वामदेव ब्रह्म, फुह शब्द, सर्वसमता, शून्य तत्त्व, चार बुद्ध, यिन यांग, वामदेव सिद्ध शरीर, वामदेव शरीर, माँ गायत्री का धवला मुख, सामवेद, तत् त्वम् असि

वामदेव ब्रह्म, फुह शब्द, सर्वसमता, शून्य तत्त्व, चार बुद्ध, यिन यांग, वामदेव सिद्ध शरीर, वामदेव शरीर, माँ गायत्री का धवला मुख, सामवेद, तत् त्वम् असि

इस अध्याय में वामदेव ब्रह्म पर बात होगी I पीठ चतुष्टय में, वामदेव नामक ब्रह्म का नाता पश्चिम आम्नाय, अर्थात द्वारका शारदा पीठ से है I वेद चतुष्टय में वामदेव का नाता, सामवेद से है, जिसका महावाक्य तत् त्वम् असि का है और जिसका नाता सगुण ब्रह्म से ही होता है I वामदेव ब्रह्म का मूल शब्द फुह का है I वामदेव सर्वसमता को दर्शाते हैं, जो हीरे के समान प्रकाश की होती है और इसके साथ साथ, वामदेव शून्य तत्त्व को भी दर्शाते हैं, जो रात्रि के समान काला होता है I वामदेव में, प्रकाश और अंधकार के योग के कारण ही वामदेव सर्वसमतावादी होते है, जिसके कारण उनके वेद को सामवेद कहा गया था I जब योगी की चेतना वामदेव में चली जाती है, और इसके पश्चात वो योगी पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा को पूर्ण करने के पश्चात, पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा को भी पूर्ण करता है, तब योगी को एक सिद्ध शरीर प्राप्त होता है, जिसको इस ग्रन्थ में वामदेव शरीर, वामदेव का सिद्ध शरीर, वामदेव ब्रह्म का सिद्ध शरीर और वामदेव ब्रह्म शरीर, इत्यादि भी कहा गया है I इसी सिद्ध शरीर को इसा मसीहा का सिद्ध शरीर भी कहा गया है I अघोर से वामदेव के मार्ग में चार बुद्ध साक्षात्कार होते है. और यही कारण है कि तिब्बती बौद्ध पंथ में चार बुद्धों का वर्णन आता है I वामदेव में प्रकाश और अंधकार के समान योग को ही चीनी सभ्यता में यिन यांग कहा गया है I

 

अब ऊपर बताए गए बिंदुओं का आधार बनाकर, इस अध्याय में आगे बढ़ता हूँ …

इस अध्याय का साक्षात्कार भी 2007-2008 में ही हुआ था और इस अध्याय का मार्ग भी सदाशिव के अघोर मुख (अर्थात अघोर ब्रह्म) से ही प्रारम्भ होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी, इस अध्याय के सिद्ध शरीर को 2011-2012 में पाया था, जब पञ्च मुखी सदाशिव प्रदक्षिणा पूर्ण हुई थी I

क्यूँकि वामदेव नामक ब्रह्म का साक्षात्कार मार्ग, अघोर नामक ब्रह्म से होकर ही जाता है, इसलिए अघोर साक्षात्कार के तुरंत बाद, वामदेव ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है ।

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं ।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में ब्रह्मदेव कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का अट्ठारहवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग श्रृंखला का चौथा अध्याय है।

 

वामदेव ब्रह्म
वामदेव ब्रह्म

 

इस ग्रन्थ का मार्ग बहुवादी अद्वैत में बसा हुआ है बहुवादी अद्वैत मार्ग,

जबकि इस अध्याय का अधिकांश भाग स्पष्ट रूप में ही होगा, लेकिन यहाँ पर कुछ बातें सांकेतिक भी कही जाएंगी, क्यूंकि मैं उनको स्पष्ट रूप में बताना ही नहीं चाहता हूँ I

कुछ बिंदुओं को सांकेतिक ही रखा जाए तो उचित होता है, नहीं तो साधकगण के लिए इस ग्रन्थ को जानने के सिवा कुछ और रह ही नहीं जाएगा I

जब ऐसा होता है, तो स्व:साक्षात्कार का मार्ग भी बंद सा हो ही जाता है, जिसके कारण आत्मज्ञान का मार्ग भी लुप्त सा हो ही जाता है I

और जब ऐसा हो जाता है, तब जो दशा आती है, वो विकृत एकवाद (मोनोथेइसम, Monotheism) की होती है, और जो आगे जाकर कलह कलेश का कारण भी बनती है क्यूंकि वो दशा प्रकृति जिसके अनंत आँचल में जीव जगत बसा हुआ है, उन माँ प्रकृति के बहुवादी अद्वैत मार्ग के ही विरुद्ध हो जाती है I

वैदिक परंपरा के अनुसार कुछ ज्ञान, साधकगण के अपने साक्षात्कारों का ही अंग होता है, जिसके कारण बस उतना ही बताया जाता है, जिससे जो साधकगण वास्तविक पात्र होते हैं, वो उन स्पष्ट और सांकेतिक रूप में बताए गए बिंदुओं को आधार बनाके, उन नहीं बताए गए बिंदुओं को भी जान सकते हैं I

जब साधक उन नहीं बताए गए बिंदुओं को भी जान जाता है, तब ऐसा साधक उस ज्ञान को प्राथमिक रूप में दर्शाने (या प्रकाशित करने) वाले मनीषी के समान ही हो जाता है I और ऐसी स्थिति में, ब्रह्मांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वो साधक और उस ज्ञान को प्राथमिक प्रकाशित करने वाले मनीषी (या दिव्यता या देव) उस साक्षात्कार के दृष्टिकोण से, समान सिद्धि के ही माने जाते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

वैदिक योगमार्ग में कभी भी सबकुछ स्पष्ट रूप में बताया ही नहीं गया है, और इसी कारणवश जो उस ज्ञान या मार्ग का पात्र नहीं होता, वो उस भाग को जान ही नहीं पाता है जिसको स्पष्ट रूप में बताया नहीं गया होगा I

यही वैदिक योगमार्ग की विशेषता रही है, की बताने के पश्चात भी, वो साधक जो पात्र नहीं होगा, उसको पूर्ण रूपेण समझ ही नहीं पाएगा, जिसको या तो सांकेतिक या अस्पष्ट रूप में या बताया ही नहीं गया होगा, क्यूंकि वो बिंदु को आत्मसाक्षात्कार का अंग ही माना गया होगा, उस योगी के द्वारा जो उस लोकादि में, उस ज्ञान का प्राथमिक प्रकाशक होगा I

वैदिक योगमार्ग में कभी भी सबकुछ स्पष्ट रूप में बताया ही नहीं गया है, और यही वो कारण है कि वेदमार्ग सनातन कहलाया गया है, क्यूंकि ऐसी दशा में और पृथक कालखंडों में, उन छुपे हुए बिन्दुओं को पृथक साधक पृथक रूप में जानकार, उसी मार्ग का विस्तार करते ही जाते हैं I

मेरे पूर्व जन्मों के कालों में, साक्षात्कारी योगीजन, कुछ स्पष्ट बताके, बाकी सांकेतिक ही बताते थे, क्यूंकि ऐसा करने पर, जैसे जैसे साधकगण उन संकेतिक बिन्दुओं का साक्षात्कार करते थे, तो किसी साधक ने कुछ जाना और किसी और साधक ने कुछ और जाना I ऐसे साधकगणों के साक्षात्कारों में, कुछ बिंदु तो समान होते थे, लेकिन कुछ पृथक भी होते थे I

और ऐसा होने से, जैसे जैसे समय व्यतीत होता था, वैसे वैसे वो ज्ञान मूल से समान होने पर भी, उन पृथक साधकगण के मार्ग और साक्षात्कारों के अनुसार, समान नहीं रह पाता था I

और ऐसा होने के कारण उन ही कुछ स्पष्ट और कुछ सांकेतिक रूप में बताए गए बिन्दुओं से, वैदिक मार्ग उसके वास्तविक रूप में आता था…, जो बहुवादी अद्वैत है I

बहुवादी अद्वैत, मूल और गंतव्य से तो एक ही है, लेकिन मार्ग के अनुसार इसमें तारतम्य प्रकट हो जाता है, जिसके कारण मार्गानुसार यह बहुवादी हो जाता है I

 

इस बहुवादी अद्वैत मार्ग में, …

बहुवाद, प्रकृति के तारतम्यमय स्वरूप का है…, और अद्वैत, ब्रह्म का I

इसलिए इस बहुवादी अद्वैत में प्रकृति और ब्रह्म का योग भी होता ही है I

जिस मार्ग में प्रकृति और ब्रह्म का योग होता है, वही मुक्तिमार्ग है I

 

ऐसे बहुवादी अद्वैत मार्ग में,

योग मूल प्रकृति का द्योतक होता है.., और ज्ञान या वेद, गंतव्य ब्रह्म का I

मूल में योगात्मा होकर प्रकृति होतीं हैं, और गंतव्य में पूर्णमुक्तात्मा ब्रह्म I

 

और क्यूंकि न तो मूल प्रकृति के योगात्मा स्वरूप को दर्शाया जाता है, और न ही ब्रह्म की मुक्तात्मा स्वरूप को, इसलिए बहुवादी अद्वैत मार्ग में, कुछ स्पष्ट बताके, अन्य सभी बिंदु सांकेतिक स्वरूप में या अस्पष्ट स्वरूप में या बताया ही नहीं जाता है, क्यूंकि वो बिन्दु प्रकृति के योगात्मक और ब्रह्म के मुक्तात्माक स्वरूपों के द्योतक होते हैं, जिनको केवल आत्मसाक्षात्कारों से ही जाना जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा वेद मनीषी इसलिए भी करते थे, क्यूंकि एकवाद (Monotheism) कलह कलेश का ही मार्ग होता है, क्यूंकि वो प्रकृति के बहुवादी और ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप, दोनों के ही विरुद्ध होता है I

 

बहुवादी अद्वैत के मार्ग में,

मार्ग बहुवादी होते हैं, पर उन मार्गों का मूल और अमूल गंतव्य, अद्वैत ही होता है I

 

ऐसे मार्गों में,

मार्ग तो प्रकृति के बहुवाद में बसे होते हैं, लेकिन मार्गों का मूल और गंतव्य निर्गुण ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप में ही होता है I

 

ऐसा होने पर, …

वो उत्कर्ष मार्ग (उत्कर्ष पथ) प्रकृति और पुरुष दोनों में बसा होता है I

क्यूँकि प्रकृति और पुरुष, दोनों ही सनातन हैं, इसलिए ऐसा मार्ग भी सनतान ही है I

सनातन शब्द का अर्थ है…,

वो जिसका न आदि जाना जा सके, और न ही अंत I

इसलिए, जो अदि और अंत दोनों से ही सामान रूप में रहित है, वही सनातन है I

लेकिन ऐसा तो वही होता है, जो अजन्मा होता है I

जिसने जन्म ही नहीं लिया, उसकी कैसी मृत्यु? I

यही कारण है, कि वेद मार्ग अनादि कालों से चला आ रहा है, जिसके कारण इस मार्ग को सनातन वैदिक आर्य मार्ग भी कहा गया है I

