व्यान प्राण और धनंजय उपप्राण, व्यान वायु, व्यान वात, व्यान प्राण, धनञ्जय उपप्राण, धनञ्जय उपवायु, धनञ्जय लघुप्राण, धनञ्जय लघुवायु, व्यान और जगद्गुरु माँ शारदा, व्यान और माया शक्ति, व्यान और महामाया

व्यान प्राण और धनंजय उपप्राण, व्यान वायु, व्यान वात, व्यान प्राण, धनञ्जय उपप्राण, धनञ्जय उपवायु, धनञ्जय लघुप्राण, धनञ्जय लघुवायु, व्यान और जगद्गुरु माँ शारदा, व्यान और माया शक्ति, व्यान और महामाया

इस अध्याय में व्यान प्राण और धनंजय उपप्राण, व्यान वायु (व्यान वात, व्यान प्राण) और धनञ्जय उपप्राण (धनञ्जय उपवायु, धनञ्जय लघुप्राण, धनञ्जय लघुवायु), व्यान और जगद्गुरु माँ शारदा, व्यान और माया शक्ति, व्यान और महामाया पर बात होगी I

 

हृदयाकाश गर्भ के भाग और प्राण गुफा
हृदयाकाश गर्भ के भाग और प्राण गुफा

 

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकेर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का छत्तीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का चौथा अध्याय है।

 

हृदय प्राण गुफा
हृदय प्राण गुफा

 

व्यान प्राण और धनञ्जय उपप्राण क्या हैं, व्यान वायु क्या है, व्यान प्राण क्या है, व्यान वात क्या है, धनञ्जय उपप्राण क्या है, धनंजय उपवायु क्या है, धनञ्जय लघुप्राण क्या है, धनञ्जय लघुवायु क्या है, व्यान वायु की गति, व्यान वायु का वर्ण, व्यान प्राण का वर्ण, व्यान प्राण की गति, धनञ्जय उप प्राण की दशा, धनञ्जय उप वायु की दशा, धनञ्जय लघु प्राण की दशा, धनञ्जय लघु वायु की दशा, व्यान प्राण और धनञ्जय उपप्राण का स्वरूप, व्यान वायु का स्वरूप, व्यान प्राण का स्वरूप, व्यान वात का स्वरूप, धनञ्जय उप प्राण का स्वरूप, धनंजय उप वायु का स्वरूप, धनञ्जय लघु प्राण का स्वरूप, धनञ्जय लघु वायु का स्वरूप, …

 

हृदय प्राण तंत्र
हृदय प्राण तंत्र

 

प्राण गुफा की ओर चलते चलते, जैसे ही हकला गुलाबी प्रकाश जो व्यान प्राण का है, वह स्पष्ट रूप में दिखने लगा, वैसे ही सनातन गुरु ने रुकने को बोला और कहा…  यह हल्के गुलाबी वर्ण का व्यान प्राण है, और यह प्राण सभी दिशाओं से बाहर की ओर गति करता है I

 

हृदय पञ्च प्राण गुफा
हृदय पञ्च प्राण गुफा

 

नन्हें विद्यार्थी ने देखा और जाना कि वास्तव में यह व्यान प्राण सभी दिशाओं से बाहर की ओर ही जा रहा है I और ऐसा अध्ययन करके उसने अपने गुरुदेव से पुछा… क्या इस प्राण की बाहर की ओर गति, इसके भीतर की ओर की गति से अधिक है? I

इसपर गुरु ने उत्तर दिया… हाँ, ऐसा ही है क्यूंकि अधिकांश समय में इसकी बाहर की ओर गति, इसकी अन्य दिशाओं की ओर की गति से अधिक ही होती है I इसलिए इस वायु की बाहर की ओर की गति, इसी वायु की भीतर की ओर की गति से कहीं अधिक है, और यही कारण है कि इस वायु को शरीर से बाहर की ओर जाने वाली कहा जाता है I इसकी भीतर की ओर की गति तब ही दिखाई देगी, जब साधक या तो इस वायु के भीतर या इस प्राण गुफा के भीतर ही बसकर इसका अध्ययन करेगा I इस वायु की शरीर से बाहर की ओर गति के कारण ही शरीर को घेरे हुए एक सूक्ष्म आभामण्डल होता है, और जहाँ उस आभामण्डल का विस्तार और प्रभा भी इस वायु की बाहर की ओर की गति पर ही निर्भर करता है I जितना अधिक यह बाहर की ओर का प्रवाह होगा, उतना ही विस्तार शरीर के आभामण्डल का भी होगा I

सनातन गुरु बोले… साधक के ब्रह्मरंध्र के ऊपर जो एक हीरे के समान नाड़ी होती है, उस नाड़ी में जितना भीतर की ओर प्रवाह होगा, उतना ही प्रवाह इस व्यान वायु का बाहर की ओर होगा, और उतना ही विस्तार साधक के आभामण्डल का भी होगा I और जितना अधिक साधक का जुड़ाव महाब्रह्माण्ड से होगा, उतना ही अधिक यह भीतर का प्रवाह उस ब्रह्मरंध्र के ऊपर बसी हुई हीरे के समान प्रकाशित नाड़ी में भी होगा I इसलिए जो साधक महा ब्रह्माण्ड से जुड़े होते हैं, उतना ही उनके मस्तिष्क के ऊपर की हीरे के समान नाड़ी में भीतर का प्रवाह भी होता है, और उतना ही उनके व्यान प्राण में शक्ति भी होती है जिसके कारण उनका व्यान प्राण से बाहर का प्राण प्रवाह भी अधिक होता है, और जिससे उन साधकगणों के शरीर के बाहर की ओर के आभामण्डल का विस्तार भी अधिक ही होता है I और इसके साथ साथ, ऐसे साधकगण का आभामण्डल अधिक शक्तिशाली भी होता है I और ऐसा होने के कारण, ऐसे साधकगणों पर विकृत ऊर्जाओं और स्थूल और सूक्ष्म जगत के विकृत जीवों का प्रभाव भी न्यून ही होता है I

नन्हें विद्यार्थी ने गुरु की ओर देखा और अपना सर आगे पीछे हिलाकर संकेत दिया, कि वह समझ गया है I

इसके पश्चात गुरु बोले… यह व्यान प्राण अन्य सभी प्राणों और उपप्राणों को घेरा हुआ भी होता है I जबकि यह व्यान प्राण शरीर में व्यापक होने के कारण सभी चक्रों और नाड़ियों में पाया जाता है, लेकिन तब भी इसके निवास का प्रधान चक्र स्वाधिष्ठान ही होता है I

सनताब गुरु आगे बोले… पञ्च प्राणों में से यह व्यान प्राण सबसे सूक्ष्म भी होता है, इसलिए यह सभी प्राणों को भेदकर उनके भीतर भी कुछ न्यून मात्रा में ही सही, लेकिन पाया जाता है I इस प्राण में ही सब प्राण बसे हुए होते हैं क्यूंकि इसी प्राण ने सभी प्राणों को घेरा हुआ भी होता है I ऐसा होने के कारण यह प्राण शरीर के सभी स्थानों में न्यून मात्रा में ही सही, लेकिन पाया जाता है I यह प्राण माया शक्ति अर्थात अव्यक्त प्रकृति का द्योतक भी है, क्यूंकि इसका सीधा सीधा नाता अव्यक्त प्राण (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) से ही होता है I

नन्हे विद्यार्थी ने जो भी गुरु ने बोला, वह सबकुछ देखा और गुरुमुखा की ओर देखकर संकेत दिया, की उसे अब समझ में आ गया है I

 

व्यान प्राण की कार्यप्रणाली, व्यान प्राण और धनञ्जय उपप्राण का नाता, व्यान वायु और धनञ्जय उपवायु का नाता, व्यान प्राण और धनञ्जय लघुप्राण का नाता, व्यान वायु और धनञ्जय लघुवायु का नाता, … व्यान प्राण का सिद्ध शरीर, व्यान प्राण से संबद्ध सिद्ध शरीर, …  व्यान प्राण का महत्व, व्यान प्राण की महती, … व्यान वायु का अध्ययन, व्यान वायु के कार्य, …

गुरु बोले… इस व्यान प्राण का सीधा नाता इसके उपप्राण से है जो धनञ्जय कहलाता है I यह धनञ्जय उपप्राण इस व्यान को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखता है I व्यान प्राण अपना ऊर्जा प्रवाह अपने उपप्राण धनञ्जय से लेता है, और उन ऊर्जाओं को इस उपप्राण से लेकर शरीर से बाहर को ओर प्रवाहित भी करता है, ताकि शरीर में ऊर्जा की अधिकता या न्यूनता और इन दोनों दशाओं से जुडी हुई व्याधियाँ न आ जाएं I यह धनञ्जय उप वायु, व्यान प्राण और उसकी ऊर्जाओं को अन्य सभी प्राणों और लघु प्राणों से परोक्षतः रूप में जोड़ता भी है I और इसके पश्चात सनातन गुरु ने दिशा संकेत से इस दशा को दिखाया I

नन्हें विद्यार्थी ने यह देखा और गुरुमुखा की ओर देखकर, अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका स्वीकारात्मक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… यह व्यान प्राण अन्तःकरण चतुष्टय के मन नामक भाग और मनोमय कोष को अपने से जोड़कर, इन दोनों को प्राणमय कोष से भी जोड़ता है I और ऐसा होने के कारण, प्राणों का प्रवाह इन दोनों में हो ही जाता है I

और इसके पश्चात, सनातन गुरु ने मनस गुफा की दिशा में ऊँगली से दिखाया और कहा… इस व्यान प्राण के ऊर्जा प्रवाह को देखकर, इस संबंध जाना जा सकता है I

नन्हें विद्यार्थी ने यह देखा और गुरुमुखा की ओर देखकर, अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका स्वीकारात्मक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… क्यूंकि यह व्यान प्राण शरीर में व्यापक ही है, इसलिए इस प्राण का नाता, न्यून मात्रा में ही सही, लेकिन अन्य सभी प्राणों और उपप्राणों से भी होता है I और शरीर में व्यापक होने के कारण, इस प्राण का न्यून सा ही सही, लेकिन नाता सभी चक्रों से भी होता ही है I इसलिए, इस प्राण की हलके गुलाबी वर्ण की ऊर्जाएं शरीर के सभी स्थानों में पाई जाती हैं I और इन सबके अतिरिक्त, कुछ न्यून मात्रा में, इस प्राण की ऊर्जाएं हृदयाकाश की सभी गुफाओं में भी दिखाई देती हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब नन्हा विद्यार्थी गुरु द्वारा बताई गई दशाओं को जान गया, तब गुरु पुनः बोले… प्राणादि कोषों का कोई भाग ही नहीं है, जिनसे इस प्राण न सीधा या घूमता हुआ नाता नहीं है, जिसके कारण यह व्यान प्राण, प्राणमय कोष के साक्षात्कार का अंतिम प्राण ही होता है I जो साधक इस प्राण को जान लेगा, वह इसी प्राण का आलंबन लेके अन्य सभी प्राणों और लघु प्राणों को जान सकता है I यही कारण है की इस हृदयाकाश गर्भ की प्राण गुफा के साक्षात्कार के समय, हम सर्वप्रथम इसी प्राण के भीतर आए हैं I

सनातन गुरु आगे बोले… इस प्राण का नाता अव्यक्त प्रकृति से भी है, इसलिए इस प्राण की सिद्धि से एक सिद्ध शरीर भी प्राप्त होता है, जो हलके गुलाबी वर्ण का होता है और यही सिद्ध शरीर, अव्यक्त शरीर कहलाता है I अव्यक्त प्रकृति ही अव्यक्त प्राण कहलाती है, और इस स्वरूप में वह माया शक्ति, महामाया आदि भी कहलाई जाती है I आज के बौद्ध पंथ में इसी अव्यक्त प्रकृति को तुसित लोक भी कहा गया है और जहां तुसित नामक शब्द का अर्थ संतुष्टि या तुष्टि भी होता है I

गुरु आगे और भी बोले… साधक के स्थूल शरीर में, यह सिद्ध शरीर तीन स्थानों पर साक्षात्कार होता है, जो स्वाधिष्ठान चक्र, हृदय कैवल्य गुफा और तथागतगर्भ हैं I यहाँ कहा गया तथागतगर्भ नामक शब्द भी अव्यक्त प्रकृति के अनादि बीज स्वरूप का द्योतक है, इसलिए यही अनादि शक्ति को भी दर्शाता है I और इसके अतिरिक्त इसी अनादि अव्यक्त बीज में ही शारदा सरस्वती, जगदगुरु स्वरूप में विराजमान होती हैं और वैदिक पीठों की प्रमुखा विद्या कहलाती हैं I जब तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पार कर जाओगे, तब यहाँ बताए गए समस्त बिन्दुओं का का साक्षात्कार भी करोगे I

गुरु आगे भी बोले… इस हलके गुलाबी शरीर का नाता जगदगुरु माता, शारदा  विद्या सरस्वती से भी है, और यही शारदा विद्या साधक को अपना माया जगत पार करवाती हैं, जब वह साधक इन शारदा विद्या सरस्वती को अपने भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर की ओर साक्षात्कार करता है और ऐसी दशा में जगद्गुरु माँ शारदा का यह स्थान ही तथागतगर्भ कहलाया गया है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

इसके पश्चात गुरु आगे बोले… अब इस व्यान वायु का उत्कर्ष मार्गों में महत्व्य बताता हूँ… जब व्यान वायु का प्रवाह मूलाधार चक्र और सहस्रार चक्र में मध्य में समक्रमिक हो जाता है, तब यही दशा आगे चलकर कुण्डलिनी शक्ति के जागरण और सहस्रार से परे (अर्थात सहस्रार से ऊपर) जो वज्रदण्ड चक्र है, उस तक गमन करने का मार्ग भी प्रशस्त करती है I इस दशा से पूर्व, भ्रूमध्य से एक-दो ऊँगली ऊपर के एक स्थान पर जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती विराजमान हो जाती हैं और इस दशा में वही माँ शारदा विद्या, साधक की चेतना को हाथ पकड़कर उस माया जगत से पार करवाती हैं जो आज्ञा चक्र से लेकर ब्रह्मरंध्र चक्र और उससे ऊपर की दशाओं का भी है I और इस दशा के पश्चात, वह साधक जिसको जगद्गुरु माता शारदा सरस्वती विद्या ने अपना माया जगत पार करवा दिया है, वह महात्मा पद को पाकर, लिंगातीत (अर्थात लिंग भेद से अतीत) ही हो जाता है I

और गुरु बोले, कि ऐसा योगी कहेगा ही, …

मैं पुरुष भी हूँ और प्रकृति भी मैं ही हूँ I

और इन दोनों से अतीत, लिंगातीत ब्रह्म भी मैं ही हूँ I

मैं पुरुष और नारी, दोनों होता हुआ भी, लिंगभेद से अतीत हूँ I

मुझसे ही पुरुष और प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ हैमैं सगुण शिव ही हूँ I

मेरा प्रादुर्भाव निर्गुण निराकार शिव से हुआ था निर्गुण निराकार भी मैं ही हूँ I

मेरी गुरुमाई जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती है शरीरी रूप में मैं उनका शिष्य ही हूँ I

 

गुरु आगे बोले… व्यान प्राण की ऐसी दशा से पूर्व, साधक की अपान वायु का प्राण वायु से योग होता है, और यह योग समान वायु से होकर ही जाता है और अंततः यह योग की दशा का योग, उदान वायु से ही हो जाता I ऐसा होने के पश्चात वह कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार से ऊपर की ओर उठती है और सहस्रार को ही भेद देती है I ऐसी दशा में साधक के शारीर के भीतर ही शक्ति शिव योग सम्पन्न हो जाता है और इस दशा के पश्चात, वह शक्ति जो मूलाधार के समीप से ऊपर को उठती है, वो अपने स्वामी शिव में, जो सहस्रार में ही निवास करते हैं, उनसे अद्वैत योगावस्था को पाती है I उस शिव शक्ति योग को अपने शरीर में ही पाया हुआ साधक, सहस्रार से ऊपर बसे हुए वज्रदण्ड चक्र को भेद पाता है, और अंततः वज्रदण्ड से ऊपर के निरालम्बस्थान पर ही पहुंचकर, निरम्ब ब्रह्म ही हो जाता है I शरीर रूपी पिण्ड के दृष्टिकोण से इससे आगे कोई सिद्धि है ही नहीं, इसलिए समस्त पिण्डों के दृष्टिकोण से, यही अंतिम सिद्धि है I

सनातन गुरु आगे बोले… इस सिद्धि मार्ग पर जब साधक की चेतना जाती है, तब उस साधक के नाभि क्षेत्र में जो नाभि लिंग होता है, वह भी ऊपर की ओर उठता है और निरालम्ब चक्र को पार कर जाता है I और इसके पश्चात ही वह साधक योगतंत्र की गंतव्य समाधि को प्राप्त होता है, जो निर्बीज समाधि कहलाती है I इस समाधि को प्राप्त होने के पश्चात ही वह साधक, पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार मार्ग पर गमन करने का पात्र होता है, इससे पूर्व नहीं I और जहाँ वह पञ्च मुखी सदाशिव को ही गुरु विष्वकर्मा कहा जाता है I ऐसा साधक गुरुतत्त्व के गंतव्य पर ही विराजमान हो जाता है, और इसके पश्चात इस समस्त जीव जगत में वह साधक इस जीव जगत का गुरुतत्त्व ही कहलाता है I उन पञ्च मुखी सदाशिव का साक्षात्कार मार्ग भी सदाशिव प्रदक्षिणा से ही होकर जाता है I सदाशिव साक्षात्कार के पश्चात सगुण ब्रह्म और उनके मार्ग में कोई और साक्षात्कार है ही नहीं I इस सदाशिव प्रदक्षिणा के सिद्धि योगीजन, यदि किसी स्थूलादि काया स्वरूप में लौटेंगे भी, तो उनका लौटना भी महाकाल की प्रेरणा से और महाकाली की शक्ति का आलंबन लेकर ही हो पाएगा I इसलिए ऐसे उत्कृष्ट योगी, काल की प्रेरणा से और कालचक्र की आवश्यकता के अनुसार ही किसी काया स्वरूप में लौट पाता है I

इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… लेकिन तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस गुरुतत्त्व का साक्षात्कार करके भी, इसको प्राप्त नहीं होगे I ऐसा इसलिए है क्यूंकि तुम्हारे परकाया प्रवेश से प्राप्त इस हुए जन्म का यह उद्देश्य ही नहीं है I तुम्हारे इस जन्म का उद्देश्य केवल पूर्ण संन्यास ही है, और जहाँ उस पूर्ण संन्यासी को ही पूर्ण ब्रह्म कहा जाता है I यदि तुम इस पूर्ण संन्यास मार्ग पर नहीं जाओगे, तो तुम तैंतीस कोटि देवता के गंतव्य देवता, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति के उस लोक में ही निवास करने लगोगे, जो ब्रह्मलोक की भी सबसे ऊपर की दशा कहलाती है (अर्थात ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग कहलाता है) I

