सूक्ष्म शरीर क्या, सूक्ष्म शरीर के अंग, सूक्ष्म शरीर गमन, सूक्ष्म शरीर का लय, सूक्ष्म शरीर निर्माण, नील सरस्वती पुत्र, माँ गायत्री के नीले मुख का पुत्र, शिवानुजा पुत्र, अघोर पुत्र, रूह

सूक्ष्म शरीर क्या, सूक्ष्म शरीर के अंग, सूक्ष्म शरीर गमन, सूक्ष्म शरीर का लय, सूक्ष्म शरीर निर्माण, नील सरस्वती पुत्र, माँ गायत्री के नीले मुख का पुत्र, शिवानुजा पुत्र, अघोर पुत्र, रूह

इस भाग में सूक्ष्म शरीर क्या है, सूक्ष्म शरीर गमन क्या है, योगमार्ग से सूक्ष्म शरीर निर्माण कैसे होता है, इसपर बात होगी I इस अध्याय में, सूक्ष्म शरीर का लय स्थान और उसकी प्रक्रिया, और सूक्ष्म शरीर और अघोर का नाता, इसपर भी बात होगी I सूक्ष्म शरीर को माँ गायत्री के नीले मुख का पुत्र, नील सरस्वती पुत्र (नीला सरस्वती पुत्र) और शिवानुजा पुत्र, ऐसा भी कहा जा सकता है I सूक्ष्म शरीर को अघोर पुत्र भी कहा जा सकता है, क्यूंकि सूक्ष्म शरीर का अंतिम लय स्थान, अघोर ब्रह्म (या सदाशिव का अघोर मुख) ही होता है I सूक्ष्म शरीर को ही रूह कहा जाता है I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 का और इसके बाद के समय का है I पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सोलहवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का दूसराअध्याय है।

 

सूक्ष्म शरीर क्या, सूक्ष्म शरीर गमन, सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया
सूक्ष्म शरीर क्या, सूक्ष्म शरीर गमन, सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया, सूक्ष्म शरीर के अंग, सूक्ष्म शरीर का लय, सूक्ष्म शरीर निर्माण,

सूक्ष्म शरीर क्या है, … सूक्ष्म शरीर के भाग, … सूक्ष्म शरीर के अंग, …

ऊपर के चित्र में, नीले रंग का जो शरीरी रूप दिखाया गया है, वो सूक्ष्म शरीर है I उस सूक्ष्म शरीर के नीचे जो एक और शरीर दिखाया गया है, वो स्थूल देह का सूचक है, जिससे वो सूक्ष्म शरीर अभी-अभी बाहर निकला ही है I

सूक्ष्म शरीर के उन्नीस भाग या अंग होते हैं I तो अब इन भागों को बताता हूँ …

  • कर्मेन्द्रिय पंचक अर्थात मुख, हस्त, लिंग, गुदा और पाद I
  • ज्ञानेन्द्रिय पंचक … अर्थात नेत्र, कर्ण, नासिका, जिह्वा और त्वचा I
  • प्राण पंचक … अर्थात अपान, समान, प्राण, उड़ान और व्यान I
  • अन्तःकरण चतुष्टय … अर्थात मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार I

इसका अर्थ हुआ, कि जैसे स्थूल शरीर इन सभी का उपयोग करता है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर भी इन सभी अंगों का उपयोग कर सकता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसलिए अपनी गमन प्रक्रिया में, वो सूक्ष्म शरीर …

  • कर्मेन्द्रियों के कारण, मुख से बोलता भी है, हाथों से वस्तुओं को उठता भी है, लिंग का प्रयोग भी कर सकता है, पैरों से चलता भी है, और वो सूक्ष्म शरीर गुदा का प्रयोग भी कर सकता है I
  • ज्ञानेन्द्रियों के कारण, वो सुनता भी है, देखता भी है, सूँघता भी है, त्वचा से छूकर जानता भी है, और जिव्ह्या से स्वाद भी लेता है I
  • प्राणों के कारण, अपान प्राण से वो नीचे की ओर गति भी कर सकता है, समान प्राण से उसकी गति उसके भीतर भी हो सकती है, प्राण के कारण उसकी गति आगे की ओर भी होती है, उड़ान के कारण उसकी गति ऊपर की ओर भी हो सकती है I और व्यान के कारण उसकी गति दसों दिशाओं में भी हो सकती है, लेकिन ऐसी दशा में, वो वो उल्टा-पुल्टा होकर ही गति करेगा जिसमे उसको पता ही नहीं चलेगा, कि किस दिशा में वो गति कर रहा है I लेकिन यहाँ जो दिशाऐं बताई गई हैं, वो वास्तविक भी है और उत्कर्ष मार्ग पर गति को भी दर्शाती हैं I
  • और अंतःकरण के कारण वो मन, बुद्धि,चित्त और अहम् का प्रयोग भी कर सकता है I

 

त्रिकाया और सूक्ष्म शरीर

त्रिकाया या तीन काया (या तीन शरीर) होते हैं, जो ऐसा होते हैं …

  • स्थूल शरीर … यह वो शरीर है जो नेत्रों से दिखाई देता है और यह शरीर अपना उस जन्म का प्रारब्ध पूर्ण करके, अपने नाश को पाता है I
  • सूक्ष्म शरीर … यह वो शरीर है, जिसके बारे में यहाँ बात होगी I

त्रिकाया के तीनों शरीरों की सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, यह शरीर मध्य की सूक्ष्मता का धारक होता है, इसलिए यह शरीर तीनों शरीरों को आपस में जोड़ कर रखता है I

सूक्ष्म शरीर में बाकी दोनों शरीरों के सूक्ष्म बिंदु संहित होते है, इसलिए शरीर रूप में, यह सूक्ष्म शरीर पूर्ण-शरीर भी कहलाता है I

यह शरीर ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म दशाओं में गमन करने का प्रधान माध्यम होता है I

यह शरीर, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं का लिंगात्मक स्वरूप भी होता है इसलिए यह लिंग शरीर भी कहलाता है I

सूक्ष्म शरीर ही स्थूल शरीर का चालाक होता है, अर्थात स्थूल शरीर ही सूक्ष्म शरीर का जीव रूपी वाहन होता है I

यह शरीर प्रकृति का वो मूल रूप होता है जो साधक के सूक्ष्म शरीर के भीतर ही बसा हुआ होता है I इसका स्थान हृदय में होता है, लेकिन अंततः जब यह अपने कारण चतुष्टय में विलीन हो रहा होता है, तब यह हृदय से बाहर की ओर दिखाई देता है I

जब सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया होती है, तब यह कारण शरीर उस सूक्ष्म शरीर के साथ गमन भी कर सकता है, लेकिन ऐसा प्रत्येक सूक्ष्म शरीर गमन में नहीं होता है I

इसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बात होगी I

तो अब सूक्ष्म शरीर को बताता हूँ I

 

सूक्ष्म शरीर और सगुण साकार आत्मा, … सूक्ष्म शरीर और आत्मा, … सूक्ष्म शरीर और रूह, … सूक्ष्म शरीर और सोल (soul), …

कुछ योगीजनों ने, इसी नीले रंग के सूक्ष्म शरीर को की आत्मा (या आत्मा का शरीरी स्वरूप) भी कहा हैI

साधारण मनीषियों के लिए और उनके साधारण मार्गों में, सूक्ष्म शरीर ही आत्मा होता है, जो अपने सगुण साकार (या शरीरी स्वरूप) में होता है I

