अंतःकरण चतुष्टय, चार अंतःकरण, अंतःकरण के चार भाग, अंतःकरण, आनंदमय कोश, मन बुद्धि चित्त अहम्, चेतन ब्रह्म, अहम् ब्रह्म, गुण ब्रह्म, सर्वसम ब्रह्म, कारण कोश, कारण शरीर, मन बुद्धि चित्त अहंकार

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यहाँ कारण कोश, कारण शरीर, आनंदमय कोश, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान, चार अंतःकरण (अंतःकरण के चार भाग), अर्थात मन बुद्धि चित्त अहंकार, पर बात होगी I इसके अतिरिक्त यहाँ कर चेतन ब्रह्म, अहम् ब्रह्म, गुण ब्रह्म, सर्वसम ब्रह्म, पर भी कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक ही बात होगी I

वैसे अबतक कई अध्यायों में अंतःकरण के चार भागों की बात हुई है, इसलिए इस भाग के कुछ बिन्दुओं को बहुत विस्तार में बताने की आवश्यकता भी नहीं है I यहाँ पर आनंदमय कोश के भागों पर बात नहीं होगी, क्यूंकि मेरा मन नहीं कर रहा है I वैसे भी आनंदमय कोश के भागों को पृथक-पृथक अध्यायों में, एक-एक करके लिया गया है I

इस अध्याय का नाता अन्तःकरण चतुष्टय और मुक्तिमार्ग तक ही सीमित है… न की किसी और प्रपंच से जो आज इस विज्ञान और इसके मन बुद्धि चित्त अहम् नामक भागों के नाम पर चलाया जा रहा है I

वैसे भी उत्कर्ष पथ के दृष्टिकोण से, अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान से उत्कृष्ट मुक्ति का मार्ग… न तो पूर्व में कभी था, न ही आगे के किसी कालखंड में हो सकता है I

इस अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान का का सीधा-सीधा नाता, ब्रह्मत्व से है I इसलिए इस विज्ञान को ब्रह्मत्व पथ भी कहा जा सकता है I

और ऐसा होने के साथ साथ, इसी विज्ञान का नाता ॐ के शब्दात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूप सहित उसी ॐ के प्रणव, ब्रह्मतत्त्व, हिरण्यगर्भ, त्रिदेव और देवी स्वरूप से भी है I इसलिए इस विज्ञान का नाता ॐ मार्ग से भी है I

और ऐसा होने के साथ साथ, इस विज्ञान का नाता, रकार मार्ग सहित, सप्त चक्र से आगे के वज्रदण्ड चक्र और उसके शिव तारक नाद सहित,उससे भी आगे के निरालम्ब चक्र के साक्षात्कार मार्ग से है I इसलिए इसको  तारक मार्ग भी कहा जा सकता है I और इस विज्ञान का नाता समाधि पथ और उसके समस्त भागों से ही है I

और इसी विज्ञान का नाता पञ्च मुखा सदाशिव से भी है I इसलिए इस विज्ञान को शिवत्व पथ भी कहा जा सकता है I प्रकृति और पुरुष सहित, सगुण और निर्गुण शिव से संबद्ध जो भी है, वह इसी विज्ञान से साक्षात्कार किया जा सकता है I

इसी विज्ञान का आलम्बन लेके साधक अपनी काया के भीतर ही नव दुर्गा सहित, मातृकागण, भैरवीगण, योगिनीगण, अप्सरागण, चण्डीगण, चामुण्डागण, तारागण, और दस महाविद्या आदि मातृशक्ति गण का साक्षात्कार भी कर सकता है I

समस्त उत्कर्ष मार्गों में, कोई देवी देवता, या देवत्व और संस्कारिक बिंदु न हुआ है और न ही हो सकेगा, जो इस अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान नामक मुक्तिमार्ग से संबद्ध नहीं होगा I

पञ्च देव से संबद्ध कोई मार्ग या सिद्धि है ही नहीं, जो इस अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान से प्राप्त नहीं हो पाएगी I इसलिए इस विज्ञान का मार्ग, सौर्य भी है, शैव भी, शाक्त भी, वैष्णव भी और गणपत्य भी है I

और ऐसा होने के कारण, ब्रह्म की समस्त अभिव्यति रूपी रचना में और साधक के आत्ममार्ग में, यह विज्ञान, उत्कृष्ट शब्द की परिभाषा से भी उत्कृष्टम ही है I

अनादि कालों से चले आ रहे इस महाब्रह्माण्ड में, कोई पिण्ड या ब्रह्माण्ड नामक बिंदु होगा ही नहीं, जिसका नाता इस अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान से नहीं होगा I

लेकिन दुर्भाग्यवश आज के समय पर चलित कलियुग और उसकी काली काया ने इस विज्ञान को ढक् लिया है, इसलिए आज के समय पर कुछ उत्कृष्ट योगीजनों और पारंपरिक वेद मनीषियों को छोड़कर, आज इस विज्ञान के ज्ञाता मिलेंगे ही नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

मैंने यह अध्याय इस जन्म के साक्षात्कारों सहित, अपने पूर्व जन्मों के ज्ञान का आलम्बन लेकर ही लिखा है I

क्यूंकि इस विज्ञान का प्रयोग वर्णाश्रम चतुष्टय के सभी भागों में हो सकता है I पर क्यूँकि इस कलियुग में वर्णाश्रम चतुष्टय सुरक्षित रहा ही नहीं, इसलिए आज के समयखंड में इस विज्ञान को पूर्णरूपेण, अर्थात खुले रूप में बताया ही नहीं जा सकता I

इसलिए कुछ स्पष्ट लिखने के पश्चात भी, कुछ सांकेतिक बिंदु भी पाये जाएगा I और ऐसा होने के साथ साथ, कुछ बिंदु छुपा लिए गए हैं, क्यूंकि उनको साधकगण को, उनके अपने साक्षात्कारों में ही जानना होगा I

ऐसा इसलिए भी किया है, क्यूंकि इस कलियुग के अनभिग्य और विकृत मानव के हाथ में ज्ञान सहित, अस्त्र, अर्थ और सेवा का सार्वभौम खडग नहीं देना चाहिए I

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्यूंकि इस विज्ञान का कुछ भाग, खडग सिद्धि, गरुड़ सिद्धि, वासुकि और आदिशेष सिद्धि, क्षीरसागर सिद्धि, देवदत्त नामक अश्वसिद्धि सहित बहुत सारे देव आदि अस्त्रों और उनके लोकों से भी संबध है I

ब्रह्मरचना में जो भी है, जिधर भी है, जैसा भी है और जिस भी कालखंड में है, वह सबकुछ इसी विज्ञान के भीतर समाया हुआ है I

इसलिए, इस अध्याय के चित्रों को भी मैंने थोड़ा विकृत किया है I लेकिन ऐसा होने पर भी यह चित्र और बताई गई दशाएँ, मुमुक्षुजनों और सिद्धगणों के मार्गों में बाधा नहीं डालेंगे I

यह विकृति केवल उनके लिए है, जो इस ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं… न की उनके लिए जो इस ज्ञान और उसके मार्ग के वास्तविक पात्र हैं I

जो वास्तविक पात्र हैं, वो इन विकृतियों को अपने साधनामार्गों से ही भेदकर, वह सबकुछ जान पाएंगे जो इस विज्ञान का सर्वव्यापक, सार्वभौम, सर्वधनात्मक, सर्वज्ञ, सर्वसक्षम और सर्वकाली स्वरूप है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 से लेकर 2011 तक का है I इतने वर्ष इसलिए लगे क्यूंकि इस अध्याय का मार्ग और साक्षात्कार कई सारी दशाओं से होकर ही जाता है, जिनके बारे में आगे की अध्यय श्रंखलाओं में बताया जाएगा I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बत्तीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का अट्ठारहवाँ अध्याय है ।

 

अंतःकरण चतुष्टय के भाग, अंतःकरण के भाग, अंतःकरण चतुष्टय क्या है, अंतःकरण क्या है, आनंदमय कोश क्या है, … अंतःकरण चतुष्टय का स्थान, अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार, अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार स्थान, … अंतःकरण चतुष्टय और प्रकृति, आनंदमय कोश और प्रकृति, कारण शरीर और प्रकृति, कारण कोश और प्रकृति, … अंतःकरण चतुष्टय का अर्थ, अंतःकरण का अर्थ, … अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान क्या है, मन बुद्धि चित्त अहंकार और प्रकृति, मन बुद्धि चित्त अहम् और प्रकृति, … अंतःकरण चतुष्टय का अर्थ, अंतःकरण का अर्थ, … अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान की महिमा, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान और मुक्तिमार्ग, अंतःकरण चतुष्टय और मुक्तिमार्ग, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान का मुक्तिमार्ग से नाता, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान और मुक्तिपथ, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान का मुक्तिमार्ग से नाता, अंतःकरण चतुष्टय का मुक्तिमार्ग से नाता, अंतःकरण चतुष्टय और मुक्तिपथ, अंतःकरण चतुष्टय का उत्कर्ष मार्ग से नाता, अंतःकरण चतुष्टय का उत्कर्ष पथ से नाता, अंतःकरण चतुष्टय और उत्कर्ष पथ, अंतःकरण चतुष्टय और उत्कर्ष मार्ग, … स्व:प्रकाश की परिभाषा, स्वयंप्रकाश की परिभाषा, …

