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यहाँ पर आकाश महाभूत पर बात होगी जो ईशान ब्रह्म से संबंधित होता है I और यहाँ पर कई और बिंदुओं पर भी बात होगी जैसे शब्द महाभूत, तन्मात्र, महाभूत सिद्धि, तन्मात्र सिद्धि, आकाश ब्रह्म, शब्द ब्रह्म, आकाश सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डातीत सिद्धि, ब्रह्म आयुर्वेद, ब्रह्माण्ड आयुर्वेद, चिकित्सा बुद्ध, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेद, ब्रह्म चिकित्सा सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय चिकित्सा सिद्ध शरीर, ब्रह्म चिकित्सक सिद्धि और ब्रह्माण्डीय चिकित्सक सिद्धि I इस अध्याय में नील मणि शरीर (नील मणि सिद्ध शरीर) और नील रत्न शरीर (नील रत्न सिद्ध शरीर) पर भी बात होगी I

जिस समय मैं यह लिख रहा हूँ, उस समय मैं इस अध्याय में बताई गई सिद्धियों का धारक नहीं रहा हूँ I पूर्व में था, लेकिन अब इस दशा को पार कर लिया है I इसकी सिद्धियों का त्याग करके ही इस अध्याय से आगे गया था I

वैसे यहाँ जो त्याग शब्द का प्रयोग हुआ है, उसमें साधक उसके सिद्ध शरीर को उस सिद्धि के मूल कारण में ही समर्पण कर देता है I और ऐसा करते ही वो सगुण साकार सिद्धि शरीर उसके मूल कारण में विलीन होकर, उसके मूल कारण के सामान ही सगुण निराकार हो जाता है I ऐसा मेरे कई सिद्ध शरीर के साथ हुआ है, इसलिए यहाँ बताया गया सिद्ध शरीर वो एकमात्र सिद्धि नहीं है, जो ऐसी हुई थी I

जब योगी किसी सिद्धि को उसके मूल कारण में समर्पण कर देता हैं, तब वो सिद्धि उसका मूल कारण ही हो जाती है I इसमें जबकि वो सिद्धि उस योगी के पास नहीं रहती, लेकिन तब भी वो उस योगी की ही होती है, और वो भी उस सिद्धि के निराकारी स्वरूप में I

ऐसा ही उन सभी सिद्धियों (और उनके सिद्ध शरीरों) के साथ हुआ था, जिनको उनके ही ब्रह्माण्डीय मूल कारणों में समर्पण किया गया था I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011-2012 का है I पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं ।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तेईसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का नौवाँ अध्याय है I

 

आकाश महाभूत, आकाश भूत
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ऊपर का चित्र आकाश महाभूत की उस दशा का है, जब उसका साक्षात्कार हिरण्यगर्भ ब्रह्म में बसकर किया जाता है I

हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही सद्योजात ब्रह्म कहलाते हैं I

ऐसी दशा में ऐसा प्रतीत होता है जैसे आकाश को हिरण्यगर्भ ब्रह्म ने घेरा हुआ है I और इसके साथ साथ, उसी आकाश के भीतर भी हिरण्यगर्भ के कुछ अंश दिखाई देते हैं I

जिस दशा में बसकर, किसी और दशा का साक्षात्कार होता है, तब उसी दशा के अंश भी उस साक्षात्कार में पाए जाते हैं I

जबकि यहाँ दर्शाए गए चित्र में, आकाश महाभूत का साक्षात्कार सद्योजात ब्रह्म में बसकर ही हुआ था, लेकिन इस आकाश के एक ओर, नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म भी थे I और यही दशा ऊपर का चित्र भी दिखा रहा है I

जैसे अन्य किसी अध्याय में बताया है, कि आकाश का साक्षात्कार सर्वप्रथम अघोर ब्रह्म से ही हुआ था, इसलिए यह बिन्दु भी यहाँ पुनः बताया जा रहा है I

 

आकाश महाभूत का साक्षात्कार, आकाश महाभूत साक्षात्कार आकाश और ईशान ब्रह्म, आकाश और सदाशिव का ईशान मुख, आकाश और शिव का ईशान मुख,  … ब्रह्माण्ड के भीतर आकाश की स्तिथि, ब्रह्माण्ड के भीतर का आकाश, आकाश की ब्रह्माण्ड से परे की स्तिथि, ब्रह्माण्ड के बाहर का आकाश, आकाश की ब्रह्माण्डतीत दशा, आकाश की ब्रह्माण्डीय दशा, आकाश की शून्य तत्त्व में स्तिथि, शून्य के भीतर का आकाश, … ब्रह्माण्डीय आकाश, ब्रह्माण्डतीत आकाश, शून्य का आकाश, …

आकाश महाभूत ईशान का महाभूत और तत्त्व है I और क्यूँकि ईशान ब्रह्म सर्वव्यापक सत्ता ही हैं, इसलिए आकाश भी सर्वव्याप्त ही है I

जैसे जो होगा, वैसे ही उससे संबद्ध तत्त्व भी होगा I

और क्यूंकि ईशान ब्रह्म ही सदाशिव का ईशान मुख (या शिव का ईशान मुख) हैं, इसलिए आकाश महाभूत का संबंध सदाशिव के ईशान मुख (या शिव का ईशान मुख) से भी है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और आकाश महाभूत के साक्षात्कार को बताता हूँ…

  • ब्रह्माण्ड के भीतर बसकर आकाश का साक्षात्कार, … यदि आकाश महाभूत को ब्रह्माण्ड के भीतर से साक्षात्कार किया जाएगा, तो वो सूक्ष्म बैंगनी (अर्थात violet, वायलेट) रंग का पाया जाएगा, और यही दशा ऊपर के चित्र के मध्य में बसे हुए आकाश महाभूत की भी दिखाई गई है I
  • ब्रह्माण्ड से परे जाकर आकाश का साक्षात्कार, … और यदि उसी आकाश को ब्रह्माण्ड से परे जाकर देखा जाएगा, तो बैंगनी वर्ण के आकाश को उसी दशा ने घेरा होगा, जिसमें बसकर यह साक्षात्कार किया जाएगा I और उसी दशा के बिन्दु आकाश में भी बसे हुए पाए जाएंगे I जीव जगत के दृष्टिकोण से, यही आकाश का अंतिम साक्षात्कार है I
  • शून्य से आकाश का साक्षात्कार, … यदि शून्य में बसकर आकाश का साक्षात्कार किया जाएगा, तो वो आकाश रात्रि के समान शून्य सा ही प्रतीत होगा I प्रकृति के दृष्टिकोण से यही आकाश का अंतिम साक्षात्कार है I
  • शून्य ब्रह्म में आकाश का साक्षात्कार, … यदि शून्य ब्रह्म से आकाश का साक्षात्कार होगा, तो वो आकाश रात्रि रूपी शून्य के सामान होता हुआ भी, अनंत ही होगा, और वैसा ही होगा जैसे शून्य ब्रह्म हैं I ब्रह्म रचना के दृष्टिकोण से, यही आकाश की अंतिम अवस्था है I नासदीय सूक्त में, आकाश की यही दशा को अन्धकार ही अन्धकार को घेरा हुआ… ऐसा कहा गया है I
  • ईशान ब्रह्म से आकाश महाभूत साक्षात्कार, निर्गुण ब्रह्म से आकाश महाभूत साक्षात्कार, … जब चेतना निर्गुण ब्रह्म में ही स्थापित होती है, तब ऐसी दशा में वो पूर्व का बैंगनी आदि वर्णों का आकाश भी उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के समान निरंग ही होता है I आकाश साक्षात्कार में, यही आकाश की गंतव्य अवस्था है I नासदीय सूक्त में, आकाश की इसी दशा को जल शब्द से सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही… लेकिन बताया गया है I

 

आकाश सिद्ध शरीर, आकाश महाभूत सिद्ध शरीर, आकाश सिद्धि, आकाश महाभूत सिद्धि, … आकाश हिरण्यगर्भ योग शरीर, आकाश हिरण्यगर्भ ब्रह्म योग शरीर, आकाश और सदाशिव के तत्पुरुष मुख का योग शरीर, आकाश सद्योजात योग शरीर, आकाश सद्योजात ब्रह्म योग शरीर, नील रत्न शरीर क्या है, नील रत्न सिद्ध शरीर, नील रत्न सिद्ध शरीर क्या है, नील रत्न शरीर,नील मणि शरी, नील मणि शरीर क्या है, नील मणि सिद्ध शरीर, नील मणि सिद्ध शरीर क्या है, …

आकाश सिद्ध शरीर प्रधान सिद्धि भी होती है, और नहीं भी होती है I

यह सिद्ध शरीर प्रधान इसलिए होता है, क्यूंकि यह साधक की आकाश महाभूत सिद्धि को दर्शाता है, जिससे साधक सीधा-सीधा ईशान ब्रह्म (अर्थात सदाशिव के ईशान मुख) में लीन होकर, कैवल्य मुक्ति को प्राप्त होता है I

और इसके साथ साथ यह प्रधान सिद्धि इसलिए नहीं होती है, क्यूंकि यह सिद्ध शरीर और बहुत सारी सिद्धियों और दशाओं की सिद्धि का कारण और कारक भी होता है, जो ब्रह्माण्ड की किसी न किसी अवस्था से जुडी हुई होती हैं I

इसलिए यह सिद्ध शरीर प्रधान सिद्धि भी है… और नहीं भी है I

अध्याय के इस भाग के कई सारे उप-भाग होंगे I

तो अब इन उप-भागों को एक-एक करके बताती हूँ …

 

  • मन और आकाश, आकाश और मन, … आकाश महाभूत का उदय, आकाश महाभूत का स्वयं उदय, … आकाश ब्रह्म, शब्द ब्रह्म, … आकाश प्रकृति का अंग है, आकाश प्रकृति का अंग है और नहीं भी है, …

यहाँ जो स्वयं उदय शब्द कहा गया है, वो ब्रह्माण्ड की रचना से पूर्व की दशा को दर्शाता है I इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्माण्ड के भीतर बसकर, आकाश महाभूत की वास्तविक आयु की गणना नहीं करी जा सकती है, क्यूंकि आकाश का स्वयं उदय तो ब्रह्माण्ड के उदय से भी पूर्व में ही हुआ था I

और यही कारण है कि आकाश महाभूत भी सनातन शब्द का ही द्योतक है I

और यह भी वो कारण है, कि पञ्च महाभूतों के दृष्टिकोण से आकाश महाभूत भी उन ब्रह्म का ही द्योतक है, जो तब भी थे जब न तो कोई जीव था और न ही जगत ही था I इसीलिए वेद मनिषियों ने आकाश ब्रह्म नामक वाक्य भी कहा था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

आकाश का गुण शब्द है और यही कारण है कि आकाश के तन्मात्र को शब्द कहा गया था I

शब्द का स्वयं उदय भी ब्रह्माण्ड के उदय से पूर्व में ही हुआ था, और तब हुआ था जब काल का चक्र स्वरूप था ही नहीं, क्यूंकि ऐसी दशा में काल अपने गंतव्य सनातन का ही द्योतक था I

