अथर्ववेद 10.2.31, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग, बुद्धत्व, बुद्धता, बुद्ध, ब्रह्माणी सरस्वती, ब्रह्माणी विद्या, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती, रामलला, आत्मा राम, खकार, डकार, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, ब्रह्माणी शरीर, स्वर्णिम आत्मा, हिरण्यमय आत्मा, मस्तिष्क में ब्रह्म, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म, सहस्रार में ब्रह्म

अथर्ववेद 10.2.31, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग, बुद्धत्व, बुद्धता, बुद्ध, ब्रह्माणी सरस्वती, ब्रह्माणी विद्या, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती, रामलला, आत्मा राम, खकार, डकार, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, ब्रह्माणी शरीर, स्वर्णिम आत्मा, हिरण्यमय आत्मा, मस्तिष्क में ब्रह्म, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म, सहस्रार में ब्रह्म

यहाँ पर अथर्ववेद 10.2.31, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग, बुद्धत्व, बुद्धता, बुद्ध, ब्रह्माणी सरस्वती, ब्रह्माणी विद्या, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती, रामलला, आत्मा राम, खकार, डकार, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, ब्रह्माणी शरीर, स्वर्णिम आत्मा, हिरण्यमय आत्मा, मस्तिष्क में ब्रह्म, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म, सहस्रार में ब्रह्म, अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या आदि बिंदुओं पर बात होगी I

यही अथर्ववेदीय मंत्र उस योग अश्वमेध सिद्धि को भी दर्शाते हैं, जिसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया गया है और जहाँ उस योग अश्वमेध (अर्थात आंतरिक अश्वमेध) के मार्ग में रामलला होते हैं और इसी सिद्धि के गंतव्य में शून्य ब्रह्म I उन शून्य ब्रह्म को, उनकी ही योग समाधि अवस्था से, एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

यह अध्याय इस ब्रह्मत्व नामक ग्रंथ का गंतव्य मार्ग है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह अध्याय ब्रह्मत्व पथ का अंतिम पड़ाव है, और इसके पश्चात ही साधक ब्रह्मत्व नामक सिद्धि का पात्र बनता है I इस अध्याय का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से भी है और सद्योजात ब्रह्म से भी है I और इसके अतिरिक्त इस अध्याय का नाता वामदेव ब्रह्म से भी है, अघोर ब्रह्म से भी और ईशान ब्रह्म से भी है I इसलिए इस अध्याय की सिद्धि, पञ्चब्रह्मोपनिषद को ही अपने भीतर समाई हुई है I ब्रह्मत्व पथ का अंतिम पड़ाव बुद्धत्व सिद्धि होती है, और यह अध्याय उसी सिद्धि को दर्शाता है I आज के बौद्ध मनीषि जिस बुद्धता की बात करते है, वह इसी अध्याय की सिद्धि भी होती है, और मैं ऐसा इसलिए बोल रहा हूँ, क्यूंकि मेरे इस जन्म से पिछले जन्म के गुरुदेव, जो भगवान् बुद्ध ही थे, उनकी भी यही सिद्धि थी I

वैदिक वाङ्मय के भगवान् बुद्ध का जन्म 1914 ईसा पूर्व से 2.7 वर्षों के भीतर ही एक ब्राह्मण कुल में हुआ था I और जब भगवान् कोई 50 वर्ष के रहे होंगे, तो हम शिष्यों में उनका प्रथम विग्रह, बौधगया क्षेत्र में एक विश्वब्राह्मण से बनाया था, और एक पारंपरिक वैदिक ब्राह्मण के गृह के भीतर के देवालय में ही स्थापित किया था I वह विग्रह थोड़ा पीले से वर्ण का था और नव धातु से निर्मित था और उन नव धातुओं में से एक धातु भगवान् ने उनके अपने शरीर से ही निकाल कर दी थी I

उस पूर्व जन्म में जब मेरी आयु कोई सात वर्ष की रही होगी, तब मेरे ब्राह्मण माता पिता मुझे भगवान् बुद्ध के समक्ष लेकर गए थे, और उनको विनती करी थी, कि मुझे अपना शिष्य बना लीजिए I और जब मैं उनका शिष्य हुआ, तो बुद्ध भगवान् ने मुझे मैत्री नाम दिया था I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय और यह पूरी श्रंखला भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला था I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगीराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सड़सठवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का छठा अध्याय है I

 

अथर्ववेद 10.2.31, अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या
अथर्ववेद 10.2.31, अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या

 

इस चित्र का वर्णन, इस चित्र की अनादी दशा, …

सर्वप्रथम ऊपर के चित्र के बारे में बताता हूँ…

  • यह चित्र मस्तिष्क के ऊपर के भाग में जो सहस्रार चक्र (सहस्र दल कमल) होता है, उससे ही ऊपर का है I इसका अर्थ हुआ कि यह चित्र मस्तिष्क के ऊपर के उस भाग का है जो शरीर से बाहर होता है (और मस्तिष्क के ऊपर होता है) I
  • इस चित्र में जो सुनहरा डण्ड दिखाया गया है, वह वज्रदण्ड है I जबकि यह चक्र स्वरूप में नहीं होता है, लेकिन तब भी यह वज्रदण्ड चक्र भी कहलाया जाता है I
  • इस वज्रदण्ड के भीतर एक उज्जवल वज्रमणि जैसा प्रकाश होता है I इसी प्रकाश के कारण, इस सुनहरे डण्ड को वज्रदण्ड कहा गया था I इस हीरे जैसे प्रकाश को भी ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है I
  • यह वज्रदण्ड मस्तिष्क से शिवरंध्र नामक स्थान से जुड़ा हुआ होता है I शिवरंध्र को एक पूर्व के अध्याय में बताता जा चुका है, जिसका नाम रंध्र विज्ञान था I
  • वज्रदण्ड के ऊपर एक चतुर्दल कमल (अर्थात चार पत्तों वाला चक्र) होता है I यह चतुर्दल कमल, वज्रदण्ड से जुड़ा हुआ नहीं होता है, बल्कि वज्रदण्ड से कुछ ऊपर की ओर लटका सा होता है, और ऐसा इस ऊपर के चित्र में भी दर्शाया गया है I इस वज्रदण्ड के नाद को ही राम नाद (राम का शब्दात्मक स्वरूप) कहा गया है I राम का शब्द, वज्रदण्ड का ही है I
  • क्यूंकि यह चतुर्दल कमल, वज्रदण्ड से कुछ ऊपर की ओर लटका सा ही होता है, इसलिए सिद्धों ने इसको निरालम्ब स्थान, निरालम्ब चक्र, निरधारस्थान और निराधार चक्र भी कहा था I
  • जब योगी की चेतना इस चतुर्दल कमल (अर्थात निरालम्ब चक्र या अष्टम चक्र) से परे जाकर, इस चक्र को उस परे के स्थान से देखती है, तो इस कमल के तीन पत्ते एक ओर होते हैं और एक पत्ता एक ओर होता है I यह चारों पत्ते श्वेत वर्ण के होते हैं, और इनको एक हलके नीले प्रकाश ने घेरा हुआ होता है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
  • इस निरालंबस्थान (अर्थात चतुर्दल कमल) से वह अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग) जो नाभि क्षेत्र से ऊपर की ओर उठता है, वह तीन बार इस चतुर्दल कमल पार करता है और तीन बार ही नीचे वज्रदण्ड में लौट आता है I और ऐसा होने के पश्चात, वही नाभि कलश (नाभि लिंग या अमृत कलश) अंततः एक अर्ध बार इस निरालम्ब कमल की ओर उठकर, इस कमल के मध्य भाग में जाकर पुनः वज्रदण्ड में लौट आता है I और इन साढ़े तीन बार के बाद वह साधक योग अश्वमेध सिद्धि को पाता है I ऊपर के चित्र में वह अमृत कलश इस निराधार कमल को पार करी हुई दशा में दर्शाया गया है I
  • इस पूरी दशा को एक विशालकाय अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है I यह विशालकाय अंधकारमय दशा ही शून्य ब्रह्म हैं I इन शून्य ब्रह्म में, शून्य ही अनंत होता है और अनंत ही शून्य I इस दशा की समाधि ही असंप्रज्ञात समाधि कहलाती है I यही दशा ही निराकार स्वरूप में अंधकार से ढके हुए, भगवान् जगन्नाथ हैं I और इन्ही को श्रीमन नारायण कहा जाता है I इस दशा से साधक पञ्च कृत्य सिद्धि को भी पा सकता है, इसलिए इस अध्याय मे मार्ग पञ्च कृत्य सिद्धि का मार्ग भी है I
  • यह चित्र रकार मार्ग का गंतव्य दर्शाता है, और यही चित्र राम नाद और शक्ति शिव योग का गंतव्य भी है I

 

और इस चित्र के वर्णन के अंत भाग में…

इस चित्र में दिखाई गई दशा का ज्ञान उतना ही अनादि है, जितना अनादि ब्रह्माण्ड है I और इस चित्र में दिखाई गई दशा की सिद्धि का नाता भी उसी अनादि काल से है I

स्वयंभू मन्वन्तर में हम सभी मनस पुत्रों को हमारे मनस पिता (ब्रह्मर्षि क्रतु) ने इसी अध्याय को एक सौ एक बार सिद्ध करने के लिए आदेश दिया था I और उन्होंने यह भी कहा था, कि जबतक तुम एक एक करके ऐसा नहीं करोगे, तबतक तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती I और ऐसी अमुक्त दशा में तुम सब के सब मेरे मनस पुत्र, बार बार किसी न किसी काया में और लोक में, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के स्वरूप में आते जाते ही रहोगे I

और उन्होंने यह भी कहा था, कि इस अध्याय की एक सौ एक सिद्धि तब ही हो पाएगी, जब देव कलियुग का समय खण्ड होगा, और उसी देवताओं के कलियुग में गुरु युग का आगमन हो रहा होगा I

और अधिकांशतः किसी भी गुरु युग से पूर्व के समय से और उस गुरुयुग के समयखण्ड में, केवल चार मनस पुत्र ही इस सिद्धि को एक सौ एकवी बार प्राप्त करेंगे I और वह चार पुत्र भी एकसाथ नहीं प्राप्त करेंगे, एक से दुसरे के बीच में न्यूनतम समय 2592-108 वर्षों का होगा I

 

टिपण्णी: अभी के समय में, यह विश्व उसी गुरुयुग के आगमन समय में प्रवेश कर रहा है I इस बार जिस गुरु युग के आगमन के समय पर यह विश्व खड़ा हो चुका है, उसमें चार सदाशिव के योगी होंगे I और वह चारों उन्ही क्रतु ऋषि के मनस पुत्र ही होंगे I और जो योगी इस गुरु युग के अंत समय में आएगा, वह वही होगा जो अभी के समय में सदाशिव के तत्पुरुष मुख का योगी है, और वहीँ से लौटाया गया है I परन्तु ऐसा होने पर भी, उस गुरु युग के अंत समय में वह अभी का सदाशिव के तत्पुरुष मुख से लौटाया गया योगी, उन्ही सदाशिव के ईशान मुख का योगी होकर आएगा I सदाशिव के ईशान मुख के योगी के स्वरूप में, वह इस बार के समान जन्म नहीं लेगा, बल्कि एक सूक्ष्म रूप में लौटेगा I और ऐसे सूक्ष्म रूप में लौटने के पश्चात, वह उस गुरु युग की समस्त दिव्यता को अपने साथ ही लेकर चला जाएगा I जब ऐसा हो जाएगा, तब एक नए रूप में यही कलियुग (जो आज के समय चल रहा है) पुनः लौट आएगा I उस गुरु युग की समय सीमा, वैदिक समय इकाई में 9,600 वर्षों की होगी और आज की समय इकाई में वह 10,368 वर्षों की होगी I

आगे बढ़ता हूँ…

इस अध्याय का ज्ञानमय साक्षात्कार इतना प्राचीन है, कि उस समय आज के कलियुगी पंथों के जो देवी देवता आदि गण हैं, वह भी मानव योनि में नहीं आए थे, बल्कि पशु आदि योनियों में ही थे I इसलिए जो अब बताया जा रहा है, वह इन कलियुगी पन्थों ही नहीं, बल्कि उनके देवताओं की मानव योनि से उत्पन्न होने से भी पूर्व का है I

और इसके अतिरिक्त, जो वेदादि मनीषी कहते हैं, कि अथर्ववेद तो वेद ही नहीं है और वेद केवल ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद ही होते हैं… या कहते हैं कि अथर्ववेद कहीं बाद में आया है, उनके मुखों पर भी मेरा चाँटा है I

ऐसे कहने वाले वेदादि मनीषी एक और बात जान लें, कि वेद उतना ही सनातन है जितने सनातन ब्रह्म हैं I लेकिन ऐसा होने पर भी वेद समय समय पर, कुछ वेद द्रष्टाओं द्वारा प्रकट करे जाते हैं I इस पृथ्वी लोक में सर्वप्रथन जब वेद प्रकट हुए थे, तो उनमें से ऋग्वेद हुआ था I और उसके पश्चात प्रकटीकरण क्रम ऐसा था… अथर्ववेद, सामवेद और यजुर्वेद I

और इस भूलोक में, वेदों के प्राथमिक ऋग्वेद रूप में प्रकटीकरण से पूर्व, सर्ववेद ही था, जिसको सर्ववेद भी कहा जाता था I उसी सर्ववेद से सभी वेद, समय समय पर और विशेष ऋषियों आदि द्वारा प्रकट हुए हैं I

तो अब मैं इस अध्याय के बिन्दुओं में जाता हूँ…

 

अथर्ववेद 10.2.31, अथर्ववेद 10.2.32,  अथर्ववेद 10.2.33, अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते, प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम् रकार मार्ग का गंतव्य, …

यह रकार मार्ग का गंतव्य है I यही योग अश्वमेध का गंतव्य है, और यही वेदों का गंतव्य पर जाता हुआ वह मार्ग भी है, जो सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन महावाक्यों द्वारा दर्शाया जाता है I

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

                                                                                 (अथर्ववेद 10.2.31)

 

अनुवाद

आठ चक्रों और नव द्वारों वाली देवों की अपराजित नगरी अयोध्यापुरी है I

उस पुरी में परमज्योति से आवृत हिरण्यमय कोष है जो स्वर्ग है I

 

अब योगमार्ग से इसका विवेचन करता हूँ :

अष्टचक्रा इन आठ चक्र के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I इन अष्ट चक्रों में से सात चक्र तो शरीर के भीतर हैं और आठवाँ जो निरालम्ब चक्र है, वह शरीर से बाहर होता है और यह चक्र, आगम मार्गों का एक सौ चौदहवाँ चक्र भी है I सिद्धों ने इसी चक्र को निरालम्बस्थान, निरालम्ब चक्र आदि भी कहा है जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया है I

नवद्वारा यह नौ द्वार – दो नेत्र, दो कर्ण, दो नासिका, एक मुख, एक लिंग और एक गुदा हैं I इसलिए यह मंत्र साधक के शरीर को ही दर्शा रहा है I

देवानांदेव का, या वह जो दिव्यता का है I

पूरयोध्याअपराजित नगरी, अयोध्या पुरी, भगवान् राम का स्थान, आत्मा राम की नगरी ।

तस्यां: – इस (पुरी में), उस (पुरी में) I

हिरण्ययःस्वर्णिम, सुनहरा, परिपूर्ण, हिरण्यगर्भ से संबद्ध, ब्रह्माणी से संबद्ध I

कोशः कोश, संग्रहालय, ख़ज़ाना, भण्डार गृह I

स्वर्गो: – स्वर्ग के समान, स्वर्गों का, आनंदमय I

ज्योतिषावृतः ज्योतिर्मय आवरण, ज्योति से ढका हुआ, ज्योतिर्मय परिधान I

 

टिप्पणियाँ:

  • योगमार्ग के साक्षात्कारों के अनुसार, इस मंत्र में जो अयोध्या कही गई है, वह स्थूल शरीर है, और यह मंत्र साधक के वज्रदण्ड से जाते हुए मार्ग के साक्षात्कार को दर्शाता है I
  • इस मंत्र में दार्शनिक दृष्टिकोण से जिसको दर्शाया गया है, वही साधक का आत्मा, आत्मा राम कहलाया है I
  • और इस मंत्र में योगमार्ग के राम को ही बताया गया है और सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन साधक की आत्मा को ही राम कहा गया है, और जहाँ उस राम के शब्दात्मक साक्षात्कार मार्ग का नाता ऊपर के चित्र से भी है I
  • कोश शब्द का अर्थ शरीर को भी दर्शाता है, इसलिए इस मंत्र में जो हिरण्य कोष बताया गया है, वह एक सुनहरा शरीर भी है, जिसको इस ग्रंथ में हिरण्यगर्भ शरीर, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर और हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग शरीर भी कहा गया है I इसी को बौद्ध मार्ग में बुद्ध का स्वर्णिम शरीर भी कहा जाता है, और यह शरीर ही बौद्ध पंथ की एक सिद्धि, जो बुद्धता और बुद्धत्व के नाम से बताई जाती है, उसको भी दर्शाता है I
  • इस मंत्र में आत्मा राम, बालक रूप में ही होता है, अर्थात रामलला को दर्शाता है I
  • जब साधक की चेतना इस मंत्र से चली जाती है, अर्थात इस मंत्र की योगदशा को पार कर जाती है, और जो वज्रदण्ड और निरालम्ब चक्र से ही संबद्ध है, और इसके पश्चात जब वह चेतना पुनः नीचे की ओर आकर, सहस्र दल कमल में पहुँचती है, तो वह स्वर्णिम शरीर ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में बैठा हुआ पाया जाता है I
  • और क्यूंकि वह स्वर्णिम शरीर बालक राम का ही है, इसलिए इस मध्य के चक्र को ललाना चक्र भी कहा गया था I इस ललाना शब्द के मूल में साधक की आत्मा है, जो रामलला के स्वरूप में है I और इस चक्र में पद्मासन में बैठा हुआ वह स्वर्णिम शरीर, ऊपर (अर्थात आकाश या मुक्ति) की ओर देखता हुआ पाया जाता है, इसलिए वह स्वर्णिम सिद्ध शरीर मुक्ति का ही द्रष्टा होता है I यह स्वर्णिम शरीर ही साधक का वह स्वर्णिम आत्मा है, जो मोक्ष द्रष्टा (मुक्ति द्रष्टा या कैवल्य द्रष्टा) ही है I
  • योगमार्ग से यही इस मंत्र की महिमा है, कि यह मंत्र साधक के मुक्तिदृष्टा आत्मस्वरूप का ही द्योतक है, और जहाँ वह आत्मस्वरूप भी सगुण साकार ही होता है और स्वर्णिम सिद्ध शरीर के रूप में ही साक्षात्कार होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

 

तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।
तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

                                                                                    (अथर्ववेद 10.2.32)

 

अनुवाद

वह हिरण्यमय कोष तीन और तीन में प्रतिष्ठित है I

उस (वह) यक्ष रूपी आत्मा, पूजनीय देव को ब्रह्मविद्, ज्ञानी ही जानते हैं

 

तस्मिन्उसी ही, वह, वो I

हिरण्यये कोशेसुनहरा कोष, अनेक बलों से युक्त कोष, सर्वानंद से युक्त कोष I

त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते : तीन और तीन प्रकार से प्रतिष्ठित I

इसको कुछ मनीषी ऐसा भी कहते हैं… तीन अरों वाले और तीन स्थानों पर प्रतिष्ठित… लेकिन योगमार्ग के इस मंत्र साक्षात्कार में न तो तीन अर आते हैं और न ही तीन स्थान, बल्कि एक ही स्थान पर वह चेतना तीन बार आती-जाती है I

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै: – उस (वह) यक्ष (आत्मा, आत्मावाला, पूजनीय) जो देव (ब्रह्म) I

ब्रह्मविदोब्रह्मविद (आत्मविद, वेदज्ञ, ब्रह्मज्ञानी) I

विदुःज्ञानी (आत्मसाक्षात्कारी जन, ब्रह्मसाक्षात्कारी जन) I

 

टिप्पणियाँ: यह मंत्र भी पूर्व के मंत्र में बताए गए साक्षात्कार को ही दर्शाता है I

  • यह मंत्र कुण्डलिनी जागरण की उस दशा को दर्शा रहा है, जिसका मार्ग उस दशा से प्रारम्भ होता है जिसमें साधक की चेतना ॐ के ऊपर वाले बिन्दु में लय हो गई होती है I
  • और इस लय होने के पश्चात, वह चेतना वज्रदण्ड में प्रवेश करती है I और इसके पश्चात, वज्रदण्ड से वह चेतना, उस वज्रदण्ड से भी ऊपर के निरालम्ब चक्र पर जाती है I
  • उस वज्रदण्ड से वह चेतना तीन बार निकलकर, वज्रदण्ड के ऊपर के निरालम्बस्थान पर जाती है I
  • और वह चेतना उस निरालम्ब चक्र (अर्थात अष्टम चक्र) को तीन बार पार करती है, अर्थात निरालम्ब चक्र से ऊपर भी वह चेतना तीन बार जाती है) I और जब वह चेतना निरालम्ब चक्र से ऊपर जाती है, तो इस ऊपर जाने के पश्चात वह चेतना तीन बार पुनः नीचे आती है, और निरालम्ब चक्र नीचे के वज्रदण्ड में भी लौटती है I इसलिए इस मंत्र में तीन शब्द दो बार (त्र्यरे त्रि) कहा गया है I
  • और तीन बार ऊपर और नीचे होने के पश्चात, वह चेतना निरालम्ब चक्र की ओर पुनः उठती है और उस निरालम्ब चक्र (अर्थात निराधार चक्र) में पहुँच जाती है, लेकिन इस बार वह चेतना उस निरालम्ब चक्र पार नहीं करती है I इस बार वह बस उस निरालम्ब चक्र के मध्य भाग को छूकर पुनः नीचे की ओर के वज्रदण्ड चक्र में आती है I इसलिए इस मंत्र में केवल तीन और तीन शब्द का ही प्रयोग किया गया है, क्यूंकि अंतिम बार जब वह उठती है, तो वह पूर्ण रूप में नहीं उठती है I
  • जब साधक की चेतना नीचे आकर ब्रह्मरंध्र में स्थापित हो जाती है, तब वह साधक उस सुनहरे यक्ष (सुनहरी आत्मा का शरीरी रूप, या सगुण साकार सुनहरी आत्मा) का साक्षात्कार करता है I क्यूंकि वह यक्ष (आत्मा) ही सगुण साकार स्वरूप में ब्रह्म है, इसलिए ऐसा साधक, ब्रह्मविद (ब्रह्मविदो) और ज्ञानी (विदुः) कहलाता है I
  • इसका अर्थ हुआ कि इस मंत्र में भी उन्ही आत्मा राम के साक्षात्कारी साधक के बारे में बताया गया है, जिसने अपने भीतर बसे हुए बाल स्वरूप के रामलला का साक्षात्कार, अपने ही स्वर्णिम आत्मस्वरूप में किया है I और जहाँ वह रामलला साधक के ब्रह्मरंध्र के भीतर के ललाना चक्र में भी विराजमान होते हैं, और वह भी साधक के ही मोक्षदृष्टा आत्मस्वरूप में I
  • जब वह चेतना ऊपर नीचे जा रही होती है, तो उसके साथ वह अमृत कलश भी वैसा ही नृत्य कर रहा होता है I ऊपर के चित्र में वह अमृत कलश निरालम्बस्थान (निराधारस्थान) से परे की दशा में ही दर्शाया गया है I

और जब वह चेतना तीन और तीन बार ऐसा कर चुकी होती है, तो ही वह सुनहरी याक्षात्मा (स्वर्णिम यक्ष, सुनहरी आत्मा) प्रकट (साक्षात्त्कार) होती है जिसको उसके साक्षात्कारी योगीजन ही जानते हैं I और यही प्रकटीकरण के पश्चात की दशा ही नीचे के चित्र में दर्शाई गई है I

 

बुद्धत्व, बुद्धता, बुद्ध का स्वर्णिम शरीर, स्वर्ण शरीर सिद्धि
बुद्धत्व, बुद्धता, बुद्ध का स्वर्णिम शरीर, स्वर्ण शरीर सिद्धि

 

आगे बढ़ता हूँ…

 

प्रभ्राजमानां हरिणीं यशसा संपरीवृताम्

पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम्

                                                                                        (अथर्ववेद 10.2.33)

 

अनुवाद

ब्रह्म ने प्रदीप्यमान दुःख हरने वाली, यश से सर्वथा छायी हुई, सुवर्ण सदृश, कभी न जीती गई पुरी में सब ओर से प्रवेश किया है I

 

प्रभ्राजमानांअति प्रकाशमान, बहुत प्रकाशमई, प्रदीप्यमान I

हरिणींदुःख हरनेवाली, क्लेश हरनेवाली I

यशसायश से, यशस्वी I

संपरीवृताम्सर्वथा छायी हुई, सम्यक् प्रकार से सब ओर आवृत, घिरी हुई I

पुरं पुरी में I

हिरण्ययीं –    सुवर्ण सदृश, चमकीली (सर्वबल सम्पन्न) I

ब्रह्माब्रह्म, परमात्मा (आत्मा) I

विवेशाप्रवेश किया, प्रविष्ट हो गया I

पराजिताम् कभी न जीती गई, अपराजित, अजेय (रोग काम क्रोधादि द्वारा अजेय) I

 

 

टिप्पणियाँ:

  • यह मंत्र वह दशा को दर्शा रहा है, जब आत्मा (रामलला या आत्मा राम) निरालम्ब चक्र पर विराजमान हो जाता है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में दर्शाया गया है I
  • और यहाँ जिस ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया है, वह वो अंधकारमय दशा के भीतर का निरंग प्रकाश है, जिसको इस चित्र में दिखाया नहीं गया है (क्यूंकि निरंग को कैसे दिखावेगे) I और इसके अतिरिक्त यह ब्रह्म का शब्द उन शून्य ब्रह्म को भी दर्शाता है, जो ऊपर के चित्र की सभी दशाओं को घेरे हुए हैं और जो उन निर्गुण ब्रह्म (अर्थात निरंग प्रकाश) की ही अभिव्यक्ति है I इसलिए यह ब्रह्म का शब्द निर्गुण ब्रह्म का भी द्योतक है और शून्य ब्रह्म (अर्थात अंधकारमय शून्य अनंत) का भी I वह निर्गुण ब्रह्म एक निरंग प्रकाश रूप में इस अंधकारमय शून्य ब्रह्म के भीतर ही साक्षात्कार होते हैं I
  • इस मंत्र के योगमार्गी साक्षात्कार के पश्चात, वह निर्गुण ब्रह्म साधक के स्वर्णिम वज्रदण्ड में प्रवेश करते हैं, और उसी वज्रदण्ड में भी एक व्यापक निरंग प्रकाश रूप में साक्षात्कार होते हैं I ऐसा ही साधक तब साक्षात्कार करता है, जब उसकी चेतना निरालम्ब चक्र से बाहर निकल जाती है (अर्थात परे या ऊपर चली जाती है) I और ऐसी दशा के पश्चात ही वह सुनहरा शरीर उस निरंग प्रकाश (अर्थात निर्गुण ब्रह्म) का उसी अन्धकारमय शून्य ब्रह्म के भीतर ही साक्षात्कार करता है I
  • और इसी साक्षात्कार मार्ग में, आगे चलकर जब साधक की चेतना पुनः नाभि क्षेत्र और इससे भी नीचे जाती है, तब भी वह निर्गुण ब्रह्म एक निरंग प्रकाश रूप में समस्त शरीर में और शरीर के भीतर जो उस समय प्रकाश आते हैं, उन सब में समानरूप में ही साक्षात्कार होता है I यह दशा भी इस मंत्र में सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताया गया है I
  • जो शून्य ब्रह्म है अथवा जो निर्गुण ब्रह्म ही है, वह तो जीव जगत से परे की दशा हैं I इसलिए उनमें क्लेश, दुःख और व्याधि आदि कैसे हो सकते हैं (यह सब क्लेश आदि तो जगत के अंग हैं, न की कि दशाओं के) I
  • यहां जो अपराजित शब्द आया है, वह उसी वज्रदण्ड के लिए है, जो स्वर्ण नगरी भी कहलाई गई है, और जिसका शब्द राम होता है और जहाँ वह राम भी एक स्वर्ण शरीरी रूप में ही होते हैं I
  • लेकिन ऊपर के चित्र में जो स्वर्ण शरीर दिखाया गया है, उसके पश्चात वह स्वर्णिम आत्मा (अर्थात आत्मा राम) ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे चक्र (अर्थात कमल) हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में ही विराजमान होकर, आकाश (अर्थात मुक्ति) की ओर देखता है I इसलिए अपने साधनाओं और अन्य सभी योगमार्ग के साक्षात्कारों में, जिस साधक ने ऐसा पाया होगा वह मोक्षद्रष्टा ही हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस साक्षात्कार की दशा असंप्रज्ञात समाधि की ही है Iऔर इस भाग के अंत में (अर्थात इस भाग से आगे) निर्बीज समाधि होती है I

और जब वह निर्बीज समाधि भी पार हो गई थी, तब जब मैंने अपने कपाल के ऊपर के भाग का छाया चित्र लिया, तो उस छाया चित्र में एक स्फटिक के समान मुख, कपाल से बाहर की ओर देख रहा था I

यही सदाशिव का ईशान मुख (अर्थात ईशान ब्रह्म) है, जो इस योगमार्ग के साक्षात्कारों के समाप्त होने पर (अर्थात इस योग मार्ग से भी आगे जाने पर) साधक की काया के भीतर, कपाल के भाग में ऊपर के स्वयं प्रकट होता है I

और यह स्फटिक के समान मुख भी आकाश की ओर (अर्थात मुक्ति की ओर) ही देखता हुआ पाया जाता है I

इस सत्य को जानकार, मैंने वह छाया चित्र काट दिया, क्यूंकि मुझे लगा, वह बिन्दु जो सीधा सीधा निर्गुण ब्रह्म के द्योतक होते हैं अथवा निर्गुण निराकार ब्रह्म के किसी सीधे सीधे साक्षात्कार को ही दर्शाता हैं, उनका न तो कोई चित्र बनाया जाना चाहिए और न ही कोई छाया चित्र ही होना चाहिए I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग के भाग, हिरण्यगर्भ योग, ब्रह्माणी योग, हिरण्यगर्भ योग के भाग, ब्रह्माणी योग के भाग, ब्रह्माणी हिरण्यगर्भ योग के भाग, ब्रह्माणी हिरण्यगर्भ योग, … हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर क्या है, हिरण्यगर्भ शरीर क्या है, ब्रह्माणी शरीर क्या है, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी सिद्ध शरीर, हिरण्यगर्भ सिद्ध शरीर, ब्रह्माणी सिद्ध शरीर, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी सिद्धि, हिरण्यगर्भ सिद्धि, ब्रह्माणी सिद्धि, … रामलला का स्थान, आत्मा राम का स्थान, रामलला का स्वरूप, आत्मा राम का स्वरूप, … खकार नाद, डकार नाद, खकार शब्द, डकार शब्द, ख शब्द, शब्द, …

इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग के भागों को बताता हूँ…

इस योग में मुख्यतः दो भाग होते हैं I

लेकिन इन दोनों के पश्चात, एक और भाग आता है जिसमें आत्मा राम ही एक स्वर्णिम शरीरी स्वरूप में साक्षात्कार हो जाता है I

तो अब इन भागों को बताता हूँ I

 

इस साक्षात्कार का प्रथम पाद… जब अमृत कलश गंतव्य को चला जाता है, अमृत कलश का गंतव्य, अमृत कलश का गंतव्य मार्ग, खकार नाद का साक्षात्कार, अदि पराशक्ति ही सदाशिव हैं, योगमार्ग का खकार नाद, खकार नाद का स्वरूप, , खकार नाद और त्याग मार्ग, खकार नाद और संपूर्ण त्याग, खकार नाद और ब्रह्माण्ड त्याग, ब्रह्माण्ड अवधूत, ब्रह्माण्ड का अवधूत, विश्वरूप ब्रह्मवधूत, … खकार नाद और दिशा आयाम पर विजय, खकार नाद और दिशा आयाम, … आंतरिक रामायण, योग रामायण, योग मार्ग का रामायण, माँ सीता की भू समाधि, योगमार्ग में माँ सीता की भू समाधि, योग मार्ग का रावण, योगमार्ग के भगवान् राम, …