अंतःकरण चतुष्टय, अंतःकरण, चार अंतःकरण
अंतःकरण चतुष्टय, अंतःकरण, चार अंतःकरण, मन बुद्धि चित्त अहंकार, अंतःकरण, आनंदमय कोश, मन बुद्धि चित्त अहम्, कारण कोश, कारण शरीर,

 

सबसे पहले अंतःकरण चतुष्टय नामक शब्द का अर्थ बताता हूँ I अंतःकरण का दूसरा नाम ही आनंदमय कोश है, लेकिन ऐसा होने पर भी इनके भागों का वर्णन कुछ पृथक सा ही है I

जैसे पूर्व में बताया था, कि यहाँ पर आनंदमय कोश का वर्णन नहीं किया जाएगा I और इस ग्रंथ के पृथक अध्यायों में, आनंदमय कोश के भागों का वर्णन किया ही जाएगा I

 

अंतःकरण नामक शब्द में, …

  • अन्तः शब्द का अर्थ है, आंतरिक, सूक्ष्म इत्यादि I
  • कारण शब्द का अर्थ है, उपकरण, औजार, यंत्र इत्यादि I
  • इसलिए अंतःकरण शब्द का अर्थ है, आंतरिक (या सूक्ष्म) यंत्र (या औजार) I
  • और चतुष्टय शब्द का अर्थ होता है, चार (या चार भाग वाला) I

इसलिए, अंतःकरण चतुष्टय का अर्थ है, चार भागों वाला आंतरिक (या सूक्ष्म) यन्त्र (या उपकरण, या औजार या हथियार) I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अंतःकरण चतुष्टय ही प्रकृति है I

और अंतःकरण चतुष्टय स्वरूप में, प्रकृति अज्ञान को भी दर्शाती है, और जहाँ वह अज्ञान ही ज्ञान का मार्ग, कारण और कारक होता है I

इसी अज्ञानवश, जीवों का कर्तापन भाव अन्तःकरण का ही होता है I

जबतक अज्ञान है, तबतक ही कर्तापन हैज्ञानी कर्तापन से सुदूर रहता है I

इसलिए, आत्मा रूपी कैवल्य ब्रह्म के ज्ञानी का नाता अंतःकरण से नहीं होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ज्ञानी का अंतःकरण से नाता उतना ही होगा, जितना उसका का मुक्तिमार्ग से है I

जैसे ही साधक मुक्ति को प्राप्त होगा, वैसे ही मुक्तिमार्ग से नाता भी टूट जाएगा I

 

क्यूंकि अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान, मुक्तिमार्ग ही है, इसलिए मुक्तिमार्ग से अतीत, अर्थात मुक्ति को प्राप्त हुए साधक का नाता, अंतःकरण से भी नहीं रह पाता है I

उत्कर्ष पथ के अंतिम पड़ाव को मुक्तिमार्ग कहते हैं, और मुक्तिमार्ग के गंतव्य को मुक्ति I

अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान, उत्कर्ष पथ की उस दशा को दर्शाता है, जो मुक्तिपथ कहलाता है I

जैसे ही साधक कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होगा, वैसे ही उसका नाता उत्कर्ष पथ और उसके मुक्तिमार्ग नामक अंतिम पड़ाव से भी टूट जाएगा I

जबकि अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान ही मुक्तिमार्ग है, लेकिन आज इस कलियुग की काली काया ने इस सत्य को ढक लिया है, इसलिए इस मुक्ति के मार्ग पर कुछ ही साधक जा रहे होंगे I

 

अब अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान के कुछ बिन्दुओं को बताता हूँ …

  • समस्त प्रकृति और भगवान से जो समानरूपेण और पूर्णरूपेण योग करवा दे, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • ब्रह्म रचना की समस्त दिव्यता जिस एक विज्ञान में निवास करती है, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • जो ब्रह्म के देवत्व की परिपूर्णता दर्शाता है, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • पञ्च ब्रह्म सहित पञ्च मुखी गायत्री जिस विज्ञान में समानरूपेण और पूर्णरूपेण निवास करते हैं, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • पञ्च विद्या सहित, समस्त दिव्यताएं जिस विज्ञान में समानरूपेण और पूर्णरूपेण निवास करती हैं, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • जिस उत्कर्ष पथ रूपी विज्ञान का नाता शिवत्व, विष्णुत्व, ब्रह्मत्व सहित, संपूर्ण देवत्व से भी सामान और पूर्णरूप में हो, वह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • देव और देवी शब्दों की समस्त दिव्यताएं और उनकी सिद्धियाँ जिस विज्ञान में समानरूपेण और पूर्णरूपेण निवास करती हैं, वह अंतःकरण चतुष्टय नामक विज्ञान है I
  • जिस मुक्तिमार्ग का नाता ब्रह्म और प्रकृति से समानरूपेण और पूर्णरूपेण, अनादि कालों से रहा हो, और अनंत कालों तक भी रहेगा, वह अंतःकरण चतुष्टय नामक विज्ञान है I
  • जिसका नाता जीव और जगत सहित, आत्मा और ब्रह्म से भी समानरूपेण और पूर्णरूपेण, अनादि कालों से रहा हो और अनंत कालों तक भी रहेगा, वह अंतःकरण चतुष्टय नामक विज्ञान है I
  • जिस विज्ञान के अंतर्गत वह सब कुछ जाना जा सकता है जो ब्रह्म, ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र स्वरूपों में बसा हुआ है, वह अन्तःकरण विज्ञान है I
  • जिस विज्ञान का नाता ब्रह्म के सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, तीनों स्वरूपों से हो, वह अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान है I
  • जिस विज्ञान में भगवान् और उनकी शक्ति अपने समस्त स्वरूपों (अभिव्यक्तियों) में समानरूप और पूर्णरूप में प्रकाशित हो रही हों, वह अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान है I

लेकिन कलियुग की काली काया ने, इस विज्ञान को ढक लिया है, इसलिए अब इसके बारे में कुछ ही योगी और वेद मनीषी जानते होंगे I

क्यूंकि यह विज्ञान गंतव्य, अर्थात कैवल्य मोक्ष को दर्शाता है, इसलिए इस अध्याय में अन्तःकरण चतुष्टय को उसके मुक्तिमार्ग के बिन्दुओं के अनुसार ही बताया गया है, न की किसी और स्वरूप में I

और इस अध्याय में वह बिंदु भी नहीं बताए गए हैं, जिनके बारे में अन्य अध्यायों में बताया जा चुका है (या बताया जाएगा) I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अंतःकरण चतुष्टय के चार भाग होते हैं, जो मन बुद्धि चित्त और अहंकार हैं I ऊपर के चित्र में इन्ही को दिखाया गया है I

ऊपर के चित्र में, …

  • जो सबसे भीतर का (अर्थात नीचे का) नीला भाग है, वह अहम् है, अर्थात अहंकार को दर्शाता है, जिसका नाता अघोर ब्रह्म और इसकी दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख है I

इसका गंतव्य ज्ञान “मैं ब्रह्म हूँ (अहम् ब्रह्मास्मि)” है, और जिसमें मैं (या अहम्) का शब्द उस विशुद्ध अहम् को दर्शाता है, जो ब्रह्म कहलाता है I

अहम् का संबंध अहमाकाश से भी है I

 

  • जो अहम् को घेरा हुआ भाग है, वह चित्त है I ऊपर के चित्र में इसको सात्विक यज्ञकुंड रूप में दिखाया गया है, अर्थात धूम्र (खुरदरा श्वेत) वर्ण का दिखाया गया है I

लेकिन पञ्च ब्रह्म मार्ग में यह चित्त लाल वर्ण का, अर्थात रजोगुणी ही पाया जाएगा और ऐसी दशा में इस चित्त का संबंध तत्पुरुष ब्रह्म से होगा और ऐसी दशा में इसकी दिव्यता माँ गायत्री का विद्रुमा मुख है I

इसका गंतव्य ज्ञान “यह आत्मा ही ब्रह्म है (अयमात्मा ब्रह्म)” है, जो आत्मा और ब्रह्म की सनातन योगावस्था को दर्शाता है, अर्थात आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप को दर्शाता है I

लेकिन ऊपर के चित्र में यह चित्त सदाशिव के वामदेव मुख से नाता रखता है, न की तत्पुरुष ब्रह्म से I

जब चित्त रजोगुणी होता है, तब उसका नाता पञ्च ब्रह्म से है I और जब चित्त ब्रह्माण्डीय यज्ञकुंड के रूप में ही स्वयंप्रकट हो जाएगा, तो उसका नाता पञ्च मुखा सदाशिव से होगा I

चित्त का संबंध चिदाकाश से भी है I

 

  • जो चित्त को घेरा हुआ पीले वर्ण का भाग है, वह बुद्धि है, जिसका नाता सद्योजात ब्रह्म से है, और जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख है I

इसका गंतव्य ज्ञान “प्रज्ञानं ब्रह्म” है, जिसमें प्रज्ञान का शब्द उस आत्मा का द्योतक है जो स्व:प्रकाश ब्रह्म कहलाता है I

