समाधि, शून्य, शून्य ब्रह्म, शून्यता, शून्य अनंत, अनंत शून्य, मूल प्रकृति, बिंदु शून्य, जड़ समाधि, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, महातम्, महातमस, शून्य समाधि, असंप्रज्ञात समाधि, निर्बीज समाधि, महाशून्य, निर्विकल्प समाधि, निर्विकल्प ब्रह्म, निर्बीज ब्रह्म, संप्रज्ञात समाधि

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यहाँ पर समाधि, शून्य, शून्य ब्रह्म, शून्यता, शून्य अनंत, अनंत शून्य, मूल प्रकृति, बिंदु शून्य, जड़ समाधि, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, महातम् योद्धा, शून्य समाधि, असंप्रज्ञात समाधि, निर्बीज समाधि, महाशून्य, निर्विकल्प समाधि, निर्विकल्प ब्रह्म, निर्बीज ब्रह्म, संप्रज्ञात समाधि आदि बिंदुओं पर बात होगी I

यहाँ अधिकांशतः उन समाधि की ही बात होगी, जो अंधकारमय दशाओं को दर्शाती हैं I और अन्य के बारे में यदि बताया भी गया, तो वह लघु रूप में ही होगा I

मुझे रात्रि पसंद है… जितनी घनघोर रात्रि, उतनी मुझे पसंद I ऐसा इसलिए है क्योंकि…

ब्रह्म रचना में अंधकार ने ही अंधकार को भेदा हुआ है I

ब्रह्मरचना में अंधकार ने अंधकार को घेरा भी हुआ है I

अंधकार ही अंधकार और प्रकाश, दोनों का धारक है I

अंधकार में ही प्रकाश की रश्मियाँ गति करती है I

प्रकाश ने अंधकार को कभी धारण नहीं किया I

प्रकाश का तो अंधकार से सदैव ही बैर रहा है I

 

और इनके अतिरिक्त…

प्रकाश ही अंधकार शून्य है I

प्रकाश की गति अंधकार में होती है I

अंधकार में ही प्रकाश, प्रकाशित होता है I

प्रकाश की गति कभी भी प्रकाश में नहीं हुई I

अंधकार की गति भी कभी प्रकाश में नहीं हुई है I

प्रकाश अंधकार से युद्ध करने में असक्षम ही रहा है I

इस कारणवश, अंधकार ही अंधकार से युद्ध कर सकता है I

जो कहते हैं कि ज्ञानादि प्रकाश से अंधकार मिटाया जा सकता है, वह मूर्ख हैं I

इस ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, अंधकार ने ही अंधकार से युद्ध किया है I

और युद्ध के पश्चात, उस अंधकार ने अपने भीतर से प्रकाश, प्रकाशित किया है I

 

इसके अतिरिक्त…

अंधकारमय शक्ति ही प्रकाशधारक है I

अंधकार में ही धर्म उद्भासित होता है I

अंधकार के भीतर ही उत्पत्ति होती है I

अंधकार के भीतर ही स्थिति होती है I

अंधकार ही संहार के पश्चात आता है I

अंधकार से ही अधर्म का निग्रह होता है I

निग्रह के पश्चात ही अनुग्रह आता है I

महाप्रलय भी अंधकारमय दशा ही है I

अंधकार शक्ति से ही प्रलय टलती है I

अंधकार शक्ति का योगी ही महातम् है I

वैदिक वाङ्मय ही एकमात्र मार्ग है, जिसमें अंधकार शक्ति के देवी देवता, योगी और योद्धा होते हैं I

वैदिक वाङ्मय के सिवा, किसी और मार्ग के देवी देवता अथवा कोई और ही मई का लाल, उस अंधकारमय शक्ति का धारक कभी नहीं हुआ है I

इसलिए वैदिक वाङ्मय ही एकमात्र उत्कर्ष पथ है, जिसमें यदि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को आवश्यकता पड़ जाए, तो उस सार्वभौम देवत्व आदि के आग्रह और अनुग्रह से वह योगी लौटाया जाता है, जो उस घोर महातमस का युद्ध होता है I

यह अध्याय इसी बात का प्रमाण देगा… और तब भी देगा जब यह अध्याय हिरण्यगर्भ ब्रह्म और ब्रह्माणी सरस्वती के योगमार्ग का ही अंग है, और जहाँ यह दोनों देव और देवी, प्रकाश और सौम्य-उग्र कोटि के ही हैं I

 

मुझे वह देवी देवता पसंद हैं जो उग्र हों… जितना उग्र देवता, उतना मुझे पसंद I ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

उग्र ही उग्र का नियंत्रक होता है I

उग्र ही अपकर्ष मार्गों पर नियंत्रण कर पाता है I

उग्र ही उत्कर्ष मार्गों को डंके की ठोक पर उद्भासित कर पाता है I

केवल प्रेम को दर्शाने वाला कभी स्थायी शांति का कारण नहीं हुआ है I

वैदिक वाङ्मय में अधिकांशतः, सौम्य कोटि के देवताओं की उपासना नहीं होती I

उन्हीं देवताओं की उपासना आदि होती है जो शस्त्र और शास्त्र के समान धारक हैं I

यहाँ बताई गई समाधियाँ भी प्रचंड ऊर्जाओं से संबद्ध हैं, यह उग्र समाधियाँ ही हैं I

यहाँ बताई गई समाधि भी अंधकारमय ऊर्जाओं से संबद्ध हैं, यह घोर अंधकार ही हैं I

 

आगे कुछ और बिंदु अंकित कर रहा हूँ, जिनसे इस अध्याय का मूल बनेगा…

धर्म के मूल में समाधि है I

धर्म के गंतव्य में भी समाधि है I

और धर्म के मार्ग में भी समाधि ही हैं I

धर्म ही धर्म की रक्षा करने में सक्षम होता है I

स्वयं ही धर्म होकर, स्वधर्म में ही कोई धर्मरक्षक होगा I

विधर्म अथवा अधर्म आदि ने धर्म की रक्षा कभी नहीं की है I

वैदिक आर्य हिन्दू ही धर्म है, क्यूंकि अन्य सब पंथ और मत ही हैं I

जबतक हिन्दू शस्त्र और शास्त्र  दोनों में निपुण थे, तबतक वह सुरक्षित थे I

जबतक हिन्दू स्वयं और समाज के रक्षक रहे थे, तबतक ही धर्म सुरक्षित था I

जब से हमने ऐसा करना समाप्त किया, तब से ही धर्म और हम विप्लव में गए हैं I

 

ध्यान देना…

स्व ही मूल है I

स्व ही शिखर है I

 स्व ही स्वधर्म है I

स्व ही उत्कर्षपथ है I

स्व का मार्ग समाधि है I

स्व निरपेक्षता ही अधर्म है I

जीव जगत स्व: से निरपेक्ष नहीं है I

स्वधर्म कभी स्वयं से निरपेक्ष नहीं होता I

धर्म निरपेक्ष संविधान ही अधर्म का पथ होता है I

आगामी समय में आज के संविधान दिखाई नहीं देंगे I

भूलोक के कोई 170 देशों से अधिक घूमकर, मैं बोल रहा हूँ, कि इस लोक की विकृत जीवसत्ता (मानवजाती सहित) उस पड़ाव पर खड़ी होती जा रही है, जिसमें संहार ही एकमात्र विकल्प रहता है I और जहाँ वह संहार भी मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक स्वरूपों में आता है I

वह घनघोर त्रिताप युक्त विश्वरूपी और व्यापक किन्तु खण्डित स्वरूप में चलित होने वाला विप्लव, जो अभी तक केवल अपना एक चरण ही इस विश्व के द्वार के भीतर डाला है, और अभी के समय इस विश्व के द्वार पर खड़ा हुआ है, और काल के संकेत की प्रतीक्षा कर रहा है, उसके पश्चात ही समाधियुक्त धर्म उद्भासित होगा I

और जब ऐसा होगा, तब अधर्म की समाप्ति के कारण, आज के और केवल ग्रंथों को उठाए हुए समाधिहीन आचार्य, वैकल्पिक गुरुजन, भ्रष्ट राजनेता और कलियुगी तंत्र भी दिखाई नहीं देंगे I

आगामी गुरुयुग (वैदिक युग) में धर्मनिरपेक्ष समाधिहीन आचार्य भी नहीं होंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ…

स्व ही साक्षी है I

स्व ही चिरस्थायी है I

स्व साक्षात्कार ही समाधि है I

और समाधि का स्व. समाधितीत ही है I

स्व साक्षात्कार ज्ञान ही धर्माधार और धर्मधर है I

स्व ही वह ब्रह्म है, जो सर्वरूप में बसा हुआ सनातन है, धर्म है I

ब्रह्म सहित, ब्रह्म रचना में भी कुछ है नहीं, जिसमें स्व प्रकाशित नहीं हो रहा है I

यह अध्याय उसी स्व को बताएगा, जिसका साक्षात्कार मार्ग समाधि है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2008 ईस्वी के प्रारंभ से लेकर 2012 ईस्वी के प्रारंभ तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का नौवाँ अध्याय है I

 

 

जय जगन्नाथ I

जय जय जगन्नाथ II

 

 

इस अध्याय का मूल… द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते, …

द्वा सुपर्णा, द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते
द्वा सुपर्णा, द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते

 

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥

समाने वृक्षे पुरुषों निमग्नोऽनाशया शोचति मुह्यमान:।

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:॥

यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।

तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्यमुपैति॥

                                                                                                                                          मुण्डकोपनिषद (3.1.1, 3.1.2, 3.1.3)

 

अनुवाद:

दो घनिष्ठ सखा जो सुन्दर पंखों वाले पक्षी हैं, समान वृक्ष पर निवास करते हैं I

एक स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा बिना खाए अपने सखा को देखता है II

समान वृक्ष पर एक पक्षी जो ‘पुरुष (जीवात्मा)’ है, वह ‘अनीश है (ईश नहीं है)’, वह आस्वाद में निमग्न है और व्यग्र (मोह वशीभूत) होकर शोक करता है I

किन्तु जब वह उस अन्य (दुसरे पक्षी) को देखता है, जो ईश है, परमप्रिय (प्रेमी) है, तब वह शोकमुक्त होता है क्योंकि वह जानता है कि जो कुछ भी है, वह सब उसकी ही महिमा है II

जब द्रष्टा उस दीप्तिमान दिव्यता, कर्ता ‘ईश’, ‘पुरुष (आत्मा या ब्रह्म)’ को देखता है जो ‘ब्रह्म’ की योनि है।

तब वह ज्ञाता (ब्रह्मज्ञाता) होकर अपने पंखों से पाप एवं पुण्य को झटक कर, निरंजन, निष्कलंक होकर परमसाम्य (ब्रह्म से तादात्मयपन) का लाभ करता है II

 

टिप्पणियाँ:

  • यहाँ पर कहा गया रुक्मवर्णं का शब्द, स्वर्णवर्ण नहीं है क्यूंकि इन दोनों पक्षियों के योगमार्गी प्रत्यक्ष-साक्षात्कार के समय, कोई स्वर्ण वर्ण नहीं दिखाई दिया था I यह रुक्मवर्णं का शब्द, उस ईश को दर्शाते हुए पक्षी के दीप्तिमान (कांतियुक्त) स्वरूप का द्योतक है I
  • यही मंत्र योगमार्ग में गति करते हुए समाधि साधक के प्रकाशस्तंभ हैं I
  • किसी भी योगमार्ग के मूल में वही भाव मिलेगा, जिसको यहाँ दर्शाया गया है I
  • वह योगमार्ग जिसके गंतव्य में समाधि होती है, उसका प्रारम्भ भी यहां बताए गेत बिन्दुओं से, उस साधक के भावराज्य में हो होता है I यह अध्याय यहीं से प्रारम्भ होता है I
  • इस अध्याय के योगमार्ग में साधक को स्वयं के भीतर निवास करते हुए ईश को देखना है (अर्थात उस आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करना है, जो ब्रह्म ही है) I
  • और जहाँ वह देखना प्रत्यक्ष साक्षात्कार से भी होता है और चेतनमय ज्ञानमय कर्ममय और भावमय आदि दृष्टियों से भी हो सकता है I किन्तु ऐसा होने पर भी इस अध्याय में जो बताया जा रहा है, वह प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अनुसार ही है I
  • उस योगमार्ग में जिसके गंतव्य में समाधि ही होती है, साधक को उसके अपने भावराज्य में बस इतना ही चयन करना है, कि वह कौन सा पक्षी है I
  • किन्तु जब साधक इस योगमार्ग के गंतव्य पर जाएगा, तो इन दोनों पक्षियों की अद्वैत योगदशा में ही वह स्वयं को पाएगा I
  • और उस गंतव्य दशा को प्राप्त होने से पूर्व, वही साधक अपने भावराज्य में स्वयंशून्य होकर ही, अन्तः स्वयंपूर्ण हो पाएगा I जबकि यह वाक्य तो सांकेतिक ही है, लेकिन तब भी इस अध्याय का योगमार्ग प्रत्यक्ष रूप में इसी से होकर जाता है I
  • और इस अध्याय के योगमार्ग की अंतगति में साधक उसके अपने आत्मस्वरूप में, निर्बीज ब्रह्म को ही पाता है I
  • और इन टिप्पणियों के अंत में… जबकि इन दोनों पक्षियों के रंग तो ठीक हैं, किन्तु उन रंगों के वर्ण वैसे नहीं हैं, जैसे साक्षात्कार हुए थे I ऐसा इसलिए है क्यूंकि वह दैविक रंग इस लोक में पाए ही नहीं जाते हैं I और उस लाल वर्ण के पक्षी को एक स्वर्ण प्रकाश ने भी घेरा होता है, जिसको ऊपर के चित्र में दिखाया नहीं गया है I

तो यह था इस अध्याय का मूल I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

 

समाधि मार्ग का मूल, योग मार्ग का मूल, समाधि मार्ग, समाधि पथ, योग और समाधि, समाधि और योग, समाधियोग, योगसमाधि, … नमः शिवाय का सगुण स्वरूप, नमः शिवाय का सगुण साकार स्वरूप, शिव पंचाक्षर मंत्र का सगुण साकार स्वरूप, … 

जब चेतना मूलाधार चक्र से ऊपर उठती हुई अपने साथ उस अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग) को लेकर गई जिसका वर्णन पूर्व के अध्यायों में किया गया है, तो वह निरलम्बस्थान पर पहुँच गई I ऐसी दशा में उस चेतना के साथ वह अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग) भी निरालम्ब चक्र पर चला गया I

इस दशा के मार्ग में राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) का साक्षात्कार भी हुआ और जिसका मार्ग भी शक्ति शिव योग ही था, और जहाँ वह शिव शक्ति योग भी आंतरिक ही था, अर्थात स्थूल काया के भीतर ही चलित हुआ था I

इस प्रक्रिया में निराधार चक्र पर वह अमृत लिंग साढ़े तीन बार गया I इन साढ़े तीन बार में उस अमृत कलश ने निराधारस्थान को तीन बार पार करके, अंतिम बार उसपर जाकर उसको पार नहीं किया I

और इसके पश्चात वह अमृत कलश (नाभि लिंग या परा प्रकृति लिंग) पुनः नीचे की ओर लौटा और मूलाधार चक्र के समीप, गुदा और लिंग के मध्य के एक स्थान पर ही स्थापित हो गया I

इस प्रक्रिया में एक श्वेत वर्ण की ऊर्जा जो सगुण निर्गुण ब्रह्म को दर्शाती थी और परा प्रकृति से ही संबद्ध थी (अर्थात आदिशक्ति से ही संबद्ध थी), वह मूलाधार के समीप से ऊपर सहस्रार की ओर उठने लगी (और यही ऊर्जा आगे चलकर सहस्रार से परे की दशाओं में भी जाने लगी) I

वह ऊर्जा एक श्वेत वर्ण के हिमपात के समान थी, और जहाँ वह हिमपात के समान ऊर्जा, मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र की ओर जा रही थी I ऊपर गति करती हुई दशा में, उस ऊर्जा ने सप्तचक्रों को प्रकाशित किया, जिससे उन सप्त चक्रों का साक्षात्कार भी स्वतः ही होने लगा I

ऐसी दशा में सगुण निर्गुण ब्रह्म के आदिशक्ति से संबद्ध, समतावादी स्वरूप की ऊर्जा ने प्राणों को सहस्रार चक्र से परे जो विसर्ग है, उसमें स्थापित कर दिया (अर्थात प्राण विसर्गी हो गए) I

जब ऐसा हुआ, तो वह स्वर्णिम आत्मा, जो साधक की काया के भीतर बसे हुए रामलला हैं, और जो अपने सगुण साकार स्वरूप में होते हुए भी हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग के द्योतक होते हैं, उनका साक्षात्कार ब्रह्मरंध्र के भीतर के ललाना चक्र में हुआ I

ऐसी दशा में वह रामलला, ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन छोटे छोटे कमल में से मध्य के बत्तीस दल कमल में बैठे हुए थे (अर्थात ललाना चक्र में बसे हुए थे) और आकाश (अर्थात सहस्रार से ऊपर) की ओर देख रहे थे, जिसके कारण वह कैवल्य मोक्ष को ही दर्शा रहे थे I

इसके पश्चात, वह समाधि योग सम्पन्न हुआ, जिसका वर्णन इस अध्याय में किया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और जैसे ही यह योग समाधि प्रक्रिया स्वयं ही स्वयं में चलित हुई, तो नीचे दिखाया हुआ दृश्य अकस्मात् और स्वतः ही साक्षात्कार होने लगा I

तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन परमं साम्यमुपैति
तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय निरंजन परमं साम्यमुपैति

 

इस अध्याय के पूर्वभाग में मुण्डकोपनिषद का आलम्बन लेकर जो बताया गया था, यह चित्र उसका गंतव्य है I

 

इस चित्र की दशा में…

दोनों में से कोई भी पक्षी मीठा और कड़वा फल नहीं खाता I

अत: दोनों में से कोई भी दुःख और कष्ट में नहीं रहता I

यह इस अध्याय में बताई गई समाधि का मार्ग भी है, और फल भी यही है I

 

जिस दशा में यह चित्र साक्षात्कार हुआ था, उसमें…

न शून्य ही शून्य रूप में था और न अनंत ही अनंत रूप में था I

न मैं मैंपन में, न जीव जीवपन में और न जगत ही जगतपन में रहा था I

रचना और रचैता का ऐसा योग था, कि रचना ही रचैता थी और रचैता ही रचना I

ऐसी दशा केवल और केवल उस महाशून्य में होती है, जो शून्य ब्रह्म कहलाया गया है और जिसका साक्षात्कार उस असंप्रज्ञात समाधि से होता है जिसका कुछ सूक्ष्म, कुछ सांकेतिक और कुछ स्पष्ट वर्णन भी इसी अध्याय में ही किया जाएगा I

इसलिए यह दोनों पक्षी उसी शून्य ब्रह्म के भीतर, इस चित्र में दिखाई गई और यहाँ बताई गई दशा में ही साक्षात्कार हुए थे I

 

लेकिन जिस समय मुझे यह चित्र साक्षात्कार हुआ था, मेरी दशा ऐसी थी कि…

न मैं इस जीव जगत का रहा था और न ही मैं नहीं रहा था I

जीव होता हुआ भी, न जीवत्व और न ही जगतत्व से कोई नाता था I

जगत में जीव होता हुआ भी, आंतरिक दशा मैं जीवतीत और जगतातीत ही था I

और इस चित्र के साक्षात्कार के समय, मेरी दशा कुछ ऐसी ही थी कि मैं न चल पाता था और न ही कुछ और ही कर पाता था I

एक अदृश्य शून्यात्मक विश्वरूपिणी अंधकारमयी शक्ति ने मुझे घेर कर रखा हुआ था, और वही शक्ति मेरे शरीर में भी बैठ गई थीं I

इन्ही शून्यात्मक विश्वरूपिणी शक्ति के स्वामी, जो ब्रह्म ही है वह भी मेरे स्थूल आदि शरीरों में सभी ओर से वैसे ही प्रवेश कर चुके थे, जैसा पूर्व के एक अध्याय में, अथर्ववेद 10.2.33 का आलम्बन लेकर सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताया गया था I इसलिए इस चित्र का नाता अथर्ववेद 10.2.33 से भी कुछ कुछ तो है ही I

मेरे शरीर के पैरों से लेकर हृदय के नीचे के सूर्य चंद्र चक्रों तक वह शक्ति बैठ ही चुकी थीं I

और मेरे मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर हृदय क्षेत्र तक तो ऐसा लगता था, कि एक घनघोर शून्यक बन गया है, जिसके कारण शरीर की ऊर्जा भी उसी शून्य में प्रवेश करती जा रही है I

और उस शून्यक में प्रवेश करके, वह ऊर्जा सहस्रार में जाती हुई, पूर्णतः विसर्गी ही होती जा रही है I

शरीर इतना हल्का हो गया था, कि ऐसा लगता था जैसे मैं उड़ रहा हूँ I

उस समय ऐसा भी लग रहा था जैसे अब मैं न इस स्थूल जगत का रहा हूँ, न सूक्ष्म जगत का और न ही किसी दैविक जगत का ही रहा हूँ I

बस मैं कुछ भाग में ही सही लेकिन रहा हूँ, इतना तो पक्का था… किन्तु किस दशा में रहा हूँ, यह पता ही नहीं चल रहा था I

उसी दशा में मैं एक पूर्व जन्म में गया, तो जाना कि मेरा यह जन्म मेरी गुरुदक्षिणा पूर्ती के लिए ही हुआ है I

लेकिन उस गुरुदक्षिणा के अनुसार तो यह ग्रंथ लिखना था, जिसके लिए बैठना तो पड़ेगा ही… और जो मैं उस समय कर ही नहीं पा रहा था I

उसी विचित्र दशा में, एक दिन मैंने इस ग्रंथ के कुछ चित्र बनाए जिनमें से अध्याय के इस भाग का चित्र भी हैं I

और उन शून्यात्मक दिव्यता का इतना विप्लवकारी प्रभाव था, कि मुझे लग रहा था जैसे मैं किन्हीं दो पर्वत शिखरों के मध्य की एक खाई के ऊपर, मेरे अपने ही विसर्ग को जाते हुए प्राणों की डोर सरीकी रस्सी पर, किसी विकराल वायु के वेग में फंसा हुआ भी, उस रस्सी पर चलने का उस स्थिति में प्रयत्न कर रहा हूँ जिसमें वह प्राण रूपी रस्सी अग्निमय और विद्युतमय हो गई है, और उसमें चक्रवात जैसे वायु वेग् ने प्रवेश कर लिया है, जिसके कारण वह प्राण रूपी रस्सी उन दो पर्वत शिखरों के मध्य की खाई के ऊपर, बहुत भयंकर रूप में झूल भी रही है I  और मैं ऐसी ही दशा में उस पतली सी प्राण रूपी रस्सी पर चलने का प्रयास भी कर रहा हूँ ताकि उस पर्वत शिखर पर पहुँच जाऊं जो मुझे अपने सामने की ओर धुंधला सा ही सही, किन्तु कुछ तो दिखाई दे ही रहा है I

मेरे पापा सांकेतिक रूप में तो कहते ही थे… बेटे यदि स्वर्ग जाना है तो मरना पड़ेगा, इसलिए भी न तो मरने का कोई भय था, और न ही कोई शोक  ही था कि अब मैं मृत्यु के कगार पर खड़ा हो चुका हूँ I लेकिन मेरी उस समय की दशा में तो बंधन और मुक्ति ही नहीं, बल्कि इन दोनों का कोई का सिद्धांत और तंत्र भी शेष नहीं रहा था, इसलिए इस वाक्य की जो मेरे ज्ञान में पूर्व कालों की महिमा रही होगी, अब तो वह भी नहीं बची थी I

वैसे गंतव्य स्थित (अर्थात पूर्ण ब्रह्म के साक्षात्कारी) योगी के लिए तो न जीवन का कोई महत्त्व होता है, और न ही मृत्यु का I

और जिस योगी को यह बात ही पता है कि उसका अभी का जीवन ही अंतिम है, तो ऐसे योगी के लिए तो बांधनयुक्त जीवन की सार्थकता में ही मुक्ति स्वरूप मृत्यु होती है, और मृत्यु की सार्थकता में ही वास्तविक बंधनातीत जीवन I

लेकिन मुझे उस समय यह जीवन चाहिए ही था, क्यूंकि मेरे इस जन्म के मूल में जो पूर्व जन्मों की गुरुदक्षिणा शेष रह गई थी, वह अभी तक पूर्ण नहीं हुई थी I यदि ऐसा नहीं होता, तो अब तक मैं इस जीव जगत से ही बहुत सुदूर चला गया होता I

 

आगे बढ़ता हूँ…

एक पूर्व अध्याय में मैंने एक योगीजी के बारे में कहा था I

तो अध्याय के इस भाग की दशा आने के कुछ दिवस पश्चात, मैं उन योगीजी के घर गया I

जैसे ही मैं उनके घर की सड़क पर पहुंचा, वह दोनों भाई दौड़ते हुए बाहर आए जैसे उनको पता चल गया था कि कोई आया है (वह दोनों दिव्य दृष्टि सम्पन्न योगी थे) I

और उनमें से जो छोटे भाई थे, वह अपनी आँखें टेढ़ी करके मेरे कपाल के ऊपर एकटक दृष्टि से देखते गए I

और कुछ समय तक मुझे वहीँ पर खड़े होकर देखते-देखते, वह योगीजी मुझे उनके घर में जो मन्दिर था, और जिसमें मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव बुद्धावतार का अर्चा विग्रह स्थापित भी था, उसमें लेकर गए और प्रेमपूर्वक मुझे एक आसान भी प्रदान किया I

कुछ समय तक दोनों भाइयों ने मेरा अध्ययन किया, और इससे पहले मैं उनसे कुछ पूछता, उनमें से जो बड़े भाई थे वह मुझसे गरजकर, अपनी ऊँगली को एकम् ब्रह्म अद्वैतम् के चिंन्ह रूप में रखकर और देवी माँ के समान बड़ी-बड़ी आंखें बनाकर, मुझे देखते हुए बोले…

बेटा, तेरे जैसा कोई माई का लाल जन्म ही नहीं लिया है I

ऐसा प्रकाश मैंने किसी के कपाल के ऊपर न कभी देखा है, और न ही सुना ही है I

इसलिए, इस बात को भूल जा कि तेरी मृत्यु होने वाली है, क्यूंकि ऐसी प्रकाशमान स्थिति को प्राप्त करने के लिए तो देवता भी तरसते रहे हैं I

और इसलिए अबसे सिंह की भाँती इस जीवनकाल में रह और इसके प्रारब्ध के मूल में जो कारण है… उसको पूर्ण कर… क्यूंकि मुझे नहीं लगता कि इस जन्म के पश्चात तू किसी काया रूप में लौटकर आ पाएगा I

मैंने उनके न तो कोई प्रश्न किया था, और न ही कोई संकेत ही दिया था I यह सब तो उन्होंने स्वतः ही बताया था I

 

वह सार्वभौम बिंदुमाला जो मैं अब तक जाना हूँ, यह है…

योग ही सर्वमूल होता है और योगी ही उस मूल की मूलसत्ता I

ज्ञान ही शिखर होता हैऔर ज्ञानी ही उस शिखर की गंतव्यसत्ता I

ज्ञानी का आत्मस्वरूप योगात्मा, और योगी का आत्मस्वरूप ज्ञानात्मा है I

वह योगात्मा जो योगेश्वर का अंग है, वही ज्ञानात्मा रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

 

इसलिए, जिस योगी में मूल और गंतव्य का अद्वैत योग हुआ होगा, वही योगी…

शक्तिमय मूल है, जो गंतव्यपथ कहलाता है I

शिवमय गंतव्य है जो सर्वमूल रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

मूल और गंतव्य, दोनों ही अद्वैतयोग में हैं और एक दुसरे के पूरक हैं I

 

और जहाँ इस योगमार्ग में…

शक्तिमय मूल से ही गंतव्य पथ प्रशस्त हो पाता है I

शिवमय गंतव्य से ही शक्तिमय मूल रूप का साक्षात्कार होता है I

शक्ति ही शक्तिमान हैं, और शक्तिमान ही शक्ति रूप में साक्षात्कार होते हैं I

जिस योगमार्ग में ऐसा नहीं होता, वह प्रपंच है I

जिस मार्ग में शक्ति (योगेश्वरी) और शक्तिमान (योगेश्वर) का अद्वैत योग है, वही शिवत्व, शाक्तत्व, गणपत्व, विष्णुत्व और ब्रह्मत्व के अद्वैतयोग का मार्ग है I

ऐसा मार्ग ही योगशिखर पर लेकर जाने की क्षमता रखता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

मैंने इस जन्म में कोई भी ग्रंथ नहीं पड़ा और न ही किसी स्थूल धारी ज्ञाता ने मुझे बताया I मैं एक योगभ्रष्ट हूँ, और प्रबुद्ध भी हूँ, इसलिए अन्य प्रकारों से जानने का मार्ग जानता हूँ I

जब भी योगमार्ग में मेरे साक्षात्कार होते हैं, तब मेरे शरीर में ही ऐसे ग्रंथ के पृष्ठ खुल जाते हैं, जिनमें उस साक्षात्कार हुई दशा के बारे में बताया गया होता है I

और इसके अतिरिक्त, कभी तो मुझे कोई आंतरिक देवावाणी आ जाती है, जिससे में जान लेता हूँ उस साक्षात्कार करी हुई दशा के बारे में I

और कभी कोई देवी देवता, ऋषि या सिद्ध ही उन सूक्ष्मादि रूपों में प्रकट होकर मुझे बता देते हैं उस साक्षात्कार के बारे में I

और कभी मुझे मेरे पूर्व जन्मों का वह ज्ञान स्मरण में आता है जिसका नाता उस साक्षात्कार से है I और कभी-कभी तो कुछ और स्वतः ही हो जाता है, जिससे में जान जाता हूँ I

 

आगे बढ़ता हूँ…

लेकिन जब वह दशा जो इस चित्र में दिखाई गई है, साक्षात्कार होने लगी और इसका दृश्य मुझे बार बार दिखाई देता ही गया, तब ऊपर बताया गया कुछ भी नहीं हुआ I इसलिए मैं जान ही नहीं पा रहा था कि इस दशा साक्षात्कार का तात्पर्य क्या है I

जब भी मैं अपने नेत्र बंद करता था, तब मुझे यही दो पक्षी दिखाई देते थे I

और यह दोनों पक्षी मेरे शरीर से थोड़ा सा ऊपर की ओर ही दिखाई देते थे, और यह दोनों पक्षी मेरी ओर एकटक दृष्टि से देख रहे होते थे I

और इन दोनों पक्षियों के मुख पर जो भाव दिखाई देते थे, वह कुछ-कुछ ऐसे ही थे…

अरे भाई, हमको पहचानो I

अरे भाई, यह तूने क्या किया? I

अरे भाई, ऐसा भी कोई करता है क्या? I

अरे भाई, ऐसा करके भी तू हमें जान नहीं रहा है I

 

उन दोनों पक्षियों को अतिसूक्ष्म और विशालकाय अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ था और उसी सूक्ष्म अंधकारमय दशा के भीतर ही यह दोनों पक्षी बैठे हुए थे, और मुझे एकटक दृष्टि से देखते ही जा रहे थे I

ऐसा कई दिवस तक चला और चलता ही गया I

जब भी मैं मेरे नेत्र बंद करता था, तब मुझे यह दोनों पक्षी एकटक दृष्टि से देकते हुए दिखाई देते थे I

उनके पीले वर्ण के नेत्रों में एक पीड़ा भी दिखाई देती थी, कि मैं उनको पहचान नहीं रहा हूँ और इस पीड़ा से मैं कुछ सीमा तक विचलित भी होने लगा, जिसके कारण में जहाँ तक हो सके, नेत्र ही बंद नहीं करता था I

और जब ऐसा बार बार होता था, और एक ही दिन में कई बार होता था, तो मैं सोचने लगा कि इसका कारण क्या है, और यह दोनों पक्षी दुखी होकर मुझे एकटक दृष्टि से देखते ही क्यों जा रहे हैं?, और इनका मुझसे क्या नाता है? I

जब ऐसा हुआ तो मैं मित्रों, परिजनों और कुछ वेद मनिषियों से भी पूछने लगा, कि यह दो पक्षी… एक नील वर्ण का और एक लाल वर्ण का… वह कौन हैं? I

सभी से जो उत्तर मिलता था, उसमें या तो वह कहते थे ऐसा कुछ नहीं है, और कुछ ने तो मुझको पागल ही समझ लिया है I मैं कुछ वैदिक पंडितों से भी मिला, किन्तु कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला I

और सबसे विचित्र बात तो यह थी, कि इस दृश्य के बारे में न तो मेरे भीतर कोई ग्रंथ खुला, न कोई देवी देवता ऋषि अथवा सिद्धि ही आए मुझे इसके बारे में बताने के लिए और न ही कोई देववाणी अथवा आकाशवाणी (या घटाकाश वाणी) ही हुई… और उस समयखण्ड में मुझे इसके बारे में न कोई स्पष्ट संदेश मिल रहा था और न ही कोई सुदूर का सूक्ष्मादि अथवा कोई सूक्ष्माणि संकेत ही मिल रहा था I

और इस समय पर जब भी मैं अपने नेत्र बंद करता था, तो इन दोनों पक्षियों को अपनी ओर देखता हुआ ही पाता था I

और कुछ ही दिवस में ऐसी दुविधा हो गई, कि मैंने अपने घर में जो ग्रंथ पड़े हुए हैं, उनको खोल-खोल कर उनमें ढूंढना प्रारंभ कर दिया (मेरे घर में अध्यात्म, वेद और योग से संबद्ध इतने ग्रंथ तो हैं ही कि एक लघु ग्रंथागार बन सकता है) I मुझे उन ग्रंथों में भी कुछ मिल नहीं रहा था I

तो एक दिन अपने नेत्र बंद करके बैठे हुए और इन दोनों दुखी पक्षियों को देखते-देखते, बहुत परेशान होकर मैंने इंटरनेट खोला I

और जैसे ही ऐसा किया, तो अपने आप ही एक पृष्ट खुला, जिसमें इस अध्याय के पूर्वभाग में लिखे हुए मंत्र थे I

मैंने इंटरनेट पर लिखे हुए मंत्रों को पड़ा और उस समय मेरी काया के भीतर से ही एक देववाणी हुई, जिसने ऐसा कहा था…

इति अस्ति I

अतएव एतत् एव II

ऊपर की प्रथम आंतरिक देववाणी, स्त्री (देवी) की थी, और द्वितीय देववाणी, पुरुष (देव) की थी I इसलिए प्रथम वाणी का अर्थ, स्त्रीलिंग का होगा और द्वितीय देववाणी का अर्थ, पुल्लिंग में ही जाना जा सकता है I