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राम नाद के समय, जब आदि शंकराचार्य मार्गदर्शन के लिए आए थे , तब उन्होंने कहा ऐसा कहा था… इसको बाहर निकालो I

उस समय मुझे यह तो समझ में नहीं आया था कि किसको बाहर निकलने को कहा गया है, लेकिन इतना तो समझ में आ ही गया, कि बाहर निकालना है I

और क्यूंकि मुझे पता चल ही रहा था कि मेरी चेतना ऊपर की ओर ही उठ रही है, इसलिए इतना भी समझ में आ गया कि ऊपर की ओर ही बाहर निकलने का मार्ग होगा I

टिपण्णी: इस साक्षात्कार के कहीं बाद में मुझे यह भी समझ में आया, कि यदि किसी की चेतना किसी नाड़ी आदि में फंस जाए, तो वह साधक पागल सा भी हो सकता है, और इसलिए अब मैं सोचता भी हूँ… हो सकता है मुझे इस दशा से बचने के लिए भी आदि शंकराचार्य ने मेरा मार्गदर्शन किया होगा I

 

और उस समय मुझे यह भी समझ में आ रहा था, कि मेरी चेतना जो ऊपर को उठ रही है, वह शरीरी ही है I

ऐसा जानकार और इसके पश्चात, उस समय मेरे पास जो भी तपबल, योगबल, आत्मबल आदी था, उसको संगृहीत करके मैंने अपनी उस चेतना का, जो वज्रदण्ड के भीतर ऊपर की ओर उठ रही थी, उसका दायां हाथ ऊपर की ओर उठाया और उस संगठित बल का आलम्बन लेकर, स्वयं को ऊपर की ओर तीव्र गति से धकेल दिया I

जैसे ही उस चेतना ने वह सुनहरा वज्रदण्ड पार किया, वैसे ही वह चेतना उस वज्रदण्ड से ऊपर जो चतुर्दल कमल (अर्थात अष्टम चक्र) है, उसमें प्रवेश कर गई I

और इस दशा के तुरंत बाद उस चेतना ने उस चतुर्दल कमल (अर्थात निराधार चक्र) को भी पार किया और उस चतुर्दल कमल से (अर्थात ब्रह्म चक्र) भी ऊपर निकल गई I यहाँ जो चतुर्दल कमल (अर्थात ब्रह्मलोक चक्र) कहा गया है, उसी को सिद्धों ने निरालम्ब चक्र, निरालम्ब स्थान, निराधार चक्र और निरधारस्थान भी कहा था I और इस ग्रंथ में उसी को ब्रह्म चक्र और ब्रह्मलोक चक्र भी कहा गया है I

जब वह चेतना ऊपर उठ रही थी, तो उसके साथ वह नाभि क्षेत्र का लिंग (अर्थात नाभि लिंग या नाभि का अमृत कलश) भी ऊपर उठा था I

और जब चेतना ने निराधार चक्र पार किया, तो उस चेतना के साथ, उस नाभि लिंग (अर्थात आदि शक्ति लिंग या परा प्रकृति लिंग) ने भी वह निराधार स्थान पार किया था I यही दशा ऊपर के चित्र में भी दिखाई गई है I

ऐसी दशा में साधक निरालम्ब स्थान का साक्षात्कार करता है और जहाँ वह साक्षात्कार भी निरालम्ब चक्र के ऊपर जाकर (अर्थात निरालम्ब चक्र को पार करके) ही हो पाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह चित्र उस दशा को दिखा रहा है, जिसमें…

  • वह अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग) नाभि क्षेत्र से ऊपर उठकर, निरालम्ब चक्र (अर्थात अष्टम चक्र) को ही पार कर गया है I
  • ऐसे समय पर उस श्वेत वर्ण के अमृत लिंग को एक हलके नीले प्रकाश ने घेरा हुआ होता है I

टिपण्णी: जब भी साधनाओं में कोई श्वेत वर्ण की दशा का साक्षात्कार होता है, तो उस श्वेत वर्ण को अधिकांशतः एक हलके नीले प्रकाश ने घेरा होता ही है I

  • और जब साधक निरालम्ब चक्र को पार करके उसे साक्षात्कार करता है, तब वह निरालम्ब चक्र भी श्वेत वर्ण का ही होता है, जिसमें इस चक्र के तीन पत्ते साधक की चेतना के दायीं ओर होते हैं और एक पत्ता साधक की चेतना के बायीं ओर होता है I यह चारों पत्ते भी श्वेत वर्ण के ही होते हैं और इस श्वेत वर्ण को भी हलके नीले वर्ण ने घेरा होता है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
  • निरालम्ब चक्र को पार करके, उस चक्र का साक्षात्कार करती हुई चेतना के दायीं ओर के तीन श्वेत वर्ण के पत्ते आपस में जुड़े हुए होते हैं, और इन पत्तों को एक दुसरे से पृथक करता हुआ भी वही हलके नीले वर्ण का प्रकाश होता है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
  • और वह चेतना, नाभि क्षेत्र में बसे हुए अमृत कलश (अर्थात नाभि लिंग या परा प्रकृति लिंग) को अपने साथ लेकर जाती हुई, इस निरालम्ब चक्र के मध्य भाग से ही इस चक्र को पार करती है, और इस चक्र से ही ऊपर की ओर चली जाती है I इसलिए इस चित्र में वह नाभि कलश, निरालंबस्थान के मध्य भाग से जाता हुआ, उस निरालम्ब चक्र के ऊपर की ओर दिखाया गया है I यह चित्र उस दशा को दर्शा रहा है जिसमें वह अमृत कलश निरालम्ब चक्र से भी ऊपर चला गया है, अर्थात निरालंबस्थान को ही पार कर गया है I
  • इस संपूर्ण दशा को एक अनंत स्वरूप की अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है I यह दशा शून्य ब्रह्म की है, जिनको पञ्च कृत्य को धारण करे हुए श्रीमन नारायण भी कहा जाता है I इस शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत है, और अनंत ही शून्य I
  • जब वह चेतना अपने साथ अमृत कलश को लेकर, उस अष्टम चक्र (निराधार स्थान) को पार करती है, तो वह अमृत कलश के साथ ही इस शून्य ब्रह्म में प्रवेश करके, शून्य के अनंत रूप का साक्षात्कार करती है I और ऐसी दशा में वह शून्य ब्रह्म, रात्रि के समान काले वर्ण के ही पाए जाते हैं I यही भगवान् जगन्नाथ हैं I
  • जब वह चेतना निरालम्ब चक्र से ऊपर जाकर (अर्थात पार करके) उस चक्र को देखती है, तो वह चक्र बहुत ही बड़े आकार का पाया जाता है, और ऐसा लगता है जैसे उसके पत्तों का आकार एक विशालकाय श्वेत वर्ण के सागर के समान ही है I उसी विशालकाय सागर के भीतर, कई सारे ब्रह्माण्ड भी साक्षात्कार होते हैं I मैं उन ब्रह्माण्डों की संख्या गिन नहीं पाया था I
  • इस चक्र का साक्षात्कारी साधक ब्रह्माण्डों का अवधूत (ब्रह्माण्ड अवधूत) भी हो सकता है I और इस साक्षात्कार से साधक विश्वरूप ब्रह्म का अवधूत भी हो सकता है, अर्थात विश्वरूप ब्रह्मवधूत भी हो सकता है I लेकिन इन पदों को वह योगी ग्रहण करेगा या नहीं, यह तो उस योगी पर ही निर्भर करता है I
  • इस सक्सात्कार के पश्चात वह योगी असंप्रज्ञात समाधि से जाता हुआ, अंततः निर्बीज समाधि को ही पा जाता है I इस समाधि के बारे में एक आगे के अध्याय में बतलाऊँगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और ऊपर के चित्र की दशा के समय जो खकार नाद साक्षात्कार होता है, उसके बारे में बताता हूँ…

  • जब साधक की चेतना निरालम्ब चक्र को पार करती है, तब उस साधक को एक शब्द सुनाई देता है I
  • यह शब्द अक्षर का होता है, और इसी शब्द के नाद रूप को खकार नाद कहा गया है I यह खकार नाद, ख ख ख, ऐसे ही तीन सुनाई देता है I और यह खा शब्द ऐसा लगता है जैसे कोई कंठ के नीचे के भाग से दबी हुई ध्वनि में इसे बोला गया है I
  • पूर्व में बताया गया था, कि वह चेतना तीन बार निरालम्बस्थान को पार करती है I और जैसा यहाँ बताया गया है कि प्रत्येक बार यह ख का शब्द तीन बार सुनाई देता है, इसलिए उस अमृत कलश और साधक की चेतना के तीन बार अष्टम चक्र को पार करने की प्रक्रिया में, यह खा शब्द कुल मिला कर नौ बार सुनाई देता है I और इसके पश्चात जब वह अमृत कलश आधी बार ऊपर उठता है, तब यह खकार नाद एक बार सुनाई देता है I इसलिए इस पूरी प्रक्रिया में यह खकार नाद दस बार सुनाई देता है I

ऐसी दशा में यह साक्षात्कार आदि पराशक्ति के नव दुर्गा और दस महाविद्या, दोनों का ही द्योतक हो जाता है, और ऐसा होने के कारण वह अमृत कलश भी आदि शक्ति स्वरूप ही हो जाता है I

 

ऐसी दशा में जो होता है, उसको अब बताता हूँ…

अदि पराशक्ति ही सदाशिव होती है I

आदि शक्ति ही समस्त देवियों में अभिव्यक्त हुई हैं I

और इस खकार नाद के मंत्र स्वरूप के साक्षात्कार में, साधक ऐसा ही कहेगा…

माँ आदि पराशक्ति को नमन I

 

ऊपर लिखे गए के मंत्र में…

  • ॐ नाद के अकार, उकार और मकार नामक बिंदु, दायीं ओर वाले तीन पत्तों से संबद्ध हैं I
  • ख का शब्द बायीं ओर वाले अकेले पत्ते से संबद्ध है I
  • यदि साधक इस मंत्र को अपने ब्रह्मरंध्र चक्र के शिवरंध्र नामक स्थान पर मानसिक जाप करेगा, तो इस मंत्र में इतनी शक्ति है कि उस साधक के भीतर के समस्त अधर्म और विधर्म बिन्दुओं का समूल नाश हो जाएगा I
  • और यदि साधक इस मंत्र का मानसिक जप अपने भीतर के ब्रह्माण्ड में करेगा, तो यही उस विशुद्धीकरण प्रक्रिया साधक की काया के भीतर के ब्रह्माण्ड में ही होने लगेगी I
  • और यदि यही मानसिक जाप वह साधक समस्त ब्रह्माण्ड या उस ब्रह्माण्ड के किसी लोक के लिए करेगा, तो वह लोक ही विशुद्धीकरण प्रक्रिया में चला जाएगा I
  • यदि किसी एक लोक के बहुत सारे साधक इस मंत्र का जाप करने लगेंगे, तो वह विशुद्धीकरण भी एक विराट रूप धारण करने लगेगा I
  • यह आदि पराशक्ति का मूल है, जो विशुद्ध सत्त् और सार्वभौम ही हैं I
  • इस मंत्र जाप से पूर्व, इस जाप के समय और इसके पशचात तक सात्विक आहार, विचार, व्यवहार आदि होने चाहिए नहीं तो विपरीत फल सिद्धांत ही पाया जाएगा I

 

इस खकार नाद के साक्षात्कार में…

साधक के भीतर का अमृत, परमामृत में ही लय हो जाता है I

लय होकर, साधक के भीतर का वह अमृत, परमामृत ब्रह्मशक्ति ही हो जाता है I

इसलिए साधक यह भी जान जाता है, कि आंतरिक अश्वमेध (अर्थात योग अश्वमेध) का यह पाद, शाक्त मार्ग से ही संबद्ध है I

 

और जहाँ वह…

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की पूर्ण शक्ति हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की प्रथम दूती ही हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की सार्वभौम दिव्यता हैं I

ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म की सनातन अर्धांगनी भी हैं I

वही ब्रह्मशक्ति ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति भी हैं I

और ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है I

और जहाँ अभिव्यक्ति भी अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं है I

इसलिए ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म होती हैं ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति हुआ है I

 

और क्यूंकि वह परमामृत ब्रह्म शक्ति (आदि पराशक्ति) भी ब्रह्म ही हैं, इसलिए इस साक्षात्कार में और इस साक्षात्कार से ही…

वह साधक उसके भीतर के ब्रह्माण्ड को त्यागने का पात्र बनता है I

यह त्याग भी उसी ब्रह्माण्ड में होता है, जिसमें साधक की काया बसी हुई होती है I

 

इस त्यागने की प्रक्रिया में साधक की काया के भीतर कई सिद्ध शरीर प्रकट होते हैं I और वह सिद्ध शरीर ब्रह्माण्ड की उन प्राथमिक दशाओं के द्योतक भी होते हैं, और उन दशाओं के सगुण साकार स्वरूप भी  होते हैं I

ऐसे त्यागने की प्रक्रिया में वह सिद्ध शरीर, एक-एक करके ब्रह्माण्ड में उनके अपने-अपने कारणों में लय होने लगते हैं I

जब साधक के भीतर का ब्रह्माण्ड और उस ब्रह्माण्ड के समस्त भाग (जो उस साधक की काया के भीतर स्वयं प्रकट हुए सिद्ध शरीर ही हैं), उस ब्रह्माण्ड में लय हो जाते हैं, जिसके भीतर वह साधक अपने काया स्वरूप में निवास कर रहा होता है, तब साधक पर इस समस्त ब्रह्माण्ड की पकड़ भी समाप्त हो जाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस त्याग के पश्चात, जो होता है, अब उसको बताता हूँ…

साधक के भीतर की ब्रह्माण्ड दशाएँ, अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाती हैं I

और इस लय होने के मार्ग में, साधक की काया के भीतर ही कई सारे सिद्ध शरीर प्रकट होने लगते हैं, और जहाँ वह सिद्ध शरीर भी ब्रह्माण्ड की अपनी-अपनी सगुण निराकार दशाओं के सगुण साकार स्वरूप ही होते हैं I

इसलिए इस लय होने की प्रक्रिया में, साधक की काया के भीतर जो सगुण साकार स्वरूप में ब्रह्माण्डीय दशाएं हैं, वह अपने ही सगुण निराकार ब्रह्माण्डीय स्वरूपों में लय होती है, और जहाँ वह सगुण निराकार स्वरूप भी उसी ब्रह्माण्ड में होता है, जिसके भीतर साधक अपने काया स्वरूप में बसा हुआ होता है I

और क्यूंकि ब्रह्माण्ड भी उतना ही सनातन है, जितना सनातन ब्रह्म है, इसलिए जब वह सिद्ध शरीर अपने-अपने कारणों में लय होते हैं, और अपने पूर्व के सगुण साकार (अर्थात शरीरी) स्वरूप त्यागकर, अपने ब्रह्माण्डीय कारणों के समान, सगुण निराकार ही हो जाते हैं, तब वह अपने-अपने कारणों में लय हुए अनंत कालों तक ऐसे ही रह जाते हैं I

और जब साधक की काया के भीतर बसी हुई समस्त ब्रह्माण्डीय दशाएं अपने अपने कारणों में लय हो जाती हैं, तब…

साधक जीव जगत से पृथक हो जाता है I

ऐसा सर्वस्व त्यागी साधक पूर्ण स्वतंत्र कहलाता है I

वह पूर्णस्वतंत्र ही ब्रह्म है, और अन्य सब, जीव जगत I

इसलिए खकार मार्ग से साधक पूर्णस्वतंत्र ब्रह्म ही हो जाता है I

ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, वह साधक ऐसा ही माना जाता है I

 

ऐसे लय होने की दशा के पश्चात,  यदि उस…

साधक के अपने कारणों में लय हुए सिद्ध शरीरों को देखोगेतो वह होगा I

त्याग के पश्चात जो उसके पास बचा होगा, उसको देखगेतो वह नहीं होगा I

साधक के भीतर के ब्रह्माण्ड का, बाहर के ब्रह्माण्ड में त्याग ही पूर्णत्याग है I

 

इसलिए यदि ऐसे साधक के…

अपनेअपने कारणों में लय हुए सिद्ध शरीरों को देखोगे, तो वह मुक्त नहीं होगा I

त्याग के पश्चात उसके पास जो बचा होगा, उसको देखगे, तो वह मुक्त ही होगा I

 

