जीवत्व सिद्धि, जगतत्व सिद्धि, ब्रह्माण्ड धारणा, जीव जगत एकापन, ब्रह्माण्ड योग

जीवत्व सिद्धि, जगतत्व सिद्धि, ब्रह्माण्ड धारणा, जीव जगत एकापन, ब्रह्माण्ड योग

यहाँ जीवत्व सिद्धि, जगतत्व सिद्धि, ब्रह्माण्ड धारणा, जीव जगत एकापन और ब्रह्माण्ड योग पर बात होगीI

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु योगेश्वर कहलाते हैं, जो, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता, ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का आठवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

जीवत्व सिद्धि, जगतत्व सिद्धि जीव जगत एकापन

अब आगे बढ़ता हूं, कुछ बातों को बताने के लिए, जो ब्रह्माण्ड और जीवों की मूल एकता को दर्शाती हैं, और जिसको मैं, जीवत्व सिद्धि और जगतत्व सिद्धि भी कहता हूं।

देवत्व सिद्धि को पाने के पश्चात ही जीवत्व सिद्धि को पाया जाता है। और इसके पश्चात ही जगतत्व सिद्धि को पाया जाता है, जो इस चतुर्दश भुवन का योगशिखर कहलाती है, और जिसे ब्रह्माण्ड योग भी कहा जाता है।

जो योगी उसके अपने पिंड के भीतर के सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड से ही योग लगाया होता है, वो जनता ही है, कि जीव और जगत अपने मूल से एक ही हैं। ऐसे साक्षातकार को जगतत्व सिद्धि भी कहा जा सकता है।

इस जगतत्व सिद्धि में जो जगत होता है, वो पितामह ब्रह्म की वैसी ही अभिव्यक्ति होता है, जैसा वो जगतत्व सिद्ध योगी भी होता है।

इस सिद्धि में, जबकि वो योगी का पिंड रूपी शरीर, ब्रह्माण्ड में ही बसा हुआ होता है, लेकिन तब भी वो योगी का पिंड ही ब्रह्माण्ड को धारण किया होता है। इसलिए इस सिद्धि में वो योगी, उसके अपने जीव (Jeeva) स्वरूप में भी, वास्तव में संपूर्ण जगत को ही देखता है।

 

इसी जगतत्व सिद्धि से योगी शब्द की परिभाषा भी आती है, जिसको अब बतलाता हूँ …

जो साधक एक ही स्थान पर बैठ कर, विश्व खेलना जानता है, वो योगी है।

जो ऐसा नहीं, वो योगी नहीं।

इसी जगतत्व सिद्धि से योग शब्द की परिभाषा भी आती है, जिसको अब बतलाता हूँ …

रचैता, समस्त रचना और रचना के तंत्र से सामान एकापन को ही योग कहते हैं।

जो ऐसा नहीं, वो योग नहीं।

लेकिन, इस जगतत्व सिद्धि का मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में” होकर ही खुलता है। ये मार्ग, जीवत्व सिद्धि को पार करके ही पाया जाता है, और इस जगतत्व सिद्धि को पार करके ही, आत्मा साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होता है, और इस मार्ग में, आत्मा ही ब्रह्म होता है।

इसलिए यदि आत्म साक्षातकार करना है, तो इसे पूर्व अपने भीतर के ब्रह्मांड से ही योग लगाओ। बिना ब्रह्माण्ड जो जाने हुए, न आत्मा को जाना जा सकता है और न ही आत्मा के वास्तविक ब्रह्म स्वरूप को।

इसलिए, यदि ब्रह्म को जानना है, तो पहले अपने भीतर के ब्रह्माण्ड को जानो। और यदि ब्रह्माण्ड जो जानना है, तो पहले अपने ही जीवत्व को जानो। और यदि अपने जीवत्व को जानना है, तो उससे पहले अपने ही देवत्व को जानो।

स्वयं ही स्वयं में, के मार्ग में, अर्थात आत्मसाधना में, देवत्व से जीवत्व, जीवत्व से जगतत्व, और इसके पश्चात ही जगतत्व से ब्रह्मत्व को पाया जाता है, और जहाँ उस ब्रह्मत्व में, योगी का आत्मा ही ब्रह्म कहलाता है। इसी योग से, वो योगी उसके अपने ही आत्मा स्वरुप में, वैदिक महावाक्यों के मूलार्थ और गंतव्य, दोनों का ही साक्षात्कार करता है।

इसीलिये इस समस्त चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, इससे उत्कृष्ट योग न हुआ है और न ही कभी होगा। जीव और जगत के रचैता, पितामह ब्रह्मा की रचना के दृष्टिकोण से, ब्रह्मांड योग ही योगशिखर है।

और उसी रचैता, पितामह ब्रह्म के दृष्टिकोण से, ब्रह्मत्व ही ब्रह्म कहलाता है।

 

जीवत्व और जगतत्व सिद्धि के कुछ निम्न बिन्दु … ब्रह्माण्ड धारणा … ब्रह्माण्ड योग …

अपने ही हृदय के भीतर, उन गोल गोल घुमती तारों में फँसे हुए भी, बहुत कुछ होता चला गया। तो अब उनमे से कुछ बिंदुओं को बताता हूं।

लेकिन ये बिंदु, उदाहरणों के स्वरुप में बतलाये जायेंगे, क्यूंकि मै इनको खुल के नहीं बताना चाहता हूं। इसलिए अब ध्यान दो …

ये सब बाते, 1996-97 से लेकर 2018-19 तक की है।

इसी कालखंड में, कोई 2010 से 2011 के बीच में, मैंने वो गोल गोल घूमती हुई तारें को पार किया था …

 

तो अब मै कुछ उदाहरणों का आलम्बन लेके, इन दोनों सिद्धियों को बतलाता हूँ …

एक बार पानी के जहाज पर, कमरे में बैठा हुआ था और ध्यान में था। तो एक सूक्ष्म जगत का पहलवान आ गया। उसको कई बार डिस्टर्बेंस बोलने के बाद भी वो जा ही नहीं रहा था। तो मेरे मस्तष्क घूम गया, और मैंने आवेश में आके उसे पकड़ लिया और बांध के अपने जहाज के कमरे में ही लटका दिया।

लटके लटके ही, वो नौटंकी करता था और रोता भी था।

मैंने उसे बोल दिया था, कि जब तक तू वचन नहीं देगा, कि अब धर्म के मार्ग पर चलेगा, तब तक बंधा ही रहेगा।

कई सप्तह के बाद, वो मान गया और मैंने उससे छोड़ भी दिया। और इसके बाद वो कभी नहीं आया।

