विराट महाब्रह्म प्रजापति, प्रकृति ब्रह्म है, ब्रह्म प्रकृति है, प्रकृति और ब्रह्म, ब्रह्म और प्रकृति

विराट महाब्रह्म प्रजापति, प्रकृति ब्रह्म है, ब्रह्म प्रकृति है, प्रकृति और ब्रह्म, ब्रह्म और प्रकृति

योग मार्ग में प्रकृति और ब्रह्म एक ही हैं, इसलिए प्रकृति ब्रह्म है और ब्रह्म है प्रकृति। इसी सत्य को, कि प्रकृति ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही प्रकृति है, यहाँ पर कुछ प्रत्यक्ष और कुछ सांकेतिक रूप में भी बतलाया जाएगा। उस विराट महाब्रह्म प्रजापति के मार्ग में, ऐसा ही साक्षात्कार होता है।

जो योगमार्ग “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है, वो ही आत्ममार्ग कहलाता है।

इसी योगमार्ग में, जो “स्वयं ही स्वयं में” होकर ही जाता है, प्रकृति और पुरुष की सनातन योगावस्था को साधक, अपने शरीर के भीतर ही साक्षात्कार करता है। इसलिए, इस स्वयं ही स्वयं के मार्ग में, ये प्रकृति पुरुष योग, साधक के शरीर में ही होता है।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु योगेश्वर कहलाते हैं, जो, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता, ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का ग्यारहवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

विराट महाब्रह्म प्रजापति, … आत्ममार्ग

जब न जीव था और न ही जगत था, तब केवल वो प्रजापति ही था, और वो नहीं भी था, क्योंकि उस समय होने और ना होने, दोनो में वो प्रजापति ही था। और उस समय, वो प्रजापति ही अपना एकमात्र सर्वव्याप्त, सार्वभौम लोक था, और उस लोक का एकमात्र निवासी भी था। यह भी एक कारण है की वेद मनीषियों ने, उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को निर्विकल्प भी कहा था।

उस समय वो प्रजापति ही सर्वव्याप्त था, और उसकी सार्वव्यप्ति भी उसमें ही थी, क्यूंकि उस समय उसके सिवा कुछ और था ही नहीं। उस समय उसके सिवा ना तो कुछ और था और ना ही कोई और था।

इसलिए उस समय, उसे अपने सिवा किसी और का अलम्बन लेने की आवश्यकता भी नहीं थी। यही कारण है, कि वेद मनीषियों ने उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को ही, निरालंब भी कहा था।

और क्यूंकि, उस समय उसके सिवा कुछ और था ही नहीं,  इसलिए वो ही एकमात्र था, जिसके कारण वो “स्वयं ही स्वयं में” था।

उस समय जब न तो कोई जीव था और न ही जगत था, तब वो प्रजापति जो एकमात्र सार्वभौम था, वो “स्वयं ही स्वयं में” था, जिसके कारण वो आत्ममार्गी ही था।

उस समय वो प्रजापति “स्वयं ही स्वयं के” ज्ञान में था, क्यूंकि उसके सिवा और कुछ था भी तो नहीं, जिसको जाना जा सकता था। और क्यूंकि उत्कर्षमार्ग उत्पत्ति के मार्ग से विपरीत होता है, इसलिए वेद मनीषी कह गए की अंतिम मार्ग, आत्ममार्ग ही होता है और अंतिम ज्ञान, आत्मज्ञान ही होता है।

इसी मार्ग को यहाँ पर, “स्वयं ही स्वयं में”, ऐसा कहा गया है, जो वास्तव में इस जीव जगत के रचैता, तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, तैंतीसवें देवता प्रजापति का ही मार्ग है।

लेकिन क्यूंकि प्रजापति के द्वारा रचित जीव जगत में, इस मार्ग को रूद्र ने धारण किया था, इसलिए ब्रह्माण्ड में, इस मार्ग को रूद्र मार्ग भी कहा जा सकता है।

और क्यूँकि उस समय, जो कुछ भी इस जीव जगत में उत्पन्न होने वाला था, वो सब अपने सूक्ष्म सांस्कारिक रुप में, उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति में ही बसा हुआ था, इसलिए उस समय उसके सिवा कुछ और था ही नही।

और यह भी कारण है, कि, वो प्रजापति ही एकमात्र परिपूर्ण था…, वो “स्वयं ही स्वयं में” पूर्ण था। इसलिए, वेद मनीषियों ने, उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को, पूर्ण शब्द से भी सम्बोधित किया था।

 

प्रकृति ही ब्रह्म है, और ब्रह्म ही प्रकृति … प्रकृति और ब्रह्म, और ब्रह्म और प्रकृति …

प्रकृति ही ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, संपूर्ण दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती है।

अभिव्याक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं होती, क्योंकि अभिव्यक्ता अपने से पृथक कुछ भी अभिव्यक्त कर ही नहीं सकता है।

और क्योंकि, अभिव्यक्ता ही स्वयं को अभिव्यक्ति स्वरूप में अभिव्यक्त करता है, इसलिए, अभिव्यक्ति भी अभिव्यक्ता ही होती है।

ऐसा होने के कारण, प्रकृति जो ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, वो ब्रह्म ही है। और इसके साथ साथ, ब्रह्म ही अपने अभिव्यक्त स्वरूप में, अपनी ही अभिव्यक्ति है जो प्रकृति कहलाती है।

अपने अभिव्यक्त स्वरूप में, अभिव्यक्ति कभी भी अभिव्यक्ता नहीं होती…, लेकिन अपने मूल स्वरूप में, अभिव्यक्ति ही उसका अभिव्यक्ता होती है।

लेकिन अपने अभिव्यक्त स्वरूप में, अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति होता है। और ये तब भी है, जब अभिव्यक्ता अपने को अभिव्यक्ति स्वरूप में अभिव्यक्त करने के पश्चात, अपने अभिव्यक्ता स्वरूप में भी रह जाता है। इसका कारण है, कि अभिव्यक्ता केवल अपने अंशमात्र को ही अपने अभिव्यक्ति स्वरूप में अभिव्यक्त करता है…, नाकि अपने संपूर्ण स्वरूप को।

ऐसा होने के कारण अभिव्यक्ता अपने, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ता, दोनों स्वरूप में होता है। और इसके साथ साथ, अभिव्यक्ति भी अभिव्यक्ता और अभिव्यक्ति, दोनों स्वरूप में ही होती है।

यही कारण है, कि चाहे ब्रह्म कहो या प्रकृति…, बात एक ही है।

ऐसी अवस्था में, अभिव्यक्ति अपने मूल शक्ति स्वरूप में, अपने ही अभिव्यक्ता से ही योग लगाके रहती है। और ये योग भी ऐसा होता है, कि इसमें कौन अभिव्यक्ति है और कौन अभिव्यक्ता, इसको जानना अतिकठिन ही होगा।

इसलिए, वेदों में, इस जीव जगत की उत्पत्ति से पूर्व की दशाओं में भी, प्रकृति पुरुष योग का वर्ण आता है। और इसका कारण भी ये ही है, की ये योग तब से है, जब न कोई जीव था और न ही ये जगत ही था।

जब निर्गुण निराकार ब्रह्म ने ही स्वयं को सगुण ब्रह्म के स्वरूप में अभिव्यक्त किया था, तब इसके बाद ही उस सगुण सगुण ब्रह्म ने, स्वयं को पुरुष और प्रकृति के स्वरूप में अभिव्यक्त किया था, और जिसके सगुण सकारी स्वरूप से ही इस विश्वरूप की स्वयंउत्पत्ति हुई थी।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

और क्यूँकि उस समय, वो विराट महाब्रह्म प्रजापति, अपनी ही दिव्यता, प्रकृति रूपी शक्ति के साथ, योग लगाके, एक निर्भेद, अद्वैत अनंत स्वरूप में था, इसलिए, वेद मनीषियों ने उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को  और उसकी इस योगावस्था को भी, अद्वैत शब्द से संबोधित किया था। और ऐसे योग का मार्ग भी निर्बीज समाधी को ही लेके जाता है।

