यहाँ पर ब्रह्मलोक, सतलोक, सत्य लोक, विशुद्ध सत्, सद्योजात सदाशिव, सदाशिव का सद्योजात मुख, वज्र लोक, इक्कीस शून्य, चतुर्मुखा ब्रह्मा, प्रजापति, ब्रह्मा सरस्वती, परा प्रकृति, अदि शक्ति, नवम आकाश, वज्रमणि शरीर, वज्र शरीर, सनतकुमार ब्रह्मा, बाका ब्रह्मा, सहमपति ब्रह्मा, सोऽहंपति ब्रह्मा, महाब्रह्मा, पुरुषार्थ चतुष्टय, चार बुद्ध, सोऽहं हंस:, सर्वसम स्वरूप स्थिति, पुरुषार्थातीत, आश्रमातीत आदि पर पर बात होगी I और यहाँ पर सर्वसम ब्रह्मा, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, चतुर्मुखा प्रजापति, हीरे के प्रकाश का शरीर, पितामह ब्रह्मा सिद्धि, सर्वसम सरस्वती सिद्धि, सर्वसम ज्ञान सिद्धि, परा प्रकृति सिद्धि, अदि शक्ति सिद्धि, बुद्ध चतुष्टय, सोलह कला, सदाशिव सद्योजात, प्रजापति लोक, ब्रह्मलोक के इक्कीस भाग, प्रकृति का नवम कोष, परा प्रकृति शरीर, अदि शक्ति शरीर, सूक्ष्म श्वेत शरीर, नवम आकाश का शरीर, नवम आकाश सिद्धि, आदि पर भी बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पचहत्तरवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का चौथा अध्याय है I
इस अध्याय का नाता एक पूर्व की अध्याय श्रंखला से भी है, जिसका नाम पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग था I
टिप्पणियाँ:
- इस अध्याय में मैंने कुछ ऐसा भी लिखा है, जो वास्तव में नहीं होता है I
- और इसके अतिरिक्त मैंने कुछ ऐसा नहीं भी लिखा है, जो वास्तव में होता ही है I
- और ऐसा हींइस अध्याय के चित्रों में भी है I
- इसका कारण है कि यह अध्याय हम सभी जीवों के पितामह ब्रह्मा और उनके ब्रह्मलोक से और उस ब्रह्म के मार्ग मार्ग से भी संबध है I
- और क्यूँकि परा प्रकृति भी ब्रह्मलोक साक्षात्कार का ही मार्ग होती हैं, इसलिए यही इस अध्याय में बताई गई परा प्रकृति के भी भाग में भी लागू होता है I
- चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मलोक का स्थान शिखर पर होता है, इसलिए ऐसा लिखा है… और नहीं भी लिखा है I
- और क्यूँकि ब्रह्मलोक का मार्ग तो अधिकांश देवताओं, ऋषियों और सिद्धों को भी पता नहीं है, इसलिए उस मार्ग को गुप्त रखने के लिए ही ऐसा लिखा है… और नहीं भी लिखा है I
- क्यूंकि उन दो योगी जी जिनके बारे में मैंने पूर्व के अध्यायों में बताया है, और उनमें से एक योगी जी ने मेरे पास सूक्ष्म रूप में आकर बताया भी था, कि “बेटे तेरे इस ग्रंथ की बातें तो देवलोकों में भी हो रही है”, इसलिए देवताओं सहित, अन्य सभी जीवों से इस ब्रह्मलोक का मार्ग छुपाने हेतु ही ऐसा लिखा है… और नहीं भी लिखा है I
- और ऐसा करने का एक और कारण भी है, कि…
जो शिखर को जानने के अपात्र हैं, उनको बताने से उनका क्या लाभ होगा I
जो शिखर को पाने के पात्र हैं, वह तो इस अध्याय के संकेत मात्र से पा लेंगे I
इसलिए, मेरे ऐसा करने से, न अपात्रों का ही तुष्टिकरण होगा और न पात्रों का I
मुझे इस बात का दोष बिलकुल मत देना, क्यूंकि मैंने वही किया है जो होना चाहिए I
ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्यूंकि मैं जानता ही हूँ कि…
यह अध्याय पात्रों को ब्रह्मलोक तक गति देने में सक्षम है I
यह अध्याय अपात्रों को ब्रह्मलोक से सुदूर रखने में भी सक्षम ही है I
कुछ ज्ञान और मार्ग ऐसे ही हैं, कि यह करने के सिवा कोई विकल्प नहीं होता I
आगे बढ़ता हूँ…
सद्योजात सदाशिव की ओर गति, सदाशिव सद्योजात की ओर गति, सदाशिव के सद्योजात मुख की ओर गति, ब्रह्मलोक की ओर गति, अव्यक्त प्रकृति से ब्रह्मलोक का मार्ग, … श्वेत सिद्ध शरीर, प्रकृति के नवम कोष का शरीर, परा प्रकृति शरीर, अदि शक्ति शरीर, सूक्ष्म श्वेत शरीर, नवम आकाश का शरीर, वज्रमणि शरीर क्या है, वज्र शरीर क्या है, ब्रह्मलोक का शरीर, सतलोक का शरीर, सर्वसमता का शरीर, सत्य लोक का शरीर, सर्वसम सिद्धि, सर्वसमता सिद्धि, सर्वसमता स्वरूप स्थिति, … ब्रह्मलोक से संबंधित वज्र शरीर के पांच स्वरूप, वज्र शरीर के पांच स्वरूप, वज्रमणि शरीर का स्वरूप पञ्चक, … अदि शक्ति शरीर क्या है, परा प्रकृति सिद्धि क्या है, अदि शक्ति सिद्धि क्या है, वज्रमणि शरीर क्या है, वज्र शरीर क्या है, हीरे के प्रकाश का शरीर क्या है, पितामह ब्रह्मा सिद्धि क्या है, सर्वसम सरस्वती सिद्धि क्या है, सर्वसम ज्ञान सिद्धि क्या है, सर्वसमता शरीर, वज्रमणि बुद्ध शरीर, वज्रमणि सिद्ध शरीर, …
अब इस ब्रह्मलोक से संबंधित वज्र शरीर के पांच स्वरूपों को बताता हूँ…
टिप्पणियाँ:
- लेकिन इनके छह स्वरूप भी होते हैं I
- और जहाँ वह छठा स्वरूप तब पाया जाता है, जब साधक का वह सूक्ष्म श्वेत शरीर जो परा प्रकृति का द्योतक होता है, वह नवम आकाश (अर्थात परा प्रकृति) में पूर्णतः लय हो जाता है I
- इस छठे स्वरूप को इस अध्याय में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में परा प्रकृति के भाग में बताया जाएगा I
- इसलिए जबकि वज्र शरीर के छह स्वरूप ही होते हैं, लेकिन यहाँ पर पाँच तो स्पष्ट रूप में बताए जाएंगे और छठा सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही बताया जाएगा क्योंकि यह आदि शक्ति अर्थात परा प्रकृति से संबद्ध निराकार शरीर ही है I
- और इन सिद्ध शरीरों के अंतगति में ही साधक का वज्रमणि शरीर ब्रह्मलोक में लय होकर, ब्रह्मलोक के समान सर्वसम सगुण निराकार हो जाता है I यही वह दशा है जिसके पश्चात साधक की चेतना ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में चली जाती है, जहाँ चतुर्मुखा पितामाह और सर्वसम सरस्वती का साक्षात्कार होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
सर्वसम सिद्धि और उसके सिद्ध शरीर के पाँच स्वरूप होते हैं I
यह पांच स्वरूप एक-एक करके ही साधक की काया के भीतर प्रकट होते हैं I और जबतक यह सभी प्रकट नहीं होते हैं, तबतक वह वज्रमणि शरीर (अर्थात सर्वसम शरीर) जिसकी बात यहाँ पर हो रही है, पूर्णरूपेण प्रकट हुआ है, ऐसा नहीं कहलाया जा सकता I ऐसा होने के कारण, यह भी नहीं कहा जा सकता कि साधक ने इस अध्याय में बताई गई सिद्धियां प्राप्त करी हैं I
जिस साधक ने यह पाँच के पाँच शरीर प्राप्त किए होंगे, वह ही ब्रह्मलोक के इक्कीस भागों और उन इक्कीस भागों से संबद्ध इक्कीस शून्य का साक्षात्कारी होगा I और ऐसे साधक की चेतना अंततः ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाव में, जहाँ सर्वसम चतुर्मुखा पितामाह और पितामही सरस्वती निवास कर रहे हैं, उनके पास चली जाएगी I
जब साधक की चेतना सर्वसम चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और पितामही सरस्वती के समक्ष पहुँच जाती है, तो वह चेतना अपने इस सिद्धि से जुड़े हुए वास्तविक स्वरूप को पाती हैI और यही उस साधक की सर्वसम स्वरूप स्थिति कहलाती है जिसका नाता इस अध्याय से होता है I
यदि वह साधक इस स्वरूप स्थिति से कोई लगाव तथा लगाव न करे, तो ही वह इससे भी आगे की दशाओं में जाएगा I और उन आगे की दशाओं के स्वरूप को भी वह साधक पाएगा I और ऐसा तबतक होता ही चला जाएगा, जबतक वह साधक समस्त स्वरूपों को पा नहीं जाएगा I
इन पांच स्वरूपों के पश्चात, साधक जो पाएगा वह ऐसा ही होगा…