लेकिन इसके बाद मैंने मन में कह ही दिया, कि भाड़ में गई डिस्टर्बेंस, अब इन सब को आने दो, और अपने अपने सबक सीखके जाने दो।

इसके बाद जो भी सूक्ष्म जगत के पहलवान आते थे, उनकी भी वोही दशा होती थी, जो पहले वाले का हुई थी।

एक दिन जहाज एक बंदरगाह पर गया, और उस स्थान का देवता ही नौटंकी करने लगा। उसको भी पकड़ लिया और उसका भी वही हाल हो गया।

ऐसे कई वर्ष बीत गए, और अंगिनत पहलवान समुद्र और बंदरगाहों पर पकड़े गए और सुधारे भी गए।

मैं देखता था, कि सुधारने के बाद, उनका व्यवहार बहुवादी हो कर अन्तः समतावादी हो जाता है। तो ये “बहुवादी समतावाद” इस प्रक्रिया का मुख्य बिंदु हुआ।

इसके पश्चात, जैसे जैसे समय बीतता चला गया, तो कोई ऐसा जहाज बचा ही नही, जिसमे मैंने कई सौ पहलवान पकड के, लटका के नहीं रखे थे।

वैसे भी समुद्र में, बहुत सारी और विचित्र प्रकार की आत्माएं होती हैं, तो इतने सारे पहलवानों का पकड़ा जाना और लटका के रखा जाना भी स्वभाविक ही था।

कभी कभी तो मैं सोचता भी था, कि, यही कारण हो सकता है, कि ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व की रक्षा करने हेतू, वैदिक मनीषियों ने ब्राह्मण को समुद्र की यात्रा करना वर्जित किया था। लेकिन, मेरा कुल भी तो शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मणों का ही है, अर्थात, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान से लेकर इजराइल तक के ऋग्वेदी ब्राह्मण।

उन बहुत सारे वर्षों में, समुद्र के कई स्थानों के, और कई बंदरगाहों के पहलवान और देवता पकड़े गए, और लटकाये गए, और सुधारे भी गए।

इसमें भी कई वर्ष बीत गए और जैसे जैसे समय बीतता गया, तो मैंने ये परिवर्तन भी देखा, कि मेरे जहाज के किसी स्थान पर पहुँचने से पूर्व ही, वहां का देवता मेरे पास आता है और अपने बंदरगाह या समुद्र के क्षेत्र के बारे में बता के भी जाता है। और कुछ तो बोलते भी थे, कि आप जैसा बोलोगे, वैसा ही होगा, बस आप कुछ बुरा मत करना, आप हमें या हमारे स्थान के सूक्ष्म निवासियों को कुछ हानि मत पहुंचाना।

जब ऐसा ही कई बार, कई समुद्री स्थानो और बंदरगाहों पर हुआ, तो मै सोचने भी लगा, कि जब तक मैं शांत होकर बैठा था, तबतक ये सभी सूक्ष्म जगत के पहलवान मुझे ऊँगली करते थे। और अब जब मैंने अपना वास्तवित स्वरूप दिखलाया है, तो सब मेरे तलवे चाट रहे हैं।

तो मैंने सोचा, कि इस कलियुग में क्या खूब कहा है किसी ने … लातों के भूत, बातों से नहीं मानते।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अब सांकेतिक बोल रहा हूं, कि, क्योंकि आज का समय कलियुग को स्थम्बित करने का ही है…  तो क्या पता आज की कलियुगी मानव जाती भी, लटक कर ही सुधरेगी।

और इतना भी बता रहा हूँ, कि क्यूंकि कलियुग के पूर्ण स्थम्बित होने का समय भी कुछ ही वर्षों में आने वाला है, इसलिए वो कालखंड जब आज की कलियुगी मानव जाती को सुधरने के लिए, उसे लटकाया जायेगा, वो भी बहुत समीप है।

और क्यूंकि कलियुग में, मानव जाती का नाता सूक्ष्म तत्त्वों से होता ही नहीं है, और वो नाता केवल शरीर से ही होता है, इसलिए ये लटकाने की प्रक्रिया भी मानव जाती के शरीर से ही प्रारम्भ होगी।

और क्यूंकि कलियुग के कालखंड में, पुरुषार्थ चतुष्टय में, केवल विकृत अर्थ पुरुषार्थ ही बचा होता है, इसलिए उस लटकाने की प्रक्रिया में, मानव जाती के अर्थ को ही लटकाया जायेगा ।

और क्यूँकि अर्थ पुरुषार्थ के मूल में, कृषि गोरक्ष वाणिज्य ही होता है, इसलिए इसको ही लटकाया जायेगा, जिससे आज की कलियुगी मानव जाती, पुरुषार्थ विहीन होकर, अपने आप ही लटक जाएगी। मैं ये सब, उस काल की प्रेरणा से ही बोल रहा हूँ, जिसके गर्भ में ये समस्त जीव जगत बसा हुआ है।

और उसी काल की प्रेरणा से, मैं ये भी बोल रहा हूँ, की आगामी कुछ ही समय में, इस कलियुगी मानव जाती को समझ ही नहीं आएगा, कि उसको कितनी मार पड़ी, किधर किधर पड़ी, कब कब पड़ी, कहाँ कहाँ से पड़ी, और क्या क्या पड़ी या ये बोलूं, क्या क्या नहीं पड़ी, क्यूंकि उस मार में मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक सभी प्रकोप एक एक करके आएंगे… और आते ही चले जायेंगे।

लेकिन क्योंकि इस बिंदु पर, भारत बाकी सभी देशों से थोड़ा अच्छा है, इसलिए भारत पर इस बात का प्रभाव थोड़ा बाद में आएगा, और थोड़ा कम ही होगा।

और क्योंकि आज भारत के राजनीतिक शिखर पर, इस कलियुग का पूरक ही बैठा हुआ है, अर्थात, युग पूरक ही बैठा हुआ है भारत के प्रधान मंत्री के रूप में, इसलिए ये भी एक कारण होगा, कि बाकी देशों की तुलना में, भारत पर इस युग स्थम्बित प्रक्रिया का प्रभाव, थोड़ा काम ही होगा और थोड़ा देर में ही होगा।

लेकिन कम होने का अर्थ, ना होना मत मानना, और देर में होने का अर्थ, प्रभाव से निरर्थक मत मानना।

और बहुत कुछ, कई बार और कई स्थानों पर हुआ, तो थोड़ी और बाते बतलाता हूं, ताकी अंततः जिस बिंदु को मैं बताना चाहता हूं, उसका एक अच्छा आधार बन जाए।

 

