अपान प्राण और कुर्म उपप्राण, कुर्म उपप्राण, अपान वायु, अपान वात, कूर्म उपवायु, कूर्म लघुप्राण, कूर्म लघुवायु, ब्रह्मचर्य के प्रभेद, ब्रह्मचर्य के प्रकार, उत्कट कामुकता, सम्भोग उन्माद, प्राण शुद्धिकरण, कामाग्नि, योगमूल

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इस अध्याय में अपान प्राण (अपान वात) और कूर्म उपप्राण को बताया जाएगा I इस अध्याय में अपान वायु और कूर्म उपवायु (या कूर्म लघु वायु या कूर्म लघु प्राण या कूर्म उपवायु) के नाते पर भी बात होगी I और इस अध्याय में अपान प्राण और योगमूल, ब्रह्मचर्य के प्रभेद, ब्रह्मचर्य के प्रकार, कामाग्नि, उत्कट कामुकता, सम्भोग उन्माद, प्राण शुद्धिकरण प्रक्रिया के अपान प्राण से नाते पर भी बात होगी I

 

हृदयाकाश गर्भ के मुख्य भाग
हृदयाकाश गर्भ के मुख्य भाग

 

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकेर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सैंतीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का पांचवाँ अध्याय है।

 

हृदयाकाश की प्राणमय गुफा
हृदयाकाश की प्राणमय गुफा

 

अपान प्राण और कूर्म उपप्राण का नाता, अपान वायु और कूर्म लघुवायु का नाता, अपान प्राण और कूर्म लघुप्राण का नाता, अपान प्राण और कूर्म उप प्राण का नाता, अपान प्राण और कूर्म लघु  प्राण, अपान लघु वायु और कूर्म लघुवायु, … अपान प्राण और कुण्डलिनी जागरण, अपान वायु और कुण्डलिनी शक्ति का जागरण, अपान प्राण और कुण्डलिनी शक्ति, अपान प्राण और कामाग्नि, अपान प्राण ही योगमूल है, अपान प्राण ही योग मार्गों का मूल है, … अपान प्राण और काम अग्नि, अपान वायु और उत्कट कामुकता, अपान प्राण और सम्भोग उन्माद, अपान प्राण और कमुखता, अपान प्राण और ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य के प्रकार क्या हैं?, ब्रह्मचर्य के प्रभेद क्या हैं?, शरीर में अपान प्राण का क्षेत्र, अपान प्राण का क्षेत्र, अपान प्राण का चक्र, अपान प्राण और मूलाधार चक्र, …

 

हृदयाकाश के पञ्च प्राण
हृदयाकाश के पञ्च प्राण

 

कुछ दूर चलने के पश्चात्, अपनी ऊँगली से एक लाल वर्ण के प्रकाश को दिखाते हुए सनातन गुरुदेव बोले… वह अपान प्राण है I शरीर के नीचे के भाग का यह प्राण है, और यह प्राण नीचे की ओर ही गति करता है I इस अपान प्राण का क्षेत्र नाभि से 3-4 ऊँगली नीचे से लेकर चरणों तक होता है, इसलिए यह प्राण शरीर के नीचे के भाग के तंत्र का नियंत्रक भी है I

इसके पश्चात सनातन गुरु अपने नन्हे शिष्य को अपान प्राण और उसके कूर्म उपप्राण के मध्य में लेकर गए और इशारा किया, कि यहीं बैठ जाओ I

 

हृदय में पञ्च प्राण का तंत्र
हृदय में पञ्च प्राण का तंत्र

 

और बैठने के पश्चात, सनातन गुरु बोले… अब इस अपान वायु और उसके कूर्म उपवायु के प्रतिच्छेदन को देखो और जानो कि अपान प्राण का प्रवाह उसके अपने कूर्म लघुप्राण की ओर ही है, और यह भी जानो कि यह प्रवाह किसी और प्राण या उपप्राण की ओर नहीं है I

नन्हा विद्यार्थी ने देखा और जान गया जो गुरु ने बोला था इसलिए उसने गुरु को अपने सिर आए पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात गुरु बोले… अपान प्राण मूलाधार चक्र में अपने कूर्म उपप्राण के साथ ही निवास करता है… चक्रों में मूलाधार चक्र ही इस प्राण का स्थान है, और इसी प्राण के लाल वर्ण के कारण, मूलाधार चक्र के मध्य में भी लाल वर्ण दिखाई देता है I

सनातन गुरु आगे बोले… अपनी जागृत अवस्था को प्राप्त करने से पूर्व यह अपान प्राण सबसे दुर्बल प्राण ही होता है I जब साधक का ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है तब यही प्राण कुण्डलिनी शक्ति को ऊपर की ओर उठाने का कारण भी बनता है I कुण्डलिनी शक्ति का जागरण इसलिए होता है क्यूंकि यह प्राण जागृत होकर, अपनी दिशा परिवर्तन करता है, अर्थात यह अपनी दिशा को नीचे की ओर से शरीर के ऊपर की ओर करता है, और जब ऐसा परिवर्तन होता है तब यही प्राण एक प्रचण्ड, तैजसमय, विप्लवकारी और विकराल स्वरूप को भी धारण कर लेता है I और इसी स्वरूप को धारण करने के पश्चात, यही प्राण उस शक्ति को जो मेरुदण्ड के नीचे के भाग में सुषुप्ति अवस्था में रहती है, जागृत करके ऊपर की ओर उठने को प्रेरित भी करने लगता है I यही दशा कुण्डलिनी शक्ति के जागरण की प्राथमिक अवस्था भी होती है, और इसके पश्चात ही वह कुण्डलिनी शक्ति मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ऊपर की ओर उठती है I

सनातन गुरु आगे बोले… जब ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है, तब यह प्राण अपने ही उस प्रचण्ड, तैजसमय, विप्लवकारी और विकराल स्वरूप की ऊर्जाएं अपने भीतर समा भी नहीं पाता है, और ऐसी स्थिति में ये प्राण कुण्डलिनी शक्ति को मरुदण्ड के नीचे के स्थान पर रोक भी नहीं पाता है I और जब ऐसा होता है, तब इसी प्राण की ऊर्जाएं जो शरीर के नीचे की ओर गति करती हैं, वह शरीर के ऊपर की ओर गति करने लगती हैं I ऐसी दशा में यह प्राण भी ऊपर की ओर चलित हो जाता है, और ऐसी दशा में यही वह प्राण है जो कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का कारण बन जाता है I

सनातन गुरु आगे बोले… ब्रह्मचर्य सिद्ध होने पर ही कुण्डलिनी शक्ति मेरुदण्ड के नीचे के भाग से मस्तिष्क की ओर गतिशील होती है I लेकिन ऐसा होने के लिए साधक को सर्वस्व से एकत्व धारणा को भी सिद्ध करना पड़ेगा, क्यूंकि ऐसी धारणा के बिना वह कुण्डलिनी शक्ति सहस्र दल कमल (अर्थात सहस्रार चक्र) जो मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है, उस तक पहुँच ही नहीं पाएगी, और यदि किसी देवयोग से वह सहस्रार तक पहुँच भी गई, तब भी वह सहस्रार में स्थापित नहीं हो पाएगी I इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, बहुत न्यून मात्रा में ही साधक हुए हैं जो ब्रह्मचर्य को सिद्ध किए बिना ही कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में गए थे, और जागरण के पश्चात उनकी कुण्डलिनी शक्ति ब्रह्मरंध्र चक्र में स्थापित भी हुई थी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… कुंडलिनी जागरण के समय जब अपान प्राण हृदय कमल (अर्थात अनाहत चक्र) को पार करके ऊपर की ओर जाता है, और आज्ञा चक्र पर पहुँच जाता है, तब साधक समाधि का पात्र बनता है I और जब यह प्राण सहस्रार तक पहुँच जाता है, तब ही साधक समाधि की दशा को पाता है I इसलिए अपान के ऊपर की ओर उठना और सहस्रार में पहुँचने के पश्चात ही समाधि की सिद्धि होती है I लेकिन वह समाधियां भी तो विविध प्रकार की होती हैं, न की किसी एक प्रकार की I

