इस अध्याय में रंध्र क्या है, उसको पुरातन रंध्र विज्ञान के अनुसार बताया जाएगा I कई रंध्र होते हैं, जैसे ब्रह्मरंध्र, शिवरंध्र, विष्णुरंध्र, देवीरंध्र, शक्तिरंध्र, आज्ञारंध्र, त्रिनेत्ररंध्र, हृदयरंध्र, परारंध्र, और नाभिरंध्र I इस रंध्र विज्ञान के कई मार्ग रूपी अंग (या यान) भी हैं, जैसे ब्रह्मयान, जिसमें निर्गुणयान या अद्वैतयान, सगुणयान, देवयान या महायान आदि होते हैं…, तो इनपर भी यहाँ बात होगी I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011- 2012 ईसवी का है, जब मैं पानी के जहाज से घर पर, छुट्टी पर था और जब 2011 ईस्वी का अन्ना हजारे का दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन पूर्ण होके कुछ और समय भी व्यतीत हो चुका था I इसलिए इस अध्याय के साक्षात्कार की समय सीमा, इस अध्याय की पञ्चब्रह्म मार्ग की श्रंखला के बाद की है I इस अध्याय का साक्षात्कार एक साथ नहीं होता है, क्यूंकि इसमें बताए गए रंध्रों को कई चरणों में जाना जाता है I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पंद्रहवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये अध्याय पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का पहला अध्याय है।
मानव जाति की मूर्खता की पराकाष्ठा …
ध्यान देना…
समस्त दिव्यताएं मानव के शरीर में ही होती है, क्यूंकि ब्रह्म ने अपनी रचना में, उन्हें ऐसे ही बसाया था I
ब्रह्म की रचना के इस सिद्धांत के कारण, ऐसा कोई देवता या लोक है ही नहीं, जो तुम्हे तुम्हारे शरीर में नहीं मिलेगा I
जो तुम्हारे शरीर के भीतर पाया जाएगा…, वो ब्रह्म की रचना में होगा ही I
और जो तुम्हारे शरीर के भीतर नहीं…, वो ब्रह्म की रचना में भी नहीं I
इसीलिए, मानव जाति का प्रधान मार्ग भी स्वयं ही स्वयं में के वाक्य से होकर ही जाता है I और यही वो उत्कर्ष रूपी आत्ममार्ग है, जिसको ब्रह्मपथ (या ब्रह्म मार्ग) भी कहा जाता है और जो साधक की चेतना को उन जीव जगत के गंतव्य, अर्थात ब्रह्म में ही स्थापित कर देता है I
आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन आज की मानव जाति किसी न किसी मंदिर या उस मंदिर के देवता, कोई स्थान या उसका देवता, कोई ग्रन्थ या उसका देवता…, ऐसे व्यर्थ के मार्गों में चली गई है, जिनसे मानव जाति न तो विदेहमुक्ति न जीवनमुक्ति और न ही सद्योमुक्ति को ही प्राप्त हो पा रही है I
ऐसा होने का कारण है, कि यह सभी मार्ग अधम या “अधम से भी अधम” हैं, जिसके कारण इन मार्गों में मुक्ति होती ही नहीं है I
इस कलियुग में जितने भी मार्ग आए, उनमें से सभी में मुक्ति दूर दूर तक नहीं है I इसीलिए यह सब मार्ग कहते हैं, कि उनकी मुक्ति अंत समय में ही होगी I
इसके कारण ही कलियुग में आए हुए सभी मार्ग (या पंथ) कहते हैं, कि वो कब्रों या किसी और स्थान पर ही रहेंगे, जबतक उनका वो अंत समय नहीं आएगा I
ऐसा होने के कारण, कलियुग के कालखंड में आए यह सभी मार्ग मुक्तिमार्ग के अंग भी नहीं हैं I और यह उस बात का भी प्रमाण है, कि जिसने इन मार्गों को बताया था, वो स्वयं ही मुक्तिमार्ग या मुक्तिपथ से अनभिज्ञ था I
यह उस बात का प्रमाण भी है, कि …
कलियुग के मार्गों के मसीहा भी वास्तव में मुक्तात्मा नहीं थे I
जो स्वयं ही मुक्तात्मा नहीं है, वो तुम्हे कोई मुक्तिमार्ग कैसे देगा I
जो मुक्तिमार्ग है ही नहीं, वो जीव जगत के लिए उनका उत्कर्षमार्ग कैसे होगा I
जो उत्कर्ष मार्ग है ही नहीं, वो तुम्हें अपकर्ष के सिवा और कहाँ लेके जाएगा I
जो मार्ग ही अपकर्ष का मार्ग है, उसमें बसकर तुम शांति को कैसे पाओगे I
यही कारण है, कि कलियुग में आये सभी पंथ, स्वयं सहित दूसरों को भी विप्लव की ओर ही लेके जाते हैं I
इन सभी कलियुगीं मार्गों का ऐसा कहने का जो कारण है, वो अब बता रहा हूँ …
यह सभी मार्ग बाहर की दशाओं में विश्वास रखते हैं, क्यूंकि इनका देवता जीवों के शरीर के भीतर है ही नहीं I
जिस देवता के देवत्व बिंदु, जीव और जगत, दोनों के भीतर, समान रूप में नहीं बसे होते वो अधूरा ही होता है, क्यूंकि उसको मुक्तिमार्ग का पता ही नहीं I कलियुग के कालखंड में आए मार्गों के अधिकांश देवता ऐसे अनभिज्ञ ही हैं I इसका अर्थ हुआ, कि जितने मार्ग 3102 ईसापूर्व के बाद आए हैं, वो सभी मुक्ति की अनभिज्ञता में ही बसे हुए हैं I
इस कारण से इन सभी कलियुगीं मार्गों (या कलियुग के कालखंड में आए पंथों और उनके ग्रंथों में) में पुरुषार्थ के चारों बिन्दुओं में से, कोई भी बिंदु पूर्णरूप में नहीं होता है I
चार पुरुषार्थ होते हैं, जो नीचे बताए गए हैं …
- धर्म … कलियुग में आए पंथों और उनके ग्रंथों में, धर्म होता ही नहीं है I
धर्म विहीन होने के कारण, यह सभी मार्ग या तो विधर्मी होते हैं और या अधर्मी I सभी कलियुगी उत्कर्ष मार्ग तो धर्म की परिभाषा में ही पूरे नहीं बैठते I
जो गुण प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु, अर्थात प्रत्येक जीव और समस्त जगत (और जगत के भागों) के साथ, अनादि कालों से अनादि कालों तक परस्पर और समान रूप में बना रहे, वो गुण ही उस व्यक्ति या वस्तु (अर्थात उस जीव या जगत) का धर्म कहलाता है I
लेकिन कलियुगी मार्गों में तो ऐसे गुण ही नहीं होते, इसलिए कलियुग के कालखंड में आए हुए सभी मार्ग धर्मविहीन ही होते हैं I
- अर्थ … प्रकृति ही अर्थ होती है, इसलिए प्रकृति के पञ्च परिकर जो भू, जल, तेज, वायु और आकाश हैं, वो सभी अर्थ बिन्दु ही हैं I
लेकिन इन कलियुगी मार्गों के प्रकृति को विकृत करके ही अर्थ चलित होता है I ऐसा होने के कारण, समय समय पर प्रकृति के परिकर पंचक विकराल स्वरूप दिखाते ही रहते हैं, जिसके कारण कलियुगी अर्थ जो प्रकृति को विकृत करके ही चलित रह पाता है, उसमें मानव जाति का अपकर्ष भी समय समय पर होता रहता है I
यही कारण है, कि कलियुग में अर्थ अपने पारम्परिक सर्वकल्याणकारी स्वरूप में होता ही नहीं है और कलियुग में अर्थ पुरुषार्थ होता हुआ भी…, नहीं सा ही होता है I
- काम … पुरुषार्थ का काम निष्काम होता है, इसलिए पुरुषार्थक काम, निष्काम काम ही होता है I
लेकिन कलियुग में मनोलोक के मार्गों के आने के कारण, काम निष्काम नहीं रह पाता है, जिसके कारण काम नामक पुरुषार्थ भी नहीं होता है I
- मोक्ष … कलियुग में आए हुए सभी मार्ग कहते हैं, कि उनकी मुक्ति अंत समय में ही होगी I यही कारण है कि कलियुग के कालखंड में आए किसी भी पंथ (या मार्ग) में मोक्ष नामक पुरुषार्थ नहीं होता I
ऊपर बताए हुए बिंदुओं के अनुसार, यह स्पष्ट है कि पुरुषार्थ विहीन युग को कलियुग कहते हैं I
और जब मानव जाति पुरुषार्थ चतुष्टय से ही वंचित हो जाती है, तो वो समय समय पर अपकर्ष में जाती ही रहती है…, क्यूंकि किसी न किसी स्वरूप में विप्लव आते ही रहते हैं I
इसीलिए,
ऐसी दशा में मानव जाति दुर्गति को ही पाती है, क्यूंकि मानव जाति के सभी उत्कर्षमार्ग कहे जाने वाले पथ, वास्तव में अपकर्ष की ओर ही जाते हैं I
जो गति उस गंतव्य रूपी ब्रह्म तक ही नहीं जाती, वो ही तो दुर्गति कहलाती है I
जो उत्कर्ष मार्ग मुक्ति तक ही न लेके जाए, वो ही तो अपकर्ष मार्ग होता है I
कलियुग के कालखण्ड के समस्त मार्ग और उनकी गतियाँ, उसी अपकर्ष और दुर्गति की ओर ही लेके जाता हैं I
और यदि किसी को मेरी इन बातों पर विशवास नहीं है, तो वो इस कलियुग का कोई 5100 वर्षों का इतिहास खोल कर देख ले I
इसीलिए मैंने मानव जाति को मूर्ख भी कहा है, क्यूंकि 5100 वर्षों से भी अधिक समय में पृथक-पृथक प्रकार के विप्लवों में रहकर भी, मानव जाति को यह ज्ञान नहीं हुआ कि कलियुग के कालखंड में आए और उन कलियुगी ग्रंथों के देवता ही अनभिज्ञ हैं I
जब कलियुग के कालखंड में आए मार्ग और उनके ग्रन्थों के देवता ही अनभिज्ञ हैं, तो उनके मार्ग कुछ और कैसे होंगे I
अब आगे बढ़ता हूँ …
आज के समयखण्ड पर, कोई ऐसा गुरु, पंडित या आचार्य, मानव समाजों में है ही नहीं, जो जीवनमुक्ति या सद्योमुक्ति को पूर्णरूपेण दर्शाता है I
और तो और, कोई ऐसा गुरु, पंडित या आचार्य मानव समाजों में है ही नहीं, जो यह ही दर्शाता हो, कि वो उसके अपने देहावसान के पश्चात विदेहमुक्ति को ही पाएगा I
जब मैं सूक्ष्म लोकों में भ्रमण करता हूँ, तो यह बात स्पष्ट होती है…, कि मानव जाति मुक्ति को पा ही नहीं रही है I
जब जिसको पाने को तुम जीव रूप में आए हो, उसको ही नहीं पाओगे…, तो पगला नहीं जाओगे? I
यही कारण है, कि कलियुग के कालखंड में जो विप्लव आए (जैसे युद्धादि विप्लव), वो अधिकांश रूप में मानव जनित भी थे I
इन विप्लवों का कारण भी वही है, कि चाहे कोई अपने गुरु आदि सत्ता के बारे में कुछ भी बोले, लेकिन …
कलियुग में कोई भी गुरु, मुक्तात्मा नहीं होता I
जब ऐसा होता है, तो मुक्तिमार्गों के नाम पर मनोलोक जनित मार्ग और उनके प्रपंच ही प्रकट हो जाते हैं, जिसके कारण और कुछ आए न आए, विप्लव तो आएँगे ही I और जहाँ वो विप्लव मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक भी होते हैं I
ऐसे कलियुगी मनीषि, जो स्वयं ही अपूर्ण हैं और तब भी वो गुरु कहलाते हैं, तुम्हे कोई उत्कर्ष मार्ग देंगे, तो वो तुम्हें उस पूर्ण (अर्थात ब्रह्म) में स्थापित होने का मार्ग कैसे देंगे I
जब तुम्हारे पास ऐसे ब्रह्म मार्ग होंगे ही नहीं, तो तुम मुक्ति को कैसे पाओगे? I
और जब जीव (अर्थात तुम) उस मुक्ति को ही नहीं पाओगे, जिसके लिए तुम जीव रूप में आए हो, तो पगला नहीं जाओगे? I
और ऐसी दशा में तुम किसी न किसी मानव जनित विप्लव का कारण ही तो बनोगे…, है न? I
आगे बढ़ता हूँ …
और आज के बाकी सभी ग्रंथों को मानने वाले पादरी, मौलवी आदि भी पूर्णरूपेण अनभिज्ञ ही हैं I
आज के राजनेतागण भी अनभिज्ञ ही हैं क्यूंकि उनको भी उन मुक्तिमार्गों का कुछ भी पता नहीं, जो वास्तव में वैदिक ऋषियों और सिद्धों ने दिए थे…, ताकि मानव जाति का उत्कर्ष मार्ग सुरक्षित रहे I
यह सभी मनीषी, बस कोई न कोई पदवी धारण करके, बक-बक ही करते हैं…, क्यूंकि इससे आगे उनकी औकात ही नहीं I
यदि मानव जाति ऐसे लोगों के बताए हुए मार्गों का पालन करेगी, तो गर्त के सिवा और कहीं भी नहीं जाएगी I
जब मैं सूक्ष्मादि लोकों में भ्रमण करता हूँ, तो मुझे ज्ञान होता है कि मानव जाति मुक्ति को प्राप्त ही नहीं हो रही I और यह बात सभी मार्गों, ग्रंथों और सभी पंथों पर समान रूप में लागू होती है I
और तो और, जो अपने कायाधारी समय में, स्वयं को उच्च पदों पर बैठा के, राजतंत्र या धर्मादि मार्गों में प्रतिष्ठित थे, वो भी अपने देहत्याग के पश्चात, किसी न किसी नीचे के लोकों में फंस गए हैं I
और तो और, इस कलियुग की काली काया के कारण, जिन मनीषियों को मानने वाले, उन मनीषियों को ब्रह्मऋषि, महर्षि, सिद्ध और जीवन्मुक्त तक कहते थे, उनको भी मैंने किसी न किसी लोक में फंसे हुए ही पाया है I
आगे बढ़ता हूँ …
इसका अर्थ यह हुआ, कि …
आज की मानव जाति मुक्ति ही नहीं, बल्कि मुक्ति मार्ग से ही अनभिज्ञ है I
और यही बात आज के समस्त गुरु, पादरी, मौलवी, ग्रंथि आदि में भी स्पष्ट रूप में दिखाई देती है I
जब तुम बन्धनयुक्त गुरुओं के बताए मार्गों पर जाओगे, तो बंधन ही तो पाओगे I
जो स्वयं ही मुक्तात्मा नहीं है, वो तुम्हे मुक्तिमार्ग पर कैसे लेके जाएगा? I
जो स्वयं ही मुक्त नहीं है, उसको मुक्ति के बारे में क्या पता…, वो तो अनभिज्ञ है I
ऐसे अनभिज्ञों की बात क्या माननी? I वो बंधन में फंसा हुआ मनीषि तुम्हे बंधन के मार्ग ही तो बताएगा न? I
बन्धनयुक्त मनीषी तुम्हे मुक्तिमार्ग कैसे दे सकता है…, थोड़ा सोचो तो? I
और इसका जो प्रमुख कारण है, वो अब बताता हूँ …
जो अपने भीतर के रत्नों को छोड़कर, बाहर की वस्तुओं में रमण करता है, उसको टूटे हुए कांच के टुकड़ों के सिवा, और कुछ भी प्राप्त नहीं होता है I
टिपण्णी: बाहर का अर्थ है, जैसे कोई ग्रन्थ, मंदिर या उसका देवता, पन्थ, मार्ग इत्यादि I और यहाँ कहे गए टूटे हुए कांच के टुकड़ों का अर्थ “व्यर्थ” होता है, और इसका अर्थ, समय समय के कलह कलेश भी होते हैं, जो मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक, तीनों प्रकार के कलेशों को दर्शाता है I
इसलिए,
यदि उन रत्नों को पाना है, तो अपने भीतर जाओ…, स्वयं ही स्वयं में जाओ I
यदि कुछ व्यर्थ दशादि को पाना है, तो कहीं और जाओ…, इस ग्रन्थ में मत आओ I
अब विशेष ध्यान देना …
जो मार्ग जीवनमुक्ति ही न प्रदान करवा सके, उसका जीव जगत को क्या लाभ I
ऐसे मार्गों में अपने दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ में ही व्यय नहीं करना चाहिए I
ब्रह्म की रचना में, मानव जाति को इसलिए बनाया गया था, कि वो समस्त जीव जगत को, उनकी अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार, वो सार्वभौम उत्कर्षमार्ग प्रदान करे, जिसपर जाकर समस्त जीव जगत अपना मुक्ति लाभ कर सके I
यही ऊपर बताए हुए अपने प्रधान कार्य को ही मानव जाति नहीं करेगी, तो उसका इस पृथ्वीलोक पर निवास करने का कारण ही नहीं बचेगा I
और ऐसी कारण रहित दशा में, मानव जाति का सर्वनाश होना निश्चित ही हो जाएगा और यह विनाश भी कुछ ही समय में हो जाएगा I
आज की मानव जाति इसी बिंदु पर जा चुकी है और यदि आज की मानव जाति ने अपना मार्ग बहुवादी अद्वैत सिद्धांत की ओर नहीं बदला, तो यह पूर्ण विनाश भी आना ही है…, और कुछ ही वर्षों में आना है…, आज के समय से इसमें अधिक समय नहीं लगेगा I
और एक बात, कि जब किसी लोक में, कोई जीव सत्ता अपने मूलकार्य ही नहीं करती, तो प्रकृति और दैविक दृष्टिकोण से, उस लोक में, उस जीव सत्ता की आवश्यकता ही नहीं रह जाती I
इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उसके समस्त लोकों में, यही मुख्य कारण रहा है किसी भी सर्वव्यापक विनाश का I
और आज के समयखण्ड में, इस पृथ्वीलोक की मानव जाति अब उस कगार पर खड़ी हो चुकी है, जहाँ उसको यहाँ बताए गए बिंदुओं पर जाना ही होगा…, नहीं तो कुछ ही वर्षों में, उसका विनाश निश्चित हो जाएगा I
इसी मार्ग के ज्ञान स्वरूप को यह ग्रन्थ, कहीं स्पष्ट और कहीं सांकेतिक रूप में दर्शा रहा है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब मूर्खता की पराकाष्ठा होती है, तो कोई भी मूर्ख सत्यता को नहीं मानता, इसलिए मुझे पता भी है…, अधिकांश मानव जाति इस बिंदु को नहीं मानेगी और आगामी समय में, अपने विनाश को पाएगी I
आगामी समयखण्ड में जो बहुत दूर भी नहीं है, यह ग्रन्थ इन्ही तीनों (अर्थात विदेहमुक्ति, जीवनमुक्ति और सद्योमुक्ति) में से किसी एक की ओर लेके जाएगा…, और तुम्हारी क्षमता के अनुसार ही तुम्हे इन तीनों में से किसी एक की ओर तो लेके जाएगा ही I
यह बात मैं स्पष्ट रूप में बोल रहा हूँ I
रंध्र विज्ञान, एकेश्वर विज्ञान, सर्वेश्वर विज्ञान, … योगेश्वर विज्ञान, महेश्वर विज्ञान, हिरण्यगर्भ विज्ञान, कार्य ब्रह्म विज्ञान, सृष्टिकर्ता विज्ञान, पितामह ब्रह्मा विज्ञान, ब्रह्मा विज्ञान, … ब्रह्मत्व मार्ग की गंतव्य अवस्था, … विराट परब्रह्म सदाशिव मार्ग, गुरु विश्वकर्मा मार्ग, … हरिहरब्रह्मा मार्ग, त्रिदेव मार्ग, पञ्च देव मार्ग, … पञ्चब्रह्म मार्ग, …
पर क्यूँकि ऊपर बताए गए नाभिरंध्र का विज्ञान उस ब्रहमकमल का विज्ञान भी है, जिसपर बैठकर चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा ने अपनी सार्वभौम अद्वैत भाव रूपी इच्छा शक्ति का आलम्बन लेके, इस जीव जगत की रचना उनके अपने साधन स्वरूप में की थी, इसलिए इस ग्रन्थ में, नाभिरंध्र का विज्ञान गुप्त ही रहेगा I
नाभिरंध्र को यहाँ पर बताया नहीं जाएगा…, और बाकी सभी पर यहाँ बात होगी I
आज के समय पर, यह रंध्र विज्ञान लगभग लुप्त हो चुका है I उन दुर्गम स्थानों पर जो आज की विकृत मानव के शब्दों से शून्य हैं, और जहाँ आज की विकृत मानव जाति के भाव भी नहीं पहुँच पाते, उनपर कोई विरला योगी ही होगा जो इस ज्ञान का ज्ञाता होगा…, आज के समय पर मानव समाज में तो इस रंध्र विज्ञान का ज्ञाता योगी नहीं मिलेगा I
यहाँ कुछ ऐसे चित्र भी दिखाए गए हैं, जो इस कलियुग के इतिहास में प्रथम हैं…, लेकिन इस ग्रन्थ के अन्य कुछ अध्यायों में भी ऐसे चित्र डाले गए है…, और आगे भी डाले जाएंगे…, इस अध्याय के चित्र भी तुम्हें और कहीं नहीं मिलेंगे I
उन अतिपुरातन कालों के मेरे उन बहुत सारे जन्मों में, जिनके मार्गों और तंत्रों के ज्ञान के बारे में आज की मानव जाति पूर्ण अनभिज्ञ ही है, यह रंध्र विज्ञान, मुक्तिमार्ग को धारण किए हुए योगी का अंतिम विज्ञान भी कहलाता था I
जहाँ तक मुक्तिमार्गों का संबंध है, इस रंध्र विज्ञान के आगे कोई विज्ञान होता ही नहीं है…, केवल आत्मा और ब्रह्म की अखण्ड सनातन एकता का ज्ञान ही शेष रह जाता है I
यही कारण था, की मेरे पूर्व जन्मों के उन पुरातन कालों में, जो मुझे स्मरण भी हैं, क्यूंकि मैं योगभ्रष्ट हूँ और प्रबुद्ध भी हूँ, इसी रंध्र विज्ञान को एकेश्वर विज्ञान और सर्वेश्वर विज्ञान भी कहते थे I
ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, इस रंध्र विज्ञान के साक्षात्कारी योगी को एकेश्वर स्वरूप और सर्वेश्वर स्वरूप ही माना जाता है I
इस रंध्र विज्ञान के साक्षात्कारी योगी को योगेश्वर (या महेश्वर या हिरण्यगर्भ ब्रह्म) स्वरूप ही माना जाता है I यह रंध्र विज्ञान उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति का ही है, जो वेदों में सृष्टिकर्ता या पितामह ब्रह्मा कहे जाते हैं I
और उन पुरातन कालों में, इस विज्ञान का साक्षात्कारी योगी, जिसने इसको धारण भी किया हुआ होता था, और वो इसका पूर्ण ज्ञाता भी होता था, वो योगी ही उन विराट परब्रह्म सदाशिव, जो गुरु विश्वकर्मा भी कहलाते हैं, उन विराट जगतगुरुदेव का सगुण साकार स्वरूप माना जाता था…, और आज भी ऐसे योगी को, इस महा ब्रह्माण्ड की दिव्यताएं…, ऐसा ही मानती है I
इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, यह विज्ञान गुरु विश्वकर्मा का ही है…, उन गुरु से ही प्रारम्भ होता है, उन गुरु के विराट स्वरूप में ही निवास करता है और अंततः, उन गुरु में ही विलीन हो जाता है I
और उन पुरातन कालों में, जिनका वर्णन मैंने कुछ पूर्व में किया था, इस विज्ञान के धारक योगी को हरिहरब्रह्मा भी कहा जाता था, क्यूंकि उस योगी के मस्तिष्क के भीतर ही मकार नाद, अपने ब्रह्मनाद स्वरूप में चलित होता था I मकार नाद ही हरिहरब्रह्मा, अर्थात त्रिदेव का द्योतक है I
और जिस योगी ने, इस रंध्र विज्ञान को पूर्णरूपेण साक्षात्कार करके धारण भी किया है, वो ही पञ्च ब्रह्म स्वरूप और पञ्च मुखा सदाशिव का माना जाता था, क्यूंकि यह रंध्र विज्ञान, अपने पूर्ण स्वरूप में इन सभी साक्षात्कारों के अंत में ही आता है I
ऐसा योगी सगुण ब्रह्म के पञ्च कृत्यों का धारक होके, उनके ही सगुण ब्रह्मयान पर जाके, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में अतिमानव कहलाता था…, इसलिए इससे बड़ा और ऊँचा विज्ञान कोई है नहीं, और इस समस्त महाब्रह्माण्ड में, यह अंतिम विज्ञान भी होता है…, विज्ञान स्वरूप में, इससे आगे कुछ भी नहीं है I
यह विज्ञान अंत में ही आता है, और जिस अंत में यह आता है, वो अंत भी प्रारम्भरहित और अंतरहित ही होता है, अर्थात अनंत सर्वेश्वर ही होता है, इसलिए इस अध्याय की श्रंखला में तो इसका उचित स्थान भी नहीं है, इसको तो कहीं बाद में बताना था I
लेकिन क्यूंकि इसके कुछ बिंदुओं का अब से आगे के अध्यायों में आलम्बन लिया जाएगा…, इसलिए इसको पूर्व में, अर्थात इसी अध्याय में ही बता रहा हूँ I
वैसे इस अध्याय का वास्तविक स्थान, आगे बताए जाने वाली पञ्चमुखी सदाशिव की अध्याय श्रृंखला के बाद में ही है I
रंध्र क्या है, रंध्र का अर्थ, रंध्र किसे कहते हैं, रंध्र का महत्त्व, रंध्र क्या होता है, … ब्रह्मरंध्र, ब्रह्मरंध्र, शिवरंध्र, विष्णुरंध्र, देवीरंध्र, शक्तिरंध्र, आज्ञारंध्र, त्रिनेत्ररंध्र, हृदयरंध्र, परारंध्र, निर्गुणयान, सगुणयान, ब्रह्मयान, देवयान, महायान, परायान, …
योगमार्ग में रंध्र का अर्थ होता है, देवत्वादि सत्ताओं का गुप्त द्वार I
जबकि यह रंध्र साधक के शरीर में ही होते हैं, लेकिन तब भी इसको कुछ ही उच्च कोटि के साधक जान पाते हैं I
- क्यूंकि यह रंध्र, द्वार स्वरूप में ही होते है, इसलिए यहाँ पर इनको द्वार शब्द से बताया गया है I
- क्यूंकि यह साधक के पिण्ड में होते हुए भी, गुप्त ही रहते हैं इसीलिए इनको गुप्त शब्द से सम्बोधित किया गया है I
यह द्वार, गुप्त इसलिए होते है क्यूंकि इसको तो नीचे की कोटि के देवता भी नहीं जानते हैं I
इनके ज्ञाता या तो बहुत उच्च कोटि के देवी देवता होंगे या कोई बहुत उच्च कोटि के योगीजन ही इनको जानते होंगे I
यह भी वो कारण था, कि अधिकांश योगीजन जो इस विज्ञान के साक्षात्कारी या पूर्ण ज्ञाता होते थे, वो इस ज्ञान को उस साधक को ही देते थे, जो उच्च कोटि का साधक बस होने ही वाला होता था…, अर्थात यह विज्ञान उसी साधक को दिया जाता था, जिसकी चेतना ब्रह्मरंध्र पार करने ही वाली होती थी, और जिसके कारण ऐसा साधक ही इस रंध्र विज्ञान का वास्तविक पात्र माना जाता था I
इसका अर्थ तो यह भी हुआ, कि यह विज्ञान भी अधिकांश साधकगण के लिए गुप्त ही था I
रंध्र विज्ञान, … योगतंत्र का सबसे गुप्त ज्ञान, योगतंत्र का परम गोपनीय ज्ञान, योगतंत्र का महानतम रहस्य, योगतंत्र का सर्वोच्च ज्ञान, योगतंत्र का सबसे बड़ा रहस्य, योग तंत्र का सर्वोच्च रहस्य, योग तंत्र का सर्वोच्च ज्ञान, …
यही कारण है, कि इस अध्याय में इन रंध्रों को बताया तो जाएगा, ताकि साधकगण इनको कुछ न्यून सीमा तक जान पाएं, लेकिन इनको न तो विस्तारपूर्वक बताया जाएगा, और न ही इनके साक्षात्कार का मार्ग ही बताया जाएगा I
इसलिए …
इनको बस बताने के लिए ही बताया जाएगा I
न कि इनका साक्षात्कार करने के लिए इनके मार्ग को बताया जाएगा I
पर ऐसा होने के बाद भी, जो थोड़े से साधक इस ज्ञान के वास्तविक पात्र होंगे, वो इसी अध्याय का आलम्बन लेके इनको साक्षात्कार भी करेंगे I
उन अतिप्राचीन कालों के मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, उन सभी ज्ञानादि मार्गों को जो गुप्त होते थे और जिनके लिए अधिकांश योगीजनों को दीक्षा देने के लिए निषेद भी था, उन सभी को ऐसे ही बताया जाता था I
और ऐसे बताने पर भी, जो योगीजन उन मार्गों के वास्तविक पात्र होते थे, वो उन मार्गों के बताए हुए थोड़े से ज्ञान का आलम्बन लेके भी, उन मार्गों के गंतव्य आदि दशाओं का साक्षात्कार कर ही लेते थे I
यह बिन्दु भी वैदिक योगमार्ग की गुरु शिष्य परंपरा का एक प्रमुख बिंदु है, कि जो किसी ज्ञानादि मार्ग का पात्र नहीं, उसको उस मार्ग के बारे में नहीं बताना चाहिए I
और यदि ऐसे गुप्त मार्गों के बारे में कुछ भी खुले रूप में (जैसे यह वेबसाइट) बताया जाएगा, तो उसे इस प्रकार बताओ, कि जो उस ज्ञानादि मार्ग का पात्र नहीं है, उसको वो सब बिंदु ज्ञान में ही नहीं आएँगे, जिनको या तो सांकेतिक रूप में बताया गया होगा, या कुछ और प्रकार से बताया गया होगा और या बताया ही नहीं गया होगा…, क्यूंकि ऐसे बिंदु उनके वास्तविक पात्रों के द्वारा साक्षात्कार करने के ही अंग होते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
समस्त सत्ताओं के आगे (अर्थात ऊपर) योगी की सत्ता होती है, और यह रंध्र विज्ञान उसी योग सत्ता की गंतव्य दशा है I
और क्यूंकि उस गंतव्य के पात्र भी सब साधक नहीं होते, इसीलिए यहाँ बताया जा रहा रंध्रविज्ञान समस्त योगतन्त्रों में सबसे छुपा हुआ और सबसे बड़ा या ऊपर का या महानतम ज्ञान और रहस्य है I
इसीलिए इस महाब्रह्माण्ड के किसी भी लोक में, इस विज्ञान का आगमन तभी होता है, जब गुरुयुग स्थापना चलित होती है…, अन्यथा नहीं I
आगे बढ़ता हूँ …
रंध्र विज्ञान का अस्त्र स्वरूप, … रंध्र विज्ञान का पुरुषार्थक स्वरूप …
और क्यूंकि 2019 ईस्वी से यह गुरुयुग स्थापना प्रक्रिया चलायमान हुई थी, जब एक विशिष्ट योगी के पिता, जो उस योगी के पूर्व जन्म के गुरुदेव भी थे, उनपर कलियुगी सूक्ष्म शक्तियों ने आक्रमण किया था, इसीलिए इस विज्ञान का आगमन समय भी इसी समय के समीप का था I
कलियुगी शक्तियों के द्वारा वो आअक्रमण तो उस योगी पर ही हुआ था, लेकिन उस योगी के पिता, जो उस योगी के एक पूर्वजन्म के गुरुदेव भी थे, उन्होंने उस आक्रमण को अपने ऊपर ले लिए था I
और जब ऐसा होने के कुछ दिनों के पश्चात, उस विशिष्ट योगी को इस बात का पता चला, तो उस योगी ने अपने समस्त कार्य त्याग के, उन कलियुगीं शक्तियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया था I
उस युद्ध का प्रारम्भ, कोई जनवरी 2019 ईस्वी की बात है I
और इस समय के पश्चात धीरे धीरे, जैसे ही यह युद्ध एक सूक्ष्म लोक से दूसरे में गया, वैसे वैसे वो योगी भी उन सूक्ष्म लोकों में सनातन वैदिक आर्य धर्म की पताका लगाता हुआ, एक से दुसरे लोक में जाता गया I
जैसे जैसे उस विशिष्ट योगी का यह युद्ध चला, वैसे वैसे ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को उस योगी के बारे में पता भी चलता गया, और वो सभी सत्ताएँ, अपने अपने दुर्गों (मंदिर, लोकदि) त्याग के उस योगी के साथ खड़ी होती चली गई I
इसलिए, इस युद्ध प्रक्रिया में बहुत सारी वैदिक अगमानिगम सत्ताएँ अपने दुर्ग त्यागी थी I
और जैसे जैसे यह युद्ध एक सूक्ष्मादि लोक से दूसरे में गया, वैसे वैसे इस युद्ध में बहुत सारे सिद्धगण, ऋषिगण, वैदिक योद्धागण भी जुड़ते चले गए I
और 2022 ईस्वी की 21-22 फरवरी के रात तक, उन वैदिक सत्ताओं ने समस्त सूक्ष्म जगत, दैविक जगत, कारणों कारण जगत और संस्कारिक जगत में सनातन वैदिक आर्य धर्म की विजय पताका लहरा दी थी I
और इस युद्ध में उन सभी लोकों से, कलियुग में आयी हुई समस्त म्लेच्छ सत्ताओं को या तो ठेल दिया था, या उनका अंत ही कर दिया गया था I
सनातन वैदिक आर्य धर्म के युद्ध सिद्धांत के अनुसार, जो समर्पण ही कर दे, उसका अंत नहीं किया जाता I
इसीलिए कुछ सत्ताओं को उन वैदिक लोकों से ठेला गया था I और जिन म्लेच्छ सत्ताओं ने समर्पण पूर्णरूपेण नहीं किया, उनका अंत भी करा गया था I
इस 2022 ईस्वी की 22 फरवरी के पश्चात ही, इस स्थूल लोक में युद्ध लग गया था I
अपने खण्डित स्वरूप में यह युद्ध भी तबतक चलेगा, जबतक इस भूलोक से कलियुग के कालखंड में आयी हुई समस्त मलेच्छ सत्ताएँ या तो घुटने टेक देंगी (अर्थात समर्पण कर देंगी) या उनका अंत ही कर दिया जाएगा I
इसलिए, जो कहते हैं, कि इस स्थूल जगत में छेड़ा गया युद्ध, इस तिथि तक या इस माह तक समाप्त हो जाएगा, वो सभी अनभिज्ञ है उस मूल कारण से, जिसके चलित कराए जाने के कारण यह युद्ध अपने खण्डित स्वरूप में चलायमान हुआ था…, 2022 ईस्वी के 22 फरवरी के कुछ ही बाद में और वो भी तब, जब इस पृथ्वी लोक के शिव, अन्य सभी ब्रह्माण्डीय लोकों में सनातन वैदिक आर्य धर्म का विजय पताका लहरा दिया गया था I
और ऐसे समय के 12 वर्षों के भीतर ही, यह अतिगुप्त रंध्र विज्ञान किसी उत्कृष्ट योगी के भीतर, स्वयंप्रकट होता है I
यह स्वयंभू विज्ञान है, न कि किसी से पाया गया ज्ञान I
इस रंध्र विज्ञान की दीक्षा न तो पूर्व कालों में कभी होती थी, और न ही आगे कभी होगी, क्यूंकि यह स्वयंभू विज्ञान है I यह एकमात्र विज्ञान है, जो स्वयंभू होता है I
इसलिए यह महागुप्त विज्ञान भी है I
इस विज्ञान के …
- धर्म स्वरूप में, धर्म के समस्त उत्कृष्ट बिंदु मिलेंगे, इसलिए इस विज्ञान का मार्ग पुरुषार्थक धर्म का ही होगा I
और जिस भी देशादी में इस ज्ञान का धारक योगी बैठा होगा, उस देश का धर्म तब भी ठीक ठाक रहेगा, जब बाकी सभी देशों के धर्म बिंदु गर्त में जा रहे होंगे I
- अर्थ स्वरूप में, उस अर्थ के समस्त उत्कृष्ट बिंदु मिलेंगे, इसलिए इस विज्ञान का मार्ग पुरुषार्थक अर्थ का ही होगा I
और जिस भी देशादी में इस ज्ञान का धारक योगी बैठा होगा, उस देश का अर्थ तब भी बढ़ता ही चला जाएगा, जब बाकी सभी देशों का अर्थ गर्त में जा रहा होगा I
क्यूंकि इस ज्ञान का धारक योगी भारत खंड में ही है, इसलिए भारत का अर्थ भी अन्य सभी देशों से अच्छा ही होगा I
- काम स्वरूप में, उस निष्काम काम के समस्त उत्कृष्ट बिंदु मिलेंगे, इसलिए इस विज्ञान का मार्ग पुरुषार्थक निष्काम काम का ही होगा I
और जिस भी देश में इस ज्ञान का धारक योगी बैठा होगा, उस देश का काम बाकी सभी देशों की तुलना में, कुछ अधिक मात्रा में निष्काम होगा I
- शास्त्र स्वरूप में, समस्त शास्त्र मिलेंगे I और इस विज्ञान का शास्त्र, मुमुक्षुओं के लिए मुक्तिकारक ही होगा और सिद्ध मार्गी योगीजनों के लिए, पूर्ण सिद्धिदायक ही होगा I
- शस्त्र स्वरूप में, समस्त शस्त्र मिलेंगे I और इस विज्ञान से लड़ा गया युद्ध भी, योद्धाओं के लिए मुक्तिकारक ही होगा I इस विज्ञान मार्ग से पाए हुए शस्त्र भी देवास्त्र और दिव्यास्त्र सहित, भूतास्त, आयामास्त्र, तन्मात्रास्त्र, गुणास्त्र, कालास्त्र, आदि अस्त्रों के स्वरुप में होंगे I
- ज्ञान स्वरूप में, समस्त ज्ञान मिलेगा I इस विज्ञान का मार्ग भी साधकों के लिए मुक्तिकारक ही होगा I
रंध्र विज्ञान और पञ्चमुखी सदाशिव, … रंध्र विज्ञान और पञ्चमुखा सदाशिव …
ऊपर बताए हुए सभी बिंदुओं का साक्षात्कारी योगी, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में अहम् ब्रह्म, चेतनब्रह्म, मनब्रह्म, ज्ञानब्रह्म और प्राणब्रह्म की योगावस्था कहलाएगा I
इन पाँचों में से …
- ज्ञानब्रह्म … सदाशिव के तत्पुरुष मुख का द्योतक है, जिसका कृत्य तिरोधान होता है, जिसकी पीठ गोवर्धन मठ पुरी है I यही महेश्वर (या हिरण्यगर्भ या योगेश्वर) का कार्यब्रह्म नामक प्रमुख सगुण स्वरूप है I
- चेतनब्रह्म … सदाशिव के वामदेव मुख का द्योतक है, जिसका कृत्य स्थिति होता है, जिसकी पीठ ज्योतिर मठ है I
- मनब्रह्म … सदाशिव के सद्योजात मुख का द्योतक है, जिसका कृत्य उत्पत्ति होता है, जिसकी पीठ द्वारिका शारदा मठ है I
- अहम् ब्रह्म, … सदाशिव के अघोर मुख का द्योतक है, जिसका कृत्य संघार होता है, जिसकी पीठ श्रृंगेरी शारदा मठ है I
- और प्राणब्रह्म … सदाशिव के ईशान मुख का द्योतक है, जिसका कृत्य अनुग्रह होता है और जिसकी पीठ वो चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड है, जिसमे साधक की काया बसी हुई होती है, और जो साधक की काया के भीतर भी अपने सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में बसा हुआ होता है I वेदों में ईशान मुख ही विराट परब्रह्म और विश्वकर्मा कहलाया गया है I यही सदाशिव है, और इस स्वरूप में सदाशिव ही निर्गुण निराकार कहलाते हैं I
रंध्र विज्ञान का अष्टम चक्र से नाता, … रंध्र विज्ञान और अष्टम चक्र, …
इस रंध्र विज्ञान का नाता अष्टम चक्र से ही है, जिसके बारे में अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे खंड के इकत्तीसवें मंत्र, बत्तीसवें मंत्र और तैंतीसवें मंत्र में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है I अष्टम चक्र के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
लेकिन इस सत्य को आज कौन मानेगा, कि अथर्वेद गंतव्य विद्या ही है, क्यूंकि आजकल तो कुछ वेद मनीषि ऐसा भी कहते हैं, कि अथर्ववेद कोई वेद ही नहीं है…, और ऐसे कहने के लिए वो मनीषि कुछ मनोलोक से जुड़े हुए कारण भी बताते हैं I
कपाल के पञ्च रंध्र, कपाल के पाँच रंध्र, … रंध्र विज्ञान और स्वतंत्रता, … रंध्र विज्ञान से स्वतंत्रता, … कपाल के पाँच रंध्र और स्वतंत्रता, … बोधिसत्व सिद्धांत, …
कपाल में पाँच रंध्र होते हैं I कपाल के इन पाँच रंध्रों में से किसी भी एक रंध्र से परे जाकर, साधक मुक्ति को पा सकता है, इसलिए यह आवश्यक नहीं कि साधक (अर्थात साधक की चेतना) को कपाल के इन सभी पञ्च रंध्रों से जाना होगा (या साधक की चेतना को सभी रंध्रों को पार करना होगा) I
यदि साधक के कपाल इन पाँच रंध्रों में से किसी भी एक रंध्र को पार कर जाएगा तो भी वो साधक कैवल्य को ही पाएगा, क्यूंकि कपाल के सारे रंध्र उसी गंतव्य यान (या निर्गुणयान) के ही अखण्ड अंग होते हैं I
लेकिन कपाल के पाँच रंध्रों में से किसी एक को पार करने पर यदि साधक को कैवल्य नहीं चाहिए, तो इस रंध्र विज्ञान का साक्षात्कारी साधक उस कैवल्य को कुछ समय तक (या कुछ समय के लिए) आगे की ओर ठेल सकता है I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जबकि साधक अपने कैवल्य को अनादि कालों तक तो आगे नहीं ढ़केल पाएगा, लेकिन इससे कम समय तक वो साधक अपने कैवल्य को अवश्य ही किसी आगे की दशा या आगे के समय के लिए स्थगित कर पाएगा I
टिपण्णी: इसी सिद्धांत पर बौद्ध पंथ का बोधिसत्व सिद्धांत आया है, जिसमे वो बोधिसत्व अपने निर्वाण को कुछ आगे के समय या आगे की किसी दशा के सिद्ध होने तक स्थगित (या स्थम्बित) कर देता है I
टिपण्णी: वैसे अपने पूर्व जन्म में, जब मैं भगवान बुद्ध का शिष्य, मैत्री कहलाया था, तब मैंने भी गुरुआज्ञा के अनुसार, कैवल्य को अपने अगले जन्म तक (अर्थात इस जन्म तक) स्थगित या स्थम्बित कर दिया था I और इसी के कारण आज उस मैत्री को भी बौद्ध पंथ में एक उच्च कोटि का बोधिसत्त्व कहा जाता है I
पर ऐसे साधक जो अपने कैवल्य को स्थगित कर सकें या आगे के समय में ढ़केल सकें, वो विरले ही होते हैं I
और ऐसा विरला साधक भी अपने कैवल्य को तबतक ही स्थगित कर पाएगा, जबतक उसने कपाल के इन पाँचों रंध्रों को पार नहीं कर लिया I इसका अर्थ हुआ, कि जबतक यह पाँचों रंध्र पार नहीं होते, तबतक ही साधक अपनी कैवल्य मुक्ती को स्थगित कर सकता है I
लेकिन जब कोई साधक, कपाल के इन पाँचों रंध्रों को एक-एक करके पार कर जाएगा, तो इसके पश्चात उस साधक को कैवल्य मुक्त होना ही पड़ेगा, क्यूँकि पाँचों रंध्रों को पार करके, कोई भी अपने कैवल्य मोक्ष को, और आगे ढ़केल नहीं सकता I