इस्लाम में इसी सूक्ष्म शरीर को रूह भी कहा जाता है I और ईसाइयत में इसी को सोल (soul) भी कहा जाता है I

लेकिन योगीजनों का आत्मा तो यह सूक्ष्म शरीर बिलकुल नहीं होता, इसलिए यह वेदों में बतलाया गया आत्मा भी नहीं है I

सूक्ष्म शरीर गमन, … सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया, … सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया, ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म शरीर भ्रमण प्रक्रिया, … सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर में लौटने की प्रक्रिया, …

सूक्ष्म शरीर के ब्रह्माण्ड में भ्रमण या सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया की तीन स्पष्ट या पृथक स्थितियां होती हैं I तो अब इनको बताता हूँ …

 

  • पहली स्थिति, … जब स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर बाहर निकलता है, …

जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकल रहा होता है, तब जो दशा होती है वो ऊपर के चित्र में दिखाई गई है I

इस चित्र में, जो नीचे दिखाया हुआ शरीर है, वो स्थूल शरीर है I और जो ऊपर दिखाया हुआ गाढ़े नीले रंग का शरीर है, वो सूक्ष्म शरीर है I इस चित्र की दशा में, वो सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर को बस निकला ही है, इसलिए इस चित्र की दशा में उस सूक्ष्म शरीर ने अपनी गमन प्रक्रिया प्रारम्भ भी नहीं की है I

सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर से बाहर निकलने के समय पर, साधक की दशा अर्धनिद्रा की ही होती है, अर्थात, साधक न जागृत होता है और न ही सुषुप्ति में होता है…, बस इन दोनों के मध्य में ही होता है I

इसी को सूक्ष्म शरीर गमन कहते हैं, जिसमें साधक चैतन्य अवस्था में होता है और उसकी अपनी इच्छा अनुसार वो अपने सूक्ष्म शरीर को विभिन्न ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में गमन करवाता है, और उन दशाओं का साक्षात्कार भी करता है I

अधिकांश जीवों के लिए, सूक्ष्म शरीर गमन चैतन्य अवस्था में नहीं होता है, लेकिन इस सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया के समय पर, कुछ साधक चैतन्य अवस्था में भी रहते हैं जिसके कारण वो इस अध्याय में बताए गए बिंदुओं के साक्षात्कारी और ज्ञाता भी होते हैं I

जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलता है, तो उसकी दशा स्थूल शरीर की स्थिति से उलटी होती है I इसका अर्थ हुआ की, यदि स्थूल शरीर खड़ा हुआ होगा, तो सूक्ष्म शरीर उस स्थूल शरीर के ऊपर उल्टा लटका होगा I ऐसा ही इस चित्र में दिखाया गया है I

उस समय जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलता है, तब सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के कपाल के ब्रह्मरंध्र का स्थान, आपस में मिला हुआ होता है I इसका अर्थ हुआ, कि सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर की स्थिति एक दुसरे से विपरीत होती है और यह दोनों शरीर, साधक के ब्रह्मरंध्र में मिले हुए होते हैं I ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

स्थूल शरीर से बाहर निकलने के पश्चात, सूक्ष्म शरीर सीधा भी हो जाता है, अर्थात वो सूक्ष्म शरीर की दशा स्थूल शरीर के समान हो जाती है I और ऐसी दशा में आने के पश्चात ही वो सूक्ष्म शरीर, ब्रह्माण्ड की दशाओं में गमन करने लगता है, और जहाँ वो गमन भी, अकस्मात् प्रारम्भ होकर, अंततः साधक की इच्छा अनुसार ही हो जाता है I

 

  • दूसरी स्थिति, … जब सूक्ष्म शरीर गमन करता है … जब सूक्ष्म शरीर गमन करता है, तब जैसे वस्त्रों की वो इच्छा करता है, वैसे ही वस्त्रों को वो धारण भी कर लेता है I इसका अर्थ हुआ, कि जो भी वस्त्र के बारे में वो सूक्ष्म शरीर सोचेगा, वैसे ही वस्त्र वो पहन भी लेगा I

इसके अतिरिक्त, जो भी भोजन के बारे में वो सूक्ष्म शरीर सोचेगा, वैसे ही भोजन का स्वाद भी उसे आएगा और उसे लगेगा भी कि उसकी भूख मिट गयी है I

इसके अतिरिक्त, जिस भी स्थान पर वो सूक्ष्म शरीर जाना चाहेगा, उसी स्थान पर वो तुरंत पहुँच जाएगा I इसका अर्थ हुआ, कि वो सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की किसी भी अवस्था में जा सकता है I

लेकिन ऐसी इच्छानुसार गति होने पर भी, वो उन दैविक दशाओं में तबतक नहीं जा पाएगा, जबतक वो अपनी उस समय की उत्कर्ष स्थिति और उत्कर्ष गति में उन दैविक दशाओं के साक्षात्कार का पात्र नहीं होता I वैदिक वाङ्मय में, इसी सिद्धांत के अनुसार, केवल पात्र को ही दीक्षा दी जाती है, अर्थात जो पात्र नहीं उसको दीक्षा भी नहीं दी जाएगी I

और इसके अतिरिक्त, उस चैतन्य  गमन प्रक्रिया में, जैसा भी वो सूक्ष्म शरीर होना चाहेगा, वैसे ही वो हो जाएगा I इसका अर्थ हुआ, कि यदि वो अणु जैसा छोटा या ब्रह्माण्ड जितने बड़े आकार का ही होना चाहेगा, तो वो सूक्ष्म शरीर वैसा ही हो जाएगा I यदि वो योद्धा के समान होना चाहेगा, तो भी वो वैसा ही हो जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सूक्ष्म शरीर दूसरों से बात भी करता है, लेकिन उसके शब्द भाव रूपी होते हैं न की भाषा के शब्द I

कोई उस सूक्ष्म शरीर से किसी भी भाषा में उनके अपने भावों से बात करे, लेकिन उस सूक्ष्म शरीर को वो बातें उसी भाषा में वो सुनाई देंगी, जिसमे वो उन बातों को सुन सकता है I इसका अर्थ हुआ, कि सूक्ष्म शरीर गमन के समय पर भाषाओँ का कोई महत्व नहीं होता I

जब सूक्ष्म शरीर किसी भी सूक्ष्म दशा में पहुँच जाता है, तो वो वहां के जीवों आदि से भी बात कर सकता है, लेकिन वो बातें भाव रुपी शब्दों से होती है, न कि किसी भाषा के शब्दों को बोलने पर I

लेकिन ऐसा होने पर भी यदि सूक्ष्म शरीर गमन के समय पर, वो सूक्ष्म शरीर अपने भाव में बोले, कि उसे ब्रह्माण्ड की भाषा में ही सब कुछ सुनना है, तो उसे सभी शब्द संस्कृत भाषा में ही सुनाई देंगे I जब ऐसा भाव आया, तो मुझे संस्कृत के शब्द ही सुनाई देने लगे I

और यदि सूक्ष्म शरीर गमन के समय पर, वो स्वयं को भावरहित कर देगा, तो ऐसी दशा में भी उसे जो शब्द सुनाई देंगे, वो संस्कृत भाषा के ही होंगे ना कि अन्य किसी भाषा के I  इसी बिंदु पर जाके मैंने जाना था, कि ब्रह्माण्ड की भाषा संस्कृत है I

 

