भगवा रुद्र, एकादशवां रुद्र और कालचक्र, कलियुग स्तंभन, गुरुयुग आगमन, चक्र चतुष्टय विज्ञान

भगवा रुद्र, एकादशवां रुद्र और कालचक्र, कलियुग स्तंभन, गुरुयुग आगमन, चक्र चतुष्टय विज्ञान

जो एकादशवां रुद्र या भगवा रुद्र है, वो किसी भी योगी के भीतर, ऐसे ही नहीं प्रकट हो जाता है। इसका प्रकटीकरण भी कालचक्र के अंतरगत होता है। इसलिए, इस अध्याय में इस भगवे एकादशवें रुद्र और कालचक्र के संबंध पर बात होगी। इस अध्याय में, भगवे रुद्र के लिंगात्मक स्वरूप में प्रकटीकरण और  कलियुग स्तंभन प्रक्रिया पर भी बात होगी, और इस कलियुग स्तंभन के समय पर, आगामी मानव युग आगमन या  गुरुयुग आगमन या मानव सत्युग के आगमन पर भी बात होगी।

सब कुछ कालगर्भित होता है, इसलिए, इस समस्त जीव जगत में, जो भी था, है या आगे कभी होगा, वो सब कालगर्भित है। काल की प्रेरणा से ही सब कुछ होता है, काल की शक्ति से ही सब कुछ चलायमान होता है और काल के अनादि अनन्त सनातन गंतव्य स्वरूप की ओर ही सब कुछ चलित होता है। जो कालगर्भित नहीं, वो ना जीव रूप में हो सकता है, और न ही जगत रूप में।

यही कारण है, कि जब भी किसी योगी के भीतर, ये एकादशवां रुद्र स्वयंप्रकट होता है, तो ये प्रक्रिया भी कालचक्र (Kaal Chakra) के अनुसार ही, एक उचित समय पर होती है। इसी बिंदु को आधार बनाके यहां पर बात होगी।

 

भगवा रुद्र, एकादशवां रुद्र और त्रिदेव, एकादशवां रुद्र और त्रिबुद्ध
भगवा रुद्र, एकादशवां रुद्र और त्रिदेव, एकादशवां रुद्र और त्रिबुद्ध

 

मेरे प्रतिबन्ध और निषेध

मुझे पूरा मंत्र बोलने के अनुमति नहीं है, इसलिए मंत्रों के कुछ ही शब्द बोल के, सांकेतिक दिशा देकर, इत्यादि शब्द बोल देता हूँ।

इसका कारण है, कि मेरे भीतर बसे हुए के सनातन गुरु ने कहा है, कि तू अन्य युगों के समान, इस कलियुग में गुरु नहीं हो सकता।

और जब मैंने उनसे पूछा, कि गुरु कौन होगा, तो उन्होनें बोला, कि उन सनातन गुरु की गुरुगद्दी, आम्नाय पीठ (Amnaya Peetha) ही गुरु होगी।

इसलिए, मैं मंत्र पूरा नहीं बोल सकता, क्योंकि इस जन्म में, ऐसा करने के लिए, मैं अपनी गुरुपरम्परा से ही अधिकृत नहीं हूं।

मैं मंत्र सुन, पढ़ और लिख तो सकता हूं, मंत्र पर अध्यन्न मनन मंथन भी कर सकता हूँ,अपने मन में बोल भी सकता हूँ, अपने कोशों और उनके अंगों में धारण भी कर सकता हूँ, एकांत में तो उच्चारण भी कर सकता हूँ, लेकिन गुरु आदेश के कारण, मंत्र उनको बोल नहीं सकता, जो मेरे इस जन्म के परिवार के अभिन्न अंग नहीं हैं। यहाँ कहे गए अभिन्न शब्द पर ध्यान देना।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौदहवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

युगचक्र से इस चित्र का मांत्रिक संबंध…

यदि हृदय में, इस चित्र की दशा के स्वयंप्रकट होने के कारण को, कुछ ही शब्दों में बताऊंगा, तो ऐसा कह सकता हूं…

 

रुद्ररूपाए युगन्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्ताए

यहाँ कहे गए रुद्ररूपाए और त्रिमूर्ताए, इन दोनों शब्दों पर ध्यान देना, क्यूंकि उनको ही ये चित्र दिखा रहा है।

यहाँ कहे गए युगान्ते शब्द के अतिरिक्त, ये मंत्र, कल्पान्ते अदि काल दशाओं में भी लागू होता है।

ये मंत्र प्रलय की दशाओं में भी लागू होता है, इसलिए जो भी योगी आत्यंतिक प्रलय को जाएगा, वो योगी भी इस मंत्र की दशाओं से होकर ही जाएगा ।

ये मंत्र युग स्तंभित प्रक्रिया पर भी लागू होता है। और क्यूंकि अभी का समय भी कलियुग को स्तंभित करने का ही है, इसलिए, ये मंत्र अभी के कालखण्ड पर भी लागू हो रहा है।

इस कलियुग को स्तंभित करने की प्रक्रिया, जो अभी के समय पर चलित है, वो महाकाल की प्रेरणा से और उनकी शक्ति, दस हाथ वाली महाकाली से ही चल रही है।

ये प्रक्रिया जो 2019 ईस्वी के अंत भाग से चलित हुई थी, उसमें शनैः शनैः समस्त देवी देवता, ऋषि सिद्धादि सत्ताएँ भी जुड़ती चली जा रही हैं।

ये प्रक्रिया 2019 इस्वी की विजय दशमी से प्रारंभ हुई थी।  उस समय, मैंने माँ चामुंडा को इस धरा से अपना अनुग्रह लौटाते हुए देखा था। इसलिए मैं समझ गया था, कि एक या एक से अधिक वैश्विक विप्लव आने वाले हैं।

और ये विप्लव शरीर और अन्न के ही होंगे। इसलिए, कोई तीन प्रकार की महामारियां, अन्न या आर्थिक आदि त्रासदियां आने वाली हैं। मैंने ऐसा इसलिए सोचा, क्यूंकि माँ चामुंडा महामारियों त्रासदियों को रोकती भी हैं।

और क्यूंकि ये महामारियां इस कारण से आ रहीं है, इसलिए इनका आज के चिकित्सा तंत्र में उचित परिणाम भी पूर्णरूपेण बिलकुल नहीं मिलेगा… बस कुछ आधा अधूरा ही मिलेगा।

और क्यूंकि ये त्रासदियाँ भी इसी कारणवश आ रही हैं, इसलिए उनको भी कोई सरकार या तंत्र नियंत्रित नहीं कर पाएगा, क्यूंकि इन महामारियों और त्रासदियाँ के मूल कारण भी त्रिताप के आगमन में ही होंगे, इसलिए ये त्रासदियाँ मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक तीनों स्वरूपों में आएंगी ।

और क्यूंकि माँ चामुण्डा, त्रिचर जीवों में ही इन महामारियों और त्रासदियों को रोकती हैं, अर्थात भूचर, जलचर और नभचर जीवों में इन महामारियों और त्रासदियों को रोकती हैं, इसलिए यदि माँ चामुण्डा ने अपना अनुग्रह पुनः स्थापित नहीं किया इस धरा पर, तो इसके परिणाम स्वरूप, तीन प्रकार की महामारियां, एक के बाद एक आएंगी, और इनके साथ साथ त्रिताप भी आएंगे, तीन स्वरूपों में, जो मानव जनित, प्राकृतिक और दैविक भी होंगे ।

यदि माँ चामुण्डा ने अपना अनुग्रह इस धरा पर पुनः स्थापित नहीं किया, तो …

  • प्रथम महामारी, उड़ने वाले जीव या नभचर जीव से प्रारम्भ होगी और दो और जीवों से घूमती फिरती, मानव में आएगी । ये लघु ब्रह्मस्त्र होगी, जिसके बारे में किसी और अध्याय में बताऊंगा…, यहां नहीं ।
  • दूसरी महामारी भूचर जीव से आयेगी और उस जीव से प्रारंभ होगी, जो भूमि और गगन, दोनों में रहता है, जैसे वानर, इत्यादि । और इस जीव से प्रारंभ होकर, बाकी के तीन जीवों में जाके, मानव में आएगी ।
  • और तीसरी महामारी, जल के जीवों से आएगी ।
  • दूसरी महामारी, पहली से घातक होगी…, और तीसरी, दूसरी से ।
  • इस कलियुग स्तम्भित प्रक्रिया के पश्चात, जो युग आ रहा है, वो वैदिक युग होगा, इसलिए इन तीनो महामारियों के जीव, वैदिक देवी देवताओं से सम्बद्ध भी होंगे ।
  • और, यदि आपको कोई महामारी चूहे से आती हुई दिखे, जो गुरु गणेश का वाहन है, और जो अनुग्रह कृत्य को दर्शाते हैं, तो समझ लेना कि इस धरा से अब सभी अनुग्रह लौटा दिए गए हैं, और बहुत बड़ी त्रासदियां आने वाली है, जिसमे इस लोक की अधिकांश जीव सत्ता नष्ट हो जाएगी ।

इसका कारण है, की इस दशा के बाद, जब इस धरा पर से सभी प्रकार के अनुग्रह ही उठ गए हैं …, वो भगवा रुद्र जिसकी बात मैं यहाँ कर रहा हूँ, और जो संहार कृत्य का धारक भी है…, वो क्रियान्वित हो जाएगा, उसके अपने वास्तविक स्वरूप में ।

  • जो मांसाहारी होंगे, उनकी क्षति शाकाहारियों की तुलना में, कहीं अधिक होगी… लेकिन इस बार, कहीं कहीं पर गेहूं के साथ थोड़ी घुन भी पिसेगी, और कहीं पर घुन के साथ, थोड़ा गेहूं ।
  • और इसके पश्चात, उसी 2019 इस्वी की दीपावली से कुछ दिवस पूर्व, जब मैंने देखा कि माँ श्मशान काली अपने निराकार स्वरूप में इस धरा पर आ रही हैं…, तो मैं समझ गया था, कि वो एक या एक से अधिक वैश्विक महामारियाँ और त्रासदियाँ, घातक भी होगी।

क्योंकि जिनको माँ शमशान काली कहा जाता है, वो ही पञ्च मुखा सदाशिव के वामदेव मुख की शक्ति हैं, और उनको ही दस महाविद्या में माँ अलक्ष्मी कहा जाता है, और उनको ही माँ धूमावती भी कहा जाता है, इसलिए मैं ये भी समझ गया, कि आगामी समय में, इस कलियुग के एकमात्र पुरुषार्थ, अर्थात अर्थ पुरुषार्थ पर ही त्रिताप का वार होगा और ये महामारियाँ त्रासदियाँ जो आने वाली हैं, वो ही इसका कारण बनेंगी।

 

कलियुग में पुरुषार्थ चतुष्टय का स्वरूप

पुरुषार्थ चतुष्टय होते हैं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहलाते हैं। लेकिन कलियुग में इन चार पुरुषार्थों में से, केवल अर्थ पुरुषार्थ ही बचता है, क्यूंकि बाकी तीनों पुरुषार्थों की कोई सत्ता ही नहीं रह पाती।

और इसके अतिरिक्त, अर्थ पुरुषार्थ भी एक विकृत स्वरूप में ही होता है । कलियुग का अर्थ अपने ही मूल, जो प्रकृति है, जिसमें जीव जगत बसा हुआ है और जो जीव और जगत के भीतर भी बसी हुई है, उस प्रकृति को विकृत करके ही आगे बढ़ता है। इसलिए, कलियुग का विकासवाद, वास्तव में विनाशवाद का द्योतक और कारक, दोनों ही होता है। वास्तव में तो संपूर्ण प्रकृति ही अर्थ होती है ।

कलियुग में धर्म नामक पुरुषार्थ, अधर्म और विधर्म में ही फंस कर रह जाता है, इसलिए वास्तव में तो कलियुग में धर्म होता ही नहीं है। कलियुग में धर्म तो बस एक शब्दमात्र और मतमात्र ही रह जाता है, जो न तो कभी अपनी वास्तविकता में परिभाषित किया जाता है, न ही अपने विशुद्ध स्वरूप में क्रियान्वित किया जाता है, और ना ही कलियुगी धर्म त्रिकालों के समस्त कालखण्डों में धारण ही किये जा सकते हैं। जो उस त्रिकाल सनातन स्वरूप में धरण ही न किया जाये, वो कैसा धर्म। इसलिए कलियुग के समस्त धर्म, वास्तव में तो धर्म शब्द की परिभाषा के अन्तर्गत पूर्णतः, आते ही नहीं हैं।

कलियुग में काम नामक पुरुषार्थ, अपने मूल निष्काम स्वरूप में ही नहीं रह पाता, इसलिए काम नामक पुरुषार्थ होता ही नहीं है। इसका कारण है, कि जो काम, निष्काम नहीं होता, वो पुरुषार्थ चतुष्टय का अंग भी नहीं होता।

कलियुग में मोक्ष नामक पुरुषार्थ होता ही नहीं, इसलिए कलियुग के कालखंड में, जितने भी विधर्म और अधर्म रूपी मत, धर्म बनकर आते हैं, वो कहते हैं, कि उनकी मुक्ति अंत समय पर ही होगी। इसका कारण है, कि कलियुग में मोक्ष नामक पुरुषार्थ होता ही नहीं है।

इसलिए कलियुग में, अधिकांश मानव पुरुषार्थसंकर ही हो जाते हैं…, और मानव ही नहीं, बल्कि उस कलियुग में आये हुए धर्मों के देवतागण भी ऐसे ही पुरुषार्थसंकर होते हैं।

और ये भी कारण है, कि कलियुग के कालखंड में, जो भी मार्ग अथवा मत, धर्म के नाम पर आते हैं, उनमें ना तो विदेहमुक्ति, न जीवनमुक्ति और ना ही सद्योमुक्ति के बिंदु या सिद्धांत पाए जाते हैं। उनकी मुक्ति अंत समय पर ही होती है।

 

इस मंत्र का ब्रह्मलोक से नाता

एक बात मैं संकेतिक बताता हूं, कि यह लिखा हुआ मंत्र, 20 मुखी रुद्राक्ष की एक विशेष प्रकार की प्राण प्रतिष्ठा का भी है।

वैसे मैं इंद्राक्षी माला का धारक भी हूं, क्योंकि एक समय पर, उस हिमालय पर बैठे मेरे गुरु शंकर और गुरिमई पार्वती ने मुझे ऐसी ही प्रेरणा दी थी। और क्यूंकि इस माला के कुछ रुद्राक्ष बहुत ही महंगे थे, इसलिए उनको एकत्रिक करने में कुछ वर्ष भी लग गया ।

इस मन्त्र में, युग शब्द के स्थान पर, कल्प शब्द भी कहा जा सकता है, क्यूंकि यही दशा ब्रह्मकल्प के अंत में भी आती है, और ऐसे समय पर भी, यही रुद्र, किसी ना किसी योगी के हृदय में स्वयंप्रकट होता है।

और युग स्तंभित होनें के समय पर भी  ऐसी ही दशा आती है, जब यही रुद्र किसी योगी के हृदय में स्वयंप्रकट होता है। यही कारण है कि कालचक्र में, युग स्तंभित होने के समय पर भी, यही भगवा रुद्र, उसके ही आत्मलिंग स्वरूप में, किसी योगी के हृदय में स्वयंप्रकट हो जाता है।

रुद्र कभी प्रकट नहीं होता, वो स्वयंप्रकट होता है। स्वयंभू कभी प्रकट हो ही नहीं सकता, वो तो स्वयंप्रकट ही होता है।

और यही दशा तब भी आती है, जब कलियुग को स्तंभित करके, उसी कलियुग के भीतर से, गुरुयुग या आम्नाय युग का उदय किया जाता है।

आज का विश्व, ऐसे ही कालखंड में चला गया है, जब कलियुग स्तंभित होगा। और जब ऐसा होने लगेगा, तब उसी स्तंभित प्रक्रिया में, इसी कलियुग के भीतर से, एक विशुद्ध आम्नाय युग, गुरुयुग या वैदिक युग का स्वयं उदय भी होगा।

वो कालखंड, जिसमे ये वैदिक युग का उदय होना है…, वो बस कुछ ही वर्षों की बात है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

इस बताये गए वाक्य का संबंध बीस मुखी रुद्राक्ष से भी होता है, जो ब्रह्मलोक के बीस लोकों को भी दर्शता है।

ब्रह्मलोक में, सोलह लोक नीचे के होते हैं, और इनके अतिरिक्त चार लोक ऊपर के होते हैं।

लेकिन, इन लोकों के बारे में कभी और बतलाऊँगा, जब सदाशिव प्रदक्षिणा के मार्गानुसार, पंच मुखा सदाशिव को बतलाया जाएगा।