उस समय, वो प्रकृति ही उस प्रजापति की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सार्वभौम दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और एकमात्र दूती के स्वरूप में थी। और यही प्रकृति की मूलावस्था भी हुई, जिसके कारण वेद मनिषियों ने प्रकृति को भी सनातन शब्द से सम्बोधित किया है, क्यूंकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक हो ही नहीं सकती।

और यही कारण है, की अपने मूल रूप में, अर्थात, अपने मूल प्रकृति स्वरूप में, जिसे दुर्गा, पराम्बा, त्रिपुरसुंदरी आदि नामों से पुकारा जाता है, वो प्रकृति भी अद्वैत ही होती है। और यह भी एक कारण है की वेदांती उस मूल प्रकृति को भी उसी प्रजापति के एक नाम से, ब्रह्म शब्द से पुकारते हैं, जिसके कारण वो मूल प्रकृति ही वेदान्तियों की माँ सरस्वती होती हैं।

वेदांत में मूल प्रकृति जो दुर्गा, पारम्बा, त्रिपुरसुन्दरी आदि नामों से पुकारी जाती है, वो भी ब्रह्म होती है। इसीलिए, उन अदि वैदिक सम्राज्यों के कालों में, मूल प्रकृति दुर्गाः, मूल प्रकृति सरस्वती, अदि वाक्यों से प्रकृति को बतलाया जाता था।

और इसी कारणवश, सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन वेदांत में प्रकृति को भी ब्रह्म शब्द से सम्बोधित किया गया है।

 

पुरुष प्रकृति योग और काम पुरुषार्थ …

उस समय वो विराट महाब्रह्म प्रजापति अपनी ही प्रथम अभिव्यक्ति, अपनी ही परिपूर्ण दिव्यता, अपनी ही सम्पूर्ण ऊर्जा रूपी शक्ति, अर्थात प्रकृति के साथ ,एक ऐसे योग में था, जो अनादि अनंत सनातन होने के साथ साथ, सभी कामों से रहित था, जिसके कारण वो योग, और उसका मूल भावनात्मक मार्ग ही निष्काम कहलाया था।

और यही कारण है, कि वेद मनीषियों ने काम को भी पुरुषार्थ का अंग कहा था। लेकिन पुरुषार्थ का काम, वैसा ही निष्काम होता है जैसा यहाँ बतलाया गया, ब्रह्म और प्रकृति का योग है।

 

ब्रह्म प्रकृति है और प्रकृति ब्रह्म है

जैसे सूर्य को उसकी दिव्यता रुपी अभिव्यक्ति, जो प्रकाश है, उससे पृथक नहीं जान सकते, वैसे ही उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को, उसकी ही दिव्यता रुपी अभिव्यक्ति, प्रकृति से पृथक नहीं जाना जा सकता।

जैसे, चाहे सूर्य कहो, चाहे प्रकाश कहो, मूल में सूर्य को ही पाओगे, वैसे ही, चाहे ब्रह्म कहो या प्रकृति कहो, मूल में तो ब्रह्म को ही पाओगे।

इसलिए वेद मनीषियों ने उस विराट महाब्रह्म प्रजापति को, पुरुष और प्रकृति, दोनो नामों से सम्बोधित किया था। और यही कारण है, कि, वेद मनीषी कह गए, प्रकृति ब्रह्म है।

जैसे सूर्य ही उसका प्रकाश और प्रकाश ही सूर्य होता है, वैसे ही ब्रह्म प्रकृति है, और प्रकृति ब्रह्म है।

और उस समय, क्योंकि प्रकृति और ब्रह्म, दोनों वो सगुण निराकार, विराट महाब्रह्म प्रजापति ही थे, इसलिए यहाँ बतलाये गए समय पर और अवस्था में, जो ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव से पूर्व की ही है, बस वो प्रजापति ही था, उसके अपने ही अनादि अनंत, सनातन, अद्वैत, केवल स्वरूप में।

उस समय, क्योंकि उस विराट महाब्रह्म प्रजापति के सिवा, कुछ और या कोई और था ही नहीं, इसलिए उस समय,  वो “स्वयं ही स्वयं का” एकमात्र साक्षी था।  और यही कारण है, की वेद मनिषियों ने ब्रह्म को सर्वसाक्षी भी कहा है।

अपने ही विराट महाब्रह्म, अनंत स्वरूप में, वो ही पुरुष था और वो ही प्रकृति भी था, इसीलिए उसको, उसके ही दोनों पुरुष और प्रकृति के स्वरूपों में से किसी में भी जाना जा सकता था। इसका कारण है, कि उस समय बस वो एक ही था, जो एकमात्र होता हुआ भी, दो में था, और उसके सिवा, दूसरा कोई नहीं था।

उस समय, वो ही पुरुष था  और वो ही प्रकृति भी था, और ऐसा ही वो ब्रह्माण्ड के समस्त कालों में भी पाया जाएगा। यही कारण है, कि जब कोई साधक उस प्रजापति की प्रकृति रुपी अभिव्यक्ति पर साधना करेगा, तब भी वो साधक उसी ब्रह्म को पाएगा।

यही कारण था, की मेरे पूर्व जन्मों के उन पुरातन कालों में, वेद मनीषि प्रकृति के तत्त्वों पर भी साधना करते थे।

अपने मूल और गंतव्य से अद्वैत होने के कारण, वेद ही एक ऐसा मार्ग है, जिसमें प्रकृति के तारतम्य का आलम्बन लेके भी, ब्रह्म को प्राप्त हुआ जा सकता है।

मैंने यहाँ वाक्य, प्राप्त हुआ जा सकता है, ऐसा कहा है, नाकि प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा कहा है। इसका कारण ये है, की अनादि कालों से, जो तुम अपने मूल और गंतव्य दोनों में हो ही, उसको प्राप्त कैसे करोगे, उसको तो प्राप्त होना पड़ेगा ना?।

स्वयं को कभी भी प्राप्त नहीं किया जाता है, क्यूंकि वो तो तुम हो ही, इसलिए, स्वयं को प्राप्त हुआ जाता है। और इस प्राप्त होने के मार्ग भी, स्वयं ही स्वयं में होकर ही जाता है, क्यूंकि इसका कोई और विकल्प है भी तो नहीं। यही आत्मपथ का एक प्रमुख बिंदु है।

 

विराट महाब्रह्म प्रजापति की साक्षातकार दशा

और क्यूंकि उस समय, उस विराट महाब्रह्म प्रजापति के सिवा और कुछ था भी नहीं, इसलिए उस समय, वो अपने ही विराट महाब्रह्म स्वरूप में, स्वयं ही अपना माता और पिता था, और वो स्वयं ही अपना पुत्र भी था। उस समय, वो प्रजापति ही, अपना गुरु और अपना शिष्य भी था।

सब रिश्ते नाते उसमें ही थे, और इसके बाद भी, वो इन सबसे केवल था, अकेला था, स्वतंत्र था, निर्गुण निरंग था, कालचक्र से अतीत सनातन था, ब्रह्माकाश के सामान सर्वव्याप्त था, सर्वदशा स्थित था और सर्वदिशा दर्शी था। यहाँ पर दिशा शब्द का अर्थ, मार्ग भी होता है, और दशा शब्द का अर्थ लोक भी होता है।

और उस समय, ऐसा होने के पश्चात भी, क्यूंकि उसके सिवा न तो कोई और था, न ही कुछ और था, इसलिए वो “स्वयं ही स्वयं का” एकमात्र साक्षी था, जो सर्वसाक्षी ही था। और अपने भीतर से ब्रह्माण्ड को स्वयं अभिव्यक्त करने के पश्चात भी, वो ऐसा ही रह गया।

इसलिए, उसका साक्षात्कार भी उसके सर्वसाक्षी भाव में स्थित होकर ही होगा।

जबतक साधक ऐसे साक्षी भाव को नहीं पाएगा, और उस साक्षी भाव में स्थिर नहीं होगा, तब तब साधक को उसका साक्षात्कार भी नहीं होगा।