 

इसका अर्थ हुआ कि इस आंतरिक देववाणी में…

देवी ने समाप्त किया I

देव ने समाप्ति पर मुहर लगाई I

इसके पश्चात मैंने इंटरनेट बंद किया और अपनी आँखें बंद करके इन पक्षियों को देखा… और जो हुआ, उससे मैं आश्चर्यचकित ही रह गया I

यह दोनों पक्षी अब दुखी नहीं थे, बल्कि इसके विपरीत मुझे ऐसा लगा की वह आनंदमय से ही हो गए थे I

और उसी आनंदमय दशा में वह दोनों मुझे एकटक दृष्टि से देख भी रहे थे I

इस दृश्य से मैं भी आनंदित हो गया और उसी आनंदित दशा में मैं अपने नेत्र बंद करे हुए इन दोनों पक्षियों को देखता गया I

और इसके कुछ ही क्षण में, यह दोनों पक्षी मुड़ गए और उन्होंने अपना मुख मुझसे विपरीत दिशा में कर लिया I

और ऐसा करके वह दोनों पक्षी, जो एक दुसरे के घनिष्ट सखा ही थे, एक साथ ही मुझसे दूर जाने लगे, अर्थात उड़ गए और मुझसे दूर जाने लगे I

वह दोनों पक्षी उसी अंधकारमय दशा में उड़ान भरते हुए, जब मुझसे कुछ दूर चले गए थे, तो उन्होंने एक साथ पीछे मुड़कर, मुझे बस एक अंतिम बार देखा I

 

और उन दोनों के मुख पर जो भाव था, वह ऐसा था…

मुक्ति ही आनंद है, … आनंद ही मुक्ति I

मुक्ति सिद्धि के पश्चात ही उसका वास्तविक ज्ञान होता है I

जबतक मुक्ति का ज्ञान नहीं होता, तबतक वह होती हुई भी सार्थक नहीं होती I

 

और इसके पश्चात, कुछ ही समय में वह दोनों दिव्य पक्षी इतने दूर चले गए, की वह उसी विशालकाय अंधकार में लुप्त से होते चले गए I

और इसके कुछ ही समय में, और अपने नेत्र बंद करे हुए, और मेरुदण्ड को सीधा रखे हुए, अपने सर को थोड़ा ऊपर की ओर उठाए हुए और अपने ही सहस्रार पर ध्यानमग्न बैठा हुआ मैं जान भी गया, की वह दोनों दिव्य पक्षी अपने-अपने दैविक ब्रह्माण्डीय कारणों में ही लय हो गए हैं I

मेरे शरीर से सगुण साकार स्वरूप में बाहर निकले वह दोनों पक्षी, मुझे ऊपर बताए गए मंत्रों और उनके मुक्तिमार्गी मूलबिंदु का ज्ञान देकर, अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय हो गए I और उस दशा में मैं उनको अपने आंतरिक योगनेत्र से, ऐसा लय होते हुए देखता भी गया I

 

इसके कुछ ही समय में मैं जो जाना, वह अब बताता हूँ…

नील वर्ण का पक्षी अघोर ब्रह्म में लय हुआ I

लाल वर्ण का पक्षी तत्पुरुष ब्रह्म में ही लय हुआ I

उनके पीले नेत्रों का वर्ण, सद्योजात ब्रह्म में लय हुआ I

जो सगुण दशा मेरे पास ही शेष रह गई, वह वामदेव ब्रह्म था I

इस अनुभव को जिस अंधकार नें भेदाघेरा हुआ था, वह शून्य ब्रह्म था I

जो शक्ति मेरे भीतर ही उफान मार रही थीं, वह शून्यात्मक ब्रह्म शक्ति थीं I

और जो इस सबका साक्षात्कार कर रहा था, वह मैं ही साक्षी मात्र, आत्मब्रह्म था I

 

और इस साक्षात्कार में…

वामदेव ब्रह्म भी सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति स्वरूप में थे I

इससे मैंन जानाअब जो मार्ग प्रारम्भ होगा, वह मेरा अंतिमपथ, ब्रह्मत्व पथ होगा I

 

और इसी साक्षात्कार में जो मैं आगे जाना, वह ऐसा ही था I

वह आत्मब्रह्म ही…

विशुद्ध अहम् था, जो अघोर ब्रह्म कहलाया है I

निष्कलंक बुद्धि था, जो सद्योजात ब्रह्म कहलाया है I

ब्रह्ममय ब्रह्मलीन मन था, जो वामदेव ब्रह्म कहलाया है I

समस्त संस्कारों से रहित चित्त था, जो तत्पुरुष ब्रह्म कहलाया है I

उस समय जो प्राण ऊर्जाएँ स्वप्रकट हुई, वह पञ्चब्रह्म गायत्री योग था I

इन समस्त भागों को जिसनें घेरा हुआ था, वही मेरे भीतर का शून्य ब्रह्म था I

इसमें जो सर्वसाक्षी था, वही स्वच्छस्फटिक के समान मैं ही था, जो ईशान ब्रह्म था I

 

और जहाँ उन ईशान ब्रह्म ने ऊपर बताई गई समस्त दशाओं को भेदा भी हुआ था और उन समस्त दशाओं को घेरा भी हुआ था I और ऐसा होता हुआ भी वह…

ईशान ब्रह्म ही मेरा वास्तविक स्वरूप, आत्मस्वरूप था I

ईशान ब्रह्म न तो इन सब दशाओं में था, और ना ही नहीं ही था I

ईशान ब्रह्म इन सबका केवल साक्षी मात्र ही था, वही एकमात्र सर्वसाक्षी था I

 

पूर्व के कुछ अध्यायों में ऐसा बताया गया था…

मूलाधार चक्र लाल और विशुद्ध चक्र नील वर्ण का ही होता है I

मूलाधार से विशुद्ध चक्रों में, नमः शिवाय के बीजाक्षर साक्षात्कार होते हैं I

ऊपर के चित्र का साक्षात्कार, शिव पंचाक्षर मंत्र की ही सगुण साकार सिद्धि है I

 

और अब कुछ सांकेतिक रूप में ही बताकर, इस भाग को समाप्त करूंगा…

यह चित्र उस दशा का द्योतक है, जिसमें साधक उन कृष्णपिङ्गल रूद्र देव के ब्रह्माण्ड को ही, उन देव में लौटने के मार्ग पर चलित हो जाता है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

समाधि मार्ग का प्रारम्भ, … जड़ समाधि, बिंदु शून्य साक्षात्कार, बिंदु शून्य क्या है, दस हाथ वाली महाकाली, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का केंद्र, मूल प्रकृति का साक्षात्कार, मूल प्रकृति क्या है, मूल प्रकृति दुर्गाः, मूल प्रकृति सर्वशक्ति:, मूल प्रकृति पराम्बा, … अणिमा सिद्धि और महिमा सिद्धि, अणिमा सिद्धि क्या है, महिमा सिद्धि क्या है, … बिंदु शून्य और दस हाथ वाली महाकाली, बिंदु शून्य और महाकाली, डार्क मैटर, … जड़ प्रकृति, प्रकृति का घोर तमोमय जड़त्व, प्रकृति का घोर तमोमय स्वरूप, प्रकृति का घोर जड़त्व, … महातम् योद्धा कौन, महातम् योद्धा का अर्थ, …

 

दस हाथ वाली महाकाली, जड़ समाधि, बिंदु शून्य, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा
दस हाथ वाली महाकाली, जड़ समाधि, बिंदु शून्य, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा

 

यह कई वर्ष पूर्व की बात है I

एक समय साधना में, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की योगदशा स्थूल शरीर से बाहर निकली I

ऐसी योगगति में सूक्ष्म शरीर के भीतर ही वह कारण शरीर बसा हुआ था I

और बाहर निकलकर वह योगदशा एक विशालकाय अंधकारमय दशा में चली गई जिसमें असंख्य काले वर्ण के बिन्दु थे I

उन बिंदुओं को देखकर उस सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की योगदशा ने सोचा… क्यों न इन बिंदुओं में से किसी एक के भीतर जाकर इनका अध्ययन करा जाए I

ऐसा सोचकर उस सूक्ष्म शरीर ने अपना आकार छोटा किया I

 

टिप्पणियाँ: कुछ बिंदु सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही बताए जाते हैं I इन टिप्पणियों में इसी को ध्यान में रखा गया है I

  • देवता और अन्य उत्कृष्ट कोटि के योगीजन इत्यादि, यहाँ बताई गई सिद्धियों को प्रकट रूप में भी पा जाते हैं I किंतु मेरी ऐसा उत्कृष्ट योगगति नहीं है, इसलिए मेरे जैसे अधम योगीजन इन्ही सिद्धियों को सूक्ष्म रूपों तक ही प्राप्त करते हैं I इसी स्वरूप में इस अध्याय सहित, इस ग्रंथ की समस्त सिद्धियां बताई गई हैं I
  • सूक्ष्म शरीर में यह विशेषता होती है, जिससे वह अपना आकार अणु के समान छोटा और ब्रह्माण्ड के समान बड़ा भी कर सकता है I
  • यहाँ कहा विशेषता का शब्द है, किन्तु यह विशेषता ही सूक्ष्म शरीर की वृत्ति कहलाती है I
  • अष्ट सिद्धि मार्ग में यही अणिमा और महिमा सिद्धि कहलाती है I
  • और इन सिद्धियों का नाता भी सूक्ष्म शरीर से ही होता है I
  • और क्यूंकि…

मैं सिद्धियों को वृत्ति ही मानता हूँ और यही मेरी योगमार्गी गति भी रही है I

इसलिए सिद्धियों को अधिकांशतः अकस्मात् ही पाकर, त्यागता भी गया I

वैसे भी मुमुक्षु को सिद्धियों से क्या लेना देना I

सिद्ध को मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना I

मुक्तात्मा, सिद्धियों से भी मुक्त होता है I

मुक्तात्मा कभी भी सिद्ध नहीं हुआ है I

सिद्ध कभी भी मुक्तात्मा नहीं होता I

निर्गुण ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष हैं I

कैवल्य सिद्धितीत दशा है I

  • जब साधक की धारणा में, वह स्थूल काया धारी साधक स्वयं को सूक्ष्म शरीर ही मान लेगा, और ऐसा ही हो जाएगा (अर्थात ऐसी धारणा में पूर्णरूपेण स्थित हो जाएगा), तब वह साधक इन दोनों सिद्धियों (अर्थात अणिमा सिद्धि और महिमा सिद्धि) का स्थूल रूप प्राप्त कर लेता है I
  • लेकिन मुमुक्षु को ऐसा क्यों करना? I
  • और यही कारण है कि इस ग्रन्थ में मैंने उन दोनों सिद्धियों के सूक्ष्मरूप के सिवा, अष्ट सिद्धि के अन्य अंग भी नहीं बताए हैं I और यह दोनों भी केवल इसलिए ही सांकेतिक रूप में बताई हैं, ताकि इस संकेत पर अष्ट सिद्धि मार्ग में जिसको आगे जाना है, वह इन संकेतों से जानकार, अपने ऐसे मार्गों में आगे जा पाएं I
  • जो जिन देवादि सत्ता का था, उनमें त्याग ही दिया, तो फिर उसको क्या विस्तारपूर्वक बताना? I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर ने स्वयं का आकार छोटा करके, उन असंख्य काले और गठे हुए बिन्दुओं में से एक बिन्दु में प्रवेश किया, वैसे ही वह जड़ सा प्रतीत होता हुआ काले वर्ण का गठा हुआ बिन्दु… जागृत हो गया I

और उस काले वर्ण के बिंदु की ऐसी दशा से उसमें से एक देवी प्रकट हुई I वह देवी ऐसी थीं…

अपने मुख्य वर्ण से नीली थीं I

वह दस हाथ वाली महाकाली थीं I

वह खड़क, मुण्ड आदि धारण करी हुई थीं I

उस नील वर्ण के भीतर, समस्त वर्ण बसे हुए थे I

आकार में वह विशालकाय थीं  और ऊर्जा में वह विकराल थीं I

प्रकट होकर उस काले वर्ण के बिंदु पर अपने एक ओर के चरण रखी हुई थीं I

ऊर्जा उनसे समस्त ब्रह्माण्ड में जा रही थीब्रह्माण्डीय ऊर्जा की वह धारक थीं I

वह देवी सर्वशक्तिमय थीं और उन सर्वशक्तिमान की सार्वभौम शक्ति भी वही थीं I

सर्वशक्तिमान उनकी गठी ऊर्जा के प्रभाव से, जड़त्व को पाकर बिंदु शून्य हुआ था I

 

और जब वह देवी उस बिंदु शून्य प्रकट हुई थीं, तब…

वही दुर्गा थीं, वही पराम्बा थीं, वही काली स्वरूप में थीं I

वही समस्त ब्रह्मरचना की मूलशक्ति स्वरूप थीं I

वही देवी अनुपम व्यापक ब्रह्माण्डीय ऊर्जा थीं I

वही देवी सर्वमाता मूल प्रकृति कहलाई थीं I

जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर ने उस बिंदु शुन्य में प्रवेश करा, ताकि वह जान सके की उस बिन्दु रूपी शून्य क्या है और उसके भीतर क्या है, वैसे ही वह विशालकाय और विकराल ऊर्जा को धारण करी हुई दस हाथों वाली देवी, जो दसों दिशाओं को दर्शाती हैं और उन दसों दिशाओं की ऊर्जाओं की भी सगुणत्मक और ऊर्जात्मक द्योतक भी हैं, वह उसी बिंदु शून्य से अकस्मात् प्रकट हुई थीं I

और जैसे ही वह देवी उस बिंदु शून्य से बाहर निकलकर प्रकट हुई, वैसे ही उनकी उस विशालकाय ऊर्जा ने उस सूक्ष्म शरीर को स्पर्श किया I

और वह स्पर्श इतना घातक था, कि वह सूक्ष्म शरीर उलटे पाँव दौड़ता हुआ अपने स्थूल शरीर में धडाम गिर गया I

और सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर में धड़ाम से गिरने के पश्चात, मेरा स्थूल शरीर कुछ समय अंतराल के लिए ही सही, लेकिन अक्रिय सा ही हो गया था I और इसी दशा में जड़ प्रकृति को जाना, अर्थात प्रकृति के तमोमय जड़त्व का साक्षात्कार किया I

 

टिप्पणियाँ:

  • सूक्ष्म शरीर गमन के समय, उस सूक्ष्म शरीर की गति ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं के कारण होती है I इस प्रक्रिया में जैसे ही वह सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर से बाहर निकलता है, वैसे ही वह ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं का आलम्बन लेने लगता है I
  • ऐसे समय पर जब सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है, तब वह सूक्ष्म शरीर एक विशेष ऊर्जात्मक परासरण प्रक्रिया से उन ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं को धारण भी करता है I और इसके पश्चात वह सूक्ष्म शरीर उन्ही ऊर्जाओं का आलम्बन लेकर गमन करता है I
  • यही कारण है कि गमन करते समय सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा, स्थूल शरीर की ऊर्जा से कहीं अधिक होती है I
  • सूक्ष्म शरीर गमन के पश्चात, जब वह सूक्ष्म शरीर अपनी स्थूल काया में लौटने लगता है, तो वह सूक्ष्म शरीर अपनी स्थूल काया के समीप आकर, कुछ समय के लिए रुक जाता है I
  • इस समय पर वह सूक्ष्म शरीर अपनी ऊर्जा को न्यून दशा में लाता है ताकि जब वह स्थूल काया में पुनः लौटे, तब स्थूल काया को उस अधिक ऊर्जा से कोई झटका न लगे I
  • इसलिए, यदि वह सूक्ष्म शरीर ऐसा बिना किए हुए स्थूल शरीर में लौट जाएगा, तो स्थूल शरीर को ऊर्जा का झटके लगेगा I
  • और इस प्रक्रिया में यदि वह स्थूल शरीर कुछ अधिक ही स्तम्भित हो गया, तो उसकी मृत्यु भी हो सकती है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यहाँ बताई गई स्थिति से उस साधक के लिंग और गुदा सहित, समस्त शरीर में उस अधिक ऊर्जा का एक विप्लवकारी विस्फोट ही हो जाएगा, जिसे स्थूल शरीर ऐसा स्तम्भित हो जाएगा कि उस साधक की मृत्यु भी हो सकती है I
  • ऐसे समय पर उस स्थूल शरीर को ऐसा लगेगा, जैसे उसके भीतर कुछ बाहर की कोई बड़ी सी वस्तु अथवा दशा, धड़ाम से गिर गई है I इसीका न्यून स्वरूप तब होता है जब गहरी सुसुप्ति से किसी को हिलाकर उठाया जाता है I
  • ऐसा ही धड़ाम उस समय हुआ था, जब वह सूक्ष्म शरीर दौड़ता हुआ स्थूल शरीर में धड़ाम से गिर गया था I
  • इस साक्षात्कार के समय, सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर में ऐसे गिरने के पश्चात, कुछ समय के लिए मेरा स्थूल शरीर स्तम्भित सा ही हो गया था , जिससे मेरी चेतना तो मेरे पास ही थी, किन्तु मेरा शरीर निष्क्रिय सा ही हो गया था I
  • महाकाली के साक्षात्कार के समय, साधक के स्थूल शरीर की इसी दशा को सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन माँ काली के चरणों के नीचे शिव के मूर्छित अक्रिय स्वरूप में बताया जाता है I और ऐसा ही इस भाग के चित्र में भी दिखाया गया है I
  • और उस घनघोर जड़त्व की दशा में, जिसमेँ मैं अकस्मात् ही पहुँच गया था, मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा था, जैसे कोई घनघोर तमोमयी और समस्त जीव जगत हो पूर्णरूपेण स्तम्भित करने वाली और संपूर्ण मूल ब्रह्माण्डीय जड़त्व को धारण करी हुई ऊर्जा, अपने सगुण साकार किन्तु एक विचित्र शरीरी स्वरूप में मेरी छाती पर चढ़ कर खड़ी हो गई है I और मैं उस ऊर्जा को एक काली घोर तमोमय दशा के भीतर से वैसे ही देख रहा हूँ, जैसा इस भाग के चित्र में दिखाया गया है I

