मुक्ति के प्रभेद, मोक्ष के प्रकार, कैवल्य, केवल, कैवल्य मोक्ष, मुक्तात्मा, विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति, सद्योमुक्ति, तीर्थंकर, कर्ममुक्ति, कर्मातीत मुक्ति, कर्माधीन मुक्ति, योग और अयोग, आत्यंतिक प्रलय, आनंदकृष्ण, ज्ञानकृष्ण, आत्मकृष्ण, कालकृष्ण

मुक्ति के प्रभेद, मोक्ष के प्रकार, कैवल्य, केवल, कैवल्य मोक्ष, मुक्तात्मा, विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति, सद्योमुक्ति, तीर्थंकर, कर्ममुक्ति, कर्मातीत मुक्ति, कर्माधीन मुक्ति, योग और अयोग, आत्यंतिक प्रलय, आनंदकृष्ण, ज्ञानकृष्ण, आत्मकृष्ण, कालकृष्ण

यह अध्याय पूर्व के अध्याय जिसका नाम ईशान ब्रह्म था, उसका ही अंग है I और यह अध्याय माँ गायत्री के मुक्ता मुख को ही दर्शाता है I यहाँ पर मुक्ति के प्रकार, मोक्ष के प्रभेद, मुक्ति, मोक्ष, मुक्ति के प्रभेद, मोक्ष के प्रकार, कैवल्य, केवल, कैवल्य मोक्ष, कैवल्य मुक्ति, मुक्तात्मा, विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति, सद्योमुक्ति, तीर्थंकर, कर्ममुक्ति, कर्मातीत मुक्ति, कर्माधीन मुक्ति, आत्यंतिक प्रलय, योग और अयोग नामक अवस्थाओं पर बात होगी I और यहाँ पर आनंदकृष्ण, ज्ञानकृष्ण, आत्मकृष्ण, कालकृष्ण नामक सिद्धियों पर भी बात होगी I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2012 ईस्वी का था I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं ।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पच्चीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का ग्यारहवां अध्याय है ।

 

पञ्चब्रह्म गायत्री और मुक्ति, पञ्च ब्रह्म गायत्री और मुक्तात्मा
पञ्चब्रह्म गायत्री और मुक्ति, पञ्च ब्रह्म गायत्री और मुक्तात्मा. मुक्ति क्या है, कैवल्य क्या है, कैवल्य मोक्ष क्या है, कैवल्य मोक्ष किसे कहते हैं, मुक्ति किसे कहते हैं, मोक्ष किसे कहते हैं, कैवल्य किसे कहते हैं, मोक्ष की दशा, मुक्ति की दशा, कैवल्य की दशा, कैवल्य मोक्ष की दशा, कैवल्य मुक्ति की दशा, … मुक्ति की परिभाषा, कैवल्य मुक्ति की परिभाषा, कैवल्य की परिभाषा, कैवल्य मोक्ष की परिभाषा, मोक्ष की परिभाषा, … मुक्तात्मा कौन, मुक्तात्मा किसे कहते हैं, मुक्ता कौन, मुक्त कौन, मुक्त किसे कहते हैं, मुक्ता किसे कहते हैं, कैवल्य मोक्ष और आत्मस्वरूप, कैवल्य मुक्ति और आत्मस्वरूप, कैवल्य मोक्ष और आत्मा, आत्मा ही कैवल्य मोक्ष है, ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष है, कैवल्य मुक्ति और ब्रह्म, कैवल्य मुक्ति और आत्मा, कैवल्य मुक्ति और ब्रह्म की परिपूर्णता, कैवल्य मुक्त कौन, कैवल्य मुक्त किसे कहते हैं, … आनंदकृष्ण, ज्ञानकृष्ण, आत्मकृष्ण, कालकृष्ण, आनंद कृष्ण क्या है , ज्ञान कृष्ण क्या है, आत्म कृष्ण क्या है, काल कृष्ण क्या है,

 

 

मुक्ति क्या है, कैवल्य क्या है, कैवल्य मोक्ष क्या है, कैवल्य मोक्ष किसे कहते हैं, मुक्ति किसे कहते हैं, मोक्ष किसे कहते हैं, कैवल्य किसे कहते हैं, मोक्ष की दशा, मुक्ति की दशा, कैवल्य की दशा, कैवल्य मोक्ष की दशा, कैवल्य मुक्ति की दशा, … मुक्ति की परिभाषा, कैवल्य मुक्ति की परिभाषा, कैवल्य की परिभाषा, कैवल्य मोक्ष की परिभाषा, मोक्ष की परिभाषा, … मुक्तात्मा कौन, मुक्तात्मा किसे कहते हैं, मुक्ता कौन, मुक्त कौन, मुक्त किसे कहते हैं, मुक्ता किसे कहते हैं, कैवल्य मोक्ष और आत्मस्वरूप, कैवल्य मुक्ति और आत्मस्वरूप, कैवल्य मोक्ष और आत्मा, आत्मा ही कैवल्य मोक्ष है, ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष है, कैवल्य मुक्ति और ब्रह्म, कैवल्य मुक्ति और आत्मा, कैवल्य मुक्ति और ब्रह्म की परिपूर्णता, कैवल्य मुक्त कौन, कैवल्य मुक्त किसे कहते हैं, … आनंदकृष्ण, ज्ञानकृष्ण, आत्मकृष्ण, कालकृष्ण, आनंद कृष्ण क्या है , ज्ञान कृष्ण क्या है, आत्म कृष्ण क्या है, काल कृष्ण क्या है, …

अब कैवल्य, कैवल्य मुक्ति, कैवल्य मोक्ष, मोक्ष और मुक्ति आदि शब्दों से मुक्तात्मा की दशा को दर्शाते हुए शब्दों की परिभाषा पर आता हूँ I

 

  • ज्ञान के दृष्टिकोण से मुक्ति की परिभाषा

अब ज्ञान के दृष्टिकोण से मुक्ति को परिभाषित करता हूँ …

जब सर्व और सर्वातीत एक साथ ही अद्वैत योगावस्था में हो, वो मुक्ति है I

जब सर्व, उसके भागों और सर्वातीत का तारतम्य समाप्त हो, वो कैवल्य है I

जिसका आत्मस्वरूप सर्वा होता हुआ भी, सर्वातीत ही हो, वो मुक्तात्मा है I

पिण्ड और ब्रह्माण्ड सहित, आत्मा और ब्रह्म की निर्भेद योगावस्था मोक्ष है I

जब आत्मस्वरूप ही वो पूर्ण ब्रह्म हो, जो पिण्ड ब्रह्माण्ड भी हो वो मुक्ति है I

 

  • अब अन्तःकरण चतुष्टय और प्राणों के दृष्टिकोण से मोक्ष की परिभाषा

अब अन्तःकरण चतुष्टय के दृष्टिकोण से मोक्ष को परिभाषित करता हूँ …

जब चित्त संस्कार रहित होकर, रचनातीत हो जाए, वो सच्चिदानंद ब्रह्म है, केवल है I

जब चित्त, चेतना और चेतन ही चिदाकाश हो जाएं, वो चिदात्मा ब्रह्म है, केवल है I

और जहाँ, उन सच्चिदानंद ब्रह्म का साक्षात्कार वानप्रस्थ आश्रम में ही होता है I

और इसी को आनंद कृष्ण, ब्रह्मानंद, आत्मानंद, परमानंद आदि भी कहा जाता है I

इस साक्षात्कार के लिए, साधक को आंतरिक स्थिति में, वानप्रस्थी ही होना पड़ेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब बुद्धि निश्कलंक होकर, सर्वव्यापक और सर्वातीत हो, वो ज्ञान ब्रह्म, केवल है I

जब बुद्धि में, ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता के भेद न रहे, वो ज्ञानात्मा ब्रह्म है, केवल है I

और जहाँ, उन ज्ञान ब्रह्म का साक्षात्कार ब्रह्मचर्य आश्रम में ही होता है I

और इसी को ज्ञान कृष्ण, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, परमज्ञान आदि भी कहा जाता है I

इस साक्षात्कार के लिए, साधक को आंतरिक स्थिति में, ब्रह्मचारी ही होना पड़ेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब मन स्थिर होकर, स्वयं ही स्वयं में विलीन हो, वो मन ब्रह्म, केवल है I

जब मन सर्वइच्छ और इच्छारहित मनाकाश दोनों हो, वो मनात्मा ब्रह्म, केवल है I

और जहाँ, उस त्रिकाल स्वरूप मन ब्रह्म का साक्षात्कार गृहस्थ आश्रम में होता है I

यही काल कृष्ण, गर्भात्मा, कालात्मा, महाकाल, महाशून्य, कालज्ञान, आदि भी हैं I

इस साक्षात्कार के लिए, साधक को आंतरिक स्थिति में, गृहस्ती में ही होना पड़ेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब अहम् विशुद्ध होकर, सर्वालीन और सर्वातीत दोनों हो, वो अहम् ब्रह्म, केवल है I

जब अहम् ही सर्वाहम और अहमातीत अहमाकाश हो, वो अहमात्मा ब्रह्म, केवल है I

और जहाँ, उन अहम् ब्रह्म का साक्षात्कार भी संन्यास आश्रम में ही होता है I

यही आत्मकृष्ण, आत्माराम, अंतरात्मा, सर्वात्मा, परमात्मा, आत्मा, आदि भी हैं I

इस साक्षात्कार के लिए, साधक को आंतरिक स्थिति में, सन्यासी ही होना पड़ेगा I

आगे बढ़ता हूँ …

और जब ऊपर बताई गई चारों दशाओं को पाके, और उन चारों की अद्वैत योगावस्था में बसकर योगी आगे बढ़ेगा, तब जिस अवस्था को वो योगी जाएगा, वही नीचे बताई गई है I

जब अपने तारतम्य को त्यागके, प्राण सर्वसमता को पाएँ, वो प्राण ब्रह्म, केवल है I

जब प्राण सर्वगत और सर्वातीत प्राणाकाश दोनों हों, वो प्राणात्मा ही ब्रह्म, केवल है I

प्राणात्मा की दशा, सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से संबद्ध है I   

और प्राणात्मा की दशा ब्रह्मलोक और माँ श्वेत सरस्वती से भी संबध है I

प्राणात्मा की दशा मूल शक्ति, मूल प्रकृति, माँ अदि पराशक्ति से भी संबध है I

ब्रह्मशक्ति और ब्रह्म का अनादि अनंत सनातन अद्वैत अखंड योग, प्राणात्मा है I

और जहाँ, प्राणात्मा की दशा ब्रह्मत्व पथ भी है, और ब्रह्मत्व भी I

 

टिपण्णी: यहाँ बताई गई सर्वसमता की दशा हीरे के समान प्रकाशमान होती है I

 

  • अब योगमार्ग के साक्षात्कारों के दृष्टिकोण से मोक्ष की परिभाषा

अब योगमार्ग के दृष्टिकोण से मोक्ष को परिभाषित करता हूँ …

जब साक्ष, साक्षी और साक्षात्कार में भेद न रहे, वो निर्विकल्प ब्रह्म है, मोक्ष है I

जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा ही भेदरहित हो जाएं, वो निराधार ब्रह्म है, मोक्ष है I

जब भूमि, भूधर और भूमत्व ही आत्मस्वरूप भूमा हों, वो निर्बीज ब्रह्म है, मोक्ष है I

जब क्षेत्र, क्षेत्री और क्षेत्रपति या क्षेत्रज्ञ में ही भेद न रहे, वो अद्वैत ब्रह्म है, मोक्ष है I

जब अहम्, अस्मि, शून्य और सर्व, में भेद न रहे, वो पूर्ण ब्रह्म, मोक्ष है I

जब साक्षात्कार में योगी जाने कि मैं हूँ, और नहीं भी हूँ, वो सर्वातीत ब्रह्म, मोक्ष है I

 

  • अब साधक के आत्मस्वरूप दृष्टिकोण से

अब साधक के आत्मस्वरूप के दृष्टिकोण से मोक्ष, कैवल्य, मुक्ति आदि को परिभाषित करता हूँ …

जब साधक का मन में त्रिकाल से समस्त भाग ही भेद रहित हो जाएं, वो मोक्ष है I

जब बुद्धि में पिण्ड और ब्रह्माण्ड, आत्मा और ब्रह्म एक ही हो जाएं, वो मोक्ष है I

जब साधक के चित्त में, कर्म, फल और उनके संस्कारों का क्षय हो जाए, वो मोक्ष है I

जब अहंता, अस्मिता, शून्यता, भेदरहित ब्रह्म की सर्वता ही हों, वो पूर्ण है, मोक्ष है I

 

जब ऐसा हो जाएगा, तब ही साधक नीचे बताए गए तथ्यों के साक्षात्कार करने का पात्र हो पाएगा …

जब साधक, स्वयं ही स्वयं को सबसे पृथक और अपृथक, एकसाथ पाए, वो मोक्ष है I

जब रचना, रचना का तंत्र और रचैता में न भेद और न अभेद ही रहे, वो मोक्ष है I

जब साधक का आत्मस्वरूप, सर्वाधार और निराधार, दोनों हो जाए, वो मोक्ष है I

जब उत्कर्ष पथगामी साधक, सर्वव्यापक और सर्वातीत दोनों हो जाए, वो मोक्ष है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब मुक्ति या मोक्ष या कैवल्य मुक्ति या कैवल्य मोक्ष की परिभाषा का विस्तार करता हूँ, लेकिन इसके कई बिंदु होंगे क्यूंकि इन शब्दों के अर्थ कई प्रकार से जाने जा सकते हैं …

जब साधक वहीँ पहुँच जाए, जहाँ से वो जीव रूप को पाकर, इस जगत रूपी भवसागर में प्रारम्भ हुआ था, वो मुक्ति है I

 

इसका अर्थ हुआ, कि …

उत्कर्ष मार्ग में, जहाँ जीव जगत का मूल ही गंतव्य हो, वो पूर्णमुक्त ब्रह्म है I

जब जिस मूल से जीव जगत उदय हुआ था, वही अमूल गंतव्य हो, वो मुक्ति है I

 

इसलिए, उत्कर्ष पथ पर गति करती साधक की चेतना के दृष्टिकोण से जब …

जब साधना में जीव जगत का अनादि मूल, अनंत अमूल गंतव्य हो, वो मोक्ष है I

 

इसलिए, ब्रह्म, ब्रह्म रचना और साधक के उत्कर्ष पथ के दृष्टिकोण से …

जब जीव जगत की मूलावस्था ही उत्कर्ष पथ का गंतव्य हो जाए, वो मोक्ष है I

क्यूंकि, निर्गुण ही ऐसी दशा है, इसलिए निर्गुण निराकार ब्रह्म ही मुक्ति हैं I

सृष्टि के उदय का मूल और उत्कर्ष पथ के गंतव्य की अद्वैत योगदशा, मुक्ति है I

जहाँ सृष्टि के प्रारम्भ से पूर्व की दशा और उत्कर्ष पथ के अंत से परे की दशा में ही तारतम्य न रहे, वो कैवल्य कहलाता है I

 

यही कारण है, कि …

  • जीवातीत, जगतातीत और ब्रह्माण्डातीत दशाओं का अद्वैत योग मोक्ष है I
  • जीव और जगत और इनके तन्त्रों से अतीत दशा ही कैवल्य है I
  • जब साधक की किसी भी दृष्टि में पिण्ड और ब्रह्माण्ड न रहे, वो मोक्ष है I
  • जीव जगत के मूल और समस्त उत्कर्ष मार्गों से परे, जो अमूल गंतव्य आत्मस्वरूप ब्रह्म है, वही कैवल्य मुक्ति हैं I
  • साधक का आत्मस्वरूप ही कैवल्य मोक्ष कहलाता है और उस कैवल्य मोक्ष को ही ब्रह्म कहा जाता है I
  • आत्मा और ब्रह्म की अद्वैत योगावस्था ही कैवल्य मुक्ति है I
  • जिसने अपनी आत्मा का ब्रह्मरूप जाना है, वही मुक्तात्मा है I
  • आत्मा की पूर्णता का साक्षात्कारी और ज्ञाता ही मुक्त है I
  • जो आत्मा और ब्रह्म की अनादि अनंत सनातन योगावस्था का सीधा सीधा साक्षात्कारी है, वही मुक्तात्मा है I
  • जो आत्मा और ब्रह्म, दोनों का ही सर्वसाक्षी स्वरूप जानकर, उसी सर्वसाक्षी भाव में स्थित हुआ है, वही कैवल्य मुक्त है I
  • जिसने यह जाना है, कि केवल ब्रह्म ही समस्त जीव जगत सहित, जीव जगत से परे भी समान रूप में प्रकाशित हो रहा है, वही कैवल्य मुक्त है I
  • जिसकी आत्मा ही ऐसी स्व:प्रकाश होकर, उसको यह सब ज्ञान स्वयं ही स्वयं में करवाती है, वो उत्कृष्ट योगी मुक्तात्मा है I
  • जिसनें ब्रह्म के पूर्ण रूप, जिसमें सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार सहित, शून्य, शून्य ब्रह्म, सगुण निर्गुण निराकार, सगुण निर्गुण साकार और सर्वसमता की अद्वैत योगावस्था को अपने आत्मासाक्षात्कारों में ही जाना है, वही साधक वास्तव में सर्वातीत हुआ है…, वह साधक कैवल्य मुक्त है I
  • जिसने अपने साक्षात्कारों में यह जाना है, कि ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड और पिण्ड हुआ है, और ब्रह्म ही इनका मूल और अमूल गंतव्य, दोनों ही समानरूपेण और पूर्णरूपेण है, वही कैवल्य मुक्त है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अंतःकरण और प्राणों के दृष्टिकोण से, सांकेतिक रूप में मुक्तात्मा का मार्ग, अर्थात मुक्तिमार्ग सहित, मुक्तात्मा कौन है, इसको भी बताता हूँ…

 

  • जिसका मन स्थिर होके ब्रह्मलीन हुआ है, वही कैवल्य को पाया है I

ऐसा साधक ही वैदिक महावाक्य, जिसको तत् त्वम् असि कहा गया है, उसके वास्तविक भावार्थ में विलीन होता है I

और ऐसा मनात्मा साधक, मुक्तात्मा ही है I

और ऐसे साधक की आंतरिक दिव्यता को ही इच्छा शक्ति कहा जाता है, जिसका सीधा-सीधा संबंध अहमाकाश से ही होता है I और जहां अहमाकाश अघोर ब्रह्म का होता है, और उन वामदेव की इच्छा शक्ति स्वरूप में ही प्रकाशित होता है I

अब ध्यान देना … इच्छा शक्ति ही वो अदि शक्ति हैं, जो प्रकृति का सात्विक नवम कोष कहलाई हैं, और जो माँ गायत्री के धवला मुख से संबद्ध हैं और जो वामदेव ब्रह्म की दिव्यता है I

 

  • जिसकी बुद्धि वृत्तिहीन होके, ब्रह्मलीन हुई है, वही कैवल्य को पाया है I

ऐसा साधक ही वैदिक महावाक्य, जिसको प्रज्ञानं ब्रह्म कहा गया है, उसके वास्तविक भावार्थ में विलय होता है I

और ऐसा ज्ञानात्मा साधक, मुक्तात्मा ही है I

और ऐसे साधक की आंतरिक दिव्यता को ही क्रिया शक्ति कहा जाता है, जिसका सीधा-सीधा संबंध चिदाकाश से ही होता है I और जहां चिदाकाश, तत्पुरुष ब्रह्म का होता है, और उन सद्योजात ब्रह्म की क्रिया शक्ति के स्वरूप में प्रकाशित होती है I

