हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय, चतुर्लिंगात्मक हिरण्यगर्भ, हिरण्यगर्भात्मक चतुर्लिंग, तारक लिंग, खखोल्क लिंग, महाकालेश्वर, हृदय लिंग, आकाश लिंग, कुण्डलिनी लिंग, मूल लिंग, आधार लिंग, पाताल लिंग, शंख, गदा, कमल, अरुण स्तम्भ, गरुड़ स्तम्भ, खखोलक मंत्र, शब्द ब्रह्म, लघु ब्रह्मास्त्र, निर्वाणधातु

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यहाँ पर हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का चतुर्लिंग स्वरूप, चतुर्लिंगात्मक हिरण्यगर्भ, तारक लिंग, खखोल्क लिंग, महाकालेश्वर, महाकाल, हृदय लिंग, आकाश लिंग, कुण्डलिनी लिंग, मूल लिंग, आधार लिंग, पाताल लिंग, शंख, गदा, कमल, अरुण स्तम्भ, गरुड़ स्तम्भ, खखोलक मंत्र, शब्द ब्रह्म, लघु ब्रह्मास्त्र, निर्वाणधातु आदि बिंदुओं पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2007-2008 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी के प्रारंभ तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इकहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का दसवाँ अध्याय है I

 

आकाशे तारकेलिंगम् पाताले हाटकेश्वरम् I

मृत्युलोके महाकालम् लिंगत्रयं नमोस्तुऽते II

 

टिप्पणियाँ:

  • पहले एक बात बता दूं, मेरे सनातन गुरु जो मेरे हृदय की शुन्य गुफा के भीतर की तमस गुफा में निवास करते हैं, उन्होंने स्पष्ट कहा है, कि मैं तेरे इस ग्रंथ को तबतक व्यापक भी नहीं होने दूंगा, जबतक वह समय न आए, जो इसके लिए उपयुक्त होगा I
  • ऐसा समय आने तक यह ग्रंथ तेरे द्वारा प्रकाशित होकर भी उन्ही तक पहुंचेगा, जो इस घनघोर कलियुग में भी वह साधकगण हैं, जो इसके या तो पात्र हैं अथवा इसको जानने के लिए ही जन्म लिए हैं I
  • और इन सब साधकगणों में से भी, सभी इस ग्रंथ को एक साथ नहीं जान पाएंगे I
  • इस ग्रंथ और तुमपर भी पर मेरी माया का ऐसा ही प्रभाव होगा I
  • इसलिए तुम भी इस ग्रंथ का प्रचार नहीं करना, बस प्रकाशित करके, शांतचित्त होकर बैठ जाना I
  • इस ग्रंथ सहित, इसके मार्ग को तुम्हारे पूर्व जन्मों की शेष गुरुदक्षिणा ही मानकर लिखना… और अंततः, यही तुम्हारा और अन्य पात्रों का भी ब्रह्मत्व पथ होगा I

 

और मेरे मेरे हृदय की शुन्य गुफा के सनातन गुरु कुछ ऐसा भी बोले थे, कि यह बिन्दु भी स्मरण में रहें…

अब से स्वयं ही स्वयं में जा I

ब्रह्मत्व पथ का योगी बनिया नहीं होता I

आत्ममार्गी योगी ही ब्रह्मत्व पथगामी हो पाता है I

योग और वेद का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष व्यापार नहीं होता I

योगी कभी बनिया नहीं होता और बनिया कभी योगी नहीं हुआ है I

इस ग्रंथ का प्रकाशन भी इन्हीं सब बिंदुओं को स्मरण में रखकर करना I

ऐसा करने से, तेरा और पाठकगणादि का उद्धार इसी कलियुग में होने लगेगा I

ग्रंथ हेतु यज्ञोपवीत के स्थान पर सिद्ध एकमुखी युक्त  इन्द्राक्षी माला धारण करो I

आगे बढ़ता हूँ …

 

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लिंग शब्द का अर्थ होता है, चिन्ह, द्योतक, सूचक इत्यादि I

निर्गुण निराकार ब्रह्म का चिन्ह, द्योतक, सूचक स्वरूप लिंग है I

 

अब हिरण्यगर्भ ब्रह्म का चतुर्लिंग स्वरूप संक्षेप में बताता हूँ…

साधक की काया से संबद्ध हिरण्यगर्भ का चतुर्लिंग स्वरूप है I यही हिरण्यगर्भ का चतुर लिंग है जो साधक अपनी काया के भीतर बसा हुआ ही साक्षात्कार करेगा I इस अध्याय में इसी को बताया जाएगा I

 

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आकाशे तारकेलिंगम्, तारक लिंग, तारकालिंग, आकाश लिंग, तारका लिंग
आकाशे तारकेलिंगम्, तारक लिंग, तारकालिंग, आकाश लिंग, तारका लिंग

 

 

आकाशे तारकेलिंगम् का अर्थ होता है, जो आकाश में व्याप्त जो लिंग है, वह ही तारक लिंग है I

तारक का अर्थ होता है, जो तारण करने वाला हो, अर्थात जो मुक्ति को प्रदान करने वाला हो, कैवल्य मोक्ष प्राप्ति का साधन हो, और मुक्तिमार्ग ही हो I

सहस्रार चक्र का नाता आकाश से होता है और आकाश का शब्द उन ब्रह्म का ही द्योतक है जो कैवल्य मोक्ष के शब्द को दर्शाते हैं, इसलिए इस मस्तिष्क के लिंग का नाता भी आकाश से ही है I

इसी को एक पूर्व के अध्याय में हरिहर लिंग भी कहा गया था और उस अध्याय में यह भी कहा गया था, कि इसी के स्थान के समीप महामृत्युञ्जय मंत्र चलित हो रहा होता है I

तारक लिंग होने के कारण इस लिंग का साक्षात्कारी साधक मुक्तिमार्ग पर ही चल पड़ता है और जहाँ वह मुक्तिमार्ग के भी कई सारे पड़ाव होते हैं, जिन्हे इस ग्रंथ में बताया भी गया है I

इसलिए, जिस भी योगी ने इस लिंग का साक्षात्कार कर लिया, वह मुक्तिमार्गी, अर्थार्त मुमुक्षु होके ही अपने ऐसे मुक्तिपथ मार्ग पर जाएगा I

मुमुक्षु वह होता है जिसका जीव जगत कोई नाता नहीं होता है I मुमुक्षु की धारणा में केवल (ब्रह्म) ही होता है I और ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि …

सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता I

मुक्त कभी भी सिद्ध नहीं हुआ है I

मुक्त को सिद्धियों से क्या लेना देना? I

मुक्त तो सिद्धियों से भी मुक्त ही होता है I

मुमुक्षु के लिए सिद्धियाँ ही बंधनकारी होती हैं I

जो सिद्धि है, उसको मुक्तिबंधन से क्या लेना देना? I

सिद्ध कभी भी मुक्त और मुक्त कभी सिद्ध नहीं हो सकता I

 

इसलिए आज जो कहते हैं कि अमुक मनीषि मोक्ष सिद्धि को पाया है, वह सब के सब मूर्ख ही हैं क्यूंकि उस सिद्धितीत मोक्ष की कोई सिद्धि कैसे हो सकती है? I ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

आत्मा ही तुरीयातीत है I

तुरीयातीत की क्या सिद्धि? I

तुरीयातीत ही सिद्धितीत होता है I

जो सिद्धितीत ही है, उसकी कैसी सिद्धि? I

अपनी तुरीयातीत आत्मा को सिद्ध कैसे कर सकोगे? I

जो तुम अनादी कालों से हो ही, उसको सिद्ध कैसे करोगे? I

जो तुम्हारा वास्तविक स्वरूप ही है, उसको सिद्ध कैसे करोगे? I

इसलिए…

मुक्ति हुआ जाता है I

न कि मुक्ति को प्राप्त करा जाता है I

मुक्ति कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों से अतीत है I

मुक्ति कर्मातीत है, फलातीत है, संस्कारातीत हैमुक्ति प्राप्तितीत है I

किन्तु ऐसा होने पर भी, उस मुमुक्षु को पता ही होता है कि…

सिद्ध ही गुरु होता है I

मुक्त न गुरु और न ही शिष्य है I

सिद्ध से उत्कृष्ट कोई गुरु नहीं होता है I

मुक्त से ही उत्कृष्ट मुक्तिपथ प्रशस्त होता है I

सिद्ध उत्कर्षपथ का प्रकाशक और मुक्त मुक्तिपथ का I

उस उत्कृष्ट मुक्तिपथ पर भी सिद्ध ही गमन कर सकते हैं I

ऐसा भी इसलिए है क्यूंकि पूर्व का सिद्धि ही भविष्य का मुतकात्मा होता है I

लेकिन मुमुक्षु यह भी जानता है…

त्याग ही अयोग है I

त्याग ही मुक्तिपथ होता है I

सर्वस्व से अयोग ही मुक्ति है I

अयोग से पूर्व योग सिद्धि होती है I

योग से ही अयोग मार्ग प्रशस्त होता है I

सिद्धियाँ भी सर्वस्व शब्द का अंग होती हैं I

जबतक कुछ प्राप्त ही नहीं हुआ, त्यागोगे किसको? I

आगे बढ़ता हूँ…

यहाँ जो अयोग का शब्द कहा है, वह तीर्थांकरों और जैनमार्ग के सिद्धों द्वारा दिया गया है I इससे उत्कृष्ट कोई सिद्धांत है ही नहीं, क्यूंकि …

अयोग सर्वस्वत्याग का द्योतक है I

सर्वस्व त्यागी ही मुक्तात्मा होता है I

सर्वस्व त्यागी ही पूर्ण संन्यासी होता है I

सर्वस्वत्याग ही कैवल्य मोक्ष का द्योतक है I

कैवल्य, अपनी रचना का साक्षी, निर्गुण ब्रह्म है I

कैवल्य, साधक की आत्मा हैआत्मस्वरूप केवल है I

कैवल्य ही सिद्धितीत, तुरीयातीत और सर्वातीत होता है I

कैवल्य ही अतीत शब्द से युक्त, उत्कृष्ट शब्दों द्वारा दर्शाया गया है I

आगे बढ़ता हूँ…

योग सिद्धि त्यागने से पूर्व, वह योगसिद्धि होनी ही होगी I

जिसका सर्वस्व से योग ही सिद्ध नहीं हुआ है, वह कैसा योगी? I

जिसका संपूर्ण रचना से योग ही सिद्ध नहीं हुआ, वह कैसा सिद्ध I

योगशिखर पर बैठा सिद्ध ही आगामी समय का पूर्ण त्यागी हो पाएगा I

आगे बढ़ता हूँ…

निर्गुण ब्रह्म ही पूर्ण संन्यासी हैं I

पूर्ण संन्यासी ही सर्वस्व त्यागी होता है I

सर्वस्वत्यागी अर्थात निर्गुण ब्रह्म ही सर्वसाक्षी हैं I

अपनी आंतरिक स्थिति में मुमुक्षु भी ऐसा ही होता है I

इसके विपरीत जो सिद्ध होता है, वह सर्वधारक ही होता है I

सर्वधारक सिद्ध ही पूर्ण ब्रह्म का सगुण साकार स्वरूप होता है I

इसके विपरीत मुक्तात्मा निर्गुण निराकार का सगुण स्वरूप होता है I

निर्गुण ब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म के भीतर बसा हुआ है, इसलिए पूर्ण ही है I

पूर्ण में ही निर्गुण और निर्गुण में ही पूर्ण बसा हुआ है, पूर्ण ही सत्य है I

पूर्व ने ही निर्गुण और निर्गुण ने ही पूर्ण को घेरा हुआ है, पूर्ण ही सत्य है I

पूर्ण ब्रह्म, जीवन और मृत्यु, बंधन और मोक्ष आदि मूल द्वैतवादों से सुदूर है I

 

लेकिन यह सब होने पर भी वह मुमुक्षु जानता ही है कि…

मुक्त कभी सिद्ध नहीं हुआ I

मुक्तिमार्ग में सिद्धियाँ होती ही हैं I

अंततः सिद्ध ही मुक्तात्मा हो पाता है I

जबतक सिद्धि ही नहीं हुई, त्यागोगे किसको? I

ब्रह्मरचना के त्याग से पूर्व, उसकी सिद्धि होनी होगी I

जबतक संपूर्ण ब्रह्मरचना से योग नहीं, सिद्धि कैसे होगी? I

जबतक सम्पूर्ण रचना ही सिद्ध नहीं है, उसको त्यागोगे कैसे? I

जबतक संपूर्ण ब्रह्मरचना त्यागोगे नहीं, उससे अतीत कैसे होगे? I

जबतक सम्पूर्ण ब्रह्मरचना से ही अतीत नहीं होगे, मुक्त कैसे होगे? I

मुमुक्षु त्यागभाव में बसकर, सिद्धियाँ प्राप्त करके उनको त्यागता ही है I

मुमुक्षु जानता है, कि उसका मुक्तिमार्ग सिद्धियों से ही होकर ही जाना है I

वह मुमुक्षु जैसेजैसे सिद्धियाँ पाएगा, वैसेवैसे उनका त्याग भी करता जाएगा I

जिस योगी ने संपूर्ण ब्रह्म रचना सिद्धि करके, उसको त्यागा है, वही मुक्तात्मा है I

और वह मुमुक्षु यह भी जानता है…

पूर्व का पूर्ण सिद्ध ही आगामी समय का मुक्तात्मा होगा I

सिद्धों द्वारा ही जीव जगत में उत्कर्षपथ प्रशस्त हो सकता है I

मुक्तात्मा से ही जीव जगत से अतीत जाने का मुक्तिपथ प्रशस्त होगा I

इसलिए…

मुक्त का गुरु शिष्य से कुछ भी लेना देना नहीं I

सिद्ध ही उत्कर्ष पथ का प्रकाशक, गुरु हो सकता है I

सिद्ध ही गुरु शिष्य परंपरा का प्रकाशक, धारक होता है I

सिद्ध उत्कर्ष पथ प्रकाशित करके ही, मुक्तात्मा हो पाएगा I

मुक्तात्मा अंतिम गुरु होता हुआ भी, स्वयं को गुरु नहीं मानेगा I

जबतक सिद्ध उत्कर्षपथ प्रकाशित नहीं करता, मुक्त भी नहीं होता I

यदि योगी, जीवित ही मुक्त हुआ है, तो वह जीवन्मुक्त होकर ही रहेगा I

मुक्तात्मा जीवित सा और पृथक बंधनों में प्रतीत होता हुआ भी, मुक्त ही है I

मुक्तात्मा होता हुआ भी, अब नहीं रहा है नहीं होता हुआ भी, सदैव ही रहेगा I

अब इन सब बिंदुओं को आधार बनाकर, आगे बढ़ता हूँ…

 

इस लिंग को आकाश से जोड़कर क्यों बताया गया है, यह बतलाता हूँ

पूर्व के अध्याय जिसका नाम प्राणमय कोष था, उसमें बताया गया था कि कण्ठ से मस्तिष्क तक और कपाल के ऊपर की हड्डियों तक उदान प्राण होता है, जो बैंगनी वर्ण का होता है I

और इसके अतिरिक्त, जब हम आकाश महाभूत का साक्षात्कार करते हैं, तब उसका वर्ण भी बैंगाणी ही होता है I

पूर्व की अध्यय श्रंखला जिसका नाम पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग था, उसके एक अध्याय (अघोर) में बताया गया था, कि सर्वप्रथम अघोर ब्रह्म में ही आकाश महाभूत का साक्षात्कार होता है I और ऐसा तब भी है जब आकाश महाभूत ईशान ब्रह्म से ही संबद्ध होता है I योगमार्ग में सदाशिव का अघोर मुख और माँ गायत्री का नीला मुख भी कण्ठ कमल में ही होता है और इसी कण्ठ कमल में ही वह उदान प्राण बसा हुआ होता है I

यह लिंग मस्तिष्क के ऊपर के भाग में शिवरंध्र के समीप ही होता है, जो इसी बैंगनी वर्ण के उदान प्राण के क्षेत्र में ही बसा हुआ है, और जो आकाश महाभूत का द्योतक भी है I इसलिए इस मस्तिष्क के लिंग को आकाश से जोड़कर ही कहा गया है I

और इसके अतिरिक्त, सहस्रार चक्र भी आकाश महाभूत से ही जुड़ा हुआ है, और इस लिंग का नाता सहस्रार चक्र से भी होता ही है I इसलिए भी इसको आकाश शब्द से जोड़कर बताया गया है I

 

अब इस आकाश लिंग का साक्षात्कार मार्ग बतलाता हूँ …

हृदय का अंतःकरण चतुष्टय, हृदय का अंतःकरण, हृदय के चार अंतःकरण
हृदय का अंतःकरण चतुष्टय, हृदय का अंतःकरण, हृदय के चार अंतःकरण

 

यह चित्र एक पूर्व के अध्याय, जिसका नाम अंतःकरण चतुष्टय था, उसी का है I क्यूंकि इस चित्र और इसकी दशा के बारे में उस पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए उन बिंदुओं को पुनः यहाँ पर नहीं बताया जाएगा I

अंतःकरण का स्थान हृदय के एक गड्ढे में होता है जिसका आकार अंगुष्ठ के ऊपर के भाग समान होता है, और इसी गड्ढे में यह अंतःकरण साक्षात्कार होता है I

आकाश लिंग (तारका लिंग, तारक लिंग) के साक्षात्कार का मार्ग, अन्तःकरण चतुष्टय से होकर ही जाता है I