हृदय में निवास करते हुए सनातन गुरु ठहाके मारकर हंसते हुए आगे बोले… तुम ही वह महेश्वर के योगी हो, जो काल की प्रेरणा से इस कलियुग स्तम्भित होने के समयखण्ड में लौटाया गया है, और जिसके शरीर रूप में लौटने का उद्देश्य भी आगामी गुरुयुग की एक सूक्ष्म लेकिन शक्तिशाली आधारशिला डालने हेतु हुआ है I महेश्वर का योगी वह है, जो इस माया सिद्ध शरीर शरीर सहित कई और सिद्ध शरीरों का धारक होगा, और योगेश्वर (अर्थात कार्य ब्रह्म या उकार) के लोक से लौटाया गया होगा… वह योगी तुम ही हो I लेकिन यह सब तो गुरुदेव हँसते हुए ही बोल रहे थे I

नन्हा विद्यार्थी ने गुरु को हँसते हुए देखा और सोचा कि उसके गुरुदेव उससे आनंद ले रहे हैं, इसलिए उस नन्हें विद्यार्थी ने गुरुदेव की इस बात को ध्यान नहीं दिया… और उनकी यह बात अनसुनी कर दी I

इसके पश्चात सनातन गुरु ने थोड़ा रूककर अपने नन्हें विद्यार्थी की ओर देखे, कि वह ध्यान दे भी रहा है या नहीं, और तब गुरु पुनः बोले… जब अपान वायु मेरुदण्ड के नीचे से ऊपर उठकर हृदय क्षेत्र की प्राण वायु से योग करती है और जब यह योग नाभि क्षेत्र के समान प्राण से भी होता है तब नाभि के एक स्थान में, जहाँ तैंतीस कोटि नाड़ीयों का समूह होता है, इस स्थान पर एक शिवलिंग सा स्वरूप प्रकट होता है I यह नाभि लिंग कहलाता है I और जब साधक समता में ही स्थित हो जाएगा तब यह नाभि लिंग श्वेत वर्ण का हो जाता है I यह लिंग ही शरीर की तैंतीस कोटि नाडियों की योगावस्था का द्योतक है और इसी नाभि लिंग में तैंतीस कोटि नाड़ीयों की ऊर्जा का समतावादी योग होता है, जिसके कारण यह नाभि का शिवलिंग समता को प्राप्त होता है, जो सगुण निर्गुण ब्रह्म की द्योतक है और जिसका वर्ण भी श्वेत ही होता है I इस नाभिलिंग का नाता परा प्रकृति से भी है, अर्थात प्रकृति के नवम कोष से भी होता है I ऐसा नाता होने के कारण, यह नाभि लिंग खुरदरे श्वेत वर्ण का होता है I यह नाभिलिंग मेरुदण्ड की ओर झुका भी होता है इसलिए नाभि के क्षेत्र में बसा हुआ यह शिवलिंग अपने ऊपर के भाग से मेरुदंड की ओर थोड़ा मुड़ा हुआ होता है I

गुरु ने अपने नन्हें विद्यार्थी की ओर पुनः देखा और बोले… यह नाभि लिंग ही उदर के क्षेत्र में पड़ा हुआ अमृत कलश है, और इसका अमृत भी श्वेत वर्ण के सगुण निर्गुण ब्रह्म का ही द्योतक है I जैसे-जैसे इस कलश में अमृत भरता जाता है, वैसे-वैसे इसका वर्ण भी श्वेत होता चला जाता है I और जब इस कलश में अमृत भर जाता है, तब ही यह कलश भी श्वेत वर्ण का पाया जाएगा I

गुरु आगे बोले… जब पञ्च प्राण समतावादी होकर, समान प्राण के भीतर (अर्थात नाभि क्षेत्र में) आपस में योग करते हैं, तब भी यह अमृत कलश रूपी नाभिलिंग श्वेत वर्ण का पाया जाता है I ऐसी दशा में इस नाभि लिंग का नाता परा प्रकृति, अर्थात माँ आदि शक्ति से ही होता है I इसलिए ऐसी दशा में यह नाभि लिंग में ही माँ आदि शक्ति अपने ही स्वामी सगुण निर्गुण शिव के साथ (अर्थात सगुण निर्गुण ब्रह्म के साथ) निवास करती है I

गुरु और भी बोले… ऐसी दशा की प्राप्ति के पश्चात, यह अमृत कलश स्वरूप का नाभि लिंग भी ऊपर की ओर (अर्थात मस्तिष्क की ओर) उठता है, और सहस्रार चक्र (अर्थात मस्तिष्क के ऊपर के सहस्र दल कमल) में पहुंचकर, शिवरंध्र में प्रवेश करके, वज्रदण्ड से जाकर अंततः अष्टम चक्र (या निरालम्ब चक्र) में पहुँच जाता है I जब ऐसा होता है, तब साधक के मेरुदण्ड से श्वेत बर्फपात के स्वरूप का प्रकाश ऊपर की ओर उठने लगता है, और मस्तिष्क से भी ऊपर जो अष्टम चक्र है, उसतक पहुँचने लगता है I यह ऊपर की ओर उठते हुए स्वेत बर्फपात जैसे प्रकाश का गुण दुग्ध के मक्खन के समान ही होता है, जो सगुण निर्गुण ब्रह्म और उनकी दिव्यता आदि शक्ति को दर्शाता है, और इसके कारण साधक को ऐसा लगता है, जैसे उसके शरीर में श्वेत वर्ण का मक्खन सा कोई पदार्थ भर गया है I

इसके पश्चात गुरु बोले… इसी दशा से साधक सम्प्रज्ञात समाधि से जाकर शून्य का साक्षात्कार उसी शून्य की ही समाधि से करके, असंप्रज्ञात समाधि को पता है जो शून्य ब्रह्म की समाधि ही होती है I और इस असम्प्रज्ञात समाधि से साधक निर्बीज समाधि को ही चला जाता है I उसी सम्प्रज्ञात समाधि से निर्बीज समाधि के मार्ग पर जाता हुआ साधक निर्गुण ब्रह्म का भी साक्षात्कार करता है, जो इन समाधियों के भीतर और इन समाधियों के मूल और गंतव्य, तीनों में ही अपने निरंग अनंत सरीके स्वरूप में ही होते हैं I यह निरंग अनंत (अर्थात निर्गुण ब्रह्म) उस असंप्रज्ञात समाधि और निर्बीज समाधि, दोनों के भीतर भी साक्षात्कार होता है और इसी स्वरूप ने इन दोनों की रात्रि के समान दशाओं को घेरा हुआ भी होता है I और उस निर्बीज समाधि से ही साधक, संस्कार रहित चित्त को पाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा साधक ही ब्रह्म रचना के समस्त भागों के साक्षात्कार का पात्र होता है और जहाँ इन भागों में संस्कारिक जगत सहित, दैविक जगत (या कारण जगत), सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत भी होता है I ऐसा साधक संपूर्ण जीव जगत का (अर्थात ब्रह्माण्ड के संपूर्ण भागों का) साक्षात्कार करके, संपूर्ण जीव जगत का सगुण साकार स्वरूप ही हो जाता है, और जहां वह जीव जगत भी उसके अपने प्राथमिक स्वरूप में उस साधक की काया के भीतर ही प्रकाशित होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जीव जगत या ब्रह्माण्ड का यह प्राथमिक स्वरूप भी वही है जो ब्रह्म रचना में ब्रह्म की इच्छा शक्ति से सर्वप्रथम स्वयंप्रकट हुआ था और जो प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड कहलाया था I इसी प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से ही ब्रह्माण्ड के अन्य सभी भाग, जो दैविक या कारण, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड हैं, वह प्रकट हुए थे I और ऐसा साधक इसी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से योग करके, इसका सिद्ध कहलाता है I  यह प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड ही महाब्रह्माण्ड कहलाया था I महाब्रह्माण्ड के देवत्व भारत नामक ब्रह्म हैं, और इस महाब्रह्माण्ड की दिव्यता को ही भारती सरस्वती कहा गया है I इस योगदशा में ही साधक की काया के भीतर, ब्रह्म की इच्छा शक्ति से स्वयंप्रकट हुए उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड का उदय होता है, जो महा ब्रह्माण्ड कहलाया गया है इसलिए ऐसा साधक अपने काया रूप में होता हुआ भी महाब्रह्माण्ड का धारक हो जाता है और जिसके कारण वह अपने काया रूप में होता हुआ भी अपनी वास्तविकता में महाब्रह्माण्ड ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस महाब्रह्माण्ड योग में महाब्रह्माण्ड के समस्त ब्रह्माण्डों से एक साथ ही योग होता है, और यही योग महाकारण योग का पथ भी होता है I जो महाकारण कहलाया गया है, उनको ही सद्योजात ब्रह्म कहा गया था और जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का विद्रुमा मुख कहलाया गया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन महाकारण के साक्षात्कार से और उसकी सिद्धि को पाकर, अधिकांश साधकगणों का देहावसान ही हो जाता है I और यदि ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, साधक का देहावसान नहीं हुआ, तो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से वह साधक…

पिण्ड रूप में निवास करता हुआ हुआ भी, पिण्डातीत ही माना जाएगा I

ब्रह्माण्ड के भीतर निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्डातीत ही माना जाएगा I

जीव जगत रूप में होता हुआ भी, जीवतीत और जागतातीत ही माना जाएगा I

ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से वह साधक विश्वरूप ब्रह्म ही माना जाएगा I

गुरु आगे बोले… ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से, …

यही पिण्ड ब्रह्माण्ड सिद्धि है, जो विरले योगीजन ही पाते हैं I

यदि ऐसा साधक मुक्ति न चाहे, तो वह ब्रह्म अवधूत होकर रहेगा I

वह ब्रह्मावधूत मुक्तात्मा होता हुआ भी, उस मुक्ति से विमुख ही रहता है I

गुरु आगे बोले… और यदि वह साधक ऐसा ब्रह्मावधूत भी नहीं हुआ, तो …

वह पञ्चब्रह्म गायत्री सिद्धांत में ही विलीन होने को बाध्य हो जाएगा I

यह सिद्धांत ही अंतिम सिद्धि है, जिसका नाता पञ्चब्रह्म और ॐ से भी है I

इस सिद्धांत का नाता राम शब्द, निरालंबस्थान और पञ्चमुखा सदाशिव से भी है I

गुरु और भी आगे बोले… पञ्चब्रह्म गायत्री सिद्धांत में विलीन हुआ साधक, …

न तो मुक्त होता है और न ही बंधन में ही होता है I

और ऐसा साधक, बाँधनातीत होता हुआ भी, मुक्त नहीं होता है I

ऐसा साधक मुक्तितीत होता हुआ भी, समस्त बंधनों से अतीत होता है I

 

गुरु और भी आगे बोले… ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं, दोनों के समान दृष्टिकोण से, ऐसा साधक, …

होता हुआ भी नहीं होता है I

और नहीं होता हुआ भी, सदैव ही रहता है I

इन दोनों वाक्यों में, वह समान रूप में ही बसा होता है I

वह साधक चाहे काया में रहे या निरकाया ही हो जाएवह ऐसा ही रहेगा I

नन्हें विद्यार्थी को समझ में आ गया, इसलिए उसने गुरु मुख की ओर देखकर, अपना सर आगे पीछे हिलाकर, इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

इसके पश्चात गुरु अपने नन्हे शिष्य की ओर उंगली दिखाकर आगे बोले… हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाकर, तुम इसी मार्ग पर चल पड़े हो I इसलिए जब तुम इस हृदयाकाश गर्भ को पार कर जाओगे, तब तुम भी “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य के सार में बसकर, इन सभी सिद्धियों को पाओगे, जिनको मैंने (अर्थात सनातन गुरुदेव ने) यहाँ पर बताया है I

अपने नन्हे शिष्य की ओर देखते हुए गुरु मुस्कुराते हुए आगे बोले… ऐसे योगी के साथ ब्रह्माण्ड और उसके समस्त देवता और उनकी दिव्यताएं, सिद्धियाँ ऋद्धियाँ और उनके समस्त सिद्ध और सिद्ध दशाएं, मुक्तिमार्ग और उनकी समस्त ऋषि सत्ताएँ, समस्त रचना और रचना का तंत्र सहित उस तंत्र के समस्त देव और देवियाँ, और पञ्च देव और उनकी दिव्यताएं और उनके पञ्च कृत्य सहित, सर्वस्व ही खड़ा हो जाता है I ऐसे योगी के भीतर ही योगेश्वर निवास करने लगते हैं और वह भी उन योगेश्वर के महेश्वर, अर्थात कार्य ब्रह्म स्वरूप में I ऐसा योगी ही उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म के योगेश्वर स्वरूप का सगुण साकार ब्रह्मरूप कहलाता है I

गुरु और भी बोले… ऐसे योगी के पिण्ड के भीतर, उसके आत्मस्वरूप में ही महाब्रह्माण्ड और उसके समस्त दैविकादि दशाएं और उनकी समस्त दिव्यताएं जिनमें पञ्च देव और उनसे संबद्ध समस्त बिंदु, पञ्च विद्या, दस महाविद्या, नव दुर्गाएं, योगिनिगण भैरविगण मात्रिकगण और उनके समस्त भैरव, यक्ष और यक्षिणिगण, प्रशस्त सनातन मान बिंदुओं के देवता और उनकी दिव्यताओं को धारण करी हुई देवगण, गंतव्य को प्राप्त हुए सिद्धगण और ऋषिगण आदि भी निवास करने लगते हैं I

गुरु मुस्कुराते हुए आगे बोले… ऐसा होने के कारण, ऐसा योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं और इस महाब्रह्माण्ड के समस्त उत्कृष्ट स्वरूपों का लुटेरा सा ही होता है, और जब ऐसा योगी अपने उस जन्म के अंत में अपने देहावसान को पाएगा, तब वह इन सबको अपने साथ ही लेकर चला जाएगा I और यदि उसने ऐसा नहीं किया, तो वह इन सबको उनके अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में ही विलीन कर देगा, जिससे यह महाब्रह्माण्ड उन सब दिव्यताओं आदि के पूर्व स्वरूपों से रिक्त हो जाएगा I और ऐसा होने के कारण, उस योगी के देहावसान के पश्चात, वह सभी दिव्यता आदि बिंदु इस महाब्रह्माण्ड में अपने पूर्ण स्वरूपों में दिखाई भी नहीं देंगे,  जिसके कारण उनके पूर्व के सिद्धि आदि मार्ग भी कार्य नहीं करेंगे I

गुरु और आगे भी बोले… ऐसा योगी भी उन रचनातीत ब्रह्म सहित, उन ब्रह्म की समस्त रचना और रचना के तंत्र का सगुण सकारी द्योतक भी होता है I ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में ऐसा योगी उन पूर्णब्रह्म का लिंगात्मक स्वरूप ही माना जाता है, और ऐसे योगी ही महाकारण कहलाता है और उस महाकारण नामक सद्योजात ब्रह्म से परे जो ईशान ब्रह्म (अर्थात निर्गुण निराकार ब्रह्म) हैं, उसमें भी वही योगी निवास करता है I इसलिए ऐसा योगी निर्गुण निराकार ब्रह्म सहित, उन ब्रह्म का सगुण निराकार, सगुण साकार, सगुण निर्गुण निराकार और सगुण निर्गुण साकार स्वरूपों के अतिरिक्त, उन्ही ब्रह्म के सर्वसम, शून्य और शून्य ब्रह्म स्वरूपों में भी समान रूप में बसा हुआ होता है I ऐसा योगी भगवान् और प्रकृति, अर्थात ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की सनातन योगावस्था में बैठा और बैठि, दोनों ही होती है, जिसके कारण ऐसा योगी ब्रह्म भी है, और ब्रह्मशक्ति भी वही योगी ही होगा I

इसके पश्चात हृदय गुफा के भीतर बैठे हुए सनातन गुरुदेव ने ठहाके मारकर हँसते हुए, अपने नन्हे से शिष्य की ओर अपनी ही उंगली दिखाकर कहा… तत् त्वम् असि I

क्यूंकि गुरुदेव ठहाके मारकर हँसते हुए यह अंतिम वाक्य बोले थे, इसलिए नन्हें विद्यार्थी ने गुरु के इस अंतिम वाक्य को अनसुना कर दिया, क्यूंकि उस नन्हे विद्यार्थी ने सोचा, कि गुरु उससे आनंद ले रहे हैं I

इसपर गुरु आगे बोले… इस महाब्रह्माण्ड के समस्त अनादि और अनंत इतिहास में, कोई भी उत्कृष्ट योगी हुआ ही नहीं, जो ब्रह्म को प्राप्त होकर, ब्रह्म ही होकर, ब्रह्मशक्ति होता हुआ भी स्वयं को ऐसा, स्वयं ही माना है I इसलिए जो योगी यहाँ बताए गए समस्त बिन्दुओं को पाया होता है, वह स्वयं को कभी भी वह नहीं मानेगा जो मैंने तुम्हें बताया था, और जिसको तुमने अनसुना कर दिया है I इसके पश्चात गुरु पुनः अपनी ऊँगली शिष्य की ओर दिखाकर ठाकाके मार कर हँसे और पुनः बोले… तत् त्वम् असि I

शिष्य को अपने गुरुदेव के द्वारा बोले हुआ यह अंतिम वाक्य पुनः अनसुना कर दिया, क्यूंकि उस नन्हे शिष्य को पुनः लगा, कि उसके गुरुदेव उससे आनंद ले रहे हैं I ऐसा उस शिष्य ने इसलिए किया, क्यूंकि उसने सोचा, कि एक नन्हा सा शिष्य जो अनभिज्ञों में भी अनभिज्ञ है, उसकी क्या औकात? I

 

