अघोर ब्रह्म, गुरुपिता अहम्, अहम् नाद, अहंकार, सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख, महादेव, अहम् ब्रह्मास्मि, अहम् अस्मि, नील सरस्वती, माँ गायत्री का नीला मुख

अघोर ब्रह्म, गुरुपिता अहम्, अहम् नाद, अहंकार, सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख, महादेव, अहम् ब्रह्मास्मि, अहम् अस्मि, नील सरस्वती, माँ गायत्री का नीला मुख

इस अध्याय में अघोर ब्रह्म, जिनका शब्द अहम् है, अर्थात अहम् शब्द या अहम् नाद है, उनकी बात होगी I पंच ब्रह्मोपनिषद् में यही अघोर नामक ब्रह्म कहलाया था I उस पञ्चब्रह्मोपनिषत् का ज्ञान भी मैंने ही एक पूर्व जन्म में, मेरे उस समय के गुरुदेव, महादेव से लेकर दिया था, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला अघोर मार्गी, लेकिन वैष्णव योगी था I राजयोग में, पाशुपत मार्ग में, पञ्चमुखा सदाशिव के साक्षात्कार में, राजयोगियों ने इसे ही सदाशिव का अघोर मुख कहा है I और इस अघोर नामक ब्रह्म की दिव्यता को ही नीला सरस्वती या नील सरस्वती कहते हैं I पञ्च मुखा गायत्री (अर्थात वेदमाता देवमाता माँ गायत्री) के ज्ञान के अंतर्गत, इसी अघोर की दिव्यता को माँ पञ्च मुखी गायत्री का नीला मुख भी कहा जाता है I

वैसे अघोर को मैं गुरुपिता अहम् के नाम से भी पुकारता हूँ, क्यूंकि मेरे इस जन्म के मार्ग में अघोर से ही मेरा ब्रह्मपथ प्रारम्भ हुआ था, और यही अघोर मेरे उत्कर्ष मार्गों के अधिकांश बिन्दुओं में भी बसे हुए हैं I

इस अघोर नामक ब्रह्म का नाता कई सारे मार्गों से है, जिनमें से कुछ को ही यहाँ पर बताया जाएगा I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007 – 2008 ईसवी का है I पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सत्रहवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का तीसरा अध्याय है।

 

अघोर ब्रह्म, अहम् नाद, अहंकार, सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख
अघोर, अघोर ब्रह्म, गुरुपिता अहम्, अहम् नाद, अहंकार, सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख, महादेव, अहम् ब्रह्मास्मि, अहम् अस्मि, नील सरस्वती, माँ गायत्री का नीला मुख

 

पंचब्रह्म साक्षात्कार का आधार देवीगण हैं, … पंचब्रह्मोपनिषद साक्षात्कार का आधार पांच देवियां हैं, … पञ्च ब्रह्मोपनिषद और पञ्च मुखा गायत्री, …

एक मध्यान (अर्थात दोपहर) के समय, मैं अपने शयन कक्ष (कमरे) में, जो मेरा साधना कक्ष भी रहा है, उसमें ही बैठा हुआ था, और ऐसी दशा में मुझे अकस्मात् निद्रा आने लगी I तो मैं अपनी शय्या पर लेट गया I

लेटते ही नेत्र बंद हुए और मुझे कुछ स्त्रियाँ आपस में बात करती हुई सुनाई देने लगी I मुझे वो स्त्रियाँ दिखाई तो नहीं दे रही थीं, लेकिन उनके शब्द मुझे सुनाई दे रहे थे I तो विश्राम करते करते मैं उनके शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनने लगा I

तब मुझे पता चला, कि वो सभी स्त्रियाँ मेरे बारे में ही बात कर रही थीं I मैं शय्या पर ही लेटा रहा और उनकी बातों को सुनता गया I

ऐसा करते करते, कुछ ही समय में, मेरे मन स्थिर हो गया, चित्त शांत हो गया, बुद्धि उन शब्दों में ही खो गई, और अहम् निरर्थक हो गया I

उस समय मैंने देखा, कि प्राण भी अपनी कम्पन कम करे हुए हैं, और स्वयं ही स्वयं में मस्त हाथी के समान, मेरे प्राणमय कोष में ही धीरे धीरे रमण कर रहे हैं… उन प्राणों का जो पूर्व का तेजस्वी वेग था, वो शांत सा हो गया है I

जब किसी योगी के प्राणों का तवस्वी वेग शांत हो जाता है, तो उस योगी पर त्रितापों का प्रभाव भी लगभग समाप्त सा ही हो जाता है I

ऐसी दशा में मैंने सुना, कि वो स्त्रियाँ अभी भी मेरे बारे में ही बात कर रही थीं…, और करती ही जा रही थीं I

लेकिन आँख खोल के मुझे वो स्त्रियाँ उस कमरे में दिखाई नहीं दे रही थी I और मुझे ऐसा आभास भी हुआ कि वो पांच स्त्रियाँ थी, जो मेरे ही कमरे में, अपने सूक्ष्म रूप में आयी थीं और मेरे बारे में ही बात कर रही थी I

हो सकता है की वो स्त्रियाँ पञ्च विद्या सरस्वती ही थीं…, लेकिन मैं इस बिंदु को दृढ़तापूर्वक पूर्वक नहीं कह सकता हूँ, क्यूंकि मुझे वो दिखाई नहीं दी थीं, बल्कि मैंने तो केवल उनके शब्द ही सुने थे I

और यह भी हो सकता है, कि वो स्त्रियों के शब्द, पञ्च मुख गायत्री के पाँच मुखों से सम्बंधित थे…, लेकिन मैं इस बात को भी दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकता, क्यूंकि मुझे वो स्त्रियाँ दिखाई नहीं दे रही थीं…, और तब भी अपने नेत्र बंद करके, उस शय्या पर लेटे हुए, मैं उनकी बातें सुन रहा था जो मेरे बारे में ही थी I

वैसे जिस कक्ष में मैं रहता हूँ और अपनी साधनाए करता हूँ, उसमे कोई भी खिड़की नहीं है, और मेरा दरवाजा बंद ही रहता है I और वो कक्ष भी घर के मध्य में है, जिसके कारण बाहर की कुछ भी ध्वनि उसके अंदर नहीं आ सकती, इसलिए वो कक्ष एकदम शांत स्थान है I

तो यह था वो आधार जिससे इस पंचब्रह्म मार्ग की श्रंखला के साक्षात्कार का पथ निकला था I

इसलिए, वो पांच अदृश्य स्त्रियाँ, जिनकी बातें मैं सुन रहा था, इस साक्षात्कार का आधार हैं और मार्ग भी हैं…, मैं ऐसा ही मानता हूँ I

 

अघोर के चित्र का वर्णन, … अघोर, अघोर ब्रह्म, अहम् नाद, अहंकार, सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख, अघोर नामक ब्रह्म, … नीला सरस्वती, नील सरस्वती, माँ गायत्री का नीला मुख, …

शय्या पर ही लेटे हुए जब अन्तःकरण और प्राण शांत हो गए, तो कुछ ही समय में वो नीले रंग का सूक्ष्म शरीर मेरे स्थूल शरीर से बाहर निकला और उसने अपनी गति पकड़ ली…, किसी अज्ञात दिशा की ओर I

यह नीले रंग का सूक्ष्म शरीर भी इस चित्र के दाईं ओर दिखाया गया है I और इस सूक्ष्म शरीर की गमन प्रक्रिया के बारे में इस अध्याय से पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

जब वो सूक्ष्म शरीर मेरे स्थूल शरीर से बाहर निकल ही रहा था, तो मुझे उन स्त्रियों के जो शब्द सुनाई दिए, उन शब्दों में वो स्त्रियां आपस में मेरे बारे में ही बातें कर रही थी, जो कुछ ऐसी थीं…,

ओह, देखो वो बाहर निकल रहा है I

ओह, देखो वो बाहर निकल गया है I

ओह, देखो, वो हमारा कितना प्यारा पुत्र है जो उस स्थूल शरीर से बाहर निकला है I

स्थूल शरीर से बाहर निकल के, वो सूक्ष्म शरीर एक नीले रंग की विशालकाय दशा में गया, जिसके नाद अहम् था, और जो पंचब्रह्मोपनिषद में अघोर ब्रह्म कहलाया था और जिसको सदाशिव का अघोर मुख भी कहा जाता है I

इन सबके अतिरिक्त, कश्मीरी पंडितों के शैव मार्गों में, यही शिव का अघोर मुख भी कहलाया था I

इस अघोर की मूल दिव्यता को नील सरस्वती (या नीला सरस्वती) भी कहते हैं, जो शिवानुजा हुई थीं और जो माँ गायत्री के पाँच मुखों में से, उनका नीला मुख भी कहलाता है I

पञ्च मुखी गायत्री के पाँच मुखों में से जो दक्षिण दिशा को देखने वाला नीले रंग का मुख है, वो ही इस अध्याय की दिव्यता है I

 

स्थूल शरीर में अघोर का स्थान, … कपाल में अघोर साक्षात्कार का स्थान, …

साधक की कपाल में, जो अघोर साक्षात्कार का स्थान है, वो ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में है I

इसी स्थान पर अघोर और उसके अहम् नाद का साक्षात्कार होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

सप्त चक्रों में गायत्री विद्या सरस्वती के नीले मुख का जो स्थान है, वो विशुद्ध चक्र में होता है I इसलिए विशुद्ध चक्र (या कंठ कमल) में ही पञ्च मुखी गायत्री के नीले मुख का साक्षात्कार होता है I

और इस साक्षात्कार के आगे जब साधक की चेतना जाती है, तो वो चेतना साधक के कपाल में जाकर, अघोर ब्रह्म और माँ गायत्री सरस्वती के नील सरस्वती स्वरूप की योगावस्था को साक्षात्कार करती है I

 

अघोर मार्ग और द्वैतवाद से मुक्ति, … अघोर का अद्वैत स्वरूप, …

अघोर में कुछ भी द्वैतवाद नहीं होता I

अघोर में तो वो द्वैतवाद भी नहीं होते जिनको मूलद्वैत भी कहा जा सकता है, जैसे ब्रह्म की रचना और ब्रह्म, बंधन और मुक्ति, उचित और अनुचित, पुरुष और स्त्री, इत्यादि I

अघोर, इन सभी द्वैतवादों और ऐसे सभी द्वैतवादों से परे जाने का मार्ग भी है I

जो योगी अघोर में विलीन हो गया, वो किसी भी द्वैतवाद में नहीं जाएगा I

लेकिन अघोर सिद्ध योगी इन द्वैतवादों में जा भी सकता है, जब उसको इनमे पड़ने से किसी का उद्धार प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा…, अन्यथा नहीं I

 

अघोर और त्रिगुण, … अघोर से त्रिगुण साक्षात्कार, …

ऊपर दिखाए गए अघोर के चित्र में कई रंग है I उन रंगों में से, तीन रंग त्रिगुणों के सूचक हैं I इन त्रिगुणों का साक्षात्कार भी अघोर में हो सकता है I

इस चित्र में जो रंग दिखाए गए हैं, अब उनको बतलाता हूँ …

  • नीला रंग यह प्रकृति के आठवें कोष, अर्थात अपरा प्रकृति का सबसे ऊपर का कोष है I

यह नीला रंग तमोगुण को भी दर्शाता है, लेकिन इस दशा में वो तमोगुण विशुद्ध होता है I इसी विशुद्ध तमोगुण में ही ब्रह्म ने अपनी रचना को बसाया हुआ है I

यदि रचना को किसी और गुण में बसाया जाता, तो उस रचना में स्थिरता ही नहीं आती I

यह नीला रंग तामसिक अहंकार का वाचक है I

  • लाल वर्ण यह रंग अपरा प्रकृति के सातवें कोष को दर्शाता है और रजोगुण को दर्शाता है I

यह लाल वर्ण राजसिक अहंकार का वाचक है I

  • श्वेत वर्ण यह रंग, सगुण निर्गुण ब्रह्म का वाचक है और प्रकृति के नवम कोष, अर्थात सात्विक प्रकृति या परा प्रकृति को दर्शाता है I

यह श्वेत वर्ण सत्त्वगुण को भी दर्शाता है और इसे सात्विक अहंकार भी कहा जाता है I

इसलिए अघोर से त्रिगुणों का साक्षात्कार भी संभव होता है, जिसके कारण अघोर मुख, त्रिगुण साक्षात्कार का मार्ग भी है I

 

ब्रह्माण्ड में अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्भव और पुनर्विस्तार, … अघोर और त्रिगुणों का पुनर्विस्तार, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्गम और पुनर्विस्तार, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्गम, … अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम, अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम और पुनर्विस्तार, … त्रिगुणों का पुनरुद्भव. त्रिगुण का पुनरुद्गम, …

अघोर से त्रिगुण का उद्भव, अघोर से त्रिगुण पुनरुद्गम, त्रिगुणों का पुनरुद्भव
ब्रह्माण्ड में अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्भव और पुनर्विस्तार, अघोर और त्रिगुणों का पुनर्विस्तार, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्गम और पुनर्विस्तार, अघोर और त्रिगुणों का पुनरुद्गम, अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम, अघोर से त्रिगुण का पुनरुद्गम और पुनर्विस्तार, त्रिगुणों का पुनरुद्भव. त्रिगुण का पुनरुद्गम

 

अब अघोर मुख और ब्रह्माण्ड में त्रिगुणों के उद्भव और विस्तार के बारे में बताता हूँ I इसलिए इस चित्र को देखो क्यूंकि यह इस बताई गई दिशा का ही है I

ब्रह्माण्ड में त्रिगुणों का उद्भव और विस्तार (या फैलाव) भी अघोर से ही होता है I

लेकिन यह उद्गम और विस्तार प्रत्येक समय में नहीं होता है, बल्कि पृथ्वी के एक अग्रगमन चक्र में (अर्थात पृथ्वी के एक विषुव पूर्वगमन चक्र में) बस दो ही बार होता है I

तो अब इसकी समय गणना को बताता हूँ …

लेकिन यह गणना पृथ्वी के विषुव पूर्वगमन चक्र की पाताला इकाई में की गई है, क्यूंकि अभी के समय पर मुख्य रूप में यही इकाई लागू होती है I

  • सत्ताईस नक्षत्र होते हैं I
  • बारह राशि होती हैं I
  • दो पक्ष होते हैं, जो कृष्ण और शुक्ल पक्ष कहलाते हैं I
  • चार पाद होते हैं I
  • और दस दिशाएँ होती हैं I

अब इन सबको आपस में गुणा कर दोगे, तो पृथ्वी के विषुव पूर्वगमन चक्र की समय सीमा पाताल की इकाई में मिल जाएगी I

27 x 12 x 2 x 4 x 10 = 25,920 वर्ष …

लेकिन यह तो विषुव पूर्वगमन चक्र की पाताल की इकाई है, न की वैदिक इकाई I तो अब इसी को वैदिक इकाई की गणना में लेकर जाते हैं …

(25,920 / 72) x 66.66666667 = 24,000 वर्ष …

इन चौबीस हजार वर्षों में, दो मानव युग चक्र होते हैं, इसलिए अब एक मानव युगचक्र की समय सीमा की गणना करता हैं …

24,000 / 2 = 12,000 वर्ष …

युगचक्र के बारे में यही 12,000 वर्षों का अंक ही तो वैदिक शास्त्रों में भी कहा गया है I

और जब 12,000 वर्ष समाप्त हो रहे होते हैं, तब ऐसे समय के समीप ब्रह्माण्ड में एक बार त्रिगुणों का पुनरुद्भाव और पुनर्विस्तार भी होता है I

और अभी के समयखण्ड में, ऐसा हो भी रहा है I

और आज की इकाई में, यही गणना की समय सीमा ऐसी हो जाएगी …

(25,920 / 72) x 71.6 = 25,776 वर्ष …

इस पृथ्वी के समीप के ब्रह्माण्ड में (अर्थात अंतरिक्ष में), इसके आधे समय में (अर्थात 12,888 वर्षों में), त्रिगुणों का पुनरुद्भव और पुनर्विस्तार होता ही है I

और अभी का काल खंड इस प्रक्रिया का भी है I

 

अघोर से गुणों की स्वयं स्थिति, … ब्रह्माण्ड में गुणों की स्वयं स्थिति, …

त्रिगुण होते है, जो रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण कहलाते है और जो समस्त जीव जगत का आधार भी होते हैं I

जब ब्रह्माण्ड की रचना हो रही थी, तो प्रकृति के प्रादुर्भाव के समय पर, त्रिगुण भी उत्पन्न हुए थे I इसलिए जैसे ऊर्जा स्वरूपी प्रकृति भी ब्रह्म है, वैसे ही गुण भी ब्रह्म ही हैं I

पुरातन समय में, मेरे उन पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं क्यूंकि में प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, इसी बिंदु के ज्ञाता योगीजन, गुणब्रह्म का वाक्य बतलाते थे I

जब त्रिगुण स्वयंउत्पन्न हुए थे, तब सबसे पहले सत्त्वगुण का प्रादुर्भाव हुआ था, जो अतिसूक्ष्म श्वेत वर्ण के मेघ के समान था और जिसकी दिव्यता (या शक्ति) को ही अदिशक्ति कहा गया था I

और ऐसे समय पर, ब्रह्मा भी सत्त्वगुणी ही थे, क्यूंकि उनकी प्रजापति रूपी अवस्था, उनके अपने विशुद्ध सत्त्व स्वरूप में ही बसी हुई थी I विशुद्ध सत्त्व का रंग हीरे के समान प्रकाशमान होता है और यह रंग, प्रजापति की सर्वसमता को भी दर्शाता है I

इसी सर्वसमता में बसे होने के कारण, उन प्रजापति ने समस्त द्वैतवादों को उत्पन्न करके भी, उन द्वैतवादों को धारण नहीं किया था I इसका कारण है, कि यदि कुछ भी सर्वसमता से टकराएगा, तो वो भी सर्वसमता को धारण कर लेगा I

इसलिए ब्रह्माण्ड की रचना के समय पर प्रजापति से उत्पन्न हुए समस्त द्वैतवाद, उन प्रजापति को छू भी नहीं पाए क्यूंकि जैसे ही वो द्वैतवादी सत्ताएँ प्रजापति के समीप आती थी, वैसे ही वो द्वैतवादी सत्ताएँ, प्रजापति की ही सर्वसमता को पा जाती थी जिसके पश्चात, वो उनके पूर्व के द्वैतवाद को धारण करके भी नहीं रख पाती थीं I

ऐसी सर्वसम दशा में, उन प्रजापति से मन उत्पन्न हुआ, जो उनके समान ही हीरे के समान प्रकाशमान था I उन प्रजापति से चित्त उत्पन्न हुआ, जो खुरदरे श्वेत वर्ण का था और सत्त्वगुण को धारण किए हुआ था और उत्पत्ति के समय पर, उस चित्त ने कोई संस्कार भी धारण नहीं किया हुआ था इसलिए वो संस्कार रहित होने के कारण,  अतिसूक्ष्म ही था I और तब उन विशुद्ध सत्त्व रूपी प्रजापति से ज्ञान उत्पन्न हुआ, जो पीले वर्ण का था I और इसके पश्चात ही उन प्रजापति से अहम् उत्पन्न हुआ, जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का मूल बना था और जिसका मूल विशुद्ध स्वरूप अघोर कहलाया था I

इसीलिए अन्तःकरण चतुष्टय की उदयावस्था में, मन का प्रादुर्भाव प्रारम्भ में हुआ था, और अहम् का प्रादुर्भाव, अंत में ही हुआ था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और यह सब, उस प्रजापति की प्राणशक्ति से ही चलायमान थे, जो रजोगुणी (अर्थात लाल वर्ण) की थी, और सत्त्वगुणी (अर्थात श्वेत वर्ण) की भी थी, इसलिए उनकी प्राण शक्ति हलके गुलाबी वर्ण की थी, और यही अव्यक्त कहलाई थी, जिसने उन प्रजापति के हीरे के समान लोक (अर्थात ब्रह्मलोक) को भी घेरा हुआ था, अर्थात छुपा कर रखा हुआ था और इसीलिए, यह ब्रह्माण्ड उत्पत्ति की प्रक्रिया भी गुप्त में ही चल रही थी I

इसी अव्यक्त से गुलाबी वर्ण का व्यान प्राण स्वयंउत्पन्न हुआ था जो बाहर को लेके जाने वाला था, और इसीलिए व्यान प्राण से ही उस बिन्दु रूपी सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड का फैलाव हुआ था I

यह सभी दशाएं ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व में ही संपन्न हुई थी I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब पीले वर्ण के ज्ञान ने हीरे के समान सर्वसम चतुर्मुखा प्रजापति के रंग से योग किया, तो सुनहरे वर्ण का हिरण्यगर्भ स्वयंउत्पन्न हुआ था I

उस हिरण्यगर्भ में, श्वेत वर्ण का समस्त संस्कारों से रहित चित्त, पीले वर्ण के ज्ञान से सूक्ष्म था, इसलिए चित्त ज्ञान के भीतर था, और जिसके कारण वो पीले वर्ण का ज्ञान, सुनहरे वर्ण का प्रतीत हो रहा था I वैदिक वाङ्मय में इसी सुनहरे वर्ण के अंडरूप को हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा गया था, जिसके भीतर समस्त जीव जगत बसाया गया है I यही कारण है की वेद मनीषी कह गए…, ब्रह्म के गर्भ में समस्त जीव जगत बसाया गया है I

जब ऐसा हुआ, तब उनहिरण्यगर्भ ने रजोगुणी होकर ही इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया था I और उनका यह रजोगुणी स्वरूप ही वो कार्य ब्रह्म कहलाया था, जिसका नाद उकार (या ओकार) था I

जब उन रजोगुणी ब्रह्मा (अर्थात कार्यब्रह्म) ने, अपना रजोगुण उस सूक्ष्म ऊर्जावान प्रकृति में व्याप्त किया, तो रजोगुण की ऊर्जाएं आपस में टकराई थी I

जैसे ही रजोगुणी ऊर्जाएं आपस में टकराई थी, वैसे ही उनकी गति स्तम्भित हुई थी, जिससे तमोगुण का प्रादुर्भाव हुआ था I

इसलिए, गुणों में तमोगुण का प्रादुर्भाव अंत में हुआ था I

और तमोगुण की उत्पत्ति के पश्चात, जब लाल रंग के रजोगुण का नीले रंग के तमोगुण से योग हुआ, तो बैंगनी वर्ण के आकाश का प्रादुर्भाव हुआ था I

यही बैंगनी वर्ण का आकाश, वो ब्रह्माण्डीय आकाश कहलाया था, जिसने पांच महाभूतों में अपना स्थान पाया था, और जिसके भीतर आगामी समय में, अन्य चार महाभूतों सहित, जीव जगत का समस्त बिन्दुओं को बसाया गया था I

इसलिए, पञ्च महाभूत में आकाश महाभूत का प्रादुर्भाव प्रारम्भ में हुआ था I

 

इसलिए…,

  • गुणों की सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, यह समस्त सृष्टि के सबसे समीप तमोगुण है, जिसका नाद अहम् है, और जिसके कारण पुरातन कालों में सृष्टि को तमोमयी कहा गया था…, महत अहंकारिका भी कहा गया था I

तमोगुण जो स्थिति को दर्शाता है, उसमें ही समस्त सृष्टि को बसाया गया था, क्यूंकि उत्पत्ति से पूर्व और पश्चात यदि स्थिति नहीं होगी, तो वो उत्पत्ति ही नष्ट हो जाएगी, जिसके कारण वो उत्पन्न हुई सृष्टि सनातन कालों तक स्थापित भी नहीं रह पाएगी I

इसीलिए, अघोर जिसका कृत्य संहार है, उसको भी नीले वर्ण के तमोगुण में ही बसाया गया था, नहीं तो वो संहार करता ही रहता जिसके कारण, ब्रह्म की रचना भी ब्रह्म के समान सनातन नहीं होती I

यदि ऐसा नहीं होता, तो जैसे ही ब्रह्माण्ड (या ब्रह्माण्ड में) कुछ भी उत्पन्न किया जाता, वैसे ही अघोर उसका संहार कर देता I

इसको रोकने के लिए ही, अघोर को तमोगुण में बसाया गया था I

  • महाभूतों की सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, समस्त जीव जगत पृथ्वी महाभूत में बसा होने पर भी, वास्तव में आकाश महाभूत में ही बसा हुआ है I

इसका कारण है, कि आकाश महाभूत सबसे पहले आया था और आकाश महाभूत से ही, क्रम से वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत और पृथ्वी महाभूत का प्रादुर्भाव हुआ था I

इन पाँच महाभूतों में से आकाश सबसे अधिक सूक्ष्मता को धारण किया हुआ था, और पृथ्वी सबसे न्यून सूक्ष्मता को धारण की हुई थी I

इसलिए, सबकुछ पृथ्वी में बसा होने पर भी, महाभूतों की सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, आकाश महाभूत में ही बसा हुआ है I

  • अन्तःकरण चतुष्टय के दृष्टिकोण से, यह समस्त सृष्टि मन में ही बसी हुई है, जिसके कारण पुरातन कालों में वेद मनिषियों ने सृष्टि को मनोमय कहा था, ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न कहा था (क्यूंकि इच्छा भी तो मन में ही होती है) और ब्रह्म का स्वप्न भी कहा था (स्वप्न का मूल भी तो मन ही होता है) I

यह भी वो कारण है, की स्वप्नावस्था का साक्षात्कारी साधक, निर्जर और निरोग ki अवस्था में ही रहता है क्यूंकि स्वप्नावस्था सृष्टि से भी पूर्व की दशा है, जिसमे त्रिताप होते ही नहीं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

समस्त सृष्टि जो त्रिगुणों में ही बसाई गई है, उनमें …

  • नील वर्ण का तमोगुण, स्थिरता लाता है I
  • लाल वर्ण का रजोगुण, अस्थिरता लाता है I
  • श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण, समता लाता है I

उत्पत्ति के दृष्टिकोण से, सत्त्वगुण मूल गुण था, जिसके एक ओर रजोगुण स्वयंउत्पन्न हुआ था, और दूसरी ओर तमोगुण स्वयंउत्पन्न हुआ था I

 

और आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ब्रह्माण्ड में गुणों की स्वयं स्थिति के दृष्टिकोण से जो होता है, वो अब बताता हूँ, इसलिए इसपर थोड़ा ध्यान देना …

  • जब तमोगुण और सत्त्वगुण का योग हुआ, तो गुलाबी वर्ण की अव्यक्त प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ और यही अव्यक्त प्रकृति, ब्रह्म की अर्धांगनी, माया देवी कहलाई थी I

इन्ही माया शक्ति से समस्त जीव जगत अज्ञान में बसकर चलित रहता है, क्यूंकि यदि किसी ने सत्य जो जान लिया, तो वो जीवातीत और जागतातीत हो जाएगा और मुक्त होके ब्रह्म में ही विलीन होके, ब्रह्माण्ड का नहीं रह पाएगा I इसलिए जीव जगत के चलित और स्थापित रहने का आधार माया ही हैं I

  • जब तमोगुण का रजोगुण से योग हुआ, तो बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत स्वयंउत्पन्न हुआ I

महाभूतों के दृष्टिकोण से, आकाश ही वो महाभूत है, जिसमे जीव और जगत बसाया गया था I

  • जैसे पूर्व में बताया था, कि जब रजोगुण की गति स्तम्भित हुई, तो तमोगुण का प्रादुर्भाव हुआ था I

ऐसे समय पर जब यह दोनों गुणों के बिंदु एक दुसरे से पृथक थे, और एक दुसरे के समीप ही थे, तब इन दोनों के एक दुसरे से विपरीत होने के कारण, इनके मध्य में श्वेत वर्ण की समता का प्रादुर्भाव हुआ था, जो सत्त्वगुण को दर्शाती थी I ऐसा होने पर, इन दोनों की मध्य दशा समता को पाई थी, और उस समता में जो श्वेत वर्ण का प्रकाश था, वो ही सत्त्वगुण था I

