भगवान हरिहर, महामृत्युञ्जय मंत्र, नाभि लिंग, परा प्रकृति लिंग, आदिशक्ति लिंग, शिखर लिंग, हरिहर लिंग, विष्णु ही शिव, शिव ही विष्णु, हरि ही हर, हर ही हरि, लिंग का अर्थ, शिवत्व ही विष्णुत्व, विष्णुत्व ही शिवत्व

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यहां पर भगवान हरिहर, महामृत्युञ्जय मंत्र, नाभि लिंग, परा प्रकृति लिंग, आदिशक्ति लिंग, शिखर लिंग, हरिहर लिंग, विष्णु ही शिव, शिव ही विष्णु, हरि ही हर, हर ही हरि, लिंग का अर्थ, शिवत्व ही विष्णुत्व, विष्णुत्व ही शिवत्व आदि बिंदुओं पर बात होगी I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय और इसकी पूरी श्रंखला भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे में किसने-क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ तक और इस समय से पूर्व का है I इसमें बताए गए बिंदुओं के साक्षात्कार में कई वर्ष लग गए थे I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तिरसठवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का पहला अध्याय है I

 

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यहाँ जो लिंग का शब्द कहा गया है, उसका अर्थ होता है सूचक, द्योतक, चिन्ह, प्रतीक, किसी का हेतु, इत्यादि I

शिखर लिंग, हरिहर लिंग
शिखर लिंग, हरिहर लिंग

 

पूर्व के एक अध्याय में अंतःकरण के बारे में बताया गया था और उस अध्याय में अंतःकरण का चित्र भी दिखाया गया था I इस हरिहर लिंग का प्रारंभिक साक्षात्कार उस अंतःकरण चतुष्टय के प्रकाश से है I

जब साधक इस हरिहर लिंग के साक्षात्कार का पात्र बनता है, तब अंतःकरण चतुष्टय जो हृदय में साक्षात्कार होता है, उसका प्रकाश मस्तिष्क की ओर जाता है I

अंतःकरण का प्रकाश शिवरंध्र से नीचे के एक स्थान पर पड़ता है, जहाँ एक सुनहरे लिंग का साक्षात्कार होता है, जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I यह सुनहरा लिंग शिवरंध्र के नीचे, कपाल ही हड्डी से मस्तिष्क की ओर उल्टा लटका होता है I इस लिंग का नाता हिरण्यगर्भ और ब्रह्माणि से भी है I

यह सुनहरा लिंग जो शिवरंध्र के नीचे (अर्थात कपाल की हड्डी से मस्तिष्क की और) स्थित होता है, वह हरिहर लिंग है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इसी लिंग के स्थान पर शिवत्व और विष्णुत्व की योगावस्था होती है I

यह हरिहर लिंग, शिवरंध्र के स्थान के समीप उल्टा लटका होता है, अर्थात इसका जो ऊपर का भाग है वह नीचे की ओर होता है, और नीचे का भाग ऊपर की ओर I

इस लिंग के स्थान पर यदि चेतना चली जाए, तो उसको महामृत्युञ्जय मंत्र सुनाई देने लगता है I इसलिए वह साधक यह भी जान जाता है, कि महामृत्युञ्जय मंत्र का स्थान भी यह हरिहर लिंग ही है I

क्यूंकि यह लिंग शरीर के शिखर पर ही होता है, इसलिए इसको शिखर लिंग कहा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और जब साधक की चेतना इस लिंग से आगे (लिंग से ऊपर) चली जाती है, तो वह चेतना इस लिंग से ऊपर जो शिवरंध्र है, उसमें पहुँच जाती है I शिवरंध्र से आगे (ऊपर की ओर) एक और लम्बा सा सुनहरा दण्ड होता है, जिसको वज्रदण्ड कहा गया है I

इसी वज्रदण्ड में जाकर वह साधक राम नाद का साक्षात्कार करता है, और इस अध्याय श्रंखला में बताए गए तत्त्वों का भी साक्षात्कारी हो जाता है I इसलिए यह हरिहर लिंग ही राम नाद के साक्षात्कार का मार्ग है I

हरिहर लिंग से ऊपर की ओर शिवरंध्र जुड़ा हुआ होता है, और शिवरंध्र से ऊपर की ओर वज्रदण्ड जुड़ा हुआ होता है I इसलिए वज्रदण्ड के नीचे का भाग, जो शिवरंध्र के नीचे के भाग में एक लिंग रूप में साक्षात्कार होता है, वही हरिहर लिंग है I

इसका अर्थ हुआ, कि वज्रदण्ड चक्र जो शिवरंध्र से ऊपर होता है, उसका नीचे का भाग (अर्थात मस्तिष्क की ओर का भाग) हरिहर लिंग है I क्यूंकि इस हरिहर लिंग के स्थान पर साधक महामृत्युञ्जय मंत्र का साक्षात्कार करता है, इसलिए ऋग्वेद के महामृत्युञ्जय मंत्र का स्थान भी यही हरिहर लिंग है I

महामृत्युञ्जय का साक्षात्कार करके ही साधक की चेतना शिवरंध्र में जाकर, वज्रदण्ड के भीतर गति करने लगती है (अर्थात वज्रदण्ड में जाकर ऊपर की ओर उठने लगती है), और इस वज्रदण्ड में उस चेतना को शिव तरक मंत्र (अर्थात राम शब्द) का साक्षात्कार होता है I

