तमोगुण गुफा, तमस गुफा, पञ्च भूत, पञ्च महाभूत, पञ्च महाभूत साधना, पञ्च भूत साधना, पञ्च तन्मात्र साधना, पञ्च तन्मात्र, त्रिगुण साधना, गुण साधना, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी, वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत

तमोगुण गुफा, तमस गुफा, पञ्च भूत, पञ्च महाभूत, पञ्च महाभूत साधना, पञ्च भूत साधना, पञ्च तन्मात्र साधना, पञ्च तन्मात्र, त्रिगुण साधना, गुण साधना, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी, वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत

यहाँ पर हृदयाकाश गर्भ की तमोगुण गुफा (हृदय तमोगुण गुफा, तमस गुफा) और पञ्च भूत गुफा (हृदय पञ्च भूत गुफा, पञ्च महाभूत गुफा), पञ्च भूत, पञ्च महाभूत, पञ्च महाभूत साधना, पञ्च भूत साधना, पञ्च तन्मात्र साधना, पञ्च तन्मात्र, त्रिगुण साधना, गुण साधना, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी, वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत आदि पर बात होगी I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकेर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पैंतालीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का तेरहवाँ अध्याय है।

 

हृदयाकाश गर्भ में तमोगुण गुफा, तमस गुफा
हृदयाकाश गर्भ में तमोगुण गुफा, तमस गुफा

 

 

हृदयाकाश की तमोगुण गुफा, हृदयाकाश की पञ्च भूत गुफा, हृदयाकाश की तमस गुफा, …

सनातन गुरुदेव बोले… हृदय की तमस गुफा में तमोगुण सहित पञ्च महाभूतों का भी साक्षात्कार होता है I यह पञ्च महाभूत में आकाश महाभूत, वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत और पृथ्वी महाभूत हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसी गुफा में शून्य का भी साक्षात्कार होता है, और इसके अतिरिक्त इसी गुफा का आलम्बन लेकर उस सब का साक्षात्कार हो सकता है, जो चलित ब्रह्माण्ड या संसार कहलाया गया है I वह सबकुछ जो ब्रह्माण्ड में है, उस सबका इस गुफा का आलम्बन लेकर साक्षात्कार हो सकता है, और ऐसा भी इसलिए है क्यूंकि जीव जगत को तमोगुण में ही बसाया गया है, और ऐसे बसाए जाने का कारण भी यही है कि तमोगुण स्थिरता का कारक होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस गुफा में प्रत्येक साधक, प्रतयक्ष या परोक्ष रूप में निवास भी करेगा, जब वह शून्य समाधि के मार्ग पर जाएगा I जबकि आज बोला जाता है कि तमोगुण से दूर रहो, परन्तु योगमार्ग के उन गुणों के साक्षात्कार से लेकर, पञ्च महाभूत साक्षात्कार और शून्य साक्षात्कार तक इस गुफा का योगदान सराहनीय ही है I इस ह्रदय आकाश गर्भ तंत्र में जब पूर्व में बताई गई सभी गुफाएँ विशुद्ध हो जाती है, तब ही इस गुफा के तमोगुण का विशुद्ध स्वरूप स्वयंप्रकट होता है I जब तमोगुण विशुद्ध हो जाता है, तब वह योगमार्ग का एक उत्कृष्ट बिंदु ही बन जाता है, और ऐसी दशा का तमोगुण इस समस्त जीव जगत से अनासक्ति का ही मार्ग बन जाता है, जिसके कारण यह तमोगुण प्रत्याहार का अंग ही हो जाता है I इस ब्रह्मरचना में तमोगुण की ऐसी ही वृत्तिहीन दशा के भीतर इस जीव जगत को बसाया गया था, और ऐसा होने के कारण ही, वैदिक वाङ्मय में जीव जगत भी उत्कर्ष पथ का अंग हुआ है I जब अन्य सभी गुफाएं विशुद्ध हो जाती है, तब यदि साधक इस तमोगुण गुफा पर साधना करेगा, तो वह साधक सीधा-सीधा शून्य समाधि को पा जाएगा और योगमार्ग में यही इस गुफा की विशेषता भी है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… तमोगुण की वृत्तिहीन दशा से अन्य दोनों गुणों सहित, निर्गुण निराकार ब्रह्म के पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार मार्ग भी निकलता है I इसी दशा के मार्ग में गुण ब्रह्म और गुणातीत ब्रह्म का साक्षात्कार भी हो सकता है, और इसी मार्ग में आगे चलकर, वह साक्षात्कार होता है जिससे उस योगी को गुणात्मा भी कहा जा सकता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यदि इस गुफा में प्रवेश से पूर्व, अन्य सभी गुफाओं का शुद्धिकरण नहीं हुआ है, तो यही गुफा का तमोगुण साधक के योगमार्ग के विकृत होने का और कुछ सीमा तक स्थम्बित होने के कारण भी बन जायेगा I ऐसा इसलिए है क्यूंकि तमोगुण की विशेषता ही स्थम्बित करना है I इसीलिए, इस गुफा में प्रवेश से पूर्व साधक को इस समस्त जीव जगत से अनासक्ति में ही रहना होगा, और ऐसा तबतक रहना होगा, जबतक या तो वह इस गुफा में रहेगा या इस गुफा से संबंधित मार्ग पर रहेगा I यही कारण है कि यह गुफा, उत्कर्ष और अपकर्ष, दोनों ही मार्गों का अंग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… तमस के दो प्रधान स्वरूप होते हैं I एक जो उत्कर्ष पथ का है, और दूसरा जो अपकर्ष पथ को लेकर जाता है, और यह दोनों ही स्वरूप प्रबल होते हैं I उत्कर्ष पथ का स्वरूप शून्य साक्षात्कार की ओर लेकर जाता है, और अपकर्ष का स्वरूप जीव जगत के सदैव परिवर्तनशील और द्वैतवादी स्वरूप में ही स्थापित कर देता है, जिससे साधक विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) में ही चला जाएगा और ऐसा होने पर उस साधक का उत्कर्ष पथ ही स्थम्बित सा हो जाता है I उत्कर्ष का स्वरूप तब प्राप्त होगा जब इस गुफा से पूर्व की जो भी गुफाएँ थी, उनका शुद्धिकरण हो चुका होगा, जिसके कारण इस गुफा का शुद्धिकरण भी स्वतः ही हो चुका होगा… और अपकर्ष का स्वरूप तब प्राप्त होगा, जब ऐसा नहीं हुआ होगा I उस उत्कर्ष स्वरूप में यह तमोगुण ही शून्य समाधि और असंप्रज्ञात समाधी का मार्ग बन जाता है I यह उत्कर्ष मार्ग, संस्कार रहित चित्त नामक प्राप्ति का भी मार्ग होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

तमोगुण का सर्वदिशात्मक स्वरूप, … गुणों के दृष्टिकोण से ब्रह्मरचना का स्वरूप, गुणों के दृष्टिकोण से जीव जगत का स्वरूप, अपने मूल से ब्रह्मरचना सत्त्वगुणी है, अपनी स्थिति से ब्रह्मरचना तमोगुणी है, अपनी गति से ब्रह्मरचना रजोगुणी है, अपनी वास्तविकता से ब्रह्मरचना ही ब्रह्म है, …

सनातन गुरुदेव बोले… तमोगुण के भीतर ही ये जीव जगत बसाया गया है, इसलिए इसी गुण के भीतर बसकर ब्रह्माण्ड तंत्र भी जाना जा सकता है I यही कारण है, कि हृदयाकाश गर्भ की इस तमोगुण गुफा के भीतर से सभी गुफाओं के प्रकाश आदि का अध्ययन भी करा जा सकता है I अन्य सभी गुफाओं का परिणामी प्रकाश रूप इस गुफा के भीतर भी दिखाई देता है और जब यह परिणामी प्रकाश इस गुफा के तमोगुण में आता है, तब इसी तमोगुण में कुछ हलचल भी दिखाई देती है I इसी गुफा के नीले प्रकाश से जब रजोगुण के लाल प्रकाश का योग होता है, तब ब्रह्माण्ड के भीतर के बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का प्रादुर्भाव हो जाता है I जब रजोगुण का प्रकाश इस तमोगुण गुफा के भीतर आता है, तब तमोगुण में थोड़ी हलचल होती है और इससे दिशा आयाम का प्रादुर्भाव होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसी दशा में तमोगुण सभी दिशाओं में चलित होने लगता है और अंततः अपने सर्वदिशात्मक स्वरूप को पा जाता है I और यही कारण है, कि साधक चाहे किसी भी उत्कर्ष मार्ग पर हो, उस उत्कर्ष मार्ग की दिशा का नाता, किसी न किसी रूप में ही सही, लेकिन तमोगुण से होगा ही I जो सर्वदिशात्मक होता है, वही अंततः सर्वदशात्मक भी होगा, और ऐसा इसलिए है क्यूंकि दिशा आयाम से ही दशा आयाम का प्रादुर्भाव हुआ था I इसी कारण से, इस समस्त ब्रह्माण्ड में तमोगुण सर्वदशात्मक भी है I तमोगुण की इसी सर्वदशात्मक स्थिति के भीतर ही पञ्च महाभूत सहित, समस्त जीव जगत बनाया गया है I इसलिए ऐसा bi कहा जाता है कि यह जीव जगत तमोगुण के भीतर ही बसाया गया है, और यह साक्षात्कार भीतब होगा, जब साधक गुणों पर साधना करेगा I इसलिए यह तमोगुण भी आत्ममार्ग का अंग ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि गुणों के दृष्टिकोण से सबकुछ तमोगुण के भीतर ही बसाया गया है, इसलिए यह जीव जगत स्वरूप की ब्रह्मरचना भी अपनी गुणात्मक स्थिति से तमोगुणी ही है I और इसके साथ साथ, क्यूंकि सत्त्वगुण ही वह गुण था, जिसका प्रादुर्भाव का स्वरूप प्रकृति का वह नवम कोष था, जो ब्रह्मरचना में प्रथम कोश भी था, इसलिए जीव जगत स्वरूप की ब्रह्मरचना भी अपने गुणात्मक मूल से सत्त्वगुणी ही है I और इसके भी साथ साथ, क्यूंकि रजोगुण ही इस ब्रह्मरचना को गति प्रदान करता है, इसलिए जीव जगत स्वरूप की ब्रह्मरचना भी अपनी गुणात्मक गति से रजोगुणी ही है I यही तीनों गुण ब्रह्मरचना के संपूर्ण स्वरूप को दर्शाते हैं, जिसमें गति, स्थिति और मूल स्वरूप होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और क्यूँकि गुण भी ब्रह्म की गुणात्मक अभिव्यक्ति, ब्रह्म ही हैं, और क्यूंकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक भी कभी नहीं हुई है, इसलिए यही ब्रह्मरचना के गुणात्मक गंतव्य से, यह समस्त जीव जगत रूपी ब्रह्मरचना भी ब्रह्म ही है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