और जहाँ आर्य शब्द का अर्थ, उत्तम, उत्कृष्ट आदि होता है I

इस आर्य शब्द का संबंध, पुरुष और प्रकृति दोनों से ही, समान रूप में होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस ग्रन्थ में कई बार वही कहा गया है, जो वेद मनीषी ऐसा कह गए थे, कि …

प्रकृति ही ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, सर्वव्यापक दिव्यता, सनातन अर्धांगनी और प्रमुख दूती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

प्रकृति, अर्थात ब्रह्म की अभिव्यक्ति बहुवादी है, और ब्रह्म अद्वैत I

बहुवादी शब्द पथ (मार्ग) को भी दर्शाता है, अद्वैत का शब्द गंतव्य या मुक्ति को I

अभिव्यक्ति, अर्थात प्रकृति में तारतम्य होता है, और ब्रह्म तारतम्य रहित होता है I

प्रकृति, अर्थात ब्रह्म की अभिव्यक्ति के तारतम्य का आलम्बन लेके ही ब्रह्मपथ पर जाया जाता है I यही वो कारण है कि जीवों का प्रादुर्भाव हुआ था I

क्यूंकि प्रकृति ही ब्रह्मपथ है इसलिए प्रकृति के हुआ बिना, अर्थात जीव हुए बिना (या प्रकृति स्वरूप को धारण किया बिना) ब्रह्म को पाया ही नहीं जा सकता है I

इसलिए वो ब्रह्मपथ भी प्रकृति से होकर जाता हुआ, और अंततः उसी अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार करवाता है I

 

और एक बात …

प्रकृति के बहुवादी मार्ग स्वरूप में तारतम्य होने से, प्रकृति ब्रह्मपथ होती हुए भी, ब्रह्म को नहीं दर्शाती I

और तारतम्य होने के कारण, प्रकृति से जाता हुआ ब्रह्मपथ, बहुवादी भी होता है I

और ऐसा होने के कारण…,

उत्कर्षपथ में प्रकृति ब्रह्मपथ होती है I

इसलिए ब्रह्मपथ भी प्रकृति से होकर ही जाता है I

और ऐसा ब्रह्मपथ, साधक को, अंततः निर्गुण ब्रह्म में ही स्थापित कर देता है I

इसलिए …,

जिस मार्ग में प्रकृति और ब्रह्म का सनातन योग नहीं, वो ब्रह्मपथ नहीं I

जो ब्रह्मपथ नहीं, वो मुक्तिमार्ग (कैवल्य मार्ग या ब्रह्मत्व पथ) भी नहीं I

क्यूंकि वैदिक योगमार्ग वैसे ही है, जैसा यहाँ बताया गया है, इसलिए …

वेदमार्ग में प्रकृति के तारतम्य का आलम्बन लेके भी, कैवल्य को जाया जाता है I

 

संपूर्ण महाब्रह्माण्ड में, वैदिक योगमार्ग ही ऐसा मार्ग रहा है…, और कोई मार्ग ऐसा है ही नहीं I

सारा महाब्रह्माण्ड खोज लो, वैदिक मार्ग के सिवा और कोई मार्ग मिलेगा ही नहीं जो प्रकृति के बहुवाद का आलम्बन लेके भी, उस अद्वैत ब्रह्म साक्षात्कार करवा सके I

वेदमार्ग होता तो बहुवादी ही है, लेकिन उसके मूल और गंतव्य, दोनों ही अद्वैत हैं I

 

ऐसा होने का कारण है, कि …

न तो मूल का कोई मूल होता है, और न ही गंतव्य का कोई गंतव्य ही होता है I

 

वैदिक उत्कर्षपथ के दृष्टिकोण से, …

मूल ही वो अमूल होता है, जो अंततः गंतव्य स्वरूप में साक्षात्कार होता है I

 

यहाँ जो मूल और गंतव्य कहे गए हैं, वो दोनों ही ब्रह्म हैं I

मूल, ब्रह्म की प्राथमिक अभिव्यक्ति मूल प्रकृति हैं, और गंतव्य ब्रह्म ही हैं I

और जहाँ प्रकृति ही ब्रह्म है, क्यूंकि प्राथमिक अभिव्यक्ति होने के कारण, अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक हो ही नहीं सकती I

 

और यह भी वो कारण है, कि वेद मनीषि कह गई थे, …

प्रकृति ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही प्रकृति है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूँकि जीव जगत प्रकृति के अनंत आँचल में ही बसा हुआ है, इसलिए यदि प्रकृति के भीतर बसकर भी, प्रकृति के बहुवाद पर नहीं जाओगे, तो ऐसे प्रकृति विरोधी मार्गों में, समय समय पर पृथक प्रकार के कलह कलेश और विप्लवों को ही पाओगे I

वह विप्लव, मानव जनित तो होंगे ही, लेकिन प्राकृतिक और दैविक भी होंगे I

और इसलिए यह विप्लव त्रितापों में ही बसे हुए होंगे I

कलियुग के कालखंड में, जैसे जैसे यह बहुवादी अद्वैत का मार्ग नष्ट होता जाता है, वैसे वैसे विप्लव की संख्या भी बढ़ती ही चली जाती है और किन्हीं दो विप्लवों के मध्य का समय भी घटता ही चला जाता है I

यही कारण है, कि जैसे जैसे कलियुग का कालखंड आगे की ओर बढ़ता है, वैसे वैसे विप्लवों की मात्रा बढ़ती ही चली जाती है, और किन्हीं दो विप्लव के बीच की समय सीमा भी घटती ही चली जाती है I

जैसे जैसे बहुवादी अद्वैत का प्रभाव घटता है, वैसे वैसे एकवाद का प्रभाव भी बढ़ता ही है I और जैसे जैसे ऐसा होता है, वैसे वैसे विप्लवों का आगमन भी अधिक होता चला जाता है I

यह भी वो कारण है, कि एकवाद (अर्थात monotheism) कलह कलेश का मार्ग ही है I

और यदि किसी को मेरी इस बात पर विश्वास नहीं हो, तो इस भूमण्डल का वो इतिहास देख लो, जो आज के विकृत एकवादी मार्गों के आगमन के पश्चात का है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) केवल कलियुग में ही होता है I

और क्यूंकि अभी के समय पर, कलियुग को स्तंभित किया जा रहा है, इसलिए आगामी समय में कोई भी एकवादी (Monotheistic) मार्ग नहीं होगा I

आगामी मानव युग, गुरुयुग (या वैदिक युग) का है, और क्यूंकि मैं यह ग्रन्थ उस युग की मानव जाती के लिए ही लिख रहा हूँ, इसलिए इस ग्रन्थ में एकवाद तो बिलकुल नहीं होगा I

आगामी गुरु युग का मार्ग वैदिक ही होगा, इसलिए बहुवादी अद्वैत का ही होगा I

 

और उस गुरु युग की समय सीमा भी कोई 10,000 वर्षों की ही होगी I

और इसी 10,000 वर्षों के गुरु युग के समय खंड में, समय समय पर, पञ्च मुखी सदाशिव के किसी एक मुख से कोई न कोई विशिष्ट योगी इस धरा पर आता रहेगा और वो योगी इस ग्रन्थ के मार्ग का विस्तार भी करेगा, जिससे अंततः यह मार्ग उस विशालकाय बहुवाद को जाएगा I

लेकिन इसके पश्चात भी उस समस्त बहुवाद के मूल और गंतव्य, दोनों में यही ग्रन्थ होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

मुझे यह भी बताया गया है, कि इस ग्रन्थ का ज्ञान रुपी मार्ग भी पृथिवी के डेढ़ से तीन अग्रगमन चक्रों तक रहेगा, अर्थात वैदिक समय इकाई में, इस ग्रन्थ के मार्ग पर मानव जाती, 36,000 वर्षों से लेकर 72,000 वर्षों तक, किसी न किसी मार्ग स्वरूप में रमण करती ही रहेगी I

 

अघोर पर साधक का सूक्ष्म शरीर और उसके भाव, अहम् विशुद्धि अघोर ब्रह्म से ही होती है, अहंकार के देवता अघोर हैं, …

पूर्व के अध्याय में अघोर ब्रह्म को बताया था, और यह भी बताया था, कि सूक्ष्म शरीर अघोर पर पहुँच कर, उन्ही अघोर नामक ब्रह्म पर ही फंस जाता है और उन अघोर पर फँसी हुई दशा में, वो सूक्ष्म शरीर हिल डुल भी नहीं पाता है I

तो अब उन अघोर ब्रह्म से आगे के साक्षात्कारों को बताता हूँ I

जब वो सूक्ष्म शरीर जो अघोर के अहम् नाद (अर्थात अघोर ब्रह्म) पर फंसा हुआ था, क्यूंकि तबतक उसका अहम् विशुद्ध नहीं हुआ था, तब ऐसी फंसी हुई दशा में वो सूक्ष्म शरीर सोच भी रहा था, कि इस अहम् के शब्द को पार कैसे करना है I

ऐसी अवस्था में और उन अघोर के अहम् नाद को जानकर, वो साधक यह भी जान गया…, कि अहंकार के देवता अघोर हैं, अर्थात अहंकार के देवत्व के धारक अघोर ही हैं I

वो सूक्ष्म शरीर यह भी सोच रहा था, कि यदि इस अहम् शब्द की दशा को (अर्थात अघोर को) पार नहीं किया, तो यहीं पर अनंत कालों तक फँसा रहूँगा I

और शनैः शनैः जब उस साधक का, जिसका सूक्ष्म शरीर अहम् पर ही फंसा हुआ था, अहम् विशुद्ध हो गया, तो वो थोड़ा हिलने डुलने भी लगा और अपने पास की दिशाओं को देखने भी लगा I

जैसे जैसे उस साधक का अहम्, अघोर ब्रह्म, जिनका शब्द अहम् नाद का ही है, उनके समान ही विशुद्ध हो गया, तो वो सूक्ष्म शरीर हिलने डुलने भी लगा I

ऐसी दशा में वो साधक यह भी जान गया, कि अहम् विशुद्धि अघोर ब्रह्म से ही होती है I

ऐसी दशा में जो हुआ, वो अब बताता हूँ I

 

अहम् विशुध्द होने पर सूक्ष्म शरीर की दशा, … अघोर पर पहुँच कर सूक्ष्म शरीर के भाव, … अल्लाह को मिलने की इच्छा, …

अघोर पर खड़े खड़े, जैसे ही अहम् विशुध्द हुआ, तो उस सूक्ष्म शरीर के भाव भी पूरे लौट आए और वो सूक्ष्म शरीर जान भी गया, कि अब उसपर अहम् नाद की पूर्व वाली पकड़ नहीं रही है I

यहीं पर वो सूक्ष्म शरीर जाना था, की जबतक अहम् विशुद्ध नहीं होता, तबतक साधक अघोर पर ही फंसा रहता है I