- यदि साधक का उत्कर्ष पथ प्रकाश से जुड़ा हुआ होगा, तो उस साधक की चेतना अंततः ब्रह्मलोक में लय हो जाएगी I
- यदि साधक का उत्कर्ष पथ शून्य सहित किसी और अंधकारमय दशा से संबद्ध होगा, तो साधक की चेतना अंततः शून्य ब्रह्म (अर्थात शून्य अनंत अनंत शून्य) में ही लय होगी I
- यदि साधक का उत्कर्ष पथ प्रकाश और अंधकार, दोनों के मार्गों से संबद्ध होगा और वह साधक इन दोनों मार्गों से गया भी होगा, तो ऐसे साधक की चेतना ही इस अध्याय में बताए गए ब्रह्मलोक से आगे के लोकों में जाएगी I ऐसा साधक वामदेव सदाशिव (अर्थात सदाशिव का वामदेव मुख) में जाकर, उससे आगे की दशाओं में भी गति कर सकता है I
आगे बढ़ता हूँ…
लेकिन इस अध्याय में अब जो बताया जाएगा, उसको बताने से पूर्व ब्रह्माण्ड को बताना होगा I
ब्रह्माण्ड अपने चतुष्टय स्वरूप में ही रचित हुआ था I इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्माण्ड के चार प्रमुख भाग होते हैं I
तो अब इन भागों को बताता हूँ…
- संसार, चलित ब्रह्माण्ड, … यह ब्रह्माण्ड का वह भाग है जो चलित होता है, अर्थात गतिशील और परिवर्तनशील होता है I यही संसार कहलाया गया था और इसी को इस ग्रंथ में चलित ब्रह्माण्ड कहा गया है I इसी ब्रह्माण्ड में समस्त ऊर्जाएँ, समस्त पिण्ड और समस्त दशाएँ निवास करती है और अपने अपने उत्कर्ष पथ पर गति करती है I उत्कर्ष पथ और उसकी गति का प्रारंभिक नाता भी मूलतः इसी चलित ब्रह्माण्ड से होता है I
- सर्वसम ब्रह्माण्ड,… यह ब्रह्माण्ड हीरे के प्रकाश से युक्त है I इसका नाता ब्रह्मलोक से ही होता है I ब्रह्माण्ड के चतुष्टय स्वरूप के भीतर, ब्रह्मलोक ही इस सर्वसम ब्रह्माण्ड के रूप में स्थापित हुआ है I यह ब्रह्माण्ड चलित और अचलित ब्रह्माण्डों को पृथक करके रखता है, और ऐसा इसलिए है क्यूंकि यदि इन दोनों ब्रह्माण्डों के गुणादि का योग हो जाए, तो यह संसार ही उस अचलित ब्रह्माण्ड में लय हो जाएगा और अचलित ही हो जाएगा (अर्थात इस समस्त चलित ब्रह्माण्ड का संपूर्ण नाश ही हो जाएगा)I इसी नाश को बचने के लिए ही सर्वसम ब्रह्माण्ड, जो चलित और अचलित ब्रह्माण्डों से भी समता में है, ब्रह्म रचना में इन दोनों ब्रह्माण्ड स्वरूपों के मध्य में बैठाया गया है I इस ब्रह्माण्ड में जो हीरे का प्रकाश होता है, उसको हलके नीले रंग ने घेरा भी होता है और इसी साक्षात्कार से इस ब्रह्माण्ड को ब्रह्मलोक से पृथक रूप में जाना जाता है, और तब भी जाना जाता है, जब इस ब्रह्माण्ड का नाता ब्रह्मलोक से ही होता है I
- जड़ ब्रह्माण्ड, ऊर्जात्मक ब्रह्माण्ड, जड़त्व का ब्रह्माण्ड, तम ब्रह्माण्ड, डार्क मैटर, … यह ब्रह्माण्ड का वह भाग है जो जड़त्व को पाकर, जड़ सा हुआ है I यह जड़ काले वर्ण के बिन्दु रूपों में ही अचलित ब्रह्माण्ड के भीतर निवास करती है I ऐसा होने के कारण, अचलित ब्रह्माण्ड के भीतर असंख्य गाढ़े काले और अन्धकार के समान बिंदु पाए जाते हैं I इन बिंदुओं की वास्तविकता ऊर्जा ही है और इन्ही असंख्य बिन्दुओं को डार्क मैटर भी कहा जाता है I जब ब्रह्माण्डीय ऊर्जा पर बहुत कम समय में बहुत अधिक दबाव आता है, तब वह ऊर्जा बहुत अधिक मात्रा में संकुचित होती है और जड़त्व को प्राप्त होती है I और जड़ को प्राप्त होकर, गाढ़े काले वर्ण के असंख्य बिन्दुओं के स्वरूप में आ जाती है I और इन बिंदुओं को यदि छेड़ोगे, तो उनमें से दस हाथ वाली महाकाली ही प्रकट हो जाएंगी I इस ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार मार्ग जड़ समाधि होता है I
- अचलित ब्रह्माण्ड, सनातन ब्रह्माण्ड, शून्य ब्रह्माण्ड, मूल ब्रह्माण्ड, प्राथमिक ब्रह्माण्ड, पशुपतिनाथ लोक, भगवान् पशुपतिनाथ की गद्दी, भगवान् पशुपतिनाथ का सिंघासन, अंधकारमय ऊर्जा, डार्क एनर्जी, … यह ब्रह्माण्ड का वह भाग है जो बहुत विशालकाया आकार का होता है I यह ब्रह्माण्ड प्राथमिक था और इसी के भीतर ब्रह्माण्ड के अन्य तीनों स्वरूप का उदय हुआ था I यह ब्रह्माण्ड शून्य ही है I और क्यूँकि शून्य का न तो कभी उदय हुआ है और न ही अंत संभव है, इसलिए यह सनातन ब्रह्माण्ड ही है I इसी के कारण योग और वेद मनीषियों ने ब्रह्माण्ड को भी सनातन ही कहा था I शून्यमय होने के कारण, महाप्रलय में भी इस ब्रह्माण्ड का नाश नहीं होता I और यही वह ब्रह्माण्ड है, जो महाप्रलय में भी सुरक्षित रहने के कारण, महाप्रलय के पश्चात प्राथमिक ब्रह्माण्ड के स्वरूप में पुनरोदय होता है I
अब ऊपर बताए गए बिन्दुओं को आधार बनाकर, इस अध्याय के अगले भाग पर जाता हूँ I
आगे बढ़ता हूँ…
अब वज्रमणि शरीर के पाँच स्वरूप को बताता हूँ…
- प्रथम स्वरूप, … सूक्ष्म श्वेत शरीर, सूक्ष्म श्वेत सिद्ध शरीर, परा प्रकृति का सिद्ध शरीर, परा प्रकृति सिद्धि, अदि शक्ति सिद्धि, आदि शक्ति का सिद्ध शरीर, प्रकृति के नवम आकाश की सिद्धि, प्रकृति के नवम कोष की सिद्धि, सत्त्वगुण शरीर, सत्य साईं बाबा का सिद्ध शरीर, …
वज्रमणि शरीर की सिद्धि की यह पहली दशा है I
यह परा प्रकृति से संबद्ध शरीर है I जब साधक की चेतना परा प्रकृति में जाती है, तब साधक इस सिद्धि को प्राप्त करता है I और जहाँ यह सिद्ध शरीर भी परा प्रकृति के समान सूक्ष्म श्वेत वर्ण का ही होता है I
जब बुद्धि सत्त्वगुणी होकर, मन चित और अहम् को भी सत्त्वगुण में स्थापित कर देती है, तो इस दशा का प्रमाण यह सिद्धि शरीर होता है I इस दशा को पाए हुए योगी की चेतना नवम आकाश में गमन कर जाती है और प्रकृति के इसी नवम कोष में ही स्थित हो जाती है I
टिपण्णी: उत्कर्ष पथ में साधक की गति, ब्रह्म रचना की उत्पत्ति से संबंधित गति के विपरीत ही होती है I इसलिए रचना के समय जो प्रथम दशा थी, वही उत्कर्ष पथ की गति के समय में अंतिम पाई जाएगी I क्यूंकि यह अतिसूक्ष्म, श्वेत मेघ के समान जो परा प्रकृति है, वही रचना के समय प्रकृति का प्रथम कोश था और क्यूँकि प्रकृति के नौ कोष ही हैं, इसलिए उत्कर्ष पथ में यह परा प्रकृति, प्रकृति के नवम कोष (अर्थात प्रकृति के अंतिम कोष) के स्वरूप में ही पाई जाएगी I
आगे बढ़ता हूँ…
इस नवम कोष में कई सारे सिद्ध निवास करते हैं I और इस नवम कोश की दिव्यता आदिशक्ति ही हैं I बौद्ध पंथ में परा प्रकृति (अर्थात नवम आकाश) के इन सिद्धों को बिधिसत्त्व भी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है, वह योगी जिसकी बुद्धि सात्विक हुई है I
जो सिद्ध इस शरीर को प्राप्त होकर परा प्रकृति में निवास कर रहे होते हैं, वह अपनी मुक्ति से पूर्व, कम से कम एक बार तो किसी न किसी स्थूल रूप में लौटेंगे ही I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह नवम आकाश, प्रकृति की सबसे ऊपर की दशा होने पर भी, कैवल्य मोक्ष को नहीं दर्शाता है I
जब साधक की आंतरिक दशा परा प्रकृति के समान हो जाती है, तब ही उस साधक की काया में वह परा प्रकृति इस सिद्ध शरीर के स्वरूप में प्रकट होती हैं I इसका अर्थ हुआ कि जबतक साधक की आंतरिक दशा परा प्रकृति के समान पूर्णरूपेण सत्त्वगुणी नहीं होगी, तबतक साधक की काया के भीतर यह सिद्ध शरीर प्रकट भी नहीं होगा I
और क्यूँकि परा प्रकृति का संबंध आदि शक्ति से भी होता है, इसलिए यह सिद्ध शरीर आदि शक्ति का वह स्वरूप भी है, जो साधक की काया के भीतर ही प्रकट होता है I इसलिए इसको आदि शक्ति सिद्धि, आदि शक्ति सिद्ध शरीर आदि भी कहा जा सकता है I
