योगभ्रष्ट, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, योग भ्रष्ट, प्रबुद्ध योग भ्रष्ट

योगभ्रष्ट, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, योग भ्रष्ट, प्रबुद्ध योग भ्रष्ट

इस अध्याय में, उस योग भ्रष्ट को बतलाऊँगा, जो प्रबुद्ध भी होता है, अर्थात, इस अध्याय में उस योगभ्रष्ट की बात होगी, जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट है।

इस अध्याय से मैं आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला को प्रारम्भ कर रहा हूँ।  इस श्रृंखला में कई सारे अध्याय होंगे।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को, और उन सब को, समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में, उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर, जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

 

इस पूरी ब्रह्मपथ श्रृंखला का आधार

सर्वप्रथम मैं इस पूरी श्रृंखला का आधार डालता हूं … तो सुनो …

ये आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ की श्रृंखला का प्रथम अध्याय है।

इस पूरी श्रृंखला का मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है, क्योंकि इस मार्ग का कोई और विकल्प है ही नहीं। और यही कारण है, कि ये मार्ग अंतिम ज्ञान, आत्मज्ञान की ओर लेकर जाता है।

रुद्र ही आत्मा होते हैं, और आत्मा ही ब्रह्म है।

रुद्र ही एकमात्र देवता हैं जो “स्वयं ही स्वयं में” रहते हैं, इसलिए इस मार्ग को रुद्र ही रुद्र में, आत्मा ही आत्मा में, ब्रह्म ही ब्रह्म में, शिव ही शिव में, ऐसा भी कहा जा सकता है। शिव शब्द का वास्तविक अर्थ, सर्व कल्याणकारी आत्मा होता है, और रूद्र शब्द का वास्तविक अर्थ, आत्मदिव्यता होता है।

इस श्रृंखला के उत्कर्ष मार्ग को, रुद्रमार्ग, आत्मामार्ग, ब्रह्ममार्ग, कैवल्यमार्ग, मुक्तिमार्ग, ब्रह्मत्व मार्ग, आदि भी कहा जा सकता है।

और क्योंकि, जो भी है, सब ब्रह्म की अभिव्यक्ति, ब्रह्म ही है, जो साधक का आत्मा ही होता है, इसलिए इस मार्ग में, इस जीव जगत के स्वरूप में जो भी है, उसको साधक अपने आत्मस्वरूप में ही पाएगा।

इस मार्ग मे, साधक का आत्मस्वरूप ही एकमात्र अद्वैत सार्वभौम होता है।

इस मार्ग में, साधक के आत्मस्वरूप में ही समस्त जीव जगत सामान रूप में बसा होता है, और इसके साथ साथ, साधक भी उसी जीव जगत में सामान रूप में बसा होता है, जो उस साधक की आत्मा की अभिव्यक्ति ही होता है।

इसलिए, इस सार्वभौम अद्वैत मार्ग में, साधक का आत्मस्वरुप ही एकमात्र होता है, जिसकी अभिव्यक्ति ,साधक सहित समस्त जीव जगत होता है।

और यही कारण है, कि इस अद्वैत मार्ग में, न तो साधक को जीव जगत से और न ही जीव जगत को साधक के आत्मस्वरुप से पृथक किया जा सकता।

वेदों में इसी सिद्धांत को अद्वैत कहा गया था, जिसको इस पूरी श्रृंखला में, ब्रह्मपथ, आत्मपथ, ब्रह्मत्व पथ आदि शब्दों का आलम्बन लेके बतलाया जाएगा।

 

आत्मपथ, ब्रह्मपथ, ब्रह्मत्व पथ का गंतव्य और महेश्वर

इस श्रृंखला के मार्ग के गंतव्य में, योगी महेश्वर को ही पायेगा, क्यूंकि महेश्वर के सिवा इस मार्ग का कोई और गंतव्य है ही नहीं।

महेश्वर ही योगेश्वर, योग गुरु, योगऋषि, योगसम्राट, योग और योग तंत्र भी होते हैं। ब्रह्माण्ड के पूरे इतिहास में, कोई योगी हुआ ही नहीं, जो महेश्वर का नहीं था।

पर यहाँ वेदों के प्रजापति को ही महेश्वर कहा गया हैं, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है। महेश्वर को ही महाब्रह्म भी कहा जाता है।

पशुपत मार्ग में, राजयोग में, उसी महेश्वर को तत्पुरुष कहा गया है, जो सगुण ब्रह्म भी कहलाते हैं।

पंच ब्रह्मोपनिषद में, उसी महेश्वर को सद्योजात भी कहा गया है, और जिसका ज्ञान मैंने अपने एक पूर्व जन्म में दिया था, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला अघोर मार्ग का एक योगी था, और जब मेरे गुरुदेव महादेव थे, जिनको शिव का अघोर मुख भी कहा जाता है।

महेश्वर ही एक मात्र देवता हैं, जो अभिमानी और अनाभिमानी दोनों होते हैं, क्योंकि महेश्वर ही ऐसे देवता हैं, जो सर्व समतावादी होते हैं।

महेश्वर को ही चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म कहा गया है, इसीलिए, पितामह ब्रह्म ही सर्वसम होते हैं। और इसके कारण ही, उनको सर्वसम, सगुण साकार, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म भी कह सकते हैं।

उसी महेश्वर को सूर्य और सूर्य नारायण भी कहा गया है। द्वादश आदित्य भी उसी महेश्वर की अभिव्यक्ति ही होते हैं।

उसी महेश्वर के मार्ग में, ओउम् का पूर्ण साक्षातकार भी होता है, जिसको आगे के कुछ अध्यायों में बतलाया जाएगा।

बौद्ध धर्म में, उसी ओउम् के मार्ग को प्रज्ञापारमिता मंत्र के द्वारा, सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बतलाया गया है। और उसी बौद्ध मार्ग में, उसी महेश्वर के निराकार स्वरूप को धर्मकाया भी कहा गया है। और उसी बौद्ध मार्ग में, उसी महेश्वर के सगुणा साकार स्वरुप को, अमिताभ बुद्ध भी कहा गया है।

जैन मार्ग में, उसी महेश्वर के लोक को सिद्ध लोक भी कहा गया है। लेकिन वास्तव में तो कई सिद्ध लोक होते हैं, जिनके बारे में, किसी बाद के अध्याय में बात होगी, जब कुछ सिद्ध शरीरों और कुछ सिद्ध लोकों को बतलाया जाएगा।

मसीह जरथुस्त्र के दिए हुए मार्ग में, उसी महेश्वर के निराकार स्वरूप को, अहुरा मज़्दा भी कहा गया है।

वेदों में कहा गया शाकद्वीप, आज के अफगानिस्तान से लेकर, ईरान, सीरिया से होता हुआ, इस्राइल तक का क्षेत्र है। वैसा मेरे इस आगमन या जन्म की वंश परंपरा, शाकद्वीप के सौर्य सारस्वत ब्राह्मणों की है, जहां से पारसी, यहूदी, मिस्र आदि प्राचीन धर्मों का उदय हुआ था। अपने मूल से, ये सभी मार्ग, ऋग्वेद के ही होते हैं।

लेकिन यहां बतलाया हुए मार्ग पर, बस कुछ ही साधक जा पाते हैं, इसलिए ये मार्ग अधिकांश जीवों के लिए है ही नहीं।

इस समस्त जीव जगत में, बस कुछ ही जीव इस मार्ग के पात्र हो सकते हैं, इसलिए इसका मार्ग ना तो कभी स्पष्ट रूप में बताया गया था, ना ही कभी बताया जाएगा।

लेकिन जो भी इसके वास्तविक पात्र होंगे, वो इसको जान ही जाएंगे। और बाकी किसी के लिए तो मैं इसको बता ही नहीं रहा हूं।

अब इस अध्याय में आगे बढ़ता हूं …

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट अति दुर्लभ योगी …

क्योंकि ये शब्द जो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट है, बहुत ही दोगला है, इसलिए इसकी दशा को आज, कुछ विकृत रूप में ही बताया जाता है।

लेकिन प्रबुद्ध योग भ्रष्ट (Prabuddha Yoga Bhrashta)की वास्तविक अवस्था, एक उच्च कोटि के योगी की होती है।

काई सहस्त्र नील प्राणियों में, एक प्राणि ही वास्तविक साधक होता है। और काई सहस्त्र कोटि साधकों में, एक वास्तविक योगी होता है। और काई सहस्त्र कोटि योगियों में, एक प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होता है। इसीलिए, जो योगी प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होते हैं, वो इस समस्त ब्रह्माण्ड में, अति दुर्लभ योगी होते हैं।

काई हजारों वर्षों में, एक ऐसा प्रबुद्ध योग भ्रष्ट किसी ऐसे पृथ्वी लोक में आता है।

यह आवश्यक नहीं, की जो योग भ्रष्ट है, वो प्रबुद्ध भी होगा ।

लेकिन यहां पर, केवल एक ऐसे योगी पर बात होगी, जो योग भ्रष्ट होता हुआ भी, प्रबुद्ध होता है।

 

योगभ्रष्ट की दो प्रधान श्रेणियां

योग भ्रष्ट (Yoga Bhrashta) की दो प्रधान श्रेणियां होती हैं, तो इनको यहां पर बतलाता हूँ ।

  • पहली श्रेणी वो योगभ्रष्ट जो प्रबुद्ध नहीं होता है

जो उत्तम श्रेणी का, पूर्ण ब्रह्ममय योगी, ब्रह्मपथ गामी होता है और बस उस गंतव्य रूपी ब्रह्म को प्राप्त होने ही वाला होता है, लेकिन इससे पूर्व ही उसका देहावसान हो जाता है, तो वो पूर्ण ब्रह्ममय योगी, योगभ्रष्ट होके ही रह जाता है।

ऐसा योगी, एक ऐसी बूंद के समान होता, जो अभी तक ना उस ब्रह्म रूपी सागर को पायी है, और ना ही उसमें विलीन ही हो पाई है।

लेकिन ऐसा होने पर भी उसकी बूंद के समान, भाव रूपी इच्छा शक्ति, उसी ब्रह्म रूपी सागर में पूर्ण रूप में बस चुकी है, और इसके साथ साथ, वो सागर भी , उसकी भावात्मक इच्छा में बस चुका है।

ऐसी योगभ्रष्ट दशा में, वो योगी तबतक रहता है, जबतक वो गंतव्य को, अपने भीतर ही, अपने आत्मा स्वरूप में ही पा नहीं लेता है।

और ऐसी दशा में  वो योगी, जबतक उस गंतव्य रूपी ब्रह्म में विलीन नहीं हो जाता है, तबतक वो योगी, उसकी इसी योगभ्रष्ट की अवस्था में, लौटता ही रहता है।

लेकिन यहां पर, ऐसे योगभ्रष्ट की बात नहीं होगी।

यहां पर, इससे भी जो उत्कृष्ट योगभ्रष्ट होता है, जो प्रबुद्ध भी होता है, उसकी बात होगी।

तो सुनो …

 

  • अब दूसरी श्रेणीवो जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होता है

एक और श्रेणी का योगभ्रष्ट भी होता है, जो ब्रह्म को अपने आत्मा स्वरूप में पा कर भी, किसी कारणवश, उस ब्रह्म में विलीन नहीं हो पाता ।

इसलिए, ऐसा योगी, उस सागर रूपी ब्रह्म को अपने आत्मा स्वरूप में पा कर भी, उसमें विलीन नहीं हो पाता ।

वो एक ऐसी बूंद के समान होता है, जो सागर में बस तो चुकी हो, लेकिन उसकी अपनी चेतना में, वो बूंद ही रह गई है, सागर नहीं हो पायी है।

मैं ऐसा ही प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, और मैं ऐसा अभी से भी नहीं हूँ, बल्कि इस कल्प के स्वयम्भू मन्वंतर से हूँ, जब मैं उन प्रजापति स्वरुप ब्रह्मऋषि क्रतु का मनस पुत्र हुआ था।

और क्यूंकि उन प्रजापति स्वरुप ब्रह्मऋषि क्रतु के सभी मनस पुत्र, मेरे जैसे ही प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुए थे, इसलिए इस कल्प में, इस आस्था में, मैं अकेला भी नहीं हूँ।

 

योगी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट क्यूँ होता है

ऐसा होने के कई कारण होते हैं, तो अब मैं उनमें से प्रमुख कारणों को बताता हूं, तो सुनो …

  • यदि उस योगी ने अब तक, उसके पूर्व जन्मों के माता पिता, या इष्ट देवी या देवता के किसी आदेश का पूर्ण रूप में पालन न किया हो।
  • या उस योगी ने, उसके किसी पूर्व जन्म की गुरु दक्षिणा को पूर्ण न किया हो।
  • या उस योगी ने, अब तक, अपने किसी वचन का ही पालन न किया हो।
  • या उस योगी ने, वो किया हो, जिसको उत्कर्ष की छलांग कहा जा सकता है। इसमें उत्कर्ष की छलांग ऐसा होता है, जिसमें योगी की साधनाओं में, कोई देवत्व या जीवत्व के मुख्य बिंदु या कुछ मुख्य पद छूट गए हो, और इनकी सिद्धि के पूर्व ही, वो योगी उस सागर रूपी ब्रह्म को चला गया हो।

उत्कर्ष की छलांग में स्थ्ति ऐसी होती है, जैसे भुवन के 100वे तल या मंजिल पर जाते हुए, बीच के कुछ तल छूट गए हों।

मैं इस दूसरी श्रेणी का योग भ्रष्ट हूं, जो इस जन्म तक, अपनी गुरु दक्षिणा पूर्ण नहीं कर पाया था।

और जिसको एक और गुरु आज्ञा के कारण लौटना ही था, क्यूंकि उन गुरु ने बोला था, की तेरे अगले जनम में ही तेरी साधना पूर्ण होगी, उस पिछले जन्म में नहीं।

और इसके साथ साथ, अपने एक पूर्व जन्म के पिता की आज्ञा का पालन भी नहीं कर पाया था।

इसलिए मैं ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, इस कल्प के स्वयंभू मन्वंतर से हूं।

जब मनु ब्रह्मऋषि आदि ऋषि या सिद्ध सत्ता, या कोई देवी देवता, गुरु या माता पिता होते हैं, तो उनकी आज्ञा पालन करने में, कई हजार जन्म से भी अधिक लग जाते है। इस जन्म तक, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था।