इसलिए, जिस भी जन्म में किसी योगी ने इन पांचों रंध्रों को पार कर लिया होगा, तो वो जन्म उस योगी का अन्तिम जन्म ही होगा I
ऐसी दशा में वो योगी अपनी कैवल्य मुक्ति को उस जन्म के प्रारब्ध के पूर्ण होने तक ही आगे की ओर ढ़केल पाएगा, और इसीलिए अपने देहावसान के समय पर, वो योगी कैवल्य (मोक्ष) को ही पाएगा I
जो योगी इन पाँचों रंध्रों को पार कर जाएगा, वो ही योगी इन पाँचों के बारे में जानता होगा…, अन्य कोई भी नहीं I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि इन पाँचों को जानने के लिए, अपने जीव इतिहास में उस साधक को बाकी चार रंध्रों को पार करके…, अपनी मुक्ति को चार बार आगे की ओर ठेलना होगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
कपाल के पांच रंध्रों को एक-एक करके पार करने पर, यदि साधक चाहे तो वो साधक अपनी कैवल्य मुक्ती में स्थापित हो सकता है I इस अध्याय में ऐसा पूर्व में बताया गया है I
लेकिन इस अध्याय में कुछ बाद में बताए गए हृदयरंध्र को यदि साधक की चेतना पार करेगी, तो साधक कैवल्य मुक्त होगा या नहीं…, इसका ब्रह्माण्डीय इतिहास में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है I
और जैसे पूर्व में कहा था, कि नाभि रंध्र के बारे में तो बताया ही नहीं जाएगा, इसलिए जब इस नाभि रंध्र को चेतना पार करती है, तब जो होता है, वो साधकगण अपने अनुभव से ही जानें I
रंध्र के पाँच प्रकार, … रंध्र के पाँच प्रभेद, … कपाल के रंध्र और पञ्च कृत्य, … पञ्च रंध्र और पञ्च कृत्य, …
रंध्रों के मूलतः पाँच प्रकार या प्रभेद होते हैं I
यह प्रभेद पञ्च कृत्यों के अनुसार ही होते हैं I
लेकिन यहाँ पर यह प्रभेद, पाशुपत मार्ग के अनुसार, राजयोग में बसकर, पञ्च मुखी सदाशिव के ज्ञानानुसार बताए जा रहे हैं I
तो अब रंध्र के इन प्रभेदों या प्रकारों को बताता हूँ …
- उत्पत्ति … यह उस रंध्र का होता है, जिसका नाता पितामहगुरु ब्रह्माजी से है I ऐसे रंध्रों का नाता, सदाशिव के सद्योजात मुख से होता ही है I
- स्थिति … यह उस रंध्र का होता है, जिसका नाता सनातनगुरु विष्णु से है I ऐसे रंध्रों का नाता, सदाशिव के वामदेव मुख से होता ही है I
- संहार … यह उस रंध्र का होता है, जिसका नाता परमगुरु शिव से है I ऐसे रंध्रों का नाता, सदाशिव के अघोर मुख से होता ही है I
- निग्रह या तिरोधान … यह उस रंध्र का होता है, जिसका नाता गुरुमाँ (माँ शक्ति या देवी माँ) से है I ऐसे रंध्रों का नाता, सदाशिव के तत्पुरुष मुख से होता ही है I
- अनुग्रह … यह उस रंध्र का होता है, जिसका नाता गणेश्वर (गणपति देव) से है I ऐसे रंध्रों का नाता, सदाशिव के ईशान मुख से होता ही है I
रंध्र कितने होते हैं … शरीर में कितने रंध्र होते हैं, …
जितने वैदिक देवी देवता हैं, उतने रंध्र साधक की पिण्ड रूपी काया में होते हैं I
इसका कारण है, कि साधक के शरीर में प्रत्येक देवी देवता का रंध्र होता है और उस रंध्र से जाकर, उस रंध्र के देवी देवता और उनके लोक का साक्षात्कार होता है I
क्यूंकि वैदिक देवी देवताओं की तैंतीस कोटि होती हैं, इसीलिए, रंध्र भी इतने ही प्रकार के होते हैं I
क्यूंकि देवी देवताओं के परिवार भी होते हैं, इसलिए जब साधक किसी देवी देवता के रंध्र में जाता है, तब वो साधक उस रंध्र के देवी देवता के परिवार को भी पाता है, और ऐसा होने के पश्चात, वो साधक उस दैविक परिवार के समस्त देवत्व बिंदुओं को धारण भी कर सकता है (यहाँ कर सकता है, ऐसा कहा गया है…, न कि करेगा, ऐसा कहा गया है) I
टिपण्णी: लेकिन यहाँ पर केवल प्रधान देवी देवताओं के रंध्र पर ही बात होगी I इसका कारण है, कि एक अध्याय में ही सभी रंध्रों को बताना असम्भव ही है I और जिन रंध्रों पर बात भी होगी, वो संक्षेप में ही होगी, ताकि मैं उस त्रुटि का भागी न बनूँ, जो इस रंध्र विज्ञान को अधिक रूप में बताने से आती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, वो साधक जो इस रंध्र विज्ञान के वास्तविक पात्र होंगे, वो उन नहीं बताए गए बिंदुओं को, उनकी अपनी साधनाओं में जान ही जाएंगे I
रंध्र विज्ञान का मूल भाव और मार्ग, … रंध्र विज्ञान और ब्रह्माण्ड धारणा … रंध्र विज्ञान और ब्रह्माण्ड योग, …
यदि तुम्हे इस बताए गए रंध्र विज्ञान पर जाना है, तो अपने मूल भाव को ब्रह्माण्ड धारणा के शब्द में पूर्ण स्थापित करो I
और जब तुम ऐसा कर लोगे, तो तुम ब्रह्माण्ड योग को प्राप्त होगे, और जहाँ वो ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म की जीव जगत स्वरूप में अभियव्यक्ति ही होगा I ऐसी दशा में, तुम ही जीव और जगत अर्थात ब्रह्माण्ड होंगे…, और तुम ही ब्रह्म I
तुम्हारी ऐसी आंतरिक योगदशा में ही तुम रंध्र विज्ञान को पूर्णरूपेण जानोगे…, अन्यथा नहीं I
यदि तुम ऐसे नहीं हुए, तो भी तुम रंध्र विज्ञान में जाके कुछ न कुछ पा लोगे I लेकिन वो पाया हुआ बिंदु (या पाए हुए बिंदु) उस रंध्र की पूर्णावस्था की प्राप्ति होगा…, ऐसा कभी भी नहीं हो पाएगा I
इसलिए यदि रंध्र विज्ञान को पूर्णरूपेण पाने के इच्छुक हो, तो अपने मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण सहित…, अपने ही भाव साम्राज्य में ब्रह्माण्ड धारणा में पूर्णरूपेण जाओ I
इसी ब्रह्माण्ड धारणा में बसकर, तुम्हारा आगे का मार्ग खुलेगा … अन्यथा नहीं I
और ऐसी दशा में, तुम ही वो ब्रह्माण्ड होंगे, जो ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I और इसी ब्रह्मअभिव्यक्ति स्वरूप ब्रह्माण्ड का आलम्बन लेके, तुम ब्रह्मलीन भी हो पाओगे I
और तुम्हारे ब्रह्मलीन होने का मार्ग भी यहां बताए जा रहे रंध्र विज्ञान से ही जाएगा I
रंध्र विज्ञान के निषेध, … इस पूरे ग्रंथ के निषेध, … ब्रह्मपथ के निषेध, “स्वयं ही स्वयं में” के मार्ग के निषेध, … आत्ममार्ग के निषेध, …
इस ग्रन्थ के कई निषेध हैं, तो उनमें से मुख्य को बताता हूँ …
- मांसाहार का पूर्णरूप में निषेध I
- मदिरापान का पूर्णरूप में निषेध (लेकिन धूम्रपान कर सकते हो) I
- परस्त्री गमन और परपुरुष गमन का पूर्णरूप में निषेध I
- अष्टांग योग के बिन्दुओं के उलंघन का निषेध (लेकिन जो साधक वाममार्गी हैं, वो उनके अपने मार्ग परंपरा के अनुसार ही इस बिन्दु का पालन करें) I
- अपनी गुरु आदि परंपराओं के उलंघन का निषेध, लेकिन केवल तबतक ही जब ऊपर बताए गए बिंदुओं का निषेध बना रहे I
इस रंध्र विज्ञान में …
परम्पराओं का तारतम्य होने पर भी, इसकी गंतव्य सिद्धि में तारतम्य नहीं है I
इसलिए इसपर किसी भी वेदोचित परंपरा का साधक जा सकता है I
यही कारण है, कि इस रंध्र विज्ञान में सनातन वैदिक आर्य धर्म के अंतर्गत आती हुई प्रशस्त परम्पराओं पर कोई भी निषेध नहीं है, क्यूंकि किसी भी उत्कर्ष मार्गी वैदिक या योगिक परंपरा के अंतर्गत रहकर भी, यह ज्ञान समान रूप में सिद्ध होता है I
और यह भी वो कारण है, कि मेरे पूर्व जन्मों के पुरातन कालों में, इस रंध्र विज्ञान में किसी भी प्रशस्त सनातन परंपरा के कारण कोई भी निषेध नहीं था, लेकिन केवल तबतक, जबतक वो परंपरा वैदिक अथवा यौगिक मार्गों की थी I
इसीलिए …
जबतब उस परंपरा के मूल में योग है और गंतव्य में वेद है, तबतक उस परंपरा में बसकर इस रंध्र विज्ञान पर जाया जा सकता है I
आगे बढ़ता हूँ …
और एक बात, कि कुछ ही वर्षों में, इस त्रिभुवन में गुरुयुग (या वैदिकयुग) का प्रकाश होने वाला है, अर्थात इस समस्त त्रिभुवन में, गुरुयुग आने वाला है I
प्रत्येक गुरुयुग में, श्रीमन नारायण ही सार्वभौम सम्राट और सर्वोत्कृष्ट गुरु होते हैं I
और प्रत्येक गुरुयुग में, यह रंध्र विज्ञान होता ही है I
यही कारण है कि इस रंध्र विज्ञान का ज्ञान, यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है I
गुरुयुग की समय सीमा 2 मानव सतयुगों की होती है, अर्थात 4,800 x 2 = 9600 वर्षों की होती है I लेकिन यह गणना वैदिक समय इकाई से की गई है I
और आज की समय इकाई में, यही समय सीमा …
[(9,600 / 66.6666667) x 71.6] = 10310.4 वर्षों की है I
पर क्यूंकि यह समय इकाई अगले कोई 11,000 वर्षों तक घटती ही चली जाएगी, इसीलिए इसकी औसत समय सीमा, वैदिक इकाई की समय सीमा की ही होगी I
रंध्र विज्ञान का यान स्वरूप, रंध्र का यान स्वरूप, … रंध्र कैसे यान कहलाया था, …
रंध्र, यान स्वरूप भी होता है, जो साधक की चेतना को, उस रंध्र के देवता के लोक में सीधा सीधा लेके जाता है I
इसीलिए, उस पुरातन रंध्र विज्ञान को यान शब्द से भी सम्बोथित किया गया था I
रंध्र का देवलोकों से संबंध, … रंध्र का देवादि लोकों से संबंध, …
प्रत्येक रंध्र किसी न किसी देवादि लोक से सम्बंधित होता है, जिसके कारण प्रत्येक रंध्र के देवत्वादि बिंदु भी होते हैं I इसीलिए, रंध्र से जाकर उस रंध्र के देवत्वादि बिन्दुओं का साक्षात्कार भी हो सकता है I
यह गुप्त द्वार साधक के शरीर में ही होते हैं, और इन गुप्त द्वारों से जाकर साधक सीधे-सीधे उस द्वार (या रंध्र) के देवत्वादि बिन्दुओं को पा भी सकता है I
इसका अर्थ हुआ, कि जिस देवत्वादि बिन्दु को वो रंध्र दर्शाता है, उसको साधक पा भी सकता है, जैसे ही वो साधक उस रंध्र के भीतर जाकर उस रंध्र का साक्षात्कार करेगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यह रंध्र अति गुप्त स्वरूप में साधक के शरीर रूपी पिण्ड में ही होते हैं, और जब साधक की चेतना किसी रंध्र से जाती है, तब वो चेतना सीधे सीधे उस रंध्र के देवता के लोक में भी चला जाती है I
रंध्र उसके देवता का अखण्ड भाग है, … रंध्र उसके देवलोक का अखण्ड भाग है, … रंध्र देवलोक का पिण्डात्मक स्वरूप है, … रंध्र देवता का पिण्डात्मक स्वरूप है, … साधक का देव स्वरूप, … देव स्वरूप की प्राप्ति, … देवत्व की प्राप्ति, …
जैसा देवलोक होता है, वैसा ही उस देवलोक का रंध्र साधक के शरीर में भी होता है I इसका अर्थ हुआ, कि ब्रह्म की रचना के समय पर, जब देवलोक साधक के शरीर में बसाया गया था, तो वो देवलोक रंध्र रूप में ही बसाया गया था I
जैसे कोई देवलोक का देवता होता है, वैसा ही वो साधक भी हो जाता है, जब वो साधक उसके अपने पिण्ड रूपी शरीर के भीतर के उस रंध्र में चला जाता है, जो उस देवलोक का द्योतक ही होता है I
प्रत्येक रंध्र ऐसा ही होता है, इसीलिए यहाँ बताए जा रहे पुरातन रंध्र विज्ञान से साधक रंध्र में जाकर, उस रंध्र के देवता का ही स्वरूप हो जाता है I
इसीलिए यह पुरातन रंध्र विज्ञान, साधकों के देव स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग भी है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
रंध्र उसके अपने देवादि सत्ता का अखण्ड भाग होता है, जो साधक के पिण्ड में ही होता है I
इसका अर्थ हुआ, कि जैसी वो देवादि सत्ता होती है और जैसे उसका स्वरूप और गुणादि होते है, वैसे ही उस देवादि सत्ता का रंध्र भी होता है I
लेकिन इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि साधक के पिण्ड में बसा हुआ रंध्र, वास्तव में उस रंध्र के देवता के लोक का ही अभिन्न अंग होता है I
जैसे जब देवलोक में जाकर, किसी देवलोक के देवता का साक्षात्कार हो जाता है, वैसे ही उस देवता के रंध्र में जाकर होता है I
लेकिन रंध्र विज्ञान में जब साधक उस रंध्र को साक्षात्कार करके, उस रंध्र में बस जाता है (अर्थात उस रंध्र को पाता है), तब वो साधक उस रंध्र के देवता और उसके देवलोक का स्वरूप ही हो जाता है I
रंध्र अभिमानी देवताओं के होते हैं या अनाभिमानी देवताओं के …
रंध्र अभिमानी और अनाभिमानी देवताओं, दोनों के ही हो सकते हैं I
लेकिन यदि देवता अभिमानी हुआ तो वो देवता की कोई बहुत बड़ी सत्ता ही होनी होगी…, जैसे देवराज इंद्र I
और समस्त अनाभिमानी देवताओं के रंध्र तो होते ही हैं I लेकिन यदि वो देवता किसी परिवार का अंग है, तो उस देवता का रंध्र उसकी माता और पिता, दोनों के रंध्र में ही हो सकता है I
इसका उदारण है गणपति देव का रंध्र, अर्थात आज्ञा रंध्र (या त्रिनेत्र रंध्र) जो गणपति देव के अनुग्रह कृत्य का धारक होता है और जो शिवरंध्र से भी जुड़ा होता है I इसलिए शिवरंध्र संहार का रंध्र होने के अतिरिक्त, तारक (या अनुग्रह) रंध्र भी होता है I
और गणपति देव का रंध्र, अर्थात आज्ञा रंध्र (या त्रिनेत्र रंध्र) उनकी माता शक्ति के देवीरंध्र से भी जुड़ा होता है I और इसीलिए देवीरंध्र भी तिरोधान (या निग्रह) का रंध्र होने के अतिरिक्त, युद्धविद्या और तारक (या अनुग्रह का) रंध्र भी होता है I
जब किसी रंध्र के भीतर से साधक की चेतना जाती है, तो वो साधक उस रंध्र के देवता के लोक को भी पा जाता है I
और यह पाना भी सीधा-सीधा होता है, अर्थात इस पाने के मार्ग में बीच के कोई और बिंदु नहीं होते हैं I
रंध्र विज्ञान का ब्रह्मत्व पथ स्वरूप, … रंध्र विज्ञान का ब्रह्मत्व मार्ग स्वरूप, … रंध्र विज्ञान का ब्रह्मत्व द्योतक स्वरूप, … रंध्र विज्ञान का ब्रह्मत्व ज्ञान स्वरूप, … रंध्र विज्ञान और ब्रह्मत्व …
इसीलिए रंध्र से जाकर उस रंध्र के देवलोक में जाया जाता है, और उस रंध्र के देवता का स्वरूप पाया जाता है I
यही कारण है, कि यहाँ बताया गया रंध्र विज्ञान, देवत्व प्राप्ति का बिंदु भी है I और जहाँ वो साधक उस देवत्व को भी, उस देवत्व के सकारी, निराकारी और निर्गुण, इन तीनों प्रधान स्वरूपों में ही प्राप्त करेगा यदि वो उस रंध्र में पूर्णरूपेण बसकर उस रंध्र से परे भी चला जाएगा I
और क्यूंकि यह तीनों स्वरूपों (अर्थात सकारी, निराकारी और निर्गुण) की सनातन योगावस्था ही पूर्ण कहलाई थी, और जहाँ वो पूर्ण भी ब्रह्म का ही वाचक था, इसलिए यह रंध्र विज्ञान, ब्रह्मत्व पथ होता हुआ भी, वास्तव में उस ब्रह्मत्व का द्योतक, सूचक और लिंगात्मक, ज्ञान और ग्रन्थ स्वरूप ही है I यह रंध्र विज्ञान, गुरु ग्रन्थ और गोविन्द तीनों का ही समान स्वरूप है I
और क्यूंकि इस रंध्र विज्ञान में बताए गए समस्त रंध्र ऐसा ही हैं, इसीलिए यदि साधक किसी एक रंध्र को ही पा जाए, तो भी उस रंध्र के समस्त देवत्व स्वरूपों का धारक हो जाएगा I
यही कारण है कि इस रंध्र विज्ञान की सिद्धि में, ऐसा आवश्यक है ही नहीं कि साधक समस्त रंध्रों के देवत्व बिंदु सिद्ध करे I
इसलिए यदि साधक इस रंध्र विज्ञान में बताए गए किसी एक रंध्र को ऊपर बताए गए बिंदुनुसार ही सिद्ध कर लेगा, तो भी वो साधक ब्रह्म के तीनों प्रधान स्वरूपों को पा जाएगा I
यह तीनो प्रधान स्वरूप हैं…, सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार I
जिस साधक ने किसी एक रंध्र से ही जाकर, इन तीनों को साक्षात्कार किया है, तो भी उस साधक के बारे में ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं यही कहेंगी, कि …
वो साधक वही पूर्ण है, वही गंतव्य है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और जिस साधक ने, इस अध्याय में बताए गए समस्त रंध्रों को साक्षात्कार करके सिद्ध किया होगा, वो साधक ही इस महाब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में —— … ऐसा ही कहलाएगा (मैं इसे बताना नहीं चाहता हूँ, इसीलिए —– ऐसा लिखा है) I
ऐसा —— कहलाए जाने वाला योगी, जब भी किसी भी लोक में लौटके आएगा, तो उस महाब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताएं, अपने अपने दुर्ग (मंदिर, स्थान, लोकदि) त्यागके, उस योगी के साथ खड़ी हो जाएंगी I
वो दिव्यताएं उस साधक की गुरु, गुरु माँ, माता आदि स्वरूपों में ही होंगी और ऐसा होने पर भी वो साधक, प्रधानतः पञ्च विद्या सरस्वती का ही कहलाएगा I
ऐसा साधक ही उस गुरुयुग का संस्थापक होता है, जो वैदिक युग, अर्थात मनुवादि और मानवतावादी युग होता है, और जिसके सार्वभौमिक सम्राट और सर्वव्यापक गुरु, सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण ही होते हैं I इसलिए यह गुरुयुग, महाब्रह्माण्ड सम्राट और महाब्रह्माण्ड सम्राट की गुरुगद्दी का युग भी कहलाता है I
ऐसा साधक कार्य ब्रह्म का स्वरूप पाता है, और उसके भाव में ही उसका साधन संहित होता है I
इसीलिए ऐसा योगी, काल की प्रेरणा से, उन दस हाथ वाली महाकाली की शक्ति से, सगुण ब्रह्म के आदेश से और माँ प्रकृति के मार्ग से, किसी भी किसी चलते हुए देवयुग को स्तम्भित करके, अपने सर्वव्यापक सर्वसिद्ध भाव रूपी योगबल से, ब्रह्माण्ड के द्वारा चिंन्हित लोक में, उस गुरुयुग को स्थापित कर पाता है, जो मनुवादी युग और वैदिक युग कहलाता है, और जिसको उन अनंत नारायण का युग भी कहा जाता है, जो परमेश्वर होते हैं I
ऐसा साधक कार्यब्रह्म स्वरूप, अर्थात सृष्टिकर्ता स्वरूप को धारण करके ही आएगा, और उन महाब्रह्माण्ड के सनातन गुरुदेव, श्रीमन अनंत नारायण का शिष्य भी कहलाएगा I
इसके अतिरिक्त, उसका मार्ग ब्रह्मपथ होगा, जिसमें उस साधक के ….