उन सदाशिव के निराकारी स्वरूप में, राजयोग के अंतर्गत, और पाशुपत मार्ग के अनुसार, मैं अपनी काया के भीतर ही उनकी प्रदक्षिणा करता रहता हूं। और ऐसी प्रदक्षिणा का मार्ग भी, पञ्च ब्रह्म परिक्रमा से ही होकर जाता है, जो साधक के शरीर में ही होते हैं ।

 

एकादशवां रुद्र, भगवा रुद्र का स्वयंप्रकट होना और युग स्तंभन

इस ब्रह्मकल्प में, कोई ऐसा काल खंड था ही नहीं, जिसमे कोई बहुत बड़ी सत्ता इस पृथ्वीलोक पर लौटी थी, या इस पृथ्वी लोक में कुछ बहुत बड़ा होने को था ,और उस समय मैं इसी लोक में लौटाया नहीं गया था।  तो अब मैंने संकेत में ही सही, लेकिन बतला दिया।

लेकिन आज के परिपेक्ष्य में इतना कह सकता हूँ, कि इस कलियुग की काली अज्ञानमय विप्लवमय काया के कारण, अधिकांश वेद ज्ञान अब लुप्त हो चुका है।

जो वेद ज्ञान आज बचा हुआ है, वो एक प्रतिशत भी नहीं है, उस विराट वेद ज्ञान के सामने, जो मेरे पूर्व जन्म में था, और जो मुझे याद भी है, क्यूंकि मैं योगभ्रष्ट हूँ, और प्रबुद्ध भी हूँ । मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, इस वाले या इस से पिछले जनम से नहीं हूँ, बल्कि मैं स्वयम्भू मन्वंतर से ऐसा ही हूँ।

जैसे महायुग चक्र या देवयुग चक्र में, 12,000 दिव्य वर्ष होते हैं, वैसे ही मानव युग चक्र में भी, 12,000 सूर्य वर्ष या मानव वर्ष होते हैं। इस कल्प में इन 12,000 वर्षों  का ज्ञान, मूलतः मनुस्मृति से सम्बंधित है।

मानव युगचक्र, पृथ्वी के अग्रगमन चक्र या आहाता चक्र के भीतर चलता है, जिसको पृथ्वी की पहली गति भी कह सकते हैं, क्यूंकि ये गति, पृथ्वी में तब आई थी, जब पृथ्वी में कोई और गति थी ही नहीं। और इसी को अंग्रेजी में precession of equinoxes और axial precession of earths axis, ऐसा भी कहा जाता है।

पृथ्वी का यही अग्रगमन या आहाता सिद्धांत, चक्र चतुष्टय विज्ञान का मूल सिद्धांत है, जिसमें  कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र और दशचक्र, ये चार चक्र होते हैं।

लेकिन आज इनका ज्ञान ही लुप्त हो चुका है, क्यूंकि जहाँ तक चक्र चतुष्टय की बात है, आज का वैदिक वाङ्‌मय तो बस ज्योतिष और वेदांग के कुछ बिंदुओं तक ही सीमित हो गया है। और वास्तविकता तो ये है,  की ज्योतिष या वेदांग, कभी मूल सिद्धांत थे ही नहीं ।

और क्योंकि इस कलियुग के प्रभाव के कारण, मानव युगचक्र और देव युगचक्र की समानता और भेद का विज्ञान ही लुप्त हो गया है, इसलिए अब इन दोनो को एक साथ, कोई भी नहीं जानता। आज बस, कुछ मनोलोक से सम्बंधित बातें ही रह गई हैं, इन दो चक्रों के बारे में।

इसका कारण है, कि वैदिक कालचक्र विज्ञान, जिसके अंतरगत ये दोनो होते हैं, वो ही लुप्त हो गया है।

उस वैदिक कालचक्र विज्ञान का लिंक मैं नीचे दे रहा हूं। लेकिन ये मैंने पूरा प्रकाशित नहीं किया है। इसके कुछ मूल बिंदु मैंने छुपा लिए हैं, क्योंकि 170 देश से भी अधिक में घूमने के बाद, मुझे पता है, कि आज का मानव इसका उचित प्रयोग कर ही नहीं पाएगा।

जब भी इस पृथ्वी लोक में ऐसा हुआ है, तब यही भगवा रुद्र किसी न किसी योगी के हृदय में स्वयंप्रकट हुआ है।

ऐसे समय पर, जो भी युग चल रहा होता है, उसको रोक दिया जाता है, और उसमें से ही एक ऐसे नवीन युग का उदय किया जाता है, जो वैदिक होता है।

और इसीलिए, आज के परिपेक्ष्य में, वो आगामी नवीन युग, आम्नाय चतुष्टय या वेद चतुष्टय का युग ही होगा।

ये युग स्तंभन प्रक्रिया भी उसी विराट वैदिक ज्ञान का एक अंग है, जिसे क्रियान्वित करने हेतु, यह भगवा रुद्र किसी योगी के हृदय में स्वप्रकट होता है । ऐसा योगी माँ प्रकृति का कालास्त्र भी होता है, और वो भी एक मानव रूप में ।

 

कलियुग स्तंभित समय सीमा

तो अब मैं इस कलियुग के स्तंभित होने की समय सीमा को बतलाता हूँ …

इस भगवे रुद्र के स्वयंप्रकट होने के 12 वर्षों के भीतर, युग परिवर्तन या युग स्तंभित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

लेकिन इसका केवल यही बिंदु नहीं है, और भी हैं, पर यहाँ पर मैं इसके कुछ ही बिंदु बताऊँगा।

मन्वंतर और ब्रह्मकल्प के अंत में, इस प्रक्रिया के प्रारंभ होने का जो समय है, वो 12 गुणा 12 मानव युगचक्र का होता है, जिसकी अवधि 17,28,000 वर्षों की होती है। लेकिन यहां पर मैं अभी के समय की बात करूंगा, नाकि कल्प या मन्वंतर की।

 

तो अब आगे बढ़ता हूँ …

अपने गंतव्य स्वरूप में, समय अनंत होता है और पूर्ण स्थिर होता है। ऐसा पूर्ण स्थिर, अनंत समय ही ब्रह्म की वो अभिव्यक्ति होता है, जो महाकाल कहलाता है।

वेदों में जब महा शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वो महा एक ही होता है, क्यूंकि एक ही ब्रह्माण्ड में, कभी भी दो महा नहीं हो सकते। और इसीलिए, जो महा है, वो ही परम कहलाता है। और काल के दृष्टिकोण से, वो महा ही अनादि अनंत, सनातन कहलाया गया है।

काल की इसी अनादि अनंत, सनातन अवस्था को महाकाल कहते हैं, जो तब भी था, जब ना जीव था, ना ही जगत था। और इसीलिए, उस महाकाल रूपी अनंत समय का, कभी गणित नहीं होता।  वो अनंत काल, जिसे महाकाल कहा जाता है, वो तो गणित से भी अतीत, पूर्ण स्थिर गणितातीत होता है … ऐसे काल का गणित कैसे करोगे।

लेकिन ब्रह्मांड के भीतर, समय कभी स्थिर नहीं होता है। ब्रह्म की रचना में, काल सदा चलायमान या परिवर्तनशील होता है। इसीलिए, ऐसे काल की इकइयां भी परिवर्तनशील होती हैं।

जहां तक ​​पृथ्वी लोक का प्रश्न है, काल की इकाई, अग्रगमन चक्र से सम्बंधित होती है। और यही कारण है, कि जैसे जैसे अग्रगमनचक्र का समयचक्र आगे बढ़ता है, वैसे वैसे इस लोक की काल इकाई भी बदलती जाती है।

मैं इस बात के कुछ लिंक, नीचे दे रहा हूं, ताकि जिसे इस बिंदु को जानना है, वो इसे पढ़ सके।

इस ब्रह्मकल्प में, इस भूमण्डल पर, ये काल इकाई का ज्ञान, स्वयंभू मन्वन्तर के प्रथम सतयुग में ही आया था।

वैदिक काल इकाई में, मानव युगचक्र वैसा ही होता है, जैसा मनुस्मृति में बतलाया गया है। और इसकी समय सीमा भी 12000 वर्ष की ही होती है।

लेकिन इस मानव युगचक्र में, 12,000 सूर्य वर्ष होते हैं, नाकी देव वर्ष। मानव वर्ष से देव वर्ष के वैदिक गणित का लिंक भी मैं नीचे डाल रहा हूं, जिसका नाम 360 है। जिसको जानना हो, वो उसे पढ़ ले।

एक पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में, 2 पूरे मानव युगचक्र होते हैं। इसलिए, वैदिक समय इकाई में, अग्रगमन चक्र की समय सीमा, 24,000 सूर्य वर्षों की होती है।

जैसे पूरीअष्टक होते हैं, वैसे ही काल विज्ञान में भी, आठ पूरियां होती हैं, जो काल विज्ञान से जाती हुई, साधक को उत्कर्ष मार्ग में लेके जाती हैं। लेकिन यहाँ मैं इनकी बात नहीं करूंगा।

चक्र चतुष्टय के विज्ञान में, जो पूरी अष्टक का सिद्धांत है, वो सार्वभौम सिद्धांत है, और जो ब्रह्माण्ड से लेके पिण्ड तक, और इनके समस्त आयामों और तत्त्वों में भी लागू होता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब अग्रगमन चक्र, पाताल पुरी की काल इकाई में जाता है, तो उसकी गणना ऐसी होती है …

वैदिक मानव युगचक्र के समय को, 66.6666667 से भाग करके, 72 से गुणा करना होता है, जिसकी समय सीमा 12,960 वर्षों की आती है।

और क्योंकि, अग्रगमन चक्र में, 2 मानव युग होते हैं, इसलिए, अग्रगमन के पाताल समय इकाई में, वोही अग्रगमन चक्र 25,920 सूर्य वर्ष होता है।

और यदि काल की अभी की गति जाननी है, तो वैदिक काल खंड को, 66.6666667 से भाग करके, 71.6 से गुना करना होता है। इससे इसकी समय सीमा, 12,888 वर्ष की आएगी। और इसी इकाई में, अग्रगमन चक्र की समय सीमा 25,776 वर्ष की आएगी।

मैं इनसब के लिंक भी नीचे डाल रहा हूं, ताकि जिसे भी जानना हो, वो उसे पढ़ ले। और पढ़ते समय, ऊपर के लिंक से लेकर नीचे को जाना।

तो अब मैंने, इस अध्याय का एक आधार बना दिया है, इसलिए आगे बढ़ता हूँ …

 

समय खंडित सा प्रतीत होता हुआ भी अखंड होता है

समय की कालचक्र रूप में अभिव्यक्ति, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म से हुई थी, जो अखंड सत्ता होते हैं। इसलिए उनसे समय सहित, जो भी उत्पन्न हुआ, वो भी अखण्ड ही है, चाहे वो आता जाता सा ही प्रतीत क्यों न हो।

इसका कारण है की, जो स्वयं ही अखण्ड है, वो कुछ भी खंडित बना ही नहीं पायेगा। इसलिए जो भी है, इस जीव जगत स्वरूप में, वो सब अपने अपने मूल से अखंड ही है।

और क्योंकि ब्रह्माण्ड के भीतर, समय सदैव ही चलायमान होता है, इसलिए उसके भाग भी होते हैं, जो युग कहलाते हैं, और जो अपने निर्धारित क्रम और कालों में ही आते जाते रहते हैं। लेकिन ऐसा होने पर भी, वो समय अपने मूल से अखंड ही है।

और क्यूंकि, सब कुछ काल के गर्भ में ही बसा होता है, इसलिए यह जीव जगत भी उसी काल के सामान, खंडित सा प्रतीत होता हुआ भी, अपने मूल से अखंड ही है।

और क्यूंकि अखंड तो ब्रह्म ही होता है, इसलिए जो कुछ भी है, इस जीव जगत के स्वरूप में, अपने मूल से वो सब ब्रह्म ही है।

इसका कारण भी वो ही है, की ब्रह्म अपने से पृथक, कुछ बना ही नहीं पाया था। इसलिए इस जीव जगत के स्वरूप में, जो भी है, वो ब्रह्म ही है।

वो ब्रह्म ही, इस जगत रूप में है। और जीव रूप में भी वो ब्रह्म ही है। तू भी वो ही है, मै भी वही हूं, ये जगत भी वो ही है… और जगत से परे भी वही ब्रह्म है।

ब्रह्म की रचना में, उस ब्रह्म ने अपने सिवा कुछ और बनाया ही नही, क्यूंकि वो अपने सिवा और कुछ बना पाया ही नही।

जैसा वो सदैव ही था, वैसी ही उसकी रचना भी हुई, इसलिए रचैता ही रचना स्वरूप में आया था, जिसके कारण, रचना ही रचैता हो गयी है।

इसी परिपेक्ष्य में, काल खंडित सा दिखता हुआ भी, वास्तव में अखंड ब्रह्म ही होता है। वही अखंड काल रूपी ब्रह्म, तेरा आत्मस्वरूप भी है।

  • यदि कोई साधक, काल को अपनी काया से बहार देखेगा, तो वो साधक उस काल को खंडित स्वरूप में, कालचक्र रूप में ही पाएगा।
  • और यदि कोई साधक उसी काल को, अपनी काया के भीतर ढूंढेगा, तो वो साधक उसी काल को, उस काल के वास्तविक सनातन अखण्ड स्वरूप में, अपने ही आत्मस्वरूप में, ब्रह्म रूप में ही पाएगा।
  • इसलिए, काल साधना भी ब्रह्मपथ का अभिन्न अंग होती है।

और क्योंकि ब्रह्मांड और पिंड सहित, सब कुछ काल के गर्भ में ही बसा हुआ है, इसीलिए जिस भी साधक ने काल को उसके खंडित और अखंडित, दोनों स्वरूपों में जान लिया, वो योगी काल सिद्ध कहलाता है।

और ऐसा योगी, महाकाल में ही लय होता है, और कालात्मा कहलाता है। महाकाल बोलो या कालात्मा बोलो, बात एक ही है।

काल का प्रकृत स्वरूप ही कालचक्र कहलाता है, और उसी काल का ब्रह्म स्वरूप, महाकाल कहलाता है। ऐसा योगी, काल के ही प्रकृति और ब्रह्म, दोनों स्वरूपों में, सामान रूप में बसा होता है।

और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी, यत पिंडे तत् ब्रह्माण्डे, इस वाक्य का सगुण साकार, मानव रूप भी कहलाता है।

अपनी काया रूप में तो वो योगी कालचक्र में बसा हुआ सा प्रतीत होता है, लेकिन अपने आत्मस्वरूप में, वो महाकाल रूपी ब्रह्म ही होता है, जिसमे ब्रह्माण्ड और समस्त पिंड, अनादिकाल से अनंतकाल तक, बसे रहते हैं।

अपने जीव स्वरूप और व्यवहार में, ऐसा योगी जीव भावापन हुए बिना नहीं रह पाता है। जबकी वो अपनी भावनात्मक वास्तविकता में, ब्रह्म भावापन ही होता है।

अब आगे बढ़ता हूं…

 

समय की अखण्ड धारा

किसी भी युग के पूर्ण स्तंभित या अंत होने से पूर्व ही, अगले युग का प्रकाश होने लगता है। यदि ऐसा नहीं होगा, तो समय की अखंड धारा टूट जाएगी।

और क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड ही समय के गर्भ में बसा हुआ है, इसीलिए, ऐसा होने पर, ब्रह्माण्ड भी खंडित होके नष्ट हो जाएगा।

लेकिन ऐसा तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि ब्रह्म ने जो भी बनाया है, वो मूल रूप से सुरक्षित है।

और ऐसा सुरक्षित होने के कारण ही, काल अपने ही खंडित, कालचक्र स्वरूप में होता हुआ भी, अपनी मूल धारा में अखंड ही होता है। काल के इस अखंड स्वरूप के कारण ही, इससे पहले किसी युग का अंत होता है, अगला युग प्रकाश होने लगता है।

दो युगों के मिलन समय को ही संधि कहते हैं, जिसमें उस समय के युग की दिव्यता समाप्त होती है, और आगामी युग की दिव्यता का प्रकाश होता है ।

युगसंधि के समय पर, जब भी दो समय या युग एक दूसरे से मिलते हैं, तो उनकी उर्जाओं या दिव्यताओं की टक्कर होती है, और ऐसे समय पर त्रहिमान हुए बिना भी रह नहीं पाता है, इसलिए, युग संधि का समय त्राहि-त्राहि का ही होता है।

युग संधि के समय पर, जब युग आपस में टकरा रहे होते है, तो उनकी दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, छोटे छोटे कालखण्डों में, समय की अखण्ड धारा टूटती ही है। जब भी ऐसा होता है, तो जिस भी लोक में काल परिवर्तित हो रहा होता है, वहां पर त्रिताप आते हैं।