और इसलिए शब्द भी उन सनातन ब्राह्मण का ही द्योतक है, जो तब भी थे जब न कोई जीव था और न ही जगत ही था I इसीलिए वेद मनीषियों ने शब्द ब्रह्म, ऐसा कहा था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सूर्य की आकाश गंगा में गति और दशा ही प्रमुख होती है I

और इसी दशा को देखकर यह जाना जाता है कि इस लोक में, किस समय पर पञ्चब्रह्म में कौन से ब्रह्म प्रधान हैं I इसीलिए इस गति और स्तिथि के अनुसार ही पञ्चब्रह्म मैं से, उस समय के प्रधान ब्रह्म को जाना जाता है I

इस आकाश गंगा में, जबकि सूर्य का स्वयं उदय पूर्वी ब्रह्म, सद्योजात से ही हुआ था, लेकिन इस उदय के पश्चात सूर्य आकाश गंगा में अपने सूर्य स्वरूप में दिखाई नहीं दिया था I

ऐसा इसलिए था, क्यूंकि सद्योजात से स्वयं उदय के पश्चात, सूर्य आकाश गंगा के मध्य भाग में ही गमन कर रहा था, इसलिए स्वयं उदय के पश्चात, वो सूर्य मध्य भाग से बाहर नहीं निकला था I

और जब इस अप्रदक्षिणा पथ पर गति करता सूर्य, उत्तर दिशा के तत्पुरुष ब्रह्म पर पहुँच गया था, तब ही वो आकाश गंगा के मध्य भाग से बाहर निकला था, और इस पृथ्वी लोक के सूर्य स्वरूप में आया था I

इसीलिए कुछ योगीजनों ने कहा था, कि सूर्य का प्रादुर्भाव उत्तर दिशा में ही हुआ था, अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म से ही हुआ था और कुछ ने सद्योजात ब्रह्म पर सूर्य के उदय को बताया था I

सूर्य के प्रादुर्भाव से जो उत्तर दिशा में हुआ था, आज सूर्य की स्थिति 179 डिग्री पर है और इसीलिए आज के समय खंड में सूर्य दक्षिण वाले ब्रह्म, अर्थात अघोर में ही हैं I

और इसीलिए यह भी वो कारण है कि अभी की दशा में, इस पृथ्वी लोक के लिए, नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म ही प्रधान ब्रह्म हैं I

ऐसा होने के कारण, इस लोक में प्राणियों के मन का मूल वर्ण भी अघोर ब्रह्म के समान नीला ही हैं I और ऐसा तब भी है, जब मन का नाता वामदेव ब्रह्म से ही है, इसलिए मन सत्त्वगुणी (अर्थात श्वेत वर्ण का) ही होता है I

क्यूंकि सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिंदुओं में से मन ही प्रधान बिंदु होता है, इसलिए इस लोक के प्राणियों का सूक्ष्म शरीर भी नीले वर्ण का ही होता है I

और यह भी वो कारण है कि सूक्ष्म शरीर का वर्ण भी नीला ही होता है, क्यूंकि इस शरीर के उन्निस भागों में मनोमय कोष ही प्रधान कोष होता है जो इस लोक के सूर्य की आज की स्थिति के कारण, नीला ही है I यह दशा पूर्व के एक अध्याय, जिसका नाम सूक्ष्म शरीर गमन था, उसमें भी बताई गई थी I

और इसके अतिरिक्त, ईशान ब्रह्म के महाभूत, अर्थात आकाश महाभूत का साक्षात्कार भी सर्वप्रथम अघोर ब्रह्म में ही हुआ था, और इसी दशा को पूर्व के एक अध्याय, जिसका नाम अघोर ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का अघोर मुख) था, उसके एक चित्र में भी दिखाया गया था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस लोक के प्राणियों का मन प्रधानतः नील वर्ण का होने के कारण, तमोगुणी ही होता है I ऐसा कहने का कारण यह है कि यह वर्ण तमोगुण को ही दर्शाता है I

क्यूंकि तमोगुण में ही यह जीव जगत बसाया गया था, इसलिए जब साधक की चेतना उस उत्कर्ष पथ पर जाती है जिससे वो कैवल्य मोक्ष को पाती है, तब भी सर्वप्रथम इसी नीले वर्ण का ही साक्षात्कार होता है और वो भी अघोर मुख के स्वरूप में I

लेकिन क्यूंकि नीले वर्ण के तमोगुण से लाल वर्ण का रजोगुण सूक्ष्म होता है, इसलिए वो रजोगुण का लाल रंग, नीले वर्ण के तमोगुण के भीतर से ही गमन करता है I यही दशा सदाशिव के अघोर मुख (अर्थात अघोर ब्रह्म) के आधाय के चित्रों में भी दिखाई गई थी I

ऐसा होने के कारण, यदि रजोगुण को इस ब्रह्माण्ड में आना है, तो उसको तमोगुण से होकर ही आना होगा और ऐसा होने के कारण, वो रजोगुण भी बहुत अधिक प्रतिशत तक अपने से विपरीत गुण, अर्थात तमोगुण में ही समा जाता है I

ऐसा होने के कारण, उस नीले वर्ण के तमोगुण में लाल वर्ण के बिंदु भी दिखाई देने लगते हैं, और यह दशा भी अघोर ब्रह्म के अध्याय के चित्रों में दिखाई गई थी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब लाल वर्ण के रजोगुण का योग नीले वर्ण के तमोगुण से होता है, तब जिस महाभूत का स्वयं उदय होता है, वो बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत है I

इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्म रचना में, नीले वर्ण के तमोगुण और लाल वर्ण के रजोगुण के योग से ही बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का स्वयं उदय हुआ था I

क्यूंकि त्रिगुण, ब्रह्माण्डीय प्रकृति के चौबीस तत्त्वों के अंग होते हुए भी, नहीं होते हैं, इसलिए ब्रह्माण्डीय प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में त्रिगुण नहीं बताए जाते हैं I

और क्यूँकि आकाश महाभूत का स्वयं उदय तमोगुण और रजोगुण के योग से ही हुआ था, इसलिए जबकि आकाश महाभूत प्रकृति का ही अंग है, लेकिन अपने स्वयं उदय के दृष्टिकोण से आकाश ब्रह्माण्ड से परे ही है I ऐसा कहने का कारण है, की त्रिगुण प्रकृति के अंग होने पर भी, प्रकृति के तत्त्वों के भाग नहीं होते, इसलिए ब्रह्माण्ड के अंग नहीं होते I

यह भी वो कारण है कि कुछ मार्ग आकाश को प्रकृति से परिकरों से जोड़कर देखते हैं और कुछ मार्ग आकाश को प्रकृति का परिकर ही नहीं मानते हैं I और ऐसे नहीं मानने वाले मार्ग, महाभूतों की संख्या को भी पांच नहीं मानते हैं (अर्थात वो चार महाभूत ही मानते हैं) I

लेकिन वास्तव में आकाश अपने महाभूत स्वरूप में तो प्रकृति का अंग ही है, क्यूंकि त्रिगुण भी तो ब्रह्माण्डातीत प्रकृति के ही अंग होते हैं I

लेकिन ऐसा होने पर भी, क्यूंकि त्रिगुणों को प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में नहीं रखा गया था, इसलिए कुछ मार्ग कहते हैं कि आकाश प्रकृति के पाँच परिकर का अंग ही नहीं है…, पर त्रिगुण का प्रकृति के अभिन्न अंग होने के कारण, ऐसा मत उचित नहीं है I

इसलिए आकाश महाभूत प्रकृति का ही परिकर है, और ऐसा होने के कारण आकाश प्रकृति के पञ्च परिकर में से एक ही है I

ब्रह्म की रचना में स्वयं उदय के दृष्टिकोण से आकाश सांख्य के चौबीस तत्त्वों से परे ही है I और उदय के पश्चात की दशा से आकाश सांख्य के चौबीस तत्त्वों का भाग ही है I

 

  • आकाश सिद्धि का महत्त्व, आकाश शरीर का महत्त्व, … जीवातीत सिद्धि, जागतातीत सिद्धि, जीवातीत, जागतातीत, …

आकाश तब भी था जब न जीवों का और न ही जगत का उदय हुआ था, इसलिए आकाश सिद्धि और उस सिद्धि का आकाश शरीर, जीवातीत और जागतातीत सिद्धियों का मार्ग भी है I

आकाश महाभूत का सिद्ध शरीर जीवातीत और जागतातीत सिद्धि तक लेके जाता है, जिसके कारण यह आकाश सिद्धि एक उत्कृष्ट सिद्धि ही है I

आकाश वो महाभूत भी है, जिसकी सिद्धि गंतव्य मार्ग भी है, क्यूंकि आकाश प्रकृति के चौबीस तत्त्वों का अंग है भी, और नहीं भी है I

अपने बैंगनी वर्ण में आकाश महाभूत, सांख्य के चौबीस तत्त्वों का अंग है I और इस बैंगनी वर्ण से पूर्व की दशाओं में आकाश महाभूत, प्रकृति का अंग नहीं भी है I

जब जीव जगत नहीं था, तब प्रकृति अपने शून्य स्वरूप में थी, और जहाँ वो शून्य भी रात्रि के समान ही था I

यह शून्य ही प्रकृति की वो दशा है, जो जीव जगत से उदय के पूर्व में थी I

और क्यूंकि इसी शून्य से और इसी शून्य के भीतर ही जीव जगत का स्वयं उदय हुआ था, इसलिए शून्य ही वो प्रकृति है, जो इस जीव जगत का मूल स्वरूप है I इसी को कृष्ण वर्ण कहा जाता है, जिसका अर्थ काला ही होता है I इसलिए, प्रकृति का शून्य स्वरूप ही कृष्ण वर्ण है और उस कृष्ण वर्ण का सगुण साकार स्वरूप ही, भगवान् कृष्ण हैं I मुझे पता है, कि आज के वैष्णवों को यह बात बिलकुल नहीं भाएगी, लेकिन जो सत्य है, उसको देर-सवेर बता ही देना चाहिए I

जैसा पूर्व में बताया था, कि शून्य तत्त्व में आकाश उस शून्य जैसे रात्रि के समान ही होता है I और क्यूंकि शून्य से ही जीव जगत का उदय हुआ था, इसलिए ऐसा ओने के कारण, आकाश जीवातीत और जागतातीत ही है I

और वही आकाश निर्गुण ब्रह्म में उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के समान ही निर्गुण होता है I और ऐसा होने के कारण, आकाश शून्यतीत भी है और परमसत्ता का द्योतक भी है I

और ऐसे होने के पश्चात भी, जब ब्रह्माण्ड में बैंगनी वर्ण के आकाश का स्वयं उदय होता है, तब इस दशा में वही आकाश अपने भूत स्वरूप में, प्रकृति के चौबीस तत्त्वों का अभिन्न अंग ही है I