ऐसा ब्रह्म साक्षात्कारी योगी, प्रबुद्ध होता हुआ भी, अपने योगमार्ग की गंतव्य दशा के अनुसार, अपूण होता है, इसलिए उस योगी की ऐसा दशा को भ्रश्ट शब्द से दर्शाया गया है। ऐसे योगी को ही प्रबुद्ध योगभ्रष्ट कहते हैं।

आज के समय पर जो कोई भी, इस योगदशा को परिभाषित कर रहा है, वो बस ग्रंथ पद समझ के ही बोल रहा है, क्योंकि वो कभी इस बातलाए जा रहे योगमार्ग का हुआ ही नहीं है।

और ये एक ऐसा योगमार्ग है, जिसका यदि कोई हुआ ही नहीं, तो वो इसके बारे में पूर्ण रूप से जान भी नहीं पाएगा।

ऐसा योगी, एक ऐसे विशालकाए वृक्ष का समान होता है, जो बहुत बड़ा और पुराना हो गया है, और जो फलों से भी भरा हुआ है, लेकिन उसकी वास्तविकता का किसी को पता ही नहीं होता है।

वो इस जगत में रहता हुआ भी, उसकी भीतर की दशा से, उस जगत से बहुत दूर होता है, इसलिए उसकी वास्तविकता के पास कोई पहुँच ही नहीं पाता, और ना ही वो किसी को उसकी वास्तविकता के बारे में, पूर्णरूपेण बताता है।

वो समय समय पर, आता जाता रहता है, अपना ज्ञान भी बंटता है, लेकिन उसके ज्ञान मार्ग पर, कम साधक ही जा पाते हैं, क्योंकि उसके फलों को चखने की क्षमता अधिकाकांश जीवों में है ही नहीं।

वो केवल होके भी, उस कैवल्या ब्रह्म रूपी सागर में विलीन होके भी, अपनी चेतना में, बूँद सरिका ही रह जाता है।

और इसीलिए, वो वास्तव में सागर होता हुआ भी, अपनी चेतना में सागर नहीं हो पाता है, और बूँद सरिका ही रह जाता है।

मैं इस पूरे ब्रह्म कल्प में, स्वयम्भू मन्वंतर प्रथम सतयुग से लेकर, इस जन्म तक, ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही था।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का ईश्वर

किसी भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का, यदि कोई ईश्वर है, तो वो महेश्वर ही है।

जितने ब्रह्माण्ड हुए हैं या होंगे, उनके समस्त कालों में, योगियों के ईश्वर, महेश्वर ही होते हैं। अब तक ना कोई और हुआ है, ना ही हो सकता है।

योगी, महेश्वर के होते हैं और महेश्वर ही, योगी के परमगुरु और इष्ट, दोनो ही होते हैं।

इसका कारण है, कि महेश्वर को ही योगीजन, योग गुरु, योगसम्राट, योगऋषि, योगिराज, और योगेश्वर भी कहते हैं। महेश्वर ही योग और योगतंत्र भी होते हैं ।

ऋग्वेद में, वो ही महेश्वर, हिरण्यगर्भ कहलाते हैं, जो एकमात्र देवता हैं, जो अभिमानी और अनाभिमानी दोनो होते हैं।

वेदों में, उसी योगेश्वर महेश्वर को ही प्रजापति कहा गया है, और उसी महेश्वर को, योगीजन महाब्रह्म भी कहते हैं।

 

अब ध्यान से सुनना …

मेरे पूर्व जन्म के ज्ञान, पंच ब्रह्मोपनिषद में, उसी महेश्वर को सद्योजात कहा गया है।

तब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला ऋषि था, अघोर मार्ग के था और, वोही अघोर मुख, मेरे गुरु थे, जो महादेव भी कहलाते हैं।

जब हम, पंच ब्रह्म को, अघोर मुख से ही देखते हैं, तो उन पंच ब्रह्म को हम वैसे ही देखते हैं, जैसे पंचब्रह्मोपनिषद में बताया गया है। और वही पंच ब्रह्म, उस समय हमारे शरीर में भी होते हैं।  उसपंचब्रह्मोपनिषद में, वो ही महेश्वर, सद्योजात कहलाते हैं।

लेकिन, जब हम उन्हीं पंच मुखों को, अघोर से परे जाकर, राज योग के पाशुपत मार्ग में जाकर देखते है, तो वो ही पंच मुखा सदाशिव कहलाते हैं।

इसलिए, ऐसे पाशुपत मार्ग में, वोही महेश्वर, तत्पुरुष कहलाते हैं, जो सगुण ब्रह्म होते हैं।

और इसीलिए, वोही महेश्वर, पंच ब्रह्मोपनिषद के सद्योजात हैं, और वोही महेश्वर, राज योग के पाशुपत मार्ग के तत्पुरुष भी होते हैं।

अपने अपने मार्गो में, ये दोनों नाम उसी महेश्वर के हैं, जो महाब्रह्म भी कहलाते हैं।

 

अब और भी आगे बढ़ता हूं  …

वो ही महेश्वर, उकार या ओकार शब्दों में होकर, ओउम् महामंत्र के बीच में ही निवास करते हैं।

ओउम् रुपी ब्रह्म के त्रिबीज स्वरूप में, जो   के तीन बीज हैं, इनके बीच का शब्द जो है, वो ही महेश्वर का शब्द ब्रह्मात्मक स्वरूप है । इसीलिए, ओउम् के मध्य में ही, महेश्वर का वास्तविक शब्दात्मक निवास स्थान है।

लेकिन, इस ओउम् शब्द के उकार या ओकार रूप में, वो ही महेश्वर, उनके अपने कार्य ब्रह्म स्वरुप में होने के कारण, रजोगुणी स्वरुप में ही साक्षात्कार होते हैं, और इसीलिए, लान रंग के होते हैं, जिनके भीतर सोने का रंग भी होता है। किसी बाद के अध्याय में, इस उकार या ओकार को विस्तारपूर्वक बतलाऊँगा।

योगी के लिए, जितने भी योगमार्ग हैं और जितने भी योगतंत्र हैं, सभी महेश्वर के ही होते हैं। इसलिए योगी के लिए उसका मार्ग ही, उसका इष्ट और गुरु, महेश्वर होता है।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का भाव साम्राज्य

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के लिए उसका योगमार्ग, जिसमें वो रमण करता है, वो भी महेश्वर की अभिव्यक्ति ही होता है, इसलिए ऐसे योगी के लिए, योग ही महेश्वर होता है।  इसका कारण है कि अद्वैत मार्ग में, अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक नहीं होती।

ऐसा योगी स्वात्मा को भी, माहेश्वर के स्वरुप में ही देखता है, क्यूंकि अपनी वास्तविकता में, अंश अपने अंशी से पृथक नहीं होता।

अपने सगुण साकार स्वरुप में, योगी का शरीर ही उस महेश्वर का सगुण साकार धर्मदुर्ग या वेद मंदिर होता है। ऐसा ऐसे ही भाव में स्थित होकर, वो योगी अपने शरीर के भीतर ही, अपने ही आत्मस्वरूप में, अपनी स्वात्मा के ही ईश्वर रूप में, उस महेश्वर को पाता है।

और योगी का ऐसा सगुण साकार, शरीर रुपी धर्मदुर्ग या वेद मंदिर, अपने ही ईश्वर की सगुण साकार अभिव्यक्ति होने के कारण, अपने ईश्वर से पृथक नहीं होता है। ऐसे योगी का शरीर ही उसके ईश्वर की सगुण साकार अभिव्यक्ति होता है।

ऐसे योगी का शरीर ही उसके ईश्वर का निवास स्थान या क्षेत्र होता है, इसलिए उस योगी का शरीर ही उसके अपने अभिव्यक्ता, उसके अपने ईश्वर या क्षेत्रज्ञ से पृथक नहीं होता। अपने गंतव्य स्वरुप में, अपनी वास्तविकता में, क्षेत्र ही तो क्षेत्रज्ञ होता है।

योगी अपने पिंड रूपी शरीर को भी, महेश्वर के लोक के समान ही देखता है, क्योंकि योगी के शरीर रुपी लोक में ही तो उसका आत्मा रहता है, जो वास्तव में महेश्वर ही होता है। ऐसे योगी का आत्मस्वरूप में ही महेश्वर होता हैं।

ऐसे योगी के शरीर के भीतर की दिव्यताएँ ही, उसके ईश्वर का सगुण निराकार लोक होती हैं। लोक उसके अपने ईश्वर का ही सगुण निराकार स्वरूप होता है, इसलिए, ऐसे योगी के लिए, उसका शरीर रुपी लोक, उसके आत्मा रुपी लोकी लोकी  से पृथक नहीं होता। अपने गंतव्य स्वरूप में, अपनी ही वास्तविकता में,  मूल लोकी  ही उसका लोक होता है।

ऐसे योगी के लिए, उसका विशुद्ध अहम् ही उसकी भूमि होता है, उसका संस्कार रहित चित्त ही उसका भूधर होता है, उसकी वित्त्तिहीन सार्वभौम बुद्धि ही उसका भूमत्व होता और उसका ब्रह्मलीन मन ही, इन सभी में, एकमात्र भूमा होता है, जो अपने सर्वसाक्षी भाव में, इनसब में, उसकी ही प्राण शक्ति का आलम्बन लेके, उस योगी के ही प्राणात्म स्वरुप में रमण करता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसे योगी के लिए, मूल में योग होता है, और गंतव्य में ज्ञान।

कोई ऐसा सिद्ध योगी नहीं हुआ, जिसके गंतव्य में वेद या ज्ञान नहीं था।

और कोई ऐसा वैदिक ऋषि नहीं हुआ, जिसके मूल में योग नहीं था।

इसलिए, ऐसे योगी के लिए, मूल में योग होता है, और गंतव्य में ज्ञान।

 

ऐसा योगी जानता है, की न तो मूल का कोई और मूल होता है और न ही गन्तव्य का ही कोई और गन्तव्य होता है।

इसलिए, ऐसा योगी जानता है, की वास्तव में योग ही वो सार्वभौम मूल है, जो अमूल होता है, और ऐसे अमूल मूल से ही गंतव्य रुपी ज्ञान की प्राप्ति होती है।

और यही कारण है, की ऐसा योगी, ना तो योग का, और ना ही ज्ञान का, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में व्यापारी होता है।

इसलिए, वो अपना ज्ञान बांटकर, चला जाएगा, क्यूंकि उसको इस जीव जगत से कुछ भी लेना देना नहीं है।

और यही कारण है, की ऐसे प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के अधिकांश जन्मों में, जब भी वो आया था,  उसको बहुत कम लोग जान पाये थे। और क्यूंकि इनमे से भी, अधिकांश पात्र ही नहीं थे, इसलिए उसने कुछ मुट्ठी भर को ही दीक्षा दी थी।

ऐसा योगी, उस योगेश्वर, महेश्वर के समान, स्वयं ही स्वयं से योग लगाके, अपने गुरु और इष्ट, महेश्वर के समान ही, हो जाने का प्रयास करते रहते हैं, चाहे उसमें कितना भी समय लग जाए, कितने ही युग बीत जाए, कितने ही जन्म लग जाए, उसे कितने ही दुखों, पीडाओं, व्याधियों से होकर जाना पड़े, वो उसी महेश्वर के मार्ग में लगा रहता है। उसको किसी और से, या कुछ और से,  कुछ भी लेना देना नहीं।

ऐसा योगी, जीये या ना जीये, इस लोक में रहे या किसी और लोक में, इस युग में लौटाया जाए या किसी और युग में, इस पंथ में लौटे या किसी और में, इस गोत्र या वर्ण में लौटे या किसी और में, खाये या ना खाए, वस्त्र हो या नहीं हो, इधर रहे या उधर रहे, उसको इन सब बातों से कोई भी लेना देना नहीं।

उसको, उसके अपने भाव साम्राज्य में इस बात का पता है, कि उस आंतरिक योगेश्वर के मार्ग में, अंतः, उसकी विजय जब भी होनी है, उसकी ही होनी है, और किसी माई के लाल की नहीं।

और क्यूंकि, ये मार्ग इतना लम्बा है, दुर्गम है और कठिन भी है, जिसमे हजारों हजार जनम लग जाते हैं, इसलिए इस मार्ग को थोड़ा सरल बनाने के लिए, और इसकी धारा को अखंड या अटूट रखने के लिए, वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट अवस्था को धारण करना ही, एकमात्र विकल्प मानता है।

और ऐसे प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के कई बार जीव रूप में लौटने के पश्चात, और उन जन्मों की घोर साधनाओं के पश्चात, वो ही योगेश्वर महेश्वर, उस योगी की काया के भीतर, उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण साकार रूप में स्वयं प्रकट होते है, उस योगी के ही बत्तीस दल कमल रुपी ललाना चक्र में, राम लल्ला के स्वरुप में।

और ऐसा होने पर, वो योगी अपने आठ चक्र और नव द्वार वाले शरीर को ही,  राम लल्ला की अयोध्या पुरी के रूप में पाता है।

और इसके पश्चात, उस योगी के भाव साम्राज्य में, राम लल्ला ही उसकी आत्मा होते है, जो महेश्वर, योगेश्वर, पुरुषोत्तम भगवन ही होते हैं।

और ऐसा योगी स्वयं को उस राम लल्ला का, उस सनातन गुरुदेव श्री विष्णु का, एक नन्हा विद्यार्थी ही मानता है, क्यूंकि तबतक उस योगी को पता चल जाता है, की उसकी बस इतनी ही औकात है।

और उस योगेश्वर महेश्वर, राम लल्ला का नन्हा विद्यार्थी होने के पश्चात, वो अपने भाव साम्राज्य में मानता भी है, कि जो साधक बस इतना भी हो गया, वो साधक इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, वास्तव में, बहुत हो गया।

और कई जन्मों तक ऐसा रहने के बाद, वो अपने साक्षात्कारों में, जानता भी है, कि उसके भीतर के राम लल्ला बड़े भी होते हैं। राम लल्ला सदैव ही बालक रूप में, राम लल्ला स्वरुप में ही नहीं रहते हैं।

ऐसा योगी, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की दशा से जाके ही, अंततः, उस योगेश्वर, महेश्वर को, उसके अपने आत्मस्वरुप में ही पाता है, उसी महेश्वर के हिरण्यगर्भात्मक महाब्रह्म स्वरूप में।