- परमगुरु शिव ही होंगे I
- परमगुरुदेवी माँ शक्ति (या देवी माँ) ही होंगी I
- अनुग्रह गुरु गणपति देव ही होंगे I
- देवत्व बिंदुओं के गुरु, देवराज इंद्र ही होंगे I
- रचनात्मक गुरू उस साधक के भीतर गुप्त रूप में बैठे हुए हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म के कार्यब्रह्म स्वरूप ही होंगे I
इसके अतिरिक्त, जब वो साधक गुरुयुग स्थापना हेतु अपने कार्य प्रारम्भ करेगा, तब देवराज इंद्र सहित, समस्त देवता गण, ऋषिगण, सिद्ध गण आदि सत्ताएँ भी उस साधक के साथ ही खड़ी हुई पाई जाएँगी I वो अपने सगुण साकार पिण्डात्मक शरीरी रूप में तो अकेला ही देखेगा, लेकिन वास्तव में उसके साथ महाब्रह्माण्ड की बहुत सारी सत्ताएं खड़ी हुई होंगी I
और ऐसा होने पर भी, वो साधक स्वयं को श्रीमन अनंत नारायण का नन्हा विद्यार्थी ही मानेगा, क्यूंकि उसको यह पता ही होगा, कि काया होने के कारण, काय रूप में, वो अनंत स्वरूप भी पूर्णरूपेण धारण नहीं होता I यही वो कारण है, कि वो साधक इस धरा पर लल्लु बन कर ही घूमेगा I
और समय आने पर, वो साधक वो सबकुछ कर जाएगा, जिसके देवत्वादि बिन्दुओं का वो धारक होगा I लेकिन ऐसा समय आने तक तो उसके परिवारादि परिचित जन, उसको लल्लू ही मानेंगे I
उस साधक का ऐसा होने का कारण भी वही है जो पूर्व में बताया था, कि पञ्च ब्रह्म का स्वरूप होता हुआ भी, काया धारण करके, वो स्वरूप पूर्णरूपेण नहीं होता I
इसका कारण है, कि प्राकृत काया धारण करने के पश्चात, साधक का ब्रह्म स्वरूप भी माँ प्रकृति के नियमों के आधीन ही होता है, इसलिए वो अपने देवत्वादि सत्य को भी अपने काया रूपी परिधान में तबतक पूर्णरूपेण स्वयंप्रकट नहीं कर सकता, जबतक जिन कार्यों के लिए वो उस धरा पर देवादि मार्गों से लौटाया गया है, उनका समय नहीं आ जाता I और ऐसे समय तक, वो लल्लू बनकर ही उस धरा पर विचरण करता रहता है I
और एक बात, कि वो स्वरूप माँ प्रकृति के नियमों का उलंघन करने में सक्षम तो होता है…, लेकिन ऐसा वो करेगा कभी भी नहीं क्यूंकि माँ सार्वभौम प्रकृति के नियमों का उलंघन का दंड, उसको पता होता है I
निर्गुणयान क्या है, सगुणयान क्या है, निर्गुणयान और सगुणयान, निर्गुणयान और पञ्च देव, सगुण यान और अभिमानी देवता, निर्गुणयान और अनाभिमानी देवता, …
पूर्व में बताया था, कि रंध्र यान रूप ही होते हैं I यहाँ कहे गए यान शब्द का अर्थ है, वो उत्कर्षयान जो मुक्ति की प्राप्ति करवा सके I
लेकिन, यह रंध्र तो सगुणत्मक यान भी होते हैं, और निर्गुणत्मक यान भी I इसीलिए यह पुरातन रंध्र विज्ञान, निर्गुणयान और सगुणयान दोनों का ही अंग है I
रंध्र का निर्गुण यान स्वरूप अनाभिमानी देवताओं से सम्बंधित होता है, और सगुण यान, अभिमानी देवताओं से I
आगे बढ़ता हूँ …
और जो रंध्र उस सर्वसम सर्वेश्वर चतुर्मुखा पितामह प्रजापति के हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप का होता है, वो सगुण यान भी है, और निर्गुण यान भी I
ऐसा होने का कारण है, कि हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म ही ऐसे देवता है, जो अभिमानी भी होते है, और अनाभिमानी भी I और कोई देवता हैं ही नहीं, जो ऐसा है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यहाँ कुछ सांकेतिक भी कह रहा हूँ …
पञ्च देवों के रंध्र, अनाभिमानी मार्ग के ही होते है, और यह पञ्च रंध्र, साधक के पिण्डात्मक शरीर में, साधक की कपाल ही होते है I
पञ्च देव के समस्त रंध्र, अतिऊर्जावान होते हुए भी, निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार का सीधा-सीधा मार्ग होते हैं I
लेकिन ऐसे साक्षात्कारों के गंतव्य में, वो ब्रह्म, अपने उस स्वरूप में होते है, जो साक्षात्कार का अंतिम स्वरूप है…, और जिनको निर्गुण निराकार कहा गया था I
यह अंतिम साक्षात्कार स्वरूप ही अनंत कहलाया था I
ऐसा होने के कारण ब्रह्म का अंतिम (या गंतव्य) स्वरूप ही वो अनंत कहलाया था, जिसको वैदिक वांड्मय में, निर्गुण निराकार कहा गया था I
- जब निर्गुण नामक शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वो निराकार ही अनंत कहलाता है I अनंत शब्द श्रीमन नारायण सहित, पञ्च देव का भी वाचक है I
- लेकिन जब सगुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग होता है, तब वो निराकार, अनंत ही होगा…, इसका कोई भी स्पष्ट प्रमाण न तो कभी था, न है और न ही आगे के कालखंडों में ही कभी पाया जाएगा I
इन सबका (अर्थात सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार का) और इन सबके छुपे हुए समस्त बिन्दुओं के साक्षात्कार भी, इसी पुरातन रंध्र विज्ञान से हो जाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसीलिए इस रंध्र विज्ञान में …
- सगुण … साकार होने के साथ साथ निराकार भी होता है I
- निर्गुण … वो निर्गुण जो समस्त रचना और रचना के तंत्र से भी केवल होता है…, वो केवल-निराकार स्वरूप में ही होता है I निर्गुण का निराकार स्वरूप ही अनंत कहलाता है I
और जब यह साक्षात्कार हो जाता है, तब ही वो साधक कहता है, कि …
ब्रह्म ही वो पूर्ण है, जो केवल कहलाता है I
ब्रह्म ही वो है, जो जीव जगत से अतीत होता हुआ भी, जीव जगत भी कहलाता है I
ब्रह्म ही है, जो सर्वातीत होता हुआ भी, रचना और रचना का तंत्र कहलाता है I
समस्त रचना और रचना का तंत्र भी ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही हैं I
जो कुछ भी है, जैसा भी है, जहाँ भी है, जिस भी कालखंड में है…, सब ब्रह्म ही है I
यहाँ बताया जा रहा रंध्र विज्ञान, ऊपर बताए गए साक्षात्कारों का मार्ग भी है I
रंध्र विज्ञान से निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार, … रंध्र विज्ञान से सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार, …
जब निर्गुणयान के किसी गुप्त द्वार (या रंध्र) से साधक की चेतना जाती है, तो वो साधक निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार भी करता है I
जो साधक (अर्थात जिस साधक की चेतना) इस पुरातन रंध्र विज्ञान में बताए गए समस्त बिन्दुओं को पूर्णरूपेण नहीं जानते, वो साधक ही कहते हैं, कि …
ब्रह्म को कौन जान पाया है? I
ब्रह्म को कोई भी जान नहीं पाया है I
बहुत सारे वेद मनीषि हुए थे, जो ऐसा ही कुछ कह गए थे I
और उनके ऐसे वाक्य इस बात का भी प्रमाण हैं, कि उन्होंने निर्गुणयान पर कभी भी गमन नहीं किया था I
और उनकी ऐसी बातें (या शब्द या वाक्य) इस बात का भी प्रमाण है, कि वो तो बस इस रंध्र विज्ञान के सगुणयान तक ही सीमित रहे थे I और यह सत्य तब भी उतना ही लागू होगा, यदि उन्होंने निर्गुण ब्रह्म के बारे में बताया होगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जो साधक (अर्थात जिस साधक की चेतना) इस पुरातन रंध्र विज्ञान में बताए गए समस्त बिन्दुओं को पूर्णरूपेण जानते हैं, वो साधक ही कहते हैं, कि …
यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म ही हो जाओ I
अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म हुए बिना, तुम ब्रह्म को जान ही नहीं पाओगे I
ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही होता है, … केवल ब्रह्म ही उस कैवल्य-ब्रह्म का ज्ञाता है I
यदि उस ब्रह्म को जानना है, तो उसी कैवल्य ब्रह्म के समान…, केवल हो जाओ I
वैदिक आश्रम चतुष्टय में, यही बिंदु संन्यास आश्रम के मूल सिद्धांत हुए थे I वैदिक संन्यास आश्रम यहाँ बताए गए बिंदुओं पर ही बसाया गया है I
ऐसे साधक यह बातें इसलिए कहते हैं, क्यूंकि इस पुरातन रंध्र विज्ञान में जाकर उन्होंने उस केवल रूपी ब्रह्म को जाना है I
इसलिए, ऊपर बताए गए सभी और ऐसे सभी वाक्य इस बात का प्रमाण भी हैं, कि ऐसा कहने वाले साधक, उस कैवल्य ब्रह्म के ज्ञाता (या साक्षात्कारी) भी हैं I
ऐसे साक्षात्कारी साधक यह भी कहते हैं …
अपने आत्मस्वरूप में ही ब्रह्म हुए बिना, ब्रह्म को जाना ही नहीं जा सकता I
ब्रह्म को जानने वाला भी ब्रह्म ही है … ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
जो योगी ब्रह्म का ज्ञाता है, वो योगी भी ब्रह्म ही है I
उस केवल रूपी ब्रह्म का ज्ञानमय साक्षात्कार, ब्रह्म हुए बिना नहीं होगा I
यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म हो ही जाओ I
और ऐसा ब्रह्म होने का मार्ग भी, तुम्हारे आत्मस्वरूप से ही होकेर जाता है, जिसके साक्षात्कार का मार्ग…, यही पुरातन रंध्र विज्ञान भी है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसलिए जिसने ब्रह्म को पूर्णरूपेण जाना है, अर्थात सगुण और निर्गुण, साकार और निराकार, इन दोनों और इनके चरों स्वरूपों में जाना है, वो साधक भी वो ब्रह्म ही है, जो पूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है I
और उस पूर्ण (अर्थात ब्रह्म) का साक्षात्कार भी, इस पुरातन रंध्र विज्ञान से होकर जाता है I बिना इस विज्ञान से गए हुए, उस ब्रह्म के पूर्णस्वरूप का साक्षात्कार भी असंभव सा ही है I
इसलिए जिन योगीजनों ने ब्रह्म को पूर्ण शब्द से सम्बोधित किया था, और जिसका स्पष्ट प्रमाण वैदिक वाङ्मय में पाया जाता है, वो योगीजनों ने ऐसा तभी कहा था, जब उन्होंने भी ब्रह्म के सगुण साकार और सगुण निराकार स्वरूपों सहित, ब्रह्म के निर्गुण निराकार स्वरूप का भी साक्षात्कार किया था I
और एक बात बता देता हूँ, कि जब यह पूर्ण साक्षात्कार होता है, तब …
- जो ब्रह्म का सगुण साकार स्वरूप है, उसका साक्षात्कार सगुण निर्गुण साकार और बिंदु शून्य के स्वरूपों में भी होना होगा I
- और जो ब्रह्म का सगुण निराकार स्वरूप है, उसका साक्षात्कार सगुण निर्गुण निराकार, शून्य और शून्य ब्रह्म स्वरूपों में भी होना होगा I
- और यदि किसी साधक को ऊपर बताए गए समस्त बिन्दुओं में, उनकी सभी दशाओं का साक्षात्कार नहीं होगा, तो वो साधक वो भी नहीं कह पाएगा, जो नीचे लिखा गया है…,
जो योगी उस ब्रह्म का ज्ञाता है, और मानता है कि वो उस ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानता है…, वास्तव में वो योगी उस ब्रह्म को नहीं जानता है I
और जो योगी उस ब्रह्म का ज्ञाता है, और मानता है कि वो उस ब्रह्म को पूर्णरूपेण नहीं जानता है…, वो ही उस ब्रह्म का वास्तविक ज्ञाता है I
और जो योगी उस ब्रह्म का वास्तविक ज्ञाता है…, वो योगी भी तो ब्रह्म ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
ऐसा इसीलिए कहा गया था, क्यूंकि अपने गंतव्य स्वरूप में, अर्थात अपने निर्गुण निराकार स्वरूप में, वो ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानना असंभव सा ही है I
इसका कारण है, कि …
- उस निर्गुण ब्रह्म में न तो मन होता है, न ही बुद्धि, न ही चित्त, न अहम्, न इन्द्रियाँ, न इन्द्रिय विषय, न कोई गुण, न भेद या अभेद, न कोई आयाम और न ही कुछ और ही होता है I
- और ऐसा होने पर भी वो ब्रह्म, इन सभी बिंदुओं के भीतर बसा हुआ, इन सभी बिंदुओं का मूल और अमूल गंतव्य, दोनों ही होता है I
इसलिए जब योगी अपने चेतना स्वरूप में उस निर्गुण ब्रह्म को जाता है, तो उस योगी के पास भी इन बताए गए (और यहाँ नहीं बताए गए), किसी भी बिंदु में से…, कुछ भी नहीं होता है I
जब योगी के पास ब्रह्म को जानने के लिए कुछ होता ही नहीं, तो वो उस ब्रह्म में बसकर, और अंततः विलीन होकेर…, उस ब्रह्म को कैसे जानेगा? I
इसलिए, उस ब्रह्म को जानना भी तबतक ही होता है, जबतक उस ब्रह्म में योगी की चेतना का लय नहीं होता है I
लय होने के पश्चात, उसको जानना असंभव सा ही है I
यही कारण है, कि उस ब्रह्म को जानने के बाद भी, यह मानना असंभव सा ही है…, कि उसको तुम पूर्णरूपेण जानते हो I
और उस ब्रह्म को जानने का मार्ग भी, उस योगी के आत्मस्वरूप को जानकार ही प्रशस्त होता है I
और जहाँ उस ब्रह्मज्ञाता (अर्थात वो ब्रह्मलीन योगी) का आत्मस्वरूप भी वो ब्रह्म ही होता है, जो सगुण साकार, सगुण निर्गुण साकार, बिंदु शून्य, सगुण निराकार, शून्य, शून्य ब्रह्म के क्रम में जाने योग्य होता हुआ भी, वास्तव में निर्गुण निराकार ही होता है I
और उसी निर्गुण निराकार आत्मस्वरूप में ही यह सभी बिंदु बसे हुए होते हैं और यह सभी बिंदु भी इसी क्रम में और ऐसे पाए जाते हैं I
और उसके साथ साथ, वो निर्गुण निराकार आत्मस्वरूप भी इन सभी बिंदुओं में बसा हुआ पाया जाता है I
और क्यूँकि जैसे पूर्व में भी बताया गया था, कि ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही होता है, इसलिए उस ब्रह्म को इन सभी बताए गए बिंदुओं का आलम्बन लेके तो जाना जा ही नहीं सकता I
इसी कारणवश पूर्व में बताया था, कि यदि उस “ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानना है” और इसके पश्चात यह भी मानना है, की “तुम उसको पूर्णरूपेण नहीं जानते हो”, तो उसको अपने ही आत्मस्वरूप में जानो I
ऐसे जानने के पश्चात …
तुम वो ब्रह्म ही होगे, जो जानने योग्य होता हुआ भी, और जानने के बाद भी…, पूर्णरूपेण जाना गया है या नहीं…, तुम यह जान ही नहीं पाओगे I
लेकिन इस सबका यह अर्थ तो बिलकुल नहीं है, कि उस ब्रह्म को जाना ही नहीं जा सकता I
तुम तबतक पूर्णरूपेण नहीं जान पाओगे, जबतक तुम अपनी आंतरिक स्थिति में ही उस निर्गुण ब्रह्म के समान, इस समस्त जीव जगत और इस जीव जगत के समस्त तंत्र से ही अतीत नहीं हो जाओगे I
और यह जानने का मार्ग भी इसी अतिगुप्त और पुरातन रंध्र विज्ञान से ही होकेर जाता है, जिसमे “उस ब्रह्म को पूर्णरूपेण जानने के पश्चात भी साधक यही मानेगा, कि वो उसको पूर्ण रूप में नहीं जानता है” I
और ऐसा साधक यह भी कहेगा, कि वो उस ब्रह्म को उतना ही जानता है, जितना जानना इस जीव जगत में रहकर संभव हो सकता है…, न इससे न्यून और न ही इससे अधिक I
इसलिए ऐसा साधक यह भी कहेगा, कि इस जीव जगत में बसकर, जितना संभव हो सकता है, उतना ही वो ब्रह्म जाना जा सकता है I
और यह दशा उस ब्रह्म का पूर्ण साक्षात्कार है या नहीं…, वो जानना असंभव सा ही है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसलिए, मैं इस रंध्र विज्ञान के बारे में ऐसा भी बोल रहा हूँ, कि इस पुरातन विज्ञान से …
- उस ब्रह्म को, तुम तुम्हारे अपने आत्मस्वरूप में पूर्णरूपेण जान सकते हो I
- लेकिन ऐसा पूर्ण रूपेण जानने के पश्चात, तुम यह मान नहीं ही पाओगे, कि तुम उसको पूर्णरूपेण जान गए हो I
- और ऐसे होने के पश्चात भी, वास्तव में तुम उस पूर्ण शब्द से बताए गए ब्रह्म के…, पूर्णज्ञाता ही हो I
- और जहाँ वो पूर्ण शब्द से बताया गया ब्रह्म भी, तुम्हारा अपना आत्मस्वरूप ही है I
- जो योगी ऐसा जानेगा, वो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, इस पूर्ण शब्द से बताया गया…, ब्रह्म ही कहलाएगा I
तो अब मैं आगे बढ़ता हूँ और इस पुरातन रंध्र विज्ञान को बतलाता हूँ, जिससे जाकर योगीजन पूर्ण होते थे, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, वो पूर्ण ब्रह्म ही कहलाते थे I
कपाल के रंध्र, … कपाल के पञ्च रंध्र, … पंचरंध्र, … निर्गुणयान, अद्वैतयान, निर्विकल्पयान, … ब्रह्मयान, शिवयान, विष्णुयान, देवीयान, …

यह चित्र कपाल के ऊपर के भाग के रंध्रों को दर्शा रहा है I
इस चित्र में …
- कपाल के ऊपर का भाग दिखाया गया है I आकाश में उड़ती चिड़िया जैसे कपाल को देखेगी, उसी अवस्था को यह चित्र दिखा रहा है I
- तीर, मुख के आगे की दिशा को दर्शा रहा है, अर्थात इस तीर की दिशा में ही साधक आगे की ओर देख रहा है (या इस तीर की दिशा में साधक का मुख है) I
- साधक के कपाल के सबसे आगे का (और इस चित्र में सबसे ऊपर का) गोलाकार चिन्ह, देवीरंध्र का है I यह बहुत सूक्ष्म हकले-श्वेत वर्ण का होता है जिसको एक और बहुत सूक्ष्म हलके-गुलाबी वर्ण ने घेरा होता है I श्वेत वर्ण परा प्रकृति (अर्थात माँ आदिशक्ति) का द्योतक है, और गुलाबी वर्ण अव्यक्त प्रकृति (अर्थात माँ माया या ब्रह्मशक्ति) का द्योतक है I लेकिन इस चित्र में वो सूक्ष्म हल्का-गुलाबी वर्ण दिखाया नहीं गया है I
- इस देवीरंध्र के नीचे के बड़े आकार का गोलाकार चिन्ह, ब्रह्मरंध्र का है I
- उसके नीचे का गोलाकार चिन्ह, शिवरंध्र का है I
- और सबसे नीचे का अर्धचन्द्राकार चिन्ह, विष्णुरंध्र का है I
आगे बढ़ता हूँ …
तो अब इन रंध्रों को एक एक करके थोड़ा विस्तार में बताता हूँ …
कपाल में पाँच रंध्र होते हैं I
इन पाँच में से, चार तो कपाल के ऊपर के भाग में होते हैं, और एक रंध्र भ्रूमध्य में होते है I
यह पांचो रंध्र उन पञ्च ब्रह्म के होते हैं, जो अपनी वास्तविकता में है तो निर्गुण ही हैं, लेकिन तब भी वही पञ्च ब्रह्म उनकी अभिव्यक्ति स्वरूप में यह समस्त जीव जगत होने के साथ साथ, जीव जगत के पञ्च कृत्य स्वरूप में इस जीव जगत के पञ्च तंत्र भी हुए हैं I
कपाल के रंध्रों का आलम्बन लेके जाने वाले मार्ग को ब्रह्मयान, निर्गुणयान, निर्विकल्पयान और अद्वैतयान आदि शब्दों से कहा गया है I
तो अब इन शब्दों को बताता हूँ …
- ब्रह्मयान … इसका अर्थ है, ब्रह्म का यान और अंततः यह उन निर्गुण ब्रह्म को ही दर्शाता है I
- अद्वैतयान, निर्विकल्पयान … इसका अर्थ है, अद्वैत ब्रह्म का यान I अद्वैत का अर्थ होता है जिसमें कोई द्वैतवाद के बिंदु न हों I लेकिन ऐसी दशा वो विकल्पविहीन भी होती है, इसलिए इसको निर्विकल्पयान भी कह सकते हैं I
- निर्गुणयान … इसका अर्थ है, निर्गुण निराकार ब्रह्म का यान I
वैसे यह सभी नाम इनकी अंतगति में उसी निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही दर्शाते हैं I और ऐसे होने के पश्चात भी, इन रंध्रों के यान या मार्ग से, सगुण ब्रह्म के साक्षात्कार से ही निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होता है I
यहाँ बताया गया कुछ भाग तो किसी न किसी शास्त्र में मिल जाएगा, लेकिन कुछ ऐसा भी भाग है, जो कहीं नहीं मिलेगा क्यूंकि जबतक गुरुयुग आगमन का समय न हो जाए, तबतक इस ज्ञान को प्रत्येक युग में गुप्त ही रखा जाता है I
और गुरु युग के उस विप्लवयुक्त समापन समारोह से कुछ दशक पूर्व, इस रंध्र विज्ञान को, इसके ज्ञाताओं को और इसके ग्रन्थों को भी इस धरा से उठा भी लिया जाता है I
इसलिए यह रंध्र विज्ञान केवल गुरुयुग (या ब्वैदिक युग) में ही प्रकाशित रहता है…, और किसी भी युग में यह विज्ञान नहीं होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
कपाल के जो पाँच रंध्र होते हैं, उनके नाम ऐसे कहे जा सकते हैं …
- ब्रह्मरंध्र … यह पितामहगुरु ब्रह्मा का रंध्र है, और यह उत्पत्ति कृत्य का धारक होता है I इसको ब्रह्मयान भी कहा जा सकता है I
- शिवरंध्र … यह परमगुरु शिव का रंध्र है, और यह संघार कृत्य का धारक होता है I इसको शिवयान भी कहा जा सकता है I
यही शिवरंध्र मेरे इस परकाया प्रवेश से प्राप्त हुए जन्म के गंतव्य गुरु का रंध्र है I
इस शिवरंध्र से जाते हुए मार्ग के बारे में एक बाद की अध्याय श्रंखला में बतलाया जाएगा…, जिसका नाम रकार मार्ग होगा I
- विष्णुरंध्र … यह सनातनगुरु या अनंतगुरु, श्री विष्णु का रंध्र है, और यह स्थिति कृत्य का धारक होता है I इसको विष्णुयान भी कहा जा सकता है I
- देवीरंध्र या शक्तिरंध्र … यह मातृगुरु, माँ शक्ति (देवी माँ) का रंध्र है, और यह निग्रह कृत्य या तिरोधान कृत्य का धारक होता है I इसको देवीयान और शक्तियान भी कहा जा सकता है I
- आज्ञारंध्र या त्रिनेत्ररंध्र … यह चिन्ह भ्रूमध्य में होता है I यह स्वयंजागृत रंध्र है, जो अनुग्रहगुरु या मुक्तिगुरु, गणपति देव का रंध्र है, और यह अनुग्रह कृत्य का धारक होता है I इसको गणपतियान अनुग्रहयान, गणेशयान, कैवल्ययान और मुक्तियान भी कहा जा सकता है I ऊपर के चित्र में यह आज्ञारंध्र या त्रिनेत्ररंध्र दिखाया नहीं गया है, क्यूंकि यह चित्र तो कापाल के ऊपर के भाग का ही है, जिसमे भ्रुमध्य का यह चिन्ह दिखाया ही नहीं जा सकता है I लेकिन कुछ बाद के एक और चित्र में इसके बारे में बताया जाएगा I
विष्णुरंध्र, … विष्णुयान, … अद्वैतयान, … निर्गुणयान, … सनातन गुरु यान, … सनातन गुरुदेव का यान, गुरुगद्दी यान, गुरु यान और वेद यान, … सार्वभौम सम्राट का यान, सम्राट यान, … पालनहार यान, … गुरुगद्दी यान, … वेद यान, … गुरुगद्दी का यान, … गुरु यान, … वैष्णव यान, …

सर्वप्रथन कुछ शब्दों को बताता हूँ …
- विष्णुयान … यहाँ श्री विष्णु के यान को ही विष्णुयान कहा गया है I