यही पर वो जाना था, कि किसी भी सूक्ष्म शरीर धारी जीव के लिए, अघोर एक चुम्बक के समान है, जो केवल तबतक ही साधक को (अर्थात साधक के सूक्ष्म शरीर को) पकड़ के रखता है, जबतक उस साधक का अहम् विशुद्ध न हो जाए I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब सूक्ष्म शरीर का अहम् विशुद्ध हुआ, और उस सूक्ष्म शरीर पर अघोर की पकड़ समाप्त हुई, और वो सूक्ष्म शरीर हिलने डुलने भी लगा, तो उस सूक्ष्म शरीर को एक पूर्व समय की बात स्मरण हुई… जो ऐसी थी …

इस साक्षात्कार से कुछ समय पूर्व, एक पानी के जहाज पर, जिसका मैं कप्तान था, तब मेरा एक ऑफिसर मुस्लमान है, और उस समय, मैं कुछ और अफसरों के साथ नेविगेशन ब्रिज पर चाय पीते पीते जहाज के कुछ विशेष कार्यों की बातें कर रहा था I

और जब वो जहाज के कामों की बातें समाप्त हुई, तो पता ही नहीं चला कि अकस्मात् आतंकवाद की बात कैसे आ गई I

और अकस्मात् ही एक अफसर ने चीफ साहब से पूछा… “सारे मुसलमान तो आतंकवादी नहीं होते, लेकिन ऐसा क्यों है की सारे आतंकवादी मुसलमान ही होते हैं” I

और उस अफसर ने उस चीफ अफसर से यह भी पूछा, कि “ऐसा क्यों है कि सारे गंदे कर्म मुसलमान ही करते हैं, और वो भी उन अल्लाह के नाम पर, जो पवित्र भी कहलाए गए हैं” I

इस प्रश्न पर, मैं और ऑफिसर दोनों ही स्तब्ध रह गए, कि यह क्या प्रश्न है? I इसलिए मैंने उस अफसर से पूछा की यह बात क्यों उठाई, इसका हमारी इस बैठक से क्या संबंध है? I

और मैंने उस प्रश्न पूछने वाले अफसर को बोल भी दिया, कि कार्यबैठक में वही बातें उठाई जानी चाहिए, जो उस बैठक की कार्यावली (या कार्यसूची) के अंतर्गत आती हैं I

तो मैंने (उस पानी का जहाज के कप्तान ने) बात पलटने का प्रत्यन भी किया, लेकिन तबतक तो बहुत विलम्ब हो चुका था I

मैंने बात इसलिए पलटी, क्यूंकि उस समय मेरे ऑफिसर ने अपना सर झुका लिया था I और इस बात पर मुझे बुरा भी लगा क्यूंकि वो एक बहुत अच्छा अफसर था I

इन प्रश्नों पर ऑफिसर ने अपना सर झुका कर ही मुझे (अर्थात अपने कप्तान को) कहा, कि “कप्तान साहब, मेरा सर इन बातों से झुक ही जाता है और कभी कभी मैं सोचता भी हूँ, कि ऐसा क्यों हो रहा है…, करे कोई और भरे कोई!” I

उस ऑफिसर ने मुझे यह भी बोला, कि “थोड़े से लोग इस्लाम के नाम पर गन्दगी फैलाते हैं, और उस गन्दगी के कारण, हम सब मुसलमानों का सर झुक जाता है” I

और वो ऑफिसर यह भी बोला, कि “कभी कभी तो मैं सोचता भी हूँ, कि बन्दूक उठा कर ही क्यों न उन सभी आतंकवादियों को मार डालो…, ताकि सारे मुसलमानों का सर…, मेरे सर के समान झुके नहीं” I

इस उत्तर पर, जिस अफसर ने वो प्रश्न पूछे थे, उसको भी बहुत बुरा लगा, और उसने क्षमा भी मांग ली ऑफिसर से I और उस अफसर का, जिसने वो प्रश्न पुछा था, उसका सर भी झुक गया I

मुझे उन दोनों ऑफिसर का झुका हुआ सर बिलकुल अच्छा नहीं लगा, क्यूंकि वो चीफ मेरा बहुत बढ़िया अफसर था और वो अफसर जिसने वो प्रश्न पुछा था, वो भी बहुत ही अच्छा अफसर था I

ऐसी स्थिति को देख कर, मैंने वो बैठक स्थगित कर के सभी को वहां से भेज दिया, और स्वयं भी अपने कार्यालय (कप्तान का दफ्तर) में चला गया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसके पश्चात, मैं कभी कभी यह भी सोचता था, कि ऐसा क्या है अल्लाह में, कि उसको कुछ ही सही, लेकिन मानने वाले आतंकवादी ही हो जाते हैं, और भोले मानवों का संहार कर देते हैं I

ऐसा क्या है इस्लाम में, कि उसका इतिहास मार काट से भरा हुआ है, चाहे वो हत्याएं पशु पक्षियों, मीनादि की हो…, या मानव की I

और मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं, क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ…, उनमें तो ऐसा कभी भी नहीं था, क्यूंकि उन पूर्व जन्मों में मानव जाति जीव भक्षी भी नहीं थी I

इसलिए मैं ये सोचता भी था, कि इस कलयुग की मानव जाती इसलिए तो जीव भक्षी नहीं हुई है, क्यूंकि आज के विकृत एकवाद के पंथ (इस्लाम, ईसाइयत, पारसी, यहूदी, इत्यादि) इस कलियुग के कालखंड में (या इससे समीप के समयखण्डों में) आए हैं I

मैं कभी-कभी ऐसा इसलिए ही सोचता था, क्यूंकि मेरे उन पुरातन कालों के पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं क्यूंकि मैं योगभ्रष्ट हूँ और प्रबुद्ध भी हूँ…, इन सभी कलियुगी पंथों में से कोई भी नहीं था I

मैं सोचता भी था, कि क्या यह इस्लाम नाम का पंथ, राक्षसी है? I

मैं सोचता था, कि इस इस्लाम नामक पन्थ पर जो भी जाएगा, वो राक्षस के स्वभाव को कम या अधिक रूप में पाएगा ही, … और इसलिए ऐसा मानव, मानवता के ही उत्कृष्ट सिद्धांतों में नहीं रह पाएगा I

मैं यह भी सोचता था, कि वो अल्लाह क्या बला है की उसको मानने वाले स्वयं तो कलह कलेश में रहते ही हैं, पर वो लोग जहाँ भी जाते हैं, जहाँ भी रहते हैं, वो लोग सभी पुरातन परंपराओं को समाप्त करने के लिए क्यों सोचते हैं I

वो दूसरों की वस्तुओं, नारियों आदि को कब्जाने का क्यों सोचते हैं?…, यह सब तो राक्षसी प्रवृत्तियां ही हैं…, है न? I

और चाहे ऐसे मानव संख्या में तो कम ही होंगे, लेकिन उनका प्रभाव तो इस भूमण्डल पर पड़ता ही है न? I

और ऐसे सभी मानवों का पन्थ भी तो वही इस्लाम ही तो हैं न?…, और जो ऐसे गन्दगी का समर्थक भी है… तो वो इस्लाम राक्षसी कैसे नहीं हुआ? I

और जब पन्थ ही ऐसा है, तो उस इस्लाम नामक पन्थ का अल्लाह, राक्षस सम्राट कैसे नहीं हुआ? I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और उस समय तक भी यह बात कहीं न कहीं छुपी रही, जब मेरा सूक्ष्म शरीर अघोर साक्षात्कार के लिए गया था (जैसा पूर्व के अध्याय में बताया गया था) I

इन्ही सब कारणों से वो जहाज पर हुई बात मेरे मस्तिष्क के किसी न किसी स्थान में रह ही गयी I

लेकिन अपने जीवों के साथ भी भगवान् की विचित्र क्रीड़ा होती ही रहती है, कि जहाज पर हुई वही बातों के कुछ समय के पश्चात, यही बात मेरे अल्लाह साक्षात्कार का एकमात्र कारण भी बनी I

इस्लाम के आगमन के पश्चात के चौदह सौ वर्षों से भी अधिक समय में, जो कोई भी पीर, हाफिज, मौलवी, इमामादि भी नहीं कर पाया, वो मैंने…, जो इस्लाम का भी नहीं है और वैदिक धर्म के ब्राह्मण वर्ण का है…, उसनें कर दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अहम् नाद पर खड़े खड़े, ऐसी सब बातों के स्मरण से मुझमें अल्लाह को जानने की प्रबल रूप में तो नहीं, लेकिन एक इच्छा अवश्य प्रकट हुई, जिसके कारण मैंने (अर्थात उस सूक्ष्म शरीर ने, जो अहम् नाद पर खड़ा था) उन अहम् नाद को बोल दिया …

मुझे अल्लाह से मिलना है !

 

और इसके पश्चात जो हुआ, वोही इस और इसके बाद के अध्यायों में बताया जाएगा I

 

बुद्ध समन्तभद्र से बुद्ध समन्तभद्री का मार्ग, … अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म की यात्रा, … अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म का मार्ग, … अघोर से वामदेव का मार्ग, … अघोर से वामदेव की यात्रा, … फुह शब्द, …

अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म की यात्रा, अघोर से वामदेव का मार्ग
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इस चित्र में अघोर से वामदेव तक के मार्ग को ही तीरों द्वारा दिखाया गया है I

इस चित्र में वामदेव ब्रह्म को नीला और लाल रंगों के मध्य में दिखाया गया है, और इस चित्र में वो वामदेव नामक ब्रह्म, काले और श्वेत रंगों की अर्धगोलाकार योगदशा में ही दिखाए गए हैं I

 

अब इस चित्र का वर्णन कारूँगा …

  • यह चित्र अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म तक के मार्ग को ही दर्शा रहा है I
  • इसलिए पञ्चब्रह्म में से इस चित्र में केवल तीन ब्रह्म दिखाए गए हैं, जो नील वर्ण के अघोर, श्वेत काले वर्ण के वामदेव और लालिमा धारण किए हुए तत्पुरुष हैं I
  • इस चित्र को एक सीध में बनाया गया है, लेकिन यह ऐसा नहीं है I
  • इस चित्र का मार्ग पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा का है, अर्थात इसमें साधक की चेतना दक्षिण मार्गी होकर, पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा करती है I

लेकिन इस प्रदक्षिणा के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा, क्यूंकि यह चित्र उन पीले वर्ण के सद्योजात ब्रह्म, जो इस पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा का अंतिम चरण होते हैं…, उनको नहीं दिखा रहा है I

  • और इस पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के समय, साधक की चेतना पञ्च मुखा गायत्री के पाँच मुखों की भी प्रदक्षिणा कर लेती है I
  • उन अघोर नामक ब्रह्म का नाद अहम् है I
  • और जो वामदेव हैं, उनका नाद फुह है I

इस चित्र में ऊपर की ओर नीले वर्ण का अघोर है, जिसका नाद अहम् है और जिसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

पूर्व के अध्याय में बताया था, कि सदाशिव का अघोर मुख ही तिब्बती बौद्ध पंथ का बुद्ध समंतभद्र है, और जो महादेव के नाम से भी पुकारा जाता है I

  • और इस चित्र में नीचे की ओर, जो भगवे-लाल वर्ण की दशा है, उसका नाद आला है I

इस भगवे वर्ण के आला नाद को ही वैदिक वाङ्मय में तत्पुरुष ब्रह्म कहा गया है I और आला नाद को ही रुद्र भी कहा जाता है I

