महाब्रह्माण्ड, भारत ही महा ब्रह्माण्ड, वैदिक भारत, महाकारण जगत, महाकारण लोक, महाकारण, वैदिक राष्ट्र, भारत ब्रह्मा, ब्रह्मा भारत, ब्रह्मा भरत, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड लिंग, महाब्रह्माण्ड लिंग, माँ भारती, भारती सरस्वती, भारती विद्या, तत् त्वम् हिरण्यगर्भा:, अहम् हिरण्यगर्भासमि, प्रज्ञानं हिरण्यगर्भा:, अयमात्मा हिरण्यगर्भा:

महाब्रह्माण्ड, भारत ही महा ब्रह्माण्ड, वैदिक भारत, महाकारण जगत, महाकारण लोक, महाकारण, वैदिक राष्ट्र, भारत ब्रह्मा, ब्रह्मा भारत, ब्रह्मा भरत, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड, ब्रह्माण्ड लिंग, महाब्रह्माण्ड लिंग, माँ भारती, भारती सरस्वती, भारती विद्या, तत् त्वम् हिरण्यगर्भा:, अहम् हिरण्यगर्भासमि, प्रज्ञानं हिरण्यगर्भा:, अयमात्मा हिरण्यगर्भा:

यहाँ महाब्रह्माण्ड पर बात होगी, जो भारत नामक ब्रह्मा भी कहलाता है और महाकारण जगत, महाकारण लोक, महाकारण, वैदिक राष्ट्र आदि भी कहलाता है I और यही भारत ब्रह्मा ही महा ब्रह्माण्ड है, जो वैदिक भारत कहलाता है, जिसका संविधान मनुस्मृति सहित अन्य वैदिक ग्रंथ हैं I इसलिए इस अध्याय में भारत क्या है, भारत कौन है, भारत किसे कहते हैं, इन बिंदुओं पर भी बात होगी I और क्यूंकि पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती विज्ञान में भारत नामक ब्रह्मा (अर्थात ब्रह्मा भरत) की दिव्यता को ही भारती सरस्वती (अर्थात भारती विद्या, भारती विद्या सरस्वती, भारती सरस्वती विद्या) कहा जाता है, इसलिए यहाँ पर उन माँ भारती या देवी भारती पर भी बात होगी I इस अध्याय में ब्रह्माण्ड लिंगाकार है, ब्रह्माण्ड  लिंग और महाब्रह्माण्ड लिंग पर भी बात होगी I और यहाँ तत् त्वम् हिरण्यगर्भा:, अहम् हिरण्यगर्भासमि, प्रज्ञानं हिरण्यगर्भा:, अयमात्मा हिरण्यगर्भा: आदि पर भी बात होगी I

इस अध्याय का नाता पञ्च मुखा सदाशिव और पञ्च ब्रह्म, दोनों से ही है I इसलिए यह अध्याय इन दोनों मार्गों को एक साथ जोड़ता भी है I

 

इस अध्याय में…

भारत ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही भारत है I

भारत ही महाब्रह्माण्ड रूपी वैदिक राष्ट्र आदि है I

ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही वैदिक भारत, महाब्रह्माण्ड है I

ब्रह्म भी अपनी अभिव्यक्ति में लय होकर ही पूर्ण कहलाया है I

यह अध्याय महाब्रह्माण्ड को और उसके रचैता ब्रह्मा से जोड़ता है, जिसके कारण यह अध्याय महाब्रह्माण्ड और ब्रह्म की अनादि अनंत एकता को भी दर्शाता है I इस अध्याय के साक्षात्कारों के दृष्टिकोण से, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड हुआ था और इसीलिए, यह अध्याय एक अद्वैत साक्षात्कार ही है I

इस अध्याय का साक्षात्कार, इस ग्रंथ में बताए गए ब्रह्मत्व पथ के अंत में जाकर ही होता है I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2012 ईस्वी के समीप का था I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं ।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पचासीवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का चौदहवाँ अध्याय है I

 

 

कार्यब्रह्म, सृष्टिकर्ता भगवान्,
कार्यब्रह्म, सृष्टिकर्ता भगवान्, जीव जगत का रचैता, ब्रह्माण्ड का रचैता, महाब्रह्माण्ड का रचैता,

 

 

महाब्रह्माण्ड का चित्र, … महाब्रह्माण्ड, महा ब्रह्माण्ड, वैदिक भारत ही महा ब्रह्माण्ड है, … ब्रह्माण्ड लिंगाकारी है, ब्रह्माण्ड शिवलिंगाकारी है, शिवलिंग ब्रह्माण्ड का द्योतक ही है, ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक है, शिवलिंग ब्रह्माण्डलिंग ही है, ब्रह्माण्डलिंग, ब्रह्माण्ड कल्याणकारी है, … ब्रह्माण्डातीत सिद्धि, ब्रह्माण्डातीत, …

 

महाब्रह्माण्ड, महा ब्रह्माण्ड, वैदिक भारत, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड है
महाब्रह्माण्ड, महा ब्रह्माण्ड, भारत ही महा ब्रह्माण्ड है, वैदिक भारत, भारत किसे कहते हैं, भारत नामक ब्रह्मा, भारत ब्रह्मा, ब्रह्मा भारत, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड है, माँ भारती, भारती सरस्वती, भारती विद्या,

 

इस चित्र का साक्षात्कार तब होता है, जब साधक की ब्रह्मपथगामी चेतना भारत भारती मार्ग में निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा वैसे ही पूर्ण करती है, जैसे वैदिक शिवलिंग प्रदक्षिणा करी जाती है I

ऐसे मार्ग में वह चेतना पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा पथ में तत्पुरुष ब्रह्म तक तो पहुँच जाती है, लेकिन उन तत्पुरुष ब्रह्म से सद्योजात ब्रह्म के मार्ग के मध्य में वो चेतना, पञ्च मुखा सदाशिव का साक्षात्कार करती है और जहाँ वह साक्षात्कार भी सदाशिव प्रदक्षिणा के मार्ग से ही करती है I

और इस मार्ग में ही गति करती हुई चेतना के समस्त साक्षात्कारों के पश्चात, वह चेतना वहाँ पहुँच जाती है, जहाँ सद्योजात ब्रह्म (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) और कार्य ब्रह्म (अर्थात इस जीव जगत के वास्तविक रचैता) होते हैं I

पूर्व का अध्यायों में बताया था, कि तत्पुरुष ब्रह्म लाल वर्ण के हैं और सद्योजात ब्रह्म पीले वर्ण के I

जब वो चेतना तत्पुरुष से परे जाकर, सद्योजात की ओर गति करती है, तब वो उस ब्रह्माण्ड से परे होती है, जिसमे उसका स्थूल शरीर पड़ा हुआ है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि उस ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से जिसमें उस चेतना की स्थूल काया पड़ी होती है, यह मार्ग ब्रह्माण्डातीत ही होता है I

और ऐसी दशा में वो चेतना देखती है, कि वो ब्रह्माण्ड जिसमें उसकी स्थूल काया पड़ी हुई है, उसकी बाहरी दशा शून्य तत्त्व की है, जो काले वर्ण का होता है I यही ऊपर के चित्र में भी दर्शाया गया है I

तत्पुरुष और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में गति करती, सदाशिव परिक्रमा के मार्ग में गई हुई और उस ब्रह्माण्ड से जिसमें उसका स्थूल शरीर पड़ा हुआ है, बाहर गई हुई वो चेतना, उसी ब्रह्माण्ड को पीछे मुड़ के देखती है (जिससे वो बाहर निकलकर आगे चली गई है) I

ऐसी दशा में वो चेतना देखती है, कि उस ब्रह्माण्ड को बाहर की ओर से काले वर्ण के शुन्य तत्त्व ने घेरा हुआ है I इसलिए वो जान जाती है, कि उसके लिए वो ब्रह्माण्ड जिसमे उसकी स्थूल काया पड़ी हुई है, वो अब शून्य हो गया है I

और वो चेतना यह भी देखती है, की उस ब्रह्माण्ड जैसे और असंख्य ब्रह्माण्ड भी हैं जो उसी दशा में दिखाई दे रहे हैं I ऐसा देखकर वो चेतना जान जाती है, कि वास्तव में तो असंख्य ब्रह्माण्ड हैं I

और वो चेतना यह भी देखती है, कि उन सभी असख्य ब्रह्माण्डों को भी उसी शून्य तत्त्व ने घेरा हुआ है I वो चेतना यह भी देखती है, कि इतने ब्रह्माण्ड हैं कि उनकी गणना करना असंभव सा ही है I

और ब्रह्माण्ड से परे गई हुई वो चेतना अपनी आश्चर्यित दशा में यह भी देखती है, कि समस्त ब्रह्माण्ड शिवलिंगाकार हैं I इसलिए वो चेतना जान जाती है, कि वैदिक शिवलिंग, की वास्तविकता तो ब्रह्माण्ड  लिंग और महाब्रह्माण्ड लिंग ही है I

 

टिपण्णी: संस्कृत भाषा के लिंग शब्द का अर्थ द्योतक, सूचक, चिन्ह, इत्यादि है I और जहाँ यह लिंग का शब्द, ब्रह्म का ही सूचक, द्योतक, चिन्ह आदि है I

 

इस महाब्रह्माण्ड के चित्र में …

  • जो लाल बिंदु दिखाए गए हैं, वो उन कार्य ब्रह्म से सम्बद्ध हैं जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की ही रजोगुणी अभिव्यक्ति हैं, इसलिए यह लाल वर्ण के बिंदु रजोगुण को भी दर्शा रहे हैं I
  • जो पीला वर्ण दिखाया गया है, वो उन सद्योजात ब्रह्म को दर्शा रहा है जो कार्य ब्रह्म कहलाते हैं I
  • जो काले वर्ण की शिवलिंगाकार दशाएं हैं, वो एक-एक ब्रह्माण्ड है, जिनको शून्य तत्त्व ने घेरा हुआ है और जहाँ वो शून्य रात्रि के समान, काले वर्ण का ही होता है I
  • इस चित्र की दशा में चेतना, सद्योजात ब्रह्म में बसकर इन सभी शून्य रूपी आवरण को धारण किए हुए, शिवलिंगाकार ब्रह्माण्डों को देखती है और जान जाती है कि समस्त ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक है I ऐसी दशा में वो चेतना जानती है, कि समस्त ब्रह्माण्ड, शिवलिंग के द्योतक ही हैं, और शिवलिंग भी ब्रह्माण्ड का ही द्योतक है I
  • इस चित्र की दशा का साक्षात्कार तब हुआ था, जब उस चेतना ने पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा को पूर्ण करके, सदाशिव प्रदक्षिणा पथ पर गति करते हुए इस सदाशिव प्रदक्षिणा को लगभग पूर्ण ही कर लिया था I और इस दशा में उस चेतना का प्रवेश महाब्रह्माण्ड में हुआ था, जो सद्योजात ब्रह्म और सदाशिव के तत्पुरुष मुख के मध्य में होता है I
  • और ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर इस चित्र में दिखाई हुई दशा को देखने के पश्चात, वो चेतना यह भी जान गई थी, कि वो अब इस संपूर्ण महाब्रह्माण्ड जिसमें असंख्य ब्रह्माण्ड होते हैं, उससे परे जा चुकी है, और इसीलिए उसके लिए अब कोई भी ब्रह्माण्ड नहीं है I
  • और वो चेतना यह भी जान गई थी, कि उसकी स्थूल काया जिस ब्रह्माण्ड के भीतर पड़ी हुई है, अब वो ब्रह्माण्ड भी उसका (अर्थात उस चेतना का) नहीं है और वो चेतना उस ब्रह्माण्ड की नहीं हैं I इसलिए वो चेतना यह भी जान गई थी, कि ब्रह्माण्डातीत दशा किसे कहते हैं I
  • और वो चेतना यह भी जान गई थी, कि जो ब्रह्माण्डातीत होता है, वही महाब्रह्माण्ड है, जो सद्योजात ब्रह्म और सदाशिव का तत्पुरुष मुख (अर्थात कार्य ब्रह्म या महेश्वर या योगेश्वर) के मध्य में बसा हुआ है, और जिसके भीतर बसकर ही उस चेतना को यह सभी ब्रह्माण्ड साक्षात्कार हो रहे हैं I
  • और वो चेतना यह भी जान गई थी, कि जिन सद्योजात ब्रह्म और सदाशिव का तत्पुरुष मुख (अर्थात कार्य ब्रह्म या महेश्वर या योगेश्वर) की योगावस्था के भीतर यह सब ब्रह्माण्ड बसे हुए हैं, वही वो वास्तविक रचैता है, जिसको कार्य ब्रह्म कहा जाता है I
  • और इससे आगे जाती हुई वह चेतना सद्योजात ब्रह्म में ही प्रवेश कर गई थी I
  • वो चेतना यह भी जान गई थी, कि जिस सद्योजात नामक ब्रह्म के भीतर बसकर वो यह सब साक्षात्कार कर रही है, वो जीवतीत और जागतातीत भी है और इसीलिए वही सद्योजात ही इस महाब्रह्माण्ड को अपने गर्भ में धारण किया हुआ है I
  • और क्यूँकि सद्योजात ब्रह्म को ही वेद महिषियों ने हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा है, इसलिए वो चेतना जो हिरण्यगर्भ (अर्थात सद्योजात) के भीतर बसकर ही यह सब साक्षात्कार कर रही थी, यह भी जान गई, कि वेद मनिषियों ने ऐसा क्यों कहा है, कि ब्रह्म ने अपने गर्भ में समस्त जीव जगत बसाया हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और ऊपर दिखाए हुए चित्र का साक्षात्कार करके, वो चेतना अंततः इतना आगे निकल गई और सद्योजात के भीतर ही ऐसी दशा में पहुँच गई, जिसमे उसको कोई ब्रह्माण्ड दिखाई ही नहीं दे रहा था I