गुरु आगे और भी बोले… अपान प्राण ही कामाग्नि नामक अग्नि का कारण है और जहां यह कामाग्नि एक प्रचण्ड प्रकार की अग्नि ही है I अपान प्राण ही काम वासना नामक शक्ति का कारण है, और जब यह शक्ति जागृत होती है, तब मूलाधार चक्र भी अपने पूर्व के मूल लाल वर्ण में नहीं रहता है, और इस दशा में यह मूलाधार लाल-भगवे वर्ण का हो जाता है I ऐसी दशा में स्वाधिष्ठान चक्र भी भगवा सा ही प्रतीत होगा I ऐसी दशा में यह अपान प्राण अति ऊर्जावान होकर, उदर क्षेत्र के सामान प्राण में प्रवेश करके, हृदय क्षेत्र तक पहुंचकर प्राण वायु से भी योग कर लेता है I और जहां अपान की यह गति उसके कूर्म उपप्राण से होकर ही जाती है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने गुरु को अपना सिर आए पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले… जबकि पञ्च वायु में यह सबसे दुर्बल वायु है, लेकिन तब भी जो वासना यह उत्पन्न करती है, वह सबसे प्रबल वासना ही होती है I और यही कारण है कि योगमार्ग में काम वासना पर नियंत्रण, अर्थात ब्रह्मचर्य सिद्धि सबसे कठिन प्रक्रिया होती है I ब्रह्मचर्य की प्रारंभिक प्रक्रिया में, काम नामक अग्नि प्रबल होती है, और प्रबल होकर ही वह शांत होती है, इसलिए ब्रह्मचर्य प्रक्रिया में जब काम अग्नि प्रबल हो रही होती है और उसकी शान्ति की प्रक्रिया चलित नहीं होती है, तबतक साधक को मूलाधार चक्र और उसके बीज शब्द पर ध्यान लगाना चाहिए I ऐसा करने से कामाग्नि शीघ्र ही शांत होने लगेगी और ब्रह्मचर्य सिद्धि की बाधाएं भी स्वतः ही समाप्त होने लगेंगी I जैसे ही साधक को मूलाधार का बीज शब्द सुनाई देने लगे, वैसे ही साधक को अपना ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र पर केन्द्रित कर लेना चाहिए और उस चक्र के बीज शब्द का स्मरण करते रहना चाहिए I इससे कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया भी सिरल हो जाएगा और उसका अग्नि स्वरूप भी शांत होने लगेगा I और इसी प्रक्रिया में वह प्रचण्ड ऊर्जावान अग्नि स्वरूप, रजोगुण और सत्त्वगुण की योगदशा को पाएगा, जिससे साधक के स्वाधिष्ठान चक्र के भीतर ही अव्यक्त शक्ति का जागरण हो जाएगा I इस प्रक्रिया में मेरुदण्ड के नीचे के भाग में जो बलगम आदि जमा होती है, वह भी नष्ट हो जाएगी और कुण्डलिनी शक्ति के सहस्रार चक्र तक जाने वाला मार्ग भी खुल जाएगा I

सनातन गुरु आगे बोले… अब ध्यान देना क्यूंकि आंतरिक योगमार्ग के अनुसार ही आत्मा के स्वरूपों को बताया जा रहा है I जब आत्मा रूपी चेतना…

मूलाधार चक्र पर होती है, तब वह जीवात्मा कहलाती है I

स्वाधिष्ठान चक्र पर होती है, तब उसे अव्यक्तात्मा कहते हैं I

मणिपुर चक्र में पहुँच जाती है, तब उसे ही आत्मा कहा जाता है I

गुरु आगे बोले… अब इन बिंदुओं पर भी ध्यान दो…

मणिपुर चक्र में मन केन्द्रित होता है I

मन ही ब्रह्म साक्षात्कार के मार्ग का द्वारपाल होता है I

ऐसी दशा से पूर्व, अपान प्राण का नाभि क्षेत्र के समान प्राण के योग होता है I

गुरु आगे बोले… आत्मा और उसके मार्ग के सेनापति को अतीन्द्रिय रूपी मन कहते हैं, इसलिए जब साधक की चेतना, मणिपुर चक्र के स्थान पर बैठे हुए मन से योग करती है, तब वह ही मानात्मा होकर आगे की ओर (अर्थात ऊपर सहस्रार की ओर) जाती है और इस मार्ग पर वह हृदय कमल में प्रवेश करती है I

हृदय कमल में वह आत्मा रूपी चेतना ही परमात्मा कहलाती है I

 

गुरु आगे बोले… लेकिन ऐसी दशा के आने से पूर्व, यह अपान प्राण भी हृदय में पहुंचकर हृदय की प्राण वायु से योग करता है I और ऐसे योग से ही साधक ब्रह्माकाश का साक्षात्कार करता है, जिसके पश्चात वह चेतना उस ब्रह्माकाश में लय होती है, और ऐसा साधक महामानव पद को पाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने गुरु को अपने सिर आए पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

सनातन गुरु बोले… इस मार्ग का मूल कारण ब्रह्मचर्य ही है I ब्रह्मचर्य सिद्धि मार्ग से जो अग्नि प्रकट होती है, उससे मेरुदण्ड के नीचे के भाग के बलगम आदि विकार नष्ट होते हैं I इस प्रक्रिया में मेरुदण्ड के नीचे के भाग में जो इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना नाड़ियों के मार्ग हैं, उनके अवरोध भी नष्ट होते हैं, जिससे कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया सिरल हो जाती है I कुण्डलिनी जागरण ही आत्मज्ञान का मूल कारण और कारक है, क्यूंकि जबतक कुंडलिनी ही ऊर्ध्वगामी नहीं होती, तबतक साधक स्व:ज्ञान का पात्र भी नहीं कहलाया जा सकता I और यह बिंदु केवल शाक्त मार्गो में ही नहीं, बल्कि अन्य चारों मार्गों (अर्थात शैव मार्ग, वैष्णव मार्ग, सौर्य मार्ग और गणपत्य मार्ग) में भी समान रूप में लागू होता है I और इस कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में मुख्य योगदान भी अपान प्राण का ही होता है, इसलिए अपान प्राण ही वह योगमूल है, जिससे आत्मसाक्षात्कार का मार्ग प्राथमिक रूप में ही प्रशस्त होता है I अपान ही समस्त योगमार्गों का मूल प्राण है I वैसे तो…

उत्कर्ष मार्गों के मूल में योग ही है I

उस मूल दशा, अर्थात योग की शक्ति का नाम अपान है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने गुरु को अपने सिर आए पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ…

सनातन गुरु आगे बोले… जब काम वासनाएं प्रबल हो जाती हैं, तब अपान प्राण में वासनाओं की ऊर्जा बढ़ने लगती है I यदि वासना बहुत प्रबल ही जाएंगी तब ऐसी दशा में उनकी ऊर्जाएँ अपान प्राण में झटके से प्रवेश करने लगती है I ऐसी स्थिति अपान प्राण में वह क्षमता भी नहीं होती कि वह इन ऊर्जाओं को अपने भीतर समा ले, इसलिए वह अपनी अधिक ऊर्जा को कूर्म उपप्राण में झटके से प्रवेश करवाता है जिसके कारण शरीर के नीचे के भागों में झटके भी लगते हैं I लेकिन कूर्म उपप्राण की ऊर्जा धारण क्षमता भी सीमित भी सीमा होती है, इसलिए यह कूर्म उपप्राण अपनी अधिक ऊर्जाएँ धनञ्जय उपवायु में डालने लगता है I जब ऐसा होता है, तो यह ऊर्जाएं स्वाधिष्ठान चक्र में झटके से प्रवेश करती हैं I और इसी दशा से कामाग्नि में अकस्मात् ही बहुत वृद्धि होती है, और ऐसी ही दशा से उत्कट कामुकता का उदय होता है I