ये एक कटुसत्य है, क्यूंकि मायाग्रसित होके, उसका साक्षात्कार कभी नहीं होता।

इसलिए, यदि उसको जानना है, तो उसके जैसा ही होना पड़ेगा।

उसके जैसे हुए बिना, उसको जान नहीं पाओगे।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

उस समय, वो अपने ही गुणो में होता हुआ भी, अपने ही निर्गुण निराकार स्वरूप में गुणातीत था, वो तन्मात्रों के भीतर होता हुआ भी तन्मात्रातीत था, वो भूतों के भीतर होता हुआ भी भूतातीत था, वो इन्द्रियों के भीतर होता हुआ भी इन्द्रियातीत था।

वो पञ्च कोषों के भीतर होता हुआ भी कोषातीत था, वो मन की अस्थिर अवस्था से अतीत मनातीत था, वो बुद्धि की विकृतियों से अतीत बुद्धितीत था, वो चित्त की त्रयीदशा और उसके संस्कारों के प्रपंचों से अतीत चित्तातीत था, वो अहम् की सीमित अहंता से अतीत उसके विशुद्ध अहमस्वरूप में अहमातीत था, वो प्राणो के तारतम्य से अतीत प्रणातीत था, वो अपने ही जीव स्वरूप से अतीत, जीवातीत था और वो अपने ही जगत स्वरूप से अतीत, जगतातीत था।

और जब उसकी अभिव्यक्ति स्वरूप में उसकी रचना की स्वयंउत्पत्ती हुई, तब भी उसकी अपनी अभिव्यक्ति रुपी रचना के भीतर भी, वो उन अनादि अनन्त कालों से, ऐसा ही रह गया, क्यूंकि उसका कोई और वास्तविक स्वरूप है भी तो नहीं।

इसलिए, उसकी रचना के भीतर बसा हुआ कोई भी साधक, जब भी और जहाँ भी उसको जानेगा, तो वो साधक उसको ऐसा ही जानेगा।

जिस भी साधक ने अब तक उसको जाना है, उस साधक ने उसको अपने ही वास्तविक स्वरूप में, अपने ही आत्मस्वरूप में जाना है, क्यूंकि साधक के दृष्टिकोण से, उसको जानने का कोई और स्वरूप है ही नहीं। और ऐसे साक्षात्कार के समय पर, साधक का आत्मस्वरूप भी वैसा ही होता है, जैसा यहाँ बताया गया है।

इसलिए, किसी भी साधक के अंतिम या गंतव्य साक्षात्कार में, वो ब्रह्म, अद्वैत के सिवा कुछ और होगा भी नहीं।

उसी प्रजापति के इन गुणों के आधार पर, वैदिक आर्य धर्म को, सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन अद्वैत और सनातन भी कहा जाता है।

यह भी ब्रह्मत्व पथ का एक प्रमुख बिंदु है, क्यूंकि साधक ऐसा होकर ही, उस ब्रह्मत्व पथ पर जा पायेगा, जिसमें उस साधक का आत्मा ही ब्रह्म कहलाएगा।

और उस मार्ग में, साधक का आत्मा ही, ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति, अर्थात ब्रह्म और प्रकृति के स्वरूप में होगा, क्यूंकि उस ब्रह्मत्व पथ में, आत्मा का कोई और स्वरूप है भी तो नहीं।

इसलिए ऐसे ब्रह्मत्व पथ में वो साधक अपनी साधनाओं में, अपने आत्मस्वरूप को ही, सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, तीनों स्वरूपण में पायेगा।

और इसके साथ साथ वो साधक, उसकी अपनी साधनाओं में, उसी ब्रह्म को, सगुण निर्गुण साकार, सगुण निर्गुण निराकार, शुन्य, और शुन्य ब्रह्म स्वरूपों में भी, अपने ही आत्मस्वरूप में पायेगा।

अब इन बातों का आलम्बन लेके, और भी आगे बढ़ता हूं…

 

ब्रह्मलोक की महतीब्रह्मलोक से ही समस्त योजनाएं चलित और क्रियान्वित होती हैं

ऐसी ही सार्वभौम दशा में, उस विराट महाब्रह्म प्रजापति ने स्वयं को अभिव्यक्त किया था, जिसकी एक अभिव्यक्ति, उसके ही सर्वसम, सगुण साकार, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म स्वरूप में थी।

इसलिए, वो चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म ही, प्रथम जीव हुआ था, जो उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति के सगुण साकार स्वरूप में, जीव और जगत का रचैता हुआ था।

वो चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति के रचैता स्वरूप में अभिव्यक्ति था, जो इस जीव और जगत के मूल और गंतव्य, दोनों में ही, सामान रूप में विराजमान था।

इसीलिए, सतलोक या ब्रह्मलोक को ही इस चतुर्दश भुवन का गंतव्य माना गया है, और उसी ब्रह्मलोक को, इस चतुर्दश भुवन का बीज रूप भी माना गया है। इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड की समस्त योजनाएं भी इसी ब्रह्मलोक में ही बनती हैं और इसी ब्रह्मलोक से ही क्रियान्वित की जाती हैं। मैंने पञ्च देवादि लोकों में सूक्ष्म रूप में भ्रमण करने के पश्चात ही, ब्रह्मलोक के बारे में ऐसा कहा है ।

चाहे कोई शास्त्र कुछ भी बोले, कि अमुक अमुक देवता के लोक से सब चालित होता है,  लेकिन सत्य तो यही है कि ब्रह्मलोक ही इस चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्माण्ड का बीज और गंतव्य है, और उसी ब्रह्मलोक से ही समस्त योजनाएं चलित और क्रियान्वित की जाती हैं।

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

आत्ममार्ग, … भाव में ही साधन…

और उन सगुण साकार पितामह ब्रह्म के साथ साथ, बाकी सभी देवी देवता, पञ्च देवादी की भी अभिव्यक्ति हुई थी।

यही पञ्च देव सहित, समस्त देवी देवता वैदिक वांग्मय के आधार बने थे, जिसके स्वयं उत्पत्ति के मूल और उत्कर्ष मार्ग के गंतव्य, दोनो में ही, वो सनातन, कालचक्र से भी अतीत, विराट महाब्रह्म प्रजापति ही उसके अपने ही पञ्च ब्रह्म स्वरूप में था।

प्रजापति का यही ब्रह्म स्वरूप, विराट महाब्रह्म कहलाया था, जो समस्त जीव और जगत में सामान रूप में था, क्यूंकि वो जो जीव और जगत कहलाया था, वो भी उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति की ही अभिव्यक्ति था।

 

अब इन सभी बातों को आधार बनाके, आगे बढ़ता हूं…

उसी सगुण साकार प्रजापति ने, जिनको वेदों में चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म या ब्रह्मा देव कहा गया है, जब इस जीव जगत की रचना की थी, तो वो रचना अपनी भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही की थी।

उन प्रजापति के भाव में ही, उनका साधन था। इसलिए, उनका भाव ही, इस जीव और जगत की रचना का साधन रूपि मार्ग था।

इसी भाव रूपी इच्छा शक्ति का आलम्बन लेके, प्रजापति ब्रह्म ने एक साधन, स्वयंप्रकट किया था, जो केवल उनका था, क्योंकि उस साधन के मूल में जो भाव था, वो भाव भी केवल उनका ही था।

और वही साधन, ब्रह्माण्ड की प्राथमिक अवस्था के रूप में स्वयंप्रकट हुआ था, जो सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में था।

वो सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड, अष्टकोणी था, वो नीचे से चपटा था, और ऊपर के थोड़ा गोलकार और थोड़ा नोकिला भी था, इसलिए वो प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड, ब्रह्म लिंगात्मक ही था, जो उस विराट प्रब्रह्म प्रजापति का ऐसा लिंगात्मक स्वरूप था, जिसको वेद मनिषियों नें, कल्याणकारी जान के और मान के, शिव का ही प्राथमिक लिंगोद्भव स्वरूप कहा था।