ऐसी दशा में उस चेतना ने जाना, कि अब उसके लिए न कोई जीवत्व का और न ही जगतत्व का ही कोई बिन्दु शेष रह गया है I

वो चेतना जान गई, कि अब उसके लिए न जीव है, न जगत, न कोई ब्रह्माण्ड और न ही महाब्रह्माण्ड I

अब तो केवल हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही है, जिनमें वो बसी हुई है, और ऐसा लय हो चुकी है, की वो स्वयं ही स्वयं को उन सगुण निराकार हेमा वर्ण के हिरण्यगर्भ से पृथक देख ही नहीं पा रही है I

 

ऐसी दशा में उस चेतना ने जो जाना वह ऐसा ही था…

जैसे निर्गुण ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही ब्रह्म रचना है I

जैसे ब्रह्म रचना का पूर्ण स्वरूप ही महाब्रह्माण्ड कहलाता है I

जैसे निर्गुण ब्रह्म अपनी अभिव्यक्ति में लय होकर पूर्णब्रह्म कहलाया है I

वैसे ही वह चेतना महाब्रह्माण्ड में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म के समान पूर्ण ही हुई है I

कार्य ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, तत्पुरुष ब्रह्म और सद्योजात के मध्य के गति में महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, तत्पुरुष और सद्योजात के मध्य के गति में महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार की दशा, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार ज्ञान,

और क्यूंकि यह महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार उस चेतना ने पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के समय पर तब किया था, जब वो चेतना लाल वर्ण के तत्पुरुष और पीले वर्ण के सद्योजात (अर्थात हिरण्यगर्भ) के मध्य में स्थित हुई थी, और इसी दशा से उसने आगे जाकर सदाशिव प्रदक्षिणा भी लगभग पूर्ण ही कर ली थी और वह चेतना उस महाब्रह्माण्ड से आगे के सद्योजात ब्रह्म में लय होकर, स्वयं ही स्वयं को सद्योजात से पृथक देख भी नहीं पा रही थी, इसलिए ऐसी दशा में उस चेतना ने स्वयं ही स्वयं को ऐसा कह दिया…

अयमात्मा हिरण्यगर्भा: I

 

और ऐसे स्वयं ही स्वयं को कहने का कारण था, कि सद्योजात में बसी हुई वो चेतना यह जान गई थी, कि अथर्ववेद का महावाक्य, जो अयमात्मा ब्रह्म कहलाया गया है, उसमें ब्रह्म शब्द का प्राथमिक सगुणत्मक अर्थ क्या है I

और क्यूंकि ऐसी दशा में वो चेतना ने अंततः स्वयं ही स्वयं को, निरंग ही पाया था, इसलिए वो चेतना यह भी जान गई, कि अथर्ववेद के महावाक्य में जो आत्मा शब्द बताया गया है, वो सगुण भी है और निर्गुण भी I और उसी अथर्ववेद में जो अयम शब्द आया है, वो भी आत्मा को ही दर्शाता है, जो सरंग भी थी और निरंग थी, अर्थात सगुण ब्रह्म सरीकी भी थी और निर्गुण ब्रह्म सरीकी भी थी I प्रत्यक्ष रूप में तो वह सरंग ही थी और अपने मूल और गंतव्य स्वरूप में वह निरंग ही थी… और वह इन दोनों स्वरूपों में समान रूप में पूर्णतः होती हुई भी, वास्तव में तो वह निरंग ही थी, क्यूंकि  उस समय की अपनी दशा में तो वह स्वयं ही स्वयं को देख ही नहीं पा रही थी I

 

और क्यूंकि, …

जो सगुण और निर्गुण, दोनों ही समान रूप में पूर्णतः है, वही पूर्ण है I

इसलिए, उस चेतना ने स्वयं को भी उन्ही पूर्ण ब्रह्म जैसे, पूर्ण ही पाया था I

और ऐसा होने पर भी वह चेतना अपने मूल और गंतव्य स्वरूप में निर्गुन ही थी I

और इस साक्षात्कार के पश्चात, वो चेतना यह भी जान गई, कि ऋग्वेद का महावाक्य जो प्रज्ञानं ब्रह्म कहा गया है, उसमें प्रज्ञानं शब्द का अर्थ वो स्व:प्रकाश निर्गुण ब्रह्म ही है I

और ऐसा जानने के पश्चात, वो चेतना यह भी जान गई, कि सद्योजात ही निर्गुण ब्रह्म की प्राथमिक सगुण निराकार अभिव्यक्ति हैं I

और ऐसा जानने के पश्चात, उसी चेतना ने स्वयं ही स्वयं को सद्योजात ब्रह्म का सगुण निराकार स्वरूप ही मानकर, अंततः ऐसा कह दिया …

प्रज्ञानं हिरण्यगर्भा: I

 

क्यूंकि इस साक्षात्कार तक, उस चेतना का अहम् भाव विशुद्ध हो चुका था, और क्यूंकि उस चेतना ने स्वयं ही स्वयं को अभी भी दक्षिण मार्गी ही देखा था, इसलिए उसने स्वयं ही स्वयं को ऐसा भी कह दिया, …

अहम् हिरण्यगर्भासमि: I

 

इस वाक्य में…

अहम् शब्द साधक के विशुद्ध अहम् का ही द्योतक है I

और जहाँ विद्धुद्ध अहम् ही ब्रह्म कहलाता है I

और क्यूंकि इस साक्षात्कार की पूर्ण दशा में, उस चेतना ने स्वयं ही स्वयं को सरंग और निरंग, अर्थात सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों में ही सामान रूप में पाया था, इसलिए उन सद्योजात ब्रह्म में विलीन हुई चेतना ने स्वयं के सगुण निराकार स्वरूप को ऐसा भी कह दिया, …

तत् त्वम् हिरण्यगर्भा: I

इस वाक्य में तत् शब्द सगुण ब्रह्म का वाचक है, और त्वम् का शब्द, सगुण आत्मा का I

 

इन सभी दशाओं को पार करके, वो चेतना इतना तो जान ही गई, कि …

निर्गुण ब्रह्म का प्रथम सगुणात्मक स्वरूप ही सद्योजात ब्रह्म हैं I

निर्गुण ब्रह्म की प्राथमिक सगुणात्मक अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही हैं I

सगुण ब्रह्म का प्राथमिक स्वरूप, सगुण निराकार हिरण्यगर्भ (सद्योजात) ही हैं I

हिरण्यगर्भ स्वरूप में, सगुण ब्रह्म ही निर्गुण ब्रह्म की उत्कृष्टम अभिव्यक्ति हैं I

पञ्चब्रह्म में सद्योजात ही निर्गुण ब्रह्म की प्रथम सगुण निराकार अभिव्यक्ति है I

अब आगे बढ़ता हूँ …

वैदिक भारत, वैदिक भारत की परिभाषा, वैदिक भारत क्या है, वैदिक भारत किसे कहते हैं, भारत शब्द की परिभाषा, भारत की परिभाषा, … भारत कौन, भारत किसे कहते हैं, भारत क्या है, भारत नामक ब्रह्मा कौन, भारत ब्रह्मा कौन, ब्रह्मा भारत कौन, ब्रह्मा भरत कौन, … महाकारण क्या है, महाकारण लोक क्या है, महाकारण का शरीरी रूप, विज्ञानमय कोष और महाकारण जगत का नाता, …

वेदों में महाब्रह्माण्ड को ही भारत शब्द से बताया गया था I

वैदिक भारत को ही ब्रह्माण्ड कहते हैं और जहाँ वो ब्रह्माण्ड शब्द भी उन ब्रह्माण्डों के अथाह समूह का वाचक है, जिसमें असंख्य ब्रह्माण्ड होते हैं और जो अपने वास्तविक स्वरूप में महाब्रह्माण्ड ही है I

क्यूंकि महाब्रह्माण्ड ही ब्रह्म की वो निराकारी अभिव्यक्ति है, जिसमें वो ब्रह्म ही गुरु और सम्राट होते हैं, इसलिए वैदिक भारत की जो परिभाषा है, उसको बताता हूँ …

ब्रह्म के साम्राज्य और गुरुगद्दी रूपी सिंहासन को वैदिक भारत कहते हैं I

जिसमें ब्रह्म ही सम्राट और गुरु हों, वही वैदिक भारत है I

और क्यूंकि महाब्रह्माण्ड ही ब्रह्म का साम्राज्य और गुरुगद्दी है, इसलिए जगत के दृष्टिकोण से,

महाब्रह्माण्ड ही महाकारण कहलाया है I

महाकारण ही वैदिक राष्ट्र और भारत कहलाता है I

बुद्धि का नाता भी महाकारण जगत से ही होता है I

महाकारण का शरीरी रूप ही विज्ञानमय कोष कहलाता है I

महाकारण के अधिष्ठा ब्रह्म भारत हैं, और दिव्यता भर्ती सरस्वती हैं

महाब्रह्माण्ड ही वह वैदिक भारत है, जिसके सम्राट और गुरु सर्वात्मा ब्रह्म ही हैं I

और क्यूंकि वो महाब्रह्माण्ड ही अपने सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक स्वरूप में, प्रत्येक पिण्ड के अंतःकरण के चित्त भाग में एक प्राथमिक सूक्ष्म संस्कार स्वरूप में बसा हुआ होता है, इसलिए समस्त पिण्डों के दृष्टिकोण से,

पिण्ड ही वह वैदिक भारत है, जिसके सम्राट और गुरु  पिण्डात्मा ही है I

ब्रह्म ही पिण्डात्मा हुआ है और पिण्डात्मा भी ब्रह्म ही है I

 

और क्यूँकि आत्मा ही ब्रह्म है, इसलिए शरीरी जीवों के दृष्टिकोण से,

शरीर ही वह वैदिक भारत है, जिसके सम्राट और गुरु, आत्माराम रूप में ब्रह्म हैं I

 

टिपण्णी: यहाँ कहे गए समस्त शब्द, जैसे सर्वात्मा, पिण्डात्मा, आत्माराम और आत्मा, उन्ही ब्रह्म को ही स्पष्ट दर्शा रहे हैं I

 

और क्यूँकि ब्रह्म अपने ही हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप में सर्वेश्वर हैं, इसलिए वैदिक भारत की परिभाषा ऐसी भी कही जा सकती है …

सर्वेश्वर के हिरण्यगर्भात्मक साम्राज्य और प्रज्ञानमय गुरुगद्दी को भारत कहते हैं I

अर्थात, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की समस्त रचना और उनका प्रज्ञान ही वैदिक भारत है I

और जहाँ वो वैदिक भारत भी उन्हीं सर्वेश्वर की उत्कृष्टम प्रकाशमय शिवमय और शक्तिमय अभिव्यक्ति है, जो उन्ही सर्वेश्वर के विष्णुत्व में बसी हुई है, और अंततः उन्ही सर्वेश्वर के गणपत्य की ओर लेके जाती है I

इसका अर्थ हुआ कि, …

जहाँ सर्वेश्वर का पञ्च देवात्मक रूप, सर्वपूरक सर्वपोषक हों, वो वैदिक भारत है I

जहाँ सर्वेश्वर के पञ्च कृत्य एक दुसरे के पूरक और पोषक हों, वो वैदिक भारत है I

जहाँ पञ्चकृतिमय सर्वेश्वर अंततः अनुग्रह (मोक्ष) प्रदान करते हैं, वो वैदिक भारत है I

आगे बढ़ता हूँ …

और मेरी उत्कर्ष परंपरा के मूल निवास स्थान के दृष्टिकोण से …

जहाँ भारत ही ब्रह्मा हो और मूलऊर्जा भारती सरस्वती होंवो वैदिक भारत है I

 

और मेरी उस अनादि अनंत गुरुशिष्य परंपरा के दृष्टिकोण से …

जहाँ ह्रदयगुरु सदानंद ब्रह्म और गुरुमाई शारदा सरस्वती हों, वो वैदिक भारत है I

 

और इस अध्याय श्रंखला और जीव जगत के सर्वोत्कर्ष रूपी मुक्तिमार्ग के दृष्टिकोण से…

जहाँ पञ्चब्रह्म पूर्णरूपेण और समानरूपेण सनातन निवास करते हों, और जो पञ्च ब्रह्म में पूर्णरूपेण और समानरूपेण सनातन निवास करता हो, वो वैदिक भारत है I

जहाँ पञ्च मुखा गायत्री सरस्वति उन पञ्चब्रह्म की अखण्ड दिव्यता स्वरूप में पूर्णरूपेण और समानरूपेण सनातन निवास करती हों, और जो उन पञ्च मुखा गायत्री में पूर्णरूपेण और समानरूपेण सनातन निवास करता हो, वो वैदिक भारत है I

 

और इस ग्रंथ के ब्रह्मत्व पथ के दृष्टिकोण से…

जहाँ ब्रह्माण्ड सदाशिव में बसा हो और सदाशिव ब्रह्माण्ड रूप में ही हों, वह महाब्रह्माण्ड स्वरूप में वैदिक भारत है I

 

और मेरे इस परकाया प्रवेश से पाए हुए और समस्त जीव जगत की जन्म और लय प्रक्रिया के दृष्टिकोण से …

जहाँ ॐ मूल बिंदु हो, जिसकी दिव्यता सावित्री सरस्वती हों, वो वैदिक भारत है I

 

और मेरे सहित, इस समस्त जीव जगत के गंतव्य रूपी दृष्टिकोण से…

जहाँ देवत्व हिरण्यगर्भ ब्रह्म और दिव्यता ब्राह्मणी सरस्वति हों, वो वैदिक भारत है I

 

और मेरे सहित, इस समस्त जीव जगत के सार्वभौम सर्वव्यापक सनातन ब्रह्मत्व स्वरूप दृष्टिकोण से …

