घटाकाश, आकाश और मोक्ष, … मोक्ष गुफा, मोक्ष पथ, मोक्ष मार्ग, गुहा मोक्ष

घटाकाश, आकाश और मोक्ष, … मोक्ष गुफा, मोक्ष पथ, मोक्ष मार्ग, गुहा मोक्ष

यहाँ हृदय की मोक्ष गुफा के दूसरे बिंदु, जो घटाकाश, घट का आकाश और साधक के शरीर के भीतर का आकाश भी कहलाता है, उस का वर्णन होगा । यहाँ बताए गए मार्ग को मोक्ष पथ या मोक्ष मार्ग भी कहा जा सकता है। ये गुहा मोक्ष, हृदय की सबसे अन्दर की गुफा होती है, जिसको योगी हृदय की समस्त गुफ़ाओं को पार करके ही साक्षात्कार करता है।

इस गुफा के बारे में, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है, इसलिए जो भी साधक इस अध्याय श्रंखला, जिसको मैंने ॐ मार्ग कहा है, उसका साक्षात्कार करेगा, वो इस श्रंखला के ज्ञान मूल में ब्रह्मऋषि और भगवान वेद व्यास, और उनके ब्रहमसूत्र को ही पाएगा ।

ऐसे साक्षात्कार के समय, ये भी हो सकता है, कि गुरुदेव भगवान् वेद व्यास, साधक के नाक की नोक पर बैठे हों, और साधक को, एक उत्कृष्ट अनुग्रह दृष्टि से देख रहे होंI

यह मोक्ष गुफा, मुक्तिमार्ग या कैवल्य मार्ग या मोक्ष मार्ग में गति की प्रारंभिक अवस्था को दर्शाती है, क्यूंकि इसी गुफा से ही ॐ साक्षात्कार का मार्ग प्रशश्त होता है।

ये ज्ञान मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती गौतम बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का एक अभिन्न अंग भी है।

तो अब इस कैवल्य गुफा या मोक्ष गुफा के साक्षात्कार और इसी चित्र के दूसरे भाग को बतलाता हूं, जो आकाश महाभूत का घटाकाश रुप और उसमें बसे हुए हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लिंगात्मक स्वरूप को बतलाता है।

यहाँ बताया गया, हिरण्यगर्भ का लिंगात्मक स्वरुप, हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय के ज्ञान का अंग है, और इसी ज्ञान के चार बिंदुओं में से, एक बिंदु भी है, जिसके बारे में बाद के एक अध्याय में बात होगी।

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला था I

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का उनतालीसवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और ये अध्याय, इस जगद्गुरु शारदा मार्ग का दूसरा अध्याय भी है । और ये अध्याय, इस हृदय मोक्ष गुफा का दूसरा भाग भी है ।

 

मोक्ष गुफा, मोक्ष पथ, मोक्ष मार्ग, गुहा मोक्ष का दूसरा भाग… घटाकाश, आकाश और मोक्ष पथ …

घटाकाश, आकाश और मोक्ष, मोक्ष गुफा, मोक्ष मार्ग, गुहा मोक्ष,
घटाकाश, आकाश और मोक्ष, मोक्ष गुफा, मोक्ष मार्ग, गुहा मोक्ष, हृदय मुक्ति गुफा, हृदय मोक्ष गुफा

 

उस हल्के गुलाबी प्रकाश को घेरे हुए, एक बैंगनी वर्ण का प्रकाश होता है।

ये बैंगनी रंग का प्रकाश, आकाश महाभूत को दर्शाता है, जो साधक के भीतर, हृदयाकाश या घटाकाश स्वरूप में होता है।

यही हृदयाकाश गर्भ भी कहलाता है, जो इस चित्र के नहीं दिखलाये गए भाग में होता है, और जिसको पार करके, साधक इस गुफा के आगे के भाग में पहुंचता है…, ताकि इस गुफा का पूर्णरूपेण साक्षातकार कर सके।

