यहाँ पर बोधिचित्त, निर्वाण, आपो ज्योति, बुद्धि और चित्त का योग, बोधमय चित्त, चित्तमय बोध, योग सुमेरु, योग शिखर, मेरु योग, मेरु पर्वत, सुमेरु पर्वत, मेरु शिखर, अंतर्लक्ष्य, नित्य वैकुंठ, सत्य कैलाश, चिन्मय नेत्र, आत्मस्थिति, त्रिगुणातीत, सर्वसाक्षी, अंतरसाक्ष्य, अंतरसाक्षी, वृतिहीन दशा, योग मेरु, महायान का गंतव्य, देवयान का गंतव्य, त्रिगुणातीतम्, अंतर्लक्ष्यम्, सत्य कैलाशम्, चिन्मय नेत्रम्, मेरु शिखरम्, नित्य वैकुंठम् आदि पर बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का छिहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का पांचवाँ अध्याय है I
ओ३म् आपो ज्योति रसो अमृतम् ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा ।।
ऊपर के चित्र का वर्णन, …
ऊपर दिखाया गया चित्र, भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर के क्षेत्र में साक्षात्कार होता हुआ बोधिचित्त है I
इस चित्र के, …
- मध्य का श्वेत वर्ण का भाग, चित्त का है I
- इस चित्त को एक प्रकाश ने घेरा हुआ है I यह प्रकाश लाल और पीले वर्ण की किरणों के योग का है I और पीले वर्ण की किरणों के योग होने पर भी, इसमें पीली और लाल वर्ण की किरणें पृथक रूप में ही साक्षात्कार होती हैं I
- श्वेत वर्ण के चित्त नामक भाग में चौबीस टेढ़ी किरणें हैं I यह किरणें धूम्र वर्ण की हैं I और यह धूम्र वर्ण वैसा ही है जैसे यज्ञ कुण्ड के ऊपर उठते हुए धुएं का होता है I
- यदि इस धूम्र वर्ण की किरणों के समीप जाकर इसको देखा जाएगा, तो यह श्यामा (काला) वर्ण का होगा और उस काले वर्ण के भीतर हीरे के प्रकाश बिंदु भी पाए जाएंगे I इसलिए यह धूम्र वर्ण, काले और श्वेत (वज्रमणि) के प्रकाशों का योग है I
- इन किरणों के मध्य भाग में एक धूम्र वर्ण का बिंदु होता है I इसी मध्यवर्ती बिंदु से यह चौबीस किरणें बाहर निकलती है, और ऊर्जावान होकर चित्त नामक भाग में प्रकाशित होती हैं I
- यही सब कुछ ऊपर के चित्र दिखा रहा है I
आगे बढ़ता हूँ…
बोधिचित्त का अर्थ, बोधिचित्त शब्द का अर्थ, स्थूल शरीर में बोधिचित्त का साक्षात्कार, बोधिचित्त का स्थान, बोधिचित्त का साक्षात्कार स्थान, … बोधिचित्त के भाग, बोधिचित्त का स्वरूप, …
सर्वप्रथम तो बोधिचित्त शब्द का अर्थ बताता हूँ…
बोधिचित्त दो शब्दों से बना है, पहला बोधि और दूसरा चित्त I
तो अब योगमार्ग के अनुसार इन दोनों शब्दों को बताता हूँ…
- बोधि का अर्थ, बोधि शब्द का योगार्थ, … बोधि शब्द का अर्थ साधनात्मक बोध होता है I बोध का अर्थ ज्ञान है और यह ज्ञान शब्द स्व:ज्ञान को ही दर्शाता है और जहाँ स्व: शब्द, ब्रह्म और ब्रह्म रचना, दोनों से ही संबंधित होता है I ब्रह्म और ब्रह्म रचना से संबंधित होने के कारण, यह दशा भगवान् और माँ प्रकृति से ही संबंधित है I यही बोधिचित्त प्राप्ति के पश्चात साधक की आंतरिक दशा भी होती, जिसमें भगवान् और प्रकृति (अर्थात ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति) का योग भी साधक की काया में ही हो गया होता है I
बोधि शब्द का नाता बुद्धि से भी है, और बुद्धि का अर्थ बुद्ध और धि शब्दों से बना हुआ है, जिसके आगे का अर्थ बुद्धात्मक चिंतन, बुद्धि युक्त चिंतन है I बुद्धि युक्त चिंतन तो साक्षी भाव का भी द्योतक है और यही इस बोधिचित्त प्राप्ति का एक मार्ग भी है I
बोधि शब्द का नाता विज्ञान शब्द से भी है, जिसका अर्थ होता है, वेग् अर्थात विजय का यान I इस अर्थ में बोधि शब्द विजय यान के शब्द से भी नाता रखता है I यह भी बोधिचित्त प्राप्ति के उस मार्ग को दर्शाता है, जो विज्ञानमय यान स्वरूप होता है और जहाँ विजय शब्द का अर्थ निर्वाण ही है I वह ज्ञानमय यान जिससे साधक भवसागर को ही पार कर जाए, विजय यान है I
इसलिए, वह ज्ञानमय दशा जो मुक्ति ही हो, बोधि है I लेकिन उस मुक्ति के प्रभेद और प्रकार भी होते हैं I
ऐसा होने के कारण, बोधि शब्द का अर्थ विकृत एकवाद (मोनोथेइसम) हो ही नहीं सकता, इसलिए बोधि का नाता सर्वस्व से ही होना होगा I लेकिन सर्वस्व से नाता अधिकांश साधक रख भी नहीं पाते हैं, इसलिए बहुवादी अद्वैत आया था I
यही बहुवादी अद्वैत ही वैदिक परंपरा का अंग हुआ था जिसको ऐसे दर्शाया जा सकता है…
उत्कर्ष मार्गों में पृथकता होने पर भी, सब उसी ब्रह्मपथ के अंग हैं I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि सब के सब उत्कर्ष पथ ब्रह्म की ओर ही जाता हैं I
यह भी इसलिए है, क्यूंकि रचना अपने रचैता की और ही गतिशील रहती है I
- चित्त का अर्थ, चित्त शब्द का योगार्थ,…
आंतरिक योगमार्गों में अंतःकरण की अनुसंधानात्मक वृत्ति चित्त है, अर्थात वह जिससे पूर्व कालों की दशाओं और गतियों आदि का स्मरण होता है, चित्त है I और ऐसा भी इसलिए हो पाता है क्यूंकि चित्त के भीतर ही वह संस्कार निवास करते हैं जो अनादि ही हैं और जिनका नाता ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुए प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से है I और इसके अतिरिक्त वह संस्कार साधक के कर्मों द्वारा उत्पन्न हुए कर्म फल को भी दर्शाते हैं, और तब से ही दर्शाते हैं जबसे साधक इस ब्रह्म रचना में जीव रूप में आया था I
साधना मार्गों में चित्त का अर्थ होता है परिचिति, विशुद्ध प्रज्ञा, विशुद्ध चेतना I और जहाँ वह साधना मार्गों की परिचिति, चेतन ब्रह्म की प्राकृत अभिव्यक्ति है, जो पुरुष शब्द के सार से युक्त है I
लेकिन उन्ही साधना मार्गों में चित्त साक्षात्कार का मार्ग, धारणा, ध्यान, धारणात्मक ध्यान, ध्यानात्मक धारणा आदि भी होता है I
और योग मार्ग के शिखर पर जब योगी विराजमान होता है, तब इसी चित्त शब्द का नाता क्षेत्रज्ञ के शब्दार्थ से भी पाया जाता है I और जहाँ वह क्षेत्र जिसका वह योगी ज्ञाता होता है, संपूर्ण ब्रह्म रचना ही होती है I इसलिए योगमार्ग के शिखर जिसकी बात यहाँ हो रही है, योगी क्षेत्रज्ञ होकर, सर्वज्ञ ही होता है I यही बोधिचित्त के चित्त शब्द का वास्तविक गंतव्य अर्थ है, क्यूंकि क्षेत्रज्ञ ही आत्मज्ञान के शब्द सहित, आत्मज्ञानी का भी द्योतक है I
- बोधिचित्त का अर्थ, बोधिचित्त शब्द का योगार्थ, … बोधिचित्त शब्द का अर्थ है, वह जो बोधि और चित्त का योग हो I
ऊपर बताए गए बोधि और चित्त शब्दों के योगमार्गी गंतव्य स्वरूप में, इस बोधिचित्त शब्द का नाता बुद्धत्व (बुद्धता) शब्दों से भी है ही I और जहाँ बुद्धत्व की दशा का क्षेत्रज्ञ ही साधक का आत्मस्वरूप होता है I
इसलिए बोधिचित्त का अर्थ आत्मस्थिति भी है I और जहाँ वह आत्मस्थिति, निर्विकार ही होती है I यही राजयोग का शिखर है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब स्थूल शरीर में बोधिचित्त का साक्षात्कार स्थान, शरीर में बोधिचित्त का स्थान, शरीर में बोधिचित्त का साक्षात्कार स्थान इन बिंदुओं को बताता हूँ, …
बोधिचित्त साक्षात्कार के दो ही स्थान होते हैं और जो ऐसा हैं…
- बोधिचित्त साक्षात्कार का प्रथम स्थान, … हृदय में बोधिचित्त, हृदय में बोधिचित्त का साक्षात्कार, … बोधिचित्त का यह प्रथम साक्षात्कार स्थान है, जो हृदय में होता है I
हृदय में अंगुष्ठ के ऊपर के भाग जैसा एक गड्ढा होता है, और इसी गड्ढे के भीतर ही अंतःकरण साक्षात्कार होता है I यह गड्ढा हृदय में विद्युत्मय प्राण का क्षेत्र है, और इसी विद्युत् से हृदय की धड़कन चलती है I
इस स्थान पर बोधिचित्त तब साक्षात्कार होता है, जब साधक के हृदय के इस गड्ढे से अंतःकरण चतुष्टय का प्रकाश बाहर निकल जाता है I
हृदय से जब वह अंतःकरण पृथक हो जाता है, तब साधक इस बोधिचित्त का साक्षात्कार, उसके अपने हृदय क्षेत्र में ही करता है I
यह बोधिचित्त का न्यून साक्षात्कार ही कहलाता है I
- बोधिचित्त साक्षात्कार का द्वितीय स्थान, भ्रूमध्य में बोधिचित्त, भ्रूमध्य में बोधिचित्त साक्षात्कार, … यह भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर होता है I
इस स्थान पर बोधिचित्त तब साक्षात्कार होता है, जब साधक का अन्तःकरण जो साधक के योगमार्ग की पूर्वस्थिति में, उसके हृदय से बाहर निकला था, वह भ्रूमध्य तक पहुँच जाता है I
हृदय से भ्रूमध्य की ओर की गति में, अंतःकरण अपने मूल स्वरूप में आ जाता है, जो त्रिगुण और प्रकृति हैं I अंतःकरण के मूल कारण, त्रिगुण और प्रकृति ही हैं I