 

तो अब ध्यान देना क्यूँकि अब मैं गुणों की स्वयं स्थिति को बता रहा हूँ …

  • प्रादुर्भाव के समय, सत्त्वगुण प्रारंभिक गुण था, और उसके एक ओर रजोगुण था और दूसरी ओर तमोगुण I
  • लेकिन इनके स्वयंप्रादुर्भाव के पश्चात, यह दोनों गुण अपनी दशाओं (या मात्राओं) में एक दूसरे के एकदम समान नहीं थे…, कभी रजोगुण बढ जाता था और कभी तमोगुण I
  • यदि रजोगुण बढ़ता था, तो उसकी ऊर्जाए आपस में अधिक टकराती थी, और उनकी गति रुक जाती थी, जिससे अधिक मात्रा में तमोगुण स्वयंउत्पन्न हो जाता था I इसलिए ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के पश्चात, उस ब्रह्माण्ड में, रजोगुण और तमोगुण आपस में एक दुसरे के सन्तुलक भी थे I
  • उत्पत्ति के पश्चात, जब रजोगुण और तमोगुण के बिन्दु एक दूसरे के समीप होते हैं, तो इनके एक दुसरे से विपरीत होने के कारण, उनके मध्य में सत्त्वगुण (अर्थात समतावादी गुण) स्वयंप्रकट होता है, जिससे वो दोनों एक दुसरे के विरोधी भी नहीं हो पाते हैं (जबकि यह रजोगुण और तमोगुण, एक दुसरे के विरोधी ही हैं) I
  • और जब यह रजोगुण और तमोगुण आपस में योग ही कर लेते थे, तब इनके योगावस्था से ही उस बैंगनी वर्ण के आकाश माणभूत का प्रादुर्भाव हो जाता है, जो ब्रह्माण्ड को उस “अनंत शून्य” में (“शून्य ब्रह्म” में जिसमें ब्रह्माण्ड बस हुआ ही है) और अधिक फैलाता है, जिससे ब्रह्माण्ड का और भी अधिक विस्तार होता है I

इसलिए, ब्रह्माण्ड के फैलाव के कारण से, गुण ही उस फ़ैलाव के मूल हैं और उस फ़ैलाव की गति के सन्तुलक भी हैं I

  • और जैसे ही सत्त्वगुण अधिक होता है, वैसे ही उसकी दोनों ओर से तमोगुण और रजोगुण स्वयं उत्पन्न होते है I इसलिए उत्पत्ति के दृष्टिकोण से, त्रिगुण ही एक दुसरे के सन्तुलक हैं I

 

इसीलिए,

  • त्रिगुण से ब्रह्माण्ड स्वयंउत्पन्न हुआ, जो त्रिगुणों में ही बसा हुआ था और त्रिगुण ही उसके सन्तुलक भी थे I
  • और इसके साथ साथ, वो ब्रह्माण्ड अपनी गति से और समय समय पर, त्रिगुणों को पुनरुद्भासित और पुनर्संतुलित करने में भी सक्षम था (जैसे पूर्व में भी बताया गया है) I
  • और क्यूँकि ब्रह्म की रचना के मूल में त्रिगुण ही हैं, इसीलिए त्रिगुण स्वयं स्थिति को भी दर्शाते हैं I और ब्रह्माण्ड की वो स्वयंस्थिति भी त्रिगुणात्मक ही है I
  • इसलिए, इस ग्रन्थ का मूल मार्ग, को स्वयं ही स्वयं में, ऐसा कहा गया है, वो त्रिगुणों के और उनकी प्रक्रिया के साक्षात्कार का भी है I

यही त्रिगुण अघोर के चित्र में भी स्पष्ट रूप में दिखाए गए हैं I

लेकिन यह ज्ञान अभी अधूरा है, इसलिए यदि मैंने किसी बाद के अध्याय में ब्रह्माण्ड उत्पत्ति को बताया, तो इस अधूरे ज्ञान को भी पूर्णता के समीप लेकर जाऊँगा I

लेकिन इतना इधर बता देता हूँ, कि इन तीनों गुणों का अघोर में साक्षात्कार हो सकता है, जिसके कारण अघोर मूल रूप से नीले तमोगुण में बसा होने पर भी, वास्तव में त्रिगुणात्मक ही है I

और यही कारण है, कि अघोर से भी, गुणातीत अवस्था को पाया जा सकता है I

 

और इस भाग के अंत में …

क्यूंकि पञ्च ब्रह्म में अघोर का प्रादुर्भाव अंत में ही होता है, इसलिए अघोर ही पूर्ण होता है I यह भी वो कारण है कि पञ्चब्रह्म के दृष्टिकोण से, इस समस्त सृष्टि को अघोर में ही बसाया गया है I

 

अघोर और प्रकृति का आठवां कोष, … अघोर और अपरा प्रकृति, … अघोर और परा अपरा प्रकृति, …

ब्रह्माण्ड की जो सार्वभौमिक शक्ति है, उसको ही अपरा प्रकृति कहा जाता है, जिसमे प्रकृति, अर्थात ब्रह्म शक्ति के नीचे के आठ कोष होते हैं, और इन आठ कोशों में से, सबसे ऊपर का कोष, अघोर शक्ति का ही है I

इसलिए ब्रह्माण्ड की यह अपरा प्रकृति नामक सार्वभौम शक्ति, अघोर ब्रह्म की ही है I ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से अपरा प्रकृति से बड़ी और विध्वंसक कोई शक्ति नहीं है I

अघोर ही प्रकृति का आठवाँ कोष है, जिसका साक्षात्कार प्रकृति के नीचे के सात कोषों को पार करके ही होता है I

इसका अर्थ हुआ, कि अघोर ही अपरा प्रकृति के आठ कोशों में से अंतिम या आठवाँ कोष है I इसलिए जिस साधक ने अघोर का साक्षात्कार किया है, वो साधक अपरा प्रकृति सिद्ध भी होता है I

क्यूंकि अघोर अपरा प्रकृति का अंतिम (या आठवाँ) कोष है, इसलिए जो साधक अघोर साक्षात्कारी होगा, उसने अपरा प्रकृति के आठों कोशो को सिद्ध भी किया ही होगा I

ब्रह्म की रचना, अर्थात ब्रह्माण्ड में, अपरा प्रकृति ही शक्ति होती है I इसलिए जिस साधक ने अघोर को सिद्ध किया है, वो अपने योगमार्ग के अनुसार शैव और शाक्त दोनों ही होगा I

ब्रह्माण्ड में अपरा प्रकृति ही शक्ति होती है, या यह कहूँ की अपरा से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती है, इसलिए जिस साधक ने अघोर साक्षात्कार करा होगा, वो ब्रह्मांडीय शक्ति का धारक भी होगा ही I

और क्यूंकि ब्रह्मांडीय शक्ति को ही माँ भारती कहते हैं, इसलिए ऐसा साधक भारती सरस्वती का भी ज्ञाता और धारक होगा, और जहाँ वो भारती विद्या (या भारती विद्या सरस्वती) भी उस साधक की काया के भीतर, साधक के मूलाधार चक्र से लेकर मणिपुर चक्र तक, ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर, दोनों दिशाओं में नित्य चलायमान होंगी I

 

अघोर और ज्ञान, … अघोर ब्रह्म और ज्ञान, … सदाशिव का अघोर मुख और ज्ञान, … शिव का अघोर मुख और ज्ञान, …

जैसे पूर्व में बताया था, कि अघोर पूर्ण मुख है I

जो पूर्ण होता है, उसमें ही तो पूर्ण ज्ञान होता है I यही कारण है कि अघोर को ज्ञान से भी सम्बंधित किया गया है I

जबकि ज्ञान सद्योजात ब्रह्म का होता है, लेकिन तब भी यहाँ बताए गए कारणानुसार, अघोर को ही ज्ञान का धारक कहा गया है I

लेकिन अघोर से प्राप्त ज्ञान के दो प्रमुख प्रकार होते हैं …

  • ब्रह्मांडीय ज्ञान I
  • ब्रह्माण्ड से परे का ज्ञान I

ऐसा कहने का कारण है, कि कैवल्य मोक्ष और उसके मार्ग का ज्ञान, अघोर का अंग नहीं होता, क्यूंकि अघोर मार्ग में मुक्ति और बंधन दोनों का ही पूर्णाभाव सा होता है I

अघोर साधक न तो मुक्ति को पाएगा और न ही अपने पूर्व के या किसी और बंधन में ही रह पाएगा I अघोर साधक इन दोनों से ही परे चला जाता है I

अघोर सिद्ध योगी में न अहंता होती है, न अस्मिता, न हैता (या सर्वता) और न ही शून्यता…, अघोर सिद्ध योगी इन सबसे अतीत हो जाता है I

और ऐसा होने पर भी वो मुक्तात्मा नहीं कहलाता है, क्यूंकि उसको कैवल्य मोक्ष से कुछ भी लेना देना नहीं I

इस न लेने देने का कारण है, कि वो योगी इन दोनों को ही मिथ्या जानता है और रचना के मूल द्वैतवाद का अंग भी मानता है I

और क्यूँकि अघोर में द्वैतवाद का अंशमात्र भी नहीं होता है, इसलिए वो अघोर सिद्ध योगी, मुक्ति और बंधन, दोनों से और इन दोनों के सिद्धान्तों से ही अतीत हो जाता है I

 

अघोर सिद्ध योगी…,

  • अहंता को तमोगुण समाधि से पाता है…, और पाने के पश्चात उसको त्यागता भी है I
  • अस्मिता को रजोगुण समाधि से पाता है…, और पाने के पश्चात उसको त्यागता भी है I
  • हैता या सर्वता को सत्त्वगुण समाधि से पाता है…, और पाने के पश्चात उसको त्यागता भी है I
  • शून्यता को शून्य समाधि से पाता है…, और पाने के पश्चात उसको त्यागता भी है I

 

इसलिए, अघोर सिद्ध योगी …

  • अहंता को पाया हुआ होने के पश्चात भी, उस अहंता का नहीं होता I
  • अस्मिता को पाया हुआ होने के पश्चात भी, उस अस्मिता का नहीं होता I
  • हैता या सर्वता को पाया होने के पश्चात भी, उस हैता का नहीं होता I
  • शून्यता को पाया होने के पश्चात भी, उस शून्यता का नहीं होता I

 

जिसके कारण, अघोर सिद्ध योगी …

  • मैं-पन में होता हुआ भी, उसमें नहीं होता है I
  • उसपन में होता हुआ भी, उसमें नहीं होता I
  • इसपन मे होता हुआ भी, उसमें नहीं होता I
  • शून्यपन में होता हुआ भी, उसमें नहीं होता I

 

जिसके कारण, अघोर सिद्ध योगी कहता ही है…, कि …

मै हूँ, … पर नहीं भी हूँ I

मै नहीं हूँ…, पर तब भी हूँ I

 

ऐसा अघोर सिद्ध योगी कहेगा ही …

मैं मुक्त हूँ…, पर नहीं भी हूँ I

मैं बंधन में हूँ…, पर नहीं भी हूँ I

निर्गुण ब्रह्म का समान मैं पूर्णमुक्त हूँ I

उस निर्गुण ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों के समान मैं मुक्त नहीं भी हूँ I

 

वो अघोर सिद्ध योगी ऐसा भी जानेगा …

और वास्तव में मेरे न तो बंधन हैं और न ही मुक्ति…, मैं इन दोनों से परे ही हूँ I

बंधन और मुक्ति मेरे होते हुए भी…, मैं इनसे परे ही हूँ I

मेरे शरीर बंधन में है…, और अपने आत्मस्वरूप से में मुक्त ही हूँ I

मेरा न तो कोई मार्ग है, और ना ही नहीं ही है…, मैं मार्गातीत हूँ I

ऐसा होने से, मेरे न तो कोई कर्म हैं और न ही नहीं ही हैं…, मैं कर्मातीत हूँ I

और ऐसा होने से, मेरे न तो कोई फल हैं और न ही नहीं ही हैं…, मै फलातीत हूँ I

यही वो परमज्ञान है, जो अघोर नामक ब्रह्म के पूर्ण साक्षात्कार से प्राप्त होता है I और इसी के कारण, योगीजनों द्वारा अघोर को ज्ञान तत्त्व से भी जोड़ा गया था I

 

और अघोर सिद्ध योगी तो यह भी कहेगा …

मैं शिव हूँ, शक्ति हूँ, ब्रह्मा हूँ, विष्णु हूँ और गणपति भी हूँ I

मैं ब्रह्म हूँ और मैं ब्रह्म की रचना, ब्रह्माण्ड भी हूँ I

नहीं होता हुआ भी, मैं हूँ और होता हुआ भी, मैं नहीं हूँ I

इसलिए, अपने मूल, समस्ती और गंतव्य में, मैं हूँ और नहीं भी हूँ I

जब मैं ही सबकुछ हूँ, और मैं ही नहीं भी हूँ, तो मैं किसकी उपासना करूँ I

इसीलिए, मैं ही वो अघोर स्वरूप महादेव रुद्र हूँ, जो स्वयं ही स्वयं का उपासक है I

यही कारण है, कि मैं स्वयं ही स्वयं में गया हूँ…, और मेरा स्वयं ही सर्वस्वयं है I

 

यही कारण है, कि योगीजनों ने अघोर को महादेव और रूद्र के नामों से भी संबोधित किया था I

 

और अघोर सिद्ध योगी यह भी बोलेगा …

मैं ही वो परमज्ञान हूँ…, जो पूर्ण कहलाता है, और जो ब्रह्म का ही ज्ञानलिंग है I

मैं ही वो गुरु हूँ…, जिसका अनुसरण करके, जीव जगत परमार्थ को पाता है I

गुरु रूप में मैं हूँ, और नहीं भी हूँ…, पत्रों के लिए मैं हूँ, अपात्रों के मैं लिए नहीं हूँ I

इसलिए, मैं होता हुआ भी नहीं हूँ…, और मैं नहीं होता हुआ भी सदैव ही हूँ I

यही अघोर मुख को प्राप्त हुए योगीजनों के दृष्टिकोण से परमज्ञान कहलाता है I  और यही मार्ग मेरे इस जन्म से पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध का भी था I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अघोर से ऊपर कोई ज्ञान न था, न ही होगा I

लेकिन ऐसा होने पर भी अघोर से प्राप्त हुआ ज्ञान, मुमुक्षुपथ नहीं होता क्यूंकि इस ज्ञान में, मुक्ति और बंधन, दोनों का ही सिद्धांत नहीं होता I

 

अघोर के योगी के लिए, मुक्ति और बंधन, दोनों ही निरर्थक होते हैं, जिसके कारण वो योगी उसके अपने …

  • आत्मस्वरूप में, मुक्तात्मा ही होता है I
  • जीव और ब्रह्माण्डीय, दोनों स्वरूपों में बाँधनात्मा ही होता है I

ऐसा योगी ब्रह्म को भी पाता है और ब्रह्म की अभिव्यक्ति अर्थात ब्रह्म की समस्त रचना (या ब्रह्माण्ड) को भी पाता है I वो योगी ब्रह्म भी होता है और ब्रह्माण्ड भी होता ही है, इसलिए वो ही उस पूर्ण को दर्शाता है, जिसको वैदिक वाङ्मय में ब्रह्म कहा जाता है I इसलिए वो मुक्त है, या नहीं, यह तो वो भी नहीं जानता I

ऐसा योगी ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति, दोनों का ही होता है, इसलिए वो मुक्त है, या नहीं, यह तो वो भी नहीं जानता I

लेकिन वो अघोर सिद्ध योगी इतना तो अवश्य जानता है, कि अब वो मुक्ति और बंधन के मूल द्वैतवाद से भी परे खड़ा हो चुका है I

और यही अघोर मुख से प्राप्त हुआ परमज्ञान है, जिसमे वो मूल द्वैतवाद, जो मुक्ति और बंधन कहा जाता है, उसका प्रतिबिंब ही नहीं, बल्कि उसकी छाया भी नहीं होती I

 

और इस भाग के अंत में …

मैं कई जन्मों से अघोर मार्गी हूँ, और यहाँ बताए गए बिंदुओं में से कुछ बिंदु उन पूर्व जन्मों के ज्ञान के भी हैं I

तो अब उनमें से कुछ जन्मों को बताता हूँ …

  • स्वयंभू मन्वन्तर में जब मैं स्वयंभू मनु महाराज का शिष्य था, जिसको महाराज जी ने गणित का नाम दिया था, और जो उस समय पर महर्षि कहलाया था, उस पूर्व जन्म में शून्य समाधि से शून्य का ज्ञान पाया था, असंप्रज्ञात समाधि से शून्य ब्रह्म का ज्ञान पाया था, तमोगुण समाधि से तमोगुण का ज्ञान पाया था, अस्मिता समाधि (या रजोगुण) समाधि से रजोगुण का ज्ञान पाया था, और समता नामक तत्त्व की समाधि से सत्त्वगुण का ज्ञान पाया था I बिन्दु शून्य समाधि (या जड़ समाधि) से मूल प्रकृति का ज्ञान पाया था I

इसके बाद और बहुत जन्मों में मैं अघोर मार्गी ही था, लेकिन उन सबको बताने में संभव नामक शब्द की सीमा का ही अतिक्रमण हो जाएगा I

इसलिए इस महायुग के तीन और जन्मों को बताता हूँ, जब मैं अघोर मार्गी ही था I

  • इस महायुग के सत्युग नामक कालखंड में, मैंने ही एक अघोर मार्गी लेकिन वैष्णव योगी होकर, पंचब्रह्मोपनिषद का ज्ञान दिया था I

उस जन्म में मेरा नाम पीपल के वृक्ष के नाम के समीप ही था, और आज उस योगी को कुछ वेद मनीषी ब्रह्मार्षि शब्द से और कुछ महर्षि शब्द से भी सम्बोधित करते हैं I लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि उस पूर्वजन्म में, मैं तो केवल महादेव अर्थात अघोर नामक ब्रह्म का नन्हा सा शिष्य था, और उन महादेव से ही ज्ञानार्जन करके, मैंने इस विश्व को वो ज्ञान, उन गुरुदेव महादेव के आदेश पर ही बांटा था I और उसी जन्म में बांटे हुए ज्ञान के आधार पर, वेद चतुष्टय, मठ चतुष्टय और और धाम चतुष्टय बसाए गए हैं I  और उसी ज्ञान के आधार पर ही आचार्य चतुष्टय का सिद्धांत भी आया है I

  • एक और जन्म में, मैं वो सिद्ध था, जो चौरासी में से एक हुआ था, जिसका नाम पुरुषार्थ चायुष्टय के प्रथम पुरुषार्थ पर था I

उस जन्म में मैंने बस कुछ ही पात्रों को शिष्य रूप में धारण किया था और वो सब भी उच्च कोटि के योगी हुए थे I आज भी वो जन्म लिए हुए हैं, ताकि मेरा सानिध्य पा सकें I

  • एक और पूर्व जन्म में, मैं वो अघोर मार्गी लेकिन वैष्णव योगी था, जिसका नाम पत्तल पर था, जिसका विग्रह भारतीय फ़ौज के बड़े हस्पतालों में भी मिलेगा, और जिसके योग ग्रन्थ का मार्ग, आज भी प्रचलित है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ …

 

अघोर से गुणातीत अवस्था की प्राप्ति, … अघोर और गुणातीत मार्ग, …

कुछ प्राप्त करके ही उसको त्यागा जाता है I जो प्राप्त ही नहीं किया, उसको त्यागोगे कैसे? I

जबतक किसी का साक्षात्कार ही नहीं करोगे, उसको पाओगे कैसे? I

इसलिए जब साधक त्रिगुणों का साक्षात्कार करता है, तो त्रिगुणों को धारण करता है, अर्थात पाता भी है I

और पाने के पश्चात, उनका अनुभव करने के पश्चात, अंततः वही साधक उन त्रिगुणों को त्यागता भी है I

लेकिन इन त्रिगुणों को त्यागने का मार्ग, ॐ मार्ग से जाकर, रकार मार्ग को जाता है और अंततः अष्टम चक्र से होकर, निर्बीज समाधि को ही जाता है I

अष्टम चक्र को पार करने के पश्चात ही इन त्रिगुणों को त्यागा जा सकता है I लेकिन इस त्यागनें के बारे में कुछ बाद के अध्यायों में बताया जाएगा I

त्रिगुणों को त्यागने के पश्चात साधक का शरीर और उसका जीवन एक घोर विप्लव में ही चला जाता है I

इस विप्लव का कारण है, कि अष्टम चक्र के अधिकांश योगी अपने साक्षात्कार के पश्चात, निर्गुण होते हैं, जिसके कारण वो कुछ ही सप्ताह में अपनी काया को खो भी देते हैं I

यदि ऐसा योगी स्वेच्छा से अपनी काया को त्यागेगा नहीं, तो भी उसको अपनी काया त्यागनी ही पड़ेगी I

निर्बीज समाधि के पश्चात योगी जान जाता है, कि अब काया को रखने का कोई लाभ नहीं है, क्यूंकि उसकी भीतर की दशा से वो निर्गुण हो हो चुका है और निर्गुण काय धारी हो ही नहीं सकता है I

कुछ ही अतिविरले योगीजन, अष्टम चक्र को पाकर और गुणों से परे जाने के पश्चात भी, अपनी काया को रख पाते हैं I लेकिन यह मार्ग आगे के अध्याय में बतलाऊँगा…, इस अध्याय में नहीं I

 

अघोर और आकाश महाभूत, … अघोर से आकाश महाभूत का साक्षात्कार, … आकाश महाभूत और अघोर मार्ग, …
अघोर और आकाश महाभूत, अघोर से आकाश महाभूत का साक्षात्कार
अघोर और आकाश महाभूत, अघोर से आकाश महाभूत का साक्षात्कार, आकाश महाभूत और अघोर मार्ग, अघोर और आकाश महाभूत का साक्षात्कार, अघोर मार्ग और आकाश महाभूत,

 

यह चित्र उस दशा को दर्शा रहा है, जब योगी का सूक्ष्म शरीर अघोर के समीप नहीं होता है, और वो योगी अघोर को सुदूर से देख रहा होता है I इस चित्र में जिस बैंगनी वर्ण के भीतर, योगी का सूक्ष्म शरीर दिखाया गया है, वो ही ब्रह्माण्ड के भीतर का, बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत है I

और इस चित्र में, जो बाएं हाथ पर छोटी सी अर्धगोलाकार अवस्था दिखाई गई है, वही गाढ़े नीले वर्ण का अघोर है, जो आकाश महाभूत के भीतर ही बसा हुआ है और जहाँ वो आकाश महाभूत भी मध्य के सर्वव्यापत पञ्चब्रह्म का है, जिनको ईशान ब्रह्म भी कहा जाता है, उनका महाभूत है I

इस चित्र की दशा में योगी का सूक्ष्म शरीर, आकाश महाभूत में बसकर, अघोर को सुदूर से देखता है I

इस चित्र में दिखाए गए बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का साक्षात्कार भी अघोर के साक्षात्कार से पूर्व में होता है I

ऐसी दशा में अघोर मुख भी उस विशालकाय आकाश महाभूत के भीतर ही बसा हुआ पाया जाता है I और इस दशा के पश्चात ही, वो सूक्ष्म शरीर आकाश महाभूत में गमन करके, उस अघोर के समीप पहुँचता है जिसकी दशा इसी अध्याय के प्रथम चित्र में दिखाई गई थी I

इस आकाश महाभूत के, और पूर्व के अघोर ब्रह्म के चित्रों में जो नीले रंग का सूक्ष्म शरीर दिखाया गया है, वो ईशान और अघोर के मध्य में स्थित है…, न कि अघोर में स्थित है क्यूंकि यदि वो सूक्ष्म शरीर अघोर में चला गया या स्थित हो गया, तो वो अघोर में ही लय हो जाएगा (क्यूंकि अघोर ही सूक्ष्म शरीर के कारण दशा है) I

इसलिए यह और पूर्व के चित्रों में सूक्ष्म शरीर अघोर और ईशान नामक ब्रह्म की मध्यान्तर दशाओं में अर्थात आकाश महाभूत के भीतर बसकर ही उन दोनों का (अर्थात ब्रह्माण्ड का आकाश महाभूत और अघोर मुख का) साक्षात्कार करता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

आकाश महाभूत होता तो ईशान नामक ब्रह्म का है, जो पंचब्रह्म में मध्य का ब्रह्म होता है और निरंग स्फटिक के समान होता है और जो सर्वव्यापत होता है इसलिए ईशान के शिव, अन्य चरों ब्रह्म में भी साक्षात्कार होता है…, लेकिन उत्कर्ष मार्गों में इस आकाश का प्राथमिक साक्षात्कार अघोर में ही होता है I

पंचब्रह्म में मध्य का ब्रह्म, अर्थात ईशान, ऊपर को देखने वाला होता है, इसलिए यह मुख मुक्तिमार्ग या कैवल्य मार्ग को दर्शाता है I और इस मध्य के ईशान मुख के साक्षात्कार से योगी कैवल्य मोक्ष में ही स्थापित हो जाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यह आकाश महाभूत बैंगनी वर्ण का होता है, जो ब्रह्माण्ड के भीतर बसे हुए आकाश महाभूत का रंग होता है…, ब्रह्माण्ड के भीतर, आकाश महाभूत इसी बैंगनी वर्ण का होता है I

इसलिए जो उत्कर्ष मार्ग अघोर पर लेके जाता है, उसमें अघोर साक्षात्कार से पूर्व वो साधक यहाँ दिखाए गए आकाश महाभूत का साक्षात्कार भी करेगा I और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात ही, उस साधक का सूक्ष्म शरीर, अघोर ब्रह्म के साक्षात्कार का पात्र हो पाएगा I

इसलिए ब्रह्माण्ड में इस बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का साक्षात्कार भी अघोर मार्ग ही है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि आकाश महाभूत की बैंगनी वर्ण की ब्रह्माण्डीय अवस्था को जाकर ही अघोर नामक ब्रह्म का का साक्षात्कार होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ब्रह्माण्ड के भीतर जो बैंगनी वर्ण का आकाश है, उसके रंग का अब कारण बताता हूँ…

जब लाल रंग के रजोगुण का नीले रंग के तमोगुण से योग होता है, तब जो रंग बनता है, वो आकाश महाभूत का बैंगनी रंग है I

इसलिए आकाश महाभूत की जो दशा ब्रह्माण्ड के भीतर होती है, वो रजोगुण और तमोगुण के सामान योग को भी दर्शाती है I

और इसी रजोगुण और तमोगुण के योग में, इन दोनों गुणों को भेदता हुआ वो अतिसूक्ष्म श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण भी होता है, जिसके कारण उस बैंगनी वर्ण के ब्रह्माण्डीय आकाश में एक चमक भी आ जाती है…, लेकिन उस सत्त्व गुण को इस चित्र के आकाश महाभूत में दिखाया नहीं गया है I

 

अघोर और बुद्ध समंतभद्र, … अघोर ही समंतभद्र है, … बौद्धों के समंतभद्र, …

तिबतियों के बौद्ध मार्ग में जो प्राथमिक बुद्ध समंतभद्र हैं, वो ही वेदों के अघोर मुख का सगुण साकार स्वरूप हैं I

तिब्बती बौद्ध मार्ग में उन सगुण निराकार अघोर को ही उनके सगुण साकार स्वरूप में, प्राचीन बुद्ध, समंतभद्र कहा जाता है I

और उन समंतभद्र की शक्ति को समंतभद्री कहा गया है, जो उन समंतभद्र से योग लगाए होती हैं I

उन समंतभद्र की जो शक्ति हैं, वो ही वेदों के प्रकृति के नवम कोष की दिव्यता, माँ आदि शक्ति हैं I

 