तो अब इसी बिंदु का दूसरा उदहारण देता हूँ …

फुजैरा नाम का बंदरगाह है, यू.ए.ई में।

मेरा जहाज वहां जा रहा था, बंकर या रिफ्यूलिंग, खाना और सामान भरने के लिए।

मैं कप्तान था उस विशालकाय जहाज का, जो वी.एल.सी,सी नामक श्रेणी में आता है। कप्तान बनने के बाद, मेरे अधिकांश जहाज वीएलसीसी ही थे।

तो मैंने एक स्थान चुना चार्ट पर, लंगर गिराने को।

लेकिन जब उस स्थान से जब कोई 40 मील बाकी थे, तो फुजैराह बंदरगाह का देवता, जो पूर्व कालों का, श्वेत वस्त्र धारण किया हुआ, एक अरबी साधुबाबा है, वो आया, और उसने बताया की वो स्थान पर कोई और जहाज खड़ा हुआ है, इसलिए अच्छा होगा, कि आप इस वाले स्थान पर जाओ, ताकी समय व्यर्थ ना हो लंगर डालने में।

और उस देवता ने मुझे उस स्थान के अक्षांश और रेखांश भी दिये, और बताया की वहां पर अभी तो एक जहाज खड़ा हुआ है, इसलिए आप उस स्थान पर इतने बजे के समीप में ही पहुंचना, और जैसे ही वो जहाज उसका लंगर उठाएगा और चलने लगेगा, आप वहीं अपना लंगर डाल देना।

जब हम उस देवता के द्वारा बताए गए स्थान के कुछ पास में पंहुचे, तो हमने देखा कि देवता के दिए हुए उस स्थान पर, सच में एक जहाज खड़ा हुआ है। और इसके बाद, कुछ ही समय में, उस जहाज ने वीएचएफ पर पोर्ट कंट्रोल को बताया, कि वो जा रहा है।

बस अब बात बन गई और हमने उसी देवता के दिए हुए स्थान और समय पर, अपना लंगर दाल दिया।

उस देवता का दिया हुआ स्थान और समय, दोनो ही ठीक थे, इसलिए वो फुजैरा बंदरगाह का देवता मेरा मित्र हुआ। और आज भी वो मेरा मित्र है।

 

अब इसी बिंदु का तीसरा उदहारण देता हूँ …

एक बार, हम कुवैत के मीना अल अहमदी नाम के बंदरगाह में जा रहे थे, तो उस बंदरगाह की देवी आ गई।

वो देवी एक विक्राल देवी हैं, बहुत आवेश में रहती हैं…, लेकिन बहुत अच्छी भी हैं।

और आने के बाद, मुझसे गरज के बोली, कि मैं मेरे स्थान पर कोई भी नौटंकी नहीं करने देती, इसलिए, निश्चिंत होकर आओ, और, जो काम करने आए हो, वो करो… और निकलो।

और तब से वो देवी मेरी मित्र हैं, क्योंकि मैंने ये देखा है, की वो सच में अपने स्थान पर कोई भी नौटंकी नहीं होने देती।

इसीलिए, वो देवी बहुत अच्छी भी हैं… और मेरी प्यारी भी हैं।

जो देवता अपने स्थान पर कोई नौटंकी न होने दे, वो अच्छा होता है, मैं ऐसा ही मानता हूं।

अब अगली बातें बताता हूँ, ताकि जो बात मैं बताना चाहता हूँ, उसका एक अच्छा आधार बन जाए …

 

तो अब इसी बिंदु का चौथा उदहारण देता हूँ …

कई स्थान हैं, जहां जानवर रूप में भी देवता होते हैं, जैसे सऊदी अरब का रास्तानूरा बंदरगाह।

वैसे सऊदी के अधिकतर बंदरगाह के देवता, पशु ही हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि, सऊदी की जो पुरातन आदिवासी परंपरा है, वो मूल में अभी भी सुरक्षित है।

यही स्तिथि लाल सागर और खाड़ी के अधिकतर देशों में भी मैंने देखी है, क्योंकि वहां के भी अधिकतर देवी देवता पशु रूप में ही हैं।

जॉर्डन नामक देश के तो हर एक स्थान का देवता, पशु रूप ही मिलेगा।

 

अब इसी बिंदु का पांचवा उदहारण देता हूँ …

एक बार, हम सिंगापुर स्ट्रेट्स में जा रहे थे।

सिंगापुर के एक देवता हैं, जो बौद्ध साधु हैं और एक देवी भी हैं, जो हिंदू साध्वी हैं और दोनो ही मेरे मित्र हैं।

उस समय उन्होंने बोला, की सिंगापुर स्ट्रेट में जाने के समय, इस स्थान पर, उत्तर दिशा में नहीं जाना, नहीं तो बहुत बड़ा पंगा हो जाएगा, मच्छी के जाल का।

तो मैंने अपनी कैप्टन नाइट ऑर्डर बुक में लिख दिया, और चार्ट में, उस स्थान पर मार्का भी लगा दिया, कि मच्छी के जाल हैं, इसलिये उत्तर की ओर नहीं जाना।

रात को सेकंड ऑफिसर ने फोन किया और बोला, सर मैं गलती से थोड़ा सा उत्तर की ओर चला गया और जहाज मछली के जालों में बस घुसने ही वाला है, और अब उन जालों के बाहर से घूम के निकलना भी कठिन होता जा रहा है, इसलिए हम फंसने वाले है।

मैं दौड़ा ऊपर नेविगेशन ब्रिज पे और देखा, की ये तो उसी स्थान की बात है जिसके बारे में सिंगापुर के देवी देवता, दोनो ने बतलाया था।

और तभी वो दोनो देवी देवता आए, और बोले पूरा घुमा के निकल जाओ। कुछ बुरा नहीं होगा, अभी अंदर नहीं घुसे हो जाल के।

इसके बाद, सेकेंड ऑफिसर का काम समाप्त हुआ, और चीफ ऑफिसर आ गया।

कुछ बाद में, चीफ ऑफिसर ने मुझसे पूछा, आपको कैसे पता था, कि यहां पंगा है।

तो मैंने बोला, सिंगापुर के देवी देवता दोनो ने ऐसा ही कहा था, इसलिए मैंने मास्टर्स नाइट ऑर्डर बुक और चार्ट् में ऐसा लिखा था।

ये सुनकर चीफ ऑफिसर हंसने लगा, और बोला, सर चाय पियोगे तो बनवाता हूं, ताकि आपकी नींद खुल जाए … आज तो आप बहकी बहकी  बातें कर रहे हो।

 

तो अब इसी बिंदु का छठा उदहारण देता हूँ …

एक बार, अमेरिका के फिलाडेल्फिया का ऑयल टर्मिनल, जिसका नाम शायद सुनोको मार्कस हुक था, वहां पर जा रहे थे, और जिस समय की ये बात है, वो टर्मिनल कोई 10 मील की दूरी पर रहा होगा।