बुद्धि का संबंध ज्ञानाकाश से भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब संक्षेप में ही सही, लेकिन स्व:प्रकाश (स्वयंप्रकाश) के शब्द को परिभाषित करता हूँ I

स्व:प्रकाश (स्वयंप्रकाश) वह होता है, …

जो सबको भीतर और बाहर से प्रकाशित करता हुआ भी, स्वयं गुप्त ही रहता है I

जो कर्ता और अकर्ता का कारण कारक कर्ममूल होता हुआ भी, इनसे अतीत है I

जो सर्वाधार और सर्वस्वरूपों में अभिव्यक्त होता हुआ भी, सर्वातीत ही है I

जो व्यापक होता हुआ भी, मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण से परे है I

जो सर्वसाक्षी है, और जिसका उसके अतिरिक्त कोई साक्षी नहीं है I

जिसका को साक्षात्कार करके भी, उसका पूर्ण वर्णन असंभव है I

जिसको जानने का मार्ग, स्वयं ही स्वयं में होकर जाता है I

जो साधक का आत्मस्वरूप है, और पूर्ण कहलाता है I

जिसके साक्षात्कार में आत्ममार्ग ही ब्रह्ममार्ग है I

जो एकमात्र तारतम्यरहित, सनातन अद्वैत है I

जिसको समस्त वैदिक महावाक्य दर्शाते हैं I

 

स्व:प्रकाश का शब्द आत्मा और ब्रह्म, दोनों को ही सामान रूप में दर्शाता है I

स्व:प्रकाश का साक्षात्कार अतिकठिन होता हुआ भी, असंभव तो बिल्कुल नहीं है I

ऐसे साक्षात्कार में उस स्वयंप्रकाश को सीधा-सीधा भी पाया जा सकता है, लेकिन यदि ऐसा भी हुआ, तब भी साधक उसको तबतक जान (समझ) नहीं पाएगा, जबतक वह उस साक्षात्कार का ज्ञानमय चिंतन नहीं करेगा I

यही कारण है कि राजयोग से स्व:प्रकाश का सीधा साक्षात्कार सम्भव है, किन्तु उस स्व:प्रकाश को स्व:प्रकाश आत्मा और ब्रह्म ही जानने के लिए, साधक को ज्ञानयोग में जाना ही पड़ेगा I

यही कारण है, की इस महाब्रह्माण्ड की समस्त इतिहास में, जो अतिविरले योगीजन उसको उसको जाने हैं, उन्होंने कहा ही है, की उसका साक्षात्कार ज्ञानमार्ग से हो होता है I

ऐसा होने के कारण उसके साक्षात्कारी (या ज्ञाता) विरले से भी विरले ही होते हैं I

और महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, ऐसे साक्षात्कारी अतिविरले होने के कारण ही, अधिकाँश वेदविक, और वेद्विद (वेदज्ञ) तो यह भी कह गए, की स्व:प्रकाश आत्मा को कौन जान पाया है? … स्वयंप्रकाश ब्रह्म को कौन जाना है? I

 

आगे बढ़ता हूँ

स्व:प्रकाश को ज्ञानमय बुद्धि से ही जाना जाता है I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि यदि कोई उसका साक्षात्कार ही कर ले, तब भी जबतक ज्ञान का आलम्बन नहीं लिया जाएगा, तबतक उसको साक्षात्कार करके भी, उसको जाना नहीं जा सकता I

इसलिए वेद मनीषी कह गए, कि स्व:प्रकाश को ज्ञान से जानो, क्यूंकि वह सबसे परे होता हुआ भी, ज्ञान रूप ही है, और जहाँ वेद ही ज्ञान कहलाता है I

 

  • और जो सबको घेरे हुआ भाग है, वह मन है जो सात्विक होने के कारण, वामदेव ब्रह्म से संबंधित है, और जिसकी दिव्यता माँ गायत्री का धवला मुख है I

इसका गंतव्य ज्ञान “तत् त्वम् असि” है, जिसमें तत् का शब्द, आत्मा रूपी ब्रह्म का और त्वम् का शब्द मन का द्योतक है… और जहाँ यह त्वम् का शब्द उस मन को दर्शाता है, जो आत्मा और ब्रह्म कहलाता है I

मन का संबंध मनाकाश से भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऊपर दिखाए गए अंतःकरण का साक्षात्कार, हृदय में होता है I

हृदय के भीतर एक गड्ढा होता है, जो ऊँगली के ऊपर के भाग के समान होता है I इस हृदय के भीतर के गड्ढे में ही अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार होता है I

इस गड्ढे में जो विद्युतमय अग्नि होती है, और जो हृदय की गति का कारण होती है, और जो चतुवर्णा और सप्तवर्णा भी होती है, और जिसको शून्य ने घेरा होता है, और जिसमें पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण निवास करते हैं, वही अंतःकरण है I

अपने चतुर्वर्णा स्वरूप में वह अंतःकरण चतुष्टय है, और सप्तवर्णा स्वरूप में उसी को आनंदमय कोश कहा जाता है I

इसलिए अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार स्थान, हृदय की विद्युत् और अग्निमय (अर्थात प्रकाशमय) गुफा ही है I

इस हृदय के गड्ढे का आकार भी शिवलिंग के ऊपर के भाग के समान होता है I और हृदय के इस गड्ढे में जो प्रकाश होता है और जो ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है, उसका आकार भी शिवलिंगात्मक ही होता है I

यह अंतःकरण नामक प्रकाश, अति सूक्ष्म होता है और इसका साक्षात्कार या तो हृदय के उस गड्ढे के भीतर जाकर किया जाता है, और या उस गड्ढे के द्वार पर खड़े होकर किया जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसी अंतःकरण चतुष्टय को कई नामों से बताया जाता है, जैसे कारण शरीर, कारण कोश, आनंदमय कोश इत्यादि I

और जबकि यह सब नाम उसी अंतःकरण चतुष्टय को दर्शाते हैं, लेकिन इन पृथक नामों के अनुसार साक्षात्कारों में, थोड़ा अंतर भी होता ही है I

लेकिन इस अध्याय में इस अंतर को नहीं बताया जाएगा I इस अध्याय में बस उतना ही बताया जाएगा, जितना कम से कम जानना आवश्यक है और जो शिव तारक मंत्र और उसके मार्ग से संबंधित है I

और ऐसे विवर्ण में यह अध्याय ही ब्रह्मत्व पथ, अर्थात मुक्तिपथ हो जाएगा I

यह एक ऐसा मार्ग है जो पुरुष और प्रकृति, दोनों से ही समान और पूर्ण रूप में नाता रखता है, इसलिए इस साक्षात्कार मार्ग में साधक शाक्त भी होगा और शैव भी I

और क्यूँकि जब अंतःकरण चतुष्टय को उसके प्राणों सहित साक्षात्कार किया जाएगा, तब इसी अंतःकरण चतुष्टय का नाता पञ्च ब्रह्म से ही पाया जाएगा, जिनमें पञ्च देव भी निवास करते हैं, इसलिए इस साक्षात्कार मार्ग में साधक सौर्य, वैष्णव और गणपत्य भी होगा I

इसलिए इस मार्ग में, साधक का नाता पञ्च देव से, और पञ्च देव से संबद्ध सभी मार्गों से होता है I यही कारण है कि यह अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान और उसका मार्ग पञ्च देव में से, सबका है I

 

अंतःकरण चतुष्टय के भागों के वर्ण परिवर्तन, अंतःकरण पर गुणों का प्रभाव, अंतःकरण पर त्रिगुण का प्रभाव, …

अब अंतःकरण के चार भागों का वर्ण आदि गुण परिवर्तन बताता हूँ I

ऐसा परिवर्तन इसलिए होता है, क्यूंकि उत्कर्ष पथ पर गमन करते समय, अंतःकरण ही साधक की परिवर्तनशील प्रकृति है और इसके साथ-साथ ,यह अंतःकरण ही साधक का प्रकृति आध्यात्मिक स्वरूप भी है I

 

मन के दृष्टिकोण से अंतःकरण का वर्णन,

  • जब मन रजोगुणी होगा, तो अंतःकरण के मन नामक भाग का वर्ण लालिमा धारण किया हुआ होगा I

यह दशा माँ महामाया, अर्थात माया शक्ति या अव्यक्त प्रकृति (अव्यक्त प्राण) को दर्शाती है I

और यही दशा जगदगुरु माता, शारदा विद्या सरस्वती की भी है I

इसी दशा से अग्नि महाभूत उदय हुआ था, और जहाँ उस अग्नि के मूल में ज्ञान ही है I

इसी दशा में अग्नि ही ब्रह्म कहलाई थी I

 

  • जब मन तमोगुणी होगा, तो अंतःकरण के मन नामक भाग का वर्ण नीलिमा धारण किया हुआ होगा I

इसी दशा से वायु महाभूत उदय हुआ था, और जहाँ उस वायु के मूल में संस्कार रहित चित्त ही था I

इसी दशा में वायु ही प्राण रूपी ब्रह्म कहलाई थी I

 