और ऐसा होने के कारण, इस आकाश शरीर के कई सारे स्वरूप भी होते हैं, जिनमें से कुछ का वर्णन यहाँ पर करा जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऊपर बताए गए कारणों से, आकाश महाभूत की सिद्धि और उसका आकाश शरीर एक महत्वपूर्ण सिद्धि ही है I

और क्यूंकि आकाश में ही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा बसी हुई है, इसलिए यह शरीर शाक्त मार्ग का अंग भी है I

लेकिन इस सिद्धि के गंतव्य में, वो माँ शक्ति भी शैव ही होती है I इसलिए आकाश शरीर सिद्धि का मार्ग, दिखता तो शाक्त है, लेकिन होता है शैव, अर्थात होता सर्वकल्याणकारी मार्ग ही है I

 

  • आकाश शरीर और नील मणि शरीर का मूल, आकाश सिद्ध शरीर और नील मणि सिद्ध शरीर का मूल, आकाश शरीर का मूल, नील मणि शरीर का मूल, … आकाश सिद्ध शरीर और नील मणि सिद्ध शरीर का मूल,शक्ति शिव योग शरीर, शिव शक्ति योग शरीर, समंतभद्र समंतभद्र योग शरीर, समंतभद्र समंतभद्र योग शरीर, समंतभद्री समंतभद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, … प्राणमय मनोमय योग, मनोमय प्राणमय योग, प्राणमय मनोमय कोष योग शरीर, मनोमय प्राणमय कोष योग शरीर, प्राणमय कोष मनोमय कोष योग शरीर, मनोमय कोष प्राणमय कोष योग शरीर, प्राणमय मनोमय सिद्ध शरीर, मनोमय प्राणमय सिद्ध शरीर, प्राणमय मनोमय योग शरीर, मनोमय प्राणमय योग शरीर, …

इस भाग में इन शब्दों के कुछ ही स्वरूप दर्शाए गए हैं, सभी नहीं I इसलिए इसी सिद्धि के कुछ और स्वरूप एक बाद के अध्याय में बताए जाएंगे, जब रकार मार्ग पर बात होगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

पूर्व में बताया था कि सूर्य की गति के अनुसार ही मन का वर्ण होता है I

और क्यूँकि अभी की दशा में, सूर्य सदाशिव के अघोर मुख (अर्थात अघोर नामक ब्रह्म) पर ही है, इसलिए इस समय पर मन का मूल वर्ण अघोर के सामान नीला ही है I और ऐसा तब भी है, जब मन वास्तव में सदाशिव के सद्योजात मुख (अर्थात वामदेव नामक ब्रह्म) का ही अंग होता है I

जब नीले वर्ण का मन, समता को प्राप्त हुए प्राणों (अर्थात हीरे के समान प्रकाश को धारण किए हुए प्राणों) से योग करता है, तब ऐसी दशा में नीले वर्ण के मन के भीतर, एक श्वेत वर्ण का प्रकाश स्वयं प्रकट होता है I और ऐसी दशा में जो सिद्ध शरीर के स्वयं प्रादुर्भाव होता है, उसे ही नीचे के चित्र में दिखाया गया है I

शक्ति शिव योग शरीर, शिव शक्ति योग शरीर
आकाश शरीर और नील मणि शरीर का मूल, आकाश सिद्ध शरीर और नील मणि सिद्ध शरीर का मूल, आकाश शरीर का मूल, नील मणि शरीर का मूल, आकाश सिद्ध शरीर और नील मणि सिद्ध शरीर का मूल, शक्ति शिव योग शरीर, शिव शक्ति योग शरीर, समंतभद्र समंतभद्र योग शरीर, समंतभद्र समंतभद्र योग शरीर, समंतभद्री समंतभद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, प्राणमय मनोमय योग, मनोमय प्राणमय योग, प्राणमय मनोमय कोष योग शरीर, मनोमय प्राणमय कोष योग शरीर, प्राणमय कोष मनोमय कोष योग शरीर, मनोमय कोष प्राणमय कोष योग शरीर, प्राणमय मनोमय सिद्ध शरीर, मनोमय प्राणमय सिद्ध शरीर, प्राणमय मनोमय योग शरीर, मनोमय प्राणमय योग शरीर,

 

यह सिद्ध शरीर बाहर से नीले वर्ण का होता है और भीतर से हीरे के समान श्वेत प्रकाश को धारण किया हुआ होता है I

इस सिद्ध शरीर को शक्ति शिव योग शरीर भी कहा जा सकता है I

और इसी सिद्ध शरीर को समंतभद्री समंतभद्र योग शरीर भी कहा जा सकता है I और पञ्च कोष के दृष्टिकोण से, इसी सिद्ध शरीर को प्राणमय मनोमय कोष योग शरीर भी कहा जा सकता है I

और यही शरीर, आकाश सिद्धि और आकाश सिद्ध शरीर की प्राप्ति का मूल भी होता है I

इसलिए, आकाश सिद्धि के मूल में, यही शिव शक्ति सिद्ध शरीर है I और इसी आकाश सिद्धि के गंतव्य में भी, यही शक्ति शिव सिद्ध शरीर ही है I

तो अब इस बात को आधार बनाके आगे बढ़ता हूँ …

 

  • नील मणि शारीर का वर्णन, आकाश सिद्ध शरीर की प्राथमिक दशा, आकाश सिद्धि शरीर की प्रथम दशा, नील मणि शरीर, नील मणि सिद्ध शरीर, … ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य शरीर, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य, चिकित्सा बुद्ध सिद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय चिकित्सा सिद्ध शरीर, आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर, … चिकित्सा बुद्ध सिद्धि, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्धि, …

 

नील मणि शारीर, नील मणि सिद्ध शरीर
नील मणि शारीर का वर्णन, आकाश सिद्ध शरीर की प्राथमिक दशा, आकाश सिद्धि शरीर की प्रथम दशा, नील मणि शरीर, नील मणि सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य शरीर, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य, चिकित्सा बुद्ध सिद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय चिकित्सा सिद्ध शरीर, आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर, चिकित्सा बुद्ध सिद्धि, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्धि,

 

ऊपर दिखाया गया चित्र आकाश शरीर का है, जो नील मणि के समान होता है I यहाँ दिखाया गया सिद्ध शरीर, आकाश शरीर नामक सिद्धि की प्रथम दशा को दर्शाता है I

जब नीले वर्ण का तमोगुणी मन, समतावादी (अर्थात हीरे के समान प्रकाशमान) प्राणों से योग करता है, तो उसे मनोमय प्राणमय योग कहा जाता है I

इसी को मनोमय कोष प्राणमय कोष योग भी कहा जा सकता है I इस योग में मनोमय कोष नील वर्ण का होता है, और प्राणमय कोष हीरे के समान प्रकाश का होता है I इसी को शिव शक्ति योग भी कहा जा सकता है, क्यूंकि इस योग में मन ही शिव स्वरूप और प्राण ही शक्ति स्वरूप होते हैं I तिब्बती बौद्ध पंथ में, इसी योग को समंतभद्र समंतभद्री योग कहा जाता है I

जब यह योग साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही होता है, तो इस योग से एक हलके नीले वर्ण का शरीर स्वयं प्रकट होता है I

और इस हलके नीले सिद्ध शरीर के स्वयं प्रकट होने के पश्चात, जब यही शरीर बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत में बसकर, आकाश से ही योग करता है, तब जो शरीर स्वयं प्रकट होता है, उसे ही यहाँ पर नील मणि सिद्ध शरीर (और नील रत्न  सिद्ध शरीर) कहा गया है I

इस भाग में बताए गए नील मणि शरीर के स्वयं प्रादुर्भाव का यही मार्ग है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह नील मणि शरीर, एक प्रकाशित हलके नीले मणि के समान होता है I

यदि इस नील मणि सिद्ध शरीर को इसके बाहर से देखोगे, तो वो बहुत ही चिकना सा देखेगा, जैसे किसी मणि को घिस घिसकर (या रोगन करके) बहुत चिकना और चमकदार बना दिया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह शरीर ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य नामक सिद्धि को भी दर्शाता है, जिसके कारण इसको ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर और चिकित्सा बुद्ध शरीर भी कहा जा सकता है I

और इस शरीर के धारक के ऐसे कर्मों दशा में यही शरीर अहम् विशुद्धि का मार्ग भी हो जाता है, जिससे साधक अंततः उस विशुद्ध अहम् को पाता है, जो ब्रह्म कहलाता है, और जिसको सांकेतिक रूप में यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि के द्वारा भी दर्शाया जाता है I

 

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    , …

जब नील मणि शरीर को मनोमय कोष में बसकर देखा जाएगा, तब यह शरीर जैसा पाया जाएगा, उसको ही नीचे के चित्र में दिखाया है I

नील मणि शरीर का मनोमय कोष से योग
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ऐसी दशा में इस नील मणि शरीर को नीले वर्ण के तमोगुण से युक्त, मनोमय कोष ने घेरा हुआ होता है I और इस सपूर्ण दशा को उसी रात्रि के समान शून्य तत्व ने घेरा होता है I ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I

लेकिन इस दशा की सिद्धि तब होती है जब मन वृत्तिहीन होता है (अर्थात मन, ब्रह्म में स्थिर होकर बस ब्रह्मलीन होने को ही होता है) I

यह दशा भी ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य की ही होती है I

ऐसा साधक ब्रह्माण्ड की समस्त विकृतियाँ, जिनके मूल में मानसिक विकृतियाँ ही होती है, उनको विशुद्ध करने के मार्ग का ज्ञाता भी होता है I

यह ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य नामक सिद्धि की एक उत्कृष्ट दशा है I

 

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नील मणि शरीर और ब्रह्म आयुर्वेद
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इस चित्र की दशा में, नील मणि शरीर के भीतर एक हीरे के समान प्रकाशित दशा होती है, और इस नील मणि शरीर को नीले वर्ण के तमोगुण से युक्त मन ने भी घेरा होता हैI और इस पूरी दशा को रात्रि के समान शून्य तत्त्व ने घेरा होता है I और यह नील मणि शरीर की सबसे उत्कृष्ट सिद्धि है I

क्यूंकि नील मणि शरीर के भीतर का हीरे के समान प्रकाश सर्वसमता को दर्शाता है, और क्यूंकि सर्वसमता को जो भी छूएगा, वो भी सर्वसमता को ही प्राप्त हो जाएगा, इसलिए नील मणि के ऐसे स्वरूप के सिद्ध शरीर के धारक योगी को जो भी छूएगा, वो सब अपना पूर्व का स्वरूप खो देगा और अपने भीतर से ही सर्वसमता के मार्ग को चला जाएगा I

और यदि ऐसा योगी चिकित्सा विज्ञान का पथगामी होगा, तो उससे ऊपर कोई भी चिकित्सक नहीं हो पाएगा I इसलिए, यह सिद्धि चिकित्सा विज्ञान का गंतव्य है I

ऐसा योगी ब्रह्म चिकित्सा विज्ञान के गंतव्य को पाएगा और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में ब्रह्म आयुर्वेद के मार्ग का गंतव्य भी कहलायेगा I

