पञ्चमुखी सदाशिव, पञ्चमुखा सदाशिव, सदाशिव के पांच मुख, भगवान् पशुपतिनाथ, गुरु विश्वकर्मा, विराट परब्रह्म, विराट परब्रह्म सदाशिव, आदि पराशक्ति, इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, चित्त शक्ति, पराशक्ति, नवग्रह, नौ ग्रह

पञ्चमुखी सदाशिव, पञ्चमुखा सदाशिव, सदाशिव के पांच मुख, भगवान् पशुपतिनाथ, गुरु विश्वकर्मा, विराट परब्रह्म, विराट परब्रह्म सदाशिव, आदि पराशक्ति, इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, चित्त शक्ति, पराशक्ति, नवग्रह, नौ ग्रह

इस अध्याय में पञ्चमुखी सदाशिव, पञ्चमुखा सदाशिव, सदाशिव के पांच मुख, भगवान् पशुपतिनाथ, गुरु विश्वकर्मा, विराट परब्रह्म, विराट परब्रह्म सदाशिव, आदि पराशक्ति, इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति, चित्त शक्ति, पराशक्ति, नवग्रह, नौ ग्रह आदि पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इक्यासीवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का दसवाँ अध्याय है I

 

टिप्पणियाँ: साधना मार्गों के साक्षात्कारों के अनुसार

  • इस अध्याय और पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग में बताए गए बहुत सारे बिंदु, एक दुसरे से विपरीत पाए जाएंगे I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि…

पञ्चब्रह्म भीतर की ओर देखते हैं I

सदाशिव के पञ्चमुख बाहर की ओर देखते हैं I

 

और…

एक दुसरे से विपरीत दिशा में देखने पर भी, वह एक दुसरे की ओर ही देखते हैं I

 

  • ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि, …

पञ्चब्रह्म मुक्तिमार्ग हैं I

सदाशिव के पञ्चमुख सिद्धमार्ग हैं I

 

और एक दुसरे की ओर देखने के कारण…

सिद्ध मार्ग से मुक्तिमार्ग पर गति प्रशस्त होती है I

मुक्तिमार्ग (त्याग मार्ग) से भी सिद्धियों की प्राप्ति होती है I 

 

  • और जहाँ, …

देवतागण, पञ्चब्रह्म और पञ्चमुखा सदाशिव, दोनों से संबद्ध होते हैं I

ऐसा ही उत्कृष्ट योगीजनों का पञ्चब्रह्म और पञ्चमुखा सदाशिव से नाता होता हैं I

 

  • जब पञ्चब्रह्म और पञ्चमुखा सदाशिव से संबद्ध देवता आदि गण…

जीवातीत और जगतातीत होते हैं, तो वह पञ्चब्रह्म से संबद्ध होते हैं I

जीव जगत में कार्यरत होते हैं, तो वह पञ्चमुखी सदाशिव से संबद्ध होते हैं I

 

  • यही कारण है कि, …

पञ्चब्रह्म और पञ्चमुखा सदाशिव के वेद, तत्त्व, आदि एक दुसरे से विपरीत होते हैं I

 

इसका अर्थ हुआ कि पञ्चब्रह्म में से किसी एक का तत्त्व, वेद आदि, पञ्चमुखी सदाशिव के उस मुख का होगा, जो विपरीत दिशा में स्थित होगा I

उदहारण के लिए, सदाशिव के पूर्व दिशा को देखने वाले मुख का वेद और तत्त्व, पश्चिम दिशा के पञ्चब्रह्म का होगा… इत्यादि I

 

  • पर अष्टपाश से अतीत जो अष्टमुखी सदाशिव हैं, और जो अष्टमुखी पशुपति ही हैं, उनमें ऊपर बताए गए बिंदु अधूरे रूप में ही पाए जाते हैं (इसको आगे के एक अध्याय में बताया जाएगा) I ऐसा इसलिए है क्यूंकि अष्ट मुखी सदाशिव में…

चार मुख में पञ्चब्रह्म हैं और अन्य चार मुख, सदाशिव के हैं I

और नौवा जो ईशान है, वह व्यापक होने के कारण, मुख ही नहीं माना जाता I

 

पञ्चमुखी सदाशिव, पञ्चमुखा सदाशिव, सदाशिव के पांच मुख, विराट परब्रह्म
पञ्चमुखी सदाशिव, पञ्चमुखा सदाशिव, सदाशिव के पांच मुख, भगवान् पशुपतिनाथ, गुरु विश्वकर्मा, विराट परब्रह्म, विराट परब्रह्म सदाशिव

 

ऊपर के चित्र का वर्णन,

  • यह चित्र पंचमुखा सदाशिव और उनके देवताओं के निराकार स्वरूप (अर्थात लोकों) को दर्शा रहा है I
  • इसमें सर्वसम चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा का चित्र नहीं बनाया गया है I इस पूरे ग्रंथ में न तो पितामह का कोई चित्र मिलेगा और न ही ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह भागों का अथवा ब्रह्मलोक के उस इक्कीसवें भाग का ही कोई चित्र मिलेगा, जिसमें केवल पितामह और पितामही ही निवास करते हैं I
  • इस चित्र में मध्य में जो सदाशिव का ईशान मुख दिखाया गया है, वह व्यापक और निरंग होता है I और क्यूँकि जो सर्वव्यापक और निरंग भी है, उस का कोई चित्र ही नहीं बनाया जा सकता, इसलिए पूरे ग्रंथ में इसका भी कोई चित्र नहीं है I और क्यूँकि सदाशिव ईशान का महाभूत, बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत ही होता है, इसलिए ईशान के स्थान पर वही आकाश दिखाया गया है I
  • इस चित्र के अन्य सभी भागों का वर्णन पूर्व के अध्यायों में किया जा चुका है, इसलिए उन सबको यहाँ पर पुनः नहीं बतलाऊँगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

पञ्चमुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्चमुखा सदाशिव का वर्णन, सदाशिव के पांच मुख क्या हैं, पञ्च मुखी सदाशिव, पञ्च मुखा सदाशिव, पञ्च मुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्च मुखा सदाशिव का वर्णन, पञ्च मुखी सदाशिव कौन हैं, पञ्च मुखा सदाशिव कौन हैं, सदाशिव के पाँच मुखों का वर्णन, पञ्चमुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्चमुखा सदाशिव का वर्णन, भगवान् पशुपतिनाथ कौन हैं, गुरु विश्वकर्मा कौन हैं, … विराट परब्रह्म कौन हैं, विराट परब्रह्म सदाशिव कौन हैं, आदि पराशक्ति कौन हैं, इच्छा शक्ति क्या हैं, ज्ञान शक्ति क्या हैं, चित्त शक्ति क्या हैं, पराशक्ति कौन हैं, नवग्रह और सदाशिव का नाता, नौ ग्रह और सदाशिव का नाता, …

 

सदाशिव के पाँच मुखों का वर्णन, पञ्चमुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्चमुखा सदाशिव का वर्णन
सदाशिव के पाँच मुखों का वर्णन, पञ्चमुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्चमुखा सदाशिव का वर्णन

 

सर्वप्रथम कुछ बिंदु स्पष्ट करता हूँ…

पञ्च मुखी सदाशिव ही गुरु विश्वकर्मा हैं I

पञ्च मुखा सदाशिव ही भगवान् पशुपतिनाथ हैं I

भारत भारती मार्ग की शृंखला पाशुपत मार्ग की भी है I

 

और इस अध्याय में…

पाशुपत मार्ग ही आधार है I

पञ्चमुखा सदाशिव ही गुरु विष्वकर्मा हैं I

गुरु ही विश्वकर्मा और विश्वकर्मा ही गुरु हैं I

पञ्च मुखी सदाशिव ही भगवान् पशुपतिनाथ हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

सदाशिव के दृष्टिकोण से साधक के स्थूल शरीर का…

अग्रभाग पूर्व दिशा है, जिसका अधिपति सदाशिव का तत्पुरुष मुख है I

बायां भाग उत्तर दिशा है, जिसका अधिपति सदाशिव का वामदेव मुख है I

दायां भाग दक्षिणी दिशा है, जिसका अधिपति सदाशिव का अघोर मुख है I

पश्चभाग पश्चिम दिशा है, जिसका अधिपति सदाशिव का सद्योजात मुख है I

मध्यभाग आत्मा है, जो ब्रह्म है, जिसका अधिपति सदाशिव का ईशान मुख है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और ऊपर दिखाए गए चित्र में जो बिंदू बताए गए हैं, अब उनके अनुसार सदाशिव के पाँच मुखों का वर्णन, पञ्चमुखी सदाशिव का वर्णन, पञ्चमुखा सदाशिव का वर्णन, उनके पाँच मुखों के अनुसार एक-एक करके करता हूँ…

 

  • सदाशिव का सद्योजात मुख क्या है, सद्योजात सदाशिव कौन हैं, सदाशिव सद्योजात कौन हैं, सदाशिव सद्योजात और इच्छा शक्ति, सदाशिव सद्योजात और चंद्र ग्रह, सदाशिव सद्योजात और शुक्र ग्रह

    , …

सद्योजात का अर्थ है वह…

जो सबको उदय करता है I

जो सबके उदय का मूल है I

जिसमें सबकुछ उदय होता है I

जिससे सबकुछ उत्पन्न होता है I

जिसके उदय से सबकुछ उदय होता है I

जो स्वयं ही स्वयं में व्यापक रूप में उदय है I

टिप्पणियाँ:

  • साधक की स्थूल काया में…

पश्च ओर का भाग उत्पत्ति दिशा कहलाती है I

पश्चभाग की दिव्यता इच्छा शक्ति हैं I

इच्छाशक्ति रचना की उत्पत्तिकारिणी हैं I

 

  • और पञ्चमुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से यह तब पाया जाएगा, जब साधक पूर्वी दिशा को देख रहा होगा I इसलिए पञ्चमुखी सदाशिव में…

पश्चिम दिशा में उत्पत्ति होती है I

पश्चिम की ओर में ही सर्जन कृत्य है I

पश्चिम दिशा के अधिपति सदाशिव सद्योजात हैं I

सदाशिव सद्योजात की शक्ति, इच्छा शक्ति कहलाती हैं I

इच्छा शक्ति, सद्योजात की सुपुत्री श्री लक्ष्मी हैं, जो ब्रह्मानुजा हैं I

 

 

तो अब सद्योजात सदाशिव के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ…

पञ्च कृत्य: इसका कृत्य, सृष्टि (उत्पत्ति या सर्जन) है I इसका कारक भू महाभूत है I

 

वर्ण (रंग): इसका वर्ण प्रकाशमान श्वेत (वज्रमणि) है I

यह ऐसा है जैसे वज्रमणि के प्रकाश की असंख्य रश्मियाँ एक स्थान पर एकत्रित हुई है और वज्रमणि के प्रकाश से युक्त कमल स्वरूप में हैं I

 

दिशा: यह मुख पश्चिम दिशा की ओर देखता है I

 

वेद: इस मुख का वेद, ऋग्वेद है I

 

सद्योजात मुख से संबद्ध वैदिक पीठ : पश्चिम आम्नाय द्वारका शारदा मठ है I

 

सद्योजात मुख से संबद्ध वैदिक धाम: द्वारका पुरी I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि सदाशिव के चार दिशाओं में देखने वाले मुख, बाहर की ओर देखते हैं और क्यूँकि पञ्च मुखा सदाशिव में वेद का स्थान, मध्य के ईशान सदाशिव की ओर (अर्थात समीप) ही होता है, इसलिए इन मुखों से संबद्ध पीठों और धामों पर जो वेद लागू होते हैं, वह सदाशिव के विपरीत दिशा की ओर देखने वाले मुख के ही होते हैं I
  • इसलिए पश्चिम दिशा की ओर देखने वाले सद्योजात मुख की पीठ और धाम पर जो वेद लागू होगा, वह सामवेद होगा I
  • और जहाँ यह सामवेद सद्योजात मुख से विपरीत दिशा में देखने वाले सदाशिव के तत्पुरुष मुख का वेद ही है I
  • यही कारण है कि इस सद्योजात मुख की पीठ और धाम का वेद भी सामवेद ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है, कि जबकि इस सद्योजात मुख का वेद ऋग्वेद ही बताया गया है, लेकिन पीठों और धामों के अनुसार इस ऋग्वेद का स्थान, सद्योजात मुख से विपरीत मुख, जो तत्पुरुष मुख है, उसकी पीठ (अर्थात गोवर्धन मठ) और धाम (अर्थात जगन्नाथ पुरी) का ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है कि पूर्वी आम्नाय का वेद, ऋग्वेद है I और पश्चिम आम्नाय का वेद, सामवेद कहा जाता है I

 

वैदिक महावाक्य:  इस मुख का महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म है I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस मुख से संबद्ध पीठ का महावाक्य इस मुख से विपरीत दिशा के मुख से संबद्ध वेद का है I

इसलिए, इस मुख से संबद्ध पीठ और धाम का महावाक्य तत् त्वम् असि है I

 

अग्नि: इसकी अग्नि गार्हपत्याग्नि (गार्हपत्य अग्नि) है I

 

देव: इस मुख के देवता चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा हैं I

क्यूंकि पितामह ब्रह्मा जी सद्योजात मुख से ही स्वयंभू हुए हैं, इसलिए वह भी स्वयंभू देवता ही हैं I

वैदिक वाङ्मय में, इसी मुख में पितामह ब्रह्माजी को प्रजापति शब्द से सम्बोधित किया गया है I

और इसी मुख में पितामह प्रजापति, सर्वसम, चतुर्मुखा और सगुण साकार होते हैं I

इसी मुख में पितामह प्रजापति को चतुर्मुखी शब्द से सम्बोधित किया जाता है I

 

महाभूत: इस मुख का भूत, भू महाभूत (अर्थात पृथ्वी महाभूत) है I

 

तन्मात्र: इस मुख का तन्मात्र गंध है I

 

चक्र: इस मुख के चक्र मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र हैं I

 

कृत्य: इस मुख का कृत्य उत्पत्ति है I

 

शक्ति: इस मुख की शक्ति ही इच्छा शक्ति कहलाती है I यह इच्छा शक्ति, पितामह ब्रह्मा की शक्ति ही है I

वह अदि पराशक्ति जिन्होंने सद्योजात मुख को घेरा और भेदा हुआ है, उनसे ही सद्योजात सदाशिव की इच्छा शक्ति का स्वयं प्रकटीकरण होता है I और जब इस इच्छा शक्ति का सद्योजात के मन से योग होता है, तब श्री लक्ष्मी का प्रादुर्भाव होता है I

 

देवी: इस मुख की देवी माँ लक्ष्मी हैं I

लक्ष्मी शब्द का अर्थ परिपूर्णता, सम्पन्नता आदि होता है I और यही लक्ष्मी नामक शब्द, उस परमलक्ष्य का ही द्योतक है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाता है I

सद्योजात मुख के मन और इच्छा शक्ति से एक दिव्यता का स्वयं प्रादुर्भाव भी होता है I और वह दिव्यता उन्की पुत्री स्वरूप में देवी ही होती हैं I वह देवी ही श्री लक्ष्मी कहलाई जाती हैं I

श्री लक्ष्मी ही इस सद्योजात मुख के भू महाभूत की देवी, भू देवी कहलाती हैं I

श्रीलक्ष्मी ही सदाशिव के सद्योजात मुख की सुपुत्री हैं I

और सद्योजात मुख की सुपुत्री होने के कारण, श्री लक्ष्मी चंद्र ज्येष्ठा हैं I इसका अर्थ हुआ कि श्री लक्ष्मी चंद्र देव के बड़ी बहन हैं और ऐसा इसलिए है, क्यूंकि चंद्र देव का उदय भी सदाशिव सद्योजात से ही हुआ है I

वही श्री लक्ष्मी ब्रह्मानुजा भी हैं I इसका अर्थ हुआ कि श्री लक्ष्मी पितामह ब्रह्मा की छोटी बहन है और ऐसा भी इसलिए है क्यूंकि ब्रह्मा जी का उदय भी सद्योजात मुख से, श्री लक्ष्मी के उदय से पूर्व में ही हुआ है I

सद्योजात की सुपुत्री, श्री लक्ष्मी ही आगे चलकर, श्री विष्णु की अर्धांगिनी होती हैं I

क्यूंकि सद्योजात की सुपुत्री श्री लक्ष्मी का एक स्वरूप भू देवी भी है, और भू देवी ही पृथ्वी महाभूत की दिव्यता हैं, इसलिए भू महाभूत का उदय स्थल भी सदाशिव का सद्योजात मुख ही है I

भू देवी ही गौमाता के रूप में प्रकट हुई हैं और जहाँ उस गौ शब्द का अर्थ है, वह जो गव्य प्रदान करती हैं I और इसीलिए गौ शब्द का अर्थ मातृ शक्ति के समस्त स्वरूपों सहित, माँ प्रकृति से भी संबध है I

 

सिद्धि: इस मुख की सिद्धियों में से जो प्रमुख है, वह वज्रमणि शरीर है I

इस सिद्ध शरीर के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

जब यह वज्रमणि सिद्ध शरीर इसी सद्योजात मुख में लय होता है, तब इसके लय होने के पश्चात ही साधक, ब्रह्मा स्वरूप प्राप्त करता है I

इसीलिए इस सिद्ध शरीर के लय होने के कारण, इस स्वरूप की प्राप्ति के पश्चात भी साधक, इस सिद्ध शरीर से संबद्ध सिद्धि का धारक नहीं होता I और ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि उसकी सिद्धि भी इसी सद्योजात मुख में, वज्रमणि शरीर के साथ ही लय हो जाती है I

 

ग्रह: नव ग्रह में इस मुख का ग्रह चंद्र है I और इस मुख का ग्रह शुक्र भी है I

चंद्र देव का प्रादुर्भाव भी सदाशिव सद्योजात के मन के भाग से हुआ है I सद्योजात मुख के मन से सीधा-सीधा प्रादुर्भाव होने के कारण, चंद्र देव कोई छोटे देवता (अथवा उप-देवता) भी नहीं हैं I