अब ध्यान देना … क्रिया शक्ति ही वो माँ त्रिकाली शक्ति हैं, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की काल शक्ति हैं, और जो माँ गायत्री के हेमा मुख से संबद्ध हैं, और जो सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता है I

 

  • जिसका चित्त संस्कार रहित होके ब्रह्मलीन हुआ है, वही कैवल्य को पाया है I

ऐसा साधक ही वैदिक महावाक्य, जिसको अयमात्मा ब्रह्म कहा गया है, उसके वास्तविक भावार्थ में विलीन होता है I

और ऐसा चिदात्मा साधक, मुक्तात्मा ही है I

और ऐसे साधक की आंतरिक दिव्यता को ही चित्त शक्ति कहा जाता है, जिसका सीधा सीधा संबंध मनाकाश से ही होता है I और जहां मनाकाश, वामदेव ब्रह्म का होता है, और उन तत्पुरुष ब्रह्म में चित्त शक्ति के स्वरूप में ही प्रकाशित होता है I

अब ध्यान देना … चित्त शक्ति ही वो रजोगुण से सुसज्जित पराशक्ति हैं, जो माँ गायत्री के विद्रुमा मुख से संबद्ध हैं, और जो तत्पुरुष ब्रह्म की दिव्यता है I जब ब्रह्मा रजोगुणी होते है, तब ही वो रचैता कहलाते हैं I

 

  • जिसका अहम् विशुद्ध होके ब्रह्मलीन हुआ है, वही कैवल्य को पाया है I

ऐसा साधक ही वैदिक महावाक्य, जिसको अहम् ब्रह्मास्मि कहा गया है, उसके वास्तविक भावार्थ में विलीन होता है I

और ऐसा अहमात्मा साधक, मुक्तात्मा ही है I

और ऐसे साधक की आंतरिक दिव्यता को ही ज्ञान शक्ति कहा जाता है, जिसका सीधा सीधा संबंध ज्ञानाकाश से ही होता है I और जहां ज्ञानाकाश सद्योजात ब्रह्म का होता है और उन अघोर की ज्ञान शक्ति स्वरूप में ही प्रकाशित होती है I

अब ध्यान देना … ज्ञान शक्ति ही वो तमोगुण से सुसज्जित शक्ति हैं, जो माँ गायत्री के नीला मुख से संबद्ध हैं, और जो अघोर ब्रह्म की दिव्यता है I

 

  • जिसके प्राण विसर्गी होके और बिना रुके सहस्रार को पार करते ही जाते हैं, वही मुक्तात्मा है I

ऐसा साधक ही वैदिक महावाक्य, जिसको सोऽहं कहा गया है, उसके वास्तविक भावार्थ में विलीन होता है I

और ऐसा प्राणात्मा साधक, मुक्तात्मा ही है I

ऐसे साधक की आंतरिक दिव्यता को ही अदि पराशक्ति कहा जाता है, जिसका सीधा-सीधा संबंध सार्वभौम ब्रह्मशक्ति से ही होता है, जो माँ गायत्री का मुक्ता मुखा हैं और जो ईशान ब्रह्म की दिव्यता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जिसनें ऊपर बताए गए सभी बिंदुओं का सीधा सीधा साक्षात्कार किया है, वास्तव में उसे ही मुक्ता कहते हैं I

और जिस दिव्य स्थान या दशा में  ऊपर बताए गए सभी बिंदुओं का सीधा सीधा साक्षात्कार होता है, वह माँ गायत्री का मुक्ता मुख है I

और जहाँ माँ गायत्री का मुक्ता मुख भी ईशान ब्रह्म की दिव्यता ही है I

जिस साधक ने उसकी अपनी साधनाओं में ऊपर बताए समस्त बिन्दुओं को पाया होगा, वो पुनः लौट कर नहीं आएगा, क्यूंकि ऐसा योगी साक्षात कैवल्य मोक्ष ही हो जाएगा I

और चाहे ऐसे साक्षात्कारों के पश्चात, वो योगी जीवित रहे या देहवसान ही क्यों न कर जाए, वो मुक्तात्मा ही है I

और ऐसा साक्षात्कार के पश्चात्, यदि वो जीवित रह गया, तो भी चाहे वो कोई भी कर्म करता या फल भोगता हुआ प्रतीत ही क्यों न हो, वो कर्मातीत और फलातीत ही  रहेगा I

इसका अर्थ हुआ, कि चाहे वो कर्मों को करता और उन कर्मों के फलों को भोगता ही क्यों न प्रतीत हो रहा हो, लेकिन उसकी आंतरिक दशा में (या वास्तविकता में), वो कर्ममुक्त रहकर, उसी कर्मातीत मुक्ति में स्थित होकर ही रहेगा, जिसको वो इन सभी साक्षात्कारों के पश्चात प्राप्त हुआ है I

 

टिप्पणियां:

  • यहाँ पर भी जो वाक्य कहा है, वो प्राप्त हुआ है, ऐसा कहा है…, न कि प्राप्त किया है, ऐसा कहा है I
  • और ऐसा कहने का कारण भी वही है, कि जो तुम अपनी वास्तविकता, अर्थात अपने आत्मस्वरूप में अनादि कालों से हो ही, उसको प्राप्त कैसे करोगे?…, उसको तो प्राप्त होना पड़ेगा न I
  • और जहाँ इसी “होने में और करने” में जो भेद है, उसी को यहाँ पर कर्मातीत मुक्ति और कर्माधीन मुक्ति कहा गया है I
  • लेकिन इन सभी बिंदुओं का चित्रांकन एक बाद के अध्याय में ही किया जाएगा I

इस मुक्ति के शब्द के प्रभेद सहित, इसी मुक्ति के प्रकार भी होते हैं, इसलिए अब इनको बताता हूँ I

 

मुक्ति के प्रभेद, … कर्ममुक्ति, कर्ममुक्ति क्या है, कर्ममुक्त का ज्ञान, कर्ममुक्त क्या है, कर्ममुक्त कौन, कर्ममुक्त किसे कहते हैं, कर्ममुक्ति का ज्ञान, कर्मातीत मुक्ति और कर्माधीन मुक्ति, कर्माधीन मुक्ति क्या है, कर्माधीन मुक्ति किसे कहते हैं, कर्ममुक्ति क्या है, कर्ममुक्ति किसे कहते हैं, कर्मातीत मुक्ति क्या है, कर्मातीत मुक्ति किसे कहते हैं, देवलोकों की मुक्ति, देवाधीन मुक्ति, देवाधीन मुक्ति क्या है, लोकाधीन मुक्ति, लोकाधीन मुक्ति, लोकाधीन मुक्ति क्या है, देवलोकों की मुक्ति, देवलोकों से परे की मुक्ति, देवातीत मुक्ति, देवातीत मुक्ति क्या है, देवातीत मुक्ति किसे कहते हैं, ब्रह्माण्डाधीन मुक्ति क्या है, ब्रह्माण्डाधीन मुक्ति किसे कहते हैं, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति क्या है, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति किसे कहते हैं, जगतातीत मुक्ति, जगतातीत मुक्ति क्या है, जगतातीत मुक्ति किसे कहते हैं, संस्कारातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति क्या है, संस्कारातीत मुक्ति किसे कहते हैं, संस्काराधीन मुक्ति, संस्काराधीन मुक्ति क्या है, संस्काराधीन मुक्ति किसे कहते हैं, सर्वातीत मुक्ति, सर्वातीत मुक्ति किसे कहते हैं, सर्वाधीन मुक्ति, सर्वाधीन मुक्ति किसे कहते हैं, रचनाधीन मुक्ति, रचनाधीन मुक्ति किसे कहते हैं, रचनातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति किसे कहते हैं, सर्वातीत मुक्ति क्या है, सर्वाधीन मुक्ति क्या है, रचनाधीन मुक्ति क्या है, रचनातीत मुक्ति क्या है, …

इस भाग को प्रारम्भ करने से पूर्व, एक बिंदु बता रहा हूँ, जो स्पष्ट प्रतीत होती हुई भी, वास्तव में सांकेतिक रूप में ही है…, इसलिए इसपर ध्यान देना …

 

मुक्ति के प्रभेद होने पर भी, …

मुक्तात्माओं सहित, अन्य सभी आत्माओं में प्रभेद नहीं होता I

जिस पिण्ड ब्रह्माण्ड (जीव जगत) से मुक्ति होती है, उसमें प्रभेद नहीं होता I

उत्कर्ष के अंतिम चरण में जिस मार्ग पर साधक जाता है, उसमें प्रभेद नहीं होता I

 

आगे बढ़ता हूँ …

रचित के दृष्टिकोण से, जबतक वो रचित ब्रह्म की रचना में रहेगा, तबतक उसके लिए कर्म ही प्रधान रहेगा I

और जहाँ कर्मों में तारतम्य होने पर भी, उन सभी कर्मों के मूल में, रचित का उत्कर्ष पथ ही रहेगा I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस समस्त ब्रह्म रचना में, किसी भी रचित ने उत्कर्ष पथ के सिवा, किसी और पथ पर कभी भी गमन ही नहीं किया है I

इसलिए चाहे वो रचित किसी भी मार्ग पर गमन ही क्यों न कर रहा हो, सभी रचित उत्कर्ष मार्गी ही हैं और ऐसे वो तब से हैं, जब से ब्रह्म ने उनकी रचना करी थी I

इसलिए ब्रह्म की इस रचना में, रचना का कोई भाग है ही नहीं, जो ब्रह्म द्वारा रचित उस अथाह उत्कर्ष पथ के किसी न किसी अंश या भाग पर न खड़ा हो (या रमण कर रहा हो) I

लेकिन वो और बात है, कि उत्कर्ष पथ में इतना तारतम्य है, कि उसके कुछ भागों को मूर्खतावश, कुछ मनीषी अपकर्ष पथ ही बोल देते हैं I लेकिन ऐसा प्रतीत होने पर भी ऐसा है नहीं, क्यूंकि ब्रह्म ने अपकर्ष का कोई भी पथ बनाया ही नहीं था I

यही कारण है, कि चाहे किसी भी लोकादि में, किसी भी परंपरा में रहो, किसी भी जीव रूप में रहो, लेकिन जब तक तुम जीव होकर जगत में रहोगे, तुम अपने उत्कर्ष पथ पर ही रहोगे I

और जहाँ वो उत्कर्ष पथ की दशा भी तुम्हारी अपने और उस समय की उत्कर्ष स्थिति के अनुसार ही होगी I ब्रह्म की संपूर्ण रचना में, कोई जीव है ही नहीं, जो ऐसा उत्कर्ष पथगामी नहीं है I

और तुम चाहे किसी भी उत्कर्ष मार्ग पर गमन करो, कर्मों में रहकर ही उस मार्ग पर जाया जा सकता है I

इसलिए कर्म के अनुसार जो मुक्ति होती है, मैं उसको ही मुक्ति का प्रधान प्रभेद मानता हूँ I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कर्मों के अनुसार, मुक्ति के जो दो प्रधान प्रभेद होते हैं, अब इनको बताता हूँ I

लेकिन यहाँ बताए गए कुछ भाग पर मैं पूर्व जन्मों में ही गमन किया था, इसलिए इस ज्ञान के कुछ भाग मेरे पूर्व जन्मों के हैं…, न की इस जन्म के I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इन दोनों प्रभेदों में, जो कर्माधीन मुक्ति कही गई है, उसी को ब्रह्माण्डाधीन मुक्ति, मार्गाधीन मुक्ति, संस्काराधीन मुक्ति, देवाधीन मुक्ति, लोकाधीन मुक्ति, रचनाधीन मुक्ति, सर्वाधीन मुक्ति आदि कहा गया है I

और इन्ही दोनों प्रभेदों में, जो कर्मातीत मुक्ति कही गई है, उसको ही ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, जगतातीत मुक्ति, जीवातीत मुक्ति, मार्गातीत मुक्ति, लोकातीत मुक्ति, देवातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति, सर्वातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति, सर्वातीत मुक्ति आदि कहा गया है I

 

  • कर्मों के प्रभेद, कर्मों के प्रकार, प्रारब्ध कर्म, आगामी कर्म, संचित कर्म, क्रियामान कर्म, प्रारब्ध कर्म किसे कहते हैं, आगामी कर्म किसे कहते हैं, संचित कर्म किसे कहते हैं, क्रियामान कर्म किसे कहते हैं, प्रारब्ध कर्म क्या है, आगामी कर्म क्या है, संचित कर्म क्या है, क्रियामान कर्म क्या है, …

कर्मों के प्रभेद भी होते हैं, जो ऐसे हैं …

  • क्रियामान कर्म, … यह वो कर्म हैं, जो अभी किए जा रहे हैं I इनके समूह रूपी फल में से कुछ भाग, आगामी कर्मों का कारण बनता है I
  • आगामी कर्म, … यह वो कर्म हैं, जो आगामी समय में किए जाएंगे I इनके समस्त समूह को संचित कर्म कहते हैं I
  • संचित कर्म, … जीव का यह वो कर्म समूह है, जो तब से इकट्ठा होता चला गया है, जब से जीव की रचना हुई थी I
  • प्रारब्ध कर्म, … यह वो कर्म हैं, जो संचित कर्मों का एक भाग है और जो किसी भी जीव योनि का आधार बना है I

इन चारों प्रकारों के कर्मों में ही यह समस्त जीवों सहित, जगत भी बसा हुआ है I इसलिए भी उत्कर्ष मार्गों का नाता कर्मों से ही रहा है I

 

अब आए बढ़ता हूँ, और कर्मों के प्रकार बताता हूँ …

  • भौतिक कर्म, … जब जीव की इच्छा शक्ति भौतिक वस्तूओं में रमण करती है, तो जो कर्म किए जाते हैं, वो भौतिक रूप में ही दिखाई देते हैं, जैसे जब कोई स्थूल आदि जीव अपने कर्म करता है I

ऐसे कर्मों का मूल भाव, उस कर्मों को करते हुए जीव के किसी कल्याण के लिए ही होता है, इसलिए इन कर्मों में भाव भी सीमित ही होता है I

इन कर्मों से भौतिक ताप तो कुछ शांत हो सकते हैं, लेकिन आध्यात्मिक और दैविक तापों की शांति के लिए, ऐसे कर्मों के फलों में क्षमता नहीं होती I

और क्यूंकि आज की मानव जाती, इसी कर्म के प्रकार में फंसी हुई आई, इसलिए उसके लिए आध्यात्मिक और दैविक तापों की भरमार भी है I

 

  • आध्यात्मिक कर्म, … जब इच्छा शक्ति में अध्यात्मिक भाव ही प्रधान हो जाए, तब जो कर्म किए जाते हैं, वो आध्यात्मिक ही होते है I

ऐसे कर्मों का मूल भाव, समस्त जीव जगत के कल्याण के लिए ही होता है, इसलिए ऐसे कर्मों में भाव में ही जीव जगत बसा होता है I

इन कर्मों से भौतिक और अध्यात्मिक ताप तो कुछ मात्रा में शांत हो सकते हैं, लेकिन दैविक तापों की शांति के लिए, ऐसे कर्मों के फलों में क्षमता नहीं होती I

 

  • दैविक कर्म, … जब इच्छा शक्ति जीव जगत से संबद्ध होते हुए भी, जीवातीत और जागतातीत शब्दों से भी संबध हो, तो वो कर्म दैविक कहलाते हैं I

ऐसे कर्मों का मूल भाव, ब्रह्म सहित ब्रह्म रचना से भी संबद्ध होता है, इसलिए ऐसे कर्मों में भाव, ब्रह्म सहित, ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तियों में भी समान रूप में बसा होता है I

इन कर्मों से भौतिक, अध्यात्मिक और दैविक ताप भी शांत हो सकते हैं, इसलिए यही वो कर्म है, जो त्रितापों को ही शांत करने की क्षमता रखते हैं और जो वैदिक वाङ्मय के अनुसार किए गए कर्मों का मूल हुए थे I

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

  • कर्म और कर्मफल, कर्म और फल, कर्मफल और कर्म, कर्म ही कर्मफल है, कर्मफल ही कर्म है, कर्म ही फल है, फल ही कर्म है, कर्म ही कर्मफल का कारण है, कर्म फल ही कर्म का कारण हैं, कर्म और कर्मफल का चक्रव्यूह, कर्म और कर्मफल का अनादि अनंत चक्रव्यूह, कर्म के मूल में फल हैं, फल के मूल में कर्म है, कर्म के मूल में कर्मफल हैं, कर्मफल के मूल में कर्म है, कर्म की गति में कर्मफ़ल हैं, कर्मफल की गति में कर्म हैं,

कर्म करोगे, तो फल अवश्य मिलेगा I

और जहाँ वो फल भी कर्म का एक प्रभेद ही होगा, जो कर्म करने के पश्चात ही, उस कर्म का फल स्वरूप बनकर प्रकट होगा I

इसलिए, कर्मफल ही वो कर्म हैं, जो उनके करे जाने के पश्चात और उस कर्म के अनुसार ही प्रकट होता है I

और जब वो फल प्रकट होगा, तो वो अपने मूल से कर्म होता हुआ भी, कर्म सरीका तो बिलकुल प्रतीत नहीं होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कर्म के भीतर ही उसका फल, कर्म को करने से पूर्व दशा में ही बसा होता है I इसका अर्थ हुआ, कि जबकि कर्म के भीतर, उसका फल बसा हुआ होता है, लेकिन वो फल तभी प्रकट होता है, जब कर्म को करा जाता है I

और कर्म फलों के भीतर और उन कर्म फलों के अनुसार, अगला कर्म बसा होता है, लेकिन वो फल के भीतर बसा हुआ कर्म भी तब ही प्रकट होता है, जब उन कर्मफलों को भोगा जाता है I

इसका अर्थ यह हुआ, कि यदि कर्म करने के और उन कर्मों के फलों के प्रकटीकरण के पश्चात, उन फलों को भोगने का भाव ही नहीं आएगा, तो वो कर्मफल अगले कर्मों के कारण भी नहीं बन पाएंगे I यही कर्मातीत मुक्ति के मार्ग का एक विशुद्ध बिंदु है I

और इसका यह भी अर्थ हुआ, कि यदि कर्मों को करने के समय, साधक में उन कर्मों के फलों की प्राप्ति और भोगने का भाव ही नहीं होगा, तो वो कर्म अपने फल प्रदान करने पर भी, साधक को इस जीव जगत के सर्वव्यापक और सार्वभौम कर्म और कर्मफल सिद्धांत में बाँधेंगे नहीं I

जब कर्म ऐसे भाव में स्थित होकर किए जाते हैं, तो वो कर्म निष्काम काम के अंतर्गत आते हैं, जो पुरुषार्थ चतुष्टय का तीसरे बिंदु, काम कहलाया था… और जो मुक्तिमार्ग ही होता है, और जो पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतिम बिन्दु, मोक्ष की ओर लेके जाता है I

और जहाँ वो मोक्ष भी कर्मातीत मुक्ति, अर्थात कर्ममुक्ति ही है, … न की कर्माधीन मुक्ति I

लेकिन पुरुषार्थ चतुष्टय के मार्गानुसार जो प्राथमिक मुक्ति पाई जाती है, वो कर्माधीन मुक्ति ही होती है I और इस कर्माधीन मुक्ति की दशा से होकर ही साधक, उसी मोक्ष नामक पुरुषार्थ के गंतव्य को जाता है, जो कर्मातीत मुक्ति कहलाता है I