इसीलिए, संधिकाल के समय पर, कुछ त्रहिमाम तो होता ही है, क्यूंकि जब समय की धारा कुछ छोटे छोटे समय खंड में टूटती जाती है, तो समय के गर्भ में जो भी जीव सत्ता और जगत का अंग बसा हुआ होता है, उसकी धारा भी टूट ही जाती है। और ऐसा होने पर, त्रितापों का किसी न किसी रूप में आना भी स्वाभाविक ही होता है।

यह विश्व अब उसी कालखंड में प्रवेश कर चुका है, जिसमें कलियुग कोई 10,000 वर्षों के लिए स्तंभित होगा, और गुरुयुग का प्रकाश होगा। इसलिए, इस कलियुग के स्तंभित होने से पूर्व ही, उस आगामी गुरुयुग का प्रकाश होना है।

और इसीलिए, आगामी कुछ समय संधिकाल का ही है, जो इस विश्व को कलियुग से गुरुयुग में लेके जायेगा। और यही कारण है कि इस धरा पर, आगामी कुछ समय, विश्वव्यापी विप्लव का, त्राहिमाम का ही होगा, जिसमें दैहिक, भौतिक और अध्यात्मिक, तीनों ताप भरपूर मात्राओं में आएंगे।

और ऐसे काल खंड में, आत्मचिंतन ही एकमात्र उत्कर्ष मार्ग होता है।

इसलिए, ऐसे समय पर, वैदिक मनीषि, अपनी ही आत्मा में, अपने देवत्व को ढूंढते हैं। और इसके पश्चात, जीवत्व और जगतत्व सिद्धि को जाके, बुद्धत्व प्राप्ति करके, वो ब्रह्मत्व को पाते हैं। संधिकाल में और कोई मार्ग होता ही नहीं।

तो अब मैंने एक और बिंदु को बता दिया, इसलिए अब और आगे बढ़ता हूं…

 

कलियुग स्तंभित और गुरुयुग की नीव का समय

तो अब इस कलियुग के स्तंभित होने का और आगामी गुरुयुग की नीव डालने की समय सीमा, संक्षेप में बताता हूं …

इसमें चार गणना होती हैं…

किसी भी काल खंड में, दो संधि होती है। एक संधि प्रारंभ की होती है, और दूसरी अंत की संधि होती है। इन संधियों को, कई नामों से बताया गया है।

काल संधि कई प्रकार से निकाली जाती है, पर यहाँ पर केवल दो की बात होगी, इसलिए अब इनको बतलाता हूँ …

10% (आरंभ संधि) + 80% (उस काल का समय) + 10% (अंत संधि)

10% (आरंभ संधि) + 100% (उस काल का समय) + 10% (अंत संधि)

इन दोनों में भी दो भाग होते हैं, जो ऐसे होते हैं…

  • एक जो युगांत से जुडी हुई गणना होती है, जिसकी गणना अंत होने वाले युग की समय इकाई में की जाती है।
  • और दूसरी जिसमे, आगामी युग की समय इकाई में, गणना की जाती है।

 

कलियुग स्तंभित होने की समय सीमा

और इसी प्रकार, युगांत या युग स्तंभित प्रक्रिया का प्रारंभ और अंत समय भी, निकाला जाता है। लेकिन इसका समय, किसी एक काल के विशेष समय को आधार बनाकर ही निकाला जाता है।

 

तो पहले उस विशेष कालखंड को बतलाता हूँ …

ये भगवा रुद्र, 2011 के फागुन मास में, किसी योगी के हृदय में आया था। ये कालचक्र की गणना में दिखता है।

इसलिए, इसका अंक, 2011.16 इस्वी का है।

ये अंक, मास के अनुसार तो ठीक है, लेकिन अंक के अनुसार, मैंने थोड़ा बदल दिया है, क्योंकि मैं सोचता हूं, कि बिल्कुल सही क्या बताना…, इसके बिना भी काम चल ही जाएगा।

इस 2011.16 इस्वी के समीप, जब उस योगी के हृदय में, ये भगवा रुद्र स्वयंप्रकट हुआ था, और इसके बाद, जब उस योगी की चेतना, राम नाद से जाकार, अष्टम चक्र को जाके, शून्य अनंत को गई थी, तो वहां से उस योगी की चेतना, सूर्य लोक, फिर अव्यक्त और ब्रह्मलोक को गई थी।

इसके बाद ही India Against corruption का अभियान आया था, दिल्ली के जंतर मंतर पर । और इसके कारण, भारत में 3 और 1 नेता को, शिखर पर जाने की प्रेरणा आई थी।

लेकिन इस प्रेरणा के पीछे भी कालचक्र विज्ञान ही था, क्यूंकि ये विश्व उस कालखंड में प्रवेश करने वाला था, जिसमे युग के पूरक को, अर्थात, कलियुग के पूरक को, भारत के शिखर पर जाके, अपने काम करने थे।

जो काल की प्रेरणा से आता है, वो तबतक ही सत्ता में रहता है, जबतक वो अपने कार्य सम्पान न कर दे…, इसके बाद नहीं। इसलिए, उस युग पूरक के साथ भी ऐसा ही होगा।

वो युगपूरक आज के भारत खण्ड के शिखर पर, कुछ वर्षों से विराजमान हो चुका है। लकिन वो तो केवल कलियुग का पूरक है, नाकि, आगामी गुरु युग का संस्थापक। इसलिए, जबतक वो अपना कार्य संपन्न नहीं करेगा, अगले युग का संस्थापक भी सामने नहीं आएगा।

लेकिन कलियुग पूरक की सत्ता भी, अधिक से अधिक, 12 वर्षों की ही होती है। इसलिए यदि इससे अधिक वो रह जायेगा, तो उसका साम्राज्य ही त्रासदी को चला जायेगा ।

लेकिन, यहाँ बताया गया 12 वर्षों का अंक, काल की वैदिक इकाई से है नाकि अभी की काल इकाई से। अभी की काल इकाई से ये अंक, 12.96 वर्षों का हो जाएगा ।

मैं उस युग पूरक के बारे में, वैदिक कालचक्र के गणित का लिंक भी नीचे डाल रहा हूं। यदि उस युग पूरक को जानना हो, तो उस लिंक पर जाकर उस युगपूरक को जान सकते हो।

वैसे युग पूरक एक नहीं होता, क्यूंकि आज इस पृथ्वीलोक पर चार और एक नेता इस कलियुग को समाप्त करने को ही आए हैं, और इन सभी की एक कहानी है, जो कोई साढ़े चार हजार वर्षों से भी पूर्व लिखी गयी थी, एक भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) के राजा के श्राप के कारण।

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

कोरोना वायरस और कालचक्र

और क्यूंकि, इस भगवे रुद्र के स्वयंप्रकट होने के 12 वर्षों के भीतर, युग परिवर्तन या युग स्तंभित की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, इसलिए, अब इन 12 वर्षों को बतलाता हूँ।

12 वर्ष = 1 (आरंभ संधि) + 10 (काल का समय) + 1 (अंत संधि)

अब इन 10 वर्षों को लेते हैं, जो काल का समय है, इस भगवे रुद्र के स्वयंप्रकट होने के बाद।

0.83 (आरंभ संधि) + 8.33 (काल का समय) + 0.83 (अंत संधि)

 

और इसके अनुसार, यह समय ऐसा बनता है …

2011.16 + 0.83 + 8.33 = 2020.32 इस्वी, जो 2020 का बैसाख मास है

इसी 2011 के बैसाख मास से पूर्व, कोई बड़ी त्रासदी प्रारंभ होनी थी। और इसीलिए इस बैसाख मास से पूर्व, ये जीवाणु, कोरोना वायरस आया था जिसके कारण 2020 की 24 मार्च को भारत बंद लगाया गया था।

और उस जीवाणु के बदलते हुए स्वरूप के कारण, इस त्रासदी का स्वरूप भी खंडविप्लव सा ही होगा ।

लेकिन वैदिक कालचक्र विज्ञान में, इस त्रसादी का समय 2020.24 इस्वी का निकाला  है, जो 2020 के, 27-28 मार्च को आता है।

तो अब और आगे बढ़ता हूँ …

 

गुरुयुग की प्रकटीकरण  प्रक्रिया

अब गुरुयुग की प्रकटीकरण प्रक्रिया बताता हूं …

एक बात याद रखना, कि गुरुयुग या आम्नाय युग, कभी भी लुल्लपुल होके नहीं आता है ।

वो गुरु युग तो करोड़ों सिंघों की दहाड़ के साथ ही आता है। ये अकेला युग है जो ऐसे ही आता है। और ये दहाड़, दैविक, प्राकृत और मानव जनित, तीनों स्वरूपों में होती है।

पूर्व कालों के सारे गुरुयुग भी ऐसे ही आए थे। और इस बार का गुरु युग भी ऐसे ही आएगा, क्यूंकि गुरुयुग के आगमन का कोई और मार्ग है ही नहीं।

मैं ऐसा इसलिए बोल रहा हूं, क्योंकि अपने पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं, क्योंकि मैं योगभ्रष्ट हूं, और प्रबुद्ध भी हूं, मैंने इस गुरुयुग को कई बार आते हुए देखा है।

जब भी ये गुरुयुग या वैदिक युग आता है, तो प्रकृति और उसके समस्त तत्व, नाचने लगते हैं, और वो नृत्य भी कई प्रकार से, और बहुत सारे स्थानों पर प्रकट होता ही चला जाता है।

और ऐसे समय का नृत्य भी, रुद्रात्मक ही होता है।

जैसे जैसे ये नृत्य, बढ़ता ही चला जाता है, वैसे वैसे जीव और देव सत्ताएं, जानने भी लगती हैं, कि प्रकृति उनकी या किसी और की बपौती नहीं है।

ऐसे समय पर प्रकृति के तत्त्वों का नृत्य, रुद्रमय होता है, इसीलिए इसी नृत्य से खंड स्वरूप में ही सही, लेकिन कोई ना कोई विप्लव आते ही रहते हैं।

ये विप्लव पृथक पृथक स्थानों पर और पृथक पृथक पृथक स्वरूपों में आते हैं। यही प्राकृतिक नृत्य, जो खंड प्रलय के स्वरूप में आता है, युग स्तंभित होने की प्रक्रिया का एक प्रमुख बिंदु बनता है।

जैसे जैसे ये नृत्य प्रकृति के तत्त्वों में चलता है, वैसे वैसे ही ये नृत्य जीवों के भीतर भी चलता है, क्यूंकि प्रकृति तो जीवों के भीतर भी होती है।

और इसी समय खंड में, यही नृत्य दैविक सत्ताओं में भी चलता है, क्यूंकि प्रकृति ही ब्रह्म शक्ति होती है, जो ब्रह्म की सार्भौम और सर्वव्याप्त दिव्यता भी होती है, जिससे देवताओं के लोक, देवत्व के लोक भी कहलाते हैं।

इस नृत्य के बारे में, उस समय का मानव तो नहीं जान पाएगा, और इस नृत्य के होने का कोई ना कोई मन घडन्त कारण भी बतलाएगा, लेकिन जब गुरुयुग स्थापित हो जायेगा, और जब यह नृत्य समाप्त भी हो जायेगा, तो उस समय का मानव इसके कारण का सही अनुमान लगा ही लेगा।

महाभारत युद्ध के समय पर, अभिमन्यु के जाने के पश्चात, जब मैं एक पक्षी बनके आया था, जो उस युद्ध के समय, नभोमार्ग का दूत था…, तब भी ऐसा ही हुआ था। उस समय पर भी अधिकांश जीवों को तो ये पता ही नहीं था, की अधिकांश जीव सत्ता इस धरा से प्रस्थान करने वाली है।

लेकिन ऐसा तो हर युग के अंत में होता है, और ऐसा तब भी होता है, जब युग स्तंभित किया जाता है, जैसा अभी के कालखंड में भी कलियुग को स्तंभित किया जा रहा है।

उस महाभारत युद्ध के समय पर भी, अधिकांश योद्धा तो बस यही सोचते थे, कि ये युद्ध भूमि के टुकड़ों के लिए हो रहा है। लेकिन, वास्तव में वो युद्ध,  युगांत का ही था।

लेकिन अब हम महाभारत से जान सकते हैं, कि वो महाभारत युगांत का युद्ध था, जिसमे अधिकतर मानव जाती की समाप्ति हुई थी।

इस बार भी ऐसा ही होगा, क्योंकि आज भी मानव चेतना का अधिकांश भाग, गहरी सुसुप्ति में चला गया है। और आज के मानव की चेतना की अधम दशा भी वैसी ही, जैसा महाभारत के समय थी।

और महाभारत के कालखंड से पूर्व, जब मैं थोड़ा विलम्ब से ही सही, लेकिन राम भगवान् के साथ एक वानर रूप में आया था, तब भी मानव चेतना की अधम दशा…, कुछ ऐसी ही थी, जैसी आज है।

प्रकृति के तत्वों के ऐसे ही नृत्य को सभी ग्रन्थ बताते हैं, लेकिन पृथक नामों से, जैसे प्रलय या खंड प्रलय, Armageddon, संधिकाल का विप्लव, फितना, इतियादि ।

यदि मानव जाती ने अपना मार्ग ,कलियुगी तंत्रों से बहार निकाल के, गुरुयुग के तंत्र में नहीं डाला, तो आगामी समय में वो ही विप्लव आ रहा है, जो महाभारत और रामायण के कालों में भी आये थे ।

लेकिन, जैसे आज के विकृत धर्म बतलाते हैं, कि प्रकृति इस या उस देव के अधीन होती है, वो अब कान खोल के सुन लें, प्रकृति किसी भी साकारी या निराकारी सत्ता की बपौती नहीं होती। प्रकृति पूर्ण स्वतंत्र है, उसपर किसी भी साकारी या निराकारी सत्ता या इन सत्ताओं को धारण किये हुए किसी भी माई के लाल का अधिकार नहीं होता।

प्रकृति उसी की होती है, जो धर्म का होता है, जिसकी परिभाषा मनुस्मृति के आठवें अध्याय में बताई गयी है । यदि मेरी इस बात पर विश्वास नहीं होता, तो अपने वैदिक इतिहास के ग्रन्थ ही खोल के देख लो।

अपने इतिहास में ही देख लो, कि अवतार गण भी प्रकृति के ही किसी न किसी बिंदु से जुड़े होते हैं, और जब भी वो मानव रूप में आते हैं, तब वो अवतार गण भी प्रकृति के ही किसी न किसी देवी स्वरूप की उपासना करते हैं।

प्रकृति ही अपने मूल रूप में दुर्गा होती है, जो स्वतंत्र होती है, जो उस सनातन ब्रह्म की सनातन दिव्यता होती है, शक्ति होती है, और ऐसी मूलावस्था में, प्रकृति ही ब्रह्म की सार्वभौम विश्ववपाप्त और विश्वरूपी सत्ता होती है। प्रकृति के सिवा, उस निर्गुण ब्रह्म की कोई और सत्ता है ही नहीं।

दुर्गा शब्द का अर्थ होता है, सार्वभौम, सर्वविजयी, सर्वव्यप्त, अपराजिता ब्रह्म शक्ति। इसलिए, जो दुर्गा या त्रिपुर सुंदरी या परांबा इतियादि देवी सत्ताओं का नहीं होता…, वो ब्रह्म का भी नहीं होता।

इसलिए, आज के ऐसे सब धर्म, जिनमे ये प्रकृति रूपी सार्वभौम मातृशक्ति नहीं है, वो सब के सब,  इस कलियुग स्तंभित प्रक्रिया में पूर्ण नष्ट हो जाएंगे। मेरी ये बात गांठ बांध लो, क्योंकि आने वाली पीडियां, उनके अपने समय पर, ​​इस बात के बारे में, ऐसा ही मानेंगी।

मेरे पूर्व जन्मों के कालों में, अधिकतर वैदिक साधक गण, प्रकृति के तत्त्वों की ही उपासना करते थे, क्योंकि ऐसा करने से, उस तत्व की दैविक सत्ता पर भी उपासना, स्वतः ही हो जाती है।

लेकिन यदि तुम दैविक सत्ताओं को ही मानोगे, तो तत्व पर उपासना स्वतः ही नहीं हो पाएगी। और इस कारणवश,ऐसी उपासना कभी भी उस पूर्ण तत्व, या ब्रह्म को नहीं लेके जाती।

और ऐसी ही अपूर्ण स्थिति में ही रहे हुए, वेद मनीषी बोलते हैं, कि “ब्रह्म को कौन जान पाया है, आत्मा को किसने जाना है”। ऐसे सारे वाकय यही दर्शाते है, की ऐसे वेद मनिषियों ने, प्रकृति के ब्रह्मत्व को नहीं जाना है…, नहीं पाया है।

प्रकृति ही ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, समस्त दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती होती है। इसीलिए, वैदिक वाङ्‌मय में, प्रकृति को ही प्रधान कहा गया है। प्रकृति के सिवा, कोई और प्रधान है ही नहीं।