तमोगुण गुफा का शब्द, तमोगुण गुफा का नाद, तमस गुफा का शब्द, तमस गुफा का नाद, हम् और अहम् का नाता, हम् नाद और अहम् नाद, ब्रह्मनाद और वुशुद्ध अहम् का नाता, ब्रह्मनाद क्या है?, विशुद्ध अहम् क्या है?, विशुद्ध अहम् का शब्द, अहम् नाद क्या है, …

सनातन गुरुदेव बोले… पूर्व में बताई गई हलचल से, तमोगुण की प्राथमिक कम्पन प्रकट होती है I यह कम्पन, शब्द रूप में ही प्रकट होती है और यह शब्द हम् का ही है I यही हम् का शब्द ब्रह्मनाद कहलाया गया है, इसलिए जो हम् शाद योगमार्गों में बताया गया है, वह तमोगुण का शब्द ही है, और योगमार्ग में इसी शब्द को भ्रामरी प्राणायाम के स्वरूप में अपनाया गया था I जब तमोगुण में यह शब्द प्रकट हुआ था, तो यही शब्द ब्रह्मरचना के जीव जगत स्वरूप में प्रारम्भ होने का भी द्योतक हुआ था, इसलिए यह हम् का शब्द, ब्रह्मरचना के जीव जगत स्वरूप की प्रारंभिक दशा को ही दर्शाता है I और जब तमोगुण के इसी हम् के शब्द में जब ब्रह्म चेतना का प्राकट्य होता है, तो यही हम् का शब्द अहम् स्वरूप में साक्षात्कार हो जाता है I इसका अर्थ हुआ जब तमोगुण ब्रह्म चेतना से युक्त हो जाता है, तब उसी तमोगुण का शब्द अहम् नाद के स्वरूप में सुनाई देता है I यह अहम् नाद ही तमोगुण के चेतना से युक्त स्वरूप का शब्द है, और इसी अहम् शब्द को, जो अहम् के चेतनमय ज्ञानमय क्रियामय विशुद्ध स्वरूप का द्योतक है, सदाशिव के अघोर मुख में भी सुना जाता है I यह अहम् का शब्द ही ब्रह्माण्डीय अहंकार के विशुद्ध स्वरूप का द्योतक है I जब अहम् विशुद्ध होता है, तब वही अहम् ब्रह्म का द्योतक ही होता है और ऐसा इसलिए है,क्यूंकि विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहा जाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

अहंकार और अभिमान, अहम और अभिमान, कुपित अहंकार ही अभिमान है, विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है, …

सनातन गुरुदेव बोले… कुपित अहम् ही अभिमान है, और विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है, इसलिए अहंकार (या अहम्) और अभिमान में अंतर है… अहंकार की वास्तविकता अहम् से पृथक ही है I परन्तु आजकल तो अहंकार (या अहम्) को ही अभिमान माना जाता है I वास्तव में विशुद्ध अहम् ही वृत्तिहीन अहंकार होता है और ऐसी दशा में अहंकार ही ब्रह्म का द्योतक होता है I उस विशुद्ध अहम् का शब्द अहम होता है, और यह शब्द भी विशुद्ध अहम् की प्राप्ति का मार्ग और द्योतक भी है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब अहम् विशुद्ध होता है, तब वही अहम् परब्रह्म का द्योतक हो जाता है I इसी सत्य का ज्ञान यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि, जिसके अर्थ होता है “मैं ब्रह्म हूँ”, उसमें सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताया गया है I और इस महावाक्य का अहम् शब्द, जो विशुद्ध अहम् (या विशुद्ध मैंपन) को ही दर्शाता है, वह विशुद्ध अहम् का द्योतक ही है I यदि अहम् कोई कुपित दशा होती, तो इसका प्रयोग इस महावाक्य में भी नहीं किया जाता I यजुर्वेद का यह महावाक्य, अहम् साधक के विशुद्ध मैंपन का ही द्योतक है, और जहां वह विशुद्ध मैंपन ही ब्रह्म को दर्शाता है I अहम् विशुद्धि का मार्ग भी ब्रह्माण्ड धारणा ही है, और यही ब्रह्माण्ड धारणा योग के कई सारे मार्गों का मूल भी हुआ है क्यूंकि जबतक धारणा में ही सर्वस्व नहीं आएगा, तबतक अहम् भी संकुचित स्वरूप में ही रह जाएगा I अहम् का संकुचित स्वरूप ही उसके गर्त की ओर जाने वाले स्वरूप को दर्शाता है I और उसी अहम् का सर्वव्यापक स्वरूप, जिसमें समस्त जीव जगत आता है, और जिसका नाता ब्रह्माण्ड धारणा नामक दशा से भी है, वह उस व्यापक पूर्ण ब्रह्म का ही द्योतक है I ऐसा होने के कारण, अहम् अपने विशुद्ध स्वरूप में ब्रह्मपथ का ही अंग है, और अहम् से चलित हुए इस ब्रह्मपथ का गंतव्य ही यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि में सूक्ष्म सांकेतिक स्वरूप में ही सही, लेकिन दर्शाया गया है I

सनातन गुरुदेव बोले… इसलिए योगमार्ग में जैसा होता है, अब उसको बताता हूँ…

अभिमान गर्त की ओर जाने वाला मार्ग ही है I

अहम् के संकुचित स्वरूप को ही अभिमान कहते हैं I

अहम् का विशुद्ध स्वरूप मुक्ति की ओर जाने वाला मार्ग है I

अहम् के सर्वव्यापक सार्वभौम स्वरूप को ही विशुद्ध अहम् कहा गया है I

विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं और अहम् विशुद्धि के मार्ग को ब्रह्मपथ I

जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होता, तबतक ब्रह्मपथ भी प्रशस्त नहीं हो पाएगा I

साधक के ब्रह्मपथ नामक उत्कर्ष गति की मूलावस्था में भी विशुद्ध अहंकार ही है I

अहम् विशुद्धि की योग प्रक्रिया से ही, ब्रह्मपथ प्रशस्त होने का मार्ग निकलता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

अहम् विशुद्धि ही योगमार्गों की एकमात्र मूलप्रक्रिया रही है I

योगमार्ग के साक्षात्कारों के मूल में, अहम् का योगदान अतुल्य ही है I

जिस योगी का अहम् पूर्णतः विशुद्ध हो गया, वह योगी ब्रह्म ही हो गया I

अहम् विशुद्धि से ही चित्त निरोध, बुद्ध निष्कलंक, और मन ब्रह्मलीन होता है I

इसके पश्चात ही साधक के प्राण ब्रह्मरंध्र पार करते हैं, और अंततः, विसर्गी होते हैं I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए…

अहम् ही योगमार्ग में साक्षात्कारों का कारण और कारक भी होता है I

जो कहते हैं, कि अहम् को त्याग दो, वह सब योमार्गों के ज्ञाता नहीं हैं I

जब साधक का अहम् ही नहीं रहेगा, तो वह साधक साक्षात्कार कैसे करेगा I

अहम् को त्यागा नहीं जाता, बल्कि शांतचित्त होकर उसको विशुद्ध करा जाता है I

अहम् को त्यागके योगमार्गों में न तो कोई सिद्धि होगी न ही कोई साक्षात्कार I

अहम् विशुद्धि प्रक्रिया ही योगमार्ग पर प्रगति का कारण और कारक, दोनों होती है I

विशुद्ध अहम् नामक सिद्धि भी तब प्राप्त होती है, जब अहम् व्यापक हो जाता है I

वह सर्वव्यापक सार्वभौम अनंत अहम् जो ब्रह्म का द्योतक है, विशुद्ध कहलाया है I

वह विशुद्ध अहम् जो ब्रह्म है, उससे मुक्तिमार्ग और मुक्ति  दोनों प्रशस्त होते हैं I

वह विशुद्ध अहम् जो ब्रह्म है, उससे योगमार्ग और योग सिद्धि  दोनों प्रशस्त हैं I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए अब ध्यान दो…

योगी को अपना अभिमान त्यागना चाहिए I

योगी को अपना अहम् त्यागना नहीं चाहिए I

अहम् ही योगमार्ग का मूल वाहन और वाहक है I

योगी को शांतचित्त होकर, अहम् विशुद्ध करना चाहिए I

अहम् विशुद्धि का मार्ग भी ब्रह्माण्ड धारणा का ही होता है I

अहम् विशुद्धि नामक सिद्धि को ही ब्रह्माण्ड योग कहा जाता है I

जो ब्रह्माण्डीय अहम् ही हो गया, वही ब्रह्माण्ड का योगी भी हुआ होगा I

ऐसा योगी महाब्रह्माण्ड योग के देवता, भारत ब्रह्म के स्वरूप को भी पाता है I

यही पिण्ड ब्रह्माण्ड योग कहलाता है, जिसके गंतव्य में महाब्रह्माण्ड योग होता है I

ऐसे योगी की देवत्व सिद्धि को ही पञ्च विद्या में, भारती सरस्वती कहा गया है I

ऐसा योगी यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे सहित, यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे का स्वरूप भी है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस महाब्रह्माण्ड योग में योगी…