जहाँ सबकुछ उन सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति में और प्रजापति ही सबमे हों, वो वैदिक भारत है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

भारत ही महा ब्रह्माण्ड है, भारत नमक ब्रह्मा कौन हैं, भारत ब्रह्मा कौन हैं, ब्रह्मा भारत कौन हैं, ब्रह्मा भरत कौन, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड है, ब्रह्म ही महाब्रह्माण्ड है, …

निर्गुण ब्रह्म ही वो ब्रह्माण्ड हुए हैं, जिसको वैदिक भारत और भारत नामक ब्रह्मा कहा गया है I

और जहाँ वो ब्रह्माण्ड भी सगुण निराकार ब्रह्मा ही है, जो सगुण साकार जीवों के भीतर भी बसा हुआ है I

और जहाँ सगुण साकार जीवों के भीतर, उस सगुण निराकार ब्रह्माण्ड का स्वरूप एक सूक्ष्म संस्कार सा है, जो जीवों के चित्त में बसा हुआ वो प्राचीन संस्कार ही है, और जो ब्रह्म की प्राचीन रचना के सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड का ही लिंगात्मक स्वरूप है I

ऐसा होने के कारण, यह अध्याय उस ब्रह्माण्ड का है, जो ब्रह्म की सगुण निराकार अभिव्यक्ति होते हुए भी, उन्ही ब्रह्म की जीव रूप में सगुण साकार अभिव्यक्ति होती है…, और इसके साथ साथ वही प्राथमिक ब्रह्माण्ड रूपी सगुण निराकार ब्रह्म, अपने सगुण साकारी जीव स्वरूप के भीतर भी हैं और ऐसी दशा में वो अपने ही लिंगात्मक प्राथमिक सूक्ष्म संस्कार स्वरूप में भी हैं…, और यह सब भी तब, जब वो ब्रह्म वास्तव में निर्गुण निराकार ही हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

ब्रह्म की रचना में वो ब्रह्माण्ड, उन ब्रह्म की भाव रूपी इच्छा शक्ति से प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक रूप में स्वयं प्रकट हुआ, और जो उन ब्रह्म के ही साधन स्वरूप में था I

यही वो सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड था, जिसको प्राथमिक ब्रह्माण्ड कहा गया है I

यही सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड, समस्त जीवों के अंतःकरण चतुष्टय के चित्त के भाग में, एक हल्के पारदर्शी श्वेत संस्कार रूप में स्थापित हुआ था (लेकिन अंततः इस संस्कार को निरंग रूप में भी देखा जाएगा) I

और यह सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड जो जीवों के रचना के समय, जीवों के ही चित्त के भीतर एक संस्कार स्वरूप में बसाया गया था, वो जीवों को ब्रह्माण्ड और ब्रह्म से…, और ब्रह्माण्ड और ब्रह्म को जीवों से जोड़ता भी था I

इसी सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से ब्रह्माण्ड के समस्त स्वरूप उत्पन्न हुए थे, जो कारण या दैविक जगत, सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत के रूप में थे I

और यही सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड जिसकी बाद की स्थूल, सूक्ष्म और दैविक अभिव्यक्तियों के भीतर सभी जीव बसे हुए थे…, वो समस्त जीवों के भीतर एक संस्कार रूप में भी था I

ऐसा इसलिए हुआ था क्यूंकि ब्रह्म के भाव में ही उनका साधन था और वो साधन का प्राथमिक स्वरूप भी वही सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड ही था, जिसपर ब्रह्म ने कोई भी अंकुश रूपी सीमा नहीं लगाई थी, और जिसके कारण, वह प्राथमिक ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म के सामान सीमारहित था और वह भी वो ब्रह्म ही कहलाया था जिसका नाम भारत कहा गया था, और जिसकी मूल दिव्यता (शक्ति या ऊर्जा) को वेद मनीषियों ने भारती विद्या कहा था I

यही प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से कारण या दैविक ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था, और आगे जाकर इसी कारण जगत से सूक्ष्म, और सूक्ष्म से स्थूल जगत की रचना हुई थी I

और क्यूँकि जीवों और जगत का उत्कर्ष मार्ग, उनके रचना के मार्ग से विपरीत ही होता है, इसलिए जो भी जीव उस उत्कर्ष मार्ग पर जाएगा जो मुक्तिमार्ग कहलाता है, तब इस मार्ग के प्रारंभ समय पर, उस जीव के मूलाधार चक्र से एक श्वेत बर्फपात के समान ऊर्जा ऊपर की ओर, अर्थात मस्तिष्क की ओर उठेगी I

लेकिन इस उठने का मार्ग, राम नाद (अर्थात शिव तारक मंत्र) से होकर ही जाता है, जिसमें रा का शब्द हिरण्यगर्भात्मक होता है और म का शब्द प्राकृत ब्रह्माण्ड का नादात्मक स्वरूप (अर्थात त्रिदेव और त्रिदेवी का मकार या ब्रह्मनाद) ही होता है I

लेकिन यह अध्याय कारण जगत (या कारण ब्रह्माण्ड या दैविक जगत) तक ही सीमित रहेगा और ऐसी दशा सीमित स्थिति में ही इस अध्याय को बताया जाएगा I

 

महाब्रह्माण्ड का तत्पुरुष और सद्योजात से नाता, महाब्रह्माण्ड का कार्य ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म से नाता, महाब्रह्माण्ड का तत्पुरुष ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म से नाता, …

तत्पुरुष ब्रह्म से सद्योजात ब्रह्म के मार्ग में, जब साधक की चेतना इस मार्ग की समस्त मध्य दशाओं को पार कर जाती है, तब वो चेतना जब सद्जोजात में पहुँचने ही वाली होती है, तो इस अध्याय का साक्षात्कार होता है I

उन मध्य दशाओं में, वह चेतना इस ग्रंथ में बताए गए पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग से प्रारम्भ करके, आंतरिक यज्ञ मार्ग, जगद्गुरु शारदा मार्ग, ॐ सावित्री मार्ग, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग से जाकर, अंततः भारत भारती मार्ग में जाती है I और इस अंतिम मार्ग में जाकर, वह चेतना सदाशिव प्रदक्षिणा के पथ पर जाकर ही महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार, कार्य ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में करती है I

और उस साक्षात्कार में, वो ब्रह्माण्ड अपने उस महानतम स्वरूप में होता है, जिसमें कई सारे ब्रह्माण्ड होते हैं, और जिसको इस ग्रंथ में महाब्रह्माण्ड और महाकारण भी कहा गया है I

और वो महाब्रह्माण्ड भी, कार्य ब्रह्म के भीतर बसा हुआ होता है, जो लाल और हेमा वर्णों के मिश्रण में कुछ वैसा ही होता है, जैसा ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I

यह महाब्रह्माण्ड ही भारत नामक ब्रह्म है, जिनकी दिव्यता को माँ भारती, भारती सरस्वती, भारती विद्या, भारती विद्या सरस्वती और भारती सरस्वती विद्या आदि नामों से पुकारा जाता है, और जो पञ्च विद्या सरस्वती मार्ग में, प्रथम विद्या हैं I

इसलिए भारत ही वो महा ब्रह्माण्ड है, जो भारत ब्रह्मा (या भारत नामक ब्रह्मा या ब्रह्मा भारत) है, जिनकी दिव्यता को भारती विद्या और भारती सरस्वती कहा जाता है I

टिपण्णी: यहाँ कहे गए भारत शब्द के मूल में महाब्रह्माण्ड ही है I

 

महाब्रह्माण्ड साधना की अंतगति, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार की अंतगति,  महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार की अंतगति में साधक की दशा, जीवनमुक्ति, जीवन्मुक्त, मुक्तात्मा, साधारण मार्ग और सिद्ध मार्ग, …

इस साक्षात्कार की अंतगति में, वो सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड, जो साधक के अंतःकरण के चित्त नामक भाग में भी बसा हुआ था, वो अपने संस्कारिक स्वरूप में साधक के सहस्रार चक्र को पार कर जाता है और साधक उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड की पकड़ से ही छूट जाता है I

जब यह प्राथमिक संस्कार, साधक के कपाल के ऊपर के भाग से ही जहाँ शिवरंध्र होता है, वहां से साधक की काया के बाहर निकल जाता है, तो वो साधक ब्रह्माण्डातीत अवस्था को ही पाता है I

ऐसी दशा में न तो वो साधक महाब्रह्माण्ड को देख पाता है, और न ही महाब्रह्माण्ड या उसका कोई भाग (जो अन्य सभी ब्रह्माण्ड हैं और उन ब्रह्माण्डों के जीवादी हैं), उस साधक को देख पाते हैं I

ऐसी दशा में यदि साधक काया रूप में ही उस महाब्रह्माण्ड के किसी एक ब्रह्माण्ड में बसा हुआ होगा, तब भी वह ब्रह्माण्ड और उसकी जीव सत्ताएँ (जिनमें दैविक सत्ताएँ भी होती हैं) उस साधक को देख नहीं पाएंगी… और तबतक देख नहीं पाएंगी, जबतक वह साधक स्वयं ही स्वयं को (उन दैविक आदि सत्ताओं को) दिखाएगा नहीं I

और जब साधक उसी महाब्रह्माण्ड मिलाय होकर स्वयं ही स्वयं को और उस महाब्रह्माण्ड भी देख नहीं पाता है, तब वह कहाँ लौट पाएगा? … वह साधक तो कायाधारी होता हुआ भी, कायातीत सा ही रहेगा I यही ब्रह्माण्ड से अतीत होने की दशा का भी द्योतक होती है I

जब तुम अपने पीछे छूटे हुए महाब्रह्माण्ड या उसके किसी भाग को ही देख नहीं पाओगे, तो कहाँ लौटोगे? … थोड़ा सोचो तो I

जब साधक के लिए अब कोई ब्रह्माण्ड ही नहीं रहा, तो वो चेतना जो ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर यह सब साक्षात्कार कर रही थी, वो कैसे और किसके पास लौटेगी? I

ऐसा साधक ब्रह्माण्डातीत कहलाता है, और जहाँ उसकी ब्रह्माण्डातीत दशा ही जीवनमुक्ति कहलाती है I

और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, ऐसा साधक जीवन्मुक्त (मुक्तात्मा) ही कहलाता है I

ऐसा साधक अपनी स्थूल काया में निवास करता हुआ भी, मुक्तात्मा ही है I

 

इसलिए ऐसी स्थिति में वो चेतना के साथ जो होता है, वो अब बताता हूँ …

इस दशा में उस चेतना के पास, बस तीन विकल्प ही शेष रहते हैं, और जो ऐसे होते हैं…

  • प्रथम विकल्प, … वो चेतना, जो उन अतिसूक्ष्म हेमा वर्ण के सद्योजात ब्रह्म, जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख ही है, उनमें बसकर ही यह सब साक्षात्कार करी थी, वो उन्ही सद्योजात ब्रह्म में ही विलीन हो जाती है I

 

ऐसा साधक हिरण्यगर्भ ब्रह्म स्वरूप ही कहलाता है I और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, ऐसा साधक हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाता है I

अधिकांश साधकगणों के साथ ऐसा ही होता है I

इसका कारण भी वही है, जो पूर्व में बताया था, और जिसकी दशा को यहाँ पर थोड़ा बढ़ाया जा रहा है…

तुम वही हो जिसका तुमनें साक्षात्कार किया है I

तुम वही हो जिसमें तुम्हारी चेतना विलीन हुई है I

  • द्वितीय विकल्प, … वो चेतना, उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म (अर्थात सद्योजात ब्रह्म) के भीतर उसी निरंग झिल्ली के समान प्रकाश को देखती है, जिसके बारे में पूर्व के अध्याय, तत्पुरुष ब्रह्म (अर्थात आला नाद) और ईशान ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का ईशान मुख जो निर्गुण निराकार ब्रह्म ही हैं) में बताया गया था I

और इसके पश्चात, वो चेतना उन्ही निर्गुण निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाती है I

लेकिन ऐसा तो कुछ ही उत्कृष्ट साधकों के साथ होता है, जो सद्योजात ब्रह्म के भीतर ही स्थित होकर, महाब्रह्माण्ड सहित, समष्टि को ही त्याग देते हैं I

और क्यूंकि महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में ऐसे साधकों की संख्ता अतिन्यून ही हुई है, इसलिए ऐसे साधक अतिविरले से भी विरले ही होते हैं I

कई ब्रह्म वर्ष व्यतीत होने के पश्चात ही कोई साधक होगा, जो ऐसा हो पाया होगा I

और जब ऐसा होता है, तो वो साधक जिसकी चेतना ब्रह्मलीन हुई है, वो वेद मनीषियों द्वारा बताए गए जीवनमुक्ति शब्द का गंतव्य अर्थ, भी स्वयं ही स्वयं में जान जाता है I

और ऐसा साधक, उन ईशान नामक ब्रह्म, जो निरंग स्फटिक के समान स्व:प्रकाश होते हैं, उनमें ही विलीन हो जाता है I

महाब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसा साधक वो ईशान ब्रह्म ही कहलाता है, जिनको वेदों में निर्विकल्प, निर्बीज, निराधार, निरालम्ब और सर्वसाक्षी इत्यादि शब्दों से दर्शाया गया है और जो निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म, और कैवल्य मोक्ष आदि शब्दों, से भी दर्शाए और बताए गए हैं I

  • तृतीय विकल्प, … और ऐसे उत्कृष्टम साधकगणों में से कोई अतिविरला से भी अतिविरला साधक होता है, जिसकी चेतना महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार के पश्चात, उसी महाब्रह्माण्ड में वैसे ही लय हो जाती है, जैसे वह निर्गुण ब्रह्म अपनी ही ब्रह्म रचना में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म कहलाए हैं I

