ब्रह्मर्षि, ब्रह्मऋषि और पञ्च विद्या सरस्वती, ओम द्रष्टा, ॐ द्रष्टा, वेदद्रष्टा, मंत्र द्रष्टा, मन्त्रार्थ स्थित, वेदार्थ स्थित, ओमार्थ स्थित, मनु और मंत्र

ब्रह्मर्षि, ब्रह्मऋषि और पञ्च विद्या सरस्वती, ओम द्रष्टा, ॐ द्रष्टा, वेदद्रष्टा, मंत्र द्रष्टा, मन्त्रार्थ स्थित, वेदार्थ स्थित, ओमार्थ स्थित, मनु और मंत्र

इस अध्याय में ब्रह्मर्षि (या ब्रह्मऋषि) शब्द को और ब्रह्म ऋषि की अवस्था को बतलाया जाएगा I इस अध्याय में मनु और मंत्र को भी बतलाया जाएगा I इस ग्रन्थ में यह अध्याय इसलिए लाना पड़ गया क्यूंकि आज के समय पर इस शब्द का अर्थ या तो किसी में मन-घडन्त प्रकार से विकृत स्वरूप में बताया जाता है, या इसके अपूर्ण स्वरूप में I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्यब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकेर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सत्तावनवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, ओ३म् सावित्री मार्ग की श्रृंखला का पांचवां अध्याय है।

 

ब्रह्मर्षि कौन, ब्रह्मऋषि का अर्थ, ब्रह्म ऋषि किसे कहते हैं, … वेदद्रष्टा ऋषि, मंत्रदृष्टा ऋषि, मन्त्रार्थ स्थित ऋषि, वेदार्थ स्थित ऋषि …

ब्रह्मर्षि के कई अर्थ होते है, जैसे…,

  • वेदद्रष्टा … अर्थात जो वेद का द्रष्टा है I
  • मंत्रदृष्टा … अर्थात जो मंत्रों का द्रष्टा है I
  • मन्त्रार्थ स्थित … अर्थात जो मंत्र के अर्थ में स्थित हो I
  • वेदार्थ (वेदसार) स्थित … अर्थात जो वेद के अर्थ (सार) में ही स्थित हो I

 

ब्रह्म ऋषि का ॐ से नाता, … ओमार्थ स्थित ऋषि, ओ३म् द्रष्टा ऋषि, ओम द्रष्टा ऋषि, ॐ द्रष्टा ऋषि, …

लेकिन ऊपर बताए गए अर्थ के अनुसार जो …

  • जो वेद द्रष्टा होगा, उसको वेद बीज द्रष्टा, अर्थात ओम द्रष्टा भी होना ही पड़ेगा I
  • जो मंत्र दृष्टा होगा, उसको महामंत्र द्रष्टा, अर्थात ॐ द्रष्टा भी होना पड़ेगा I

 

इसलिए…,

  • जो वास्तव में मन्त्रार्थ स्थित होगा, उसको महामंत्र स्थित, अर्थात ओ३म् स्थित भी होना ही पड़ेगा I
  • और जो वास्तव में वेदार्थ स्थित होगा, उसको वेद बीज या ॐ में भी स्थित होना ही पड़ेगा I

यही कारण है, कि ब्रह्मर्षि ओ३म् द्रष्टा और ओमार्थ स्थित भी होगा ही I

लेकिन ऐसा होने के लिए तो उसे ओ३म् साक्षात्कारी भी होने ही पड़ेगा I

 

मंत्र और मनु …, ब्रह्मर्षि का मनु और मनुवाद से नाता, …

इस बिंदु को जानने से पूर्व, मनु शब्द को जानना पड़ेगा…,

मनु शब्द का अर्थ ब्रह्मऋषि शब्द के अर्थ के अतिरिक्त, मंत्र भी होता है I

और क्यूंकि ब्रह्मऋषि के मूल में, मंत्र रूपी मनु ही होते हैं, इसलिए जो ब्रह्म ऋषि पद को पाया है, वो मनुवादी होगा ही I

 

मनु शब्द का अर्थ है…

वो ब्रहमऋषि जो मंत्र ही हो गया I

वो ब्रहमऋषि जो मंत्रार्थ ही हो गया I

लेकिन मनु शब्द की ऐसी परिभाषा को समझने के लिए तो मंत्र शब्द को ही जानना पड़ेगा I

 

मंत्र की परिभाषा, मंत्र का अर्थ, मंत्र किसे कहते हैं, मंत्र क्या है, मंत्र का ब्रहमपुत्र स्वरूप …

अब मंत्र शब्द की परिभाषा बताता हूँ …

 

जो मन का त्राणि हो, वो मंत्र I

मंत्र को ही ब्रह्मपुत्र कहते हैं I

शब्द ब्रह्म ही ब्रह्मपुत्र का सूचक है I

 

इसलिए, जब वो मंत्र देहधारी होता है, तो वो अपने ही मूल शब्दात्मक स्वरूप में ही सगुण साकारी होकर, पञ्च ब्रह्म और पञ्च विद्याओं के पांच जोड़ों में से किसी एक जोड़े का पुत्र होता है I

और ऐसी अवस्था में ही वो मंत्र, देह धारी हो पाता है I

 

ब्रह्मपुत्र स्वरूपा मंत्र और पञ्च विद्या सरस्वती

इसलिए, पञ्च विद्या सरस्वती के अनुसार …

  • यदि वो ब्रह्मपुत्र, मुक्तात्मा स्वरूप में लौटाया जाएगा, तो वो माँ ब्राह्मणी सरस्वती का पुत्र होकर आएगा I

जब ऐसा वेदमनीषी किसी भी लोक में लौटाया जाता है, तो वो जीव जगत की मुक्ति को ही अपने साथ लेके आता है, अर्थात वो कायधारी होकर भी, उस लोक में जो भी जीव मुक्ति के वास्तविक पात्र होंगे, उनके लिए मुक्तिदाता ही होगा I

ऐसे मनीषी का चित्त, संस्कार रहित होता है, अर्थात वो जीवित या कायाधारी दिखता हुआ भी, वास्तव में जीव जगत का मुक्तात्मा और मुक्तिदाता ही होता है I

ऐसा वेदमनीषी के लिए न तो कोई ब्रह्माण्डीय सिद्धांत होता है, और न ही कोई तंत्र, क्यूंकि वो इन सबका भद्रा (या कल्याणकारी) स्वरूप ही होता है I

 

  • यदि वो ब्रह्मपुत्र, शब्दात्मा, अर्थात शब्दब्रह्म स्वरूप में लौटाया जाएगा, तो वो माँ सावित्री सरस्वती का पुत्र होकर आएगा I

ऐसा वेदमनीषी दिव्यास्त्रादि का धारक भी हो सकता है I उसके पास ऐसे-ऐसे दिव्यास्त्रादि होंगे, जिनका नाम भी अधिनाक्ष वेदमनीषी नहीं जानते होंगे, जैसे भूतास्त्र, तन्मात्रास्त्र, कालास्त्र, गुणास्त्र, कोशास्त्र, मनास्त्र, इत्यादि I

