पञ्च विद्या, पञ्च सरस्वती, देवी भारती, देवी शारदा, देवी गायत्री, देवी सावित्री, देवी ब्रह्माणी, पञ्च विद्या सरस्वती, पञ्च सरस्वती विद्या, भारत शब्द की परिभाषा

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अब मैं संक्षेप में, पञ्च विद्या को बताता हूँ, जिनको पञ्च सरस्वती भी कहा जाता है। दस महाविद्या साधना से पूर्व, पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती साधना होती हैं। पञ्च विद्या सरस्वती या पञ्च सरस्वती विद्या में पाँच देवी होती हैं, जिनको देवी भारती, देवी शारदा, देवी गायत्री, देवी सावित्री और देवी ब्रह्माणी के नामों से पुकारा जाता है।  यहाँ पर भारत शब्द की परिभाषा, भारत क्या है, भारत किसे कहते हैं, इन सब बिंदुओं को वैदिक वाङ्मय के अनुसार बताया जाएगा I 

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सातवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, आत्ममार्ग का सातवाँ अध्याय है।

 

प्रथम विद्या, … प्रथम पञ्च विद्या, …

पञ्च सरस्वती में माँ भारती, भारती विद्या,भारती सरस्वती, देवी भारती, … भारत शब्द की परिभाषा क्या है, वैदिक भारत क्या है, वैदिक भारत किसे कहते हैं, …

यह गोरे वर्ण (पीले वर्ण) की देवी हैं, जिनका मूल भाव स्नेह है। यह एक शांत सौम्य कोटि की सात्विक देवी हैं।

टिपण्णी: इनको श्वेत वर्ण का कहा जाता है, किन्तु मेरे साक्षात्कारों में वर्ण पीला ही था, इसलिए यहां पर ऐसा ही बताया गया है I

साधक के शरीर में, इनका स्थान मूलाधार चक्र से लेकर स्वाधिष्ठान चक्र और मणिपुर चक्र तक होता है। यही कारण है, कि इनके पीले वर्ण में, जिसका नाता मणिपुर चक्र से है, उसमें मूलाधार चक्र के लाल वर्ण के बिंदु भी पाए जाते हैं I जब पीले वर्ण का योग लाल वर्ण से होता है, तब ही भगवा वर्ण प्रकट होता है, जो इनके वस्त्रों का है I अपने सगुण निराकार स्वरूप में देवी भारती अतिविशालकाया आकाश के समान ही हैं, जो पीले वर्ण का होता है और जिसमें लाल वर्ण के बिन्दु रूपी प्रकाश भी होते हैं I

यह साधक को उच्च कोटि का योगी बनाती हैं, ज्ञान पूर्ण बनाती हैं, और साधक की चेतना को ऊपर के चक्रों की ओर गति प्रदान करती हैं।

यह देवी, साधक के पिण्ड रूपी शरीर के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड की शक्ति भी हैं। यही देवी महाब्रह्माण्ड की दिव्यता भी हैं I और अपने ऐसे दिव्य स्वरूप में, यह शक्ति रूपी देवी, साधक के मूलाधार चक्र से ऊपर की ओर उठती हुई, ब्रह्मरंध्र चक्र तक जाती है।

जब साधक के पिण्ड के भीतर, यह देवी जागृत होती है, तो इन्ही देवी भारती को कुण्डलिनी शक्ति कहा जाता है, और ऐसी अवस्था में यह देवी, प्रचण्ड स्वरूप में ही होती हैं।

जब कुण्डलिनी जागरण ऐसा होना होता है, कि साधक निरलम्बस्थान पर ही जाने की पत्राता प्राप्त कर लेता है, तब इन्हीं देवी के पीले वर्ण का प्रकाश सुषुम्ना नाड़ी के नीचे के भाग में आ जाता है I और ऐसा होने पर ही यह देवी कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप में सप्तचक्र को पार करके, उस निरलम्ब चक्र पर ही चली जाती है, जिसका सांकेतिक वर्णन अथर्ववेद के 10.2.31, 10.2.32 और 10.2.33 में किया गया है, और जिसके गंतव्य में माँ ब्रह्माणी ही साधक की हिरण्यमय सगुण साकार आत्मस्वरूप की दिव्यता और शक्ति होती है, और अपनी इसी दशा में माँ ब्रह्माणी जो पूर्व में साधक के सहस्रार चक्र पर ही विराजमान थी, वह सहस्रार चक्र से भी ऊपर, जो सुनहरा वज्रदण्ड चक्र होता है, उस वज्रदण्ड कोभी पार करके, उससे आए जो निरालम्ब चक्र होता है, उसपर ही विराजमान हो जाती हैं I

यह राष्ट्रवाद की देवी हैं, अर्थात, यह ब्रह्माण्डवाद की देवी हैं। यह ब्रह्माण्ड साधक की काया के भीतर भी होता है I और इसके अतिरिक्त यह वह ब्रह्माण्ड भी होता है, जिसमें साधक की त्रिकाया के अंतर्गत, जो तीन काया होती हैं, उसमें से किसी भी काया स्वरूप में निवास कर रहा होता है I

इनका परिधान संन्यासी का है, इसलिए यह भगवे रंग के वस्त्र धारण करती हैं।

यह अन्न की भी देवी हैं। यह उत्कर्ष, उत्कर्ष पथ, ज्ञान और अर्थ की भी देवी हैं।

कृषि गोरक्ष और वाणिज्य का नाता भी इनसे है। इन तीन शब्दों की दिव्यता भी यह देवी ही हैं।

इनको मेधा, पद्माक्षी, चन्द्रवर्णा, आर्या, अश्वि, भारदी, प्रदन्या, विदुषी, चन्द्रवरदना, ज्ञानेश्वरी, मालिनी, माहे, प्रज्ञा,पद्माक्षी और निरंजना के नामों से भी पुकारा जाता है।

यह देवी ब्रह्मचर्य आश्रम की मूल देवी हैं। जो ब्रह्मचारी इनको मानेगा, और इनकी उपासना करेगा, वो ज्ञान ब्रह्म को पाएगा।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

देवी भारती, ब्रह्मा भारत की अर्धांगिनी हैं। देवी भारती को ही भारत की शक्ति स्वरूप, भारत माता कहते हैं। ब्रह्म भरत ही वैदिक राष्ट्र कहलाए जाते हैं, और उसी वैदिक राष्ट्र को भारत कहा गया है I

यह भारत शब्द महाब्रह्माण्ड को ही दर्शाता है I

वैदिक वाङ्मय में, सर्वेश्वर के साम्राज्य को ही भारत कहा जाता है।

लेकिन इस भारत शब्द की परिभाषा आज कुछ ही वेद मनीषी जानते हैं, इसलिए अब मैं भारत नामक शब्द को वैदिक परंपरा के अंतरगत परिभाषित करता हूँ…

पर इस भारत शब्द की पारंपरिक परिभाषा बताने से पूर्व, मुझे परंपरा नामक शब्द को ही परिभाषित करना पड़ेगा।

 

परंपरा नामक शब्द की परिभाषा

परंपरा का शब्द, दो शब्दों से बना है, उनमें से पहला परम नामक शब्द है, और दूसरा, परा का शब्द है।

परम नामक शब्द ब्रह्म का वाचक है। और परा नामक शब्द, साधक के उत्कर्ष मार्ग में, प्रकृति के नवम कोष का वाचक है, जिसको परा प्रकृति भी कहा जाता है, और जिनको वैदिक मार्ग में आदिशक्ति भी कहा जाता है।

और बौद्ध मार्ग में, इसी परा प्रकृति को, नवम आकाश भी कहा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में, श्री कृष्ण ने भी इस परा प्रकृति के बारे में बतलाया है।

यह परा प्रकृति या प्रकृति का नवम कोष, सात्विक प्रकृति कहलाती है।

जब ब्रह्म ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की थी, तो सर्वप्रथम इस ब्रह्माण्ड में, प्रकृति के रूप में इसी सात्विक प्रकृति का स्वयं उदय हुआ था, और इसीलिए, वेद मनीषी कह गए, कि ब्रह्माण्ड उदय के मूल में सत्वगुण ही होता है।

इसलिए, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के दृष्टिकोण से, यह परा प्रकृति प्रथम कोष है। और साधक के उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से, यह प्रकृति का अंतिम या नवम कोष है।

इसलिए, परंपरा नामक शब्द का परा शब्द, प्रकृति का ही वाचक है।

 

तो अब आगे बढ़ता हूँ…

तो अब तक जो बताया गया है, उसके अनुसार, इस परंपरा शब्द में, परम अर्थात, ब्रह्म और परा अर्थात प्रकृति का योग है।

और क्योंकि ब्रह्म या पुरुष का प्रकृति से योग, अनादि अनंत और सनातन ही होता है, इसीलिए वेद मनीषी कह गए कि परंपरा भी अनादि अनंत और सनातन ही है।

 

इसीलिए, …

जिस मार्ग में, पुरुष या ब्रह्म का प्रकृति से योग नही, वो परंपरा भी नहीं।

जो परंपरा है, वो ही उस अनादि अनंत, सनातन ब्रह्म की ओर लेके जा सकती है।

और इसके अतिरिक्त, …

जो परंपरा ही नहीं, वो उत्कर्ष मार्ग भी नहीं हो सकता।

और जो उत्कर्ष मार्ग ही नहीं है, वो मुक्तिमार्ग भी नहीं हो सकता है।

इसीलिए,

जो परंपरा शब्द के भावार्थ में नहीं, वो मुक्तिमार्ग या कैवल्य मार्ग भी नहीं होता।

 

जब परा अर्थात प्रकृति के नवम कोष का योग, परम अर्थात ब्रह्म से होता है, तो ही वह योगदशा परंपरा शब्द के भावार्थ के अंतर्गत आती है I और क्यूँकि प्रकृति ही ब्रह्मशक्ति है, और ब्रह्म शक्ति भी ब्रह्म के समान सनातन ही हैं, इसलिए…

ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति के अनादि अनंत सनातन योग को परंपरा कहा जाता है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

भारत नामक शब्द की पारंपरिक परिभाषा

तो अब आगे बढ़ता हूँ, और भारत शब्द को पारंपरिक विधान से ही परिभाषित करता हूँ I

यदि किसी शब्द को परंपरागत परिभाषित करना है, तो उस शब्द को पुरुष और प्रकृति, दोनों के दृष्टिकोण से ही परिभाषित करना पड़ेगा।