और ऐसा होने पर भी, पुरुषार्थ चतुष्टय के मार्गानुसार जो कर्माधीन मुक्ति पाई जाती है, वो तबतक कर्मातीत मुक्ति नहीं होती, जबतक काम नामक पुरुषार्थ ही निष्काम नहीं होता I

और क्यूंकि अधिकांश जीव अपने कर्मों को करते समय, ऐसा निष्काम हो ही नहीं पाते हैं, इसलिए अधिकांश जीवों के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय का अंतिम पुरुषार्थ, जो मोक्ष कहलाया है, वो कर्माधीन मुक्ति का ही कारण बनता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि अधिकांश साधक इस स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य के पथ पर गमन कर ही नहीं पाते हैं, इसलिए ऐसे साधकगणों को अपने कर्मों और उनके फलों को अपने इष्ट देवी या देवता को ही समर्पण करके रहना चाहिए I

लेकिन ऐसे करने पर, यदि वो देवता पूर्ण ब्रह्म नहीं होगा, तो वो साधक कर्मातीत मुक्ति नहीं, बल्कि कर्माधीन मुक्ति को पाकर, उन्ही इष्ट देवी या देवता के लोक में जाएगा, और वहीं निवास करेगा I और ऐसे निवास करने पर भी वो कर्मों को करेगा और उन कर्मों के फलों को भी भोगता चला जाएगा I

इसलिए, इस मार्ग में एक बात का ध्यान रखो, कि जो तुम्हारे इष्ट हों, वो कर्मातीत मुक्ति को दर्शाते हों, नहीं तो तुम कर्माधीन मुक्ति में ही फंस जाओगे I

कर्माधीन मुक्ति भी उन देवी देवता से ही संबंधित होती है, जो अभिमानी होते हैं I

अनाभिमानी देवता के मार्गों में जो मुक्ति होती है, वो अधिकांश रूप में कर्ममुक्ति ही होती है I

कर्माधीन मुक्ति, अधिकांश रूप में अभिमानी देवता से संबंधित होती है I

इसका अर्थ हुआ, कि कर्मातीत मुक्ति, पूर्ण रूप में तो नहीं, लेकिन अधिकांश रूप में अनाभिमानी देवता से ही संबंध रखती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ब्रह्म रचना जो उसके मार्गानुसार कर्मप्रधान ही है, उसमें …

कर्म ही कर्मफल बनकर प्रकट होता हैकर्म ही फल का जनक है I

और कर्मफल ही अगले कर्म का कारण बनता हैफल ही कर्म का जनक है I

और अगला कर्म ही उससे अगले कर्मफल का कारण बनकर प्रकट होता है I

और ऐसा ही एक अथाह सर्वव्यापक चक्रव्यूह के समान चलता जाता है I

और तबतक चलता जाता है, जबतक जीव कर्मातीत मुक्ति को प्राप्त नहीं होता है I

 

अब कर्म और कर्मफल के चक्रव्यूह का एक साधारण उदाहरण देता हूँ …

तुम नौकरी या व्यवसाय आदि करते हो और धन कमाते हो I

वो धन जो कर्मफल है, वही अगले कर्म का कारण बनता है, जो उसको खर्च करना है I

ऐसा करने से, तुम कुछ प्राप्त करते है, जो उस धन के व्यय का फल ही है I

यदि तुमने एक घर खरीदा होगा, तो उस घर को रखने के लिए, समय समय पर और धन व्यय होगा ही I और ऐसा करने के लिए, तुम्हें नौकरी या व्यवसाय करना ही पड़ेगा I

और जैसे जैसे तुम धन कमाते जाओगे और उससे कुछ और ख़रीदते जाओगे, वैसे वैसे यह चक्रव्यूह बढ़ता भी जाएगा I

और एक दशा ऐसी भी आएगी, जब तुम इस चक्रव्यूह में फसेंगे भी और अंततः इस चक्रव्यूह को जान भी जाओगे I

इस अथाह चक्रव्यूह से बचने के लिए ही वेद मनीषियों के कहा था, कि जो अपने एक जीवन में चाहिए, उससे अधिक धनादि का संचय करता है, वो अधर्म पथ पर ही है I और वैदिक वाङ्मय में तो ऐसे अधर्मियों के लिए दंड के प्रावधान भी दिए गए हैं I

और इसी बिन्दु के अनुसार, आज के अधिकांश धनी लोग, चाहे कुछ भी माने, वो सब के सब अधर्मी ही कहलाएंगे I

और क्यूंकि आगामी युग, जो गुरु युग (अर्थात वैदिक युग) ही है, और जो आज के समयखंड में, जिसमें मैं यह सब लिख रहा हूँ, वो युग चक्र इस विश्व के द्वार पर ही खड़ा हुआ है, और इस विश्व में प्रवेश करने के लिए काल के संकेतादेश की प्रतीक्षा में ही है… उसमें ऐसा विकृत अर्थ भी नहीं होगा I

इसलिए आगामी समय खंड में, जैसे जैसे गुरुयुग का इस विश्व में प्रवेश होकर, उसकी स्थापना का कार्यक्रम चलित होगा, वैसे वैसे आज के धनी लोगों को सबसे बड़ा संकट आएगा, यदि उस समय वो अपना अधिक धन, राष्ट्र और जन कल्याण में पूर्णरूपेण नहीं लगाएंगे I

वैसे ऊपर बताया गया अर्थ ही पुरुषार्थ चतुष्टय का दूसरा बिंदु है, और जिसके मूल में उसी पुरुषार्थ का प्रथम बिन्दु, धर्म होता है I

अब मुक्ति के प्रभेद पर आता हूँ …

 

  • कर्माधीन मुक्ति क्या, संस्काराधीन मुक्ति क्या, देवाधीन मुक्ति क्या, लोकाधीन मुक्ति क्या, ब्रह्माण्डाधीन मुक्ति क्या, सर्वाधीन मुक्ति क्या, रचनाधीन मुक्ति क्या, अपूर्ण मुक्ति, अपूर्ण मुक्ति क्या है,

इस मुक्ति को ऐसे बताया जा सकता है …

जिस मुक्ति में साधक कर्मों और उनके कर्म फलों से परे नहीं जाता, उसे कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

जिस मुक्ति में साधक कर्म फलों के संस्कारों से परे नहीं जाता, उसे ही कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

इसलिए, जिस मुक्ति में साधक कम और कर्म फलों सहित, उनके संस्कारों से अतीत नहीं होता, उसे कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

जिस मुक्ति में साधक किसी देवादि लोक में जाकर, वहीँ रह जाता है, अर्थात उस देवादि लोक से आगे के देवलोकों में, या समस्त देवलोकों से भी आगे की देवातीत और लोकातीत दशाओं में नहीं जा पाता, उसे ही कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

जिस मुक्ति में, साधक मुक्त होता हुआ भी, किसी न किसी लोक में ही रहता है और वहीँ अपने कर्म करता है, और कर्म फलों को भोगता है, उसे ही देवाधीन मुक्ति और लोकाधीन मुक्ति कहते हैं I

और ऐसी मुक्ति का मूल प्रभेद भी कर्माधीन मुक्ति ही कहलाता है I

जिस मुक्ति में साधक कर्मों, उनके कर्म फल और उनके संस्कारों से अतीत नहीं होता, उसे ही कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

ऐसी मुक्ति में साधक कर्मों को करता भी है, और उस समय के और पूर्व समय के कर्म फलों को भोगता भी है I

कर्माधीन मुक्ति प्रधानतः अभिमानी देवताओं और उनके लोकों से ही संबंधित होती है I

 

इसीलिए, …

कर्माधीन मुक्ति किसी न किसी लोकादि दशा से ही संबंधित होती है I

 

यही कारण है, कि …

कर्माधीन मुक्ति, मुक्ति सी प्रतीत होती हुई भी, वास्तव में मुक्ति नहीं होती I

 

ऐसा कहने का कारण है, कि …

जो सर्वातीत नहीं होती, वो कैवल्य मुक्ति भी नहीं हो सकती I

 

इसलिए, …

कर्माधीन मुक्ति को कैवल्य मोक्ष भी नहीं कहा जा सकता I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि कर्माधीन मुक्ति में साधक ब्रह्माण्ड, अर्थात ब्रह्म रचना के किसी न किसी दशा (भाग या लोक) तक ही सीमित रहता है, इसलिए इस मुक्ति को ब्रह्माण्डाधीन मुक्ति, लोकाधीन मुक्ति, आदि भी कहा जा सकता है I

मैं कर्माधीन मुक्ति को मुक्ति ही नहीं मान सकता, क्यूंकि ऐसी मुक्ति लोकातीत, दशातीत, दिशातीत (या मार्गातीत या ग्रंथातीत), ब्रह्माण्डातीत नहीं होती, और इसीलिए वो सर्वाधार और सर्वातीत की योगावस्था भी नहीं होती I

जो सर्वाधार और सर्वातीत की अद्वैत योगावस्था नहीं है…, वो कैसी मुक्ति? I

जो ब्रह्म, ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र की योगावस्था नहीं, वो कैसी मुक्ति? I

जो ब्रह्म के अभिव्यक्ता और अभिव्यक्ति रूपी परिपूर्णता न हो, वो कैसी मुक्ति? I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कर्माधीन मुक्ति देवताओं आदि की साधनाओं से प्राप्त होती है और इन साधनाओं के द्वारा, साधक किसी न किसी देवता के लोक में ही स्थित हो जाता है, जिनकी साधना करी जाती है I इसलिए ऐसी मुक्ति पूर्ण भी नहीं होती, और उस मुक्ति को तो अपूर्ण मुक्ति ही कहा का सकता है I

और देवलोक में जाकर (या निवास करके) भी, जबतक साधक कर्मशून्य नहीं होता, तबतक साधक इसी कर्माधीन मुक्ति में बसा रहता है I

और देवलोकों में बसकर, जब साधक कर्मशून्य हो जाता है तब वो साधक वास्तविक मुक्ति को पाता है, जिसे कर्मातीत मुक्ति, फलातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति आदि भी कहा जा सकता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अधिकांश रूप में कर्माधीन मुक्ति अभिमानी देवताओं और उनके लोकों से ही संबंधित होती है I

लेकिन इसका यह अर्थ तो बिलकुल नहीं है कि कर्माधीन मुक्ति अनाभिमानी देवताओं की साधनाओं से पाई ही नहीं जा सकती है I

समस्त एकवादी पंथ (अर्थात monotheistic religions) इसी कर्माधीन मुक्ति से संबंध रखते हैं I

 

और ऐसा होने का कारण है, कि …

कर्मातीत मुक्ति, अर्थात कैवल्य मुक्ति का एकवाद से कुछ भी लेना देना नहीं I

कर्मातीत मुक्ति का मार्ग बहुवादी होता है, और गंतव्य निर्विकल्प अद्वैत का I

कर्मातीत मुक्ति के मार्ग में, प्रकृति बहुवादी होती है और ब्रह्म अद्वैत I

जिस मार्ग में ब्रह्म और प्रकृति का योग नहीं, वो कर्मातीत मुक्तिमार्ग नहीं I

ब्रह्म और प्रकृति की सनातन योगावस्था से वंचित मार्ग, कर्माधीन मुक्ति के हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कर्माधीन मुक्ति में अधिकांश साधक, अपने पूर्व के कर्मफलों को भोगकर, पुनः इस जगत रूपी भवसागर के किसी एक लोक में आएँगे I

इसका कारण है, कि जो कर्ममुक्त नहीं हुआ, वो ब्रह्म की समस्त रचना में बसकर भी इस ब्रह्म रचना से अतीत भी नहीं हुआ है, और ऐसी दशा में साधक का जीवन चाहे देवलोकों में ही क्यों न चल रहा हो, लेकिन वो जीवन उसके अपने पूर्व से चले आ रहे जीवनचक्र स्वरूप में ही चलता रहता है I

इसका अर्थ हुआ कि कर्माधीन मुक्ति का साधक, जीवनचक्र अर्थात जीवन मृत्यु के चक्र को पार नहीं कर पाता है I

और एक बात, कि चाहे वो जीवन चक्र किसी स्थूल लोक (जैसे यह पृथ्वी लोक) में चल रहा हो या किसी देव लोक में चलित हो रहा हो, इससे कुछ भी अंतर नहीं पड़ता है I

जो साधक जीवनचक्र में बसा होने पर भी, मुक्त कहलाता है, वो ही कर्माधीन मुक्ति को पाया होता है I और इसीलिए कर्माधीन मुक्ति वास्तविक मुक्ति भी नहीं है I

 

इसलिए, …

जीवन मरण चक्र में बसकर पाई हुई मुक्ति को कर्माधीन मुक्ति कहते हैं I

और जहाँ वो जीवनचक्र देवादि लोकों में भी चलता रहता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यही कारण है कि अपनी देवयोनि का निर्धारित समय पूर्ण करके, देवता भी मृत्युलोकों में, किसी न किसी जीव स्वरूप में लौटते हैं I

और ऐसा ही वो साधक भी होता है, जो कर्माधीन मुक्ति को पाके, किसी न किसी देवादि लोक में जाके, अपने संचितादि कर्मफलों को भोग के, पुनः मृत्यु लोक में लौट आता है I

कर्माधीन मुक्ति को पाया हुआ साधक इस अथाह भवसागर रूपी ब्रह्म रचना की किसी न किसी दशा या लोक में ही निवास करता है, इसलिए वो साधक इस भवसागर के नियमों के भी आधीन रहता है, अर्थात इस भवसागर के नियमों से बंधा हुआ रहता है I

और ऐसे ही समस्त देवता भी होते हैं, क्यूंकि देवलोकों की मुक्ति कर्मातीत तो बिलकुल नहीं होती I

और जो कर्मातीत नहीं होता, वो ब्रह्म्रचना के और उस रचना के नियमों के आधीन रहकर ही अपने कर्म करता है… और उन कर्मों के फलादि भी भोगता है I

यह सभी बिंदु मैंने अपने जीव इतिहास के समय से और अनेक देवलोकों में निवास करके, उनके अनुभवों से ही बताए हैं…, नाकि किसी ग्रन्थ या संत की वाणी के आधार से I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसी महायुग के त्रेतायुग में, इन्द्रपद को तो मैं भी पाया था I

और पाने के तुरंत बाद और धारण करने से पूर्व ही, मैंने उस पद को त्याग भी था, क्यूंकि कर्माधीन मुक्ति का क्या लाभ…, इससे अच्छा तो यह नर्क रूपी मृत्युलोक ही है, जिससे कर्मातीत मुक्ति की प्राप्ति, कुछ ही जन्मों में हो सकती है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और कर्माधीन मुक्ति के एक और बिंदु को बताता हूँ …

जो कर्म, कर्म फल और उनके संस्कारों से अतीत न हो, वो कर्माधीन मुक्ति है I

 

ऐसी मुक्ति पूर्ण नहीं होती, क्यूंकि मुक्त होने के पश्चात भी साधक कर्म, उनके फल और संस्कारों में ही फंसा हुआ सा रह जाता है I

और क्यूंकि ऐसी मुक्ति देवादि लोकों की दशा को दर्शाती है, अर्थात ऐसी मुक्ति देवलोकों से अतीत नहीं होती, इसलिए यही अपूर्ण मुक्ति है I

इस मुक्ति में साधक जैसे जैसे गति करता है, वैसे वैसे वो साधक एक नीचे के देवलोक से किसी और ऊपर के देवलोक में जाता ही जाता है I

लेकिन ऐसा तो तब ही हो पाएगा जब देवलोक में निवास करता हुआ साधक, अपने पूर्व के कर्मफलों का विस्तार करता जाएगा,… अन्यथा नहीं I

इसीलिए यह मुक्ति, उसी देवयान का अंग है, जिसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, और जो सबसे रोमांचक उत्कर्ष यान भी है I

और क्यूंकि देवयान ही महायान कहलाता है, इसलिए यह मुक्ति उस महायान का भी अंग है, जिसके बारे में उसी पूर्व के अध्याय, जिसका नाम रंध्र विज्ञान था, उसमें बताया जा चुका है I

यह मुक्ति उसी परायान का भी अंग है, जिसके बारे में उसी पूर्व के अध्याय, जिसका नाम रंध्र क्या है, ऐसा था…, उसमें बताया जा चुका है I

इस मुक्ति के पथ को सगुणयान भी कहा जा सकता है, क्यूंकि इसका नाता सगुण ब्रह्म से ही है, नाकि निर्गुण निराकार ब्रह्म से I

निर्गुण निराकार ब्रह्म से संबंधित उत्कर्ष यान (मार्ग या पथ) निर्गुण यान भी कहलाता है और जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय जिसका नाम अद्वैत यान था, उसमें बताया जा चुका है I और यही निर्गुण यान कर्मातीत मुक्ति के मार्ग को दर्शाता है, जिसके बारे में अब बात होगी I

 

  • कर्ममुक्ति क्या, कर्मातीत मुक्ति क्या, फलातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति, देवातीत मुक्ति, लोकातीत मुक्ति, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, जगतातीत मुक्ति, जीवन मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति, सर्वातीत मुक्ति, पूर्ण मुक्ति, कैवल्य मोक्ष क्या, कैवल्य मुक्ति क्या, कैवल्य मुक्ति, कर्म शून्य मुक्ति, फल शून्य मुक्ति, संस्कार शून्य मुक्ति, पूर्ण स्वतंत्र, स्वतंत्र, स्वतंत्रता, पूर्ण स्वतंत्रता, …

यहाँ बताई गई कर्मातीत मुक्ति, निर्गुणयान (या अद्वैतयान) का अंग है I

और यदि कर्माधीम मुक्ति को पाया हुआ, किसी देवलोक में निवास करता हुआ साधक, उस मार्ग पर जाएगा, जिससे वो कर्मातीत मुक्ति को पाएगा, तो भी वो साधक जीवनचक्र से भी परे चला जाएगा, अर्थात जीवन मृत्यु चक्र से ही परे चला जाएगा I

ऐसी कर्मातीत मुक्ति को पाके, यदि वो साधक चाहे तो वो कभी भी किसी भी  लोक या ब्रह्माण्डीय दशा में न तो लौटेगा, और ना ही नहीं लौटेगा I

 

ऐसा कर्ममुक्त योगी, …

ब्रह्माण्ड में होता हुआ भीनहीं ही होगा I

और नहीं होता हुआ भीसदैव ही रहेगा I

 

ऐसा होने का कारण है, कि …

ब्रह्म कर्ममुक्त ही हैनिर्गुण निराकार ब्रह्म ही कर्ममुक्ति है I

ब्रह्म नहीं होता हुआ भी, अपनी अभिव्यक्ति, जीव जगत स्वरूप में, सदैव ही है I

अभिव्यक्ति होने पर, सदैव होता हुआ भी, वो नहीं है क्यूंकि वो सर्वसाक्षी ही है I

जो अपनी अभिव्यक्तियों का एकमात्र साक्षी है, वो लौटा है या नहीं कैसे बोलोगे I

और ऐसा ही वो कर्मातीत मुक्ति को प्राप्त हुआ योगी भी होता है I

 

क्यूंकि यह समस्त ब्रह्माण्ड, जीवों के उत्कर्ष मार्ग के अनुसार उन जीवों की कर्मभूमि ही है,  इसलिए, इस कर्मातीत मुक्ति को प्राप्त हुआ योगी …

यदि किसी लोक में लौट ही आए, तो भी वो लौटा हुआ माना ही नहीं जा सकता I

 

