प्राणमय कोश, प्राण, उपप्राण, लघुप्राण, पञ्चवायु, पञ्चप्राण, प्राणाकाश, प्राण ब्रह्म, एकादशाकाश, रुद्राकाश, एकादश रुद्र, ग्यारह रुद्र, एकोहं बहुस्याम:, हृदय प्राणमय कोश, ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश, अंतःकरण प्राणमय कोष, प्राण शक्ति, आत्मशक्ति

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यहाँ पर प्राणमय कोश के पञ्चप्राण (पञ्च प्राण, पञ्चवायु) और पञ्च उपप्राण (या पञ्च लघुप्राण या पञ्च लघुवायु) पर बात होगी I यही प्राण शक्ति है I यह पञ्च प्राण और पञ्च लघुप्राण भी पञ्चब्रह्म गायत्री सिद्धांत के अंतर्गत ही हैं I प्राणमय कोश का नाता उस प्राणाकाश से भी है, जिसका आगे का नाता एकादशाकाश और रुद्राकाश से होता है I यहाँ पर अन्य कुछ बिंदुओं पर भी बात होगी जो ब्रह्म के बहुवादी अद्वैत स्वरूप और सर्वसम स्वरूप को दर्शाते हैं, और जिनको यहाँ पर एकोहं बहुस्याम:, प्राण ब्रह्म, आदि शब्दों से भी बताया गया है I यहाँ पर हृदय प्राणमय कोश, ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश, अंतःकरण प्राणमय कोष को भी बताया जाएगा I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 से लेकर 2011 तक का है I इतने वर्ष इसलिए लगे क्यूंकि इस अध्याय का मार्ग और साक्षात्कार कई सारी दशाओं से होकर ही जाता है, जिनके बारे में आगे की अध्यय श्रंखलाओं में बताया जाएगा I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग श्रृंखला का सोलहवाँ अध्याय है ।

 

प्राण वायु, एकादशाकाश, प्राण, अग्नि, रुद्राकाश, प्राणाकाश, प्राण ब्रह्म
प्राण वायु, एकादशाकाश, प्राण, अग्नि, रुद्राकाश, प्राणाकाश, प्राण ब्रह्म, पञ्च महाभूत

 

एकादश रुद्र, ग्यारह रुद्र, पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण, पञ्च प्राण और पञ्च लघुप्राण, … एकादश रुद्र और एकादशाकाश, एकादश रुद्र और रुद्राकाश, एकादशवां रुद्र आत्मशक्ति है, एकादश रुद्र कौन, ग्यारह रुद्र कौन, ग्यारह आकाश क्या हैं, एकादश रुद्र और ग्यारह आकाश, ग्यारह रुद्र और ग्यारह आकाश, ग्यारह रुद्र और रुद्राकाश, ग्यारहवां रुद्र आत्मशक्ति है, … प्राणमय कोश की परिभाषा, प्राणा की परिभाषा, प्राणमय कोश क्या है, प्राणमय कोश किसे कहते हैं, … प्राण क्या है, प्राण किसे कहते हैं, … रुद्र का आत्ममार्ग मार्ग में साक्षात्कार, आत्ममार्ग में रुद्र साक्षात्कार, … एकादश प्राण हुँ सकसद रुद्र हैं, रुद्र का आकाश स्वरूप, प्राण का आकाश स्वरूप, रुद्र का आकाश स्वरूप ही रुद्राकाश है, रुद्र का सगुण निराकार स्वरूप, प्राण का सगुण निराकार स्वरूप, रुद्र का सगुण निराकार स्वरूप ही रुद्राकाश है, रुद्र का सगुण निराकार स्वरूप ही एकादशाकाश है, रुद्र का आकाश स्वरूप ही रुद्राकाश है, …

अब एकादश रुद्र (ग्यारह रुद्र) एकादशाकाश और रुद्राकाश को बताता हूँ …

एकादश रुद्र (अर्थात ग्यारह रुद्र) होते हैं, जो पञ्च प्राण, पञ्च उपप्राण और आत्मशक्ति हैं I इनमें से आत्मशक्ति एकादशवां रुद्र है I

इस आत्मशक्ति के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, जिसका नाम हृदय रुद्रात्मलिंग गुफा था I लेकिन उस पूर्व के अध्याय में इस आत्मशक्ति को एक भगवे लिंग रूप में बताया गया था, क्यूंकि हृदय की रुद्रात्मलिंग गुफा में इसका साक्षात्कार इसी स्वरूप में होता है I

इन ग्यारह रुद्र का सगुण निराकार स्वरूप एकादशाकाश (अर्थात ग्यारह आकाश) के सामान होता है I इस अकादशाकाश में भी यही ग्यारह रुद्र होते हैं, लेकिन अपने सगुण निराकार स्वरूप में I

इसलिए, प्राणों और आत्मशक्ति का सगुण निराकार स्वरूप ही रुद्राकाश है, जिसके ग्यारह भाग होते हैं, इसलिए इसको ही एकादशाकाश कहा गया है I

 

अब प्राण को परिभाषित करता हूँ …

अद्वैत ब्रह्म का अनादि ऊर्जावान, शक्तिरूप तारतम्यमय अभिव्यक्ति प्राण है I

ब्रह्माण्ड के भीतर, मूलप्रकृति का सार्वभौम शक्तिमय बहुवादी स्वरूप ही प्राण है I

ब्रह्म रचना के भीतर बसी हुई मूल प्रकृति की ऊर्जाओं को ही प्राण कहते हैं I

प्राण रूपी ऊर्जाएं, चेतना से युक्त, बुद्धि से संयुक्त और क्रियात्मक होती हैं I

और ऐसा होने पर भी, प्राण में बसी हुई चेतना और बुद्धि का नाता, ब्रह्म से है I

जो रचना और रचना के तंत्र के बहुवादी अद्वैत स्वरूप के मूल में है, वो प्राण है I

 

अब प्राणमय कोश को परिभाषित करता हूँ …

प्राणों के तारतम्य से सुस्सजित, उन्ही प्राणों का एकवादी स्वरूप प्राणमय कोश है I

जिसमें प्राण पृथक से दिखाई देते हुए भी, एकवादी रहते हैं, वो प्राणमय कोश है I

जो ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं के तारतम्य में भी, मूल से अखंड है, वो प्राणमय कोश है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

प्राणमय कोश के भाग, प्राण वायु के भाग, पञ्चप्राण क्या हैं, पञ्च प्राणों के भाग, पञ्चवायु के भाग, …

प्राणमय कोष, प्राण, उपप्राण, लघुप्राण, पञ्चवायु, पञ्चप्राण
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टिप्पणियां: इस चित्र में बहुत त्रुटियां हैं, लेकिन जो पहली बार में बन गया, वही मैं रख लेता हूँ I एक बार चित्र बनाने के पश्चात, में उसको बदलती नहीं हूँ I तो अब इन त्रुटियों को बताता हूँ, जिसको साधकगण ध्यान में रखें, जब भी वो इस चित्र को और इस चित्र में दिखाए गए प्राणों को देखें I

यह चित्र प्राण वायु की उस दशा को दर्शाता है, जो कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर की ओर, अर्थात ब्रह्मरंध्र चक्र की ओर उठने से पूर्व की है I

  • अपान प्राण, जो लाल वर्ण का होता है और मूलाधार चक्र से संबंधित होता है, वो पैरों के नीचे से लेकर, नितम्ब की हड्डी (अर्थात कूल्हे की हड्डी) से 2-3 ऊँगली ऊपर तक होता है I लेकिन इस चित्र में थोड़ा ऊपर की ओर दिखाया गया है I
  • समान प्राण, जो हरे-पीले वर्ण का दिखाई देता है I लेकिन कुण्डलिनी शक्ति के निरलम्बस्थान पर पहुँचने के पश्चात, अंततः यह श्वेत वर्ण का पाया जाता है I इस प्राण का विस्तार कूल्हे की हड्डी के 2-3 ऊँगली ऊपर से पसली पिंजर (अर्थात फेफड़े का पिंजरा) के नीचे के भाग तक होता है I इसलिए, इस समान प्राण का विस्तार, कूल्हे की हड्डी से 2-3 ऊँगली ऊपर से वहां तक होता है, जहाँ गर्भ टोपी (उदर डायाफ्राम या उदर की टोपी) होती है I और योगमार्ग दृष्टिकोण से इस समान प्राण का विस्तार, स्वाधिष्ठान चक्र से लेकर, वहां तक होता है जहाँ सूर्य चक्र और चंद्र चक्र होते हैं I लेकिन इस चित्र में इसको भी थोड़ा ऊपर की ओर ही दिखाया गया है I समान प्राण का नाता मणिपुर चक्र से होता है, अर्थात नाभि क्षेत्र से होता है I
  • प्राण-प्राण, जो पीले वर्ण का होता है, उसका विस्तार गर्भ-निरोधक टोपी (उदर डायाफ्राम या उदर की टोपी) से लेकर, कंठ चक्र (अर्थात विशुद्ध चक्र) के 2-3 ऊँगली नीचे तक होता है I इस प्राण का मूल नाता अनाहत चक्र (हृदय कमल) से है I लेकिन इस चित्र में इसको भी थोड़ा ऊपर की ओर दिखाया गया है I
  • उदान प्राण, जो बैंगनी वर्ण का होता है, उसका विस्तार कण्ठ कमल (अर्थात विशुद्ध चक्र) के 2-3 ऊँगली नीचे से लेकर, मस्तिष्क के ऊपर के भाग तक होता है I इस चित्र में इसका वर्ण (रंग) थोड़ा गाढ़ा हो गया है, इसलिए इस चित्र में यह गाढ़ा नीला सा प्रतीत हो रहा है I इस प्राण का नाता विशुद्ध चक्र से है I
  • व्यान प्राण, जो साधारणतः भगवे वर्ण का होता है I लेकिन कुण्डलिनी शक्ति के निरलम्बस्थान पर पहुँचने के पश्चात, अंततः इसका रंग हलके गुलाबी वर्ण का पाया जाता है I इसका विस्तार सारे शरीर में होता है, और शरीर से कोई 24 ऊँगली बाहर की ओर तक भी पाया जा सकता है I कुछ उत्कृष्ट साधकगणों में इस प्राण का विस्तार, स्थूल शरीर से बहुत दूरी तक भी हो सकता है I
  • लेकिन इस चित्र में, इनको ऐसा नहीं दिखा पाया हूँ, क्यूंकि ऐसा दिखने के लिए, मुझे त्रिआयामी (अर्थात तीन आयामों से संबद्ध) चित्र बनाना पड़ेगा, जिसको मुझे बनाना ही नहीं आता है I
  • पाँचों उपप्राण हलके नीले वर्ण के दिखाई देते हैं और यह उपप्राण, पाँचों प्राणों को एक दुसरे से पृथक करके रखते हैं I लेकिन ऐसा होने पर भी, इन उपप्राणों में, उनके अपने प्राणों की ऊर्जाएं (अर्थात उनके अपने प्राणों के रंग) दिखाई देते हैं, जिनसे इन उपप्राणों का नाता उनके प्राणों से जाना जा सकता है I लेकिन इस चित्र में, इनको ऐसा नहीं दिखा पाया हूँ, क्यूंकि ऐसा दिखने के लिए, मुझे त्रिआयामी चित्र बनाना पड़ेगा, जिसको मुझे बनाना ही नहीं आता है I
  • तो यह इस चित्र की त्रुटियां हैं, जिसको साधकगण स्मरण में रखें, जब भी वो इस चित्र को देखें I
  • और इस विवर्ण के कुछ स्थानों पर जो अंततः शब्द कहा है, वो उस दशा को दर्शाता है, जब साधक के शरीर के भीतर शिव शक्ति योग हो चुका होगा, और साधक की चेतना, सहस्रार चक्र से भी ऊपर जो वज्रदण्ड है, जिसका नाद राम है (अर्थात शिव तारक मंत्र है), उस वज्रदण्ड से भी ऊपर जो अष्टम चक्र है (अर्थात निरालंब चक्र या निरालंबस्थान है), उस तक पहुँच चुकी होगी I

आगे बढ़ता हूँ …

 

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जब श्वास से वायु भीतर जाती है, तो वही वायु प्राण होकर ही शरीर के समस्त कोशिकाओं की ओर, और कोशिकाओं में गमन करती है I

इसलिए, …

जबतक वायु शरीर से बहार है, वो वायु महाभूत ही है I

और जब वही वायु शरीर के भीतर गमन करेगी, तो वही प्राण कहलाती है I

यही प्रमुख कारण था, कि ब्रह्म रचना में जीवों की आवश्यकता पड़ गई थी, क्यूंकि ब्रह्माण्ड में प्राणधारी जीव ही वायु महाभूत को प्राणमय करने में सक्षम होते हैं I

इसलिए, प्राणों के दृष्टिकोण से जीवों के उदय का जो एक कारण था, वह यह था कि वायु महाभूत को प्राणों में परिवर्तित करना I

और जहाँ वह प्राण भी ब्रह्माण्ड की मूल ऊर्जा ही थी, जो वायु महाभूत में जीवों के लिए ही परिवर्तित हुई थी I

तो इसका यह भी अर्थ हुआ, कि वो ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, जो वायु महाभूत में जीवों के लिए ही परिवत्तित हुई थी, उसको जीव ही पुनः प्राण में परिवर्तित करते हैं I

यही जीव और ब्रह्माण्ड का मूल नाता भी है, कि ब्रह्माण्ड के उदय के समय, ब्रह्म ने अपनी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा शक्ति को वायु महाभूत में प्राणधारी जीवों के लिए ही परिवर्तित किया I और उदय होने के पश्चात, जीवों ने भी उसी वायु महाभूत को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा में पुनः परिवर्तित कर दिया I

इसलिए, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का वो भाग जो वायु मभभूत हुआ है, उसको जीव अपने श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से पुनः प्राण ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं I

ब्रह्म रचना को सदैव ही जीवों की उतनी ही आवश्यकता रही है, जितनी जीवों को ब्रह्माण्ड की रही है I

प्राणमय कोष के दृष्टिकोण से पिण्ड और ब्रह्माण्ड, अर्थात जीव और जगत ऐसे ही एक दुसरे पर निर्भर करते हैं, और जहाँ यह दोनों भी उन्ही ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं I

यही वो कारण है, कि जब तक ब्रह्माण्ड रहेगा (अर्थात ब्रह्म रचना रहेगी) तबतक प्राणधारी जीवों की सत्ता भी रहेगी ही I

 

ऐसा इसलिए है क्यूंकि प्राणमय कोष के दृष्टिकोण से …

जीव, ब्रह्माण्ड पर उतने ही निर्भर हैं, जितना  ब्रह्माण्ड, प्राणधारी जीवों पर है I

पिण्ड का पूरक ब्रह्माण्ड है, और ब्रह्माण्ड का पूरक पिण्ड I

जीव, जगत का पूरक है और जगत, जीव का पूरक I

यह भी वो कारण है कि ब्रह्माण्ड को सदैव ही प्राणों को धारण किये हुए क्रियामय, चैतन्य और ज्ञानमय जीवों की आवश्यकता रही है, और जीवों को वायु महाभूत से सुस्सजित ब्रह्माण्ड की I

 

आगे बढ़ता हूँ …

स्थूल शरीर के भीतर, प्राण वायु जो इस स्थूल आदि शरीरों का तंत्र चलने में सहायक होती है, और उस तंत्र को चलाती भी है, उसके भागों से निर्मित जो कोश है, वही प्राणमय कोश कहलाता है I

प्रत्येक कोशिका में और कोशिकाओं के बाहर भी यही प्राण निवास करते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

तो अब शरीर की कोशिका समूह के प्राणवायु के अनुसार, इसी प्राणमय कोष की एक और परिभाषा बताता हूँ …

प्रत्येक कोशिका के भीतर और बाहर के प्राणवायु समूह को प्राणमय कोश कहते हैं I

आगे बढ़ता हूँ …

 

प्राणमय कोश के भाग, प्राणों के प्रकार, प्राणों की गति, …

प्राणमय कोश के भाग भी होते हैं, और यह भाग उन प्राणों के कर्मानुसार (या गति के अनुसार) होते हैं I तो अब इन भागों को बताता हूँ I

  • नीचे की ओर गति करने वाली वायु, … अपान वायु की गति, अपान प्राण की गति, … कूर्म उपप्राण की गति, कूर्म लघुप्राण की गति, कूर्म लघु वायु की गति, … शरीर के नीचे के भागों की प्राण वायु, … शरीर में यह अपान प्राण (अपान वायु) नीचे की ओर गति करती है, अर्थात यह कूल्हे की हड्डी से थोड़ा सा ऊपर से, चरणों की ओर गति करती है I अपान वायु के उपप्राण का नाम कूर्म है, जो अपान को अन्य सभी वायु से पृथक करके रखता है, और इस प्राण की गति भी अपान के समान, लेकिन लघु रूप में ही होती है I
  • भीतर की ओर गति करने वाली वायु, … समान वायु की गति, समान प्राण की गति, कूर्म उपप्राण की गति, कूर्म लघुप्राण की गति, कूर्म लघु वायु की गति, शरीर के नीचे के उदर क्षेत्र की प्राण वायु, उदर क्षेत्र की प्राण वायु, उदर के प्राण, … शरीर में यह समान प्राण (समान वायु) भीतर की ओर गति करती है, अर्थात यह नाभि क्षेत्र में, सभी दिशाओं से अपने ही भीतर (अंदर) की ओर चलती है I समान वायु के उपप्राण का नाम कृकल है, जो समान प्राण को अन्य सभी प्राणों से पृथक रखता है, और इस कृकल उपप्राण की गति भी समान वायु के जैसी, लेकिन लघु रूप में ही होती है I
  • सामने की ओर गति करती वायु, प्राण वायु की गति, प्राण प्राण की गति, नाग उपप्राण की गति, नाग लघुप्राण की गति, नाग लघु वायु की गति, हृदय क्षेत्र की प्राण वायु, हृदय के प्राण, … शरीर में यह प्राण वायु आगे की ओर गति करती है, अर्थात यह हृदय क्षेत्र में, शरीर के आगे की ओर चलती है I प्राण वायु के उपप्राण का नाम नाग है, जो प्राण-प्राण को अन्य सभी प्राणों से पृथक रखता है, और इस नाग उपप्राण की गति भी प्राण वायु के समान, लेकिन लघु रूप में ही होती है I नाग लघुप्राण, ज्यावक्रीया (सिनुसाइडल) रूप में गति करता है I इस समस्त ब्रह्माण्ड में जो भी सिनुसाइडल (ज्यावक्रीया) गति में दिखाई देता है, वो सब इसी नाग लघुप्राण प्राण के कारण है I
  • ऊपर की ओर गति करती प्राण वायु, … उदान प्राण की गति, उदान प्राण की गति, देवदत्त उपप्राण की गति, देवदत्त लघुप्राण की गति, देवदत्त लघु वायु की गति, मस्तिष्क की प्राण वायु, मस्तिष्क के प्राण, कंठ की प्राण वायु, कंठ के प्राण, योग गरुड़, देवदत्त नामक अश्व, देवदत्त अश्व, योग सिद्धि का देवदत्त नामक अश्व, … शरीर में यह प्राण वायु ऊपर की ओर गति करती है, अर्थात यह मस्तिष्क क्षेत्र में, ऊपर की ओर चलती है I उदान वायु के उपप्राण का नाम देवदत्त है, जो उदान प्राण को अन्य सभी प्राणों से पृथक रखता है I और इस देवदत्त उपप्राण की गति भी उदान वायु के समान, लेकिन लघु रूप में ही होती है I जब साधक की चेतना अष्टम चक्र (या निरलम्ब चक्र) को ही पार कर जाती है, तब इस देवतत्त लघुप्राण की गति अश्व स्वरूप में होती है, लेकिन उस अश्व के गर्दन और सर के बाल, पक्षी के के दो पंखों के सामान भी दिखाई देते हैं I इसलिए यही दशा, योग गरुड़ और योग सिद्धि का देवदत्त नामक अश्व भी है I
  • बाहर की ओर गति करती प्राण वायु व्यान प्राण की गति, व्यान वायु की गति, धनञ्जय उपप्राण की गति, धनञ्जय लघुप्राण की गति, धनञ्जय लघु वायु की गति, … शरीर में यह प्राण वायु बाहर की ओर गति करती है, अर्थात यह पूरे स्थूल शरीर में, शरीर से बाहर की ओर चलती है I व्यान वायु के उपप्राण का नाम धनञ्जय है, जो व्यान प्राण को अन्य सभी प्राणों से पृथक रखता है, और इस धनञ्जय उपप्राण की गति भी व्यान वायु के समान, लेकिन लघु रूप में ही होती है I जो भी ज्ञान, चेतना और क्रिया रूपी धन है, वह इसी प्राण में संगठित होता है, और इसी प्राण से विश्वव्यापी होता है I

 

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  • अपान वायु का वर्ण, अपान प्राण का वर्ण, कूर्म उपप्राण का वर्ण, कूर्म लघु वायु का वर्ण, कूर्म लघुप्राण का वर्ण, … अपान वायु लाल वर्ण की है I और कूर्म उपप्राण हलके नीले वर्ण का है, जिसमें लाल वर्ण के बिंदु होते हैं, जिससे ज्ञान होता है कि यह कूर्म लघुप्राण, अपान प्राण का ही उपप्राण है I
  • समान वायु का वर्ण, समान प्राण का वर्ण, कृकल उपप्राण का वर्ण, कृकल लघु वायु का वर्ण, कृकल लघुप्राण का वर्ण, … कुण्डलिनी जागरण से पूर्व, समान वायु हरे-पीले वर्ण का होता है, लेकिन अंततः जब कुण्डलिनी जागरण होता है, तब यह श्वेत वर्ण का ही पाया जाएगा I और कृकल उपप्राण हलके नीले वर्ण का है, जिसमें समान प्राण के वर्ण के बिंदु होते हैं, जिससे ज्ञान होता है कि यह कृकल लघुप्राण, समान प्राण का उपप्राण ही है I
  • प्राण वायु का वर्ण, प्राण प्राण का वर्ण, नाग उपप्राण का वर्ण, नाग लघु वायु का वर्ण, नाग लघुप्राण का वर्ण,  … प्राण वायु पीले वर्ण का है I और नाग उपप्राण हलके नीले वर्ण का है, जिसमें प्राण वायु के वर्ण के पीले बिन्दु होते हैं, जिससे ज्ञान होता है कि यह नाग लघुप्राण, प्राण वायु का उपप्राण ही है I
  • उदान वायु का वर्ण, उदान प्राण का वर्ण, देवदत्त उपप्राण का वर्ण, देवदत्त लघुवायु का वर्ण, देवदत्त लघुप्राण का वर्ण, … उदान प्राण बैंगनी वर्ण का है I और देवदत्त उपप्राण हलके नीले वर्ण का है, जिसमें उदान वायु के वर्ण के बैंगाणी बिन्दु होते हैं, जिससे ज्ञान होता है कि यह देवदत्त लघुप्राण, उदान वायु का उपप्राण ही है I
  • व्यान वायु का वर्ण, व्यान प्राण का वर्ण, धनञ्जय उपप्राण का वर्ण, धनञ्जय लघु वायु का वर्ण, धनञ्जय लघुप्राण का वर्ण, … यह भगवे वर्ण का है, लेकिन कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, अंततः हल्के गुलाबी वर्ण का पाया जाएगा I कुण्डलिनी के सहस्रार को पार करने पर, यही गुलाबी वर्ण का प्राण सुषुम्ना नाड़ी को घेर लेता है जिसके कारण सुषुम्ना नाड़ी के बाहर की ओर, एक गुलाबी वर्ण का सूक्ष्म प्रकाश भी दिखाई देने लगता है I इसके पश्चात, यही वायु निरंग सी भी प्रतीत होती है, इसलिए यह वायु ही निर्गुण ब्रह्म को दर्शाती है I इसमें आकाश तत्त्व अधिक होने के कारण, यह वायु सारे शरीर में व्याप्त होती है I और धनञ्जय उपप्राण हलके नीले वर्ण का है, जिसमें व्यान वायु के वर्ण के बिंदु होते हैं, जिससे ज्ञान होता है कि यह धनञ्जय लघुप्राण, व्यान वायु का उपप्राण ही है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

पञ्च प्राण का पञ्च ब्रह्म से नाता, पञ्चप्राण और पञ्च ब्रह्म का नाता, प्राणमय कोश और पञ्च ब्रह्म, प्राणमय कोश और पञ्च ब्रह्म का नाता, प्राणवायु और पञ्च ब्रह्म, पञ्चवायु का पञ्च मुखा गायत्री से नाता, प्राणमय कोश और पञ्च मुखा गायत्री, प्राणवायु और पञ्च मुखा गायत्री, पञ्च प्राण का पञ्च मुखी गायत्री से नाता, प्राणमय कोश और पञ्च मुखी गायत्री, प्राण वायु और पञ्च मुखी गायत्री, पञ्चब्रह्म और प्राण वायु, माँ गायत्री और प्राण वायु, माँ गायत्री और पञ्च प्राण,  प्राणमय कोश और माँ गायत्री सरस्वती का नाता, प्राणमय कोश और पञ्च मुखा गायत्री का नाता, प्राणमय कोश और गायत्री सरस्वती का नाता, प्राणमय कोश और गायत्री विद्या सरस्वती का नाता, प्राणमय कोश और गायत्री विद्या का नाता, …

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पञ्चब्रह्म और प्राण वायु, माँ गायत्री और प्राण वायु, प्राण शक्ति, आत्मशक्ति

 

तो अब प्राणों का पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुखा गायत्री से नाता बताता हूँ …

  • अपान वायु, अपान प्राण, … इसका नाता लाल वर्ण के तत्पुरुष ब्रह्म से है, जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का रक्ता मुख (या माँ गायत्री का विद्रुमा मुख) है I इसमें पंचाग्नि सहित अग्नि तत्त्व (अग्नि महाभूत) की प्रधानता होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, अग्नि महाभूत का साक्षात्कार स्थान तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के मध्य में ही है I
  • समान वायु, समान प्राण, … इसका नाता श्वेत वर्ण के वामदेव ब्रह्म से है, जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का धवला मुख है I इसमें वायु तत्त्व (वायु महाभूत) की प्रधानता होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, वायु महाभूत का साक्षात्कार स्थान अघोर ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के मध्य में ही है I
  • प्राण वायु, प्राण प्राण, … इसका नाता पीले वर्ण के सद्योजात ब्रह्म से है, जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख (या माँ गायत्री का पीला मुख) है I इसमें पृथ्वी तत्त्व (पृथ्वी महाभूत) की प्रधानता होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, पृथ्वी महाभूत का साक्षात्कार स्थान तत्पुरुष ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में ही है I
  • उदान वायु, उदान प्राण, … इसका नाता नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म से है, जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख है I इसमें जल तत्त्व (जल महाभूत) की प्रधानता होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, जल महाभूत का साक्षात्कार स्थान अघोर ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में ही है I
  • व्यान वायु, व्यान प्राण, … इसका नाता ईशान ब्रह्म से है, जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का मुक्ता मुख (या माँ गायत्री के निरंग मुख या माँ गायत्री का स्फटिक के समान मुख) है I इसमें आकाश तत्त्व (आकाश महाभूत) की प्रधानता होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, आकाश महाभूत का प्रथम साक्षात्कार स्थान अघोर ब्रह्म और ईशान ब्रह्म के मध्य में ही है I और इस प्रथम साक्षात्कार के पश्चात, यह आकाश सर्वव्यापक ही पाया जाएगा I

 

पञ्च वायु और एकादशाकाश, पञ्चवायु और एकादश आकाश, प्राण वायु और रुद्राकाश, प्राण वायु और अष्टाग्नि, प्राण वायु और नवाग्नि, पञ्च ब्रह्म और हृदय गुफा, पञ्च मुखा गायत्री और हृदय गुफा, पञ्च ब्रह्म और पञ्च महाभूत, पञ्च मुख गायत्री और पञ्च महाभूत, पञ्च ब्रह्म और पञ्च तत्त्व, पञ्च मुखी गायत्री और पञ्च तत्त्व, पञ्च प्राण और आकाश, पञ्च प्राण और प्राणाकाश, पञ्च प्राण और एकादशाकाश, … पञ्च ब्रह्म और एकादशाकाश, पञ्च मुख गायत्री और एकादशाकाश, प्राणाकाश का स्वरूप, प्राणाकाश क्या है, प्राणाकाश और एकादश रुद्र, प्राणाकाश और एकादशाकाश, प्राणाकाश और एकादश आकाश, प्राण और एकादशाकाश, … प्राणाकाश का एकादशाकाश स्वरूप, प्राण का एकादश आकाश स्वरूप, प्राण का रुद्राकाश स्वरूप, … प्राणाकाश का एकादश आकाश स्वरूप, रुद्राकाश का एकादश आकाश स्वरूप, … एकोहं बहुस्याम: का अर्थ, प्राण और उपप्राण का बहुवादी अद्वैत स्वरूप, प्राणों का बहुवादी अद्वैत स्वरूप, …

इस भाग को समझने के लिए, इस अध्याय के प्रथम चित्र को देखो I

पञ्च प्राण ही समस्त जीव जगत की ऊर्जा है I पञ्च प्राण ही समस्त जीव जगत की शक्ति है I पञ्च प्राण ही समस्त जीव जगत की दिव्यता है I पञ्च प्राणों से ही जीव जगत चलायमान है, इसलिए सारे उत्कर्ष मार्गों में यह पञ्च प्राण ही हैं I प्राणों के आकाश स्वरूप के भीतर ही समस्त लोक निवास करते हैं I ब्रह्माण्ड की दिशा और दशा, गति और नियंत्रण, और समस्त उत्कर्ष मार्गों में गमन प्राणों के आलम्बन से ही होता है I

पूर्व के एक अध्याय, जिसका नाम आकाश महाभूत था उसमें बताया गया था, कि आकाश के भीतर ही ऊर्जाएँ निवास करती हैं I वह ऊर्जाएँ पञ्चप्राण ही हैं, जो जीव जगत की शक्ति हैं I

पञ्चप्राण जब आकाश रूप में व्यापक होते हैं, तब उसी को प्राणाकाश कहते हैं I लेकिन यह प्राणाकाश भी एकादश प्रकार का होता है, और जहाँ इस एकादश आकाश का नाता रुद्र देव के सगुण निराकार, एकादश स्वरूप से ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन पञ्च वायु (या पञ्च प्राण) और पञ्च लघुवायु (अर्थात पञ्च लघुप्राण या पञ्च उपप्राण) में तारतम्य होने पर भी, यह प्राणाकाश एक ही है I