बुद्ध समन्तभद्र, अघोर और बुद्ध समंतभद्र, अघोर ही समंतभद्र है
बुद्ध समन्तभद्र, अघोर और बुद्ध समंतभद्र, अघोर ही समंतभद्र है, बौद्धों के समंतभद्र, प्राथमिक बुद्ध समंतभद्र, प्राचीन बुद्ध समंतभद्र, प्राचीन बुद्ध, समंतभद्र

 

इस चित्र में, नीले वर्ण के बुद्ध समंतभद्र हैं और श्वेत वर्ण की उनकी शक्ति, बुद्ध समंतभद्री हैं I

यह चित्र है तो एक बाद के अध्याय का, लेकिन इसको तब भी यहाँ डाला गया है I

यह चित्र, पुरुष और प्रकृति की सनातन योगावस्था को भी दर्शा रहा है I

यह चित्र सम्भोग को नहीं दिखा रहा है, बल्कि यह उस योग अवस्था को दर्शा रहा है, जिसको जाकर साधक निर्बीज समाधि को पाता है I

 

अब इस समंतभद्र नामक शब्द को बताता हूँ …

समंतभद्र का शब्द, तीन शब्दों से बना हुआ है जो ऐसे हैं …

  • पहला शब्द सम है, जो समता को दर्शाता है I
  • दूसरा शब्द अंत है, जो अंतगति या अंतदशा को दर्शाता है, और जिसके पश्चात, साधक आकाश महाभूत को पार करके, ब्रह्माण्डातीत ही हो जाता है I

ब्रह्माण्डातीत इसलिए कहा गया है, क्यूंकि अघोर का साक्षात्कार, ब्रह्माण्ड के उस बैंगनी रंग के आकाश महाभूत से भी आगे की दशा है, अर्थात ब्रह्माण्ड से अतीत होकर ही अघोर का साक्षात्कार होता है I इसलिए, जिस साधक ने अघोर की सगुण निराकार दशा का साक्षात्कार किया है, वो ब्रह्माण्ड से ही अतीत होने के मार्ग पर ही है I

इस अंत का अर्थ यह भी होता है, कि जीव रूप में यह अंतगति है, इसलिए अघोर साक्षात्कार, जीवातीत दशा का मार्ग भी है I इस साक्षात्कार के पश्चात, योगी जीवातीत सिद्धि को भी पाता है I

 

और क्यूंकि अंत ही अंतरहित होता है, इसलिए इसी अंत का अर्थ, अंतरहित या सनातन शब्द को भी दर्शाता है I

  • और तीसरा शब्द भद्र का है, जो कल्याणकारी शब्द को दर्शाता है और जो शिव का ही वाचक है I

इसलिए, वो जो समता में बसा हुआ अंतरहित सर्वकल्याणकारी सर्वव्यापक भद्र है, वो ही तिब्बती बौद्ध पंथ में समंतभद्र कहलाया गया है I

 

अब इस दशा को आयाम चतुष्टय से बताता हूँ …

चार आयाम होते हैं, जो काल, आकाश, दिशा और दशा कहलाते हैं I

और अंत दशा में, इन चार आयामों की जो स्थिति होती है, वो ऐसी होती है …

  • काल … अपनी अंत गति में, काल पूर्णस्थिर होता है, जिसका न तो आरम्भ जाना जा सकता है और न ही कोई अंत I ऐसे अनादि अनंत, अर्थात सनातन काल में ही सबकुछ बसा हुआ होता है, और वो काल भी सबको भेदता हुआ सबमें बसा हुआ होता है I
  • आकाश … अपनी अंत गति में आकाश अनंत होता है, अर्थात सीमारहित होता है, जिसमें सबकुछ बसा हुआ होता है, और जो सबमें बसा हुआ होता है I
  • दिशा … अपनी अंतगति में दिशा सर्वदिशा व्याप्त होती है I यही कारण है, कि दिशा आयाम की अंतगति सभी उत्कर्षमार्गों को भेदती हुई होती है, और सभी उत्कर्ष मार्ग भी इसी दिशा की अंतगति में ही बसे होते हैं I
  • दशा … अपनी अंत गति में दशा सर्वव्यापत होती है, जिसमें सबकुछ बसा हुआ होता है, और जो सबके भीतर भी बसी हुई होती है I

यही कारण है, कि ब्रह्म की समस्त रचना इन आयाम चतुष्टय में बसाई गई थी, और इन चार आयामों में से, काल ही प्राथमिक और प्राचीन आयाम था, जिसके कारण जीव जगत को कालगर्भित भी कहा गया था I

 

और इस वर्णन के अंत में …

  • जब यह चारों आयाम, एक दुसरे से योग करते हैं, तब जो दशा आती है उसे ही सर्वशक्तिमान कहा जाता है, जो सार्वभौमिक ब्रह्म शक्ति का ही वाचक है और जो अपने प्राथमिक स्वरूप में उन मूलप्रकृति को दर्शाता है, जो अपराजिता या दुर्गा कहलाई गई हैं I

 

ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में अघोर ब्रह्म, … ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में अघोर का प्रकाश, … ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में समंतभद्री समंतभद्र योग, … ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में समंतभद्र समंतभद्री योग, …

ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में अघोर ब्रह्म, कपाल में अघोर का प्रकाश
ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में अघोर ब्रह्म, कपाल में अघोर का प्रकाश, ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में अघोर का प्रकाश, ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में समंतभद्री समंतभद्र योग, ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में समंतभद्र समंतभद्री योग,

 

अघोर साक्षात्कार के पश्चात, जब साधक राम नाद (अर्थात रकार मार्ग) पर जाता है, तो साधक के शरीर के भीतर ही समंतभद्र और समंतभद्री का योग होता है I रकार मार्ग के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I

जब साधक के शरीर के भीतर ही, नीले वर्ण के समंतभद्र और श्वेत वर्ण की समंतभद्री का योग होता है, तो इसके पश्चात, वही योग साधक के ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में भी हो जाता है I

ऐसी स्थिति में साधक के ब्रह्मरंध्र और शिवरंध्र के मध्य में जो प्रकाश स्वयंप्रकट होता है, वही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

यह योग शिवरंध्र के समीप होता है, इसलिए इसको शिवरंध्र में हुआ, ऐसा भी कहा जा सकता है I

इस योग के बारे में रकार मार्ग की अध्याय श्रंखला में भी बात होगी, क्यूंकि इस योग के कई और बिंदु भी हैं, जिनका इस अध्याय से कुछ भी लेना देना नहीं है I

 

अघोर सबसे शक्तिशाली दशा है, … अघोर सबसे ऊर्जावान दशा है, …अघोर ही सर्वशक्तिमान ऊर्जा का द्योतक है, … अघोर की ऊर्जा सबसे अधिक है, …

इतने वर्षों के सूक्ष्म और कारण शरीरों के गमन में, जो एक बात मैंने जानी है वो यह है, कि समस्त साक्षात्कारों में अघोर ही सबसे ऊर्जावान दशा है…, अघोर जैसी ऊर्जा किसी भी अन्य देश में नहीं है I

इसलिए मेरे साक्षात्कारों के दृष्टिकोण से, अघोर ही सर्वशक्तिमान और सबसे अधिक ऊर्जा को धारण किया हुआ है I

अघोर में जब सूक्ष्म शरीर चला जाता है (जैसा कि ऊपर के अघोर के चित्र में भी दिखाया गया है) तब अघोर की उस शक्तिशाली ऊर्जा का कारण वो सूक्ष्म शरीर अघोर पर ही स्तंभित हो जाता है, और कुछ समय तक वो सूक्ष्म शरीर ऐसा ही रह जाता है I

 

अघोर साक्षात्कार में अनादि अनंत भी एक क्षण में रहता है, … अघोर में अनादि अनंत की क्षणिक अवस्था का साक्षात्कार, …

अघोर साक्षात्कार में साधक को समय की गणना ही नहीं रह पाती, जिसके कारण यदि वो साधक अघोर में पहुँच कर बहुत लम्बे समय तक भी रह जाए, तब भी उसे ऐसा ही लगेगा की बस एक क्षण ही व्यतीत हुआ है I

इसलिए, अघोर में काल का अनादि अनंत स्वरूप भी एक क्षण के समान ही लगने लगता है I

 

अघोर से अहम् अस्मि साक्षात्कार और आयाम चतुष्टय,

अहम् अस्मि का साधारण अर्थ होता है, “मैं हूँ” I और इसका गंतव्य अर्थ होता है, कि “मैं सदैव सबमें ही हूँ और सब मुझमें ही हैं” I

अपने साधारण अर्थ में, मैं का शब्द (अर्थात अहम्) विशुद्ध अहम् को नहीं दर्शाता I

और गंतव्य अर्थ में, वो विशुद्ध अहम् ही होता है, जिसको वेद मनिषियों ने ब्रह्म कहा था, जो साधक का ही आत्मस्वरूप होता है, और इसी को यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि में भी सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दर्शाया गया है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अघोर में स्थापित होकर, आयाम चायतुष्टय से अहम् अस्मि के अर्थ का जो साक्षात्कार होता है, वो अब बताता हूँ I

यहाँ कहे गए अहम् अस्मि में, अहम् शब्द तमोगुण को दर्शाता है, और अस्मि शब्द रजोगुण को I इसलिए यहाँ बताए गए अहम् अस्मि का साक्षात्कार मार्ग, तमोगुण समाधि से होकर, रजोगुण समाधि तक ही जाता है I

तमोगुण समाधि से स्थिरता पाकर ही साधक रजोगुण समाधि को पाता है I

यहाँ बताया गया भाग, मूलतः उन उत्कर्ष मार्गों का है, जो प्रकृति से होकर जाते हैं, क्यूँकि अपने चक्र स्वरूप में समस्त आयाम प्रकृति के ही होते है I लेकिन कुछ भाग पुरुष का भी है, और कुछ प्रकृति और पुरुष, दोनों से अतीत भी है I लेकिन साधकगण इन तीनों दशाओं को अपनी बुद्धि से ही जाने I

 

काल आयाम के दृष्टिकोण से,

अघोर में बसकर जो अहम् अस्मि का साक्षात्कार होता है, उसी अहम् अस्मि के भावार्थ में, काल अपने खण्डित स्वरूप में भी होता है, और अखंडित स्वरूप में भी…, तो अब इन दोनों को बताता हूँ I

  • काल के खण्डित स्वरूप में, काल अपने कालचक्र स्वरूप में होता है I और ऐसा होता हुआ भी, कालचक्र अखंड रूप में चलता ही रहता है I इसलिए यह है काल आयाम से काल चक्र का अहम् अस्मि स्वरूप, क्यूंकि कालचक्र भी इसी अहम् अस्मि के भावार्थ में बसकर ही ऐसा अखंड हुआ है I

ऐसे खंडित काल (कालचक्र) के प्रत्येक भाग की एक अपनी ही इकाई होती है I

इसलिए काल की ऐसी खंडित (अर्थात कालचक्र रूपी) दशा के साक्षात्कार में साधक स्वयं को काल की प्रत्येक इकाई और उस कालचक्र के समस्त खंडित कालखण्डों में, समान रूप में व्याप्त हुआ पाता है I और ऐसी दशा में साधक अहम् अस्मि के भावार्थ को कालचक्र के प्रत्येक भाग से (अर्थात कालखण्ड से) जोड़कर ही देखता है I

और ऐसी दशा में, वो कालचक्र ही साधक का निवास होता है, अर्थात साधक स्वयं को सदैव से ही उस कालचक्र में बसा हुआ पाता है I

और यही कारण है, कि योगीजनों ने कहा था, कि जो भी ब्रह्म की रचना में है, वो कालगर्भित ही है I

  • काल के अखंड स्वरूप में, वही काल अपने गंतव्य स्वरूप में होता है I ऐसे गंतव्य स्वरूप में वो काल, उसी अहम् अस्मि के “मै सदैव ही हूँ”, ऐसे अर्थ में होता है I

ऐसे अखण्ड काल की न तो कोई इकाई होती है और न ही नहीं होती है I

काल अपने अखण्ड स्वरूप में, अपने पूर्व की समस्त इकाइयों से ही अतीत होता है I इसलिए ऐसी दशा में साधक स्वयं को काल इकाइयों से अतीत पाता है, और काल को भी उसके अखंड अनादि अनंत स्वरूप में देखता है I

ऐसी दशा में वो अखंड सनातन काल ही साधक का आत्मस्वरूप होता है I

टिपण्णी 1: जब काल साधक की काया से बाहर की ओर साक्षात्कार होगा, तब वो काल अपने कालचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार होगा I

टिपण्णी 2 : और जब उसी काल को साधक अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करेगा, तो वही काल अपने अखण्ड अनादि अनंत सनातन स्वरूप में साक्षात्कार होगा, और साधक का आत्मस्वरूप ही होगा I ऐसी दशा में, वो पूर्व का कालचक्र भी उसी अखंड काल के भीतर, और उस अखंड काल की प्रेरणा से ही चलायमान होता हुआ पाया जाएगा I ऐसी दशा में वो अखण्ड अनादि अनंत सनातन काल समस्त कालचक्र को अपने भीतर बसाया होगा, और इसके साथ साथ, वही काल उस कालचक्र के भीतर भी समान रूप में बसा हुआ भी पाया जाएगा I

 

आकाश आयाम के दृष्टिकोण से,

अघोर में बसकर जो अहम् अस्मि का साक्षात्कार होता है, उसी अहम् अस्मि के भावार्थ में, आकाश अपने खण्डित स्वरूप में भी होता है, और अखण्डित स्वरूप में भी…, तो अब इन दोनों को बताता हूँ I

  • आकाश के खण्डित स्वरूप में, आकाश अपने आकाशचक्र स्वरूप में होता है और इसी आकाशचक्र स्वरूप में वो आकाश, घट रूपी पिंड (या शरीर) का आकाश कहलाया गया था I इस घट के आकाश (या घटाकाश) में, आकाश बढ़ता और घटता भी रहता है, इसलिए वो स्थिर नहीं होता और इसलिए वो अपने परिवर्तनशील या गतिशील स्वरूप में ही साक्षात्कार किया जाएगा I

ऐसे खंडित आकाश (या आकाशचक्र) के प्रत्येक भाग की एक अपनी ही इकाई होती है I

ऐसी दशा में वो साधक स्वयं को आकाशचक्र के भीतर ही बसा हुआ पाता है और आकाश गर्भित ही कहलाता है I ऐसा साधक मुक्तात्मा है, यह भी नहीं कहा जा सकता I

  • आकाश के अखंड स्वरूप में, वही आकाश अपने गंतव्य स्वरूप में होता है, जो पूर्णस्थिर होता है, इसलिए वो न तो घटता है और न ही कभी बढ़ता ही है I ऐसी दशा में वो आकाश अपने अनंत स्वरूप में होता है, और इसी को महाकाश कहा गया था I

ऐसे अखण्ड आकाश की न तो कोई इकाई होती है और न ही नहीं होती है, क्यूंकि आकाश अपने अखण्ड स्वरूप में, अपने पूर्व की समस्त इकाइयों से ही अतीत होता है I

ऐसी दशा में साधक स्वयं को आकाशचक्र से अतीत, उस अखंड महाकाश के स्वरूप में ही पाता है, जो साधक का ही निराकार आत्मस्वरूप होता है I इसी को अनंताकाश भी कहा जा सकता है I

टिपण्णी 3: जब आकाश साधक की काया से बाहर की ओर साक्षात्कार होगा, तब वो आकाश अपने आकाशचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार होगा I

टिपण्णी 4 : और जब उसी आकाश को साधक अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करेगा, तो वही आकाश अपने अखण्ड अनंत स्वरूप में साक्षात्कार होगा, और साधक का आत्मस्वरूप ही होगा I ऐसी दशा में, वो पूर्व का आकाश चक्र भी उसी अखंड आकाश के भीतर, और उस अखंड आकाश की प्रेरणा से ही चलायमान होता हुआ पाया जाएगा I ऐसी दशा में वो अखण्ड अनंत आकाश समस्त आकाशचक्र को अपने भीतर बसाया होगा, और इसके साथ साथ, वही अखण्ड अनंत आकाश उस आकाश चक्र के भीतर भी समान रूप में बसा हुआ भी पाया जाएगा I इसी को अनंताकाश भी कहा जा सकता है I

 

दिशा आयाम के दृष्टिकोण से,

अघोर में बसकर जो अहम् अस्मि का साक्षात्कार होता है, उसी अहम् अस्मि के भावार्थ में, दिशा (या उत्कर्ष मार्ग) अपने खण्डित स्वरूप में भी होता है, और अखण्डित स्वरूप में भी…, तो अब इन दोनों को बताता हूँ I

  • दिशा के खण्डित स्वरूप में, दिशा आयाम अपने दिशाचक्र के स्वरूप में होता है, और इसी दिशाचक्र के स्वरूप में, उत्कर्ष मार्ग जो दिशा आयाम का ही अंग होता है, उसमे परिवर्तन होता ही रहता है I दिशा या उत्कर्ष मार्गों के इसी सदैव परिवर्तनशील स्वरूप के कारण ही, अमुक समय खण्डों में उन कालखण्डों के अनुसार उत्कर्ष मार्ग भी आते हैं I

यही कारण है, कि दिशा के खण्डित स्वरूप के कारण, अर्थात दिशाचक्र के प्रभाव से, समय समय पर विभिन्न मार्गों का प्रादुर्भाव होता ही रहता है I

ऐसी स्थिति में साधक, स्वयं को दिशाचक्र के भीतर ही पाता है, अर्थात उत्कर्ष मार्गों के सदैव परिवर्तनशील स्वरूप के भीतर ही पाता है I

दिशा के चक्र स्वरूप का साक्षात्कारी साधक मुक्तात्मा है, यह तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता I

  • दिशा के अखंड स्वरूप में, दिशा आयाम अपने सर्वदिशा स्वरूप में ही रहता है, जो बहुवादी अद्वैत से जाता हुआ उसी अद्वैत ब्रह्म की ओर लेके जाता है और इसीलिए ब्रह्मपथ कहलाता है I दिशा आयाम के ऐसे स्वरूप में, न कुछ भीतर का मार्ग होता है, और न ही बाहर का ही होता है, क्यूंकि यह दोनों एक दुसरे में ऐसे विलीन होते हैं, कि कौन सा कौन है, इसका पता ही नहीं चल पाता I

इसीलिए, दिशा आयाम का अखंड स्वरूप, सभी मार्ग या दिशाओं को भेदता हुआ होता है, और सभी मार्ग या दिशाएं भी उसी गंतव्य में बसी हुई होती है I

यही कारण है कि दिशा आयाम के गंतव्य स्वरूप में कोई एक या अनेक मार्ग भी नहीं होते, बल्कि सभी मार्ग उसी को लेके जाते हैं, जिसके कारण यह दशा मार्गहीन और खंडरहित ही होती है, और जो सर्वदिशाव्याप्त ब्रह्म को ही दर्शाती है I

ऐसी स्थिति में साधक स्वयं को दिशा या उत्कर्ष मार्गों से अतीत पाके, मार्गातीत या दिशातीत अवस्था में ही पाता है I ऐसे साधक का कोई एक या एक से अधिक मार्ग भी नहीं होता, क्यूंकि वो अपने आत्मस्वरूप को मार्गातीत या दिशातीत अवस्था में ही देखता है I

वो साधक जान जाता है, कि क्यूंकि वो अपनी वास्तविकता में (अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप में) तो वो अपना आत्मस्वरूप ही है, जो ब्रह्म के समान सर्वदिशा व्याप्त है…, तो अपने ही आत्मस्वरूप का मार्ग कैसे हो सकता है I

टिपण्णी 5: जब दिशा साधक की काया से बाहर की ओर साक्षात्कार होगी, तब वो दिशा अपने दिशाचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार होगी I

टिपण्णी 6 : और जब उसी दिशा को साधक अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करेगा, तो वही दिशा अपने सर्वदिशा नामक स्वरूप में साक्षात्कार होगी, और साधक का आत्मस्वरूप ही होगी I ऐसी अवस्था में, वो पूर्व का दिशाचक्र भी उसी सर्वदिशा व्याप्त (अर्थात दिशा आयाम के गंतव्य) के भीतर, और उस अखंड सर्वदिशा की प्रेरणा से ही चलायमान होता हुआ पाया जाएगा I ऐसी दशा में वो अखण्ड सर्वदिशा समस्त दिशाचक्र को अपने भीतर बसाई हुई होगी, और इसके साथ साथ, वही अखण्ड सर्वदिशा उस दिशाचक्र के भीतर भी समान रूप में बसी हुई पाई जाएगी I इसी को मार्गातीत, दिशातीत मार्ग भी कहा जा सकता है जो  अपनी वास्तविकता में मार्गहीन अखंड मार्ग ही होता है और जो सीधा ब्रह्मत्व की ओर लेके जाता है I

 

दशा आयाम के दृष्टिकोण से,

अघोर में बसकर जो अहम् अस्मि का साक्षात्कार होता है, उसी अहम् अस्मि के भावार्थ में, दशा या स्थिति अपने खण्डित स्वरूप में भी होता है, और अखण्डित स्वरूप में भी…, तो अब इन दोनों को बताता हूँ I

  • दशा आयाम के खण्डित स्वरूप में, दशा आयाम अपने दशाचक्र के स्वरूप में होता है और इसी दशाचक्र के स्वरूप में जो विभिन्न दशाएं होती हैं, उनमें परिवर्तन होता ही रहता है I

दशा या अवस्था के इसी सदैव परिवर्तनशील स्वरूप के कारण ही, अमुक समय खण्डों में अमुक अमुक देवलोकों से सम्बंधित मनीषी आते हैं, और उन देवलोकों के देवताओं को और उनके ज्ञान को स्थापित करते हैं I यही कारण है, कि दशा के खण्डित स्वरूप के कारण, अर्थात दशाचक्र के प्रभाव से, समय समय पर विभिन्न देवलोकों से कुछ मनीषीयों का प्रादुर्भाव होता ही रहता है I

इसी दशा आयाम के अनुसार, जो कुछ भी ब्रह्म की रचना में है, उनकी दशा का परिवर्तन होता ही रहता है I इसी दशा आयाम के प्रभाव से चाहे वो दशा किसी स्थूल की हो, या सूक्ष्म, दैविक, कारण या सांस्कारिक अवस्था की ही हो, वो परिवर्तनशील ही रहेगी I

इसीलिए, विभिन्न कालखंडों में, उसी दशा को उस दशा के ज्ञाता योगीजनों ने, पृथक प्रकार से बतलाया है I

यही कारण है, कि ब्रह्म की रचना में, अमुक अमुक दशाएं होती है, और उनके वर्णन और अवस्थाओं के तारतम्य भी होते हैं I

ऐसा होने से उनके देवत्व बिंदुओं में भी अमुक योगी पृथक प्रकार से ही बताते हैं I और ऐसा होने के कारण सभी दशाओं के पदानुक्रम भी होते हैं I

दशा के खण्डित स्वरूप के साक्षात्कार में साधक स्वयं को दशाचक्र की विभिन्न दशाओं के भीतर बसा हुआ, सदैव परिवर्तनशील स्वरूप में ही पाता है I

दशचक्र में बसा हुआ या दशचक्र का साक्षात्कारी साधक, मुक्तात्मा है, ऐसा तो बिलकुल नहीं कहा जा सकता I

  • दशा आयाम के अखंड स्वरूप में, वो परिवर्तन से रहित, सर्व्यापक ब्रह्म ही होता है I अपने गंतव्य स्वरूप में दशा आयाम अपने सर्वव्यापक स्वरूप में ही रहता है, जिसका साक्षात्कार साधक को अद्वैत ब्रह्म में ही स्थापित कर देता है और इसीलिए दशा काअखंड स्वरूप, ब्रह्मपथ का गंतव्य भी कहलाता है I

दशा आयाम के ऐसे स्वरूप में, न तो कुछ इधर का होता है, और न ही उधर का और न ही नहीं होता है, क्यूंकि दशा आयाम का गंतव्य निर्गुण ही होता है I इसीलिए, दशा आयाम के साक्षात्कार से, साधक निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म को अपने आत्मस्वरूप में ही साक्षात्कार करता है I

और वो पूर्व के सभी जो “इधर और उधर, यहाँ और वहाँ, इत्यादि” शब्दों और उनके अर्थों के अंतर्गत गतिशील थे, वो उस निर्गुण में विलीन होकर, निर्गुण ही हो जाते हैं और इसलिए कौन सा कौन है, इसका पता ही नहीं चल पाता I

ऐसी स्थिति में साधक अपने आत्मस्वरूप को उस सर्वव्यापत निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म में ही पाता है, जो दशातीत कहलाता है I

टिपण्णी 7: जब दशा साधक की काया से बाहर की ओर साक्षात्कार होगी, तब वो दशा अपने दशाचक्र स्वरूप में ही साक्षात्कार होगी I

टिपण्णी 8: और जब उसी दशा को साधक अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करेगा, तो वही दशा अपने सर्वव्याप्त निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म स्वरूप में साक्षात्कार होगी, और साधक का आत्मस्वरूप ही होगी I ऐसी अवस्था में, वो पूर्व का दशाचक्र भी उसी सर्वव्याप्त निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म (अर्थात दशा आयाम के गंतव्य) के भीतर, और उस अखंड सर्वव्याप्त ब्रह्म की प्रेरणा से ही चलायमान होता हुआ पाया जाएगा I ऐसी दशा में वो अखण्ड सर्वव्याप्त ब्रह्म समस्त दशाचक्र को अपने भीतर बसाया हुआ होगा, और इसके साथ साथ, वही अखण्ड सर्वव्याप्त ब्रह्म, जो उस दशाचक्र का गंतव्य ही है, उस दशाचक्र के भीतर भी समान रूप में बसा हुआ होगा I इसी को दशातीत, अवस्थातीत स्थितितीत भी कहा जा सकता है जो अपनी वास्तविकता में दशाहीन अखंड ही होता है और जो साधक की चेतना को, सीधा दशा आयाम के गंतव्य, अर्थात सर्वव्याप्त निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म में ही स्थापित कर देता है I

 

और इस भाग के अंत में …

जो साधक इन बताए गए सभी बिंदुओं का साक्षात्कार होगा, वो ब्रह्मशक्ति में विलीन होके, ब्रह्म को उसके सार्वभौमिक स्वरूप में ही पाएगा I

 

और ऐसी दशा में, वो …

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म होंगी और ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति I

 

ऐसे साधक की प्राणशक्ति विसर्गी होकर, उस साधक का ब्रह्मरंध्र पार करेगी, और साधक उस सनातन अनंत मार्गातीत सर्वव्यापत सार्वभौम गंतव्य को जाएगा जो आयाम चतुष्टय का गंतव्य है, और जिसका पथ अहम् अस्मि नामक वाक्य के भावार्थ से होकर ही जाता है…, और इस बताए हुए पथ पर जाके, साधक अंततः अहम् ब्रह्मास्मि के भावार्थ को अपने ही आत्मस्वरूप में पा जाता है I

 

और ऐसा पाने के पश्चात, जबकि वो साधक मुक्तात्मा ही है, लेकिन तब भी वो साधक अपनी मुक्ति को कुछ और समय के लिए आगे की ओर ठेल देता है, क्यूंकि उसको पता है, कि …

चाहे वो मुक्तिपद को धारण करे या न करे…, अब वो मुक्त ही है, और नहीं भी है I

और इसके साथ साथ, चाहे वो बन्धनयुक्त ही रहे, वो बंधनातीत ही रहेगा I

 

और ऐसा वो इसलिए जानता है, क्यूंकि …

उसके लिए न मुक्ति ही बची है, और न ही बंधन I

जो ब्रह्म और ब्रह्माण्ड दोनों ही हो गया, उसके लिए क्या बंधन और क्या मुक्ति? I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जैसे ब्रह्म अपने निर्गुण निराकार स्वरूप में, कैवल्य मोक्ष ही है, वैसा ही वो साधक उसके अपने आत्म स्वरूप में हो जाता है I