गुरु आगे बोले…  अपने वास्तविक स्वरूप में, अर्थात आत्मस्वरूप में ऐसा योगी, …

त्रिगुणों में प्रतीत होता हुआ भी, गुणातीत है I

पञ्च महाभूतों में प्रतीत होता हुआ भी, भूततीत है I

त्रिकाल रूपी ब्रह्मगर्भ में बसा हुआ भी, कालातीत है I

पञ्च तन्मात्रों में प्रतीत होता हुआ भी, तन्मात्रातीत है I

पिण्डात्मक स्वरूप में प्रतीत होता हुआ भी, पिण्डातीत है I

महाब्रह्माण्ड में बसा होता हुआ भी, महाब्रह्माण्ड से अतीत है I

पिण्ड में पञ्चकृत्यों को धारण किया हुआ भी, वह कृत्यातीत है I

अपने निष्काम कर्मों से लिप्त प्रतीत होता हुआ भी, वह कर्मातीत है I

अपने कर्म फलों को भोगता हुआ प्रतीत होता हुआ भी, वह फलातीत है I

समस्त देवी देवता उसके अपने पिण्ड में बसे होने पर भी, वह देवातीत है I

कर्मफलों के संस्कारों में निवास करता प्रतीत होता हुआ भी, संस्कारातीत है I

शब्दात्मक जीव जगत में बसा हुआ भी, जीवातीत जागतातीत और शब्दातीत है I

ब्रह्मरचना में पूर्ण और समान रूप में बसा हुआ भी, आत्मरूप में वह रचनातीत है I

आगे बढ़ता हूँ …

इसके पश्चात गुरु बोले… व्यान प्राण का निवास स्थान स्वाधिष्ठान चक्र है I और इसी चक्र से यह प्राण शरीर में व्यापक होकर, शरीर के बाहर तक साक्षात्कार होता है I व्यान प्राण की शरीर से बाहर की ओर की गति के कारण ही आभामण्डल का निर्माण होता है I

गुरु आगे बोले… जब सत् कर्मादि का आलंबन लेके साधक के संस्कार सूक्ष्म होते हैं, तब साधक की काया में ही ओजस नामक शक्ति का निर्माण होने लगता है I जितने कर्म सत्त्वगुणी होंगे, उतने ही संस्कार सूक्ष्म भी होंगे और उतनी ही अधिक मात्रा में ओजस शक्ति का धारक वह साधक हो जाएगा I ऐसे समय पर साधक के मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर, लिंग तक एक अति सूक्ष्म पीले वर्ण का प्रकाश दिखाई देगा I और इसके साथ साथ साधक के नाभि क्षेत्र में एक सूक्ष्म श्वेत वर्ण का प्रकाश भी दिखाई देने लगेगा I इन दोनों प्रकाश का नाता भी साधक के चित्त में बसे हुए सत् कर्मों के फलों से उत्पन्न हुए सूक्ष्म संस्कारों से ही है I और ऐसा ही प्रकाश इस हृदयाकाश गर्भ को पार किये हुए साधक में भी स्वयंप्रकट हो जाता है I ऐसा होने के पश्चात ही वह अमृत कलश निरालम्ब चक्र (या निरालंबस्थान या अष्टम चक्र) की ओर, ऊपर उठता है, और वह सब होता है, जो इसी अध्याय में, पूर्व में बताया गया था I और यह योगमार्ग साधक के चित्त की संस्कार रहित दशा प्राप्ति का मार्ग भी है जिसके प्रमाण स्वरूप साधक के भ्रूमध्य के थोड़ा ऊपर के भाग में, बोधिचित्त भी प्रतिष्ठित हो जाता है, जो महायान नामक तंत्र (अर्थात देवयान नामक तंत्र) की गंतव्य सिद्धि है I इस सिद्धि का भी मूल मार्ग यहाँ बताया जा रहा हृदयाकाश गर्भ तंत्र है, और जो वास्तव में साधक की काया के भीतर चलित हुआ आंतरिक यज्ञमार्ग ही है I

नन्हे शिष्य को यह समझ में आ गया और उसने अपने हृदय में ही बैठे हुए गुरुदेव इसका संकेत पुष्टिकारक भी दे दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

गुरु अपने नन्हे शिष्य को बोले… चलो अब इस व्यान प्राण का अध्ययन करेंगे I जैसे-जैसे और जहां-जहां भी तुम (अर्थात नन्हा शिष्य) इस व्यान प्राण को देखते जाओ, वैसे-वैसे इसका वर्णन भी करते जाओ I

गुरु आदेश होने पर नन्हा विद्यार्थी वह अध्ययन करने लगा और अध्ययन करते करते बोलने भी लगा… यह वायु सभी सप्त चक्रों को जोड़कर बैठी हुई है, प्रधानतः इस वायु का नाता स्वाधिष्ठान चक्र से है, लेकिन स्वाधिष्ठान चक्र में बसी इस वायु के प्रवाह का नाता मूलाधार चक्र से भी है I यह सहस्र दल कमल में है और हृदय कमल में भी बसी हुई है, लेकिन अन्य सभी चक्रों में यह वायु अधिक मात्रा में दिखाई नहीं दे रही है I इसी व्यान वायु ने त्रिनाड़ी को भी घेरा हुआ है और ऐसा होने पर भी इस वायु की मात्रा सुषुम्ना नाड़ी के पास अधिक है I ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि शरीर में रक्त आदि द्रव्यों के प्रवाह में भी यही वायु है I यह वायु मस्तिष्क और मेरुदंड की नाड़ियों में भी दिखाई दे रही है I दोनों नेत्र और कर्ण की नाड़ियों पर भी इस वायु का प्रभाव दिखाई देता है I शरीर के भीतर इस वायु का प्रवाह मुख्यतः शरीर से बाहर की ओर है, लेकिन ऐसा होने पर भी शरीर के कुछ स्थानों पर इस वायु में विपरीत प्रवाह दिखाई दे रहा है I और जहाँ-जहाँ यह विपरीत प्रवाह है उन सभी स्थानों पर ऊर्जा की न्यूनता ही है, इसलिए ऐसा भी प्रतीत होता है, जैसे यह वायु शरीर के कुछ स्थानों पर विपरीत प्रवाह (अर्थात शरीर भीतर की ओर जाने वाला प्रवाह) में इसलिए गति करती है ताकि शरीर में कहीं भी ऊर्जाओं की न्यूनता नहीं रहे, और यही कारण है कि ऐसा प्रतीत भी होता है जैसे यह वायु शरीर में प्राण ऊर्जाओं की परिपूर्णता बनाए रखने में भी सहायक है I

और अंत में नन्हे शिष्य ने कहा…  ऐसा भी प्रतीत हो रहा है जैसे इस व्यान प्राण ने अन्य सभी प्राणों और उपप्राणों को घेरा भी हुआ है I और यह सब कहकर उस शिष्य ने अपने गुरुदेव के मुख की ओर देखा I

इस पर गुरु बोले… अब यह देखो कि इस स्थूल शरीर के भीतर इस व्यान वायु की गति कैसी है I

गुरु के आदेशानुसार नन्हे शिष्य ने देखा और कहा… यह वायु शरीर से बाहर की ओर ही गति करती है, और यही वायु शरीर को घेरे हुए आभामण्डल का कारण और कारक भी है I यही वायु त्वचा की नाड़ियों में भी है, इसलिए ऐसा प्रतीत हो रहा है कि स्पर्श नामक तन्मात्र के मूल कारण स्वरूप में यही वायु है I सभी लघु वायु में भी यही वायु है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह व्यान वायु ही सभी प्राणों को एक दूसरे से पृथक करके रखने में भी सहायक है I और इसके साथ-साथ, शरीर में इसी वायु के व्यापक स्वरूप से सभी प्राणों की ऊर्जाएं एक दुसरे से कुछ न्यून मात्रा में ही सही, लेकिन जुडी हुए भी रहती हैं I और ऐसा होने पर भी, यह वायु अपनों को भी सभी प्राणों और उपप्राणों से पृथक करके ही रखी हुई है I सभी प्राणों की अधिक ऊर्जाओं को यह वायु अपने भीतर लेकर शरीर से बाहर निकाल रही है, और यही शरीर के आभामण्डल के निर्मित होने का कारण भी है I

और ऐसा बोलने के पश्चात, नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरु के मुख की ओर देखा I

तब गुरु बोले… व्यान वायु को जो अन्य सभी वायु से पृथक रखकर रखता है, वह इसी व्यान वायु का उपप्राण है, जो उत्कृष्ट योगीजनों द्वारा धनञ्जय लघुवायु कहलाया गया है I और क्यूँकि पञ्चवायु और पञ्च उपवायु में से यह व्यान वायु सबसे सूक्ष्म ही है, इसलिए यह उन सभी वायु के भीतर और बाहर, दोनों स्थानों पर पाई जाएगी I यही कारण है की जब इस वायु का अध्ययन करा जाएगा तब यह वायु शरीर के समस्त भागों में पाई भी जाएगी I पर क्यूंकि यह वायु शरीर से बाहर की ओर ही गति करती है, इसलिए यह वायु ही शरीर में प्राण ऊर्जाओं की अधिकता की नियंत्रक है I शरीर में जो भी ऊर्जाओं की अधिकता होती है, यह वायु उनको शरीर से बाहर की ओर लेकर जाती है I और शरीर के जिस भी भाग में उर्जाओं की न्यूनता होती है, यह वायु उन स्थानों में गति करके उस न्यूनता की पूर्ति भी करती है और ऐसे गति के कारण ही शरीर के कुछ स्थानों इस वायु की विपरीत गति (अर्थात भीतर की ओर की गति) पाई जाती है I

इसका पश्चात सनातन गुरु बोले… अब पुनः देखो और जो-जो तुम देखते हो और जैसे-जैसे देखते जाओ, वैसे-वैसे ही उसको बताओ I

इसपर नन्हा विद्यार्थी ने पुछा… यदि यह वायु सबसे सूक्ष्म है, तो यह अन्य वायु को एक दुसरे से पृथक कैसे रखती है I जो सूक्ष्म होता है, वह अन्य सभी को भेदकर उनके भीतर ही उनसे पृथक रूप में बैठा होगा I किन्हीं दो भागों को एक दुसरे से पृथक रखने के लिए तो सूक्ष्म तत्त्व को उनके भागों के समान ही सकल (या स्थूल या कल या भारी) होना होगा, नहीं तो वह सूक्ष्म उन भागों या वस्तुओं को एक दुसरे से पृथक कैसे रखेगा I इसलिए मुझे यह समझ नहीं आया, कृपया इसपर प्रकाश डालिए I

इसपर गुरु बोले… यह वायु अन्य सभी वायु को एक दुसरे पृथक रखती है, क्यूंकि वह उनके विस्तार की अधिकता, अर्थात उनकी अधिक ऊर्जा को और उनके अधिक प्रवाह को उनसे लेकर ही उस अधिकता को नियंत्रित करती है I जब अन्य सभी वायु में उर्जाओं की अधिकता ही नहीं होगी, तो वह अपने निर्धारित विस्तार से आगे भी नहीं बढ़ पाएंगी और अन्य वायु से मिलन भी नहीं कर पाएंगी, क्यूंकि किसी भी वाहु और अन्य सभी वायु के मध्य में उस वायु की लघुवायु बैठी होती है I इसलिए यदि कोई वायु का विस्तार उसकी अपनी लघुवायु जिसने उस वायु को घेरा होता है, उस लघुवायु तक ही न पहुँच पाए, तो उस वायु का योग अन्य सभी वायु से भी नहीं हो पाएगा I और जब यह योग ही नहीं होगा, तो वह वायु भी दूसरी वायु से पृथक ही रह जाएगी I इसलिए यह व्यान वायु अन्य सभी वायु से अधिक प्रवाह बाहर निकालती है, ताकि वह वायु अपने निर्धारित क्षेत्र से बड़ी न हो जाए, और ऐसा होने से ही वह वायु दूसरी सभी वायु से पृथक रूप में ही रह जाती है I

और गुरु आगे यह भी बोले… और इसके अतिरिक्त जहाँ-जहाँ किसी अन्य वायु में उर्जाओं या प्रवाह की न्यूनता होती है, वहाँ-वहाँ यह व्यान वायु स्वयं ही बस जाती है जिससे उस स्थान पर जो पूर्व में उर्जाओं की न्यूनता थी, वह भी समाप्त हो जाती है I क्यूंकि यह व्यान वायु जो शरीर में व्यापक ही होती है, वह उस ऊर्जा की न्यूनता के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा स्थापित कर देती है, तो इससे अन्य कोई वायु उस ऊर्जा की न्यूनता के स्थान पर आ भी नहीं पाती I इससे भी यह व्यान वायु अन्य सभी वायु को एक दुसरे से पृथक रखती है I

नन्हे विद्यार्थी ने यह सब स्वयं भी देखा था, इसलिए अपने सर हिलाकर गुरु को संकेत दिया, कि मुझे समझ में आ गया है I

गुरु आगे बोले… यदि यह व्यान प्राण न होता, तो सभी वायु एक दुसरे से मिलन करके, शरीर के भीतर ही प्राणों का उपद्रव मचा देती I योनि जन्म के समय, यह व्यान वायु का योग अपान वायु से होता है और ऐसे योग के पश्चात, यह व्यान वायु अन्य सभी वायु की ऊर्जाओं का कुछ भाग अपान वायु में डालती है, जिसके कारण अपान वायु जो शरीर के नीचे की और बहती है, वह प्रचण्ड होती है और गर्भ से बच्चे को बाहर निकाल देती है I इसी योग से जन्म होता है, और वह भी तब जब व्यान वायु अपना बहुत बड़ा भाग अपान वायु में छोड़ देती है, जिससे अपान वायु का नीचे की ओर बहने वाले प्रवाह प्रचण्ड हो जाता है I और जब ऐसा हो जाता है, तब इस प्रचण्ड प्रवाह के कारण, गर्भ में बैठा हुआ बच्चा गर्भ से ही बाहर निकल जाता है I लेकिन जन्म से पूर्व, ऐसा होने के लिए माता और उसके गर्भ में बसे हुए बालक की व्यान वायु पृथक होती हैं, क्यूंकि यदि ऐसा नहीं होगा, तो बालक का जन्म ही नहीं हो पाएगा (अर्थात बालक गर्भ से बहार ही नहीं निकल पाएगा) और ऐसी दशा में जन्म प्रक्रिया के समय, वह बालक गर्भ में ही पिस-पिस कर मृत्यूलाभ करेगा I और क्यूँकि माता की यह व्यान वायु, उसके गर्भ में पड़े हुए बालक की व्यान वायु से ही पृथक होती है, इसलिए बच्चे के जन्म से समय, अधिकांशतः बच्चे का सर ही पहले बाहर निकलता है I और जैसे ही बच्चा का योनि जन्म होता है, वैसे ही बच्चे के शरीर में बसी हुई यह व्यान वायु, ऊर्जाओं के बहुत बड़े-बड़े झटके अन्य सभी वायु को देती है, जिसके कारण अन्य सभी वायु जो अबतक लगभग सुसुप्ति के समान अवस्था में ही थी, वह सब अपने अपने कर्म करने लगती है I उन प्राण ऊर्जाओं के झटकों के पश्चात ही बच्चा रोता है… इससे पूर्व नहीं I

ऐसा बोलकर, सनातन गुरु ने एक दिशा की ओर ऊँगली दिखाई और बोले… उस स्थान पर शरीर के बाहर की ओर जाते हुए व्यान प्राण के प्रवाह को देखकर बताओ, क्या पता चल रहा है I

नन्हें विद्यार्थी ने देखा और गुरु को कहा… लेकिन उस स्थान पर तो व्यान वायु में अन्य किसी भी वायु का कुछ भी परवाह नहीं है I

सनातन गुरु बोले… हाँ, यह व्यान वायु का किसी और वायु से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है, और इस वायु का नाता केवल इसके धनञ्जय लघुवायु से ही है, और इसके धनञ्जय लघुवायु का नाता अन्य सभी वायु की लघुवायु से होता है I इसलिए जबकि यह व्यान वायु शरीर के सभी स्थानों पर पाई जाती है और ऐसा होने के कारण इसका नाता सभी वायु से प्रतीत होता है, लेकिन तब भी इस वायु का नाता अन्य सभी वायु से सीधा-सीधा नहीं होता, बल्कि इस व्यान की उपवायु (अर्थात धनञ्जय लघुवायु) से होता है और जहाँ यह धनञ्जय उपवायु ही इस व्यान प्राण को अन्य सभी उपवायु से जोड़ती है, और यह सभी उपवायु अपनी अपनी प्राण वायु से जुडी होती हैं I इसलिए अन्य सभी प्राणों से व्यान प्राण का नाता सीधा नहीं है I इसका अर्थ हुआ की धनञ्जय ही व्यान वायु को अन्य सभी प्राणों की उपवायु से जोड़ता है, और यह सभी उपवायु ही अपने अपने प्राणों से जुडी होती हैं, जिसके कारण व्यान प्राण का नाता किसी और प्राण वायु या किसी और प्राण की उपवायु से सीधा सीधा नहीं है I

सनातन गुरु आगे बोले… जो अधिक ऊर्जाओं का प्रवाह अन्य सभी वायु, व्यान वायु में त्यागती हैं, वह प्रवाह उन सभी वायु की उपवायु से धनञ्जत उपवायु में आकर ही व्यान प्राण में पहुँच पाता है I और क्यूंकि यह व्यान प्राण शरीर से बाहर की ओर जाती है, इसलिए यह व्यान प्राण उस अधिक प्रवाह को शरीर से बाहर भी निकाल देती है, जिससे शरीर में प्राण से संबंधित व्याधियां नहीं आती और शरीर स्वस्थ रह पाता है I यदि ऐसा नहीं होता, तो शरीर में उर्जाओं की अधिकता से संबंधित व्याधियां आ जाती I

नन्हा विद्तयार्थी बोला… लेकिन शास्त्र तो ऐसा नहीं बताते I

इसपर सनातन गुरु बोले… यह उनको बोले जिन्होंने वह शास्त्र कहे या लिखे हैं, हमें उन बिंदुओं से क्या वास्ता जब हमें वह सब दिखाई ही दे रहा है, जो अभी बताया गया है I

सनातन गुरु आगे बोले… अब इस व्यान वायु का नाता इच्छा गुफा (अर्थात तृष्णा गुसा) से बताओ, और इसके पश्चात सनातन गुरु ने इच्छा गुफा को अपनी ऊँगली से दिखाया I

नन्हें विद्यार्थी ने उस दिखाइ हुई दिशा में देखा और कहा… जिस स्थान पर इच्छाओं की ऊर्जाएं इस गुफा में प्रवेश करती हैं, उस स्थान पर छोटे-छोटे ऊर्जा विस्फोट हो रहे हैं और इन्ही विस्फोटों से यह वायु विपरीत दिशा में जा रही है, अर्थात उन स्थानों पर यह वायु शरीर से बाहर नहीं बल्कि शरीर के भीतर की ओर गति कर रही है I और इस विपरीत दिशा में ऐसा लग भी रहा है, कि यह व्यान वायु अन्य चरों प्राण वायु से योग कर रही है I

सनातन गुरु बोले…धान से देखो कि क्या व्यान वायु ही अन्य सभी प्राणों से सीधा सीधा जुड़ रही है, या व्यान वायु का धनञ्जय उपप्राण यह कार्य कर रहा है I और इसके पश्चात गुरु ने अपनी ऊँगली से कई स्थानों को दिखाया और कहा… वहां, वहां और वहां I