जब साधक अंतःकरण साक्षात्कार करके, उसकी सिद्धियों से अतीत होने के मार्ग पर निकल पड़ता है, तब वह अंतःकरण चतुष्टय का प्रकाश हृदय के उस अंगुष्ठ के ऊपर के भाग के समान गड्ढे से बाहर निकल जाता है I

ऐसी दशा में साधक ऐसा भी पाएगा, कि उसके अंतःकरण का प्रकाश अब हृदय के उस गड्ढे तक ही सीमित नहीं रहा है I

और इस दशा में वह प्रकाश, हृदय से बाहर निकलकर, ऊपर मस्तिष्क और कपाल की हड्डियों तक गति करने लगता है I ऐसी दशा में साधक जो पाएगा, वह ऐसा होगा…

हृदय से प्रकाश की कुछ किरणें मस्तिष्क की ओर जा रहीं हैं I

मस्तिष्क में वह किरणें शिवरंध्र के नीचे के एक लिंग को प्रकाशित भी कर रही हैं I

यही इस लिंग का साक्षात्कार मार्ग है I

 

अब आकाश लिंग और कर्म का त्याग मार्ग, अर्थात आकाश लिंग के साक्षात्कार से कर्मों का त्याग मार्ग बताता हूँ…

इस आकाश लिंग के साक्षात्कार के कुछ समय पश्चात, साधक के संज्ञान में कुछ ऐसा ही आने लगेगा…

कर्मफल के मूल में कर्म है I

कर्मफल ही अगले कर्मों का कारण बनता है I

कर्म और कर्मफल का सिद्धांत ही कर्म रूपी बंधन है I

कर्म ही कर्मफल का और कर्मफल ही अगले कर्म का कारण है I

कर्म और कर्म फल सिद्धांत से पाइ हुई मुक्ति कर्माधीन मुक्ति ही है I

कर्म और कर्मफल का चक्र, उत्कर्ष पथ होता हुआ भी, मुक्ति कारण नहीं है I

इस अनादि अनंत चक्र से बाहर जा कर ही कर्मातीत मुक्तिमार्ग प्रशस्त होगा I

यह इस साक्षात्कार का एक मुख्य भाव है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसी से साधक कर्म, कर्म फल, उनके संस्कार और सिद्धियों के त्यागमार्ग पर गति करने लगता है I

इसी त्यागमार्ग में साधक सिद्धियों को प्राप्त करता है, और जैसे-जैसे वह सिद्धि प्राप्त होती जाती हैं, वैसे-वैसे उनका भावनात्मक त्याग भी करता जाता है I

क्यूंकि वह सिद्धियाँ अपनी-अपनी ब्रह्माण्डीय दशाओं से ही संबद्ध होती हैं, इसलिए वह अपनी-अपनी ब्रह्माण्डीय दशाओं को ही सिद्धि रूप में दर्शाती हैं I

और जैसे-जैसे साधक उनका भावनात्मक त्याग करता जाता है, वैसे-वैसे इस त्याग के पश्चात, वह सिद्धियाँ उनके अपने-अपने ब्रह्माण्डीय आदि कारणों में स्वतः ही लय भी होती जाती हैं I

 

अब ध्यान देना…

जब साधक के भीतर का ब्रह्माण्ड उस ब्रह्माण्ड में लय हो जाएगा, जिसके भीतर साधक की काया बसी हुई है, तब जो शेष रहेगा, वह सिद्धितीत ब्रह्म है I

जब साधक के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाएं अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाएंगी, तब जो शेष रहेगा, वह तुरीयातीत आत्मा ही है I

वह सिद्धितीत ब्रह्म जो तुरीयातीत आत्मा ही है, वही योगी का आत्मस्वरूप है I

 

इस सिद्धि और इसके पश्चात के त्याग मार्ग में वह साधक वर्णाश्रम सम्बद्ध कर्मों का आलम्बन लेकर ही जाएगा…

ब्राह्मण वर्ण सम्बद्ध कर्मों से वह उसका साक्षात्कार करेगा I

क्षत्रिय वर्ण से सम्बद्ध होकर से वह उसके अस्त्र रूप को जानेगा I

वैश्य वर्ण से संबद्ध होकर से वह उसके प्राकृत अर्थ रूप को जानेगा I

और शूद्र वर्ण से सम्बद्ध होकर वह उससे संबद्ध सेवा प्रकल्प जानेगा I

इस ज्ञान से वह उनका त्याग भी ब्राह्मण वर्ण से संबद्ध कर्मों से ही करेगा I

वह न उन सिद्धियों से आसक्त, न अनासक्त, न ही इन दोनों के मध्य में रहेगा I

 

ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि…

जीव जगत में कुछ है ही नहीं, जो वैदिक वर्णाश्रम के अन्तर्गत नहीं आता I

वर्णाश्रम के अन्तर्गत ही प्रकृति के समस्त भाग भी आते हैं I

यही वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था का सार्वभौम स्वरूप है I

इसी में बसकर सिद्धि का पूर्ण विश्लेषण होता है I

लेकिन जो ऐसा विश्लेषण नहीं करेगा, वह उन सिद्धियों के प्रभाव में आकर, इनमें ही फंस जाता है I

और ऐसी दशा में वह उस मुक्तिमार्ग पर भी गमन नहीं कर पाएगा जो सिद्धितीत दशा की ओर लेकर जाता है I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

पाताले हाटकेश्वरम्, पाताल का हाटकेश्वर लिंग, कुण्डलिनी लिंग क्या है, मूल लिंग, आधार लिंग, पातालपुरी का लिंग, पाताल लिंग, हिरण्यगर्भ का आधार लिंग स्वरूप, हिरण्यगर्भ का मूल लिंगात्मक स्वरूप,  हिरण्यगर्भ का पाताल लिंग, पाताल लिंग क्या है, मूल लिंग क्या है, आधार लिंग क्या है, पातालपुरी का लिंग क्या है, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का आधार लिंग, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का मूल लिंगात्मक स्वरूप,  हिरण्यगर्भ ब्रह्म का पाताल लिंग, हिरण्यगर्भ का पाताल लिंग स्वरूप क्या है, …

पाताले हाटकेश्वरम्, हाटकेश्वर लिंग, कुण्डलिनी लिंग, मूल लिंग, आधार लिंग, पाताल लिंग
पाताले हाटकेश्वरम्, हाटकेश्वर लिंग, कुण्डलिनी लिंग, मूल लिंग, आधार लिंग, पाताल लिंग

 

सर्वप्रथम इस लिंग को बताता हूँ…

जब साधक की चेतना, निरालम्ब चक्र पर जाकर पुनः नीचे की ओर आती है, और वह चेतना मूलधारा के समीप गुदा और लिंग के मध्य भाग में और थोडा सा ऊपर की ओर ही स्थित हो जाती है, तब इस लिंग का प्राकट्य उस साधक की काया के भीतर होता है I

इसी को यहाँ पर पाताले हाटकेश्वरम् के शब्दों से कहा गया है I

यही हिरण्यगर्भात्मक कुण्डलिनी लिंग है, क्यूंकि इसके प्रकाट्य के पश्चात, इसी में से वह कुण्डलिनी शक्ति चालित होने लगती हैं I और ऐसा होने के कारण, यही मूल लिंग भी है I

यह लिंग स्वर्ण वर्ण का बहुत ही प्रकाशमान लिंग है I

इसके बाहर की ओर, कई सारे छोटे-छोटे लिंग होते हैं, जो इसकी शक्ति के विस्तार को समस्त देवी देवताओं में, समस्त चतुर्दश भुवन में दर्शाते है I यह वैदिक आर्य धर्म का आधार लिंग ही होता है I

इससे शक्तिशाली न कोई लिंग हुआ है, न ही कोई हो सकता है I

इस लिंग की सतह पर, बहुत सारे, छोटे-छोटे से सुनहरे लिंग होते हैं I

इस चित्र में, जो यह छोटे-छोटे से लिंग हैं, वह इसी सुनहरे लिंग के ऊपर बिंदु स्वरूप में दिखलाये गए हैं I

यही काया के भीतर जो चतुर्दश भुवन है, उसका लिंगात्मक स्वरूप है, जो योगी की काया के भीतर जो पाताल है, उसमें ही पड़ा हुआ होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह इस समस्त चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्माण्ड का आधार लिंग है, और जहाँ वह आधार भी पाताल में ही डाला जाता है I

यह आधार लिंग का चित्र, मैंने ऊपर से जैसा दिखाई देता है, वैसा बनाया है I इस चित्र की दशा उस साक्षात्कार जैसी ही है, जैसे कोई पक्षी उड़ता हुआ माँ धरती को देखता है I इसलिए जैसे कोई इस लिंग को, इसके ऊपर से देखेगा, वैसा ही इस चित्र में दिखाया गया है I

यह होता तो एक ही लिंग है, किन्तु इसमें से और बहुत सारे (असंख्य) छोटे-छोटे लिंग, इस लिंगाकार से बाहर निकल रहे होते हैं I

और यह सभी छोटे-छोटे लिंग इससे जुड़े हुए भी होते हैं I इन्हीं छोटे लिंगरूपों को इस चित्र में इसी लिंग पर बिन्दु के रूपों में दिखाया गया है I यह भी सुनहरे वर्ण का ही है, और इसका नाता भी हिरण्यगर्भ ब्रह्म से ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

शरीर में ही चतुर्दश भुवन होते हैं I

सात चक्र होते हैं, जो मेरुदण्ड में होते हैं I

सबसे ऊप्पर वाला चक्र, सहस्र दल कमल कहलाता है I यह चक्र, सहस्रार भी कहलाता है, क्यूंकि इससे संबद्ध ही “सहस्र रा शब्द होता है” होते है I

महाभूत साक्षात्कार मार्ग में यह चक्र सबसे ऊपर के महाभूत, आकाश को दर्शाता है I और योगमार्ग में सहस्रार के बाद की अवस्था में, शुन्य होता है, इसलिए इस चक्र को शुन्य चक्र भी कहा जाता है I

और सबसे नीचे वाला चक्र, मूलाधार कहलाता है, जिसके मध्य में, एक लाल रंग का बिंदु होता है और इस चक्र के चार श्वेत वर्ण के पत्ते होते हैं I इसके देवता, कार्य ब्रह्म होते हैं जिनके बारे में एक पूर्व में बतलाया गया है I

इस मूलाधार चक्र के थोड़ा सा नीचे, शरीर के सप्त पाताल पाए जाते हैं I

यह लिंग, तुम्हारे शरीर की उस पाताल पुरी में होता है, इसलिए इसकी रक्षा भी वो पाताल पुरी के सम्राट, राजा बलि ही करते है I

और क्यूंकि यह लिंग शरीर में बसी हुई, पाताल पुरी से ही संबद्ध होता है, इसलिए, इससे पाताले हाटकेश्वरम् से बतलाया गया है I

हाटकेश्वरम् में जो हाट शब्द है वह गुरुशिव का द्योतक है और जो केश्वरम् का शब्द है वह श्री विष्णु का I इसलिए यह लिंग, परमगुरु शिवा का होते हुए भी, सनातन गुरु विष्णु का भी होता है I

जो शिव का है, वो ही शक्ति का भी है I

और यह लिंग सुनहरा होने के कारण, हिरण्यगर्भ ब्रह्म से भी सम्बद्ध है I

इसलिए, यह पाताले हाटकेश्वरम् शब्दों से बतलाया गया लिंग, त्रिमूर्ति और त्रिशक्ति, दोनों का ही वाचक है I

जिस योगी के शरीर में यह लिंग प्रकट होता है, उसपर त्रिमुर्ति और त्रिशक्ति का अनुग्रह रहा ही होगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अधिकांशतः इस लिंग का स्वरूप, सुनहरा नहीं होता I

अधिकांश योगियों में इसका वर्ण काले जामुन के सामान होता है, और यही काले जामुन सी अवस्था के कारण, इससे थोड़ा ऊपर के स्थान को, सप्त द्वीपों में, जम्बूद्वीप कहा गया था, जो योगी के शरीर के भीतर भी होता है I

जब किसी भी योगी के शरीर में, यह लिंग सुनहरे वर्ण का हो जाता है, तो उसके पश्चात ही उस धरा पर, जम्बूद्वीप के वैदिक सिद्धांत का उदय होता है I

और इसके पश्चात, चाहे ब्रह्माण्ड में कोई भी युग हो, मानव के भीतर वैदिक युग का प्रादुर्भाव होता है I इस भूलोक में, आगामी समय में यही बिंदु प्रत्यक्ष भी होगा I

सतयुग भीतर की दशा है I

कलियुग बाहर की ही दशा है I

आत्ममार्ग का युग सतयुग होता है I

अनात्ममार्ग का युग कलियुग ही होता है I

काया के बाहर से सतयुग कभी भी नहीं आया है I

कलियुग भी काया के भीतर से कभी भी नहीं आया है I

बाह्य देवत्व में क्षमता है ही नहीं कि सत्युग प्रकट कर दे I

जब अधिकांश जीव जाती, भीतर के मार्गों में होगी, वह सतयुग है I

जब अधिकांश जीव जाती, बाहर के मार्गों से संबद होगी, वह कलियुग है I

इस ग्रंथ के स्वयं ही स्वयं में के वाक्य का जो युग स्वरूप है, वही सतयुग है I

स्वयं ही स्वयं में के मार्ग में युग चाहे कोई भी हो, योगी सतयुग में ही रहता है I

सतयुग के देवता चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा ही हैं, जिनका मार्ग ब्रह्मत्व पथ होता है I

उस ब्रह्मत्व पथ में ही शिवत्व सहित शाक्तत्व, विष्णुत्व और गणपत्व बसा होता है I

सतयुग सदैव ही योगी की काया में उदय होकर, चतुर्दश भुवन में स्थापित हुआ है I

कलियुग भोगियों की काया से बाहर की ओर उदय होकर लोकादि में रोगरूप में आता है I

और कुछ बिंदु…

जो भगवान् अनाभिमानी स्वरूप में ही हैं, वह अपकर्ष के द्योतक ही हैं I

जो देवता मूलतः अभिमानी स्वरूप में ही हैं, वह अपकर्ष के ही द्योतक हैं I

 

इन बिंदुओं के साथ साथ…

जो देवता जीव जगत का रचैता होने तक ही सीमित हैं, वह अपकर्ष द्योतक हैं I

जो भगवान् जीव जगत का रचैता और जीव जगत भी हुए हैं, वह उत्कर्ष द्योतक हैं I

और इनके साथ साथ…

जो देवता अभिमान और अनाभिमान दोनों में है, वह मुक्तिमार्ग का द्योतक है I

जो देवता अभिमान और अनाभिमान दोनों से अतीत है, वह मोक्ष का द्योतक है I

हिरण्यगर्भ ब्रह्म अभिमान और अनाभिमान दोनों में बसे हैं और इनसे अतीत भी हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसलिए आज जो कहते हैं कि सतयुग में अमुक देवता की उपासना से अथवा मंदिर या स्वरूप से सतयुग प्रकट होगा, और ऐसा कहने पर भी वह उन देवता को अपनी और अन्यान्य जीवों की काया, ब्रह्माण्ड और पिण्डों से बाहर ही मानते हैं, वह सब के सब मूर्ख ही हैं I

बाह्य मार्गों के देवताओं में सत्युग को प्रकाशित करने की क्षमता भी नहीं होती I

न तो उनके ऐसे बाह्य देवता में वह क्षमता कभी थी, न है, और न ही कभी होगी I

ऐसा भी इसलिए ही होगा, क्यूंकि वह उन भगवान् को अधिकांशतः अपनी काया से बाहर किसी मंदिर, ग्रंथ, लोक अथवा स्थानादि पर ही मानते हैं I

जो भीतर और बाहर, दोनों में ही समानरूपेण और पूर्णरूपेण नहीं है, उसमें किसी चिरस्थायी उत्कर्ष की ओर लेकर जाने वाले परिवर्तन की क्षमता हुई ही नहीं है I

यदि ऐसे देवताओं आदि में ऐसी क्षमता होती तो इस लोक में, इस कलियुग के 3500 अथवा 2000 या 1450 वर्षों में ऐसा कुछ दिखाई दिया ही होता I वैसे इतने वर्षों का कालखण्ड कुछ प्रमाण देने के लिए छोटा समय भी नहीं होता है I

जो देवता पारिवारिक परंपरा का मुखिया ही न माना जाए, वह चिरस्थायी सत्य की ओर लेकर जाने वाले परिवर्तन का कारण भी नहीं होता I

जो देवता पाताल से आकाश तक पूर्णरूपेण और समानरूपेण नहीं बसा हुआ, वह यदि किसी उत्कर्ष की ओर लेकर जाने वाला परिवर्तन ला भी देगा, तो वह परिवर्तन उस पूर्णरूपेण चिरस्थायी सत्य का तो बिलकुल नहीं होगा I

इन्हीं कुछ कारणों से इस धरा के कलियुगी इतिहास में, जब भी कोई किसी परिवर्तन का कारण अथवा कारक बना है, तो उसका परिवर्तन चिरस्थायी उत्कर्ष का नहीं रहा है I

इसका कारण भी वही है कि सत्ययुग कभी भी बाहर के मार्गों से न ही आता है और न ही ऐसे मार्गों से कोई उत्कर्ष पथ ही स्थापित हो पाता है I

मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, इसलिए अपने पूर्व जन्मों के ज्ञान का स्मरण भी कर सकता हूँ I

मेरे उन पूर्व जन्मों के समय में, उत्कर्ष पथ विशुद्ध थे, और मानव जाति उत्कर्ष पथगामी थी, तब योगीजन यहाँ कही गई बात का प्रमाण ऐसे भी देते थे…