शरीर के भीतर चंद्र देव की ऊर्जा का स्थान इड़ा नाड़ी है और ऐसा होने के कारण, इड़ा नाड़ी को चंद्र नाड़ी भी कहा जाता है I

चंद्र देव का चक्र, चंद्र चक्र है, जो मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र के मध्य में और मेरुदंड के बायीं ओर होता है I

सदाशिव का सद्योजात मुख चंद्र देव के दादाजी हैं, सदाशिव का अघोर मुख उनके नानाजी हैं, ब्रह्मा जी (के मन रूपी स्वरूप) के वह पुत्र हैं, श्री सरस्वती (के मनस ऊर्जा स्वरूप) के वह पुत्र हैं, श्री लक्ष्मी के अनुज हैं, सद्योजात सदाशिव से स्वयं प्रकट हुए मन के देवता हैं, श्री विष्णु उनके जीजा हैं और I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस मुख का एक और ग्रह भी है I यह शुक्र ग्रह है I

चंद्र का उदय सद्योजात के मन से हुआ है, और शुक्र ग्रह का उदय भृगु ऋषि से हुआ है, जो पितामह ब्रह्मा के मनस पुत्र ही हैं I भृगु ऋषि का जन्म सद्योजात के मन से हुआ है I

इसलिए चंद्र पितामह ब्रह्मा का पुत्र है, और शुक्र उनका नाती (पोता) है I

यही कारण है कि जब भी पोते के जीवन में पीड़ाएँ आती हैं, तब वह अपने दादाजी के पास ही मदद की गुहार लगाने जाता है I और क्यूँकि दादा (ब्रह्माजी) और पोते (शुक्र)  का एक विशेष नाता होता है, इसलिए ऐसे समय पर अधिकांशतः दादा (ब्रह्माजी) भी अपने पोते (शुक्र) के साथ ही खड़ा होता है I

क्यूँकि युग स्तम्भित और युग परिवर्तन, दोनों ही कालों में सद्योजात मुख का तेज शुक्र ग्रह से निकल जाता है, जिससे पोते (शुक्र) का नाता अपने दादाजी (ब्रह्माजी) से भी नहीं हो पाता है, और इसके अतिरिक्त पोते (शुक्र) का नाता उसके दादाजी (ब्रह्माजी) से संबद्ध मन से भी नहीं होता है, इसलिए ऐसे समय पर शुक्र के अनुयायी पंथ और उनको मानने वाले मानव, कई प्रकार के कलह क्लेश के कारण बन जाते हैं I

और क्यूंकि अभी का समय युग स्तम्भित होने का ही है, इसलिए आगामी समय में वह सब पंथ जिनका नाता शुक्र से है, कलह क्लेश के कारण बनेंगे I

युग स्तम्भित और युग परिवर्तन, दोनों प्रक्रियाओं में शुक्र की बहुत बड़ी भूमिका होती है I

शुक्र, अर्थ और काम के द्योतक भी हैं I लेकिन क्यूंकि कलियुग के कालखण्ड में, शुक्र में बृहस्पति की दिव्यता नहीं होती, इसलिए वह दैत्य समान विकृत अर्थ और विकृत काम को ही दर्शाने लगते हैं I

यही कारण है कि कलियुग में अधोमार्ग काम वासनाएं प्रबल होती है और कलियुगी अर्थ भी अपने मूल, जो प्रकृति और उसके पांच परिकर (अर्थात पंच भूत हैं) उनको विकृत करके ही आगे गति करता है I

और ऐसा होने के कारण कलियुगी अर्थ ही अनर्थ होता है और कलियुगी काम ही उत्कर्ष मार्गों के लिए विप्लवकारी I

और क्यूँकि शुक्र प्रेम संबंधों को भी दर्शाते हैं, इसलिए कलियुग में शुक्र की अधोगति के कारण, प्रेम भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाता जिसके कारण कलियुग कलह क्लेश का युग ही बन जाता है I

 

चेतना: इस मुख की चेतना जागृत कहलाती है I ऐसा होने के कारण ही सद्योजात मुख रचना का कारण बनता है I

 

सद्योजात से क्या प्राप्ति होती है: इस मुख से रचना की दिव्यता की प्राप्ति होती है I यही मुख ब्रह्म रचना का रचैता है I

 

आयाम: सद्योजात दशा आयाम का द्योतक है I

जहाँ तक ब्रह्म रचना का प्रश्न है, सद्योजात मुख के रचैता स्वरूप से ही सब स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत और कारण जगत की रचना हुई है I

और जहाँ तक उत्कर्ष पथ का प्रश्न है, सद्योजात मुख से ही जीवों का उत्कर्ष पथ पर स्थिति और दशा का नाता होता है I

इसलिए सद्योजात मुख के बिना न ब्रह्म रचना सम्भव है और न ही उत्कर्ष पथ और उत्कर्ष गति ही संभव हो पाएगी I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि उत्कर्ष पथ और उत्कर्ष गति का नाता पितामह ब्रह्म से ही है, इसलिए इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में, जबसे वेद मनीषियों ने ब्रह्मा जी से अपना भावनात्मक (भावनात्मक साधना) संबंध वर्जित किया, तब से ब्रह्मा जी को पूर्व कालों से ही वैदिक मार्गों में ख्यापित होते हे, वह नहीं हुआ और ऐसा होने पर इस पृथ्वी लोक में उत्कर्ष पथ और उत्कर्ष गति का विलोप होने लग गया था I
  • क्यूंकि वैदिक वाङ्मय जो अनादि सनातन ही है और ऐसा होते हुए भी इस ब्रह्म रचना का वह धारक ही है, और ब्रह्म रचना ने भी उसको पूर्णरूपेण धारण किया हुआ है, इसलिए जब ऊपर बताया गया बिंदु चलित हुआ, तो वैदिक वाङ्मय अपने पूर्व का वर्चस्व भी खोने लग गया था I
  • और जब ऐसा हुआ तो पूर्व के चक्रवर्ती सम्राट, वैदिक साम्राज्य, वैदिक आर्य मार्ग और उसके मनिषियों पर ही पीड़ाएँ आने लगी I
  • और शनैः शनैः ही सही, लेकिन वैदिक वाङ्मय और उससे संबद्ध तंत्र और उसके मनीषी अपना उचित स्थान खोने लगे I
  • तो इन टिप्पणियों में कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक ही सही, लेकिन मैंने जो बताना था, वह बता ही दिया की कलियुग में अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी किसने मारी और इस बताई गई दुर्गति से बाहर आने का मार्ग क्या है I
  • रचना में निवास करते हुए और रचना ही होते हुए, यदि अपने रचैता का ही निरादर आदि कुकर्म करने लगोगे, तो समस्त रचना जिसके अखण्ड भाग तुम भी हो और जो उन्ही रचैता की अभिव्यक्ति भी है, तुम्हे शांति के स्थान पर पृथक प्रकारों की अशांति में ही लेकर जाने लगेगी I और इसी कलियुग के छोटे से कालखण्ड में, ऐसा ही वेद मनिषियों के साथ भी हुआ है I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब सदाशिव के अगले मुख पर जाता हूँ, जो वामदेव कहलाता है I

  • सदाशिव का वामदेव मुख क्या है, वामदेव सदाशिव कौन है, सदाशिव वामदेवकौन है, सदाशिव वामदेव और पराशक्ति, सदाशिव वामदेव और केतु ग्रह, सदाशिव वामदेव और सूर्य,

वामदेव का अर्थ है वह…

जो सबको स्थित करता है I

जो सबकी स्थिति का मूल है I

जो स्थिति नामक पराशक्ति है I

जो वाम मार्गों का अधिपति भी है I

जिससे और जिसमें सबकुछ स्थित है I

जिसकी स्थिति से ही सबकुछ स्थित है I

जो स्वयं ही स्वयं में व्यापक रूप में स्थित है I

 

टिप्पणियाँ:

  • साधक की स्थूल काया में…

बायीं ओर का भाग वाम दिशा कहलाती है I

वाम हस्त की दिव्यता माँ पराशक्ति हैं I

पराशक्ति, जीव जगत की स्थिति हैं I

 

  • और पञ्चमुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से यह तब पाया जाएगा, जब साधक पूर्वी दिशा को देख रहा होगा I इसलिए पञ्चमुखी सदाशिव में…

उत्तर दिशा वाम होती है I

वाम की ओर में ही स्थिति कृत्य है I

उत्तर दिशा के अधिपति सदाशिव वामदेव हैं I

सदाशिव वामदेव की शक्ति, पराशक्ति कहलाती हैं I

पराशक्ति, वामदेव की सुपुत्री श्री पार्वती हैं, जो विष्णुनुजा हैं I

 

तो अब वामदेव सदाशिव के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ…

पञ्च कृत्य: इसका कृत्य स्थिति (जगत का पालनहार) है I इसका कारक अप् महाभूत है I

 

वर्ण (रंग): इसका वर्ण धूम्र (धुंए के समान) है I

यह ऐसा है जैसे यज्ञकुण्ड के ऊपर धुआं उठता है I वामदेव सदाशिव, ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड के समान हैं I सदाशिव वामदेव ही साधक की काया के भीतर बसा हुआ महाशमशान हैं I

 

दिशा: यह मुख उत्तर की ओर देखता है I

 

वेद: इस मुख का वेद, यजुर्वेद है I

 

वामदेव मुख से संबद्ध वैदिक पीठ : उत्तर आम्नाय ज्योतिर्मठ है I

 

वामदेव मुख से संबद्ध वैदिक धाम: बद्रीनाथ धाम है I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि सदाशिव के चार दिशाओं में देखने वाले मुख, बाहर की ओर देखते हैं और क्यूँकि पञ्च मुखा सदाशिव में वेद का स्थान, मध्य के ईशान सदाशिव की ओर (अर्थात समीप) ही होता है, इसलिए इन मुखों से संबद्ध पीठों और धामों पर जो वेद लागू होते हैं, वह सदाशिव के विपरीत दिशा की ओर देखने वाले मुख के ही होते हैं I
  • इसलिए उत्तर दिशा की ओर देखने वाले वामदेव मुख की पीठ और धाम पर जो वेद लागू होगा, वह अथर्ववेद होगा I
  • और जहाँ यह अथर्ववेद, वामदेव मुख से विपरीत दिशा में देखने वाले सदाशिव के अघोर मुख का वेद ही है I
  • यही कारण है कि इस वामदेव मुख की पीठ और धाम का वेद भी अथर्ववेद ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है, कि जबकि इस वामदेव मुख का वेद यजुर्वेद ही बताया गया है, लेकिन पीठों और धामों के अनुसार इस यजुर्वेद का स्थान, वामदेव मुख से विपरीत मुख, जो अघोर मुख है, उसकी पीठ (अर्थात श्रृंगेरी शारदा मठ) और धाम (अर्थात रामेश्वरम धाम) का ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है कि उत्तर आम्नाय का वेद अथर्ववेद और दक्षिण आम्नाय का वेद यजुर्वेद कहा जाता है I

 

वैदिक महावाक्य:  इस मुख का महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि है I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस मुख से संबद्ध पीठ का महावाक्य इस मुख से विपरीत दिशा के मुख से संबद्ध वेद का है I

इसलिए, इस मुख से संबद्ध पीठ और धाम का महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म ही है I

 

अग्नि: इसकी अग्नि आह्वनीयाग्नि (आहवनीय अग्नि) I

 

देव: इस मुख के देवता श्री विष्णु हैं I

क्यूंकि श्री विष्णु वामदेव मुख से ही स्वयंभू हुए हैं, इसलिए वह भी स्वयंभू देवता ही हैं I

इस मुख में श्री विष्णु सगुण आत्मा स्वरूप हैं, शिव शक्ति की सनातन योगदशा हैं, और अर्धनारीश्वर ही हैं I

इस ब्रह्म कल्प में, सदाशिव के वामदेव मुख से स्वयंभू हुए श्री विष्णु ही समस्त वैदिक और योग परंपराओं की गुरु गद्दी हैं और उन गुरु गद्दियों के प्रथम पीठाधीश्वर भी है I

श्री विष्णु ही मेरे और अन्य सभी जीवों के सनातन गुरुदेव भी हैं I उन्हीं सनातन गुरु के आदेश पर मैंने यह ग्रंथ लिखना प्रारंभ किया था I

क्यूंकि इसी वामदेव मुख से सूर्य कभी प्रादुर्भाव होता है, इसलिए सूर्य नारायण का मार्ग आया था I

 

महाभूत: इस मुख का भूत, अप् महाभूत (अर्थात जल महाभूत) है I

जल महाभूत ही भवसागर कहलाया है और ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में यही जल महाभूत इसका द्योतक है जो निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है और जिसके भीतर सबकुछ बसा हुआ है I

इस जल महाभूत के देवता ही वरुण कहलाए हैं, इसलिए वरुण देव भी कोई छोटे देवता नहीं है, बल्कि इस संपूर्ण भागसागर के अधिपति हैं I और ऐसा होने के कारण, अंततः इस संपूर्ण भवसागर से पार भी वही वरुण देव ही लगाते हैं I

और क्यूंकि संपूर्ण भवसागर से तारण करना वरुण देव का ही कार्य है, इसलिए उत्कर्ष पथ सहित उस अंतिम मुक्तिपथ के भी वरुण देव ही देवता है I और ऐसा होने के कारणवरुण देवता भी कोई छोटे देवता नहीं है I

जिस दस वर्ष के समीप आयु के बालक के स्थूल शरीर में मेरा परकाया प्रवेश हुआ था, वह वरुण देव का ही छोटा पुत्र था I

 

तन्मात्र: इस मुख का तन्मात्र, रस है I

 

चक्र: इस मुख के चक्र, मणिपुर चक्र हैं I

 

कृत्य: इस मुख का कृत्य, स्थिति है I

 

शक्ति: इस मुख की शक्ति ही पराशक्ति कहलाती है I

जब सदाशिव वामदेव की पराशक्ति श्री विष्णु धारण करते हैं, तो इसी पराशक्ति से श्री विष्णु की स्थिति शक्ति का प्रादुर्भाव होता है I इसलिए वामदेव सदाशिव की पराशक्ति की अभिव्यक्ति ही श्री विष्णु की स्थिति शक्ति है I

इसी पराशक्ति को धारण करके श्री विष्णु अवतार लेते हैं, और ऐसा होने के कारण, वह अजय ही रहते हैं I

और अवतरण के समय, क्यूंकि वह अवतरण निराकार अष्ट मुखी शिवलिंग से होता है, अर्थात निराकार अष्टमुखा सदाशिव से होता है, इसलिए उस समय सदाशिव के अघोर मुख का योग, उन्ही सदाशिव के वामदेव मुख से होता है I

ऐसा होने के कारण, उन्ही सदाशिव के संहार कृत्य और वामदेव सदाशिव के स्थिति कृत्य का योग होता है I यही वह कारण है कि जब श्री विष्णु के किसी भी पूर्णावतार का आगमन होता है, तब कुछ बड़े रूप का संहार होने पर भी, उस लोक का पूर्ण संहार नहीं होता है I

 

देवी: इस मुख की देवी माँ लक्ष्मी हैं I

सदाशिव वामदेव की पराशक्ति से श्री पार्वती का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था और ऐसा होने के कारण, श्री पार्वती ही विष्णुनुजा कहलाई थी I पराशक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव होने के कारण श्री पार्वती ही पराऊर्जा, अदिऊर्जा, प्राचीनऊर्जा हैं I

पार्वती शब्द का अर्थ, पर्वत की देवी और जहाँ वह पर्वत भी सुमेरु (अर्थात मेरु, महामेरु आदि) ही है I ऐसा होने के कारण, पार्वती ही योग शिखर की दिव्यता, महेश्वरी कहलाई हैं I और यही पार्वती नामक शब्द, उस परमसिद्धि का भी द्योतक है, जो सर्वसिद्धि कहलाती है I

शक्ति का शब्द श्री पार्वती का ही द्योतक है I श्री पार्वती ही पराशक्ति, पराप्राण, पराऊर्जा और परादिव्यता हैं I श्री पार्वती ही आदिशक्ति कहलाई हैं I

इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, कोई योगी हुआ ही नहीं जो महेश्वर का नहीं था I ऐसा इसलिए है क्यूंकि महेश्वर ही योगगुरु, योगेश्वर, योगर्षि, योगमार्ग, योगतंत्र, योग और योग सम्राट कहलाते हैं I ऐसा होने के कारण इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, कोई योगी हुआ ही नहीं जो उन योगेश्वरी (माहेश्वरी) श्री पार्वती का नहीं था I

वामदेव मुख की स्थिति शक्ति से एक दिव्यता का स्वयंप्रादुर्भाव भी होता है I और वह दिव्यता उन्की पुत्री स्वरूप में देवी ही होती हैं I वह देवी ही श्री पार्वती कहलाई जाती हैं I जो वैकुण्ठ की शक्ति हैं, वही वामदेव सदाशिव की पराशक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव हुई श्री पार्वती हैं I

श्री पार्वती ही वामदेव मुख के अप् महाभूत की देवी, ज्योति स्वरूप  आपो कहलाती हैं I पूर्व का एक अध्याय जिसका नाम आपो ज्योति (और जिसको अंतर्लक्ष्य, नित्य वैकुंठ, सत्य कैलाश, चिन्मय नेत्र, आत्मस्थिति, त्रिगुणातीत, अंतरसाक्षी और बोधिचित्त आदि भी कहा गया था), उसकी दिव्यता भी श्री पार्वती ही हैं I

श्री पार्वती ही सदाशिव के वामदेव मुख की पुत्री हैं, सूर्य देव की ज्येष्ठा हैं, गुरु (बृहस्पति) उनके पुत्र हैं, विष्णुनुजा हैं, और अपने महेश्वरी के स्वरूप में वही महेश्वर की अर्धांगिनी हैं, देवराज इंद्र की माताजी हैं, देवरानी इंद्राणी उनकी बहू हैं I और श्री त्रिकाली जो काल की अर्धांगनी और शक्ति हैं, वह उन महेश्वरी की पुत्री भी हैं I