और इसके साथ साथ, जैसे वही ब्रह्म अपने सगुण साकार और सगुण निराकार स्वरूपों ( या अभिव्यक्तियों) में, मुक्त है या नहीं, वो ब्रह्म ही जानता है…, वैसा ही वो अघोर सिद्ध साधक भी हो जाता है I

 

इसलिए ऐसे साधक के लिए …

मुक्ति और बंधन, दोनों ही अपने अपने द्वैतवाद से संयुक्त, मिथ्या ही हो जाते हैं I

 

इसलिए ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा साधक …

न तो मुक्तात्मा कहलाएगा और न ही बंधनात्मा ही कहाया जाएगा I

 

ऐसा साधक, मुक्ति और बंधन, दोनों से और उनके द्वैतवादों से ही मुक्त होता है … और वो साधक अनादि कालों तक, ऐसा ही रह जाता है I

लेकिन यही तो ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप भी है, जो कैवल्य मोक्ष (अर्थात् पूर्णतः मुक्त) होने पर भी, जीव जगत के स्वरूप में स्वयंअभिव्यक्त हुआ है I यही कारण है, कि वैदिक वाङ्मय में, ब्रह्म ही एकमात्र पूर्ण कहलाया है, जिसमे द्वैतवाद का आभाव होने से, उसमें न मुक्ति का ही सिद्धांत है, और न ही बंधन का I

इसीलिए, ब्रह्म को कैवल्य कहा गया था, जिसका अर्थ होता है, अतीत, स्वतंत्र, केवल (अकेला) क्यूंकि वास्तव में ब्रह्म बंधन और मुक्ति, दोनों से अतीत, स्वतंत्र और केवल ही है I

इसीलिए पुरातन कालों में, ब्रह्मदर्शी कहते भी थे, की ब्रह्म ही है, जो सबसे स्वतंत्र, अतीत और केवल है, इसीलिए, वो ब्रह्म जीव जगत के स्वरूप में अभिव्यक्त होकर भी, न जीव जगत के बंधन में है…, और न ही उससे मुक्त ही है I

 

इसीलिए, घोर को पूर्णरूपेण सिद्ध किया हुआ साधक,

उसी सर्वातीत ब्रह्म के समान…, उस पूर्णब्रह्म सरीका ही शेष रह जाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ …

 

अघोर और सनातन यात्री, … अघोर और यात्रातीत साधक, … अघोर सिद्धि के दो स्वरूप, … अघोर और पूर्णावस्था, … अघोर और सनातनता, … अघोर और सनातन जीवन, …

अघोर में मुक्ति नहीं होती, बल्कि साधक मुक्ति और बंधन दोनों से ही अतीत हो जाता है I

ऐसा साधक किसी देवादि लोक को भी नहीं पाता है, क्यूंकि देवता भी कर्माधीन ही होते हैं I और जो कर्माधीन से आगे की कर्मातीत दशा है, वो तो देवातीत, जीवातीत और जगतातीत ही होती है, इसलिए ऐसी ऐसी दशा में कोई देवता कैसे हो पाएगा I

यही कारण है कि जो साधक कर्मातीत हो गया, वो देवता, गुरु आदि भी नहीं हो पाएगा I जो साधक कर्माधीन होते हैं, वो ही तो गुरु या देवादि हो सकते हैं I

ऐसा अघोर सिद्ध साधक न वैष्णव होगा, न शैव, न सौर्य, न शाक्त, न गणपत्य…, क्यूंकि वो इन सबसे ही अतीत हो जाएगा I

और ऐसा अतीत होने के पश्चात भी, वो इन सभी की गंतव्य दशाओं में, अपने आत्मस्वरूप में समान रूप में पाया भी जाएगा I

ऐसे साधक के लिए न तो कर्म होते है, और न ही कोई कर्मफल और न ही अकर्म या विकर्म ही होते हैं I वो इन सबसे भी अतीत हो जाता है I

ऐसे साधक की जो दशा होती है, अब उसको बताता हूँ …

  • ऐसे साधक के समस्त शरीर (स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और सिद्ध शरीर) अपने-अपने कारणों में विलीन होकर, अपने कारण होकर ही रह जाते हैं I

इसीलिए वो मुक्त है, ऐसा भी नहीं कह सकते, क्यूंकि अपने अपने कारणों में विलीन हुए उसके समस्त शरीर तो ब्रह्म की रचना के अंतर्गत ही रहते हैं I

क्यूंकि ब्रह्म की रचना भी ब्रह्म के समान सनातन ही है, इसलिए वो शरीर जो उनके कारणों में विलीन होते हैं, वो भी महाप्रलय के समय तक उन कारणों में ही विलीन रहते हैं I

और क्यूँकि ब्रह्म की रचना भी कैवल्य को नहीं दर्शाती, इसलिए वो साधक मुक्त हुआ है…, ऐसा तो बिलकुल नहीं कह सकते I

  • और इसके साथ साथ, ऐसा साधक उसके अपने बन्धनमुक्त आत्मस्वरूप में, पूर्व के समस्त बंधनों से परे जाकर, ब्रह्मलीन होता है I

इसलिए वो मुक्ति को नहीं पाया है, ऐसा भी नहीं कह सकते I

  • यही कारण है, कि ऐसा साधक उस दशा में विराजता है, जो न तो पूर्णतः बंधन में होती है, और न ही पूर्णतः मुक्ति को ही दर्शाती है I

और यह ही वो कारण है, कि ऐसा साधक यही कहेगा की वो तो सनातन यात्री है, जो समय समय पर, काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता माँ महाकाली की शक्ति से, लोक लोकांतर घूमता है और उन लोक लोकान्तरों में निवास करता है I और ऐसा करने पर भी वो उन लोकों में नहीं भी घूमता है, और नहीं भी निवास करता है I

ऐसे कहने का कारण है, कि उस साधक के समस्त शरीर ब्रह्माण्ड के अपने अपने कारणों में विलीन होके वहीँ रह जाते हैं, इसलिए वो किसी एक लोक का न है और न ही कभी हो पाएगा…, वो तो ब्रह्म की समस्त रचना, अर्थात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ही होता है I

और ऐसा होने के कारण, ब्रह्माण्ड के समस्त कालखण्डों में, जब कोई भी साधक उन ब्रह्माण्डीय दशाओं में से किसी भी दशा में जाएगा, जिनमे उस “अघोर के योगी (अर्थात अघोर के साधक)” के शरीर विलीन होकर पड़े हैं, तो वो साधक, उस “अघोर के योगी (अर्थात अघोर के साधक)” के उस शरीर को जो उसी ब्रह्माण्डीय दशा में विलीन हुआ है, उसको अवश्य देखेगा I

और क्यूंकि जो अघोर का सिद्ध होता है, उसके एक-एक सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्ड की एक-एक दशाओं में विलीन होते हैं, इसलिए जब भी कोई साधक किसी भी ब्रह्माण्डीय दशा में जाएगा, तो उस दशा में वो साधक, उस अघोर के योगी का कोई न कोई शरीर को देखेगा ही I

इसका कारण है, कि ब्रह्माण्ड की ऐसी कोई प्रधान देश ही नहीं होती, जिसमे अघोर सिद्ध योगी का कोई न कोई शरीर विलीन नहीं होता इसलिए कोई भी साधक ब्रह्माण्ड की किसी भी दशा को जाए, वो साधक उस अघोर सिद्ध योगी को पाएगा ही I इसका कारण भी वही है जो पूर्व में बताया था, की अघोर सिद्ध योगी, ब्रह्माण्ड भी होता है और ब्रह्म भी I

और इसके साथ साथ, क्यूंकि ऐसे साधक का आत्मस्वरूप ब्रह्मलीन ही हुआ है, इसलिए ऐसा साधक यह भी कहेगा कि उसका ब्रह्माण्ड से कुछ भी लेना देना नहीं है I

क्यूंकि अघोर सिद्ध योगी के शरीर, ब्रह्माण्ड की समस्त दिशाओं में विलीन होते हैं इसलिए ऐसा योगी उस अपने सूक्ष्मादि रूपों में, ब्रह्माण्ड की किसी भी दशा में आवागमन कर सकता है I उसका ऐसा ब्रह्माण्डीय आवागमन भी बंधनातीत ही होता है I और यही कारण है, की सगुण ब्रह्म या माँ शक्ति (अर्थात माँ प्रकृति) को जब भी आवश्यकता पड़ती है, तो वो उस अघोर सिद्ध योगी को बुलवा लेते हैं और किसी न किसी लोक में भेजकर जो भी कार्य करने होते हैं, वो सब के सब उस योगी से ही करवा लेते हैं I

अघोर सिद्ध योगी, कभी भी अपनी इच्छा से किसी लोक में नहीं लौटता…, वो सगुण ब्रह्म और माँ शक्ति (अर्थात माँ प्रकृति) की इच्छा से ही उन सब लोकों में, समय समय पर लौटाया जाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा साधक अंततः बुद्धिमान होता है क्यूंकि उसको पता होता है, कि उसके लिए कहीं जाने को नहीं रह गया, कुछ करने को नहीं रह गया और कुछ भी पाने को नहीं रह गया है I

वो इसी वाक्य में बसकर, ब्रह्म भी होता है और ब्रह्म की रचना भी होता है, और इसीलिए ऐसा साधक, उस ब्रह्म के समान ही पूर्ण कहलाता है I यह भी वो कारण है, जिससे पूर्व में बताया गया था, कि अघोर ही पूर्ण है I

क्यूंकि ऐसा साधक न बंधन में है और न ही मुक्त हुआ है, इसलिए ब्रह्मांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसे साधक के लिए, जो कहा जा सकता है, अब उसको बताता हूँ …

वो होता हुआ भी नहीं है I

और वो नहीं होता हुआ भी, सदैव ही रहेगा I

 

यही अघोर मार्ग की अंतिम या गंतव्य दशा है, जिसके कारण कुछ मार्ग कहते भी हैं, की अघोर में कैवल्य मोक्ष नहीं होता I

लेकिन वास्तव में यही तो कैवल्य है, जिसका वर्णन करना असंभव सा ही है I और उसी वास्तविकता में, यह कैवल्य मोक्ष है या नहीं, उसको जानना भी असंभव सा ही है I

ऐसे गंतव्य को पाए हुए साधक के पास, कुछ भी नहीं बचता, क्यूंकि जो कुछ भी उसके पास था, वो सब उनके अपने अपने कारणों में विलीन हो चुका होता है I और इसके साथ साथ और ऐसा होने पर भी, ऐसे साधक के पास जो कुछ भी ब्रह्म की रचना में था या है या आगे कभी होगा, वो सबकुछ होगा I

ऐसा होने का कारण है, कि ऐसा साधक ब्रह्म भी होता है और ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्ति अर्थात शक्ति रूपी माँ प्रकृति भी होता है… वो दोनों ही एक साथ होता हुआ भी, दोनों में नहीं भी होता है…, इसीलिए अघोर सिद्ध योगी का वर्णन करना, असंभव सा ही प्रतीत होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

वो अघोर सिद्ध योगी, परिवर्तनशील ब्रह्म रचना के दृष्टिकोण से एक सनातन यात्री है, जो ब्रह्म की समस्त रचना होकर ही रहता है और उस ब्रह्म रचना के किसी न किसी भाग में समय समय पर, सगुण ब्रह्म और माँ प्रकृति के आदेशानुसार, काल की प्रेरणा से और काल दिव्यता माँ महाकाली की शक्ति से, आवागमन करता रहता हैI ऐसी दशा में रहने के पश्चात, वो अघोर सिद्ध योगी स्वयं को ब्रह्माण्ड का एक सनातन यात्री सा ही देखता है और अपने ऐसे जीवन को सनातन जीवन जैसा ही पाता है I

और इसके साथ साथ, वो समस्त यात्राओं से अतीत भी होता है, क्यूंकि उसके अपने आत्मस्वरूप में, वो पूर्ण स्थिर आवागमनों से पूर्ण रहित सर्वव्यापक सनातन ब्रह्म ही होता है I

जो ऐसा होता है, उसको ही वैदिक वाङ्मय में पूर्ण कहा गया था I

ऐसा योगी यह भी जानता है, कि ब्रह्म ही अपनी रचना हुआ है, और इसीलिए, ब्रह्म की रचना भी ब्रह्म ही है I यही योगमार्ग की अद्वैत पूर्णावस्था है I

 

अघोर सिद्ध योगी कहेगा ही, कि …

महाकाल मेरी यात्राओं की प्रेरणा हैं, महाकाली मेरी यात्राओं की शक्ति हैं I

सगुण ब्रह्म और प्रकृति ही मेरा यात्रामार्ग हैं, मै उनके महाब्रह्माण्ड का यात्री हूँ I

मेरे सभी शरीर समस्त लोकों अलोकों में है, इसलिए मेरा कोई एक लोक है ही नहीं I

मैं समस्त लोकों अलोकों में घूमता हूँ, मेरा यात्रा अनंत से अनंत तक ही है I

मेरे लिए यह काया स्वरूप मृत्युतुल्य है…, और मेरा निरकाया स्वरूप जीवनतुल्य I

मुझे इस या उस काया रूप, इस या उस लोक से क्या करना…, मैं सनतान यात्री हूँ I

मेरे शरीर ही वाहन हैं, जिनका मैं एकमात्र यात्री और चालक हूँ… मैं स्वतंत्र यात्री हूँ I

मेरी यात्राएँ “स्वयं ही स्वयं में” होती रहती हैं, मैं ही मेरी यात्रा हूँ और यात्री भी हूँ I

मैं ब्रह्म हूँ और ब्रह्माण्ड भी हूँ, मैं ही यात्राप्रदेश हूँ और उस प्रदेश का यात्री भी हूँ I

यही अघोर सिद्धि के पश्चात के उस सनातन जीवन को दर्शाता है, जिसको वो योगी पाया होता है, उसके अपने सनातन यात्री के स्वरूप में I

 

अघोर और रूप अरूप, … अघोर साक्षात्कार में रूप ही अरूप है, … अघोर साक्षात्कार में अरूप ही रूप है, …

अघोर में रूप ही अरूप है और अरूप ही रूप I और ऐसा ही सभी निराकारी दशाओं में भी साक्षात्कार होता है I

ऐसा साक्षात्कार तब होता है, जब रूपात्मक सूक्ष्म शरीर इस अघोर ब्रह्म में विलीन होकर अरूप हो जाता है I

और ऐसे विलेन होकर और अरूप को पाकर भी वो सूक्ष्म शरीर, अपने मूल से रूप ही होता है I

यही ज्ञान पंचब्रह्म और पंच मुखा सदाशिव के प्रत्येक साक्षात्कार में भी होता है, इसलिए यह दशा केवल अघोर तक ही सीमित नहीं है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह दशा वैसी ही होती है, जैसे वो हलके नील वर्ण का आकाश अरूप होता हुआ भी, रूप में ही दिखाई देता है I

और यही तथ्य समस्त वैदिक देवी देवताओं पर भी लागू होता है, जो अरूपात्मक होते हुए भी रूप में ही पूजे जाते हैं I

इन सबका कारण भी वही है, कि निर्गुण ब्रह्म ही सगुण साकार और सगुण निराकार स्वरूपों में, जीव जगत के स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है, इसलिए जो भी जीव जगत के अंतर्गत है, वो भी अपनी वास्तविकता में, सगुण साकार (अर्थात रूप) और सगुण निराकार (अर्थात अरूप) में होता है I

 

तो अब इस बिन्दु का उदहारण देता हूँ …

  • इन्द्रियाँ निराकारी होते हुए भी, साधना के समय के साक्षात्कार में साकारी ही होती हैं I
  • भूख निराकारी होती हुई भी, साकारी आमाशय में रहती हुई साकारी ही होती है, और सगुण साकारी भोजन से ही तृप्त होती है I
  • पञ्च तत्त्व का स्थूल शरीर साकारी होता हुआ भी, अपने तात्त्विक या वास्तविक स्वरूप में निराकारी ही होता है I
  • इत्यादि I

इन सबका कारण भी वही है, कि ब्रह्म निर्गुण निराकार होता हुआ भी, स्वयं को सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों स्वरूपों में समान रूप में अभिव्यक्त करता है I और यह दोनों स्वरूप भी, उस निर्गुण ब्रह्म की सभी अभिव्यक्तियों में समान रूप में होते हैं I

इसलिए सगुण साकार के साथ, सगुण निराकार होगा ही I

और यही कारण है, कि जो तुम सगुण साकार अर्थात रूप में देखते हो, उसके साथ सगुण निराकार होता ही है I

सगुण साकार के साथ, चाहे वो सगुण निराकार सूक्ष्म रूप में ही क्यों न हो, लेकिन होगा अवश्य I

वास्तव में तो सगुण साकार अवस्थाएँ सगुण निराकार के भीतर ही बसी हुई होती हैं और इसके साथ साथ, सगुण निराकार भी उन सभी सगुण साकार अवस्थाओं के भीतर ही बसा हुआ होता है I इसलिए, ब्रह्म की रचना में ऐसा कभी भी नहीं हो सकता, की सगुण साकार या सगुण निराकार एक दुसरे से पृथक हो जाएं I

और इन दोनों के भीतर और इन दोनों को घेरे हुए, निर्गुण निराकार होता है जिसकी अभिव्यक्तियां, यह दोनों ही हैं I

इसलिए जो साधक, इन तीनों अवस्थाओं को एक साथ उनकी सनातन योगावस्था में ही देखता है…, वो ही योगी है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि सगुण साकार (अर्थात रूप) के साथ सगुण निराकार अर्थात अरूप होगा ही, इसलिए वैदिक अर्चा विग्रह का मार्ग आया था, क्यूंकि वेद मनीषीयों को पता था कि देवी देवताओं के विग्रह सगुण साकार (अर्थात रूपात्मक) होते हुए भी, वास्तव में सगुण निराकार (अर्थात अरूपात्मक) ही हैं I और इन दोनों दशाओं के भीतर और इन दोनों को घेरे हुए, निर्गुण निराकार ही होता है I

यही कारण है, कि वैदिक देवी देवताओं के विग्रह दीखते तो साकारी हैं, लेकिन उनके तात्त्विक स्वरूपों में, वो अरूप ही हैं I

और यह भी वो कारण है, कि चाहे कोई साधक उन सगुण साकार (अर्थात रूप) विग्रहों की उपासना ही क्यों न करे, लेकिन उस उपासना में, उन्ही देवी देवताओं के सगुण निराकार स्वरूप की उपासना भी हो ही जाती है I

इसीलिए, वो सगुण साकार (अर्थात रूपात्मक) विग्रह ही सगुण निराकार (अर्थात अरूपात्मक) भी होते हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

इन विग्रहों को स्थापित करने का कारण था, कि सगुण निराकार (अर्थात अरूप) का कोई मंदिर नहीं हो सकता I

इसका कारण है, कि अरूप (या सगुण निराकार) को किसी भी रूप (अर्थात सगुण साकार) मंदिर में स्थापित ही नहीं किया जा सकता है I

इसीलिए, वैदिक वाङ्मय में, निराकार का कोई भी मंदिर नहीं होता, क्यूंकि यह तो वही हो गया, जैसे किसी चींटी के भीतर पूरा हाथी डालना हो I

यदि अरूप का मंदिर या उपासना स्थान बनाया जाएगा, तो वो स्थान ही मानव जाती के विध्वंस का कारण बन जाएगा I यही कारण है, कि जो पंथ (या ग्रन्थ या मार्ग) निराकार देवताओं को मानते हैं और तब भी उनको मानने वाले किसी उपासना स्थल को जाते हैं, और उस उपासना स्थल में बैठ कर उसी निराकार को स्मरण करते हैं, तो वो पंथ (या मार्ग या ग्रन्थ और उसको मानने वाले) इस भू लोक पर कलह कलेश के कारण ही बनते हैं I

यह भी एक कारण है, कि कलियुग को प्रबल करने हेतु, कलियुग के कालखंड में जो निराकार देवता को मानने वाले पंथ (या ग्रन्थ या मार्ग) आते हैं, वो सभी कलह कलेश के ही कारण बनते हैं I कलियुग के कालखंड में आए हुए समस्त मार्ग ऐसे ही होते हैं, और इस बार के कलियुग में भी कुछ भिन्न नहीं हुआ है I

यही कारण है, कि निराकार की निराकार रूप में उपासना (या स्मरण या मनन या पाठन) कभी भी साकारी उपासना घर में नहीं होनी चाहिए I

यदि किसी साधक को निराकार की उपासना करनी ही है, तो उसको वो उपासना मानव रहित स्थानों पर जाकर, खुले आकाश के नीचे ही करनी चाहिए और ऐसी उपासना में, उस साधक को उस निराकारी अनंत आकाश को ही अपना मंदिर (या उपासना स्थल) मानना चाहिए I

 

और एक बात …

लिंग निराकारी होता हुआ, साकारी होता है I

और इसके साथ साथ, वो लिंग साकारी होता हुआ भी, निराकारी ही होता है I

और इन दोनों के साथ साथ, लिंग निर्गुण भी होता है I

लिंग मूल से निराकारी होता है, और स्थापित स्वरूप में साकारी ही होता है Iऔर इसके साथ साथ, लिंग निर्गुण का सूचक भी होता है I

 

इसलिए, अब ध्यान देना …

यदि किसी सादक को किसी साकारी मंदिर (या सगुण साकार साधना स्थल) पर किसी निराकार सत्ता की उपासना उसके निराकार रूप में करनी है, तो ऐसी दशा में वो उपासना उस निराकारी सत्ता के लिंग रूप में करनी चाहिए, न की उसके किसी सगुण साकारी विग्रह स्वरूप में I

यही कारण था, कि लिंगोपासना भी वैदिक वाङ्मय का अंग हुई थी I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

सगुण साकारी उपासना सिद्ध करके ही सगुण निराकार के उपासना मार्ग पर जाना चाहिए I और सगुण निराकार की सिद्धि के पश्चात ही, निर्गुण निराकार के मार्ग पर जाना चाहिए I

इसका कारण भी वही है, कि यदि किसी भवन के तीसरे तल पर जाना है, तो पूर्व के दो तल पार करने ही पड़ेंगे…, है न? I

 

आगे बढ़ता हूँ …

  • रूप में ही अरूप अपने सूक्ष्म स्वरूपों में बसा हुआ होता है I
  • और इसके साथ साथ, अरूप में ही रूप बसा होता हैं, इसलिए अरूप ने ही रूप को सभी ओर से घेरा भी होता है I

 

यही कारण है, कि …

  • रूप की उपासना अरूप को जाती है, अर्थात साकार की उपासना उसी साकार की सूक्ष्म निराकारी सत्ता की ओर ही लेकर जाएगी I यही कारण है, कि रूप की उपासना से भी, उस रूप के ही अरूपात्मक सत्ता का साक्षात्कार हो जाता है I
  • अरूप की उपासना से, उस अरूप में बसे हुए समस्त रूपों का साक्षात्कार हो जाता है, इसलिए, अरूपात्मक उपासना के साक्षात्कारों में, उस अरूप में बसे हुए रूपात्मक तत्त्वों का साक्षात्कार होगा ही I

 

यह भी वो कारण है कि …

  • जो रूप को मानते हैं (अर्थात उपासना करते हैं), वो अरूप की उपासना भी करते ही हैं I
  • और जो अरूप को मानते हैं (अर्थात उपासना करते हैं), वो रूप की उपासना भी करते ही हैं I

इसलिए जो मूर्खानंद हैं, वो ही कहते हैं, कि रूप की उपासना नहीं करनी चाहिए I

चाहे कोई ऐसे मूर्खानंदों को कुछ भी माने, लेकिन यदि उन्होंने कहा है, कि रूप उपासना वर्जित है, तो उनकी यह बात ही प्रमाण है की उनको ज्ञान ही नहीं है, कि रूप ही अरूप होता है और अरूप ही रूप I

इसलिए जो निराकार को मानने वाले, रूप उपासना का खंडन करते हैं, या उसको बुरा भला बोलते हैं, वो सभी मूर्खानंद ही हैं I

और जिस ने भी ऐसा ज्ञान दिया है, चाहे वो कोई पूर्व कालों का मानव हुआ हो या कोई देवादि सत्ता ही क्यों न हो…, वो सभी मूर्ख ही हैं I

यदि किसी ग्रन्थ में ही ऐसा लिखा गया है, तो वो ग्रन्थ को मानने वाले, उस ग्रन्थ को देने वाला और उसका देवता, सभी अपनी मूर्खता का ही प्रमाण दे रहे हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यह आवश्यक नहीं की रूप स्थूल स्वरूप में ही हो क्यूंकि रूप सूक्ष्म भी होता है I

 

तो अब इस बिंदु को बतलाता हूँ …

जब हम कोई ग्रंथ पढ़ते और समझते हैं, तो हमारे मन में उस ग्रन्थ की सत्ता का एक सूक्ष्म रूप बन ही जाता है I

और ऐसा तब भी होता है, जब हम किसी निराकारी सत्ता का ग्रन्थ ही क्यों न पड़े और समझें I

इसलिए, चाहे तुम निराकार को मानो या साकार को, तुम्हारे मन में उस सत्ता का एक सूक्ष्म रूप बनेगा ही I

यही कारण है, कि जो कहते हैं…, रूप से कोई नाता नहीं रखना या रूप को नहीं मानना…, उनके मन में भी उनकी निराकारी सत्ता का रूप होगा ही I

और क्यूंकि यह बात उनको पता ही नहीं होती, इसलिए वो रूपात्मक उपासना का विरोध करते हैं, जिससे उनके मन में बसे हुए उनकी अरूपात्मक सत्ता के रूप को भी वो खंडित कर देते हैं I

ऐसा होने पर, उनके मन में ही अपूर्णता आ जाती है, जिसके कारण वो उनके माने हुए अरूप का साक्षात्कार भी नहीं कर पाते हैं I

यह भी वो कारण है, कि इस्लाम के 1400 वर्षों से भी अधिक समय में किसी भी मुसलमान ने उनके निराकार अल्लाह का साक्षात्कार नहीं किया है I और ईसाइयत के 2000 वर्षों में भी किसी ने उनके ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है I

इस साक्षात्कार से वंचित रहने का कारण भी वही है, कि यह अरूप को मानने वाले अपने मन में बने हुए अरूप के रूपात्मक स्वरूप का भी खंडन कर देते हैं, जब वो विग्रह उपासना का खंडन करते हैं I

यह भी उसी तथ्य का कारण है, जो पूर्व में बताया गया था, कि रूप ही अरूपात्मक होता है और अरूप ही रूपात्मक I

किसी भी उपासना मार्ग में इसका अंतर पड़ता ही नहीं, कि वो रूप है या अरूप (अर्थात साकारी है या निराकारी), क्यूंकि यह दोनों (अर्थात रूप और अरूप) आपस में और एक दुसरे में ही बसे हुए होते हैं I

इसलिए इन दोनों में से यदि किसी एक का खंडन करोगे, तो दुसरे का खंडन स्वतः ही हो जाएगा, जिसके कारण जिसकी उपासना करते हो, उसका कभी भी साक्षात्कार नहीं हो पाएगा I

इस जीव जगत में जो भी है, जहाँ भी है और जैसा भी है, वो सबकुछ निर्गुण निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है I

और क्यूँकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्त से पृथक होती ही नहीं है, इसलिए चाहे जिसकी भी उपासना करो, जिसको भी मानो, वास्तव में आप निर्गुण निराकार की ही उपासना कर रहे हो I

और यही कारण है, कि सभी मार्ग उसी निर्गुण ब्रह्म को जाते है, चाहे वो मार्ग सगुण साकार के हों, या सगुण निराकार के I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यह भी एक कारण है, कि वैदिक वाङ्मय में न तो सगुण निराकार का कोई मंदिर या उपासना स्थल होता है और न ही कभी निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना का विधान बनाया ही नहीं गया था I

यदि सगुण निराकार को पाना है, तो सगुण साकार की उपासना सिद्ध करके ही पाओगे…, अन्यथा नहीं I

इसका कारण है, कि सगुण निराकार (या किसी भी निराकारी सत्ता) का कोई मंदिर, दुर्ग या उपासना स्थान नहीं होता I