अंतःकरण चतुष्टय के ऊपर की ओर की गति में, उसके चार भाग अपने-अपने कारणों में लय होते हैं I
इस लय प्रक्रिया में…
मन का लय सत्त्वगुण में होता है I
बुद्धि का लय प्रकृति में ही होता है I
चित्त का लय रजोगुण में ही हो जाता है I
अहम् का लय भी तमोगुण में ही हो जाता है I
इस लय के समय,…
तमोगुण के मूल में अघोर ब्रह्म होते हैं I
रजोगुण के मूल में तत्पुरुष ब्रह्म होते हैं I
सत्त्वगुण के मूल में वामदेव ब्रह्म ही होते हैं I
और प्रकृति के मूल में सद्योजात ब्रह्म ही होते हैं I
इस लय प्रक्रिया का क्रम ऐसा होते है,…
सर्वप्रथम अहंकार लय होगा I
अहम् के पश्चात, मन और चित्त लय होंगे I
जब अहम्, मन और चित्त लय होंगे, तो बुद्धि लय होगी I
इसलिए, इस लय प्रक्रिया का मार्ग भी पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा जैसा ही है I
और इस दशा में उस लय हुए अंतःकरण का जो स्वरूप हो जाता है, वह केवल तीन गोलों के रूप में होता है, और यह तीन गोली एक दुसरे को घेरे हुए होते हैं I इन तीन गोलों में से …
सबसे भीतर का गोला नीले वर्ण के तमोगुण का द्योतक है I
नीले को श्वेत वर्ण के गोले ने घेरा हुआ होता है, जो सत्त्वगुण है I
श्वेत गोले को लाल और पीले वर्ण की किरणों के गोले ने घेरा होता है I
लाल और पीले वर्ण का गोला, रजोगुण और प्रकृति के योग का द्योतक है I
इस पूरी दशा को एक अति सूक्ष्म अंधकारमय दशा ने भेदा और घेरा होता है I
यह अतिसूक्ष्म अंधकारमय दशा शून्य ब्रह्म है, जिसके भीतर यह साक्षात्कार होता है I
और इस लय मार्ग के अंत में,…
यह त्रिगुण और प्रकृति, अपने अपने कारणों में लय हो जाते हैं I
काया के भीतर ही यह दशा आने पर साधक आत्यंतिक प्रलय को पाता है I
टिप्पणी: इस दशा का चित्र इस ग्रंथ में नहीं बनाया गया है I
जब साधक की काया के भीतर बसे हुए त्रिगुण और प्रकृति, अपने अपने कारणों में लय होने लगते हैं, तब साधक अत्यन्तिकाप्रलय (आत्यंतिक प्रलय) को ही पाता है I
और पितामह ब्रह्मा का समय पूर्ण होने पर, जब यही दशा प्राकृत ब्रह्माण्ड में चलित होती है, तो वह महाप्रलय ही कहलाती है I इसलिए, साधक की काया के भीतर चल रही अत्यन्तिकाप्रलय, (अत्यन्तिका-प्रलय:, आत्यंतिक प्रलय) ही महाप्रलय का न्यून स्वरूप है I
जब आत्यंतिक प्रलय की प्रक्रिया साधक की काया में चलित होती है, तब ऐसी दशा में शून्य ब्रह्म में बसे हुए वह तीन गोले, जो त्रिगुण और प्रकृति के ही द्योतक हैं, बहुत हलके वर्णों के दिखाई देते हैं I
और अंततः यह उसी सर्वशून्य में लय भी हो जाते हैं I जब यह लय होते हैं तो साधक की काया के भीतर प्राणों का रुद्रात्मक तांडव से ही चल पड़ता है I
क्यूंकि यही दशा निर्बीज समाधि से भी आती है, इसलिए योगीजनों ने इस समाधि के लिए सावधान भी किया था I इस समाधि के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
टिपण्णी: इसलिए जब-तक बोधिचित्त का साक्षात्कार हृदय में होगा, तब-तक मृत्यु संकट नहीं आएगा I लेकिन जब उसी बोधिचित्त का साक्षात्कार भ्रूमध्य में होगा, तब साधक एक घोर मृत्यु संकट की ओर ही चला जाएगा I
और यह घोर मृत्यु संकट भी इसलिए ही आएगा, क्यूंकि साधक की काया में जो त्रिगुण और प्रकृति बसे हुए हैं, वह अपने अपने कारणों में लय होने लगेंगे I जब प्रकृति अपने कारण में लय होने लगती है तब सांख्य शास्त्र में बताए गए चौबीस तत्त्व भी लय होने लगते हैं I और यही वह कारण बनता है जिसमें साधक एक घोर मृत्यु संकट में ही चला जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
और अब त्रिगुणातीत क्या है, त्रिगुणातीत देवी, साधक की त्रिगुणातीत दशा का निवारण, त्रिगुणातीत से त्रिगुण की उत्पत्ति, बोधिचित्त साक्षात्कार और त्रिगुणातीत दशा, त्रिगुणातीत दशा से बाहर आने का मार्ग बताता हूँ, …
जब साधक की काया के भीतर ही त्रिगुण और प्रकृति अपने अपने कारणों में लय होने लगते हैं, तब जो स्थिति आएगी, वह एक घोर मृत्यु संकट की ही होगी I इस दशा में साधक त्रिगुणातीत ही होने लगता है I
क्यूंकि त्रिगुण में ही यह यह जीव जगत बसा हुआ है, इसलिए त्रिगुणातीत होने पर साधक इस स्थूल जीव जगत में रह ही नहीं पाएगा I यही कारण बनता है उस मृत्यु संकट का जिससे साधक की काया अपने अंत की ओर ही जाने लगती है I
जब यह दशा आई, तो मैंने अपने काया में से ही त्रिगुण पुनरुद्भासित करने का सोचा I और मैंने ऐसा इसलिए सोचा क्यूंकि मेरे इस जन्म में लौटने के मूल में जो कारण था, और जो मेरे पूर्व जन्मों की शेष गुरुदक्षिणा की पूर्ती ही था, वह अभी तक पूर्ण नहीं हुआ था I
और मैंने यह भी सोचा कि यदि इस छोटे से कार्य के लिए, जो कुछ ही वर्षों में पूर्ण भी हो जाएगा, मुझे पुनः इस कलियुग की काली काया के प्रभाव में ग्रसित हुए और अधम से भी अधम गति को पाए हुए मृत्युलोक में लौटना पड़ गया, तो बहुत ही बुरा होगा I
तो अब इस त्रिगुणातीत दशा से त्रिकाया को ही बचाने का मार्ग बताता हूँ, ताकि आगामी समय में यदि कोई साधक इस दशा में फंस जाए, तो उसको कुछ ऐसा संकेत प्राप्त हो जिससे वह इस मृत्यु संकट की दशा को तबतक टाल सकता है, जबतक वह यह न जान जाए कि उसका इस जन्म का कार्य सम्पन्न हो चुका है I
इसलिए अब विशेष ध्यान देना…
देवी ही शक्ति हैं I
देवी ही प्राण होती हैं I
देवी ही प्रकृति कहलाई हैं I
देवी ही ब्रह्म की दिव्यता हैं I
त्रिगुणातीत भी देवी ही होती हैं I
त्रिगुणातीत शब्द देवी का द्योतक है I
ज्ञानात्मिका शब्द भी देवी को दर्शाता है I
प्राणात्मिका शब्द भी देवी को ही दर्शा रहा हैं I
कर्मात्मिका शब्द भी देवी का ही द्योतक होता है I
चिदात्मिका आदि शब्दों में भी देवी ही प्रकाशित होती हैं I
शिवात्मिका, विष्णुआत्मिका, ब्रह्मात्मिका शब्द देवी के द्योतक हैं I
आत्मशक्ति, ब्रह्मशक्ति, दिव्यता, आत्मिका शब्दों में देवी ही प्रकाशित हैं I
देवी के सिवा कोई मई का लाल है नहीं, जो त्रिगुणातीत होकर ब्रह्माण्ड में रह पाए I
इसलिए त्रिगुणातीत दशा में जाकर भी, उन देवी के शाक्त मार्ग का आलम्बन लेकर साधक अपनी त्रिकाया की रक्षा कर सकता है I
इस मार्ग में…
शिव के मूल में शक्ति हैं I
शक्ति के मूल में भी शिव ही हैं I
शिव शक्ति का योग ही श्री विष्णु हैं I
शिव शक्ति योग से प्रकट हुए गणपति हैं I
शिव कल्याणकारी हैं और शक्ति कल्याणात्मिका I
कल्याणकारी कल्याणात्मिका योग ही मुक्तिदाता गणपति हैं I
और जिसके भीतर यह सब चलित हो रहा होता है, वही ब्रह्मत्व है I
ब्रह्मत्व के परिधान में ही शिवत्व, शाक्तात्व, विष्णुत्व और गणपत्व चालित है I
इस मार्ग पर साधक का आत्मस्वरूप ही, ब्रह्मत्व में स्थित होकर, उसको दर्शाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
प्रकृति के चौबीस तत्वों से परे जो गुण होते हैं, वह त्रिगुण हैं I
जब साधक इन त्रिगुण से ही अतीत हो जाता है, ता वह प्रकृति में रह भी नहीं पाता है I
इसलिए यही त्रिगुणातीत दशा उस साधक के लिए घनघोर मृत्यु संकट हो जाती है और यदि उस साधक ने स्वयं को इससे बाहर निकलने के लिए कोई मार्ग नहीं अपनाया, तो उस साधक की मृत्यु भी अवश्य ही हो जाएगी I यही तो वह मूल कारण है जिससे अधिकांश साधक निर्बीज समाधि को पाने के तीन से चार सप्ताह में ही अपनी काया को त्याग देते हैं I
टिप्पणियाँ:
- मेरे एक पूर्व जन्म में, जो कोई 5,694 ईसा पूर्व के समय का था, जब में अघोर मार्ग का योगी था, और जिसके नाम पर आज वह योगतंत्र ही चलित हो रहा है जिसको आज संन्यासीयों के परिधान में, लेकिन वास्तविकता में बनियों ने कब्जा लिया है और वह बनिए बड़ी-बड़ी उपाधियां भी धारण किए हुए हैं, मैं इस निर्बीज समाधि को छब्बीस और सत्ताईस वर्षों के भीतर ही पाकर, तीन से चार सप्ताह में योगमार्ग से ही देहावसान किया था I
- किन्तु ऐसा करने से पूर्व में वह ग्रंथ लिख भी चुका था जिसको आज मेरे नाम के योग सूत्र से ही जाना जाता है I
- और इसके अतिरिक्त, क्यूंकि निर्बीज समाधि के पश्चात मुझे पता चल ही चुका था, कि अब मेरे प्रस्थान का समय बस आने ही वाला है, इसलिए उस काया से प्रस्थान से पूर्व ही में इस मार्ग की दीक्षा कुछ ही उत्कृष्ट साधकगणों को सही… लेकिन दे चुका था I
- क्यूंकि उस पूर्व जन्म के कार्य संपन्न हो ही चुके थे, इसलिए मैंने इस प्रक्रिया को ग्रहण भी किया था I