यदि इस बिंदु को एक वाक्य में बतलाऊँगा, तो ऐसा कह सकता हूँ …

एकोहं बहुस्याम: I

एक होता हुआ भी अनेक हुआ हूँ I

अर्थात, …

ब्रह्म एक होता हुआ भी अनेक हुआ है I

एकेश्वर ही अनेकेश्वर हुए हैं I

एकेश्वरी ही अनेकेश्वरी हुई हैं I

शक्ति एक होती हुई भी अनेक हुई है I

प्राण एक होते हुए भी अनेक हुए हैं I

इस जीव जगत में सबकुछ एक होता हुआ भी, अनेक सा प्रतीत होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि अनेक रूप में प्रतीत होते हुए भी, प्राण एक ही है, इसलिए …

गुणों, कर्मों, गति और अंतगति के अनुसार, प्राणों का स्वरूप बहुवादी अद्वैत ही है I

 

इसका अर्थ हुआ कि, …

प्राणों के कर्मों, गुणों और गति में तारतम्य होने पर भी, प्राण एक ही हैं I

कर्मों, गुणों और गति में तारतम्य होने पर भी, प्राणों की अंतगति एक ही हैं I

प्राण और उपप्राण पृथक से होते हुए भी, वह मूल और गंतव्य से एक ही हैं I

और जहाँ वो मूल और गंतव्य भी ब्रह्म की सार्वभौम दिव्यता, ब्रह्मशक्ति ही हैं I

इस ब्रह्माण्ड में उन ब्रह्मशक्ति का मूल निवास स्थान भी प्राणाकाश में ही है I

आकाश जिसमें ऊर्जाएं बसी होती है, उसका सार्वभौम ऊर्जावान स्वरूप प्राणाकाश है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह प्राणाकाश ही दस रुद्र हैं, क्यूंकि इसके दस भाग होते है, जिसमें पञ्च प्राण और पञ्च लघुप्राण होते हैं I

और साधक का अत्मलिंगात्मक स्वरूप, जो साधक की ही हृदय गुफा में होता है, वो भगवे वर्ण का एकादशवां रुद्र है जिसकी उपासना त्रिदेव भी करते हैं I

और जहाँ वो त्रिदेव भी साधक की हृदय गुफा में ही निवास करते हैं I

यही प्राणाकाश का एकादशवां भाग है, जो साधक की आत्मशक्ति का रुद्र लिंगात्मक स्वरूप है I यही साधक की आत्मशक्ति के भगवे रुद्र स्वरूप का द्योतक भी है I इसी रुद्रात्मलिंग का सगुण निराकार स्वरूप एकादशवां आकाश है I

 

तो अब इस प्राणाकाश के एकादश आकाश स्वरूप को बताता हूँ …

रुद्र ही ब्रह्म हैं, … ब्रह्म ही रुद्र हैं I

दस रुद्र ही पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण हैं I

रुद्र का एकादशवां स्वरूप ही आत्मशक्ति कहलाता है I

एकादश रुद्र को प्राप्त हुए योगी की आत्मशक्ति ही ब्रह्मशक्ति होती है I

योगी के हृदय गुफा में एकादशवें रुद्र, भगवे अत्मलिंग स्वरूप में स्वयंभू होते हैं I

योगी की हृदय गुफा में, उस भगवे अत्मलिंग की उपासना, त्रिदेव भी करते हैं I

और ऐसे योगी का नित्य स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I

वो ब्रह्म, सगुण साकार, सगुण निराकार, निर्गुण निराकार और लिंगात्मक भी हैं I

और इसके साथ, वही पूर्णब्रह्म शून्य, शून्य ब्रह्म और सर्वसमता में भी होते हैं I

वो पूर्णब्रह्म, पुरुष और प्रकृति, शिव और शक्ति, देव और उनकी दिव्यता भी होते हैं I

पूर्ण ब्रह्म, सर्वातीत और सर्वाधार होते हुए भी, अपने सर्वरूप में जीव जगत भी हैं I

वो जीव जगत भी उन ब्रह्म की पूर्णता को दर्शाता हुआ, उनकी ब्रह्मशक्ति ही है I

और जहाँ वो ब्रह्मशक्ति अनेक हुई हैंऔर ब्रह्म अद्वैत ही रह गया I

और जहाँ वो ब्रह्मशक्ति भी ब्रह्म से एक अद्वैत योगावस्था में ही होती हैं I

ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की अद्वैत योगावस्था ही ब्रह्म की परिपूर्णता को दर्शाती है I

और जहाँ यह परिपूर्णता भी योगी की हृदय गुफा में रुद्रात्मलिंग स्वरूप में ही है I

योगी के हृदय के भीतर, त्रिदेव भी इसी रुद्रात्मलिंग की पूर्णता के उपासक हैं I

इसलिए, ऐसे योगी के हृदय गुफा में, त्रिदेव भी योगी के अत्मलिंग के उपासक हैं I

ऐसा सिद्ध योगी, एकादश रुद्र के समान, स्वयं ही स्वयं का उपासक होता है I

 

लेकिन यहाँ बताए गए बिंदु केवल उस योगी पर लागू होंगे, जो प्राणाकाश के एकादशाकाश स्वरूप (अर्थात एकादश रुद्र का आकाश स्वरूप या रुद्राकाश) को पूर्णतः प्राप्त हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसलिए अब उन एकादश आकाश के स्वरूप को, पञ्च प्राणों के दृष्टिकोण से, अर्थात प्राणाकाश के दृष्टिकोण से बताता हूँ …

  • ज्ञानाकाश, ज्ञान ब्रह्म साक्षात्कार, … यह पीले वर्ण का होता है, और विशालकाय दशा ही है I यह सद्योजात ब्रह्म का अभिन्न अंग है, जो स्वयं भी पीले वर्ण के हैं I सद्योजात ब्रह्म ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाते हैं I इस ज्ञानाकाश की दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख है I

इस ज्ञानाकाश का मूल गुण, ज्ञान है, और ज्ञानाकाश का ज्ञान ही ब्रह्मरूप है, इसलिए इसकी सिद्धि ज्ञान ब्रह्म कहलाती है I इस सिद्धि का नाता साधक के विज्ञानमय कोष से भी है, लेकिन तब, जब साधक का जीवात्मा प्रणव (अर्थात ब्रह्मतत्त्व) में विलीन हो जाता है I

इसी ज्ञानाकाश में, ॐ साक्षात्कार होता है I और इसी ज्ञानाकाश में ही सावित्री सरस्वती का साक्षात्कार भी होता है I

इसी ज्ञानाकाश में त्रिदेव के लिंगात्मक मणि स्वरूप का साक्षात्कार होता है I और इसी में उन प्रणव का भी साक्षात्कार होता है, जो सगुण शिव भी हैं, और ब्रह्मशक्ति भी I

इसी ज्ञानाकाश के एक सगुण साकार स्वरूप, विज्ञानमय कोश कहलाता है I और उसी विज्ञानमय कोश का ब्रह्मरंध्र के भीतर का सगुण निराकार स्वरूप, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश है I

अन्तःकरण चतुष्टय में, यही ज्ञानाकाश बुद्धि रूप में प्रकाशित भी होता है I

इसी ज्ञानाकाश को इन्द्रलोक कहते हैं, जो शरीर के भीतर इड़ा नाड़ी में ही होता है I इड़ा नाड़ी के देवता, देवराज इंद्र ही हैं और उसी इड़ा नाड़ी की देवी, देवरानी इंद्रणी हैं I

ऐसा होने के कारण ही इंद्र देव को इदंद्र (इड़ाद्र) भी कहा गया है, जिसका अर्थ होता होइ, इड़ा नाड़ी के देवत्व बिंदु, (या इड़ा नाड़ी के देवता) I

इड़ा नाड़ी की पूर्ण सिद्धि एक सौ आंतरिक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात ही पाई जाती है I

इसलिए यदि साधक ने उसके अपने समस्त जीव काल में एक सौ आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण नहीं किए होंगे, तो वो साधक इड़ा नाड़ी का साक्षात्कार करके भी, यहां बताए जा रहे ज्ञानाकाश को सिद्ध नहीं कर पाएगा I

इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ के बारे में किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा, जब राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) और वज्रदण्ड (अर्थात वज्रदण्ड चक्र) सहित, महामृत्युंजय मंत्र, हरिहर और अष्ठम चक्र (अर्थात निरालंब चक्र या निरालंबस्थान) पर बात होगी I

 

  • ब्रह्माकाश, अनंताकाश, अनंत ब्रह्म, … यह पीले वर्ण के सद्योजात ब्रह्म, जिनके प्राण, प्राण वायु हैं… और तत्पुरुष ब्रह्म, जिनका प्राण, अपान वायु हैं, उनकी योगावस्था होने के पश्चात ही, साधक के हृदय के अग्र भाग में साक्षात्कार होता है I इसी ब्रह्माकाश का सांकेतिक रूप में ज्ञान, ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में मिलेगा I

ब्रह्माकाश का ऐसा अथाह सागर के समान स्वरूप ही अनंतब्रह्म और अनंताकाश कहलाता है I

इसमें विलीन हुए योगी को ही महामानव कहते हैं I इसलिए ब्रह्माकाश का साक्षात्कार महामानव नामक सिद्धि का मार्ग भी है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

ब्रह्माकाश और कुण्डलिनी जागरण की प्राथमिक दशा

यह ब्रह्माकाश, साधक की हृदय गुफा के अग्रभाग में, हृदय गुफा के नीचे से उदय होता है और उदय होने के पश्चात, यह हृदय से ऊपर की ओर गति करता है I

इसके बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा, जिसका नाम अनंताकाश, हृदय विसर्ग गुहा, ब्रह्माकाश, गुहा विसर्ग आदि होगा I

यह प्रकाश, पीले वर्ण की प्राण वायु (जो सद्योजात ब्रह्म और माँ गायत्री का पीला मुख से संबंधित होती है) और लाल वर्ण की अपान वायु (जो तत्पुरुष ब्रह्म और माँ गायत्री का विद्रुमा मुख से संबंधित होती है), उनकी योगावस्था को दर्शाता है I

इसलिए, यह ब्रह्माकाश सद्योजात ब्रह्म और तत्पुरुष ब्रह्म की योगावस्था को दर्शाता है I और यही ब्रह्माकाश माँ गायत्री के हेमा मुख और रक्ता मुख की योग दशा का भी वाचक है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

प्राण वायु जो हृदय क्षेत्र में होती है, और अपान वायु जो शरीर के नीचे के भाग में होती है, उनके मध्य में (अर्थात नाभि क्षेत्र में) सामान वायु होती है I

जब पीले वर्ण की प्राण वायु और लाल वर्ण की अपान वायु का योग, साधक की काया के भीतर ही समान वायु के क्षेत्र (अर्थात नाभि क्षेत्र) में होता है, तो यह दोनों वायु, समान के अंदर की गति (अर्थात भीतर की ओर जाती हुई गति) के कारण, एकत्रित होने लगती हैं I

जब ऐसा होता है, तब साधक के मेरुदण्ड के नीचे के भाग तक प्राण वायु पहुँच जाती है, और इसके कारण, मेरुदंड के नीचे के भाग में और साधक के लिंग तक, एक बहुत सूक्ष्म लेकिन चमकदार पीले वर्ण का प्रकाश आ जाता है I

यह पीले वर्ण का प्रकाश, प्राण वायु का ही है, जो समान वायु और अपान वायु दोनों के मिले जुले प्रभाव से मेरुदंड के नीचे के क्षेत्र में खिंची चली आती है I

जब ऐसा होता है, तब साधक के समान प्राण, श्वेत वर्ण के हो जाते हैं I और नाभि क्षेत्र में एक मुड़ा हुआ लिंग प्रकट होता है, जो श्वेत वर्ण का ही होता है और समता नामक सिद्धि को दर्शाता है I मैंने इस लिंग को नाभि लिंग कहा है, लेकिन इसके बारे में आगे के किसी अध्याय में बात होगी I

जब ऐसा हो जाता है, तब पीले वर्ण के प्राण और लाल वर्ण के अपान का योग साधक के गुदा और लिंग के मध्य के क्षेत्र में हो जाता है I

और जैसे ही यह हो जाएगा, वैसे ही यह अपान वायु और प्राण वायु की योगदशा में बसे हुए प्राण, ऊपर की ओर उठने लगेंगे, अर्थात हृदय की ओर उठने लगेंगे I

और जब यह मिश्रित प्राण, हृदय के आगे की ओर (अर्थात शरीर के अग्रभाग की ओर) जाते हुए प्राण वायु में पहुंचेंगे, वैसे ही यह लाल और पीले वर्ण का प्रकाश, साधक की हृदय गुफा के आगे के भाग में अथाह सागर रूप में दिखाई देगा I इसी अथाह सागर रूप के प्रकाश को ब्रह्माकाश कहा गया है, क्यूंकि यह कार्य ब्रह्म, अर्थात महेश्वर (या योगेश्वर) का ही प्रकाश है जो साधक के हृदय के आगे के भाग में दिखाई देता है I इस ब्रह्माकाश का संबंध, सद्योजात और तत्पुरुष की योगदशा से है, और यह योगदशा गायत्री के विद्रुमा मुख और हेमा मुख की दिव्यताओं के योग को भी दर्शाता है I

जैसे ही यह हृदय के आगे से हृदय के ऊपर की ओर उठते हुए प्रकाश की सूक्ष्म ऊर्जाएं, (अर्थात ब्रह्माकाश की सूक्ष्म ऊर्जाएं), कंठ चक्र की ऊर्जाओं से मिलेंगी, तो वो उदान प्राण के ऊपर की ओर की गति के कारण (अर्थात कंठ चक्र से मस्तिष्क की ओर की गति के कारण), हृदय के आगे के भाग से ऊपर की ओर, अर्थात मस्तिष्क की ओर उठने लगेंगी I

और जिस योगी के हृदय के अग्रभाग में यह अथाह सागर रूपी ब्रह्माकाश, प्रकाश रूप में स्वयं प्रकट होकर, ऊपर की ओर उठेगा, उस योगी की चेतना जो इसका साक्षात्कार कर रही होगी, वो भी इस विशालकाय पीले और लाल वर्ण की योगावस्था (के ब्रह्माकाश) के प्रकाश रूप की ओर उड़कर, इसमें विलीन हो जाएगी I

जैसे ही योगी की चेतना, हृदय के आगे के भाग में उस ऊपर उठते हुए विशालकाय ब्रह्माकाश में विलीन होगी, वो योगी एक शब्द सुनेगा, जो शिष्ष्ष् का होगा, जैसे कोई सर्प फुंकार रहा है I यही आदिशेष सिद्धि की प्रथम दशा है I

जैसे ही योगी इस आदिशेष नामक नाद में बसकर, उस ऊपर उठते हुए प्रकाश में मस्तिष्क की ओर गति करेगा, और कंठ कमल में पहुंचेगा, वैसे ही उसको जो सिद्धि प्राप्त होगी, वो शिव के कंठ में बसे हुए नाग, वासुकि की होगी I और ऐसी दशा में, साधक के शरीर में ही जो ब्रह्माण्ड है, उसको इसी वासुकि ने घेरा हुआ होगा I

और जैसे ही साधक की चेतना, हृदय के सामने से ऊपर की ओर उठते हुए प्रकाश का आलम्बन लेती हुई, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष की ओर गति करेगी, वो चेतना ॐ के अकार, उकार और मकार नामक भागों का साक्षात्कार करके, प्रवण में विलीन हो जाएगी I

ऐसे समय पर उस चेतना को यही शिष्ष्ष् का शब्द पुनः सुनाई देगा I यही उन अदिशेष की सिद्धि है, जिन्होंने श्री विष्णु को अपने ऊपर बसाया हुआ है, और जिन्होंने समस्त महाब्रह्माण्ड को ही धारण किया हुआ है, और जिनके हजार फन हैं, और जो आत्ममार्ग में साधक के सहस्रार कमल के, सहस्र पत्ते ही हैं I

जब यह सिद्धि पाई जाएगी, तब साधक के भीतर बसी हुई शेषनाग नामक महाब्रह्माण्ड की ऊर्जा, साधक के कपाल के पीछे की ओर जो विष्णुरंध्र है, उससे जाकर, साधक के त्रिनेत्र कमल की ओर जाएगी I यह ऊर्जा मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ऊपर मस्तिष्क की ओर उठकर ही विष्णुरंध्र से त्रिनेत्र कमल की ओर जाती है I

इसी प्रक्रिया में वो आदिशेष नामक ऊर्जा, जो महाब्रह्माण्डधर ही है, और जहाँ वो महाब्रह्माण्ड भी साधक की काया में ही होगा, उसको प्रकाशित करेगी I

और जहाँ यह प्रकाशित करने का मार्ग भी, साधक के सहस्रार चक्र के समस्त पत्तों को ऊर्जावान बनाकर, उन्ही अदिशेष नामक ऊर्जा के हजार फनों के समान बना देगा I यही अदिशेष सिद्धि की पूर्णावस्था है I

इसलिए, आदिशेष सिद्धि का मार्ग हृदय से प्रारम्भ होकर, ब्रह्मरंध्र चक्र में ही अंत होता है I

और इस सिद्धि का धारक योगी अदिशेष स्वरूप होकर, महाब्रह्माण्डधर हो जाता है (अर्थात महा ब्रह्माण्ड का ही धारक हो जाता है) I

ऐसे योगी पर ही श्री विष्णु शयन करते है, उस क्षीर सागर में, जो साधक के सहस्र दल कमल के सहस्र पत्तों की ऊर्जाओं का सगुण निराकार स्वरूप ही है I इस दशा में साधक का सहस्र दल कमल ही श्वेत वर्ण के क्षीरसागर रूप में होता है I

जब ऐसा हो जाएगा, तो साधक के मेरुदंड के भीतर एक काला नाग, जिसके रक्त वर्ण के नेत्र होंगे, बड़ा सा घर होगा और जिव्हा दो भागों में बंटी हुई होगी, वह प्रकट होकर, बहुत फुंकारेगा I उस फुंकार की ऊर्जा से कुछ समय, मेरुदण्ड से लेकर मस्तिष्क तक की समस्त नाड़ियां कंपमान भी होंगी I यह दशा भी बहुत कष्टदायक ही है क्यूंकि उस सर्प की इतनी ऊर्जा होती है, की साधक को समझ ही नहीं आता, की उसके साथ क्या हो रहा है I

बहुत दोनों तक जब यह सर्प मुझे शारिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप में ध्वस्त ही करता गया, तो मैंने सोचा, की अब तो आत्मरक्षा के लिए मेरे मेरुदंड के भीतर जाकर, इस सर्प से युद्ध ही करना होगा I

और इस युद्ध में मैंने इस सर्प को मेरुदण्ड के नीचे की ओर ठेल कर, मेरुदंड के सबसे नीचे के भाग से भी नीचे, जो आंतरिक और आध्यात्मिक पातालपुरी है, वहीँ पर बाँध भी दिया I उस यौगिक पातालपुरी के वैदिक सम्राट राजा बलि ही हैं I

लेकिन ऐसा करने पर भी कभी कभी यह सर्प फुंकारता ही है, जिससे कुछ मात्रा में ही सही, लेकिन उसकी उस विशालकाय ऊर्जा का कुछ न्यून भाग मेरे मेरुदण्ड में प्रवेश करता ही रहता है I

और क्यूंकि यह भाग बहुत न्यून प्रतिशत है, उस सर्प की विप्लवकारी ऊर्जा का, इसलिए अब मैं इसे अपने कर्मों को करने में बाधित नहीं होता हूँ I

इस सर्प के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी I

आगे बढ़ता हूँ …

  • चिदाकाश, चेतन ब्रह्म साक्षात्कार, … यह लाल वर्ण का होता है और एक विशालकाय दशा है I ब्रह्ममार्ग में यह तत्पुरुष ब्रह्म का अभिन्न अंग है, जो स्वयं भी लाल वर्ण के हैं I इस चिदाकाश की दिव्यता, माँ गायत्री का विद्रुमा मुख ही है I

इसका मूल गुण लाल वर्ण का रजोगुण है I और इसी रजोगुण को धारण करके हिरण्यगर्भ ब्रह्म, कार्य ब्रह्म (अर्थात रचैता या सृष्टिकर्ता) हुए थे I

इसी चिदाकाश से जाकर, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार होता है I

इसलिए, जिस योगी ने महाब्रह्माण्ड को साक्षात्कार किया होगा, वो योगी यह भी जानता होगा, कि चेतन ब्रह्म और ज्ञान ब्रह्म की योगदशा का नित्य क्रियात्मक स्वरूप ही महाब्रह्माण्ड है I

ऐसा योगी जान जाएगा, कि चिदाकाश का ब्रह्म रूप चेतन ब्रह्म है, और ज्ञानकाश का ब्रह्म रूप ज्ञान ब्रह्म है, और इन दोनों की योगावस्था ही क्रियात्मक महा ब्रह्माण्ड है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि इस रजोगुणी चिदाकाश के देवता, भगवे रुद्र, अर्थात एकादशवें रुद्र हैं, इसीलिए यह रजोगुण से युक्त, कार्य ब्रह्म (अर्थात योगेश्वर) की सर्वक्रिया से संयुक्त चिदाकाश भी रुद्रात्मक ब्रह्म का ही द्योतक है I

साधक के शरीर के भीतर, यह चिदाकाश उसके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में भी रहता है I और इसका मुख्य स्थान पिङ्गला नाड़ी है, जिसके देवता भी रुद्र ही हैं I

पिङ्गला नाड़ी की पूर्ण सिद्धि निन्यानवे आंतरिक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात ही पाई जाती है I

इसलिए यदि साधक ने उसके अपने समस्त जीव काल में निन्यानवे आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण नहीं किए होंगे, तो वो साधक पिङ्गला नाडी का साक्षात्कार करके भी, यहां बताए जा रहे चिदाकाश को सिद्ध नहीं कर पाएगा I इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

टिप्पणियां:

  • जब चिदाकाश रजोगुणी होता है (जैसा पञ्चब्रह्म साक्षात्कार में उत्तर दिशा में बसे हुए और दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए तत्पुरुष ब्रह्म हैं है ही), तब वह चिदाकाश पञ्च ब्रह्म को दर्शाता है I
  • और जब यही चिदाकाश धूम्र वर्ण का होगा (जैसे यज्ञकुण्ड से उठते धुंए का वर्ण होता है), तब यही चिदाकाश सदाशिव के वामदेव मुख को दर्शाता है, जिसकी दिव्यता माँ धूमावती हैं और माँ शमशान काली भी हैं I सदासिव का वामदेव मुख ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड के सामान ही है, और इसके बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I सदाशिव का वामदेव मुख उत्तर दिशा में बसा हुआ है और उत्तर की ओर ही देखता है I
  • इसलिए, इन दोनों दशाओं के साक्षात्कार से यह भी जाना जा सकता है,की साधक पांच ब्रह्म मार्ग में है या सदाशिव मार्ग में I
  • पञ्चब्रह्म भीतर की ओर (अर्थात ईशान ब्रह्म की ओर) देखते हैं I और सदाशिव के पाँच मुख बाहर की ओर (अर्थात ईशान से परे) देखते हैं I यही अंतर है इन दोनों मार्गों के साक्षात्कारों में I और इसी अंतर के आधार पर, आगे की अध्यय श्रंखलाओं में इन दोनों को जोड़कर बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस रजोगुणी चिदाकाश का साक्षात्कार रजोगुण समाधी से ही होता है, जो अस्मिता समाधि भी कहलाती है I

यह रजोगुण, अपरा प्रकृति के सप्तम कोश का भी द्योतक है I

चिदाकाश का नाता कार्य ब्रह्म के अतिरिक्त, सावित्री विद्या सरस्वती से भी है I सावित्री विद्या के शरीरी रूप के नीचे के भाग से, यह रजोगुण से संयुक्त चिदाकाश विश्वव्यापक होता है I इसके बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा, जब माँ सावित्री (अर्थात अकार की देवी) पर बात होगी I

 

  • पराकाश और अव्यक्ताकाश, पराकाश, अव्यक्ताकाश, पराकाश और अव्यक्ताकाश का योग, पराकाश और अव्यक्ताकाश की योगावस्था, अव्यक्ताकाश और पराकाश का योग, अव्यक्ताकाश और पराकाश की योगावस्था, … तथागतगर्भ क्या है, …

यह दशा तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के मध्य में है I

यह दशा आकाश के समान विशालकाय होती है, और हलके गुलाबी वर्ण की होती है I

इसमें तत्पुरुष के लाल वर्ण और वामदेव के श्वेत वर्ण का योग होता है, जिसके कारण यह दशा हलके लाल (या गुलाबी) वर्ण के विशालकाय आकाश के समान साक्षात्कार होती है I

यह मध्य से तो श्वेत वर्ण का होता है, लेकिन उस श्वेत वर्ण को एक हलके गुलाबी वर्ण ने घेरा होता है I

इस हलके गुलाबी आकाश में श्वेत वर्ण की परा प्रकृति है, जिसका संबंध वामदेव ब्रह्म से है I

और इस हलके गुलाबी आकाश में अव्यक्त प्रकृति का संबंध लाल वर्ण के तत्पुरुष ब्रह्म और चमकदार श्वेत वर्ण के वामदेव ब्रह्म की योगदशा से है I

इस साक्षात्कार में, श्वेत वर्ण परा प्रकृति का वाचक है, और गुलाबी वर्ण अव्यक्त प्रकृति का I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अव्यक्त प्रकृति ही सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति की शक्ति है, और ऐसी दशा में वो अव्यक्त शक्ति और अव्यक्त प्राण भी कहलाती हैं I इन्ही अव्यक्त प्रकृति को माँ माया, माया शक्ति और महामाया आदि भी कहा जाता है I

परा प्रकृति ही ब्रह्म की विशालकाय सत्त्वगुणी, सगुण निराकारी अभिव्यक्ति हैं, और जहाँ उनका संबंध भी वामदेव ब्रह्म से ही है I

यहाँ कहे गए वामदेव ब्रह्म ही ब्रह्मलोक हैं, जिसके देवता सर्वसम, अर्थात हीरे के समान प्रकाश वाले, लंबी दाढ़ी वाले, वृद्ध मानव रुप में सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति ही हैं I मैंने इस ग्रन्थ में चतुर्मुखा पितामह प्रजापति का कोई भी चित्र नहीं बनाया है I

ब्रह्मलोक में सोलह नीचे के लोक होते हैं, चार ऊपर के I इन बीस लोकों को पार करके ही उन चतुर्मुखा पितामह का साक्षात्कार होता है I इसलिए मैं उन पितामाह के स्थान को ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग भी मानता हूँ I

 

आगे बढ़ता हूँ …

साधक की काया के भीतर हुए इस दशा (अर्थात परा और अव्यक्त प्रकृति की योगदशा) के साक्षात्कार में, परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति की ऐसी योगावस्था होती है, जिसमें परा प्रकृति को अव्यक्त प्रकृति ने घेरा हुआ होता है I

इस साक्षात्कार में, परा प्रकृति श्वेत वर्ण की होती हैं, और अव्यक्त प्रकृति हलके गुलाबी वर्ण की I

क्यूंकि, परा प्रकृति को ही आदि शक्ति कहा जाता है और अव्यक्त प्रकृति को माया शक्ति, इसलिए इस दशा में, अदि शक्ति और माया शक्ति का योग भी होता है I

इस दशा में अव्यक्त शक्ति (अव्यक्त प्राण) और आदिशक्ति (या परा प्रकृति) का योग होता है I इसलिए, शाक्त मार्ग के अनुसार, यह एक उत्कृष्ट दशा और सिद्धि ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

शरीर के भीतर इस दशा का साक्षात्कार, दो स्थानों पर होता है I लेकिन यह साक्षात्कार, दोनों स्थानों पर एक साथ नहीं होता है I

जब साधक इस “परा अव्यक्त योग” को अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करता है, तो वो साधक तथागत मार्ग, अर्थात बुद्धत्व मार्ग पर ही चला जाता है I

इस साक्षात्कार के प्रथम स्थाम, ह्रदय में है I और द्वितीय स्थान, आज्ञा चक्र (नैन कमल) से थोड़ा सा ऊपर की ओर होता है I

हृदय में इस साक्षात्कार को “हृदय में ब्रह्म”, ऐसा कहा गया था I और आज्ञा चक्र में इसी साक्षात्कार की दशा को “नेत्र में ब्रह्म और तथागतगर्भ” भी कहा गया था I

नेत्र में इस साक्षात्कार की दशा को मैं जीव जगत की मूल दशा, और अनादि शक्ति भी कहता हूँ I यही दशा माँ महामाया की वह बीजावस्था भी है, जिससे ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I

 

अब इसके साक्षात्कार के दो प्रधान बिन्दुओं को बताता हूँ …

प्रथम अवस्था, … हृदय के ब्रह्म, जो हृदय में है वो ब्रह्म है, … इस साक्षात्कार में, साधक को एक सिद्ध शरीर प्राप्त होता है, और वो सिद्ध शरीर साधक की हृदय गुफा में ही विराजमान होता है I जिस हृदय गुफा में वो सिद्ध शरीर विराजमान होता है, उसका वर्णन एक बाद के अध्याय में किया जाएगा जिसका नाम कैवल्य मार्ग, कैवल्य पथ, हृदय में ब्रह्म, कैवल्य गुफा इत्यादि होगा I

द्वितीय अवस्था, … नेत्र में ब्रह्म, जो नेत्र में है वो ब्रह्म है, … इस साक्षात्कार में, ऊपर बताया गया सिद्ध शरीर, साधक के आज्ञा चक्र (नैन कमल) से थोड़ा सा ऊपर बैठ जाता है I और जहाँ वो बैठता है, वो दशा होती तो हलके गुलाबी वर्ण की है, लेकिन उसमें श्वेत वर्ण की ऊर्जाएं होती है I यह सिद्ध शरीर साधक के ही त्रिनेत्र के ऊपर के भाग में विराजमान होता है I जिस दशा में वो सिद्ध शरीर विराजमान होता है, उसका वर्णन एक बाद के अध्याय में किया जाएगा जिसका नाम तथागतगर्भ, नेत्र में ब्रह्म, जो नेत्र में है वो ब्रह्म है, अनादि शक्ति, प्राथमिक बीज, माया शक्ति, महामाया इत्यादि होगा I

पञ्च विद्या सरस्वती के मार्ग में, यह भीतर से श्वेत वर्ण का और बाहर से हलके गुलाबी वर्ण का सिद्धि शरीर, जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती का भी द्योतक है I जब माँ शारदा विद्या सरस्वती साधक के हृदय में निवास करने लगेंगी, तब ही उस साधक को यह सिद्ध शरीर, जो परा और अव्यक्त प्रकृति की योगावस्था को ही दर्शाता है… वह प्राप्त होगा I