अब और आगे बढ़ता हूँ …

जब सूक्ष्म शरीर गमन प्रारम्भ होता है तो उस शरीर की गति की कोई सीमा नहीं होती I जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर को कोई भाव आएगा, की चलो अमुक दशा को देखते हैं, वैसे ही वो उस भाव के अनुसार, उसी दशा में पहुँच जाएगा और उस दशा का साक्षात्कार भी कर लेगा I

सूक्ष्म शरीर के वेग् या गति को मापा नहीं जा सकता इसलिए उसकी गति की कोई सीमा नहीं होती I इसका अर्थ हुआ, की उसके गमन की रफ़्तार बहुत अधिक होती है I जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर में कहीं जाने की इच्छा प्रकट होगी, वैसे ही वो वहाँ तीव्रगति से पहुँच जाएगा I लेकिन ऐसा होने पर भी, सूक्ष्म शरीर की गति या वेग कारण शरीर से कम ही होता है I

यहाँ जो भी बताया गया है, वो तब ही होता है जब वो सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया चैतन्य अवस्था में होती है I

 

  • तीसरी स्थिति … सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर में लौटने की प्रक्रिया …

जब सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर में वापिस लौटता है, तब वो उसके स्थूल शरीर के पास आकर, पुनः उल्टा होकर (अर्थात स्थूल शरीर की तुलना में, विपरीत होकर) रुक जाता है I

इस स्थिर दशा में वो अपनी गमन प्रक्रिया को समाप्त करता है I

रुकने के पश्चात, वो सूक्ष्म शरीर अपनी स्थिति को स्थूल शरीर के अनुसार करता है और धीरे धीरे स्थूल शरीर में प्रवेश करता है I

सबसे पहले, स्थूल शरीर में उस सूक्ष्म शरीर के पाद प्रवेश करते हैं, और अंत में कपाल का स्थान I

 

कम्पन के दृष्टिकोण से सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया

जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर में निवास कर रहा होता है, तब उसकी कम्पन स्थूल शरीर से अधिक होती है I लेकिन ऐसा होने पर भी, यह कम्पन सूक्ष्म शरीर गमन के समय से कहीं कम ही होती है I

इसका अर्थ हुआ, की जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलता है और वो स्थूल शरीर की तुलना में उल्टा होता है, तब वो अपनी कम्पन बढ़ाता है I ऐसा ही प्रत्येक सूक्ष्म शरीर गमन के समय पर भी होता है I अपनी कम्पन बढ़ा कर ही वो सूक्ष्म शरीर अपनी गमन प्रक्रिया का प्रारम्भ करता है I

और सूक्ष्म शरीर गमन के पश्चात, जब वो सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर में लौटता है, तब वो स्थूल शरीर की तुलना में पुनः उल्टा होकर, अपनी कंपन धीरे करके ही अपने स्थूल शरीर में प्रवेश करता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और ऐसा ही तब होता है, जब वो सूक्ष्म शरीर उस स्थूल शरीर से बाहर निकल रहा होता है I ऐसी दशा में भी वो सूक्ष्म शरीर अपनी कम्पन को धीमा करता है क्यूंकि यदि ऐसा नहीं करेगा, वो स्थूल शरीर स्तब्ध हो जाएगा I

इस धीमी कम्पन की दशा में ही वो सूक्ष्म शरीर, अपने स्थूल शरीर से उलटी अवस्था में बाहर निकलता है (जैसा की इस चित्र में भी दिखाया गया है) I

बाहर निकल कर वो सूक्ष्म शरीर अपनी कम्पन पुनः बढ़ाता हैm और इसके पश्चात ही उसकी गमन प्रक्रिया प्रारम्भ होती है I

और अपने गमन के पश्चात, जब वो सूक्ष्म शरीर, अपने स्थूल शरीर में पुनः लौटता है, तब भी उस स्थूल शरीर के भीतर प्रवेश करने से पूर्व, कुछ समय तक वो सूक्ष्म शरीर स्थिर रहकर, अपनी कम्पन पुनः घटाता है I

और कम्पन घटाने के पश्चात ही वो उस स्थूल शरीर में प्रवेश करता है I यदि सूक्ष्म शरीर अपनी गमन समय की अधिक कम्पन में ही स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाएगा, तो प्रवेश करने के समय पर स्थूल शरीर स्तब्ध हो जाएगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ … इसपर ध्यान देना …

जब हम किसी को भी झटके देकर या बहुत जल्दी सुषुप्ति से जागृत अवस्था में लाते हैं, तो ऐसे समय पर, उस स्थूल शरीर में प्रवेश करने से पूर्व, सूक्ष्म शरीर को अपनी कम्पन कम करने के लिए समय ही नहीं मिलता I

ऐसी दशा में, वो सूक्ष्म शरीर अपनी बड़ी हुई कम्पन की दशा में ही उस स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है, जिसके कारण वो स्थूल शरीर को सूक्ष्म शरीर की उस बढ़ी हुई कंपमान ऊर्जा का झटका लगता है I

यही कारण है, कि यदि किसी को निद्रा से जल्दीबाजी में उठाओगे, तो वो मनीषी झटके खाकर ही उठेगा I

 

सूक्ष्म शरीर और चेतन चतुष्टय, … सूक्ष्म शरीर का चेतन चतुष्टय से नाता, … चेतना की चार दशाएँ और सूक्ष्म शरीर, …

चेतना की चार दिशाएँ होती हैं, जो जागृत, सुषुप्ति, स्वप्न और तुरीय कहलाती हैं I

 

तो अब सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, इन दशाओं को बताता हूँ …

  • जागृत अवस्था … इस अवस्था में सूक्ष्म शरीर, अपने स्थूल शरीर के भीतर रहता है I

जबतक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर के भीतर रहेगा, तबतक ही जागृत अवस्था रहेगी I

इसलिए, सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, जागृत अवस्था तबतक ही होती है जबतक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर के भीतर बैठा हुआ होता है I

 

  • सुषुप्ति अवस्था … निद्रावस्था … जब सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर की चेतनरहित अवस्था में, उस स्थूल शरीर से बाहर निकलकर ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म (दैविक इत्यादि) दशाओं में भ्रमण करता है, तो स्थूल शरीर सुषुप्ति की अवस्था को पाता है I

और इसके विपरीत …

जब सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर से बाहर निकलता है, और ऐसे समय पर वो स्थूल शरीर अपनी पूर्व की चेतन अवस्था को त्यागता नहीं है, तो इस प्रक्रिया को ही सूक्ष्म शरीर गमन कहा जाता है I

ऐसे समय पर, साधक उस सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया का साक्षात्कार करता है I

और ऐसे समय पर, वो साधक उन समस्त दशाओं का जिनमे वो सूक्ष्म शरीर गमन करता है, उन सबका भी साक्षात्कार करता है I

लेकिन जब सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर से बाहर निकलने के समय, स्थूल शरीर चेतनाविहीन होता है, तो उस दशा को सुषुप्ति कहते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसका अर्थ हुआ, कि जब सूक्ष्म शरीर गमन चेतनरहित अवस्था में होता है, तब स्थूल शरीर की जो दशा होती है, वो ही सुषुप्ति कहलाती है, अर्थात स्थूल शरीर की चेतनाविहीन अवस्था में सूक्ष्म शरीर गमन को सुषुप्ति कहते हैं I

जबतक स्थूल शरीर की चेतनरहित अवस्था में, सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर से बाहर निकलकर गमन नहीं करने लगेगा, तबतक सुषुप्ति अवस्था भी नहीं आएगी I