यहाँ पर ब्रह्माण्डीय शब्द का नहीं, बल्कि ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है क्यूंकि सर्वसमता ब्रह्मलोक का ही गुण होता है… न कि किसी और लोक का I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब इस शरीर के रंगों का वर्णन करता हूँ …

भीतर का हीरे के समान प्रकाश, … यह ब्रह्मलोक का द्योतक है, जो पुरुषार्थ चतुष्टय के गंतव्य को दर्शाता है I

नील मणि के समान प्रकाश, … यह ब्रह्माण्डीय आयुर्वेद नामक सिद्धि का द्योतक है, इसलिए इसका धारक जीव और जगत के समस्त विकृतियों को दूर करने (या ध्वस्त करने) के मार्ग का भी ज्ञाता होता है I

गाढ़ा नीला वर्ण, … यह वर्ण तमोगुण को दर्शाता है, और इसके अतिरिक्त, यह तमोगुणी मन और अघोर नामक ब्रह्म का भी द्योतक है I इसलिए इस वर्ण का संबंध तमोगुण से युक्त मन सहित, अघोर नामक ब्रह्म से भी है I

और क्यूँकि तमोगुण स्तंभन और स्थिरता का भी वाचक है, इसलिए ऊपर दिखाए गए शरीर का धारक योगी, जीव और जगत की समस्त विकृतियों को स्तंभित करने के मार्ग का भी ज्ञाता होता है I

सबसे बाहर दिखाया गया रात्रि के समान वर्ण, … यह शून्य तत्त्व का द्योतक है, जिसमें से समस्त जीव जगत का स्वयं उदय हुआ था I यह शून्य समाधि का भी द्योतक है, और इस दशा को पाया हुआ साधक शून्य सिद्धि भी होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

तो अब ऊपर के समस्त बिन्दुओं के योग से पाई हुई सिद्धि को बताता हूँ I

जब ऊपर दिखाए गए सिद्ध शरीर का धारक योगी जीव और जगत की विकृतियों को ध्वस्त करेगा, तो वो ऐसे करेगा …

सर्वसमता से वो समस्त विकृतियों को समतावाद की ओर लेके जाके, मन में भेजकर अंततः शुन्य ही कर देगा I

लेकिन यह तो मैंने संकेत में ही बताया है…, न कि इसके वास्तविक मार्ग में I

स उप-भाग में दिखाया गया सिद्ध शरीर, ब्रह्म की रचना में चिकित्सा विज्ञान का गंतव्य शरीर ही है I

 

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नील मणि हिरण्यगर्भ योग शरीर
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ऊपर के चित्र में वो दशा दिखाई गई है, जिसमें नील मणि शरीर के भीतर हिरण्यगर्भ ब्रह्म का स्वर्णिम प्रकाश आ जाता है, और इस शरीर को उसी स्वर्ण वर्ण के प्रकाश ने घेरा भी होता है I लेकिन इस चित्र में स्वर्णिम प्रकाश से घिरी हुई दशा नहीं दिखाई गई है I

यह इस शरीर की वो दशा है, जिसके पश्चात, साधक ब्रह्माण्डीय आयुर्वेद और ब्रह्म आयुर्वेद दोनों सिद्धियों का त्याग करके, ईशान मुख के महाभूत, अर्थात आकाश की सिद्धि और उस आकाश के सिद्ध शरीर को पाता है I

इसलिए ऊपर के चित्र में दिखाई गई दशा, इस नील मणि शरीर की अंतिम दशा भी है, क्यूंकि इस दशा के पश्चात, यह नील मणि शरीर अपने कारण में ही विलीन हो जाता है I

 

  • आकाश सिद्ध शरीर और कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर, आकाश शरीर और कृष्ण पिङ्गल शरीर, … आकाश शरीर का स्वयं उदय, …

पूर्व के अध्याय जिसका नाम कृष्ण पिङ्गल रुद्र था, उसमें कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर (या कृष्ण पिङ्गल शरीर) के बारे में बताया जा चुका है I इस शरीर में पिङ्गल वर्ण को कृष्ण (या नीले) वर्ण ने घेरा हुआ होता है I

जब साधक के पिंड में यह कृष्ण पिङ्गल शरीर का स्वयं उदय होता है और इसके पश्चात, जब यह दोनों वर्णों का आपस में समान रूप में योग हो जाता है, तब जो शरीर स्वयं प्रकट होता है, वो बैंगनी वर्ण का होता है I इसी बैंगनी वर्ण के सिद्ध शरीर को इस अध्याय में आकाश शरीर कहा गया है I

इसका अर्थ तो यह भी हुआ, कि आकाश सिद्ध शरीर के उदय में कृष्ण पिङ्गल रुद्र ही हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि कृष्ण पिङ्गल रुद्र में पिङ्गल वर्ण तत्पुरुष ब्रह्म का है, और नील वर्ण अघोर ब्रह्म का, इसलिए इस आकाश सिद्ध शरीर के मूल में तत्पुरुष नामक ब्रह्म और अघोर नामक ब्रह्म ही हैं I

और क्यूँकि तत्पुरुष ब्रह्म रजोगुणी होते हैं और अघोर ब्रह्म तमोगुणी, इसलिए इस आकाश महाभूत के सिद्ध शरीर के मूल में भी यही दोनों गुण हैं I

तो अब इस बात को आधार बनाके, आगे बढ़ता हूँ …

 

  • आकाश सिद्ध शारीर का स्वयं प्रकटीकरण, … आकाश सिद्ध शरीर का स्वयं उदय, आकाश सिद्ध शरीर, आकाश शरीर, आकाश महाभूत सिद्धि, आकाश सिद्धि, आकाश शरीर सिद्धि, आकाश महाभूत का बैंगनी वर्ण का शरीर, आकाश महाभूत का शरीर,  आकाश महाभूत का सिद्ध शरीर, आकाश महाभूत सिद्धि, …
आकाश महाभूत का सिद्ध शरीर
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आकाश महाभूत बैंगनी वर्ण का होता है, और इसी वर्ण का आकाश महाभूत का सिद्ध शरीर भी होता है I

जब आकाश शरीर स्वयं प्रकट होता है, तब उसकी जो दशा होती है, उसी को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

ऐसी दशा में बैंगनी वर्ण के आकाश शरीर को एक नील वर्ण ने घेरा होता है I यह नील वर्ण मन का द्योतक है, और वो भी उस दशा में जो अभी की है, जिसमें आकाश गंगा में अपनी स्थिति के अनुसार, सूर्य अघोर मुख पर है I

इसलिए, इस चित्र में भीतर दिखाया गया बैंगनी वर्ण, आकाश महाभूत का द्योतक है, और बहार का नील वर्ण, अघोर ब्रह्म का I और यह बहार का नील वर्ण मन और तमोगुण (अर्थात तमोगुणी मन) का भी द्योतक है I

जब मन विशुद्ध होकर, आकाश के समान हो जाता है, तब वो साधक इस सिद्धि की प्राप्ति का पात्र हो पाता है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि तमोगुण समाधी से ही आकाश शरीर का प्राथमिक प्रादुर्भाव होता है I

और इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जबतक साधक की चेतना अघोर ब्रह्म (अर्थात सदाशिव के अघोर मुख) का साक्षात्कार नहीं करती है, तबतक आकाश महाभूत सिद्धि और आकाश महाभूत शरीर की प्राप्ति भी नहीं हो पाती है I

और क्यूंकि ब्रह्माण्डीय आकाश (अर्थात ब्रह्माण्ड के भीतर का आकाश महाभूत) बैंगनी वर्ण का ही होता है, इसलिए ऊपर के चित्र में दिखाया गया सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डातीत अवस्था का द्योतक भी नहीं है I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस बैंगनी वर्ण के आकाश सिद्ध शरीर से ही,  ब्रह्माण्डातीत सिद्धि का मार्ग प्रशश्त होता है I

 

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आकाश सिद्ध शरीर का हिरण्यगर्भ से योग
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ऊपर का सिद्ध शरीर आकाश महाभूत का शरीर है, और वह भी तब जब आकाश महाभूत का योग सद्योजात ब्रह्म के सुनहरे वर्ण के प्रकाश से होता है I इसकी मूल निराकारी दशा को इस अध्याय के प्रथम चित्र के मध्य भाग में भी दिखाया गया है I

और क्यूँकि सद्योजात ब्रह्म ही पञ्च मुखी सदाशिव साक्षात्कार में सदाशिव का तत्पुरुष मुख हैं, इसलिए ऊपर दिखाया गया सिद्ध शरीर आकाश महाभूत और सदाशिव के तत्पुरुष मुख के सुनहरे वर्ण की योगावस्था को भी दर्शाता है I

और क्यूँकि सद्योजात ब्रह्म ही हिरण्यगर्भ हैं, इसलिए यह सिद्ध शरीर आकाश महाभूत और हिरण्यगर्भ ब्रह्म के सुनहरे वर्ण के प्रकाश का भी द्योतक है I

ऊपर दिखाया गया सिद्ध शरीर आकाश शरीर की अंतिम (या गंतव्य) दशा है I

और इसी सिद्धि के पश्चात साधक आकाश महाभूत का साक्षस्कार करता है…, इससे पूर्व नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऊपर दिखाए गए सिद्ध शरीर को एक स्वर्णिम प्रकाश ने घेरा भी होता है, लेकिन उस प्रकाश को ऊपर के चित्र में दिखाया नहीं गया है I

क्यूंकि वो सुनहरा प्रकाश जिसनें इस सिद्ध शरीर को घेरा होता है, वो हिरण्यगर्भ का ही होता है, और क्यूँकि हिरण्यगर्भ ही ईश्वर कहलाते हैं, इसलिए जब इस सिद्ध शरीर को हिरण्यगर्भ के उस स्वर्णिम प्रकाश ने घेरा होता है और इसके पश्चात, जब उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म का स्वर्णिम प्रकाश इस शरीर के भीतर भी समा जाता है और इस शरीर की दशा वैसी ही हो जाती है जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है, तब यही शरीर सगुण ईश्वर शरीर का भी द्योतक हो जाता है I

और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में ऐसे सिद्ध शरीर का धारक योगी ब्रह्मअवधूत भी कहलाता है I

क्यूंकि यह सिद्ध शरीर ईशान ब्रह्म के आकाश महाभूत से संबंधित होता है, और क्यूंकि ईशान नामक ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म (या निर्गुण निराकार ब्रह्म) ही हैं जो कैवल्य मोक्ष को दर्शाते हैं, इसलिए इस सिद्धि के पश्चात भी, अधिकांश योगीजन ब्रह्मअवधूत नामक उपाधि को धारण ही नहीं करते हैं I

इस न धारण करने का कारण है, कि इस भाग की सिद्धि से सीधा सीधा मार्ग, कैवल्य मुक्ति को जाता है, जिसके कारण इस सिद्धि को पाए हुए योगीजन, कैवल्य को ही चले जाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि आकाश सर्वव्यापक तत्त्व ही है, इसलिए इस सिद्ध शरीर के धारक योगी की गति ब्रह्माण्ड के समस्त लोकादि (अर्थात दशाओं) में भी होती है I

