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यहाँ पर सदाशिव का वामदेव मुख, सदाशिव वामदेव, वामदेव सदाशिव, शमशान काली, माँ धूमावती, आंतरिक महाशमशान, आंतरिक शमशान, धूमावती सिद्ध शरीर, सदाशिव वामदेव सिद्ध शरीर, धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर, धूम्र सिद्ध शरीर, श्मशान काली सिद्धि, धूमावती सिद्धि, वामदेव सदाशिव सिद्धि, मोक्ष दायिनी सिद्धि, वैकुण्ठ लोक, बैकुंठ लोक, ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड आदि बिंदुओं पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का उनासी अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का आठवाँ अध्याय है I

ॐ परमात्मने नमः II

 

 

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सदाशिव वामदेव सिद्ध शरीर, धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर, धूम्र सिद्ध शरीर
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ऊपर का चित्र वामदेव सदाशिव से संबद्ध सिद्ध शरीर दिखा रहा है I जब साधक महाकाल महाकाली योग से आगे जो शिवलोक (अथवा विष्णु लोक) है, उसको भी पार करता है, तब उस साधक की काया के भीतर एक सिद्ध शरीर प्रकट होता है, जो ऊपर के चित्र में दिखाई गई अवस्था में होता है I

यह सिद्ध शरीर धूम्र वर्ण का होता है I इसका वर्ण ऐसा होता है जैसे यज्ञकुण्ड के ऊपर उठता हुआ धुआँ होता है I

यह सिद्ध शरीर सदाशिव के वामदेव मुख से संबद्ध होता है, और उन सदाशिव वामदेव की सिद्धि का भी द्योतक होता है I

क्यूँकि वामदेव सदाशिव से संबद्ध ही माँ शमशान काली और दस महाविद्या की माँ धूमावती हैं, इसलिए यह सिद्ध शरीर इन दोनों देवियों की सिद्धि का भी द्योतक है I

क्यूंकि माँ धूमावती को ही अलक्ष्मी कहा जाता है, जो दरिद्रता और अनैश्वर्य (अर्थात असम्पन्नता) को दर्शाती हैं, इसलिए ऐसे साधक के पास कोई सिद्धि नहीं टिक पाती है I

यही कारण है कि जैसे ही यह सिद्ध शरीर की प्राप्ति होती है, वैसे ही उस साधक के पास जो भी सिद्धि आदि बल होते हैं, वह अपने-अपने कारणों में स्वतः ही और अकस्मात् ही लय होने लगते हैं I स्वतः और अकस्मात् होने के कारण, उस लय प्रक्रिया पर साधक का कोई नियंत्रण भी नहीं होता है I

 

उन्ही माँ अलक्ष्मी की इस सिद्धि के कारण, साधक…

पुरुषार्थ शून्य हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I

 

 

और इस सिद्ध के मार्ग में साधक…

कर्म और कर्मफल शून्य होने के साथसाथ, संस्कार शून्य भी हो जाएगा I

 

 

इसका अर्थ हुआ कि…

यह सिद्धि जिसका नाता माँ धूमावती से है, वह मोक्ष दायिनी सिद्धि ही है I

 

 

और ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

कर्मशून्य, फलशून्य और संस्कारशून्य दशा ही कर्मातीत फलातीत संस्कारातीत है I

कर्मातीत फलातीत संस्कारातीत दशा ही तो कर्ममुक्ति को दर्शाती है I

 

 

क्यूंकि इस सिद्धि का नाता मुक्ति से ही है, इसलिए इस सिद्ध शरीर का अधिक शब्दों में वर्णन हो ही नहीं सकता I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

मुक्ति की दशा तो शब्दातीत होती है I

शब्दातीत का शब्दों में वर्णन कैसे करोगे? I

शब्दातीत का ज्ञानमय संकेत महावाक्य में है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह सिद्ध शरीर सदाशिव के वामदेव मुख में जाकर, लय होता है I