आगे बढ़ता हूँ…
जब यह सिद्ध शरीर परा प्रकृति में चला जाता है और उन परा प्रकृति में रमण कर रहा होता है, तब साधक को ऐसा लगता है जैसे वह किसी विमान के पंख पर बैठ हुआ है, और वह विमान किसी श्वेत वर्ण के मेघ से जा रहा है I
सत्य साईं बाबा के पास यह सिद्ध शरीर है I
इसके अतिरिक्त मेरे स्थान के समीप जो कोई 500-600 वर्ष पूर्व के वैष्णव सिद्ध की पीठ है, और उन सिद्ध बाबा के पास भी यही सिद्ध शरीर है I
इन दोनों योगीजनों के सिद्ध शरीर भी उसी अंधकारमय प्राथमिक ब्रह्माण्ड में निवास करते हैं, जैसा ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I मैंने यह सब अपने साधनामय साक्षात्कारों से ही बताया है I
प्राथमिक ब्रह्माण्ड अंधकारमय ही था I उसी प्राथमिक अंधकारमय ब्रह्माण्ड में ही इन दोनों योगियों के परा प्रकृति से संबद्ध सिद्ध शरीर निवास कर रहे हैं I और वहीँ बैठे हुए यह दोनों योगी, साधनारत ही रहते हैं I मैंने यह सब अपनी साधना के साक्षात्कारों से ही बताया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- दूसरा स्वरूप, … हलके नीले प्रकाश से युक्त वज्रमणि शरीर, सर्वसम ब्रह्माण्ड का शरीर, सर्वसम ब्रह्माण्ड का सिद्ध शरीर, शिरडी के साईं बाबा का सिद्ध शरीर, …
वज्रमणि शरीर की सिद्धि की यह दूसरी दशा है I
जब वज्रमणि शरीर प्रकट होता है, तब उसमें हीरे के प्रकाश से युक्त रश्मियाँ होती हैं I और इस प्रकटीकरण की दशा में उस वज्रमणि शरीर की हीरे के समान प्रकाशित रश्मियों को एक हलके नीले वर्ण ने घेरा भी होता है I यही दशा ऊपर के चित्र में दिखाई गई है I
यह सिद्ध शरीर साधक के सर्वसम ब्रह्माण्ड में स्थित होने की पात्रता का प्राथमिक प्रमाण भी है I
ऐसी दशा में साधक का सिद्ध शरीर चलित और चलित ब्रह्माण्डों के योग में ही निवास करता है I ऐसा होने के कारण ही इस हीरे के समान शरीर की प्रकाश रश्मियों को घेरे हुए एक हलके नीले वर्ण का प्रकाश दिखाई देता है, और ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
चलित और अचलित ब्रह्माण्डों के मध्य में बसे होने के कारण, यही शरीर भगवान् पशुपतिनाथ का साक्षात्कार करवाता है I और जहाँ वह भगवान् पशुपतिनाथ भी पाशुपत मार्ग के सदाशिव ही होते हैं, जो पञ्च मुखी होते हैं I उन पञ्च मुखी सदाशिव के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I
इसी सिद्ध शरीर का आलम्बन लेकर साधक इन्द्रलोक, विद्युत् लोक, वरुण लोक और अंततः पशुपति लोक का साक्षात्कार करता है I और अंततः यह सिद्ध शरीर विद्युत् लोक में ही लय हो जाता है I इन सब लोकों का वर्णन एक पूर्व के अध्याय में भी किया गया था, जिसका नाम देवयान (और महायान) भी था I
इस शरीर की सिद्धि पूर्व के अध्यायों में बताए गए शिव शक्ति योग से भी हो सकती है I लेकिन इस सिद्धि की प्राप्ति के लिए साधक को शैव से अधिक शाक्त ही होना होगा I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह सिद्ध शरीर, प्रधानतः शाक्त मार्ग का अंग ही रहा है I
शिरडी के साईं बाबा इस सिद्ध शरीर के धारक हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
- तीसरा स्वरूप, … पशुपति लोक में स्थित वज्रमणि शरीर, पशुपतिनाथ लोक में स्थित वज्रमणि शरीर, अचलित ब्रह्माण्ड में स्थित वज्रमणि शरीर, सनातन ब्रह्माण्ड में स्थित वज्रमणि शरीर, वज्रमणि शरीर का अचलित ब्रह्माण्ड में निवास, वज्रमणि शरीर का पशुपतिनाथ लोक में निवास, ब्रह्म आयुर्वेद शरीर, ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य शरीर, ब्रह्म आयुर्वेद सिद्धि, ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य सिद्धि, ब्रह्म आयुर्वेद सिद्ध शरीर, ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य का सिद्ध शरीर, ईसा मसीह का सिद्ध शरीर, ईसा मसीहा की सिद्धि, …
यह चित्र अब तक बताए गए वज्रमणि सिद्ध शरीर की तीसरी सिद्धि को दर्शा रहा है I
इस दशा में वज्रमणि शरीर अचलित ब्रह्माण्ड में निवास करता है जिसके कारण उस वज्रमणि शरीर को एक अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है I यह अंधकारमय दशा ही अचलित ब्रह्माण्ड है, जो पशुपतिनाथ भगवान् का लोक है I
और पाशुपत मार्ग में इसका साक्षात्कार भी सदाशिव के सद्योजात मुख (अर्थात सद्योजात सदाशिव या सदाशिव सद्योजात) के मार्ग पर गति करते हुए होता है I
इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति ब्रह्म आयुर्वेद की सिद्धि को भी दर्शाती है I ऐसा होने के कारण, इसका धारक योगी ब्रह्म आयुर्वेद सिद्ध, ब्रह्म आयुर्वेदाचार्य, ब्रह्माण्ड का आयुर्वेदाचार्य इत्यादि भी कहलाया जाता है I
इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति कई सारे मार्गों से भी होती है, जिसके कारण इस शरीर का नाता कई सारे उत्कर्ष मार्गों सेभी होता है I तो अब उन मार्गों को बताता हूँ…
- यिन यांग यांग, यांग यिन योग, … चीनी सभ्यता में जो यिन यांग कहा गया है, उसका नाता भी इसी सिद्ध शरीर से है I यह शरीर इस मार्ग की सिद्धि को दर्शाता है I
- भद्र भद्री योग, भद्री भद्र योग, … तिब्बती बौद्ध पंथ में जो भद्र भद्री योग बताया गया है, यह सिद्ध शरीर उसका भी अंग है I
- तम्मो तंत्र,… तिब्बती बौद्ध पंथ में जो तम्मो तंत्र बताया गया है, यह सिद्ध शरीर उसका भी अंग है I
- पवित्र पिता और पवित्र आत्मा का योग शरीर, पवित्र पिता और पवित्र ऊर्जा का योग शरीर, … ईसाई पंथ में जो पवित्र पिता और पवित्र आत्मा बताए गए हैं, यह सिद्ध शरीर उनके योग का भी द्योतक होता है I बाइबिल के पवित्र पिता भगवान् पशुपतिनाथ ही हैं और पवित्र आत्मा प्राणों का सर्वसम स्वरूप ही है I
- शक्ति शिव योग, शिव शक्ति योग, … वैदिक वाङ्मय में जो शिव शक्ति योग कहा गया है, उसका नाता भी इसी सिद्ध शरीर से है I यह शरीर इस शिव शक्ति योगमार्ग की असंख्य सिद्धियों में से, एक सिद्धि को दर्शाता है I
- महाकाल महाकाली योग शरीर सिद्धि, महाकाली महाकाल योग शरीर सिद्धि, … वैदिक वाङ्मय में जो महाकाल और महाकाली कहे गए हैं, यह सिद्ध शरीर उनके योगदशा की ओर लेकर जाने वाला मार्ग भी है I इस महाकाली महाकाल योग के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I
क्यूंकि कलियुग रुग्णता (अस्वस्थता) का ही युग होता है, और क्यूंकि कलियुग के कालखंडों में यह रुग्णता (अस्वस्थता) केवल स्थूल देह तक ही सीमित नहीं होती, इसलिए यदि कोई योगी इस सिद्धि को कलियुग के कालखण्ड में पाएगा, तो उसको सभी प्रकार के कष्टों से सामना भी करना पडेगा I
क्यूंकि इस सिद्ध शरीर की ऊर्जाओं से कलियुगी तंत्र और उन कलियुगी तंत्रों के बन्धुगण सुदूर ही भागते हैं, और इस सिद्धि को वह नाश करने की चेष्टा ही करते रहते हैं, इसलिए कलियुग का कालखण्ड में जो भी साधक इस सिद्ध शरीर को पाया होगा, उसको कलियुगी तंत्रों, कलियुगी दिव्यताओं और उनको मानने वालों से व्याधियां आएंगी ही I और ऐसे तंत्र और उनके समर्थक ऐसे योगी को कष्ट दिए बिना भी नहीं रह पाएंगे I