इसलिए, अब मैं भारत को प्रकृति और पुरुष, दोनों के दृष्टिकोण से परिभाषित करूंगा।

भारत शब्द तीन बीज शब्दों से बना है, जो भा, रा और ता हैं।

तो अब इन तीनों बीज शब्दों का आलम्बन लेके, मैं भारत नामक शब्द को परिभाषित करता हूँ…

 

प्रकृति के दृष्टिकोण से, भारत की परिभाषा ऐसी होती है…

  • भारत का भा शब्द, भाव को दर्शाता है, जिसकी गंतव्य अवस्था ब्रह्म भावपन कहलाती है। यह भाव साधक का ही होता है।

जैसे ब्रह्माण्ड की संरचना के समय पर पितामह ब्रह्म की भाव रूपी इच्छा शक्ति में ही, उनका साधन संहित था, और वो साधन ही स्वयंप्रकट होके प्राथमिक ब्रह्माण्ड कहलाया था , और वैसे ही इस भाव रूपी शब्द में एक साधन होता है, जो जीव जगत के मुक्तिमार्ग के रूप में ही स्वयं प्रशस्त होता है।

  • भारत का रा शब्द, राग को दर्शाता है, जिसकी गंतव्य अवस्था शब्दब्रह्म ही होती है।

यह राग नामक शब्द, साधक के पिण्ड और समस्त ब्रह्माण्ड में अनादि काल से चल रहे रागों को दर्शाता है, और अंततः, यह शब्द ब्रह्म को दर्शाता हैं।

यह राग होता तो प्रकृति का है, लेकिन इस राग में, प्रकृति ही ब्रह्म होती है , इसलिए इसके एक मूल या बीज स्वरूप को ही ब्रह्मनाद कहा गया था।

और यह ब्रह्मनाद, साधक के पिण्ड और समस्त ब्रह्माण्ड में अनादि कालों से चल रहा है। इसी ब्रह्मनाद को मकार भी कहा गया है, और इसी ब्रह्मनाद को जानकार योग तंत्र में भ्रामरी प्राणायाम आया था I

  • भारत का ता शब्द, ताल को दर्शाता है, जो जीव और जगत (अर्थात, साधक का पिण्ड और साधक के पिण्ड के भीतर बसा हुआ प्राथमिक ब्रह्माण्ड) के सनातन योग को दर्शाता है।

जब साधक की ताल, ब्रह्माण्ड की उस समय की ताल से जुड जाती है, अर्थात, एक हो जाती है, तो ऐसी दशा में साधक शांत होके, योगमार्ग पर चल पड़ता है और अंततः, ब्रह्माण्ड योग को ही सिद्ध करके, योगी कहलाता है।

जबतक साधक का ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं हुआ, तबतक वो साधक, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से योगी भी नहीं कहलाया जाएगा।

जबतक साधक का ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं हुआ, तबतक उस साधक को कोई कुछ भी बोल दे, वो कोई भी उपाधि धारण के ले, वो किसी भी लोक में निवास करता हो, कैसे भी महिमा मण्डित हो जाए, लेकिन ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से में, ऐसा साधक, योगी तो कभी भी नहीं कहलाएगा।  और एक बात, कि जिसको ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं नें ही योगी नहीं माना, वो कैसा योगी?

जबतक जीवों की ताल का, ब्रह्माण्ड की ताल से एकापन नहीं होता, तबतक वो जीव या कोई भी और पिण्ड, उसके भीतर की शांति को भी नहीं पाता है। और जो शांत ही ना हो पाए, वो योगी कैसे होगा?।

 

अब ध्यान देना…

इसलिए, प्रकृति के दृष्टिकोण से, भारत शब्द, भाव, राग और ताल की ऐसी योगावस्था को को दर्शाता है, जिसमें…

  • भाव मूलतः जीव का होता है।
  • राग, जीव और जगत दोनों का ही होता है।
  • और ताल, जीव और जगत को एक करती है, अर्थात ताल, जीव जगत की योगकारक होती है।

इसलिए, प्रकृति के दृष्टिकोण से, जब और जहाँ भाव, राग और ताल ही एक हो जाएँ, अर्थात, जब और जहाँ भाव, राग और ताल की योगावस्था हो जाए, वो ही भारत कहलाता है।

और क्योंकि प्रकृति में तारतम्य होता ही है, इसलिए, वैसा ही तारतम्य भाव, राग और ताल में भी होगा, जिसके कारण, प्रकृति के दृष्टिकोण से, भारत शब्द का उत्कर्ष मार्ग भी बहुवादी ही होता है।

प्रकृति के दृष्टिकोण से, यही भारत की परिभाषा है।

तो अब आगे बढ़ता हूँ, और पुरुष या ब्रह्म के दृष्टिकोण से, भारत शब्द की परिभाषा बताता हूँ…

 

पुरुष के दृष्टिकोण से, भारत की परिभाषा ऐसी होती है…

जैसे पूर्व मैं बताया था, कि भारत शब्द, तीन बीज शब्दों से बना है, जो भा, रा और ता हैं।

तो अब इन्हीं तीन बीज शब्दों का अलम्बन लेके, भारत शब्द को, पुरुष के दृष्टिकोण से बताता हूँ।

 

  • भारत का भा शब्द,… भगवान को दर्शाता है, इसलिए यह भा शब्द श्रीमन नारायण को दर्शाता है।

भगवान वो होते हैं, जो पञ्च महाभूत का स्वामी होते हैं। जो ऐसा नहीं, वो भगवान भी नहीं।

भगवान शब्द भी पांच शब्दों से बना हुआ है, जो पञ्च महाभूतों को ही दर्शाते हैं। तो अब भगवान शब्द को परिभाषित करता हूँ…

भगवान शब्द, पांच बीज शब्दों से बना हुआ है, जो , , , और हैं।

इन पञ्च बीज शब्दों के बारे में, अब जो बता रहा हूँ, वो पशुपत मार्ग के अनुसार हैं, राजयोग के अंतरगत है और पञ्च मुखा सदाशिव में बसा हुआ है। इसलिए, इसको पञ्च ब्रह्मपनिषद से बिल्कुल मत जोड़ना, नहीं तो परिणाम विपरीत हो जाएगा ।

 

अब भगवान शब्द की परिभाषा

भगवान शब्द का भ शब्द, भूमि या भू महाभूत (या पृथ्वी महाभूत) को दर्शाता है, जो पीली मिट्टी जैसे रंग का होता है, और जो जब रजोगुणी होता है, तो उस पीली मिट्टी के रंग में लाल रंग के कई बिंदु भी पाए जाते हैं।

इस भ शब्द की भूमि, पञ्च मुखा सदाशिव के पश्चिम दिशा की ओर देखने वाले सद्योजात मुख की होती है, जिसका कृत्य उत्पत्ति होता है, जिसका वर्ण चमकदार श्वेत होता है, जिसका तन्मात्र गंध होता है, जिसके देवता सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति होते हैं, और नव गृह में जिसके गृह चंद्र और शुक्र होते हैं, जिसकी आम्नाय पीठ द्वारिका शारदा कहलाती है, जिसका वेद सामवेद होता है, जिसका महावाक्य तत् त्वम् असि होता है और जो सगुण ब्रह्म को ही दर्शाता है, जिसकी शक्ति इच्छा होती है, जिसकी देवी माँ लक्ष्मी होती है, और जो ब्रह्मानुजा कहलाती है, जिसकी अग्नि गृहपत्य अग्नि होती है अर्थात गृह की अग्नि होती है, जिसके चक्र मूलाधार और स्वाधिष्ठान होते हैं, जिसका शिव पंचाक्षरी मंत्र में बीज शब्द ना और मा दोनों ही होते हैं, और जिसकी चेतना को जागृत अवस्था कहते हैं।

और अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान में जिसका संबंध मन से होता है। लेकिन सदाशिव के सद्योजात मुख का मन, स्थिर सर्वसम होके ब्रह्मलीन होता है, इसलिए ब्रह्म सरीका ही होता है। स्थिर और सर्वसम होके ब्रह्मलीन हुए मन को ही मनात्मा नामक ब्रह्म कहते हैं। ऐसा साक्षात्कारी साधक, मन ब्रह्म नामक सिद्धि को पाता है, और मनात्मा होकर ही शेष रह जाता है।

मन की एक वृत्ति यह होती है, की वो अणु के समान छोटा हो सकता है और वही मन, त्रिलोक में सामान रूप में व्याप्त होकर, बड़ा भी हो सकता है। जब साधक अपनी स्वेच्छा से अपने मन को ऐसा कर पाए, तो यही मन की वृत्ति विशुद्ध होने का प्रमाण होता है, और ऐसी अवस्था में वो भगवान वामन की सिद्धि को दर्शाती है। यहाँ बताया गया मानात्मा भी ऐसा ही होता है।

लेकिन ऐसी वामन सिद्धि से पूर्व, साधक एक और सिद्धी को पाता है, जिससे वराह सिद्धि भी कहा जाता है, और इस सिद्धि में, साधक का शरीर ही भूमि और भूधर होता है। इससे आगे यहाँ नहीं बतलाऊँगा, नहीं तो बहुत बाते हो जाएंगी।

तो यह था भगवान शब्द के भ शब्द का ज्ञान।

 

भगवान शब्द का ग शब्द, गगन या आकाश महाभूत को दर्शाता है, जिसके गंतव्य स्वरूप में उसका वर्ण निरंग स्फटिक के समान होता है, लेकिन तब भी वो आकाश, इस ब्रह्माण्ड के भीतर बैंगनी वर्ण का ही साक्षातकार होता है, और इस ब्रह्माण्ड से परे, उस शून्य में, वही आकाश रात्रि के समान, अंधकारमय ही पाया जाता है।

यह ग शब्द का गगन, पञ्च मुखा सदाशिव के आकाश की ओर देखने वाले ईशान मुख का होता है, लेकिन तब भी साधक के उत्कर्ष मार्ग में, उस गगन या आकाश महाभूत को, प्राथमिक रूप में अघोर मुख में ही, बैंगनी वर्ण के स्वरूप में साक्षातकार किया जाता है।

ईशान मुख को ही सदाशिव कहा जाता है। सदाशिव के पञ्च मुखी स्वरूप को ही विराट परब्रह्म और विश्वकर्मा कहा गया है। इसी पञ्च मुखी स्वरूप को श्रीमन नारायण भी कहते हैं।