और लय होने के पश्चात, यह सिद्ध शरीर सदाशिव के वामदेव मुख के समान निराकार होता है I

इसका अर्थ हुआ, कि वामदेव सदाशिव में लय के पश्चात, यह सिद्ध शरीर अपना पूर्व का सगुण साकार स्वरूप त्यागकर, सदाशिव वामदेव के समान सगुण निराकार ही हो जाता है I

 

 

जब ऐसा होता है, तब…

यह सिद्ध शरीर, स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाता है I

जब कोई स्वयं ही स्वयं को न देख पाए, तो वही मुक्ति होती है I

इसलिए यह धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर, मुक्ति दायिनी सिद्धि को दर्शाता है I

 

ऐसा होने के कारण, …

यह सिद्ध शरीर साधक के पञ्च मुखी सदाशिव में अंतिम लय को भी दर्शाता है I

इस सिद्धि के लय होने पर योगी पूर्व के सभी सिद्ध शरीरों को देख नहीं पाता है I

इसके बाद योगी के समस्त सिद्धि शरीर अपने कारणों में लय होते जाते हैं I

इस लय के पश्चात साधक सदाशिव के वामदेव मुख का स्वरूप पाता है I

और जहाँ वह स्वरूप भी सगुण निराकार ही होता है I

 

इस स्वरूप में, …

योगी सदाशिव वामदेव के समान धूम्र वर्णा होकर, सगुण निराकार ही होता है I

योगी के भीतर वामदेव की दिव्यता शमशान काली ही स्थापित हो जाती हैं I

योगी के भीतर ही दस महाविद्या की माँ धूमावती स्थापित होती हैं I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह सिद्ध शरीर और इसके वर्ण का नाता…

  • सदाशिव के वामदेव मुख से है I
  • दस महाविद्या की माँ धूमावती से है I
  • वामदेव की दिव्यता, माँ शमशान काली से है I
  • बोधिचित्त के मध्य बिंदु सहित, उससे निकलती हुई चौबीस रखाओं से है I
  • क्यूंकि श्री विष्णु का उदय सदाशिव वामदेव से ही होता है, इसलिए इस वर्ण का नाता श्री विष्णु से भी है I
  • क्यूंकि माँ पार्वती का उदय भी सदाशिव के वामदेव मुख से होता है, इसलिए इस वर्ण का नाता माँ पार्वती से भी है I
  • कुछ योगीजनों ने (जैसे महर्षि आत्रेय) इस वर्ण को आत्मा से जोड़कर कहा है I
  • योगमय सम्भोग पद्दतियों से भी इस सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है I
  • मध्यम मार्गों से (जैसे बौद्ध पंथ) से भी इस सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है I यह सिद्ध शरीर मध्य मार्गों की एक मुख्य सिद्धि भी है I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

इतिहास में कुछ योग मनीषियों ने इस सिद्धि को प्रकाश और अंधकार की योगदशा भी कहा है I यह सत्य है क्यूंकि जब साधक इस योग में जाता है, तब ही इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति होती है I

ऊपर बताए गए बिन्दु का आलम्बन लेकर, कुछ ने इस सिद्ध शरीर को सम्भोग और ब्रह्मचर्य के मध्य की दशा से प्राप्त करने का मार्ग बताया है I जबकि यह पूर्णतः सत्य नहीं है, किन्तु पूर्णतः असत्य भी नहीं है I और ऐसा इसलिए है क्यूंकि सम्भोग का शब्द, योग को भी दर्शाता है, और इस योग का नाता केवल स्थूल देह से ही नहीं होता, बल्कि स्थूल शरीर के भीतर बसी हुई दिव्यताओं का भी होता है और अपना ही काया के भीतर, योगी इस प्रक्रिया को क्रियान्वित भी कर सकता है I