  • जब मन सत्त्वगुणी होगा, तो अंतःकरण के मन नामक भाग का वर्ण श्वेत वर्ण का होगा I

यही मन की अंतिम प्राकृत दशा है, जिसका नाता परा प्रकृति (अर्थात माँ आदि शक्ति) से है I

इसी दशा में माँ आदि शक्ति ही ब्रह्म कहलाई थी I

 

  • जब मन गुणातीत ही हो जाएगा, तो मन सर्वव्यापक ही पाया जाएगा और ऐसी दशा में मन निरंग ही होगा, अर्थात मन ही निर्गुण ब्रह्म कहलायेगा I

यही मन की गंतव्य दशा है, जो निर्गुण ब्रह्म ही है I गायत्री पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, वह निर्गुण ब्रह्म ही ईशान कहलाते हैं I

इसी दशा से आकाश महाभूत उदय हुआ था, और जहाँ उस आकाश महाभूत के मूल में सर्वाकाश ही था I

इस दशा में आकाश ही घटाकाश और महाकाश कहलाया था I

 

  • अंतःकरण के मन नामक भाग से ही साधक का उत्कर्ष पथ कौन सी दशा में है, उसका पता चलता है I

 

बुद्धि के दृष्टिकोण से अंतःकरण का वर्णन

  • जब बुद्धि रजोगुणी होगी, तो अंतःकरण की बुद्धि का वर्ण हलकी लालिमा धारण किया हुआ होगा I

यह दशा कार्य ब्रह्म की द्योतक है I

और यह दशा महाब्रह्माण्ड में भारत ब्रह्म और माँ भारती सरस्वती को भी दर्शाती है I

इसी दशा से भू महाभूत (पृथ्वी महाभूत) उदय हुआ था और जहाँ उस पृथ्वी महाभूत के मूल में विशुद्ध अहम् ही था I

इसी दशा में पृथ्वी अपने भू देवी स्वरूप में नारायणि कहलाई थी I

 

  • जब बुद्धि तमोगुणी होगी, तो अंतःकरण की बुद्धि का वर्ण नीलिमा धारण किया हुआ होगा I

इसी दशा से जल महाभूत (जल महाभूत) उदय हुआ था और जहाँ उस जल महाभूत के मूल में ब्रह्मलीन मनस तत्त्व ही था I

इसी दशा में जल अपने वास्तविक निरंग सर्वव्यापक स्वरूप में निर्गुण निराकार ब्रह्म कहलाया था, और जिनकी सार्वभौम दिव्यता, ब्रह्म शक्ति कहलाई थी, जिनमें समस्त जीव जगत ऐसे बसा हुआ है, जैसे वह इसी निरंग जल के भीतर ही तैर रहा है I

 

  • जब बुद्धि सत्त्वगुणी होगी, तो अंतःकरण की बुद्धि का वर्ण श्वेत वर्ण का होगा I

ऐसी दशा में बुद्धि ही सगुण ब्रह्म सहित, निर्गुण ब्रह्म की ओर लेके जाएगी  और जहाँ वह सगुण ब्रह्म साकारी और निराकारी दोनों ही होगा, और जहाँ वह निर्गुण ब्रह्म ही अनंत होगा I

ऐसी दशा में निर्गुण ब्रह्म और उनकी सार्वभौम शक्ति का योग होता है, और जहाँ वह सार्वभौम शक्ति ही उस अनंत सहित उस अनंत में बसे हुए समस्त जीव जगत में व्यापक होती है I

यही ब्रह्माण्ड की वह मूल दशा है, जिसका आलम्बन लेकर ही समस्त पिण्डों और ब्रह्माण्डों का उदय हुआ था I

 

  • जब बुद्धि कालातीत होगी, तो अंतःकरण की बुद्धि का स्वरूप अनंत ब्रह्म से ही जाकर, काल व्यापक हो जाएगा I

 

अब ध्यान देना …

और जहाँ इस साक्षात्कार का मार्ग भी उन शून्य ब्रह्म से जाएगा, जो शून्य होते हुए भी अनंत ही हैं, और अनंत होते हुए भी, शून्य ही हैं I

इसलिए इस मार्ग में शून्य और अनंत का ऐसा योग होता है, कि इसमें पता ही नहीं चलेगा, कि कौन सा शून्य है और कौन सा अनंत I

यही जीव जगत सहित, जीवातीत और जगतातीत दशाओं के भी सार्वभौम सम्राट और सनातन गुरुदेव, श्रीमन नारायण हैं I

यही कालकृष्ण कहे गए हैं I

और इन्हीं को कालब्रह्म भी कहा जाता है, जो श्री विष्णु के समस्त पूर्णावतारों का मूल भी है I

 

इस मार्ग में, …

शून्य ही अनंत होगा, और अनंत ही शून्य I

 

इसलिए इस मार्ग में, …

शून्यवादियों का शून्य ही पूर्णवादियों का पूर्ण होगा I

ऐसा साधक महाकाली महाकाल योग को पाएगा और काल के सनातन (अर्थात ब्रह्म) रूप और चक्र (अर्थात प्रकृति) रूप, दोनों का ज्ञाता होगा I

जो साधक ऐसा होगा, वही ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में काल रूपी सुदर्शन कहलायेगा I

ऐसा साधक जीवित स्वरूप में होता हुआ भी, माँ प्रकृति का चलता फिरता, कालास्त्र कहलाता है I

ऐसे साधक का प्रयोग, काल की प्रेरणा से और काल शक्ति का आलम्बन लेके, माँ प्रकृति ही करती हैं I

युग परिवर्तन और युग स्तंभन के समयखण्ड में, उन ब्रह्मशक्ति, माँ प्रकृति के द्वारा ऐसा साधक स्थूल काया रूप में लौटाया ही जाएगा I

और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, माँ प्रकृति का ऐसा कालास्त्र स्वरूप साधक, प्रमिति भी कहलाता है I

और जहाँ प्रमिति शब्द का अर्थ होता है, गंतव्य मार्गी ज्ञान चेतना और क्रिया I

और इसी प्रमिति शब्द का जो गंतव्य अर्थ होता है, वह है वास्तविक ज्ञान, अर्थात अनात्मा और आत्मा के भेद का ज्ञान I

और जहाँ यह मार्ग अनात्मा का आलम्बन लेकर ही, आत्मा के साक्षात्कार को जाता है I

क्यूंकि इस सम्पूर्ण जीव जगत में, वैदिक वाङ्मय ही एकमात्र मार्ग है जिसमें अनात्मा ही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग होता है, इसलिए वैदिक वाङ्मय ही एकमात्र मार्ग है जिसमें प्रकृति के तारतम्य का आलम्बन लेकर भी गंतव्य, अर्थात कैवल्य स्वरूप ब्रह्म को जाना जा सकता है I

और ऐसे मार्ग के गंतव्य पर जो योगी होगा, वह शासकों का शासक और गुरुओं का गुरु होकर बैठता है, और वह योगी ही ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा प्रमिति कहलाता है I

यह मार्ग योग चक्रवर्त से ही जाता है I

 

  • अंतःकरण के बुद्धि नामक भाग से ही साधक की उत्कर्ष गर्भ में स्थिति और गति (अर्थात काल के उत्कर्ष मार्गी स्वरूप में गति) का पता चलता है I

 

चित्त के दृष्टिकोण से अंतःकरण का वर्णन, चित्त का गुणात्मक स्वरूप, चिदाकाश का गुणात्मक स्वरूप, चिदाकाश का गुणों से नाता, चिदाकाश और त्रिगुण का नाता, चिदाकाश और त्रिगुण, …

चित्त का नाता उत्तरी ब्रह्म, अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म से है I इन्ही तत्पुरुष ब्रह्म की गुणात्मक दशा से सबकुछ निर्धारित होता है I तो अब चित्त के गुणात्मक स्वरूप को बताता हूँ I

  • जब चित्त रजोगुणी होगा, तो अंतःकरण के चित्त नामक भाग का वर्ण लालिमा धारण किया हुआ होगा I

ऐसी दशा में चित्त ही जीव जगत का रचैता कहलाएगा I

ऐसा चित्त उत्पत्ति कृत्य का धारक होता है I

 

  • जब चित्त तमोगुणी होगा, तो अंतःकरण के चित्त का वर्ण नीलिमा धारण किया हुआ होगा I

ऐसी दशा में चित्त ही जीव जगत का पालनहार कहलाएगा I

ऐसा चित्त स्थिति कृत्य का धारक होता है I

 

  • जब चित्त सत्त्वगुणी होगा, तो अंतःकरण के चित्त नामक भाग का वर्ण, खुरदरा-श्वेत होगा I

ऐसी दशा में चित्त ही जीव जगत का संहारक कहलाएगा और ऐसे चित्त की संहार शक्ति, शून्य भी होगी और सर्वसमता भी I

ऐसा चित्त संहार कृत्य का धारक होता है I

 

  • जब चित्त ज्ञानमय हो जाता है, तब उसी चित्त हलकी पीलिमा धारण किया हुआ होता है I ऐसी दशा में चित्त में पीले वर्ण के बिंदु दिखाई देते हैं I

इस दशा में चित्त और बुद्धि का योग होता है I

ऐसी दशा में चित्त में संस्कार भी पड़े हुए होते हैं, अर्थात चित्त संस्कार रहित नहीं होता है I