योगी ही ब्रह्म है और ब्राह्मण की समस्त अभिव्यक्ति भी है I

इसी को ब्रह्म और ब्रह्म अभिव्यक्ति का योग भी कहा जाता है I

जो अभिव्यक्ता ब्रह्म और उनकी अभिव्यक्ति, दोनों ही है, वही पूर्ण है I

ऐसी परिपूर्णता को इस मार्ग का योगी, उसके अपने आत्मस्वरूप में पाता है I

और इस योगमार्ग के मूल में भी वह विशुद्ध अहम् है, जो पूर्णब्रह्म कहलाता है I

यदि साधक अहम् को ही त्याग देगा, तो उस गंतव्य पूर्णब्रह्म को प्राप्त कैसे होगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

विशुद्ध अहम् का नाता अघोर ब्रह्म से है I

निष्कलंक बुद्धि का नाता सद्योजात ब्रह्म से है I

संस्कार रहित चित्त का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से ही है I

पूर्ण स्थिर, ब्रह्मलीन मन का नाता वामदेव ब्रह्म से है I

अहम् विशुद्धि से बुद्धि निष्कलंक, चित्त संस्कार रहित और मन ब्रह्मलीन होगा I

जब मन, बुद्धि, चित्त और अहम् की ऐसी दशा आएगी, तब प्राण विसर्गी हों जाएंगे I

मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण की ऐसी दशा में, ब्रह्मपथ पूर्णरूपेण प्रशस्त होगा I

इसलिए, अहम् जो योगमार्गों का मूल ही है, उसको त्यागो नहीं बल्कि विशुद्ध करो I

अपने अभिमान को पूर्णरूपेण त्यागकर, अहम् सुरक्षित रखकर उसको विशुद्धि करो I

इस गुरूवाणी को नन्हें विद्यार्थी समझ तो गया, किन्तु उसको अभी भी संदेह था, इसलिए उसने अपने गुरुदेव से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि जो आज कहते हैं, अपने अहंकार को त्यागो, क्या वह योगमार्ग से ही अनभिज्ञ हैं? I उनमें से तो कुछ ने बहुत बड़ी उपदियाँ भी धारण कर रखी है, इसलिए भी आपसे यह प्रश्न किया है I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… पूर्ण ज्ञानी वैदिक मनीषियों ने अहम् के त्याग को कभी नहीं कहा था, क्यूंकि उनको अब तक बताए गए बिंदुओं का ज्ञान था ही I योग मार्ग के सिद्धों ने भी ऐसा कभी नहीं कहा था I केवल अभिमान को त्यागा जाता है, न की अहम् को I श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्री कृष्ण ने, उनके अपने लिए अहम् शब्द का कई बार प्रयोग किया था, तो क्या वह असत्य मार्ग को बता रहे थे? I यजुर्वेद का महावाक्य जो अहम् ब्रह्मास्मि है, क्या वह असत्यता को दर्शाता है? I इसलिए, जो भी कहते हैं कि अहम् को त्यागो, वह सब के सब मूर्ख ही हैं I सिद्धों और ऋषिगणों आदि ने तो अभिमान त्याग की बात करी थी, न ही अहम् के त्याग की I अब ध्यान दो…

यह ब्रह्मरचना, ब्रह्म का विशुद्ध अहम् रूप है I

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म का विश्वरूप कहलाया गया है I

विशुद्ध अहम् को धारण करके ही ब्रह्म, रचैता हुआ है I

ब्रह्मरचना का अंग जीव जगत सहित, वह मुक्तिमार्ग भी हैं I

अहम् को त्यागके तो तुम्हारे लिए कोई मुक्तिमार्ग ही नहीं होगा I

और उन मुक्तिमार्गों के आभाव में, तुम मुक्ति को कैसे प्राप्त होगे I

जबतक अहम् है, तबतक ही योगमार्ग में कोई साक्षात्कार संभव होता है I

जीव जगत में कोई मुक्तिमार्ग ही नहीं, जो इस साक्षात्कार मार्ग से पृथक हो I

यदि अहम् ही त्यागोगे, तो जीव जगत से अतीत जाते हुए मार्ग पर कैसे जाओगे I

इसलिए, अपना अभिमान त्यागो और अपने अहम् को सुरक्षित रखकर, विशुद्ध करो I

 

सनातन गुरु आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान दो…

विशुद्ध अहम् ही वह अहमाकाश होता है, जो ब्रह्म कहलाता है I

निष्कलंक बुद्धि ही वह ज्ञानाकाश होती है, जो ब्रह्म कहलाता है I

संस्कार रहित चित्त ही वह चिदाकाश होता है, जो ब्रह्म कहलाता है I

पूर्णस्थिर ब्रह्मलीन मन ही वह मनाकाश होता है, जो ब्रह्म कहलाता है I

विसर्ग को प्राप्त हुआ प्राण ही वह प्राणाकाश होता है, जो ब्रह्म कहलाता है I

अहमाकाश, ज्ञानाकाश, चिदाकाश, मनाकाश, प्राणाकाश का योग ही सर्वाकाश है I

सर्वाकाश ही रचैता ब्रह्म और उनकी ब्रह्मरचना का योग, पूर्णब्रह्म कहलाता है I

उन पूर्ण ब्रह्म जो जाता हुआ मुक्तिमार्ग भी, विशुद्ध अहम् से ही प्रारम्भ होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

ब्रह्माण्ड में तमोगुण का विस्तार, ब्रह्माण्ड में तमोगुण के शब्द का विस्तार, ब्रह्माण्ड में तमोगुण की व्यापकता, ब्रह्माण्ड में तमोगुण के शब्द की व्यापकता, …

सनातन गुरुदेव बोले…अब हम अपने पूर्व के बिंदु पर लौटते हैं, जो उस दशा का था, जिसमें तमोगुण में प्रकाश आया था, और उसमें हलचल प्रारंभ हुई थी I प्रकाश के आने के पश्चात, वह तमोगुण जो इससे पूर्व में एक संकुचित दशा में था, वह उस रचित होते हुए ब्रह्माण्ड और उस ब्रह्माण्ड की दशा में एक नील वर्ण के मेघ के समान फैलने लगा I जैसे-जैसे तमोगुण फैलता गया, वैसे-वैसे वह व्यापक भी हुआ और सूक्ष्म भी हो गया I और उस तमोगुण के साथ, उसका शब्द जो हम था, वह भी व्याप्त हो गया I और उसी फैले हुए तमोगुण के भीतर, जीव जगत की रचना होने लगी, जिसके कारण जीव जगत उसी तमोगुण में बसा हुआ सा दिखने लगा I इसलिए भी ब्रह्माण्ड के भीतर बसकर जब तमोगुण साधना करी जाती है, तो वह साधना भी व्यापकता नामक सिद्धि की ओर ही लेकर जाती है, और ऐसा तब भी पाया जाएगा जब अपनी वास्तविकता में तमोगुण एक संकुचित दशा ही है I और यह भी वह कारण है, कि तमोगुण का शब्द जो अहम् था, वह वही व्यापक हुआ था और ऐसा होने के कारण ही उस शब्द के नाद रूप को ब्रह्मनाद कहा गया था I ऐसा कहने का कारण यह भी है, कि व्यापक को ब्रह्म ही कहते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

तमोगुण के भीतर ब्रह्माण्ड का उदय, तमोगुण से ब्रह्माण्डोदय का ज्ञान, … आकाश महाभूत के भीतर ब्रह्माण्ड का उदय, आकाश महाभूत से ब्रह्माण्डोदय का ज्ञान, …

सनातन गुरुदेव आगे बोले… तमोगुण के भीतर ही रजोगुण बसा होता है, क्यूंकि रजोगुण उस तमोगुण को भेदता भी है I तमोगुण चालित होने में, उस तमोगुण को भेदते हुए रजोगुण का प्रभाव भी होता ही है I इस दशा जब तमोगुण फैलने लगता है, तो वह अपनी पूर्व दशा की तुलना में, सापेक्ष सूक्ष्मता को भी पाता है I ऐसी दशा में जब नीले वर्ण के तमोगुण के भीतर बसा हुआ लाल वर्ण का रजोगुण, तमोगुण से ही योग करता है, तो इस योग से बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का उदय होता है I यही कारण है कि उस उदय होते हुए ब्रह्माण्ड के भीतर, तमोगुण और रजोगुण की योगदशा ही आकाश महाभूत के उदय का कारण बनती है I आकाश महाभूत भी तमोगुण के समान फैलने लगता है I और क्यूँकि आकाश महाभूत में तमोगुण और रजोगुण के योग ही होता है और ब्रह्माण्डोदय के समय पर, इस योग में वह आकाश महाभूत पर रजोगुण का प्रभाव भी तमोगुण से थोड़ा अधिक होता है, इसलिए आकाश के फैलने की गति, तमोगुण से थोड़ी अधिक ही होती है, जिससे एक दशा ऐसी भी आती है, जिसमें आकाश के भीतर ही वह तमोगुण पाया जाने लगता है I और इन सभी दशाओं को भेदता हुआ सत्त्वगुण होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब लाल वर्ण के रजोगुण का योग, श्वेत वर्ण के समता को धारण किए हुए सत्त्वगुण से होता है, तब हलके गुलाबी वर्ण के अव्यक्त प्राण का उदय होता है I और जब बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का योग, श्वेत वर्ण के सत्त्वगुणी चित्त से होता है, तो हलके नीले वर्ण के वायु महाभूत का उदय होता है I इसलिए वायु महाभूत प्रधानतः आकाश महाभूत और सत्त्वगुणी चित्त का योग है I जब पीले वर्ण की बुद्धि का योग बैंगनी वर्ण के आकाश से होता है, तब हरे वर्ण जल महाभूत का उदय होता है I इसलिए जल महाभूत प्रधानतः आकाश और बुद्धि का योग है I जब बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत में लाल वर्ण के रजोगुण की अधिकता होती है, तब उस आकाश में घर्षण प्रकट होता है, जिससे सप्तरंगी अग्नि महाभूत का उदय होता है, और जो सप्तरंगी होता हुआ भी, मूलतः लाल वर्ण का ही होता है I और जब इन सबका योग आकाश के भीतर होता है, और उस योग में पीले वर्ण की बुद्धि की कुछ अधिकता रहती है, तब मटमैले पीले वर्ण के पृथ्वी महाभूत का प्रादुर्भाव होता है I