लेकिन इस जन्म में जब यह दशा आई, तो मेरा इस जन्म के कार्य सम्पन्न नहीं हुए थे, इसलिए इसका निवारण भी करना ही पड़ गया था I
और वह त्रिगुणातीत से आए मृत्यु संकट का निवारण मार्ग ऐसा ही था…
यह मार्ग साधक के भाव साम्राज्य से वैसे ही चलित होता है और वैसा ही होता है जैसे पितामह ब्रह्मा के भावसाम्राज्य में ही यह ब्रह्म रचना का प्रादुर्भाव हुआ था I
मैंने मेरे सूक्ष्म शरीर के पैरों को अलग किया और शरीर के मध्य की रेखा से दोनों पैरों को 45-45 डिग्री पर ले गया I और ऐसा ही मैंने अपने हाथों के साथ भी उनको ऊपर उठा कर किया I ऐसी दशा में मेरे हाथ खुले हुए थे और मेरी हथेलियां आकाश की ओर थी I
इसके पश्चात, मेरे मूलाधार से और सहस्रार से एक-एक लिंग रूप बाहर की ओर निकला I
इस लिंग में तीन प्रकाश थे I इन प्रकाश में सबसे अन्दर का प्रकाश नीला था, फिर श्वेत था और फिर लाल वर्ण का था I और यह तीन लिंग रूपी प्रकाश त्रिगुणों को ही दर्शाते थे I
जैसे ही यह तीन प्रकाश से युक्त लिंग प्रकट हुआ, वैसे ही में इन तीनों प्रकाशों को अपने हाथों और पैरों की ओर लेकर गया I
और जब ऐसा हुआ तो इसी प्रकाश के तीन गोलाकार भाग मेरे फैले हुए हाथों और पैरों में ऐसे बन गए जैसे उन्होंने मेरे हाथों और पैरों की उँगलियों से लेकर मेरे पूरे सूक्ष्म शरीर को ही घेर लिया हो I
इन गोलाकार भागों में भी वही तीन प्रकाश के गोले थे, जो मेरे मेरुदण्ड के नीचे के भाग और सहस्रार के ऊपर के भाग में से प्रकट हुए थे I और इस दशा से वह तीनों प्रकाश मेरे हाथों और पैरों की ओर गए और एक गोलाकार आकार बनाकर, उन्होंने मेरे हाथों और पैरों सहित, पूरे शरीर को ही सभी ओर से घेर लिया I और जब ऐसा हुआ, तो उसी त्रिप्रकाश रूपी गेंद (गोलक) के भीतर मेरा शरीर खड़ा हुआ था I
और ऐसी दशा में जो तीन गेंद (गोलक) जैसे प्रकाश ने मुझे घेर रखा था, उनकी दशा ऐसी थी…
- सबसे अन्दर का प्रकाश नीले रंग का गोला था, जो मेरे पैरों और हाथों की उँगलियों से लेकर उनसे से थोड़ा बाहर की ओर था I
- उस नीले रंग को घेरे हुए एक और श्वेत प्रकाश का गोला था, जो नीले रंग के बाहर की ओर से उससे से से थोड़ा दूर तक था I
- और इन सब को घेरा हुआ एक लाल वर्ण का प्रकाश था I
इन तीनों में से…
- नीला वर्ण तमोगुण का द्योतक था I
- श्वेत वर्ण सत्त्वगुण का द्योतक था I
- और लाल वर्ण का रजोगुण था जो इन दोनों को घेरा हुआ था I
मेरे उस समय के शरीर के दृष्टिकोण से…
- रजोगुण सबसे दूर था क्यूंकि वह अस्थिरता का कारक है I
- और तमोगुण जो स्थिरता का कारण है, वह सबसे समीप था I
- और सत्त्वगुण जो इन दोनों के मध्य में था, वह इनसे समता में था I
और उस समय, इन तीनों लिंगरूपी प्रकाशों के अतिरिक्त, …
- इन तीनों गोलों के भीतर और मेरे शरीर को छूते हुए, मेरे शरीर के बाहर की ओर और इन तीन प्रकाशों के गोले तक, वह पीली वर्ण की प्रकृति थीं जो सांख्य के चौबीस तत्त्वों में से चौबीसवीं हैं, और वह प्रकृति मेरे शरीर से लेकर, उस नीले प्रकाश तक के क्षेत्र में थे और उसी पीली वर्ण के प्रकृति को घेरे हुए वह नीला गोला था जो तमोगुण को दर्शाता था I
जब यह हुआ, तो जो इस दशा से पूर्व का मेरे त्रिगुणातीत होने का मार्ग था, वह उसी दशा में रुक गया, जहाँ वह उस समय था I और उस समय, इसी से मेरा जीवन रक्षण हो गया I
आगे में बतलाऊँगा नहीं, क्यूंकि यदि मैंने इसको पूर्णरूपेण बता दिया तो इस ब्रह्म रचना का तिरोधान नामक कृत्य न तो कारगर रह पाएगा और न ही सुरक्षित I
आगे बढ़ता हूँ…
और अब बोधिचित्त का उदय, बोधिचित्त की वास्तविकता, बोधिचित्त की मेहती आदि बताता हूँ…
ब्रह्म रचना की उदयावस्था के समय…
- चित्त का उदय, ब्रह्माण्ड में चित्त का उदय, ब्रह्म रचना में चित्त का उदय, … श्वेत वर्ण के पुरुष और श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी परा प्रकृति के योग से हुआ था I इसलिए उदयावस्था के समय, चित्त का वर्ण भी श्वेत ही था I इस दशा में, परा प्रकृति सत्त्वगुणी प्रकृति हैं और पुरुष चेतन तत्व का द्योतक हैं I
- बुद्धि का उदय, ब्रह्माण्ड में बुद्धि का उदय, ब्रह्म रचना में बुद्धि का उदय, … जब श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी परा प्रकृति और हिरण्यगर्भ ब्रह्म के सुनहरे वर्ण के प्रकाश के योग हुआ था, तब पीले वर्ण की बुद्धि का उदय हुआ था I इसलिए बुद्धि का वर्ण पीला ही था I इस दशा में, परा प्रकृति सत्त्वगुणी हैं और हिरण्यगर्भ ज्ञान स्वरूप ही हैं I
लेकिन आगे चलकर, जब उसी परा प्रकृति में कार्य ब्रह्म का पीला-लाल प्रकाश आया था, तब उस पूर्व की पीले वर्ण की बुद्धि में लाल वर्ण की किरणें भी दिखाई देने लग गई थी I कार्य ब्रह्म ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म के रजोगुणी स्वरूप है, और जो सृष्टिकर्ता ही हैं I
वह लाल वर्ण का प्रकाश जो बुद्धि में आया था, रजोगुण को दर्शाता था और रजोगुण को दर्शाने के कारण, इस दशा में बुद्धि, रजोगुणी ही हो गई थी I
इसलिए बुद्धि कर्मों की कारण और कारक भी होती है I ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि बुद्धि का नाता परा प्रकृति (अर्थात प्रकृति के नवम कोष) से भी है, और हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति से भी होता है I
इसलिए, …
हिरण्यगर्भ के प्रकाश का परा प्रकृति से और परा प्रकृति में योग ही बुद्धि है I
इसलिए, बुद्धि ही कर्मों की मूलकारण और मूलकारक, दोनों ही होती है I
यह इसलिए है, क्यूंकि बुद्धि का नाता प्रकृति और हिरण्यगर्भ से है I
अब चित्त और बुद्धि के उदय के पश्चात का स्वरूप बताता हूँ…
जब ब्रह्म रचना प्रारम्भ हुई थी, तो चित्त का उदय बुद्धि से पूर्व हुआ था I
ऐसी प्राथमिक दशा में चित्त ने कोई भी ब्रह्माण्डीय संस्कार धारण नहीं किया हुआ था I इस दशा में चित्त का वर्ण भी उसकी उदयवस्था का था, अर्थात श्वेत था I
संस्कारों के न होने के कारण, उस प्राथमिक दशा में जो ब्रह्माण्डीय चित्त था, वह ब्रह्माण्डीय बुद्धि (विज्ञानमय कोष) से सूक्ष्म था I और सूक्ष्म होने के कारण, चित्त ने बुद्धि को भेदकर, बुद्धि के भीतर ही अपना स्थान बनाया हुआ था I यही दशा ऊपर के चित्र में भी दिखाई गई है I
और जब बुद्धि में कार्य ब्रह्म का प्रकाश आया, तो वह बुद्धि, रजोगुणी ही हो गई थी और इसके कारण ही उस बुद्धि के पूर्व के पीले वर्ण के प्रकाश में, लाल वर्ण के बिंदु प्रकट हुए थे I
योगमार्ग में, …
- चित्त परिचिति का कारण और कारक होता है, किन्तु ऐसा होने के लिए उस चित्र को वैसा ही होना होगा, जैसा यहाँ बताया गया है I
- बुद्धि कर्मों की कारण और कारक होती है, किन्तु ऐसा होने के लिए बुद्धि को इन्द्रियों में बसा होना होगा I इसलिए जब इन्द्रियां आई, तो बुद्दि उन्ही इंद्रियों के साथ योग करी थी I ऐसा होने के पश्चात ही बुद्धि कर्मों की कारण और कारक भी हो गई थी I
अब बुद्धि के देवता, चित्त के देवता, बुद्धि की देवी, चित्त की देवी, बुद्धि और चित्त के देवी देवता बताता हूँ…
चित्त के देवता श्री विष्णु हैं I
बुद्धि के देवता देवराज इंद्र हैं I
बुद्धि की देवी इन्द्रानुजा त्रिकाली हैं I
चित्त की देवी विष्णुनुजा माँ पार्वती ही हैं I
ब्रह्माण्डीय बुद्धि काया ही इन्द्रासन होता है I
ब्रह्माण्डीय चित्त काया ही वैकुण्ठ कहलाई जाती है I
इन्द्रासन और वैकुण्ठ का योग ही बोधिचित्त कहलाता है I
माँ त्रिकाली और माँ पार्वती का योग ही बोधिचित्त की दिव्यता है I
आगे बढ़ता हूँ…
जब ब्रह्माण्ड का उदय, अब ब्रह्माण्डोदय की दशा को बताता हूँ…
जब उस सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से जो ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ प्राथमिक ब्रह्माण्ड था, कारण जगत, सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत और इन त्रिजगत की पृथक दशाओं का उदय होने लग गया, तब इन सभी ब्रह्माण्डीय दशाओं के संस्कार भी बने I
इन संस्कारों से बुद्धि विमुख ही रही और इसलिए, चित्त ने इनको धारण करना प्रारम्भ कर दिया I
क्यूंकि यह संस्कार चित्त की सूक्ष्मता की तुलना में उतने सूक्ष्म नहीं थे, इसलिए जब चित्त ने इन संस्कारों को धारण कर लिया, तो उस चित्त की परिणामी सूक्ष्मता भी कम हो गई I