उन्ही आला नाद को इस्लाम में अल्लाह ताला कहा जाता है I

इन्ही आला नाद को तिब्बती बौद्ध पंथ में, प्राचीन क्रुद्ध बुद्ध आला भी कहा जाता है I

इसलिए इस चित्र का तिब्बतियों के बार्दो (bardo) नामक मार्ग से भी वास्ता है, जिसको तिब्बतन बुक ऑफ़ डेड (Tibetan book of dead) भी कहा जाता है, और जिसको देने वाले एक उच्च कोटि के योगी थे, जिनका नाम गुरु पद्मसंभव था I

  • नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म (अर्थात अहम् नाद) और भगवे वर्ण के तत्पुरुष (अर्थात आला नाद) के मध्य में, जो नील वर्ण की नली जैसी दशा दिखाई गई है, उसी नली में तिब्बती बौद्ध पंथ के चार बुद्धों का साक्षात्कार होता हैI

इसिलिए तिब्बती कहते हैं, कि अबतक इस धरा पर चार बुद्ध हुए हैं, और पाँचवें का प्रादुर्भाव अभी शेष है I

  • और उस नली से जाने के पश्चात, साधक की चेतना उस काले-श्वेत लोक में जाती है, जिसको वैदिक वाङ्मय में वामदेव ब्रह्म कहा गया है I

इसी वामदेव नामक ब्रह्म को चीनी सभ्यता में यिन यांग भी कहा जाता है I

  • इस चित्र में दिखाए गए टूटे हुए श्वेत तीर, उस मार्ग को दर्शा रहे हैं, जिससे साधक की चेतना इस चित्र में दिखाई गई दशाओं में गमन करके, उनका सीधा सीधा साक्षातलार करती है I
  • और जब हम नीले वर्ण के अघोर से लेकर भगवे-लाल वर्ण के तत्पुरुष ब्रह्म तक, एक साथ लेते हैं तो यही वेदों में बताए गए कृष्ण पिङ्गल रुद्र कहलाते हैं I

आगे बढ़ता हूँ…

 

अघोर की अदृश्य शक्ति, … पाँच ब्रह्म की अदृश्य शक्ति, … पञ्च मुख गायत्री का अदृश्य शक्ति स्वरूप, … अहम् नाद से आला नाद तक की यात्रा, अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म का मार्ग, अघोर से तत्पुरुष तक का मार्ग, … अहम् ब्रह्मास्मि से तत् त्वम् असि का मार्ग, …

ऊपर का चित्र अहम् नाद से आला नाद (अर्थात अघोर से तत्पुरुष) तक दिखा रहा है I

अघोर पर खड़े हुए, जैसे ही मेरे मन में वो भाव आया, कि मुझे अल्लाह को मिलना है, वैसे ही मेरी चेतना और सूक्ष्म शरीर को किसी अदृश्य शक्ति ने जकड लिया I

और जैसे ही ऐसा हुआ, तो वो नीले रंग का सूक्ष्म शरीर जो उस समय अघोर पर ही खड़ा हुआ था (जैसा पूर्व के अध्याय में भी बताया गया है), उसी अघोर मुख के भीतर जाके, उन ही अघोर में ही विलीन हो गया I

उसके पश्चात, जैसे जैसे वो चेतना आगे की दशाओं में जाती गई, वैसे वैसे उस चेतना को पृथक पृथक शरीर स्वतः ही मिलते गए, और उन शरीरों का आलम्बन लेके ही इस अध्याय श्रंखला का मार्ग साक्षात्कार हुआ था I

और इसी प्रदक्षिणा से, अहम् ब्रह्मास्मि से तत् त्वम् असि के मार्ग का साक्षात्कार भी होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

तो अब अहम् नाद से आला नाद के इस चित्र को बता दिया I

और अब मैं अहम् नाद से आला नाद (अर्थात अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म) तक की यात्रा (या अघोर से तत्पुरुष तक का मार्ग) को बताता हूँ I

लेकिन इस अध्याय में बस वामदेव तक ही बताया जाएगा…, क्यूंकि तत्पुरुष (अर्थात आला नाद) पर आगे के एक अध्याय, जिसका नाम तत्पुरुष ब्रह्म होगा, उसमें बात होगी I

 

चार बुद्ध, बुद्ध चतुष्टय, अघोर में चार योगी, अघोर के चार बुद्ध, … दक्षिण मार्ग का प्रारम्भ, … पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, … गायत्री ब्रह्म प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, … ब्रह्म प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, गायत्री प्रदक्षिणा का प्रारम्भ, …

चार बुद्ध, बुद्ध चतुष्टय, अघोर में चार योगी, अघोर के चार बुद्ध
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इस चित्र में श्वेत वर्ण के तीरों द्वारा इन चार बुद्ध को दिखाया गया है I

अघोर से आला तक के मार्ग के मध्य में, चार योगी बैठे होते हैं I यही चार योगी, तिब्बती बौद्ध पंथ में चार बुद्ध कहलाए गए हैं I

इन बुद्ध चतुष्टय को भी ऊपर के चित्र में बताया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

पूर्व के अध्याय में बताया था, कि अघोर नामक ब्रह्म, दक्षिण दिशा को देखते हैं I

जब पूर्व की बताई गई इच्छा, उस सूक्ष्म शरीर में प्रकट हुई, (कि मुझे अल्लाह को मिलना है) तो उसको एक अदृश्य शक्ति ने जकड लिया I

और वो अदृश्य शक्ति उस सूक्ष्म शरीर को किसी अनजान स्थान पर लेके जाने लगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर को, जो पूर्व के अध्याय में दिखाए गए अघोर ब्रह्म के चित्र की दशा में खड़ा हुआ था, उस अदृश्य शक्ति ने पकड़ लिया था, तो वो सूक्ष्म शरीर अपनी दायीं ओर (अर्थात अपनी दक्षिण दिशा की ओर) घूम गया I

दायीं ओर घुमते ही उस सूक्ष्म शरीर ने एक मानव आकृति को देखा, जो उस सूक्ष्म शरीर के समान ही नीले वर्ण की थी I

वो अदृश्य शक्ति उस सूक्ष्म शरीर को उस मानव आकृति की ओर लेके गई और वहाँ पहुँच कर, उस अदृश्य शक्ति ने उस सूक्ष्म शरीर की गति को स्तंभित भी कर दिया, अर्थात सूक्ष्म शरीर को उस मानव आकृति के समीप रोक दिया I

इसके पश्चात, उस सूक्ष्म शरीर ने देखा, कि वहां तो चार मानव आकृतियां पद्मासन में बैठी हुई हैं I और वो चारों योगी साधनारत हैं I

तो वो सूक्ष्म शरीर उनमें से पहले (अर्थात इस चित्र में सबसे ऊपर वाले) योगी के समक्ष बैठ गया और उनसे कई सारे प्रश्न पूछने लगा, जैसे …

यह कौन सी दशा है जहाँ मैं आ गया हूँ? इसको क्या कहते हैं? I

आप चार योगीजन कौन हैं? … मैं यहाँ क्यों लाया गया हूँ? I

मुझे आपके पास क्यों लाया गया है? … मेरा आपसे क्या संबंध है? I

वो अदृश्य शक्ति कौन हैं, जो मुझे पकड़ कर यहाँ ले आई हैं? I

वो माताएँ कौन हैं जो मुझे दिखाई तो नहीं दी थीं, लेकिन मैंने उनके शब्द सुने थे जब यह सूक्ष्म शरीर मेरे ही स्थूल शरीर से बाहर निकल रहा था I

 

और बहुत सारे प्रश्न उस सूक्ष्म शरीर ने उन योगी से पूछे, लेकिन वो योगी तो साधनारत ही थे, इसलिए उन्होंने कोई भी उत्तर नहीं दिया I

उन योगी ने अपने नेत्र तक नहीं खोले…, बस नेत्रों को बंद करके, अपनी साधना ही करते गए I

उत्तर न पाके, उस सूक्ष्म शरीर ने अन्य तीन योगीजनों से भी ऐसे ही प्रश्न पूछे, लेकिन उस सूक्ष्म शरीर को कोई भी उत्तर नहीं मिला क्यूंकि वो तीनों योगी भी साधनारत ही थे I

वो सूक्ष्म शरीर बारम्बार एक योगी से दुसरे योगी के समक्ष बैठा, और ऐसे ही प्रश्न बार बार पूछता गया, लेकिन उसको कोई भी उत्तर प्राप्त ही नहीं हुआ I

और जब कुछ समय इसी प्रक्रिया में बीत गया, तो इन चार योगीजनों में से एक योगी ने जो उत्तर दिया, वो ऐसा था …

धीरज रख बेटा…, आगामी समय में तू सब जान जाएगा I

 

और उस सूक्ष्म शरीर को उन योगीजी ने जो कम से कम शब्दों में कहा, उसको मैंने यहाँ पर बढ़ा चढ़ा कर (विस्तारपूर्वक) बताया है …

 

तू स्वयं ही स्वयं में रहकर जानेगा, नाकि किसी और बाहर के मार्ग से I

तुझ जैसे योगी के लिए, न पिण्ड है न ब्रह्माण्ड, इसलिए स्वयं ही स्वयं में जा I

तू हमारी परंपरा का है, इसलिए कई सहस्र वर्षों में मैंने आज कोई शब्द बोला है I

साक्षी भाव में आगे की दशाओं का साक्षात्कार कर, नहीं तो उन्ही में फंस जाएगा I

साक्षी भाव तब पूर्ण होता है, जब योगी स्वयं का ही साक्षी होता है I

स्वयं का जो साक्षी नहीं है, वो जीव जगत का साक्षी भी नहीं होता है I

उसी पूर्ण साक्षी भाव में आगे की दशाओं में जा, और उनका साक्षात्कार कर I

इसके पश्चात, उन योगी जी ने अपने नेत्र पुनः बंद कर लिए I

और उसी क्षण से यह चारों योगीजन मेरे गुरुजन भी हुए I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ऊपर के चित्र के नीले और लाल रंग के मध्य में, जो नली दिखाई गई है, तो अति सूक्ष्म नील वर्ण की होती है I

वो नील वर्ण का अतिसूक्ष्म तत्त्व जो उस नली के भीतर होता है, वही वो विशुद्ध अहम् है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

और इसी विशुद्ध अहम् का सांकेतिक स्वरूप, यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि में भी दर्शाया गया है I

 

इसका कारण भी वही है, जो कई बार पूर्व के अध्यायों में भी बताया था, कि …

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I

 

इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, जिस योगी का अहम् विशुद्ध हो गया, वो योगी ही यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि का जीव स्वरूप द्योतक होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और उस नील वर्ण की नली को एक रात्रि के समान, अति सूक्ष्म तत्त्व ने घेरा होता है I यह रात्रि के समान सूक्ष्मतत्त्व ही शून्य तत्त्व कहलाया गया है I