नन्हा विद्यार्थी बोला… और इन स्थानों पर यह व्यान वायु की उपवायु (अर्थात धनञ्जय) अन्य सभी उपवायु से योग कर रही है, जिसके कारण ऐसा लगता है जैसे यह व्यान वायु ही अन्य सभी प्राणों से जुड़ रही है, लेकिन ऐसा है नहीं क्यूंकि धनञ्जय उपवायु ही व्यान वायु की वो विस्फोटक ऊर्जा अन्य सभी प्राणों में लेकर जाता है, और वो भी उन चार प्राणों के उपवायु से जुड़कर, न कि सीधे सीधे I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरु बोले… अब ध्यान देना… शरीर के भीतर व्यान प्राण पर कोई अंकुश नहीं होता I यदि ऐसा नहीं होता तो यह व्यान और उसका उपप्राण (धनञ्जय) वह कार्य ही नहीं कर पाते जिनको यह करते हैं, जैसे  रक्त परिसंचरण, श्वास, तंत्रिका तंत्र, लसीका तंत्र, अवचेतन क्रियाएं, छठी इंद्रिय जैसा कि इसे कहा जाता है, संवेदी अंग और अन्य क्रियाएं जो अनेच्छिक हैं, इत्यादि I

इसके पश्चात गुरु आगे बोले… और चूंकि यह प्राणवायु और इसका उपप्राण हर जगह मौजूद हैं, इसलिए यह जोड़ी शरीर के सभी अंगों और अंगों में एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन भी स्थापित करती है। चूंकि यह प्राण और उपप्राण, प्राणवायु कोष (प्राणमय कोश) में सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए यह अधिक ऊर्जाओं के निष्कासन का स्थान और कारण भी बनता है। इसी प्राण में ऊर्जा प्रवाहों की अधिकता और अधोगति का संतुलन होता रहता है क्योंकि इन दोनों (अर्थात व्यान और धनञ्जय) के प्रवाह और गतिशीलता शरीर में हर जगह चलती रहती है I यदि किसी भी प्राणवायु में जीवन शक्ति (प्रवाह और गतिशीलता) की अधिकता उत्पन्न होती है, तब यह धनञ्जय उपप्राण जो सर्वत्र विद्यमान रहता है, उस आधिक्य को उस प्राणवायु की उपप्राण वायु से अवशोषित कर लेता है, और ऐसा करके उस प्राणवायु से (अर्थात् जिसमें वह आधिक्य हो) इन आधिक्यों के प्रवाह को व्यानवायु में प्रवेश करवाके, उन आधिक्यों को शरीर से बाहर की ओर फेंक दिया जाता है, क्यूंकि इस व्यान प्राण की सामान्य गति शरीर से बाहर की ओर ही होती है I

गुरु आगे बोले… और इस बाहरी गति के दौरान, जब और जब ये प्रवाह ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहां प्रवाहों का दबाव (या न्यूनता) होती है, तो ये अतिरिक्त प्रवाह भी उन्हीं क्षेत्रों में अवशोषित हो जाते हैं I और फिर अंत में जो भी अतिरिक्त ऊर्जाएं इस व्यान वायु में शेष रह जाती हैं, उनको बाहर की ओर गतिशील इस प्राणवायु द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है I जिस अतिरिक्त को शरीर से बाहर निकाला गया है, वही शरीर के आभामण्डल का कारण बनता है I जब व्यान द्वारा उसका अतिरिक्त प्रवाह उन स्थानों पर त्यागा जाता है, जहां ऊर्जाओं की न्यूनता होती है तो इसी दशा को इस व्यान प्राण में विपरीत प्रवाह (अर्थात आंतरिक प्रवाह) के रूप में देखा जाएगा I

गुरु आगे बोले… लेकिन अंततः यह उल्टा प्रवाह ही शरीर की ऊर्जाओं में संतुलन और सामंजस्य की स्थिति बनाए रखने का कारण है I इस प्रकार, वे सभी छोटे-मोटे कार्य जो शरीर की आंतरिक सामंजस्यपूर्ण स्थिति के लिए आवश्यक हैं, व्यान प्राण और धनंजय उपप्राण की इस जोड़ी द्वारा किए जाते हैं। शरीर के अधिकांश अनेच्छिक कार्यों का समुचित संचालन या तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी व्यान प्राण द्वारा होता है I यह भी वह कारण बनता है जिससे इस व्यान वायु में विपरीत प्रवाह आता है I

गुरु बोले… उन सभी अनेच्छिक आदि कार्यों के समय, जो शरीर के संतुलन और सामंजस्य को बनाए रखने से संबंधित हैं, ये विपरीत प्रवाह (अर्थात सामान्य बाहरी प्रवाह के विपरीत) व्यान प्राण में देखे जाएंगे I ऐसे समय पर भी इस व्यान वायु में छोटे छोटे विस्फोट देखे जाएंगे I

गुरु बोले… लेकिन कुछ ऐसे समय भी होते हैं, जब ये व्यान प्राण अन्य सभी प्राणों से सीधा सीधा जुड़ जाता है I लेकिन ऐसा तब ही होता है, जब इस व्यान प्राण में अकास्मात ऊर्जा प्रविष्ट हो जाती है… अन्य किसी भी समय पर ऐसा नहीं होगा I ऊर्जाओं का ये अस्मात प्रवेश भी तब होता है, जब इच्छा शक्ति बहुत अधिक हो जाती है, जैसे जब जीवन संकट आ जाए या जीवन रक्षा हेतु कुछ ऐसा करना पड़े जिसके बिना देहवासन ही ही जाएगा या उस कार्य के बिना शरीर ही संकट में पड़ जाए। ऐसे समय पर इस व्यान वायु में विस्फोट होने लगते हैं I

सनातन गुरु आगे बोले… ये वायु मनोमय कोष की स्थिरता का कारण भी है और इसी वायु का प्रभाव विज्ञानमय और आनंदमय कोष पर भी पड़ता है। इसलिए जब ये विस्पोट होते हैं, तब शरीर के सभी पञ्च कोष भी विचलित होते हैं। जितनी रसातल की ओर साधक की इच्छा शक्ति और कर्म रहेंगे, उतने अधिक और शक्तिशाली विस्पोट इस व्यान वायु में होंगे और उतने ही अस्थिर जातक के पञ्च कोष भी रहेंगे, और उतना ही अशांत साधक का जीवन भी रहेगा I जितना साधक जीव जगत से विमुख रहेगा, उतना ही शांत साधक का मन भी रहेगा I इसी बिन्दु से साधक की उत्कर्ष पथ पर गति और स्थिति को भी जाना जाता है I

सनातन गुरु आगे बोले… इस वायु की गति पञ्च महाभूतों में भी होती है, लेकिन प्रधानतः यह पञ्च महाभूतों में गति, आकाश महाभूत के आलंबन से ही होती है I ऐसा होने के कारण, स्थूल शरीर के भीतर इस वायु का नाता प्रधानतः घटाकाश से है, और इस घटाकाश से यह वायु अन्य चारों महाभूतों में गति करती है I इसलिए हृदयाकाश गर्भ के प्राणमय कोष की यह व्यान वायु ही हृदयाकाश गर्भ में प्रधान वायु है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि आकाश अन्य चारों महाभूतों को अपने भीतर बसाया हुआ है, और इसके साथ साथ आकाश ही इन सब महाभूतों में बसा भी हुआ है I

सनातन गुरु आगे बोले…  व्यान का जुड़ाव त्रिगुणों से भी होता है, और ऐसा तब भी है, जब यह वायु तमोगुण और रजोगुण से भी ठोस (या कल) सरीखी ही होती है, जब हम इस वायु को प्राणमय कोष से देखते हैं I पर जब इस व्यान प्राण को हृदयाकाश गर्भ से देखा जाएगा, तब यह वायु इन दोनों गुणों (अर्थात रजोगुण और तमोगुण) से सूक्ष्म ही पाई जाती है क्यूंकि हृदयाकाश गर्भ में इस वायु का नाता चेतना गुफा, विज्ञान गुफा और सत्त्वगुण से भी होता है I हृदयाकाश गर्भ के भीतर, योगाग्नि (या नचिकेताग्नि) के प्रादुर्भाव का कारण भी यही व्यान वायु है I जब यह व्यान वायु के भीतर विस्फोट नहीं होते, तब यह वायु स्थिरता को पाती है, और ऐसी दशा में ही हृदयाकाश गर्भ में योगाग्नि प्रबल होती है I आयामों की गति और स्थिति में भी यही व्यान प्राण है I

गुरु आगे बोले… समाधि की प्राप्ति भी इस वायु के शांत होने से होती है I और कुंडलिनी जागरण के पश्चात, जब यह वायु अतिप्रबल हो जाती है और इसकी ऊर्जा की शरीर से बाहर की ओर की गति प्रबल हो जाती है, तब साधक अपनी साधनाओं में देवादि लोकों का साक्षात्कार भी करता है I इसलिए साधक की चेतना को देवादि उच्च लोकों में गति प्रदान करने का कार्य भी यही व्यान वायु ही करती है I ऐसी दशा में साधक अपनी साधना के समय ही समस्त देवादि लोकों का साक्षात्कार कर लेता है और इन साक्षात्कारों में साधक की काया के भीतर ही उन देवादि लोकों से संबद्ध सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होने लगते हैं I जब साधक की काया के भीतर ही यह सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हो जाते हैं, तब वह साधक उन देवादि लोकों का ही सगुण साकार स्वरूप हो जाता है I

गुरु आगे बोले… और ऐसा होने के पश्चात, यदि साधक इस सगुण साकार देव सिद्धि से विमुख ही हो जाएगा, तब वह सिद्ध शरीर जो साधक की काया के भीतर स्वयं निर्मित हुए होते हैं, वह सब के सब अपने-अपने कारण देवलोकों में विलीन भी होने लगते हैं I और इस विलय के पश्चात, वह साधक उन देवलोकों का ही सगुण निराकार स्वरूप पाएगा I लेकिन इस सगुण निराकार सिद्धि के पश्चात, कुछ समय तक साधक की काया के भीतर की प्राण शक्ति प्रचण्ड भी हो जाएगी I इस व्यान प्राण का नाता अव्यक्त प्रकृति से भी है, जो अव्यक्त प्राण, माया शक्ति आदि भी कहलाती हैं I और इसी अव्यक्त प्रकृति को बौद्ध पंथ में तुसित लोक भी कहा गया है I

इन सभी बातों को सुनकर, नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरुदेव से प्रश्न किया… ऐसा क्यों हुआ है कि जब से हम इस गुफा में प्रवेश किये हैं, तब से मेरे स्थूल शरीर में एक कंपन सी उठ रही है और ऐसा लगता है जैसे शरीर के भीतर वायु के छोटे छोटे से सूक्ष्म गुब्बारे मेरुदंड के नीचे के भाग के समीप से, ऊपर मस्तष्क की ओर उठ रहे हैं I

इस प्रश्न पर गुरु बोले… यह इस गुफा में आने के पश्चात एक सामान्य दशा है I पर यह दशा और भी अधिक बढ़ जाएगी जब हम रजोगुण गुफा में जाऐंगे I यही वह कारण है जिससे तुम्हे (अर्थात नन्हा विद्यार्थी को) इस अध्याय में एक चेतावनी भी देनी होगी कि यह अध्याय मानव जाती ही नहीं बल्कि अधिकांश योगीजनों के लिए भी निषेध ही रहेगा, जिसके कारण इस अध्याय पर वही साधक आए, जिसको जीवन और मृत्यु में कोई अंतर नहीं दिखता है I

और गुरु आगे भी बोले… लेकिन यह कम्पन और शारिक अशान्ति अधिक समय तक नहीं रहती है क्यूंकि जब हम तमोगुण गुफा में जाएंगे, तब यह समाप्त सी ही हो जाएगी I

इसके पश्चात सनातन गुरु ने अपने नन्हे शिष्य का हाथ पुनः पकड़ लिया और कहा… अब हम धनञ्जय उपप्राण की ओर चलेंगे और उसमें प्रवेश करके उसका भी अध्ययन करेंगे I

 

धनञ्जय उप प्राण क्या है, धनञ्जय लघुवायु क्या है, धनञ्जय उपवायु क्या है, धनञ्जय वायु का वर्णन, धनञ्जय प्राण का वर्णन, …

नन्हे विद्यार्थी के छोटे से हाथ पकड़कर गुरु अपने स्थान से उठे और अपनी उंगली एक जगह की ओर दिखाकर बोले… अब उस दिशा में जाएंगे I

और इसके पश्चात वह दोनों (अर्थात गुरु और नन्हा शिष्य) शांत होकर उस हलके गुलाबी वर्ण के व्यान प्राण में चलते गए I

उस नन्हें विद्यार्थी के पास अब कोई प्रश्न भी नहीं था, इसलिए वह शांत होकर अपने गुरु के साथ चलता हुआ बस उस व्यान प्राण और उसके प्राणमय तंत्र को ही देखता गया I

थोड़ा आगे चलने के पश्चात, गुरु बोले… देखो वह हलके नील वर्ण की जो ऊर्जा है, वही व्यान प्राण का उपप्राण, धनञ्जय है I

गुरु बोले… जैसे-जैसे साधक उत्कर्ष मार्गों में गति करता है, वैसे-वैसे उस साधक का धनञ्जय उपवायु भी सूक्ष्म होता चला जाता है I और जैसे-जैसे यह धनञ्जय सूक्ष्म होता है, वैसे-वैसे उसका वर्ण भी हल्का होता चला जाता है I जितना उत्कृष्ट साधक का उत्कर्ष पथ रहा होगा, उतना ही हल्का इस प्राण का वर्ण भी होगा I इसलिए इसके वर्ण को देखकर यह अनुमान भी लगाया जा सकता है, कि साधक की उत्कर्ष गति कितनी उत्तम रही होगी I

गुरु आगे बोले… जितना रजोगुण से युक्त, अर्थात कर्मों से युक्त साधक का उत्कर्ष मार्ग रहा होगा, उतनी ही संख्या में इस धनञ्जय में लाल वर्ण के बिंदु भी पाए जाएंगे I जितना तमोगुण से युक्त, अर्थात अलस्यादि से युक्त साधक का उत्कर्ष मार्ग रहा होगा, उतनी ही संख्या में इस धनञ्जय में नीले वर्ण के बिंदु भी पाए जाएंगे I जितना सत्त्वगुण से युक्त, अर्थात सम्तावाद से युक्त साधक का उत्कर्ष मार्ग रहा होगा, उतनी ही संख्या में इस धनञ्जय में सूक्ष्म श्वेत वर्ण के बिंदु भी पाए जाएंगे I और इन सबके साथ, जितना विज्ञानमय साधक का उत्कर्ष मार्ग रहा होगा, उतनी ही संख्या में इस धनञ्जय में सूक्ष्म पीले वर्ण के बिंदु भी पाए जाएंगे I इसलिए इस धनञ्जय उपप्राण के उन बिन्दुओं की संख्या को देखकर यह सब जाना जा सकता है I

गुरु आगे बोले… सभी उपप्राण तमोगुण से संबद्ध होते हैं, इसलिए यह तमोगुण के वर्ण के ही होते हैं और इसी कारणवश सभी उपप्राण शारीरिक, आध्यात्मिक और दैविक स्थिरता के कारण भी होते हैं I और ऐसा होने के कारण, यह पाँचों उपप्राण अपने-अपने प्राणों की ऊर्जाओं को उन प्राणों में ही समेट कर रखते हैं I और इसके अतिरिक्त यह उपप्राण रजोगुण के प्रभावों को भी स्तम्भित करते हैं I

इसके पश्चात गुरु बोले… धनञ्जय उपवायु ही अन्य सभी उपवायु का जनक है I इसी धनञ्जय से ही अन्य चारों उपवायु का प्रादुर्भाव हुआ था, और यही वह कारण है जिससे धनञ्जय से अन्य सभी लघुवायु जुडी हुई होती हैं I

गुरु बोले… इसलिए यदि हम एक उपप्राण को ही जान जाएं, तो इस ज्ञान से ही अन्य सभी उपप्राणों को जाना जा सकता है, क्यूंकि अपने कार्यों और अपने भीतर बसे हुए कुछ वर्णों के अतिरिक्त, यह सभी प्राण एक प्रकार के ही होते हैं I न तो इन पाँचों उपवायु के वर्णों में और न ही इनकी आपेक्षिक सूक्ष्मता में ही कोई बड़ा अंतर होता है I इन उपप्राणों का इनके अपने-अपने वायु से नाते के कारण, इन उपप्राणों में इनकी वायु के वर्ण भी होते हैं, और इसी बिंदु के अध्ययन से यह जाना भी जाता है कि वह किस प्राण का उपप्राण है I

गुरु आगे बोले… इसी धनञ्जय ने अपने व्यान प्राण सहित, अन्य सभी उपप्राणों को घेरा भी हुआ है, और उन उपप्राणों ने भी अपने-अपने प्राणों को घेरा हुआ है I इसलिए इसी धनञ्जय उपप्राण से जाकर, अन्य सभी प्राण और उनके उपप्राणों को जाना जा सकता है I इस धनञ्जय का ऊर्जा प्रवाह भी इसके व्यान प्राण के समान, शरीर से बाहर की ओर ही होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरु को अपने सर हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

गुरु आगे बोले… धनञ्जय उपप्राण सभी प्राणों की अधिक ऊर्जाओं को उन प्राणों के उपप्राण से बाहर की ओर निकालकर, व्यान प्राण में भेजता है I और यह उपप्राण इससे विपरीत भी कार्य करता है I इसलिए यह उपप्राण अधिक ऊर्जा को शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया में प्रधान सहायक भी है I और ऐसा करने के कारण यह उपप्राण शरीर का ऊर्जा संतुलक भी है I

सनातन गुरु आगे बोले… अपने मूल और गंतव्य दोनों से ही सब प्राण और उनके उपप्राण, एक ही होते हैं, अर्थात वास्तव में प्राण एक ही है हैं I लेकिन ऐसा होने पर भी, अपने उदय के पश्चात, अपने कार्यों और गुणों से यह प्राण पृथक दिखाई देते हैं I इसी दशा को ही “एकोहं बहुस्याम:” के वाक्य से सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दर्शाया जाता है, जिसका अर्थ होता है, कि “मैं एक होता हुआ भी अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ हूँ” I इस वाक्य का नाता, मूलतः इच्छा शक्ति से ही है I जबतक इच्छा शक्ति ही शांत नहीं होती, तबतक साधक उस इच्छा रहित पथ पर भी नहीं जा पाता, जिसको मुक्तिमार्ग कहा जाता है I और इच्छा शक्ति भी तब शांत होती है, जब साधक वह सबकुछ अपने साक्षात्कारों से ही जान जाता है, जो उत्कर्ष पथ का अंग होता है I और इसके पश्चात ही साधक उसको जानने के मार्ग पर चल पड़ता है, जो वास्तव में जानने योग्य है और जो ब्रह्म कहलाता है, और जिसका मार्ग मुक्तिपथ कहलाता है और जहां वह मुक्तिपथ भी आत्ममार्ग स्वरूप में ही होता है I यही कारण है कि तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) उस मुक्तिमार्ग पर लेकर जाने हेतु और उस मुक्ति मार्ग के गंतव्य का साक्षात्कार करवाने हेतु मेरा (अर्थात सनातन गुरु का) स्वयं प्रकटीकरण तुम्हारे हृदय गुफा में हुआ है I