और यदि निर्गुण निराकार को जानना है, तो ऐसे जानने का मार्ग साधक के ज्ञान में हो होगा, न कि किसी ग्रन्थ में या किसी और पद्दति से वो निर्गुण निराकार को जाना जा सकता है I

और जब साधक ब्रह्म के तीनों प्रमुख स्वरूपों अर्थात सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार) को जान जाएगा, तो ही वो साधक ब्रह्म के पूर्ण स्वरूप का ज्ञाता होगा…, अन्यथा नहीं I

 

ऐसा साधक यह भी जान जाएगा, कि

सगुण साकार (रूप) में सगुण निराकार (अरूप) बसा होता है I

सगुण निराकार (अरूप) में ही सगुण साकार (रूप) बसा होता है I

और इन दोनों में वो निर्गुण निराकार बसा है, जो न रूप है और न अरूप ही है I

और यह दोनों भी उसी निर्गुण निराकार में बसे होते हैं I

यही साक्षात्कार ब्रह्म की परिपूर्णता को दर्शाता है, इसलिए इससे आगे कोई साक्षात्कार है ही नहीं…, न कभी हुआ है, और न ही कभी होगा I

और यही रूप और अरूप के साक्षात्कार का गंतव्य भी है, जिसमे साधक जान जाता है, कि सबकुछ उसी निर्गुण निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

इसलिए जो सगुण साकार है, और जो सगुण निराकार है… वो दोनों भी ब्रह्म ही हैं I

 

इसी साक्षात्कार से साधक, यह भी जान जाता है, कि …

इस जीव जगत के स्वरूप में, उस ब्रह्म ने अपने सिवा और कुछ बनाया ही नहीं I

निर्गुण निराकार ब्रह्म ने स्वयं को ही जीव जगत के रूप में अभिव्यक्त किया है I

अपनी रचना के स्वरूप में, ब्रह्म अपने सिवा और कुछ भी बना पाया ही नहीं था I

 

और ऐसे साक्षात्कार का मार्ग भी अघोर के रूपात्मक और अरूपात्मक स्वरूपों की योगावस्था से ही प्रारम्भ होता है, जिसके बारे में यहाँ बताया गया है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब भी साधक उस ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानेगा,  तब वो साधक वैसे ही जानेगा जैसा यहाँ बताया गया है I

ऐसा साधक ही ब्रह्म को पूर्ण शब्द से सम्बोधित करता है…, और कोई भी नहीं I

और ऐसा साक्षात्कार भी उस साधक को वैदिक महावाक्यों के सार में बसा देगा, जिसका वर्णन आत्मवानी में बताया गया है, जो आत्मा रूपी ब्रह्म का ही ऊर्जात्मक, गुरु, वेदात्मक, शब्दात्मक और मुक्तात्मक वाणीमय स्वरूप है I

ऊर्जात्मक स्वरूप में वो आत्मवाणी, माँ भारती सरस्वती की है I गुरु स्वरूप में वो माँ शारदा सरस्वती की है I वेदात्मक स्वरूप में वो आत्मा वाणी माँ गायत्री सरस्वति की है I शब्दात्मक स्वरूप में वो माँ सावित्री सरस्वती की है I और अपने गंतव्य स्वरूप, अर्थात मुक्तात्माक स्वरूप में वो माँ ब्रह्माणी सरस्वती की है I और यही अघोर नामक ब्रह्म उस आत्मा वाणी के मूल मार्ग में हैं क्यूंकि उस आत्मवानी का मार्ग भी अघोर ब्रह्म से ही प्रारम्भ हुआ था I

यह आत्म वाणी मेरा मार्ग भी था और साक्षात्कार भी I जो मार्ग भी हो और उस मार्ग का साक्षात्कार भी हो, वो ही तो अद्वैत कहलाता है, और जहाँ वो अद्वैत शब्द भी उस ब्रह्म की परिपूर्णता का ही वाचक है I

 

अघोर और योग, … अघोर और मन, … अघोर और योगमार्ग, … अघोर में मन का लय, … मन और चकरा चतुष्टय विज्ञान … अघोर स्वयं का विधाता है … मन स्वयं का विधाता, …

अघोर से योग करके ही, उसी अघोर में सूक्ष्म शरीर लय होता है I यह पूर्व में बताया जा चुका है I

और सूक्ष्म शरीर का प्रमुख योगकारण, मन होता है, जो उस सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिंदुओं में से एक बिंदु होता है I

ब्रह्माण्ड के जिस स्थान पर यह आकाश गंगा, उसका सूर्य लोक और यह पृथ्वी लोक बसा हुआ है, उस स्थान का प्रमुख ब्रह्म भी अघोर ही है I

मन में एक विशेषता होती है, कि गंगा गए तो गंगा राम और यमुना गए तो यमुना दास I इसी कारणवश मन ही समस्त बिन्दुओं से योग स्थापित करने का प्रमुख माध्यम होता है I

यह भी वो कारण है, कि जैसा ब्रह्माण्ड का स्थान होता है, जहाँ कोई जीव निवास करता है, वैसे ही उस जीन का मन भी हो जाता है I

और क्यूंकि पंच ब्रह्म में से, इस पृथ्वीलोक पर अघोर ही प्रमुख रूप में लागू होता है, इसीलिए ब्रह्माण्ड के इस क्षेत्र के प्राणियों का मन भी अघोर ब्रह्म के समान, गाढ़े नीले वर्ण का होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

मन तीनों कालों में, समान रूप से और एक ही समय पर स्थापित होता है, इसीलिए मन ही त्रिकाली है I और जो त्रिकाली होता है, वो ही तो सर्वव्यापक भी होता है I ऐसा होने के कारण ही मन समस्त ब्रह्माण्ड से योग के मूल कारण भी होता है I

और क्यूंकि मन त्रिकाल स्थित ही होता है, इसलिए मन एक ही समय पर, तीनों कालों से समान रूप में योग करने में भी सक्षम होता है I

यह भी वो कारण है, कि मन की योगावस्था चक्र चतुष्टय के समस्त भागों के साथ, एक साथ भी हो सकती है I

 

तो इसका अर्थ हुआ कि मन वो क्षमता रखता है जिससे वो मन …

  • कालचक्र के समस्त कालखण्डों से एक ही समय पर योग कर सकता है I यदि कोई योगी ऐसा योग स्थापित कर पाएगा, तो वो योगी कालचक्र के तारतम्य में बसा हुआ भी, उस कालचक्र को उसके अपने (अर्थात उस योगी के) समताभाव में ला पाएगा I

जब ऐसा हो जाएगा, तो वो योगी कालचक्र में बसा हुआ प्रतीत होता हुआ भी, उस कालचक्र से अतीत ही कहलायेगा, क्यूंकि काल आदि आयामों के चक्रा रूपों में समतावाद नहीं होता I

ऐसा योगी अपने आत्मस्वरूप में ही उस अखंड अजन्मे सनातन काल को पाएगा और इसके पश्चात, वो योगी ही ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में अज कहलाएगा I

ऐसे योगी के लिए वो अखंड काल ही उसका आत्मस्वरूप होगा और वो सनातन अखंड काल और उसके समस्त भाग, उस योगी के लिए एक क्षण में ही होंगे I

इसलिए ऐसा योगी उस समस्त काल और उसके कालचक्र के समस्त भागों को एक क्षण में (अर्थात एक ही क्षण के भीतर या एक ही क्षण के भीतर बसा हुआ) ही साक्षात्कार करेगा I

ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वो योगी उसी साक्षात्कार किए हुए क्षण में बस जाएगा, जो वास्तव में वो अखंड अनादि सनातन काल ही होगा, इसलिए उस क्षण का न तो कभी परिवर्तन होगा, और न ही कभी अंत ही होगा I जिस योगी ने कालचक्र को पूर्णरूपेण जाना है, उसका यही आत्मस्वरूप भी होता है I

ऐसे योगी के लिए, इस या उस कालखंड का कोई अर्थ नहीं होता, क्यूंकि वो समस्त कालचक्र को उसके अनादि सनातन और अखंड क्षण रूपी आत्मस्वरूप में ही देखता है और जहाँ वो क्षण भी, अनंत में चलायमान होता है जिसके कारण वो एक क्षण अनंत सरीका ही होता है I

  • आकाशचक्र के समस्त भागों से एक ही समय पर योग कर सकता है I यदि कोई योगी ऐसा योग स्थापित कर पाएगा, तो वो योगी समस्त आकाशचक्र की विभिन्न दशाओं के तारतम्य में बसा हुआ भी, उस आकाशचक्र को उसके (अर्थात उस योगी के) समताभाव में ही पा लेगा I

जब ऐसा हो जाएगा, तो वो योगी आकाशचक्र में बसा हुआ प्रतीत होता हुआ भी, उस आकाशचक्र और आकाशचक्र के समस्त भागों से अतीत ही कहलायेगा I

ऐसा योगी अपने आत्मस्वरूप में ही उस अखण्ड अनंत आकाश को पाएगा और इसके पश्चात, ऐसा योगी ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में महाकाश कहलाएगा I

ऐसे योगी के लिए न तो घटाकाश का कोई अर्थ होता है, और न ही आकाश के किसी और खंडित स्वरूप का I वो उस अनंत आकाश को अपने आत्मस्वरूप में ही देखता है I

इसलिए वो योगी स्वयं को सबमे और सबको स्वयं में ही पाता है I ब्रह्माण्ड का कोई बिंदु होगा ही नहीं, जिसमे वो योगी अपने आत्मस्वरूप को नहीं पाएगा और इसके साथ साथ, वो अपने महाकाश के समान आत्मस्वरूप में ही ब्रह्माण्ड के समस्त बिन्दुओं को पा जाएगा I

  • दिशाचक्र के समस्त भागों के साथ, एक ही समय पर योग कर सकता है I यदि कोई योगी ऐसा योग स्थापित कर पाएगा, तो वो योगी समस्त दिशाचक्र की विभिन्न भागों (अर्थात उत्कर्ष मार्गों) और उनके तंत्रों के तारतम्य में बसा हुआ भी, उस दिशाचक्र को उसके (अर्थात उस योगी के) समताभाव में ही पा जाएगा I

जब ऐसा हो जाएगा, तब वो योगी दिशाचक्र में बसा प्रतीत होता हुआ भी, उस दिशाचक्र से अतीत ही कहलायेगा I उसके लिए न तो कोई उत्कर्ष मार्ग रहेंगे, और ना ही नहीं रहेंगे I

ऐसा योगी अपने आत्मस्वरूप में ही उस सर्वदिशा मार्ग पर चला जाएगा, जो दिशा के अनुसार माँगतीत (दिशातीत) और भगातीत होता है, और जिसको वैदिक मार्गों के अनुसार बहुवादी अद्वैत भी कह सकते हैं I ऐसे मार्ग पर, जो भी दिशा आयाम (अर्थात उत्कर्ष मार्गों) के भाग (या बिन्दु) होंगे, वो सभी सीधे-सीधे ब्रह्म ही को जाते हैं I

ऐसा योगी मार्गों (अर्थात दिशाओं) के तारतम्य में बसा हुआ भी, वास्तव में दिशातीत ही होता है I और ऐसा योगी ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में सर्वमार्गी कहलाता हुआ भी, मार्गातीत और सर्वदिशा दर्शी (अर्थात सर्वमार्ग दर्शी) कहलाता है I

वो किसी एक दिशा या मार्ग में बसा दिखाई देता हुआ भी, उसके अपने आंतरिक मार्ग (या दिशा) में  मार्गातीत (या दिशातीत) ही होगा I और इसके साथ साथ, वो वास्तव में मार्गातीत होता हुआ भी, अपनी बाह्य दशा से बाहर से (अर्थात व्यवहार आदि से), इस या उस मार्ग में बसा हुआ ही दिखाई देगा I

और अंततः, ऐसा योगी कर्मों से ही अतीत होकर, कर्ममुक्ति (या कर्मातीत मुक्ति) को पाता है I लेकिन यदि वो कर्ममुक्त योगी, अघोर मार्गी होगा, तो वो योगी उस कर्ममुक्ति को आगे की ओर भी ठेल सकता है, क्यूंकि अघोर सिद्ध योगी को पता होता है, किउसके लिए न तो कोई मुक्ति है, और न कोई बंधन ही बचा है I

और क्यूंकि वो मार्गातीत होगा, इसलिए उसके पास स्वयं ही स्वयं में, के मार्ग में जाने के सिवा कोई और विकल्प बचेगा भी नहीं I

इसीलिए, उसके मार्ग के अनुसार, वो स्वयं ही स्वयं में जाता हुआ पाया जाएगा, और जहाँ उसका स्वयं ही सर्वमार्गों का मूल होगा, और उन मार्गों का अमूल गंतव्य भी होगा I

  • दशचक्र के समस्त भागों (अर्थात ब्रह्माण्ड की समस्त दशाओं) के साथ, एक ही समय पर योग कर सकता है I यदि कोई योगी ऐसा योग स्थापित कर पाएगा, तो वो योगी समस्त दशचक्र की विभिन्न दशाओं के तारतम्य में बसा हुआ भी, उस दशचक्र को उसके (अर्थात उस योगी के) समताभाव में ही पाएगा I

जब ऐसा हो जाएगा, तो वो योगी दशचक्र में बसा हुआ प्रतीत होता हुआ भी, उस दशचक्र से अतीत ही कहलायेगा I

जो दशचक्र से ही अतीत हो गया, वो दशाओं के तारतंय से भी अतीत होता है I ऐसा योगी ही उस महाब्रह्माण्ड से योग करता है, जिसके भीतर समस्त दशाएँ बसी हुई होती हैं, और जो समस्त दिशाओं में भी बसा हुआ होता है I वो महाब्रह्माण्ड समस्त दिशाओं में बसा होने पर भी, उन दशाओं के तारतम्य से अतीत ही होता है, और ऐसा ही वो योगी भी हो जाता है उसके अपने आत्मस्वरूप में I

ऐसा योगी अपने आत्मस्वरूप में उस सर्वव्यापक दशा को पाएगा और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में दशातीत और सर्वव्याप्त कहलाता है I

वो समस्त दशाओं के तारतम्य से अतीत होगा, इसलिए वो जीव होता हुआ भी, जीवातीत होगा…, और जगत होता हुआ भी, जगतातीत ही होगा I

वो किसी एक लोक में रहता हुआ ही, न तो किसी लोक में होगा, और ना ही नहीं होगा I उसका आत्मस्वरूप सर्वदशा स्थित होता हुआ भी, वास्तव में सर्वातीत ही होगा…, और वैसे ही होगा, जैसा वो ब्रह्म है I

वो किसी लोक में रहता हुआ भी, समस्त लोकों से अतीत, लोकातीत होगा और वो किसी लोक में न रहता हुआ भी, उस लोक का लोकी ही कहलाएगा I और यहाँ जिस लोक का शब्द प्रयोंग किया गया है, वो सर्वलोकात्मक ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जिस योगी ने ऊपर बताए हुए समस्त बिन्दुओं को पा लिए, वो जब तक चाहे, तबतक ही ब्रह्माण्ड में रहेगा…, क्यूंकि उसने स्वयं में ही स्वयं के विधाता को पाया है I इसलिए ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी स्वयं ही स्वयं का विधाता कहलाता है I

और उसका आत्मस्वरूप ही वो होता है, जो वैदिक वाङ्मय में पुरुष, सगुण ब्रह्म, सगुण शिव, सृष्टिकर्ता, कार्य ब्रह्म, योगेश्वर, महेश्वर, हिरण्यगर्भ ब्रह्म और प्रजापति भी कहलाया गया है, और जिसका मूल नाद उकार होता है I

 

अघोर और अहम् नाद, … अघोर का अनादि अनंत स्वरूप, … अघोर का सनातन स्वरूप, … अघोर का विशुद्ध अहमात्मक ब्रह्म स्वरूप, …

वो अहम् नाद जिसमें वो नीले रंग का सूक्ष्म शरीर पहुँच गया था, वो सदैव चलायमान सा ही था I वो अपने नाद स्वरूप में अटूट था, इसलिए ऊपर दिखाए गए प्रथम चित्र में, वो अहम् का शब्द, अखंड सा ही प्रतीत हो रहा था I

वो अहम् नाद ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि वो अनादि ही है, अर्थात वो ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि अनादि कालों से वो ऐसा ही है, जैसे अभी साक्षात्कार हो रहा था I इसलिए वो अहम् का शब्द, जो विशुद्ध अहंकार रूपी ब्रह्म को दर्शाता है, उसके अपने नाद स्वरूप में अनादि ही है I

और वो अहम् नाद ऐसा भी प्रतीत हो रहा था, कि उसका कोई अंत भी नहीं है I इसलिए वो अपने अहम् नाद के स्वरूप में अनंत ही है I

यही कारण था, कि उस नील वर्ण सूक्ष्म शरीर को, जो अघोर मुख पर पहुँच गया था (और जैसा ऊपर के प्रथम चित्र में भी दिखाया गया है), उसको वो अहम् नाद उसके अपने नाद स्वरूप में, अनादि अनंत सा ही प्रतीत हो रहा था I

लेकिन अनंत शब्द तो श्रीमन नारायण को भी दर्शाता है, इसलिए उस अहम् नाद का कुछ न कुछ नाता, मेरे सनतान गुरुदेव श्रीमन नारायण से अवश्य ही था I

और इसके अतिरिक्त, अनंत शब्द शिव का भी द्योतक है, इसलिए उसी अहम् नाद का नाता, मेरे परमगुरु शिव से भी अवश्य ही था I

और क्यूंकि लिंगोद्भव के समय पर, अनंत शब्द शिवलिंगात्मक भी होता है, इसलिए इस अहम् शब्द का नाता, शिवलिंगात्मक नामक शब्द से भी था I

और क्यूंकि इन दोनों शब्दों (अर्थात, अनादि अनंत) का नाता, वास्तव में तो उस विशुद्ध अहमात्मक ब्रह्म से ही है, इसलिए यह अहम् का शब्द, जो अघोर मुख का ही बीज शब्द है, उस वैश्वानर रूपी ब्रह्म को भी दर्शा रहा था, जिसके शब्द अ और हम होते हैं I

इस अ और हम में, अ शब्द योगीजनों और वेद मनीषीयों द्वारा, ॐ का प्रथम बीज, अकार भी कहलाया गया है I और हम शब्द मूल प्रकृति का होता है I

इसलिए इस अहम् नाद में इन दोनों शब्दों का योग भी होता ही है जिसके कारण, अपने नादात्मक रूप में, अहम् का शब्द, पुरुष का भी है और प्रकृति का भी I

और क्यूँकि पुरुष और प्रकृति का प्रादुर्भाव, सगुण ब्रह्म (या सगुण शिव) से ही हुआ था, इसीलिए यह अहम् शब्द अपने नाद स्वरूप में, शिवात्मक मार्ग भी है I

तो अब अघोर ब्रह्म (या सदाशिव के अघोर मुख) के अहम् शब्द को बतलाता हूँ I

 

अघोर का अहम् शब्द, … अघोर और अहम् शब्द, … अघोर का बीज शब्द, … अघोर और अहम् नाद, … अघोर का अहम् नाद, … अघोर का बीज नाद, …

यह अहम् का शब्द, जो अनादि अनंत सा प्रतीत हो रहा था, वो ऐसा था …

  • इस अहम् नाद में एक शब्द अअअअअ का था I यह अअअअअ का शब्द लम्बा ही था I
  • और इसी अहम् नाद में दूसरा शब्द हम का था I यह हम का शब्द छोटा था I
  • लेकिन इस अहम् के नाद में, यह दोनों शब्द एक दुसरे से घुले मिले हुए थे, अर्थात अअअअअ का शब्द और हम का शब्द, एक साथ ही चलायमान हो रहे थे I लेकिन ऐसा होने पर भी, उस सूक्ष्म शरीर को, जो इनको दोनों शब्दों को सुन रहा था, यह दोनों शब्द एक के बाद एक…, ऐसे ही सुनाई दे रहे थे I
  • अघोर मुख के उस अहम् नाद में, जैसे ही अअअअअ का शब्द समाप्त होता था, वैसे ही हम का शब्द सुनाई देता था I और जैसे ही हम का शब्द समाप्त होता था, वैसे ही अअअअअ का शब्द अपने लम्बे रूप में चल पड़ता था I

इसलिए उस सूक्ष्म शरीर को, जो अघोर मुख में पहुँच कर उस अघोर के अहम् शब्द को सुन रहा था, उसे ऐसा लग रहा था, जैसे अहम् शब्द के दोनों बीज, एक दुसरे से जुड़े हुए हैं I

इसी कारणवश, पूर्व में बताया गया था कि अघोर मुख के अहम् नाद में उसके दोनों बीज आपस में घुले मिले होते हैं I

  • अघोर मुख के उस अहम् नाद में, अअअअअ का शब्द शांतिदायक था, जैसे इसको कोई अर्धनिद्रा में ही बोल रहा हो I और हम् का शब्द बहुत गूंजने वाला, अति ऊर्जावान था और छोटा सा था, जैसे इसको कोई किसी विशालकाय ऊर्जा का पूर्ण आलम्बन लेके, शीघ्रता से बोला जा रहा हो I

इसलिए…, इस दशा का शब्द, अअअअअहम्, … अअअअअहम्, … ऐसा ही था I

और यह अहम् नाद अनादी कालों से और अपने अखण्ड शब्द रूप में, चालयमान हुआ सा प्रतीत भी हो रहा था I

 

अघोर ब्रह्म और प्रकृति, अहम् नाद में ब्रह्म और प्रकृति का योग, अघोर में ब्रह्म और प्रकृति का योग, अघोर में भगवान् और प्रकृति का योग, अघोर में महादेव महादेवी योग, …

इस अहम् शब्द में, जो साक्षात्कार हुआ था, वो ऐसा था …

  • इस अहम् के शब्द में, जो अ शब्द था, वो अकार का वाचक था…, और जो ब्रह्म के ही वैश्वानर स्वरूप का द्योतक था I ब्रह्म का जो सर्वशक्तिशाली स्वरूप है, वो ही वैश्वानर कहलाया गया है, और इसी स्वरूप को महादेव भी कहा गया है I
  • और इसी अहम् के शब्द में, जो हम शब्द था, वो उन मूल प्रकृति का वाचक था जो ब्रह्म की ही प्रथम और पूर्ण अभिव्यक्ति, शक्ति, दिव्यता, दूती और अर्धांगनी हैं I मूल प्रकृति ही महादेवी कहलाती हैं I अपने महादेवी स्वरूप में वो मूल प्रकृति ही मूल शक्ति, अपराजिता, सर्वव्यापक सर्वविजयी ब्रह्म शक्ति, अर्थात माँ दुर्गा कहलाती हैं I
  • इसलिए यह अहम् का शब्द, ब्रह्म का भी है और माँ प्रकृति का भी है, जिसके कारण अघोर मुख का यह अहम् नामक शब्द, ब्रह्म और प्रकृति की अनादि अनंत सनातन योगावस्था को भी दर्शा रहा है I यही कारण है, कि इस अहम् शब्द का अध्ययन, भगवान् और प्रकृति, दोनों के साक्षात्कार का मार्ग भी है I
  • और क्यूंकि इस अहम् नामक शब्द में, महादेव और महादेवी दोनों के शब्दात्मक स्वरूप बसे हुए हैं, इसलिए यह अहम् शब्द, महादेव महादेवी के योग को भी दर्शाता है I

लेकिन आजकल तो कुछ मूर्ख मनीषी, जो योग और वेदमार्गों के उच्च पदों पर बैठे हुए हैं, वो कहते हैं की अहम् (या अहंकार) को त्यागो I ऐसे मनीषी जानते ही नहीं हैं, कि अहम् (या अहंकार) का विशुद्ध रूप ही ब्रह्म का वो स्वरूप है, जो अघोर कहलाया गया था I

 

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म, विशुद्ध अहंकार ही ब्रह्म, अघोर ब्रह्म और विशुद्ध अहम्, अहम् नाद और अघोर, अहम् नाद और विशुद्ध अहम्, विशुद्ध अहंकार और अहम् नाद, विशुद्ध अहंकार और अघोर, …

वो अहम् नामक शब्द जो ब्रह्म के सर्वव्यापक अहंकार को ही दर्शा रहा था, और उसमें न तो अभिमान था और न ही अनाभिमान ही था I इसलिए वो अहम् का विशुद्ध स्वरूप ही था, अर्थात विशुद्ध अहम् (या विशुद्ध अहंकार) ही था I

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म का द्योतक होता है, इसलिए यह अहम् का शब्द जो अघोर मुख का था, वो अहम् शब्द रूपी विशुद्ध ब्रह्म ही था I

इसका अर्थ यह भी है, कि अघोर मुख का वो अहम् शब्द (या अहम् नाद), उन सर्वेश्वर ब्रह्म के ही शब्दात्मक दशा का, ऐसा विशुद्ध या निष्कलंकी स्वरूप था,  जिसमे…, न तो कोई मैं-पन था…, और न ही नहीं था I

और ऐसा होने पर भी, उस विशुद्ध अहम् के शब्दात्मक स्वरूप, अर्थात अहम् नाद में…, वो मैं-पन था…, और नहीं भी था I

विशुद्ध अहम् के शब्दात्मक स्वरूप, अर्थात अहम् नाद में, वो मैं-पन सर्वव्यापक सार्वभौमिक था, इसलिए यहाँ पर था, ऐसा कहा गया है I और इसके साथ साथ, उसी विशुद्ध अहम् के शब्दात्मक स्वरूप, अर्थात अहम् नाद में, वो मैं-पन अपने संकुचित या सीमित स्वरूप में नहीं था, इसलिए यहाँ पर वो नहीं था, ऐसा भी कहा गया है I

इसलिए, उस अघोर मुख के साक्षात्कार में, यह अहम् नामक शब्द, विशुद्ध अहम् को ही दर्शा रहा है I

 

और यह विशुद्ध अहम्, ब्रह्म की समस्त रचना का विशुद्ध अहंकार भी है I

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं, अर्थात विशुद्ध अहंकार ही ब्रह्म है I

इस समस्त जीव जगत में, वो विशुद्ध अहम्, अघोर मुख के अहम् नाद का ही है I

जब किसी भी साधक का अहंकार विशुद्ध हो जाता है, तो वो अहंकार अघोर नामक ब्रह्म में ही विलीन होके, ब्रह्म ही कहलाता है I

यह वैसा ही होता है जैसे बूंद, सागर में विलीन होके, सागर ही कहलाती है I

 

वैदिक वाङ्मय में, इसी विशुद्ध अहम् नमक सिद्धि को कई प्रकार से दर्शाया गया है, जैसे …

  • अहम् अस्मि … इस वैदिक वाक्य की गंतव्य दशा में, साधक का अहम् और अस्मिता दोनों ही विशुद्ध होके, ब्रह्म ही हो जाते हैं I

यह अहम् अस्मि के वैदिक वाक्य की दशा, तमोगुण समाधि से जाके रजोगुण समाधि (या अस्मिता समाधि) पर जाती है, और उस अस्मिता समाधि (या रजोगुण समाधि) को पाकर, वो साधक सर्वज्ञानात्मक ही हो जाता है, अर्थात वो जो कुछ भी अपनी साधनाओं में देखेगा, उस दशा का ज्ञान उसमें स्वयं प्रकट हो जाएगा I इसलिए रजोगुण समाधि सिद्ध साधक को किसी और से, या कहीं और से कुछ भी जानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती I

और इन दोनों समाधियों की योगसिद्धि से, वो साधक एक अद्वैत सिद्ध शरीर पाता है, जो कृष्ण पिङ्गल रुद्र से सम्बंधित होता है, जिसके कारण उस सिद्ध शरीर को कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर भी कहा जा सकता है I

और इन्ही दोनों समाधियों से वो साधक कई और सिद्ध शरीरों को भी पा जाता है, जिनके बारे में एक बाद की अध्याय श्रंखला में बात होगी, जिसका नाम सदाशिव मार्ग होगा I