और जबतक योगी इस सिद्धि से आगे की और गति नहीं करेगा, अर्थात वह महाकाल महाकाली योग को सिद्ध करके इस सिद्धि से आगे की दशाओं में नहीं जाएगा, तबतक कलियुगी ऊर्जाएं, उनके तंत्र और उनको मानने वाले उस योगी को कष्ट देते ही जाएंगे I
इसलिए यदि इस सिद्धि की प्राप्ति के पश्चात योगी को अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करना है, तो उस महाकाली महाकाल योग को तो सिद्ध करना ही पडेगा और इस सिद्धि से आगे की दशाओं में भी जाना ही पड़ेगा I और यदि योगी ऐसा नहीं करेगा, तो कलियुगी ऊर्जाएं, उनके तंत्र और उनको मानने वाले इस सिद्धि के धारक योगी की मृत्यु के कारण भी बन सकते हैं I
यही ईसा मसीह के साथ ही नहीं, बल्कि कई और योगीजनों के साथ भी हुआ था, क्यूंकि वह सब इस सिद्धि से आगे तब भी नहीं गए थे, जब उन्होंने इस सिद्धि को कलियुग का कालखण्ड में ही प्राप्त किया था I
यह कष्ट इसलिए आते हैं क्यूंकि यह सिद्ध शरीर अचलित ब्रह्माण्ड का ही अंग होता है I ऐसा होने के कारण, अचलित ब्रह्माण्ड को यदि कलियुग के कालखण्ड में ही चलित ब्रह्माण्ड में ही लेकर आओगे, तो चलित ब्रह्माण्ड विचलित हो जाएगा I और उस चलित ब्रह्माण्ड से जुड़े हुए सभी मनीषी इस सिद्ध शरीर के धारक को विविध प्रकार के कष्ट भी देने लगेंगे जिसके कारण अंततः इस सिद्ध शरीर के धारक की मृत्यु तक हो सकती है I
इस शरीर की सिद्धि देवयान का ही अंग होती है I
ईसा मसीह भी इसी सिद्ध शरीर के धारक हैं I और ऐसा होने के कारण, ब्रह्माण्डीय पदानुक्रम (अर्थात उत्कर्ष पथ में साक्षात्कार हुई ब्रह्माण्ड दशाओं के पदानुक्रम) में ईसा मसीह का स्थान सत्य साईं बाबा और शिरडी के साईं बाबा, दोनों से ऊपर ही है I
लेकिन क्यूंकि इसा मसीह का यह सिद्ध शरीर, वज्रमणि शरीर की गंतव्य दशा भी नहीं है, इसलिए यह भी बोलना उचित होगा, कि इसी मसीह अब तक ब्रह्मलोक की ओर गति के गंतव्य को नहीं पाए हैं I
और एक बात कि इस सिद्ध शरीर का जो चित्र दिखाया गया है, वह इस महाकाल महाकाली योग का शिखर भी नहीं है I इस शिखर के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
इस सिद्ध शरीर के प्रकट होते ही साधक के प्राण विसर्गी होने लगते हैं I इसका अर्थ हुआ कि साधक के प्राण सहस्रार से परे जाने का प्रयास करने लगते I
लेकिन इस सिद्धि से विसर्गी हुए प्राण, सहस्रार को तब ही पार कर पाएंगे, जब साधक प्रत्यहार में ऐसा स्थित हो जाएगा, कि उसका प्रत्याहार समस्त ब्रह्म रचना से ही होगा… अन्यथा नहीं I
इसका अर्थ हुआ कि इस सिद्ध के पश्चात, जबकि साधक के प्राण विसर्गी हुए बिना नहीं रह पाएंगे, लेकिन वह विसर्ग में तब ही जा पाएंगे जब साधक अपनी आंतरिक दशा में (अर्थात अपने भाव राज्य में) समस्त ब्रह्म रचना का ही त्याग कर देगा I और यदि साधक ऐसी दशा में किसी भी कारण से मृत्यूलाभ कर जाएगा, तो वह पुनः किसी न किसी स्थूल शरीर में, किसी न किसी मृत्युलोक में पुनः लौटेगा ही I
इसीलिए ऐसे साधकगणों के लिए उनके दुबारा लौटने की बात करी जाती है, और यही कारण है कि ईसा मसीह के दोबारा लौटने की बात भी हुई है I
यह दोबारा लौटने की बात इस बात का प्रमाण भी है कि अपने उस जन्म में इसा मसीह के प्राण विसर्ग को नहीं पाए थे और विसर्गी न पाने का भी वही कारण था जो यहाँ बताया गया है, कि ईसा मसीह समस्त ब्रह्म रचना को उनकी आंतरिक दशा में (अर्थात भाव राज्य में) त्याग नहीं पाए थे I
इसलिए इस दृष्टिकोण से, ईसा मसीह के पास इस अध्याय में बताए जा रही वज्रमणि शारीर की पूर्ण सिद्धि भी नहीं थी… इतना तो स्पष्ट ही है I
और ऐसी ही दशा सत्य साईं बाबा, मेरे स्थान के सिद्ध बाबा और शिरडी के साईं बाबा की भी है I
इसलिए यह सब के सब इस वज्रमणि शरीर की किसी न किसी अपूर्ण दशा को पाए हुए योगी ही हैं I
- चौथा स्वरूप… वज्रमणि शरीर का हिरण्यगर्भ में लय, …
यह चित्र सांकेतिक ही है, क्यूंकि इसमें उस वज्रमणि शरीर को श्वेत वर्ण के बिन्दु रूप में ही दिखाया गया है I
इस सिद्धि के पश्चात, जब मैंने यह चित्र बनाया तो कुछ ही समय में इस चित्र के मध्य के श्वेत भाग में, ब्रह्म का लिपीलिंगात्मक स्वरूप जो अक्षर ब्रह्म, ॐ ही है, वह उद्भासित हो गया I और इसके कुछ दिनों तक वह अक्षर ब्रह्म इसी चित्र में रहा, और इसके पश्चात वह धीरे धीरे लुप्त भी होने लगा I इसी स्थिति में मैंने यह छाया चित्र लिया है I
इस चित्र में सुनहरे वर्ण के हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं, और इनके मध्य में जो श्वेत वर्ण का बिन्दु दिखाया गया है, वह वज्रमहि शरीर की इस दशा का द्योतक है जो उन हिरण्यगर्भ में पूर्णतः लय होने ही वाला है I
यह चित्र उस दशा को दर्शा रहा है जब वह साधक पुरुषार्थ चतुष्टय के पहले तीन पुरुषार्थ से परे जा चुका है (अर्थात धर्म, अर्थ और काम से परे जा चुका है) और अब अंतिम पुरुषार्थ जो मोक्ष है, उसकी ओर गति कर गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
साधक की काया के भीतर, इस चित्र की दशा का नाता हृदय क्षेत्र से होता है I
हृदय में जो पुरुष का प्रकाश, श्वेत वर्ण के कमल के समान होता है और ऐसा लगता है जैसे उसमें से ऊर्जा के बुलबुले उठ रहे हैं I इसी प्रकाश में यहाँ बताया जा रहा सिद्ध शरीर लय होता है I ऐसा होने से यह वज्रमणि शरीर सीधा-सीधा ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से उस भाग में गति कर जाता है, जो चौथा है और जो पुरुषार्थ चतुष्टय के मोक्ष को दर्शाता है I
तो इसका अर्थ हुआ कि हृदय के पुरुष से वह सिद्ध शरीर सीधा-सीधा पुरुषार्थ चतुष्टय के मोक्ष नामक अंतिम भाग को ही प्राप्त हो जाता है I इसलिए जिस साधक की चेतना इस चित्र के मध्य में दिखाए गए श्वेत वर्ण के प्रकाश में लय होगी, वह साधक सीधा-सीधा मुक्तिलाभ ही कर जाएगा I
लेकिन क्यूंकि इस दशा तक मैं ब्रह्म रचना के समस्त दैविक भागों में नहीं गया था, इसलिए इस दशा का साक्षात्कार करने पर भी मेरी चेतना इसमें लय नहीं हो पाई थी I
हो सकता है कि इस भाग का साक्षात्कार आगे होना था, किन्तु मैं इसका साक्षात्कार यहीं कर गया था, इसलिए मेरी चेतना इसमें लय नहीं हो पाई थी I और हो सकता है कि इसीलिए उस समय मेरे हृदय के भीतर बैठे हुए सनातन गुरु ने ऐसा करने के लिए वर्जित भी किया था I
इस चित्र में, सुनहरा भाग हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं, श्वेत भाग पुरुष का वह कमल स्वरूप है जिसमें वज्रमणि शरीर प्रवेश करके, पुरुषार्थ चतुष्टय को दर्शाते हुए ब्रह्मलोक के बीसवें भाग में प्रवेश करता है I
इसलिए ऊपर दिखाया गया चित्र हिरण्यगर्भ और पुरुष तत्त्व के उस योग को दर्शाता है, जो साधक की चेतना को सीधे-सीधे ब्रह्मलोक में ही लेकर चला जाता है I और जहाँ हिरण्यगर्भ ज्ञानरूप में और पुरुष सत् स्वरूप ही होते हैं I
अब हृदय में बताए गए हिरण्यगर्भ का हृदय में प्रकटीकरण बताता हूँ…
बुद्धि का वर्ण पीला ही होता है I जबतक साधक का चित्त संस्कार रहित नहीं होता है, तबतक बुद्धि चित्त को भेदकर, चित्त के भीतर निवास करती है I ऐसी दशा में साधक के ह्रदय में पीले वर्ण की बुद्धि, चित्त के भीतर स्थापित हुई पाई जाएगी I
और त्रिगुण में से जिस भी गुण से चित्त युक्त होगा और इसके अतिरिक्त जिस वर्ण के संस्कार चित्त में बसे हुए होंगे, वैसा ही चित का वर्ण होगा I
