शिव शक्ति योग, शक्ति शिव योग, शिव ही शक्ति है, शक्ति ही शिव है, पुरुष प्रकृति योग, प्रकृति पुरुष योग, भद्र भद्री योग, भद्री भद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, मनोमय कोष प्राणमय कोष योग, रामयान, तारकयान

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यहाँ पर शिव शक्ति योग, शक्ति शिव योग, शिव ही शक्ति है, शक्ति ही शिव है, पुरुष प्रकृति योग, प्रकृति पुरुष योग, भद्र भद्री योग, भद्री भद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, मनोमय कोष प्राणमय कोष योग, रामयान, तारकयान आदि बिंदुओं पर बात होगी I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय और यह पूरी श्रंखला भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान बस होने ही वाला था I

यह ज्ञान मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती गौतम बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का एक अभिन्न अंग भी है।

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौसठवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का तीसरा अध्याय है I

 

शिव शक्ति योग, आंतरिक शिव शक्ति योग
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पूर्व के अध्याय में नाभि लिंग के बारे में बताया था कि इसे अमृत कलश भी कहा जाता है I उस पूर्व के अध्याय में यह भी बताया गया था, कि यह अमृत कलश नाभि से ऊपर उठकर निरालम्ब चक्र तक ही चला जाता है I जब ऐसा होता है, तब साधक की काया के भीतर ही यह शिव शक्ति योग चालित होकर, साक्षात्कार होता है I

शिव शक्ति योग में, शक्ति ही शिव से योग करती है I इसका अर्थ हुआ कि वह प्राणमय शक्ति ही मेरुदण्ड के नीचे के क्षेत्र से ऊपर की ओर उठती हैं I और यह प्राणमय शक्ति भी तब ही ऊपर की ओर उठ पाती है, जब प्राणमय कोष समता को प्राप्त होकर, सत्त्वगुणी होकर श्वेत वर्ण का ही हो जाता है I और ऐसे श्वेत वर्ण में वह प्राणमय कोष, आदिशक्ति के स्वरूप में आता है और इसी दशा को पाकर ही वह मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ऊपर मस्तिष्क की ओर उठता है I

जब साधक का यह अमृत कलश, नाभि से ऊपर की ओर उठता है और सहस्रर को पार करके अंततः वज्रदण्ड पर ही चला जाता है, तब साधक को राम नाद का साक्षात्कार होता है I

और जब वह अमृत कलश, उस वज्रदण्ड से भी परे जो निरालम्ब चक्र है, उसकर ही पहुँच कर उसको भी पार करता है, तब वह साधक शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करता है I

उन शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत होता है और अनंत ही शून्य, इसलिए इस दशा में शून्य और अनंत आपस में ऐसे घुले मिले होते हैं, कि कौन सा शून्य है और कौन सा अनंत, वह समझ ही नहीं आता है I

इसके पश्चात वह चेतना उस अमृत कलश को अपने साथ लेकर तीन बार वज्रदण्ड से ऊपर, जो निरालम्बस्थान है, उस निरालम्ब चक्र को पार करके, शून्य ब्रह्म में जाती है I

और इन तीन बार में, जब वह चेतना वज्रदण्ड के भीतर होती है, तब रा शब्द और मममम शब्द एक साथ ही सुनाई देते हैं I यही दशा रकार और खकार की योगावस्था को दर्शाती है, और इसी योगदशा को राम नाद कहा गया है I

और जब वह चेतना वज्रदण्ड को पार करके, निरालम्ब चक्र में जाकर, उसको भी पार करती है, तब जो शब्द सुनाई देता है, वह का होता है (अर्थात खकार नाद का होता है) I इसलिए इस साक्षात्कार में जब रकार नाद, मकार नाद के साथ ही चलित होता है, उसके पश्चात खकार नाद भी सुनाई देता है I

इस दशा में वह चेतना अमृत कलश को अपने साथ लेकर तीन बार निरालम्ब चक्र में लेकर जाती है, और उस निरालम्ब चक्र को पार भी करवाती है I निरालम्ब चक्र को पार करके वह चेतना तीन बार नीचे आकर वज्रदण्ड में पुनः लौटती भी है I

इसलिए इस दशा में, वह चेतना और अमृत कलश तीन बार वज्रदण्ड से ऊपर की ओर उठकर निरालम्बस्थान को पार करके पुनः नीचे की और, अर्थात वज्रदण्ड में ही लौट जाती है I

जब वह चेतना पुनः वज्रदण्ड में लौटती है, तब इस दशा में वज्रदण्ड के भीतर वही रा शब्द उसको सुनाई देता है I

और जब वह चेतना पुनः ऊपर उठती है और वज्रदण्ड को पार करके निरालाम्बस्थान पर जाकर, उस निरालम्ब चक्र को पार करती है तब उस चेतना को वही खा शब्द सुनाई देता है I

और वज्रदण्ड के भीतर उस चेतना को रा नाद के साथ साथ, कहीं सुदूर से मममम का नाद भी सुनाई दे रहा होता है I

इस साक्षात्कार में वह साधक जानता है, कि वज्रदण्ड का नाद रा और मममम नामक बीज शब्दों का योग है, और निरालम्ब चक्र का नाद खा नामक शब्द है I ऐसी दशा में वह साधक जान जाता है, कि जब वज्रदण्ड में रा और मममम शब्दों का योग होता है, तो ही निरालम्ब चक्र के खा शब्द की ओर का मार्ग प्रशस्त होता है I इसलिए वह साधक यह भी जान जाता है, कि रकार, मकार और खकार का योग ही शिव शक्ति योग का कारक है और साधक के शरीर के भीतर ही चालित होने वाले शिव शक्ति योग का मार्ग ही इन तीन शब्दों के साक्षात्कार का मार्ग है I

 

टिप्पणियाँ:

  • इस खकार के पश्चात वह चेतना डा शब्द का साक्षात्कार करती है, अर्थात उसको डकार नाद का भी साक्षात्कार होता है I
  • और अंततः जब वह चेतना नीचे की ओर जा रही होती है, तब उसको गकार नाद (अर्थात ग का शब्द) का साक्षात्कार भी होता है I
  • इन्ही तीन बीज शब्दों के योग (अर्थात खकार, डकार और गकार क योग) ही खड्ग सिद्धि कहलाती है, जिसका नाता निरालम्ब चक्र, वज्रदण्ड और सुषुम्ना नाडी की योगावस्था से ही होता है I
  • किन्तु इस ग्रंथ में मैंने इस खकार, डकार और गकार नामक सिद्धियों और उनकी योगदशा की सिद्धि (अर्थात खड्ग सिद्धि) के बारे में स्पष्ट रूप में नहीं बताया है, क्यूँकि कुछ बिंदु जिनके दुरूपयोग होने की संभावना होती है, उनको गुप्त ही रखा जाता है और इसी कारणवश उनको सांकेतिक रूप में ही बताया जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और जब वह अमृत कलश, निरालम्ब चक्र को तीन बार पार कर चुका होता है, और तीन बार वह चेतना वज्रदण्ड में पुनः लौट भी चुकी होती है, तो इसके पश्चात अर्ध रूप में यही प्रक्रिया पुनः एक और बार होती है I तो इसका अर्थ हुआ कि चेतना का नाभि कलश के साथ नितरालम्ब चक्र और उससे पार जाना साढ़े तीन बार होता है I

इसके पश्चात वह चेतना उस अमृत कलश के साथ, पुनः नीचे की ओर आने लगती है I

इस नीचे आने की प्रक्रिया में निरालम्ब चक्र से वह चेतना, वज्रदण्ड में आती है, वज्रदण्ड से सहस्रर में आती है, और सहस्रर से वह चेतना आज्ञारंध्र में लौट जाती है I और इसी दशा में पूर्व के अध्याय में बताए गए आज्ञारंध्र का साक्षात्कार वैसा ही होता है, जैसे एक पर्व के अध्याय में, जिसका नाम रंध्र विज्ञान था, उसमें बताया गया था I

इसके पश्चात उस कलश के साथ जो नाभि क्षेत्र से ही ऊपर उठा था, वह चेतना, आज्ञारंध्र पर कुछ समय रुक कर, पुनः नीचे की ओर आती है और नाभि में ही पहुँच जाती है I

जब ऐसा होता है, तब ऊपर के चित्र में दिखाई गई दशा का साक्षात्कार होता है और जहाँ इस चित्र में दिखाए गए नीले वर्ण के भीतर, एक श्वेत प्रकाश भी दिखाई देने लगता है I इस चित्र का नीला वर्ण वह मनोमय कोष है जो शिव का द्योतक है, और श्वेत वर्ण समता को प्राप्त हुआ सत्त्वगुणी प्राणमय कोष है जो शक्ति का द्योतक है I

ऐसी दशा में वह श्वेत प्रकाश ऐसा होता है, जैसे श्वेत वर्ण का हिमपात मेरुदण्ड के समीप के क्षेत्र से, ऊपर सहस्रर की ओर उठ रहा है I

और शनैः शनैः यह श्वेत वर्ण के हिमपात के समान ऊर्जा, पूरे प्राणमय कोष में ही पहुँच जाती है I ऐसी दशा में पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण, सब के सब सत्त्वगुणी ही हो जाते हैं I और जब यह श्वेत वर्ण के हिमपात के समान प्रकाश सहस्रर में ही पहुंच जाता है, तब साधक उस दशा को प्राप्त होता है जिसको विशुद्ध सत् कहा जाता है और जो वामदेव ब्रह्म का और चतुर्मुखा प्रजापति का भी द्योतक होता है और जो मन कही वास्तविक स्वरूप है I

इस दशा में प्राण ही सम (अर्थात समता) नामक बल को धारण करते हैं, और जहाँ यह सम (अर्थात समता) नामक बल भी सर्वप्रथम, भल (अर्थात भ्रूमध्य) के क्षेत्र में ही धारण करा जाता है I

जब ऐसा होता है तो समस्त चक्रों के पत्ते भी इस प्रकाश को धारण करने लगते हैं I और यही वह दशा है जिसमें साधक सप्त चक्रों का साक्षात्कार भी कर सकता है I

इस शक्ति शिव योग के साधक की काया के भीतर ही चलित होने के कारण, जिस साक्षात्कार को पूर्ण करने में वर्षों का समय भी कम होता है, वह साक्षात्कार कुछ ही समय में पूर्ण हो जाता है… और यही इस योग की महिमा है I और इस योग के पश्चात जो होता है, वह अब बताता हूँ… जिन सिद्धियों को प्राप्त करने में कई सहस्र जन्म भी कम होते है, वह सब की सब एक ही वर्ष में पाई जा सकती है I

इस योग से जाकर साधक शिवत्व, विष्णुत्व, गणपत्व, शकतत्व सहित ब्रह्मत्व नामक सिद्धि का भी धारक हो सकता है… लेकिन साधक ने इनमें से एक या सभी को धारण किया है या नहीं, यह तो वह साधक ही जानता होगा I

परन्तु एक बात निश्चित है, कि यदि कोई साधक इस योग से परे ही चला जाएगा, अर्थात इस योग को प्राप्त करके इससे आगे की दशाओं में ही चला जाएगा, तो कुछ वर्षों में ही सही, लेकिन समस्त ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं उस साधक के बारे में बातें अवश्य ही करने लगेंगी I

यह शक्ति शिव योग, सद्योमुक्ति की ओर लेकर जाता है और जैसे ही साधक इस योगदशा को प्राप्त होकर, इसका साक्षात्कार भी कर लेगा, तो वह साधक उस सद्योमुक्ति में स्थापित भी हो जाता है I

सद्योमुक्ति को प्राप्त होकर तो अधिकांश साधक तो इसी योग के पूर्ण होने के समय ही अपने देहावसान कर देते हैं, क्यूँकि उनकी आत्मा को पता चल जाता है, कि जिस कार्य के लिए वह ब्रह्मरचना में जीव रूप में आई थी, वह पूर्ण हो चुका है I जब आत्मा को यह ज्ञान होता है, तो वह ब्रह्मरचना में रहना भी नहीं चाहती है, इसलिए इस योग के पूर्ण होते ही ऐसे साधकगण अपनी स्वेच्छा से ही अपनी काया का परित्याग, इसी योग मार्ग से कर देते हैं I

और कुछ विरले साधक जो इस योग से सद्योमुक्ति को पाकर, अपनी काया को रख पाते हैं, वह भी 3 से 4 सप्ताह से अधिक नहीं रख पाते हैं I ऐसा इसलिए होता है क्यूँकि उनकी आत्मा इस ब्रह्मरचना के किसी भी भाग में अब रहना ही नहीं चाहती है I इसलिए इस शक्ति शिव योग के सिद्ध साधकगणों का देहावसान भी इस योग सिद्धि के 3-4 सप्ताह में ही हो जाता है I

और इस अनादि ब्रह्मरचना में तो कुछ अतिविरल साधकगण भी हुए हैं, जो इस योग सिद्धि को पाके, इसके पश्चात की दशाओ को भी सिद्ध करते हैं और ऐसा करने में उनको एक वर्ष तक भी लग जाता है I और यदि उन सभी परे से भी परे वाली दशाओं की योग सिद्धियों को प्राप्त करने के पश्चात भी वह साधक जीवित रह पाया, तो वह साधक जीवन्मुक्त होकर ही अपना कायाधारी शेष-समय व्यतीत करेगा I ऐसा जीवन्मुक्त योगी विरले से भी विरला ही होता है क्यूँकि इस समस्त ब्रह्मरचना में ऐसे अतिदुर्लभ योगी इतने भी नहीं हुए हैं, कि उनको उँगलियों पर ही पूर्णरूपेण गिना जा सके I ऐसा योगी जब अपना कायाधारी शेष-समय पूर्ण करके अपनी काया को त्यागेगा, और इसके पस्चात वह विदेहमुक्ति ही को प्राप्त होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब शक्ति शिव योग की सिद्धि के तीन प्रकार के योगीजनों की, उनकी गति के अनुसार की बताता हूँ…

 

  • पहले प्रकार के योगी की गति… वह योगी जो सद्योमुक्ति होते ही अपनी काया को त्यागता है… ऐसा योगी शून्य ब्रह्म में लय हो जाता है I सद्योमुक्त होने के तुरंत बाद जब वह योगी अपने देह को त्यागता है, तो ऐसा योगी अव्यक्त शरीर को धारण करके ही उस शून्य ब्रह्म में निवास करता है I
  • दुसरे प्रकार के योगी की गति… वह योगी जो सद्योमुख होकर जीवन्मुक्त होता है, लेकिन अपनी काया का जो प्रारब्ध काल शेष था, उसको पूर्ण नहीं कर पाता है… ऐसा योगी समस्त लोकों का साक्षात्कार करके, उन सभी सिद्धियों को प्राप्त करता है, जो पारे से भी परे की श्रेणी में आती हैं I और ऐसे साक्षात्कारों और सिद्धियों को प्राप्त करने के पश्चात, जब उसका देहावसान होता है, तो वह भी शून्य ब्रह्म में ही लय होता है I लेकिन उस शून्य ब्रह्म में बसे होने के समय, ऐसा योगी उस शून्य ब्रह्म से ही संबद्ध सिद्ध शरीर को प्राप्त करता है और ऐसे ही सिद्ध शरीर को धारण करके, वह उस शून्य ब्रह्म में निवास करता है I
  • तीसरे प्रकार के योगी की गति… वह योगी जो सद्योमुक्त होता है, और इसके पश्चात वह दुसरे प्रकार के योगी के समान जीवन्मुक्त होकर अपनी कायाधारी समय के प्रारब्ध को पूर्ण करके ही अपनी काया को त्यागता है, और विदेहमुक्त होता है… विदेहमुक्ति के पश्चात, ऐसा योगी न निर्गुण ब्रह्म में, न शून्य ब्रह्म में और न ही शून्य स्वरूप प्रकृति में या किसी और देवादि लोक में पाया जाएगा I अपने जीवन काल में ही वह पूर्व में बताए गए जीवन्मुक्त योगी के समान, उन पर से भी परे सिद्धियों को पाएगा और उन सिद्धियों को धारण करके, उन सभी सिद्धियों को गुप्त में ही रखेगा I

और अंततः जब उसका प्रारब्ध पूर्ण होगा, तो वह विदेहमुक्ति को प्राप्त होगा I विदेहमुक्ति की दशा आने तक, वह योगी भारत नामक ब्रह्मा और भारती विद्या सरस्वती में लय होकर, अपने जीवनमुक्ति के काल में ही एक महाकारण देह पाएगा, और महाब्रह्माण्ड का ही सगुण साकार काया धारी (अर्थात शरीरी) लिंगात्मक स्वरूप ही हो जाएगा I