ऐसा साधक ही उन पूर्ण ब्रह्म का साक्षात स्वरूप होता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में वह साधक पूर्ण ब्रह्म ही कहलाता है I

यही महाब्रह्माण्ड साधना और साक्षात्कार की वो अंतगति है, जो शून्य अनंत और अनंत शून्य कहलाती है, और जो शून्य ब्रह्म को ही दर्शाती है I

 

टिप्पणियाँ:

  • ऊपर बताए गए तीन विकल्पों में…

मुक्तात्मा के मार्ग में शून्य ब्रह्म, द्वितीय विकल्प रूप में आएगा I

और सिद्ध मार्गों में शून्य ब्रह्म विकल्प, तृतीय विकल्प रूप में आएगा I

 

  • इससे यह ज्ञान होता है, कि…

जीव जगत का वास्तविक रचैता, पूर्व कालों का सिद्ध मनीषी ही है I

निर्गुण निराकार से लौटा हुआ मुक्तात्मा ही आगामी कालखण्ड में रचैता होगा I

जब निर्गुण को प्राप्त मुक्तात्मा, शून्य ब्रह्म स्वरूप पाएगा, तो ही वह रचैता होगा I

अब आगे बढ़ता हूँ…

अब साधारण मार्ग और सिद्ध मार्ग को बताता हूँ …

उत्कर्ष मार्गों की दो श्रेणियां होती हैं, जो साधारण और सिद्ध मार्ग कहलाते हैं I

 

  • साधारण मार्ग साधारण मार्गों की साधरणतः दशा में, साधक पठन पाठन, भजन, कीर्तन, नाम जप, मंत्र जप आदि करते हैं I

इनसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वो सिद्धियाँ भी साधारण ही होती हैं, जिनकी गति उन कर्मों, जप और मंत्रादि के देवत्व बिंदुओं तक ही सीमित रहती हैं I

इसलिए यह सिद्धियाँ सार्वभौम नहीं होती…, बस किसी एक देवत्व बिंदु तक ही सीमित होती हैं I

  • साधारण मार्गसाधारण मार्गों की गंतव्य दशा में साधक तत्त्वों, तन्मात्रों, चेतन चतुष्टय, पञ्च कोष, प्रकृति के तत्त्वों आदि पर साधना करते हैं I

ऐसी साधना में साधक की सिद्धि उन तत्त्वों पर होती है, जिनके भीतर देवत्व बिंदु (देवता और उनके लोकादि) निवास करते हैं I

ऐसे मार्गों के गंतव्य को पए हुए योगीजनों को भी सिद्ध कहा जाता है, लेकिन उनकी सिद्धि में संपूर्ण महाब्रह्माण्ड नहीं होता, क्यूंकि लेकिन ऐसी साधनाओं की गति भी उन तत्त्वों तक ही सीमित रहती हैं I

  • सिद्ध मार्ग … सिद्ध मार्गों में साधनाएँ, साधक के अपने भीतर ही बसी हुई होती है, क्यूंकि जबतक ऐसा नहीं होगा, तब तक वो साधक स्वयं के भीतर के सूक्ष्म, दैविक या कारण और संस्कारिक, सभी सत्ताओं पर विजयी नहीं हो पाएगा I

और जो साधक ब्रह्म की समस्त रचना पर ही विजयश्री नहीं प्राप्त करता, वो सिद्ध कहलाया भी नहीं जा सकता I इसलिए सिद्ध मार्ग में साधक को अन्ततः, महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करके, उस महाब्रह्माण्ड को ही सिद्ध करना होगा I

और जिस साधक ने यह सिद्धि पाई होगी, वो साधक ही सद्योजात ब्रह्म में विलीन हो पाएगा…, अन्य कोई भी नहीं I

जैसे घर के भीतर बैठे हुए घर के मालिक को मिलने के लिए, घर में प्रवेश करना ही पड़ता है, वैसे ही सद्योजात ब्रह्म का साक्षात्कार, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार के पश्चात ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन इस सद्योजात साक्षात्कार और सिद्धि के पश्चात, कुछ ऐसा साधक भी होते हैं जो उस महाब्रह्माण्ड से ही परे चले जाते हैं I ऐसे साधक अतिवीरले ही होते हैं और ऐसे ही साधक ईशान नामक ब्रह्म को पा जाते हैं I

और इनसे भी आगे के साधक पूर्ण ब्रह्म होकर ही शेष रह जाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

उन पुरातन कालों में, मेरे जो पूर्व जन्मों के थे और जो मुझे स्मरण भी हैं, क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ…, सिद्धगण कहते थे, कि …

जबतक तुम पूरे पागल नहीं होगे, तबतक सिद्ध मार्ग के गंतव्य को नहीं पाओगे I

जो पूरा का पूरा पागल नहीं, वो सिद्ध भी नहीं, … पगला ही सिद्ध हो सकता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

महाब्रह्माण्ड साधना और महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार के कुछ विशेष बिन्दु

अब मैं इस महाब्रह्माण्ड साधना और साक्षात्कार के कुछ विशेष बिंदुओं को बताता हूँ…, लेकिन इसमें बताया गया कुछ भाग ऐसा भी है, जिसके बारे में पूर्व में बताया जा चुका है और यहाँ उसी को पुनः बताया जाएगा I

  • माँ प्रकृति के दृष्टिकोण से प्रजापति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म का नाता,ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप कैसा है, ब्रह्माण्ड लिंग किसे कहते हैं, ब्रह्माण्ड का शिवलिंगात्मक स्वरूप,ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक है, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, भारत नामक ब्रह्मा और भारती विद्या सरस्वती, महाब्रह्माण्ड ही भारत नामक ब्रह्मा है, महाब्रह्माण्ड की दिव्यता ही माँ भारती सरस्वती हैं, भारती विद्या ही महाकारण की दिव्यता हैं, …

 

ऊपर दिखाया गया चित्र उस दशा का है, जब साधक की चेतना उस ब्रह्माण्ड को ही पार कर जाती है, जिसमे साधक की काया उस समय निवास कर रही होती है I

और ब्रह्माण्ड से बाहर जाके, जब साधक की चेतना ब्रह्माण्ड को देखती है, तो वो ब्रह्माण्ड इस चित्र में दिखलाए गए शिवलिंगात्मक स्वरूप में साक्षात्कार होता है I

ऐसी दशा में उस महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार होता है, जिसमें हमारे ब्रह्माण्ड जैसे असंख्य ब्रह्माण्ड होते हैं I

इन सभी ब्रह्माण्डों को एक अंधकारमय शून्य तत्त्व ने घेरा होता है और यह सभी ब्रह्माण्ड शिवलिंग के समान साक्षात्कार होते हैं I इसलिए वो साधक जान जाता है, कि ब्रह्माण्ड ही शिवलिंगात्मक है I

महाब्रह्माण्ड की इसी लिंगात्मक दशा को ही इस अध्याय के चित्र में दिखलाया गया है I

 

अब साक्षात्कार के अनुसार जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …

समस्त ब्रह्माण्डों का आकार शिवलिंग के समान है, इसलिए…,

ब्रह्माण्ड के साकारी उपास्य चिन्ह स्वरूप को शिवलिंग कहा गया है I

ब्रह्माण्ड ही वैदिक राष्ट्र कहलाता है, जिसके सम्राट और गुरु सर्वेश्वर हैं I

वैदिक साम्राज्य, अर्थात महाब्रह्माण्ड ही भारत है, जो देवी भारती के पति हैं I

वैदिक वाङ्मय  में शिवलिंग के निराकार स्वरूप को ही ब्रह्माण्ड कहा जाता है I

शिवलिंग ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं का भी द्योतक होता है, इसलिए शक्तिलिंग भी है I

इसलिए महाब्रह्माण्ड का चित्र, उन भारत नामक ब्रह्मा और भारती सरस्वती को भी दर्शा रहा है I

 

इसी बिंदु पर और कुछ बातें …

जिस ब्रह्माण्ड में जीव रहता है, वही ब्रह्माण्ड उसके अपने प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में उस जीव के भीतर भी बसा होता है I

उस भीतर के सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड से योग ही ब्रह्माण्ड योग कहलाता है, जिसका मार्ग ब्रह्माण्ड धारणा से होकर ही जाता है I

जब साधक उस भीतर के सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करके, उसको सिद्ध करता है, तब ही वो साधक उस मार्ग पर जा पाता है, जिसमें उस महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार हो पाता है, जो इस अध्याय के चित्र में दिखलाया गया है I

ऐसा साधक महाब्रह्माण्ड योग का सिद्ध भी होता है, और उस महाब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मर्षि के समान रहता है,  और उस महाब्रह्माण्ड का अवधूत भी हो सकता है I

आगामी गुरु युग के पूर्ण स्थापित होने से पूर्व, कोई ऐसा साधक आएगा ही और वह साधक उस गुरु युग के पूरे समय में, इस महाब्रह्माण्ड का ब्रह्मार्षि अवधूत होकर ही उसी महाकारण लोक (अर्थात महाब्रह्माण्ड लोक) में ही रहेगा I

और उस आगामी गुरु युग (अर्थात वैदिक युग) की आयु पूर्ण होने के पश्चात, वह साधक निर्गुण निराकार ब्रह्म, जो सदाशिव का ईशान मुखी है, उसमें लय होकर, पुनः किसी भी सगुण साकार अथवा सगुण निराकार, अथवा किसी और स्थिति अथवा दशा में भी नहीं पाया जाएगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

यदि ऐसी सिद्धि के पश्चात भी वो साधक इस बताए गए पद को धारण नहीं करेगा, तो उस साधक के पास जो विकल्प रह जाएंगे, वो ऐसा होंगे…

  • पहले विकल्प में … वो साधक उन सगुण निराकार हिरण्यगर्भ में ही विलीन हो जाएगा I

ऐसा साधक अपने स्थूल शरीर को त्यागके, उन सगुण निराकार हिरण्यगर्भ (अर्थात सद्योजात ब्रह्म) के भीतर ही निवास करता है, और उन हिरण्यगर्भ का ही अखण्ड अंश होकर शेष रह जाता है I

किसी स्थूल लोक में ऐसा साधक तब लौटाया जाता है, जब काल की प्रेरणा से और महाकाली की शक्ति से, वो वैदिक युग आ रहा होता है, जो आम्नाय युग और गुरुयुग भी कहलाता है I

ऐसे साधक का शरीरी रूप में आगमन भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही होता है I

और इस स्थिति में रहते रहते और बहुत समय के पश्चात, ऐसा साधक ही अब बताए जा रहे दूसरे विकल्प में जाने का पात्र होता है I

 

  • और दुसरे विकल्प में … वो हिरण्यगर्भ ही उस साधक की काया के भीतर स्वयंप्रकट होके, साधक से अद्वैतयोग में आके, वो साधक ही हो जाएंगे I

ऐसा साधक अपने पूर्व के शरीरी रूप में होता हुआ भी, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में वो हिरण्यगर्भ ही कहलाएगा I

यदि ऐसा साधक जीवित रह जाए (अर्थात अपने पूर्व के काया स्वरूप में रह जाए), तो उस साधक के साथ, महाब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताएं भी आ जाती हैं I

जिस भी लोक में वो साधक निवास कर रहा होगा, उस लोक की समस्त दिव्यताएं भी अपने अपने दुर्गों (मंदिरों) को त्यागके, उस साधक के साथ खड़ी हो जाएंगी I

यही एक-सौ-एकवी, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्धि कहलाती है, जिसक  पथ ॐ मार्ग से जाता हुआ, राम नाद और अष्टम चक्र से भी होकर जाता है I

ऐसे साधक का शरीरी रूप में आगमन भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसी स्थिति में, साधक की चेतना जान जाती है, कि वास्तव में तो असंख्य ब्रह्माण्ड हैं, और यह सभी ब्रह्माण्ड, शिवलिंगाकार ही हैं I

 

और इसके अतिरिक्त, इस साक्षात्कार से साधक की चेतना यह भी जान जाती है…, कि…

शिव ही ब्रह्माण्ड हुए हैं I

ब्रह्माण्ड भी शिवात्मक ही है I

ब्रह्माण्ड योग  शिवत्व का मार्ग होता है I

समस्त ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक हैं, सदाशिव हैं I

सदाशिव का उपासनायोग्य पूर्ण स्वरूप शिवलिंग है I

शिवलिंग के निराकार स्वरूप को ही ब्रह्माण्ड कहा जाता है I

समस्त ब्रह्माण्डों के साधनायोग्य स्वरूप को ही शिवलिंग कहते हैं I

ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक है…, और शिवलिंग, शिव का ही ब्रह्माण्ड स्वरूप I

शिवलिंग ही निराकार शिव या सर्वकल्याणकारी तत्त्व का लिंगात्मक स्वरूप है I

उन सदाशिव का ब्रह्माण्डलिंग स्वरूप इस समस्त जीव जगत में पूर्णतः बसा है I

और जीव और जगत से समस्त बिन्दु, शिव के लिंगात्मक स्वरूप में ही बसे हुए हैं I

 

इस साक्षात्कार से साधक यह भी जान जाता है, कि…

आधार भी अपने आधारी का अभिन्न अंग होता है, इसलिए शक्ति ही शिव है I

शिवात्मिका ही शक्ति हैं, जिनके आधार या नीव पर शिवलिंग स्थापित होता है I

ब्रह्म रचना शिवात्मक है, इसलिए पुरातन कालों में तत्त्वों पर साधनाए होती थी I

जिसने शिव स्वरूप ब्रह्माण्ड पार कर लिया, वो शिव शक्ति, दोनों का हो जाएगा I

 

इसलिए इस साक्षात्कार से साधक यह भी जानता है, कि…

शिव को जानना है, तो शक्ति को जानो…, शक्ति को जानना है, तो शिव को जानो I

जिसने शिव शक्ति में से किसी एक को ही जाना है, उसने किसी को नहीं जाना है I

देवात्मिका से ही उसके देव को जाना जाता है…, और देव से उसकी देवात्मिका को I

 