- सार्वभौम सम्राट का यान, सम्राट यान, … लेकिन अपने मूल रूप से श्री विष्णु ही तो समस्त ब्रह्माण्ड के सम्राट होते हैं क्यूंकि महाप्रलय के पश्चात, सबकुछ (अर्थात महाप्रलय से पूर्व का जीव और जगत) श्रीमन नारायण में ही तो निवास करता है I और क्यूँकि श्री विष्णु ही तो इस जीव जगत के सम्राट होते हैं, इसलिए विष्णु यान को ही सम्राट यान कहा गया है I
- सनातन गुरु यान, सनातन गुरुदेव का यान, … इसके अरिरिक्त, श्री विष्णु ही तो मेरे सनतन गुरुदेव हैं, जो मेरी एक हृदय गुफा में ही निवास करते हैं, इसीलिए विष्णु यान को ही सनतानगुरु यान कहा गया है I
- पालनहार यान, … और वही श्री विष्णु ही तो इस जीव जगत के पालनहार हैं, इसीलिए इसी विष्णु यान को पालनहार यान भी कहा गया है I
- गुरुगद्दी यान, गुरु यान और वेद यान, … और क्यूँकि श्री विष्णु ही समस्त वैदिक और योग गुरुगद्दीयों के प्रथम गुरुदेव हैं, इसीलिए इसी विष्णुयान को गुरुगद्दी यान, गुरु यान और वेद यान भी कहा गया है I
- यह विष्णुयान, उस निर्गुणयान का ही अंग है, जिसको मैं अद्वैतयान और ब्रह्मयान भी कहता हूँ I यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ, श्री विष्णु ही है I
यह मेरे सनातन गुरु श्री विष्णु का रंध्र है I
विष्णुरंध्र शब्द का अर्थ है, विष्णु का रंध्र, या श्री विष्णु जी का गुप्त द्वार I
अपने आकार में यह विष्णु का रंध्र अर्धचन्द्राकार होता है, जैसे चौथे या पांचवे दिवस का चन्द्र I कपाल के समस्त पञ्च रंध्रों में से, इसका फैलाव सबसे अधिक होता है I
विष्णुरंध्र का वर्ण हीरे के प्रकाश के समान होता है और यह रंध्र, उन श्री विष्णु के सर्वसमतावादी स्वरूप को दर्शाता है, अर्थात श्री विष्णु के विशुद्ध सत् स्वरूप को दर्शाता है I
इस रंध्र का नाता उन सर्वसम, सगुण सकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से भी है I
इस विष्णुरंध्र के साक्षात्कारी साधक को हीरे के प्रकाश वाला सिद्ध शरीर प्राप्त होता है, जो विशुद्ध सत् का वाचक होता है, और जिसका लय कई सारे देव लोकों में से किसी एक लोक में हो सकता है I
लेकिन ऐसा होने पर भी, प्रधानतः यह सिद्ध शरीर सदाशिव के सद्योजात मुख का ही होता है, जिसके बारे में एक बाद की श्रंखला जिसका नाम सदाशिव मार्ग होगा…, उसमें बताया जाएगा I
कपाल में इस विष्णुरंध्र का स्थान जहाँ होता है, वो अब बता रहा हूँ …
- जहाँ कपाल का ऊपर का भाग, कपाल के ही पीछे के भाव से जुड़ा होता है, वही स्थान पर यह रंध्र, अपने अर्धचंद्राकार स्वरूप में होता है I
और इस रंध्र के भीतर से, समय समय पर एक हीरे के समान ऊर्जा कपाल से बाहर की ओर निकलती है, और जहाँ यह ऊर्जा भी एक सितारे के समान ही होती है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस रंध्र से ऊपर की ओर वो अनंत शून्य है, जिसको शून्य ब्रह्म भी कहा जाता है और जो श्रीमन नारायण का ही शून्य अनंत स्वरूप होता है I
यह शून्य ब्रह्म, एक अंधकारमय दशा होती है I
लेकिन अंधकारमय होने पर भी यह तमोमय नहीं होती, अर्थात यह शून्य ब्रह्म की दशा ज्ञान शक्ति, चेतन शक्ति और क्रिया शक्ति से शून्य नहीं होती I
इस शून्य ब्रह्म (अर्थात शून्य अनंत और अनंत शून्यः की दशा) का साक्षात्कार असम्प्रज्ञात समाधि से होता है I
जब वो हीरे के समान प्रकाश वाला तारा इस रंध्र से बाहर की ओर (अर्थात कपाल के ऊपर की ओर) निकलता है, तब वो तारा भी इसी शून्य ब्रह्म में विलीन हो जाता है I
इसका अर्थ हुआ, कि वो तारा भी सभी समय तक दिखाई नहीं देता, क्यूंकि वो उसी अन्धकारमय शून्य ब्रह्म में विलीन होकेर, उसी शून्य ब्रह्म के समान ही हो जाता है I
ऊपर के चित्र में, उस अर्धचन्द्राकार विष्णुरंध्र के ऊपर, यह तारा दिखाया गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब किसी साधक की चेतना, रकार मार्ग से जाकर, अष्टम चक्र में जाकर, इस अष्टम चक्र को भी पार कर लेती है, तो इसके पश्चात उस साधक के कपाल के पीछे की ओर बहुत लम्बे समय तक, इस अर्धचन्द्राकार विष्णुरंध्र में एक बहुत चमकदार हीरे के समान प्रकाश प्रकट हो जाता है I
ऐसी दशा में, इस प्रकाशमान रंध्र से एक हीरे के प्रकाश को धारण करी हुई ऊर्जा समय समय पर बाहर की ओर निकलती है I
जब यह प्रकाशमान हीरे के वर्ण की ऊर्जा बाहर को निकलती है, तो वो एक तारे के समान ही होती है I इसीलिए इस विष्णुरंध्र रंध्र के चित्र में एक अर्धचन्द्राकार भाग है, और उसके ऊपर एक हीरे के प्रकाश का तारा भी दिखाया गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यदि यह ऊर्जा जो इस रंध्र से तारे के स्वरूप में बाहर निकलती है, इस रंध्र में या इस रंध्र के नीचे मस्तिष्क में ही फंस जाएगी, तो वो ऊर्जा बहुत गर्म हो जाती है और ऐसी दशा में वो साधक को अधमरा सा ही बना देती है I
कपाल में फंसने पर यह ऊर्जा, कपाल के पीछे और सामने के भाग पर बहुत दबाव डालती है I और जैसे जैसे यह दबाव बढ़ता चला जाता है, वैसे वैसे यह फँसी हुई ऊर्जा गरम बिजली के समान होती जाती है I
इस दशा में ऐसा लगता है जैसे कि मस्तिष्क के भीतर बहुत सारी तारें हैं, और उन सभी तारों में एक गरम बिजली दौड़ रही है I
ऐसी दशा में, यदि इस ऊर्जा को योगमार्ग से कपाल के बाहर नहीं निकाला गया (अर्थात यदि इस फंसी हुई ऊर्जा को विष्णुरंध्र या किसी और रंध्र से बाहर को नहीं ठेला गया) तो यह गरम बिजली के समान ऊर्जा साधक को अधमरा सा ही बना देगी I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस रंध्र से गमन करके (अर्थात इस रंध्र को पार करके) साधक सदाशिव के सद्योजात मुख से होता हुआ, अर्धनारीश्वर लोक से जाकर, सीधा वैकुण्ठ धाम को चला जाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस्लाम पंथ का चिन्ह भी इसी विष्णुरंध्र का ही है I
और क्यूंकि यह चित्र विष्णुरंध्र से सम्बंधित है, जो मूलतः वैदिक वाङ्मय के योगमार्ग के अंतर्गत ही आता है, इसीलिए इस्लाम का वो चिंन्ह जिसमें अर्धचन्द्र के ऊपर एक तारा दिखाया जाता है, वो अपने मूल से वैदिक योगमार्ग का ही है I
ऐसा में इसलिए कहता हूँ, क्यूंकि मेरे पूर्व जन्मों में जब इस्लाम था ही नहीं, तब भी वेद मनिषियों के योगमार्ग में विष्णुरंध्र का विज्ञान था I इसका अर्थ हुआ, कि इस्लाम का मूल चिंन्ह, वैदिक ही है I
और क्यूँकि मूल का कोई मूल होता ही नहीं है, इसलिए जब किसी पंथ का मूल चिंन्ह ही वैदिक हो, तो उस पंथ में चाहे कुछ और ही क्यों न कहा जाए, तो भी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से वो सभी बातें असत्य ही मानी जाएँगी I
इसीलिए, मैं डंके की चोट पर बता रहा हूँ, कि इस्लाम है तो वैदिक शैवमार्ग का अंग, लेकिन उसका मूल चिंन्ह विष्णुरंध्र का ही है, इसलिए मूल में इस्लाम का नाता वैदिक वैष्णव मार्ग से ही है और कर्मों या मार्ग में इस्लाम का नाता, वैदिक शैव मार्ग से ही है I
क्यूंकि न तो इस्लाम को बसाने वाले को और न ही इस्लाम के किसी और मानने वाले को इस मूल बिंदु का ज्ञान है, इसीलिए वो सब कुछ भी कहते हैं और वो सबकुछ असत्य ही है I
यही तो होगा जब पंथ के स्थापना से लेकर अभी तक, किसी ने उस पंथ के मुख्य देवता का साक्षात्कार ही नहीं किया होगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जीवों में अधिकांश विप्लव, विकृति और जरादि अवस्थाएँ, इस रंध्र की ऊर्जाओं के विकृत होने से ही आती है I
इसका अर्थ हुआ, कि जबतक इस रंध्र की ऊर्जाएं ठीक ठाक रहेंगी, तबतक उस स्थान पर जहाँ इस रंध्र की दिव्यताओं को धारण किया हुआ मनीषी रहता है, तबतक न तो कोई विप्लव आएगा, न कोई जरादि समस्या आएगी और न ही उस स्थान की दिव्यताओं में कोई विकृति ही आएगी I
ऐसे मनीषी के स्थान पर, समय समय पर दैविक, ऋषि, सिद्धादि सत्ताएँ भी आती रहती हैं I
शिवरंध्र, … भद्र रंध्र, … महादेव रंध्र, … महदेव यान, … शिव शक्ति रंध्र, शिव शक्ति यान … अर्धनारीश्वर रंध्र, अर्धनारीश्वर यान, … सगुण आत्मा रंध्र, सगुण आत्मा यान, … समंतभद्र रंध्र, समंतभद्र यान, … समंतभद्री समंतभद्र रंध्र, समंतभद्र समंतभद्री यान, … भद्ररंध्र, भद्रयान, … शिवयान … ब्रह्मयान … निर्गुणयान … अद्वैतयान … परमगुरु यान … परमगुरु का यान … आदिनाथ रंध्र, आदिनाथ यान, …

सर्वप्रथम कुछ शब्दों को बताता हूँ …
- भद्रयान, भद्ररंध्र … भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी, इसलिए भद्रयान का अर्थ होता है, कल्याणकारी यान I इसीलिए इस रंध्र को भद्ररंध्र से भी सम्बोधित किया गया है I
- शिवयान, शिवरंध्र, … लेकिन अपने मूल रूप से भद्र शब्द का अर्थ शिव ही होता है, क्यूंकि शिव ही तो योगीजनों के लिए भद्र हैं I इसीलिए, भद्रयान को शिवयान भी कहा जा सकता है I
- महादेव रंध्र, महादेव यान, … क्यूंकि भद्र ही तो महादेव होते हैं, इसीलिए इस रंध्र को महादेव रंध्र भी कहा गया है I और उन महादेव के रंध्र रूपी मार्ग को ही यहाँ महादेव यान कहा गया है I
- समंतभद्र रंध्र, समंतभद्र यान, … क्यूंकि महादेव को ही तिब्बती बौद्ध पंथ में समंतभद्र कहा गया है, इसीलिए इस रंध्र को समंतभद्र रंध्र भी कहा गया है, और उनके रंध्र रूपी मार्ग को समंतभद्र यान I
- शिव शक्ति रंध्र, शिव शक्ति यान, … क्यूंकि इस रंध्र में, शिव और शक्ति की योगावस्था भी होती है, इसीलिए, इस रंध्र को शिव शक्ति रंध्र भी कहा गया है, और उनके मार्ग रूपी यान को शिव शक्ति यान भी कहा गया है I
- अर्धनारीश्वर रंध्र, अर्धनारीश्वर यान … क्यूंकि शिव शक्ति की योगावस्था ही अर्धनारिश्वर कहलाती है, जो योगीजनों के सगुण आत्मा ही होते हैं, इसीलिए इस रंध्र को अर्धनारीश्वर रंध्र भी कहा गया है, और सगुण आत्मा रंध्र भी कहा गया है, और उनके मार्ग रूपी यान को अर्धनारीश्वर यान और सगुण आत्मा यान भी कहा गया है I
- समंतभद्र समंतभद्री रंध्र, समंतभद्र समंतभद्री यान, … क्यूंकि वेदों के शिव और शक्ति योग को ही तिब्बती बौद्ध पंथ समंतभद्र समंतभद्री योग कहते हैं, इसीलिए यहाँ पर इस शिव शक्ति रंध्र को ही समंतभद्र समंतभद्री रंध्र कहा गया है और उनके रंध्र रूपी मार्ग को समंतभद्र समंतभद्री यान भी कहा गया है I
- गुरुयान, गुरु रंध्र, परमगुरु यान, परमगुरु रंध्र, … लेकिन शिव ही तो योगीजनों के गुरुदेव होते हैं और अनादि कालों से, वही शिव मेरे तो परमगुरु ही रहे हैं I इसीलिए, इसी भद्रयान को गुरुयान, परमगुरु यान भी कहा जा सकता है I
- आदिनाथ रंध्र, आदिनाथ रंध्र, … और क्यूंकि शिव ही आदीनाथ हैं, इसलिए इस रंध्र को आदिनाथ रंध्र भी कहा जा सकता है और इसके मार्ग को आदिनाथ यान भी कहा जा सकता है I
- महाकाल महाकाली योग, महाकाली महाकाल योगमार्ग … और क्यूंकि इस रंध्र से पार जाकर ही साधक के त्रिनेत्र के स्थान के समीप, महाकाल महाकाली योग होता है, इसिलए इस रंध्र का मार्ग महाकाली महाकाल योग का मार्ग भी है I
यह शिवयान, उस निर्गुणयान का ही अंग है, जिसको मैं अद्वैतयान और ब्रह्मयान भी कहता हूँ I लेकिन यहाँ पर ब्रह्म शब्द का अर्थ शिव ही है I
यह परमगुरु शिव का रंध्र है …
- अपने आकार (विस्तार) में, कपाल के रंध्रों में यह रंध्र सबसे छोटा होता है I
ऊपर दिखाए गए कपाल के रंध्रों के चित्र में, अर्धचन्द्राकार विष्णु रंध्र के आगे की ओर, यह शिवरंध्र दिखाया गया है I
इस रंध्र में …
- नीले और श्वेत वर्ण का प्रकाश भी होता ही है, इसीलिए यह रंध्र शिव शक्ति की योगावस्था को भी दर्शाता है I
- इस रंध्र के प्रकाश में, नीले रंग का प्रकाश परमगुरु शिव को दर्शाता है, और श्वेत वर्ण का प्रकाश माँ शक्ति को दर्शाता है I
- इसलिए इस रंध्र का नीला और श्वेत वर्ण का प्रकाश, शिव और शक्ति की योगावस्था को दर्शाता है I
- और जहाँ इस शिव शक्ति की योगावस्था को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है, जो योगी की सगुण आत्मा ही होते हैं और जिनका साक्षात्कार भी योगी के त्रिनेत्र में ही होता है I त्रिनेत्र में अर्धनारीश्वर के साक्षात्कार के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
यदि साधक …
- शैव होगा तो इस रंध्र में, नीले रंग के प्रकाश में श्वेत वर्ण का प्रकाश होगा I
- और यदि साधक शाक्त मार्ग पर होगा, तो इस रंध्र में श्वेत रंग के प्रकाश में नीले वर्ण का प्रकाश होगा I ऐसा ही इस चित्र में दिखाया गया है, क्यूंकि इस जन्म में मेरा मूल (प्राथमिक) मार्ग वैसा ही था, जैसा नीचे बताया गया है …
भीतर से शाक्त, बाहर से शैव और इस धरा पर वैष्णव I
इस रंध्र के ऊपर की ओर की भी दशाएं होती हैं, जो ऐसी होती हैं …
- इस रंध्र के ऊपर की ओर वज्रदण्ड चक्र होता है I यह वज्रदण्ड एक सुनहरे दंड के समान होता है I इस वज्रदण्ड के नाद को राम कहा गया है, जो शिव तारक मंत्र ही होता है I इसके बारे में रकार मार्ग में बात होगी I
- जिस स्थान पर वज्रदण्ड चक्र, शिवरंध्र से मिलता है, उस स्थान पर एक उल्टा शिवलिंग होता है I यह उल्टा शिवलिंग भी सुनहरे वर्ण का ही होता है I इस शिवलिंग के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी I
- और इसके अतिरिक्त, उसी स्थान पर जहाँ वो वज्रदण्ड, शिवरंध्र से मिलता है, महामृत्युंजय मन्त्र भी सुनाई देता है I इसीलिए योगी के शरीर में, महामृत्युंजय मंत्र का स्थान वज्रदण्ड और शिवरंध्र की योगावस्था में है I
- वज्रदण्ड के ऊपर, एक चार पत्तों वाला चक्र होता है, जिसको सिद्धों ने निरलम्बस्थान और निरलम्ब चक्र भी कहा है I लेकिन मैं इसको ब्रह्मलोक चक्र भी कहता हूँ, क्यूंकि इस चक्र का नाता सदाशिव के सद्योजात मुख से होता है, जिसको ब्रह्मलोक भी कहा जाता है I इसी चक्र को अष्टम चक्र भी कहा गया है, जिसका संकेत अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे खंड के इकत्तीसवें मंत्र में है I इस अष्टम चक्र के दो नाद होते है, जो खकार (अर्थात ख़ का शब्द) और डकार (अर्थात ड का शब्द) होते हैं I
इन सबके बारे में एक बाद की अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा I यह अष्टम चक्र उस सिद्धि को लेकर जाता है, जो सार्वभौम शक्ति से संपन्न होती है I
लेकिन इस अष्टम चक्र का साक्षात्कार, परमगुरु शिव के अनुग्रह से हो होगा…, अन्य किसी भी मार्ग से नहीं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
- शिवरंध्र का स्थान, कपाल के ऊपर के भाग के मध्य में होता है I
- यदि इस रंध्र का स्थान जानना है, तो अपने भ्रूमध्य से एक रेखा अपने कपाल के ऊपर की ओर खीचो, और जहाँ यह रेखा ललाट के अग्रभाग (अर्थात ललाट पाली) और ललाट के पीछे के भाग की योगावस्था से मिलती है, वही स्थान पर यह रंध्र होता है I
यह वही स्थान है, जहाँ कपाल की शल्य चिकित्सा के पश्चात, एक नली डाली जाती है, ताकि रक्त कपाल के भीतर जमा न हो I
इसका अर्थ हुआ, कि कपाल के ऊपर के भाग के मध्य में ही यह शिवरंध्र होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यह शिवरंध्र सबसे छोटा होता हुआ भी, अपने अनुग्रह में किसी और निर्गुणयान के रंध्र से (अर्थात कपाल के पञ्च रंध्रों में से) न्यून नहीं होता I
इसलिए शिवरंध्र को मैं सबसे उत्कृष्ट रंध्र ही मानता हूँ, क्यूंकि इससे परे जाकर, साधक की कपाल, हृदय और नाभि क्षत्रों के अन्य सभी रंध्र (या गुप्त द्वार) भी स्वतः ही खुल जाते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि जिस साधक की चेतना इस शिवरंध्र से परे चली जाती है, उस साधक के शरीर के भीतर जितने भी गुप्त द्वार रूपी दिव्य रंध्र हैं, वो सभी स्वतः ही खुल जाएंगे और जिसके पश्चात, वो साधक सदाशिव के समस्त मुखों और उनकी दिव्यताओं का साक्षात्कार भी, कुछ ही समय अंतराल में स्वतः ही कर लेगा I
इसीलिए, मैं इस रंध्र को सर्वोत्कृष्ट ही मानता हूँ, क्यूंकि यह परमगुरु सदाशिव के पञ्च मुखों के पूर्णरूपेण साक्षात्कार का मार्ग भी है I
इसका अर्थ हुआ कि यह शिवरंध्र, पञ्च मुखी सदाशिव जो विराट परब्रह्म ही हैं और जिनको गुरु विश्वकर्मा भी कहा जाता है, उनके पूर्णरूपेण साक्षात्कार का मार्ग है I
और क्यूँकि पञ्च मुखा सदाशिव में ही दस महाविद्या आदि दिव्यताएं निवास करती हैं, इसीलिए जो साधक इस रंध्र से परे चला जाएगा, वो दस महाविद्या, चौसठ योगिनिगण, अष्ट मातृकागण, अष्ट भैरविगण और उनके भैरवगण, नव दुर्गा आदि पारमार्थिक दिव्यताओं का साक्षात्कार भी कर सकता है I
और इसके अतिरिक्त क्यूंकि पञ्च मुखी सदाशिव में पञ्चब्रह्म के लोकों का भी निवास होता है, इसीलिए ऐसा साधक पञ्च देवों के लोकों का भी साक्षात्कारी हो सकता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसी शिवरंध्र से आगे जो वज्रदण्ड और अष्टम चक्र होता है, उनसे जाकर ही निर्बीज समाधि की सिद्धि होती है, और जहाँ वो निर्बीज समाधि योगतंत्र की सर्वोत्कृष्ट समाधि ही है I इसी निर्बीज समाधि से बौद्ध पंथ में कहे गए बोधिचित्त का भी साक्षात्कार होता है I
लेकिन इन सभी के बारे में एक बाद की अध्याय श्रंखला में बात होगी, जिसके नाम रकार मार्ग होगा I
इसी रंध्र से परे जाकर, साधक का …
- चित्त … संस्कार रहित होता है, और उस अनंत चिदाकाश के समान होके, ब्रह्मलीन होता है I
- मन … स्थिर होकेर, सगुण ब्रह्म में लय होता है, और अंततः वही मन निर्गुण ब्रह्म में विलीन होता है I जब सगुण और निर्गुण ब्रह्म, दोनों में ही मन विलीन हो जाता है, तो मन उस अनंत मनाकाश के समान हो जाता है I इसी दशा को योगतन्त्रों और वेद मार्गों में ब्रह्मलीन कहा गया है I
- बुद्धि … निर्वृत्ति और निर्भेद होके, उस अनंत ज्ञानाकाश रूपी ब्रह्म में ही विलीन होती है, अर्थात बुद्धि भी ब्रह्मलीन हो जाती है I
- अहम् … विशुद्ध होके, ब्रह्म सरीका होके, अर्थात अहमकाश सा ही होके, ब्रह्मलीन होता है I
- प्राण … और जब यह चारों दशाएँ सिद्ध हो जाती हैं, तब साधक के प्राण पूर्ण विसर्गी होके, सहस्रारा चक्र को पार करके, सहस्रार से परे जो ब्रह्मशक्ति (अर्थात अदि पराशक्ति) हैं, उनमें ही विलीन हो जाते हैं I
क्यूँकि ब्रह्म शक्ति ही सार्वभौमिक सत्ता है, इसीलिए साधक की प्राणशक्ति भी ऐसी ही हो जाती है I
प्राणों की ऐसी विकराल दशा को पाने के पश्चात, अधिकांश साधक तो मृत्यूलाभ ही करते हैं I
कुछ अति विरले साधक ही होते हैं, जो प्राणों की ऐसी विकराल और विश्वरूपी दशा उनकी अपनी काया में आने के पश्चात भी अपनी काया में रह पाते हैं I अधिकांश साधक तो ऐसी दशा में अपनी काया का ही त्याग कर बैठते हैं, क्यूंकि प्राणों की उस विकराल दशा में अपनी काया को समेट कर रख पाना, असंभव सा ही होता है I
लेकिन क्यूंकि यह प्राणों की बहुत विकराल दशा है, इसलिए ऐसी दशा आने के पश्चात, साधक को इस दशा का आदी होने में समय भी लगेगा ही I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब साधक की चेतना शिवरंध्र से परे जाके, वज्रदण्ड में प्रवेश करके अंततः अष्टम चक्र (या निरालंबस्थान) में चली जाती है, तब साधक के कपाल के ऊपर के भाग में, बहुत हलके पीले रंग का बुकनी (अर्थात चूर्ण या पाउडर) दिखाई देता है I कपाल के ऊपर के भाग की यह बुकनी (अर्थात चूर्ण या पाउडर) वो अमृत कलश के भीतर के अमृत का ही स्वरूप है, जो साधक के नाभि से 2 से 3 ऊँगली नीचे से, ऊपर शिवरान्ध्र को गया था I
यह दशा योगसिद्धि की एक उत्कृष्ट दशा है, क्यूंकि यह प्रमाण है की साधक का मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण, पाँचों पूर्ण विसर्गी हो गए हैं, अर्थात मुक्तिमार्गी हो चुके हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
साधक की चेतना के शिवरंध्र से पार जाने के पश्चात, साधक की सुषुम्ना नाड़ी को एक भगवे-लाल रंग का प्रकाश घेर लेता है, जो एकदशवें रुद्र की दिव्यता का द्योतक होता है, और जो साधक की एकादश रुद्र सिद्धि का भी प्रमाण होता है I
इस सिद्धि की प्राप्ति के पश्चात, साधक के समस्त सूक्ष्म नाड़ी तंत्र की शोधन प्रक्रिया पूर्ण रूप में चल पड़ती है, जिससे धीरे धीरे साधक के भीतर बसी हुई समस्त सूक्ष्म, दैविक या कारण और संस्कारिक सत्ताओं का भी शोधन हो जाता है I ऐसी शोधन प्रक्रिया में, साधक की काया के भीतर बसे हुए चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड का भी शोधन पूर्णरूप में प्रारम्भ हो जाता है I
लेकिन, साधक के शरीर के लिए, यह शोधन प्रक्रिया अति दुःखदायक ही होती है, क्यूंकि स्थूल शरीर जो प्रधानतः तमोगुणी होता है, उसको अपने अवगुण त्यागने पसंद नहीं आते I
लेकिन ऐसा होने पर भी, अंततः यह प्रक्रिया पूर्ण हो ही जाती है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस रंध्र को पार करके ही साधक की चेतना एक सर्वव्यापक शून्य को जाती है, जिसके भीतर निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I