और अपनी विदेहमुक्ति के पश्चात, वह योगी भारत ब्रह्मा और माँ भारती सरस्वती की योगदशा जो महाब्रह्माण्ड कहलाती है और जो वैदिक भारत की भी द्योतक है, उसमें ही इस पृथ्वी लोक की मध्यम काल इकाई के समयानुसार कोई दस सहस्र वर्षों तक महाब्रह्माण्ड का अवधूत होकर ही निवास करेगा I और इसके साथ साथ वह योगी हिरण्यगर्भ ब्रह्म के सूक्ष्म सगुण साकार और सगुण निराकार स्वरूप में उसी महाब्रह्माण्ड में कार्यरत भी रहेगा I

ऐसा योगी उन कार्य ब्रह्म का, जो योगेश्वर कहलाते हैं, उनका स्वरूप भी होता है I ऐसा योगी ही उस गुरुयुग का बीज रूप होता है, जिसके बारे में कई सारे अध्यायों में बताया गया था और ऐसा योगी ही उस गुरुयुग की एक सूक्ष्म लेकिन शक्तिशाली नींव डाल पाता है, और जहाँ उस गुरु युग की आयु भी कोई दस हजार वर्ष की होती है I

और उस गुरु युग के पूर्ण होने पर, वह योगी उन निर्गुण निराकार ब्रह्म और उनकी ब्रह्मशक्ति (अर्थात ईशान ब्रह्म और म आदि पराशक्ति) में समान रूप में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को पाकर, अनंत कालों तक ऐसा ही रह जाता है I

और इसके पश्चात, वह न कभी किसी ब्रह्माण्ड में अथवा किसी ब्रह्माण्ड के किसी लोक में ही लौटेगा, और ना ही नहीं लौटेगा और न ही इन दोनों स्थितियों के मध्य में होगा और ना ही नहीं होगा I ऐसा इसलिए होगा क्यूँकि ऐसे योगी की दशा अद्वितीय, अकल्पनीय और अतीतातीत ही होती है I ऐसा योगी उन पूर्ण ब्रह्म के समान ही शेष रहेगा, जो निर्गुण निराकार होते हुए भी, सगुण निराकार और सगुण साकार हुए हैं और इसके साथ साथ वह ब्रह्मशक्ति भी हैं I

ऐसा योगी निर्गुण ब्रह्म और माँ प्रकृति, दोनों के स्वरूप को प्राप्त होकर, इन दोनों का समान स्वरूप होकर अनंत अगण्य कालों तक रहता है I और ऐसी दशा को प्राप्त होकर, वह जब चाहे, निर्गुण निराकार ब्रह्म में लय भी हो सकता है क्यूँकि उसके लिए अब न तो कोई ब्रह्माण्डीय सिद्धांत रहा है, न ही कोई ब्रह्माण्डीय तंत्र और न ही कोई ब्रह्माण्डीय नियमादि ही रहे हैं I ऐसा योगी उन पूर्ण स्वतंत्र, पूर्ण ब्रह्म का ही स्वरूप होता है, जो निर्गुण ब्रह्म और प्रकृति रूपी ब्रह्मशक्ति की योगदशा ही होते हैं I

ब्रह्मांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, ऐसा योगी ब्रह्मरचना भी होता है, ब्रह्मरचना का तंत्र भी होता है और निर्गुण ब्रह्म भी वही योगी कहलाता है I और ऐसा ऐसा योगी ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति की उस पूर्ण अद्वैत योगदशा में ही निवास करता है, जो पूर्ण ब्रह्म कहलाई थी I

 

प्राणमय मनोमय योग, प्राणमय कोष और मनोमय कोष का योग, मनोमय प्राणमय योग, मनोमय कोष और प्राणमय कोष का योग, …

प्राणमय कोष और मनोमय कोष का योग
प्राणमय कोष और मनोमय कोष का योग, प्राणमय मनोमय योग, मनोमय प्राणमय योग, मनोमय कोष और प्राणमय कोष का योग, प्राणमय कोष का मनोमय कोष से योग, मनोमय कोष का प्राणमय कोष से योग, मनोमय कोष और प्राणमय कोष का योग,

 

इस शिव शक्ति योग में श्वेत वर्ण की शक्ति, नीले वर्ण के शिव के भीतर चालित होकर, उन्ही नीले वर्ण के शिव से योग करने का प्रयास करती है I इस दशा में वह शक्ति ही साधक का प्राणमय कोष होती है, और शिव साधक का मनोमय कोष होते हैं I

 

तो अब इसको बताता हूँ…

शिव शक्ति योग जिसके बारे में यहाँ बात हो रही है, वह आंतरिक योग है, अर्थात साधक की काया के भीतर ही वह चलित होता है I इसका अर्थ हुआ कि यह योग साधक के शरीर के भीतर होता है, जिसके कारण मूल रूप में इस योग का केवल साधक से ही लेना देना होता है, न की ब्रह्मरचना के किसी और भाग से I और इसके अतिरिक्त, अपने चलित और गंतव्य स्वरूप से इसी योग के लेना देना समस्त ब्रह्माण्ड और पूर्ण ब्रह्म से भी है I

इस योग के चलित होने के मूल कारण में आंतरिक यज्ञमार्ग सिद्धि ही होती है I तो इसका अर्थ हुआ कि जबतक साधक हृदयाकाश गर्भ तंत्र को ही पूर्णरूपेण सिद्ध नहीं करता, तबतक वह साधक इस योग से जाने का पात्र भी नहीं बनता I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस योग का नाता शारदा सरस्वती से ही है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूँकि इस योग पर साधक को गति करवाने वाली माँ शारदा विद्या ही होती है I

जब साधक की चेतना, भ्रूमध्य के समीप के शारदा विद्या सरस्वती के स्थान पर पहुँच जाती है (अर्थात साधक की चेतना तथागतगर्भ पर पहुँच जाती है) , तब साधक का उसके अपने योगादि बल से चल रहा योगमार्ग भी समाप्त ही हो जाता है I ऐसा इसलिए होता है क्यूँकि इस दशा की प्राप्ति के पश्चात, जो इससे आगे का माया जगत है, उसको माँ शारदा विद्या ही पार करवाती हैं I और इस मार्ग में वह शारदा सरस्वती विद्या सर्वप्रथम साधक का हाथ पकड़कर, उस साधक को ॐ सावित्री मार्ग की सिद्धि दिलवाती हैं I इसके पश्चात जब साधक की चेतना उन ॐ के ऊपर के बिन्दु में लय होकर, स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है, तब ही वह साधक इस शक्ति शिव योग पर गति करने का पात्र बनता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

आकाश गंगा में सूर्य का प्रारंभिक प्रादुर्भाव आकाश गंगा के मध्य के भाग से होता है, जहाँ एक विकराल ऊर्जा का अंधकारमय सागर सरीका होता है I आकाश गंगा के इस मध्य के पूर्वी भाग से ही सूर्य का प्रारंभिक प्रादुर्भाव होता है I

पञ्च ब्रह्मोपनिषद के अनुसार यह पूर्वी दिशा सद्योजात ब्रह्म से संबंधित होती है I और पाशुपत मार्ग के अनुसार (अर्थात पञ्च मुखी सदाशिव मार्ग के अनुसार) यह दिशा सदाशिव के तत्पुरुष मुख की होती है I

और इस प्रारंभिक प्रादुर्भाव के पश्चात, वह सूर्य आकाश आकाश गंगा में दिखाई नहीं देता है I ऐसा इसलिए होता है क्यूँकि जबतक सूर्य आकाश गंगा के मध्य की अंधकारमय दशा से बाहर नहीं आ जाता, तबतक वह सूर्य आकाश गंगा में दिखाई भी नहीं देता है I

अपने प्रारंभिक उदयावस्था के पश्चात, सूर्य आकाश गंगा के मध्य के अंधकारमय भाग में ही अप्रदक्षिणा पथ पर गति करता है I इसलिए अप्रदक्षिणा पथ ही उदय पथ कहलाता है I और क्यूँकि मुक्तिमार्ग उदय मार्ग से विपरीत होता है, इसीलिए वेद और योग मनीषियों ने प्रदक्षिणा का सिद्धांत अपनाया था, क्यूँकि परिक्रमा ही मुक्तिमार्ग की द्योतक है I

आकाश गंगा में सद्योजात ब्रह्म से अपनी उदयावस्था के पश्चात सूर्य प्रदक्षिणा पथ पर गति करता हुआ, उत्तर के तत्पुरुष ब्रह्म तक पहुँच जाता है I पञ्च मुखा सदाशिव के मार्गानुसार यह उत्तर का मुख, सदाशिव का वामदेव मुख कहलाता है I

इस उत्तरी वामदेव मुख पर पहुँचने के पश्चात ही वह सूर्य जो पूर्व कालों में आकाश गंगा के मध्य के पूर्वी भाग से उदय हुआ था (अर्थात सद्योजात ब्रह्म के स्थान से उदय हुआ था), वह आकाश गंगा के मध्य के अंधकारमय भाग से बाहर निकलता है और बाहर निकलने के पश्चात ही वह सूर्य आकाश गंगा में दिखाई देने लगता है I इसलिए जबतक सूर्य अपनी पूर्व दिशा की प्रारंभिक उदयावस्था से आगे चलकर, उत्तर भाग पर नहीं पहुँचता, तबतक वह आकाश गंगा में दिखाई भी नहीं देता है I

इस पृथ्वी लोक के दृष्टिकोण से, सूर्य ही सम्राट है I और ऐसा होने के कारण, इस पृथ्वी लोक के दृष्टिकोण से सूर्य की गति और दशा ही प्रधान गति और प्रधान दशा होती है I

ऐसा होने के कारण और इस पृथ्वीलोक के दृष्टिकोण से, और इस पृथ्वी लोक के किसी भी कालखण्ड में, सदाशिव के जिस भी मुख पर सूर्य होगा, वही मुख प्रधान हो जाता है I

और क्यूँकि आज के समय हमारा सूर्य, अघोर मुख के ही समीप है, इसलिए आज के कालखण्ड में और इस पृथ्वी लोक के दृष्टिकोण से, सदाशिव का अघोर मुख ही प्रधान मुख है I

जो मुख प्रधान होता है, उसी मुख की पञ्च मुखा सदाशिव और पञ्च ब्रह्मोपनिषद, दोनों मार्गों के अनुसार एकरूपता होती है… अन्य किसी भी मुख की नहीं I इसका अर्थ हुआ कि आज के समय में अघोर मुख पर ही पञ्च ब्रह्मोपनिषद और पञ्च मुखी सदाशिव की योगदशा पाई जाएगी I

आंतरिक योगमार्ग के अनुसार, पञ्च मुखा सदाशिव, ब्रह्मरचना के द्योतक हैं… और पञ्च ब्रह्मोपनिषद, ब्रह्म का द्योतक है I

इसलिए जिस भी मुख पर सूर्य होगा, उसी मुख पर ब्रह्म और ब्रह्मरचना का योग भी होगा ही I इसका यह भी अर्थ हुआ कि आज के समय में, ब्रह्म और ब्रह्मरचना का योग, अघोर मुख में ही साक्षात्कार होगा I

और क्यूँकि ब्रह्म और ब्रह्मरचना का योग (अर्थात ब्रह्म और प्रकृति का योग) ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है, इसलिए यदि किसी भी योगी ने पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार अथवा पूर्ण ब्रह्म में लय ही होना है, तो उस लय होने का मार्ग भी इसी अघोर मुख से ही प्रारम्भ होगा I

इसका अर्थ हुआ, कि क्यूँकि आज के समय पर सूर्य अघोर मुख पर ही खड़ा हुआ है, इसलिए चाहे पञ्च मुखा सदाशिव को मानो, अथवा पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ही पालन करो, इन दोनों मार्गों और उनके साक्षात्कारों में अघोर मुख समान रहता है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि पञ्च ब्रह्मोपनिषद के चार ब्रह्म जो चार दिशाओं में हैं, और पञ्च मुखी सदाशिव के वह चार बाहर की ओर देखने वाले मुखों में, केवल अघोर मुख ही समान पाया जाएगा I इसीलिए इन दोनों मार्गों में केवल अघोर मुख ही समान पाया जाता है, और इन दोनों मार्गों में यह अघोर समान रूप में नीले वर्ण का ही होता है I

इस बिंदु के अतिरिक्त, जो मुख प्रधान होता है, उसी मुख के अनुसार मन का वर्ण और गुणादि भी होते है I ऐसा इसलिए होता है क्यूँकि मन की एक विशेषता होती है, कि गंगा गए तो गंगाराम और यमुना गए तो यमुनादास I

इसलिए अभी का कालखण्ड में और इस पृथ्वी लोक के दृष्टिकोण से, मन का वर्ण नीला ही पाया जाएगा I इसीलिए इस पृथ्वीलोक पर आज के समय पर जीवों का मन, अघोर ब्रह्म के समान नीले वर्ण का ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब ध्यान देना… और ऐसा तब भी है, जब वास्तव में मन सदाशिव के सद्योजात मुख (अर्थात पञ्च ब्रह्मोपनिषद के वामदेव ब्रह्म) से ही संबद्ध होता है और इसी मुख का अंग होता है, जिसके कारण मन की वास्तविक्ता इसी मुख के समान होती है I और ऐसा होने के कारण, मन का वास्तविक वर्ण सदाशिव के सद्योजात मुख के समान, वज्रमणि सा ही प्रकाशमान होता है I

क्यूँकि सूक्ष्म शरीर के उन्निस भागों में से, मन ही प्रधान भाग होता है, इसलिए अभी के समय पर, जीवों के सूक्ष्म शरीर का वर्ण भी नील ही पाया जाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और प्राणमय मनोमय कोष के आंतरिक योग को बताता हूँ…

ऊपर बताए गए कारणों के अनुसार, आज के समय पर और इस अध्याय में बताए जा रहे आंतरिक शक्ति शिव योग में…

अघोर से संबद्ध मन ही समंतभद्र है और साधक की प्राणशक्ति ही समंतभद्री I

अघोर से संबद्ध मन ही महादेव हैं और साधक की प्राणशक्ति ही महादेवी I

अघोर से संबद्ध मन ही शिव है और साधक की प्राणशक्ति ही शक्ति I

अघोर से संबद्ध मन ही भद्र हैं और साधक की प्राणशक्ति ही भद्री I

 

इसलिए, जब इस अध्याय के मार्ग पर जाते हुए मन और प्राण का योग होता है, तब यह योग ऊपर बताए गए सभी दशाओं का भी द्योतक हो जाता है I ऐसा इसलिए है क्यूँकि इस शिव शक्ति नामक योग के मूल में…

अघोर से संबद्ध मन और समता को प्राप्त हुए प्राणों का ही योग है I

इसलिए, मन और प्राण के योग में यह शिव शक्ति योग के सब बिंदु बसे हुए हैं I

 

इसलिए आंतरिक योगमार्ग के दृष्टिकोण से, शक्ति शिव योग के समय, प्राणमय कोष और मनोमय कोष का ही योग होता है I इस योग से प्रारम्भ होने से पूर्व, प्राणमय कोष समता को प्राप्त होता है और ऐसी दशा में वह मनोमय कोष से योग सिद्धि को पाता है I जबतक प्राणमय कोष ही समता को प्राप्त नहीं होगा, तबतक साधक इस भाग में बताई गई योग सिद्धि कोभी नहीं पाएगा I

प्राणमय कोष में समतावादी दशा भी तब ही आती है जब अन्तःकरण चतुष्टय के भाग ऐसे हो जाते हैं…

  • मन… पूर्ण स्थिर निश्चल ब्रह्म में लीं होने लगता है I
  • बुद्धि… लगभग निष्कलंक में ही लीन होने लगती है I
  • चित्त… में बस एक अंतिम संस्कार ही शेष रह जाता है जिससे वह संस्कार रहित चित्त अद्वैत ब्रह्म में लीन होने लगता है I
  • अहम्… विशुद्ध होकर विश्वरूप ब्रह्म में लीन होने लगता है I

और इसी योग के समय, साधक के नाभि क्षेत्र में जो अमृत कलश होता है, वह ऊपर की और उठना प्रारम्भ करता है, और सहस्रर में ही पहुँच जाता है I इसी नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश) को ऊपर के चित्र के मस्तिष्क के भाग में दिखाया गया है I और अमृत कलश की ऐसी नाभि क्षेत्र से ऊपर की ओर, अर्थात सहस्रर में पहुँची हुई दशा को ही उष्णीष सिद्धि कहा जाता है I इसी उष्णीष को इस चित्र में भी दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि प्राणमय कोष जिसके भाग पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण होते हैं, वह इस चित्र में दिखाए गए श्वेत वर्ण के समान नहीं होता, इसलिए इसी बिंदु को यहाँ बताया जाएगा कि यह प्राणमय श्वेत वर्ण का कैसे हो जाता है I

  • हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्ण करने के पश्चात, साधक के चित्त में बस वह अंतिम संस्कार ही शेष रह जाता है I क्यूँकि ऐसी दशा में उस अंतिम संस्कार के सिवा न तो कोई और संस्कार, या उनके कर्म अथवा कर्मफल ही शेष रहते हैं, इसलिए ऐसी दशा में साधक द्वैतवाद से ही परे खड़ा होने लगता है I
  • जब ऐसा होता है, तब पञ्च प्राण और उनके पञ्च उपप्राण भी अपना पृथक स्वरूप त्यागने लगते हैं, और इस प्रक्रिया में वह आपस योग करने लगते हैं I साधक की मनोस्थिति और प्राण स्थिति के दृष्टिकोण से यह एक बहुत विचित्र दशा है, जिसमें साधक ऐसा अनुभव करता है, जैसे उसका नाता अब समस्त जीव जगत सहित, अपने आप से भी नहीं हैI
  • ऐसी दशा में वह साधक सर्वस्व से विमुख होकर ही रहने लगता है I इस स्थिति में साधक के मेरुदण्ड के नीचे के भाग में, गुदा से लिंग तक एक बहुत सूक्ष्म पीले वर्ण का प्रकाश आ जाता है I जब यह दशा आती है, तब साधक का शरीर पीला सा पड़ जाता है I
  • ऐसी जीव जगत और स्वयं से ही विमुख स्थिति में साधक के शरीर के भीतर बसे हुए पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण, एक दुसरे से योग करने लगते हैं I और जैसे जैसे यह योग होता चला जाता है, वैसे वैसे ही साधक के नाभि क्षेत्र में जो नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश) है, वह भी श्वेत वर्ण का होने लगता है I और अंततः यह नाभि लिंग पूर्ण श्वेत वर्ण का ही हो जाता है और यह ऐसा दिखाई देता है, जैसे इसपर किसी ने भर-भर के श्वेत वर्ण का चूना डाल दिया है I ऐसी दशा में वह नाभि लिंग खुरदरे श्वेत वर्ण का दिखाई देने लगता है I
  • क्यूँकि इस नाभि लिंग में तैंतीस कोटि (यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ है, न की प्रकार) सूक्ष्म नाड़ियाँ और उन नाड़ियों की ऊर्जाएं आपस में मिलती हैं, इसलिए जब यह नाभि लिंग ही श्वेत हो जाता है तब यह ऊर्जाएँ भी श्वेत वर्ण की ही होने लगती हैं I ऐसा इसलिए होते है क्यूँकि श्वेत वर्ण समता का द्योतक है और जो भी समता के समीप आएगा या उस समता को छूएगा, वह भी समता को धारण कर लेगा I इसलिए जब यह नाभि लिंग श्वेत वर्ण का हो जाता है (अर्थात समता को धारण कर लेता है) तब इस नाभि लिंग के नाडियों की ऊर्जाएं भी समता को धारण करने लगती हैंI और क्यूँकि यह नाड़ियाँ और उनकी समतावादी ऊर्जाएं शरीर के समस्त भागों में भी गति करती हैं, इसलिए शनैः शनैः ही सही, लेकिन यह समता को धारण करी हुई ऊर्जाएँ, उनकी नाड़ियों में से बहकर, समस्त शरीर में ही पहुँच जाती हैं I
  • जब यह समतावादी ऊर्जाएं शरीर में पहुँच जाती हैं, तो यह प्राणमय कोष को भी श्वेत वर्ण का ही कर देती है I इसलिए ऐसी दशा में वह प्राणमय कोष जिसमें प्राण और उपप्राण अपनी पूर्व स्थिति में पृथक वर्णों के थे, वह सब के सब श्वेत वर्ण के ही हो जाते हैं I ऐसी दशा में यह प्राण और उपप्राण अपने पूर्व के पृथक स्वरूपों को त्यागकर, समता को धारण करते हैं और श्वेत वर्ण के हो जाते हैं I इस स्थिति में प्राणमय कोष श्वेत वर्ण का दिखाई देने लगता है क्यूँकि उसने पूररूपेण समता नामक तत्त्व को धारण कर लिया होता है I
  • ऐसी दशा में उस खुरदरे श्वेत वर्ण के नाभि लिंग को घेरे हुए एक चमकदार वज्रमणि के समान प्रकाश आ जाता है I यह वज्रमणि का प्रकाश नाभि क्षेत्र के समान प्राण की उस दशा को दर्शाता है, जो सर्वसम होती है अर्थात यह दशा समस्त जीव जगत से ही समता में निवास करती है I और समान प्राण की ऐसी दशा को प्राप्त करके, वह साधक भी सर्वसम ही हो जाता है I
  • और इसके पश्चात, यह सर्वसमता भी साधक के शरीर में उन तैंतीस कोटि नाडियों की ऊर्जाओं को सर्वसम बना देती है I और जैसे जैसे यह नाड़ियों का ऊर्जा प्रवाह शरीर के सभी भागों में गति करता है, साधक के शारीर के समस्त भागों में ही यह वज्रमणि के समान सर्वसमता का प्रकाश, व्यापक रूप में दिखाई देने लगता है I ऐसी दशा में साधक का नाता वामदेव ब्रह्म से ही हो जाता है और जहाँ वह वामदेव ब्रह्म भी साधक की काया के भीतर समान प्राण सहित, प्राणमय कोष में ही निवास करने लगते हैं I
  • क्यूँकि वामदेव ब्रह्म से तो मनोमय कोष का नाता होता है न की प्राणमय कोष का, इसलिए जब प्राणमय कोष वज्रमणि के समान प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है, और ऐसी दशा में उस प्राणमय कोष का नाता उन वामदेव ब्रह्म से ही हो जाता है, जो मन के आधिष्टा होते हैं, इसलिए ऐसी स्थिति में प्राणमय कोष के पास मन से योग करने के सिवा कोई और विकल्प ही नहीं रहता I
  • और इसी दशा को प्राप्त होकर, प्राणों का मन से वैसे ही योग होता है, जैसे ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I और क्यूँकि वह सर्वसमता को प्राप्त हुए प्राण ही महादेवी, समंतभद्री, भद्री, शक्ति हैं, और क्यूँकि प्राण ही शिव, महादेव, समंतभद्र, भद्र आदि स्वरूप के मन से योग करते हैं, इसीलिए इस अध्याय श्रंखला में ऐसा बताया गया था, कि इस शिव शक्ति योग में…

भद्री ही भद्र से योग करती हैन कि भद्र, भद्री से I

शक्ति ही शिव से योग करती हैन कि शिव, शक्ति से I

महादेवी ही महादेव से योग करती हैन कि महादेव, महादेवी से I

समंतभद्री ही समंतभद्र से योग करती हैन कि समंतभद्र, समंतभद्री से I

और इस बिंदु के अंत मेंप्राण ही मन से योग करते हैंन कि मन, प्राण से I

  • इस योगदशा में वह नाभि लिंग, जो अमृत कलश ही है और जो नाभि से 3-4 ऊँगली नीचे और मेरुदण्ड की ओर बसा हुआ होता है, वह नाभि क्षेत्र से ऊपर की ओर उठने लगता है और सहस्रर में चला जाता है I
  • इस दशा में साधक की कपाल के ऊपर एक श्वेत वर्ण का प्रकाश आ जाता है, और यही दशा उष्णीष कहलाती है I इस अमृत कलश के कपाल को पार करने की प्रक्रिया में ऊपर की ओर जाने वाले उड़ान प्राण का सहयोग भी रहता है और इसके अतिरिक्त, इस प्रक्रिया में व्यान प्राण भी सहयोगी होता है I इस प्रक्रिया के अंत में साधक की कपाल के ऊपर के भाग में, जहाँ शिवरंध्र होता है, वहाँ सूक्ष्म रूप में उष्णीष प्रकट हो जाता है I और यही सूक्ष्म रूप में प्रकट हुआ उष्णीष ऊपर के चित्र में, सर के ऊपर के भाग में दिखाया गया है I
  • प्रधानतः यह उष्णीष दो प्रकार की होती है, जो स्थूल और सूक्ष्म हैं I स्थूल उष्णीष में साधक के कपाल के ऊपर का भाग की हड्डी ऊपर की ओर उठ जाती है I और सूक्ष्म उष्णीष में साधक के कपाल के ऊपर के भाग से एक सूक्ष्म प्रकाश बाहर की ओर निकलता है I

और इसी सूक्ष्म उष्णीष को ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I इसी उष्णीष को इस अध्याय के एक बाद के भाग में जिसका नाम भद्र भद्री योग होगा, उसके चित्र में भी भद्र के मस्तिष्क के ऊपर एक श्वेत वर्ण के प्रकाश स्वरूप में दिखाया गया है I इस उष्णीष के उदय के मूल में वह नाभि लिंग (नाभि का अमृत कलश) ही है, जो ऊपर उठकर मस्तिष्क को पार कर गया था I

 

आगे बढ़ता हूँ और इस शिव शक्ति योग में अमृत कलश की दशा को बताता हूँ…

यह अमृत कलश नाभि क्षेत्र से ऊपर उठता है और सहस्रर में पहुँच जाता है I

लेकिन यह अमृत कलश सहस्रर पर ही स्थिर नहीं होता, बल्कि यह उससे भी ऊपर जो वज्रदण्ड है, उसमें ही चला जाता है I

और वज्रदण्ड से आगे यह अमृत कलश, निरालम्ब चक्र (अर्थात निरालम्ब स्थान) में जाकर, उसको भी पार करता है I

यह वह दशा है जब साधक शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, शून्य समाधि को पाता है, फिर असंप्रज्ञात समाधि को जाता है, और अन्ततः उसी असंप्रज्ञात समाधि में उस निरंग व्यापक प्रकाश का भी सीधा-सीधा साक्षात्कार करता है, जिनको वैदिक वाङ्मय में निर्गुण निराकार ब्रह्म कहा गया है I

इस अमृत कलश के ऊपर की ओर की गति के समय, उस साधक का अंतिम संस्कार भी हृदय के अंतःकरण के चित्त नामक भाग से ऊपर की ओर उठता है और सहस्र दल कमल से जाकर, वह शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकल जाता है I जब यह शिवरंध्र से बाहर निकलता है, तो यह निरंग भी हो सकता है और पारदर्शी श्वेत भी हो सकता है I लकिन शिवरंध्र से बाहर निकलकर, यह कुछ ही समय में लुप्त (अर्थात गायब) भी ही जाता है I

और अंततः वह साधक निर्बीज समाधि को पाता है जिससे उस साधक का वह अंतिम संस्कार जो पूर्व की हृदयाकाश गर्भ सिद्धि से स्वयं प्रकट हुआ था, वह साधक के कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से ही बाहर निकल जाता है I जब ऐसा होता है तब साधक का चित्त भी पूर्णरूपेण संस्कार रहित होता है I

इस निर्बीज समाधि के समय पर और इस समय के कुछ बाद तक, उस साधक के कपाल के मध्य भाग से एक स्फटिक के समान मुख, बाहर की ओर देखता हुआ पाया जाएगा I यह साधक के भीतर बसे हुए वह ईशान ब्रह्म हैं, जो आकाश की ओर (अर्थात कपाल के ऊपर के मध्य भाग से बाहर की ओर देखते हैं) I और यह उन सदाशिव के ईशान मुख की सिद्धि भी कहलाती है, जिनको वेद मनीषियों ने निर्गुण निराकार ब्रह्म भी कहा है I

इसी योगमार्ग से साधक अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे खण्ड के इकत्तीसवें, बत्तीसवें और तैंतीसवें मंत्रों को अपने आंतरिक योगमार्ग से ही सिद्ध करता है I और इसी को आंतरिक अश्वमेध और योग अश्वमेध (अर्थात योगमार्ग का अश्वमेध यज्ञ) भी कहा जाता है I इसके बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

और इसी योगदशा को ऐसा भी कहा जा सकता है…

शिखर (सहस्रर) में शिव हैं मेरुदण्ड के नीचे के भाग (अर्थात मूल) में शक्ति हैं I

शिव से योग करने हेतु ही शक्ति ऊपर की ओर, अर्थात सहस्रर पर जाती हैं I

शिव से योग करके शक्ति अपने वास्तविक शिवमय स्वरूप में आती हैं I

ऐसी दशा में शिव ही शक्ति होते हैंऔर शक्ति ही शिव  होती हैं I

और अंततः वही शिवमय शक्ति ही सर्वकल्याणकारी शिव हैं I

आंतरिक योगमार्ग में यही प्राण की मन से योगदशा है I

यही आंतरिक योगमार्ग में शक्ति शिव योग है I

और यही योग अश्वमेध मार्ग भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यहाँ जो प्राणमय कोष की वज्रमणि के समान दिशा बताई गई है, वह प्राणों की वह प्राथमिक दशा थी जब प्राण, पञ्च प्राणों और पञ्च उपप्राणों के स्वरूप में विभाजित नहीं हुआ था I

इसका अर्थ हुआ कि यहां बताई गई प्राणों की सर्वसम दशा वह है, जो इस जीव जगत के बहुवादी स्वरूप से भी पूर्व की है I

ऐसी दशा में प्राण एक ही था और वह प्राण ही प्राणमय जीव जगत स्वरूप में था I

जब जीव जगत बहुवादी नहीं हुआ था, तब वह जीव जगत भी प्राणमय स्वरूप में था, और जहाँ जीव जगत का प्राणमय स्वरूप भी एक ही था, न की अनेक (जैसा अभी दिखाई देता है) I प्राणों का वह प्राथमिक स्वरूप जो उनके पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण में विभाजित होने से पूर्व में था, वह सर्वसम ही था और ऐसा होने के कारण वह वज्रमणि के समान ही था I

इसलिए इस शिव शक्ति योग के समय पर जब प्राण सर्वसमता को प्राप्त होते हैं और ऐसी दशा में वह वज्रमणि के समान प्रकाश के हो जाते हैं, तो प्राणों की ऐसी दशा उनके जीव जगत के बहुवादी होने से भी पूर्व की है I

इसका अर्थ हुआ, कि जब साधक की काया में इस शिव शक्ति योग के समय प्राण सर्वसमता को प्राप्त होते हैं, तो वह इस जीव जगत के बहुवादी स्वरूप के नहीं, बल्कि इस जीव जगत के उस स्वरूप को दर्शाते हैं, जब यह जीव जगत सूक्ष्म था और मूल रूप से प्राणमय ही था I

इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि प्राणों की ऐसी दशा जो शिव शक्ति योग के समय प्रकट होती है, वह इस जीव जगत के स्थूल, सूक्ष्म और कारण (अर्थात दैविक) दशाओं के उदय से भी पूर्व की है I

और क्यूँकि जैसी साधक की आंतरिक दशा होती है, वैसी ही गति साधक की चेतना की भी होती है, इसलिए इस शिव शक्ति योग के पश्चात, वह साधक इस जीव जगत का नहीं रह पाता… बल्कि इस जीव जगत से ही अतीत हो जाता है I और ऐसा वह साधक तब भी होगा जब वह अपनी काया में दिखाई दे रहा होगा, अर्थात जीवित सा प्रतीत हो रहा होगा I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि इस शक्ति शिव योग का सिद्ध साधक…

कायाधारी प्रतीत होता हुआ भी, अपनी वास्तविकता में काया से परे ही होगा I

लोकादि में निवास करता हुआ भी, अपनी वास्तविकता में लोकातीत होगा I

जीव रूप में निवास करता हुआ भी, वास्तविकता में जीवातीत ही होगा I

जगत में निवास करता हुआ भी, वास्तविकता में जगतातीत ही होगा I

ऐसा होने के कारण वह जीवित होता हुआ भी, मुक्तात्मा ही होगा I

वह जीवित सा प्रतीत होता हुआ भी, जीवन्मुक्त ही होगा I

 

पूर्व में बताया था, कि यह शिव शक्ति योग सद्योमुक्ति को प्रदान करता है, जिससे वह साधक 3-4 सप्ताह में ही अपने स्थूल देह को त्याग देता है I और यदि वह सद्योमुक्त अपने देह को रख पाए, तो वह जीवन्मुक्त होकर ही रहेगा I और ऐसी दशा में जब वह अपने देह को आगे किसी समय में त्यागेगा, तो वह विदेहमुक्त ही हो जाएगा I इसलिए यह शिव शक्ति योग…

सद्योमुक्ति, जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति, इन तीनों की सिद्धि का ही मार्ग है I

पर इस मार्ग पर वह साधक, सर्वप्रथम सद्योमुक्ति की दशा को ही पाएगा I

और सद्योमुक्ति से आगे जाकर ही वह साधक जीवनमुक्ति को पाएगा I

जीवन्मुक्त होकर रहता हुआ साधक, अंततः विदेहमुक्ति को पाएगा I

सद्योमुक्ति से आगे वह स्वयं ही स्वयं में बसकर ही जा पाएगा I

अपने योगबल के अनुसार ही वह इन तीनों में से कुछ पाएगा I

इसलिए इन तीनों की प्राप्ति में साधक का योगबल ही है I

आगे बढ़ता हूँ…

इस प्राणमय मनोमय कोष के योग का सिद्ध साधक…

अपनी मुक्ति को जबतक आगे के समय में टालना चाहे, तबतक टाल सकता है I

अपनी मुक्ति जिस भी दशा आदि में चाहे, वैसी ही दशा आदि में पाता है I

अपनी मुक्ति वह साधक जिस भी कालखण्ड में चाहे, उसी में पाता है I

अपनी मुक्ति को जिस भी स्थिति में चाहे, उसी स्तिति में पाता है I

 