तो चलो अब इस दशा को बताता हूँ जब चित्त और बुद्धि का योग होता है और चित्त संस्कार रहित नहीं होता है (अर्थात चित्त संस्कारों को धारण करा होता है) I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब चित्त में पूर्व के संस्कार पड़े हुए होंगे, तो चित्त ने ही बुद्धि को घेरा हुआ होगा, अर्थात बुद्धि, चित्त के भीतर बसी हुई पाई जाएगी I

ऐसी दशा में चित्त ही जीव जगत में निग्रह (तिरोधान) का कारण होता है I

ऐसा चित्त निग्रह कृत्य (तिरोधान कृत्य) का धारक होता है I

टिपण्णी: क्यूंकि उत्कर्ष पथ पर गमन करते हुए जीवों का चित्त संस्कारों से युक्त ही होता है, इसलिए समस्त जीवों पर तिरोधान कृत्य का प्रभाव होगा ही I और जब किसी जीव का चित्र संस्कार रहित हो जायेगा, तब से उस जीव पर तिरोधान कृत्य का प्रभाव भी समाप्त हो जाएगा I और जैसे ही ऐसा होगा, वैसे ही उस जीव पर अनुग्रह कृत्य का प्रभाव आएगा, जिसके कारण वह जीव कैवल्य मुक्ति को ही प्राप्त हो जाएगा I और जहाँ वह कैवल्य मोक्ष ही निर्गुण ब्रह्म है I

 

और जब चित्त संस्कार रहित होगा, तो वह बुद्धि से सूक्ष्म होगा I ऐसी दशा में चित्त को एक पीले वर्ण के प्रकाश ने घेरा हुआ होगा, अर्थात चित्त, बुद्धि के भीतर बसा हुआ पाया जाएगा I

ऐसी दशा में चित्त ही जीव जगत में अनुग्रह (आशीर्वाद) का कारण होता है I

ऐसा चित्त अनुग्रह कृत्य (आशीर्वाद कृत्य) का धारक होता है I

ऐसी दशा में चित्त त्रिगुणातीत (अर्थात गुणातीत) होने लगता है I

चित्त के इसी स्वरूप को मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान् बुद्ध ने बोधिचित्त कहा था I उन भगवान बुद्ध का जन्म 1914 ईसा पूर्व से 2.7 वर्षों के भीतर हुआ था I

 

इसलिए, …

  • रजोगुणी चित्त, उत्पत्ति कृत्य को दर्शाता है I
  • तमोमयी चित्त, स्थिति कृत्य को दर्शाता है I
  • सत्व गुणी चित्त, समाचार कृति को दर्शाता है I
  • संस्कार धारण किया हुआ चित्त (बुद्धिमान चित्त) निग्रह कृत्य को दर्शाता है I
  • गुणातीत चित्त (अर्थात बुद्धितीत चित्त) अनुग्रह कृत्य को दर्शाता है I

 

  • अंतःकरण के चित्त नामक भाग से ही साधक की उत्कर्ष दिशा का पता चलता है I

 

अहम् के दृष्टिकोण से अंतःकरण का वर्णन

  • जब अहम् रजोगुणी होगा, तो अंतःकरण के अहम् के नीले वर्ण में लालिमा दिखाई देगी I

ऐसा अहम्, रजोगुण की सम्पूर्ण शक्ति का धारक होता है I

 

  • जब अहम् तमोगुणी होगा, तो अंतःकरण के अहम् का नीले वर्ण, बहुत गाढ़ा नीला पाया जाएगा I

ऐसा अहम् तमोगुण की सम्पूर्ण शक्ति का धारक होता है I

 

  • जब अहम् सत्त्वगुणी होगा, तो अंतःकरण के अहम् के नीले वर्ण में श्वेत वर्ण के बिंदु आदि दिखाई देंगे I

ऐसा अहम् सत्त्वगुण की सम्पूर्ण शक्ति का धारक होता है I

 

  • जब अहम् में बुद्धि का प्रकाश होगा, तो अहम् में पीले वर्ण के बिंदु दिखाई देंगे I

ऐसा अहम्, विशुद्ध होने के मार्ग पर चला जाता है, और ऐसी दशा में ही अहम् में ज्ञान शक्ति का प्रकाश होता है I

और जहाँ वह ज्ञान शक्ति भी सद्योजात ब्रह्म से संबद्ध ज्ञानाकाश की होती हुई भी, अहंकार में ही प्रकाशित होगी I

इसी दशा में तत्त्वाकाश का साक्षात्कार होता है I

 

  • जब अहम् निर्गुण ब्रह्म में ही विलीन होगा, तो वह निर्गुण ब्रह्म की अदि पराशक्ति का धारक होगा I

ऐसा अहम् ही विशुद्ध कहलाता है, जो निर्गुण ब्रह्म और अदि पराशक्ति, दोनों का ही द्योतक है I

ऐसा अहम् सर्वव्यापक भगवान् भी है, और सार्वभौम माँ भगवती भी I

ऐसे विशुद्ध अहम् में ही भगवान् और भगवती का सनातन योग साक्षात्कार होता है I

इसलिए, विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं, और उसी विशुद्ध अहम् की दिव्यता को ब्रह्मशक्ति, अदि पराशक्ति इत्यादि कहा जाता है I

इसलिए जो अहम् विशुद्ध ही हो गया… वही भगवान् है, और वही माँ भगवती भी I

 

  • अंतःकरण के अहम् नामक भाग से साधक की उत्कर्ष पथ में सिद्धि, और साधक के उत्कर्ष पथ की व्यापकता, और गुणादि का पता चलता है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

मस्तिष्क के शिवलिंग के प्रकाश से अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार, … अंतःकरण चतुष्टय के भागों का साक्षात्कार, अंतःकरण चतुष्टय के भागों का साक्षात्कार क्रम, …

इस भाग के कई सारे उपभाग होंगे, तो अब इनको एक-एक करके बताता हूँ …

 

 

  • मस्तिष्क का शिवलिंगम, मस्तिष्क लिंग, मस्तिष्क शिवलिंग, मस्तिष्क का उल्टा शिवलिंग, शिवरंध्र का शिवलिंग, कपाल और मस्तिष्क के बीच का सुनहरा शिवलिंग, मस्तिष्क का सुनहरा शिवलिंग, … हरिहर साक्षात्कार, हरिहर का साक्षात्कार, महामृत्युंजय मंत्र का शब्दात्मक साक्षात्कार, महामृत्युंजय मंत्र का साक्षात्कार, शरीर में महामृत्युंजय मंत्र का स्थान, … हृदय और मस्तिष्क का योग, हृदय और मस्तिष्क की ऊर्जाओं का योग, …

 

मस्तिष्क का शिवलिंग, शिवरंध्र के समीप का लिंग,
मस्तिष्क का शिवलिंग, शिवरंध्र के समीप का लिंग, मस्तिष्क का उल्टा शिवलिंग, शिवरंध्र का शिवलिंग, कपाल और मस्तिष्क के बीच का सुनहरा शिवलिंग, मस्तिष्क का सुनहरा शिवलिंग, … हरिहर साक्षात्कार, हरिहर का साक्षात्कार, महामृत्युंजय मंत्र का शब्दात्मक साक्षात्कार, महामृत्युंजय मंत्र का साक्षात्कार, शरीर में महामृत्युंजय मंत्र का स्थान, हृदय और मस्तिष्क का योग, हृदय और मस्तिष्क की ऊर्जाओं का योग,

 

कपाल के भीतर की ओर, और मस्तिष्क के ऊपर के भाग में और शिवरंध्र के स्थान पर लेकिन शिवरंध से नीचे की ओर एक शिवलिंग होता है, जिसका वर्ण सुनहरा होता है I

यह शिवलिंग उल्टा होता है, अर्थात यह शिवलिंग ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह मस्तिष्क के मध्य के ऊपर के भाग की कपाल की हड्डी में जहाँ शिवरंध्र होता है, वहां पर उल्टा लटका होता है I

यह सुनहरा शिवलिंग भी निर्गुणयान को दर्शाता है, अर्थात इसका साक्षात्कार प्रमाण है, कि अब साधक निर्गुणयान (या अद्वैतयान) पर जाने का पात्र हो चुका है I

इस शिवलिंग के समीप ही हरिहर का साक्षात्कार होता है I इसलिए, इस लिंग के साक्षात्कार से शरीर के भीतर हरिहर के स्थान को जाना जाता है I

और इसी शिवलिंग के समीप महामृत्युंजय मंत्र का शब्दात्मक साक्षात्कार भी होता है I इसलिए इस मस्तिष्क के लिंग का साक्षात्कार महामृत्युंजय सिद्धि की ओर भी लेकर जाता है I

इस शिवलिंग से जाकर ही रकार मार्ग प्रशस्त होता है I

चाहे साधक चेतना युक्त होकर जाए या नहीं, लेकिन रकार मार्ग इसी शिवलिंग को पार करके ही आता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस शिवरंध्र के समीप बसे हुए मस्तिष्क के सुनहरे लिंग का प्रकाश हृदय के अंतःकरण चतुष्टय में आकर, अंतःकरण और उसके भागों को प्रकाशित करता है, जिससे साधक अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार करता है I

