन को अपनाते हैं, या नष्ट ही हो जाते हैं I
और इसके अतिरिक्त, क्यूंकि उस योगी से बाहर निकलते हुए अश्वमेध सिद्धि के परमाणु उस लोक में व्यापक भी हो जाते हैं, इसलिए उस लोक में प्रकृति के तत्त्वों में भी परिवर्तन आने लगते है I
ऐसी दशा पश्चात, और कुछ आगे के समय में प्रकृति के परिकर भी विकराल रूप लेने लगते हैं I ऐसी दशा में पृथ्वी महाभूत, जल महाभूत, अग्नि महाभूत और वायु महाभूत भी एक विकराल स्वरूप धारण करने लगते हैं I
और इन्हीं सब प्रक्रियाओं से आगे के समय में एक विशुद्ध मानव युग स्थापित होते है, जिसको मैंने गुरु युग, वैदिक युग आदि शब्दों से दर्शाया है I
और क्यूँकि पृथ्वी के एक “विषुव के पूर्वागमन चक्र” में, इन्ही 12,000 मनस पुत्रों में से कोई न कोई इस एक सौ एकवी आंतरिक अश्वमेध सिद्धि को एक बार सिद्ध करता ही रहा है, इसलिए अब तक के प्रत्येक “विषुव के पूर्वागमन चक्र” में, एक बार तो गुरु युग लौटाया ही गया है I
इस ब्रह्म कल्प में और देव कलियुगों के कालखण्ड में आते हुए पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्रों में, अधिकांश में ये गुरु युग लगा है और अभी का समय में, इस गुरुयुग के लौटने के कालखण्ड में यह पृथ्वी लोक खड़ा भी हुआ है I
इन सभी गुरु युगों के लौटने के मूल कारण में यही एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध ही होता है, इसलिए जब भी यह गुरुयुग लौटता है, तब एक ऐसा योगी आता ही है जो उसके (अर्थात उस योगी के अपने जीव इतिहास में) इस आंतरिक अश्वमेध को एक सौ एकवी बार सिद्ध भी करता है I
और जब किसी देव कलियुग के कालखण्ड में, किसी लोक में, उस लोक के योगी को इस एक सौ एकवी योग अश्वमेध नामक सिद्धि की प्राप्ति होती है, तब उसी लोक से गुरुयुग आगमन की प्रक्रिया भी चलित हो जाती है I
आगे बढ़ता हूँ…
जब कोई योगी इस आंतरिक अश्वमेध को पहली बार सिद्ध करके भी कैवल्य मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, तो वह प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होकर ही रह जाता है I
लेकिन जो इस आंतरिक अश्वमेध से प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ होगा…
वह योगी ब्रह्माण्डीय सिद्धांत, तंत्र और न्याय से ही परे खड़ा हो जाता है I
वह योगी किसी न किसी जीवादि रूप में लौटता हुआ भी, पूर्णस्वतंत्र ही होगा I
स्वतंत्र होता हुआ भी, अपने जीव रूप में वह ब्रह्माण्ड के आधीन होकर ही रहेगा I
आधीन प्रतीत होता हुआ भी, वह अपनी आंतरिक योगदशा में पूर्णस्वतंत्र ही रहेगा I
उसकी ऐसी दशा के कारण…
वह लौटेगा नहीं, बल्कि लौटाया जाएगा I
वह परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही लौटाया जा सकता है I
वह योनिजन्म से नहीं, बल्कि अयोनि मार्ग से ही किसी लोक में आएगा I
उस लोक में अपने कार्य पूर्ण करके, वह योगमार्ग से उस लोक से प्रस्थान करेगा I
ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि इस योग सिद्धि के पश्चात ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, वह योगी…
होता हुआ भी नहीं होगा I
और नहीं होता हुआ भी सदैव ही रहेगा I
होता और नहीं होता हुआ भी, इन दोनों से परे ही माना जाएगा I
उसका न तो कोई अस्तित्व प्रमाण होगा, ना ही कोई स्पष्ट अनस्तित्व I
ऐसा होने के पश्चात भी, वह क्या है और क्या नहीं है, यह तो वह ही जानता होगा I
और ऐसे ही वह सभी योगीजन होते हैं, जो इस आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के पश्चात भी कैवल्य मोक्ष से विमुख हो जाते हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
वह प्रबुद्ध योगभ्रष्ट जो किसी ऐसे विज्ञान का जनक होता है, जिसका नाता भौतिक और योगमार्ग दोनों से होता है, वह भी ऐसा ही योगी होता है जो आंतरिक अश्वमेध से गया होता है और इसके पश्चात वह उसनें कैवल्य को या तो ठुकरा दिया होता है और या उस मुक्ति को किसी आगे के समय के लिए अथवा किसी आगे की दशा के लिए ठेल (धकेल) दिया होता है I
मैं भी ऐसा ही योगी था जब मैं वह महर्षि था, जो स्वयंभू मनु का शिष्य था और उसको उसके गुरु ने गणित नाम दिया था I और ऐसा होने के पश्चात भी, आगे के समय में मैं कृतु ऋषि का एक मनस पुत्र हुआ था I वैसे ऋषि क्रतु के सभी मनस पुत्र प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होकर ही आगे के समय में रहे हैं I
इस समस्त जीव जगत में ऐसे योगी का न तो कभी कोई अस्तित्व ही पाया जाएगा, ना ही कोई स्पष्ट अनस्तित्व ही पाया जाएगा, क्यूंकि वह योगी इन दोनों से परे ही खड़ा हुआ होगा I
और ऐसी दशा में भी वह योगी समय समय पर और किसी विशेष कार्य करने हेतु लौटाया जाता रहा होगा I
लेकिन ऐसे मृत्युलोकों में, ऐसे योगी अधिकांशतः मिलते नहीं है… कभी कोई विरला योगी ऐसे नीचे के लोकों में लौटाया गया, तो आ जाएगा…अन्यथा नहीं I
तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय में जाता हूँ, जिसका नाम हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग होगा I
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
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विषुव के पूर्वागमन चक्र, Precession of equinoxes, Precession of equinox,
देव युग, महायुग, Mahayuga, Deva yuga,
कालचक्र, Kala chakra, Kalchakra, Kaalchakra,
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गुरु युग, Vaidik Yuga, Manav Satyuga, Guru yuga,
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ब्रह्म, Brahman