समय समय पर, ऐसे मनीषी के शरीर से कई प्रकार की सुगंध प्रकट होती हैं, लेकिन अंततः वो सुगंध यज्ञकुण्ड जैसे ही होंगी I

ऐसा योगी कार्यब्रह्म सरीका ही होता है, और उस हिरण्यगर्भ शरीर (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म के सिद्ध शरीर) का धारक होगा, जिसको बौद्ध मार्ग में बुद्ध का स्वर्णिम शरीर (Buddha body of reality) भी कहा जाता है I ऐसा योगी यह सिद्ध शरीर धारण करके ही लौटाया जाएगा, अर्थात इसके पास यह सिद्ध शरीर उसके जन्म के समय से ही होगा I

ऐसा मनीषी के जीवन का अधिकांश भाग, गृहस्थ्य आश्रम में ही व्यतीत होगा I

और यदि वो विवाह भी न करे, अर्थात वो ब्रह्मचारी या वानप्रस्थी के सामान ही रहे, तब भी वो ग्रहस्त आश्रम में ही रहेगा I

 

  • यदि वो ब्रह्मपुत्र, वेदात्मा (देवात्मा) स्वरूप में लौटाया जाएगा, तो वो माँ गायत्री सरस्वती का पुत्र होकर आएगा I

ऐसा मनीषी पञ्च ब्रह्म के समस्त बिन्दुओं का साक्षात्कारी होता है, सर्वदिशा दर्शी नामक सिद्धि को पाया हुआ होता है, पञ्च देवों के देवत्व बिंदुओं को पाया हुआ होता है, वेदों के सार का पूर्णज्ञाता होता है, शब्द तन्मात्र में स्थित होता है इसलिए वेद चतुष्टय की श्रुतियाँ उसके शरीर में ही चलित होती हैं, उसका शरीर ही वेददुर्ग सरीका (वेदमंदिर) होता है, वो मनीषी पञ्च कृत्यों के साक्षात्कारी होता है और इनका धारक भी हो सकता है I

चाहे वो ग्रहस्त आश्रम में ही क्यों न हो, तब भी ऐसे मनीषी का अधिकांश जीवन, सन्यासी के परिधान में ही व्यतीत होगा I

 

  • यदि वो ब्रह्मपुत्र, उत्कर्षात्मा गुरुस्वरूप में लौटाया जाएगा, तो वो माँ शारदा सरस्वती का पुत्र होकर आएगा I

ऐसे मनीषी का ज्ञान ही अग्नि स्वरूप होगा, जो समस्त उत्कर्ष मार्गों और उनके साधकों की वृत्तियों को ध्वस्त करता ही चला जाएगा I

ऐसे मनीषी के जीवन का अधिकांश भाग, वानप्रस्थी के परिधान में ही व्यतीत होता है और ऐसा तब भी होगा, जब वो भौतिक रूप के अन्य किसी आश्रम में बसा हुआ प्रतीत हो रहा हो I

वानप्रस्त आश्रम में निवास करता हुआ वो मनीषी, उस आनंद ब्रह्म को पाता है, जिसको सदानंद और सच्चिदानन्द भी कहा जाता है I

 

  • यदि वो ब्रह्मपुत्र, ब्रह्मंडात्मा होकर आयेगा, तो वो माँ भारती का पुत्र होगा I

ऐसा वेदमनीषी “यत पिंडे तत् ब्रह्माण्डे, यत ब्रह्माण्डे तत् पिंडे” सिद्धियों का भी धारक होगा I

ऐसा वेदमनीषी ज्ञान ब्रह्म नामक सिद्धि का भी धारक होकर आएगा, और एक ब्राह्मण वैश्य या वैश्य ब्राह्मण वर्णों के ब्रह्मचारी के सामान ही अपना जीवन व्यतीत करेगा I

 

  • जो ब्रह्मपुत्र, अर्थात मनु इन बताई गई पाँचों अवस्थाओं में सामान रूप में बसा होता है, वो स्वयंभू मनु कहलाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन मनु शब्द का अर्थ वेद भी होता है, जिसके कारण मनु…,

वो ब्रहमऋषि जो वेद ही हो गया I

वो ब्रहमऋषि जो वेदार्थ ही हो गया I

 

वेद का अर्थ … वेद क्या है … वेद किसे कहते हैं …

वेद का अर्थ, ज्ञान होता है I और ज्ञान शब्द का अर्थ, ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान ही है I

स्व:साक्षात्कार आत्मगान को ही वेद कहते हैं I

 

और क्यूँकि आत्मा ही ब्रह्म है, इसलिए…,

स्व:साक्षात्कार ब्रह्मगान को ही वेद कहते हैं I

 

इसलिए …

ब्रह्मऋषियों के ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान का अखंड पारम्परिक गान स्वरूप वेद है I

 

और …

स्व:साक्षात्कार आत्मज्ञान वेद कहलाता है I

स्व:साक्षात्कार सार्वभौम ब्रह्मज्ञान वेद कहलाता है I

स्व:साक्षात्कार हुई आत्मवानी और ब्रह्मवाणी ही वेद वाणी है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

मंत्र के मूल में वेद होता है, और वेद के मूल में मंत्र I

 

इसलिए …,

मनु शब्द का अर्थ मंत्र और वेद, भी होता है I

वेद का अर्थ, मंत्र और मनु भी होता है I

मंत्र ही वेद है और वेद ही मंत्र I

मंत्र के मूल में मनु है, और मनु के मूल में मंत्र I

 

यही कारण है, कि …

वेदमूल मंत्र रूपी मनु हैं…, और मनुमूल उत्कर्षगान और ज्ञानगान रूपी वेद है I

वेद का मन्त्रात्मक स्वरूप मनु, और मनु का मुक्तात्मक सनातन स्वरूप वेदमंत्र है I

वेद ही मनु कहलाता है, और मनु ही वेद होता है I

पञ्च ब्रह्म और पञ्च मुखा गायत्री सरस्वती का पुत्र ही मनु कहलाता है I

 

अब समझ गए, मनु महाराजा किनको कहते हैं…,

जो मनु का नहीं होता, वो न ब्रह्म का होता है, न पञ्च सरस्वती का I

और ऐसा अधमानंद मनीषी, न ही वेद का होता है, न मंत्र का I

और जो मानव अधमानंद होता है, वो …

न तो गायत्री विद्या के देवत्व को पाएगा, न ही पञ्च ब्रह्म के ब्रह्मत्व को I

 

ऐसे अधमानंद मनीषी के उत्कर्ष मार्गों की गति, मूर्खानंद की दशा से होती हुई धूर्तानंद तक जाके, कुतरकानंद से होकर, कपटानंद में ही चली जाती है I

 

तंत्र की परिभाषा … यंत्र की परिभाषा …

यही कारण है, कि वेद ही मंत्र के तंत्र और यंत्र का स्थान भी है I

लेकिन इसको जानने से पूर्व तो तंत्र और यंत्र के शब्दों जो जानना पड़ेगा, इसलिए अब इनको परिभाषित करता हूँ I

जो विधा या प्रणाली तन की त्राणि हो, वो तंत्र I

जो यति का त्राणि हो, वो यंत्र I

 