ये हृदयाकाश, साधक के घट का अंग होता है, क्योंकि ये घटाकाश नामक शब्द शब्द के अर्थ में बसा होता है।

इसी आकाश में, ब्रह्माण्ड की समस्त ऊर्जा बसी होती है, अर्थात, अपरा प्रकृति रूपी ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का स्थान, आकाश महाभूत होता है।

उस ऊर्जा का मूल स्वरूप, कम्पन होता है, जिसका गुण शब्द होता है। इसीलिए, शब्द को आकाश महाभूत का तन्मात्र भी कहा जाता है।

इस बैंगनी वर्ण के प्रकाश के बीच में, एक स्वर्ण बिन्दु होता है।

और वो स्वर्ण बिंदु, हिरण्यगर्भ ब्रह्म को दर्शाता है, जिसके बारे में, बाद में बात करूंगा…, जब उकार या ओकार शब्द की बात होगी।

 

अब ध्यान से सुनना…

शरीर एक घट के समान है। घट का अर्थ होता है, मिट्टी का घड़ा होता है ।

इसी, आकाश महाभूत को, जब इस घट रूपी शरीर में साक्षातकार किया जाता है, तो उसे योगीजन, घटाकाश कहते हैं।

घटाकाश का अर्थ होता है, शरीर रूपी घट का आकाश ।

लेकिन, जब योगी की चेतना, इस घट रूपी शरीर को पार कर जाती है, अर्थात, इस घट रूपी शरीर से अतीत हो जाती है, तब वो चेतना, उस अनंत महाकाश को पाती है, जिसमे योगी का घटाकाश पहले से बसा हुआ था।

और ऐसी दशा में, योगी की चेतना में, उस योगी का घट ही टूट जाता है, जिसके कारण उसका पूर्व का घटाकाश, महाकाश में विलीन होके, महाकाश ही हो जाता है।

महाकाश शब्द, ब्रह्म का वाचक है, इसलिए जिस योगी की चेतना में, उसका घट टूट जाता है और इसके पश्चात, जब वो घटाकाश, महाकाश में विलीन होके महाकाश ही हो जाता है…, तब वो योगी, ब्रह्म में विलीन होके, ब्रह्म सरीका ही हो जाता है।

लेकिन इस चित्र में, उस आकाश को, घटाकाश रूप में दिखलाया गया है…, नाकि महाकाश रूप में।

 

घटाकाश, एक बूंद के समान होता है, और महाकाश, सागर के समान ।

बूंद तबतक ही बूंद होती है, जब तक सागर में विलीन न हो ।

एक बार कोई बूंद, सागर में विलीन हो जाती है, तो वही बूंद, सागर कहलाती है…, बूँद नहीं ।

 

ऐसा ही योगी के साथ भी होता है, जब उसका बूंद रूपी घटाकाश टूट जाता है, और महाकाश रूपी सागर में विलीन हो जाता है।

ऐसे समय पर योगी की चेतना, अपने पूर्व के घट स्वरूप को त्याग कर, महाकाश के समान हो जाती है।

और ऐसा योगी ही, महाकाश रूपी ब्रह्म का, सगुण साकार स्वरूप कहलाता है, अर्थात, महाकाश का ही मानव स्वरूप कहलाता है।

 

आकाश महाभूत और उसमें बसे हुए स्वर्ण बिंदु, … घट अकाश और स्वर्ण बिंदु, …

लेकिन पहले इसका आधार डालना पड़ेगा…, तो सुनो…

प्रजापति या चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म की इच्छा शक्ति से ही, जगत की रचना हुई थी ।

इसीलिए, ब्रह्म के भाव में ही, जगत की उत्पत्ति का साधन था ।

उसी साधन का आलम्बन लेके, प्रजापति ब्रह्म ने इस जगत की रचना की थी ।

लेकिन जब जगत की रचना हुई थी, तो ये ब्रह्मांड का प्राथमिक स्वरूप, सूक्ष्म संस्कारिक था, अर्थात, प्रजापति ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ, वो प्राथमिक ब्रह्माण्ड, एक सूक्ष्म संस्कारिक अवस्था में था ।