ऐसा भी इसलिए होता है, क्यूँकि इस आंतरिक शक्ति शिव योग का सिद्ध योगी…

ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की अद्वैत योगदशा को अपनी काया में ही प्राप्त करता है I

उसकी काया में ही भगवान् और उनकी शक्ति, प्रकृति का अद्वैत योग होता है I

वह शिव और शक्ति, दोनों के अद्वैत योगस्वरूप को धारण करके रहता है I

वह कायाधारी होता हुआ भी पूर्णस्वतंत्र, पूर्णब्रह्म स्वरूप मुक्तात्मा होता है I

वह न ब्रह्माण्डीय सिद्धांत या तंत्र के, न ही नियम के आधीन होगा I

ऐसे योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन छोटे चक्रों में से, मध्य के बत्तीस दल कमल में…

भगवान् राम अपने सगुण साकार हिरण्यगर्भात्मक, बाल शरीरी स्वरूप में रहते हैं I

ऐसी दशा में वह रामलला हिरण्यगर्भ ब्रह्माणि योग को दर्शाते हैं I

इस योग के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I

इन्ही रामलला की उपासना शिव भी करते हैं, क्यूँकि रामलला ही शिव की आत्मा हैं और शिव “स्वयं ही स्वयं में” निवास करते हुए, अपनी आत्मा को ही भजते रहते हैं I

 

इसलिए इस स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य में बसे हुए शिव शक्ति योग में, …

योगशिखर पर तो हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म ही होते हैं I

और साधक उनके पूर्ण ब्रह्मत्व को ही पाता है I

परन्तु इस मार्ग की गंतव्य सिद्धि में…

हिरण्यगर्भ ब्राह्मणी योग में हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप के रामलला ही पाए जाएंगे I

और वह सिद्ध योगी ही शिव का शिवत्व और शक्ति का शाक्तत्व कहलाएगा I

और वही सिद्ध योगी, विष्णु का विष्णुत्व और गणपति का गणपत्व भी होगा I

ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में ऐसा योगी अतिमानव ही कहलाता है I

यह अतिमानव नामक सिद्धि ही प्राणमय मनोमय योग का गंतव्य होती है I

अतिमानव उसे कहा जाता है जो पञ्चकृत्य का सिद्ध और धारक होता है I

जब ऐसा अतिमानव किसी लोकादि में लौटाया जाता है, तब ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं अपने अपने लोकादि दुर्ग त्यागकर, उसके साथ खड़ी हो जाती हैं I

ब्रह्माण्ड में यही उस अतिमानव की मूल पहचान होती है I और इस पहचान के अतिरिक्त उसकी एक और पहचान भी होती है कि वह अतिमानव कभी भी जन्म नहीं लेता, बल्कि वह अयोनि जन्म से भी किसी लोक में लौटाया जाता है I

 

शिव शक्ति योग प्रक्रिया, शक्ति शिव योग प्रक्रिया, … महादेव महादेवी योग प्रक्रिया, महादेवी महादेव योग प्रक्रिया, भद्र भद्री योग प्रक्रिया, भद्री भद्र योग प्रक्रिया, शिव योग प्रक्रिया, … समंतभद्री समंतभद्र योग प्रक्रिया, समंतभद्र समंतभद्री योग प्रक्रिया, … शिव शक्ति योग क्या है, शक्ति शिव योग क्या है, महादेव महादेवी योग क्या है, महादेवी महादेव योग क्या है, भद्र भद्री योग क्या है, भद्री भद्र योग क्या है, शिव योग क्या है, समंतभद्री समंतभद्र योग क्या है, समंतभद्र समंतभद्री योग क्या है, … रामयान क्या है, तारकयान क्या है, … शिव शक्ति योग और सद्योमुक्ति, शक्ति शिव योग और सद्योमुक्ति, … महादेव महादेवी योग और सद्योमुक्ति, महादेवी महादेव योग और सद्योमुक्ति, भद्र भद्री योग और सद्योमुक्ति, भद्री भद्र योग और सद्योमुक्ति, शिव योग और सद्योमुक्ति, … राम नाद और शिव शक्ति योग, राम नाद और सद्योमुक्ति, …

राम नाद का प्रकटीकरण ही साधक की काया के भीतर शिव शक्ति योग के प्रारम्भ होने का प्रमाण है I इसी योग को कई प्रकार से बताया जा सकता है, जैसे महादेव महादेवी योग, महादेवी महादेव योग, भद्र भद्री योग, भद्री भद्र योग, शिव योग, … समंतभद्री समंतभद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, मनोमय प्राणमय योग इत्यादि I

क्यूंकि यह योग मुक्तिमार्ग ही है, और क्यूँकि इस योगदशा का शब्द ही राम नाद है, जो शिव का तारक मंत्र ही है, इसलिए इस योग को रामयान और तारकयान भी कहा जा सकता है I

जैसे यह योग काया के भीतर होता है, वैसे ही यह योग उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड में भी होता है, जो काया के भीतर ही बसा हुआ होता है I और क्यूँकि उस सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से ही यह दैविक, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था, इसलिए जब यह योग साधक की काया में हो रहा होता है, तब यही योग इन तीनों ब्रह्माण्ड में भी उतनी ही सीमा में चलित हो जाता है, जितनी सीमा में इन ब्रह्माण्ड के प्रकारों का नाता उस साधक से होता है I

इसलिए जब यह योग साधक की काया के भीतर चालित होता है, तब यही योग उस साधक से जुड़े हुए ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के भागों में भी होता है I परन्तु ब्रह्माण्ड में यह योग उतनी ही सीमा में होगा, जितनी सीमा तक साधक का नाता (अर्थात साधक के प्राणमय कोष और मनोमय कोष का नाता) उस ब्रह्माण्ड से होगा जिसके भीतर साधक अपने काया स्वरूप में बसा हुआ है I

यही वह कारण है कि जबकि यह योग साधक की काया में ही होता है, लेकिन साधक की काया में होने के समय यही योग ब्रह्म रचना के उस भाग में भी उतनी ही सीमा तक होता है, जितनी सीमा में वह ब्रह्म रचना और उसके भाग साधक की काया में होते हैं I ऐसा होने के कारण यह एक योग अपने व्यापक स्वरूप में ही पाया जाता है I और इस योग के समय, इस योग का ऐसा ही वह व्यापक स्वरूप वह साधक साक्षात्कार भी करता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि इस योग के समय पर साधक की काया से जुड़े हुए तीनों ब्रह्माण्ड (अर्थात दैविक, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड) सहित, साधक की काया के भीतर बसा हुआ सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड भी शिवमय और शक्तिमय ही हो जाता है, और क्यूँकि शिव और शक्ति, दोनों ही इस स्थूल जगत का अंग नहीं हैं, इसलिए जब यह योग समाप्त होता है तब अधिकांश साधक अपनी काया का परित्याग भी कर देते हैं I यह भी एक कारण है कि इस योग के पस्चात, कुछ विरले साधक ही अपनी काया में 3 से 4 सप्ताह से अधिक समय तक निवास कर पाते हैं I

और क्यूँकि साधक की काया में यह योग अकस्मात् ही प्रकट होता है और ऐसा होने के कारण इस योग पर साधक का कोई नियंत्रण ही नहीं रहता है, और क्यूँकि यह योग मुक्ति दायक ही है, इसलिए इसे जिस मुक्ति की प्राप्ति होती है, वह सद्योमुक्ति ही होती है I और क्यूँकि सद्योमुक्ति के पश्चात कुछ विरले साधकगण ही अपनी काया को रख पाते हैं, इसलिए अधिकांश साधकगण इस योग सिद्धि के 3 से 4 सप्ताह में ही अपनी काया का परित्याग कर देते हैं I और यह भी एक कारण है कि इस योग के पश्चात, कुछ विरले साधक ही अपनी काया में 3 से 4 सप्ताह से अधिक समय तक निवास कर पाते हैं I

और क्यूँकि ब्रह्माण्ड के इतिहास में जो योगी इस योग को सिद्ध करने के पश्चात जीवित रह पाए हैं, वह बहुत कम ही हुए हैं, इसलिए इस योग के जीवित साक्षात्कारी और स्व:ज्ञानि भी दुर्लभ ही होते हैं I

इस यग के बारे में कोई पढ़ा लिखा मनीषी तो मिल जाएगा, लेकिन जिसने इसको सिद्ध किया हुआ है, वह योगी दुर्लभ ही होगा I यही कारण है कि इस योग के सिद्ध योगीजन अतिदुर्लभ ही होते हैं I

यह भी वह कारण है, कि जबकि राम और शिव तारक मंत्र के बारे में शास्त्रों में तो बताया गया है, लेकिन यह किस योग की सिद्धि है, वह नहीं बताया गया है I

बस इतना ही बताया गया है, कि इस राम शब्द से (अर्थात शिव तारक मंत्र से) योगी मुक्ति को पाता है I लेकिन उस मुक्ति में योगी की चेतना की क्या दशा और किन दिशाओं से गति होती है, उसके बारे में किसी भी शास्त्र में विस्तार से नहीं मिलेगा I ऐसा होने का भी यही कारण है, कि इस योग के सिद्ध मानव काया धारण किए हुए स्वरूप में (अर्थात इस लोकानुसार जीवित रूप में) दुर्लभ ही हुए हैं I

कोई एक योगी, किसी महायुग में इस योग से जाकर भी अपनी काया को रख पाए… तो रख पाए… नहीं तो अधिकांशतः तो कायातीत ही हो जाते हैं I

और वह योगी जो इस योगमार्ग से जाकर भी अपनी काया में रह पाया होगा, वह सिद्ध अपना ज्ञान किसी और को बांटेगा या नहीं… इसका कोई विधान भी नहीं है I और यह विधान भी इसलिए नहीं है क्यूँकि यह योग उस सिद्ध को सिद्धांतातीत, तंत्रातीत और नियमतीत ही बना देता है, जिसके पश्चात उस सिद्ध पर कोई भी ब्रह्माण्डीय सिद्धांत, तंत्र और नियमादि लागू ही नहीं होता है I ऐसा होने के कारण, यदि उसको अपना ज्ञान बांटने की इच्छा नहीं है, तो कोई भी ब्रह्माण्डीय सत्ता उसको बाध्य नहीं कर सकती की वह अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर इस ज्ञान को बांटे I

जबतक इस समस्त महाब्रह्माण्ड में उस योगी का अंतिम जन्म ही न हो, वह अपने इस दुर्लभ स्व:ज्ञान को बाँटेगा भी नहीं I और क्यूंकि योगी की काया के भीतर चलित होता हुआ यह शिव शक्ति योग, आंतरिक अश्वमेध सिद्धि (अर्थात योग अश्वमेध सिद्धि) को ही दर्शाता है और इस योग अश्वमेध सिद्धि के परिपूर्ण स्वरूप में एक सौ एक पाद होते हैं, इसलिए जबतक योगी इस आंतरिक अश्वमेध को एक सौ एक बार ही सिद्ध नहीं कर लेता, वह इस योग के ज्ञान को बाँटेगा भी नहीं I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध के पश्चात ही वह योगी इस सम्पूर्ण महाब्रह्माण्ड से अतीत होने के मार्ग पर गमन करने का पात्र बनता है I और क्यूंकि  जिस जन्म में वह योगी इस बताई गई सिद्धि को प्राप्त करता है, वही जन्म इस सम्पूर्ण महाब्रह्माण्ड में उस योगी का अंतिम होता है, इसलिए वह योगी उस अंतिम जन्म में ही इस योग के ज्ञान को बांटेगा I और क्यूंकि इस एक सौ एक योग अश्वमेध सिद्धि की प्राप्ति के लिए तो कई महाकल्प ही लग जाते हैं, इसलिए यह भी वह कारण है कि ऐसे योगीजन अतिदुर्लभ ही पाए जाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब कोई योगी इस योग को सिद्ध करता है, तो योगी की कायाधारी सीमा में जो ब्रह्माण्ड का भाग होता है, वह झूमने लगता है I

ऐसी दशा में उस योगी की काया के भीतर जो सूक्ष्म संस्कारिक  प्राथमिक ब्रह्माण्ड है, और जो उस ब्रह्माण्ड से भी जुड़ा हुआ है जिसमें उस योगी की काया निवास कर रही होती है, वह दोनों ब्रह्माण्डों में ब्रह्मनाद गूंजने लगता है I

और इन दोनों ब्रह्माण्ड स्वरूपों में जो भी दियताएँ बसी हुई होती हैं, वह भी झूमने लगती हैं I और इसके साथ साथ, इन दोनों ब्रह्माण्ड स्वरूपों में जो ही ऊर्जा (अर्थात शक्तियां) बसी हुई होती हैं, वह नृत्य करने लगती है I

जब ऐसा होता है, तो पूर्व कालों में जिन भी योगीजनों ने उनके अपने भाव साम्रज्य में इस योगमार्ग को जानने की, अथवा इस योगमार्ग पर जाने की इच्छा प्रकट करी थी, वह उस ब्रह्मनाद से, अथवा दिव्यताओं के झूमने से, तथा ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं के नृत्य से जाने जाते हैं, कि अमुक अमुक लोक में ऐसा योगी प्रकट हुआ है I ऐसा जानने के पश्चात ही वह उस लोक में जन्म लेने के लिए प्रयास करने लगते हैं I

इस योग का नाता निगम मार्ग से भी है, और अगामा से भी है I इस योग का नाता सिद्ध मार्ग से भी है, सांख्य मार्ग से भी है I और इस योग का सूक्ष्म नाता दर्शन से भी है I इसलिए भी यह पूर्ण योग ही है, अर्थात यह गंतव्य योग ही है I

इस जन्म से पूर्व के जन्म में मैं भी यही ब्रह्मनाद को सुनकर जन्म लिया था, क्यूँकि यह ब्रह्मनाद उस बात का प्रमाण भी होता है, कि इस दुर्लभ योग का सिद्ध प्रकट हुआ है I उस पूर्व जन्म में मेरे गुरुदेव (भगवान् बुद्ध) ने जब इस योग को सिद्ध करा था, तब भी ब्रह्माण्ड में ब्रह्मनाद गूंजने लग गया था और इसके साथ साथ ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं, ऊर्जाएं और शक्तियां झूम-झूम कर नृत्य करने लगी थीं I इसी को सुनकर और देखकर मुझे पता चल गया था, कि इस पृथ्वी लोक में किसी योगी का प्रादुर्भाग्व हुआ है, जिसने शिव शक्ति योग सिद्ध करा है I और ऐसा जानकार, मैं इस लोक में परकाया मार्ग से ही सही, लेकिन जन्मा था और उन्ही भगवान् बुध का वह शिष्य भी हुआ था, जिनको उन भगवान् ने मित्र नाम दिया था है I और उन्ही बुद्ध भगवान की गुरुदक्षिणा की पूर्ती करने हेतु, यह जन्म चाहे परकाया प्रवेश से ही हुआ है… लेकिन हुआ है I और यह ग्रंथ भी उसी गुरुदक्षिणा के अंतर्गत आता है I लेकिन इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म में तो और भी पूर्व कालों की गुरु दक्षिणा हैं, इसलिए इस जन्म में और इस ग्रंथ के लिखने के कारण में, केवल उन पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान बुद्ध की गुरुदक्षिणा नहीं है I

यदि इस योग का सिद्ध योगी अपनी काया को रख पाए, तो ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों में जो साधक इस योग के बारे में जानना चाहते हैं अथवा इस योग की सिद्धि मार्ग मर जाना चाहते हैं, वह उसी लोक में जन्म लेंगे जिसमें वह सिद्ध बैठा हुआ होगा I और यदि उन साधकगणों का जन्म इस योग के सिद्ध के जीवनकाल में ही हुआ, तो वह उसके स्थान के समीप ही जन्म लेंगे I लेकिन ऐसे इस सिद्ध योगी के समीप के स्थानों पर लौटने के पश्चात भी उन योगीजनों को अपनी पात्रता का पूर्ण प्रमाण देना होगा नहीं तो वह सिद्ध उन लौटे हुए साधकगणों को न तो कोई ज्ञान देगा न ही कोई दीक्षा I ऐसा इसलिए होगा क्यूँकि जितनी दुर्लभ कोई दीक्षा होती है, उतना ही कठिन उसकी पात्रता का प्रमाण भी होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब कोई इस योग मार्ग को सिद्ध करता है, तब जितनी भी विकृत शक्तियां और जीवादी हैं, वह मचलने लगते हैं I और इसके पश्चात वह उसी लोक में आकर, उत्पात भी मचाने लगते हैं I यह उत्पात ही उसी लोक में होता है जिसमें वह सिद्ध बैठा होता है I ऐसा ही अभी के समय पर हो रहा है I

और जब यह सिद्ध अपना ज्ञान प्रकाशित करने लगता है, तब वह विकृत शक्तियां और भी उत्तेजित हो जाती हैं, जिसके कारण जिस लोक में वह सिद्ध बैठा हुआ होता है, इसमें कई प्रकार के विप्लव आते हैं I