सनातन गुरुदेव बोले… नीले वर्ण के तमोगुण से ही मन का उदय होता है और लाल वर्ण के रजोगुण से मन चलित दशा को पाता है, और इन दोनों के साथ साथ, श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण में ही मन बसा रहता है I मन में जब ब्रह्म चेतना आती है, तो उस मन का नाद, अहम् सा ही प्रतीत होता है I अहम् नाद को, ज्ञान, चेतन और क्रिया स्वरूप ब्रह्म चेतना और तम रूपी प्रकृति का योग भी कहा जा सकता है और यह योग भी मन के भीतर ही होता है, क्यूंकि मन ही इस समस्त ब्रह्मरचना में सर्वोत्कृस्ट योग मध्यम है I जब तमोगुण ब्रह्म चेतना से युक्त, रजोगुण से संयुक्त, और सत्त्वगुण से प्रफुल्लित हुआ होता है, तब ही वह मन कहलाता है I और आगे चलकर जब वही मन आकाश महाभूत में व्यापक होता है, तब ही मन योगमार्गों का सर्वोत्कृष्ट माध्यम भी बन पाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब मन में रजोगुण प्रधान होता है, तब उसकी दशा को ही अहम् अस्मि कहा जाता है I जब तमोगुणी मन में रजोगुण और सत्त्वगुण दोनों ही समान रूप में होते हैं, और इनके साथ बुद्धि भी उस मन का साथ देती है, तब उसकी दशा को अहम् ब्रह्मास्मि भी कहा जाता है I और जब वही मन त्रिगुणों सहित, समस्त ब्रह्मरचना में ही व्यापक ब्रह्मरूप में प्रतिष्ठित होता है, तब उस मन की दशा को सोऽहं शब्द से बताया जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसी दशा में वह उदय होता हुआ ब्रह्माण्ड व्यापक होता जाता है, और उसका आकार भी तबतक बड़ा होता जाता है, जबतक उसको रजोगुण धकेलता रहता है I और जब तमोगुण और रजोगुण का प्रभाव समान हो जाता है, तब ब्रह्माण्ड का आकार भी स्थिर होता है I और इसके अतिरिक्त, अंततः जब तमोगुण का प्रभाव बढ़ने लगता है, तो ब्रह्माण्ड का आकार छोटा भी होने लगता है I इसलिए इन्हीं तीनों गुणों के प्रभाव से ब्रह्माण्ड का उदय, फैलाव, घटाव और अंततः जब तमोगुण इतना प्रभावी हो जाता है, कि रजोगुण कुछ कर ही नहीं पाता, तो ब्रह्माण्ड छोटा होता-होता, लुप्त ही हो जाता है I और जिस दशा में वह ब्रह्माण्ड लुप्त होता है, वह उस शून्य ब्रह्म की ही है, जो श्रीमन नारायण कहलाया जाता है I उन शून्य ब्रह्म में वह महाप्रलय को पाया हुआ ब्रह्माण्ड तबतक विश्राम करता, जबतक उसके पुनः उदय का समय नहीं आता I और उसके पुनः उदय के समय पर, उसको एक और ब्रह्मा धारण करके, उसको उदयावस्था में लेकर आते हैं I जब पूर्व कालों में महाप्रलय को पाए हुए ब्रह्माण्ड का पुनः उदय समय आता है, तब वह उसी उत्कर्ष दशा में जाकर, उसी दशा से आगे चलता है, जिसको पूर्व कालों में (अर्थात ब्रह्माण्ड के पूर्वजन्म में) पाने के पश्चात वह महाप्रलय को गया था I इसलिए किसी भी ब्रह्माण्ड का पुनः उदय भी उसी स्थिति में होता है, जिसमे वह ब्रह्माण्ड तब था, जब वह पूर्व कालों में प्रलय की प्रक्रिया में गया था I और जो जीव उस पूर्व कालों के ब्रह्माण्ड में थे और वह ब्रह्माण्ड के साथ उस महाप्रलय में गए थे, और उस महाप्रलय में भी वह मुक्त नहीं हुए थे, उनका पुनः प्रादुर्भाव भी तब होता है, जब उस महाप्रलय की दशा के भीतर से ही ब्रह्माण्ड का पुनः प्रादुर्भाव होता है I और प्रादुर्भाव होकर, वह जीव अपने उत्कर्ष पथ की उसी दशा में जाते हैं, जो तब थी जो वह अपने ब्रह्माण्ड की महाप्रलय के साथ, अपनी महाप्रलय को भी पाए थे I यही कारण है कि कर्म, कर्म फल और उत्कर्ष सिद्धांत अटूट ही चलता रहता है, चाहे ब्रह्माण्ड या उसके जीव ब्रह्माण्ड में रहें, या उसके किसी लोक में आवागमन करते रहें या महाप्रलय को ही जाएं I

इसके पश्चात, सनातन गुरु बोले… इसी विज्ञान के मार्ग से हृदयाकाश की समस्त गुफ़ाओं का उदय भी हुआ था I ऐसा इसलिए है, क्योंकि ब्रह्माण्ड और पिण्डों की दशाओं में भेद होने पर भी, इन सबपर ब्रह्माण्डीय सिद्धांत समान रूप में लागू होते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

ब्रह्माण्ड का स्थिरीकरण, ब्रह्माण्डीय स्थिरीकरण, ब्रह्माण्डीय स्थिरीकरण प्रक्रिया,

सनातन गुरुदेव बोले… ब्रह्माण्ड के उदय में एक ऐसी दशा आती है, जब तमोगुण उसकी उस समय की दशा के अनुसार, और अधिक गति से फैल नहीं सकता, और यहीं से ब्रह्माण्ड के स्थितिकरण का मार्ग निकलता है I लेकिन ऐसा होने पर भी क्यूँकि रजोगुण अपना ऊर्जा क्रियाकलाप तमोगुण के भीतर करता ही रहता है, इसलिए ऐसी स्थिति में तमोगुण उसके भीतर क्रियामय पञ्च प्राणों को आकाश महाभूत में त्यागता है और ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि यदि तमोगुण को स्थिति कृत्य में स्थापित होना है, तो उसके पास इसके सिवा और कोई विकल्प ही नहीं होता I जब ऐसा हो जाता है, तब तमोगुण पुनः कुछ स्थिरता को पाता है जिससे वह पुनः स्थिति कीर्ति का कारक हो जाता है I तमोगुण का फैलाव ही ब्रह्माण्ड के फैलाव का कारण है I और जैसे जैसे प्राणों की प्रकाशमय ऊर्जा तमोगुण से टकराती हैं, वैसे वैसे उन ऊर्जाओं को तमोगुण आकाश महाभूत में भेजता रहता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और आकाश महाभूत के भीतर भी एक दशा ऐसी आती है जिसमें आकाश में भी ऊर्जाओं की अधिकता हो जाती है, और अंततः वह दशा आ जाती है, जिसमें उस समय की दशा से अधिक ऊर्जा आकाश में समा ही नहीं पाएगी और यदि समा गई, तो आकाश ही उस उदय होते हुए ब्रह्माण्ड में विप्लव मचा देगा I ऐसी दशा में जो ऊर्जाएं आकाश के भीतर अभी भी आ रही होती हैं, वह पृथक पृथक स्थल जो आकाश के भीतर ही होते हैं, उनमें इकट्ठा होने लगती हैं I जैसे-जैसे वह इकट्ठी होने लगती हैं, वैसे-वैसे वह अपनी उस संगठीत दशा में आने लगती हैं, जिससे उनके भीतर से ही पञ्च महाभूतों का उदय होने लगता है और जहाँ यह उदय भी उस क्रम में ही होता है, जिसमें आकाश से वायु का उदय होता है, और इसके पश्चात ही अग्नि, जल और पृथ्वी का उदय भी इसी क्रम में ही होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस प्रक्रिया में, वह पूर्व की दशा जो शब्द नामक ऊर्जा की थी, वह प्रकट होती है I शब्द तब प्रकट हुआ था जब तमोगुण को रजोगुण आदि की प्रकाशमान ऊर्जाओं ने ठेलना प्रारम्भ किया था, और जहां वह शब्द जो प्रकट हुए थे, उनका नाता आकाश महाभूत से ही था I ऐसा होने पर, तमोगुण उन ऊर्जाओं के अतिरिक्त भाग को आकाश महाभूत की ओर भेजने लगा था I इसके पश्चात ऐसी दशा आती है जिसमें आकाश महाभूत में भी उन ऊर्जाओं की अधिकता आ गई थी I जब ऐसा होने लगा तब आकाश महाभूत के भीतर ही वह प्राणमय ऊर्जाएँ पृथक-पृथक स्थानों पर इकट्ठा होने लगी थी I और स्वयं को इन ऊर्जाओं के विप्लव से बचने के लिए आकाश इन प्राणमय ऊर्जाओं को अपने भीतर ही, पृथक स्थानों पर एकत्रिक करने लगता है I और आकाश के भीतर ही उन एकत्रित हुई ऊर्जाओं से ही अन्य चार महाभूतों का उदय होता है, और जहां इस उदय का क्रम भी वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जल महाभूत और पृथ्वी महाभूत, ऐसा ही होता है I महाभूतों का उदय केवल इसलिए हुआ था, ताकि तमोगुण और आकाश,दोनों में उर्जाओं ऊर्जाओं की अधिकता से अस्थिरता न आ जाए I स्वयं को अस्थिरता से बचने हेतु ही तमोगुण और आकाश के भीतर अन्य चारों महाभूतों का उदय हुआ था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसी प्रक्रिया से ही हृदयाकाश गर्भ में भी इन सब की सब गुफ़ाओं का भी उदय हुआ था, जिनको हम अभी के समय पर इसी हृदयाकाश गर्भ के भीतर बैठकर देख भी रहे हैं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि ब्रह्मरचना में, दो पृथक दशाओं पर दो पृथक ब्रह्माण्डीय सिद्धांत और तंत्र, कभी लागू हुए ही नहीं I जबतक ब्रह्मरचना के समस्त सिद्धांत और तंत्र ही समान रूप में सभी ब्रह्माण्डीय दशाओं पर लागू नहीं होते, तबतक उन पृथक सी दिखाई देती हुई दशाओं में एकवाद भी स्थापित नहीं होता, और यह भी वह कारण है, कि ब्रह्माण्ड अपने पृथक भागों से बहुवादी सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में उन अद्वैत को ही दर्शाता है, जो ब्रह्म कहलाए गए हैं I यदि इस ब्रह्माण्डीय बहुवाद में अद्वैत का आभाव हो जाए, तो यही ब्रह्माण्ड जो वास्तव में उत्कर्ष पथ का अंग है, वही अपकर्ष का कारण बन जाएगा I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले… अब हम महाभूतों पर अध्ययन करेंगे I