इस मुख को घेरे और ढकी हुई दिव्यता आदि पराशक्ति से, पराशक्ति का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था, और इन्ही पराशक्ति का सती (दक्ष की पुत्री) के रूप में स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था I

और उन सती का ही आगे चलकर, श्री पारवती के रूप में सदाशिव के वामदेव मुख से स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था और जो सदाशिव के तत्पुरुष मुख, जो महेश्वर और योगेश्वर ही हैं I और उन महेश्वर (योगेश्वर) से विवाह करके ही वह माहेश्वरी और योगेश्वरी कहलाई थीं I

 

सिद्धि: इस मुख की सिद्धियों में से जो प्रमुख है, वह धूम्रवर्ण का शरीर है I

इस सिद्ध शरीर के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

यह धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर इसी वामदेव मुख में लय होता है, और लय होने के पश्चात साधक, श्री विष्णु स्वरूप प्राप्त करता है I

इसीलिए इस सिद्ध शरीर के लय होने के कारण, इस स्वरूप की प्राप्ति के पश्चात भी साधक इस सिद्ध शरीर से संबद्ध सिद्धि का धारक नहीं होता, क्यूंकि उसकी सिद्धि भी इसी वामदेव मुख में, धूम्र वर्ण के सिद्ध शरीर (अर्थात वामदेव शरीर) के साथ ही लय हो जाती है I

इससे संबद्ध एक और सिद्धि होती है, जो सूर्य सिद्ध शरीर (अर्थात सूर्य शरीर या सिन्दूरीलाल शरीर) के स्वरूप में प्राप् थोटी है I क्यूंकि सूर्य सिद्ध सरीर (अर्थात सूर्य शरीर) के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए यहाँ पर उन्हीं बिंदुओं को पुनः नहीं बतलाऊँगा I

 

ग्रह: नव ग्रह में इस मुख का ग्रह सूर्य है I सूर्य का उदय सदाशिव वामदेव की पराशक्ति से होता है I यहाँ कहा गया सूर्य का शब्द, नव ग्रह के सूर्य का नहीं, बल्कि उस सूर्य का द्योतक है, जिसमें हमारे लोक के सूर्य जैसे कोटि सूर्यों का प्रकाश होता है I

ऐसा होने के कारण, सूर्य कोई छोटे से देवता नहीं हैं I यही कारण है कि वेदांत से संबद्ध मुक्तिमार्ग भी सूर्य लोक से ही प्रारंभ होता है I वह सूर्य जिसकी बारे में वेदों में बताया जाता है, सूर्य नारायण हैं, त्रिमूर्ति स्वरूप हैं, त्रिकृत्यों के धारक हैं, त्रिदेवी की दिव्यता से संबद्ध हैं, पञ्च देव के द्योतक है, और इस समस्त जीव जगत के मुक्तिमार्ग ही हैं I

 

टिप्पणियाँ: जहाँ तक इस हमारी आकाश गंगा के सूर्य की बात है…

  • जबकि सूर्य का प्रादुर्भाव पूर्वी दिशा को देखने वाले सदाशिव के तत्पुरुष मुख से ही होता है, लेकिन उदय के पश्चात वह सूर्य आकाश गंगा के रात्रि के समान मध्य भाग के समीप ही, घडी की सुई से उलटी दिशा में गति करता रहता है I ऐसा होने के कारण, उदय होने के पश्चात भी वह सूर्य आकाश गंगा में दिखाई नहीं देता है I
  • सूर्य की ऐसी गति 4 करोड़ वर्षों तक का समय लेती है, और यह गणना काल की माध्यम इकाई में बताई गई है, जो वैदिक कालचक्र विज्ञान में वैदिक इकाई भी कहलाती है I और जिसकी अभी की समय इकाई में जो समय आएगा, वह 5.7999 करोड़ वर्षों का होगा I
  • उदय होने के पश्चात और ऐसी गति करता हुआ जब सूर्य, सदाशिव के उत्तर मुख (अर्थात सदाशिव वामदेव) में पहुँचता है, तब ही वह सूर्य आकाश गंगा के अंधकारमय मध्य भाग से बाहर निकलकर, आकाश गंगा में दिखाई देने लगता है I
  • यही कारण है कि पञ्च ब्रह्मोपनिषद में सूर्य को पूर्व के ब्रह्मा, सद्योजात ब्रह्म से जोड़कर बताया जाता है, और पञ्च मुखी सदाशिव में वही सूर्य को उत्तर दिशा को देखते हुए सदाशिव के वामदेव मुख का बताया जाता है I
  • और ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि पञ्चब्रह्म उदय को दर्शाते हैं और पञ्च मुखा सदाशिव उदयावस्था (ब्रह्म रचना या ब्रह्माण्ड) को I
  • इसके कारण पञ्च ब्रह्मोपनिषद के अनुसार सूर्य का उदय तो पूर्व के सद्योजात ब्रह्म में ही हो गया था, लेकिन पञ्च मुखा सदाशिव जो ब्रह्म रचना के द्योतक हैं, उनके अनुसार जबतक वह सूर्य आकाश गंगा में ही नहीं देखेगा, उसका उदय माना ही नहीं जा सकता I
  • यही कारण है कि पञ्च मुखा सदाशिव में सूर्य का उदय उत्तर के सदाशिव वामदेव में ही बताया गया है I

 

सूर्य सदाशिव वामदेव के पुत्र ही हैं, श्री पार्वती के अनुज हैं, श्री विष्णु के अनुज हैं, श्री लक्ष्मी उनकी बड़ी भाभी हैं, और महेश्वर उनके बड़े जीजा हैं  I

क्यूंकि श्री पार्वती का स्वयंप्रादुर्भाव वामदेव सदाशिव से और सूर्य का स्वयंप्रादुर्भाव वामदेव मुख की पराशक्ति से होता है, इसलिए माँ पार्वती सूर्य ज्येष्ठा भी हैं I

और इस मुख का ग्रह केतु भी है I केतु का प्रादुर्भाव वामदेव के चित्त नामक से हुआ है, इसलिए केतु ग्रह मुक्तिमार्ग का ही द्योतक है और नवग्रह में, केतु कैवल्य मंत्री भी हैं I

शरीर के भीतर सूर्य देव का स्थान पिङ्गला नाड़ी है और ऐसा होने के कारण, पिङ्गला नाड़ी को सूर्य नाड़ी भी कहा जाता है I

सूर्य देव का चक्र, सूर्य चक्र है, जो मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र के मध्य में और मेरुदंड के दाहिनी ओर होता है I

 

चेतना: इस मुख की चेतना स्वप्न कहलाती है I ऐसा होने के कारण ही वामदेव मुख स्थिति का कारण बनता है I

 

वामदेव से क्या प्राप्ति होती है: रचना की पालन नामक दिव्यता I यही संपूर्ण ब्रह्म रचना का पालनहार है I

क्योंकि सब में पालनहार ही बड़ा होता है, इसलिए सदाशिव के वामदेव मुख का एक नाम ज्येष्ठ भी है I

क्यूंकि श्री विष्णु भी वामदेव सदाशिव से ही स्वयंभू हुए हैं, इसलिए देवताओं में श्री विष्णु को भी ज्येष्ठ ही कहा जाता है I

और क्यूँकि श्री पार्वती भी वामदेव सदाशिव की पराष्स्क्ति से ही स्वयंभू हुई हैं, इसलिए देवीगणों में श्री पार्वती, ज्येष्ठा भी कहलाई हैं I

 

आयाम: वामदेव दिशा आयाम का द्योतक है I

जहाँ तक ब्रह्म रचना का प्रश्न है, वामदेव मुख के पालनहार स्वरूप से ही सब स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत, कारण जगत और महाकारण जगत को सुरक्षित (स्थित) किया जाता है I

और जहाँ तक उत्कर्ष पथ का प्रश्न है, वामदेव मुख से ही जीवों के उत्कर्ष पथ को सुरक्षित (स्थित) किया जाता है I

इसलिए वामदेव मुख के बिना न ब्रह्म रचना की स्थिति संभव हो पाएगी है, और और न ही उत्कर्ष पथ और उत्कर्ष गति की स्थिति ही संभव हो पाएगी I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब वामदेव साक्षात्कार के दो प्रकार बताता हूँ…

  • यदि साधक मुमुक्षु होगा… तो वह साधक वामदेव के धूम्र वर्ण के ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड जैसे स्वरूप का साक्षात्कार करके, उसमें प्रवेश भी करेगा और प्रवेश करके, उसमें लय भी हो जाएगा I मुमुक्षुता में स्थित होकर यदि साधक इस वामदेव मुख का साक्षात्कार करेगा, तो साधक इसी मुख में स्वयं ही स्वयं की आहुति देकर, अपनी मुक्ति को प्राप्त होगा I और वह मोक्ष भी कैवल्य स्वरूप में होगा, जो इस जीव और जगत, दोनों से ही अतीत होगा I ऐसा साधक इन्ही वामदेव मुख से ही सदाशिव के ईशान मुख (अर्थात ईशान ब्रह्म) में प्रवेश करके, मुक्तात्मा हो जाएगा I
  • यदि साधक मुमुक्षु नहीं होगा अथवा सिद्ध मार्गों का होगा… ऐसी दशा में वह साधक इसी साक्षात्कार से अवधूत पद को पाएगा I योगमार्गों की यह सर्वोच्च स्थिति है I ऐसा साधक इन्ही वामदेव से भी आगे के मार्ग पर जाएगा, और उस आगे के मार्ग पर वह साधक महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करके, भारत भारती योग को अपने शरीर में ही पाकर, महाब्रह्माण्ड का अवधूत ही हो जाएगा I

 

टिप्पणियाँ, भाग 1: यहाँ पर अवधूत के ब्रह्म स्वरूप को बताता हूँ…

  • जबकि ऐसा साधक आगे के असंख्य कालों तक महाब्रह्माण्ड के अवधूत पद पर बैठा हुआ, पुनः भी लौटाया जा सकता है, लेकिन उसके लौटाए जाने की कोई काल गणना नहीं होती I
  • ऐसा योगी ही ब्रह्म अवधूत कहलाता है I
  • और कुछ समय के लिए लौटने पर भी ऐसा ब्रह्म अवधूत कुछ उत्कृष्ट पत्रों (साधकगणों) को अपनी अंतर्दृष्टि और शक्तिपात आदि प्रदान करके, उस लोक में पुनः वह उत्कर्षमार्ग और मुक्तिमार्ग स्थापित करता है, जो उस समय लुप्त हो चुके होते हैं I
  • ब्रह्मवधूत वह जीवन्मुक्त होता है, जो स्वयं ही स्वयं के लिए, और कुछ समय के लिए (जो कई महाकल्प तक भी जा सकता है अथवा कुछ ब्रह्म वर्ष तक भी जा सकता है) अपनी मुक्ति को आगे की ओर टालता है I
  • वह ब्रह्म अवधूत पूर्ण मुक्त होता हुआ भी, पूर्ण ब्रह्म के समान रचना से संबंधित रहता है और रचना में ही लय होकर निवास करता है I
  • और जहाँ वह रचना भी वह महाकारण होती है, जिसको महाब्रह्माण्ड, वैदिक भारत आदि कहा गया हैI
  • और जहाँ उस महाब्रह्माण्ड नामक रचना जिसमें वह ब्रह्मवधूत लय होकर रहता है, उसके देवता ही भारत ब्रह्म है I
  • और उस महाब्रह्माण्ड नामक रचना की देवी (दिव्यता) को ही भारती सरस्वती, भारती विद्या, भारती सरस्वती विद्या और और भारती विद्या सरस्वती आदि नामों से पुकारा जाता है I
  • ऐसा ब्रह्मवधूत यदि चाहे तो वह कभी भी किसी लोकमें न लौटे I
  • जब ऐसा योगी यही चाहने लगता है, तो उसकी उसी महाकारण लोक (अर्थात महा ब्रह्माण्ड) से ही मुक्ति हो जाती है I और इसी दशा में जहाँ वह योगी लय होता है, वही निर्गुण निराकार ब्रह्म ही होते हैं I
  • जबतक वह योगी महाब्रह्माण्ड में रहेगा, तबतक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, वह महेश्वर का योगी ही कहलाएगा और पूर्ण ब्रह्म स्वरूप ही होगा I
  • ऐसा योगी ही गुरु युग का आधार (अर्थात वैदिक युग की नीव) डालने हेतु किसी लोक में लौटाया जाता है I और लौटने के पश्चात, वह महातम का योद्धा (महातम योद्धा, महातमास का योद्धा) होकर ही रहता है I
  • और गुरु युग का आधार डालकर, वह गुरु युग के समयखण्ड तक तो महाकारण लोक में ही रहेगा, लेकिन यह समय अवधि पूर्ण होने पर वह ईशान ब्रह्म में प्रवेश भी कर सकता है I ईशान ब्रह्म ही निर्गुण ब्रह्म हैं I

 

टिप्पणियाँ, भाग 2:

  • पूर्व के सद्योजात मुख में बताया गया था कि सदाशिव सद्योजात दशा (अर्थात उत्कर्ष पथ में साधक की दशा) के द्योतक हैं और यहाँ बताया गया है कि सदाशिव वामदेव उस उत्कर्ष पथ की सर्वोच्च दिशा (अर्थात उत्कर्ष पथक के गंतव्य) के द्योतक हैं, और जो मुक्ति ही है I
  • इसलिए उत्कर्ष मार्ग सदाशिव सद्योजात से जाकर सदाशिव वामदेव में चला जाता है I और जहाँ उत्कर्ष पथ की सर्वोच्च दिशा भी दो प्रकार की होती है I
  • उत्पत्ति के क्रम के अनुसार, दिशा का प्रादुर्भाव दशा से पूर्व में हुआ था I
  • और क्यूंकि उत्कर्ष पथ की गति, उत्पत्ति पथ से विपरीत ही होती है, इसलिए उत्कर्ष पथ में सद्योजात सदाशिव के दशा आयाम का साक्षात्कार, वामदेव सदाशिव के दिशा आयाम से पूर्व में ही होता है I
  • अब ध्यान देना… जब हम पञ्चब्रह्म (अथवा पञ्चमुखा सदाशिव) के पाँच भागों को दिशाओं के अनुसार साक्षात्कार करते हैं, तब जो ज्ञान होता है, वह ऐसा होता है…

घड़ी की सुई से विपरीत गति उत्पत्ति मार्ग को दर्शाती है I

घड़ी की सुई के समान गति उत्कर्ष पथ की द्योतक होती है I

इसलिए प्रदक्षिणापथ, उत्कर्षपथ (अर्थात मुक्तिपथ) का द्योतक है I

 

  • इसलिए…

घड़ी की सुई से विपरीत गति जीव जगत में लेकर जाने वाला मार्ग है I

घड़ी की सुई के समान गति जीवातीत और जगतातीत दशा का मार्ग है I

इसलिए प्रदक्षिणापथ, उत्कर्षपथ के गंतव्य (जीवातीत, जगतातीत) का मार्ग है I

ऐसा ही सदाशिव प्रदक्षिणा पथ पर भी पाया जाएगा I

 

  • यहाँ बताए गए बिंदु इस जीव जगत के गर्भचक्र, अर्थात कालचक्र की गति पर भी लागू होते हैं I
  • और ऐसा होने के कारण, इस जीव जगत के गर्भ में जो कुछ भी बसा हुआ है, उन और उस सबपर भी यह बिंदु पूर्णरूपेण और समानरूपेण लागू होते हैं I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब सदाशिव के अगले मुख पर जाता हूँ, जो अघोर कहलाता है I

  • सदाशिव का अघोर मुख क्या है, अघोर सदाशिव कौन है, सदाशिव अघोर कौन है, सदाशिव अघोर और ज्ञानशक्ति, सदाशिव अघोर और राहु ग्रह, सदाशिव अघोर और शनि ग्रह, रुद्र देव और मंगल ग्रह, रुद्र देव और बुद्ध ग्रह,

अघोर का अर्थ है वह…

जो घोर हो I

जो अघोर भी हो I

जो सत् पथ में अघोर हो I

जो प्रपञ्च पथ में घोर भी हो I

जो असत् का संहार करने वाला हो I

जो जीव और जगत का अधिपति भी हो I

जिससे और जिसमें सबकुछ संहार होता हो I

जिसकी संहार प्रक्रिया से सृष्टि नवीन रहती हो I

जो योगतंत्र के दक्षिणमार्गों का प्रारंभ और मूल हो I

जो प्रदक्षिणापथ का प्रारंभ है और जो अंत भी होता हो I

जिसमें अंत ही अनंत होता है और अनंत ही अंत होता हो I  

 

टिप्पणियाँ:

  • साधक की स्थूल काया में…

दायीं ओर का भाग अघोर दिशा कहलाती है I

दाएं हस्त की दिव्यता जीव जगत की दिव्यता हैं I

जीव जगत की शक्ति ही आंतरिक जीव जगत की संहारक हैं I

 

  • पञ्चमुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से यह तब पाया जाएगा, जब साधक पूर्वी दिशा को देख रहा होगा I इसलिए पञ्चमुखी सदाशिव में…

दक्षिण दिशा ही अघोर मार्ग है I

दक्षिण की ओर में ही संहार कृत्य है I

दक्षिण दिशा के अधिपति सदाशिव अघोर हैं I

सदाशिव अघोर की शक्ति, जीव जगत की शक्ति हैं I

वह जीव जगत शक्ति, पञ्च महाभूत में चालित होती है I

वह शक्ति, अघोर की अर्धांगिनी त्रिकाली हैं, जो महेश्वर की पुत्री हैं I

 

तो अब अघोर सदाशिव के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ…

पञ्च कृत्य: इसका कृत्य संहार  है I इसका कारक अग्नि महाभूत है I

 

वर्ण (रंग): इसका वर्ण गाढ़ा नीला है I

 

दिशा: यह मुख दक्षिण की ओर देखता है I

 

वेद: इस मुख का वेद, अथर्ववेद है I

 

अघोर मुख से संबद्ध वैदिक पीठ : दक्षिण आम्नाय श्रृंगेरी शारदा मठ है I

 