जैसे-जैसे चित्त ब्रह्माण्ड की दैविक, फिर सूक्ष्म और स्थूल दशाओं के संस्कारों को धारण करता चला गया, वैसे-वैसे उसकी परिणामी सूक्ष्मता भी न्यून होती चली गई थी I
और यही दशा ब्रह्माण्डोदय के समय पर हुई थी I
आगे बढ़ता हूँ…
अब चित्त का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, ब्रह्माण्ड में चित्त का स्वरूप बताता हूँ…
और अंततः उन संस्कारों को धारण करते करते, एक ऐसी दशा आई जिसमें बुद्धि ही चित्त से सूक्ष्म हो गई I
जब ऐसा हुआ तो बुद्धि ने चित्त भेदना प्रारम्भ कर दिया I
और अन्तः बुद्धि, चित्त के भीतर दिखाई देने लग गई I
ऐसी दशा में ऊपर के चित्र से विपरीत दशा ही दिखाई देने लग गई, जिसमें पीली वर्ण की बुद्धि ने श्वेत वर्ण के चित्त को भेदकर, उस श्वेत वर्ण के चित्त के भीतर ही अपना घर बना लिया I
इस दशा में पीला वर्ण (अर्थात बुद्धि का वर्ण) ही श्वेत वर्ण (अर्थात चित्त का वर्ण) के भीतर दिखाई देने लग गया I
यही बुद्धि और चित्त का ब्रह्माण्डीय स्वरूप है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब चित्त का शोधन, योगमार्ग और चित्त शोधन, योग मार्ग में चित्त का शोधन, उत्कर्ष पथ का चित्त से नाता बताता हूँ…
योग ही उत्कर्षपथ का मूल है I
ज्ञान ही उत्कर्ष पथों का गंतव्य है I
योगमार्ग ही चित्त के शोधन का मार्ग होता है I
समस्त उत्कर्ष पथों के मूल में चित्त का शोधन है I
इस शोधन मार्ग में चित्त अपने उदयावस्था के स्वरूप को पाता है I
जो चित्त शोधन करके, उसको उसकी उदयावस्था में लेकर जाए, वही उत्कर्ष पथ है I
आगे बढ़ता हूँ…
इस चित्त शोधन प्रक्रिया में,…
ब्रह्माण्डोदय के समय जो संस्कार चित्त ने धारण किए थे, वह फलित होते हैं I
और फलित होते-होते, वह संस्कार सूक्ष्म भी होते ही चले जाते हैं I
जब वह संस्कार इतने सूक्ष्म हो जाते हैं, कि योगमार्ग में वह बाधा नहीं डाल पाते हैं, ता साधक प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अन्ततः समाधि की ओर चल पड़ता है I
इस दशा में चित्त के जो पूर्व के संस्कार थे, वह नष्ट भी हो जाते हैं I
जब ऐसा होते है, तब चित्त पुनः संस्कार रहित होकर, उसी दशा को पाता है जो उसकी तब थी, जब उसका उदय हुआ था और जो ऊपर का चित्र भी दिखा रहा है I
चित्त की संस्कार रहित दशा इस बात की भी द्योतक है, कि…
साधक ब्रह्म रचना से अतीत हो चुका है I
ब्रह्मरचना से अतीत दशा ही तो मुक्ति कहलाती है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब संस्कार रहित चित्त को प्राप्त हुआ साधक, इसके बारे में बताता हूँ…
संस्कार रहित चित्त को पाया हुआ साधक…
ब्रह्म रचना में बसा होते हुए भी, उस ब्रह्म रचना में लिप्त नहीं होता I
कर्म से जनित संस्कारों को भी उसका चित्त धारण नहीं कर पाता I
कर्म और फल में पड़ा हुआ भी, उनसे आसक्त नहीं होता I
एक बार यदि किसी साधक का चित्त संस्कार रहित हो जाए, तो वह चित्त अनादि कालों तक संस्कार रहित ही रहता है, और ऐसा तब भी रहेगा, जब वह साधक किसी न किसी कार्य हेतु, किसी न किसी मृत्युलोक में लौटाया जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
अब चित्त की संस्कार रहित दशा, संस्कार रहित चित्त का प्रमाण बोधिचित्त है, इन बिंदुओं को बताता हूँ…
संस्कार रहित अवस्था को पाने का मार्ग ही योग है I और मेरे पूर्व जन्म के दिए हुए योग सूत्र में, इसी को चित्त निरोध कहा गया है I
चित्त निरोध को पाइ हुई और उससे भी आगे की जो दशा आती है, वही ऊपर का चित्र दिखा रहा है I
इस चित्र में दिखाई गई दशा, कर्मों, उनके फलों और संस्कारों से भी अतीत है क्यूंकि इस दशा में साधक के पास न तो प्रारब्ध कर्म बचते हैं, न संचित्त, न क्रियमाण और न ही आगामी कर्म ही शेष रह जाते हैं I
यह दशा कर्मातीत मुक्ति, कर्ममुक्ति आदि भी कहलाई जाती है I
इस दशा में साधक के भीतर के चौबीस तत्त्व सहित, त्रिगुण भी अपने अपने कारणों में विलीन हो चुके होते हैं I इसका अर्थ हुआ, कि देवयान से संबंधित योगमार्ग के गंतव्य का ही यह चित्र है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब बोधिचित्त और तैंतीस कोटि देवता, बोधिचित्त और देवयान, बोधिचित्त और महायान का नाता, इसके बारे में बताता हूँ…
देवयान में साधक की चेतना सभी तैंतीस कोटि देवता और उनके लोकों से होकर ऊपर गति करती है I
इन तैंतीस कोटि देवताओं का साक्षात्कार मेरुदण्ड की तैंतिस हड्डियों में होता है I और इन तैंतीस कोटि देवताओं के लोक, मेरुदण्ड के इन तैंतीस कोटि हड्डियों के मध्य मे होते हैं I
इसका अर्थ हुआ कि तैंतीस कोटि देवता तो मेरुदण्ड की तैंतीस हड्डियों के भीतर साक्षात्कार होंगे, लेकिन उनके लोक किन्हीं दो हड्डियों के बीच के स्थान में साक्षात्कार होते हैं I
और सबसे ऊपर का स्थान (अर्थात इन तैंतीस हड्डियों से ऊपर की ओर) चतुर्मुखा प्रजापति का और उनके ब्रह्मलोक का है I
इन तैंतीस हड्डियों के मध्य में से और इन हड्डियों के दोनों ओर, एक-एक सूक्ष्म नाडी निकल रही होती है I इन हड्डियों के मध्य भाग से निकलकर, यह तैंतीस नाड़ियां शरीर में ऊर्जा प्रवाह लेकर जाती है, और अंततः एक-एक करोड़ भागों में बंट जाती हैं I
और तैंतीस कोटि देवी देवता के शिखर पर विराजमान प्रजापति का स्थान मेरुदण्ड के सबसे ऊपर की हड्डी से भी ऊपर होता है, और वहां होता है जहाँ मस्तिष्क का नीचे का भाग होता है I
इसलिए शरीर में जो होता है, वह ऐसा होता है…
- तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवता होते हैं I यह देवता मेरुदण्ड की तैंतिस हड्डियों में साक्षात्कार होते हैं और इनके लोक मेरुदण्ड की किन्ही दो हड्डियों के मध्य में साक्षात्कार होते हैं I और इन तैंतीस कोटि देवताओं की दिव्यताएं उन तैंतीस प्रधान नाड़ियों में साक्षात्कार होते हैं, जो मेरुदंड से बहार निकलती हैं I
- तैतीस कोटि अर्थात तैंतीस करोड़ देवता होते हैं I जब यह तैंतिस नाड़ियाँ मेरुदण्ड से बाहर निकलकर साधक के शरीर में ही गति करती हैं, तब यह एक-एक करोड़ भागों में बंटती हैं I और यह मेरुदण्ड से निकली हुई तैंतिस प्रधान नाड़ियों के करोड़-करोड़ भाग ही होते हैं I
- यह तैंतीस करोड सूक्ष्म नाड़ियां शरीर में गति करके, नाभि के पीछे और मेरुदंड के समीप के एक क्षेत्र में एकत्रित होती हैं I और एकत्रित होकर, यह एक शिवलिंगाकार स्वरूप लेती हैं I यही एक पूर्व के अध्याय में नाभि लिंग के नाम से से दर्शाया गया था I और यही वह कलश भी है, जिसका वर्णन एक पर्व के अध्याय में किया गया है I
ऐसा गति करता हुआ साधक का मुक्तिमार्ग, समस्त देवलोकों से होकर जाता है और प्रजापति के ब्रह्मलोक (अर्थात सत्य लोक) में ही चला जाता है I
सतलोक में गति करने के पश्चात, ही साधक की काया के भीतर और भ्रूमध्य के स्थान पर यह बोधिचित्त साक्षात्कार होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
त्रिनाडी के दृष्टिकोण से इस बोधिचित्त के चित्र में…
- बाहर की ओर दिखाई गई प्रकाश की किरणों का पीला भाग इड़ा नाड़ी से संबंधित है I
- बाहर की ओर दिखाई गई प्रकाश की किरणों का लाल भाग पिङ्गला नाड़ी से संबंधित है I
- भीतर दिखाया गया श्वेत वर्ण का प्रकाश सुषुम्ना नाड़ी से संबंधित है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब चित्त के रंग का परिवर्तन बताता हूँ …
त्रिगुण मैं से, जिस भी गुण से चित्त उस समय संबंध होगा, वही वर्ण उस चित्त में दिखाई देगा I
इसलिए…
- जब चित्त लाल वर्ण के रजोगुण से संबद्ध होता है, तो उसका रंग भी हल्का लाल सा ही पाया जाता है I
- जब चित्त नीले वर्ण के तमोगुण से संबद्ध होता है, तो उसका रंग भी हल्का नीला सा ही पाया जाता है I
- जब चित्त श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण से संबंध होता है, तो उसका रंग भी श्वेत सा ही पाया जाता है I
ऊपर के चित्र में चित्त का संबंध सत्त्वगुण से है, इसलिए श्वेत वर्ण का दिखाया गया है I
और क्यूँकि चित्त में ही संस्कार निवास कर रहे होते हैं, इसलिए चित्त के वर्णों का परिवर्तन उस समय के प्रबल संस्कारों से भी होता है I अर्थात जो संस्कार उस समय फलित होने को उतावला हो रहा होगा, चित्त का वर्ण भी उसी संस्कार के समान हो जाएगा I संस्कार का फलित होना भी कर्मो से ही होता है I
और जब चित्त संस्कार रहित हो जाता है, तब उसका वर्ण खुरदरा श्वेत ही हो जाता है I ऐसी दशा को ही ऊपर का चित्र दिखा रहा है I