उस प्राथमिक संस्कार रूपी सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के आठ कोण थे, वो नीचे से चपटा था और ऊपर की ओर से हलका सा गोलकार था, और थोड़ा नोकीला भी था ।

यही ब्रह्माण्ड का प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप था ।

 

प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड की भाषा, … संस्कृत भाषा …

उस प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड की भाषा या शब्द को ही संस्कृत कहा गया था ।

इसलिए संस्कृत भाषा, ब्रह्माण्ड के प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप की भाषा है ।

ब्रह्माण्ड के प्राथमिक स्वरूप के शब्द, संस्कृत भाषा के ही होते हैं ।

यदि आज भी, किसी साधक की चेतना इस प्राथमिक ब्रह्माण्ड में जाएगी, जो सूक्ष्म संस्कारिक है, तो उसे, ब्रह्माण्ड के सारे शब्द, इसी संस्कृत भाषा में सुनायी देंगे ।

और इसीलिए, अपनी सूक्ष्म साधनाओं में, जब मैं ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता हूं, तो मुझे सारे शब्द, इसी संस्कृत भाषा में ही सुनई देते हैं।

संस्कृत शब्द का अर्थ होता है, संस्कार कृत, अर्थात…, संस्कार द्वार कृत ।

यहां जो संस्कार शब्द कहा गया है, वो उसी प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड को दर्शाता है।

और क्योंकि ये प्राथमिक, संस्कार रूपी सूक्ष्म ब्रह्माण्ड, कारण या दैविक, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्ड से भी पूर्व में उत्पन्न हुआ था, इसलिए, इस प्राथमिक ब्रह्माण्ड का, ना तो कोई आदि है, ना ही अन्त । वेद मनीषियों ने इसी ब्रह्माण्ड को स्वयं उत्पन्न और सनातन कहा था.., ब्रह्म की अनादि अनंत अभिव्यक्ति कहा था।

यही कारण है, कि, वेदों में, ब्रह्मांड को भी सनातन कहा गया है।

इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड की भाषा को, उन सर्वदृष्टा, ब्रह्मदृष्टा वेद मनीषियों ने, संस्कृत नाम दिया था, जिसका अर्थ होता है, संस्कार कृत।

ब्रह्म की रचना में, प्राथमिक ब्रह्माण्ड के, बीज रूपी शब्दों की भाषा को, संस्कृत कहते हैं…, समझ गए ।

 

प्राथमिक सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड और नासदीय सूक्त …

अब इसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड के कुछ और बिंदु बताता हूँ…

ये बतलयी गई बाते भी, उसी आधार का अंग हैं, जो मैं यहां डाल रहा हूं ।

क्योंकि ये प्राथमिक, सूक्ष्म संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड, निरंग था, स्वच्छ जल के समान था, इसीलिए, इसको ही, नासदीय सूक्त आदि वेद ज्ञान में, जल शब्द से संबोधित किया गया है ।

और इसी निरंग संस्कार को, भवसागर, आदि शब्दों में भी दर्शाया गया है ।

इसी निरंग संस्कार से, अतीत होने की अवस्था को, कैवल्य, मुक्ति और निर्वाण कहते हैं ।

इसी निरंग प्राथमिक ब्रह्माण्ड से अतीत होने का मार्ग, उत्कर्ष मार्ग कहलता है, और ऐसे मार्ग को ही ब्रह्मपथ या आत्मपथ या ॐ पथ कहते हैं । इसी को कैवल्य मार्ग या मुक्ति मार्ग भी कहते हैं । ये मुक्तिमार्ग भी इसी कैवल्य गुफा से प्रारंभ और प्रशस्त भी होता है।

यही सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड, अपने निरंग संस्कारिक रूप में, जीवों के हृदय में, उनके अंतःकरण के चित्त भाग में, एक संस्कार रूप में ही बसा होता है ।