इसका अर्थ हुआ, कि अंतःकरण चतुष्टय के साक्षात्कार का मूल कारण यह मस्तिष्क के शिवलिंग का प्रकाश ही है I

जब इस शिवलिंग का प्रकाश हृदय के उस क्षेत्र पर पड़ेगा, जहाँ अंतःकरण होता है, तब ही अंतःकरण चतुष्टय का साक्षात्कार होगा I

इसलिए अंतःकरण चतुष्टय साक्षात्कार में, इस मस्तिष्क के उलटे शिवलिंग की भूमिका है ही I

तो अब अंतःकरण साक्षात्कार के भागों को बताता हूँ …

 

  • अंतःकरण के चित्त और अहम् नामक भागों का साक्षात्कार, चित्त और अहम् का साक्षात्कार, …

जब इस उलटे शिवलिंग का प्रकाश अंतःकरण चतुष्टय पर पड़ता है, तब सर्वप्रथम अंतःकरण के अहम् और चित्त नामक भागों का साक्षात्कार होता है I और ऐसी दशा में जैसा साक्षात्कार होता है, वही नीचे का चित्र दिखा रहा है I

अंतःकरण का चित्त और अहम् का भाग
अंतःकरण का चित्त और अहम् का भाग, • अंतःकरण के चित्त और अहम् नामक भागों का साक्षात्कार, चित्त और अहम् का साक्षात्कार,

 

इस चित्र के, बीच का नीला भाग अंतःकरण का अहंकार नामक भाग है, और इस अहंकार को श्वेत वर्ण के सत्त्वगुणी चित्त ने घेरा हुए है I लेकिन इस चित्र का नीला वर्ण थोड़ा गाढ़ा हो गया है I

जितना हल्का यह नीले वर्ण का अहंकार होगा, उतना ही आगे साधक की उत्कर्ष गति गई होगी I इसका अर्थ हुआ, कि जो साधक उत्कर्ष पथ पर बहुत आगे जा चुके होते हैं, उतना ही उनके अहंकार का वर्ण हल्का नीला होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उस चित्त में बहुत सारे बीज दिखाई देते हैं, जो पृथक पृथक रंगों और गुणों के होते हैं I यह बीज ही वह संस्कार हैं, जो उस साधक के पूर्व कर्मों के बीज रूपी फल हैं I

और इन्ही बीज रूपी फलों से साधक के आगामी कर्मों का निश्चय होता है I

जितने हलके इन संस्कारों के वर्ण होंगे, उतने उत्कृष्ट साधक के कर्म भी रहे होंगे और उतना ही आगे साधक उत्कर्ष पथ पर गति किया होगा I

इसलिए इन संस्कार रूपी बीजों का अध्ययन करके जाना जा सकता है, कि साधक की उत्कर्ष पथ पर गति और साधक के कर्मों की क्या दशा रही होगी I

और जहाँ उन कर्मों के भी चार भेद होते हैं, जो क्रियमान कर्म, आगामी कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं I इनके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन एक दशा ऐसी भी आती है, कि कुछ ऐसे कर्मों में बसने के कारण, जो समस्त ब्रह्माण्ड और जीव सत्ता के उत्कर्ष के लिए किये जाते हैं, साधक के कुछ संस्कार श्वेत वर्ण के ही हो जाते हैं I

यह श्वेत वर्ण के संस्कार, परा प्रकृति (अर्थात आदिशक्ति) और सगुण निर्गुण ब्रह्म के द्योतक होते हैं I

यह श्वेत वर्ण के संस्कार भी चित्त में निवास करते हैं I लेकिन कभी कभी इन श्वेत संस्कारों का कुछ भाग, नीले वर्ण के अहम् में भी चला जाता है, और ऐसी दशा में अहम् के भीतर भी यह श्वेत संस्कार दिखाई देने लगते हैं (जैसा ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है) I यह संस्कार ही अहम् विशुद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं I

 

चित्त के संस्कार और उनके वर्ण प्रभेद, संस्कारों के वर्ण, संस्कारों के वर्ण प्रभेद, …

अब संस्कारों के वर्ण के अनुसार उनके गुण आदि को बताता हूँ I

जब वह बीज रूपी संस्कार जो चित्त में बसे हुए होते हैं, तब यदि वह …

  • श्वेत होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता परा प्रकृति और सगुण-निर्गुण ब्रह्म से है I ऐसे साधक का नाता सत्त्वगुण से होता है I
  • लाल वर्ण के होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता प्रकृति के सप्तम कोश और ब्रह्म के रजोगुणी स्वरूप से है I ऐसे साधक का नाता रजोगुण से होता है I
  • नील वर्ण के होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता प्रकृति के अष्टम कोश और ब्रह्म के तमोगुणी स्वरूप से है I ऐसे साधक का नाता तमोगुण से होता है I
  • चमकदार पीले होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है I
  • सुनहरे वर्ण या भगवे वर्ण के होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता ब्रह्म के ज्ञानमय और क्रियामय स्वरूपों की योगावस्था से है, अर्थात योगेश्वर (कार्य ब्रह्म) से है I
  • काले वर्ण के होते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका नाता प्रकृति की शून्यावस्था के किसी स्वरूप से है I लेकिन संस्कारों के ऐसे वर्ण नीचे के कर्मों को भी दर्शाते हैं I
  • धूम्र वर्ण के होते हैं, तो वह संस्कार इस बात का प्रमाण होते हैं, कि साधक उस मार्ग पर गति कर चुका है, जिससे उसका चित्त संस्कार रहित होगा I
  • इत्यादि …

 

टिपण्णी: जब चित्त संस्कार रहित हो रहा होता है, और उस चित्त में केवल एक अंतिम संस्कार ही शेष रह जाता है (अर्थात अन्य सभी संस्कार ध्वस्त हो जाते हैं) तो जो संस्कार बनता है, वह पारदर्शी सरीका होता है I और अंततः जब चित्त पूर्णतः संस्कार रहित हो जाएगा, तब वही पूर्व का पारदर्शी संस्कार, निरंग ही पाया जाएगा और ऐसा होगा, जैसे कोई निरंग स्फटिक सा ही है I इस सिद्धि का मार्ग भी असंप्रज्ञात समाधि और निर्बीज समाधि से जाता है, जिसके बारे में एक आगे के अध्याय में बात होगी I

 

अंतःकरण के मन और बुद्धि नामक भागों का साक्षात्कार, मन और बुद्धि का साक्षात्कार, अंतःकरण के मन का साक्षात्कार, अंतःकरण के बुद्धि का साक्षात्कार, …

अंतःकरण का मन और बुद्धि नामक भाग,
अंतःकरण का मन और बुद्धि नामक भाग, • अंतःकरण के मन और बुद्धि नामक भागों का साक्षात्कार, मन और बुद्धि का साक्षात्कार, अंतःकरण के मन का साक्षात्कार, अंतःकरण के बुद्धि का साक्षात्कार,

 

जब मस्तिष्क के उसी उलटे शिवलिंग का प्रकाश अंतःकरण के मन और बुद्धि नामक भागों पर पड़ता है, तब ऊपर के चित्र का साक्षात्कार होता है I

ऊपर के चित्र में बुद्धि पीले वर्ण की है, और उस बुद्धि को जो विशालकाय श्वेत वर्ण के प्रकाश ने घेरा हुआ है, वह मन है I

इस साक्षात्कार में बुद्धि सूक्ष्म और चमकदार ही पाई जाएगी और मन अति सूक्ष्म श्वेत वर्ण का और सीमा रहित साक्षात्कार होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस साक्षात्कार में बुद्धि, पीले वर्ण के सूक्ष्म प्रकाश की किरणों के समूह रूप में पाई जाएगी I

और बुद्धि ने उस श्वेत वर्ण के चित्त और चित्त के संस्कारों को घेरा भी होगा I

यही अंतःकरण के बुद्धि नामक भाग का प्रथम साक्षात्कार है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इसी साक्षात्कार में, मन श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण से युक्त पाया जाएगा I

इसका अर्थ हुआ, कि यह साक्षात्कार उस दशा को दर्शाता है, जब मन परा प्रकृति से योग किया होता है I

और ऐसी दशा में मन एक विशालकाया दशा के समान होता है, और बुद्धि सहित, अंतःकरण के अन्य दोनों भागों (अर्थात अहम् और चित्त) को घेरा हुआ होता है I

 

अंतःकरण और वज्रदण्ड चक्र, वज्रदण्ड में अंतःकरण का स्वरूप, … वज्रदण्ड चक्र से जाने के पश्चात अंतःकरण का स्वरूप, …  अंतःकरण का स्वरूप जब साधक की चेतना वज्रदण्ड को पार कर रही होती है, …

जब अंतःकरण चतुष्टय वज्रदण्ड चक्र से जाता है, वज्रदण्ड से जाता हुआ अंतःकरण
जब अंतःकरण चतुष्टय वज्रदण्ड चक्र से जाता है, वज्रदण्ड से जाता हुआ अंतःकरण, अंतःकरण और वज्रदण्ड चक्र, वज्रदण्ड में अंतःकरण का स्वरूप, … वज्रदण्ड चक्र से जाने के पश्चात अंतःकरण का स्वरूप, … अंतःकरण का स्वरूप जब साधक की चेतना वज्रदण्ड को पार कर रही होती है,