अघोर मुख से संबद्ध वैदिक धाम: रामेश्वरम धाम है I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि सदाशिव के चार दिशाओं में देखने वाले मुख, बाहर की ओर देखते हैं और क्यूँकि पञ्च मुखा सदाशिव में वेद का स्थान, मध्य के ईशान सदाशिव की ओर (अर्थात समीप) ही होता है, इसलिए इन मुखों से संबद्ध पीठों और धामों पर जो वेद लागू होते हैं, वह सदाशिव के विपरीत दिशा की ओर देखने वाले मुख के ही होते हैं I
  • इसलिए दक्षिण दिशा की ओर देखने वाले अघोर मुख की पीठ और धाम पर जो वेद लागू होगा, वह यजुर्वेद होगा I
  • और जहाँ यह यजुर्वेद, अघोर मुख से विपरीत दिशा में देखने वाले, सदाशिव के वामदेव मुख का वेद ही है I
  • यही कारण है कि इस अघोर मुख की पीठ और धाम का वेद भी यजुर्वेद ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है, कि जबकि अघोर मुख का वेद अथर्ववेद ही बताया गया है, लेकिन पीठों और धामों के अनुसार इस अथर्ववेद का स्थान, अघोर मुख से विपरीत मुख, जो वामदेव मुख है, उसकी पीठ (अर्थात ज्योतिर्मठ) और धाम (अर्थात बद्रीनाथ धाम) का ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है कि दक्षिण आम्नाय का वेद यजुर्वेद कहा जाता है और उत्तर आम्नाय का वेद अथर्ववेद कहा जाता है I

 

अभी के समय में अघोर: किसी भी लोक पर, किसी एक कालखण्ड में सदाशिव का एक मुख प्रधान रूप में लागू होता है I यह प्रधनता उस लोक के सूर्य (की  आकाशगंगा में) गति के अनुसार होती है I

अभी के समय, इस लोक के सूर्य की गति उसके उदय स्थल से, जो उत्तर दिशा के वामदेव मुख में था, 179.28205 डिग्री पर है, इसलिए अभी के समय पर इस पृथ्वी लोक में सदाशिव के जिस मुख की ऊर्जाएं प्रधान रूप में लागू हो रही हैं, वह अघोर मुख की ही है I

और क्यूंकि कालचक्र गणना की वैदिक इकाई में, इस लोक का सूर्य, आकाशगंगा का एक चक्कर 21.6 करोड़ वर्षों में पूर्ण करता है, और यही समय जब आज की काल इकाई में लिया जाएगा, तो वह 23.1984 करोड़ वर्ष का हो जाएगा, इसलिए अगले कोई 2.9178432 करोड़ वर्षों तक, इस लोक पर यह अघोर मुख ही मुख्य रूप में लागू रहने वाला है I

 

वैदिक महावाक्य:  इस मुख का महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म है I

लेकिन ऐसा होने पर भी इस मुख से संबद्ध पीठ का महावाक्य, इस मुख से विपरीत दिशा के मुख से संबद्ध वेद का है I

इसलिए, इस मुख से संबद्ध पीठ और धाम का महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि ही है I

 

अग्नि: इसकी अग्नि दक्षिणाग्नि (दक्षिण अग्नि) है I

 

देव: इस मुख के देवता रुद्र हैं I

क्यूंकि रुद्र देव, अघोर मुख से स्वयंभू हुए हैं, इसलिए वह भी स्वयंभू देवता ही हैं I

इस मुख में रुद्र देव संहार स्वरूप हैं, और नटराज का स्वरूप होने के साथ साथ, कृष्ण पिङ्गल स्वरूप में भी हैं I

 

महाभूत: इसका भूत, अग्नि महाभूत (अर्थात तैजस महाभूत, प्रकाश महाभूत) है I

 

सदाशिव अघोर मुख में…

अग्नि ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही अग्नि रूप में है I

अग्नि ही संहार है और संहार ही अग्नि है I

अघोर मुख की अग्नि व्यापक भी है I

 

 तन्मात्र: इस मुख का तन्मात्र, रूप है I  अघोर मुख में…

रूप ही अरूप और अरूप ही रूप होता है I

रूप के भीतर अरूप और अरूप के भीतर रूप होता है I

 साकार के भीतर निराकार और निराकार के भीतर साकार होता है I

 सगुण साकार ही सगुण निराकार और सगुण निराकार ही सगुण साकार होता है I

 

चक्र: इस मुख के चक्र, अनाहत चक्र हैं I

पूर्व का अध्याय जिसका नाम अहमाकाश था, उसके चित्र में जो नीला रंग दिखाया गया है, वह इसी अघोर मुख का हृदय क्षेत्र के अनाहत चक्र के समीप (के आगे की ओर) में स्थान है I

 

कृत्य: इस मुख का कृत्य संहार है I

 

शक्ति: इस मुख की शक्ति ही ज्ञान शक्ति कहलाती है I यह ज्ञान शक्ति मुक्ति दायक होती है और उस मुक्तिमार्ग के मूल में वासनाओं आदि की संहारक ही होता है I इसलिए इस मुख से प्रशस्त हुआ मुक्तिमार्ग, त्याग और संन्यास का ही है I

जब सदाशिव अघोर की ज्ञान शक्ति रुद्रदेव धारण करते हैं, तो इसी ज्ञान शक्ति से रुद्रदेव की संहार शक्ति का प्रादुर्भाव होता है I इसलिए अघोर सदाशिव की ज्ञान शक्ति की अभिव्यक्ति ही रुद्रदेव की संहार शक्ति है I

ज्ञान शक्ति सदाशिव के तत्पुरुष मुख से प्रादुर्भाव होकर, सदाशिव के अघोर मुख में प्रवेश करती है I और अघोर में जाकर, वह अघोर मुख की होकर ही रह जाती है I

तत्पुरुष मुख से देवता, जो देवराज इंद्र है, यह ज्ञान शक्ति उनकी ही होती है I ऐसा इसलिए है क्यूँकि इंद्रलोक ही ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया है I और ऐसा होने पर भी वह ज्ञान शक्ति अघोर मुख में ही लय होकर, अघोर मुख की होकर ही रहती है I

इस कलियुग के आरम्भ के पश्चात, जब से वैदिक मनीषियों ने इंद्र को बुरा भला कहना प्रारंभ किया और इंद्र को वैसा दर्शाया जो वह हैं ही नहीं, तब से इस लोक में उस परमज्ञान का, जो मुक्तिपथ ही है, विलोप होने लग गया था I

और इस दशा से ही देवराजन इंद्र का आशीर्वाद इस लोक में न्यून हो गया था, जिससे वैदिक साम्राज्य समाप्त हुए थे और म्लेच्छ साम्राज्य प्रबल हुए थे I

इसी कारण से ब्राह्मणों ने अपना पूर्व का मान सम्मान और प्रतिष्ठा खो दी थी क्यूंकि जब राजा, जो धर्म का रक्षक होता है, वही म्लेच्छ हो जाएगा, तो धर्म सहित ब्राह्मणत्व का विलोप हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I

ऐसी दशा में जितने सिद्धादि उत्कृष्ट योगीजन था, वह समाज से सुदूर चले गए और दुर्गम स्थानों पर रहते हुए अपनी परम्पराओं को सुरक्षित रखे रहे, जिसके लिए वह कुछ और उपयुक्त पात्रों को उन्ही दुर्गम स्थानों में रहते हुए ही दीक्षा आदि देते रहे I कलियुग के कालखण्ड में अधिकांश समय में यही हुआ I क्यूंकि कोई भी उत्कृष्ट सिद्धादि योगी मलेच्छ राजन के आधीन होकर उसके साम्राज्य में नहीं रह पाता है I

ऐसा ही इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में वैदिक आर्य धर्म के साथ भी हुआ है, और ऐसा होने के मूल कारण में इंद्रदेव के अनुग्रह की न्यूनता ही है I    

और जैसेजैसे इस कलियुग का समय बीता, वैसे-वैसे वैदिक राजतंत्र समाप्त हुआ, और विकृत राजतंत्र आए (जैसे आज का प्रजातंत्र) जो मलेच्छों के तुष्टिकरण और उनको संतुष्ट करने में ही लगे रहे I इसलिए राजा भी भ्रष्ट, म्लेच्छ अथवा धर्म निरपेक्ष ही आते गए और जिससे पूर्व कालों का प्रामाणिक…

 वैदिक राजतंत्र का यथा राजा तथा प्रजा बदलकर यथा प्रजा तथा राजा हुआ I

 

 क्यूंकि धर्म न कभी म्लेच्छवाद में गया है और न ही धर्म कभी स्वयं से निरपेक्ष हुआ है, इसलिए यही…

यथा प्रजा तथा राजा में बसा हुआ धर्म निरपेक्ष राजतंत्र, गर्त का मार्ग भी हुआ I

वैसे भी वैकल्पिक तंत्रों में जीव जगत का उद्धार करने की क्षमता होती कहाँ है? I

 

और क्यूँकि यथा प्रजा तथा राजा आ गया, इसलिए प्रजा भी तो उसे ही चुनेगी, जो उनके जैसा होगा I

और क्यूँकि कलियुगी प्रजा उस सार्वभौम सत्य को जानती ही नहीं है, इसलिए राजागण भी वह अनभिज्ञ ही आए, जो स्वयं को ज्ञानी के रूप में प्रदर्शित करते थे I

ऐसा होने से प्रजा का उत्कर्ष पथ भी बंद हुआ और अपकर्ष पथ प्रारम्भ होने लगा I

और शनैः शनैः ही सही, लेकिन उत्कर्ष मार्गों के नाम पर अपकर्ष मार्ग ही स्थापित होने लगे, जिससे यह पृथ्वी लोक सहित, इसके समस्त जीव ही अपकर्ष मार्गी हो गए I    

इस कलियुग के कालखण्ड में, यह सब भी इसीलिए हुए क्यूंकि इंद्र देव को बुरा बोला गया था और इंद्रलोक ही वह ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया है, जो ज्ञान शक्ति के रूप में सदाशिव के अघोर मुख में बैठी हुई है I

जब ज्ञान विकृत होगा, तो ज्ञान के शक्ति स्वरूप को धारण किए हुए सदाशिव के अघोर मुख, उस मार्ग का ही संहार कर देते हैं, जो विकृत ज्ञान में चला गया है I

और यही कारण है कि जब वेदादि मनीषियों ने ही इंद्र को, जो ज्ञान ही हैं, उनको विकृत किया, तो म्लेच्छा सत्ताएँ आई जिन्होंने इस भू लोक के वेद और योग मार्ग के मूल केन्द्र, जो भारत खण्ड ही है, उसपर लम्बे समय तक शासन किया I  

इस मुख को जिन अदि पराशक्ति ने घेरा और भेदा भी हुआ है, उनसे ज्ञान शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ था और उन्ही ज्ञान शक्ति को धारण करके, श्री सरस्वती का स्वयंप्रादुर्भाव भी इसी मुख से हुआ था I

 

देवी: इस मुख की देवी श्री सरस्वती हैं I

सदाशिव अघोर ही महादेव, शिव हैं I

सदाशिव अघोर की ज्ञान शक्ति से श्री सरस्वती का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था और ऐसा होने के कारण, श्री सरस्वती ही शिवानुजा कहलाई थी I ज्ञान शक्ति से स्वयंप्रादुर्भाव होने के कारण श्री सरस्वती ही ज्ञानऊर्जा, उद्धारऊर्जा, मुक्तिऊर्जा हैं I

सरस्वती शब्द का अर्थ आनंद से युक्त है I और जहाँ आनंद शब्द भी उन सच्चिदानंद ब्रह्म को दर्शाता है, जो श्री सरस्वती के ज्येष्ठ भ्राता महादेव ही हैं I उन ज्येष्ठ भ्राता महादेव के आनंद से युक्त और महादेव की आत्मस्वरूप से संयुक्त जो देवी हैं, वही श्री सरस्वती हैं I सच्चिदानंदमय शिव के ज्ञानात्मिक स्वरूप में स्थित जो देवी हैं, वही शिवात्मिका श्री सरस्वती है I

इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में कोई मुक्तात्मा हुआ ही नहीं, जो श्री सरस्वती से (अथवा उनके किसी स्वरूप से) वह विशेष अनुग्रह नहीं पाया था, जो कैवल्य मोक्ष कहलाता है I

श्री सरस्वती ही सदाशिव के अघोर मुख की पुत्री हैं, शिवानुजा हैं, शिवात्मिका है I और आगे चलकर वही श्री सरस्वती, उनके अपने पितामही स्वरूप में चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा की अर्धांगिनी हैं, और उस सर्वसम शब्द की दिव्यता हैं जो योगमार्गों में मूलपथ कहलाता है I

श्री सरस्वती अघोर मुख से प्रकट हुए शनिदेव और राहुदेव की ज्येष्ठा हैं और रूद्र देव से प्रकट हुए बुद्ध देव और मंगल देव की बुआ भी हैं I

श्री सरस्वती, पितामह ब्रह्म की अर्धांगिनी हैं, श्री लक्ष्मी की भाभी हैं, अघोर मुख से स्वयंभू हुए रूद्र देव की अनुजा हैं, चंद्र देव की माताजी हैं, शुक्र देव की पितामही हैं I

श्री सरस्वती, पितामह ब्रह्म के समस्त मनस पुत्रों की माँ हैं और गुरुमाई भी हैं (क्यूंकि पितामह ब्रह्मा अपने मनस पुत्रों के गुरु भी रहे हैं) I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि स्वयंभू मन्वन्तर में मेरे मनस पिता जो ब्रह्मर्षि क्रतु ही थे, वह भी पितामाह स्वरूप थे, और उनके आदेशानुसार ही मैं अब तक चला हूँ इसलिए इस बात से श्री सरस्वती ही मेरी “माँ स्वरूप” हैं I
  • ब्रह्मर्षि क्रतु का अपने सभी मनस पुत्रों को यही आदेश था, कि जबतक तुम एक सौ एक बार आंतरिक अश्वमेध सिद्ध नहीं करोगे, तबतक मुक्त नहीं होंगे और ऐसी दशा में तुम प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होकर ही रहोगे I
  • और इसके अतिरिक्त, क्यूंकि मैं स्वयंभू मनु का शिष्य भी रहा हूँ और स्वयंभू मनु भी ब्रहमपुत्र ही थे, इसलिए ऐसे नाते से श्री सरस्वती मेरी “पितामही गुरु” ही हैं I
  • यही कारण है कि इस ग्रंथ में मैंने श्री सरस्वती को माँ भी कहा है और पितामही भी कहा है, और कहीं कहीं तो “पितामही माँ” भी कह दिया है I
  • और ऐसा ही इस पूरे कलप में भी रहा है I
  • इसलिए, इस कल्प में प्रबुद्ध योग भ्रष्ट हुआ, उन्ही पितामही माता सवस्वती के ही किसी न किसी पञ्च विद्या स्वरूप के गर्भ से जन्म लेता हूँ I इस बार माँ सावित्री सरस्वती के गर्भ से आया हूँ I
  • वैसे एक बात बता दूँ, कि यह समस्त स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत, कारण जगत, संस्कारिक जगत और महाकारण आदि जगत, और इस ब्रह्म रचना में जो कुछ भी है, वह सब अपने मुलानुसार, सारस्वत ही है I इसलिए जो देव अथवा देवी हैं, वह भी सारस्वत होकर ही इस जीव जगत में ही आए हैं I और उस सरस्वत शब्द के शिखर पर पितामही सरस्वती ही हैं I

 

सिद्धि: इस मुख की सिद्धियाँ अपार हैं I

उन असंख्य सिद्धियों में से जो प्रमुख सिद्धियाँ हैं, वह पिङ्गल शरीर है जो पिङ्गल रुद्र का है, और जो नटराज शरीर भी कहलाता है I

और इसके अतिरिक्त इस मुख का एक और सिद्ध शरीर भी है जो कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर कहलाता है और जो कृष्ण पिङ्गल रुद्र से ही संबध होता है I

और इन दोनों के अतिरिक्त, इस अघोर मुख से संबद्ध ही सूक्ष्म शरीर होता है I

इन सिद्ध शरीरों के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

 

इन मुख्य सिद्ध शरीरों में से…

सूक्ष्म शरीर अघोर मुख में लय होकर आगे गति करता है I

पिङ्गल शरीर, अघोर मुख से स्वयंभू हुए रुद्रदेव में ही लय होता है I

कृष्ण पिङ्गल शरीर, अघोर और रुद्र के योग, कृष्ण पिङ्गल रुद्र में लय होता है I

  

जब इस मुख से संबद्ध समस्त सिद्धियों का लय इसी मुख में हो जाता है, तब…

योगी काया में होता हुआ भी, अघोर और रुद्र दोनों का सगुण निराकार रूप होता है I

ऐसा योगी अपनी सिद्धियों का प्रयोग या प्रदर्शन नहीं करेगा, वह त्याग में रहेगा I

 

ग्रह: नव ग्रह में इस अघोर मुख के ग्रह शनि भी हैं और राहु भी I शनि और राहु का नाता सदाशिव के अघोर मुख से ही है I

और जहाँ अघोर में बैठे हुए शनि देव, श्री सरस्वती के अनुज हैं I  और राहु ग्रह छाया रूप में हैं I

नव ग्रह में शनि ही न्यायाधीश हैं और राहु उनका सहायक I

शनि देव सदाशिव अघोर के पुत्र हैं, श्री सरस्वती के अनुज हैं, रुद्रदेव के अनुज हैं, श्री त्रिकाली उनकी माँ हैं, श्री रौद्री उनकी बड़ी भाभी हैं, और महेश्वर उनके नानाजी हैं और पितामह ब्रह्मा उनके जीजा हैं I और ऐसे नाते होने के कारण, शनि बहुत शक्तिशाली ग्रह है I

क्यूंकि श्री सरस्वती का स्वयंप्रादुर्भाव अघोर सदाशिव की ज्ञान शक्ति से और शनि देव का स्वयंप्रादुर्भाव अघोर मुख से श्री सरस्वती के स्वयं प्रादुर्भाव के पश्चात ही होता है, इसलिए श्री सरस्वती, शनि देव की ज्येष्ठा भी हैं I