और जहाँ वो निर्गुण ब्रह्म, एक निरंग झिल्ली के समान सर्वव्यापक प्रकाश के समान होता है I
क्यूंकि शिवरंध्र से शून्य और निर्गुण का साक्षात्कार होता है, और क्यूँकि शून्य वो है जो नहीं है, और निर्गुण वो है जो समस्त कालों में है, इसीलिए, कुछ सिद्ध मनीषियों ने परमगुरु शिव जिनका यह शिव रंध्र है, उनको ऐसा कहा था …
वो जो है, … लेकिन तब भी कभी नहीं है I
वो नहीं है, … लेकिन तब भी सदैव ही है I
यह साक्षात्कार भी शिव रंध्र से ही होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
योगी के शरीर के भीतर का वो अमृत कलश, जो नाभि से कोई 2 से 33 ऊँगली नीचे रखा होता है, वो रकार मार्ग में, इसी शिवरंध्र से होकर वज्रदण्ड में जाता है, जिसका मूल नाद राम शब्द का होता है, और जो शिव तारक मंत्र भी कहलाता है I
इस नाद का साक्षात्कारी साधक पुरषोत्तम राम का शब्दात्मक स्वरूप में साक्षात्कार करके, राम सिद्धि को पाके, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में पुरुषोत्तम राम ही कहलाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसी रंध्र से पार जाकर, और फिर वज्रदण्ड के भीतर सुनाई देते हुए शिव तारक मंत्र से जाकर, वो अमृत कलश जो पूर्व में नाभि से 2 से 3 ऊँगली नीचे था, वो अष्टम चक्र में ही चला जाता है I
इस अष्टम चक्र की सिद्धि के पश्चात,साधक पुरुष प्रकृति योग को जाता है जिसके कारण वो निर्बीज समाधि को पाता है I
यह प्रकृति पुरुष योग साधक की काया के भीतर ही होता है, जिसमे पुरुष ही शिवात्मक होते है, और साधक के मन रूप में होते हैं…, और प्रकृति ही साधक की गुरुमा शक्ति होती हैं, जो साधक की प्राणशक्ति स्वरूप में ही होती हैं I
इसीलिए, यह पुरुष प्रकृति योग जो साधक के शरीर के भीतर होता है, उसको प्राणमय मनोमय योग (अर्थात प्राणमय कोष और मनोमय कोष योग) भी कहा जा सकता है I
अब अगले रंध्र पर जाता हूँ, जिसको ब्रह्मरंध्र कहा जाता है I
ब्रह्मरंध्र …

ब्रह्मरंध्र शब्द का अर्थ है, ब्रह्मा का रंध्र, या ब्रह्मा जी का गुप्त द्वार I अपने आकार में यह ब्रह्मा का रंध्र सबसे बड़ा ही होता है I
ब्रह्मरंध्र का वर्ण सुनहरा होता है और यह रंध्र, उन सर्वसम, चतुर्मुखा प्रजापति के हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है I
इस ब्रह्मरंध्र के साक्षात्कारी साधक को सुनहरे वर्ण का शरीर भी प्राप्त होता है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
इसका स्थान जहाँ होता है, वो यहाँ बता रहा हूँ …
- भ्रूमध्य से कपाल के ऊपर की ओर एक रेखा खींचे I
- और दूसरी रेखा, अपनी कनपटियों से कपाल के ऊपर की ओर खीचो I
- जहाँ यह दोनों रेखाएं मिलेंगी, वो ब्रह्मरंध्र का स्थान है I
यह ब्रह्मरंध्र वो स्थान होता है, जिसमे नवजात शिशु के कपाल के ऊपर के भाग में धड़कन दिखाई देती है I
क्यूंकि इसी ब्रह्मरंध्र से नवजात शिशु की आत्मा, शरीर में प्रवेश करती है, इसीलिए जन्म के समय पर शिशुओं के यह भाग कोमल सा ही होता है I आत्मा के प्रवेश के पश्चात, यह भाग स्थूल होता जाता है, जिसके कारण कुछ समय के पश्चात, उस शिशु का कपाल में कोई भी धड़कन नहीं दिखाई देती I
कपाल के समस्त रंध्रों में से यह ब्रह्मरंध्र सबसे बड़ा रंध्र होता है I
ब्रह्मरंध्र सुनहरे वर्ण का होता है, जैसे इसमें सूर्य प्रकाशित हो रहा है I
और ब्रह्मरंध्र से थोड़े नीचे के भाग में (अर्थात मस्तिच्क के ऊपर के भाग में), ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष होता है, को सूक्ष्म और चमकदार पीले वर्ण का होता है I इस ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष पर आगे के कई और अध्यायों में बात होगी I
अब आगे बढ़ता हूँ …
अब ब्रह्मरंध्र, अर्थात कपाल के ऊपर के भाग में स्थित सुनहरे वर्ण के ब्रह्म के द्वार के भीतर के तीन चक्रों के बारे में बताता हूँ …
उस सुनहरे वर्ण के ब्रह्मरंध्र के भीतर, तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं I
यह चक्र एक के ऊपर एक स्थित होते हैं I
तो अब इन तीनों छोटे छोटे चक्रों के बारे में बताता हूँ I
- ब्रह्मरंध्र के भीतर का पहला या सबसे नीचे का चक्र, … चतुर्दश भुवन का चक्र, … अर्थात ब्रह्माण्ड को दर्शाने वाला चक्र … ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन चक्रों में से, यह चक्र सबसे नीचे का चक्र I इसमें चौदाह पत्ते होते हैं I यह चक्र चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड को दर्शाता है I
- ब्रह्मरंध्र के भीतर का दूसरा चक्र या मध्य का चक्र, … सुनहरी सगुण आत्मा का चक्र, आत्मा के सगुण बाल स्वरूप का चक्र, आत्मा के बाल स्वरूप का चक्र, लला चक्र, राम लला का चक्र, सगुण आत्मा का चक्र, हिरण्यगर्भात्मक आत्मा चक्र, … तैंतीस कोटि देवी देवताओं को दर्शाने वाला चक्र, निष्कलंक चक्र, वृत्तिहीन चक्र,… चतुर्दश भुवन को दर्शाने वाले चक्र के ऊपर की ओर, जो चक्र होता है, उसमें बत्तीस पत्ते होते हैं I
इस चक्र के बत्तीस पत्ते, तैंतीस कोटि देवी देवताओं में से नीचे के बत्तीस देवताओं के द्योतक हैं I
क्यूंकि बत्तीसवें देवता का नाम देवराज है, इसलिए यह चक्र देवराज इंद्र तक समस्त देवी देवताओं को दर्शाता है I
इसका अर्थ हुआ, कि इस चक्र के बत्तीस पत्ते, अष्ट वसु, द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र सहित, बत्तीसवें देवता देवराज इन्द्र को एक साथ दर्शाते हैं I
और इस चक्र के ऊपर, साधक के सुनहरे वर्ण का शरीर धारी बालक रूपी आत्मा पद्मासन में बैठता है I इसलिए इस चक्र लो लला चक्र भी कहा जा सकता है I
वो सुनहरा बालक रूपी आत्मा निष्कलंक और वृत्तिहीन ही होता है, इसलिए इस चक्र को निष्कलंक चक्र और वृत्तिहीन चक्र भी कहा जा सकता है I
वो आत्मा भगवान् राम के लला स्वरूप को भी दर्शाता है, इसलिए इस चक्र को राम लला चक्र भी कहा जा सकता है I यह चक्र साधक के शरीर के भीतर बसी हुई, आठ चक्रों वाली और नव द्वारों वाली अयोध्या पुरी का वो पालना है, जिसपर राम लला, साधक के ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में बैठे होते हैं I जिस साधक ने उन भीतर के सुनेहरे वर्ण के राम लला का साक्षात्कार किया है, वो साधक ब्रह्माण्डीय दिवट्यों में निष्कलंक और वृत्तिहीन रामलला ही कहलाता है I
यह सुनहरे वर्ण का आत्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्म को भी दर्शाता है, जो तैंतीस कोटि देवताओं में तैंतीसवें देवता प्रजापति के ही हिरण्यगर्भात्मक अभिव्यक्ति हैं I
यह सुनहरा शरीर धारी बालक रूपी आत्मा, उन प्रजापति का ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार सत्वात्मक स्वरूप होता है I इसलिए यह चक्र हिरण्यगर्भात्मक सगुणा आत्मा का चक्र भी है, जो तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, तैंतीसवें देवता प्रजापति की ही एक अभिव्यक्ति हैं I
यह इस बत्तीस दल कमल पर जो सुनहरे वर्ण के शरीरी स्वरूप में आत्मा बैठा होता है, वो ही साधक के शरीर के भीतर, साधक का ही हिरण्यगर्भ आत्मस्वरूप है, और जो साधक का हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार आत्मा भी है I
आत्मा के शरीरी रूप में ऐसे होने के कारण, कुछ वेद मनिषियों में आत्मा को सुनहरा भी कहा है I
इस बत्तीस दल कमल पर बैठा हुआ आत्मा, शरीरी स्वरूप में होता है, और सुनहरे वर्ण का होता है, और तैंतीस कोटि देवी देवताओं में तैंतीसवाँ देवता, अर्थात प्रजापति का ही हिरण्यगर्भ स्वरूप होता है I
इसी सुनहरे वर्ण के शरीरी आत्मा को वेदों में आत्मा का शरीरी स्वरूप कहा गया था I और यही कारण है, कि कुछ वेद मनिषियों ने, आत्मा को शरीरी भी कहा है I
इसीलिए, इस बत्तीस दल कमल के चक्र के बत्तीस पत्ते और तैंतीसवाँ आत्मा जो इस चक्र पर बैठता है, वो मिलकर तैंतीस कोटि देवता को दर्शाते हैं, जिसके कारण यह चक्र, वेदों के तैंतीस कोटि देवी देवता को दर्शाता है I
और इस बत्तीस दल कमल में बैठ कर, वो सुनहरे वर्ण का शरीरी आत्मा ऊपर की ओर देखता है और वो आत्मा, एक बालक (लला) के समान ही निष्कलंक होता है, जिसके कारण वो सुनहरे वर्ण का शरीर रूपी आत्मा, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म को उनके ही लला (या बालक) स्वरूप में भी दर्शाती है I
- ब्रह्मरंध्र के भीतर का सबसे ऊपर का या तीसरा चक्र, … मन का चक्र, … मनस चक्र, … छह शास्त्र का चक्र, … छह दिशाओं का चक्र … इस तैंतीस कोटि देवी देवता के चक्र के ऊपर, एक और छोटा सा चक्र होता है I इस चक्र के छह पत्ते होते हैं, जो मन की छह दिशाओं में समान रूप में रमण करने की क्षमता को दर्शाता है, और जहाँ वो छह दिशाएं, छह शास्त्रों के मार्ग ही होते हैं I यही कारण था, कि मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने, छह दिशाओं का ज्ञान दिया था I
यह छह दिशाएं उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, गर्त और गंतव्य की होती हैं I
इन छह दिशाओं में से, पांच दिशाओं में ब्रह्म के पाँच मुख होते हैं, और छठी दिशा में समस्त ब्रह्माण्ड ही होता है I छठी दिशा गर्त की दिशा को दर्शाती है, अर्थात ब्रह्माण्ड के मृत्यूलोक स्वरूप को दर्शाती है I और जो ब्रह्माण्ड होता है, वो ही चौदह पत्तों वाले चक्र के द्वारा जाना जाता है (जो वो चौदह पत्तों का कमल दर्शाता है, जिसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है) I और जो गंतव्य होता है, वो साधक का चेतन आत्मस्वरूप ही है, जो इस छह पत्तों वाले मनस चक्र में बैठ कर ऊपर, अर्थात कपाल के ऊपर के भाग से, बाहर की ओर देखता है I
क्यूंकि मन का चक्र पञ्च ब्रह्म सहित, ब्रह्माण्ड को भी दर्शाता है, इसीलिए मन के चक्र को (अर्थात मनस चक्र) को पूर्ण चक्र भी कहा गया है I
इस छह पत्तों वाले मन के चक्र को पार करने से, अर्थात साधक की चेतना का इस चक्र के ऊपर जाने से, शून्य का साक्षात्कार होता है I यह साक्षात्कार, शून्य समाधि से होता है, इसीलिए जब साधक की चेतना इस मनस चक्र को पार कर जाती है, तब साधक शून्य समाधि को पाता है I
तो अब ब्रह्मरंध्र के भीतर बसे हुए इन तीनों चक्र के मार्ग और सिद्धियों को बताता हूँ …
- ब्रह्माण्ड चक्र … जब साधक की चेतना इस चतुर्दश भुवन को दर्शाने वाले चक्र को पार कर जाती है, तो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, वो साधक भवसागर को पार कर गया है I
इसका कारण है, कि यह चतुर्दश (अर्थात चौदह) पत्तों वाला सबसे नीचे का कमल, चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड को ही दर्शाता है, और जब साधक की चेतना, इस चक्र को पार कर जाती है, तो यह सिद्धि समस्त ब्रह्माण्ड से ही अतीत कहलाती है I
इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, जिस साधक की चेतना ने इस चक्र को पार कर लिया, वो साधक ब्राह्मणडातीत कहलाता है I
- सगुण आत्मा चक्र … जब चेतना ब्रह्माण्ड चक्र को पार करके, ब्राह्मणडातीत हो जाती है, तो वो चेतना अपने ही सगुण साकार अर्थात शरीरी, हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप को पाती है I
ऐसी दशा में, वो आत्मा रूपी चेतना अपने हिरण्य शरीरी स्वरूप को प्राप्त हो जाती है I
इस स्वरूप प्राप्ति के पश्चात, वो साधक उसके लला कमल में (अर्थात ब्रह्मरंध्र के भीतर के बत्तीस दल कमल में) अपनी ही सुनहरी आत्मा (या हिरण्य आत्मा) को बैठा हुआ देखेगा I
और यही सुनहरा शरीर जो उस साधक के ब्रह्मरंध्र के भीतर के बत्तीस दल कमल में बैठेगा, वो उस साधक का वास्तविक स्वरूप या आत्मस्वरूप या हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप भी होगा I
इस दशा में, साधक की वो चेतना, उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म का स्वरूप कहलाती है, जिनकी अभिव्यक्ति सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामाह प्रजापति से हुई थी, और जो तैंतीस कोटि (या प्रकार) वैदिक देवी देवताओं में, सबसे ऊपर के तैंतीसवें देवता, प्रजापति कहलाते हैं I
- मनस चक्र … छह शास्त्र का चक्र … जब साधक की चेतना, पूर्व में बताए गए बत्तीस दल कमल को पार कर जाती है, तो वो मनस चक्र के षट् दल कमल में जाकर, इस समस्त जीव जगत का मन ही हो जाती है I साधक की इस सिद्धि को मन ब्रह्म भी कहा जा सकता है I
और इस छह पत्तों के मन के चक्र को पार करके, वो चेतना उस शून्य में चली जाती है, जिसने इस समस्त जीव जगत को, धारण किया हुआ है, और जिसको इस समस्त जीव जगत ने भी धारण किया हुआ है I
शून्य तत्त्व ने ही ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है I इसके अतिरिक्त,व्रह्माण्ड उसी शून्य तत्त्व के भीतर बसा हुआ है, और ब्रह्माण्ड ने भी उस शून्य को अपने भीतर बसाया हुआ है I
इन तथ्यों के कारण, शून्य तत्त्व ही वास्तविक भूधर है I इसलिए शून्य सिद्धि जो शून्य समाधि से होती है, उसको भूधर सिद्धि भी कहा जा सकता है I
जब यह ब्रह्माण्ड अपने जीव जगत के स्वरूप से ही शून्य था, तब यह शून्य ही उस ब्रह्माण्ड स्वरूप में था, जिसमे न जगत दृश्यमान हो रहा था, और न ही कोई जीव I और ऐसी अवस्था के भीतर ही जीव जगत, अर्थात ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I
इसका अर्थ हुआ, कि शून्य के भीतर ही ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था, जिसके कारण शून्य ही वो भूधर है, जिसके भीतर ब्रह्माण्ड बसाया गया है और जिसने ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है I
जो धारण करता है, वो ही तो भूधर कहलाता है I भूधर माँ प्रकृति के अंग होते हैं, इसलिए शून्य तत्त्व भी प्रकृति का ही अंग है I
और क्यूँकि प्रकृति अपने मूल ऊर्जा स्वरूप में ब्रह्मशक्ति ही हैं, इसलिए शून्य माँ प्रकृति का अतिऊर्जावान प्राथमिक स्वरूप है, जो तब भी था, जब न तो जगत का कोई बिंदु था, और न ही जीवों का उदय हुआ था I महाप्रलय में भी ब्रह्माण्ड अपने इसी शून्य स्वरूप में लौट जाता है I
शून्य ब्रह्म, अर्थात श्रीमन नारायण की शक्ति का नाम शून्य है I
और क्यूँकि शून्य ब्रह्म ही नारायण हैं, इसलिए जब महाप्रलय आती है, तब ब्रह्माण्ड भी उसी शून्य में विलीन होकर, उन्ही शून्य ब्रह्म, या श्रीमन नारायण में समां जाता है, और ऐसी दशा में ब्रह्माण्ड भी अपने मूल स्वरूप, अर्थात शून्य तत्त्व में लौट जाता है I और ऐसी दशा में वो शून्यात्मक ब्रह्माण्ड, उन श्रीमन नारायण की शक्ति स्वरूप ही होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि शून्य ब्रह्माण्ड से पूर्व में भी था, इसलिए शून्य तत्त्व का साक्षात्कार भी ब्रह्माण्डातीत सिद्धि को दर्शाता है I
शून्य में जीव जगत बसा हुआ है…, और शून्य भी इस जीव जगत में पूर्णरूपेण और समानरूपेण बसा हुआ है I
इस साक्षात्कार से साधक शून्य सिद्धि को पूर्ण रूप में पाता है, और इस सिद्धि के पश्चात उस साधक के लिए, कोई भी मार्ग नहीं रह जाता है I ऐसी दशा में साधक का मार्ग भी शून्य तत्त्व ही होता है I
यहां बताए जा रहे मनस चक्र को पार करके भी, यही शुन्य दशा का साक्षात्कार और प्राप्ति भी होती है I
ऐसी दशा ही शून्य सिद्धि की गंतव्य दशा कहलाती है, क्यूंकि इस दशा में वो शून्य, बिंदु स्वरूप में भी होता है, शून्य तत्त्व स्वरूप में भी होता है, और शून्य अनंत, अर्थात उन अनंत नारायण की सार्वभौम शक्ति स्वरूप में भी वही शून्य होता है I
बिंदु शून्य का साक्षात्कार जड़ समाधि से होता है, शून्य तत्त्व का साक्षात्कार शून्य समाधि से होता है, और शून्य अनंत का साक्षात्कार असंप्रज्ञात समाधि से होता है I
और यह मनस चक्र, जो ब्रह्मरंध्र के तीन छोटे छोटे चक्रों में से सबसे ऊपर का चक्र है, जिसके कारण यह तीनों छोटे चक्र ब्रह्मरंध्र का ही अभिन्न अंग होते हैं, और क्यूंकि इस मनस चक्र से ही शून्य नामक सिद्धि की प्राप्ति होती है, इसीलिए योगतंत्र में इसी ब्रह्मरंध्र चक्र (या सहस्रार चक्र) को शून्य चक्र भी कहा जाता है I
मनस चक्र से जाकर इस शून्य का साक्षात्कार होता है, जो निराकारी होता हुआ भी, सगुण स्वरूप में ही, अपनी प्रकाश रहित अवस्था में साक्षात्कार होता है I
योगतंत्र का शून्य, प्रकृति का अंग है जो अपने मूल ऊर्जा स्वरूप में ब्रह्मशक्ति ही कहलाती हैं और जो एक प्रकाशरहित दशा है I
शून्यसिद्धि शाक्तमार्ग से पाई जाती है, क्यूंकि अपने मूल स्वरूप में शून्य, ब्रह्मशक्ति ही है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यह रंध्र भी निर्गुणयान या अद्वैतयान या ब्रह्मयान का अंग है I
लेकिन इस रंध्र के मार्ग के दृष्टिकोण से, ब्रह्म का अर्थ पितामह ब्रह्मा ही मानना चाहिए I
देवीरंध्र, … शक्तिरंध्र, … मातृरंध्र, … जगतजननी रंध्र, … शक्ति यान, … देवी यान, … निर्गुण यान, … ब्रह्म यान, … अद्वैत यान, … जगतजननी यान, … ब्रह्मशक्ति रंध्र, ब्रह्मशक्ति यान, … जगतमाता रंध्र, जगतमाता यान, … पराशक्ति रंध्र, अदि पराशक्ति रंध्र, अव्यक्त रंध्र, … पराशक्ति यान, अदि पराशक्ति यान, अव्यक्त यान, …

सर्वप्रथन कुछ शब्दों को बताता हूँ …
- देवीरंध्र, देवीयान … देवी का अर्थ होता है, जीव जगत की माता, इसलिए देवीयान का अर्थ होता है, जीव जगत की माता का यान I यही कारण है कि इसको देवीरंध्र कहा गया है I
- मातृयान, जगतजननी यान, मातृरंध्र, जगतजननी रंध्र … और इसी कारण वश इसी देवीरंध्र को मातृरंध्र, जगतजननी रंध्र कहा गया है और इसके मार्ग को देवीयान, मातृयान और जगतजननी यान से भी सम्बोधित किया गया है I
- ब्रह्मशक्ति रंध्र, शक्ति रंध्र, ब्रह्मशक्ति यान, शक्तियान … लेकिन क्यूंकि देवी ही ब्रह्मशक्ति हैं, इसीलिए इस रंध्र को ब्रह्मशक्ति रंध्र और शक्ति रंध्र भी कहा गया है, और इसके मार्ग रूपी यान को ब्रह्मशक्ति यान और शक्तियान के शब्दों से भी सम्बोधित किया गया है I
- पराशक्ति रंध्र, अदि पराशक्ति रंध्र, अव्यक्त रंध्र, पराशक्ति यान, अदि पराशक्ति यान, अव्यक्त यान … लेकिन क्यूंकि शक्ति के कई नाम होते हैं, जैसे पराशक्ति, अदि पराशक्ति, अव्यक्त इत्यादि, इसीलिए इस रंध्र को पराशक्ति रंध्र, अदि पराशक्ति रंध्र और अव्यक्त रंध्र भी कहा जा सकता है I और इस देवीरन्ध्र के मार्ग को पराशक्ति यान, अदि पराशक्ति यान और अव्यक्त यान से भी सम्बोधित किया जा सकता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस रंध्र का आकार भी छोटा ही होता है, लेकिन अपने अनुग्रह में, कपाल के पंच रंध्रों में से यह रंध्र किसी और रंध्र से न्यून नहीं होता I
आगे बढ़ता हूँ …
इस रंध्र का वर्ण बहुत ही सूक्ष्म श्वेत है, और ऐसा होता है जैसे कोई अतिसूक्ष्म मेघ ही कपाल में, इस रंध्र के भीतर बस गया हो I
कभी कभी इस रंध्र में हलके गुलाबी वर्ण का प्रकाश भी साक्षात्कार होता है I पर क्यूंकि यह प्रकाश सदैव ही नहीं साक्षात्कार होता है, इसलिए ऊपर के चित्र में, इस प्रकाश को दिखाया नहीं गया है I
यह हल्के गुलाबी वर्ण का प्रकाश अव्यक्त प्राण (या अव्यक्त प्रकृति) का है, जिसका अर्थ होता है, वो जो व्यक्त ही नहीं है I
इसी अव्यक्त को मेरे इस जन्म से पूर्व के जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने तुसित लोक कहा था, जिसका अर्थ होता है तृप्ति का लोक, या वो लोक जहाँ पर जाकर साधक को तृप्ति मिल जाए I
अव्यक्त ही ब्रह्मशक्ति है, और उसी अव्यक्त को माया भी कहा जाता है I
और आगे बढ़ता हूँ …
और जब वो अव्यक्त, अपने अव्यक्त स्वरूप को त्यागकर समस्त पिण्डों में (अर्थात स्थूल देहों में) स्वयंप्रकट होती है, तो उसका जो स्वरूप होता है, उसको ही व्यान प्राण कहा जाता है I
इसीलिए, इस रंध्र से जाकर, साधक व्यान प्राण को पाएगा ही I
और क्यूँकि व्यानप्राण की गति शरीर से बाहर की ओर जाती है, इसीलिए जब साधक की चेतना उस व्यान प्राण में चली जाती है, जो शरीर से बाहर की ओर गमन करता है, तब वो चेतना समस्त देवलोकों, सहित सिद्धादि लोकों का भी साक्षात्कार करती है I
यही कारण है कि कुछ योगीजन ऐसे लोकों के साक्षात्कार करते हैं I उन साक्षात्कारों के मूल में भी वही बिंदु है जिसको यहाँ बताया गया है, कि जब साधक की चेतना व्यान प्राण में चली जाती है, तब वो साधक सिद्धादि लोकों का भी साक्षात्कार कर लेता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