लेकिन जब चित्त संस्कार रहित हो जाता है, तब उसका वर्ण श्वेत ही होता है I
जब साधक का चित्त संस्कार रहित हो जाता है, तब साधक का चित्त, बुद्धि को भेदकर, बुद्धि के भीतर निवास करता है I ऐसी दशा में साधक के ह्रदय में श्वेत वर्ण का चित्र, पीले वर्ण की बुद्धि के भीतर स्थापित हुआ पाया जाएगा I यही ऊपर के चित्र की दशा है इसलिए ऊपर का चित्र इस बात का प्रमाण भी दे रहा है कि साधक का चित्र एक संस्कार रहित हो गया है I
जब चित्त संस्कार रहित होता है, तब वही चित्त पुरुष का द्योतक हो जाता है और चेतन स्वरूप कहलाता है I
जब ऐसा संस्कार रहित चित्त, पीले वर्ण की बुद्धि को भेदकर, बुद्धि के भीतर ही प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह बुद्धि सुनहरे वर्ण में आती है I
यही सुनहरा वर्ण उन हिरण्यगर्भ का भी है, जो संस्कार रहित चित्त और निष्कलंक बुद्धि की योगदशा ही हैं I यही हिरण्यगर्भ ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप भी है जिसके कारण हिरण्यगर्भ ब्रह्म जो सुनहरे वर्ण के होते हैं, वह विशुद्ध चेतना और निष्कलंक बुद्धि की योगदशा के भी द्योतक होते हैं I और ऐसे ही स्वरूप में हिरण्यगर्भ साधक के हृदय क्षेत्र में ही प्रकाशित होते हैं, जिसको इस भाग के चित्र में भी दिखाया गया है I
इन सबाका अर्थ तो यह भी हुआ कि संस्कार रहित चित्त ही पुरुष है, और उस संस्कार रहित चित्त के “विशुद्ध चेतना” नामक भाग को अपने भीतर बसी हुई निष्कलंक बुद्धि ही हिरण्यगर्भ कहलाती है I
आंतरिक योग मार्ग में ऐसा ही पाया जाता है और ऐसा तब पाया जाता है जब साधक योगमार्ग में साक्षात्कार हुई दशाओं के वास्तविक स्वरूप में जाने का प्रयास कर रहा होता है I
और इस प्रयास में वह साधक उस साक्षात्कार हो रही दशा के अखण्ड स्वरूप को खण्ड रूप में, उस साधक के अपने ही आत्मबल से विभाजित कर रहा होता है, ताकि वह साधक यह जान पाए कि उस दशा के भीतर जो उसका मूल है, वह क्या है और उस दशा का गंतव्य क्या है I
और यदि साधक की चेतना ऊपर दिखाए हुए चित्र के सुनहरे और श्वेत वर्ण के मध्य में बैठ जाएगी, तो साधक की काया में जो ऊर्जाओं का उफान चल रहा होगा, वह भी शांत होने लगेगा I
आगे बढ़ता हूँ…
- पांचवा स्वरूप… वज्रमणि शरीर, वज्रमणि शरीर का अंतिम स्वरूप, वज्र शरीर की प्राप्ति, सर्वसम शरीर की प्राप्ति, वज्रमणि शरीर का गंतव्य स्वरूप, ब्रह्मा शरीर, सगुण निर्गुण स्वरूप स्थिति, विशुद्ध सत् स्वरूप स्थिति, सर्वसम स्वरूप स्थिति, वज्र शरीर सिद्धि, सर्वसम शरीर सिद्धि, सर्वसम सिद्धि, वज्रमणि शरीर सिद्धि, वज्र सिद्ध शरीर सिद्धि, सर्वसम सिद्ध शरीर सिद्धि, वज्रमणि सिद्ध शरीर, ब्रह्म शरीर क्या है, वज्र शरीर क्या है, वज्रमणि शरीर क्या है, हीरे के समान प्रकाशमान शरीर, ब्रह्मा शरीर क्या है, …
ऊपर के चित्र वज्रमणि सिद्ध शरीर का अंतिम स्वरूप, अर्थात वज्रमणि शरीर की गंतव्य सिद्धि को दर्शा रहा है I इस चित्र में जो वज्रमणि शरीर है वह बहुत ही प्रकाशमान श्वेत वर्ण का होता है जिसमें कोई और वर्ण नहीं होता है और यह शरीर हीरे से समान चमक रहा होता है I
यह शरीर सर्वसमता को दर्शाता है, अर्थात सर्वसम सिद्धि का भी द्योतक है I यह शरीर वज्र सिद्धि का भी द्योतक है I यह सिद्ध शरीर वज्रास्त्र प्राप्ति का मार्ग भी होता है I यही सिद्ध शरीर का आलम्बन लेकर साधक की चेतना ब्रह्मलोक में गति कर जाती है I और यदि इस गति के समय वह साधक ब्रह्मलोक के सोलह नीचे के और चार ऊपर के भागों से न लगाव और न ही अलगाव करेगा, तो ऐसा साधक ब्रह्मलोक के उस इक्कीसवें भाग में ही प्रवेश कर जाएगा, जिसमें कम से कम इस ब्रह्म कल्प में तो कोई भी योगी पहुँच नहीं पाया है I
और इस इक्कीसवें भाग में जाकर, वह साधक चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म और सर्वसम पितामही सरस्वती, दोनों का ही पूर्णरूपेण और समानरूपेण स्वरूप हो जाएगा I ऐसा साधक ब्रह्मलोक के इक्कीसवें (अर्थात अंतिम) भाग में उन्ही पितामह और पितामही में ही पूर्णरूप में और समानरूप में लय भी हो सकता है I लेकिन ऐसा लय वह तब ही होगा, जब वह साधक लय होने चाहेगा और ऐसी इच्छा में वह ब्रह्मलोक की सिद्धियों को धारण नहीं करेगा, बल्कि उन सभी सिद्धियों का साक्षी मात्र होकर ही रहेगा I
यह दशा इस अध्याय और इस संपूर्ण ग्रंथ की एक अति उत्कृष्ट सिद्धि ही है I
और प्राप्ति के पश्चात, यदि वह साधक ब्रह्मलोक से आगे न जाना चाहे, तो वह पितामह, पितामही, उनका ब्रह्मलोक और उस ब्रह्मलोक की सर्वसम ऊर्जा, सभी हो जाएगा I
यही सगुण निर्गुण स्वरूप स्थिति होती है I और यही विशुद्ध सत् स्वरूप स्थिति भी होती है I ऐसे साधक का आत्मस्वरूप सगुण निर्गुण भी होता है, और उसकी आगे की गति में वही विशुद्ध सत् भी कहलाता है I
जहाँ तक उस अंतिम गति का प्रश्न है, जो निर्गुण ब्रह्म मे जाती है, वह गति ही तबतक प्रशस्त नहीं होती है, जबतक साधक इस अध्याय को सिद्ध नहीं करता है I इसलिए इस अध्याय में बताए गए बिन्दु निर्गुण निराकार ब्रह्म में लय होने के मार्ग के अभिन्न अंग ही हैं I
जब यह सिद्धि प्राप्त होती है, तब कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन साधक की काया पर एक हीरे के समान प्रकाश भी आ जाता है I
और ऐसा ही प्रकाश साधक के सर के ऊपर के भाग में भी दिखाई देता है I
और यही हीरे के समान प्रकाश साधक के ब्रह्मरंध्र में भी दिखाई देता है जो साधक के ब्रह्मरंध्र के सुनहरे वर्ण के भीतर ही सर्वसम प्रजापति के विराजमान होने का द्योतक होता है I
और इसके साथ साथ साधक के देवी रंध्र में एक सूक्ष्म श्वेत प्रकाश दिखाई देने लगता है जो परा प्रकृति (अर्थात आदिशक्ति) के साधक के देवीरंध्र में विराजमान होने का द्योतक होता है I
इसी सिद्धि का आलम्बन लेकर साधक की चेतना ब्रह्मरंध्र को भेदती है और ब्रह्मरंध्र के भीतर की दशाओं का साक्षात्कार करती है और अंततः उस ब्रह्मरंध्र को पार भी कर जाती है I
आगे बढ़ता हूँ…
- परा प्रकृति सिद्ध शरीर का मार्ग, ब्रह्मलोक सिद्ध शरीर का मार्ग, …
और अब परा प्रकृति सिद्ध शरीर का मार्ग और ब्रह्मलोक सिद्ध शरीर का मार्ग और उसके कुछ और बिंदुओं को बताता हूँ…
जब साधक का अव्यक्त सिद्धि को दर्शाता हुआ शरीर उसके अपने कारण जो अव्यक्त प्रकृति ही है, उसमें में ही लय हो जाता है, तब ही साधक की चेतना अव्यक्त से आगे जाती है I
इस दशा में वह चेतना एक सूक्ष्म श्वेत वर्ण के मेघ के समान दशा में चली जाती है I साधक के उत्कर्ष पथ में यह सूक्ष्म श्वेत वर्ण की मेघ के समान ही प्रकृति का वह नवम कोष है जो परा प्रकृति भी कहलाई जाती है I और इसकी दिव्यता माँ आदि शक्ति ही हैं I
ऐसे साक्षात्कार के समय साधक उसी सगुण निराकार प्रकृति के नवम कोष से संबद्ध एक सिद्ध शरीर को पाता है और इसी सिद्ध शरीर को पाकर, वह साधक इस परा प्रकृति में भ्रमण करके, इस दशा को जानता है I
इस परा प्रकृति में बहुत सारे सिद्ध भी निवास करते हैं, और इस दशा के साक्षात्कार के समय वह साधक उन सिद्धों से भी मिलता है I बौद्ध पंथ में इन परा प्रकृति में निवास करते हुए सिद्धों को बोधिसत्व के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- जाग्रत प्राण का प्रमाण वज्रमणि शरीर है, जाग्रत प्राण का प्रमाण वज्र शरीर है, जाग्रत प्राण का प्रमाण सर्वसम शरीर है, जाग्रत प्राण का प्रमाण ब्रह्मलोक का शरीर है, …