और इस मुख का ग्रह राहु भी है I राहु का प्रादुर्भाव अघोर के अहम् नामक भाग से हुआ है, इसलिए राहु ग्रह, जगतमार्ग (अर्थात जगत में ऐश्वर्य आदि उपलब्धियों) का ही द्योतक है I

अघोर मुख से संबद्ध एक और ग्रह है, जो पश्चिमी सभ्यता का नेपच्यून (वरुण ग्रह) है I

और अघोर से स्वयंभू हुए रुद्र के ग्रह बुद्ध और मंगल हैं I रुद्रदेव से संबद्ध एक और ग्रह है, जो पश्चिमी सभ्यता का प्लूटो ग्रह (यम ग्रह) है I

यहाँ पर बुद्ध ग्रह को रुद्र से जोड़ा गया है, और इसका कारण है, कि बुद्ध बृहस्पति और चंद्र का पुत्र है I बुद्ध का नाता गुरु से है, जो सदाशिव के तत्पुरुष मुख का ग्रह है I और उसी बुद्ध का नाता चंद्र से भी है जो सदाशिव के सद्योजात मुख का ग्रह है I ऐसा नाता होने पर भी बुद्ध का जन्म अघोर मुख की ओर ही होता है, और यही कारण है कि बुद्ध ग्रह को अघोर मुख में कहा गया है I बुद्ध में यह तीनों मुखों (अर्थात तत्पुरुष मुख, सद्योजात मुख और अघोर मुख) की दिव्यताएं बसी हुई होती हैं I

और ऐसा होने के कारण, नवग्रह में बुद्ध युवराज (राजकुमार और मुख्यमंत्री) कहलाता है और मंगल सेनापति और सुरक्षामंत्री I

 

चेतना: इस मुख की चेतना सुषुप्ति कहलाती है I ऐसा होने के कारण ही सदाशिव का अघोर मुख संहार का कारण बनता है I

 

अघोर मुख से क्या प्राप्ति होती है: रचना की संहार नामक दिव्यता I

यही संपूर्ण ब्रह्म रचना का संहारक है I और अघोर मुख द्वारा क्रियान्वित संहार से ही जीव जगत का कायाकल्प होता रहता है, और जीव जगत नवीन रहता है I

क्योंकि सब में संहारक ही शक्तिमान कहलाता है, इसलिए रुद्र ही शक्तिमान हैं I

क्यूंकि संहार कृत्य में ही उत्पत्ति कृत्य बसा हुआ है, इसलिए रुद्रदेव का संहार ही नयी उत्पत्ति का कारण बनता है I

क्यूंकि संहार में ही स्थिति कृत्य बसा हुआ है, इसलिए रुद्र के संहार से सर्वनाश होने पर भी, किसी बाद के कालखण्ड में जीव जगत का पुनरोदय हो सकता है I

क्यूंकि संहार को तिरोधान कृत्य ने घेरकर रखा होता है, इसलिए जीव जगत के नाश के पश्चात, बस घनघोर रात्रि के समान तिरोधान ही शेष रहा हुआ दिखाई देता है I

क्यूंकि तिरोधान के भीतर ही अनुग्रह छुप कर बसा होता है, इसलिए नाश होने के पश्चात प्रकट हुई, तिरोधान की दशा में बैठे हुए जीवों के लिए अनुग्रह प्रकाशित होता है और जहाँ वह अनुग्रह भी मोक्ष रूपमें ही होता है I

यही कारण है कि उस अंधकारमय तिरोधान से युक्त महाप्रलय की दशा में प्रवेश करे हुए जीवों में से, जो भी जीव, मुक्ति के पात्र होते हैं, वह उसी महाप्रलय की दशा से मुक्ति हो जाते हैं I

ऐसा भी इसलिए ही सम्भव होता है क्यूंकि तिरोधान के भीतर से ही अनुग्रह प्रकाशित होता है I

इसलिए जिस योगी ने तिरोधान (निग्रह) ही नहीं पाया, वह अनुग्रह को भी नहीं पाएगा I और जहाँ वह तिरोधान भी एक विशालकाय अन्धकारमय दशा के समान होता है जो महशून्यात्मक ही है I

क्यूंकि उस कैवल्य मोक्ष स्वरूप अनुग्रह का प्रकाश भी उसी महशून्यात्मक तिरोधान के भीतर से ही होता है, इसलिए पूर्व कालों के योगीजनों ने ऐसा कहा है…

शून्य मूल सिद्धि है और अनंत गंतव्य सिद्धि ही होती है I

आंतरिक दशा में शून्य होकर ही योगी अनंत हो पाएगा I

 मूल के शून्य से ही अनंत का मार्ग प्रशस्त हो पाता है I

 योग मूलमार्ग होता है और ज्ञान गंतव्यमार्ग ही है I

 अनंत का मार्ग भी शून्य से होकर ही जाता है I

 वह मार्ग शून्य ब्रह्म से होकर ही जाता है I

 वह मार्ग शून्य अनंत, अनंत शून्य है I

 शून्य ब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म होते हैं I

 पूर्ण ब्रह्म ही सर्व सिद्धि हैं I

 अनंत ही निर्गुण ब्रह्म हैं I

 निर्गुण ही केवल है I

 

यही पूर्ण गति है, जिसमे साधक …

शून्य भी होगा और अनंत भी होगा I

ब्रह्म रचना भी होगा और ब्रह्म भी होगा I

शून्य ब्रह्म भी होगा और निर्गुण ब्रह्म भी होगा I

संप्रज्ञात ब्रह्म, असंप्रज्ञात और निर्बीज ब्रह्म ही होगा I

मूल में योग, मार्ग में सर्वोत्कर्ष पथ और गंतव्य में ज्ञान होगा I

इस पूर्ण गति का प्रारम्भ भी सदाशिव का अघोर मुख से ही हो पाता है I

 

ऐसा साधक के भीतर ही…

ज्ञान ज्ञेयज्ञात ज्ञानी एक हुए होंगे I

चेतन, चित्त-चेति, चेतना एक हुए होंगे I

दृष्टा, दृष्टि और दृश्य भी एक हुए होंगे I

साक्षी, साक्ष और साक्षित्व भी एक हुए होंगे I

ब्रह्म रचना, उत्कर्ष पथ और ब्रह्म एक हुए होंगे I

निर्गुण अद्वैत के समान, निर्विकल्प ब्रह्म ही होगा I

 

आयाम: अघोर आकाश आयाम का द्योतक है I

पूर्व के अध्याय में बताया था, कि आकाश सदाशिव के ईशान मुख का होता हुआ भी, उस आकाश महाभूत का प्रथम साक्षात्कार अघोर ब्रह्म (सदाशिव के अघोर ब्रह्म) में ही होता है I अघोर मुख का आकाश बैंगनी वर्ण को आकाश महाभूत ही होता है I

जहाँ तक ब्रह्म रचना का प्रश्न है, अघोर मुख से संबद्ध आकाश के भीतर ही समस्त जीव जगत बसा हुआ है और उसी आकाश में ही सब स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत और कारण जगत को संहार किया जाता है I

और जहाँ तक उत्कर्ष पथ का प्रश्न है, अघोर मुख से ही जीवों के उत्कर्ष पथ को समय-समय पर और उस कालखण्ड के अनुसार (अर्थात काल प्रेरणा के अनुसार)  नाश किया जाता है I यही कारण है कि उत्कर्ष पथ समय-समय पर परिवर्तित और नाश भी होते रहते हैं I

इसलिए अघोर मुख के बिना, न ब्रह्म रचना का कायाकल्प संभव हो पाएगा, और और उत्कर्ष पथ और उत्कर्ष गति कायाकल्प ही संभव हो पाएगा I

अघोर मुख ही ब्रह्म रचना के निरंतर नवीन रखता है I

और अघोर मुख स्वयं भी सदैव नवीन स्वरूप में ही रहता है I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब सदाशिव के अगले मुख पर जाता हूँ, जो तत्पुरुष कहलाता है I

  • सदाशिव का तत्पुरुष मुख क्या है, तत्पुरुष सदाशिव कौन है, सदाशिव तत्पुरुष कौन है, सदाशिव तत्पुरुष और क्रियाशक्ति, सदाशिव तत्पुरुष और बृहस्पति ग्रह, सदाशिव तत्पुरुष और गुरु ग्रह, …

सदाशिव तत्पुरुष का अर्थ है वह…

जो तुरिय है I

जो ईश्वर ही है I

जो सगुण ब्रह्म है I

जो स्वयं समाधिष्ट है I

जो महेश्वर, योगेश्वर है I

जिसकी सिद्धि समाधि है I

जो योग, योगतंत्र, योगमार्ग है I

जो योगर्षि, योगगुरु, योगसम्राट है I

जो सदाशिव का अंतिम सगुण रूप है I

जिससे और जिसमें सबकुछ निग्रह होता है I

जो योग, साधना, तपश्चर्या का सगुण गंतव्य है I

जो प्रणव का सगुण रूप, ओंकार साधना का उकार है I

जिसकी निग्रह प्रक्रिया से सत्य, अपात्रों से छिपा रहता है I

जो प्रदक्षिणापथ का अंत और योगपथ का अंतिम साक्षात्कार है I

जो योगकारक, योगकारण, योग:करण, परमयोगी, योगग्रंथ, योगज्ञान है

जो योगी के शरीर में सगुणात्मक परमहंस स्वरूप में, स्वर्णिम आत्मा है I

जो योग और समाधि का शिखर ही है  और जिससे आगे अयोग ही होता है I

जो सदैव साधनारत रहता हुआ समस्त ब्रह्मरचना को आशीर्वाद देता रहता है I

जिसमें महाब्रह्माण्ड बसा हुआ है, जो महाब्रह्माण्ड में बसा हुआ ब्रह्माण्डीश्वर है I

जो ब्रह्माण्ड का चेतनमय ज्ञानमय और क्रियामय सगुण परमेश्वर स्वरूप, गुरुतत्त्व है I

जो द्वैतातीत, अद्वैत में पूर्णरूपेण स्थित और स्थिर, योगीजनों के भीतर बसा गुरु है I

 

और क्यूंकि…

कालचक्र का उदय भी इन्ही तत्पुरुष मुख से हुआ है I

तत्पुरुष मुख ही योगेश्वर, योगर्षि, योग सम्राट और परमयोगी हैं I

 

इसलिए…

काल ही वह प्रथम योगी है जिसने सबसे योग किया हुआ है I

काल के ऐसे योग के कारण ही सबकुछ काल गर्भ में बसा हुआ है I

 

और…

क्यूंकि योगी गृहस्थ आश्रम में (और से) ही होते हैं I

इसलिए गृहस्थ आश्रम की शिखर सिद्धि भी कालब्रह्म कहलाती है I

 

इसीलिए…

वैष्णव मार्गों में इसी सिद्धि को कालकृष्ण कहा जाता है I

और शैव मार्गों में इसी सिद्धि को महाकाल भी कहा जाता है I

 

मैं इन्ही योगेश्वर के लोक से, परकाया प्रवेश मार्ग से, अपने पूर्व जन्मों की शेष गुरुदक्षिणाओं को पूर्ण करने हेतु ही, माँ सावित्री सरस्वती द्वारा लौटाया गया हूँ I

सदाशिव तत्पुरुष ही योगेश्वर हैं और माँ सावित्री सरस्वती विद्या ही योगेश्वरी हैं I योगेश्वरी शब्द के मूल में सावित्री विद्या सरस्वती ही हैं I

यह जन्म मेरे तीन पूर्व जन्मों के तीन गुरुदेवों की गुरुदक्षिणा है, और उन तीन गुरुदेवों में से एक इस ब्रह्म कल्प में, स्वयं मन्वन्तर में मेरे मनस पिता भी हैं I

इसके साथ साथ, यह ग्रंथ भी मेरे एक पूर्व जन्म के गुरुदेव की गुरुदक्षिणा है I

उन अमुक-अमुक जन्मों के गुरुदेवों ने अपनी पृथक-पृथक गुरुदक्षिणा स्वरूप में मुझसे कहा था, उनमें से यह ग्रंथ भी एक ऐसा बिंदु है, जो उन सभी गुरुदक्षिणाओं का अंतिम भाग है I

 

और इन सब के साथ-साथ…

इस जन्म में इस ग्रंथ को लिखने के लिए, मेरे सनतान गुरुदेव श्री विष्णु ने भी कहा है I

कुछ दशक पूर्व, एक साधना के समय श्री विष्णु ने कहा था कि बेटे अब से जो भी साक्षात्कार कर, उसको लिख क्यूंकि आगामी समय में जब इस मृत्युलोक पर विप्लव भरपूर आएँगे, तो यह ग्रंथ उनके लिए उपलब्ध हो जो इसके वास्तविक पात्र हैं I

और उन सनातन गुरु ने यह भी कहा था, की यह न प्रत्यक्ष और न ही अप्रत्यक्ष रूप में बेचा जाएगा, इसलिए यह वेबसाइट बनाई I

उन गुरुदेव ने यह भी कहा था, इस ग्रंथ को इस पृथ्वी लोक की किसी ऐसी भाषा में भी लिखा जाएगा, जो कुछ अधिक व्यापक रूप में बोली जाती है, इसलिए अंग्रेजी की वेबसाइट भी बनाई I

उन गुरुदेव ने यह भी कहा था, कि इसका प्रकाशन तब ही करना, जब तुझे दस महाविद्या के संकेत आएँ I यह संकेत मुझे 2019 ईस्वी की विजय दशमी की रात्रि से आने लगे I इसलिए उसके समीप की दीपावली से ही इस ग्रंथ का अंग्रेजी का भाग प्रकाशित होने लग गया था I

 

टिप्पणियाँ:

  • साधक की स्थूल काया में…

अग्रभाग ही पूर्व दिशा है I

अग्रभाग सदाशिव तत्पुरुष का है I

इसलिए अग्रभाग में ही ब्रह्माकाश आता है I

अग्रभाग ही दिव्यता जीव जगत की आत्मशक्ति हैं I

आत्मशक्ति ही आंतरिक जीव जगत की निग्रहकारिणी होती हैं I

टिपण्णी: ब्रह्माकाश (या अनंताकाश) के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

 

  • पञ्चमुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से यह तब पाया जाएगा, जब साधक पूर्वी दिशा को देख रहा होगा I इसलिए पञ्चमुखी सदाशिव में…

पूर्वी दिशा ही तत्पुरुष मार्ग है I

पूर्व की ओर ही तिरोधान कृत्य बसा है I

पूर्व दिशा के अधिपति सदाशिव तत्पुरुष हैं I

सदाशिव तत्पुरुष की शक्ति ही आत्मशक्ति कहलाती हैं I

वह शक्ति तत्पुरुष की अर्धांगिनी महेश्वरी हैं, जो विष्णुनुजा हैं I

 

तो अब तत्पुरुष सदाशिव के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ…

पञ्च कृत्य: इसका कृत्य तिरोधान (अर्थात निग्रह)  है I और इसका कारक वायु महाभूत है I

 

वर्ण (रंग): इसका वर्ण स्वर्णिम (सुनहरा) है I

 

दिशा: यह मुख पूर्व दिशा की ओर देखता है I

 

वेद: इस मुख का वेद, सामवेद है I

 

तत्पुरुष मुख से संबद्ध वैदिक पीठ : पूर्वी आम्नाय गोवर्धन मठ है I

 

तत्पुरुष मुख से संबद्ध वैदिक धाम: जगन्नाथपुरी धाम है I

 

टिप्पणियाँ:

  • क्यूंकि सदाशिव के चार दिशाओं में देखने वाले मुख, बाहर की ओर देखते हैं और क्यूँकि पञ्च मुखा सदाशिव में वेद का स्थान, मध्य के ईशान सदाशिव की ओर (अर्थात समीप) ही होता है, इसलिए इन मुखों से संबद्ध पीठों और धामों पर जो वेद लागू होते हैं, वह सदाशिव के विपरीत दिशा की ओर देखने वाले मुख के ही होते हैं I
  • इसलिए पूर्वी दिशा की ओर देखने वाले तत्पुरुष मुख की पीठ और धाम पर जो वेद लागू होगा, वह ऋग्वेद होगा I
  • और जहाँ यह ऋग्वेद, तत्पुरुष मुख से विपरीत दिशा में देखने वाले सदाशिव के सद्योजात मुख का वेद ही है I
  • यही कारण है कि इस तत्पुरुष मुख की पीठ और धाम का वेद भी ऋग्वेद ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है, कि जबकि इस तत्पुरुष मुख का वेद सामवेद ही बताया गया है, लेकिन पीठों और धामों के अनुसार इस सामवेद का स्थान, तत्पुरुष मुख से विपरीत मुख, जो सद्योजात मुख है, उसकी पीठ (अर्थात द्वारका शारदा मठ) और धाम (अर्थात द्वारका धाम) का ही कहा जाता है I
  • यह भी वह कारण है कि पूर्वी आम्नाय का वेद ऋग्वेद कहा जाता है, और पश्चिमी आम्नाय का वेद सामवेद कहा जाता है I

 

वैदिक महावाक्य:  इस मुख का महावाक्य तत् त्वम् असि है I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस मुख से संबद्ध पीठ का महावाक्य, इस मुख से विपरीत दिशा के मुख से संबद्ध वेद का है I

इसलिए, इस मुख से संबद्ध पीठ और धाम का महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म ही है I

 

अग्नि: इसकी अग्नि पञ्चकोणाग्नि (पंचकोण अग्नि) है I

 

देव: इस मुख के देवता देवराज इंद्र हैं I

क्यूंकि इंद्रासन, तत्पुरुषव मुख से ही स्वयंभू हुआ है और इंद्रासन ही ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया है, इसलिए वह इंद्रासन भी स्वयंभू ही है I

और ऐसा तब भी है जब उस इंद्रासन पर समय-समय पर पृथक-पृथक उत्कृष्ट योगीजन देवराज इंद्र रूप में विराजमान होते रहते हैं I और जहाँ वह योगीजन भी वही होते हैं, जिन्होंने एक सौ आंतरिक अश्वमेध पूर्ण किए होते हैं I

 

