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यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पचहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का तीसरा अध्याय है I

इस अध्याय का नाता एक पूर्व की अध्याय श्रंखला से भी है, जिसका नाम जगदगुरु शारदा मार्ग था I

 

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ऊपर के चित्र में अव्यक्त प्राण के भीतर बैठा हुआ योगी का अव्यक्त सिद्ध शरीर दिखाया गया है I

पूर्व के अध्याय में सूर्य लोक के बारे में बताया गया था I

जब योगी को सूर्य देवता उनके लोक से आगे जाने का मार्ग दिखलाते हैं, तब योगी की चेतना इस अध्याय में प्रवेश करती है I

ऐसी दशा में उस चेतना को एक सिद्ध शरीर की प्राप्ति होती है जो गुलाबी वर्ण का होता है I इस सिद्ध शरीर का नाता स्वाधिष्ठान चक्र से होता है I

और स्वाधिष्ठान चक्र से नाता होने के कारण, इस गुलाबी सिद्ध शरीर का नाता व्यान प्राण से भी होता है I ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वाधिष्ठान चक्र के प्राण, व्यान ही होता है I

इसी शरीर की प्राप्ति के पश्चात वह योगी माया लोक में जाता है I और जहाँ योगी को इस माया लोक तक लेकर जाने वाली देवी, माँ शारदा सरस्वती ही हैं I

वह माँ शारदा साधक की काया में ही अपने उस स्वरूप में निवास करती हैं, जिसका चित्र यहाँ दिखाया गया है और इसी का वर्णन इस अध्याय में किया गया है I ऐसी दशा में शारदा विद्या, सगुण साकार और सगुण निराकार दोनों ही स्वरूपों में होती हैं I

महामाया जो अव्यक्त ही हैं, वह इस समस्त ब्रह्म रचना की मूल शक्ति (मूल दिव्यता) हैं I अपने ऐसे मूल स्वरूप में वह ही जगद की गुरु होती हैं और अपने ऐसे मूलात्मक अव्यक्त स्वरूप में ही वह शारदा विद्या सरस्वती कहलाई हैं I और वही ब्रह्मा की माया शक्ति भी कहलाई जाती हैं I

माया शक्ति ने ही ब्रह्मलोक के बीस भागों को घेरकर रखा हुआ है ताकि कोई ऐसा जीव जो ब्रह्मलोक के साक्षात्कार का पात्र न हो, वह उसका साक्षात्कार ही न कर पाए I यही कारण है कि जब ऐसी पात्रता को पाया हुआ योगी ब्रह्मलोक को जाता है, तब उस योगी की चेतना की गति इसी अध्याय से होती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अव्यक्त ही शक्ति है और शक्ति का वास्तविक स्वरूप भी अव्यक्त ही होता है I

अव्यक्त शक्ति ही व्यान प्राण के स्वरूप में साधक के प्राणमय कोष में स्थापित हुई हैं I

और इसके अतिरिक्त, अव्यक्त शक्ति के व्यापक स्वरूप को ही माया और महामाया आदि नामों से पुकारा जाता है, और अव्यक्त के महामाया और माया आदि स्वरूप को ही शारदा सरस्वती कहा जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

श्री लक्ष्मी का प्रादुर्भाव सदाशिव के बाहर की ओर देखने वाले पश्चिमी मुख से हुआ था I पितामह ब्रह्मा का प्रादुर्भाव भी इसी मुख से हुआ था I

सद्योजात सदाशिव से श्री लक्ष्मी का प्रादुर्भाव पितामह ब्रह्मा के प्रादुर्भाव के पश्चात ही हुआ था और ऐसा होने के कारण, श्री लक्ष्मी ब्रह्मानुजा कहलाई थीं I

वह श्री लक्ष्मी जो ब्रह्मानुजा कहलाई हैं, हलके गुलाबी वर्ण की हैं I और यही दशा इस भाग के चित्र में दिखाए गए सिद्धि शरीर के द्वारा भी सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन दर्शाई गई है I

इसलिए यह सिद्ध शरीर जो माँ शारदा शरस्वति का द्योतक है, वही उसके प्रादुर्भाव के स्वरूप में, बाल लक्ष्मी भी है I

बालिका लक्ष्मी भी महामाया का ही एक स्वरूप होती हैं I और इस बिंदु को एक आगे के अध्याय में तब बताया जाएगा, जब पञ्च मुखी सदाशिव के साक्षात्कार मार्ग से ही त्रिदेव और त्रिदेवी का नाता समझाया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति के पश्चात, अनेक सिद्धियों का ज्ञान और प्राप्ति होती है I

यह सिद्ध शरीर जिन सिद्धियों को दर्शाता है, अब उनको बताता हूँ…

  • माँ माया का सगुण साकार स्वरूप I इसलिए इस सिद्ध शरीर को माया सिद्ध शरीर भी कहा जा सकता है I
  • महामाया का सगुण साकार स्वरूप I इसलिए इस सिद्ध शरीर को महामाया सिद्ध शरीर भी कहा जा सकता है I
  • ऐसे साधक की काया के भीतर ही माँ माया का वह माया लोक भी साक्षात्कार होता है, जिसनें ब्रह्मलोक को सभी ओर से घेरकर, सभी अपात्रों से छुपाकर रखा हुआ है I
  • माँ शारदा का सगुण साकार स्वरूप I इसलिए इस सिद्ध शरीर को शारदा सिद्ध शरीर (या शारदा सिद्धि को दर्शाता हुआ शरीर) भी कहा जा सकता है I
  • श्री लक्ष्मी के बाल्यावस्था का सगुण साकार स्वरूप और जहाँ ऐसी दशा में ही श्री लक्ष्मी ब्रह्मानुजा कहलाई हैं I इसलिए इस सिद्ध शरीर को ब्रह्मानुजा शरीर, श्री बाल लक्ष्मी सिद्ध शरीर आदि भी कहा जा सकता है I
  • अव्यक्त प्राण और अव्यक्त प्रकृति का सगुण साकार स्वरूप I इसलिए इस सिद्ध शरीर को अव्यक्त सिद्ध शरीर, अव्यक्त शरीर, अव्यक्त प्रकृति शरीर और अव्यक्त प्राण शरीर आदि भी कहा जा सकता है I
  • व्यान प्राण से संबद्ध शरीर स्वरूप I इसलिए इस सिद्ध शरीर को व्यान प्राण का सिद्ध शरीर भी कहा जा सकता है I इस स्वरूप से योगी अपनी काया में बैठकर भी बहुत सारे सिद्ध और देवादि लोकों का और उनके मनीषियों और देवताओं का साक्षात्कार कर लेता है I
  • क्योंकि अव्यक्त ही सांख्य शास्त्रों की गंतव्य दशा है, जिसको अव्यक्त प्रकृति भी कहा जाता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को सांख्य सिद्ध शरीर भी कहा जा सकता है I ऐसा होने के कारण यह सिद्ध शरीर, सांख्य की गंतव्य सिद्धि को भी दर्शाता है I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता उस रुद्र रौद्री योग से भी होता है, जो साधक की सगुण स्वरूप सिद्धि का द्योतक होता है और जिसका वर्णन एक आगे के अध्याय में किया जाएगा I
  • अव्यक्त प्रकृति ही प्रकृति का बीज रूप होती हैं और जहां प्रकृति का वह बीज रूप भी प्राणमय ही होता है (अर्थात शक्तिमय होता है) I इसलिए इस सिद्ध शरीर को बीज प्रकृति शरीर भी कहा जा सकता है I
  • क्योंकि गुलाबी वर्ण की अव्यक्त का नाता लाल वर्ण के रजोगुण और श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण की योगावस्था को भी दर्शाता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को सत्त्वगुण रजोगुण योग शरीर भी कहा जा सकता है I
  • क्योंकि इस रजोगुण और सत्त्वगुण के योग को दर्शाते हुए इस सिद्ध शरीर में रजोगुण, वृतिहीन ही होता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को वृत्तिहीन रजस शरीर, वृत्तिहीन रजोगुण शरीर भी कहा जा सकता है I
  • क्योंकि इस शरीर का नाता उस तथागत गर्भ और अनादि शक्ति से भी होता है, जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में करा जा चुका है, और जिसको अनादि शक्ति भी कहा गया था, इसलिए इस शरीर को तथागतगर्भ शरीर और अनादि शक्ति शरीर भी कहा जा सकता है I इसलिए यह हलके गुलाबी वर्ण का शरीर तथागतगर्भ सिद्धि और अनादि शक्ति सिद्धि का भी द्योतक होता है I
  • क्योंकि यह शरीर सुषुम्ना नाड़ी और पिङ्गला नाड़ी की ऊर्जाओं की योगदशा का भी द्योतक होता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को सुषुम्ना पिङ्गला योग शरीर भी कहा जा सकता है I ऐसा साधक सुषुम्ना नाड़ी जिसके देवता पितामह ब्रह्मा हैं और पिङ्गला नाड़ी जिसके देवता रुद्र देव हैं, उनकी योगावस्था का सिद्ध भी होता है I और ऐसा होने के कारण इस सिद्ध शरीर को ब्रह्मा रुद्र योग शरीर, ब्रह्म नाड़ी रुद्र नाड़ी योग शरीर भी कहा जा सकता है I

जब पितामह ब्रह्मा की माया शक्ति साधक की काया में ही सगुण साकार स्वरूप में आती हैं, तब ही वह माया शक्ति कहलाती हैं और जो इस भाग में बताए गए सिद्ध शरीर के स्वरूप में साधक के स्वाधिष्ठान चक्र में और साधक के ही गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर स्वरूप में स्वयंप्रकट होती है I और इसी दशा के पश्चात वह साधक ऊपर बताए गए बिंदुओं का एक-एक करके ही सही, लेकिन साक्षात्कार अवश्य करेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और इस हलके गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर का वैदिक वाङ्मय के वेदांत पथ और सांख्य मार्ग से नाता बताता हूँ I और इसके अतिरिक्त इस हलके गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर का बौद्ध मार्ग से नाता भी बताता हूँ I

  • इस हलके गुलाबी शरीर का नाता बौद्ध पंथ से भी है I

बौद्ध पंथ में ये सिद्ध शरीर एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती हैI

बौद्ध पंथ के उत्कृष्ट योगीजन भी इसी सिद्ध शरीर को पाते हैं और इसको पाकर वह अव्यक्त लोक में निवास करने के अधिकारी भी हो जाते हैंI

यदि बौद्ध पंथ के तांत्रिक मार्गों से इस सिद्ध शरीर को पाया जाएगा, तो ऐसा योगी अव्यक्त प्रकृति (अर्थात अव्यक्त प्राण) के माया लोक में भी निवास करेगा I