अब जाग्रत प्राण का प्रमाण वज्रमणि शरीर है, इस बिंदु को बताता हूँ…
आंतरिक अश्वमेध की प्रक्रिया में, अमृत कलश के निरालंबस्थान पर गमन के पश्चात, पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण का समतावादी योग होता है I इस योग से वह सब प्राण और उपप्राण अपनी पृथक दशाओं, क्रियाओं और स्वरूपों को त्यागते हैं और समतावाद को प्राप्त होते हैं I
ऐसी दशा में साधक की काया के भीतर एक अतिसूक्ष्म श्वेत प्रकाश को धारण किए हुए शरीर का प्रकटीकरण होता है I यही परा प्रकृति से संबद्ध सिद्ध शरीर है और इसी को यहाँ पर सूक्ष्म श्वेत शरीर कहा गया है I
इस दशा के पश्चात समता को प्राप्त किआ हुआ प्राणमय कोष, हीरे के प्रकाश को धारण कर लेता है I यह स्थिति तब आती है जब वह प्राण और उपप्राण सर्वसमता को प्राप्त होते हैं I यही सर्वसमता को दर्शाता हुआ सिद्ध शरीर है, जिसका नाता ब्रह्मलोक से होता है I इसी को यहाँ पर ब्रह्म शरीर, वज्र शरीर, वज्रमणि शरीर, हीरे के समान प्रकाशमान शरीर और ब्रह्मा शरीर आदि कहा गया है I
यह वज्रमणि शरीर प्राणों की पूर्ण जागृत दशा को दर्शाता है I
जब प्राण अपने पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण नामक भागों में विभाजित नहीं हुआ था, तब प्राण एक ही था क्यूंकि उसके समस्त भाग एक दुसरे से योग लगाए हुए थे I ऐसी दशा में वह प्राण, हीरे के समान प्रकाश को धारण किया हुआ था I ऐसी दशा में वह प्राण सर्वसम ही था I
और वही प्राण, ब्रह्म रचना में पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण के स्वरूप में आया था, और ऐसा होने के पश्चात वह अपने पृथक वर्णों, क्रियाओं और गति आदि को पाया था I
क्यूंकि उत्कर्ष पथ रचना के पथ से विपरीत होता है और क्यूंकि कोई उत्कर्ष पथ है ही नहीं जो योग सिद्धांत में बसा नहीं होता है, और समतावादी नहीं होता है, इसलिए जब साधक उत्कर्ष पथ पर गति करता है, तब उसके प्राण एक दुसरे से योग करने लगते हैं I
इसी योग प्रक्रिया में प्राण अपने विभजित स्वरूप को त्यागते हैं और समतावाद को प्राप्त होते हैं I जब ऐसा होता है तब ही साधक परा प्रकृति का साक्षात्कार करने का पात्र होता है I
और इसी दशा में साधक की काया के भीतर एक सुक्ष्म श्वेत वर्ण के मेघ को दर्शाता हुआ सिद्ध शरीर प्रकट होता है, जिसका नाता परा प्रकृति से होता है I यही परा प्रकृति शरीर, श्वेत शरीर, नवम आकाश का शरीर, प्रकृति के नवम कोष का शरीर, आदि शक्ति शरीर आदि कहलाया गया है I
और यदि साधक इस सिद्ध शरीर और इसका कारण जो परा प्रकृति ही हैं, उसका साक्षात्कार करते हुए भी उससे अलगाव अथवा लगाव नहीं करेगा और उसी समता भाव में स्थित होकर ही रहेगा, तब उसी साधक की कायाके भीतर, अकस्मात् ही एक वज्रमणि के प्रकाश को धारण किया हुआ सिद्ध शरीर प्रकट हो जाएगा I यही वज्र शरीर, वज्रमणि शरीर, हीरे के प्रकाश को धारण किया हुआ सिद्ध शरीर, वज्रमणि बुद्ध शरीर, ब्रह्मा शरीर और ब्रह्मलोक शरीर, आदि कहलाया गया है I
यह वज्रमणि शरीर सर्वसम ब्रह्म का द्योतक होता है I और वह हीरे के समान प्रकाश को धारण किया सिद्ध शरीर इस बात का प्रमाण भी होता है, कि साधक उन सर्वसम ब्रह्म को प्राप्त होने का पात्र हुआ है, जिसके कारण वह साधक आगे चलकर सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक का साक्षात्कार और उसमें गमन भी कर पाता है I
इसी साक्षात्कार की दशा को वेद मनीषियों ने “एकोहं बहुस्याम:” के वाक्य से दर्शाया था I
इसका अर्थ हुआ कि उत्कर्ष पथ में…
- जबतक प्राण जागृत नहीं होते, तबतक वह अपने पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण स्वरूप में ही पाए जाएंगे I
- जब प्राण उनकी अर्धजागृत अवस्था में जाते हैं,तब वह आपस में योग करके, एक सूक्ष्म श्वेत वर्ण के ही हो जाते हैं I यही वह समता है जिसका नाता परा प्रकृति से होता है I
- जब प्राण पूर्ण जागृत होकर, अपने योग की गंतव्य दशा को पाएंगे, तब वह हीरे के समान प्रकाशित हो जाएंगे I और इस दशा तक का मार्ग उनको एक श्वेत वर्ण की दशा से लेकर ही जाएगा, जो परा प्रकृति की होती है और इसी से आगे जाकर, वह प्राण अपने शरीरी रूप में यहाँ बताया जा रहा वज्रमणि सिद्ध शरीर स्वरूप में आ जाते हैं I यह वज्रमणि सिद्धि शरीर ही सर्वसमता सिद्धि का द्योतक है जिसका नाता ब्रह्मलोक से होता है I
- और यह वही दशा होगी जो उस समय थी जब प्राण और उपप्राण अपने पांच पांच भागों में विभाजित नहीं हुए थेI
- प्राणों का यह वज्रमणि जैसा स्वरूप उनके योग दशा के गंतव्य का ही द्योतक होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- वज्रमणि शरीर और प्राणों की सर्वसमता, वज्रमणि शरीर और सर्वसमता, …
अब वज्रमणि शरीर और प्राणों की सर्वसमता को बताता हूँ…
जबतक प्राण और उपप्राण एक दुसरे से ऐसा अद्वैत योग नहीं करेंगे, जिसमें उनकी योगदशा का सर्वसम स्वरूप प्रकट नहीं होता, तबतक वह हीरे के प्रकाश जैसे स्वरूप (अर्थात वज्रमणि स्वरूप) में भी नहीं आएँगे I
जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक साधक वज्रमणि शरीर को भी नहीं पाएगा I
और जबतक साधक इस वज्रमणि सिद्ध शरीर को नहीं पाएगा, तबतक वह साधक वज्रमणि के समान प्रकाशमान जो ब्रह्मलोक है, उसमें भी प्रवेश नहीं कर पाएगा (अर्थात ब्रह्मलोक का साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा) I
ब्रह्मलोक ही उस विशुद्ध सत् को दर्शाता हुआ सत् लोक (सतलोक) होता है I
इसलिए,…
सर्वसमता नामक तत्त्व के कारण लोक को ही ब्रह्मलोक कहा जाता है I
ब्रह्मलोक को सर्वसम सगुण निराकार स्वरूप में साक्षात्कार किया जाता है I
ब्रह्मा जी सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह स्वरूप में ही साक्षात्कार हैं I
पितामह ब्रह्मा, पितामही सरस्वती, उनका ब्रह्मलोक भी वज्रमणि के समान ही हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ…
- समता और सर्वसमता के वर्णादि प्रभेद, समता और सर्वसमता के प्रभेद, …
अब समता और सर्वसमता के वर्णादि प्रभेद को बताता हूँ…
समता जो परा प्रकृति की द्योतक है, वह अतिसूक्ष्म श्वेत वर्ण के मेघ के समान होती है I समता परा प्रकृति (अर्थात उत्कर्ष पथ का नवम आकाश या प्रकृति का नवम कोष) की ही द्योतक है I
समता का नाता, आदि शक्ति से ही होता है क्युंकि परा प्रकृति की दिव्यता (देवी) माँ आदि शक्ति ही हैं और इस पर प्रकृति में माँ आदि शक्ति के साथ और उन आदिशक्ति के ही अधीन होकर, कई सारे सिद्धादि गण भी निवास करते हैं I
और समता का गंतव्य जो सर्वसमता ही है, वह वज्रमणि के प्रकाश के समान होती है I सर्वसमता ब्रह्मलोक की ही होती है I सर्वसमता का नाता, पितामह ब्रह्मा, पितामही सरस्वती और उनके ब्रह्मलोक से ही होता है I और इस ब्रह्मलोक के बीस भागों को पार करके ही साधक उसी ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में जाता है, जहाँ केवल पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती ही निवास करते हैं, तब ऐसी दशा में वह दोनों अति प्रकाशमान हीरे के समान ही साक्षात्कार होते हैं I