ईशान मुख का कृत्य अनुग्रह होता है, इसका तन्मात्र शब्द होता है, इसके देवता गणपति देव होते हैं, और नव गृह में इसके गृह स्वरूप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही होता है, जिसकी पीठ सर्वेश्वर का साम्राज्य अर्थात महाब्रह्माण्ड ही होता है, जिसका वेद संपूर्ण वैदिक वाङ्मय ही होता है, जो निर्गुण ब्रह्म को दर्शाने वाला होता है, जिसकी दिव्यता सर्वशक्ति होती हैं, जिसकी देवी माँ आदि पराशक्ति ही होती हैं और जहां उन आदि पराशक्ति का प्रथम स्वरूप चित्त शक्ति के स्वरूप में होता है, जिसकी अग्नि ब्रह्माग्नि होती है, जिसके चक्र आज्ञाचक्र और ब्रह्मरंध्र चक्र सहित, वज्रदंड चक्र और निरालंब चक्र भी होते हैं, जिसके शिव पंचाक्षरी मंत्र में पांचो बीज शब्द होते हैं जो ना मा शि वा या ऐसा होते हैं, और जिसका तारक मंत्र राम होता है और जिसका शिव अष्टाक्षरी मंत्र में बीज शब्द महामंत्र ॐ होता है, जिसकी चेतना अवस्था को समाधितीत या तुरीयातीत भी कहते हैं और जहाँ यह दोनों शब्द आत्मा को ही दर्शाते हैं, अर्थात, साधक के आत्मस्वरूप को ही दर्शाते हैं और जहाँ साधक का आत्मस्वरूप या आत्मा ही ब्रह्म कहलाता है।

और अंत:करण चतुष्टय विज्ञान में इसका संबंध अंत:करण चतुष्टय के मध्य में बसे हुए उस निरंग स्फटिक के समान संस्कार से होता है, जो ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में बताए गए जल शब्द के सार्भौम स्वरूप से संबंध रखता है। निरंग को ही निर्गुण ब्रह्म कहते हैं।

ऐसा साक्षात्कारी साधक, आकाश ब्रह्म नामक सिद्धि को पाता है, और शब्दात्मा, तन्मात्रात्मा और भूतात्मा तीनो स्वरूप को प्राप्त होता है, जिससे वो साधक आकाश देव नामक अवस्था को पाता है, और जिसका आलम्बन लेके वो साधक महाकाश से होता हुआ, इक्कीसवें शून्याकाश को भी पार करता है, और इसकी एक सिद्धि को शुन्य ब्रह्म और शुन्य अनंत भी कहा गया है और जो कृष्ण नामक तारक शब्द का ही गंतव्य कहलाता है, और जिसका मार्ग अथर्ववेद के दसवें अध्याय से ही होकर जाता है, अर्थात राम नाद से ही होकर जाता है।

और ऐसी सिद्धि के पश्चात ही, अपनी ही चेतना रूप में वो साधक, स्वयं को भगवान विराट कृष्ण की दाहिनी हथेली पर ही बैठा हुआ पाता है।

इसलिए, जो साधक अपने अंतःकरण से ही कृष्णमय नहीं होगा, वो इस भाग के बतलाए हुए मार्ग के गंतव्य पर जा भी नहीं जा पाएगा।

जब मार्ग ही श्री कृष्ण का है, और जब मार्ग के गंतव्य में ही श्री विराट कृष्ण बैठे हुए हैं, तो कृष्णमय हुए बिना इस मार्ग पर कैसे जाओगे?…, थोड़ा सोचो तो।

तो यह था भगवान शब्द के ग शब्द का ज्ञान।

 

भगवान शब्द का व शब्द, वायु महाभूत को दर्शाता है जो हल्के नीले रंग का होता है।

यह व शब्द की वायु, पञ्च मुखा सदाशिव के पूर्व दिशा की ओर देखने वाले, तत्पुरुष मुख की होता है, जिसका वर्ण बहुत चमकदार पीला या सुनेहरा होता है और जिसको लाल वर्ण ने घेरा हुआ होता है और ऐसी दशा में वह कार्य ब्रह्म कहलाता है, और, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की रजोगुणी अभिव्यक्ति ही है।

और उन हिरण्यगर्भ के ही कार्य ब्रह्म स्वरूप में, उसके सुनेहरे रंग को एक लाल वर्ण के प्रकाश नें घेरा होता है, और ऐसा ही स्वरूप वो साधक के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में पाया जाता है, जब वो वेदों और योगतन्त्रों का उकार कहलाता है।

यह तत्पुरुष मुख, सदाशिव का प्रथम मुख था, इसीलिए इसका नाम भी तत्पुरुष कहा गया था, जिसका अर्थ होता है, सगुण ब्रह्म… अर्थात निर्गुण ब्रह्म का प्राथमिक सगुण स्वरूप ।

तत्पुरुष मुख का कृत्य तिरोधान या निग्रह होता है, इसका महाभूत वायु है, इसका तन्मात्र स्पर्श होता है, इसके देवता इंद्र होते हैं जो हिरण्यगर्भ के शिष्य स्वरूप में होते हैं, और नव गृह में इसके गृह गुरु होते हैं, इसी से सूर्य का हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप में प्रादुर्भाव होता है, इसकी पीठ गोवर्धन मठ कहलाती है, इसका वेद ऋग्वेद होता है, इसका महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म होता है, इसकी शक्ति चित्त शक्ति के रूप में ही त्रिकाली कहलाती है, इसकी देवी महेश्वरी और इंद्राणी दोनों ही होती हैं, इसकी अग्नि पञ्चकोण और सर्वाग्नि होती है, इसका चक्र विशुद्ध होता है, इसका शिव पंचाक्षरी मंत्र में बीज शब्द या होता है, इसकी चेतना को ही तुरीय या तुरिया या समाधि अवस्था कहते हैं।

और अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान में इसका संबंध बुद्धि से होता है, लेकिन सदाशिव के इस तत्पुरुष मुख की जो बुद्धि है, वो वृत्तिहीन होती है, इसलिए ब्रह्म सरीकी ही होती है। वृत्तिहीन बुद्धि को ही ब्रह्म कहते हैं।

सदाशिव का तत्पुरुष मुख ही योग कारक होता है, इसीलिए, यह मुख ही योगीराज, योगेश्वर, योगगुरु, योगऋषि, योगसम्राट, परमयोगी, महेश्वर कहलाता है। यही मुख मेरे परमगुरु सदाशिव का परमहंस स्वरूप है, यही मुख प्रणव है और यही मुख महेश्वर का अंतिम सगुण साक्षातकार भी है। इसी को वेदों में हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहा गया है, जो एकमात्र देवता हैं जो अभिमानी और अनभिमानी, दोनों ही होते हैं।

बुद्धत्व सिद्धि का मूलसंबंध भी इसी तत्पुरुष मुख से होता है I

इन्ही की उग्र शक्ति को, माँ पीताम्बरा, माँ ब्रह्मास्त्र विद्या और माँ बगलामुखी भी कहते हैं, जो 2019 के अन्त से ही पूर्वी भारत में बैठी हुई हैं। लेकिन माँ बगलामुखी का सप्त चक्रों में स्थान, मणिपुर चक्र में ही होता है I

इन माँ बगलामुखी के बारे में किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा, जब ब्रह्मास्त्र विद्या के लघु या निम्न अस्त्र स्वरूप की बात होगी।

तो यह था भगवान शब्द के व शब्द का ज्ञान।

 

भगवान शब्द का आ शब्द, आग या अग्नि महाभूत को दर्शाता है, जो सप्तरंग में होता है और ऐसा होने पर भी इसका मूल वर्ण लाल ही होता है । अग्नि महाभूत को तैजस महाभूत और प्रकाश महाभूत भी कहते हैं।

यह आ शब्द की अग्नि, पञ्च मुखा सदाशिव के दक्षिण दिशा की ओर देखने वाले, अघोर मुख की होती है, जिसका कृत्य संहार होता है, जिसका वर्ण गाढ़ा नीला होता है, जिसका तन्मात्र रूप होता है, जिसके देवता रुद्र होते हैं I नव गृह में अघोर मुख के गृह शनि और राहु होते हैं, और इसके देवता जो रुद्र हैं उनसे संबंधित गृह बुध और मंगल होते हैं I इसकी पीठ श्रृंगेरी शारदा कहलती है, जिसका वेद यजुर्वेद होता है, जिसका महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि होता है, जिसकी शक्ति ज्ञान होती है, जिसकी देवी माँ सरस्वती होती है और जो शिवानुजा कहलाती है, जिसकी अग्नि दक्षिणाग्नि कहलाती है, जिसका चक्र अनाहत चक्र या हृदय कमल होता है, जिसका शिव पंचाक्षरी मंत्र में बीज शब्द होता है, जिसकी चेतना को सुसुप्ति अवस्था कहते हैं।

और अंत:करण चतुष्टय विज्ञान में इसका संबंध अहंकार से होता है, लेकिन सदाशिव के इस अघोर मुख का अहम विशुद्ध होता है, इसलिए ब्रह्म सरीका ही होता है। विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं।

इसको पाया हुआ योगी परशुराम नामक सिद्धि को भी पाता है, और वो योगी समस्त शून्यों में, अर्थात 21 शून्यों में युद्ध करके, उनके विकृत साम्राज्यों को समाप्त करके, वैदिक साम्राज्य को स्थापित भी करता है। इस मुख का संबंध राम और कृष्ण अवतारों से भी है ही I

ऐसी सिद्धि को महाशून्य सिद्धी भी कहा जा सकता है, और ऐसा योगी को महाशून्य सिद्ध। और जिस योगी ने उस महाशून्य के ही अस्त्र स्वरूप को धारण किया है, वो योगी ही महाशून्य योद्धा कहलाता है।

ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसे योगी को महात्तम सिद्ध और महाशून्य सिद्ध भी कहा जाता है, और इस सिद्धि को ही महातमस सिद्धि भी कहा जाता है, जिसको पाए हुए योद्धा को महत्तम और महात्तम योद्धा भी कह सकते हैं।

लेकिन इस सिद्धि से पूर्व, योगी एक और सिद्धी को पाता है, जिसे नरसिंह सिद्धि कहते हैं, और जिसमें करोडो सिंहों की दहाड़ रूपी ध्वनि सुनाई देती है। इसी को बाइबल में हजारों सिंहों की दहाड़ कहा गया है, और यह दहाड़ का शब्द भी शिव तारक मंत्र, अर्थात राम नाद का ही होता है। नरसिंह सिद्धि की शक्ति भी राममय ही होती है I