वेदों के पञ्च देव एक दुसरे के पूरक हैं, और एक दुसरे के स्वरूप भी हैं, और इसके साथ साथ, एक दुसरे के नाती भी है। ऐसा कहने का कारण भी ये है, कि सभी पञ्च देव उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति के पञ्च ब्रह्म स्वरूप में ही साक्षात्कार होते हैं।

इसलिए, वेद मनीषी कह गए, की ब्रह्म ही शिव हैं, जो पितामह ब्रह्मा है, जो विष्णु है, जो देवी हैं, जो सूर्य हैं, जो गणपति हैं और जो अन्य सभी देवी देवता भी हैं, और वही ब्रह्म, ये समस्त जीव जगत भी है।

ये पञ्च देव एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, इसलिए ये एक ही हैं। लेकिन ऐसा एक होने के पश्चात भी, अपने कृत्यों के आधार पर, इन पञ्च देवों को पृथक ही माना जाता है।

अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से कभी पृथक नहीं होती, जिसके कारण, अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता होती है और अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति स्वरूप में होता है। यही वैदिक अद्वैत सिद्धांत का एक मुख्य बिंदु भी है।

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

इस ज्ञान से कैवल्य मुक्ति

यही ब्रह्माण्ड, वो प्राथमिक ब्रह्माण्ड था, जो अपनी मूल सूक्ष्म संस्कारिक अवस्था में था, और जो प्रजापति की भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही, उनके ही साधन रूप में स्वयंप्रकट हुआ था।

इसी सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड की भाषा संस्कृत कहलायी थी।

संस्कृत शब्द का अर्थ होता है, संस्कारकृत, और जहाँ संस्कार शब्द उसी प्रथिमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से सम्बंधित है, को पितामह ब्रह्म की भाव रुपी इच्छा शक्ति से, उसी पितामह ब्रह्म के साधन रूप में स्व:प्रकट हुआ था।

इसी सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड से, इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड की स्वयंउत्पत्ती हुई थी।

जब ये सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड, स्वयं प्रकट हुआ था, तो ये स्वच्छ जल के समान था, प्रजापति की सृष्टि में ये सर्वव्याप्त सार्वभौम था, स्फटिक के समान निरंग था, और यही कारण है कि ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भी व्याप्त जल शब्द का संकेत आता है।

ये जल शब्द भी, प्रजापति की भाव रूपी इच्छा शक्ति से, स्वयंउत्पन्न हुए उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड को दर्शाता है।

ये प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड ही, मूल ब्रह्माण्ड है, जो साधक के अंत:करण चतुष्टय में, चित्त के अर्ध गोलकार स्वरूप के भीतर, एक निरंग संस्कार के रूप में होता है, जो अष्टकोणी होता है, ऊपर  से थोड़ा गोलाकार और थोड़ा नोलीला भी होता है।

लेकिन उत्कर्ष मार्ग में, अंत:करण चतुष्टय में, चित्त के इस संस्कार के निरंग स्वरूप के साक्षात्कार से पूर्व, यही संस्कार हलके श्वेत वर्ण का भी दिखाई देता है।

ये हल्का श्वेत वर्ण, सत्त्वगुण को दर्शाता है, जो प्रकृति के नवम कोष, अर्थात, परा प्रकृति का होता है। वैदक वांग्मय में परा प्रकृति ही अदिशक्ति कहलायी गयी हैं, जो उनके अपने सगुण निराकार स्वरूप में, एक श्वेत रंग के अति सूक्ष्म मेघ के समान होती हैं।

जो योगी उसकी अपनी साधनाओं में, इस निरंग संस्कार को पार कर गया, वोही कैवल्य मुक्त कहलाता है। इससे पार जाने का मार्ग भी, राम नाद से जाकर, अष्टम चक्र या निरलम्बा चक्र को जाता है और इसी मार्ग से योगी विराट कृष्ण के काल कृष्णा स्वरूप को साक्षात्कार करता है।

 

अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान से ब्रह्मत्व प्राप्ति

आज कुछ वेद मनीषी कहते हैं, की अन्तःकरण चतुष्टय तो प्रकृति का अंग है, इसलिए वो इसको अधिक महत्व नहीं देते।

लेकिन मेरे पूर्व जन्मों के उन पुरातन कालों में, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञाना भी मुक्तिमार्ग का ही अंग होता था।

तो अब इस बिंदु को बतलाता हूँ।

 

अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान
अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान से ब्रह्मत्व प्राप्ति

 

तो अब इस चित्र देखो।

हृदय में अंगूठे के ऊपर के भाग के समान, एक गड्ढा होता है। लेकिन ये प्रकाश उसी गड्ढे के भीतर होता है।

और इसी प्रकाश को अन्तःकरण चतुष्टय कहा गया है, जिसके चार भाग होते हैं, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहम कहलाते हैं। ये चित्र हृदय के, उसी अन्तःकरण चतुष्टय नामक प्रकाश को दिखला रहा है।

इस चित्र में, नीचे से ऊपर  की ओर जो रंग है, वो ऐसे हैं। अब बतलाए गए सारे बिंदु, मैं पाशुपत मार्ग में, राज योग के मार्गानुसार ही बोल रहा हूँ।

  • नीला रंग अहम् को दर्शाता है। अहम् का लोक सदाशिव का अघोर मुख है, जिससे रूद्र देव की स्वयं अभिव्यक्ति हुई थी और जिसके कारण, रूद्र स्वयंभू कहलाई थे ।
  • उसके ऊपर श्वेत रंग चित्त को दर्शाता है। जब चित्त सत्वगुणी होता है, तो वो श्वेत वर्ण का होता है और ऐसी अवस्था में, चित्त प्रकृति के नवम कोष से योग लगके बैठा होता है। चित्त का लोक सदाशिव का वामदेव मुख है, जिससे श्री विष्णु की स्वयं अभिव्यक्ति हुई थी।
  • उसके ऊप्पर का पीला रंग बुद्धि का है। बुद्धि का लोक सदाशिव का तत्पुरुष मुख है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म भी कहलाता है, और जिससे देवराज इंद्र की अभिव्यक्ति हुई थी।
  • और उसके ऊप्पर मन होता है। मन का लोक, सदाशिव का सद्योजात मुख है, जिससे पितामह ब्रह्म की अभिव्यक्ति हुई थी, और वो भी पितामह ब्रह्म के हीरे के प्रकाश के समान, सर्वसम, सगुण साकार, चतुर्मुखा स्वरूप में। मैंने चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म का साक्षात्कार इसी हीरे के समान प्रकाशित स्वरूप में किया है, नाकि सुनहरे वर्ण में।
  • आगामी किसी अध्याय में, मैं इस पाशुपत मार्ग के पञ्च मुखा सदाशिव और पंचब्रह्मोपनिषद के पञ्च ब्रह्म, दोनों के बारे में बतलाऊँगा।

 

अब ध्यान देना, क्योंकि मैं अंतःकरण चतुष्टय से ही उस गंतव्य रूपी, ब्रह्मत्व का मार्ग बतला रहा हूँ …

ये बातें मेरे मार्ग के अनुसार है, नाकि किसी शास्त्र के। मैं पूर्व के किसी अध्याय में ये बतला भी चुका हूँ, की शास्त्र तो मैंने कभी पड़े ही नहीं। मैंने जो भी जाना, वो उस मार्ग से जाना, जो एक ऐसे योगभ्रष्ट का होता है, जो प्रबुद्ध भी होता है, और जो ब्रह्मत्व प्राप्ति के मार्ग में ही रहता है, क्यूंकि उसको और किसी भी प्राप्ति से कोई भी लेना देना नहीं।