काल भी अपने अस्त्र स्वरूप में, प्रकृति के सिवा, किसी और की बपौती नहीं है। काल, प्रकृति का ही अस्त्र होता है। इस कालास्त्र को माँ प्रकृति ने कभी भी, किसी को भी, पूर्ण रूप में नहीं दिया…, इसलिए अनादि काल से, ये काल, प्रकृति का ही अस्त्र रहा है।

ब्रह्माण्ड के पूरे इतिहास में, कुछ ही दैविक सत्ताएं, कुछ ही योगी इस अस्त्र के बारे में जानते हैं । और इन जानने जानने वालों में से भी, कुछ ही उस कालास्त्र का प्रयोग करने को, माँ प्रकृति के द्वारा अधिकृत हैं।

और इस पूरे कल्प में, एक ही योगी ऐसा हुआ है, जिसको माँ प्रकृति ने आशीर्वाद दिया है, की तू अपने जीव रूप में ही, मेरा (अर्थात, माँ प्रकृति का) कालास्त्र होगा।

और युग परिवर्तन या युग स्तंभन की प्रक्रिया में, जिस योगी के हृदय में, ये भगवा रुद्र स्वयंप्रकट होता है, वो योगी ही आगे चलके, अपने सगुण साकार मानव रूप में, ब्रह्मांड की दिव्यताओं में, माँ प्रकृति का कालास्त्र कहलाता है। कालचक्र के अस्त्र स्वरूप, कालास्त्र को ही…, सुदर्शन कहते हैं ।

वैसे तो सुदर्शन शब्द, सुसंस्कृत शब्द को भी दर्शाता है, और जहाँ संस्कृति भी माँ प्रकृति की ही होती है।

सुदर्शन शब्द, संस्कृत भाषा को भी दर्शाता है, जो उस सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड की भाषा होती है ।

और सुदर्शन शब्द, प्रकृति सहित 24 तत्त्वों को भी दर्शाता है, और बौद्ध मार्ग में, इसी शब्द के सार्भौम सर्वव्यापत चक्र स्वरुप को, बोधिचित्त कहते हैं ।

सुदर्शन शब्द, पञ्च कृत्य को भी दर्शाता है, और जहाँ मूल रूप से इन पञ्च कृत्यों की मूल शक्ति भी माँ प्रकृति के ही होती हैं, नाकि कोई देव सत्ता । पञ्च देव को ये कृत्य भी माँ प्रकृति ही प्रदान करती हैं।

पञ्च देवता इन पञ्च कृत्यों को केवल धारण करते हैं, लेकिन ये कृत्य उसी ब्रह्म की प्राथमिक अभिव्यक्ति, ब्रह्म की पूर्ण शक्ति, ब्रह्म की सनातन अर्धांगनी, ब्रह्म की प्रमुख दूती, जो इस जीव जगत की जननी, माँ प्रकृति हैं…, उन सर्वमाता जी के ही होते हैं।

और मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी है क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, कुछ ही योगीजन माँ प्रकृति की उपासना करके, इन पञ्च कृत्यों में से किसी एक कृत्य के धारक होते थे ।

और ऐसे चंद योगियों में से, कुछ योगीजन ही, इन पञ्च कृत्यों को जानके और धारण करके, कालास्त्र विद्या को पाते थे।

और ऐसे उत्कृष्ट योगियों में से, कई ब्रह्म वर्षों के किसी एक कल्प में, कोई एक योगी, उसके अपने जीव स्वरूप में ही, माँ प्रकृति के कालास्त्र स्वरूप को पाता था, अर्थात अपने जीव रूप में रहता हुआ भी, अपनी वास्तविकता में वो दुर्लभ योगी, माँ प्रकृति का कालास्त्र ही होता था ।

इसलिए जो योगी इन पञ्च कृत्यों में से किसी भी एक या एक से अधिक कृत्यों के धारक होते हैं, वो माँ प्रकृति की ही उपासना करके.., इन कृत्यों को सिद्ध करते है या पाते हैं।

 

अब और भी आगे बढ़ता हूं…

गुरुयुग के आगमन से कुछ ही समय पूर्व से, वो माँ प्रकृति रजस्वला होती है। इसलिए, ऐसी दशा में, वो प्रकृति के तत्व, कम या अधिक मात्रा में उग्र होकर ही अपना नृत्य प्रारंभ करते हैं। यहाँ बतलाए गए रजस्वला शब्द का अर्थ, रजोगुणी मानना चाहिए।

जब माँ प्रकृति ऐसी होती है, तो देव सत्ताएँ शांत हो जाती है, इसलिए ऐसे समय पर जब युगांत या युग स्तंभित हो रहा होता है, देवता निष्क्रिय से ही हो जाते हैं । जब इस जीव और जगत की परदादी ही आ गई, तो बाकी किसी का क्या काम ।

ये नृत्य, खंडित स्वरूप में होता हुआ भी, सार्वभौम सा ही दिखायी देता है।

ये नृत्य किसी एक स्थान पर, किसी एक दो स्वरूप में, कुछ समय के लिए होगा। और उसके पश्चात यही नृत्य किसी दूसरे स्थान पर, उसी या किसी और स्वरूप में होगा।

और ऐसा होता ही चला जायेगा, जबतक मानव जाति, उस गुरुयुग के तंत्रों को, अपनी जीवन शैली में ही उतार नहीं लेगी।

मानव युगचक्र के तंत्र में, केवल इस गुरुयुग में, प्रकृति इस जीव जगत की प्रधान माना जाता है। और यही कारण है, कि अग्रगमन चक्र में, या मानव युग चक्र में, केवल इस गुरुयुग या आम्नाय युग में, प्रकृति और उसके समस्त तत्वों की साधनाएं, मूलरूप में ही सफल होती है…, जिसके कारण, गुरुयुग में प्रकृति पूजनीय होती हैं।

और क्योंकि प्रकृति, जीवों के भीतर भी होती है, इसलिए, जबकी वो विप्लव खंडित स्वरूप में होता है, लेकिन तब भी ये प्रकृति का नृत्य सर्वभौम सा ही प्रतित होता है, क्यूंकि यह तत्त्वों में होता हुआ भी, जीवों में त्रासदी के स्वरूप में ही दिखाई देता है।

इसलिए, गुरुयुग के आगमन के समय पर, प्राकृतिक प्रलय भी आती रहती है…, लेकिन खंडित रूप में।

और क्योंकि प्रकृति तो जीवों के भीतर भी होती है, इसलिए, वो प्रकृति उन जीवों के भीतर से भी एक विप्लव लाती है, जो भी वैसे ही खंडित स्वरूप में होता है, जैसे उसी लोक में, प्रकृति के तत्वों में भी होता है। और जीवों के भीतर चलते हुए प्राकृतिक नृत्य के कारण, कुछ मानव जनित त्रासदियां भी आती हैं, जैसे कोई बाँध तू जाएगा, या कोई स्थान अधिक भार के कारण धंस जाएगा, या किसी मानव निर्मित धाम या मंदिर से कोई संकट आएगा या कोई युद्धादि त्रासदी ।

यही नृत्य दैविक स्वरूप में भी होता है, जिससे धर्म का मार्ग, ज्ञान और तंत्र ही विकृत हो जाता है, और इसके पश्चात ही दैविक विप्लव आने लगते हैं। इन विप्लव के आगमन के कुछ प्राथमिक संकेत भी, सूर्य चन्द्र ग्रह, राशि नक्षत्रादि की दैविक सत्ताओं से ही आते है ।

 

कलियुग स्तंभित प्रक्रिया …

और अब इस भगवे रुद्र के स्वयंप्रकट होने के अनुसार, इस कलियुग को स्तंभित करने की प्रक्रियाओं को बतलाता हूँ…

किसी योगी के हृदय में, ये भगवा रुद्र 2011.16 इस्वी में स्वयंप्रकट हुआ था। लेकिन पूर्व में ये भी बतलाया था, कि, ये अंक पूरा सही नहीं है।

और क्यूंकि, इस भगवे रुद्र के स्वयंप्रकट होने के 12 वर्षों के भीतर, युग परिवर्तन या युग स्तंभित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, इसलिए, अब इन 12 वर्षों को बतलाता हूँ।

12 वर्ष = 1 वर्ष (आरंभ संधि) + 10 वर्ष (काल का समय) + 1 वर्ष (अंत संधि)

 

गुरुयुग आगमन और प्रारंभिक प्रकटीकरण

गुरुयुग या आम्नाय युग, मानव युगचक्र का अंग होता है, जो पृथ्वी के अग्रगमन चक्र का अंग होता है, इसलिए, गुरुयुग भी पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में ही आता है।

 

अब गुरुयुग की परिभाषा देता हूँ, तो इसपर ध्यान देना …

वो मानव सतयुग जो देव कलियुग को स्तंभित करके, उस देव कलियुग के बीच में आता है, वो गुरुयुग कहलाता है।

 

इस गुरुयुग के नाम का कारण है, की ऐसी क्षमता जो एक चलते हुए युग को, उसके बीच में ही स्तंभित करके, उसके भीतर ही एक और नवीन विशुद्ध युग का उदय कर दे, वो केवल वैदिक वाङ्‌मय और वैदिक सत्ताओं में ही होती है।

और किसी के पास ऐसी क्षमता…, ना ही कभी पूर्व में थी…, और ना ही कभी आगे होगी।

इसके बारे में, भविष्यवाणियां तो कर सकते हैं, लेकिन इस गुरुयुग को लाने की औकात, केवल वैदिक सत्ताओं के पास ही होती है। और इसीलिए, इस युग का नाम भी आम्नाय युग या वैदिक युग या गुरुयुग  या गुरुगद्दी का युग होता है।

इस युग में, समय समय पर, पंच मुखा सदाशिव के किसी एक मुख से, कोई न कोई योगी आता है। इस बात के लिंक भी मैं नीचे डाल रहा हूं…, मन करे तो पढ लेना।

इस भगवे रुद्र के किसी योगी के हृदय में स्वयंप्रकट होने की गणना के अनुसार, जो गुरुयुग आता है, उसके प्राथमिक प्रकटीकरण का जो समय निकलता है, वो अब बता रहा हूं…

इस समय पर कलियुग को स्तंभित करने की प्रक्रिया भी तीव्र होती है …

2011.16 इस्वी + 1 (प्रारम्भिक संधि) + 10 (काल का समय) = 2022.16 इस्वी

अर्थात, 27-28 फरवरी 2022, जो 2022 के फागुन मास में आता है।

 

इसी समय के पास, संजोग से मैं यमुनाजी के तट पर ही साधना कर रहा था।

वो 2022 ईस्वी की 21-22 फरवरी के बीच की रात थी, और रात्रि के कोई साढ़े दस बजे होंगे, की माँ महाकाली अपने निराकार रूप में आ गई, और गरज कर सभी देवी देवताओं को बोली, की, अपने अपने दुर्ग त्यागो और धारा पर लौटो… कलियुग स्तंभित होना है।

और उन्होंने सारे ग्राम देवी देवता को भी बोला, कि अपने अपने स्थानों पर, अपने अपने दुर्ग में लौट जाओ, और अपने स्थानों से ही अपना योगदान दो।

इसके 1-2 दिन के बाद रूस यूक्रेन का युद्ध लगा था ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और इसी तिथि के दिन ही, संस्कारिक जगत, दैविक या कारण जगत और सूक्ष्म जगत का युद्ध जीता गया था ।

ये ऊपर ले लोकों का युद्ध भी 25-26 जनवरी, 2019 ईस्वी से ही प्रारम्भ हुआ था, जब एक वेद मनीषि के एक बहुत पूर्व जन्म के गुरुदेव, जो उस वेद मनीषि के इस जन्म के पिता भी हैं, उनपर आक्रमण किया था…, इन कलियुगी सत्ताओं ने ।

वो आक्रमण तो उस वेद मनीषि पर हुआ था, लेकिन उसके इस जन्म के पिता ने, उनकी और उस वेद मनीषि की अखण्ड गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार, वो आक्रमण अपने ऊपर ले लिए था I

और इसके कोई दो दिनों के पश्चात, जब उस वेद मनीषि को इस बात का पता चला, तो उसने, इस युद्ध को छेड़ा था, वो भी उन माँ प्रकृति को बोलकर, जो ब्रह्म शक्ति होती हैं, और जिनका वो उपासक भी अनादि कालों से रहा है I

और ये युद्ध भी उन सर्व माताजी, माँ प्रकृति से उसके पूर्व जन्मों से प्राप्त, कालादि मूलास्त्रों का प्रयोग करके ही छेड़ा गया था …, क्यूंकि कलियुग में देवताओं के अस्त्र निष्क्रिय हो जाते है, इसलिए कलियुग में इन देवास्त्रों और दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं हो सकता I

और समस्त सूक्ष्म, दैविक और संस्कारिक लोकों में बसी हुई मलेच्छ कलियुगी सत्ताओं से ये युद्ध, 21-22 फरवरी, 2022 ईस्वी को जीत भी लिया था I

जब ऐसा हुआ, तो माँ महाकाली इन स्थूल लोकों के युद्ध का नेतृत्व करने को आई थी, और उन्होंने समस्त वैदिक देवी देवताओं को अपने अपने दुर्ग त्याग के, इस युद्ध में साथ आने को कहा भी था I

और जैसे जैसे ये युद्ध, सूक्ष्म, दैविक या कारण और संस्कारिक जगत की सत्ताओं में चला, वो म्लेच्छ कलियुगी सत्ताएँ नष्ट होती ही चली गई, क्यूंकि मूलास्त्रों का ज्ञान और प्रयोग, वेद मनीषियों के ही अधीन रहा है, और जिसका कारण भी वही है, की केवल वेद मार्ग में ही प्रकृति ब्रह्मपथ होती हैं I

और धीरे धीरे इस युद्ध में उस वेद मनीषि के साथ, जिसके पूर्व जन्म के गुरुदेव और उसके इस जन्म के पिता पर इन कलियुगी मलेच्छ सत्ताओं के द्वारा आक्रमण हुआ था, उसके साथ बहुत सारी सिद्ध, ऋषि और दैविक सत्ताएं भी जुड़ती चली गयी.., उसका इस सर्वलोकी युद्ध में साथ देने हेतु I

और जब 2022 ईस्वी की फरवरी का मॉस आया, तो उन सबने ये युद्ध जीत भी लिअ था, जिसके पश्चात, माँ महाकाली आई थीं, जैसा यहाँ कहा गया है I

क्यूंकि जब वेद मनीषियों और देवताओं द्वारा, समस्त सूक्ष्म, दैविक या कारण और सांस्कारिक जगत में बसी हुई समस्त मलेच्छ सत्ताओं से ये युद्ध जीत लिया गया था, तो बस केवल ये स्थूल जगत ही शेष था I

आज भी इस युद्ध का नेतृत्व माँ महाकाली ही कर रही है, जो बिन्दु शून्य की दिव्यता हैं और जो दस हाथ वाली देवी हैं, अर्थात जिनकी पहुँच दसों दिशाओं में है I आज के समय पर, उस बिन्दु शून्य को ही डार्क मैटर (Dark matter) कहा जाता है I

इसलिए इस समय तक, बस स्थूल जगत की विजय ही शेष थी, क्योंकि बाकी सब सत्ताओं को इस तिथि से पूर्व ही, वैदिक सत्ताओं के द्वारा जीत लिया गया था।

कलियुग में, देवास्त्र या दिव्यास्त्र का प्रयोग नहीं होता। लेकिन और भी तो अस्त्र होते हैं, जो सार्वभौम होते हैं।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

तो अब उस युद्ध के अस्त्रों को सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बतलाता हूँ, जिनसे 2022 की 21-22 फरवरी को, बाकी सभी सत्ताएँ जीती गयी थी।

इस युद्ध में, कुछ ज्ञान ब्रह्म का अस्त्र हुआ, कुछ प्राण ब्रह्म का हुआ, कुछ अहम् ब्रह्म का, और कुछ चित्त ब्रह्म का, कुछ पुरातन वैदिक संस्कार ही अस्त्र हुए, कुछ मुद्राएं भी अस्त्र हुई, कुछ तो पंच कोश ही अस्त्र हुए।

कुछ दशाएँ अस्त्र हुई जब दशास्त्र का प्रयोग हुआ, तो कभी दिशायें ही अस्त्र हुई, जब दिशास्त्र का ही प्रयोग हुआ ।

इस युद्ध में, कुछ कालास्त्र से हुआ, कुछ गुणास्त्र से हुआ, कुछ भूतास्त्र से हुआ, तो कुछ तन्मात्र ही अस्त्र बने, और कुछ न मिला, तो इंद्रियां ही अपने सगुण निराकार स्वरूप में ही अस्त्र हुई थी।

कभी ब्रह्म की रचना का मूल तंत्र ही अस्त्र हुआ, और कभी तो भाव ही एक सार्भौम अस्त्र रूपी अतिसूक्ष्म साधन स्वरुप में प्रकट किया गया ।