इसलिए, …

अंततः शैव, शाक्त होगा हीऔर शाक्त भी शैव हुए बिना नहीं रहेगा I

जिस मार्ग में शिव शक्ति में कोई अंतर नहीं होता, वही मुक्तिमार्ग होता है I

 

और…

ऐसे उत्कर्ष मार्ग से ही भवसागर पार होता है, कैवल्य मुक्त हुआ जाता है I

ऐसे उत्कर्ष रूपी मुक्तिमार्ग का मूल शब्द, राम नाद है, जो शिव तारक मंत्र है I

जिसने इस महाब्रह्माण्ड को जाना है, उसने ही शिव और शक्ति को पूर्ण जाना है I

लेकिन ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, उस योगी ने…

शिव शक्ति को धारण किया होगा या नहीं,  यह तो वो योगी ही जानता होगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन क्यूंकि इस साक्षात्कार में, यह सभी अनंत कोटि (या असंख्य) ब्रह्माण्ड उन्ही पीले और लाल रंगों की योगावस्था में ही बसे हुए होते हैं, इसलिए वो साधक जान जाता है, कि इन सबका रचैता एक ही है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

उस स्वच्छ सर्वव्यापत निरंग जल के समान, निर्गुण निराकार ब्रह्म ने जब स्वयं को अभिव्यक्त किया था, तो उनकी वास्तविक अभिव्यक्ति शून्य ब्रह्म की थी I

इस शून्य ब्रह्म में, शून्य और ब्रह्म का ऐसा योग था, कि वो शून्य और ब्रह्म एक दुसरे से पूर्णतः घुले मिले थे I

इस शून्य ब्रह्म में, शून्य ही अनंत ब्रह्म रूप में था…, और वो अनंत (ब्रह्म) ही शून्य रूप में  था I

इस शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार असंप्रज्ञात समाधि में होता है, इसलिए असंप्रज्ञात समाधि में वो अंधकारमय शून्य ही चेतनमय अनंत स्वरूप में होता है, जिसके कारण, वो साधक चेतनारहित शून्य में बसा हुआ भी, चेतनाविहीन नहीं होता है I

इसी को महाशून्य समाधि भी कहते हैं, जिसका सिद्ध, महाब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, महातम और महाशून्य भी कहलाता है I

सिद्धों ने इसी महाशून्य को, शून्य का इक्कीसवाँ और अंतिम (गंतव्य) स्वरूप भी कहा है I

इस महाशून्य का नाता ब्रह्मलोक के उस इक्कीसवें भाग से है, जहाँ सर्वसम  चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और पितामही सरस्वती निवास करते हैं I

इसी महाशून्य को कुछ सिद्धों ने शिव कहा है, और ऐसे सिद्ध मार्गों में…

शिव हैं लेकिन तब भी नहीं हैं …, और नहीं हैं, लेकिन तब भी हैं I

 

बौद्ध मार्ग में, इसी महाशून्य को, शून्यता भी कहा गया है, जिसके कारण बौद्ध कहते हैं, कि…

शून्य ही अनंत, अर्थात पूर्ण या भरा हुआ होता है I

 

और जैन मार्ग में…

इसी महाशून्य को सिद्धलोक कहा गया है I

 

उस महाशून्य या शून्य ब्रह्म के साक्षात्कार में…

मूल में शून्य था…, और गंतव्य में अनंत था I

शून्य रूप में प्रकृति थीऔर अनंत ही ब्रह्म था I

इस शून्य ब्रह्म का ज्ञान रूपी साक्षात्कार असंप्रज्ञात समाधि से होता है I

इस असंप्रज्ञात समाधि में, इस शून्य ब्रह्म में, कौन सा शून्य है, और कौन सा अनंत (ब्रह्म) है, उसको पृथक रूप में जानना बहुत कठिन है…, लेकिन असंभव नहीं I

 

उस शून्य ब्रह्म के साक्षात्कार में…,

शून्य अंधकारमय था, रात्रि के समान काला था…, और अनंत स्व:प्रकाश था I

ऐसी दशा में वो स्व:प्रकाश, एक निरंग झिल्ली के समान था, जो उस अंधकारमय शून्य के भीतर ही बसा हुआ I

और इसके साथ साथ, उसी निरंग झिल्ली के समान स्व:प्रकाश मे शून्य भी बसा हुआ था, क्यूंकि उसी अनंत ने शून्य को घेरा भी हुआ था I

यही कारण है, कि सर्वव्यापत होने के कारण, अनंत ही शून्य में बसा होता है, और इसके साथ साथ, उसी सर्वव्याप्त अनंत के भीतर ही, शून्य भी बसा हुआ होता है I इसी को पूर्णब्रह्म भी कहा जाता है I

 

इसलिए उस महाशून्य या शून्य ब्रह्म में, …

  • जब उस अनंत को शून्य के भीतर से जाना जाएगा, तो वो अनंत, शून्य में ही बसा हुआ पाया जाएगा, अर्थात शून्य उस अनंत को घेरे हुए ही पाया जाएगा I

ब्रह्माण्ड के भीतर, निर्गुण निराकार का साक्षात्कार भी ऐसा ही होता है I

  • लेकिन जब उसी अनंत को शून्य से परे, अर्थात शून्य के बाहर जाकर साक्षात्कार किया जाएगा, तब वो शून्य उसी अनंत के भीतर पाया जाएगा, अर्थात ऐसी दशा में, अनंत ने शून्य को घेरा होगा I

ब्रह्माण्ड से परे जाकर, यदि निर्गुण निराकार का साक्षात्कार करा जाएगा, तो वह ऐसा ही साक्षात्कार होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

माँ प्रकृति ही मूल शक्ति हैं इस जीव जगत की, और उसी मूल शक्ति रूपी प्रकृति को ही शून्य तत्त्व कहा गया था, जिसका साक्षात्कार शून्य समाधि से किया जाता है I शून्य समाधि का शून्य, प्रकाश रहित (अर्थात अंधकारमय, चेतनारहित) ही होता है I

शक्ति की मूलावस्था को ही शून्य कहते हैं, और इसी शून्य रूपी तिरोधान को धारण करके ही प्रकृति रूपी मूल शक्ति इस जीव जगत को चलायमान और उत्कर्ष मार्ग पर गतिशील रखती हैं I

शून्य ही वो शक्ति है, जिसके प्रभाव से और जिसके भीतर ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I

जब साधक की चेतना, ब्रह्माण्ड को पार कर जाती है, तब वो मूल शक्ति, उसकी अपनी अंधकारमय शून्यावस्था में होती हैं, और वो ब्रह्माण्ड के बाहर की ओर (अर्थात ब्रह्माण्ड को घेरे हुए) दिखाई देती है I

और ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर साधक यह साक्षात्कार भी करता है, कि उस मूल शक्ति रूपी प्रकृति ने, अपने अंधकारमय स्वरूप में समस्त ब्रह्माण्डों को घेरा हुआ है, और इसीलिए बाहर से वो सभी ब्रह्माण्ड काले (रात्रि के समान) दिखते हैं I इसी दशा को इस अध्याय का महाब्रह्माण्ड का चित्र भी दिखा रहा है I

इस महाब्रह्माण्ड के चित्र में भी यही अवस्था दिखाई गई है, जिसमे प्रत्येक शिवलिंग रूपी ब्रह्माण्ड को उन्ही शिवात्मिका ब्रह्मशक्ति ने अपने शून्य स्वरूप में घेरा हुआ है I

और क्यूँकि शून्य, अंधकारमय तत्त्व ही होता है और शून्य, मूलप्रकृति को भी दर्शाता है, इसीलिए इस अध्याय के चित्र में, समस्त शिवलिंग रूपी ब्रह्माण्डों को उसी अंधकारमय शून्य तत्त्व, अर्थात मूलप्रकृति से घिरा हुआ दिखाया गया है I

ऐसा साक्षात्कार के समय पर, इन शिवलिंग रूपी ब्रह्माण्डों को लाल रंग की रजोगुण काया और पीले रंग की बुद्धि काया की योगावस्था के भीतर ही देखा जाता है I

इसका अर्थ हुआ कि ऐसा प्रकाश रहित शून्य, लाल और पीले रंग के बीच में ही साक्षात्कार होता है, और वो भी तब, जब साधक की चेतना उस ब्रह्माण्ड को ही पार कर जाती है, जिसमे उस समय साधक की काया निवास कर रही होती है I

 

  • महाब्रह्माण्ड का कार्यब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म से नाता,

अब इस अध्याय के चित्र में दिखाए गए महाब्रह्माण्ड और कार्य ब्रह्म के नाते को बताता हूँ I जब साधक की चेतना, ब्रह्माण्ड को पार कर जाती है, तब जो दिखाई देता है, वो ऐसा होता है …

समस्त ब्रह्माण्डों को भी इसी प्रकाश रहित शून्य नें घेरा हुआ है, और जब उस ब्रह्माण्ड को, शून्य से परे जाकर देखा जाएगा, अर्थात ब्रह्माण्ड से बाहर निकलकर जब हम ब्रह्माण्ड को देखते हैं, तो वो सारे ब्रह्माण्ड शिवलिंगाकार दिखाई देते हैं, जिनके मूल में शक्ति होती हैं, और गंतव्य में शिव होते हैं I और ऐसी दशा में भी शक्ति अपने शक्तिमान, अर्थात शिव से साथ योग अद्वैत योग में ही होती हैं I

ऐसा शक्ति शिव का योग ही शिवलिंग कहलाता है I इसी शिवलिंग के विशालकाय स्वरूप को ब्रह्माण्ड कहा जाता है I इसीलिए, ब्रह्माण्ड की वास्तविक अवस्था शिवलिंगात्मक ही होती है I

जब हम ब्रह्माण्ड को, ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर साक्षात्कार करते हैं, तो वो ब्रह्माण्ड भी प्रकाशरहित शून्य में बसा हुआ होता है, जिसके कारण वो ब्रह्माण्ड रात्रि के समान काले, शिवलिंग के आकार का दिखाई देता है I महाब्रह्माण्ड के भीतर बसे हुए प्रत्येक ब्रह्माण्ड को इसी दशा को ही इस अध्याय के चित्र में दिखाया गया है I

इस चित्र में जो काले रंग के शिवलिंग दिखाई दे रहे हैं, वो सभी एक-एक ब्रह्माण्ड हैं I और यह सभी ब्रह्माण्डीय शिवलिंग, उसी लाल रंग के रजोगुण और पीले रंग की बुद्धि के बीच में बसे हुए हैं, अर्थात यह बुद्धि और रजोगुण की योगावस्था में ही बसे हुए हैं I

और क्यूंकि यह सभी ब्रह्माण्ड, शिवलिंग के स्वरूप में हैं, शिवलिंगाकार हैं, शिवलिंगात्मक हैं, और क्यूँकि शिव के साथ शक्ति भी होती ही हैं, इसलिए इस ब्रह्माण्ड का देवता, शिव के अतिरिक्त कोई और हो भी नहीं सकता I

इस साक्षात्कार के अनुसार…

शिव ही समस्त ब्रह्माण्डों के रूप में हैं I

और समस्त ब्रह्माण्ड भी शिवात्मक होकर ही रहे हैं I

लेकिन यह सभी ब्रह्माण्ड, जिनको प्रकाश रहित शून्य ने घेरा हुआ है, वो सब ब्रह्माण्ड, लाल रंग के रजोगुण और पीले रंग की बुद्धि की योगावस्था में ही बसे हुए हैं I

लाल रंग के रजोगुण और पीले रंग की बुद्धि की योगावस्था तो केवल केवल कार्य ब्रह्म में ही होते हैं (जैसा इस अध्याय के प्रथम चित्र में दिखलाया गया है), इसलिए इन सब का एकमात्र रचैता भी वो ही कार्य ब्रह्म हैं, जिनको उकार कहा जाता है, और जो तत्पुरुष ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म की योगावस्था के भी द्योतक हैं I

और जहाँ इस महाब्रह्माण्ड का वास्तविक साक्षात्कार भी पञ्च मुखी सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग में, तब ही होता है जब साधक की चेतना सदाशिव तत्पुरुष और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में पहुँच जाती है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

अब चित्र में दिखाए गए महाब्रह्माण्ड और हिरण्यगर्भ ब्रह्म का नाता बताता हूँ…

पर क्यूंकि इस साक्षात्कार का मार्ग, लाल रंग के रजोगुण से जाकर ही होता है, इसलिए इस साक्षात्कार के मार्ग के मूल में रजोगुण ही है I

इस रजोगुण का साक्षात्कार रजोगुण समाधि से ही होता है, जिसको अस्मिता समाधि भी कहते हैं I

पर क्यूंकि यह साक्षात्कार लाल रंग के रजोगुण और पीले रंग की बुद्धि की योगावस्था में (या मध्य में) होता है, और जो कार्य ब्रह्म को दर्शाती है, इसलिए, इस साक्षात्कार की अवस्था में महाब्रह्माण्ड और इससे आगे की गति में, कार्य ब्रह्म का उनके ही निराकार स्वरूप का साक्षात्कार होगा I

और क्यूंकि यह साक्षात्कार अन्ततः उसी अतिप्रकाशमान अतिसूक्ष्म हेमा (अर्थात अति प्रकाशमान पीले या सुनहरे) रंग के हिरण्यगर्भ ब्रह्म की ओर ही लेकर जाता है, इसलिए इस साक्षात्कार से आगे मार्ग में हिरण्यगर्भ भी होंगे I

लेकिन इस साक्षात्कार में, माँ प्रकृति एक विशालकाय प्रकाश रहित शून्यावस्था में ही होंगी, जिसने समस्त ब्रह्माण्डों को घेरा हुआ होगा और जहाँ वो ब्रह्माण्ड भी शिवलिंगाकार ही होंगे I