इसलिए, सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, सुषुप्ति अवस्था तब होती है, जब सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है और ऐसे समय पर स्थूल शरीर की चेतना उसके साथ नहीं होती I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इस बाहर निकलने के समय पर, स्थूल शरीर की अवस्था भी जागृत और सुषुप्ति के मध्य में ही होती है I इसीलिए, जिस दशा में निद्रा बस आने ही वाली होती है, वो दशा ही सूक्ष्म शरीर के बाहर निकलने की होती है I

या यह कहूँ की जब सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया चल रही होती है, तब स्थूल शरीर की दशा जागृत और सुषुप्ति के मध्य की होती है I

और जैसे ही सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के बाहर निकलकर, उल्टा लटका होता है, तो साधक सुषुप्ति को पाने भी लगता है I

और इसके पश्चात, जब वो सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर सीधा खड़ा हो जाता है, तब जो दशा होती है, उसे ही सुषुप्ति कहते हैं I

स्थूल जगत से जितना परे (सुदूर) वो सूक्ष्म शरीर गमन करेगा, उतनी गहरी सुषुप्ति की दशा भी होगी I इसका अर्थ हुआ, कि जब स्थूल शरीर गहरी निद्रा में होता है, तब उस स्थूल शरीर से उसका सूक्ष्म शरीर भी बहुत दूर होता है I

यहाँ सुदूर (दूर) शब्द, भौतिक दूरी का नहीं है, बल्कि सूक्ष्मता की दूरी का है I इसका अर्थ हुआ, कि जो साधक अपने उत्कर्ष मार्ग पर बहुत आगे निकल गया होगा, उसकी सुषुप्ति भी उतनी ही गहरी होगी I

और क्यूंकि ऐसे साधक की सुषुप्ति भी बहुत गहरी होगी, इसलिए उसको रोगादि भी कम होंगे, क्यूंकि सुषुप्ति से स्थूल आदि शरीरों की रोगमुक्त दशा को भी पाया जाता है I

इसलिए, जिस साधक ने सुषुप्ति को जान लिए, उसने अधिकांश रोगों पर भी विजयश्री पा ली I

स्थूल शरीर के लिए, गहरी सुषुप्ति से उत्कृष्ट कोई औषधि भी नहीं होती है I

 

  • स्वप्न अवस्था जब स्थूल शरीर की चेतनारहित (या सुषुप्ति की) दशा में और पूर्व की जागृत अवस्था के संस्कारों के अनुसार, वो सूक्ष्म शरीर, गमन करते करते, किसी ऐसी दशा में चला जाता है जो उस साधक के उत्कर्ष मार्ग की अभी की स्थिति के अनुसार नहीं होती (या होती है), या उस सूक्ष्म शरीर को सूक्ष्मादि लोकों के कुछ जीव मिलते हैं जो उस साधक के उत्कर्ष मार्ग की दशा में बाधा डालते हैं (या उसके साथी ही होते हैं), तो ऐसी दशा में, जो भी वो सूक्ष्म शरीर देखेगा (या साक्षात्कार करेगा), वैसे ही उस साधक को स्वप्न भी आएगा I

इसलिए, सुषुप्ति अवस्था के समय पर होने वाली सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया के दृष्टिकोण से, स्वप्न उन्ही दशाओं के होते हैं, जहाँ वो सूक्ष्म शरीर गमन कर रहा होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन यह स्वप्न की अवस्था प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की नहीं होती है, क्यूंकि जो योगभ्रष्ट, प्रबुद्ध भी होते हैं, उनके सूक्ष्म शरीर उन दशाओं में जाते हैं, जो दैविक या कारण जगत की बहुत ऊपर की दशाएं होती हैं और जहाँ वो सूक्ष्म शरीर को कुछ भी ऐसा नहीं मिलता, जो उसके उत्कर्ष मार्ग के अनुसार या उस उत्कर्ष मार्ग के (या उस प्रबुद्ध योग भ्रष्ट के) विरुद्ध हो I

जो योगभ्रष्ट, प्रबुद्ध भी होते हैं, वो सर्वसमता में बसे हुए, उस सर्वसम ब्रह्म के भाव में ही स्थित होते हैं, इसलिए उनके लिए न तो कुछ साथ का होता है, और न ही विरुद्ध I और यही कारण है, की प्रबुद्ध योग भ्रष्ट को स्वप्न नाम की कोई भी अवस्था नहीं होती I

अपने उस समय के भावानुसार प्रबुद्ध योगभ्रष्ट जागृत अवस्था में तो स्वप्न देख सकता है, लेकिन सुषुप्ति में नहीं देखेगा I

और क्यूंकि सुषुप्ति अवस्था में, जिन दैविक और कारण लोक की दशाओं में किसी प्रबुद्ध योग भ्रष्ट का सूक्ष्म शरीर गमन करता है, वो दशाएँ बहुत ऊपर की होती हैं, इसलिए प्रबुद्ध योग भ्रष्ट की सुषुप्ति भी बहुत गहरी होती है I

 

  • तुरिया अवस्था चेतना की इस दशा में सूक्ष्म शरीर अपने मूल कारण, अर्थात अघोर ब्रह्म (ये सदाशिव के अघोर मुख) में विलीन हो जाता है I विलीन होने के पश्चात ही तुरिया या समाधि होती है I

इसलिए, सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, समाधि या तुरिया अवस्था उसे कहते हैं, जब सूक्ष्म शरीर अपने मूल कारण, अर्थात अघोर ब्रह्म में विलीन होता है I

 

सूक्ष्म शरीर का शब्द, … सूक्ष्म शरीर और अहम् नाद, … मनोमय कोष का शब्द …

सूक्ष्म शरीर का शब्द अहम् नाद का होता है, इसलिए यदि सूक्ष्म शरीर का अध्ययन किया जाएगा, तो उससे अहम् नामक नाद भी सुनाई देगा I

और यही अहम् का नाद, मनोमय कोष से भी सुनाई देता है I

यह अहम् नाद, सदाशिव के अघोर मुख का होता है, अर्थात अघोर नामक ब्रह्म का होता है I

अपने ऐसे स्वरूप में, यही अहम् नाद विशुद्ध अहम् को भी दर्शाता है, और जहाँ अघोर मुख का जो विशुद्ध अहम् होता है, वो ही ब्रह्म कहलाता है I

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I

सूक्ष्म शरीर और अघोर, … सूक्ष्म शरीर का अघोर में लय, … सूक्ष्म शरीर का लय, … सूक्ष्म शरीर और अघोर मुख का नाता, … सगुण निराकार सिद्धि, …

 

सूक्ष्म शरीर और अघोर, सूक्ष्म शरीर का अघोर में लय, सूक्ष्म शरीर का लय
सूक्ष्म शरीर और अघोर, सूक्ष्म शरीर का अघोर में लय, सूक्ष्म शरीर का लय, सूक्ष्म शरीर और अघोर मुख का नाता, सगुण निराकार सिद्धि,

 

ऊपर के चित्र में जो गाढ़े नीले रंग का सूक्ष्म शरीर दिखाया गया है, वो अघोर में विलीन होने से थोड़ी पूर्व की दशा है I इस चित्र में सूक्ष्म शरीर उसके अपने मूल, अर्थात अघोर में तो पहुँच तो चुका है, लेकिन इस चित्र की दशा तक वो अघोर मुख में विलीन नहीं हुआ है I