गुरु आगे बोले… जबतक साधक इन बताए गए बिंदुओं का साक्षात्कार नहीं करेगा, तबतक वह उस ब्रह्मपथ पर भी नहीं जा पाएगा, जो मुक्तिमार्ग कहलाता है I और जबतक साधक उस मुक्तिपथ को ही पार नहीं करेगा, तबतक वह साधक उस निर्गुण ब्रह्म को भी नहीं पाएगा, जो सर्वसाक्षी है और जो कैवल्य मोक्ष भी कहलाता है I

नन्हें विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

नन्हें विद्यार्थी के प्रश्नों का गुरु द्वारा उत्तर, गुरु द्वारा  बताया गया मोक्ष व्यान, गुरु द्वारा बताया गया मुक्ति ज्ञान, मोक्ष ज्ञान, मुक्ति ज्ञान, निर्वाण ज्ञान, कैवल्य ज्ञान, कैवल्य मोक्ष ज्ञान, कैवल्य मुक्ति ज्ञान, विसर्ग ज्ञान, पूर्ण संन्यासी, ब्रह्म पूर्ण संन्यासी है, पूर्ण संन्यास को ही निर्गुण ब्रह्म कहते हैं, पूर्ण संन्यास का ज्ञान, पूर्ण संन्यास, पूर्ण संन्यास ही मुक्ति है, पूर्ण संन्यासी ही मुक्तात्मा है, पूर्ण संन्यास ही निर्वाण है, पूर्ण संन्यास ही कैवल्य मोक्ष है, पूर्ण संन्यास ही कैवल्य है, पूर्ण संन्यास ही मोक्ष है, …

नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरुदेव पुछा… लेकिन इन सभी प्राणों को पृथक रूप में क्यों जानना है, जब इन सबका मूल और गंतव्य से यह एक ही हैं, और जिसको एकोहं बहुस्याम: का वाक्य भी दर्शा रहा है? I इन पञ्चवायु और पञ्च उपवायु को एक साथ ही इनके मूल और गंतव्य स्वरूप में क्यों नहीं जाना जा सकता है? I

इस प्रश्न पर सनातन गुरु बोले… इसपर हम बाद में आएँगे, पहले वह जानना है जो मोक्ष ज्ञान है I

इसके पश्चात गुरु बोले… अब ध्यानपूर्वक सुनो क्यूंकि इसके बारे में इस कलियुग में आचार्यगण भी अनुचित प्रकार से ही बताते हैं…

जबतक साधक पूर्णतः, अंततः और स्थायी रूप से मुक्त न हो, तो वह कैसी मुक्ति I

पूर्ण मुक्त कोई सिद्धि नहीं धारण करता, क्यूंकि वह तो सिद्धियों से भी मुक्त है I

किसी को पूर्णतः मुक्त कैसे कहा जा सकता है (अर्थात पूरी तरह से, अंततः और स्थायी रूप से संपूर्णता और उसके प्रत्येक भाग से मुक्त) जबतक कि वह पहले के कारण (या कर्म) और उसके प्रभाव (या कर्मफल और उनके संस्कार) से भी पृथक (या परे) न हो जाए, जो उसकी सिद्धि आदि उपलब्धियों की नींव थे। इसलिए, …

सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता और मुक्त कभी सिद्ध नहीं होता I

सिद्ध वह है, जिसनें ब्रह्मरचना और उसके तंत्र को ही सिद्ध किया है I

मुक्त वह है जो पूर्ण संन्यासी है और जहां संन्यास सिद्धियों से भी होता है I

मुक्त वह होता है जो ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र से ही परे चला गया होता है I

  

ऐसा मुक्त न कर्मों को और न को कर्मफलों का भोगता होता है I वह कर्म करता हुआ भी कर्मों को अपने साक्षी भाव में रखता है, और उन कर्मों के फल भोगता हुआ भी, कर्म फलों से विमुख ही रहता है जिसके कारण ऐसे मुक्तात्मा का चित्त भी संस्कार रहित ही होता है I एक बार किसी भी साधक का चित्त संस्कार रहित हो गया, तो उस साधक के चित्त में आगे के किसी भी समय में संस्कार पुनः निवास नहीं कर पाते, और ऐसा ही मुक्तात्मा होता है I

जो कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों से ही मुक्त न हो, वह कैसा मुक्तात्मा? I

यही जीव जगत के स्वरूप में मुक्ति है, पर यह मुक्ति का मूलरूप नहीं होता है I

और ऐसा मुक्तात्मा तृष्णा और इच्छा से भी परे होता है, इसलिए ऐसा मुक्तात्मा जो कहेगा वह अब बताता हूँ…

जो त्रिष्णातीत, इच्छातीत और भावातीत दशा है, वही मुक्ति का मूलस्वरूप है I

जो कर्मातीत, फलातीत और संस्कारातीत है, वही मुक्ति का जीव जगतस्वरूप है I

जो इन दोनों के भीतर भी है और इनके परे भी है, वह व्यापक सर्वसाक्षी ब्रह्म है I

व्यापक सर्वसाक्षी ब्रह्म ही वह पूर्ण संन्यासी है, जो कैवल्य निर्वाण मुक्ति कहलाया है I

 

इसलिए यह दोनों प्रकारों की मुक्ति उसी व्यापक सर्वसाक्षी ब्रह्म में निवास करती हैं, और वह ब्रह्म भी इनमें बसा हुआ है I उस ब्रह्म को पाने का एक उत्क्तिष्ट मार्ग सर्वसमता का है I

जो साधक अपने भावों, कर्मों और कर्मफलों में ही इस सर्वसमता को पा जाएगा, उसके अन्तःकरण चतुष्टय के चित्त नामक भाग में ही, सर्वसमता को धारण किया हुआ एक हीरे के समान प्रकाशमान संस्कार प्रकट हो जाएगा I

और ऐसा होने के पश्चात, जो कुछ भी इस जीव जगत में है, जब उस संस्कार के समीप आएगा या उसको छूएगा, तब वह भी सर्वसम ही हो जाएगा I

इस सर्वसम संस्कार की इस समस्त ब्रह्म्रचना में कोई काट भी नहीं है, क्यूंकि इसका नाता सीधा-सीधा सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और उनके ब्रह्मलोक से ही है I

इसलिए इस सर्वसम संस्कार को ब्रह्मलोक से ही जोड़कर देखना चाहिए, क्यूंकि यह उन प्रजापति का ही अभिन्न अंश स्वरूप ही होता है I

परन्तु इस जीव जगत के समस्त इतिहास में, इस सर्वसम प्रजापति के संस्कार रूप को मुट्ठी भर साधक भी नहीं पाए हैं I इसलिए जिस भी साधक के अंतःकरण के चित्त भाग में यह संस्कार प्रकट होता है, वह एक विरले से भी विरले योगी ही कहलाया जाएगा I और ऐसा साधक ही ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है I

 

इसके पश्चात गुरु बोले… कैवल्य मोक्ष नामक दशा में योगी…

ब्रह्मरचना और उसके तंत्र से पूर्णतः, अंततः और सनातनतः रूप से अतीत होता है I

 

और ऐसा होने पर भी, वह योगी ब्रह्म के समान…

रचना और उसके तंत्र में व्यापक होता है, और रचना भी उसमें व्यापक होती है I

 

इसलिए कैवल्य मुक्ति योगी…

ब्रह्मरचना और उसके तंत्र से अतीत होता हुआ भी, इनमें व्यापक भी होता है I

 

इसलिए कैवल्य मुक्त योगी …

ब्रह्म रचना और रचना तंत्र के भागों में पूर्णरूपेण और समानरूपेण वसा होता है I

और रचना और उसका तंत्र भी उस योगी के भीतर ही पूर्णरूपेण बसा होता है I

और ऐसा होने पर भी वह योगी न रचना होता है और न ही रचना का तंत्र I

कैवल्य मुक्त योगी उस पूर्णब्रह्म के समान इन दोनों का साक्षी होता है I

और क्यूंकि यह दोनों, अर्थात ब्रह्म रचना और उसके तंत्र, उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही हैं, इसलिए ऐसा योगी…

ब्रह्म रचना और उसके तंत्र को, अपने आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति सा ही देखेगा I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपने सर आगे पीछे हिलाकर अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब ध्यान देना…

जो सर्वसाक्षी ब्रह्म है, वह कर्ममुक्त, फलमुक्त और संस्कारमुक्त होता है I

इसलिए जो योगी सर्वसाक्षी भाव को पाया है, उसका आत्मस्वरूप ही ब्रह्म है I

जहाँ वही ब्रह्म, सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार भी होगा  ही I

आत्मस्वरूप में ब्रह्म, सगुण निर्गुण साकार और सगुण निर्गुण निराकार भी होगा  ही I

इसके साथसाथ वह आत्मस्वरूप में ब्रह्म, शून्य, शून्य ब्रह्म और सर्वसम भी होगा I

 

गुरुदेव आगे बोले…

वह ब्रह्म सर्वस्व, सर्वस्व मूल और सर्वस्व गंतव्य होता हुआ भी, पूर्ण संन्यासी ही है I

जिस योगी ने अपने आत्मस्वरूप में ब्रह्म को पाया है, वह पूर्ण संन्यास को जाएगा I

पूर्ण संन्यासी ब्रह्म ही सर्वसाक्षी और सर्व हैऐसा होता हुआ भी वह सर्वातीत ही है I

गुरु आगे बोले… अब ऐसे सर्वसाक्षी भाव को पाए हुए योगी के बारे में बताता हूँ I

ऐसे योगी के न संचित कर्म, और न ही क्रियामान या आगामी कर्म होते ही हैं I

ऐसे कुछ उत्कृष्ट योगी तो जीवित अवस्था में ही प्रारब्ध कर्म से परे चले जाते हैं I

जब न प्रारब्ध रहा और न ही संचित, क्रियामान और आगामी कर्म रहे, वह मोक्ष है I

जहाँ प्रारब्ध, संचित, क्रियामान और आगामी कर्मों की गति न हो, वह पूर्ण संन्यास है I

गुरु आगे बोले… अब उस पूर्ण सन्यास को पाए हुए योगी के बारे में बताता हूँ …

ऐसा योगी लौटता नहीं, बल्कि लौटाया जाता है I

ऐसा योगी के लौटने के समय की गणना नहीं है I

और यह गणना न होने पर भी वह लौटाए जाते हैं I

उनके लौटाए जाने का मार्ग भी पञ्च विद्या से होता है I

उनका लौटाया जाना भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से होता है I

लौटाए जाने के पश्चात वह कुछ समय तक गुप्त में ही रहते हैं I

जिन कर्मों के लिए वह लौटाए गए थे, उनको समाप्त करके वह देह त्यागते हैं I

यदि लौटाए जन्म में उनके कर्म पूर्ण न हों, तो वह  अपना प्रारब्ध बढ़ा भी सकते हैं I

 

और इसके पश्चात गुरु ने नन्हे विद्यार्थी की ओर उंगली दिखाकर कहा… तुम ऐसे योगी ही हो और कई जन्मों से ऐसे ही हो I और ऐसा होने के कारण, गुरुयुग आगमन के समय सहित, पूर्व के समस्त युगों के संधिकालों में भी तुम्हारे जैसे योगीजन लौटाए ही जाते हैं I तुम्हारे सहित, ब्रह्मर्षि क्रतु के जितने मनस पुत्र और पुत्रियां हैं, वह सब के सब इस कल्प में ऐसे ही रहे हैं I यह सब के सब मनस पुत्र और पुत्रियां, पूर्ण संन्यास में स्थापित होते हुए भी, युगों के विशेष समय खण्डों में पञ्च विद्या सरस्वती में से किसी एक सरस्वती के द्वारा लौटाए जाते है I और क्यूंकि अभी के समय खंड में, जो 2074.74 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर ही प्रारम्भ हुआ है और जो 108 वर्षों का है, और जिसका मध्य भाग जो 2028.74 ईस्वी में आएगा, वह गुरुयुग (अर्थात वैदिक युग) के मूल के स्थापन और प्रारंभिक आगमन का समय है, इसलिए तुम्हे भी सावित्री विद्या सरस्वती द्वारा लौटाया गया है I

सनातन गुरु कुछ समय रुककर, अपनी ऊँगली नन्हें विद्यार्थी की ओर दिखाते हुए आगे बोले… और तुम्हारे मनस पिता ब्रह्मार्षि क्रतु के आदेश से तुम सब मनस पुत्र, तबतक ही लौटाए जा सकते हो, जबतक तुम एक सौ एक बार आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण न कर लो I ऐसा इसलिए है क्यूंकि एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध यज्ञ ही उन सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति की सिद्धि को दर्शाता है, और जो इस महाब्रह्माण्ड के रचैता की सिद्धि ही होती है, जिसके कारण वह इस समस्त महाब्रह्माण्ड की अंतिम या गंतव्य सिद्धि ही है I इसलिए जिस योगी ने यह सिद्धि पाई होगी, उसका पुनः जन्म न न तो कारण, न सूक्ष्म और न ही किसी स्थूल लोक में हो सकता है, और ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह सिद्धि महाकारण जगत की ही होती है I उस एक सौ एकवें आंतरिक अश्वमेध यज्ञ का मार्ग भी इसी हृदयाकाश गर्भ से प्रारम्भ होता है, और ऐसा होने के कारण भी मेरा (अर्थात सनातन गुरु का) तुम्हारी (अर्थात नन्हे शिष्य की) एक हृदय गुफा में आंतरिक अवतरण हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसके पश्चात गुरु बोले… अब तुम्हारे उस प्रश्न पर आते हैं, जो तुमनें पूर्व में पुछा था, तो अब उसके उत्तर को ध्यानपूर्वक सुनो… इन प्राणों का बहुत होने का कारण है, कि ब्रह्म ने अपनी रचना में ऐसी ही इच्छा करी थी है, और इन कर्मों का पृथक होने का कारण है, कि जीवों ने इनके एक होने की इच्छा नहीं करि है I तुम्हारे (अर्थात नन्हें विद्यार्थी के) प्राण भी ऐसा इसलिए ही हैं क्यूंकि न तो तुमने इनके एक होने की इच्छा करी आई, और न ही तुम उस मार्ग पर चले हो जो इन प्राणों को एक करता है I

गुरु आगे बोले… जबतब साधक के भाव में ही यह एक नहीं होंगे और वह भाव भी साधक का प्रथम और अंतिम भाव नहीं होगा, यह पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण पृथक रूप में ही पाए जाएंगे I इन प्राणों को एक करने का मार्ग भी सर्वसम ब्रह्म से ही होकर जाता है I

गुरु बोले… इनके एकत्व को प्रकृति के अष्ठम कोष तक पाया भी नहीं जाता है, क्यूंकि इनके एकत्व का मार्ग ही प्रकृति के नवम कोष से प्रशस्त होता है I प्रकृति के नीचे के आठ कोष अपरा प्रकृति कहलाते हैं, और प्रकृति का नवम कोष परा प्रकृति के नाम से पुकारा जाता है I जब साधक परा प्रकृति को प्राप्त होता है, तब वह साधक उसी परा प्रकृति के सत्त्वगुणी स्वरूप से ही इस एकत्व के मार्ग को प्रशस्त करता है… इससे पूर्व नहीं I ऐसी इसलिए है, क्यूंकि परा प्रकृति में ही ज्ञानमय शब्दों का साक्षात्कार होता है, और इस साक्षात्कार के पश्चात, साधक की चेतना इन्हीं शब्दों के भावार्थ में बसकर, इन प्राणों के एकत्व के मार्ग में चली जाती है I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… ज्ञानमय शब्द क्या हैं? I

इसपर गुरु गोले… ब्रह्म के पूर्ण संन्यासी स्वरूप के मार्ग को जो शब्द प्रशस्त करते हैं, वही ज्ञानमय शब्द हैं I इन शब्दों को इस प्रकार बताया जा सकता है…

अब कहीं जाने के लिए, कुछ करने के लिए, कुछ बनने के लिए नहीं रहा  है I

इन्हीं शब्दों के सार से ही स्वयं ही स्वयं मेंके वाक्य का मार्ग प्रशश्त होता है I

यह मार्ग ही उन सर्वसाक्षी व्यापक, निर्गुण निराकार, पूर्ण संन्यासी ब्रह्म का मार्ग है

 

गुरु आगे बोले… इसलिए जो योगी इन ज्ञानमय शब्दों में स्थापित हो जाएगा, वह योगी उस मार्ग पर चला जाएगा, जो अब बताया जाएगा…

मैं स्वयं ही स्वयं में रमण करता हुआ, सबसे पृथक निर्गुण ब्रह्ममार्गी हुआ हूँ I

मेरा इस जीव जगत से क्या लेना या देनामेरा मार्ग इससे स्वतंत्र ही है I

मैं जीव रूप में, जगत में बसा हुआ भी, अपने आत्ममार्ग में स्वतंत्र हूँ I

 

गुरु आगे बोले… इन ज्ञानमय शब्दों सहित, स्वयं ही स्वयं में के वाक्य पर रमण करता हुआ योगी, उसके अपने साक्षात्कारों में, अंततः यही जानेगा…

अब मैं उस पूर्ण संन्यासी निर्गुण ब्रह्म के मार्ग का पथगामी हुआ हूँ I

मेरा आत्मस्वरूप ही सर्वसाक्षी, व्यापक, सर्वातीत निर्गुण ब्रह्म है I

मेरा आत्मस्वरूप ही जीवजगत स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है I

मैं ही सगुण हूँ, साकार हूँ और निराकार भी मैं ही हुआ हूँ I

शून्य में, शून्य ब्रह्म में और सर्वसमता में भी मैं ही हूँ I

जीव जगत स्वरूप में, और उससे परे भी मैं ही हूँ I

अंततः मेरा आत्मस्वरूप ही पूर्णब्रह्म कहलाया है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा योगी यह भी कहेगा…