और कुछ ने इसकी प्राप्ति के मार्ग को सत्य और असत्य, सही और गलत आदि के मध्य का बताया है I जबकि यह सिद्धि मध्यम मार्गों की ही है, किन्तु ऐसे सभी कथन असत्य ही हैं और मनोलोक की उत्पत्ति हैं I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

अच्छा और बुरा जैसे द्वैतवाद में बसे हुए बिन्दुओं की कोई सनतान परिभाषा नहीं होती है I

जो पूर्व कालों में अच्छा है, वह आज बुरा है, और जो आज अच्छा है वह आगे के किसी कालखंड में बुरा ही माना जाएगा I

अच्छा तबतक अच्छा रहता है, जबतक उससे कुछ और अच्छा न मिले I

जब पूर्व के अच्छे से कुछ और भी अच्छा मिलेगा, तो वह अपना शिखर खो देगा I

यही क्रमागत उत्क्रांति कहलाती है, कि जो आज अच्छा है, वह आगे नहीं रह पाएगा I

लेकिन यहाँ बताए गए बिंदु सत्य पर लागू नहीं होते हैं क्यूंकि सत्य परिवर्तन रहित ही होता है I

 

 

जब योगी इन्ही बताए गए बिंदुओं का आलम्बन लेकर इस सिद्धि मार्ग पर जाता है, तब…

पूर्व में पाइ हुई सिद्धियों से न आसक्त होता है और न ही अनासक्त I

विभिन्न दशाओं की सिद्धियों को पाकर, उनको त्यागता भी चला जाता है I

त्यागकर ही वह पूर्व की सिद्धि दशा से अगली सिद्धि और दशा पर जाता है I

अंततः इसी मार्ग से गमन करता हुआ वह योगी, वामदेव सिद्धि तक पहुँचता है I

 

 

यदि इस सिद्धि मार्ग में गमन करता हुआ योगी, …

किसी दशा से आसक्त हो जाएगा,तो वह उस दशा से आगे नहीं जा पाएगा I

किसी दशा से अनासक्त हो जाएगा, तो वह उस दशा से आगे नहीं जा पाएगा I

इस मार्ग में योगी को किसी दशा से न आसक्ति होनी चाहिए और न अनासक्ति I

 

यही कारण है कि, …

इस सदाशिव वामदेव सिद्धि के मार्ग को मध्यम मार्ग कहा गया है I

मध्यम मार्ग की यही विशेषता है, कि न आसक्ति होनी चाहिए और न अनासक्ति I

 

 

इस मध्यम मार्ग में साधक…

अनासक्ति और आसक्ति के मध्य में रह कर ही जाएगा I

यह मध्य की दशा आसक्ति और अनासक्ति, दोनों से ही समता में होगी I

इसी समता से संबद्ध धारणा में स्थित होकर ही योगी इस सिद्धि को पाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब वामदेव सदाशिव शरीर का साक्षात्कार, सदाशिव वामदेव सिद्ध शरीर का लय, और सदाशिव वामदेव सिद्धि के लय के पश्चात की दशा के बारे में बताता हूँ…

क्यूंकि इस सिद्ध शरीर के प्रकटीकरण से पूर्व ही साधक की पूर्व की सभी सिद्धियाँ अपने-अपने कारणों में लय हो चुकी होती हैं और क्यूंकि इन सिद्धियों के लय के साथ-साथ, साधक के अंतःकरण चतुष्टय के चार भाग भी अपने-अपने कारणों में लय हो जाते हैं, इसलिए साधक इस सिद्ध शरीर को तबतक ही साक्षात्कार कर पाता है, जबतक यह सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर अपने सगुण साकार स्वरूप में प्रकट नहीं होता है I

क्यूंकि प्रकटीकरण के तुरंत बाद, यह सिद्ध शरीर सदाशिव वामदेव के सगुण निराकार स्वरूप की ओर ही गति करता है और जैसे ही यह वामदेव सदाशिव में प्रवेश करता है, वैसे ही यह लय भी हो जाता है, इसलिए भी इसका अधिक वर्णन करना असंभव सा ही है I