साधक की चेतना इस रंध्र से जाकर, सीधा सीधा सार्वभौम ब्रह्मशक्ति का साक्षात्कार करती है, और इसके पश्चात, वो चेतना उसी ब्रह्मशक्ति में विलीन होकर, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में ब्रह्मशक्ति ही कहलाती है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जिस योगी ने शिवरंध्र और शक्तिरंध्र दोनों को सिद्ध किया होता है, अर्थात वो योगी शिवयान और देवीयान (या शक्तियान) दोनों का ही सिद्ध होता है, वो योगी ऐसा ही कहेगा …
मैं शिव होता हुआ भी, वास्तव में शक्ति ही हूँ I
और मैं शक्ति होता हुआ भी, वास्तव में शिव ही हूँ I
मैं शिव हूँ शक्ति हूँ…, मैं ही शिव शक्ति हूँ, सगुण आत्मा हूँ, अर्धनारीश्वर हूँ I
शिव ही शक्ति है और शक्ति ही शिव है…, शिव शक्ति की योगावस्था में मैं ही हूँ I
मैं पुरुष भी हूँ और मैं प्रकृति भी हूँ, … मैं नर हूँ और मै नारी भी हूँ I
मै ही ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति भी हूँ I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यह रंध्र भी निर्गुणयान या अद्वैतयान या ब्रह्मयान का अंग है I
लेकिन इस रंध्र के मार्ग के दृष्टिकोण से, ब्रह्म का अर्थ ब्रह्म शक्ति या देवी या जगतमाता या जगत जननी ही मानना चाहिए I
कपाल का रंध्र … आज्ञारंध्र, त्रिनेत्ररंध्र, भ्रूमध्य रंध्र, स्वयं-जाग्रित रंध्र, … आज्ञायान,स्वयं-जाग्रित यान, भ्रूमध्य रंध्र, भ्रूमध्य यान, … निर्गुणयान, ब्रह्मयान, अद्वैतयान … ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा मार्ग, … पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा यान, पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा रंध्र, … गणपतियान, गणेशयान, मुक्ति यान, अनुग्रह यान, … गणपति रंध्र, गणपति यान …

सर्वप्रथम कुछ शब्दों को बतलाना होगा …
- आज्ञारंध्र का अर्थ है, आज्ञा चक्र का रंध्र I इसके मार्ग को आज्ञायान भी कहा जा सकता है I
- क्यूंकि आज्ञा चक्र भ्रूमध्य में होता है, इसलिए इस रंध्र को भ्रूमध्य रंध्र भी कह सकते हैं I
- और क्यूंकि यह रंध्र एक नेत्र के समान ही होता है, इसलिए इस रंध्र को त्रिनेत्र रंध्र भी कह सकते हैं I
- क्यूंकि आज्ञा चक्र को ही स्वयं-जाग्रित चक्र कहते हैं, इसलिए इस आज्ञारंध्र को स्वयं-जाग्रित रंध्र भी कहा जा सकता है, और इसके मार्ग को स्वयं-जाग्रित यान भी कहा जा सकता है I
- यह रंध्र साधक के पिंड के भीतर के ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा का एक प्रमुख बिंदु भी है, इसलिए इसको ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा मार्ग भी कहा गया है I
- क्यूंकि उस शून्य स्वरूप नारायणी शक्ति के भीतर, जब ब्रह्माण्ड की प्राथमिक दशा का स्वयंउदय हुआ था, तो वो ब्रह्माण्डीय प्राथमिक दशा अचलित ही थी I इस ग्रन्थ में, इसको ही अचलित ब्रह्माण्ड कहा गया है I यह दशा अन्धकारमय थी और शून्य के समान ही थी I वैदिक वाङ्मय के पशुपतिनाथ भी यही अचलित प्राथमिक ब्रह्माण्ड ही है I इस आज्ञारंध्र में जाकर, साधक की चेतना इसी पञ्च मुख पशुपतिनाथ की प्रदक्षिणा भी करती है, जिसके कारण इस आज्ञा रंध्र (या त्रिनेत्र रंध्र) को पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा रंध्र, और इसके मार्ग को पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा यान भी कहा गया है I
यह रंध्र भी निर्गुणयान, ब्रह्मयान, अद्वैतयान का ही अंग है I
ऊपर दिखाया हुआ चित्र, इसी भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा रंध्र का है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
नाभि से नीचे की ओर एक अमृत कलश होता है I इस कलश का अमृत श्वेत वर्ण के गीले चूने के समान होता है, अर्थात खुरदरा श्वेत होता है I
इस आज्ञारंध्र का साक्षात्कार मार्ग, इसी अमृतकलश के ब्रह्मरंध्र चक्र (या सहस्रार चक्र) को पार करके, शिवरंध्र में जाके, वज्रदण्ड को पार करके ही होता है I
और जब इस वज्रदण्ड को पार करके वो अमृत कलश, अष्टम चक्र को भी पार कर लेता है, तब ही इस आज्ञाचक्र के साक्षात्कार का मार्ग साधक की काया के भीतर से प्रशस्त होता है I
और इस प्रक्रिया में, अष्टम चक्र का मार्ग, रकार नाद से होकर, खकार नाद को जाकर, अंततः डकार नाद में लेकर जाता है I
रकार मार्ग से जाकर, वज्रदण्ड को पार करके, जब साधक का अमृत कलश अष्टम चक्र में जाता है, और फिर उस अष्टम चक्र को साढ़े तीन बार पार करके, जब वो अमृत कलश पुनः नाभि की ओर (अर्थात नीचे की ओर) आता है, तब इस प्रक्रिया में जब वो अमृत कलश त्रिनेत्र में पहुँचता है (अर्थात आज्ञा चक्र में पहुँचता है), तब ही इस आज्ञा रंध्र का साक्षात्कार होता है I
आज्ञा चक्र से नीचे आने के मार्ग में वो अमृत कलश, आज्ञारंध्र से होकर, पुनः नाभि की ओर ही जाने लगता है (जहाँ से वो अमृत कलश पूर्व में ऊपर की ओर, अर्थात अष्टम चक्र की ओर उठा था) I
अष्टम चक्र से नीचे, नाभि की ओर आते-आते, जब वो अमृत कलश आज्ञारंध्र को पार कर रहा होता है, तब ही इस आज्ञारंध्र का साक्षात्कार, कुछ ही समय के लिए होता है I
इस आज्ञारंध्र के मार्ग में …
- यदि वो अमृत कलश साढ़े तीन बार अष्टम चक्र को पार करेगा, तो वो साधक आज्ञारंध्र का साक्षात्कार कर पाएगा I
- यदि वो अमृत कलश इससे कम बार ही अष्टम चक्र को पार करेगा, तो वो साधक इस आज्ञा रंध्र का साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा I
इस आज्ञारंध्र के साक्षात्कार के मार्ग में, …
- यदि योगी को आज्ञारंध्र का साक्षात्कार नहीं होगा … तो ऐसी स्थिति में, पूर्व समय में नाभि से ऊपर उठा हुआ वो अमृत कलश, पुनः नाभि में पहुँच कर स्थिर हो जाएगा I ऐसी दशा में वो अमृत कलश, अपने पूर्व के स्थान पर, अर्थात नाभि से 2 से 3 ऊँगली नीचे ही स्थित हो जाएगा I यही मार्ग बौद्ध पंथ की ज़ेन (Zen) परंपरा का है I
- यदि योगी को आज्ञारंध्र का साक्षात्कार हो जाएगा … तो ऐसी स्थिति में, पूर्व में नाभि से ऊपर उठा हुआ अमृत कलश, नाभि से कहीं नीचे चला जाएगा I ऐसी स्थिति में वो अमृत कलश, नाभि से नीचे जाकर, लिंग और गुदा के मध्य में पहुँच कर, कुण्डलिनी लिंग के स्वरूप में आ जाएगा I ऐसी दशा में भी वो लिंग स्वरूप, हाटकेश्वर महादेव का लिंग कहलाया था I
- वो हाटकेश्वर लिंग सुनहरे वर्ण का होता है, जिसमे एक मुख्य लिंग से जुड़े हुए, छोटे छोटे बहुत सारे लिंग होते हैं I
- क्यूंकि यह लिंग जो साधक का कुण्डलिनी लिंग ही है, सुनहरा होता है, इसीलिए इसको सादक की हिरण्य कुंडली, स्वर्ण कुंडली, इत्यादि भी कहा जा सकता है I
- और यह कुण्डलिनी लिंग, “पाताले हाटकेश्वरम” के वाक्य को दर्शाता है, अर्थात यही साधक के शरीर के भीतर बसा हुआ हाटकेश्वर महादेव का लिंग है I इसको एक बाद के अध्याय, जिसका नाम हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय होगा…, उसमें बताया जाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब वो अमृत कलश, नाभि से ऊपर की ओर (अर्थात ब्रह्मरंध्र की ओर) उठता है, तो वो मेरुदण्ड की ओर से ही उठता है I
और जब वो अमृत कलश नीचे की ओर आता है, तब वो हृदय के अग्र भाग (अर्थात आगे के भाग) से ही नीचे की ओर आता है I
इसलिए इस आज्ञारंध्र के साक्षात्कार और इसके बाद की प्रक्रिया में, उस अमृत कलश ने साधक के शरीर के भीतर के समस्त ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा भी करी होती है I
और इसीलिए, आज्ञारंध्र का मार्ग ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा का ही मार्ग है, और जहाँ वो ब्रह्माण्ड साधक के पिण्ड रुपी शरीर के भीतर ही बसा हुआ होता है I
क्यूंकि उस ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा साधक की काया के भीतर बसा हुआ अमृत कलश ही करता है, इसलिए इस प्रदक्षिणा में, साधक के भीतर का ब्रह्माण्ड ही अमृतमय (अर्थात निष्कलंक) हो जाता है I
यही कारण है, कि इस आज्ञारंध्र का साक्षात्कार मार्ग और उसके बाद की दशा में, साधक के भीतर का ब्रह्माण्ड, निष्कलंक स्वरूप को धारण करता है I
और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में, ऐसा साधक निश्कलंक ही कहलाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि यह प्रदक्षिणा अचलित ब्रह्माण्ड की ही होती है, और क्यूंकि वो अचलित ब्रह्माण्ड ही प्राथमिक ब्रह्माण्ड कहलाया है, जो भगवान् पशुपतिनाथ ही हैं, इसलिए इस प्रदक्षिणा को पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा भी कहा जा सकता है, और इसके मार्ग को पशुपतिनाथ यान I
क्यूंकि पशुपतिनाथ, शिव ही हैं और क्यूंकि ब्रह्माण्ड के भीतर, शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव, इसलिए यह ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा शिव शक्ति प्रदक्षिणा मार्ग का भी अंग है I
क्यूंकि वैदिक वांड्मय में बताया गया है, कि भगवान् गणेश शिव शक्ति को ही सबकुछ मानकर उनकी प्रदक्षिणा करते हैं और क्यूंकि वो शिव शक्ति अपने निराकार स्वरूप में यही अचलित ब्रह्माण्ड, अर्थात पशुपतिनाथ स्वरूप ही हैं, इसीलिए इस आज्ञा रंध्र की ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा को, गणेश प्रदक्षिणा भी कहा जा सकता है I
जब साधक ऐसी प्रदक्षिणा करेगा, तब वो प्रदक्षिणा उन गणेश की अपने माता पिता, अर्थात शिव शक्ति की प्रदक्षिणा तुल्य ही होगी I
यही कारण है, जिस गणेश प्रदक्षिणा के बारे में वैदिक वाङ्मय में बताया गया है, वो आज्ञारंध्र से ही होकर जाती है I
जैसे गणेश भगवान् को उनके माता पिता, अर्थात शिव शक्ति ने अनुग्रह कृत्य से सुशोभित किया था, वैसे ही वो साधक भी हो जाता है जिसने इस आज्ञा रंध्र का साक्षात्कार करके, यहाँ बताई जा रही प्रदक्षिणा सम्पन्न की होगी I
ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में ऐसा साधक गणपति स्वरूप ही कहलाता है I
और यही कारण है, कि इस ग्रन्थ में आज्ञा रंध्र को गणपति रंध्र भी कहा गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जैसा यह आज्ञारंध्र होता है, वो अब बताता हूँ …
- इसका आकार नेत्र के समान होता है, लेकिन वो नेत्र खड़ा-नेत्र होता है I
- इसके मध्य में एक हीरे के समान अतिप्रकाशमान अवस्था होती है I और यह हीरे के समान प्रकाश ऐसा दिखाई देती है, जैसे अग्नि पर रखे हुए पतीले के भीतर दूध उबल रहा है I
- और उस हीरे के समान प्रकाश को एक भगवे वर्ण ने घेरा हुआ होता है I
- वो भगवे वर्ण में से ऊर्जा फट-फट के बाहर को ओर निकल रही होती है, जिसमें 16 दिशाएँ होती हैं (लेकिन इस चित्र में यह सोलह दिखाई ही नहीं गई हैं) I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस चित्र में दिखाए गए आज्ञारंध्र के रंग जो दर्शाते हैं, अब उनको बताता हूँ …
- हीरे का प्रकाश, सर्वसमता को दर्शाता है I यह शिव की चेतन शक्ति का भी वाचक है I
- और भगवा रंग, लाल रंग और पीले रंग की योगावस्था को दर्शाता है I
और इस भगवे रंग में …
- लाल रंग रजोगुण का वाचक है, अर्थात शिव की क्रिया शक्ति का वाचक है I
- और पीला रंग, शिव की ज्ञान शक्ति का वाचक है I
इसलिए, ऊपर बताए गए बिन्दुओं के अनुसार, आज्ञा रंध्र का प्रकाश, शिव की त्रिशक्ति को धारण किया हुआ है, अर्थात शिव की चेतन शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति की योगावस्था को भी दर्शाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
अब इन रंगों को योगमार्ग के अनुसार बताता हूँ …
जब साधक की चेतना, अष्टम चक्र को पार कर जाती है, तो उस साधक की त्रिनाडी ऐसी हो जाती हैं …
- साधक की इड़ा नाड़ी पीली रंग की हो जाती है I
- साधक की पिंगला नाड़ी रक्त के समान लाल रंग की हो जाती है I
- और साधक की सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक हीरे के समान प्रकाश स्वयंउदय होता है, जिसके कारण उस सुषुम्ना नाड़ी के भीतर ही उन नाड़ीयों का साक्षात्कार होता है, जिनको ब्रह्म नाड़ी और चित्रिनी नाड़ी भी कहा जाता है I ऐसी दशा में, बाहर की ओर से वो सुषुम्ना नाड़ी, सुनहरे वर्ण के प्रकाश की होती है, और उस सुनहरे वर्ण के भीतर एक हीरे के समान प्रकाशमान ऊर्जा स्वयंप्रकट हो जाती है I
- ऐसे समय पर, मूलाधार चक्र के समीप, एक अतिसूक्ष्म पीले वर्ण का प्रकाश स्वयं उदय हो जाता है I और यह प्रकाश मेरुदण्ड के नीचे के भाग से, साधक के लिंग तक विस्तारित हो जाता है I
- और ऐसा होने के पश्चात, इन तीनों नाड़ियों की प्रकाशमान ऊर्जा, मेरुदंड की ओर से (अर्थात साधक के शरीर के पीछे के भाग से), ऊपर की ओर (अर्थात मेरुदंड के नीचे से मस्तिष्क की ओर) उठने लगती है, और अंततः त्रिनेत्र में चली जाती है I
त्रिनेत्र में जाकर, जो होता है, वो अब बता रहा हूँ …
- जब इड़ा नाड़ी की पीली ऊर्जा और पिंगला नाड़ी की लाल रंग की ऊर्जा, मेरुदंड के नीचे से ऊपर मस्तिष्क की ओर उठकर और त्रिनेत्र में पहुंचकर, एक दुसरे से योग करती हैं, तो इसके पश्चात ही इस आज्ञारंध्र में दिखाया गया भगवे रंग का प्रकाश स्वयंप्रकट होता है I
- और इस भगवे रंग के प्रकाश में, जब सुषुम्ना नाड़ी के बाहर की ओर का सुनहरा रंग मिलता है, तब वो भगवा रंग अति चमकदार हो जाता है I जब ऐसा होता है तो उस भगवे रंग में विस्फोट होने लगते हैं, जिसके कारण आज्ञारंध्र जिसमे यह योग होता है, उसमें से भगवा रंग का प्रकाश फट-फट कर उस आज्ञा रंध्र से बाहर की ओर निकलने लगता है I उस भगवे रंग की ऐसी विस्फोटक स्थिति ही इस चित्र में दिखाई गई है I
- और उसी आज्ञा रंध्र के मध्य में (जहाँ यह भगवा रंग फट-फट कर बाहर की ओर निकल रहा होता है), सुषुम्ना नाड़ी के भीतर बसी हुई अतिप्रकाशमान ब्रह्म नाडी का हीरे जैसा प्रकाश दिखाई देता है I
- ऐसी दशा में, हीरे के प्रकाश को एक भगवे रंग के प्रकाश ने घेरा होता है I
- और इसी दशा को आज्ञारंध्र कहा गया है, जो गुरु शिव के द्वारा साधक को प्रदान करा गया, उन गुरु शिव का त्रिनेत्र ही होता है I
- और यही आज्ञा रंध्र गणेश भगवान् का भी होता है, और उन गणपति के अनुग्रह कृत्य, अर्थात अशीर्वाद नामक कृत्य को भी दर्शाता है I
- और जिस साधक के आज्ञा चक्र के स्थान पर यह आज्ञारंध्र रूपी त्रिनेत्र होता है, वो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में त्रिनेत्र धारी योगी ही कहलाता है I
अब ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, इस आज्ञारंध्र की दिव्यता का वर्णन करता हूँ I
इस आज्ञा रंध्र में …
- भगवा रंग तत्पुरुष ब्रह्म का है I
- और पाशुपत मार्ग के राजयोगी के लिए, जो पञ्च मुखा सदाशिव के ज्ञान और मार्ग में बसा हुआ है, यही रंग रुद्र देव का भी है, जिनका स्वयं प्रादुर्भाव सदाशिव के अघोर मुख से हुआ है और जिसके कारण रुद्र स्वयंभू भी कहलाए थे I
- श्वेत वर्ण वामदेव ब्रह्म का है I
- और पाशुपत मार्ग के राजयोगी के लिए, जो पञ्च मुखा सदाशिव के ज्ञान और मार्ग में बसा हुआ है, यही रंग सदाशिव के सद्योजात मुख का भी है, जो ब्रह्मलोक भी कहलाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
यह आज्ञारंध्र भी निर्गुणयान या अद्वैतयान या ब्रह्मयान का ही अंग है, क्यूंकि इससे भी साधक उन निर्गुण निराकार ब्रह्म का सीधा सीधा साक्षात्कार कर सकता है I
लेकिन इस आज्ञा रंध्र के साक्षात्कार के दृष्टिकोण से, ब्रह्मयान शब्द में कहे गए ब्रह्म शब्द को गणपति देव ही मानना चाहिए I
अब आगे बढ़ता हूँ …
आज्ञा रंध्र का आकार शिव के त्रिनेत्र के समान ही होता है I
यही वो त्रिनेत्र है, जिसको केवल शिव ही उस योगी को प्रदान करते हैं, जो यहाँ बताए जा रहे आज्ञारंध्र के साक्षात्कार का पात्र होता है, और अंततः इस आज्ञा रंध्र का साक्षात्कारी भी होता है I
ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में ऐसा साधक, शिव के त्रिनेत्र का धारक ही कहलाया जाता है I
इसी ज्ञान के आधार पर, आज की ब्रहमकुमारियों का प्रमुख चिन्ह भी है I
और इस भाग में बताए गए कपाल के रंध्र के अंत में …
कपाल के यह सभी रंध्र निर्गुणयान या अद्वैतयान या ब्रह्मयान के ही अभिन्न अंग हैं I
इसलिए कपाल के पञ्च रंध्र, उसी ब्रह्म के मार्ग के भी अभिन्न अंग हैं, जिसके कारण इन रंध्रों का मार्ग भी उसी ब्रह्मपथ का ही अंग है I
कपाल के पञ्च रंध्र, पञ्चब्रह्म से भी सम्बन्ध हैं, इसीलिए इन पञ्च रंध्र से पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार भी संभव होता है I
और इन्ही पञ्च रंध्रों से, पञ्च देव का साक्षात्कार भी संभव होता है I
और जिस योगी ने यह साक्षात्कार पूर्णरूपेण किया होगा, वो योगी ही पञ्च देव के पञ्च कृत्यों का धारक होगा I
जो योगी पञ्च कृत्यों का धारक हो जाता है, वो महाब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में अतिमानव कहलाता है I
और जो योगी इन पञ्च कृत्य में से किसी एक या एक से अधिक, लेकिन पांच से न्यून कृत्यों का धारक होता है, वो महाब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में महामानव कहलाया जाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब पञ्च मुखा सदाशिव के ज्ञान और मार्ग में बसे हुए पाशुपत मार्ग के राजयोगी की चेतना, कपाल के इन पञ्च रंध्रों में से, सभी से भी परे चली जाती है, तब वो योगी ऐसा ही बोलेगा …
शिव ही विष्णु, ब्रह्मा, देवी और गणेश हैं I
पञ्च देव ही ब्रह्म है, और योगीजनों के ब्रह्मपथ भी हैं I
पञ्च देव ही सगुण ब्रह्म है, और उन सगुण ब्रह्म का मार्ग भी हैं I
पञ्च देव ही निर्गुण ब्रह्म है, और उन निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार का मार्ग भी हैं I
पंच देवों में तारतम्य होने पर भी, उनके गंतव्य स्वरूप में तारतम्य नहीं होता I
इसलिए, पंच देवों में किसी भी देव का मार्ग, उसी गंतव्य को जाता है I
और वो अद्वैत गंतव्य ही ब्रह्म कहलाता है I
तो अब कपाल के पञ्च रंध्र के बारे में बताया जा चुका है, इसलिए अब हृदय रंध्र पर जाता हूँ …
हृदय के रंध्र … हृदय रंध्र, सगुणयान, देवयान, महायान …
यह चित्र उस देवयान का है, जिसमे साधक समस्त देवलोकों से जाकर, उन लोकों का और उनके प्रधान देवों का भी साक्षात्कार कर सकता है I
देवयान का अर्थ होता है, देवताओं का यान, या देवलोकों से जाता हुआ योगी का उत्कर्ष यान I
चाहे यह देवयान किसी देवलोक से जाए या न जाए, लेकिन इंद्रलोक से तो जाएगा ही I

क्यूंकि इस देवयान में, साधक समस्त देवलोकों का साक्षात्कार एक के बाद एक, इस रूप में करता है, इसलिए यह देवयान बहुत बड़ा (या लम्बा) मार्ग होता है, जो बहुत सारे देवलोकों से होकर ही जाता है I
और यही कारण है कि इस देवयान को पूर्ण रूप में पार करने को बहुत अधिक समय भी लगता है I इसलिए इस देवयान को पूर्ण करने के लिए कई सारे जन्म लग ही जाएंगे I
ऐसा होने के कारण ही इस देवयान को महायान भी कहा जाता है I
लेकिन ऐसा होने पर भी, इससे अच्छा कोई मार्ग है ही नहीं, क्यूंकि इसमें कई सारे देवताओं, उनके देव लोकों और उनके प्रभेदों का ज्ञान भी होता है I
यहाँ पर महायान का अर्थ है, वो यान जो बहुत बड़ा (या लम्बा) होता है I ऐसा इसलिए कहा गया है क्यूंकि इस यान में योगी बहुत सारे लोकों से जाता है, और वो सभी लोक भी कोई न कोई देवलोक ही होते है I
क्यूंकि वेदों में दो महा कभी नहीं हो सकते, इसलिए जो महा है, वो ही एकमात्र सबसे बड़ा (या लम्बा) यान (या मार्ग) होता है I
इस महायान के मार्ग से चित्त संस्कार रहित हो जाता है, इसलिए यह देवयान (या महायान) बहुत अच्छा यान (या मार्ग) भी है I
क्यूंकि इस देवयान को पूर्णतः किसी भी चित्र में दिखाया ही नहीं जा सकता, इसलिए इस चित्र में इसके एक प्रमुख भाग को ही दिखाया गया है, जो इन्द्रलोक से होकर जाने वाला देवयान है I
क्यूंकि देवयान किसी लोक से जाए या न जाए, लेकिन इन्द्रलोक से जाएगा ही, इसलिए इस भाग के वर्णन के लिए, इन्द्रलोक और उससे आगे का मार्ग चुना है I पर इसके अतिरिक्त भी देवयान के कई और बिंदु होते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
देवयान का प्रारम्भ त्रिनाड़ी से ही होता है I यह त्रिनाड़ी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी ही हैं I इड़ा और पिंगला नाड़ी भी सुषुम्ना का ही अंग होती हैं I
मेरुदंड के नीचे के भाग से ऊपर हृदय की ओर उठती हुई सुषुम्ना नाड़ी में 100 छोटी छोटी नाड़ियाँ होती हैं I यह सौ नाड़ियाँ भी मेरुदंड के नीचे के भाग से लेकर हृदय तक ही जाती हैं I
और हृदय में पहुंचकर, यह सौ नाड़ियाँ खुल जाती है I
इसका अर्थ हुआ कि यह सौ नाडियों की गति मेरुदण्ड के नीचे के भाग से लेकर, हृदय तक ही होती है, … हृदय से आगे, अर्थात ऊपर मस्तिच्क की ओर नहीं I