वास्तविकता में मैं सिद्धितीत हूँअभिव्यक्ति में मैं सर्वसिद्ध हूँ I

आत्मस्वरूप से तो मैं अद्वैत हूँमार्ग से मैं बहुवादी ही हूँ I

आत्मस्वरूप से तो मैं सर्वातीत हूँप्राकट्य से सर्वस्व हूँ I

आत्मस्वरूप से मैं ब्रह्म हूँप्राकट्य से मैं प्रकृति हूँ I

गंतव्य से मैं केवलज्ञान हूँमूल से मैं सर्वयोग हूँ I

मैं ही तो बहुवादी हूँ और अद्वैत भी मैं ही हूँ I

मैं पूर्ण संन्यासी होता हुआ भीसर्वस्व हुआ हूँ I

अपने अभिव्यक्त रूप में मैं बहुवादी हूँ I

मूल और गंतव्य से मैं अद्वैत ही हूँ I

ऐसा होने के कारण, मैं पूर्ण ही हूँ I

 

और उस नन्हे शिष्य की हृदय गुफा में बैठे हुए सनातन गुरु यह भी बोले…

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते आदि शब्द मेरी वास्तविकता को दर्शाते हैं I

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते आदि शब्द भी मुझे ही दर्शा रहे हैं I

मैं ही तो वह रूद्र हूँ, जो केवल होकर स्वयं ही स्वयं में रहता है I

जब मैं पूर्ण ब्रह्म ही हूँ, तो मैं किसकी उपासना कर सकता हूँ I

मैं ही वह रूद्र हूँ, जो स्वयं ही स्वयं का उपासक होता है I

मैं सर्वस्व होता हुआ भी, स्वयं ही स्वयं में रहता हूँ I

 

सनातन गुरु आगे बोले… ऐसा योगी यह सब भी स्वयं ही स्वयं को कहेगा…

मैं स्वयं ही स्वयं का उपासक, उपासना और उपास्य भी मैं ही हूँ I

मैं स्वयं ही स्वयं का गुरु हूँ, और मैं ही स्वयं का शिष्य भी हूँ I

मैं स्वयं ही स्वयं का इष्ट और मैं ही स्वयं का भक्त भी हूँ I

उत्पत्ति, स्थिति, संघार, निग्रह और अनुग्रह में भी मैं ही हूँ I

मैं कर्मातीत ब्रह्म हूँ, कर्माधीन जीवजगत भी मैं ही हूँ I

मैं ही रचैता, रचना और रचना का तंत्र भी मैं ही हूँ I

मेरे सिवा न तो कोई और था, न है, न ही होगा I

सर्वं खल्विदं ब्रह्म भी मुझे ही दर्शा रहा है I

 

नन्हे शिष्य के हृदय में विराजमान हुए सनातन गुरु आगे बोले… जबतक भावों में ही साधक पूर्ण संन्यासी नहीं होता, तबतक न तो प्राण के सर्वसमतावादी एकत्व का साक्षात्कार होता है, और न ही वह साक्षात्कार होता है जो साधक के आत्मस्वरूप में ही पूर्ण संन्यासी ब्रह्म कहलाया गया है I

गुरु और आगे बोले… ऐसा सर्वसम तत्त्व को पाके और उस तत्त्व में बसकर ही साधक कर्ममुक्ति के मार्ग पर गमन नहीं कर पाता है I जो कर्ममुक्त नहीं हुआ, उसको मुक्तात्मा भी नहीं कहा जा सकता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह जीव जगत कर्मक्षेत्र ही है I और इस जीव जगत से परे वही कर्मातीत ब्रह्म हैं, जो व्यापक, सर्वाधार, सर्वस्व और उसके समस्त भाग होते हुए भी, वास्तव में सर्वातीत ही हैं I

गुरु बोले… उन ब्रह्म को ही कर्ममुक्त, मुक्तात्मा और कैवल्य मोक्ष कहा जाता है I और जहां यह कैवल्य मोक्ष को ही कैवल्य, मोक्ष, कालमुक्ति, गुणमुक्ति, भूतमुक्ति, तन्मात्रमुक्ति, और सर्वमुक्ति आदि शब्दों से भी बताया जाता है I यह सब शब्द भी उसी पूर्ण संन्यासी, सर्वसाक्षी और सर्वव्यापक ब्रह्म को दर्शाते हैं, जो सर्वातीत होता हुआ भी, सर्वस्व, सर्वाधार और सर्वगंतव्य हुआ है… और ऐसा होने के कारण ही वह पूर्ण कहलाया गया है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया, इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर अपने गुरुदेव को इसका संकेत भी दिया I

लेकिन नन्हा विद्यार्थी यह भी सोचने लगा, कि मेरे हृदय में बैठे हुए गुरुदेव वास्तव में कौन हैं? I यह जो बुड्ढे से, पतले से और इन फटे पुराने वस्त्रों में दिखाई दे रहे हैं, वह हुए कोई साधारण से साधुबाबा तो नहीं हो सकते… हो सकता है कि यह सनातन गुरुदेव जो मेरे हृदय में स्वयं प्रकट हुए हैं, वह कोई बहुत बड़ी सत्ता हों… इनको तो और जानना पड़ेगा I

और नन्हा से अनभिज्ञ विद्यार्थी यह भी सोचने लगा, कि क्या यह पतले से साधुबाबा… श्रीमन नारायण है? I

और ऐसा सोचकर वह नन्हा सा अनभज्ञ विद्यार्थी, शांत बैठा हुआ ही, अपने गुरुदेव के श्रीमुख की ओर श्रद्धा और समर्पण के भाव को धारण करके देखने लगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरुदेव से प्रश्न किया… लेकिन जैसे आपने पूर्व में कहा था, कि इस विद्यार्थी के लिए मोक्ष है ही नहीं, तो मुझे यह सब आप क्यों बता रहे हैं I जब मेरी मुक्ति है ही नहीं, तो मेरा इस मोक्ष ज्ञान से क्या लेना देना? … मेरे लिए तो यह ज्ञान व्यर्थ ही हुआ न? I

इस प्रश्न पर सनातन गुरु बोले… इसलिए ही तो यह ज्ञान आवश्यक है उनके लिए जो मोक्ष पथगामी होंगे I और ऐसे मार्गों में वह भी अंततः वही पाएंगे, जो यहाँ बताया गया है और आगे भी बताया जाएगा I और इस ज्ञान का वितरण भी वह कारण है, कि तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) इस मृत्यु लोक में भेजा गया है, और वह भी तब, जब कलियुग ने इस लोक की मानव जाती के अधिकाँश भाग के भी अधिकाँश भाग को अपने प्रपञ्च में बसा लिया है I तुम्हारे इस मृत्युलोक में आने का यह भी एक कारण है और इसके अतिरिक्त इसी जन्म में तुम अपने पूर्व जन्म के गुरुजनों की गुरुदक्षिणा भी दोगे और उसी प्रकार दोगे जैसे उन गुरुजनों में तुमसे तुम्हारे उन पूर्व जन्मों में मांगी थी I और इसके अतितिक्त तुम अपने वास्तविक पिता जो स्वयम्भू मन्वन्तर में ब्रह्मऋषि क्रतु कहलाए थे, और जिनके तुम मनस पुत्र ही हो, उनके आदेश का भी पालन करके, उनको अपने पुत्र रूप में ही कृतारथ करोगे I

नन्हें विद्यार्थी को यह बातें पूर्ण रूप में समझ नहीं आई, इसलिए उसने गुरुदेव को इनकी व्याख्या करने के लिए अनुरोध किया I

इसपर गुरु बोले… इस महाब्रह्माण्ड के इतिहास में, बहुत-बहुत सारे साधकगणों ने अब तक मोक्ष की इच्छा प्रकट करी है, और यह इच्छा ही उनके समस्त पुनरागमनों का मूल कारण हुई है I मुक्ति का मार्ग धर्म शास्त्रों में है ही नहीं, क्यूंकि यह धर्मशास्त्र तो केवल उन नीचे के मार्गों को बताते हैं, जो उत्कर्ष पथ कहलाते हैं, और इन उत्कर्ष पथों पर गमन करके ही साधक मुक्तिमार्गी होने का पात्र बनता है I इसलिए जितने भी पंथ हुए हैं, और उनके जितने धर्म शास्त्र हैं, वह मुक्तिमार्ग पर गमन करने की पात्रता प्राप्ति के मार्ग ही हैं… न की मुक्तिमार्ग I

गुरु आगे बोले… मुक्ति ज्ञानमय और चेतन दशा प्राप्ति से ही होती है, न की किसी पंथ (रिलिजन) के ग्रंथ या मार्गादि से I यदि इन पंथों (रिलिजन) के ग्रंथ या मार्गादि से मुक्ति हो सकती, तो अब तक समस्त मानव जाती उस मुक्ति जो जानती भी, और उसका सर्वसम तत्त्व में बसा हुआ मार्ग भी जान जाती I लेकिन क्यूंकि इस मृत्यु लोक में ऐसा सर्वसम तत्त्व और उसके मार्ग दिखाई ही नहीं देता है, और क्यूंकि यह मृत्युलोक अभी तक विसम ही है, इसलिए यह भी प्रमाण है कि ग्रंथों और उनके मार्गों में मुक्तिमार्ग प्रशस्त ही नहीं हुआ है I जो सिद्ध और ऋष्यादि भी कहलाए गए हैं, वह भी अब तक मुक्त नहीं हुआ हैं I और तो और, इन पंथों (रिलिजन) के देवतागण भी मुक्तात्मा नहीं कहलाए जा सकते I

 

और गुरु आगे भी बोले… मेरा ऐसे कहने का कारण है, कि…

कोई भी देवी देव, कर्मातीत मुक्ति को नहीं पाए हैंइसलिए वह मुक्तात्मा नहीं हैं I

मुक्तात्मा न देवता हो सकता है और न ही देवत्व को धारण कर सकता है I

मुक्तात्मा ने जीव रूप में पाया जाएगा, न ही जगत रूप में रह पाएगा I

मुक्तात्मा न इष्ट हो सकता है, और न ही भक्त रूप में होगा I

मुक्तात्मा न गुरु हो सकता है, और न ही शिष्य हो पाएगा I

मुक्तात्मा निर्गुण ब्रह्म में लय, इन सबसे अतीत होता है I

मुक्तात्मा, सर्वातीत सर्वसाक्षी कर्मातीतब्रह्म ही होता है I

कर्मातीत ब्रह्म गुरु शिष्य, इष्ट भक्त नहीं हो पाएगा I

जगत कर्मक्षेत्र ही है, जिसमें कर्मातीत नहीं होता I

कर्मातीत ब्रह्म, जीवातीत और जगतातीत है I

ऐसा कर्मातीत ही वह मुक्तात्मा होता है I

   इसके पश्चात गुरु बोले…

मुक्तिमार्ग किसी ग्रंथ या उसके देवता आदि प्रशस्त हुआ ही नहीं है I

मुक्तिमार्ग साधक की काया के भीतर से ही प्रशस्त होता है I

यदि देवता मुक्त होते, तो वह देवता भी नहीं रह पाते I

मोक्ष में, देवत्व आदि बिंदुओं का पूर्ण अभाव होता है I

मुक्तात्मा, देवता, गुरु आदि कैसे हो सकता है I

हृदय गुरु आगे बोले…

मुक्तात्मा तो इनके देवत्व सहित, इनके तत्वों से भी परे है I

मुक्तात्मा यदि देवता या गुरु ही हो गया, तो उसकी कैसी मुक्ति I

मुक्तात्मा तो कर्मों, ग्रंथों, ग्रंथों के ज्ञान और मार्गों से भी अतीत होता है I

 

और गुरु आगे बोले,…  इसलिए…

जो पंथ, उनके ग्रंथ, मार्ग और उनके देवता आदि हैं, वह मुक्तात्मा नहीं हैं I

जो मुक्तात्मा हैं, उनका किसी भी ग्रंथ या मार्ग से कुछ भी लेना देना नहीं है I

जो मुक्तात्मा हैं, उनका एक दर्शन (या साक्षात्कार) ही मुक्ति प्रदान कर देता है I

नन्हा विद्यार्थी यह बातें समझ गया और उसने गुरु के मुख की ओर देखकर, अपना सर आगे पीछे हिलाकर, इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

इसके पश्चात गुरु आगे बोले… अब ध्यान देना …

वास्तव में तो जो मुक्तात्मा है, वही निर्गुण ब्रह्म है I

और जो निर्गुण ब्रह्म है, वही मुक्तात्मा कहलाया गया है I

मुक्तात्मा साधक का आत्मस्वरूप ही निर्गुण ब्रह्म कहलाता है I

और सिद्ध साधक का आत्मस्वरूप ही पूर्ण ब्रह्म कहलाया गया है I

लेकिन निर्गुण निराकार ब्रह्म, अर्थात मुक्तात्मा सिद्धितीत ही होता है I

और इसके विपरीत जो सिद्ध है, वह बंधनातीत और मुक्तितीत भी होता है I

इसके पश्चात गुरु आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना …

मुक्तात्मा का सिद्धियों से क्या लेना देना I

और सिद्ध का बंधन और मुक्ति से क्या लेना देना I

मुक्त कभी सिद्ध नहीं होता और जो सिद्ध है वह मुक्त नहीं होता I

सिद्ध से श्रेष्ट कोई गुरु नहीं होता मुक्तात्मा से श्रेष्ट कोई तारक नहीं होता I

इस बिंदु के अंत मेंयोगी सिद्ध गुरु होकर ही, मुक्तात्मा रूपी तारक हो पाता है I

 

गुरु बोले… इसलिए, जो सिद्ध गुरु ही नहीं हुआ है, वह कोई मुक्तिमार्ग कैसे दे पाएगा I ऐसा सिद्ध या गुरु या नेता आदि कहलाने वाला अनभिज्ञ मानव तो बस स्वयं ही महिमामण्डित होता हुआ, प्रपंच ही रच सकता है, जिसके कारण वह स्वयं सहित, अपने समस्त अनुयायियों को भी गर्त में ही लेकर जाएगा I कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, आज इस पृथ्वीलोक में ऐसे प्रपंचियों की कोई कमी भी नहीं है I अधिकांश संख्या में, आज जो स्वयं को योगी, सिद्ध, इस या उस देवी देवता का स्वरूप, मंत्रज्ञ, तंत्रज्ञ, वेदविक, वेद्विद और वेदज्ञ आदि कहते हैं, वह सब ऐसे ही अनभिज्ञ हैं, जो शास्त्रों का अध्ययन करके, बिना कोई साक्षात्कार किये हुए और बिना किसी भी प्रकार की समाधि को पाए हुए, स्वयं को इन उपाधियाँ से सुशोभित कर रहे हैं I और यही कारण है, की आज इस पृथ्वीलोक में मुक्तिमार्ग लुप्त सा ही हो गया है I ऐसे मनीषी ही कहते हैं, कि प्रकृति प्रपञ्च है जबकि वास्तविकता में प्रकृति ही ब्रह्मशक्ति रूपी मुक्तिमार्ग है I

 

गुरु आगे बोले… ऐसे सभी प्रपंचियों के कुछ लक्षण भी होते हैं, तो अब उनको बताता हूँ I अब बताई गई बातें, तुम और समस्त साधकगण अपने स्मरण में रखें, ताकि वह इन प्रपंचियों के प्रपंचों में न फंसे…

मूल में सदैव से ही योग सत्ता बसी होती है, और गंतव्य में ज्ञान है I

मूल, प्रकृति रूपी ब्रह्मशक्ति का होता है, और ज्ञान उन ब्रह्म का  रहा है I

सिद्ध योगी वही है जो उस पूर्ण ब्रह्म को गुरुतत्त्व स्वरूप में प्राप्त किया है I

ऐसा योगी बनिया नहीं होता…  बनिया कभी भी सिद्ध योगी या गुरु नहीं हुआ है I

बनिया केवल धन का ही नहीं, वह शिक्षा, राज, अर्थ और सेवा तंत्र का भी होता है I

सिद्ध योगी जो गुरुतत्त्व पाया है, वह कभी ज्ञान या योग का व्यापारी नहीं होता I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि उसको पता है, कि योग मूल सत्ता, और ज्ञान गंतव्य सत्ता है I

वास्तव में तोन मूल का कोई मूल होता है, और न गंतव्य का ही कोई गंतव्य है I

ऐसा होने के कारण ही, न मूल का और न ही गंतव्य का कोई व्यापार हो सकता है I

जब मूल विशुद्ध हो जाता है, तब उस मूल से ही गंतव्य का मार्ग प्रशस्त होता है I

गंतव्य ही कैवल्य मुक्ति है, जिसको पाया नहीं जाताबल्कि प्राप्त हुआ जाता है I

जो तुम अनादि कालों से हो, उसको प्राप्त कैसे करोगेउसको प्राप्त होना पड़ेगा न I

जो तुम्हारा आत्मस्वरूप है, उसको प्राप्त कैसे करोगेउसका तो बस हो सकता हो I

ऐसा होने का मार्ग भी कोई सिद्ध गुरु नहीं, बल्कि मुक्तात्मा, तारक ही बताता है I

मुक्तिमार्ग, ब्रह्मभावापन दशा से ही होकर जाता है, जिसमें भाव में ब्रह्म बसता है I

न सिद्ध से उत्कृष्ट कोई गुरु और न मुक्तात्मा से उत्कृष्ट कोई तारक होता है I

जब सिद्ध मुक्तिमार्ग में लेके जाएगा, तब तारक मुक्तात्मा का कार्य प्रारम्भ होगा I

जहां सिद्ध गुरु का कार्य समाप्त होगा, वहीँ तारक मुक्तात्मा का कार्य प्रारंभ होगा I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया, कि आज के अधिकांश मानव जो स्वयं को सिद्धि, आचार्य, पंडित, गुरु या योगी आदि कहते हैं, वह वास्तव में गर्तमार्गी ही हैं I

 

इसपर गुरु आगे बोले…

शास्त्रों का पूर्ण ब्रह्म, सिद्धों का ब्रह्म है और साक्षी ब्रह्म, मुक्तात्माओं का है I

रचैता, रचना और उस रचना के तंत्र स्वरूप में, ब्रह्म ही अपने पूर्ण स्वरूप में है I

अपनी रचना और उसके तंत्र से परे, वही ब्रह्म सर्वसाक्षी कैवल्य ही पाया जाएगा I

सिद्धों का ब्रह्म जो पूर्ण ही है, वही सगुण और निर्गुणसाकार और निराकार है I

सिद्धों का ब्रह्म, कर्माधीन भी है, और कर्मातीत भी इसलिए वह संस्कारों में है I

और मुक्तात्माओं का ब्रह्म, कर्मातीत और फलातीत है, इसलिए वह संस्कारातीत है I

सिद्धों का ब्रह्म, कालात्मक, गुणात्मक, भूतात्मक, तन्मात्रात्मक और सर्वात्मक ही है I