  • अहम् ब्रह्मास्मि … यजुर्वेद के इस महावाक्य की दशा में, वो विशुद्ध हुए अहम् और अस्मिता, अपने अपने पृथक स्वरूपों को त्यागके, जो शेष रह जाता है…, वो ही हो जाते हैं I और यही शेष रहा हुआ (या बचा हुआ) स्वरूपा, साधक का वास्तविक आत्मस्वरूप ही होता है I

 

अघोर में रचना ही रचैता है, अघोर में रचैता ही रचना है, अघोर का ब्रह्म रूप, …

और क्यूंकि वास्तव में यह अहम् नामक शब्द, ब्रह्म की रचना का है, इसलिए यह अहम् का नाद, ब्रह्म की रचना के मूल, विशुद्ध अहंकार को ही दर्शाता है I

वैदिक वाङ्मय के अद्वैत सिद्धांत में, यह शब्द भी एक कारण था, कि रचना ही रचैता कहलाई थी I और इसके साथ साथ, उसी वैदिक वाङ्मय में, रचैता ही रचना कहलाया था I

और यह भी एक कारण था, कि वैदिक मनीषी कह गए …

ब्रह्म ही प्रकृति है और प्रकृति ही ब्रह्म है I

 

और इसी से एक और सिद्धांत निकल के आया था, जिसको वेदमार्गी मनीषीयों ने ऐसा कहा था…, कि ब्रह्म की रचना में…,

प्रकृति ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सार्वभौम दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रधान दूती है I

यह भी वो कारण था, कि उन पुरातन कालों में, जो मुझे स्मरण भी हैं क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, वैदिक मनीषी, प्रकृति के तत्त्वों पर भी साधना करते थे I

और उन साधनाओं में, प्रकृति ही वो ब्रह्मपथ होती थी, जो सर्वव्यापक था, क्यूंकि साधकगण उस प्रकृति स्वरूपी ब्रह्मपथ के भीतर बस कर ही, उस ब्रह्म को अपने भीतर ही साक्षात्कार करते थे I

 

इसका कारण था, कि …

जो प्रकृति जीव जगत के भीतर है, उसके आँचल में ही जीव जगत बसा हुआ है I

जिस प्रकृति में तुम बसे हुए हो, वो ही तो तुम्हारे भीतर है I

और तुम्हारे भीतर और बाहर की प्रकृति के मूल नादों में से, एक नाद यहाँ बताया जा रहा, अहम् नाद है I

 

और क्यूंकि यह नाद, ब्रह्म की रचना अर्थात समस्त जीव जगत में समान रूप में और अनादि कालों से बसा हुआ है, इसलिए यह नाद सनातन भी है, और सर्वव्यापक भी है I

जो सनातन और सर्वव्यापक होता है, उसे ही तो ब्रह्म कहा जाता है I

 

और इसलिए…,

इस अहम् नाद की दशा, जो अघोर है, उसको पंचब्रह्मोपनिषद में स्थान मिला है I

 

और इस नाद की दशा को अघोर ब्रह्म कहा गया था, क्यूंकि यह दशा घोर होती हुई भी, वैदिक वाङ्मय में बसे हुए मनीषीयों के लिए, घोर नहीं है…, अर्थात अघोर ही है I

 

अघोर और ब्रह्मपथ, अहम् नाद और ब्रह्मपथ, अहम् नाद और ब्रह्माण्ड के बीज शब्द, अहम् और ब्रह्मपथगामी साधक, अघोर और ब्रह्मपथगामी साधक, अघोर से ब्रह्मपथ का प्रारम्भ, …

क्यूंकि यह अहम् नाद, विशुद्ध अहम् को दर्शाता है और क्यूँकि विशुद्ध अहंकार ही ब्रह्म कहलाता है, जो सनातन सर्वव्याप्त है, इसलिए ब्रह्म की समस्त रचना के इस विशुद्ध अहम् के बसे होने से, वैदिक मनीषी कह गए, कि रचना से ही रचैता का मार्ग निकलता है, क्यूंकि रचैता ही उसकी रचना और रचना का तंत्र हुआ है I

 

इसलिए वैदिक वाङ्मय के अनुसार …

ब्रह्म की रचना ही ब्रह्मपथ है और ब्रह्म की समस्त रचना ब्रह्मपथगामी भी है I

ब्रह्म की रचना में बसकर, ब्रह्म की विशुद्ध रचना होकर ही ब्रह्म को जान पाओगे I

जो ब्रह्म की रचना नहीं, और ब्रह्म की रचना में नहीं, वो ब्रह्म का ज्ञाता भी नहीं I

यह भी एक कारण था, कि ब्रह्म की रचना की आवश्यकता पड़ गई थी, जब इस रचना के पूर्व के समय की आत्माओं ने उस ब्रह्म को जानने की इच्छा प्रकट की थी I

और इसीलिए, ब्रह्म ही उसकी अपनी रचना हुआ था, क्यूंकि ऐसी दशा में, रचैता को जानने का मार्ग, उसकी रचना से ही होकर जाता था, जिसके कारण उसको (अर्थात रचैता को) जानने के लिए, उसकी रचना होकर और उसकी रचना में बसकर ही उस रचैता को जाना जा सकता था I

 

यह भी वो कारण था जिससे वेद मनीषीयों ने कहा था, कि …

रचैता ही रचना और उस रचना का तंत्र हुआ है I

 

जिसके कारण वैदिक वाङ्मय में …,

रचना को ही उस रचैता का सर्वोत्कृष्ट मार्ग माना गया था I

 

यह भी वो कारण है, कि उस रचैता की रचना होकर और उस रचना के भीतर बसकर ही…, उस रचैता को जाना जा सकता है I

लेकिन यह तो वैदिक अद्वैत सिद्धांत ही है, जिसमे रचना, रचना के तंत्र और रचैता में भी तारतम्य नहीं होता I इसलिए अपने मूल और गंतव्य से, यह तीनों एक ही हैं, अर्थात यह तीनों वो रचैता ही हैं I

और ऐसा होने के कारण, अपने विभिन्न उत्कर्ष रूपी मार्गों के और अपने उत्कर्ष पथ की पृथक दशाओं के अनुसार, यह तीनो एक दुसरे की ओर ही जा रहे हैं…, इसलिए एक दुसरे के पूरक भी हैं I

 

इसलिए वैदिक वाङ्मय के सर्वोत्कृष्ट अद्वैत सिद्धांत के अनुसार…,

रचना ही रचैता है, जिसके कारण रचना ही रचैता की ओर जाने वाला मार्ग है I

 

इसलिए यदि ब्रह्म को जानना है, तो…,

उसकी उत्कृष्ट रचना होकर और उसके रचना के तंत्र में बसकर ही उसको जानो I

बिना रचना हुए, और बिना उस रचना के तंत्र में बसे, उस रचना के रचैता को जानना असंभव ही है I

 

यह भी कारण है, कि योग मनीषी कह गए…,

यदि ब्रह्म (रचैता) को जानना है, तो पहले ब्रह्माण्ड को जानो I

और वो ब्रह्माण्ड जो जाना जाता है, तुम्हारी काया के भीतर है… बाहर नहीं I

 

और क्यूँकि रचना की आदिभौतिक मूलावस्था शब्द तन्मात्र ही है, अर्थात नाद ही है, इसलिए यदि उस रचैता की रचना (अर्थात ब्रह्म के ब्रह्मांड स्वरूप) को जानना है, तो उस ब्रह्माण्ड के मूल (या बीज) शब्दों को जानो I

यहाँ बताया जा रहा अहम् नाद, उन पाँच प्रधान बीजों में से, एक प्रधान बीज ही है I

इस अहम् नाद का मार्ग उसी ब्रह्मपथ के अंतर्गत ही आता है I

और इसके अतिरिक्त, अहम् नाद का साक्षात्कार, साधक के ब्रह्मपथ का प्रारम्भ भी दर्शाता है I

इसलिए यहाँ बताया जा रहा अघोर (या अहम् नाद) का साक्षात्कार, इस बात का भी प्रमाण है, कि वो साधक ब्रह्मपथगामी हो चुका है I

 

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है, अघोर विशुद्ध अहम् का द्योतक है, विशुद्ध अहंकार ही ब्रह्म है, … अहंकार का विशुद्ध स्वरूप ही ब्रह्म है, …

वो जो अहम् नाद था, वो विशुद्ध था, अर्थात उसमे कोई भी वृत्ति नहीं थी I इसलिए वो अहम् का शब्द विशुद्ध अहम् का ही द्योतक था, अर्थात वो अहम् का शब्द विशुद्ध अहंकार को दर्शा रहा था I

और क्यूंकि यह नाद अघोर मुख का ही था, इसलिए अघोर विशुद्ध अहम् का द्योतक भी है I

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है, अर्थात अहंकार का विशुद्ध स्वरूप ही ब्रह्म है क्यूंकि ब्रह्म इसी विशुद्ध सर्वव्यापक मैं-पन (या अहम्) को धारण करके, अपनी ही रचना और उस रचना का तंत्र भी हुआ था I

यह भी वो कारण है, कि अहम् विशुद्धि मार्ग को ब्रह्मपथ भी कहा जा सकता है I

 

अघोर समस्त ब्रह्माण्ड की सबसे ऊर्जावान दशा है, … सूक्ष्म शरीर अहम् में फँस जाता है, … अघोर ब्रह्मपथ की प्रारंभिक अवस्था है, …

अब ध्यान देना …

आजकल योगीजन चित्त विशुद्धि (या चित्त निरोध) के बातें करते हैं, क्यूंकि मैंने ही एक पूर्व जन्म में अपने योग ग्रन्थ में ऐसा कहा था I

लेकिन कोई यह नहीं बोलता, कि चित्त निरोध का मार्ग भी तो विशुद्ध अहमावस्था से होकर ही जाता है I ऐसा कोई इसलिए नहीं बोलता, क्यूंकि आज के यह सभी योगीजन, रट्टू तोते ही हैं…, न की कोई साक्षात्कारी योगी I

और क्यूंकि यह सब ऐसे ही हैं, इसलिए ये सब किसी और योगी के बताये हुए ग्रंथों से पढ़कर, समाधि तक की बातें करते हैं, जबकि इनमें से अधिकांश की तो समाधि से पूर्व की दशाएं ही सिद्ध नहीं हुई हैं I

वैदिक कालचक्र गणना के अनुसार, मेरा वो पूर्वजन्म 5,694 ईसापूर्व से 27 और 1 वर्षों के भीतर हुआ था I और मैंने उस जन्म में 27 वर्षों के भीतर ही अपना कार्य करके, अपने उस समय का देह योगमार्ग से त्याग दिया था I

उस जन्म में मैं पत्तल (पत्तल रूपी दिव्य प्रसाद) के नाम वाला एक अघोर मार्गी योगी था, और यह नाम मुझे भगवान् बालकृष्ण ने इसलिए दिया था क्यूंकि मैं उनके उस अतिऊर्जावान सागर में चला गया था, जिसमे वो गोल मटोल से बालकृष्ण एक बांस की लकड़ी से बनी छोटी सी टोकरी पर, पीपल के पत्तों जैसी शय्या पर, टांग पर टांग चढ़ाकर और अपने हस्त का ही तकिया बनाकर शयन करते हैं I

मुझे यह “पत्तल रूपी दिव्य प्रसाद” का नाम मेरे माता पिता या गुरु परंपरा से नहीं मिला था, बल्कि उन गोल मटोल से भगवान् बालकृष्ण से मिला था, और वो भी तब जब उन्होंने मेरी उस समय की योगसिद्धियों के अनुसार, उनके अपने 108 पत्तों के आसन का मुझे एक पत्ता बनाकर, अपने पास ही रख लिए था, और जिसके कारण मैंने अपना उस समय का देह, स्वेच्छा से और योगमार्ग से अपने प्राणों को विसर्गी करके त्याग दिया था I

भगवान् बालकृष्ण वो अतिऊर्जावान सागर, प्रत्येक आकाश गंगा के मध्य में है I

वो सागर अंधकारमय होता हुआ भी, उसमे बसकर उसके भीतर की अवस्थाओं को जाना जा सकता है I

उसी उफान मारते हुए, अतिऊर्जावान सागर में भगवान् बालकृष्ण निवास करते हैं I

और यही सागर समस्त ब्रह्माण्डों के मध्य में भी है, जिसमे वोही बालकृष्ण उन सभी ऊर्जा के सागरों के देवता के रूप में, और एकसाथ वैसे ही पाए जाएंगे, जैसे यहाँ बताया गया है I

वैसे बालकृष्ण के उस स्थान पर तो मैं इस जन्म में भी गया हूँ, और मैं यह भी जानता हूँ, कि उनसे सुन्दर बालक न किसी ब्रह्माण्ड के इतिहास में अब तक हुआ है…, और न ही आगे कभी, किसी भी ब्रह्माण्ड में ही हो पाएगा हो I

इसलिए, महाब्रह्माण्ड के समस्त जीवों और उनके बालकों में से, वो गोल मटोल से हलके नीले रंग के शरीर धारी, और जिनके शरीर पर हलकी पिङ्गल वर्ण की रेखाएं भी हैं…, ऐसे रूप के वो भगवान् बालकृष्ण ही सबसे सुन्दर हैं …, मैं ऐसा ही जानता हूँ I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ब्रह्म की रचना की प्रमुख ऊर्जा, अघोर का अहम् शब्द है, जो विशुद्ध अहम् को दर्शाता है, और जिसको धारण करके ही ब्रह्म ने रचना की थी I

विशुद्ध अहम् को पाए बिना तो उस चित्त निरोध का मार्ग भी प्रशश्त नहीं होता, जिसके बारे में मेरे पूर्वजन्म में बांटे हुए योगतंत्र विज्ञान में बताया गया है I

इस विशुद्ध अहम् के बिना तो ब्रह्म भी रचैता नहीं हो पाया था, इसलिए रचैता की ओर लेके जाने वाले समस्त मार्गों के मूल में विशुद्ध अहम् को ही पाया जाता है I

सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, अहम् नाद या अघोर की ऊर्जा, एक चुम्बक के समान है I इसलिए जब वो सूक्ष्म शरीर अघोर को जाकर, उस अघोर का साक्षात्कार करता है, तो कुछ समय तक, और जबतक साधक का अहम् पूर्ण विशुद्ध नहीं होता, वो सूक्ष्म शरीर वहां से (अर्थात अघोर से) हिल तक नहीं पाता है I

ऐसी दशा में वो सूक्ष्म शरीर अपने को अघोर में फंसा हुआ सा पाता है, क्यूंकि वो सूक्ष्म शरीर उस अहम् नाद (या अघोर) से न तो आगे की दशाओं में जा पाता है, और न ही वो सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल देह में लौट ही पाता है I

जब अहम् नाद का साक्षात्कार होता है, तो कुछ समय (या कुछ अधिक समय) के लिए, साधक का सूक्ष्म शरीर बस अघोर में ही फंसा रहता है I और यही दशा ऊपर के एक चित्र में भी दिखाई गई है, जिसमें नीले रंग का सूक्ष्म शरीर, नीले रंग के अघोर मुख की ओर देख रहा है, और उस अघोर के अहम् शब्द की ऊर्जा में ही फंसा हुआ है I

अब सूक्ष्म शरीर के अघोर में कुछ समय तक फंसे होने का कारण बताता हूँ …

जबतक साधक का अहम् कुछ अधिक प्रतिशत तक विशुद्ध नहीं होता, तबतक साधक का सूक्ष्म शरीर भी अघोर तक पहुँच नहीं पाता I

और जब साधक का सूक्ष्म शरीर अहम् नाद पर चला जाता है और उसका साक्षात्कार करता है, तो इसके पश्चात, जबतक साधक का अहंकार पूर्ण विशुद्ध नहीं होता, तबतक उस साधक का सूक्ष्म शरीर भी अघोर के अहम् नाद की ऊर्जा में ही फंसा रहता है I

ऐसी दशा में, वो सूक्ष्म शरीर, अघोर को देखता हुआ उसी अघोर के अहम् शब्द की ऊर्जा में ही लटका रहता है (अर्थात अचल हो जाता है), जैसा की इस चित्र में दिखाया गया है I

और अघोर के अहम् नाद की ऊर्जा में, वो सूक्ष्म शरीर तबतक लटका रहता है (अर्थात अचल हो जाता है), जबतक साधक का अहम् ही पूर्ण विशुद्ध न हो जाए I

अचल होके ऐसे फंसे होने के कारण से भी कुछ योगीजनों ने अहम् नाद की दशा को घोर माना है I

लेकिन जब साधक का अहम् विशुद्ध हो जाता है, तो उस साधक का सूक्ष्म शरीर पहले के समान, अचल भी नहीं रहता I

और ऐसी दशा में वो सूक्ष्म शरीर, अघोर से आगे की दशाओं में भी जाने लगता है, और उन आगे की दशाओं का साक्षात्कार भी करता है I

क्यूंकि अहम् नाद ही ब्रह्मपथ का प्रारम्भ है, और ब्रह्मपथगामी विशुद्ध अहम् के धारक साधकों के लिए अहम् नाद, अघोर ही होता है (अर्थात घोर नहीं होता है), इसलिए सर्व साक्षात्कारी योगीजनों ने, अहम् को अघोर नाम से पुकारा था I

अघोर शब्द का अर्थ होता है, जो घोर न हो I

ऐसा नाम इसलिए भी दिया गया था, क्यूंकि अघोर से ही ब्रह्मपथ की बाकी सारी दिशाओं में जाया जाता है, और वो भी तब, जब साधक का अहम् विशुद्ध हो जाएगा I

जबतक साधक का अहम् ही विशुद्ध न हो जाए, तबतक वो साधक ब्रह्मपथगामी भी नहीं हो पाएगा I

विशुद्ध अहंकार को पाए बिना, ब्रह्म को जाना ही नहीं जा सकता है I और उस विशुद्ध अहम् का अहमात्मक द्योतक अघोर ही है I

इसलिए, जिसने अघोर को नहीं जाना, उसने न तो विशुद्ध अहम् को पाया होगा, और न ही ऐसा साधक पूर्णरूपेण ब्रह्मपथ गामी ही हो पाया होगा I

 

अघोर में अहम् का विलय, … अघोर और अहम्, … अघोर और अहंकार, … विशुद्ध अहम् की प्राप्ति, … विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है, …

साधक का अहंकार भी अघोर मुख में ही लय होता है I इसका अर्थ हुआ, कि अघोर साक्षात्कार के पश्चात, साधक का जो अहम् भाव था, वो अघोर ब्रह्म और उनके अहम् नाद के समान भी सर्वव्यापक हो जाता है I

इसी सर्व्यापक दशा में, वो पूर्व का अहंकार जो “मेरे और तेरे”, इन दोनों बिंदुओं में ही सीमित था, उसका भाव “सबके” शब्दबिन्दु में चला जाता है I

ऐसे होने के पश्चात, उस साधक का अहम् सर्वव्यापत होकर, ब्रह्म सरीका हो जाता है I योगीजनों ने ऐसे सर्वव्यापक अहम् को ही ब्रह्म कहा था I

इसीलिए, पूर्व कालों के योगीजनों द्वारा, अहम् की ऐसी सर्वव्यापक दशा को ब्रह्म भी कहा गया था I ऐसी दशा में, साधक का अहम् भाव भी सर्वव्यापत होकर, समस्त जीव जगत में समान रूप में बस जाता है I यही अहम् की ब्रह्म अवस्था है I

और ऐसे अहम् को ही विशुद्ध कहा जाता है, क्यूंकि वो अहम् “इस या उस” तक सीमित नहीं होता, बल्कि “ब्रह्म की समस्त रचना का” ही होकर रह जाता है I

और इसीलिए, ऐसा सर्वव्यापक अहम् भाव भी ब्रह्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति ही होती है I

क्यूंकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं होती, और क्यूँकि अभिव्यक्ता ही अपनी अभिव्यक्ति हुआ था, इसलिए अपनी मूल अहमात्मक अभिव्यक्ति रूपी विशुद्ध दशा को प्राप्त होकर, साधक का वो सर्वव्यापक अहम्, ब्रह्म सरीका ही हो जाता है I

ऐसा विशुद्ध अहम् जो समस्त जीव जगत में समान रूप में बसा हुआ है, उसको  ही योगीजनों द्वारा ब्रह्म कहा गया था I

ऐसे विशुद्ध अहम् में “मेरा, तेरा, इसका या उसका” या कोई और सीमित या संकुचित भाव होता ही नहीं है, क्यूंकि ऐसे विशुद्ध अहम् को पाया हुआ साधक, “सबका और सर्वत्रका” ऐसे शब्दों में ही बस जाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसे साधक का सर्वव्यापक अहम् भाव (या सार्वभौम अहंकार) जैसा हो जाता है, अब उसको बताता हूँ …

सब मुझमें हैं, … मैं सबमें हूँ I

जो यह या वो हैं, वही मैं हूँ, … जो मैं हूँ, वही सब हैं I

 

इसलिए, जिस साधक का अहम्, अघोर मुख में विलीन हो जाता है, वो साधक …

स्वयं को सबमे पाता है, … सभी को स्वयं से योग किया हुआ पाता है I

जीव जगत में जो भी है, वो सब उसमें है… और वो सबमें है I

 

अघोर मुख ही ब्रह्माण्ड योग की प्रारंभिक दशा है, … ब्रह्माण्ड योग और अघोर, …

क्यूंकि अघोर में विलीन हुआ सूक्ष्म शरीर, साधक का अहम् विशुद्धि मार्ग भी होता है, इसलिए जब साधक का अहम् विशुद्ध हो जाता है, तो वो अहम् भाव ही सर्वव्याप्त हो जाता है, जिसके कारण उस विशुद्ध अहम् को पाया हुआ साधक, ब्रह्माण्ड योग के मार्ग पर जाने का पात्र भी हो जाता है I

ऐसे साधक की धारणा में, ब्रह्म सहित ब्रह्म की समस्त रचना (अर्थात समस्त जीव जगत) ही होता है I धारणा की ऐसी दशा को ब्रह्माण्ड धारणा भी कहा जाता है I

लेकिन इस ब्रह्माण्ड योग के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी I

 

अहम् विशुद्धि की गंतव्य दशा, … ब्रह्माण्ड धारणा की सर्वोच्च दशा, …

अहम् विशुद्ध होने के पश्चात, यदि कोई भी जीव ही उस साधक के बारे में ब्रह्माण्ड से पूछेगा, तो जो उत्तर मिलेगा वो अब बता रहा हूँ …

वो जीव था…, लेकिन अब नहीं है I

वो अब नहीं है…, लेकिन तब भी सदैव ही ब्रह्माण्ड रूप में रहेगा I

वो मैं-पन (अहम्) की उस विशुद्ध दशा को चला गया, जो ब्रह्माण्ड कहलाता है I

टिपण्णी : लेकिन योगमार्ग में यही बात कई और दशाओं में भी लागू होती है, इसलिए यह केवल यहां बताए जा रहे विशुद्ध अहम् तक ही सीमित नहीं है I

 

और यह उत्तर साधक की उस दशा को भी दर्शाता है, जो ब्रह्माण्ड धारणा की सर्वोच्च दशा होती है I और इस उत्तर का कारण है, कि …

अहम् के दृष्टिकोण से जीव जगत में, मैं (अहम्) का विशुद्ध स्वरूप ही ब्रह्माण्ड है I

इस जीव जगत की रचना के समय, जब ब्रह्म में अहम् स्वयंप्रकट हुआ था, तो वो अहम् विशुद्ध था I

उस विशुद्ध अहम् का योग जब ब्रह्म की इच्छा शक्ति से हुआ था, तब ही वो प्राथमिक ब्रह्माण्ड उसके अपने सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में स्वयंप्रकट हुआ था I

यह प्राथमिक ब्रह्माण्ड, ब्रह्म के विशुद्ध अहम् भाव से स्वयंउत्पन्न हुआ था और ब्रह्म के उस विशुद्ध अहम् भाव का ही साधन स्वरूप था I

वास्तव में तो यही सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड, प्राथमिक ब्रह्माण्ड कहलाया था और इससे ही ब्रह्माण्ड की अन्य सभी दशाएं स्वयंउत्पन्न हुई थी I यह अन्य दशाएँ ही कारण, दैविक, सूक्ष्म और स्थूल जगत के रूपों में हैं I

उस अनादि काल से जब यह प्राथमिक ब्रह्माण्ड स्वयंप्रकट हुआ था, तब से ही यह सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड समस्त जीवों के चित्त में, एक प्राथमिक संस्कार के रूप में भी बसा हुआ है I

और जिस योगी ने अपने मूलबल, अर्थात योगबल द्वारा इस प्राथमिक संस्कार को अपने शिवरन्ध्र से बाहर निकाल दिया, वो योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में मुक्तात्मा कहलाता है I

इस प्राथमिक संस्कार के शिवरंध्र से बाहर निकलने के मार्ग को, रकार मार्ग (अर्थात राम नाद) और अष्टम चक्र के अध्यायों में बताया जाएगा I

 

सूक्ष्म शरीर गमन की अंतगति में अघोर मुख ही है,

सूक्ष्म शरीर जब अघोर मुख में विलीन हो जाता है, और इस विलीन होने के पश्चात, वो सूक्ष्म शरीर अपना पूर्व का सगुण साकार (या शरीरी) स्वरूप त्याग कर, अघोर मुख के समान सगुण निराकार होने को अग्रसर हो जाता है, तो यह दशा उस सूक्ष्म शरीर के शरीरी (या सगुण साकार) स्वरूप की अंतगति ही होती है I

ऐसा कहने का कारण है, कि सूक्ष्म शरीर के अघोर मुख में विलीन होने के पश्चात वो सूक्ष्म शरीर अपने पूर्व के शरीरी रूप में रह ही नहीं पाता है और अघोर के समान ही निराकार अवस्था को पाता है I

इसका अर्थ हुआ कि अघोर मुख तक ही सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया चलती है…, अघोर मुख से आगे (या परे) नहीं I

अघोर मुख से आगे साधक का कारण शरीर और उन आगे की दशाओं के सिद्ध शरीर ही जाते हैं, क्यूंकि अघोर मुख के पश्चात, वो पूर्व का सूक्ष्म शरीर अपने शरीरी रूप में ही नहीं रह पाता है I

निराकारी कभी भी गमन नहीं करता है, गमन केवल साकारी का ही गुण होता है I

इसलिए जब सूक्ष्म शरीर अपने कारण, अर्थात अघोर में विलीन हो जाता है और इसके पश्चात वो सूक्ष्म शरीर अपने पूर्व के साकारी रूप में नहीं रहता, तब वो सूक्ष्म शरीर अघोर से आगे गमन भी नहीं कर पाता है I

लेकिन क्यूंकि योगमार्गों के साक्षात्कारों में अघोर से आगे की भी दशाएं होती हैं, इसलिए उन दशाओं में जो शरीर जाता है, वो सूक्ष्म शरीर हो ही नहीं सकता I

इसलिए, जब वो योगी अघोर से आगे जाने के लिए पात्रता पाता है, तब उस योगी के शरीर में ही कुछ सिद्धादि शरीर स्वयंप्रकट होते हैं, और वो योगी उन सिद्धादि शरीरों का आलम्बन लेके, अघोर से आगे की दशाओं का साक्षात्कार करता है I

जब सूक्ष्म शरीर अपने पूर्व के शरीरी रूप में ही नहीं बचा, तो सूक्ष्म शरीर गमन कैसे संभव होगा? I इसलिए, अघोर तक ही सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया होती है …, अघोर से आगे की दशाओं में नहीं I

यही कारण है, कि सूक्ष्म शरीर और उसकी गमन प्रक्रिया, अघोर ब्रह्म (या सदाशिव का अघोर मुख) तक ही सीमित होती है I

 