इन दो परिभाषाओं में …

  • तन शब्द का अर्थ पञ्च कोष ही मानना चाहिए I
  • यति शब्द का अर्थ, वेद मार्गी ही मानना चाहिए I

 

ब्रह्मर्षि की आंतरिक दशा

अब ब्रह्मऋषि के भीतर की दशा को बतलाता हूं …

 

  • स्थूल शरीर के दृष्टिकोण से …समय समय पर ब्रह्मऋषि के स्थूल शरीर के भीतर, वेद अपने ग्रंथ रूप में प्रतिष्ठित और प्रकाशित होते ही रहते हैं, इसलिए ऐसी अवस्था के पश्चात उसे कोई ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं होती।

वो अपने शरीरी रूप में ही वेद होता है I

और उसका शरीर ही इस चतुर्दश भुवन में उस ब्रह्मग्रंथ स्वरूप में होता है, जिससे अमुक अमुक कालखंडों में, काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता (शक्ति) से, समस्त ग्रन्थ प्रकाशित हुए थे।

स्थूल शरीर में प्रकाशित वेद ग्रन्थ ही वैदिक वाङ्मय में पुराण कहलाया गया था I

 

  • सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से … ब्रह्मऋषि के सूक्ष्म शरीर के भीतर, वेद अपने श्रुति रूप में प्रकाशित होते हैं, इसलिए ऐसी अवस्था के पश्चात उसे किसी मंत्र को रटने की भी आवश्यकता नहीं होती।

ऐसा योगी अपने सूक्ष्म शरीर के भीतर वेद श्रुतियाँ भी सुनता है I लेकिन अधिकांश समय, यह श्रुति (या वो श्रुतियाँ) बीज मंत्रों से और उनके संगृहीत रूप, अर्थात वेद मंत्रों से ही संबंधित होती हैं I

और उन श्रुतियों के प्रकाशित होने के समय पर, वो ब्रह्मर्षि उन श्रुतियों की दिव्यताओं (देवी देवताओं) का भी साक्षात्कार करता है I

सूक्ष्म शरीर में प्रकाशित ग्रन्थ ही वेद का चतुष्टय स्वरूप कहलाया गया था I

 

  • कारण शरीर के दृष्टिकोण से … और इसके अतिरिक्त ब्रह्मऋषि के कारण शरीर में, वेद गंतव्य रूप में प्रकाशित होते रहते हैं, अर्थात उस वेदमनीषी के अंतःकरण में, वेद अपने मुक्ति या कैवल्य स्वरूप में प्रकाशित होते हैं।

इसलिए उसे मुक्ति आदि मार्गो पर गमन की भी आवश्यकता नहीं होती ।

कारण शरीर में प्रकाशित ग्रन्थ ही उपनिषद् कहलाया गया था I वेदों का मुक्ति या कैवल्य स्वरूप ही उपनिषद् कहलाता है I

ऐसा योगी, स्वयं ही गंतव्य, अर्थात कैवल्य मोक्ष का मार्ग होता है, और स्वयं ही उस मार्ग का गंतव्य भी होता है। और वो स्वयं ही उस मुक्ति मार्ग का शरीरी ग्रंथ स्वरूप भी होता है।

उसके लिए, शरीर से बड़ा कोई ग्रंथ नहीं होता, क्योंकि उसके तीन शरीरों में, समय समय पर वेदग्रंथ प्रकाशित होते ही रहते हैं।

उसका त्रिकाया रूपी शरीर ही ब्रह्म का एकमात्र ग्रंथ होता है, जो वैदिक वाङ्मय कहलाता है।

 

  • मार्ग के दृष्टिकोण से … ऐसे मनीषी का मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है, इसलिए वो आत्ममार्गी ही होता है। इसलिए वो “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता है।

इसी आत्ममार्गी अवस्था में बसकर, वो अपनी काया के भीतर ही वैदिक इतिहास ग्रंथों और उनके पात्रों को रचता हुआ पाता है I और इसी वैदिक इतिहास से वो अपने चेतनायुक्त सूक्ष्म रूप में भी जाता है I

जैसा कालखण्ड (या युग) होता है, वैसा ही वैदिक इतिहास ग्रन्थ प्रकट होता है, और इसी इतिहास की दशाओं से वो ब्रह्मर्षि उसके अपने सूक्ष्म चेतनायुक्त रूप में जाता है I

वैदिक वाङ्मय में कोई देवी या देवता हैं ही नहीं, जो साधक के शरीर के भीतर नहीं मिलेंगे I

और इसके अतिरिक्त, उसी वैदिक वाङ्मय में कोई अवतार, उस अवतार के समय के पात्र और उनके समय परिस्थिति के इतिहास ग्रन्थ हैं ही नहीं, जो साधक के शरीर के भीतर, शब्दात्मक, यंत्रात्मक, ऊर्जात्मक और ग्रन्थात्मक स्वरूप में नहीं मिलेंगे I

इसका कारण यह है, कि वेदग्रन्थ ब्रह्मर्षियों के द्वारा ही दिए गए हैं, जो वेद द्रष्टा थे, अर्थात उन्होंने वेदों और वेद मंत्रों का साक्षात्कार किया था, और जहाँ वो ग्रन्थ और मंत्र भी उन ब्रह्मर्षियों के शरीर में ही स्व:प्रकट हुए थे I

उस ब्रह्मर्षि के पिंड रूपी शरीर के भीतर ही ब्रह्माण्ड होता है, और वो भीतर का ब्रह्माण्ड भी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक अवस्था में ही होता है।

प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड उसे कहते हैं, जो ब्रह्म की रचना में, ब्रह्म के भाव के अनुसार और उन ब्रह्म के साधन स्वरूप में सर्वप्रथम स्वयंउत्पन्न हुआ था, और जिससे बाद में जीव और ब्रह्माण्ड की बाकी सभी दशाएं उत्पन्न की गई थी I

ब्रह्माण्ड की यह बाकी सभी दशाएं जो थी उनको ही क्रम से कारण, दैविक, सूक्ष्म और स्थूल आदि नामों से बताया जाता है और यह सभी दशाएं, उसी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से ही स्वोत्पन्न हुई हैं I

वो ब्रह्मर्षि इसी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड में अपनी योग क्रीड़ाएँ करता है, क्यूंकि उसके साधना मार्ग में, उसको उसकी काया के बाहर के ब्रह्माण्ड से कुछ भी लेना देना नहीं।

 

ब्रह्मर्षि से संबंधित कुछ उपाधियाँ

यहाँ जो बताया जाएगा, वो राजयोग में बसकर, पाशुपत मार्गानुसार, पञ्च मुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से है I

इसलिए, इस अध्याय के इस भाग का, पञ्च ब्रह्म से कोई भी संबंध नहीं है I

कुछ पाशुपत मार्ग से साक्षात्कार हुआ था, और कुछ पञ्च ब्रह्मोपनिषद मार्ग से, इसलिए इस ग्रन्थ में, कहीं पर पञ्च मुखा सदाशिव के आधार पर बताया गया है, और कहीं पर पञ्च ब्रह्म के I