सूक्ष्म शरीर का उदय अघोर से हुआ था, इसलिए उसका लय भी अघोर में ही होता है I

जब सूक्ष्म शरीर, अघोर नामक ब्रह्म (या सदाशिव के अघोर मुख) में चला जाता है, तब वो उस अघोर मुख में प्रवेश करके, उसी अघोर मुख में विलीन हो जाता है I इसका अर्थ हुआ, कि अघोर के भीतर वो सूक्ष्म शरीर विलीन होता है I

और विलीन होने के पश्चात, वो सूक्ष्म शरीर अपना पूर्व का शरीरी रूप त्यागता है, और उसी अघोर के सामान निराकार हो जाता है I

पूर्व में तो वो सूक्ष्म शरीर, सगुण साकार (या शरीरी) अवस्था में था, लेकिन लय होने के पश्चात वो अघोर के सामान ही सगुण निराकार (या अशरीरी) ही हो जाता है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जिस साधक का वो सूक्ष्म शरीर होता है, वो भी सगुण निराकार का साक्षात्कार करके, अपनी भीतर की अवस्था में सगुण निराकार ही हो जाता है I

जब साधक का अहम् ही उसके मूल कारण जो अघोर है, उसमें विलीन हो जाता है, और जो ब्रह्माण्डीय विशुद्ध अहंकार को दर्शाता है, तो ऐसी दशा के पश्चात वो साधक शरीरी होता हुआ भी, अर्थात पिंड रूप में दीखता हुआ भी…, पिंड नहीं रहता I

ऐसे विलीन होने के पश्चात, वो साधक का अहंकार विशुद्ध होकर, समस्त जीव जगत का हो जाता है और जहाँ वो समस्त जीव जगत भी ब्रह्म की वो पूर्ण अभिव्यक्ति ही होता है, जो अपने अभिव्यक्ता, अर्थात ब्रह्म की ओर ही अग्रसर होता है I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि विशुद्ध अहम् प्राप्ति का मार्ग, जो अघोर से होकर जाता है, वो ब्रह्मपथ का अभिन्न अंग ही है I

इस विशुद्ध अहम् के मार्ग में साधक का मार्ग अघोर से ही होकर अन्य सभी साक्षात्कारों और उनकी दशाओं में जाता है I

अघोर से जो मार्ग जाता है, वो पञ्च ब्रह्म से होता हुआ, पंच मुखा सदाशिव के साक्षात्कार की ओर भी लेकर जाएगा I

और इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि अघोर मार्ग ही वो विशुद्ध अहम् का मार्ग है, जिससे साधक पंच ब्रह्म का साक्षात्कार करके, पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार की ओर जाएगा I वैसे इस जन्म में यही मेरा मार्ग भी हुआ है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

और एक बात, जिसमे तुम विलीन होते हो, उस जैसे ही हो जाते हो और यह अवस्था वैसी ही है, जैसे कि सागर में विलीन होके, बूँद भी सागर ही हो जाती है I इसलिए इस दशा से वो साधक सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि (या ब्रह्म की सगुण निराकार सिद्धि) को भी प्राप्त होता है I

लेकिन इस दशा में, यह सिद्धी पूर्ण रूप में नहीं होती, क्यूंकि ब्रह्म के केवल एक मुख में विलीन हुआ सूक्ष्म शरीर, इस सिद्धि की पूर्णता को भी नहीं दर्शाता है I

जब साधक के स्थूल देह के भीतर जो अवस्थाएँ हैं, वो अपने अपने मूल सगुण निराकार ब्रह्म रूपी कारणों में विलीन होंगी, तब ही इस सगुण निराकार सिद्धि की पूर्ण प्राप्ति होती है…, इससे पूर्व नहीं I

इसके यह भी अर्थ हुआ, कि जबतक साधक के भीतर की समस्त अवस्थाएँ अपने अपने मूल कारणों, अर्थात पञ्चब्रह्म (और इसके अतिरिक्त पञ्च मुखी सदाशिव) के पाँचों मुखों में विलीन नहीं होती, तबतक इस सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि की पूर्णरूपेण प्राप्ति भी नहीं होती I

इस सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि में वो साधक की भीतर की अवस्था, ब्रह्म की समस्त रचना में पूर्ण और समान रूप से व्याप्त होकर, ब्रह्म की रचना की मूलावस्था ही हो जाती है, क्यूंकि रचना की मूलावस्था ही ब्रह्म की सगुण निराकार अवस्था कहलाती है I

और इसी सगुण निराकार सिद्धि से, वो ब्रह्माण्ड योग भी सिद्ध होता है, जो उस अंतदशा का, जो कैवल्य मोक्ष कहलाती है, उसका एक अतिउत्कृष्ट मार्ग होता है I

जबतक ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं होगा, तबतक ब्रह्माण्ड को त्यागोगे कैसे? I

कुछ भी त्यागने से पूर्व, उस दशा से योग की सिद्धि भी तो होनी होगी न? I

 

लेकिन वो ब्रह्माण्ड जिससे योग होता है, वो भी साधक के पिण्ड रुपी शरीर में ही होता है…, न कि वो विशालकाय ब्रह्माण्ड जिसमे साधक का पिण्ड रुपी शरीर बसा होता है I

और जब तक ब्रह्माण्ड को त्यागोगे नहीं, तबतक ब्रह्माण्ड से परे कैसे जाओगे? I

और जब तक ब्रह्माण्ड से ही परे नहीं जाओगे, कैवल्य मुक्ति को कैसे पाओगे? I

जिस दशा से जुड़े हुए हो या योग लगाके बैठे हो, उसको त्यागे बिना, उस दशा से आगे कैसे जाओगे? I

 

इसलिए अंततः …

साधक का मार्ग त्याग ही होता है, और जहाँ वो त्याग भी सर्वत्र का ही होता है I

जब साधक को न कोई पिंड दिखे और नाही ब्रह्माण्ड…, तो वो ही कैवल्य (मोक्ष) है I

 

ब्रह्माण्ड के सर्वत्रता की प्राथमिक दशा को ही तो ब्रह्म की सगुण निराकार अभिव्यक्ति कहा जाता है, जिसके अंतर्गत शून्य और शून्य ब्रह्म सहित, समस्त स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत, दैविक या कारण जगत और संस्कारिक जगत भी आता है I

उस ब्रह्माण्ड योग में, जब जगत के इन सभी प्रकारों से योग के पश्चात, साधक इन सभी का त्याग करता है, तो ही वो साधक का त्याग पूर्ण कहलाता है I और इसी पूर्ण त्याग के पश्चात ही वो साधक कैवल्य (मोक्ष) का पात्र बनता है I

लेकिन इस ब्रह्माण्ड योग की दशा और मार्ग भी इसी सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि के अंतर्गत ही आती है I इसलिए यह सगुण निराकार सिद्धि, जो अघोर से ही प्रारम्भ होती है, वो कैवल्य मुक्ति का ही मार्ग है, अर्थात ब्रह्म मार्ग या ब्रह्मपथ ही है I

और यह ग्रन्थ इस सिद्धि प्राप्ति की परिपूर्णता का भी मार्ग है, जो मेरे आंतरिक मार्ग के अनुसार और जिस मार्ग को मैंने स्वयं ही स्वयं में, ऐसा कहा है…, मेरे सूक्ष्म शरीर के अघोर मुख में विलीन होने के पश्चात ही प्रारम्भ हुआ था I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