कभी तो वैदिक योद्धाओं की योगाग्नि ही ब्रम्ह सरिकी हुई, कभी चिदाग्नि हुई, कभी ज्ञानाग्नि ही हुई थी, और कभी तो करमाग्नि ही हुई । इससे और अधिक मैं बोलना नहीं चाहता, लेकिन कभी तो जठराग्नि और कामाग्नि नामक दिव्यताओं सहित, समस्त अग्नि के स्वरूप भी अस्त्र ही हुए थे।

जो योगी ब्राह्मण क्षत्रिय या क्षत्रिय ब्राह्मण वर्णों का होता है, उसके शरीर के भीतर बसी हुई की दिव्यताएँ ही वो सार्भौम अस्त्र होती हैं, जिनका सूक्ष्म सांकेतिक स्वरूप, यहाँ पर कुछ ही शब्दों में दिया गया है।

ऐसा योगी ब्राह्मण शब्द के ब्राह्मणत्व रूपी तत्त्व से, उन दिव्यताओं को जानता है, और ऐसा होने के पश्चात, वो क्षत्रिय शब्द के मार्ग रूपी भवार्थ से, उस ज्ञान के समस्त बिंदुओं को, अपने अस्त्र स्वरूप में देखता है।

और ऐसा योगी उन अस्त्रों का प्रयोग तो उसके शरीर के भीतर बसे हुए सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड में करता है, लेकिन उन अस्त्रों का प्रभाव समस्त जीव जगत में ही दीखता है, इसलिए ऐसे अस्त्र भी सार्भौम ही होते हैं।

लेकिन इस युद्ध में, प्रकृति का कोई भी नियम उलंघन नहीं हुआ, क्योंकि देवस्त्रों और दिव्यस्त्रों का कोई प्रयोग नहीं हुआ था।

और ऐसे युद्ध में, स्थूल जगत के अस्त्रों की क्या आवश्यकता है, जब युद्ध ही संस्कारिक, दैविक और सूक्ष्म सत्ताओं में हुआ था, जो 25-26 जनवरी 2019 की रात्रि से लेकर, 21-22 फरवरी 2022 की रात्रि तक चला था, और ये युद्ध कभी कभी तो रोक भी दिया गया था, क्यूंकि उस समय पर, उन म्लेच्छ सत्ताओं का अगला लोक मिल ही नहीं रहा था ।

यहाँ म्लेच्छ शब्द का अर्थ, मल इच्छ, ऐसा ही मानना चाहिए, इसलिए …

जिसकी इच्छा शक्ति में ही मल घुस गया हो, वोही म्लेच्छ होता है।

इसलिए, यहाँ कहे गए, मलेच्छ शब्द का, देश, स्थान, पंथ, ग्रन्थ, तंत्र और ग्रन्थ, तंत्र और मार्गादि शब्दों से कोई भी लेना देना नहीं है। यह मलेच्छ शब्द, केवल इच्छा शक्ति की विकृति को दर्शाता है। और मल शब्द की परिभाषा भी वैदिक वाङ्‌मय के अनुसार ही निकाली जाती है ।

रावण अदि असुर वैदिक होते हुए भी तो मलेच्छ ही थे, इसलिए इस मलेच्छ शब्द का अर्थ, अवैदिक भी होता है…, और नहीं भी होता है ।

इस भरत खंड के इतिहास में भी कई असुर जन्मे हैं, इसलिए इस मलेच्छ शब्द का देश या स्थान से भी कुछ लेना देना नहीं है।

ये म्लेच्छ शब्द केवल इच्छा शक्ति की विकृति का वाचक है।

 

तो अब ध्यान से सुनो, क्योंकि यहां मैं कुछ संकेतों में भी बता रहा हूं…

संस्कारिक सत्ता परदादाजी होती है, दैविक सत्ता दादाजी होती है, सूक्ष्म सत्ता पापाजी होती है, और स्थूल सत्ता नन्हा-मुन्ना बेटाजी होती है।

जब परदादाजी, दादाजी और पापाजी, तीनो को जीत लिया, तब बेटाजी तो पागल होगा ही ना । इसीलिए, इसी समय पर, स्थूल जगत में युद्ध चल पड़ा था।

अब आगे बढ़ता हूँ …

अब अगले कालखंड की बात करते हैं, जो इस युद्ध का, प्रकृति और मानव, दोनों में आगे जाने का है, और जो इसी बतलाई जा रही बिंदु का दूसरा भाग है…

12 वर्ष = 1 वर्ष (आरंभ संधि) + 10 वर्ष (काल का समय) + 1 वर्ष (अंत संधि)

इसके अनुसार, 12 वर्ष बन जाते हैं …

2011.16 + 12 = 2023.16 इसवी

इस समय के पास, ये युद्ध और आगे बढ़ेगा और धीरे धीरे ये प्रकृति और मानव, दोनों में ही दिखने लगेगा।

और इस काल खंड के बाद से, धीरे धीरे कलियुग, थोड़ा थोड़ा लंगड़ा के चलने लगेगा, क्यूंकि उसके पैर में ही पीड़ा आ जाएगी।

और इस काल खंड के बाद से, उस भगवे रुद्र के धारक का, जो अगले युग का बीज और संस्थापक भी है, उसका थोड़ा थोड़ा प्रकाश होने लगेगा  और ये आभास, कुछ वेद मनीषियों को, जो दिव्य दृष्टि के धारक होंगे, उनको होने लगेगा । इस समय से पूर्व, ऐसे वेद मनीषियों को, इस बिंदु पर जो भी सूक्ष्म आभास हुए होंगे, वो पूर्णतः सत्य नहीं हुए होंगे ।

 

और अब कलियुग स्तंभित होने का समय बताता हूँ …

10% (आरंभ संधि) + 100% (काल का समय) + 10% (अंत संधि)

 

इसके लिए, वो पूर्व के 12 वर्ष ऐसे बताएं जा सकते हैं…

1.2 वर्ष (आरंभ संधि) + 12 वर्ष (काल समय) + 1.2 वर्ष (अंत संधि) = 14.4 वर्ष

इसलिए, इसका कालखंड, 14.4 वर्ष का हो जाएगा। लेकिन इस बिंदु को दो भाग में बताता हूँ।

 

इसका पहला गणित… कलियुग को स्तंभित करने का समय

2011.16 इस्वी + 1.2 (आरंभ संधि) + 12 (काल का समय) = 2024.36 इस्वी,

जो 2024 इस्वी में 10-11 मई को दर्शता है।

इस समय से एक वैदिक मानव वर्ष के भीतर, अर्थात 360 दिवस के भीतर, कलियुग अपने अंत की ओर चला जाएगा…, क्योंकि कुछ ऐसा होने वाला है, जिसे मैं बताना नहीं चाहता हूं।

 

और अब इसका दूसरा गणित… कलियुग को स्तंभित करने का समय

2011.16 + 1.2 (आरंभसंधि) + 12 (काल समय) + 1.2 (अंतसंधि) = 2025.56 इस्वी,

जो 2025 में, 23-24 जुलाई को दर्शता है।

इस समय तक, अभी का कलियुग और उसके सारे तंत्र, विधर्म अधर्म इत्यादि, पूरे लंगड़े होने वाले होंगे।

और इस समय के समीप उस आगामी गुरुयुग के संस्थापक का प्रकाश भी थोड़ा और बड़ जायेगा।

इस समय के आगे,कलियुग को अपने को चलित रखना भी बहुत कठिन लग रहा होगा ।

और ऐसे ही समय पर, कुछ ही वर्षों में गुरुयुग का प्रारंभिक आगमन निश्चित हो जाएगा।

अब तक की गणना वैदिक इकाइयों पर की गयी है।

 

अब इसके दुसरे प्रकार का गणित, जो आज की समय इकाई पर है

लेकिन मैं इसको थोड़ा ही बताऊंगा।

पूर्व में बताया गया 12 अंक, आज की समय इकाई में ऐसा हो जाएगा

(12 /66.6666667) x 71.6 = 12.88 वर्ष।

ये समय इकाई निकालने की प्रक्रिया के कुछ लिंक, मैं नीचे दे रहा हूं…, मन करे तो पढ़ लेना।

 

तो अब, इन 12.88 वर्षो को लेते हैं…

12.88 = 1.073 (आरंभ संधि) + 10.73 (काल का समय) + 1.073 (अंत संधि)

 

तो इसके अनुसार …

2011.16 + 1.07 (आरंभ संधि) + 10.73 (काल का समय) = 2022.963 इस्वी,

जो 17-18 दिसंबर 2022 को दर्शता है।

इस समय तक, कलियुग को स्तंभित करने की प्रक्रिया तूल पकड़ लेगी, जिससे इस समय तक, कलियुग को लंगड़ा करने की प्रक्रिया चल पड़ेगी।

माँ प्रकृति ही अर्थ नामक पुरुषार्थ होती हैं, और वो अर्थ केवल धन संपदा तक ही सीमित नहीं होता है। पुरुषार्थ के मार्ग में, और बहुत कुछ अर्थ का अंग होता है ।

लेकिन जैसा पूर्व में कहा था, की कलियुग में केवल अर्थ पुरुषार्थ ही होता है, और कोई पुरुषार्थ नहीं । इसलिए जब अर्थ ही विकृत होने लगेगा, तो जान लेना, की जो यहाँ बताया गया है, वो हो रहा है ।

लेकिन इस समय पर, भारत का अर्थ बाकी सभी देशों की तुलना में, बढ़िया होगा,  क्यूंकि भारत के राजनैतिक शिखर पर, युग पूरक बैठा हुआ होगा ।

और इस समय के पश्चात, जो भारत के प्रत्यक्ष और गुप्त शत्रु हैं, उनके देशों में माँ प्रकृति ही, ऐसे ऐसे विप्लव लाएंगी, जिससे उनके भारत पर आक्रमण से पूर्व के समय में ही, वो पुरुषार्थ शुन्य होने लगेंगे, ताकि जब वो भारत पर आक्रमण करने को आएं, तब तक उनकी पुरुषार्थ के दृष्टिकोण से, दुर्दशा हो चुकी होगी । ये म्लेच्छों की मति भ्रष्ट का भी समय खंड है ।

कुछ वर्ष पूर्व, एक साधना में, उन्हीं माँ मूल प्रकृति ने कहा था, कि इस समय तक और इसके थोड़े बाद के काल में, पृथ्वी लोक की बहुत सारी सरकारें घुटने टेकने लगेंगी, और ये सभी सरकारें उनकी होंगी, जो भारत विरोधी हैं।

और चाहे वो विरोधी प्रत्यक्ष हों, या अप्रत्यक्ष, वो घुटने आवश्यक टेकेंगे। इसलिए, इस बिंदु के अनुसार, तुम जान जाओगे, कि कौन वास्तविक विरोधी है और कौन नहीं।

लेकिन वैदिक कालचक्र विज्ञान के अनुसार, जिसका ज्ञान अब लुप्त हो चुका है, ये समय 2022.9375 इस्वी का है, जो 22-23 दिसंबर, 2022 ईस्वी को दर्शता है।

और क्योंकि इस समय पर, भारत के सरवोच पद पर, इस कलियुग का पूरक ही श्वेत दाढ़ी वाला बाबाजी के रूप में बैठा होगा, इसलिए, इस बतलाए गए समय पर, पुरुषार्थ के अनुसार, अर्थ में भारत सबकी तुलना में ठीक ठाक होगा।

लेकिन इसका ये अर्थ भी नहीं है, की भारत उस विप्लव से पूर्ण सुरक्षित ही रहेगा जो इस समय से कुछ ही समय पश्चात, इस विश्व में आने वाला है। उस युग पूरक का लिंक मैं नीचे डाल रहा हूं। जिसको भी उससे जानना है …, वो उस लिंक को से पढ़ ले।

और क्योंकि कलियुग में, पुरुषार्थ चतुष्टय में, केवल अर्थ ही पुरुषार्थ होता है, तो इसी समय खंड के समीप, अर्थ नामक पुरुषार्थ के अनुसार, भारत के शत्रुओं का पुरुषार्थ नाश भी होगा, ताकी जबतक वो भारत पर, उस आगामी काल खंड में, युद्धों के लिए आएंगे, तबतक वो पुरुषार्थ के अनुसार, बहुत त्रस्त हो चुके होंगे।

इसके बाद ही भारत उठाएगा, और फिर बैठेगा, और फिर से उठेगा, और फिर बैठ के जब उठेगा, तो उसके बाद इस भूलोक में, उस गुरुयुग में, भारत कभी बैठेगा नहीं, क्योंकि इस दशा तक, धर्म पुरुषार्थ के अनुसार, उसका स्वच्छता अभियान पूर्ण हो चुका होगा, और काम पुरुषार्थ के अनुसार, भारत निष्काम हो चुका होगा, जिसके कारण, वो पूर्व का विधर्मी और अधर्मी भारत,  धर्म पुरुषार्थ और मोक्ष पुरुषार्थ, दोनों का पथगामी हो चुका होगा।

और ऐसी अवस्था में ही भारत गुरुयुग में जाएगा…, अन्यथा नहीं। और वो उस आगामी समय का भारत जान चुका होगा, कि, अब उसका कलियुग से मुक्ति का समय आ गया है।

इसके बाद, उस आगामी गुरुयुग के अंत तक, उस भारत में कभी भी, कोई भी विप्लव, अपने खंड रूप में भी नहीं आएगा।

और यदि कोई प्रलय स्वरूप आया भी, तो वो प्रलय किसी साधक के भीतर, उसके साधक के ही आत्यंतिक प्रलय स्वरूप में ही आएगी…, अर्थात उस आगामी गुरुयुग में, वो प्रलय जिस भी साधक की काया के भीतर आएगी, उस साधक के कैवल्य मुक्ति  के अंतिम मार्ग रूप में ही आएगी ।

 

अब जो सांकेतिक बोल रहा हूँ, उसपर ध्यान दो …

लेकिन इस उठने बैठने की प्रक्रिया में, जो इस भूमंडल पर भारत में भी चलेगी, भारत ढाई अक्षर का ही होकर, इस चतुरदश भुवन के अंक से युद्ध लड़ेगा ।

इसका अर्थ यह भी हुआ, की उस कलियुग के अंतिम युद्ध में, जो भारत में ही लड़ा जाएगा, भारत ब्रह्म भावपन होकर, “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” के वाक्य में बसकर ही युद्ध लड़ेगा ।

और इस सवस्था में लड़े गए युद्ध में, भारत विजयश्री को ही पाएगा ।

तो अब मैं जगत शब्द को परिभाषतीत करता हूँ, नहीं तो इस वैदिक वाक्य को समझना कठिन हो जाएगा …

जगत शब्द, दो शब्दों से बना है…, जो ऐसे हैं …

  • प्रथम शब्द जा होता है … जिसका अर्थ अज से विपरीत होता है। अज नामक शब्द का अर्थ अजनमा होता है, इसलिए जा शब्द का अर्थ, वो जिसने जन्म लिया है…, ऐसा होता है।
  • दुसरे शब्द गतहोता है … जिसका अर्थ है, वो जो गतिशील, परिवर्तनशील है, तारतम्य में स्थित है…, ऐसा होता है।
  • इसलिए जगत शब्द का अर्थ होता है, वो जिसने जन्म लिया है, और गतिशील परिवर्तनशील है

और इस कलियुग के अंतिम युद्ध के दृष्टिकोण से, वो युद्ध, ब्रह्म भावापन होके…, वो जो कुछ हजार वर्षों में आया, उससे लड़ा जाएगा ।

इसमें ये भाव होगा, की बस कर्म करो, क्यूंकि अब उस सत्य स्वरुप ब्रह्म को जाने का मार्ग मिल गया है, और जहाँ वो मार्ग भी धर्म योद्धा होकर ही जा रहा है।

इसमें योद्धा उस परिवर्तन रहित ब्रह्म का होता है, जो उस योद्धा का सनातन आत्मस्वरूप ही होता है, और जिसकी अभिव्यक्ति को ही ढाई अक्षर कहते हैं ।

इसलिए ऐसे युद्ध में, वैदिक वाङ्‌मय के सनातन स्वरुप का होकर, अर्थात आत्मा रूपी ब्रह्म का होकर, रहा जाता है, जिससे योद्धा के अत्मबल का क्षय नहीं होता ।

और ऐसे योद्धा का ना तो वध होता है, न ही वो किसी का वध करता है।

ऐसे युद्ध में योद्धा शत्रु का वध नहीं करता…, उस शत्रु को उसकी विकृत योनि से ही मुक्त करता है, ताकि उस शत्रु को, एक और मौका मिल सके, सद्गति के मार्ग पर जाने का ।

इस बारे में, इससे आगे नहीं बताऊंगा।

 

तो अब ये बात मैंने सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बता दी है।

 