 

अब ऊपर बताए गए बिंदुओं को आधार बनाकर आगे बढ़ता हूँ…

और जड़ प्रकृति, मूल प्रकृति, तम (तमस) और और जड़ समाधि को बताता हूँ I किन्तु इस भाग को मैं कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप में ही बतलाऊँगा I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि समाधि के प्रकार में यह यह समाधि है जिसकी कोई समय सीमा नहीं होती I

जो योगी एक बार भी इसमें पूर्णतः चला गया, वह कई सहस्र वर्षों और इससे भी अधिक समय के लिए ही चला गया I इसलिए इन बताए जा रहे बिंदुओं पर विशेष ध्यान देना…

जड़ के मूल में ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ होती हैं I

चेतन सर्वव्यापक है और जड़ बिन्दुरूप में है I

चेतन ही जड़ को भेदता है और घेरा भी होता है I

जड़ और चेतन के योग को ब्रह्म रचना कहा जाता है I

जड़ के भीतर और बाहर, दोनों दशाओं में चेतन ही होता है I

जड़ के भीतर चेतन बसा होता हुआ भी, स्पष्ट रूप में नहीं होता है I

विशालकाय अंधकारमय दशा में वह जड़ असंख्य बिंदु रूपों में होता है I

ब्रह्माण्ड में जड़ भी उतना ही व्यापक होता है, जितना व्यापक चेतन होता है I

इसलिए, जड़ समाधि में योगी, जड़ रूपी तमोमय प्रकृति को भी व्यापक पाएगा I

और उस व्यापक घनघोर तमोमयी प्रकृति में योगी, पूर्णस्तम्भित होकर रह जाएगा I

 

अब जड़ के उदय के बारे में बताता हूँ…

जब ब्रह्माण्ड के किसी भाग की ऊर्जाओं पर उस भाग से बाहर की ऊर्जाओं का बहुत अधिक दबाव पड़ता है, तब वह ऊर्जाएं संकुचित होने लगती हैं I

यदि यह दबाव शनैः शनैः बड़ेगा, तो ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म और स्थूल पदार्थ और दशाओं आदि की उत्पत्ति होती है I जब यह उत्पन्न हुई दशाएँ एक स्थान पर इकट्ठी हो जाती हैं, तब ग्रह, नक्षत्र, आकाश गंगा आदि का निर्माण हो जाता है I

और यदि यह दबाव अकस्मात् ही (अर्थात झटके से) एक बहुत बड़े स्थान पर और बहुत बड़ी मात्रा में और बहुत कम समय में ही आ जाएगा, तो उस स्थान की ऊर्जाएं झटके से संकुचित हो जाती है I इस स्थिति में बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जाएँ बहुत कम समय में ही बहुत अधिक संकुचित होती हैं और जब ऐसा होता है तो वह अतिविशालकाय ऊर्जा एक बिंदु रूप धारण कर लेती है I

वह विशालकाय ऊर्जा जो संकुचित होकर बिंदु स्वरूप में आई थी, उसका वर्ण काला हो जाता है I काला वर्ण यही दर्शाता है, कि उस काले रंग में सभी रंग स्थापित हो गए हैं I पृथक ऊर्जा पृथक वर्ण की होती है और जब सभी वर्ण आपस में मिलते हैं, तो एक काले, अंधकार जैसे वर्ण का उदय हो जाता है और यही कारण है कि ब्रह्माण्ड में भी इसी अंधकार में ही सब कुछ बसा हुआ है I

जैसे जब सभी रंगों को मिलाया जाता है, तो काला रंग निकलता है, वैसे ही जब ब्रह्माण्ड के किसी बड़े भाग की ऊर्जाओं को संगठित करके, उनको अकस्मात् ही संकुचित कर दिया जाता है, तब वह ऊर्जाएं एक काले बिंदु रूप में आती है I और उस बिंदु का आकार भी एक काले जामुम के अनुरूप सा ही होता है I यही वह बिंदु शून्य है I

 

टिप्पणियाँ:

  • वही बिंदु स्वरूप हमारे शरीर में भी होता है I
  • मेरुदण्ड के नीचे के भाग में एक काले जामुन जैसी दशा होती है, जो कुण्डलिनी जागरण के समय प्रकट भी होती है I
  • यही कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का मूल होता है और इसी काले जामुन जैसी दशा से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है I
  • यह काला जामुम जिसके बारे में योग मनीषियों ने बताया है, हमारे शरीर के भीतर बसी हुई जड़ प्रकृति हैं I
  • और उन्ही जड़ प्रकृति के जाग्रित स्वरूप को कुण्डलिनी शक्ति कहा जाता है I
  • वैसे मेरुदण्ड के सबसे नीचे केभाग में एक काले वर्ण का चक्र भी होता है जो कुण्डलिनी चक्र कहलाया गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश आज इसका ज्ञान लुप्त हो गया है I
  • और इसी कुण्डलिनी चक्र से वह कुण्डलिनी, साधक के चरण तक प्रभाव लाती है और चरणों से ऊर्जा को ऊपर की ओर भी खींचती है I
  • यही कारण है कि जब कुण्डलिनी पूर्ण जागृत होती है, तो चरणों तक उस प्रक्रिया का प्रभाव आता ही है I और इस प्रभाव के मूल में भी यही कुण्डलिनी चक्र है I

 

ब्रह्म रचना के उदय और चलित होने के पश्चात, जैसे-जैसे ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं के प्रभाव में आकर उस निर्माण होते हुए (और निर्मित हुए) ब्रह्माण्ड में यह बिंदु शून्य प्रकट जाते हैं, वैसे-वैसे यह बिंदु व्यापक भी होते जाते हैं I

यह बिंदु एक विशालकाय अंधकारमय दशा में ही निवास करते हैं और जहाँ वह विशालकाय दशा ही शून्य है जो अनंत होता है, और इसके साथ वही विशालकाय दशा वह अनंत भी है जो शून्य हुआ है I

ब्रह्माण्ड में यह बिंदु शून्य असंख्य ही होते हैं, और इन सभी की एकमात्र ऊर्जात्मक दिव्यता हैं और जो माँ महाकाली ही है I

 

इसी अंधकारमय शून्य अनंत में, जो अनंत शून्य ही होता है, यह बिंदु रूपी शून्य निवास कर रहे होते हैं I

बिंदु शून्य को ही जड़ प्रकृति कहा जाता है I

बिंदु शून्य की समाधि को जड़ समाधि कहा जाता है I

 

अब जड़ प्रकृति के शब्द के बारे में बताता हूँ…

जबतक उस बिंदु शून्य पर उससे बाहर की ऊर्जाओं का दबाव बना रहता है, तबतक वह बिंदु शून्य अपने इसी स्वरूप में ही रहता है I

और जा उस बिंदु शून्य पर, उस बिंदु शून्य से बाहर की ऊर्जाओं का दबाव न्यून होता है, तब एक दशा ऐसी आती है जिसमें वह बिंदु शून्य के भीतर की संकुचित ऊर्जा, एक भयंकर विस्फोट के साथ, उस संकुचित दशा को त्यागती है I और जैसे ही ऐसा होता है, तो उसी बिंदु शून्य से वही विशालकाय ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है, जो किसी पूर्वकाल में भयंकर रूप से संकुचित होकर, बिंदु शून्य स्वरूप में आई थी I

जब बाहर की ऊर्जाओं का दबाव कम होता है और वह बिंदु शून्य के भीतर की संकुचित ऊर्जा का विस्तार होने लगता है, तब इसी प्रक्रिया में जब वह ऊर्जा फ़ैल रही होती है, तो पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत का उदय होता है I और जब यह पञ्च महाभूत इकट्ठे होने लगते हैं, तो इसी प्रक्रिया में पृथक पृथक द्रव्यों और स्थूल भूतों का उदय होने लगता है I और जहाँ यह उदय क्रम भी आकाश महाभूत से वायु महाभूत, से अग्नि महाभूत, से जल महाभूत, से पृथ्वी महाभूत में जाकर ही स्थित होने लगता है I

जब ब्रह्माण्ड के किसी भाग का उदय होता है, तब उस उदय के मूल में भी यही बिंदु शून्य पाया जाता है I

 

इसलिए…

  • जब ऊर्जाएं संकुचित होंगी, तो वह एक काले वर्ण के बिन्दु रूप में आ जाएंगी I
  • और जबतक उस बिंदु शून्य पर बाहर को ऊर्जाओं का दबाव रहेगा, तबतक वह बिन्दु रूप में ही रहेगा I
  • और जब वह बाहर का दबाव कम हो जाएगा, तो उसी बिंदु शून्य से एक नए लोकादि का उदय हो जाएगा I यदि ऐसा नहीं होता तो उस बिंदु शून्य की ऊर्जा ब्रह्माण्ड में ही ऊर्जा स्वरूप में रहेगी I
  • क्यूंकि ब्रह्माण्डीय दशाओं के उदय के मूल में यह बिंदु शून्य ही है, इसलिए इसको मूल प्रकृति कहा जाता है I

और क्यूंकि यह बिंदु शून्य, ऊर्जाओं के बहुत अधिक संकुचित स्वरूप में ही होता है, और इस संकुचित स्वरूप के भीतर प्रकृति का मूल जड़त्व होता है, इसलिए इसको जड़ प्रकृति कहा जाता है I प्रकृति का जड़त्व एक अतिसंकुचित ऊर्जा है, जिसके एक बिंदु के भीतर ही बहुत बड़ी मात्रा में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा गठित हुई है I

 

और क्यूंकि…

ऊर्जा ही मूल हुई है I

मूल ही जड़ कहलाया है I

मूल का कोई मूल नहीं होता I

और मूल ही स्वयं का मूल होता है I

ऐसा होने के कारण, मूल ही अमूल होता है I

उस अमूल मूल से ही गंतव्य मार्ग प्रशस्त होता है I

इसलिए जब किसी स्थान पर कोई ऊर्जा संकुचित होकर बिंदु शून्य के स्वरूप में आएगी, तो इसी प्रक्रिया के कारण, ब्रह्माण्ड के किसी और स्थान पर कोई बिंदू शून्य पर बाहर की ऊर्जाओं का दबाव भी कम हो जाएगा I

और ऐसा होने से उस किसी और ब्रह्माण्डीय स्थान पर, कोई बिन्दु शून्य अपनी ऊर्जा स्वरूप में प्रकट हो जाएगा और इस प्रक्रिया से कोई और द्रव्य, स्थूलादि पदार्थ, लोकादि अथवा किसी ऊर्जात्मक दशा का निर्माण भी हो जाएगा I

जब किसी बहुत विशालकाय ऊर्जा पर बाहर का अधिक दबाव आता है, तब उस विशालकाय ऊर्जा के क्षेत्र में जो भी सूक्ष्म और स्थूल भूत होते हैं, वह भी उसी दवभाव में आते हैं I इस दबाव के कारण वह स्थूलभूत भी संकुचित होकर, उसी उदय होते हुए बिन्दु शून्य में प्रवेश करके, वही बिंदु शून्य ही हो जाते हैं I

 

इस ब्रह्म रचना में…

ऊर्जा ही माँ महाकाली हैं I

तात्विक चेतन पदार्थ गुरु शिव हैं I

शिव, शक्तिमान हैं और ऊर्जा, शक्ति हैं I

शक्ति के बिना शिव, शक्तिमान भी नहीं हो सकते I

शक्तिमान की सार्वभौम शक्ति ही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा कहलाई हैं I

शक्तिमान के मूल में शक्ति है, और शक्ति के स्वरूप में ही शिव हैं I

शक्ति के गंतव्य में शक्तिमान हैं, और शक्ति भी शक्तिमान स्वरूप में ही हैं I

 

और…

ब्रह्माण्ड ही शिव है I

शिव ही ब्रह्माण्ड हुए हैं I

ब्रह्मरचना ज्ञानचेतन शिव ही हैं I

ब्रह्माण्ड में ज्ञान और चेतन शिव ही हैं I

शक्ति के जड़त्व को अपनाकर ही शिव पदार्थ रूप में हैं I

अस्थायी पदार्थ रूप में आकर भी शिव, ज्ञानचेतन ही रह गए हैं I

शक्ति के भीतर शक्तिमान ही ज्ञान चेतन स्वरूप में निवास करता है I

शक्तिमान के भीतर ही शक्ति अपने शिव क्रियामय स्वरूप में निवास करती हैं I

ज्ञान, चेतन और क्रिया, तीनों शिवात्मक ही हैं, शिवत्व के मार्ग हैं, और शिव ही हैं I

 

और…

पदार्थ और ऊर्जा अंतरपरिवर्तनीय हैं I

शिव ही शक्ति, और शक्ति ही शिव हैं I

पदार्थ के मूल में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा होती है I

पदार्थ के गंतव्य में भी वही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा है I

ब्रह्माण्ड को गति प्रदान करने वाली भी ऊर्जा ही है I

ब्रह्माण्ड के मूल, प्रकट और प्रलय प्रक्रियाओं में भी ऊर्जा है I

ऊर्जा जिन ज्ञानचेतन का आलम्बन लेकर ऐसी हुई हैं, वही शिव हैं I

ऊर्जा जिस ब्रह्माण्ड में गतिशील है, जो उसका ही प्रकट स्वरूप है, वह शिव है I

जिसका संग पाकर ऊर्जा क्रियाशील होती, जो ऊर्जा की आत्मा ही हैवही शिव है I

वह ज्ञान चेतन शिव, जड़ से लेकर जो कुछ भी ब्रह्म रचना में है, सबकुछ हुआ है I

 

ऐसा होने के कारण भी ब्रह्म रचना में…

उत्पत्ति भी उतनी सनातन और अखण्ड है, जितना सनातन अखण्ड ब्रह्म है I

स्थिति भी उतनी ही सनातन और अखण्ड है, जितना सनातन अखण्ड ब्रह्म है I

संहार भी उतना ही सनातन और अखण्ड होता है, जितना सनातन अखण्ड ब्रह्म है I

निग्रह भी उतनी सनातन और अखण्ड होता है, जितना सनातन अखण्ड ब्रह्म है I

अनुग्रह भी उतना ही सनातन और अखण्ड है, जितना सनातन अखण्ड ब्रह्म है I

 

और जहाँ इस ब्रह्म रचना में…

उत्पत्ति स्थिति संहार निग्रह और अनुग्रह भी एक दुसरे के पूरक हैं I

स्थिति के परिधान में उत्पत्ति संहार निग्रह और अनुग्रह चालित होता है I

संहार के परिधान में ही स्थिति उत्पत्ति निग्रह और अनुग्रह फलित होता है I

संहार के पश्चात, निग्रह के भीतर उत्पत्ति स्थिति और अनुग्रह निवास करते हैं I

सर्वव्यापक अनुग्रह के परिधान में ही, उत्पत्ति स्थिति संहार और निग्रह बसे हुए हैं I

यह सब ज्ञान भी उसी जड़ समाधि के मार्ग, उसकी दशा में बसकर (अर्थात जड़ ही होकर) और उस दशा से बाहर निकलने की प्रक्रिया से चिंतन, मनन, अवलोकन आदि प्राप्त होता है I

इसलिए जो कहते हैं, कि जड़ समाधि में कुछ ज्ञान नहीं होता है, मैं उन सबसे सहमत भी नहीं हूँ क्यूंकि मेरे साधनामय समाधिमय प्रत्यक्ष अनुभवों में उनकी यह बात सिद्ध ही नहीं होती I

 

अब आगे बढ़ने से पहले, पूर्व में बताए गए उस काले जामुन का के आकार के अनुपात बताता हूँ…

ब्रह्माण्ड में उस बिंदु शून्य से लेकर, जो भी विशालकाय खगोलीय दशाएं हैं, जैसे कोई आकाश गंगा, उनके आकार का अनुपात ऐसा ही पाया जाएगा I

लम्बाई : चौड़ाई :ऊँचाई (गहराई) = 1.08 : 1.00 : 0.170315 (लम्बाई की तुलना में) I

इसी अनुपात में सभी आकाश गंगा, पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र का आकार भी होता है I

और इसी अनुपात में वह काला जामुन भी होता है जो मूलाधार चक्र के समीप पड़ा हुआ होता है और साधक की काया के भीतर उन जड़ प्रकृति अर्थात मूल प्रकृति को दर्शाता है और जिसकी ऊर्जाएं जब जागृत होती हैं, तो वही माँ कुण्डलिनी कहलाती हैं I

और इसी अनुपात में ही वह बिंदु शून्य भी होते हैं, जिनका वर्णन यहाँ पर किया गया है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और महातम् योद्धा के बारे में बताता हूँ…

इस भाग को भी मैं बिन्दु रूप में ही बतलाऊँगा…

जो तमस पर विजय पाया है, वही ब्रह्माण्ड सम्राट कहलाता है I

जो तम का विजयी है, वह ब्रह्माण्ड पर ही अपना साम्राज्य बनाएगा I

ऐसे महातम योद्धा को ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं, सम्राट शब्द से पुकारती हैं I