और क्यूँकि हिरण्यगर्भ ब्रह्म के भीतर ही ब्रह्माण्ड बसाया गया था, इसलिए ऐसे योगी की गति हिरण्यगर्भ ब्रह्म तक भी होती है, अर्थात ब्रह्माण्डातीत दशा में भी होती है I

और उन्ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म में बसकर, वो योगी उस महाब्रह्माण्ड का साक्षात्कार भी कर सकता है, जिसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया गया था I इसलिए अध्याय के इस भाग में बताया गया सिद्ध शरीर, महाब्रह्माण्ड साक्षात्कार (अर्थात भरत ब्रह्म साक्षात्कार) का मार्ग भी है I

जब योगी महा ब्रह्माण्ड का ही साक्षात्रकार कर लेगा, तब ही वो योगी ब्रह्मअवधूत नामक सिद्धि को पाएगा…, इससे पूर्व नहीं I

और क्यूंकि अधिकांश योगीजन यहाँ बताए जा रहे आकाश सिद्ध शरीर की प्राप्ति के पश्चात, तुरंत ही कैवल्य (या मोक्ष) को प्राप्त होते हैं, इसलिए वो यहाँ बताई जा रही ब्रह्मअवधूत नामक सिद्धि के धारक भी नहीं होते हैं I

कुछ योगीजन ही इतने पागल होते हैं, जो इस सिद्धि के पश्चात भी कैवल्य से विमुख होकर ही रह जाते है I

ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, ऐसे पल योगीजनों की संख्या अतिन्यून ही रही है I इसका कारण है, की आत्मा शीघ्र से शीघ्र ही कैवल्य को पाने चाहता है, क्यूंकि कैवल्य मोक्ष के लिए ही तो वो शरीरी रूप में आई थी I

 

टिपण्णी: यदि साधकगण यहाँ बताए गए नील मणि शरीर और आकाश शरीर की समस्त दशाओं का अध्ययन ध्यान पूर्वक करेंगे और इन सभी दशाओं को पूर्व के अध्यायों में बताए गए अघोर ब्रह्म, वामदेव ब्रह्म, तत्पुरुष ब्रह्म और सद्योजात ब्रह्म से जोड़कर उनकी अपनी सूक्ष्म ज्ञानमय दृष्टि से देखेंगे, तो ऐसे साधक इन बताए गए सभी शरीरों का योग पञ्चब्रह्म से ही पाएंगे I लेकिन मैं यह बताना नहीं चाहता हूँ, इसलिए इस बिंदु को यहीं समाप्त कर रहा हूँ I

 

  • साधक की आंतरिक गुण दशा के अनुसार सिद्ध शरीरों का स्वयं प्रकटीकरण क्रम, सिद्ध शरीरों के स्वयं प्रकटीकरण क्रम, …

यह सभी शरीरों के प्रकटीकरण का क्रम साधक की आंतरिक गुण दशा के अनुसार ही होता है, इसलिए अब इस बिंदु को बताता हूँ…

यदि साधक प्रधानतः तमगुणी होगा, … ऐसी दशा में साधक के पिंड के भीतर नील मणि शरीर पहले प्रकट होगा, और इसके बाद में ही आकाश शरीर का प्रकटीकरण होगा I इस परकाया प्रवेश से प्राप्त जन्म में, यही मेरा मार्ग भी था I

ऐसा साधक अपने को एक तिरोधान में डालकर ही इन सभी सिद्धियों को पाएगा, अर्थात वो साधक अपने को अपने ही परिवार और समाज से गुप्त रखकर ही अपनी साधनाएं करेगा, और उन सिद्धियों को पाएगा जिनमें से कुछ ही का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है I

ऐसा साधक समाज के सामने आने भी नहीं चाहेगा, लेकिन केवल तबतक, जबतक उसके पास कोई और विकल्प ही नहीं रह जाएगा I

और ऐसी विकल्प विहीन दशा में आकर भी यदि वो समाज के सामने न आना चाहे, तो ऐसा भी हो सकता है, कि वो साधक योगमार्ग से ही अपने प्राणों का त्याग कर दे I मैंने भी कई पूर्व जन्मों में ऐसा ही किया था I

और अपने कार्यों को संपन्न करने के पश्चात, यदि ऐसे साधक के पास समाज के सामने आने का कोई विशेष कारण ही न बने, तो वो साधक या तो किसी दुर्गम मानवरहित स्थान पर चला जाएगा, या अपने प्राणों को योगमार्ग से त्यागेगा I और या वो साधक समाज में ही साधारण मानव के समान अपना प्रारब्ध पूर्ण होने तक शरीरी होकर ही रह जाएगा और ऐसी दशा में वो किसी को बताएगा भी नहीं की वो पूर्ण सिद्ध हुआ है I

ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि उसको पता चल चुका होगा है, कि आकाश सिद्धि के पश्चात्, और कोई सिद्धि शेष रह ही नहीं जाती है I

आकाश महाभूत की सिद्धि ही इस समस्त जीव जगत की अंतिम सिद्धि है क्यूंकि इस सिद्धि के पश्चात, उन सर्वातीत निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार ही शेष रह जाता है I और जहाँ वो निर्गुण ब्रह्म, सिद्धितीत ही होते हैं I

यदि ऐसा साधक समाज के सामने आ जाएगा, तो वो एक अतिउत्कृष्ट गुरु स्वरूप में ही होता हुआ भी, स्वयं को कभी भी गुरु शब्द से नहीं पुकारेगा और जहाँ ऐसा होने का कारण है की अपने वास्तविक पारम्परिक स्वरूप में, यह शब्द भी बंधनकारी ही है I

 

यदि साधक प्रधानतः रजोगुणी होगा, … यदि साधक की आन्तरिक दशा ऐसी होगी, तो ऐसा साधक नील नील मणि शरीर से पूर्व, आकाश शरीर की सिद्धि को पाएगा I

ऐसे साधक बहुत उत्कृष्ट सम्राट भी होते हैं I

और ऐसे साधक उस क्षमता के कारक भी होते है, जो संपूर्ण जीव जगत के लिए कल्याणकारी होती है I इसका अर्थ हुआ, की ऐसे साधक सर्वकल्याणकारी होते हैं I

 

यदि साधक तमोगुणी और रजोगुणी दोनों ही होगा : ऐसे साधक ऊपर बताए गए बिंदुओं के मिश्रण होते हैं I

अब आगे बढ़ता हूँ और आकाश महाभूत के बारे में बताता हूँ I

 

आकाश महाभूत और ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, आकाश और ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, आकाश ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का धारक है, … आकाश और मूल प्रकृति, …

ब्रह्म की रचना में, आकाश के स्वयं उदय के पश्चात, सबकुछ आकाश में ही बसाया गया था I इसका कारण था कि ब्रह्माण्डीय ऊर्जा आकाश महाभूत में ही बसी हुई होती है I और इसका तो यह भी अर्थ हुआ कि आकाश महाभूत ही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का धारक है I

क्यूँकि मूल प्रकृति भी ऊर्जा स्वरूप में ही होती है, इसलिए आकाश महाभूत ही मूल प्रकृति का क्रीड़ा और लीला स्थान है I

और क्यूँकि शक्ति अपने शक्तिमान में ही बसी हुई होती है, इसलिए ऐसे दृष्टिकोण से आकाश, मूल प्रकृति नामक शक्ति का ब्रह्माण्ड रूपी शक्तिमान भी है I

ऐसे होने के कारण, वैदिक वाङ्मय में आकाश को ब्रह्म भी कहा गया है क्यूंकि ब्रह्म ही मूल प्रकृति (अर्थात मूल शक्ति) का ब्रह्माण्ड रूपी शक्तिमान है I

आकाश वो महाभूत भी है, जो ब्रह्म भी है और प्रकृति भी I

 

और यही कारण है कि यह आकाश सिद्धि सभी मार्गों को अपने भीतर बसाई हुई है I

शक्ति भेदों में बसी होने के बाद भी, भेद रहित ही होती है I और जहाँ यह भेद पञ्च देव से संबद्ध होने के साथ साथ, पञ्च कृत्यों के ही होते हैं I

 

इसलिए, आकाश सिद्ध योगी शैव भी होगा और शाक्त भी I और ऐसा होने के साथ साथ, वो योगी वैष्णव, सौर्य और गणपत्य भी होगा I

इसका कारण है कि पञ्च देव के लोक भी आकाश महाभूत में बसी हुई ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं से संबद्ध हैं I

 

इसलिए आकाश सिद्ध योगी, …

सौर्य वैष्णव शैव शाक्त और गणपत्य, पांचों ही होगा I

ब्रह्मा विष्णु महेश देवी और गणेश, पांचो के सामान रूप में होगा I

उत्पत्ति स्थिति संघार निग्रह और अनुग्रह, पाँचों कृत्यों से संबद्ध भी होगा I

लेकिन मेरे पूर्व जन्मों में, ऐसे योगी को ही तो अतिमानव कहा जाता था I

 

आकाश और मन का नाता, मन और आकाश का नाता, आकाश से मनस सिद्धि, मन से आकाश सिद्धि, …

  • जब अपनी योगावस्था में, लाल वर्ण का रजोगुण और नील वर्ण का तमोगुण समान मात्रा मे होते हैं, तो बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का स्वयं उदय होता है I
  • और जब अपनी योगावस्था में रजोगुण और तमोगुण सामान मात्रा में नहीं होते हैं, और ऐसी दशा में तमोगुण की मात्रा अधिक होती है, तब मन का स्वयं उदय होता है I
  • और ऊपर बताई गई दशाओं में से, बाद की बताई गई दिशा ही प्रथम होती है, इसलिए मन का उदय आकाश से पूर्व में ही हुआ था I
  • यह भी वो कारण है, कि मन के साक्षात्कार से पूर्व, साधक की चेतना को आकाश महाभूत का साक्षात्कार करना ही होगा I

इसी कारणवश जब साधक की चेतना मन का साक्षात्कार करती है, तब भी वो चेतना आकाश में बसकर ही ऐसा कर पाती है I

 

इसीलिए, …

  • आकाश सिद्धि का मार्ग मन से होकर जाता है, अर्थात आकाश सिद्धि का मार्ग साधक के भावों से होकर ही जाता है I
  • और मनस सिद्धि का मार्ग आकाश साक्षात्कार से होकर जाता है I

 

इसलिए, …

मन ही आकाश साक्षात्कार का कारक है I

और आकाश महाभूत ही मनस तत्त्व के साक्षात्कार का कारण है I

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

आकाश महाभूत साक्षात्कार के पश्चात की गति, आकाश महाभूत में विलीन होने के पश्चात की गति, … भूतातीत, तन्मात्रातीत, ब्रह्माण्डातीत, भूतातीत सिद्धि, तन्मात्रातीत सिद्धि, ब्रह्माण्डातीत सिद्धि, …

जब साधक का आकाश सिद्ध शरीर अपने कारण, अर्थात आकाश महाभूत में विलीन हो जाता है, तब जो स्थिति होती है, उसको अब बताता हूँ I