और मुक्तात्माओं का ब्रह्म, कालातीत, गुणातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत सर्वातीत है I

मुक्तात्माओं का ब्रह्म, केवल और केवल सर्वसाक्षी और निर्गुण स्वरूप में ही है I

ऐसा होने पर भी यह दोनों, ब्रह्म के पूर्ण और साक्षी रूप, एक दुसरे के पूरक ही हैं I

ऐसे ही एक दुसरे के पूरक, सिद्ध और मुक्तात्मा, और उनके ब्रह्म भी होते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया, और उसने इसका अपने गुरु को संकेत भी दिया I

 

गुरु आगे बोले… अब संस्कारों को बताता हूँ… प्रत्येक इच्छा, विचार, भावना और कर्म एक बहुत ही सूक्ष्म बीज रूपी संस्कार को जन्म देता है, जो अन्तःकरण चतुष्टय के चित्त मंडल में स्थापित होता है। और वह संस्कार जो साधक के चित्र में स्थापित होता है, वह उस लोक की चित्त (अर्थात लोक चित्त काया) और ब्रह्माण्ड की चित्त काया में भी प्रतिबिंबित होता है I जैसे जैसे समय बीतता है वैसे वैसे उसी संस्कार के मूल इच्छा, विचार, भावना और कर्म अन्य जीव भी करते हैं, जिससे उसी संस्कार के समान अन्य संस्कार भी उत्पन्न होते जाते हैं I और जैसे जैसे यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है वैसे वैसे ही अंततः उस संस्कार का क्रांतिक द्रव्यमान (क्रिटिकल मास) आ जाता है I यह क्रांतिक द्रव्यमान वह अवस्था है, जब धारणा के भीतर से जो चाहा गया था, और जो उस संस्कार के उत्पन्न होने का मूल कारण था, वह वास्तव में उस साधक के लिए (और उस लोक में) स्वयं प्रकट होने लगता है I यही वह दशा भी है जब वह संस्कार फलित होता है, और उसके फल प्रदान करने लगता है I जबतक यह क्रांतिक द्रव्यमान उस लोक की चित्त काया में नहीं आएगा, तबतक उस लोक के जीव समूह को कोई भी सामूहिक फल प्राप्ति नहीं होगी I किसी भी लोक में जीवों की सामूहिक फल प्राप्ति का मूल कारण भी यही उस लोक की चित काया में प्रकट हुआ यह क्रांतिक द्रव्यमान है I

गुरु आगे बोले… साधारण जीव तो इस क्रांतिक द्रव्यमान को अपने कर्मादि से प्रकट करते हैं, और इस प्रक्रिया में बहुत समय भी लग जाता है I परन्तु उत्कृष्ट आत्मनिष्ठ और ब्रह्मनिष्ठ योगीजन जो ब्रह्माण्डीय चित्तादि के सिद्ध होते हैं, वह इस क्रांतिक द्रव्यमान को बस अपने योगमार्ग से ही तुरंत प्रकट कर सकते हैं I इसका ज्ञान तुम्हें बताया जाएगा, परन्तु उसको इस ग्रन्थ में न ही लिखना और न ही किसी को बताना, क्यूंकि आज के समयखण्ड में इस ज्ञान का सदुपयोग करने वाले योगीजन, विरले से भी विरले ही हैं I यही ज्ञान अंतःकरण चतुष्टय सहित, पञ्च प्राण पर भी समान रूप में लागू होता है I

इसके पश्चात, अपने नन्हें विद्यार्थी को हृदया गुरु ने उस ज्ञान की दीक्षा दी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

गुरु आगे बोले…  यदि वह संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान किसी ऊँचे ज्ञानादि उत्कर्ष पथ से संबंधित होता है, तब ब्रह्माण्डीय चित्त काया में जब यह क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट होने लगता है, तो ऐसी स्थिति में किसी उच्च लोक में निवास करता हुआ कोई योगी, जो उस क्रांतिक द्रव्यमान से मांगी हुई दशा की पूर्ती कर सके, उसको उस लोक में लौटाया जाएगा जिसकी चित्त काया में किसी ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए वह क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट हो रहा है I इसी प्रकार और मार्ग से किसी उत्कृष्ट योगी का उस लोक में आगमन होता है, और इसी प्रक्रिया से कोई अवतार भी किसी लोक में आता है I

गुरु आगे बोले… और ऐसे उच्च लोकों के योगी का आगमन और अवतरण भी, चाहे आंतरिक हो या स्थूल शरीर के स्वरूप में ही क्यों न हो, इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता  Iऐसा इसलिए है क्यूंकि जैसे ही वह क्रांतिक द्रव्यमान उस लोक की चित्त काया में, किसी ऐसी दशा या ज्ञानादि या मुक्तिमार्ग के लिए ही प्रकट हो जाएगा, तो उस क्रांतिक द्रव्यमान से मांगी हुई दशा आदि की पूर्ति के लिए कोई न कोई योगी या अवतार, किसी उच्च लोक से उस नीचे के लोक में लाया ही जाएगा, जिसकी चित्त काया में वह क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट हुआ है I

गुरु आगे बोले… और ऐसा ही आंतरिक अवतरण के समय भी होता है, जिसमें उस साधक के अंतःकरण के चित्त नामक भाग में ही ऐसा क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट हो जाता है, जिससे किसी बहुत बड़ी सत्ता का उस साधक के हृदय में ही आंतरिक अवतरण हो जाता है I

नन्हें विद्यार्थी को यह सब बातें भा नहीं रही थी, परन्तु उसने कुछ बोला नहीं क्यूंकि उसको जानना ही था कि वह इस हृदयाकाश गर्भ में सनातन गुरु के समक्ष क्यों आया है और हृदय में बैठे हुए उन गुरुदेव की वास्तविकता क्या है I

सनातन गुरुदेव अपने नन्हे शिष्य की ओर ऊँगली करके आगे बोले… इस पूरे ब्रह्मकल्प में, तुम अपने अधिकाँश पूर्व जन्मों में नाम, प्रसिद्धि और समाज आदि से सुदूर ही रहे हो, और ऐसा तब भी हुआ था जब तुम्हारे दिए हुए ज्ञान, विज्ञान और मार्ग पर ही योगमार्ग और वेदधर्म का मूल रूप चलायमान रहा है I किन्तु इस जन्म में ऐसा नहीं होगा, क्यूंकि जो तुम्हारे चित्त में संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट हो चुका है, वह ऐसा तबतक होने नहीं देगा, जबतक या तो तुम उसको नष्ट ही कर दो या तुम देवहसान को ही चले जाओ I और जहां यह देवहसान भी चेतना को सहस्रार से ऊपर उठा कर ही होना होगा I लेकिन यह देहवसान भी तब ही संभव हो पाएगा, जब तुम अपने उन सभी पूर्व जन्मों की गुरुदक्षिणाओं को पूर्ण कर लो, जिसके लिए तुम इस काया रूप में आए हो I जबतक यह गुरुदक्षिणा ही पूर्ण नहीं होगी, तबतक तुम्हारा देहावसान भी नहीं हो पाएगा चाहे तुम या कोई और, कुछ भी कर ले I इसलिए इस परकाया प्रवेश प्रक्रिया से पाए हुए जन्म में उचित यही होगा कि तुम साधारण होकर गुप्त रूप में सामाजिक आदि प्रतिष्ठाओं से सुदूर रहो और अपने उन सभी पूर्व जन्मों के गुरूजनों की गुरुदक्षिणाओं को पूर्ण करो जिसके कारण तुम इस काया में लौटाए गए हो I

सनातन गुरु आगे बोले… लौटाए गए हो इसलिए कहा गया है, क्यूंकि तुम अपनी इच्छा से लौटे भी नहीं हो I इस जन्म में और इस लोक की तुम्हारी अभी के काया रूप में, तुम्हें तो पञ्च विद्या सरस्वती और पञ्चब्रह्म ने ही लौटाया है I जब तुम्हारी पूर्व जन्मों की गुरु दक्षणाएँ पूर्ण हो जाएंगी, तब तुम्हारा किसी रूप और अरूप में पुनः लौटना भी असंभव सा ही हो जाएगा I इसलिए इस जन्म को अंतिम जन्म बनाओ और शांत चित्त होकर इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्ण करो I इसी को पूर्ण करवाने हेतु मैं (अर्थात सनातन गुरु) तुम्हारी हृदय गुफा में स्वयंप्रकट हुआ हूँ और तुम्हे यहाँ पर आने का मार्ग भी दिखाया हूँ I और क्यूंकि मैं एक गुप्त सत्ता ही हूँ, इसलिए जब तुम अपना ग्रंथ भी प्रकाशित करोगे, और कुछ न कुछ अपने बारे में भी बताओगे, तब भी तुम गुप्त ही रहोगे इस समस्त जीव जगत से, जिसके स्थूल, सूक्ष्म, कारण या दैविक और संस्कारिक भाग भी होते हैं I तुम इस जन्म में महाकारण में जाओगे, और अंततः उस महाकारण का ज्ञान और मार्ग सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन इस लोक में बांटकर, न इस लोक में, न ही किसी अन्य लोक या अलोक में ही लौटोगे I यही तुम्हारा अंतिम जन्म है I और एक बात, कि तुम्हारे देहावसान के पश्चात जब तुम महाकारण जगत को भी पार कर लोगे, तभी तुम्हारा ज्ञान इस समस्त चतुर्दश भुवन में व्यापक होगा… इससे पूर्व नहीं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इस लोक की इस स्थूल काया में आगमन से पूर्व, तुमने ऐसा ही माँगा था, उन पञ्च विद्या सरस्वती से I

गुरु अपने नन्हें विद्यार्थी को आगे बोले… यह ज्ञान और मार्ग देने हेतु ही तुम इस स्थूल काया में आए हो I और क्यूंकि तुम इस काया में लौटने से पूर्व से ही योनि जन्म से परे हो चुके थे, इसलिए पञ्च सरस्वती में से माँ सावित्री सरस्वती ने उनके अपने हिरण्यमय गर्भ में तुम्हें धारण किया था, और यह स्थूल काया प्रदान करी थी I

गुरु आगे बोले… तुम्हारे पूर्व जन्मों में से एक गुरु दक्षिणा तुम्हारे गुरु ब्रह्मऋषि विश्वामित्र की है, और यह गुरुदक्षिणा भी तब की है जब तुम सम्राट थे, और सत्यवर्त कहलाए थे I उसके पश्चात एक और जन्म में जब तुम भगवान् बुद्ध के शिष्य थे, तब की भी एक गुरु दक्षिणाशेष है और उस जन्म में तुम ही मैत्रीय कहलाए थे I और इन दोनों के मूल में जो गुरु आदेश था, वह ब्रह्मर्षि क्रतु का था, जिनके तुम मनस पुत्र हुए थे I वह ब्रह्मऋषि क्रतु ही उनके सभी मनस पुत्रों के गुरु भी थे I मूलतः इन्हीं तीनों के लिए तुम्हारा इस काया में परकाया प्रवेश मार्ग से आगमन हुआ है I और जबतक तुम यह तीनों को पूर्ण नहीं करोगे, तबतक कोई कुछ भी करले, तुम्हारे देहावसान भी नहीं हो सकता I

गुरु आगे बोले… जब किसी लोक चित्त में कोई ऐसा संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान प्रकट हो जाता है, जिसका नाता उस ज्ञान और मार्ग से होता है, जो सीधा-सीधा मुक्तिपथ होता है, तब ही उस संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान के कारण, किसी ऐसे योगी का जन्म होता है, जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होता है और जो योनि जन्म की प्रक्रिया से ही परे होता है, और इसलिए वह योगी उसके अपने अंतिम जमन के लिए परकाया प्रवेश मार्ग का आलंबन लेकर लौटाया जाता है I यह भी कारण था तुम्हारे आगमन का I और क्यूंकि इस महाब्रह्माण्ड में तुम्हारा यह अंतिम जन्म ही है, इसलिए मेरा (अर्थात सनातन गुरु का) आगमन भी तुम्हारे हृदय गुफा में हुआ है I ऐसा इसलिए हुआ है, क्यूंकि तुम्हारा इस जन्म का अंतिम मार्ग (अर्थात मुक्तिमार्ग) कर्ममुक्त, फलमुक्त और संस्कारमुक्त होगा, जिसके कारण उस मुक्तिमार्ग में तुम्हारे कर्म भी गुरु आदेश के अनुसार होने होंगे, और उन कर्मों के फल भी गुरु अनुग्रह से ही पाए जाएंगे I ऐसा होने से न कर्म रहेंगे और न फल और न ही उनके संस्कार I इसलिए इस जन्म में तुम्हारा मार्ग उस परंपरा में ही बसा होगा, जो वास्तविक गुरु शिष्य की है, जिसमें गुरु ही त्रिमूर्ती और त्रिदेवी सहित, परब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों के मूल और गंतव्य भी होते हैं, अर्थात शिष्य की आत्मस्वरूप ब्रह्म होते हैं I

गुरु आगे बोले… यदि किसी लोक चित्त में कोई ऐसा संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान उस मार्ग और ज्ञान से संबंधित होता है, जो उत्कर्ष पथ का गंतव्य स्वरूप मुक्तिमार्ग कहलाता है, तब ही किसी योगभ्रष्ट का जन्म होता है, जो प्रबुद्ध भी होता है I ऐसे प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की जन्म प्रक्रिया भी परकाया प्रवेश से ही संभव होती है, और जहां इस परकाया प्रवेश प्रक्रिया को कोई पञ्च विद्या ही चलित करती है इसलिए ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, पञ्च विद्या सरस्वती में से किसी एक का पुत्र होकर ही आता है, और ऐसा ही ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वह जाना भी जाता है I तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) भी पञ्च विद्या सरस्वती में से, सावित्री विद्या सरस्वती के ही पुत्र होकर आए हो, और इसलिए इस जन्म में सावित्री सरस्वती विद्या ही तुम्हारी माता हैं I क्यूँकि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में से, सावित्री सरस्वती सबसे उग्र देवी ही हैं, इसलिए तुम्हारा मार्ग भी शक्ति तंत्र में, अतिउग्र मार्ग ही होगा और ऐसा ही तुम जानोगे जब तुम्हारी चेतना सहस्रार से भी ऊपर जो वज्रदण्ड चक्र है, उससे भी ऊपर जो निरालम्ब चक्र है, उसको (अर्थात निरालम्ब चक्र या निरालम्बस्थान) भी पार कर जाएगी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जबकि इस जन्म से पूर्व से ही तुम सर्वज्ञानी, सर्वद्रष्टा और सर्वातीत योगी ही हो, लेकिन क्यूंकि तुम अपने समस्त जीव इतिहास में लोक और परलोक के मान, सम्मान, महिमा और प्रतिष्ठा आदि से परे रहे हो, और ऐसा ही तुम इस जन्म में भी हो, इसलिए तुम अपना कार्य भी गुप्त रूप में एक साधारण मानव स्वरूप में ही सम्पन्न करोगे I और ऐसा संभव करने के लिए, इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म से पूर्व से ही, तुम कुछ मात्रा में ही सही, लेकिन अज्ञान को अपनाए हो I

नन्हें विद्यार्थी को यह बात सही लगी, क्युकी उसको पता है कि इस कलियुग में तो देवता सहित, संतों और राक्षशों को भी पूजा जाता है I और उसको किसी मंदिर आदि के प्रतिष्ठित तो बिलकुल नहीं होना है, इसलिए उसको गुरु भी नहीं होना है इस कलियुग के कालखंड में I बस विद्यार्थी ही ठीक है, और वह भी नन्हा सा I

गुरु आगे बोले… जब वह संस्कारिक क्रांतिक द्रव्यमान इस लोक में बन गया था, तब ही तुम्हारा परकाया प्रवेश से आगमन हुआ था I और उस आगमन से 108 वर्ष पूर्व से ही तुम इस आकाश गंगा के मध्य में जो मूल लोक है, और जिसके देवता बालकृष्ण ही है, वहां पर सावित्री विद्या द्वारा लाए गए थे, और उन बालकृष्ण के साथ भी तुम कुछ समय तक रहे थे I इस जन्म में तो तुम्हे सबकुछ जानना भी नहीं है, क्यूँकि पूर्ण ज्ञानी कभी मुक्त नहीं होता I ज्ञान भी सिद्धि ही होती है और सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता, इसलिए जबकि तुम महाब्रह्माण्ड से जाओगे और सबकुछ साक्षात्कार भी करोगे, लेकिन तब भी तुम महाब्रह्माण्ड की उन सब दशाओं के ज्ञानी सिद्ध नहीं होगे I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि तुम्हारा यह जीव रूप में जन्म अंतिम जन्म है I और इस जन्म को अंतिम बनाने हेतु, तुम पूर्ण ज्ञान या ब्रह्माण्डीय आदि सिद्धियों को भी नहीं पाओगे, और बस उतना ही पाओगे जितना मुक्तिपथ में पाया जाता है…न इससे अधिक और न ही इससे न्यून I

गुरु आगे बोले… ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि …

सिद्धि कभी भी मुक्तात्मा नहीं होता I

मुक्तात्मा कभी सिद्धियों का धारक नहीं होता I

वह मुक्तात्मा तो समस्त सिद्धियों से भी मुक्त होता है I

और जो सिद्ध ही हो गया, उसको मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना I

 

गुरु आगे बोले… ऐसा योगी जैसा होता है, अब उसको बताता हूँ …

उसका पिण्ड ही ब्रह्माण्ड होता है I

उसके पिण्ड के भीतर ही ब्रह्माण्ड बसा होता है I

और इसके अतिरिक्त, उसका आत्मस्वरूप ही ब्रह्म होता है I

और गुरु आगे बोले… और ऐसा तब भी होगा, जब वह योगी …

अपने पिण्ड रूप में ब्रह्माण्ड में ही निवास करता होगा I

 

और गुरु यह भी बोले… ऐसा योगी …

यद् पिण्डे तद ब्रह्माण्डे, यद् ब्रह्माण्डे तद पिण्डे का सगुण साकार रूप होता है I

अहम् ब्रह्मास्मि, तत् त्वम् असि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म और सोऽहं है I

वह अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप में पूर्णब्रह्म ही होता है I

ऐसा ब्रह्माण्डातीत योगी बंधनातीत भी होगा, और मुक्तितीत भी I

ऐसा योगी ही जीवन और मृत्यु के सिद्धांत से परे ब्रह्म है I

 

गुरु आगे बोले…

जो योगी ऐसा है, वही तो मुक्तात्मा के अनुग्रह का पात्र है I

जो मुक्तात्मा का अनुग्रह पात्र है, वही मुक्त हो पाएगा I

किसी मुक्तात्मा का पात्र ही मुक्तात्मा हो पाता है I

ऐसे योगी की मुक्ति ही अनुग्रह सिद्धि कहलाई है I

उस अनुग्रह सिद्धि में कर्म, फलादि नहीं होते I

वह अनुग्रह सिद्धि ही कर्मातीत मुक्ति है I

 