ऐसे महातम योद्धा की विजय गाथा के मूल में, माँ मूलप्रकृति ही पाई जाएंगी I

वह मूलप्रकृति भी जड़ प्रकृति की ऊर्जा को धारण करी हुई, माँ महाकाली ही होंगी I

ऐसा योगी एक बार तो अवश्य ही माँ महाकाली की ऊर्जा से, स्तम्भित हुआ होगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और इस जन्म और पूर्व जन्मों के ज्ञान के आधार पर कुछ बिन्दु बताता हूँ…

मैं एक प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ और इसी कारणवश, अपने पूर्व जन्मों के ज्ञान, सिद्धियों और परंपराओं का धारक भी हूँ I और इस भाग में उन पूर्व जन्मों के आधार पर ही कुछ बता रहा हूँ I

जब योगी उस बिंदु शून्य में प्रवेश करता है, तब वह जड़ समाधि को पाता है I

जड़ समाधि में जाकर वह योगी, उसी में कई सहस्र वर्षों तक भी रह सकता है I

मेरे एक पूर्व जन्म में मेरी भी ऐसी ही दशा हुई थी और जब मैं उस समाधि से बाहर आया था, तब तक तो दसियों सहस्र वर्ष व्यतीत हो चुके थे I

और उस समय का वह लोक वह था ही नहीं, जैसा तब था जब मैं कई दसियों सहस्र वर्ष पूर्व उन सर्वमाता जड़ प्रकृति में योगमार्ग का आलम्बन लेकर जड़ समाधि ही प्रवेश किया था I

किन्तु इस जन्म में ऐसा नहीं हुआ, क्यूंकि एक जीव अपने संपूर्ण जीव काल में अधिकांशतः एक बार ही जड़ में जाते हैं I अधिकांश जीव एक बार से अधिक इसमें नहीं जाते हैं I कोई विरला योगी ही होगा जो अपने सम्पूर्ण जीव इतिहास में एक से अधिक बार जड़ समाधि को पाया होगा  I इसीलिए जब इस बार मैं जड़ में गया, तो माँ महाकाली को मेरा मूल प्रकृति में गति करना स्वीकार नहीं हुआ था I

और हो सकता है, कि इसी कारणवश वह अपने विकराल दस हाथ वाले स्वरूप में, जो समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का ही द्योतक होता है, उसमें प्रकट हो गई थीं और उनकी ऊर्जा ने मेरे उस सूक्ष्म शरीर को इतना विकराल झटका मारा कि वह उलटे पाँव दौड़ता हुआ स्थूल काया में धड़ाम से गिर गया I

ऐसे गिरने से वह जड़ को ही प्राप्त हुआ, किन्तु वह जड़ घन्घोर नहीं थी I इसलिए उससे मैं कुछ समय में ही सही, लेकिन बाहर निकल आया (और सहस्त्रों वर्षों तक उसी में नहीं रह गया) I

यह दशा बस वैसी ही थी जैसे शास्त्रों में बताया जाता है, कि माँ काली ने शिव को मूर्छित करके, उनके ऊपर अपना चरण रख दिया और इसके पश्चात जब उनको पछतावा हुआ, तो उन्होंने अपनी जिह्वा बाहर निकाल ली I

शास्त्रों  में बताई गई यह कथा योगमार्ग का अंग ही है… क्यूंकि योगी के साथ ऐसा ही होता है जब वह योगी उस बिंदु शून्य में प्रवेश करने के प्रयास करता जिसकी दिव्यता (शक्ति) दस हाथ वाली माँ काली है और ऐसी दशा में वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को ही दर्शाती है, और जो दसों दिशाओं में समानरूपेण व्यापक होती है, और इक्कीस शून्यों में और उन इक्कीस शून्यों से संबद्ध ब्रह्मलोक तक पूर्णरूपेण चलित हो रही होती है I

तो अब सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन मैंने जड़ समाधि से पाइ हुई सिद्धिय के बारे में कुछ तो बता ही दिया I

 

और इसी जड़ समाधि के अंत में…

यह जड़ समाधि शाक्त मार्ग की सिद्धि है I

इस मार्ग में वह गुरुमाई शक्ति ही परमगुरु शिव होती है I

इसलिए साधक को गुरुमाँ शक्ति को गुरुशिव मानकर इस मार्ग में जाना चाहिए I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

शून्य क्या है, शून्य किसे कहते हैं, शून्य का स्वरूप, शून्य साक्षात्कार का स्थान, शून्य समाधि क्या है, शून्यता की मध्यवर्ती अवस्थाएं, शून्यता की मध्यवर्ती अवस्था, शून्य की मध्यवर्ती अवस्थाएं, शून्य की मध्यवर्ती अवस्था, शून्य की मध्यान्तर दशाएं, शून्य की मध्यान्तर दशा, शून्य के प्रकार, शून्य के प्रभेद,  …  

इस भाग को भी कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप में बताया जाएगा, इसलिए यहाँ बताए गए बिंदुओं पर भी विशेष ध्यान देना I

प्रकृति ही सर्वमाता हैं I

प्रकृति ही सार्वभौम देवी हैं I

वह देवी ही एकमात्र गुरुमाई हैं I

देवी ही देवत्व और उसका मूल हैं I

देवी ही अपरा, परा, अव्यक्त और शून्य हैं I

ब्रह्म की प्राथमिक शक्तिमय अभिव्यक्ति ही प्रकृति है I

सर्वमाता शक्तिमय प्रकृति की मूलदशा ही शून्य कहलाती हैं I

इसलिए इस भाग का मार्ग भी शाक्त परंपरा का ही अंग है I

 

और इसके अतिरिक्त…

शून्य से ही जीव जगत प्रारम्भ हुआ है I

अंततः उसी शून्य में ही यह जीव जगत लय होगा I

इसलिए इस जीव जगत के मूल में शून्य ही पाया जाता है I

और इस जीव जगत के अंत में भी वही शून्य साक्षात्कार होता है I

और समस्त उत्कर्ष मार्ग भी इसी शुन्य साक्षात्कार से होकर ही जाते हैं I

अपने मूल, मार्ग और अंत स्वरूपों में, वह शक्ति रूपी मूलप्रकृति ही उत्कर्ष पथ हैं I

इसलिए जब योगी शून्य का साक्षात्कार करता है, तब वह अपने अब तक चले आ रहे जीव रूप के अंत होने के मार्ग पर ही चलित हो जाता है I

जिस योगी ने शून्य ही नहीं जाना, वह उत्कर्ष पथ पर सफलतापूर्वक गया हुआ भी नहीं माना जा सकता है I

 

और इसके अतिरिक्त…

समस्त स्थूल, सूक्ष्म और कारण दशाओं को भी इसी शून्य ने भेदा और घेरा है I

जीव जगत में कोई दशा है ही नहीं, जिसको शून्य ने भेदा और घेरा नहीं हुआ है I

योगमार्ग का कोई साक्षात्कार है ही नहीं, जो शक्तिमय शून्य से होकर नहीं जाता I

इसलिए योगमार्ग के समस्त मार्गों में, शून्य साक्षात्कार किया ही जाता है I

 

और इसके अतिरिक्त…

शून्य साक्षात्कार शाक्त मार्ग का ही अंग है I

शून्यात्मक शक्ति ही समस्त उत्कर्ष मार्गों की मूल हैं I

जब योगी शून्य होगा, तब ही अनंत के साक्षात्कार का पात्र हो पाएगा I

शक्ति के आलम्बन से योगबल, तपबल, साधनाबल, जपबल आदि सिद्धि होती है I

शक्ति के आलम्बन से अंततः आत्मबल सिद्धि होगी, जिसमें योगी ही देवी होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

शून्य ही मूल शक्ति है I

शक्ति में कोई लिंग भेद नहीं होता I

शक्ति पुरुष भी है और नारी भी वही शक्ति है I

शक्ति भूचर, जलचर और नभचर सहित सर्वचर ही होती है I

और अपने शून्य रूप में, वही शक्ति न चर और न ही अचर होती हैं I

ऐसी होती हुई भी उसी न चर और न अचर शक्ति में, सब चर और अचर बसे हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

शून्य ने ही समस्त ब्रह्माण्डीय दशाओं को भेदा और घेरा हुआ है I

जब योगी किसी दशा में जाएगा, तो उस दशा को शून्य में बसा हुआ ही पाएगा I

यह बिंदु योगमार्ग के साक्षात्कारों का एक मुख्य बिंदु है I

पर इसका साक्षात्कार भी तब ही होगा, जब योगी किसी दशा के साक्षात्कार के पश्चात, उस दशा में बस जाता है और इसके पश्चात वह उस दशा से आगे जाने लगता है I

जब योगी उस पूर्व की दशा से किसी आगे की दशा में जाना प्रारम्भ करेगा और इस स्थिति में जब वह उस पूर्व की दशा को अपनी धारणा में ही त्याग देगा, तब वह उस पूर्व की दशा को इसी शून्य में बसा हुआ पाएगा I और इसी शून्य से आएगी जाकर, वह योगी उस पूर्व की दशा से अगली दिशा में जा पाएगा I

जीवन और मृत्यु की मध्यान्तर दशा में यही शून्य होता है I

बंधन और मुक्ति की मध्यान्तर दशा में भी यही शून्य होता है I

उत्कर्ष पथ के पृथक साक्षात्कारों के मध्य में भी यही शून्य होता है I

ब्रह्माण्ड की समस्त दशाओं को शून्य ने ही एक दुसरे से पृथक करके रखा है I

शून्य साक्षात्कार का मार्ग भी, सर्वसम ब्रह्म से सम्बद्ध धारणा से होकर जाता है I

योगमार्ग के साक्षात्कारों में यह एक व्यापक बिंदु ही होता है I

 

और ऐसे साक्षात्कार के कारण, वह योगी ऐसा ही कहेगा…

प्राणात्मिका ही ब्रह्मशक्ति, देवी हैं I

प्राणात्मिका देवी ही यह जीव जगत हुई हैं I

देवी के मूल शून्यात्मक रूप में ही सबकुछ बसा है I

देवी की मूलप्रकृति स्वरूप ऊर्जा ही सबकुछ चलायमान रखती है I

और वास्तविकता में यह जीव जगत भी उनके समान शून्यात्मक ही है I

शून्यात्मक हुआ भी यह जीव जगत उनकी शक्ति से ही चलायमान हो रहा है I

उत्कर्ष पथ में ज्ञान चेतन शिव हैं, और उत्कर्ष क्रिया स्वरूप में शिव शक्ति ही हैं I

और उस उत्कर्ष पथ में यह शिवात्मिका शक्ति ही अमृत कलश (कुम्भ) रूप में हैं I

 

इस शून्य साक्षात्कार की समाधि दशा में…

योगमार्ग में शून्य एक अंधकारमय दशा ही है I

साधक स्वयं को एक अंधकारमय दशा में बैठ हुआ पाएगा I

और उस शून्य में शून्य रूप होकर ही वह साधक बैठा हुआ होगा I

ऐसा होने से, उस साधक को शून्य के ज्ञान के सिवा, और कुछ नहीं प्राप्त होगा I

और जब साधक उस शून्य से बाहर आएगा, तब ही वह उस शून्य का ज्ञानमय चिंतन मनन आदि करके, उस शून्य को जान पाएगा I

 

टिप्पणियाँ:

  • शास्त्र की स्पष्ट वाणी है, कि माता पिता ही प्रथम गुरु होते हैं I
  • मैं यह भी मानता हूँ, कि जैसे-जैसे बालक अथवा बालिका बड़े होते हैं, वैसे वैसे माता पिता में वह पुत्र अथवा पुत्री अपने परमसखा को ही देखता हैं I
  • शास्त्र यह भी (और भी) कहता है, कि सगुण रूप में भी भगवान् होते हैं I
  • और शास्त्र तो यह भी कहता है, कि गुरु ही माता पिता, ज्येष्ठा ज्येष्ठ, सखा और भगवान् होते हैं I
  • तो इस जन्म में यही सब बिंदु मेरी प्रेरणा थे, और जहाँ तक मुझे स्मरण में आता है, ऐसा ही समस्त पूर्व जन्मों में भी रहा है I
  • जबसे बालक रूप में था, तभी से पापा को एक गाना गाते हुए सुना था, जो ऐसा था…

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है I

 

  • जैसे जैसे आयु बड़ी हुई, यही गाना बार बार पापा की वाणी में सुनता गया और यह गान मेरे मन में ऐसा बैठ गया, कि जब मैं शून्य जो जानने का पात्र बना, तो इसी गान के आधार उस शून्य को ही नहीं, बल्कि, शून्य अनंत और निर्बीज को भी जाना I
  • इसी आधार मैं यह कह रहा हूँ, कि…

अपनी आंतरिक दशा में शून्य होकर ही योगी शून्य साक्षात्कार करता है I

जो अपनी आंतरिक दशा में ही शून्य नहीं, वह शून्य समाधि भी नहीं पाएगा I

 

  • शून्य समाधि ही योगमार्ग का वह प्रथम पड़ाव होती है, जिसका आलम्बन लेकर योगी बहुत आगे तक जाता है I इसलिए जो बौद्ध पंथ और उनके मनीषीगण कहते हैं कि शून्य ही अंतिम साक्षात्कार है, वह योगमार्ग के गंतव्य तक गए हैं… ऐसा माना ही नहीं जा सकता है I
  • ऐसा होने का भी वही कारण है, जो पूर्व के अध्याय में बताया था, कि…

तुम वही हो जिसका तुमनें साक्षात्कार किया है I

तुम वही हो जाओगे जिसके साक्षात्कार का तुम पात्र हुए हो I

बिना वह हुए, तुम उसवह का साक्षात्कार भी नहीं कर पाओगे I

जबकि यहाँ कहे गए वाक्य स्पष्ट ही प्रतीत होंगे, किन्तु यह सांकेतिक भी हैं I

और योगमार्ग में यह एक ऐसा अकाट्य सत्य है, जो उत्कर्ष मार्ग के रूप में सर्वव्यापक ही पाया जाएगा I

 

  • इसीलिए योगीजन कह गए थे कि…

ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I

ब्रह्म का ज्ञाता ही ब्रह्म होता है I

जो ब्रह्म का ज्ञाता है, वही ब्रह्म होता है I

जो ब्रह्म ही नहीं है, वह ब्रह्म का ज्ञाता भी नहीं होगा I

यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म ही हो जाओ I

क्यूंकि इस जीव जगत में जो भी है, वह ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है, और क्यूँकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक भी नहीं होती है, इसलिए यहाँ शब्द तो ब्रह्म कहा गया है, किन्तु वह ब्रह्म का शब्द सबकुछ दर्शा रहा है I इसलिए योगमार्ग में ऊपर बताए गए वाक्यों की सत्यता, योग मार्ग के समस्त पड़ावों और उनके साक्षात्कारों में व्यापक ही पाई जाएगी I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

उस शून्य समाधि के की ज्ञानात्मक अवलोकन में, साधक ऐसा ही कहेगा…

न मन रहा न बुद्धि रहीन चित्त रहा न अहंकार रहा I

मैं मन शून्य हुआ, बुद्धि शून्य हुआ चित्त शून्य हुआ, मैं अहम् शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भूत रहा न तन्मात्र रहाना महत रहा न गुण रहा I

मैं भूत शून्य हुआ, तन्मात्र शून्य हुआ महत शून्य हुआ, मैं गुण शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न दिशा रही न दशा रहीना प्रारम्भ रहा न अंत रहा I

मैं दिशा शून्य हुआ, दशा शून्य हुआ, प्रारम्भ शून्य हुआ, मैं अंत शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न कर्म रहा न फल रहाना संस्कार रहा न इंद्रिय रही I

मैं कर्म शून्य हुआ, फल शून्य हुआ, संस्कार शून्य हुआ, इंद्रिय शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न जीव रहा न जगत रहाना पिण्ड रहा न ब्रह्माण्ड रहा I

मैं जीव शून्य हुआ, जगत शून्य हुआ, पिण्ड शून्य हुआ, ब्रह्माण्ड शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न सिद्धांत रहा न तंत्र रहाना न्याय रहा न नियम रहा I

मैं सिद्धांत शून्य हुआ, तंत्र शून्य हुआ, न्याय शून्य हुआ, नियम शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न धर्म रहा न अर्थ रहाना काम रहा न मुक्ति भेद रहे I

मैं धर्म शून्य हुआ, अर्थ शून्य हुआ, काम शून्य हुआ, भेद शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

 न वर्ण रहा न गोत्र रहान परंपरा रही न संप्रदाय रहा I

मैं वर्ण शून्य हुआ, गोत्र शून्य हुआ, परंपरा शून्य हुआ, संप्रदाय शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भाव रहा न इच्छा रही न आशा रही न राग रहा I

मैं भाव शून्य हुआ, इच्छा शून्य हुआ, आशा शून्य हुआ, राग शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न आधार रहा न अधिष्ठान रहान आमिष रहा न पुर रहा I

मैं आधार शून्य हुआ, अधिष्ठान शून्य हुआ, आमिष शून्य हुआ, पुर शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भय रहा न चिंता रहान बंधु रहा न उपाधि रही I

मैं भय शून्य हुआ, चिंता शून्य हुआ, बंधु शून्य हुआ, उपाधि शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न असत् रहा न भ्रांति रहीन रचना रही न रचित रहा I

मैं असत् शून्य हुआ, भ्रांति शून्य हुआ, रचना शून्य हुआ, रचित शून्य हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

आगे बढ़ता हूँ…

 