  • अंतःकरण चतुष्टय के अहम् से गंतव्य प्राप्ति … अहम् जब विशुद्ध होता है, तो वो अहम् ही ब्रह्म होता है, और इसी दशा को यजुर्वेद के अहम् ब्रह्मास्मि महावाक्य में सांकेतिक रूप में दर्शया गया है। विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं, और ऐसा विशुद्ध अहम् सार्वभौम भी होता है। ऐसा योगी अहमात्मा भी कहलाता है।
  • अंतःकरण चतुष्टय के बुद्धि से गंतव्य प्राप्ति … बुद्धि जब स्थिर होती है, तो वृत्तिहीन होती है और ऐसी वृत्तिहीन अवस्था में, वो बुद्धि, ब्रह्मलीन होके ब्रह्म ही हो जाती है। बुद्धि के ब्रह्मलीन होने का मार्ग भी अकार, उकार, मकार, ब्रह्मतत्त्व और ओंकार से जाता है। ऋग्वेद में इसी दशा को प्रज्ञानं ब्रह्म के महावाक्य में दर्शया गया है।

वृत्तिहीन बुद्धि को ही ब्रह्म कहते हैं, और ऐसी बुद्धि ही बुद्धत्व को लेके जाती है, जिसकी प्राप्ति के पश्चात, योगी ज्ञानात्मा होके, ज्ञान ब्रह्म को, अपने ही आत्मस्वरूप में पाता है। ऐसा योगी ज्ञानात्मा भी कहलाता है।

और जब योगी की बुद्धि ब्रह्मतत्त्व में विलीन होती है, जिसकी दशा शुद्ध चेतन तत्त्व भी कहलाती है, तो ही वो योगी ॐ का साक्षात्कार करता है…, इससे पूर्व नहीं।

बुद्धि की वृत्तिहीन अवस्था के पश्चात ही योगी ओउम् का साक्षात्कार करता है। इस साक्षात्कार के बारे में किसी बाद के अध्याय में बताया जायेगा।

  • अंतःकरण चतुष्टय के चित्त से गंतव्य प्राप्ति … चित्त जब संस्कार रहित होता है, तब वो चित्त ही चिदाकाश होके, ब्रह्म कहलाता है। अथर्ववेद के महावाक्य अयम् आत्मा ब्रह्म में इसी दशा को सांकेतिक रूप में दर्शया गया है।

चित्त की संस्कार रहित अवस्था को ही चिदाकाश कहते हैं, जिसकी प्राप्ति के पश्चात, योगी उसके अपने ही चिदात्मक ब्रह्म स्वरूप को पाता है, जिसकी सिद्धि को चित्त ब्रह्म भी कह सकते हैं। ऐसा योगी चिदत्मा भी कहलाता है।

  • अंतःकरण चतुष्टय के मन से गंतव्य प्राप्ति … मन जब विकार विहीन होता है, तो वो आत्मभाव में ही स्थिर होके, ब्रह्ममय होके, ब्रह्म में ही विलीन होके, ब्रह्म ही हो जाता है। इसी दशा को सामवेद के के महावाक्य, तत् त्वम् असि में दर्शया गया है।

मन की ऐसी विकारविहीन अवस्था से ही योगी “मन ब्रह्म” नामक तत्त्व को पाता है। यहाँ कहे गए तत्त्व शब्द का अर्थ, ब्रह्म ही मानना चाहिए। ऐसा योगी मनात्मा भी कहलाता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और जब यह सबकुछ पार हो जाता है, तो ही उस साधक के प्राण, गंतव्य मार्गी होते है, और वो साधक प्राण ब्रह्म नमक सिद्धि को पाके, प्राणात्मा कहलाता है।

लेकिन, इन सभी का मार्ग, जीवत्व नमक सिद्धि से जाता है, जो सभी जीवों के समतावादी संघ का गंतव्य कहलाता है। और जब यह सब पार हो जाता है, तो ही साधक बुद्धत्व को जाके, ब्रह्मत्व को पाता है।

 

तो अब आगे बढ़ता हूँ …

यहाँ बतलाए गए बिंदुओं के मार्ग, जाता तो उसी ब्रह्म को है, लेकिन ये मार्ग घूम फिर के ही जाता है, इसलिए ये मार्ग बहुत लम्बा भी होता है।

और क्यूंकि ये सीधा गंतव्य प्राप्ति का मार्ग नहीं है, इसीलिए वेद मनीषियों ने इस मार्ग को अधिक नहीं बतलाया है।

इसी कारणवश, अंतःकरण चतुष्टय को, उसके गंतव्य मार्ग के रूप में, वेदों में सूक्ष्म सांकेतिक स्वरूपों में ही बतलाया गया है।

 

प्राथमिक ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप …

 

प्राथमिक ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप और अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान
प्राथमिक ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप और अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान

 

अब उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड को, जो चित्त में ही बसा हुआ होता है, उसके बारे में सूक्ष्म स्वरूप को बतलाता हूँ …

तो अब इसी अंतःकरण चतुष्टय के चित्र को देखो।

इस चित्र में, चित्त की ऐसी अवस्था, नीले अहंकार और पीली बुद्धि के बीच में दिखलाई गई है।

इस श्वेत रंग के सात्विक चित्त में, ये प्राथमिक ब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में ही बैठा हुआ है।

और चित्त में ये संस्कार उस अनादि काल से बैठा हुआ है, जब ना तो ये स्थूल जगत था, और न ही सूक्ष्म और दैविक या कारण जगत ही थे।

चित्त का ये संस्कार, उसी प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड को दर्शाता है, जो तब भी था, जब ना कोई जीव था, ना ही जगत ही था। इसलिए ये संस्कार, उसी अनादि और प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड को दर्शाता है।

जो अनादि होता है, वो ब्रह्माण्ड के स्थूल, सूक्ष्म और दैविक या कारण स्वरूपों के उत्पन्न होने से भी पूर्व का है, इसलिए ब्रह्माण्ड के भीतर बस कर उसे नष्ट भी नहीं कर सकते। बस उस से पार जा सकते हैं। लेकिन ये पार जाने का मार्ग भी तो, “स्वयं ही स्वयं में” होकर ही जाता है।

जो जीवों की उत्पत्ति से पूर्व का है, उसे नष्ट कैसे करोगे, जब तुम स्वयं ही जीव रूप में हो।

और वो पार जाने का मार्ग भी तब प्रशस्त होता है, जब उस अनादि अनंत, प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड रुपी संस्कार को, उसके ही मूल कारण में लौटाया जाता है, अर्थात,विलीन किया जाता है…, इससे पूर्व नहीं।

और ऐसा लौटाए जाने का मार्ग भी राम नाद से होकर,  अंततः, अष्टम चक्र को जाता है, क्यूंकि अष्टम चक्र में ही, यह संस्कार लौटाया जाता है।

राम नाद और अष्टम चक्र के बारे में, बाद की किसी अध्याय में बात होगी।

 

अथातो ब्रह्म जिज्ञासा का उत्कर्ष मार्ग

अब इन बातों का आलंबन लेके, ब्रह्मसूत्र के वाक्य, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा के उत्कर्ष मार्ग को बतलाता हूं…

जीव का उत्कर्ष मार्ग, जीव और जगत की उत्पत्ति के मार्ग से विपरीत होता है।

जिस मार्ग से जीवों की उत्पति हुई थी, उसी मार्ग की विपरीत अवस्था से ही तो जीव वापस लौट सकते है, क्योंकि प्रजापति की इस रचना में, जीवों के वापिस लौटने का, कोई और मार्ग है भी तो नहीं।

इस वाक्य के विरुद्ध मार्गों को मनोलोक की उत्पत्ति ही मानना चाहिए। और ऐसे मनोलोकी मतों की गति भी प्रजापति ब्रह्म तक नहीं जाती है। ऐसे मनोलोक के मार्गों की गति तो बस किसी न किसी अभिमानी देवता के लोक तक ही सीमित होती है।

कलियुग की काली काया के कारण, इस कलियुग के कालखंड में, जो भी मार्ग आये हैं, वो सभी मनोलोक के हैं, और इसके कारण उन मार्गों की गति भी गंतव्य रुपी प्रजापति ब्रह्म तक नहीं जाती है।

यही कारण है, की, कलियुग के समय पर उत्पन्न हुए सभी मार्ग कहते हैं, की उनका हिसाब किताब अंत समय पर ही होगा…, इससे पूर्व नहीं।