सनातन गुरु आगे बोले… इस दशा में इस अपान प्राण के भीतर सूक्ष्म बम फटने लगते हैं, जिससे सम्भोग उन्माद का उदय होने लगता है I यह कोई मनोवैज्ञानिक रुग्णता नहीं है, बल्कि अपान प्राण से सम्बंधित व्याधि है, इसलिए इसका पूर्ण उपचार भी अपान प्राण को मेरुदण्ड में ऊपर के चक्रों में की ओर खींचकर हो पाता है I ऐसे करने पर जब वह अधिक ऊर्जाएं स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश करती हैं, तब स्वाधिष्ठान चक्र के प्राण (अर्थात व्यान प्राण) में जाकर, वह अधिक ऊर्जा शरीर के बाहर की ओर भेजी जाती है क्यूंकि व्यान प्राण की गति शरीर से बाहर की ओर ही होती है I जबतक व्यान प्राण की उस बाहर की ओर की गति और मार्ग में कोई अवरोधक नहीं होता, तबतक यह कामुखता का रोग भी नहीं हो सकता I यह रोग इसलिए भी होता है क्यूंकि अपान प्राण सबसे दुर्बल प्राण होता है, और ऐसा होने के कारण इस प्राण में क्षमता ही नहीं होती कि वह अपने भीतर उन अधिक ऊर्जाओं को समाहित कर सके I और अपान प्राण की यह दुर्बलता भी यह कारण है कि जब इसमें ऊर्जाओं की अधिकता हो जाती है, तब यह प्राण गर्मी को उत्पन्न करने लगता है, जो कामाग्नि कहलाती है और जो अंततः उस साधक को उत्कट कामुखता की ओर भी लेकर जाती है I

सनातन गुरु आगे बोले… उन ऊर्जाओं के बाहर की ओर की गति में रूकावट का कारण भी बलगम ही होती है, और इस रुकावट का समाधान भी ब्रह्मचर्य से उत्पन्न हुई एक सात्विक सगुण निर्गुण अग्नि से होता है जो ओजस शक्ति कहलाई गई है I ब्रह्मचर्य से जो अग्नि उत्पन्न होती है, वह हलके गुलाबी वर्ण से लेकर श्वेत वर्ण तक को हो सकती है I यदि यह अग्नि हल्के गुलाबी वर्ण की होगी, तो उसका नाता अव्यक्त प्रकृति, अर्थात माया शक्ति से होगा I और यदि वह अग्नि श्वेत वर्ण की होगी, तो उसका नाता परा प्रकृति, अर्थात अदिशक्ति से होगा I  इसी समाधान प्रक्रिया में ही प्राण गुफा का शुद्धिकरण किया गया था, ताकि जब हम इस प्राण गुफ़ा में प्रवेश करके उसका अध्ययन करें तब तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) कोई ऐसी समस्या न आए I यदि यह प्राण गुफा में कोई ऐसे संस्कार हों जो व्याधियों के कारण है, तब यदि इस गुफा में प्रवेश करा जाएगा, तो साधक को बहुत सारी व्याधियां एक साथ ही आ जाएंगी I और यदि इस प्राण गुफ़ा में प्रवेश, इसके शुद्धिकरण के पश्चात किया जाएगा, तब यह गुफा आनंददायक ही पाई जाएगी I यही कारण है कि इस गुफा के शुद्धिकरण के पश्चात ही हमने इसमें प्रवेश किया था I

सनातन गुरु ने आगे कहा… और क्यूंकि यह गुफा कामाग्नि सहित अधिक कामुखता से सम्बंधित होती है, इसलिए तुम्हें (अर्थात नन्हे शिष्य को) सात वर्ष के समीप बालक रूप में ही मेरे (अर्थात सनातन गुरु के) पास लाया गया था I सात वर्ष की आयु में वह व्यधियतां भी नहीं आ सकती हैं, जिनके बारे में हमने अभी बात करी है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने गुरु को अपने सिर आए पीछे हिलाकर, इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरु बोले… समस्त उत्कर्ष मार्गों का मूल योग है और यह अपान प्राण उस योग की मूल ऊर्जा है जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे के चक्र, अर्थात मूलाधार चक्र में निवास करती है I इसलिए यह अपान प्राण ही योगकारण और योगकारक है I इसी प्राण से ब्रह्मचर्य स्थापित होता है और उजाड़ता भी है I क्यूँकि ब्रह्मचर्य योगमार्ग का मूल भी है, इसलिए यही प्राण योगमार्ग का भी मूल है I इसी कारणवश जबतक इस अपान प्राण पर नियंत्रण नहीं होता, तबतक साधक योगमार्गी भी नहीं हो पाता I यही बिंदु इस प्राण की महिमा भी है, और इसी कारण से यह ब्रह्मचर्य, योगमार्ग और उसके तंत्र का अंग भी हुआ था I लेकिन ब्रह्मचर्य केवल स्थूल शरीर का नहीं होता, वह तो पञ्च कोष के समस्त अंगों का भी होता है I

सनातन गुरु आगे बोले… अब ध्यान देना क्यूँकि ब्रह्मचर्य के प्रकार को बताया जा रहा है …

सत्त्वगुणता, चित्त के ब्रह्मचर्य का कारण है I

सर्वसमता ही प्राणों के ब्रह्मचर्य का कारण है I

सर्वव्यापकता ही अहम् के ब्रह्मचर्य का कारण है I

ज्ञान की समरस्ता ही बुद्धि के ब्रह्मचर्य का कारण है I

विचार की ब्रह्म में एकरूपता, मन के ब्रह्मचर्य का कारण है I

स्थूलशरीर के दृष्टिकोण से मैथुन (सम्भोग) रहित दशा ब्रह्मचर्य है I

तप और योगादि मार्गों के दृष्टिकोण से, ब्रह्मधारणा ही ब्रह्मचर्य होता है I

और इन सभी ब्रह्मचर्य की प्रक्रियाओं के मार्गमूल में भी यही अपान प्राण होता है I

 

सनातन गुरु और भी बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना …

ज्ञान की समरसता से बुद्धि निश्कलंक होती है I

विचार की ब्रह्म में एकरूपता से मन स्थिर हो जाता है I

सर्वव्यापकता से अहम् विशुद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है I

सत्त्वगुणता से चित्त, संस्कार रहित होने के मार्ग पर चल पड़ता है I

सर्वसमता से प्राणों का तारतम्य समाप्त होता है और प्राण विसर्गी होते हैं I

वीर्य (रज) संरक्षण से स्थूल का उसके कारणों, पंच महाभूतों में लय होता है I

इन सभी ब्रह्मचर्य के प्रकारों और उनके मार्गों के मूल में भी, यही अपान प्राण है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना …

कर्मों के दृष्टिकोण से निष्काम कर्म ही ब्रह्मचर्य होता है I

कर्मफलों के दृष्टिकोण से, फलों में अनासक्ति ही ब्रह्मचर्य होता है I

संस्कारों के दृष्टिकोण से, इच्छा शक्ति की ब्रह्मलीन दशा ही ब्रह्मचर्य है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना …

धर्म के दृष्टिकोण से अद्वैत मार्ग ही ब्रह्मचर्य हैं I

अर्थ के दृष्टिकोण से बहुवाद के मार्ग ही ब्रह्मचर्य हैं I

काम के दृष्टिकोण से श्रद्धा और समर्पण ही ब्रह्मचर्य हैं I

मोक्ष मार्ग के दृष्टिकोण से स्व:ज्ञान के मार्ग ही ब्रह्मचर्य हैं I

पुरुषार्थ चतुष्टय के पूर्ण दृष्टिकोण से, आत्मलीन दशा ही ब्रह्मचर्य है I

ब्रह्मचर्य ही देवत्व, बुद्धत्व, ब्रह्मत्व, गणपत्व, विष्णुत्व शाक्तत्व आदि का मार्ग है I