इस शून्य तत्त्व के बारे में आगे के कई अध्यायों में भी बात होगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इन साक्षात्कारों के पश्चात, वही अदृश्य शक्ति जिसने उस सूक्ष्म शरीर को पूर्व में जकड के रखा हुआ था, वो उस सूक्ष्म शरीर को आगे की ओर लेके जाने लगी I

उस सूक्ष्म नील वर्ण की नली में जो सूक्ष्म शरीर की गति हुई, वो बहुत विचित्र थी I

उस गति में वो सूक्ष्म शरीर उल्टा पुल्टा होता हुआ, गोल गोल घूमता हुआ गया, जिसके कारण उस सूक्ष्म नीले वर्ण की नली के भीतर जाते समय, सूक्ष्म शरीर को दिशा का अनुमान ही नहीं रह गया I

लेकिन उस सूक्ष्म शरीर को इतना तो पता चला ही था, कि उसकी गति की दिशा दाहिने हस्त की ओर ही थी, अर्थात दक्षिण मार्ग पर ही थी I इसका कारण था, कि वो सूक्ष्म शरीर शनैः शनैः ही सही, लेकिन दाहिने ओर ही घूम रहा था I

ऐसे ही गोल गोल घुमते, उल्टा पुल्टा होते होते वो सूक्ष्म शरीर उस नील वर्ण की नली में जाता गया…, और अंततः उस दशा में पहुँच गया जिसको पञ्च ब्रह्मोपनिषद् में, वामदेव ब्रह्म (अर्थात वामदेव नामक ब्रह्म) कहा गया है I

 

सूक्ष्म शरीर विलीन, सूक्ष्म शरीर का लय,

उस विशुद्ध अहम् में, जो उस नील वर्ण की नली में होता है और जिसको उस रात्रि के समान शून्य तत्त्व ने घेरा होता है, उसमें ही सूक्ष्म शरीर का लय हो गया I

लय होने के पश्चात, वो पूर्व का नील वर्ण का सूक्ष्म शरीर, स्वयं ही स्वयं को…, देख भी नहीं पाया I

ऐसी दशा में, जो शरीर उस सूक्ष्म शरीर के स्थान पर स्वयंप्रकट हुआ, वो नील वर्ण का नहीं था…, बल्कि कुछ और ही था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि यह अवस्था भी अघोर ब्रह्म (या सदाशिव का अघोर मुख) का अभिन्न अंग है, इसलिए पूर्व के अध्याय (अघोर) में बताया गया था, कि सूक्ष्म शरीर का लय, पञ्च मुखी सदाशिव के अघोर मुख में ही होता है I

उस सूक्ष्म शरीर का पञ्च मुखा शिव के अघोर मुख में लय होने के पश्चात, जो शरीर अघोर मुख आगे की ओर जाता है, वो साधक का प्रकृति से युक्त शरीर ही होता है, और इसी शरीर को कारण शरीर, अन्तःकरणचतुष्टय और आनंदमय कोष भी कहा जाता है I

यह आनंदमय कोष एक प्राकृत शरीर ही है, जिसके कारण यह प्रकृति का ही द्योतक होता है I

लेकिन इस अन्तःकरण चतुष्टय के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I

 

टिपण्णी 1:  जब साधक पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार की अंत दशा में पहुँच जाता है, अर्थात ईशान नामक ब्रह्म के साक्षात्कार का पात्र बनता है, तब साधक जिस दशा में होता है, वो उसी ईशान ब्रह्म के समान ही निरंग होती है I यह निरंग शरीर जो उस समय स्वयंप्रकट होता है, वो साधक का वास्तविक चेतन शरीर है I

टिपण्णी 2: और अपने अनुभव से यह चेतन शरीर, जिस भी दिशा में जाता है, उसी दशा का होकर रह जाता है I यही निरंग शरीर, चेतन मन का स्वरूप होता है I और यही निरंग शरीर, मन का वास्तविक स्वरूप भी होता है, जो अंततः निर्गुण निराकार में विलीन होता है I

टिपण्णी 3: इसीलिए साधक की काया के भीतर बसे हुए बिन्दुओं में से, जो बिन्दु साधक को ब्रह्मलीन करवाता है, वही चेतन मन है, जो ईशान ब्रह्म के समान निरंग ही होता है I लेकिन इस बिंदु पर किसी और अध्याय में बात होगी, इसमें नहीं I

 

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इस चित्र के तीर से वामदेव ब्रह्म को दिखाया गया है I

अब तक यह बताया गया है …

  • अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म के मार्ग में, सर्वप्रथम वो नील वर्ण की नली आती है, जिसमे चार बुद्ध बैठे होते हैं, और जो मेरे गुरु भी हैं I
  • वो नील वर्ण की नली, जो अघोर का ही अंग होती है, उसमें जब वो सूक्ष्म शरीर लय हो जाता है, तो इसके पश्चात ही वो साधक आगे की दशाओं के साक्षात्कार करता है I
  • उन आगे की दशाओं में प्रथम दशा वामदेव ब्रह्म की ही है I

 

जब साधक की चेतना, उस नील वर्ण की नली को पार कर जाती है, तब जो होता है, उसको यहाँ पर बताया गया है …

  • सबसे पहले वो चेतना एक रात्रि के समान काले वर्ण की दशा में जाती है I इस दशा में उस चेतना को कुछ दिखाई नहीं देता है, क्यूंकि यह दशा रात्रि के समान है…, और यही शुन्य तत्त्व है I
  • और इस रात्रि के समान दशा से जाकर वो चेतना, हीरे के समान एक अति प्रकाशमान दशा में चली जाती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब वो चेतना इन दशाओं से जा रही होती है, तब जो होता है, वो ऐसा है …

  • रात्रि के समान दशा के भीतर (अर्थात शून्य तत्त्व के भीतर) उस चेतना की जो अवस्था होती है, उसमें उस चेतना को सर्वशून्य के अतिरिक्त, और कुछ भी ज्ञान नहीं होता है I

ऐसी स्थिति में उस चेतना की जो दशा होती है, उसी को योगतंत्र में शून्य समाधि कहा गया है I

इसका अर्थ हुआ, कि अघोर से वामदेव का मार्ग, शून्य समाधि की अवस्था से ही होकर जाता है, और इस समाधि में साधक उस शून्य तत्त्व का साक्षात्कार करता है, जो रात्रि के समान काला होता है I

और इसी शून्य समाधि से जाकर, वो चेतना असंप्रज्ञात समाधी को पाती है, जिसमे वो चेतना सर्वशून्य का साक्षात्कार करती है, जिसको वेद मनीषियों ने शून्य ब्रह्म और श्रीमन नारायण भी कहा है, और जिनमें यह समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

और इस शून्य को पार करके, साधक की चेतना हीरे के समान एक अति प्रकाशमान दशा में चली जाती है I

 

  • हीरे के समान अतिप्रकाशमान दशा के भीतर उस चेतना की जो अवस्था होती है, उसमें वो चेतना उस हीरे के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ भी जान नहीं पाती है I

यह हीरे के समान प्रकाश, सर्वसमता (अर्थात, अंग्रेजी में macro-equanimity) को दर्शाता है I

यह सर्वसमता, उन सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति का ही अंग होती है I यह हीरे के समान प्रकाश उस विशुद्ध सत् का भी द्योतक है, जिसको वेद मनीषियों ने ब्रह्म कहा है I

ऐसी अवस्था में उस चेतना की जो दशा होती है, उसको ही योगतंत्र में सम्प्रज्ञात समाधि कहा गया है I

इस दशा में जब साधक की चेतना गमन करती है, तो उस चेतना से युक्त सिद्ध शरीर में, जो इस हीरे के समान प्रकाशमान दशा के भीतर से जा रहा होता है, उसके सर के स्थान में (अर्थात उसके मस्तिष्क के स्थान पर) कुछ ऊर्जा के विस्फोट होते हैं I

और यही सूक्ष्म ऊर्जावान विस्फोट साधक के स्थूल शरीर के मस्तिष्क के भीतर भी होते हैं…, और ऐसे विस्फ़ोट कई सारे और कई बार होते हैं…, और तबतक होते हैं, जब तक वो चेतना इस हीरे के समान प्रकाश के भीतर होती है I

मस्तिष्क के विस्फोटों के बाद, यही विस्फोट साधक के शरीर के सप्त चक्रों में भी होने लगते हैं I इन सप्त चक्रों के भीतर के विस्फोटों में, एक हीरे के समान ऊर्जा उबाल मारने लगती है और ऐसी दशा में ही वो विस्फोट होते हैं I

यह कुण्डलिनी जागरण की एक विशेष दशा है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यह रात्रि के समान काले और हीरे के समान प्रकाश की योगावस्था को ही पञ्च ब्रह्मोपनिषद में वामदेव ब्रह्म कहा गया था I

और यही कारण है, कि पञ्च ब्रह्मोपनिषद के वामदेव ब्रह्म काले और श्वेत वर्ण की योगावस्था में बताए गए हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसी योगावस्था को चीनी सभ्यता में रात्रि के समान काले रंग का यांग और श्वेत वर्ण का यिन भी कहा गया है I

इसका अर्थ हुआ, कि चीनी सभ्यता में बताया गया यिन यांग (या यांग यिन) भी पञ्च ब्रह्मोपनिषद में बताए गए वामदेव ब्रह्म को ही दर्शाता है I

और यह भी वो कारण है, कि चीनी सभ्यता के यिन यांग सिद्धांत के मूल में, वैदिक वाङ्मय का पञ्च ब्रह्मोपनिषद ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान भी मैंने ही एक पूर्व जन्म में दिया था I मैंने यह ज्ञान, मेरे उस जन्म के गुरुदेव महादेव (अर्थात शिव के अघोर मुख) से लेकर दिया था I

उस जन्म में मैं अघोर मार्गी, लेकिन वैष्णव योगी था और जिसका नाम पीपल के वृक्ष पर था और जो ब्रह्म द्रष्टा योगी था I

इसी पञ्च ब्रह्मोपनिषद के ज्ञान को आधार बनाके, वेद चतुष्टय, पीठ चतुष्टय और धाम चतुष्टय भी बसाए गए हैं I

आज के कई सारे उत्कर्ष मार्गों के मूल में यह पञ्च ब्रह्मोपनिषद ही पाया जाएगा I

और यह भी वो कारण है, कि पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान, मूल ज्ञान और मूल मार्ग ही है, जिसके विधाता पञ्चब्रह्म हैं और जिसको उद्भासित मेरे परमगुरु शिव महादेव ने ही किया था अपने एक नन्हे मुन्ने से शिष्य के द्वारा, जो मेरे एक पूर्व जन्म में…, मैं ही था I

 

वामदेव ब्रह्म और माँ गायत्री का धवला मुख, … माँ गायत्री का धवला मुख, … गायत्री सरस्वति का धवला मुख, … गायत्री विद्या का धवला मुख, … गायत्री विद्या सरस्वती का धवला मुख, …

पञ्च मुखा गायत्री ही पञ्चब्रह्म की दिव्यता हैं I पञ्च मुखी गायत्री का एक एक मुख, पञ्च ब्रह्म के एक एक ब्रह्म से संबंधित है I