 

महाभूत गुफा, पञ्च भूत गुफा, पञ्च महाभूत गुफा, …

सनातन गुरुदेव बोले… प्राण ही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा हैं I प्राण ही वह माध्यम हैं जिनसे महाभूतों का उदय होता है I

प्राणों के संगठित स्थूल स्वरूप को महाभूत और उनका धातु स्वरूप कहते हैं I

महाभूतों और उनके धातु रूपों के वास्तविक सूक्ष्म स्वरूप का नाम प्राण है I

महाभूतों और उनके धातु स्वरूपों के मूल में भी यही प्राण नामक ऊर्जा है I

प्राण नामक ऊर्जा, महाभूत और उनके धातु स्वरूप अंतरपरिवर्तनीय हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… महाभूतों के उदय से लेकर, उनके फैलाव तक और इससे भी आगे उनके प्रकाट्य स्वरूप तक, इस प्राण नामक ऊर्जा का योगदान होता ही है I और इसी से संबंधित कुछ भाग को अब बताया जाएगा I

 

महाभूत गुफा का प्राणों से नाता, आकाश महाभूत गुफा, आकाश महाभूत की गुफा, हृद्याकाश गर्भ की आकाश महाभूत गुफा, … पञ्च महाभूत साधना क्या है, पञ्च भूत साधना क्या है, पञ्च तन्मात्र साधना क्या है, त्रिगुण साधना क्या है, गुण साधना क्या है, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब हम आकाश महाभूत गुफा पर बात करेंगे…

  • व्यान प्राण अपने धनञ्जय उपप्राण के साथ आकाश के भीतर प्रवेश करता है I क्यूँकि व्यान बाहर की ओर गति करता है, इसलिए जब ऐसा होता है, तब आकाश जो तमोगुण के भीतर बसा होता है, वह तमोगुण से भी बाहर की ओर गति करने लगता है I इसी कारण से उदयावस्था से ही ब्रह्माण्ड का आकार बढ़ने लगता है I
  • और क्यूँकि आकाश महाभूत जो बाहर को ओर गति करते हुए व्यान प्राण के प्रभाव में आ जाता है, इसलिए आकाश अपनी पूर्व की स्थिति जो तमोगुण के भीतर की थी, उसको त्यागकर तमोगुण से बाहर निकलकर, तमोगुण को भी घेरने लगता है I और अपने अधिक फैलाव के कारण, क्यूंकि वह आकाश महाभूत सूक्ष्म भी हो जाता है, इसलिए ऐसी दशा में आने के पश्चात, वह आकाश उस तमोगुण को भेदने भी लगता है I क्यूँकि गुणों के दृष्टिकोण से, यह समस्त जीव जगत तमोगुण में ही बसाया गया था, और जिसके कारण यह ब्रह्मरचना तमोमयी ही है, इसलिए जब आकाश महाभूत तमोगुण को घेर लेता है, तब वह समस्त जीव जगत को भी घेरने लगता है जो तमोगुण प्रधान ही है और उसी तमोगुण के भीतर ही बसाया गया है I और आगामी दशा में, जब वह समस्त जीव जगत को ही घेर लेता है, तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे तमोगुण में नहीं, बल्कि आकाश में ही यह समस्त जीव जगत बसा हुआ है I
  • और अंततः ब्रह्माण्ड के भीतर ऐसी दशा आती है, जिसमें वह बैंगनी वर्ण का आकाश ही सर्वव्यापक सा दिखाई देने लगता है I क्यूँकि सर्वव्यापक तो ब्रह्म ही हैं, इसलिए आकाश महाभूत की ब्रह्माण्डीय व्यापकता के कारण ही वैदिक मनीषियों ने आकाश ब्रह्म नामक शब्द कहा था I
  • क्यूंकि शब्द आकाश महाभूत का ही तन्मात्र है, और क्यूंकि आकाश के समस्त जीव जगत में व्यापक होने के कारण, शब्द भी व्यापक सा ही प्रतीत होने लगता है, इसलिए योग और वेद मनीषियों ने शब्द ब्रह्म और नाद ब्रह्म आदि कहा है I
  • जैसे जैसे आकाश ब्रह्माण्ड में व्यापक होता जाता है, वैसे वैसे वह सूक्ष्म भी होता जाता है I और जब वह व्यापक ही हो जाता है, तब वह सबसे सूक्ष्म भी होता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि…

व्यापक ही सूक्ष्म होता है और सूक्ष्म ही व्यापक हो पाता है I

जब व्यापकता सर्वस्व में ही हो जाती है, तब वही व्यापक सर्वसूक्ष्म होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… सूक्ष्म ही अपने से सापेक्ष स्थूल वस्तु के भीतर और बाहर व्यापक होता है,  इसलिए…

आकाश के भीतर ही यह समस्त जीव जगत पूर्णरूपेण बसा हुआ है I

आकाश भी इस जीव जगत के समस्त भागों में समानरूपेण बसा हुआ है I

आकाश सबको उनके भीतर से भेदता है, सब आकाश के प्रभाव में बसे हुए हैं I

पञ्च महाभूत के दृष्टिकोण से आकाश ही ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड ही आकाश I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर ध्यान देना…

जिस आकाश परिधान के भीतर जीव जगत बसा हुआ है, वह महाकाश कहलाता है I

जो आकाश जीवों और जगत के समस्त भागों के भीतर बसा है, वह घटाकाश है I

घटाकाश और महाकाश के शब्दों में पृथकता होने पर भी, यह वही आकाश हैं I

आकाश महाभूत के दृष्टिकोण से, वह ही घटाकाश है और वही महाकाश है I

घटाकाश और महाकाश की सनातन एकरूपता का ज्ञान मुक्तिपथ है I

घटाकाश और महाकाश की एकरूपता का साक्षात्कार, मुक्ति ही है I

पञ्च महाभूत सहित, आकाश साधना भी मुक्तिकारक ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • क्यूंकि ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से आकाश ही सर्वव्यापक है और सर्वस्थापित भी है, अर्थात जाव जगत के भीतर और बाहर दोनों अवस्थाओं में पूर्णरूपेण और समानरूपेण बसा हुआ है, इसलिए इस कलियुग से थोड़ा पूर्व से लेकर आए कुछ मार्गों ने आकाश को महाभूत ही नहीं माना है I और यही कारण है कि ऐसा मार्ग केवल चार महाभूतों (अर्थात वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी महाभूत) को ही मानते हैं I किन्तु यह सत्य नहीं है, क्यूंकि गुणों के दृष्टिकोण से, आकाश वह महाभूत ही है जिसका उदय रजोगुण और तमोगुण की समानता में हुए योग से ही होता है और जो महाभूतों में सर्वप्रथम ही हुआ था I
  • आकाश से ही अन्य चार महाभूतों का उदय होता है, और जिनके क्रम, वायु महाभूत, अग्नि महाभूत, जलम महाभूत और पृथ्वी महाभूत है I
  • पञ्च महाभूतों की सापेक्ष सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से जो क्रम आता है, वह ऐसा होता है… आकाश, वायु, अग्नि (या प्रकाश या तैजस), जल और पृथ्वी I
  • महाभूतों की सापेक्ष सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, आकाश सबसे सूक्ष्म है और पृथ्वी सबसे स्थूल महाभूत ही है I पृथ्वी से सूक्ष्म जल है, जल से सूक्ष्म अग्नि है, अग्नि से सूक्ष्म वायु है, और इन सबसे सूक्ष्म आकाश है I और यही क्रम से इनका उदय भी होता है I

 

  • सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि सूक्ष्म अपने से स्थूल के भीतर ही निवास करता है, इसलिए…

पृथ्वी महाभूत के भीतर ही अन्य चारों महाभूत बसे हुए होते हैं I

जल के भीतर अग्नि, वायु और आकाश महाभूत बसे हुए हैं I

अग्नि के भीतर वायु और आकाश महाभूत बसे हुए हैं I

वायु के भीतर, आकाश महाभूत बसा हुआ है I

आकाश सबको अपने भीतर भी बसाया है I

आकाश स्वयं के भीतर ही बसा हुआ है I

यह महाभूत साधना का मुक्तिमार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए, पञ्च महाभूतों और उनसे रचित इस ब्रह्मरचना के दृष्टिकोण से…

स्वयं ही स्वयं में के वाक्य का मार्ग, आकाश महाभूत से ही संबंधित है I

यही कारण है, कि यह ग्रंथ भी आकाश महाभूत से ही संबंध रखता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… त्रिगुण और पञ्च महाभूत साधनाओं में…

पृथ्वी नामक महाभूत पर साधना, जल महाभूत की ओर ही लेकर जाती है I

जल महाभूत पर साधना, अग्नि महाभूत की ओर ही लेकर जाती है I

अग्नि महाभूत साधना, वायु महाभूत की ओर ही लेकर जाती है I

वायु महाभूत साधना, आकाश महाभूत की ओर लेकर जाएगी I

आकाश महाभूत साधना, तमोगुण की ओर लेकर जाती है I

तमोगुण पर साधना, रजोगुण की ओर लेकर जाती है I

रजोगुण साधना, सत्त्वगुण की ओर लेकर जाती है I

गुण और महाभूत साधना गंतव्य, सत्त्वगुण है I

यही गुण और महाभूत साधना क्रम भी है I

यह क्रम, गुण और महाभूत साधना से जाता हुआ मुक्तिमार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए, त्रिगुणों और पञ्च महाभूतों और उनसे रचित इस ब्रह्मरचना के दृष्टिकोण से…