यदि किसी भी जीव के समस्त इतिहास में, एक बार भी चित्त संस्कार रहित हो जाता है, तब वह चित्त अनादि कालों तक ऐसा ही रहता है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब संस्कार विज्ञान, चित्त के संस्कार, चित्त में बसे हुए संस्कार, चित्त के संस्कारों का वर्णन करता हूँ…
चित्त में ही संस्कार निवास करते हैं I यह संस्कार ऊर्जा बीज के समान होते हैं I
जैसे बीज से कोई वृक्ष निकलता है, फल देता है और उन फलों से अनेक बीज हो जाते हैं, वैसा ही यह प्रत्येक संस्कार भी होते हैं I
जब कर्म होते हैं, तो फल भी होते हैं I यह फल भी एक बीज रूप में चित्त में निवास करते हैं और तब-तक ऐसा ही करते हैं, जब-तक उनका पुनः नए कर्मों में फलित होने का समय नहीं आ जाता है I
कर्मों से ही संस्कार फलित होते हैं, और कर्म केवल स्थूल नहीं होता, बल्कि उनका सूक्ष्म और दैविक स्वरूप भी होता है I
इसलिए…
कर्म ही फल का कारक है I
फल ही चित्त में संस्कार रूप में निवास करता है I
जब संस्कार का पुनः फलित होने का समय आता है, तब…
वह संस्कार उत्तेजित होता है I
ऐसी दशा में उस संस्कार का वर्ण चित्त में दिखाई देने लगता है I
इसके बाद जिस जीव में वह संस्कार है, वह उसके अनुसार कर्म करने लगता है I
इसलिए, …
फल ही संस्कार रूप में चित्त में प्रतिष्ठित होते हैं I
पूर्व के फल ही अगले कर्मों का कारण और कारक बनते हैं I
अगले कर्मों से ही वह संस्कार फलित होकर सापेक्ष सूक्ष्मता को पाता है I
और अगले कर्मों से भी अगला फल मिलता है, जो एक संस्कार रूप में ही होता है I
इसलिए, …
कर्म ही फल हुआ है I
कर्म ही फल का कारक है I
फल ही कर्म रूप में पुनः लौटता है I
कर्मफल ही अगले कर्म कारण और कारक है I
इसलिए, …
कर्मफल के मूल में कर्म हैं I
कर्म के मूल में पूर्व का कर्मफल हैं I
कर्म से फल और फल से कर्म चलित होता है I
वह फल भी संस्कार रूप में चित्त में निवास करता है I
संस्कारों का नाता, प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड से होता है I
इसलिए कर्म और कर्मफल सिद्धांत का नाता, प्राथमिक ब्रह्माण्ड से ही है I
सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ था I
इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड से ही दैविक, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड स्वरूप प्रकट हुए हैं I
टिप्पणियाँ:
- सृष्टि की रचना, ब्रह्म की इच्छा शक्ति से हुई थी I
- इस इच्छा शक्ति से जो ब्रह्माण्ड प्राथमिक रूप में उत्पन्नहुआ था, वह सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड था I यही महाकारण जगत था I
- और इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड से कारण जगत, सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत और उनके जीवादी पिण्डों का उदय हुआ था I
- इसलिए संस्कारों का नाता प्राथमिक ब्रह्माण्ड से ही है I लेकिन ऐसा नाता भी तब ही बनता है जब साधक के भीतर के संस्कार, महाकारण जगत के समान होकर, उसी में विलीन होने लगते हैं… इससे पूर्व नहीं I
इसलिए…
कर्म के मूल में पूर्व के कर्म फल ही होते हैं I
कर्मफल ही चित्त में संस्कार रूप में प्रतिष्ठित होते हैं I
पूर्व के कर्म फल रूपी संस्कार ही अगले कर्मों के कारण बनते हैं I
कर्म भी संस्कारों को फलित करके, उनको पूर्व से अधिक सापेक्ष सूक्ष्मता देते हैं I
उत्कर्षपथ के कर्म और फल सिद्धांत के दृष्टिकोण में यह सृष्टिचक्र का द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ…
पृथक प्रकार के कर्मों से पृथक प्रकार के संस्कार उत्पन्न होते हैं I
इसलिए इन पृथक प्रकार के संस्कारों के पृथक वर्ण भी होते हैं I
जिस प्रकार के कर्म करोगे, उसी कर्म प्रकार के समान तुम्हारे चित्त में संस्कार उत्पन्न हो जाएंगे I
और उन्ही संस्कारों के अनुसार, तुम्हारे अगले कर्मों के प्रकार भी होंगे I
अधम के कर्मों से, अधम संस्कार ही उत्पन्न होते हैं I इन संस्कारों के वर्ण गाढ़े रंगों के होते हैं I जितना कर्म अधम हुआ होगा, उतना ही गाढ़ा वर्ण उससे उत्पन्न हुए संस्कार का भी होगा I
और उत्तम कर्मों से उत्तम संस्कार उत्पन्न होते हैं I इन संस्कारों के वर्ण हलके रंगों के होते हैं I जितना कर्म उत्तम हुआ होगा, उतना ही हल्का वर्ण उससे उत्पन्न हुए संस्कार का भी होगा I
अधम संस्कार से सम्बद्ध अधम कर्म, अधम से भी अधम फलों के जनक होते हैं I ऐसे कर्मों के संस्कार काले वर्णों के होते हैं I
इसलिए, जिसने यह संस्कार विज्ञान जाना होगा, वह अन्य जीवों के पूर्व कर्मों, उनके कर्मफल और उनसे उत्पन्न हुए संस्कारों का ज्ञाता भी होगा I ऐसा योगी चित्त के संस्कारों को देख कर ही जान जाएगा, कि उसके सामने खड़ा हुआ जीव किस प्रकार का (अथवा कर्म श्रेणी) का है I
जैसे-जैसे जीव अपने उत्कर्ष पथ पर गति करता है, वैसे-वैसे उसके कर्म ही व्यापक दृष्टिकोण से करे जाने लगते हैं, और इसी से उसके चित्त के संस्कार भी सूक्ष्म होते चले जाते हैं I
और जब उस जीव के चित्त के संस्कार अधिकांशतः सूक्ष्म हो जाएंगे, तब वह जीव अष्टांग योग के यम और नियम का स्वतः ही पालन करने लगेगा I और इसी दशा से वह उसी अष्टांग योग की आगे की दशाओं में जाने लगेगा I
और जब उस जीव का चित्त संस्कार रहित होने लगेगा, तब उसके चित्त में वही चौबीस टेढ़ी रेखाएं बन जाएंगी, जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
और इससे भी आगे, जब उस जीव के चित्त में बस अंतिम संस्कार ही रहेगा, अथवा उस जीव का चित्त संस्कार रहित ही हो जाएगा, तब वह चौबीस टेढ़ी रेखाएं भी धूम्र वर्ण के समान होने लगेंगी I यही दशा ऊपर के चित्र में भी दिखाई गई है I
आगे बढ़ता हूँ…
बोधिचित्त और योग गंतव्य, चित्त की दशा और निर्बीज समाधि, निर्बीज समाधि के पश्चात चित्त की दशा, … मेरु शिखरम्, योग मेरु, गंतव्य स्थिति, नित्य वैकुंठम्, अंतर्लक्ष्यम्, सत्य कैलाशम्, चिन्मय नेत्रम्, त्रिगुणातीतम्, त्रिगुणातीताम्, त्रिगुणातीत दशा, त्रिगुणातीत दशा क्या है, निग्रह सिद्धि, तिरोधान सिद्धि, अनुग्रह सिद्धि, … निर्वाण क्या है, बोधिचित्त और निर्वाण, निर्वाण की दशा, आपो ज्योति क्या है, बुद्धि और चित्त का योग क्या है, बोधमय चित्त क्या है, चित्तमय बोध क्या है, महायान का गंतव्य क्या है, देवयान का गंतव्य क्या है, आपो ज्योति का वर्णन, योग सुमेरु क्या है, योग शिखर क्या है, मेरु पर्वत क्या है, सुमेरु पर्वत क्या है, मेरु शिखर क्या है, अंतर्लक्ष्य क्या है, नित्य वैकुंठ क्या है, सत्य कैलाश क्या है, चिन्मय नेत्र क्या है, आत्मस्थिति क्या है, …
जब साधक संस्कार रहित होने लगता है और उसके चित्त में बस वह अंतिम संस्कार ही शेष रह जाता है, तब वह साधक निर्बीज समाधि को प्राप्त होने का पात्र बनता है I
और उत्कर्ष मार्ग की इस दशा से आगे, जब साधक उस अंतिम संस्कार को भी उसके कारण में लय करने का पात्र बनता है, तब ही वह साधक निर्बीज समाधि को पाता है I निर्बीज समाधि से ही चित्त अपने समस्त संस्कारों से अतीत होता है I और चित्त की संस्कार रहित दशा का मार्ग भी निर्बीज समाधि ही होती है I
निर्बीज समाधि से पाइ हुई चित्त की संस्कार रहित दशा में उस चित्त का वर्ण खुरदरा श्वेत ही होता है I और इस दशा में उस चित्त के मध्य में धूम्र वर्ण की चौबीस रेखाऐं भी दिखाई देने लगेंगी I
उस खुरदरे श्वेत चित्त के भीतर की इन चौबीस रेखाओं में ऊर्जा प्रवाह होता है I
इस ऊर्जा प्रवाह के कारण, इन रेखाओं के समीप उस चित्त में ऊर्जा की लहरें (तरंगे) दिखाई देने लगती हैं I
यह ऊर्जा प्रवाह भी वामदेव सदाशिव से ही संबद्ध होता है, अर्थात इन चौबीस रेखाओं के समीप के चित्त के भाग में आए इस ऊर्जा प्रवाह के मूल में सदाशिव का वामदेव मुख ही होता है I
क्यूंकि उन सदाशिव वामदेव से ही अर्धनारीश्वर का उदय होता है, और जहाँ वह अर्धनारी भगवन ही सगुण आत्मा और श्री विष्णु कहलाते हैं, इसलिए यह ऊर्जा प्रवाह स्थिति कृत्य का ही द्योतक है (अर्थात श्री विष्णु के स्थिति कृत्य का द्योतक है) I
क्यूंकि सदाशिव के वामदेव मुख से ही माँ पार्वती का उदय हुआ था, इसलिए इस ऊर्जा प्रवाह के शक्ति रूप में वह माँ पार्वती ही होती हैं, जो विष्णुनुजा कहलाई गई हैं I