अब शून्य समाधि का मार्ग बताता हूँ…

जब साधक की चेतना सहस्रार पर जाती है, और उस सहस्रार को पार करती है, तब साधक को शून्य समाधि की प्राप्ति स्वतः ही हो जाती है I

ऐसी दशा में साधक की चेतना जिस मार्ग से जाती है, वह ब्रह्मरंध्र का है I

ब्रह्मरंध्र के भीतर तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, और यह तीनों चक्र एक के ऊपर एक स्थित होते हैं I

इन तीन चक्रों में से सबसे ऊपर का चक्र, षड् दल कमल होता है I इसी षड्दल कमल को ही मनस चक्र कहा जाता है, अर्थात मन का चक्र कहा जाता है I

इस मनस कमल के साक्षात्कार के समय, इस कमल के छह पत्ते श्वेत वर्ण के होते हैं और उस श्वेत वर्ण को एक हलके नीले वर्ण ने घेरा हुआ होता है I और यह कमल की संपूर्ण दशा को एक अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है, जो शून्य है I

जब साधक की चेतना, इस मनस चक्र को पार करती है और उस शून्य में चली जाती है, तब ही साधक की शून्य समाधि सिद्धि हो पाती है… इससे पूर्व नहीं I

यदि इससे पूर्व वह साधक शुन्य का साक्षात्कार भी कर लेगा (जैसे हृदय गुफा में, अर्थात हृदय कृष्ण हूफा में) तो इस साक्षात्कार से यदि शून्य समाधि प्राप्त भी हो गई, तो भी वह शून्य समाधि परिपूर्ण नहीं हो पाएगी, अर्थात वह शून्य समाधि से शून्य का साक्षात्कार तो हो जाएगा, किन्तु उस शून्य का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाएगा I

इस अध्याय में बताई गई शून्य समाधि का स्थान मनस चक्र ही है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और शून्य के प्रभेद और शून्य की मध्यवर्ती अवस्थाएं बताता हूँ I

योगमार्ग में शून्य के दो प्रकार और इक्कीस प्रभेद होते हैं I

तो अब शून्य के प्रभेद बताता हूँ…

  • ब्रह्म रचना के स्वरूप में ब्रह्म की जो भी अभिव्यक्ति हुई थी, वह सगुण निराकार या सगुण साकार स्वरूपों में ही थी I
  • ब्रह्म रचना में उन ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों को इन दो स्वरूपों में पूर्णरूपेण डाला जा सकता है I
  • और जहाँ…

सगुण साकार को सगुण निराकार ने ही घेरा हुआ होता है I

सगुण साकार, सगुण निराकार के भीतर ही बसा हुआ होता है I

और इसके अतिरिक्त, सगुण निराकार भी सगुण साकार को भेदता है I

इसी कारण, सगुण निराकार भी सगुण साकार के भीतर बसा हुआ होता है I

और इन सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों के मूल में जो है, वही ऊर्जा है I

सगुणा साकार और सगुणा निराकार को जो अंतरपरिवर्तिनीय रखती है, वह देवी है I

 

  • ऐसी दशा में…

सगुण साकार से ही सगुण निराकार तृप्त होता है I

और सगुण निराकार से ही सगुण साकार तृप्त होता है I

सगुण साकार ही सगुण निराकार का पूरक और पोषक होता है I

और सगुण निराकार ही सगुण साकार का पूरक और पोषक होता है I

और यह दोनों ही उस ऊर्जात्मक दशा में बसे होते हैं, जो शक्तिमय शून्य है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

अब शून्य के प्रभेद क्या हैं, वह बताता हूँ…

  • और क्यूंकि शून्य भी ब्रह्म की शक्तिमय अभिव्यक्ति ही है, इसलिए शून्य के भी दो प्रभेद ही होते हैं I
  • सगुण साकार शून्य पूर्व के अध्याय में बताई गई गुहा कृष्ण से लेकर, मनस चक्र तक है I
  • सगुण निराकार शून्य निरालम्ब चक्र पर ही साक्षात्कार होता है I इस शून्य को शून्य समाधि से नहीं, बल्कि असंप्रज्ञात समाधि से ही जाना जाता है I इस असंप्रज्ञात समाधि को इसी अध्याय में थोड़ा बाद में बताया जाएगा I
  • इन दोनों प्रभेदों में…

सगुण साकार शून्य में व्यक्ति की रिक्तता (व्यक्तित्व की शून्यता) होती है I

सगुण निराकार शून्य में कोष की रिक्तता (किसी भी कोष की शून्यता) होती है I

टिप्प्पणी: यहाँ कहा गया कोष का शब्द, व्यक्तियों, जीवों, पिण्डों और व्यक्तित्व आदि के समूह-रूप का द्योतक है I

 

  • और ऐसा होने पर भी…

शून्य के सगुण साकार स्वरूप में ही बिन्दु शून्य आता है I

उस बिंदु शून्य से प्रकट हुई माँ महाकाली सगुण साकार होती हैं I

बिंदु शून्य से प्रकट हुई महाकाली की ऊर्जा सगुण निराकार होती है I

इसलिए, पूर्व में बताया गया बिन्दु रूपी शून्य, शून्य का पूर्ण रूप ही है I

 

  • और इसके अतिरिक्त…

क्यूंकि बिंदु शून्य ही शून्य का पूर्ण स्वरूप है I

और क्यूंकि ब्रह्माण्डोदय भी उसी बिंदु शून्य से ही हुआ है I

इसलिए, ब्रह्माण्ड और पिण्ड को सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन पूर्ण कहा है I

इसलिए, पिण्ड ब्रह्माण्ड की शास्त्रसम्मत परिपूर्णता के मूल में भी यही बिंदु शून्य है I

इस बिंदु शून्य के कारण ही ब्रह्मरचना भी उतनी ही पूर्ण है, जितना पूर्ण, ब्रह्म है I

जीव जगत की ब्रह्म से समानता (परिपूर्णता) के मूल में भी, यह बिंदु शून्य ही है I

बिंदु शून्य के कारण, अभिव्यक्ति (रचना) अपने अभिव्यक्ता (रचैता) को दर्शाती है I

बिंदु शून्य के कारण, रचना अपने रचैता  की ओर लेकर जाने वाला मुक्तिपथ होती है I

 

  • और जहाँ वह मुक्तिपथ…

बिंदु शून्य की जड़ समाधि से प्रारम्भ होकर, शून्य समाधि को जाता है I

शून्य समाधि से वह मुक्तिपथ, असंप्रज्ञात और निर्बीज समाधि को जाता है I

यह सभी समाधि, निर्विकल्प समाधि (निर्विकल्प ब्रह्म) में ही चलित होती हैं I

 

  • और इस शून्य के प्रभेदों के अंत में… जब…

सगुण निराकार शून्य में समस्त कोषों की रिक्तता  हो, वह असंप्रज्ञात समाधि है I

 

टिप्पणियाँ:

  • यहाँ कहा गया समस्त कोषों का शब्द, पूर्व में बताए गए व्यक्तियों, जीवों, पिण्डों और व्यक्तित्व आदि के समूह-रूप  सहित, उन बिंदुओं का भी द्योतक है जो इन सबके कोशों के समूह रूप होते हैं, और जिसके गंतव्य में समस्त ब्रह्म रचना ही होती है I
  • जब समस्त ब्रह्म रचना ही समस्त कोषों के इस शब्द में और साधक की धारणा में आ जाएगी और ऐसी दशा में जब वह धारणा भी स्थिर होकर संपूर्ण ब्रह्म रचना में ही व्यापक हो जाएगी, तब ही यहाँ बताए गए तथ्य का प्राकट्य होगा I
  • और इसके पश्चात साधक इसी दशा आलम्बन लेकर, असंप्रज्ञात समाधि को प्राप्त हो जाएगा और जहाँ वह प्राप्ति भी अकस्मात् ही होगी (अर्थात उसका कोई पूर्व स्थूल, सूक्ष्म, कारण अथवा कारणोंकारण संकेत भी नहीं आएगा) I
  • और जहाँ वह असंप्रज्ञात समाधि, बस इस धारणा से ही, और उस साधक के भीतर से ही, उस साधक के लिए ही और अकस्मात् ही प्रकट हो जाएगी I
  • यहाँ पर मैंने केवल मेरा मार्ग ही बताया है, अन्य कुछ भी नहीं I और क्यूंकि मेरे इस मार्ग में तो बस वह विशुद्ध सर्वव्यापक धारणा ही थी, जिसमें संपूर्ण महाब्रह्माण्ड ही बसा हुआ था, इसलिए यहाँ पर मैंने ऐसा ही बताया है I
  • इस व्यापक विशुद्ध सर्वसम धारणा के मार्ग में भी, योगी के भाव में ही उसका साधन होता है… और यहाँ बताए गए मार्ग में भी ऐसा ही है I
  • वैसे भी तो योग मार्गों में…

साधन की पृथकता होने पर भी, सिद्धि के मूल में भाव ही होते हैं I

मार्गों की पृथकता तो केवल बहाना है, गंतव्य में तो भाव से ही जाना है I

मार्गों का तारतम्य भी केवल बहाना ही है, गंतव्य में तो भाव से ही जाना है I

पृथक मार्गों के योगीजनों के यदि भाव समान होंगे, तो सिद्धि भी समान ही होगी I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

और शून्य के प्रकार बताता हूँ I

  • शून्य के साक्षात्कार मार्ग में शून्य के इक्कीस प्रकार पाए जाते हैं I
  • यह शून्य के समस्त (अर्थात इक्कीस) प्रकारों का मूल संबंध, इस समस्त महाब्रह्माण्ड के रचैता पितामह प्रजापति से ही है I
  • और इस नाते का सीधा-सीधा संबंध उन प्रजापति से सर्वसम (वज्रमणि के समान) सगुण निराकार ब्रह्मलोक से ही है I
  • ब्रह्मलोक के इक्कीस भाग होते है, जिनसे इन इक्कीस शून्य का नाता होता है I इन भागों के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I
  • शून्य का प्रत्येक भाग इसी ब्रह्मलोक के इक्कीस भागों में से, उस शून्य के अपने भाग से संबद्ध होता है I
  • और इसी शून्य का अंतिम (अर्थात इक्कीसवाँ या गंतव्य) भाग, ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग से नाता रखता है I
  • इसी इक्कीसवें भाग में पितामह प्रजापति, उनके अपने सर्वसम (वज्रमणि के समान प्रकाशमान) सगुण साकार चतुर्मुखा स्वरूप में उनकी अर्धांगिनी और जीवों की पितामही, माँ सरस्वती के साथ निवास करते हैं I यहाँ पितामही को ही माँ शब्द से पुकारा गया है, क्यूंकि दादीजी और नानीजी भी तो माँ शब्द की ही अभिव्यक्ति होती हैं I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

शून्य ब्रह्म क्या है, शून्य ब्रह्म किसे कहते हैं, शून्य ब्रह्म का स्वरूप, शून्य ब्रह्म साक्षात्कार, शून्य ब्रह्म साक्षात्कार का स्थान, शून्य ब्रह्म समाधि, शून्य ब्रह्म समाधि क्या है, शून्यता क्या है, शून्यता किसे कहते हैं,  शून्य अनंत क्या है, अनंत शून्य क्या है, शून्य अनंत: अनंत शून्यः क्या है, शून्य अनंत अनंत शून्य क्या है, शून्य और अनंत का योग, अनंत और शून्य का योग, शून्य ही पूर्ण है, पूर्ण ही शून्य है, शून्य ही अनंत है, अनंत ही शून्य है, … असंप्रज्ञात समाधि क्या है, असंप्रज्ञात क्या है, असंप्रज्ञात ब्रह्म कौन, महाशून्य क्या है, महाशून्य किसे कहते हैं, … निर्विचार समाधि क्या है, निर्भाव समाधि क्या है, निर्विचार समाधि किसे कहते हैं, निर्भाव समाधि किसे कहते हैं, भगवान जगन्नाथ, श्रीमन नारायण, निर्विचार ब्रह्म, निर्भाव ब्रह्म, …

 

शून्य ब्रह्म, शून्य अनंत, अनंत शून्य, असंप्रज्ञात समाधि, शून्य, शून्य समाधि, महाशून्य
शून्य ब्रह्म, शून्य अनंत, अनंत शून्य, असंप्रज्ञात समाधि, शून्य, शून्य समाधि, महाशून्य

 

यहां पर भी कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप में ही बताया जाएगा I

यह भाग अपने मूल से शाक्त मार्ग का होता हुआ भी, शैव और वैष्णव आदि मार्गों का अंग भी है I

पूर्व के अध्याय में बताया था कि चेतना मूलाधार से निरालम्ब चक्र पर गई, तब शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार प्रारम्भ हुआ I

और इसके पश्चात वह पुनः नीचे की ओर लौटी I

तो इस दशा के पश्चात जब आत्मा राम (अर्थात सुनहरी आत्मा या रामलला) अपने स्थान, अर्थात ललाना चक्र पर विराजमान हो गई, तब शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ I

 

पहले इसको साधारण भाषा में बताता हूँ…

वैसे योग साधनाओं में शून्य ब्रह्म साक्षात्कार मार्ग ऐसा भी हो सकता है…

शून्य समाधि में योगी, शून्य में भी बासकर शून्य का अध्यन करता है I

ऐसी दशा में उस योगी को वही शून्य अनंत सरीका दिखाई देता है I

यही शून्य का अनंत स्वरूप है, जो शून्य ब्रह्म भी कहलाता है I

यही शून्य का ब्रह्म स्वरूप है, जो शून्य अनंत ही होता है I

उस शून्य के गंतव्य में भी अनंत ही पाया जाएगा I

 

इस शून्य के अनंत स्वरूप को यदि मैं गणित से बताऊंगा, तो ऐसा भी कहा जा सकता है…

0 + 0 + 0 + 0 + 0….. अनंत गणना तक = 0

इसका अर्थ हुआ, कि यदि किसी एक शून्य के भीतर हम अनंत संख्या में शून्य डाल दें, तो भी वह एकमात्र शून्य ही रहता है I

और ऐसी दशा में दिखाई देने के पश्चात भी, उसी शून्य के भीतर अनंत अपने अनंत शून्य रूप में ही रहता हुआ पाया जाता है I

और उस अनंत शून्य के शून्य अनंत के भीतर बसे होने के कारण, शून्य भी पूर्ण से ही पाया जाता है I

इसलिए जो शून्य अकेला सा दिखाई दे रहा है, उसके भीतर अदृश्य रूप में अनंत संख्या में शून्य भी हो सकते हैं I

जब किसी अकेले शून्य के भीतर अनंत मात्रा में शून्य आ जाएं, तो वही शून्य अनंत है I

 

और इस समाधि में जब वह योगी आगे जाता है, तो ऐसा होता है…

उस शून्य के अनंत रूप में बसकर, योगी उस शून्य अनंत का अध्यन करता है I

ऐसी दशा में वह उस अनंत के मूल स्वरूप में वही शून्य को पाता है I

 

और ऐसी दशा में…

उस अथाह शून्यमय शून्य अनंत सागर के मूल में भी वही शून्य होता है I

यही अनंत का ब्रह्माण्डीय स्वरूप है, जो अनंत शून्य है I

उस अनंत के मूल में  भी शून्य ही पाया जाएगा I

 

इस साक्षात्कार के पश्चात, जब योगी इन दोनों स्वरूपों का योग करेगा, तो वह ऐसा ही पाएगा…

शून्य अनंत और अनंत शून्य की अद्वैत योगदशा ही शून्य ब्रह्म हैं I

शून्य ब्रह्म ही अथाह अंधकारमय सागर रूपी महाशून्य स्वरूप में जाने जाते हैं I

 

इस साक्षात्कार के पश्चात, जब योगी इन दोनों स्वरूपों का योग करेगा, तो वह ऐसा ही पाएगा…

मूल से ही गंतव्य का मार्ग प्रशस्त होता है I

मूल में शून्य ही है और गंतव्य में अनंत I

शून्य के गंतव्य में अनंत ही होता है I

अनंत के मूल में शून्य ही होता है I

 

और इस साक्षात्कार में योगी जो पाएगा, वह ऐसा भी होगा…

ब्रह्म शक्ति जो प्रकृति है, वही सर्वमूल है और ब्रह्म ही सर्वगंतव्य है I

प्रकृति की मूलावस्था शून्य है और गंतव्य में ब्रह्म ही अनंत है I

प्रकृति और भगवान् का अद्वैत योग ही शून्य ब्रह्म होता है I

प्रकृति और भगवान् की योगदशा ही पूर्ण कहलाई है I

इसलिए शून्य ब्रह्म ही पूर्ण (ब्रह्म) कहलाया है I

यह योग अनादि अनंत है, सनातन ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अनंत, सर्वातीत निर्गुण ब्रह्म है और शून्यमय मूल प्रकृति ही ब्रह्म शक्ति हैं I

अनंत ही ब्रह्म है, जो शून्यमय मूल प्रकृति स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है I

प्रकृति ही वह ब्रह्म शक्ति हैं, जो ब्रह्म की शून्यमय मूल अभिव्यक्ति हैं I

उन मूल अभिव्यक्ति का प्रादुर्भाव भी ब्रह्माण्डोदय से पूर्व में हुआ है I

उन मूल अभिव्यक्ति का अनंत (ब्रह्म) से योग ही शून्य ब्रह्म है I

उन प्रकृति से ही इस समस्त जीव जगत का प्रादुर्भाव हुआ है I

और उन प्रकृति में ही यह समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

प्रकृति भी अनादि कालों से ब्रह्म से योग लगाए बैठी हैं I

शून्य (प्रकृति) का अनंत (ब्रह्म) से योग शून्य ब्रह्म है I

भगवान् और प्रकृति का योग ही शून्य ब्रह्म है I

 

जब अनंत अपनी ही शक्तिमय शून्यमय अभिव्यक्ति, मूल प्रकृति से योग करता है, तो वही शून्य ब्रह्म है I

वह शून्य ब्रह्म, शून्य अनंत भी हैं और अनंत शून्य भी वही है I

अपने शून्य अनंत के स्वरूप में, वह गंतव्यमार्ग ही होता है I

उसी शून्य अनंत के स्वरूप में, गंतव्य (ब्रह्म) भी वही है I

अनंत शून्य स्वरूप में वह ब्रह्माण्डोदय का केन्द्र है I

उसी अनंत शून्य स्वरूप में वह ब्रह्माण्ड भी है I

 

उन शून्य ब्रह्म में…

शून्य ही प्रकृति है, जो ब्रह्म शक्ति हैं I

अनंत ही ब्रह्म है, जो निर्गुण निराकार शक्तितीत है I

शक्ति को भेदने से निर्गुण, शक्ति को सर्वस्व प्रदान करता है I

शक्ति ही सर्वस्व हैं, निर्गुण ही वह सर्वातीत है जिनमें सर्वस्व बसा है I

ऐसा होने के कारण, सर्वातीत और सर्वस्य का अद्वैत योग ही शून्य ब्रह्म है I

 

उन शून्य ब्रह्म की साक्षातकार की दशा में…

शून्य ही सर्वशक्ति, सर्वमाता सर्वनियन्ता सार्वभौम बहुवादी सर्वेश्वरी हैं I

ब्रह्म ही सर्वातीत हैं, सर्वत्यागी सर्वव्यापक सर्वभद्र अद्वैत सर्वेश्वर हैं I

बहुवादी सर्वेश्वरी और अद्वैत सर्वेश्वर का योग ही शून्य ब्रह्म है I

वेदमार्ग, बहुवादी अद्वैत में बसा योगमय मुक्तिमार्ग ही है I

टिपण्णी: ऐसा होने के कारण ही वेद मनीषी ऐसा कह गए, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति, इत्यादि I यह और ऐसे सभी वेदवाक्य भी उन्ही शून्य ब्रह्म के सांकेतिक रूप में ही सही, किन्तु द्योतक तो हैं हीं I

 

जब साधक की काया के भीतर ही…

शून्यरूपा प्रकृति और अनंतरूप ब्रह्म का योग होगा, तो वही शून्य ब्रह्म है I

शून्य ब्रह्म में योगी की चेतना का लय ही असंप्रज्ञात समाधि कहलाती है I

उस असंप्रज्ञात समाधि में, शून्य भी अपने ब्रह्मरूप में ही पाया जाता है I

उस असंप्रज्ञात समाधि में, अनंत भी अपने शून्यरूप में जाना जाता है I

उस असंप्रज्ञात समाधि में शून्य और अनंत का अद्वैतयोग होता है I

यह योग, योगी की काया के भीतर और बाहर, समानरूप में होगा I

इसलिए, वह असंप्रज्ञात समाधि भी एक व्यापक रूप में होती है I

इस जीव जगत और उसके समस्त भागों की वास्तविकता में भी ऐसा ही है I

 

इस असंप्रज्ञात समाधि में साधक ऐसा ही जानता है…

शून्य ब्रह्म, ब्रह्म की वह दशा है, जो तब थी जब न जीव था और न ही जगत I

उस समय बस ब्रह्म ही था, जो उसकी शून्यरूप अभिव्यक्ति, प्रकृति भी था I

इसलिए, शून्य ब्रह्म में ब्रह्म ही शून्यरूप और शून्य ही ब्रह्मरूप होता है I

इसका साक्षात्कार शून्य ब्रह्म है और इसका मार्ग असंप्रज्ञात समाधि है I

इसी को योगीजनों ने महाशून्य और इक्कीसवाँ शून्य आदि कहा था I

 

इस असंप्रज्ञात समाधि की दशा में…

शून्य ब्रह्म एक व्यापक सगुण निराकार अखण्ड स्वरूप में ही साक्षात्कार होता है I

और ऐसा होता हुआ भी, उस अखण्ड स्वरूप के कई सारे भाग भी पाए जाते हैं I

और यह सभी भाग उसी व्यापक सगुण निराकार के अखण्ड अंग ही होते हैं I

 

इसलिए इसी असंप्रज्ञात से प्राप्त हुए साक्षात्कार में साधक जान जाता है कि…

शून्य ब्रह्म खण्ड खण्ड सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में तो अखण्ड ही है I

अखण्ड होता हुआ भी, अपने भीतर के भागों के अनुसार, खण्ड खण्ड ही है I

उन खण्डों का अखण्ड से योग ही असंप्रज्ञात समाधि का शून्य ब्रह्म है I

इन दोनों में समानरूप में होकर, वह बहुवादी अद्वैत को ही दर्शाता है I

और जहाँ बहुवादी अद्वैत ही योगमार्ग का गंतव्य, वेद कहलाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

जब साधक की चेतना उस व्यापक शून्याकाश के समान सगुण निराकार शून्य ब्रह्म में स्थित हो जाती है, तब जो होता है, अब उसको बताता हूँ I

उस शून्य ब्रह्म की ज्ञानात्मक असंप्रज्ञात समाधि में, साधक ऐसा ही कहेगा…

न मन रहा, मैं मनाकाश हुआ I

न बुद्धि रही, मैं ज्ञानाकाश हुआ I

न चित्त रहा, मैं चिदाकाश हुआ I

न अहंकार रहा, मैं अहमाकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भूत रहा, मैं भूताकाश हुआ I

 न तन्मात्र रहा, मैं तन्मात्राकाश हुआ I

ना महत रहा, मैं महदाकाश हुआ I

 न गुण रहा, मैं गुणाकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न शून्य रहा, मैं शून्याकाश हुआ I

न अंक रहा, मैं अनंताकाश हुआ I

न मूल रहा, मैं मूलाकाश हुआ I

 न मार्ग रहा, मैं गंतव्याकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न तत्त्व रहा, मैं तत्त्वाकाश हुआ I

न कर्म रहा, मैं कर्माकाश हुआ I

ना फल रहा, मैं फलाकाश हुआ I

न संस्कार रहा, मैं संस्काराकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न सिद्धांत रहा, मैं सिद्धांताकाश हुआ I

 न तंत्र रहा, मैं तंत्राकाश हुआ I

ना न्याय रहा, मैं न्यायाकाश हुआ I

न नियम रहा, मैं नियमाकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न धर्म रहा, मैं धर्माकाश हुआ I

न अर्थ रहा, मैं अर्थाकाश हुआ I

ना काम रहा, मैं कामाकाश हुआ I

न मुक्ति भेद रहे, मैं सर्वाकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

 न सर्ग रहा, मैं सर्गाकाश हुआ I

न स्थिति रही, मैं स्थिताःकाश हुआ I

न संहार रहा, मैं संहाराकाश हुआ

न निग्रह रही, मैं निग्रहाकाश हुआ I

न अनुग्रह रहा, मैं अनुग्रहाकाश हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और इस असंप्रज्ञात समाधि से साक्षात्कार हुए शून्य ब्रह्म के बारे में कुछ और बिंदु अंकित करता हूँ…

यही पूर्णेश्वर, पूर्ण ब्रह्म हैं I

इनकी दिव्यता ही पूर्णेश्वरी हैं I

यही शून्य अनंत: अनंत शून्यः हैं I

यह श्रीमन नारायण कहलाए गए हैं I

यही श्री हरी के नाम से पुकारे जाते हैं I

यही समस्त जीव जगत के सनातन गुरुदेव हैं I

यही भगवान जगन्नाथ स्वरूप में प्रतिष्ठित हुए हैं I

इस सर्ग मेंयही वेदादि पीठों के प्रथम पीठाधीश्वर हुए हैं I

इन्ही में जीव जगत और उसके समस्त भाग प्रकाशित हो रहे हैं I

यही जीव जगत के समस्त भागों में समान रूप में प्रकाशित होते हैं I

यही पञ्चकृत्य को समानरूपेण और पूर्णरूपेण धारण किए हुए, सर्वेश्वर हैं I

सबकुछ इनके कालकृष्ण कालब्रह्म और महाकाल आदि स्वरूप में गर्भित है I

यही काल, कालकृष्ण, कालब्रह्म और महाकाल आदि नामों से पुकारे जाते हैं I

पूर्णवतारों में भी, यह शून्य अनंत: अनंत शून्यः स्वरूप में ही प्रकाशित होते हैं I

यह योमार्ग के साक्षात्कारों की वह अंतिम दशा हैं, जिसका वर्णन करना संभव है I

सम्भव होता हुआ भी वह वर्णन, इनके पूर्णरूप को पूर्णरूपेण दर्शा भी नहीं पाएगा I

इसलिए यह वर्णनीय होते हुए भी अवर्णनीय ही हैं, अवर्णनीय होते हुए भी वर्णनीय I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

विशेष ध्यान देना…

जो स्वयं ही जीव जगत का एकमात्र गर्भ हैं I

और जो स्वयं ही उस गर्भ में, जीव जगत रूप में स्वयंगर्भित भी हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जो ब्रह्मा में ब्रह्मा, रुद्र में रुद्र, देवी में देवी, विष्णु में विष्णु, गणेश में गणेश हैं I

और स्वयं ही इन सब स्वरूपों में स्व:प्रकाशित होते हुए भी, इनसब से अतीत ही हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जो मूल में मूल, सर्वस्व में सर्वस्व, मार्ग में सर्वोत्तम, गंतव्य में कैवल्य मोक्ष हैं I

और स्वयं ही इष्ट, साधक, उत्कर्ष पथ और पथ का गंतव्य आत्मा और ब्रह्म हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जो प्रकट रूप में समस्त रचना और रचना का समस्त सिद्धांत और तंत्र है I

और अपने वास्तविक स्वरूप में जो रचनातीत, सिद्धांतातीत और तंत्रातीत ही है I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जिनसे इन्द्रिय मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण प्रेरित होकर कर्ममय होते हैं I

जो वास्तव में इन्द्रियातीत मनातीत बुद्धितीत चित्तातीत अहमातीत प्राणातीत ही हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जो निर्गुण निराकार होते हुए भी, सगुण निराकार और सगुण साकार हुए हैं I

जो स्वप्र:काश होते हुए भी, स्वयं को एक काले परिधान में ढक कर रखे हुए हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

जो सिद्धों के आदिनाथ, बौद्धों के शून्यता, वेदों के परब्रह्म, जैनियों के केवल हैं

जो शून्य में शून्य, शून्य में पूर्ण, पूर्ण में शून्य होते हुए भी, पूर्ण में पूर्ण ही रहे हैं I

वह शून्य ब्रह्म हैं, जगन्नाथ हैं, श्रीमन नारायण हैं, असंप्रज्ञात हैं, वही श्रीहरी सर्वेश्वर हैं I

 

टिप्पणियाँ:

  • एक पूर्व के अध्याय में बताया था कि जब चेतना निरालम्ब स्थान को पार कर जाती है, तो वह चेतना भगवान् कृष्ण के विराट स्वरूप के दाहिने हस्त पर विराजमान हो जाती है I
  • वह विराट पुरुष, जिनका वर्णन वेद मनीषियों ने किया है, और जो विराट कृष्ण ही हैं, इन्ही जगन्नाथ भगवान के सामान काले (अर्थात गहरी रात्री के समान हैं) I
  • अंतर केवल इतना ही है, कि यहाँ बताए गए भगवान् जगन्नाथ अंधकारमय निराकार अनंत रूप में हैं (जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है) और वह विराट कृष्ण अपने मानव रूप में ही सही, किन्तु बहुत विशालकाय आकार में हैं I
  • और दोनों ऐसे ही काले वर्ण के हैं जैसे ऊपर का चित्र, शून्य ब्रह्म को दर्शा रहा है I
  • वह विराट भी इन्ही निराकार अनंत नारायण में ही निवास करते हैं, और इन्ही अनंत निराकार नारायण का विराट स्वरूप ही हैं I
  • वह विराट नारायण जैसा होता है, अब उसको बताता हूँ…

विराट सगुण साकार होता हुआ भी, सगुण निराकार ही साक्षात्कार किया जाएगा I

वह विराट सगुण निराकार होता हुआ भी, सगुण साकार ही साक्षात्कार होता है I

जहाँ सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों  भेदरहित हो जाएं, वह विराट है I

उस विराट के भीतर और बाहर भी, वही स्फटिक के समान, निर्गुण होगा I

इसलिए, विराट पुरुष का साक्षात्कार भी उन्ही निर्गुण ब्रह्म का मार्ग है I

पूर्वकाल में वही विराट पुरुष, भगवान कृष्ण के स्वरूप में आए थे I

और जहाँ वह विराट कृष्ण ही काल कृष्ण कहलाए जाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

उन शून्य ब्रह्म के शब्द में…

शून्य ही प्रकृति का द्योतक है, और ब्रह्म ही अनंत भगवान् का I

शुन्य ही प्रकृति का मूल है, और ब्रह्म की शक्तिमय अभिव्यक्ति है I

ब्रह्म ही स्व:प्रकाश पूर्णसंयासी अभिव्यक्ता हैअपनी अभिव्यक्ति का ही साक्षी है I

 

अब उन्ही शून्य ब्रह्म में जाते हुए उत्कर्ष पथ को बताता हूँ…

प्रकृति ही शक्तिरूपी मूल हैं, योगमार्ग की धारक हैं I

ब्रह्म ही सर्वातीत, उत्कर्ष मार्गों का गंतव्य कैवल्य मोक्ष हैं I

जिस मार्ग का अपने गंतव्य से योग हो, वही मुक्तिपथ होता है I

यही परंपरा के शब्दार्थ को दर्शाता है, जिसमें परम और परा का योग है I

परंपरा में परम शब्द, ब्रह्म का द्योतक है और परा शब्द, (परा) प्रकृति का I

जिस मार्ग में परम और परा का योग ही नहीं हुआ, वह परंपरा भी नहीं होती है I

और जो परंपरा ही नहीं होती है, वह उत्कर्षपथ या मुक्तिपथ भी नहीं हो सकती है I

शून्य ब्रह्म उसी अनादि अनंत अखण्ड सनातन वैदिक आर्य परंपरा के  द्योतक हैं I

आगे बढ़ता हूँ…

 

निर्बीज समाधि, निर्बीज ब्रह्म, निर्बीज क्या है, निर्बीज और पुरुष प्रकृति योग, राजयोग का गंतव्य, राजभवन, …

यह समाधि असंप्रज्ञात समाधि के बाद में ही आती है I और यह समाधि उस असंप्रज्ञात समाधि के तुरंत बाद भी आ सकती है I

 

इससे पहले मैं इस समाधि के बारे में बात हो, एक सावधानी तो बतानी ही होगी…

पूर्व कालों के योगीजन कहते भी थे कि जबतक सुखपूर्वक रहना चाहते हो, तबतक इस निर्बीज समाधि में नहीं जाना, क्यूंकि सबसे विप्लवकारी समाधि है I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि जब योगी निर्बीज हो जाता है, तो उसका ब्रह्माण्ड से ही नाता टूट जाता है I ऐसी दशा में उस योगी की काया के भीतर जो ब्रह्माण्डीय दशाएं हैं, वह उनके अपने-अपने कारणों में स्वतः ही लय होने लगती हैं I

और अंततः जब योगी की काया के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाएँ, एक-एक करके ही सही, लेकिन उनके-अपने अपने कारणों में लय ही हो जाती हैं, तो योगी को अपने शरीर को धारण करके रखना भी बहुत ही कठिन हो जाता है I

जब योगी की काया के भीतर का ब्रह्माण्ड, उस ब्रह्माण्ड में ही लय हो गया जिसमें योगी की काया बसी हुई है, वह निर्बीज समाधि है I

 

ऐसी दशा में योगी…

पिण्ड रूप में होता हुआ भी, पिण्डातीत हो जाता है I

ब्रह्माण्ड में बसा होता हुआ भी, ब्रह्माण्डातीत हो जाता है I

जगत में जीव रूप में बसा हुआ भी, जगत में नहीं माना जाता है I

जो जगत में बसा हुआ भी जगतातीत हुआ है, वह जीव रूप में नहीं रह पाता है I

ऐसी दशा में योगी, ब्रह्माण्ड के साथ नहीं चल पता है, अर्थात ब्रह्माण्ड के भाव, राग और ताल में जो जीव जगत चालित होता रहा है, वह योगी उसमें न तो बस पाता है, और न ही उसके साथ ही चल पाता है I

जब जीव रूप में और ब्रह्माण्ड में रहकर, ब्रह्माण्ड के भाव राग और ताल में ही नहीं रहोगे, तो किसी ने किसी भयंकर विप्लव को ही जाओगे I

और यही उस विप्लव का कारण बनता है, जिसके लिए पूर्व कालों के योगीजनों ने इस निर्बीज समाधि के लिए सावधान किया था I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब योगी पुरुष प्रकृति योग को सिद्ध करता है, तब उस योगी की काया में जो होता है, वह इस भाग के चित्र में सांकेतिक रूप में ही सही, किन्तु दर्शाया गया है I

 

अर्धनारीश्वर सिद्ध शरीर, पुरुष प्रकृति योग शरीर,शिव शक्ति योग शरीर
अर्धनारीश्वर सिद्ध शरीर, पुरुष प्रकृति योग शरीर,शिव शक्ति योग शरीर