और इसी कारण से बौद्ध पंथ गामी और अनागामी का सिद्धांत आया था, जिसमें…

  • बौद्ध पंथ में जिनको अनागामी कहा गया है, वह उन लय हुए सिद्ध शरीरों को देखते हैं, इसलिए यह कहते हैं, कि वह नहीं गए हैं, अर्थात किसी न किसी स्वरूप में वह आज भी ब्रह्म रचना में निवास कर रहे हैं I
  • और इसके विपरीत, वेद मार्गों में जिनको मुक्तात्मा कहा गया है, वह उसको देकते हैं, जो साधक के आंतरिक ब्रह्माण्ड को दर्शाते हुए सिद्ध शरीरों के उनके अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होने के पश्चात साधक के पास बचा होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसी साक्षात्कार से आज के बौद्ध पंथ की बुद्धता और वेद मार्ग की मुक्ति की एकता का पता चलता है I

तो अब इन दोनों को एक-एक करके बताता हूँ I

पहले – यहाँ बताए गए साक्षात्कारों के अनुसार, बौद्ध पंथ का सैद्धांतिक विश्लेषण…

  • क्यूँकि बौद्ध पंथ में उन लय हुए सिद्ध शरीरों को देखा जाता है, और क्यूंकि ऐसे साधक के पृथक-पृथक सिद्ध शरीर भी उन शरीरों की अपनी ब्रह्माण्डीय दशाओं में पाए जाते हैं, इसलिए बौद्ध पंथ में कहा गया है, कि बुद्धत्व को पाया हुआ योगी, समस्त ब्रह्माण्डीय दशाओं में पाया जाएगा I
  • इसका भी वही कारण है कि जब साधक खकार मार्ग से आगे जाता है, तो उसकी काया में कई सारे सिद्ध शरीर प्रकट होते हैं, और प्रकटीकरण के पश्चात, वह सब के सब सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय भी होते हैं I
  • और क्यूँकि ब्रह्म रचना में कुछ है ही नहीं है जो सनातन नहीं है, इसलिए वह सिद्ध शरीर अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होने के पश्चात, सनातन कालों तक उन्ही दशाओं में निवास करते रहते हैं I
  • इसलिए जब कोई योगी उन दशाओं में जाएगा, तो वह उस लय हुए साधक को पाएगा और जहाँ वह लय हुआ साधक भी उस ब्रह्माण्डीय दशा से संबद्ध, अपने सिद्ध शरीरी स्वरूप में ही पाया जाएगा I
  • और क्यूंकि यह सारी की सारी लय होने की प्रक्रिया, उस शून्य से जाकर ही होती है, जो अनंत होता है, अर्थात इस लय होने की प्रक्रिया में शून्य ने ही सबकुछ धारण करा होता है, इसलिए यह भी कहते हैं कि अंत में वह शून्य ही होता है, जो भरा हुआ होता है I और बौद्ध पंथ में इसी भरे हुए शून्य को ही शून्यता कहा जाता है I लेकिन यह भरा हुआ शून्य तो वैदिक मार्ग का शून्य ब्रह्म ही है, अर्थात वह शून्य है जो अनंत है, और इसके साथ साथ, वही वह अनंत है जो शून्य ही है I
  • और क्यूँकि शून्य ब्रह्म तो श्रीमन नारायण ही हैं, इसलिए जिसको बौद्ध पंथ में शून्यता कहा गया है, वही वेद और योग मनीषियों द्वारा बताया गया शून्य ब्रह्म है, जो श्रीमन नारायण कहलाया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब इन्ही साक्षात्कारों के अनुसार, वेद मार्ग का सैद्धांतिक विश्लेषण…

  • और बौद्ध पंथ के विपरीत, वेद मार्ग में त्यागी हुई दशा को नहीं देखा जाता है, इसलिए वेद मनीषी केवल उसको देखते हैं, जो इस सर्वस्व त्याग के पश्चात शेष बचा रहता है I
  • और क्यूंकि इस सर्वस्व त्याग के पश्चात, जो बचा रहता है, वह साधक का निर्गुण आत्मस्वरूप ही होता है, और जहाँ वह निर्गुण आत्मस्वरूप ही निर्गुण निराकार ब्रह्म कहलाता है, इसलिए वेद मार्गों में निर्गुण ब्रह्म का सिद्धांत आया है I
  • जो निर्गुण को प्राप्त हुआ है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है I

 

अब इन दोनों मार्गों की एकता को बताता हूँ…

  • जब कोई योगी अपने सिद्धि शरीरों को लय होते हुए देखेगा, और ऐसे समय पर जो इस लय प्रक्रिया के पूर्ण होने के पश्चात बचेगा, उसको नहीं देखेगा, तो वह बौद्ध पंथ में बताई गई गंतव्य दशा को ही सत्य मानेगा I
  • और जब कोई योगी उन सिद्ध शरीर को न देखकर, केवल उसको देखेगा जो इन सभी सिद्ध शरीरों के अपने अपने कारणों में लय होने के पश्चात भी, और अंततः बचा रहता है, तो वह वैदिक सिद्धांत में बताई गई गंतव्य दशा को ही सत्य मानेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब पूर्व कालों के अनभिज्ञ वेद और बौद्ध मनिषियों के द्वारा और उनके अज्ञान के कारण वैदिक आर्य धर्म के इन दो भागों में टूटने के (अर्थात खण्डित होने के) मूल कारण को बताता हूँ…

  • क्यूंकि न तो उस समय के वेद मनीषियों ने, और न ही बौद्ध मनीषियों ने यहाँ बताई गई इस पूरी प्रक्रिया को जाना होगा, इसलिए वह एक दुसरे के सिद्धांत को अनुचित ही बताते रहे होंगे I और यही कारण होगा, कि वह पूर्व का अखण्ड वैदिक आर्य धर्म खण्डित हुआ होगा, और उससे बौद्ध पंथ निकला होगा I
  • और यही कारण है, कि मैं मान ही बैठा हूँ… दोनों मार्गों के मनीषी अनभिज्ञ ही रहे होंगे, क्यूंकि उनको इस पूरी प्रक्रिया का ज्ञान ही नहीं था I
  • जब मूर्खानंदों के पास ही धर्म की बागडोर चली जाएगी, तो धर्म खण्डित (अर्थात विभाजित) हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I
  • और इन्ही मूर्खनंदों द्वारा, जो उस समय कुछ धर्म पदों पर विराजमान रहे होंगे, सनातन धर्म का विभाजन हुआ होगा I
  • जहाँ तक इस संपूर्ण प्रक्रिया के ज्ञान की बात है, इन दोनों मार्गों के मनीषी वास्तव में तो मूर्ख ही थे, क्यूंकि यदि ऐसे नहीं होते, तो आज बौद्ध पंथ वैदिक वाङ्मय का अंग ही रहा होता I
  • और आश्चर्यचकित तो मैं तब होता हूँ, जब सोचता हूँ कि बुद्ध भगवान् के निर्वाण के पश्चात, जितने भी वेद और बौद्ध मनीषी आए और स्वयं को उच्च पदों पर ख्यापित किए, उनको भी यदि एक भी इस मार्ग का पूर्ण ज्ञाता होता, तो किसी ने तो कुछ किया होता आर्य धर्म को इस विभाजित दशा से बाहर निकलने के लिए I परन्तु ऐसा प्रमाण आज दिखाई नहीं देता, इसलिए मैं यही सोचने के लिए विवश भी होता हूँ हूँ, कि अब तक के सभी वेद और बौद्ध मनीषि वास्तव में मूर्खनंद ही रहे होगे I
  • लेकिन यही तो कलियुग की विशेषता भी होती है, कि मूर्ख ही धर्म के नियंत्रक हो जाते हैं I और अपनी ऐसी अनभिज्ञता को छिपाने को वह साक्षात्कार प्रमाण नहीं, बल्कि शास्त्रो प्रमाण के प्रपंच रचते हैं I और ऐसा वह तब भी कहते हैं, जब उन शास्त्रों के मूल में पूर्व कालों के योगीजनों के साक्षात्कार प्रमाण ही थे I

 

आगे बढ़ता हूँ और खकार नाद और दिशा आयाम का नाता बताता हूँ…

यहाँ दिशा शब्द का अर्थ उत्कर्ष, उत्कर्ष पथ, मुक्तिपथ आदि ही है I और इसके अतिरिक्त, यही दिशा का शब्द दिशाओं को भी दर्शाता है I

पूर्व में बताया था, कि इस योग अश्वमेध के मार्ग में खकार नाद दस बार सुनाई देता है I यह दस का अर्थ दस दिशाओं को दर्शाता है I और यह दिशाएं भी ऐसी ही होती हैं I

  • उत्तर I
  • दक्षिण I
  • पूर्व I
  • पश्चिम I
  • उत्तर पूर्व I
  • दक्षिण पूर्व I
  • उत्तर पश्चिम I
  • दक्षिण पश्चिम I
  • गंतव्य I
  • पातल I

इसलिए दस बार जब यह खकार नाद सुनाई देता है, तो इसका अर्थ यह भी होता है कि उस साधक ने दसों दिशाओं पर विजयश्री पाई है I और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, ऐसा साधक दसों दिशाओं में विजयी कहलाता है I

क्यूंकि दिशाऐं केवल दस ही होती हैं, और क्यूंकि दिशाएं उत्कर्ष मार्गों को भी दर्शाती हैं, इसलिए ऐसा साधक समस्त उत्कर्ष मार्गों को भी विशुद्ध करने की क्षमता रखता है I

ऐसे योगी की जो आंतरिक दशा होगी, वह ऐसी होगी…

ग्रंथातीत होता हुआ भी उत्कर्ष ग्रंथों का सार ही होगा I

उत्कर्ष ग्रंथों के सार रूप में ही, स्वयं ही सार रूपी उत्कर्ष पथ होगा I

ऐसा होने के कारण वह योगी वह किसी एक दिशा तक सीमित नहीं होगा I

उसका उत्कर्ष सिद्धांत सर्वव्यापक ब्रह्म और सार्वभौम शक्ति से ही संबद्ध होगा I

 

इसलिए ऐसे योगी के द्वारा स्थापित उत्कर्ष सिद्धांत में…

सब उत्कर्ष पथ उसी ब्रह्म को जाते हुए पाए जाएंगे I

और जहाँ वह ब्रह्म भी ब्रह्मशक्ति स्वरूप में ही पाए जाएंगे I

और जहाँ वह उत्कर्ष सिद्धांत भी सभी मार्गों से सर्वसमता में होगा I

वह उत्कर्ष सिद्धांत, एक या अनेक का नहीं बल्कि बहुवादी अद्वैत ही होगा I

 

इसलिए ऐसा योगी कहेगा ही…

सब उत्कर्ष मार्गों की अंतगति में शून्य ब्रह्म ही हैं I

सब उत्कर्ष मार्गों से अतीत दशा में, निर्गुण ब्रह्म ही हैं I

और सभी मार्गों के एकमात्र गंतव्य में, वह पूर्ण ब्रह्म ही हैं I

पूर्णब्रह्म में, ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति हैं, और ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म I

ऐसा योगी ही यह कह पाएगा, कि साधक का शरीर ही ब्रह्म ग्रंथ है I

 

और ऐसे योगी के…

आत्मस्वरूप में, ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति, दोनों पूर्णरूपेण और समानरूपेण होते है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब खकार नाद और योग रामायण का एक बिंदु बताता हूँ…

इस अध्याय के मार्ग में, जो खकार नाद दस बार सुनाई देता है, वह रावण के दस दिशाओं को देखते हुए दस मुखों पर विजय का भी द्योतक है I

और क्यूँकि रामायण एक इतिहास ग्रंथ होने के साथ साथ, योग मार्ग का ग्रंथ भी है, इसलिए योग मार्ग में भगवान् राम, माता सीता और रावण आदि पात्र भी साधक की काया में ही निवास करते हैं I

जिस साधक ने खकार नाद दस बार साक्षात्कार किया होगा, उसने अपनी आंतरिक लंका पुरी (अर्थात शरीर के भीतर की लंका पुरी) और उसके राक्षसों पर भी विजयश्री पाई होगी I

और उस साधक ने उसकी लंका पुरी की अशोक वाटिका से माता सीता को भी छुड़ाया होगा I

और ऐसे साधक की काया के भीतर जो मां सीता होती है, वही आदि पराशक्ति का परा शक्ति स्वरूप को दर्शाता हुआ अमृत कलश ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब मैं योगमार्ग से ही माँ सीता की भू समाधि को बताता हूँ I अब ध्यान देना क्यूंकि मैं योग मार्ग से माँ सीता की भू समाधि को बता रहा हूँ…

  • नाभि कमल (अर्थात मणिपुर चक्र) का वर्ण पीला होता है I इस चक्र का नाता सद्योजात ब्रह्म से होता है I और सद्योजात से भू महाभूत (अर्थात पृथ्वी महाभूत) का नाता होता है I
  • इसलिए योगमार्ग के दृष्टिकोण से, जो भी क्षेत्र नाभि कमल नीचे की दशाओं के हैं, वह पृथ्वी के भीतर के अथवा सप्त पाताल से ही संबद्ध माने जाएंगे…I एक दृष्टिकोण यह होता है I
  • दुसरे दृष्टिकोण से मूलाधार ही पृथ्वी लोक होता है I मूलाधार और मूलाधार से ऊपर के जो चक्र हैं (अर्थात सप्त चक्र) वही सप्त ऊर्ध्वलोक हैं I और सप्त पाताल का स्थान, लिंग की जड़ से लेकर, लिंग के आगे के भाग तक होता है I इसलिए लिंग में सप्त पाताल होते हैं जिसके कारण ब्रह्मचर्य ही सप्त पाताल से ऊपर उठने और सप्त ऊर्ध्वलोकों में जाने का मार्ग होता है I

 

तो अब इन दोनों दृष्टिकोण को जोड़ता हूँ…

  • नाभि कमल से लेकर स्वाधिष्ठान चक्र तक और स्वाधिष्ठान चक्र से लेकर मूलाधार चक्र तक जो मणिका नाड़ी जाती है, वह पृथ्वी लोक है I इसलिए जबतक साधक की चेतना मूलाधार से ऊपर उठकर, नाभि कमल से भी ऊपर नहीं जाती, तबतक योगमार्ग के दृष्टिकोण से साधक पृथ्वी लोक का ही निवासी माना जाता है I
  • और जो साधक अपने लिंग पर नियंत्रण नहीं रख पाता है, अर्थात ब्रह्मचर्य में स्थित नहीं रह पाता है, उसकी चेतना लिंग में ही बैठी होती हैं I और क्योंकि लिंग के भीतर ही सप्त पाताल होते हैं, इसलिएऐसा साधक अपनी स्थूल काया के दृष्टिकोण से तो पृथ्वी लोक का निवासी होगा, किंतु योग मार्ग के सूक्ष्म दृष्टिकोण से वह सप्त पातालों में से ही किसी एक पाताल का निवासी माना जाएगा I

 

अब और ध्यान देना क्यूंकि मैं माँ सीता का पृथ्वी में समाने और उसकी प्रक्रिया को योगमार्ग से बता रहा हूँ I

और जहाँ उस योगमार्ग का नाता भी साधक की काया के भीतर ही चलित हो रही रामायण (अर्थात आंतरिक रामायण) से ही है I

जब वह अमृत कलश, निरालम्ब चक्र से नीचे की ओर आता है, तो वह कलश अंततः उसी नाभि क्षेत्र में ही लौट जाता है (अर्थात वह अमृत कलश वहीँ पर लौट आता है जहाँ से वह पूर्व में उठा था, और अष्टम चक्र पर गया था) I ऐसा ही निरालम्ब चक्र के अधिकांश सिद्धों में पाया जाता है I

किन्तु कुछ अतिविरले सिद्ध भी होते हैं, जिनमें यह अमृत कलश नाभि के क्षेत्र से भी नीचे की ओर गति कर जाता है, और अंततः लिंग और गुदा के मध्य में, मेरुडण्ड के नीचे भाग के समीप ही स्थापित हो जाता है I

पूर्व में बताया था, कि योगमार्ग के दृष्टिकोण से, मूलाधार चक्र और मणिपुर चक्र (अर्थात नाभि कमल) के मध्य में पृथ्वी है I लेकिन योगमार्ग से उस पृथ्वी की सतह नाभि कमल है, और इस पृथ्वी के भीतर का भाग नाभि कमल से लेकर मूलाधार चक्र तक है I