जब ऐसा होता है, तो उसी योगी के शरीर में, वही महेश्वर, अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय में स्वयंप्रकट होते हैं।

और ऐसा योगी, मूल से ऋग्वेदी होता हुआ भी, वेद चतुष्टय का हुए बिना नहीं रह पाता है।

हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय के बारे में, कभी बाद में बतलाऊँगा, जब उकार पर बात होगी  और इसके बाद, जब राम नाद और अष्टम चक्र पर बात होगी।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की चेतना स्थिति …

चेतना की चार स्थिति होती हैं, जो जागृत, सुषुप्ति, स्वप्न और तुरिया या समाधि कहलाती हैं।

लेकिन, इन चारों में से, स्वप्नावस्था, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की नहीं होती, क्यूंकि उससे कभी भी स्वप्न नहीं आते।

उसकी चेतना स्थति में, वो जागृत बहुत कम होता है, स्वप्न उससे कभी भी आते नहीं और तुरिया को पाकर भी, वो उस तुरिया मे पूर्णरूपेण बसना नहीं चाहता है, नहीं तो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही नहीं रह पायेगा, इसलिए, सुषुप्ति ही उसकी प्रधान चेतना स्थिति कहलाती है।

इसी सुषुप्ति की अवस्था में, वो किसी देह में आता है, और उस देह से जाता भी है। वो जब भी किसी शरीर में आएगा या किसी शरीर से जाएगा, उसका पुनरागमन और देहावसान, दोनों ही इस सुषुप्ति की अवस्था में होगा।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का मार्ग …

लेकिन, इन चारों के अतिरिक्‍त, एक और चेतना की अवस्‍था होती है, जो इन चारों से अतीत होती है, जो परमचेतन आत्मस्वरूप की होती है, और जो तुरियातीत कहलाती है।

तुरीयातीत ही प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का मार्ग होता है, जिसकी ओर वह सदैव जाता रहता है।

और क्योंकि तुरीयातीत ही आत्मा का सर्वात्मा स्वरूप होता है, इसलिए, वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, आत्मा मार्गी ही होता है, और “स्वयं ही स्वयं को”, इस मार्ग में ही जाता है।

वो यदि इस मार्ग में, वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, इस तुरीयातीत को पा भी गया, तो भी इसमें स्थित नहीं हो पाएगा, जब तब वो अपनी योगभ्रष्ट स्थिति को पाने के मूल कारण का निवारण नहीं कर पाएगा।

और जबतक वो उस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट अवस्था में रहता है, वो योगी इसी मूल कारण के निवारण के लिए, स्वयं ही स्वयं का होकर, कार्यरत साधनारत रहता है।

वो उठता बैठता, खाता पीता , घूमता फिरता, हँसता डांटा,जागा या सोया हुआ, चाहे कुछ भी करता हुआ प्रतीत होगा, वो उसकी भीतर की अवस्था में, अपनी अखण्ड साधना में विलीन होता है।

तुरियातीत या आत्मा मार्गी होने के कारण, उसका इस जीव जगत से कुछ भी लेना देना नहीं होता, लेकिन केवल तबतक, जबतक उसे इस बात के विपरीत जाने का आदेश नहीं होता।

और जब वो अपनी योगभ्रष्ट अवस्था के, कारण का निवारण कर देता है, तो यही तुरीयातीत उसकी गंतव्य भी स्थिति होती है। इस तुरीयातीत के अतिरिक्त, वो अपने गंतव्य में और कुछ पायेगा ही नहीं।

वो जब भी गंतव्य को पाएगा, तुरीयातीत स्वरुप में ही पायेगा, क्यूंकि वो आत्म मार्गी ही होता है और तुरीयातीत को ही आत्मस्वरूप कहते हैं। आत्मामार्ग के गंतव्य, तुरीयातीत को ही आत्मस्वरूप कहते हैं।

और ऐसी गंतव्य अवस्था में, वो योगेश्वर ही उसके भीतर बसे होते हैं, उन महेश्वर के ही हिरण्यगर्भात्मक स्वरुप में।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का देहावसान  …

जब प्रबुद्ध योगभ्रष्ट देह त्याग करता है, तो उसकी आन्तरिक स्तिथि, गहरी सुषुप्ति की होती है।

जब किसी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का देहवासन होता है, तो वो समाधि के मार्ग में जाके भी, चेतना की गहरी सुषुप्ति अवस्था को स्वतः ही पा लेता है।

और इसी सुषुप्ति की अवस्था में, उसके देह त्याग की प्रक्रिया चलती है, और वो अपने देह का त्याग करता है।

पूर्व के देहवासन से, अगले आगमन तक, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की चेतना स्थिति, इसी सुषुप्ति में ही रह जाती है।

और क्यूंकि, उसका देहावसान, इस गहरी सुषुप्ति में होता है, इसलिए उसकी मृत्यु भी मृत्यु नहीं होती, केवल एक गहरी और लम्बी सुषुप्ति ही रह जाती है।

यदि मै, इस दशा को साधारण शब्दों में बोलूं, तो कह सकता हूँ, कि मृत्यु के समय, वो मरा नहीं, बस एक गहरी और लंबी नींद में सो गया, और वो तबतक सोता ही रह गया, जबतक वो दुबारा लौट कर न आया ।

वो न कभी मरा, ना ही कभी मारा गया, बस एक लम्बी गहरी नींद में चला जाता था।

दूसरों को लगता था की वो मर गया था, जबकी वो तो मस्त मगन होके, बस सो ही रहा था।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की पुनरागमन स्थिति …

क्योंकि पूर्व के देह त्याग के समय पर, उस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की चेतना अवस्था, सुषुप्ति में होती है, इसलिए जब उसका पुनरागमन होता है, तो वो ऐसा होता है, जैसे एक लम्बी सुषुप्ति के पश्चात, वो जागृत अवस्था में लौटा है।

यही कारण है, कि कुछ ही प्रयास करने पर, उससे उसके सभी जन्म स्मरण हो जाते है, लेकिन केवल तबसे, जबसे वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था।

क्यूंकि उसकी मृत्यु तो हुई ही नहीं थी, वो तो बस सो गया था, इसलिए, उसका पुनर्जन्म भी जनम नहीं कहलाया जा सकता, वो तो बस जागृत हुआ है, और एक नए शरीर में, एक नए काल खंड में, आया हुआ सा दिखाई दे रहा है। उसके लिए तो बस काल और चोला ही बदला है, वो नहीं।

उसके लिए तो बस ऐसा ही बोल सकते हैं, कि वो जो आया है एक नए शरीर में, क्यूंकि उसके लिए शरीर का बंधन नहीं होता।

वो तो बस एक घूमता फिरता, साधारण सा दिखने वाला, समय समय पर लोक लोकांतर घूमने वाला यात्री है, जो किसी ना किसी लोक में आता जाता रहता है, लेकिन वो उस लोक के शरीर बंधन से परे है।

वो तो एक बहुत समय से चलती हुई, शून्य अनंत में बसी हुई, लोक लोकांतर घुमती हुई छुकछुक गाड़ी है, जो चलती तो एक ऐसी पटरी पर है, जो उसके लिए ही, उसने ही बिछाई है, लेकिन वो ही उस छुकछुक गाड़ी का एक मात्र यात्री है और वो ही उस छुकछुक गाड़ी का एकमात्र चालक भी है।

जिस भी लोक रूपी स्टेशन पर उसकी छुकछुक गाड़ी पहुंच जाती है, तो वो बस वहां थोड़ा घूमफिर लेता है। और जब उसके जाने का समय होता है, तो वो सीटी बजाता बजाता, वैसे ही छुकछुक करता, जैसे वो आया था, बस निकल जाता है। वो किसी एक लोक का नहीं होता, बल्की समस्त चतुरदश भुवन का होता है।

और इसीलिए, वो उस लोक की, किसी माँ के गर्भ से जन्म नहीं ले सकता, वो तो केवल परकाया प्रवेश से ही लौटाया जाता है ।

क्योंकि उस प्रबुद्ध योग भ्रष्ट का आगमन, परकाया प्रवेश के मार्ग से ही होता है, इसीलिए उसने जन्म लिया है, ऐसा भी नहीं बोल सकते।

वो तो बस एक शरीर में आ गया, ऐसा ही बोल सकते हैं।

जिसने जन्म लिया ही नहीं, उसकी कैसी मृत्यु।

इसलिए, जब भी समय आएगा उसके लौटने का, तो वो उसी सुषुप्ति के मार्ग से ही लौट जाएगा, जिससे वो आया भी था, लेकिन परकाया प्रवेश के मार्ग से।

वैसे इधर बता देता हूं, कि परकाया प्रवेश, 24 प्रकार के होते हैं। और इनमें से अंतिम प्रकार में वो सुषुप्ति, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की अर्धांगनी के गर्भ में ही होती है।

वो अपने मानव शरीर में भी, महेश्वर योगेश्वर का ही अंश, हिरण्य शरीर धारण करके बैठा होता है, इसीलिए अपने अस्तित्व में, वो योगेश्वर का ही अंश होता है।

इसीलिए, अपने सगुण साकार स्वरूप में, ऐसा योगी ही, ब्रह्मपुत्र कहलाता है, जो महेश्वर का ही अंश होता है, इसलिए  वो अपना कार्य करके, या अपना निश्चित समय व्यतीत करके, या इन दोनों में से जो भी पहले हो गया, उसी महेश्वर या योगेश्वर या हिरण्यगर्भ को ही लौट जाता है।

उसे इस या किसी और लोक से, कुछ भी लेना देना नहीं।

उसका लेना देना, केवल उस सनातन आम्नाय परंपरा से है। इसीलिए, जीविका के लिए भी, वो बस उतना ही कर्म करेगा, जितने में उसका जीवन चल जाये, और वो अर्थ नामक पुरुषार्थ के दृष्टिकोण से, विकृत न कहलाये … इससे अधिक नहीं।

अधिकांश जन्मो में, वो गुप्त में ही रहकर अपना कार्य किया था। और उसके बारे में तो देवी देवता भी नहीं जान पाते थे, कि वो आ गया, अमुक अमुक लोक में।

इसीलिए, जिन जन्मों में, उसे जीव समाज के सामने आने की आवश्यकता नहीं थी, उन जन्मों में, वो बस दो चार पात्रों को ही दीक्षा देके, चला जाता था।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट के आगमन संकेत

वो जब भी लौटता है, तो उसके पश्चात वैदिक देवी देवता, अपने अपने दुर्ग या मंदिर त्याग देते हैं और उसी धरा पर लौट आते हैं, जहां वो आया है, उसी महेश्वर के योगी का साथ देने के लिए।

ऐसे समय पर, मंदिरों की वैदिक परंपरा, विकृत हुए बिना नहीं रह पाती, और मंदिरों से संकेत भी आते है, की वैदिक देवी देवता, अब मंदिरों में नहीं हैं ।

यहाँ जो वाकय, वैदिक देवी देवता कहा गया है, उसको अगमानिगम, ऐसा मानना चाहिए।

और जैसे जैसे यह प्रक्रिया बढ़ती चली जाती है, वैसे वैसे, धीरे धीरे प्रकृति के तत्त्व भी खंड तांडव करने की तैयारी करने लगते हैं । लेकिन प्रकृति तो जीवों के शरीर में भी रहती है।

ऐसा कभी हुआ ही नहीं की वो लौटा हो, और वैसा न हुआ हो , जैसा यहाँ बताया गया है।

 

अब आगे बढ़ने से पूर्व, इस अगम निगम, वैदिक परंपरा को समझाता हूँ

मूल में योग होता है, और गंतव्य में ज्ञान।

मूल में अगम होता है, और गंतव्य में निगम।

प्रकृति बहुवादी, अगम मार्गी मूल में होती है, और निर्गुण निराकार ब्रह्म, निगम रुपी गंतव्य में होता है।

जब वो अगम प्रकृति, उस निगम ब्रह्म से योग लगायी होती है, तो वो प्रकृति मूल में तो अगामा ही होती है, लेकिन अपने ही गंतव्य में, वो निगमा होती है। यही आम्नाय परंपरा कहलाती है।

इसीलिए, आम्नाय परंपरा ही एकमात्र मार्ग है, जिसमे प्रकृति के तारतम्य का आलम्बन लेके भी, कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हुआ जा सकता है।

यहाँ मैंने, प्राप्त हुआ जा सकता है, ऐसा कहा है, नाकि प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा कहा है ।

ऐसा कहने का कारण ये है, कि अपनी वास्तविकता में तो, तुम मुक्तात्मा ही हो, इसलिए, जो तुम हो ही, इसको प्राप्त कैसे करोगे, उसको तो प्राप्त होना पड़ेगा ना।

इसलिए, उस कैवल्य मोक्ष को, कभी भी प्राप्त किया नहीं जाता है, बल्कि उसको तो प्राप्त हुआ जाता है, और इसका कारण है, कि वो कैवल्य मोक्ष, कर्मों से परे की अवस्था है ।

जो कर्मातीत नहीं, वो कैसी मुक्ति।

सत्कर्म तो केवल मुक्तिद्वार तक ही लेके जाते हैं, लेकिन मुक्ति उन कर्मो से परे होती है।

वैसे परंपरा दो शब्दों से बना है, एक परम, जो ब्रह्म का वाचक है, और दूसरा परा, जो प्रकृति का वाचक है।  इसलिए जिस मार्ग में, प्रकृति और पुरुष का अद्वैत योग नहीं, वो परंम्परा नहीं। और जो परंपरा नहीं, वो मुक्तिमार्ग भी नहीं।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की पुनरागमन प्रक्रिया …

वो योगभ्रष्ट, जो प्रबुद्ध भी होता है, और पूर्व मे बतलायी गई, दूसरी श्रेणी का होता है, वो किसी स्थूल देही माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है। वो केवल परकाया प्रवेश से ही लौटाया जाता है। यहाँ लौटाया जाता है, ऐसा कहा है, क्यूंकि वो स्वयं कभी नहीं लौटता, उसको लौटाया ही जाता है।

इसलिए, उसका जन्म नहीं होता है, बाल्की उसका केवल आगमन होता है, किसी एक स्थूल शरीर में, जिसका जन्म उसके आगमन के लिए ही होता है।

उस शरीर के जन्म के कुछ ही वर्ष में, वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, उसी शरीर में, परकाया प्रवेश से लौटाया जाता है।

इस परकाया प्रवेश की प्रक्रिया के बारे में विस्तारपूर्वक कभी और बताउंगा।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट और जन्म मृत्यु  …