जब तक सूक्ष्म शरीर, अघोर ब्रह्म (या सदाशिव के अघोर मुख) में लय नहीं होता, साधक सगुण निराकार ब्रह्म सिद्धि के मार्ग पर चला भी नहीं होता I

जिन योगीजनों का सूक्ष्म शरीर उस अघोर में लय हुआ था, उन्होंने ही कहा था, कि सूक्ष्म शरीर निराकार होता है I

जिस साधक का सूक्ष्म शरीर अघोर में लय होकर सगुण निराकार अवस्था को प्राप्त ही नहीं हुआ, वो साधक, सूक्ष्म शरीर को सगुण साकार ही कहेगा I

यही कारण है, कि किसी योगी ने सूक्ष्म शरीर को सगुण साकार कहा है, और किसी ने सगुण निराकार I

लेकिन ऐसी सभी बातें उस योगी की सिद्धि ही दर्शाती हैं, कि वो योगी जिसने ऐसा कहा था, उसकी सिद्धि क्या है…, सगुण साकार है या सगुण निराकार I

और क्यूंकि अघोर मुख, जिसमें सूक्ष्म शरीर लय होता है, उसका नाद भी अहम् ही होता है, और जो विशुद्ध अहंकार को दर्शाता है…, इसलिए यही बात अहंकार पर भी लागू होती है I

यह भी वह कारण है, कि कुछ योगीजनों ने अहंकार को सगुण साकार कहा है और कुछ ने सगुण निराकार I

साधक की योग सिद्धि के दृष्टिकोण से ही साधक कुछ बताता है…, जो वो साधक बताएगा, वो बात भी उस साधक की योगसिद्धि का प्रमाण दे रही होगी I

यही कारण है, कि जिन योगीजनों ने सगुण साकार सिद्धि पाई है, वो सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिन्दुओं को सगुण साकार ही कहेंगे I और जिन योगीजनों ने सगुण निराकार सिद्ध किया होगा, वो उसी सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिन्दुओं को सगुण निराकार ही बोलेंगे I

और क्यूंकि योगसाक्षात्कार के अनुसार ही सिद्धि होती है, और सिद्धि के अनुसार ही ज्ञान, इसलिए, वैदिक वाङ्मय के समस्त इतिहास के पृथक कालखंडों में, पृथक योगीजनों ने, पृथक रूप से उन्हीं बिंदुओं को बतलाया है I

और क्यूंकि योगीजनों की बातें, उनके अपने साक्षात्कार के अनुसार ही होती हैं, इसलिए योगीजनों द्वारा बताई गई वो सभी बातें, सत्य ही हैं I

और क्यूंकि उत्कर्ष मार्गों के मूल में योग होता है और गंतव्य में वेद, इसलिए योगमार्ग और वेदमार्ग दोनों बहुवादी होते हुए भी, वास्तव में उसी अद्वैत ब्रह्म का ही मार्ग हैं, और जहाँ वो अद्वैत ब्रह्म, रचइता होता हुआ, रचना और रचना का तंत्र भी है I

यही कारण है, कि योगमार्ग और वेदमार्ग, दोनों ही उस बहुवादी अद्वैत परम्परा के अन्तर्गत आते हैं, जहाँ बहुवादी शब्द प्रकृति का वाचक होता है, और अद्वैत का शब्द, ब्रह्म का द्योतक ही है I

योग और वेद मार्गों की इस परंपरा को यदि मैं साधारण शब्दों में बताऊँ, तो ऐसा कह सकता हूँ …

सब ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, इसलिए सबकुछ ब्रह्म ही हैं I

सभी मार्ग उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं, इसलिए ब्रह्म को ही जाते हैं I

मार्ग तो बहुत हैं, लेकिन उनका मूल और अमूल गंतव्य, वो अद्वैत ब्रह्म ही है I

यह सभी वाक्य उसी अद्वैत को दर्शाते हैं, जो योगीजनों और वेद मनिषियों का ब्रह्म है I

 

मन का अघोर में लय … मनोमय कोष का शून्य में लय … मनोमय कोष और अघोर मुख … मनोमय कोष क्या है … मनोमय कोष की परिभाषा …

 

मन का अघोर में लय, मनोमय कोष का शून्य में लय, मनोमय कोष और अघोर मुख
मन का अघोर में लय, मनोमय कोष का शून्य में लय, मनोमय कोष और अघोर मुख, मनोमय कोष क्या है, मनोमय कोष की परिभाषा

 

मन, सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिंदुओं में से एक बिंदु है I इसलिए जब सूक्ष्म शरीर ही अघोर में लय हो जाता है, तब मन भी उसी अघोर में चला जाता है और इसके पश्चात, वो मन अघोर नामक ब्रह्म भावपन को पाता है I

क्यूंकि अघोर से जाते हुए उत्कर्ष मार्ग में, उस अघोर नामक ब्रह्म से आगे शून्य तत्त्व है I इसलिए अघोर नामक ब्रह्म भावपन प्राप्ति के पश्चात,वो मन शून्य की ओर जाता है, और उसी शून्य में लय होता है I

यह चित्र मनोमय कोष के शून्य तत्त्व में विलीन होने से थोड़ा पूर्व की दशा को दिखा रहा है I

इस चित्र में नीले रंग का शरीर, मनोमय कोष का ही सगुण साकार स्वरूप है, और जिस अन्धकारमय तत्त्व ने मन को घेरा हुआ है, वो शून्य है I

 

मनोमय कोष की दो प्रधान अवस्थाएं होती हैं, जो इस प्रकार की हैं …

  • मन की सगुण साकार अवस्था इस सगुण साकार अवस्था में, मनोमय कोष शरीरी रूप में होता है I
  • मन की सगुण निराकार अवस्था … इस सगुण निराकार अवस्था में, मनोमय कोष अशरीरी (या निराकार) रूप में होता है, और यह दशा भी तब प्राप्त होती है, जब सूक्ष्म शरीर अघोर में विलीन होकर, निराकार हो जाता है I

लेकिन मनोमय कोष की गति इन दोनों देशों तक ही सीमित नहीं होती है I इनसे आगे भी मनोमय कोष की गति होती है I

 

तो अब इस बिंदु को बताता हूँ …

जब सूक्ष्म शरीर ही निराकार होता है, तब उस सूक्ष्म शरीर के उन्नीस बिंदु जिनके बारे में पूर्व में बताया गया था, और जिसका एक बिंदु मन भी कहा गया था, वो सभी उन्नीस बिंदु भी निराकारी ही हो जाते हैं I

लेकिन जब मनोमय कोष निराकारी होता है, तो वो इस निराकार तक ही सीमित नहीं रहता I निराकार होने के पश्चात, वो मन अपनी प्राथमिक शून्यता की ओर जाता है, जिसके कारण वो शून्य तत्त्व में विलीन होता है I

यह चित्र उसी मनोमय कोष के शून्य में विलीन होने से थोड़ी पूर्व की दशा को दिखा रहा है, जिसमे वो मनोमय कोष उस अंधकारमय शून्य में बस चुका है, जिसने उस मन को घेरा हुआ है I

और शून्य में विलीन होने के पश्चात, वो मन शून्य ब्रह्म में विलीन होता है I और अंततः, वही मन निर्गुण ब्रह्म में विलीन होता है I

लेकिन इन दोनों दशाओं को इस चित्र में स्पष्ट रूप में दर्शाया नहीं गया है I इन दशाओं के बारे में किसी बाद के अध्याय में बात होगी I

 