स्वयं ही स्वयं में के वाक्य का मार्ग, मूलतः सत्त्वगुण से ही संबंधित है I

यही कारण है, कि यह ग्रंथ भी मूलतः सत्त्वगुण से ही संबंध रखता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • क्यूंकि जल के भीतर ही अग्नि होती है, इसलिए जब जलप्रलय अपने वेग से आती है, जब जो उस जलप्रलय के वेग में जाकर मृत्यूलाभ करते हैं, उनके शरीरों पर अग्नि प्रकोप भी दिखाई देता है I
  • ब्रह्माण्डीय उदय के समय, क्यूंकि आकाश के भीतर प्राण ऊर्जाओं की अधिकता होती ही है, इसलिए जब प्राण इतने अधिक हो जाते हैं कि आकाश की तात्कालिक प्रबंधन क्षमता ही पार हो जाती है, तब वह अधिक प्राण ऊर्जा आकाश के भीतर ही कुछ स्थानों पर एकत्रित होने लगती है I और प्राणों की ऐसी एकत्रित दशमी दशा में जब प्राण इकट्ठे होकर संकुचित रूप धारण करने लगते हैं, तब यही दशा अन्य चारों महाभूतों के उदय का कारण बनती है I इसलिए महाभूतों के उदयमूल में भी प्राण नामक ऊर्जा ही है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

आकाश महाभूत का तन्मात्र, शब्द है I

वायु महाभूत का तन्मात्र, स्पर्श है I

अग्नि महाभूत का तन्मात्र, रूप है I

जल महाभूत का तन्मात्र, रस है I

भू महाभूत का तन्मात्र, गंध है I

सनातन गुरुदेव बोले… उदयावस्था के अनुसार तन्मात्रों की स्थिति ऐसी होती है…

सर्वप्रथम शब्द तन्मात्र का उदय हुआ था I

शब्द तन्मात्र से स्पर्श तन्मात्र आया था I

स्पर्श तन्मात्र से रूप तन्मात्र आया था I

रूप तन्मात्र से रस तन्मात्र आया था I

रस तन्मात्र से गंध तन्मात्र आया था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूँकि ब्रह्मरचना में उत्कर्ष पथ, उदय पथ से विपरीत होता है, इसलिए तन्मात्र साधना के दृष्टिकोण से…

गंध तन्मात्र पर साधना भी, रस तन्मात्र की ओर ही लेकर जाती है I

रस तन्मात्र पर साधना भी, रूप तन्मात्र की ओर लेकर जाती है I

रूप तन्मात्र पर साधना, स्पर्श तन्मात्र की ओर लेकर जाती है I

स्पर्श तन्मात्र साधना, शब्द तन्मात्र की ओर लेकर जाती है I

और यह क्रम ही तन्मात्र साधना का वास्तविक क्रम है I

यही क्रम तन्मात्र साधना से जाता हुआ मुक्तिमार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए, तन्मात्रों और पञ्च महाभूतों और उनसे रचित इस ब्रह्मरचना के दृष्टिकोण से…

स्वयं ही स्वयं में के वाक्य का मार्ग, शब्द तन्मात्र से ही संबंधित है I

यही कारण है, कि यह ग्रंथ शब्द के ब्रह्मरूप से ही संबंध रखता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… तन्मात्रों के दृष्टिकोण से…

गंध तन्मात्र के भीतर, गंध को भेदते हुए, रस रूप स्पर्श और शब्द बसे हुए हैं I

रस तन्मात्र के भीतर, रस को भेदते हुए, रूप स्पर्श और शब्द बसे हुए हैं I

रूप तन्मात्र के भीतर, रूप को भेदते हुए, स्पर्श और शब्द बसे हुए हैं I

स्पर्श तन्मात्र के भीतर, स्पर्श को भेदता हुआ, शब्द बसा हुआ है I

शब्द तन्मात्र ने ही सबकुछ को भेदा और घेरा भी हुआ है I

इसलिए, यह समस्त जगत मूलतः शब्दमय ही है I

शब्द ब्रह्ममयी होकर ही जीव जगत हुआ है I

वह शब्द ब्रह्म, मुक्तिमार्ग भी हुआ है I

यह ग्रंथ शब्द ब्रह्म को ही दर्शाता है I

सनातन गुरुदेव आए बोले…

  • जो जितना सूक्ष्म होगा, उसका उतना ही विस्तार भी होगा I इसलिए आकाश जो सबसे सूक्ष्म ही है, वही व्याकप महाभूत है I और उसी व्यापक से अन्य चारों महाभूतों का उदय भी होता है I
  • और जो जितना सूक्ष्म होगा, वह उतना ही प्राथमिक भी होगा, क्यूंकि ब्रह्मरचना अपने प्राथमिक सूक्ष्म स्वरूप से स्थूल ही थी I इसलिए आकाश जो सबसे सूक्ष्म महाभूत ही है, वही प्राथमिक महाभूत है I और उसी प्राथमिक आकाश से ही अन्य चारों महाभूतों का उदय हुआ है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • जब आकाश से अन्य चारों महाभूतों का उदय होता है, तब आकाश के भीतर की ऊर्जा ही उन महाभूतों के रूप में परिवर्तित हो जाती है I इसलिए भूतों के मूल में प्राण हैं और प्राण के प्रकट स्वरूप को भी महाभूत कहा जाता है I और यह भी वह कारण है, कि महाभूत और उनके स्थूल पदार्थ स्वरूप अंतरपरिवतर्नीय ही हैं I और इसके अतिरिक्त, महाभूत और प्राण भी अंतरपरिवर्तिनीय हैं I
  • अन्य चारों महाभूत के उदय के समय और इस समय के पश्चात, एक ऐसी दशा भी आती है जिसमें आकाश अपने भीतर की ऊर्जाओं के कुछ अंश को, एक स्थान पर एकठा नहीं कर पाता I और यह अतिरिक्त ऊर्जा ही आकाश के आगे के विस्तार का कारण बन जाती है I इसलिए आकाश के विस्तार के मूल में भी प्राण नामक ऊर्जा ही है I जब आकाश का विस्तार होता है, तब ब्रह्माण्ड का भी होता है, क्यूंकि महाभूतों के दृष्टिकोण से ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरूप को ही आकाश महाभूत कहा जाता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • ब्रह्माण्ड की विघटन (या विलय या मृत्यु) प्रक्रिया, ब्रह्माण्डोदय प्रक्रिया से विपरीत ही होती है I इस विलय या मृत्यु प्रक्रिया में, ब्रह्माण्ड की गति उसकी उदयावस्था प्रक्रिया से विपरीत ही होती है I पञ्च महाभूतों के दृष्टिकोण से इस विलय प्रक्रिया में…

पृथ्वी महाभूत का विलय, जल महाभूत में होता है I

जल महाभूत का विलय, अग्नि महाभूत में ही होता है I

अग्नि महाभूत का विलय, वायु महाभूत में ही हो जाता है I

और वायु महाभूत का विलय, आकाश महाभूत में ही होता है I

इसलिए अंततः, जो शेष रहता है, वह आकाश महाभूत ही होता है I

इसलिए पञ्च महाभूत के दृष्टिकोण से, आकाश ही ब्रह्मरचना हुआ है I

इसलिए, पञ्च महाभूत साधना के दृष्टिकोण से, आकाश महाभूत मुक्तिमार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और यदि ब्रह्माण्ड की इस विघटन या विलय प्रक्रिया का अध्ययन तन्मात्र साधनाओं से करा जाएगा, तो उसका क्रम भी ऐसा ही पाया जाएगा…

गंध तन्मात्र का विलय, रस तन्मात्र में होता है I

रस तन्मात्र का विलय, रूप तन्मात्र में ही होता है I

रूप तन्मात्र का विलय, स्पर्श तन्मात्र में ही होता है I

स्पर्श तन्मात्र का विलय, शब्द तन्मात्र में ही हो जाता है I

इसलिए अंततः, जो शेष रहता है, वह शब्द तन्मात्र ही होता है I

इसलिए, पञ्च तन्मात्रों के दृष्टिकोण से, शब्द ही ब्रह्मरचना हुआ है I

इसलिए, पञ्च तन्मात्र साधना के दृष्टिकोण से, शब्द तन्मात्र ही मुक्तिमार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

यही सब बताए गए क्रमों का आलम्बन लेकर, सूक्ष्म शरीर, और कारण शरीर गमन में भी ब्रह्माण्ड के महाभूतों, तन्मात्रों और गुणों का साक्षात्कार किया जाता है I इसलिए यहाँ बताए गए साध्ना क्रम, केवल स्थूल शरीर का आलम्बन लेकर किए गए साक्षात्कारों तक ही सीमित नहीं हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

पञ्च भूत गुफा का शुद्धिकरण, पञ्च महाभूत गुफा का शुद्धिकरण, पञ्च भूत शुद्धिकरण, पञ्च महाभूत शुद्धिकरण, …

इसके पश्चात उस नन्हें विद्यार्थी ने उसके अपने हृदय के भीतर ही बैठे हुए गुरुदेव से प्रश्न किया… अभी तक हमनें महाभूत गुफा का शुद्धिकरण क्यों नहीं किया है?, और क्या इस शुद्धिकरण को भी करना होता है? I