 

ऊपर का चित्र अंतःकरण की उस दशा को दर्शा रहा है, जब साधक की चेतना वज्रदण्ड चक्र में जा रही होती है I ऐसी स्थिति में, अंतःकरण को एक सुनहरे अग्निमय प्रकाश ने घेर होता है I

 

ऐसी दशा में, अंतःकरण का …

  • अहम् नामक भाग, हलके नीले वर्ण ही पाया जाएगा I
  • चित्त नामक भाग, सत्त्वगुण से युक्त श्वेत वर्ण का ही पाया जाएगा, परन्तु इस दशा में पूर्व के जो नीचे के (अर्थात तुच्छ कर्मों के फलों से जुड़े हुए) संस्कार थे, वह अब ध्वस्त हो चुके होंगे I
  • बुद्धि का भाग, सुनहरा हो जाएगा I
  • और मन निराकार होकर, वज्रदण्ड के सुनहरे वर्ण में ही व्याप्त हो जाएगा और अग्निमय ही हो जाएगा, जैसे सुनहरे वर्ण की अग्नि की लपटें अंतःकरण के मन के भाग से उठ रही हैं I
  • और इस संपूर्ण दशा को वज्रदण्ड के अग्निमय, ऊर्जावान सुनहरे प्रकाश ने ही घेरा हुआ होगा I

ऐसी सिद्धि के पश्चात, साधक की स्थूल काया की सभी नसों नाड़ियों में एक अग्निमय वायु वेग चल पड़ेगा, जो बिजली के समान भी होगा I

और यह प्रवाह मस्तिष्क और मेरुदंड में ही अधिकांश रूप में निवास करने लगेगा और उन नसों नदियों में कुछ सप्ताह (या माह) के लिए तांडव मचा देगा I और जबतक यह तांडव चलेगा, तब तक साधक की कार्य क्षमता भी बहुत कम रहेगी I

 

अंतःकरण चतुष्टय और आनंदमय कोश, … अंतःकरण चतुष्टय और कारण शरीर, अंतःकरण चतुष्टय और कारण कोश,

अंतःकरण चतुष्टय ही आनंदमय कोश है I और ऐसा होते हुए भी, अंतःकरण चतुष्टय, आनंदमय कोश नहीं होता है I

ऐसा कहने का कारण है, कि आनंदमय कोश का स्वरूप थोड़ा पृथक ही होता है I लेकिन इसको यहाँ पर नहीं बताया जाएगा,  पर इसके भागों का वर्णन इस ग्रंथ के अध्यायों में किया गया है I

लेकिन अंतःकरण चतुष्टय को ही कारण शरीर, कारण कोश आदि कहा जाता है I इसलिए अंतःकरण चतुष्टय ही कारण शरीर है I

 

अन्तःकरण चतुष्टय का निर्गुण ब्रह्म में लय मार्ग, अन्तःकरण चतुष्टय का निर्गुण ब्रह्म में लय, मन बुद्धि चित्त अहम् का निर्गुण ब्रह्म में लय मार्ग, मन बुद्धि चित्त अहम् का निर्गुण ब्रह्म में लय, … योगमार्ग में अन्तःकरण चतुष्टय का निर्गुण ब्रह्म में लय, योगमार्ग में मन बुद्धि चित्त अहम् का निर्गुण ब्रह्म में लय, …

अब ध्यान देना, क्यूंकि यहाँ बताए गए बिंदुओं (शब्दों) की व्याख्या पूर्व के अध्यायों में करी जा चुकी है I

  • मन, मनाकाश से जाकर, पूर्ण स्थिर होकर, मन ब्रह्म नामक तत्त्व को जानकर, निर्गुण निराकार ब्रह्म में विलीन होता है I

निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है I

जिस साधक का मन इस दशा को पाया होगा, वही मनात्मा कहलाता है I

मनात्मा का नाता वामदेव ब्रह्म और माँ गायत्री के धवला मुख से है I

 

  • बुद्धि, ज्ञानाकाश से जाकर, निष्कलंकी होकर, ज्ञान ब्रह्म नामक तत्त्व को जानकर, स्व:प्रकाश ब्रह्म में विलीन होती है I

स्व:प्रकाश ब्रह्म ही निर्गुण ब्रह्म हैं I

जिस साधक की बुद्धि इस दशा को पाई होगी, वही ज्ञानात्मा कहलाता है I

ज्ञानात्मा का नाता सद्योजात ब्रह्म और माँ गायत्री के हेमा मुख से है I

 

  • चित्त, चिदाकाश से जाकर, संस्कार रहित होकर, चित्त ब्रह्म नामक तत्त्व को जानकर, चेतन ब्रह्म में विलीन होता है I

चेतन ब्रह्म ही निर्गुण ब्रह्म हैं I

जिस साधक का चित्त इस दशा को पाया होगा, वही चिदात्मा कहलाता है I

चिदात्मा का नाता तत्पुरुष ब्रह्म और माँ गायत्री के रक्ता मुख से है I

 

  • अहम्, अहमाकाश से जाकर, समस्त तारतम्य से रहित होकर, अहम् अस्मि नामक तत्त्व को जानकर, विशुद्ध अहम् नामक ब्रह्म में विलीन होता है I

विशुद्ध अहम् ही निर्गुण ब्रह्म है I

जिस साधक का अहम् इस दशा को पाया होगा, वही अहमात्मा कहलाता है I

अहमात्मा का नाता अघोर ब्रह्म और माँ गायत्री के नीला मुख से है I

 

टिप्पणी: यहाँ जो निर्गुण ब्रह्म कहा गया है, वही सर्वाकाश स्वरूप, सर्वेश्वर हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और ऊपर बताए गए बिंदुओं का पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा के दृष्टिकोण से, जो मुक्तिमार्ग है, उसका वर्णन बताता हूँ …

  • सद्योजात ब्रह्म के ज्ञानाकाश से अघोर ब्रह्म के अहमाकाश का मार्ग, तत्त्वाकाश से होकर जाता है I
  • अघोर ब्रह्म के अहमाकाश से वामदेव ब्रह्म के मनाकाश का मार्ग, शून्याकाश से होकर जाता है I
  • वामदेव ब्रह्म के मनाकाश से तत्पुरुष ब्रह्म के चिदाकाश का मार्ग, पराकाश और अव्यक्ताकाश से होकर जाता है I
  • तत्पुरुष ब्रह्म के चिदाकाश से सद्योजात ब्रह्म के ज्ञानाकाश का मार्ग, ब्रह्माकाश से होकर जाता है I
  • सद्योजात ब्रह्म के ज्ञानाकाश से ईशान ब्रह्म के सर्वाकाश का मार्ग, आकाश महाभूत से होकर जाता है I

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

अंतःकरण चतुष्टय और चेतन ब्रह्म, अंतःकरण चतुष्टय और अहम् ब्रह्म, अंतःकरण चतुष्टय और गुण ब्रह्म, अंतःकरण चतुष्टय और सर्वसम ब्रह्म, अंतःकरण चतुष्टय और मन बुद्धि चित्त अहंकार का गंतव्य, अंतःकरण चतुष्टय के भागों का गंतव्य, अंतःकरण चतुष्टय का गंतव्य,

अब अंतःकरण चतुष्टय के चार भागों के गंतव्य को, पञ्चब्रह्म मार्ग के अनुसार बताता हूँ …

 

  • अंतःकरण के मन का गंतव्य, … अंतःकरण के मन नामक भाग का गंतव्य मन ब्रह्म है I

इसकी दशा सर्वसम ब्रह्म की होती है, जिसका नाता वामदेव ब्रह्म से है I इसकी सिद्धि को ही सर्वसमता और समता कहा जाता है I

मन नामक भाग का लय वामदेव में होता है, जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का धवला मुख है I

इसकी दशा को ही सर्वसम ब्रह्म कहा जाता है I

इसी सिद्धि को सामवेद का महावाक्य तत् त्वम् असि भी दर्शाता है I

 

  • अंतःकरण की बुद्धि का गंतव्य, … अंतःकरण के बुद्धि नामक भाग का गंतव्य ज्ञान ब्रह्म है I

इसकी सिद्धि बुद्धता है, जिसका नाता सद्योजात ब्रह्म, अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है I

यह बुद्धि नामक भाग का लय हेमा वर्ण के सद्योजात में होता है, जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख है I

इसी सिद्धि को ऋग्वेद का महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म भी दर्शाता है I

 

  • अंतःकरण के चित्त का गंतव्य, … अंतःकरण के चित्त नामक भाग का गंतव्य चेतन ब्रह्म है I

इसका नाता तत्पुरुष ब्रह्म से है, लेकिन इस नाते में चित्त सात्विक नहीं होता, बल्कि रजोगुण से युक्त होता है I

यह चित्त नामक भाग का लय, लाल वर्ण के सद्योजात में होता है, जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का विद्रुमा मुख है I

इसी सिद्धि को अथर्ववेद का महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म भी दर्शाता है I

 

  • अंतःकरण के अहम् नामक भाग का गंतव्य, … अंतःकरण के अहम् नामक भाग का गंतव्य, अहम् ब्रह्म है, जिसका नाता अघोर ब्रह्म से ही है I