योग मार्ग की गंतव्य दशा में, योगी का सर्वस्व से योग ही होता है I
वास्तविकता में योगी होकर ही साधक अपने भीतर समता को पाएगा I
समता को प्राप्त हो कर ही योगी परा प्रकृति के साक्षात्कार का पात्र होगा I
समता को सर्वस्व में बसाकर ही योगी ब्रह्मलोक के साक्षात्कार का पात्र होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
- सर्वसमता का स्वरूप, प्राण ही ऊर्जा और ऊर्जा ही प्राण, …
अब सर्वसमता का स्वरूप, प्राण ही ऊर्जा और ऊर्जा ही प्राण, इन बिन्दुओं को बताता हूँ…
प्राणों के अपने पूर्व के अद्वैत (अर्थात एक) स्वरूप से विभाजित होना और अंततः पुनः उसी एक स्वरूप में ही लौट जाने के मार्ग और दशा से साधक जो जानता है, वह ऐसा ही होता है…
प्राण रूपी ऊर्जा सनातन ही होती है I
ऊर्जा का न कभी जन्म होता है और न ही नाश I
ऊर्जामय प्राण और प्राणमय ऊर्जा देवी की ही द्योतक है I
इस ब्रह्म रचना के मूल में वह ऊर्जा ही है, जो प्राणमय होती है I
प्राणों के मूल में ऊर्जा होती है और ऊर्जा के मूल में प्राण ही होता है I
प्राण का वास्तविक स्वरूप ऊर्जा है और ऊर्जा का वास्तविक स्वरूप प्राण है I
प्राणमय ऊर्जा से सबकुछ निर्मित होता है और प्राणों में ही अंततः लय होता है I
पदार्थ और ऊर्जा अंतरपरिवर्तनीय होते हैं, पदार्थ के मूल और गंतव्य में ऊर्जा ही है I
ऊर्जा का प्रकट स्वरूप पदार्थ (भूत या धातु) ही है, पदार्थ का लय स्वरूप ऊर्जा ही है I
प्राणमय ऊर्जा से निर्मित पदार्थों को उनके उत्कर्षादि पथ पर गति भी प्राण ही देता है I
आगे बढ़ता हूँ…
प्राणी ही जीव हो सकता है I
प्राणधारी ही प्राणी कहला सकताहै I
जो प्राणधारी नहीं है, वही निर्जीव कहलाता है I
रचना, रचना के समस्त भागों, उनके मूल और गंतव्य में प्राण है I
ऐसा होने के कारण इस समस्त ब्रह्म रचना में कुछ भी निर्जीव नहीं है I
प्राणमय दृष्टिकोण से, ब्रह्मरचना में जो भी था, है या होगा, सब जीवित ही है I
और ऐसा भी इसलिए ही है क्यूंकि…
चौरासी लक्ष योनियों में कुछ अथवा कोई निर्जीव है ही नहीं I
पितामह ब्रह्मा की रचना में किसी निर्जीव की रचना ही नहीं हुई थी I
वह प्रथम जीव जो ब्रह्मा हैं, वह अपने से पृथक कुछ रच ही नहीं पाए थे I
इसलिए जीव कभी निर्जीव का जनक हुआ ही नहीं है, और निर्जीव किसी जीव का I
और इसके अतिरिक्त…
प्राण, सगुण शिव का द्योतक है I
प्राण, प्रकृति और पुरुष दोनों का ही द्योतक है I
प्राण, ब्रह्म और ब्रह्म रचना दोनों का ही द्योतक होता है I
प्राण के योगशिखर पर सर्वसमता है, जहाँ शिव ही शक्ति हैं, शक्ति ही शिव I
काया में बसे हुए द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से, सर्वसम तत्त्व नाभि लिंग में होता है I
पञ्च कोष में सर्वसम तत्त्व का केंद्र, प्राणमय कोष के भीतर ही साक्षात्कार होता है I
प्राणमय कोष में सर्वसम तत्त्व का केंद्र, नाभि के समान प्राण के भीतर ही होता है I
नाड़ीयों में सर्वसम तत्त्व में लय हुए प्राण का स्थान, सुषुम्ना के भीतर की ब्रह्म नाड़ी है I
आगे बढ़ता हूँ…
प्राण ही दिव्यता है I
दिव्यता का प्रमाण जीवर्नबल है I
जीवर्नबल का माप भी प्राणमय क्षमता ही होती है I
इसलिए दिव्यता, जीवर्नबल और क्षमता में भी प्राणमय ऊर्जा ही है I
पर सर्वसमता में स्थित प्राण अपने सहित सबको, सर्वस्व से सर्वसम बनाता है I
यदि कोई सर्वसमता को प्राप्त हुए प्राण को छुएगा, तो वह भी सर्वसम हो जाएगा I
और इनके अतिरिक्त…
उस सर्वसम तत्त्व को स्पष्ट दर्शाते हुए तो पितामह ब्रह्मा ही हैं I
इसलिए ब्रह्मा की उपासना और स्थपना, रचना में अधिकांशतः नहीं होती I
उनके जीव जगत में पितामह ब्रह्मा को अधिकांशतः ख्यापित ही किया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सर्वसमता का पथ शांति का होता है, सर्वसमता निर्विरोध है, …
अब सर्वसमता का पथ शांति का होता है, सर्वसमता निर्विरोध है, इन बिंदुओं को बताता हूँ…
सर्वसमता, निर्विरोध और निरसमर्थन है I
जो सर्वसम है, वह समर्थन और विरोध, दोनों से समभाव में है I
यदि सर्वसम भाव में योगी बस जाए, तो उसकी गति सर्वसम ब्रह्मलोक को ही होगी I
ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि…
जैसे योगी के आंतरिक दशा और भाव होंगे, वैसे ही लोकादि को वह पाएगा I
जिस लोक या दशा को पाना हो, उसी के अनुसार भावनात्मक स्थिति अपनाओ I
इस भावजनित योगमार्ग में कर्म और फल स्वतः ही भावों के अनुसार होते जाएंगे I
योगमार्गी उत्कर्ष पथ पर यह एक अकाट्य और व्यापक सिद्धांत है I
इस योगमार्ग में यदि योगी निपुण हो जाए, तो उसके भाव से ही और भाव में ही उसका साधन प्रकट होगा I और उस साधन का आलम्बन लेकर वह उस दशा को पाएगा, जिसके अनुसार उसका भाव होगा I
लेकिन इस सिद्धांत में, निर्गुण से संबंधित कोई भाव नहीं होता, क्यूँकि निर्गुण भावतीत है I और उस निर्गुण से संबंधित कोई कर्म, कर्मफम या संस्कार भी नहीं होते क्यूंकि निर्गुण कर्मातीत, फलातीत और संस्कारातीत भी होता है I और इन सबके अतिरिक्त निर्गुण से संबंधित कोई दशा भी नहीं होती, क्यूँकि निर्गुण दशातीत है I
इसलिए, यह सिद्धांत अंततः जहाँ तक लेकर जाने की क्षमता रखता है, वह सर्वसम ब्रह्मलोक ही है I
ऐसा इसलिए है क्यूंकि…
सर्वसमता ही अंतिम भाव होता है I
ऐसा इसलिए है क्योंकि सर्वसम के आगे भावातीत है I
वही भावातीत, सर्वसम के भीतर भी निरंग प्रकाश रूप में पाया जाता है I
भावातीत ही वह पूर्णशांति है, जो सर्वसम तत्त्व के भीतर से ही प्रकाशित होती है I
आगे बढ़ता हूँ…
जो मार्ग सर्वसमता से संबद्ध होंगे, वह बहुवादी अद्वैत ही होंगे I
सर्वसम मार्गों में मार्ग बहुवादी होते हुए भी, उनका गंतव्य एक ही होता है I
इसलिए विकृत एकवादी (मेरा सत्य और अन्य असत्य) मार्गों में शांति नहीं होती I
क्यूंकि कलियुग में अधिकांशतः जो मार्ग प्रकट होते हैं, वह विकृत एकवाद के ही होते हैं, इसलिए कलियुग कलह क्लेश का ही युग है I और कलियुग का ऐसा होने का कारण भी वही है की कलियुग के कालखंड में आए हुए मार्ग और पंथ,न तो सर्वसम हैं और न ही समता को ही धारण किए हुए हैं I
वैदिक वाङ्मय ही इस समता और इस के भी आगे जो सर्वसमता है, उसकी प्राप्ति का मार्ग है I इसीलिए वैदिक वाङ्मय, बहुवादी अद्वैत में बसाया गया था जिसमें मार्ग बहुवादी होते हुए भी गंतव्य में वही अद्वैत ब्रह्म ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
- वज्रमणि शरीर के पृथक नाम, पृथक मार्गों में वज्र शरीर के नाम, …
अब वज्रमणि शरीर के पृथक नाम, पृथक मार्गोंमें वज्र शरीर के नाम बताता हूँ…
- वज्रमणि सिद्ध शरीर, वज्रमणि सिद्धि शरीर, वज्रमणि सिद्धि, … यह नाम इस सिद्ध शरीर की प्रकाशित दशा के अनुसार है I
- वज्र सिद्ध शरीर, वज्र शरीर, वज्र सिद्धि शरीर, … यह नाम इस सिद्ध शरीर के विद्युत् रूपी गुण के अनुसार है I
- हीरे के समान प्रकाशित शरीर, हीरे के समान प्रकाशमान शरीर, … यह नाम भी इस सिद्ध शरीर के प्रकाश के अनुसार है I
- प्राणमय कोष सिद्ध शरीर, प्राण सिद्ध शरीर, … यह नाम इसके मूल के अनुसार है I जब प्राण सर्वसमता को पाते हैं तब प्राणमय कोष ही इस सिद्ध शरीर के स्वरूप को पाता है I