बौद्ध पंथ में अव्यक्त लोक (अर्थात माया शक्ति के लोक) को ही तुसित लोक कहा गया है I ऐसा होने के कारण बौद्ध पंथ के मनीषी जिस हलके गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर को पाए होते हैं, वह इसी तुसिता लोक में में निवास करते हैं I

जब मेरी चेतना इस तुसित लोक में गई थी, तब मैंने इस सिद्ध शरीर को पाए हुए और उस तुसित लोक में निवास करते हुए बौद्ध पंथ के योगमनीषियों से बात भी करी थी I ऐसे समय पर मेरी चेतना उसी तुसित लोक में रह गई थी I

बौद्ध पंथ में बहुत सारे योगीजन रहे हैं, जो इस सिद्धि को पाए हैं I और उन योगीजनों में से एक तिब्बत की वह उत्कृष्ट योगी थे जो मिलारेपा के नाम से प्रख्यात हुए थे I

  • वैदिक वाङ्मय का अभिन्न अंग जो सांख्य मार्ग है, उसके सिद्ध भी इसी सिद्ध शरीर को पाते हैं I और इस सिद्ध शरीर को पाकर, वह सिद्ध भी इस शरीर के लोक, अर्थात अव्यक्त प्राण का लोक (या अव्यक्त प्रकृति का लोक) में ही निवास करने लगते हैं I

ऐसे सिद्ध योगमनीषियों की गति भी ऊपर बताई गई बौद्ध पंथ के योगीजनों की गति के समान ही होती है I

और इस बिंदु को अपने योगमार्ग से जानकर मैं यह भी जाना, कि बौद्ध पंथ में बताया गया तुसित लोक और हल्का गुलाबी शरीर, वास्तव में तो बौद्ध पंथ से कहीं पूर्व कालों से ही चले आ रहे वैदिक वाङ्मय के सांख्य मार्ग का अभिन्न अंग रहा है I

वैदिक वाङ्मय के इस सांख्य मार्ग को जिन योगी ने सर्वप्रथम उद्भासित किया था, उनका नाम महर्षि कपिल था और महर्षि कपिल (कपिल मुनि) ही ब्रह्मपुत्र कहलाए थे I उन्हीं के नाम पर ब्रह्मपुत्र नदी का नाम रखा गया है जो भारत सहित, तिब्बत और चीन में भी गति करती है I

यदि वैदिक वाङ्मय के सांख्य मार्ग से योगी इस हलके गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर को पाएगा, तो उसके सिद्ध शरीर की गति समस्त ब्रह्माण्ड में ही होगी I

गायत्री परिवार के संस्थापक, पंडित श्रीराम शर्मा भी इसी सिद्ध शरीर के धारक हैं I और यह बात भी मेरे साक्षात्कारों के अनुसार ही कही गई है I

  • उत्कृष्ट वेदांती भी इस सिद्ध शरीर के धारक होते हैं I

लेकिन यदि कोई योगी वेदांत मार्ग से इस सिद्धि को पाएगा, तो वह योगी इस हलके गुलाबी वर्ण का सिद्ध शरीर का धारक तो हो जाएगा, लेकिन उसका यह हल्के गुलाबी वर्ण का सिद्ध शरीर अव्यक्त प्रकृति (अर्थात बौद्ध पंथ का तुसित लोक) और समस्त ब्रह्म रचना से अतीत दशा में ही निवास करने लगेगा I

ऐसे योगी का यह गुलाबी वर्ण का सिद्ध शरीर, शून्य ब्रह्म (अर्थात शून्य अनंत: अनंत शून्यः) नामक दशा में ही निवास करने लगेगा I

आदिशङ्कराचार्य ऐसे सिद्ध शरीर के ही धारक हैं और उनका वह सिद्ध शरीर उन असंप्रज्ञात ब्रह्म (अर्थात शून्य अनंत अनंत शून्य) में निवास करता है, जिनका साक्षात्कार मार्ग असंप्रज्ञात समाधि होता है I उन्ही शून्य ब्रह्म को ही श्रीमन नारायण, भगवान् जगन्नाथ और श्री हरी के नामों से भी पुकारे जाते हैं I

और यह दशा इस हलके गुलाबी शरीर से संबद्ध सिद्धि की शिखर ही होती है I ऐसा योगी जगदगुरु माँ शारदा के इस सिद्ध शरीर को धारण करके, श्रीमन नारायण के निराकार स्वरूप के भीतर बस जाता है, और उन्ही नारायण के निराकार स्वरूप के भीतर निवास करता हुआ भी, माँ शारदा के अनुग्रह से जगदगुरु स्वरूप को ही पा जाता है I

और ऐसा योगी ही वैदिक वाङ्मय को विशुद्ध करके इस धरा पर (जिसपर वह योगी निवास पर रहा होता है) पुनर्स्थापित करने की क्षमता रखता है I आदि शङ्कराचार्य ने भी अपने छोटे से जीवन काल में ऐसा ही करा था I

और जब भी कोई योगी असंप्रज्ञात समाधि को पाएगा और इस असंप्रज्ञात समाधि से वह योगी निर्बीज समाधि को पाने की पात्रता भी पाएगा, तब उस योगी के मार्दर्शन हेतु, आदिशङ्कराचार्य ही आएँगे I

उस योगी के मार्दर्शन हेतु प्रकट हुए आदिशङ्कराचार्य, योगी को उस मार्ग पर डाल देंगे (अर्थात अपनी वाणी से वह आदेश करेंगे, जिसको पालन करके योगी उस मार्ग पर गति करेगा) जिससे वह योगी शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करके, उस अतिदुर्लभ निर्बीज समाधि को प्राप्त करेगा और उस इसी समाधि से वह योगी निर्बीज ब्रह्म का साक्षात्कार करके अंततः निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करके और उन्ही निर्गुण ब्रह्म की लय भी होता है I

क्योंकि आदिशङ्कराचार्य के पास यही क्षमता है, इसीलिए उनके अनुयायी जो उनके द्वारा उद्भासित गुरु गद्दियों पर विराजमान होते हैं, वह उनका ही स्वरूप माने जाते हैं और इसलिए वह अपनी उपाधि के अनुसार जगदगुरु और शङ्कराचार्य कहलाते हैं I

 

टिप्पणियाँ: यह टिप्पणियाँ पूर्व में बताए गए एक अध्याय जिसका नाम आंतरिक अश्वमेध था, उससे भी संबद्ध हैं I

  • एक समय जब मैं उस शिव शक्ति योग पर गति कर रहा था जिसका शब्दात्मक स्वरूप राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) है, और जब उस मार्ग पर गति करते समय में बहुत दिवुधा में ही आ गया था, तब मेरा मार्ग दर्शन करने हेतु भी अदि शङ्कराचार्य ही आए थे I
  • और उनके वाणी आदेश पर गमन करके ही मैं उस निरालम्ब चक्र पर गया था, जिसका मार्ग अथर्ववेद 2.31 से जाता हुआ, अथर्ववेद 10.2.32 को पार करता है और ऐसा करने के पश्चात, वह मार्ग अंततः अथर्ववेद 10.2.33 में ही गति कर जाता है I
  • अथर्ववेद 2.33 के सिद्ध योगी की काया के भीतर ही ब्रह्म सभी ओर से प्रवेश करते हैं, उस काया धारी योगी के समान ही हो जाते हैं I
  • इसके पश्चात, उस योगी और वह पूर्ण ब्रह्म जिन्होने योगी की काया में सभी ओर से प्रवेश किया होता है, उन ब्रह्म और योगी के स्वरूप की ऐसा जुगलबन्दी ही हो जाती है, जिससे वह पूर्ण ब्रह्म ही वह अथर्ववेद 2.33 का सिद्ध योगी हो जाते हैं और इसके साथ साथ वह सिद्ध योगी ही पूर्ण ब्रह्म हो जाता है I
  • इसलिए ऐसे योगी का अथर्ववेद 2.31 से चला हुआ मार्ग, जो अथर्ववेद 10.2.32 और अथर्व वेद 10.2.33 में जा कर ही समाप्त होता है, उस योगी की काया में ही उन पूर्ण ब्रह्म का निवास करवा देता है जिन्होंने उस योगी के शरीर में सभी ओर वैसे ही प्रवेश क्या होता है जैसा अथर्ववेद 10.2.33. में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन कहा गया है I
  • इसलिए इस मार्ग पर वह योगी आदिशङ्कराचार्य के वाणी आदेश से जाकर, अपने शरीर में पूर्ण ब्रह्म को ही पा जाता है और जहाँ वह पूर्ण ब्रह्म का एक महागुप्त प्रक्रिया से ही उस योगी की काया में प्रवेश सभी ओर से होता है I
  • उन पूर्ण ब्रह्म के साधक की काया में सभी ओर से प्रवेश करने की इस महागुप्त प्रक्रिया को अथर्ववेद 2.33 सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब अव्यक्त की सनातनता को बताता हूँ…

अव्यक्त ही पितामह ब्रह्म के ब्रह्मलोक की सनातन शक्ति और दिव्यता है I जितने सनातन ब्रह्म हैं उतनी ही सनातन अव्यक्त है I

और ऐसा इसलिए है क्योंकि…

जितना सनातन देवता होता है उतनी ही सनातन उसकी दिव्यता भी होती है I

ब्रह्मलोक ही इस ब्रह्म रचना का बीज होता है, और बीज का कभी भी नाश नहीं होता है I महाप्रलय में भी ब्रह्मलोक का बीज रूप बचा रहता है और ऐसा होने के कारण महाप्रलय में भी ब्रह्म रचना का बीज स्वरूप, जो ब्रह्मलोक ही है, वह बचा ही रहता है I

महाप्रलय में जब समस्त लोकादि का नाश हो जाता है, तो भी ब्रह्मलोक अपने बीज रूप में बचा ही रहता है I यही कारण है कि ब्रह्मलोक की दिव्यता और शक्ति रूप जो अव्यक्त प्रकृति है और जो अव्यक्त प्राण स्वरूप में ही है, वह भी महाप्रलय में बची रहती है I

उन ब्रह्म शक्ति का प्राणमय स्वरूप ही अव्यक्त प्राण कहलाया था I

जितने सनातन ब्रह्म हैं, उतनी ही सनातन उनकी ब्रह्म शक्ति भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

ब्रह्म की अव्यक्त शक्ति ही माया कहलाई है I

माया शक्ति महाप्रलय में भी बची ही रहती है I

यदि ऐसा न होता तो महाप्रलय के समय ही वह सब जीव जो उसमें प्रवेश करे थे, वह सब के सब सत्य जो जान जाते और मुक्त हो जाते I लेकिन क्योंकि महाप्रलय में भी माया प्रबल ही रहती है, इसलिए वास्तव में तो ऐसा होता ही नहीं है I