इस सिद्ध शरीर के बारे में भी एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा, जिसका नाम अव्यक्त सिद्धि, अव्यक्त सिद्ध शरीर, अव्यक्त शरीर इत्यादि होगा I

 

  • मनाकाश, मन रूपी आकाश, आकाश रूपी मन, … मन अपनी वास्तविकता में, त्रिकाल व्यापक ही है I जो त्रिकाल व्यापक होता है, वही सर्वव्यापक भी है I

मन का सर्वव्यापक और त्रिकाल व्यापक स्वरूप ही मनाकाश है I

मन कि कुछ वृत्तियाँ भी होती है, जैसे मन कि अस्थिरता, जिसमें मन एक बिंदु (या स्थान या दशा) से दूसरे स्थान पर भटकता है I लेकिन यह वृत्ति भी इसलिए होती है, क्यूंकि मन सबमें व्याप्त है, और सबकुछ मन में ही व्याप्त है, और इसके साथ साथ मन,त्रिकाल के समस्त खण्डों में, एक ही समय पर व्याप्त है I

क्यूंकि मन का संबंध सभी दशाओं से एक ही समय पर रहता है, इसलिए मन भटकता रहता है I

और यही वो कारण है कि अष्ट सिद्धि में, दो सिद्धियाँ मन कि ही होती हैं, जो अणिमा और महिमा कहलाती हैं I इन सिद्धियों का धारक होने के कारण, मन में वो क्षमता होती है, की वो अपने को अणु के समान छोटा और विश्वरूप के समान बड़ा कर सकता है I यह अणिमा और महिमा दोनों सिद्धियाँ मन की ही हैं I

मनाकाश रूप में, मन महिमा नामक सिद्धि में बसकर अपने को विश्वरूपी देखता है I और अणिमा नामक सिद्धि में बसकर, वही मन अपने को अणु रूप में देखता है, और ब्रह्मरचना के प्रत्येक कण-कण में स्वयं को पाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

मन में एक और विशेषता होती है, जो ऐसी होती है …

गंगा गए तो गंगा राम, यमुना गए तो यमुना दास I

इसके कारण, जिस भी दशा में मन निवास करेगा, वैसे ही वो मन उस समय हो जाएगा I

 

उदहारण के लिए, जब मन …

अघोर ब्रह्म में निवास करता है, तब वो अघोर के समान नीला होता है I

तत्पुरुष ब्रह्म में निवास करता है, तब वो तत्पुरुष सा लाल होता है I

वामदेव ब्रह्म में निवास करेगा, तब वो वामदेव सा श्वेत-काला होता है I

सद्योजात ब्रह्म में निवास करता है, तब वो सद्योजात सा पीला होता है I

 

और इसके अतिरिक्त … जब मन, …

शरीर की किसी कोशिका के भीतर निवास करेगा, तो वो अणुरूप में होगा I

ब्रह्माण्ड से परे जाकर, उस ब्रह्माण्ड को देखेगा, तो वो ब्रह्माण्ड सा ही होगा I

मन के आकाश, अर्थात गंतव्य स्वरूप को ही मनाकाश कहा गया है I

और इस मनाकाश स्वरूप का संबंध, प्रधानतः वामदेव ब्रह्म से ही होता है I और यही संबंध मन का उसके अणुरूप में भी होता है I

मन का प्रधान गुण, सत्त्वगुण ही होता है, इसलिए मन का प्रधान वर्ण भी श्वेत ही है I यही कारण है, कि मन कि प्रधान दशा सगुण-निर्गुण ब्रह्म ही है I

परा प्रकृति, जिनको माँ आदिशक्ति भी कहा गया है, उनमें सत्त्वगुणी मन का ही निवास है I इसलिए सत्त्वगुणी मन माँ आदि शक्ति का भी द्योतक होता है I और जहाँ माँ आदि शक्ति सगुण-निर्गुण ब्रह्म की शक्तिरूप ही हैं I

और अंततः मन, शून्य तत्त्व में ही विलीन होता है I

यहाँ बताए गए मनाकाश को भी शून्य तत्त्व ने घेरा होता है, और जहाँ वो शून्य तत्त्व भी आकाश से सामान विशालकाय ही होता है I

तो अब शून्य के आकाश स्वरूप को बताता हूँ I

 

  • शून्याकाश, शून्य का आकाश स्वरूप, महाशून्य, बिन्दु शून्य,

प्राथमिक रूप से शून्य, बिन्दु रूप ही होता है, और वो बिन्दु रूपी शून्य में बहुत बड़ी मात्रा में ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ, दबाव में आकर, बिंदु सरीकी हो जाती हैं I

शून्य की ऐसी दशा को इस ग्रन्थ में बिंदु शून्य (अर्थात शून्य का बिंदु स्वरूप) कहा गया है I इस बिंदु शून्य की दिव्यता दस हाथ वाली महाकाली हैं I

इस बिंदु शून्य और उसकी दिव्यता का साक्षात्कार, जड़ समाधि से होता है जो एक अति चुम्बकिय समाधी है, जिसमें यदि साधक की चेतना चली जाए, तो वो चेतना बहुत लम्बे समय तक उसी समाधी में रह पाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और उसी शून्य के विशालकाय (या आकाश) स्वरूप को यहाँ शून्याकाश कहा गया है I

शून्याकाश का संबंध प्रधानतः वामदेव ब्रह्म से होता है I

लेकिन पञ्चब्रह्म मार्ग में, शून्याकाश का साक्षात्कार वामदेव ब्रह्म और अघोर ब्रह्म के मध्य में ही होता है I इसलिए, यह दशा अघोर और वामदेव के मध्य की है I और ऐसी होने पर भी, यह शून्य वामदेव से ही संबद्ध है I

जब भी दो विपरीत (या/और पृथक) दिशाओं का मिलन (या योग) होता है, तो उनके योगमध्य में शून्य पाया ही जाएगा I

समस्त ब्रह्माण्ड को भी इसी प्रकाश रहित शून्य ने घेरा हुआ है I

शून्य ही मूल प्रकृति है, क्यूंकि जब कोई ब्रह्माण्ड था ही नहीं, तब ब्रह्माण्ड भी शून्य ही था, और वो शून्य भी मूलप्रकृति ही था I

यह शून्य की दशा राति के समान है I और ऐसी होने पर भी इसके भीतर बसकर, इसको देखा (अर्थात साक्षात्कार किया) जा सकता है I लेकिन शून्य में ज्ञान सहित, सब कुछ शून्य ही होता है I

शून्य ही वो प्रकृति का स्वरूप है, जो शक्ति रूप है I शून्य से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती I

शून्य शक्ति का मूल रूप भी ऊर्जात्मक नाद ही है, इसलिए जब शून्य से नाद आते हैं, तब उन नादों को भौतिक, प्राकृतिक और दैविक विनाश का संकेत ही मानना चाहिए I

जब माँ प्रकृति रुष्ट होती हैं, तब वो प्रकृति जो ब्रह्मशक्ति ही हैं, कुछ विषेश के संकेत देती हैं और इन संकेतों में से प्राथमिक संकेत शून्य से उत्पन्न हुए नाद ही होते हैं I

शून्य के भीतर ही सबकुछ बसाया गया था, अर्थात शून्य ने ही जीव जगत (अर्थात समस्त ब्रह्माण्डों) को, उन ब्रह्माण्डों के बहार से ढका हुआ है (अर्थात घेरा हुआ है) I

 

आगे बढ़ता हूँ …

पिण्ड और ब्रह्माण्ड में, शून्य साक्षात्कार भी कई प्रकार से और कई स्थानों पर होता है I तो अब इस बिंदु को बताता हूँ …

प्रथम अवस्था, हृदय कृष्ण गुफा, हृदय की मुक्ति गुफा, … हृदय की एक गुफा होती है, जिसको मैंने हृदय शून्य गुफा, हृदय कृष्ण गुफा आदि नामों से पुकारा है I इस गुफा के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी जिसका नाम, मुक्ति गुफा, गुहा कृष्ण, इत्यादि होगा I

द्वितीय अवस्था, शून्य चक्र, मनस चक्र, … ब्रह्मरंध्र के भीतर, तीन छोटे छोटे चक्र, एक के ऊपर एक, ऐसे होते हैं I इन तीन छोटे छोटे चक्रों में से सबसे ऊपर का चक्र (अर्थात ब्रह्मरंध्र के सबसे ऊपर के भाग की ओर का चक्र) मनस चक्र कहलाता है, जिसके छह पत्ते होते हैं, और जिससे आगे जाकर इस शून्य के विशालकाय आकाश स्वरूप का साक्षात्कार किया जाता है I यही कारण है, कि मस्तिष्क के ऊपर जो सहस्रार चक्र (या सहस्र दल कमल या ब्रह्मरंध्र चक्र) है, उसको सिद्धों ने शून्य चक्र भी कहा था I

जबकि आंतरिक योगमार्ग में यही दो प्रमुख स्थान हैं, जहाँ शून्य का साक्षात्कार एक विशालकाय आकाश रूप में होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी, इन दोनों के सिवा और भी स्थान हैं, जहाँ शून्य साक्षात्कार हो सकता है I

 

  • अहमाकाश, अहम् का विश्वरूप, अहम् का विश्वरूपी स्वरूप, विश्वरूपी अहम्, विश्वरूप अहम्, अहम् का गंतव्य स्वरूप, अहम् विशुद्धि ही मुक्तिमार्ग है, विशुद्धि ही ब्रह्मपथ है, विशुद्धि ही ब्रह्मत्व पथ है, विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म, विश्वरूप अहम् ही ब्रह्म,

अहम् भी दो प्रकार के होते हैं… एक अहम् का कुपित स्वरूप और दूसरा उसी अहम् का विशुद्ध स्वरूप I अहम् विशुद्धि ही मुक्तिमार्ग है I

जब अहम् कुपित होता है, तो वो संकीर्ण होकर, मैंपन में बस जाता है, और जहाँ वो मैंपन भी साधक (या साधक के परिवार) आदि संकीर्ण अहंकार की स्थितियों से ही संबंध रखता है I

और जब वही अहम् सबसे समान रूप में संबंधित हो जाता है, वो वो अहम् अपने पूर्व का संकुचित स्वरूप त्यागकर, ब्रह्माण्ड से एकभाव रखने लगता है I ऐसा होने के पश्चात, वही अहम् जो पूर्व में संकुचित (या संकीर्ण) होने के कारण, छोटा सा था, वो ब्रह्माण्ड सरीका ही हो जाता है I

यही ब्रह्माण्ड व्यापक अहम् जो समस्त ब्रह्माण्ड से एकभाव में हो, अहम् का वह विशुद्ध स्वरूप है, जिसमें मैंपन ही विषुद्ध होकर, ब्रह्म, ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र से, समान रूप में ही योग कर जाता है I

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I

और जहाँ वो विशुद्ध अहम् भी विश्वरूपात्मक ही है I

और जहाँ वो विश्वरूपी अहम् ही अहमाकाश है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अहम् का मूल गुण तमोगुण है, और इसी तमोगुण में जीव जगत को बसाया गया था क्यूंकि तमोगुण स्थिरता का कारण है I

इसलिए, जब अहम् विशुद्ध होता है, तो मन भी स्थिर हो जाता है I यही कारण है, कि अहमाकाश ही मनाकाश नामक सिद्धि का मार्ग है I जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होगा, तबतक साधक का मन भी स्थिर नहीं हो सकता है I

और जबतक मन स्थिर नहीं होगा, तबतक चित्त के संस्कार रहित अवस्था को पाने का मार्ग भी प्रशस्त नहीं हो पाएगा I यही कारण है कि मनाकाश ही चिदाकाश नामक सिद्धि का मार्ग है I

जबतक चित्त के संस्कार रहित स्वरूप का मार्ग ही प्रशस्त नहीं होगा, तबतक बुद्धि भी निष्कलंकी नहीं हो पाएगी I यही कारण है कि चिदाकाश ही ज्ञानाकाश नामक सिद्धि का मार्ग है I

इसलिए, समस्त मुक्तिमार्गों के मूल में, अहम् विशुद्धि ही है I

और यदि ऊपर बताए गए मार्ग को इस अध्याय के प्रथम चित्र से जोड़कर देखोगे, तो यह मार्ग पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा पथ ही पाया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूँकि विशुद्ध अहम् ही अहमाकाश है, जिसके भीतर जीव जगत बसा हुआ है, इसलिए विशुद्ध अहम् का मार्ग ही ब्रह्माण्ड योग का मार्ग है, जिसके मूल में ब्रह्माण्ड धारणा ही होती है I

इसलिए, अहम् विशुद्धि से प्राप्त हुए अहमाकाश का एक उत्कृष्ट मार्ग, ब्रह्माण्ड धारणा ही है I

और जब ब्रह्माण्ड धारणा में स्थित होकर, अहम् विशुद्ध होकर अहमाकाश रूपी ब्रह्म ही हो जाएगा, तब साधक ब्रह्माण्ड योग नामक सिद्धि को भी प्राप्त हो जाएगा I

इस अहमाकाश का प्राथमिक साक्षात्कार भी साधक की एक हृदय गुफा में ही होता है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा और जहाँ उस अध्याय का नाम भी, गुफा निर्वाण, निर्वाण मार्ग, निर्वाण गुफा इत्यादि होगा I

हृदय निर्वाण गुफा में साक्षात्कार हुआ अहम्, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप भी है I

 

  • तत्त्वाकाश, नासदीय सूक्त का आकाश, नासदीय सुक्ताकाश, तत्त्वों का आकाश स्वरूप, … इस तत्त्वाकाश का संबंध सद्योजात ब्रह्म और अघोर ब्रह्म से है I इसलिए इसका साक्षात्कार भी सद्योजात और अघोर के मध्य में होता है I

यह तत्त्वाकाश, सर्वव्यापक जल के समान है, जिसमें सबकुछ बसा हुआ है और जो सबमें बसा हुआ है I

इस पूरे जीव जगत में जो भी है, जहाँ भी है, जिस भी रूप या अरूप में ही है, जिस भी कालखंड में है, वो सबकुछ अघोर से ही संबद्ध है, इसलिए अघोर ही है I

समस्त तत्त्व अघोर के ही हैं I

समस्त तत्त्व अघोर में ही बसे हुए हैं I

और अघोर भी उन सबमें समान रूप में बसा हुआ है I

ब्रह्म की संपूर्ण रचना और रचना का समस्त तंत्र भी अघोर है I

सम्पूर्ण जीव जगत और जीव जगत के समस्त तंत्र का नाम ही अघोर है I

अघोरेश्वर महादेव ही ब्रह्माण्ड और अघोरेश्वरी महादेवी ब्रह्माण्ड का तंत्र हैं I

समस्त पिण्ड और ब्रह्माण्ड जिसमें बसे हैं, और जो इनमें बसा है, वही अघोर है I

 

ऐसा होने के कारण, मैं अघोरेश्वर को मुक्तिमार्ग का मुख्य बिंदु मानता हूँ I बिना अघोर के न तो कोई उत्कर्ष होगा और न ही मुक्ति I

कई पूर्व जन्मों में मैं वैष्णव अघोरी रहा हूँ, और उनमें से कई जन्मों का वर्णन तो आज भी वैदिक और योग ग्रंथों में मिलता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस तत्त्वाकाश में ही समस्त तत्त्व साक्षात्कार होते हैं और वो तत्त्व भी सांख्य के चौबीस ही होते हैं I

सांख्य के चौबीस तत्त्वों के आकाश स्वरूप को ही तत्त्वाकाश कहा गया है I

प्रकृति ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, इन तत्त्वों में से जल तत्त्व ही प्रधान होता है, और इस जल तत्त्व के भीतर अन्य सभी तत्त्व ऐसे निवास करते हैं, जैसे वो जल के भीतर ही तैर रहे हों I

और इस जल का संबंध भी अघोर ब्रह्म से ही होता है I

ऐसा होने के कारण ही इस ग्रन्थ में कई स्थानों पर कहा गया है, कि आज के समय पर अघोर ही प्रधान हैं, और उन्हीं अघोर में ही सबकुछ बसा हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और यह जो व्यापक तत्त्वाकाश की दशा है, जिसमें तत्त्वों का साक्षात्कार होता है, उसमें उन …

सभी तत्त्वों को रात्रि के समान आकाश, अर्थात शून्याकाश ने ही घेरा हुआ है I

वो रात्रि के समान शून्य, उन सभी तत्त्वों के भीतर भी बसा हुआ है I

और उसी शून्य ने ही अपने आपको भी घेरा हुआ है I

वही शून्य, अपने आप के भीतर भी बसा हुआ है I

इसलिए, इस तत्त्व काश में, …

शून्य ने ही शून्य को घेरा हुआ है I

वही शून्य ही, शून्य के भीतर बसा हुआ है I

समस्त तत्त्व भी उसी शून्य के भीतर ही बसे हुए हैं I

शून्य भी समस्त तत्त्वों के भीतर समान रूप में बसा हुआ है I

इन सब वाक्यों और साक्षात्कारों का नाता, प्रधानतः अघोर से ही है I

अघोर में, ज्ञान शक्ति बसी होने के कारण, साधक इन सबको जान पाता है I

उन्ही अघोर से संबद्ध ज्ञानमय योगमार्ग में, तत्त्वाकाश का साक्षात्कार होता है I

 

इसलिए, उस तत्त्वाकाश में …

शून्य ही सबमें बसा है, सब शून्य में बसे हैं, और शून्य ही शून्य में बसा हुआ है I

शून्य सबके भीतर है, शून्य के भीतर सब हैं, और शून्य ही शून्य के भीतर है I

शून्य ने सबको घेरा हुआ है, और शून्य ने ही शून्य को घेरा हुआ है I

और जहाँ वो ज्ञान शक्ति का नाता भी उस ज्ञानाकाश से है, जिसका संबंध सद्योजात ब्रह्म से है, और जिसके बारे में पूर्व में बताया गया था I

ऐसा होने के कारण, …

अघोर ही मुक्ति मार्ग का मूल बिन्दु है I

और जहाँ वो मुक्तिमार्ग भी, अहम् विशुद्धि से होकर ही जाता है और जिससे साधक का अहम् ही अहमाकाश स्वरूप हो जाता है I

और जहाँ वो विशुद्ध अहम् रूपी अहमाकाश ही ब्रह्म कहलाता है, जो अघोर और अघोरेश्वर नाम से पुकारा जाता है I

उन्ही अघोरेश्वर के भीतर तत्त्वाकाश प्रकाशित होता है, और वो अघोरेश्वर भी उसी तत्त्वाकाश में प्रकाशित होते हैं I

तत्त्वाकाश ही अघोरेश्वर की दिव्यता, अघोरेश्वरी कहलाती हैं I

 

  • सर्वाकाश, निर्गुण आकाश, निर्गुण ब्रह्म का आकाश स्वरूप, महाकाश, महाब्रह्म का आकाश स्वरूप, आकाश महाभूत, … आकाश महाभूत के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए इसको जानने के लिए, उस आकाश महाभूत नामक अध्याय में जाओ I

और जिस अथाह निरंग सागर में यह सब (अर्थात ऊपर बताए गए दशाकाश) बसे हुए हैं, वही निर्गुण आकाश है, जिसको यहाँ पर सर्वाकाश शब्द से बताया गया है I

और इसके अतिरिक्त, जो अथाह निरंग सागर ऊपर बताए गए सभी दशाकाश में सामान रूप में बसा होता है, वह भी वही निर्गुण आकाश है, जिसको यहाँ पर सर्वाकाश शब्द से बताया गया है I

और क्यूंकि सर्वाकाश का नाता ईशान ब्रह्म से है, जो कैवल्य मुक्ति ही हैं, इसलिए सर्वाकाश ही कैवल्य मोक्ष को दर्शाता है I

 

तो अब रुद्राकाश के एकादशाकाश स्वरूप को तो बता दिया, इसलिए अब आगे बढ़ता हूँ और इस अध्याय के अगले भाग पर जाता हूँ …

 

हृदय प्राणमय गुफा, हृदय गुफा की प्राण वायु, हृदय की प्राण वायु, हृदय का प्राणमय कोश, हृदय गुफा का प्राणमय कोश, हृदय प्राणमय कोश, हृदय के प्राण वायु, हृदय के पञ्च प्राण, हृदय गुफा के पञ्च प्राण, हृदय गुफा की पञ्चवायु, हृदय की पञ्चवायु, हृदय के प्राण, …

यह चित्र एक आगे के अध्याय श्रंखला क्या है, जिसका नाम हृदयाकाशगर्भ तंत्र होगा I

लेकिन क्यूंकि इस चित्र का नाता भी यहां बताए जा रहे हृदय गुफा के प्राणमय कोश से है, इसलिए इसको यहाँ पर दिखाया गया है I

हृदय गुफा की प्राण वायु, हृदय का प्राणमय कोष
हृदय गुफा की प्राण वायु, हृदय का प्राणमय कोष

 

यह चित्र हृदय आकाश गर्भ के भीतर की प्राणमय गुफा को दर्शा रहा है, जिसमें सभी प्राण और उपप्राण स्थित होते हैं I

लेकिन इस हृदयाकाश के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी, जब उस आंतरिक यज्ञ मार्ग को बताया जाएगा, जिसको पूर्ण करके, साधक हृदय मुक्ति गुफा (या हृदय मोक्ष गुफा) में जाने का पात्र आता है, जिसकी दिव्यता जगद्गुरु माँ, शारदा विद्या सरस्वती हैं I

हृदय क्षेत्र की दिव्यता को जगद्गुरु माता, शारदा विद्या सरस्वती के नाम से पुकारते हैं I इसलिए यह हृदय प्राणमय कोश, उन्ही जगद्गुरु माता, शारदा सरस्वती के क्षेत्र के प्राणमय कोश के हैं I

यह चित्र उस दशा को दर्शाता रहा है, जब कुण्डलिनी जागरण नहीं हुआ था, और इसलिए साधक की चेतना न तो ब्रह्मरंध्र चक्र (सहस्रार चक्र) तक पहुंची थी और न ही उस सहस्र दल कमल (सहस्रार चक्र) से भी ऊपर निरालंब चक्र (या निरालंबस्थान या अष्टम चक्र) तक ही उस चेतना की गति हो पाई थी I

इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि प्राणों के समता को प्राप्त होने से पूर्व की दशा को यह चित्र दिखा रहा है I

यदि प्राण समतावादी हो जाएंगे, अर्थात सर्वसमता को प्राप्त हो जाएंगे, तो ऊपर के चित्र में जितने भी प्राण और उपप्राण दिखाए गए हैं, वो सब हीरे के प्रकाश के समान दिखाई देंगे I

जब प्राण सर्वसम तत्त्व को प्राप्त होते हैं, तब वो सभी प्राण हीरे के समान प्रकाशमान हो जाते है I सर्वसमता नामक अवस्था उन सगुण-निर्गुण ब्रह्म के विशुद्ध स्वरूप और ब्रह्मलोक की भी द्योतक है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ऊपर के चित्र में प्राण इस सर्वसम दशा को नहीं पाए हैं, इसलिए यह चित्र उत्कर्ष मार्गी साधक के प्राणों को दिखा रहा है, न कि उस साधक के प्राणों को जो उत्कर्ष पथ पर गति करता करता, सर्वसमता में ही स्थित हो गया है I

वैसे मैंने इस ग्रन्थ में कुछ शब्द जैसे समता, सर्वसमता, शून्य, सर्वशून्य (शून्य ब्रह्म) इत्यादि कई बार बताए हैं, क्यूंकि मेरे इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म का उत्कर्षमार्ग इन शब्दों की दशाओं से ही गया था I और मैं तो वही बता सकता हूँ न, जिसपर चेतना ने गमन किया था I

जब वो साधक जिसके प्राण ही सर्वसमता को न पाए हों, उसका देहावसान होता है, तो वो साधक के पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण, अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में एक एक करके ही विलीन होते हैं I

यह चित्र हृदयाकाश गुफ़ा के भीतर बसी हुई प्राण गुफा का है, अर्थात हृदय के आकाश गर्भ में जो प्राणों की गुफा होती है, यह चित्र उस गुफा के स्वरूप को दर्शा रहा है I

 

इस चित्र में, …

  • जो सबसे बाहर का गुलाबी वर्ण है, वह व्यान प्राण है I

व्यान प्राण के भीतर जो हल्का नीला वर्ण है, वह उसका धनञ्जय उपप्राण है I

  • धनञ्जय के भीतर जो बैंगनी वर्ण है, वह उदान प्राण है I

इस उदान प्राण के भीतर जो हल्का नीला वर्ण है, वह उसका देवदत्त उपप्राण है I

  • देवदत्त के भीतर जो पीले वर्ण का प्राण है, वह प्राण वायु है I

और इस प्राण-प्राण के भीतर जो हल्का नीला वर्ण है, वह नाग उपप्राण है I

  • नाग उपप्राण के भीतर जो हरे-पीले वर्ण का प्राण है, वह समान प्राण है I यह समान प्राण की प्राथमिक दशा है, क्यूंकि अंततः (अर्थात कुण्डलिनी के निरलम्ब चक्र पर जाने के पश्चात), यह समान प्राण, श्वेत ही पाया जाता है I

समान प्राण के भीतर जो हल्का नीला वर्ण है, वह उसका कृकल उपप्राण है I

  • उस कृकल के भीतर जो लाल वर्ण का प्राण है, वह अपान है I

और उस अपान प्राण के भीतर जो हल्का नीला वर्ण है, वह उसका कूर्म उपप्राण है I

 

प्राणों की ऐसी दशा ही हृदय प्राण गुफा (अर्थात हृदय प्राणमय कोष) में साक्षात्कार होती है I

 

हृदय आकाश गुफा के प्राण और उपप्राण, हृदय के प्राण और उपप्राण, हृदय गुफा का प्राणमय कोश, हृदय गुफा के प्राण, … हृदय के प्राण, हृदय गुफा में प्राण, हृदय आकाश के प्राण, हृदयाकाश के प्राण, … प्राणमय कोश के भाग, … पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण, पञ्च प्राण और पञ्च लघुप्राण, पञ्च वायु और पञ्च लघुवायु,

यह चित्र हृदय गुफ़ा के प्राणों को, और उन प्राणों के एक दुसरे से नाते को दिखा रहा है I

हृदय प्राणमय कोष, हृदय प्राण
हृदय प्राणमय कोष, हृदय प्राण

 

जैसे प्राणमय कोश के प्राणों में वर्ण और कर्म आदि प्रभेद हैं, वैसे ही हृदय प्राणमय गुफा के प्राणों के भी हैं I

जैसे प्राणमय कोश के प्राणों की गति आदि होती है, वैसे ही हृदय की प्राण गुफा के प्राणों की भी होती है I इसका अर्थ हुआ, कि जैसे प्राणमय कोश के प्राण के गुण आदि होते हैं, वैसे ही इस हृदय गुफा के प्राणों के भी होते हैं I

इसलिए, जबकि यह चित्र हृदय प्राणमय गुफा के प्राणों पर आधारित है, लेकिन इसका नाता प्राणमय कोश के प्राणों से भी है I और यही कारण है, कि इस चित्र को यहाँ पर दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

साधारणतः यह प्राण एक दुसरे से पृथक ही रहते हैं I

लेकिन योगमार्ग में एक ऐसी दशा भी आती है, जब यह पांचों प्राणों का एक दुसरे से योग होता है I

और ऐसी दशा में यह पाँचों प्राण समता को प्राप्त होकर, श्वेत वर्ण के हो जाते है I

और ऐसा तब अवश्य होता है, जब साधक की चेतना वज्रदण्ड चक्र से ऊपर जो निरालंब चक्र (निरालंबस्थान या अष्टम चक्र) है, उसमें चली जाती है I

जबतक पांचो प्राण एक दुसरे से योग नहीं करेंगे, तबतक प्राणों की यह समता की दशा भी नहीं आएगी I

और जबतक साधक अष्ठम चक्र (या निरालंबस्थान) पर गमन करने का पात्र नहीं होगा, तबतक यह पांचों प्राणों का एक दुसरे से योग भी नहीं होगा I

आगे बढ़ता हूँ …

जबतक प्राण एक दुसरे से पृथक रहेंगे, वो अपने अपने कार्य करते रहेंगे और शरीर स्वस्थ भी रहेगा I

लेकिन जब इन पाँच प्राणों में से, किसी दो या दो से अधिक, लेकिन पांच से कम प्राणों का आपस में योग हो जाएगा, तब साधक के स्थूल शरीर कई पीडाओं से ग्रसित भी हो जाएगा I

और वो पीड़ाएं भी उन योग किए हुए प्राणों के स्थानों पर ही आएँगी I

लेकिन जब इन सभी (अर्थात पांचों) प्राणों का एक दुसरे से योग हो जाता है, तब यह पांचों प्राणों में एक श्वेत प्रकाश स्वयंप्रकट होता है I

यह श्वेत प्रकाश इन प्राणों के समतावादी स्वरूप को दर्शाता है, और जहाँ वो समता भी ब्रह्म के सगुण निर्गुण स्वरूप से, अर्थात परा प्रकृति से नाता रखती है I

और इस प्रकार के योग से, अंततः जो दशा आती है, उसमें यह प्राण हीरे के समान प्रकाश को धारण करते हैं, जिसका नाता सर्वसम पितामह प्रजापति के लोक, अर्थात ब्रह्मलोक से होता है I ऐसा साधक जीवित होता हुआ भी, ब्रह्मलोक का साक्षात्कारी हो जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब इन प्राणों और उपप्राणों को एक-एक करके बताता हूँ …

 

अपान प्राण का स्वरूप, अपान प्राण का वर्ण, अपान प्राण का रंग, अपान प्राण की गति, अपान प्राण का स्थान, शरीर में अपान प्राण का स्थान,  … अपान वायु का स्वरूप, अपान वायु का वर्ण, अपान वायु का रंग, अपान वायु की गति, अपान वायु का स्थान, शरीर में अपान वायु का स्थान,  …