वैसे भी एक बाद के अध्याय में इन दोनों मार्गों की योगावस्था पर भी बात होगी, जिसमें इन दोनों के उत्कर्षमार्गों के तारतम्य ही समाप्त हो जाएंगे I और इसके पश्चात, साधकगण बोलेंगे ही, कि शिव ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही शिव… शिवत्व ही ब्रह्मत्व है और ब्रह्मत्व ही शिवत्व… और इसके अतिरिक्त, शिवत्व ही ब्रह्मत्व का मार्ग है, और ब्रह्मत्व ही शिवत्व का I

मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी है, क्यूंकि मैं उस गंतव्य मार्गी, अखंड सनातन, अद्वैत ब्रह्मवादी परंपरा में पूर्णरूपेण बसा हुआ प्रबुद्ध योग भ्रष्ट हूँ…, यहाँ बतलाए जा रहे ब्रह्मऋषि शब्द की उपाधि को जैसे बताया जाता था, अब मैं उसको बताता हूँ।

लेकिन यहाँ बताई गई विभिन्न उपाधियों में, एक बात ध्यान में रहे, कि जो भी उस ब्रह्मर्षि का मार्ग (वेदमार्ग) होगा, उस मार्ग के अनुसार ही वो इन उपाधियों का धारक होगा I

इसका अर्थ हुआ, कि वो ब्रह्मर्षि यहाँ बताई गई सारी उपाधियों में स्थित होगा या नहीं…, इसको वो ही जानता होगा I

वैसे ब्रह्माण्ड के इतिहास में, बस कुछ ही योगी और ऋषि ऐसे हुए हैं, जो यहाँ बताई गई एक से अधिक उपाधियों के धारक हुए थे I

और एक बात, कि यहाँ बताई गई उपाधियाँ, एक दुसरे से संबंधित और एक दुसरे की पूरक भी हैं I लेकिन इस बिंदु को वही जानता होगा, जो इन सबमें समान रूप में बसा होगा, और इन सबका धारक भी होगा I पर ब्रह्माण्ड की समस्त इतिहास में, ऐसे मनीषी दुर्लभ से भी दुर्लभ हैं I

 

तो अब इस भाग के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताता हूँ …

  • मन के दृष्टिकोण से … ऐसे योगी का मन सामवेद के महावाक्य तत् त्वम् असि का द्योतक होता है। ऐसा योगी मन ब्रह्म नामक सिद्धि को प्राप्त होके, इस समस्त चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्मण्ड की दिव्यताओं में, मनात्मा होकर ही रह जाता है।

और ऐसा योगी, ब्रह्म की उस प्राचीन अभिव्यक्ति में भी विलीन होता, जो प्रधान कहलाई थी, और जिसकी प्रकृति के तार्तम्य स्वरूप में प्रथम अभिव्यक्ति, परा प्रकृति कहलाती है, और जिसकी दिव्यता को ही अदिशक्ति कहा जाता है I इसलिए ऐसा योगी उस सर्वात्मशक्ति (अदिशक्ति) में भी विलीन हुआ होता है I

अपनी इस सर्वात्मशक्ति सिद्धि के अनुसार, वो योगी प्रकृति के तार्तम्य स्वरूप में बसा हुआ भी, वास्तव में अदिशक्ति में विलीन हुआ, उसी अदिशक्ति सरीका होता है, जो सत्त्वगुणी होने के कारण, सगुण और निर्गुण दोनों ही होती हैं I

और इनके साथ साथ वो योगी इन दोनों (अर्थात सगुण और निर्गुण) से ही समतावादी होने के कारण, इन दोनों से परे भी होती है I ऐसी नवमं कोष की प्रकृति, जो सत्त्वगुणी होती है, उस से ही ब्रह्म की समस्त रचना, जीव जगत के रूप में उत्पन्न हुई थी I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसी मनात्मा की अवस्था में, अपने प्राणमय कोष के दृष्टिकोण से, ऐसा योगी ही ब्रह्मलोक में विलीन होता है, और निर्गुण निराकार ब्रह्म का ही सर्वसम सगुण निराकार और सर्वसम सगुण साकार, दोनों का ही स्वरूप कहलाता है I

और जहाँ इन दोनों (अर्थात सर्वसम सगुण निराकार और सर्वसम सगुण साकार) के भीतर ही वो निर्गुण निराकार ब्रह्म, स्वच्छ निरंग जल रूपी सर्वव्यापक झिल्ली के समान स्व:प्रकाशित हो रहे होते हैं I

ऐसा सामवेदी ब्रह्मर्षि उसके अपने ही गंतव्य (आत्मस्वरूप) में सर्वसम, अर्थात हीरे जैसे प्रकाशमान दिव्य सिद्ध शरीर का धारक भी होता है, जो उन सर्वसम महाब्रह्म का ही सर्वसमतावादी ब्रह्म शरीर कहलाता है I

पञ्च मुखा सदाशिव के दृष्टिकोण से, ऐसा योगी सदाशिव के पश्चिम दिशा को देखने वाले सद्योजात मुख में ही विलीन होता है I

सदाशिव के इसी सद्योजात मुख से सर्वसम हीरे के प्रकाश को धारण किए हुए, वेदों के तैंतीस कोटि देवताओं में, तैंतीसवें देवता चतुर्मुखा पितामह प्रजापति का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था I

और सदाशिव के इसी मुख को ब्रह्मलोक कहा गया था, जिसके बीस भाग (अर्थात जिसमें बीस लोक) होते है, जिनके बारे में एक बाद के अध्याय में बतलाया जाएगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि अव्यक्त की अभिव्यक्ति भी उन्हीं सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से हुई थी, इसलिए ऐसा योगी ही अव्यक्त सिद्धि को पाता है, जिसमें उस योगी के शरीर में ही एक हलके गुलाबी रंग का सिद्ध शरीर प्रकट होता है, जो अव्यक्त शरीर भी कहलाता है I

अव्यक्त को ही अव्यक्त प्राण, अव्यक्त प्रकृति, माया शक्ति, महामाया, प्रधान, प्रकृति आदि नामों से पुकारा जाता है I

मेरे इस जन्म से पहले के जन्म के गुरु, जिनको गौतम बुद्ध के नाम से पुकारा जा रहा है, उनके मार्ग में, इसी अव्यक्त प्रकृति को तुसित लोक भी कहा गया है I इसी अव्यक्त का संबंध, बौद्ध मार्ग के तथागतगर्भ से भी है I

ऐसा योगी उस शक्ति या देवी में भी विलीन होता है, जो ब्रह्मानुजा हैं, और जो माँ लक्ष्मी के नाम से भी पुकारी जाती हैंI और इसके अतिरिक्त, ऐसा योगी उस शक्ति या देवी में भी विलीन होता है, जो शिवानुजा हैं, और जो माँ सरस्वती के नाम से भी पुकारी जाती हैं I

इन सबके अतिरिक्त, वो ब्रह्मऋषि उसके ही स्थूल शरीर के भीतर बसे हुए, उसके अपने ही दिव्य शरीरी रूप में उस सर्वसम सगुण निराकार महाब्रह्म का वो सगुण स्वरूप होता है, जो प्रजापति कहलाता है, और जो सर्वसम होने के कारण, न तो अभिमानी होता है, और न ही अनभिमानी ही होता है I

ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में और अपनी इस वास्तविक्ता में वो ब्रह्मऋषि ही महात्मा कहलाता है I

इस महात्मा शब्द का संबंध भी सदाशिव के सद्योजात मुख से ही है I

इस बिंदु को प्राप्त हुआ योगी, प्रधानतः सदाशिव के पश्चिम दिशा को देखने वाले, सद्योजात मुख से संबंध रखता है I

 

  • बुद्धि के दृष्टिकोण से … ऐसे योगी की बुद्धि, ऋग्वेद के महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म की द्योतक होती है I ऐसा योगी ज्ञान ब्रह्म नामक सिद्धि को प्राप्त होके, इस समस्त चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्मण्ड की दिव्यताओं में, ज्ञानात्मा होकर ही रह जाता है।

और ऐसा योगी, उस अखंड अनादि अनंत सनातन काल में भी विलीन होता है, जिसकी कालचक्र स्वरूप में अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुई थी I ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में और अपनी इस वास्तविक्ता में वो ब्रह्मऋषि कालात्मा नामक पद को भी पाता है I

अपनी इस कालात्मा सिद्धि के अनुसार, वो योगी काल के चक्र स्वरूप में बसा हुआ भी, वास्तव में काल के गंतव्य में विलीन होता है, और उसी अखंड सनातन काल सरीका होता है, जिसमें ब्रह्म की रचना में, समस्त जीव जगत को समान रूप में बसाया गया था I

ऐसा योगी उस त्रिकाली नामक शक्ति (या त्रिकाली देवी) में भी विलीन होता है, जो इंद्रानुजा होती हैं, और जो सदा चलित कालचक्र की दिव्यता स्वरूप में, माँ महाकाली कहलाती हैं और योगमार्ग में जिनका साक्षात्कार, बिंदु शून्य की समाधी से होता है, जो जड़ समाधि भी कहलाती है, और ऐसे साक्षात्कार में माँ महाकाली, अतिउग्र स्वरूप की शक्ति धारण की हुई, दस हाथ वाली होती हैं I

और इसके अतिरिक्त, ऐसा योगी उस शक्ति (या देवी) में भी विलीन होता है, जो विष्णुनुजा हैं, और जो माँ पार्वती (माँ महेश्वरी) के नाम से भी पुकारी जाती हैं I

और अपने विज्ञानमय कोष के दृष्टिकोण से, ऐसा योगी ही ॐ में विलीन होता है, और ऐसे विलीन होने के पश्चात, ब्रह्मांडीय दिव्यताओं में वो योगी निर्गुण निराकार ब्रह्म का ही शब्दात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूप कहलाता है I

और इन सबके अतिरिक्त, वो ब्रह्मऋषि उसके ही स्थूल शरीर के भीतर बसे हुए, उसके अपने ही दिव्य शरीरी रूप में, उस योगेश्वर का स्वरूप होता है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाते हैं, और जो ब्रह्माण्ड में अभिमानी और अनभिमानी दोनों स्वरूपों में होते हुए भी,  वास्तविकता में योगात्मा ही होते हैं I

और इसके अतिरिक्त, वो योगी कार्यब्रह्म का भी स्वरूप धारक होता है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म से ही हुई थी, और जो हिरण्यगर्भ के ही रजोगुणी रचैता स्वरूप होते हैं और जिनको आंतरिक योगमार्गों में, उकार भी कहा जाता है I और जिनकी दिव्यता (या शक्ति) को सावित्री विद्या सरस्वती भी कहते हैं, और जो मेरी वास्तविक माँ हैं, क्यूंकि वो सावित्री सरस्वती ही मुझे हिरण्यगर्भ लोक से अपने दिव्य गर्भ में धारण करके इस मृत्युलोक में लाई थीं, और परकाया प्रवेश प्रक्रिया से उन्होंने ही मुझे यह स्थूल शरीर प्रदान किया था, जिसमें बैठ कर मैं यह सब कुछ बता रहा हूँ I

और ऐसा ऋग्वेदी ब्रह्मर्षि उसके अपने ही गंतव्य आत्मस्वरूप में, सर्वसाक्षी स्व:प्रकाशात्मा ही होता हैI

 

स्व:प्रकाश वो होता है, जो सबको प्रकाशित करता हुआ भी, छुपा हुआ होता है I

स्व:प्रकाश वो होता है, जो सबके भीतर और बाहर बसा हुआ भी, छुपा हुआ होता है I

 

इसीलिए, महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, उस स्व:प्रकाश को, जिसको निर्गुण ब्रह्म भी कहा जाता है, मुट्ठी भर योगी भी नहीं जान पाए हैं I

लेकिन इसका यह अर्थ भी बिलकुल नहीं है, कि ब्रह्माण्ड के पूरे इतिहास में अबतक उस स्वयंप्रकाश का साक्षात्कार, कोई भी नहीं कर पाया है I

इस बिंदु को प्राप्त हुआ योगी, प्रधानतः सदाशिव के पूर्व दिशा को देखने वाले, तत्पुरुष मुख से संबंध रखता है, जिनसे इंद्रासन (अर्थात इंद्रलोक) इस समस्त जीव जगत के विज्ञानमय काया रूप में स्वयंउत्पन्न हुआ था और जिसपर वो योगी ही विराजमान होता है, जिसने अपने समस्त जीव इतिहास में, एक सौ आंतरिक अश्वमेध यज्ञ संपन्न किए होते हैं, और ऐसा योगी ही उस इंद्रपद को पाता है, जो ब्रह्मा जी की रचना में, ब्रह्मा जी का प्रथम शिष्य कहलाता है I

इस बिंदु को प्राप्त हुआ योगी, प्रधानतः सदाशिव के पूर्व दिशा को देखने वाले, तत्पुरुष मुख से संबंध रखता है I

 

  • चित्त के दृष्टिकोण से … उसका चित्त अथर्ववेद के महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म का द्योतक होता हैI ऐसा योगी चित्त ब्रह्म नामक सिद्धि को प्राप्त होके, चिदानंद ब्रह्म में ही विलीन होके, इस समस्त चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्मण्ड की दिव्यताओं में, चिदात्मा होकर ही रह जाता है।

और ऐसा योगी, ब्रह्म की उस ऊर्जा रूपी अभिव्यक्ति में भी विलीन होता, जो सर्वव्याप्त ब्रह्मांडीय ऊर्जा और पराशक्ति कहलाई थी, जिसे मूल प्रकृति नामक ऊर्जा स्वरूप भी कहा जाता है, और जिससे वो सत्त्वगुणी परा प्रकृति स्वयंउत्पन्न हुई थी I

यहाँ बताई गई पराशक्ति की दिव्यता को ही माँ पार्वती कहा जाता है, जो विष्णुनुजा हैं, और जो माँ महेश्वरि भी कहलाती हैं I इसलिए ऐसा योगी, उस पराशक्ति विष्णुनुजा में भी विलीन हुआ होता है I

और इसके अतिरिक्त, ऐसा योगी उन शक्ति (या देवी) में भी विलीन होता है, जो ब्रह्मानुजा हैं, और जो माँ लक्ष्मी के नाम से भी पुकारी जाती हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