यही कारण है कि महाप्रलय के पश्चात, जब एक नवीन ब्रह्मा महाब्रह्माण्ड को पुनः उदय करते हैं, तो जो जीव उस महाप्रलय में बसाकार भी मुक्त नहीं हो पाए थे, वह सब के सब पुनः उस नवीन महाब्रह्माण्ड में जीव रूप में लौट जाते हैं I

यह भी उस बात का प्रमाण देता है, कि महाप्रलय के समय भी माया शक्ति प्रबल होकर ही रहती हैं I और ऐसे महाप्रलय के समय भी, इस जीव जगत का जो बीज है और जो ब्रह्मलोक ही है, वह भी अपने बीज रूप में ही बचा रहता है I

इसलिए भी यहाँ कहा गया है, कि जितने सनातन ब्रह्म है उतनी ही सनातन उनकी ब्रह्म शक्ति भी है I इसके अतिरिक्त महाप्रलय और ब्रह्म रचना के दृष्टिकोण से ब्रह्मलोक और पितामह ब्रह्म की अव्यक्त शक्ति जो माया भी कहलाती हैं, वह भी सनातन ही हैं I

 

ऐसा इसलिए है, क्योंकि …

  • अव्यक्त ही ऊर्जा (प्राण) स्वरूप है और ऊर्जा का कभी भी नाश नहीं होता I
  • ब्रह्मलोक ही ब्रह्माण्ड (ब्रह्म रचना) का बीज है, और बीज का कभी भी नाश नहीं होता I
  • महाप्रलय में भी बीज सुरक्षित ही रहता है क्योंकि यदि ऐसा नहीं होगा, तो महाप्रलय के पश्चात, किसी नए महाब्रह्माण्ड का उदय भी नहीं हो पाएगा I

 

इसलिए…

  • जबकि महाप्रलय तब ही आता है जब ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा की आयु जो 040 लाख करोड़ वर्ष की होती है, वह पूर्ण नहीं हो जाती है I इस समय के पूर्ण होने पर वह ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड को, जो उनकी इच्छा शक्ति से ही उत्पन्न हुआ था, त्याग देते हैं और जब ऐसा होता है तब वह ब्रह्माण्ड महाप्रलय को चला जाता है I यहाँ कहा गया समय खण्ड ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु का भी द्योतक है I
  • जब उन ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष की होती है, तब महाप्रलय आती है और उस महाप्रलय में चतुर्दश भुवन के नीचे के तेरह लोकों तक पूर्ण नष्ट हो जाते हैं I और उस पूर्व के ब्रह्माण्ड का चौदहवां लोक जो ब्रह्मलोक ही है, वह अपने बीज रूप में सुरक्षित हो जाता है I ऐसा होने के कारण ब्रह्मलोक की शक्ति जो माया (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) ही हैं, और जो सार्वभौम प्राण ही हैं, वह भी अपने ऊर्जा रूप में सुरक्षित हो जाती हैं I
  • महाप्रलय की आयु भी पूर्व के ब्रह्मा की आयु जितनी ही होती है I

 

टिप्पणी: यहाँ ब्रह्मा की आयु को पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र की मध्यम काल इकाई से बताया गया है I यही मध्यम इकाई वैदिक मनीषियों की गणना में लाई जाती है अउरी इसी मध्यम समय इकाई में ही समस्त वैदिक गणनाएँ करी जाती है I

 

  • और जब महाप्रलय का समय पूर्ण होता है, तब उसी बीज रूप ब्रह्मलोक को एक नए ब्रह्मा अपनाते हैं और उसी पूर्व की अव्यक्त शक्ति (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) का आलम्बन लेकर, अपनी इच्छा शक्ति से उन्ही दोनों बीजों से एक नए महाब्रह्माण्ड का उदय करते हैं I
  • और ऐसा ही चलता जाता है I अब तक असंख्य बार महा ब्रह्माण्ड को असंख्य ब्रह्मा ने उदय किया है और असंख्य बार ही महाप्रलय आई है I
  • महाप्रलय के समय जो योगी ब्रह्मा के पद को पाता है और महाप्रलय की दशा से ही एक नए ब्रह्माण्ड का उदय करता है, वह वही होता है जिसने 101 आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किए होते हैं I
  • और क्योंकि उन असंख्य महाप्रलयों के समय में भी ब्रह्मलोक और अव्यक्त प्रकृति अपने अपने बीज रूपों में सुरक्षित ही रहे हैं, इसलिए प्रकृति का बीज रूप, जो अव्यक्त है और जो प्राण ऊर्जा रूप में ही है, वह भी सुरक्षित रह गया है I उन असंख्य बार आई महाप्रलय में भी अव्यक्त जो प्रकृति की प्राणमय और ऊर्जामय बीजावस्था ही है, वह सुरक्षित ही रहा है I और आगामी सभी महाप्रलयों में भी ऐसा ही रहेगा I

 

यही कारण है कि…

पृथक ब्रह्माण्ड और उनके ब्रह्मा आतेजाते रहे हैं, पर ब्रह्मलोक  सुरक्षित ही रहा है I

महाप्रलय और ब्रह्माण्डों के आने जाने पर भी, अव्यक्त प्रकृति सुरक्षित ही रही हैं I

न ब्रह्मलोक के बीजरूप का और न ही प्रकृति के अव्यक्तरूप का नाश संभव है I

पृथक कालखण्डों के ब्रह्मा के आने जाने पर भी, ब्रह्मलोक सुरक्षित ही रहा है I

वेदसार ज्ञाता यह जानते ही हैं कि ब्रह्म के समान ब्रह्मलोक भी सनातन है I

वेद मनीषी तो यह भी कह गए कि ब्रह्म के समान प्रकृति भी सनातन है I

अव्यक्त भी उतना ही सनातन पाई जाएगी, जितने सनातन ब्रह्म हैं I

ब्रह्मलोक भी उतना ही सनातन है, जितने सनातन ब्रह्म रहे है I

ब्रह्मलोक जो ब्रह्माण्ड का बीज है, वह भी सनातन ही है I

अव्यक्त की सनातनता का कारण, ऊर्जामय स्वरूप है I

ब्रह्मलोक की सनातनता का कारण, सर्वसमता है I

ऊर्जामय सर्वसमता बीज रूपी सनातनता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और क्योंकि यहाँ बताया जा रहा सिद्ध शरीर अव्यक्त प्रकृति से ही संबद्ध है, अव्यक्त का ही अभिन्न अंश है, इसलिए यह सिद्ध शरीर भी सनातन ही है I

इसका अर्थ हुआ कि जिस साधक ने इस सिद्ध शरीर को प्राप्त किया होगा, वह अपने इस सिद्ध शरीरी रूप में सनातन ही रहेगा I

और जबतक वह साधक इस सिद्ध शरीर को इसके कारण, जो अव्यक्त ही है, उसमें लय नहीं करेगा, तब तब वह साधक इस सिद्धि से आगे की दशाओं में भी नहीं जा पाएगा I

इसी कारण से इस अध्याय के पूर्व भाग में बताया गया था, कि जो साधक इस सिद्धि में फंस गया, वह बहुत लम्बे समय तक फास जाता है I

और क्योंकि इस दशा से आगे जाने का मार्ग भी तब प्रशस्त होता है जब साधक सर्वसम भाव में बसता है, इसलिए इस अध्याय के पूर्व भाग में यह भी बताया गया था, कि जब साधक इस सिद्धि से न लगाव करेगा और न ही अलगाव ही करेगा, तब ही वह साधक वह इस अव्यक्त नामक दशा से आगे जा पाएगा I

और क्योंकि इस अव्यक्त सिद्धि से आगे जो ब्रह्मलोक है, वह वज्रमणि के समान प्रकाशमान ही होता है और क्यूँकि वज्रमणि का प्रकाश सर्वसमता का ही द्योतक होता है इसलिए भी साधक को इस दशा से न तो कोई लगाव करना चाहिए और न ही कोई अलगाव I बस सर्वसम भाव में बसाकार ही इस दशा का अध्ययन करना चाहिए I और जो साधक ऐसा करेगा वही इस अव्यक्त प्रकृति से भी आगे की उस दशा में जाएगा, जो ब्रह्मलोक ही है I

और जो साधक इस अव्यक्त से आगे के ब्रह्मलोक में जाता है, उस साधक का ही यहाँ बताया जा रहा अव्यक्त शरीर अपने कारण, जो अव्यक्त प्राण ही है, उसमें लय हो पाता है… अन्य किसी भी साधक का नहीं I

अपने अव्यक्त शरीर के अव्यक्त लोक में लय होने के पश्चात ही उस साधक की चेतना ब्रह्मलोक में गमन कर पाती है I

जिस साधक का यह हलके गुलाबी वर्ण का शरीर अपने मूल कारण, जो अव्यक्त है, उसमें लय होता है और इसके पश्चात उस साधक की चेतना ब्रह्मलोक में जाकर उसका साक्षात्कार करती है, वह साधक ब्रह्मा और उनकी अव्यक्त प्रकृति (अर्थात माया शक्ति) दोनों का ही स्वरूप हो जाता है I लेकिन इस महाब्रह्माण्ड के इतिहास में तो इन दोनों सिद्धियों को एक साथ पाए हुए योगीजन अतिदुर्लभ ही रहे हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह सिद्ध शरीर ही नहीं, बल्कि इस ग्रंथ में जितने भी सिद्ध शरीर बताए गए हैं, वह सब के सब सनातन ही हैं I इस ग्रंथ में कोई सिद्धि है ही नहीं जो सनातन नहीं है I इसका अर्थ हुआ कि इस ग्रंथ में बताई गई समस्त सिद्धियां और उन सिद्धियों के सिद्ध शरीर उनके अपने अपने बीज रूपों में महाप्रलय में भी सुरक्षित रह जाते हैं I

ऐस होने का कारण भी यही है कि इन सभी सिद्धियों मूल में ब्रह्मा की वह ऊर्जा ही है जो अव्यक्त कहलाती है और जो काल के जगत स्वरूप, अर्थात कालचक्र की द्योतक होती हुई भी, उससे अतीत ही है, और ऐसा होने के कारण, काल के उस गंतव्य से संबंधित है, जो सनातन कहलाता है I

क्योंकि जो सनातन ही है उसका न उदय होता है और न ही नाश, इसलिए इस सिद्ध शरीर सहित इस ग्रंथ में बताई गई समस्त सिद्धियां भी ऐसा ही है, अर्थात न तो उनके उदय को और न ही उनके नाश को जाना जा सकता है I ऐसा होने के कारण, उनका लय भी केवल उनके अपने-अपने कारणों में ही हो सकता है और जहाँ उन सबके कारण भी सनातन ही हैं I