इन 100 छोटी छोटी नाड़ियों में एक-एक दिव्यता होती है, जो इन 100 नाड़ियों के 100 देवता भी होते हैं I इसलिए, मेरुदण्ड से हृदय तक, इस देवयान में 100 दिव्यताओं और उनके सौ लोकों का साक्षात्कार भी होता है I
वैदिक वाङ्मय में, इन सौ नाडियों और इनकी चलित अवस्था, अर्थात ऊर्जा रूपी दिव्यता को भारत की सौ नदियाँ कहा गया था I और जहाँ वो भारत भी साधक के शरीर में बसा हुआ सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड ही था I
वैदिक वाङ्मय के अनुसार, भारत शब्द की परिभाषा में ब्रह्माण्ड ही प्रकाशित होता है और जहाँ वो ब्रह्माण्ड भी ईश्वर का साम्राज्य ईश्वर की और गुरुगद्दी भी होता है I और यही ब्रह्माण्ड साधक के पिण्ड रुपी शरीर के भीतर भी होता है और जहाँ वो ईश्वर ही साधक का आत्मस्वरूप होता है I
इसलिए, भारत वो ब्रह्माण्ड ही होता है, जो योगी के शरीर के भीतर ही बसा हुआ होता है और यो योगी की सर्वेश्वर स्वरूप आत्मा का ही साम्राज्य और गुरुगद्दी भी होता है I
तिब्बती बौद्ध पंथ में, इन सौ नाडियों की दिव्यताओं को ही सौ बुद्ध कहा गया है I इसका प्रमाण तिब्बतियों के बारडो (Bardo) मार्ग में मिलता है, जिसके प्रकाशक गुरु पद्मसंभव थे और इसी को तिब्बती बुक ऑफ़ डेड (Tibetan book of dead) भी कहा जाता है I
यह सौ नाड़ियाँ हृदय तक जाती हैं और हृदय में पहुँच कर, हृदय से ऊपर की ओर एक ही नाड़ी जाती है I यह नाड़ी ही सुषुम्ना है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जो सौ दिव्यताएं और इनके सौ लोक इन छोटी छोटी नाड़ियों में होते हैं, वो ही ब्रह्माण्ड में भी होते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि …
जो दिव्यता और उसका लोक, योगी के शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में भी है I
और इसका अर्थ यह भी हुआ, कि …
यदि कोई दिव्यता या लोक योगी के शरीर में नहीं है, तो वो ब्रह्माण्ड में भी नहीं है I
यह बिंदु भी “स्वयं ही स्वयं में” के मार्ग का एक अभिन्न अंग है, इसलिए यह रंध्र विज्ञान भी आत्ममार्ग का ही एक अंग है I
आगे बढ़ता हूँ …
यह सभी 100 नाड़ियाँ जो मेरुदण्ड से हृदय में जाकर समाप्त होती हैं, अर्थात हृदय के क्षेत्र में ही खुलती हैं I
इन 100 नाड़ियों में ही समस्त ब्रह्माण्डीय देवलोकों के मार्ग प्रारम्भ होते हैं I
और हृदय में यह सभी नाड़ियां, शून्य तत्त्व में ही खुलती हैं, अर्थात इन सभी नाड़ियों पर गति का मार्ग शून्य तत्त्व का साक्षात्कार करवाता ही है I
हृदय में पहुँच कर यह नाड़ियाँ अपने अपने देवलोक की ओर जाती हैं I
और इन सभी नाड़ियों में से इंद्रलोक की नाड़ि ही प्रधान है I
इन सभी सौ नाड़ियों के देवता, अभिमानी ही आते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि साधक की चेतना इन सौ नाड़ियों से ऊपर की ओर उठकर, हृदय में जाकर ही इन नाड़ियों की दिव्यताओं का साक्षात्कार करती है I
और इन बिंदुओं के अतिरिक्त, जब साधक की चेतना इनमें से किसी एक नाड़ी से ऊपर की ओर उठती है, तब हृदय क्षेत्र में किसी भी नाड़ी से दूसरी नाड़ी में प्रवेश भी हो सकता है I
जहाँ यह नाड़ियाँ हृदय में होती हैं, वहां इन सौ नाड़ियों की अपनी ही एक सूक्ष्म गुफा भी होती हैं, जिसमें प्रवेश करके इन नाड़ियों से आगे की ओर जाया जा सकता है I
इसी उत्कर्ष रूपी यान पर गमन करता हुआ योगी, समस्त नाड़ियों के देवताओं और उनके देवोलोकों का साक्षात्कार करता है I
समस्त देवलोकों की नाड़ियों से जाता हुआ, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य में बसे हुए योगी का उत्कर्षमार्ग रूपी यान ही देवयान कहलाता है I
यही कारण है कि देवयान का मार्ग, हृदयरंध्र से ही प्रारम्भ होता है I
यह भी वो कारण है, कि हृदयरंध्र का देवयान, किसी एक लोक (या दिव्यता) तक ही सीमित नहीं है, क्यूंकि यह मार्ग समस्त देवलोकों से होकर ही जाता है और इसपर गमन करके योगी, समस्त देवलोकों की और उनके देवताओं की सिद्धियों को भी पाता है I
और क्यूंकि शरीर में ही प्रत्येक देवलोक का एक रंध्र होता है, इसलिए जिस हृदयरंध्र के बारे में यहाँ बात हो रही है, वो वास्तव में समस्त देवलोकों के रंध्रों का समूह ही है I
और इस हृदय रंध्र का प्रत्येक रंध्र (या गुप्त द्वार) उस रंध्र की एक गुफा से होकर ही जाता है I यही कारण है, कि हृदय में अनेक सूक्ष्म गुफाएँ भी होती हैं और यह सभी गुफाएं भी उसी शून्य तत्त्व में ही बसी हुई होती हैं I
और इस हृदय रंध्र के किसी भी देवलोक से जाकर, शून्य तत्त्व का साक्षात्कार होता है…, और अंततः निर्गुण ब्रह्म का ही साक्षात्कार होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि देवयान कई सारे देवलोकों से होकर ही जाता है, इसलिए इसमें साधक को कई सारे साक्षात्कार भी होते हैं, जिसके कारण यह हृदयरंध्र का देवयान बहुत ही रोचक मार्ग भी है I
सभी उत्कर्ष मार्गों में से यह देवयान सबसे चितरंजक मार्ग भी है I
इसके अतिरिक्त, क्यूंकि देवयान में समस्त देवादि लोकों का साक्षात्कार भी होता है, इसलिए यह ज्ञानपूर्ण मार्ग भी है I
इससे गया हुआ साधक उन सभी लोकों और उनकी दशाओं का साक्षात्कार भी करेगा, जिनके बारे में सिद्धों ने कभी बताया होगा I
आगे बढ़ता हूँ …
क्यूंकि देवयान बहुत सारे देवादि लोकों से होकर जाने वाला मार्ग है और क्यूंकि इस देवयान के सारे मार्गों में, अंततः उन्ही निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, इसलिए यह देवताओं का यान बहुवादी अद्वैत में ही बसा हुआ है I
बहुवादी अद्वैत का अर्थ है, कि बहुत सारे मार्ग-विकल्प होने पर भी, अंततः उसी सत्य का साक्षात्कार होगा और जहाँ वो अंतिम या गंतव्य रूपी सत्य भी निर्गुण निराकार ब्रह्म ही होगा I
और इस देवयान से जाने पर, जिस देवलोक का साक्षात्कार होगा ही, वो देवराज इंद्र का लोक, अर्थात इन्द्रलोक ही होगा I इसका कारण है, कि देवराज इन्द्र के लोक से तो देवयान जाता ही है I
इस देवयान से जाने के पश्चात ही साधक परायान से जाता है, जो परा प्रकृति या माँ आदिशक्ति का ही मार्ग है I
और इसी देवयान में शून्य तत्त्व का साक्षात्कार करके, साधक निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार भी करेगा ही I
इसलिए यह देवयान, निर्गुणयान न होने पर भी, निर्गुण ब्रह्म तक लेके जाने की क्षमता रखता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
देवयान के इस चित्र में …
- इस चित्र में जो तीर दिखाया गया है, वो साधक के मार्ग है, और जिसकी दिशा में साधक जाता है I
- इन्द्रलोक, … सबसे दाएं हाथ की ओर जो पीले वर्ण का प्रकाश है, वो इन्द्रलोक का है I
इंद्रदेव ही बुद्धि के देवता हैं, इसलिए इन्द्रलोक ही ब्रह्माण्ड की बुद्धि काया है I
अब इस चित्र को देखो …

इस देवयान के अंतर्गत आता हुआ इन्द्रलोक का मार्ग हृदय के सामने से जाता है और यह मार्ग भी इन्द्रलोक के समान, पीले वर्ण का ही होता है I इस चित्र में भी हृदय से जाने वाले इन्द्रलोक के मार्ग को हृदय के अग्र भाग में शरीर से बाहर की ओर दिखाया गया है I
चित्र में हृदय के सामने जो नली दिखाई गई है, वो इन्द्रलोक को जाने का मार्ग है, जो हृदय के सामने से और साधक के शरीर के भीतर से ही जाता है I
और हृदय के सामने की नाली से जाकर, इस अध्याय के देवयान के चित्र के पीले भाग (अर्थात इन्द्रलोक) तक जाया जाता है I
लेकिन इस चित्र में इन्द्रलोक को लेके जाने वाली यह पीले रंग की नली शरीर के बाहर की ओर दिखाई गई है…, जबकि यह नली शरीर के भीतर ही होती है I
अब इसी बिंदु के अगले भागों पर जाता हूँ …
- वरुण लोक … इस चित्र के मार्ग में, साधक की चेतना इन्द्रलोक से वरुण लोक जाती है, जो नीले वर्ण का होता है और देवयान के इस चित्र में इन्द्रलोक के दायीं ओर दिखाया गया है I
- विद्युत् लोक … वरुण लोक से वो चेतना हीरे के समान प्रकाश वाले विद्युत् लोक को जाती है I पूर्व के देवयान के चित्र में दिखाए गए मार्ग में, विद्युत् लोक का मार्ग भी वरुणलोक से होकर जाता है I और उस नील वर्ण के वरुण लोक ने हीरे के प्रकाश वाले विद्युत् लोक को घेरा भी होता है I
जब इन्द्रलोक से इन दोनों लोकों, अर्थात वरुण लोक और विद्युत् लोक का साक्षात्कार होगा, तो यह दोनों लोक आपस में घुले मिले ही दिखेंगे I
और यह दोनों लोक ऐसे दिखेंगे जैसे कई सारी तीरों में हीरे के रंग को नीले रंग ने घेरा हुआ है और इस देवयान में यह दशा सबसे सुन्दर लगती है I ऐसा ही पूर्व के देवयान के चित्र में भी दिखाया गया है I
विद्युत् लोक का अस्त्र स्वरूप ही देवराज इंद्र का वज्रास्त्र है I यह वज्रास्त्र की ऊर्जा भी वरुण लोक से होकर ही जाती है I इसका अर्थ हुआ, कि जब वज्रास्त्र का प्रयोंग होगा, तब उस वज्रास्त्र की ऊर्जा सर्वप्रथम जल में जाएगी, जो जीवों के शरीर में भी होता है I और उस जल तत्त्व से ही वो ऊर्जा जीव जगत में अपना विद्युत् का प्रभाव दिखेगी I
- विद्युत् लोक का अमानव पुरुष … इस विद्युत् लोक से आगे का मार्ग योगी के बस में नहीं होता I इसलिए, जब योगी की चेतना इस विद्युत् लोक को पार करने की पात्र बनती है, तब अमानव पुरुष ही उस चेतना को इस विद्युत् लोक से आगे लेकर जाता है I
यह अमानव पुरुष एक हाथ के समान होता है, जो योगी को उठाकर, विद्युत् लोक से परे लेकर जाता है I
इस विद्युत् लोक का कोई देवता नहीं होता, बस ऊर्जा ही होती है I
और देवता न होने के कारण, इस लोक में अमानव पुरुष का निवास होता है I
अधिकांश लोक जिनके देवता नहीं होते, उनमें अमानव पुरुष ही पाए जाते है I
और देवादि लोकों में गमन के मेरे अपने अनुभव से, इस समस्त चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, केवल छह लोक ही हैं जहाँ अमानव पुरुष होता है I
यह सभी अमानव पुरुष एक ऊर्जा रूपी हस्त के समान होते है, जो अकस्मात् प्रकट होकर, साधक की चेतना को (जो उस लोक में बैठी होती है और आगे जाने का मार्ग खोज रही होती है) उठा कर आगे की ओर लेके जाते हैं I
लेकिन ऐसा भी केवल तभी होगा, जब साधक उस लोक से आगे का पात्र बनेगा…, अन्यथा नहीं I
अमानव पुरुष और उनके लोकों के बारे में एक बाद के अध्याय में बात होगी I
- पशुपतिनाथ लोक, मेरे गुरुदेव का लोक, अचलित ब्रह्माण्ड, … जब वो विद्युत् लोक का अमानव पुरुष साधक की चेतना को उठाकर, विद्युत् लोक से आगे की ओर ठेल देता है, तब वो चेतना पशुपतिनाथ लोक में पहुँच जाती है I
यहाँ कहे गए पशु शब्द का अर्थ, समस्त जीव सत्ता ही है I
इसीलिए यहाँ कहे गए लोक शब्द का अर्थ, चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड ही माना जाना चाहिए I और यहाँ कहे गए ब्रह्माण्ड शब्द का अर्थ, उस प्राथमिक अचलित ब्रह्माण्ड को ही माना जाना चाहिए I
इस चित्र में, हीरे के समान प्रकाशमान विद्युत् लोक को घेरे हुए जो काला रंग है, वो पशुपतिनाथ का लोक है, जिसको अचलित ब्रह्माण्ड भी कहा जा सकता है, और जिसका रंग काला (अर्थात रात्रि के समान) ही होता है I
इसी अचलित ब्रह्माण्ड से, चलित ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव हुआ था, जिसके भीतर समस्त जीव और उनके लोक बसे हुए हैं I
वही पशुपतिनाथ, बाइबिल के गॉड (अर्थात बाइबिल में बताए गए भगवान्) भी है I इसा मसिह सहित, कई और मसीहा इसी पशुपतिनाथ लोक में निवास करते हैं I
- शून्य तत्त्व … उन पशुपतिनाथ भगवान् के लोक से आगे जो एक और काले वर्ण की दशा है, वो शून्य तत्त्व है I
आगे बढ़ता हूँ …
- क्यूंकि देवयान में इतने लोक हैं, कि इनको पूर्णरूपेण बताया ही नहीं जा सकता, इसलिए देवयान के वो साधक जो मुमुक्षु हैं, उनको किसी भी लोक से शून्य तत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए और इसके पश्चात, उन निरंग झिल्ली के समान निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करके, कैवल्य मुक्ति को पाना चाहिए I
निर्गुण निराकार ब्रह्म के सर्वव्यापक होने के कारण, उनका साक्षात्कार किसी भी देवादि लोक से हो सकता है I
ऐसे कहने का कारण है, कि यदि कोई साधक देवयान के समस्त बिन्दुओं का साक्षात्कार करके ही मुक्त होने का इच्छुक होगा, तो उसको बहुत अधिक समय लग जाएगा, क्यूंकि देवयान में बहुत सारे लोक हैं, जिनके पूर्ण साक्षात्कार में कई जन्म (या कई सारे जन्मों से भी कहीं अधिक जन्म) लग सकते हैं I
इसलिए मुमुक्षु साधक को बस, किसी भी एक देवलोक से उन निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करके, उन निर्गुण ब्रह्म में विलीन होके, कैवल्य मोक्ष को पाना चाहिए, और मुक्तात्मा होकर जागतातीत हो जाना चाहिए I
और जो सिद्ध मार्ग के साधक हैं, उनको ही इस देवयान को पूर्णरूपेण जानने के लिए प्रयास करना चाहिए, क्यूँकि सिद्ध को मुक्ति या बंधन से क्या लेना देना? I
आगे बढ़ता हूँ …
जो साधक देवयान को पूर्णरूपेण जानेगा, वो यह भी जान जाएगा, कि सभी मार्ग उसी निर्गुण ब्रह्म को ही जाते हैं, जो सर्वव्यापक है, और जिसमें सभी देवादि लोक बसे होते हैं और जो सभी देवादि लोकों में भी बसा होता है I
लेकिन यह ज्ञान उसी साधक का होगा, जो सभी देवादि लोकों से होकर गया होगा…, अन्य कोई भी नहीं I
इसका अर्थ हुआ, कि इस बिन्दु का साक्षात्कारी वही साधक होगा, जिसने इस देवयान को पूर्णरूपेण सिद्ध किया होगा I
हृदय के रंध्र … सगुणयान, हृदयरंध्र, परायान, परारंध्र, परा प्रकृति यान, हृदययान, परा प्रकृति रंध्र, नवम आकाश यान, नवम कोष यान, … माँ आदिशक्ति यान, माँ पार्वती यान, माँ आदिशक्ति रंध्र, माँ पार्वती रंध्र, …

देवयान से जाकर, साधक परायान में जाता है, जिसके बारे में यहाँ बताया जाएगा I
परायान भी ह्रदयरंध्र (अर्थात हृदय के एक गुप्त द्वार) से जाता है I
इसमें साधक की चेतना, हृदय के अग्रभाग में जाकर, एक सूक्ष्म गुफा में प्रवेश करती है, और इसके पश्चात ही वो चेतना इस परायान पर जाने की पात्र होती है I
परायान उन परा प्रकृति का ही यान है, जिनको वेद मनीषियों ने प्रकृति का नवम कोष, सत्त्वगुणी प्रकृति आदि कहा है I
इस परा प्रकृति में बहुत सारे सिद्ध योगी निवास भी करते हैं, और जब साधक की चेतना इस परा प्रकृति को जाएगी, तो वो चेतना उन सिद्ध योगीजनों को भी देख सकती है, और उनसे वार्तालाप करके ज्ञानार्जन भी कर सकती है I
और यह सभी सिद्ध वो हैं, जो आगामी समय में और उनकी कैवल्य मोक्ष प्राप्ति से पूर्व, एक अंतिम बार किसी न किसी लोक में पुनः लौटेंगे I
बौद्ध पंथ में, परा प्रकृति के इन सिद्धों को बोधिसत्व भी कहा गया है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
परायान माँ प्रकृति का यान है, जो साधक को सीधा परा प्रकृति की ओर लेके जाता है, और जहाँ …
प्रकृति, ब्रह्म की प्रथम और पूर्ण अभिव्यक्ति, ऊर्जा, शक्ति, दिव्यता और दूती हैं I
वो परा प्रकृति श्वेत वर्ण के सूक्ष्म मेघ के समान होती है जिनमें यदि साधक की चेतना चली जाए, तो उस चेतना को ऐसा लगता है जैसे वो किसी वायुयान के पंखों पर बैठी हुई है, और वो वायुयान एक श्वेत वर्ण के सूक्ष्म मेघ के भीतर से होकर जा रहा है I
इस चित्र का वर्णन …
- बाएं ओर जो शरीर दिखाया गया है, वो उस साधक का है जो इस परायान रूपी उत्कर्ष मार्ग पर गमन करता है I
- उस शरीर के दायीं ओर जो काला वर्ण है, वो शून्य तत्त्व है I
- और उस शून्य तत्त्व के दायीं ओर जो श्वेत वर्ण की दशा दिखाई हुई है, वो ही परा प्रकृति हैं जिनके सगुण साकार स्वरूप को वेदों में माँ आदिशक्ति और माँ पार्वती भी कहा गया है I
इस चित्र से जो अर्थ निकलता है, वो ऐसा है …
- यह चित्र ह्रदयरंध्र के परारंध्र से जाने के मार्ग का है, जिसको यहाँ पर परायान कहा गया है I
- जब साधक की चेतना ह्रदयरंध्र में जाकर, उस ह्रदयरंध्र के परारंध्र में जाती है और इसके पश्चात वो चेतना परायान पर गमन करने लगती है, तो वो चेतना इस चित्र की दशा का साक्षात्कार करती है I
- जब चेतना ह्रदयरंध्र से शरीर के बाहर की ओर गमन करने लगती है, तो वो चेतना उस सूक्ष्म तत्त्व में प्रवेश करती है, जो रात्रि के समान प्रकाश रहित होता है I यह सूक्ष्म तत्त्व ही शून्य तत्त्व है I
- इस शून्य तत्त्व से आगे जाकर, वो चेतना सीधा-सीधा परा प्रकृति में प्रवेश कर जाती है I
- यहां बताए जा रहे परायान का यही मार्ग है I
- और इस परायान से साधक सीधा सीधा परा प्रकृति का साक्षात्कार कर लेता है जिसके पश्चात साधक की चेतना, परा प्रकृति में ही स्थित हो जाती है I
परा प्रकृति को ही आदिशक्ति कहा गया हैI
और बौद्ध मार्ग में परा प्रकृति ही बुद्ध समन्तभद्री कहलाती हैं I
परा प्रकृति को ही प्रकृति का नवम कोष कहा गया है, और बौद्ध मार्ग में इसी नवम कोष को नवम आकाश (अर्थात अंग्रेजी में क्लाउड नाइन, cloud nine) भी कहा गया है I
इसीलिए इस परायान को, नवम आकाश यान और नावं कोष यान भी कहा जा सकता है I
आगे बढ़ता हूँ …
और क्यूंकि इस परायान में साधक, शून्य तत्त्व का साक्षात्कार भी करेगा, इसीलिए इसको शून्य यान भी कहा जा सकता है I
परा प्रकृति के साक्षात्कार के लिए, इस परायान से छोटा कोई और मार्ग है ही नहीं, क्यूंकि इसमें जाकर, साधक कुछ ही समय में परा प्रकृति (अर्थात वेदों की माँ आदि शक्ति के निराकार स्वरूप) का साक्षात्कार कर लेता है I
इससे आगे मैं बता ही नहीं सकता, क्यूंकि इसे लिखते समय मेरे मस्तिष्क में ब्रह्मनाद चल पड़ा है I
जब भी मेरे मस्तिष्क में यह ब्रह्मनाद आता है, तो वो मेरी माँ प्रकृति का ही एक संकेत होता है, कि…
बेटा, अब बस कर…, इससे आगे नहीं I
और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है I
इसलिए अब इस परारंध्र से आगे बढ़ता हूँ …
रंध्रों के मध्य की दशाएं, … रंध्र मध्य के साक्षात्कार …
इस बिंदु को संक्षेप में और अपूर्ण स्वरूप में ही बतलाऊँगा, क्यूंकि इसको मैं पूर्णरूपेण बताना ही नहीं चाहता हूँ I
इस बिंदु को मैंने पञ्च मुखी सदाशिव के मार्ग में बसकर, उनके साक्षात्कारों और उनके ज्ञानानुसार बताया है I
इसलिए इस अध्याय के इस भाग के बस वो ही बिन्दु बतलाऊँगा, जिनके बारे में आगे के अध्यायों में बात की जाएगी I
अब आगे बढ़ता हूँ …
रंध्रों के मध्य में भी कई सारी दिशाएँ होती हैं, जिनमें से कुछ के बारे में अब बताता हूँ …
- शिवरंध्र और ब्रह्मरंध्र के मध्य में, सदाशिव का अघोर मुख होता है, जो नीले वर्ण का होता है I अघोर मुख का शब्द, अहम् नाद का है I
- शिवरंध्र और विष्णुरंध्र के मध्य में सदाशिव के अघोर मुख से स्वयंउत्पन्न रुद्र देव है, जिनके शब्द, आला नाद का होता है I
- देवीरंध्र और ब्रह्मरंध्र के मध्य में, अव्यक्त प्रकृति होती हैं, जिनको वेद मनिषियों ने अव्यक्त प्राण, माँ माया आदि नामों से भी पुकारा है I
- इत्यादि …
इससे आगे बता नहीं सकता हूँ, क्यूंकि उन दशाओं के बारे में मैंने आगे के किसी भी अध्याय में खुल के बताया ही नहीं है I
और इस अध्याय के अन्त में जो बता रहा हूँ, उसपर विशेष ध्यान देना …
वैसे मैंने यह सबकुछ एक ही अध्याय में बता दिया है, लेकिन इस सब को साक्षात्कार करके सिद्ध करने में, किसी भी जीव को अरबों से भी अधिक वर्ष ही लगेंगे I
इसलिए, इस समस्त चतुर्दश भुवन में इस रंध्र विज्ञान के पूर्ण ज्ञाता…, अतिविरले ही होते हैं I
जो योगीजन इस रंध्र विज्ञान के पूर्ण ज्ञाता होते हैं, वो भी इसको कभी खुल कर, अर्थात पूर्ण स्वरूप में नहीं बताते I
इसे न बताने का कारण है, कि यह एक अतिगुप्त विज्ञान है I और इस अध्याय में जहाँ भी इस बिंदु की आवश्यकता मुझे समझी, वहां पर मुझसे जहाँ तक हो सका मैंने भी इस बिन्दु का पालन किया है I
इसीलिए, इस रंध्र विज्ञान के अध्याय में बताए गए तत्त्वों को मैंने पूर्ण रूप में बताया भी नहीं है…, बस कुछ बताने के लिए कुछ न कुछ बता दिया है…, ताकि इस कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, जो कुछ भी इस रंध्र विज्ञान में त्रुटियाँ आयी हैं, उनकी काट हो सके, और साधकगण इसको जानकार, इसके मार्ग पर जाकर, मुक्तिलाभ कर सकें I
लेकिन ऐसा होने पर भी मैंने इसके वो मुख्य बिंदु बता दिए हैं, जिनका आलम्बन लेके वो साधक जो इस ज्ञान मार्ग पर गमन करने के वास्तविक पात्र होंगे, वो साधक इस अध्याय के उन तत्त्वों का साक्षात्कार भी कर लेंगे, जिनके बारे में मैंने नहीं बताया है या कुछ न कुछ सांकेतिक ही बता दिया है I
तो अब मै इस रंध्र विज्ञान के अतिगुप्त ज्ञान रूपी अध्याय को समाप्त करता हूँ I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaal Chakra
परा प्रकृति, cloud nine
कालचक्र, Kaal Chakra