कलियुग में ही गुरुयुग के नीव…

पहले ऐसा बताया गया था…

10% (आरंभ संधि) + 100% (काल का समय) + 10% (अंत संधि)

 

तो अब कलियुग में ही, गुरुयुग की नीव डालने का समय बतलाता हूँ …

1.288 (आरंभ संधि) + 12.88 (काल का समय) + 12.88 (अंत संधि) = 15.456 वर्ष

 

तो इस गणना के अनुसार जो समय निकलता है, वो ऐसा है …

2011.16 + 15.456 = 2026.62 इस्वी

अर्थात, 2026 ईस्वी, 14-15 अगस्त

तो ये गणना 2026 के भारतीय स्वतंत्रता दिवस के समीप लेके जाती है।

इस समय पर और इससे थोड़ा सा आगे, काल प्रेरणा के अनुसार, जो होना है, उसमें इस पृथ्वीलोक में ही धर्म साम्राज्य की नीव डाली जानी है, … और वो भी भारत में।

लेकिन कालचक्र के विज्ञान के अनुसार, ये नीव 2028.74 इस्वी, अर्थात 27-28 सितंबर 2028, से 2.7 वर्ष तक ही डाली जानी है।

इसका अर्थ हुआ, कि ये धर्म साम्राज्य की नींव 2026.04 से लेकर 2031.44 इस्वी तक डाल दी जाएगी। अर्थात, 04-05 जनवरी 2026 इस्वी से लेकर, 2031 इस्वी, 13-14 मई तक उस धर्म साम्राज्य की नीव डाली जानी है, … और वो भी भारत में।

और क्योंकि रुद्र ही इस परिवर्तन का कारण बना है, इसलिए, इस बताई गई समय सीमा के अंत से पूर्व ही, वो सब कुछ हो जाना है, जिससे कारण, उस गुरुयुग की नीव बैठाने के सिवा, भारत वासियों के पास, और कोई विकल्प बचेगा ही नहीं।

 

अब ध्यान से सुनो…

ये कालखंड जिसके बारे में यहाँ पर बात हो रही है, और जो 2011 इस्वी के फागुन मास से प्रारंभ हुआ था, उसका अपने गंतव्य में फलित होने का समय भी, 2026 इस्वी के श्रवण मास के पश्चात ही आएगा।

और इसके बाद आगामी युग की नीव डालने का कार्यक्रम प्रारंभ होगा, जो 2031 इस्वी के मई के समीप पूर्ण भी होना है।

इस युग स्तंभित प्रक्रिया का विश्वव्यापी अवस्था में चलित होने का कालखंड भी, 2026 इस्वी के बाद से दिखने लगेगा।

लेकिन इस बात पर ध्यान देने की, उस गुरुयुग का पूर्ण प्रकाश 2082 इस्वी के अश्विन मास से 27 और 2.7 वर्षों के भीतर, कभी भी हो सकता है, लेकिन इससे पूर्व हो नहीं पायेगा।

ऐसा इस पृथ्वी के अग्रगमन चक्र के अंश, मानव युग चक्र में दिखाता है।

मैं इस बात पर आधारित दो लिंक नीचे डाल रहा हूं, जिनमे से एक लिंक श्रीकृष्ण और मां गंगा संवाद का है, और दूसरा माया सभ्यता की काल गणना का है।

 

माया सभ्यता और सनातन वैदिक वाङ्‌मय

लेकिन माया सभ्यता के लिंक की क्या आवश्यकता है, तो चलो अब इसको बताता हूं…

माया सभ्यता की काल गणना का लिंक इसलिए दिया है, क्योंकि मैं ही वो मैं दानव था, जिसने ये सभ्यता स्थपित की थी, जब मुझे उस समय के भारत खंड से, देश निकाला दिया गया था, क्योंकि मैं उस समय के सम्राट और उसके रचित प्रपंचों के लिए खतरा बन गया था ।

जब ताल में रहकर, उस ताल के प्रमुख मगर से ही बैर लोगे, तब कुछ अनिष्ट तो होगा ही। उस जन्म में, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था।

दानव शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, एक विराट सत्ता को धारण किया हुआ मनिशी, और उस सत्ता का ऐसा अधिकारी, जिसने उस विराट सत्ता को अपने भीतर बसा भी लिया है।

इसलिए, ये दानव शब्द, उपाधिकारक होता है, नाकी कोई जाति या किसी और भेद का द्योतक । आज के भारत में भी, कई दानव सभ्यताओं के अंश मिलते हैं।

उस समय का सम्राट और उसके कुछ चमचे, कुछ ब्राह्मण, कुछ क्षत्रिय और कुछ वैश्य, प्रपंच रचते, और मैं उन प्रपंचों को काटता था ।

लेकिन क्योंकि, उस समय के कुछ वैदिक ऋषि और सिद्ध सत्ताएं, मेरे साथ थी, इसीलिए, मुझे मृत्युदंड तो नहीं मिला था…, बस देश निकाला दे दिया गया था । पर उस समय की न्यायप्रणाली के अनुसार, मिलना तो मुझे मृत्युदंड ही था ।

वो मैं दानव, महामाया सिद्ध था, इसलिए उसे माया दानव, ऐसा नाम भी दिया गया था । इस माया सिद्धि के बारे में किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा ।

माँ महामाया का निराकार लोक, ब्रह्मलोक के सन्निकट है, ब्रह्मलोक से ही लगा हुआ ही है।

वो महामाया, ब्रह्मलोक के 20 लोकों को एक दूसरे से पृथक करके भी रखती हैं । इसलिए, यदि कोई भी योगी ब्रह्मलोक जाएगा, तो वो योगी ऐसा ही देखेंगा ।

वो महामाया ही साधक के पिंड में, व्यान प्राण के स्वरूप में अभिव्यक्त हुई हैं। व्यान प्राण की सिद्धि, साधक को सर्वदशा दर्शी बना देती है, इसलिए जो भी साधक माया सिद्ध होता है, वो जब चाहे जान सकता है, कि इस समस्त चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्मण्ड के किस लोक में, क्या चल रहा है।

और ऐसा साधक को एक हल्का गुलाबी रंग का सिद्ध शरीर भी प्राप्त होता है। और देहवासन के पश्चात, ऐसा साधक, इसी अव्यक्त के सिद्ध शरीर में ही निवास करता है ।

लेकिन यदि उस साधक ने, उसकी साधनाओं में, उसकी जीवित अवस्था में ही ब्रह्मलोक का साक्षातकार कर लिया है, तो ऐसा साधक उसके देहवासन के पश्चात, ब्रह्मलोक न जाके, शून्य अनंत या शून्य ब्रह्म में ही निवास करता है ।

इसी  शून्य अनंत या शून्य ब्रह्म ने ब्रह्मलोक के सारे के सारे 20 लोकों और महामाया को, उनके बाहर से ही घेरा हुआ है। लेकिन उस महामाया के लोक और ब्रह्मलोक के बारे में, कभी और बात करूंगा, नहीं तो ये अध्याय बहुत लंबा हो जाएगा।

लेकिन, उस मैं दानव के बारे में, आज के ग्रंथों में, ऐसा लिखा हुआ नहीं मिलेगा, क्योंकि इतिहास तो वो ही लिखता है ना…, जो बचता है…. जो बचा ही नहीं, वो कैसे लिखेगा।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

भारत खण्ड से देश निकाला के बाद, मैं भारत से बिलकुल उलटी ओर, पाताल पुरी गया था, जो आज का उत्तर और दक्षिण अमेरिका कहलाता है।

और उसी पाताल पुरी में, मैंने सात सभ्यताएं स्थपित की थी, जिनमे से आज की एक सभ्यता, मेरेउस जन्म की माया सिद्धि रूपी उपाधी के नाम पर ही, माया सभ्यता कहलाती है।

और वो सभी सभ्यताएं जो मैंने स्थपित की थी, वो उनके अपने मूल से आज भी वैदिक ही मिलेंगी।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन उन सात सभ्यताओं में, प्रजापति, अर्थात, पितामह ब्रह्म ही देवता के रूप में ख्यापित किए गए थे।

मैंने यहाँ पर, प्रजापति के लिए,  ख्यापित शब्द बोला है, नाकि स्थापित

और ऐसा कहने का कारण है, की रचना अपने ही रचैता को कभी भी स्थापित नहीं कर सकती… केवल ख्यापित ही कर सकती है।

और एक बात पर ध्यान देना, की रचना द्वारा उसके रचैता को ख्यापित करने की प्रक्रिया भी, उस रचैता के सार्भौम स्वरूप में ही होती है…, नाकि अन्य किसी स्वरूप में ।

यदि आज की कलियुगी भाषा में बोलूँ, तो यह बोल सकता हूँ की, रचना की कोई भी औकात नहीं है, कि वो अपने ही रचैता को स्थापित कर ले ।

इस कारण, रचैता उसकी अपनी रचने में, ख्यापित ही हो सकता है, … स्थापित नहीं।

और वैदिक वाङ्‌मय के अनुसार, उन प्रजापति को वहां पर, उन सभ्यताओं की ही भाषा में, पितामह शब्द से संबोधित किया गया था । आज भी, वो सात सभ्यताएं, उसी रचैता को ही मानती हैं, जो वैदिक देवी देवताओं में पितामह, प्रजापति कहलाते हैं।

और इसीलिए, यदि कोई उन सभ्यताओं का अध्यन्न, ध्यान पूर्वक और उनके मार्गों के मूल से करेगा, तो उन सभी सात पाताल पुरी की सभ्यताओं के आज के मत भी, प्रजापति सूक्त, ब्रह्म सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, आदि प्रजापति के सूक्तों के अनुसार ही मिलेंगे ।

यदि मेरी इन बातों पर विश्वास नहीं होता ना, तो स्वयं ही जाकार उन सातों सभ्यताओं का अध्यन्न कर लो, और उस अध्यन्न में उन सभ्यताओं के मूल बिंदु को स्वयं ही ढूंढ लो।

मैं इस जन्म में भी, उन उत्तर और दक्षिण अमेरिका की सात सभ्यताओं में से, चार को तो देख ही आया हूं। उन चार में से, एक चिली नामक देश में है, एक आज के पेरू नामक देश में है, और 2 उत्तर अमेरिका में हैं।

लेकिन, जब मैं वो मैं दानव था, तो वो समय भी आज के समान, गुरुयुग के प्रकाशित होने को ही था।

लेकिन उस समय का गुरुयुग, पातळ पूरी, अर्थात, आज के उत्तर और दक्षिण अमेरिका से प्रकाशित हुआ था, नाकी उस समय के भारत खंड से।

और इसी उत्तर और दक्षिण अमेरिका से प्रकाशित होकर, वो गुरुयुग का तंत्र, विश्वव्याप्त हुआ था।

इसीलिए, उस समय, उत्तर और दक्षिण अमरीका की वो सात मूल सभ्यताओं का समूह ही, इस धरा पर गुरुरूप में ख्यापित हुआ था, नाकि उस समय का भारत खण्ड जहाँ से मुझे देश निकाला दिया गया था, अर्थात, उस समय के भारत सम्राट और उसके कुछ अंध भक्तों, चमचों के द्वारा, मुझे उस समय के भारत खंड से ही तड़ीपार किया गया था ।

लेकिन ऐसा करने के पश्चात भी, इस धरा पर गुरु युग आ ही गया था, जिसके लिए मैं उस समय खंड में भी, इस पृथ्वी लोक में भेजा गया था ।

आज की उस वैदिक पातळ पूरी में गणेश भगवान ने अवतरण कर लिया है, और इसलिए, आगामी समय में इस संपूर्ण धरा पर, उसी पातळ पूरी से ही अनुग्रह कृत्य का श्रीगणेश और प्रकाशन भी होगा ।

लेकिन क्यूंकि आज की पातळ पूरी के मानव, ऐसा होने ही नहीं देंगे और गणेश अवतार के कार्यों में बाधा डालेंगे, इसलिए, अनुग्रह कृत्य के प्रकाशन से पूर्व, समस्त पातळ पूरी, बहुत बड़ी बड़ी त्रासदियां में भी जाएगी ।

और उसी आगामी समयखंड में, वैसा ही कुछ इस भूलोक के बाकी खण्डों में भी होगा…, ताकि गणेश कृत्य, अर्थात अनुग्रह कृत्या का जब इस लोक में प्रकाशन हो, तब की मानव जाती उसको बिना बकबक किए हुए ग्रहण करे ।

मैं 170 से भी अधिक देशों में घूमने के पश्चात, ये स्पष्ट जानता हूँ, की जबतक आज की कलियुगी मानव जाती अच्छी प्रकार से ठुकेगी नहीं, तबतक वो अपने अभी के कचरे तंत्र और भावों को त्यागेगी भी नहीं…, और ऐसी अवस्था में, मानव जाती अगले गुरुयुग में जाने वाला भी नहीं है ।

इसलिए, अब की मानव जाती के लिए, ठुकाई बहुत आवश्यक है, ताकि उनमें से कम से कम 5 प्रतिशत तो अगले युग में जाने को तैयार हो सकें।

और एक बात, आज भी उस लोक के वास्तविक वैदिक सम्राट, राजा बलि ही हैं।

 

गुरुयुग क्या है?

 

पृथ्वी के अग्रगमन चक्र पर बनाया गया मानव युगचक्र
पृथ्वी के अग्रगमन चक्र पर बनाया गया मानव युगचक्र, कलियुग स्तंभन, गुरुयुग आगमन, चक्र चतुष्टय विज्ञान

 

इसपर थोड़ा ध्यान देना, क्योंकि ये विज्ञान अब पूर्ण लुप्त हो चुका है।

अब इस गुरुयुग के कुछ और बिंदुओं को बतलाता हूँ …

देवताओं के कलियुग के भीतर ही, जब पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में, मानव सतयुग आता है, तो उस मानव सतयुग को ही गुरुयुग कहते हैं।

उस गुरुयुग की आयु कोई 10,000 वर्ष की होती है।

यही गुरुयुग या आम्नाय युग या गुरुगद्दी का युग भी कहलाता है।

और आज के परिपेक्ष्य में, गुरु गद्दी शब्द के अर्थ को, पीठ चतुष्टय ही मानना ​​चाहिए, वेद चतुष्टय की गद्दी ही मानना ​​चाहिए। इसलिए ये गुरुयुग, वैदिक युग होता है।

इस युग का मूल मार्ग, बहुवादी अद्वैत का होता है।

यहाँ कहे गए बहुवादी अद्वैत शब्द का अर्थ होता है, कि सभी मार्ग उसी अद्वैत ब्रह्म को जाते हैं।

कोई मार्ग इधर से जाता है, कोई उधर से जाता है, तो कोई कहीं और से जाता है, लेकिन अंत में, सब उसी अद्वैत को ही पाते हैं, क्योंकि अद्वैत के सिवा और कोई गंतव्य है भी तो नहीं।

इस बहुवादी अद्वैत शब्द में, बहुवादी शब्द माँ प्रकृति का वाचक है, और अद्वैत शब्द, ब्रह्म का द्योतक है। इसलिए यह बहुवादी अद्वैत का शब्द भी, उसी सनातन आर्य वैदिक परंपरा को ही दर्शाता है।

इस बहुवादी अद्वैत शब्द में, माँ प्रकृति का बहुवाद, मूल होता है, और ब्रह्म का अद्वैत, गंतव्य होता है। इसके मूल में योग होता है और गंतव्य में ज्ञान होता है। यहाँ कहे गए ज्ञान शब्द का अर्थ, वेदज्ञान या आत्मज्ञान ही मानना चाहिए।

इस बहुवादी अद्वैत के, न तो मूल का कोई मूल होता है, न ही इसके गंतव्य का कोई गंतव्य ही होता है, इसलिए, इसका मार्ग भी आर्यमार्ग ही कहलाता है।

यहाँ कहे गए आर्य शब्द का अर्थ, वेद, आत्मा और श्रेष्ठम ही मानना चाहिए।

उस आगामी गुरुयुग के सम्राट और गुरु, दोनों ही श्रीमन नारायण होते हैं। और क्योंकि, आम्नाय चतुष्टय, श्रीमन नारायण की ही गद्दीयां है, इसलिए ये गुरुयुग, आम्नाय युग या वैदिक युग कहलाता है, और इस युग को नारायण युग भी कहा जा सकता है।

उस आगामी गुरुयुग में, कोई ऐसा सम्राट या गुरु होता ही नहीं, जो गुरु गद्दी का शिष्य नहीं होता है। इसलिए, इस गुरुयुग में, सम्राट चाहे कोई भी हो…, लेकिन राज तो गुरु गद्दी ही करती है।

उस आगामी गुरुयुग में, कोई भी विकृत अर्थ नहीं होता, जैसे योग का व्यापार और वेद का व्यापार, और आज के सामान, उस गुरुयुग में, प्रकृति भक्षण भी अर्थ का अंग नहीं होता ।