ऐसा कभी हुआ ही नहीं, कि इस शिव शक्ति योग का सिद्ध किसी लोक में बैठा हुआ है, और वह नहीं हुआ जो यह बताया गया है I लेकिन यदि वह सिद्ध बस उतने ही शिष्य बनाए, जितने इस दुर्लभ योग की दीक्षा के वास्तविक पात्र होंगे, तो अंततः उसी लोक से गुरुयुग की नींव भी डाली जाती है I ऐसा समय से ही यह समस्त ब्रह्माण्ड शिवमय और शक्तिमय होने लगता है I लेकिन जब ऐसा होता है, तो इसकी प्रक्रिया भी बहुत विप्लव लेकर आती है, क्यूँकि कालचक्र के अनुसार उस गुरुयुग के नींव डालने के समय पर तो देवताओं का कलियुग ही चल रहा होता है I

वह मानव सतयुग जो देव कलयुग के भीतर ही प्रकट होता है, वह गुरु युग है I

वह गुरुयुग पृथ्वी के विषुव के पूर्वागमन चक्र के भीतर प्रकट होता है I

और जहाँ उस गुरुयुग की आयु कोई दस सहस्र वर्षों की होती है I

और इस गुरुयुग की सूक्ष्म पर अतिशक्तिशाली नींव डालने वाला और इस गुरुयुग  को प्रकट करने वाला वही योगी होता है, जिसने इस योग अश्वमेध को एक सौ एक बार सिद्ध करा होगा I

 

उस गुरुयुग की आगमन प्रक्रिया में…

देव कलियुग से मानव कलियुग जाता है I

उसी देव कलियुग में मानव सत्युग लाया जाता है I

यह कार्य सूक्ष्म (गुप्त) रूप में होता है, न की ढिंढोरा पीटकर I

गुरुयुग आगमन प्रक्रिया में, कलियुग के समस्त तंत्र समाप्त होते हैं I

यह समाप्ति क्रम दैविक ब्रह्माण्ड से सूक्ष्म, फिर स्थूल ब्रह्माण्ड का होता है I

स्थूल ब्रह्माण्ड में यह आधार सूक्ष्म किन्तु शक्तिशाली रूप में ही डाला जाता है I

जबकि यह आधार सूक्ष्म रूप में होगा, फिर उसका नाता तीनों ब्रह्माण्डों से होगा I

अभी के कालचक्र गणना के अनुसार, उस गुरुयुग का सूक्ष्म आधार (अर्थात सूक्ष्म नीव) 2028 ईस्वी से 2.7 वर्षों के भीतर ही डाला जाएगा, अर्थात 2026.04 ईस्वी से लेकर 2031.44 ईसवी के मध्य के कालखण्ड में ही डाला जाएगा I

और उस सूक्ष्म लेकिन शक्तिशाली नीव के मूल में यही योग सिद्धि होगी, जिसका वर्णन इस अध्याय श्रंखला में करा जा रहा है I यह बात मैं 2011-2012 ईस्वी से ही बोल रहा हूँ I

और इस नींव डालने की प्रक्रिया में वह सब कुछ होगा, जो वैदिक युग परिवर्तन के समय होता है I

किन्तु अन्य सभी देशों की तुलना में, भारत खण्ड पर इसका प्रभाव थोड़ा विलम्ब से ही आएगा I और जबतक वह पूर्ण प्रभाव में नहीं आता, तबतक थोड़ा न्यून मात्रा में ही आएगा I किन्तु जब विलम्ब ही सही, लेकिन जब भारत खण्ड में वह प्रभाव अपने पूर्ण स्वरूप में आएगा, तो उस प्रभाव के कारण, पूरा विश्व कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन स्तम्भित हुए बिना नहीं रह पाएगा I और अंततः जब यह प्रभाव आएगा, तो यह खण्डित रूप में आता हुआ भी, अपने पूर्ण स्वरूप को पाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

राम नाद और शिव शक्ति योग ही मुक्तिमार्ग कहलाता है I यह समस्त योगमार्गों का, और उत्कर्ष मार्गों का अंतिम पड़ाव ही है I इसके आगे मुक्ति ही है, परन्तु उस मुक्ति के मार्ग में भी कई पड़ाव होते हैं I

ऐसा कोई मुक्ति का मार्ग है ही नहीं, जिसका नाता इस अध्याय श्रंखला से नहीं हुआ है I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब शिव शक्ति योग की प्रारंभिक दशा को बताता हूँ…

शिव शक्ति योग की प्रारंभिक दशा, शक्ति शिव योग की प्रारंभिक दशा
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इस योग के प्रारंभिक दशा में साधक की काया के भीतर ही वह श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी समतावादी पराशक्ति (अर्थात आदिशक्ति) व्यापक होने लगती हैं I और इस प्रक्रिया में साधक की काया के भीतर कोई भाग बचता ही नहीं, जहाँ वह श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी समतावादी पराशक्ति (अर्थात आदिशक्ति), साधक की प्राणमय शक्ति के स्वरूप में बैठी हुई न हो I

यही दशा इस चित्र में भी दर्शाई गई है जिसमें नीले वर्ण के शिवमय मन के भीतर अब श्वेत वर्ण की शक्ति विराजमान हो चुकी हैं I

और ऐसी दशा के कुछ बाद में ही साधक शिव शक्ति योग में जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब पुरुष प्रकृति योग को बताता हूँ क्यूँकि इस योग का नाता भी इसी शिव शक्ति योग से है…

पुरुष प्रकृति योग, पुरुष प्रकृति योग की प्रारंभिक दशा
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जब साधक की काया के भीतर राम नाद सुनाई देता है, तब इसका यह अर्थ होता है की शक्ति का योग शिव से हो रहा है I इस शक्ति के शिव से योग में शक्ति प्रकृति रूप में ब्रह्म शक्ति होती है, और शिव भगवान् अर्थात ब्रह्म होते हैं I

और जब यही नाद, ब्रह्माण्ड के भीतर सुनाई देगा तो इसका भी यही अर्थ है कि उस दशा में यह शिव शक्ति योग हो रहा है I ब्रह्माण्ड के भीतर यह नाद आकाश गंगा आदि के उदय और अस्त होने के समय पर भी सुनाई देता है I ब्रह्माण्ड के उदय और अस्त होने के समय पर भी यही नाद सुनाई देता है I

जैसा ब्रह्माण्ड के उदय और अस्त होने पर होता है, वैसा ही जीवों के उदय और अस्त होने पर भी होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि ब्रह्म रचना में जीव और जगत के लिए पृथक सिद्धांत बनाए ही नहीं गए थे I और वैसा ही तब होता है जब साधक मुक्तिमार्ग पर गमन करने का पात्र बनता है I इसी योग को यहाँ पर पुरुष प्रकृति योग कहा गया है I और इसी योग से साधक निर्बीज समाधि को प्राप्त होकर, मुक्त होता है I

इस योग में पुरुष का शब्द महादेव को दशार्ता है, और प्रकृति का शब्द महादेवी को, इसलिए इसको महादेव महादेवी योग भी कहा जा सकता है I

क्यूँकि वह ब्रह्माण्ड जिसकी बात यहाँ करी गई है, उसमें ही साधक की काया बसी हुई है, और इसके अतिरिक्त वही ब्रह्माण्ड साधक की काया के भीतर भी अपने सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में निवास करता है, इसलिए जब यह योग साधक की काया के भीतर चलित होगा, तो उसी समय यही योग साधक की काया के भीतर के ब्रह्माण्ड सहित, उस ब्रह्माण्ड में भी चलित हो जाएगा, जिसका नाता साधक की काया से है और जिसके भीतर साधक काया स्वरूप में बसा हुआ है I

इसका अर्थ हुआ कि जब साधक की काया के भीतर यह योग चलित होता है, तब उस साधक से जुड़े हुए आंतरिक और बाह्य ब्रह्माण्ड में भी यही योग चलित हो जाता है और ऐसा होने के कारण, साधक की दृष्टिकोण से यह योग व्यापक ही पाया जाएगा I

किन्तु ऐसा होने पर भी काया से बाहर के ब्रह्माण्ड में यह योग उतने अंश में ही चलित होगा, जितने अंश में साधक की काया उस ब्रह्माण्ड का भाग होगी, अर्थात ब्रह्माण्ड से जुडी हुई होगी I और इस बाहर के ब्रह्माण्ड से विपरीत, साधक की काया के भीतर बसे हुए सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड में यह योग पूर्णरूपेण ही चलित हो जाएगा I

ऐसा होने के कारण, यह प्रकृति पुरुष योग वास्तव में साधक से जुड़े हुए पिण्ड ब्रह्माण्ड में ही चलित होता हुआ प्रतीत होगा I और यही बिंदु इस पुरुष प्रकृति योग का एक प्रमुख लक्षण (या विशेषता) है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब इस योग के बारे में ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से बताया जाएगा…

 

प्रकृति का शब्द कई सारे दृष्टिकोण से बताया जा सकता है, तोअब मैं उनमें से कुछ को बताता हूँ…

  • प्रकृति ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, सार्वभौम शक्ति, सार्वभौम दिव्यता, सनातन अर्धांगिनी और प्रमुख दूती हैं I
  • प्रकृति के शब्द के कई सारे अर्थ हो सकते हैं जैसे स्त्री सिद्धांत, श्री सिद्धांत, मातृ सिद्धांत, देवी सिद्धांत, दिव्यता सिद्धांत, मूल सिद्धांत, प्रधान सिद्धांत, शक्ति सिद्धांत, अदि सिद्धांत (या आदिशक्ति सिद्धांत), क्रिया सिद्धांत (और रजस सिद्धांत), सत्त्व सिद्धांत, तम सिद्धांत, त्रिगुण सिद्धांत, महाभूत सिद्धांत, अनादि सिद्धांत, महत सिद्धांत, अंतःकरण सिद्धांत, मनस सिद्धांत, बुद्धि सिद्धांत, महाकाली सिद्धांत (काल दिव्यता सिद्धांत), रचना सिद्धांत, आसक्ति सिद्धांत, शून्य सिद्धांत, बहुवादी सिद्धांत, बहुवादी अद्वैत सिद्धांत, इत्यादि I
  • ऊपर बताए गए समस्त सिद्धांत भी यहां बताए जा रहे चार सिद्धांतों से नाता रखते हैं… अहंकार सिद्धांत, अस्मिता सिद्धांत, सर्वदा सिद्धांत, (है-ता सिद्धांत) और शून्यता सिद्धांत I
  • प्रकृति के यह समस्त सिद्धांत भी उन्ही माँ प्रकृति की तीन प्रमुख दशाओं से नाता रखते हैं, जिनको अपरा प्रकृति, परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति कहा जाता है I इसलिए इन सभी सिद्धांतों का नाता अपरा सिद्धांत, परा सिद्धांत और अव्यक्त सिद्धांत, तीनों से ही है I

परमशिव जो निर्गुण ब्रह्म ही है, उनसे सगुण शिव का उदय हुआ था I उन सगुण शिव से ही उनके दो भागों का उदय हुआ था, जो पुरुष और प्रकृति कहलाए थे I और इन पुरूष और प्रकृति की योगदशा से ही सब पिण्डों और ब्रह्माण्डों के उदय हुआ था I

इसलिए वह सगुण शिव, शक्ति का क्रियात्मक और सगुण स्वरूप थे, और पुरुष स्वरूप भी वही थे I ही ऐसा इसलिए था क्यूंकि उदय का मूल, उससे उदय हुई दशा से पृथक नहीं होता I

उस उदयावस्था से प्रकृति ही शक्ति हैं, इसलिए उदय हुई सभी दशाओं का नाता उन अदि पराशक्ति से ही है, जो परमशिव (ब्रह्म) की अर्धांगिनी हैं, और ऐसा होने पर भी वह अपने मूल स्वरूप से उन्ही परमशिव की अभिव्यक्ति हैं I

जब उन परमशिव और आदि पराशक्ति का योग हुआ था, तो सर्वप्रथम शून्य ब्रह्म का ही उदय हुआ था, और जहाँ उन शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत था और अनंत ही शून्य I उन शून्य ब्रह्म में से ही शून्य नामक प्रकृति की प्रथम दशा का उदय हुआ था और इसी प्रथम दशा से ही अन्य सबकुछ का उदय हुआ था I

इसलिए यह भी वह कारण है, कि यहाँ बताया जा रहा प्रकृति पुरुष योग, सगुण शिव सहित, परमशिव और आदि पराशक्ति से भी नाता रखता है I

और इस भाग के साक्षात्कार में साधक सगुण शिव सहित, परमशिव शिव और उनकी दिव्यता रूपी अभिव्यक्ति जो आदि पराशक्ति हैं, उनके भी कई सारे स्वरूपों का साक्षात्कार करेगा I और जहाँ वह सगुण शिव, सगुण निराकार स्वरूप में भी होंगे और सगुण साकार स्वरूप में भी साक्षात्कार करे जा सकते हैं I

ऐसा होने के कारण, इसी शिव शक्ति योग से साधक निर्गुण ब्रह्म सहित, सगुण ब्रह्म के साकारी और निराकारी स्वरूपों का भी साक्षात्कार कर सकता है I यही कारण है कि यह योग, साक्षात्कार मार्ग की परिपूर्णता को ही दर्शाता है I

लेकिन इस योग में शक्ति ही शिव से योग लगाने को जाती हैं, न कि शिव, शक्ति से योग लगाने को जाते हैं I और इस योग प्रक्रिया में वह शक्ति साधक के मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ही ऊपर को उठकर सहस्रार चक्र में चली जाती हैं, जिसमें और जिससे आगे वह परमशिव साक्षात्कार होते हैं और वहीँ पर यह प्रकृति पुरुष योग सिद्धि होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी इस योगदशा की प्रकाशित अवस्था, भ्रूमध्य में साक्षात्कार होती है I

 

अब पुरुष शब्द को बताता हूँ…

  • पुरुष नामक शब्द के भी कई अर्थ हो सकते हैं लेकिन यहाँ पर मैं केवल कुछ को ही बतलाऊँगा… पुरुष का अर्थ पुरुष सिद्धांत, पिता सिद्धांत, देव सिद्धांत, परम सिद्धांत,कल्याणकारी सिद्धांत (अर्थात शिव सिद्धांत), चेतन सिद्धांत, ज्ञान सिद्धांत, सनातन सिद्धांत, स्थिति सिद्धांत, उत्पत्ति सिद्धांत संहार सिद्धांत, प्रणव सिद्धांत, काल सिद्धांत (या महाकाल सिद्धांत), प्रत्याहार सिद्धांत, त्याग सिद्धांत, यज्ञ सिद्धांत, राज सिद्धांत, इत्यादि I
  • पुरुष का शब्द समाधि सिद्धांत का भी द्योतक है, इसलिए यह समाधि की दशा प्रधानतः प्रकृति की नहीं, बल्कि पुरुष को दर्शाती है I
  • इस पुरुष शब्द का अर्थ ब्रह्म सिद्धांत, निर्गुण निराकार सिद्धांत और अद्वैत सिद्धांत (वेदांत सिद्धांत) इत्यादि भी है I और इसका अर्थ निर्बीज सिद्धांत, निर्विकल्प सिद्धांत आदि भी है ही I

 

अब प्रकृति और पुरुष के योग को बताता हूँ…

इस योग में प्रकृति ही पुरुष से योग लगाती हैं, न कि इससे उलटी दिशा में यह योग होता है I और जहाँ यह दोनों, पुरुष और प्रकृति साधक की काया के भीतर ही निवास करते हैं, और इसके अतिरिक्त यह दोनों (अर्थात पुरुष और प्रकृति) साधक की काया के भीतर और बाहर जो ब्रह्माण्ड होता है, उस ब्रह्माण्ड के दोनों ही स्वरूपों में निवास करते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस पुरुष प्रकृति योग के चरण भी होते हैं, इसलिए उनको अब बताता हूँ…

  • प्रथम चरण… इस चरण में प्रकृति ही पुरुष से योग लगाने जाती हैं, और इसी दशा को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I क्यूँकि इस योग की प्रारंभिक दशा में पुरुष असंलग्न होता है, इसलिए वह अपनी आंतरिक दशा से प्रकृति से सुदूर ही रहता है I

किन्तु जब ऐसा होता है, तब प्रकृति उस पुरुष के एक भाग को घेर लेती हैं और घेरने के पश्चात, वह उस घेरे हुए भाग से ही योग लगा लेती हैं I

जब प्रकृति पुरुष के उस भाग को घेर लेती हैं, तब ही इस योग सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है I

पुरुष तो अनंत सरका ही है, इसलिए उस पुरूष की सम्पूर्णता से तो यह योग होता भी नहीं है… बस कुछ न्यून भाग से ही यह योग चलित होता है I