यह चौबीस धूम्र वर्ण की रेखाएं और उनका ऊर्जा प्रवाह चित्त के मध्य के बिंदु से ही आगे की ओर जाता है और चित्त में ही टेढ़े रूप में गति करता है I
धूम्र वर्ण की इन चौबीस रेखाओं का ऊर्जा प्रवाह, अर्ध से भी अर्ध वृत्त-चाप स्वरूप में होता है, और ऐसी ही यह चौबीस रेखाएं भी होती हैं I
क्यूंकि चित्त के भीतर धूम्र वर्ण की यह चौबीस रेखाऐं निर्बीज समाधि के पश्चात दिखाई देती हैं, इसलिए अब इन चौबीस रेखाओं का वर्णन करके, यह चौबीस रेखाएं जो दर्शाती हैं, उसको भी बताता हूँ…
आगे बढ़ता हूँ…
अब चित्त के भीतर की उन चौबीस रेखाओं का वर्णन करता हूँ …
उस खुरदरे श्वेत वर्ण के चित्त में…
- यह रेखाएं काले वर्ण की ही होती हैं I अर्थात इनका नाता उस सर्वशून्य से ही होता है, जो शून्य ब्रह्म कहलाया गया है I
- और उस काले वर्ण के भीतर हेरे के प्रकाश को धारण किए हुए बहुत सारे बिंदु होते हैं I
- और ऐसा होने के कारण, बाहर की ओर से यह सभी रेखाएं धूम्र वर्ण की ही दिखाई देती हैं I यही कारण है कि इनका वर्ण धूम्र ही कहा गया है I
यह चौबीस रेखाएं जो दर्शाती हैं, वह ऐसा होता है…
- चौबीस गुण, … यह रेखाएं योग के चौबीस गुणों को भी दर्शाती हैं I
- चौबीस अवतार, … यह रेखाएं चौबीस अवतारों को भी दर्शाती हैं I
- चौबीस तत्त्व, … यह रेखाएं सांख्य का चौबीस तत्वों को भी दर्शाती हैं I
- चौबीस तीर्थंकर, … यह रेखाएं जैन पंथ के चौबीस तीर्थंकरों को भी दर्शाती हैं I
- अट्ठाईस बुद्ध, … इस चित्र में चौबीस रेखाऐं हैं, और उन रेखाओं के साथ, खुरदरे श्वेत वर्ण का चित्त है, जिसको बुद्धि और रजोगुण की योगदशा ने घेरा हुआ है I जब इन चौबीस रेखाओं के साथ साथ, चित्त, बुद्धि और रजोगुण को लिया जाएगा, तो यह सत्ताईस हो जाएंगे I और इनसे आगे ही अट्ठाईसवां है, जो उस मध्य के बिंदु में होता है I यही अट्ठाईस बुद्ध कहलाए गए हैं I
- बारह उदय सिद्धांत और बारह अस्त सिद्धांत,… यह चौबीस रेखाएं बारह उदय सिद्धांत और बारह अस्त (अर्थात अन्त या नाश सिद्धांता) को भी दर्शाते हैं I
- इत्यादि…
आगे बढ़ता हूँ…
लेकिन क्यूंकि बोधिचित्त की ऊपर दिखाए और बताई गई दिशा में, यह रेखाएं अपने पूर्व के वर्णों को त्यागकर, धूम्र वर्ण की ही हो गई है, इसलिए…
- यह चौबीस रेखाएं इस बात को भी दर्शाती हैं, कि साधक की काया के भीतर बसा हुआ संस्कार बीज स्वरूप का ब्रह्माण्ड, अब निर्बीज हो गया है I
- इसका यह भी अर्थ हुआ, कि वह प्राथमिक ब्रह्माण्ड, जो सूक्ष्म सांस्कारिक ही था, वह अब निर्बीज हो गया है I
- इसका अर्थ हुआ कि साधक के भीतर का सूक्ष्म सांस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड भी अब अपने कारण में विलीन हो गया है I
- और ऐसा होने के कारण, यह चौबीस रेखाएं साधक के चित्त के संस्कार रहित दशा की द्योतक भी हैं I
- चित्त वह भूमि होती है, जिसमें संस्कार रूपी बीज फलित होकर कर्म वृक्ष का रूप धारण करते हैं I इसलिए जब चित्त ही संस्कार रहित हो जाता है, तब उसकी दशा वैसी ही होती है जैसी बंजर भूमि की होती है I और ऐसा होने के कारण, साधक का अनादि कालों से चला रहा वह कर्म का वृक्ष भी सूख कर नष्ट हो जाता है I
- किसी भी जीव के इतिहास में, यदि एक बार भी उसका चित्त निर्बीज हो जाएगा, तो वह अनादि कालों तक ऐसा ही रह जाएगा I ऐसा होने के कारण, आगामी किसी भी समय में उस साधक के चित्त में कोई संस्कार फलित भी नहीं हो पाएगा, अर्थात वह बीज रूपी संस्कार किसी भी वृक्ष का रूप धारण ही नहीं कर पाएगा I
- इसका यह भी अर्थ हुआ, कि चित्त की संस्कार रहित दशा वैसी ही होती है जैसे कोई बंजर भूमि होती है I और जैसे किसी बंजर भूमि में कोई वृक्ष नहीं हो पाता, वैसा ही वह चित्त भी अनादि कालों तक इसी बंजर भूमि के समान ही रहता है I
- ऐसा होने के कारण, साधक कर्म को करता ही रहेगा, लेकिन वह न तो उन कर्मों का कर्ता माना जाएगा, और न ही उन कर्मों के फलों का भोगता I
- ऐसा होने के कारण उन कर्मों से जो फल रूपी संस्कार भी उत्पन्न होंगे, वह साधक के चित्त में निवास करके, तत्क्षण ही नष्ट होते जाएंगे I और ऐसा होने के कारण उस साधक का चित्त अनादि कालों तक संस्कार रहित ही पाया जाएगा I
इसलिए, चित्त के भीतर बसी हुई यह चौबीस धूम्रा वर्ण की रेखाएं जो दर्शाती है, अब उसको बताता हूँ…
- चौबीस गुणों से अतीत, … क्यूंकि यह रेखाएं चौबीस गुणों की द्योतक हैं, इसलिए निर्बीज समाधि के पश्चात क्यूँकि साधक त्रिगुणातीत ही हो गया होता है, इसलिए वह साधक इन चौबीस गुणों से भी अतीत होता है I और अतीत होने के कारण यह गुण भी उन्ही निर्बीज ब्रह्म में ही लय होते हैं I
- चौबीस अवतार से अतीत, … क्यूंकि यह चौबीस रेखाएं चौबीस अवतारों की भी द्योतक हैं, इसलिए बोधिचित्त के भीतर इन रेखाओं का धूम्र वर्ण यह भी दर्शाता है, कि साधक अब चौबीस अवतारों से भी अतीत ही हो गया है I
- सांख्य के चौबीस तत्त्वों से अतीत, … क्यूंकि यह चौबीस रेखाएं चौबीस तत्त्वों की भी द्योतक हैं, इसलिए बोधिचित्त के भीतर इन रेखाओं का धूम्र वर्ण यह भी दर्शाता है, कि साधक अब चौबीस तत्त्वों से भी अतीत ही हो गया है I
- जैन पंथ के चौबीस तीर्थंकर से अतीत, … क्यूंकि यह चौबीस रेखाएं चौबीस तीर्थंकरों की भी द्योतक हैं, इसलिए बोधिचित्त के भीतर इन रेखाओं का धूम्र वर्ण यह भी दर्शाता है, कि साधक अब चौबीस तीर्थंकरों से भी अतीत ही हो गया है I
- अट्ठाईस बुद्धों से अतीत, अट्ठाईसवां बुद्ध, … क्यूंकि इस चित्र का नाता अट्ठाईस बुद्धों से भी है, इसलिए यह संपूर्ण चित्र अट्ठाईस बुद्धों से भी अतीत दशा को दिखाता है I लेकिन जो अट्ठाईसवां बुद्ध है, वह जब-तक काया में रहेगा, तब-तब वह इस चित्र के मध्य में दिखाए गए बिंदु में ही बसा रहेगा I वह अट्ठाईसवां बुद्ध ही अन्तिम बुद्ध है, और वही अपने पूर्व जन्म में सत्ताइसवें बुद्ध, जो भगवान् बुद्ध ही थे, उनका शिष्य था I
- बारह उदय सिद्धांत से अतीत, बारह अंत सिद्धांत से अतीत, … जब साधक के चित्त के मध्य बिंदु से बाहर की ओर गति करती हुई यह ऊर्जा रेखाऐं धूम्र वर्ण की हो जाती हैं, तब साधक उदयातीत और अस्तातीत (अर्थात अंतातीत) हो जाता है I जो ऐसा है उसको ही तो अनंत ब्रह्म कहते हैं, और जो आकाश आयाम की गंतव्य दशा है I
और इस दशा को प्राप्त होकर…
साधक न अपनी काया को त्यागता है और न ही पुनः किसी काया में लौटता है I
अपनी काया में वह जीवित सा प्रतीत होता हुआ भी, जीव नहीं कहला पाता I
और अपनी काया से देहावसान के पश्चात, वह मृत भी नहीं कहला पाता I
वह होता हुआ भी नहीं होता है और नहीं होता हुआ भी सदैव रहेगा I
उसके लिए चाहे उसकी काया रहे या नहीं, वह सदैव ही रह जाएगा I
और ब्रह्म रचना में सदैव रहता हुआ भी, वह नहीं ही होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
और वेदमार्ग और योगमार्ग में बोधिचित्त के नाम बताता हूँ…
- नित्य वैकुंठ, निर्वाण, नित्य वैकुंठम्, … यही साधक की काया के भीतर बसा हुआ वह वैकुण्ठ है, जिसका नाता सदाशिव के वामदेव मुख (अर्थात सदाशिव वामदेव) से होता है I
- आपो ज्योति, … यही वह आपो ज्योति जिसको ऊपर बताया गया मंत्र दर्शा रहा है I
- महायान का गंतव्य, देवयान का गंतव्य, … तिब्बती बौद्ध पंथ के महायान नामक मार्ग का यही गंतव्य है I और देवयान मार्ग का भी यही गंतव्य होता है I
- योग सुमेरु, योग मेरु, मेरु शिखरम्, योग शिखरम्, योग शिखर, मेरु शिखर, मेरु पर्वत, सुमेरु पर्वत, … योगीजनों द्वारा बताया गया मेरु पर्वत, मेरु शिखर, सुमेरु पर्वत, सुमेरु शिखर भी यही है I
- अंतर्लक्ष्य, अंतर्लक्ष्यम्, … योग और सिद्ध मार्गों में बताया गया अंतर्लक्ष्य भी यही बोधिचित्त ही है I
- सर्वसाक्षी, सर्वसाक्ष, अंतरसाक्ष्य, अंतरसाक्षी, … यही योग मार्ग का वह अंग है, जो गंतव्य और गंतव्य पथ, दोनों ही समान रूप में होता है I और ऐसा होने पर भी यह इन दोनों का साक्षीमात्र भी समानरूप में रहता हैI ऐसा इसलिए हो पाता है, क्यूंकि यही प्रकृति भी है और यही पुरुष भी होता है I
- सत्य कैलाश, सत्य कैलाशम्, … यही सिद्धों और उत्कृष्ट योगीजनों द्वारा बताया गया सत्य कैलाश है I
- योग गंतव्य, गंतव्य स्थिति, … यह आंतरिक योग मार्ग से साक्षात्कार हुआ योग गंतव्य भी है I
- चिन्मय नेत्र, चिन्मय नेत्रम्, … चिन्मय शब्द परमेश्वर (परमात्मा) का द्योतक है I यही साधक की काया के भीतर निवास करते हुए उन परमात्मा (परमेश्वर) का नेत्र स्वरूप भी है I