ब्रह्मचर्य सिद्धि से ही समस्त जीवजगत से अतीत होने का मार्ग प्रशस्त होता है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… यहाँ बताए गए बिंदुओं से एक बिंदु जो स्पष्ट होता है, वह यह है …

समस्त उत्कर्ष के मार्गों में ब्रह्मचर्य ही मार्ग होता है I

समस्त उत्कर्षमार्गों के मूल में ब्रह्मचर्य की व्यापक दशा ही है I

समस्त उत्कर्षमार्गों के गंतव्य में ब्रह्मचर्य ही कैवल्य मोक्ष स्वरूप है I

ब्रह्मचर्य ही वह वास्तविक सिद्धि है, जो अन्य सभी सिद्धियों की कारण है I

ब्रह्मचर्य सहित सभी सिद्धियों के मूल में अपान प्राण का ऊर्ध्वगामी स्वरूप ही है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… इन सब में से चित्त का ब्रह्मचर्य सबसे कठिन होता है I जब चित्त का ब्रह्मचर्य स्थापित हो जाएगा, तो वह चित्त संस्कार रहित होता हुआ भी, उसमें कभी भी कोई संस्कार निवास नहीं कर पाएगा I ऐसे साधक यदि पुनर्जन्म भी ले लेगा, तब भी उसका चित्र संस्कार रहित ही रहता है I इसका कारण है कि यदि किसी भी जन्म में चित्त, संस्कार रहित हो जाता है, तब चाहे वह साधक पुनर्जन्म ही क्यों न लेता जाये, तब भी उसका चित्त कोई संस्कार न तो धारण कर पाता है और न ही किसी संस्कार को फलित ही कर पाएगा I ऐसे साधक ही कर्मातीत मुक्ति का पात्र बनता है, और जहां वह कर्मातीत मुक्ति ही कर्ममुक्ति, फलातीत मुक्ति और संस्कारातीत मुक्ति आदि भी कहलाती है I

हृदय में बैठे हुए सनातन गुरु आगे बोले… अहम् के ब्रह्मचर्य की स्थापना तब होती है जब साधक ब्रह्माण्ड धारणा में ही स्थित हो जाता है, और ऐसा होने पर साधक का अहम् विशुद्ध हुए बिना भी नहीं रह पाता है I अहम् के ब्रह्मचर्य से जो अहम् विशुद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है, वही उत्कर्ष का प्रधान मार्ग है, क्यूंकि जब अहम् विशुद्ध हो जाता है, तब अन्य सभी बिंदुओं की विशुद्धि का मार्ग भी स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है I जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होगा, तबतक अन्य किसी भी बिंदु की विशुद्धि का मार्ग भी प्रशश्त नहीं होगा I

नन्हा विद्यार्थी इन बिंदुओं को समझ गया इसलिए उसने अपने गुरुदेव को इसका संकेत भी दिया I

 

अपान प्राण और उत्कर्ष पथ, अपान प्राण और उत्कर्षमार्ग, अपान प्राण का उत्कर्ष मार्ग से नाता, अपान प्राण उत्कर्षपथ से नाता, … अपान प्राण और सर्वस्व से एकत्व, सर्वस्व से एकत्व, सर्वस्व योग और अपान, …

गुरु बोले… अपान प्राण ही उत्कर्षमार्ग है, क्यूंकि उत्कर्ष मार्ग इसी प्राण से प्रारम्भ होता है I लेकिन यह उत्कर्ष पथ तभी प्रशस्त होगा, जब साधक इस अपान प्राण की ऊर्जाओं को ऊर्ध्वमार्गी बनाएगा और जिसका मार्ग भी ब्रह्मचर्य से ही प्रशस्त होता है I इस उत्कर्ष पथ पर गति से समय साधक यह भी जानेगा कि “सर्वस्व से एकत्व और सर्वस्व योग ” क्या होता है, और यह सर्वस्व से एकत्व ही समस्त उत्कर्ष मार्गों का एक अतिआवश्यक बिंदु है I और इस प्राण और उसके उत्कर्ष मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु भी वह विकृत एकेश्वरवाद (अर्थात मोनोथेइसम) है, जिसमें यह कहा जाता है, कि जो हमारे भगवान् और ग्रंथ को नहीं मानेगा, उसका नाश होगा I कलियुग में जितने भी मार्ग आए हैं, वह प्रधानतः इसी विकृत एकेश्वरवाद के हैं I

गुरु आगे बोले… और ऐसा होने के कारण यह सभी विकृत एकेश्वरवाद से संबंधित मार्ग, अपकर्ष पथ के ही द्योतक हैं, जिनमें समय-समय पर विभिन्न प्रकार के कलह-कलेश होते ही रहता है, और जिसके कारण कलियुग के कालखंडों में श्री हरी का स्थूल जीव रूप में अवतरण भी नहीं होता, क्यूंकि उस विकृत एकेश्वरवाद के मार्गों के कारण, यह सभी मार्ग समय-समय पर एक दुसरे को नष्ट भी करते रहते हैं I यही कारण है, कि कलियुग के कालखंडों में, श्री हरी का केवल आंतरिक अवतरण ही होता है I और यह अवतरण भी किसी उत्कृष्ट योगी के हृदय में, जो स्थूल देह के भीतर बसा हुआ परब्रह्म का स्थान होता है… उसी स्थान में ही होता है I

सनातन गुरु आगे बोले… इस प्राण का उत्कर्ष पथ बहुवादी अद्वैत का है, अर्थात उन मार्गों का है जो यह कहते हैं कि सब उत्कर्ष मार्ग उसी ब्रह्म को जाते हैं I इस बहुवादी अद्वैत के मार्ग में, बहुवाद प्रकृति का होता है और अद्वैत ब्रह्म का होता है, इसलिए इस मार्ग में प्रकृति ही ब्रह्मपथ कहलाती है I स्थूल और भौतिक दशाओं से संबंधित तृष्णाएं इस प्राण के ही गुण हैं I तृष्णाओं का मूल कारण भी इस वायु की विकृतियां ही है I कलियुगी स्वाभाव के प्रबल होने का मूल कारण भी यही अपान वायु की विकृतियां हैं, इसलिए कलियुग के कालखण्ड की मूल वायु भी यही अपान वायु है I जितनें दुष्कर्म होते हैं, उनके मूल में यही वायु होती है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि शरीर में इस वायु की गति नीचे की ओर होती है, इसलिए यह वायु अपकर्ष मार्ग की द्योतक भी है I

सनातन गुरु आगे बोले… इसी कारण से, जब तक इस वायु को मूलाधार से ऊपर की ओर उठाकर किसी ऊपर के चक्र में ही स्थापित नहीं किया जाता, तब तक पतन की ओर लेके जाने वाली तृष्णाएं और विकृतियां भी नष्ट नहीं होती I और जब यह वायु ऊर्ध्वगति को पाती है, तब ही साधक उस मार्ग पर गति करने लगता है जो मुक्तिपथ कहलाता है I जब किसी लोक के अधिकांश मानव शरीरों में यह वायु नीचे की ओर प्रवाह करती है, तब ही उस लोक में प्राकृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, दैविक और व्यावहारिक आदि विकृतियां आती हैं, और यह विकृतियाँ भी विभिन्न प्रकार के कलेशों का कारण बनती हैं I और जब यही वायु ऊर्ध्वगामी हो जाती है तब साधक मुक्तिपथ पर गमन करने लगता है, और अंततः कैवल्य मोक्ष को भी प्राप्त होता है I लेकिन यह कैवल्य मोक्ष की दशा की प्राप्ति भी तब ही हो पाती है, जब यह वायु मेरुदण्ड के नीचे के मूलाधार चक्र से ऊपर उठकर, मस्तिष्क के ऊपर के भाग में बसे हुए सहस्र दल कमल में ही स्थित हो जाती है I सहस्र शब्द का अर्थ “हजार” भी होता है और “बहुत अधिक” भी I