क्यूंकि ये सभी कलियुग के समय पर आए हुए मार्ग, मनोलोक के ही हैं, इसलिए इनमें न तो जीवनमुक्ति का कोई सिद्धांत है, और न ही विदेहमुक्ति का, जिसके कारण इन मार्गों में मुक्ति, अंत समय पर ही होती है।

जो गंतव्य मार्ग, तुम्हारी काया के भीतर ही बसाया गया था, उसे ग्रंथों में, मंदिरों इतियादी में, क्यों ढूंढ़ते हो। ऐसे स्थानों पर तो वो मार्ग है ही नहीं।

यदि उस गंतव्य को जाना है, तो “स्वयं ही स्वयं में”, इसी वाक्य में बसकर जाना होगा, नहीं तो वो गंतव्य, जो कर्मातीत, कालातीत, गुणातीत, दिशातीत या मार्गातीत, दशातीत या लोकातीत, भूतातीत, जीवातीत, जगतातीत, तुरीयातीत आत्मा कहलाता है, उसको कभी भी नहीं पाओगे।

ऐसी अवस्था में, तुम्हारा गंतव्य भी किसी न किसी देवलोक, अभिमानी या अनभिमानी देवता के लोक तक ही सीमित रह जायेगा, जो समय समय पर, किसी न किसी त्रासदी का कारण ही बनता है, क्यूंकि देवताओं की गति भी गंतव्य तक नहीं होती है।

यदि देवताओं की गति उस गंतव्य तक होती, तो वो देवता भी नहीं रह पाते, क्यूंकि गंतव्य तो कर्मातीत, लोकातीत, कालातीत, गुणातीत, भूतातीत, जीवातीत होता है, और गंतव्य तो देवत्व से भी अतीत होता है। जो जीव देवत्व से ही अतीत हो गया, वो देवता कैसे रह पायेगा।

तुम उन देवताओं को कुछ भी मानो, मैंने यहाँ सत्य को ही प्रकाशित किया है, क्यूंकि देवता चाहे साकारी हों या निराकारी, वो केवल ब्रह्मत्व मार्ग के बिंदु होते हैं…, ब्रह्मत्व नहीं।

और जो प्रजापति, इन्द्रादि देवता, उस ब्रह्मत्व को दर्शाते हैं अथवा उसका मार्ग होते हैं, उनको तो तुम अधिकाँश कलियुगी जीव मानते ही नहीं।

और क्यूंकि तुम्हारे आज के शास्त्रों में या तो उनका पूजन वर्जित है, या उनको किसी विकृत स्वरूप में ही दर्शाया गया है, इसलिए तुम गंतव्य को कैसे जाओगे…, थोड़ा सोचो तो?।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

वो उत्कर्ष मार्ग जो मुक्ति को लेकर जाता है, वो जीव जगत की उस उत्पत्ति के मार्ग से विपरीत होता है, जिस से प्रजापति ने ब्रह्माण्ड और समस्त पिंड रूपी जीवों को उत्पन्न किया था।

और यही कारण है, कि प्रजापति ने जिस मार्ग से ये जीव जगत उत्पन्न किया था, उसके विपरीत मार्ग में ही जीवों की मुक्ति होगी।

लेकिन क्योंकि उत्पत्ति के मूल में, उस प्रजापति पितामह ब्रह्म का भाव ही था, इसलिए, जीवों का उत्कर्ष मार्ग भी, ब्रह्म भावापन अवस्था में स्थित होके ही प्रकाशित होगा।

यही कारण है, कि ब्रह्म भावापन होकर ही, ब्रह्म को पाया जा सकता है…,  इसके बिना नहीं।

लेकिन क्योंकि, अपने सगुण साकार स्वरूप में, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म भी जीव ही हैं, इसलिए, इस ब्रह्म भावापन से पूर्व, साधक को जीव भावापन होना ही पड़ेगा। जीव भावापन अवस्था से ही ब्रह्म भावापन अवस्था का मार्ग प्रकाशित होता है। जो जीव भावापन नहीं हुआ, वो ब्रह्म भावापन अवस्था को भी नहीं पाएगा। और जो ब्रह्म भावापन नहीं, वो ब्रह्मत्व पथ में है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता।

जीव भावापन अवस्था ही संघ का गंतव्य होती है। और ऐसे संघ में, समस्त जीव सत्ता होती है। यही कारण है कि जो योगीजन जीव भावापन होते हैं, वो कम भोजन करते हैं और उनका भोजन मांसाहारी भी नहीं होता।

जबतक साधक, ऐसा जीव भावापन नहीं होगा, तबतक वो पूर्ण संघी भी नहीं होगा। और ऐसी अपूर्ण संघी अवस्था में वो साधक, ब्रह्म भावापन भी नहीं हो पाएगा।

लेकिन, इन सब बतलाई गई अवस्थाओं के मूल में, साधक की भाव रूपी इच्छा शक्ति ही होती है।

ये भाव रूपी इच्छा शक्ति भी वैसी ही होनी चाहिए, जैसी उस सगुण साकार प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म की थी, जब ये ब्रह्माण्ड अपनी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक संस्कारिक अवस्था में, उनके भाव से ही, उनके साधन रूप में ही, स्वयंउत्पन्न हुआ था।

और क्योंकि पितामह ब्रह्म के भाव में ही उनका साधन था, जिसका अलम्बन लेके उन्होंने इस जीव जगत को स्वयंउत्पन्न किया था, इसलिए, साधक का उत्कर्ष मार्ग भी, साधक के भाव से ही, उस साधक के साधन रूप में ही, उसी साधक के मुक्ति मार्ग के रूप में प्रकट होगा।

यही कारण है, कि ब्रह्म भावापन दशा के सिवा, कैवल्य मोक्ष का कोई और मार्ग है ही नहीं। और यहि सत्य, ब्रह्मसूत्र के प्रथम सुत्र, आथतो ब्रह्म जिज्ञासा के वाक्य में बतलाया गया है।

ऐसा मुक्तिमार्ग साधक के भाव से स्वयंउत्पन्न हुआ, साधक के साधन स्वरूप में होता है, इसलिए, साधक के सिवा, ऐसे मुक्तिमार्ग पर किसी और का अधिकार भी नहीं होता है।

ऐसे मुक्तिमार्ग पर साधक का उतना ही अधिकार होता है, जितना पितामह ब्रह्म का है, उनके अपने उत्पन्न किये हुए ब्रह्माण्ड पर है।

ये मुक्तिमार्ग, केवल उस साधक का ही होता है, जिसके भाव से ये  स्वयं प्रकट होता है।

साधक के अपने ही भाव से, जो भी साधन स्वयंउत्पन्न होता है, उस साधन पर अधिकार भी केवल उसी साधक का होता है।

कोई भी सत्ता, साधक के भाव से उत्पन्न हुए साधन का, ना तो प्रयोग कर सकती है, ना ही उसे उस साधक से ले या छीन सकती है।

इस समस्त चतुरदश भुवन में, कोई माई का लाल है ही नहीं, जो तुम्हारे भाव से उत्पन्न हुए, तुम्हारे साधन रूपी उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग पर, उसका अपना अधिकार जमा सके। और यह भी वैसे ही है, जैसे पितामह ब्रह्म के भाव रुपी इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुए ब्रह्माण्ड पे, कोई और, उसका अपना अधिकार नहीं जमा सकता है।

जब भाव ही उस साधक का था, तो उस भाव से स्वयंउत्पन्न साधन भी तो उसी साधक का ही रहेगा। ऐसा साधन, अनादि काल तक उसी साधक का ही रहता है।

इसलिए, जिसके भाव से, जो भी साधन स्वयं प्रकट होता है, वो साधन केवल उसका ही होता है…, और किसी का नहीं।

इस समस्त ब्रह्माण्ड में, कोई माई का लाल है ही नहीं, जो तुम्हारे भाव से स्वयंप्रकट हुए, तुम्हारे साधन को तुमसे ले सके, या उसका प्रयोग तुम्हारी स्वेच्छा रुपी अनुमति के बिना कर सके।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

और ऐसा भाव से उत्पन्न हुए साधन को, यदि वो साधक किसी और को बता भी दे या दे ही दे, तो भी वो भाव रूपी साधन, अनंत काल तक, उसी साधक का रहेगा और उसी साधक के ही आधीन रहेगा।