यही कारण है, कि अपने समस्त जीव इतिहास के समय में …

वो योगी कभी कर्ममुक्ति से लौटा है या नहीं यह तो वह योगी ही जानता होगा I

 

और एक बात, कि कर्मातीत मुक्ति को पाया हुआ साधक, अपनी इच्छा से, किसी देवी देवता के अनुरोध पर, और काल की प्रेरणा से, मृत्युलोकों में लौट भी सकता है, लेकिन उसका लौटना केवल उन कार्यों को करने हेतु ही होगा, जिनके बारे में देवादि सत्ता ने अनुरोध किया था, और इसके साथ साथ उस सनातन अखंड काल ने, जिसमें वो योगी उस समय बसा हुआ था, उसने ही उस योगी को किसी न किसी लोक में लौटने की प्रेरणा दी थी I

लेकिन ऐसे लौटने पर भी वो कर्ममुक्त साधक कर्मातीत मुक्ति में ही रहेगा I

इसका अर्थ हुआ, कि यदि कोई योगी एक बार भी कर्मातीत मुक्ति को प्राप्त हुआ है, तो वो योगी अनादि कालों तक और अनंत ब्रह्मा की आयु तक, कर्ममुक्त ही रहेगा, चाहे वो किसी मृत्यु आदी लोक में लौटे या न लौटे I

और जब कोई योगी कर्मातीत मुक्ति से लौटेगा, तो वो केवल उन्हीं कार्यों को करेगा जिनको चलित करने हेतु, उस योगी को किसी देवी देवता के कहा होगा, काल ने प्रेरणा दी होगी और काल शक्ति के अनुग्रह से उसने लौटने का मन बनाया होगा I

और जब ऐसा हुआ होगा, तो किसी न किसी पञ्च विद्या सरस्वती ने उस योगी को अपने दैविक गर्भ में धारण करके, किसी न किसी नीचे के लोक में लाया होगा और उसको परकाया प्रवेश प्रक्रिया से कोई न कोई स्थूल देह भी प्रदान किया होगा, जिसमें बैठकर वो योगी उसके उस आगामी जीवन काल में ही वो कर्म करेगा, जिनके लिए वो लौटाया गया होगा I

और ऐसे योगी का लौटना भी उस योगी की इच्छा से ही होगा, अर्थात उसपर कोई भी सत्ता, किसी भी प्रकार का दबाव (या जोर जबरदस्ती) नहीं कर सकती है I

इसलिए वो योगी, यदि चाहे तो किसी लोक में लौटने को और लौटकर किसी विशेष कार्य करने को मना भी कर सकता है I

जो कर्ममुक्त हुआ है, उसपर सृष्टिकर्ता सहित, कोई भी सत्ता किसी भी मृत्युलोक में लौटने के लिए (या किसी और कार्य के लिए) कुछ भी दबाव नहीं डाल सकती है I

इसका कारण भी वही है, की जो योगी कर्ममुक्त हुआ है, उसका आत्मस्वरूप ही वो पूर्ण और स्वतंत्र ब्रह्म है I और जो पूर्ण और स्वतंत्र की अद्वैत योगावस्था ही है, उसपर कोई कैसे कोई दबाव डाल पाएगा I

 

इसलिए, …

कर्मातीत मुक्ति ही पूर्ण मुक्ति है I

वास्तव में कर्ममुक्त ही मुक्तात्मा है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा होने का कारण है, कि कर्ममुक्ति ही जीवातीत मुक्ति, जगतातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति, लोकातीत मुक्ति, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति और सर्वातीत मुक्ति है I

जो ब्रह्म की रचना से ही अतीत हो गया, उसपर रचना में बसे हुए देवी देवता दबाव कैसे डाल सकते है…

मगर से तो वो ही डरेगा न, जो तालाब में निवास कर रहा है I

लेकिन तो तालातीत ही हो गया, उसको किसी मगर से क्या लेना देना I

 

और जब ऐसा साधक उन कार्यों के लिए लौटेगा और इसके पश्चात उन कर्मों में पुनः जाएगा, तब भी वो कर्ममुक्त में ही रहेगा, क्यूंकि एक बार जो कर्ममुक्त हुआ है, वो कर्ममुक्त ही रहता है I

इसका अर्थ हुआ कि यदि एक बार भी कोई जीव कर्ममुक्ति को प्राप्त हुआ होगा, तो वो अनंत कालों तक और अनंत ब्रह्मा और उनके ब्रह्माण्डों के आने जाने तक, कर्ममुक्त ही रहेगा I

 

ऊपर बताए गए बिंदुओं के कारण ही वेद मनीषी कह गए थे, कि …

मुक्तात्मा के लौटने के समय की काल गणना असम्भव है I

और ऐसा होने के कारण, मुक्तात्मा कभी लौटता नहीं हैऐसा ही माना जाता है I

और वेद मनीषियों द्वारा ऐसा कहने का भी वही कारण था, कि कर्मातीत मुक्ति के पश्चात, लौटना या नहीं लौटना, उस कर्ममुक्त पर ही निर्भर करता है I

लेकिन इसका यह अर्थ तो बिलकुल नहीं हुआ, कि वो कर्मातीत मुक्ति को पाया हुआ मुक्तात्मा, कभी लौटेगा ही नहीं…, वो जब भी चाहे, लौट सकता है, और ऐसे लौटने के पश्चात भी वो कर्मातीत मुक्ति में ही स्थित रहता है, अर्थात कर्मों और कर्मफलों में फंसता नहीं है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब कर्म किए जाते हैं, तब उनके फल भी प्राप्त होते है I

यह फल एक सूक्ष्म संस्कार के रूप में साधक के अंतःकरण के चित्त नामक भाग में, एक बीज स्वरूप में रहने लगते है I

जैसे कर्म किए होंगे, वैसे ही इन बीज रूपी संस्कारों की सूक्ष्मता और वर्ण भी होंगे I

इसका अर्थ हुआ, कि कर्मों की सूक्ष्मता के अनुसार ही कर्म फल और संस्कारों के वर्ण और सूक्ष्मता होती है I

जब कर्म जीव जगत को अपने आगे रखकर किये जाते हैं, अर्थात जब कर्म सार्वभौम भावनात्मक स्थिति में बसकर किए जाएंगे, तब उन कर्मों के फल और संस्कार भी सूक्ष्म ही होते हैं I

और ऐसे कर्मों के बीज रूपी संस्कार जो साधक के अंतःकरण चतुष्टय के चित्त नामक भाग में रहते हैं, वो भी हलके रंगों के (अर्थात सूक्ष्म) ही होते हैं I यही कारण है, कि वैदिक मंत्र भी इसी सर्वव्यापक भावनात्मक स्थिति को दर्शाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यही कारण है, कि पुराण और इतिहास ग्रंथों के देवता अधिकाँश रूप में सगुण साकारी हैं, वेद चतुष्टय के देवता अधिकाँश रूप में सगुण निराकारी हैं. और वेदांत और उपनिषदों और वेदांत के देवता अधिकाँशतः निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं I

इसीलिए अधिकांश रूप में, इन ग्रन्थों में से, उपनिषद और वेदांत निर्गुण निराकार ब्रह्म को दर्शाते हैं, वेद चतुष्टय जिसके यह सब अंग ही हैं वो सगुण निराकार ब्रह्म को दर्शाते हैं, और पुराण और इतिहास सगुण साकार ब्रह्म को दर्शाते हैं I

इसलिए इन सब ग्रंथों की योगावस्था में, जिसके मूल में वेद चतुष्ट्य के सगुण निराकार ब्रह्म ही हैं, ब्रह्म के तीनों प्रधान स्वरूपों को जाना जा सकता है I

और ऐसा होने पर भी, इन सभी ग्रन्थों के मंत्र और सुत्रादि वाक्य, उसी सर्वव्यापक भावनात्मक स्थिति में बसकर ही बताए गए थे I

और ऐसी सर्वव्याप्त भावनात्मक स्थिति में बसकर, अर्थात ब्रह्म भावापन होकर ही वैदिक वाङ्मय के मंत्रादि भी बोले भी जाते हैं I

इसलिए, जब वेद मंत्रों और सुत्रादि का पठन, पाठन और गान होता है, तब साधक की ब्रह्म भावापन दशा अनिवार्य भी होती है I

और यदि साधक की आंतरिक दशा ऐसा नहीं होगी, तो उन मंत्रों के पठन पाठन और गान का कोई लाभ भी नहीं होगा…, और इसके विपरीत, साधक के लिए विपरीत फल सिद्धांत के चलित होने के कारण, वो साधक उत्कर्ष पथ को स्वतः ही त्यागके, अपने अपकर्ष पथ पर ही चला जाएगा I

यही तो इस कलियुग में हुआ भी है, जिसके कारण वेद मनीषि अनभिज्ञ हो गए और योगीजन बनिये हुए I

चलो इतना भी ठीक था…, लेकिन आज तो मांसाहारी और शराबी बनिए भी स्वयं को योगी बता रहे है, और वेद विहीन अनभिज्ञ अपने को वेदाचार्य और वेदविक आदि कहते हैं… जबकि वातव में तो यह सब किसी महर्षि, ब्रह्मऋषि या अवधूतादि के शिष्य बनने के पात्र भी नहीं हैं I

और इससे भी अधिक तो यह हो गया, कि आज के योगतंत्र के गुरुगण और वेदों के आचार्यगण, कुपित राजनेताओं और अतिलोलुप व्यापारियों के मालवाहक टट्टू तक भी हो गए हैं I और ऐसा होने के लिए वो किसी महर्षि आदि उत्कृष्ट सत्ता धारी पुरातन योगीजनों की जीवन शैली आदि से कोई न कोई कुतर्क भी देते हैं I

यह तो इस कलियुग की काली काया की अति हो गई न? I

 

आगामी गुरुयुग का मुक्तिमार्ग, आगामी वैदिक युग का मुक्तिमार्ग, वैदिक युग और कर्मातीत मुक्ति, वैदिक युग और कर्ममुक्ति,

लेकिन यही वो कारण है, कि कुछ ही वर्षों में इस कलियुग को ही स्तम्भित किया जाएगा I

और जब यह कलियुग को स्तम्भित करने की प्रक्रिया चलित हो रही होगी, तब शनैः शनैः गुरु युग को प्रकाशित भी किया जाएगा, और जहाँ वो गुरु युग भी आम्नाय युग, गुरु गद्दी का युग और वैदिक युग ही होगा I

 

उस आगामी गुरुयुग के उत्कर्ष मार्गों में और उन मार्गों की अंतगति में, …

मूल में योग होगा और गंतव्य में वेद I

मूल में प्रकृति होंगी और गंतव्य में निर्गुण ब्रह्म I

मूल में ब्रह्म भाव होगा और गंतव्य में कैवल्य मुक्ति I

मूल में साधक ही शक्ति होगा, और गंतव्य में आत्मस्वरूप ही शक्तिमान I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा

 

और उस गुरुयुग में, …

कोई सम्राट होगा ही नहीं, जो आम्नाय गुरुगद्दी का शिष्य नहीं होगा I

इसलिए सम्राट कोई भी हो, राज तो गुरुगद्दी का ही होगा I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा

वो गुरुयुग शिव शक्ति का युग होता हुआ भी, उसके सनातन गुरु नारायण होंगे और उन नारायण की आम्नाय गुरुगद्दी ही उनका सिंघासन होगा I

उस आगामी गुरुयुग में, शिव ही आत्मा होंगे, और शक्ति ही आत्मशक्ति I और इन दोनों की अद्वैत योगावस्था का मार्ग, श्रीमन नारायण का शिष्य होकर ही प्रशश्त होगा I

इसलिए उस गुरुयुग में “ब्रह्म भावापन” शब्द के प्रकट स्वरूप में श्रीमन नारायण ही होंगे, जिसके कारण वो गुरुयुग, …

भीतर से शाक्त, बाहर से शैव और इस धरा पर वैष्णव युग ही होगा I

 

उस आगामी गुरु युग में और ब्रह्म के दृष्टिकोण से, साधक के …

मन में प्रजापति होंगे…, इसलिए ब्रह्मत्व होगा I

बुद्धि में हिरण्यगर्भ होंगे, इसलिए ज्ञानत्व होगा I

चित्त में कार्य ब्रह्म होंगे, इसलिए रचनत्व होगा I

अहम् में विराट ब्रह्म होंगे, इसलिए सर्वत्व होगा I

प्राण में अव्यक्त ब्रह्म होंगे, इसलिए मातृत्व होगा I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा

 

इसीलिए उस गुरुयुग का मार्ग …

विशुद्ध अहम् से ही प्रारम्भ होगा I

और जहाँ वो अहम् विशुद्धि के मार्ग के मूल में भी ब्रह्मभावापन ही होगा I

गुरुयुग की गुरु और राज सत्ता, श्रीहरि की ही, श्रीहरि में ही, और श्रीहरी से ही चलेगी I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा

 

इसलिए, उस आगामी गुरुयुग में, …

श्रीहरि ही सार्वभौम सम्राट और एकमात्र सर्वव्यापक अद्वैत सनातन गुरु होंगे I

और उन श्रीहरी का साम्राज्य, भारत ही होगा, जो महाब्रह्माण्ड स्वरूप में आएगा I

और उन श्री हरी की गुरुगद्दी भी, वही शिवलिंगात्मक महाब्रह्माण्ड ही होगा I

वो शिवलिंगात्मक महाब्रह्माण्ड भी, साधकगणों के चित्त में ही स्वयं प्रकट होगा I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

उस आगामी आगामी गुरुयुग में, …

साधक के स्थिर मन में ब्रह्मत्व होगा I

साधक की वृत्तिहीन बुद्धि में इन्द्रत्व होगा I

साधक के विशुद्ध अहम् में शिवत्व होगा I

साधक के संस्कार रहित चित्त में विष्णुत्व होगा I

साधक के निश्कलंक और सार्वभौमिक प्राणों में शक्तत्व होगा I

और अंततः, साधक के मुक्तिमार्ग की गंतव्य दशा में गणपतत्व होगा I

ऐसा ही पूर्व कालों के गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

और उस गुरुयुग में …

वेद चतुष्टय नहीं, बल्कि वेद षट्कम होंगे I

इसलिए जो युग आ रहा है, वो इस पूरे महायुग में, पूर्व में कभी नहीं आया है I

ऐसा ही पूर्व के महायुगों में प्रकट हुए गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

उस आगामी गुरुयुग में, …

पञ्चवेद पञ्चब्रह्म के होंगे, और छटा वेद ब्रह्माण्ड का होगा I

और इन सभी के मूल में साधक का ब्रह्म भावापन ही होगा, और जहाँ इस ब्रह्म भावापन शब्द में बसे हुए श्रीमन नारायण ही उस गुरु युग के एकमात्र गुरू और सार्वभौम सम्राट होंगे I

 

उस गुरुयुग में, …

न तो योगी बनिया होगा, और न ही बनिया योगी कहलायेगा I

इसलिए न योग का और न ही वेद का, कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष व्यापार होगा I

 

और वो गुरुयुग चाहे श्रीहरी का ही होगा, लेकिन तब भी उस गुरुयुग में, …

जगदगुरु शब्द की दिव्यता के मूल में, माँ शारदा सरस्वती होंगी I

धर्मसम्राट शब्द की दिव्यता के मूल में, माँ भारती सरस्वती होंगी I

वेदसाम्राट शब्द की दिव्यता के मूल में, माँ गायत्री सरस्वति होंगी I

योगसम्राट शब्द की दिव्यता के मूल में, माँ सावित्री सरस्वति होंगी I

इन सब के गंतव्य को दर्शाते शब्दों के मूल में, ब्राह्मणी सरस्वति होंगी I

इसलिए वो आगामी गुरुयुग नारायण युग होता हुआ भी, उसके गंतव्य में ब्रह्मत्व ही होगा I

ऐसा ही पूर्व के महायुगों में प्रकट हुए गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

उस आगामी गुरु युग में और देव कृत्यों के दृष्टिकोण से…, साधक के …

मन के भावत्व से उत्पत्ति होगी I

बुद्धि के ज्ञानत्व से तिरोधान होगा I

चित्त के परत्व से स्थिति होगी I

अहम् के सर्वत्व से संघार होगा I

और प्राणों के अव्यक्त्व शाक्तत्व ब्रह्मरूप से अनुग्रह होगा I

इसलिए उस गुरु युग में, मुक्तिमार्गों की अंतगति में प्राणों का जागरण होगा I

और इसके पश्चात, वो जागृत प्राण ही साधक की चेतना को गंतव्य, अर्थात कैवल्य मोक्ष तक लेके जाऐंगे I

इसीलिए भी उस गुरुयुग में सोऽहं ही अंतिम ज्ञान होगा और जिसका मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में”, के वाक्य से होकर जाएगा I

ऐसा ही पूर्व के महायुगों में प्रकट हुए गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

उस आगामी गुरु युग में …

मन में तत् त्वम् असि प्रकाशित होगा I

बुद्धि में प्रज्ञानं ब्रह्म का प्रकाश होगा I

चित्त में अयमात्मा ब्रह्म प्रकाशित होगा I

अहंकार में अहम् ब्रह्मास्मि का प्रकाश होगा I

प्राणों में सोऽहं अपने पूर्णरूप में ही प्रकाशित होगा I

और साधक के भीतर और बाहर के ब्रह्माण्ड में, भारत ब्रह्म का प्रकाश होगा I

और ऐसा होने के पश्चात भी, उस आगामी गुरु युग में, श्रीमन नारायण ही इन सबके गुरु और सम्राट होंगे I

और वही श्रीमन नारायण साधक के शरीर के भीतर की एक हृदय गुफा में बसे हुए, साधक के सनतान गुरु होंगे, जो आत्माराम और आत्मकृष्ण की योगावस्था में, उस साधक के ही सनातन गुरु होंगे, और जिनका प्रदान किया हुआ उत्कर्ष रूपी मुक्तिमार्ग भी स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य में बसकर जाएगा, और जो अंततः, मानव सहित, इस संपूर्ण जीव जगत के अधिकांश भाग को ही कैवल्य मोक्ष में स्थापित कर देगा I

इसलिए आगामी गुरु युग वो विचित्र मुक्ति युग ही है, जो इस संपूर्ण महायुग के कालखंड में, पूर्व में कभी भी प्रकाशित नहीं हुआ है I

और वही आम्नाय युग आ रहा है, जो संपूर्ण जीव जगत को ही ब्रह्म भावापन कर देगा…, और जिसके गुरु और सम्राट, दोनों ही साक्षात परमात्मा, श्री हरि होंगे I

ऐसा ही पूर्व के महायुगों में प्रकट हुए गुरुयुगों में भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में भी होगा I

 

और कुछ बातें उस आगामी गुरुयुग के बारे में …

उस आगामी गुरु युग में कर्ममुक्ति का ही मार्ग होगा I

उस आगामी गुरु युग की आयु कोई 10,000 वर्षों की होगी I

पञ्च मुखा सदाशिव के पाँच मुखों से, 2592 वर्षों के अंतराल में एक योगी आएगा I

इन योगीजनों में से योगेश्वर का योगी इस आगामी गुरुयुग का संस्थापक होगा I

वही महेश्वर का योगी, इस युग के अंत में, ईशान मुख से सूक्ष्म रूप में लौटेगा I

ऐसा आने के पश्चात, ईशान का योगी इस गुरुयुग के मार्गों को लेकर चला जाएगा I

जब ऐसा हो जाएगा, तब यही कलियुग, शनैः शनैः ही सही लेकिन लौट आएगा I

ऐसा ही पूर्व के महायुगों में प्रकट हुए गुरुयुगों में और उन गुरुयुगों के पूर्ण होने पर भी भी हुआ था, और ऐसा ही आगामी गुरुयुग में और उस आगामी गुरुयुग के पूर्ण होने पर भी होगा I