क्योंकि प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होने के पश्चात, वो कभी किसी स्थूल देही माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है, और वो परकाया प्रवेश से ही लौटाया जाता है, इसलिए, ना तो उसका कोई जन्म होता है, और ना ही उसकी कोई ही मृत्यु होती है। वो इन दोनों के प्रपंच से परे होता है, अतीत होता है।

लेकिन ऐसा होता हुआ भी, वो समय समय पर, किसी न किसी लोक में, बस आता जाता रहता है।

जब भी उसकी माँ, मूल प्रकृति को, उसकी आवश्यकता होती है, तो वो मूल प्रकृति उसको अपने ही किसी एक पञ्च विद्या रुपी गर्भ में, धारण करती है, और उसको किसी लोक में लेके आती हैं, जहां उसको एक स्थूल शरीर प्रधान करती हैं, जिसको उसके आगमन से कुछ वर्ष पूर्व ही, जन्म दिया गया था, उसी लोक की किसी स्थूल देही माता के गर्भ से।

और वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, उस पञ्च विद्या रुपी गर्भ से, परकाया प्रवेश के मार्ग से,  उसी स्थूल शरीर में आ जाता है।

वो जन्मा सा प्रतीक होता हुआ है, वास्तव में अजन्मा ही होता है, क्योंकि उसने जनम तो लिए ही नहीं, वो तो बस आ गया एक शरीर में, जो उसके आगमन के लिए ही, माँ मूल प्रकृति प्रेरणा से, तैयार किया गया था।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट की परम्पराएं और उनकी स्थिति …

जबसे वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था, तबसे उसने जन्म तो लिए ही नहीं, वो तो बस जाता रहता था। इसीलिए, उसकी परंपराएं भी वोही होती हैं, जो उसके उस पूर्व जन्म की थी, जिसमें वो पहली बार प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था।

इसलिए, जब से वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था, तबसे उसके सभी पूर्व जन्मों के गुरु और गुरु परंपरा, इष्ट देवी और इष्ट देव परंपरा, पारिवारिक परंपरा, गोत्र और वर्ण परंपरा, कुल देवी और कुल देव परंपरा, ग्राम देवा और ग्राम देवी परंपरा, उसके साथ होती है, और वो उनके साथ होता है।

इसलिए, जब भी वो लौटता है, वो सभी गुरु, देवी देवता और अन्य सभी परंपराएं और उनकी दिव्यताएं, जो उसके उस पूर्व जन्म की थी, जिसमें वो पहली बार प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ था, वो उनसब के साथ ही होती हैं।

और यही कारण है, कि जब वो लौटाया जाता है, तो ये सब परंपराएं, उनकी दिव्यताएं और उनकी मूल मुद्राएं, उसके साथ ही आ जाती हैं, और उसका साथ देने को, उसके साथ ही खड़ी हो जाती हैं।

इसलिए, अपने शरीरी रूप में वो दिखता तो अकेला सा है, लेकिन उसके भीतर की वास्तविक स्थिति में, वो अनेक होता है।

और अनेक होने के बाद भी, अपने मूल से, वो उन सबके साथ एकात्मा ही होता है, इसलिए, गंतव्य से वो अद्वैत ही होता है। और यही कारण है, कि उसका मूल मार्ग बहुवादी होता हुआ भी, उसके गंतव्य में, वो अद्वैत मर्गी ही होता है।

 

अब ये बात ध्यान से सुनो …

वो किसी भी जन्म में, उन देवी देवता का नहीं होता, जिनका वो पूर्व जन्म में था।

इसीलिए जैसे जैसे वो बार बार, लौट कर आता रहता है, वो एक एक करके, उन सभी देवी देवता और उनके तत्त्वों का साक्षातकार करके, उन सब का स्वरूप सिद्ध होता चला जाता है।

और उसकी ऐसी, आदि काल के चली आ रही प्रबुद्ध योगभ्रष्ट स्थिति में, एक दशा ऐसी भी आती है, जिसके बाद कोई प्रमुख देवी देवता या दिव्य तत्व बचता ही नहीं, जिसका वो लघु या पूर्ण स्वरूप ना हो।

ऐसी स्थिति के बाद, जब भी वो किसी शरीर रूप में लौटेगा, तो उन सभी देवी देवता और उन दैविक तत्त्वों को, उसका साथ देने के लिए आना ही पड़ेगा।

ऐसा विराट स्वरूप को पाने के पश्चात, जब भी वो किसी लोक में लौटेगा, तो ये सभी देवी देवता और तत्व, जिनका वो स्वरूप सिद्ध है, वो अपने अपने दुर्ग या मंदिर को त्याग के, उसके साथ ही हो जाएंगे।

इसीलिए, जब भी कोई मनीषी आदि काल से प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होता है, और वो बार बार लौटया जा चुका होता है, तो समस्त आगम निगम के देवी देवता, अपने अपने मंदिरों का त्याग कर के, धरा पर लौट आते हैं , और उस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के कार्य में साथ देते हैं।

ब्रह्म मार्ग और अब्रह्म मार्ग के समस्त देवी देवता, उसका साथ देने चले आते हैं। इस ब्रह्म और अब्राहम परंपरा को कभी बाद में बतलाऊँगा।

इसके साथ-साथ, क्योंकि वो योगभ्रष्ट उस पृथ्वी लोक का नहीं होता, इसीलिए ये सभी देवी देवता और दिव्यताएं, उसके मार्ग दर्शन भी करते हैं, उसके गुरु स्वरूप भी होती हैं और जबतक वो तैयार न हो जाए, उसको घेर के, छुपा कर रखते हैं।

यदि वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट इस बातलायी गई श्रेणियों का होता है, तो उसको ब्रह्म की अर्धांगनी, मां महामाया भी घेर के रखती है, लेकिन तबतक, जबतक वो तैयार न हो जाए। और ऐसी स्तिथि में, उसकी वास्तविकता को कोई भी जान नहीं पाता, जबकि वो मानव रूप में ही होता है।

इसलिए, जबतक वो तैयार न हो जाए, उसके आगमन या उपस्थिति को, कोई पृथ्वी या अन्य लोकों के निवासी, जान ही नहीं पाता है।

बस ब्रह्माण्ड की कुछ प्रधान दिव्यतायें ही जान पाती है, और वो भी उनके-अपने समय पर, और वो भी जैसी-जैसे माँ महामाया उनको बतलाती हैं, उस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के बारे में।

जबतक वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट तैयार न हो जाए, वो किसी को बताता भी नहीं है। और तैयार होने के पश्चात भी, जबतक उसे उसकी गुरु, इष्ट देवादि परंपरा से ही प्रेरणा न मिले, वो अधिक लोगों को उसकी वास्तविकता दर्शाता भी नहीं है।

ऐसे समय पर, वो एक अति साधारण मानव के समान, जीवन व्यतीत करता है। वो समाज में रहता हुआ भी, समाज से सुदूर होता है।

और ऐसी अवस्था में, वो शांत चित्त होके, “स्वयं ही स्वयं को” जाता हुआ, अपनी आत्मा पर ही साधना करता रहता है। उसको तो, उसके अपने भी नहीं जान पाते।

 

अब ब्रह्म और अब्रह्म मार्ग को बताता हूं …

अब आगे बढ़ने से पहले, इस ब्रह्म और अब्रहम मार्ग को बताता हूं, जिसके बारे में, पहले कहा था …

जो कुछ भी है इस जीव जगत में  है, वो सब उसी निर्गुण निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।

ब्रह्म की मूल अभिव्यक्ति, जो ब्रह्माण्ड के उदय से भी पूर्व में हुई थी, वो शून्य अनंत की थी। इसलिए ये शून्य अनंत, इस ब्रह्माण्ड का अंग नहीं है, और यही कारण है, कि इसको इस भाग में बतलाया ही नहीं गया है।

ब्रह्म की अभिव्यक्ति की कुछ प्रधान अवस्थाएं होती हैं। तो पहले उन अवस्थाओं को बताता हूं …

  • निर्गुण निराकार … ये निर्गुण निराकार, ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है, जो जीव जगत का सनातन आत्मा है, और इसीलिए वैदिक वांग्मय में, वो परमात्मा कहलाया गया है।

साधक का वास्तविक आत्मस्वरूप भी यही है, जो समदृष्टा, सर्वदृष्टा और त्रिकालदर्शी होता हुआ भी, इन सब से सुदूर, इन सब का साक्षी, सर्वसाक्षी ही है।

यही निर्गुण निराकार ही पूर्ण है, निरालम्ब है, निराधार है, निर्विकल्प है और वास्तव में तो, निर्बीज भी यही है।

जब हम निर्गुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वो निराकार ही अनंत होता है। इसलिए निर्गुण निराकार को, निर्गुण अनंत भी बोला जा सकता है।

 

  • सगुण निराकार … ये निर्गुण निराकार ब्रह्म की, एक मुख्य अभिव्यक्ति है, जो गुणात्मक होने के साथ साथ, निराकारी भी है।

जब हम सगुण शब्द के साथ, निराकार शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वो निराकार अनंत नहीं होता है। इसका कारण है, कि सगुण कभी अनंत हो ही नहीं सकता।

यदि मैं, सगुण निराकार ब्रह्म का, साधरण शब्दों में उदहारण दूं, तो ये समस्त ब्रह्माण्ड वही है। और समस्त देव लोक भी वोही सगुण निराकार ब्रह्म हैं।

इंद्रियों का वास्तविक स्वरुप भी, वो ही सगुण निराकार ब्रह्म है। समस्त तृष्णाएं, वासनाएँ, इस जीव और जगत की समस्त आवश्यकताएँ भी, वो ही सगुण निराकार ब्रह्म है। और समस्त जीवों का भाव संसार में भी, वो ही सगुण निराकार ब्रह्म में बसा हुआ, वो ही सगुण निराकार ब्रह्म है।

इसी सगुण निराकार में, शून्य भी आता है। इसलिए, शून्य समाधि भी, सगुण निराकार की ही समाधि होती है।

वो सगुण निर्गुण निराकार, जो श्वेत वर्ण का निराकार तत्व होता है, जो परा प्रकृति को दर्शता है, वो भी इसी सगुण निराकार का अंग होता है। इसलिए, प्रकृति के नौ कोश, भी सगुण निराकार ही हैं। ये सगुण निर्गुण निराकार भी, इसी सगुण निराकार ब्रह्म का अंग होता है। अपनी वास्तविकता में, , प्रकृति के 24 तत्व भी, वो ही सगुण निराकार ब्रह्म है।

 

  • सगुण साकार … ये ब्रह्म की पिंड रूप में अभिव्यक्ति है। सारे जीव, पितामह ब्रह्म और सारे अवतारों तक, इसी सगुण साकार के अंग हैं।

सारे सिद्ध शरीर भी सगुण साकार ही होते हैं।

इसी सगुण साकार में, वो बिंदु शून्य भी आता है, जिससे ब्रह्मांड का उदय हुआ था। इसलिए, वेद मनीषि कह गए, कि जब यह ब्रह्माण्ड अपने इस विशालकाय स्वरुप में नहीं था, तब भी यह था, एक ऐसे स्वरुप में, जिसका आकार सुई की नोक के समान था। वो बिंदु शून्य की दिव्यता, 10 हाथ वाली मां महाकाली हैं, सगुण साकार ही है।

इसी सगुण साकार में, सगुण निर्गुण साकार भी आता है, जो परा प्रकृति का, आदि शक्ति का, सिद्ध शरीर भी कहलाता है।

 

अब ध्यान से सुनो …

इसी सगुण साकार का सीधा नाता, सगुण निराकार से होता है। इसलिए, कुछ ऐसी बिंदु भी होते हैं, जिनको इन दोनो में पाया जाता है, जैसी इंद्रियां, पंच कोश, पंच भूत, पंच तन्मात्र, त्रिकाया इतियदि।

ऐसे बिंदुओं का आलम्बन लेके, साधक को अपने ही भावराज्य में, इस जीव और जगत की ओर, समता की प्राप्ति होती है। और इसीलिए, ऐसे बिंदुओं पर साधनाएं, समता सिद्धि की प्राप्ति करवाती है, जो परा प्रकृति, आदि शक्ति की होती है।

 

इसी भाग में, एक मार्ग बिंदु बता रहा हूं, तो इसको भी ध्यान पूर्वक सुनो

इसके अतिरिक्‍त, कुछ ऐसे भी बिंदु होते हैं, जो सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, तीनो में, समान रूप होते हैं, जैसे वैदिक विग्रह और लिंग।

इनपर साधनाएं, सर्व समता की सिद्धि का मार्ग होती है, जो उसी सर्वसम, सगुण साकार, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म और उनके सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक को लेकर जाती हैं।

इनकी सिद्धि से, एक हीरे के समान, सर्व समतावादी सिद्ध शरीर की प्राप्ति होती है, जो साधक की चेतना को , सूर्यलोक से अव्यक्त प्रकृति और वहां से सीधा, सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक को ले जाता है।

इन दोनो मे से, किसी का भी आलम्बन लेके, साधक अपने ही चेतन, ज्ञान रूपी भाव साम्राज्य में, निर्गुण निराकार को प्राप्त सकता है।

 

अब बातों से, ब्रह्म और अब्रम मार्ग को बता रहा हूं …

  • पहले ब्रह्म मार्ग … जो उत्कर्ष मार्ग, निर्गुण निराकार ब्रह्म और उसकी समस्त अभिव्यक्तियों को साथ लेकर चलता है, वो ब्रह्म मार्ग कहलता है।

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ऐसे मार्ग का ही होता है,, चाहे उसका जन्म किसी भी कुल या परंपरा में हुआ हो।

क्योंकि इस ब्रह्म मार्ग का ब्रह्म, परिपूर्ण का होता है, अपनी ही समस्त अभिव्यक्तियों में समान रूप में बस होता है, इसलिए इस ब्रह्म मार्ग में रचैता ही रचना और रचना का तंत्र भी होता है।

और इसीलिए, जब भी उस ब्रह्म को आवश्यकता पड़ती है, वो जीव स्वरूप में अवतार लेके या सीधा ही प्रकट होके आ सकता है।

 

अवतार की जो परिभाषा होती है, अब वो बताता हूं

वो पूर्णमुक्त, जो दूसरों का तारण करने के लिए, एक छोटे से काल खंड के लिए, स्वयं ही बंधन को अपनाता है, और किसी जीव रूप में नीचे के लोकों में आता है, वो ही अवतार कहलाता है।