जो अपने भीतर के मणि को त्यागकर बाहर की वस्तुओं में रमण करता है, उसको टूटे हुए कांच के टुकड़ों के सिवा और कुछ प्राप्त भी नहीं होता है I

 

इस कलियुग में इस बिंदु के प्रमाण ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं है… जहाँ देखोगे वहीँ किसी न किसी स्वरूप में इस वाक्य की सत्यता के प्रमाण मिलते जाएंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ…

आगामी समयखण्ड, उन आंतरिक मार्गों का प्रमाण भी देगा I

और जब वह दशा आएगी जिसमें अधिकांश मानव जाति आज के बाह्य मार्गों को त्यागकर आंतरिक मार्गों में ही चली जाएगी, तो वह गुरुयुग जिसके बारे में इस ग्रंथ में बताया गया है, वही इस समस्त जीव जगत में प्रकट हो जाएगा I

उस गुरुयुग का आधार 2028.74 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर… अर्थात 2026.04 ईसवी से लेकर 2031.44 ईसवी तक इस स्थूल लोक में ही रखा भी जाना है I

वह गुरु युग कभी लुलपुल होकर नहीं आता, सहस्र सिंहों की दहाड़ को लेकर ही आता है I

इसलिए उस गुरुयुग के आधार स्थापित होने से पूर्व से और आगमन के चलित रहने तक, यह दहाड़ जीवों के भीतर और बाहर, दोनों ही ओर सुनाई भी देगी जिसके कारण मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक, तीनों प्रकार के विप्लव आएँगे I

यह सहस्र सिंहों की दहाड़ भी एक योगी की काया के भीतर प्रकट होकर, शनैः शनैः समस्त जीव जगत में व्यापक होगी और जीव जगत को उस गुरु युग की ओर ही ले लाएगी I इसी प्रक्रिया में यह दहाड़ अन्यान्य जीवों के भीतर से ही प्रकट होने लगेगी और शनैः शनैः ही सही किन्तु अंततः बाह्य जगत में व्यापक हो जाएगी I

कलियुग में, पुरुषार्थ चतुष्टय में, एक ही पुरुषार्थ कुछ कुछ शेष रहता है, जो अर्थ पुरुषार्थ होता है I अन्य तीन पुरुषार्थ, जो धर्म काम और मोक्ष हैं, वह कलियुग में प्रभावशाली नहीं रहते हैं I और इनके प्रभाव शाली न रहने का कारण भी वही है, जो नीचे के कुछ बिंदुओं को आधार बनाकर बताया गया है I

 

कलियुग में…

  • धर्म पुरुषार्थ, विधर्म और अधर्म में ही सीमित होकर रह जाता है, इसलिए नहीं होता I

ऐसे विधर्म और अधर्म के सिद्धांत, विश्व में न तो चिरस्थायी पाए जाते हैं और न ही व्यापक ही होते हैं I

ऐसे अधर्म और विधर्म के सिद्धांत, अपूर्ण होने के कारण, ब्रह्ममय नहीं हो पाते हैं, इसलिए अब्रह्म कहलाते हैं I और यही अब्रहम से संबद्ध अपूर्ण सिधांत समय समय पर कलह कलेश के ही कारण बनते जाते हैं I ऐसा होने का कारण है कि…

पूर्ण ही क्लेश मुक्त होता है I

अपूर्ण कभी क्लेशों से मुक्त नहीं हुआ है I

 

जिस सिद्धांत का देवता…

 

निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार तीनों में ही है, वही ब्रह्म है I

जो इन बताए गए तीन प्रकार में से किसी एक तक ही सीमित है, वह अब्रह्म है I

अब्रहममार्ग का देवता, जीव जगत का रचैता तो होता है, पर रचना नहीं हो पाएगा I

ब्रह्ममार्ग का देवता जीव जगत का रचैता भी होगा और जीव जगत रूपी रचना भी I

 

वैदिक सिद्धांत में, जो सत्य जिसने बताया होता है, अन्य सभी उसको ही उसका श्रेय देते हैं I इसी सत्य के बारे में अब गोवर्धन मठ, पुरी के शङ्कराचार्य (स्वामी निश्चलानंद सरस्वती) की वाणी में कहे गए कुछ बिंदु बताता हूँ…

जो रचैता हुआ है, किन्तु रचना नहीं हो पाया है, वह अवतार भी नहीं ले पाएगा I

ऐसे अपूर्ण देवताओं को ही प्रचारक मसीहों आदि की आवश्यकता पड़ती है I

जो रचैता और रचना दोनों ही होता है, वही देवता अवतरण कर पाएगा I

सनातन वैदिक आर्य सिद्धांत में ही अवतरण की प्रक्रिया संभव है I

यही सनातन वैदिक आर्य सिद्धांत की परिपूर्णता भी है I

 

और एक बात…

पूर्ण कभी क्लेशों का कारण अथवा कारक नहीं हुआ है I

अपूर्ण ही सभी कलह क्लेशों का कारण और कारक भी रहा है I

और क्यूंकि कलियुग इन्ही अपूर्ण (अब्रह्म) सिद्धांतों का युग है, इसलिए आर्य धर्म, किसी भी कलियुग में, लुप्ति की कगार पर ही पहुँच जाता है I कलियुग में वेद मनीषि अपना उचित मान सम्मान भी खो बैठते हैं I

धर्म का स्वरूप, स्वयं से ही निरपेक्ष माना जाता है, जिसके कारण धर्म के नाम पर, विधर्म और अधर्म की सत्ता ही होती है, न की धर्म के विशुद्ध आर्य स्वरूप की I

किन्तु अब तो यह कलियुग स्तम्भित किया जाना है, इसलिए आगामी समय आज के अधर्म और विधर्म की सत्ता के समय से विपरीत ही पाया जाएगा I

जबकि यह कलियुग का स्तम्भित होना और उसी में वैदिक युग का प्रकाशित होना, बहुत उत्कृष्ट परिवर्तन ही होगा, किन्तु इसका मार्ग त्रितापों से पूर्णरूपेण युक्त ही पाया जाएगा I

और ऐसा होने के कारण वह का आज की कलियुगी सत्तादि के तंत्र परिवर्तन जो इस विश्व के द्वार पर खड़ा हुआ और काल की प्रेरणा की प्रतीक्षा कर रहा है, तीनों प्रकार के विप्लव से युक्त भी होगा और जहाँ वह विप्लव भी मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक स्वरूपों में, खण्ड-खण्ड स्वरूप में ही सही, लेकिन आएँगे तो अवश्य I

काल की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुई है I सबकुछ काल के गर्भ में ही रहा है, काल की प्रेरणा से ही अपने समय में चलित और स्थापित भी हुआ है, और आगामी वैदिक युग की ओर लेकर जाने वाला परिवर्तन जो इस चतुर्दश भुवन को ही उस गुरु युग (अर्थात वैदिक युग) की ओर अग्रसर करेगा, वह भी काल की प्रेरणा से ही लौटाया जा रहा है I और जहां वह काल भी हिरण्यगर्भ के भीतर ही बसा हुआ है I इसलिए यदि उस आगामी परिवर्तन की वास्तविकता को देखोगे, तो हिरण्यगर्भ को ही पाओगे I

और क्यूंकि उन हिरण्यगर्भ का नाता ऋग्वेद से ही है, जिसका धाम जगन्नाथ पुरी है और जिसकी पीठ, गोवर्धन मठ ही है, इसलिए उस आगामी परिवर्तन के मार्ग में गोवर्धन मठ, पुरी के मनीषी होंगे ही, और उस परिवर्तन के मूलात्मा स्वरूप में भगवान जगन्नाथ ही पाए जाएंगे I

इसे चाहे भविष्यवाणी मानों चाहे कुछ और… होगा यही I

 

  • काम का पुरुषार्थ भी सुरक्षित नहीं रह पाता, क्यूंकि काम ही निष्काम नहीं रह पाता I

जो काम, निष्काम नहीं होता, वह पुरुषार्थ चतुष्टय का अंग भी नहीं होता I

काम नामक पुरुषार्थ से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए जब काम ही पूषार्थ का अंग न रहे, तो मोक्ष मार्ग पर ही बाधाएं आने लगती है I यही इस कलियुग में हुआ भी है और इसी के कारण अब्रह्मपथ कहते भी हैं, की उनकी मुक्ति अंत समय में ही होगी और उस अंत समय के आने तक उनको प्रतीक्षा भी करनी ही होगी I

कलियुग के कालखण्ड में जितने भी मार्ग, पंथ अथवा मत आए, उनमें मुक्ति नहीं होती I और क्यूँकि सनातन वैदिक आर्य सिद्धांत का नाता कलियुग से है भी नहीं, इसलिए केवल इसी सिद्धांत में, कलियुग के कालखण्ड में मुक्ति पाई जाती है I

और क्यूंकि कलियुग मुक्ति का युग भी नहीं है, इसलिए इस आर्य सिद्धांत को नष्ट भ्रष्ट करना का प्रत्यन भी बार बार किया जाता है I

क्यूंकि इस आर्य सिद्धांत का नाता कलियुग से है ही नहीं, इसलिए कलियुग में इस सिद्धांत के मनीषियों को पीडाओं भी दी जाता हैं और उनको उनका उचित आदर भी प्राप्त नहीं हो पाता है I

 

  • मोक्ष का पुरुषार्थ भी नहीं होता, क्यूंकि पूर्व में बतलाए गए, अधर्म और विधर्म में फसा धर्म, मुक्तिमार्ग नहीं होता I

यही कारण है कि कलियुग के कालखण्ड में जितने भी विधर्म और अधर्म प्रकट होते हैं, वह सब कहते ही हैं कि उनका अंत समय आएगा और उसी अंत समय में उनका न्याय होगा I

इन कलियुगी पंथों में मुक्ति भी उसी अंत समय में ही होती है, इसलिए कलियुग के कालखण्ड में मुक्ति नामक पुरुषार्थ नहीं होता I

इन कलियुगी पंथों और मार्गों का नाता भी अभिमानी देवताओं से ही होता है, जिसके कारण यह कलियुगी पंथ, उत्कर्ष पथ के नाम पर ही सही, किन्तु वास्तविकता में अपकर्ष के पथ ही होते हैं I

कलियुग के 1296 वर्ष पूर्ण होने पर, बुद्ध का प्रकटीकरण होता है I यह समय 1914 ईसा पूर्व कोई 2.7 वर्षों में आया था I यह गणना काल की पाताल इकाई में करी गई है I

जबकि इन कलियुगी पंथों का आगमन तो कलियुग के प्रारम्भ से (और उससे कुछ समय पूर्व से) ही होने लगता है, किन्तु इसका अपकर्ष रूपी प्रभाव तब आता है जब कलियुग की आयु 2,592 वर्षों से 108 वर्ष अधिक की हो जाती है I यह गणना भी काल की पाताल इकाई में करी गई है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि काल की पाताल से संबद्ध इकाई के अनुसार, जो कलियुग की इकाई ही होती है, कलियुग के 2,592 वर्षों में वैदिक देवी देवता इस धरा को त्यागकर, अपने अपने दुर्गों में चले जाते हैं I

और यह समय 510 ईसा पूर्व में आया था और इस अंक से 2.7 वर्षों में एक शिवावतार, सदाशिव के अघोर मुख से आता है, जो शस्त्र और शास्त्र, दोनों के मार्ग ख्यापित करता है I शिवावतार और जहाँ वह इसलिए आता है, क्यूंकि कलियुग में जब देवी देवता ही धराधाम को त्याग देते हैं और अपने अपने दुर्गों में ही लौटने लगते हैं, तब श्री विष्णु का अवतार भी नहीं होता I

और इस दशा से आगे जब कलियुग की आयु 3,888 वर्षों की होती है, तब इन अपकर्ष मार्गों का प्रभाव भी विकराल हो जाता है I यह समय 786 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर में आया था I अभी चलित हो रहे पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र में (अर्थात अग्रगमन चक्र में) यह 786 ईस्वी का समय, पृथ्वी के विषुव चक्र की पाताल इकाई की ही दशा है I इससे 108X2 =216 वर्ष पूर्व वह जन्म लेता है, जो कलियुग को प्रबल करेगा और यह समय 570 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर ही आया था I यह गणना भी समय की पाताल से संबद्ध इकाई में ही हैI

इसके पश्चात जब उसी कलियुग की आयु 5184 वर्षों से 108 वर्ष कम होती है, तब एक और योगी हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लोक से लौटाया जाता है, जो महेश्वर का योगी ही होता है और जो युग संस्थापक होने के साथ साथ, महातम योद्धा भी होता है I यह समय 1974 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर ही आया था I यह गणना भी समय की पाताल इकाई में है I

और इस समय से 108 / 4 = 27 वर्ष पूर्व, उस भूमि को वैकल्पिक रूप में ही सही, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्त होती है, जिसमें गुरु युग की नींव डाली जानी है I और यह समय 1947 से 2.7 वर्षों में आया था I इसी समय से 2.7 वर्षों के भीतर, युग पूरक (कलियुग के पूरक) का जन्म होता है I

और कलियुग के 5,184 वर्ष पूर्ण होने के समीप (और इस समय से 108/ 4 = 27 + 1 वर्ष पूर्व से ही), गुरु युग का प्राकट्य हो जाता है I इस कलियुग में यह 27 + 1 वर्षों का समय, पूर्णावतार श्रीकृष्ण का इस धरा से लौटने का अन्तर्लम्ब है I

गुरु युग बहुवादी अद्वैत परंपरा, अर्थात वैदिक परंपरा का ही होता है जिसमें सभी मार्ग उस ब्रह्म की ओर ही जाते हैं I और उस गुरु युग के आगमन का नाता श्री कृष्ण के द्वारा माँ गंगा को दिए गए वचन से भी है I

जब गुरु युग की आगमन प्रक्रिया प्रबल होती है, तो इसका संकेत एक विश्वव्यापी रोग से आता है I यह संधिकाल का रोग कलियुग स्थम्भन की उस दशा को दर्शाता है, जिसके पश्चात शनैः शनैः ही सही, लेकिन कलियुग और उसका विकृत तंत्र लंगड़ा ही होता चला जाता है I इसका समय 2020 ईस्वी में आया था और इसी प्रक्रिया में तीन रोग आएँगे I प्रथम रोग नभोमार्ग के जीव से आएगा, द्वितीय रोग भूचर जीव से आएगा, और तृतीय रोग जल से संबद्ध जीव से आएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

आज की मानव जाति इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि विनाश ही अवश्यम्भावी होता जा रहा है I माँ प्रकृति जो सार्वभौम ब्रह्म शक्ति ही हैं, वह यह विनाश नहीं करना चाहती, किन्तु अब विकल्प भी बहुत न्यून मात्रा और प्रकार से ही रह्ते जा रहे हैं I

काल जिसका चक्र रूप में प्राकट्य हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुआ था, वह माँ प्रकृति का ही अस्त्र हुआ था I

काल रूप में वह गुरु युग भी इस विश्व के द्वार पर इसलिए प्रतीक्षा कर रहा है, क्यूंकि माँ प्रकृति उस काल को उसके ही विध्वंसक कालास्त्र रूप में प्रयोग… जहाँ तक हो सके… नहीं करना चाहती I

वह योगी जो माँ प्रकृति के कालास्त्र का ही सगुण साकार स्वरूप है, इस धरा पर आ भी चुका है… और वह भी माँ प्रकृति के संकेत की प्रतीक्षा ही कर रहा है I

वह योगी जो कालास्त्र का ही सगुण साकार स्वरूप है, नहीं चाहता कि वह इस धरा पर एक ऐसे विनाश का कारण अथवा कारक बने, जिससे इस भूलोक की अधिकांश जीव सत्ता का ही नाश हो जाए I

किन्तु अस्त्र रूप ही होने के कारण, यदि माँ प्रकृति का आदेश आया, तो उसे मानना ही होगा… क्यूंकि अस्त्र की स्वयं की कोई भी इच्छा नहीं होती… वह तो अपने धारी की इच्छा से ही चलित होता है I

और चलित होने के पश्चात वह अस्त्र, स्वयं भी नष्ट ही होता है… माँ प्रकृति के उस कालास्त्र को इस बिन्दु का भी पता ही है I

लेकिन यह सब जानता हुआ वह कालास्त्र, मानता ही है कि यदि उसकी धारक (माँ प्रकृति) का आदेश ही आ गया, तो उसको स्वयं चलित भी होना होगा… और स्वयं भी नष्ट ही होना होगा I

और क्योंकि उस कालास्त्र का यही मुक्तिपथ भी होगा, इसलिए वह मन ही मन उसकी धारक, माँ प्रकृति को… युद्धमदेहि भी बोलता ही होगा I

इस युद्धमदेहि के शब्द और उसकी भावनात्मक स्थिति में भी उस सगुण साकार योगी को, जो माँ प्रकृति का कालास्त्र ही है, पता भी होगा कि…

देह के नाश से, भीतर बसी हुई पदार्थ की मूलऊर्जा का नाश नहीं होता I

पदार्थ के स्थूल रूप के नाश से ही वह अपने व्यापक ऊर्जा रूप में आता है I

स्थूल का नाश ही उस स्थूल को ऊर्जा स्वरूप में व्यापक करने का मार्ग होता है I

 आगे बढ़ता हूँ…

 

  • और कलियुग में, एक पुरुषार्थ जो किसी प्रकार से थोड़ा सा होता है, वह अर्थ का होता है, लेकिन वह भी कलियुग में, विकृत हुए बिना नहीं रह पाता I