पायलट जहाज पर था, क्योंकि रिवर नेविगेशन हो रही थी।

वहां का देवता आया, और बोला, कि उसके ऑयल टर्मिनल में, एक केमिकल का टैंक फटने वाला है, इसलिये अपने जहाज को देरी से लाओ।

जब मैंने पायलट को उस देवता की कही हुई बात बतलाई, तो वो मेरा मुंह देखने लगा, कि ये कप्तान पागल है क्या, सभी प्रबंध तो हो चुके हैं, तो उसका नुक्सान कौन उठाएगा।

पायलट मेरी बात को माना नहीं, और वो बोला कि, मैं जहाज को धीरे नहीं करूंगा।

तो मैंने पायलट को बोला, पायलट माई शिप इज माई कमांड, अर्थात, मेरा जहाज मेरे अधीन है, और इस जहाज का कप्तान होने के नाते, मैं आपकी बात नहीं मान रहा हूं।

और मैने जहाज को बिलकुल धीरे कर दिया, और धीरे धीरे ही चलता गया।

जब वो ऑयल टर्मिनल कोई 1-2 मील दूर था, हमने उस टर्मिनल से एक आग का गोला ऊपर की ओर उठता हुआ देखा, और उसके बाद वो पायलट, मेरा मुह ही देखता रह गया।

और वो गोराजी पायलट, जहाज से उतरने से पहले, मुझे झुक कर नमस्ते भी करके गया।

 

अब इसी बिंदु का सातवां उदहारण देता हूँ …

एक बार मेरे जहाज को, सुंडा स्ट्रेट्स, जो इंडोनेशिया में है, उससे होकर जाना था। उस समय हम ऑस्ट्रेलिया से आ रहे हैं।

सुंडा स्ट्रेट्स पहुंचने से कोई एक दिन पहले, उसी सुंडा स्ट्रेट्स के एक पहाड़ का देवता आया, और बोला, कल तुम्हारा जहाज यहां से, इस-इस समय के बीच में नहीं निकलना चाहिए, क्योंकि मैं फटने वाला हूं।

मैंने पूछा ज्वालामुखी फटेगा, तो वो देवता हां बोला और चला गया।

वो देवता बहुत सुंदर सा था, और उस देवता के साथ, एक बहुत सुंदर सी स्त्री भी थी।

मैने ऊपर नेविगेशन ब्रिज पर जा के देखा, कि हम लोग तो सुंडा स्ट्रेट्स के उस पहाड़ के पास, उसी समय अंतराल में पहुंच रहे हैं, जब वो फटने वाला है।

तो अगले दिन मैंने जहाज को, उस पर्वत से कोई 15-20 समुद्री मील की दूरी पर रोक दिया, और उसके फटने की प्रतीक्षा करने लगा।

मेरे जहाज के लोग पूछने लगे, कि कप्तान साहब, रोका क्यों है जहाज को। तो मैंने बोला, कि वो पहाड़ देख रहे हो सामने, उसके देवता ने बोला है, कि वो उसी समय अंतराल में फटेगा, जब हम उस पर्वत के पास से जा रहे होंगे।

तो जहाज पर ये बात अग्नि के सामान फ़ैल गयी और लोग बाते करने लगे, मुझे आकर बोलने भी लगे, की कप्तान साहब, अगर फटा नहीं तो?।

मेरे प्रमुख यान्त्रिक, अर्थात चीफ इंजीनियर या बड़ा साहब, जो मेरे मित्र भी थे, वो ऊपर नेविगेशन ब्रिज पे आए।

और बड़ा साहब ने ये भी बोला, यार क्या कर रहे हो, सभी लोग तुम्हारे पर हंस रहे हैं, और बोल रहे हैं, की कप्तान को डॉक्टर के पास भेजने के लिए कंपनी को बोलना पड़ेगा। और बड़ा साहब ने ये भी बोला, कि यार ऐसा मत करो।

तब मैंने बड़ा साहब को बोल दिया, भाई, ये पहाड़ अवश्य फटेगा, क्यूंकि उसके देवता ने ही ऐसा बोला है। कोई कुछ भी बोले, मैं केवल देवता की ही बात मानता हूँ। और आप देख लेना, कि जब वो फटेगा ना, तो ये सभी चुप्पा लगा लेंगे, और आगे से कभी भी ऐसा नहीं बोलेंगे।

हर एक स्थान का एक देवता होता है, जो उस स्थान का अधिष्ठा होता है, इसलिए उसकी बात सर्वोपरि होती है, और अपने अनुभवों से मैं ऐसा ही मानता हूं। इसलिए जहाज़ अभी नहीं चलेगा, क्यूंकि उस पहाड़ के देवता ने ही बोल दिया है, की वो फटने वाला है।

और जहाज के बाकी सभी लोगों की बातों पर,मैं चुप रहा, क्योंकि देवता ही बोल चुका था, की उसका पहाड़ फटेगा।

और कुछ ही देरी में, जब वैसा ही हुआ, तो उसके बाद कई दिनों तक, सब मुझसे दूर भागते थे।

 

अब इसी बिंदु का आठवां उदहारण देता हूँ …

एक बार मेरा जहाज़ म्यूटीनीर (Mutineer) ऑयल टर्मिनल, जो उत्तर पश्चिम ऑस्ट्रेलिया में, समुद्र में ही बना हुआ है, उसमें खड़ा हुआ था और अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था।

एक तूफान था, जिसका मुझे नाम तो याद नहीं आ रहा है, लेकिन सोचता हूं, कैटरीना था। वो तूफान हमारी ओर ही आ रहा था।

जैसे ही वो तूफान कोई 300 समुद्री मील पर आया, तो धीरे धीरे सभी जहाज जो वहां खड़े हुए थे, वो समुद्र में भागने लगे।

रात साधना में, वो तूफान का देवता आया, और गरज के बोला, कि जब मैं तुमसे 210 मील की दूरी पर होऊँगा, तब मैं डार्विन नामक स्थान पर चला जाऊंगा। तुम्हें यहां से जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कोई खतरा ही नहीं है तुम्हारे लिए।

मेरी कंपनी ने, चार्टरर ने, एजेंट ने, सब ने भी बोला, भाग जाओ समुद्र में, नहीं तो बरबाद हो जाओगे। लेकिन उन सबको मैंने यही बोला, की जब वो तूफान 180 समुद्र मील पर आएगा, तब देखेंगे।

जैसे जैसे वो तूफ़ान पास आया, तो उस टर्मिनल का एफपीएसओ भी भाग गया, और हम उस टर्मिनल पर अकेले ही रह गए।