वो गंतव्य स्थित आत्मा, जो दूसरों का उत्कर्ष के लिए, एक छोटे से काल खंड के लिए, स्वयं ही अपकर्ष को अपनाता है, वो ही अवतार कहलाता है।

वो जो अपने वास्तविक स्वरूप में,  सद्गति और दुर्गति, दोनों से परे होता हुआ भी, एक छोटे से काल खंड के लिए, अपनी गति को नीचे लाके, दूसरों की गति को ऊपर, मुक्ति की ओर लेके जाता है, वो ही अवतार कहलाता है।

ऐसा अवतार, केवल ब्रह्म मार्ग में ही होता है।

 

  • तो अब अब्राहम मार्ग को बतलाता हूं …

जो उत्कर्ष मार्ग, उन बतलाए गए तीनों में से, केवल एक का ही होता है, वो ब्रह्म मार्ग की परिपूर्णता में नहीं होता है, इसलिए, ऐसा अपूर्ण मार्ग मेरे बहुत पूर्व के जन्मों में, अब्रह्म मार्ग कहलाता था।

पूर्ण नामक शब्द, ब्रह्म का द्योतक है, इसलिए जो अपूर्ण होता है, उसी को अब्रह्म कहा जाता है I

अपूर्ण होने के कारण, ऐसे अब्रह्म मार्ग में, निर्गुण निराकार के बिंदु भी नहीं होते हैं, और इसीलिए, ऐसे मार्ग का गंतव्य देवता या तत्व, ब्रह्म के सगुण निराकार स्वरूप तक सिमित रह जाता है।

अपूर्ण होने के कारण, ये मार्ग बहुत ही सीमित सा होता है, जिसकी गति बस किसी एक देवलोक तक ही होती है।

इसीलिए, ऐसे मार्ग के प्रधान देवी देवता अभिमानी ही होते हैं। ऐसे अब्रह्म मार्गों में अनाभिमानी देवी देवता नहीं होता है। और अधिक से अधिक, ऐसे मार्ग हिरण्यगर्भ ब्रह्म तक ही जा पाते हैं, जो अभिमानी और अनाभिमानी दोनो होते हैं।

इसलिए, जब किसी लोक में, ऐसे अब्रहम मार्ग ही प्रधान हो जाते हैं, तब विष्णु लोक के स्थान पर, हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लोक से कोई आता है।

विश्व की ऐसी अवस्था में, श्री विष्णु नहीं आते हैं, बाल्की प्रजापति या हिरण्यगर्भ, जो महेश्वर योगेश्वर महाब्रह्म होते हैं, वो ही आते हैं।

ऐसे अब्राहम मार्ग के अभिमानी देवी देवता सदैव ही, समय समय पर, क्लेश का कारण बनते हैं।

इसलिए, मेरे पूर्व जन्मों में, वेद मनीषी कहते थे, कि अभिमानी देवी देवता के मार्ग का आलम्बन बहुत सावधानी से लेना चाहिए, नहीं तो ऐसे मार्ग ही समय समय पर, क्लेश के चक्र में ले जाएंगे।

ऐसे मार्ग विकृत एकवाद के होते हैं, और यही कारण है, कि अधिकांश रूप में, ऐसे अभिमानी देवी देवताओं के मार्गों से ही, उस क्लेश युग, कलियुग का आगमन और विस्तार होता है।

अभी के, जितने अब्राहमिक पंथ हैं, वो सब इसी सगुण निराकार श्रेणी के हैं , और उनके देवी देवता भी अभिमानि ही हैं।

और क्योंकि ये सभी अब्रहम मार्ग, उस ब्रह्म की परिपूर्णता में ही नहीं हैं, इसलिए इसमें ना तो सद्योमुक्ति, न ही जीवनमुक्ति न ही विदेमुक्ति के सिद्धांत होते हैं।

इनका हिसाब किताब और मुक्ति, विश्व के अंत काल में ही होती है, जिसके लिए किसी विशेष मानव को आना भी होता है।

 

और क्योंकि ये अब्रहम मार्ग, अपूर्ण मार्ग हैं, इसलिए इसमें प्रकृति का आलम्बन लेके, मुक्ति की प्राप्ति भी नहीं हो सकती है।

क्योंकि अब्राहम मार्ग ब्रहम की परिपूर्णता में नहीं होती है, इसलिए, इनका रचैता, रचना तो कर सकता है, लेकिन वो ना तो अपनी रचना हो सकती है और ना ही अपनी रचना का तंत्र हो सकता है।

इसलिए, इनका रचैता अवतरन भी नहीं कर सकता और यही कारण है, कि उसे किसी और आत्मा की आवश्यकता ही रहती है, जो समय समय पर आकर, उसके मार्ग को किसी लोक में बता सके।  और अपूर्ण होने के कारण, स्वयं अवतार लेके आ ही नहीं सकता।

और क्योंकि वो रचैता ही अपूर्ण होता है, इसलिए, उसका दिया हुआ ज्ञान भी ना तो पूर्णता की ओर लेकर जाता है, ना ही जीव और जगत से स्वतंत्रता की ओर लेकर जाता है। उसका ज्ञान, बस उसके लोक तक ही सीमित होता है।

उसका ज्ञान भी बंधन कारक होता है, मुक्ति कारक नहीं। ऐसा होने के कारण, वो ज्ञान ही प्रपंच और त्रसादि चक्र का कारण बनता है।

लेकिन ब्रह्म की रचना में, ऐसे स्वयं ही स्वयं की प्रशंशा करने वाले, बंधनकारक, तो हजारो अभिमानी देवी देवता है।

 

और अब इन बातों के अंत में …

लेकिन एक बात जान लो, कि अंततः, ये दोनो बतलाए गए ब्रह्म और अब्रहम मार्ग, उसी अनादि अनंत, सनातन, निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही लेके जाएंगे, क्योंकि इन दोनो के गंतव्य में, वोही निर्गुण निराकार ब्रह्म है, जिसकी अभिव्यक्ति ये दोनो मार्ग भी हैं।

लेकिन, इन दोनों मार्गों में, अंतर इतना ही है, कि अभिमानी देवता का मार्ग, त्रासदियों से होकर, जाता है, क्यूंकि यह मार्ग बंधनकारक होता है, जबकि ब्रह्म की रचना में, जीव को मूल रूप में स्वतंत्र ही बनाया गया था।

और क्यूंकि यह अब्रह्म मार्ग, ब्रह्म की रचना के विरुद्ध जाता है, इसलिए, यह अब्रह्म मार्ग समय समय पर त्रासदियों का कारण बने बिना नहीं रह पाता है।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के कुल देवी, कुल देवता और आराध्य  …

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की कुल देवी, भू देवी ही हो सकती हैं, और कोई भी नहीं।

इसका कारण है, कि ऐसा हुए बिना, कोई भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, परकाया प्रवेश के मार्ग से आ ही नहीं पायेगा।

लेकिन आजकल तो अधिकांश वेद मनीषी ही, भू देवी को नहीं मानते, तो बाकी जन मानस के बारे में मैं क्या बोलूं।

उसके कुल देव, रुद्र ही होंगे, जो उसकी आत्मशक्ति स्वरुप में, उसके भीतर ही बसे हुए होंगे।

इसका कारण है, कि ऐसा हुए बिना, ना तो वो आत्मा मार्गी हो पाएगा, ना ही अपने पूर्व जन्मों का ज्ञानी ही होगा।

लेकिन आजकल तो अधिकांश वेद मनीषी ही रुद्र देव का आत्ममार्ग भूल गए, तो बाकी जन मानस के बारे में, मैं क्या बोलूं।

उसके आराध्य, पंचदेव में से कोई भी हो सकते हैं।

और उसका आत्ममार्ग, तैंतीस कोटि देवी देवता से ही होकर जाएगा, जो उसके मेरुदण्ड के, तैंतीस तैंतीस बिन्दुओं में ही निवास करते होंगे।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का मूल मार्ग  …

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, या तो शाक्त होगा और या शैव होगा। इनके अतिरिक्‍त वो कुछ और हो ही नहीं सकता है।

ना तो कोई सौर्य, ना गाणपत्य और ना ही वैष्णव, कभी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुआ है।

 

तो अब मैं इन दोनों बिंदु, जो शाक्त और शैव हैं, उनके प्रभेद को बताता हूं  …

 

पहला प्रभेद … यदि वो शाक्त हुआ, तो वो अपने मार्ग में, ऐसा ही होगा …

 

भीतर से शाक्त, बाहर से शैव और इस धरा पर वैष्णव

 

और अपनी अंत गति में, वो ऐसा ही होगा …

भीतर से आत्मना, बाहर से सर्वा और इस ब्रह्माण्ड में ब्राह्मण

 

दूसरा प्रभेद … और यदि वो शैव हुआ, तो वो अपने मार्ग में, ऐसा ही होगा …

भीतर से शैव, बाहर से शाक्त और इस धरा पर वैष्णव

 

और अपनी अंत गति में वो ऐसा ही होगा …

भीतर से सर्वा, बाहर से आत्माना और इस ब्रह्माण्ड में ब्राह्मण

 

 

अब इन दोनों प्रभेदों के अर्थ को समझो

वो धरा पर वैष्णव ही होगा। वो इस चतुर्दश भुवन में ब्राह्मण ही होगा, जिसका अर्थ, ब्रह्मद्रष्टा, ॐ द्रष्टा, वेदद्रष्टा ही मानना ​​चाहिए।

लेकिन पहले प्रभेद में, जब वो भीतर से शाक्त है और बहार से शैव है, तो ये दशा, उसके लिए हानिकारक है, लेकिन जीव जगत के लिए नहीं।

और दूसरे प्रभेद में, जब वो भीतर से शैव है और बहार से शाक्त है, तो ये दशा, जीव और जगत के लिए हानिकारक, लेकिन उसके लिए नहीं।

अब मैंने संकेत में ही सही, लेकिन बता दिया, कि किस स्थिति में, वो किस मार्ग का होगा।

 

 

लेकिन, ऐसा होता हुआ भी, वो जैसा होगा, उसको अब बतलाता हूँ

अपनी मूल वास्तविकता में, वो अपनी आत्मा के स्वयंप्रकाश का होगा ही, इसीलिए, मूल से वो ऋग्वेदी हिरण्य गर्भात्मक ब्रह्म का ही होगा।

और यही कारण है, कि जिस भी कुल में वो आएगा या भेजा जाएगा, वो कुल अपने मूल से, सौर्य मार्गी ही होगा। यदि ऐसा नहीं होगा, तो वो योगभ्रष्ट, प्रबुद्ध भी नहीं हो सकता।

और अपने गंतव्य में, वो इस ब्रह्माण्ड के लिए, अनुग्रह स्वरूप ही होगा, इसलिए, उसके गंतव्य में, वो गणपत्य मार्गी ही होगा।

 

 

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के गोत्र प्रवर्तक ऋषि  …

मूल में, उसका गोत्र क्रतु ही होगा। लेकिन अब इसका करण बताता हूं।

इस ब्रह्मकल्प के प्रथम मन्वन्तर में, अर्थार्त स्वयंभू मन्वन्तर में, एक ब्रह्मऋषि थे, जिनके नाम था क्रतु।

ब्रह्मऋषि शब्द का अर्थ होता है, वेद दृष्टा, वेदार्थ स्थित, मंत्र दृष्टा, मन्त्रार्थ स्थित, ॐ दृष्टा, ओउमार्थ स्थित, आत्म दृष्टा, ब्रह्म दृष्टा, इत्यादी। जो ऐसा होता है, वो आत्मलीन, ब्रह्मलीन, ओउम्लीन तो होगी ही।

क्रतु शब्द का अर्थ होता है बल या आत्मबल। अपने ही जीव रूपी कृत्यों को बनाने का बल।

वो ब्रह्मऋषि क्रतु, प्रजापति के ही स्वरूप थे, और आयुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता भी थे।

उनके 60,000 मनस पुत्र हुए थे, जो 5 से 6 इंच लम्बे थे। वैसे तो वो मनस पुत्र 72,000 थे, लेकिन मैं 60,000 ही बोलूंगा, क्यूंकि ऐसा ही कहा गया है।

उन सभी मनस पुत्रों को उनके मनस पिता ने, जो प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु थे, आदेश दिया था, कि इस पूरे ब्रह्मकल्प में, जबभी मां मूल प्रकृति को, तुम सब में से, किसी की भी आवश्यकता होगी, तब तब तुम लौटोगे।

लेकिन तुम तबतक ही लौट पाओगे, जबतक तुम एक एक करके, अष्टम चक्र को 101वी बार पार नहीं कर जाओगे। अर्थार्थ, तुम सभी तबतक ही लौटोगे, जबतक, तुम एक एक करके, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को, 101वी बार पूर्ण नहीं कर लोगे।

और उन्होंने ये भी कहा था, कि, जबतक तुम ऐसा न कर लोगे, तबतक, तुम सभी योगभ्रष्ट होकर, लेकिन प्रबुद्ध होकर रह जाओगे, और किसी न किसी नीचे के लोकों में, माँ मूल प्रकृति के आदेश पर, काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता महाकाली की शक्ति से, आते जाते रहोगे।

और ऐसी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट अवस्था में, जब जब माँ मूल प्रकृति को तुम्हारी आवश्यकता होगी, तब तब तुम लौट आओगे।

इस पूरे कल्प में, जो भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट आए हैं, वो सभी प्रजापति स्वरूप ब्रह्मऋषि क्रतु के इनही 60,000 मनस पुत्रों में से थे। और आगे भी, जो भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट लौटेंगे, वो इनही 60,000 मनस पुत्रों में से होंगे।

ब्रह्मऋषि क्रतु ने ये भी कहा था, कि जबतक तुम सब, एक-एक करके, अष्टम चक्र को 101वी बार पार नहीं कर जाओगे,  तबतक तुम सभी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट तो रहोगे, और प्रबुद्ध भी रहोगे, लेकिन मेरी दीक्षा के कारण, तुम कभी भी मार्गभ्रष्ट, अर्थार्थ, वेदभ्रष्ट नहीं हो पाओगे।