गुरु बोले… इन्ही कारणों से इस प्राण गुफ़ा का शुद्धिकरण तब भी किया जाना चाहिए जब इस अपान प्राण और इसके कूर्म उपप्राण में प्रवेश रजोगुण गुफा की ओर से होना होता है I और यह शुद्धिकरण तब भी होगा, जब इस गुफा का पूर्व में शुद्धिकरण हो चुका होगा I इस बिंदु को अपने स्मरण में रखना चाहिए और ऐसा करके ही इस अपान प्राण और कूर्म उपप्राण में प्रवेश करना चाहिए I यह बिंदु केवल योगमार्ग पर गति करते हुए साधकगणों के लिए ही कहा गया है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरु को अपना सिर हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

अपान प्राण दोष एवं कुण्डलिनी शक्ति, अपान प्राण के दोष और कुण्डलिनी शक्ति, …

सनातन गुरु बोले… यह अपान प्राण ही प्राणमय कोष का आधार है, और ऐसा तब भी है जब यह अपान प्राण साधक के उत्कर्ष पथ पर गति के अनुसार अधोमार्गी होता है, अर्थात कूल्हे से चरणों की ओर गति कर रहा होता है I और इसके अतिरिक्त पञ्च प्राण में से यह अपान सबसे दुर्बल प्राण भी है I जब इस प्राण में ऊर्जाएँ अधिकता में होती है, तब इस प्राण का योग सामान प्राण से होता है, और यह दशा उदर से लेकर लिंग और गुदा तक की बहुत प्रकार की समस्याओं का कारण भी बन जाती है I

गुरु आगे बोले… जब इस प्राण की गति नीचे की ओर होती है, तो यह दस्त का कारण बनता है I जब इस वायु में उर्जाओं की न्यूनता होती है, तब यह कब्ज़ (या कोष्ठबद्धता) का कारण बनता है I जब इस वायु का प्रवाह ऊपर की ओर हो जाता है, तब इस दशा से मलावरोध की समस्या आती है, और ऐसा ही तब भी होता है जब कुण्डलिनी जागरण हो चुका होता है और वह कुण्डलिनी सहस्रार पर पहुँच चुकी होती है I जब अपान प्राण का योग सामान प्राण में होता है, तब जो ऊर्जाएँ उत्पन्न होती हैं उनसे कई सारे कष्ट आते हैं, जैसे उदर रोग, प्रजनन रोग, पाचन रोग, अनैच्छिक वीर्यपात, उत्सर्जन और मूत्र प्रणाली के रोग, व्रण (या अलसर), अंगों में पुटी (या गाँठ या पुटि), पथरी आदि I यदि अपान प्राण अपना संतुलन खो गया तो यह राक्षसी स्वभाव को पा जाता है, और इसके विपरीत दशा में यही प्राण संत स्वभाव में ही पाया जाता है I

सनातन गुरु आगे बोले… यदि इस प्राण की प्रचण्ड ऊर्जा में ही वृद्धि हो जाए, तो यह दशा वैसी ही होगी जिसमें विद्युत्, अग्नि और वायु की ऊष्णता और अधिकता से संबंधित दुष्प्रभाव की कोई कष्टकारी दशा होती है और ऐसी दशा में साधक का जीवन नर्क सरीका ही हो जाएगा I कामुखता की अधिकता से संबंधित तंत्र मार्गों में साधक इन दुष्प्रभावों को पाता ही है, और ऐसे मार्गों की उन कष्टकारी दशाओं को पार करके ही उन मार्गों में सिद्धि की प्राप्ति हो पाती है I

सनातन गुरु आगे बोले… जब यह वायु हृदयाकाश गर्भ की गुफा में स्थित होती है, तब यह वायु अन्य सभी प्राण वायु से छोटे आकार मे ही होती है I और जब यह वायु, प्राणमय कोष में देखी जाएगी, तो यह व्यान प्राण के सिवा, अन्य सभी वायु से बड़े आकार में ही पाई जाएगी I यही इस वायु की विपरीत दशा है, और यही इस वायु के विपरीत स्वभाव को भी दर्शाता है I

नन्हें विद्यार्थी ने अपने हृदय गुरुदेव से प्रश्न किया… इस विपरीत दशा का कारण क्या है? I

इस प्रश्न पर गुरु बोले… हृदयाकाश गर्भ की प्राण गुफा में तो यह वायु सबसे छोटे आकार की ही होती है I और इसके विपरीत प्राणमय कोष में इस वायु का आकार बड़ा होता है, क्यूंकि यह वायु नाभि से कोई 3-4 ऊँगली नीचे से लेकर पाँव की उँगलियों तक व्याप्त होती है I यदि प्राणमय कोष में यह वायु छोटे आकार की होगी, तो जब इसमें ऊर्जाओं की अधिकता हो जाएगी, तब यह वायु स्थूलादि शरीरों के लिए विनाशक (या विध्वंसक) ही हो जाएगी I और जब कामुकता और तृष्णा में वृद्धि होती है तब इस वायु में उर्जाओं की अधिकता हो जाती है I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि पञ्च प्राण में यह वायु सबसे दुर्बल होती है, जिसके कारण यह अपान वायु ऊर्जाओं की अधिकता में संतुलित ही नहीं रह पाती, और ऐसी दशा में यह वायु स्थूलादि कोशों के लिए विनाशक (या विध्वंसक) ही हो जाती है I

गुरु आगे बोले… कुंडलिनी जागरण के समय पर भी साधारणतः जो चक्रों और पैरों आदि में झटके लगते हैं, वह भी इसी वायु की अधिक ऊर्जा के कारण होते हैं I इस कुण्डलिनी जागरण के समय जब अपान वायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, तब ही यह झटके लगता हैं I और इस कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में, जैसे-जैसे यह वायु मेरुदण्ड के नीचे के भाग की ओर से (जहां मूलाधार और कुण्डलिनी चक्र होते हैं), ऊपर के चक्रों में जाती है, वैसे-वैसे उन चक्रों में भी मीठे-मीठे ऊर्जा बम फटने लगते हैं I क्यूँकि कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह अधिकता होती ही है, इसलिए ऐसे समय पर भी यहाँ बताई गई व्याधियाँ आती ही है I कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में अपान प्राण मेरुदण्ड में प्रवेश करके, ऊपर की ओर (अर्थात मस्तिष्क की ओर) खिच जाता है, जिसके कारण कुछ समय तक कब्ज़ (या कोष्ठबद्धता) होती ही है और साधक मल मूत्र पूर्ण रूप में त्याग भी नहीं पाता है I और यदि कुण्डलिनी सहस्रार को पार करके वज्रदण्ड चक्र से जाकर, निरालंबस्थान पर ही चली जाएगी, तो साधक को ऐसा भी लगेगा जैसे उसके मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर हृदय क्षेत्र तक, शून्य-अंतर (या शून्यक) सा निर्मित हो गया है I और यदि ऐसा शून्यक सा निर्मित हो जाएगा, तो उस साधक के हस्त और पाद सहित, मेरुदण्ड और मस्तिष्क के भीतर भी एक विभीषिका रूपी कम्पन बन जाएगी, जिसके कारण वह बहुत सप्ताह तक कुछ भी कार्य नहीं कर पाएगा I