  • यह वायु लाल रंग की है I
  • इसका स्थान कूल्हे की हड्डी के समीप से शरीर के नीचे के भाग तक है, अर्थात कूल्हे की हड्डी के समीप से चरणों तक है I
  • शरीर में इसकी गति नीचे की ओर होती है, अर्थात चरणों की ओर यह प्राण गति करता है I
  • इस अपान प्राण का प्रधान चक्र मूलाधार है I इसी अपान के लाल रंग के प्रभाव से मूलाधार चक्र के मध्य में लाल रंग होता है I
  • यह अपान प्राण, पञ्चवायु में से सबसे भारी वायु है, अर्थात सबसे कम सूक्षमता वाली वायु है I
  • इस प्राण की ऊर्जा उष्ण होती है, अर्थात गर्मी देती है I
  • इसकी ऊर्जा का स्वरूप प्रचन्ड है I यह प्राण की ऊर्जा जब प्रचण्ड होती है, तब साधक के शरीर में जिस स्थान पर ऐसा होगा, वहां ऐसा लगेगा जैसे सुइयाँ चुभ रही हैं I
  • अपान प्राण रजोगुण प्रधान होता है I
  • पञ्च ब्रह्म में अपान वायु का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से है I
  • अपान प्राण के देवता रजोगुणी ब्रह्मा हैं I
  • और इस अपान वायु का नाता रुद्र देव से भी है I
  • इस प्राण की शक्ति प्रचंड होती है I
  • पञ्च विद्या में, इस प्राण का नाता माँ गायत्री के रक्ता मुख (अर्थात माँ गायत्री का विद्रुमा मुख) से है I इस प्राण का नाता कई और देवियों से भी है, जैसे रक्त चामुंडा, लाल तारा इत्यादि I
  • कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह एक प्रमुख प्राण है I
  • इस प्राण का कार्य मल मूत्र त्यागना है I यही प्राण बड़ी आँत के अंत भाग के भीतर भी है I लिंग और गुदा के क्षेत्र में भी यही प्राण है I
  • इसी प्राण के तीव्र (ये उष्ण) स्वरूप के कारण काम वासनाएं बढ़ती है I इसलिए इस प्राण को साधने से ही ब्रह्मचर्य स्थापित हो जाता है I
  • जितना इस प्राण को जगाओगे, उतना ही यह प्रचंड होता जाता है, इसलिए यदि इस प्राण के साथ छेड़-छाड़ होती है, तो यह प्राण साधक के स्थूल देह के लिए विप्लवकारी ही पाया जाएगा I
  • मुक्तिपथ में जाने के प्रथम चरण में इस प्राण को ही साधा जाता है, क्यूंकि यदि यह चरण ही नहीं साधा गया, तो उस पथ में साधक कभी न कभी भटकेगा ही I

 

आगे बढ़ता हूँ …

  • यह प्राण जब बुद्धि से योग करता है, तो रचना होती है I
  • जब यह प्राण मन से योग करता है, तो मन भटकता है I
  • जब यह प्राण अहम् से योग करता है, तो कई प्रकार का अभिमान जागृत होता है I
  • जब यह प्राण चित्त से योग करता है, तो चित्त ही रजोगुणी हो जाता है और इधर उधर भागने लगता है I योगमार्ग में ऐसा साधक अंततः गर्त को ही पाएगा I
  • जब यही प्राण अन्य किसी प्राण से योग करता है, तो वो प्राण भी प्रचंड हुए बिना नहीं रह पाता I
  • इसलिए यह अपान प्राण एक क्रियाशील प्राण है, जो जहाँ भी जाएगा, जिससे भी योग करेगा, उसको गति ही देगा I और चाहे वो गति उत्कर्ष की ओर हो या अपकर्ष की ओर, इससे इस प्राण को कोई अंतर नहीं पड़ता I
  • इसलिए यह प्राण एक मूर्ख लेकिन क्रियाशील जीव के समान है, जिसको किसी भी समय पर कुछ करना ही है, क्यूंकि वो शांत होकर बैठ ही नहीं पाता I
  • यह उस हृदय के भी समान है, जो जबतक जिएगा, तबतक धड़केगा ही, चाहे वह जीव जागृत हो, या सुषुप्ति, स्वप्न और तुरिय अवस्थाओं में ही क्यों न हो I
  • काम वासनाओं के मूल में भी यही प्राण है I
  • पाचनशक्ति का कुछ अंश भी इसी प्राण के कारण क्रियान्वित होता है I
  • चलना दौड़ना आदि कार्यों के मूल में यह अपान वायु ही है I
  • सम्भोग और ब्रह्मचर्य दोनों के मूल में यह अपान वायु ही है I इसलिए इस अपान वायु को जिस भी गति पर लेके जाओगे, तुम वैसे ही हो जाओगे I
  • मेरुदंड के नीचे के भाग में जो अपार शक्ति रूपी ऊर्जा होती है, उस ऊर्जा का नियंत्रण और उसके स्थान का शुद्धिकरण भी अपान वायु के नियंत्रण और शुद्धिकरण से हो जाता है I
  • अपान प्राण मेरुदण्ड के नीचे के भाग के स्वास्थ्य को भी नियंत्रण करता है I

 

आगे बढ़ता हूँ … और अपान के अन्य प्राणों से योग बताता हूँ …

  • सम्भोग के समय, प्रधानतः अपान वायु का समान वायु से योग होता है, जिससे लिंग के स्थान पर यह योग हुई ऊर्जाएं एकत्रित होती हैं I और जब इसी योग में प्राण वायु भी आ जाती है, तब यह ऊर्जाएं झटके से वीर्य को लिंग से आए की ओर (अर्थात बाहर) निकालती हैं I इसलिए जीवों को जगत में स्थापित करके रखने के लिए, यह अपान प्राण एक प्रमुख भूमिका निभाता है I
  • जब अपान वायु का योग समान वायु से उदर के नीचे वाले स्थान पर होता है, तब इस योग से ही मल को आँतड़ियों में नीचे की ओर चलित करके, गुदा से बहार निकालता है I

और जब यह प्रक्रिया चल रही होती है, तो उसी आंतड़ी में व्यान वायु के प्रभाव से अन्न का पौष्टिकारक भाग शरीर में अवशोषित होता है I

  • अपान का व्यान वायु से योग ही आँतड़ियों के संचलन (या चाल) का कारण है I
  • जब ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन होगा, तो उस योगी की सुषुम्ना नाड़ी को एक हल्का गुलाबी प्रकाश घेर लेगा I

ऐसा भी तब ही होगा जब अपान प्राण का योग सामान से और इस योग का ही योग व्यान प्राण से, मेरुदंड के नीचे के भाग की ओर हो जाएगा I

आज के कई वेद मनीषी और योगीजनों के शरीर में ऐसा ही है I

  • और जैसे जैसे यह दशा चलेगी, तो अंततः यही हल्का गुलाबी वर्ण योगी के मेरुदण्ड को ऊपर से नीचे तक घेर लेगा I

यह अवस्था अव्यक्त सिद्धि को दर्शाती है I

और इससे भी आगे की दशा में, ऐसे योगी के स्थूल शरीर के भीतर ही एक हल्का गुलाबी सिद्ध शरीर प्रकट होता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, वो योगी अव्यक्त प्रकृति (अर्थात महामाया) का ही स्वरूप हो जाता है I

  • जब आँतड़ियों में अपान वायु के स्थान पर, व्यान की सक्रियता बढ़ जाती है, तब कब्ज होती है I

और जब इससे विपरीत होता है, तब दस्त लगते हैं I

  • कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, जब अपान वायु की गति शरीर के नीचे की ओर या तो नहीं रहती है, या बहुत न्यून होती है, तब मलमूत्र त्यागने में बाधा आती ही है I

और यह बाधा तबतक रहेगी जबतक अपान वायु की गति पुनः शरीर के नीचे की ओर नहीं हो जाएगी I

  • क्यूँकि कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, अपान वायु मेरुदण्ड में ऊपर की ओर खिंच जाती है, इसलिए ऐसी दशा में ऐसा लगता है जैसे मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर, हृदय के नीचे के भाग तक निर्वात हो गया है (अर्थात वायु शून्यक अवस्था) हो गई है I
  • यदि समान वायु का प्रभाव बढ़ जाएगा, तब भी समान प्राण, अपान वायु को अपनी ओर, अर्थात नाभि की ओर आकर्षित करने लगेगा I

और ऐसी दशा में भी मल मूत्र त्यागने में कठिनाई आएगी I

और जब इन दोनों प्राणों की दशा इससे विपरीत होगी, तो भी दस्त लगेंगे I

  • जब अपान प्राण का योग समान वायु से होता है, और ऐसी दशा में व्यान कि गति भी क्षीण होती है, तब जठर अग्नि और कामाग्नि की अधिकता से सम्बंधित समस्याएं आ जाती है I
  • जब भी अपान वायु की गति उलटी होगी, अर्थात उदर की ओर होगी, तब समस्या आएगी ही, चाहे वो समस्या अधिक अग्नि की हो या वात की, या पित की ही हो और या इन सबके योग से ही संबंधित हो I

इसलिए शरीर के स्वास्थ्य के लिए यह अपान एक अत्यंत आवश्यक वायु है I

  • जब अपान वायु की नीचे की ओर की गति बढ़ जाएगी, तब अति कामुखता, जुलाब, विभिन्न प्रकार के उदर के संक्रमण, पाचन शक्ति में न्यूनता, पेट और आंतों का फूलना और ऐंठन, वैरिकाज-वेंस, फूली हुई नस से संबंधित आदि समस्यें आ जाएंगी I
  • जब यह अपान वायु की नीचे की गति बढ़ती है और उसी समय यह अपान वायु गुदा में (या मूलाधार चक्र के समीप के स्थानों में) बड़ी मात्रा में एकत्रित हो जाती है, और तब अर्श (बवासीर) जैसी समस्यें आती हैं I

इसका पूर्ण समाधान भी योग मार्ग से ही हो सकता है I

  • गर्भ का गिर जाना, जैसी समस्याएं भी समान और अपान प्राणों के प्रवाह में परिवर्तन से ही होता है I

आज जो जन्म लेते समय बच्चे गर्भ का पानी पी रहे हैं, उसका कारण भी माताओं की कामुखता ही है I और इस कारण के मूल में अपान प्राण के प्रवाह की अधिकता ही है I

  • गठिया आदि व्याधियों का मूल कारण भी प्राणों का मिलना ही है I

उदहारण के लिए, पैरों का गठिया तब होता है जब अपान वायु का प्रवाह जोड़ों में अधिक हो जाता है I

और ऐसा भी तब होगा जब अपान वायु का बल अधिक होने के कारण, वह अपान वायु ही समान वायु को पैरों के जोड़ों ओर ले जाएगी और जोड़ों में ही इकट्ठा कर देगी और ऐसी दशा में व्यान वायु का शरीर से बाहर की ओर का प्रवाह भी न्यून होगा I

  • जिस भी मनीषी की आंतरिक दशा भौतिकता की होगी, उसके व्यान वायु का बाहर की ओर का प्रवाह न्यून ही होगा I

और यह बिंदु उन मनीषियों के लिए भी लागू होता है, जो दिखाते हैं की वो आध्यात्मिक हैं, लेकिन उनकी आंतरिक दशा भौतिकवाद से ही सम्बंधित होती है I

ऐसे मनीषियों का शरीर के बहार का जो प्राणमय (या सूक्ष्म) आभा मंडल है, वह भी बहुत छोटा ही होगा I

  • यदि किसी मानव में ब्रह्मचर्य स्थापित किये बिना ही,अपान कि ओर प्राण वायु आकर्षित हो जाए और यह दोनों वायु का योग मेरुदण्ड के नीचे की ओर हो जाए, तो कामाग्नि (कामुखता) बहुत-बहुत बढ़ जाएगी I

इस समस्या का उपचार भी योग मार्ग से ही होगा, क्यूंकि इस समस्या में औषधियां कम ही काम करती हैं I

  • और ऊपर बताए गए बिन्दु के विपरीत, यदि किसी मानव में, जिसका ब्रह्मचर्य स्थापित है,अपान कि ओर प्राण वायु आकर्षित हो जाए, और यह दोनों वायु का योग मेरुदण्ड के नीचे की ओर हो जाए, तो यही योग कुण्डलिनी जागरण का कारण बन जाएगा I

 

अब योग मार्ग में इस अपान वायु से लाभ लेने के कुछ ही सही,लेकिन उपाय बताता हूँ …

  • जब व्यान वायु का योग प्राण वायु से होता है और ऐसी दशा में यह दोनों वायु, अपान वायु से योग करती हैं और जहाँ यह योग भी अपान वायु के क्षेत्र में ही होता है (अर्थात मेरुदण्ड के नीचे के भाग में या इससे समीप होता है), तब जो उष्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है, उसको यदि साधक मेरुदण्ड के नीचे के भाग की ओर लेके जाएगा, तो उस मेरुदण्ड के नीचे के भाग के समस्त विकार, जैसे बलगम आदि नष्ट हो जाएंगे I
  • और जब यह बलगम जो मेरुदंड के नीचे के भाग और गुदा-लिंग के बीच के भाग में इकट्ठी होकर रहती है, वो नष्ट हो जाएगी, तो साधक की प्राण ऊर्जा स्वतः ही ऊर्ध्वगामी (अर्थात ऊपर या मेरुदंड से मस्तिष्क की ओर उठने वाली) हो जाएगी I
  • और जब ऐसा होगा, तो कुण्डलिनी जागरण, जो भौतिक शरीर के दृष्टिकोण से एक बहुत विप्लवकारी मार्ग है, वो भी बहुत मात्रा में सुगम हो जाएगा I
  • जब यह मिलन, पिङ्गला नाड़ी में होता है, तो साधक के शरीर में (मेरुदंड से मस्तिष्क तक की नाड़ी आदि में) लाल वर्ण का तैजसरूपी अग्नि प्रवाह आता है I

जब यह मिलन इड़ा नाड़ी में होता है, तो साधक को ऐसा लगेगा है कि मेरुदंड के भीतर दूध की पीले रंग की मलाई जैसा प्रवाह चल रहा है I

और जब यह मिलन सुषुम्ना नाड़ी में होता है, तो साधक को ऐसा लगेगा है कि मेरुदंड के भीतर एक सगुण-निर्गुण प्रकाश (अर्थात श्वेत प्रकाश) रूप में समता को धारण करी हुई कोई ऊर्जा चल रही है I

और जब साधक की सुषुम्ना नाड़ी में ही इडा नाडी की पीली और पिङ्गला नाडी की लाल ऊर्जाओं का योग होता है, तब साधक के स्वाधिष्ठान चक्र के भीतर एक भगवा शरीर बैठा हुआ दिखाई देगा I

और इसी भगवे शरीर के भीतर ही एक श्वेत प्रकाश दिखाई देगा I यही वो सिद्ध शरीर है, जो साधक का ही सगुण आत्मस्वरूप है, और जिसको इस ग्रन्थ में इस सिद्ध शरीर को रौद्री रुद्र योग शरीर भी कहा गया है I

इड़ा नाड़ी के देवता देवराज इंद्र हैं, पिङ्गला नाडी के देवता रुद्र देव हैं और सुषुम्ना नाड़ी के देवता प्रजापति हैं I

इसलिए जब इंद्र और रुद्र की ऊर्जाओं का योग, प्रजापति की नाड़ी के भीतर होता है, तब इस दशा की सिद्धि (अर्थात सिद्ध शरीर) को जो स्वाधिष्ठान चक्र के क्षेत्र में ही होती है, साधक की आत्मा का ही सगुण स्वरूप कहा गया है I

यह सिद्ध शरीर एकादश रुद्र, देवराज इंद्र और प्रजापति की योगदशा को भी दर्शाती है और इसीलिए यह एक उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट सिद्धि है I

लेकिन यहाँ बताया गया मार्ग और योग, साधक के इच्छा बल (मनोबल) से ही संपन्न और चलित हो पाएगा… न कि अन्य किसी मंत्र या तंत्र आदि के बल से I

 

कूर्म उपप्राण का स्वरूप, कूर्म उपप्राण का वर्ण, कूर्म उपप्राण का रंग, कूर्म उपप्राण की गति, कूर्म उपप्राण का स्थान, शरीर में कूर्म उपप्राण का स्थान,  … कूर्म लघुप्राण का स्वरूप, कूर्म लघुप्राण का वर्ण, कूर्म लघुप्राण का रंग, कूर्म लघुप्राण की गति, कूर्म लघुप्राण का स्थान, शरीर में कूर्म लघुप्राण का स्थान, … लिंग गुदा का उपप्राण, लिंग गुदा का लघुप्राण, लिंग का उपप्राण, लिंग का लघुप्राण, गुदा का उपप्राण, गुदा का लघुप्राण, …

  • यह लघुवायु अपान वायु को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखती है जिसके कारण अपान अपने कार्य कुछ सीमा तक ही सही, लेकिन स्वतंत्र होकर करता है I इसलिए यह लघुप्राण, अपान प्राण की ऊर्जा को अपान प्राण में ही संगठित रखता है I
  • कूर्म उपप्राण का वर्ण हल्का नीला है, जिसमें अपान प्राण के लाल रंग के बिंदु भी दिखाई देते हैं I
  • इस लघुप्राण की गति भी उसकी प्राण वायु (अर्थात अपान वायु) के समान, शरीर के नीचे के भागों की ओर ही है I
  • लघुप्राण अधिकांश रूप में तमोगुणी होते हैं, अर्थात स्थिथि कृत्य के धारक होते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I
  • अधिकांश रूप में लघुप्राण अपने प्राणों को घरके रखते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I

 

समान प्राण का स्वरूप, समान प्राण का वर्ण, समान प्राण का रंग, समान प्राण की गति, समान प्राण का स्थान, शरीर में समान प्राण का स्थान,  … समान वायु का स्वरूप, समान वायु का वर्ण, समान वायु का रंग, समान वायु की गति, समान वायु का स्थान, शरीर में समान वायु का स्थाननाभि का प्राण, नाभि की प्राण वायु, उदर का प्राण, उदर क्षेत्र के प्राण, …

  • इस वायु का प्रथम स्वरूप हरे-पीले वर्ण के योग का है I

लेकिन कुण्डलिनी जागरण के पश्चात और जब वो कुण्डलिनी सहस्र दाल कलम (अर्थात सहस्रार चक्र) जो मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है, उसको पार करके उससे भी ऊपर जो वज्रदण्ड है, उस वज्रदण्ड को भी पार करके, अष्टम चक्र (अर्थात निरालंब चक्र या सिद्धों का बताया हुआ निरालंबस्थान) को भी पार कर लेती है, तब इस समान वायु का वर्ण श्वेत हो जाता है I

इसलिए इस ग्रन्थ में, इस समान वायु का वर्ण, श्वेत ही कहा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …
और ऐसी दशा में यह सामान प्राण ही कुण्डलिनी शक्ति की मूल दिव्यता कहलाता है I

और कुण्डलिनी शक्ति की मूल दिव्यता के स्वरूप में, यही सामान प्राण, ऐसा प्रतीत होता है, जैसे शरीर के भीतर बर्फ उलटी गिर रही है, अर्थात वो भारी बर्फपात मेरुदण्ड के नीचे की ओर से चलित होता हुआ, मस्तिष्क की ओर जा रहा है I

ऐसे समय पर, योगी को उसके अपने स्थूल शरीर में ही जो नाद सुनाई देगा, वही रा और म के शब्दों की योगावस्था, राम नाद है, और जो शिव तारक मंत्र कहलाता है I

  • इस समान वायु का विस्तार (या स्थान) कूल्हे की हड्डी के ऊपर के भाग के समीप से पसली के पिंजरे के नीचे के भाग तक है, अर्थात कूल्हे की हड्डी के समीप से पसली के पिंजरे के नीचे के भाग में जो सूर्य चक्र और चंद्र चक्र हैं, उन दोनों चक्रों तक है I
  • शरीर में इसकी गति भीतर की ओर होती है, अर्थात यह वायु अपने ही स्थान (या विस्तार क्षेत्र) के भीतर की ओर गति करती है I इसका अर्थ हुआ कि इस वायु का प्रवाह, सभी ओर से, इस वायु के मध्य भाग, अर्थात नाभि की ओर होता है I
  • समान प्राण का प्रधान चक्र नाभि कमल (अर्थात मणिपुर चक्र) है I
  • यह पञ्च वायु में से सबसे अधिक सम्तावाद को दर्शाती है, अर्थात पञ्च वायु में से यह समान वायु सबसे अधिक सगुण निर्गुण (या समतावादी) वायु है I
  • समतावादी होने के कारण यह वायु ऊष्णता (अर्थात गर्मी) को भी दर्शाती है और शीतलता को भी I इन्ही दोनों से यह समान वायु अपने मूल समतावादी स्थिति को पाती है I
  • इसी वायु के क्षेत्र के भीतर, सूर्य चक्र और चंद्र चक्र निवास करते हैं I

जबकि यह दोनों चक्र हैं तो बहुत छोटे से, लेकिन योगमार्ग में इनका प्रभाव किसी भी प्रमुख चक्र से न्यून तो बिलकुल नहीं है I

  • इस समान प्राण की ऊर्जा अपने भीतर ही सबकुछ संगठित करती है, और जिस स्थान पर भी यह संगठित करेगी, उस स्थान पर श्वेत वर्ण का प्रकाश भी प्रकट हो जाएगा I

और क्यूँकि श्वेत वर्ण सगुण-निर्गुण या मूल सम्तावाद को ही दर्शाता है, इसलिए समान प्राण समतावादी ही है I

 

अब विशेष ध्यान देना …

  • नाभि से 2-3 ऊँगली नीचे, और मेरुदंड की और एक अमृत कलश होता है I इस अमृत कलश में श्वेत वर्ण का अमृत पड़ा होता है I

और यह कलश एक श्वेत वर्ण के लिंग रूप में, नाभि क्षेत्र में, लेकिन नाभि से पीछे की ओर और मेरुदण्ड के समीप दिखाई देता है I

इस अमृत कलश को देखकर ऐसा लगता है, जैसे इसपर किसी ने भर-भर के श्वेत रंग के चूने की धूल डाल रखी है I

इस श्वेत वर्ण के लिंग रूपी अमृत कलश में, तैतीस कोटि नाडियों की ऊर्जाओं का योग होता है, और उस युग के पश्चात, वो ऊर्जाएं समता को पाके, श्वेत वर्ण की हो जाती हैं I

यह लिंग मेरुदण्ड के समीप, लेकिन नाभि क्षेत्र में होता है, और यह ऊपर की ओर से मेरुदण्ड की ओर मुड़ा भी होता है I

इस ग्रन्थ में इस लिंगरूपी अमृत कलश को नाभि लिंग भी कहा गया है I लेकिन इसके बारे में एक आगे के अध्याय में ही बात होगी I

यह अमृत कलश और उसके श्वेत वर्ण का स्वरूप, इसी समान वायु के भीतर बसा हुआ, इस वायु के समान सम्तावाद का मूल कारण है I यह नाभि लिंग ही वामदेव ब्रह्मा का लिंगात्मक स्वरूप है, जिनके प्राण ही समान वायु कहलाता है I

इस अमृत कलश में श्वेत वर्ण का अमृत तब भरता है, जब साधक उन सत्कर्मों में जाता है, जो निस्वार्थ होते हुए भी, सर्वस्व को अपने आगे रखकर किये जाते हैं I

इसका अर्थ हुआ, कि इस अमृत कलश में अमृत तब ही भरने लगेगा, जब साधक के भाव और कर्म निष्काम होंगे, और ऐसे होते हुए वो भाव, समस्त जीव जगत के उत्कर्ष में बसे हुए होंगे, और ऐसे भाव में बसकर ही वो साधक अपने कर्म करेगा I

पर क्यूंकि अधिकांश जीव तो ऐसे कर्म करते ही नहीं है, इसलिए इस अमृत कलश को भरने में भी बहुत अधिक समय लगता है, और जहाँ वो समय भी कई ब्रह्मवर्ष तक भी हो सकता है I

और जहाँ एक  ब्रह्म वर्ष की आयु, 3.1104 लाख करोड वर्ष है, और जिसका नाता आकाश गंगा के एक चक्र से भी है I यह अंक वैदिक समय इकाई में बायता गया है… न कि आज की समय इकाई में I इन सबके कालचक्र नामक ज्ञान से लिंक में नीचे डाल रहा हूँ, जिसको पढ़ना हो पढ़ लेना I

इस अमृत कलश के बारे में एक बाद की अध्याय श्रृंखला में बात होगी, जिसका नाम रकार मार्ग होगा I

  • समान प्राण सत्त्वगुण प्रधान होता है I
  • समान प्राण उष्णता और शीतलता का समरस स्वरूप है I

इसके कारण शरीर की उष्णता और शीतलता का समरस स्वरूप इस प्राण द्वारा ही बनाया जाता है I

शरीर में उष्णता और शीतलता का संतुलन इस प्राण द्वारा ही बनाया जाता है I

  • इस प्राण की अपने ही भीतर की ओर की गति से जो ऊर्जा निर्मित होती है, वही जठराग्नि है I

और क्यूंकि नाभि क्षेत्र में ही तैंतीस कोटि नाडियों का मिलन होता है, इसलिए जठराग्नि की ऊष्मा, इन नाड़ियों में गमन करके, शरीर में उष्णता और शीतलता को संतुलित करके रखती है I

  • जबकि जठराग्नि के शब्द में अग्नि का शब्द ही आया है, लेकिन वो अग्नि श्वेत वर्ण की होती है, न कि लाल या अन्य किसी वर्ण की I

इसलिए जठराग्नि सात्विक अग्नि है, न कि तामसिक या राजसिक I

 

अब थोड़ा भटक रहा हूँ …

  • कामाग्नि, मूलाधार चक्र की अग्नि है, और राजसिक कर्ममय अग्नि है I इसकी सिद्धि को कर्मात्मा कहा जाता है I यह पञ्चाग्नि स्वरूप में होती है I
  • अव्यक्ताग्नि, स्वाधिष्ठान चक्र की अग्नि है, और राजसिक और सात्विक गुणों की हलके गुलाबी वर्ण की अग्नि है I इसकी सिद्धि को अव्यक्तात्मा कहा जाता है I
  • जठराग्नि, मणिपुर चक्र की समतावादी सात्विक अग्नि है I इसकी सिद्धि को मानात्मा कहा जाता है I
  • हृदयाग्नि, अनाहत चक्र की अग्नि है, और सप्तरंगि योगाग्नि है I इसी को नाचिकेताग्नि भी कहा गया है I इसकी सिद्धि को योगात्मा कहा जाता है I और यह सिद्धि ही परमात्मा सिद्धि का मार्ग होती है I
  • कंठगनी, स्थिति कृत्य को दर्शाती हुई विशुद्ध चक्र की दिव्याग्नि है, और तामसिक लेकिन ज्ञानमय अग्नि है, जो यह स्थिति कृत्य को दर्शाती है I इसकी सिद्धि को वेदात्मा और देवात्मा भी कहा जाता है I
  • त्रिनेत्राग्नि (त्रिनेत्र की अग्नि), आज्ञा चक्र की अग्नि है और तात्त्विक, स्वयंचलित और स्वयंजागृत, स्वयं ही स्वयं में बसी हुई रुद्राग्नि है I इसकी सिद्धि को रुद्रात्मा कहा जाता है I
  • त्रिनेत्र और ब्रह्मरंध्र के मध्य में जो अग्नि है, वो ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष की विज्ञानमय अग्नि है I इसकी सिद्धि को प्रणवात्मा और शब्दात्मा कहा जाता है, जिसके गंतव्य में प्रणव और ओमकार साक्षात्कार होता है I
  • सहस्रार चक्र की अग्नि सनातन अग्नि है I
  • सहस्रार से ऊपर जो वज्रदण्ड चक्र है, उसकी अग्नि हिरण्यमय है, इसलिए हिरण्यगर्भात्मक अग्नि है I इसकी सिद्धि को हिरण्यगर्भात्मा कहा जाता है I इसकी सिद्धि का नाता भगवान् राम से भी है I
  • सहस्र दल कमल से परे जो अग्नि है, वो शून्याग्नि है I इसकी सिद्धि को शुन्यात्मा कहा जाता है I
  • और अष्टमचक्र (अर्थात निरालंबस्थान) की अग्नि, शून्य ब्रह्म की ही अग्नि (अर्थात सदाशिवाग्नि और नारायणाग्नि) है I इसकी सिद्धि का नाता भगवान् कृष्ण से भी है I

ऊपर बताई गई सभी अग्नियों के मूल में, प्राणों के आपस के घर्षण ही होते हैं I

  • इन सभी अग्नियों के भीतर जो अग्नि है, उसी अग्नि ने इन सबको अपने भीतर भी समाया हुआ है I इसी को सर्वाग्नि कहा गया है, जो निर्गुण ब्रह्म और उन निर्गुण निराकार ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों को भी दर्शाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

  • पञ्चब्रह्म मार्ग में समान वायु का नाता वामदेव ब्रह्म से है I
  • अपान प्राण के देवता सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति हैं I

इसीलिए, अपान प्राण का प्रधान नाता उन पितामाह के ब्रह्मलोक से ही है I

अपने ब्रह्मलोक में चतुर्मुखा पितामह प्रजापति एक बहुत चमकदार हीरे के समान प्रकाश को धारण किये हुए वृद्ध मानव रूप के दादाजी जैसे हैं, जिनकी लम्बी चमकदार हीरे के समान श्वेत दाड़ी है, जिन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं I

और वो चतुर्मुखा पितामह प्रजापति एक प्राचीनतम साधुबाबा जैसे दिखाई देते हैं, जिन्होंने सब कुछ देख लिया है, सबकुछ जान लिया है और सबकुछ पा भी लिया है और ऐसी दशा में वो साधुबाबा पूर्ण तृष्णारहित और सन्तुष्ट होकर, सबको उनके अपने सर्वसाक्षी भाव से ही ऐसे देखते हैं, जैसे कोई सुदूर से देख रहा हो… और नहीं भी देख रहा हो  I

  • समान प्राण की शक्ति तटस्थता (निष्पक्षता) होती है I
  • लेकिन इस प्राण के संतुलन और तटस्थता का पूरा लाभ लेने के लिए, भोजन को सात्विक ही होना पड़ेगा I
  • इस प्राण का देवत्व, सर्वसमता की देवी, माँ पितामही सरस्वती ही हैं, जिनका निवास स्थान, ब्रह्मलोक के बीस लोकों से भी ऊपर, जो ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ हीरे के समान अति प्रकाशमान भाग है, उसमें पितामह प्रजापति के साथ ही है I

और अपने लोक में माँ सरस्वती भी चमकदार हीरे के समान, सर्वसमता को दर्शाते हुए प्रकाश को धारण करी हुई है I

और ऐसी दशा में वो माँ पितामही सरस्वती, उन सगुण साकार, सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति के साथ ही, उनकी सर्वसम अर्धांगनी, दिव्यता और शक्तिरूप में ही निवास करती हैं I

  • यहाँ मैंने अति प्रकाशमान का शब्द इसलिए कहा है, क्यूंकि जब साधक का हीरे जैसा दिखाई देने वाला सिद्ध शरीर इस लोक में जाता है, तो इस लोक के प्रकाश के कारण, उस सिद्ध शरीर की आँखें ही नहीं खुलती हैं I