जब वो तूफान, कोई 250 समुद्र मील पर आ गया, तो मैंने कप्तान नाइट ऑर्डर बुक में आदेश लिख दिया, कि मुझे हर एक मौसम की रिपोर्ट पर बुलाओ, जो उस तूफान की दिशा और दशा को बताती है।

मेरे जहाज के लोग भी डरने लगे, कि बुड्ढे, अर्थात कप्तान को क्या हो गया है, जहाज को समुद्र में, दूर किसी सुरक्षित स्थान पर लेके क्यों नहीं जा रहा है…, ऐसे तो हम सब मर जाएंगे।

वैसे एक बात बता दूं, कि कप्तान को जहाज़ों पे, बुड्ढा कहते हैं। इस शब्द में कोई बुराई नहीं है, क्यूंकि यहाँ बुड्ढे शब्द का अर्थ, सर्वोच्च होता है, नायक होता है, शिखर या गंतव्य पर स्थित होता है। मैं तो अपनी भरी जवानी में ही बुड्ढा बन गया था।

तो मैंने अपने जहाज के लोगों को बोला, कि उसी तूफान के देवता ने ऐसा ऐसा कहा है, इसीलिये, यदि वो 180 समुद्र मील तक भी डार्विन में नहीं जाएगा, तो मैं जहाज चला के समुद्र में भाग जाऊंगा…, लेकिन इससे पूर्व नहीं।

उसी रात एजेंट का फ़ोन आया और उसने दोबारा बोला, कि भाग जाओ, नहीं तो कल इस समय तक तो पूरी बर्बादी हो जाएगी।

मैंने उसे पूछा, कि क्या तुम डार्विन के किसी सरकारी विभाग में, किसी बड़े अधिकारी को जानते हो। तो वो बोला हाँ।

इसपर मैंने उसको कह दिया, की उस अधिकारी को बोल दो, कि तूफ़ान डार्विन जायेगा, इसलिए अपने प्रबंध कर ले।

और मैंने उस एजेंट को भी बोल दिया, कि हर एक स्थान और तंत्र का एक देवता होता है, और उसी तूफान के देवता ने ही बोला है, कि वो डार्विन जाएगा, म्यूटीनीर (Mutineer) नहीं।

एजेंट ने सुन तो लिया, लेकिन कुछ बुडबुड करके उसने फ़ोन बंद कर दिया।

उसी रात, कोई ढाई बजे, उस तूफान ने, मेरे जहाज से कोई 210 समुद्री मील पे आना था, तो मैं नेविगेशन ब्रिज पर ही रह गया, कि मौसम की रिपोर्ट देखता रहूंगा। लेकिन अब तक तो वो तूफान हमारी ओर ही आ रहा था।

कोई 2 बजे के बाद, एक मौसम की रिपोर्ट आई, कि वो तूफान, सचमें डार्विन की ओर घूम गया है।

और अगले दिन, जब मैंने एजेंट को फोन लगाया, तो उसके शब्द ही नहीं निकल रहे। वो मुझे बोला, काश मैंने आपकी बात मान ली होती और डार्विन को सतर्क कर दिया होता।

मैंने सोचा, चलो कोई नहीं, जब उन डार्विन के लोगों के प्रारब्ध में ही था, तो कोई क्या कर लेगा।

 

अब इसी बिंदु का नौवां उदहारण देता हूँ …

हम लोग चीन के दक्षिण पश्चिम सागर में थे।

दो तूफान आ रहे थे, एक का नाम था टेम्बिन और दूसरे का नाम बोलावेन था।

मैं इन दानों तूफानों को भूल ही नहीं सकता, क्योंकि इनमें से जो बोलावेन था, उसका देवता मस्तमगन था, और टेम्बिन का देवता अति गम्भीर प्रकार का था।

बोलावेन का देवता शिवशंभु के समान था, एकदम मस्तमगन था, और टेम्बिन का शांत देवता, किसी उच्च कोटि के मुनि के समान था।

टेंबिन पश्चिम से आ रहा था, और वो ताइवान के पास था, और बोलावेन पूर्व से, फिलीपींस के पास से आ रहा था।

टेंबिन के देवता ने बोला, जहाज को कुछ दूर रोक देना, ताइवान के पास मत आना। और बोलावेन के देवता ने बोला, कि मैं आगमी समय में अपनी गति को बढ़ा लूंगा, और टेम्बिन के साथ, इस दिन, इस समय पर, और इस स्थान पर, एक कोहल बनूंगा, और तुम उस कोहल से निकल जाना।

कोहल वो होता है, जिसमे उस कोहल के भीतर का समुद्र, झील के समान हो जाता है।

मैने कहा अच्छा जी, और जहाज टेंबिन के देवता के बताए हुए क्षेत्र में लाकर रोक दिया।

यदि तूफान के देवता ने ही बोल दिया, तो मौसम विभाग कुछ भी कहे, मैं देवता की बात ही मानता हूँ। मैं ऐसा ही हूं।

कुछ एक दिन के बाद, बोलावेन ने अपनी गति वैसे ही बढ़ा ली, जैसे उसके देवता ने बोला था। और टेम्बिन ताइवान के समीप रुक गया, वैसे ही जैसे उसके देवता ने बोला था।

उसी रात, बोलावेन ने बोला, जहाज चलाओ और इस आकांक्ष और देशांतर पर इस समय पाहुंचो, और इतनी गति से पहुंचो, और मैं तुम्हें एक बहुत अच्छा कोहल बनाके दूंगा, जिसमें से तुम निकल जाना।

और वो कोहल तब तक बनाके रखूंगा, जब तक तुम हम दोनों तूफानों से, पार ना हो जाओ।

वो बोलावेन ने ये भी बोला, की वेदर रिपोर्ट में तो मैं चीन जा रहा हूं, लेकिन अब मैं कोरिया में घूम के आऊंगा, चीन नहीं।

मैंने उसे पूछा हम तो उत्तरी चीन के यिंगकाउ बन्दरगाह में जा रहे हैं, तो क्या मस्त चले जाएं या कोई और पंगा होगा। इसपर वो बोलावेन का देवता बोला, 10 समुद्री मील प्रति घंटा की गति रखना, और इसपर मस्त चालोगे।

और कभी बाद में जो मौसम रिपोर्ट आई, तो मैंने देखा, की वो बोलावेन सच में ही कोरिया जाने लगा है, चीन नहीं।

 

अभी भी उस बात का आधार, जो मैं बताना चाहता हूँ, वो पूरा नहीं डाला है, इसलिए एक और किस्सा बताता हूं

 

तो अब इसी बिंदु का दसवां उदहारण देता हूँ …

एक बार हिमालय में जा रहा था, ऋषिकेश के बाद और देव प्रयाग से पहले, एक स्थान पड़ता है, शिवपुरी।