यह अहम् नामक भाग का लय नीले वर्ण के अघोर में होता है, जिनकी दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख है I

इसी सिद्धि को यजुर्वेद का महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि भी दर्शाता है I

 

  • अंतःकरण के मध्य में प्रकाश बिंदु, … और अंतःकरण के मध्य में प्रकाश बिन्दु का नाता गुण ब्रह्म से है I

और इसका अंतिम या गंतव्य स्वरूप, निरंग प्रकाश का ही है, जिसका नाता कैवल्य मुक्ति को दर्शाते हुए, ईशान ब्रह्म से है, और जो निर्गुण ब्रह्म ही हैं I

इसी सिद्धि को सोऽहं नामक महावाक्य से दर्शाया गया है I

 

अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान में अंत गति, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान की गंतव्य अवस्था, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान का गंतव्य पञ्च मुखा सदाशिव हैंअंतःकरण चतुष्टय विज्ञान का पञ्च मुखी सदाशिव में लय, मन बुद्धि चित्त अहम् का सदाशिव में लय, मन बुद्धि चित्त अहम् का पञ्च मुखी सदाशिव से नाता, अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान की अंतिम गति में पञ्च मुखा सदाशिव हैं, …

यहाँ अन्तःकरण चतुष्टय का पञ्च मुखा सदाशिव में लय बताया जाएगा I

अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान में यही अंतिम गति है क्यूंकि इससे जाने के पश्चात, साधक के लिए अन्तःकरण नामक कोई वस्तु या बिंदु ही नहीं रहता I

जब ऊपर बताया गया लय, पञ्चब्रह्म में हो जाएगा, तो उसके पश्चात साधक की चेतना कुछ दशाओं से जाएगी I

यह दशाएँ ॐ मार्ग, रकार मार्ग और निरालम्ब चक्र से होती हुई जाएंगी और अंततः साधक की चेतना पञ्च मुखी सदाशिव का साक्षात्कार कारगी I

ऐसे साक्षात्कार के समय ही वह होगा, जो यहाँ बताया गया है I

अन्तःकरण चतुष्टय विज्ञान के दृष्टिकोण से, यही मुक्तिपथ का अंतिम भाग है I

इस साक्षात्कार को पाने से पूर्व, साधक के अंतःकरण का चित्त नामक भाग खुरदरा श्वेत हो जाएगा I

इस दशा और उसके साक्षात्कार के आते आते, उस चित्त के अंतिम संस्कार को छोड़कर अन्य सभी संस्कार ध्वस्त भी हो चुके होंगे I यह अंतिम संस्कार, लम्बा सा होगा, यह नीचे से चपटा होगा, ऊपर से थोड़ा नोकीला होगा, और उसकी लम्बाई में यह संस्कार अष्टकोण स्वरूप में होगा, और इसका वर्ण पारदर्शी होगा I

इस अंतिम संस्कार के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा, जब वैदिक अंतिम संस्कार की बात होगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस दशा के आते आते, मन बुद्धि चित्त और अहंकार का जो स्वरूप होगा, अब उसको बताता हूँ …

  • अंतःकरण का मन नामक भाग, हीरे के समान प्रकाशित हो जाएगा, और मन सर्वसमता को पाएगा I
  • अंतःकरण का चित्त नामक भाग, खुरदरा श्वेत हो जाएगा, जिसमें एक धूम्र वर्ण का प्रकाश, चित्त के मध्य से चालित होकर चित्त के अंत तक चौबीस रखाओं के स्वरूप में गति कर रहा होगा और जो साधक की काया के भीतर बसे हुए प्रकृति के चौबीस तत्त्वों के अंतिम लय को भी दर्शाता होगा I
  • अंतःकरण का बुद्धि नामक भाग, स्वर्णिम प्रकाश का स्वरूप हो जाएगा I
  • अंतःकरण का अहम् नामक भाग, नील वर्ण के समान ही रहेगा और उसी में रूद्र का कृष्ण पिङ्गल स्वरूप, पिङ्गल स्वरूप और भगवा रुद्र भी प्रकाशित हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब साधक उत्कर्ष पथ पर यहाँ बताई गई दशा से जाता है, तो इसमें साधक के समस्त जीव इतिहास का जो मुक्तिपथ है, वही प्रशस्त हो जाता है I

ऐसी दशा में अंतःकरण चतुष्टय का प्रकाश, हृदय से बहार को ओर भी दिखाई देता है I

इसका अर्थ हुआ, कि पूर्व में दिखाया गया अंतःकरण चतुष्टय के चित्र के चार प्रकाश, हृदय के गाढ़े से बहार आ जाएंगे (जिसमें वह पूर्व में साक्षात्कार हुए थे) I

इसका पश्चात, अंतःकरण के चार भाग, पञ्च मुखी सदाशिव के चार बाहर की ओर देखते हुए मुखों में लय होने लगेंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह लय जैसे होता है, अब इसको बताता हूँ…

  • अहम् नामक भाग का लय स्थान, सदाशिव का अघोर मुख होगा I
  • चित्त नामक भाग का लय स्थान, सदाशिव का वामदेव मुख होगा I
  • बुद्धि नामक भाग का लय स्थान, सदाशिव का तत्पुरुष मुख होगा I
  • मन नामक भाग का लय स्थान, सदाशिव का सद्योजात मुख होगा I
  • अहम् का लय सर्वप्रथम होगा, और इसके पश्चात, मन, चित्त, और अंततः बुद्धि लय होगी I

और जब यह सब हो जाएगा, तो साधक के अंतःकरण के भीतर बसे हुए प्राण, सदाशिव के ईशान मुख में लय होकर, उस ईशान की दिव्यता (शक्ति) अदिपरा शक्ति में ही लय हो जाएंगे I

इस दशा के पश्चात, साधक का अंतःकरण ही पञ्च मुखा सदाशिव के समान हो जाएगा I

इसी लय मार्ग से साधक सम्प्रज्ञात समाधि से असम्प्रज्ञात समाधि, और इससे निर्बीज समाधि से होता हुआ, निर्विकल्प समाधि को पाएगा I

 

अंतःकरण चतुष्टय का लय स्वरूप, अंतःकरण चतुष्टय के लय का स्वरूप, लय के समय अंतःकरण चतुष्टय की दशा,

जब ऊपर के सभी भाग लय हो जाएंगे, तब अंतःकरण चतुष्टय का जो स्वरूप होगा, वह ऐसा होगा…

यह भाग आज्ञा चक्र के समीप साक्षात्कार होता है I

  • सबसे भीतर का भाग, हल्का नीला होगा I ऐसी दशा में यह तमोगुण का द्योतक होगा I
  • उस नीले भाग को घेरे हुए एक हल्का श्वेत भाग होगा I ऐसी दशा में यह सत्त्वगुण का द्योतक होगा I
  • उस श्वेत भाग को घेरे हुए एक हल्का लाल वर्ण भाग होगा I ऐसी दशा में यह रजोगुण का द्योतक होगा I
  • इन सबको जिसनें घेरे होगा, वह शून्याकाश होगा जिसमें यह सब लय हो रहे होंगे I इसलिए इस पूरे अंतःकरण को एक अतिसूक्ष्म रात्रि के समान, काले वर्ण ने घेरा हुआ होगा I
  • और जब सब ऊपर बताए गए शून्य में विलीन हो गए होंगे, तब केवल वह रात्रि के समान अतिसूक्ष्म, काले वर्ण का शून्य ही शेष रह जाएगा I

और उस शून्य में विलीन हुए अंतःकरण चतुष्टय के भाग भी, शून्य सरीके, रात्रि के समान ही पाए जाएंगे I

ऐसी दशा में अंतःकरण के इन चार भागों को शून्य से पृथक रूप में जाना भी नहीं जा पाएगा I

  • यही अंतःकरण चतुष्टय की वो अंतिम दशा है, जब साधक की चेतना अंतिम चक्र (अर्थात निरालम्ब चक्र या निरलम्बस्थान) को भी पार कर जाती है, और ऐसे होने के पश्चात वह चेतना निरालम्बस्थान में ही स्थापित होकर, निरालम्ब ब्रह्म सरीकी ही हो जाती है I

यही अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान का गंतव्य स्वरूप है I

यही इस अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान की गंतव्य सिद्धि भी है I

इस सिद्धि में साधक निरालम्ब ब्रह्म स्वरूप को पाता है, और जहाँ वह निरालम्ब ब्रह्म ही परब्रह्म, परम्ब्रह्मा, परमेश्वर, कैवल्य मोक्ष, केवल, निर्गुण ब्रह्म और निर्गुण निराकार ब्रह्म, ईशान ब्रह्म आदि कहलाते हैं I

अब इसी बिंदु पर यह अध्याय और श्रृंखला भी समाप्त करता हूँ और अगली अध्याय श्रंखला पर जाता हूँ, जिसका नाम आंतरिक यज्ञ मार्ग होगा और जिसका ज्ञान हृदयाकाश गर्भ तंत्र कहलाता है I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

 

लिंक:

अंतःकरण चतुष्टय, चार अंतःकरण, अंतःकरण के चार भाग, अंतःकरण, (Antahkarana Chatushtaya, Antahkarana).

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