सूक्ष्म शरीर और लिंग शरीर,

सूक्ष्म शरीर को ही लिंग शरीर कहा जाता है और जहाँ यह लिंग का शब्द, साधक के सूक्ष्म शरीर के लिंग से भी जुड़ा होता है…, और जहाँ लिंग का अर्थ, द्योतक, सूचक और चिंन्ह भी होता है I

तो अब इन बिंदुओं को बताता हूँ …

  • सूक्ष्म शरीर की दशा बिलकुल वैसे आकार की होती है, जैसे स्थूल शरीर होता है I इसलिए सूक्ष्म शरीर के अंग भी स्थूल शरीर के अंगों के समान ही होते हैं I यही एकमात्र शरीर है जिसमे ऐसा होता है, और इसीलिए इसे लिंग शरीर भी कहा गया था I
  • और यही सूक्ष्म शरीर और उसका अघोर में विलीन होना, ब्रह्मपथ के प्रारम्भ को भी दर्शाता है I इसलिए, सूक्ष्म शरीर अपने मार्ग या गमन प्रक्रिया से, ब्रह्मपथ लिंग ही है (अर्थात ब्रह्मपथ प्रारम्भ प्रक्रिया का चिंन्ह और सूचक या द्योतक ही है) I इसलिए उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से, यह सूक्ष्म शरीर ब्रह्मपथ पर गति की प्रारंभिक अवस्था को दर्शाता है, जिसके कारण यह साधक के ब्रह्मपथगामी होने का लिंग स्वरूप है…, और प्रमाण भी है I
  • और यही सूक्ष्म शरीर, ब्रह्म की सगुण साकार और सगुण निराकार अभिव्यक्तियों के द्योतक या लिंग या चिन्ह भी है I शरीरी रूप में यह सूक्ष्म शरीर, ब्रह्म की सगुण साकार अभिव्यक्ति के लिंगात्मक स्वरूप है I और अघोर मुख में विलीन होने के पश्चात, वही सूक्ष्म शरीर उसके अपने अशरीरी रूप में आ जाता है, अर्थात सगुण निराकार रूप में आ जाता है, और ऐसी अवस्था में, वो सूक्ष्म शरीर ही ब्रह्म की सगुण निराकार अभिव्यक्ति का सूचक या द्योतक या लिंग स्वरूप कहलाता है I

इन्ही और कुछ कारणों से, योगीजनों ने सूक्ष्म शरीर को लिंग शरीर भी कहा था, क्यूंकि वास्तव में यह शरीर, ब्रह्म की सगुण साकार और सगुण निराकार अभिव्यक्तियों के ही लिंग रूप, अर्थात द्योतक या सूचक या चिंन्ह रूप ही होता है I

 

अघोर और आयाम चतुष्टय का नाता, … अघोर और आयाम सिद्धि, …

आयाम चतुष्टय होते हैं, अर्थात चार आयाम होते है, जो काल, आकाश, दिशा और दशा कहलाते हैं I

इन्ही चार आयामों में ब्रह्म की समस्त रचना बसी हुई होती है I आयाम चतुष्टय रचना के मूल और गंतव्य को साक्षात्कार करने का मार्ग भी होते हैं I

तो अब अघोर ब्रह्म और आयाम के नाते को बताता हूँ …

 

काल काल का अर्थ प्राचीनतम गर्भ होता है I

काल की तीन प्रधान दशाएं होती हैं, जो ऐसी होती हैं …

  • काल चक्र जीव जगत में काल के चक्र रूप में उदय हुई दशा जो चलायमान होती है, वो ही कालचक्र कहलाती है, जो त्रिकाल स्वरूप में होती है और जो सदैव ही गतिशील होती है, जिसके कारण वो सदैव ही परिवर्तनशील होती है I काल की इस परिवर्तनशील दशा को ही जगत कहा गया था I

जगत का शब्द, दो शब्दों से बना है, जो ज और गत हैं I

इनमे से ज शब्द का अर्थ है, जो अजा (या अज, अर्थात अजन्मा) न हो, अर्थात जिसने जन्म लिया हो I और गत शब्द का अर्थ है, चलित, गतिशील और परिवर्तनशील I

इसलिए जगत शब्द का अर्थ है, वो जिसने जन्म लिया है और परिवर्तनशील गतिशील है, अर्थात चलित रूप में है I

लेकिन यही परिभाषा तो कालचक्र की भी है, इसलिए काल विज्ञान के दृष्टिकोण से, कालचक्र का ही दूसरा नाम जगत है I

  • बिंदु शून्य, जीव जगत की जड़ अवस्था … जगत की मूल दशा शून्य कहलाती है, और जहाँ वो शून्य भी बिंदु स्वरूप में होता है, जिससे काल का चक्र रूप में स्वयंउदय होता है I

और क्यूँकि कालचक्र ही जगत है,इसलिए काल की मूल दशा “बिन्दु शून्य” कहलाती है, जिसका साक्षात्कार बिंदु शून्य समाधि (या जड़ समाधि) से होता है, और जिसकी दिव्यता या शक्ति, माँ महाकाली होती हैं, जो दस हाथ वाली होती हैं और इसीलिए दसों दिशाओं में व्याप्त होती हैं I

क्यूंकि बिंदु शून्य कालचक्र के उदय से भी पूर्व की दशा है, इसलिए उसकी समाधि में कालचक्र का प्रभाव नहीं होता, जिसके कारण जिस योगी ने बिन्दु शून्य समाधि, अर्थात जड़ समाधि पा ली, वो उस समाधि में अनंत कालों तक भी रह सकता है, और ऐसी दशा में, उस योगी की आयु की वृद्धि भी नहीं होगी I

काल के बिंदु स्वरूप तो काल के कालचक्र स्वरूप से पूर्व, अर्थात काल के जगत स्वरूप से पूर्व में भी था, और उसको ही जीव जगत की जड़ कहा जाता है और उसकी समाधि को ही जड़ समाधि I

  • अनंत … और उसी काल की गंतव्य दशा अनंत कहलाती है, जिसमे काल का मूल, समस्त दशाएं और दिशाएं (मार्ग या पथ) भी बसी हुई होती हैं, और वो अनंत भी काल के मूल बिंदु स्वरूप और चक्र अवस्था, दोनों में समान रूप से बसा हुआ होता है I

और क्यूँकि काल के मूल और उसी काल की सदैव चलायमान चक्र रूपी दशा, दोनों में ही वो अनंत काल, अपने अनादि अनंत सनातन रूप में साक्षात्कार होता है, इसलिए अघोर मुख से काल के इन तीनों स्वरूपों का साक्षात्कार भी हो सकता है I लेकिन ऐसा साक्षात्कार भी तभी होगा जब वो साधक इन सब के साक्षात्कार का पात्र होगा I

काल का जैसा त्रिस्वरूप यहाँ बताया गया है, वैसा ही अघोर ब्रह्म में साक्षात्कार होता है I

क्यूंकि सबकुछ कालगर्भित है, इसलिए इस काल साधना में ब्रह्म की समस्त रचना के साथ साथ, उस सनातन ब्रह्म को भी जाना जा सकता है I

जबकि काल होता तो देव का अंग है, लेकिन आयाम साधनाओं में यह देवी (प्रकृति) से सम्बंधित ही पाया जाता है I और यही कारण है, कि कालास्त्र भी देवी का ही होता है, न कि देव का I

कालास्त्र को ही सुदर्शन कहा जाता है और वो सुदर्शन भी कालचक्र स्वरूप में ही होता है I

कालास्त्र माँ प्रकृति का होता है, और इस अस्त्र को माँ प्रकृति ने कुछ देवताओं या उच्च कोटि के योगीजनों से सिवा किसी और को कभी भी नहीं दिया I

इसीलिए, जब किसी लोक में युगपरिवर्तन या युग के स्तम्भित होने का समय आता है, तब कोई न कोई कालास्त्र धरी सत्ता, उस लोक में और उस लोक के शरीरी रूप में आती ही है I

काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता माँ महाकाली की शक्ति से, जब वो कालास्त्र जन्म लेकर देहधारी हो जाता है, तो ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में उसे ही प्रमीति कहा जाता है I

एक पूर्व जन्म में, जो मुझे इसी कल्प के स्वयंभू मन्वन्तर में काल की प्रेरणा और काल दिव्यता महाकाली की शक्ति से प्राप्त हुआ था, मैं ही वो प्रमीति नामक सम्राट था, जिसने इस त्रिभुवन में धर्म को उसके सनातन अखण्ड स्वरूप में स्थापित किया था और जो आगे चलकर सनातन वैदिक आर्य धर्म कहलाया था I

ऐसा योगी कालचक्र सिद्धि के साथ साथ, महाकाली महाकाल योग सिद्धि को भी पाया हुआ होगा I

 

आकाश … आकाश का अर्थ विस्तार होता है, और जहाँ उस विस्तार की सीमा, अनंत में ही जाती है I

आकाश की भी तीन प्रधान दशाएं होती हैं I इन्ही में आकाश का पूर्णरूपेण साक्षात्कार होता है I

  • घटाकाश … यह किसी भी पिंड के भीतर बसा हुआ आकाश महाभूत होता है I घट रूपी पिण्डों (या शरीरों) के भीतर के आकाश को घटाकाश कहा जाता है I लेकिन इसके और भी अर्थ होते हैं, जिनके बारे में कभी बाद में बात होगी I यह आकाश का सगुण साकार स्वरूप है I
  • महाकाश … यह आकाश का सगुण निराकार स्वरूप है I ब्रह्माण्डीय आकाश तत्त्व को महाकाश कहा जाता है I इसी महाकाश शब्द के अंतर्गत, अहमाकाश, मनाकाश, ज्ञानाकाश, चिदाकाश, प्राणाकाश, शून्याकाशादी आकाश के स्वरूप आते हैं I
  • निर्गुणकाश … यह आकाश की सर्वोच्च दशा है, जो निरंग, सर्वव्याप्त और अनंत होती है और इसी को निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है I इसी के कारण आकाश को ब्रह्म कहा गया था I

अघोर में इन तीनों का साक्षात्कार हो सकता है I

क्यूंकि सबकुछ आकाश में ही बसा हुआ है, इसलिए इस आकाश साधना में भी सबकुछ जाना भी जा सकता है I

जबकि आकाश होता तो देव का अंग है, लेकिन आयाम साधनाओं में यह देवी (प्रकृति) से संबंधित ही पाया जाता है I

 

दशा … दशा का अर्थ स्थिति होता है I

दशा के भी तीन स्वरूप होते हैं और यह तीनों स्वरूप, ब्रह्माण्ड और जीव से जुड़े हुए होते हैं I

तो अब इन तीनों को बताता हूँ …

  • भीतर … यह साधक की उत्कर्ष स्थिति को दर्शाती है I
  • बाह्य … यह ब्रह्माण्ड की स्थिति को दर्शाती है, जिसमें जीव बसे होते हैं, और जहाँ वो ब्रह्माण्ड अपने प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में जीवों के भीतर भी बसा हुआ होता है I
  • भीतर से भी भीतर और बाह्य से भी बाह्य … यह वो दशा है जो समस्त महाब्रह्माण्ड के भीतर होती हुई भी, महाब्रह्माण्ड से परे की ही होती है, और यही दशा अनंत प्रकृति की वाचक है, और जहाँ वो अनंत प्रकृति ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I इसी दशा आयाम के भीतर चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड भी बसा होता है I इसी को सर्वव्यापत कहा जाता है, जो दशा आयाम का गंतव्य ही होता है और जो ब्रह्म की द्योतक भी है I

दशा आयाम के इन तीनों स्वरूपों में, प्रकृति रूपी ऊर्जा ही होती है और दशा का गंतव्य, अर्थात सर्वव्यापकता, ब्रह्म का ही सूचक है I

इन तीनों का साक्षात्कार भी अघोर में हो सकता है I

क्यूंकि सबकुछ किसी न किसी दिशा से संबंधित है, इसलिए दशा आयाम की साधना से भी सबकुछ जाना जा सकता है I अणु से महाब्रह्माण्ड तक, सूक्ष्म से स्थूलादि सभी दिशाओं तक, और उन सबसे प्रकृति और ब्रह्म तक, सबकुछ दशा आयाम का अंग ही है I

जबकि दशा होती तो देवी (प्रकृति) का अंग है, लेकिन आयाम साधनाओं में यह देव से संबंधित ही पाई जाती है I

 

दिशा … दिशा का अर्थ मार्ग होता है I

दिशा की भी तीन अवस्थाएं होती हैं, जो ऐसी होती हैं I

  • उत्कर्ष मार्ग, उत्कर्ष दिशा … यह वो मार्ग है, जो ब्रह्म के समस्त स्वरूपों को धारण किया हुआ होता है I ब्रह्म के स्वरूपों में प्रधानतः सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार स्वरूप होते हैं I

और ऊपर बताए गए सगुण साकार और सगुण निराकार के अंतर्गत, सगुण निर्गुण साकार, सगुण निर्गुण निराकार और शून्य के सारे प्रकार भी आते हैं I

और इन्ही तीनों में जीव जगत और जीव जगत से परे की समस्त अवस्थाओं की प्राप्ति के मार्ग भी आते हैं I

यही वेदमार्ग और योगमार्ग कहलाया था जिसके कारण, योग और वेद दोनों ही बहुवादी अद्वैत में बसे हुए थे, इसलिए यह मार्ग अनाभिमानी देवताओं का मार्ग है I

  • अपकर्ष मार्ग, अपकर्ष दिशा … यह वो मार्ग है, जो ब्रह्मपथ विरोधी होता है, इसलिए यह ब्रह्म के समस्त स्वरूपों को नहीं जाता I

इन अपकर्ष मार्गों में, ब्रह्म के तीनों स्वरूपों में से, किसी एक को ही माना जाता है I

पुरातन कालों में, जिनके बारे में अब मानव जाति भूल गयी है और इसलिए अनभिज्ञ हो चुकी है, इस मार्ग को ही अब्रह्म मार्ग कहा जाता है, जो अभिमानी देवताओं का मार्ग था और जिसको ब्रह्मदृष्टा उचित भी नहीं कहते थे I

  • मुक्ति मार्ग … मुक्ति मार्ग का अर्थ है, जो उत्कर्ष और अपकर्ष, दोनों के मार्गों से परे है I

यह वो आत्ममार्ग है, जिसमे न अभिमानी देवताओं की और न ही अनाभिमानी देवताओं की उपासना होती है, लेकिन तब भी यह दोनों प्रकार के देवता, साधक के गुरु स्वरूप तो हो ही सकते हैं I

इस मार्ग में साधक अपनी आत्मा पर ही साधना करता है, जो समस्त जीव (देवताओं सहित) और जगत (देवलोकों सहित) सबकी आत्मा होती है I

इसलिए इस मार्ग में न तो साधक किसी देवता या दशा के विरुद्ध होता है, और न ही नहीं होता है I और इसके साथ साथ, इस मार्ग में, साधक न तो किसी देवता या दशा के साथ होता है और न ही नहीं होता है I इसलिए यह समतावाद का मार्ग भी है I

और इन तीनों मार्गों पर अघोर मुख का आलम्बन लेके जाया जा सकता है I

जबकि दशा होती तो देवी (प्रकृति) की अंग है, लेकिन आयाम साधनाओं में यह देव से संबंधित ही पाई जाती है I

 

अघोर में सभी मुख होते हैं, … अघोर पूर्णता को दर्शाता है, … अघोर में बाकी सब मुखों के सूक्ष्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है, …

इन भाग में कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक भी बताया जाएगा I

  • जैसे पञ्च महाभूतों के प्रादुर्भाव में, पृथ्वी महाभूत का प्रादुर्भाव अंत में हुआ था, वैसे ही पंच ब्रह्म में, अघोर का प्रादुर्भाव भी अंत में हुआ था I
  • जैसे जिसका अंत में प्रादुर्भाव होता है, उसके भीतर पूर्व में प्रादुर्भाव हुई समस्त दशाओं और बिंदुओं का, उनके अपने-अपने सूक्ष्म रूप में समावेश होता है, वैसे ही पृथ्वी महाभूत में बाकी चार महाभूत और पञ्च तन्मात्र भी साक्षात्कार हो सकते हैं I
  • जैसे पृथ्वी महाभूत में बाकी चार महाभूत और पञ्च तन्मात्र साक्षात्कार हो सकते हैं, वैसे ही अघोर मुख में बाकी चार ब्रह्म और उनके कृत्य भी साक्षात्कार हो सकते है I
  • यही कारण है, कि जैसे पृथ्वी महाभूत, पञ्च महाभूतों की पूर्णता को दर्शाता है, वैसे ही अघोर मुख, पञ्चब्रह्म और पञ्च मुखा सदाशिव की पूर्णता को भी दर्शाता है I

 

अन्तःकरण चतुष्टय से अघोर का नाता, … अघोर और अन्तःकरण चतुष्टय का अहंकार, …

अन्तःकरण चतुष्टय में चार भाग होते है, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहम् कहलाते हैं I

इन चारों में से अहम् का संबंध, अघोर से होता है I

और क्यूंकि पञ्च ब्रह्म में अघोर का प्रादुर्भाव अंत में ही हुआ था, इसलिए अन्तःकरण चतुष्टय में भी, अहंकार का प्रादुर्भाव अंत में ही हुआ था I

और क्यूंकि पञ्चब्रह्म विज्ञान में, अघोर पूर्ण शब्द का वाचक है, इसलिए अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञानं में भी अहम् शब्द उसी पूर्ण को दर्शाता है, जिसको वैदिक वाङ्मय में ब्रह्म कहा गया है I

इसीलिए, अहम् विशुद्धि से अंतःकरण चतुष्टय के अन्य तीन अंग भी शुद्धता को पा जाते हैं I

इसीलिए, जिस योगी ने अपना अहम् विशुद्ध किया है, उसको उसके उत्कर्ष मार्ग में और कुछ करने की आवश्यकता पड़ती ही हैं I लेकिन अहम् विशुद्धि का मार्ग बहुत कठिन है. क्यूंकि इसकी सिद्धि में लगभग सबकुछ ही आ जाता है I

 

अब ध्यान देना …

जब अहम् विशुद्ध हो जाता है, तब …

बुद्धि वृत्तिहीन हो जाती है I

चित्त संस्कार रहित हो जाता है I

और मन स्थिर होके मुक्तिमार्ग पर चला जाता है I

और ऐसी स्थिति में, प्राण ब्रह्मरंध्र को पार करके, पूर्णविसर्ग को जाते हैं I

पञ्च कोष होते हुए भी, अपने अपने कारणों में विलीन होकर, नहीं से ही होते है I

और साधक की इन्द्रियां होकर भी, लगभग नहीं सी ही होती हैं I

और साधक के शरीर में वो प्रचंड, आंतरिक विप्लव के सामान रुद्रात्मक ऊर्जाएँ ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की ओर चलने लगती है और साधक उसकी आंतरिक दशा में, यजुर्वेद के मध्य मंत्र, नमः शिवाय को चला जाता है I

और उस साधक के भीतर की प्राणशक्ति, माँ रौद्री के स्वरूप को धारण करके, सोहम के योगमार्ग में ही चली जाती हैं I

इससे साधक अपने वास्तविक सगुण स्वरूप को तो पा जाता है, लेकिन इस पाने का मार्ग साधक के भीतर चल रहे घनघोर विप्लवों से होकर ही जाता है I

इसके कारण मैंने कहा था, की अहम् विशुद्धि का मार्ग बहुत कठिन है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

क्यूँकि अहम् विशुद्धि से लगभग सबकुछ ही शुद्धता को पाता है, इसलिए मेरे पूर्व जन्मों के पुरातन कालों के पंचब्रह्म विज्ञान में, अहम् विशुद्धि ही परमार्थ का मार्ग, अर्थात मुक्तिमार्ग कहलाता है I

पंच ब्रह्म विज्ञान के अनुसार, मुक्तिमार्ग अहम् विशुद्धि ही है, अर्थात अहम् विशुद्धि मार्ग ही मुक्तिमार्ग कहलाता है I

और यही बिंदु पंच मुखा सदाशिव के मार्ग में भी उतना ही लागू होता है I

जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होता, तबतक साधक न तो पञ्चब्रह्म का और न ही पञ्च मुखी सदाशिव का साक्षात्कार कर पाएगा I और ऐसी दशा में, साधक न तो पंच कृत्यों में से किसी को सिद्ध कर पाएगा और न ही गंतव्य मार्गी ही हो पाएगा I

जो योगी पंच कृत्यों में से, एक या एक से अधिक कृत्य का सिद्ध ही नहीं हुआ, वो ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में, जीव जगत का कल्याणकारी आत्मा कैसे कहलायेगा? I

पंच कृत्यों की सिद्धि से ही उनके पंच देवों, पंच भूतों और पंच तन्मात्राओं की सिद्धि होती है I

मेरे पूर्व जन्मों के उन अतिपुरातन कालों में, जिस भी साधक ने, एक या एक से अधिक, लेकिन पाच से न्यून कृत्यों का सिद्ध होता था, उसको महामानव कहते थे I और जो साधक सभी पांचों कृत्यों का सिद्ध होता था, उसको अतिमानव I

ब्रह्मांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, जो योगी महामानव पद को ही नहीं पाया, वो जीव जगत का कल्याणकारी आत्मा कैसे कहलायेगा? I

वैसे आज के योगीजन पद कोई भी धारण कर लें, लेकिन यहाँ मैंने बात गंतव्य तक लेके जाने की क्षमता की ही करी है…, क्यूंकि कलियुगों में, योग और वेदों के पदों पर तो अनभिज्ञ भी बैठा करते हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

वैसे तो पूर्व कालों में वेद मनीषी ऐसा भी कहते थे …

अहम् विशुद्धि वेदमार्गः I

 

अर्थात…,

अहम् विशुद्धि पथ ही वेद मार्ग है I

 

लेकिन आज के अधिकांश वेद मनीषी इस बिंदु को मानेंगे ही नहीं, क्यूंकि वो किसी न किसी देवी देवता में ही फंसे हुए हैं I

पर वेदमार्ग जो आत्ममार्ग का ही वाचक है, उसका मूल तत्त्व अहम् विशुद्धि ही है I

 

अहम् विशुद्धि और शिव पंचाक्षरी मंत्र, … विशुद्ध अहम् और नमः शिवाय, … विशुद्ध अहमावस्था और यजुर्वेद, … अघोर और यजुर्वेद … अघोर का वेद यजुर्वेद है, …

और वो अहम् विशुद्धि का मार्ग भी, अघोर मुख के वेद, अर्थात यजुर्वेद में ही केन्द्रित किया गया था, और वो भी यजुर्वेद के मध्य मंत्र में, जो नमः शिवाय कहा गया था I

यह नमः शिवाय रूपी शिव पंचाक्षरी मंत्र ही अन्तःकरण चतुष्टय सहित, इन्द्रियों और प्राणों की विशुद्धि का मंत्र है I

इस मंत्र की साधना अहम् विशुद्धि की ओर लेके जाती है, जिसके कारण अन्तःकरण चतुष्टय सहित, प्राण इन्द्रिय की विशुद्धि भी हो जाती है I

और इस शिव पंचाक्षरी मंत्र का मार्ग भी, यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे के वाक्य से होकर ही जाता है I

इसीलिए, इस शिव पंचाक्षरी मंत्र की साधना में, साधक समस्त ब्रह्माण्ड और उसकी दिव्यताओं को भी अपने पिण्ड रूपी शरीर में पाता है, और इसीलिए इस शिव पंचाक्षरी मंत्र मार्ग में, साधक के पिण्ड और ब्रह्माण्ड में कोई अंतर ही नहीं रहता है I

इसलिए यह मंत्र उस दशा को दर्शाता है, जिसमे जो भी ब्रह्म की रचना में है, वो सबकुछ का साक्षात्कार हो जाएगा, और ऐसा साक्षात्कार भी, साधक के पिण्ड रूपी शरीर के भीतर ही होगा I

और इस साक्षात्कार में, जो साधक के पिण्ड रुपी शरीर के भीतर साक्षात्कार होगा, वो ही ब्रह्माण्ड में भी पाया जाएगा I जिस ब्रह्माण्ड में साधक का पिंड बसा होगा, वो ब्रह्माण्ड ही साधक के पिंड में भी पाया जाएगा I

इस मंत्र के मार्ग में, यदि कुछ साधक के पिंड में नहीं मिलेगा, तो वो ब्रह्माण्ड में भी नहीं पाया जाएगा I

यही कारण है, कि गुरु शिव जिनका यह मंत्र है, वो सर्वघनात्मक और सर्वात्मक कहे गए हैं I

 

टिप्पणियां :

जैसे यजुर्वेद का माध्यम मंत्र, अघोर का है, वैसे ही अन्य सभी वेदों में भी है I

इस बिंदु के समस्त वैदिक स्वरूप को जिसको समझना है, वो अब समझ ले और वो भी उस शैली में जैसे यहाँ बताया गया है I

  • यजुर्वेद का माध्यम मंत्र, अहम् विशुद्धि की ओर लेके जाता है I इस मंत्र का नाता सदाशिव के अघोर मुख से है I
  • सामवेद का माध्यम मंत्र, मन की ब्रह्म में स्थिरता की ओर लेके जाता है I इस मंत्र का नाता सदाशिव के सद्योजात मुख से है I
  • अथर्ववेद का मध्य मंत्र, संस्कार रहित चित्त की ओर लेके जाएगा I इस मंत्र का नाता सदाशिव के वामदेव मुख से है I
  • ऋग्वेद का माध्यम मंत्र ज्ञान की ब्रह्म में स्थिरता की ओर लेके जाएगा I इस मंत्र का नाता सदाशिव के तत्पुरुष मुख से है I

 

और इन सभी को पार करने के पश्चात ही, साधक प्राणों की समतावादी स्थिति को पाता था, जिसमे उस साधक के प्राण हीरे जैसे प्रकाशमान स्वरूप को पा लेते थे I

ऐसे हीरे जैसे प्राणों का आलम्बन लेके ही साधक उस लोक तक गति करते थे, जो वैदिक वाङ्मय में ब्रह्मलोक कहलाया है, और जिसके बीस भाग होते हैं और जिन भागों को अव्यक्त प्राण (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) ने एक दूसरे से पृथक किया होता है I

लेकिन इन भागों के बारे में, कभी बाद में बात होगी I

तो अब मैंने संकेत में ही सही, लेकिन वो सब बतला दिया…, जो बताना था I

मेरे पूर्व जन्मों में, इसी मार्ग पर हम सब वेद मनीषी भी जाया करते थे I

 

अघोर और अहंकार, … अहंकार के प्रकार, … अहंकार का चतुष्टय स्वरूप, …

अहंकार के चार मुख्य प्रकार होते हैं, और इन चारों के भी चार-चार प्रभेद होते हैं, इसलिए वास्तव में तो अहंकार सोलह प्रकार से जाने जाते हैं, जो सोलह कलाओं को भी दर्शाते हैं, और जिनका संबंध ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह लोकों से होता है I

लेकिन यहाँ पर केवल चार मुख्य प्रकारों की बात होगी I

 

तो अब इन चार को बताता हूँ …

  • सात्विक अहंकार … इसका नाता सत्त्वगुण से होता है, जो हलके श्वेत वर्ण का होता है और जिसका संबंध प्रकृति के नवम कोष, अर्थात परा प्रकृति से होता है I परा प्रकृति की दिव्यता को ही माँ आदिशक्ति कहते हैं, जो मेरे पूर्व जन्मों के कालों में श्वेत सरस्वती भी कहलाई जाती थी I
  • तामसिक अहंकार … इसका नाता तमोगुण से होता है, जो गाढ़े नीले वर्ण का होता है और जिसका संबंध प्रकृति के अष्ठम कोष, अर्थात अपारा प्रकृति के आठवें कोष से होता है, और जिसकी दिव्यता नील सरस्वती हैं I
  • राजसिक अहंकार … इसका नाता रजोगुण से होता है, जो लाल रंग का होता है और जिसका नाता प्रकृति के सप्तम कोष से होता है, और जिसकी दिव्यता रक्त सरस्वति या लाल सरस्वति हैं I
  • विशुद्ध अहंकार … यह न सात्विक होता है, न राजसिक या तामसिक I यह इन सबसे परे होता है, और विशुद्ध अहम् के स्वरूप में होता है I विशुद्ध अहम् होने के कारण, यही अहंकार, उत्कर्ष पथ के उस बिंदु पर लेके जाता है, जो मुक्तिमार्ग कहलाता है I इसकी दिव्यता महा सरस्वती हैं I