इसलिए इस सिद्ध शरीर के साक्षात्कार के समय, योगी बस तबतक ही इसको देखेगा, जबतक यह पूर्ण प्रकट नहीं होता I

इस सिद्ध शरीर के साधक की काया में प्रकटीकरण और इसके पश्चात सदाशिव के वामदेव में लय होने के मध्य में जो समय अंतराल है, वह भी बहुत न्यून होता है I

इसलिए इस सिद्धि का साक्षात्कार अन्य सिद्धियों के समान नहीं पाया जाएगा… इस सिद्ध शरीर के प्रकटीकरण के समय और प्रकटीकरण के तुरंत बाद और कुछ ही क्षण में जो जान लिया… बस उतना ही साधक जान पाएगा I

अंतःकरण के लय होने के कारण, इन्द्रियां भी कारगर नहीं होती I इसलिए भी साधक यह पूर्णरूपेण नहीं जान पाता कि इस सिद्धि का प्रकटीकरण और लयमार्ग क्या है I

यही कारण है कि इस सिद्धि की प्राप्ति के समय और उसके कुछ समय पश्चात तक,  साधक बस प्रकटीकरण को देखता है और लय को भी देखता है, लेकिन इनकी प्रक्रिया क्या थी, यह वह साधक जान नहीं पाता है I

वैसे भी मुमुक्षु को क्या करना यह सब जान कर, उसको तो बस अपने भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाओं को उनके अपने अपने कारणों में ले करके, ब्रह्माण्ड से अतीत होना हैं I

ब्रह्माण्डातीत दशा ही वह पूर्ण स्वतंत्रता है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाती है I

 

 

हो सकता है कि कोई सिद्ध मार्गी योगी वह जान जान पाए जो मैं नहीं जाना हूँ I लेकिन मेरा मार्ग और भाव तो मुमुक्षु का ही रहा है, और जहाँ मुमुक्षुता भी सर्वस्व त्याग में ही बसी हुई है I

जो सर्वस्व ही नहीं त्याग पाया, वह कैसा संन्यासी? I

जिसकी आंतरिक दशा ही पूर्ण संन्यास की नहीं है, वह कैसा मुक्तात्मा? I

जो योगी मुक्तात्मा ही नहीं हुआ, वह उस मुक्तिमार्ग पर प्रकाश कैसे डालेगा? I

जो मुक्तिमार्ग का ज्ञाता ही नहीं हुआ, वह जीव जगत का तारक कैसे हो पाएगा? I

कायाधारी रूप में कैवल्य मुक्ति को पाया मुकुक्षु ही जीव जगत का तारक होता है I

 

जैसा पूर्व के अध्यायों में भी बताया गया था…

सिद्धि से आगे मुक्ति है I

सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता I

मुक्त कभी सिद्ध नहीं होता है I

मुक्तिमार्ग में सिद्धियों का त्याग है I

सिद्ध होकर ही सिद्धियों का त्याग संभव है I

जबतक कुछ पाया ही नहीं, तबतक त्यागोगे किसको? I

सर्वस्व को प्राप्त करके ही सर्वस्व को त्यागना संभव होता है I

सर्वसिद्धि के पश्चात जो सर्वस्व का त्याग होता है, वही मुक्तिमार्ग है I

 

अब उस मुमुक्षुत्व के कुछ बिंदु बताता हूँ, जिनका नाता इस अध्याय से है…

पूर्व कालों का सर्वसिद्ध ही वास्तविक मुमुक्षु हो सकता है I

जो पूर्व काल का सर्वसिद्ध ही नहीं है, उसका मुमुक्षुपन ढोंग ही है I

जो मुक्त है, वह काया त्याग के पश्चात ब्रह्मरचना में कहीं नहीं देखेगा I

कहीं न दिखने पर भी, लय हुए सिद्ध शरीर, उनके अपने कारणों में दिखेंगे I

त्यागे और लय हुए सिद्ध शरीर इस बात का प्रमाण हैं, कि वह मुक्तात्मा है I

इस अध्याय का सिद्ध शरीर, उस लयमार्ग का, जो मुक्तिमार्ग ही है, अंतिम भाग है I

 