जब यह सिद्धियां और उनके सिद्ध शरीर जो साधक की काया के भीतर बसी हुई ब्रह्म रचना से ही संबंधित होते हैं, उनके अपने-अपने कारणों में लय हो जाते हैं, तब यह सिद्धियां और उनके सिद्ध शरीर उनके अपने कारणों में ही सनातन कालों तक निवास करते रहते हैं I

ऐसा भी इसलिए ही है क्योंकि ब्रह्म रचना जो अपने मूल से ऊर्जा ही है, वह भी सनातन ही है और ऐसा इसलिए ही है क्योंकि ब्रह्माण्डीय ऊर्जा न तो कभी घटती है, न बढ़ती है और न ही कही नाश हो पाती है I

और इन सब शरीरों के लय होने पर साधक अपने वास्तविक स्वरूप को पाता है, अर्थात साधक अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त होकर, इन सिद्धियों और इनके कारणों से अतीत हो जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अव्यक्त शरीर की अभिमानी देवताओं से अतीत होने की दशा को बताता हूँ…

अव्यक्त की दशा अभिमानी देवताओं के नियंत्रण से परे है… इस बिंदु को बताता हूँ I

कोई भी अभिमानी देवता अव्यक्त का नियंत्रक नहीं होता I ऐसा इसलिए है क्योंकि अव्यक्त कालचक्र से अतीत की दशा है और इसलिए इसका न तो कभी उदय हुआ था, न इसमें कभी कोई परिवर्तन हुआ है और न ही कभी कोई अंत ही सम्भव होता है I जो ऐसा होता है वह अभिमानी देवताओं की नियंत्रण क्षमता से परे ही रहता है I

कालचक्र से अतीत होने के कारण, अव्यक्त पर काल की युग आदि दशाओं का प्रभाव भी नहीं होता I और क्यूँकि अभिमानी देवता कालचक्र के अधीन ही रहे हैं, इसलिए जब युग परिवर्तन होता है तब इन अभिमानी देवता और उनके तंत्र आदि के पास बस यही विकल्प रह जाते हैं…

  • नए युग चक्र के अनुसार परिवर्तन करो I
  • अथवा युग आदि कालचक्र से संबंधित परिवर्तन के समय नष्ट हो जाओ I
  • काल चक्र के परिवर्तन के समय, इन दोनों विकल्पों के सिवा, अभिमानी देवताओं और उनके तंत्रों के पास कोई तीसरा विकल्प नहीं हुआ है I और यह भी वह कारण है कि इन अभिमानी देवताओं से संबंधित ग्रंथों और उनके ज्ञानादि मार्गों में अंत समय की बात करी जाती है I
  • और इसके विपरीत, अनाभिमानी देवताओं से संबंधित मार्गों में काल चक्र की दशा का परिवर्तन कहा जाता है I और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जो देवता अनाभिमानी होता है, वह काल के चक्र स्वरूप सहित, उसी काल के गंतव्य स्वरूप (अर्थात सनातन) से भी समान रूप में संबंधित होता है I और ऐसा होने के कारण, वह काल चक्र की पृथक दशाओं के परिवर्तन में नष्ट नहीं होता I
  • ऐसा होने के कारण ही अनाभिमानी देवताओं के सिद्धांतों में काल परिवर्तन कहा जाता है I और इसके विपरीत अभिमानी देवताओं के सिद्धांतों में अंत समय बताया जाता है I
  • इसलिए काल के परिवर्तनशील स्वरूप के दृष्टिकोण से, अंत समय का ज्ञान अभिमानी देवताओं का रहा है, और काल चक्र के परिवर्तन का ज्ञान, अनाभिमानी देवताओं का ही रहा है I

और क्योंकि यह अव्यक्त शरीर की दिव्यता (अर्थात देवी) ब्रह्मा की वह माया शक्ति हैं, जो अनाभिमानी दिव्यता ही है, इसलिए इस सिद्ध शरीर का कोई अंत समय नहीं है I अंत समय न होने के कारण जब यह सिद्ध शरीर उन माया शक्ति में लय हो जाता है जो इसका कारण ही हैं, तब भी यह सिद्ध शरीर सनातन कालों तक उन्ही माया शक्ति के सगुण निराकार स्वरूप में लय होकर ही पड़ा रह जाता है I

यही वह कारण है कि यह सिद्ध शरीर और इसके कारण (अर्थात माया देवी या अव्यक्त प्रकृति) का काल चक्र से कोई नाता नहीं है I काल चक्र से कोई नाता न होने के कारण यह सनातन सिद्धि ही होती है I

कालचक्र से अतीत होने से इस सिद्धि पर कोई भी अभिमानी देवता नियंत्रण नहीं कर सकता और यही वह कारण है कि यह सिद्ध शरीर समस्त अभिमानी देवताओं, उनकी दशाओं और लोकादि से अतीत ही होता है I

काल का चक्र स्वरूप प्रकृति का अस्त्र भी होता है, और इस अस्त्र के ज्ञान अथवा ज्ञानी को माँ प्रकृति ने कभी भी और किसी भी अभिमानी देवता या उनके अनुयायियों से सांझा किया है I

और इसके अतिरिक्त, इस कालास्त्र के प्रयोग का भी माँ प्रकृति ने कभी भी किसी को पूर्णरूपेण न तो बताया है और न तो ही प्रयोग करने की अनुमति दी है, इसलिए जब प्रकृति काल का परिवर्तन करना चाहती है, तब उस परिवर्तन को कोई कोई भी अभिमानी देवता रोक नहीं पाता I

और क्योंकि जो अभिमानी देवता होते हैं वह काल के एक चक्र तक रहते हैं, इसलिए जब काल चक्र के किसी भी भाग का परिवर्तन होता है तब उस भाग से संबंधित अभिमानी देवता और उनके तंत्रादि का नाश भी हो जाता है I

यह भी वह कारण है कि इन अभिमानी देवताओं के ग्रंथों और तंत्रों में अंत समय की बात करी जाती है I कलियुग के कालखण्ड में जितने भी अब्रह्म पथ से संबंधित मार्ग आते हैं, वह सब अभिमानी देवताओं के ही होते हैं और यही कारण है कि इन मार्गों में अंत समय की बात करी जाती है I अभी का समयखण्ड उसी अंत समय का ही है I और कुछ ही वर्षों में यह अंत समय कई प्रकार के विप्लवों से भरा हुआ भी पाया जायेगा I

लेकिन क्योंकि इस महमाया से संबद्ध अव्यक्त सिद्ध शरीर कालचक्र के परिवर्तन से ही अतीत होता है, इसलिए जिस योगी ने यह सिद्ध शरीर पाया होगा, उसपर काल के परिवर्तन का कुछ अधिक प्रभाव नहीं हो पाएगा I

यह सिद्ध शरीर, अभिमानी देवताओं के मार्गों और उन मार्गों की सिद्धियों से अतीत ही रहा है I इसकी सिद्धि अभिमानी देवताओं के ग्रंथों और उनके मार्ग में नहीं पाई जाती और ऐसा होने के कारण, इस सिद्ध शरीर की दशा इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी मार्गों में नहीं होती I

और क्योंकि इस सिद्ध शरीर सहित, इस ग्रंथ में बताई गई अन्य सभी सिद्धियाँ इन तीनों मार्गों से अतीत ही रही हैं, इसलिए जब इन मार्गों का वास्तविक अंत समय आएगा, तब कोई ऐसा योगी आता ही है जो सनातन काल को दर्शाते हुए (अर्थात कालचक्र से अतीत) सिद्ध शरीरों को धारण करेगा और उन सिद्ध शरीरों को उनके अपने-अपने कारणों में लय भी करेगा, जिससे उस लोक पर सभी अभिमानी देवताओं का नियंत्रण भी समाप्त हो जाएगा और ऐसा होने के कारण, उस लोक में सभी अभिमानी देवताओं के मार्गों का ही अंत होने लगेगा I और ऐसा तब भी हो जाएगा जब वह योगी गुप्त रहकर ही यह सब करेगा I

और जब उन अभिमानी देवताओं के मार्गों का अंत होता है तब सनातन ही लौटता है I और क्योंकि सनातन का मार्ग ही वेद मार्ग होता है, इसलिए अभिमानी देवताओं के मार्गों के नाश के पश्चात उस लोक में बस वैदिक आर्य मार्ग ही रह जाता है I किसी देव-कलियुग के कालखण्ड में, जिसकी आयु 432,000 वर्ष की होती है, जब कोई मानव सत्युग प्रकाशित होता है, तो वह मानव सत्युग ही वैदिक युग या गुरु युग कहलाता है I

और यही वह कारण बनता है जिससे ब्रह्माण्डीय दिव्ताओं के दृष्टिकोण में जो योगी काल के सनातन स्वरूप से संबंधित सभी सिद्ध शरीरों का धारक होता है, वही उस गुरु युग का संस्थापक कहलाता है I अभी का समय, अभी चलित हो रहे देव कलियुग के स्तम्भित होने का और गुरु युग के आगमन का ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अव्यक्त शरीर की प्राप्ति और आयाम द्वार के खुलने का नाता बताता हूँ…

अव्यक्त शरीर की प्राप्ति के पश्चात, साधक के लिए से चारों आयामों के द्वार खुल जाते हैं I

यह चार आयाम, काल आकाश दिशा और दशा हैं और इन्ही चारों के अंतर्गत समस्त ब्रह्म रचना और उसके उत्कर्ष पथ भी आते हैं I इन चारों आयामों के दो-दो स्वरूप होते हैं I पर क्यूँकि इनको एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए इस भाग में इनको पुनः नहीं बतलाऊँगा I

 

यह आयाम द्वार तब खुलते हैं जब नीचे बताए गए दोनों कारणों में से कोई एक कारण फलित होता है…

  • यह अव्यक्त शरीर अपने कारण (अर्थात अव्यक्त प्राण) में लय होता है I
  • अथवा इस अव्यक्त शरीर की प्राप्ति के पश्चात, साधक का देहावसान हो जाता है I

जब यह आयाम द्वार खुल जाते हैं, तो उन द्वारों से कई प्रकार की ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं भी उस लोक में आने लगती हैं जिनमें वह अव्यक्त सिद्धि को पाया हुआ साधक निवास कर रहा होता है I

और उन दिव्यताओं के साथ, कई सारे सिद्ध और योगीजन भी उस लोक में लौटते हैं और लौटने के पश्चात, वह अपने अपने उत्कर्ष मार्गों को उस लोक में स्थापित भी करने लगते हैं I और अंततः इस प्रक्रिया में वह बहुवादी अद्वैत मार्ग ही उस लोक में स्थापित हो जाता है, जो वेद मार्ग कहलाया है और जिसमें मार्ग पृथक होने पर भी, सब के सब उन्ही अद्वैत ब्रह्म की ओर ही जाते I