 

अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …

जिस दशा में वो प्रकाश रहित, शून्य रूपी शिवलिंगात्मक प्राकृत ब्रह्माण्ड बसा होता है, उसे ही कार्य ब्रह्म कहते हैं I

और अंततः, जिस अवस्था को वो प्रकाशरहित शून्य रूपी शिवलिंगात्मक ब्रह्माण्ड लेके जाता है, उसे ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहते हैं I

टिपण्णी: लेकिन जैसा पूर्व में बताया था, कि जबकि अधिकांश साधकगण तो सद्योजात (हिरण्यगर्भ) में ही विलीन होते हैं, लेकिन कुछ अतिविरले से भी विरले साधकगण होते हैं,  जो अंततः ईशान ब्रह्म (या निर्गुण न्रह्म) में ही विलीन होते हैं I और कुछ और साधकगण अतिविरले से भी अतिविरले वह योगी ही होते हैं, जो मिर्गुन निराकार को प्राप्त होकर, मुक्तात्मा ही होकर, पुनः इस समस्त सृष्टि के सृष्टिकर्त्ता स्वरूप में लौटते हैं I  उन सृष्टिकर्त्ता को ही कार्य ब्रह्म, योगेश्वर और महेश्वर आदि कहा जाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

  • महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार से प्रकृति और ब्रह्म के नाते का साक्षात्कार

प्रकृति की मूलावस्था के दृष्टिकोण से, जो ब्रह्माण्ड की परिभाषा होती है, उसको अब बता रहा हूँ…

अपने अभिव्यक्त स्वरूप में, प्रकृति ही ब्रह्म की प्राथमिक अभिव्यक्ति हैं I

 

प्राथमिक अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं होती, इसलिए प्रकृति भी उतनी ही अनादि-अनंत सनातन हैं, जितने अनादि-अनंत सनातन ब्रह्म हैं I

और क्यूंकि यह समस्त जीव जगत प्रकृति में बसा हुआ है, और प्रकृति भी इस जीव जगत स्वरूप में ही बसी हुई है, इसलिए यह जीव जगत और उसके समस्त अंग भी प्रकृति के समान ही हैं I

अपने मूलप्रकट रूप से, प्रकृति ही प्रकाश रहित शून्य होती हैं I

अपने प्राथमिक कार्य से, प्रकृति ही ब्रह्म की प्रमुख दूती होती हैं I

अपने प्राथमिक सार्भौम स्वरूप से, प्रकृति ब्रह्म की पूर्णशक्ति होती हैं I

अपने प्राथमिक नाते से, प्रकृति ही ब्रह्म की एकमात्र सनातन अर्धांगिनी हैं I

अपने प्राथमिक सर्वव्यापक स्वरूप से, प्रकृति ही ब्रह्म की संपूर्ण दिव्यता होती है I

इसलिए…

अपने प्रकट रूप में प्रकृति त्रिगुणात्मिका ही होती हैं I

अपने मूलप्रकट शून्य स्वरूप में, प्रकृति त्रिगुणशून्य भी होती है I

और अपने ही गन्तव्य स्वरूप में वही माँ प्रकृति त्रिगुणातीत देवी ही हैं I

क्यूंकि यह गुण, प्रकृति के मूलस्वरूप में भी नहीं होते ही, इसीलिए शास्त्र में, त्रिगुणों को प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में नहीं डाला गया था I

और क्यूंकि चौबीस तत्त्व, प्रकृति के मूलस्वरूप में ही बसे हुए होते हैं, इसलिए संख्य शास्त्र में बस चौबीस तत्त्व ही बताए गए हैं I

सांख्य के चौबीस तत्त्वों में, पञ्च ज्ञानेंद्रियां, पञ्च कर्मेंद्रियां, पञ्च तन्मात्र, पञ्च महाभूत, प्रकृति (चित्त), महत (बुद्धि), मन और अहम् होते हैं I  और इन सबको भेदते और घेरे हुए त्रिगुण हैं I

प्रकृति को चित्त इसलिए बताया गया है, क्यूंकि चित्त का वो मध्य भाग, जिसमें से चौबीस किरणें बाहर की ओर निकलती हैं, उसमें प्रकृति के मूल अंधकारमय ही शून्य तत्त्व होता है I

और ऐसी दशा में वो श्वेत वर्ण के चित्त को पीले और लाल वर्ण के मिश्रण से निर्मित प्रकाश की किरणों ने घेरा होता है I मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव गौतम बुद्ध के ज्ञान में, चित्त की ऐसी दशा को ही बोधिचित्त कहा गया था I

 

लेकिन इसके साथ साथ…

अपने प्रकट स्वरूप में, प्रकृति त्रिगुणात्मिका ही होती हैं I

अपने ऊर्जावान कार्यों के स्वरूप में, प्रकृति ही मूलशक्ति होती हैं I

ब्रह्माण्ड में अपने सर्वव्यापी मातृत्व स्वरूप से, प्रकृति ही सर्वमाता होती हैं I

अपने गुणों से, प्रकृति ही वह व्यापक मूलऊर्जा है, जो अपराजिता दुर्गा कहलाती हैं I

इसी मूलऊर्जा को मूलप्रकृति कहा गया था I और इसी अवस्था को कई प्रकार से दर्शाया और बताया गया है…, जैसे “मूलप्रकृति दुर्गा:”…, इत्यादि I

 

अपनी पृथक दशाओं के स्वरूप में, प्रकृति बहुवादी होती हैं I

 

ऐसा होने के कारण…

मुक्ति, प्रकृति के तारतम्य में नहीं होती, लेकिन तब भी प्रकृति जीवों का मुक्तिमार्ग ही होती है, इसलिए महाब्रह्माण्ड के किसी भी ब्रह्माण्ड और लोकादि में, प्रकृति को ठुकराया भी नहीं जा सकता I

 

अपने उत्कर्षमार्गी स्वरूप से, प्रकृति ही उत्कर्षपथ होती हैं I

प्रकृति से जाता हुआ उत्कर्षपथ, कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग होता है I

 

अपने गंतव्य मार्गी स्वरूप से, प्रकृति ही मुक्तिमार्ग होती है I

प्रकृति के गंतव्य मार्गी स्वरूप को ही ब्रह्मपथ कहा जाता है I

 

अपने गंतव्य से, प्रकृति ब्रह्म ही होती है I

इसका कारण है, कि मूल-अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं होती I

यही कारण है, कि अपनी वास्तविकता में, प्रकृति को भी ब्रह्म कहा गया है… अर्थात प्रकृति ब्रह्म है, ऐसा ही कहा गया है I

 

महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार और पञ्च ब्रह्मोपनिषद का नाता … पञ्च ब्रह्म साधना से महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार, पञ्चमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा और महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, पञ्चमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा और महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार, …

 

पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, पञ्चब्रह्म परिक्रमा मार्ग
पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, पञ्चब्रह्म परिक्रमा मार्ग

 

पञ्च ब्रह्मोपनिषद के पञ्चब्रह्म का साक्षात्कार इस महाब्रह्माण्ड के साक्षात्कार से कई वर्षों पूर्व में ही हुआ था I पञ्च ब्रह्मोपनिषद का साक्षात्कार कोई 2007-2008 ईसवी में हुआ था और, इस महाब्रह्माण्ड का 2011-2012 ईसवी में I

जब चेतना पञ्च ब्रह्मोपनिषद से आगे जो अष्टमुखी सदाशिव हैं, उन सदाशिव के प्रदक्षिणा पथ पर गई थी, तब ही यह महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार, सदाशिव के तत्पुरुष मुख और सद्योजात ब्रह्म (जो पञ्च ब्रह्मोपनिषद में बताए गए हैं), इन दोनों के मध्य की दशा में हुआ था I

ऊपर दिखाए गए चित्र के 4 अंक की रेखा के मध्य भाग तक तो साधक की चेतना पञ्च ब्रह्मोपनिषद में ही गति करती है, और इसके पश्चात वह चेतना मुड़कर पुनः तत्पुरुष ब्रह्म की ओर गति करती हुई, अष्ट मुखी सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग पर ही गति करने लगती है (यह ऊपर के चित्र में नहीं दिखाया गया है, क्यूंकि इस बिन्दु का यह अध्याय नहीं है) I

और इस अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग पर वह चेतना महाब्रह्माण्ड का साक्षातकार तब करती है, जब इस प्रदक्षिणा पथ पर वह चेतना कार्य ब्रह्म (अर्थात तत्पुरुष सदाशिव) और सद्योजात ब्रह्म (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म) के मध्य में पहुँच जाती है I यहाँ बताए जा रहे महाकारण लोक का साक्षात्कार यहीं पर होता है I

 

  • महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार और माँ गायत्री सरस्वती का नाता, गायत्री साधना से महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार,

देवी गायत्री (माँ गायत्री सरस्वती) के पाँच मुख होते हैं, जो ऐसे होते हैं …

मुक्ता … यह मुख स्वच्छ स्फटिक के समान होता है, जो पञ्च ब्रह्मपनिषद के आकाश की ओर (अर्थात ऊपर या गंतव्य की ओर) देखने वाले, निरंग स्फटिक के समान, ईशान नामक ब्रह्म से नाता रखता है I

हेमा … यह मुख पीले वर्ण का होता है, जो पञ्च ब्रह्मपनिषद के पूर्व वाले सद्योजात नामक ब्रह्म से नाता रखता है I

रक्ता … यह मुख लाल वर्ण का होता है, जो पञ्च ब्रह्मपनिषद के उत्तर वाले तत्पुरुष नामक ब्रह्म से नाता रखता है I

धवला … यह मुख धवला वर्ण का होता है, जो पञ्च ब्रह्मपनिषद के पश्चिम दिशा वाले वामदेव नामक ब्रह्म से नाता रखता है I

नीला … यह मुख नीले वर्ण का होता है, जो पञ्च ब्रह्मपनिषद के दक्षिण दिशा वाले अघोर नामक ब्रह्म से नाता रखता है I

 

इसलिए,  जब गायत्री साधना से भी महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार मार्ग पर जाया जाता है, और ऐसी गति में भी साधक पञ्चमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा में जाकर, कार्य ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में पहुंचकर इस अध्याय में बताए गए बिंदुओं का साक्षात्कार कर सकता है I

 

  • गुणों के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साधना का गुणों से नाता

त्रिगुण होते हैं, जो तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण कहलाते हैं I

सत्त्वगुण श्वेत वर्ण का होता है, तमोगुण नील वर्ण का और रजोगुण लाल वर्ण का I

हिरण्यगर्भ हेमा वर्ण के होते हैं, इसलिए पीले वर्ण की बुद्धि को दर्शाते हैं I

कार्य ब्रह्म के दृष्टिकोण से, वो रजोगुणी भी होते हैं, और हेमा वर्ण के भी होते हैं, इसलिए उनमें भीतर सुनेहरा वर्ण होता है, और बाहर की ओर, लाल वर्ण I क्यूंकि बाहर की ओर वो लाल वर्ण के होते हैं, इसलिए कार्य ब्रह्म को लाल वर्ण का बताया जाता है I

इसलिए कार्य ब्रह्म प्रधानतः, हिरण्यगर्भ ब्रह्म के रजोगुणी स्वरूप को दर्शाते हैं I इसलिए यह महा ब्रह्माण्ड साधना भी प्रधानतः, बुद्धिमय (या ज्ञानमय), रजोगुणी (या कर्ममय) साधना ही होगी I

 

  • प्राणमय कोष के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साधना और प्राणमय कोष का नातामहाब्रह्माण्ड साक्षात्कार और भारती शारदा विद्या साधना

पञ्च प्राण होते है, जो अपान प्राण, समान प्राण, प्राण प्राण, उड़ान प्राण और व्यान प्राण कहलाते हैं I

इनमे से अपान प्राण लाल रंग का होता है, और यह अपान प्राण शरीर के नीचे के भाग में बसा होता है, अर्थात नाभि से पांच ऊँगली नीचे से लेकर पैरों तक के क्षेत्र में होता है I शरीर में अपान प्राण की गति नीचे की ओर होती है I

और प्राण, पीले रंग का होता है I और यह प्राण-प्राण हृदय के क्षेत्र में होता है, अर्थात नाभि से चार ऊँगली ऊपर से, कंठ के नीचे तक के क्षेत्र में होता है I हृदय के प्राण-प्राण की गति, शरीर से आगे की ओर होती है, जिसके कारण यह हृदय का प्राण उत्कर्ष मार्ग को भी दर्शाता है I

हृदय क्षेत्र का यह पीले रंग का प्राण, हिरण्यगर्भ ब्रह्म को दर्शाता है, जो साधक की चेतना की आगे बढ़ने वाली गति, अर्थात साधक की उत्कर्ष मार्ग की ऊर्ध्वगति का भी वाचक हैं I

जब पीले रंग का हृदय क्षेत्र का प्राण-प्राण, लाल रंग के अपान-प्राण से योग करता है, तो प्राणमय कोष के गुणमय दृष्टिकोण से उसे ही कार्य ब्रह्म कहते हैं I

लेकिन क्यूंकि कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के समय भी ऐसा ही होता है, इसलिए प्राणमय कोष के गुणमय दृष्टिकोण से जो कार्य ब्रह्म कहा गया है, उसके साक्षात्कार की दशा भी साधक की कुण्डलिनी शक्ति के प्राथमिक जागरण को ही दर्शाती है I

इसका अर्थ हुआ कि इस अध्याय में जो प्रथम चित्र दिखाया गया है, वो कुण्डलिनी शक्ति के जागरण होने के और इसके पश्चात उसके गंतव्य में स्थापित होने के भी बाद का ही (अर्थात सप्तम चक्र को पार करने के पश्चात का ही ) साक्षात्कार है I