अपने मनस पुत्रों को, ब्रह्मऋषि क्रतु ने ये भी कहा था, मेरी दीक्षा के कारण, कोई भी युग हो, परिस्थति हो, या इस जीव जगत की कोई भी पारिस्थितिकी हो, तुम प्रबुद्ध योगभ्रष्ट होते हुए भी, मार्गभ्रष्ट कभी नहीं हो पाओगे और अंतः, अष्टम चक्र को 101वी बार सिद्ध करके, पार करके, मेरे समान ही प्रजापति स्वरूप को पाओगे।

और उन्होंने ये भी कहा था, कि इसमें समय तो बहुत लगेगा, कष्ट भी बहुत आएंगे, लेकिन अंततः, तुम अपनी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट स्थति को पार कर ही जाओगे, और मेरी इस आज्ञा का उलंघन भी कभी नहीं कर पाओगे।

इसके पश्चात, उन सभी मनस पुत्रों को दीक्षा देकर, पृथ्वी के एक एक स्थान पर भेजा था।

और इसके पश्चात वो सभी मनस पुत्र, उन स्थानों पर चले भी गए थे, अपने मनस पिता और गुरु, ब्रह्मऋषि क्रतु के आदेशानुसार।

 

अब आगे बढ़ता हूं …

उस समय, मेरे मनस पिता के आदेशानुसार, मेरा स्थान आज के चिली नामक देश में था, जो दक्षिण अमेरिका में है। और कुछ समय मैंने, उसी दक्षिण अमरीका के पेरू आदि देशों में भी व्यतीत किया था। लेकिन उस जन्म में, मेरा मूल स्थान चिली ही था।

उस कालखंड में, ये सभी महाद्वीप खंडित भी नहीं थे, ये सब एक दुसरे से जुड़े हुए थे, और वो विशाल महाद्वीप ही जम्बूद्विक कहलाया था।

और आज वो मूल स्थान एक छोटे से पर्वत पर है, जो एंतोफगास्ता नामक बंदरगाह के समीप है। 1995-96 में, मैं वहां गया भी था, जब मेरा जहाज उस बंदरगाह पर गया था।

स्वयंभू मन्वन्तर में, मैंने इसी स्थान पर बहुत लम्बे समय तक, साधना भी की थी, इसलिए, जब जहाज वहां गया था, तो वो स्थान मुझे बुला भी रहा था।

और क्योंकि इस जनम में, मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवन बुद्ध के गुरुदक्षिणा रुपी अनुग्रह से, मेरा अष्टम चक्र 101वी बार पार होना तय था, इसलिए, इस आगमन से कोई 500 वर्ष पूर्व, मैंने इसी चिली नामक देश के एक और स्थान पर, अपने प्राण विसर्गी करके सप्तम चक्र से त्यागे थे।

मेरा वो 5 से 6 इंच का मानव शरीर, जो मैंने योगमार्ग से ही त्यागा था, आज भी वहीं दक्षिण अमेरिका में ही होगा।

जब भी वो 5 से 6 इंच का मानव शरीर मिले, उसका वैदिक अंतिम संस्कार, परिव्राजक परंपरा के अनुसार होना चाहिए, नहीं तो इस धरा पर ऐसी त्रासदियां आएंगी, कि मानव ही नहीं, यहां की कलयुगी दिव्यताएं भी अचंभित रह जाएंगी, कि इस भूमंडल पर हो क्या रहा है।

मेरी इस बात को स्मरण में रखना, और उस मृत शरीर के साथ कुछ भी छेड़ छाड़ मत करना, नहीं तो खंड प्रलय, उसके विभिन्न स्वरूपों में आती ही जायेगी, क्यूंकि वो प्रजापति स्वरुप, ब्रह्मऋषि क्रतु के एक मानस पुत्र का, स्वयम्भू मन्वंतर से चला हुआ स्थूल शरीर है।

प्रजापति और उनकी सार्वभौमशक्ति रूपी अभिव्यक्ति, माँ प्रकृति को अधिक समय नहीं लगेगा, एक मानव जाती का अंत करके, दूसरी का उदय करने में। इसलिए, मेरी इस बात को स्मरण में रखना और उस शरीर के साथ कुछ भी छेड़ छाड़ नहीं करना, उसका परिव्राजक परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार भी करना, नहीं तो आगामी काल खंड में, अधिकांश मानव जाती का इस धरा से ही अंत हो जाएगा।

 

अब मैं उस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को संक्षेप में बताता हूं  …

ये आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, जो अष्टम चक्र से होकर जाता है, वो अथर्ववेद के 10.2.31, बत्तीस, और तैंतीसve मंत्रों से होकर जाता है। लेकिन इन मन्त्रों पर कभी और बात करूंगा।

 

अब बातों पर ध्यान देना क्यूंकि मै, अष्टम चक्र के मार्ग मे, अंत गति के कुछ बिन्दुओं को बता रहा हूँ …

जो योगी, अपने पूरे उत्कर्ष मार्ग के समय में, इस अष्टम चक्र को, 99वी बार पार करता है, वो रुद्र स्वरूप होता है। उसके हृदय में ही, भगवे रंग के रुद्र, उसकी आत्मा शक्ति स्वरूप में, पिंड रूप में निवास करते हैं।

और जो योगी, इसी अष्टम चक्र को, 100वी बार पर करता है, वो इंद्र स्वरूप होके, त्रिशंकु होके ही रह जाता है। ऐसा योगी तबतक त्रिशंकु होकर रहता है, जबतक वो इसी अष्टम चक्र को, 101वी बार पार न कर जाए। उस त्रिशंकु नामक योग के बारे में, कभी और बात करूंगा, जब मैं अष्टम चक्र की योग पद्दति और उसके आंतरिक अश्वमेध यज्ञ केसिद्धांत को बताऊंगा।

और जब योगी, इसी अष्टम चक्र को, 101वी बार पर करता है, तो वो योगी प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु के समान हो जाता है। इसीलिए, इन सभी पुत्रों को ऐसा ही आदेश था, कि इस अष्टम चक्र को 101वी बार पार करना होगा, नहीं तो तुम्हारी गति, उस गंतव्य स्वरूप प्रजापति तक जाएगी ही नहीं। और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक तुम उस ब्रह्म रूपी कैवल्य मोक्ष का साक्षात्कार करके भी, उसके हो नहीं पाओगे।

सिद्धों ने इसी अष्टम चक्र को निरालंब चक्र, निरालंबस्थान इत्यादि कहा है। ये नाथ सिद्ध का मार्ग भी होता है, जो एक पूर्व जन्म में, मैं भी था, और जब मेरा मेरा नाम, धर्म शब्द से था।

और क्योंकि इस अष्टम चक्र को जब चेतना पार करती है, तो ये चक्र ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों से समान प्रतीत होता है, इसलिए, इस चक्र को ब्रह्म चक्र और ब्रह्मलोक चक्र भी कह सकते हैं।

एक बात याद रखो, कि, जो पूरा पागल नहीं होता, वो इस अष्टम चक्र के योगमार्ग का भी नहीं हो सकता। ये एक ऐसा मार्ग है, जिसमें योगी को पागलपन की सीमा ही लांघ जानी होती है।

और इसका कारण है, कि, ये अष्टम चक्र या निरालंब चक्र का मार्ग, तबतक पार नहीं होगा, जबतक योगी स्वयं ही स्वयं का विनाश करने को तैयार न हो।

इस अष्टम चक्र सिद्धि के मार्ग में, जिस योगी ने अपने से, या किसी और से, लगाव या अलगाव कर किया, तो वो इसका सिद्ध नहीं हो पाएगा।

इसलिए, इस मार्ग में, कभी कभी तो अपना ही शत्रु होना पड़ेगा और अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण, तीनो काया के भीतर, वो सब कुछ भी करना पडेगा, जिसको करने को, इस कलियुग में आये हुए, विकृत देवी देवता भी भयभीत होते हैं।

 

101वी बार अष्टम चक्र के पार  …

जब भी इस पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में, गुरु युग के आने का समय होता है, तब एक ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, जिसने अपने अष्टम चक्र को 101वी बार पार करना होता है, वो आता ही है।

गुरु युग का अर्थ होता है, गुरु गद्दी का युग, जो आमनाय युग या वैदिक युग या व्यास पीठ का युग।

और क्योंकि हर एक कलियुग में, इस पृथ्वी के 18 अग्रगमन चक्र होते हैं, इसलिए, हर एक कलियुग में, 18 गुरु युग भी होते हैं। ये सभी गुरु युग, कोई 10,000 वर्षों के होते हैं।

और इस गुरु युग में, ब्रह्मऋषि क्रतु के कोई भी पांच मनस पुत्र, जो प्रबुद्ध योगभृष्ट हैं, वो अपने समय पर आते रहेंगे, और अपने अष्टम चक्र को, पार भी करेंगे।

ये सभी ब्रह्मर्षि क्रतु के मानस पुत्र ही होंगे, और ये सभी पंच मुखा सदाशिव के किसी एक मुख से आएँगे और इसीलिए, यह सभी, उस सदाशिव के ही होंगे। ये सभी मनस पुत्र पञ्च मुखा सदाशिव को परमगुरु स्वरुप में ही देखेंगे।

हमारा आज का समय एक ऐसे योगी का ही है, जो महेश्वर लोक से लौटाया गया है, अर्थार्त, वो सदाशिव के पूर्वी मुख से लौटाया गया है, जिससे पाशुपत परंपरा में, तत्पुरुष भी कहा जाता है, और जो महेश्वर कहलाता है। और इसी मुख को, पंच ब्रह्मोपनिषद के मार्ग में, सद्योजात भी कहते हैं।

वो महेश्वर से लौटा योगी, एक ऐसे सिद्ध शरीर का धारक है, जो स्वर्ण शरीर होता है, और जो हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म का होता है।

महेश्वर को ही हिरण्यगर्भ कहते हैं, जो तैंतीस कोटि देवी देवता में, प्रजापति सृष्टिकर्ता की अभिव्यक्ति होते हैं। प्रजापति ही महाब्रह्म शब्द से भी पुकारे जाते हैं।

महेश्वर को ही योग गुरु, योग ऋषि, योगेश्वर, योगीराज, योग सम्राट, परम योगी, योग और योगतंत्र भी कहते हैं। ये सब उसी महेश्वर के ही नाम हैं।

ये बतलाती गई उपाधियां, केवल उसी महेश्वर की होती हैं, इसलिए, इन उपाधियों को कोई भी सिद्ध योगी धारण नहीं करता है। मानव और बाकी सभी सत्ताएं, केवल योगी शब्द तक ही सीमित होती है।

वो महेश्वर ही हर योगी के गुरु और आराध्य होते हैं।

वो महेश्वर के लोक से लौटा हुआ योगी ही, उस आने वाले गुरु युग का सूत्र और बीज स्वरूप होगा। और अपनी उत्पति के मूल में, वो भी प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु का ही मनस पुत्र होगा। और इसी जन्म में वो, अष्टम चक्र को 101वी बार पार करके, प्रजापति स्वरूप को प्राप्त भी होगा।

 

अब उस गुरु युग के बारे में, एक संकेतिक बात बतला रहा हूं, तो ध्यान से सुनो …

उस गुरु युग में, राजा कोई भी हो, शासन गुरु गद्दी ही करती है।

इसका कारण है, कि गुरु युग में, नारायण ही सम्राट और गुरु होते हैं, जिनकी गुरु गद्दी ही आम्नाय पीठ कहलाती है।

और क्योंकि उस गुरु युग में, सारे राजा, इसी गुरु गद्दी के शिष्य होंगे, इसलिए, राजा जो भी हो, राज तो आम्नाय चतुष्टय की गुरु गद्दी ही करेगी।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के वर्णाश्रम और आश्रम विकल्प

जब प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, लौटाया जाता है, तब उसके पास, वैदिक आश्रम और वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार, अधिक विकल्प नहीं होते।

 

तो पहले वर्णाश्रम विकल्प बताता हूँ

उसकी मां प्रकृति के वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार, उसके पास जो विकल्प होते हैं, वह ऐसे होते हैं।

ब्राह्मण ब्राह्मण, ब्राह्मण क्षत्रिय, क्षत्रिय ब्राह्मण, ब्राह्मण वैश्य और वैश्य ब्राह्मण। वर्णाश्रम के अनुसार, उसके पास बस इतने ही विकल्प होते हैं, और कुछ भी नहीं।

 

तो अब उसके वैदिक आश्रम व्यवस्था के विकल्प बतलाता हूँ  …

वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार, ऐसा प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, अपने जीवन में, ब्रह्मचर्य और सन्यास में तो होगा ही। और यदि उसका सन्यास गृहस्त सन्यास होगा, तो वो उसको गृहस्त वानप्रस्थ में रहकर ही धारण करेगा।

लेकिन कार्य की आवश्यकता के अनुसार, वह गृहस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रमों में भी जा सकता है।

लेकिन यदि वो गृहस्त्य में नहीं जाता, तो आजीवन, उसका मानसिक परिधान वानप्रस्थ का ही रह जाएगा।

और ऐसी दशा में, वह प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, देहावसान के समय पर ही संन्यास ग्रहण करता है, इससे पूर्व नहीं।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का व्यवहार  …

यहां बताए गए बिंदु केवल तबतक ही लागू होते हैं, जबतक अष्टम चक्र को 101वी बार पार ना कर लो।

यहां बताए गए बिंदु, अष्टम चक्र को 101वी बार पार करने के बाद लागू नहीं होते हैं।

क्योंकि वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, अष्टम चक्र से 101वी बार पार नहीं गया है, और वो इस जीव जगत में फंसा हुआ है, इसलिए, वो “स्वयं ही स्वयं में” रहता है, ताकि शीघ्र ही वो इस दशा से बाहर निकल पाए। यदि वो ऐसा नहीं करेगा, तो अनादि कालों तक वो इसी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट अवस्था में ही फंसा रह जाएगा।

उसका इस जीव जगत से कोई लेना नहीं होता, क्योंकि उसे पता है, कि यदि वो इस जीव जगत के तारतम्य में फंस गया, तो वो अपनी योगभ्रष्ट स्थिति में ही अनादि कालों तक फंसा रह जाएगा। और यही कारण है, की उसके उत्कर्ष मार्ग के अनुसार, वो स्वयं ही स्वयं में रह जाता है।

इसलिए, वो शरीर से तो समाज में ही होता है, लेकिन उसके भीतर की अवस्था से, वो उस समाज से बहुत दूर होता है। समाज में रहता हुआ भी, बस उतना ही सामाजिक होता है, जिसके बिना वो रह नहीं पाएगा।