इसके पश्चात गुरु हँसते हुए अपने नन्हे शिष्य की ओर उंगली दिखाकर बोले… तुम भी इस विभीषिका की दशा से जाओगे और एक वर्ष के भीतर ही उस विभीषिका को पार भी  करोगे I उस आगामी समय में, जो अभी के समय से बहुत दूर भी नहीं है, तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) उस भयंकर दशा से भी होकर जाओगे, जो कुण्डलिनी सिंड्रोम कहलाता है, और ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि तुम्हारी इडा, पिंडगला और सुषुम्ना नाड़ियों के भीतर ऊर्जा के कई सारे अवरोधक हैं, जिसके कारण तुम्हारी यह त्रिनाड़ियाँ अतिउष्ण और प्रलयंकारी ऊर्जाओं से भर भी जाएंगी I

नन्हे शिष्य को यह समझ नहीं आया, कि गुरुदेव हँसते हुए क्यों बोल रहे हैं, इसलिए वह गुरु मुख की ओर देखता हुआ… शांत ही रहा I

गुरु आगे बोले… इस वायु की विकृति के कारण कई सारी व्याधियां आती हैं जैसे वैरिकाज़ नस, पैरों की मांसपेशियों की समस्याएं, किसी भी प्रकार का गठिया, प्रजनन अंगों में गर्मी, गुदा में गर्मी, आंतों के अल्सर, गुर्दे में गर्मी की अधिकता के कारण गुर्दे की समस्या (क्योंकि गुर्दे में ठंडक की ऊर्जा होती है), मूत्र या मल संक्रमण, पेशाब करने या मल त्यागने में असमर्थता, अत्यधिक पेशाब आना और मल का अनेच्छिक रूप से निकल जाना, नाभि का एक तरफ खिसक जाना जो आगे चलकर कई समस्याओं का कारण बन जाता है, किसी भी प्रकार की अम्लता भी अप्रत्यक्ष रूप से इस वायु से संबंधित है, पीठ के निचले हिस्से की समस्याएं, मेरुदण्ड के नीचे से लेकर ऊपर तक के भागों में विद्युत् के झटके लगना और ऊर्जा बम फटना, मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर मस्तिष्क की नाड़ियों में उष्ण विद्युत् रूपी ऊर्जा प्रवाह होना, पैरों का हिलना, तंत्रिका तंत्र में जीवन शक्ति की अधिकता या कमी, पैर और पैरों की मांसपेशियों के रोग, कूल्हे के जोड़ या कोक्सीक्स की समस्याएं, हड्डियों में कैल्शियम की कमी या अधिकता, श्‍लेष्‍मा-गुहाओं में स्थित तरल (और साइनोवियल द्रव) के कारण आई समस्याएं भी इस वायु के कारण होती हैं ।

सनातन गुरुदेव आगे बोले… कब्ज या दस्त, मल के रंग में परिवर्तन (मल में रक्त, लेकिन इसी व्याधि तक सीमित नहीं), हर्निया, बवासीर और निचली आंतों (छोटी और बड़ी आंतों के निचले हिस्से) में दरारें, कम जीवन शक्ति और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के दोष, रचनात्मकता की कमी जिसके कारण शरीर में आत्म-संरक्षण पहलुओं की कमी या अनुपस्थिति होती है, मूत्रमार्ग की समस्याएं, भ्रूण से संबंधित समस्याएं, डिम्बग्रंथि गाँठ या पुटि, अवरुद्ध डिंबवाही नलिका, गर्भाशय गाँठ या पुटि, सांस से कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड का कम निष्कासन होना…और अंत में, कुंडलिनी सिंड्रोम का सीधा संबंध भी इस अपान प्राणवायु से ही है I

नन्हा विद्यार्थी गुरु के शब्दों में ही मुग्ध होकर सुनता रहा और उसने सोचा यह अपान प्राण तो परमाणु बम ही है, जब फटेगा तब तबाही लाएगा, इससे तो बचकर ही रहना पड़ेगा I

हृदय के सनातन गुरु बोले… धूम्रपान आदि मादक वस्तुओं का दुष्प्रभाव इस वायु पर पड़ता है, इसलिए जो साधक ऐसी वास्तों का सेवन करेगा, उसकी अपान वायु विकृत हुए बिना भी नहीं रह पाएगी I क्यूंकि इस लोक का वायु मंडल अब विकृत हो चुका है, इसलिए इस लोक के अधिकांश जीवों में इस वायु की विकृति होगी ही I और क्यूँकि वायुमंडल के प्रदूषण के साथ साथ, इस लोक में भूमि, जल, तैजस (अग्नि) और आकाश महाभूतों में भी प्रदूषण आया है, इसलिए इस लोक में निवास करते हुए जीवों के अन्य सभी प्राण भी विकृत हो चुके होंगे I ऐसे लोकों के अधिकांश साधक भी उस दशा को जाते हैं, जो कुण्डलिनी सिंड्रोम कहलाता है I और क्यूँकि तुम्हारी स्थूल काया भी अभी के समय पर इस लोक में निवास कर रही है, और क्यूंकि इस लोक के स्थूल भूत विकृत भी हो चुके हैं, इसलिए तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) भी कुण्डलिनी सिंड्रोम नामक व्याधि से होकर ही जाओगे I

गुरु आगे बोले… अब ध्यान देना… यदि किसी लोक के पञ्च स्थूल महाभूत ही विकृत हो जाएं, तो उस लोक में जीवों के प्राणों में भी विकृति आ जाती है I किसी भी लोक में…

पृथ्वी महाभूत विकृति से जीवों के प्राणमय कोष के प्राण वायु विकृत होती है I

जल महाभूत की विकृति से जीवों के प्राणमय कोष की उदान वायु विकृत होती है I

अग्नि महाभूत विकृति से जीवों के प्राणमय कोष की अपान वायु विकृत होती है I

वायु महाभूत विकृति से जीवों के प्राणमय कोष की समान वायु विकृत होती है I

आकाश महाभूत विकृति से जीवों के प्राणमय कोष की व्यान वायु विकृत होती है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरु के मुख की ओर देखकर अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

पर वह नन्हा शिष्य सोचने लगा, कि यह अपान भी क्या खतरनाक वायु है जब वह प्राणमय कोष में होती है I और ऐसा होती हुई भी, यही अपान वायु कितनी शान्त सी प्रतीत होती है, जब वह हृदयाकाश गर्भ की प्राण गुफा में साक्षात्कार करी जाती है I

गुरु आगे बोले… अब इस अपान प्राण को देखो और बताओ कि यह किस प्राण और उपप्राण से योजित (या संबद्ध) है I

नन्हा विद्यार्थी ने देखा और बोला… अभी जो मैं देख रहा हूँ, उससे ऐसा लगता है जैसे लगभग संपूर्ण प्राणमय कोष में लघु मात्रा में ही सही, लेकिन इस वायु के सूक्ष्म रक्त वर्ण दिखाई दे रहे हैं I

 

अपान प्राण और कृष्ण पिङ्गल रुद्र सिद्धि, अपान वायु और कृष्ण पिङ्गल रुद्र सिद्धि, अपान प्राणवायु और कृष्ण पिङ्गला रुद्र सिद्धि, अपान वात और कृष्ण पिङ्गला रुद्र सिद्धि, अपान और कृष्ण पिङ्गला रुद्र सिद्धि,

हृदय गुफा में बैठे हुए सनातन गुरु बोले… इस वायु की सामान्य गति के आभाव में यह वायु कई प्रकार की शारीरिक आदि विकृतियों को जन्म देती है I यदि किसी लोक के अधिकांश जीवों में यह वायु विकृत हो जाए, तो वह लोक ही पतन मार्ग पर चला जाता है I और ऐसा ही इस पृथ्वी लोक में भी हो रहा है जिसके कारण आगे जाकर और कुछ ही वर्षों में इस लोक में कई प्रकार के मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक विप्लव भी आएँगे I किसी भी युग के संधिकाल के समय पर यह वायु विकृत होती ही है, और ऐसा होने पर ही संधिकाल का समय प्रलयंकारी सिद्ध होता है I अधिकांश रूप में यह वायु अधर्मियों और विधर्मियों में ही विकृत होती है, इसलिए युगों के संधिकालों के समय, जो मानव आदि जनित विप्लव आते हैं, वह भी मूलतः विधर्मी और अधर्मी मार्गों के मानवों के कारण ही आते हैं I