- सच्चिदानंद स्वरूपम्, सच्चिदानंद स्वरूप, … यही सच्चिदानन्द स्वरूप भी कहलाया है I यहाँ बताए गए तत्त्व का नाता परमगुरु शिव से है और परम गुरुमाई शक्ति से भी समानरूप में है I
- आत्मस्थिति, वृतिहीन दशा, … वृत्तिहीन दशा ही आत्मस्थिति कहलाती है I जब मन बुद्धि चित्त और अहम् की सभी वृत्तियाँ समाप्त हो जाएं, तो वह दशा आत्मस्थिति की है I
- त्रिगुणातीत, त्रिगुणातीतम्, त्रिगुणातीताम्, त्रिगुणातीता, … यह त्रिगुणातीत दशा का द्योतक है I इसके बारे में पूर्व में बताया जा चुका है I
- निग्रह सिद्धि, तिरोधान सिद्धि, अनुग्रह सिद्धि, … यह निग्रह और अनुग्रह कृत्य की सिद्धि भी है I
- सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म, सत्यम् ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन, … इन सभी शब्दों और उनकी दशाओं का नाता इस साक्षात्कार से भी है I
- बुद्धि और चित्त का योग, चित्त और बुद्धि का योग, बोधमय चित्त, चित्तमय बोध, चिन्मय बोध, … यही बुद्धि और चित्त का वह योग दर्शाता है, जो तब होता है जब चित्त संस्कार रहित हो जाता है I इसलिए यही दशा बोधमय चित्त और चित्तमय बोध, इन दोनों शब्दों को दर्शाती है I यही दशा से चिनमय बोध होता है I
- निर्बीज समाधि की सिद्धि, निर्बीज ब्रह्म सिद्धि, … यही निर्बीज ब्रह्म की सिद्धि का भी द्योतक है, जिसका मार्ग भी निर्बीज समाधि ही होती है I
अब आगे बढ़ता हूँ…
बोधिचित्त का सदाशिव से नाता, सदाशिव का बोधिचित्त से नाता, बोधिचित्त का पञ्च ब्रह्म से नाता, पञ्च ब्रह्म का बोधिचित्त से नाता, बोधिचित्त का माँ गायत्री से नाता, माँ गायत्री का बोधिचित्त से नाता,…
बोधिचित्त के वर्णों में से…
- बोधिचित्त साक्षात्कार में पीला वर्ण,…
अंतःकरण में इसका नाता बुद्धि से है I
त्रिनाडी में इसका नाता इड़ा नाड़ी से है I
देवलोकों में इसका नाता इन्द्रलोक से है I
पञ्च प्राण में इसका नाता प्राण प्राण से है I
सिद्ध मार्गों में यह ही महाकारण कहलाता है I
पञ्च कोष में इसका नाता विज्ञानमय कोष से है I
पञ्च महाभूत में इसका नाता, पृथ्वी महाभूत से ही है I
पीले वर्ण का नाता ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया से ही है I
समाधि मार्ग में इसका नाता ऋतम्भरा प्रज्ञा से ही होता है I
पञ्च ब्रह्म में इसका नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म (सद्योजात ब्रह्म) से है I
सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता, पञ्च मुखा गायत्री के हेमा मुख से इसका नाता है I
- बोधिचित्त साक्षात्कार में लाल और पीले वर्ण की योगदशा…
चित्त को घेरे हुए जो लाल और पीले वर्ण की योगदशा है, उसका संबंध सदाशिव का तत्पुरुष मुख से है, इसलिए इन दोनों वर्णों की योगदशा का नाता, कार्य ब्रह्म से भी है I
इसी दशा का नाता रजोगुणी बुद्धि से है, अर्थात बुद्धि की उस दशा से है जो ब्रह्माण्ड को उसके उत्कर्ष पथ की ओर लेकर जाती है I
इसी दशा का नाता विज्ञानमय रजोगुण से भी है, अर्थात रजोगुण की उस दशा से है जो विज्ञानमय होकर, जीव जगत को क्रियाशील रखता है I
पञ्च महाभूत में इसका नाता, पृथ्वी महाभूत की राजस्वला दशा से है I
योगमार्ग में इसका नाता महाकारण और महाक्रिया की योगदशा से है, जो योगेश्वर (महेश्वर) कहलाते हैं I
- बोधिचित्त साक्षात्कार में पीले और लाल वर्ण की योगदशा में लाल वर्ण, …
त्रिगुणों में इसका नाता रजोगुण से है I
सिद्ध मार्गों में यही महाक्रिया कहलाई है I
त्रिनाडी में इसका नाता पिङ्गला नाडी से है I
पञ्च कोष में इसका नाता, अपान प्राण से है I
अंतःकरण में इसका नाता, रजोगुणी चित्त से है I
पञ्च ब्रह्म में इसका नाता तत्पुरुष ब्रह्म से ही है I
पञ्च महाभूत में इसका नाता, अग्नि महाभूत से ही है I
समाधि मार्ग में इसका नाता अस्मिता समाधि से ही है I
देवलोकों में इसका नाता रुद्रलोक से और सूर्यलोक से भी है I
लाल वर्ण के रजोगुण का नाता ब्रह्माण्डीय क्रिया काया से ही है I
ब्रह्म रचना में चल रही वह सार्वभौम क्रिया के मूल में रजोगुण ही है I
तत्पुरुष ब्रह्म की दिव्यता, पञ्च मुखी गायत्री के विद्रुमा मुख से इसका नाता है I
- बोधिचित्त साक्षात्कार में श्वेत वर्ण,…
इसका नाता सत्त्वगुण से है I
इसका नाता महासमता से है I
इसकी देवी आदि शक्ति ही हैं I
इसका नाता सगुण निर्गुण ब्रह्म से है I
त्रिनाडी में इसका नाता, सुषुम्ना नाडी से है I
अंतःकरण में इसका नाता सत्त्वगुणी मन से है I
पञ्च ब्रह्म में इसका नाता वामदेव ब्रह्म से ही है I
देवलोकों में इसका नाता परा प्रकृति और ब्रह्मलोक, दोनों से है I
समाधि मार्ग में इसका नाता सम्प्रज्ञात समाधि और धर्ममेघ से है I
पञ्च ब्रह्म की दिव्यता, माँ गायत्री के धवला मुख से इसका नाता है I
पञ्च मुखी सदाशिव में इसका नाता सदाशिव के सद्योजात मुख से ही है I
- बोधिचित्त साक्षात्कार में धूम्र वर्ण की चौबीस रेखाएं…
त्रिगुण में इसका नाता गुणातीत से है I
इसका नाता सदाशिव के वामदेव मुख से है I
अंतःकरण में इसका नाता स्वाहा हुए अहम् से है I
यह मुख यज्ञ कुण्ड से ऊपर उठते हुए धुएं सा ही है I
देवलोकों में इसका नाता वैकुण्ठ और अर्धनारीश्वर लोक से है I
तंत्र में इसका नाता, माँ धूमावती से है, और शमशान काली से है I
इसका नाता महा अंत से है, अर्थात ब्रह्माण्ड में साधक के अंत से है I
समाधि मार्ग में इसका नाता शून्य, असंप्रज्ञात और निर्बीज समाधि से भी है I
टिप्पणी : पञ्च ब्रह्म में इसका नाता मुझे अब तक पता नहीं चला है I
आगे बढ़ता हूँ…
प्रकृति के चौबीस तत्त्व, सांख्य के चौबीस तत्त्व, …
यह चौबीस ऐसे होते हैं…
पञ्च तन्मात्र, … पञ्च तन्मात्र होते हैं…
- गंध तन्मात्र, … इसका बीज शब्द ना है I
- रस तन्मात्र, … इसका शब्द मा होता है I
- रूप तन्मात्र, … इसका बीज शब्द शि है I
- स्पर्श तन्मात्र, … इसका बीज शब्द वा है I
- शब्द तन्मात्र, … इसका बीज शब्द या है I
इसलिए, पञ्च तन्मात्रों के बीज शब्दों का योग, नमः शिवाय ही होता है I
यही शिव पंचाक्षर मंत्र है, जिसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया गया था I
पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, … पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं…
- नेत्र I
- कर्ण I
- घ्राण I
- जिह्वा I
- त्वचा I
पञ्च कर्मेन्द्रिय, … पञ्च कर्मेन्द्रियाँ होती हैं…
- हस्त I
- पाद I
- मुख I
- जननेन्द्रिय I
- गुदा I
पञ्च प्राण, … पञ्च प्राण हैं…
- अपान I
- प्राण I
- समान I
- उदान I
- व्यान I
अन्तःकरण चतुष्टय, … चार अंतःकरण हैं…
- मन I
- बुद्धि I
- चित्त I
- अहम् I
आगे बढ़ता हूँ…
बोधिचित्त की वास्तविकता, बोधिचित्त और माँ प्रकृति, बोधिचित्त और ब्रह्म शक्ति, …
बोधिचित्त के समस्त भागों में जो एकमात्र प्रकाशित होता है, वही माँ प्रकृति हैं I
और जहाँ वह…
माँ प्रकृति ही ब्रह्मशक्ति हैं I
माँ प्रकृति ही ब्रह्म की दूती हैं I
माँ प्रकृति ही ब्रह्म की दिव्यता हैं I
माँ प्रकृति ही ब्रह्म की अर्धांगनी हैं I
माँ प्रकृति, ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति हैं I
वह माँ प्रकृति ही मूल प्रकृति कहलाई जाती हैं I
इसलिए यह साक्षात्कार शाक्त मार्ग का अंग भी है I
यही प्रकृति के प्रधान स्वरूप का साक्षात्कार भी होता है I
यही ब्रह्म की माया का शक्तिमय और दैविक स्वरूप भी है I
जब योगी संस्कार रहित दशा में स्थित होगा, तो यही मायातीत है I
मायातीत रूप में यही योग सुमेरु, योग शिखर, मेरु पर्वत, बोधिचित्त है I
ब्रह्ममय स्वरूप में यही सत्य कैलाश, चिन्मय नेत्र, नित्य वैकुंठ, निर्वाण है I
अपने योग स्वरूप में यही आपो ज्योति, अंतर्लक्ष्य, आत्मस्थिति, त्रिगुणातीत है I
योगमार्गी स्वरूप में यही देवयान और महायान आदि का गंतव्य, मुक्तिमार्ग भी है I
जब साधक की काया के भीतर ही पुरुष और प्रकृति का योग सिद्ध होता है, तब साधक शून्य समाधि से असंप्रज्ञात समाधि को जाकर, अंततः निर्बीज समाधि को जाता है, जिसके पश्चात ही यह साक्षात्कार और ज्ञान प्रकट होता है I इसलिए इस अध्याय के मूल में भी यही समाधियां हैं, जिनके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब योगमार्ग में बोधिचित्त के चार वर्ण, योगमार्ग के बोधिचित्त के पाँच वर्ण, बोधिचित्त और पञ्च कृत्य, बोधिचित्त और पञ्च देव, के बारे में संक्षेप में ही सही, लेकिन बताया जाएगा…