और इसलिए, चतुर्मुखा प्रजापति के ब्रह्मलोक में जाने के कुछ समय तक तो वो सिद्ध शरीर, इस लोक तो ठीक से देख भी नहीं पाता है I

  • इस ग्रन्थ में उस हीरे जैसे दिखाई देने वाले सिद्ध शरीर को ब्रह्म शरीर, प्रजापति शरीर, पितामह शरीर, पितामही शरीर आदि कहा गया है I इसके बारे में बाद में बात होगी I

उनके उस सबसे ऊपर के लोक में, बस पितामह और पितामही ही निवास करते हैं… उनके सिवा और कोई भी नहीं था, उनके उस लोक में I

पितामही ने तो मेरे सिद्ध शरीर का हाथ पकड़कर, जैसे कोई अपने छोटे से बाल नाती को बड़े ही धीरे से और प्रेमपूर्वक पकड़ता है, वैसे ही पकड़कर उनके उस लोक में खूब घुमाया और उस लोक को मुझे दिखाया I

लेकिन मुझे उन पितामाह और पितामही के सिवा, उनके उस लोक में, जो ब्रह्मलोक का इक्कीसवी भाग है, कोई और देखा भी नहीं I

ब्रह्मलोक के इस इक्कीसवें भाग का नाता सिद्धों द्वारा बताए गए ज्ञान के इक्कीसवें शून्य से भी है I और उन सिद्धों ने तो यह भी बताया था, कि इक्कीसवाँ शून्य ही शून्य तत्त्व की गंतव्य दशा है I वैसे एक पूर्व जन्म में, मैं ही वो सिद्ध था, जो चौरासी में है, और जिसका नाम धर्म शब्द पर था I

और उस ब्रह्मलोक में घूमने के समय, जब मैंने माँ पितामही सरस्वती से पूछा, कि ऐसा क्यों है कि उनके लोक में उनके और पितामह सिवा और कोई नहीं है, तो वो बोली कि अबतक सभी योगी बस नीचे के बीस लोकों में से किसी एक तक ही जाकर, सोचते हैं, कि यही संपूर्ण ब्रह्मलोक है I

और इसलिए वो योगीजन, ब्रह्मलोक के उन बीस लोकों (या भागों) तक ही जा पाते हैं… उनसे आगे इस इक्कीसवें भाग में पहुँच ही नहीं पाते हैं I और कुछ तो उस इक्कीसवें शून्य तक ही पहुँच पाते हैं, जो इस इक्कीसवें भाग का एक अणु अंश ही है I

और ऐसी दशा में वो योगीजन संतुष्ट होकर, उस दशा से आगे जा ही नहीं पाते हैं, इसलिए आज तक कोई इस लोक तक पहुंचा ही नहीं I

मैं इस जन्म के पूर्ण होने के पश्चात, उन्ही माँ पितामही और पितामह के लोक में जाऊँगा, क्यूंकि उन माँ सरस्वती ने मेरे उस सिद्धि शरीर को, जो उनके पास गया था, ऐसा ही कहा था I

ऐसी दशा में माँ पितामही सरस्वती विश्वव्यापक और विश्वातीत, दोनों के सम्तावाद और सर्वसम ज्ञान रूप में होती हैं, और जहाँ वो ज्ञान भी साधक की काया के भीतर, साधक के आत्ममार्ग से स्व:प्रकाशित हुआ… आत्मज्ञान ही है I

इसलिए, पितामह और पितामही का यह लोक पुरुषार्थातीत, आश्रमातीत, वर्णाश्रमातीत, कालातीत, गुणातीत, भावातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत, कर्मातीत, फलातीत, संस्कारातीत और वेदतीत है I

इसलिए, पितामह और पितामही का यह लोक जो ब्रह्मलोक का महा गुप्त इक्कीसवाँ भाग है, वह अनुग्रह सिद्धि (अर्थात कृपा सिद्धि) का ही द्योतक है I

इसी दशा में माँ पितामही सरस्वती को ज्ञान कि देवी कहा गया है… और किसी भी स्वरूप में नहीं I

टिपण्णी: इस पूरे ग्रंथ में, मैंने ब्रह्मलोक के बस चार भागों का ही चित्र बनाया है, क्यूंकि यह चार भाग पुरुषार्थ चतुष्टय को दर्शाते हैं I इस ग्रन्थ में, न तो मैंने ब्रह्म लोक के नीचे के उन सोलह लोकों का चित्र बनाया है, जो सोलह कलाओं को दर्शाते हैं… और न ही मैंने इस इक्कीसवें भाग और इस भाग के इक्कीसवें शून्य का कोई भी चित्र बनाया है I इसका कारण है, कि मैं सोचता हूँ, कुछ तो साधकगणों को स्वयं ही जानना चाहिए… सबकुछ स्वर्ण थाली में परोस कर तो बिलकुल नहीं देना चाहिए I मेरे पूरे जीव इतिहास में, किसी भी गुरूजन ने मुझे कभी भी, कुछ भी स्वर्ण थाली में परोस कर कभी नहीं दिया I मेरे सभी गुरुजनों ने बस कुछ बिंदु बताकर, यही कहा था, कि इसी से सब जान सकते हो यदि निष्ठापूर्वक प्रयत्न करोगे I

  • पञ्च विद्या में, इस प्राण का नाता माँ गायत्री के धवला मुख से है I

इस प्राण का नाता कई और देवियों से भी है, जिनके बारे में अगर मेरा मन किया, तो किसी आगे के अध्याय में बताऊँगा I

इस प्राण की ऊर्जाओं का नाता, जगदगुरु और सर्वगुरुमाता, माँ शारदा सरस्वती से भी है अपूर्ण रूप में ही सही, लेकिन है I

  • कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह एक प्रमुख प्राण है I
  • इस प्राण का कार्य पाचन है I

और जहाँ इस पाचन शब्द का नाता, स्थूल अन्न सहित… मन, बुद्धि, चित्त और अहम् के अन्न की पाचन क्रियाओं से भी है I

  • इस प्राण का नाता, मेरुदंड के (अर्थात सुषुम्ना नाड़ी के) भीतर जो एक हीरे के समान प्रकाशमान नाड़ी होती है, और जो ब्रह्म नाड़ी कहलाती है… उस ब्रह्म नाडी से भी है I

जो ब्रह्म नाड़ी कही गई है, वो सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और पितामही सरस्वती की ही नाड़ी है I

टिपण्णी: आज जो वेदान्ती हिरण्यगर्भ ब्रह्म को चतुर्मुखा कह रहे हैं, वो सत्य नहीं है I ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्यूंकि चतुर्मुखा तो केवल वो सर्वसम, हीरे के समान प्रकाशमान, प्रजापति ही हैं I हिरण्यगर्भ ब्रह्म का एक ही मुख है… न कि चार I

 

  • इस प्राण का नाता, निरालंबस्थान से भी है, जो सहस्रार (अर्थात मस्तिष्क के ऊपर के भाग का सहस्र दल कलम) से भी ऊपर की दशा है I
  • यह प्राण उस कैवल्य मोक्ष को दर्शाता है, जो ब्रह्मत्व कहलाता है, और जिसका आधार बनाके इस ग्रन्थ का नाम ही ब्रह्मत्व हुआ था I
  • आहारों में, मांसाहार और मदिरापान इस प्राण के सबसे बड़े शत्रु है I

और क्यूंकि यह प्राण योग के शब्द को ही दर्शाता है, इसलिए मांसाहारी और शराबी कभी भी योगी नहीं हुए हैं I

बकरी का दूध, गौ के दूध सहित पञ्चगव्य, फलाहार, हरी सब्जियां, श्वेत हरे और पीले वर्ण के सात्विक आहार इस प्राण के सबसे बड़े मित्र हैं I

  • समान प्राण के पूर्ण सात्विक होने पर, पूर्ण जन्मों तक के कर्म नष्ट हो जाते हैं I

कर्मातीत मुक्ति का मार्ग भी इसी समान प्राण के सात्विक स्वरूप से होकर जाता है, और जहाँ वह सात्विक स्वरूप (या श्वेत वर्ण का स्वरूप) सगुण-निर्गुण ब्रह्म का ही द्योतक है I

इसलिए, आत्ममार्ग के दृष्टिकोण से, ब्रह्मशक्ति अपने सगुण निर्गुण स्वरूप में, अर्थात माँ आदि शक्ति स्वरूप में, समान प्राण नामक तटस्थ ऊर्जा ही हैं I

 

टिप्पणियाँ:

  • मैं यह पूर्व के किसी अध्याय में भी बोल चुका हूँ, कि मूर्ख है वो सबके सब वेद और योग आदि मनीषी, जो पितामाह और पितामही से ज्ञान, उपासना, कर्म आदि मार्गों से जुड़े नहीं हैं I
  • जीव जगत उसके अपने रचैता को कभी भी स्थापित नहीं कर सकता, बल्कि ख्यापित कर सकता है I लेकिन आज तो यह दोनों बिंदु ही नहीं रहे I
  • रचैता के सिवा, अन्य सभी देवत्वादि बिन्दुओं को स्थापित किया जाता है I
  • केवल रचैता ही हैं, जिनको ज्ञानादि मार्गों से ख्यापित किया जाता है I
  • इसका कारण भी वही है, कि रचना अपने रचैता को स्थापित कर ही नहीं सकती… केवल ख्यापित कर सकती है I
  • और इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में, ऐसे अपकर्ष मार्गी मनीषी ही वेदों के पतन का मूल कारण बने हैं I
  • जो अपने विधाता और उनकी दिव्यता अर्धांगनी शक्ति को ही नहीं मानता, उसका परलोक और लोकादि उत्कर्ष कैसे हो सकता है? I
  • इसीलिए जबसे वेदों में पितामह प्रजापति और पितामही सरस्वती के मार्गों को त्यागा गया, तब से ही कलियुग प्रबल हुआ था I
  • और इसके पश्चात ही कलियुग की काली काया के प्रबल होने के कारण, वैदिक मनीषियों, उनकी परम्पराओं, सम्प्रदाओं और गुरुगद्दियों और उनके सार्वभौम साम्राज्य का नाश होना प्रारम्भ हुआ था I
  • और इसी कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, सोने पर सुहागा तो तब हो गया, जब इन्ही मूर्खनंदों ने वैदिक वाङ्मय में ही उनके देवराज इन्द्र को कुपित ही घोषित कर दिया, और उन देवराज को केवल वर्षा, वज्र और छोटी छोटी सिद्धियों से जोड़ दिया, जबकि उन इंद्र देव को ही पुरातन वैदिक ऋषियों ने परमात्मा तक कहा था I
  • जब तुम अपने ही रचैता, उन रचैता की दिव्यता अर्धांगनी शक्ति और उन रचैता के प्रधान प्रतिनिधि (जो देवराज इंद्र ही है), उन तीनो को नहीं मानोगे और उनसे नहीं जुड़ोगे और उनको विचित्र प्रकार से प्रकाशित करोगे, जो वो हैं ही नहीं, तो तुम्हारा पतन कैसे नहीं होगा? … थोड़ा सोचो तो I
  • जब वेद मनीषियों ने वैदिक ग्रन्थों में ही इंद्रदेव को कुपित किया (बताया), तो समस्त देवतागण भी कुपित हुए थे I
  • जब सम्राट को ही कुपित बोले, तो उसका समस्त साम्राज्य भी तो कुपित ही हो जाएगा I ऐसा ही तो हुआ था जब वैदिक वाङ्मय में ही देवराज इन्द्र को कुपित बताया गया था (जबकि देवराज ऐसे हैं ही नहीं) I
  • और ऐसी दशा में, जब देवराज सहित, सभी तैंतीस कोटि देवतागण ही तुमसे सुदूर हो गए थे, तभी से तो तुम्हारा पतन प्रारंभ हुआ था I
  • ऐसी दशा में जब तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, ऊपर के दोनों देवता ही तुम्हारे साथ नहीं रहेंगे, तो कलियुग के प्रभाव से तुम्हारी कौन रक्षा करेगा? … थोड़ा सोचो तो I
  • यदि में सारांश में बतलाऊँगा, तो यह कह सकता हूँ, कि वैदिक और योग मनीषियों ने अपने पर ही वज्राघात किया है I
  • इससे बड़ी क्या मूर्खता होगी, कि जो दशाएं कलियुग के अंतिम चरण में आनी थीं, वो कलियुग के केवल 5,120 वर्षों में ही आ गई I
  • और जहाँ अभी के कलियुग की तो वह दशा है, कि वो अपने पालने से भी नीचे नहीं उतरा है, और कलियुग की इसी बाल्यवस्था जैसी स्थिति में, कलियुग के अंतिम, अर्थात चौथे चरण के संकेत भी आ गए I
  • और ऐसी दशा में यदि में उन मैं वेद और योग मनीषियों को, जिन्होंने यहाँ बताए गए प्रपञ्च, योग और वैदिक वांड्मय में डाले होंगे, और मानव जाती को ही अपकर्ष में डाला है, मूर्खनंद नहीं कहूंगा… तो क्या कहूँ? … थोड़ा बताओ तो I
  • पिछले कोई 27-28 वर्षों में, भारतखण्ड सहित 170 राष्ट्रों से भी अधिक में घूमा, केवल यह देखने के लिए कि क्या मानव जाती पुनः लौट सकती है, उत्कर्ष मार्गों में I
  • लेकिन अंततः यही जाना कि अब विल्बम हो गया है, क्यूंकि प्रत्येक मार्ग, पंथ और उनके मनिषियों में, अब समता है ही नहीं I
  • तो ऐसा जानने के पश्चात, मैंने पितामह और पितामही को ही बोल दिया, कि अब आप भी जान लो कि इस लोक में वह समस्त उत्कर्ष पथ ही लुप्त हो गए हैं, जो जीवों की उत्पत्ति के समय, आपने ही स्थापित किए थे, और जो जीवों की इच्छा अनुसार ही ख्यापित हुए थे, इस चतुर्दश भवन में I
  • इसलिए अब आपके ही सार्वभौम संविधान के अनुसार, वही खंडविप्लव होने चाहिए, जो ऐसी स्थिति में, प्रत्येक लोक में होते ही हैं, जहाँ जीव सत्ता निवास कर रही होती है और उत्कर्ष पर बच्चे नहीं होते हैं I
  • जब जीव उत्कर्ष पर जाएंगे ही नहीं, तो उनके ब्रह्माण्ड में निवास करने का क्या लाभ? I
  • जब जीवात्मा उस मुक्ति को पाएगी ही नहीं, जिसके लिए ब्रह्मरचना में जीवात्माओं का जीव रूप में का प्रादुर्भाव हुआ था, और जो इस प्रादुर्भाव का मूल कारण भी था… तो सृष्टि का क्या लाभ? I
  • इसलिए आगामी कालखंड में, पितामह और पितामही के सार्वभौम संविधान के अनुसार, इस पृथ्वीलोक में त्रिताप की भरमार आएगी, और वह त्रिताप के मूल कारण भी मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक खंडविप्लव ही होंगे I
  • जब उत्कर्ष पथ ही लुप्त हो जाएं, और जीवों का उद्धार न हो पाए, तब ऐसा ही होता है क्यूंकि ऐसी दशा में, रचैता सोचते ही हैं, कि अब इस सृष्टि का जीवों को क्या लाभ? I
  • ऐसी दशा में जब किसी लोकादि में उत्कर्ष पथ ही नहीं रहते, तब रचैता सोचते ही हैं, कि अब यह लोक रहे या न रहे… इसमें क्या अंतर? I
  • इसलिए इस पृथ्वीलोक में भी अब ऐसा ही होगा I

आगे बढ़ता हूँ …

 

कृकल उपप्राण का स्वरूप, कृकल उपप्राण का वर्ण, कृकल उपप्राण का रंग, कृकल उपप्राण की गति, कृकल उपप्राण का स्थान, शरीर में कृकल उपप्राण का स्थान, … कृकल लघुप्राण का स्वरूप, कृकल लघुप्राण का वर्ण, कृकल लघुप्राण का रंग, कृकल लघुप्राण की गति, कृकल लघुप्राण का स्थान, शरीर में कृकल लघुप्राण का स्थान, नाभि का उपप्राण, नाभि का लघुप्राण,  … कृकल लघुवायु का स्वरूप, कृकल लघुवायु का वर्ण, कृकल लघुवायु का रंग, कृकल लघुवायु की गति, कृकल लघुवायु का स्थान, शरीर में कृकल लघुवायु का स्थान, नाभि की लघुवायु, …

  • यह लघुवायु, समान वायु को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखती है जिसके कारण समान अपने कार्य करता है I इसलिए यह लघुप्राण, समान प्राण की उर्जा, समान प्राण में ही संगठित रहता है I
  • कृकल उपप्राण का वर्ण हल्का नीला है, जिसमें समान प्राण के श्वेत रंग के बिंदु भी दिखाई देते हैं I
  • इस लघुप्राण की गति भी उसकी प्राण वायु (अर्थात समान वायु) के समान, नाभि के मध्य के भाग की ओर ही है I
  • इस लघुप्राण में, इसके समान प्राण का श्वेत प्रकाश आने पर, अन्य सभी प्राण भी सर्वसमता की ओर गति करने लगते हैं I और ऐसा होने के पश्चात ही साधक के शरीर के भीतर वो हीरे के समान प्रकाशमान सिद्ध शरीर प्रकट होता है, जिसको इस ग्रंथ में ब्रह्मा शरीर कहा गया है I
  • लघुप्राण अधिकांश रूप में तमोगुणी होते हैं, अर्थात स्थिथि कृत्य के धारक होते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी है I
  • अधिकांश रूप में लघुप्राण अपने प्राणों को घरके रखते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी है I

 

प्राण प्राण का स्वरूप, प्राण प्राण का वर्ण, प्राण प्राण का रंग, प्राण प्राण की गति, प्राण प्राण का स्थान, शरीर में प्राण प्राण का स्थान, हृदय का प्राण, … प्राण वायु का स्वरूप, प्राण वायु का वर्ण, प्राण वायु का रंग, प्राण वायु की गति, प्राण वायु का स्थान, शरीर में प्राण वायु का स्थानहृदय का प्राण वायु, हृदय का प्राण, हृदय की प्राण वायु, हृदय की वायु, …

  • यह वायु पीले रंग का है I
  • इसका स्थान पसली पिंजर के नीचे के भाग से कंठ तक है, अर्थात पसली पिंजर के नीचे के भाग के सूर्य चक्र और चंद्र चक्र से लेकर कंठ कमल (या विशुद्ध चक्र) तक है I
  • शरीर में इस प्राण वायु की गति आगे की ओर होती है, अर्थात हृदय के अग्रभाग की ओर यह प्राण गति करता है I
  • इस प्राण का प्रधान चक्र, हृदय कमल (अर्थात अनाहत चक्र) है I
  • जबकि प्राण वायु का स्थान हृदय क्षेत्र ही है, लेकिन तब भी थोड़ी मात्रा में ही सही, लेकिन शरीर के अन्य स्थानों पर भी समय समय पर यह वायु पाई जाएगी I
  • पञ्च वायु में यह प्राण उत्कर्ष पथ को दर्शाता है I
  • क्यूँकि प्राण-वायु हृदय से लेकर कंठ कमल तक होती है, और कंठ कमल ही देवत्व को दर्शाता है, इसलिए यह प्राण देवत्व मार्ग का भी द्योतक है I
  • उत्कर्ष मार्ग में, इस प्राण की ऊर्जा साधक की चेतना को तबतक आगे लेके जाती रहती है, जबतक साधक मुक्ति को ही नहीं पा जाता I
  • इसकी ऊर्जा का स्वरूप ज्ञानमय है I
  • यह प्राण की ऊर्जा जब प्रज्वलित होती है, तब साधक वैरागी शिष्य सा ही हो जाता है I

ऐसी दशा में साधक समाज में निवास करता हुआ भी, सामाजिक नहीं रह पाता, क्यूंकि ऐसा साधक समाज में निवास करता हुआ भी, समाज के क्रिया कलापों से सुदूर ही रहता है I

  • प्राण-वायु वैराग्यमय ज्ञान प्रधान है I
  • पञ्च ब्रह्म में प्राण-वायु का नाता सद्योजात ब्रह्म से है I
  • प्राण-वायु के देवता हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं I
  • देवराज इंद्र का भी इस वायु से नाता है I
  • इस प्राण की शक्ति को ही ज्ञानमय क्रियाशक्ति कहते हैं I
  • पञ्च विद्या में, इस प्राण का नाता माँ गायत्री के पीले मुख (अर्थात माँ गायत्री की हेमा मुख) से है I
  • इस प्राण का नाता कई और देवियों से भी है, जिनके बारे में यदि मेरे मन किया, तो आगे के किसी अध्याय में बतलाऊँगा I
  • कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह एक प्रमुख प्राण है I

जब यह प्राण वायु का योग अपान वायु से होता है, और जहाँ यह योग मूलाधार चक्र के क्षेत्र में ही होता है, तो उसके बाद ही कुण्डलिनी जागरण हो पाता है I

इस प्रक्रिया में, लिंग और गुदा के मध्य स्थान में एक बहुत सूक्ष पीला प्रकाश प्रकट हो जाता है I

और इस दशा के पश्चात, साधक यह भी जान जाता है कि वैराग्य का वास्तविक स्वरूप क्या होता है I

इस दशा के पश्चात, साधक का शरीर भी, इस प्राण वायु के ही रंग में रंगकर, थोड़ा पीला पड़ जाता है I

  • इस प्राण का कार्य उत्कर्ष पथ पर गति है I
  • इस प्राण का स्वरूप वैरागमय ज्ञान है I
  • इस वायु का गंतव्य स्वरूप को ही गुरु तत्त्व कहते हैं I

इस वायु के हृदय क्षेत्र में ही माँ शारदा सरस्वती निवास करती हैं I

इस समस्त जीव जगत में, शारदा विद्या सरस्वती ही जगद्गुरु हैं I

और इसी पीली वर्ण की प्राण वायु के क्षेत्र में ही, वह शारदा विद्या सरस्वती, परा और अव्यक्त प्रकृति की योगावस्था को दर्शाती हैं, जिनके कारण उनका स्वरूप बहुत ही हल्के गुलाबी वर्ण का है I

परा प्रकृति श्वेत वर्ण की हैं, और अदि शक्ति हैं I अव्यक्त प्रकृति जो अव्यक्त प्राण ही हैं, वो हलके गुलाबी वर्ण की हैं, और महामाया, माया शक्ति और माँ माया भी कहलाती है I

अव्यक्त और परा प्रकृति की योगावस्था, जो हृदय क्षेत्र में (अर्थात प्राण वायु के क्षेत्र में होती है), वही माँ शारदा विद्या हैं I  और इसके साथ साथ, देवी शारदा से ही इन दोनों का प्रादुर्भाव होता है I

माँ शारदा के एक स्वरूप को ही अव्यक्त प्रकृति कहा जाता है I और वही अव्यक्त प्रकृति को अव्यक्त प्राण, माँ माया, महामाया आदि नामों से पुकारा जाता है I

और जब ये प्राण ह्रदय से भी ऊपर गति करने लगता है, जैसे जब योगी की चेतना हृदय विसर्ग गुफा में बसकर, हृदय के आगे के भाग में उदय होते हुए ब्रह्माकाश का साक्षात्कार करती है, और इसके पश्चात वो चेतना उसी ब्रह्माकाश में लय होकर, ऊपर मस्तिष्क की ओर उठती है, और अंततः ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में पहुँच जाती है, तब इसी प्राण की देवी माँ सावित्री होती हैं I

इस हृदय विसर्ग गुफा (या गुहा विसर्ग) और ब्रह्माकाश (या अनंत आकाश) के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

इसलिए, …

  • जब यह प्राण, हृदय क्षेत्र में रहता है, तब इस प्राण के भीतर बसी हुई हलके गुलाबी वर्ण की दिव्यता माँ शारदा हैं I
  • और जब यह प्राण, हृदय से ऊपर, मस्तिष्क के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में पहुँच जाता है, तब इसी प्राण के भीतर बसी हुई सुनहरे वर्ण की दिव्यता माँ सावित्री सरस्वती होती है I

इसका अर्थ हुआ, कि इस प्राण का नाता शारदा विद्या और सावित्री विद्या, दोनों से ही है I

  • इस प्राण का गुण स्व:ज्ञान है I
  • इस प्राण का तत्त्व, गुरु शिष्य परंपरा है I
  • यही प्राण हृदय और फेफड़े के भीतर भी होता है I
  • इसी प्राण वायु के नाम पर प्राण शब्द आया है, और ऐसा इसलिए हुआ है, क्यूंकि इसी प्राण का एक स्वरूप, उत्कर्ष का शब्द भी है I
  • इसी प्राण के उत्कर्ष स्वरूप के कारण, काम सहित समस्त तृष्णाएं शान्त होती हैं, और साधक की आंतरिक दशा वैराग्य की ओर ही आकर्षित हो जाती है I

इसलिए इस प्राण को साधने से ऐसा वैराग्य स्थापित हो जाता है, जिसमें साधक समाज में निवास हुआ भी, गृहस्त योगी (गृहस्त सन्यासी) के समान ही रह जाता है I

जितना इस प्राण को जगाओगे, उतना ही यह प्रचंड होता जाता है, और उतनी ही वैरागमय ज्ञान और ज्ञानमय वैराग्य में वृद्धि भी होगी I

  • शक्तिमय मुक्तिपथ में जाने के प्रथम चरण में इस प्राण को ही साधा जाता है, क्यूंकि यदि यह चरण ही नहीं साधा गया, तो उस पथ में साधक कभी न कभी भटकेगा ही I

और जहाँ वो शक्तिमय मुक्तिपथ ही कुण्डलिनी योग कहलाता है I

  • हृदय गति और स्वास प्रस्वास पर यह प्राण नियंत्रण करता है I
  • धमनियों और नसों पर नियंत्रण भी इसी प्राण द्वारा होता है I
  • इसी प्राण के प्रभाव से शरीर में रक्त आदि तरल पदार्थ घुमते रहते हैं I
  • इसी प्राण द्वारा धमनियाँ और नसें लचीली और मुलायम रहती हैं I
  • इसी प्राण के प्रभाव से फेफड़े और उनके नीचे का मध्यपट, स्वस्थ, नित्य क्रियाशील और लचीला रहता है I
  • हृदय वायु और हृदय ऊष्मा का कारण भी यही प्राण वायु ही है I
  • मातृत्व, प्रेम, दया, करुणा, गुरु शिष्य, पिता माता पुत्र पुत्री, भक्त इष्ट, भक्ति, निष्काम आदि पवित्र भाव भी इसी वायु के ही गुण हैं I
  • उत्कर्ष पथ के समस्त पड़ाव इसी वायु के प्रभाव से पार किये जाते हैं I
  • इस पृथ्वीलोक का मुख्य प्राण, यही प्राण वायु है I

और यही कारण है कि ब्रह्माण्ड के इस भाग में बसा हुआ यह पृथ्वीलोक, उत्कर्ष का ही लोक है I

  • इस वायु का स्थान हृदय और इसके उत्कर्ष मार्ग को दर्शाने के कारण ही वेद मनीषि और सिद्ध योगीजन कह गए, कि गुरु, मंत्र और इष्ट आदि का ध्यान हृदय में करो I

और ऐसा कहने के कारण भी यही था, कि इस पृथ्वी लोक का जो मुख्य प्राण है, वह हृदय क्षेत्र की प्राण वायु ही है I

जिस लोक में यह प्राण वायु प्रधान नहीं होता, वह लोक उत्कर्ष का लोक भी नहीं होता I

  • इसी वायु के प्रभाव से कारण-शरीर की चाल होती है I

और उस चाल मैं कारण शरीर, मेड्युसोज़ोआ (जेलिफ़िश या गिजगिजिया) के समान बढता और सिकुड़ता है, जैसे कुछ शनैः शनैः धड़क रहा हो I इस धड़कने का कारण है कि कारण शरीर में,इस प्राण वायु में ही सामान वायु और व्यान वायु का योग होता है I

जब इस प्राण वायु में रजोगुण प्रधान होता है, तो यह लालिमा धारण करता है I

और जब वो लालिमा धारण किया हुआ रजोगुणी कारण शरीर ज्ञान प्रधान होगा, तो वो भगवे से वर्ण को धारण किया हुआ होगा, और जहाँ वो भगवा वर्ण लाल वर्ण के रजोगुण और पीले वर्ण की बुद्धि की योगदशा ही होगा I

जब तमोगुण प्रधान होता है, तो यह प्राण हरिमा या निलिमा धारण किया हुआ लगता है I

और जब इसमें सत्त्वगुण प्रधान होता है, तो यह प्राण श्वेत वर्ण धारण किया हुआ लगता है I

और इन्हीं चार प्रधान वर्ण दशाओं में वो मेड्युसोज़ोआ, (जेलिफ़िश या गिजगिजिया) के सामान चलता हुआ कारण शरीर भी दिखाई देता है I

लेकिन जब यह कारण शरीर चलायमान होता है (अर्थात गतिशील होता है) तब इसका आकार उस बर्फी (बर्फी की मिठाई के टुकड़े) के समान होता है, जिसके कोने थोड़े गोलकार से होते हैं I

टिपण्णी: कई बार मेरे पास कारण लोक के सिद्ध आए हैं I और उन साक्षात्कारों के अनुसार ही मैंने यहाँ कारण शरीर का लघुवर्णन किया है I

 

नाग उपप्राण का स्वरूप, नाग उपप्राण का वर्ण, नाग उपप्राण का रंग, नाग उपप्राण की गति, नाग उपप्राण का स्थान, शरीर में नाग उपप्राण का स्थान, … नाग लघुप्राण का स्वरूप, नाग लघुप्राण का वर्ण, नाग लघुप्राण का रंग, नाग लघुप्राण की गति, नाग लघुप्राण का स्थान, शरीर में नाग लघुप्राण का स्थान, हृदय का उपप्राण, हृदय का लघुप्राण, … नाग लघुवायु का स्वरूप, नाग लघुवायु का वर्ण, नाग लघुवायु का रंग, नाग लघुवायु की गति, नाग लघुवायु का स्थान, शरीर में नाग लघुवायु का स्थान, हृदय की लघुवायु, …