महाभूत: इसका भूत, वायु महाभूत है I

वायु महाभूत ही तिरोधान से संबद्ध महाभूत है, क्यूंकि जब किसी का नाश होता है तो वह नष्ट दशा (अथवा वस्तु) का वायु रूप में ही प्रवेश होता है, और इसी वायु पर तत्पुरुष सदाशिव का तिरोधान कृत्य कार्य करके, उस नश्ट वस्तु अथवा दशा को उसके पूर्व काल का आभास नहीं होने देता है I

जब ऐसा होता है, तो वह नष्ट वास्तु अथवा दशा उसके भीतर बसे हुए सत्य से भी सुदूर चली जाति है I और ऐसे ही वह नष्ट वास्तु (अथवा दशा) तबतक रहती हैं जबतक या तो वह पुनः उद्भासित होने (अथवा पुनर्जन्म लेने) के लिए अथवा सत्य को ही जानने की पात्र नहीं होती है I

इसलिए नाश होने के पश्चात भी सत्य को जाना जा सकता है I और यही कारण है कि महाप्रलय की दशा से ही सत्य को जानकार, कुछ जीवात्माएँ महाप्रलय के भीतर ही निवास करती हुई, कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हो जाती हैं I

 

सदाशिव तत्पुरुष मुख में

वायु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही वायु रूप में है I

वायु ही निग्रह है और निग्रह ही वायु है I

इस मुख की वायु व्यापक भी है I

 

ऐसा होने के कारण, वायु कोई छोटे से देवता भी नहीं हैं I

वायु एक उत्कृष्ट देवता होने के कारण ही योगमार्ग में उनसे संबद्ध प्राणायाम आया था I

जब वायु शरीर से बाहर होती है, वह वह वायु महाभूत ही है I

और जब वही वायु शरीर के भीतर प्रवेश करती है, तो वही प्राण कहलाती है I

 

और ऐसी दशा में वायु के भीतर बसे हुए और वायु को भेदते हुए आकाश के भीतर बसी हुई ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ, प्राण ऊर्जा के रूप में वायु के शरीर के भीतर प्रकट हुए प्राण स्वरूप में ही प्रकाशित हो जाती हैं I

 और वही प्राण, अपने पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण स्वरूप में शरीर के प्राणमय कोष में ही प्रकाशित होता है I यही योगमार्गों में प्राणायाम प्रक्रिया में वायु की मेहती है I   

  

तन्मात्र: इस मुख का तन्मात्र, स्पर्श है I

 

चक्र: इस मुख के चक्र, विशुद्ध चक्र (कंठ कमल) हैं I

शब्द, आकाश महाभूत में उदय होकर, वायु में गति करते हैं I वायु का स्थान कंठ कमल है और वायु का नाता सदाशिव तत्पुरुष से ही है I

 

कृत्य: इस मुख का कृत्य निग्रह (तिरोधान) है I

तिरोधान (निग्रह) का अर्थ होता है ढक लेना, छिपा लेना, रोक देना, स्तंभित कर देना, गतिहीन कर देना, जड़त्व में स्थापित कर देना, जड़ सारिका कर देना, इत्यादि I

अभी के समय जो कलियुग को रोका (स्तंभित) किया जा रहा है, उस प्रक्रिया के मूल में सदासिव का तत्पुरुष मुख ही है I

और उन तत्पुरुष मुख से एक अति पुरातन, इसी ब्रह्म कल्प का कल्पयोगी आया है, जो आगामी समय में जाना जाएगा और वही इस सम्पूर्ण कलियुग निग्रह प्रक्रिया का धारक होने के कारण, इस कलियुग को स्तम्भित (और कलियुग की गति को पूर्ण अवरुद्ध) भी करेगा और आगामी नवीन युग (गुरु युग) का उदय भी करेगा I

और क्यूंकि वह योगी योगेश्वर स्वरूप ही है और निग्रह कृत्य में बसकर ही आया है, इसलिए उसको कोई भी तबतक जान नहीं पाएगा, जबतक वह स्वयं ही स्वयं को उद्भासित नहीं करेगा I

वह योगी ही पञ्च मुखी सदाशिव है, जो मानव रूप में आया है और उन पञ्च मुखा सदाशिव के पाँच मुखों में से भी, प्रधानतः वह महेश्वर मुख से ही संबद्ध है I

 

शक्ति: इस मुख की शक्ति ही क्रिया शक्ति कहलाती है I

क्रिया शक्ति सदाशिव के वामदेव मुख से प्रादुर्भाव होकर, सदाशिव के तत्पुरुष मुख में प्रवेश करती है I और तत्पुरुष में जाकर, वह तत्पुरुष मुख की होकर ही रह जाती है I

वामदेव मुख के देवता, जो श्री विष्णु ही है, यह क्रिया शक्ति उनकी ही होती है I और ऐसा होने पर भी वह क्रिया शक्ति तत्पुरुष मुख में ही लय होकर, तत्पुरुष मुख की होकर ही रहती है I

इस मुख को जिन आदि पराशक्ति ने भेदा और घेरा हुआ है, उनसे ही इस मुख की क्रिया शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ था Iउन क्रिया शक्ति से ही श्री त्रिकाली का प्रादुर्भाव हुआ था I

 

देवी: इस मुख की देवी श्री त्रिकाली हैं I

सदाशिव तत्पुरुष की क्रिया शक्ति से श्री त्रिकाली का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था और ऐसा होने के कारण, श्री त्रिकाली ही इंद्रानुजा कहलाई थी I

क्रिया शक्ति से स्वयं प्रादुर्भाव होने के कारण श्री त्रिकाली ही क्रिया ऊर्जा, साधना ऊर्जा, योग ऊर्जा, मुक्तिपथ की  ऊर्जा आदि हैं I

त्रिकाली शब्द का अर्थ त्रिकाल ऊर्जा से युक्त है, और जहाँ त्रिकाल शब्द भी हिरण्यगर्भ से स्वयंप्रकट हुए काल का वह चक्र स्वरूप है, जो हिरण्यगर्भ का पुत्र है, और जिसके गर्भ में समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

काल, सदाशिव के अघोर मुख में प्रवेश करके, अघोर के महादेव स्वरूप में जाकर, महाकालेश्वर कहलाता है I और उन्ही महाकालेश्वर से जब श्री त्रिकाली योग करती हैं, तो वह श्री महाकाली कहलाती हैं I

और जहाँ यह योग भी अघोर सदाशिव और सद्योजात सदाशिव की मध्य की दशा में होता है और सदाशिव सद्योजात के समीप ही होता है I इसी योग को एक पूर्व के महाकाल महाकाली योग के अध्याय में बताया गया है I

इसलिए श्री त्रिकाली जीव जगत के गर्भ की ऊर्जा ही हैं I उन्ही श्री त्रिकाली से यह जीव जगत चलायमान हैं, गतिशील है, परिवर्तनशील है और निरंतर नूतन स्वरूप में ही रहता है I

श्री त्रिकाली योगेश्वर (कार्य ब्रह्म या महेश्वर या सदाशिव का तत्पुरुष मुख) की पुत्री हैं, अघोर सदाशिव के महाकाल स्वरूप की अर्धांगिनी हैं, रूद्र देव की मूल ऊर्जा हैं, महेश्वर और महेश्वरि की पुत्री हैं, देवराज इंद्र की अनुजा हैं, देवरानी इन्द्राणी की ननद हैं, हिरण्यगर्भ ब्रह्म उनके दादाजी हैं और वामदेव ब्रह्म उनके नानाजी हैं I

 

टिप्पणियाँ:

  • वैदिक वाङ्मय में इस समस्त ब्रह्म रचना की गर्भशक्ति स्थापित है, और जहाँ वह गर्भ शक्ति भी श्री त्रिकाली ही हैं I प्रत्येक माता (मातृ शक्ति) के गर्भ में यही श्री त्रिकाली एक अंधकारमय बिंदु स्वरूप में निवास करती हैं I
  • इसलिए भी इस कलियुग के छोटे से इतिहास में, जब वेद मनीषियों ने इंद्र देव का अपमान करना प्रारम्भ किया, तो जीव जगत की गर्भ शक्ति, जो श्री त्रिकाली हैं, उन्होंने अपने ज्येष्ठ भ्राता के अपमान के कारण, इस पृथ्वीलोक को अपनी गर्भ शक्ति से पृथक किया, जिसके कारण वेद मनिषियों का पतन होता ही चला गया I
  • श्री त्रिकाली के ज्येष्ठ भ्राता अर्थात देवराज इंद्र का अपमान करके, उनकी अनुजा कभी अपमान होता चला गया, क्यूंकि वैदिक वाङ्मय में ज्येष्ठ भी पिता समान ही होता है, और इसलिए माँ त्रिकाली ने अपना अनुग्रह वेद और वेद मनिषियों, सबसे उठा लिया था I
  • इंद्र देव का अपनाम माहेश्वरी और महेश्वर (अर्थात योगेश्वरी और योगेश्वर) दोनों का भी अपमान था, क्यूंकि इन्द्रासन का स्वयंप्रादुर्भाव इन्ही से हुआ है I
  • और ऐसा होने के कारण योगेश्वर और योगेश्वरी दोनों ने भी अपना अनुग्रह इस लोक से उठा लिया था, किसके कारण योग, जो उत्कर्ष पथ का मूल ही है, उसके वास्तविक स्वरूप का भी इसी कलियुग के छोटे से कालखण्ड में विलोप हुआ है I
  • जितनी भी उपासना आदि कर लो, लेकिन यदि इस जीव जगत की गर्भ शक्ति और योग दिव्यता ही तुम्हारे पर अनुग्रह नहीं करेगी, तो गटर रूपी गर्त के सिवा कुछ नहीं पाओगे I
  • मेरी इस बात का प्रमाण इस कलियुग में वेद मनिषियों का दुखों से युक्त और व्याधियों/कष्टों से संयतयुक्त इतिहास स्पष्ट रूप में दिखा रहा है I
  • इन कलियुगी वेद मनीषियों की एक त्रुटि के कारण, जो देवराज का अपमान था, समस्त आर्य धर्म को मानने वालों का पतन हुआ है और इसके लिए मैं इस कलियुग के समय में प्रतिष्ठित व्यास गद्दियों को तबतक क्षमा नहीं करूँगा, जबतक वह इस त्रुटि को ठीक नहीं करेंगे I
  • एक पूर्व जन्म में जब मैं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का शिष्य था, तब इंद्रासन का मान रखने के लिए ही मैं त्रिशंकु तक हुआ था, और ऐसा मैं इस जन्म तक और तबतक रहा हूँ जबतक मैंने उस आंतरिक अश्वमेध को इसी जन्म में एक सौ एक बार पूर्ण नहीं किया था I
  • और उस पूर्व जन्म में ऐसा मैंने इसलिए किया था, क्यूंकि इंद्र का अपमान ek बहुत बड़े और लम्बे समय तक चलने वाले और पृथक पृथक स्वरूपों में आने वाले कष्ट का कारण बन जाता है I
  • वह कष्ट इसलिए आएँगे क्यूंकि देवराज उर्स इंद्रासन पर विराजमान होने के कारण, पितामह प्रजापति और पितामही सर्वसम श्री सरस्वती के शिष्य हैं, श्री त्रिकाली के ज्येष्ठ हैं, हिरण्यगर्भ ब्रह्म उनके दादाजी हैं, श्री ब्रह्माणि सरस्वती उनकी दादीजी हैं, श्री बगलामुखी के अनुज हैं, श्री अलक्ष्मी उनकी नानीजी हैं, श्री धूमावती भी उनकी नानी जी हैं, श्री विष्णु उनके मामा जी है और श्री लक्ष्मी उनकी मामी जी हैं I और यदि यह सब कम था, तो इंद्रदेव, महेश्वर और माहेश्वरी के पुत्र भी हैं I और यदि यह भी बहुत नहीं था तो और सुनो, अघोर (महादेव) उनके जीजा हैं I
  • अब मैं सब वेद मनीषियों को कुछ बातें बोल रहा हूँ … जिसका समस्त ब्रह्मांडीयमुख्य सत्ताओं से ही इतना भरपूर हुआ नाता हो, उसका अपनाएं करके, बचाए क्या? ी यही तो तुम्हारी एक त्रुटि के कारण समस्त आर्य मार्गी मनीशिशियों के साथ इस कलियुग के काल खण्ड में हुआ है I
  • ऐसे ही नहीं उन ब्रह्मदृष्टा वेद मनिषियों ने इंद्र देव को परमात्मा तक कहा था I ऐसे ही नहीं चतुर्वेद में इंद्र का स्थान उत्तमोत्तम ही रखा गया था I ऐसे ही नहीं वेदमंत्रों में इंद्रा के इतने सारे मंत्र कहे गए थे I ऐसे ही नहीं इंद्रा को देवराज कहा गया था I
  • और यदि अब भी नहीं विशवास होता तो सुनो… तुम्हारी एक ही त्रुटि के कारण, जो देवराज का अपमान था, इस कलियुग के छोटे से काल खण्ड सारे वैदिक आर्य मार्ग का लगभग पतन सा ही हो गया है… और आज जो सनातन वैदिक आर्य मार्ग दिखता है, उसमें उन विराट पारब्रह्म से युक्त और उन महाब्रह्म से ही संयुक्त आर्य सिद्धांत का लेश मात्र ही रह गया है I

 

सिद्धि: इस मुख की सिद्धियाँ अपार हैं I

उन असंख्य सिद्धियों में से जो प्रमुख सिद्धियाँ हैं, वही वह स्वर्णिम शरीर (या सुनहरा शरीर) जो योगेश्वर का  ही स्वरूप है, और जो हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, स्वर्णिम आत्मा, और सहस्रार में ब्रह्म आदि भी कहलाता है I

पञ्च कोष विज्ञान में, इसी तत्पुरुष मुख से विज्ञानमय कोष का नाता होता है I

इन सिद्ध शरीरों के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

 

जब इस मुख से संबद्ध समस्त सिद्धियों का लय इसी मुख में हो जाता है, तब…

योगी काया में होता हुआ भी, तत्पुरुष का सगुण निराकार ही स्वरूप होता है I

ऐसा योगी अपनी सिद्धियों को पूर्णतः तिरोधान में डालकर रखेगा I

 

ग्रह: नव ग्रह में इस मुख के ग्रह, बृहस्पति (गुरु) हैं I

और जहाँ तत्पुरुष में बैठे हुए बृहस्पति (गुरु) देव, महेश्वर और महेश्वरी के पुत्र हैं, श्री त्रिकाली के अनुज हैं, इंद्रदेव के अनुज हैं, श्री इंद्राणी उनकी बड़ी भाभी हैं, श्री विष्णु उनके मामा हैं, अघोरेश्वर महादेव उनके बड़े जीजा हैं, और वामदेव उनके नानाजी हैं I

क्यूंकि श्री त्रिकाली का स्वयंप्रादुर्भाव तत्पुरुष सदाशिव की क्रिया शक्ति से और बृहस्पति देव का स्वयंप्रादुर्भाव श्री त्रिकाली के पश्चात ही होता है, इसलिए श्री त्रिकाली, बृहस्पति देव की ज्येष्ठा भी हैं I

 

चेतना: इस मुख की चेतना तुरीय कहलाती है I ऐसा होने के कारण ही सदाशिव का तत्पुरुष मुख तिरोधान (अर्थात निग्रह) का कारण बनता है I

तुरीय शब्द का अर्थ समाधि ही होता है, और तत्पुरुष मुख, जो योगेश्वर ही हैं, वह निरंतर समाधि में हैं I

इसलिए इस मुख को प्राप्त हुआ योगी, उन्ही योगेश्वर अर्थात महेश्वर के समान, चाहे खाता पीता, उठता बैठता, चलता बोलता और अन्य कर्मों को करता हुआ ही प्रतीत होता होगा, लेकिन ऐसा प्रतीत होने पर भी वह योगी उसकी अपनी आंतरिक दशा के अनुसार, पूर्णशांत, पूर्णाचित्त ही होगा और अपने ही सर्वव्यापक पूर्णसत्, कालातीत त्रिगुणातीत और सर्वातीत आत्मस्वरूप के सार्वभौम पूर्णानंद में निरंतर समाधि में ही बैठा हुआ होगा I

 

और ऐसे योगी की आंतरिक दशा में…

पराशक्ति श्री पार्वती होंगी I

इच्छा शक्ति श्री लक्ष्मी होंगी I

ज्ञान शक्ति श्री सरस्वती होंगी I

क्रिया शक्ति श्री महेश्वरी ही होंगी I

आत्मशक्ति श्री अदिपराशक्ति होंगी I

 

और ऐसे योगी के भीतर…

देव शक्ति श्री इन्द्राणी होंगी I

अहम् शक्ति श्री रुद्रेश्वरी होंगी I

मनस शक्ति में श्री मनेश्वरी होंगी I

बुद्धि शक्ति में श्री बुध्देश्वरी ही होंगी I

चित शक्ति में श्री चित्तेश्वरी ही बैठी होंगी I

सर्वशक्ति रूप में श्री अदि पराशक्ति ही बैठी होंगी I

 

ऐसे योगी की…

गुरु शक्ति में श्री शारदा विद्या होंगी I

प्राण शक्ति रूप में श्री गायत्री विद्या होंगी I

प्रणव शक्ति रूप में श्री सावित्री विद्या होंगी I

ब्रह्म शक्ति रूप में श्री ब्रह्माणी विद्या ही होंगी I

आंतरिक महाब्रह्माण्ड की शक्ति श्री भारती विद्या होंगी I

यह सभी उन्ही सर्वमाता श्री आदि पराशक्ति से संबद्ध होंगी I

जब तत्पुरुष मुख की दिव्यताएं बृहस्पति में समाई तो ही वह देवगुरु और नव ग्रह में शिक्षा मंत्री हुए I

 

तत्पुरुष मुख से क्या प्राप्ति होती है: रचना की तिरोधान (निग्रह) नामक दिव्यता I

यही संपूर्ण ब्रह्म रचना का निग्रहकारक है I तत्पुरुष मुख की दिव्यता को ही निग्रहकारिणी कहा जाता है I