अब इन्हीं वर्णों को पञ्च मुखी सदाशिव के दृष्टिकोण से बताता हूँ…
- श्वेता, … ऊपर के चित्र में यह मध्य में दिखाया गया श्वेत भाग है I इस वर्ण का नाता पितामह ब्रह्मा से है, जो सदाशिव के सद्योजात मुख से स्वयम्भू हुए थे I सदाशिव का सद्योजात मुख पश्चिम दिशा की ओर देखता है I पितामह ब्रह्मा का कृत्य उत्पत्ति है I
- रक्ता (लाल), … श्वेत वर्ण को जो पीले और लाल वर्ण के किरणों की योगदशा ने घेरा हुआ है, उनमें से यह लाल वर्ण है I इस वर्ण का नाता रुद्र देव से है, जो सदाशिव के अघोर मुख से स्वयम्भू हुए थे I सदाशिव का अघोर मुख दक्षिण दिशा की ओर देखता है I रुद्र देव का कृत्य संहार है I
- पीता (हेमा, पीला), … श्वेत वर्ण को जो पीले और लाल वर्ण के किरणों की योगदशा ने घेरा हुआ है, उनमें से यह पीला वर्ण है I इस वर्ण का नाता देवराज इंद्र से है, जो सदाशिव के तत्पुरुष मुख से स्वयम्भू हुए थे I सदाशिव का तत्पुरुष मुख पूर्व दिशा की ओर देखता है I इस मुख का कृत्य तिरोधान या निग्रह है I लेकिन वेदान्ती इसके देवता को सूर्य कहते हैं I
- धवला (श्यामा), … श्वेत वर्ण के चित्त में जो चौबीस धारियाँ और मध्य का बिन्दु बताया गया है, यह उन पच्चीस भागों का धवल वर्ण है I इस वर्ण का नाता श्री विष्णु से है, जो सदाशिव के वामदेव मुख से स्वयम्भू हुए थे I सदाशिव का वामदेव मुख उत्तर दिशा की ओर देखता है I श्री विष्णु का कृत्य स्थिति है I
- निरंग, … और इन सबको जिसने भेदा और घेरा भी हुआ है, वह सदाशिव का ईशान मुख है हैं जिसके देवता गणपति देव हैं I सदाशिव का ईशान मुख आकाश की ओर देखता है I गणेश का कृत्य अनुग्रह है I
आगे बढ़ता हूँ…
इन रंगों में से…
- लाल रंग, … स्थूल देह का द्योतक है I यह रंग साक्षात्कार के समय साधक की रजोगुणी दशा का भी द्योतक है I यह रंग उस दशा को दर्शाता है, जिसमें साधक के संचित्त कर्म, क्रियमाण कर्म और आगामी कर्म तो समाप्त हो चुके हैं, किन्तु साधक का प्रारब्ध या तो शेष रह गया है या उस साधक ने ही अपनी काया को रखने के लिए, स्वयं के लिए एक और योग प्रारब्ध का निर्माण कर लिया है I लेकिन ऐसा वह साधक तब ही कर पाएगा, जब उसका कोई ऐसा कर्म शेष रह गया होगा, जो सनातन ही है, जैसे कोई गुरुदक्षिणा का शेष रह जाना अथवा सनातन के शब्द के अंतर्गत आती हुई किसी परंपरा का निर्वाह, इत्यादि I ऐसी दशा में यदि सनातन से संबंधित कोई बिंदु ही शेष रह गया होगा, तो वह साधक उसको पूर्ण करके ही देहावसान कर पाएगा और यदि उस साधक ने ही नए प्रारब्ध में किसी सनातन बिंदु को जन्म दे दिया होगा, तो वह साधक तब ही देहावसान करेगा, जब यह पूर्ण हो जाएगा I लेकिन उस योग प्रारब्ध का ऐसा जन्म भी निर्बीज समाधि से पाए हुए निर्बीज ब्रह्म के भीतर बसकर ही किया जा सकता है I
- श्वेत रंग, … सूक्ष्म शरीर का द्योतक है I लेकिन सूक्ष्म शरीर को श्वेत वर्ण का होने के लिए, उसको सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले अघोर से बाहर निकलकर, सदाशिव के पश्चिम दिशा को देखने वाले सद्योजात मुख में ही चला जाना होगा I यह रंग सत्त्वगुण का द्योतक है I और इसके अतिरिक्त, यह समता सहित सगुणा निर्गुण ब्रह्म का भी द्योतक है I बोधिचित्त के इस वर्ण के साक्षात्कार के समय, वह सूक्ष्म शरीर साधक की काया को त्याग देगा I यह एक बहुत विप्लवकारी स्थिति है क्यूंकि इसमें मृत्यु भी हो सकती है I यदि साधक अपने योगबल, तपबल, जपबल, साधनाबल, आत्मबल अदि के प्रयोग से अपनी काया को सुरक्षित रख पाता है और अपनी काया का समय इससे आगे लेकर चला जाता है, तो ऐसी दशा को प्राप्त हुए योगीजन ही तथागत कहलाते हैं I योगमार्ग में तथागत शब्द का अर्थ जो होता है साधना उसको अब सूक्ष्म सांकेतिक रूप में सही, लेकिन बताता हूँ…
वह जो ऐसे ही चला गया I
और वह जो ऐसे ही आ गया I
वह जो इस प्रकार ही चला गया I
और वह जो इस प्रकार ही आ गया I
- धूम्र (धूम्र-श्यामा) वर्ण, … इस वर्ण का नाता कारण देह से है I इसका नाता महाकाल महाकाली योग सिद्धि से भी होता है I इस रंग के चौबीस रेखाओं और उनके मध्य के बिंदु के साक्षात्कार के पश्चात, जो होता है… अब उसको बताता हूँ…
साधक की काया के भीतर का ब्रह्माण्ड अपने ब्रह्माण्डीय कारण में लय होगा I
साधक की काया के भीतर की ब्रह्माण्डीय दशाएं, अपने अपने कारणों में लय होंगी I
उन ब्रह्माण्डीय दशाओं के समस्त उप–भाग भी अपने अपने कारणों में लय हों जाएंगे I
और जब यह भाग अपने अपने कारणों में लय हो रहे होंगे, तो चित्त के भीतर ऊर्जा की वह लहरें आएंगी, जिनके बारे में पूर्व में बताया गया था I
- पीला (हेमा, पीत) वर्ण, … इस रंग महा कारण देह से है I यह रंग दर्शाता है कि इस समस्त ब्रह्म रचना में साधक ने जो कुछ भी प्राप्त करना था अथवा जिसी भी जीव द्वारा जो भी प्राप्त किया जा सकता था, वह अब प्राप्त कर लिया है I बोधिचित्त के चित्त नामक भाग को घेरा हुआ यह पीला रंग यह भी दर्शाता है, कि साधक अपने उत्कर्ष पथ की पूर्व की दशा में, ॐ को भी प्राप्त हुआ है I यह रंग साधक के भीतर की प्रकृति (साधक की काया में बसी हुई प्रकृति) अर्थात साधक की काया के भीतर की ऊर्जामय शक्तिमय दिव्यमय आंतरिक प्रकृति की उस दशा का भी द्योतक है, जिसमें वह आंतरिक प्रकृति और उसके समस्त भाग पूर्ण विशुद्ध हो गए हैं I
- निरंग व्यापक रंग, … यह वह रंग है जिसने ऊपर बताए हुए सभी रंगों को घेरा हुआ है और भेदा भी हुआ है I यही परब्रह्म हैं I यही कारणोंतीत ब्रह्म हैं I यही इस बोधिचित्त से संबंधित, अंतिम साक्षात्कार है I और इन कारणोंतीत ब्रह्म का मार्ग भी ऊपर बताए गए पीले रंग (अर्थात महाकारण) से ही होकर जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
और इस अध्याय के अन्त में बोधिचित्त के मध्य का बिन्दु बताता हूँ…
जब यह साक्षात्कार हुआ, तो इस साक्षात्कार दशा के प्रारम्भ में मैंने यह जानने के लिए बहुत प्रयत्न किया, कि इस चित्र के चित्त नामक भाग में कितनी रेखाऐं हैं I
उन गणनाओं में कभी मुझे चौबीस की गिनती आती थी और कभी अठाइस की I
लेकिन इन सभी प्रयासों में जब मेरी यह गणना अपूर्ण ही होती थी, तब मेरी चेतना जो इसका साक्षात्कार कर रही होती थी, वह इस बोधिचित्त के मध्य में दिखाए गए बिंदु भाग में प्रवेश कर जाती थी I और ऐसा प्रवेश करते ही मैं बाहर निकलकर आता था और पुनः अपनी गिनती प्रारंभ करता था I
ऐसा होने के कारण मेरी यह गणना एक बार में पूर्ण भी नहीं हो पा रही थी I
बहुत बार प्रयत्न करने पर मैंने सोचा, कि चलो इसके मध्य की बिन्दु रूपी भाग का ही अध्ययन कर लेते हैं I
और ऐसा करके ही यह जानेंगे कि इस बोधिचित्त के चित नामक भाग में कितनी रेखाएं हैं… और यह रेखाएं क्या दर्शाती है I
इसलिए जब वह चेतना जो इस चित्र का अध्ययन कर रही थी, उसने इस चित्र के मध्य भाग में दिखाए गए बिन्दु में प्रवेश किता, तो उसने जो देखा, उसको ही कुछ कुछ जी सही, लेकिन नीचे दिखाया गया चित्र दिखा तो रहा ही है I
यही वह शमशान काली है, जो महाकाल से योग लगाई हुई हैं I यहाँ महाकाल और शमशान काली, दोनों ही निराकार रूप में हैं I
क्यूंकि शमशान काली सदाशिव के वामदेव मुख से ही संबद्ध देवी हैं, और क्यूँकि सदाशिव वामदेव उस अंत को ही दर्शाते हैं, जो अनंत की ओर ही लेकर जाता है और वास्तव में वही अनंत भी होता है, और क्यूँकि वामदेव सदसिहव इस समस्त महा ब्रह्माण्ड के यज्ञ कुंड ही हैं, इसलिए मैं जान गया कि…
शमशान काली ही पूर्ण काली हैं I
बोधिचित्त का यह मध्य बिन्दु, आंतरिक शमशान काली ही है I
यही देवी शमशान काली, दस महाविद्या तंत्र में माँ धूमावती भी कहलाती हैं I
क्यूंकि माँ शमशान काली यह दर्शाती है, कि…
- अब तुम्हारा स्वयं ही स्वयं में चल रहा यज्ञमार्ग ही गंतव्य को पहुंच चुका है I
- अर्थात तुम्हारा स्वाहा हो चुका है, जो इस अध्याय के प्रारम्भ के मंत्र में कहा है I
- इसलिए मैं जान गया, कि यहीं पर मेरा जीव रूप में अंत हुआ है I
ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं ॥
तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ जिसका नाम महाकाली महाकाल योग होगा I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra