त्रिदेवी और त्रिदेव, त्रिदेव और त्रिदेवी, देवी और देव, देव और देवी, श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी, श्री पार्वती, श्री इंद्राणी, श्री महेश्वरी, योगेश्वरी, श्री त्रिकाली, श्री सती, शिवानुजा रुद्रानुजा, ब्रह्मानुजा, विष्णुनुजा, इंद्रानुजा, राज योग, भक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग, योगमार्ग, योग माता, योग दिव्यता, गुरुमाई, योगकारिणी

त्रिदेवी और त्रिदेव, त्रिदेव और त्रिदेवी, देवी और देव, देव और देवी, श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी, श्री पार्वती, श्री इंद्राणी, श्री महेश्वरी, योगेश्वरी, श्री त्रिकाली, श्री सती, शिवानुजा रुद्रानुजा, ब्रह्मानुजा, विष्णुनुजा, इंद्रानुजा, राज योग, भक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग, योगमार्ग, योग माता, योग दिव्यता, गुरुमाई, योगकारिणी

इस अध्याय में त्रिदेवी और त्रिदेव, त्रिदेव और त्रिदेवी, देवी और देव, देव और देवी, श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी, श्री पार्वती, श्री इंद्राणी, श्री महेश्वरी, योगेश्वरी, श्री त्रिकाली, श्री सती, शिवानुजा रुद्रानुजा, ब्रह्मानुजा, विष्णुनुजा, इंद्रानुजा, राज योग, भक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग, योगमार्ग, योग माता, योग दिव्यता, गुरुमाई, योगकारिणी आदि पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगीराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बयासीवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का ग्यारहवाँ अध्याय है I

यह अध्याय पूर्व के अध्याय पञ्च मुखी सदाशिव का ही भाग है I

नमः शक्ति: I

नमः शिवाय: II

टिप्पणियाँ:

  • यहाँ पर सब का नहीं, बल्कि कुछ ही देवी देवता का नाता बताया गया है I
  • यह सब वही हैं जिनका प्रादुर्भाव पञ्च मुखी सदाशिव के किसी एक मुख से, सीधा-सीधा ही होता है I
  • इसलिए यहाँ बताए गए देवी देवता उन्ही पञ्च मुखा सदाशिव के किसी न किसी निराकार मुख का प्रत्यक्ष और पूर्ण स्वरूप स्वरूप ही हैं I

और आगे कभी मन किया तो इसका विस्तार भी करा जाएगा  और जहाँ उस विस्तार में नव दुर्गा, दस महाविद्या, अष्ट चण्डीगण, अष्ट भैरवी और उनके भैरवगण, अष्टमातृका, चामुण्डा आदि भी हो सकते हैं I

 

त्रिदेवी और त्रिदेव का नाता, त्रिदेव और त्रिदेवी का नाता, देवी और देव, देव और देवी
त्रिदेवी और त्रिदेव, त्रिदेव और त्रिदेवी, देवी और देव, देव और देवी, श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी, श्री पार्वती, श्री इंद्राणी, श्री महेश्वरी, योगेश्वरी, श्री त्रिकाली, श्री रौद्री, श्री सती, शिवानुजा रुद्रानुजा, ब्रह्मानुजा, विष्णुनुजा, इंद्रानुजा,

 

 

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इस ब्रह्म रचना में…

सदाशिव ही यजमान हैं I

सदाशिव ही यज्ञशाला हैं I

सदाशिव ही यज्ञ के ऋषि हैं I

सदाशिव ही उस यज्ञ के ब्रह्मा हैं I

सदाशिव में ही समस्त यज्ञ मनीषी हैं I

यज्ञ मनीषियों में समस्त देवी देवता भी हैं I

सदाशिव के भीतर ही ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड बसा है I

सदाशिव नामक यज्ञशाला ही समस्त ब्रह्म रचना बसी हुई है I

सदाशिव उस यज्ञ की भूमि, अग्नि, सामग्री, आहुति, मंत्र, देश, काल स्थिति हैं I

समस्त ब्रह्मरचना सदाशिव का स्वयं ही स्वयं में चलित हो रहा यज्ञ स्वरूप है I

इसलिए…

योगीजन इस यज्ञ को स्वयं ही स्वयं में जाकर ही जान पाते हैं I

उस ज्ञान में योगी का स्व: ही सदाशिव का पञ्च मुखा स्वरूप होता है I

और योगी के ऐसे स्व:स्वरूप में ही वह देव और देवी के नाते को जानता है I

ऐसे ज्ञानमय चेतनमय क्रियामय और इच्छामय यज्ञ में…

योगी के स्व: में ही स्थूल, सूक्ष्म, कारण, संस्कारिक और महाकारण जगत बसा होगा I

योगी के स्व: में जीव सत्ता सहित, समस्त तत्त्व और देवी देव बसे हुए होंगे I

स्व:मार्ग पर चलता हुआ योगी, देव और देवी के नाते जो जानता है I

 

और जहाँ यह सब भारत भारती योग की उस दशा में ही चल रहा है, जहाँ…

महाब्रह्माण्ड ही वैदिक भारत है I

महाब्रह्माण्ड की दिव्यता ही महाकारण है I

महाब्रह्माण्ड में ही समस्त ब्रह्माण्ड बसे हुए हैं I

महाब्रह्माण्ड के परिधान में समस्त देवलोक बसे हैं I

भारत ब्रह्म ही समस्त ब्रह्म रचना हैं, जो महाब्रह्माण्ड है I

ब्रह्म भरत की दिव्यता ही महाकारण ऊर्जा हैं, जो भारती सरस्वती हैं I

यह अध्याय, भारत ब्रह्म और भारती विद्या की ओर लेकर जाने वाला मार्ग है I

 

उन गुरु विश्वकर्मा (पञ्च मुखा सदाशिव) नामक यज्ञशाला में…

पुत्री अपने पिता के दाएँ ओर बैठती है I

अर्धांगनी अपने स्वामी के बाएँ ओर बैठती है I

और बहन अपने भाई के दाएँ ओर ही बैठ सकती है I

ऐसी ही महाब्रह्माण्डीय वैदिक यज्ञशाला की दशा में ऊपर का चित्र बसाया गया है I

 