यही कारण था, कि मेरे पूर्व जन्मों में, वेद मनीषी कहते थे, कि साधक को अपने भीतर ही ब्रह्माण्ड का साक्षातकार होता है ।

वेद मनीषी तो यह भी कहते थे, कि, अपनी काया से बाहर, कभी भी ब्रह्माण्ड का साक्षातकार नहीं होता है ।

जो ब्रह्माण्ड काया के भीतर है, वो ही ब्रह्माण्ड काया से बाहर भी है । जो काया में नहीं है, वो बाहर भी नहीं मिलेगा ।

इसीलिए, यदि ब्रह्म को पाना है, जानना है, तो पहले ब्रह्मांड को जानो, जो तुम्हारी काया के भीतर है ।

और इसके पश्चात ही, उसी भीतर के ब्रह्मांड में, ब्रह्म को जानो, और वो भी अपनी ही आत्मा के, सर्वसाक्षी स्वरूप में ।

उस भीतर के ब्रह्मांड को जाने बिना, ना तो आत्मा को जान पाओगे, न ही आत्मा के ब्रह्म स्वरूप को पाओगे । और ऐसी दशा में, यही बोलते रह जाओगे, की, ब्रह्म या आत्मा को कौन जान पाया है ।

और क्योंकि, ये प्राथमिक ब्रह्मंड, ब्रह्म के भाव से स्वयं उत्पन्न हुए ब्रह्म के ही साधन रूपी, संस्कार रूप में है, इसलिए, इसका ना तो आदि ढूंढ पाओगे, और ना ही अंत जान पाओगे ।

इस ना जानने का कारण है, कि ये प्राथमिक ब्रह्माण्ड, दैविक या कारण, सूक्ष्म और स्थूल ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से भी पूर्व की दशा है ।

और क्योंकि जीवसत्ता, ब्रह्मांड के तीन स्वरूपों में ही सीमित होती है, अर्थात, जीव सत्ता, ब्रह्मांड के कारण या दैविक, सूक्ष्म और स्थूल स्वरूपों में ही सीमित होती है, इसलिए अपने जीव रूप में, उस प्राथमिक ब्रह्मांड का, ना तो आदि और ना ही अंत ही जान पाओगे ।

और इस न ढूंढने का कारण है, कि ये प्राथमिक ब्रह्माण्ड, जीवों के प्रादुर्भाव से भी पूर्व की दशा है ।

जो तुम्हारे उदय से भी पूर्व का है, उसे अपने उदय स्वरूप में कैसे जान पाओगे ।

और यही सत्य, ऋग्वेद का नासदीय सूक्त भी दर्शाता है ।

 

निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड की हिरण्यमयी दशा …

अब इस निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड की हिरण्यमयी दशा को बतलाता हूं… तो सुनो…

वेदों में 33 कोटि या 33 प्रकार के देवता होते हैं।

इनमे से, सर्वोच पद, प्रजापति या चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा का है ।

जब उसी प्रजापति, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म ने, स्वयं को हिरण्यगर्भ स्वरूप में अभिव्यक्त किया था, तो यही निरंग संस्कार, उस हिरण्यगर्भ ब्रह्म के प्रकाश को धारण करके, हिरण्यमयी हो गया था, अर्थात, सुनहरे रंग का हो गया था।

जैसे स्वच्छ जल में, कोई प्रकाश डाल दो, तो वह जल, अपना निरंग स्वरूप त्याग के, उस प्रकाश सरीका हो जाता है, वैसा ही इस प्राथमिक, निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड के साथ भी हुआ था…, जब उसमे हिरण्यगर्भ का स्वर्णिम प्रकाश आया था ।

वेद मनीषियों ने, इसी हिरण्यगर्भ को, ब्रह्म शब्द से संबोधित किया था, क्योंकि, ये प्रजापति का रचैता स्वरूप है ।