इसलिए इस प्रक्रिया से स्थापित हुआ बहुवादी अद्वैत, अपने मार्ग से तो बहुवादी पाया जाएगा (अर्थात प्रकृति से संबद्ध पाया जाएगा) किन्तु गंतव्य से अद्वैत ही होगा (अर्थात ब्रह्म से संबंधित ही होगा) I

और इन आयाम द्वारों के खुलने की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप में, जो जीव मुक्ति के पात्र हैं, वह मुक्त भी हो जाएंगे I एक बार यदि यह चारों आयाम द्वार पूर्णरूपेण खुल गए, तो यह लगभग दस हजार वर्षों तक ही खुले रहते हैं I

लेकिन यह चारों के चारों आयाम द्वार पूर्णरूपेण भी तब ही खुलते हैं जब गुरु युग के आगमन का समय आता है, और ऐसे समय पर ही वह योगी आएगा जो काल के सनातन स्वरूप से संबद्ध समस्त सिद्ध शरीरों को पाएगा और उनको उनके कारणों में लय भी करेगा, जिसके कारण इन चार आयामों के द्वार पूर्णरूपेण खुल जाएंगे I

जब ऐसा होता है तब, जो पंथ और मार्ग अभिमानी देवताओं के हैं, उनमें कई प्रकार के कलह क्लेश प्रकट होते हैं जिसके कारण उनके अनुयायी उपद्रव मचाने लगते हैं I

जब ऐसा होता है, तब कई स्थानों पर और कई प्रकार के मानव जनित संकट आते ही जाते हैं I

और इन विप्लव के साथ साथ कई प्रकार के वन्य जीवों द्वारा जनित, प्राकृतिक और दैविक विप्लव भी प्रकट होने लगते हैं I इन सब विप्लव से जाकर ही गुरु युग का प्रकाश होता है I और जहाँ जीवों के भीतर से प्रारम्भ हुआ वह विप्लव, उस लोक में भी दिखाई देने लगता है I

जब वह योगी जो इन आयाम द्वारों को पूर्णरूपेण खोलेगा, किसी लोक में जन्म लेता है, तब से उस लोक की मानव सहित, अन्य सभी जीवों की सांख्य में तीव्रता से वृद्धि होने लगती है I ऐसा इसलिए है क्योंकि जीवात्माएं अन्य सभी लोकों से उस लोक में लौटने लगती है जिसमें इन आयाम द्वारों को खोलने वाला योगी निवास कर रहा होता है I यह जनसँख्या की वृद्धि इसलिए भी होती है क्योंकि वह सब जीवात्माएं जो अन्य लोकों में निवास कर रही होती हैं और उन खुले हुए आयाम द्वारों से जाकर, मुक्ति पाना चाहती है, उसी लोक में जन्म लेने लगती है जिसमें उन आयाम द्वारों को खोलने वाला योगी निवास कर रहा होता है I यही कारण रहा है कि इस पृथ्वी लोक में पिछले कोई पांच दशकों में मानव जन संख्या की वृद्धि भी बहुत तीव्रता से ही हुई है I

जा वह जीवात्मा उस लोक के चित्त में अपना इच्छा रूपी संस्कार रखती है, कि उन्हें उस लोक में जन्म लेना है, तब उस लोक के मानव समाजों में सम्भोग बढ़ने लगता है और जब ऐसा होता है तब इस प्रक्रिया से संबंधित विचित्र प्रकार के छायाचित्रों और चलचित्रों का प्रसार होने लगता है I

यह कामुखता में और जनसँख्या में वृद्धि भी इसलिए होती है, क्योंकि अन्य लोकों की बहुत सारी आत्माएं जो उत्कर्ष पथों पर तीव्रता से गमन करके, मुक्तिलाभ की इच्छुक होती हैं, वह उस लोक के चित्त में अपनी इच्छा शक्ति का आलम्बन लेकर अपने-अपने संस्कार डालती हैं, कि उन्हें उस लोक में जन्म लेना है जिसमें वह सिद्ध योगी निवास कर रहा है I

लेकिन यह सब केवल यह सुनिश्चित करने के लिए है कि उन आत्माओं को, जो उस लोक में जन्म लेने की इच्छा रखती हैं, उन्हें उस लोक में जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जाए।

इसलिए जब भी किसी लोक में ऐसे योगी का आगमन होना होता है (अथवा हो ही जाता है) जो इन आयाम द्वारों को खोलने की क्षमता रखता है, तब उस लोक में कामुखता में वृद्धि भी होने लगती है I और इसी के कारण उस योगी के आगमन से थोड़ा पूर्व से ही उस लोक की मानव जनसँख्या में वृद्धि होनी प्रारम्भ हो जाती है और जब वह योगी जनम ही लेता है, तब उस लोक की जनसँख्या वृद्धि भी तीव्र होने लगती है I और जब वह योगी इन आयाम द्वारों को खोल ही देता है, तब उस लोक की जनसँख्या उस युग के समस्त लोक इतिहास में सबसे अधिक ही पाई जाती है I क्यूंकि प्रत्येक युगांत और युग स्तम्भित होने के समय, कोई न कोई ऐसा योगी उस लोक में लौटाया ही जाता है, इसलिए किसी भी युगखण्ड में, उसके युगांत के समय मानव जनसँख्या सबसे अधिक ही रहती है I

लेकिन जब वह योगी इन आयाम द्वारों को खोल ही देगा, तब कुछ समय के बाद से ही उस लोक की मानव और अन्य जीवों की जनसँख्या घटने लगेगी I यह इसलिए होगा क्योंकि जो जीव किसी कार्य तक के लिए ही लौटते हैं, वह उस कार्य के पूर्ण होने के पश्चात, अपनी काया में रह भी नहीं पाते हैं I और ऐसी दशा में कुछ जीव वह कर्म करने लगेंगे, जिनसे उनकी मृत्यु होने लगेगी I और इसी प्रक्रिया को क्रियान्वित करने हेतु मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक कारणों से कई प्रकार के विप्लव भी होने लगेंगे I अपने देहावसान के समय जो मानव (और अन्य जीव) मुक्ति के पात्र होंगे, वह उन खुले हुए अयं दीवारों से जाकर, अपनी-अपनी मुक्ति को पा भी जाएंगे I इसलिए जैसे ही यह आयाम द्वार खुलते हैं, वैसे ही कुछ ऐसी घटनाएं होने लगती हैं, जिससे वह जीव जो मुक्ति के पात्र होते हैं, कुछ ही वर्षों में मृत्यूलाभ करके ही सही, लेकिन अपनी अपनी मुक्ति को पाते हैं I

इस भूलोक की मानव जन सांख्य में जो कुछ दशकों से तीव्रता आई है, उसका कारण भी वही है जो यहाँ बताया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और इस अव्यक्त शरीर की प्राप्ति की जो दो परस्पर विपरीत दशाएं हैं, अब उनको बताता हूँ…

  • पूर्ण ब्रह्मचर्य का मार्ग… इसमें योगी ब्रह्मचर्य में स्थापित होकर ही इस सिद्धि को पाता है I
  • काम मार्ग… इसमें योगी काम योग का आलम्बन लेकर इस सिद्धि को पाता है I

क्योंकि इस अव्यक्त सिद्धि की प्राप्ति इन दोनों दशाओं से हो जाती है, इसलिए इस सिद्धि की इन दोनों विपरीत दिशाओं में समान गति पाई जाती है I जबतक वीर्य अथवा रज नामक बीज की ऊर्जाएं साधक की काया के भीतर बसे हुए प्राणमय कोष में सुरक्षित रखी जायेगी, तबतक वह साधक इस सिद्धि को पा सकता है I

यह दो बिंदु इस सिद्धि को अन्य सभी सिद्धियों से पृथक करते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और इस सिद्धि के दो विपरीत मार्ग भी हैं…

  • प्रकाश मार्ग… इस मार्ग में साधक प्रकाश से युक्त मार्गों पर गमन करता है I
  • अंधकार मार्ग… इस मार्ग में साधक अंधकार से युक्त मार्गों पर गमन करता है I

क्योंकि अव्यक्त की सिद्धि इन दोनों परस्पर विपरीत मार्गों से हो जाती है, इसलिए इस सिद्धि की इन दोनों विपरीत मार्गों में समान गति पाई जाती है I यही कारण है कि इस सिद्धि से साधक इन दोनों परस्पर विपरीत दशाओं का साक्षात्कारी भी हो सकता है I

यह दो बिंदु इस सिद्धि को अन्य सभी सिद्धियों से पृथक करते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यही वह सिद्ध शरीर भी है जो तथागतगर्भ में बैठा होता है और जो जगदगुरु शारदा को दर्शाता है (अर्थात माँ शारदा के जगदगुरु स्वरूप का द्योतक होता है) और जिसको एक पूर्व के अध्याय में नेत्र में ब्रह्म, ऐसा भी कहा गया था I

इसी शारदा सिद्ध शरीर का आलम्बन लेकर साधक की चेतना माया लोक में जाती है और अंततः उस महामाया लोक को पार भी करती है I और पार करके वह चेतना उस ब्रह्मलोक में जाती है, जिसका वर्णन आगे के अध्याय में होगा I

साधक की चेतना को शारदा सरस्वती के इस माया लोक से आगे जाने का मार्ग भी वह अमानव पुरुष ही दिखाता है जो अव्यक्त प्रकृति में ही निवास करता है I क्यूँकि अमानव पुरुष का वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है,इसलिए वही बाते यहाँ नहीं दोहराऊंगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जो इस माया सिद्धि में आसक्त अथवा अनासक्त हो गया, वह इसी माया सिद्धि को दर्शाते हुए सिद्ध शरीर में ही बहुत बहुत लम्बे समय तक फंसा रहता है I इसलिए जब योगी इस शरीर से जुडी हुई कोई भी सिद्धि को पाए, तो उसे सर्वसमता नामक भाव में बसा हुआ ही रहना चाहिए I

जबतक योगी इस सर्वसमता नामक भाव को धारण किया हुआ रहेगा, तबतक वह योगी न तो इस सिद्धि में फंसेगा और न ही उस योगी की चेतना को इस सिद्धि से आगे जो वज्रमणि शरीर सिद्धि है, उसको पाने से कोई रोक पाएगा I ऐसे योगी की चेतना ही इस माया सिद्धि से आगे जो ब्रह्मलोक है, उसमें जा पाती है I