इसलिए जब वह नाभि लिंग, गुदा और लिंग के बीच के स्थान पर चला जाता है, तब माता सीता (अर्थात माँ आदि शक्ति) को दर्शाता हुआ वह नाभि लिंग (अमृत कलश) योग मार्ग के दृष्टिकोण से, माता सीता की समाधि कहा जाता है I

नाभि कमल पर पृथ्वी की सतह है, और नाभि कमल से मूलाधार कमल को जो नाड़ी जोड़ती है (अर्थात मणिका नाड़ी) वही योगमार्ग में पृथ्वी के भीतर की दशा है I और इसी दशा में वह अमृत कलश चला जाता है I नाभि कलश ही आदिशक्ति के माँ सीता स्वरूप को ही दर्शाता है I

और साधक की स्थूल काया के भीतर चलित हो रही आंतरिक रामायण के दृष्टिकोण से, यही माँ सीता का पृथ्वी में समा जाना कहलाया जाता है I

 

टिपण्णी: यह वह कारण है, कि इस ग्रंथ में जो अमृत कलश, नाभि कलश और नाभि लिंग के शब्दों का प्रयोग करा गया है, वह साधक की काया के भीतर चलित हो रही रामायण में, माँ सीता ही हैं I और ऊपर के चित्र में जो अमृत कलश दिखाया गया है, वह माँ सीता की वह अवस्था है, जब वह लंका नगरी से छूट कर, पुष्पक विमान पर सवार होकर, अयोध्या पूरी लौट रही हैं I ऐसा इसलिए हैं, क्यूंकि योगमार्ग में अष्टम चक्र (अर्थात ऊपर के चित्र का निरालम्ब चक्र या चतुर्दल कमल) ही वह पुष्पक विमान है I और माँ सिता के साथ, भगवान् राम भी बैठे होते हैं, जिनका वर्णन इस साक्षात्कार के द्वितीय पाद में, थोड़ा आगे जाकर ही किया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और वैदिक ग्रंथों के सर्ववाद को बताता हूँ…

वैदिक मार्ग के समस्त ग्रंथ, साधक की काया के भीतर की दशाओं और स्थितियों से भी संबद्ध हैं I और इसके अतिरिक्त वह ग्रंथ इतिहास अथवा ब्रह्माण्डीय दशाओं से भी संबंधित होते हैं I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि वेद मनीषियों ने कोई अपूर्ण ज्ञान (या मार्ग या ग्रंथ) दिया ही नहीं, जो साधक की काया के भीतर चालित होने के साथ साथ, ब्रह्माण्ड में भी चलित नहीं होता है I

वैदिक मार्गों के सभी देवी देवता, ब्रह्माण्ड में बसे होने के साथ साथ, साधक की काया में भी बसे हुए होते हैं I

और इसके साथ साथ, वैदिक संस्कृत के शब्दों के बीज रूप भी सार्वभौम ही पाए जाते हैं I

और ऐसी सार्वभौम दिव्यताओं और शब्दों को ही वैदिक वाङ्मय में डाला गया था I जो ऐसा नहीं पाया जाता था, वह वैदिक वाङ्मय का अंग भी नहीं बनाया जाता था I

यही वैदिक शब्दों के बीज, देवी देवताओं और मंत्रों की विशेषता भी रही है I

जो साधक की काया के भीतर और ब्रह्माण्ड में, एक ही समय पर समानरूपेण और पूर्णरूपेण नहीं पाया जाएगा, उसको वैदिक वाङ्मयमें डाला ही नहीं जाएगा I

और ऐसा ही अनादि कालों से ऋषिगण, सिद्धगणों ने करा है जिससे वैदिक वाङ्मय केवल एक ग्रंथ नहीं है,बल्कि साधक की काया के भीतर और बाहर की दशाओं की दिव्यताओं का एक विशुद्ध ज्ञानमय चेतनमय कर्ममय संग्रह ही है I

 

इस साक्षात्कार का द्वितीय पाद… जब सुनहरा सिद्ध शरीर गंतव्य को चला जाता है, सुनहरे सिद्ध शरीर का गंतव्य, सुनहरे शरीर का गंतव्य मार्ग, योगमार्ग का डकार नाद, डकार नाद का स्वरूप, … स्वर्णिम आत्मा क्या है, सुनहरा आत्मा क्या है, सुनहरी आत्मा, हिरण्यमय आत्मा, सुनहरा सिद्ध शरीर, … सुनहरा बुद्ध शरीर, बुद्धत्व सिद्धि, बुद्धता सिद्धि, बुद्ध का सुनहरा शरीर, सम सम बुद्ध सिद्धि, सम सम बुद्ध, सम सम बुद्ध शरीर, स्वर्णिम बुद्ध शरीर, बुद्धत्व शरीर, बुद्धत्व का शरीर, बुद्धता का शरीर, बुद्धत्व पथ, बुद्धता पथ, बुद्धत्व मार्ग, बुद्धता मार्ग, बुद्धत्व का पथ, बुद्धता का पथ, बुद्धत्व का मार्ग, बुद्धता का मार्ग, … डकार नाद का साक्षात्कार, अदि पराशक्ति ही सदाशिव हैं, योगमार्ग का डकार नाद, डकार नाद का स्वरूप, ॐ ड, … यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे, यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे, …

 

डकार, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, ब्रह्माणी शरीर
डकार, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, हिरण्यगर्भ शरीर, ब्रह्माणी शरीर, सुनहरे सिद्ध शरीर का गंतव्य, सुनहरे शरीर का गंतव्य मार्ग, योगमार्ग का डकार नाद, डकार नाद का स्वरूप, … स्वर्णिम आत्मा क्या है, सुनहरा आत्मा क्या है, सुनहरी आत्मा, हिरण्यमय आत्मा, सुनहरा सिद्ध शरीर, … सुनहरा बुद्ध शरीर, बुद्धत्व सिद्धि, बुद्धता सिद्धि, बुद्ध का सुनहरा शरीर, सम सम बुद्ध सिद्धि, सम सम बुद्ध, सम सम बुद्ध शरीर, स्वर्णिम बुद्ध शरीर, बुद्धत्व शरीर, बुद्धत्व का शरीर, बुद्धता का शरीर, बुद्धत्व पथ, बुद्धता पथ, बुद्धत्व मार्ग, बुद्धता मार्ग, बुद्धत्व का पथ, बुद्धता का पथ, बुद्धत्व का मार्ग, बुद्धता का मार्ग, … डकार नाद का साक्षात्कार, अदि पराशक्ति ही सदाशिव हैं, योगमार्ग का डकार नाद, डकार नाद का स्वरूप, ॐ ड,

 

यह इस मार्ग का दूसरा पाद है I इसका साक्षात्कार तब होता है जब पूर्व में बताया गया प्रथम पाद पूर्ण हो जाता है I

इसमें साधक की चेतना, एक हिरण्यमय आत्मस्वरूप में निरालम्ब चक्र पर ही बैठ जाती है I और ऐसी दशा में वह चेतना उस अथाह अंधकारमय सागर को देखती है, जिसने सबकुछ घेरा हुआ होता है I

ऊपर बताए गए तीन मंत्रों के हिरण्यये कोशे, हिरण्ययः कोशः, हिरण्ययीं ब्रह्मा के वाक्य भी इसी दशा को दर्शा रहे हैं I इसलिए इस दशा का नाता ऊपर बताए गए तीनों मंत्रों से है I ऊपर के मंत्रों में जिस यक्ष को बताया गया है, उसका नाता भी इसी सुनहरे सिद्ध शरीर से है I

ऐसी दशा में साधक अपने ही स्वर्णिम आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है और जहाँ उस आत्मस्वरूप का नाता भी हिरण्यगर्भ और ब्रह्माणी सरस्वती, दोनों से समान रूप में होता है I

इसलिए ऐसी दशा मे वह साधक हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग में ही अपने आत्मस्वरूप को पाता है I ऐसा दशा में साधक की आत्मा ही उस निरालम्बस्थान पर बैठी होती है और वह आत्मस्वरूप साधक के हिरण्यगर्भ योग सिद्धि और ब्रह्माणी योग सिद्धि को भी सामान रूप में दर्शाती है I

वह आत्मा अपने सगुण साकार, अर्थात शरीरी रूप में ही पाई जाती है और उस निरालम्ब चक्र पर बैठी हुई वह आत्मा साधक की एक सिद्धि को भी दर्शाती है जिसको हिरण्यगर्भ शरीर, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर और ब्रह्माणी शरीर भी कहा जा सकता है I उस स्वर्णिम सगुण साकार आत्मा में ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म का ब्रह्माणी विद्या सरस्वती से पूर्णरूपेण योग होता है और जहाँ उस स्वर्ण शरीर (स्वर्ण वर्ण का सिद्ध शरीर) में ऐसे योग के कारण…

हिरण्यगर्भ ही ब्रह्माणी विद्या होते हैं I

ब्रह्माणी सरस्वती ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म होती हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूंकि इस स्वर्ण सिद्ध शारीर का नाता उन ब्रह्माणी सरस्वती विद्या से है जो कैवल्य मोक्ष की द्योतक होती हैं, इसलिए जब साधक जहाँ बताया गया स्वर्णिम आत्मस्वरूप पाएगा, तब ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वह स्थूल शरीर रूप में होता हुआ भी मुक्तात्मा ही कहलाएगा I

निरालम्ब स्थान पर बैठा हुआ यह सिद्ध शरीर सद्योमुक्ति का भी द्योतक है I ऐसी दशा में उस साधक का नाता समस्त जीव जगत से टूट जाएगा I

और यदि यह सिद्ध शारीर उस निरालम्ब चक्र से नीचे की और नहीं आता है, तो ऐसे साधक की मृत्यु ही हो जाती है, जिससे वह साधक इसी साक्षात्कार से मुक्ति को ही पा जाता है I इसलिए इस चित्र की दशा में वह सद्योमुक्त अपनी काया में रह ही नहीं पाता है और ऐसा होने के कारण उसका इसी दशा में देहावसान हो जाता है I और जैसे ही उसका देहावसान हो जाएगा, तो वह अपनी पूर्व की सद्योमुक्ति की दशा से ही विदेहमुक्त को जाएगा I

और इसके विपरीत, यदि यह सुनहरा सिद्ध शरीर नीचे की ओर आएगा, और ब्रह्मरंध्र में स्थापित हो जाएगा, तो ऐसा साधक जो पूर्व का सद्योमुक्त ही था, वह उस मुक्ति को पाएगा जो जीवनमुक्ति कहलाई जाती है I इसलिए इस सिद्धि मार्ग में पूर्व का सद्योमुक्त, जीवन्मुक्त होकर ही अपनी काया को रख पाता है I और जब वह जीवन्मुक्त का आगे चलकर किसी समय में देहावसान होगा, तो वह पूर्व का जीवन्मुक्त भी उसी विदेहमुक्ति को पाएगा, जो पूर्व में बताए गए सद्योमुक्ति में स्थित साधक ने पाई थी I

इसलिए, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग में तीनों प्रकार की मुक्ति संभव होती है और साधक चाहे किसी भी मुक्ति को जाए, अंततः वह विदेहमुक्ति को ही पाएगा I

और क्यूंकि यह सुनहरा सिद्ध शरीर जो निरालम्बस्थान पर बैठता है, वह ब्रह्माणी सरस्वती द्वारा दर्शाई गई मुक्ति का ही द्योतक होता है, इसलिए यह सिद्ध शरीर आकाश की ओर (अर्थात ऊपर की ओर, गंतव्य की ओर या मुक्ति की ओर) ही देखता है I

निरालंबस्थान को एक अनंत अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है I इसलिए जब वह स्वर्ण शरीर निरालम्ब चक्र पर बैठा हुआ होता है, तो उसको भी यही अंधकारमय दशा घेरी रहती है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I यही बौद्ध पंथ की शून्यता है और बौद्ध पंथ की शून्यता का नाता वेद मनीषियों द्वारा बताए गए शून्य ब्रह्म से ही है I

यह स्वर्ण शरीर उसी निरालम्ब चक्र पर विराजमान होकर, उसी अंधकारमय दशा के अंत स्वरूप का साक्षात्कार करता है I

शून्य ब्रह्म साक्षात्कार में जो पाया जाता है, वह ऐसा ही होता है…

शून्य ही अनंत रूप में है I

अनंत भी शून्य स्वरूप में ही होता है I

शून्य, अंधकारमय और अनंत, निरंग प्रकाश स्वरूप में है I

उस अंधकार को निरंग प्रकाश ने भेदा हुआ है, और घेरा हुआ भी है I

 

और इस साक्षात्कार में…

शून्य और अनंत आपस में ऐसे घुले मिले हैं, कि कौन सा शून्य है और कौन सा अनंत, इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता है I इसलिए यदि योगी…

शून्य में बसकर उसको देखेगा, तो वह शून्य ही अनंत रूप में पाया जाएगा I

और उस अनंत में बसकर, वह अनंत का अध्यन्न करेगा, तो वह शून्य ही होगा I

 

इसलिए, इस साक्षात्कार के मार्ग में, शून्य और अनंत का ऐसा योग होता है, जिसमें…

शून्य के गंतव्य में अनंत होता है I

अनंत के मूल में भी वही शून्य ही होता है I

अंधकारमय शून्य से ही अनंत का साक्षात्कार होता है I

और पूर्व में साक्षात्कार हुए अनंत से शून्य का साक्षात्कार ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और यदि उस योगी की चेतना जो उसी निरालम्ब चक्र पर बैठी होती है, वह उस शून्य का का ध्यानपूर्वक अध्यन्न करेगी, तो वह जो पाएगी, वह ऐसा होगा…

उस शून्य अनंत को एक निरंग प्रकाश ने भेद रखा है I

और उसी निरंग प्रकाश में ही वह शून्य ब्रह्म बसा हुआ है I

शून्य ब्रह्म में शून्य का शब्द उसी अंधकारमय दशा का द्योतक है I

और उसी शून्य ब्रह्म में जो ब्रह्म का शब्द है, वह अनंत निरंग प्रकाश है I

 

इस साक्षात्कार से साधक जो जानता है, वह…

जो अंधकारमय शून्य है, वही प्रकृति हैं I

जो प्रकृति है वही सार्वभौम शक्ति, ब्रह्म शक्ति हैं I

और जो अनंत निरंग प्रकाश है, वही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं I

इसलिए, इस दशा के साक्षात्कार से साधक निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार भी करता है I और जहाँ वह निर्गुण ब्रह्म, अनंत निरंग प्रकाश स्वरूप में साक्षात्कार होते हैं I

 

इस साक्षात्कार के पश्चात साधक यही जानता है, कि…

अब कहीं जाने को, कुछ करने को अथवा कुछ बनने को नहीं रह गया है I

मेरा आत्मस्वरूप ही सनातन, अनंत, स्वतंत्र, निरालम्ब, निराधार, निर्विकल्प ब्रह्म है I

यही इस योगमार्ग की गंतव्य सिद्धि है, यही इस योगमार्ग का गंतव्य ज्ञान है और यही इस योगमार्ग का गंतव्य साक्षात्कार भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब डकार नाद को बताता हूँ…

जब वह अमृत कलश तीन बार निरालम्ब चक्र (अष्टम चक्र) से ऊपर की ओर जाता है, तब ऐसी गति में एक और मेघ गर्जन के तुल्य शब्द आता है I यह शब्द डकार नाद का है I

इस ध्वनि को कण्ठ से निकालना बहुत कठिन है, क्यूंकि यह शब्द कंठ की जड़ से एक मेघ गर्जन के समान, ड शब्द के स्वरूप में निकालना होगा I

 

और इस डकार नाद के मंत्र स्वरूप के साक्षात्कार में, साधक ऐसा ही कहेगा…

सदाशिव को नमन I

सदाशिव ही अदि पराशक्ति हैं I

सदाशिव ही समस्त देवताओं में अभिव्यक्त हैं I

 

इस मंत्र में…

सदाशिव ही अदि पराशक्ति से योग किए हुए हैं I

सदाशिव ही महेश्वर स्वरूप में हैं और आदि पराशक्ति महेश्वरी स्वरूप में I

सदाशिव और आदि पराशक्ति का सगुण साकारी सनातन योग ही सुनहरा शरीर है I

उन सदाशिव और आदि पराशक्ति का योगशरीर भी उसी शून्य ब्रह्म में बसा हुआ है I

 