इसलिए, इस गुरुयुग में, न योग बिकेगा ना ही ज्ञान, ना ही प्रकृति के बिंदुओं का भक्षण ही अर्थतन्त्र का अंग होगा ।

उस गुरुयुग में, बनिया गुरु नहीं होता, और गुरु बनिया नहीं होता। इसलिए, आगामी कुछ ही वर्षों में, पूरी शिक्षा प्रणाली बदलने वाली है।

उस गुरु युग में, योगी भी बनिया नहीं होता और न ही बनिया योगी रूप में प्रतिष्ठित होता है। और उस गुरु युग में, जो साधक एक ही स्थान पर बैठ कर, उस विश्व में खेलना नहीं जानता जो उस साधक के पिण्ड रूपी काया के भीतर ही होता है, वो साधक, योगी भी नहीं कहलाता है। इसलिए कुछ ही वर्षों में, योगतंत्र के मार्ग भी बदलने वाले हैं।

उस आगामी गुरुयुग में, सेवातंत्र, व्यापार के अंतरगत नहीं होता, और सुरक्षा भी व्यापार में नहीं होती । इसलिए, कुछ ही वर्षों में, ये दोनों बदलने वाले हैं।

उस आगामी गुरुयुग में, वैदिक राजतंत्र होता है, इसलिए कुछ ही वर्षों में, इस धरा पर जो आज का प्रजातंत्र और वैकल्पिक राजतंत्र हैं, वो सब बदलने वाले हैं।

वैसा एक पूर्व जन्म में, मैं ही वो आकाश महाभूत के नाम वाला चक्रवर्ती था, जिसने इस धरा को वैदिक राजतंत्र दिया था । आज के परिपेक्ष्य में, वो ही वैदिक राजतंत्र, अब से कुछ ही वर्षो में लौटने वाला है।

 

अब ध्यान देना …

जब राजतंत्र विकृत होता है, तब धर्म भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाता।

जब ऐसा होता है, तो धर्म ही विनाश का कारक बन जाता है, और उस विनाश की प्रक्रिया के पश्चात भी, धर्म ही एकमात्र प्रकाशित होता है । ऐसा मैं अपने कई पूर्व जन्मों के ज्ञान से ही बोल रहा हूँ, नाकि किसी मन घड़ंत पुस्तक के ज्ञान से।

जब धर्म विकृत होता है, तो बाकी सभी उत्कर्ष के बिंदु, विकृत हुए बिना नहीं रह पाते हैं। इसलिए, जबतक राजतंत्र, राज धर्म के बिंदुओं में होता हैं, तबतक बाकी सभी उत्कर्ष के बिंदु भी सुरक्षित रहते हैं।

लेकिन जब राज धर्म के स्थान पर, राज अधर्म या राज विधर्म आता है, जैसा इस धरा पर आज के समय में है, तो मानव जाति को समझना चाहिए, कि तीन प्रकार के ताप और उनकी तीन प्रकार की त्रासदियां, बस आने ही वाली हैं । ऐसी विकृति का मूल कारण भी धर्मनिरपेक्ष और धर्मविहीन महायंत्र ही होते है।

उस आगामी गुरुयुग में, कृषि गोरक्ष में ही वाणिज्य का मूल बिंदु होता है, इसलिए, कुछ ही वर्षों में, ये आर्थिक परिवर्तन भी होगा।

गोरक्ष शब्द को, प्रकृति से जुड़ा हुआ ही मानना ​​चाहिए, क्योंकि अपने ही मातृ शक्ति, जगत जननी स्वरूप में, समस्त प्रकृति ही जीवों की गौ माता होती हैं, जिनसे समस्त गव्य उत्पन्न होते हैं, जो जीवों के और उन जीवों के उत्कर्ष मार्गगमन क्षमता के भी पोषक होते हैं।

इसीलिए, उस आगामी गुरुयुग में, मानव जाति प्रकृति भक्षी या गौ भाक्षी भी नहीं होगी । कोई ऐसा मार्ग होगा ही नहीं, जिसमे ये या ऐसे कोई विकृत बिंदु मिलेंगे ।

वैसे एक पूर्व जन्म में, में ही वो पृथ्वी महाभूत के नाम वाला चक्रवर्ती था, जिसने इस धरा को कृषि गोरक्षा दिया था । पर उस कृषि गोरक्ष को, आज की मानव जाति ने, पूर्ण विकृत कर दिया है, जिसके कारण, आज की मानव जाति की, उत्कर्ष मार्ग पर जाने की क्षमता ही समाप्त हो गई है।

और यही कारण है, की आज की  मानव जाती और उसकी चेतना का अधिकांश भाग, अब लुप्ति की कगार पर ही खड़ा हो गया है । ये बात मै 170 से भी अधिक देशों में भ्रमण करके, और उन देशों के निवासियों को देखकर ही बोला हूँ।

 

अब जो बता रहा हूँ, उसपर अधिक ध्यान दो …

आम्नाय चतुष्टय के शिक्षा तंत्र से, उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग प्रकाशित होता है।

वैदिक राजतंत्र से वो स्थपित होकर, सुरक्षित होता है।

अर्थ तंत्र में वो चलायामन होता है, और सेवा तंत्र में विश्वव्याप्त होता है।

यही चार मूल तंत्र हैं, जिनको जीवों के उत्कर्ष मार्ग में तंत्र चतुष्टय भी कहा जा सकता है।

और इनके अंतरगत ही समस्त तंत्र भी आते हैं।

 

अब इस बात पर भी ध्यान देना…

  • वैदिक शिक्षा तंत्र से उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग उसके अपने वास्तविक सनातन सर्व्याप्त सार्वभौम स्वरूप में ख्यापित होता है।
  • वैदिक राजतंत्र से उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग स्थापित होता है।
  • वैदिक कृषि गोरक्ष से, उस उत्कर्ष या मुक्तिमार्ग पर जाने की क्षमता आती है।
  • और वैदिक सेवा तंत्र से उत्कर्षमार्ग या मुक्तिमार्ग सभी उत्कर्ष के बिन्दुओं में चलायमान होता है।

इसलिए, ये चारों बिंदु एक दूसरे के पूरक और पोषक, दोनों ही होते हैं।

एक के बिना, दूसरा भी नहीं होगा ।

 

और एक बात …

वैदिक शिक्षा तंत्र से ही राजतंत्र, राज धर्म में परिवर्तित होता है, जिससे इस समस्त जीव जगत के उत्कर्षमार्ग के मान बिंदु सुरक्षित होते है।

इसलिए, जबतक मानव जाति, वैदिक शिक्षा तंत्र से विमुख होके रहेगी, तबतक बाकी सब कुछ विकृत ही रहेगा।

और यही कारण है, इस जीव जगत का मूल तंत्र, शिक्षा तंत्र ही होता है। और यही कारण था, कि वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था में, ब्राह्मणों को उनका उचित स्थान भी दिया गया था।

वैसे मैं भी उस ब्राह्मण वर्ण का हूँ, जिसको वेदों में शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मण भी कहा जाता है, और जो पुरातन कालों में, वो ऋग्वेदी ब्राह्मण थे, जो आज के अफ़्ग़ानिस्तान से लेकर, आज के इजराइल तक बसे हुए थे । शाकद्वीप का अर्थ, आज का ईरान नामक देश भी होता है ।

 

अब और भी आगे बढ़ता हूं…

इस धरा पर, 2028.74 इस्वी, से 2.7 वर्ष के भीतर, इन अभी बातों की एक सूक्ष्म नीव या आधार डाला जाना है।

तो इस करण, इस धरा पर, 04 जनवरी 2026 से 14 मई 2031 के बीच में ही वो वैदिक नीव डाली जानी है। और उससे पूर्व ही, आज की समस्त विकृतियों का नाश भी होना है।

सूक्ष्म, दैविक या कारण और संस्कारिक जगत में, ये नीव डालने का कार्यक्रम, समाप्त भी हो चुका है, 2022 में, जब 21-22 फरवरी के बीच की रात्रि थी।

संस्कारिक जगत परदादा जी होते हैं, दैविक जगत दादाजी होते हैं, सूक्ष्म जगत पापा जी होते हैं…, और स्थूल जगत वो बेटाजी होते हैं, जो पोता जी और परपोता जी भी होते हैं।

परदादा से लेकर, पिताजी तक नीव डाली जा चुकी है…, अब तो बस परपोता जी की बारी है।

2019 इस्वी, 25-26 जनवरी की रात्री से, संस्कारिक, दैविक और सूक्ष्म जगत में युद्ध लगाया गया था, जो 2022 में, 21-22 फरवरी की रात से पूर्व ही जीत लिया गया है।

उसके बाद ही इस स्थूल जगत में, युद्ध छेड़ा गया है। मैंने यहाँ शब्द छेड़ा गया है, ऐसा कहा है, नाकि युद्ध लग गया है, ऐसा कहा है। इसका कारण है, की अंतःकरण चतुष्टय के बिंदु भी तो योगीजनों के सार्वभौम अस्त्र ही होते हैं।

ब्राह्मण ब्राह्मण के लिए, सारे वैदिक बिंदु, ज्ञान आदि मुक्तिमार्ग होते हैं।

लेकिन, उस गुरु विश्वकर्मा से जुड़ा हुआ, विश्वकर्मा का साक्षात्कारी, जो ब्राह्मण क्षत्रिय या क्षत्रिय ब्राह्मण होता है, उसके लिए यही वैदिक बिंदु मुक्तिमार्ग होने के साथ साथ, उसके अस्त्र भी होते हैं।

गुरु विश्वकर्मा को ही, विराट परब्रह्म और पंच मुखी सदाशिव कहा जाता है, और वो ही अपने शून्य ब्रह्म स्वरूप में, वेदों के श्रीमन कृष्ण नारायण भी होते हैं।

अब मैंने सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन उस अखंड वैदिक गुरुपरम्परा के कुछ मुख्य बिंदुओं को ही बतला दिया।

अब और भी आगे बढ़ता हूं…

 

रुद्रत्मालिंग के स्वयं प्रकटीकरण का कारण …

रुद्रत्मालिंग के स्वयं प्रकटीकरण का कारण, एकादशवें रुद्र और कालचक्र के संबंध, चक्र चतुष्टय विज्ञान
भगवे रुद्र के लिंगात्मक स्वरूप में प्रकटीकरण और कलियुग स्तंभन प्रक्रिया, रुद्रत्मालिंग के स्वयं प्रकटीकरण का कारण, एकादशवें रुद्र और कालचक्र के संबंध, चक्र चतुष्टय विज्ञान

 

क्योंकि अभी के समय पर, कलियुग तो स्तंभित किया जा रहा है, इसीलिए ये भगवा रुद्र, किसी एक योगी के हृदय में स्वयंप्रकट हुआ है।

इस स्वयंप्रकट होने का कारण है, की और कुछ ही समय में, गुरुयुग की नीव डाली जानी है, और वो भी इस संपूर्ण चतुर्दश भुवन में।

अभी के समय पर, ये नीव बैठाना केवल स्थूल जगत में ही शेष है, क्यूंकि बाकी सभी जगत बिन्दुओं में इसे डाला जा चुका है।

और इस नीव डालने के पश्चात, कुछ ही दशक में गुरुयुग आ रहा है।

इसीलिए इस बार ये भगवा रुद्र, जो किसी योगी के भीतर स्वयंभू हुआ है, उसका स्वयं प्रकटीकरण, देवयुग चक्र के अनुसार नहीं, बल्की मानव युगचक्र के अनुसार हुआ है।

मानव युग चक्र, पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में ही चलता है।  अग्रगमन चक्र की वैदिक आयु, 24,000 वर्ष की होती है और जो आज की समय इकाई में, कोई 25,776 वर्ष है।

इस अग्रगमन चक्र के गणित का लिंक मैं नीचे दे रहा हूं, … जो भी इस अग्रगमन चक्र को जानने का इच्छुक है, वो उसे पड़ ले।

 

आगामी गुरुयुग के कुछ बिंदु … चक्र चतुष्टय विज्ञान …

तो अब उस आगामी गुरुयुग के बारे में बताता हूं…

उस पुरातन वैदिक कालचक्र विज्ञान में, चार प्रधान चक्र होते थे, जिनको चक्र चतुष्टय भी कहा जाता था, और जो कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र और दशाचक्र कहलाते थे।

लेकिन अब चक्र चतुष्टय विज्ञान लुप्त हो चुका है।

उस चक्र चतुष्टय नामक विज्ञान में …

  • दिशा शब्द का अर्थ, साधक का विशुद्ध उत्कर्ष मार्ग ही माना जाता था।
  • दशा शब्द का अर्थ, साधक की उत्कर्ष स्थिति ही माना जाता था।
  • आकाश शब्द का अर्थ, साधक का उत्कर्ष जगत ही माना जाता था।
  • और काल शब्द का अर्थ, साधक और साधक के उत्कर्ष मार्गकी सृष्टि का गर्भ ही माना जाता था।

 

इस चक्र चतुष्टय के विज्ञान में …

  • काल शब्द का गंतव्य, सनातन ब्रह्म ही माना जाता था।
  • आकाश शब्द का गंतव्य अनंत ब्रह्म ही माना जाता था।
  • दशा शब्द का गंतव्य सर्वव्याप्त ब्रह्म ही माना जाता था।
  • और दिशा शब्द का गंतव्य, ब्रह्मपथ रूपी, जगतजननी, सर्वमाता, माँ प्रकृति को ही माना जाता था, इसलिए इस चक्र चतुष्टय विज्ञान में, प्रकृति ही उत्कर्ष मार्ग, गंतव्य मार्ग होती हैं, जो ब्रह्मपथ, आत्मपथ, योगमार्ग और ब्रह्मत्व पथ इत्यादि भी कहलाता है ।
  • लेकिन, ऐसी दिशा अवस्था में, प्रकृति भी तो ब्रह्म ही होती हैं क्यूंकि प्रकृति और ब्रह्म उनके अपने अनादि अनन्त सनातन योगावस्था में होते हैं ।

इसलिए, इनके गंतव्य स्वरूप में, केवल दिशा आयाम ही प्रकृति का है, बाकी सब ब्रह्म के ही होते हैं। लेकिन, ऐसी दिशा अवस्था में, प्रकृति भी तो ब्रह्म ही होती हैं और ब्रह्म ही प्रकृति ।

और इसी दिशा आयाम के गंतव्य स्वरूप में, प्रकृति ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, समस्त दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती होती हैं ।

इसीलिए, इस दिशा आयाम में, प्रकृति भी ब्रह्म ही होती है। तो इस दृष्टिकोण से, इन आयाम चतुष्टय के उत्कर्षमार्ग में, मूल में प्रकृति और गंतव्य में ब्रह्म होते हैं ।

 

इस चक्र चतुष्टय विज्ञान में, जब दिशा विकृति आती है, तो ऐसा होता है …

  • जब दिशा विकृत होती है, तो दशा भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाती ।
  • और ऐसी स्थिति में, आकाश, जो महाकाश और घटाकाश स्वरूपों में होता है, उसकी ऊर्जाएं भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाती ।
  • और जब यह सभी विकृतियां किसी लोक में या उस लोक के जीवों में प्रकट हो जाती हैं, तो काल भी फिर जाता है ।

और ऐसी अवस्था में, उस ब्रह्मशक्ति, माँ प्रकृति के पास, बस विनाश ही एकमात्र विकल्प रह जाता है ।

और ऐसी दशा में, जब वो ब्रह्मशक्ति स्वरूपा, माँ प्रकृति ही दिशा परिवर्तन का कार्य अपने पास ले लेती है, तो वो परिवर्तन जीव और जगत, दोनों में, एक साथ दिखाई देता है।

और ऐसा दिशा परिवर्तन सार्वभौम होने के अतिरिक्त, कुछ और हो ही नहीं पाता है।

ये विश्व उस कालखंड में जा चुका है, जहाँ यदि आज के मानव की दिशा, उत्कर्ष को नहीं जाएगी, तो आगामी समय में, विश्वव्यापी खंड विप्लव के अतिरिक्त कोई और विकल्प रहेगा ही नहीं।

वैसे कुछ वर्ष पूर्व, एक साधना में, माँ प्रकृति मुझे बोल भी चुकी हैं, कि बेटे, जब भी तुझे अवसर मिले, इस मानव जाती को मेरी एक बात बता देना ।

तो अब मै माँ प्रकृति की वो बात बोल रहा हूँ। उस समय माँ प्रकृति बोलीं थी

जीवित सनातनि हो जाओ, नहीं तो दाह संस्कार सनातनी होंगे

 

यहाँ शब्द दाह संस्कार कहा गया है, नाकि अंतिम संस्कार, तो इस बिंदु पर ध्यान देना ।

लेकिन वैदिक अंतिम संस्कार के दृष्टिकोण में आधारित होकर, उस वैदिक अंतिम संस्कार के बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।