और इसलिए, अनादि कालों तक वो साधन भी उसी साधक का कहलेगा, जिसके भाव से वो स्वयंउत्पन्न हुआ था।

यही मार्ग, भगवान वेद व्यास ने, उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र में, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा के सूत्र से, सूक्ष्म रूप में बतलाया था।

जबतक साधक का भाव ही निष्कलंक नहीं होता, तबतक वो साधक अपने लिए एक निष्कलंक मार्ग भी स्वयंउत्पन्न नहीं कर पाता।

और जबतक मार्ग ही निष्कलंक नहीं होता, तबतक वो साधक भी उस निष्कलंक प्रजापति को भी नहीं पाता। और इस सबके मूल में साधक की भाव रूपी ब्रह्म जिज्ञासा ही होती है।

ये जिज्ञासा भी वैसी ही होती है, जैसे ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र में बतलाया गया है, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, के सूत्र में।

वास्तव में जिज्ञासा भी तो भाव का ही एक स्वरूप होती है।

 

और इस भाग के अंत में…

क्योंकि ये ब्रह्माण्ड, प्रजापति के भाव में स्थित, उनके ही अपने साधन रूप में अभिव्यक्ति है, इसलिए, ये समस्त जीव जगत, उसी प्रजापति का है…, और किसी भी माई के लाल का नहीं।

तुम्हारे शास्त्रों में, चाहे वो शास्त्र किसी भी पंथ के हों, यदि इस सत्य के विपरीत कुछ भी कहा गया है, तो उन सभी शाश्त्रों को और उनके वाक्यों को मनोलोक की उत्पत्ति ही मानना चाहिए, क्यूंकि ऐसे शास्त्र या वाकय मनोलोक की उत्पत्ति के सिवा और कुछ हैं भी तो नहीं।

यही कारण है, कि किसी भी देवी देवता सहित, कोई भी साकारी या निराकारी सत्ता, कुछ भी बोल ले, किसी भी ग्रंथ में बोल ले, लेकिन सारे पिंड और समस्त ब्रह्माण्ड उस सर्वसम सगुण साकार प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म का ही रहेगा।

जो कुछ भी इस जीव जगत में है, चाहे वो साकारी है या निराकारी है, उस सब का विधाता भी वो प्रजापति ही है, और इसलिए, वैदिक तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, उस प्रजापति ब्रह्म से आगे, कोई और देवी देवता कहा ही नहीं गया है।

इसका कारण भी वो ही है, कि, जब उस प्रजापति की भाव रूपी इच्छा शक्ति से ही, साकारी और निराकारी रूप में ये जीव जगत, उसी प्रजापति के साधन स्वरूप में स्वयंप्रकट हुआ था, तो उस प्रजापति के ही साधन रूपी ब्रह्मंड मे, उस प्रजापति के आगे या उससे बड़ा, कोई और कैसे हो सकता है।

जो भी शास्त्र इस सत्य के विरुद्ध जाते हैं, वो मनोलोक के ही हैं। जो मनोलोक का होता है, उसकी गति कभी कभी गंतव्य तक नहीं होती।

प्रजापति के ब्रह्माण्ड में, उनसे आगे या उनसे बड़ा कोई और कैसे हो सकता है।

कोई देवी, देवता या और कोई सत्ता है ही नहीं, जो प्रजापति की भाव रुपी इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुए सा या निराकारी, जीव जगत में, उनकी आज्ञा के बिना रह सके या कार्य कर सके। समस्त देवी देवताओं की उत्पत्ति भी तो प्रजापति की भाव रुपी इच्छा शक्ति से ही हुई थी।

बस थोडी देरी को, अपने ग्रन्थों में डाले गये प्रपंचों को त्याग कर…, स्वयं ही सोचो इस बात पर।

तुम्हें उत्तर स्वयं ही मिल जायेगा,  क्यूंकि इस उत्तर को जानने के लिए, तुम्हे कहीं और जाने की या किसी और से पूछने की आवश्यकता ही नहीं।

और यही कारण है, कि वैदिक वांगमय के तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, सबसे ऊपर का स्थान, प्रजापति या ब्रह्मा को ही दिया गया है।

 

तैंतीस कोटि देवी देवता और मुक्तिमार्ग

अब ध्यान से सुनो, क्यूंकि मै तैंतीस कोटि देवी देवता से होकर जाने वाले मार्ग को एक सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही बतला रहा हूँ …

उस भीतर की यात्रा में, साधक अष्ट वसु से होकर द्वादश आदित्य को जाता है, और इन आदित्यों से होकर एकादश रुद्र को जाता है। और इसके पश्चात वो साधक, रुद्र से होकर देवराज इंद्र को जाएगा, और अंततः वो साधक, इंद्र से ही होकर प्रजापति को पाएगा।

लेकिन अपने भीतर की यात्रा में, मैं रुद्र और इंद्र, दोनों का समान रूप में ही उपासक हूं।

इसका कारण है, कि पिंगला नाड़ी के देवता, रुद्र होते हैं, जिसके कारण, रुद्र को पिंगल भी कहा गया है। और इड़ा नाडी के देवता, देवराज इंद्र होते हैं, जो इडआंध्र (इदंड्रा ) भी कहलाते हैं, जिसका भीतर की यात्रा में अर्थ है, इड़ा नाडी का देवता।

और सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक बहुत प्रकाशमान नाड़ी होती है, जिसको ब्रह्म नाड़ी और चित्रिनी नाड़ी भी कहते हैं, जिसके देवता प्रजापति अपने ही महेश्वर, योगेश्वर, योगऋषि, योगसम्राट, योग गुरु, योग और योगतंत्र के स्वरूप में होते हैं, और इसी स्वरूप में वो सृष्टिकर्ता और महाब्रह्म भी कहलाते हैं, जिनका एक नाम जगत के नाथ, जगन्नाथ भी है।

वैदिक वांग्मय में, भारत को सर्वेश्वर का साम्राज्य कहा जाता है और वो सर्वेश्वर, योगी के ही आत्मस्वरूप में होते हैं। इसलिए, योगमार्ग में, योगी का शरीर ही भारत कहलाता है, जिसकी दिव्यता और शक्ति माँ भारती होती हैं।

इस भारत रुपी शरीर के भीतर, जो सुषुम्ना नाड़ी होती है, उसमें 100 छोटी छोटी नाडियों का समूह होता है। इन 100 नाड़ियों की दिव्यताओं को ही भारत की 100 नदियाँ कहा गया है।

योगी के भीतर बसी हुई ये 100 नाड़ियों की नदी रूपी दिव्यताएँ ही, उस योगी की आंतरिक भूधर होती हैं, क्यूंकि ये 100 नदियाँ ही उस योगी के शरीर रुपी भूमि को धारण की हुई होती हैं।

वैदिक नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों, जीवों इत्यादि को ही भूधर भी कहा जाता है और ये सभी भूधर भी उस योगी के शरीर में ही, सूक्ष्म स्वरूप में बसे होते हैं।

जितने जीव वैदिक देवी देवताओं के वाहन हुए हैं, और जो भी भूधर शब्द के ही अंग, किसी न किसी वैदिक देवी देवता या किसी और प्रशस्त वैदिक मान बिन्दु के सूचक, द्योतक या धारक हैं, वो सभी भूधर हैं। ऐसे भूधर होने के कारण ही तो उनको वैदिक देवी देवताओं के साथ बतलाया गया है।

उस योगी के शरीर में ही सप्त पर्वत वाटिकम स्थित होती है। ये सप्त पर्वत उसके सप्त चक्र ही होता हैं, जिसके मध्य की वाटिका रुपी अवस्था में, उस योगी की प्राण शक्ति अपनी क्रीड़ाएँ करती ही रहती है। इसीलिए वैटिकन को फारेस्ट ऑफ़ सेवेन हिल्स भी कहा जाता है।

इसी सपत पर्वत वाटिकम के सिद्धांत पर आज की वैटिकन सिटी का नाम है, जो पुरातन कालों में कौलाचार्यों की गद्दी थी, और जिनको इस्सैन (Essene) भी कहा जाता था।