इस चित्र में जो सुनहरा सिद्ध शरीर दिखाया गया है, वह…

सदाशिव, अर्थात महेश्वर या हिरण्यगर्भ स्वरूप में हैं I

और आदि पराशक्ति, अर्थात महेश्वरि या ब्रह्माणी स्वरूप में भी हैं I

जो सुनहरा शरीर है, वह सदाशिव और आदि पराशक्ति के योग को दर्शाता है I

सुनहरा शरीर, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग के सगुण साकार स्वरूप का प्रमाण भी है I

 

इस दशा के मंत्र में…

  • कलि का प्रभाव भी समाप्त हो सकता है और ऐसा होने पर वह साधक मुक्तिमार्ग पर ही गमन कर पडेगा I लेकिन ऐसा समय पर आहार, विचार और व्यवहार सात्विक होना होगा I
  • इस मंत्र का ॐ शब्द, अकार, उकार और मकार को दर्शाता है, जिसके द्योतक निरालम्ब चक्र के चित्र में दिखाए गए दायीं ओर के तीन पत्ते हैं I और डा शब्द, बायीं और के उस अकेले पत्ते से संबद्ध है I
  • और इस मंत्र की सिद्धि वह हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग शरीर ही है, जो ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

 

इस डकार नाद के साक्षात्कार में…

सुनहरा सिद्ध शरीर, उसके मूल कारण हिरण्यगर्भ में ही लय हो जाता है I

सगुण निराकार हिरण्यगर्भ में लय होकर, वह हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही माना जाता है I

इसलिए साधक यह भी जान जाता है, कि आंतरिक अश्वमेध (अर्थात योग अश्वमेध) का यह पाद, शैव मार्ग से ही संबद्ध है I

और जहाँ वह शैव मार्ग ही प्रज्ञानं ब्रह्म के महावाक्य का साक्षात्कार मार्ग होने के कारण, उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म से भी नाता रखता है, जिनकी दिव्यता माँ ब्रह्माणी सरस्वती हैं I

 

और जहाँ वह…

हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी का योग अद्वैत योग ही है I

इस योग में हिरण्यगर्भ, ब्रह्म हैं और ब्रह्माणी, ब्रह्म शक्ति I

इस योग में कौन हिरण्यगर्भ और कौन ब्रह्माणी, पता ही नहीं चलेगा I

इस योग में हिरण्यगर्भ ही ब्रह्माणी हुए हैं और ब्रह्माणी ही हिरण्यगर्भ हुई हैं I

इसलिए सुनहरा शरीर, रचैता और उसकी रचनाशक्ति की योगदशा का द्योतक है I

और इस योगदशा में वह साधक अपनी चेतना और चेतन शक्ति के सनातन योग को भी पाता है I इस योग सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक हिरण्यगर्भ स्वरूप और ब्रह्माणी स्वरूप भी कहलाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब वह स्वर्ण शरीर अष्टम चक्र पर विराजमान होता है तो वह बुद्धत्व सिद्धि (अर्थात बुद्धता सिद्धि) की उस दशा को दर्शाता है, जो सम सम बुद्ध से संबंधित होती है I

सम सम बुद्ध का उदय भी तब ही होता है, जब यह स्वर्णिम शरीर इस चित्र की दशा को पाता है I इसलिए जो बुद्धत्व (या बुद्धता का सिद्धांत) है, उसका नाता अथर्ववेद से ही है I

बुद्धता नामक सिद्धि में योगी की जो दशा होती है, अब उसको बताता हूँ…

  • योगी ब्रह्माण्ड को ऐसे देखता है, जैसे वह उससे सन्मुख हो I
  • योगी की काया ब्रह्माण्ड में बसी होने के साथ साथ, ब्रह्माण्ड भी योगी की काया के भीतर ही अपने प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में बसा होता है I
  • उस ब्रह्माण्ड की दिव्यताएं भी योगी की काया के भीतर ही साक्षात्कार होती हैं I और इसके अतिरिक्त, उस योगी की काया भी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के भीतर ही बसी हुई होती है I
  • इसका अर्थ हुआ, कि इस बुद्धत्व सिद्ध योगी उस ब्रह्माण्ड की मूल, प्रमुख और प्रधान दशाओं और उनकी दशाओं की दिव्यताओं का भी साक्षात्कारी होता है I

 

किन्तु यह सिद्धि तो वही दशा की द्योतक है जिसको योग और वेद मनीषियों ने ऐसा कहा था…

यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे I

यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे I

 

इसलिए, इस बुद्धता सिद्धि में…

योगी पिण्ड ब्रह्माण्ड नामक योग सिद्धि को ही पा जाता है I

योगी पिण्ड रूप में होता हुआ भी, वास्तव में ब्रह्माण्ड ही होता है I

ब्रह्माण्ड, योगी की काया में सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में बसा होता है I

और योगी की काया भी उसी ब्रह्माण्ड के भीतर निवास कर रही होती है I

 

अब बुद्धत्व पथ को बताता हूँ…

उस बुद्ध की स्थूल काया के भीतर, सभी ब्रह्माण्डीय मूल, प्रमुख और प्रधान दशाओं के बिंदु पाए जाते हैं I और जहाँ वह बिंदु भी सिद्ध शरीरों के स्वरूप में ही होते हैं I

अष्टम चक्र सिद्धि के पश्चात, साधक की काया के भीतर ही यह सभी सिद्ध शरीर एक के बाद एक प्रकट होते ही जाते हैं I

और जब यह सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर प्रकट होते हैं, तो इससे कुछ ही समय में यह सिद्ध शरीर साधक की काया को त्यागते हैं और अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होते ही चले जाते हैं I

बुद्धत्व मार्ग में इन्ही सिद्धि शरीरों को बुद्ध शरीर भी कहा जाता है, और क्यूंकि यह सिद्ध शरीर बहुत सारे होते हैं, इसलिए बुद्धता के मार्ग में बहुत सारे बुद्ध शरीर भी कहे जाते हैं I

जब यह सिद्ध शरीरों के साधक की काया के भीतर प्रकटीकरण और इसके पश्चात, इन सिद्ध शरीरों के अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होने की प्रक्रिया पूर्ण होती है, तब यह सभी सिद्ध शरीर अपना पूर्व का सगुण साकार स्वरूप त्यागते हैं, और अपने ब्रह्माण्डीय कारणों की दशाओं के सामान, सगुण निराकार ही हो जाते हैं I

इसलिए जबकि साधक की काया के भीतर, अपने प्रकटिकरण के समय पर तो यह सिद्ध शरीर सगुण साकार स्वरूप में ही होते हैं, किन्तु अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय होने के पश्चात यह सिद्ध शरीर उन ब्रह्माण्डीय दशाओं के समान सगुण निराकार ही पाए जाते हैं I

और ऐसा पाए जाने पर भी, जब कोई साधक उन ब्रह्माण्डीय दशाओं में गमन करेगा (अर्थात उन ब्रह्माण्डीय दशाओं के भीतर जाकर, पूर्व के सिद्धों के त्यागे गए सिद्ध शरीरों का साक्षात्कार करेगा) तो वह उस साधक के लय हुए सिद्ध शरीरों को भी देखेगा I

और क्यूंकि बुद्धत्व पथ में साधक की काया के भीतर सभी मूल, प्रमुख और प्रधान ब्रह्माण्डीय दशाओं के सिद्ध शरीर प्रकट होकर, उन दशाओं में लय भी हो जाते हैं, इसलिए जो वास्तव में बुद्धता को पाया होगा, वह ब्रह्माण्ड की उन सभी मूल, प्रमुख और प्रधान दशाओं में समान स्वरूप में बसा हुआ भी होगा (अर्थात वह योगी ब्रह्माण्ड का ही सगुण साकार स्वरूप होगा) I

इसलिए यदि कोई साधक, आगामी समय खण्डों में उन ब्रह्माण्डीय दशाओं में जाएगा,  तो वह साधक उस पूर्व के योगी के उन सिद्ध शरीरों को भी उन सिद्ध शरीरों की ब्रह्माण्डीय दशाओं के भीतर निवास करता हुआ देखेगा I

और क्यूँकि बुद्ध के सिद्ध शरीर सभी मूल, प्रमुख और प्रधान ब्रह्माण्डीय दशाओं में पाए जाते हैं, इसलिए यदि कोई भी योगी आगामी समय खण्ड में उन ब्रह्माण्डीय दशाओं में जाएगा, तो वह योगी उस बुद्ध को उन सभी दशाओं में बसा हुआ भी पाएगा I

 

यही बुद्धत्व सिद्ध का अंतिम प्रमाण भी है और इसी को योग मनीषियों ने ऐसा कहा था…

यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे I

यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे I

 

इसलिए, बुद्धत्व वह सिद्धि होती है जिसमें…

योगी अपने पिण्ड रूप में होता हुआ भी, पूर्णरूपेण ब्रह्माण्ड ही हो जाता है I

योगी के सिद्ध शरीर समस्त ब्रह्माण्डीय दशाओं में समानरूपेण पाए जाते हैं I

योगी सगुण साकार होता हुआ भी, वास्तविकता में सगुण निराकार ही हो जाता है I

ऐसा योगी ब्रह्म की सगुण साकार और सगुण निराकार अभिव्यक्तियों को दर्शाता है I

 

इन साक्षात्कारों से पाया हुआ ज्ञान भी इसी बुद्धत्व सिद्धि और मार्ग का अंग है I

 

अब ऐसे योगी की विशेषताएं बताता हूँ…

वह चाहे शास्त्र पड़ा हुआ हो या नहीं, शास्त्र सार का ज्ञानी वह होगा ही I

चाहे शास्त्र का श्रोता रहा हो या नहीं, शास्त्र गंतव्य साक्षात्कारी वह होगा ही I

वह चाहे अपने को ज्ञानमय रूप में ख्यापित करे या न करे, ज्ञानी वह होगा ही I

लौकिक स्वरूप से वह कुछ भी हो, ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण में वह दुर्लभ होगा ही I

शरीरी रूप में वह कैसा भी पाया जाए, अपनी आंतरिक दशा में वह दिव्य होगा ही I

आगे बढ़ता हूँ…

अब बुद्धत्व और योग अश्वमेध का नाता बताता हूँ…

इस बुद्धत्व सिद्धि का नाता भी एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध से ही होता है,इसलिए जिस योगी ने अपने संपूर्ण जीव इतिहास में एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध सिद्धि किया होगा, वही बुद्धत्व सिद्धि को पाएगा I

और क्यूंकि इस बुद्धत्व सिद्धि का मार्ग, एक सौवें आंतरिक अश्वमेध से ही जाता है, इसलिए जो योगी बुद्धता को पाया होगा, वह पूर्व कालों में त्रिशंकु भी रहा ही होगा I

 

इसलिए, …

बुद्धत्व मार्ग, राम नाद से होकर ही जाता है I

बुद्धत्व पथ, इंद्रासन सिद्धि और त्रिशंकु से भी जाता है I

बुद्धत्व से आगे वह योगी हिरण्यगर्भ ब्रह्म स्वरूप को पाता है I

बुद्धत्व से आगे जाकर ही वह योगी ब्रह्मत्व सिद्धि को प्राप्त होता है I

बुद्धत्व के मार्ग में त्रिशंकु की दशा है, और ब्रह्मत्व के मूल में बुद्धत्व होता है I

 

और क्यूंकि, …

प्रथम योग अश्वमेध के पश्चात वह योगी प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होकर ही रहता है, इसलिए समस्त बुद्ध अपने पूर्व कालों के प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही होते हैं I

बौद्ध पंथ में ऐसे योग भ्रष्ट को, जो प्रबुद्ध भी होता है, बोधिसत्व भी कहा जाता है I इसलिए जिस योगी ने बुद्धत्व को पाया होगा, वह पूर्व कालों का बोधिसत्व भी रहा ही होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

क्यूंकि ब्रह्मत्व पथ, बुद्धत्व सिद्धि से होकर ही जाता है, इसलिए बुद्धत्व के पश्चात ही ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है I

ऐसा होने के कारण, जो मार्ग कहते हैं कि बुद्ध ब्रह्मा से भी ऊपर की दशा है, वह सब मनोलोक से ही संबंधित हैं I वास्तविकता तो यह है, कि बुद्धत्व को पार करके ही योगी ब्रह्मत्व को प्राप्त होता है I

बुद्धत्व योगी कर्म, कर्म फल उनके संस्कारों से संबद्ध रहता है I और इसके विपरीत जो योगी कर्म, कर्म फल और उनके संस्कारों से ही अतीत हो गया है, वही ब्रह्मत्व को प्राप्त होने का पात्र कहा जा सकता है I

 

इसलिए…

बुद्धत्व से आगे ब्रह्मत्व होता हैन कि ब्रह्मत्व से आगे बुद्धत्व I

बुद्ध भी उन्हीं ब्रह्म की रचना होता हैन कि ब्रह्म, किसी बुध की रचना हैं I

बुद्धत्व सिद्धि ब्रह्मत्व पथ का अंग है, न कि ब्रह्मत्व सिद्धि, बुद्धत्व का पथ I

लेकिन ऐसा होने पर भी बुद्धत्व सिद्धि दुर्लभ ही होती है I

 

अब बुद्धता सिद्धि की एक और विशेषता बताता हूँ…

किसी पूर्व कालों के बुद्ध के शिष्य ही आगामी बुद्ध हो पाते हैं I

किसी बुद्ध के शिष्य हुए बिना, योगी बुद्धत्व को पा भी नहीं सकेगा I

जो किसी पूर्व के बुद्ध का शिष्य नहीं हुआ है, वह आगामी बुद्ध भी नहीं होगा I

 

इसलिए, यदि किसी बुद्ध ने किसी साधक को अपने शिष्य रूप में अपनाया होगा, तो यह उस बात का प्रमाण भी है, कि वह अभी का शिष्य किसी आगामी समय का बुद्ध भी होगा I

ऐसा कभी हुआ ही नहीं, कि किसी पूर्व कालों के बुद्ध का कोई शिष्य, आगामी किसी कालखण्ड में बुद्ध न हुआ हो I

 

आगे बढ़ता हूँ…

बुद्धत्व का नाता भी कर्मों से ही होता है I

इसलिए जो योगी कर्मातीत हो गया, वह बुद्ध नहीं हो पाएगा I

यही कारण है कि जबकि ब्रह्मत्व पथ, बुद्धत्व सिद्धि से ही जाता है, किन्तु ब्रह्मत्व का एकमात्र मार्ग बुद्धत्व नहीं है I

और ऐसा होने पर भी, इस ग्रंथ के मार्ग में, बुद्धत्व से ही ब्रह्मत्व को प्राप्त हुआ जाता है I

 

अब बुद्धत्व सिद्धि की एक और विशेषता बताता हूँ…

किसी भी ब्रह्माण्ड में, एक ही समय पर, दो योगी बुद्ध नहीं हो सकते I

जब एक बुद्ध का समय समाप्त होता है, तब ही दुसरे बुद्ध का आगमन होगा I

किसी एक ब्रह्माण्ड के किसी एक कालखण्ड में, एक ही योगी बुद्ध हो सकता है I

ऐसा होने के कारण ही, बुद्धत्व पथ का गुरु भी केवल कोई बुद्ध ही हो सकता है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