सनातन गुर्देव बोले… यह वायु मूलतः मूलाधार चक्र में ही निवास करती है, और इसी के कारण मूलाधार चक्र के मध्य में लाल वर्ण पाया जाता है I और इस वायु का कूर्म उपप्राण भी मूलाधार चक्र के पत्तों में पाया जाता है, जिसके कारण उन पत्तों को एक हलके नीले वर्ण ने घेरा हुआ भी होता है, और ऐसा तब भी होता है जब वह पत्ते श्वेत वर्ण के ही होते हैं I इसी वायु ने मूलाधार चक्र के मध्य में दिखाई देते हुए लाल वर्ण को भी घेरा होता है I यह लाल वर्ण रजोगुण का होता है इसलिए यह वायु रजोगुणी ही है, और यह हल्का नीला वर्ण तमोगुण का होता है, जिसके कारण कूर्म उपवायु तमोगुणी ही होती है I यही कारण है कि अपान वायु और उसका कूर्म उपवायु एक दुसरे को संतुलित रखते हैं I हल्का नीला रंग तब निर्मित होता है जब तमोगुण का सत्त्वगुण से योग होता है, इसलिए कूर्म उपवायु में तमोगुण और सत्त्वगुण का योग भी होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरु के मुख की ओर देखकर अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात हृदय गुरु बोले… जब साधक की काया के भीतर लाल वर्ण के रजोगुण का योग, नीले वर्ण के तमोगुण से होता है, तब उस साधक की काया के भीतर, कृष्ण पिङ्गल सिद्धि शरीर की प्राप्ति होती है I इसी को कृष्ण पिङ्गल रुद्र भी कहा गया है, जिसका नाता लाल वर्ण के तत्पुरुष ब्रह्म और नील वर्ण के अघोर ब्रह्म की योगावस्था से ही होता है I इस सिद्ध शरीर को प्राप्त किया हुआ साधक कृष्ण पिङ्गल रुद्र स्वरूप ही होता है I और ऐसा होने के कारण, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसा साधक, कृष्ण पिङ्गल रुद्र का सगुण साकार स्वरूप ही कहलाया जाता है I इस ब्रह्माण्ड में ये एक बहुत उत्कृष्ट सिद्धि ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब लाल वर्ण के रजोगुणी अपान प्राण का योग हलके नीले वर्ण के तमोगुणी कूर्म उपप्राण से होता है, तब इन प्राणों के योगमध्य में श्वेत वर्ण का स्वयंउदय होता है, जो सत्त्वगुण को दर्शाता है और जिसका नाता परा प्रकृति से भी होता है और इसके अतिरिक्त, इसका नाता वामदेव ब्रह्म से भी होता है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि जब भी रजोगुण और तमोगुण का योग होगा, तब उस योगावस्था के मध्य में श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण स्वयंउदय होगा ही I इसलिए यहां बताए जा रहे योग में साधक त्रिगुण सिद्धि के मार्ग पर ही चल पड़ता है I और अंततः, इसी मार्ग से साधक त्रिगुण सिद्ध कहलाता है, और ऐसे साधक की सिद्ध दशा को गुण ब्रह्म भी कहा जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और क्यूंकि इस त्रिगुणात्मक योग में, इन गुणों को शून्य तत्त्व ने भी घेरा होता है, इसलिए इसी योगदशा से साधक शून्य साक्षात्कार भी करता है, और अंततः शून्य सिद्धि को भी पाता है I इसलिए इस अपान प्राण के मूलाधार चक्र पर साधना (जैसे मूलाधार पर त्राटक) कई सारी सिद्धियों को प्रदान करता है, और यहि कारण है कि योगमार्ग में यह प्राण एक बहुत उत्कृष्ट साधना मार्ग भी है I पर क्यूंकि यह प्राण अधोगती रूपी तृष्णाओं का धारक भी है, इसलिए राजयोग से संबंधित मार्गों में कोई सिद्ध हुआ ही नहीं जिसने तृष्णाओं पर नियंत्रण की बात नहीं कही होगी I जो साधक इस प्राण और उसके चक्र का सिद्ध होगा, वह बहुत सिरलता से उस रुद्र मार्ग पर चल पाएगा, जो “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य से होकर जाता है और अंततः “रुद्र ही रुद्र में” के वाक्य पर समाप्त होता है I और जहां रुद्र ही ब्रह्म होते हैं I इसलिए आत्ममार्ग में इस प्राण की महिमा भी अपार ही है I

इसके पश्चात गुरु बोले… चलो अब हम इस अपान प्राण की गुफा से ही मूलाधार चक्र पर जाएंगे I और ऐसा बोलकर, गुरु ने शिष्य का हाथ पकड़ कर उसको उठा दिया I

और जब गुरु और शिष्य उस मूलाधार चक्र पर पहुँच गए, तो गुरु बोले… इस मूलाधार चक्र पर पहुँचने से थोड़ा पूर्व, मधुमक्खी की भिनभिनाहट जैसा नाद सुनाई देता है I

नन्हें विद्यार्थी ने ऐसा ही सुना था, इसलिए उसने गुरुमुख की ओर देखकर,  अपना सिर हिला कर गुरु की इस बात का पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

इसके पश्चात गुरु बोले… अपान प्राण और कूर्म उपप्राण दो-दो भागों में बंट जाते हैं, इसलिए ही मूलाधार चक्र के चार पत्ते होते हैं I लेकिन इस अध्याय में हम सप्त चक्रों पर बात नहीं करेंगे… बस उन सप्त चक्रों में से नीचे के पाँच चक्रों के प्राणों पर ही बात होगी I

 

अपान प्राण को अन्य प्राणवायु से पृथक करना, अपान दोष निवारण, …

अधिकांश रूप में अपान प्राण का योग सामान प्राण से कभी न कभी हो ही जाता है, और जब ऐसा होता है तो साधक को कई प्रकार की पीड़ाओं भी होती हैं I इस दशा के निवारण के लिए, साधक को अपान प्राण में बैठकर, अपनी मनस शक्ति से अपान को सामान से पृथक करना चाहिए, और ऐसा करते समय साधक को उसकी अपनी आंतरिक दशा में उस पृथक करने के कर्म और उसके फल, दोनों से ही विमुख होकर रहना चाहिए I ऐसा करने से यह दोनों प्राण एक दुसरे से पृथक हो जाएंगे और इनके जो भी दोष थे, वह सब शांत भी हो जाएंगे I इस प्रक्रिया के पश्चात, अपान प्राण शरीर के नीचे की ओर चलित हो जाएगा और सामान प्राण नाभि में ही भीतर की ओर चलने लगेगा I यह प्रक्रिया कल्पना शक्ति का आलम्बन लेकर भी करी जा सकती है, और ऐसी दशा में भी वही फल प्राप्त होंगे I

गुरु आगे बोले… वह साधक जिनको ब्रह्मचर्य सिद्धि में कठिनाई आती है, वह भी इस प्रक्रिया से सफलतापूर्वक जाकर, ब्रह्मचर्य में स्थापित हो सकते हैं I

इसके पश्चात, सनातन गुरु ने नन्हें विद्यार्थी का हाथ पुनः पकड़ा और कहा… अब हम पुनः हृदयाकाश गर्भ के मध्य भाग की ओर जाएंगे I

और ऐसा कहकर, सनातन गुरु और नन्हा शिष्य अपने उस समय के अपान वायु के भीतर के स्थान से उठकर, हृदयाकाश गर्भ के मध्य भाग की ओर चल पड़े I

मध्य भाग में पहुँचकर दोनों उसी हृदयाकाश गुफा के भीतर ही बैठ गए और उस हृदयाकाश गर्भ के भीतर बसी हुई प्राण गुफा की ओर शान्तिपूर्वक देखने लगे I