और इस सिद्धि के प्रभाव से, उस योगी के भीतर बसी हुई ब्रह्माण्ड शक्ति, उसके अपने मेरुदण्ड से अकस्मात् बाहर निकलके, उस योगी के पास पहुँच जाती है। और ऐसा समय पर, वो योगी उस ब्रह्म शक्ति का नन्हा विद्यार्थी सामान ही होता है।  इससे आगे नहीं बतलाऊँगा, नहीं तो बहुत बातें हो जाएँगी।

तो यह था भगवान शब्द के आ शब्द का ज्ञान।

 

भगवान शब्द का न शब्द, नीर या जल महाभूत को दर्शाता है, जो हरे से रंग का होता है और कभी कभी तो यह नीले-हरे वर्ण का भी पाया जाता है ।

यह न शब्द का जल, पञ्च मुखा सदाशिव के उत्तर दिशा की ओर देखने वाले, वामदेव मुख का होता है, जो धूम्र वर्ण का होता है, और यह ऐसा होता है जैसे यज्ञकुंड से धुआँ ऊपर की ओर उठ रहा है।

इसकी माँ धूमावती होती हैं, जो माँ अलक्ष्मी आदि शब्दों से भी पुकारी जाती है, और जो अपने उग्र दिव्यता स्वरूप में वह शमशान काली भी कहलाती है जो काली माता का स्वरूप भी हैं । 2019 ईस्वी के अंत से ही माँ शमशान काली, भारत के उत्तरी भाग में बैठी हुई हैं।

यह वामदेव मुख, ब्रह्माण्ड के एक विशालकाए यज्ञकुंड के उप्पर की ओर उठते हुए धुएं के समान होता है, इसलिए जो जीवात्मा इसमें गई, वह इस यज्ञकुण्ड में ही स्वाहा होकर ब्रह्माण्ड से ही चली गई I

अपने उत्कर्ष मार्ग की अंतगति में, जब साधक उसके अपने पूर्णत्याग भाव के कारण, उस पञ्च मुखी सदाशिव को, स्वयं ही स्वयं की आहुति देता है, तो ही वो साधक, उसके अपने चेतन स्वरूप में, सदाशिव के इस वामदेव मुख में जाने का पात्र बनता है… इससे पूर्व नहीं।

वामदेव मुख का कृत्य स्थिति होता है, इसका तन्मात्र रस होता है, इसके देवता सनातन गुरु श्री विष्णु होते हैं, और नव गृह में इसके गृह सूर्य और केतु होते हैं, इसकी पीठ ज्योतिर्मठ कहलाती है, इसका वेद अथर्ववेद होता है, इसका महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म होता है, इसकी शक्ति पराशक्ति कहलाती है, इसकी देवी माँ पार्वती होती है और जो विष्णुनुजा भी कहलाती हैं, इसकी अग्नि आवाहनिया अग्नि होती है, इसका चक्र मणिपुर होता है, इसका शिव पंचाक्षरी मंत्र में बीज शब्द शि होता है जिसके देवता अदि शेष भी होते हैं, इसकी चेतना को स्वप्न अवस्था कहते हैं।

और अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान में इसका संबंध चित्त से होता है, लेकिन सदाशिव के इस वामदेव मुख का चित्त, संस्कार रहित ही होता है, इसलिए ब्रह्म सरीका ही होता है।

संस्कार रहित चित्त, सर्वव्याप्त होता है, सर्वसाक्षी होता है, और ऐसा चित्त ही चिदाकाश कहलाता है, जो ब्रह्म का ही द्योतक स्वरूप होता है। ऐसा साधक चिदात्मा कहलाता है।

सदाशिव के इसी वामदेव मुख में, स्वयं ही स्वयं की सूक्ष्म सांकेतिक आहुति देकर, साधक निर्बीज समाधी को सिद्ध करता है, जिससे साधक का चित्त संस्कार रहित होकर, चिदाकाश के समान हो जाता है। और ऐसा साधक चेतन ब्रह्म नामक सिद्धि को प्राप्त होता है।

इसकी सिद्धि को मत्स्य और कूर्म भी कहते हैं, लेकिन इससे आगे नहीं बतलाऊँगा, नहीं तो बहुत बातें हो जाएँगी I यह दोनों सिद्धियाँ स्तिथि कृत्य से ही संबंधित होती हैं I

तो यह था भगवान शब्द के शब्द का ज्ञान।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

तो यह था भारत के शब्द में भा शब्द से परिभाषित, भगवान शब्द का ज्ञान।

और अब भारत शब्द के बाकी दो शब्द, रा और ता को बताता हूँ…

 

अब भारत शब्द के अगले बीज, रा शब्द को बतलाता हूँ…

भारत का रा शब्द, रुद्र का सूचक है।

क्योंकि रुद्र संहार के देवता हैं, इसीलिए, भ, रा और ता के तीन शब्दों में, रा शब्द को बीच में डाला गया था।

अघोर मुख से स्वयं अभिव्यक्त होके ही रुद्र देव स्वयम्भू कहलाए थे। अघोर मुख का नाद अहम् होता है, और रुद्र देव का नाद आला होता है। इसी आला नाद को अल्लाह और बुद्ध आला भी कहा गया है, लेकिन इसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बात होगी।

अघोर मुख गाढ़े नीले रंग का होता है, और रुद्र, भगवे रंग में बसे हुए पिङ्गला पिङ्गला वर्ण के होते हैं। नीले रंग के अघोर मुख और पिङ्गल रंग के रुद्र, के योग को ही कृष्ण पिङ्गल कहा गया है। यह कृष्ण पिङ्गल रुद्र भी सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले, अघोर मुख से ही सम्बंधित हैं।

 

और अंत में, अब भारत शब्द के अगले बीज, ता को बतलाता हूँ…

भारत शब्द का अंतिम बीज, जो ता शब्द है, वो तात् नामक शब्द को दर्शाता है, जिसका संबंध पिता, गुरु, गुरुपिता और पितामह अदि शब्दों से भी होता है।

इसलिए, यह ता का शब्द, जगत पिता और जीव पितामह, और परमात्मस्वरूप देवराज इंद्र के गुरु, चतुर्मुखा प्रजापति (ब्रह्मा देव) को दर्शाता है।

इस ता शब्द का संबंध, सदाशिव के पश्चिम दिशा को देखने वाले, सद्योजात मुख से है, जिसके देवता सर्वसम प्रजापति होते हैं, और वो भी उनके अपने हीरे के समान प्रकाशमय, सर्व समतावादी, सगुण साकार,  चतुर्मुखा पितामह प्रजापति स्वरूप में।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

इसलिए, पुरुष के दृष्टिकोण से, भारत शब्द में, भा शब्द श्री विष्णु को दर्शाता है, रा शब्द रुद्र देव को दर्शाता है और ता शब्द ब्रह्माजी का सूक्ष्म सांकेतिक दर्शन करवाता है, जिसके कारण भारत शब्द त्रिदेव का ही वाचक है, जो उसी निर्गुण ब्रह्म की प्रधान अभिव्यक्तियाँ हैं।

इसलिए, त्रिदेव भी वो ब्रह्म ही हैं, जो अद्वैत कहलाता है।

 

तो अब ध्यान से सुनो…

प्रकृति के दृष्टिकोण से, भारत शब्द भाव, राग और ताल के बहुवादी स्वरूप को दर्शाता है।

और पुरुष के दृष्टिकोण से, भारत शब्द, त्रिदेव को दर्शाता है, जो उसी अद्वैत ब्रह्म को दर्शाते हैं, जो जीव जगत से परे होता हुआ भी, इस जाव जगत में भी विराजमान हुआ है, और वो भी इसी जीव जगत और इस जीव जगत के तंत्र के स्वरूप में।

यही कारण है कि भारत नामक शब्द, ब्रह्म की त्रिदेव नामक अभिव्यक्तियों का भी द्योतक है I और यही भारत नामक शब्द, प्रकृति का उनके महाब्रह्माण्ड रूप में, महाब्रह्माण्ड के तंत्र रूप में और उन्ही माँ प्रकृति के ब्रह्म शक्ति स्वरूप में, और उन्ही प्रकृति के उत्कर्ष पथ स्वरूप का भी द्योतक है I

क्यूंकि प्रकृति बहुवादी होती है और ब्रह्म अद्वैत, और क्यूँकि परंपरा नामक शब्द भी प्रकृति और ब्रह्म की योगावस्था को ही दर्शाता है, इसलिए यदि उत्कर्ष की परंपरा का अनुसार, हम भारत शब्द को समझेंगे, तो जीवों का मार्ग बहुवादी अद्वैत का ही होगा।

वेदों में इस बहुवादी अद्वैत के बहुत सारे प्रमाण भी मिलते हैं, जिनका मूल यही कहता है, कि सभी मार्ग उसी ब्रह्म को जाते हैं, सभी ब्रह्म ही हैं, ब्रह्म ही जीव जगत और उसका तंत्र हुआ है, रचैता ही रचना और रचना का तंत्र हुआ है, समस्त उत्कर्ष पथ उसी ब्रह्म को जाते है, समस्त उत्कर्ष मार्गों केगंतव्य में वही ब्रह्म हैं, इत्यादि।

यही कारण है कि वेदों को भी इसी बहुवादी अद्वैत में ही बसाया गया था।

और यदि भारत की इस परिभाषा से हम वास्तविक भारत को जाने, तो वो महाब्रह्माण्ड ही होगा, जिसको वेद मनीषियों ने कहीं-कहीं, सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन सर्वेश्वर का साम्राज्य ही कहा है।

इसी वैदिक भारत की देवी, अर्थात ब्रह्माण्ड की देवी, माँ भारती हैं, जिनके बारे में अब तक बात हो रही थी।

और क्योंकि भारत पितामह ब्रह्म की रचना है, जिनका उदय श्रीमान नारायण के नाभि कमल से ही हुआ था, इसलिए जो मणिका नाड़ी, नाभि कमल को उससे नीचे के दो कमलों से जोड़ती है, अर्थात, मणिपुर चक्र को स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों से जोड़ती है, उसकी दिव्यता भी माँ भारती ही हैं, जो प्रथम पञ्च विद्या हैं, और जिनके बारे में यहाँ पर बात हो रही है।