स्वर्णिम आत्मा का ब्रह्मरंध्र में स्थान, मस्तिष्क में ब्रह्म है, सहस्रार में ब्रह्म है, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म है, आत्मा राम कौन, आत्मा राम क्या है, रामलला कौन, रामलला और ललाना चक्र, ललाना चक्र, मस्तिष्क में सगुण आत्मा, सहस्रार में सगुण आत्मा, आत्मा का हिरण्यमयी स्वरूप, ब्रह्मरंध्र में आत्मा, आत्मा का शरीर स्वरूप, आत्मा का रामलला स्वरूप, स्वर्णिम आत्मा, स्वर्ण आत्मा, हिरण्यगर्भ आत्मा, हिरण्यगर्भात्मा, … तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः, तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम्, हिरण्यये कोशे, हिरण्ययः कोशः, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा, पुरं हिरण्ययीं, हिरण्ययीं ब्रह्मा, … सुनहरा सिद्ध शरीर और सद्योमुक्ति, सुनहरी आत्मा और जीवनमुक्ति, स्वर्णिम आत्मा और विदेहमुक्ति, … चतुर्दश भुवन का चक्र, ब्रह्माण्ड को दर्शाने वाला चक्र, ब्रह्माण्ड चक्र, सुनहरी सगुण आत्मा का चक्र, आत्मा के सगुण बाल स्वरूप का चक्र, आत्मा के बाल स्वरूप का चक्र, लल्ला चक्र, राम लल्ला का चक्र, सगुण आत्मा का चक्र, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म, तैंतीस कोटि देवी देवताओं को दर्शाने वाला चक्र, निष्कलंक चक्र, वृत्तिहीन चक्र, मन का चक्र, मनस चक्र, छह शास्त्र का चक्र, छह दिशाओं का चक्र, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग सिद्धि, … हिरण्यगर्भ ब्रह्म शरीर, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती शरीर, उकार शरीर, बुद्ध का शरीर, बुद्ध का स्वर्ण शरीर, बुद्ध का वास्तविक शरीर, धर्मकाया शरीर, बुद्धत्व शरीर, बुद्धता शरीर, अमिताभ बुद्ध का शरीर, योगेश्वर शरीर, महेश्वर शरीर, अहुरा मज़्दा शरीर, …
मस्तिष्क में ब्रह्म है, सहस्रार में ब्रह्म है, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म है, आत्मा राम, रामलला
मस्तिष्क में ब्रह्म है, सहस्रार में ब्रह्म है, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म है, आत्मा राम, रामलला, स्वर्णिम आत्मा का ब्रह्मरंध्र में स्थान, मस्तिष्क में ब्रह्म है, सहस्रार में ब्रह्म है, ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म है, आत्मा राम कौन, आत्मा राम क्या है, रामलला कौन, रामलला और ललाना चक्र, ललाना चक्र, मस्तिष्क में सगुण आत्मा, सहस्रार में सगुण आत्मा, आत्मा का हिरण्यमयी स्वरूप, ब्रह्मरंध्र में आत्मा, आत्मा का शरीर स्वरूप, आत्मा का रामलला स्वरूप, स्वर्णिम आत्मा, स्वर्ण आत्मा, हिरण्यगर्भ आत्मा, हिरण्यगर्भात्मा, तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः, तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम्, हिरण्यये कोशे, हिरण्ययः कोशः, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा, पुरं हिरण्ययीं, हिरण्ययीं ब्रह्मा, सुनहरा सिद्ध शरीर और सद्योमुक्ति, सुनहरी आत्मा और जीवनमुक्ति, स्वर्णिम आत्मा और विदेहमुक्ति, चतुर्दश भुवन का चक्र, ब्रह्माण्ड को दर्शाने वाला चक्र, ब्रह्माण्ड चक्र, सुनहरी सगुण आत्मा का चक्र, आत्मा के सगुण बाल स्वरूप का चक्र, आत्मा के बाल स्वरूप का चक्र, लल्ला चक्र, राम लल्ला का चक्र, सगुण आत्मा का चक्र, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म, तैंतीस कोटि देवी देवताओं को दर्शाने वाला चक्र, निष्कलंक चक्र, वृत्तिहीन चक्र, मन का चक्र, मनस चक्र, छह शास्त्र का चक्र, छह दिशाओं का चक्र, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग सिद्धि, हिरण्यगर्भ ब्रह्म शरीर, ब्रह्माणी विद्या सरस्वती शरीर, उकार शरीर, बुद्ध का शरीर, बुद्ध का स्वर्ण शरीर, बुद्ध का वास्तविक शरीर, धर्मकाया शरीर, बुद्धत्व शरीर, बुद्धता शरीर, अमिताभ बुद्ध का शरीर, योगेश्वर शरीर, महेश्वर शरीर, अहुरा मज़्दा शरीर

 

 

इस चित्र का वर्णन…

  • नीचे की ओर का हल्का गुलाबी भाग, कपाल के ऊपर का भाग है, जिसके बाहर की ओर गुलाबी वर्ण के व्यान प्राण को दिखाया गया है I

टिपण्णी: यह व्यान प्राण का नाता अव्यक्त प्रकृति से भी है I अव्यक्त प्रकृति को ही अव्यक्त प्राण, माँ माया और ब्रह्म की माया शक्ति आदि भी कहा जाता है I अव्यक्त का नाता शारदा सरस्वती से भी है और माँ लक्ष्मी के गुलाबी वर्ण के स्वरूप से भी होता है I

  • नीचे की और का श्वेत भाग, जिसमें दस लंबे से पत्तों जैसी दशा दिखाई गई है, वह सहस्र दल कमल की द्योतक है I लेकिन इस सहस्रार कमल के केवल दस पत्ते ही इस चित्र में सांकेतिक रूप में दिखाए गए हैं I
  • जब साधक की चेतना निरालम्ब चक्र को पार करके, नीचे की ओर आती है, तो वह चेतना पुनः उस सुनहरे वज्रदण्ड चक्र से जाकर ही सहस्रार में लौटती है I ऐसी दशा में वह वज्रदण्ड अति ऊर्जावान हो जाता हैI इस चित्र में जो सुनहरा डण्ड दिखाया गया है, वही वज्रदण्ड है जो सहस्र दल कमल (अर्थात सहस्रार चक्र) से ऊपर की ओर होता है I इसी वज्रदण्ड का नाद, राम शब्द का होता है (अर्थात शिव तारक मंत्र का होता है) I
  • जब वह चेतना पुनः सहस्रार में पहुँच जाती है, तो उस सहस्रार चक्र के हजार पत्ते, एक विशालकाय सागर के समान हो जाते है I उन हजार पत्तों को ही ऊपर के चित्र में दस पत्तों के स्वरूप में दिखाया गया है I और क्यूंकि ऐसी दशा में वह हजार पत्ते बहुत ही बड़े आकार के हो जाते हैं, इसलिए ऊपर के चित्र में यह, पत्ते मस्तिष्क के ऊपर के भाग में बहुत बड़े आकार के दिखाए गए हैं I
  • वज्रदण्ड से वह चेतना शिवरंध्र से जाकर ही सहस्रार में आती है I इस शिवरंध्र के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया है, जिसका नाम रंध्र विज्ञान था I
  • सहस्रार चक्र से वह चेतना मस्तिष्क के आगे के भाग में आकर, ब्रह्मरंध्र में ही चली जाती है I और ब्रह्मरंध्र से जाकर वह चेतना, ब्रह्मरंध्र के भीतर बसे हुए तीन छोटे छोटे चक्रों में चली जाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब ब्रह्मरंध्र, अर्थात कपाल के ऊपर के भाग में स्थित सुनहरे वर्ण के ब्रह्म के द्वार के भीतर के तीन छोटे छोटे चक्रों के बारे में बताता हूँ…

उस सुनहरे वर्ण के ब्रह्मरंध्र के भीतर, तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं I

यह चक्र एक के ऊपर एक स्थित होते हैं I इन तीन छोटे चक्रों की स्थिति को ही नीचे के चित्र में दिखाया गया है I

तो अब इन तीनों छोटे छोटे चक्रों के बारे में बताता हूँ I

यह तीनों चक्र नीचे के चित्र में दिखाए गए हैं I

 

ब्रह्मरंध्र के भीतर, चतुर्दश भुवन चक्र, ललाना चक्र, मनस चक्र
ब्रह्मरंध्र के भीतर, चतुर्दश भुवन चक्र, ललाना चक्र, मनस चक्र

 

 

  • ब्रह्मरंध्र के भीतर का पहला या सबसे नीचे का चक्र, … चतुर्दश भुवन का चक्र, … अर्थात ब्रह्माण्ड को दर्शाने वाला चक्र

ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन चक्रों में से, यह चक्र सबसे नीचे का चक्र I इसमें चौदाह पत्ते होते हैं I यह चक्र चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड को दर्शाता है I इस चक्र का नाता पिण्ड ब्रह्माण्ड योग सिद्धि से भी है I

 

  • ब्रह्मरंध्र के भीतर का दूसरा चक्र या मध्य का चक्र, … सुनहरी सगुण आत्मा का चक्र, आत्मा के सगुण बाल स्वरूप का चक्र, आत्मा के बाल स्वरूप का चक्र, लल्ला चक्र, राम लल्ला का चक्र, सगुण आत्मा का चक्र, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म चक्र, तैंतीस कोटि देवी देवताओं को दर्शाने वाला चक्र, निष्कलंक चक्र, वृत्तिहीन चक्र,… चतुर्दश भुवन को दर्शाने वाले चक्र के ऊपर की ओर, जो चक्र होता है, उसमें बत्तीस पत्ते होते हैं I

इस चक्र के बत्तीस पत्ते, तैंतीस कोटि देवी देवताओं में से नीचे के बत्तीस देवताओं के द्योतक हैं I

क्यूंकि बत्तीसवें देवता देवराज हैं, इसलिए यह चक्र देवराज इंद्र तक समस्त देवी देवताओं को दर्शाता है I

इसका अर्थ हुआ, कि इस चक्र के बत्तीस पत्ते, अष्ट वसु, द्वादश आदित्य और एकादश रुद्र सहित, बत्तीसवें देवता, देवराज इंद्र को एक साथ दर्शाते हैं I

 

  • ब्रह्मरंध्र के भीतर का सबसे ऊपर का या तीसरा चक्र, … मन का चक्र, … मनस चक्र, … छह शास्त्र का चक्र, … छह दिशाओं का चक्र,

तैंतीस कोटि देवी देवता के चक्र के ऊपर, एक और छोटा सा चक्र होता है I

इस चक्र के छह पत्ते होते हैं, जो मन की छह दिशाओं में समान रूप में रमण करने की क्षमता को दर्शाता है, और जहाँ वो छह दिशाएं, छह शास्त्रों के मार्ग ही होते हैं I यही कारण था, कि मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने, छह दिशाओं का ज्ञान दिया था I

यह छह दिशाएं उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, गर्त और गंतव्य की होती हैं I

इन छह दिशाओं में से, पांच दिशाओं में ब्रह्म के पाँच मुख होते हैं, और छठी दिशा में समस्त ब्रह्माण्ड ही होता है I

छठी दिशा गर्त की दिशा को दर्शाती है, अर्थात ब्रह्माण्ड के मृत्यूलोक स्वरूप को दर्शाती है I

और जो ब्रह्माण्ड होता है, वो ही चौदह पत्तों वाले चक्र के द्वारा जाना जाता है (जो वो चौदह पत्तों का कमल दर्शाता है, जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है) I

और जो गंतव्य होता है, वो साधक का चेतन आत्मस्वरूप ही है, जो उस बत्तीस दल कमल में बैठकर ऊपर की ओर देखता है (अर्थात कपाल के ऊपर के भाग से, बाहर की ओर देखता है) I

क्यूंकि मन का चक्र, पञ्च ब्रह्म सहित, ब्रह्माण्ड को भी दर्शाता है,  इसीलिए मन के चक्र को (अर्थात मनस चक्र को) पूर्ण चक्र भी कहा गया है I

यह चक्र पञ्च ब्रह्म सिद्धि का भी द्योतक है इसलिए इसका नाता उस ग्रंथ से ही है, जिसका ज्ञान मैंने एक पूर्व जन्म में मेरे गुरुदेव महादेव से पाया था (अर्थात सदाशिव के अघोर मुख से पाया था) और इसके पश्चात, उन्ही महादेव की आज्ञा से, उस ज्ञान को कुछ उपयुक्त पात्रों को ही सही, लेकिन बाँटा था I

इस छह पत्तों वाले मन के चक्र को पार करने से, अर्थात साधक की चेतना का इस चक्र के ऊपर जाने से, शून्य का साक्षात्कार होता है I यह साक्षात्कार, शून्य समाधि से होता है, इसीलिए जब साधक की चेतना इस मनस चक्र को पार कर जाती है, तब साधक शून्य समाधि को पाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ… और ललाना चक्र के सुनहरे आत्मा को बताता हूँ…

और उस मध्य के ललाना चक्र के ऊपर, साधक के सुनहरे वर्ण का शरीर धारी बालक रूपी आत्मा पद्मासन में बैठता है I इसलिए इस चक्र लो ललाना चक्र भी कहा जा सकता है I

जबकि यह सुनहरा सगुण साकार शरीर रूप में आत्मा पद्मासनमे ही इस बत्तिस दस कमल पर विराजमान होता है, लेकिन ऊपर के चित्र में इसको खड़ा हुआ ही दर्शाया गया है I

वह सुनहरा बालक रूपी आत्मा, निष्कलंक और वृत्तिहीन ही होता है, इसलिए इस चक्र को निष्कलंक चक्र और वृत्तिहीन चक्र भी कहा जा सकता है I

वो आत्मा, भगवान् राम के लला स्वरूप को भी दर्शाता है, इसलिए इस चक्र को रामलला चक्र और ललाना चक्र भी कहा जा सकता है I

यह चक्र साधक के शरीर के भीतर बसी हुई, आठ चक्रों वाली और नव द्वारों वाली अयोध्या पुरी का वो पालना है, जिसपर राम लल्ला, साधक के ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में बैठे होते हैं I

जिस साधक ने उन भीतर के सुनहरे वर्ण के राम लल्ला का साक्षात्कार किया है, वो साधक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में निष्कलंक और वृत्तिहीन रामलला ही कहलाता है I और उसका ज्ञान और मार्ग भी बालक वेद, बाल वेद और लला वेद कहलाता है I

यह सुनहरे वर्ण का आत्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्म को भी दर्शाता है, जो तैंतीस कोटि देवताओं में तैंतीसवें देवता प्रजापति के ही हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप में अभिव्यक्ति हैं I

अपने सगुण साकार (अर्थात शरीर) रूप में भी यह सुनहरा आत्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का ही द्योतक है I

और इसके साथ-साथ, यह सुनहरा आत्मा, ब्रह्माणी सरस्वती का भी द्योतक है I

ऐसा होने के कारण यह सुनहरा शरीर रूपी आत्मा, साधक की हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग सिद्धि का भी द्योतक है I

यह सुनहरा शरीर धारी बालक रूपी आत्मा, उन प्रजापति का ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार सत्वात्मक स्वरूप होता है I इसलिए यह चक्र हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार ब्रह्म का चक्र भी है, जो तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, तैंतीसवें देवता प्रजापति की ही एक अभिव्यक्ति हैं I

इस बत्तिस दल कमल पर जो सुनहरे वर्ण के शरीरी स्वरूप में आत्मा बैठा होता है, वो ही साधक के शरीर के भीतर, साधक का ही हिरण्यगर्भ आत्मस्वरूप है, और जो साधक का हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार आत्मा भी है I

आत्मा के शरीरी रूप में ऐसे होने के कारण कुछ वेद मनिषियों ने आत्मा को सुनहरे वर्ण का भी कहा है और कुछ ने उस आत्मा को सगुण साकार भी कहा है I

इस बत्तिस दल कमल पर बैठा हुआ आत्मा, शरीरी स्वरूप में होता है, और सुनहरे वर्ण का होता है, और तैंतीस कोटि देवी देवताओं में तैंतीसवाँ देवता, अर्थात प्रजापति के ही बालक स्वरूप में, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का द्योतक होता है I इसलिए यह सुनेहरा शरीरी आत्मा ही साधक के बाल आत्मस्वरूप में, हिरण्यगर्भ होते हैं I

इसी सुनहरे वर्ण के शरीरी आत्मा को वेदों में आत्मा का शरीरी स्वरूप कहा गया था I और यही कारण है, कि कुछ वेद मनिषियों ने, आत्मा को शरीरी भी कहा है I

इसीलिए, इस बत्तिस दल कमल के चक्र के बत्तिस पत्ते और तैंतीसवाँ आत्मा, जो इस चक्र पर बैठता है, वो मिलकर तैंतीस कोटि देवता को दर्शाते हैं, जिसके कारण यह चक्र, वेदों के तैंतीस कोटि देवी देवता को दर्शाता है I

और इस बत्तिस दल कमल में बैठ कर, वो सुनहरे वर्ण का शरीरी आत्मा ऊपर की ओर (अर्थात आकाश की ओर या गंतव्य की ओर या मुक्ति की ओर) देखता है और वो आत्मा, एक बालक (लला) के समान ही निष्कलंक होता है, जिसके कारण वो सुनहरे वर्ण का शरीर रूपी आत्मा, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म को उनके ही लला (या बालक), अर्थात निष्कलंक स्वरूप में भी दर्शाता है I इसलिए इस सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा निष्कलंक ही कहलाता है I