योगी के शरीर में, जो चतुर्दश प्रधान नाड़ियों होती हैं, वो ही इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड को दर्शाती हैं। जो योगी ऐसा जानता है, वो इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड से तारण होने के मार्ग का ज्ञाता भी होता है। ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी जीवतारक भी कहलाता है।

इसके अतिरिक्‍त, मैं सभी तैंतीस कोटि देवी देवताओं का भी समान रूप में उपासक रहा हूं, क्‍योंकि उसी एक मेरुदंड की तैंतीस हड्डियों में, इन सभी तैंतीस कोटि देवी देवताओं के वास्तविक, आंतरिक लोक होते हैं।

ऐसे योगी की काया में ही पञ्च ब्रह्म, उनके पञ्च कृत्य, पञ्च भूत, पञ्च तन्मात्र, वेद चतुष्टय, धाम चतुष्टय, पीठ चतुष्टय और पुरीष्टक आदि सिद्धांतों के साथ बसे हुए होते हैं।

ऐसे योगी की काया में ही, उसकी प्राण शक्ति अव्यक्त होके रहती है, और उस योगी की काया को पञ्च विद्या, दस महाविद्या, चौसठ योगिनीगण, अष्ट भैरवीगण और भैरवगण, अष्ट मातृकाएं, आदि दिव्यताएं घेरे हुए होती हैं, और उनके स्व:जनित तिरोधान या निग्रह में ही रखती हैं, अर्थात, ये सभी माताएं और उनके गण, उस योगी को सबसे छुपा के रखते हैं।

 

और अब इस भाग के कुछ बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

यहां बताए गए उत्कर्ष मार्ग से पृथाक, उस भीतर की यात्रा का कोई और मार्ग है ही नहीं, क्योंकि प्रजापति ने इसके सिवा, कोई और अंतिम मार्ग, या मुक्तिमार्ग बनाया ही नहीं।

और इस भीतर की यात्रा में, किसी और मार्ग को बनाने की, प्रजापति के सिवा, किसी और देवी देवता की क्षमता भी नहीं, क्योंकि रचैता ही रचना कर सकता है…, और कोई भी नहीं।

इसलिए, अंतगति में, उत्कर्ष का मार्ग, उसी सगुण साकार प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही जाएगा।

जिसका उत्कर्ष मार्ग ऐसा हो गया, वो साधक इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड से ही पार हो जाएगा।

लेकिन जबकी ये बतायी गई सभी बातें सत्य हैं, पर साधक को इतना तो ध्यान में रखना ही चाहिए, कि वेदों में कोई ऐसा देवी देवता है ही नहीं, जो अपने मूल में सार्वभौम नहीं है, और जो उस विराट महाब्रह्म प्रजापति की अभिव्यक्ति नहीं है।

और इसी करणवश, उन गहरी साधनाओं में, समस्त वैदिक देवी देवता, साधक के पिंड और ब्रह्माण्ड, दोनो में ही एक साथ साक्षात्कार होते हैं।

जो भी देवी देवता ऐसे होते हैं, वो उस प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को दर्शाते हैं।

और इसीलिए, साधक के लिए, सभी वैदिक देवी देवता, उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति की ओर लेके जाने वाले मुक्तिमार्ग भी होते हैं। वैदिक वांगमय में, ऐसे ही देवी देवता होते हैं…, और कोई भी नहीं।

और यही कारण है, कि आत्ममार्ग के दृष्टिकोण से, समस्त वैदिक देवी देवता, उस साधक के ब्रह्मपथ के बिंदु भी होते हैं, जो उस साधक के पिण्ड रुपी शरीर के भीतर ही, उनके अपने अपने लोकों में निवास करते हैं।

इसलिए, साधक किसी भी वैदिक देवी देवता को इष्ट स्वरूप में धारण कर सकता है, क्योंकि ऐसा करने पर, वो साधक, उसी देवी या देवता के मार्ग में होता हुआ भी, अंततः वो साधक, उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति को, अपने आत्मस्वरूप में ही पाएगा।

विभिन्न मार्गों में, उसी प्रजापति को, श्रीमन नारायण, पंच ब्रह्म, पंच मुखा सदाशिव, पंच मुखा शिव, विराट महाब्रह्म, महाब्रह्म, शून्य अनंत, शून्य ब्रह्म, और विश्वकर्मा, इतियादि नामों से पुकारा गया है। ये सभी देवी देवता, उसी प्रजापति की अभिव्यक्ति हैं। मैं ऐसा ही मानता हूं…, क्योंकि अपने साक्षात्कारों से, मैं ऐसा ही जानता हूं।

और यदि कोई मेरी इस बात से सहमत नहीं है, तो उससे अभी ही कहता हूं, तू अपना मान, और मैं अपना मानता हूं, लेकिन अंततः, तू भी वहीँ जाएगा, जहां मैं अब खड़ा हो चुका हूं।

और ऐसा कहने का कारण है, कि इस जीव और जगत, दोनो की ही अंतगति में, वही विराट महाब्रह्म प्रजापति मिलते हैं…, क्यूंकि अंतगति में कोई और है भी तो नहीं।

साधकों के मार्ग पृथक हो सकते हैं, ग्रंथ पृथक हो सकते हैं, गुरु पृथक हो सकते हैं, वंश और परंपराएं पृथक हो सकती हैं, देवी देव भी पृथक हो सकते हैं, लेकिन इन सब द्वैतवादों से परे, उस अंतगति में, साधक उसी विराट महाब्रह्म प्रजापति को ही पाएगा, क्यूंकि उस अंतगति में, कोई और अंत है भी तो नहीं।

और इसका कारण है, की, रचना स्वरूप में रहकर, रचना ही होकर, अपने रचैता के पास ही तो लौटोगे ना?। और कहां लौट सकते हो?, … थोड़ा सोचो तो।

 

और आज के वेद मनीषियों को अब बोलता हूं…

कि तैंतीस कोटि देवी देवता में, ना 32वे देवराज इंद्र को उनके विशुद्ध स्वरूप में मानते हो, ना ही अंतिम, तैंतीसवे देवता, प्रजापति की ही उपासना करते हो, तो कौन है इस समस्त विश्व में, जो तुम्हें तुम्हारा उचित स्थान दिलवाएगा… इन दोनो के सिवा, तुम्हारा कोई और है भी तो नहीं।

क्योंकि तुमने इन्हें माना ही नहीं, इसलिए इस कलियुग के छोटे से कालखंड में ही, तुम्हारा पतन होता ही चला गया। स्वतंत्र भारत में भी तुम्हारा क्या स्थान है…, थोड़ा सोचो तो।

आज तो तुम्हारे अपने मठ और मंदिर भी तुम्हारे नहीं।

लेकिन मेरी एक बात और याद रखना, कि अब कुछ ही वर्षों में, सनातन अपने वास्तविक स्वरूप में लौटने वाला है, क्योंकि गुरुयुग, जो आम्नाय पीठ का युग होता है…, वो आने वाला है।

और मेरी एक बात और याद रखना, कि तुम्हारे समान, सनातन कभी भी लुल्लपुल होके नहीं आता है। सनातन सदैव ही करोडो सिंघों की दहाड़ के साथ आता है।

मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण है, क्यूंकि मैं योगभ्रष्ट हूँ, और प्रबुद्ध भी हूँ…, सनातन ऐसे ही आया था।

और इस बार भी ऐसे ही आएगा…, क्यूंकि सनातन के लौटने का और कोई मार्ग है भी तो नहीं।

जहाँ तक गुरुयुग के लौटने का प्रश्न है, उस विश्वव्यापी दहाड़ के सिवा, अब और कोई विकल्प है भी नहीं।

यदि अभी विशवास नहीं हो रहा, तो आगामी वर्षों में स्वयं ही देख लेना, जब वो दहाड़ कई जीवों की काया के भीतर और बाहर…, दोनों से ही सुनाई देगी।

 

असतो मा सद्गमय।

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