 

अब ध्यान देना …

लेकिन योगी के पिण्ड रूपी शरीर में भी तो वो प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड बसा हुआ होता है, जो पितामह ब्रह्म के भाव से उत्पन्न हुआ उनका साधन स्वरूप ही है।

ऐसा होने के कारण ही, योगी अपने पिण्ड रूपी शरीर में ही महाब्रह्माण्ड को पाता है, और ऐसा साक्षात्कार भी ब्रह्माण्ड योग ही कहलाता है।

तो इस ब्रह्माण्ड योग के दृष्टिकोण से, योगी का पिण्ड भी भारत ही होता है।  और उस पिण्ड के मूल में जो देवी या विद्या या शक्ति होती हैं, उन देवी या विद्या या शक्ति को ही माँ भारती कहा गया है।

और ऐसे आंतरिक ब्रह्माण्ड योग में, वो शक्ति भी योगी के पिण्ड के ही भीतर बसे हुए महाब्रह्माण्ड में, कुण्डलिनी शक्ति नामक स्वरूप में ही होती है। और माँ भारती के ऐसे स्वरूप में, जब आंतरिक योग के कारण, वो कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है, तो कुछ समय तक वो अपना सौम्य स्वरूप त्यागके, एक प्रचण्ड स्वरूप धारण करती हैं I

और इसी प्रचण्ड स्वरूप में वह शक्ति स्वरूपा माँ भारती, योगी की चेतना को सहस्रार से भी ऊपर जो वज्रदण्ड चक्र है, उससे भी ऊपर के निरलंबस्थान में ही स्थापित करना का मार्ग प्रशस्त करती हैं । और आगे चलकर, वह योगी महाब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध करके, शरीरी रूप में निवास करता हुआ भी महाब्रह्माण्ड ही होता है, जो भारत ब्रह्म कहलाए गए हैं, और इस सिद्धि के पश्चात, वही योगी इस जीव जगत का महाकारण, अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म का सगुण साकार शरीरी स्वरूप ही हो जाता है I

और ऐसे योगी के शरीर के भीतर ही उस महाब्रह्माण्ड के समस्त लोक, देवी देवता और अन्य सभी दिवताएँ आदि भी निवास करती हैं I और अन्ततः जब उस योगी का देहावसान ही हो जाता है, तब वह योगी उन सभी दिव्यताओं को अपने साथ ले जा कर, इसी महाब्रह्माण्ड का महादकैत कहलाता है, क्यूंकि वह योगी अपने देहावसान के साथ ही, इस महाब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताओं की डकैती करके अपने साथ ही ले गया होगा I

इसलिए जब भी ऐसा योगी अपने कर्म करने लगता है, वैसे ही कुछ ही वर्षों में वह धरा जहां वह योगी निवास कर रहा होगा, विप्लव आने लगते हैं I और जब वह योगी अपने ज्ञान प्रकाशित करेगा, तो वह विप्लव भी बढ़ते ही जाएंगे I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि उस महाब्रह्माण्ड स्वरूप योगी का ज्ञानमय प्रकाश ही उसका सार्वभौम अस्त्र होता है, जिसे उस लोकादि की दिव्यताएं सम्भाल नहीं पाती, और जिसके कारण वह पृथ्वी आदि लोक, जिसमें वह निवास कर रहा होगा, उसमें विप्लवों की भरमार आ जाएगी I

और इन्ही विप्लवों से अंततः, उसी लोक में एक ऐसा युग प्रारम्भ होगा, जिसका वर्णन किसी शास्त्र में नहीं होगा, और जो गुरुयुग ही कहलाएगा और जिसका नाता आम्नाय चतुष्टय से ही होगा I लेकिन ऐसा होने के पूर्व, आम्नाय चतुष्टय भी विप्लव में ही जाएगी जिसके कारण वह लोक में धर्म के परिधान में ही अधर्म और विधर्म होगा I यह पृथ्वी लोक ने इसी व्यापक विप्लव नामक दशा में जाना प्रारंभ कर दिया रहा है, और यह विप्लब भी चाहे अपने खहंद रूप में ही आएँगे, परन्तु यह तीन प्रकार से आएँगे, मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक और इन तीनों प्रकारों के मूल कारण में भी वही योगी होगा, जो महाब्रह्माण्ड सिद्ध हुआ होगा I

पञ्चब्रह्म में माँ भारती का स्थान सद्योजात ब्रह्म और तत्पुरुष ब्रह्म के मध्य में है I

 

द्वितीय विद्या … द्वितीय पञ्च सरस्वती, …

पञ्च विद्या में माँ शारदा, शारदा विद्या,शारदा सरस्वती, देवी शारदा,

यह गोरे वर्ण (गुलाबी वर्ण) की देवी हैं, जिनका मूल भाव दया और परोपकार है और यह एक ममतामयी देवी हैं। यह देवी सात्विक ही हैं I

यह सप्त बीज स्वरों की देवी भी हैं। यह स्वरों की भी देवी हैं। यह देवी नाद ब्रह्म को भी दर्शाती हैं।

इन्होनें त्रिशक्ति को भी धारण किया हुआ है। अपने ऐसा स्वरूप में यह देवी पञ्चब्रह्म में व्याप्त हैं I

साधक के शरीर में, इनका स्थान अनाहत चक्र या हृदय कमल में है।

यह साधकों को उच्च कोटि के ज्ञानी बनाती हैं, और साधकों को ब्रह्म कला का वरदान भी देती हैं।

इनके अनुग्रह से साधक के समस्त जीव जगत रूपी बंधन नष्ट होते हैं।

यह देवी निराकार ब्रह्म को दर्शाती है, इसलिए पञ्च विद्या में यह गुरु भी कहलाती हैं।

यह देवी पञ्च महाभूतों की ब्रह्मचेतना भी हैं।

इन्ही को ब्रह्म की माया शक्ति और महामाया कहा जाता है I इन देवी को ही अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, अव्यक्त शक्ति, अव्यक्त आदि भी कहा जाता है I बौद्ध पंथ में इन्ही देवी शारदा (अर्थात शारदा सरस्वती) का निराकार स्वरूप, अर्थात लोक स्वरूप, तुसित लोक कहलाया गया है I

यही देवी का एक स्वरूप ब्रह्माण्ड बीज भी है, जो अनादि शक्ति भी कहलाया जा सकता है I बौद्ध पंथ में, यह अनादि शक्ति स्वरूपा तथागत गर्भ कहलाया था I

साधक के पिण्ड रुपी शरीर में इन शारदा विद्या के चार स्थान होते हैं I तो अब “शारदा विद्या सरस्वती के स्थान चतुष्टय” के बारे में बताता हूँ…

  • प्रथम स्थान… स्वाधिष्ठान चक्र में है… इस स्थान पर यह देवी पितामह ब्रह्म की शक्ति होती है, और बिंदु स्वरूप में होती है I इस स्थान पर यह देवी अपने योगमूल नामक स्वरूप को दर्शाती है I
  • द्वितीय स्थान… व्यान प्राणा में है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण निराकार प्राणमय व्यापक स्वरूप में होती हैं, और अपने सिद्ध मार्गी स्वरूप को दर्शाती है I
  • तृतीय स्थान… हृदय क्षेत्र में है… इस स्थान पर यह देवी सगुण साकार स्वरूप, अर्थात मानव स्वरूप में होती हैं I इस स्थान पर यह देवी उस उत्कर्ष पथ को दर्शाती हैं, जो इस जीव जगत से अतीत जाता हुआ मुक्तिमार्ग कहलाता है, और जिसका सूक्ष्म सांकेतिक वर्णन ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में करा गया है, और जिसका वर्णन आगे के एक अध्याय में भी होगा, जिसका नाम हृदय कैवल्य गुफा होगा और जिसमें यही शारदा विद्या, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग भी दर्शाती हैं, जो अनादि अनंत, सनातन योग ही है I वह अध्याय श्रंखला जिसमें यह बताया जाएगा, उसका नाम भी जगदगुरु शारदा मार्ग ही होगा I
  • चतुर्थ स्थान… नैन कमल, अर्थात आज्ञा चक्र से थोड़ा सा ऊपर है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों स्वरूप में ही होती है, और ऐसी दशा में यह देवी अपने जगदगुरु स्वरूप को दर्शाती है I और जहां यह अपने इस जगदगुरु नामक स्वरूप में, यह शारदा सरस्वती विद्या, समस्त पिण्डों और ब्रह्माण्डों (अर्थात महाब्रह्माण्ड में जो भी पिण्ड और ब्रह्माण्ड हैं) उन सबके गुरु स्वरूप में होती हैं, अर्थात अपने इस स्वरूप में यह देवी ही सार्वभौम सर्वव्यापक जगद्गुरु होती हैं I इन देवी के ऐसे स्वरूप का वर्णन आगे की एक अध्याय में होगा जिसका नाम जगादृरु शारदा ही है और वह अध्याय भी एक अध्याय श्रंखला में होगा, जिसका नाम भी जगदगुरु शारदा मार्ग ही होगा I
  • किसी भी साधक का कार्य केवल माँ शारदा के चतुर्थ स्वरूप तक पहुंचना होता है, और ऐसा इसलिए है क्यूंकि इससे आगे किसी भी साधक का किसी भी साधना मार्ग में, कोई कार्य ही नहीं होता है I यह इसलिए कहा गया है क्यूंकि इसके पश्चात यही माँ शारदा उस योगी का हस्त पकड़कर, उस योगी की गुरु ही होकर, उस योगी को अपना सम्पूर्ण माया जगत पार करवाती हैं I और अंततः यह देवी उस योगी को, उनके अपने लोक में ही स्थापित करती हैं, जो ब्रह्मलोक के साथ जुड़ा हुआ होता है, और अव्यक्त प्रकृति कहलाता है I और इन्ही देवी के इसी अव्यक्त लोक से जाकर, वह योगी अंततः ब्रह्मलोक में ही चला जाता है I

इनको गुरु रूपिणी, हंसवाहिनी, त्रिशक्ति, बसंतप्रिया, अक्षरा, अनिशा, वाणी, वीणापाणि, ज्ञानदा, हंसिका, हंसिनी, इरा, कामरूपा, विशालाक्षी, विश्वरूपा, संगीता, काव्या, पद्मनिलया और सरस्वती के नामों से भी पुकारा जाता है।