यहाँ जो 2592 वर्ष कहे गए हैं, वो रसाताल की इकाई में बताए गए हैं, क्यूंकि आज के समय में यही इकाई इस पृथ्वीलोक पर लागू होती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

मैंने अपने जीव इतिहास में वो गुरुयुग कई बार आते हुआ देखा है, और जिसकी प्रकटीकरण प्रक्रिया बहुत भयावह ही होती है I और मुझे वो स्मरण भी है क्यूंकि में प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही रहा हूँ I

उस गुरुयुग के आगमन से पूर्व प्रकृति और उनके परिकर एक खंडित लेकिन विकराल स्वरूप धारण करते हैं, और जहाँ वो प्रकृति और उनके परिकर जिसमें जीव बसे हुए होते है, वही जीवों के भीतर भी होती है I

इसलिए आगामी कालखंड में, वो विकराल स्वरूप जीवों के भीतर और बाहर, दोनों ही ओर से, अपने खंडित रूप में ही सही, लेकिन दिखाई देगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और पूर्व के समस्त गुरुयुगों के समान, आगामी गुरुयुग में भी जो तारक नाद स्वरूप में होगा, वो राम का शब्द ही होगा I

मैं यह स्पष्ट बोल रहा हूँ, कि इस पृथ्वी लोक के जीवों सहित, मानव जाति अब उस दशा पर जा चुकी है, जिसे काटने का मार्ग केवल संघार ही होता है… और ऐसा ही आगामी कालखंड में, खंडित स्वरूपों में ही सही, लेकिन बार बार होगा I

वो संघार भी मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक, तीनों स्वरूपों में होगा I और इसी प्रक्रिया से गुरुयुग के विशुद्ध अहम् के मूलमार्ग का प्रकाश भी होगा I

गुरुयुग कभी भी लुल्ल-पुल्ल होकर नहीं आता, वो करोड़ों सिंघों की दहाड़ लेके ही आता है I

और जहाँ यह दहाड़ जीव के भीतर और बाहर, प्रकृति और देवलोकों सहित, समस्त ब्रह्माण्ड में ही सुनाई देती है, और समस्त जीव जगत को विशुद्ध करती ही चली जाती है I

यह योगेश्वर, अर्थात कार्य ब्रह्म या महेश्वर या सृष्टिकर्ता की दहाड़ होती है I

और इसकी प्रारंभिक दशा का शब्द रा और मममम शब्दों की योगावस्था का ही होता है, जो साधक के गुरु चक्र से लेकर, वज्रदण्ड चक्र के ऊपर के भाग तक भी सुनाई देती है I

और इस दहाड़ का अंतिम शब्द रा और के शब्दों की योगावस्था का होता है, जो वज्रदण्ड चक्र के ऊपर के भाग से लेकर, निरालम्ब चक्र तक सुनाई देती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

दुष्टों के लिए, यह दहाड़ राख होने का कारण होगी I और सदमार्गों के जीवों के लिए यही दहाड़ राम नामक शिव तारका मंत्र ही होगी I

इस दहाड़ का गंतव्य शब्द नहीं होता, क्यूंकि यह दहाड़ साधक की चेतना को में शब्दातीत ब्रह्म में ही लेके जाती है, जिनका निवास स्थान निरालम्ब चक्र से ऊपर होता है, और जिसको सिद्धों ने निरालम्बस्थान भी कहा था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस विश्वव्यापक दहाड़ का मूल और गंतव्य शब्द राम है और इसके मार्ग का शब्द राख है I और यही दोनों शब्द, गुरु युग आगमन का मूल, गंतव्य और मार्ग भी बताते हैं I

ऊपर बताए गए शब्दों में, …

दुष्टों के लिए राम ही राख होने का कारण होंगे I

और शुद्ध जीवों के लिए राम ही मुक्ति का नाद होंगे I

इसलिए आगामी कालखंड की गुरुयुग आगमन प्रक्रिया में, …

दुष्टजन राम सुनकर ही राख होंगे I

और शुद्ध जनों के राम ही राखा होंगे I

 

वैसे राम भगवान् को श्रीविष्णु का अवतार माना जाता है, लेकिन मेरे पूर्व जन्मों के कालखंडों में, योगीजनों द्वारा उन्ही भगवान् राम को योगेश्वर, महेश्वर का स्वरूप भी माना जाता था I

 

कर्मातीत मुक्ति का मार्ग, कर्ममुक्ति का मार्ग, कर्ममुक्ता का मार्ग, कर्ममुक्त का मार्ग, कर्ममुक्त, कर्ममुक्ता, …

क्यूंकि कलियुग की काली काया ने इस मूल बिंदु को ही ढक लिया है, इसलिए इस मृत्युलोक (अर्थात पृथ्वीलोक) में अब कर्मातीत मुक्तिमार्ग भी लुप्त से ही हो गए हैं I

जब मैं सूक्ष्मादि लोकों में भ्रमण करता हूँ, तो यह बात स्पष्ट दिखाई देती है, कि अब मानव जाती के अधिकाँश का भी अधिकांश भाग मुक्त ही नहीं हो रहा है I

ऐसा होने का मूल कारण भी वही है जो पूर्व में बताया गया था, कि ब्रह्म भावापन हुए बिना ही वेद मनीषि, वेदादि मंत्रों और सुत्रों का पठन, पाठन और गान करते हैं I

पुरातन कालों में, गुरुजनों द्वारा सर्वप्रथम उनके शिष्यों की सर्वव्यापक भावनात्मक स्थिति को बनाया जाता था, और इस सिद्धि के पश्चात ही गुरुजन शिष्यों को वेद मंत्रों और सुत्रों में लेके जाते थे I

लेकिन इस कलयुग में तो यह ब्रह्म भावापन का मूल सिद्धांत ही लुप्त हुआ है I

और यही इस कलियुग की सबसे बड़ी विडंबना का कारण भी बना है, कि अधिकांश रूप में जीव जातियां उस मुक्ति को ही नहीं पा रही है, जो उन सबके जीव रूप में आने का मूल कारण था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब कर्म करते समय, साधक के भाव समस्त जीवों और संपूर्ण जगत से जुड़े होते हैं, तो उन कर्मों के फल भी सार्वभौमिक ही होते हैं, और ऐसे फलों के संस्कार भी अतिसूक्ष्म ही होते है I

जब साधक ऐसे सार्वभौमिक और सर्वव्यापक जीव जगत के हित्त से सम्बद्ध भावों में बसकर कर्म करेगा, तो शनैः शनैः उस साधक के समस्त संस्कार भी अतिसूक्ष्म होते चले जाएंगे, अर्थात वो संस्कार भी शुद्धिकरण को पाएंगे I

और ऐसा साधक ही उस मार्ग पर गमन करने का पात्र बनता है, जो अंततः उस साधक को कर्मातीत मुक्ति की ओर लेके जाता है I

यही कर्मातीत मुक्ति का मूलमार्ग है, और इस मार्ग के गुरु और सम्राट, हृदय की चित्त गुफा में बैठे हुए सनातन गुरु और सार्वभौम सम्राट, चित्तातीत श्रीमन नारायण ही हैं I अनंत चिदाकाश का शब्द, श्रीमन नारायण का ही वाचक है I चेतन नामक शब्द भी श्रीमन नारायण को ही दर्शाता है I

और इस मार्ग में, जब उस साधक के संस्कार इतने सूक्ष्म हो जाएंगे, कि वो समस्त जगत की पकड़ से ही बाहर चले जाएंगे, तो वो साधक जागतातीत मुक्ति को पा जाएगा I और इस जगतातीत मुक्ति से पूर्व, वो साधक दो और मुक्ति को पाएगा, जो देवातीत मुक्ति और जीवातीत मुक्ति कहलाती हैं I

ऐसा साधक ब्रह्माण्ड से ही अतीत होकर, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति को पाता है I

और इसी मुक्ति की दशा से वो साधक कर्मातीत मुक्ति को पाता है I

ऐसा साधक समस्त कर्मों से, उन कर्मों के समस्त फलों और संस्कारों से ही पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है I इसी को कर्ममुक्ति कहते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस कर्ममुक्ति का मार्ग हृदयाकाश गर्भ से होकर भी जाता है, जिसको एक बाद के अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा और जो आंतरिक यज्ञ मार्ग कहलायेगा I

इस हृदयाकाशगर्भ तंत्र से साधक कर्मों, उनके फलों और संस्कारों को शून्य करता है…, और अंततः कर्मातीत मुक्ति को पाता है I

इस हृदय आकाश गर्भ में बसे हुए गुरु भी, वही जीव जगत के सनातन गुरुदेव और सार्वभौम सम्राट, श्रीमन नारायण ही है I

इस हृदयाकाश गर्भ की दिव्यता भी जगदगुरु माता, शारदा सरस्वती हैं I

इस जन्म में मैंने इस हृदयाकाश तंत्र का मार्ग भी सनातन गुरु, श्रीमन नारायण के मार्गदर्शन से ही पार किया था I लेकिन मेरे हृदयाकाश में वो सनातन गुरु, एक बहुत पतले से, वृद्ध साधुबाबा के रूप में प्रकट हुए थे I

और जब यह दीक्षा और मार्ग पूर्ण हुआ था, तब उन वृद्ध साधुबाबा के रूप में आए सनातन गुरुदेव ने तो मुझे यही बोल दिया था …

इससे आगे न जीव जगत है और न ही कुछ और है…, मैं भी नहीं मिलूंगा I

इससे आगे कैवल्य पथ है…, इसलिए अब इससे आगे तू स्वयं ही स्वयं में जा I

इससे आगे तू केवल होकर ही जा…, और कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हो जा I

इसी कारणवश मैं मानता भी हूँ, कि कैवल्य मोक्ष, मेरे सनतान गुरुदेव का अनुग्रह ही है…, नाकि मेरे या किसी और के कर्म I

 

इसलिए अब उस कर्मातीत मुक्ति के मार्ग की परिभाषा बताता हूँ …

जिसमें न कोई कर्म हुआ और न ही कोई फल हुआ, वही कर्ममुक्ति का मार्ग है I

पर ऐसा मार्ग तो अनुग्रह का होता है इसका योगी, अनुग्रह सिद्धि कहलाता है I

और ऐसा होने के लिए, किसी मुक्तात्मा का अनुग्रह ही कारण बनता है I

लेकिन मेरी हृदय गुफा में बसे हुए, मेरे सनतान गुरुदेव श्रीमन नारायण तो मुक्तात्माओं द्वारा ही बताए गए परमात्मा ही हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और कर्मातीत मुक्ति की मूल परिभाषा बताता हूँ …

जो कर्म, कर्म फल और उनके संस्कारों से अतीत हो, वही कर्ममुक्ति है I

 

कर्मातीत मुक्ति में साधक सर्वातीत हो जाता है, क्यूंकि कर्मों को पार करने पर न तो कोई देवत्व और जीवत्व रहता, है और न ही जगतव I

इसलिए यह कर्ममुक्ति, साधक को ब्रह्म की समस्त रचना, अर्थात महाब्रह्माण्ड से ही परे लेके चली जाती है I

इसीलिए इस कर्मातीत मुक्ति को फलातीत मुक्ति, संस्कारातीत मुक्ति, लोकातीत मुक्ति, ब्रह्माण्डातीत मुक्ति, रचनातीत मुक्ति, कर्मशून्य मुक्ति, फलशून्य मुक्ति और संस्कार शून्य मुक्ति, इत्यादि भी कहा जा सकता है I

क्यूंकि यह कर्मातीत मुक्ति ब्रह्म की समस्त रचना से ही परे होती है, इसलिए इस मुक्ति को सर्वातीत मुक्ति भी कहा जा सकता है I

और क्यूंकि यह कर्मातीत मुक्ति साधक को पूर्ण स्वतंत्रता की ओर लेके जाती है, इसलिए इस मुक्ति को पूर्ण मुक्ति, स्वतंत्र और पूर्ण स्वतंत्रता आदि शब्दों से भी दर्शाया जा सकता है I

 

इसलिए अब मैं इस कर्मातीत मुक्ति और मुक्तात्मा की दशानुसार इनको परिभाषित करता हूँ …

जो पूर्ण स्वतंत्रता और सर्वातीत को दर्शाती है, वही कर्मातीत मुक्ति है I

जो लोकातीत, देवातीत, दशातीत, दिशातीत, मार्गातीत हो, वो कर्ममुक्ति है I

जो रचनातीत, जीवातीत, जगतातीत और ब्रह्माण्डातीत हो, वो कर्ममुक्ति है I

को फलातीत, संस्कारातीत, पूर्णातीत, सर्वातीत हो, वही कर्ममुक्ति है I

जो और जिसका मार्ग ही कर्मशून्य, फलशून्य, संस्कार शून्य हो, वही कर्ममुक्ति है I

जो केवल, कैवल्य मोक्षादि शब्दों से बताई जाती है, वो कर्ममुक्ति है I

जब योगी स्वयं ही स्वयं में बसकर, भावातीत होगा, वो कर्ममुक्ति है I

कर्ममुक्ति को पाया हुआ साधक ही वास्तव में केवल है, मुक्तात्मा ही है I

मुक्तात्मा को ही स्वतंत्र, कैवल्य मुक्त, मुक्तादि शब्दों से बताया जाता है I

मुक्तात्मा जीवित होता हुआ भी, अपने आत्मस्वरूप में पूर्ण स्वतंत्र ब्रह्म ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसी मुक्ति पूर्ण होती है, क्यूंकि इसके पश्चात, वो योगी न तो जीव कहलाया जा सकता है और न ही जगत I

इस मुक्ति के पश्चात, वो योगी रचना में रहता हुआ भी, रचना का ही जीव स्वरूप प्रतीत होता हुआ भी, उसके अपने आत्मस्वरूप में, न तो रचना होता है और न ही नहीं होता है I

कर्ममुक्त योगी रचनातीत होकर, सर्वातीत ही होता है I

 

ऐसा कर्ममुक्त योगी, …

जीव रूप में दिखाई देता हुआ भी, जीवातीत ही है I

किसी दशा में रहता हुआ भी, उसके अपने आत्मस्वरूप में दशातीत ही है I

ब्रह्माण्ड में रहता हुआ भी, अपने आत्मस्वरूप में, ब्रह्माण्डातीत ही है I

रचना तंत्र में बसा हुआ भी, अपने आत्मस्वरूप में तंत्रातीत ही है I

कर्मों और फलों को भोगता प्रतीत होता हुआ भी, कर्मातीत और फलातीत ही है I

वो न रचना में है और न ही नहीं है…, वो न रचना है और न ही नहीं है I

वो रचना में है और नहीं भी हैवो रचना भी है और नहीं भी है I

वो पृथक लोकों में लौटा और रहता हुआ भी, लोकि नहीं होता…, वो लोकातीत ही है I

 

ऐसा होने के कारण, यदि कोई ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं से उसके बारे में पूछेगा, तो उत्तर वही मिलेगा जो नीचे बताया गया है …

वो है लेकिन तब भी नहीं रहा…, वो नहीं है, लेकिन तब भी सदैव ही रहेगा I

वो होता हुआ भी नहीं है…, और नहीं होता हुआ भी सदैव ही है I

वो अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को प्राप्त हुआ तुरीयातीत आत्मा ही है I

और उसका तुरिया से भी अतीत, तुरीयातीत आत्मस्वरूप…, सर्वात्मा ही है I

इसलिए, वो न है, और ना ही नहीं है…, वो नहीं है और वो है…, वो अवर्णनीय है I

इस कर्मातीत मुक्ति का मार्ग भी उस निर्गुणयान से होकर जाता है जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, और जहाँ इस यान को अद्वैतयान भी कहा गया था I

 

जो योगी कर्मातीत होता है… वह, …

भूततीत होता है, और ऐसे योगी को भूतात्मा भी कहा जाता है I

जो योगी भूतात्मा होता है, वही भूतमुक्त भी कहलाता है I

जो भूतमुक्त है, उसके उत्कर्ष पथ की अंतगति अनंत आकाशात्मा होती है I

जो आकाशात्मा है, वही महाकाश कहलाता है, जो ब्रह्म को दर्शाता है I

ऐसा कर्मातीत योगी, …

तन्मात्रातीत होता है, और ऐसे योगी को तन्मात्रात्मा भी कहा जाता है I

जो तन्मात्रात्मा होता है, वही तन्मात्रमुक्त कहलाता है I

जो तन्मात्र मुक्त होता है, उसके उत्कर्ष पथ की अंतगति शब्दात्मा ही होती है I

जो शब्दात्मा है, वही शब्दाकाश कहलाता है, जो ब्रह्म को दर्शाता है I

ऐसा कर्ममुक्त योगी, …

लोकात्मा होता है, और ऐसे योगी को ब्रह्माण्डात्मा भी कहा जाता है I

जो ब्रह्माण्डात्मा हो, वही लोकमुक्त कहलाता है I

जो लोकमुक्त हो, उसके उत्कर्ष पथ की अंतगति सर्वात्मा कहलाती है I

जो सर्वात्मा है, वही सर्वाकाश है, जो ब्रह्म को पूर्णरूपेण दर्शाता है I

 

टिपण्णी: यहाँ कहा गया पूर्णरूपेण शब्द, ब्रह्म के अभिव्यक्ता स्वरूप सहित, उन ब्रह्म की जीव जगत रूप में, समस्त अभिव्यक्तियों को भी दर्शाता है I

 

ऐसा कर्मातीत मुक्ति को पाया योगी, …

गुणातीत होता है, जो अनंत गुणाकाश होकर, गुणात्मा कहलाता है I

ऐसा योगी गुणमुक्त कहलाता है, और अंततः निर्गुण ब्रह्म को पाता है I

निर्गुण ब्रह्म को ही केवल, कैवल्य मोक्ष, मोक्ष आदि कहा जाता है I

निर्गुण ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्ति ही जीव जगत, पिण्ड ब्रह्माण्ड कहलाती है I

ऐसा कर्मातीत मुक्ति को पाया हुआ योगी, …

कालातीत होता है, जो अनादि अनंत अखंड काल ही होकर, कालात्मा कहलाता है I

जो कालमुक्त है, वो अंततः काल के गंतव्य, सनातन ब्रह्म को दर्शाता है I

 

ऐसा कालातीत योगी का मार्ग, …

सर्वदिशा व्यापक होकर, अंततः समस्त उत्कर्ष मार्गों से अतीत होता है I

जो उत्कर्ष मार्गों से अतीत हो, उसका न तो कोई मार्ग होगा…, ना ही नहीं होगा I

ऐसा योगी ही मार्गों से परे होकर, मार्गातीत और दिशातीत कहलाता है I

और इस दिशातीत सिद्धि को पाये हुए योगी की चेतना, सर्वदिशा व्याप्त होती है I

और ऐसा योगी सर्वदिशा दर्शी, अर्थात सर्वमार्ग दर्शी ही होता है I

 

टिपण्णी: यहाँ कहा गया दिशा का शब्द, उत्कर्ष मार्गों को दर्शाता है I और यहाँ कहे गए सर्वदिशा व्याप्त, सर्वदिशा दर्शी, और सर्वमार्ग दर्शी के शब्द, उत्कर्ष मार्गों, उनके मूल और उनके गंतव्य, अर्थात कर्मातीत मुक्ति को दर्शाते हैं I