इसलिए…

  • यहाँ बताया जा रहा सदाशिव का वामदेव मुख और उससे संबद्ध धूम्र वर्ण सिद्ध शरीर, साधक के लय मार्ग से संबद्ध मुक्तिपथ की अंतगति को दर्शाते हैं I
  • अंतगति को दर्शाते हुए भी, इस अध्याय पर साधक के उत्कर्ष पथ का अंत नहीं होता… इसे आगे भी दशाएं होती हैं I
  • इस दशा से आगे वह महाकारण जगत है, जो भारत भारती योग कहलाता और जो वह महाब्रह्माण्ड है, जिसको वेद मनीषियों ने भारत शब्द से संबोधित किया था I इसलिए इस अध्याय से आगे वैदिक भारत है I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

सदाशिव वामदेव सिद्ध शरीर के लय होने पर जो होता है, अब वह बताता हूँ…

ज्ञाता ही ज्ञान और ज्ञेय हो जाता है I

योग ही अयोग और अयोग ही योग होता है I

जीव जगत के समस्त द्वैतवादों की समाप्ति होती है I

संन्यासी ही योगी और योगी ही संन्यासी सा रह जाता है I

न जीव रहता है और न ही जगत, केवल आत्मब्रह्म ही रहता है I

और वह आत्मब्रह्म भी योगी का वह आत्मस्वरूपा है, जो पूर्ण ही है I

एक सार्वभौम व्यापक अद्वैत सिद्धांत ही रहता है, जो योगी का आत्मस्वरूप है I

 

इसलिए भी पूर्व में कहा गया था, कि यह सिद्धि और इसकी दशा और इसकी दिव्यता, सब की सब मुक्ति दायिनी ही हैं I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह अध्याय ही मुक्ति दायक है I और ऐसा होने के कारण इसको…

न जीव पूर्णतः जान पाएगा और न ही जगत I

न इन्द्रिय, न मन, न बुद्धि, न चित्त, न अहम् और न ही प्राण जान पाएगा I

यह भी वह कारण है, की योगी इस अध्याय का साक्षात्कार करके भी, इसकी दशा को पूर्णरूपेण और ज्ञानपूर्वक जान नहीं पाएगा I

योगी बस इस अध्याय में बताए जा रहे वामदेव सदाशिव में लय होकर, उन सदाशिव वामदेव का ही हो जाता है… सदाशिव वामदेव ही हो जाता है I

और ऐसा होने पर भी वह इस अध्याय में बताई गई सिद्धि और दशा आदि को पूर्णरूपेण जान नहीं पाएगा I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस अध्याय की अद्वैत दशा में पूर्णतः लय होने पर साधक जो जानेगा, वह ऐसा होगा…

न अभिमान है और न ही अनाभिमान है I

न योगी है, न योग, और न ही योगमार्ग है I

न बंधन है न मुक्ति है और न ही कुछ और है I

न साधक है, न साधना और न ही कोई साध्य है I

न सिद्धि है न असिद्धि और न ही कोई सिद्ध है I

न जीव है न जगत और न कोई उत्कर्ष पथ ही शेष है I

न साकार है न निराकार, न ही कुछ सगुण स्वरूप में ही है I

न भूत हैं, न तन्मात्र और न ही कोई गुण आदि ही शेष रहें हैं I

सब ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही सब है, ब्रह्म ही अशेष है, एकमात्र ब्रह्म ही है I

बस वही अशेष एकमात्र ब्रह्म, योगी के आत्मस्वरूप में प्रकाशित होगा I

महाशून्य से आता हुआ ओमकार का भारी सा, आनंददायक नाद सुनाई देगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