 

टिपण्णी: जब अहंकार पूर्णरूपेण विशुद्ध होता जाता है, तो जो होता है, वो अब बताता हूँ …

  • चित्त संस्कार रहित हो जाता है I
  • मन निर्गुण ब्रह्म में ही लीन हो जाता है I
  • बुद्धि निष्कलंकी हो जाती है I

 

जब ऐसा होता है, तब जो होता है, वो अब बताता हूँ …

  • वो विशुद्ध अहंकार, सदाशिव के अघोर मुख में विलीन होता है I
  • वो निष्कलंक बुद्धि, सदाशिव के तत्पुरुष मुख में विलीन होती है I
  • वो संस्कार रहित चित्त, सदाशिव के वामदेव मुख में विलीन होता है I
  • वो मन, सगुण निराकार ब्रह्म में विलीन होके, सदाशिव के सद्योजात मुख में विलीन होता है I
  • और ऐसी दशा में, वो प्राण समतावादी होकर, हीरे के समान प्रकाश को धारण करके, विसर्गी होते हैं, और ब्रह्मलोक पथगामी होकर, अव्यक्त प्राण में विलीन होते हैं I
  • इसके पश्चात वो प्राण उन निर्गुण ब्रह्म में विलीन होते हैं, जो सदाशिव का ईशान मुख कहलाते हैं I

और ऐसी दशा में वो प्राण आदि पराशक्ति में विलीन होकर, अदि पराशक्ति ही कहलाते हैं I और ब्रह्मांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, ऐसे शरीर धारी योगी को ही सदाशिव का सगुण साकार स्वरूप कहते हैं I

लेकिन ईशान मुख में विलीन हुआ साधक,अंततः अपनी समस्त सिद्धियों के परित्याग ही करता है I

और परित्याग के पश्चात, ऐसा साधक किसी भी सिद्धि का न तो धारक होता है और न ही नहीं होता है I वो साधक इन दोनों दशाओं से ही परे चला जाता है I

इन सभी दशाओं की प्राप्ति भी अघोर मुख से हो सकती है I

 

अघोर और अहंकार, … अहंकार और अभिमान, … अहंकार अभिमान नहीं होता, …

आजकल कुछ लोग, अहंकार को ही अभिमान मान बैठे हैं, इसलिए कहते हैं, कि अहंकार को त्यागना चाहिए I

अहंकार, अभिमान नहीं होता … और अभिमान भी अहंकार नहीं होता I

अभिमान को त्यागना चाहिए और अहंकार को सुरक्षित रखकर, उसको शनैः शनैः विशुद्ध करना चाहिए I

ब्रह्म ने भी अहंकार को धारण करके ही जीव जगत की रचना की थी I लेकिन ब्रह्म का वो अहंकार विशुद्ध था, इसलिए सार्वभौमिक और सर्वव्यापक था, उस ब्रह्म के रचित जीव जगत में I

मुक्तिमार्ग, रचनामार्ग से विपरीत ही तो होता है, इसलिए जो जीव जगत की रचना का मार्ग है, उससे विपरीत ही तो जीवों का मुक्तिमार्ग होगा I

और क्यूँकि ब्रह्म ने भी उसके अपने विशुद्ध अहम् को धारण करके इस जीव जगत की रचना की थी, इसलिए जबतक जीव अपने अहंकार को ही विशुद्ध नहीं करेगा, तबतक वो जगत के भीतर बसा हुआ जीव, उसके अपने मुक्तिमार्ग पर कैसे जाएगा?… थोड़ा सोचो तो I

क्यूँकि ब्रह्म ने उस विशुद्ध अहंकार को धारण करके ही इस जीव जगत की रचना करी थी, इसलिए यह जीव जगत भी अहंकार में ही बसाया गया है, और वो अहंकार भी इस जीव जगत में एक सार्वभौम सत्ता है I

किसी सार्वभौम सत्ता का मार्ग भी तो ब्रह्मपथ ही कहलाएगा, क्यूंकि सार्वभौम शब्द भी तो ब्रह्म को ही दर्शाता है I

इसीलिए, यदि अपने अहंकार को ही त्याग दोगे, तो उस ब्रह्मपथ पर कैसे जाओगे जो मुक्तिमार्ग कहलाता है I

अहंकार का आलम्बन लेके ही जीव जगत को जाना और पाया जाता है, और इस जानने और पाने के पश्चात ही उसी जीव जगत को त्यागा जाता है I

जबतक कुछ जाना और पाया ही नहीं, तबतक उसको पूर्णरूपेण त्यागोगे कैसे? … थोड़ा इसपर भी सोचो तो I

इसलिए, आज जो मार्ग या उनके मनीषी कहते हैं, कि अहंकार को त्याग दो, वो सभी मूर्ख हैं I

अहंकार को सुरक्षित रखकर, उसको विशुद्ध करना चाहिए और उस विशुद्ध अहंकार का आलम्बन लेके, जीव जगत को जानके, उस जीव जगत को त्यागना चाहिए I यही वास्तविक मुक्तिमार्ग है I

लेकिन इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि साधक का मुक्तिमार्ग जीवत्व और जगतत्व सिद्धियों को जाएगा ही I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जीव जगत भी उसी विशुद्ध अहंकार में समान रूप में बसाया गया है और वो विशुद्ध अहंकार भी समस्त जीव जगत में समान रूप में बसा हुआ है I

तो इस दृष्टिकोण से, जीव जगत की उत्पत्ति भी इसी विशुद्ध अहंकार के भीतर ही हुई थी और यही विशुद्ध अहंकार भी समस्त जीव जगत में समान रूप में बसा हुआ है I

और क्यूँकि अहंकार के विशुद्ध स्वरूप को धारण करके ही ब्रह्म ने इस जीव जगत की रचना की थी, इसलिए ब्रह्म का वो विशुद्ध अहंकार इस समस्त जीव जगत की उत्पत्ति से पूर्व में ही था I

इसका यह भी अर्थ हुआ, की जिस साधक ने अपना अहम् ही विशुद्ध किया है, वो जीवातीत और जागतातीत हो चुका है, अर्थात विशुद्ध अहम् की प्राप्ति, जीवातीत सिद्धि और जागतातीत सिद्धि को ही दर्शाती है I

क्यूंकि अहंकार का वो विशुद्ध स्वरूप इस जीव जगत की रचना से पूर्व में था, इसलिए जीव जगत के दृष्टिकोण से, वो विशुद्ध अहंकार भी उस ब्रह्म का वाचक है, जो इस जीव जगत से भी पूर्व में था, और जिसने अपने विशुद्ध अहंकार का ही आलम्बन लेके ब्रह्म ने इस जीव जगत की रचना की थी I

यदि अपने अहंकार को ब्रह्म के अहंकार के समान विशुद्ध किए बिना ही त्याग दोगे, तो उस मुक्तिमार्ग पर कैसे जाओगे, जो कैवल्य मोक्ष को जाता है? … थोड़ा इसपर भी सोचो तो I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यदि इस जीव जगत पर ब्रह्म का कोई अनुग्रह है, तो वो विशुद्ध अहंकार ही है I

इस विशुद्ध अहंकार को धारण करके ही ब्रह्म ने इस जीव जगत को रचा था I

इस विशुद्ध अहंकार के बिना, न तो रचना हो सकती है, न रचना की स्थिति, न रचित अवस्था का समय समय पर संहार, न ही संहार के बाद कोई निग्रह ही हो सकता है, और न ही कोई अनुग्रह ही हो पाएगा I

अहंकार के बिना तो कोई उत्कर्ष मार्ग भी नहीं हो पाएगा, जिसके कारण मुक्तिमार्ग ही नहीं बचेगा…, और जिसके कारण, कोई भी जीव मुक्ति को भी नहीं पाएगा…, बस मुक्ति की बातें ही रह जाएंगी I

जब मैं सूक्ष्म लोकों में भ्रमण करता हूँ, तो मुझे स्पष्ट पता चलता है कि जीव आज मुक्ति को पा ही नहीं रहे हैं, क्यूंकि सूक्ष्म जगत में मैं असंख्य जीवों को एक या दूसरी दशा में फंसा हुआ ही पाता हूँ I

और उन जीवों में से तो कुछ वो भी हैं, जो उनके अपने समय पर धर्म और मुक्तिमार्ग के कोई पदाधिकारी भी थे I

ऐसे अधिकांश मनीषीयों के फंसे होने का कारण भी वही है, जो पूर्व में बताया था की अहम् को विशुद्ध करने से पूर्व ही उसको त्यागने के मार्ग पर चल पड़े…, यह मूर्खता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है…, इसपर भी थोड़ा सोचो तो I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अहंकार का अर्थ अभिमान नहीं होता और अभिमान का अर्थ अहंकार नहीं होता I

अभिमान त्यागना चाहिए और अहंकार सुरक्षित रखकर, विशुद्ध करना चाहिए I

जब अहम् ही नहीं बचेगा, तो कौन साधक और क्या मुक्तिमार्ग रह जाएगा I

जब साधक का अहम् ही नहीं बचेगा, तो कौन और क्या जाएगा उत्कर्ष मार्गों पर I

जब अहम् ही नहीं बचेगा, तो कौन जीव और कौन जगत कहलायेगा I

जब अहम् ही नहीं बचेगा, तो कौन भगवान् और कौन साधक होगा I

जब अहम् ही नहीं बचेगा, तो विशुद्ध किसको करोगे और मुक्तिमार्ग क्या होगा I

जब विशुद्ध करने को कुछ रहेगा ही नहीं, तो रचना का क्या उद्देश्य रह जाएगा I

अहम् विशुद्धि के बिना, मुक्तिमार्गी कैसे होगे और मुक्तिमार्ग सुरक्षित कैसे रहेगा I

यदि मुक्तिमार्ग ही सुरक्षित नहीं रहा, तो जीवों के लिए रचना का क्या लाभ होगा I

 मुक्तिमार्गी हुए बिना, मुक्ति को कैसे पाओगे I

थोड़ा इन सभी बिंदुओं पर भी सोचो तो I

 

इसलिए अपने उत्कर्ष में, साधक को…,

  • समस्त प्रकार के अभिमानों को त्यागना चाहिए I
  • और जब यह त्याग प्रक्रिया चलित हो जाए, तो उस साधक को उसके अपने अहम् भाव को सुरक्षित रखकर, उसको शनैः शनैः विशुद्ध करना चाहिए I
  • यही वास्तविक मुक्तिमार्ग है I

पर क्यूंकि आज के योग और वेदमनीषी, अपनी मूर्खतावश अहंकार को त्यागने की ही बात करते हैं, इसीलिए आज के कलियुगी कालखंड में, कोई मुक्ति को भी नहीं पा रहा है I

जब मैं सूक्ष्म लोकों में भ्रमण करता हूँ, तो यह बात स्पष्ट दिखाई देती है, क्यूंकि मैं तो ऐसे मनीषीयों से भी मिला हूँ, जिनको आज के कई पंथ मुक्तात्मा कहते हैं…, और जबकि वास्तविकता तो यह है, की वो मुक्ति को पाए ही नहीं हैं I

उनमें से कोई मनीषी प्रकृति के सातवें या आठवें कोष में फंसा हुआ है, तो कोई नौवें में, कोई सूर्य लोक में फंसा हुआ है, तो कोई हिरण्यगर्भ या कार्य ब्रह्म के लोक में…, तो कोई मुक्तात्मा कहलाया जाने वाला मनीषी, किसी और लोक में ही फंसा हुआ है I और कोई तो शून्य या शून्य ब्रह्म में ही फंसा हुआ है, और कोई अव्यक्त प्रकृति में ही फंस गया है I

और क्यूँकि इनमें से कुछ भी उस पूर्ण स्वतंत्रता का, अर्थात कैवल्य मुक्ति का वाचक नहीं है, इसलिए उन सभी मनीषीयों में से, कोई भी मुक्तात्मा नहीं कहलाया जा सकता है I

और जब मैं उन फंसे हुए मनीषीयों के लोकों में पहुँचता हूँ, तो कई बार मुझसे वो मुक्तात्मा कहलाए जाने वाले मनीषी, पूछते भी है, कि तुम्हारा क्या मार्ग था, जिससे तुम अमुक अमुक लोकों तक गमन कर पाए और वो भी अपनी स्थूल देहधारी अवस्था में I

और कुछ तो यह भी पूछते हैं, कि उनके लोक से आगे भी कोई लोक है क्या? …, क्यूंकि वो सोचते हैं, की उनका लोक ही अंतिम या गंतव्य लोक है जबकि वास्तविकता में तो मुक्तात्मा का न लोक होता है, और न ही अलोक, और न ही वो मुक्तात्मा विलोकी ही होता है I

इस फँसने के मूल कारण है, कि उन्होंने एक या दूसरे लोक को मुक्ति का केंद्र मान लिया था, और किसी किसी ने तो शून्य या शून्य ब्रह्म को ही मुक्ति लोक मान लिया था I

जबकि वास्तविकता तो यह है, कि मुक्ति किसी लोक या दशा में होती ही नहीं है I और मुक्ति किसी विलोक, अलोक या अदशा का अंग भी नहीं है I

 

ऐसा कहने का कारण है कि …

  • मुक्ति तो दशातीत है, लोकातीत है I जो ऐसी नहीं, वो कैसी मुक्ति I
  • यदि तुम किसी देवता के लोक में ही गए, तो कैसी मुक्ति I मुक्तात्मा तो देवी, देवता, गुरु या कुछ और भी नहीं हो पाएगा क्यूँकि वो मुक्तात्मा उसके अपने आत्मस्वरूप में, निर्गुण ब्रह्म ही होता है I
  • यदि तुम प्रकृति की ऊर्जाओं में ही गए, तो भी कैसी मुक्ति I अपने तारतम्य में प्रकृति मुक्तिमार्ग तो अवश्य ही है, लेकिन कैवल्य मुक्ति नहीं होती क्यूंकि कैवल्य मुक्ति तो प्रकृति और पुरुष, दोनों से ही अतीत है I
  • और यदि तुम कहीं भी नहीं गए या नहीं ही गए, तो भी कैसी मुक्ति I
  • जबतक तुम लोकातीत, दशातीत और समस्त रचना से ही अतीत नहीं होगे, तो कैसी मुक्ति I
  • जबतक तुम समस्त नातों, कर्तव्यों, कर्मों, कर्मफलों और उनके संस्कारों से ही अतीत नहीं होंगे, तो भी कैसी मुक्ति I

और इन सब मानसिकताओं और मनोविकृतियों का मूल कारण भी वही है, कि अपना अहंकार विशुद्ध किए बिना ही, उसको त्यागने का मन बना दिया I

जबतक अहंकार विशुद्ध नहीं होता, तबतक तुम उस विशुद्ध से भी विशुद्ध दशा, निर्गुण ब्रह्म में लय कैसे होगे…, हो ही नहीं पाओगे, चाहे तुम किसी भी देवादि सत्ता को मान लो I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और साधकों की यही दुर्दशा आज के समस्त पंथों (रिलिजन) में है, क्यूंकि इस कलियुग की काली काय के प्रभाव के कारण, किसी के पास अहम् विशुद्धि का वो उत्कृष्ट मार्ग ही नहीं है, जिससे अंतःकरण चतुष्टय सहित, प्राणों और इन्द्रियों का शुद्धिकरण भी स्वतः ही हो जाता है I

सूक्ष्मादि लोकों में वो फंसे हुए मनीषी, जबतक इस पृथ्वीलोक में थे, उन्होंने बड़ी बड़ी उपाधियां धारण कर रखी थी…, लेकिन जैसे ही इस मृत्युलोक से निकले, उन सबको उनकी वास्तविकता समझ आ गई, कि मुक्ति को तो वो पाए ही नहीं हैं I

इसका कारण भी वही मूर्खता की पराकाष्ठा थी, कि वो सब मनीषी अहम् को विशुद्ध करने से पूर्व ही उसको त्यागने के मार्ग पर चले गए थे I

 

अहम् विशुद्धि मार्ग का त्याग और जीव जगत में विकृति,

क्यूंकि ब्रह्म की रचना के मूल में, उस ब्रह्म का विशुद्ध अहम् ही था, इसलिए जब किसी भी लोक में अहम् विशुद्धि का मार्ग विकृत होता है, तब उस लोक के जीवों और प्रकृति में भी विकृति आती ही है I

 

ऐसी दशा में, जो होता है, वो अब बताता हूँ …

यहाँ बताया गया सबकुछ इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में भी हुआ है, इसलिए इसपर ध्यान देना I

गंतव्य को पाए हुए समस्त सिद्धगण, योगीगण और ऋषिगण उस लोक को त्यागने लगते हैं I

ऐसे गंतव्य प्राप्त मनीषीयों का यह त्याग, या तो काय को त्यागकर होता है और या ऐसे मनीषी मानव समाजों का ही त्याग करके, एकांतवास में चले जाते हैं, अर्थात किसी दुर्गम स्थान पर जाकर एकांतवास करते हैं और अपने प्रारब्ध के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं I

और ऐसे दुर्गम स्थानों पर बैठे हुए मनीषी, अपनी परम्पराओं का पालन करते हुए, बस कुछ ही मानव गण जो उनकी विद्या के पात्र होते हैं, उनको चुनते हैं और दीक्षा देकर, उनको भी एकान्त वास की ही आज्ञा देते हैं I

जब उस लोक में ऐसा होते ही जाता है और ऐसी दशा में और जैसे जैसे समय बीतता चला जाता है, तब धीरे धीरे उस लोक से समस्त उत्कर्ष मार्ग, जिनके मूल में वो अहम् विशुद्धि का मार्ग ही था, वो सभी लुप्त होते ही चले जाते हैं I

क्यूँकि अहम् विशुद्धि का मार्ग ही बहुवादी अद्वैत में बसा हुआ है, इसलिए जब ऐसा होता जाता है, तो कुछ ही समय अंतराल में, उस लोक से बहुवादी अद्वैत मार्ग भी लुप्त होने लगते हैं I

बहुवादी अद्वैत मार्ग का अर्थ होता है, कि मार्ग तो बहुवादी प्रतीत हो रहा है, लेकिन उन मार्गों के मूल और अमूल गंतव्य, दोनों ही अद्वैत हैं I

इसलिए इस बहुवादी अद्वैत मार्ग का अर्थ है, कि समस्त उत्कर्ष मार्ग उसी अद्वैत ब्रह्म को जाते हैं, जिसके कारण समस्त योगमार्ग और वेदमार्ग ब्रह्मपथ ही कहलाते हैं I

क्यूंकि वैदिक और योगमार्ग उसी बहुवादी अद्वैत में ही बसे हुए हैं, इसलिए ऐसी दशा में, वैदिक और योगिक मार्ग भी लुप्त होने लगते हैं I

जब ऐसा होता है, तो संकुचित एकवादी मार्ग, जो अब्रह्म पथ कहलाते हैं, उनका प्रादुर्भाव होने लगता हैI ऐसे मार्ग अभिमानी देवताओं के ही होते हैं I और क्यूँकि अभिमानी देवताओं के मार्ग, अहम् विशुद्धि के मार्ग होते ही नहीं हैं, इसलिए ऐसे मार्गों से, उस लोक में जहाँ बहुवादी अद्वैत मार्ग लुप्त हो रहे हैं, उसमें कलह कलेश भी बढ़ता है I

कई ग्रन्थ आ जाते हैं, और प्रत्येक ग्रन्थ के देवता स्वयं को सर्वोच्च कहते हैं और दूसरों को नष्ट करने का आदेश भी देते हैं, जिससे उस लोक में कलह कलेश भी बढ़ता ही चला जाता है I

ऐसी दशा को ही कलियुग (या कलह कलेश का युग) कहा जाता है और इसीलिए, यह सभी अभिमानी देवताओं के एकवादी मार्ग, कलियुग में ही पाए जाते हैं I

अन्य किसी भी युग में, ऐसे अभिमानी देवताओं के मार्ग, प्रधान मार्ग नहीं होते क्यूँकि उन युगों में, अनाभिमानी देवताओं के मार्ग ही प्रमुख होते हैं I

जब ऐसे विकृत एकवादी अभिमानी देवताओं के मार्ग किसी भी लोक में आ जाते हैं, तो उत्कर्ष मार्ग, जो सार्वभौम होना चाहिए था, वो भी उस देवता या उस देवता के लोक तक ही सीमित रह जाता है, जिसके कारण ऐसे सीमित मार्गों को मानने वालों की गति भी उस सार्वभौम ब्रह्म में नहीं जा पाती है, जिसके कारण कैवल्य मोक्ष का मार्ग भी लुप्त होने लगता है और इस भवसागर से जीवों का उद्धार भी नहीं हो पाता है I

जब जीव उस मुक्ति को पाएँगे ही नहीं, जिसके लिए उनका जीव रूप में आगमन हुआ था, तो जीवों के भीतर कलह कलेश भी बढ़ता ही चला जाएगा I

यही कारण है, कि अहम् विशुद्धि के मार्गों के त्याग के पश्चात, जीवों के उत्कर्ष मार्गों में विकृति आएगी ही I

और जैसे जैसे यह विकृति बढ़ती जाती है, वैसे वैसे यह उस लोक की प्रकृति भी विकराल होती जाती है I

और क्यूँकि प्रकृति में ही जीव बसे हुए होते हैं और वो ही प्रकृति जीवों के भीतर भी होती है, इसलिए जो विप्लव समय समय पर आते ही जाते हैं, वो जीवों के भीतर और बाहर, दोनों ओर से ही आते हैं I

 

अघोर का अहम् नाद और अहम् अस्मि, … अहम् नाद और अहम् ब्रह्मास्मि, …

पूर्व में बताया था, कि अघोर का नाद अहम् है I लेकिन इस नाद का नाता तो अहम् अस्मि से भी है, जिसका नाता यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि से है I

इसलिए, जिस साधक ने अघोर ब्रह्म के अहम् नाद का साक्षात्कार किया है, वो अंततः अहम् अस्मि से होता हुआ, अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक अर्थ अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है I

और यदि ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वो साधक अपनी पूर्व की काया में ही रह गया, तो वो साधक अहम् ब्रह्मास्मि का महावाक्य का ही सगुण साकार स्वरूप हो जाता है I

ऐसा कायाधारी साधक जीवन्मुक्त होकर ही रहता है I उसमे जीवनमुक्ति के समस्त लक्षण दृश्यमान होंगे I और उसके ऐसे लक्षण उसके आयुनुसार, आश्रमानुसार, वर्णानुसार और मार्गानुसार भी दिखाई देंगे I

ऐसा साधक ब्रह्माण्ड में, उसके अपने पूर्व के पिंड रूप में रहता हुआ भी, जीवन्मुक्त ही होता है, और ऐसा जीवन्मुक्त होता हुआ भी, समय समय पर किसी भी वर्ण और आश्रम जैसा व्यहार कर सकता है, क्यूंकि उसके ऊपर कोई भी ब्रह्माण्डीय या पिण्डिय नियम इत्यादि लागू नहीं होते I

लेकिन अघोर सिद्ध योगी भी तो ऐसा ही होता है I

 

अघोर का गुरुपिता स्वरूप, अघोर ब्रह्म ही गुरुपिता हैं, समस्त साधकों के गुरुपिता अघोर ब्रह्मा, … सदाशिव का अघोर मुख, शिव का अघोर मुख, अघोर मुख, … अघोर नामक ब्रह्मा, …

सदाशिव का दक्षिण दिशा को देखता हुआ मुख अघोर कहलाता है I पञ्चब्रह्म का भी दक्षिण की ओर का ब्रह्मा, अघोर ही कहलाता है I इसलिए अघोर उन मुखों में से है, जिसमे शैव और ब्रह्म मार्गी, दोनों ही जा सकते हैं I

यह मुख यजुर्वेद के अंतर्गत है, या यह भी कह सकते हैं, कि यजुर्वेद संहिता इस अघोर मुख के अंतर्गत है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सदाशिव का शब्द, दो शब्दों से बना है, जो सदा और शिव हैं I

साधारण अर्थ में सदा का शब्द, सनातन को दर्शाता है, और शिव का शब्द सर्वव्यापक कल्याणकारी गुरु सत्ता को I

इसलिए सदाशिव के शब्द का अर्थ “त्रिकालों से परे अनादि अनंत, सनातन सर्वव्यापक सर्व कल्याणकारी गुरु सत्ता को दर्शाता है“ I

लेकिन यह परिभाषा तो गुरु विश्वकर्मा को भी दर्शाती है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यह मुख गाढ़े नीले वर्ण का होता है, जिसका नाद अहम् होता है I

मैं इस अघोर मुख के मार्ग को सर्वोत्कृष्ट मार्ग भी मानता हूँ I और इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म में, यही अघोर मुख या अघोर ब्रह्म मेरे गुरुपिता भी हुए हैं I इसका कारण है कि इस परकाया प्रवेश प्रक्रिया से प्राप्त हुए जन्म में, इन्ही के साक्षात्कार से मेरा उत्कर्ष मार्ग ऊर्ध्वगति पकड़ गया था I

मैं इन अघोर मुख को, जो मेरे इस जन्म के गुरुपिता भी हैं, निराकार रूप में ही जानता हूँ, क्यूंकि किसी भी साधक का सूक्ष्म शरीर ही इनका सगुण साकार स्वरूप होता है I

और यही कारण है, कि यह अघोर मुख ही मेरे सूक्ष्म शरीर के गुरु हैं, जिसके कारण यही अघोर नामक ब्रह्म जिनका वर्णन यहाँ किया जा रहा है, मेरे और प्रत्येक साधक के गुरुपिता ही हैं I

इससे अंतर नहीं पड़ता कि कोई अगम मार्गी है या निगम मार्गी, या कोई ब्रह्म मार्गी है या अब्राहम मार्गी, यही अघोर मुख प्रत्येक साधक के गुरुपिता होते हैं I

अपने जीव रूपी इतिहास में, वेद चतुष्टय और शाश्त्र षट्कम पर जाकर ही मैं यह बात कह रहा हूं, कि प्रत्येक साधक के गुरुपिता, अघोर मुख ही होते हैं I

 

अघोर और महादेव, … महादेव ही अघोर हैं, … अघोर ही महादेव हैं, … उत्कर्ष मार्ग अघोर से जाएगा ही, … अघोर और यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, … अघोर और यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, …

मेरे कई पूर्व जन्मों में, जो मुझे उसी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से प्राप्त हुए थे, यही अघोर मुख मेरे पिता स्वरूप गुरु हुए थे (और आज भी हैं) I

इन्ही अघोर मुख को महादेव भी कहा जाता है क्यूंकि इनके सिवा कोई महा है ही नहीं I

वेदों में एक ही महा होता है, क्यूंकि दो महा हो ही नहीं सकते…, यदि दो महा हुए, तो कैसे महा I

महा शब्द का अर्थ,  सर्वोच्च सत्ता ही होता है, जो एक ही होता है…, न की दो या दो से अधिक I

 

और अपने सर्वव्यापक देवत्व के कारण, यही अघोर मुख को महादेव भी कहा जाता है I

अघोर ही महादेव हैं और महादेव ही अघोर कहलाते हैं I

 

और एक बात, कि साधक चाहे किसी भी मार्ग पर जाए, उसका उत्कर्ष मार्ग अघोर से जाना ही है I

अघोर से जाए बिना, कोई भी उत्कर्ष मार्ग अपने गंतव्य तक पहुँच ही नहीं पाएगा I

अघोर का उत्कर्ष मार्ग भी, यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे के वाक्य से होकर ही जाता है I

तो अब मैं इस अध्याय को समाप्त करके, अगले अध्याय पर जाता हूँ I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

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