 

क्यूंकि इस चित्र के बारे में एक पूर्व अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए उसी को यहाँ दोहराऊँगा नहीं I

इसलिए इस चित्र के उस भाग पर जाता हूँ, जिसका नाता इस अध्याय से है I

इस दशा में, योगी की सुषुम्ना नाड़ी को एक अंधकारमय दशा घेर लेती है I यही यह चित्र भी दिखा रहा है I यह अंधकारमय दशा ही निर्बीज ब्रह्म हैं I

और उन निर्बीज का साक्षात्कार भी असंप्रज्ञात ब्रह्म के भीतर ही होता है, जिन्होंने इस चित्र को घेरा हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस निर्बीज समाधि का भी वही मार्ग है जो पूर्व के अध्यायों में राम नाद, शक्ति शिव योग, भद्र भद्री योग, पुरुष प्रकृति योग, और खाकार आदि नादों से बताया गया था I

जब साधक उस महाशून्य रूपी, शून्य अनंत और अनंत शून्य स्वरूप असंप्रज्ञात समाधि में होता है, तब जब वह साधक उस विशालकाय अंधकारमय शून्य ब्रह्म का अध्ययन करता है, तब उस साधक को उसी असम्प्रज्ञात के भीतर एक निरंग व्यापक प्रकाश, जो स्वच्छ जल के समान होता है, वह साक्षात्कार होता है I

ऐसी दशा में साधक की चेतना उसी निरंग स्फटिक के समान प्रकाश में समाने लग जाती है I

 

और इस समाने के मार्ग में, एक दशा आती है, जो ऐसा होती है…

साधक की चेतना ही संप्रज्ञात स्व होती है I

अर्थात साधक की चेतना स्वयं ही स्व:संप्रज्ञात होती है I

निरंग प्रकाश और अंधकारमय शून्य ब्रह्म के मध्य में चेतना बैठ जाती है I

इसी दशा से वह योगी निर्बीज समाधि को प्राप्त होकर, निर्बीज ब्रह्म में जाता है I

 

इस निर्बीज समाधि से योगी की जो दशा हो जाती है, अब उसको संक्षेप में बताया हूँ I उस योगी से संबद्ध…

पूर्व का मनाकाश पूर्णरूपेण ब्रह्ममय हो जाता है I

पूर्व का अहमाकाश पूर्णरूपेण विशुद्ध ही हो जाता है I

पूर्व का ज्ञानाकाश, पूर्णरूपेण ही निश्कलंक हो जाता है I

पूर्व का चिदाकाश, पूर्णरूपेण ही संस्कार रहित हो जाता है I

पूर्व का प्राणाकाश पूर्णरूपेण सर्वसम (वज्रमणि के समान) हो जाता है I

इसके पश्चात ही साधक वह जानता है, जो नीचे कहा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

उस निर्बीज ब्रह्म की ज्ञानात्मक समाधि में, साधक ऐसा ही कहेगा…

न मन रहा न बुद्धि रहीन चित्त रहा न अहंकार रहा I

मैं मनातीत हुआ, बुद्धितीत हुआ मैं चित्तातीत हुआ, अहमातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भूत रहा न तन्मात्र रहाना महत रहा न गुण रहा I

मैं भूतातीत हुआ, तन्मात्रातीत हुआ मैं महतातीत हुआ, गुणातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न दिशा रही न दशा रहीन काल रहा न आयाम रहा I

मैं दिशातीत हुआ, दशातीत हुआ.. मैं कालातीत हुआ, आयामातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न कर्म रहा न फल रहान संस्कार रहा न इंद्रिय रही I

मैं कर्मातीत हुआ, फलातीत हुआ मैं संस्कारातीत हुआ, इंद्रियातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न जीव रहा न जगत रहान पिण्ड रहा न ब्रह्माण्ड रहा I

मैं जीवातीत हुआ, जगतातीत हुआ मैं पिण्डातीत हुआ, ब्रह्माण्डातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न सिद्धांत रहा न तंत्र रहान न्याय रहा न नियम रहा I

मैं सिद्धांतातीत हुआ, तंत्रातीत हुआ मैं न्यायातीत हुआ, नियमातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न धर्म रहा न अर्थ रहान काम रहा न मुक्ति  रही I

मैं धर्मातीत हुआ, अर्थातीत हुआ मैं कामातीत हुआ, मुक्तितीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न वर्ण रहा न गोत्र रहान परंपरा रही न संप्रदाय रहा I

मैं वर्णातीत हुआ, गोत्रातीत हुआ मैं परंपरातीत हुआ, संप्रदायातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न तृष्णा रही न इच्छा रहीन आशा रही न भाव रहा I

मैं तृष्णातीत हुआ, इच्छातीत हुआ मैं आशातीत हुआ, भावातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न लोक रहा न देश रहान पुर रहा  न कुल रहा I

मैं लोकातीत हुआ, देशातीत हुआ मैं पुरातीत हुआ, कुलातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न योग रहा न भोग रहान रोग रहा न राग रहा I

मैं योगातीत हुआ, भोगातीत हुआमैं रोगातीत हुआ, रागातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न वेद रहा न शास्त्र रहान मार्ग रहा न ग्रंथ रहा I

मैं वेदातीत हुआ, शास्त्रातीत हुआमैं मार्गातीत हुआ, ग्रंथातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

न पुण्य रहा न पाप  रहान सुख रहा न दुख रहा I

मैं पुण्यातीत हुआ, पापातीत हुआ मैं सुखातीत हुआ, दुखातीत हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है Il

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसी निर्बीज समाधि में, पूर्व के अध्याय में बताया गया पारदर्शी (अथवा निरंग) वर्ण का, अष्टकोणी लम्बा सा, नीचे से चपटा और ऊपर से थोड़ा गोलाकार और थोड़ा नोकीला जो अंतिम संस्कार होता है, वह साधक की कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से कपाल के बाहर निकल जाता है I

और इसी निर्बीज समाधि के पूर्ण होने के पश्चात, साधक के चित्त का वह अंतिम संस्कार कुछ ही समय में, लुप्त भी हो जाता है अर्थात अपने कारण में, जो निर्बीज ब्रह्म ही हैं, उनमें लय हो जाता है I

ऐसा होने के पश्चात उस साधक की काया के भीतर जो ब्रह्माण्ड के भाग हैं, वह सिद्ध शरीर के रूपों में, एक-एक करके स्वयंप्रकट होते ही जाते हैं और ऐसे प्रकटीकरण के पश्चात, वह सब के सब स्वतः ही अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय ही होते जाते हैं I

इसलिए इस निर्बीज समाधि से ही साधक अपनी काया के भीतर के ब्रह्माण्डीय भागों को, उस ब्रह्माण्ड में त्यागता है, जिसमें उसकी काया बसी हुई है I यही निर्बीज समाधि की प्रक्रिया है, जिसके कुछ मुख्य बिन्दु अगली अध्याय श्रंखला में बताए जाएंगे, जिसका नाम भारत भारती मार्ग होगा I

 

और इस भाग के अंत में…

अधिकांश साधक इस निर्बीज समाधि के कुछ सप्ताह में ही अपनी स्थूल काया को त्याग देते हैं I

और जो साधक इस समाधि के पश्चात भी अपनी स्थूल काया में स्वस्थ रह पाते हैं, उनपर भगवान् और प्रकृति, दोनों का ही विशेष अनुग्रह हुआ होगा I

आगे बढ़ता हूँ…

 

निर्विकल्प समाधि क्या है, निर्विकल्प ब्रह्म क्या है, निर्विकल्प ब्रह्म कौन हैं, संप्रज्ञात ब्रह्म क्या है, संप्रज्ञात समाधि क्या है, संप्रज्ञात ब्रह्म कौन हैं, संप्रज्ञात ब्रह्म और साधक, …

यह इस अध्याय का अंतिम भाग है और यह भाग भी कुछ स्पस्ट, कुछ सांकेतिक रूप में, एक अतिलघु रूप में प्रकाशित किया जाएगा I

और जब यह प्रक्रिया स्वयं चालित होती है, और अंततः यह प्रक्रिया पूर्ण होती है, तो साधक का आत्मस्वरूप ही निर्विकल्प कहलाता है I और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के द्वारा, ऐसा साधक ही निर्विकल्प ब्रह्म कहा जाता है I

जबकि निर्विकल्प समाधि ॐ सावित्री मार्ग में जाकर और ओउम् के साक्षात्कार में के ऊपर के बिन्दु में लय होकर ही होती है, और उसका कुछ ज्ञान तो साधक प्राप्त कर ही लेता है, किन्तु उसका पूर्ण ज्ञान इस अध्याय में बताई जा रही निर्विकल्प समाधि का ही अंग है I

इसलिए निर्विकल्प समाधि जो साधक की चेतना के के ऊपर के बिन्दु में लय होने के पश्चात ही चलित हुई थी (और जिसके बारे में उस पूर्व के अध्याय में बताया गया था, जिसका नाम ओम् (और  त्रिबीज, ओमकार, ब्रह्म एकाक्षर, ब्रह्म अनक्षर आदि) था, उससे ही प्रारंभ हुई थी, किन्तु इसके पश्चात भी वह निर्विकल्प समाधि का समापन इसी अध्याय में होता है I

 

तो इसका अर्थ यह भी हुआ कि…

(ओंकार) के अध्याय से आगे के सब अध्याय निर्विकल्प समाधि के ही अंग हैं I

जो मार्ग ॐ और निर्विकल्प समाधि से प्रारम्भ हुआ था, उसका यही समापन है I

 

और ऐसा होने पर भी उस समापन मार्ग की प्रक्रिया अगली अध्याय श्रंखला में ही बताई जाएगी I

ॐ ही निर्विकल्प ब्रह्म है I

ॐ साक्षात्कार ही निर्विकल्प समाधि दशा है I

समस्त उत्कृष्ट दशाएँ निर्विकल्प ब्रह्म में ही बसी हुई हैं I

निर्विकल्प ब्रह्म का शब्द्लिंगात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूप ॐ है I

ओंकार ही निर्विकल्प ब्रह्म का सर्वलिंगात्मक और लिंगातीत स्वरूप भी है I

ॐ के लिंगातीत स्वरूप में योगी के लय ही, निर्विकल्प समाधि कहलाई जाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

उस निर्बीज ब्रह्म की ज्ञानात्मक समाधि में, साधक ऐसा ही कहेगा…

न मनाकाश रहा न ज्ञानाकाश रहान चिदाकाश रहा न अहमाकाश रहा I

मैं मनात्मा हुआ ज्ञानात्मा हुआमैं चिदात्मा हुआ अहमात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न भूताकाश रहा न तन्मात्राकाश रहान महदाकाश रहा न गुणाकाश रहा I

मैं भूतात्मा हुआ तन्मात्रात्मा हुआमैं महात्मा हुआ गुणात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न शून्याकाश रहा न अनंताकाश रहान मूलाकाश रहा न गंतव्याकाश रहा I

मैं शून्यात्मा हुआ अनंतात्मा हुआमैं मूलात्मा हुआ गंतव्यात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न तत्त्वाकाश रहा न कर्माकाश रहान फलाकाश रहा न संस्काराकाश रहा I

मैं तत्त्वात्मा हुआ कर्मात्मा हुआमैं फलात्मा हुआ संस्कारात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न सिद्धांताकाश रहा न तंत्राकाश रहान न्यायाकाश रहा न नियमाकाश रहा I

मैं सिद्धांतात्मा हुआ मैं तंत्रात्मा हुआमैं न्यायात्मा हुआ मैं नियमात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न धर्माकाश रहा अर्थाकाश रहान कामाकाश रहा न सर्वाकाश रहा I

मैं धर्मात्मा हुआ अर्थात्मा हुआमैं कामात्मा हुआ सर्वात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

न यह रहा वह रहान इधर रहा न उधर रहा I

मैं एकात्मा हुआ पूर्णात्मा हुआमैं अद्वैतात्मा हुआ स्वात्मा हुआ I

मैं निर्गुण हुआ निरंजन हुआ, मैं सर्वातीत हुआ सर्वसाक्षी हुआ I

मुझसे मत पूछ मेरी जेब में क्या रखा है, खाली बटुआ है जो सीने से लगा रखा है II

 

 

टिप्पणियाँ:

  • वैसे तो मैंने पूर्व में सोचा ही था, कि बिन्दु शून्य, शून्य, शून्य की मध्यवर्ती दशाओं और शून्य ब्रह्म को भी गणित के योगमार्ग से बतलाऊँगा, लेकिन पता नहीं क्यों अब उतना सारा लोखने को मेरा मन नहीं कर रहा है I
  • इसलिए उस विस्तारवादी योग गणित विज्ञान के कुछ ही भागों को यहाँ बिन्दुरूपों में ही अंकित करके, मैं इस भाग को समाप्त कर रहा हूँ I

 

गणित योगीजनों द्वारा प्रदान किया हुआ विज्ञान है, न की किसी और का I

इस ब्रह्म कल्प में मेरे गुरुदेव स्वयंभू मनु ने मुझे ही गणित का नाम दिया था I

इसका कारण था कि मनु शिष्यों में जिसने यह ज्ञान उद्भासित किया, वह मैं था I

बिंदु शून्य का साक्षात्कार, योग की बिन्दु समाधि से ही हो पाता है I

जिस योगी ने यह जाना होगा, उसनें ब्रह्माण्डोदय जाना होगा I

यही योगबिंदु कहलाया था, यही बिंदु ब्रह्माण्ड का ज्ञान है I

इसी बिंदु को योगमार्गों में अपनाया गया था I

 

गणित के शून्य के ज्ञान के योगमय मार्ग में शून्य समाधि ही होती है I

जिस योगी ने शून्य पूर्णरूपेण जाना है, वही मूल प्रकृति स्वरूप है I

यही प्रकृति के मूल, शक्तिमय अपराजित देवी का विज्ञान है I

इन्ही देवी को वैदिक वाङ्मय में बसाया गया था I

 

अनंत, गणित का अंग है ही नहींगणित बस शून्य ब्रह्म तक ही सीमित है I

गणित के अनंत चिन्ह () का विज्ञान, असंप्रज्ञात समाधि से होता है I

यही ब्रह्माण्डोदय से पूर्व की दशा का भगवद रूपी ज्ञान है I

यही वैदिक वाङ्मय के पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान है I

 

अनंत का ज्ञान गणितातीत ही है, इसलिए केवल योगमार्ग का ही अंग रहा है I

अनंत का ज्ञान निर्बीज समाधि सहित, निर्विकल्प समाधि का भी अंग है I

निर्बीज समाधि में अनंत, शून्य ब्रह्म में मिश्रित होकर ही रहता है I

और निर्विकल्प समाधि में अनंत, स्वतंत्र रूप में जाना जाता है I

यही कैवल्य विज्ञान, मार्ग और कैवल्य मोक्ष कहलाया था I

 

अब थोड़ा और ध्यान देना…

जो योग सर्वस्व से ही और सर्वस्व में ही सिद्ध नहीं, वह पूर्ण नहीं है I

जो योग सर्वस्व में ही सिद्धि हुआ है, वही योगशिखर होता है I

योगशिखर के पश्चात संन्यास, अर्थात त्याग मार्ग आता है I

यह योगसंन्यास ही योगी के मार्ग का अंतिम पड़ाव है I

यह त्याग ही योगमार्ग का अंतिम पड़ाव होता है I

निर्गुण निराकार ब्रह्म ही पूर्ण त्यागि हैं I

पूर्ण त्याग ही कैवल्य मोक्ष है I

 

योगमार्ग से जाने गए तथ्यों के अनुसार…

बिंदु शुन्य ही पूर्ण ब्रह्म का प्राथमिक, पूर्णमदः स्वरूप है I

शून्य ही उन पूर्ण ब्रह्म का द्वितीय, पूर्णमिदं स्वरूप है I

शून्य ब्रह्म ही उन पूर्ण ब्रह्म का तृतीय, पूर्णात्पूर्णमुदच्यते स्वरूप है I

निर्बीज ब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म का चतुर्थ, पूर्णस्य स्वरूप है I

निर्विकल्प ब्रह्म ही उन पूर्ण ब्रह्म का पञ्चम, पूर्णमादाय स्वरूप है I

अंत में योगी जो स्वयं होगा, वही उन पूर्ण ब्रह्म का पूर्णमेवावशिष्यते स्वरूप है I

 

और इस अध्याय के अंत में…

जिस साधनाबल, तपबल, भक्तिबल, आत्मबल आदि के योगबल रूपी प्रकाश से इन सबको जाना जाता है, वही संप्रज्ञात ब्रह्म है, जो पूर्ण ब्रह्म भी कहलाया गया है I

वही पूर्ण तो वह योगी भी है, जिसने इन सबको, इन सबके भीतर जाकर जाना है I

इन सबके साक्षात्कार के मूल में, वही संप्रज्ञात ब्रह्म है, जो पूर्ण और स्वप्रकाश कहलाया है और जिनका साक्षात्कारी योगी भी उन्ही के समान पूर्ण कहलाता है I

ऐसे योगी का आत्मस्वरूप भी उन स्व:प्रकाश के समान स्व:प्रकाश ही होता है I

यही प्रत्येक मुमुक्षु और योगीजनों का वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप भी है I

 

तो इन्ही बिन्दुओं पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम हिरण्यगर्भ ब्रह्म का चतुर्लिंग स्वरूप, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी लिंग होगा I

जय श्रीमन नारायण I

जय जय श्रीमन नारायण II

 

मृत्योर्मामृतं गमय II

 

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