और यही कारण है, कि अवतार भी इसी दिशा परिवर्तन के लिए आते हैं…, नाकि और किसी कार्य के लिए ।

और ऐसा अवतरण भी, उसी ब्रह्मशक्ति, माँ मूल प्रकृति की ही प्रेरणा से होता है, क्योंकि देव सत्ताओं को पता है, कि यदि माँ प्रकृति रूठ गई, तो संपूर्ण विनाश ही एक मात्र विकल्प रह जाएगा ।

चाहे वो अवतार किसी संत या किसी योगी के रूप में हो, या साक्षात भगवान का अवतार ही क्यों ना हो, लेकिन उस अवतार के आने के बाद, जीवों का दिशा परिवर्तन हुए बिना नहीं रह पाता है ।

चाहे वो अवतरण साधक के भीतर ही क्यों न हुआ हो, लेकिन उस आंतरिक अवतरण के पश्चात भी, जीवों का दिशा परिवर्तन हुए बिना नहीं रह पाता है ।

उस अवतार या संत या योगी के आगमन के बाद, जब ब्रह्मशक्ति, माँ प्रकृति ही उस अवतार या संत या योगी के साथ खड़ी हो जाएगी…, तो दिशा परिवर्तन या मार्ग परिवर्तन होना ही है, क्यूंकि ऐसी दशा के पश्चात, इस समस्त जीव जगत में, कोई भी साकारी या निराकारी माई का लाल, उस परिवर्तन को होने से रोक ही नहीं पाएगा, जिसका कारण है कि अवतार, ब्रह्म और प्रकृति के योग में ही होता है ।

जिसकी काया के भीतर ब्रह्म और प्रकृति का योग नहीं…, वो अवतार भी नहीं ।

जो प्रकृति जीवों के भीतर है, उसी के अनंत आँचल में ही तो, सभी जीव बसे हुए हैं।

इसलिए, ऐसी दशा में, जब प्रकृति ही उस अवतारी पुरुष के साथ खड़ी होती है, तो दिशा परिवर्तन ही एक मात्र विकल्प रह जाता है।

इसलिए, जब प्रकृति ही उस अवतारी पुरुष के साथ खड़ी हो जाती है, तो इसके बाद, चाहे वो परिवर्तन प्रेमपूर्वक संपन्न हो, या किसी विप्लव या युद्धादि मार्गों से ही हो…, उस दिशा परिवर्तन को होना ही होगा ।

लेकिन वो दिशा परिवर्तन भी, काल की प्रेरणा से और काल की शक्ति, माँ महाकाली से ही होता है । और वो दिशा परिवर्तन, आगामी कालखंड या युग के अनुसार भी होता है।

और क्यूंकि विकृत जीवों की तो ब्रह्माण्ड में कोई सत्ता भी नहीं होती, इसलिए, ऐसे जीव उस परिवर्तन को रोक भी नहीं पाते हैं।

अब और भी आगे बढ़ता हूँ …

 

अब इन चक्र चतुष्टय की गंतव्य सिद्धि को बतलाता हूँ…

  • काल का सिद्ध, कालात्मा हुए बिना नहीं रह पाता ।
  • आकाश का सिद्ध, भूतात्मा हुए बिना नहीं रह पाता ।
  • दिशा का सिद्ध, ज्ञानात्मा हुए बिना नहीं रह पाता । ऐसे योगी के पद को ही देवात्मा कहा गया था, जो पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती की समस्त दिव्यताओं को, अपनी काया के भीतर ही पाता है, और इसके पश्चात वो योगी ही भूतात्मा और तन्मात्रात्मा भी कहलाता है, और अंततः गुणात्मा होकर ही शेष रह जाता है । चक्र चतुष्टय में यह दिशा सिद्धि बहुत बड़ी या उत्कृष्ट सिद्धि होती है, जो अभी तक बतलाई गई समस्त सिद्धियों का भी कारक और मार्ग भीहोती है । इसलिए, साधक के उत्कर्ष मार्ग में, दिशा ही प्रमुख आयाम होता है, जिसको मार्ग या पथ भी कहा जाता है ।
  • दशा का सिद्ध, सर्वात्मा हुए बिना नहीं रह पाता ।

 

लेकिन ऐसा होने के पश्चात भी, इस चक्र चतुष्टय में से …

  • कालचक्र ही मूल चक्र होता था, जो प्रकृति का होता था…, देवी का होता है ।
  • आकाशचक्र भी देवी या प्रकृति का होता है ।
  • दिशाचक्र देव का होता है ।
  • और दशाचक्र देव का होता है ।

और जो योगी, इनसब की सिद्धियों का धारक, एक साथ होता है, वो ही प्राणात्मा कहलाता है, क्योंकि इनसब की शक्ति को ही, अव्यक्त प्राण कहा गया है, महामाया कहा गया है, मूल प्रकृति कहा गया है, दुर्गा पराम्बा त्रिपुरसुंदरी आदि नामों से भी पुकारा गया है।

 

अब ध्यान से सुनो अवतार के मूल बिंदु के बारे में…

जबकी अवतार, आता तो कालचक्र के अनुसार है, रहता आकाशचक्र के भीतर है, लेकिन वो अवतार है, इस जीव जगत को दिशा देकर, उसकी दशा का सुधार करता है।

जब दिशा ठीक होती है, तो दशा भी ठीक हो जाती है, और आकाश की समस्त ऊर्जाएं, उनके विशुद्ध स्वरूप में प्राप्त होती है, जिससे काल भी अच्छा आ जाता है।

 

आगे बढ़ता हूं…

इन चारों चक्रों में से …

  • कालचक्र ही मूल चक्र होता है, इसलिए ये सब चक्र, काल के गर्भ में ही रहते हैं, जिसके कारण कालचक्र ही गर्भचक्र कहलाता है।

गर्भचक्र विज्ञान से ही उस गर्भोदक स्थित सनातन ब्रह्म को पाया जाता है, जिसको महाविष्णु और महाकाल के शब्दों से भी सम्बोधित किया जाता है।

जब साधक काल को अपनी काया से बहार देखेगा, तो कालचक्र के सदैव परिवर्तन होते हुए स्वरूप में ही पायेगा।

और जब वही साधक, उसी काल को अपनी काया के भीतर पायेगा, तो वो काल ही साधक का सनातन आत्मा कहलायेगा, जो सर्वात्मा और परमात्मा स्वरूप में ही पाया जायेगा ।

इसलिए जो महाविष्णु और महाकाल शब्दों के सार हैं, वो सर्वात्मा और परमात्मा ही हैं, और जो एक ही हैं, क्यूंकि काल के अनादि अनन्त सर्वव्याप्त सनातन रूपी गंतव्य में, कोई भेद नहीं होता । वेदों में निर्भेद को भी ब्रह्म ही कहा गया है ।

इसलिए काल साधना ही वो मार्ग है, जो सब को अपने में सामान रूप में समाया हुआ है । इसी काल साधना से, उस सनातन निर्भेद ब्रह्म को पाया जाता है।

  • आकाशचक्र में ये सभी आधारित होते हैं , इसलिए आकाशचक्र ही आधारचक्र कहलाता है।

आधार चक्र विज्ञान से ही निराधार ब्रह्म को भी पाया जाता है।

और जहाँ उस निरधार ब्रह्म को जाने का मार्ग, अथर्ववेद के दसवें अध्याय की मंत्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस से होकर ही जाता है। लेकिन अपने गंतव्य में, आकाश चक्र यजुर्वेद का ही अंग है ।

  • दिशाचक्र से इन सभी का मार्ग निर्धारित होता है , इसलिए दिशाचक्र ही मार्ग चक्र और उत्कर्ष चक्र कहलाता है।

दिशा साधना से, साधक सर्वदिशा दर्शी होके, ब्रह्म को उस साधक के सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप में ही पा जाता है।

  • और दशाचक्र को ये सब लेकर जाते हैं, इसलिए दशाचक्र ही गंतव्य चक्र कहलाता है। और क्यूंकि ये दशा चक्र, देव का होता है, इसलिए देव ही गंतव्य का बिंदु होता है। यहाँ कहे गए देव शब्द को परमपिता ही मानना चाहिए।

दशा का गंतव्य, सर्व्याप्ति होता है, इसलिए दशा साधना से साधक उस सर्वव्यापत सार्भौम ब्रह्म को पाता है, जो लोकातीत होता हुआ भी, समस्त लोकों में समान रूप  में बसा हुआ होता है।

दिशा का अर्थ, मार्ग भी होता है, और दशा का अर्थ, स्थिति भी होती है ।

लेकिन आज इन चार चक्रों का विज्ञान ही लुप्त हो गया है, क्योंकि मूल विज्ञान, जो कालचक्र का है, वो ही लुप्त हो गया है।

कालचक्र एक अस्त्र भी होता है, जिसे कालास्त्र विद्या में, सुदर्शन भी कहते हैं। ऐसे ही, बाकी तीनों चक्रों के भी अस्त्र स्वरूप होते हैं।

 

अब इन चक्र चतुष्टय की उत्कर्ष मार्ग रुपी अभिव्यक्ति और प्रथम साक्षात्कार के बारे में बतलाता हूँ …

  • कालचक्र की अभिव्यक्ति, हिरण्यगर्भ ब्रह्म से हुई थी, इसीलिए ये काल विज्ञान, ऋग्वेद के अंतरगत आता है।
  • बैंगनी वर्ण के आकाशचक्र की अभिव्यक्ति, लाल रंग के रजोगुण और अधिकांश रूप में, नीले रंग के तमोगुण के योग से हुई थी, जो अघोर मुख का होता है, इसीलिए ये यजुर्वेद के अंतरगत आता है।

वास्तव में तो आकाश महाभूत, सदाशिव के ईशान मुख का होता हुआ भी, अपने ब्रह्माण्डीय स्वरुप में, सदाशिव के अघोर मुख से ही साक्षात्कार किया जाता है।

  • दशाचक्र की अभिव्यक्ति, उस सर्व समतावादी परमार्थलोक या सतलोक से हुई थी, इसीलिए ये सामवेद के अंतरगत आता है।
  • दिशाचक्र की अभिव्यक्ति, निरालंबस्थान या निरालंब चक्र या अष्टम चक्र से हुई थी, इसीलिए ये राम नाद से होकर जाता है, और अथर्ववेद के अंतरगत आता है।

लेकिन ये सभी चक्र, आपस में जुड़े हुए होते है, क्यूंकि एक चक्र दुसरे का पोषक और पूरक भी है, इसलिए, इनके गंतव्य में, ये सभी उसी एकमात्र अद्वैत निरलम्बा ब्रह्म को दर्शाते हैं।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और इसी चक्र चतुष्टय के विज्ञान को, जब योगी अंत:करण चतुष्टय के विज्ञान में योग करता है, तो ऐसा होता है …

  • कालचक्र का बुद्धि से संबंध होता है, इसलिए, कालचक्र, ऋग्वेद के महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म के साक्षातकार का मार्ग भी होता है, जिसमे स्व:प्रकाश ब्रह्म होता है । जो सबको और सबकुछ प्रकाशित करता हुआ भी, स्वयं सबमे गुप्त रूप में, अर्थात छुप के बैठा होता है, वो ही  स्वयं प्रकाश या स्वप्रकाश  है ।
  • आकाशचक्र का अहंकार से संबंध होता है, इसलिए आकाशचक्र, यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि के साक्षातकार का मार्ग भी होता है । ये साक्षात्कार विशुद्ध अहम् को दर्शाता है, जो ब्रह्म ही होता है । विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं ।
  • दशाचक्र का मन से संबंध होता है, इसलिए दशाचक्र, सामवेद के महावाक्य तत्त्वमसिके साक्षातकार का मार्ग भी होता है । ये सर्वसम ब्रह्म का वाचक है, जो सगुण स्वरूप में होता है ।
  • और दिशाचक्र का चित्त से संबंध होता है, इस लिए दिशाचक्र अथर्ववेद के महावाक्य अयम आत्मा ब्रह्म के साक्षातकार का मार्ग भी होता है, जो निर्गुण ब्रह्म का वाचक है ।

लेकिन यह सब बाते मैंने, पाशुपत मार्ग में रहकर, राज योग के अनुसार बतलाई हैं, जिसका आलम्बन लेके योगी, “स्वयं में स्वयं में” रमण करता हुआ, और पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा अपनी काया के भीतर ही करता हुआ, इन सभी बिंदुओं का साक्षात्कार करता है ।

और जो योगी, यहां बतलायी गई, सभी बिंदुओं का साक्षातकारी होता है, वो प्रकृति के तारतम्य का भी होता है, और वो सगुण पुरुष का भी होता है।

और इसके साथ साथ, वो अपने ही प्राण ब्रह्म स्वरूप में, इन दोनो से परे, उस निर्बीज निर्विकल्प निराधार निरालंब अतत्त्व का भी ज्ञाता होता है।

 

इसलिए, अब जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो …

  • ऐसा योगी काल विज्ञान के अंतरगत, अपने आत्मस्वरूप में महाकाल होगा और अपने ही शरीरी रूप में, वो ही कालचक्र होगा । ऐसा योगी ही सुदर्शन रूपी काल विज्ञान का साक्षातकार करके, उसे धारण करने का पात्र होता है। और अंततः, वो महेश्वर, हिरण्यगर्भ, योगेश्वर स्वरूप को, अपनी आत्मा में ही पाता है।
  • और आकाश विज्ञान के अंतरगत, ऐसा योगी, अपने ही आत्मस्वरूप में, महादेव होगा और अपने शरीर में, उसी महादेव का आकाशचक्र रूपी शिष्य भी होगा। ऐसा योगी ही पंच देव का साक्षातकार करता है। और अंततः, वो उन पंच देव को, अपने आत्मस्वरूप में ही, नमः शिवाय नामक मंत्र के सार से ही पाता है।
  • और दशा विज्ञान के अंतरगत, ऐसा योगी अपने ही आत्मस्वरूप में अतिमानव होगा, और अपने शरीर में, ब्रह्मांड की दिव्यताओं में, महामानव कहलाएगा। ऐसा योगी ही पंच कृत्य का धारक होता है, और अंततः, वो उस पंच ब्रह्म को, अपने आत्मस्वरूप में ही पाता है।
  • और दिशा विज्ञान के अंतर्गत, ऐसा योगी अपने ही आत्मस्वरूप में, सर्व दिशा दर्शी होगा, और सर्व दिशात्मक होके, सर्व दिशा व्याप्त होगा और इसीलिए, वो उस मुक्तिमार्ग का, उसके ही पूर्ण विशुद्ध स्वरूप में धारक भी होगा ही।

और ऐसा सर्व दिशात्मक योगी, अपने सगुण साकार शरीरी रूप में, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, सखावादी होगा।

इसलिए, जब ऐसा योगी, किसी भी धरा पर लौटाया जाता है, तो उसके लौटाने के पश्चात, प्रकृति सहित, समस्त वैदिक देवी देवता, अपने अपने दुर्ग या मंदिर त्याग देते हैं, और उस योगी के साथ खड़े हो जाते है…, समस्त वैदिक देवी देवता उस योगी का साथ देने को आ जाते है, और उस योगी के कार्य में सहयोग देते हैं, और इसके साथ उस योगी के मार्गदर्शक अर्थात गुरु भी होते हैं।

इसलिए, कोई उस पृथ्वी लोक में, ऐसे सर्व दिशात्मक योगी का साथ, दे या ना दे, वो जीवों की दिशा परिवर्तन करने में सफल होता ही है।

ना कोई उस पृथ्वी लोक में, ना ही किसी और लोक में…, उससे रोक पाएगा।

और अन्तः, ऐसा योगी, अपने ही आत्मस्वरूप में, उस सर्वसाक्षी निर्गुण निराकार को पाता है, जो वैदिक वाङ्‌मय में, आत्मा और ब्रह्म शब्दों के साथ साथ, पिण्ड और ब्रह्माण्ड नामक शब्दों में भी सामान रूप में दर्शाया गया है।

अपने जीव रूप में, उस जगत में बसा हुआ भी, ऐसा योगी, उस जीव जगत और उसकी चार स्थितियों से अतीत होके, तुरीयातीत आत्मा ही होता है…, जो वास्तव में ब्रह्म ही होता है।

ऐसा योगी, अपने आत्मस्वरूप में, वेद चतुष्टय के समस्त महावाक्यों का साक्षातकारी होता है।

इसलिए, अंततः, इस चक्र चतुष्टय विज्ञान से योगी, वैदिक महावाक्यों का साक्षात्कार, उसके अपने आत्मस्वरूप में ही करता है।

तो अब मैं, असतो मा सद्गमय, के वाकय पर…, इस पूरे भाग को समाप्त करता हूँ।

और अब मैं अगले भाग पर जाता हूँ, जो ॐ मार्ग का है, जिसका मूल वाकय तमसो मा ज्योतिर्गमय होगा ।

 

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