गुरु आगे बोले… इस मुक्ति का मार्ग भी सर्वसम तत्त्व से होकर जाता है, और जहाँ उस सर्वसम तत्त्व को ही हीरे के समान प्रकाशमान ब्रह्मलोक कहते हैं, जिसके स्वामी सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति ही हैं I उस सर्वसम तत्त्व को पाया हुआ योगी ही ब्रह्मलोक में निवास करने का पात्र होता है I और इस सर्वसम तत्त्व का मार्ग भी प्राणों की सर्वसमता से ही होकर जाता है, और जो एकोहं बहुस्याम: के वाक्य में एकोहं नामक शब्द से दर्शाया गया है I इस एकोहं शब्द के मूल में बसा हुआ योगी ही समस्त कर्मों, उनके कर्मफलों और उनके संस्कारों से मुक्त होता है, और ऐसा योगी ही कर्मातीत मुक्ति को पाता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा कर्ममुक्त कहलाता है I ऐसा योगी ही उस हीरे के प्रकाश को धारण किये हुए ब्रह्म शरीर को पाकर, उन हीरे के समान प्रकाशमान सर्वसम चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जबतक किसी योगी की काया के भीतर ही वह सिद्ध शरीर नहीं प्रकट होगा, जो किसी दैविक आदि लोक का होगा, तबतक वह योगी उस देवादि लोक में गमन भी नहीं कर पाएगा I जबतक वह योगी उस देवादि लोक में गमन नहीं करेंगे, तबतक वह उस देवादि लोक में लय भी नहीं होगा I जबतक योगी की काया के भीतर वह सभी सिद्धादि शरीर जो ब्रह्माण्डीय देवादि लोकों से संबद्ध होते हैं, वह स्वयं प्रकट नहीं होंगे, तबतक योगी ब्रह्माण्ड से योग ही सिद्ध नहीं कर पाएगा ी और जब तक ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं होगा, तब तक वह योगी ब्रमांड को त्याग नहींकर पाएगा ी और जब तक योगी ब्रह्माण्ड का ही त्याग नहीं करेगा, तब तक योगी ब्रह्माण्ड से अतीत ही नहीं हो पाएगा ी ऐसा होने का कारण है की…

जब तक कुछ पाओगे ही नहीं, तब तक उसको त्यागोगे कैसे I

जबतक किसी से योग ही सिद्ध नहीं हुआ, तबतक उसको त्यागोगे कैसे I

जबतक उस पूर्व की योग दशा को त्यागोगे नहीं, तबतक उससे अतीत कैसे होगे I

किसी भी दशा से योगातीत होने के पूर्व, उस दशा से योग सिद्धि होनी ही होगी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब ध्यान देना क्यूंकि इस बिंदु को न समझने से पूर्व कालों में सनातन वैदिक आर्य धर्म का विभाजन हुआ था I

 योग के मूल में भाव होते हैं I

योग का आधार इच्छा शक्ति होती है I

योग गंतव्य में अद्वैत योगावस्था होती है I

योग से परे, पूर्व की योगदशा का त्याग होता है I

योग के परित्याग को ही योगातीत अवस्था कहा जाता है I

योगातीत अवस्था ही अयोग है, जो निर्गुण ब्रह्म की ही द्योतक है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा होने के कारण ही…

योग सिद्धि के पश्चात ही अयोग का मार्ग प्रशस्त होता है I

ब्रह्माण्ड योग ही अयोग सिद्धि का मार्ग है, जो ब्रह्माण्डातीत कहलाती है I

अयोग को ही वह सर्वातीत ब्रह्म कहा जाता है, जो निर्गुण निराकार का द्योतक है I

जिसका ब्रह्माण्ड योग सिद्ध हुआ है, वही योगशिखर पर बैठा हुआ योगी है I

जो योगशिखर से भी आगे है, वह योगातीति दशा का अयोगी है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब ब्रह्माण्डीय देवादि लोकों के सिद्ध शरीर योगी की काया में स्वयं प्रकट होकर, अपने अपने लोकों में विलीन हो जाते हैं, तब ही उस योगी पर से ब्रह्माण्ड की पूर्व की पकड़ समाप्त होती है, और इसके पश्चात ही वह योगी ब्रह्माण्डातीत हो पाता है I ऐसा ब्रह्माण्डातीत योगी ही मुक्ति का पात्र बन पाता है I और जहां वह मुक्तिमार्ग भी ब्रह्माण्ड त्याग में बसकर, उस पूर्व के  ब्रह्माण्ड योग से भी आगे की दशा, जो ब्रह्माण्ड से अयोग की है, अर्थात समस्त ब्रह्माण्ड के त्याग की है, उसकी ओर ही लेकर जाता है I इसलिए…

योग से आगे योगातीत हैयोगातीत ही अयोग होता है I

योगातीत शब्द का गंतव्य, ब्रह्माण्ड योग से अतीत होना होता है I

ब्रह्माण्ड योग से अतीत होने का मार्ग, ब्रह्माण्ड त्याग से होकर जाता है I

ब्रह्माण्ड त्यागने के पश्चात, साधक पूर्ण संन्यासी निर्गुण ब्रह्म में ही लय होता है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… इसलिए जबतक तुम्हारे शरीर में जो ब्रह्माण्डीय दशाएं हैं, उनके सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट नहीं होंगे, और इस प्रकटीकरण के पश्चात, तबतक वह सिद्ध शरीर उनके अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में विलीन नहीं होंगे, तबतक मुक्तिमार्ग भी पूर्ण रूप में प्रशस्त नहीं होगा I और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक मुक्ति को प्राप्त भी नहीं हुआ जाएगा I जब योगी की काया के भीतर, जो कुछ भी ब्रह्माण्ड का है, वह सब अपने-अपने कारणों में विलीन हो जाएगा, तब ही वह योगी मुक्ति को प्राप्त हो पाएगा, अर्थात मुक्तात्मा कहला पाएगा I इसलिए मुक्ति का मार्ग भी ब्रह्माण्ड योग से जाता हुआ, अंततः ब्रह्माण्डातीत दशा से होकर ही जाता है I

और इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… अब ध्यान से सुनो … जब योगी के शरीर के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाएं उनके अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में विलीन हो जाती हैं, तो इसके पश्चात जो दशा आती है, वही ब्रह्माण्डातीत कहलाती है I इसी ब्रह्माण्डातीत दशा से जाकर ही योगी मुक्ति को प्राप्त होता है, और जहाँ वह मुक्ति भी कैवल्य और केवल कहलाती है I इस कैवल्य का मार्ग भी तब प्रशस्त होता है, जब योगी के शरीर के भीतर उन ब्रह्माण्डीय दशाओं के भाग, सिद्ध शरीरों के रूप में स्वयं प्रकट होते हैं, और इस प्रकटीकरण के पश्चात वह भाग अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाता है I जब ऐसा हो जाता है, तब ही वह योगी ब्रह्माण्ड की पकड़ से परे चला जाता है, और मुक्तिमार्ग के गंतव्य, कैवल्य मोक्ष को पाता है I जब योगी की काया के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड के भाग, उनके अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में विलीन हो जाते हैं, तो जो शेष रहता है, वही कैवल्य मोक्ष, निर्गुण निराकार ब्रह्म है, और यही योगी का वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप है I और इस दशा में वह निर्गुण निराकार ब्रह्म, योगातीत और सिद्धितीत ही होता है, और ऐसा ही मुक्तात्मा का वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप भी होता है I जब योगी के शरीर के भीतर का ब्रह्माण्ड, उस ब्रह्माण्ड में लय हो जाता है जिसके भीतर योगी का शरीर निवास कर रहा होता है, तब जो दशा आती है, वही मुक्ति का ब्रह्माण्डातीत स्वरूप है I

सनातन गुरु आगे बोले… लेकिन ऐसी मुक्ति में भी, योगी के भीतर के ब्रह्माण्ड के भाग अपने-अपने कारणों में लय हुए होते है, इसलिए योगी ब्रह्माण्ड से परे होता हुआ भी, वास्तव में ब्रह्माण्ड ही हुआ है, और वह भी ब्रह्माण्ड के सगुण निराकार और स्वरूप में I इस दशा में वह योगी…

ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हुए सिद्ध शरीरों के दृष्टिकोण से, ब्रह्माण्ड ही है I

अपने आत्मस्वरूप के दृष्टिकोण से, पूर्ण संन्यासी, निर्गुण ब्रह्म भी है I

इन दोनों के समान दृष्टिकोण से वही योगी, पूर्ण ब्रह्म ही है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… अब ध्यान देना…

  • वह योगी ब्रह्माण्ड इसलिए है, क्यूंकि उसके सिद्ध शरीर जो ब्रह्माण्डीय दशाओं को ही दर्शाते हैं, वह योगी के शरीर में ही स्वयंप्रकट होकर, अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होकर, ब्रह्माण्ड ही हो जाते हैं I ब्रह्म ही पिण्ड ब्रह्माण्ड रूप में अभिव्यक्त हुए हैं, इसलिए जब योगी के पिण्ड रूप सिद्ध शरीर जो ब्रह्माण्ड की दशाओं को ही दर्शाते हैं, वह अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाते हैं, तब वह सगुण साकार पिण्ड रूप में दिखता हुआ योगी ही ब्रह्माण्ड का सगुण निराकार स्वरूप हो जाता है I
  • और इस विलीन होने के पश्चात जो शेष रहते है, वह उस योगी का पूर्ण संन्यासी आत्मस्वरूप ही होता है, जो निर्गुण ब्रह्म को ही दर्शाता है I
  • और क्यूंकि पूर्ण शब्द, उन अभिव्यक्ता निर्गुण ब्रह्म और उनकी अभिव्यक्ति जो ब्रह्म रचना है, दोनों को दर्शाता है, और जो यहां बताए गए दोनों बिन्दुओं के अनुसार, वह योगी ही हो जाता है, इसलिए इस दृष्टिकोण से वह योगी ही उस परिपूर्णता को दर्शाता है, जो पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… वास्तव में तो रचैता ही रचना और रचना का तंत्र हुआ है, और ऐसा ही वो योगी भी हो जाता है I क्यूँकि रचैता ही रचना और रचना का तंत्र हुए हैं, इसलिए वह रचैता ही पूर्ण कहलाते हैं I और ऐसा ही वह योगी भी हो जाता है, जिसकी बारे में अभी बताया जा रहा है I और इस दशा की प्राप्ति में, मूल में ब्रह्माण्ड धारणा होती है, मध्य से (या मार्ग में) से ब्रह्माण्ड योग होता है, और गंतव्य से ब्रह्माण्डातीत दशा ही पाई जाएगी I लेकिन यह सब बताए गए बिंदु तुम्हारे परमगुरु, पञ्च मुखी सदाशिव के मार्ग पर ही साक्षात्कार किए जाएंगे… न की किसी और मार्ग पर… और उस पञ्च मुखा सदाशिव नामक मार्ग पर भी तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पार करके ही जा पाओगे I

नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरु के मुख की ओर देखा और सोचने लगा, वाह, मुझे क्या गुरु मिले हैं… एकदम जबरदस्त I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… सब विविधताएँ और विसम दशाएँ जो इस जीव जगत में पाई जाती है, उनके मूल में भी एकोहं बहुस्याम: नामक़ वाक्य ही पाया जाता है I इसलिए जब योगी इस वाक्य के बहुस्याम: शब्द का परित्याग करता है, और केवल एकोहं के शब्दार्थ में ही बस जाता है, तब ही वह योगी सर्वसमता को पाकर, यहाँ बताए गए मुक्तिमार्ग पर गमन कर पाता है I ऐसे मार्ग पर ही वह योगी, वह सबकुछ पा जाता है, जो यहाँ कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप में भी बताया गया है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका संकेत भी दिया I

इस पश्चात गुरु आगे बोले… जो प्रश्न हों, उनको पूछ लेना चाहिए I जो प्रश्न ही नहीं पूछता, वह आगामी कालखण्डों का ज्ञानी भी नहीं हो पाता I अब इस व्यान प्राण का संबंध अन्य सभी प्राणों से देखो और बताओ I

नन्हा विद्यार्थी ने देखकर उत्तर दिया… कुछ भी दिख नहीं रहा है I

इस उत्तर पर गुरुदेव बोले… अतिउत्तम, इस व्यान प्राण का नाता किसी और प्राण गुफा से सीधा-सीधा नहीं होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इस व्यान प्राण का अन्य सभी गुफाओं और प्राणों से नाता अपने उपप्राण धनञ्जय से होता है, और धनञ्जय का नाता उन प्राणों के उपप्राणों से ही होता है I

नन्हें विद्यार्थी ने ऐसा ही पाया और इसलिए उसने इस बात का संकेत गुरुदेव को भी दिया I

गुरु आगे बोले… यह धनञ्जय उपप्राण सबसे बड़ा होता है, इसमें ऊर्जाएं भी सबसे अधिक होती हैं, इसी धनञ्जय ने सभी प्राणों और उपप्राणों को घेरा भी होता है और ऐसा होने पर भी यह सबसे शांत ही पाया जाता है I सबसे अधिक मात्रा में ऊर्जाओं को धारण करके भी ऐसा शांत यह धनञ्जय उपवायु इसलिए होता है, क्यूंकि उपप्राणों में इस धनञ्जय का आकार सबसे बड़ा है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपना सर हिलाकर गुरुदेव को संकेत भी दिया I

गुरु आगे बोले… जबकि यह धनञ्जय, व्यान प्राण का उपप्राण ही है, लेकिन तब भी इसका आकार अन्य सभी प्राणों और उनके उपप्राणों से बड़ा ही है I

नन्हा शिष्य बोला… तो इसका अर्थ हुआ कि आकार कोई मायने नहीं रखता? I

गुरु ने उत्तर दियता… हाँ, लेकिन तब जब वह उपप्राण न हो I

और इसके पश्चात गुरु हंसकर बोले… जैसे तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) मेरे हो I जैसा कोई कर्म करता है, वैसा ही वह होगा… जैसी उसके कार्य होते है, वैसी ही उसकी स्थिति होती है… और कार्यों के अंतर के अनुसार, व्यक्तिगत आकार तबतक मायने नहीं रखता जबतक कि उत्कर्ष स्थिति समानता में रहती है… हालांकि कार्यों (या कर्मों) की समानता के भीतर, ऐसा होता है I

सनातन गुरु आगे बोले… उत्कर्ष मार्ग पर गति में जब योगी सर्वसम तत्त्व पर ही पहुँच जाता है, तब आकार का कोई आधार नहीं होता क्यूंकि वह सर्वसम आकार के तारतम्य सहित, निराकार की दशा से भी अतीत है I इसीलिए, उत्कर्ष पथगामी योगीजनों के लिए, समता का विधान भी अनादि कालों से रहा है I और उस सर्वसम तत्त्व को प्राप्त हुए योगीजनों ने ऐसा भी कहा है…

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति I

सत्य एक होने पर भी, अनेक रूपों में बताया जाता है I

सब मार्ग उसी ब्रह्म को जाते हैं, क्यूंकि ब्रह्म ही मुक्तिमार्ग हुआ है I

और इसके पश्चात, सनातन गुरु बोले… यही व्यान प्राण के ज्ञान का गंतव्य स्वरूप है I चलो अब इस प्राण गुफ़ा के अगले प्राण और उपप्राण पर जाते हैं, जिनको अपान प्राण और कूर्म उपप्राण कहा जाता है I

इसके पश्चात सनातन गुरु ने अपने नन्हे शिष्य का हाथ पकड़ लिया और एक दिशा में चलने लगे I

और वह नन्हा शिष्य मंत्रमुग्ध होकर, अपने सनातन गुरुदेव के साथ उसी दिशा में चलने लगा, जहां उसके गुरु उसको लेकर जा रहे थे, और सोचता गया, इतने वर्षों की खोज के पश्चात, वाह, क्या गुरु मिले हैं, जो बताते भी हैं और साक्षात्कार भी करवाते जाते हैं I

 

व्यान प्राण और महामाया, व्यान प्राण और माया शक्ति, व्यान प्राण और अव्यक्त प्रकृति, व्यान प्राण और अव्यक्त प्राण, व्यान प्राण और अव्यक्त, व्यान प्राण और जगद्गुरु माँ शारदा का नाता, व्यान और जगद्गुरु माँ शारदा का नाता, व्यान और माया शक्ति का नाता, व्यान और महामाया का नाता, व्यान और अव्यक्त का नाता,

यह भाग का साक्षात्कार तब हुआ, जब वह नन्हा विद्यार्थी हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पार करके, पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार को गया I

पञ्च मुखी सदाशिव के साक्षात्कारों में ही उस नन्हें विद्यार्थी ने जाना की व्यान प्राण का नाता महामाया से भी है I

और ऐसा उसे तब पता चला जब वह सूर्य लोक से जाकर, उन अव्यक्त प्रकृति में गया, जिनको अव्यक्त प्राण और माया शक्ति भी कहा जाता है I बौद्ध पंथ में उन्ही अव्यक्त प्रकृति को तुसित लोक भी कहा जाता है I

और उन साक्षात्कारों में उस नन्हे शिष्य ने यह भी जाना, कि अव्यक्त के भीतर ही तथागतगर्भ बसा हुआ है, जो अपने शाक्त स्वरूप में अनादि शक्ति ही होता है, और जो महाब्रह्माण्ड की बीजावस्था भी है I

और उस अव्यक्त प्राण के मार्ग से जाकर, उस नन्हें विद्यार्थी ने यह भी जाना कि उन्हीं अव्यक्त प्रकृति ने ब्रह्मलोक के बीस भागों को भी घेरा हुआ है I

और इन सभी साक्षात्कारों के पश्चात, वह शिष्य यह भी जाना की इन्ही अब्यक्त प्रकृति के माया शक्ति स्वरूप को ही जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती कहा गया है I और क्यूंकि जगदगुरु शारदा विद्या ब्रह्मलोक को भी घेरे हुए होती हैं, इसलिए माँ शारदा सरस्वती विद्या का नाता ब्रह्मलोक से भी होता है I इसी कारण से इन जगदगुरु माता शारदा विद्या को साक्षात ब्रह्म भी कहा जाता है I इन्ही जगदगुरु माता, शारदा विद्या सरस्वती से जाकर ही किसी साधक की चेतना ब्रह्मलोक को जाती है I

लेकिन इन  बिन्दुओं के बारे में बाद के अध्यायों में ही बताया जाएगा, इसलिए अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम अपान वायु और कूर्म लघुवायु है I

 

असतो मा सद्गमय I

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