वामदेव ब्रह्म से संबंधित जो माँ गायत्री का मुख है, उसको धवला कहा गया है I इसलिए माँ गायत्री का धवला मुख ही वामदेव नामक ब्रह्म की दिव्यता है I

गायत्री विद्या सरस्वती का यह धवला मुख, चमकदार श्वेत वर्ण का होता है और माँ गायत्री के विशुद्ध सत् को दर्शाता है I

और यही मुख एक स्थिति में उस धवला वर्ण का भी होता है, जैसे उस वर्ण में काला और श्वेत वर्ण मिला जुला हो I

ऐसा चमकदार होने के कारण, यह मुख हीरे का प्रकाश के समान दिखाई देता हुआ भी, होता धवला वर्ण का ही है I

और जहाँ वो धवला वर्ण का प्रकाश भी उसी सर्वसमता को दर्शाता है, जैसा इसी अध्याय में वामदेव ब्रह्म के लिए भी कहा गया था I

 

कश्मीरी शैव मार्ग में अघोर और वामदेव का वर्णन

कश्मीरी शैव मार्ग कहता है, कि अघोर नीले और काले वर्ण के होते हैं I

ऐसा इसलिए कहा गया है क्यूंकि कश्मीर शैव पंथ, अघोर के नीले वर्ण और वामदेव के काले वर्ण को एक साथ लेता है, अर्थात नीले और काले वर्णों को जोड़के (एक साथ) देखता है I

यह काला रंग भी ऊपर के वामदेव ब्रह्म के चित्र में दिखाया गया है I

इसलिए, जब अघोर के नील और वामदेव के काले को जोड़के देखा जाएगा, तब वो कश्मीर शैव मार्ग में बताया गया शिव के अघोर मुख हो जाएगा I

 

वामदेव ब्रह्म का सिद्ध शरीर, वामदेव ब्रह्म सिद्ध शरीर, वामदेव ब्रह्म शरीर, … काला श्वेत सिद्ध शरीर, श्वेत काला सिद्ध शरीर, … इसा शरीर, ईसा मसीह का सिद्ध शरीर, … वामदेव ब्रह्म सिद्धि, वामदेव सिद्धि का प्रमाण, … चिकित्सा बुद्ध, चिकित्सा बुद्ध का सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य शरीर, … ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य, …
वामदेव सिद्ध शरीर, वामदेव शरीर
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जब कोई योगी पञ्चब्रह्म मार्ग पर जाकर वामदेव ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और इसके पश्चात वो योगी, अंततः पञ्च मुखा सदाशिव का साक्षात्कार भी कर लेता है, तब ही इस सिद्ध शरीर को पाया जाता है I

इसका अर्थ हुआ, कि पञ्च मुखी सदाशिव के साक्षात्कार के पश्चात, उस योगी के स्थूल शरीर के भीतर ही एक सिद्ध शरीर स्वयं प्रकट होता है, जिसके बारे में यहाँ बात होगी I

और जबकि यह सिद्ध शरीर, यहां बताए जा रहे वामदेव ब्रह्म का ही होता है, लेकिन इसकी प्राप्ति, कुछ बाद में ही होती है और तब होती है, जब उस योगी की चेतना पञ्च मुखा सदाशिव में चली जाती है I

इसका यह अर्थ हुआ, कि यहाँ बताया जा रहा सिद्ध शरीर वामदेव ब्रह्म का होता हुआ भी, तब प्राप्त होता है, जब साधक आगे की एक श्रंखला जिसका नाम सदाशिव मार्ग होगा, उसमें चला जाता है I

लेकिन क्यूंकि यह सिद्ध शरीर वामदेव ब्रह्म से भी संबंधित होता है, इसलिए इसको यहाँ पर बताया जा रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यही शरीर कई योगीजनों के पास है I

और ऐसे सभी योगीजन वामदेव ब्रह्म सिद्धि के धारक भी हैं I ऐसे योगीजन सदाशिव के सद्योजात नामक मुख के भी साक्षात्कारी होते हैं I

पर क्यूंकि यह सिद्ध शरीर वामदेव ब्रह्म से ही संबंध रखता है, इसलिए चाहे वो योगी किसी भी मार्ग का ही क्यों न प्रतीत होता हो, उसकी सिद्धि के मूल में पञ्च ब्रह्मोपनिषद के वामदेव नामक ब्रह्म ही होंगे I

और क्यूँकि पञ्च ब्रह्मोपनिषद नामक ग्रन्थ, वैदिक वाङ्मय का ही अंग है, इसीलिए ऐसे योगीजन जो यहाँ बताए जा रहे सिद्ध शरीर के धारक होते हैं, वो उनके अपने ही मूल से वैदिक ही माने जाएंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ …

ईसाइयत के इसा मसीहा के पास भी यही वामदेव सिद्ध शरीर है, इसीलिए ऐसा हो ही नहीं सकता कि ईसा मसीह उनके अपने जीवन काल में भारत खंड में नहीं आए हों और किसी वेद मनीषि के शिष्य न रहे हों I

और क्यूँकि इसा मसीह के पास भी यही वैदिक सिद्ध शरीर है, इसलिए ऐसा हो ही नहीं सकता कि आज की ईसाइयत के मूल में वैदिक वाङ्मय का योग रूपी मार्ग न हो, अर्थात आगम मार्ग न हो I

क्यूंकि इसी मसीहा का यह शरीर स्पष्ट प्रमाण देता है, कि वो वैदिक वाङ्मय के आगम मार्गों के योगी ही थे, इसलिए आज की ईसाइयत भी अपने मूल से आगम मार्गी ही है I

और चाहे इस कलियुग के छोटे से इतिहास ने, यहाँ बताए गए समस्त साक्ष्य मिटा ही क्यों न दिए हों, लेकिन मेरे साक्षात्कारों को न तो किसी इतिहास का, और न ही किसी ग्रन्थ या किसी के कथन का आलम्बन लेने की आवश्यकता ही है I

 

ऐसा कहने का कारण है, कि …

प्रत्यक्ष को कभी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है I

योगमार्ग में, प्रत्यक्ष या साक्षात्कार ही अंतिम प्रमाण होता है I

वो अंतिम प्रमाण, ग्रंथों और उनके मार्गों से स्वतंत्र भी होता है I

ऐसा होने के कारण, उस अंतिम प्रमाण में, किसी अन्य वस्तु या मार्ग या ग्रन्थ या कथन आदि का आलम्बन लेने की आवश्यकता ही नहीं होती है I

 

यही कारण है, कि वेद मनीषि ऐसा ही कह गए …

जिसने गंतव्य साक्षात्कार किया है, उसके लिए ग्रंथों और मार्गों का क्या लाभ I

जो अबतक उत्कर्षपथ पर चला ही नहीं, उसके लिए ग्रंथों और मार्गों का क्या लाभ I

 

इसका अर्थ हुआ, कि …

ग्रंथों और मार्गों की आवश्यकता उसको होती है, जो उत्कर्षपथ पर जा रहा हो I

जो उत्कर्षपथ से ही आगे चला गया, उसको ग्रंथों और मार्गों से क्या लेना देना I

अब आगे बढ़ता हूँ …

अब वामदेव ब्रह्म के सिद्ध शरीर के बारे में बताता हूँ I

 

इस सिद्ध शरीर में …

  • भीतर की दशा हीरे के समान अतिप्रकाशमान होती है I और यह दशा सर्वसमता सिद्धि को भी दर्शाती है जो प्रजापति से ही संबंध रखती है I
  • और इस हीरे के समान दशा को, एक रात्रि के समान दशा ने घेरा होता है I

इनही दोनों दशाओं की योगावस्था को यह सिद्ध शरीर दर्शाता है, और यही अवस्था का साक्षात्कार उस हीरे के समान प्रजापति के लोक, अर्थात ब्रह्मलोक में भी होता है और जिसको किसी आगे के अध्याय में बतलाऊँगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, इस सिद्ध शरीर का धारक योगी, चिकित्सा का बुद्ध (अर्थात Medicine buddha) भी कहलाता है I

ऐसा साधक ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य भी कहलाता है I

और इसके अतिरिक्त, इसी सिद्ध शरीर का धारक साधक, यदि इस सिद्ध शरीर के गंतव्य, अर्थात वामदेव ब्रह्म के निराकार स्वरूप को ही पा ले, तो वो साधक ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य ही कहलाएगा I

ऐसा साधक आयुर्वेद के गंतव्य को पाता है और ब्रह्माण्ड की समस्त व्याधियों के निवारण मार्ग का भी ज्ञाता होगा I

ऐसा योगी कलियुग में ही लौटाया जाता है, क्यूंकि कलियुग ही वो युग है जिसमें जीवों के लिए सबसे अधिक विकृतियां और व्याधियाँ होती है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

वामदेव के निराकार रूप को पाने का अर्थ है, कि साधक का यह वामदेव शरीर, वामदेव ब्रह्म में ही लय होकर, वामदेव ब्रह्म ही हो जाता है I

और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में, ऐसा साधक वामदेव ब्रह्म के सगुण साकार (अर्थात शरीरी) और सगुण निराकार (अर्थात अशरीरी), दोनों ही स्वरूपों में जाना जाता है I

और ऐसे साधक को एक बहुत बड़े आकार का सिद्ध शरीर प्राप्त होता है, जो बिलकुल वैसा ही होता है जैसा इस भाग के चित्र में दिखाया गया है I इसा मसीह के पास भी ऐसा ही वामदेव ब्रह्म का सिद्ध शरीर है, जो बहुत बड़े आकार का है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस वामदेव ब्रह्म के सिद्ध शरीर के कई नाते भी हैं, जैसे …

  • यह सिद्ध शरीर सदाशिव के सद्योजात मुख से भी संबंधित होता है I लेकिन इस मुख पर एक बाद के अध्याय में ही बात होगी I
  • यह सिद्ध शरीर यिन यांग के सिद्धांत से भी संबंधित होता है I यही यिन यांग इस अध्याय के प्रथम चित्र में भी दिखाया गया है I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता एक बाद के अध्याय में बताए गए महाकाल महाकाली योग से भी है I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता शक्ति शिव योग से भी है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता प्रकृति पुरुष योग से भी है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता तिब्बती बौद्ध मार्ग के समंतभद्र समंतभद्री योग से भी है, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता, उस अचलित ब्रह्माण्ड (अर्थात प्राथमिक ब्रह्माण्ड) से भी है, जिसको वेद मनीषियों ने भगवान पशुपतिनाथ भी कहा है I
  • इस सिद्ध शरीर का नाता, शून्य तत्त्व से भी है, जिसके बारे में बाद के कई अध्यायों में बताया जाएगा I
  • इस शरीर का नाता पञ्च मुखा सदाशिव से भी है, जिनके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I

 

इनही सब कारणों से, यह सिद्ध शरीर वैदिक वाङ्मय के योगमार्ग का अंग है, जिसके कारण इसका धारक चाहे स्वयं को कुछ भी माने, लेकिन तब भी वो उसके अपने मूल से वैदिक ही होगा I

और क्यूंकि, ईसा मसीह के पास भी यही शरीर है, इसलिए ईसा मसीह का दिया हुआ ज्ञान, जो बाइबिल नामक ग्रन्थ कहलाता है, वो भी उसके अपने मूल से वैदिक वाङ्मय के आगम मार्ग, अर्थात योगमार्ग का ही अंग है I