सदाशिव का वामदेव मुख क्या है, सदाशिव वामदेव कौन हैं, वामदेव सदाशिव कौन हैं, शमशान काली कौन हैं, माँ धूमावती कौन हैं, ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड क्या, ब्रह्माण्ड का यज्ञकुण्ड, महाब्रह्माण्ड का यज्ञकुण्ड, आंतरिक महाशमशान क्या, आंतरिक शमशान क्या है, जीव जगत का शमशान क्या है, महाब्रह्माण्ड का शमशान क्या है, ब्रह्माण्ड का महाशमशान क्या है, श्मशान काली का निराकार स्वरूप कैसा है, धूमावती का निराकार स्वरूप कैसा है, वामदेव सदाशिव का निराकार स्वरूप कैसा है, मुक्ति दायिनी सिद्धि क्या है, मोक्ष दायिनी सिद्धि, वैकुण्ठ क्या है, बैकुंठ क्या है, वैकुण्ठ लोक क्या है, बैकुंठ लोक क्या हैशिवलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग, विष्णुलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग, …

अब शिवलोक से वामदेव सदाशिव का मार्ग, विष्णुलोक से वामदेव सदाशिव का मार्ग, बताता हूँ…

 

शिवलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग, विष्णुलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग
शिवलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग, विष्णुलोक से सदाशिव वामदेव का मार्ग

 

 

पूर्व के अध्याय में शिवलोक बताया गया था और इसी को विष्णुलोक, गुरु स्थान आदि भी कहा गया था I ऊपर के चित्र में यह गुरु लोक नीचे की ओर दिखाया गया है I

जब चेतना विष्णुलोक से आगे जाती है, तब वह सदाशिव के वामदेव मुख में प्रवेश करती है I ऊपर के चित्र का तीर इसी गति को दिखा रहा है I

लेकिन यह आगे की गति भी तब ही हो पाती है जब साधक का शिवलोक से संबद्ध सिद्ध शरीर (अर्थात अर्धनारीश्वर सिद्ध शरीर, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया है) शिवलोक में लय होता है I

जब यह अर्धनारी सिद्ध शरीर उस गुरु स्थान में लय होता है, तभी साधक की चेतना को आगे की गति मिलती है I यह गति भी उसी अन्धकारमय दशा से जाकर होता है, जिसनें शिवलोक को घेरा हुआ है I ऊपर का चित्र, उस अन्धकारमय दशा को दिखा रहा है I

उस आगे की गति में वह चेतना वामदेव सदाशिव में प्रवेश कर जाती है I उन्ही सदाशिव वामदेव के सगुण निराकार स्वरूप को नीचे का चित्र दिखा रहा है I

 

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अब सदाशिव के वामदेव मुख का वर्णन, सदाशिव वामदेव का वर्णन, वामदेव सदाशिव का वर्णन करता हूँ…

यह सदाशिव का वामदेव मुख हलके धूसर रंग का होता है I यह ऐसा दिखाई देता है जैसे किसी बहुत विशाल यज्ञकुण्ड के ऊपर से धुआँ उठ रहा है I जैसा यज्ञकुण्ड के ऊपर उठता हुआ धुआँ होता है, वैसा ही इस दशा का वर्ण होता है I

सदाशिव के अन्य सभी मुखों के समान, यह मुख ब्रह्माण्ड में भी होता है और साधक की काया में भी होता है I सदाशिव के अन्य मुखों के समान, यह मुख भी व्यापक ही है I

 

 

सदाशिव का वामदेव मुख…

ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड है I

महाब्रह्माण्ड का यज्ञकुण्ड है I

साधक का आंतरिक महाशमशान है I

ब्रह्माण्ड का विशालकाय महाशमशान है I

जो इसमें गया, वह इसी में समाकर रह गया I

इसलिए सदाशिव का यह मुख मुक्ति का द्योतक है I

इसमें न अधिक प्रकाश है और न ही अधिक अंधकार है I

प्रकाश और अंधकार को संतुलित मात्रा में धारण किया हुआ है I

सदाशिव का वामदेव मुख, शिव और विष्णु की दिव्यताओं और कृत्य आदि के योग को दर्शाता है, इसलिए गुणों के अनुसार इसका नाता भगवान् हरिहर से भी होता है I