इसलिए उस बत्तीस दल कमल (अर्थात ललाना चक्र) में बैठा हुआ और आकाश की ओर देखता हुआ वह स्वर्णिम बाल स्वरूप आत्मा, साधक के मुक्तिमार्ग का ही द्योतक हो जाता है I और जहाँ उस मुक्ति के गंतव्य में निर्गुण ब्रह्म ही होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ और अब इस स्वर्णिम शरीर के बारे में बताता हूँ…

उस निष्कलंक बालक रूपी सुनहरी सगुण साकार आत्मा को ही मस्तिष्क में ब्रह्म, सहस्रार में ब्रह्म और ब्रह्मरंध्र में ब्रह्म कहा गया है I

और अपने ऐसे स्वरूप में वह सुनहरा आत्मा जो दर्शाता है, वही आत्मा राम, रामलला, मस्तिष्क में सगुण आत्मा, सहस्रार में सगुण आत्मा, आत्मा का हिरण्यमयी स्वरूप, ब्रह्मरंध्र में आत्मा, आत्मा का शरीर स्वरूप, आत्मा का रामलला स्वरूप, स्वर्णिम आत्मा, स्वर्ण आत्मा, और साधक के ही हिरण्यगर्भ आत्मा स्वरूप (अर्थात हिरण्यगर्भात्मा) को ही दर्शाता है I

और ललाना चक्र में विराजमान और मुक्तिमार्ग की ओर (अर्थात ऊपर की ओर) देखता हुआ यही सुनहरा आत्मा, ऊपर बताए गए मंत्रों के तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः, तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा विवेशापराजिताम्, हिरण्यये कोशे, हिरण्ययः कोशः, पुरं हिरण्ययीं ब्रह्मा, पुरं हिरण्ययीं, हिरण्ययीं ब्रह्मा आदि वाक्यों को भी दर्शाता है I

और यही सुनहरा सिद्ध शरीर रूपी साधक का हिरण्यगर्भात्मा उस साधक के उस मुक्ति मार्ग को भी दर्शाता है, जिसका नाता सद्योमुक्ति के साथ साथ जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति से भी समान रूप में होता है I

पञ्च मुखी सदाशिव के मार्ग के अनुसार यही तत्पुरुष शरीर है Iऔर पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग के अनुसार यही हिरण्यगर्भ ब्रह्म शरीर भी है, और ब्रह्माणी विद्या सरस्वती शरीर भी यही है I ॐ सावित्री मार्ग के अनुसार यही उकार शरीर भी है I और बौद्ध मार्गों के अनुसार यही बुद्ध का शरीर, बुद्ध का स्वर्ण शरीर, बुद्ध का वास्तविक शरीर, धर्मकाया शरीर, बुद्धत्व शरीर और बुद्धता शरीर भी है I

और बौद्ध पंथ के अनुसार, यही सिद्ध शरीर अमिताभ बुद्ध का शरीर भी कहलाया जा सकता है I

इसे सिद्ध शरीर को योगेश्वर शरीर और महेश्वर शरीर भी कहा जा सकता है I और अंततः उन्ही योगेश्वर में यह सिद्ध शरीर लय होता है I

और शाकद्वीपीय पंथ जो जोरास्ट्रियन मार्ग  (अर्थात जरथुस्ट्रियन या पारसी मार्ग) कहलाता है, उसके अनुसार, इसी सिद्ध शरीर को अहुरा मज़्दा शरीर भी कहा जा सकता है I

परकाया प्रवेश मार्ग से प्राप्त हुए मेरे इस जन्म के कुल का नाता उसी शाकद्वीप से है, और यह पंथ शाकद्वीपीय सौर्य सारस्वत ब्राह्मणों का ही है I सौर्य सारस्वत ब्राह्मण वह होते हैं, जो सूर्य (अर्थात तेज और अग्नि) के उपासक होते हैं और इन ब्राह्मणों के कुल वंश से ही पारसी पंथ (अर्थात जोरास्ट्रियन मार्ग) का उदय हुआ था I लेकिन जैसे-जैसे अरब से आने वाले आक्रमणकारियों ने शाकद्वीप (अर्थात आज के पश्चिमी अफगानिस्तान से लेकर, ईरान और इराक से थोड़ा आगे तक) को विजय किया, वैसे-वैसे यह शाकद्वीपीय ब्राह्मण, उस समय के शाकद्वीप से भारत की ओर प्रस्थान करने लगे थे और अंततः वह उस समय के भारत खण्ड में ही आ गए थे I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और इस स्वर्ण सिद्धि शरीर की गति के बारे में बताता हूँ…

सौर्य मार्गों में यही सूर्य शरीर भी है I जब यह शरीर ऊपर के चित्र की दशा में साधक के ब्रह्मरंध्र के भीतर के ललाना चक्र में प्रकट होता है, तब यह शरीर कुछ ही समय में सूर्य लोक में प्रवेश कर जाता है I

और सूर्य लोक से यह शरीर आगे का लोकों में जाता है I यही शरीर जब दूसरे लोकों में जाता है, तब इसका वर्ण आदि उन लोकों के समान बदल भी जाता है I इसलिए यह स्वर्णिम सिद्ध शरीर वह सिद्धि है जो असीमित ही होती है और जिसका आलम्बन लेकर साधक समस्त देवादि लोकों में ही गमन करने लगता है I

ऐसे साक्षात्कार से साधक यह भी जानता है, कि इस शरीर पर कोई सीमा अवधि (अर्थात परिसीमन) नहीं लगा हुआ है I

और जब यह शरीर आगे के लोकों में गमन करता है, तब इसी शरीर के भीतर से उन आगे ले लोकों के पृथक-पृथक सिद्ध शरीर भी स्वयं प्रकट होते चले जाते हैं I इसलिए साधक यह भी जान जाता है कि यह सिद्ध शरीर परिपूर्णता को दर्शाता है, अर्थात यह सुनहरा सिद्ध शरीर पूर्ण ब्रह्म का ही द्योतक है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और इस स्वर्ण शरीर का प्रकटीकरण बताता हूँ…

जब साधक रकार मार्ग पर जाकर, राम नाद का साक्षात्कार करके अपने ही स्थूल शरीर के भीतर शक्ति शिव योग को सिद्ध करता है, तब साधक की चेतना वज्रदण्ड चक्र से जाकर, निरालम्ब चक्र पर ही चली जाती है I

ऐसी दशा में वह चेतना अपने साथ अमृत कलश को भी निरालम्ब चक्र पर लेकर जाती है और इस मार्ग में जब वह साधक योग अश्वमेध को सिद्ध करता है, तो ही यह स्वर्ण वर्ण का सिद्ध शरीर साधक के ब्रह्मरंध्र में प्रकट होकर, आकाश की ओर(अर्थात मुक्ति की ओर या गंतव्य की ओर) देखता रहता है I

यही मार्ग इस सुनहरे सिद्ध शरीर की प्रकटिकरण प्रक्रिया है, और प्रकट होकर यह सिद्ध शरीर ब्रह्मरंध्र के भीतर के बत्तीस दल कमल में ही विराजमान हो जाता है I ऐसा साधक हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग सिद्धि को भी पा लेता है I

और क्यूंकि ब्रह्माणी विद्या कैवल्य मोक्ष को ही दर्शाती है, इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी योग शरीर (अर्थात सुनहरा शरीर) का सिद्ध साधक, काया धारी होता हुआ भी “स्वयं ही मुक्तिमार्ग और स्वयं ही कैवल्य मुक्ति” भी कहलाया जाता है I यही इस शरीर की गंतव्य महिमा भी है I  लेकिन उस साधक ने इस गंतव्य दशा को धारण करा हुआ है अथवा नहीं, यह तो वह साधक ही जानता होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ और इस स्वर्णिम शरीर के बारे में एक और बिंदु को बताता हूँ…

जब यह स्वर्ण शरीर साधक की काया के भीतर स्वयं प्रकट होता है, तब इसकी स्थिति साधक की काया के दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिम्ब स्वरूप में ही होती है I

इसका अर्थ हुआ कि जैसे हम अपने प्रथ्बिम्ब को किसी दर्पण में देखते हैं, वैसे ही यह सिद्ध शरीर, स्थूल काया की तुलना में होता है I

और क्यूंकि इस सुनहरे सिद्ध शरीर के साक्षात्कार में, वह सिद्ध शरीर स्थूल काया के किसी दर्पण में दिखाई देते हुए प्रतिबिम्ब स्वरूप में ही होता है, इसलिए यह सिद्ध शरीर साधक के स्थूल शरीर की ओर ही मुख करके पद्मासन में बैठा हुआ होता है और ऐसी दशा में वह स्वर्णिम सिद्ध शरीर, साधक की ओर मुख किया हुआ भी आकाश की ओर देखता हुआ ही पाया जाता है I

ऐसा इसलिए पाया जाता है, क्यूंकि यह शरीर उसी साधक में स्वयंप्रकट होता है, जो गंतव्य मार्गी हुआ है I

जिस साधक की आंतरिक दृष्टि ब्रह्ममार्गी हुई है, उसकी स्थूल काया में ही यह सिद्ध शरीर, उस साधक के ही अन्तर्मुखी ब्रह्ममार्गी चेतना के ज्ञानरूपी दर्पण में दिखाई देते हुए प्रतिबिम्ब स्वरूप में प्रकट होगा I

क्यूंकि बाइबिल नामक ग्रंथ आगम मार्ग से संबद्ध है, इसलिए बाइबिल में कहा गया है, कि…

मानव, ब्रह्म के प्रतिबिम्ब स्वरूप में होते हैं I

 

और यही दशा इस सुनहरे शारीर से साक्षात्कार होती है, जिसमें साधक की काया (जो मानव रूप ही है) वह इस सुनहरी आत्मा (जो साधक की काया के भीतर निवास करते हुए सुनहरे वर्ण के सगुण साकार ब्रह्म ही हैं) उसकी प्रतिबिम्ब रूप में ही पाई जाती है I

और क्यूंकि वह ब्रह्म अपने सगुण साकार स्वरूप में (अर्थात शरीरी स्वरूप में) साधक के भीतर ही निवास कर रहा होता है, इसलिए साधक का शरीर ही उन ब्रह्म का साम्राज्य है I यही कारण है कि बाइबिल में ऐसा भी कहा गया है…

ब्रह्म का साम्राज्य भीतर ही है I

अर्थात ब्रह्म का साम्राज्य साधक की काया के भीतर है I

 

और जहाँ बाइबिल के इस वाक्य का नाता भी इस अध्याय में बताए गए अथर्ववेद 10.2.31 से भी है I

लेकिन उन साम्राज्य के भीतर निवास करते हुए ब्रह्म की राज गद्दी (अर्थात सिंघासन) का वर्णन ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में करा गया है, और जिसको एक पूर्व की अध्यय श्रंखला में बताया गया था, जिसका नाम आंतरिक यज्ञ मार्ग था I

इसलिए, यदि में सत्यता से बताऊं, तो बाइबिल अगमनिगम के भागों को संगृहीत किया हुआ एक ग्रंथ ही है I इस सत्य के सिवा बाइबिल की कोई और सत्ता है भी नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ और इस स्वर्ण सिद्ध शरीर के प्रकटीकरण के समय पर योगी की दशा को बताता हूँ…

यह एक आश्चर्यचकित करने वाला साक्षात्कार है I

इस साक्षात्कार के समय, जबकि योगी के नेत्र तो बंद ही होते हैं, लेकिन ऐसा होने पर भी योगी के दोनों नेत्रों की पुतलियां ऊपर की ओर होती हैं, अर्थात योगी की आंखे बंद होने पर भी, उसके नेत्रों की पुतलियां ऊपर ब्रह्मरंध्र की ओर उठी हुई होती हैं I इसलिए ऐसा समय पर योगी अपने नेत्र बंद करके भी, ब्रह्मरंध्र की ओर ही देख रहा होता है I

और ऐसी दशा में ही उस योगी को उसके अपने ब्रह्मरंध्र के भीतर ही इस स्वर्मिण सगुण साकार (अर्थात शरीरी) अपने ही आत्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है I

 

ऐसे साक्षात्कार में वह योगी जान ही जाता है कि यह साक्षात्कार…

समस्त उत्कर्ष मार्गों की अंतिम दशा है I

अभिमानी देवताओं और उनके के मार्गों का अंत है I

निर्गुण निराकार ब्रह्म की ओर जाने के मार्ग का प्रारम्भ है I

और उन निर्गुण ब्रह्म का मार्ग भी, शून्य ब्रह्म से ही होकर जाता है I

 

और इस साक्षात्कार के पश्चात, वह योगी यह भी जान ही जाता है कि…

अब वह रहे या न रहे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि वह उस योगशिखर को पाया है, जो रचनातीत ब्रह्म है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

त्रिशंकु की दशा को पार करने के पश्चात, …

एक सौ एक आंतरिक अश्वमेध पूर्ण करने के पश्चात, वह योगी अपनी पूर्व की त्रिसंकु नामक दशा में भी नहीं रह पाता है I

इसलिए इस अध्याय में बताया गया एक सौ एकवां योग अश्वमेध, ऐसे योगी को उसकी पूर्व की त्रिसंकु की दशा से परे लेकर चला जाता है I

वैसे तो त्रिशंकु की दशा में आने के पश्चात, इस दशा को पार करने के लिए योगीजनों को कई ब्रह्म कल्प ही लग जाते हैं, और कई योगीजन तो इसको पार करने लिए कई महाकल्प तक का समय ही लगा देते हैं, लेकिन मैंने इस दशा को इसी महायुग में प्राप्त भी किया और और इसी महायुग में पार भी कर लिया I

ऐसा करने के मूल कारण में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का दिया हुआ मार्ग ही था जिसको उस पूर्व के अध्याय में बताया गया था, जिसका नाम वज्रदण्ड और निरालम्ब स्थान भी था I

और इसी दशा को पार करने पर मेरे उस पूर्व जन्म के मनस पिता, जिनके नाम ब्रह्मर्षि क्रतु भी था, उनका आदेश भी पूर्ण हुआ था I ब्रह्मर्षि क्रतु ने अपने सभी मनस पुत्रों को कहा था, कि जबतक तुम सब के सब, एक-एक करके योग अश्वमेध हो एक सौ एक बार पार नहीं कर लेते, तबतक तुम्हारी गति गंतव्य तक नहीं जाएगी I

और जब तुम इस आंतरिक अश्वमेध को एक सौ एकवी बार पार करोगे, तब ही तुम ब्रह्मत्व को प्राप्त होकर, कैवल्य मोक्ष को जा पाओगे I और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक तुम सब प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होकर, किसी न किसी जीव रूप में ही आते जाते रहोगे I इसलिए इस जन्म के योग अश्वमेध में यह योगभ्रष्ट की दशा भी पार हुई है I

और इस सिद्धि के पस्चात, जो शेष बचा था, वह भगवान बुद्ध की गुरुदक्षिणा ही थी I और इसी गुरुदक्षिणा की पूर्ती हेतु यह ग्रंथ लिखा जा रहा है, इसलिए इस ग्रंथ के पूर्ण होते ही, मैं गंतव्य में स्थापित हो सकता हूँ, लेकिन ऐसा भी तब ही हो पाएगा यदि परमशिव अथवा माँ आदि पराशक्ति मुझे इस जन्म की समय सीमा के लिए कोई और कार्य न सौपें I वैसे भी अबतक के और इस महायुग के समस्त जन्म माँ आदि पराशक्ति के कार्यों के लिए ही तो हुए हैं I लेकिन इतना तो है ही कि इस समस्त महाब्रह्माण्ड में और जीव रूप में यह मेरा अंतिम जन्म ही होगा क्यूंकि इसके पश्चात, न तो मैं परकाया प्रवेश प्रक्रिया से और न ही प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति  से और न ही किसी और विधा से ही लौट पाऊंगा I

ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह एक सौ एकवां आंतरिक अश्वमेध, पिण्डातीत सिद्धि सहित, योगी की ब्रह्माण्डातीत दशा कभी द्योतक होता है I

तो इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ, और अब अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसमें वासुकी नाग, योग आदिशेष, ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा और अन्य कई बिंदुओं और उनकी कुछ विशिष्ट सिद्धियों पर भी बात होगी I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

 

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