अपने परिकरों सहित, संपूर्ण प्रकृति ही अर्थ हैं I

पर अर्थ के तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण भाग भी होते हैं I

सम्पूर्ण प्रकृति ही अर्थ है, इसलिए जब अर्थ विकृत होता है, तो प्रकृति के चार नीचे के तत्त्व, जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु हैं, उनमें भी विकार आते ही है I

जब ऐसा हो जाता है, तब आकाश महाभूत जो ऊर्जा का धारक है, वह भी विप्लव का कारण बनने लगता है I जब ऐसा होता है, तब युद्ध आदि विप्लव का प्रारम्भ भी हो जाता है I

और विकार से भरी हुई इस अवस्था के आने के पश्चात, समस्त जीवों की देवी माँ, मूल प्रकृति, समय समय पर इन चारों तत्त्वों से विप्लव भी लाती हैं और जहाँ उस विप्लव के कारण में आकाश में बसी हुई ऊर्जाएं ही होती हैं I लेकिन अभी की कलियुग स्थंबन प्रक्रिया में, वह विप्लव खण्ड रूप में ही, कुछ छोटे और कुछ विकराल स्वरूप में ही आएँगे I

इसलिए कलियुग में, अर्थ स्वरूप प्रकृति भी उत्कर्ष मार्ग नहीं रह पाती I

यह पृथ्वी अब उस कालखण्ड में प्रवेश कर चुकी हैं, जब प्रकृति अपने खण्ड संहार स्वरूप को धारण करेंगी I आगामी कालखण्ड में प्राकृतिक विप्लव होने ही हैं I

प्रकृति केवल बाहर की प्रकृति नहीं होती, वह तो जीवों के भीतर भी होती हैं, इसलिए आगामी विप्लव, जीव और मानव जनित भी होगा I

और क्यूँकि प्रकृति, अपने मूल रूप में, ब्रह्म की शक्ति ही होती हैं, ब्रह्म की पूर्ण दिव्यता भी है, इसलिए, आगामी विप्लव, दैविक स्वरूपों का भी आएँगे I

तो अब आगामी समय संकेत भी दे दिया, क्यूंकि माँ मूल प्रकृति मुझे कई वर्ष पूर्व ही कह चुकी हैं, कि सबको मेरी यह बात बतला देना…

जीवित सनातनि हो जाओ, नहीं तो दाह संस्कार सनातनी होंगे I

यहाँ माँ मूल प्रकृति का शब्द, दाह संस्कार कहा गया है, नाकि अंतिम संस्कार… तो इस दाह शब्द पर ध्यान देना I

 

और आगामी समय में…

कलियुग स्तम्भित किया जायेगा I

और इसी कलियुग में, आम्नाय युग उदय किया जायेगा I

उस आम्नाय युग में, प्रकृति ही उत्कर्ष मार्ग सहित, मुक्तिमार्ग भी होंगी I

वह मुक्तिमार्ग भी यहाँ बताए जा रहे लिंग की ऊर्जाओं से ख्यापित किया जायेगा I

यह भी इस लिंग की दिव्यता से संबद्ध है I

 

अब मैं कुण्डलिनी लिंग और आंतरिक महभारत को बताता हूँ …

वैदिक वाङ्मय में कुछ है ही नहीं जो बाहर बताया गया है, अथवा इतिहास में हुआ होगा और उसका एक स्वरूप उस साधक की काया में नहीं पाया जाएगा, जो आंतरिक योगमार्ग पर गमन कर रहा है I

तो अब उस आंतरिक महाभारत में जो होता है, उसको सांकेतिक रूप में और संक्षेप में बताता हूँ…

  • मेरुदण्ड के नीचे से लेकर हृदय तक जाती हुई सुषुम्ना नाड़ी में सौ उपनाड़ियां होती हैं I यही सौ कौरव हैं I
  • हृदय में जहाँ यह सौ नाड़ियाँ खुलती हैं, वही हस्तिनापुर है I
  • पांच पांडव तुम्हारे प्राण मन बुद्धि चित्त और अहम् ही हैं I इनमे से बुद्धि युधिष्ठिर, प्राण भीम, मन अर्जुन, चित्त नकुल और अहम् सहदेव है I
  • स्थूल काया ही भारत है I और उस स्थूल काया के पञ्च तत्त्व की एकमात्र दिव्यता माँ भारती ही हैं I
  • साधक की आत्मा ही श्रीकृष्ण और वह आत्मा, ज्ञान कृष्ण, काल कृष्ण, आनंद कृष्ण और आत्मा कृष्ण स्वरूप में भी पाया जाता है I
  • वही आत्मा अपने ज्ञान कृष्ण स्वरूप में ज्ञानोपदेशक है, काल कृष्ण स्वरूप में शरीर रूपी रथ का सारथी है, आनंद कृष्ण स्वरूप में उस योद्धा मन के भीतर ही बसा हुआ उसे समस्त दोषों से मुक्त रखता है, और आत्मा कृष्ण स्वरूप में इस युद्ध का साक्षी मात्र ही है I
  • उस भारत नमक रथ पर बैठा हुआ मन उन आनंद कृष्ण से भावित होकर, दस इन्द्रियों से अतीत होकर, स्वधर्ममय आत्मा का ही होकर, अपनी आत्मा को ही अपना सारथी बनकर, उस सारथी को ही समर्पण करके, उस धर्मयुद्ध में भाग लेता है I
  • उन श्री कृष्ण के स्वरूप में अवतरित हुए श्री विष्णु का शंख हृदय क्षेत्र में, चक्र भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर, गदा वज्रदण्ड चक्र में और जो कमल होता है वह वज्रदण्ड चक्र से ऊपर का निरालम्बस्थान होता है I
  • इस आंतरिक स्वधर्ममय युद्ध में, जबतक योगी इस कृष्ण तत्त्व के साथ साथ पञ्च पाण्डव का आलम्बन नहीं लेता, वह इस आंतरिक महाभारत में विजयी नहीं हो सकता I
  • युद्ध चाहे योगी की काया के भीतर बसे बुए बिंदु ही लड़ेंगे, किन्तु संहार केवल उस चक्र को धारण किए हुए श्रीकृष्ण के ही काल कृष्ण स्वरूप करते हैं I
  • यह आंतरिक महाभारत अकस्मात् ही प्रारम्भ हो जाएगी I और साधक का मन न चाहता हुआ भी इसमें चला जाएगा, क्यूंकि उसकी आत्मा ही उसको इसमें जाने को प्रेरित कर रही होगी I
  • और जबकि महाभारत का युद्ध सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही लड़ा गया था, किन्तु साधक की काया के भीतर चलित हुआ यह आंतरिक महाभारत, चाहे शांत होके ही लड़ा जाएगा, किन्तु यह चौबीस घंटे ही चलेगा I

जिस माह में यह आंतरिक महाभारत किसी साधक की काया में चालित होती है, उसमें तीन ग्रहण पड़ते हैं, जिनमे से दो तो सूर्य ग्रहण होते हैं, और एक चन्द्र ग्रहण होगा I यह चंद्र ग्रहण चौदह दिवस पर ही होगा I और उसी वर्ष के माह में, ब्रह्माण्ड में भी एक माह में तीन ग्रहण हो रहे होंगे I

 

टिप्पणियाँ: इस भाग के अंत में एक बिंदु बताकर, इस आंतरिक महाभारत के संक्षेप वर्णन को समाप्त करता हूँ I

  • आंतरिक योद्धा का कल ही सारथी होना चाहिए I
  • काल के हस्त में ही योद्धा की दसों इन्द्रियां होनी चाहिए I
  • दसों दिशाओं में भागते हुए भावनात्मक अश्वों का नियंत्रण भी काल नामक सारथी का हस्त में ही दे देना चाहिए I
  • ऐसा इसलिए है, क्यूंकि जब दिशा ठीक होती है तो दशा ठीक ही आएगी और ऐसी स्थिति में आकाश की ऊर्जाएं जो तुम्हारे पास आ रही होंगी उनमें भी विकृति नहीं आएंगी और जो यह सब हो जाएगा, तो काल भी अपने कोई उत्कृष्टम रूप धारण करके ही आएगा I
  • शरीर ही देश होना चाहिए I
  • अन्तःकरण चतुष्टय का वह योद्धा मन ही होना चाहिए I
  • और अंतःकरण और प्राण उस योद्धा के बंधू आदि होने चाहिए I
  • काल को समर्पण करके ही, स्वधर्म में बसकर ही यह युद्ध शांत चित होकर तबतक लड़ा जाना चाहिए, जबतक हृदय के उस हस्तिनापुर पर ही विजयश्री न प्राप्त हो जाए और जिसके सम्राट और देवता महाकाल रूप में श्री विष्णु ही हैं I
  • और इस आंतरिक युद्ध पर विजयश्री के पश्चात, उन कलात्मक सारथी स्वरूप में भगवान् श्री विष्णु के ही अनुग्रह से वह मन (अर्थात साधक) अपने ज्ञान और विवेक को पूर्णतः पाकर, उन श्री विष्णु के ज्ञान और विवेक नामक पुत्रों के स्वरूप में ही आकर, उन्ही श्री विष्णु के हस्तिनापुर नामक आंतरिक साम्राज्य और उन आंतरिक भगवान् के लिंगात्मक सिंहासन का द्वारपाल होकर ही रहेगा I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

मृत्युलोके महाकालम्, हस्तिनापुर नामक आंतरिक साम्राज्य, हस्तिनापुर साम्राज्य, हस्तिनापुर, राम भगवान् के लिंगात्मक सिंहासन का द्वारपाल, राम भगवान् के सिंहासन का द्वारपाल, हृदय का महाकाल लिंग, रामलिंग, भगवान् राम का लिंग रूप, ज्ञान और विवेक, लव और कुश, आत्मा के दो पुत्र, आत्मा के पुत्र, विवेक और ज्ञान, आत्मा के दो द्वारपाल, महाकालेश्वर लिंग क्या है, महाकाल लिंग क्या है, मृत्युलोक का लिंग क्या है, हृदय लिंग क्या है, हृदय का लिंग, महाकालेश्वर  लिंग, महाकाल लिंग, मृत्यु लोक लिंग, … प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड की भाषा, ब्रह्माण्ड की भाषा, संस्कृत भाषा, … निर्वाणधातु क्या है, निर्वाणधातु किसे कहते हैं, … शब्द ब्रह्म सिद्धि, श्री विष्णु का शंख, शंख आयुध, हृदय का शंख, स्वर्ण शंख, शंख सिद्धि, हृदय के शंख का साक्षात्कार, अहम् शब्दः, … शब्द सिद्धि, आकाश महाभूत के शब्द तन्मात्र की उपलब्धि, शब्द तन्मात्र सिद्धि, योगी ही शब्द, शब्द ही योगी, शब्द ब्रह्म सिद्धि, …

मृत्यु लोक का नाता हृदय से है I यह हृदय का लिंग, मृत्युलोके च महाकालम् को दर्शाता है I

इस भाग का नाता एक पूर्व के अध्याय से है, जिसका नाम मोक्ष गुफा था I उस अध्याय में हृदय में आकाश महाभूत के घटाकाश स्वरूप को बताया गया था I

आकाश महाभूत के समान, वह गुहा मोक्ष का घटाकाश भी बैंगनी वर्ण का ही होता है I उस घटाकाश के भीतर एक स्वर्ण बिंदु होता है I उसी घटाकाश और स्वर्ण बिंदु को नीचे के चित्र में दिखाया गया है I

घट का आकाश, मोक्ष की गुफा,हृदय में मोक्ष की गुफा
घट का आकाश, मोक्ष की गुफा,हृदय में मोक्ष की गुफा

 

अब हृदय के घटाकाश और उसमें बसे हुए स्वर्ण बिंदु को बताता हूँ I लेकिन पहले इसका आधार डालना पड़ेगा I

प्रजापति या चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा की इच्छा शक्ति से ही जगत की रचना हुई है ।

इसलिए, ब्रह्मा के भाव में ही, जगत की उत्पत्ति का साधन था ।

उसी साधन का आलम्बन लेके, ब्रह्मा ने इस जगत की रचना की थी ।

लेकिन जब जगत की रचना हुई थी तो ब्रह्माण्ड का प्राथमिक स्वरूप, सूक्ष्म संस्कारिक था, अर्थात प्रजापति ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ वो प्राथमिक ब्रह्माण्ड, एक सूक्ष्म संस्कारिक अवस्था में था ।

वह प्राथमिक संस्कार रूपी सूक्ष्म ब्रह्माण्ड थोड़ा लंबा सा था, उसके अष्टकोन थे, वह नीचे से चपटा था और ऊपर की ओर से हलका सा गोलकार था, और थोड़ा नोकीला भी था ।

यही ब्रह्माण्ड का प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप था ।

 

प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड की भाषा, संस्कारिक ब्रह्माण्ड की भाषा, … संस्कृत भाषा I

उस प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड की जो भाषा या शब्द थे, उनको ही संस्कृत कहा गया था ।

इसलिए संस्कृत भाषा, ब्रह्माण्ड के प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप की भाषा है ।

ब्रह्माण्ड के प्राथमिक संस्कारिक स्वरूप के शब्द संस्कृत भाषा के ही होते हैं ।

यदि आज भी किसी साधक की चेतना उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड में जाएगी, जो सूक्ष्म संस्कारिक है, तो उसे ब्रह्माण्ड के सारे शब्द इसी संस्कृत भाषा में सुनायी देंगे ।

इसलिए अपनी सूक्ष्म साधनाओं में जब मैं ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता हूँ, तो मुझे सारे शब्द इसी संस्कृत भाषा में ही सुनई देते हैं ।

संस्कृत के शब्द का अर्थ होता है, संस्कार कृत, अर्थात संस्कार द्वारा कृत, अथवा संस्कारों में कृत ।

यहाँ जो संस्कार शब्द कहा गया है, वो उसी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड को दर्शाता है ।

वह प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड जो ब्रह्मा की इच्छा शक्ति से सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ था, उसकी भाषा को संस्कृत कहा जाता है I

जब साधक की चेतना उस प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड में चली जाती है, तब जो शब्द सुनाई देते हैं, वह संस्कृत भाषा के ही होते हैं I

और क्योंकि यह प्राथमिक संस्कार रूपी सूक्ष्म ब्रह्माण्ड, कारण या दैविक, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड से भी पूर्व में उत्पन्न हुआ था, इसलिए इस प्राथमिक ब्रह्माण्ड का ना तो कोई आदि है, ना ही अन्त । वेद मनीषियों ने इसी ब्रह्माण्ड को स्वयंउत्पन्न और सनातन कहा था, और ब्रह्म की अनादि अनंत अभिव्यक्ति कहा था ।

यही कारण है, कि वेदों में ब्रह्माण्ड को भी सनातन कहा गया है ।

इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड की भाषा को, उन सर्वदृष्टा ब्रह्मदृष्टा वेद मनीषियों ने संस्कृत नाम दिया था, जिसका अर्थ होता है, संस्कार कृत ।

ब्रह्म की रचना में, प्राथमिक ब्रह्माण्ड के बीज रूपी शब्दों की भाषा को संस्कृत कहते हैं I

इसलिए यदि ब्रह्माण्ड से भाषा के माध्यम से जुड़ना है, तो संस्कृत भाषा ही उत्कृष्टम मार्ग है I

 

प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड और नासदीय सूक्त

अब इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड के कुछ और बिंदु बताता हूँ I

यह बतलयी गई बाते भी उसी आधार का अंग हैं, जो मैं यहाँ डाल रहा हूँ ।

क्योंकि यह प्राथमिक सूक्ष्म संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड निरंग था, स्वच्छ जल के समान था, इसलिए इसको ही नासदीय सूक्त आदि वेद ज्ञान में, जल शब्द से संबोधित किया गया है ।

और इसी निरंग संस्कार को, भवसागर आदि शब्दों में भी दर्शाया गया है ।

इसी निरंग संस्कार से अतीत होने की अवस्था को कैवल्य, मुक्ति और निर्वाण कहते हैं ।

इसी निरंग प्राथमिक ब्रह्माण्ड से अतीत होने का मार्ग, उत्कर्ष मार्ग कहलाता है, और ऐसे मार्ग को ही ब्रह्मपथ या आत्मपथ या ब्रह्मत्व पथ कहते हैं । इसी को कैवल्य मार्ग या मुक्ति मार्ग भी कहते हैं । यह मुक्तिमार्ग भी उस कैवल्य गुफा से प्रारंभ और प्रशस्त होता है, जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है ।

यही सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड, अपने निरंग संस्कारिक रूप में जीवों के हृदय में, उनके अंतःकरण के चित्त भाग में एक संस्कार रूप में ही बसा होता है । और जब यह संस्कार साधक की कपाल से बाहर निकल जाता है, तब आगे चलकर वह साधक मुक्त हो जाता है I

 

यही कारण था कि मेरे पूर्व जन्मों में वेद मनीषी कहते थे…

साधक को अपने भीतर ही ब्रह्माण्ड का साक्षातकार होता है ।

काया से बाहर, कभी भी ब्रह्माण्ड का साक्षातकार नहीं होता है ।

जो ब्रह्माण्ड, काया के भीतर है, वही ब्रह्माण्ड काया से बाहर भी है ।

जो काया में ही नहीं होगा, वह तुम्हारी काया से बाहर भी नहीं मिलेगा ।

इसलिए…

यदि ब्रह्म को जानना है, तो पहले उस ब्रह्माण्ड को जानो, जो तुम्हारी काया के भीतर है ।