 

ऐसा कर्मातीत योगी, …

सर्वदशा व्यापक होकर, अंततः समस्त लोकों से अतीत होता है I

जो समस्त लोकों से अतीत हो, उसका न तो कोई लोक होगा…, ना ही नहीं होगा I

ऐसा योगी ही समस्त दशाओं से परे होकर, लोकातीत और दशातीत कहलाता है I

और इस दशातीत सिद्धि को पाये हुए योगी की चेतना, सर्वदशा व्याप्त होती है I

ऐसे योगी की चेतना सर्वव्यापक होकर, सर्वलोक व्याप्त होती है I

 

ऐसा कालमुक्त योगी अंततः, …

अपने ही आत्मस्वरूप में पूर्ण शब्द से दर्शाया गया ब्रह्म ही होता है I

और जहाँ वो ब्रह्म सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार भी होगा I

ऐसे योगी का ब्रह्म रूपी आत्मस्वरूप, जीव जगत होता हुआ भी, सर्वातीत ही होगा I

और ऐसे योगी का ब्रह्म रूपी आत्मस्वरूप, इन सबका साक्षी होकर ही रहेगा I

उस सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप का योगी, प्रज्ञानं ब्रह्म सरीका होकर ही रहेगा I

 

इस कर्ममुक्ति की / का, …

मार्ग उस अहम् विशुद्धि से प्रारम्भ होता है, जिसका अंत अहम् ब्रह्मास्मि है I

दशा मन की पूर्ण स्थिरता से होकर जाती है, जिसका अंत तत् त्वम् असि है I

गति उस संस्कार रहित चित्त से होकर जाती है, जिसका अंत अयमात्मा ब्रह्म है I

अंतत: वृत्तिहीन बुद्धि से होकर जाता है, जिसका गंतव्य प्रज्ञानं ब्रह्म है I

 

और जब ऐसा हो जाता है, तब साधक के, …

प्राण मेरुदंड में प्रवेश करके, सहस्रार नामक सुमेरु की ओर, ऊपर उठते हैं I

और अंततः साधक, सोऽहं को पाता है…, और हंस होकर ही रह जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ, …

ऐसा योगी यदि लौटके भी आएगा, तो भी उसको लौटा हुआ नहीं माना जा सकता I

जो योगी इन सभी दशाओं को पाया है, वही कर्ममुक्त है…, पूर्ण ब्रह्म, मुक्तात्मा है I

ऐसे योगी का आत्मस्वरूप उन पूर्णब्रह्म को दर्शाता है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाते हैं I

 

यह कर्मातीत मुक्ति की दशा है, जिसमे साधक उसके अपने आत्मस्वरूप में वैदिक महावाक्यों का मूल सहित, उनके सार और उनके गंतव्य की अद्वैत योगावस्था को पाता है…, और ब्रह्माण्डीय दिवताताओं में पूर्ण ब्रह्म ही कहलाता है I

ऐसे साधक का मूलमार्ग पञ्च विद्या सरस्वती का ही होगा I ऐसा कहने का कारण है, कि पञ्च सरस्वती ही योग चतुष्टय के गंतव्य, अर्थात आत्मयोग और उसके मार्ग की मूल दिव्यताएं हैं I

 

टिप्पणियां:

  • कलियुग की एक और विडंबना रही है, कि इस युग ने पञ्च सरस्वती विद्या का मार्ग ही लुप्त कर दिया I
  • जो आज के कलियुग के समय में बचा हुआ है, वो केवल कुछ बिंदु ही हैं न कि वो विराट ज्ञान, जिसके अन्तर्गत समस्त दिव्यताएं आती थी I
  • यह भी वो कारण है कि अब वैदिक वाङ्मय अपना मोक्ष रूपी गंतव्य अनुग्रह अधिकाँश वेद मनिषियों को ही प्रदान नहीं कर रहा है I
  • जब पञ्च विद्या के मार्ग लुप्त होते हैं, तब ब्रह्माण्डीय तिरोधान प्रबल होता है, और ऐसी दशा में इस पृथ्वीलोक में अनुग्रह कृत्य ढक जाता है, जिससे जीव मुक्ति से ही वंचित होने लगते हैं I
  • और अंततः ऐसी दशा आती है, जिसमें कुछ विरले वेद मनीषियों को छोड़कर, कैवल्य मोक्ष और उसका मार्ग बस एक व्यर्थ शब्द रूप में ही रह जाता है I
  • जब मैं अपनी साधनाओं में देखता हूँ, कि कितने वेद और योग मनीषियों के पास वो विशुद्ध कैवल्य मार्ग नामक सिद्धि है, तो मुझे बस कुछ ही सुनहरे प्रकाश के परमाणु को धारण किए हुए योगीजन, कुछ दुर्गम स्थानों पर, गुफाओं कंदराओं आंदि में बैठे हुए दिखाई देते हैं I
  • लेकिन इस साधना के साक्षात्कार का तो यह भी अर्थ हुआ न, कि आज कलियुग की काली काया इतनी मोटी हो गई है, कि मानव समाज में कोई कैवल्य मुक्त योगी बचा ही नहीं I
  • और मैं कभी कभी तो सोचता भी हूँ…, क्या यही तो वो कारण है, कि आज के वेद मनीषी भी अपने भीतर के मणि को छोड़कर, बहार के व्यर्थ बिन्दुओं में ही रमण कर रहे हैं I और ऐसी दशा में वो स्वयं सहित, मानव जाती को ही गर्त में लेके जा रहे हैं I
  • और ऐसा तब भी है, जब मेरे पूर्व जन्मों के वेद मनिषियों ने ही वो कहा था, जो नीचे लिखा गया है…

जो अपने भीतर के मणि को त्यागके, बाहर की वस्तुओं में रमण करता है, उसको टूटे हुए कांच के टुकड़ों से सिवा कुछ भी प्राप्त नहीं होता है I

 

इसलिए, …

यदि कैवल्य मोक्ष रूपी ब्रह्म को पाना है, तो स्वयं ही स्वयं में जा I

यदि कुछ और पाना है, तो कहीं भी जा…, इस ग्रन्थ में तो बिलकुल मत आ I

 

जिसको ऊपर लिखे हुए बिन्दुओं पर कोई भी शंका है, वो आज की मानव जाती और मानव समाज का ध्यानपूर्वक अध्ययन करे…, इन टिप्पणियों में बताए गए बिंदुओं का पूरा प्रमाण मिल जाएगा I

मैं यह बातें 170 से भी अधिक देशों में घूमने के बाद बोल रहा हूँ I

 

मुक्ति के प्रकार, … निर्गुण लिंग और जीवन मुक्ति, ईशान का निर्गुण लिंग, ईशान का निर्गुण चक्र, निर्गुण चक्र और जीवन मुक्ति, … जीवनमुक्त, विदेहमुक्त, जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति, जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति, … विदेहमुक्त कौन?, जीवनमुक्त कौन?, जीवनमुक्त किसे कहते हैं, जीवनमुक्ति क्या है?, जीवनमुक्ति किसे कहते हैं, विदेहमुक्ति क्या है?, विदेहमुक्ति किसे कहते हैं?, …

अध्याय का यह भाग भी ईशान ब्रह्म से पूर्ण सम्बद्ध है क्यूंकि यह भाग ईशान का ही अंग है I इसलिए इस भाग को पूर्व के ईशान नामक ब्रह्म के अध्याय से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए I

जिस साधक ने हृदय के निर्गुण लिंग का साक्षात्कार कर लिया होगा, वो साधक उस मार्ग पर स्वतः ही चला जाता है, जिससे वो साधक अंततः जीवनमुक्ति को पा ही जाएगा I

जो योगी जीवित होता हुआ भी मुक्तात्मा हुआ है, वही जीवनमुक्त है I

जो योगी कायाधारी होता हुआ भी कायामुक्त है, वो जीवनमुक्त है I

जो जीवित सा प्रतीत होता हुआ भी मुक्त हुआ है, वही जीवन मुक्त है I

जो जीव जगत को अपने सर्वसाक्षी भाव में देखता है, वही जीवन मुक्त है I

जो कर्म करता प्रतीत होता हुआ भी, कर्मों का साक्षी ही है, वही जीवनमुक्त है I

जो फलों को भोगता हुआ भी, उनसे अलगाव लगाव नहीं करता, वो जीवनमुक्त है I

जो सर्वकल्याण के लिए ही कर्म और फलों में प्रतीत होता है, वो जीवनमुक्त है I

जो जीव जगत में बसा हुआ भी, उसका केवल साक्षी ही है, वो जीवनमुक्त है I

जो स्वयं ही स्वयं में रमण करता, आत्मस्वरूप ही है, वो जीवनमुक्त है I

जो अपने आत्मा के सर्वाधार और सर्वातीत स्वरूपों को जाना है, वो जीवनमुक्त है I

जो अपने आत्मा के सर्वाधार और सर्वातीत स्वरूप में ही बसा है, वो जीवनमुक्त है I

जिसको न जीव जगत और न ही कोई और पूर्ण जान पाया है, वो जीवनमुक्त है I

जो जीव रूप में होता हुआ भी, अपनी आत्म के ब्रह्म रूप में है, वो जीवनमुक्त है I

जो गुरु शिष्य माता पिता पुत्रादि होता हुआ भी, नहीं है, वो जीवनमुक्त है I

जो परंपरा सम्प्रदाय में होता हुआ भी, इनसे अतीत है, वो जीवनमुक्त है I

जो सनातन यात्री के समान लोकादि में आताजाता रहता है, वो जीवनमुक्त है I

जो कायाधारी होता हुआ भी, निरकाया आत्मस्वरूप ही है, वो जीवनमुक्त है I

जो आत्मा और ब्रह्म भावापन के अद्वैत योगभाव में स्थित है, वो जीवनमुक्त है I

जो जाना है कि पिंड ही ब्रह्माण्ड है और आत्मा ही पूर्णब्रह्म, वो जीवनमुक्त है I

जिसको पूर्णरूपेण न कोई और, न ही वो स्वयं ही जाना है, वही जीवनमुक्ति है I

जिसको प्राप्त होकर भी, पूर्णरूपेण नहीं जान सकते, वो जीवनमुक्ति है I

 

इसलिए, वेद मनीषी कैवल्य मोक्ष रूपी ब्रह्म के लिए ऐसा भी कह गए थे, …

जो उसको जानता है, और मानता है कि पूर्णरूपेण जानता है, वो नहीं जानता है I

जो उसको जानता है, और मानता है कि पूर्णरूपेण नहीं जानता है, वही ज्ञानी है I

और यही वाक्य जीवनमुक्ति और जीवनमुक्त पर भी लागू होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यदि इस निर्गुण लिंग साक्षात्कार से मुक्त हुआ साधक, अपने प्राणों का त्याग नहीं करता, तो वो साधक जीवनमुक्त होकर ही रह जाता है I

और ऐसा साधक जब आगे के समय में विदेही होता है, तब वो विदेहमुक्त ही कहलाता है I

देहावसान के पश्चात पाई गई मुक्ति, विदेहमुक्ति कहलाती है I

जो विदेही होने के समय ही मुक्त हुआ है, वही विदेहमुक्त कहलाता है I

जो देहावसान पर, सर्वाधार और सर्वातीत दोनों हो जाए, वो विदेहमुक्त है I

 

ऊपर बताए गए बिंदुओं का यह भी अर्थ हुआ, कि ऐसा साधक, …

जबतक जीवित रहेगा, तबतक वो जीवनमुक्त ही कहलाएगा I

और जब वह जीवनमुक्त साधक विदेही हो जाएगा, तब वही विदेहमुक्त कहलाएगा I

 

लेकिन इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि …

जीवनमुक्त अंततः विदेहमुक्त ही होता है I

लेकिन विदेहमुक्त होने के लिए, पूर्व में जीवनमुक्त होना अनिवार्य नहीं है I

यहां बताए जा रहे बिन्दुओं में ईशान ब्रह्म ही हैं, और जहाँ ईशान ही जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति दोनों के ही कारण और कारक हैं I

 

कपाल के ईशान मुख और आत्यंतिक प्रलय, … ईशान साक्षात्कार और आत्यंतिक प्रलय, … आत्यंतिक प्रलय क्या है, ईशान ब्रह्म और आत्यंतिक प्रलय, ईशान ब्रह्म का आत्यंतिक प्रलय से नाता, …

यह 2011 ईस्वी का चैत्र मास की बात है I

जब साधक की चेतना अष्टम चक्र (या निरालम्ब चक्र या निरालम्बस्थान) को पार करती है, और वो चेतना उन अनंत रात्रि के समान शून्य ब्रह्म में चली जाती है I

और ऐसी दशा में, उन अनंत रात्रि के समान शून्य ब्रह्म के भीतर ही वो चेतना एक निरंग झिल्ली के समान ईशान का साक्षात्कार करती है I

और जैसे ही ऐसा साक्षात्कार होता है, वैसे ही वो साधक आत्यंतिक प्रलय को चला जाता है I

यहाँ बताए गए निरालम्ब चक्र का मूल ज्ञान अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे खंड के एकत्तीसवें मंत्र में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है I और इस साक्षात्कार का मार्ग भी ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय से प्रारम्भ होता है, ॐ साक्षात्कार से जाता है, और इसके पश्चात, राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) से भी होकर जाता है I

इसलिए इस मार्ग पर, साधक के त्रिनेत्र के स्थान पर ही, साधक की काया के भीतर परमगुरु शिव के विश्वनाथ स्वरूप की काशी नगरी की गंगा यमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है I

जब त्रिनेत्र क्षेत्र में यह संगम होता है, तब ही साधक की चेतना उस मार्ग पर जाती है, जिससे साधक जीवनमुक्त होता है I इसलिए जीवनमुक्ति के देवता, काशी के संगम स्थान के भगवान् विश्वनाथ ही हैं, और जहाँ उस आंतरिक काशी नगरी का यह संगम, साधक के त्रिनेत्र क्षेत्र में ही होता है I

 

टिपण्णी: लेकिन आज तो अधर्मी सरकारों ने भगवान् के स्थान की भौतिक सुंदरता बढ़ाने के लिए, पर्यटन से अर्थ कमाने के लिए और अपनी व्यर्थ प्रसंशा करवाने के लिए, उन भगवान् विश्वनाथ की दिव्यता धारण किए हुए कई सारे मंदिरों के देवताओं को ही नष्ट किया है I यह भी वो कारण बना है, कि इस नष्ट करने की प्रक्रिया के पश्चात, इस कलियुग में अब किसी की भी मुक्ति नहीं हो रही है I और ऐसे मुक्तिरहित विश्व होने का मूल कारण आज के चाटुकार आचार्य और बनिए योगीजन भी हैं I आगामी समयखण्ड में इन सबको दण्ड मिलेगा ही I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह एक बहुत कष्टदायक दशा है, क्यूंकि वो आत्यंतिक प्रलय अपने पूर्णरूप में साधक के शरीर के भीतर ही चलित हो जाती है I

कुछ ही साधक ऐसे हुए हैं, जो इस आत्यंतिक प्रलय में जाने के पश्चात भी अपनी काया को रख पाते हैं, अर्थात जीवित रह पाते हैं I

और ऐसे विरले से भी विरले साधक ही इस अध्याय में बताए गए बिंदुओं को प्रकाशित कर पाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह आत्यंतिक प्रलय का मार्ग भी अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे सूक्त के इकत्तीसवें, बत्तीसवें और तैंतीसवें मंत्रों में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में दिया गया है I पुरातन कालों में, इसी को आंतरिक अश्वमेध मार्ग भी कहा जाता था I

इसी ब्रह्म कल्प में, अब तक मैं इस मार्ग पर एक सौ एक बार गमन कर चुका हूँ, अर्थात इसी ब्रह्म कल्प में, मैंने इस आत्यंतिक प्रलय को एक सौ एक बार पाया है I

और इस जन्म में तो मैं इस आत्यंतिक प्रलय में जाकर भी बच गया, क्यूंकि वो गुरुदक्षिणा जिसके लिए मैं इस काया रूप में, परकाया प्रवेश के मार्ग से ही सही, लेकिन आया हूँ…, वो पूर्ण नहीं हुई है I

और मुझे ऐसा अनुमान भी है, कि जब यह पूर्ण होगी, तब मेरा मानव समाज से प्रस्थान भी हो ही जाएगा, क्यूंकि मुक्तात्मा किसी भी समाज में केवल तबतक ही रहना चाहता है, जबतक उसका वो कार्य पूर्ण नहीं होता, जिसके लिए उसे लौटाया गया था I और जो आगमन (या जन्म) से पूर्व दशा से ही मुक्तात्मा नहीं, उसकी आत्मा भी केवल तबतक ही शरीरी होना चाहती है, जबतक उसका प्रारब्ध पूर्ण नहीं होता I

 

कपाल के ईशान मुख और सद्योमुक्ति, कपाल के ईशान मुख और सद्योमुक्त,… ईशान साक्षात्कार और सद्योमुक्ति, … सद्योमुक्त कौन?, सद्योमुक्ति क्या?, सद्योमुक्ति किसे कहते हैं?, सद्योमुक्त किसे कहते हैं? …

जब ईशान मुख का साक्षात्कार कपाल के ऊपर के भाग में शून्य ब्रह्म के भीतर होता है, तब वो साक्षात्कार उन ईशान के ही निरंग झिल्ली के समान सर्वव्यापक स्वरूप में होता है I

यह साक्षात्कार ही साधक को सद्योमुक्ति की ओर लेके जाता है I

इस और पूर्व के एक सौ जन्मों में, जब मैंने ईशान साक्षातकार कपाल के ऊपर के भाग में ही किया था, और तब भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ था I

और ऐसा सद्योमुक्त योगी, चार सप्ताह में ही अपनी काया का त्याग कर देगा क्यूंकि उसको पता चल गया होगा कि अब उसके लिए काया का कोई लाभ ही नहीं है I

और क्यूंकि सद्योमुक्ति की दशा आत्यंतिक प्रलय से होकर ही जाती है, इसलिए ऐसे साधकगणों की मृत्यु, अधिकांश रूप में तीन या चार सप्ताह के भीतर ही हो जाती है I

कुछ अतिविरले योगीजन ही इस सद्योमुक्ति के पश्चात अपनी काया को बचा पाते हैं, क्यूंकि सद्योमुक्ति के पश्चात अधिकांश योगीजन तो अपनी काया का ही परित्याग, योगमार्ग से कर देते हैं I

सद्योमुक्ति का मार्ग अकस्मात् ही खुलता है, इसलिए जो योगी सद्योमुक्ति को पाएगा, उसकी मुक्ति भी अकस्मात् ही होगी I

यहाँ कहा गया अकस्मात् शब्द उस दशा को दर्शाता है, जिसका कोई भी पूर्व संकेत या लक्षण नहीं होता…, इसलिए योगी के लिए यह सद्योमुक्ति बस अकस्मात् ही स्वयंप्रकट होती है I

वो योगी साधना कर रहा होगा, या शयन ही कर रहा होगा…, और अकस्मात् उसकी चेतना उस पथ पर गति करने लगेगी, जिससे वो सद्योमुक्ति को पाएगा I

 

तो अब सद्योमुक्ति क्या है, उसको बताता हूँ …

अकस्मात् पाई हुई जीवनमुक्ति ही सद्योमुक्ति कहलाती है I

जिस मुक्ति का कोई भी पूर्वसंकेत न मिले, वही सद्योमुक्ति है I

जिस मुक्ति से साधक आत्यंतिक प्रलय को चला जाएगा, वही सद्योमुक्ति है I

 