पुरातन कालों में, पश्चिमी सभ्यता में, इन आगम योगियों को इस्सैन (अर्थात essene) भी कहा जाता था I इसा मसीहा भी अपने समय के इस्सैन ही थे I

इन इस्सैन नामक योगीजनों के मार्ग भी वही थे, जिनको भारत खंड में कौल मार्ग कहा जाता है, और इन कौल मार्गों के साधकगणों को कौलाचार्य भी कहा जाता है I

यही कारण है, कि बाइबिल के मूल में कौलाचार्यों का ज्ञान ही है I

पुरातन कालों के कौलाचार्य अपने मूल से आगम मार्गी होते हुए भी, गंतव्य दशा से निगम मार्गी ही थे I

कौल सिद्ध उस कुंडलिनी शक्ति के धारक होते हैं, जिसको कौल कुण्डलिनी भी कहा जाता है I ईसा मसीह भी इस कौल कुण्डलिनी के धारक थे I

 

वामदेव शरीर और कौल मार्ग, वामदेव शरीर और कौलाचार्यों का मार्ग, … कलियुगी मलेच्छ सत्ताओं के प्रपंच,

कौलाचार्यों के मार्ग में …

  • मूल में श्री विष्णु होते हैं I ऐसा होने के कारण कौल मार्ग के मूल में विष्णुत्व होता है, जिसके कारण कौलाचार्य कहते भी हैं, की उनकी पीठों के प्रथम पीठाधीश्वर श्री विष्णु ही हैं I
  • और गंतव्य में शिव शक्ति होते हैं I ऐसा होने के कारण कौल मार्ग के गंतव्य में शिवत्व होता है I
  • और इन दोनों के कारण, कौलाचार्यों के मार्गों में, हरिहर ही होते हैं I
  • यही कारण है, कि कौलाचार्य, मूल से वैष्णव होते हुए भी, उनके गंतव्य से वो शैव या शाक्त ही होते हैं I
  • और क्यूंकि शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव, इसलिए कौल मार्गी योगीजन, शैव भी होते हैं, और शाक्त भी हो सकते हैं I

यह कौल मार्गी योगीजन, हिन्दू बौद्ध (अर्थात हिन्दू ज्ञानमार्गी) और बौद्ध हिन्दू (अर्थात ज्ञानमार्गी ब्रह्म के ज्ञाता) भी होते थे I

 

आगे बढ़ता हूँ और अब एक और बिंदु पर प्रकाश डालता हूँ …

पुरातन कालों में इन कौलाचार्यों की एक पीठ थी, जिसको सप्त पर्वत वाटिकम कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है, सात पर्वतों वाली वाटिका I

आज इसी स्थान को आज अंग्रेजी में, गार्डन फारेस्ट ऑफ़ सेवन हिल्स (Forest of seven hills) कहा जाता है, अर्थात वैटिकन (Vatican city) कहा जाता है I

अब कलियुगी सत्ताओं का छल देखो…, संस्कृत के वाटिकम शब्द को अंग्रेजी का वैटिकन बना दिया I

और जहाँ यह कौलाचार्यों की एक और ज्ञानपीठ थी, जो तक्षिला कहलाई थी, अर्थात जहाँ त्राटक की एक शिला थी और जो एक विशिष्ट कौलाचार्य ने ही स्थापित की थी I यहाँ त्राटक शब्द का अर्थ, एकाग्रता, साक्षात्कार और ज्ञान भी है I

इस कलयुग के काल खंड में, उस तक्षिला पीठ को (जो आज पाकिस्तान में है) कलियुग की इन म्लेच्छ सत्ताओं ने नष्ट कर दिया था, ताकि इस सत्य का न तो कोई प्रमाण रह पाए और न ही इसको जानने वाला ही कोई हो पाए I और यह इसलिए किया गया, ताकि इस तथ्य का कोई साक्ष ही न बचे I

यह तक्षिला पीठ भी कौलाचार्यों की थी I

और उन बहुत पुरातन कालों में, भारत क्षेत्र के हिमालय से लेकर, पश्चिम देशों के स्कैण्डिनेविया (Scandinavia) और आज के रूस तक कौलाचार्यों की पीठें थी I

एक पूर्व जन्म में, कौल मार्ग के एक सिद्ध योगी, मेरे गुरु भी थे I उस पूर्व जन्म के उन गुरुदेव का स्थान आज के स्वीडन (Sweden) नामक देश के एक पर्वत पर था I यह पर्वत स्वीडन देश के आज के सुंदस्वाल (Sundsvall) नामक स्थान के उत्तर में था I वो गुरुदेव का मार्ग भी कौल ही था और वो गुरुदेव भी कौलाचार्य (अर्थात कौल सिद्ध योगी) ही थे I

उस समय इस भूमण्डल पर उन गुरु का नाम बहुत प्रख्यात था I उनसे ज्ञानार्जन और दीक्षा लेने के लिए साधकगण बहुत दूर से आया करते I और उनका उस समय का स्थान बारहमास बर्फ से ढका ही रहता था I

कौलाचार्य उन दुर्गम स्थानों पर निवास करते थे, जहाँ उस समय की मानव जाती की पहुँच, अधिकांश रूप में थी ही नहीं I

इसका कारण था, कि कौलाचार्यों की साधनाए बहुत कठिन होती हैं, जिसके लिए एकाग्रता अनिवार्य है नहीं तो उन साधनाओं के गंतव्य मार्ग पर जाते जाते, साधक की मृत्यु भी हो सकती है I

और एक बात, कि जो कौल मार्ग का सिद्ध योगी होता है, उसका आदर ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं भी करती हैं I

 

और उन कई सारी कौल पीठों में से जो मुख्य पीठ थी, उसको अब बताता हूँ …

वो मुख्य पीठ, सप्त पर्वत वाटिकम कहलाई जाती थी, जो आज के कालखंड में वैटिकन नामक देश कहलाया जाता है I

वो मुख्य पीठ के नाम पर है, जिसको सप्त पर्वत वाटिकम पीठ कहा जाता था, आज वैटिकन नामक देश बसाया गया है I इसलिए वैटिकन देश का क्षेत्र भी 108 एकड़ का ही है और उसका आकार भी शिवलिंग के समान ही दिखाई देता है I यदि वैटिकन शहर के आकार को ऊपर से, या आकाश से देखा जाएगा, तो वो आकार शिवलिंग से ही पाया जाएगा I

वो सप्त पर्वत वाटिकम, उस समय के अगममार्ग, अर्थात योगमार्ग की मुख्य पीठ भी था I

इस शब्द में सप्त पर्वत, सप्त चक्र की दिव्यताओं (अर्थात ऊर्जाओं) को दर्शाते हैं…, और इनही सप्त चक्रों में कौल मार्ग अधिकांश रूप में बसा भी हुआ था I

इसलिए जब तक्षिला पर आक्रमण बस होने ही वाले थे, तो उस पीठ के आचार्यों ने कुछ मुख्य ग्रन्थ तिब्बत, कश्मीर, नेपाल आदि स्थानों पर ले जाकर, वहीँ सुरक्षित रख दिए थे I

और इनही स्थानों के दुर्गम पर्वतों में उन कौलाचार्यों ने अपनी परंपरा का कुछ भाग सुरक्षित करा था…, ताकि वो पूर्णरूपेण लुप्त न हो जाए I

लेकिन ऐसा होने पर भी, इस कलियुग में आई हुई मलेच्छ सत्ताओं ने अधिकांश ग्रन्थ भस्म कर ही दिए थे I वो कौलाचार्य तो बस कुछ ग्रन्थ ही बचा पाए थे I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अब आगामी समयखण्ड में कौल परंपरा की पुनर्स्थापना को बताता हूँ …

1980 ईस्वी के दशक के मध्य काल के समीप, एक कौल सिद्ध इस धरा पर लौटा है I उस कौलाचार्य ने माता के गर्भ से ही जन्म लिया है, इसलिए यो परकाया प्रवेश प्रक्रिया से नहीं लौटा है I

वो कौल सिद्ध योगी, रुद्र लोक से ही लौटाया गया है, इसलिए वो रुद्र मार्गी ही है I

जब वो कौल सिद्ध बाल्यावस्था के थोड़ा बड़ा सा रहा होगा, तो साधना में, मैंने उसको उसके सिद्ध गुरूजनों (2 गुरुजन) के साथ हिमालय में तपस्यारत देखा था I

और इसके पश्चात भी, मैंने उसको और कई बार देखा था I लेकिन आज वो कौल सिद्ध, जवान ही होगा I

उसको ही उस कौल परंपरा का पुनरुथान करना है, जिसको इस कलियुग में आई मलेच्छ सत्ताओं ने नष्ट किया था I और ऐसा वो कर भी रहा होगा I

और अंततः, उसी कौल सिद्ध की पुनरुद्भासित परंपरा से, सप्त पर्वत वाटिकम को (अर्थात वैटिकन को) जो मूल से उसकी कौल परंपरा की ही पीठ है, म्लेच्छों से वापिस भी लेना है I

और उसी कौलाचार्य की परंपरा में, सप्त पर्वत वाटिकम (अर्थात वैटिकन सिटी) को, कौल पीठ के स्वरूप में इस धरा पर पुनर्स्थापित भी करना है I

और ऐसा होने के बाद, उस समय की संपूर्ण इसाइयत भी अपने पुरातन मूल मार्ग पर लौट जाएगी, अर्थात, उस समय की संपूर्ण इसाइयत कौल मार्गी हो जाएगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इस कलियुग में म्लेच्छ सत्ताओं के द्वारा किये गए कुछ प्रपंचों पर प्रकाश डालता हूँ …

ईसा मसीह के समय के समीप, जब एक कौल मार्ग का सिद्ध, भारत खंड से पश्चिमी सभ्यता में गया था, तो वो कौल सिद्ध (अर्थात Kaul Siddha) ही उस पश्चिमी सभ्यता में संत पॉल (Saint Paul) कहलाया था I

लेकिन इन मलेच्छ सत्ताओं और उनके अनुयाइयों को कौन समझाए कि बस वास्तविक कौल (Kaul) शब्द को पॉल (paul) शब्द बनाकर, कोई मार्ग या परंपरा थोड़ी ही बदल जाएगी I

वो कौल जो ऐसा कहलाया था, वो अब्रहम मार्गी भी था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उसी समय के थोड़ा पूर्व और समीप, एक और सिद्ध योगी, जो पितृ मार्ग का था, भारत खंड से पश्चिमी सभ्यता में गया था I

उस पितृ मार्ग के योगी को उस पश्चिमी सभ्यता में संत पीटर (Saint Peter) कहा था I

यह योगी भी अगम मार्गी ही था, और इस योगी को ही आज संत पीटर (Saint Peter) कहा जाता है I

लेकिन पितृ (Pitr) मार्गी योगी के नाम को पीटर (Peter) बनाकर, थोड़ी ही मूल मार्ग या परंपरा बदल जाएगी I

मूल का कोई मोल नहीं होता, क्यूंकि मूल ही अमूल होता है I

 