और इसके पश्चात उसी भीतर के ब्रह्माण्ड में ब्रह्म को जानो, जो तुम्हारी सर्वसाक्षी आत्मा है I

 

उस भीतर के ब्रह्माण्ड को जाने बिना, ना तो आत्मा को जान पाओगे, न ही आत्मा के ब्रह्म स्वरूप को पाओगे । और ऐसी दशा में यही बोलते रह जाओगे कि ब्रह्म या आत्मा को कौन जान पाया है ।

और क्योंकि यह प्राथमिक ब्रह्माण्ड, ब्रह्म के भाव से स्वयंउत्पन्न हुआ ब्रह्म का ही साधन है, संस्कार रूप में है, इसलिए इसका ना तो आदि ढूंढ पाओगे और ना ही अंत जान पाओगे ।

इस ना जानने का कारण है कि यह प्राथमिक ब्रह्माण्ड, दैविक या कारण, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से भी पूर्व की दशा है ।

और क्योंकि जीवसत्ता, ब्रह्माण्ड के इन तीन स्वरूपों में ही सीमित होती है, इसलिए अपने जीव रूप में उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड का ना तो आदि और ना ही अंत ही जान पाओगे ।

और इस न ढूंढने का कारण है, कि यह प्राथमिक ब्रह्माण्ड, जीवों के प्रादुर्भाव से भी पूर्व की दशा है ।

जो तुम्हारे उदय से भी पूर्व का है, उसे अपने उदय स्वरूप में कैसे जान पाओगे ।

और यही सत्य, ऋग्वेद का नासदीय सूक्त भी दर्शाता है ।

 

टिपण्णी: पूर्व कालों में, जिस साधक को ब्रह्मण्ड को समझने होता था अथवा उन ब्रह्म के पथ पर गमन ही करना होता था, तो सर्वप्रथम उसे उसके गुरुजन नासदीय सूक्त का विस्तृत उपदेश ही देते थे I यही कारण है कि मेरे मार्ग में भी यह सूक्त उस मूल को दर्शाता है, जिसके बिना ब्रह्मपथ पर गमन कर पाना, असम्भव तो नहीं, किन्तु बहुत लम्बा और कठिन हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब इस निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड की हिरण्यमयी दशा को बतलाता हूँ I

वेदों में 33 कोटि या 33 प्रकार के देवता होते हैं ।

टिपण्णी: पर यहाँ कहा गया कोटि का शब्द, प्रकार और गणना दोनों को दर्शाता है I प्रकार के स्वरूप में यह तैंतिस अंक का द्योतक है और गणना के दृष्टिकोण में यह करोड़ शब्द को बताता है I

 

इनमें से सर्वोच पद, प्रजापति या चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा का है ।

जब उसी प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म ने, स्वयं को हिरण्यगर्भ स्वरूप में अभिव्यक्त किया था, तो यही निरंग संस्कार, उस हिरण्यगर्भ ब्रह्म के प्रकाश को धारण करके, हिरण्यमयी हो गया था, अर्थात, सुनहरे रंग का हो गया था ।

जैसे स्वच्छ जल में कोई प्रकाश डाल दो, तो वह जल अपना पूर्व का निरंग स्वरूप त्याग के, उस प्रकाश सरीका हो जाता है, वैसा ही इस प्राथमिक निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड के साथ भी हुआ था…, जब उसमें हिरण्यगर्भ का स्वर्णिम प्रकाश आया था ।

वेद मनीषियों ने इन्ही हिरण्यगर्भ को ब्रह्मा शब्द से संबोधित किया था, क्योंकि यह प्रजापति का वह स्वरूप है जिससे वह जीव जगत के रचैता, कार्य ब्रह्म (योगेश्वर अथवा महेश्वर) स्वरूप में रजोगुण को धारण करके अभिव्यक्त हुए हैं ।

हिरण्यगर्भ का साधारण अर्थ होता है, सोने का गर्भ, सुनहरा गर्भ ।

और क्योंकि इन्ही हिरण्यगर्भ में जीव और जगत का उदय हुआ था, इसलिए वेदों में हिरण्यगर्भ को ब्रह्मा शब्द से भी संबोधित किया गया है । जब हिरण्यगर्भ रजोगुणी होते हैं, तब ही वह कार्य ब्रह्म के स्वरूप में आकर, सृष्टिकर्ता हो पाते हैं…इससे पूर्व नहीं I

और यही कारण है, कि वेद मनीषी कह गए, संपूर्ण ब्रह्माण्ड, पितामह ब्रह्म के गर्भ में बस हुआ है । वही गर्भ, हिरण्यगर्भ कहलाता है जिसमे समस्त ब्रह्माण्ड बसा होता है, और जिसकी अवस्था सुनहरी होती है ।

इसी सुनहरे ब्रह्माण्ड को, जो जीवों  के हृदय में होता है, निर्वाणधातु भी कहते हैं । और इसी अवस्था को इस चित्र में, सुनहरे बिन्दु रूप में दर्शाया गया है ।

यह निर्वाणधातु, स्वर्ण स्वरूप में होता है, नाकि इसके पूर्व के निरंग स्वरूप में ।

 

अब ध्यान देना…

जिस समय वह निरंग, प्राथमिक संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड, स्वर्णिम हुआ था, उस समय उसी स्वर्णिम ब्रह्माण्ड में, एक शब्द, स्वयंप्रकट हुआ था, जो “रा नामक शब्द था, और जिसको वेद मनीषी रकार कहते थे ।

और इसी रकार शब्द के साथ-साथ एक और नाद रूपी शब्द, मूल प्रकृति में भी स्वयंप्रकट हुआ था, जो मममममममम…, ऐसा था ।

लेकिन, जबकी यह मममममममम नामक शब्द, मूल प्रकृति में स्वयंप्रकट हुआ था, पर इसका प्रकटीकरण, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की प्रेरणा से हुआ था । इसलिए वेद मनीषियों ने इसे ब्रह्मनाद कहा था…, नाकि प्रकृति का नाद ।

इसी हिरण्यमय ब्रह्माण्ड रूपी प्राथमिक संस्कार को, मूल या सनातन संस्कार भी कहते हैं ।

इसी प्राथमिक निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड को केंद्र में रख कर, वैदिक अंतिम संस्कार की प्रक्रिया की जाती है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

उसी प्राथमिक संस्कार के ज्ञान में, जो मूल से तो जल के समान निरंग था, लेकिन हिरण्यगर्भ ब्रह्म के प्रकाश के कारण, यह हिरण्य रूप या स्वर्णिम रूप का हुआ था…, इस जीव जगत के स्वयं उदय का ज्ञान भी प्राप्त किया जाता है ।

और यही हिरण्य संस्कार, उसके अपने लिंगात्मक स्वरूप में हृदय की गुहा मोक्ष में बसया गया था I

 

अब इस हृदय गुफा के स्वर्ण बिंदु का शिव लिंगात्मक स्वरूप बता रहा हूँ I

मृत्युलोके च महाकालम्, हस्तिनापुर, रामलिंग
मृत्युलोके च महाकालम्, हस्तिनापुर, रामलिंग, हस्तिनापुर का लिंग

 

जब योगी की चेतना, इस कैवल्य गुफा में बैठी होती है, और हृदय के घटाकाश के भीतर पड़े हुए इस सुनहरे बिंदु को ध्यान से देखती है तब चेतना अकस्मात ही इस स्वर्ण बिन्दु के समीप चली जाती है ।

इस समय पर वो स्वर्ण बिंदु, एक स्वर्ण लिंग के समान प्रतीत होती है, और ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखलाया गया है ।

लिंग शब्द का अर्थ चिन्ह, ध्योतक, सूचक, इतियदि होता है । योग मार्ग के दृष्टिकोण से लिंग शब्द का अर्थ योगपूरक भी होता है ।

इसलिए, हम शिवलिंग बोलें या शिव पूरक बोलें, बात एक ही है ।

हम विष्णुलिंग बोलें या विष्णु पूरक बोलें, बात एक ही है ।

हम लिंगोद्भव बोलें या उद्भव पूरक बोलें, बात एक ही है ।

अब आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन यह कैवल्य गुफा में बसा हुआ सोने का शिवलिंग, ऊपर से इतना गोलकार नहीं होता ।

यह ऊपर की दायीं ओर से कटा होता है ।

इसी ऊपर की दायीं ओर से कटी हुई दशा को अब दिखलाया जा रहा है । और इसके कारण, यह शिवलिंग, कुछ-कुछ चावल के दाने के समान होता है, क्योंकि यह ऊपर से बिल्कुल गोलकार नहीं होता ।

महाकाल लिंग, महाकालेश्वर लिंग, हृदय लिंग
महाकाल लिंग, महाकालेश्वर लिंग, हृदय लिंग

 

अपनी ही हृदय मोक्ष गुफा में बैठा हुआ साधक (अर्थात साधक की चेतना) जब इस स्वर्ण लिंग को ध्यानपूर्वक देखता है, तब उसे यह लिंग दो प्रकाशों से घिरा हुआ दिखाई देता है I

और जैसा इस चित्र में दिखलाया गया है, इस स्वर्ण लिंग को घेरे हुए दो सुनहरे प्रकाश होते हैं I यह दो सुनहरे प्रकाश ज्ञान और विवेक को दर्शाते हैं । इस साक्षात्कार में ज्ञान और विवेक के प्रकाशमय स्वरूप ने इस स्वर्ण लिंग को घेरा हुआ होता है I

और जब साधक इस लिंग को ध्यान से देखता है, तो यही लिंग एक एक सुनहरे शंख स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है, जो शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि को दर्शाता है । इसको इसी अध्याय में आगे जाकर बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस लिंग के ऊपर के कटे हुए भाग से, एक हीरे के समान प्रकाश, बाहर निकल रहा होता है ।

इस प्रकाश का साक्षातकार, सर्वसमता सिद्धि की ओर लेकर जाता है, जो सगुण निर्गुण अवस्था में होती है, और जो उस सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक की सिद्धि से भी सम्बद्ध होती है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बतलाया जाएगा, जिसका नाम सदाशिव का सद्योजात मुख (सद्योजात सदाशिव) होगा ।

सर्वसमता का अर्थ है, सर्वत्र समता (सर्वस्व की ओर समता का भाव) ।

यह सर्वसमता सिद्धि भवनात्मक होती है, सर्वसमता का सिद्ध शरीर भी प्रदान करती है, जिसे मेरे पूर्व जन्मों में योगीजन, ब्रह्म शरीर भी कहते थे, और जो ब्रह्म की सगुण साकार स्वरूप की सिद्धि भी कहलाता था । इस सिद्धि का नाता सर्वसम चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा से भी है और उनके ब्रह्मलोक से भी है I

जो योगी सर्वसमता का सिद्ध होता है, उसके भाव में ही उसका साधन होता है ।

जबतब साधक को, इस सर्वसमता सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, तबतक वो साधक आगे बतलायी गई दशाओं का साक्षातकार भी नहीं कर पाता है ।

 

तो अब आगे बढ़ता हूँ और इस स्वर्ण लिंग के बाहर के प्रकाश का वर्णन करता हूँ I

निर्वाणधातु, ज्ञान और विवेक, लव और कुश, आत्मा के पुत्र, आत्मा के दो द्वारपाल
निर्वाणधातु, ज्ञान और विवेक, लव और कुश, आत्मा के पुत्र, आत्मा के दो द्वारपाल

 

इस चावल के समान सुनहरे लिंग को घेरे हुए हैं, दो प्रकाश होते हैं । यह दोनों प्रकाश भी सुनहरे होते हैं । यह दो प्रकाश, योगी की ज्ञान सिद्धि और विवेक सिद्धि को दर्शाने वाले हैं ।

 

अब, मैं ज्ञान और विवेक शब्दों को बताता हूँ I

जो ज्ञान है, उसका अर्थ होता है साधक के भीतर की ज्ञानावस्था…, नाकी कोई बाहर से लिया हुआ ज्ञान ।

इसलिए इस ज्ञान शब्द को, स्वयं का ज्ञान या आत्मा ज्ञान ही मानना ​​चाहिए ।

इसी भीतर के ज्ञान को, आत्मा और ब्रह्म शब्दों से भी कहा जाता है ।

इसलिए जिसका ज्ञान, ब्रह्ममय हो गया हो, वो ही ज्ञानी कहलाता है ।

ऐसा साधक ही ज्ञान शब्द का सगुण साकार स्वरूप होता है, अर्थात ज्ञान शब्द का मानव रूप होता है ।

 

और विवेक शब्द का अर्थ होता है, सत् असत् के भेद की क्षमता ।

इसी, को प्रबुद्धता और सत् बुद्धि भी कहते हैं ।

यहाँ मैंने सत् बुद्धि शब्द कहा है ।

 

सत् शब्द, ब्रह्म का वाचक होता है, इसलिए जिसकी बुद्धि उस सत् रूपी ब्रह्म में विलीन हो गई हो, वो योगी ही सतबुद्धि को प्राप्त होता है, और वो ही प्रबुद्ध कहलाता है ।

इसलिए विवेक शब्द का गंतव्य अर्थ, निष्कलंक बुद्धि होता है ।

बुद्धि भी निष्कलंक तब ही होती है, जब वह ब्रह्ममय होती है और अंततः मन के ब्रमलीन होने का कारण ही बन जाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जबतक बुद्धि निष्कलंक नहीं होगी, तबतक साधक, सत् असत् का भेद भी पूर्ण रूप में नहीं कर पाएगा ।

जिसकी बुद्धि निष्कलंक हो, वो ही विवेक शब्द का सगुण साकार स्वरूप (या मानव रूप) होता है ।

हृदय लिंग के यह दो प्रकाश, जो योगी की ज्ञान और विवेक सिद्धि को दर्शाते हैं, वो इस हृदय लिंग के दो द्वारपाल भी कहलाते हैं ।

जबतक योगी की चेतना, इन दो द्वारपालों को पार नहीं करती (अर्थात इनको भेद कर पार नहीं कर लेती), तबतक वो योगी आगे बतलायी गई अवस्थाओं का साक्षातकार भी नहीं कर पाएगा ।

 

अब इन दोनो द्वारपालों के बारे में बताता हूँ ।

आत्मा के दो पुत्र होते हैं, एक ज्ञान और दूसरा विवेक ।

लेकिन आत्ममार्ग में बाकी सब साधरण अर्थों के साथ साथ, पुत्र शब्द का अर्थ पिता की ओर जाने वाला मार्ग भी मानना ​​चाहिए ।

इसलिए, योगी का आत्ममार्ग, इन दोनो पुत्रों की सिद्धि से होकर जाता है ।

 

अब ध्यान देना…

आत्मा राम के भी दो पुत्र होते हैं, एक लव नामक ज्ञान और दूसरा कुश नामक विवेक ।

यह स्वर्ण लिंग, आत्मा राम का लिंगात्मक स्वरूप है I इससे होकर ही, राम शब्द की सिद्धि होती है ।

यह राम नाद या राम शब्द, जो शिव तारका मंत्र है वो भी योगी के वज्रदण्ड चक्र के भीतर ही साक्षात्कार होता है I वह वज्रदण्ड जो इस हृदय के लिंग से आगे की दशा ही है, उसके के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

आत्ममार्ग में योगी की चेतना के भी दो प्रमुख सहायक होते हैं । इनमे से एक ज्ञान रूपी “भीतर का ज्ञान” और दूसरा, विवेक रूपी सतबुद्धि ।

जबतक योगी इन दोनों का आलम्बन समान रूप से नहीं लेता, तबतक योगी ज्ञान मार्ग में होकर भी कुछ नहीं पाता । और यदि ऐसा योगी, इस गुफ़ा में पंहुच भी गया, तो भी इसको पार नहीं कर पायहगा… यहाँ ही फंसा रह जाएगा ।

 

अब और आगे बढ़ता हूँ और हृदय के शंख के बारे में बताता हूँ I

शंख, शब्द ब्रह्म, श्री विष्णु का शंख, स्वर्ण शंख, शंख सिद्धि, अहम् शब्दः, संस्कृत भाषा
शंख, शब्द ब्रह्म, श्री विष्णु का शंख, स्वर्ण शंख, शंख सिद्धि, अहम् शब्दः, संस्कृत भाषा, शब्द ब्रह्म सिद्धि, श्री विष्णु का शंख, शंख आयुध, हृदय का शंख, स्वर्ण शंख, शंख सिद्धि, हृदय के शंख का साक्षात्कार, अहम् शब्दः, शब्द सिद्धि, आकाश महाभूत के शब्द तन्मात्र की उपलब्धि, शब्द तन्मात्र सिद्धि, योगी ही शब्द, शब्द ही योगी, शब्द ब्रह्म सिद्धि,

 

जब योगी की चेतना अबतक बताए गए सभी बिंदुओं का साक्षात्कार कर लेती है, तब उसी सुनहरे लिंग से एक सुनहरा शंख स्वयंप्रकट होता है I वह शंख वैसा ही होता है जैसा इस चित्र में दिखलाया गया है ।

पूर्व में बताए गए चावल के दाने के समान स्वर्णलिंग के अध्ययन से यह सुनहरा शंख, उसी हिरण्य लिंग के भीतर से ही स्वयंप्रकट हो जाता है और यह शंख भी उसी घटाकाश के भीतर बसा हुआ ही साक्षात्कार होता है I

सूक्ष्म रूप में यह शंख, शब्द सिद्धि को दर्शाता है, अर्थात इस शंख का स्वयंप्रकट होना, आकाश महाभूत के शब्द तन्मात्र की उपलब्धि को दर्शाता है ।