वो शिवपुरी पार हो गया था। और उस समय, सड़क पर एक बहुत लंबा चौड़ा सा मानव रूप खड़ा हो गया और मुझे बोला, आगे मत जाओ, पहाड़ गिरने वाला है।

मैंने गाड़ी धीरे करके, उससे पूछा, कि भाई आप कौन?, अपना परिचय दो।

इस प्रश्न पर उस लम्बे चौड़े मानव रूप ने, एक पास के पहाड़ की ओर ऊंगली दिखा के कहा … वो पहाड़ मैं ही हूं।

मैं उसी पहाड़ का सगुण मानव रूप हूं और वो पहाड़ मेरा ही विशाल स्वरूप है, और मैं एक मानव रूप धारण करके, आपको बताने आया हूं, ताकी मैं आपकी मृत्यु का कारण न बनूँ।

मैं समझ गया, की पहाड़ का देवता है, तो मैंने गाड़ी रोक दी।

मेरे पीछे एक सिख परिवार आ रहा था, उनकी अपनी गाड़ी में, तो मैंने उनको भी बोल दिया, कि पहाड़ ने बोला है, कि वो गिरने वाला है, इसलिए रुक जाओ।

उनको कुछ समझ में तो नहीं आया, लेकिन वो भी रुक गए।

और कुछ ही देर में, वह पूरा पहाड़ नीचे खिसाकने लगा।

हम वहां पर कोई 12-15 घंटे खड़े थे, लेकिन उन 12-15 घंटों में, वो सिख परिवार जो ऊपर के एक गुरुद्वारे, हेमकुंठ साहब में जा रहा था, उन्होंने मुझे कम से कम 100 बार पुछा होगा, की हमें ये बताओ, पहाड़ कैसे बात कर सकता है।

पहले तो वो लोग मुझे नाम से बुला रहे थे, लेकिन जब पहाड़ ही खिसक गया, तो वो लोग मुझे वीरजी बोलने लगे। वीरजी शब्द का अर्थ, ज्येष्ठ भ्रातः होता है।

और मैं भी उनको यही बोलता गया, कि इस समस्त जगत में, जो निर्जीव भी दिखता है ना, वो भी जीवित है। इस पूरी सृष्टि में, सृष्टि सहित, उसके सभी भाग जीवित हैं।

जितने हम मानव जीवित हैं, उतने ही ये मिट्टी और पत्थर के पहाड़ भी जीवित है। पञ्च तत्वों से जो भी निर्मित है, वो सब जीवित है।

और मैंने उस परिवार को ये भी बोला, कि ये साथ चलती हुई, गंगा जी भी जीवित है, क्योंकि मैंने इनसे भी बातें की है। आगे जो भागीरथी और अलकनंदा नदियां हैं, वो भी जीवित नदी हैं, क्योंकि मैंने उनसे भी बातें की है। और उससे भी आगे, जो मंदाकिनी आदि नदियां हैं, मैंने उनसे भी बातों की हैं, इसलिए इसे वो भी जीवित हैं। और उससे भी आगे, जो बर्फ के पहाड़ हैं, उनकी बरफ भी जीवित है, क्यूंकि मैंने उस बरफ से भी बातें की है।

ये जो वृक्ष रूपी जीव दिखायी दे रहे हैं, वो भी जीवित हैं, क्योंकि उनमें से कुछ, मुझसे अब भी बोल रहे हैं, कि मानव के विकृत अर्थ पुरुषार्थ रुपी अनर्थ मार्ग के करण, ये भूमंडल बहुत ही विकृत हो गया है।

ये वनस्पति, पत्थर मिटटी रुपी जीव तो ये भी बोल रहे हैं, की आज विकास के नाम पर ही प्राकृतिक विनाश हो रहा है, इसलिए आज के विकास के बिंदु ही, आगामी समय में विनाश के कारक बनेंगे।

जो अर्थ प्रकृति के तत्त्वों को ही विकृत कर दे, वो वास्तव में अनर्थ होता है, और ऐसे अनर्थ की गति, कभी भी पुरुषार्थ चतुष्टय का अंग नहीं होती, इसलिए उसमें न तो पुरुष रुपी सगुण ब्रह्म मिलेगा, न ही अर्थ रुपी प्रकृति मिलेंगी। संपूर्ण प्रकृति ही तो अर्थ कहलाती है। इस संपूर्ण चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, प्रकृति के सिवा और कोई अर्थ नामक पुरुषार्थ है भी तो नहीं।

और जिस मार्ग में पुरुष और प्रकृति का वैसे ही योग नहीं होता, जैसा पुरुषार्थ के शब्द में है, तो वो मार्ग गन्तव्य प्राप्ति, अर्थात कैवल्य मोक्ष का मार्ग भी नहीं होता।

पुरुषार्थ के अनुसार, ऐसे विकृत मार्गों में, अपने दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ में ही व्यय नहीं करना चाहिए, क्यूंकि ऐसे मार्गों की गति, कभी भी गंतव्य रुपी कैवल्य मोक्ष तक नहीं जाती। और जो गति गंतव्य तक ही नहीं जाती, वो ही तो दुर्गति कहलाती है।

इसलिए, ये जीव मुझे कह रहे हैं, की इसका कुछ करो, नहीं तो हम यहां पर रह ही नहीं पाएंगे, और हमें आपकी कुलदेवी, नारायणी शक्ति, भूदेवी के भूमि स्वरुप को ही त्यागना पड़ेगा।

और मैंने उस परिवार को यह भी बोला, की जो जीवित है, उसमें शब्द नामक तन्मात्र तो होगा ही, और इसीलिये, उससे बातें कर सकते हो।

 

ब्रह्म की रचना में सबकुछ जीवित है … 

तो अब मैं आप सब को, इन सबके जीवित होने का मूल कारण बताता हूँ …

प्रजापति, जो परम जीव हैं, उन्होंने कुछ भी निर्जीव नहीं बनाया, इसलिए, जो कुछ भी है इस पूरे ब्रह्माण्ड में, वो सब जीवित है।

वो परमजीव, प्रजापति कुछ निर्जीव बना ही नहीं पाया था, इसलिए, उसकी रचना में, जो भी है, वो सब जीवित है।

उस परमजीव प्रजापति की रचना में, निर्जीव तो कुछ है ही नहीं, क्योंकि वो प्रजापति, जो परमजीव हैं, वो अपने से पृथक कुछ बना ही नहीं पाया था, इसलिए, इसी जीव जगत के स्वरूप में, जो भी है, जैसा भी है, जिधर भी है और जिस भी गति या मार्ग में है, वो सब जीवित है।