और जब इस अध्याय का प्रथम चित्र, साधक के शरीर के भीतर साक्षात्कार होता है, तब साधक की चेतना ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोष में से होती हुई, उसी ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के भीतर ही बस जाती है, जो पीले वर्ण का होता है, और जैसा की इस अध्याय के प्रथम चित्र में भी दिखलाया गया है I

तो इसका अर्थ हुआ, कि जब साधक की कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है, और वो साधक कार्य ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, तब साधक की चेतना ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में बस कर ही ऐसा साक्षात्कार करती है I

ऐसे साक्षात्कार में साधक की विज्ञानमय दशा ही  साधक के उत्कर्ष मार्ग की उस ऊर्ध्वगति को दर्शाती हैं, जिसमें हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही कार्य ब्रह्म स्वरूप में होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार कहलाते हैं I

योगमार्ग में उकार शब्द का अर्थ होता है…, “वो जो चेतना को ऊपर की ओर, अर्थात ऊर्ध्वगति की ओर तीव्रता से लेके जाए” I

हृदय की दिव्यता को ही देवी शारदा कहा जाता है, और नाभि से नीचे की दिव्यता को माँ भारती, इसलिए यह महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार का एक उत्कृष्ट मार्ग, देवी भारती शारदा साधना भी है I

जब देवी भारती, जो अपान प्राण की विज्ञानमय दिव्यता हैं, और देवी शारदा जो हृदय के प्राण की विज्ञानमय दिव्यता हैं, उनका साधक के शरीर के भीतर ही योग होता है, तब साधक की काया के भीतर, कुण्डलिनी शक्ति के जागरण प्रक्रिया का प्रारम्भ होता है I

इसलिए, भारती शारदा सरस्वती साधना भी कुण्डलिनी जागरण का मार्ग होती है, और जिससे कुछ बाद मेंही सही, लेकिन साधक के लिए उकार और महाब्रह्माण्ड, दोनों साक्षात्कारों का मार्ग भी, एक-एक करके प्रशस्त हो जाता है I

 

  • चक्रों की ऊर्जाओं के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साधना और देवी भारती का नाता,

शरीर में सप्त चक्र होते है, जिनमें से सबसे नीचे का चक्र, मेरुदंड के नीचे के भाग में होता है और इसको मूलाधार चक्र भी कहते है, जिसका अर्थ होता है “मूल आधार” I

यह मूलाधार चक्र में चार पत्ते होते है, जो श्वेत वर्ण के होते हैं I और इस चक्र के मध्य में, एक गाढ़े लाल रंग का बिंदु होता है, और इस चक्र के देवता को रजोगुणी ब्रह्मा कहा गया है I और इसके प्राण को अपान प्राण कहा जाता है I

और मूलाधार चक्र से ऊपर, स्वाधिष्ठान चक्र होता है I इस चक्र के छह पत्ते होते हैं, जो श्वेत वर्ण के होते हैं और इस चक्र के मध्य में एक हलके गुलाबी रंग का बिन्दु होता है I इस चक्र के प्राण को व्यान प्राण कहते हैं, और इस प्राण का सम्बन्ध अव्यक्त से होता है, जिसको अव्यक्त प्रकृति और अव्यक्त प्राण भी कहा जाता है I

और इस स्वाधिष्ठान चक्र से ऊपर, नाभि क्षेत्र में, जो चक्र होता है, उसे मणिपुर चक्र कहते हैं I इस चक्र के दस श्वेत वर्ण के पत्ते होते हैं और इस चक्र के मध्य में, एक एक पीले वर्ण का बिंदु होता है I इस चक्र के देवता, हिरण्यगर्भ ही होते हैं I और इसी चक्र का संबंध ब्रह्मास्त्र से भी है, जिसकी शक्ति को माँ बगलामुखी भी कहते हैं, इसलिए माँ बगलामुखी ब्रह्मास्त्र विद्या भी हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब मूलाधार चक्र के लाल रंग की दिव्यता का योग मणिपुर चक्र के पीले रंग की दिव्यता से होता है, तो उसे ही कार्य ब्रह्म की दिव्यता कहा जाता है I और चक्रों के भीतर हुए ऐसे योग के पश्चात ही साधक की चेतना प्राण-प्राण में गति करती है, जो हृदय का प्राण है I

और जब मणिपुर चक्र की दिव्यता, बाकि सभी चक्रों की दिव्यताओं से पृथक होकर रहती है, तो उसे हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा जाता है I

पञ्च विद्या (अर्थात पञ्च सरस्वती) में इन तीनों चक्रों (अर्थात मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मणिपुर चक्र) के मध्य में बसी हुई दिव्यता को देवी भारती भी कहा जाता है I

और रकार मार्ग में (अर्थात वो समय जब साधक के शरीर के भीतर ही राम नाद चालित होता है) यही माँ भारती जो ब्रह्माण्डीय मूलऊर्जा हैं, जब कुण्डलिनी के स्वरूप में साधक के शरीर के भीतर ही जागृत होती हैं, तो वो बर्फपात के सामान होती है और मूलाधार से ऊपर के चक्रों में जाती हैं I

ऐसी दशा में साधक के हृदय क्षेत्र में, जहाँ शारदा सरस्वती का निवास होता है, पीले और लाल वर्णों का योग होता है और जहाँ यह योग ही वह कार्य ब्रह्म हैं जिनके ऐसे वर्ण के प्रकाश और सद्योजात ब्रह्म के पीले वर्ण के प्रकाश के मध्य में यहाँ बताए गए महाकारण का साक्षात्कार होता है I

 

टिपण्णी: अब तक इतना तो स्पष्ट हो ही गया होगा, की महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार के अनेक मार्ग हैं I

 

  • पञ्च विद्या के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साधना

इन तीनो चक्रों (अर्थात मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्र) की मूल दिव्यता माँ भारती सरस्वती ही हैं, जो इन तीनो चक्रों के श्वेत वर्ण पत्तों में विराजमान होती है I

इसीलिए, पञ्च विद्या से सम्बद्ध मार्गों में कहा गया है, कि इन तीनो चक्रों को जोड़ती हुई मणिका नाड़ी, भारती विद्या सरस्वती का स्थान होता है I

इसलिए, उकार साधना और महाब्रह्माण्ड साधना, दोनों की मूल दिव्यता, माँ भारती भारती सरस्वती ही हैं I

 

  • पञ्च ब्रह्म और महाब्रह्माण्ड साधना, पञ्च ब्रह्मोपनिषद और महाब्रह्माण्ड साधना,पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा और महाब्रह्माण्ड साधना,पञ्च ब्रह्म परिक्रमा और महाब्रह्माण्ड साधना,

 

पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, पञ्चब्रह्म परिक्रमा मार्ग
पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, पञ्चब्रह्म परिक्रमा मार्ग

 

पञ्च ब्रह्म हैं, जो ईशान, सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव और अघोर कहलाते हैं I

यह चित्र पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा अर्थात, पञ्चब्रह्म परिक्रमा को ही दर्शाता है I

इस चित्र में जो दिशा दिखाई गई है (तीर के द्वारा), वो पञ्चब्रह्म के साक्षात्कार के समय पर साधक के मार्ग को दर्शा रही है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म में, मेरी यह पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा कोई 2007-2008 ईस्वी में पूर्ण हुई थी I

यह प्रदक्षिणा या परिक्रमा, पञ्च ब्रह्मोपनिषद के अनुसार है, जिसका ज्ञान मैंने ही एक पूर्व जन्म में दिया था, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला, अघोर मार्ग का, अर्थात अघोर मार्गी लेकिन वैष्णव ऋषि था I

उस पूर्व जन्म में यह ज्ञान मुझे सदाशिव के अघोर मुख, अर्थात महादेव से प्राप्त हुआ था I उस पूर्व जन्म में, अघोर मुख, अर्थात महादेव ही मेरे गुरु और इष्ट थे I

 

अब गुरु और इष्ट के अखण्ड सनातन नाते के बारे में बताता हूँ …

वैसे तो गुरु ही इष्ट होते हैं…, और इष्ट ही गुरू I

वो गुरु जो अपने शिष्य का इष्ट ही न हो सके…, ऐसे गुरु का क्या लाभ? I

वो इष्ट जो अपने भक्त का गुरु ही न हो सके…, ऐसे इष्ट का क्या लाभ होगा? I

इसलिए, उस पूर्व जन्म मे जब मैंने यह पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान इस धरा वासियों को गुरु आज्ञा से ही दिया था, तब महादेव मेरे गुरु भी थे, और इष्ट भी I

और यह पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान जो महादेव से ही मिला था, आम्नाय चतुष्टय और धाम चतुष्टय को बसाने के समय… उस प्रक्रिया का मूल भी हुआ था… और आज भी है I

ऐसे ही वास्तविक गुरु होते हैं, जो अपने शिष्यों के इष्ट होने की क्षमता भी रखते हैं I और ऐसे ही वास्तविक इष्ट भी होते हैं, जो अपने भक्तों के गुरु होने की क्षमता रखते हैं I

लेकिन आज के बनिए, जो गुरु बनकर धर्म मंडियों में घूम रहे हैं, उनमें से एक के पास भी वो क्षमता नहीं है, जिसकी बात यहाँ पर हो रही है I

एक हाथ में ज्ञान पुस्तक और दुसरे हाथ में दानपेटी, गुरुतत्त्व को तो बिलकुल नहीं दर्शाता I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसी प्रदक्षिणा या परिक्रमा के समय, साधक की चेतना, पितामह ब्रह्मा के दक्षिण वाले नीले रंग के अघोर से होती हुई, उन्हीं पितामह ब्रह्मा के पश्चिम वाले “काले और श्वेत रंग” के वामदेव को जाके, उत्तर वाले लाल रंग के तत्पुरुष को जाती है, और अंततः, पूर्व दिशा वाले पीले रंग के सद्योजात की ओर ही गति कर जाती है I

और इस गति के समय, वह चेतना, सद्योजात ब्रह्म में बिना गए हुए, उनका साक्षात्कार करके, मुड़ जाती है और पुनः तत्पुरुष ब्रह्मा की ओर गति करने लगती है I इसी गति में कुछ और आगे जाकर, वह पञ्चमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा में जाती है, और इसी पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के अंत भाग में महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करती है I

 

टिपण्णी: क्यूंकि महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार मार्ग पञ्चमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा का ही अंग है, और क्यूंकि यह अध्याय सदाशिव प्रदक्षिण का है ही नहीं, इसलिए ऊपर के चित्र में वह साक्षात्कार मार्ग पूर्णतः नहीं दिखाया गया है I ऊपर का चित्र बस पञ्च ब्रह्मोपनिषद तक का मार्ग ही दिखा रहा है I

 

ओकार या कार्य ब्रह्म का सृष्टिकर्ता स्वरूप और महाब्रह्माण्ड साधना

जब पञ्च ब्रह्म में से पूर्वी ब्रह्म (सद्योजात) के पीले और उत्तरी ब्रह्म (तत्पुरुष) के लाल रंगों, अर्थात गुणों का योग होता है, तो उसी योगावस्था को कार्य ब्रह्म कहते हैं I कार्य ब्रह्म को, जो साधक के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में साक्षात्कार होते हैं, इस अध्याय के प्रथम चित्र में दिखाया गया है I

और जब सद्योजात नामक ब्रह्म, तत्पुरुष नामक ब्रह्म से पृथक होकेर रहते हैं, तो उन्ही सद्योजात नामक ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है I

और जब वही पीले वर्ण के सद्योजात नामक ब्रह्म, लाल वर्ण के तत्पुरुष नामक ब्रह्म से योग में रहते हैं, तो उन्ही सद्योजात नामक ब्रह्म को कार्य ब्रह्म कहा जाता है I

कार्य ब्रह्म को ही सृष्टिकर्ता कहते है, जो इस धरा पर भगवान जगन्नाथ के नाम से जाने जाते हैं…, जिनकी पीठ गोवर्धन मठ पुरी है, और जिनका धाम जगन्नाथ पुरी मंदिर है, और जिनके क्षेत्र में उस शरीर का जन्म हुआ था, जिसमें मैं इस बार परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटाया गया हूँ I

मैंने यहाँ “लौटाया गया हूँ”, ऐसा कहा है…, न कि “लौटा हूँ”, ऐसा कहा है I इस तथ्य पर ध्यान देना क्यूँकि जो लौटाया जाता है, वो स्वयं की इच्छा से नहीं लौटता, बल्कि काल की प्रेरणा से और महाब्रह्माण्ड की मूल (और प्रमुख) दिव्यताओं के कहने (या आदेश) पर ही, उनमें से किसी एक दिव्यता के गर्भ से ही लौटाया जाता है I महाब्रह्माण्ड की मूल दिव्यताएं, पञ्च विद्या सरस्वती ही हैं I

 

अब थोड़ा और ध्यान देना …

इसलिए, पञ्च ब्रह्म के दृष्टिकोण से, कार्य ब्रह्म का साक्षात्कार उत्तरी तत्पुरुष और पूर्वी सद्योजात के योगावस्था में होता है, और ऐसी योगावस्था उत्तरपूर्वी दिशा (या ईशान कोण) में ही साक्षात्कार होती है I

और उन्हीं कार्य ब्रह्म में बसकर ही महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार होता है I लेकिन वास्तव में तो यह साक्षात्कार तब ही होता है जो साधक की चेतना पञ्चमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा पर जाती है और इस प्रदक्षिणा पथ में वह पुनः उन्ही कार्य ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म के मध्य में ही पहुँच जाती है I