जिस योगी के भीतर यह शंख स्वयंप्रकट होता है, वह योगी ही शब्द कहलाता है, और वह शब्द ही, शब्द ब्रह्म सरीका होता है ।

इस शंख का धारक योगी, अपने मन में अहम शब्दः कहता ही है, अर्थात वो अपने मन में कहता ही है कि प्राथमिक स्वरूप में मैं ही शब्द हूँ ।

यहाँ पर जो अहम या मैं शब्द कहा गया है, वह योगी की आत्मा को शब्द स्वरूप में दर्शाता है । इसलिए यह अहम शब्द को योगी के अहंकार का स्थूल, सूक्ष्म या कारण आदि स्वरूप नहीं मानना ​​चाहिए ।

यहाँ कहा गया अहम् का शब्द, विशुद्ध अहम् को दर्शाता है जो ब्रह्म ही होता है I

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I

आगे बढ़ता हूँ…

ऐसे योगी की वाणी शब्दात्मक होती है ।

उसकी वाणी में ही परब्रह्म, शब्द रूप में निवास करते हैं ।

ऐसा योगी, शब्द ब्रह्म का ही सगुण साकार या मानव स्वरूप होता है ।

उसकी वाणी से ही शक्तिपात दीक्षा होता है, लेकिन तब जब वह योगी ऐसा चाहेगा ।

और इसके अतिरिक्त… ऐसा योगी…

तत् नामक शब्द जो सगुण ब्रह्म है, उसके शब्दात्मक स्वरूप को अपनी वाणी में दर्शाता है ।

यह हिरण्य शंख (या सुनहरा शंख) शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि को प्रदान करता है ।

ऐसे योगी की वाणी, तत् नामक शब्द का ही शब्द लिंगात्मक स्वरूप होती है ।

इसलिए, यह हिरण्य शंख, शब्द ब्रह्म का ही लिंगात्मक स्वरूप होता है ।

वास्तव में ऐसा योगी…

शब्द ही होता है, अर्थात, वह शब्द ब्रह्म का ही सगुण साकार, या मानव रूप होता है ।

इस शंख के भीतर, वह सगुण ब्रह्म, अपने ही शब्द रूप में निवास करते हैं ।

इसलिए इस शंख सिद्धि को, शब्द ब्रह्म सिद्धि भी कहा जाता है ।

और शास्त्रों में, इसी स्वर्णिम शंख को भगवान विष्णु का शंख भी बतलाया गया है । शंख भगवान विष्णु का प्रमुख आयुध है । इसलिए इस दृष्टिकोण से ऐसा योगी, भगवान विष्णु का शंख भी होता है, अर्थात, श्री विष्णु की वाणी का मानव रूप होता है ।

इस शंख का नाद सहस्रों सिंहों की गर्जन के समान ही होता है इसलिए कुछ साधकों के लिए तो यह साक्षात्कार एक भयावह ही होगी I

 

अब इस शंख सिद्धि का मार्ग सांकेतिक रूप में बताता हूँ…

कलियुग में, गंतव्य मार्ग के बारे में खुल के, कुछ नहीं बतलाया जा सकता है, इसलिए सांकेतिक रूप में ही बतला रहा हूँ ।

यहाँ बतलाया गया मार्ग, पूर्ण नामक शब्द के गंतव्य को लेकर जाता है ।

और यह पूर्ण शब्द भी, उन्ही ब्रह्म को दर्शाता है, जो ऐसे योगी की वाणी में, शब्दात्मक स्वरूप में निवास करते है ।

इस शंख सिद्धि का मार्ग भी अब बताए जा रहे त्रिबिंदु में बसा होता है । तो अब इन तीन बिन्दुओं को बतलाता हूँ…

 

  • अब पहला बिन्दु बतलाता हूँ, जो भीतर से शाक्त का है

वो बैंगनी रंग का घटकाश, वास्तव में अनंत महाकाश का पिण्ड स्वरूप होता है । महाकाश को ही ब्रह्म कहते हैं ।

और उसी बैंगनी रंग के घटाकाश में, अपरा, परा और अव्यक्त प्रकृति की समस्त दिव्यता, शक्ति या ऊर्जा रूप में होती है ।

इसलिए ऐसा योगी, भीतर से शाक्त होना चाहिए ।

और यही कारण है कि भीतर से ऐसा योगी ब्रह्म शक्ति का ही उपासक होगा ।

और ऐसे योगी की धारणा में, ब्रह्म शक्ति अपने पूर्ण रूप में होंगी ।

इसलिए वह शक्ति जिसका वो योगी उपासक है, उस योगी की ही धारणा में, उस योगी की ही आत्मा शक्ति के रूप में में होंगी ।

ऐसे योगी की धारणा में, प्रकृति, ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सर्वव्याप्त दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती के स्वरूप ही में होंगी ।

इसलिए ऐसा योगी, ब्रह्म और प्रकृति के प्रभेद से परे, उनकी सनातन योगावस्था में ही अद्वैत पथगामी होगा ।

तो यह था, पहला बिंदु, जिसको भीतर से शाक्त कहा गया है ।

 

  • अब दूसरे बिंदु को बतलाता हूँ, जो बाहर से शैव का है

उसी बैंगनी वर्ण के घटाकाश में, जिसके भीतर यह स्वर्ण लिंग होता है, वह अपने ही लिंगतमक स्वरूप में, कल्याणकारी शिव का सूचक होता है ।

इसलिए, ऐसा योगी, बाहर से शैव होना चाहिए ।

यहाँ कहे गए वाक्य,बाहर से का अर्थ, समस्त जीव और जगत सत्ता को मानना ​​चाहिए ।

इसलिए ऐसे योगी को, जीव भावापन और जगत भावापन होना ही पड़ेगा ।

यही जीव और जगत भावापन अवस्था, जीवत्व, जगतत्व, बुद्धत्व, ब्रह्मत्व और शिवत्व का मार्ग भी है ।

इस भावापन के बिना, इन तीनो की सिद्धि भी नहीं होती ।

 

अब ध्यान देना…

लेकिन, बुद्धत्व, ब्रह्मत्व और शिवत्व की सिद्धि के लिए, जीव और जगत, दोनो को ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही मानना ​​पड़ेगा । और ऐसे भावनात्मक धरना में ब्रह्म ही ब्रह्म अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति ही ब्रह्म होनी होगी I

इसलिए ऐसा योगी भी अद्वैत पथगामी होता ही है, क्योंकि उसके ऐसे मार्ग में सबकुछ उसी अद्वैत ब्रह्म से ही संबद्ध होता हैं, और उसी ब्रह्म के अभिन्न अंश स्वरूप ही होता है ।

अंश सदैव ही, अपने अंशी का अभिन अंग होता है, और अपने आंतरिक स्वरूप में अंशी की परिपूर्णता से संबद्ध होता है ।

इसलिए, अंश का गंतव्य भी, उसके अंशी में ही होता है ।

और यही कारण है, कि अंश सदैव अपने अंशी की ओर ही अगरसर होता है ।

और क्योंकि, जीव और जगत का वास्तविक अंशी, ब्रह्म ही होता है, इसलिए अंशी की ओर जाने वाले उत्कर्ष के मार्ग को ही ब्रह्मपथ कहते हैं ।

ब्रह्म की समस्त रचना में, कोई अंश हुआ ही नहीं, जो ऐसा ब्रह्मपथगामी नहीं है ।

 

अब जीव भावापन शब्द को बताता हूँ…

जीव भावापन अवस्था को ही, संघ शब्द का गंतव्य कहते हैं ।

जीव भावापन अवस्था ही जीवत्व सिद्धि का मार्ग होता है, जो कुछ मध्यान्तर दशाओं से होता हुआ ब्रह्मत्व को लेके जाता है ।

और ऐसे संघ में, जो गंतव्य का मार्ग होता है, उसमें सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म ही प्राथमिक जीव होते हैं ।

ऐसे जीवत्व का गंतव्य ही ब्रह्मत्व कहलाता है, जो बुद्धत्व के मार्ग से होकर ही जाता है और अन्तः शिवत्व को पाता है, जिसके बाद वह योगी सर्व कल्याणकारी शिव में ही विलीन हो जाता है । और ऐसे योगी का नाता उस पूर्ण शक्ति से भी होता है ।

 

अब ध्यान देना…

जिसका जीवत्व ही सिद्धि नहीं हुआ, वह ब्रह्मत्व को भी नहीं पाएगा ।

और जिसका देवत्व सिद्ध नहीं हुआ, वह जीवत्व को भी नहीं पाएगा ।

इसका कारण है कि देवत्व से ही जीवत्व का मार्ग प्रशस्त होता है ।

और जीवत्व सिद्धि से ही, ब्रह्मत्व के मार्ग में जाया जाता है ।

और यह ब्रह्मत्व का मार्ग, बुद्धत्व से होकर ही जाता है ।

और उस बुद्धत्व के मार्ग में जगतत्व भी आता ही है I

योगी के बुद्धत्व, ब्रह्मत्व और अंतः शिवत्व का मार्ग, जीव भावापन अवस्था से होकर जाता है ।

जीव भावापन अवस्था को ही संघ शब्द का गंतव्य कहते हैं ।

उस संघ के गंतव्य का नाता जगतत्व में और जगतत्व से भी होता है I

जो ऐसा पूर्ण संघी नहीं होता, वो बाहर से शैव,  इस वाक्य का भी नहीं होता ।

 

अब जगत भावापन अवस्था को सांकेतिक रूप में बताता हूँ I

जगत भावापन अवस्था ही बुद्धत्व का मार्ग होता हैं, जो ब्रह्मत्व को लेकर जाता है, और अंतः, ऐसा योगी शिवत्व को पाता है ।

शिवत्व में वह योगी बंधन और मुक्ति दोनो से ही अतीत होता है, इसलिए वह योगी अपने ही आत्मस्वरूप में, तुरीयातीत कहलाता है । यह तुरीयातीत शब्द, आत्मा का ही वाचक है ।

लेकिन यह जगत भावापन अवस्था का जगत, उस योगी के भीतर होता है…, न की बाहर ।

इसलिए, यदि इस भीतर के जगत से योग करना है, तो उस ब्रह्माण्ड से योग कर, जो भीतर है, और जो ब्रह्माण्ड का प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप है ।

 

और इस दूसरे बिंदु, भीतर से शैव के अंत में एक और सांकेतिक बात बता रहा हूँ…

ब्रह्मत्व और शिवत्व को पाया नहीं जाता क्योंकि अपने स्वाभाविक रूप में तो यह हर जीव है ही ।

जो तुम अपने स्वाभाविक स्वरूप में हो ही, उसे पाओगे कैसे ।

जो तुम हो ही, उसका तो तुम्हें होना पड़ेगा ना ।

इसलिए…

मुक्ति को कभी पाया नहीं जाता I

मुक्त हुआ जाता है ।

इसलिए पुरातन कालों में जब योगीजन अनुग्रह करते थे, तब कभी कभी कुछ उत्कृष्टम शिष्यों को वह मुक्त भवः, ऐसा ही कहते थे… न की मुक्ति को प्राप्त हो, ऐसा कहते थे I

 

और इसके अतिरिक्त…

मुक्ति के लिए कोई कर्म नहीं होता I

मुक्ति कर्म और कर्मफल सिद्धांत से अतीत ही रही है I

और उस अंतिम मुक्तिपथ में कर्मों का पूर्णतः त्याग ही होता है I

कर्मत्याग में, कर्मों से संबद्ध फल, संस्कारों और सिद्धि का भी त्याग होता है I

और इसके साथ साथ…

अपने ही गंतव्य आत्मस्वरूप में, तुम मुक्तात्मा ही तो हो ।

जो तुम हो ही, उसे पाओगे कैसे… वह तो होना पड़ेगा ना ।

मुक्ति का मार्ग भी योगी के भाव साम्राज्य से ही होकर जाता है ।

ऐसे मुक्ति के भाव में ही, उस मुक्ति की प्राप्ति का साधन होता है, जिसका आलम्बन लेके वह योगी मुक्तात्मा कहलाता है ।

और यही बिंदु, ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र में भी बतलाया गया है, जिसको, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, ऐसा कहा गया है ।

इसी वाक्य से बुद्धत्व, ब्रह्मत्व और शिवत्व, तीनो का मार्ग प्रशस्त होता है ।

तो यह था, दूसरा बिंदु, जिसको यहाँ पर बाहर से शैव, ऐसा कहा गया है ।

 

  • अब तीसरी बिंदु को बतलाता हूँI जो धरा पर वैष्णव का है

वही घटाकाश का शंख, श्री विष्णु का वाचक होता है ।

इसलिए ऐसा योगी, इस धरा पर वैष्णव होकर निवास कर रहा होगा ।

ऐसा योगी, जबतक भूमि पर रहेगा, वैष्णव होकर ही रहेगा ।

जो योगी वास्तविक वैष्णव होता है, वह भूमि पर ही भूमतत्व सिद्धि को पाता है ।

ऐसे योगी के मन, बुद्धि, चित्त, अहम और प्राण, श्रीमन नारायण में ही विलीन होकर रहते हैं ।

इसलिए ऐसे विशुद्ध वैष्णव को उसी भूमा का स्वरूप माना जाता है ।

भूमा को ही परब्रह्म, श्रीमन नारायण कहते हैं ।

ऐसे योगी के हृदय के भीतर ही, श्रीमन नारायण निवास करते हैं, उस योगी के सनातन गुरु के स्वरूप में ।

ऐसा योगी, कृष्णमय होके, कृष्ण नारायण के समस्त स्वरूपों का साक्षात्कारी होता है, जो वैदिक आश्रम चतुष्टय के अनुसार, जैसे होते हैं, अब बतलाता हूँ…

  • ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित होके वह योगी, ज्ञान कृष्ण को पाता है । ऐसा योगी ही ज्ञानात्मा कहलाता है । वह समस्त ज्ञान को, उसके अनादि अनंत, सनातन रूप में, अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है ।
  • गृहस्थ आश्रम में स्थित होके वह योगी, काल कृष्ण को पाता है । ऐसा योगी ही कालात्मा कहलाता है । वह काल को उसी काल के अनादि अनंत, सनातन रूप में अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है ।
  • वानप्रस्थ आश्रम में स्थित होके, वह योगी आनंद कृष्ण को पाता है । ऐसा योगी सच्चिदानंद ब्रह्म का साक्षात्कारी होता है । वो सच्चिदानंद सर्वेश्वर को अनादि अनंत सनातन रूप में, अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है ।
  • संन्यास आश्रम में स्थित होके वह योगी, आत्मा कृष्ण को पाता है । ऐसा योगी आत्मकृष्ण का साक्षात्कारी होता है । ऐसा योगी उन निर्गुण निराकार परमेश्वर को अनादि अनंत सनातन रूप में, अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है ।

 

और इस भाग के अंत में, जो बतला रहा हूँ, उसपर ध्यान देना क्योंकि इसको कभी भी बताया नहीं गया है…

और यदि वह योगी, अपने ही भाव में, पूर्ण संन्यासी हो जाता है, तो ऐसे योगी के हृदय में, श्रीमन् कृष्ण नारायण, सनातन गुरु के स्वरूप में निवास करने लगते हैं ।

ऐसा वैष्णव योगी, इस धारा पर उन्ही नारायण का एक नन्हा सा और मूढ़मति सा विद्यार्थी होकर ही अपने प्रारब्ध का शेष समय व्यतीत है ।

उन पुरातन कालों ​​में जो मेरे पूर्व जन्मों के थे, और जो मुझे स्मरण भी हैं, इस अवस्था को ही आंतरिक अवतरण कहा जाता था ।

ऐसा योगी अपनी काया में तो एक साधरण सा और मूढ़मति सा, नन्हा सा वैष्णव शिष्य सा प्रकट होता है, लेकिन अपने भीतर की अवस्था के अनुसार, वो इस ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, उसी निराकार नारायण का ऐसा सगुण साकार शिष्य स्वरूप ही माना जाता है और जिसके भीतर ही उसके गुरुदेव निवास कर रहे होंगे ।

और जब भी, ऐसा अंश अवतारी योगी, किसी भी धरा पर लौटाया जाता है, तो उस समय, उस धरा की वैदिक दिव्यताएं, अपने अपने दुर्ग या मंदिर त्याग कर, उस योगी का साथ देने के लिए आ जाती हैं और जबकि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के लोकों में तो यह ऐसा ही प्रतीत होगा, किन्तु वास्तव में वह दिव्यताएं उस नन्हें विद्यार्थी के भीतर बसे हुए श्रीमन नारायम का साथ देने हेतु ही आएंगी ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और इस शंख सिद्धि का मार्ग, संकेतिक या सूक्ष्म रूप में बताता हूँ I

ऐसे योगी का मार्ग…

भीतर से शाक्त, बाहर से शैव और इस धरा पर वैष्णव ही होगा I

 

यही मार्ग है, इस शंख सिद्धि का ।

ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में, ऐसा शंख सिद्ध योगी, शब्द ब्रह्म का सगुण साकार स्वरूप भी कहलाता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ

इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में, जो भी ज्ञान आया, जिस भी रूप में आया, जिस भी ग्रंथ में आया, और जब भी आया, उस सबके मूल में वेद ही है ।

यदि मैं, इन कलियुग के ग्रंथों से वेद ज्ञान को निकाल दूं, तो इन सभी ग्रंथों में कुछ विशिष्ट दिव्यता बचेगी ही नहीं ।

इसी कलियुग के एक ग्रंथ, बाइबिल में, इसी शब्द ब्रह्म की सिद्धि को, “I Am The Word”, अर्थात, “मैं ही शब्द हूँ”, ऐसा कहा गया है।