और यही कारण है, कि मैं प्रकृति के हर एक अंश से बात करता हूं और वो अंश भी मुझसे बात करता है।

ना तो मैं प्रकृति के किसी भी अंश को बात करने से रोकता हूँ, ना ही वो अंश मुझे रोकता है। मैं अकेला सा दिखता हुआ भी, अकेला तो बिलकुल नहीं हूं।

और क्यूँकि प्रकृति ही ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, एकमात्र दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दुति हैं, इसलिए, मेरे लिए तो प्रकृति ही माँ हैं, और अपने मातृ शक्ति स्वरुप में, प्रकृति मेरी गुरुमाई भी हैं।

 

तो अब मैं इन सभी बातों का सार बतलाता हूँ, … यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, … यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, … 

वैसे ऐसे किस्से तो बहुत हैं, लेकिन अब इन बातों को विराम दूंगा, और इन सभी बातों के मूल बिंदु पर बात करूंगा…

तो अब, इतनी सारी मुंशी प्रेमचंद की कहानियां, मैंने क्यों सुनाई, उसके मूल कारण को बतलाता हूं…

जो शरीर के बाहर है, वो ही शरीर के भीतर भी है।

जो शरीर के भीतर के भीतर बसे हुए सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड में नहीं मिलता, वो बाहर के ब्रह्माण्ड में भी नहीं मिलेगा।

शरीर के भीतर ही पूरा ब्रह्मांड होता है, लेकिन ये भीतर का ब्रह्मांड, एक सूक्ष्म सांस्कृतिक अवस्था में होता है, नाकी किसी और स्थूल या सूक्ष्म अवस्थाओं में।

पितामह ब्रह्म की रचना में, यही सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड, प्राथमिक ब्रह्माण्ड भी है। और यही सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड, हर एक पिंड या शरीर के भीतर भी होता है।

इसी सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से, दैविक जगत की रचना हुई थी, इसलिए, समस्त दैविक जगत भी इसी शरीर के भीतर ही होता है।

कोई ऐसा वैदिक देवलोक या देवता है ही नहीं, जो इस शरीर के भीतर बसे हुए ब्रह्मांड में नहीं है। यही आत्ममार्ग का मूल बिंदु होता है, जिससे मैंने “स्वयं ही स्वयं में”, ऐसा कहा है।

जो भी साधक “स्वयं ही स्वयं में” चला गया, उसका सब हो गया और वो सबका हो गया, लेकिन केवल तबतक, जबतक वो साधक इस दशा को पार नहीं कर जाएगा, और निर्गुण निराकार का नहीं हो जाएगा। लेकिन, निर्गुण निराकार का मार्ग भी तो पूर्ण त्याग से ही स्वयंप्रकट होता है।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

उस अपने ही भीतर की यात्रा में, इसी भीतर के सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्मांड से योग किया जाता है। और ऐसा योग, ब्रह्माण्ड योग कहलाता है।

ऐसा ब्रह्माण्ड योग, यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, इस वाक्य के साथ साथ, यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, इस वाक्य में भी बसा हुआ होता है।

ब्रह्माण्ड योग की शिखर अवस्था में, ये दोनों वाक्यों के सार, आपस में ऐसे घुले मिले होते हैं, की कौन सा पिंड है और कौन सा ब्रह्मांड है, वो समझ ही नहीं आता है।

इस वाक्य का सिद्ध साधक, योग चक्रावर्त को पाता है, क्योंकि उसके सारे सप्तचक्रों को, वो साधक भेद चुका होता है।

ऐसा साधक, उसी महेश्वर, जो योगेश्वर, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योग और योग तंत्र भी होते हैं, उनका होकर ही रह जाता है, इसलिए, वो साधक योगी कहलाता है।

इस वाक्य का सिद्ध साधक, अपने सगुण साकार, शरीरी रूप में होता हुआ भी, वास्तव में, चतुरदश भुवन ही होता है, अर्थात समस्त ब्रह्माण्ड ही होता है।

और ऐसा साधक, ब्रह्माण्ड के समस्त तत्त्व होता हुआ भी, जीव भावापन होके ही रहता है, क्योंकि उससे पता है, कि जीव भावापन अवस्था ही संघ का गंतव्य होती है

और ऐसे संघ के गंतव्य में ही, वो सृष्टिकर्ता, वो प्रजापति ही, उनके अपने प्रथम जीव स्वरूप में, सर्वसम, सगुण साकार, चतुरमुखा पितामह ब्रह्म कहलाते हैं।

इसलिए ऐसा साधक, जीव हत्या कर ही नहीं सकता। और क्योंकि वनस्पति भी तो जीव ही होती है, इसलिए, जब उसकी साधनाओं में, उसे इस बिंदु का ज्ञान होता है, तो वो शाकहारी होता हुआ भी, भोजन बहुत कम करता है।

बस एक दिन में एक बार या कुछ दिनों में एक बार ही, वो भोजन करेगा।

और यही बिंदु को वेद मनीषियों ने भी बताया है, कि योगी को भोजन कम से कम करना चाहिए। और ये इसीलिये कहा गया था, क्योंकि इसके बिना, जीव भावापन सिद्धि में ही बाधा आ जाएगी।

ऐसे साधक का आहार भी सात्विक होता है।

 

तो अब मैं वनस्पति के दृष्टिकोण से, सात्विक आहार को बतलाता हूं।

तो अब इसपर ध्यान दो …

वो जिसको मां धरती ने, अपने गर्भ से बहार की ओर उगाया, शुद्ध जल ने सींचआया, वायु ने हिलाया दुलयाया, सूर्य ने तपाया, चंद्र ने ठंडाया, ग्रहों नक्षत्रों राशियों ने दिव्याया, पञ्च भूत सहित, आकाश ने अपने भीतर ही बसाया, और माँ प्रकृति के सत्वगुण ने अपनाया, वो आहार सात्विक होता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जो योगी, उसके भीतर बसे हुए, इस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड योग का सिद्ध होता है, वो योगी ब्रह्माण्ड से और उस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक भाग से, बात कर सकता है ,क्यूंकि वो योगी समस्त ब्रह्माण्ड के साथ, उसके भीतर से ही एकापन में होता है।

ऐसा योगी ही जीव जगत एकापन अवस्था का सगुण साकारी मानव रूप होता है।

और यदि वो योगी, ब्राह्मण क्षत्रिय या क्षत्रिय ब्राह्मण वर्णों में से, किसी का भी होगा, तो उसका ब्रह्माण्ड, उसका मुक्ति मार्ग होने के अतिरिक्त, उसका ज्ञान, श्रद्धा समर्पण और कर्म मार्ग होने के साथ साथ, उसका अस्त्र भी होगा।