योगमार्ग में, ऐसा योगी असम्प्रज्ञात समाधी को जाके, निर्बीज समाधी को पाके, चित्त की संस्कार रहित अवस्था को पाता है, और कर्ममुक्त कहलाता है I ऐसा योगी ही वैकुण्ठ में विलीन होता है क्यूंकि वैकुण्ठ लोक कर्मातीत मुक्ति का ही लोक है I

ऐसे योगी के स्थूल शरीर में ही एक धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर प्रकट होता है, जो इस समस्त ब्रह्माण्ड के यज्ञकुण्ड रूप का ही सगुण साकार स्वरूप होता है I इस सिद्ध शरीर को सदाशिव के वामदेव मुख का सिद्ध शरीर (अर्थात वामदेव शरीर) भी कहा जा सकता है I सदाशिव का वामदेव मुख एक विशालकाय ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड सरीका, धूम्र वर्ण का होता है I

और इस सिद्ध शरीर का आलम्बन लेके वो योगी, उस सगुण निराकार वामदेव रूपी ब्रह्म में ही “स्वयं ही स्वयं की” आहुति देता है, और उस सगुण निराकार ब्रह्म के ही सगुण आत्मा स्वरूप को अपनी काया के भीतर ही पाता है I

ऐसा योगी ही उस सगुणआत्म स्वरूप को भी पाता है, जो अर्धनारीश्वर कहलाता है I

और जहाँ वो अर्धनारीश्वर, उस योगी के आज्ञाचक्र के भीतर, खड़ी अवस्था में, मुस्कुराते हुए घडी की सुई से उलटी दिशा में गोल गोल घूम रहे होते है I

और उन्हीं त्रिनेत्र के भीतर बसे हुए अर्धनारिश्वर में, जो उस योगी का ही सगुण आत्मा होते हैं, वो योगी अपने गुरु भगवान् और अपनी गुरुदेवी भगवती माता…, दोनों को एकसाथ ही पाता है I

जब ऐसा होता है, तो ऐसे योगी का मन उसके प्राणों से योग करके, अर्धनारीश्वर सिद्ध शरीर ही हो जाता है, जिसके पश्चात महाब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी सगुण आत्मा (अर्थात अर्धनारीश्वर) ही कहलाता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और इन सबके अतिरिक्त, वो ब्रह्मऋषि उसके ही स्थूल शरीर के भीतर बसे हुए, उसके अपने ही दिव्य शरीरी रूप में, उस सगुण निराकार परब्रह्म का वो सगुण स्वरूप होता है, जो श्री विष्णु कहलाता है I

और अपनी इस वास्तविक्ता में, वो उन परमात्मा में ही विलीन होके, ऐसा ही हो जाता है, और मुक्तात्मा कहलाता है I

और ऐसा अथर्ववेदी ब्रह्मर्षि उसके अपने ही गंतव्य आत्मस्वरूप में, इस जीव जगत का यज्ञकुण्ड होता है, जिसमें उत्कृष्ट साधकगण स्वयं ही स्वयं की आहुति देके, उस मुक्तात्मा नामक पद को पाते हैं, जो न तो ब्रह्म की सगुण साकार नामक अभिव्यक्ति में होता है, और न ही ब्रह्म की सगुण निराकार अभिव्यक्ति में I

लेकिन अपने सगुण साकारी शरीरी रूप में,  ऐसा ब्रह्माण्डीय यज्ञ कुंड होने के लिए, उस योगी को ब्रह्माग्नि को भी धारण करना होगा I यह ब्रह्माग्नि उस योगी के हृदयाकाश गर्भ में, उस हृदयाकाश गर्भ की दायीं ओर, उस योगी की ही योगाग्नि स्वरूप में होती है I

इस बिंदु को प्राप्त हुए योगी का संबंध, प्रधानतः सदाशिव के उत्तर दिशा को देखने वाले, वामदेव मुख से होता है I

 

  • अहंकार के दृष्टिकोण से … और उसका अहंकार यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि का द्योतक होता है I ऐसा योगी अहम् ब्रह्म नामक सिद्धि को प्राप्त होके, इस समस्त चतुर्दश भुवन रुपी ब्रह्मण्ड की दिव्यताओं में, अहम्आत्मा होकर ही रह जाता है। ऐसे योगी का अहम् विशुद्ध होके, सर्वव्याप्त ब्रह्म सरीका ही होता है I

और ऐसा योगी, ब्रह्म की उस शक्ति में विलीन होता है, जो रौद्री कहलाई थी I ऐसा योगी उसकी काया के भीतर ही, रौद्री रुद्र योग को सिद्ध करता है, और जो उस आत्मपथगामी योगी की ही सगुण स्वरूप स्थिति को दर्शाता है I

और अपने मनोमय कोष के दृष्टिकोण से, ऐसा योगी ही सदाशिव के अघोर मुख में विलीन होता है, और अपने अहंकार के दृष्टिकोण से वो योगी निर्गुण निराकार ब्रह्म का ही विशुद्ध अहम् स्वरूप,  अर्थात सर्वाहम सगुण निराकार और सर्वाहम सगुण साकार स्वरूप कहलाता है I

उस योगी के स्थूल शरीर में ही कई सारे सिद्ध शरीर प्रकट होते हैं, जिनमें से कृष्ण पिंगल रुद्र शरीर भी होता है I ऐसा योगी महाकाश पद को भी पाता है I

ऐसा योगी, पिङ्गला रूद्र सिद्ध शरीर का भी धारक होता है I समस्त सिद्ध शरीरों में से, यह सिद्ध शरीर सबसे पीड़ादायक है, क्यूंकि इस सिद्ध शरीर की विकराळ ऊर्जा, साधक को मृत्युतुल्य पीड़ा देती है I

ऐसा योगी उस शक्ति या देवी में भी विलीन होता है, जो शिवानुजा हैं और जो माँ सरस्वती के नाम से भी पुकारी जाती हैंI

और इसके अतिरिक्त, ऐसा योगी माँ त्रिकाली में भी विलीन होता है, जिसके कारण वो योगी कालचक्र की गति की समस्त दिशाओं में स्वयं को समान अभिव्यक्त रूप में पाता है, और इसके साथ साथ, वो योगी स्वयं को कालचक्र से अतीत, उसके अपने ही अखण्ड सनातन आत्मस्वरूप में भी पाता है I

और इन सबके अतिरिक्त, वो ब्रह्मऋषि उसके ही स्थूल शरीर के भीतर बसे हुए, उसके अपने ही दिव्य शरीरी रूप में उस सर्वाहम ब्रह्म का  वो सगुण स्वरूप होता है, जो रुद्र कहलाता है, जो सर्वाहम होने के कारण, विशुद्ध अहमलिंग भी होता है और अपनी इस वास्तविक्ता में वो ही रुद्रातमा कहलाता है I

और ऐसा यजुर्वेदी ब्रह्मर्षि उसके अपने ही गंतव्य आत्मस्वरूप में, रुद्र का ही एक भगवा दिव्य सिद्ध शरीर का धारक भी होता है, जो उस रुद्र का ही विशुद्ध सर्वाहम ब्रह्म शरीर कहलाता है I