यही वह कारण था, कि जब मेरी चेतना उस पूर्व के अध्याय में गई थी जिसका नाम अनादि शक्ति और ब्रह्माण्ड की मूलावस्था था और जो इसी अध्याय में बताई जा रही शारदा सिद्धि (अर्थात माया शक्ति की सिद्धि) के चार भागों में से एक भाग ही था, मुझे यह वाणी आई थी कि इसको त्याग दो (अर्थात इसमें अधिक समय नहीं रहना) I और क्योंकि इस अनादि शक्ति में ही एक अमानव पुरुष निवास करता है, तो जब मैंने उस वाणी का पालन किया, तो उस अमानव पुरुष ने मेरी चेतना को इस अध्याय से आगे का मार्ग दिखाया था और उस आगे के मार्ग में स्थापित भी किया था I और उन अमानव पुरुष के दिखाए हुए मार्ग से ही मेरी चेतना ने उस अनादि शक्ति को पार किया था I

ऊपर दिखाए गए सिद्ध शरीर का नाता अव्यक्त प्रकृति में निवास करते हुए अमानव पुरुष से भी होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

साधक की काया के भीतर यह सिद्ध शरीर तब ही प्रकट होता है, जब साधक माया जगत को साक्षात्कार करने का पात्र होता है I

और साधक की काया के भीतर प्रकट हुआ यह सिद्ध शरीर तब ही अपने कारण (अर्थात माया लोक) में लय होगा, जब साधक माया लोक से ही आगे जाने का पात्र होगा I इस माया लोक को पार करने की प्रक्रिया के मूल में शारदासरस्वती ही होती हैं और अन्ततः वही शारदा विद्या ही किसी साधक को अपने माया जगत से पार लेकर जाती हैं I

यह सिद्ध शरीर माया लोक में जाकर ही लय होता है I

और जब यह अव्यक्त सिद्ध शरीर लय होता है, तब यह अव्यक्त शक्ति के सगुण निराकार स्वरूप को ही प्राप्त होकर, अव्यक्त ही कहलाया जाता है I

इस शरीर के भीतर एक हीरे के समान प्रकाश भी होता है I इस प्रकाश को भी ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I क्योंकि यह हीरे के समान प्रकाश ब्रह्मलोक का ही होता है, इसलिए इस शरीर का नाता ब्रह्मलोक से भी होता है I इसी हीरे के समान प्रकाश को एक पूर्व के अध्याय, जिसका नाम देवी ही ब्रह्म, ऐसा था (और ब्रह्म ही देवी, ऐसा भी था) उसके चित्र में भी दिखाया गया था I

 

और इस भाग के अंत में…

जो सगुण साकार हरी वह अपने सगुण निराकार कारण में ही लय होता है और जहाँ सगुण साकार का कारण भी सगुण निराकार ही होता है I

और जब वह सगुण साकार (जैसा यह सिद्ध शरीर है) अपने सगुण निराकार कारण में लय होता है, तब वह पूर्व का सगुण साकार भी अपने कारण के समान, सगुण निराकार ही हो जाता है I

जब यह गुलाबी सिद्ध शरीर अपने कारण, जो अव्यक्त ही है, उसमें लय होता है, तब साधक अव्यक्त प्राण (अव्यक्त प्रकृति) का साक्षात्कार करता है I

इसलिए अब उस अव्यक्त लोक के बारे में बताता हूँ I

आगे बढ़ता हूँ…

 

महामाया लोक क्या है, माया लोक क्या है, शारदा सिद्धि क्या है, शारदा सिद्ध, शारदा सरस्वती सिद्धि, शारदा विद्या सिद्धि, शारदा विद्या सरस्वती सिद्धि, शारदा सरस्वती विद्या सिद्धि, तुसित लोक कैसा होता है, तुसित लोक क्या है, बौद्धों की तुसित लोक, तृप्ति लोक, बौद्धों की तृप्ति लोक, … अव्यक्त के भीतर बसा हुआ काम लोक, अव्यक्त का काम लोक नामक भाग, प्रकृति का बीज, बीज प्रकृति, प्रकृति की बीजावस्था, तृप्ति लोक, …

अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, माया शक्ति, महामाया, शारदा सरस्वती, काम लोक, महामाया लोक, माया लोक
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ऊपर के चित्र अव्यक्त प्रकृति को ही दर्शा रहा है I

अंततः वह हलके गुलाबी वर्ण का सिद्ध शरीर एक हलके गुलाबी वर्ण की प्राणमय दशा में ही लय ही जाता है I पृथक मार्गों में इस दशा को पृथक नामों से बताया गया है, जो ऐसे हैं…

  • अव्यक्त, अव्यक्त प्रकृति, … इसी हलके गुलाबी वर्ण के लोक को अव्यक्त प्रकृति कहा गया है I
  • अव्यक्त प्राण, … क्योंकि प्रकृति अपने वास्तविक स्वरूप में प्राण और ऊर्जा ही है, इसलिए इस दशा को ऐसा कहा गया है I
  • ब्रह्मा की माया शक्ति, माया देवी, माया लोक,… यही ब्रह्मा की वह माया शक्ति है जो जिनको देवी शब्द से भी पुकारा जाता है I
  • यही बौद्ध पंथ का तुसित लोक है I तुसित शब्द का अर्थ तृप्ति है, इसलिए बौद्ध पंथ का यही तृप्ति लोक है I इसी लोक में बौद्ध पंथ के बोधिसत्व निवास करते हैं I
  • यही माँ माया का सगुण निराकार स्वरूप है I
  • यही माँ माया का ऊर्जामय शक्तिमय स्वरूप है I
  • इस लोक नाता शारदा सरस्वती विद्या जो जगदगुरु माता ही हैं, उनके सगुण निराकार स्वरूप से भी है I
  • यही माँ महामाया का वह स्वरूप है जिसने ब्रह्मलोक को अपात्रों से छुपाकर रखा हुआ है I
  • जो साधक ब्रह्मलोक को जाने के पात्र बनते हैं, उनके देहावसान से कुछ समय पूर्व, माँ महामाया अपने शारदा विद्या सरस्वती स्वरूप में उनके समक्ष प्रकट होकर उनको ऐसा आदेश भी देती हैं जिससे उनका ब्रह्मलोक की ओर जाने वाला मार्ग प्रशस्त होता है I
  • क्यूंकि शारदा विद्या किसी एक साधक की नहीं बल्कि साधक के समस्त पारिवारिक परंपरा सहित, साधक से जुड़ी हुई अन्य सभी उत्कृष्ट परंपराओं की भी गुरुमाई होती हैं, इसलिए जिस साधक के समक्ष शारदा सरस्वती विद्या प्रकट होकर उसको मार्गादेश दी होंगी, उस साधक से प्रारम्भ हुए उसके समस्त सगे-परिवार की तीन पीढ़ियां ब्रह्मलोक में ही जाएंगी I

इसका अर्थ हुआ कि उस साधक की पत्नी (अथवा पति), पुत्र (अथवा पुत्री) और पौत्र और पौत्री तक के मनीषीगण, अपने अपने प्रारब्ध के समयखण्डों को पूर्ण करके ब्रह्मलोक में ही जाएंगे I

  • और यदि वह साधक संन्यासी होगा अथवा किसी गुरु परंपरा का ही होगा, तो माँ शारदा जो उसके समक्ष आई होंगी, उसकी संन्यास और गुरु परंपरा की भी गुरुमाई हो जाएंगी I
  • यही चित्र माँ लक्ष्मी की बाल्यावस्था को उनके का सगुण निराकार स्वरूप में दर्शाता है I इसी गुलाबी वर्ण में माँ लक्ष्मी ब्रह्मानुजा कहलाती हैं I
  • वेदान्तियों और बौद्धों का भी यह एक उत्कृष्ट लोक है I
  • यही प्रकृति का बीज, बीज प्रकृति, प्रकृति की बीजावस्था को दर्शाता है I इसी सगुण निराकारी बीज से सगुणा निराकारी और सगुण साकारी स्वरूप में ब्रह्म रचना का प्रारम्भ हुआ था I
  • इस लोक का नाता पूर्व के अध्याय में बताए गए तथागतगर्भ से भी है I

जो भी होगी इस माया लोक को प्राप्त होते हैं, वह किसी न किसी आगामी कालखण्ड में एक बार तो स्थूल काया में लौटेंगे ही I

और पुनः स्थूल काया में लौटकर वह योगी ब्रह्मलोक को जाएंगे ही, क्योंकि उत्कर्ष पथ में इस लोक से आगे ब्रह्म लोक ही होता है I

ब्रह्म लोक के बीस भागों को इन्ही माया शक्ति ने घेरकर रखा होता है ताकि ब्रह्मलोक में कोई ऐसा जीव प्रवेश ही न कर पाए, जो उसका पात्र नहीं होगा I ब्रह्मलोक के इन बीस भागों सहित, इक्कीसवें भाग को भी एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब अव्यक्त के भीतर बसा हुआ काम लोक को बताता हूँ…

जब साधक की चेतना अव्यक्त के द्वारा छुपाए हुए ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह और ऊपर के चार भागों में रमण कर रही होती है, तो वह इस अव्यक्त के भीतर बसे हुए एक गुलाबी वर्ण के गड्ढे में जाती है I यही वह काम लोक है जो अव्यक्त प्रकृति के भीतर ही बसा हुआ है I

इस गड्ढे के जीवगण कामसूत्र में बताई हुई सभी यौन मुद्राओं और यौन स्थितियों से जुड़े सम्भोग में निरंतर और पूर्णतः व्यस्त होते हैं I जब मेरी चेतना इस गड्ढे में गई थी, तो वह इस काम लोक का साक्षात्कार करके दांग सी ही रह गई थी I

और जब वह चेतना पुनः स्थूल काया में लौटी तो मैंने वह ज्ञान ढूंढ़ना चाहा जिसमें वह यौन मुद्राएं और यौन स्थितियां बताई गई होंगी I बहुत समय के बाद मुझे कामसुत्र मिला जिसके लेखक वात्स्यायन थे I

और तब मैं जाना कि इस सूत्र को जानने के लिए वात्स्यायन भी इसी लोक में गए होंगे I और क्योंकि यह लोक ब्रह्मलोक के सन्निकट ही है, इसलिए मैंने यह भी जाना की वात्स्यायन एक ऐसी उत्कृष्ट योगी ही रहे होंगे, जो अव्यक्त के भीतर के इस गड्ढ़े रूपी काम लोक को, जो ब्रह्मलोक से सन्निकट का ही लोक है, उसको साक्षात्कार तो अवश्य ही किए होंगे I

 

अब अव्यक्त प्रकृति के भीतर बसे हुए इस कामलोक का स्थान, ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों के आधार पर बताता हूँ…

जब साधक की चेतना ब्रह्म लोक के ऊपर के चार लोकों में से, तीन लोगों को पार करती है, तब यह काम लोक चौथे लोक के ऊपर की ओर पाया जाता है I