 

ऐसे साधक के लिए …

  • पञ्च महाभूत के दृष्टिकोण से, … क्यूंकि ब्रह्म की रचना में आकाश ही प्रथम महाभूत था, इसलिए जब आकाश का साक्षात्कार होता है और इसके पश्चात जब साधक का आकाश महाभूत से संबद्ध सिद्ध शरीर भी उसी आकाश महाभूत में ही विलीन हो जाता है, तब उस साधक की आन्तरिक दशा के अनुसार, उस साधक का पञ्च महाभूतों से संबंध भी टूट जाता है I

ऐसी दशा में उस साधक की उत्कर्ष गति का पञ्च महाभूत से कोई संबंध भी नहीं रहता है, और पञ्च महाभूतों के दृष्टिकोण से वो साधक भूततीत हो जाता है I

  • पञ्च तन्मात्रों के दृष्टिकोण से, … ऊपर बताई गई दशा के पश्चात, ब्रह्म की रचना में आकाश महाभूत से संबंधित तन्मात्र जो शब्द तन्मात्र है, और जो ब्रह्म की रचना में प्रथम तन्मात्र ही है, उससे भी साधक का कोई संबंध नहीं रह जाता है I

ऐसी दशा के पश्चात, यदि उस साधक की चेतना और आगे के उत्कर्ष पथ पर गति करेगी, तो उस साधक को उन दशाओं में कोई भी शब्द सुनाई नहीं देगा I

और क्यूँकि शब्द तन्मात्र ही ब्रह्म रचना का प्रथम तन्मात्र है, इसलिए ऐसा साधक तन्मात्रातीत सिद्धि को भी पा जाता है I

  • ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, … क्यूँकि पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत से ही ब्रह्माण्ड की रचना हुई थी, इसलिए जब साधक भूततीत और तन्मात्रातीत हो जाता है, तो ऐसी दशा में वो साधक जीवातीत, जागतातीत ही होता है, और ऐसा साधक ब्रह्माण्डातीत भी कहलाता है I

क्यूंकि सभी सिद्धियाँ प्राकृत ब्रह्माण्ड से ही संबंधित होती है, इसलिए जो साधक ऊपर बताई गई दशाओं को प्राप्त होता है, वो अपनी समस्त ब्रह्माण्डीय सिद्धियों से भी अतीत होने के मार्ग पर चला जाता है, और अंततः उन कैवल्य मोक्ष स्वरूप निर्गुण ब्रह्म को ही प्राप्त होता है I

यही कारण है कि आकाश महाभूत का साक्षात्कार और आकाश में विलीन होने की दशा भी सिद्धितीत अवस्था की ओर ही लेके जाती है I

यहाँ सिद्धितीत इसलिए कहा गया है, क्यूंकि निर्गुण ब्रह्म जो कैवल्य मोक्ष ही हैं, वो सिद्धितीत ही हैं I

और अंततः ऐसा साधक कैवल्य मुक्ति को ही प्राप्त होता है I

 

यहाँ पर कैवल्य मुक्ति के लिए, … प्राप्त होता है, ऐसा कहा है… न कि प्राप्त करता है, ऐसा कहा है I

 

इसका कारण है, कि …

कैवल्य मुक्ति, कर्मातीत होती है कर्म और उनके फल, दोनों से ही अतीत होती है I

जो कर्मों से ही अतीत है, उसको कर्मों में बसकर कैसे पाओगेथोड़ा सोचो तो? I

जो कर्मों से ही अतीत है, उसको कौन सा फल प्रदान कर पाएगा,थोड़ा सोचो तो? I

 

और जो ऐसी कर्मातीत दशा ही है, …

उसको पाओगे कैसे उसका तो होना पड़ेगा न? I

 

और ऐसा होने का कारण भी वही है, जो पूर्व के किसी अध्याय में बताया गया था, कि …

जो तुम अपने आत्मस्वरूप में हो ही, उसको पाओगे कैसे? I

जो तुम अपने वास्तविक स्वरूप में हो ही, उसको पाओगे कैसे? I

जो तुम्हारी वास्तविकता है ही, उसको कैसे पाओगे?… उसका तो होना पड़ेगा न? I

अपने कर्मातीत आत्मस्वरूप को कर्मों से कैसे पाओगेउसका तो होना पड़ेगा न? I

 

इसलिए, …

मुक्तिमार्ग स्वयं ही स्वयं में के पथ रूपी वाकय से ही प्रशश्त होता है I

जो मार्ग आंतरिक नहीं, अर्थात स्वयं जो नहीं जाता, वो कैवल्य मार्ग भी नहीं है I

 

यही कारण था, कि पुरातन कालों में वेद मनीषी ऐसा ही कहते थे …

कैवल्य मुक्ति का मार्ग, आत्मज्ञान ही है I

आत्मज्ञान का मार्ग, आत्मसाक्षस्कार ही है I

आत्मसाक्षात्कार का मार्ग, आत्मदर्शन ही है I

आत्मदर्शन का मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में”, के वाक्य को ही दर्शाता है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

आकाश की सूक्ष्मता, पञ्च महाभूतों की सापेक्ष सूक्ष्मता, आकाश महाभूत सबसे सूक्ष्म है, … उदय के दृष्टिकोण से पञ्च महाभूत, उत्कर्ष के दृष्टिकोण से पञ्च महाभूत, उदय के दृष्टिकोण से आकाश महाभूत, उत्कर्ष के दृष्टिकोण से आकाश महाभूत, महाभूत सिद्धि, …  आकाश महाभूत का शब्द तन्मात्र, शब्द तन्मात्र का आकाश महाभूत, … शब्द तन्मात्र की सूक्ष्मता, पञ्च तन्मात्रों की सूक्ष्मता, पञ्च तन्मात्रों की सापेक्ष सूक्ष्मता, शब्द तन्मात्र सबसे सूक्ष्म है, … उदय के दृष्टिकोण से पञ्च तन्मात्र, उत्कर्ष के दृष्टिकोण से पञ्च तन्मात्र, उदय के दृष्टिकोण से शब्द तन्मात्र, उत्कर्ष के दृष्टिकोण से शब्द तन्मात्र, तन्मात्र सिद्धि, तन्मात्र सिद्धि क्या है, महाभूत सिद्धि क्या है,

अब ध्यान देना …

  • पञ्च महाभूत होते है, जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी महाभूत कहलाते हैं I
  • और इन पञ्च महाभूतों के पञ्च तन्मात्र (अर्थात गुण) होते है, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध कहलाते हैं I

 

ब्रह्म रचना में …

  • प्राथमिक सूक्ष्म से ही बाद के स्थूल का उदय हुआ था I इसका अर्थ हुआ कि अपनी प्राथमिक दशा में, यह ब्रह्म रचना सूक्ष्म ही थी I
  • और क्यूंकि उत्कर्ष पथ रचना के पथ से विपरीत ही होता है, इसलिए स्थूल दशा से ही सूक्ष्म का मार्ग प्रशश्त होता है, और यही स्थूल से सूक्ष्म का मार्ग, उत्कर्ष मार्ग कहलाता है I
  • इसलिए समस्त उत्कर्ष मार्गों में, अंत में ही सबसे सूक्ष्म तत्त्व का साक्षात्कार होता है I

 

इसलिए अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …

  • उत्कर्ष मार्ग की परिभाषा, उत्कर्ष की परिभाषा, उत्कर्ष पथ की परिभाषा, उत्कर्ष मार्ग किसे कहते हैं, उत्कर्ष पथ किसे कहते हैं, उत्कर्ष मार्ग क्या है, उत्कर्ष पथ क्या है,

अब उत्कर्ष मार्ग को परिभाषित करता हूँ …

जो मार्ग चेतना को स्थूल से सूक्ष्म की ओर लेके जाए, वही उत्कर्ष मार्ग है I

 

  • मुक्तिमार्ग की परिभाषा, मुक्ति मार्ग की परिभाषा, मुक्तिपथ की परिभाषा, मुक्ति पथ की परिभाषा, मुक्ति मार्ग किसे कहते हैं, मुक्ति पथ किसे कहते हैं, मुक्ति मार्ग क्या है, मुक्ति पथ क्या है,

अब मुक्ति मार्ग को परिभाषित करता हूँ …

 

और जिस उत्कर्ष मार्ग की अंतगति, कैवल्य मुक्ति हो, वही मुक्तिमार्ग है I

 

इसलिए, ब्रह्म रचना में …

  • जो सर्व प्रथम उदय होता है, वही सबसे सूक्ष्म भी होगा I
  • और उत्कर्ष पथ में वही सबसे सूक्ष्म बिंदु (या तत्त्व) ही सबसे अंत में साक्षस्कार होगा I

 

इसलिए, …

  • पञ्च महाभूत में, आकाश जो सर्वप्रथम उदय हुआ है, वही सबसे सूक्ष्म है I
  • और पञ्च तन्मात्रों में, शब्द जो सर्वप्रथम उदय हुआ है, वही सबसे सूक्ष्म है I

 

और इसीलिए, …

  • पञ्च महाभूत में, आकाश ही अंत में साक्षस्कार होगा I
  • और पञ्च तन्मात्रों में, शब्द ही अंत में साक्षस्कार होगा I

 

इसलिए, साक्षात्कार मार्गों में …

  • जिस योगी ने आकाश महाभूत का साक्षात्कार किया होगा, उसने अन्य चारों महाभूतों का साक्षात्कार करके ही आकाश का साक्षस्कार किया होगा I
  • जिस योगी ने शब्द तन्मात्र का साक्षात्कार किया होगा, उसने अन्य चारों तन्मात्रों का साक्षात्कार करके ही शब्द तन्मात्र का साक्षस्कार किया होगा I

 

ब्रह्म की रचना में, इन पञ्च महाभूत और पञ्च तन्मात्र के स्वयं उदय क्रम और सापेक्ष सूक्ष्मता के क्रम के अनुसार, यह ऐसे होते हैं …

 

  • आकाश महाभूत, शब्द तन्मात्र, … उदय के दृष्टिकोण से यह प्रथम महाभूत है और इसका शब्द तन्मात्र है (अर्थात आकाश का गुण शब्द है) I

शब्द आकाश से उदय होकर, वायु में गति करते हैं I

आकाश में केवल एक ही गुण होता है, जो उसका शब्द तन्मात्र है I

और इसके साथ साथ, गुण के दृष्टिकोण से शब्द आकाश से ही उदय होकर, स्पर्श तन्मात्र में गति करता है I

शब्द का केवल एक ही महाभूत से संबंध होता है, और वो है आकाश महाभूत I

इसलिए, आकाश ही ऐसा महाभूत है, जिसमें महाभूत और उसके शब्द में कोई भी भेद नहीं होता I

 

अब ध्यान देना…

जो ऐसा भेदरहित होता है, वही उस पूर्ण स्थिर होता है, और इसीलिए वो गंतव्य को ही दर्शाता है I

पञ्च महाभूतों में, आकाश ही एकमात्र पूर्ण स्थिर महाभूत है I

क्यूँकि पूर्ण स्थिर वो अनादि अनंत, सर्वव्यापक सनातन ही है, और जो कालचक्र से अतीत निर्गुण ब्रह्म ही है, इसलिए आकाश अपने महाभूत स्वरूप में होता हुआ भी, उन निर्गुण ब्रह्म का द्योतक ही है I

इसी कारण, उन पुरातन वेद मनिषियों ने “आकाश ब्रह्म” नामक वाक्य कहा था I

 

आकाश महाभूत के दृष्टिकोण से …

शब्द ही आकाश है और आकाश ही शब्द I

ब्रह्माण्ड के भीतर, आकाश का वर्ण बैंगनी होता है I

 

  • वायु महाभूत, स्पर्श तन्मात्र, … उदय के दृष्टिकोण से वायु दूसरा महाभूत है और इसका स्पर्श तन्मात्र है (अर्थात वायु का गुण स्पर्श होता है) I

अपनी तन्मात्र पूर्णता के दृष्टिकोण से वायु, में स्पर्श तन्मात्र के साथ साथ, शब्द तन्मात्र भी संहित होता है I इसलिए वायु में दो गुण होते हैं I

ब्रह्माण्ड के भीतर, वायु महाभूत का वर्ण हल्का नीला होता है I

 

  • अग्नि महाभूत, रूप तन्मात्र, … उदय के दृष्टिकोण से अग्नि तीसरा महाभूत है और इसका रूप तन्मात्र है (अर्थात अग्नि का गुण रूप है) I

अपनी तन्मात्र पूर्णता के दृष्टिकोण से, अग्नि में रूप तन्मात्र के साथ साथ, शब्द और स्पर्श तन्मात्र भी संहित होते हैं I इसलिए अग्नि में तीन गुण होते हैं I

ब्रह्माण्ड के भीतर का अग्नि महाभूत, प्रधानतः लाल वर्ण का होता हुआ भी, सप्तरंगि ही होता है I

 

  • जल महाभूत, रस तन्मात्र, … उदय के दृष्टिकोण से जल चौथा महाभूत है और इसका रस तन्मात्र है (अर्थात जल का गुण रस है) I

अपनी तन्मात्र पूर्णता के दृष्टिकोण से, जल में रस तन्मात्र के साथ साथ, शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्र भी संहित होते हैं I इसलिए जल में चार गुण होते हैं I

ब्रह्माण्ड के भीतर, जल महाभूत हलके हरे वर्ण का होता है I

 

  • पृथ्वी महाभूत, भू महाभूत, गंध तन्मात्र, … उदय के दृष्टिकोण से पृथ्वी पांचवां महाभूत है और इसका तन्मात्र गंध होता है I

अपनी तन्मात्र पूर्णता के दृष्टिकोण से, पृथ्वी में गंध तन्मात्र के साथ साथ, शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्र भी संहित होते हैं I इसलिए पृथ्वी में पांचो गुण होते हैं जिसके कारण पृथ्वी ही पूर्ण महाभूत है I

पृथ्वी महाभूत का वर्ण हल्का पीला (पीली मिट्टी के सामान) ही होता है I

 

टिपण्णी : इन पांचों महाभूतों में से …

  • आकाश महाभूत पूर्ण स्थिर है I
  • पृथ्वी महाभूत सापेक्ष स्थिर है I
  • और अन्य तीनो महाभूत, अर्थात जल, अग्नि और वायु, अस्थिर ही हैं I

 

आकाश साक्षात्कार ही महाभूत साक्षात्कार है, आकाश साक्षात्कार अंत में ही होता है, आकाश सिद्धि महाभूत सिद्धि को ही दर्शाती है, आकाश सिद्धि ही महाभूत सिद्धि है, आकाश सिद्धि और महाभूत सिद्धि, आकाश सिद्ध ही महाभूत सिद्ध है, आकाश सिद्ध, महाभूत सिद्ध, तन्मात्र सिद्ध, शब्द सिद्धि, शब्द सिद्ध, आकाश सिद्ध और महाभूत सिद्ध, आकाश सिद्धि और महाभूत सिद्धि, आकाश सिद्ध और पञ्च महाभूत सिद्ध, आकाश सिद्धि और पञ्च महाभूत सिद्धि, … शब्द साक्षात्कार ही तन्मात्र साक्षात्कार है, शब्द साक्षात्कार अंत में ही होता है, शब्द सिद्धि तन्मात्र सिद्धि को ही दर्शाती है, शब्द सिद्धि ही तन्मात्र सिद्धि है, शब्द सिद्धि और तन्मात्र सिद्धि, शब्द सिद्ध ही तन्मात्र सिद्ध है, शब्द सिद्ध और तन्मात्र सिद्ध, शब्द सिद्धि और तन्मात्र सिद्धि, …

रचना के दृष्टिकोण से, सर्वप्रथम सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था, जिससे आगे के समय में कारण ब्रह्माण्ड (या दैविक ब्रह्माण्ड) का उदय हुआ था I और इसके पश्चात, उस कारण ब्रह्माण्ड से सूक्ष्म ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I और अंततः, उस सूक्ष्म ब्रह्माण्ड से स्थूल ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव हुआ था I

जैसे जैसे सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड से अन्य सभी ब्रह्माण्डीय दशाओं का उदय होता चला गया, वैसे वैसे ब्रह्माण्ड में भी उसकी मूल सूक्ष्मता से स्थूल दशाओं का उदय होता चला गया I

 

इसलिए,

उदय क्रम से, ब्रह्माण्ड सूक्ष्म से स्थूल हुआ था I

 

और क्यूँकि रचना के दृष्टिकोण से, आकाश ही वो महाभूत है जो सबसे पहले उदय हुआ था, इसलिए आकाश ही सबसे सूक्ष्म महाभूत है I

इसलिए महाभूतों की सापेक्ष सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से आकाश ही सबसे सूक्ष्म है I

स्थूल जीवों के उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से, जो सबसे सूक्ष्म होता है, उसमें सबसे न्यून मात्रा में गुण होते हैं और इसीलिए, उसका साक्षात्कार भी अंत में ही होता है I

 

क्यूंकि उत्कर्ष मार्ग, उदय मार्ग से विपरीत ही होता है, इसलिए …

उत्कर्ष मार्ग के दृष्टिकोण से आकाश का साक्षात्कार अंत में ही होगा I

 

इसका यह भी अर्थ हुआ कि जब आकाश का साक्षात्कार होता है, तब ऐसा भी माना जा सकता है कि साधक की चेतना ने अन्य चारों महाभूतों को पार कर लिया है (अर्थात अन्य चारों महाभूतों को भेद दिया है) I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि उत्कर्ष मार्ग और उसके साक्षात्कारों के दृष्टिकोण से आकाश का साक्षात्कार तब होगा, जब साधक अन्य चारों महाभूतों से अतीत हो चुका होगा I

यही कारण है, कि आकाश महाभूत का साक्षात्कार एक उत्कृष्ट साक्षात्कार ही है I

आकाश साक्षात्कार का यह भी अर्थ हुआ, कि साधक ने समस्त पञ्च महाभूतों को सिद्ध कर लिया है, इसीलिए यह साक्षात्कार, महाभूत सिद्धि का भी द्योतक है I

 

इसका अर्थ हुआ कि …

आकाश सिद्ध पञ्च महाभूत सिद्ध भी होगा ही I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और आकाश के गुण, अर्थात शब्द तन्मात्र की सिद्धि का यह भी अर्थ हुआ, कि साधक ने समस्त पञ्च तन्मात्रों को सिद्ध कर लिया है I

जिस साधक ने पञ्च तन्मात्र सिद्ध किए हैं, वो साधक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से तन्मात्र सिद्ध कहलाता है I

और क्यूंकि उत्कर्ष मार्ग पर साक्षातकारों में, तन्मात्रों के दृष्टिकोण से शब्द तन्मात्र ही अंतिम सिद्धि होती है, इसलिए जिस साधक ने शब्द तन्मात्र सिद्ध किया होगा, उसनें पाँचों तन्मात्रों की सिद्धि को भी पाया ही होगा I

 

इसका अर्थ हुआ, कि …

शब्द सिद्ध, पञ्च तन्मात्र सिद्ध भी होगा ही I

 

इसलिए, योग मार्गी साधक के साक्षात्कारों के अनुसार …

महाभूत के दृष्टिकोण से आकाश महाभूत ही अंतिम साक्षात्कार है I

तन्मात्रों के दृष्टिकोण से आकाश का गुण जो शब्द है, वही अंतिम तन्मात्र है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और जो साधक आकाश और उसके गुण, अर्थात शब्द को जानता होगा, वह साधक उस आकाश को भी जानता होगा जो शून्य तत्त्व में भी, रात्रि के समान दशा में बसा होता है I

जिस साधक ने यह साक्षात्कार भी किया होगा, वो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ब्रह्माण्डातीत ही कहलाएगा I

 

आकाश महाभूत सनातन है, आकाश महाभूत अनादि अनंत है, … आकाश और पञ्च महाभूत सिद्धि, महाभूत सिद्धि, …

आकाश तब भी था जब न जीव था और न ही जगत था और न ही अन्य चार महाभूत (अर्थात पृथ्वी महाभूत, जल महाभूत, अग्नि महाभूत और वायु महाभूत) थे I

ऐसी दशा में आकाश शून्य तत्त्व के समान काला (रात्रि के समान) था I

यही कारण है कि इस जीव जगत के दृष्टिकोण से आकाश अनादि अनंत और सनातन ही है I

 

क्यूंकि आकाश ऐसा ही है, इसलिए …

  • ब्रह्माण्ड के उदय से पूर्व की दशा के अनुसार, आकाश महाभूत कालचक्र से ही अतीत है, अर्थात कालातीत है I और ऐसा ही यह आकाश ब्रह्माण्ड से परे की दशा में भी होता है I
  • ब्रह्माण्ड के उदय के पश्चात की दशा के अनुसार, आकाश महाभूत कालचक्र के आधीन है, इसलिए आकाश महाभूत कालाधीन ही है I और ऐसा ही यह आकाश ब्रह्माण्ड के भीतर भी होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

  • और क्यूंकि महाभूतों के दृष्टिकोण से, आकाश ही ब्रह्माण्ड का आधार है, इसलिए महाभूत रूपी आधार के दृष्टिकोण से समस्त ब्रह्माण्ड और जीव, आकाश महाभूत ही है I
  • और क्यूंकि तन्मात्रों के दृष्टिकोण से, आकाश का गुण जो शब्द तन्मात्र है, वही आधार है, इसलिए तन्मात्र रूपी आधार के दृष्टिकोण से समस्त ब्रह्माण्ड और पिंड, शब्द तन्मात्र ही है I

 

आकाश महाभूत में आकाश शरीर का लय, आकाश महाभूत में नील मणि शरीर का लय, आकाश महाभूत में नील रत्न शरीर का लय, …