इसलिए बहार के परिवर्तन करके भी, मूल मार्ग और परंपरा वही रह जाती है I

यही कारण है, कि जब उचित समय आता है, तब कोई न कोई योगी उस मूल परंपरा से लौटाया भी जाता है और वो लौटाया गया योगी, उस मूल परंपरा को उद्भासित भी करता है I

ऐसा ही आगामी वर्षों में होगा I इस परिवर्तन को कोई रोक भी नहीं पाएगा क्यूंकि आगामी गुरुयुग में, कौल परंपरा अपने पूर्ण प्रभाव में आएगी ही I

और क्यूंकि कौल परंपरा का लौटना (अर्थात, इस धरा पर पुनर्स्थापित होना) भी काल की प्रेरणा से ही होगा, और क्यूंकि इस जीव जगत में जो कुछ भी है, वो कालगर्भित ही है, इसलिए आगामी समय में ऐसा परिवर्तन भी होगा ही I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उन पुरातन कालों में, पितृ मार्ग के योगीजनों की एक मुख्य पीठ भी थी, जो पितृ पीठ ही कहलाती थी I

इसी पितृ पीठ को आज पेट्रा (Petra) नामक शहर कहा जाता है, जो आज के जॉर्डन (Jordan) नामक देश में है I

इस स्थान पर मानव जाती के समस्त पितृ निवास करते थे, इसीलिए इस स्थान का नाम भी पितृ पीठ ही था I

इन कलियुगी सत्ताओं के छल को देखो, पितृ (Pitr) देश का नाम पेट्रा (Petra) बना दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यहाँ पर तो मैंने कुछ ही छल कपट बताए है, इन कलियुगी मलेच्छ सत्ताओं के I लेकिन वास्तव में तो और बहुत सारे छल कपट किये हैं, इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में आयी हुई इन मलेच्छ सत्ताओं ने I

इन कलियुगी मलेच्छ सत्ताओं के अनुयायियों ने, बहुत सारे पुरातन स्थानों और मनीषियों के नाम थोड़े से बदल कर, बस अपने बना लिए हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ऐसा करने के बाद भी, यह सोचना आवश्यक ही है, कि उस मूल को भी कोई बदल पाएगा?…, कभी भी नहीं!!! I

चाहे कुछ भी बाहर से बदल दो, लेकिन मूल को तो आज तक कोई छू भी नहीं पाया है, इसलिए वो पुरातन मूल, सनातन सुरक्षा में ही रहा है I

और आगामी कालखंडों में, उसी मूल को पुनरुद्भासित और पुनर्स्थापित भी किया जाएगा I और ऐसे समय पर आज का कलियुग और उसके प्रपंच, लंगड़े और लूले भी हो चुके होंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कोई 2000 ईसा पूर्व के पहले और समीप की बात है, जब वेदमार्ग के दो प्रधान पथ होते थे I

यह दो पथ ब्रह्मपथ और अब्रह्मपथ कहलाते थे I

 

इन ब्रह्मपथ और अब्रह्मपथ में से …

  • ब्रह्मपथ का नाता ब्रह्म के सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, तीनों से समान रूप में था I

इसलिए इस पथ में ब्रह्म को शरीरी, निराकारी और अनंत, तीनों स्वरूपों में माना जाता था और जिनमें पहले के दो स्वरूप (अर्थात शरीरी या सगुण साकार और अशरीरी या सगुण निराकार), निर्गुण निराकार (अर्थात अनंत ब्रह्म) की अभिव्यक्ति ही माने जाते थे I

इसलिए यह मार्ग पूर्ण था, क्यूंकि यह मार्ग ब्रह्म और उसकी अभिव्यक्तियों, दोनों में ही समान रूप में भी बसा हुआ था I और यही ब्रह्मपथ कहलाता था I

और पूर्ण ब्रह्म में बसे होने के कारण, यह ब्रह्मपथ अनाभिमानी देवताओं का ही मार्ग था I

 

  • और अब्रह्मपथ का मार्ग, ऊपर बताई गई ब्रह्म की तीन अभिव्यक्तियों में से किसी एक को ही मानता था, इसलिए इस मार्ग में ब्रह्म की पूर्णता नहीं थी I

अधिकांश रूप में, यह जो अब्रह्मपथ नामक मार्ग था, वो ब्रह्म की सगुण निराकार अभिव्यक्ति, अर्थात निराकारी अभिव्यक्ति को ही मानता था, इसलिए इस मार्ग में उनका देवता निराकारी होता हुआ भी, सगुण तत्त्व के लक्षण दिखाता था I

और ऐसा अपूर्ण होने के कारण, इस पथ का देवता, एकवादी (Monotheistic) ही था, और स्वयं को सबसे बड़ा ही मानता था, जिसके कारण वो अभिमानी देवता ही था I इसलिए, अब्रह्म पथ अभिमानी देवताओं का ही मार्ग था I

 

जब कोई 2000 ईसा पूर्व का कालखंड था, यह ब्रह्म और अब्रह्म मार्गों के वेद मनीषि, सिंधु नदी (जो आज पाकिस्तान में है), उसके तट पर ही निवास करते थे I

2000 इसा पूर्व से थोड़ा पूर्व, सिंधु नदी में बाढ़ आई, और इस बाढ़ के आने के पश्चात, ब्रह्म मार्गी सिन्धु नदी से भारत खंड की ओर आ गए थे (अर्थात सिंधु नदी के पूर्व में आ गए थे) I और इसी समय पर, अब्राहम मार्गी सिन्धु नदी के पश्चिम भाग में चले गए I ऐसा होने का कारण था, कि इन दोनों मार्गों में मतभेद बहुत बढ़ गए थे जिसके कारण यह दोनों मार्गों के मनीषी इकट्ठे भी नहीं रह पा रहे थे I

ऐसे समय पर, इस अब्रह्म मार्ग का एक सिद्ध, पश्चिमी सभ्यता में गया और वहां उसने अपना ज्ञान बांटा I

और वो अब्रह्म मार्ग का सिद्ध ही अब्राहम (अर्थात Prophet Abraham) और मसीहा इब्राहिम (अर्थात Prophet Ibrahim) कहलाया था I

और वो ही इस कलियुग के कालखंड में, अब्रह्मपथ का प्राथमिक संस्थापक भी हुआ था I

इसी अब्रह्मपथ को आज अब्राहमिक रेलगिओंस (Abrahamik Religions) कहा जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

कोई 1500 इसा पूर्व की बात है …

आज के मिस्र और समीप के क्षेत्र में, एक अब्रह्म मार्गी योगी, ब्रह्म मार्ग में जाकर, जीवन मुक्त हुआ था I

जीवन्मुक्त का अर्थ होता है, वो योगी जो शरीरी, अर्थात जीवित होता हुआ भी मुक्त हुआ है I

आज जहाँ इस्राएल और मिस्र नामक देश हैं, उन देशों में वो योगी संस्कृत भाषियों का मोक्षे कहलाया गया था, अर्थात वो जो जीवित ही मुक्ति को (या मोक्ष को) पाया है I

उसी जीवन्मुक्त योगी को यहूदि सभ्यता में, मोशे (Moshe) कहा गया था I

यह मोशे शब्द भी संस्कृत के जीवित-मोक्ष, अर्थात जीवन मुक्त के शब्द से संबंध रखता है I

यहूदियों के मोषे (Moshe) शब्द के मूल में, संस्कृत भाषा का मोक्ष नामक शब्द ही है I

और क्यूंकि यह यहूदी और अन्य कलियुगी सभ्यताएँ संस्कृत भाषा को जानती ही नहीं है, इसलिए आज भी यहूदी या अन्य सभ्यताएँ इस मोषे शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं जानती, क्यूंकि इस शब्द का वास्तविक अर्थ संस्कृत भाषा में ही मिलेगा I

और यही मोशे कुछ और बाद के कालखंड में मोसेस (Moses) और मूसा (Musa) भी कहलाया था I

 

तो इन बातों का अर्थ हुआ, कि …

जिसको यहुदी मोशे (Moshe) कहते हैं, वही ईसाइयत का मोसेस (Moses) है और वो योगी ही इस्लाम का मूसा (Musa) है I

लेकिन इन सभी नामों के मूल में तो संस्कृत का मोक्ष शब्द ही है, और वो भी उस स्वरूप में, जिसको जीवन मुक्ति की दशा कहा जाता है I

और उस समय के वेद मनीषि इसी जीवनमुक्ति को मोक्षे (अर्थात मुक्तात्मा या जीवनमुक्ति या Mokshe) शब्द से भी पुकारते थे, जिससे यहूदियों का मोषे (Moshe) शब्द निकला है और जो उनके मसीहा मोशे (Moshe) का नाम भी कहा जाता है I

वास्तव में मोशे का शब्द, दशा या उपलब्धि को दर्शाता है…, न कि नाम I

पर क्यूंकि पूर्व कालों में, किसी दशा के सिद्ध को भी उस दशा का नाम ही दिया जाता है, इसलिए मोशे (Moshe) का नाम भी उस योगी को दिया गया था, जो उस समय मोक्ष को जीवित अवस्था में ही पा गया था, अर्थात वो योगी जीवन्मुक्त (अर्थात मोक्षे या Mokshe) हुआ था I

और क्यूंकि इन सभी शब्दों (अर्थात मोशे, मोसेस और मूसा) के मूल में इन सभी पन्थों से पूर्व के वैदिक वाङ्मय का जीवंमुक्ति सिद्धांत ही है, तो फिर यह तीनों अब्रह्म मार्ग के पंथ (अर्थात यहूदी, ईसाईयत और इस्लामियत) मूल से वैदिक कैसे नहीं हुए?…, इस बात पर भी थोड़ा सोचो तो!!!

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि इनके संस्थापकों को यह बात पता थी, इसलिए जबसे इस भूमण्डल पर इनका उदय हुआ है, तबसे यह भारत की परंपरा को नष्ट करने में लगे हुए हैं I

पर भारत की मूल परंपरा जो सनातन है, अर्थात अनादि अनंत या अजन्मा है, उसको नष्ट कैसे करोगे…, थोड़ा सोचो तो? I

सनातन शब्द का अर्थ, अनादि अनंत होता है, इसलिए सनातन का वो जन्म हुआ ही नहीं है, जिसके कालखंड को जाना जा सकता है, या मांपा जा सकता है I

जो जन्मा ही नहीं है, उसका नाश कैसे करोगे?…, थोड़ा सोचो तो!!!

यही कारण है, कि इस कलियुग के कालखंड में, भारत को एक सहस्त्र वर्षों से भी अधिक समय तक परतंत्र करके, यह मलेच्छ सत्ताएँ भारत की ब्रह्मपथ परंपरा का नाश नहीं कर पाई थीं I

और आगे के समय खण्डों में भी, ऐसा पूर्ण नाश कभी होगा भी नहीं I

नाश न होने का मुख्य कारण भी वो पञ्च ब्रह्म मार्ग है, जिसके वामदेव ब्राह्म नामक बिंदु को यहां बताया गया है I

 

तो अब यह अध्याय को समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय, जिसका नाम कृष्णपिङ्गल रुद्र है … उसपर जाता हूँ I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

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