और जब सदाशिव के किसी मुख की…

पुत्री का विवाह होगा, तो वह अपने दाएँ ओर के मुख से ही विहाव कर सकती है I

और विवाह करके, वह विवाह किए हुए सदाशिव के मुख के बायीं ओर ही बैठती है I

ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

तो यह था इस अध्याय का वह आधार, जिसका आलम्बन लेकर देव और देवी का नाता बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस अध्याय के साक्षात्कारों में और ऊपर के चित्र में दिखाए गए बिंदुओं में…

  • सदाशिव के पाँच मुख बाहर की ओर देखते हैं I

 

  • ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

पञ्च मुखी सदाशिव, ही विराट परब्रह्म स्वरूप में हैं I

उनके पाँचों मुख, समस्त ब्रह्म रचना में पूर्ण रूप में ही हैं I

उनके पाँचों मुख, ब्रह्म रचना के सभी भागों में समान रूप में भी हैं I

उनके पाँचों मुख, ब्रह्म रचना के पूर्णत्व नामक देवत्व के द्योतक ही हैं I

  • और जहाँ ब्रह्म और उनकी ब्रह्म रचना का जो नाता है, वह भी ऐसा ही है…

ब्रह्म रचना  ही ब्रह्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है I

ब्रह्म रचना  ही वह ब्रह्म पूर्णतः लय हुआ है I

लय होकर वह ब्रह्म ही पूर्ण कहलाया है I

और ब्रह्म रचना भी पूर्ण ही हुई है I

  • ऐसा होने के कारण…

पूर्ण जो ब्रह्म हैं, वही अपने पूर्णत्व को दर्शाती हुई ब्रह्म रचना हुए हैं I

इसलिए ब्रह्म की समस्त रचना भी उन्ही पूर्ण ब्रह्म के समान, पूर्ण ही है I

और ब्रह्म रचना के भाग भी उन्ही पूर्ण ब्रह्म की रचना के समान, पूर्ण ही हैं I

उस ब्रह्मरचना में, ब्रह्म ही विराट परब्रह्म स्वरूप में पञ्च मुखा सदाशिव हुआ है I

  • और ऐसी दशा में…

ब्रह्म के भीतर ही उसकी ब्रह्म रचना बसी हुई है I

और ब्रह्म रचना के भीतर ही वह ब्रह्म भी बसा हुआ है I

वह ब्रह्म ही ब्रह्म रचना हुआ है, और ब्रह्म रचना भी ब्रह्म ही है I

ब्रह्म अपनी ब्रह्म रचना में और ब्रह्म रचना भी उन्ही ब्रह्म में लय है I

  • और जहाँ…

ब्रह्म रचना और ब्रह्म का ऐसा अद्वैत योग ही पञ्च मुखा सदाशिव हैं I

पञ्च मुखा सदाशिव ही भगवान् पशुपतिनाथ हैं, गुरु विष्वकर्मा भी कहलाए हैं I

 

  • सदाशिव के पांच मुख …

उसी ब्रह्म रचना के समान हैं, इसलिए बाहर की ओर देखते हैं I

स्वयं ही स्वयं के सनातन सर्वव्यापक, सार्वभौम पूर्णत्व के सर्वानंद में हैं I

 

  • ऐसा होने के कारण यह अध्याय…

शाक्त मार्ग का भी है, और शैव मार्ग का भी है I

वैष्णव मार्ग का भी है, सौर्य और गणपत्व मार्गों का ही है I

  • इस अध्याय के मार्ग में…

शिव शक्ति का व्यापक अद्वैत योग है I

शिव, समस्त देव और शक्ति, समस्त देवी हैं I

कौन शिव और कौन शक्ति समझ में ही नहीं आएगा I

और ऐसी अनभिज्ञता में ही साधक इस अध्याय को पूर्ण करेगा I

 

  • यह अध्याय और इसके ज्ञान रूपी साक्षात्कारों में…

सभी देवी देवता एक दूसरे के रिश्तेदार ही हैं I

देवत्व के पूर्णत्व का ही सार्वभौम स्वरूप बसा हुआ है I

समस्त देवत्व, देवी देव के प्रधान स्वरूप और उनके नाते बसे हैं I

 

  • इस अध्याय के मार्ग शिखर में…

देवी ही देव दिव्यता, देव ही देवी स्वामी, देव देवी का योग ही देवत्व पूर्णता है I

जो देव हैं, यह परमगुरु विराट परब्रह्म सदाशिव का ही कोई न कोई स्वरूप हैं I

जो देवी हैं, वह उन गुरुमाई सर्वमाता अदि पराशक्ति का ही कोई न कोई स्वरूप हैं I

आगे बढ़ता हूँ…

अब पञ्च मुखी सदाशिव का योग से नाता बताता हूँ I पञ्च मुखा सदाशिव में…

  • सदाशिव का तत्पुरुष मुख राजयोग का है, सदाशिव का तत्पुरुष मुख राज योग का जनक है, सदाशिव का तत्पुरुष मुख और राज योग,

सदाशिव के चार दिशाओं को देखने वाले चार मुखों में से यह प्रथम मुख है I

यह मुख योगीराज है और इसी मुख से योग, योगमार्ग और योग तंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है I

इस मुख से संबद्ध क्रिया शक्ति, त्रिकाली शक्ति और तिरोधान कृत्य से ही राजयोग का प्रादुर्भाव हुआ है I

और जहाँ वह राजयोग भी त्रिकाल भाव और क्रिया शक्ति का ही मार्ग है I

 

  • सदाशिव का वामदेव मुख भक्तियोग का है, सदाशिव का वामदेव मुख भक्तियोग का जनक है, सदाशिव का वामदेव मुख और भक्तियोग,

सदाशिव के चार दिशाओं को देखने वाले चार मुखों में से यह द्वितीय मुख है I

यह मुख, योग को स्थित रखता है, क्यूंकि इसका कृत्य ही स्थिति है I

इस मुख से संबद्ध पराशक्ति और स्थिति कृत्य से ही भक्तियोग का प्रादुर्भाव हुआ है I

और जहाँ वह भक्ति योग भी श्रद्धा और समर्पण का ही योग है I

 

  • सदाशिव का सद्योजात मुख कर्मयोग का है, सदाशिव का सद्योजात मुख कर्मयोग का जनक है, सदाशिव का सद्योजात मुख और कर्मयोग,

सदाशिव के चार दिशाओं को देखने वाले चार मुखों में से यह तृतीय मुख है I

यह मुख, योग के समस्त मार्गों को ही जीव जगत के भीतर उदय करता है, क्यूंकि वह सब मार्गों को तत्पुरुष मुख के तिरोधान कृत्य ने ढका हुआ होता है I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इसका कृत्य ही उत्पत्ति है I

इस मुख से संबद्ध इच्छा शक्ति और उत्पत्ती कृत्य से ही कर्मयोग का प्रादुर्भाव हुआ है I

और जहाँ वह कर्मयोग भी भाव धर्म और कर्म का ही योग है I

  • सदाशिव का अघोर मुख ज्ञानयोग का है, सदाशिव का अघोर मुख ज्ञानयोग का जनक है, सदाशिव का अघोर मुख और ज्ञानयोग,

सदाशिव के चार दिशाओं को देखने वाले चार मुखों में से यह चतुर्थ मुख है I

यह मुख योग तंत्र के समस्त मार्गों की बाधाओं को नष्ट करता है और जो पूर्व के योगमार्ग विकृत हो गए होंगे, उनका नाश भी करता है अथवा पूर्ण जीर्णोद्धार ही कर देता है I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि इसका कृत्य ही संहार है I

इस मुख से संबद्ध ज्ञान शक्ति और संहार कृत्य से ही ज्ञानयोग का प्रादुर्भाव हुआ है, और समस्त योगमार्गों का जीर्णोद्धार भी होता रहता है I

और जहाँ वह ज्ञानयोग भी आत्मा और विज्ञान का ही योग है I

 

  • सदाशिव का ईशान मुख आत्मयोग का है, सदाशिव का ईशान मुख आत्मयोग का जनक है, सदाशिव का ईशान मुख और आत्मयोग,

यह मुख ही सदाशिव है, जिसकी शक्ति आदि पराशक्ति है और जो सर्वकृत्य होती हुई भी, कृत्यातीत ही हैं I

इसका नाता आत्मयोग से है, और जहाँ आत्मयोग में आत्मा और ब्रह्म का ही अनादि अनंत सनातन और व्यापक योग है I

यही मुख इस ग्रंथ के मूल वाक्य का मार्ग, जो स्वयं ही स्वयं में कहा गया है, उसकी आंतरिक दशा को दर्शाता है I

इस मुख के साक्षात्कार की गंतव्य दशा में, ब्रह्मत्व ही शाक्तत्व, शिवत्व, विष्णुत्व और गणपत्व कहलाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब एक-एक करके, त्रिदेव और त्रिदेवी का नाता बताता हूँ…

  • श्री लक्ष्मी ही ब्रह्मानुजा हैं, श्री लक्ष्मी श्री विष्णु की अर्धांगनी हैं, श्री लक्ष्मी और श्री विष्णु, श्री लक्ष्मी और ब्रह्मा, श्री लक्ष्मी और प्रजापति, श्री लक्ष्मी और पितामह ब्रह्मा, श्री लक्ष्मी और पितामह प्रजापति, श्री लक्ष्मी और सद्योजात सदाशिव, श्री लक्ष्मी और सदाशिव सद्योजात, श्री लक्ष्मी और वामदेव सदाशिव, श्री लक्ष्मी और सदाशिव वामदेव, ब्रह्मा की अर्धांगिनी, पितामही सरस्वती कौन, …

सदाशिव सद्योजात की इच्छा शक्ति और मन से स्वयंप्रादुर्भाव हुई श्री लक्ष्मी, सद्योजात सदाशिव की ही पुत्री हैं I

ऐसी दशा में सद्योजात सदाशिव की इच्छा शक्ति का वह भाग जो श्री लक्ष्मी से संबद्ध है, वह भृगु ऋषि में भी प्रवेश करके और उन्ही से श्री लक्ष्मी के रूप में आया था I इसिलिए श्री लक्ष्मी का स्वयंप्रादुर्भाव, भृगु ऋषि से भी जोड़ा जाता है I

ऐसा ही होने के कारण, ऊपर के चित्र में श्री लक्ष्मी, सदाशिव के सद्योजात मुख की दायीं ओर दिखाई गई हैं I

पञ्च मुखी सदाशिव के मुखों में ऐसे विराजमान होने के कारण, श्री लक्ष्मी केवल सद्योजात मुख से दायीं ओर के मुख के देवता, जो श्री विष्णु हैं, उनसे ही विवाह कर सकती हैं I

 

और जब श्री लक्ष्मी सद्योजात सदाशिव के दायीं ओर के मुख, जो सदाशिव वामदेव ही हैं, उनसे स्वयंभू हुए श्री विष्णु से विवाह करती है, तो वह अपने पति (अर्थात सदाशिव के वामदेव मुख से स्वयंभू हुए श्री विष्णु) के बायीं ओर ही विराजमान हो जा सकती हैं I इसलिए ऊपर का चित्र भी ऐसा ही दिखा रहा है जिसमें श्री लक्ष्मी को श्री विष्णु की अर्धांगिनी रूप में उनके बायीं ओर ही दिखाया गया है, और जहाँ श्री विष्णु ही अर्धनारीश्वर हैं I

 

  • श्री सरस्वती ही रुद्रानुजा हैं, श्री सरस्वती ही शिवानुजा हैं, श्री सरस्वती पितामह ब्रह्मा की अर्धांगनी हैं, श्री सरस्वती पितामह प्रजापति की अर्धांगनी हैं, सर्वसम सरस्वती कौन, सर्वसम ब्रह्मा कौन, सर्वसम प्रजापति कौन, श्री सरस्वती और पितामह ब्रह्मा, श्री सरस्वती और पितामह प्रजापति, श्री सरस्वती और रुद्र देव, श्री सरस्वती और अघोर सदाशिव, श्री सरस्वती और सदाशिव अघोर, श्री सरस्वती और सद्योजात सदाशिव, श्री सरस्वती और सदाशिव सद्योजात, रुद्रानुजा कौन, रुद्र की अनुजा, रुद्र की अनुजा कौन, ब्रह्मा की अर्धांगनी कौन, श्री सरस्वती कौन, सद्योजात सदाशिव की पुत्री, सदाशिव सद्योजात की पुत्री, सदाशिव के अघोर मुख की पुत्री,

सदाशिव अघोर की ज्ञान शक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव हुई श्री सरस्वती, अघोर सदाशिव की ही पुत्री हैं I ऐसा ही होने के कारण, ऊपर के चित्र में श्री सरस्वती, सदाशिव के अघोर मुख की दायीं ओर दिखाई गई हैं I

पञ्च मुखी सदाशिव के मुखों में ऐसे विराजमान होने के कारण, श्री सरस्वती केवल अघोर मुख से दायीं ओर के मुख के देवता जो पितामह ब्रह्मा हैं, उनसे ही विवाह कर सकती हैं I

और जब श्री सरस्वती, अघोर सदाशिव के दायीं ओर के मुख, जो सदाशिव सद्योजात ही हैं, उनसे स्वयंभू हुए सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से विवाह करती हैं, तो वह अपने पति (अर्थात सदाशिव के सद्योजात मुख से स्वयंभू हुए पितामह प्रजापति) के बायीं ओर ही विराजमान हो जा सकती हैं I इसलिए ऊपर का चित्र भी ऐसा ही दिखा रहा है, जिसमें श्री सरस्वती को चतुर्मुखा पितामह प्रजापति की अर्धांगिनी रूप में उनके बायीं ओर ही दिखाया गया है, और जहाँ चतुर्मुखा पितामह प्रजापति ही वह सर्वसम ब्रह्मा है, जो चतुर्मुखा ब्रह्म कहलाए गए हैं I और विवाह करके, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती, ब्रह्मलोक इक्कीसवें भाग में ही निवास करते हैं I

सदाशिव के अघोर मुख की ज्ञान शक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव होकर, श्री सरस्वती पितामह ब्रह्मा के मुख में प्रवेश करके, सर्वसम होती हैं और ऐसी सर्वसम दशा में ही वह पितामह ब्रह्मा से विवाह कर पाती है I

सर्वसम तत्त्व की एक विशेषता होती है, कि उसको जो भी छुएगा, वह सर्वसम ही हो जाएगा और इसी सर्वसम दशा में ही आकर, श्री सरस्वती, पितामह से विवाह करके, पितामही कहला पाती हैं I

जब श्री सरस्वती, पितामह ब्रह्म से विवाह करने हेतु उनके मुख में होती हैं, तो उनका पुनर्प्रादुर्भाव होता है, जिसमें वह सर्वसम होती हैं I उन आंतरिक योगमार्गों में भी जब योगी सर्वसमता को प्राप्त होगा, तो उसका भी ऐसा ही पुनर्प्रादुर्भाव होगा और ऐसे पुनर्प्रादुर्भाव में ही वह योगी उस वज्रमणि शरीर को ही प्राप्त कर जाएगा, जिसको एक पूर्व के अध्याय में सर्वसम स्वरूप स्थिति भी कहा गया था I

जब योगी सर्वसमता में जाता है, तो उसका न पूर्व का कोई नाता रहता है और न ही आगे का I ऐसा इसलिए है क्यूंकि सर्वसमता की दशा समस्त रिश्तों नातों से भी सर्वसम होती है I

इसलिए ऐसी सर्वसमदशा में श्री सरस्वती न तो सदाशिव अघोर की पुत्री (जैसे वह पूर्व में थी) और न ही पितामाह की पुत्री (जो वह तब होती है जब वह उनके मुख में होती हैं) रह पाती हैं I

सर्वसमता में एक और विशेषता होती है, कि योगी कुछ भी नाता बना सकता है, अथवा कोई भी नाता त्याग सकता है, अथवा सर्वसम होकर, समस्त नातों और उनको निभाने के मार्गों के मूल मे जो समता है, वही हो सकता है, अथवा वह योगी समस्त नातों से ही मानसिक संन्यास ग्रहण कर सकता है I

सर्वसम योगी जो चाहे वह कर सकता है क्यूंकि उसपर कोई नियम, रिश्ता, नाता अथवा उनका कोई सिद्धांत, तंत्र और न्याय भी लागू ही नहीं होता है I

 

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि…

सर्वसमता सिद्धांत से सर्वसम होती हुई भी, सिद्धांतातीत ही है I

सर्वसमता समस्त तंत्रों से सर्वसम होती हुई भी, तंत्रातीत दशा ही है I

सर्वसमता समस्त ब्रह्माण्डीय न्याय से सर्वसम होती हुई भी, न्यायातीत ही है I

और ऐसी सर्वसम दशा में ही श्री सरस्वती, पितामह प्रजापति की अर्धांगनी, पितामही हो पाती है I

यही कारण था कि एक पूर्व का अध्याय जिसका नाम सदाशिव का सद्योजात मुख था (और ब्रह्मलोक भी था) था, उसमें भी पितामह ब्रह्मा सहित, श्री सरस्वती के पितामही स्वरूप को भी वज्रमणि के प्रकाश के समान, सर्वसम कहा गया था I

श्री सरस्वती का स्वयंप्रादुर्भाव अघोर मुख ही ज्ञान शक्ति से होने के कारण, उन्हें महाभद्राय और महाभद्री आदि नामों से पुकारा गया है I

श्री सरस्वती का विवाह पितामह ब्रह्मा से होने के कारण, वह चतुर्मुख ब्रह्मा की माया की धारक भी हैं I इसीलिए श्री सरस्वती को महामाया भी कहा गया है I महामाया ही समस्त देवियों में है, इसलिए समस्त देवीगण भी सारस्वत ही हैं I

श्री सरस्वती का पितामह ब्रह्मा के मुख से प्रकटिकरण भी सांकेतिक ही है और ऐसी दशा में श्री सरस्वती अघोर की ज्ञान शक्ति का ब्रह्मा के मुख में प्रवेश होने की दशा को दर्शाती हैं I इसी को ब्रह्मा के मुखों से वेद के प्रकट होना भी बताया गया है I

 

और…

ब्रह्मा के मुख में श्री सरस्वती ही वेद चतुष्टय का ज्ञान हैं I

ब्रह्म रचना के भीतर बसे हुए समस्त उत्कर्ष पथ, सारस्वत ही है I

ब्रह्मा के मुख से स्वयंप्रकट हुए वेद ही ज्ञान शक्ति, श्री सरस्वति हैं I

वेद भी उतना ही सनातन है जितने सनातन ब्रह्म और ब्रह्म रचना हैं I

पितामह ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ समस्त पिण्ड ब्रह्माण्ड भी सारस्वत ही है I

पितामह ब्रह्मा की रचना में और उस रचना के भीतर के उत्कर्ष मार्गों में, कुछ है ही नहीं जो वैसा नहीं है, जैसा यहाँ बताया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

  • श्री त्रिकाली ही इंद्रानुजा हैं, श्री त्रिकाली ही महादेव की अर्धांगनी हैं, श्री त्रिकाली और महादेव, श्री त्रिकाली और महाकालेश्वर, श्री त्रिकाली और महाकाल, श्री त्रिकाली और इंद्र, श्री त्रिकाली और देवराज इंद्र, श्री त्रिकाली और इंद्र देव, श्री त्रिकाली और महादेव, श्री त्रिकाली और महाकालेश्वर, श्री त्रिकाली और महाकाल, श्री त्रिकाली और सदाशिव अघोर, श्री त्रिकाली और रुद्रदेव, श्री त्रिकाली और अघोर सदाशिव, श्री त्रिकाली और सदाशिव तत्पुरुष, श्री त्रिकाली और तत्पुरुष सदाशिव, श्री त्रिकाली कौन, इन्द्राणी कौन, इंद्र की अर्धांगनी कौन, इंद्रानुजा कौन, इंद्र की अनुजा, इंद्र की अनुजा कौन, …

सदाशिव तत्पुरुष की क्रिया शक्ति और उनकी निरंतर योग समाधि से स्वयंप्रादुर्भाव हुई श्री त्रिकाली, तत्पुरुष सदाशिव (महेश्वर) और उनकी अर्धांगिनी, श्री महेश्वरी की सुपुत्री हैं I

श्री त्रिकाली का स्वयंप्रादुर्भाव, महेश्वर (सदाशिव का तत्पुरुष मुख) और महेश्वरी के अनादि कालों से चले आ रहे और अनादि कालों तक गति करते हुए समाधि योग से ही हुआ था I योगेश्वर और योगेश्वरी के समाधि योग से प्रकट हुई देवी ही श्री त्रिकाली हैं I

श्री महेश्वरी ही योगेश्वरी हैं, जो साक्षात गुरुमाई अदि पराशक्ति ही हैं I

महेश्वर ही योगेश्वर, योगसम्राट, योगर्षि, परमयोगी, योगगुरु, योग, योगमार्ग योगतंत्र हैं I

परमगुरु और गुरुमाई की पुत्री ही कालशक्ति कालदिव्यता कालातीत श्री त्रिकाली हैं I

ऐसा ही होने के कारण, ऊपर के चित्र में श्री त्रिकाली, सदाशिव के तत्पुरुष मुख की दायीं ओर दिखाई गई हैं I

पञ्च मुखी सदाशिव के मुखों में ऐसे विराजमान होने के कारण, श्री त्रिकाली केवल तत्पुरुष मुख से दायीं ओर के मुख, जो अघोर मुख हैं, उनसे ही विवाह कर सकती हैं I

और जब श्री त्रिकाली, तत्पुरुष सदाशिव के दायीं ओर के मुख जो सदाशिव अघोर ही हैं, उनसे विवाह करने जाती हैं, तो वह अपने पति (अर्थात सदाशिव के अघोर मुख) के बायीं ओर ही विराजमान हो जा सकती हैं I इसलिए ऊपर का चित्र भी ऐसा ही दिखा रहा है जिसमें श्री त्रिकाली को अघोर मुख की अर्धांगिनी रूप में उनके बायीं ओर ही दिखाया गया है, और जहाँ अघोर मुख ही महादेव कहलाए हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब ध्यान देना क्यूंकि अब यह भाग लगभग समस्त ब्रह्म रचना में ही एक दैविक ज्ञानदृष्टि से घूमने वाला है I

जब श्री त्रिकाली तत्पुरुष मुख से स्वयंप्रादुर्भाव होकर, अघोर मुख से विवाह करने हेतु उनसे योग को जाती हैं, तब क्यूंकि वह अघोर संन्यासी ही हैं, इसलिए उनके भीतर से ही काल अपने सनातन रूप में प्रकट होता है I

यह वही काल है, जिसमें हिरण्यगर्भ ब्रह्म बसे भी हैं और वह काल भी हिरण्यगर्भ ब्रह्म में ही बसा हुआ है I और ऐसा होने के कारण, वह काल अपने अनादि अनंत, अखण्ड सनातन स्वरूप में और इस जीव जगत के भीतर भी हिरण्यगर्भ ब्रह्म से ही अभिव्यक्त हुआ है I

और वही काल अपने चक्र (अर्थात कालचक्र) स्वरूप में, उन्ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म की रजोगुणी अभिव्यक्ति, जो कार्य ब्रह्म हैं, जो महेश्वर और योगेश्वर ही है, और जिन्हे सदाशिव का तत्पुरुष मुख भी कहा जाता है… उनसे जी इस जीव जगत के भीतर, अपनी असंख्य इकाइयों (अर्थात काल की इकाई) को आधार बनाकर ही अभिव्यक्त हुआ है I

काल और उसके चक्र स्वरूप की अद्वैत सार्वभौम सर्वव्यापक सनातन दिव्यता श्री त्रिकाली हैं I

ऐसे स्वयंप्रादुर्भाव होने के कारण, जबकि श्री त्रिकाली काल के सदैव चलायमान चक्र स्वरूप में ही बसी हुई हैं, लेकिन तब भी वह कालचक्र उतना ही अनादि अनंत, अखण्ड और सनातन है, जितना अनादि अनंत सनातन काल है I

काल के गर्भ में ही यह समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

जीव जगत के काल रूपी गर्भ की सनातन शक्ति ही श्री त्रिकाली हैं I

आगे बढ़ता हूँ…

जब श्री त्रिकाली अघोर से योग करने जाती हैं, तो उन्ही अघोर के भीतर से काल अपने सनातन स्वरूपमें स्वयं प्रकट होता है I

इसी काल के सनातन स्वरूप से श्री त्रिकाली योग करती हैं I

और जहाँ श्री त्रिकाली, काल के सनातन और चक्र, दोनों स्वरूपों की ही शक्ति हैं I

और इस योग के कारण, काल भी इन श्री त्रिकाली के प्रचण्ड स्वरूप के प्रभाव में आकर, उनसे योग करने हेतु बाध्य हो जाता है I

यह योग, सदाशिव के अघोर मुख में नहीं हो पाता है, इसलिए यह योग सदाशिव के अघोर मुख और सदाशिव के सद्योजात मुख के मध्य में ही होता है I इस योग को एक पूर्व के अध्याय में बताया गया था, जिसका नाम महाकाल महाकाली योग था I

इस योग के पश्चात अघोर मुख जो महादेव ही हैं, उनका वह स्वरूप जिससे काल अपने सनातन स्वरूप में स्वयंप्रकट हुआ था, वही अघोरेश्वर और अघोर महादेव आदि कहलाए थे I

और ऐसे स्वयं प्रकटीकरण के पश्चात ही वह काल ही महाकाल, श्री महाकाल, महाकालेश्वर आदि कहलाया था I

और इसके अतिरिक्त, श्री त्रिकाली का वह स्वरूप जो उन महाकाल से योग करता है, वही महाकाली कहलाया था I

इस महाकाली महाकाल योग से प्रचण्ड शक्ति, न कभी हुई है और न ही कभी आगे ही होगी I

और अंततः इसी योग से, योगी के भीतर जो कुण्डलिनी शक्ति निवास कर रही होती है, वह भी प्रचण्ड हुए बिना नहीं रह पाती I और यही उस व्याधि का कारण बनता है, जिसको आधुनिक चिकित्सा पद्धति में कुण्डलिनी सिंड्रोम कहा जाता है I

इस योग से वह श्री त्रिकाली आगे बढ़ती हैं, और आगे के जो सद्योजात मुख और वामदेव मुख हैं, उनमें प्रवेश करती हैं I श्री त्रिकाली का यह मार्ग भी प्रदक्षिणा पथ का ही होता है, अर्थात दिक्षीण दिशा (अर्थात दाहिनी दिशा) की ओर ही होता है I और अंततः वह त्रिकाली उन्ही महेश्वर और महेश्वरी में पुनः प्रवेश करके, यही परिक्रमा निरंतर करती ही रहती हैं I

और श्री त्रिकाली के ऐसे वैदिक परिक्रमा मार्ग से संबद्ध निरंतर गति के कारण, कालचक्र भी इसी मार्ग पर निरंतर ही गति करता रहता है I

और इस पृथ्वी लोक पर लागु होती हुई वैदिक इकाई में, इसका समय 24,000 वर्ष हैं I इन 24,000 वर्षों में 2 सम्पूर्ण वैदिक मानव चतुर्युग होते हैं, जिनकी समय सीमा 12,000 वर्षों की होती है I

12,000 का अंक मनुस्मृति सहित, अन्य कई सारे वैदिक ग्रंथों में भी आया है I और आज की समय इकाई में, यही वैदिक इकाई के 12,000 वर्ष, 12, 888 वर्ष के समीप हो जाते हैं I इसके कारण, आज की समय इकाई में, इस लोक में श्री त्रिकाली की एक प्रदक्षिणा 25, 777 वर्षों की है I यही इस पृथ्वी लोक में विषुव के पूर्वागमन चक्र का समय भी है I

इसलिए सदाशिव का कोई मुख है ही नहीं, जिसमें श्री त्रिकाली की ऊर्जाएं न जाती हों I और जहाँ श्री त्रिकाली की गति भी वैदिक प्रदक्षिणा पथ पर ही और सदाशिव के पाँच मुखों में, निरंतर चलती रहती है I यही निरंतर चलायमान कालचक्र का दैविक आधार भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

श्री त्रिकाली, सदाशिव के समस्त मुखों में हैं I

ऐसा होने के कारण श्री त्रिकाली सार्वभौम देवी हैं I

इस दशा में श्री त्रिकाली समस्त दैविक आदि दशाओं में हैं I

कोई शक्ति हैं ही नहीं जिसका श्री त्रिकाली से नाता नहीं पाया जाएगा I

इसलिए…

श्री त्रिकाली के जागृत होने से, चतुर्दश भुवन की समस्त देव सत्ता भी जागृत होगी I

श्री त्रिकाली के जागृत होने से, चतुर्दश भुवन की समस्त शक्तियां भी जागृत होंगी I

श्री त्रिकाली के जागृत होने से, चतुर्दश भुवन से सम्बद्ध कालचक्र भी जागृत होगा I

पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र में, जब कोई योगी महाकाल महाकाली योग को अपनी काया में पाता है, तब श्री त्रिकाली जागृत होती हैं I

और जब श्री त्रिकाली जागृत होती हैं, तब देवराज इंद्र और देवरानी इंद्राणी सहित, शनैः शनैः ही सही, लेकिन सभी वैदिक दिव्यताएं जागृत होने लगती हैं I

वैसे कुछ अतिविरले योगी ही रहे हैं, जो इस योग में जाकर भी काया में रह पाए हैं… और ऐसा होने के कारण, यह योग एक अतिदुर्लभ सिद्धि ही होती है I

 

टिप्पणियाँ: इस ग्रंथ के…

  • हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय नामक अध्याय के प्रकाशित होते ही महाकालेश्वर महादेव जागृत हुए थे I ऐसा इसलिए है क्यूंकि हिरण्यगर्भ से ही काल का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ है I काल इस इस जीव जगत का गर्भ है I
  • और इस अध्याय के प्रकाशित होते ही, श्री त्रिकाली उसी स्वरूप में जागृत होंगी, उन्ही सब मुखों से जागृत होंगी, जैसा यहाँ बताया गया है I और ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि श्री त्रिकाली ही इस ब्रह्म रचना की गर्भशक्ति हैं I
  • अध्याय का यह भाग उन्ही श्री त्रिकाली को, उनके समस्त स्वरूपों में और उनके समस्त गणों और दिव्यताओं और शक्तियों के साथ, इस पृथ्वी लोक में प्रकाश करने हेतु, दैविक आवाहन है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

  • श्री पार्वति ही विष्णुनुजा हैं, योगेश्वरी ही विष्णुनुजा हैं, महेश्वर की अर्धांगनी श्री पार्वति हैं, योगेश्वर की अर्धांगनी श्री पार्वति हैं, श्री पार्वति और योगेश्वर, श्री पार्वति और महेश्वर, योगेश्वरी और योगेश्वर, योगेश्वर और योगेश्वरी, महेश्वर और महेश्वरी, महेश्वरी और महेश्वर, श्री पार्वति और वामदेव सदाशिव, श्री पार्वति और सदाशिव वामदेव, श्री पार्वति और सदाशिव तत्पुरुष, श्री पार्वति और तत्पुरुष सदाशिव, महेश्वरी और सदाशिव तत्पुरुष, महेश्वरी और तत्पुरुष सदाशिव, योगेश्वरी और तत्पुरुष सदाशिव, योगेश्वरी और सदाशिव तत्पुरुष, श्री पार्वती कौन, महेश्वरी कौन, योगेश्वरी कौन, वामदेव सदाशिव की पुत्री, सदाशिव वामदेव की पुत्री, तत्पुरुष सदाशिव की अर्धांगिनी, सदाशिव तत्पुरुष की अर्धांगनी, महेश्वर की अर्धांगनी, योगेश्वर की अर्धांगनी, योग माता कौन, योग दिव्यता कौन, योग गुरुमाई कौन, योग की गुरुमाई कौन, योग की माता कौन, योग की दिव्यता कौनयोग कारिणी कौन, श्री सती कौन,

 

सदाशिव वामदेव की पराशक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव हुई श्री पार्वति, वामदेव सदाशिव की ही पुत्री हैं I ऐसा ही होने के कारण, ऊपर के चित्र में श्री पार्वति, सदाशिव के वामदेव मुख की दायीं ओर दिखाई गई हैं I

पञ्च मुखी सदाशिव के मुखों में ऐसे विराजमान होने के कारण, श्री पार्वति केवल वामदेव मुख से दायीं ओर के मुख से, जो सदाशिव का तत्पुरुष मुख है और जो महेश्वर और योगेश्वर ही हैं, उनसे ही विवाह कर सकती हैं I

और जब श्री पार्वति सद्योजात सदाशिव के दायीं ओर के मुख, जो सदाशिव तत्पुरुष ही हैं, उनसे विवाह करती है, तो वह अपने पति (अर्थात सदाशिव के तत्पुरुष मुख) के बायीं ओर ही विराजमान हो जा सकती हैं I इसलिए ऊपर का चित्र भी ऐसा ही दिखा रहा है जिसमें श्री पार्वति को महेश्वर (अर्थात योगेश्वर) की अर्धांगिनी रूप में उनके बायीं ओर ही दिखाया गया है, और जहाँ महेश्वर (अर्थात योगेश्वर) ही सदाशिव तत्पुरुष हैं I

सदाशिव तत्पुरुष जो महेश्वर (अर्थात योगेश्वर) ही हैं, उनसे विवाह होने पर, उनकी अर्धांगनी स्वरूप में श्री पार्वती ही योगेश्वरी, महेश्वरी, योग माता, योग दिव्यता, योग गुरुमाई, योग कारिणी आदि कहलाई जा सकती हैं I

 

टिप्पणियाँ भाग 1:

अब ध्यान देना क्यूंकि यहाँ पर इस वैदिक सिद्धांत को न मानने का परिणाम बताया जा रहा है…

  • श्री पार्वती भी वही पूर्व कालों की श्री सती का पुनरुद्भव हैं I
  • उस पूर्वजन्म में श्री सती के पिताजी जो दक्ष प्रजापति थे, उनका स्थान भी सदाशिव का अघोर मुख ही था, जिसका कृत्य संहार होता है और जिसका भूत, अग्नि महाभूत होता है I
  • श्री सती अपने उस पूर्वजन्म में, महेश्वर (अर्थात सदाशिव का तत्पुरुष मुख) से विवाह करना चाहती थीं और ऐसा उन्होंने किया भी था I
  • लेकिन क्यूंकि उस पूर्वजन्म में श्री सती, अघोर सदाशिव की पुत्री थीं इसलिए वह सदाशिव अघोर के दाहिने पर बैठी हुई थी (अर्थात वहीँ विराजी हुई थी, जहाँ ऊपर का चित्र, श्री सरस्वती को दर्शा रहा है) I
  • और ऐसे दशा में विराजमान होकर, क्यूंकि श्री सती की उस समय की स्थिति से महेश्वर की दिशा, अघोर मुख से ही होकर जाती थी, और क्यूंकि अघोर का कृत्य, संहार है और उसका महाभूत, अग्नि है, इसलिए श्री सती ने जब ऐसा किया, तो ऐसा करने के पश्चात, अंततः परिणाम भी वही हुआ, जिसमें वह सदाशिव अघोर की अग्नि में प्रवेश करके, वह अघोर मुख में ही संहार हुई थी I इसी कारण से श्री सती के पिता, दक्ष प्रजापति ने उनके महेश्वर से विवाह करने का पुरजोर विरोध भी किया था I
  • श्री सती के उस जन्म में उनका ऐसा अंत होने के कारण ही, उन श्री सती को उस पूर्वजन्म में वैदिक मनीषियों ने सती माता कहा है I
  • और अपने अगले पुनरुद्भव के समय (जो आज का है, जिसमें श्री सती ही श्री पार्वती कहलाती हैं), उन्ही श्री सती ने अपनी यह मूल त्रुटि का शोधन किया था, जिसके कारण उन्होंने अपनी दिशा का परिवर्तन करके, सदाशिव वामदेव की पुत्री के स्वरूप में जन्म लिया था I इसी जन्म में वह श्री पार्वती कहलाई थीं I
  • और ऐसा जन्म उन्होंने इसलिए लिया था, ताकि वह वामदेव के दायीं ओर विराजमान हो सकें, और वामदेव से दायीं ओर जो महेश्वर हैं, उनके साथ विवाह करके, उनकी अर्द्धांगिनी होकर, अपने पूर्वजन्म की इच्छानुसार गति को प्राप्त हो सकें I

 

टिप्पणियाँ भाग 2: यहाँ पर श्री पार्वती के साक्षात अदि पराशक्ति स्वरूप को बताया जाएगा, इसलिए थोड़ा और ध्यान देना…

और जब श्री सती का पुनरुद्भव श्री पार्वती के स्वरूप में हुआ, तब उस जन्म लेने के मार्ग की जो गति रही थी, वह ऐसी थी …

श्री सती अघोर मुख की ज्ञान शक्ति ही थीं I

अघोर से वामदेव ब्रह्म का मार्ग प्रदक्षिणा का था I

इस मार्ग में, श्री सती ने सद्योजात में जाकर वामदेव में प्रवेश किया I

श्री सती ने सद्योजात की इच्छा शक्ति और वामदेव की पराशक्ति को पाया था I

  • श्री सती जब अघोर मुख से वामदेव मुख तक वैदिक प्रदक्षिणा मार्ग से पहुंची और उन्होंने जन्म लिया और उसके पश्चात जब उन्होंने उसी वैदिक परिक्रमा मार्ग पर आगे जाते हुए, तत्पुरुष सदाशिव से विवाह भी कर लिया, तब उनकी योग और सिद्धि दशा जैसी थी, वह अब बताता हूँ…

श्री सती ही श्री पारवती रूप मे आयी थीं I

वह अघोर मुख की ज्ञानशक्ति की धारक थीं I

वह सद्योजात मुख ही इच्छाशक्ति की धारक थीं I

वह वामदेव मुख की पराशक्ति की भी धारक हो गई थीं I

महेश्वर से विवाह करके, वह तत्पुरुष की क्रियाशक्ति की धारक थीं I

ऐसा होने पर श्री सती, श्री पार्वती रूप में सर्वशक्ति महेश्वरी कहलाई थी I

और श्री सती, श्री पार्वती के श्री महेश्वरी रूप में साक्षात आदि पराशक्ति ही थीं

श्री पारवती, सदाशिव प्रदक्षिणा पूर्ण करके सर्वमाता, आदि पराशक्ति स्वरूप पाई थीं I

 

टिप्पणियाँ भाग 3:

अब थोड़ा और ध्यान देना, क्यूंकि यहाँ पर इस भाग से संबद्ध, कुछ सार्वभौम वैदिक बिन्दुओं को बता रहा हूँ…

  • जब श्री सती का स्वयंप्रादुर्भाव अघोर मुख से हुआ था, तब वह यहां बताए जा रहा वैदिक सिद्धांत का पूर्णतः उल्लंघन करी हुई थीं I
  • और इसीलिए वह अपने उस श्री सती के जन्म में, महेश्वर (अर्थात योगेश्वर या सदाशिव का तत्पुरुष) से साथ नहीं रह पाई थीं I
  • अघोर मुख की ज्ञान शक्ति ही शक्ति पीठें हैं, जिनमें श्री सती के शरीर के भाग गिरे थे, और इसी सिद्धांत को बौद्धों ने “बुद्ध के पुरावशेष (अवशेष)” से जोड़ दिया था I इस बौद्ध सिद्धांत के मूल में वैदिक सिद्धांत की माँ सती ही हैं I
  • बौद्धों का यह “बुद्ध अवशेष सिद्धांत” उससे कहीं पूर्व के वैदिक सिद्धांत से ही लिया गया है, जिसका नाता श्री सती और परमगुरु महेश्वर से ही है I
  • जब अपने अगले जन्म में, श्री सती ने अपनी यह त्रुटि ठीक करी थी, तो वह वह सदाशिव वामदेव की सुपुत्री रूप में स्वयंप्रादुर्भाव हो पाई थी, और अपने वामदेव सुपुत्री स्वरूप में ही वह श्री पार्वती स्वरूप में आई थीं, और इसी स्वरूप में वह महेश्वर से विवाह करके, सुखी हो पायी थी I और ऐसी दशा में ही वह श्री महेश्वरी कहलाई थीं I
  • क्यूंकि महेश्वर ही योगेश्वर हैं, इसलिए महेश्वर से विवाह करके, श्री पार्वती ही इस महाब्रह्माण्ड में योगेश्वरी स्वरूप में आई थीं I
  • और श्री पार्वती के उस महेश्वरी और योगेश्वरी स्वरूप का नाता, सावित्री विद्या सरस्वती से ही था I और शिव के महेश्वर और योगेश्वर स्वरूप का नाता कार्य ब्रह्म से ही था I
  • इसका यह अर्थ हुआ, कि वैदिक सिद्धांत केवल इस स्थूल लोक पर ही नहीं, बल्कि समस्त ब्रह्म रचना और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं आदि पर भी समान रूप में लागू होते हैं I
  • ऐसा भी इसलिए है क्यूंकि वैदिक सिद्धांत सर्वव्यापक हैं और अपने सार्वभौम स्वरूप में, इस ब्रह्म रचना में पूर्णरूपेण और इसी ब्रह्म रचना के प्रत्येक भाग पर समानरूपेण क्रियान्वित हो रहे हैं I
  • और क्यूंकि आज के कलियुग में यह सिद्धांत का पालन ही नहीं करा जाता, इसलिए पारिवारिक और सामाजिक मतभेद प्रकट होते हैं, परिवारजनों में ही आपस में रमण होता है, गुरु शिष्य परंपरा में भी अधोकर्मों से युक्त और विकृत अर्थ से संयुक्त कुकर्म हो रहे हैं I माता पिता के द्वारा इस सिद्धांत का उल्लंघन ही उनके वंशजों के समलैंगिकता आदि विकृत दशाओं में मानव जाती की गति होने का कारण बना हुआ है I और इसके अतिरिक्त इसी वैदिक सिद्धांत का उल्लंघन ही और बहुत सारे दुष्कर्मों का कारण बना हुआ है I

 

टिप्पणियाँ भाग 4: अब उन श्री सती, जो श्री पार्वती के स्वरूप में सदाशिव के वामदेव मुख से स्वयंप्रादुर्भाव हुई है और उन महेश्वर, जो योगेश्वर ही हैं, उनसे विवाह करके महेश्वरी कहलाई है, उनके बारे में कुछ और मुख्य बिंदु बताता हूँ…

महेश्वरी ही सदाशिव के समस्त मुखों की शक्ति धारक हैं I

ऐसा होने के कारण, वह साक्षात गुरुमाई श्री आदि पराशक्ति ही हैं I

गुरुमाई ही पञ्च कृत्य, पञ्च भूत, पञ्च तन्मात्र आदि की स्वामिनी हैं I

गुरुमाई आदि पराशक्ति ही अपने साक्षात मातृशक्ति स्वरूप में अतिमानव हैं I

गुरुमाई ही कुछ विशिष्टविशेष योगीजनों को अपना यह स्वरूप प्रदान करती हैं I

ऐसे अतिदुर्लभ उत्तमोत्तकृष्ट योगीजन, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में अतिमानव कहलाते हैं I

तो इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम अतिमानव, पञ्च देव, पञ्च कृत्य आदि होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

 

 

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