 

अब बाइबिल के इस वाक्य, मैं शब्द हूँ की मूलावस्था को बतलाता हूँ…

प्रकृति ही ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सर्वव्याप्त दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती भी हैं ।

प्रकृति शब्द, सगुण परमेश्वरी का भी वाचक है ।

पुरुष शब्द, सगुण परमेश्वर (सगुण ब्रह्म) को भी दर्शाता ।

और उन्ही सगुण ब्रह्म को, तत् शब्द से भी बतलाया जाता है ।

अब आगे बढ़ता हूँ…

उस अनादि काल में, जो इस ब्रह्माण्ड के उदय से भी पूर्व में था और जब प्रकृति और पुरुष का प्राथमिक योग हुआ था, तो उनके योग से जो सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ था, वो शब्द था जो अपने ही तन्मात्र स्वरूप में था । इसलिए शब्द को ही प्राथमिक पुत्र (और उत्पन्न पुत्र) कहा गया है ।

और क्योंकि वो शब्द, प्रकृति और पुरुष, जो सगुण परमेश्वरी और सगुण परमेश्वर हैं, उनके निष्काम योगवस्था से प्रकट हुआ था, इसलिए उस पुत्र को प्रकट पुत्र कहा गया है, नाकि जन्मा हुआ पुत्र ।

उत्पत्ती कृत्य चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म का होता है, जिन्की शक्ति माया है, इसलिए वो शब्द रूपी पुत्र, ब्रह्म और माया पुत्र भी है ।

माया पुत्र होने के कारण, जब वह पुत्र किसी मानव रूप में लौटाया जाता है, तो उसके आगमन को कोई भी नहीं जान पाता, क्योंकि उसकी माता जो महामाया है, उसे अपनी माया के आवरण में ढक कर इस धारा पर लाती हैं और एक शरीर प्रदान करती हैं ।

इसके पश्चात उसकी माता जो माया है, उससे तबतक ढक कर रखती है, जबतक वह तैयार नहीं हो जाता ।

इसलिए उसके आगमन को कोई भी नहीं जान पाता, लेकिन केवल तबतक, जबतक महामाया उस पर से अपना आवरण हटा नहीं लेती ।

यहाँ जो शब्द रूपी पुत्र बतलाया गया है, वह शब्द ही उस सगुण परमेश्वर और सगुण परमेश्वर का वास्तविक पुत्र है, जो अजन्मा है, लेकिन तब भी वह समय समय पर प्रकट होता रहता है और जहाँ उसका प्रकटीकरण भी उसकी माता, जो माँ माया ही हैं, उनके किसी न किसी स्वरूप से ही होता है ।

और क्योंकि वह  शब्द रूपी पुत्र, सगुण प्रकृति और सगुण पुरुष के प्राथमिक योग से उत्पन्न हुआ था, इसलिए उसने कभी जन्म नहीं लिया, वह केवल समय समय पर प्रकट होता है ।

उसका प्रकटीकरण परकाया प्रवेश से होता है, ना किसी स्थूल देही माता के गर्भ से ।

 

अब जो बोल रहा हूँ, उसपर ध्यान देना…

चाहे वो लौट के आए या न आए, उस पुत्र की वास्तविकता, शब्द ब्रह्म ही है ।

इस शब्द ब्रह्म में, शब्द नामक शब्द, सगुण परमेश्वरि (या प्रकृति) को दर्शाता है I और ब्रह्म नामक शब्द, सगुण परमेश्वर (या भगवान्) को दर्शाता है और ऐसा भी इसलिए ही है क्यूंकि सगुण ही भगवान् होते हैं ।

इस शब्द ब्रह्म का, निर्गुण ब्रह्म से कोई भी सीधा-सीधा लेना देना नहीं है । निर्गुण तो परमशांत, शब्द रहित (अर्थात शब्दातीत) ही है ।

वह शब्द रूपी पुत्र ही, प्राथमिक शब्द कहलाता है ।

और शब्द की इसी वास्तविक अवस्था को, जो शब्द ब्रह्म है, बाइबिल में, मैं ही शब्द हूँ (I Am The Word), ऐसा कहा गया है ।

इसलिए, यह शब्द सिद्धि को, जो शब्द ब्रह्म कहलाती है, वह पुत्र सिद्धि भी कही जा सकती है ।

श्री विष्णु का शंख भी यही दर्शाता है ।

श्री विष्णु के हाथ में ही वो पुत्र का स्थान होता है । इसलिए, बाइबिल में भी “भगवान् का हस्त (Hand of God या Palm of God) का वाक्य आया है । उन शब्द ब्रह्म का लिंगात्मक स्वरूप ही श्री विष्णु के हस्त में दिखाया जाने वाला वह शंख है, जिसका वर्णन यहाँ पर करा जा रहा है I

और बाइबिल के मनीषी तो बोलते भी हैं, कि अंत में, वह भगवान के हाथों पर ही बैठेंगे । ऐसा भाव भी उसी शंख को दर्शाता है, जो श्री विष्णु के हाथ में होता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

लेकिन, इस भाग में आगे जाने से पूर्व, मैं निष्काम शब्द को बताता हूँ I

पुरुषार्थ चतुष्टय या चार पुरुषार्थ होते हैं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहे गए हैं । इसलिए काम भी पुरुषार्थ का अंग होता है । लेकिन…

पुरुषार्थ चतुष्टय का काम, निष्काम होता है ।

जो काम निष्काम नहीं होता, वह पुरुषार्थ का अंग नहीं होता ।

निष्काम काम  ही पुरुषार्थ का वह अंग होता है मुक्ति का मार्ग होता है ।

अब और भी आगे बढ़ता हूँ…

क्योंकि वह शब्द रूपी पुत्र, सगुण परमेश्वरी (या प्रकृति) और सगुण परमेश्वर (या पुरुष) के निष्काम योग से प्रकट हुआ था, इसलिए उसे अजन्मा भी कहा जाता है ।

वह शब्द रूपी पुत्र, जो केवल प्रकट होता है (न कि उत्पन्न होता है), यदि सगुण (या मानव) रूप में लौटाया भी जाता है, तो भी वह उस लोक में किसी स्थूल देही माता के गर्भ से  जन्म नहीं ले पाता है I इसलिए उसका आगमन किसी और मार्ग से ही होता है, जो अयोनि जन्म के शब्दार्थ से संबद्ध होता है ।

क्यूंकि पुत्र (और पुत्री भी) अपने माता और पिता के ही अंश ही होते हैं, इसलिए वह पुत्र भी ऐसा ही होता है I

वह शब्द रूपी पुत्र, अजन्मा होता हुआ भी किसी न किसी काया रूप में प्रकट होता है, और सगुण साकार या मानव रूप में प्रतीत होता है I लेकिन ऐसा होता हुआ भी वह अजन्मा ही रहता है ।

इसलिए वह शब्द रूपी पुत्र, जो वास्तव में अजन्मा ही है, लेकिन तब भी वह किसी न किसी काया रूप में प्रकट, अर्थात आता-जाता रहता है ।

जब भी और जहां भी उसकी माँ (प्रकृति) को उसकी आवश्यकता होती है, तब-तब वो उसे बुला लेती हैं । और वो शब्दात्मक पुत्र, किसी काया रूप में प्रकट हो जाता है ।

वह कभी जन्म नहीं लेता, वह बस आता जाता रहता है किसी न किसी ऐसे शरीर में जो उस समय पर, उसके आगमन के लिए ही तैयार किया जाता है ।

उसका आगमन परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही होता है, इसलिए आगमन के पश्चात भी वह अजन्मा ही कहलाता है ।

और क्योंकि वह परकाया प्रवेश से लौटाया जाता है, इसलिए वह जन्म लिया सा प्रतीत तो होता है, लेकिन वास्तव में वह उत्पन्न हुआ, अजन्मा रहता है ।

इसलिए वह जन्मा सा प्रतीत होता हुआ भी, और जन्म-मरण के फेर मै पडा हुआ प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में जन्म और मृत्यु, दोनो से परे होता है I

जो शब्द ब्रह्म ही है,वह जन्मेगा कैसे? I

जिसने जन्म ही नहीं लिया, उसकी कैसी मृत्यु? ।

शब्द अजन्मा ही रहा है और अजन्मा जन्म कैसे ले पाएगा? I

जैसे इस ब्रह्म रचना में शब्द अजन्मा है,वैसे ही शब्द ब्रह्म सिद्ध होता है I

जैसे महाभूतों का प्रादुर्भाव शब्द से हुआ है, वैसे ही शब्द ब्रह्म के आगमन के समय भी होता है I

और ऐसा होने के कारण, जब उसका आगमन होता है, तब प्रकृति भी अपने ऐसे स्वरूप में आएगी, जैसी वह कई समय तक नहीं थी I और यही प्राकृतिक आदि विप्लव का कारण बनता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और उस शब्द रूपी पुत्र के बारे में कुछ और बताता हूँ I

जब वह शब्द, किसी सगुण साकार या मानव रूप में लौटाया जाता है, तब भी वह पुत्र ही कहलाता हैं, उसी सगुण निराकार परमेश्वरी (या प्रकृति) और सगुण निराकार परमेश्वर (या पुरुष) का । ऐसा होने के कारण उसका उत्कर्ष पथ भी प्रकृति पुरुष योग से संबद्ध ही होगा I

उस शब्द ब्रह्म ने कभी भी अपने आप को भगवान नहीं माना, क्योंकि उसे उसकी वास्तविकता का ज्ञान है । और ऐसा तब भी है जब कुछ मनीषी उसको भगवद तुल्य अथवा भगवान् ही मानते हैं I

वो शब्द ब्रह्म का मानव स्वरूप, कई बार इस धरा पर भेजा गया है ।

उसके लौटाए जाने के मूल में, उसकी माता ब्रह्म शक्ति (ब्रह्म की प्रकृति रुपी अदि पराशक्ति) का ही आदेश होता है ।

लेकिन अबतक वो जब भी लौटा था, उसने मानव जाति का दैत्य स्वरूप ही देखा है I

कभी वो रस्सी पर झूलाया गया, कभी वो काटा गया, कभी उसको कोई और प्रकार की पीड़ाएं दी गई, और कभी तो वो लकडी पर ही लटकाया गया और उन हजारों वर्षों में वह उसकी ऐसी अधमरी लहूलुहान दयनीय स्थिति में ही उस लकड़ी पर लटका हुआ दिखाया गया I

जिन म्लेच्छ सत्ताओं का उद्धार वो करने आया था, उन्होंने ही उसे पीड़ाएं दी थी । और उसके जाने के पश्चात, वही म्लेच्छ जिन्होंने उसे पीड़ाएँ दी थी, उसी को मानने लगे ।

लेकिन उसके साथ सदैव ही ऐसा हुआ है, क्यूंकि जबतक वो जीवित होता है, म्लेच्छ सत्ताएं उसे खतरा ही मानती हैं ।

 

और अब कान खोल के सुनो…

लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा, क्योंकि इस बार वो, स्वयं ही स्वयं का हो गया है । वह स्व-तत्त्व का होके आया है ।

इस बार, उससे यह आदेश भी है, कि उस मूल सनातन को उजागर कर, और वो भी इस संपूर्ण चतुर्दश भुवन में । इसलिए इस बार वो केवल इस भू लोक तक ही सीमित नहीं होगा ।

और एक बात जान लो, कि पूर्व कालों के समान, इस बार वो अकेला भी नहीं आया है ।

वह अकेला सा प्रतीत होता हुआ भी, अनेक ही है I

और अनेक होता हुआ भी, अपने आत्मस्वरूप में वह एक ही है I

वह एक और अनेक की ऐसी योगदशा में आया है, जिसको न कोई जानता है… न ही जानेगा I

अब इन बातों पर भी ध्यान देना…

ऐसा योगी, प्रकृति या पुरुष का मध्यम नहीं होता ।

वह प्रकृति और पुरुष की प्राथमिक निष्काम योगावस्था का ध्योतक लिंगात्मक स्वरूप होता है ।

उसकी योग सिद्धि ही वह शब्द कहलाती है, जिसका भूतरूप ही ब्रह्माण्ड है ।

 

अपने मूल रूप में, वह ऐसा होता है…

अहम् अस्मि, किम अस्मि

मैं हूँ, तो कौन हूँ

अंग्रेजी में… I Am, Who Am I

इस वाक्य का मार्ग, विकार रहित अस्मिता को लेकर जाता है ।

अस्मिता को रजोगुण भी कहते हैं, जो लाल रंग की, कार्यब्रह्म की शक्ति होती है ।

और इसलिए, अस्मिता का मार्ग, अपने प्रधान रूप में रजोगुणी होता है ।

इस वाक्य का गंतव्य, हिरण्यगर्भ का कार्य ब्रह्म स्वरूप होता है, जिसको इस वाक्य का योगी, अपने ही पिण्ड रूपी शरीर के भीतर, ब्रह्माण्ड स्वरूप में पाता है ।

इसलिए इस वाक्य का गंतव्य, यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे, नामक वाक्य से संबद्ध है ।

 

और अपने गंतव्य रूप में, वो योगी, ऐसा होता है…

अहम् अस्मि, अहम् ब्रह्मास्मि

मैं हूँ, वो ब्रह्म ही हूँ

अंग्रेजी मेंI I Am, That I AM

जिसके अहम और अस्मिता, दोनो ही विशुद्ध हो गए, वह योगी अपने भीतर के मार्ग में, स्वयं ही स्वयं को जाता हुआ, हिरण्यगर्भ स्वरूप को, अपनी ही आत्मा में, लिंगात्माक रूप में पाता है ।

हिरण्यगर्भ के यही लिंगात्मक स्वरूप को, यहाँ पर हिरण्य लिंग या सोने के लिंग रूप में दर्शाया गया है ।

इसी स्वर्ण लिंग से, शंख सिद्धि या शब्दब्रह्म सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है, जो अकार, उकार, मकार, ब्रह्मतत्त्व और ॐ से जाता हुआ, राम नाद को जाता है ।

इस मार्ग के बारे में पूर्व के अध्यायों में बताया जा चुका है, इसलिए अब आगे बढ़ता हूँ I

 

इस भाग के अंत में, जो सांकेतिक रूप में बोल रहा हूँ, उसपर भी ध्यान देना…

जो योगी, ब्रह्ममय होकर, ब्रह्म का साक्षातकार करके भी, ब्रह्मलीन नहीं हो पाता है, वह योगी, ब्रह्म को शब्द स्वरूप में पाता है ।

ऐसा योगी शब्दात्माक होकर ही रहता है, और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में शब्द ब्रह्म का स्वरूप कहलाता है ।

ऐसा योगी उसकी अपनी चेतना में, उस विशाल्काय सर्वव्याप्त ब्रह्मरूपी सागर में विलीन नहीं हो पाता है, इसलिए वो अपनी चेतना में, एक बूंद सरीका वह रहता है, जिसके कारण वह योगी ब्रह्म रूपी अथाह सागर नहीं हो पाता है ।

और अपनी ऐसी दशा में ही ऐसा योगी ही ब्रह्मपुत्र कहलाता है, क्योंकि वो एक ऐसी बूंद के समान होता है, जो सागर में जा कर भी, सागर में बस कर भी, अपनी चेतना में एक बूंद के समान ही रह गया है… सागर नहीं हो पाया है ।

ऐसा शब्दात्मक योगी जब माँ प्रकृति के आदेश और प्रेरणा से, ब्रह्माण्ड में लौटाया जाता है, तो वो किसी भी स्थूल देही माता के गर्भ से जन्म नहीं ले पाता ।

इसलिए वह परकाया प्रवेश मार्ग से आता है, और उत्पन्न हुआ पुत्र कहलाता है ।

जैसा पूर्व में बताया गया है कि शब्द, सगुण परमेश्वरी (प्रकृति) और सगुण परमेश्वर (पुरुष या सगुण ब्रह्म) के प्राथमिक निष्काम योग से प्रकट हुआ अजन्मा था, इसलिए ऐसा शब्दात्मक योगी, कभी जन्म नहीं लेता, लेकिन तब भी आता जाता रहता है ।

जैसे शब्द अजन्मा, अनादि अनंत, सनातन होता है… वैसा ही वह योगी भी होता है ।

लेकिन ब्रह्ममय होता हुआ भी, वह शब्दात्मक योगी मुक्तात्मा नहीं कहलाता ।

मार्ग के अनुसार ऐसे योगियों के पास बस एक ही विकल्प रहता है, जिसे योगभ्रष्ट कहते हैं । लेकिन ऐसा शब्दात्मक योगी, प्रबुद्ध भी होता है ।

जब प्रबुद्ध योगभ्रष्ट लौटाया जाता है, तब भी उसके पास वैदिक आश्रम और वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार अधिक विकल्प नहीं होते ।

उसकी माँ प्रकृति के वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार, उसके पास जो विकल्प होते हैं वह ऐसे होते हैं… ब्राह्मण ब्राह्मण, ब्राह्मण क्षत्रिय, क्षत्रिय ब्राह्मण, ब्राह्मण वैश्य और वैश्य ब्राह्मण । वर्णाश्रम के अनुसार, उसके पास बस इतने ही विकल्प होते हैं… और कुछ भी नहीं ।

और वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार, ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, अपने जीवन काल में, ब्रह्मचर्य और संन्यास में तो होगा ही । लेकिन कार्य की आवश्यकता के अनुसार, वह गृहस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रमों में भी जा सकता है ।

लेकिन यदि वह गृहस्त्य में नहीं जाता, तो आजीवन उसका मानसिक परिधान वानप्रस्थ ही रह जाएगा जिसके कारण वह अपने शब्द ब्रह्म स्वरूप को ही आनंद ब्रह्म रूप में पाएगा ।