हिरण्यगर्भ का साधारण अर्थ होता है, सोने का गर्भ, सुनहरा गर्भ ।

और क्योंकि इसी हिरण्यगर्भ में, जीव और जगत का उदय हुआ था, इसलिए, वेदों में हिरण्यगर्भ को ब्रह्म शब्द से भी संबोधित किया गया है ।

और यही कारण है, कि वेद मनीषी कह गए, संपूर्ण ब्रह्माण्ड, पितामह ब्रह्म के गर्भ में बस हुआ है ।

वोही गर्भ, हिरण्यगर्भ कहलाता है, जिसमे समस्त ब्रह्माण्ड बसा होता है, और जिसकी अवस्था सुनहरी होती है।

इसी सुनहरे ब्रह्माण्ड को, जो जीवों  के हृदय में होता है, निर्वाणधातु भी कहते हैं । और इसी अवस्था को, इस चित्र में, सुनहरे बिन्दु रूप में दर्शाया गया है ।

ये निर्वाणधातु, स्वर्ण स्वरूप में होता है, नाकि इसके पूर्व के, निरंग स्वरूप में ।

 

अब ध्यान से सुनो…

जिस समय वो निरंग, प्राथमिक, संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड, स्वर्णिम हुआ था, उस समय, उसी स्वर्णिम ब्रह्माण्ड में, एक शब्द, स्वयंप्रकट हुआ था, जो “रा नामक शब्द था, और जिसको वेद मनीषी रकार कहते थे ।

और इसी रकार शब्द के साथ साथ, एक और नाद रूपी शब्द, मूल प्रकृति में भी, स्वयंप्रकट हुआ था, जो मममममममम…, ऐसा था ।

लेकिन, जबकी ये मममममममम नामक शब्द, मूल प्रकृति में स्वयंप्रकट हुआ था, पर इसका प्रकटीकरण, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की प्रेरणा से हुआ था । इसीलिए, वेद मनीषियों ने, इसे ब्रह्मनाद कहा था…, नाकि प्रकृति का नाद ।

इसी हिरण्यमय, ब्रह्माण्ड रूपी प्राथमिक संस्कार को, मूल या सनातन संस्कार भी कहते हैं ।

और इसके मूल गुण को, धर्म कहा गया था, जो सनातन था, क्योंकि ये निरंग प्राथमिक ब्रह्माण्ड अनादि और अनंत था ।

इसी अनादि अनंत को, शून्य अनंत या शून्य ब्रह्म भी कहा जाता है । शून्य अनंतः अनंत शून्यः…, ऐसे भी कहा जा सकता है ।

ये शून्य ब्रह्म या शून्य अनंत, श्रीमन नारायण का ही वाचक होता है । जो शून्य और अनंत में, समान रूप में विराजमान होता है, वही नारायण कहलाता है ।

इसी प्राथमिक निरंग संस्कार रूपी ब्रह्माण्ड को केंद्र में रख कर, वैदिक अंतिम संस्कार की प्रक्रिया की जाति है । लेकिन इसके बारे में, कभी और बताऊंगा, जब वैदिक अंतिम संस्कार के विज्ञान की बात होगी ।

 

अब आगे बढ़ता हूं …

उसी प्राथमिक संस्कार के ज्ञान में, जो मूल से तो जल के समान निरंग था, लेकिन हिरण्यगर्भ ब्रह्म के प्रकाश के कारण, ये हिरण्य रूप, या स्वर्णिम रूप का हुआ था…, इस जीव जगत के स्वयं उदय का ज्ञान भी प्राप्त किया जाता है ।

और यही हिरण्य संस्कार, इस हृदय कैवल्य गुफा में, बसया गया था, उसके अपने लिंगात्मक स्वरूप में, जिसका शब्द राम था, और जो शिव तारक मंत्र का ही, लिंगात्मक स्वरूप था ।

 