और तत्पुरुष मुख द्वारा क्रियान्वित निग्रह से ही जीव जगत का स्वरूप लम्बे समय तक बना रहता है, क्यूंकि इस तिरोधान (निग्रह) के कारण, सत्य उन सबसे ढका हुआ रहते है, जो उसको जानने के पात्र नहीं होते हैं I

और यही सृष्टि के चलते रहने का कारण बनता है, जिससे महाप्रलय के पश्चात भी, जीवों का उद्धार करने हेतु एक नए ब्रह्मदेव उस महाप्रलय की दशा के भीतर से ही एक नए ब्रह्माण्ड का उदय करने हेतु स्वयंप्रकट होते हैं I

और उस ब्रह्माण्ड के उदय होते ही, जो जीव उस महाप्रलय में निवास कर रहे थे, वह भी उस नए ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके, अपने-अपने उत्कर्ष पथ उसी गति (या दशा) से प्रारम्भ करते थे, जहाँ वह तब थे जब पूर्व का ब्रह्माण्ड जिसमें वह निवास कर रहे थे, महाप्रलय में समा गया था I और ऐसा होने के कारण, सृष्टि के भीतर चल रहा जीवों का उत्कर्ष चक्र टूटा हुआ सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में अटूट ही रहता है I

 

ऐसा इसलिए है क्यूंकि यदि पूर्व के ब्रह्माण्ड से, अथवा महाप्रलय से ही…

सभी जीव मुक्त हो जाएंगे, तो महाप्रलय के पश्चात, कोई भी रचना नहीं होगी I

 

ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

रचना के मूल में जीवों की वह इच्छा ही होती है, कि हमें मुक्ति चाहिए I

 

और जहाँ…

इच्छा शक्ति में सद्योजात सदाशिव हैं, जो महाप्रलय से नयी रचना उदय करते हैं I

 

क्यूंकि तिरोधान के भीतर ही अनुग्रह छुप कर बसा होता है, इसलिए नाश होने के पश्चात, तिरोधान की दशा में बैठे हुए उन कुछ जीवों के लिए भी, वह अनुग्रह प्रकाशित होता है जो उसके पात्र होते हैं I और जहाँ वह अनुग्रह भी उन पात्रता को पाए हुए जीवों की कैवल्य मुक्ति के स्वरूप में ही प्रकट होता है I

इसलिए महाप्रलय की दशा के भीतर बसे हुए जीवों की भी मुक्ति हो सकती है… लेकिन ऐसा होने के लिए, उनको मुक्ति का पात्र होना होगा I

 

इसलिए तत्पुरुष सदाशिव जो प्रदान कार्य करते हैं, वह केवल दो बिन्दु हैं…

  • जबतक मुक्ति की पात्रता नहीं है, तबतक तत्पुरुष उस जीव को अपने घोर तिरोधान में रखते हैं I

जैसे-जैसे कोई जीव उत्कर्ष पथ पर गति करता जाता है, वैसे-वैसे उस जीव के लिए सदाशिव तत्पुरुष का तिरोधान भी न्यून होता जाता है I

  • जब मुक्ति की पात्रता आ गई, तो वही तत्पुरुष जो योगेश्वर ही हैं, और जो नित्य तुरीय भी हैं, उस जीव जो किसी न किसी मुक्तिमार्ग पर जाने की प्रेरणा देते हैं I

और अन्ततः जब वह जीव उन तत्पुरुष सदाशिव के तिरोधान कृत्य से आगे जो अनुग्रह कृत्य है, और जो कैवल्य मोक्ष ही होता है, उसमें जाने का पात्र बनता है, तो वही तत्पुरुष उस जीव को उस कैवल्य का मार्ग दिखाते हैं और मुक्त होने का अवसर देते हैं I

सदाशिव तत्पुरुष से ऐसे अवसर को पाने के पश्चात ही कोई जीव इस ग्रंथ में बताए जा रहे प्रदक्षिणा मार्गों पर गति कर पाता है I

सदाशिव तत्पुरुष द्वारा प्रदान किए गए अवसर के मार्ग, प्रदक्षिणा पथ ही होते हैं I

 

टिप्पणियाँ:

  • यदि सृष्टि के उदयचक्र की गति को किसी गोले में रखोगे, तो वह वाम पथ जैसी होगी, अर्थात घडी की सुई से विपरीत दिशा में जाएगी I
  • उदय होकर भी सृष्टि इसी वाममार्ग पर गति भी करती है I
  • क्यूंकि मुक्तिमार्ग, उदय मार्ग से विपरीत होता है, इसलिए दक्षिण पथ ही मुक्तिमार्ग है I
  • और क्यूँकि दक्षिण मार्ग ही प्रदक्षिणा नाम से कहा जाता है, इसलिए प्रदक्षिणा पथ मुक्तिमार्ग ही है I
  • प्रदक्षिणा पथ का दाता सदाशिव का तत्पुरुष मुख ही होता है I
  • और ऐसा तब भी होता है, जब प्रदक्षिणा पथ में प्रथम पड़ाव अघोर सदाशिव का ही होते हैं I

 

आयाम: तत्पुरुष काल आयाम का द्योतक है I

काल ही जीव जगत का गर्भ है और काल की शक्ति (दिव्यता) ही श्री त्रिकाली हैं I

जहाँ तक ब्रह्म रचना का प्रश्न है, तत्पुरुष मुख से संबद्ध काल रूपी गर्भ के भीतर ही समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

और जहाँ तक उत्कर्ष पथ का प्रश्न है, तत्पुरुष मुख से ही जीवों को वह अंतिम मार्ग मिलता है, जो मुक्तिमार्ग कहलाता है और जो प्रदक्षिणा पथ ही होता है I

इसलिए तत्पुरुष मुख के बिना न ब्रह्म रचना अनादि कालों से अनंत कालों तक चलायमान हो पाएगी और न ही वह अंतिम मुक्तिमार्ग प्रशस्त हो पाएगा जो प्रदक्षिणा और परिक्रमा कहा गया है I

 

  • सदाशिव का ईशान मुख क्या है, ईशान सदाशिव कौन है, सदाशिव ईशान कौन है, सदाशिव ईशान और चित शक्ति, सदाशिव ईशान और अदि पराशक्ति, सदाशिव ईशान और सर्व वेद, सदाशिव ईशान और बाल वेद, सदाशिव ईशान और शिशु वेद, सदाशिव का ईशान मुख और महाब्रह्माण्ड,

सदाशिव ईशान जो वास्तव में हैं, अब उसको बताता हूँ…

जो अणु से अनंत तक हो I

जो परमाणु से सर्वस्व तक हो I

जो आदि से अनादि तक ही हो I

जो सर्व होता हुआ भी, सर्वातीत हो I

जो सर्वदशा होता हुआ भी दशातीत हो I

जो सर्वयोग हो और आगे का अयोग हो I

जो सर्वमार्गों में होता हुआ भी, मार्गातीत हो I

जो सर्वकालों में बसा हुआ भी, कालातीत ही हो I

जो समस्त ब्रह्म रचना होता हुआ भी, रचनातीत हो I

जो कर्मों, फलों और संस्कारों में होता हुआ भी, अतीत हो I

जो त्रिगुणात्मक जीव जगत होता हुआ भी, त्रिगुणातीत ही हो I

जो बन्धनयुक्त जीव जगत होता हुआ भी, कैवल्य मुक्ता ही हो I

जो ब्रह्म रचना और रचना का तंत्र होता हुआ भी, स्वयं सर्वेश्वर हो I

जो सर्वव्यापक होता हुआ भी, उसका प्रथम साक्षात्कार ईशान कोण  में हो I

जो सर्वदिशा उत्कर्ष पथ होता हुआ भी, उसका साक्षात्कार आत्मस्वरूप में हो I

जो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय का एकमात्र साक्षी, तुरीयातीत आत्मा ही हो I

वही सदाशिव का निरंग या पारदर्शी स्फटिक के समान दिखने वाला, ईशान मुख है I

 

और सदाशिव ईशान उस सबके भी द्योतक हैं…

जो मोक्ष हो I

जो केवल हो I

जो अनुग्रह हो I

जो सर्वमूल हो I

जो सर्वात्मा हो I

जो परमेश्वर हो I

जो सर्वसाक्षी हो I

जो सर्वत्यागी हो I

जो सर्वगंतव्य हो I

जो सर्वव्यापक हो I

जो पूर्णसंन्यास हो I

जो आत्मस्वरूप हो I

जो साक्षात परब्रह्म हो I

जो सदाशिव का पूर्णस्वरूप हो I

जो चित्त के अंतिम संस्कार में हो I

जिसकी दिव्यता सार्वभौम शक्ति हो I

जो निरंग या पारदर्शी स्फटिक समान हो I

जो योगशिखर भी हो और शिखरातीत भी हो I

जिसको जानने पर भी उसका पूर्णवर्णन, पूर्ण असंभव हो I

जिसको जानने के पश्चात कुछ और जानना शेष ही न रहा हो I

जिसको जानने पर सबकुछ जाना गया हैऐसा ही माना जाता हो I

जो कपाल के ऊपर के भाग में बाहर की ओर देखते हुए मुख जैसा हो I

जो निर्गुण निराकार होता हुआ भी, सगुण साकार और सगुण निराकार भी हो I

जो सर्वातीत होता हुआ भी, सब कुछ हो, जिसमें सबकुछ और जो सबकुछ में हो I

जो सिद्धांतातीत उपाधितीत योगातीत सिद्धितीत भूतातीत, समाधितीत सर्वातीत हो

वही सदाशिव का निरंग या पारदर्शी स्फटिक के समान दिखने वाला, ईशान मुख है I

 

टिप्पणियाँ:

  • साधक की स्थूल काया में…

कपाल के ऊपर, गंतव्य दिशा और दशा है I

कपाल से ऊपर देखता हुआ सदाशिव ईशान है I

 

टिपण्णी: जब एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध पूर्ण हुआ और जब मेरी समाधि टूटी,  तो उसके बाद मैंने अपने कपाल के ऊपर के भाग का छाया चित्र लिया I उस छाया चित्र में कुछ स्पष्ट रूप में पारदर्शी स्फटिक के वर्ण का एक मुख, कपाल के मध्य भाग से बाहर की ओर देख रहा था I वह मुख पारदर्शी और निरंग स्फटिक के मध्य के वर्ण समान था और शिवरंध्र के स्थान में और उसके चारों ओर केन्द्रित था I यही काया के भीतर बसा हुआ सदाशिव का ईशान मुख है I और उसके कुछ समय बाद, मुझे लगा इसका चित्र किसी और को नहीं दिखाना चाहिए, इसलिए उस चित्र को तब ही काट दिया I

 

  • पञ्चमुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से यह तब पाया जाएगा, जब साधक पूर्वी दिशा को देख रहा होगा I इसलिए पञ्चमुखी सदाशिव में…

ईशान ही गंतव्य कहलाता है I

ऊपर की दिशा ही ईशान मार्ग है I

ऊपर की ओर ही अनुग्रह कृत्य बसा है I

ऊपर की दिशा के अधिपति सदाशिव ईशान हैं I

सदाशिव ईशान की शक्ति ही ब्रह्मशक्ति कहलाती हैं I

वह शक्ति ईशान की संगिनी अभिव्यक्ति, अदि पराशक्ति हैं I

 

  • यह ईशान मुख…

सबकुछ का अंतिम अकारण फल है, और अफलित कारण भी है I

सबकुछ का प्रथम कारणोंतीत कारण है, और अंतिम फलातीत फल भी है I

शब्द ब्रह्म सिद्धि का द्योतक है, जिसका सिद्ध योगी भी शब्द ब्रह्म ही होता है I

 

तो अब ईशान सदाशिव के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ…

पञ्च कृत्य: इसका कृत्य अनुग्रह (अर्थात आशीर्वाद)  है I इसका कारक आकाश महाभूत है I

इसका अनुग्रह, शक्ति रूप में भी आता है और वह परमसत्य जो निर्गुण निराकार हैं, उनके सीधे-सीधे साक्षात्कार मार्ग में भी आता है I

और इसके अतिरिक्त, उन्हीं परम सत्य निर्गुण निरकार ब्रह्म की सर्व अभिव्यक्ति के प्रधान रूपों के साक्षात्कार स्वरूप में भी आता है I

और इसके अतिरिक्त, साधक के आत्मस्वरूपा का इन सबसे एकत्व के साक्षात्कार रूप में भी आता है I

इसलिए इसका अनुग्रह ही परम साक्षात्कर है और जहाँ वह साक्षात्कार ही वह परम सिद्धि है, जो सिद्धितीत कहलाती है I

और ऐसा होने के कारण, ईशान सदाशिव वह तुरीयातीत आत्मा ही है जो समाधितीत, त्रिगुणातीत, भूतातीत, जीवातीत, जगतातीत, पिण्डातीत, ब्रह्माण्डातीत, रचनातीत, मार्गातीत, दशातीत, कालातीत और सर्वातीत आदि कहलाता है I

 

वर्ण (रंग): इसका वर्ण निरंग स्फटिक के समान होता है I

और यह वर्ण पारदर्शी स्फटिक के समान भी हो सकता है I

और यह वर्ण इन दोनों के मध्य की दशा का भी हो सकता है I

 

दिशा: यह मुख गंतव्य दिशा, अर्थात आकाश या ऊपर की ओर देखता है I ऐसा देखने के कारण यह मुख मुक्ति का ही द्योतक है I

 

वेद: इस मुख का वेद, सर्ववेद है I

इस सर्ववेद को आत्मवेद, बालवेद, शिशुवेद भी कहा जा सकता है I

इस बाल वेद का मार्ग स्वयं ही स्वयं में होकर ही जाता है I

इस बाल वेद के मार्ग में साधक की काय और उस काय के भीतर बसी हुई दिव्यताओंकी योगदशा ही एकमात्र ग्रंथ होता है I

और उस साधक की काया के भीतर बसी हुई दिव्यताएं और उनके स्थान आदि ही उस ग्रंथ के अध्याय होते हैं I और उस ग्रंथ को साधक, स्वयं ही स्वयं में, योगमार्गों से जाकर ही जानता है I

इस ग्रंथ में साधक अपनी काया के भीतर ही समस्त ब्रह्म रचना, और रचना का समस्त सिद्धांत तंत्र और न्याय सहित, ब्रह्म को भी पाता है I

और जहाँ यह सब साधक के आत्मस्वरूप में ही पूर्णरूपेण लय होकर रहते हैं… और साधक इन सबमें समानरूपेण में लय होकर रहता है I 

इसलिए, इस बाल वेद के मार्ग में साधक का शरीर ही ब्रह्म ग्रंथ, प्रजापति ग्रंथ, महानतम ग्रंथ, और महत्तम ग्रंथ  आदि कहलाता है I

उपनिषद और वेदांत आदि गंतव्य को दर्शाते हुए ग्रंथों के मूल में भी यह शिशु वेद ही है I

इस वेद का नाता केवल आत्मब्रह्म से ही है I

इस वेद के साक्षात्कारी ज्ञाता की आंतरिक दशा बालक जैसी ही होती है I

यह ग्रंथ यही है I

 

ईशान मुख से संबद्ध वैदिक पीठ : इसकी पीठ महाब्रह्माण्ड है, अर्थात महाकारण लोक है, जो भारत भारती योग की सिद्धि को दर्शाता है I और यह सिद्धि महाब्रह्माण्ड योग भी कहलाती है I

इसलिए इसकी पीठ भी निर्गुण निराकार ब्रह्म की वह अभिव्यक्ति है, जो समस्त ब्रह्माण्डों और उनकी जीव सत्ताओं का एकत्रित सम्पूह है, और जिसमें समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

 

और इसके अतिरिक्त

इसकी पीठ निर्गुण ब्रह्म की पूर्ण अभिव्यक्ति है I

इसी पीठ में निर्गुण निराकार ब्रह्म, स्वयं भी लय हुए हैं I

और लय होकर ही वह निर्गुण निराकार ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म कहलाए हैं I

पूर्णब्रह्म स्वयं ही अभिव्यक्ता और जीव जगत रूपी अभिव्यक्ति भी हैं I

इसी लय दशा में पूर्णब्रह्म स्वयं ही सर्वमूल, सर्व, सर्वेसर्वा और सर्वातीत ही हैं I

यह ग्रंथ उन्ही सर्वेसर्वा पूर्णब्रह्म का है, जो उनके नन्हे शिष्य द्वारा लिखा गया है I

 

ईशान मुख से संबद्ध वैदिक धाम: इसका धाम आत्मब्रह्म है I

और जहाँ वह,…

आत्मब्रह्म ही योगी का आत्मा है और योगात्मा ही आत्मब्रह्म है I

आत्मब्रह्म से योग ही पूर्ण कहलाता है, जो पूर्ण ब्रह्म का द्योतक है I

आत्मब्रह्म ही पूर्णात्मा है और पूर्णात्मा ही आत्मस्वरूप में प्रकाशित है I

आत्मब्रह्म ही पूर्ण ब्रह्म है और पूर्ण ब्रह्म ही आत्मस्वरूपा, आत्मब्रह्म है I

आत्मब्रह्म जीव जगत के भीतर है और जीव जगत भी उन्ही के भीतर बसा है I

जीव जगत आत्मब्रह्म की अभिव्यक्ति, और आत्मब्रह्म भी जीव जगत में लय है I

 

 टिप्पणियाँ: क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योग भ्रष्ट ही हूँ, और इस ब्रह्मकल्प के स्वयंभू मन्वन्तर के प्रथम सत्युग से ही ऐसा हूँ, इसलिए यह कह रहा हूँ, कि…

  • त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में आत्मब्रह्म की पीठ और धाम नहीं होते I
  • लेकिन सतयुग में इन आत्मब्रह्म की पीठ होती है I
  • और इन आत्मब्रह्म की पीठ और धाम के साथ साथ, सतयुग में आम्नाय चतुष्टय भी होते हैं I
  • सतयुग में पाँच पीठ होती हैं, चार प्रकट रूप में और एक सार्वभौम रूप में I

 