धरा पर रहता हुआ भी, अपने ऊपर एक ऐसा आवरण डाल के रहता है, ताकि सूक्ष्म और दैविक लोकों के मनीषी भी, उसकी वास्तविकता को पहचान न पाए।

वो उतना ही ज्ञान बताता है, जिसके बिना उसका वो जीवन सार्थक ही नहीं होगा। वो उसी साधक को ही अपनी ज्ञान दीक्षा देता है, जो उस ज्ञान का वास्तविक पात्र होता है।

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट और अथर्ववेद  …

ऐसे योगी का योग मार्ग, उसको अंततः, अथर्ववेद के 10.2.31, बत्तीसवें और तैंतीसवें मन्त्रों में ही लेके जाएगा, क्योंकि यही मंत्र आन्तरिक अश्वमेध यज्ञ जो दर्शाते है, जिसका वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट सिद्ध भी होता है।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट और बोधिसत्व …

समस्त बोधिसत्व भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही होते हैं। जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट नहीं होता, वो बोधिसत्व भी नहीं हो सकता।

जब कोई प्रबुद्ध योगभ्रष्ट योगी पूर्ण बुद्धत्व को धारण करता है, तो ऐसे बोधिसत्व भी उससे सीखने को, उसके शिष्य हो जाते है।

जब कोई प्रबुद्ध योगभ्रष्ट योगी, उस बुद्धत्व को प्राप्त होता है, तो उस समय, चाहे कोई भी बोधिसत्व, किसी भी लोक में रहता हो, उससे एक विश्वव्याप्त शब्द सुनाई देता है, जो मकार या ब्रह्मनाद का होता है।

उसी ब्रह्मनाद का आलम्बन लेके, वो बोधिसत्व उस लोक में, जहां पर उस समय, वो बुद्ध निवास करता है।

और ऐसा नाद सुनने पर, वो वो बोधिसत्व उस लोक में जन्म लेकर, उसी बुद्ध का शिष्य होकर, उस बुद्ध से सीखता है। ऐसे योगभ्रष्ट योगी ही अर्हत कहलाते थे।

अर्हत शब्द का अर्थ होता है, मानवतावादी या पूर्ण मनुष्य, और इस शब्द का अर्थ, “वो जो योग्य है और वो जो पात्र है”, ऐसा भी होता है।

इस वाले से पूर्व के जन्म में, जब मैं 6 वर्ष का बालक था, और तब भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही था, मेरे माता पिता, जो द्विज थे, वो मुझे भगवान बुद्ध के पास ही छोड़ आए थे और तब से मैं उनका शिष्य हुआ था।

और गुरुदेव, भगवान गौतम बुद्ध ने मुझे, मित्र का नाम दिया था।

उनके नाम गौतम बुद्ध में, गौतम उनका गोत्र था और बुद्ध उनकी उपाधि थी। और गुरुदेव का जन्म भी ब्राह्मण कुल में, 1914 ईसा पूर्व से, 2.7 वर्ष के भीतर हुआ था।

 

लेकिन दीक्षा पूर्ण होने के बाद, उन्होंने मुझे ऐसा कहा था।

किसी भी एक ब्रह्माण्ड में, किसी भी एक काल खंड में, केवल एक योगी ही शिखर पर हो सकता है, इसलिए एक ही समय पर, दो, या दो से अधिक नहीं हो सकते।

इसलिए, तू इस जनम में, जिधर तक अभी पहुंचेगा है, वहीं तक रह जाएगा।

और आगे जन्म में, जब तो लौटेगा, तब तू मुझे ही अपने में पाएगा और तब तू, मेरे जैसा ही हो जाएगा।

अगले जन्म में, चाहे तू जैसा भी जिएगा, जहां भी रहेगा, कोई भी मार्ग पर जाएगा, तो भी मेरे समान पूर्ण हो जाएगा।

तो जब मैंने उनको बोला, कि मुझे इस अवस्था में फँसे हुए बहुत लम्बा समय हो गया है, क्यूंकि मैं इसमें स्वयंभू मन्वंतर से हूँ, इसलिए आप मुझे इसी जन्म में, इस मार्ग को पूर्ण करने की आज्ञा दीजिये।

आप मुझे इस जन्म में मत रोकिए, क्यूंकि मुझे ऐसे फंसे हुए बहुत बहुत लम्बा समय बीत चुका है, कितने तो मनवन्तर ही निकल गाए, कितने ही मनु आकर चले गए, और अब तो ऐसे ही फंसे हुए 2 अरब वर्ष होने को आये है, इसलिए आप मुझे इस जन्म में मत रोकिए।

तब मेरे गुरुदेव, भगवान बुद्ध बोले थे, कि बेटा, किसी भी एक ब्रह्मांड में, किसी भी एक समय पर, शिखर पर एक ही हो सकता है। दो, या दो से अधिक कभी नहीं हुए।

इसलिए, तू अपनी साधनाएं अभी ही रोक दे, इससे आगे मत जा, नहीं तो प्रकृति के न्यायतंत्र के एक मुख्य बिंदु के विरुद्ध हो जाएगा और प्रकृति रुपी सर्वशक्ति ही तेरा पतन कर देगी।

इसलिए, तू अपनी साधनाएं अभी ही रोक दे, और अगले जन्म में पूर्ण होना, क्यूंकि इस जनम में तो तू पूर्ण हो ही नहीं सकता है, वो सर्वशक्ति रुपी प्रकृति तुझे पूर्ण होने ही नहीं देगी।

लेकिन मैं उनकी बात नहीं माना, और उनको कई दिनों तक बोलता रहा, कि अपने शब्द वापिस लोटा लो।

तब एक दिन, गुरुदेव बोले, कि अगले जन्म में तू पूर्ण हो जाएगा, इस जन्म में तो बिलकुल नहीं हो पाएगा।

तो मैंने उनसे एक बार पूछा भी, कि जिस समय की आप बात कर रहे हो, उस समय तो कलियुग, अपनी काली, घोर अज्ञान की काया में, इस पृथ्वी पर आ चुका होगा, तब तो कोई उस पूर्ण तत्त्व का ज्ञाता गुरु भी नहीं मिलेगा, तो कैसे होगा।

तबके कालचक्र की अवस्था में, मेरा मार्ग ,उस पूर्णता की ओर, प्रशश्त कौन करेगा, यह कैसे होगा ।

और मैंने उनसे पूछा भी, गुरु बिना तो गति भी गंतव्य तक नहीं जाती, तो कैसे होगा।

तब वो बोले, कि, अगले जन्म में, तू जैसा भी रहेगा, पूर्ण ही होगा। तू कुछ भी करेगा, पूर्ण ही होगा। तू जहां भी रहेगा, पूर्ण ही होगा। तेरा कोई भी मार्ग हो, तू उसी जन्म में पूर्णता को पाएगा।

लेकिन मैं तब भी नहीं माना, और उनको बोलता ही गया, कि अपने शब्द वापस लीजिये।

तब एक समय गुरुदेव बोले, बेटा, जो मैंने आदेश दिया है, तू उसको मेरी गुरुदक्षिणा ही मान।

बस इस वाक्य के बाद में जान गया, कि अब गुरुदेव ने मेरे कुछ और बोलने का मार्ग ही बंद कर दिया है।

तब गुरुदेव बोले, कि बेटा तू अपने अगले जन्म को मेरी गुरुदक्षिणा ही मान।

और तेरे उस अगले जन्म में, तेरी पूर्णता को प्राप्ति भी, मेरी इसी गुरुदक्षिणा के अनुसार ही होगी।

अगले जन्म में , चाहे तू या कोई और, कुछ भी कर ले, तू पूर्णता को प्राप्त किये हुए बिना नहीं रह पायेगा। तुझे कोई भी रोक नहीं पायेगा, तू भी नहीं।

और क्योंकि वो समय जब तू पूर्णता को अपने भीतर ही पायेगा, तब अधिक मानव उस ज्ञान के पात्र ही नहीं होंगे, इसलिए, तब अपना ज्ञान इस प्रकार से बांटना, कि वो जो उस ज्ञान का पात्र नहीं है, वो उस ज्ञान से कुछ भी नहीं पायेगा।

इसलिए, इस बार उसी गुरुदक्षिणा के अनुसार है, लौटना पड़ गया।

और कुछ ही समय बाद, उन्होंने मेरे साथ, अपने कुछ और शिष्यों को आदेश भी दिया था, कि अब तुम सब वनों में जाओ, और वही पर रहो, और अपने प्रारब्ध पूर्ण होने की प्रतीक्षा करो। हम सबने वैसा ही किया था।

और हमारे जाने से पहले, उन्होंने अपने ही शरीर से निकाल के हम शिष्यों एक वास्तु भी दी थी, कि ये तुम्हारी रक्षा करेगी।

और कुछ वर्ष के बाद, हमने उस वस्तु को, आज के बोधगया क्षेत्र में, गुरुदेव बुद्ध के प्रथम अर्चाविग्रह में डाल दिया था, जो हम शिष्यों ने एक विश्वब्राह्मण से, अग्नि पुराण के अनुसार बनवाया था । और उस विग्रह को, एक द्विज ब्राह्मण ने, अपने ही घर पर स्थापित भी किया था।

आज की काल गणना में, वो समय कोई 1865 ईसा पूर्व के पास का है। और इस पृथ्वी लोक में, ये विग्रह भगवान बुद्ध का प्रथम विग्रह था।

 

और इस वाले भाग के अंत में जो बोल रहा हूं, उसको ध्यान से सुनो …

गुरुदेव ने मुझे ये भी कहा था, कि जब तू भी मेरे जैसा हो जाएगा, तब तू मेरे पास आके, मुझे बतलाएगा, कि हो गया।

इसलिए, 2011 ईस्वी में, मेरा एक सिद्ध शरीर अपने आप ही मेरे शरीर के भीतर बना था, जो सूर्य लोक से जाकार, अव्यक्त प्रकृति से होकर, ब्रह्मलोक के चार ऊपर के लोकों से होकर, गुरुदेव के पास गया था।

और जैसे ही मैं, गुरुदेव के लोक में पाहुंचा, तो गुरुदेव अपने स्थान से उठे, और बहुत प्रेम से मिले भी थे।

ब्रह्मलोक में बीस लोक होते हैं। इन बीस में से, सोलह नीचे के लोक होते हैं और चार ऊपर के होते हैं। इन सभी को अव्यक्त ने घेरा होता है।

ब्रह्मलोक के चार, ऊपर के लोक, पुरुषार्थ चतुष्टय को दर्शाते हैं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहलाते हैं।

और इस पृथ्वी लोक से जाने के समय पर, उन ऊपर के चार लोकों में से, तीन लोक दायीं ओर होते हैं, और एक बाई ओर होता है, जो मोक्ष पुरुषार्थ को दर्शता है।

इसी मोक्ष पुरुषार्थ के लोक में, गुरुदेव, तीन और साधु बाबा के साथ निवास करते हैं। मैं उन तीनो को भी मिला, और वो भी बहुत अच्छे से, साधूवाद में बस के मिले। और उनके साथ, कुछ समय बिता कर, मै वापिस शरीर में आ गया। वो सभी बहुत अच्छे हैं।

ये मोक्ष पुरुषार्थ को दर्शाता लोक, एक श्वेत कमल के समान होता है, जिससे होकर, उन चतुर मुखा पितामह ब्रह्म, जो सर्वसम सगुण साकार होके, तैंतीस कोटि देवताओं में, प्रजापति कहलाते हैं, उनके पास जाया जाता है।

और ब्रह्मलोक के सभी लोकों को अव्यक्त प्रकृति ने घेरा होता है, जो हल्के गुलाबी रंग की होती हैं, और जहां बहुत अच्छे अच्छे योगीजन निवास करते हैं, जो बोधिसत्व कहलाते हैं। बौद्ध मार्ग में, इसी अव्यक्त को तुसित लोक कहा गया है।

मैंने अपना ज्ञान, सर्वप्रथम इसी अव्यक्त के योगियों को बांटा था, क्योंकि जब मैं वहां चला गया था, तो उन सभी बोधिसत्वों ने, मुझे घेर लिया, और मेरे मार्ग जानने की इच्छा प्रकट की।

पशुपत मार्ग में, राज योग में, इस ब्रह्मलोक को ही सदाशिव का सद्योजात मुख कहा जाता है। ब्रह्मलोक, हीरे जैसे प्रकाश के समान, बहुत चमकदार होता है, जिसमे वो सर्वसम, चतुर्मुखा पितामह, प्रजापति निवास करते हैं, जो स्वयं भी, हीरे से भी अधिक चमक को धारण किये होते हैं।

जब उन प्रजापति के लोक में गया, तो प्रजापति भी बहुत प्रसन्न थे, की इतने विराट समय के बाद, अंततः, उनका लल्लू राम, उनके पास पहुँच ही गया।

लेकिन उस ब्रह्मालोक को कभी बाद में बताऊंगा, जब सदाशिव के सद्योजात मुख पर बात होगी।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट और बुद्धता …

अपनी पूर्व स्थिति में, समस्त बुद्ध भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही होते हैं। जो जो योगी उसकी पूर्व की अवस्थाओं में, प्रबुद्ध योगभ्रष्ट नहीं होता, वो पूर्ण बुद्धत्व को भी नहीं पाता।

भगवान बुद्ध का नाम, जो सभी गौतम बुद्ध कहते हैं, ऐसा नहीं था।

उनके गौतम बुद्ध के नाम में, गौतम शब्द, उनके गोत्र प्रवर्तक ऋषि का है और बुद्ध शब्द, उनकी उपाधि का है। गुरुदेव का नाम, गौतम बुद्ध कभी नहीं था।

गुरुदेव का जन्म, कोई चौथी, या पंचवी या छट्टी या दसवीं शताब्दी ईसापूर्व में भी नहीं हुआ था। उनका जन्म, 1914 ईसापूर्व से, 2.7 वर्ष के भीतर हुआ था।

जब कोई योगी, बुद्धत्व को प्राप्त होता है, तो सारा ब्रह्माण्ड गूंज जाता है, ब्रह्मनाद से। और इसी गूंज से, ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्ध सत्ताएं जान जाती है, कि उस ब्रह्मण्ड में, कोई योगी बुद्धता को पा गया है।

बुधत्व ही एक ऐसा ज्ञानयोग का मार्ग है, जो उसी पूर्णसंघ रूपी, जीवत्व से जाता हुआ, अंततः, ब्रह्मत्व की प्राप्ति करवाता है।