  • यह लघुवायु, प्राण वायु को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखती है जिसके कारण प्राण वायु अपने कार्य करता है I इसलिए यह लघुप्राण, प्राण नामक प्राण की ऊर्जा, प्राण में ही संगठित रखता है I
  • नाग उपप्राण का वर्ण हल्का नीला है, जिसमें प्राण वायु के पीले रंग के बिंदु भी दिखाई देते हैं I
  • इस लघुप्राण की गति भी उसकी प्राण वायु (अर्थात प्राण नामक वायु) के समान, शरीर के आगे के भाग की ओर ही है I
  • इस लघुप्राण में प्राण वायु का पीला प्रकाश आने पर, अन्य सभी प्राण भी वैराग्यमय ज्ञानमार्ग में गति करने लगते हैं I और ऐसा होने के पश्चात ही साधक के शरीर में ज्ञानोदय होता है I
  • इस लघुप्राण की गति भी सर्प की चाल के सामान ही होती है I
  • यह लघुप्राण अधिकांश रूप में तमोगुणी होते हैं, अर्थात स्थिथि कृत्य के धारक होते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I
  • अधिकांश रूप में लघुप्राण अपने प्राणों को घेरके रखते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I

 

उदान प्राण का स्वरूप, उदान प्राण का वर्ण, उदान प्राण का रंग, उदान प्राण की गति, उदान प्राण का स्थान, शरीर में उदान प्राण का स्थान, कंठ और मस्तिष्क का प्राण, कंठ और मस्तिष्क की प्राण वायु, … उदान वायु का स्वरूप, उदान वायु का वर्ण, उदान वायु का रंग, उदान वायु की गति, उदान वायु का स्थान, शरीर में उदान वायु का स्थान, उदान प्राण का स्थान, शरीर में उदान प्राण का स्थान, कंठ की प्राण वायु, कंठ का प्राण, मस्तिष्क का प्राण, मस्तिष्क की प्राण वायु, …

  • यह वायु नीलिमा धारण करी हुई, बैंगनी वर्ण की है I
  • इसका स्थान प्रधानतः कण्ठ में होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी इसका फैलाव मस्तिष्क तक ही होता है I
  • यह उदान प्राण, कण्ठ और मस्तिष्क (डिमाग) का, मस्तिष्क की नाड़ियों और नाड़ी में ऊर्जा प्रवाह का संचालक है I
  • यह प्राण नासर (शिरानाल या साइनस) का नियंत्रक है I
  • यह प्राण पूर्वजन्म की स्मरण शक्ति (स्मृति) का कारण है I
  • कपाल के ऊपर के भाग में, उष्णीष प्रकटीकरण का कारण भी यही प्राण है I

उष्णीष तब प्रकट होता है, जब अमृत कलश नाभि के 2-3 ऊँगली नीचे से ऊपर उठकर ब्रह्मरंध्र चक्र से भी आगे, निरालंब चक्र पर जाता तो है, लेकिन उसको पार नहीं कर पाता है I इसके कारण कपाल में कुछ दबाव बनता है, जिसके कारण कपाल थोडा ऊपर की ओर उठ जाता है I

और उष्णीष तब भी प्रकट हो सकता है, जब अमृत कलश नाभि के 2-3 ऊँगली नीचे से ऊपर उठकर, ब्रह्मरंध्र चक्र से भी आगे निरालंब चक्र पर जाकर उसको पार करता है, और पुनः नीचे नाभि की ओर आता है I और इसके पश्चात जो ऊर्जाएं मस्तिष्क पर जाएंगी, वही उष्णीष का कारण बन जाएंगी I

निरालंब चक्र (या निरालंबस्थान) के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा, जब अथर्ववेद के 10.2.31 मंत्र को चित्रों का आलम्बन लेकर समझाया जाएगा I

  • यदि यह प्राण, कपाल को पार कर जाएंगे (या यह कहूँ की ब्रह्मरंध्र चक्र को पार कर जाएंगे) तो योगी के कपाल के मध्य के बाल खड़े हो जाएंगे I

और यदि यह प्राण अष्ठम चक्र को ही पार कर जाएगा, तो योगी के कपाल के ऊपर के भाग के सभी बाल खड़े ही रहेंगे I

  • कुण्डलिनी जागरण से पूर्व, यह उदान प्राण नीले-बैंगनी वर्ण का होता है I लेकिन कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, उस बैंगनी वर्ण में श्वेत वर्ण के बिन्दु रूपी प्रकाश आ जाते है I
  • यह प्राण छटी इंद्री के जागृत होने का भी कारण है I

लेकिन यह छठी इंद्री तब ही जागृत होगी, जब उदान प्राण में प्राण वायु और व्यान वायु का योग हो जाएगा I

और इससे भी आगे की दशा में, जब कपाल के बाहर (ऊपर) के भाग में, जहाँ व्यान प्राण शरीर से बाहर की ओर गति करता है, वहां सभी प्राण वायु (अर्थात अपान, समान, प्राण और उदान) व्यान प्राण में ही योग करेंगे, तब साधक को सिद्ध, देवादि लोकों का साक्षात्कार होने लगता है I

  • जब मस्तिष्क का यह उदान प्राण पूर्ण जागृत होता है, तब यह अन्य सभी प्राणों को अपनी ओर खींचने भी लगता है I

ऐसी दशा में मस्तिष्क में बहुत ऊर्जा प्रवाह होने लगता है, जिससे मस्तिष्क के भीतर बहुत गर्मी बन जाती है, और यह गर्मी मस्तिष्क और मेरुदंड की नाड़ियों के भीतर भी प्रवेश करने लगती है I

इस दशा में वो सभी प्राण जो उदान के द्वारा मस्तिष्क की ओर खींचे गए थे, वो सब के सब उत्तेजित होने लगते हैं I

जब ऐसा होते है, तब मस्तिष्क और मेरुदंड और इन दोनों स्थानों की नाडियों में एक उष्ण विद्युत् के समान अतिउग्र वायु बहने लगती है I

इस दशा को यदि मैं साधारण रूप में बताऊंगा, तो यह कह सकता हूँ, कि जैसे मस्तिष्क और मेरुदंड के भीतर कोई बिजली के तार जल रही हों, वैसा लगता है I

यह एक अतिकष्टदायक दशा है और यह दशा तबतक बनी रहेगी जबतक साधक इस अतिउग्र ऊर्जावान और गरम बिजली के प्रवाह को अपने कपाल के किसी रंध्र (जैसे शिवरंध्र, ब्रह्मरंध्र, देवीरंध्र,आज्ञारंध्र, विष्णुरंध्र) से बाहर नहीं निकाल देगा I

  • सूक्ष्म शरीर गमन के समय, जब सूक्ष्म शरीर साधक के स्थूल शरीर से उल्टा होकर (अर्थात स्थूल शरीर की तुलना में उल्टा होकर) स्थूल शरीर से बहार निकलता है, तब भी वो सूक्ष्म शरीर उदान प्राण से जुड़ा ही रहता है I

इसका अर्थ हुआ,  कि सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया के समय, उदान प्राण से सूक्ष्म शरीर का योग अंत में ही टूटता है I

और स्थूल शरीर से बहार निकलते समय, सूक्ष्म शरीर का उदान प्राण से योग के कारण ही, स्थूल शरीर की तुलना में, सूक्ष्म शरीर उल्टा होकर ही स्थूल शरीर से बाहर निकलता है I

और स्थूल शरीर से बाहर निकलकर, जब उस सूक्ष्म शरीर का नाता इस उदान प्राण से टूटता है, तब ही वो सूक्ष्म शरीर पुनः सीधा हो पाता है I

और स्थूल शरीर से बाहर निकलकर जैसे ही सूक्ष्म शरीर का योग उड़ान प्राण से क्षीण होगा, वैसे ही वो सूक्ष्म शरीर सीधा हो जाएगा और उसकी गमन प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाएगी I

 

अब ध्यान देना …

अब मैं सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से चेतन चतुष्टय सहित, सूक्ष्म शरीर गमन और सूक्ष्म शरीर के साथ कारण शरीर गमन प्रक्रिया को बताता हूँ

सूक्ष्म शरीर गमन, … जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर की चेतना युक्त दशा में, स्थूल शरीर से बहार निकलकर ब्रह्माण्ड में गमन करता है, और ऐसी दशा में उसे सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया कहते हैं I

जागृत अवस्था, … जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के भीतर निवास कर रहा होता है, तो उसे ही जागृत अवस्था कहते हैं I

सुषुप्ति अवस्था, … और जब वही सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर की अचेतन अवस्था (अर्थात चेतना रहित दशा) में बाहर निकलता है और ब्रह्माण्ड में गमन करता है, तो उसे सुषुप्ति कहते हैं I

स्वप्नावस्था, … जब वही सूक्ष्म शरीर के गमन के समय, सुषुप्ति अवस्था में ही स्थूल शरीर थोड़ा सा चेतना युक्त हो जाता है, तब उसे ही स्वप्न कहते हैं I

तुरिय अवस्था, … और जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बहार निकलकर ब्रह्माण्ड में गमन करता करता, अपने ही ब्रह्माण्डीय कारणों में विलीन होता है, तो उसे ही तुरिय कहते हैं I

कारण शारीर गमन, सूक्ष्म शरीर के साथ कारण शरीर गमन, … जब सुक्ष्म शरीर, कारण शरीर के अवचेतन मन के भाग से योग करता है, तब सूक्ष्म शरीर के भीतर बसकर और उसी  सूक्ष्म शरीर के साथ-साथ, कारण शरीर भी गमन करने लगता है I

अब और आगे बढ़ता हूँ …

 

  • शरीर में इस प्राण वायु की गति ऊपर की ओर होती है, अर्थात कंठ के ऊपर मस्तिष्क की ओर यह प्राण गति करता है I
  • इस प्राण का प्रधान चक्र कंठ कमल (अर्थात विशुद्ध चक्र) है I
  • जबकि उदान वायु का स्थान कण्ठ क्षेत्र ही है, लेकिन तब भी यह वायु की गति मस्तिष्क के ऊपर के भाग तक देखी जाएगी I
  • पञ्च वायु में यह प्राण मुक्तिपथ (या मुक्तिमार्ग या गंतव्य पथ) को दर्शाता है I
  • यह प्राण विसर्ग नामक अवस्था को दर्शाता है I
  • यह प्राण देवत्व नामक अवस्था को भी दर्शाता है I
  • यह प्राण देवात्मा शब्द का द्योतक है I
  • जब यह प्राण, विसर्गी होकर, कपाल के ऊपर के भाग तब पहुँच जाएगा, तब यही प्राण महात्मा शब्द का भी द्योतक है I
  • मुक्ति मार्ग में, इस प्राण की ऊर्जा साधक की चेतना को तबतक ऊपर की ओर लेके जाती रहती है, जबतक साधक मुक्ति को ही प्राप्त नहीं होता, अर्थात जबतक साधक की चेतना सहस्रार चक्र (या सहस्र दल कमल) को ही पार नहीं कर जाती, तबतक इस प्राण की ऊपर की ओर की गति देखी जाती है I
  • इस प्राण के ऊपर के भाग में बसे हुए सहस्रार चक्र को पार करके ही साधक विसर्ग को पाता पाता है I विसर्ग ही वो दशा है, जो मुक्ति की द्योतक है I
  • जब यह प्राण पूर्ण जागृत हो जाता है, वो यह साधक की चेतना सहित, साधक के प्राणों को ही विसर्गी बनाकर, उसी विसर्ग मे ही स्थापित कर देता है जो सहस्रार चक्र से ऊपर की दशा है (अर्थात कपाल के ऊपर के भाग से बाहर की दशा है) I

इसलिए इस प्राण की गति ही विसर्ग पथ, मुक्तिपथ आदि कहलाती है I

  • उस विसर्ग में, इसकी ऊर्जा का स्वरूप आकाश के समान विशालकाय होता है I
  • यह प्राण की ऊर्जा जब प्रज्वलित होती है, तब साधक वैरागी सा ही हो जाता है I

ऐसी दशा में साधक शरीरी रूप में निवास करता हुआ भी, उस शरीर का साक्षी होकर ही रह जाता है I

और ऐसी दशा में साधक अपने ही शरीर को ऐसे देखता है, जैसे वो कहीं दूर खड़ा हुआ देख रहा हो I

इसलिए इस प्राण की ऊर्जा के प्रज्वलित होने पर, साधक शरीर रूप में होता हुआ भी, “स्वयं ही स्वयं का” साक्षी हो जाता है I

और ऐसे साक्षी भाव में बसकर, साधक जीव जगत में बसा होकर भी, उसकी अपने भावनात्मक स्थिति में, उस जीव जगत को ऐसे देखता है, जैसे वो साधक कहीं सुदूर से उसको देख रहा हो I

  • यह उदान वायु मुक्ति प्रधान है I
  • प्राणों की विसर्गी दशा का कारण भी यही उदान प्राण है I
  • पञ्च ब्रह्म में उदान वायु का नाता अघोर ब्रह्म से है I
  • उदान प्राण के देवता अघोरेश्वर हैं I
  • इसी प्राण का आलम्बन लेके ज्ञानकृष्ण, विराटकृष्ण, कालकृष्ण, आनंदकृष्ण, और आत्मकृष्ण का साक्षात्कार मार्ग प्रशस्त होता है I
  • इस उदान प्राण की गंतव्य दशा को ही विशुद्ध अहम् कहते हैं I
  • पञ्च विद्या में, इस प्राण का नाता माँ गायत्री के नील मुख (अर्थात माँ गायत्री का नीला मुख) से है I
  • इस प्राण का नाता कई और देवियों से भी है, जैसे नील सरस्वती इत्यादि I

इनके बारे में यदि मेरा मन किया, तो आगे के किसी अध्याय में बतलाऊँगा I

  • कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह उदान प्राण ही उस कुण्डलिनी शक्ति को मस्तिष्क में स्थापित करने के लिए सहायता प्रदान करता है I

इस प्राण में बसकर और इस प्राण की ऊपर की ओर गति करती ऊर्जाओं का आलम्बन लेकर ही कुण्डलिनी मस्तिष्क के ऊपर के भाग के सहस्र दल कमल को पार करती है I ऐसी ही दशा से वो शक्ति का उसके अपने शक्तिमान से योग होता है I

  • और ऐसा योग होने के पश्चात, वो कुण्डलिनी शक्ति की ऊपर की ओर गति, अखंड रूप में होती ही रहती है I
  • इस प्रक्रिया में, मस्तिष्क के ऊपर के भाग में जहाँ शिवरंध्र होता है, उसमें एक प्रकाश प्रकट होता है, जो मध्य से तो श्वेत होता है, लेकिन उस श्वेत वर्ण को एक नीले वर्ण ने घेरा होता है I

इस ग्रन्थ में, इसी दशा को ब्रह्मरंध्र का शक्ति शिव योग (अर्थात ब्रह्मरंध्र में शक्ति शिव योग) कहा गया है, जिसके बारे में एक आगे के अध्याय में बात होगी, जब राम नाद को बताया जाएगा I

  • इस प्राण का कार्य, साधक की चेतना को गंतव्य मार्ग (मुक्तिपथ) पर लेकर जाना है I
  • इस प्राण का स्वरूप ही विसर्ग ब्रह्म ही है I
  • इस वायु के गंतव्य स्वरूप को ही मुक्ति कहते हैं I
  • कंठ चक्र में, इस वायु की देवी माँ, गायत्री विद्या सरस्वती ही हैं, जो वेद माता, देवमाता आदि नामों से भी पुकारी जाती हैं I
  • इस प्राण का गुण मुक्ति और मुक्ति मार्ग का ज्ञान भी है I
  • इस प्राण का तत्त्व, इष्ट-भक्त परंपरा है I
  • यह प्राण कण्ठ से लेकर मस्तिष्क के ऊपर के भाग तक गति करता है I
  • इसी प्राण के उष्ण स्वरूप के कारण, मुक्ति और बंधन, दोनों की वासनाएं शांत होती है, और साधक की आन्तरिक दशा सन्यास की ओर ही आकर्षित हो जाती है I

और जहाँ वह संन्यास भी पूर्ण संन्यास ही होता है, जिसमें साधक दोनों मुक्ति और बंधन, जो मूल द्वैतवाद रूपी वासनाएँ ही हैं, उनसे ही परे चला जाता है I

इसलिए इस प्राण को साधने से ऐसा सन्यास भाव स्थापित हो जाता है, जिसमे साधक स्वयं और इस समस्त जीव जगत को ही साक्षी भाव में बसकर देखता है I और वो साधक, ऐसा तबतक ही रहेगा, जबतक उसकी चेतना का नाता यहां बताए जा रहे उदान प्राण से रहेगा I

  • अतीत आदि पवित्र भाव और दशा भी इसी वायु के ही गुण हैं I
  • यह उदान वायु उत्कर्ष पथ के उस अंतिम पड़ाव को ही दर्शाती है, जिसको मुक्तिपथ कहा गया है I
  • जब साधना में नेत्र ही ऊपर की ओर मुड़ जाते है, तब जान लेना चाहिए, कि उदान प्राण जागृत हो रहा है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

देवदत्त उपप्राण का स्वरूप, देवदत्त उपप्राण का वर्ण, देवदत्त उपप्राण का रंग, देवदत्त उपप्राण की गति, देवदत्त उपप्राण का स्थान, शरीर में देवदत्त उपप्राण का स्थान, … देवदत्त लघुप्राण का स्वरूप, देवदत्त लघुप्राण का वर्ण, देवदत्त लघुप्राण का रंग, देवदत्त लघुप्राण की गति, देवदत्त लघुप्राण का स्थान, शरीर में देवदत्त लघुप्राण का स्थान, मस्तिष्क का उपप्राण, मस्तिष्क का लघुप्राण, कंठ का उपप्राण, कंठ का लघुप्राण, मस्तिष्क और कंठ का उपप्राण, मस्तिष्क और कंठ का लघुप्राण, … देवदत्त लघुवायु का स्वरूप, देवदत्त लघुवायु का वर्ण, देवदत्त लघुवायु का रंग, देवदत्त लघुवायु की गति, देवदत्त लघुवायु का स्थान, शरीर में देवदत्त लघुवायु का स्थान, मस्तिष्क की लघुवायु, कंठ की लघुवायु, मस्तिष्क और कंठ की लघुवायु, कंठ और मस्तिष्क की लघुवायु,

  • यह लघुवायु, उदान वायु को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखती है, जिसके कारण उदान वायु अपने कार्य करता है I इसलिए यह देवदत्त नामक लघुप्राण, उदान प्राण नामक ऊर्जा को, उदान प्राण में ही संगठित करके रखता है I
  • देवदत्त उपप्राण का वर्ण हल्का नीला है, जिसमें उदान वायु प्राण के बैंगनी रंग के बिंदु भी दिखाई देते हैं I
  • इस लघुप्राण की गति भी उसकी उदान वायु के समान, कंठ चक्र से लेकर मस्तिष्क के ऊपर के भाग तक होती है I
  • इस लघुप्राण का संबंध छींक से है I
  • इस लघुप्राण का निवास स्थान नसिका है I
  • इस लघुप्राण में विकृति ही शिरानालशोथ (अर्थात साइनोसाइटिस) का कारण बनती है I
  • कंठ और मस्तिष्क की अधिकांश विकृतियों में, यह लघुप्राण ही कारण होता है I
  • इस लघुप्राण में उदान वायु का बैंगनी वर्ण का प्रकाश आने पर, अन्य सभी प्राण वायु भी मुक्तिमार्गी हो जाते हैं I और ऐसा होने के पश्चात ही साधक के शरीर में मुक्तिमार्ग का “स्वयं ही स्वयं में” उदय होता है I

यही वो दशा है जिसके बारे में पूर्व में बताया गया था, कि साधक के कपाल के ऊपर के भाग में उष्णीषा बन जाती है I

और ऐसी दशा में, साधक के मस्तिष्क के भीतर विद्युत् से युक्त, अग्नि से संयुक्त, एक ऐसा प्रचंड वायु प्रवाह बन जाता है, जो मस्तिषि और मेरुदंड के भीतर की नाड़ियों में उधम मचा देता है I

इसलिए, जबतक उदान प्राण से जाता हुआ यह मुक्तिमार्ग अपने गंतव्य, मुक्ति को नहीं जाएगा, तबतक यह बहुत ही कष्टदायक रहता है I

और जहाँ वो मुक्ति भी तक आएगी, जब उदान प्राण साधक के कपाल के किसी न किसी रंध्र (जैसे विष्णुरंध्र, ब्रह्मरंध्र, शिवरंध्र, देवीरंध्र या आज्ञारंध्र) से बाहर जाकर, साधक की कपाल को ही पार कर जायेगा I

जब उदान प्राण कपाल के ऊपर के भाग से बाहर जाकर, कपाल को ही पार कर जाता है, तो इसी को प्राणों का विसर्गी स्वरूप कहा जाता है I

और इस विसर्गी स्वरूप में, सभी लघुप्राण भी अपने प्राणों के साथ, कपाल से परे जाने लगते हैं I

और जब ऐसा होता है, तो साधक का शरीर पत्ते के समान काम्पने भी लगता है, जिससे कई माह तक और जबतक साधक का स्थूल शरीर इस विचित्र दशा का आदी नहीं हो जाएगा, तबतक वो स्थूल शरीर निकम्मा सा ही हो जाता है I

इसलिए, उदान प्राण से जाता हुआ मुक्तिमार्ग, बहुत से भी बहुत पीड़ादायक दशा है क्यूंकि इसमें साधक को समझ ही नहीं आता, कि उसको कितनी मार पड़ी, कब कब पड़ी, कितनी बार पड़ी और कहाँ कहाँ पड़ी और साधक यह नहीं समझ पाता, कि इस मार का निवारण मार्ग क्या है I

और ऐसी दशा में, साधक की सूझ बूझ की पूर्णता न होने के कारण, और साधक को कुछ भी समझ नहीं आने के कारण, साधक की दशा एक विकल्पविहीन स्थिति में पहुंच जाती है I

और विकल्प नहीं होने के कारण, अंततः वो साधक मन में कहेगा ही, … कि, …

मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर से परे हूँ मैं I

मैं अपने ही शरीर को, अपने ही साक्षी भाव में रखकर देख रहा हूँ I

शरीर में बसे होने पर भी, भाव में मैं शरीर से सुदूर, शरीरातीत ही हूँ I

यदि साधक के भाव ऐसे नहीं होंगे, तो वो इस दशा से बहार निकलने वाले मार्ग के प्रकट होने से पूर्व ही, विदेही हो जाएगा I

  • लघुप्राण अधिकांश रूप में तमोगुणी होते हैं, अर्थात स्थिथि कृत्य के धारक होते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I
  • अधिकांष रूप में लघुप्राण अपने प्राणों को घरके रखते हैं, और ऐसा ही यह लघुप्राण भी होता है I

आए बढ़ता हूँ …

 

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  • यह वायु हलके गुलाबी वर्ण की होती है I
  • इसका स्थान प्रधानतः त्वचा है I लेकिन ऐसा होने पर भी इसका फैलाव पूरे स्थूल शरीर में होता है I
  • यह प्राण त्वचा के तंत्र का संचालक है I
  • यह प्राण सारे प्राणों के भीतर और उनको घेरकर भी रखता है I इसी प्राण ने शरीर को भी घेरा होता है I
  • कोई माध्यमता का देवादि मार्ग हुआ ही नहीं, जो व्यान प्राण से संबन्धित नहीं था I

सारे के सारे दैविक आदि माध्यमता के मार्गों का मूल नाता, व्यान प्राण से है I

  • यदि साधक के शरीर से यह प्राण, दुसरे प्राणों को अपने साथ लेकर, शरीर को पार करने लगेगा, तो साधक को कई सारे लोकों के दर्शन होने लगेंगे I
  • क्यूंकि यह प्राण पूरे शरीर में ही फैला होता है और इसने ही शरीर को घेरा हुआ होता है, इसलिए …

यदि यह प्राण, शरीर के नीचे के भाग से अपने साथ दुसरे प्राणों को साथ लेकर, स्थूल शरीर बाहर निकलने लगेगा, तो साधक को पाताल आदि नीचे के लोकों के साक्षात्कार होंगे, जो बहुत डरावने होंगे I

यदि यह प्राण, शरीर के ऊपर के भाग से अपने साथ दुसरे प्राणों को लेकर, स्थूल शरीर बहार निकलने लगेगा, तो साधक को ऊपर के देवादि लोकों के साक्षात्कार होंगे, जो बहुत आनंददायक होंगे I

  • कुण्डलिनी जागरण से पूर्व, व्यान प्राण का वर्ण थोड़ा गाढ़ा गुलाबी या भगवा भी हो सकता है I

लेकिन कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, इस व्यान वायु का वर्ण बहुत हल्का गुलाबी ही हो जाता है I

  • यह प्राण छठी इंद्री (अर्थात अतीन्द्रि) के पूर्ण जागृत होने का भी कारण है I लेकिन यह अतीन्द्रि तब ही जागृत होगी, जब उदान प्राण में ही प्राण वायु और व्यान वायु का योग हो जाएगा I
  • जब व्यान प्राण पूर्ण जागृत होता है, तब यह अन्य सभी प्राणों को अपनी ओर खींचने भी लगती है I

ऐसी दशा में, शरीर के चर्म भाग का वर्ण भी इसी प्राण के समान हल्का गुलाबी हो जाएगा I

और इसके साथ साथ, त्वचा से कोई हीरे के समान प्रकाश भी बाहर निकलता हुआ दिखाई दे सकता है I और ऐसी दशा में, साधक के कपाल पर भी यह प्रकाश फैला हुआ दिखाई देगा I

और जैसे जैसे यह व्यान प्राण, अन्य सभी प्राणों को अपने साथ लेकर शरीर से बाहर की ओर जाता जाएगा, वैसे वैसे साधक का स्थूल शरीर हलके गुलाबी वर्ण का होकर, शक्तिहीन भी होता जाएगा (क्यूंकि उसकी प्राण वायु रूपी शक्ति ही उसको त्याग रही है) I

  • सूक्ष्म शरीर गमन के समय भी, व्यान प्राण का नाता सूक्ष्म शरीर से जुड़ा ही रहता है I
  • यह प्राण उन महामाया का द्योतक भी है, जो अव्यक्त प्राण (या अव्यक्त प्रकृति) ही है I

बौद्ध पंथ में अव्यक्त प्रकृति को ही तुसित लोक कहा गया है I

  • शरीर में इस प्राण वायु की गति, शरीर से बाहर की ओर होती है I और यह गति शरीर के सभी ओर से ही ऐसी होती है I

स्थूल शरीर से इस प्राण के बाहर की और गति के कारण, शरीर को घेरा हुआ एक आभामंडल (या प्रभामंडल) सा निर्मित होता है I स्थूल शरीर को घेरा हुआ यह आभा मंडल, इसी व्यान प्राण के कारण बनता है I

जितना अधिक इस व्यान प्राण का शरीर से बाहर की ओर का प्रवाह होगा, उतना ही विस्तार उस आभामंडल का भी होगा I

और जितनी आगे (या अधिक) साधक की चेतना की गति ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म, कारण (या दैविक) और संस्कारिक जगत के उत्कृष्ट लोकों तक होगी, उतना ही विस्तार इस आभामंडल (या प्रभामंडल) का, उस साधक के शरीर के बाहर की ओर होगा I

  • व्यान प्राण का प्रधान कमल स्वादिष्ठान चक्र है I

इसी प्राण के वर्ण का ही वो स्वाधिष्ठान चक्र भी होता है, क्यूंकि यही प्राण स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य में निवास करता है I

  • जबकि व्यान वायु का स्थान नाभि से कोई 3-4 ऊँगली नीचे, स्वाधिष्ठान चक्र में ही होता है, लेकिन तब भी यह वायु की गति सारे स्थूल शरीर में व्यापक होकर, स्थूल शरीर से बाहर की ओर ही होती है I
  • पञ्च वायु में यह प्राण सिद्धपथ (या सिद्धमार्ग या सिद्धिपथ) को दर्शाता है I
  • कोई सिद्ध हुआ ही नहीं जिसका मूल प्राण, व्यान नहीं था I
  • यह प्राण सर्वात्मा की सर्वशक्ति का भी द्योतक है I
  • यह प्राण ब्रह्मशक्ति के माया स्वरूप का भी द्योतक है I
  • यह प्राण, जगद्गुरु माँ शारदा विद्या का भी द्योतक है I
  • पञ्चब्रह्म के दृष्टिकोण से, इस प्राण का सीधा नाता, ईशान ब्रह्म से है I

और ऐसा होने पर भी, पञ्चब्रह्म मार्ग में इस प्राण का साक्षात्कार तत्पुरुष ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के मध्य में ही होगा I

  • इस प्राण का सीधा सीधा नाता, गायत्री विद्या, अर्थात पञ्चमुखी गायत्री के मुक्ता मुख से है I

और ऐसा होने पर भी, पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा मार्ग में इस प्राण का साक्षात्कार माँ गायत्री का विद्रुमा मुख और धवला मुख के मध्य में ही होगा I

  • मुक्ति मार्ग में, इस प्राण की ऊर्जा साधक की चेतना को तबतक बाहर की ओर ढकेलती रहती है, जबतक साधक समस्त उत्कृष्ट लोकादि का साक्षात्कार नहीं कर लेता और उन सभी लोकों से ही परे नहीं हो जाता I

और ऐसा होने पर, उन सब देवादि लोकों की सिद्धियों को ही प्राप्त नहीं होता I

  • यह प्राण माँ महामाया की सर्वसिद्धि नामक अवस्था को दर्शाता है I
  • यह प्राण, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति की सार्वभौम शक्ति, माँ अव्यक्त प्रकृति का द्योतक भी है I
  • इस व्यान प्राण के पूर्ण सिद्ध को, न मुक्ति से कोई लेना देना होगा और न ही बंधन से I

वो सिद्ध इन दोनों से, जो द्वैतवादों के मूल ही हैं, अतीत हो जाता है I

वो सिद्ध ही अव्यक्त प्रकृति का स्वरूप होता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा महामाया स्वरूप कहलाता है I

  • इसलिए, इस प्राण के सिद्ध योगी को माँ महामाया ढक् कर रखती हैं, ताकि उस योगी को कोई भी तबतक जान न पाए, जबतक महामाया (ब्रह्मा की माया शक्ति) ऐसा न चाहें I
  • वैदिक वाङ्मय में कोई पूर्णावतार हुआ ही नहीं, जो इस व्यान प्राण का सिद्ध नहीं था I
  • योगमार्गों में, व्यान वायु की सर्वव्यापी ऊर्जा का आलम्बन लेकर समस्त देवलोकों सहित, ब्रह्मलोक तक भी गमन किया जा सकता है I
  • इसकी ऊर्जा का स्वरूप महा-आकाश के समान विशालकाय होता है I

और जहाँ वह महाकाश ही ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की सनातन योगावस्था का द्योतक भी होता है I