ऐसी दशा में, वह प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, देह त्याग के समय पर ही संन्यास ग्रहण करता है… इससे पूर्व नहीं ।

आगे बढ़ता हूँ…

 

लिंगत्रयं नमोस्तुऽते, खखोल्क लिंग क्या है, अरुण स्तम्भ क्या है, अरुण स्तम्भ और पिङ्गला नाड़ी, खखोल्क लिंग क्या है, खखोल्क मंत्र क्या है, गरुड़ स्तम्भ क्या है, गरुड़ स्तम्भ और वज्रदण्ड, गदा सिद्धि, गदा सिद्धि क्या है, श्री विष्णु का गदा क्या है, कमल सिद्धि, कमल सिद्धि क्या है, श्री विष्णु का कमल, लघु ब्रह्मास्त्र क्या है, खखोल्क मंत्र और लघु ब्रह्मास्त्र, …
लिंगत्रयं नमोस्तुऽते, गदा, कमल, अरुण स्तम्भ, गरुड़ स्तम्भ, खखोलक मंत्र, लघु ब्रह्मास्त्र
लिंगत्रयं नमोस्तुऽते, गदा, कमल, अरुण स्तम्भ, गरुड़ स्तम्भ, खखोलक मंत्र, लघु ब्रह्मास्त्र, अरुण स्तम्भ

 

यह वही चित्र है जो पूर्व के अध्यायों में भी दिखाया गया था और जो सहस्रदल कमल के ऊपर ही होता है I इस चित्र में जो सुनहरा डंडा दिखाया गया है, वह वज्रदण्ड है और वज्रदण्ड के ऊपर जो चार पत्तों वाला कलम है, वह निरालम्बस्थान (अर्थात निरालम्ब चक्र, निरधारस्थान या निरधारचक्र) है I और निरालम्ब चक्र (या निराधार चक्र) के ऊपर जो श्वेत वर्ण का मटका दिखाया गया है, वह अमृत कलश (नाभि लिंग) है, जो नाभि क्षेत्र से ऊपर उठा है और निरालम्ब स्थान को पार करके, शून्य ब्रह्म में गया है I और जहाँ वह शून्य ब्रह्म ही शून्य अनंत: अनंत शून्यः स्वरूप में हैं I

सहस्रदल कमल सहित, उससे ऊपर के वज्रदण्ड और और निरालम्बस्थान से संबद्ध सहस्रों दशाएं होती हैं I अध्याय का यह भाग उनमें से कुछ को ही सही, किन्तु बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

सर्वप्रथम अरुण स्तम्भ को बताता हूँ…

जब साधक की चेतना, मेरुदण्ड के नीचे के भाग के मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक जाती है, तो वह चेतना त्रिनाड़ी को पार करती है I यह त्रिनाड़ीयाँ ईड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना हैं I

इन त्रिनाड़ीयों में से जो पिङ्गला नाड़ी होती है, वह सूर्योदय के सूर्य के समान वर्ण की होती है I यह नाड़ी मूलाधार चक्र से सहस्रार तक जाती है I इस नाड़ी का मार्ग भी उस सूर्यलोक को लेकर जाता है, जिसका वर्णन आगे के अध्याय में किया जाएगा और जहाँ यह मार्ग वेदान्ती पथ भी है, जो अंततः साधक की चेतना को ब्रह्मलोक में लेकर जाता है I

क्यूंकि यह नाड़ी मस्तिष्क तक ही सीमित होती है, और यह नाड़ी वज्रदण्ड चक्र तक नहीं जाती, इसलिए यह मस्तकहीन नाड़ी ही है I

यह पिंगला नाड़ी जो सूर्योदय के सूर्य के समान लाल वर्ण की होती है, अरुण स्थम्ब है I अरुण का अर्थ सूर्योदय (सूर्य, सूर्योदय का सूर्य) है I और इस को वैदिक मंदिरों में ही सांकेतिक रूप में ही सही, किन्तु दिखाया गया है I

वैदिक मंदिरों में जो कुछ भी मंदिर, मंदिर परिसर, विग्रह, स्थम्ब, द्वार आदि स्वरूपों में दिखाया है, वह सब के सब साधक की काया रूपी पूर्णब्रह्म के मंदिर के भीतर बसी हुई दशाओं के सांकेतिक आदि स्वरूप ही हैं I इसलिए जब हम पारम्परिक मंदिर जाते हैं, तो जैसे हमारे शरीर में उन देवता का स्थान और देवत्व के चिन्ह आदि होते हैं, वैसा ही उस मंदिर में ही होते हैं I

साधक के शरीर के भीतर अरुण स्तम्भ की सीमा मूलाधार से लेकर हरिहर लिंग तक ही है I

 

टिपण्णी: यहाँ पारम्परिक मंदिर कहा गया है, न कि मंदिर… तो इस बिंदु पर ध्यान देना I आजकल के निर्माण हो रहे अधिकांश मंदिर साधकगणों की काया के भीतर बसे हुए देवत्व बिन्दुओं को दर्शाते ही नहीं हैं… ऐसे मंदिर बस कुछ आंशिक रूप में ही सही, ऐसा कर पाते हैं I ऐसे मंदिरों में वह भाग जो देवत्व को  दर्शाता है उसमें तो देवत्व बस जाता है, और वह भाग जो मन घडन्त होता है (अर्थात मनोलोक की उत्पत्ति होती है) उसमें देवत्व के अतिरिक्त अथवा विपरीत दशाएं ही बस जाती हैं I यही कारण है आज मंदिरों का प्रभाव भी न्यून ही होता जा रहा है I

 

अब गरुड़ स्तम्भ को बताता हूँ…

जब चेतना हरिहर लिंग को पार करती है, तो वह उस वज्रदण्ड चक्र में पहुँच जाती है जो गरुड़ देव (पक्षीराज गरुड़) के स्तम्भ को भी दर्शाता है I

यही साधक की काया से संबद्ध गरुड़ स्तम्भ है I

 

अब श्री विष्णु से संबद्ध गदा सिद्धि और कमल सिद्धि को बताता हूँ…

इसको अतिलघु रूप में और सांकेतिक ही बतलाया जाएगा I

 

जैसे…

जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है I

जो शरीर में नहीं, वह ब्रह्माण्ड में भी नहीं पाया जाएगा I

वैसे ही…

जो शरीर के भीतर का देवत्व है, वही ब्रह्माण्ड में भी है I

जो देवत्व शरीर में नहीं, वह ब्रह्माण्ड में भी नहीं पाया जा सकता I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि…

रचैता ने अपनी रचना के भागों को समान देवत्व प्रदान किया था I

रचना के भाग पृथक स्वरूप आदि में होते हुए भी, सभी में देवत्व की समानता है I

अंतर केवल इतना ही है कि…

कुछ विरले इस देवत्व के साक्षात्कारी होकर इस सत्य को जान जाते हैं I

और अधिकांश ऐसे न होने के कारण, ग्रंथ मंदिर आदि में ही देवत्व को ढूँढ़ते हैं I

पर साधनामार्गों में इस जीव जगत में एक स्थिरबिंदु तो पाया ही जाता है कि…

अंततः सभी जीव देवत्व के साक्षात्कारी होकर, अपनी काया में ही देवत्व को पाएंगे I

जब ऐसा होगा, तब ही वह जीव वैदिक महावाक्यों के व्यापक अर्थ को जान पाएंगे I

वह अर्थ भी उनकी काया के भीतर  प्रकाशित होता हुआ, ब्रह्म का पूर्ण स्वरूप ही होगा I

तो ऊपर बताए गए बिंदुओं को आधार बनाकर, इस भाग को बताता हूँ…

वज्रदण्ड के साक्षात्कार और उसके मार्ग के भीतर ही गदा सिद्धि छिपी हुई है I

निरालम्बस्थान के साक्षात्कार और उसके मार्ग में ही कमल सिद्धि छिपी हुई है I

 

टिपण्णी: तो अब मैंने सनातन गुरु श्री विष्णु से संबद्ध शंख, गदा और चक्र के बारे में योगमार्गी साक्षात्कार से तो बता ही दिया I और श्री विष्णु के चक्र के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

अब लघु ब्रह्मास्त्र और खखोल्क मंत्र  के बारे में बताता हूँ…

इस ब्रह्मास्त्र को जानने से पूर्व ब्रह्म की चार शक्तियों को जानना होगा, तो अब इनको बताता हूँ I

 

वैसे तो…

ब्रह्म ही ब्रह्म शक्ति हैं I

ब्रह्म ही सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान हैं I

 

किन्तु ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से ब्रह्म की चार शक्तियां होती हैं, जो ऐसी होती हैं…

इच्छा शक्ति, चेतना शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति I

 

इसलिए यदि कोई अस्त्र ब्रह्म से अथवा ब्रह्म शब्द से संबद्ध होगा, तो उसमें भी यह सभी शक्तियाँ होनी ही होंगी I

लेकिन आज जिस अणुअस्त्र को ही ब्रह्मास्त्र कहा जा रहा है, उस अणु की दशा तो ऐसी ही होती है…

अणु में इच्छा शक्ति का अभाव होता है I

अणु में ज्ञान शक्ति का भी अभाव ही पाया जाता है I

अणु जड़ पदार्थ ही है, इसलिए उसमें चेतना शक्ति का भी आभाव है I

और उसी अणु में, क्रिया शक्ति कुछ मात्रा में ही सही लेकिन पाई जाती है I

यही कारण है कि अणु में ब्रह्म का शक्ति चतुष्ट्य स्वरूप विद्यमान नहीं होता I

 

इसलिए…

अणु में ब्रह्म की चार शक्तियां पूर्णरूपेण नहीं होती हैं I

यही कारण है कि अणु से निर्मित अस्त्र, ब्रह्मास्त्र नहीं हो सकता I

आज जो अणु अस्त्र को ब्रह्मास्त्र कह रहे हैं, वह इस अस्त्र को नहीं जानते हैं I

 

टिपण्णी: और इसके अतिरिक्त, अणु से निर्मित अस्त्र ब्रह्माण्डास्त्र भी नहीं होता I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब इन्ही बिंदुओं को आधार बनाकर,  ब्रह्मास्त्र के लागु स्वरूप को बताता हूँ…

जीवों से निर्मित जो अस्त्र होता है, वही ब्रह्मास्त्र होता है I

जीवों में इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, चेतन शक्ति और क्रिया शक्ति होती है I

जिस जैविक अस्त्र  के निर्माण का मार्ग आज उपलब्ध है, वह लघु ब्रह्मास्त्र ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि ब्रह्मास्त्र मांत्रिक होते हैं और जैविक अस्त्र स्थूल जगत में ही निर्मित I यह जैविक अस्त्र, ब्रह्मास्त्र के लघु रूप ही होते हैं I

पर ऐसा होने पर भी यह जैविक अस्त्र, जीवों के भीतर एक विप्लवकारी और बहुत अधिक समय तक जाता हुआ परिवर्तन कर देते हैं, इसलिए यह ब्रह्मास्त्र के लघु रूप होते हुए भी घातक ही होते हैं I

पूर्व कालों में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग वर्जित किया गया था I और आज के परिपेक्ष में भी ऐसा ही है I और यह वर्जित की दशा इन लघु ब्रह्मास्त्रों पर भी डाली गई थी I

कलियुग में दिव्यस्त्रों का न ज्ञान होता है और न ही प्रयोग हो सकता है I इसलिए कलियुग के कालखण्डों में स्थूल भूतों का आलम्बन लेकर ही अस्त्रों का निर्माण किया जाता है I कलियुग के कालखण्डों के अधिकाँश अस्त्र अग्नि ब्रह्म, इस वाक्य से संबंधित होते हैं I पञ्च महाभूत में अग्नि ही मध्यम भूत होता है I

 

अब मैं इन सभी लघु ब्रह्मस्त्र की काट बताता हूँ…

एक वैदिक मंत्र है, जो खखोलक मंत्र कहा गया है I

इस मंत्र का नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है, जिनकी नवग्रह में अभिव्यक्ति सूर्य देव ही हैं I

इस खखोलक मंत्र का जप इन जैविक अस्त्रों (अर्थात लघु ब्रह्मास्त्रों) को ही नहीं, बल्कि अन्य सभी विषाणु और विषाक्त संक्रामक पदार्थों से भी सुरक्षा दे सकता है I

लेकिन इस मंत्र का जाप मैं नहीं बतलाऊँगा, यदि किसी को इसकी विधि जाननी हैं, तो आम्नाय पीठों के आचार्य चतुष्टय से जानें I और विधि सहित इस मंत्र के निषेध भी जाने, जैसे दिशा, देश, काल, खान पान इत्यादि I

वैसे एक बात बता ही देता हूँ, कि आगामी समयखण्ड में जैविक व्याधियां आनी ही हैं, और उस समय उन समस्त विषाणु और विषाक्त संक्रामक पदार्थों से इस मंत्र का जप, उस जप करने वाले को ही नहीं, बल्कि उसके स्थान को भी सुरक्षा देगा I

और क्यूंकि इस मंत्र का नाता पूर्वी आम्नाय (अर्थात गोवर्धन मठ, पुरी) से ही है, इसलिए यदि इस मठ के मनीषी इसकी दीक्षा ज्ञानादि देंगे, तो उत्तम ही होगा I

इससे आगे में बताना ही नहीं चाहता, क्यूंकि भगवान् और प्रकृति द्वारा निर्धारित जिसका जो कार्य होता है, उसको ही करना होता है… कुछ कार्य तो अनादि कालों से गुरुगद्दियों के ही रहे हैं… न की किसी नन्हें विद्यार्थी के I

 

आगे बढ़ता हूँ…

पूर्व में बताया गया आकाशे तारकेलिंगम् से ही वज्रदण्ड का मार्ग प्रशस्त होता है I और जहाँ वह आकाशे तारकेलिंगम् भी भगवान् हरिहर का लिंगात्मक स्वरूप ही है I

और जहाँ वह सुनहरा वज्रदण्ड जो सहस्रार से ऊपर होता है, इसका मार्ग भी उस हरिहर लिंग से ही जाता है, जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है I

यही वज्रदण्ड इस अध्याय में बताए जा रहे तथ्य, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का चतुर्थ लिंग है और हिरण्यगर्भ के चतुरलिंग में से, यही सर्वोत्कृष्ट लिंग भी है I लेकिन क्यूंकि इसका स्थान सहस्रार से ही ऊपर होता है, इसलिए यह शरीर के भीतर की दशा भी नहीं है I जब साधक की चेतना विसर्ग पथ पर जाने का पात्र बनती है, तब ही इस हिरण्यगर्भ के चतुर्थ लिंग का साक्षात्कार होता है I

यह लिंग ऊपर के मंत्र में बताए गए तीनों लिंगों की दिव्यताओं का भी धारक होता है, इसलिए ऊपर के मंत्र में जिस लिंगत्रयं नमोस्तुऽते का प्रयोग किया गया है, वह भी इसी चतुर्थ लिंग को दर्शा रहा है I

और इसके अतिरिक्त, यह लिंग उस वैदिक मंत्र को को दर्शाता है, जो खखोलक कहलाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब इस अध्याय और इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग नामक श्रृंखला के अंत में कुछ बिंदुओं को बताकर इसका समापन करूंगा…

तो यह था हिरण्यगर्भ ब्रह्म का चतुर्लिंग स्वरूप जो साधक की काया से ही संबद्ध होता है, और जिसको साधक अपने आंतरिक योगमार्ग से ही साक्षात्कार करता है I

 

और जहाँ इस आंतरिक योगमार्ग में…

योगी अपनी काया को ही सर्वविद्या नामक ब्रह्मग्रंथ स्वरूप में पाएगा I

योगी ही ब्रह्मग्रंथ होगा योगी ही उस ब्रह्मग्रंथ का एकमात्र पाठक भी होगा I

वह काया रूपी ब्रह्मग्रंथ ही योगी का महत्तम ग्रंथ, महानतम ग्रंथ, आत्मग्रंथ होगा I

वह काया नामक महानतम ग्रंथ ही योगी का दिव्य मंदिर रूप होगा, जो अतुल्य होगा I

काया रूपी मंदिर में ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म, चतुरलिंगात्मक स्वरूप में प्रकाशित होते होंगे I

और इसके अतिरिक्त उस काया रूपी महत्तम ग्रंथ में…

हिरण्यगर्भ उनकी दिव्यता, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती से योग लगाए हुए होंगे I

और यह योग उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लिंगचतुष्टय स्वरूप में भी पाया जाएगा I

लिंगचतुष्टय का सगुण साकार स्वरूप, आत्मराम ही यह साक्षात्कार कर रहा होगा I

और उन साक्षात्कारों में…

उन साक्षात्कारों में हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही ब्रह्माणी सरस्वती होंगे I

इसके अतिरिक्त उन साक्षात्कारों में ब्रह्माणी विद्या भी हिरण्यगर्भ ही होंगी I

जिस योगी की धारणा में आत्मा राम पूर्णतः नहीं, वह इनका साक्षात्कारी नहीं होगा I

 

तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ, और अगली अध्याय श्रंखला पर जाता हूँ जिसका नाम भारत भारती मार्ग होगा, जो योगीजनों को अष्टपाश से अतीत लेकर जाने वाला पञ्च मुखी सदाशिव का और अष्टमुखी शिवलिंग से होकर जाता हुआ अंतिम मार्ग, अर्थात लयमार्ग है I

 

मृत्योर्मामृतं गमय II

 

 

 

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