और यदि साधक की चेतना इस पृथ्वी लोक से जाएगी, तो यह काम लोक ऊपर के चाकर लोकों में से तीन लोकों के बायीं ओर होगा और चौथे लोक के ऊपर की ओर होगा I इसी मार्ग पर गमन करते हुए ही इस काम लोक का साक्षात्कार होता है I

ब्रह्म लोक के ऊपर के चार भाव में से तीन दायीं ओर होते हैं, और एक बायीं ओर और ऐसा ही तब साक्षात्कार होता है जब साधक की चेतना अव्यक्त में बसकर ब्रह्मलोक के इन ऊपर के चौथे लोक का (अर्थात चौथे भाग का) साक्षात्कार करने जा रही होती है I

काम लोक और उसके जीवों के गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीरों के साक्षात्कार से मैं यह भी जाना कि कामसूत्र का मार्ग अव्यक्त प्रकृति से ही संबंधित है I इसलिए अव्यक्त प्रकृति की सिद्धि का मार्ग कामसूत्र में बताई गई यौन मुद्राएं और यौन स्थितियां से भी होकर जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

लेकिन अव्यक्त में और अव्यक्त शरीर को धारण किए हुए तो वह योगीजन भी हैं, जो इस काम लोक से एक सुदूर के भाग में निवास करते हैं, और जिनके मार्ग ब्रह्मचर्य से पूर्णतः युक्त और तपस से संयुक्त ही थे I तो इन योगीजनों से मिलकर मैं यह भी जाना कि इस अव्यक्त शरीर का मार्ग ब्रह्मचर्य से भी प्रशस्त होता है और कामसूत्र में बताई गई यौन मुद्राएं और यौन स्थितियां भी इसी सिद्धि का मार्ग हैं I

इन दोनों विरोधी मार्गों में अंतर बस इतना ही है, कि जो साधक कामसूत्र में बताई है यौन मुद्राओं और यौन स्थितियों के मार्ग से जाएगा, वह अव्यक्त के भीतर बसे हुए उस काम लोक नामक गड्ढे में पहुँच जाएगा और वहीं पर निवास भी करने लगेगा I

और इसके विपरीत जो योगी पूर्ण ब्रमचर्य से और तपस्चर्य से युक्तमार्ग का पालन करेगा, वह इसी अव्यक्त लोक के काम लोक के गड्ढे से भी आगे के उन उच्च योगीजनों के स्थान पर ही पहुँच जाएगा, जिनको मैं मिला था (अर्थात जिनको मेरी चेतना मिली थी) और जिनसे मैंने बातें भी करी थीं I

और क्योंकि इस काम लोक का साक्षात्कार ब्रह्म लोक से सोलह नीचे के लोकों से जाकर, उनसे ऊपर के और उसी ब्रह्मलोक के उन चार लोकों में गति करते समय ही होता है, और जहाँ ऊपर के यह चार लोक पुरुषार्थ चतुष्टय को ही दर्शाते हैं, इसलिए इतना तो मुझे पता चल ही गया कि जो इस काम लोक में गया होगा, वह ब्रह्मलोक के सोलह नीचे के लोकों को पार किया होगा और ऐसा करने के पश्चात वह उन सोलह नीचे के लोकों से ऊपर के लोकों में से तीन में तो गति किया ही होगा I

मुझे इस काम लोक के साक्षात्कार से इतना तो पता चल ही गया, कि कामसूत्र मनोलोक से नहीं, बल्कि वात्स्यायन के साक्षात्कार के आधार पर लिखी गई है और ऐसा इसलिए था, क्योंकि कामसूत्र की सभी यौन मुद्राएं और यौन स्थितियां इसी काम लोक में साक्षात्कार होती हैं I

ऐसे साक्षात्कार के कारण मैं यह भी जान गया, कि कामसूत्र का मार्ग कम से कम ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से तीन भागों के साक्षात्कार के पश्चात ही साक्षात्कार होता है, और जहाँ उसका साक्षात्कार स्थान भी अव्यक्त प्रकृति के भीतर बसे हुए उस गड्ढे में ही होता है, जिसको यहाँ पर काम लोक का नाम दिया है I

इस लोक के जीव भी वही गुलाबी वर्ण के सिद्ध शरीर को पाए होते हैं और उसी सिद्ध शरीर का आलम्बन लेकर ही वह इस लोक में प्रवेश करके, सदैव ही सम्भोग की किसी न किसी मुद्रा में पूर्णतः व्यस्त रहते हैं I

ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि इस लोक के जीव अपनी अपनी सम्भोग प्रक्रिया में इतने व्यस्त होते हैं, कि यदि कोई और उसके पास में ही खड़ा हो जाए (जैसे मेरी चेतना जब इस लोक में गई थी, खड़ी हुई थी) तो भी वह उसपर ध्यान नहीं देंगे… इस लोक के जीव तो बस अपनी उस सम्भोग प्रक्रिया में ही निरन्तर लगे रहेंगे और उसी में ही मस्त रहेंगे I

और सम्भोग के समय वह सब के सब विचित्र प्रकारों की लम्बी लम्बी सी ध्वनि भी निकालते हैं, जिससे मेरी उस चेतना (जो इस लोक में गई थी) को पता चला कि इस काम लोक के सब के सब निवासी, इसी प्रक्रिया में मस्त और मग्न हैं I

इस्लाम पंथ में इस काम लोक को ही बहत्तर हूरें से दर्शाया गया है I

इस काम लोक नाता पूर्व में बताए गए तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म की योगदशा से भी है I इसलिए यह साक्षात्कार और सिद्धि तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म की योगदशा का भी द्योतक है I

इस मार्ग में साधक सत्त्वगुण और रजोगुण के योग से ही जाता है, और जहाँ इन दो गुणों का योग भी साधक की काया के भीतर ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब अव्यक्त लोक के योगीजनों से वार्तालाप, अव्यक्त लोक के योगियों से चर्चा के बारे में बताता हूँ…

जैसे ही मेरा हल्का गुलाबी सिद्ध शरीर, उन पूर्व में बताए गए अव्यक्त में निवास कर रहे पूर्ण ब्रह्मचर्य स्थित तपस्वियों और योगीजनों के स्थान पर पहुंची, वैसे ही उन सभी ने मुझे (अर्थात मेरी चेतना से युक्त माया शरीर को) घेर लिया I

मुझे घेरकर उन्होंने जो प्रश्न पूछे वह यही थे… तुम कौन हो, कहाँ से आए हो और कौन से पथ पर गमन करके यहाँ पर पहुंचे हो? I

उस समय अव्यक्त में बसे हुए उन उत्कृष्ट तपस्वियों को तो बस इतना ही जानना था I

उनके प्रश्न सुनकर मैं (अर्थात मेरी चेतना से युक्त माया शरीर) उनके समक्ष ही बैठ गया और उनके सभी प्रश्नों का उत्तर भी, कुछ संक्षेप में ही दिया I

किन्तु वह सब उस संक्षेप में दिए हुए उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए और आग्रह करने लगे, कि अपने उस योगमार्ग को विस्तारपूर्वक बताओ, जिसका आलम्बन लेकर तुम यहाँ पहुँच पाए हो I

तो उन योगीजनों और तपस्वियों के ऐसे अनुग्रह पर मैंने उनको अपना मार्ग विस्तारपूर्वक ही बता दिया I

इसपर उन अव्यक्त लोक में बसे हुए तपस्वियों में से कुछ तपस्वी यही बोले… ऐसे मार्ग का पथगामी तो उनमें से कोई भी नहीं है, इसलिए इस अव्यक्त लोक तक आता हुआ यह एक नया मार्ग ही है I और मेरी बाते उन सब ने बहुत ही ध्यानपूर्वक और शांत बैठकर सुनी I

इसके पश्चात उनमें से कुछ के कुछ और प्रश्न हुए, जिनके जहां तक हो सका मैंने उत्तर भी दिए I

और उस वर्णन में जिन दशाओं के नाम मुझे पता नहीं थे, उनको मैंने अपने ही नाम दिए और ऐसे नाम देकर मैंने उन दशाओं का जहाँ तक हो सका वर्णन भी किया I

 

इसलिए अब जो बोल रहा हूँ, उसपर विशेष ध्यान देना…

इस ग्रंथ और मार्ग का प्रथम वितरण अव्यक्त लोक के तपस्वियों को ही हुआ था I

और यह तब हुआ था, जब इस ग्रंथ के अधिकांश भाग लिखे भी नहीं गए थे I

ऐसा इसलिए था क्योंकि उस समय तो मैं इनका साक्षात्कार ही कर रहा था I

इसलिए यह ग्रंथ तो इसको लिखने से पूर्वकाल में ही बांटा गया था I

जैसे ही मेरी चेतना अव्यक्त लोक में पहुंची, वैसे ही अव्यक्त के योगीजनों ने मुझसे पुछा और उसी समय मैंने इस ग्रंथ का मार्ग जो अव्यक्त लोक और ब्रह्म लोक तक का था, उसका विवरण ही कर दिया था I

और मैंने ऐसा इसलिए ही किया था ताकि उन उत्कृष्ट योगमनीषियों और तपस्वियों की ज्ञानमय जिज्ञासा शांत हो सके I और जब ऐसा हो जाएगा, तो मैं इस माया लोक से आगे की ओर जा पाऊँ I

अव्यक्त में उन योगीजनों की ऐसी जिज्ञासा को शांत करके ही मैं उन योगीजनों से आज्ञा लेकर, अव्यक्त से आगे जो ब्रह्मलोक है… उसमें गया था I

आगे बढ़ता हूँ…

 

माँ शारदा सरस्वती का पूर्ण साक्षात्कार, शारदा सरस्वती का साक्षात्कार, माँ शारदा का सगुण साकार स्वरूप, माँ शारदा का सगुण साकार स्वरूप, शरीर में मां शारदा के चार स्थान, माँ शारदा के चार स्थान, शारदा के स्थान चतुष्टय, … शारदा सरस्वती स्वरूप, शारदा विद्या स्वरूप, शारदा स्वरूप सिद्धि, …

जैसे पूर्व में बताया था, कि अव्यक्त सिद्ध ही माँ शारदा से संबद्ध सिद्धि है I

माँ शारदा का सगुण निराकार स्वरूप ही अव्यक्त कहलाता है I

योगी की काया में माँ शारदा चार स्थानों पर साक्षात्कार होती हैं I तो अब इन स्थानों पर माँ शारदा के साक्षात्कार को बताता हूँ…