 

 

इसलिए इस मुख के दृष्टिकोण से, …

वैष्णव ही शिव है और शैव ही वैष्णव I

 

जिस योगी के भाव में यह नहीं होगा, वह न तो इस मुख का साक्षात्कार और न ही इस मुख से संबद्ध सिद्ध शरीर ही प्राप्त करेगा I

पूर्व का अध्याय जिसका नाम अर्धनारिश्वर लोक था, उसका प्रादुर्भाव भी सदाशिव के इसी मुख से होता है I

वैकुण्ठ लोक भी ऐसा ही होता है, जिसमें सूर्य आदि का प्रकाश न होता हुआ भी, उसमें अंधकार नहीं होता I

 

 

और सदाशिव के इस मुख में…

दिव्यता माँ धूमावती हैं I

शक्ति माँ शमशान काली हैं I

इसकी सुपुत्री (देवी) माँ पार्वती हैं I

इस मुख के सुपुत्र (देवता) श्रीविष्णु हैं I

इस मुख को ही वैकुण्ठ, बैकुण्ठ आदि कहते हैं I

जब साधक का धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर इस मुख में बस प्रवेश ही कर रहा होता है, तबतक ही वह इस मुख को देखता है और इसका अध्ययन कर पाता है I

जैसे ही वह धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर इस मुख में प्रवेश करता है, वैसे ही वह इस मुख के यज्ञकुण्ड स्वरूप में जाकर, स्वयं ही स्वयं की आहुति दे देता है I

यदि इस मुख को इसमें प्रवेश करने से पूर्व देखोगे, तो यह एक विशालकाय यज्ञकुण्ड के ऊपर उठते हुए धुंए के के समान पाया जाएगा I और इस दशा में ऐसा लगता है जैसे किसी बहुत बड़े आकार की धुंए जैसी दशा में वह सिद्ध शरीर जा रहा है I

और क्यूंकि इस मुख में प्रवेश करने के तुरंत बाद, वह सिद्ध शरीर स्वयं ही स्वयं की आहुति दे बैठता है, इसलिए इस प्रवेश के पश्चात वह सिद्ध शरीर स्वयं ही स्वयं को देख भी नहीं पाता है I

यही उस धूम्र वर्ण के सिद्ध शरीर की, जिसका नाता सदाशिव के वामदेव मुख से होता है, लय अवस्था है I

और लय होने के पश्चात, वह सिद्ध शरीर इसी मुख के समान, सगुण निराकार हो जाता है I

यही सदाशिव के वामदेव मुख से संबद्ध सिद्धि भी है, जिसमें साधक सदाशिव वामदेव का स्वरूप ही हो जाता है और जहाँ वह स्वरूप भी सगुण निराकार ही होता है I

 

 

सदाशिव का वामदेव मुख,…

बोधिचित्त के मध्य का बिंदु से ही साक्षात्कार होता है I

इसी को कुछ वेद और योग मनीषियों ने आत्मा भी कहा है I

इसी से श्री पार्वती प्रकट हुई हैं, इसलिए वह विष्णुनुजा कहलाई हैं I

इसी में गति करके ब्रह्मानुजा श्री लक्ष्मी, श्री विष्णु से योग करती हैं I

इसी से श्री विष्णु स्वयंप्रकट हुए हैं, इसलिए श्री विष्णु भी स्वयंभू ही हैं I

यही परमात्मा, यही वैकुण्ठ और यही सदाशिव का मोक्षदायक मुख यही मुक्ति है I

 

 