जो भी योगी इस मार्ग से जाता है, वो ब्रह्मांड की सारी दिव्यताओं को, अपने पिंड रूपी शरीर के भीतर ही पाता है। इसीलिए वो बुद्ध, समस्त ब्रह्माण्ड को ऐसे देखता है, जैसे वो स्वयं ही हो। जो ऐसा नहीं होता, वो बुद्ध नहीं होता।

इसलिए, यदि मैं बुद्धत्व सिद्धि को एक वाकय में बतलाऊँ, तो ऐसा कह सकता हूँ…

यत पिण्डे तत ब्रह्माण्डे, यत ब्रह्माण्डे तत पिण्डे

 

प्रबुद्ध योगभ्रष्ट और त्रिशंकु योगावस्था …

वो योगभ्रष्ट, जो प्रबुद्ध होता है, उसका न जीवन होता है, न मृत्यु।

वो एक ऐसे वाहन के समान होता है, जो समय समय पर, सारे लोकों में घूमता है, और जिसका वो स्वयं ही चालक और स्वयं ही एक मात्र यात्री भी होता है। इसीलिए, वो सारी अवस्थाओं से होकर जाता है, जिसमे से एक अवस्था, त्रिशंकु की भी होती है।

जबतक उसकी गाड़ी एक लोक में होती है, तबतक वो उस लोक में, एक यात्री के समान, घूमता फिरता है। लेकिन उसे किसी भी लोक से, ना ही कोइ लगाव होता है ना ही कोइ अलगाव।

मै ऐसा ही एक योगभ्रष्ट हूं, जो उस समय का सम्राट, ब्रह्मऋषि विश्वामित्र का शिष्य हुआ था, और त्रिशंकु कहलाया था।

देवराज इंद्र एक ऐसे योगी थे, जिन्होंने 100 आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किए थे, और तभी उनको देवराज का पद मिला था।

100 आंतरिक अश्वमेध यज्ञ करने का अर्थ है, 100वी बार अष्टम चक्र को पार करना।

त्रिशंकु वो योगी होता है, जो अष्टम चक्र को 100वी बार पार करता है, उसको 100वी बार सिद्ध भी करता है, जिसके कारण, देवराज इंद्र उसे अपना स्थान देने को बाध्य हो जाते हैं।

लेकिन उस समय, उस इन्द्रलोक में बैठे योगी को, पितामह ब्रह्म का एक वाक्य सुनाई देता है, जिसमें प्रजापति ने, इंद्र के पद को आश्वासन दिया था, कि जबतक कोई भी इंद्र अपने सिंहासन पर विराजमान होगा, तबतक उस इंद्र का सिंघासन, उस इंद्र से कोई भी,  ना तो छीन पाएगा ना ही ले पाएगा।

जब वो योगी, जो इन्द्रलोक में ही होता है, प्रजापति के इस आश्वासन को सुनता है, जो उन्होंने इन्द्र के पद को दिया था, तो वो सोचता है, कि इन्द्र पद, लूँ या ना लूं।

वो योगी, जो इन्द्रलोक में ही होता है, सोचता है, यदि ले लूँगा, तो देवराज इंद्र होकर भी, प्रजापति का अपमान कर बैठूंगा, अपने रचैता का ही अपमान कर बैठूंगा, इसलिए अच्छा है, कि इन्द्रपदना लूं।

और वो सोचता है, न लेने के बाद, उसके साथ जो भी होगा, वो देखा जाएगा।

इसलिए, जब वो योगी, इंद्रलोक में ही, प्रजापति के इस वाक्य को सुनता है, तो वो देवराज का पद नहीं ले पाता, क्योंकि वो इंद्रपद लेने से, प्रजापति का इंद्र को आश्वासन और उनकी वाणी, दोनों का ही अपमान हो जाएगा।

 

अब ध्यान से सुनो, क्यूंकि मै त्रिशंकु की की दशा और मार्ग को बतला रहा हूँ …

सातवें चक्र, सहस्त्र दल कमल, से ऊपर, वज्रदण्ड चक्र होता है, जिसे पार करके, अष्टमा चक्र को जाया जाता है।

अष्टम चक्र को पार करते समय पर, तीन नाद होते हैं, जो रर्रर्रा, इस शब्द के होते हैं, और योगतंत्र में, रकार कहलाते हैं। और इन तीन रकार के बाद, एक और अर्ध रकार भी होता है।

और साढ़े तीन रकार से साथ साथ, जब जब चेतना अष्टम चक्र को पार करती है, तो एक और नाद होता है, जो ख शब्द का होता है, और योगतंत्र में खकार कहलाता है।

अब संकेतिक बता रहा हूँ, तो ध्यान से सुनना …

खाकार के बाद ही डकार की प्राप्ति होती है, और डकार से ही गकार का मार्ग प्रशश्त होता है। इन तीनों के योग से ही, एक सर्वबल रुपी सिद्धि पायी जाती है, जो खडग कहलाती है।

खखोलकाये शब्द भी इसी खाकार शब्द से बना है, जो हिरण्यगर्भा का वाचक है, क्यूंकि यह वज्रदण्ड, सुनहरे रंग की नाड़ी के सामान होता है। इस खखोलकाये शब्द के बारे में, कभी और बतलाऊँगा, जब लघु ब्रह्मास्त्र की बात होगी।

डकार शब्द शिव का वाचक है, जिसमें कई सारे अस्त्र होते हैं, और गकार शब्द श्री विष्णु का वाचक है, जो इन सभी शब्दों की सिद्धि रुपी अस्त्रों के धारक होते है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और खडक शब्द की सिद्धियों को, अंतःकरण चतुष्टय के मार्ग से बतलाता हूँ। इनको, पाशुपत मार्ग से, राज योग में बतला रहा हूँ।

  • ज्ञान ब्रह्म, इन्द्र होते हैं, जो पूर्वी आम्नाय के देवता होते हैं, जिनकी सिद्धि ज्ञानात्मा कहलाती है, और इसीलिए इंद्र ही देवराज होते हैं, और देवात्मा होते हैं।
  • चेतन ब्रह्म, श्री विष्णु होते है, जो उत्तर आम्नाय के देवता होते है, जिनकी सिद्धि चिदात्मा कहलाती है, और इसीलिए श्री विष्णु, ही सनातन गुरु, परमात्मा होते हैं।
  • मन ब्रह्म, पितामह ब्रह्मा होते हैं, जो पश्चिम आम्नाय के देवता होते हैं, जिनकी सिद्धि मनात्मा कहलाती है,और इसीलिए पितामह ही चतुर्मुख ब्रह्मा, महात्मा होते हैं।
  • अहम् ब्रह्म, रुद्र होते हैं, जो दक्षिण आम्नाय के देवता होते हैं, जिनकी सिद्धि अहमात्मा कहलाती है,और इसीलिए रुद्र ही परमगुरु, योगात्मा और सर्वात्मा होते हैं।

 

अंतःकरण चतुष्टय के विज्ञान मार्ग में, विशुद्ध अहम्, संस्कार रहित चित्त, वृत्तिहीन सार्भौम बुद्धि और सर्वसम सर्व्याप्त मन, ये चारो, ब्रह्म के ही वाचक हैं।

और जब इन सभी की प्राप्ति होती है, तो उस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की प्राण शक्ति, जो उसके अंत:करण चतुष्टय में भी होती है, वो उसके अंत:करण चतुष्टय में ही, सर्वसम होके, हीरे के प्रकाश जैसी हो जाती है, और ब्रह्मलीन होती है, जिसके कारण, वो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट प्राणात्मा कहलाता है।

जो भी योगी इन पंचों सिद्धियों को पाया है, अंततः, वो उसी ब्रह्मत्व को, अपने ही आत्मा स्वरूप में पाता है।

इसीलिए, किसी भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट का मार्ग, अंतःकरण चतुष्टय विज्ञान से होकर जाएगा ही।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब रर्रर्रा, ऐसा नाद होता है, तो उसके साथ साथ, एक और नाद, सुदूर से आता हुआ सुनाई देता है, जो ममममम, ऐसा होता है, और जो मकार और ब्रह्मनाद कहलाता है।

इसी रकार और मकार के योग को ही, राम नाद कहते है, जो शिव तारका मंत्र कहलाता है।

 

अब और आगे बढ़ता हूँ, इसी त्रिशंकु शब्द में …

जब प्रजापति की वाणी के कारण, वो योगी, देवराज इंद्र के पद को लेने से मना करता है, तब उसके पास एक ही विकल्प रहता है, कि वो अपनी अष्टम चक्र की 100वी सिद्धि को त्याग दे, क्यूंकि ऐसा ना करने पर, वो प्रजापति की वाणी, उनके इन्द्रपद को दिए हुए आश्वासन का ही उलंघन कर बैठेगा।

लेकिन क्योंकि इस सिद्धि को पूर्ण रूप में त्यागा नहीं जा सकता, इसलिए वो योगी अष्टम चक्र के मार्ग के, अंतिम अर्ध रकार और अंतिम अर्ध खकार की शब्द सिद्धि को त्याग देता है, जिससे उसकी अष्टम चक्र की 100वी सिद्धि भी पूर्ण नहीं रह पाती।

इसके कारण, उसका 100वा अश्वमेध यज्ञ भी अपूर्ण हो जाता है, जिसके कारण, वो पूर्ण हुआ योगी, अपूर्ण होकर, किसी लोक या पारलोक का नहीं हो पाता।

बस अपनी उत्कर्ष गति में, वो कहीं बीच में ही लटक जाता है।

और वो तबतक लटका रहता है, जबतक वो उसी अष्टम चक्र को, 101वी बार पार नहीं कर लेता है।

लेकिन ये पार करने का मार्ग इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि इसमें छेह के छेह शास्त्र को पुन: जाना होगा, और पार भी करना होगा।

पिछले जन्म तक, इन छेह में से, एक सांख्य रह गया था, जिसको पार करने हेतू, मैं बुद्ध भगवान का शिष्य हुआ था, क्योंकि वो सांख्य के पूर्ण ज्ञाता थे। सांख्य, सिद्ध और दर्शन के कुछ बिन्दुओं का योग ही बौद्ध कहलाता है।

कभी कभी तो मैं सोचता भी हूं, कि वाह रे कलियुग और कलियुगी वेद मेनिषी गण, तुमने ऐसे उच्च कोटि के योग को, कितने विकृत स्वरूप में बतलाया है।

थोड़ा सोचना तो था, कि जब तुम शिष्य का अपमान करते हो, तो उसके गुरु का भी अपमान हो जाता है। तुमने मुझे बुरा भला बोल के, मेरे गुरु का भी अपमान किया है। मैं ब्रह्मऋषि विश्वामित्र का शिष्य, सम्राट सत्यव्रत, जो त्रिशंकु हुआ था, ऐसा ही सोचता हूं।

 

प्रबुद्ध योग भ्रष्ट और मनुवाद  …

अब कान और दिमाग दोनो खोल के सुनो …

कोई भी योगी, जो प्रबुद्ध योगभ्रष्ट है, उसे मनुवादी तो होना ही पड़ेगा, क्योंकि मनुवाद के बिना, गति प्रबुद्धता को जाती ही नहीं है।

इसलिए, इस कल्प में, जितने भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हुए हैं या होंगे, सभी मनुवादी ही होंगे, क्योंकि ये सब उन्हीं प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु के ही मनस पुत्र हैं। और ब्रह्मऋषि क्रतु, मनुवादी ही थे।

क्योंकि आज मैं इस काया में हूं, सुनता भी हूँ, किसी शिष्य नै, अपने गुरु को कहा, कि मैं अमुक अमुक गुरु दक्षिणा नहीं दे पाऊंगा, और वो गुरु मान भी लेते हैं।

ना तो ऐसा शिष्य, वास्तविक शिष्य होता है और ना ही ऐसा गुरु, उस सनातन गुरु तत्व में बसा होता है।

अपने प्रजापति स्वरूप मनस पिता के एक आदेश पूर्ती के लिए, उनके 60,000 मनस पुत्रों में से, अधिकांश पुत्र, 196 करोड़ वर्षीं से भी अधिक समय से लगे हुए हैं।

उन बच्चों ने तो कभी सोचा भी नहीं, कि उनके मनस पिता, ब्रह्मऋषि क्रतु ने, उन्हें ऐसा अनादि काल तक चलने वाला, सभी प्रकार के विप्लव से भरा हुआ, आदेश क्यों दिया था।

ना उन पुत्रों ने अपने पिता और गुरु से ना कोई प्रश्न पूछा, ना ही कोई उत्तर की आशा की, बस वो सब के सब लग गये उस आदेश पूर्ति के लिए, और अब उसी आदेश को पूरा करते करते हैं, उनको I96 करोड़ से भी अधिक वर्ष हो गए है । उन मनस पुत्रों में से, कुछ ने कर भी लिया है, पर अधिकांश अभी बाकी है।

यदि सनातन परम्परा इतनी सरल होती, छोटे से समय की होती, तो सनातन क्यों कहलाती, थोड़ा सोचो तो।

 

एक बहुत पूर्व के जन्म में, मेरे इस जन्म के पिताजी भी, मेरे, मेरे गुरु थे। और इस जन्म की मां भी, उसी पूर्व जन्म में मेरी गुरुमाई थी। उन्हीं के घर में इस बार लौटा हूं।

ऐसे ही सनातन नाते होते हैं, कि पूर्व जन्म के गुरु और गुरुमाई ने ही, अपना बालक बना लिया, वो भी तब, जब मै बिलकुल फंसा हुआ था, न इस लोक का था, न ही किसी और लोक का ही था। इस महायुग में ही, मैं इनके परिवार में, तीसरी बार लौटा हूं।

 

अब ध्यान से सुनो…

जब मनु आदि ब्रह्मऋषि गुरु होते हैं ना, तब उनकी गुरुदक्षिणा पूरी करने को, कई महाकल्प भी लग जाते हैं।

इसलिए, यदि आज के किसी शिष्य से, उसके गुरु ने, कोई ऐसी गुरुदक्षिणा ले ली, जिसे वो शिष्य, कुछ ही जन्मों में पूरा कर सकता है, तो उसको अपने आप को, भाग्यशाली मानना चाहिए।

मैं स्वयंभू मनु और मां शतरूपा का, नन्हा सा शिष्य, गणित, ऐसा ही सोचता हूं।

 

असतो मा सद्गमय I

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