  • यह प्राण की ऊर्जा जब प्रज्वलित होती है, तब साधक सिद्ध हुए बिना रह ही नहीं सकता है I
  • ऐसी दशा में साधक, पिंड रूप में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्ड स्वरूप ही होगा I

और जहाँ वो ब्रह्माण्ड भी उस साधक के साधक के भीतर ही पूर्णरूपेण साक्षात्कार होगा I

 

और ऐसा साधक कहेगा ही, कि …

जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है I

और जो पिण्ड में नहीं मिलेगा, वो ब्रह्माण्ड में भी नहीं मिल सकता I

  • और इसके अतिरिक्त, ऐसी दशा में साधक, …

पिंड रूप में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्डशक्ति स्वरूप ही होगा I

और जहाँ वो ब्रह्माण्ड शक्ति भी उस साधक के शरीर के भीतर ही पूर्णरूपेण साक्षात्कार होंगी I

  • इसलिए, …

यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे

यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे

इन दोनों का साक्षात्कार मार्ग, व्यान प्राण ही है I

 

ऐसा साधक अपने शरीर के ही ब्रह्माण्ड रूप का साक्षात्कारी होता है I

और इसके साथ साथ वो साधक, …

ब्रह्माण्ड के ही पिंड रूप को अपने शरीर में ही पाता है I

 

और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात्, वो साधक जान भी जाता है, कि उसके लिए अब …

न तो कोई बंधन शेष रहा है और न ही मुक्ति I

वो मुक्ति को पाया हुआ भी, उस मुक्ति से ही अतीत है I

शरीरादि बंधनों में प्रतीत होता हुआ भी,  वो साधक बाँधनातीत है I

इसलिए, वो मुक्ति नामक दशा और उसके मार्ग से बाँधनातीत है I

वो साधक बाँधनातीत है, क्यूंकि बंधन और मुक्ति दोनों से ही अतीत है I

और ऐसा होने के कारण, वो साधक जन समाज के लिए तो पगला ही होगा I

उसकी अपनी वास्तविकता में, उसके आत्मस्वरूप में ही पिण्ड और ब्रह्माण्ड होगा I

 

लेकिन अपनी ऐसी सिद्ध दशा में, वो तो अब जान भी गया होगा, कि …

जो पागल नहीं होता, वो पूर्ण सिद्ध भी नहीं हो सकता I

पगले ही सिद्ध हुआ करते हैंजो पागल नहीं, वो सिद्ध भी नहीं I

इस सिद्धि का मार्ग और उसके पागलपन के मूल में यही व्यान प्राण है I

और जहाँ वो व्यान प्राण ही अव्यक्त शक्ति, अर्थात माया शक्ति का द्योतक है I

यह व्यान प्राण उन माँ माया का ही द्योतक है, जिन्होंने ब्रह्मलोक तक को घेरा हुआ है, अर्थात छुपा कर रखा हुआ है I

और वही माँ माया उस साधक को घेरकर, उस साधक के जीव जगत में बसे होने पर भी, उस साधक की वास्तविकता का किसी को भी पता नहीं चलने देती… लेकिन केवल तबतक, जबतक वो साधक या तो तैयार नहीं हो जाएगा, या माँ माया उस साधक को जीव जगत में दर्शाना नहीं चाहेंगी I

  • यह व्यान वायु सिद्धमार्गों की प्रधान वायु है I
  • और यही व्यान वायु के गंतव्य स्वरूप को माँ माया कहा जाता है, जो समस्त जीव जगत की ही प्रधान हैं, और जो प्रकृति रूपी शक्ति हैं और शक्ति रूपी प्रकृति भी हैं I
  • पञ्च ब्रह्म में व्यान वायु का नाता ईशान ब्रह्म से है I

और ऐसा होने पर भी इस वायु का साक्षात्कार, वामदेव ब्रह्म और तत्पुरुष ब्रह्म के मध्य में ही होता है I

  • व्यान प्राण का देवत्व माँ महामाया हैं I
  • इस व्यान प्राण की शक्ति को ही माया शक्ति कहते हैं I
  • पञ्च विद्या में, इस प्राण का नाता माँ गायत्री के निर्गुण मुख (अर्थात माँ गायत्री का मुक्ता मुख) से है I
  • पञ्च विद्या में इस प्राण का नाता, जगद्गुरु शारदा विद्या सरस्वती से है I
  • इस प्राण का नाता कई और देवियों से भी है I

इनके बारे में यदि मेरा मन किया, तो आगे के किसी अध्याय में बतलाऊँगा I

  • कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया में यह व्यान प्राण, उदान प्राण से योग करके उस कुण्डलिनी शक्ति को मस्तिष्क से आगे लेकर जाता है, और विसर्गी नामक दशा का साक्षात्कार करवाके, उसी विसर्ग में साधक की चेतना को स्थापित तक कर देता है I
  • इस व्यान प्राण और उदान प्राण की योगदशा से ही योग करके, कुण्डलिनी मस्तिष्क के ऊपर के भाग के सहस्र दल कमल को पार करती है I

इसी दशा से वो शक्ति का उनके अपने शक्तिमान से योग होता है, और जहाँ वो शक्ति, महामाया हैं… और शक्तिमान चतुर्मुखा पितामह हैं I

और ऐसे योग होने के पश्चात, वो कुण्डलिनी शक्ति की ऊपर की ओर गति ब्रह्मलोक तक ही हो जाती है, और ऐसा साधक ब्रह्मलोक का साक्षात्कार कायाधारी होकर ही कर लेता है I

टिपण्णी: कुछ योगी कहते हैं, कि जिसनें ब्रह्मलोक का साक्षात्कार जीवित रूप में ही किया होगा, वो देहावसान के पश्चात ब्रह्मलोक नहीं जा पाता है I लेकिन यह बिंदु तो ब्रह्मलोक के पहले के बीस लोकों तक ही लागू होता है, न कि ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में I ब्रह्मलोक के  इक्कीसवें भाग के देवता, हीरे के समान प्रकाशमान, सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति हैं, और इसी इक्कीसवें भाग की दिव्यता, वज्र के सामान श्वेतवर्णा, पितामही सरस्वती ही हैं I

  • इस प्राण का गंतव्य कार्य उस सिद्धि को प्रदान करवाना है, जो बांधनातीत और मुक्तितीत, दोनों के एकवाद की और लेके जाती है I

इस प्राण का गुण मुक्तितीत और बाँधनातीत की योगदशा है I

  • इस प्राण का स्वरूप ही अव्यक्त प्राण है I
  • इस वायु का गंतव्य स्वरूप को ही अतीतातीत कहते है I
  • इस वायु की देवी, शारदा विद्या सरस्वती ही हैं, जो जगदगुरु माता हैं I
  • इस प्राण से ही सर्वातीत नामक सिद्धि को प्राप्त हुआ जाता है I
  • यह प्राण सम्पूर्ण शरीर में ही गति करता है, और शरीर के अधिक ऊर्जा को शरीर से बाहर की ओर लेके जाता है, ताकि शरीर स्वस्थ रह सके I
  • इसी प्राण के उग्रस्वरूप के कारण, साधक इतना शक्तिहीन हो जाता है, कि उसके पास कुछ करने की क्षमता ही नहीं रहती है I

ऐसी विकल्प विहीन स्थिति में वो साधक जान जाता है, कि वो पागल ही है की इस व्यान प्राण की प्राप्ति के मार्ग पर गया था I

इसलिए वो साधक यह भी जान जाता है, कि व्यान प्राण की सिद्धि ही वास्तविक सिद्धि है, जिसको पाने के लिए पागल होना ही पड़ेगा I

और वो साधक, ऐसा तबतक ही रहेगा, जबतक उसकी चेतना का नाता यहां बताए जा रहे व्यान प्राण से रहेगा I

  • अतीततीत भाव और ज्ञान (अर्थात पारे से भी परे का भाव और ज्ञान) भी इसी वायु के ही गुण हैं I
  • यह उदान वायु मुक्तिमार्ग से भी परे, उस मुक्ति से ही अतीत दशा को दर्शाती है, जिसको माया, महामाया आदि नामों से पुकारा जाता है I
  • जब साधना में मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण सहित, वो सूक्ष्म और दैविक शब्द आदि भी भागते-भागते एकदम से लुप्त जो जाएंगे, और वो साधक स्वयं ही स्वयं को देख, सुन या जान नहीं पाएगा I

जब ऐसा हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि ऐसे साधक को अब महामाया ने चुन लिया है, और इसलिए चुना है, ताकि आगे किसी समय में वो साधक उन महामाया का ही होकर, उन महामाया में ही बसकर और वो महमाया ही उस साधक में बसकर, उस साधक को अपने स्वरूप प्रदान करने का सोच रहीं हैं… आगामी किसी समय में I

जब महामाया किसी जीव को चुन लेती हैं न, तो उस जीव को तबतक नहीं छोड़ती जबतक वो जीव ही माँ महामाया का स्वरूप न हो जाए I

और ऐसे स्वरूप प्राप्ति में चाहे कितना ही समय या जन्म ही क्यों न लगें, लेकिन महामाया एक बार चुन कर, कभी नहीं छोड़ती, जबतक वो जीव उन महामाया का ही स्वरूप न हो जाए I

महामाया ही एकमात्र देवी है, जो ऐसी हैं… एक बार उन्होंने किसी योगी को चुन लिया, तो बस चुन लिया I

महामाया ही एकमात्र देवी है, जो उस योगी को पागल सा किए बिना, उसको अपना स्वरूप भी प्रदान नहीं करेंगी I

एक बार उन महामाया ने तुम्हे चुन लिया, तो चके कोई भी देवता आदि कुछ भी कर ले, वो तबतक नहीं छोड़ेंगी, जबतक तुम उनका ही स्वरूप न हो जाओ I

और चाहे इस प्रक्रिया में कितना भी समय या जन्म ही क्यों मना लग जाएं, यदि महामाया ने एक बार तुम्हे चिन्हित कर दिया … तो कर दिया I

और ऐसे चुनने के बाद, जिस भी सत्ता को जो भी उखाड़ना है, वो उखाड़ ले I

ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि यदि एक बार भी महामाया ने किसी जीव को चुन लिया… तो बस चुन लिया I

  • और ऐसे चुनने के पश्चात, वही माँ महामाया, अदि शक्ति और अव्यक्त शक्ति की योगावस्था में, साधक के हृदय के चक्र में बैठकर, साक्षात् ब्रह्म, जगद्गुरु, गुलाबी वर्ण की माँ शारदा सरस्वती ही हो जाएंगी I

और वही माँ महामाया, अपने ऐसे, साक्षात् ब्रह्म, जगद्गुरु स्वरूप में, माँ शारदा ही होकर, साधक के हृदय कमल के स्थान के समीप, जो हृदय निर्वाण गुफा (गुहा निर्वाण) है, उसमें मानव रूप में, भीतर से श्वेत और बाहर से हलके गुलाबी वर्ण में ही पाई जाएँगी I

इन दोनों वर्णों में जो श्वेत वर्ण है, वो माँ आदिशक्ति (अर्थात परा प्रकृति या प्रकृति के नवम कोष की दिव्यता और शक्ति) का ही द्योतक है I और जो हल्का गुलाबी वर्ण है, वो अव्यक्त प्रकृति (या अव्यक्त प्राण या अव्यक्त शक्ति या ब्रह्म शक्ति का पूर्णरूप) का ही द्योतक है I

इसलिए इस जगदगुरु स्वरूप में वो माँ महामाया, साक्षक्त निर्गुण ब्रह्म ही होंगी, क्यूंकि उनकी ऐसी दशा में, ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति है I और ऐसी दशा में, ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की योगावस्था ही जगदगुरु और साक्षात ब्रह्म, शारदा सरस्वती हैं I

महामाया के इसी जगगुरु शारदा विद्या स्वरूप में, ब्रह्म ही रचैता, समस्त रचना और रचना का संपूर्ण तंत्र भी हुआ है I यही कारण है, कि शारदा विद्या जगद्गुरु कहलाई हैं I

जो अनंत ब्रह्म और उन ब्रह्म की सार्वभौम, सर्वकाली-सनातन, सर्वव्यापक ब्रह्मशक्ति, एक साथ ही नहीं, वो जगदगुरु भी नहीं हो सकता I

इसलिए माँ महामाया की ऐसी जगदगुरु माँ शारदा सरस्वती रूपी दशा में, माँ महामाया, ब्रह्म की संपूर्ण शक्ति होने के साथ साथ, साक्षात् ब्रह्म भी हैं I और महामाया की यही दशा में, माँ शारदा सरस्वती विद्या, जगदगुरु कहलाई जाती हैं I

यह भी वो कारण है, कि कोई वैदिक पीठ (या योग पीठ) हो ही नहीं सकती, जिसका नाता देवी शारदा से नहीं है I

समस्त योग और वेद मार्गों और उनकी योग और आम्नाय पीठों की एकमात्र गुरु,  जगदगुरु देवी माँ शारदा ही हैं I

  • कुण्डलिनी जागरण के पश्चात, यही प्राण सुषुम्ना नाड़ी को भी घेर लेता है, जिसके कारण सुषुम्णा को यदि उसके बाहर की ओर से देखा जाएगा, तो वो सुषुम्ना नाड़ी भी अव्यक्त के द्योतक, इस व्यान प्राण के हलके गुलाबी वर्ण की पाई जाएगी I
  • वेदांत मार्ग के सिद्धों की सुषुम्ना नाड़ी भी, बाहर से ऐसी ही होती है I

आदि शंकराचार्य के पास भी यही माँ शारदा सरस्वती का ही सिद्ध शरीर है I

आज के समय पर, गायत्री परिवार के संस्थापक, श्रीराम शर्मा के पास भी इसी व्यान प्राण का हल्का गुलाबी शरीर है I

तिब्बत के एक पुराने योगी, जिनको मिलरेपा कहा जाता है, उनके पास भी यही गुलाबी वर्ण का, शारदा सरस्वती विद्या का सिद्ध शरीर था, इसलिए वह भी गुरुरूप ही थे I

ज्योतिर्मठ और द्वारका शारदा पीठ के पूर्व के पीठाधीश्वर, स्वामी स्वरूपनंद सरस्वती की सुषुम्ना नाड़ी ही वैसी ही थी, जैसा यहाँ बताया गया है I

जो साधक ऐसा होता है, वही समस्त जीवों की दादीजी, माँ महामाया का स्वरूप होता है I

  • और ऐसा साधक ही आगे जाकर, माँ शारदा सरस्वती के स्वरूप को पाता है क्यूंकि पञ्च विद्या नामक ज्ञान मार्ग में, उन पूर्ण ब्रह्मशक्ति, माँ महामाया का दूसरा नाम, जगद्गुरु माँ शारदा ही है I
  • यदि में माँ शारदा सरस्वती के महमाया स्वरूप के वर्ण का वनस्पति को आधार बनाके वर्णन करूँगा, तो कह सकता हूँ कि जैसा श्वेत चंदन, हल्का गुलाबी वर्ण का होता है, वह वैसी ही हैं I

लेकिन आजकल कुछ मूर्खानंद उन शारदा विद्या सरस्वती को सुनहरे, पीले आदि वर्णों से जोड़ रहे हैं, जो बिलकुल उचित नहीं है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

धनञ्जय उपप्राण का स्वरूप, धनञ्जय उपप्राण का वर्ण, धनञ्जय उपप्राण का रंग, धनञ्जय उपप्राण की गति, धनञ्जय उपप्राण का स्थान, शरीर में धनञ्जय उपप्राण का स्थान, … धनञ्जय लघुप्राण का स्वरूप, धनञ्जय लघुप्राण का वर्ण, धनञ्जय लघुप्राण का रंग, धनञ्जय लघुप्राण की गति, धनञ्जय लघुप्राण का स्थान, शरीर में धनञ्जय लघुप्राण का स्थान, त्वचा का उपप्राण, सम्पूर्ण शरीर में बसा हुआ उपप्राण, सम्पूर्ण शरीर में बसा हुआ लघुप्राण, … धनञ्जय लघुवायु का स्वरूप, धनञ्जय लघुवायु का वर्ण, धनञ्जय लघुवायु का रंग, धनञ्जय लघुवायु की गति, धनञ्जय लघुवायु का स्थान, शरीर में धनञ्जय लघुवायु का स्थान, … सम्पूर्ण शरीर की लघुवायु, त्वचा की लघुवायु, …

  • यह लघुवायु, व्यान वायु को अन्य सभी प्राणों से पृथक करके रखती है जिसके कारण व्यान वायु अपने कार्य करती है I इसलिए यह धनञ्जय नामक लघुप्राण, व्यान प्राण नामक ऊर्जा को, व्यान प्राण में ही संगठित करके रखता है I
  • धनञ्जय उपप्राण का वर्ण हल्का नीला है, जिसमें व्यान वायु के हलके गुलाबी रंग के बिंदु भी दिखाई देते हैं I
  • इस लघुप्राण की गति भी उसकी व्यान प्राण नामक वायु के समान, स्थूल शरीर के सभी ओर से, स्थूल शरीर से बाहर की ओर होती है I
  • यह लघुप्राण भी इसके प्राण के समान, स्थूल शरीर में व्याप्त होता है I
  • यह धनञ्जय सभी प्राणों में से, सबसे बड़ा लघुप्राण है I
  • इस लघुप्राण का निवास स्थान स्वाधिष्ठान चक्र के समीप है I और शरीर की त्वचा पर भी यही प्राण निवास करता है I
  • इस धनञ्जय लघुप्राण में विकृति ही त्वचारोग सहित, कई और रोगों का कारण बनती है I

 

प्राणों के प्रवाह में रुकावट, प्राणों का प्रवाह अवरोध, प्राण प्रवाह अवरोध, …

जब स्थूल शरीर में बसे हुए प्राणों के प्रवाह में अवरोध होते है, तो कई सारी समस्याएं आती है I

यह समस्याएं भी भौतिक, अध्यात्मिक और दैविक, तीनों प्रकार की होती है I

और जब किसी लोक के प्राणों की गति में अवरोध होते हैं, तब भी उस लोक में जो समस्याएं आती है, वह भी इन्ही तीन प्रकारों की होती है I

प्रत्येक युग की अपनी एक प्राण प्रवाह और दिशा होती है, जिसमे उस युग के समयखंड में सभी जीव निवास करते हैं I और उसी युग के प्राण प्रवाह के अनुसार ही उन जीवों के जीवन और जीवन तंत्र भी होते है I

और उस कालखंड में जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और आगामी युग का उदय हो रहा होता है, तब इन दोनों युगों के प्राणों का मिलन भी होता है I

यह प्राणों का मिलन भी उन दोनों युगों के प्राणों के टक्कर से ही होता है, और जहाँ यह टक्कर भी विध्वंसक दशाओं को जन्म देती है I

ऐसा समय पर, जो जीव या जीवों के मार्ग और तंत्र, समाप्त होते हुए युग से संबंधित होंगे, वह सब के सब त्राहिमाम करने लगेंगे I

और यही कारण होता है, कि युगों के अंत समय में, जब उन युगों के संधिकाल चालित होता है, तब त्राहिमाम होता ही है I और जहाँ यह त्राहिमाम जीव जनित, प्राकृतिक और दैविक, तीनों प्रकारों का होता है I

और क्यूंकि यह प्राण, दो पृथक युगों से संबंधित होते हैं, इसलिए यह एक दुसरे से पृथक भी होते हैं I यही कारण है, कि जब इन दोनों युगों के प्राणों का मिलन होता है, तो कुछ न कुछ विप्लवकारी परिवर्तन आते ही है, क्यूंकि जगत और उस जगत के लोक भी, स्वयं को उस नए युग की ऊर्जाओं के अनुसार परिवर्तन करने लगते हैं I

और क्यूंकि उस समय की जीव जातियाँ पूर्व के युग के अनुसार ही चलित होती हैं, इसलिए जब नए युग की ऊर्जाएं, जो जाने-वाले युग की ऊर्जाओं से पृथक ही होती है, वो उस लोक में आने लगती है, तब इन दोनों ऊर्जाओं में टक्कर भी होती है I

और जहाँ यह टक्कर उस लोक की ऊर्जाओं में भी होती है, जो उस लोक में और उस लोक के जीवों के भीतर भी होती हैं I

ऐसे समय पर पृथ्वी के भीतर, जो एक छोटा गोला घूम रहा होता है, और जो पृथ्वी को घूमता भी है, उसकी गति में भी परिवर्तन होने लगते है I जब ऐसा होता है, तो भूकंप, अग्नि तत्त्व और वायु तत्त्व सहित, ज्वालामुखी आदि की आवृत्ति (frequency) में भी वृद्धि होती है I

और वैसा ही परिवर्तन जीव जातियों में भी होता है I ऐसा होने के कारण उस लोक में देखा भी जाएगा, कि जीव जातियाँ बहुत बड़ी संख्या में आत्महत्या करने के मार्ग पर चल रही है, और ऐसा कर भी रही हैं I

और उन दो युगों की ऊर्जाओं के टकराव के कारण, वो जीव एक दुसरे से लड़ने भी लगे हैं I

ऐसे समय खण्डों में, जीवों की संख्या में घटौती होती है, चाहे वो घटौती युद्ध अदि से हो, या बड़ी संख्या में आत्महत्या से (जैसे मछलियां बहुत बड़ी संख्या में समुद्र आदि से किनारे पर आकर आत्महत्या करने लगेगी), या प्राकृतिक आपदाओं से या किसी दैविक कारण से ही हो I

यह सब इसलिए होता है, कयुँकि नए युग में जाने से पूर्व, प्रकृति अपने आप को नवीन करने का प्रयत्न करती है I

और यह नवीन करने के पश्चात, वह प्रकृति स्वयं को उनके अपने बहुवादी अद्वैत स्वरूप में प्रकाशित भी करती है, जिससे वैदिक आर्य धर्म का पुनरोदय हो जाता है, क्यूंकि आर्य धर्म ही एकमात्र है, जो बहुवादी होता हुआ भी, अद्वैत ही है I

वैदिक आर्य धर्म के बहुवाद में प्रकृति है और अद्वैत में निर्गुण ब्रह्म I

और क्यूँकि प्रकृति और ब्रह्म, दोनों ही सनातन है, इसलिए आर्य धर्म को ही सनातन कहा जाता है I

इस युग परिवर्तन या स्थंबन, दोनों प्रक्रियाओं के पूर्ण होने के समय, सनातन धर्म का उदय भी होता ही जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा युग परिवर्तन के समय पर, जब दो युगों के प्राणों का टकराव होता है, तो प्राणमय जगत में कई विस्फोट होते ही रहते हैं I

और क्यूँकि जीवों के प्राणमय कोष भी उसी प्राणमय जगत का अंग है, इसलिए यही विस्फोट जीवों के भीतर भी, शनैः शनैः ही सही, लेकिन होते ही रहते हैं I

और ऐसे प्राणमय कोष के विस्फोटों से ही जीव जनित (मानव जनित) व्याधियाँ आती है, जैसे अर्थ का पतन होना, अंतर्विग्रह होना, देश और धर्मादि युद्ध होना, कृषि का नष्ट होना, विभिन्न प्रकार के अत्याचार होना, इत्यादि I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यही युग परिवर्तन वो समय होता है, जब दो युगों के प्राणों की टक्कर के कारण, प्राणों के एक बहुत बड़े प्रतिशत के प्रवाह का अवरोध भी होता है I

और यह अवरोध ही ऊपर बताई गई व्याधियों के प्रमुख कारण भी बनता है I

और जहाँ यह प्राणों का प्रवाह अवरोध, उस लोक के प्राण सहित, उस लोक के जीवों के प्राणमय कोश में भी होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ऐसे समय में भी, उस लोक के जीव में से कुछ ही सही, लेकिन एक भाग प्राणों में ही सर्वसमता को पाता है I और वही वो जीव भाग है, जो अगले युग में जाएगा I

और जो जीव उनके अपने प्राणमय कोश में सर्वसमता को नहीं पाएंगे, वो जीव अगले युग में प्रवेश भी नहीं कर पाएंगे I इसलिए ऐसे जीवों का अन्त उसी युग परिवर्तन प्रक्रिया में हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब यह अवरोध हो जाएगा, तो कई सारी समस्या भी आएँगी जैसे स्थूल शरीर में व्याधियाँ, ऋतू का परिवर्तन, सूर्य के ताप में परिवर्तन, कृषि में कमी और कृषि की पैदावार ही न हो पाना, अर्थ से संबंधित व्याधियां, स्वास्थ्य की समस्याएं, और जहाँ यह सब व्याधियाँ एक के बाद एक आती ही जाती हैं I

यह सब के सब प्राण प्रवाह के अवरोध के कारण होता है, और चाहे वो अवरोध उस लोक के प्राणों में हो या उस लोक के जीवों के प्राणमय कोश में ही क्यों न हो I

ऐसे समय पर जीवों के लिए जो व्याधियाँ आएंगी, वो शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, प्राकृतिक, ज्ञान का ही विकृत होना, जीवों के आभामंडल की विकृतियां, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की ऊर्जाओं में परिवर्तन, संस्कारों की ऊर्जाओं में परिवर्तन, इत्यादि I

इन सभी परिवर्तनों के मूल में, जीवों के प्राणमय कोश का परिवर्तन ही होता है I और वो परिवर्तन भी प्राणों के साधरण प्रवाह में अवरोध से होकर ही जाता है I

जब यह परिवर्तन चल रहा होता है, तो अधिकाँश जीव “मेरा, तेरा इत्यादि विकृत भावों बहुत बड़ी मात्रा मैं जाते हैं I पूर्व का “हमारा और सबका” इत्यादि भावों में ही कमी हो जाती है I

और जहाँ यह अवरोध विकृत एकवाद के रूप में भी प्रकट हुआ पाया जाएगा I

ऐसा होने पर, एक जीव जाती (या एक मानव सभ्यता) दूसरी जीव जाती (अर्थात दूसरी मानव सभ्यता) के अंत करने के लिए ही कार्यरत हो जाएगी, और इससे युद्ध भी होंगे ही I

यह युद्ध भी जीवों के प्राणमय कोष के भीतर आए हुए प्राण प्रवाह अवरोध को दर्शाते हैं, और जो युगों के संधिकाल में आता ही है I

जब किसी लोक के अधिकांश जीवों के जीवन मार्गों में ऐसे भाव प्रकट होने लगेंगे, तो जान लेना चाहिए कि उस लोक के प्राणों की साधारण गति में अब अवरोध आ गए हैं I

ऐसा इसलिए मानना चाहिए, क्यूंकि प्राणों की साधारण गति सर्वदिशा में ही व्यापक होती है, न कि एक दिशा में I

क्यूँकि एकवाद का मार्ग मोनोथेइसम ही है, इसलिए मानव जाति द्वारा आई ऐसी विकृति, मोनोथेइस्टिक पंथों से ही आती है I

 

अब प्राण प्रवाह अवरोध के कुछ साधारण लक्षण, पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुसार बताता हूँ …

  • धर्म के दृष्टिकोण से, … एकवाद का उदय और विस्तार, धर्म के नाम पर युद्ध आदि समस्याएँ I

बहुवादी अद्वैत मार्गों का प्रत्यक्ष या परोक्ष विलोपन, और ऐसे मार्गों के संतों का व्यापारी बन जाना I वैदिक धर्म और योग का प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यापार I

  • अर्थ के दृष्टिकोण से, … आर्थिक पूँजीवाद का उदय और विस्तार I आर्थिक समस्याएं जो खंड प्रलय के स्वरूप में आती हैं I कृषि गोरक्ष वाणिज्य की हानि I
  • काम के दृष्टिकोण से, … विकृत काम मार्गों का उदय और विस्तार, काम का निष्काम ही नहीं रहना, जिससे मोक्ष द्वारों का ही बंद हो जाना I

यह सबसे बड़े विप्लवों का कारण बनता है, क्यूंकि यह जीवों के उदय होने के मूल-कारण, जो उनकी मुक्ति की इच्छा ही थी… उसके ही विरुद्ध हो जाता है I

  • मोक्ष के दृष्टिकोण से, … जो पंथ मुक्ति के पात्र ही नहीं हैं, और जो कहते हैं कि उनकी मुक्ति अंत समय में ही होती है, उनको मानने वालों की संख्या में विस्तार I और जो पंथ जीवनमुक्ति के सिद्धांत को धारण किए हुए हैं, उनको मानने वालों की संख्या में कमी I नास्तिकता और नास्तिकता से जुड़े हुए मार्गों में कुछ ही दशकों में बहुत बड़ी वृद्धि I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और जब यह त्रहिमाम आएगा और फैलेगा, और इसके पश्चात जब ऊपर बताई हुई दशाओं से विपरीत दशा दिखने लगेगी, तब जान लेना चाहिए कि अगले युग के प्राणों का प्रवेश होने लगा है I

और यह भी जान लेना चाहिए, कि पूर्व का प्राण प्रवाह अवरोध भी अब शनैः शनैः दूर होने लगेगा I

और चाहे यह शान्ति, मानव जनित, प्राकृतिक या दैविक व्याधियों से ही क्यों न आए, चाहे यह खंड प्रलय स्वरूप में ही क्यों न आए, … लेकिन आएगी अवश्य, क्यूंकि पूर्व में जो प्राणों का प्रवाह अवरोध आया था, वो अब काल और कालशक्ति द्वारा ही हटाया जा रहा है I

और इस हटाने की प्रक्रिया में भी जीव जातियों की बहुत हानि होती है I और जहाँ वह हानि, मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक, तीनों कारणों से होती है I

 

और ऐसा सबकुछ होने का मूल कारण भी वही है, जो पूर्व के किसी अध्याय में बताया गया था, कि …

इस जीव जगत की सदैव परिवर्तनता ही एकमात्र सनातन स्थिरता है I

 

और जहाँ उस,  …

  • सदैव परिवर्तनता के मूल में, इस अध्याय के आगे के भाग बताया गया बहुस्याम: नामक शब्द ही है I
  • और सनातन स्थिरता के मूल में, इस अध्याय के आगे के भाग बताया गया एकोहं का शब्द ही है I
  • इसलिए यह एकोहं बहुस्याम: का वाक्य भी, प्रकृति के बहुवाद और ब्रह्म के अद्वैतवाद, दोनों से ही समान रूप में संबद्ध है I
  • और इसी के कारण, यह वाक्य वैदिक वाङ्मय के मूल स्वरूप, बहुवादी अद्वैत मार्ग को दर्शाता है, जिसका नाता प्रकृति और भगवान्, दोनों से ही समानरूपेण और पूर्णरूपेण होता है I

 

प्राणमय कोश की अंतिम दशा, प्राणों का सर्वसम स्वरूप, प्राणों का सर्वसम ब्रह्मा स्वरूप, प्राणों का प्रजापति स्वरूप, प्राणों का ब्रह्मलोक से संबद्ध स्वरूप, प्राणों का सर्वसम प्रजापति स्वरूप, सर्वसम ब्रह्म सिद्धि, …