  • प्रथम स्थान… स्वाधिष्ठान चक्र में है… इस स्थान पर यह देवी पितामह ब्रह्म की शक्ति होती है, और बिंदु स्वरूप में होती है I इस स्थान पर यह देवी अपने योगमूल नामक स्वरूप को दर्शाती है I इसी चक्र में बसी हुई देवी शारदा के अनुग्रह से साधक योगमार्ग पर अपनी उत्कर्ष गति प्रारम्भ करता है I और उस उत्कर्ष गति में साधक की चेतना, मूलाधार चक्र से ऊपर की ओर उठने लगती है (और ऊपर की ओर उठती हुई वह चेतना, उन्ही माँ शारदा के चतुर्थ स्थान पर पहुँच जाती है, जो एक पूर्व के अध्याय में, नेत्र में ब्रह्म, ऐसा कहा गया था) I

और उस उत्कर्ष पथ पर योगगति प्रारम्भ करने से पूर्व, वह साधक स्वाधिष्ठान चक्र में बिंदुरूप में बसी हुई माँ शारदा के अनुग्रह से ही, अपनी उस ब्रह्म ग्रंथि को भेदता है, जो स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों के मध्य में होती है I

इस ब्रह्म ग्रंथि को भेदने का मार्ग भी साधक के स्वाधिष्ठान चक्र में बसी हुई माँ शारदा के अनुग्रह से ही प्राप्त होता है I

इसलिए स्वाधिष्ठान चक्र में बसी हुई बिन्दुरूपिणी माँ शारदा, साधक की उत्कर्ष गति के प्रारम्भ को दर्शाती हैं I

जब साधक उस ब्रह्म ग्रंथि को भेदता है, तब ही उस साधक की चेतना मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र, दोनों से ऊपर की ओर जाने की पात्र बनती है I और यह पात्रता भी माँ शारदा के उस बिंदु स्वरूप के अनुग्रह से ही प्राप्त होती है, जो स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य भाग में होता है I

  • द्वितीय स्थान… व्यान प्राण में है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण निराकार प्राणमय और व्यापक स्वरूप में होती हैं, और अपने सिद्ध मार्गी स्वरूप को दर्शाती हैं I यह व्यान प्राण शरीर से बाहर की ओर गति करता है, अर्थात शरीर के प्राणों को ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं (या प्राणों) से जोड़ता है I

जब साधक इस व्यान वायु को सिद्ध कर लेता है, तब उस साधक को अपनी काया में रहते हुए भी, अपनी साधनाओं में देवलोकों और सिद्धादि लोकों के दर्शन होने लगते हैं I इसलिए साधनाओं में जो साधकगणों को सिद्ध और देवादि दशाओं के साक्षात्कार करते हैं, उन साक्षात्कारों के मूल में इन्ही माँ शारदा का व्यान प्राण स्वरूप है I

  • तृतीय स्थान… हृदय क्षेत्र में है और यहाँ बसी हुई माँ शारदा, साक्षात ब्रह्म ही हैं… इस स्थान पर यह देवी सगुण साकार स्वरूप, अर्थात मानव स्वरूप में होती हैं I

इस स्थान पर यह देवी उस उत्कर्ष पथ को दर्शाती हैं, जो इस जीव जगत से अतीत जाता हुआ मुक्तिमार्ग कहलाता है, और जिसका सूक्ष्म सांकेतिक वर्णन ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में करा गया है, और जिसका वर्णन पूर्व की एक श्रृंखला के एक अध्याय में किया गया था, जिसका नाम हृदय कैवल्य गुफा था और जिसमें यह शारदा विद्या, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग भी दर्शाती हैं, जो अनादि अनंत, सनातन योग ही है I

इस स्थान पर बसी हुई माँ शारदा साधक की चेतना को उस विष्णु ग्रंथि से आगे लेकर जाती हैं, जो मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र के मध्य में बसी हुई है I और क्योंकि यह विष्णु ग्रंथि, पिङ्गला नाड़ी के भीतर बसे हुए सूर्य चक्र और इड़ा नाड़ी के भीतर बसे हुए चंद्र चक्र के समीप ही होती है, इसलिए इस स्थान पर बैठी हुई माँ शारदा, साधक की चेतना को इन दोनों चक्रों को भेदने की प्रेरणा और उस भेदन के लिए अपना आशीर्वाद भी देती हैं I

और इसी आशीर्वाद से साधक की चेतना इस विष्णु ग्रंथि को भेदकर, हृदय कमल में चली जाती है I

और ऐसा होने के पश्चात ही वह चेतना, इसी हृदय क्षेत्र में माँ शारदा के सगुण साकार स्वरूप का साक्षात्कार करके, हृदय विसर्ग गुफा और उससे आगे जाने की पात्र भी बन जाती है I

  • चतुर्थ स्थान… नैन कमल, अर्थात आज्ञा चक्र से थोड़ा सा ऊपर है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों ही स्वरूपों में होती हैं, और ऐसी दशा में यह देवी अपने जगद्गुरु स्वरूप को दर्शाती है I

और इनकी ऐसी दशा का साक्षात्कार मार्ग भी उस रुद्र ग्रंथि से होकर जाता है, जो विशुद्ध चक्र और आज्ञा चक्र के मध्य में होती है I

इन्ही देवी के इस जगद्गुरु स्वरूप के अनुग्रह से ही वह चेतना इस रुद्र ग्रंथी को भेदती है, और उस रुद्र ग्रंथि से आगे गति करने की पात्र बनती है I

इसलिए रुद्र ग्रंथि की भेदन प्रक्रिया में माँ शारदा के इस चतुर्थ, अर्थात जगद्गुरू स्वरूप का अनुग्रह होता ही है I

और माँ शारदा के इस जगद्गुरु स्वरूप के अनुग्रह से इस रुद्र ग्रंथी को भेदकर ही वह चेतना, अबतक बताए गए चक्रों से आगे के आज्ञा चक्र पर पहुँच पाती है I

जब यहां बताई गई ग्रंथियों और चक्रों को वह चेतना पार करने वाली होती है और जब वह चेतना पार कर रही होती है, तो इन सभी चक्रों और ग्रंथियों में ऊर्जा के विस्फोट होते हैं I और इन्ही विस्फोटों से वह चक्र और ग्रंथियाँ भेदी जाती हैं I

साधक के उत्कर्ष पथ में, जो ऊर्जाओं के विस्फोट मूलाधार चक्र से सहस्र दल कमल तक होते हैं, वह इन चक्रों और ग्रंथियों को भेदने की प्रक्रिया में सहायक होते है I  और यह ऊर्जाओं के विस्फोट भी माँ शारदा का आशीवाद ही हैं I

इस चतुर्थ स्थान पर माँ शारदा अपने जगद्गुरु नामक स्वरूप में ही होती हैं I इसका अर्थ है कि इस चतुर्थ स्थान पर माँ शारदा समस्त पिण्डों और ब्रह्माण्डों (अर्थात महाब्रह्माण्ड में जो भी पिण्ड और ब्रह्माण्ड हैं) के गुरु स्वरूप में होती हैं, अर्थात अपने इस स्वरूप में यह देवी ही सार्वभौम सर्वव्यापक जगद्गुरु होती हैं I

 

टिप्पणियाँ: आज के नेतागण, साधुगण और उनके अनुयायी जो बोलते हैं विश्वगुरु शब्द और भारत को लेकर, उनको तो मैं यही बोलूँगा…

  • सर्वप्रथम जगदगुरु शब्द की दिव्यता शारदा सरस्वती का पूर्ण साक्षात्कार करो I
  • और इस साक्षात्कार के पश्चात, भारत जो महाब्रह्माण्ड ही है, उसका साक्षात्कार उसकी दिव्यता का आलम्बन लेकर करो और जो भारती सरस्वती कहलाती हैं I
  • ऐसे किए बिना यदि जगदगुरु और भारत के दैविक और आध्यात्मिक आदि सार को जोड़ने का प्रयास करोगे, तो विस्फोट के कारण ही बनोगे I ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि केवल मीठा मीठा बोलने से कुछ नहीं होता… जब तक उसको चखोगे नहीं, तब तक उसको जानोगे नहीं I और जबतक उसको जानोगे नहीं, उसको यदि क्रियान्वित भी कर दोगे, तो किसी न किसी विस्फोट का ही कारण बनोगे I

 

आगे बढ़ता हूँ…

माया लोक से अतीत जाने की दशा, माया लोक से अतीत गति, पितामह ब्रह्मा मायातीत हैं, माया ब्रह्मशक्ति होती हुई भी ब्रह्म के अधीन नहीं है, …

जो योगी इस माया लोक की चकाचौंध से आसक्त अथवा अनासक्त हो जाएगा, वह इसी लोक में बहुत-बहुत लम्बे समय तक फंस जाएगा I

इसलिए जब साधक की चेतना इस माया लोक में पहुँच जाती है, तब उस साधक को सर्वसमता के भाव धारण करके ही रहने चाहिए I

सर्वसमता में बसा हुआ साधक ही इस माया लोक को पार करता है (अर्थात इस माया लोक में फंसता नहीं है) I

इसलिए जब योगी की चेतना इस महमाया लोक में जा रही होती है, तब योगी को अपने भाव जगत में इस बिंदु का विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया, तो उस साधक की चेतना इसी अव्यक्त शक्ति के लोक में फंस जाएगी और ऐसा होने के कारण, वह ब्रह्मलोक में भी नहीं जा पाएगी I

क्योंकि अव्यक्त ने ही ब्रह्मलोक को घेरा हुआ है और अव्यक्त से ही ब्रह्मलोक की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए जब साधक इस अध्याय से आगे जाने का पात्र होगा, तब इस अव्यक्त की शक्ति जो महामाया ही हैं और इस अव्यक्त की दिव्यता जो शारदा सरस्वती ही हैं, वह उस साधक को अपने इस अव्यक्त लोक से आगे जाने का मार्ग दिखाती हैं I

और इस मार्ग के माँ शारदा विद्या द्वारा प्रशस्त होने के पश्चात ही वह साधक आगे को जाता है I और जहाँ इस आगे की गति में ही वह साधक ब्रह्मलोक के समस्त भागों (अर्थात इक्कीस भागों) का साक्षात्कार करता है I

तो अब इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करके अगले अध्याय में जाता हूँ, जिसमें पितामह ब्रह्मा और उनके ब्रह्मलोक पर बात होती I और जहाँ वह ब्रह्म लोक ही पाशुपत मार्ग में सदाशिव का सद्योजात मुख (अर्थात सद्योजात सदाशिव) कहलाया गया था और जो सदाशिव का पश्चिम दिशा की ओर देखने वाला सर्वसमता नामक सिद्धि के गंतव्य को दर्शाता हुआ मुख ही है I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

 

 

लिंक:

पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र, precession of equinoxes,

समय इकाई, unit of time, time units, unitary value of time,

कालचक्र, Kaalchakra, Kaal Chakra,

ब्रह्म कल्प, Kalpa, Brahma Kalpa,

 

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