वैदिक ज्ञान के अनुसार, उत्तर पूर्वी दिशा को ईशान दिशा भी कहा जाता है, जो पञ्च ब्रह्मोपनिषद में, ब्रह्म का सर्वव्याप्त निर्गुण स्वरूप होता है, और जिसके कारण वो सभी मुखों के मध्य में एक निर्गुण निराकार सर्वव्याप्त, स्वच्छ जल रूपी, निरंग झिल्ली के समान स्व:प्रकाश रूप में साक्षात्कार किया जाता है I

 

टिपणी: स्व:प्रकाश वह होता है जो सबको प्रकाशित करता हुए भी, सबके भीतर और सबको घेरे हुए, गुप्त रूप में रहता है I यही कारण है कि इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में उस स्व:प्रकाश के साक्षात्कारी योगी बहुत ही न्यून मात्रा में रहे हैं (अर्थात अधिकांश योगीजनों के लिए तो उस स्वयं प्रकाश को साक्षात्कार ही नहीं किया जा सकता है) I

जब हम निर्गुण शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं (जैसे निर्गुण निराकार), तो वो निराकार ही अनंत (अर्थात सर्वव्याप्त) होता है I

लेकिन जब हम सगुण शब्द के साथ निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं (जैसे सगुण निराकार), तब वो निराकार, अनंत ही होगा…, इसका कोई भी साधनागत अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है I

क्यूंकि सर्वव्याप्त ही गंतव्य को दर्शाता है, इसलिए वेद मनीषियों ने ईशान नामक ब्रह्म को, ऊपर की ओर देखने वाला, अर्थात आकाश (जो ब्रह्म का ही वाचक है) की ओर देखने वाला कहा है (और वास्तव में भी ऐसा ही होता है) I

लेकिन जब योगी की चेतना अष्टम चक्र को ही पार कर जाती है, अर्थात अथर्ववेद के दसवें खण्ड के दूसरे सूक्त के एकत्तीसवें, बत्तीसवें और तैंतीसवें मंत्रों की दशा को पार कर जाती है, तो ऐसा योगी अपने कपाल के ऊपर के भाग में, जहाँ शिवरंध्र होता है, उसमे से एक मानव मुख को बाहर की ओर, अर्थात ऊपर की ओर देखते हुए पाता है I

मैंने कपाल से बाहर, अर्थात ऊपर की ओर देखने वाले मानव मुख का छायाचित्र (फोटो) भी लिया था, लेकिन बाद में इसको मिटा (डिलीट कर) दिया, क्यूंकि भीतर से आई वाणी ने ऐसा ही कहा था…, इस ईशान नामक ब्रह्म को किसी को भी दिखाते नहीं हैं I

लेकिन इस ईशान नामक ब्रह्म को ऐसा अवश्य कह सकता हूँ, कि यह मुख एक स्वच्छ (दाग रहित या निष्कलंक) स्फटिक के समान, निरंग जल सरीका होता है I

कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म की योगावस्था से ही उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग निकलता है, जिनको वेदों में निरंग सर्वव्यापी स्वच्छ जल जैसा भी कहा गया है I

और यही योगावस्था, इस अध्याय के प्रथम चित्र में भी दिखाई गई है, जिसमें मध्य का सुनहरा रंग, हिरण्यगर्भ का सूचक है I और उस हिरण्यगर्भ ब्रह्म को घेरे हुए जो सुनहरे और लाल रंग की प्रकाशित योगावस्था है, वो कार्य ब्रह्म की सूचक है I

जैसे पूर्व में बताया था, कि जब कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म का योग होता है, तब उस योगावस्था से निर्गुण निराकार ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग निकलता है, और क्यूँकि निर्गुण ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष होते हैं, इसलिए इस अध्याय का प्रथम चित्र, उस गंतव्य के मार्ग का सूचक भी है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाता है I

यही कार्य ब्रह्म, सृष्टिकर्ता नामक शब्द का वाचक भी होता है, अर्थात कार्य ब्रह्म (या उकार) उस दिव्यता का सूचकात्मक है, जो इस जीव जगत का रचनाकर्ता है I

वेदों के तैंतीसवें देवता, प्रजापति सहित, उन्ही प्रजापति की हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म नामक अभिव्यक्तियां भी उसी ब्रह्मत्व नामक अवस्था को दर्शाती हैं I

उन्ही कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के मध्य में ही यहाँ बतलाई जा रही महाब्रह्माण्ड साधना सिद्धि होती है, और इस सिद्धि में साधक उस महाब्रह्माण्ड का वैसा ही साक्षात्कार करता है, जैसा इस अध्याय के चित्र में दिखलाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

उकार का वैदिक महावाक्यों से नाता

पूर्वी ब्रह्म (सद्योजात) का वेद ऋग्वेद है, और उत्तरी ब्रह्म (तत्पुरुष) का वेद अथर्ववेद है I

ऋग्वेद का महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म है, जो निर्गुण निराकार स्व:प्रकाश ब्रह्म को दर्शाता है, और अथर्ववेद का वैदिक महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म है, जो सगुण ब्रह्म सहित निर्गुण ब्रह्म को भी दर्शाता है I

पञ्च ब्रह्मोपनिषद के अनुसार, जो प्रज्ञानं ब्रह्म और अयमात्मा ब्रह्म के मध्य में बसा हुआ है, वो ही उकार है I

और अष्टमुखा सदाशिव के अनुसार, जो प्रज्ञानं ब्रह्म (अर्थात सद्योजात ब्रह्म) और तत् त्वम् असि (अर्थात सदाशिव का तत्पुरुष मुख) के मध्य में है, वही महाब्रह्माण्ड है I

तो अब मैंने सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन उकार और महाब्रह्माण्ड की पञ्चब्रह्मोपनिषद और अष्टमुखी पशुपतिनाथ के अनुसार,गंतव्य अवस्था को बतला दिया I

 

  • नाड़ियों के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साधना, त्रिनाड़ी और महाब्रह्माण्ड साधना, …

त्रिनाड़ी होती हैं, जो इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी कहलाती है I

इन तीनों नाड़ियों में से …

  • इड़ा नाड़ी पीले रंग की होती है जिसके देवता देवराज इंद्र होते हैं, जो प्रजापति के हिरण्यगर्भ ब्रह्म स्वरूप के प्रथम शिष्य भी होते हैं I इड़ा नाड़ी के देवता होने के कारण, देवराज इंद्र, इदांद्र(इड़ाद्र) भी कहलाते हैं I
  • पिंगला नाड़ी पिंगल वर्ण की होती है, जिसके देवता रुद्र देव होते हैं, और जो हम शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत (अर्थात आज का भारतीय पंजाब के मोहयाल) ब्राह्मणों के कुलदेवता भी हैं, और जो कार्य ब्रह्म के लाल वर्ण के प्रकाश को ही धारण किए हुए हैं I
  • और सुषुम्ना नाड़ी के देवता सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति होते हैं, जो हीरे के समान प्रकाश स्वरूप में होते हैं I

जब साधक की इड़ा नाड़ी के पीले वर्ण का, पिंगल वर्ण की पिंगला नाड़ी से योग होता है, तो इस योगावस्था से ही साधक के लिए कार्य ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग निकलता है I

इसी कार्य-ब्रह्म दशा में स्थित होकर साधक, यहाँ बताए जा रहे महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार भी कर सकता है I और ऐसी दशा में भी वो महाब्रह्माण्ड, वैसा ही दिखता है, जैसा पूर्व के चित्र में दिखलाया गया है I

 

कार्य ब्रह्म से निर्विकल्प समाधि का मार्ग,

और वो कार्य ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग, साधक की चेतना को साधक के ही ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष की ओर लेकर जाते हैं, जहाँ पर उकार नाद स्वरूप में ही कार्य ब्रह्म होते हैं I

उस पीले वर्ण के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के देवता भी देवराज इंद्र ही हैं I

पीले वर्ण के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में ही साधक, लाल रंग के रजोगुणी कार्य ब्रह्म का साक्षात्कार करता है I और कार्य ब्रह्म के लाल रंग के प्रकाश को भेद कर, साधक चमकदार पीले (या स्वर्ण) वर्ण के हिरण्यगर्भ ब्रह्म का साक्षात्कार करता है I

इसका अर्थ हुआ, कि जब साधक की चेतना ही ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में लाल रंग के अण्डाकार कार्य ब्रह्म के भीतर प्रवेश करती है, तब ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I

लेकिन ऐसे साक्षात्कार से पूर्व, साधक की चेतना को हृदय कैवल्य गुफा से जाना पड़ेगा, जिसके बारे में पूर्व के अध्यायों में बताया गया है I

पर इस हृदय निर्वाण गुफा का मार्ग भी हृदयाकाश गर्भ और उसके आत्मिक तंत्र से होकर ही जाता है, जिसके बारे में पूर्व की अध्याय श्रंखला में बताया गया है I

और इस हृदय मुक्ति गुफा के परा और अव्यक्त प्रकृतियों के भाग से होकर, घटाकाश के महाकाश स्वरूप को जाकर, अहमाकाश (अर्थात अहम् का आकाश), फिर शून्याकाश (अर्थात शून्य रूपी आकाश) और फिर ब्रह्माकाश (ब्रह्म रूपी आकाश) से जाकर, साधक की चेतना ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के भीतर जाती है I

और इसके पश्चात ही वो चेतना अकार में प्रवेश करके ही, उस उकार (या ओकार) का साक्षात्कार करती है जिसके बारे में यहाँ बताया जा रहा है और जिसको इस अध्याय के प्रथम चित्र में भी दिखाया गया है I

इस उकार या ओकार का साक्षात्कार भी साधक के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष के भीतर, कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म… दोनों ही स्वरूपों में होता है I

और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात ही साधक की चेतना, ॐ के तृतीय बीज शब्द मकार को जाके, शुद्ध चेतन तत्त्व में प्रवेश करके (अर्थात ब्रह्मतत्त्व में प्रवेश करके), ओमकार का साक्षात्कार करती है I

इस साक्षात्कार के पश्चात, साधक की चेतना स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती, अर्थात वो चेतना ॐ के चिंन्ह में, जो साधक के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में ही होता है, उसमें ही विलीन हो जाती है, जिसके पश्चात वो चेतना स्वयं को निर्गुण स्वरूप में ही पाती है I ऐसे साक्षात्कार की दशा को ही निर्विकल्प समाधि कहा जाता है I

जब साक्षी, साक्ष, साक्षात्कार में भेद न रहे, वह निर्विकल्प समाधि है I

जब चेतना, चेती और चैतन्य में भेद न रहे, वह निर्विकल्प समाधि है I

जब क्षेत्र, क्षेत्री और क्षेत्रज्ञ में भेद न रहे, तो वह समाधि निर्विकल्प है I

जब ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञेय का भेद ही न रहे, वह समाधि, निर्विकल्प है I

जब चित्त के तीनो प्रकार के भेद, निर्भेद हो जाएं, वह समाधि, निर्विकल्प है I

जब साधक की दृष्टि, दृश्य और दृष्टा का भेद न रहे, वह समाधि निर्विकल्प है I

जब साधक के भीतर भूमि, भूधर, भूमा भेदरहित हों, तो वो निर्विकल्प समाधि है I

जब साधक की चेतना स्वयं ही स्वयं को देख न पाए, वह समाधि, निर्विकल्प है I

 

और इस निर्विकल्प समाधि में साधक की चेतना, साधक के ही ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में बसे हुए ॐ रूपी ब्रह्म के लिपिलिंगात्मक स्वरूप में विलीन होकेर, निर्गुण निराकार का साक्षात्कार उसके अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप में ही करती है I

और ऐसा मार्ग भी कार्य ब्रह्म से होकर जाता है, जो अपने ही शब्दात्मक स्वरूप में उकार कहलाता है…, और जिसके बारे में इस अध्याय में बताया जा रहा है I

और इस मार्ग पर गति करती हुई चेतना भी महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार कर सकती है I

 

  • वेदों के तैंतीसवें देवता, महाब्रह्म प्रजापति के दृष्टिकोण से महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार

अबतब बताई गई बातों का आलम्बन लेके, आगे बढ़ता हूँ …

जब हीरे के समान प्रकाशमान, सर्वसम सगुण साकार, चतुर्मुखा प्रजापति ने स्वयं को अपनी प्राथमिक अवस्था, अर्थात सर्वसमता से बाहर लाकर, एक संस्कार रहित चेतना (चित्त) और वृत्तिहीन बुद्धि की योगावस्था में स्थापित किया था, तो पूर्व के वो हीरे के समान प्रकाशमान प्रजापति, एक सुनहरे रंग के हो गए थे I

वेदों में उन प्रजापति की ऐसी स्वर्णिम स्वयं-अभिव्यक्ति (या अवस्था) को ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा गया था, जिनके भीतर समस्त जीव जगत का स्वयंउदय हुआ था I

क्यूँकि हिरण्यगर्भ ब्रह्म की यह अवस्था एक स्वर्णिम (या सोने) के गर्भ समान होती है, जिसमें ब्रह्माण्ड ही बसा हुआ होता है, इसलिए वेद मनीषी यह भी कह गए, कि ब्रह्मा के गर्भ में ही समस्त ब्रह्माण्ड बसा हुआ है I

वो पितामह ब्रह्माजी जिनके गर्भ में समस्त जीव जगत बसाया गया था, उनको ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहा गया है I

और उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म की वो अभिव्यक्ति, जो रजोगुण को धारण करके, इस हिरण्यगर्भत्मक ब्रह्माण्ड को चलित रखती है, उसको ही कार्य ब्रह्म कहा गया है I

वो कार्यब्रह्म ही सृष्टिकर्ता कहलाते हैं, और उन्ही कार्य ब्रह्म और हिरण्यगर्भ ब्रह्म की मध्यावस्था में जाकर ही यहाँ बतलाए जा रहे महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार होता है I

तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करके, मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम महावाक्य होगा I

 

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

 

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