टिप्पणियां:

  • जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति से यदि आत्यंतिक प्रलय की दशा बन भी गई, तो भी वो पूर्ण प्रलय नहीं होगी…, बस इस आत्यंतिक प्रलय का न्यून स्वरूप ही होगी I
  • लेकिन सद्योमुक्ति से वो आत्यंतिक प्रलय अपने पूर्ण रूप में साधक की काया के भीतर ही स्वयंप्रकट हो जाएगी, जिसके कारण वो साधक अधिकांश रूप में और योगमार्ग से ही अपनी काया को त्यागने के लिए बाध्य भी हो जाएगा I इससे पिछले और उससे पिछले जन्म में भी मेरे साथ ऐसा ही हुआ था I
  • इससे पिछले जन्म में मैं, जब मैं भगवान् बुद्ध का वो शिष्य था, जिसका नाम मित्र शब्द पर था, मेरे गुरुदेव के परिनिर्वाण से कुछ दिवस पूर्व ही मेरा देहावसान योगमार्ग से हुआ था I
  • और उससे पिछले जन्म में, जब मैं अघोर मार्गी लेकिन वैष्णव राजयोगी था, और जिसका नाम पत्तल शब्द पर था, उसमें मैं कुल 26 वर्ष की आयु में ही इस आत्यंतिक प्रलय को पाया था और इसके कोई तीन सप्ताह में ही मैंने अपनी काया को योगमार्ग से त्यागा था I
  • लेकिन ऐसा तो और कई सारे पूर्व जन्मों में भी हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसे साधक के साथ, इस सद्योमुक्ति से पूर्व सभी कुछ समान चल रहा होगा, और ऐसी समान दशा से ही अचानक (अर्थात कुछ ही घंटों में) वो योगी सद्योमुक्त हो जाएगा I

लेकिन इस जन्म में इस सद्योमुक्ति से पूर्व, मेरा शरीर पीला पड़ गया था, क्यूंकि मेरुदण्ड के नीचे के भाग में एक सर्वलिंग बन गया था, जिसको मैं सांकेतिक रूप में पाताले हाटकेश्वरम (अर्थात सप्त पाताल का हाटकेश्वर लिंग) भी कह सकता हूँ I

और जब ऐसा हुआ, तो मेरी जो दशा थी, उसमें न तो मैं यहाँ था और न ही कहीं और ही था…, मेरी चेतना न तो इस लोक में थी और न ही किसी और लोक में ही थी I

और इसी दशा में पूर्णरूपेण बसकर, अकस्मात् ही एक रात्रि के समय जब कोई दो से तीन बजे होंगे, वो हुआ जिसको योगीजनों ने सद्योमुक्ति कहा है I

क्यूंकि अचानक से पाइ हुई दशा की तैयारी नहीं होती है, इसलिए ऐसी दशा भी बहुत-बहुत कष्टदायक ही होती है, जिसके कारण सद्योमुक्ति को प्राप्त हुआ योगी अपनी काया को अधिक समय तक रख ही नहीं पाता है I

जब उसको यह बात पता चलती है, तो वो योगी एक विशेष योगमार्ग से अपनी काया का परित्याग करने का ही सोच लेता है…, और अंततः अपनी स्थूल काया को उसी योगमार्ग से त्यागता भी है I

 

सद्योमुक्ति और तीर्थंकर, सद्योमुक्त और तीर्थंकर, तीर्थंकर किसे कहते हैं, तीर्थंकर कौन, योग और अयोग, लिंगोद्भव, तीर्थंकर और लिंगोद्भव, सगुण ब्रह्म, सगुण ब्रह्म का लिंगोद्भव, सगुण ब्रह्म का लिंगोद्भव स्वरूप, सगुण शिव, सगुण शिव का लिंगोद्भव, सगुण शिव का लिंगोद्भव स्वरूप, योग मार्ग में लिंगोद्भव, योग मार्ग का लिंगोद्भव, सद्योमुक्ति और तीर्थंकर, सद्योमुक्ति से तीर्थंकर, सद्योमुक्त और आंतरिक लिंगोद्भव, तीर्थंकर और आंतरिक लिंगोद्भव, आंतरिक लिंगोद्भव, योगमार्ग में लिंगोद्भव, लिंगोद्भव और सगुण शिव, लिंगोद्भव और सगुण ब्रह्म, लिंगोद्भव, योग लिंगोद्भव

सद्योमुक्ति एक बहुत विरली दशा है, और सद्योमुक्त योगी एक दुर्लभ योगी I

और इसके अतिरिक्त, जो योगी अपनी सद्योमुक्ति के पश्चात भी अपनी काया में रह गया, वो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में दुर्लभ से भी दुर्लभ योगी ही माना जाएगा, क्यूंकि ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में कुछ ही सद्योमुक्त हुए हैं, जो सद्योमुक्ति के पश्चात भी, अपनी काया को रख पाए होंगे I

विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति और सद्योमुक्ति तीनों ही ईशान ब्रह्म से संबंधित हैं I मुक्ति के समस्त प्रकार ईशान से ही संबद्ध हैं, क्यूंकि कैवल्य मोक्ष ही ईशान का और ईशान में ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यदि कोई साधक सद्योमुक्ति के पश्चात भी अपनी काया में रह पाता है (अर्थात जीवित रह जाता है), और ऐसे अतिदुर्लभ साधकगणों में से कोई एक साधक प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में से (जो योगतंत्र के चौबीस गुणों से भी संबंध रखते हैं) एक तत्त्व का देवत्व रूपी योगबिंदु ही हो जाता है… तो ऐसा साधक ही तीर्थंकर कहलाता है I

क्यूँकि प्रकृति के केवल चौबीस तत्त्व ही होते हैं, इसलिए ऐसे साधकगणों की संख्या भी केवल चौबीस तक ही सीमित होती है I

और क्यूँकि प्रकृति के यह चौबीस तत्त्व, योगतंत्र के चौबीस गुणों से भी संबंधित होते हैं, इसलिए ऐसे साधकगण इन चौबीस गुणों में से किसी एक गुण के धारक, द्योतक और सगुण लिंग भी होते हैं I

यह चौबीस गुण बौद्ध पंथ के उस बोधिचित्त सिद्धांत से भी जाने जाते हैं, जिसके बारे में एक आगे के अध्याय में बात होगी I

 

इसलिए, अब जो बताया जा रहा है, उसपर ध्यान देना …

जो सद्योमुक्त प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में से किसी एक तत्त्व का देवत्व बिंदु ही हो गया, वो तीर्थंकर कहलाता है I

जो सद्योमुक्त अपनी मृत्यु को टालकर, योगतंत्र के चौबीस गुणों में से किसी एक गुण का द्योतक और धारक हुआ है, वो तीर्थंकर कहलाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि सद्योमुक्ति के पश्चात, योगी गुणातीत होता ही है, इसलिए जो सद्योमुक्त योगी अपनी काया को रख पाया होगा, उसने अपनी गुणातीत अवस्था में बसकर ही, इन त्रिगुणों को अपनी काया के समीप पुनर्स्थापित भी किया होगा I

यहाँ मैंने “काया के समीप” वाक्य का प्रयोग किया है, न कि “काया में (या काया के भीतर)”, ऐसा कहा है…, तो इसपर ध्यान देना I

 

त्रिगुण की पुनर्स्थापना जैसे करी जाती है, अब उसको बतलाता हूँ …

योगी के मेरुदण्ड की सूक्ष्म दिव्यताओं के जो दो अंत भाग होते हैं, वो ऐसा होते हैं …

  • नीचे का अंत भाग, गुदा के समीप होता है I
  • और ऊपर का अंत भाग, योगी के शिवरंध्र के ऊपर के भाग में होता है I

वैसे तो मेरुदंड के स्थूल स्वरूप में, उसका नीचे का भाग गुदा से भी नीचे होता है, और उसी मेरुदण्ड का ऊपर का भाग, मस्तिष्क के नीचे ही होता है, लेकिन यहाँ पर जो दो भाग बताए गए हों, वो मेरदणड की दिव्यताओं से संबंधित हैं, न की मेरुदण्ड के स्थूल स्वरूप से… इसलिए इस बिंदु पर ध्यान देना I

सद्योमुक्ति के पश्चात, जब योगी अपने देह को बचाना चाहता है, तब वो योगी तीन रंगों को मेरुदंड के ऊपर बताए गए दोनों कोनों में स्थापित करता है I

यह तीन रंग त्रिगुणों के ही होते हैं, जिनको वो गुणातीत योगी ऊपर बताए गए मेरुदंड के दोनों अंत भागों में, योगमार्ग से ही स्थापित करता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और अब सद्योमुक्त के गुणातीत अवस्था प्राप्ति के पश्चात, त्रिगुणों की पुनर्स्थापना प्रक्रिया को बताता हूँ …

  • वो योगी अपने दोनों हाथों को अपने शरीर से ऊपर की ओर, पृथक करके और अपनी सुषुम्ना नाड़ी से 45-45 डिग्री पर, अपने कन्धों से ऊपर की ओर रखेगा I
  • और इसके साथ साथ, वो योगी अपने दोनों पैरों को भी एक दुसरे से पृथक करके, अपनी सुषुम्ना नाड़ी से 45-45 डिग्री पर रखेगा I
  • इसमें हाथ और पैर सीधे ही होंगे (अर्थात मुड़े हुए नहीं होंगे) I
  • इसके पश्चात वो योगी, उसके अपने शरीर से बाहर की ओर की त्वचा पर और मेरुदंड के दोनों अंत भागों में, तमोगुण को स्थापित करेगा, जो गाढ़े नीले वर्ण का होता है I
  • यह तमोगुण जब स्थापित हो जाएगा, तब ऊपर बताए गए मेरुदण्ड के दोनों अंत भागों के और शरीर की त्वचा की ओर (अर्थात शरीर को छूते हुए लेकिन शरीर से बाहर की ओर) एक-एक लिंगाकार नीले वर्ण का प्रकाश प्रकट हो जाएगा I

यह प्रकाश योगी के मेरुदण्ड के दोनों अंत भागों की त्वचा को स्पर्श करता हुआ होगा, और योगी के स्थूल शरीर से बाहर की ओर होगा I

  • इसके पश्चात, पूर्व में स्थापित तमोगुण से और शरीर के बाहर की ओर वो योगी एक श्वेत प्रकाश को स्थापित करेगा I

यह श्वेत प्रकाश भी लिंगाकार रूप में होगा और पूर्व में स्थापित किये गए तमोगुण को घेरा होगा I

यह श्वेत प्रकाश सत्त्वगुण का ही है I

  • इसके पश्चात, और पूर्व में स्थापित सत्त्वगुण से और शरीर से बाहर की ओर वो योगी एक लाल रंग के प्रकाश को स्थापित करेगा I

यह लाल प्रकाश भी लिंगाकार रूप में होगा, और पूर्व में स्थापित किये गए सत्त्वगुण को घेरा होगा I

यह लाल प्रकाश रजोगुण का ही है I

  • जैसे ही यह त्रिगुण स्थापना की दशा पूर्ण होगी, वैसे ही यह त्रिलिंगकार प्रकाश, जो बाहर से लाल वर्ण के रजोगुण का ही होगा, वो वैसा ही हो जाएगा, जैसे उस प्रचीन से भी प्राचीनतम लिंगोद्भव के समय पर भी हुआ था, जब उन निर्गुण शिव (अर्थात निर्गुण ब्रह्म) में से ही, सगुणत्मक और शिवात्मक सृष्टि का उदय होना था, और जब उस लिंगोद्भव स्वरूप में भी परमगुरु शिव ही थे I

इसलिए, सद्योमुक्ति को पाये उस गुणातीत साधक के द्वारा, उसके ही मेरुदण्ड के ऊपर और नीचे की ओर जब यह त्रिगुणात्मक प्रकाश बैठाया जाता है, तब वो प्रकाश भी लिंगोद्भव का ही द्योतक है, जिससे जाकर वो साधक शिव का लिंगोद्भव स्वरूप ही हो जाता है I

और ऐसा होने के पश्चात ही वो गुणातीत साधक अपनी सद्योमुक्ति पर विजयश्री पाता है, और उस साधक का देहावसान जो उस समय होना ही था, उसको कुछ वर्षों के लिए ही सही, लेकिन वो टाल पाता है (अर्थात कुछ वर्षों के लिए वो गुणातीत साधक अपनी स्थूल काया को रख पाता है, या मृत्यु से बचा पाता है) I

इसी लिंगोद्भव प्रक्रिया से ही तो सृष्टि का उदय परमशिव (अर्थात निर्गुण शिव या निर्गुण निराकार ब्रह्म) में हुआ था और ऐसा होने के कारण ही तो यह समस्त सृष्टि शिवमय (अर्थात सर्वकल्याणकारी) हुई थी I

और उसी सृष्टि के उदय प्रक्रिया को अपने आंतरिक मार्ग में डालकर, वो सद्योमुक्ति योगी, जो गुणातीत हुआ था, अपने मेरुदंड में ही लिंगोद्भव करता है I

और जहाँ वो लिंगोद्भव भी वैसा ही प्रचंड (है अग्निमय) चेतनमय, ज्ञानमय और क्रियामय होता है, जैसे सृष्टि के उदय समय पर परमगुरु शिव का लिंगोद्भव स्वरूप था I

और क्यूंकि अग्नि ही मध्यम महाभूत है, इसलिए वो गुणातीत सदयोंक्त योगी, उसी लिंगोद्भव से स्वयंप्रकट हुई अग्नि को मूल बनके, अपने अपने शरीर के भीतर, अग्नि के दोनों ओर के महाभूत, अर्थात अन्य चारों महाभूतों को पुनर्स्थापित करता है I

इसलिए, यह सद्योमुक्ति पर विजयश्री का मार्ग भी शिवात्मक मार्ग ही है, और वही मार्ग है, जिससे पितामह ब्रह्मा द्वारा रचित यह समस्त सृष्टि, मूल से शिवमय ही होकर, स्वयं उदय हुई थी I

यहाँ कहे गए शिव शब्द का मूलार्थ, मूल से सर्वकल्याणकारी और अमूल-गंतव्य से मुक्तिकारक सर्वव्यापक सनातन सत्ता ही है I

और जब वो सद्योमुक्त हुआ गुणातीत साधक, ऐसा आंतरिक लिंगोद्भव करके, अपनी काया को उस मृत्यु से ही बचा लेता है, तब उसकी काया में ही महाब्रह्माण्ड उसके प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में स्थापित होने लगता है… और शनैः शनैः, कुछ वर्षों में हो भी जाता है I

मैं इस मेरुदण्ड में हुए लिंगोद्भव का चित्र तो बिलकुल नहीं बनाऊंगा, क्यूंकि कुछ साक्षात्कार बिंदु गुप्त ही रहें… तो अच्छा है I

 

अब थोड़ा और ध्यान देना क्यूंकि मैं इस प्रक्रिया का एक और बिंदु बता रहा हूँ …

  • जैसे ही यह दशा पूर्ण होगी, वैसे ही वो योगी इन तीनों प्रकाश के एक-एक भाग को निकालकर, अपने फैले हुए हस्त और पैरों के बाहर की ओर फैला देगा I

इससे वो तीनों प्रकाश उसके हस्त और पदों के बाहर की ओर अपना अपना गोलाकार स्वरूप ले लेंगे और जहाँ इन तीन प्रकाशों के तीन गोले, एक के ऊपर एक, ऐसे ही होंगे I

यह तीन प्रकाश में से सबसे भीतर का प्रकाश नीले वर्ण के तमोगुण का होगा, मध्यम प्रकाश श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण का होगा, और सबसे बाहर का प्रकाश लाल वर्ण के रजोगुण का होगा I

और यह तीनों प्रकाश में से नील वर्ण का प्रकाश, योगी के हस्त और पादों की त्वचा को छू भी रहा होगा I

  • और इसके पश्चात, वो योगी इन प्रकाश को स्थिर करके, अपनी पूर्व की गुणातीत दशा को त्याग पाएगा, और सगुण गुणात्मा होकर ही शेष रह जाएगा I
  • और ऐसी सगुण गुणात्मा की दशा को पाकर, वो योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा ही तीर्थंकर कहलाता है I
  • और जहाँ वो तीर्थंकर उसके अपने ऊपर बताए गए सगुण साकार स्वरूप में विश्वशांति और विश्वकल्याण के द्योतक भी होता है I और ऐसा वो योगी इसलिए होगा, क्यूंकि वो परमगुरु शिव का ही मानव काया में, अर्थात सगुण साकारी लिंगोद्भव है I

 

अब तीर्थंकर की एक और सिद्धि का आलम्बन लेके, उनकी दशा को दर्शाता हूँ …

वो पूर्व का गुणातीत योगी, जो सगुण गुणात्मा हुआ है, वही तीर्थंकर है I

वो पूर्व का गुणातीत सद्योमुक्त, जिसके भीतर लिंगोद्भव हुआ है, तीर्थंकर है I

ऐसा योगीजन विरले के सिवा और कुछ हो भी नहीं सकते हैं I कभी कभी तो कई ब्रह्मकल्प ही बीत जाते हैं, और एक योगी भी तीर्थंकर नहीं कहला पाता है I

 

और अब तीर्थंकर नमक सिद्धि की एक और विचित्र बात बताता हूँ …

जब कोई सद्योमुक्त योगी, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के अनुरोधानुसार, अपनी केवल अवस्था के कुछ भाग का अस्थायी रूप में त्याग करके (अर्थात कुछ समय सीमा के लिए त्याग करके), अपनी पूर्व की सद्योमुक्ति से बाहर आ जाता है, तब ही वो योगी प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में से किसी एक तत्त्व की दिव्यता स्वरूप होने का पात्र बनता है I

 

और इसके पश्चात, …

जब वो योगी, उस तत्त्व की दिव्यता को धारण करके उस तत्त्व का ही स्वरूप हो जाता है, तब से ही वो योगो तीर्थंकर कहलाता है I

 

इसका अर्थ यह भी हुआ कि …

जब कोई योगी प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में से किसी एक तत्त्व का स्वरूप होगा, तब उसकी दशा तीर्थंकर की होगी I

 

इसका यह भी अर्थ हुआ कि …

जब योगी मुख्य तत्त्व का स्वरूप हो जाता है, तब वो तीर्थंकर कहलाता है I

इसका कारण है, कि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, प्रकृति के तत्त्व ही तीर्थ कहलाते हैं I

 

और तीर्थंकर की एक और विचित्र बात को बताता हूँ …

जब योगी सद्योमुक्ति को पाता है, तो कुछ ही समय अंतराल में उस योगी का चित्त संस्कार रहित हो जाता है I

लेकिन इस संस्कार रहित दशा से पूर्व, यदि उस योगी का कोई ऐसा विश्व कल्याणकारी संस्कार हो, जिससे वो योगी अपनी काया को रख पाए, तो ऐसा सद्योमुक्त योगी उस शरीर को रख भी पाएगा I

और योगी के चित्त में ऐसा संस्कार होने के कारण, सद्योमुक्ति के पश्चात भी उस योगी की मृत्यु नहीं होती है I

और उस सर्वकल्याणकारी संस्कार का आलम्बन लेके ही वो योगी अपने उन कर्मों को करेगा, जिससे वो विश्व-कल्याणकारी कहलाएगा I