सदाशिव का वामदेव मुख, …

सिद्धांत, तंत्र, नियम और न्याय से अतीत है I

सिद्धांतातीत, तंत्रातीत, नियमातीत और न्यायातीत है I

परासिद्धांत, परातंत्र, परानियम और परान्याय को दर्शाता है I

 

सदाशिव के वामदेव मुख में लय होने पर, …

द्रष्टा, दृष्टि और दृश्य एक होते हैं I

चेतना, चेतन और चेति एक हो जाते हैं I

साधक, साधना और साक्षात्कार एक होते हैं I

इस मुख में लय, साधक को अद्वैत सिद्धांत की ओर लेकर जाता है I

 

 

लय होने पर, साधक इस मुख का और कुछ भी साक्षात्कार भी नहीं कर पाता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि लय होने पर साधक ही सदाशिव वामदेव हो जाता है I

जब बूँद सागर में लय होती है, तो वह बूँद नहीं बल्कि सागर कहलाती है I

लय होकर, ऐसा ही वह बूँद रूपी साधक होता है I

यही कारण है कि इस मुख सहित किसी भी और मुख का साक्षात्कार भी तबतक ही होता है, जबतक साधक का वह सिद्ध शरीर जो उस मुख से संबंधित होता है, उसी मुख में लय नहीं होता है I

एक बार कोई भी सिद्ध शरीर अपने कारण में लय हो जाएगा, तो इसके पश्चात वह अपने कारण का साक्षात्कार नहीं कर पाएगा I

 

 

ऐसा ही इसलिए होता है क्योंकि …

जो तुम स्वयं ही हो उसका साक्षात्कार कैसे करोगे? I

जो तुम स्वयं ही हो, उसका तो बस बोध ही हो सकता है I

और जहाँ उस बोध में तुम ही तुम्हारा वह ज्ञानमय बोध भी होगे I

सदाशिव के वामदेव मुख सहित, अन्य सभी मुखों में भी ऐसा ही होता है I

 

पञ्च मुखा सदाशिव में…

सदाशिव का वामदेव मुख ही ज्येष्ठ कहलाया गया है I

क्यूँकि श्री विष्णु का स्वयं प्रकटीकरण इसी मुख से हुआ है, इसलिए श्री विष्णु ही ज्येष्ठ हैं I

क्यूंकि इसी मुख से श्री पार्वती का प्रादुर्भाव होता है इसलिए श्री पार्वती, ज्येष्ठा ही हैं I

यह मुख सर्वसम प्रकाश और अंधकार की अद्वैत योगदशा को दर्शाता है I

यह मुख पूर्ण संन्यास का द्योतक है I

इसमें लय होकर साधक सर्वस्व को त्यागता है I

 

 

इस त्याग के समय साधक को जानेगा, उसको अब सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताता हूँ…

उसने स्वयं ही स्वयं को त्यागकर, स्वयं ही स्वयं को जाना I

स्वयं ही स्वयं को जानकार, वह स्वयं ही स्वयं में लय हुआ I

स्वयं ही स्वयं में लय होकर, वह स्वयं ही स्वयं में लुप्त हुआ I

लुप्त होकर वह जाना, कि उसकी वास्तविकता तो कैवल्य ही है I

और जहाँ वह कैवल्य, सर्वातीत होता हुआ भी सर्वव्यापक सर्व ही है I

 

 

इस बोध के अंतिम चरण में साधक जो पाएगा, वह ऐसा होगा…

सत् ही सत् रूपी सृष्टि हुआ है I

निर्गुण ही सगुण, साकार और निराकार हुआ है I

निर्गुण का सगुण, साकार और निराकार से अद्वैतयोग ही पूर्ण है I

सगुण, साकार और निराकार भी उसी निर्गुण ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं I

उस पूर्ण में अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता और अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति है I

क्यूंकि इससे आगे कोई ज्ञानमय बोध नहीं होता है, इसलिए इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ I और अब अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम रौद्री रुद्र योग होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

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