इस हरिहर लिंग के साक्षत्कार में शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव I इसके कारण यह मस्तिष्क लिंग, हरि और हर की योगदशा को भी दर्शाता है, और इसके साक्षात्कार में हरि ही हर हैं, और हर ही हरि I ऐसा होने के कारण, इस लिंग के साक्षात्कार में शिवत्व ही विष्णुत्व है, और विष्णुत्व ही शिवत्व I

 

नाभि लिंग क्या है, परा प्रकृति लिंग क्या है, अदिशक्ति लिंग क्या है, आदिशक्ति का लिंगात्मक स्वरूप, परा प्रकृति का लिंगात्मक स्वरूप, नाभि लिंग का वामदेव ब्रह्म से नाता, नाभि लिंग का परा प्रकृति से नाता, नाभि लिंग का आदिशक्ति से नाता, …

नाभि लिंग, परा प्रकृति लिंग, आदिशक्ति लिंग
नाभि लिंग, परा प्रकृति लिंग, आदिशक्ति लिंग,

 

पूर्व की अध्याय श्रंखला जिसका नाम ॐ सावित्री मार्ग था, उसके एक अध्याय में बताया गया था, कि योगी की चेतना ॐ के ऊपर के बिन्दु में लय होती है, और इसके पश्चात्, वह स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है I

ऐसा होने पर योगी नाभि लिंग साक्षात्कार का पात्र बनता है I ऊपर का चित्र इस नाभि लिंग का है I

शरीर में तैंतीस कोटि नाड़ियाँ होती हैं I यह नाड़ियाँ सूक्ष्म होती है, और इन्ही में शरीर की ऊर्जाएं बहती हैं I

नाभि के पीछे और मेरुदंड के समीप एक स्थान होता है, जहाँ पर यह तैंतीस कोटि सूक्ष्म नाड़ियाँ एक दुसरे से मिलती हैं, और ऐसे मिलने से इनकी ऊर्जाओं का भी योग होता है I इस योग से एक लिंगरूप प्रकट होता है, और इस अध्याय में इसी को नाभि लिंग कहा गया है I

यह लिंग जो उन तैंतीस कोटि सूक्ष्म नाड़ियों और उनकी ऊर्जाओं की योगदशा को दर्शाता है, वह नाभि के पीछे और मेरुदण्ड के समीप साक्षात्कार होता है I

यह लिंग अपने ऊपर की ओर से मेरुदण्ड की ओर (अर्थात शरीर के पीछे की ओर) मुड़ा हुआ होता है I ऐसी ही दशा इस चित्र में भी दिखाई गई है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब साधक की चेतना इस अध्याय श्रंखला में जाने की पात्रता प्राप्त करती है, तब यह नाभि लिंग ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उसके ऊपर किसी ने श्वेत चूना भर-भर के डाल दिया है I इसलिए ऐसी दशा में यह नाभि लिंग खुरदरे श्वेत वर्ण का दिखाई देता है, और इसको एक श्वेत वर्ण के प्रकाश ने भी घेरा होता है I

ऐसी दशा में यह नाभि लिंग का नाता परा प्रकृति से होता है, अर्थात प्रकृति के नवम कोष से होता है, इसलिए ऐसी दशा में इस नाभि लिंग को, परा प्रकृति लिंग भी कहा जा सकता है I क्यूँकि परा प्रकृति का नाता वामदेव ब्रह्म से है, इसलिए ऐसी दशा में इस लिंग का नाता वामदेव ब्रह्म से भी सिद्ध होता है I

और क्यूँकि प्रकृति के नवम कोष की दिव्यता माँ आदिशक्ति ही हैं, इसलिए ऐसी दशा में इस नाभि लिंग को आदिशक्ति लिंग भी कहा जा सकता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब यह नाभि लिंग अपने श्वेत वर्ण में प्रकट हो जाता है, तब उन तैंतीस कोटि नाड़ियों में (जिनके योग से यह नाभि लिंग बनता है), एक श्वेत वर्ण की (अर्थात समता को धारण करी हुई) ऊर्जा बहने लगती है I इस लिंग का श्वेत वर्ण यह प्रमाण भी है, कि उस साधक की नाड़ियों के भीतर की ऊर्जाएं समता को प्राप्त हो चुकी हैं I

इन नाड़ियों से यह ऊर्जाएँ शरीर के समस्त भागों में पहुँच जाती हैं I और जब ऐसा होता है, तो उस साधक के शरीर की त्वचा पर एक श्वेत प्रकाश भी आ जाता है I चर्म पर दिखाई देने वाला यह श्वेत प्रकाश इस बात का प्रमाण भी है कि उस साधक के भीतर की नाड़ियों और उनकी ऊर्जाओं ने प्रकृति के नवम कोष के उस समतावाद को सिद्ध कर लिया है, जो सत्त्वगुण का द्योतक होता है I

और इसी आंतरिक समतावाद, और सत्त्वगुणी दशा को सिद्ध करके, (अर्थात प्राप्त होकर) ही वह साधक इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग की श्रंखला में जाता है, जिससे वह साधक राम नाद को ही सिद्ध कर लेता है I

तो अब इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ, और अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम शिव तारक मंत्र होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

 

 

लिंक:

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa, Kalpa, Brahma Ratri,

अंतःकरण (Antahkarana, Antahkarana Chatushtaya),

 

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