अधिकांश तीर्थंकर ऐसे ही होते हैं, क्यूंकि उनमें एक या एक से कुछ अधिक संस्कार ऐसे होते ही हैं, जिनको वो सद्योमुक्ति के समय और सद्योमुक्ति के तुरंत बाद भी त्याग नहीं पाते हैं I और वो संस्कार उनके पूर्व कालों के कर्मफलों के संस्कार (या बीज रूप) को ही दर्शाते हैं, अर्थात पूर्व जन्मों के योगफलों से ही संबंधित होते हैं I

और उस संस्कार का आलम्बन लेके वो तीर्थंकर सद्योमुक्ति को प्राप्त होने के पश्चात भी अपने शरीर को रख पाते हैं, और ऐसा करने के पश्चात, वो योगीजन अपने उन कार्यों को करते हैं, जो विश्वकल्याणकारी ही होते हैं I

लेकिन ऐसा होने पर भी, क्यूंकि वो तीर्थंकर सद्योमुक्त ही है, इसलिए वो केवल ही होता है, केवल ही रहता है और केवल में स्थित होकर ही वो अपने उन विश्व कल्याणकारी कार्यों का निर्वाह करता है, जिसके संस्कार के नष्ट न होने के कारण वो अपनी काया को सद्योमुक्ति के पश्चात भी चाहे कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन रख पाया था I

और आगे जाकर उन तीर्थंकर के विश्वव्यापक कर्मों से, जब वो संस्कार फलित हो जाता है, तब ही वो तीर्थंकर अपने देहावसान को पाता है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जबतक वो विश्व कल्याणकारी संस्कार उन तीर्थंकर के सार्वभौम कर्मों से फलित नहीं होगा, तबतक उस संस्कार का अंत भी नहीं होगा I

और ऐसे समय या दशा तक, वो तीर्थंकर जो वास्तव में सद्योमुक्त ही है, अपने देहावसान की ओर भी नहीं जा पाएगा…, अर्थात ऐसे समय या दशा तक, वो तीर्थंकर सद्योमुक्त होता हुआ भी, अपनी काया में ही रह जाएगा I

 

अब जैन पंथ के अनुसार विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति और सद्योमुक्ति बताता हूँ …

मैं जैन पंथ को सनातन आर्य धर्म का अंग ही मानता हूँ, क्यूंकि उनके प्रथम तीर्थंकर ही वेदों के चौबीस अवतारों में से एक अवतार हैं I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जैन पंथ का मूल वैदिक आर्य धर्म ही है I

  • वैदिक योगमार्ग में जिस योगी को विदेहमुक्त कहा जाता है, उसको ही जैन पंथ में सिद्ध कहते हैं I
  • वैदिक योगमार्ग में जिस योगी को जीवनमुक्त कहा जाता है, उसको ही जैन पंथ में अर्हत कहते हैं I
  • वैदिक योगमार्ग का वो सद्योमुक्त जो उसकी सद्योमुक्ति के पश्चात भी काया को रख पाया है, उसको ही जैन पंथ में तीर्थंकर कहा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और अब जैन पंथ के केवल, योग और अयोग शब्दों, और वैदिक मार्ग के कैवल्य शब्द की समानता को बताता हूँ I

अब पुनः ध्यान देना …

  • जबतक किसी दशा आदि से साधक का योग ही सिद्ध नहीं होगा, तबतक वो साधक उस दशा आदि को त्यागेगा कैसे? I

इसलिए त्यागने से पूर्व, उस त्यागे जाने वाली दशा से योग सिद्धि होनी ही होगी I

  • और जब उस पूर्व की योग दशा को त्यागा जाता है, तो उसी पूर्व की योग दशा से अयोग की प्राप्ति हो जाती है I यही जैन मार्ग का अयोग है I

 

इसलिए, …

योग ही अयोग का मार्ग है…, अयोग से पूर्व योग होना अनिवार्य है I

योग के पश्चात, या योग से आगे जो दशा आती है, वही अयोग है I

जब सर्वत्र से योग होता है, तभी सर्वत्र का त्याग हो सकता है I

सर्वत्र त्याग ही अयोग है…, सर्वत्र से अयोग को ही केवल कहा जाता है I

केवल में योगी, सर्व और सर्वातीत, दोनों ही होता है I

इसलिए, जैन पंथ का केवल ही वेदों का कैवल्य मोक्ष है I

अब थोड़ा और ध्यान देना …

जबतक सर्वत्र से ही योग नहीं होता, तबतक सर्वत्र को त्यागा भी नहीं जा सकता I

और जबतक सर्वत्र को ही त्यागा नहीं जाता, तबतक कैवल्य मुक्ति भी नहीं होती I

सर्वत्र त्याग ही वो कैवल्य मोक्ष है, जिसको जैन पंथ में केवल कहा गया है I

और वेदों का सर्वत्व त्याग या पूर्ण त्याग ही जैन पंथ में अयोग कहलाया है I

कैवल्य मोक्ष के समान, केवल में भी, अयोग और योग एक साथ ही होते हैं I

केवल और कैवल्य के शब्द, उन्ही सर्व अभिव्यक्ता ब्रह्म को दर्शाते हैं I

 

इसलिए, …

अयोग सिद्धि से पूर्व योग सिद्धि होनी ही होगी I

अयोग ही वेदों में बताया गया त्याग का शब्द है I

वेदों में बताया गया त्याग, सर्वत्र त्याग से ही संबंध रखता है I

योग और अयोग की अद्वैत योगावस्था ही केवल और कैवल्य कहलाती है I

त्याग और अत्याग की अद्वैत योगावस्था ही केवल और कैवल्य कहलाती है I

जब योग ही अयोग हो जाए, और त्याग ही अत्याग, वही केवल और कैवल्य है I

योग और योग की अद्वैत योगावस्था ही पूर्णता है, जो कैवल्य ब्रह्म कहलाता है I

इसलिए, …

जब पूर्व का योगी सर्वत्र का ही त्याग कर देता है, तो वो अयोगी कहलाता है I

संपूर्ण त्याग ही अयोग कहलाता है, और सर्वत्र का त्यागी ही अयोगी I

 

और कुछ बिंदु जो योग और त्याग को दर्शाते हैं …

जब त्यागी ही त्याग और अत्याग की अद्वैत योगावस्था हो जाए, वही अयोगी है I

जिस योगावस्था में, न त्याग, न अत्याग, और न ही त्यागी मिले…, वही अयोग है I

जब योगी ही योग और अयोग की अद्वैत योगावस्था हो, वही वातविक त्याग है I

जिस योगावस्था में, न योग, न अयोग, और न ही योगी मिलेगा, वही पूर्ण त्याग है I

 

और एक बात …

सर्व और सर्वातीत की अद्वैत योगावस्था में, न सर्व रहेगा और न सर्वातीत I

इस अद्वैत योग में, कौन सा सर्व है और कौन सा सर्वातीत, वो पता नहीं चलेगा I

और इसके साथ साथ, इसमें सर्व और सर्वातीत, दोनों ही अद्वैत योग में होंगे I

यही योग का वास्तविक शिखर है, जो सबसे परे होता है, और अयोग कहलाता है I

ऐसा अयोग ही वो पूर्ण है, जो साधक का आत्मस्वरूप, कैवल्य मोक्ष ब्रह्म ही है I

यह शिव शक्ति योग के समान है, जिसमे शिव ही शक्ति और शक्ति ही शिव हैं I

यह प्रकृति पुरुष योग के समान है, जिसमें प्रकृति ही पुरुष और पुरुष ही प्रकृति हैं I

शिव शक्ति योग, जो निर्बीज समाधी को लेके जाता है, उसका गंतव्य ही अयोग है I

वास्तव में तो निर्बीज समाधी से ही केवल और कैवल्य को प्राप्त हुआ जाता है I

इसलिए जैन पंथ शैव मार्ग ही है, जिसमें शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव I

लेकिन ऐसा मार्ग तो उन सगुण आत्मा, अर्धनारीश्वर का ही होता है I

 

अब और आगे बढ़ता हूँ …

वेदों के कैवल्य मार्ग से ही जैन पंथ का केवल मार्ग आया है…, तो अब इस बिंदु को बताता हूँ I

  • केवल की दशा अयोग होती है, और यही अयोग कैवल्य कहा गया है I
  • केवल और कैवल्य के शब्द ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I
  • जब सर्वत्र का ही त्याग किया जाता है, तो जिस कैवल्य की प्राप्ति होती है, उसमें पूर्व के समय की समस्त योगदशाओं और उनकी सिद्धियों को भी त्यागा जाता है I

ऐसा होने पर भी योगी, योग और अयोग की अद्वैत योगदशा में ही रह जाता है, जिसमें कौन सा योग और कौन सा आयोग बिंदु है, उसका पृथक रूप में पता ही नहीं चल पाता है I

  • इसी को वैदिक वाङ्मय में कैवल्य मोक्ष कहा जाता है, जो पूर्व के योग से भी आगे की दशा है… और यही जैन पंथ का केवल भी है I

 

और इस दशा में, …

योगी अभिव्यक्ता ब्रह्म के समान, अभिव्यक्ति, अर्थात समस्त जीव जगत भी होता है I

और जहाँ अभिव्यक्ता का अभिव्यक्ति से ऐसा योग होता है, कि कौन सा अभिव्यक्ति है और कौन सी अभिव्यक्ति, उन दोनों को पृथक रूप में जाना ही नहीं जा सकता I

और जहाँ, अभिव्यक्ति स्वरूप में यही योग है और अभिव्यक्ता स्वरूप में, यही योगातीत आयोग है, जो  ब्रह्म कहलाया है I यही कारण भी था, कि पुरातन वेद मनीषियों ने, ब्रह्म को सर्व, सर्वाधार के साथ साथ, सर्वातीत भी कहा था I ऐसा होने के कारण ही ब्रह्म को पूर्ण भी कहा गया था I

 

इसलिए, …

योगातीत दशा को ही जैन पंथ में अयोग कहा गया है I

और जहाँ उस योगातीत दशा का सिद्ध योगी ही अयोगी कहलाता है I

जैसे ब्रह्म और प्रकृति का योग होता हुआ भी नहीं है, वैसे ही अयोग में होता है I

जैसे ब्रह्म और प्रकृति का योग नहीं होता हुआ भी है, वैसे ही अयोग में होता है I

जैसे अभिव्यक्ता ब्रह्म ही अपनी अभिव्यक्ति प्रकृति हैं, वैसे ही अयोग में होता है I

जैसे ब्रह्म सर्वसाक्षी होने पर भी जीव जगत हुए हैं, वैसे ही अयोग में होता है I

 

जैसे ब्रह्म में प्रकृति है, प्रकृति में ब्रह्म है, और इन दोनों की योगावस्था से ही ब्रह्म पूर्ण और कैवल्य कहलाया है, वैसे ही अयोग में योग है और योग में अयोग, और इन दोनों की योगावस्था ही पूर्ण और केवल है I

जैसे ब्रह्म प्रकृति होता हुआ भी, प्रकृति से अतीत ही है, और ऐसा होने पर भी प्रकृति का ब्रह्म से सनातन नाता ही है…, वैसे ही अयोग और योग का नाता है I

जैसे ब्रह्म स्वतंत्र होता हुआ भी, प्रकृति रूप में आधीन ही है, वैसा ही अयोग और योग का नाता है I

अयोग उसी पूर्णता का द्योतक है जो ब्रह्म कहलाता है, और योग उस दशा का द्योतक है, जो प्रकृति से संबंधित है I ऐसा कहने का कारण है, कि ब्रह्म सर्वातीत होने के कारण, उससे योग असंभव ही है I

जैसे ब्रह्म उत्कर्ष पथ से ही अतीत है, वैसे ही अयोग होता है I

जैसे जो तुम अपने आत्मस्वरूप में हो ही, उससे योग असंभव है, वैसे ही अयोग होता है I इसलिए, अयोगमार्ग भी कैवल्य पथ ही कहलाता है I

 

और इस भाग के अंत में, … वास्तव में, …

इस संपूर्ण जीव जगत में, तीर्थंकर से ऊँची कोई सिद्धि भी नहीं है I

 

मैंने ऐसा इसलिए कहा क्यूंकि सद्योमुक्ति ही अंतिम दशा है और तीर्थंकर सद्योमुक्ति से भी अतीत दशा है I

जिस सद्योमुक्ता ने अपनी सद्योमुक्ति को ही पार किया है, वही तीर्थंकर है I

वो अमूल गंतव्य स्वरूप योगी, जो सद्योमुक्ति पर विजय पाया है, तीर्थंकर है I

वो गंतव्य स्थित योगी जो सद्योमुक्ति से भी परे खड़ा है, तीर्थंकर है I

जो अयोग और योग दोनों का विजयी, अयोग-योगी और योग-अयोगी है, तीर्थंकर है I

 

और इन सबके अतिरिक्त …

वो योगी जो समस्त रचना और रचना तंत्र से परे जाकर भी, विश्वकल्याण हेतु रचना और रचना के तंत्र को पुनः धारण किया है, तीर्थंकर है I

वो योगी जो गुणातीत होकर भी, विश्वकल्याण भावना में बसकर गुणों को धारण किया है, तीर्थंकर है I

 

यही कारण है, कि जीव रूप में …

त्याग भाव के गंतव्य पर, तीर्थंकर ही विराजमान होते हैं I

विश्वकल्याण के गंतव्य पर तीर्थंकर ही विराजमान होते है I

सद्योमुक्ति के गंतव्य पर तीर्थंकर ही विराजमान होते हैं I

सद्योमुक्ति पर विजयश्री पाए योगीजन ही तीर्थंकर कहलाते हैं

शिवत्व के विशुद्ध निष्कलंकी स्वरूप को तीर्थंकर ही दर्शाते हैं I

परमगुरु शिव जो आदिनाथ भी कहलाए जाते हैं, वही सनातन तीर्थंकर है I

इस ग्रन्थ में बताई गई समस्त सिद्धियों पर तीर्थंकर ही विराजमान होते हैं I

 

मुझे पता है कि कुछ मनीषियों को इस तिर्थांकर नामक भाग में बताए गए बिंदु उचित नहीं लगेगी, लेकिन मैं तो यही सोचता हूँ, कि सत्य चाहे कडुआ ही क्यों न हो, उसको बताने में ही भलाई होती है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

तीर्थंकर की दशा भी पञ्च ब्रह्म से ही संबंधित होती है, और ऐसा योगी वो होगा, जिसकी तुलना में सबकुछ तुच्छ सा ही प्रतीत होगा I

जितनी भी सिद्धियाँ इस ग्रन्थ में बताई गई हैं, उन सबके, उस एकमात्र शिखर पर तीर्थंकर ही बैठा करते हैं I

लेकिन इतिहास में जो भाषाओँ, शैलियों, मार्गों का तारतम्य रहा है, उसके कारण ही जैन पंथ अपने मूल से विमुख हुआ था I

लेकिन ताली भी तो दो हाथों से ही बजती है, इसलिए वेद मार्ग के इस बंटवारे के लिए, मूल के मनीषीगण भी उतने ही दंडनीय हैं I

और उस मूल मार्ग के मनीषियों की मूर्खनंदी रूपी सीमा तो देखो, कि प्रथम तीर्थंकर को तो श्री विष्णु का अवतार मान लिया, लेकिन उनके मार्ग को वेदों से पृथक होने दिया I

 

ईशान और कैवल्य मोक्ष, ईशान ही निर्गुण ब्रह्म है, ईशान और मुक्ति, ईशान और कैवल्य, कैवल्य ही मनातीत है, कैवल्य ही अहमातीत है, कैवल्य ही बुद्धितीत है, कैवल्य ही प्रणातीत है, कैवल्य ही चित्तातीत है, … मनातीत, बुद्धितीत, चित्तातीत, अहमातीत, प्रणातीत, सिद्धितीत, तुरीयातीत, …

और इसीलिए जब साधक कैवल्य मुक्ति को पाता है, तब वो साधक …

  • मन के तारतम्य से रहित होके मनातीत होता है I और ऐसी दशा से पूर्व उस साधक का मन विकार रहित होके, मनाकाश होता है I
  • बुद्धि के तारतम्य से रहित होके बुद्धितीत होता है I और ऐसी दशा से पूर्व उस साधक की बुद्धि निश्कलंक होके, ज्ञानाकाश होती है I
  • चित्त के तारतम्य से रहित होके, चित्तातीत होता है I और ऐसी दशा से पूर्व उस साधक का चित्त संस्कार रहित होके, चिदाकाश होता है I
  • अहम् के तारतम्य से रहित होके, अहमातीत होता है I और ऐसी दशा से पूर्व उस साधक का अहम् विशुद्ध होके, अहमाकाश होता है I
  • प्राण के तारतम्य से रहित होके, प्रणातीत होती है I और ऐसी दशा से पूर्व उस साधक के प्राण विसर्गी होके, प्राणाकाश होते है I

इसीलिए पुरातन कालों में सर्वसाक्षी योगीजन कहते थे कि निर्गुण ब्रह्म में न मन, न बुद्धि, न चित्त न अहम् और न ही प्राण होते हैं I वो निर्गुण इन सबसे परे, अर्थात इन सबसे अतीत ही हैं I

 

यह भी वो कारण है कि …

निर्गुण ब्रह्म सिद्धितीत ही होते हैं I

अर्थात निर्गुण ब्रह्म या कैवल्य मोक्ष की कोई सिद्धि नहीं होती I

जो तुम अनादि कालों से, अपने आत्मस्वरूप में हो ही, उसको सिद्ध कैसे करोगे I

जो सिद्धितीत होता है, वही तो त्याग का गंतव्य, अयोग कहलाता है I

इसलिए, अयोग की दशा भी ब्रह्म की द्योतक ही है I

 

और जहाँ वो अयोग रूपी ब्रह्म, सभी योग दशाओं से परे होता हुआ भी, सभी योग दशाओं में और योग से परे के अयोग में भी, समान रूप में बसा हुआ सर्वव्यापक ही है I और ऐसा होने के कारण भी वो ब्रह्म, पूर्ण कहलाता है I

 

ऐसा सिद्धितीत होने का कारण है, कि …

जो प्रत्येक जीव उसके अपने आत्मस्वरूप में है ही, उसकी कैसी सिद्धि I

सिद्धि उसकी होती है, जो तुम नहीं हो कि उसकी जो तुम अनादी कालों से हो I

वो निर्गुण निराकार ब्रह्म जो ईशान ब्रह्म भी कहलाते हैं, उन्ही को आत्मा और ब्रह्म कहा जाता है, और जो तुरीयातीत भी कहलाए गए हैं I

यह तुरीयातीत का शब्द भी वो आत्मा ही है, जो ब्रह्म कहलाता है I

 

इसका अर्थ हुआ, कि …

जीवों का वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप ही तुरीयातीत ब्रह्म है I

तुम अपने आत्मस्वरूप में वो तुरीयातीत ही तो हो I

तुरीयातीत ही आत्मा है, जो ब्रह्म भी कहलाता है I

और अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त होने से पूर्व, साधक उस मनातीत, बुद्धितीत, चित्तातीत, अहमातीत, प्रणातीत, सिद्धितीत अवस्था में ही स्थित होता है, जो तुरीयातीत आत्मा कहलाती है, और जो वो निर्गुण निराकार ब्रह्म ही है, जिनको पञ्च ब्रह्मोपनिषद में ईशान नामक ब्रह्म कहा गया है I

तो अब इसी बिंदु पर इस अध्याय का समापन होता है, और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम अतीत, सर्वातीत, तुरीयातीत आदि है I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

 

error: Content is protected !!