स्वर्ण बिंदु का शिव लिंगात्मक स्वरूप … हृदय का स्वर्ण लिंग, … हृदय लिंग …

अब इस स्वर्ण बिंदु के, शिव लिंगात्मक स्वरूप को बता रहा हूं …

हृदय गुफा के स्वर्ण बिंदु का शिव लिंगात्मक स्वरूप,
हृदय गुफा के स्वर्ण बिंदु का शिव लिंगात्मक स्वरूप,

 

जब योगी की चेतना, इस कैवल्य गुफा में बैठी होती है, और उस सुनहरे बिंदु को ध्यान से देखती है, तब वो चेतना, अकस्मात ही, उस स्वर्ण बिन्दु के समीप चली जाती है ।

इस समय पर, वो स्वर्ण बिंदु, एक स्वर्ण लिंग के समान प्रतीत होती है, जैसा यहां दिखलाया गया है।

लिंग शब्द का अर्थ चिन्ह, ध्योतक, सूचक, इतियदि होता है ।

लिंग शब्द का अर्थ, पूरक भी होता है ।

इसीलिए, हम शिवलिंग बोलें या शिव पूरक बोलें…, बात एक ही है ।

हम विष्णुलिंग बोलें या विष्णु पूरक बोलें…, बात एक ही है ।

हम लिंगोद्भव बोलें, या पूरक उद्भव बोलें…, बात एक ही है ।

अब आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ये कैवल्य गुफा में बसा हुआ, सोने का शिवलिंग, ऊपर से इतना गोलकार नहीं होता ।

ये ऊपर की दायीं ओर से कटा होता है।

इसी ऊपर की दायीं ओर से कटी हुई दशा को अब दिखलाया जा रहा है ।

और इसके कारण, ये शिवलिंग, कुछ कुछ चावल के दाने के समान होता है, क्योंकि ये ऊपर से बिल्कुल गोलकार नहीं होता ।

और जैसा इस चित्र में दिखलाया गया है, इसको ऊपर से घेरे हुए दो सुनहरे प्रकाश होता हैं, जो ज्ञान और विवेक को दर्शाते हैं ।

 

हृदय का स्वर्ण लिंग, ... हृदय लिंग
हृदय का स्वर्ण लिंग, … हृदय लिंग

 

और जब साधक इस लिंग को ध्यान से देखता है, तो यही लिंग एक एक सुनहरे शंख स्वरुप में परिवर्तित हो जाता है, जो शब्द ब्रह्म नामक सिद्धि को दर्शाता है ।

इससे आगे मैं, तब बतलाऊँगा जब हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय की बात होगी ।

इसलिए मैं इस अध्याय को यहीं पर समाप्त कर रहा हूँ ।

अब आगे बढ़ता हूं, इसी हृदय कैवल्य गुफा के, तीसरे भाग में…, जो अहंकार है…

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

लिंक:

आकाश महाभूत (Akasha Mahabhuta),

हिरण्यगर्भ ब्रह्म (Hiranyagarbha Brahma, Hiranyagarbha),

अपरा प्रकृति (Apara, Apra prakriti),

उकार (Okar, Ukar),

ओकार (OM, Omkara, Omkar),

ब्रह्माण्ड की भाषा, संस्कृत, संस्कृत भाषा (Sanskrit, Sanskrit Language),

नासदीय सूक्त (Nasadiya Sukta),

कैवल्य, मुक्ति, (Moksha, Kaivalya, Mukti),

निर्वाण (Parinirvana, Nirvaan, Nirvana),

ब्रह्माण्ड (Brahmand, Brahmanda, Macrocosm),

ब्रह्मनाद (Brahma Nada, Brahmnaad),

महेश्वर (Maheshvara, Maheshwara)

शून्य ब्रह्म (Shoonya Brahm, Shunya Brahman),

शून्य अनंतः (Shunya Anantah, Shunya Ananta),

अनंत शून्यः (Anant Shunyah, Anant Shunya)

राम (Raam, Rama, Ram)

शिव तारक मंत्र (Shiva Taraka Naad, Shiva Taraka mantra),

 

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