इस बिंदु को प्राप्त हुआ योगी का संबंध, प्रधानतः सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले, अघोर मुख से होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

  • अन्तःकरण चतुष्टय के गंतव्य दृष्टिकोण सेदुर्लभ से भी दुर्लभ योगी … अबतक अंतःकरण चतुष्टय के भागों के दृष्टिकोण से, अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहम् के दृष्टिकोण से बताया था I

लेकिन इसके परे भी एक दशा होती है, जो अंतःकरण के इन चारों भागों से परे होती है, और जो इनके मार्ग के गंतव्य से सम्बन्ध रखती है, … इसलिए अब इसको बताता हूँ …

 

अब ध्यान देना …

और अब ऐसे योगी के बारे में बतलाता हूँ, जो अबतक के बताए हुए सारे बिन्दुओं को पा चुका है और इनके गंतव्य में स्थित भी हो चुका है I

वैसे महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, ऐसे योगी दुर्लभ से भी दुर्लभ होते हैं …

ऐसे योगी के प्राण, उस ब्रह्मशक्ति जगतजननी सर्वमाता मूल प्रकृति जिन्हें माँ अदिपराशक्ति के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है, उनके ही सार्वभौम विश्वव्याप्त और विश्व से भी परे के स्वरूप में विलीन होके, सार्वभौम हो जाते हैं I

और उसका ओम में ही विलीन जीवात्मा, स्व:प्रकाश ब्रह्म सरीका ही होता है, जिसके कारण वो ब्रह्मर्षि, इस जीव जगत को केवल अपने साक्षीभाव में ही रखता है I

और इस साक्षीभाव में, उस भाव की शक्ति के स्वरूप में, माँ आदि पराशक्ति स्वयंप्रतिष्ठित होती है, जिसके कारण ऐसे योगी की सर्वव्यापक निष्काम अद्वितीय और अच्युत्तमा भावनात्मक अवस्था में ही उसका साधन होता है, और इसी साधन का आलम्बन लेके, वो योगी उन कार्यों को करता है, जिनके लिए ब्रह्मांडीय दिव्यताओं द्वारा, उस योगी को ऐसा बनाया गया था I

मैंने “उस योगी को ऐसा बनाया गया था”, ऐसा कहा है …, न कि “उसने पाया था”, ऐसा कहा है I

ऐसा कहने का कारण है, कि यह बताई गई दिशा, कर्मों और कर्मफलों में नहीं होती…, यह अनुग्रह की अवस्था है…, अर्थात यह कृपा सिद्धि है…, न कि किसी कर्म से प्राप्त हुई सिद्धि I

मुमुक्षु के लिए, अनुग्रह से उत्कृष्ट कोई ब्रह्मकृत्य नहीं होता, क्यूंकि यह अनुग्रह कृत्य ही कैवल्य मोक्ष, अर्थात निर्गुण ब्रह्म की कृत्यात्मक, कार्यात्मक और कृपात्मक दृष्टि का द्योतक है I

लेकिन जब वो अनुग्रह कृत्य किसी योगी के लिए आता है, तो वो कृपा सिद्धि के स्वरूप को धारण करके ही, उस योगी के लिए अकस्मात् ही स्वयंप्रकट होता है I

इस स्वयंप्रकटीकरण के पश्चात, वो योगी उस निरंग स्फटिक के समान, पञ्च मुखी सदाशिव के मध्य के आकाश (या ऊपर) की ओर देखने वाले, उस सर्वव्याप्त मुख में बस जाता है, जो ईशान कहलाता है, जो स्वच्छ सर्वव्यापत जल के सामान होता है, जो सबमें बसा हुआ है और जिसमें सबकुछ बसा हुआ है और जो निर्गुण निराकार ब्रह्म के नाम से भी पुकारा जाता है I

 

ऐसी कृपा के पश्चात, जो उस योगी की दशा होती है, अब उसको बताता हूँ …

  • उस योगी का मन, मनाकाश होता है, जो वास्तविक साधकों की सर्वत्र सिद्धियों का प्रमुख माध्यम होता है, और उन सिद्धियों का गंतव्य भी होता है I

इसलिए, जो साधक उस योगी के मन में नहीं होगा, उस साधक के पास वो कृपा सिद्धि भी नहीं आएगी, जो उस योगी को प्रदान करी गई थी, जीवों के उद्धार के लिए I

इसका कारण है, कि ऐसे मनाकाश को धारण किए हुए योगी का मन ही, निर्गुण निराकार ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्गों का द्वारपाल होता है I

 

  • उस योगी का चित्त ही चिदाकाश होता है, जो वास्तविक साधकों की, कर्मातीत सिद्धि प्राप्ति का मार्ग और केंद्र, दोनों ही होता है I उस योगी का चित्त, सच्चिदानंद ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्गों का द्वारपाल होता है I

 

  • उस योगी की बुद्धि, ज्ञानाकाश होती है, जो वास्तविक साधकों की ज्ञान सिद्धि (अर्थात आत्मज्ञान प्राप्ति) का मार्ग और गंतव्य, दोनों ही होती है I उस योगी की बुद्धि, ज्ञानानंद ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्गों की द्वारपाल होती है I

 

  • उस योगी का अहम्, अहमकाश होता है, जो वास्तविक साधकों की अहम् विशुद्धि और अहमात्मा सिद्धि, जो विशुद्ध अहम् रूपी ब्रह्म की वाचक, मार्ग और गंतव्य, तीनों ही होता है I उस योगी का अहम्, विशुद्ध अहम् रूपी ब्रह्म की ओर जाने वाले मार्गों का द्वारपाल होता है I

 

  • उस योगी के प्राण, प्राणाकाश होते है, जो वास्तविक साधकों की उत्कर्ष मार्ग पर गति को दर्शाते हैं I उस योगी के प्राण, ब्रह्मशक्ति की ओर जाने वाले मार्गों के द्वारपाल होते हैं I

ऐसा योगी, उस महाब्रह्माण्ड को जिसके भीतर वो (योगी) बसा होता है, उसी को अपने भीतर भी पाता है I और इसके पश्चात, वो योगी उस महाब्रह्माण्ड का अवधूत होके ही शेष रह जाता है I इस दशा के पश्चात, वो योगी उसी महाब्रह्माण्ड के उत्कर्ष मार्गों का सर्वसाक्षी ऋषि होकर ही अपने कार्य सुदूर से करता है I

ब्रह्म की समस्त रचना में और उस रचना से परे भी, इससे बड़ी कोई कृपा सिद्धि न है…, और न ही होगी I

 

ब्रह्मर्षि पद के कुछ और बिंदु

ब्रह्मऋषि वो योगी होता है, जो ॐ के समस्त बिन्दुओं का साक्षात्कारी होता है। जो योगी ऐसा नहीं, वो ब्रह्मऋषि भी नहीं।

ऐसा साधक मनुवादि ही होगा, क्यूंकि ये ब्रह्मऋषि का पद, मनुवाद के सिद्धांतों के अंतर्गत ही होता है।