अब मनोमय कोष को बताता हूँ …

  • स्थूल शरीर की सभी कोशिकाओं में अपना अपना मन का भाग होता है I सभी शरीरी कोशिकाएं ऐसी ही होती हैं I
  • इन सभी कोशिकाओं के मन का समूह ही मनोमय कोष कहलाया गया था I

 

तो इसका अर्थ हुआ, कि …

शरीर की कोशिकाओं के मन नामक भागों के समूह को मनोमय कोष कहते हैं I

या यह कहूँ कि …

शरीर की समस्त कोशिकाओं के मन नामक भाग की योगावस्था, मनोमय कोष है I

 

इसलिए, जो योगतंत्र और वैदिक वाङ्मय में मनोमय कोष कहलाया गया है, वो शरीर की असंख्य कोशिकाओं के मन नामक भाग की योगावस्था को ही दर्शाता है I यही कारण है कि मनोमय कोष “योग” का भी वाचक है I

 

साधक का अघोर में लय और साधक की पिंडावस्था का अंत

जब साधक का सूक्ष्म शरीर अघोर मुख में लय हो जाता है और वो सूक्ष्म शरीर अपने पूर्व के सगुण साकार स्वरूप को त्याग कर, सगुण निराकार हो जाता है, तब वो साधक अपने पूर्व के पिण्ड स्वरूप में होता हुआ भी, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से पिंड नहीं कहलाता I

सूक्ष्म शरीर के अघोर में लय के पश्चात, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से वो साधक सगुण निराकार ही होता है I

सूक्ष्म शरीर ही नीला सरस्वती पुत्र है, माँ गायत्री के नीले मुख का पुत्र ही सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म शरीर और नील सरस्वती, सूक्ष्म शरीर और माँ गायत्री का नीला मुख, शिवानुजा पुत्र …

वैदिक वाङ्मय में कोई देवी या देवता है ही नहीं, जो समस्त जीवों के और जगत के भीतर, एकसाथ, एक ही समय पर और अपने सामान रूप में नहीं हैं I

इसलिए, वैदिक वाङ्मय में जो भी देवी देवता हैं, जिस भी मार्ग में हैं, जितने भी हैं और जहाँ भी हैं, वो सभी मानव देह के भीतर निवास करते हैं I और ऐसे निवास के साथ साथ, वो ब्रह्माण्ड की अपनी दशाओं में भी निवास करते हैं I और इसके अतिरिक्त, उन्ही देवी देवताओं की परमार्थिक दशाएं, महाब्रह्माण्ड से परे की अवस्थाओं में भी हैं I

यही कारण था, कि …

  • आत्ममार्ग और ब्रह्ममार्ग, दोनों ही वैदिक वाङ्मय के अंग हुए थे, और जहाँ आत्मा ही ब्रह्म कहलाया था I
  • और वो ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड और उसके जीव स्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ था I और यह भी वो कारण था, कि जीव और जगत का विज्ञानं (जैसे वेदांग, ज्योतिषादी शास्त्र) भी वैदिक वाङ्मय का अभिन्न अंग हुआ था I

क्यूंकि और किसी भी उत्कर्ष पथ में ऐसा कभी नहीं हुआ है, इसलिए उन पुरातन कालों में, यह सभी मार्ग, मूलतः वेद मनीषियों द्वारा ही दिए गए थे I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऊपर बताए गए कारणों से, पिंडों या ब्रह्माण्ड में जो भी है, उसका नाता किसी न किसी वैदिक देवी देवता से है ही I

आत्ममार्ग के दृष्टिकोण से, सूक्ष्म शरीर ही …

  • उन नील सरस्वती (या नीला सरस्वती) का पुत्र है I
  • नील सरस्वती (या नीला सरस्वती) शिवानुजा भी कहलाती हैं, और ऐसा होने के कारण ही सूक्ष्म शरीर, शिवानुजा पुत्र भी है I
  • और ऐसा होने के कारण, स्थूल शरीर में बसा हुआ यह सूक्ष्म शरीर, रुद्र देव का भांजा ही है I
  • और क्यूंकि, इस सूक्ष्म शरीर का नाता सदाशिव के अघोर मुख (अर्थात अघोर ब्रह्म) से भी है, जिसकी विद्या रूपी दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख है, इसलिए ब्रह्ममार्गी और आत्ममार्गी साधकों को, इस सूक्ष्म शरीर को, माँ गायत्री के नीले मुख का पुत्र ही मानना चाहिए I

अपनी योगसाधनाओं में, साधकों को सूक्ष्म सूक्ष्म शरीर को ऐसा ही मानना चाहिए, क्यूंकि अंततः, साधक सूक्ष्म शरीर को ऐसा ही जानेगा I

 

नील सरस्वती और परमज्ञान, नील सरस्वती ही परमज्ञान की द्योतक हैं, माँ गायत्री का नीला मुख और परमज्ञान, माँ गायत्री का नीला मुख और आत्मज्ञान, आत्ममार्ग और नील सरस्वती, आत्ममार्ग और माँ गायत्री का नीला मुख, अघोर मुख और ज्ञान …

पञ्चब्रह्म मार्ग में, जो ब्रह्म अंतिम दशा में स्वयंप्रकट हुआ था, वो अघोर था I इसलिए, अघोर नामक ब्रह्म में ही अन्य सभी ब्रह्म के ज्ञान और साक्षात्कार करने योग्य बिन्दु संहित होते है I

और ऐसा होने के कारण ही उन सभी बिंदुओं का ज्ञान (अर्थात पाँचों ब्रह्म और उनकी दिव्यताओं का ज्ञान) अघोर मुख से प्राप्त हो सकता है I

यह ज्ञान प्राप्ति वैसी ही है, जैसे पृथ्वी महाभूत के साक्षात्कार और उस साक्षात्कार के आगे के अध्ययन से, पञ्च तन्मात्र और पञ्च महाभूत का ज्ञान पाया जा सकता है I

इसलिए, जिस साधक ने अघोर ब्रह्म को पूर्णरूपेण जान लिए, वो ही वास्तव में ज्ञान मार्गी होकर, अंततः ज्ञानी हो पाएगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

अघोर मुख की दिव्यता, जो नील सरस्वती है, वो परमज्ञान को भी दर्शाती हैं I

और उसी अघोर मुख की विद्या स्वरूप में, अर्थात ज्ञान रूप में, माँ गायत्री का नीला मुख है I

यही कारण है, कि योग और वेद मनिषियों ने, ज्ञान को अघोर मुख से भी जोड़ा है I

ऐसे जोड़ने का कारण था, कि अघोर के हुए बिना, नील सरस्वती और माँ गायत्री के नीले मुख का साथ भी नहीं मिलेगा I और ऐसा तब भी है, जबकि ज्ञानमार्ग वास्तव में सद्योजात नामक ब्रह्म का ही है I

लेकिन अघोर मुख के ज्ञान का नाता, आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त, पिण्ड और ब्रह्माण्ड के ज्ञान से भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यही कारण है, कि अघोर नामक ब्रह्म की शक्ति रूपी दिव्यता, अर्थात नीला सरस्वती, और उसी अघोर ब्रह्म की विद्या रूपी दिव्यता…, परमज्ञान या पूर्ण ज्ञानमय स्वरूप को भी दर्शाती हैं I

और यह पूर्ण ज्ञान की सिद्धि (या प्राप्ति) भी सूक्ष्म शरीर गमन मार्ग से ही प्रारंभ होती है, न कि किसी शास्त्र या दीक्षा से I