यह दशा वैसी ही है जब ब्रह्माण्डोदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है I और क्यूँकि वह मुक्तिमार्ग जो ब्रह्माण्डातीत होने का मार्ग है, वह ब्रह्माण्डोदय के मार्ग से विपरीत ही होता है, इसलिए वह मुक्तिमार्ग भी इसी दशा से होकर जाता है I और इसी दशा को ऊपर का चित्र भी दिखा रहा है I

इस स्थिति में पुरुष नील वर्ण के और प्रकृति श्वेत वर्ण की दिखाई देती हैं I और जैसे जैसे यह योग प्रारम्भ होता है, वैसे वैसे प्रकृति का वर्ण भी हल्का नीला होता चला जाता है, और पुरुष का वह भाग जिससे यह योग लगाया जाएगा है, उसका वर्ण भी पूर्व के गाढ़े नील वर्ण से हल्का हो जाता है I यही इस योग के चलित होने का प्रमाण भी है I

इस प्रकृति पुरुष योग में यह दशा जो साधक की काया के भीतर ही चल रही होती है, वही उस साधक की काया से जुड़े हुए ब्रह्माण्ड के भाग में चलने लगती है I और जहाँ वह ब्रह्माण्ड साधक की काया के भीतर भी होता है, और यही वह ब्रह्माण्ड भी होता है, जिसमें साधक की काया बसी हुई होती हैI इसलिए इस योग दशा में साधक की काया के भीतर भी ऊपर के चित्र जैसा प्रकाश दिखाई देने लगता है I

पुरुष की सूक्ष्मता प्रकृति से अधिक होती है, इसलिए वह पुरुष तत्व प्रकृति के भीतर भी होता है, और ऐसा होने के कारण यही योग प्रकृति के भीतर भी सिद्ध होता है I और क्यूँकि साधक की काया और काया के भीतर बसा हुआ सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड भी प्राकृतिक ही है, इसलिए यही योग साधक की काया के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड में ही सिद्ध होने लगता है I

क्यूँकि पुरुष अपने गंतव्य स्वरूप में तो निर्गुण ही हैं, और क्यूँकि निर्गुण दशा में तो योग हो ही नहीं सकता, इसलिए पुरुष का वह भाग जिसको प्रकृति ने घेरा होता है और जिसके भीतर भी वही पुरुष बसा हुआ होता है, वह एक सगुण स्वरूप धारण कर लेता है I

निर्गुण पुरुष के ऐसे सगुण स्वरूप से ही प्रकृति योग लगा पाती है इसलिए यह योग बस सीमित सा ही होता है, क्यूँकि निर्गुण पुरुष जो अनंत ब्रह्म ही हैं, उनके तो बस एक छोटे से भाग से ही यह योग सिद्ध हो पाता है I

और क्यूँकि इस योग से ही ब्रह्माण्डोदय हुआ था, इसलिए यह भी वह कारण है कि ब्रह्माण्ड उन्ही निर्गुण ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है, और जहाँ वह ब्रह्माण्ड भी उन अनंत निर्गुण पुरुष के एक छोटे से भाग से ही उत्पन्न हुआ है और उत्पन्न होकर वह ब्रह्माण्ड उन्ही अनंत निर्गुण पुरुष में ही स्थित होकर रहता है I

इसलिए निर्गुण ही सगुण पुरुष हुआ था और इसी सगुण पुरुष से प्रकृति ने योग लगाया था, जिससे यह समस्त जीव जगत उत्पन्न हुआ था I

 

आगे बढ़ता हूँ और अब ध्यान देना…

जबतक उस सगुण पुरुष को, जो साधक की काया के भीतर प्रकृति से योग लगके बैठा हुआ है, उसको साधक अपनी ही प्रकृति से पृथक नहीं करेगा, तबतक उस साधक का वह मुक्तिमार्ग भी प्रशस्त नहीं हो पाएगा, जो निर्गुण ब्रह्म की ओर लेकर जाता है I और यह पृथक करने का मार्ग भी यहाँ बताया जा रहा शक्ति शिव योग ही है I

इसी योग से जाकर ही साधक निर्बीज समाधि को पाता है, जिसमें केवल वह निर्गुण पुरुष ही होता है और ऐसा होने पर भी उस निर्गुण पुरुष का साक्षात्कार असंप्रज्ञात समाधि मार्ग से साक्षात्कार किए हुए शून्य ब्रह्म के भीतर ही होता है I

किन्तु उस निर्बीज समाधि में प्रकृति और सगुण पुरुष दोनों ही नहीं होते हैं, बस केवल निर्गुण ब्रह्म ही होते हैं, जिनको एक अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है और जहाँ वह अंधकारमय दशा ही असंप्रज्ञात कहलाई है I इस समाधि के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

पुरुष प्रकृति का योग जब साधक की काया के भीतर चालित होता है, तब साधक असंप्रज्ञात समाधि को जाकर, अंततः निर्बीज समाधि को प्राप्त होता है I

और यह निर्बीज समाधि ही इस पुरुष प्रकृति योग का गंतव्य है I ऐसा होने के कारण, यह पुरुष प्रकृति की योगदशा अंततः निर्बीज समाधि की ओर ही लेकर जाती है I

 

अब थोड़ा और ध्यान देना…

जब पुरुष का शिव रूप में और प्रकृति का शक्ति रूप में योग होगा, तो वह योग असंप्रज्ञात समाधि की ओर लेकर जाएगा और ऐसा साधक शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करेगा I ऐसा इसलिए है क्यूँकि असंप्रज्ञात समाधि से ही उन शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है जिनमें शून्य रूपी प्रकृति ही अनंत रूप में पाई जाएगी और अनंत ब्रह्म ही शून्य रूप में साक्षात्कार होगा I

 

और ऐसी दशा में…

शून्य ही अनंत रूप में पाया जाएगा I

और अनंत ही शून्य रूप में पाया जाएगा I

यही शिव शक्ति योग के गंतव्य की ओर जाता हुआ मार्ग है I

और अंततः यह गंतव्य मार्ग निर्बीज समाधि की ओर ही लेकर जाता है I

जब पुरुष और प्रकृति का सीधा सीधा योग होगा, तब वह असंप्रज्ञात समाधि से ही साधक निर्बीज समाधि को जाएगा I

 

ऐसा इसलिए होगा क्यूँकि…

पुरुष प्रकृति योग के गंतव्य में निर्बीज ब्रह्म ही होते हैं I

वही निर्बीज ब्रह्म ही इस प्रकृति पुरुष योग का गंतव्य होते हैं I

निर्बीज ब्रह्म भी शून्य ब्रह्म के भीतर निरंग स्वरूप में साक्षात्कार होंगे I

और जहाँ वह शून्य ब्रह्म भी एक अंधकारमय अनंत रूप में साक्षात्कार होते हैं I

 

इसलिए, इस शिव शक्ति योगमार्ग में  साधक…

सर्वप्रथम असंप्रज्ञात समाधि को जाएगा I

असंप्रज्ञात समाधि एक अंधकारमय दशा की है I

असंप्रज्ञात समाधि से शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार होगा I

उन शून्य ब्रह्म में, शून्य ही अनंत और अनंत ही शून्य होगा I

अंततः उस असंप्रज्ञात समाधि से साधक निर्बीज समाधि को पाएगा I

उस निर्बीज समाधि से वह साधक निर्बीज ब्रह्म का साक्षात्कार करेगा I

निर्बीज साक्षात्कार, निरंग व्यापक प्रकाश रूप में असंप्रज्ञात के भीतर होगा I

निर्बीज ब्रह्म साक्षात्कार मार्ग निरालम्ब चक्र को पार करके ही प्रशस्त होता है I

 

इसलिए इसी योग से…

असंप्रज्ञात मार्ग द्वारा शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है I

और निर्बीज मार्ग द्वारा उसी असंप्रज्ञात दशा में ही निरंग या निर्गुण ब्रह्म का I

 

यही कारण है कि यह शक्ति शिव योग इन दोनों का ही मार्ग है, और जहाँ इसी योगदशा में प्राप्त हुई असंप्रज्ञात और निर्बीज समाधियाँ भी एक दुसरे की पूरक रूप में ही साक्षात्कार होंगी I

 

इसलिए इस योग में…

मूल में प्रकृति की पुरुष से योग करने की इच्छा होती है I

और जहाँ वह प्रकृति साधक की काया के भीतर भी बसी हुई होती है I

और साधक की काया उसी प्रकृति के ब्रह्माण्डीय विश्वरूप में बसी हुई होती है I

 

और प्रकृति की प्रबल इच्छा के कारण, वह वह निर्गुण अनंत पुरुष अपने एक न्यून से भाग को सगुण रूप में लेकर आते हैं, और उन निर्गुण अनंत पुरुष का यही सगुण न्यून रूप, प्रकृति से योग करता है I

इसी योग से जीव जगत के प्रादुर्भाव होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, और जब जीव जगत के किसी भाग की मुक्ति नामक पात्रता आती है, तब वह भाग इसी योग से जाकर ही पुनः उन्ही निर्गुण निराकार पुरुष में लय भी होता है I

लेकिन यह लय होने का मार्ग बहुत लम्बा होता है, अर्थात यह मार्ग एकदम से प्रकट भी नहीं होता है, बल्कि इसके बहुत सारे भाग और उपभाग भी होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस योग में जो प्रकृति और पुरुष शब्द कहे गए हैं, वह दोनों ही इन निर्गुण निराकार ब्रह्म की प्रीतक रूपों में अभिव्यक्तियां हैं I ऐसा होने के कारण, वह दोनों भी निर्गुण ब्रह्म ही हैं I

ऐसा इसलिए है क्यूँकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से कभी पृथक हुई ही नहीं है, इसलिए अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता होती है, और अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

यही कारण है कि जबकि यह योग, निर्गुण निराकार ब्रह्म (अर्थात अभिव्यक्ता) की दो पृथक अभिव्यक्तियों में ही चलित और सिद्ध होता है, लेकिन तब भी यह उन्ही निर्गुण निराकार ब्रह्म (अर्थात अभिव्यक्ता) के साक्षात्कार और उनमें ही लय होने का मार्ग है I

और क्यूंकि निर्गुण निराकार ब्रह्म (अर्थात अभिव्यक्ता) ही अद्वैत हैं, इसलिए यह योग अपने दो स्वरूपों में पाए जाने पर भी, अपनी वास्तविकता में अद्वैतमार्ग ही है I

ऐसा होने के कारण, इसी बताई गई अद्वैत दशा की ओर लेकर जाने वाला, इसी अद्वैत दशा का साक्षात्कार करवाने वाला और इसी अद्वैत दशा में अंततः लय करना वाला ही यह योग है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

ब्रह्माण्डोदय के समय जब यह योग होता है, तब पुरुष के जितने भाग को प्रकृति ने घेरा होता है, उतने भाग के भीतर ही ब्रह्माण्ड का उदय होता है I और इस प्रारंभिक दशा के पश्चात, जितना अधिक वह प्रकृति उन पुरुष को घेरती हुई चली जाएगी, उतना ही अधिक उस प्राथमिक ब्रह्माण्डोदय के पश्चात, उस ब्रह्माण्ड का विस्तार भी होता चला जाएगा I

किन्तु आगे चलकर एक दशा ऐसी भी आती है, जिसमें प्रकृति पुरुष को और घेर नहीं पाती है I जब ऐसा होता है, तब ब्रह्माण्ड स्थिर हो जाता है, अर्थात उस ब्रह्माण्ड का और अधिक विस्तार नहीं हो पाता है I

और इसकी दशा के उपरांत ही, जब प्रकृति जान जाती हैं कि अब उनकी उस इच्छा शक्ति की सीमा आ गई है, जिसके आगे यह योग सिद्ध भी नहीं होगा, तो ही ब्रह्माण्ड पुनः छोटा होता हुआ, अंततः उसी बिन्दु रूप में पहुँच जाता है, जहाँ से वह पूर्व कालों में उदय होना प्रारम्भ हुआ था… यही दशा महाप्रलय कहलाती है I

प्रकृति की इच्छा ब्रह्म की स्वास से तुलना करी जा सकती है, इसलिए वेद और योग मनीषी ऐसा ही कह गए थे…

ब्रह्म के पूरक से ब्रह्माण्ड का नाश होता है I

ब्रह्म की कुम्भक से ही ब्रह्माण्ड स्थिर होता है I

ब्रह्म के रेचक से ही ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है I

 

इसलिए…

ब्रह्म का रेचक से ब्रह्म के भीतर ही ब्रह्माण्डोदय होता है I

ब्रह्म के कुम्भक से ब्रह्म के भीतर ही ब्रह्माण्ड स्थिर होता है I

ब्रह्म के पूरक से ब्रह्म के भीतर ही ब्रह्माण्ड का लय हो जाता है I

इन तीनों प्रक्रियाओं के मूल में यही प्रकृति पुरुष योग है I

और जब वह ब्रह्माण्ड उस महाप्रलय में उतना ही समय बिता देगा, जितना समय उसका महाप्रलय के पूर्व के ब्रह्माण्ड रूप में था, तब एक नए ब्रह्मा उसको धारण करके, पुनः उदय करेंगे I

 

द्वितीय चरण… प्रथम चरण में बताया था कि प्रकृति की प्रबल योग इच्छा के कारण, उन निर्गुण अनंत पुरुष का एक न्यून (या छोटा सा) भाग सगुण स्वरूप धारण करता है I ऐसा होने पर ही प्रकृति उन सर्गुण पुरुष से योग सिद्धि लाभ कर पाती हैं I और ऐसा इसलिए होता है क्यूँकि वह पुरुष अपने निर्गुण स्वरूप में तो योग कर ही नहीं पाएगा I

प्रकृति पुरुष योग, प्रकृति पुरुष योग का द्वितीय चरण
प्रकृति पुरुष योग, प्रकृति पुरुष योग का द्वितीय चरण

 

और ऐसा भी इसलिए है क्यूँकि निर्गुण पुरुष ही वह योगातीत अयोगी है, जिनकी अभिव्यक्ति रूपी सार्वभौम दिव्यता ही आदि पराशक्ति कहलाई जाती हैं I और क्यूँकि यहाँ बताई जा रही निर्गुण पुरुष और आदि पराशक्ति की दशा, सगुण पुरुष और प्रकृति से भी पूर्व की है, इसलिए उन निर्गुण पुरुष का आदि पराशक्ति से योग तो तब भी था, जब सगुण पुरुष और प्रकृति का प्रादुर्भाव भी नहीं हुआ था I ऐसा होने के कारण, यह पुरुष प्रकृति योग तो तब भी था ही, जब न सगुण पुरुष था और न ही प्रकृति ही अपने सगुण स्वरूप में अभिव्यक्त हुई थी I

लेकिन ऐसा होने पर भी, क्यूँकि पुरुष निर्गुण था और आदि पराशक्ति स्वरूप प्रकृति सगुण ऊर्जा ही थीं, इसलिए उन आदि पराशक्ति का निर्गुण पुरुष से यह योग होने पर भी, उन आदि पराशक्ति को इस योग का पता नहीं था I

पता न होने के कारण ही उन्होंने इस योग के लिए इच्छा प्रकट करी थी, जिसके कारण उन आदि पराशक्ति रूपी ऊर्जात्मक प्रकृति को उनकी इस योगसिद्धि के बारे में दर्शाने (बताने) हेतु ही उन निर्गुण पुरुष ने स्वयं को सगुण स्वरूप में अभिव्यक्त किया था I और जहाँ उन निर्गुण पुरुष की सगुणात्मक अभिव्यक्ति भी उतनी ही मात्रा (अर्थात सीमा) में थी, जितनी इच्छा बल का प्रदर्शन प्रकृति ने उनसे योग लगाने के लिए किया था I

क्यूँकि निर्गुण पुरुष, उन आदि पराशक्ति रूपी ऊर्जात्मक सर्गुण प्रकृति से सूक्ष्म है, और क्यूँकि दो पृथक सूक्ष्मता का यदि योग हो भी गया, तब भी उस योग के बारे में जो दशा कम सूक्ष्म है, उसको ज्ञान ही नहीं होगा, इसलिए निर्गुण पुरुष और आदि पराशक्ति की योगदशा होने पर भी, उन आदि पराशक्ति रूपी प्रकृति को पता ही नहीं था, कि यह योग सिद्धि हो चुकी है I इस अज्ञान के कारण ही उन प्रकृति ने पुरुष से योग की इच्छा प्रकट करी थी I

यदि उन प्रकृति को इस योग का ज्ञान होता, तो वह ऐसी इच्छा भी प्रकट नहीं करतीं, और ऐसी दशा में वह निर्गुण अनंत पुरुष अपने सगुण रूप में भी अभिव्यक्त नहीं होता I और ऐसी दशा में यह पिण्ड और ब्रह्माण्ड भी अपने सगुण साकार और सगुण निराकार स्वरूपों में अभिव्यक्त नहीं होता I इसलिए ब्रह्माण्डोदय के मूल में अज्ञान ही होता है, और यह भी वह कारण है, कि ज्ञानी (अर्थात ब्रह्म का साक्षात्कारी) ब्रह्म रचना में बस भी नहीं पाता है, अर्थात ब्रह्म साक्षात्कार के पश्चात वह योगी मुफ्त हुए बिना भी नहीं रह पाता है I और ऐसा होने पर भी, कुछ अतिउत्कृष्ट योगीजन अपनी मुक्ति को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन आगे की ओर ठेल सकते हैं, परन्तु ऐसे योगीजन अतिविरले ही होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि निर्गुण अनंत ही होता है और इसके अतिरिक्त सर्गुण, निराकार होता हुआ भी अनंत नहीं हो सकता है, इसलिए प्रकृति जो सगुण ऊर्जात्मक आदि पराशक्ति ही थीं, वह उन निर्गुण अनंत पुरुष के कुछ न्यून भाग से ही योग लगाई थी I