यह देवी, सदानंद ब्रह्म की अर्धांगनी हैं।

क्योंकि ब्रह्म के आनंदमय स्वरूप को योगी, वानप्रस्थ आश्रम में ही पाता है, इसीलिए, यह देवी वानप्रस्थ आश्रम की भी देवी हैं। और इन्ही देवी के आशीर्वाद से वह वानप्रस्थी योगी, उन आनंद ब्रह्म को पाता है, जो सच्चिदानंद कहलाता है I

पञ्चब्रह्म में माँ शारदा का स्थान तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के मध्य में है I

 

तृतीय विद्या

पञ्च विद्या सरस्वती में माँ गायत्री, गायत्री विद्या,गायत्री सरस्वती, देवी गायत्री,

यह गोरे वर्ण की देवी हैं। माँ गायत्री उग्र और शांत दोनों ही हैं।

यह देवी वेदमाता और देवमाता हैं, यह देवी अपने अनुयायियों और भक्तों को वेदार्थ में स्थित करके, देवत्व या देवता का पद ही प्रदान कर देती हैं। इनको वेदों का ही सगुण स्वरूप मानना चाहिए। यह वेद श्रुति की देवी भी हैं I

साधक के शरीर में, इनका स्थान विशुद्ध चक्र या कंठ कमल में है।

यह देवी सम्पूर्ण देवत्व को दर्शाती हैं I और जहां वह देवत्व का नाता पञ्चब्रह्म से भी है, और पञ्चब्रह्म गायत्री सिद्धांता से भी I इन देवी के पाँच मुख पञ्च होते हैं, और ऐसी दशा के कारण यह देवी पञ्च मुखा गायत्री ही कहलाई जाती हैं I और इन्ही देवी के पांच मुख, पञ्च ब्रह्म की दिव्यता भी हैं I और क्यूंकि पञ्चब्रह्म में ही समस्त देवी देवता सहित, समस्त ब्रह्म रचना बसी हुई है, इसलिए यह देवी भी इसी की द्योतक हैं I

यह साधकों को उच्च कोटि ज्ञानी बनाती हैं, और साधकों को ब्रह्म कलाओं का वरदान देती हैं।

यह साधक को मुक्तिमार्ग अथवा मुक्ति ही प्रदान कर देती हैं। इनके अनुग्रह से साधक मुक्तिमार्ग की समस्त व्याधियों को ही पार करता है।

यह देवी वेदब्रह्म को दर्शाती है, इसलिए पञ्च विद्या में यह देवी वेद स्वरूप ही हैं, पञ्च ब्रह्म स्वरूप हैं। और इसीलिए, इनके पञ्च मुख और दस नेत्र भी बताए जाते हैं। इनके दस नेत्र, दसों दिशाओं को देखने वाले हैं।

इनके पाँच मुख होते हैं, और इन पञ्च मुखों में से चार मुख वेद चतुष्टय को दर्शाते है, और अंतिम मुख कैवल्य मोक्ष को देखने वाले हैं।

इनके पञ्च मुखों में से, एक मुख माँ उग्र काली का है, और दूसरा माँ उग्र चामुण्डा का है। और बाकी तीन मुख शांत देवियों के हैं, जिनके नाम हैं, माँ कमला, माँ सरस्वती और माँ भुवनेश्वरी हैं ।

इनको अजपा, ध्वला, त्रिपुण्डा, विद्रुमा, अनिक्षा, धवला, बृहदिवा, देवमाता, गीरवाणी, गीतांजलि, हेमा, हंसाबिका, मन्दाकिनी, मुक्ता, नीला, पायाशविनि, सुरेश्वरि, त्रेयता और प्राणाग्नि के नामों से भी पुकारा जाता है।

क्यूंकि यह पञ्चमुखा देवी हैं, इसलिए इनको पञ्चशीश के नाम से भी पुकारा जाता है। इनके पञ्च मुखों के नाम हैं… मुक्ता, विद्रुमा, हेमा, नीला और धवला।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

अब जो मैं बता रहा हूँ, वो पञ्च ब्रह्मोपनिषद् के मार्ग पर, पञ्च ब्रह्म की आंतरिक प्रदक्षिणा से ही जाना जाता है। इस प्रदक्षिणा को साधक, उसकी अपनी साधनाओं में ही संपन्न करता है, और जो माँ गायत्री के अनुग्रह से ही संपन्न होती है।

और इस आंतरिक प्रदक्षिणा को साधक, उसके अपने पिण्ड रूपी शरीर के भीतर ही करता है, नाकि शरीर से बहार।

माँ गायत्री के इन पञ्च मुखों में से, एक एक मुख, ब्रह्म के पञ्च मुखों की शक्ति को दर्शाता है। ब्रह्म के इन पञ्च मुखों का वर्णन पञ्चब्रह्मोपनिषद् में किया गया है।

तो अब मैं ब्रह्म के इन पञ्च मुखों के अनुसार, माँ गायत्री के पाँच मुखों को बतलाता हूँ, इसलिए इसपर ध्यान देना…

  • इन देवी का मुक्ता मुख, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के ईशान ब्रह्म की दिव्यता है, जिसका कृत्य अनुग्रह होता है, अर्थार्त मुक्ति होता है। और यही कारण है, की माँ गायत्री के इस मुख का नाम मुक्ता कहा गया है। माँ गायत्री का यह शीश, सौम्य कोटि की मुक्तिदेवी, माँ कमला को भी दर्शाता है।
  • इन देवी का विद्रुमा मुख, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के तत्पुरुष ब्रह्म की दिव्यता है । माँ गायत्री का यह शीश, देवी चामुण्डा को भी दर्शाता है, और वो भी माँ चामुण्डा के अति उग्र, रक्त चामुण्डा स्वरूप में। 2019 ईस्वी के अंत से ही, माँ रक्त चामुण्डा मध्य भारत में बैठी हुई हैं।
  • इन देवी का हेमा नामक मुख, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के सद्योजात मुख की दिव्यता है। माँ गायत्री का यह शीश, सौम्य कोटि की ज्ञानदेवी, माँ सरस्वती के हेमा सरस्वती स्वरूप को दर्शाता है।
  • इन देवी का नीला नामक मुख, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के अघोर मुख की दिव्यता है। माँ गायत्री का यह शीश, माँ उग्र काली को दर्शाता है, और वो भी माँ उग्र काली के अति ज्ञानमय और उग्र, नील सरस्वती स्वरूप में।
  • इन देवी का धवला नामक मुख, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के वामदेव मुख की दिव्यता है। माँ गायत्री का यह शीश, सौम्य कोटि की त्रिभुवनात्मक शक्ति, माँ भुवनेश्वरी को दर्शाता है।

इसलिए, जो साधक उसके पिण्ड रूपी शरीर के भीतर ही, पञ्चब्रह्मोपनिषद् में कहे गए पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा या परिक्रमा करता है, वो साधक माँ गायत्री के पञ्च मुखों की भी प्रदक्षिणा कर बैठता है। इसलिए, शक्ति के स्वरूप में, शाक्त मार्ग पर की गई पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा को, देवी गायत्री प्रदक्षिणा भी कह सकते हैं।

जो शाक्त मार्ग का योगी, ऐसी प्रदक्षिणा करता है, वो भीतर से शाक्त अर्थात विध्वंसक होता है, वो बहार से शैव अर्थात कल्याणकारी होता है, और इस धरा पर वो वैष्णव अर्थात पालनहार, ऐसा होकर ही अपना समय व्यतीत करता है। ऐसा योगी, स्वयं के लिए विध्वंसक, दूसरों के लिए कल्याणकारी और धरा के लिए सैद्धांतिक स्तिथि का द्योतक होता है।

और इसके अतिरिक्त वो योगी अन्य दोनों कृत्यों का, अर्थात, तिरोधान कृत्य और अनुग्रह कृत्य का भी धारक होता है।

ऐसा परिपूर्ण योगी, कभी भी अपनी सिद्धियों या ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करता है, लेकिन केवल तबतक, जबतक उसे ऐसा करने की प्रेरणा उसकी अपनी गुरूपरंपरा से ही प्राप्त ना हो जाए।

जबतक उस योगी को ऐसी प्रेरणा नहीं आएगी, तबतक वो योगी स्वयं को ही, एक स्वयं जनित तिरोधान में डालकर रखेगा, जिसके कारण उसके आचरण, व्यवहार, शब्दादि बिंदु, उसकी वास्तविकता से ही विपरीत होंगे।

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा होने के कारण ही गायत्री सरस्वती विद्या, पञ्चब्रह्म की दिव्यता को ही दर्शाती है I और क्यूँकि पञ्च ब्रह्म ही सम्पूर्ण देवत्व हैं, इसलिए माँ गायत्री भी उसी सपूर्ण देवत्व की द्योतक हैं I

क्यूंकि इनका चक्र विद्धुद्ध चक्र ही है, इसलिए इसी चक्र पर उस सपूर्ण देवत्व का साक्षात्कार होता है I और जिस योगी ने ऐसा साक्षात्कार किया होगा, वही योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में देवात्मा कहलाता है I

 

ऐसे योगी के जो गुरु होते हैं, वो ऐसे होते हैं…

  • उसके पितामह गुरु, अर्थात दादा गुरु, चतुर्मुखा प्रजापति होते हैं।
  • उसके परमगुरु, अर्थात गंतव्यगुरु, विराट परब्रह्म, पञ्च मुखा सदाशिव होते हैं।
  • उसके सनातन गुरु, अर्थात अनादि अनंत गुरु, श्री विष्णु होते हैं।
  • उसके अनुग्रह या मुक्ति गुरु, गणपतिदेव होते हैं।
  • और उसकी शक्ति गुरु, वो गुरुमाई होती हैं, जो मूल प्रकृति होती है, जो माँ आदि पराशक्ति, दुर्गा, पराम्बा, त्रिपुरसुंदरी आदि नामों से पुकारी जाती हैं।

ब्रह्म के यह पञ्च मुख, साधक की काया के भीतर भी होते हैं, और यही पञ्चमुख ब्रह्माण्ड में भी होते हैं।

ऐसा साधक उसकी काया के भीतर ही बसे हुए पञ्चमुखों की प्रदक्षिणा करता हुआ भी, ब्रह्माण्ड में बसे हुए इन्हीं पञ्चमुखों की प्रदक्षिणा भी उसके योगमार्ग से सम्पन्न करता है।