प्राणमय कोश की अंतिम दशा, प्राणों का सर्वसम स्वरूप, प्राणों का सर्वसम ब्रह्मा स्वरूप
प्राणमय कोश की अंतिम दशा, प्राणों का सर्वसम स्वरूप, प्राणों का सर्वसम ब्रह्मा स्वरूप, प्राणों का प्रजापति स्वरूप, प्राणों का ब्रह्मलोक से संबद्ध स्वरूप, प्राणों का सर्वसम प्रजापति स्वरूप, सर्वसम ब्रह्म सिद्धि,

 

जब प्राण सर्वसम तत्त्व को प्राप्त होते हैं, तब वो सभी प्राण हीरे के समान प्रकाशमान हो जाते है I यह प्राणों की वह दशा है, जो एकोहं शब्द से नीचे के वाक्य में बताई गई है, …

एकोहं बहुस्याम: I

एक होने पर भी अनेक हुआ हूँ I

मूल और गंतव्य से एक हूँ, लेकिन स्वरूप में अनेक हूँ I

 

इस वाक्य में बताया गया एकोहं का शब्द ही उस दशा को बता रहा है, जब प्राण एक ही था, अर्थात अनेक नहीं हुआ था I

इस एकोहं की दशा के प्राण, सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से जुड़े हुए हैं, जो हीरे के समान प्रकाशमान होते हैं और जिनके लोक का नाम भी ब्रह्मलोक ही है I

और जहाँ वह ब्रह्मलोक भी सर्वसम सगुणा निराकार ब्रह्म का ही द्योतक है I

पञ्च प्राणों और पञ्च लघुप्राणों के एकवादी, सर्वसम सगुण निराकार स्वरूप को ही ब्रह्मलोक कहते हैं I

और जहाँ वो ब्रह्मलोक भी हीरे के समान प्रकाशमान होता है I

प्राणों के एकोहं स्वरूप को पाया हुआ साधक ही नीचे लिखे हुए वाक्य के अर्थ को जान पाएगा, न कि कोई और, …

प्राण ब्रह्म I

प्राण ही ब्रह्म है, … ब्रह्म ही प्राण हुआ है I

प्राणों में वह ब्रह्म ही उसकी अपनी ब्रह्मशक्ति स्वरूप में है I

और वह बरामशक्ति भी उन्ही अभिव्यक्ता ब्रह्म की उत्कृष्टम अभिव्यक्ति हैं I

ब्रह्म की सार्वभौम शक्तिमय ऊर्जा रूपी अभिव्यक्ति को ही प्राण कहते हैं I

 

लेकिन इस प्राण ब्रह्म नामक वाक्य में, …

ब्रह्म अपने सर्वऊर्जावान, अपराजिता, सगुण निराकार, सर्वशक्तिमय, जगतजननी जगतस्थापिनी जगतसंहारिणी जगतनिग्रहणी जगतमुक्तिनि अवस्थाओं के अद्वैत योग में सर्वसम होकर, जगतधर और जगतातीत दोनों के योगावस्था में, सर्वव्यापक सार्वभौम मातृ स्वरूप में है I

इसलिए, जबकि इस वाक्य में शब्द तो ब्रह्म कहा गया है, लेकिन यह शब्द, ब्रह्म के ही सर्वमाता ब्रह्मशक्ति नामक अभिव्यक्ति स्वरूप का द्योतक है I

 

यही कारण है, कि इस वाक्य में, …

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति I

 

और इस वाक्य में …

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की प्रधान दूती हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की सनातन अर्धांगनी हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की पूर्ण शक्तिमय अभिव्यक्ति हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की सर्वव्यापक और सार्वभौम दिव्यता हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म के सर्वमाता स्वरूप में प्राथमिक अभिव्यक्ति हैं I

 

इसलिए, इस वाक्य के पूर्ण अर्थ में, …

जीव जगत में जो भी है, जहाँ भी है, जिस भी स्वरूप में है, और जिस भी काल में है, वो सब ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की योगावस्था का ही कोई न कोई स्वरूप है I

और इन सभी वाक्यों के मूल में, वही सर्वसम ब्रह्म हैं, जिनको यह वाक्य, सूक्ष्म सांकेतिक स्वरूप में ही सही, लेकिन दर्शाता रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब प्राण यहाँ बताई जा रही सर्वसमता नामक दशा दशा को प्राप्त होते हैं, तो वो प्राण हीरे के समान प्रकाशमान होते हैं I और ऐसी दशे में उन प्राणों का नाता, सीधे सीधे ब्रह्मलोक से ही होता है I

जो भी सर्वसमता को छूएगा (या उसके समीप ही आएगा), वो उसी क्षण सर्वसम हो जाएगा I

और क्यूंकि सर्वासमता, बहुवादी जीव जगत का अंग हो ही नहीं सकती, इसलिए जिस भी योगी ने इस सर्वसम सिद्ध शरीर को, जो ब्रह्म शरीर भी कहलाया गया है, और जो उस योगी के सर्वसम प्राणमय कोश को ही दर्शाता है, उसको पाया होगा, वह योगी जिस भी लोक में निवास कर रहा होगा, उसको महामाया ढक कर ही रखेंगी… ताकि उसके पास कोई जीव न आ सके I

यदि महामाय उसको ढक कर नहीं रखेंगी, तो वो लोक जिसमें वो योगी निवास कर रहा होगा, उससे ही यह समस्त जीव जगत सर्वसमता को पा जाएगा, जिसके कारण ब्रह्म की यह जीव जगत नामक अभिव्यक्ति का ही समापन समारोह आ जाएगा I

 

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि …

प्रकृति के तार्तम्यमय विश्वरूप को ही जगत कहते हैं I

और जहाँ यह तार्तम्यमय विश्वरूप, सर्वसमतावादी हो ही नहीं सकता I

यदि सर्वसमता को पाएगा, तो तारतम्य से रहित होकर, जगत ही नहीं कहलाएगा I

 

इसलिए, …

सर्वसमता प्राप्त योगी, जीव जगत के समापन समारोह का कारण बन सकता है I

और यही कारण है, कि ऐसे योगी को महामाया सबसे छुपा कर ही रखती हैं I

यह भी वो कारण है कि यदि कोई योगी यहाँ बताई गई दिशा को पाया होगा, तो महामाया उसको ढक कर ही रखेंगी, नहीं तो जो भी जीव या जगत का भाग उस योगी को स्पर्श करेगा, वो जीव या जगत का भाग उसी क्षण सर्वसम हो जाएगा I

और क्यूंकि ऐसा योगी, समस्त जीव जगत को ही सर्वसम कर सकता है, जिसके कारण न कोई जीव रहेगा और न ही जगत, इसलिए भी महामाया ऐसे योगी को ढक कर ही रखती हैं, ताकि उसके बारे में कोई भी जीव न जान पाए I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इस ब्रह्मा शरीर (या प्रजापति शरीर) को विभिन्न मार्गों में जो बताया गया है, उसका कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक ही सही… लेकिन वर्णन करता हूँ I

  • वज्रयान बौद्ध पंथ में, इसको वज्र शरीर कहा गया है I
  • इसी को हीरे का शरीर (हीरे के प्रकाश को धारण किया हुआ शरीर) भी कहा जाता है I
  • यह ब्रह्म शरीर, विद्युत् लोक की विद्युत् शक्ति का भी धारक होता है I

इस शरीर की विद्युत शक्ति सौम्य और प्रचंड, दोनों रूपों में हो सकती है I

बहुवादी अद्वैत मार्गों के लिए, यह सौम्य रूप में होगी, और विकृत एकवादी मार्गों के लिए, यह प्रचंड (विध्वंसक) ही होगी I

  • यह ब्रह्म शरीर उस हंस का शरीर है, जो परम हंस कहलाता है I

इसलिए इस शरीर का नाता हंस और परमहंस दोनों से ही है I

इसलिए इस शरीर को हंस शरीर और परमहंस शरीर, दोनों ही स्वरूपों में देखा जाता है I

  • यही सर्वसमता शरीर और समता शरीर भी है I

जिस भी उत्कर्ष मार्ग में समता (अर्थात एकनिमित्य, समभाव, समवृत्ति) नामक सिद्धांत हैं, उस मार्ग का नाता इस सिद्ध शरीर से होगा ही I

  • यही प्राण शरीर है, जो शाक्त मार्गों में, उन मार्गों की देवीगणों के अनुग्रह से भी प्राप्त होता है I
  • उन सभी मार्गों में, जो कुण्डलिनी जागरण से होकर जाते हैं, और जिनकी कुण्डलिनी मूलाधार चक्र से ऊपर की ओर ब्रह्मरंध्र चक्र पर जाकर, ब्रह्मरंध्र चक्र को पार भी करती है, अर्थात जिन शाक्त मार्गों में प्राण शक्ति विसर्गी होती है, उन मार्गों में भी इस शरीर सिद्धि की प्राप्ति होती है I
  • यही वो विद्युत् शरीर भी है, जिसका नाता विद्युत् लोक से होता है I लेकिन उस विद्युत् लोक में यदि यह शरीर गमन करेगा, तो इस शरीर को घेरे हुए एक हल्का नीला प्रकाश भी पाया जाएगा I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता, परा प्रकृति से भी है, अर्थात प्रकृति के नवम कोश, जिसकी दिव्यता को माँ आदिशक्ति के नाम से भी पुकारा जाता है, उन माँ आदि शक्ति और उनके परा प्रकृति नामक लोक से भी है I
  • इस शरीर की स्वयं उत्पत्ति, शिव शक्ति योग से जाकर भी होती है, लेकिन वह योग साधक की काया के भीतर ही होना होगा I
  • यह वो सिद्ध शरीर भी है, जिसका साधक की स्थूल काया में स्वयं उदय तब होता है, जब साधक की चेतना, शिव तारक मंत्र से होकर जाती है, और जहाँ वो शिव तारका मंत्र भी राम नाद (राम नामक शब्द) ही है I

 

लेकिन इस प्रजापति शरीर (या ब्रह्मा शरीर या ब्रह्मशक्ति शरीर) की प्राप्ति तब होती है, जब साधक अव्यक्त प्रकृति को ही सिद्ध कर लेगा I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि अव्यक्त प्रकृति, जिनको महामाया, अव्यक्त प्राण, अव्यक्त, माँ माया, माया शक्ति आदि भी कहा जाता है, उन्होंने ही समस्त ब्रह्मलोक, उस ब्रह्म लोक के समस्त भागों को (अर्थात नीचे के बीस भागों को) घेरा हुआ है, और वही अव्यक्त इन बीस भागों को पृथक पृथक करके भी रखती हैं I

उन्हीं अव्यक्त प्राण (अर्थात माँ अव्यक्त प्रकृति, या माँ माया, या माया शक्ति या महामाया) को ही बौद्ध पंथ में तुसित लोक कहा गया है I

और यह अव्यक्त सिद्धि भी साधक को एक सिद्ध शरीर रूप में ही प्राप्त होती है, जिसको इस ग्रन्थ में अव्यक्त शरीर (और माया शरीर, महामाया शरीर, इत्यादि) कहा गया है, और जिसके बारे में एक बार के अध्याय में बात होगी, जब पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा और उस सदाशिव प्रदक्षिणा से प्राप्त हुए लोकों और उन लोकों के सिद्ध शरीरों को बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि अव्यक्त प्रकृति (या माँ माया या माया शक्ति) में ही एक गड्ढे के रूप में, “काम लोक” होता है, जिसमें बसे हुए जीव निरंतर सम्भोग प्रक्रिया में ही रहते हैं, इसलिए उस माया शरीर (या महामाया शरीर) की प्राप्ति का एक मार्ग काम योग (सम्भोग योग) भी है I

लेकिन इस काम योग के बारे में, यदि मेरा मन किया, तो किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा I

वैसे एक बात यहाँ बता देता हूँ, कि यह काम से संपन्न जो योग है और जिसको मैंने काम योग भी कहा है, वो बहुत विप्लवकारी भी हो सकता है, क्यूंकि इसमें स्थूल शरीर के भीतर बसे हुए विद्युत्, तेजस या अग्नि, जल और वायु का ऐसा भयंकर योग होता है, कि इन सबके जागृत होने के पश्चात, साधक को स्थूल काया में रह पाना ही बहुत कठिन हो जाता है I

 

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यह चित्र ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश को दर्शा रहा है I

साधक इस चित्र को जैसे साक्षात्कार करेगा, उसी दशा में यह चित्र को दिखाया गया है I

इसका अर्थ हुआ, कि इस चित्र जो जैसे आप अभी देख रहे हो, वैसे ही इसका साक्षात्कार भी होगा I

 

इस चित्र में, …

  • जो नीचे दिखाई गई श्वेत वर्ण की गोलाकार दशा है, वो साधक का मस्तिष्क है I

यहाँ मस्तिष्क को श्वेत इसलिए दिखाया गया है, क्यूंकि इस साक्षात्कार के समय, मस्तिष्क सत्त्वगुणी ही होता है, और जहाँ वो सत्त्वगुण, श्वेत वर्ण का होता है, और सगुण निर्गुण ब्रह्म का द्योतक ही होता है I

सत्त्वगुण का लोक, प्रकृति का नवम कोष है, जिसकी दिव्यता और शक्ति को माँ आदिशक्ति कहा जाता है I

और मस्तिष्क के ऊपर के भाग में ही यह चित्र में दिखाया गया ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश साक्षात्कार होता है I यह प्राणमय कोष को तीन तारों के रूप में दिखाया गया है, क्यूंकि यह ऐसा ही होता है I

यह नीचे का श्वेत गोलाकार भाग, साधक की कपाल के पीछे के भाग को दर्शा रहा है I

इसलिए, आप इसको जैसा इस चित्र में देख रहे हो, वैसा ही यह साक्षात्कार होगा I

क्यूंकि इस साक्षात्कार से पूर्व में ही साधक के प्राण सत्त्वगुणी सरीके हो जाते हैं, इसलिए इस चित्र में नीचे की ओर दिखाया गया मस्तिष्क का गोला, श्वेत रखा गया है I

श्वेत रंग ही सत्त्वगुण को दर्शाता और वो सत्वगुण भी सगुण-निर्गुण ब्रह्म (अर्थात निर्गुण ब्रह्म की समतावादी अभिव्यक्ति) का द्योतक होता है I

जो सगुण भी है और निर्गुण भी, वही समतावादी है, और वही श्वेत वर्ण का होगा I

  • जो ऊपर का अर्धचंद्राकार श्वेत भाग … है, वो प्राणों के सात्विक स्वरूप को दर्शा रहा है I

यह अर्धचन्द्राकार भाग भी वैसा ही साक्षात्कार होगा, जैसे इस चित्र में दिखाया गया है I

और यह भी सात्विक ही पाया जाएगा, जिसके कारण उसको भी श्वेत वर्ण का ही दिखाया गया है (क्यूंकि इसका वर्ण भी अंततः श्वेत ही पाया जाता है) I

टिपण्णी: ऐसी श्वेत दशा से पूर्व, यह अर्धचन्द्राकार भाग, हलके गुलाबी वर्ण का था, इसलिए ऊपर के वाक्य में अंततः शब्द का प्रयोग किया गया है I

 

  • इसी भाग के भीतर ब्रह्मरंध्र के तीन प्राण निवास करते हैं I

जो तीन सितारे सरीके दिखाए गए हैं, वो ब्रह्मरंध्र के प्राण ही हैं I

और क्यूंकि यह ब्रह्मरंध्र के प्राण सात्विक हो चुके हैं, इसलिए इनके साक्षात्कार के समय, इन ब्रह्मरंध्र के तीनों प्राणों के मध्य में एक अंडाकार श्वेत भाग भी दिखाई देता है (जैसा की इस चित्र में भी दिखाया गया है) I

और यह श्वेत अण्डाकार भाग भी इन तीनों प्राणों के मूल से समतावादी होने का साक्षात् प्रमाण है I

इसलिए चाहे यह तीन सितारे जो ब्रह्मरंध्र के प्राणों को दर्शा रहे हैं, वो अपने रंगों के अनुसार सात्विक (अर्थात श्वेत वर्ण के) नहीं हुए हैं, लेकिन ब्रह्मरंध्र के यह प्राण अपने मूल रूप में अब सात्विक हो चुके हैं I

और इसीलिए इन तीन सितारे के मध्य में एक श्वेत भाग भी साक्षात्कार किया जाएगा, और ऐसा ही इस चित्र में भी दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और अब इस ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश के कुछ और बिंदु बताता हूँ …

  • यह चित्र में दिखाई गई दशा, कुण्डलिनी जागरण की एक दशा है I
  • और इसके पश्चात, कुछ और दशाओं का साक्षात्कार करके, साधक कुण्डलिनी शक्ति के जागरण प्रक्रिया में स्वतः ही चला जाता है I
  • और जहाँ वो कुण्डलिनी जागरण भी शिव शक्ति योग से होकर जाता है, और जहाँ यह शक्ति शिव योग भी साधक की काया के भीतर ही होता है I
  • इसी शक्ति शिव योग को तिबती बौद्ध पंथ में, समंतभद्र समंतभद्री योग भी कहा जाता है I

और वो तिब्बती यह भी कहते हैं, कि कुछ विरले साधकगणों की काया में ही यह योग संपन्न हो जाता है I

और जहाँ, यही आंतरिक योगदशा इस योग की सर्वोत्कृष्ट दशा है I

  • इस शक्ति शिव योग में, साधक के सर्वसमता को प्राप्त हुए प्राण, साधक के मन से योग करते हैं I

और जहाँ वो सर्वसमतावादी प्राण श्वेत वर्ण के होते हैं, और साधक का मन, नील वर्ण का I

इसका अर्थ हुआ, की इस योगदशा में प्राण वामदेव ब्रह्म से संबद्ध होते हैं, अर्थात प्राण सर्वसम होते हैं… और मन अघोर ब्रह्म से, अर्थात मन विशुद्ध अहम् का धारक हो जाता है I

  • इसी नील वर्ण के मन और श्वेत वर्ण के प्राण के योग को, शक्ति शिव योग कहते हैं, जिसमें शक्ति श्वेत वर्ण की है, और शिव नीले वर्ण के I

और इसी को समंतभद्री समंतभद्र योग कहते हैं, जिसमें समंतभद्री श्वेत वर्ण की प्राणमय और शक्तिमय होती हैं, और संतभद्र नीले वर्ण के मनोमय और शिवमय I

यहाँ कहे गए शिव शब्द का अर्थ सर्वकल्याणकारी ही मानना चाहिए, और शक्ति शब्द का अर्थ, उन शिव की सर्वकल्याणकारी दिव्यता… ऐसा ही मानना चाहिए I

  • जबतक साधक अपने मस्तिष्क से ही सात्विक नहीं होगा, तबतक इस चित्र का साक्षात्कार भी नहीं हो पाएगा I
  • इस साक्षात्कार से पूर्व की दशा में, इस चित्र की जो श्वेत अर्धचन्द्राकार दशा है, वो ऐसी श्वेतवर्ण नहीं थी I

उस पूर्व की दशा में वो हलके गुलाबी वर्ण की ही थी I

लेकिन इस चित्र में उसको उसके अंतिम दशा में ही, श्वेत वर्ण का दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब इस चित्र में दिखाए गए तीन प्राणों (अर्थात तीन तारों के आकार की दशाओं) को बताता हूँ …

  • इन तीनों में आठ कोने दिखाए गए हैं, क्यूंकि यह ऐसे ही होते हैं I
  • यह तीन तारे (अर्थात प्राण) बिलकुल गोलकार नहीं होते, बल्कि थोड़े लम्बोतरे से होते हैं, अर्थात अण्डाकार से होते हैं I

और ऐसा ही इस चित्र में दिखाया गया है I

  • जो सबसे बायीं ओर का तारा है, उसका रंग, लाल और भगवे वर्णों की योगावस्था का है I

यह तारा सीधा सीधा ब्रह्मरंध्र के ऊपर के भाग में होता है, इसलिए इसको इस चित्र में भी ऐसा ही दिखाया गया है I

और इस तारे के मध्य में भी वही अण्डाकार श्वेत वर्ण का प्रकाश है, जो साधक के प्राणमय कोश के सत्त्वगुणी स्वरूप को ही दर्शाता है I

  • जो मध्य का तारा है, वो गाढ़े नीले रंग का है I

इसका आकार लगभग बायीं ओर के लाल तारे जैसा ही है, और यह भी अण्डाकार सा ही है I

इसके मध्य में भी वही अण्डाकार श्वेत प्रकाश है, जो इसके मूल सत्त्वगुणी स्वरूप का ही द्योतक है I

  • और जो सबसे दाहिनी ओर का अण्डाकार तारा है, वो भी नीला ही है I

और इसका आकार, बायीं ओर और मध्य के तारे से थोड़ा छोटा ही है I

इसके मध्य में भी वही अण्डाकार श्वेत प्रकाश है, जो इसके सत्त्वगुणी, मूल स्वरूप को ही दर्शा रहा है I

  • और क्यूंकि यह योग ब्रह्मरंध्र में ही होता है, और ब्रह्मरंध्र से परे शून्य तत्त्व ही होता है, जो एक घनघोर रात्रि के समान होता है, इसलिए इस पूरे चित्र को काले रंग से घिरा हुआ दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब इन तीन अण्डाकार तारों (अर्थात ब्रह्मरंध्र के प्राणों) के बारे में बताता हूँ …

  • जो सबसे बाएं ओर का लाल और भगवे वर्णों के मिश्रित रंग का तारा है, उसमें प्रधानतः अपान प्राण का योग, प्राण वायु से हुआ है, इसलिए यह तारा लाल-भगवे वर्ण का हुआ है I

और इस योग प्रक्रिया में, शरीर के नीचे की ओर का लाल वर्ण का अपान प्राण, हृदय का पीले वर्ण के प्राण-प्राण और शरीर को घेरे हुए हलके गुलाबी वर्ण का व्यान प्राण, से योग किया था I

और जहाँ यह योग भी, भीतर की ओर गति करने वाले, नाभि क्षेत्र के श्वेत वर्ण के सत्त्वगुणी समान प्राण के प्रभाव में ही हुआ था I

इसका अर्थ हुआ कि यह तीन प्राण (अर्थात अपान, प्राण और व्यान) समान प्राण में ही अपनी योगावस्था को पाए थे I

और इसके पश्चात, यह योग दशा कंठ और मस्तिष्क के बैंगनी वर्ण के उदान प्राण, जो ऊपर की ओर जाता है (अर्थात ऊपर ब्रह्मरंध्र की ओर गति गरता है) उसके प्रभाव में आई थी I

और इस उदान प्राण के प्रभाव के कारण, यह योगदशा ऊपर की ओर उठी थी और मस्तिष के उस भाग में स्थापित हुई थी, जो ब्रह्मरंध्र चक्र (या सहस्र दल कमल) कहलाता है I

और इस प्रक्रिया में यह सभी प्राण और उनकी योगदशा मूल से श्वेत वर्ण, अर्थात सात्विक ही हुई है I इसलिए, इस लाल-भगवे वर्ण के प्राण के भीतर, वो अर्धगोलाकार श्वेत वर्ण का प्रकाश आया है I

और जहाँ वो ब्रह्मरंध्र की प्राण ऊर्जा, जिसके भीतर यह प्राण स्थापित हुआ है, वो भी श्वेतवर्ण की, सत्त्वगुणी ही हुई है I

इसी श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी दशा को इस चित्र में श्वेत वर्ण की अर्धगोलाकार दशा में दिखाया गया है, जिसके भीतर ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश के यह तीनों प्राण बसे हुए हैं I

  • जो मध्य के नीले वर्ण के तारा है, वो मस्तिष्क के बैंगनी वर्ण के उदान प्राण, में उप-प्राणों के योग को दर्शाता है I

इस योग के मूल में भी वही सत्त्वगुण ही था, जिसके कारण इस तारे के बीच में भी वही श्वेत वर्ण का प्रकाश है, जो अण्डाकार स्वरूप में है I

  • और जो सबसे दायीं ओर का नीले रंग का थोड़े छोटे आकार का तारा है, वो सभी उपप्राणों की योग दशा है, और जहाँ वो योग भी कण्ठ और मस्तिष्क में व्याप्त उदान प्राण के प्रभाव में आकर, ब्रह्मरंध्र में ही स्थापित हुआ है I

इसलिए यह तारा पांचों उपप्राणों के योग को दर्शाता है, जिसके कारण यह अपने आकार में थोड़ा छोटा ही दिखता है I

इसके मध्य में, अर्थात मूल में जो योग हुआ था, वह भी सत्त्वगुण में बसकर हुआ था, जिसके कारण इसके बाच में भी वही श्वेत प्रकाश है, जो अण्डाकार रूप में है I

ऐसा होने के कारण, इस दशा के मूल में वही श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण है, जो ब्रह्म की ही उस सगुण-निर्गुण अभिव्यक्ति स्वरूप का द्योतक है, जो परा प्रकृति (या माँ अदि शक्ति) कहलाती हैं I

  • और यह सभी तारे उसी श्वेत अर्धचन्द्राकार प्रकाश में निवास करते हैं, जैसा इस चित्र में भी दिखाया गया है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और बताता हूँ, कि पूर्व में बताया गया यह प्राणों का योग, समान प्राण में ही क्यों होता है, और समान प्राण के भीतर कहाँ होता है I

नाभि क्षेत्र में, नाभि से कोई 2-3 ऊँगली नीचे की ओर, और नाभि के पीछे की ओर (अर्थात नाभि में, लेकिन मेरुदण्ड की ओर) शरीर की तैंतीस कोटी सूक्ष्म नाड़ियों का योग होता है I

इस योग से एक शिवलिंगाकार दशा स्वयंप्रकट होती है I इस शिवलिंग को इस ग्रन्थ में नाभिलिंग कहा गया है I

यह शिवलिंग (अर्थात नाभि लिंग) ऊपर से थोड़ा पीछे की ओर (अर्थात मेरुदण्ड की ओर) मुड़ा हुआ होता है I

जब साधक की भावंनात्मक स्थिति, सत्वगुण में ही स्थित हो जाएगी, तो इन तैंतीस कोटि नाड़ियों की प्राण ऊर्जा, भी श्वेत वर्ण की, अर्थात सात्विक हो जाएगी I

और जब इन तैंतीस कोटि नाडियों की, यह सात्विक ऊर्जा इस नाभि लिंग में जाएगी, तो यह नाभि लिंग भी उसी श्वेत प्रकाश का हो जाएगा I

इसी नाभि लिंग में ही प्राणों का योग होता है I

और क्यूंकि जबतक यह योग होता है, तबतक यह नाभि लिंग सात्विक हो चुका होता है, इसलिए इन प्राणों के योग के मूल में, सत्त्वगुण ही है I

और ऐसा ही ऊपर बताए गए बिंदुओं में भी कहा गया था I

इस नाभि लिंग के बारे में एक आगे के अध्याय में, चित्रसहित बताया जाएगा I

 

अन्तःकरण चतुष्टय का प्राणमय कोश, कारण शरीर का प्राणमय कोश, अंतःकरण का प्राणमय कोश, … 

मैंने इसका चित्र नहीं बनाया है I

इसमें ब्रह्मरंध्र से तीन प्राणों के स्थान पर, पञ्च उपप्राण और पञ्च प्राण होते हैं I

और इस दशा में, …

  • पञ्च प्राण लालिमा धारण किये हुए होते है I
  • पञ्च उपप्राण नीलिना धारण किए हुए होते हैं I
  • और यह पञ्च प्राण और पञ्च लघुप्राण, एक पूर्ण-अण्डाकार स्वरूप के एक श्वेत प्रकाश में ही बसे होते हैं I
  • और ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोष के श्वेत अर्धचन्द्राकार प्रकाश के समान, यह पूर्ण-अण्डाकार श्वेत प्रकाश भी, पूर्व में हल्का गुलाबी ही था I

 

इसलिए, …

  • ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोश में तो यह प्राणों की संख्या तीन ही होती है, और यह तीन प्राण एक अर्धगोलाकार रूप में स्थापित हुए होते हैं I
  • लेकिन अंतःकरण में, यही प्राण एक पूर्ण-अण्डाकार रूप में स्थापित हुए होते हैं, और अपने पूर्ण स्वरूप में होते हैं, अर्थात पाँच प्राण और पांच उपप्राण ही होते हैं I
  • और यह प्राण और उपप्राण ऐसे स्थापित होते है, कि किसी भी प्राण को एक-एक उपप्राण ने घेरा होता है, और किसी भी उपप्राण को भी, एक-एक प्राण ने गहरा होता है I
  • इसका अर्थ हुआ, कि किसी एक प्राण के साथ उसका उपप्राण होगा I और किसी भी उपप्राण के साथ उसका प्राण होगा I और यह प्राण और उपप्राण भी एक दुसरे के साथ ही स्थित हुए होंगे I
  • ऐसी दशा में, प्राणों का वर्ण लालिमा धारण किया हुआ होगा, और उपप्राणों का वर्ण नीलिमा धारण किया हुआ है I और इसके कारण, यह लाल और नीले वर्ण के प्रकाश, एकांतर (या पर्यायक्रमिक) ही पाए जाएंगे I

 

अब अन्तःकरण के प्राणमय कोश में, प्राणों की स्थिति को बताता हूँ …

प्राण, उसका उपप्राण, अगला प्राण, अगले प्राण का उपप्राण, … इसी क्रम में यह प्राण और उपप्राण दिखाई देते है I

इसलिए अंतःकरण के प्राणमय कोष में, प्राणों के लाल प्रकाश के बाद, उपप्राणों का नीला प्रकाश, और इसके बाद पुनः प्राणों के लाल प्रकाश और उसके बाद पुनः उपप्राणों का नीला प्रकाश… इसी क्रम में दिखाई देगा I

और इनकी कुल संख्या में, पांच लाल प्रकाश होंगे, और पांच नीले प्रकाश I

और जहाँ यह लाल और नीले रंगों के प्रकाश बिंदु भी एक दुसरे से पर्यायक्रमिक (अर्थात अल्टेरनेटिंग) होंगे I

 

तो इसी बात पर यह अध्याय समाप्त होता है और मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम मनोमय कोश है I

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

 

लिंक :

ब्रह्मवर्ष – One year of brahma, year of brahma, Brahm Vatsara, brahma year.

आकाश गंगा के एक चक्र – revolution of milky way, milky way revolution.

समय इकाई – unitary value of time, unit of time, time units, celestial time

समयचक्र, कालचक्र – Kaalchakra, kaal chakra, wheel of time, cycle of time

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