इसपर सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र की प्रक्रियाओं में पञ्च महाभूतों का शुद्धिकरण नहीं किया जाता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यदि इन महाभूतों का शुद्धिकरण, उस योगाग्नि से करा जाएगा, तो शरीर अपने भीतर से ही खोकला सा हो जाएगा और इसके कारण साधक का देहावसान हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I ऐसी दशा में वह साधक अपना प्रारब्ध भी पूर्ण नहीं कर पायेगा, जिससे ब्रह्माण्डीय उत्कर्ष क्रम में साधक की जो स्थिति आएगी, वह बहुत नीचे की होगी I ऐसी अपकर्ष स्थिति न आए, इसलिए पञ्च महाभूत की गुफा का शुद्धिकरण हृदयाकाश गर्भ तंत्र का अंग ही नहीं हुआ है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसीलिए, इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र के दृष्टिकोण से, उत्कृष्ट मार्ग तो यही है कि इन महाभूतों की गुफा को ऐसा ही छोड़ दिया जाए I और जब साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को सिद्ध करके, इससे आगे की दशाओं में जाएगा और उन आगे की सब दशाओं को अपने साक्षात्कार मार्ग से ही सिद्ध करेगा, और इसके पश्चात जब साधक अपना प्रारब्ध पूर्ण करके मृत्यूलाभ करेगा, तब यह महाभूत जो साधक की काया में भी हैं, अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय हो जाएंगे I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए भी इन महाभूतों की शुद्धिकरण प्रक्रिया, इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र का अंग नहीं हुई है I ऐसा इसलिए भी है, क्यूंकि इस तंत्र को पूरा करते हुए साधक के लिए, चाहे कोई भी ब्रह्माण्डीय या परे की ही सत्ता कुछ भी कर ले, इस तंत्र का सिद्ध मुक्तात्मा हुए बिना रह भी नहीं पाता है I और चाहे इस तंत्र का सिद्ध, अपनी मुक्ति को जीवित होते हुए या देहावसान के पश्चात ही प्राप्त हो, पर वह प्राप्त तो अवश्य ही होगा I इसलिए यह तंत्र, सद्योमुक्ति सहित, जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति का भी उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टम मार्ग है I जो साधक जीवन्मुक्त होकर रहेगा, वह अंततः विदेहमुक्ति को भी पाएगा I और इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र के कुछ उत्कृष्ट सिद्ध साधक तो ऐसा भी हुआ हैं, जिनके देहावसान के कुछ सप्ताह में ही, उनके स्थूल शरीर सीधे सीधे पञ्च महाभूतों में ही विलीन हो गए थे I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए, यदि इस हृदयाकाश गर्भ का आलम्बन लेकर, पञ्च महाभूत गुफा का शुद्धिकरण नामक कर्म करा जाएगा, तो ब्रह्मरचना और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में वह कर्म आत्महत्या के तुल्य ही माना जाएगा I और एक बात, क्यूंकि इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में तमोगुण गुफा से पूर्व की समस्त गुफ़ाओं का शुद्धिकरण करा जा ही चुका है, इसलिए भी इस पञ्च महाभूत की गुफा के शुद्धिकरण की आवश्यकता नहीं है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

वायु महाभूत गुफा का प्राणों से नाता, वायु महाभूत गुफा और प्राण, वायु महाभूत गुफा, वायु महाभूत की गुफा, हृद्याकाश गर्भ की वायु महाभूत गुफा, … वायु महाभूत क्या है, वायु महाभूत किसे कहते हैं, वायु महाभूत का गुण, … प्राणों के दृष्टिकोण से वायु महाभूत का उदय, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब हम वायु महाभूत और उसकी गुफा पर अध्ययन करेंगे I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब उदान प्राण और उसके देवदत्त उपप्राण का योग समान प्राण और उसके कृकल उपप्राण से होता है, और जब इस योगावस्था में यह प्राण उस बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत में किसी स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं I और ऐसी दशा में जब उदान प्राण को व्यान प्राण भी भेदता है, तब आकाश महाभूत के भीतर ही इस योगदशा से हलके नीले वर्ण के वायु महाभूत का उदय होता है I और वह वायु महाभूत, समान प्राण की ओर ही निवास करता है, जिसके कारण उसका निवास स्थान वामदेव ब्रह्म से संबद्ध ही होता है I वायु महाभूत अपने नीचे के सभी महाभूतों को (अर्थात अग्नि महाभूत, जल महाभूत, पृथ्वी महाभूत) को भेदकर, उनके के भीतर बसकर, उनको गति देता है, और उनको हाँकता भी है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… आकाश पूर्ण स्थिर है, पृथ्वी सापेक्षिक स्थिर है, और अन्य (अर्थात अग्नि और पृथ्वी) महाभूत अस्थिर ही है I वायु इन अस्थिर महाभूतों और सापेक्षित स्थिर पृथ्वी में से सबसे सूक्ष्म ही है I इनके भीतर बसे होने के कारण, वायु इन सबको सूक्ष्मता भी प्रदान करता है I इसलिए वायु महाभूत का नाता, उदान प्राण (और देवदत्त उपप्राण) और इनकी समान प्राण (और कृकल उपप्राण) से योगावस्था से ही होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर,अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरु बोले… जब वायु महाभूत का उदय हुआ, तो इसी महाभूत ने जीव जगत में स्पर्श तन्मात्र व्यापक किया I और जहां यह स्पर्श तन्मात्र भी आकाश महाभूत के शब्द तन्मात्र के भीतर ही बसा हुआ था I लेकिन ऐसा होने पर भी, स्पर्श तन्मात्र तो इस वायु महाभूत से पूर्व में भी था ही I ऐसा इसलिए है क्यूंकि ब्रह्माण्डीय दृष्टिकोण से…

तन्मात्र, महाभूतों के उदय और प्रकटीकरण के कारण हैं I

महाभूत, तन्मात्रों के व्यापक और प्रकट स्वरूप के कारक हैं I

स्पर्श तन्मात्र से वायु महाभूत का उदय और प्रकटीकरण होता है I

वायु महाभूत से स्पर्श ब्रह्माण्ड में व्यापक और प्रकट स्वरूप को धारण करता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… वायु के प्रकट होने पर ही त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय को इस स्पर्श का ज्ञान हुआ था I यह त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय स्थूल भी होती है (जैसे स्थूल शारीर की त्वचा) और इसका एक सूक्ष्म स्वरूप भी होता है (जैसे सूक्ष्म शरीर में भी उसकी त्वचा होती है, जिससे वह स्पर्श करके सूक्ष्म जगत की दशाओं को अनुभव करता है) I और यही त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय कारण शरीर (अंतःकरण चतुष्टय या आनंदमय कोष) में भी अपने अतिसूक्ष्म रूप में होती है I समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियों के भी ऐसे ही त्रिस्वरूप होते हैं, लेकिन ऐसा होने पर भी इन्द्रियों के इन स्वरूपों में अंतर होता है, जो इनकी सूक्ष्मता का होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… एक बार पुनः ध्यानपूर्वक सुनो, कि महाभूत गुफा का शुद्धिकरण कभी नहीं करना चाहिए… जब हृदयाकाश गर्भ तंत्र में, पूर्व में बताए सभी शुद्धिकरण हो जाते हैं, तो इस गुफा का शुद्धिकरण भी, शनैः शनैः ही सही, लेकिन स्वतः ही पूर्ण हो जाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

अग्नि महाभूत गुफा का प्राणों से नाता, अग्नि महाभूत गुफा और प्राण, अग्नि महाभूत गुफा, अग्नि महाभूत की गुफा, हृद्याकाश गर्भ की अग्नि महाभूत गुफा, तैजस महाभूत,  प्रकाश महाभूत, तैजस ही अग्नि है, अग्नि ही तैजस है, अग्नि ही प्रकाश है, प्रकाश ही अग्नि है, प्रकाश अग्निमय है, अग्नि प्रकाशमय है, अग्नि तैजसमय है, तैजस क्या है, तैजस महाभूत किसे कहते हैं, तैजस महाभूत क्या है, अग्नि महाभूत क्या है, अग्नि महाभूत किसे कहते हैं, प्रकाश क्या है, प्रकाश महाभूत क्या है, प्रकाश महाभूत किसे कहते हैं, … प्राणों के दृष्टिकोण से अग्नि महाभूत का उदय, प्राणों के दृष्टिकोण से तैजस महाभूत का उदय, प्राणों के दृष्टिकोण से प्रकाश महाभूत का उदय, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब अग्नि महाभूत का अध्ययन होगा, जिसको प्रकाश महाभूत और तैजस महाभूत भी कहा जाता है I जब अपान प्राण और उसके कूर्म उपप्राण का योग, समान प्राण और उसके कृकल उपप्राण से होता है, और जब यह योगदशा, आकाश महाभूत के किसी एक स्थान पर एकत्रित हो जाती है, तब इस योग दशा से ही अग्नि महाभूत का प्रादुर्भाव होता है I और वह अग्नि महाभूत अपान प्राण की ओर ही निवास करता है, जिसके कारण उसका निवास स्थान तत्पुरुष ब्रह्म से संबद्ध ही होता है I इस महाभूत का मूल वर्ण लाल होता हुआ भी, यह पंचरंगी और सप्तरंगि भी पाया जाता है I

सनातन गुरुदेव आए बोले… किन्तु जब प्रकाश का नाता नाग उपप्राण से होता है तब ही उसकी तरंगों में ज्यावक्रीय गति आती है I यह प्राण नाग लोक का प्रमुख तत्त्व भी है I युग परिवर्तन और युग स्थम्बित प्रक्रिया के चलित होने के समय पर, अग्नि का ताप भी आता ही है, और ऐसे समय पर नागों की संख्या में भी वृद्धि होती है I अग्नि महाभूत, जल और पृथ्वी नामक महाभूतों को भेदता है जिसके कारण इन दोनों महाभूतों के भीतर भी अग्नि बसी हुई होती है I अग्नि से ही संतुलन होता है, क्यूंकि यह पञ्च महाभूत में मध्य का महाभूत ही होता है I ब्रह्माण्ड में अग्नि ही ब्रह्माण्डीय ऊष्म और शीत की सन्तुलक होती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ब्रह्माण्ड में अग्नि के प्रकटीकरण के पश्चात ही रूप नामक तन्मात्र व्यापक होता है, और जहां वह रूप साकारी भी है, और निराकारी भी होता ही है I अग्नि को ही प्रकाश और तैजस कहा जाता है, जिसके कारण अग्नि महाभूत को प्रकाश महाभूत और तैजस महाभूत भी कहा जाता है I अग्नि की व्यापकता त्रिकाया में ही होती है, अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण, तीनों काया में भी है I अग्नि से ही दृश्य, द्रष्टा और दृष्टि है I सूर्य भी अग्निमय ही है, जिसके कारण सूर्य ही प्रकाश और तैजस है I योगमार्ग के साकारी और निराकारी साक्षात्कारों का कारण भी अग्नि ही होती है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