  • आकाश महाभूत ही वो स्थान है जिसमें आकाश शरीर और नील मणि शरीर (या नील रत्न शरीर) का लय होता है I
  • और लय होने के पश्चात, यह दोनों सिद्ध शरीर आकाश के सामान निराकार भी हो जाते है I
  • जैसे कोई बूँद सागर में लय होकर, सागर ही हो जाती है, वैसे ही यह दोनों सिद्ध शरीर, आकाश में लय होकर आकाश के समान ही निराकारी हो जाते हैं I

ऐसी दशा में आकाश महाभूत का जो साक्षात्कार होता है, उसका ही चित्र नीचे दिखाया गया है …

आकाश महाभूत में आकाश शरीर का लय
आकाश महाभूत में आकाश शरीर का लय, आकाश महाभूत में नील मणि शरीर का लय, आकाश महाभूत में नील रत्न शरीर का लय,

 

लय होने के पश्चात, वो साधक उस मार्ग पर चला जाता है, जिसको पूर्ण संन्यास भी कहा जा सकता है, और जहाँ वो पूर्ण संन्यास निर्गुण ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का ईशान मुख, या शिव का ईशान मुख या ईशान ब्रह्म) को ही दर्शाता है I

इसलिए, आकाश महाभूत के साक्षात्कार के पश्चात भी साधक की चेतना, ईशान ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का ईशान मुख, या शिव का ईशान मुख या निर्गुण ब्रह्म) का साक्षात्कार करके, उन निर्गुण निराकार ब्रह्म में ही विलीन होने का पात्र बनती है I

 

आकाश महाभूत में लय होने की दशा, आकाश महाभूत से अतीत दशा, आकाश ब्रह्म और शब्द ब्रह्म, आकाशातीत दशा, तन्मात्रातीत दशा, आकाश से अतीत, तन्मात्रा से अतीत, आकाश ब्रह्म सिद्धि, शब्द ब्रह्म सिद्धि, …

पूर्व में बताया गया आकाश शरीर अंततः आकाश महाभूत में विलीन होकर, उसी निराकार आकाश के समान अनंत हो जाता है I ऐसी दशा में वो साधक आकाश ब्रह्म नामक सिद्धि को पाता है I

और उसी अनंत आकाश नामक सिद्धि से वो साधक आकाश के गुण, शब्द ततमात्र की सिद्धि को पाता है, और शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि का धारक हो जाता है I

लेकिन क्यूंकि इस दशा के पश्चात भी साधक उत्कर्ष मार्ग पर गति करता रहता है, इसलिए ऐसा साधक अंततः आकाश से अतीत होकर, आकाशातीत और शब्दातीत दशा को ही पाता है I

क्यूंकि उत्कर्ष पथ पर आकाश ही अंतिम महाभूत, और शब्द ही अंतिम तन्मात्र है, इसलिए जब साधक आकाशातीत और शब्दातीत दशा को सिद्ध करेगा, तब वो साधक की जो दशा होगी उसको भूततीत और तन्मात्रातीत ही कहा जाएगा I

यह सभी शब्द जो भूततीत, तन्मात्रातीत, आकाशातीत और शब्दातीत कहे गए हैं, वो जीवातीत, जागतातीत और ब्रह्माण्डातीत शब्दों के भी द्योतक हैं I

और यह सभी शब्द अपने गंतव्य दशा में निर्गुण ब्रह्म के ही द्योतक हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इन सभी सिद्धियों के पश्चात्, जब साधक की चेतना कहीं पर भी गमन करेगी, तो उस चेतना को कोई भी मूलशब्द सुनाई नहीं देगा I

इसका अर्थ हुआ की इन सभी सिद्धियों के पश्चात, चाहे वो चेतना ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्ड से परे की किसी भी दशा में गमन ही क्यों न करे, लेकिन उस चेतना को किसी भी दशा के मूल शब्द सुनाई नहीं देंगे I

इस ग्रन्थ के अन्य सभी बिंदुओं सहित, यह बात भी मैंने अपने साक्षात्कारों के अनुसार ही बताई है I

और क्यूँकि निर्गुण निराकार ब्रह्म, जो निर्गुण ब्रह्म, ईशान ब्रह्म और सदाशिव का ईशान मुख भी कहलाते हैं, वो शब्दातीत, भूततीत, तन्मात्रातीत ही हैं, इसलिए उन निर्गुण निराकार के साक्षात्कार में भी साधक की चेतना कोई मूलशब्द नहीं सुनती है I

ऐसी दशा में साधक का नाता न तो पञ्च महाभूतों से होगा और न ही उनके गुणों (अर्थात पञ्च तन्मात्रों) से I और ऐसा तब भी हो सकता है, जब साधक काय रूप में ही प्रतीत हो रहा हो, और ऐसे काय रूप में वो शब्द सुन भी रहा हो I

 

आकाश महाभूत और निर्गुण निराकार ब्रह्म, आकाश महाभूत और निर्गुण ब्रह्म, आकाश महाभूत और मुक्ति, आकाश महाभूत निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग है, आकाश महाभूत और निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार, …

अपने वास्तविक स्वरूप में, आकाश महाभूत अनंत ही होता है I जैसे अनंत ब्रह्म हैं, वैसा ही आकाश महाभूत होता है I

यही कारण है कि आकाश महाभूत से सीधा सीधा निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I

इस अध्याय श्रंखला (अर्थात पंचब्रह्म मार्ग की श्रंखला) में इन्ही निर्गुण ब्रह्म को ईशान ब्रह्म, सदाशिव का ईशान मुख और शिव का ईशान मुख भी कहा गया है I

और क्यूँकि आकाश, ईशान का ही महाभूत है, इसलिए आकाश महाभूत उन ईशान ब्रह्म (अर्थात निर्गुण निराकार ब्रह्म) के साक्षात्कार के सीधा सीधा मार्ग भी है I

क्यूंकि ऐसा साक्षात्कार साधक की मुक्ति को ही दर्शाता है, इसलिए आकाश महाभूत ही कैवल्य मुक्ति का सीधा मार्ग है I

 

प्रकृति ही ब्रह्मपथ है, ब्रह्मपथ प्रकृति से होकर ही जाता है, प्रकृति के समस्त परिकर ब्रह्मपथ हैं, प्रकृति मुक्तिपथ है, प्रकृति मुक्तिमार्ग है, … प्रकृति के तत्त्वों पर साधना, प्रकृति के तत्त्वों की साधना, तत्त्वों की साधना, तत्त्वों पर साधना, उत्कृष्ट साधना, देवत्व बिंदु पर साधना, देवी देवता की साधना, … प्रकृति साधना ही मुक्तिपथ है, प्रकृति साधना ही मुक्तिमार्ग है, … भूत ब्रह्म सिद्धि, महाभूत ब्रह्म सिद्धि, शब्द ब्रह्म सिद्धि, ब्रह्मपथ प्रकृति का अंग है, महाभूत साधना, तन्मात्र साधना, तन्मात्र सिद्धि और महाभूत सिद्धि, पञ्च महाभूत सिद्धि, पञ्च तन्मात्र सिद्धि, … भूत ब्रह्म, महाभूत ब्रह्म, पञ्चभूत ब्रह्म, पञ्चमहाभूत ब्रह्म, पञ्चभूत ब्रह्म सिद्धि, पञ्च महाभूत ब्रह्म सिद्धि, भूत ब्रह्म सिद्धि, महाभूत ब्रह्म सिद्धि, … आकाश ब्रह्म नामक सिद्धि, आकाश ब्रह्म सिद्धि, शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि, शब्द ब्रह्म सिद्धि, शब्द ब्रह्म सिद्ध, आकाश ब्रह्म सिद्ध, …

मेरे पूर्व जन्मों के अति पुरातन कालों में, मनीषियों की अधिकाँश साधनाएँ प्रकृति के तत्त्वों पर ही होती थीं I

इसका कारण था, कि प्रकृति ही एकमात्र ब्रह्मपथ हैं I और ऐसा होने के कारण, प्रकृति मुक्तिमार्ग ही है I

उन पूर्व जन्मों में वेद मनीषी कहते भी थे, कि तत्त्वों की साधनाओं में, तत्त्वों की दिव्यताओं, अर्थात देवत्व बिंदुओं पर भी साधनाएं स्वतः हो जाती हैं I

इसका अर्थ हुआ, कि तत्त्वों पर साधनाओं से, तत्त्वों के देवी देवताओं पर भी साधनाएँ स्वतः हो जाती हैं I

लेकिन देवत्व बिंदुओं, अर्थात देवी देवताओं पर साधनायों से, उनके मूल तत्त्वों पर साधनाएँ स्वतः ही नहीं होती हैं I

इसलिए, देवत्व बिंदुओं पर साधनाओं की तुलना में, उन देवत्व बिंदुओं के तत्त्वों पर करी गई साधनाएं, उत्कृष्ट ही होती हैं I

इस ग्रन्थ के समस्त साक्षात्कारों का मार्ग भी ऐसा ही रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि यहाँ बताया गया आकाश महाभूत ही …

  • महाभूतों की स्वयं उत्पत्ति के दृष्टिकोण से प्रथम है I
  • और उत्कर्ष पथ के दृष्टिकोण से अंतिम महाभूत है (क्यूंकि उत्कर्ष मार्ग, उत्पाती मार्ग से विपरीत होता है) I

इसलिए यहां बताए जा रहे आकाश महाभूत का साक्षात्कार, महाभूत साधना के अंतिम भाग में ही होता है I

यही कारण है कि इस अध्याय में बताया गया आकाश महाभूत का सिद्ध, महाभूत सिद्धि के गंतव्य पर ही विराजता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इस अध्याय में बताया गया शब्द तन्मात्र, जो आकाश महाभूत का ही तन्मात्र है, अर्थात गुण है, वो भी तन्मात्र साधना के अंतिम भाग में ही साक्षात्कार होता है I

इसी शब्द तन्मात्र साक्षात्कार की गंतव्य दशा को शब्द ब्रह्म कहा जाता है, जिसमें साधक की चेतना समस्त ब्रह्माण्डीय दशाओं से जाती हुई, उन ब्रह्माण्डीय दशाओं की दिव्यताओं को, उनके प्रकट रूप के अतिरिक्त, उनके मूल शब्द रूप (अर्थात बीज शब्द रूप) में भी साक्षाकतार करती है I

 

इसलिए इस अध्याय का, …

  • आकाश महाभूत साक्षात्कार, भूत ब्रह्म सिद्धि (या महाभूत ब्रह्म सिद्धि) का भी द्योतक है I और इस सिद्धि के गंतव्य में, आकाश ब्रह्म नामक सिद्धि (अर्थात आकाश ब्रह्म सिद्धि) ही होती है I
  • शब्द तन्मात्र साक्षात्कार, तन्मात्र ब्रह्म नामक सिद्धि का भी द्योतक है I और इस सिद्धि के गंतव्य में, शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि (शब्द ब्रह्म सिद्धि) ही होती है I

 

तो इन्ही बिन्दुओं पर यह अध्याय समाप्त होता है, और अब अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम ईशान ब्रह्म है, जिनके आकाश महाभूत और शब्द तन्मात्र का वर्णन इस अध्याय में किया गया है I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

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