और एक बात, जो साधक ऐसी आंतरिक प्रदक्षिणा करता है, उसके गुरु भी देवादि देव महादेव ही होते हैं, जैसे मेरे भी एक पूर्व जन्म में भी थे, जब मैंने इस पञ्चब्रह्मोपनिषद् का ज्ञान इस धरा पर, महादेव से पाकर, महादेव की आज्ञानुसार ही बांटा था। उस जन्म में मेरा नाम भी पीपल के वृक्ष पर ही था।

और आज भी महादेव मेरे गुरु हैं, क्योंकि प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की परंपराएं उसके साथ ही चलती है। इसलिए जब भी वो लौट के आता है, तब उसकी परंपराएं और सिद्धियां भी उसके साथ ही लौट जाती हैं। वैसे तो उसका लौटना भी उसकी परम्पराओं की प्रेरणा से ही होता है।

यहां जो महादेव शब्द कहा गया है, उनको गुरु सदाशिव का दक्षिण दिशा को देखने वाला, अघोर मुख ही मानना चाहिए, जिसका कृत्य संहार होता है।

और इन बताए गए बिंदुओं के अतिरिक्त, पञ्चब्रह्मोपनिषद् के ज्ञानानुसार, जो साधक के पिण्ड और ब्रह्माण्ड के भीतर, प्रदक्षिणा होती है, उसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।

 

अब और भी आगे बढ़ता हूँ…

यह देवी संपूर्ण वैदिक वाङ्मय हैं, क्योंकि यह वेद श्रुति की देवी हैं।

साधनाओं में, योगी को जो घटाकाश वाणी और आकाश वाणी सुनाई देती हैं, वो मुख्यतः इन देवी से ही होती हैं।

यह देवी, ब्रह्मभार्ग की अर्धांगिनी है, जो ब्रह्म के ही शिव स्वरूप है।

क्योंकि इनका संबंध, ब्रह्म के शिव स्वरूप से है, इसलिए यह देवी ब्रह्मचर्य आश्रम से लेकर संन्यास आश्रम तक की देवी है। लेकिन प्रधानतः, इन देवी का साक्षात्कार, सन्यास आश्रम में ही होता है।

जो मन, बुद्धि, चित्त, अहम् से संन्यासी नहीं, वो इनका साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा।

पुरातन कालों में, जो मेरे पूर्व जन्मों के थे और जिनके बारे में आज की मानव जाती को कोई ज्ञान भी नहीं है… माँ गायत्री ही वो देवी थी, जिनकी वाणी को ही वेद कहा गया था, और जो उत्कर्ष मार्ग में, ज्ञानरूपी श्रुति स्वरूप में, समस्त जीव जगत का मुक्तिमार्ग ही हैं।

माँ गायत्री ही वेद रक्षक हैं, इसलिए चाहे कोई भी काल खंड या युग हो, माँ गायत्री की वैदिक वाङ्मय के अनुसार की गयी साधनाएं, अंततः मुक्तिदायिनी ही होती है I और यही कारण है, मुक्तिदायनी शब्द भी माँ गायत्री का ही एक नाम है।

इस ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, कोई ऐसा योगी हुआ ही नहीं, जो मुक्तिमार्गी होता हुआ भी, माँ गायत्री का नहीं था।

त्रिकालों में, यदि कोई भी योगी, योगशिखर अर्थात कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होने का इच्छुक है, तो उसको माँ गायत्री का तो होने ही पड़ेगा।

 

चतुर्थ विद्या,

पञ्च सरस्वती विद्या में माँ सावित्री, सावित्री विद्या,सावित्री सरस्वती,देवी सावित्री,

यह सुनहरे वर्ण की देवी हैं। यह अति उग्र स्वरूप की देवी हैं और किसी को भी श्राप दे देती हैं। लेकिन अपने भक्तों पर यह देवी, अपना अनुग्रह ही रखती हैं।

मैं तो इनका ही पुत्र हूँ, क्योंकि यह देवी ही मुझे उनके अपने गर्भ में धारण करके, इस लोक में लायी थी और इन्होने ही मुझे यह स्थूल शरीर भी प्रदान किया था, जिसमें बैठ कर मैं यह सब बता रहा हूँ। इस और पूर्व जन्मों में भी, मेरा परकाया प्रवेश इनही देवी माँ ने ही करवाया था।

साधक के शरीर में, इनका स्थान आज्ञा चक्र या नैन कमल में है।

यह साधक को उच्च कोटि का योगी बनाती हैं, और साधक को दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी प्रदान करती हैं।

ज्ञानेन्द्रियों में, इनका संबंध घ्राण या नाक से है। पञ्च तन्मात्रों में इनका संबंध गंध तन्मात्र से है। पञ्च महाभूतों में, इनका संबंध पृथ्वी महाभूत से है।

पञ्च कृत्य में इनका संबंध उत्पत्ति कृत्य से है, जिससे यह साधक के लिए समस्त उपलब्धियों को स्वयं प्रकट करती हैं। यहाँ कहे गए उपलब्धियों शब्द का अर्थ, भौतिक जीव जगत तक ही सीमित नहीं है।

यह देवी साधकों की रक्षक भी होती हैं। इनको मानने वाले साधक को इस समस्त चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में कोई छू भी नहीं सकता।

यह सुगंधों की देवी भी हैं, इसलिए, इनके साधक के शरीर से, समय समय पर कई प्रकार की सुगंध भी निकलती है। लेकिन अंत में, उस साधक के शरीर से यज्ञ की ही सुगंध आएगी।

इनको माँ अंबिका, माँ भामा, त्रिरूपा, अनुष्टुभि, चंद्रलेखा, चित्रगंधा दिव्यांगा, महोत्सह, पीत:, सुरवन्दिता, सौदामिनी, सर्वदेवस्तुता, सौर्या, त्रिफलांजना, वसुधा के नामों से भी पुकारा जाता है।

यह देवी, विरिंची ब्रह्म की अर्धांगिनी हैं, जिनको कार्य ब्रह्म, उकार, योगेश्वर, महेश्वर, योगगुरु, योगर्षि, योगसम्राट, योग और योग तंत्र सहित सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है । विरंचि स्वरूप में, पितामह ब्रह्म, रजोगुणी होते हैं, और इसीलिए, कार्य ब्रह्म कहलाते हैं। इसीलिए, यह देवि कार्य ब्रह्म की अर्धांगिनी हैं।

यह देवी ही ॐ मार्ग की दिव्यता हैं, और इन्हीं को ॐ का प्रथम बीज, अकार कहा जाता है I बौद्ध पंथ में इन्ही देवी को बुद्ध प्रज्ञापारमिता का जाता है I इस्लाम और ईसाई पंथ में इन्ही देवी को मरियम, मदर मैरी, सूर्य के आवरण वाली देवी, छिपे हुए सत्य के प्रकाश की देवी (अर्थात वुमन ऑफ अपोकलीप्स) आदि भी कहा गया है I

संपूर्ण ॐ मार्ग की दिव्यता होने के कारण, जब साधक ॐ साक्षात्कार को जाता है, तो उस साधक की ऐसी चेतना गति को हभी यही देवी प्रदान करती हैं I यही कारण है कि इस ग्रंथ में ॐ मार्ग को ॐ सावित्री मार्ग भी कहा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इन देवी का नाता कार्य ब्रह्म से होने के कारण, और क्यूँकि कार्य ब्रह्म ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म की रजोगुणी, सृष्टिकर्ता नामक अभिव्यक्ति हैं, इसलिए इन देवी का नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से भी है I

क्योंकि हिरण्यगर्भ ब्रह्म से ही काल की स्वयं उत्पत्ति, कालचक्र के स्वरूप में हुई थी, और क्यूंकि “काल ब्रह्म” का साक्षातकार गृहस्थ आश्रम में ही होता है, इसीलिए यह देवी गृहस्थ आश्रम की भी देवी हैं।

लेकिन गृहस्थ आश्रम में इनकी उपासना यदि इनके सभी बिंदुओं में बस के नहीं की जाएगी, तो वो गृहस्थ आश्रम त्रसादी में ही जाएगा, क्योंकि पञ्च सरस्वती विद्या में, यह सावित्री सरस्वती विद्या सबसे उग्र देवी भी हैं।

यह परिवार की रक्षक देवी हैं। यह पारिवारिक परंपराओं की रक्षक देवी भी हैं।

यह देवी, रचनामकता, भौतिक विज्ञान, और विशुद्ध काम की भी देवी हैं। काम का विशुद्ध स्वरूप, जो निष्काम होता है, उसको ही ब्रह्म कहते हैं। पुरुषार्थ चतुष्टय का काम शब्द भी इसी निष्काम काम को दर्शाता है, जो मोक्षमार्ग ही होता है। और यही कारण है, कि पुरुषार्थ चतुष्टय में, काम पुरुषार्थ के तुरंत बाद, मोक्ष पुरुषार्थ कहा गया है।

माँ सावित्री , महालक्ष्मी, महापार्वती और महासरस्वती की योगावस्था भी है।

और अंत में एक बात बोलता हूँ, कि यदि यह देवी किसी साधक से प्रसन्न होकर, उस साधक पर अनुग्रह कर दें, तो इसके पश्चात ऐसे साधक को जो मिलेगा, उसके सामने इन्द्रादि देवताओं के स्वर्ग भी छोटे लगने लगेंगे, अर्थार्त, इन देवी के अनुग्रह के आगे, सभी स्वर्ग भी नीचे या कम लगने लगेंगे।

और यदि यह देवी किसी भी जीव या जीव सत्ता से अप्रसन्न हो गई, तो उसके लिए रसातल भी कुछ बुरा नहीं होगा, क्योंकि ऐसी दशा में, वो जीव या जीव सत्ता जो पाएगी, उसके आगे वो रसताल और सारे नरक भी बड़े लगने लगेंगे, अच्छे लगेंगे, ऊंचे लगेंगे।

जिस देवी ने माँ लक्ष्मी, पितामह ब्रह्म और देवराज इंद्र तक को नहीं छोड़ा, उनकी साधना करते समय तो साधक को विशेष ध्यान रखना ही होगा।

लेकिन मेरी तो वास्तविक माता भी यह देवी, माँ सावित्री ही हैं, इसलिए ……………..