 

प्राण गुफा का शुद्धिकरण, प्राण गुफा की सफाई, हृदय प्राण गुफा का शुद्धिकरण, हृदय प्राण गुफा की सफाई, प्राणों का शुद्धिकरण, प्राणों की सफाई, …

सनातन गुरु बोले… इससे पहले कि हम सामान प्राण का अध्ययन उसकी प्राण गुफा में पुनः जाकर करें, इस प्राण गुफ़ा का शुद्धिकरण पुनः करना होगा I और यह शुद्धिकरण भी वैसे ही करना होगा, जैसे पूर्व में करा था I

इसके पश्चात नन्हें विद्यार्थी ने उस शुद्धिकरण प्रक्रिया को पूर्ण किया और उस प्राण गुफा के समस्त दृश्य और अदृश्य संस्कारों और उनके मार्गों आदि को उसी योगाग्नि गुफा में प्रवेश करवा दिया I

और इस प्रक्रिया के क्रम में नन्हें विद्यार्थी ने वही संस्कार का प्रयोग किया जो पूर्व की शुद्धिकरण प्रक्रिया के कर्मफल रूप में प्रकट हुआ था I और इस प्रक्रिया में उस नन्हें विद्यार्थी ने उस शुद्धिकरण के कर्म और उसके आगामी फल से भी स्वयं को विमुख ही रखा I

ऐसा करने के पश्चात, जो भी दृश्य और अदृश्य अशुद्धियों (या अपवित्रताएं) हृदयाकाश गर्भ की उस प्राण गुफा सहित अन्य सभी गुफाओं में थी, वह सभी योगाग्नि गुफा में प्रवेश करने लगी, जिससे यह योगाग्नि गुफा भगवे और लाल वर्ण की होकर प्रचण्ड हो गई I

और इसके कुछ समय पश्चात, जब वह योगाग्नि पुनः शांत हो गई, तो यह संकेत भी हुआ कि यह शुद्धिकरण प्रक्रिया अब समाप्त हो गई है I

ऐसा होने पर जब प्राण गुफा में एक निर्दोष प्रकाश सा आ गया, तब नन्हें विद्यार्थी ने पुनः गुरुमुख की ओर देखा और इस प्रक्रिया पर गुरु की राय की प्रतीक्षा करने लगा I

इसपर सनातन गुरु जो यह सब प्रक्रिया को होते हुए देख रहे थे, वह बोले… अब यह स्वच्छ हो चुकी है I जब भी अपान प्राण में प्रवेश होगा, तब-तब इस स्वच्छता प्रक्रिया को पुनः दोहराया जाना चाहिए I

 

प्राण गुफा में पुनः प्रवेश, प्राण गुफा का अध्ययन, …

इसके पश्चात, गुरु और शिष्य पुनः प्राण गुफा का अध्ययन करने हेतु, उसकी ओर चल पड़े I उस समय पर सनातन गुरु ने अपने शिष्य का हाथ भी पकड़ा हुआ था I

और चलते चलते सनातन गुरु बोले… इस शुद्धिकरण प्रक्रिया के समय अपान प्राण के भीतर कुछ अंतराल के लिए भगवा वर्ण भी प्रकट हुआ था I ऐसा होने के कारण कुछ मनीषी इस अपान का वर्ण, भगवे के सामान लाल भी कहते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं I

सनातन गुरु आगे बोले… देखो उस स्वाधिष्ठान चक्र के भीतर भी वह भगवा वर्ण है और ऐसा होने पर भी स्वाधिष्ठान चक्र का रंग अधिकांश रूप में हल्का गुलाबी ही है I

नन्हें विद्यार्थी ने देखा और ऐसा ही पाया I

इसके पश्चात गुरु बोले… स्वाधिष्ठान चक्र के भीतर अधिकांश रूप में हल्का गुलाबी वर्ण ही होता है, और उस हलके गुलाबी वर्ण के साथ, कुछ न्यून मात्रा में भगवा वर्ण भी पाया जाता है I यह हल्का गुलाबी वर्ण व्यान प्राण का है, और यह व्यान प्राण ही स्वाधिष्ठान चक्र का प्राण है I यही कारण है कि स्वाधिष्ठान चक्र का रंग अधिकांशतः गुलाभी ही पाया जाता है I परन्तु ऐसा होने पर भी, सभी चक्रों में, कभी न कभी और कुछ कम मात्रा में ही सही, लेकिन अन्य रंग दिखाई भी देते रहते हैं I  जबकि सभी प्राण, सभी चक्रों में पाए जाते हैं, लेकिन ऐसा होने पर भी मुख्यतः उस चक्र का प्राण ही उस चक्र में अधिक मात्रा में पाया जाता है I इन मुख्य और सहायक प्राणों के कारण ही इन चक्रों और पञ्च देह का तंत्र मूल रूप से सामान होता हुआ भी, समय समय पर परिवर्तनशील और थोड़ा विसम रूप में ही सही, लेकिन पाया जाता है I

गुरु अपनी ऊँगली से एक दिशा की ओर देखते हुए बोले… वह देखो पीला और लाल वर्ण इड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ियों को भी घेरा हुआ है I यह लाल वर्ण अपान वायु का है और पीला वर्ण प्राण वायु का I इससे यह भी जाना जाता है, कि यह दोनों प्राण, अर्थात अपान वायु और प्राण वायु इन त्रिनाडी तंत्र के मुख्य प्राण ही है I और यही कारण है, कि अपान वायु और प्राण वायु शरीर की दो अवश्यक वायु ही होती है, जिनका आलम्बन योगतंत्र में भी लिया जाता है I इन्ही दोनों प्राणों की योगावस्था के पश्चात ही कुण्डलिनी शक्ति हृदय में प्रवेश करके, हृदय से भी ऊपर की ओर उठने लगती है I और इन्ही दोनों प्राणों के सगुण निराकार स्वरूप की योगावस्था को ही ब्रह्माकाश और अनंताकाश कहा जाता है, और जिसका साक्षात्कार हृदय विसर्ग गुफा में बैठकर, शरीर के आगे की ओर देखते हुए ही किया जाता है, और जिसका सूक्ष्म वर्णन ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में सांकेतिक रूप में ही सही… लेकिन किया गया है I

नन्हें विद्यार्थी ने वह सब कुछ समझा जो गुरु ने बताया था, इसलिए उसने इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

अपान वायु और तत्पुरुष ब्रह्म, अपान वायु और माँ गायत्री का रक्ता मुख, अपान वायु और माँ गायत्री का विद्रुमा मुख, अपान वायु और रुद्रदेव, अपान वायु और रुद्र, अपान वायु और रजोगुण, अपान वायु और अग्नि महाभूत,

इस भाग का साक्षात्कार इस अध्याय से कुछ बाद में ही हुआ था I और इस साक्षात्कार में जाना कि …

  • अपान प्राण का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से है I
  • तत्पुरुष ब्रह्म रजोगुणी हैं, इसलिए अपान वायु का नाता रजोगुण से भी होता है I
  • तत्पुरुष को ही रुद्र कहा गया है, इसलिए अपान वायु का नाता रुद्र देव से होता है I
  • तत्पुरुष ब्रह्म का महाभूत अग्नि है, इसलिए अपान वायु का नाता रुद्रदेव से भी होता है I
  • इसी प्राण का नाता माँ गायत्री के रक्ता मुख से है I और जहां माँ गायत्री के इस रक्ता मुख को, उन्ही गायत्री का विद्रुमा मुख भी कहा जाता है I
  • इसलिए, इस प्राण का नाता पञ्च ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा से और पञ्च ब्रह्म गायत्री सिद्धांत से भी है I

 

लेकिन इन बिंदुओं के बारे में तो पूर्व के अध्यायों में बताया जा चुका है, इसलिए अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम सामान प्राण और कृकल उपप्राण है I

 

असतो मा सद्गमय I

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