जल महाभूत गुफा का प्राणों से नाता, जल महाभूत गुफा और प्राण, जल महाभूत गुफा, जल महाभूत की गुफा, हृद्याकाश गर्भ की जल महाभूत गुफा, … जल क्या है, जल महाभूत किसे कहते हैं, जल महाभूत क्या है, प्राणों के दृष्टिकोण से जल महाभूत का उदय, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब हम जल महाभूत पर अध्ययन करेंगे I जब उदान प्राण और उसके देवदत्त उपप्राण का योग प्राण वायु और उसके नाग उपवायु से होता है, और जब इसी योगदशा का योग, व्यान वायु से होता है, तब हरे वर्ण के जल महाभूत का उदय होता है I यह जल महाभूत उदान प्राण के ही समीप निवास करता है, जिसके कारण इसका नाता अघोर ब्रह्म से ही होता है I जल महाभूत तरलता प्रदान करता है और जहां यह तरलता त्रिकाया में भी प्रदान करी जाती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जल महाभूत की उदयावस्था के समय, समान प्राण और कृकल उपप्राण, आकाश एक किसी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, और इनको प्राण वायु, उदान वायु और व्यान वायु भेदती है, और इन योगदशा से ही जल महाभूत का उदय होता है, जो प्रधानतः हरे वर्ण का होता है, और ऐसा होने पर भी, उसमें नील वर्ण के बिन्दु पाए जाते हैं I इसलिए ऐसी दशा में यह जल महाभूत हरे वर्ण का होता हुआ भी, नीले-हरे वर्ण सा ही प्रतीत होता है I जल पृथ्वी को भेदता है और ऐसा होने के कारण, यह जल महाभूत, पृथ्वी महाभूत को तरलता प्रदान करने के साथ साथ, उसको खंड-खंड होने से भी बचाता है, अर्थात पृथ्वी को सुरक्षित रखता है I इसका तन्मात्र रस है, जिसका नाता जिव्हा नामक ज्ञानेन्द्रिय से है I जल महाभूत से ही पसंद और नापसंद चालित होती है I इस महाभूत का नाता मनोदशा, भावनाएँ, एहसास से भी है, जो सुनने (जिसका नाता आकाश महाभूत से है), भावना (जिसका नता वायु महाभूत से है) और देखना (जिसका नाता अग्नि महाभूत से है) से होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

पृथ्वी महाभूत गुफा का प्राणों से नाता, पृथ्वी महाभूत गुफा और प्राण, पृथ्वी महाभूत गुफा, पृथ्वी महाभूत की गुफा, हृद्याकाश गर्भ की पृथ्वी महाभूत गुफा, … पृथ्वी क्या है, पृथ्वी महाभूत किसे कहते हैं, पृथ्वी महाभूत क्या है, प्राणों के दृष्टिकोण से पृथ्वी महाभूत का उदय, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब हम पृथ्वी महाभूत का अध्ययन करेंगे I जब प्राण प्राण और नाग उपप्राण की योगदशा का आगे चलकर अपान प्राण और कूर्म उपप्राण से योग, आकाश महाभूत के भीतर ही होता है, तब पृथ्वी महाभूत का उदय, प्राण वायु के स्थान पर होता है I क्यूंकि प्राण वायु का नाता सद्योजात से है, इसलिए पृथ्वी महाभूत का नाता भी सद्योजात ब्रह्म से है I पृथ्वी महाभूत स्थूलता और कठोरता प्रदान करता है I

सनातन गुरु आगे बोले… पृथ्वी महाभूत की उदयावस्था के समय, अपान प्राण और कूर्म उपप्राण, आकाश के किसी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, और इनको समान वायु, प्राण वायु, उदान वायु और व्यान वायु भेदती है, और इन योगदशा से ही पृथ्वी महाभूत का उदय होता है, जो प्रधानतः मिटटी के समान पीले वर्ण का होता है और ऐसा होने पर भी, उसमे लाल वर्ण के बिंदु पाए जाते हैं I इसलिए ऐसी दशा में यह मिट्टी के समान पीले वर्ण का होता हुआ भी, पीले और लाल वर्णों के योग में ही प्रतीत होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… पृथ्वी महाभूत से ही गंध तन्मात्र ब्रह्माण्ड में व्यापक होता है, इसलिए इस महाभूत का तन्मात्र भी गंध कहा गया है I गंध तन्मात्र का नाता त्रिकाया से भी है, और इसकी ज्ञानेन्द्रिय नासिका ही है I पृथ्वी ही अन्नमय कोष हुई है और अन्नमय कोष ही स्थूल शरीर कहलाता है I सूक्ष्म लोकों का स्थूल शरीर (अर्थात अन्नमय कोष) सूक्ष्म ही होता है और स्थूल लोकों का स्थूल I इसका कारण है, कि जैसे-जैसे कोई लोक सूक्ष्म होता जाएगा, वैसे-वैसे उस लोक में बसे हुए जीवों के स्थूल शरीर भी सूक्ष्म होते जाते हैं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

ब्रह्मरचना में, किसी लोक में निवास करने के लिए प्राप्त हुआ भौतिक शरीर और उस लोक की सूक्ष्मता या स्थूलता का अनुपात, एक शाश्वत स्थिर अंक है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…  इसका अर्थ है, कि जिस लोक में साधक गति या निवास करेगा, उस लोक के अनुसार ही उसको एक स्थूल देह प्राप्त होगा I और यही सिद्धांत योगमार्गों और उनके साक्षात्कारों पर भी लागू होता है I जब योगमार्ग से कोई साधक किसी देवादि परलोक में, सूक्ष्म रूप में गमन करने का पात्र बनता है, तब उस साधक के इस लोक के स्थूल शरीर के भीतर ही एक योगशरीर प्रकट होता है, और जहां उस योगशरीर का नाता उस देवादि पार्लोक से होता है, इसलिए वह योगशरीर सूक्ष्म ही होता है I इसी योगशरीर का आलम्बन लेकर वह साधक उस देवादि परलोक में गमन कर पाता है, और वह भी तब, जब वह साधक अपनी स्थूल काया के अनुसार, इसी पृथ्वीलोक में ही निवास कर रहा होता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

रचैता की तमोप्रधान सृष्टि का सार, रचैता की तमोगुणी सृष्टि का सार, रचैता की तमोगुणी सृष्टि का सार, तमोप्रधान सृष्टि, तमोप्रधान सृष्टि का सार, तमोगुणी सृष्टि, तमोगुणी सृष्टि का सार, रचइता की तमोगुणी सृष्टि का सार, सृष्टि तमोगुणी है, …

सनातन गुरुदेव बोले… यह महाभूत जो आकाश के भीतर प्रादुर्भाव होते हैं, वही अपनी अपनी गुफाओं में, हृदयाकाश गर्भ के भीतर बसे हुए होते हैं I जैसे इन महाभूतों के स्थान आकाश महाभूत के भीतर होते हैं, वैसे ही इनके स्थान हृदयाकाश गर्भ के भीतर भी होते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले…ब्रह्मरचना में, प्राथमिक दशा सूक्ष्म ही थी और इसी सूक्ष्म से स्थूल दशाओं का प्रादुर्भाव हुआ था I इसी सिद्धांत से पञ्च महाभूतों का मूलस्वरूप सूक्ष्म ही है और इन्ही सूक्ष्म महाभूतों से स्थूल भूतों का प्रादुर्भाव होता है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि जैसे-जैसे यह पञ्च महाभूत ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं के प्रभाव से (अर्थात प्राणों के प्रभाव से) किसी एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, वैसे वैसे उस स्थान पर सथूल भूतों का उदय होता चला जाता है I जैसे ही उन एकत्रित हुए पञ्च महाभूतों पर ब्रह्माण्डीय ऊर्जा दबाव डालती है, वैसे वैसे वह संगठित होते जाते हैं और अन्ततः उसी संगठित दशा से स्थूल भूतों का प्रादुर्भाव हो जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… किन्तु संगठित होने के लिए तो तमोगुण का प्रभाव होने ही होगा, क्यूंकि स्थिरता का कारण यही तमोगुण है, इसलिए स्थिरता से ही यह संगठित होने की प्रक्रिया चलित भी होती है I यही कारण है, कि पञ्च भूत तमोगुण के भीतर ही बसे हुए होते हैं, क्यूंकि यदि ऐसा नहीं होता, तो इनपर तमोगुण का पूर्ण प्रभाव भी नहीं आता… पञ्च महाभूत साधना में ऐसा ही पाया जाता है I

सनातन गुरुदेव बोले… तमोगुण साधना में यह भी पाया जाता है, कि उसका नाद अहम् ही है I इसलिए जब साधना में साधक इस अहम् नाद का साक्षात्कार करता है, तब यह नाद इस बात का प्रमाण भी होता है, कि वह साधक पञ्च महाभूत से अतीत ही हो चूका है, अर्थात वह साधक भूतातीत दशा को पा गया है I त्रिगुण ही महाभूतों के जनक हैं, इसलिए जनक का साक्षात्कार उससे जनित सभी दशाओं से अतीत होने का प्रमाण भी होता है I इसीलिए, तमोगुण साक्षात्कार, जो तमोगुण समाधी से होता है, वह इस बात का प्रमाण भी है कि ऐसा साक्षात्कारी साधक भूतातीत हो गया है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया इसलिए उसने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरु को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले… अब हम उन सभी बिंदुओं पर बात करेंगे, जो इस हृदयाकाश गर्भ को समाप्ति की ओर लेकर जाती हैं I इसलिए अब हम अगले अध्याय पर जाएंगे, जहां इच्छा गुफा और सर्वसमता गुफा पर बात होगी I

 

असतो मा सद्गमय I

 

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