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

पञ्चम विद्या

पञ्च सरस्वती विद्या में माँ ब्रह्माणी, ब्रह्माणी विद्या, … ब्रह्माणी सरस्वती, … देवी ब्रह्माणी, …

पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती में, माँ ब्रह्माणी ही माँ सरस्वती का गंतव्य स्वरूप हैं।

माँ ब्रह्माणी ही मुक्ति पद को दर्शाती हैं। माँ ब्रह्माणी का दूसरा नाम ही, कैवल्य मोक्ष कहलाता है।

ब्रह्मत्व शब्द के मूल और गंतव्य, दोनों में ब्रह्माणी सरस्वती ही हैं I

ब्रह्मत्व शब्द और ब्रह्मत्व पथ की इच्छा, ज्ञान, चेतना और क्रिया, चारों शक्तियों में भी ब्रह्माणी विद्या सरस्वती ही हैं।

ब्रह्मत्व के कैवल्य मोक्ष स्वरूप में भी ब्रह्माणी विद्या सरस्वती ही हैं I

ब्रह्मत्व के शिवत्व, बुद्धत्व, रुद्रत्व, विष्णुत्व, शाक्तत्व, गणपतत्व और अन्य सभी देवत्व स्वरूपों में भी यही ब्रह्माणी सरस्वती विद्या ही हैं I

और ब्रह्म रचना के जीवत्व और जगतत्व स्वरूपों के मूल और गंतव्य, दोनों में भी यही ब्रह्माणी सरस्वती विद्या ही हैं I

माँ ब्रह्माणी भी उग्र देवी हैं। लेकिन उत्कृष्ट योगीजनों और साधकगणों के लिए तो यह देवी मुक्तिदायिनी ही है।

वैसे मैं जिन-जिन देवी माताओं का साक्षात्कार किया हूँ, उनमें से अधिकांश माताओं और देवियों को, आज के शास्त्र उग्र ही कहते हैं। लेकिन वो सभी माताएं और देवियाँ मेरे साथ तो बहुत ही शांत और सौम्य ही रही हैं, अर्थात बहुत ही अच्छी रही हैं, इसलिए मुझे तो यह भी पता नहीं चल पाया है, कि आज के शास्त्र उन सब देवी माताओं को ऐसा उग्र क्यों कहते हैं?।

मेरे साक्षात्कार के अनुसार, यह देवी गोरे (पीले) वर्ण की हैं, और उनको एक बहुत चमकीले सुनहरे प्रकाश ने घेरा होता है, और इसीलिए शस्त्रों में उनको सुनहरे रंग का बतलाया गया है।

इंद्रियों के दृष्टिकोण से, माँ ब्रह्माणी परा-इंद्रियों को दर्शाती है।

यह देवी आश्रम चतुष्टय  से अतीत हैं, आश्रमातीत हैं I

वह पूर्णब्रह्म जो निर्गुण निराकार, सगुण साकार, सगुण निराकार तीनों ही हैं, उनकी जो अनंत, अजन्मा, सनातन, अनश्वर, अभय, साक्षात ब्रह्मरूपी और परे से भी परे ब्रह्म शक्ति है और जो ब्रह्मचेतना, ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मक्रिया और ब्रह्मइच्छा रूप में है, यह देवी वही हैं I

इन देवी माँ को, ब्राह्मी, अनंता, अजन्मा, अभ्या, ब्रह्मज्ञानिकसाधना, ब्रह्मा विष्णु शिवात्मिका, ब्रह्मस्वरूपिणी, देवात्मिका, ज्ञानांजना, शुभदा, सहस्रारा, विनिद्रा के नामों से भी पुकारा जाता है।

वैसे तो साधारण साधकगणों और योगीजनों के लिए तो इन ब्राह्मणी सरस्वती का चक्र सहस्रार है, अर्थात ब्रह्मरंध्र चक्र है… परन्तु जब साधक की चेतना सहस्रार से भी ऊपर जो वज्रदण्ड चक्र है और उस वज्रदण्ड से भी ऊपर जो निरलम्बस्थान है, उसपर चली जाती है, तब यही देवी का चक्र भी वही निरलम्बा चक्र ही पाया जाता जाता है ।

इसलिए यह देवी सहस्रार चक्र सहित, वज्रदण्ड चक्र और निरलम्ब चक्र की भी देवी हैं I

ऐसा होने के कारण ही यह देवी, देवत्व के गंतव्य की द्योतक होती हुई भी, देवत्वातीत और देवातीत ही हैं, जिसके कारण यह देवी साक्षात कैवल्य मोक्ष को भी दर्शाती हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह देवी, साधक की चित्त को ही संस्कार रहित कर देती है, इसीलिए माँ ब्रह्माणी निर्बीज समाधि की भी देवी हैं। यही कारण है कि माँ ब्रह्माणी को चित्तमुक्तिनी नाम से भी पुकारा जाता है।

जब साधक का चित्त ही पूर्णरूपेण संस्कार रहित हो गया, तो ऐसे साधक के लिए, इस जीव जगत में और बचा ही क्या है?,… थोड़ा सोच के देखो।

चित्तमुक्ति ही तो कैवल्य मोक्ष कहलाती है, इसीलिए, यह देवी माँ ही मुक्ति की देवी हैं।

और इससे पूर्व जन्म के मेरे गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाति गौतम बुद्ध नाम से पुकारती है, उन्होंने चित्त की ऐसी संस्कार रहित अवस्था को बोधिचित्त नाम दिया था। लेकिन, इस बोधिचित्त के बारे में, किसी बाद के अध्याय में बात करूंगा।

लेकिन यह अभी बता देता हूँ, कि माँ ब्रह्माणी ही बोधिचित्त सिद्धि की देवी हैं।

बोधिचित्त सिद्धि जो चित्त की गंतव्य रूपी, संस्कार रहित अवस्था को दर्शाती है, उसमें साधक की बुद्धि में रजोगुण के बिंदु भी होते हैं, जिसके कारण ऐसा साधक अपना ज्ञान उचित पात्रों को बांटकर ही देहावसान करता है।

इस बोधिचित्त की प्राप्ति के पश्चात, योगी के चित्त, चिदाकाश में ही विलीन होके, चिदाकाश ही हो जाता है।

योगमार्ग में, चिदाकाश को ब्रह्म भी कहा गया है, और उसकी सिद्धि को ही चेतन ब्रह्म कहा गया है। जिस साधक ने यह चेतन ब्रह्म नामक सिद्धि पाई होगी, वही चिदात्मा कहलाया जाता है, और जहां चिदात्मा भी वह पूर्णब्रह्म ही हैं, जिनकी दिव्यता माँ ब्राह्मणी हैं I

माँ ब्रह्माणी ही हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की शक्ति है। माँ ब्राह्मणी ही महाकारण की दिव्यता हैं I लेकिन इस महाकारण की दिव्यता स्वरूप में, माँ ब्रह्माणी रजोगुणी ही होती हैं और वो ब्रह्म की उत्पत्ति शक्ति भी होती हैं।

देवी माँ ब्रह्माणी, ब्रह्माण्ड का प्राथमिक उद्गम स्थल और अंतिम लय स्थल स्वरूप भी हैं।

ब्रह्माण्ड के भीतर और ब्रह्माण्ड से परे, जो ब्रह्माण्ड की कारक और कारण शक्ति है, उनको ही पञ्च सरस्वति में, माँ ब्रह्माणी कहा गया है।

एक बात और बता देता हूँ, कि ब्रह्म की रचना में, किसी भी साधक के उत्कर्ष मार्ग में, ब्रह्म की उत्पत्ति शक्ति का आलम्बन लेके ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसीलिए, माँ ब्रह्माणी कैवल्य मोक्ष भी कहलाती हैं। इसलिए, चाहे कैवल्य मोक्ष बोलो या ब्रह्माणी सरस्वती या ब्रह्माणी विद्या बोलो… बात एक ही है।

अष्ट मातृका में यही देवी प्रथम मातृका भी हैं। वैसा शास्त्र तो कहता है, कि अष्ट मातृका उग्र होती है, लेकिन मुझे तो बहुत अच्छी लगती हैं।

माँ ब्रह्माणी ही समस्त जीवों की माता हैं, सर्वमाता ही हैं।

बुद्धत्व की देवी भी माँ ब्रह्माणी ही हैं। कोई ऐसा बुद्ध हुआ ही नहीं, जिसके ब्रह्मरंध्र में, या ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, किसी न किसी समय पर माँ ब्रह्माणी न बैठी हों। इसलिए माँ ब्रह्माणी को बुद्धेश्वरी भी कहा जाता है। विवेक और बुद्धि की देवी भी माँ ब्रह्माणी ही हैं।

माँ ब्रह्माणी में ही पञ्च विद्याएं बसी हुई होती हैं, इसीलिए जिस साधक के सहस्रार पर माँ ब्रह्माणी एक बार भी बैठ गई, उस साधक की काया में, और अपने अपने स्थानों पर भी, बाकी सभी पञ्च विद्याएं, दस महाविद्याएं, चौसठ योगिनिगण और उनके भैरवगण, नव दुर्गायें, अष्ट मातृकागण, अष्ट भैरवी और उनके भैरवगण, आदि मातागण भी स्वयं प्रकट होंगी और वह अपने अपने स्थानों पर बैठ भी जाएंगी ।

इसलिए, ऐसा योगी ब्रह्मरचना सहित, ब्रह्म की द्योतक जो भी देवियाँ, शक्तियाँ, दिव्यताएं और देवगण आदि हैं, उन सबका समानरूपेण और पूर्णरूपेण धारक भी ही जाएगा I

 

ऐसा होने के पश्चात, वो साधक …

  • भीतर से शाक्त हुए बिना नहीं रह पाएगा।
  • बहार से शैव हुए बिना नहीं रह पाएगा।
  • इस धरा पर वैष्णव हुए बिना भी नहीं रह पाएगा।
  • ऐसा साधक अपने को एक स्वयंजनित तिरोधान में डाल के, छुपा कर रखता ही है।
  • और ऐसा साधक अनुग्रह कृत्य का धारक भी होता ही है।
  • जो पञ्च कृत्य और उनके देवता का ही धारक हो गया, वही अतिमानव कहलाता है I

लेकिन, यह पञ्च कृत्य विद्या या पञ्च कृत्य सिद्धि को भी तो यही पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती ही प्रदान करती हैं।  इनके सिवा, इस विद्या और सिद्धि को प्रदान करने वाला, और है कौन?।

 

और इस दशा की प्राप्ति के पश्चात, अंततः वही साधक ऐसा ही होगा…

भीतर से आत्मना, बाहर से सर्वा और इस संपूर्ण महाब्रह्माण्ड में ब्रह्माणा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

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