जबतक दोनों दशाएँ जो योगावस्था में होती हैं, वह एक ही सूक्ष्मता (अथवा स्थूलता) की नहीं होंगी, तबतक जो कम सूक्ष्म दशा है, उनको पता ही नहीं चलेगा कि उसका योग सिद्ध हुआ है I प्रकृति को उनकी इस योग सिद्धि को दर्शाने के लिए ही उन निर्गुण पुरुष ने स्वयं को उस सगुण स्वरूप में अभिव्यक्त किया था, जिससे प्रकृति यह जान ले, कि उसकी इच्छा फलित हुई है I किन्तु इस सगुण स्वरूप को धारण करने से पूर्व भी तो उन निर्गुण पुरुष और आदि पराशक्ति रूपी ऊर्जात्मक प्रकृति का योग सिद्ध ही था I

निर्गुण पुरुष ने जब स्वयं के उस न्यून अंश को, जिसको प्रकृति ने घेरा हुआ था, उसको सगुण स्वरूप में अभिव्यक्त किया, और इसके पश्चात जब प्रकृति ने उस न्यून अंश से योग सिद्ध करा, तब ही प्रकृति यह जान पाई थीं, कि उनका योग सिद्ध हुआ है… इससे पूर्व नहीं I

ऐसा इसलिए था, क्यूँकि इससे पूर्व काल में जबकि निर्गुण पुरुष और ऊर्जात्मक आदि पराशक्ति रूपी प्रकृति का योग सिद्धि ही था, पर तब भी वह निर्गुण पुरुष जो प्रकृति से कहीं अधिक सूक्ष्म था, और वह प्रकृति के भीतर ही बसा हुआ था और प्रकृति भी उसमें ही बसी हुई थी, लेकिन प्रकृति उनसे सापेक्ष स्थूल होने के कारण, इस सत्य जो जान ही नहीं पाई थी I और इसी अज्ञान में उन प्रकृति ने पुरुष से योग करने की इच्छा प्रकट करी थी I

उन आदि पराशक्ति रूपी प्रकृति ने भी यह इच्छा इसलिए प्रकट करी थी, क्यूँकि उनको इस योग की सनतान दशा का पता ही नहीं था और जहाँ इस योग में पुरुष निर्गुण थे और प्रकृति उन्ही निर्गुण पुरुष की सार्वभौम ऊर्जात्मक दिव्यता रूपी अदि पराशक्ति ही थीं I

यदि प्रकृति को इतना ही पता होता कि वह उन निर्गुण अनंत पुरुष की अभिव्यक्ति हैं और अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से न तो योगातीत होती है, और न ही पृथक, तो ऐसी दशा में भी, और बस इतने ही ज्ञान को पाकर, वह प्रकृति अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करती I

इस इच्छा के प्रकट होने का एक और कारण भी था… और वो यह था कि अभिव्यक्ति की गति सदैव ही अपने अभिव्यक्ता की ओर ही होती है I और इसी सिद्धांत के प्रभाव के कारण ही उन अभिव्यक्ति रूपी आदि पराशक्ति, जो ऊर्जात्मक प्रकृति ही थीं, उन्होंने उन पुरुष से योग करने की इच्छा प्रकट करी थी ( और इसी इच्छा के कारण उन निर्गुण पुरुष ने स्वयं को सगुण स्वरूप में अभिव्यक्त करा था I और इसी सगुण स्वरूप से प्रकृति ने योग सिद्ध करा था और जान भी पाई थीं, किउसकी इच्छा फलित हुई है (अर्थात यह योग सिद्धि हुई है) I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि सगुण पुरुष और प्रकृति के योग से ही असंप्रज्ञात दशा की सिद्धि होती है, इसलिए अपने इसी योग में प्रकृति और पुरुष असंप्रज्ञात हुए थे I इसी को शून्य ब्रह्म कहा जाता है I

और क्यूँकि निर्गुण पुरुष और आदि पराशक्ति के योग से ही निर्बीज दशा की सिद्धि होती है, इसलिए जब साधक की काया के भीतर बसी हुई ऊर्जात्मक प्रकृति का योग, उसी साधक की काया के भीतर बसे हुए उन निर्गुण अनंत पुरुष से सिद्ध होता है, तब ही निर्बीज समाधि सिद्ध होती है I

और जहाँ वह निर्बीज जो निरंग ब्रह्म ही हैं, वह उसी असंप्रज्ञात दशा में ही साक्षात्कार होते हैं I और इसके अतिरिक्त, वह असंप्रज्ञात दशा भी सर्गुण पुरुष और प्रकृति के योग से ही साक्षात्कार और सिद्ध होती है I इन असंप्रज्ञात और निर्बीज, दोनों के बारे में एक आगे के अध्याय में बतलाऊँगा I

क्यूँकि निर्बीज समाधि से साधक अपने समस्त कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों सहित, पूर्व कालों में प्राप्त हुई सिद्धियों का भी त्याग कर देता है, और क्यूँकि ऐसा होने के पश्चात अधिकांश साधक अपनी काया में भी नहीं रह पाते हैं, इसलिए इस पुरुष प्रकृति योग और इसकी निर्बीज समाधि को कुछ पंथ वर्जित भी करते हैं I यही कारण है कि ऐसे पंथ इस मार्ग पर शक्ति शिव योग से ही जाते हैं क्यूँकि इससे जो सिद्धि की प्राप्ति होती है, वह असंप्रज्ञात समाधि की होती है, और ऐसी समाधि में साधक शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करके, अपनी काया में रह पाता है (अर्थात साधक के देहावसान की प्रक्रिया अधिकांशतः चलित भी नहीं होती है) I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब इस द्वितीय चरण के बारे में बताता हूँ…

इस द्वितीय दशा में सगुण पुरुष के भीतर ही प्रकृति दिखाई देने लगती है, और जैसे जैसे यह दशा आगे की ओर गति करती है, वैसे वैसे इसका प्रभाव भी बहुत विकराल रूप में आता जाता है I

और इस प्रक्रिया में एक ऐसी दशा आती है, जिसमें प्रकृति के भीतर पुरुष दिखाई देंगे और पुरुष के भीतर प्रकृति और जहाँ यह दोनों ही सगुण निराकार स्वरूप सहित, सगुण साकार स्वरूप में भी साक्षात्कार होंगे I और यही इस प्रकृति पुरुष योग के द्वितीय चरण की प्रारंभिक दशा है I

यह वह दशा है जिसमें प्रकृति और पुरुष दोनों ही एक ऐसा स्वरूप धारण करते हैं, जिसमें प्रकृति ही पुरुष के कुछ अंश और पुरुष भी प्रकृति के कुछ अंश को धारण करके रहता है I

और यही दशा साधक के शरीर के भीतर बसे हुए प्रकृति और पुरुष सहित, और शरीर से जुड़े हुए आंतरिक और बाह्य ब्रह्माण्ड में भी साक्षात्कार होगी I

ऐसी स्थिति में न तो पुरुष और न ही प्रकृति ही अपने उस पूर्व स्वरूप में पूर्णतः रह पाएगी, जिसमें वह इस योग सिद्ध से पूर्व में थे I

इसलिए ऐसी दशा में न तो वह पुरुष पूर्णतः अपने पूर्व के त्याग में रह पाएगा और न ही प्रकृति अपने पूर्व की मोहित और लगाव की दशा में रह पाएगी I और इसी दशा से ही यह योग आगे की ओर चलित होता है I

और इसी दशा को ऊपर का चित्र भी दिखा रहा है, जिसमें प्रकृति और पुरुष पृथक से होते हुए भी,एक दुसरे के कुछ अंशों को धारण करके बैठे हुए हैं, और यह चित्र साधक की काया के भीतर और बाहर, दोनों दशाओं में ही चलित हो रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ और प्रकृति पुरुष योग का आयाम चतुष्टय से संबंध बताता हूँ…

आयाम चतुष्टय होते है और कहाँ यह चार आयाम, काल, आकाश, दिशा और दशा कहलाते हैं I तो अब इनको बताता हूँ…

  • काल आयाम, … अपने मूल और गंतव्य स्वरूप में काल अखण्ड, पूर्ण स्थिर और सनातन है I और अपने की प्रकृति स्वरूप में वही काल, चक्र रूप में सदैव चलायमान और परिवर्तनशील होता है I

काल के ऐसे स्वरूप में ही यह जीव जगत बसा हुआ है और ऐसा होने के कारण ही इस जीव जगत में जो कुछ भी था, या हुआ है या आगे कभी होगा, वह सबकुछ काल गर्भित ही रहेगा I काल अपने सनातन स्वरूप में इस जीव जगत का गर्भ है, और ऐसी दशा में वही काल को महाकाल कहा जाता है I

और काल की दिव्यता ही इस जीव जगत की सदा चलायमान और परिवर्तनशील शक्ति रूप है, और ऐसी दशा में वह काल की दिव्यता (शक्ति) ही महाकाली कहलाती हैं I

  • आकाश आयाम, … अपने मूल और गंतव्य में आकाश ही अनंत है I और अपने प्रकृति स्वरूप में आकाश अपने ही चक्र रूप में होता है, जो छोटा और बड़ा होता ही रहता है और जहाँ आकाश की ऐसी परिवर्तनशीलदशा भी काल की उस समय की इकाइयों के अनुसार ही परिवर्तित होती है I काल की सदैव परिवर्तनशील इकाई के अनुसार यह परिवर्तित भी इसलिए ही होती है, क्यूँकि यदि ऐसा नहीं होगा, तो ब्रह्माण्ड ही अस्थिर हो जाएगा I
  • दिशा आयाम, … अपने मूल और गंतव्य में दिशा आयाम सर्वदिशाओं में समान रूप में व्यापक होता है और जहाँ दिशा का शब्द भी उत्कर्ष पथ को ही दर्शाता है I

और अपने प्रकृति स्वरूप में दिशाओं का परिवर्तन एक चक्र रूप में ही होता रहता है I क्यूँकि दिशा शब्द का अर्थ उत्कर्ष पथ भी होता है, इसलिए ब्रह्माण्ड के इतिहास में उत्कर्ष पथ भी परिवर्तनशील ही रहते हैं I जो जन्मा है, उसका अंत भी होगा है, इसलिए जब कोई उत्कर्ष पथ आता है, तो आगे चलकर उसका अंत भी होगा ही I

उत्कर्ष मार्गों का उदय और अंत भी इसी दिशा चक्र के अनुसार ही होता है और यह दिशा चक्र का परिवर्तन भी काल की इकाइयों के परिवर्तन के अनुसार ही होता है I यदि दिशाओं (अर्थात उत्कर्ष मार्गों) का यह परिवर्तन काल इकाइयों के परिवर्तन के अनुसार नहीं होगा, तो साधकगणों के उत्कर्ष पथ ही अस्थिर हो जाएंगे I

और क्यूंकि कट्टरवादी पंथ परिवर्तन को स्वीकार ही नहीं करते, इसलिए उनमें और उनके अनुयायियों के द्वारा कलह क्लेश होते ही रहते हैं I

  • दशा आयाम, … अपने मूल और गंतव्य में दशा आयाम सर्वव्यापक होता है I और अपने प्राकृत स्वरूप में वह परिवर्तित होता ही रहता है, जिससे जो अभी सूक्ष्म है वह कभी आगे चलकर स्थूलता को पाएगा, और जो अभी स्थूल है वह आगे के समय में सूक्ष्म रूप को पाएगा I इसी से जगत की सूक्ष्म और स्थूल दशाएँ आपस में जुड़ी हुई रहती हैं I

और यही चार आयाम प्रकृति के नित्य परिवर्तनशील जीव जगत स्वरूप को दर्शाते हैं I और ऐसा दर्शाते हुए भी, अपने मूल और गंतव्य, दोनों ही स्वरूपों में वह प्रकृति स्थिर ही पाई जाती है I

इन चार आयाम के चक्ररूप के कारण प्रकृति अपने प्रकट और ऊर्जात्मक स्वरूप में परिवर्तनशील रहती है I और इन्ही चार आयाम के मूल और गंतव्य स्वरूप के कारण, प्रकृति पूर्ण स्थिर भी है I अपने चक्र स्वरूप में प्रकृति उदय और प्रलय को जाती है, और अपने सामूहिक द्रव्यमान स्वरूप में प्रकृति उन पूर्ण ब्रह्म के समान स्थिर सनातनता ही है I

और इन सभी मूल, गंतव्य और सदैव परिवर्तनशील स्वरूप का एकमात्र कारण भी यही पुरुष प्रकृति योग है I

ऐसा होने के कारण, इस योग का नाता पूर्ण स्थिर, अखण्ड सनातन, सर्वदिशा दर्शी, सर्वव्यापक और अनंत ब्रह्म से भी है, और इसके साथ साथ, इस योग का नाता प्रकृति और समस्त प्राकृतिक दशाओं और उनकी ऊर्जाओं के सदैव परिवर्तनशील स्वरूप से भी है I

ऐसा होने के कारण यह प्रकृति पुरुष का योग परिपूर्णता को ही दर्शाता है I और यह भी वह कारण है कि इस योग की सिद्धि को ही सर्वेश्वर, सर्व-भूतेश्वर, परमेश्वर, जगदीश्वर, आदि शब्दों से बताया जाता है I और यही सिद्धि सर्वेश्वरी, परमेश्वरी, जगदीश्वरी आदि शब्दों की भी द्योतक है I

इन आयाम चतुष्टय का मूल आयाम वह काल ही है, जिसका प्रादुर्भाव हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुआ था, और जिसकी दिव्यता रूपी माता को ब्राह्मणी सरस्वती कहा जाता है I वह काल ही महाकाल कहलाया था इसलिए महाकाल ही हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म और माँ ब्राह्मणी विद्या सरस्वती के पुत्र हैं, और उन महाकाल की दिव्यता जो त्रिकाली और महाकाली आदि शब्दों से पुकारी जाती है, वह हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी पुत्री ही हैं I इसी काल आयाम को जानकार ही योगी ब्राह्मणी हिरण्यगर्भ दोनों की योगदशा को सिद्ध करके, उन्हीं में लय हो जाता है I

जब काल का गंतव्य जो सनातन है, आकाश का गंतव्य जो अनंत है, दिशा का गंतव्य को सर्वोत्कर्ष है और दशा का गंतव्य जो सर्वव्यापक है, उनका समान रूप में योग होता है, तब जो सिद्धि प्रकट होती है वह सर्वशक्ति और सर्वशक्तिमान की सर्वं-अभिभावक स्थिति में सर्व-अभिव्यक्ति और सर्वस्व के अभिव्यक्ता की अद्वैत योगदशा होती है I इसी मार्ग पर जाकर हिरण्यगर्भ ब्राह्मणी योग, साधक की काया के भीतर और बाहर, एक व्यापक स्वरूप में साक्षात्कार भी होता है I

और जहाँ वह अभिव्यक्ति कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र और दशाचक्र में बसी प्रतीत होती हुई भी, वास्तव में उन अखण्ड सनातन, सर्वव्यापक, सर्वदिशा दर्शी और अनंत ब्रह्म ही होगी I इसके कारण…

जितना पूर्ण वह ब्रह्म है, उतनी पूर्ण वह अभिव्यक्ति भी होगी I

अपनी पूर्णता के दृष्टिकोण से, अभिव्यक्ति भी अभिव्यक्ता सरीकी होगी I

इसलिए, अभिव्यक्ति रूपी प्रकृति की उपासना भी वैदिक वाङ्मय का अंग हुई थी I

आगे बढ़ता हूं और अब इस प्रकृति पुरुष योग की अंत दशा को बताता हूँ…

प्रकृति और पुरुष एक दुसरे से पिथक नहीं पाए जाएंगे I

ऐसी दशा में प्रकृति ही पुरुष और पुरुष ही प्रकृति कहलाएगी I

इसलिए यह प्रकृति पुरुष योग अद्वैत मार्ग का ही अंग होता है I

इस योग के गंतव्य में अद्वैत ब्रह्म ही अपने निर्बीज स्वरूप में होंगे I

उन निर्बीज में न प्रकृति और न ही पुरुष निर्गुण ब्रह्म से पृथक पाए जाएंगे I

इसलिए, प्रकृति पुरुष योग के गंतव्य में निर्गुण निराकार ब्रह्म ही साक्षात्कार होंगे I

 