और इस साक्षात्कार किए हुए ज्ञान मार्ग में, अघोर नामक ब्रह्म (अर्थात सदाशिव का अघोर मुख) ही वो परमगुरु होते हैं, जो महादेव भी कहलाते हैं I

 

और अंत में …

आत्ममार्ग में, सूक्ष्म शरीर ही नील सरस्वती की शक्ति रूपी दिव्यता को धारण किया होता है I इसलिए आत्ममार्ग में, साधक की आत्मशक्ति स्वरुप में, माँ नील सरस्वती ही हैं, जो अपने शिवानुजा स्वरूप में, साधक की आत्मशक्ति भी हैं I

और उसी आत्ममार्ग में, सूक्ष्म शरीर की विद्या रूपी दिव्यता को माँ गायत्री का नीला मुख भी कहा जाता है I इसलिए, आत्ममार्ग में, साधक की आत्मविद्या स्वरूप में, माँ गायत्री सरस्वति का नीला मुख ही है I

योगमार्ग से सूक्ष्म शरीर का निर्माण, …  सूक्ष्म शरीर निर्माण प्रक्रिया, … सूक्ष्म शरीर निर्माण, … सूक्ष्म शरीर का निर्माण और गमन मार्ग, …

सूक्ष्म शारीर निर्माण करके, उस सूक्ष्म शरीर की गमन प्रक्रिया पर जाने के दो प्रधान मार्ग हैं, जो यहाँ बताए जाएंगे …

 

सूक्ष्म शरीर निर्माण का प्रथम मार्ग

यह भाग अधिकांश जीवों के लिए निषेद ही है, क्यूंकि इसमें जाकर, साधक स्वयं ही स्वयं में गुम भी सकता है, और साधक की मृत्यु भी हो सकती है I इसलिए इस बात को ध्यान में रखकर ही इस प्रक्रिया में जाना I

इस प्रक्रिया का आधार आकाश महाभूत ही है, जो साधक के शरीर के भीतर घटाकाश रूप में ही होता है, और साधक अपने घटाकाश को उस महाकाश में विलीन कर देता है, जिसके भीतर साधक अपने स्थूलादि शरीरों सहित निवास कर रहा होता है I

इस प्रक्रिया में अपने हृदय पर ध्यान नहीं लगाना है, नहीं तो हृदय गति विकृत हो सकती है I

इस प्रक्रिया में ध्यान केवल किसी दिव्यता पर ही होना चाहिए, स्वयं पर नहीं I ध्यान लगाते समय, अपनी चेतना को शरीर के भीतर बसाकर, अपने शरीर को भीतर से ही, साक्षीभाव में बसकर देखना चाहिए I

यदि इस प्रक्रिया में तुम्हे लगे की तुम शून्य सरीके हो गए हो, तो इस प्रक्रिया तो तुरंत रोक देना चाहिए I इसके पश्चात, कुछ दिवस प्रतीक्षा करके ही इसपर पुनः जाना चाहिए I

  • सर्वप्रथम अपने मन को किसी दिव्यता में स्थिर करके, शान्त करो I
  • शांत करने का सबसे उत्तम मार्ग है, कि मन में जप करो, और यह जप इस प्रकार करो की ॐ के त्रिबीज, अर्थात अ, ओ और म के शब्द (या अकार, उकार और मकार) तीनों एक तिहाई समय के हों I
  • मन स्थिर होने के पश्चात जब मन में “म शब्द या म का नाद (अर्थात मकार)” स्वयं ही स्थापित हो जाए, तब अपने शरीर के समस्त अंगों को खाली देखो I
  • ऐसी दशा में तुम्हारा शरीर ऐसा पाया जाएगा, जैसे चरम रुपी खोल के भीतर कुछ भी नहीं है I
  • और ऐसे समय पर तुम्हारे शरीर के बस तुम्हारा घटाकाश ही दिखाई देगा, जो बैंगनी वर्ण का होगा I
  • कुछ समय के पश्चात, तुम पाओगे कि तुम्हारे नेत्र बंद होते हुए भी, थोड़ा ऊपर की ओर (कोई 10 से 30 डिग्री ऊपर की ओर) देखने लगे हैं I

यह सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया पर जाने का प्रथम पाद है I लेकिन अधिकांश साधकों को यहाँ तक पहुँचने में कुछ या कुछ अधिक समय भी लगेगा I

  • जब ऐसा हो जाए, तो अपने रक्त, मांस, हड्डी और मज्जे के शरीर को भीतर से खाली देखो I और ऐसे देखो जैसे उस शरीर के चर्म रुपी खोल के भीतर केवल आकाश ही है…, और कुछ भी नहीं है I
  • इसके पश्चात ही तुम्हारा सूक्ष्म शरीर तुम्हारे स्थूल शरीर से पृथक होने लगेगा…, जिसके पश्चात तुम्हारा सूक्ष्म शरीर गमन हो पाएगा I

 

सूक्ष्म शरीर निर्माण का दूसरा मार्ग

अब इसी सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया का दूसरा मार्ग बताता हूँ …

इसमें साधक यह कल्पना करता है, कि उसकी प्रत्येक शरीरी कोशिका में से, उस कोशिका के सूक्ष्म तत्त्व, जो सूक्ष्म शरीर के उन्नीस अंगों में होते हैं, वो सभी दुगने होकर, उसके स्थूल शरीर से बाहर निकलकर, उसके स्थूल शरीर के ऊपर (या स्थूल शरीर से समीप के स्थान पर) इकठे हो रहे हैं I

और ऐसे इकठे होने के पश्चात, वो स्वतः ही शरीरी रूप लेते जा रहे हैं I

और इस कल्पना में बसी हुई प्रक्रिया से, शनैः शनैः, साधक के स्थूल शरीर के समीप, एक सूक्ष्म शरीर भी तैयार होता जा रहा है I

जब साधक की कल्पना में वो सूक्ष्म शरीरी रूप, साधक के स्थूल शरीर के ऊपर (या समीप) बन जाए, तो साधक उसको धारण करता है…, अर्थात उसमें अपनी चेतना के एक भाग को, अपनी कल्पना से ही डालता है, और ऐसा वो साधक उसके अपने दृढ़ निश्चय से मानता भी है I

जब ऐसी प्रक्रिया सफल हो जाएगी, तो वो कल्पना से उत्पन्न हुए शरीर से ही, उस साधक का सूक्ष्म शरीर स्वयंप्रकट हो जाएगा I

और उस सूक्ष्म शरीर का आलम्बन लेके साधक, सूक्ष्म शरीर गमन भी कर पाएगा I

लेकिन इस प्रक्रिया के समय पर, यदि साधक निद्रा को प्राप्त हुआ, तो यह प्रक्रिया विफल जो जाएगी, जिसके पश्चात, कुछ दिवस प्रतीक्षा करके, साधक इस प्रक्रिया में पुनः जा सकता है I

एक बार यदि यह प्रक्रिया विफल हो गई, तो कुछ दिवस तक उसको पुनः नहीं करना चाहिए I

और ऐसे समय पर आत्मचिंतन करके, अपनी त्रुटियों को जानकार, उनका समाधान ढूंढकर ही इस प्रक्रिया में पुनः लौटना चाहिए I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय

 

लिंक:

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa

परंपरा, Parampara

ब्रह्म, Brahman

कालचक्र, Kaal Chakra

ब्रह्माण्ड की भाषा, Language of Universe

 

error: Content is protected !!