इसलिए ब्रह्मऋषि शब्द का अर्थ है, वह मनुवादी साधक, जो ॐ दृष्टा और ॐ स्थित हो गया हो, और वह मनुवादी साधक, वेदों के बीज और गंतव्य में समान रूप और समान भाव से बस चुका है।

जो ओमदृष्टा होता है, वह ही वेददृष्टा होता है। और जो ऐसा होता है, वो ही मंत्रार्थ स्थित होता है, क्योंकि ॐ ही सब मंत्रों में बीजमंत्र और महामंत्र भी है।

वेदों में जब भी महा शब्द का प्रयोग होता है, तो उसका अर्थ परम ही माना जाना चाहिए, क्योंकि दो महा कभी नहीं होते। और यही कारण है, कि जो महा होता है, वही परम है।

 

ब्रह्मऋषि का पञ्च विद्या सरस्वती, पञ्च ब्रह्म और पञ्च कृत्यों से नाता …

लेकिन अबतक बताए गए सभी बिंदुओं के बाद भी, ब्रह्मऋषि के जीवन मार्ग में,पञ्च विद्या सरस्वती, पञ्च ब्रह्म और उनके पञ्च कृत्य ही होती हैं।

और इन पञ्च विद्या में से भी, अकार की देवी (अर्थात माँ सावित्री) और पञ्च ब्रह्म की देवी, (अर्थात माँ गायत्री) अवश्य ही होंगी I

इसलिए, जो साधक ब्रह्मऋषि के पद को प्राप्त हुआ है, वह अकार सिद्ध योगी होगा ही।

ब्रह्मऋषि उस योगी को कहते है, जो यहाँ बतलाई जा रही अकार की देवी (या सावित्री विद्या) और गायत्री विद्या सहित, पञ्च विद्या में से कम से कम, एक का साक्षात्कारी और अनुग्रह प्राप्त ऋषि है।

 

आगे बढ़ता हूँ …

गायत्री साधना, पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग है इसलिए, गायत्री साधक ही पञ्च ब्रह्म को पाते हैं और वो भी उन साधकों के अपने आत्मस्वरूप में I

अपने आंतरिक योगमार्ग में, ऐसे साधक ही पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा को करते हैं I

 

और आगे बढ़ता हूँ …

सावित्री विद्या के मूल में, सावित्री सरस्वती ही गायत्री स्वरूप में होती हैं,… और सावित्री विद्या के गंतव्य में भी सावित्री सरस्वती ही ब्रह्माणी स्वरूप में होती हैं ।

सावित्री विद्या ही त्रिदेवी साक्षात्कार का मार्ग है। जो सावित्री सिद्ध होता है, वो त्रिदेवी सिद्धि को भी पाता है, और वो भी उन त्रिदेवी के महा-स्वरूप में, अर्थात ऐसा साधक महासरस्वती, महालक्ष्मी और महापार्वति के साक्षात्कार और सिद्धियों को भी पाता है।

अपने मूल से सावित्री सिद्धि योगमार्ग का अंग है, सिद्धों का मार्ग है, आगम का मार्ग है। और यही गंतव्य मार्ग का अंग भी है, जो ऋषियों का मार्ग है, निगम का मार्ग है।

इसलिए जो साधक, सावित्री सिद्धि को प्राप्त होता है, वो साधक आगम निगम दोनों का ही होता है, अर्थात, सिद्धों और ऋषियों, दोनों ही परम्पराओं का होता है।

ऐसे योगी के लिए, न बंधन का कोई अर्थ होता है, और न ही मुक्ति का…, वो इन दोनों से, और इनके द्वैतवादों से परे होता है।

सावित्री सिद्धि से ही वो योगी पञ्च विद्या को पाता है, इसलिए पञ्च विद्या के दृष्टिकोण से, सावित्री सिद्धि पूर्ण सिद्धि है I

 

पञ्च विद्या और पञ्च ब्रह्म में बसे हुए ब्रह्मऋषि की आंतरिक दशा और मार्ग

आंतरिक दशा और अपने मार्ग से वो योगी जैसा होता है, वो अब बता रहा हूँ …

भीतर से शाक्त, बहार से शैव, धरा पर वैष्णव, मार्ग से सूर्य, गंतव्य से गणपत्य ।

 

पञ्च कृत्यों से अनुसार, वो योगी …

भीतर से तिरोधान, बाह्य से संहार, धरा पर स्थिति, मूल मार्ग से उत्पत्ति और गंतव्य से अनुग्रह कृत्य सरीका ही होता है।

मेरे पूर्व जन्मों के पुरातन कालों में, ऐसे पञ्च कृत्य के धारक योगी को ही अतिमानव कहा जाता था ।

 

और अपने गंतव्य से, वो योगी…

भीतर से आत्मना, बहार से सर्वा, चतुर्दश भुवन में ब्राह्मण, मार्ग से रचनात्मक ज्ञान-चेतन-कर्म और गंतव्य से मोक्ष कहलाता है।

 

यहाँ कहे गए ब्राह्मण शब्द का अर्थ, आत्मदृष्टा, ब्रह्मदृष्टा, ॐ दृष्टा, वेददृष्टा, मंत्रद्रष्टा, आत्मा और ब्रह्म के एकत्व का द्रष्टा, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के एकत्व के द्रष्टा…, ऐसा ही मानना चाहिए।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

ऐसा वेदमनीषी, आज के विकृत गुरुओं के समान, लाखों या हजारों में शिष्य नहीं बनता।

वो तो बस कुछ ही उपयुक्त पात्रों को, जो वास्तव में साधक शब्द के मूलार्थ में बसे हुए होते हैं, अपने भाव साम्राज्य में धारण करके, अपने ही गुरु चक्र की दिव्यता से, भविष्य में गुरु होने के मार्ग पर लेके जाता है।

इसका कारण है, कि वो योगी वो उसके अपने शिष्यों को, भविष्यगुरु स्वरूप में ही देखता है I

आज के विकृत गुरुओं से विपरीत, जो वास्तविक गुरु होता है, वो कभी शिष्य नहीं बनाता…, वो कुछ ही उपयुक्त साधकों को चुन कर, भविष्य के गुरु होने के मार्ग पर लेके जाता है।

वैसे एक बात बता दूं, कि कलियुग की काली काया के कारण, आज इस गुरुचक्र का ज्ञान और योगमार्ग भी लुप्त सा हो गया है, इसलिए इसकी सिद्धि के बारे में कोई विरला योगी ही जानता होगा।

ऐसी दीक्षा के पश्चात वो योगी (ब्रह्मर्षि) उसके ही स्वयंजनित साक्षीभाव में स्थित होके, आनंदित होके, शांत चित अपने शिष्यों के गुरु स्वरूप कार्यों को…, बस सुदूर से देखता रहता है।

उसके थोड़े से शिष्य, जो भविष्य के किसी कालखंड में गुरुजन होके कार्य करते हैं, मूल में तो मनुवादी ही होंगे…, क्यूंकि उनका गुरु ही मनुवादी है।

इसलिए वो ब्रह्मर्षि के उन गिने-चुने शिष्यों द्वारा स्थपित मार्ग, वेदों का सिवा कुछ और हो ही नहीं सकेगा।

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

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