और इसके अतिरिक्त प्रत्येक गुरु युग में…

  • ऐसा ही प्रत्येक गुरु युग में भी होता है I
  • लेकिन अंतर केवल इतना है, कि गुरुयुग में आम्नाय चतुष्टय नहीं होते हैं और उन आत्मब्रह्म की एक पीठ ही सार्वभौम पीठ होती है I और उसी सार्वभौम पीठ में आम्नाय चतुष्टय सहित, समस्त सम्प्रदाय भी बसे हुए होते हैं I
  • गुरुयुग में वह सार्वभौम पीठ ही धाम भी होती है I गुरु युग ही वैदिक युग कहलाता है I और उसी गुरु युग में शिशु वेद का प्रकाश होता है I
  • गुरु युग में केवल एक ही पीठ होती है, जो आत्मब्रह्म की होती है, और वही अद्वैत पीठ, और आत्मब्रह्म का सार्वभौम धाम भी होती है I
  • और क्यूंकि कुछ समय के पश्चात का समयखण्ड गुरु युग का ही है, इसलिए उस गुरुयुग के आगमन से पूर्व, इसी आत्मब्रह्म की पीठ भी स्थापित करी जाएगी I
  • और यह स्थापना भी उसी स्थान पर करी जाएगी, जहाँ वह पूर्व के गुरुयुग में भी थी I
  • गुरु युग की इस सार्वभौम पीठ का वर्णन इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप में तो नहीं नहीं किया है… लेकिन तब भी एक अति-सूक्ष्म सुदूर-सांकेतिक प्रक्रिया से इसी भारत भारती मार्ग के एक अध्याय में किया गया है I

 

 वैदिक महावाक्य:  इस मुख का महावाक्य सोऽहं है I 

 इस मुख का महावाक्य आत्मोऽहं, ब्रह्मोऽहं, सर्वोऽहं, पूर्णोऽहं, अद्वैतोऽहं, निर्विकल्पोऽहं इत्यादि के आलम्बन से, सांकेतिक स्वरूप में ही सही, लेकिन उसकी वास्तविक दशा को दर्शाया जा सकता है I

और इसके अतिरिक्त, समस्त महावाक्य इन्ही ईशान सदाशिव को दर्शाते हैं I

 

अग्नि: इसकी अग्नि सर्वाग्नि (सर्व अग्नि )है I

सर्वाग्नि ही ब्रह्माग्नि (ब्रह्म अग्नि) कहलाती है I

योगी की काया के भीतर वही सर्वाग्नि, योगाग्नि कहलाती है I

देव: इस मुख के देवता गणपति देव हैं I

गणपति देव को यह स्थान भी अपने माता पिता की प्रदक्षिणा से ही प्राप्त हुआ है I इसलिए आगामी गुरुयग में ऐसा प्रदक्षिणाएँ भी होंगी I

श्री गणेश ही इस ब्रह्माण्ड के वाणी मंत्री हैं और जहाँ वाणी भी शब्द ब्रह्म की ही द्योतक है I

 

महाभूत: इसका भूत, आकाश महाभूत है I

आकाश महाभूत ही अनुग्रह से संबद्ध महाभूत है, क्यूंकि आकाश में ही वह ऊर्जाएँ और दिव्यताएं गमन करती है, जो अनुग्रह का कारण बनती हैं I

जब किसी जीव (दशा अथवा वास्तु) का नाश होता है तो वह नष्ट दशा (जीव अथवा वस्तु) में आकाश की ऊर्जाएं प्रवेश करके, यदि वह अनुग्रह का पात्र है, तो उसको वह अनुग्रह प्रदान करती है और कैवल्य मुक्ति में स्थापित करती हैं I

 

इसी कारण से…

आकाश देवता जो गणपति है, वही मुक्ति होते हैं I

आकाश का कृत्य जो अनुग्रह है, वही मुक्तिदाता I

आकाशीय ऊर्जाएं ही मुक्तिपथ पर गति होती हैं I

आकाश का तन्मात्र, जो शब्द है, वही मुक्तिमार्ग है I

आकाश को साक्षात्कार किया योगी, यह सबकुछ है I

महाप्रलय में भी आकाश महाभूत सुरक्षित रहता है I

और यही कारण है कि महाप्रलय की दशा से ही सत्य को जानकर, कुछ जीवात्माएँ महाप्रलय के भीतर ही निवास करती हुई ही, कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हो जाती हैं I

 

सदाशिव ईशान मुख में…

आकाश ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आकाश रूप में है I

आकाश ही अनुग्रह है और अनुग्रह ही आकाश है I

इस मुख का आकाश व्यापक भी है I

 

तन्मात्र: इस मुख का तन्मात्र, शब्द है I इस मुख का तन्मात्र जो शब्द ही है,उसमें …

शब्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही शब्द I

ब्रह्म ही शब्द स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है I

वह शब्दात्मक अभिव्यक्ति ही भी साक्षात् ब्रह्म ही है I

अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता है और अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति I

ऐसा योगी उन्ही शब्द ब्रह्म का स्वरूप पाकर, शब्द ब्रह्म ही कहलाता है I

 

चक्र: इस मुख के चक्र, आज्ञा चक्र (नैन कमल या भ्रूमध्य कमल), सहस्रार चक्र (मस्तिष्क कमल, कपाल कमल), वज्रदण्ड चक्र (राम शब्द का कमल) और निरालंब चक्र (ब्रह्मचक्र या ब्रहमकमल या ब्रह्मलोक चक्र या निरालंबस्थान) ही हैं I आज्ञा चक्र के भीतर जो परमज्योति होती है, उसका वर्णन आज्ञारंध्र (निर्गुणयान) के अध्याय में किया जा चुका है I

 

शक्ति: इस मुख की शक्ति ही चित्त शक्ति कहलाती है I और ऐसा होने पर भी वह चित्तशक्ति सदाशिव के वामदेव मुख में ही प्रकाशित होती है I

इस मुख की चित्त शक्ति सार्वभौम और सर्वव्यापक ही है और इन्ही चित्त शक्ति का नाता अन्य चार मुखों की शक्ति से भी है I

उन चित्त शक्ति में ही…

सब उत्पन्न, स्थित, नष्ट, निग्रह और अनुग्रह होता है I

सब लय होता है और लय होकर ही मोक्ष को प्राप्त होता है I

वेदों में वर्णित घटाकाश का महाकाश में लय मार्ग भी चित्त शक्ति है I

कैवल्य मोक्ष, चित शक्ति में होता है, जो अदि पराशक्ति, विराट परब्रह्म हैं I

कैवल्य मोक्ष में अदि पराशक्ति और विराट परब्रह्म साधक के आत्मस्वरूप में हैं I

विराट परब्रह्म सदाशिव सादक का आत्मा हैं और अदि पराशक्ति, आत्मदिव्यता हैं I

साधक के भीतर ही अदि पराशक्ति, विराट परब्रह्म सदाशिव से अदवैत योग में हैं I

 

देवी: इस मुख की देवी श्री अदि पराशक्ति हैं I

और जहाँ वह श्री अदि पराशक्ति ही…

 

सर्वेश्वरी हैं I

परमेश्वरी हैं I

सर्वमाता ही हैं I

समस्त प्राणों में हैं I

समस्त देवियां हुई हैं I

समस्त ऊर्जा स्वरूप में हैं I

समस्त सिद्धियों के मूल में हैं I

ब्रह्मरचना की मूल दिव्यता ही हैं I

समस्त उत्कर्ष मार्गों में बसी हुई हैं I

सार्वभौम हैं, समस्त शक्तियों के मूल में हैं I

मुक्तिमार्ग में स्थापित करने वाली गुरुमाई हैं I

अनादि सनातन, सार्वभौम, सर्वव्यापक, सर्वकाल स्थित हैं I

साधक, साधना, साध्य और सिद्धि, सब में समान रूप में हैं I

विराट परब्रह्म सदाशिव हैं और विराट सदाशिव भी अदि पराशक्ति हैं I

अपने प्रकट आदि स्वरूपों में बहुवादी हैं, अपने मूल और गंतव्य दोनों में अद्वैत हैं I

उन बहुवादी अद्वैत आदि पराशक्ति के लिए भी, एकोहं बहुस्याम: कहा जा सकता है I

सिद्धि: इस मुख की सिद्धियाँ भी अपार हैं I

उन असंख्य सिद्धियों में से जो प्रमुख सिद्धि है, वह आकाश सिद्ध शरीर और नील रत्न शरीर, चिकित्सा बुद्ध आदि हैं I

और इसके अतिरिक्त, इस मुख की गंतव्य सिद्धि निर्गुण शरीर है I

अनुग्रह सिद्धि, अनुग्रह सिद्ध,कृपा सिद्धि, कृपा सिद्ध आदि शब्दों से बताई गई सिद्धियों का गंतव्य नाता इसी मुख से है I

 

ग्रह: नव ग्रह में इस मुख का नाता किसी एक ग्रह से नहीं है I और ऐसा होने पर भी ब्रह्म रचना में जो भी है, उसका नाता इस मुख से है I

 

चेतना: इस मुख की चेतना तुरीयातीत कहलाती है I

और जहाँ…

तुरीयातीत ही आत्मा कहलाती है I

तुरीयातीत ही समाधितीत दशा होती है I

तुरीयातीत ही आयाम और जीव जगत से अतीत होती है I

जो तुरीयातीत हो, उसके लिए क्या समाधि और क्या कुछ और? I

तुरीयातीत में ही ब्रह्मशक्ति, जो आत्मशक्ति स्वरूप में निवास करती है I

 

और ऐसे योगी की आंतरिक दशा में…

न यह जैसा कुछ होगा और न वह जैसा कुछ I

न इधर जैसा कुछ होगा, न उधर जैसा कुछ होगा I

न यह नहीं है और न वह नहीं है, ऐसा ही कुछ होगा I

न इधर नहीं है और न उधर नहीं है, ऐसा ही कुछ होगा I

न मैंपन होगा, न तुमपन होगा और न ही हमपन पाया होगा I

ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की योगदशा में, वह समस्त द्वैतवादों परे खड़ा होगा I

न अहंता होगी, न अस्मिता होगी, न सर्वसमता होगी और न ही शून्यता होगी I

वह कायाधारी होने पर भी, न तो जीवत्व से और न ही जगतत्व से नाता रहा होगा I

न घृणा शंका भय लज्जा जुगुप्सा कुल शील या जाती होगीवह अष्ट पाशातीत होगा I

जो ऐसा है वही सदा कल्याणकारी सदाशिव कहलाता हैवही अदि पराशक्ति भी है I

 

ईशान मुख से क्या प्राप्ति होती है: रचना की अनुग्रह (आशीर्वाद) नामक दिव्यता I

यही संपूर्ण ब्रह्म रचना का अनुग्रहकारक (आशीर्वादकारक, आशीर्वादकारण और आशीर्वाद:करण) है I

ईशान मुख द्वारा प्रदान किए गए अनुग्रह से ही, अन्य चार कृत्य अपनी-अपनी दिशाओं में और इस ब्रह्म रचना की समस्त दिशाओं में क्रियान्वित होते हैं I

और ईशान मुख द्वारा प्रदान किए गए अनुग्रह से ही ब्रह्म रचना अनादि कालों से और अनंत कालों तक स्थायी रहती है I और इस प्रक्रिया में वह ब्रह्म रचना कई बार समय-समय पर महाप्रलय में जाने के पश्चात भी, समय-समय पर पुनरोदय भी होती चली जाती है I

और ईशान मुख द्वारा प्रदान किए गए अनुग्रह से ही जीव मुक्ति को प्राप्त होते हैं I

 

टिप्पणियाँ: यहाँ…

मुक्ति को प्राप्त होते हैं, ऐसा कहा गया हैन की मुक्ति को पाते हैं, ऐसा कहा है I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि मुक्ति जो कर्मातीत है, उसकी प्राप्ति का मार्ग नहीं होता I

उस कर्मातीत मुक्ति को प्राप्त हुआ जाता हैन की प्राप्त किया जाता है I

और प्राप्त भी तब ही होगे, जब उस कर्मातीत मुक्ति के पात्र बनोगे I

और जहाँ यह प्राप्त होना भी ईशान का अनुग्रह ही होता है I

 

ऐसा होने का कारण भी वही है, जो पूर्व में बताया गया था…

जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही, उसको कैसे प्राप्त करोगे I

जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही, उसको तो प्राप्त होना होगा I

जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही, उसका मार्ग कर्मों में है ही नहीं I

जो तुम अपनी वास्तविकता में हो ही, उसका मार्ग कर्मफलों में भी नहीं है I

जो कर्मों, फलों और संस्कारों से परे हैं, वही कर्ममुक्ति है, वही कैवल्य मोक्ष है

तुम अपने आत्मस्वरूप में कैवल्य मोक्ष ही हो, जिसकी प्राप्ति कर्मों से अतीत है I

इसलिए भाव से मन, बुद्धि, चित्त और अहम् में ऐसा होकर, कैवल्य को प्राप्त होगे I

 

इसलिए,…

कर्मातीत मुक्ति समस्त कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों से अतीत है I

वह कर्ममुक्ति तो ईशान सदाशिव के अनुग्रह स्वरूप से ही हो पाती है I

वह कर्ममुक्त योगी, अनुग्रह सिद्ध और कृपा सिद्ध ही कहलाता है I

 

और जहाँ…

उस कृपा सिद्ध का मार्ग भी स्वयं ही स्व: में होकर जाता है I

उस स्व: के शिखर पर उसका आत्मस्वरूप, सदाशिव ही होता है I

उसी स्व: के शिखर पर उसकी आत्मदिव्यता आदि परशक्ति होती हैं I

 

और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में उस कृपा सिद्ध या अनुग्रह सिद्ध…

का स्व: भी, स्वयं ही सदाशिव में लय होकर, सदाशिव ही कहलाता है I

की स्व:दिव्यता, अदि पराशक्ति में लय होकर, आदि पराशक्ति ही कहलाती है I

गुरुमाई आदि पराशक्ति और परमगुरु सदाशिव के योग को अपनी काया में पाता है I

यही सदाशिव के ईशान मुख का पूर्ण अनुग्रह होता है I

और इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, इसी अनुग्रह को प्राप्त होकर समस्त जीव अंततः कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हुए हैं I

 

ईशान सदाशिव के ऐसे अनुग्रह के कारण योगी…

सत्य का ज्ञान पाता है I

सत्य का साक्षात्कार करता है I

ज्ञानमय साक्षात्कार में स्व: को लय कर, सत्य ज्ञान ही हो जाता है I

 

ऐसा भी इसीलिए हो पाता है, क्यूंकि…

तुम वही हो, जिसका अपनी साधनाओं में तुम साक्षात्कार किए हो I

जब बूँद सागर में लय हो जाती है, तब वह बूँद नहीं, सागर ही कहलाती है I

साधना में दशाओं का साक्षात्कार भी तब ही होता है, जब तुम लय हो रहे होते हो I

वह लय प्रक्रिया भी तब चालित होगी, जब तुम मन बुद्धि चित्त अहम् में नहीं होगे I

 

सदाशिव के ईशान मुख का साक्षात्कार…

उस पूर्ण ज्ञान का द्योतक है, जो आत्मज्ञान है I

उस परिपूर्णता का द्योतक है, जो पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I

उसका मार्ग भक्ति राज कर्म ज्ञान योग का शिखर, स्व:योग है I

उस पूर्ण का द्योतक है, जो ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति का अद्वैतयोग है I

उस आत्मज्ञान में, सदाशिव और अदि पराशक्ति ही प्रकाशित हो रहे होते हैं I

इस दशा में, जीव जगत भी सदाशिव और अदि पराशक्ति का अद्वैत योग ही है I

ऐसी दशा में योगी ही इस योग में जाकर, इस योग के अद्वैत स्वरूप को पाता है I

वह अद्वैतयोग ही योगी के आत्मस्वरूप में प्रकाशित होकर, योगी ही हो जाता है I

 

ईशान मुख का आयाम: ईशान मुख आयामातीत का द्योतक है I

और जहाँ उस आयामातीत का साक्षात्कार भी ईशान सदाशिव से सम्बद्ध आकाश महाभूत में ही होता है I इसलिए आकश को ही ईशान का आयाम बताया गया है I

इस साक्षात्कार में वह आकाश भी सदाशिव ईशान के समान अनंत पाया जाएगा I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब इस अध्याय के अन्त में कुछ और बिंदुओं पर ज्ञानमय प्रकाश डालकर, इस अध्याय को समाप्त करूंगा…

पञ्चमुखा सदाशिव में…

सदाशिव का शब्द, ईशान का ही द्योतक है I

सदाशिव ही ईशान और ईशान ही सदाशिव कहलाते हैं I

सदाशिव में पञ्चदेव सहित सब देवी देव, और कृत्य निवास करते हैं I

सदाशिव में ही समस्त महाभूत, तन्मात्र, पञ्च कोष, रचना निवास करती है I

इसलिए ईशान साक्षात्कार ही सर्वमूल, सर्वस्व और सर्वगंतव्य का साक्षात्कार है I

पञ्च मुखी सदाशिव ही विराट परब्रह्म सदाशिव और गुरु विष्वकर्मा कहलाए हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

ईशान ही सदाशिव हैं  और सदाशिव ही ईशान कहलाए हैं I

सदाशिव ही अदि परा शक्ति और अदि पराशक्ति ही सदाशिव हैं I

सदाशिव और अदि पराशक्ति की योगदशा ही ब्रह्म ब्रह्मरचना योग है I

जिस योगी की काया में यह अद्वैत योग हैवही ब्रह्म है, वही ब्रह्म रचना है I

ऐसे योगी के लिए ही, सदाशिव और अदि पराशक्ति, एकमात्र प्रकाशित हो रहे होंगे I

 

इस समस्त ब्रह्म रचना के परम गुरुदेव, पञ्च मुखी सदाशिव के बारे में एक अंतिम बात जो बताई जा सकती है, वह यह ही है…

उसका जो ज्ञाता यह मानता है कि वह उसे पूर्ण जानता हैवह उसे नहीं जानता है I

जो उसको पूर्ण जानकर भी मानता है कि वह पूर्णतः नहीं जानता हैवही ज्ञाता है I

 

तो अब मैं इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ, और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ जिसका नाम त्रिदेवी और त्रिदेव का नाता होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

 

 

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