और क्यूँकि यह योग साधक की काया के भीतर और ब्रह्माण्ड में भी एक साथ ही चलित होता है, इसलिए ऐसा होने के कारण इस योग के शिखर साक्षात्कार में…

प्रकृति और पुरुष का जो मूल द्वैत हैं, वह इस योग में समाप्त हो जाता है I

साधक की काया के भीतर और बाहर के ब्रह्माण्ड में मूल द्वैत समाप्त होता है I

साधक उन अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार करके, समस्त द्वैतवाद से अतीत होता है I

 

इस योग दशा की सिद्धि से…

साधक असंप्रज्ञात ब्रह्म से निर्बीज ब्रह्म का साक्षात्कार करता है I

उन निर्बीज ब्रह्म से वह साधक निर्विकल्प ब्रह्म साक्षात्कार करता है I

अंततः वह साधक उन्ही निर्बीज ब्रह्म के निर्विकल्प स्वरूप में लय होता है I

वह निर्विकल्प ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष के द्योतक, निर्गुण निराकार कहलाए गए हैं I

 

भद्र भद्री योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, भद्री भद्र योग, समंतभद्री समंतभद्र योग, शुक्ल कृष्ण योग, कृष्ण शुक्ल योग, …
भद्र भद्री योग, भद्री भद्र योग
भद्र भद्री योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, भद्री भद्र योग, समंतभद्री समंतभद्र योग, शुक्ल कृष्ण योग, कृष्ण शुक्ल योग,

 

यह चित्र आंतरिक योग मार्ग से सम्बंधित है, अर्थात यह साधक की काया के भीतर ही साक्षात्कार होता है I यह चित्र उस भद्री भद्र योग का है, जिसमें नीले वर्ण के भद्र हैं, और श्वेत वर्ण की भद्री हैं I

और भद्र के मस्तिष्क के ऊपर के भाग में हो श्वेत वर्ण का प्रकाश दिखाया गया है, वह भद्री का है, जो भद्र से पूर्ण योग ही लगके बैठी हुई है, अर्थात वह भद्री, भद्र के समस्त शरीर के भीतर से लेकर और उनके मस्तिष्क के ऊपर तक बैठ चुके हैं, जिसके कारण यह योग भद्री की ऐसी दशा को भी दर्शाती है, जिसमें उन्होंने भद्र से अपना योग पूर्णरूपेण सिद्ध कर लिया है I

ऐसी योगपूर्णता को प्राप्त होकर, वह भद्री अपने भद्र के कपाल के ऊपर के उस स्थान तक पहुँचती हैं, जो शिवरंध्र कहलाता है, और इस सिद्धि को पाकर वह भद्री ही भद्र के मस्तिष्क के ऊपर के भाग पर उष्णीष स्वरूप में साक्षात्कार होती हैं I

इस उष्णीष का नाता नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश) से भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह चित्र शिव शक्ति योग को ही दर्शाता है, किन्तु तांत्रिक विधा से I

इस चित्र का नाता पुरुष प्रकृति योग और प्राणमय मनोमय योग से भी है I पृथक सिद्धों ने इसी योगदशा के लिए पृथक शब्दों का प्रयोग करा है, किन्तु जो उस योग सिद्धि का सार है, वह इन पृथक शब्दों और मार्गों के होने पर भी एक ही रहा है I

तिब्बती बौद्ध पंथ में जिसको भद्र भद्री योग कहा जाता है, वही शिव शक्ति योग, पुरुष प्रकृति योग, मनोमय प्राणमय कोशों का योग आदि है I इसलिए जबकि पृथक सिद्धों ने इसी योग को पृथक मार्गों से सिद्ध करा है, किन्तु ऐसा होने पर भी यह वही शक्ति शिव योग ही है I

इस चित्र में जो नीले वर्ण का भाग है, वह भद्र हैं जिनको तिब्बती बौद्ध पंथ में समंतभद्र भी कहा जाता है और जो शिव के द्योतक हैं और जिनका नाता अघोर ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का अघोर मुख) से है I

और इस चित्र में जो श्वेत वर्ण का भाग है, वह भद्री हैं, जिनको तिब्बती बौद्ध पंथ में समंतभद्री भी कहा जाता है और जो शक्ति की द्योतक हैं, और जिनका नाता वामदेव ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का सद्योजात मुख) से है I

यह योग भी साधक की काया के भीतर ही होता है, अर्थात यह चित्र आंतरिक योगमार्ग का ही अंग है I यह चित्र संभोग प्रक्रिया को नहीं दर्शा रहा है, बल्कि यह असंभोग का ही चित्र है I

इस दशा में साधक की काया के भीतर भद्र (अर्थात शिव) का योग भद्री (अर्थात शक्ति) से अकस्मात् ही हो जाता है I और इस योग दशा में भी जो नाद आता है, वह राम नाद ही है, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया था I

पुरुष शरीर के भीतर स्त्री के अंश होते हैं और स्त्री के शरीर में पुरुष के I लेकिन ऐसा होने पर भी पुरुष के शरीर में तो पुरुष अंश ही प्रधान होता है और स्त्री के शरीर में स्त्री अंश I शरीर के भीतर जो पुरुष अंश है, वह शिव है, और जो स्त्री अंश है, वह शक्ति ही होता है I इसलिए नर और नारी, दोनों के शरीरों में पुरुष और प्रकृति के सूक्ष्म और दैविक अंश पाए जाते हैं I

राम नाद के समय और इस नाद के पश्चात, साधक के शरीर में इन पुरुष और स्त्री के सूक्ष्म और दैविक अंशों का योग हो जाता है, जिसमें स्त्री अंश पुरूष से योग लगाता है, और जहाँ यह योग भी साधक की काया के भीतर ही चलित होता है I इसी को तिबती बौद्ध पंथ में भद्र भद्री का योग कहा जाता है I लेकिन इस भद्र भद्री योग की आंतरिक दशा को पाए हुए साधक अतिविरले ही होते हैं क्यूँकि अधिकांश साधकगणों में तो यह योग पूर्णरूपेण होता भी नहीं है I अधिकांश साधकगण तो इस योग के कुछ अंश ही पाते हैं, न कि वैसा योग जो इस चित्र में दिखाया गया है I

जब साधक के शारीर के भीतर ही बसे हुए भद्री तत्त्व का योग साधक के ही शरीर के भीतर बसी हुई भद्र तत्त्व से होता है, तो जो दशा आती है वही इस चित्र में जहाँ तक हो सके, दिखाई गई है I

इस चित्र के मस्तिष्क भाग के ऊपर जो श्वेत प्रकाश दिखाया गया है, वह उस अमृत कलश का है, जिसको नाभि लिंग भी कहा गया था और जो मेरुदण्ड से ऊपर उठकर मस्तिष्क के ऊपर जो शिवरंध्र है, उसको ही पार कर जाता है I और जहाँ पार करने के पश्चात, वह अमृत कलश पुनः नीचे आता है (अर्थात नाभि की और जाता है) I ऐसा होने के पश्चात, उस शिवरंध्र में एक श्वेत प्रकाश आ जाता है और इसी को ऊपर के चित्र में मस्तिष्क के ऊपर एक श्वेत प्रकाश रूप में दिखाया गया है I यह दशा इस भद्र भद्री योग की सिद्धि को भी दर्शाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह योग ब्रह्माण्ड में भी होता है और पिण्डों में भी I लेकिन पिण्ड में इस योग सिद्धि के साधक विरले ही रहे हैं I

जब यह योग ब्रह्माण्ड के किसी भाग में होता है, तब यही योग उन पिण्डों में ही चलित हो जाता है, जो ब्रह्माण्ड के उस भाग से जुड़े हुए होते हैं I और इसके विपरीत, जब यह योग किसी साधक पिण्ड (अर्थात शरीर) में चलित होता है, तब ब्रह्माण्ड का वह भाग जो उस साधक के शरीर (अर्थात पिण्ड) से जुड़ा हुआ होता है, यह योग उस ब्रह्माण्ड भाग में भी स्वतः ही चलित हो जाता है I

और जब यह योग किसी साधक के शरीर अर्थात पिण्ड में चलित होता है, तब यही योग उस साधक के भीतर बसे हुए उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड में भी चलित हो जाता है, जिसका प्रादुर्भाव ब्रह्म की इच्छा शक्ति से हुआ था और जो ब्रह्माण्ड की प्राथमिक दशा ही थी I इसी सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड से ही ब्रह्माण्ड के दैविक (अर्थात कारण), सूक्ष्म और स्थूलादि भागों का स्वयं उदय हुआ था I

जब यह योग साधक की काया के भीतर बसे हुए उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड में ही चलित हो जाता है, तब यही योग उस साधक की काया से जुड़ा हुआ जो ब्रह्माण्ड है, और जिसके भीतर साधक की काया बसी हुई होती है, उसमें भी स्वतः ही चलित होने लगता है I ऐसी दशा में इस चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड का वह भाग जो साधक की काया से सीधा-सीधा जुड़ा हुआ होगा, उसमें भी यही योग चलित होने लगेगा I

ऐसा होने के कारण, इस अध्याय का सिद्ध साधक अपने ही नहीं, बल्कि चतुर्दश भुवन के उस भाग का भी शोधन कर देता है, जो उसके शरीर से जुड़ा होता है I यदि उस ब्रह्माण्ड के भाग में, जो उस साधक के शरीर से जुड़ा हुआ होगा, कोई जीव निवास करता होगा और वह जीव इस योग सिद्धि के अनुग्रह का पात्र होगा, तो वह जीव भी उस अनुग्रह को पा लेगा I यही वह कारण है, कि इस योग के सिद्ध साधक अपना ही नहीं, बल्कि अपने से जुड़े हुए ब्रह्माण्ड भाग का और उस ब्रह्माण्ड भाग के पात्र जीवों के भी उद्धार कर जाता है I

इसका अर्थ हुआ, कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि किसी साधक के शरीर में यह योग चलित हुआ हो, उस साधक ने इसकी सिद्धि भी पाई हो, और इस योग सिद्धि के कारण ब्रह्माण्ड का वह भाग जो उस साधक से जुड़ा हुआ हो और उस ब्रह्माण्ड के भाग में बसे हुए पात्र जीव भी इस योग सिद्धि से लाभान्वित नहीं हुए हों I

ऐसा होने के कारण, इस योग के सिद्ध साधक के साथ (अर्थात पास पड़ोस में) कई सारे दैविक और सूक्ष्म जगत के जीव भी होते ही हैं, और चाहे वह जीव किसी को स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं दे रहे होंगे, लेकिन वह हैं ही नहीं… ऐसा भी नहीं होगा I

ऐसा साधक के साथ सिद्ध और तपोलोक आदि के जीव और दैविक सत्ताएँ भी होती ही हैं, और वह साधक इस बात को जानता भी होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस योग का मार्ग ब्रह्मचर्य भी है और इसी योग को ब्रह्मचर्य में स्थित सम्भोग-योग के मार्ग सेभी सिद्ध करा जा सकता है I

किन्तु इतना अवश्य बतलाऊँगा, कि यदि इसको सम्भोग प्रक्रिया से सिद्ध करोगे, तो यह प्रक्रिया वैसी ही होगी जैसे विद्युत्, वायु और अग्नि से एक साथ ही खेल रहे हो I

और यदि उस सम्भोग से चालित हुए इस योग में तुम्हारा बीज नाश भी हो रहा है, तो यह तीनों (अर्थात विद्युत्, अग्नि और वायु) प्रचण्ड हुए बिना भी नहीं रह पाएंगे I पर यदि ऐसा होने पर भी तुम इसको सिद्ध कर लोगे, तो भी तुम्हारी सिद्धि और तुम्हारा योग गंतव्य वही होगा, जो किसी उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टम योगी का हुआ है या आगे कभी होगा I

इस बिंदु के बारे में इससे आगे नहीं बतलाऊँगा, नहीं तो बवाल हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि पुरुष और स्त्री के अंश साधक के शारीर में भी रहते हैं, इसलिए इसके लिए न तो पुरुष शरीर धारी को स्त्री शरीर धारी की आवश्यकता होती है और न ही स्त्री शरीर धारी को पुरुष शरीर धारी की I

और जिस योगी ने यह सत्य जान लिया, वह केवल होकर भी (अर्थात पुरुष स्त्री बंधन से मुक्त रहकर भी) इस योग प्रक्रिया में जा सकता I ऐसा भी इसलिए है, क्यूँकि वह योगी उसकी काया के भीतर ही बसे हुए पुरुष और स्त्री सिद्धांत के योग से ही इस योग प्रक्रिया को पूर्ण कर सकता है I मेरा मार्ग भी इसी दशा का था, अर्थात मैंने अपने ही शरीर के भीतर बसे हुए पुरुष और स्त्री सिद्धांत का योग करके ही इस योग सिद्धि मार्ग पर गमन किया था I

जबतक इस योग मार्ग की आंतरिक योग सिद्धि नहीं होती, तबतक उस अंतिम पथहीन भागहीन मुक्तिपथ पर गमन करना भी असंभव सा ही होगा I

यह आंतरिक योगदशा भी असंप्रज्ञात समाधि से जाते हुए उस मार्ग की द्योतक होती है, जिसके गंतव्य में निर्बीज समाधि होती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

बुद्ध समंतभद्र मनोमय कोष के द्योतक होते हैं और बुद्ध समंतभद्री प्राणमय कोष की उस दशा की द्योतक हैं जो समता को प्राप्त हुआ है, और समता को प्राप्त होने के कारण वह श्वेत वर्ण का हो गया है I

इसलिए यह योग आंतरिक ही होता है, अर्थात साधक की काया के भीतर ही चलित होता है और प्राणों के मन से योग को भी दर्शाता है I

वैसे तो मन श्वेत वर्ण का ही होता है, लेकिन ब्रह्माण्ड के इस भाग में और आज के समय में मन का नाता प्रधानतः सदाशिव के अघोर मुख से ही होता है I

और क्यूँकि मैं जिस दशा से नाता रखेगा, उसी दशा के समान हो जाता है, इसलिए ब्रह्माण्ड के इस भाग के जीवों का मन अघोर ब्रह्म के समान नीले वर्ण का ही होगा I

योग साधनाओं से जब वह जीव (साधक) शिव के अघोर मुख से परे जाने का पात्र हो जाएगा, तब ही मन अपने सगुण श्वेत वर्ण में आएगा I

लेकिन ब्रह्माण्ड के इस भाग में जहाँ यह पृथ्वी लोक अभी के समय पर गति कर रहा है, ऐसा तो बहुत कम साधक ही कर पाए हैं क्यूँकि अधिकांश का मन नीला ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

बुद्ध समंतभद्र जो नीले वर्ण के हैं, वह कृष्ण तत्त्व को दर्शाते हैं I और बुद्ध समंतभद्री जो श्वेत वर्ण की हैं, वह शुक्ल तत्त्व को दर्शाती है I और जहाँ वह शुक्ल तत्त्व भी कृष्ण तत्त्व के भीतर ही निवास करता है I

इसलिए इस योगदशा को शुक्ल कृष्ण योग भी कहा जा सकता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूँकि मन जो समंतभद्र का द्योतक हैं, और समतावादी प्राण जो समंतभद्री के द्योतक हैं, वह सर्वव्यापक सत्ता ही हैं, इसलिए यह योग सर्वव्यापक ही होता है I

ऐसा होने के कारण यह योग साधक के पिण्ड रुपी शरीर में ही नहीं, बल्कि उस पिण्डात्मक शरीर के भीतर जो सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड है, उसमें भी चलित होता है I

ऐसा होने के कारण, इस योग में जो ज्ञान होता है, वह ऐसा होता है…

जो साधक के शरीर के भीतर है, वही बाहर है I

जो साधक के शरीर के बाहर है, वही भीतर भी है I

इसलिए भीतर की दशा ही बाहर और बाहर की भीतर है I

जो बाह्य को मूल मानता हुआ योगी है, वह साधारण योगी ही है I

जो भीतर को मूल मानता हुआ योगी है, वही उत्कृष्ट श्रेणी का योगी है I

भीतर के योग से बाह्य दशाओं को शुद्ध करने वाला मार्ग, भद्री भद्र योग है I

भद्र भद्री योग का सिद्ध ही जीव जगत का उद्धार करने की क्षमता रखता होगा I

 

और इस अध्याय के अंत में…

किन्तु इस अध्याय में बताए गए बिंदु, इस शक्ति शिव योग के गंतव्य नहीं हैं I इस शिव शक्ति योग का गंतव्य महाकाली महाकाल योग है I महाकाल महाकाली योग को समंतभद्र समंतभद्री योग भी कहते हैं I इस योग में बुद्ध समंतभद्र अंधकारमय शून्यरूप होते हैं और समंतभद्री  प्रकाशमान सर्वसम स्वरूप I लेकिन इसके बारे में किसी आगे के अध्याय में बात होगी I

तो इसी बात पर यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अब मै अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम अर्द्धनारीश्वर, विष्णुत्व और अर्धनारी) होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

 

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