ऐसे योगी को किसी स्थूल अस्त्र की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वो कभी भी उन सूक्ष्म, दैविक और संस्कारिक जगत के अस्त्रों का प्रदर्शन नहीं करेगा।

प्रकृति के सारे बिंदु, उसके भक्ति, ज्ञान, राज और कर्म बिंदु होते हुए भी, उसके अस्त्र ही होते है।

ऐसे योगास्त्र, सार्वभौम होते हैं, क्यूंकि वो उन योगास्त्रों को चलाएगा तो उसकी अपनी काया के भीतर, लेकिन वो अस्त्र चलेंगे, सभी जीवों में।

इन अस्त्रों को वो योगी, कई नाम देता है, जैसे कोशास्त्र जो पांच होते हैं, भूतास्त्र जो पांच होते हैं, कालास्त्र जो इस जीव जगत का गर्भास्त्र होता है, दिशास्त्र जो मूलतः दस होते हैं, दशास्त्र जो अनंत होते हैं, प्राणस्त्र जो दस होते हैं, गुणास्त्र जो तीन होते हैं और जो ब्रह्म की प्रथम और पूर्ण शक्ति रूपी अभिव्यक्ति, माँ प्रकृति का मूलास्त्र भी होते है, इतियादी, इतियादी।

ऐसे योगी के लिए तो, तन्मात्र सहित, प्रकृति के समस्त बिन्दु भी अस्त्र ही होते हैं।

ऐसे योगी के लिए तो समस्त जीव जगत के बिंदु ही अस्त्र होते हैं, जिनको वो योगी, अपने भीतर ही छुपा कर, उसके ही स्वयंजनित तिरोधान में डाल कर रखता है।

कलियुग में, देवस्त्रों दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं होता, लेकिन देवस्त्रों दिव्यास्त्रों के अतिरिक्त भी तो अस्त्र होते हैं, जो सार्वभौम होते है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा ब्रह्माण्ड योगी एक ही स्थान पर बैठ कर विश्व खेलता है, और उसका विश्व भी उसके शरीर के भीतर ही होता है…, उसके शरीर से बहार नहीं।

और समय समय पर, वो योगी उसी भीतर के विश्व की जीव सत्ता के कुछ बिंदुओं से, अपने भीतर के ब्रह्मांड में ही खेलाता भी है।

जो योगी इस ब्रह्माण्ड योग का सिद्ध होता है, उसके भीतर, उसके ही ब्रह्माण्ड में, इस जीव जगत की सारी दिव्यतायें होती हैं, जिनसे वो बात भी करता है, उनकी मदद करता है, और वो भी उसकी मदद करती हैं।

लेकिन, वो अपने भीतर के ब्रह्मांड में, “स्वयं हे स्वयं में” रहकर, केवल होके ही रमण करता है। इसलिए, वो उनको कभी भी मदद नहीं करता, जो उस मदद के पात्र नहीं होते।

इस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड का योगी, तंत्र मंत्र और यंत्र के मार्गों में नहीं होता। उसका मार्ग ही उसके भावनात्मक स्वरुप में होता है, और ऐसे भाव में ही उसका साधन संहित होता है, जिसका आलम्बन लेके वो उसके मार्ग पर गमन करता है।

 

अब आए बढ़ता हूँ …

वो सारी मुंशी प्रेमचंद की कहानियां मैंने इसलिए सुनायी थी, ताकी उनसे ही, इस ब्रह्मांड योग का आधार डाल सकूं।

इस समस्त जीव जगत में, ब्रह्माण्ड योग ही, योगशिखर होता है। सिद्ध मार्ग में, इससे बड़ा ना कोई योग हुआ है, और ना ही होगा।

और इस ब्रह्माण्ड योग का एक बहुत सरल मार्ग भी है, जिसको ब्रह्माण्ड धारणा कहा जाता है।

ऐसा योगी, स्वयं ही स्वयं को जाता हुआ, उसके भीतर ही बसे हुए, पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा भी करता है।

और ऐसी भीतर की प्रदक्षिणा के समय पर, पूर्व में जो भी उसके स्थान रहें होंगे, या अभी हैं, उन सभी स्थानों में से, जिन भी स्थानों का वो स्मरण कर रहा होगा, उन स्थानों के कुछ जीव, किसी भी पञ्च संध्या में से एक या एक से अधिक संध्या में, प्रदक्षिणा करते हुए पाए जायेंगे।

इसका अर्थ ये हुआ, कि जब वो पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा अपने शरीर के भीतर कर रहा होगा, तो उसके स्थान की प्रदक्षिणा, अर्थात उस योगी की सांकेतिक प्रदक्षिणा, कुछ जीव कर रहे होंगे।

लेकिन क्योंकि, आज का मानव, उसके भीतर की पवित्रता को त्याग चुका है, इसलिए आज का मानव तो बिल्कुल नहीं करेगा ऐसी प्रदक्षिणा।

और यही कारण है, कि ऐसा योगी, स्वयं को एक ऐसे परिधान रूपी तिरोधन में डाल कर रखता है, कि उसके पास के मानव या सूक्ष्म लोक के निवासी भी उसकी वास्तविकता को जान ही नहीं पाते हैं।

और जब तक उसके पास कोई और विकल्प ही न रहे, वो योगी उसकी अपनी वास्तविकता को, किसी को भी, कभी भी नहीं बताता है।

और जिस भी स्थान पर वो केवल होगा रहेगा, अर्थात, अकेला होगा रहेगा, उस स्थान की प्रदक्षिणा, उस स्थान के कुछ जीव समय समय पर, तब करते हैं, जब वो योगी भी उसके भीतर के पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा कर रहा होता है।

इसलिए, जब भी वो “स्वयं ही स्वयं में” होके, ब्रह्म भावापन होगा, और अपने भीतर के पञ्च ब्रह्म की प्रदक्षिणा कर रहा होगा, तो उसी समय पर, किसी भी पञ्च संध्याओं में, उसके सभी स्थान या स्थानों की जीव सत्ता में से, कुछ जीव, चाहे वो जलचर या भूचर हों, या नभचर ही क्यों न हों, उसकी प्रदक्षिणा करते हुए पाए जाएंगे।

उसकी आंतरिक पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के समय पर, उस स्थान की चींटियां तक, उसके शरीर की प्रदक्षिणा करती हुइ पाई जाएंगी।

 

अब आगे बढ़ता हूं, अपने मूल बिंदु पे, जो उस भीतर की यात्रा का है।

लेकिन उसको मैं अगले भाग में बतलाऊँगा, नहीं तो ये बहुत लम्बा हो जायेगा। इसलिए अब मैं इस भाग को समाप्त करता हूँ।

 

असतो मा सद्गमय

 

error: Content is protected !!