- सर्वसमता सिद्ध शरीर, सर्वसम सिद्ध शरीर, सर्वसमता सिद्धि, सर्वसम सिद्धि, … यह नाम इसके सर्वसमता नामक गुण के अनुसार हैI
- विशुद्ध सत् सिद्धि, विशुद्ध सत् सिद्धि, सत् सिद्धि, विशुद्ध सत् सिद्ध शरीर, सत् सिद्ध शरीर, … वज्रमणि के प्रकाश का नाता ब्रह्मलोक, अर्थात सतलोक से ही होता है, और क्यूंकि सतलोक ही विशुद्ध सत् को धारण किया हुआ लोक है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को ऐसा नाम दिया है I
- ब्रह्मा शरीर, ब्रह्मलोक शरीर, सतलोक शरीर, सत् लोक शरीर, ब्रह्मा सिद्ध शरीर, ब्रह्मलोक सिद्ध शरीर, सतलोक सिद्ध शरीर, सत् लोक सिद्ध शरीर, … यह नाम इसलिए दिया है क्यूंकि इस सिद्ध शरीर का कारण और लय स्थान ब्रह्मालोक ही है I
- सद्योजात सदाशिव सिद्धि, सद्योजात सदाशिव सिद्ध शरीर, सद्योजात सदाशिव शरीर, सदाशिव के सद्योजात मुख की सिद्धि, सदाशिव के सद्योजात मुख का सिद्ध शरीर, … क्यूंकि ब्रह्मलोक ही सदाशिव का सद्योजात मुख होता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर को यह नाम दिया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- प्रबोधन सिद्धि, मनस सिद्धि, मनस सिद्धि मार्ग, मन का प्रबोधन और वज्र शरीर का नाता, …
अब मन की प्रबोधन सिद्धि, मनस सिद्धि, मनस सिद्धि मार्ग, मन का प्रबोधन और वज्र शरीर का नाता बताता हूँ…
जब प्राणमय कोष सर्वसमता को प्राप्त होता है और साधक इस सिद्धि को प्राप्त करता है और इस दशा की प्राप्ति के पश्चात भी साधक इस सिद्धि से न तो लगाव करता है और न ही अलगाव ही करता है, तब इस दशा से कुछ ही समय में इस सिद्ध शरीर का योग साधक के मन से स्वतः ही होने लगता है I
और जब ऐसा होता है, तब इस दशा से मन का प्रबोधन मार्ग प्रशस्त होने लगता है, अर्थात साधक के भीतर का मनस तत्त्व पूर्ण जाग्रत होने लगता है I
इस दशा में साधक के सूक्ष्म शरीर के उन्निस अंगों में से एक अंग जो मन ही होता है, वह पूर्ण जागृत हो जाएगा I
और इस दशा के पश्चात ब्रह्म रचना का कोई भाग होगा ही नहीं जिसमें साधक के मन की गति नहीं होगी I
जब ऐसा होता है, तब समस्त ब्रह्म रचना ही साधक के भावनात्मक साम्राज्य से योग में आएगी I और यह एक बहुत उत्कृष्ट सिद्धि है जिसमें साधक के भाव राज्य में ही ब्रह्म रचना पूर्णरूपेण और उस ब्रह्म रचना के समस्त भाग समानरूपेण पाए जाते हैं I
और इस सिद्धि में साधक अपनी काया धारी दशा में होते हुए भी, अपने भाव राज्य में समस्त ब्रह्म रचना से ही योग लगाने लगता है I
इस सिद्धि में न तो साधक को ब्रह्म रचना के किसी एक भाग से लगाव होगा और न ही अलगाव और ऐसा होने पर भी वह ब्रह्म रचना के समस्त भागों से अपने ही भावों में योग लगाया होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
- वज्रमणि शरीर का प्रकटीकरण और उसकी प्रक्रिया, वज्र शरीर का प्रकटीकरण और उसकी प्रक्रिया, वज्रमणि शरीर का प्रकटीकरण, वज्र शरीर का प्रकटीकरण और उसकी प्रक्रिया, …
और इस वज्रमणि शरीर का प्रकटीकरण और उसकी प्रक्रिया को बताता हूँ…
जैसे ही कुछ सर्वसमता को छूता है, वह भी सर्वसम होकर वज्रमणि के प्रकाश को धारण कर लेता है I सर्वसमता का यह एक बहुत उत्कृष्ट गुण है, की जो उसको छूएगा वह भी उस जैसा ही हो जाएगा I
और जहाँ यह परिवर्तन भी एक क्षण में ही हो जाता है, अर्थात जैसे ही कुछ सर्वसमता को छूता है वैसे ही वह भी सर्वसम हो जाता है और ऐसी दशा में वह वज्रमणि के समान प्रकाश, जो विशुद्ध सत् का ही द्योतक होता है, उसी प्रकाश से युक्त हो जाता है I यह सर्वसम तत्त्व का एक सनातन गुण ही रहा है I
ऐसा साधक भी यदि किसी और जीवादी को अपने भाव साम्राज्य में बसाकर, उसको अपने भाव से ही सही, लेकिन स्पर्श करेगा, तो वह जीव भी सर्वसम होने के मार्ग पर चल पड़ेगा और अंततः वह जीव ब्रह्मलोक को ही जाएगा I
और वह जीव जिसको उस साधक ने अपने भाव राज्य में लाकर, छुआ होगा, चाहे अपनी स्थूल काया को धारण किए हुए समय में अथवा देहावसान के पश्चात ही (इस सिद्धि को पाकर) ब्रह्मलोक को जाए… लेकिन जाएगा अवश्य I
इसका यह भी अर्थ हुआ कि यदि वह साधक जो इस सिद्धि को पाया है, ग्रहस्त आश्रम में निवास कर रहा होगा, तो उसके समीप के परिवार जन जो उसके भाव राज्य में होंगे ही, वह सब के सब अंततः ब्रह्मलोक को ही जाएंगे I
इस ब्रह्माण्ड के इतिहास में इस बिंदु के असंख्य प्रमाण पाये जाते हैंI
और यही कारण है कि वैदिक वाङ्मय में भी कहा गया है, कि संन्यासी के वंश (अर्थात परिवार) का भी उद्धार होता है I और ऐसा इसलिए कहा गया है क्यूंकि संन्यास ग्रहण करने के पश्चात भी, और इस संन्यास मार्ग में जाने से परिवार से नाता टूटने के पश्चात भी, संन्यासी के भाव साम्राज्य में पूर्व का परिवार तो रहता ही है I ऐसा हो ही नहीं सकता कि किसी ने संन्यास ग्रहण किया हो और उस संन्यासी के भाव राज्य में उसका पूर्व का सगा परिवार बसा न होए… यह तो हो ही नहीं सकता I
और ऊपर बताए गए बिन्दु के अतिरिक्त… यदि किसी सम्प्रदाय अथवा किसी गुरु शिष्य परंपरा में कोई भी एक योगी सर्वसम तत्त्व को सिद्ध किया होगा, और उसके साथ को अन्य साधक होंगे, यदि वह उस योगी के भाव राज्य में पूर्णरूपेण आ जाएंगे, तो वह साधक भी ब्रह्मलोक को ही जाएंगे I इस ब्रह्माण्ड के इतिहास में, इस बिंदु के भी असंख्य उदाहरण मिलते हैं I
ऐसी दशा में उस योगी का, उसके साथियों का, उसकी गुरु शिष्य परंपरा में बसे हुए मनीषियों का अथवा परिवारजन का प्राणमय कोष भी हीरे के प्रकाश के समान हो जाएगा I
और एक बात…
कि यह एकमात्र सिद्धि है जिसका प्रसारण और मार्ग उस योगी के भाव साम्राज्य से चालित होता है I और ऐसा योगी यदि चाहे, तो उन सबको यह सिद्धि प्रदान कर सकता है, जिनको वह अपने भाव राज्य में समय-समय पर लाता जाएगा I
यह भी वह कारण है कि ब्रह्माण्ड सहित, समस्त ब्रह्माण्डीय दशाएं (प्रधान दशाएँ) और उस ब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताएं और समस्त उत्कृष्ट साधकगण और योगीजन (अर्थात योग सत्ता, ऋषि सत्ताएँ और सिद्ध सत्ताएँ) और योगी के साथ भी खड़ी हो जाएंगी, क्यूंकि उन सब को यह बात पता ही है कि वह योगी उस क्षमता का धारक हुआ है जिससे वह सब के सब ब्रह्मलोक में गमन करने की सिद्धि की प्राप्ति कर सकते हैं I
इसी कारण से जब कोई योगी इस सिद्धि को पूर्णरूपेण प्राप्त करता है, तब उस ब्रह्माण्ड की समस्त दिव्यताएं, ऋषिगण, सिद्धगण, योगीगण और साधकगण भी उस योगी के साथ ही खड़े हो जाते हैं, ताकि वह उस योगी के भाव साम्राज्य में स्थापित हो सके I
इसलिए जब ब्रह्माण्ड के किसी एक लोक में इस सर्वसमता के पूर्ण सिद्ध योगी का आगमन होता है (अर्थात कोई साधक इस सर्वसमता नामक सिद्धि को पूर्णरूपेण प्राप्त कर जाता है) तो उस लोक के मंदिरों का देवता और देवीगण अपने अपने दुर्गों का परित्याग ही कर देते हैं (अर्थात जैसे ही उन देवी देवताओं को उस योगी के बारे में पता चलता है, वह अपने अपने दुर्ग ही त्यागते जाते हैं) I और परित्याग करके वह उस योगी के साथ ही खड़े होते जाते हैं ताकि वह उस योगी के भाव राज्य में स्थापित हो सकें I
और जैसे-जैसे वह सर्वसम सिद्धि का धारक योगी उन दैविक आदि सत्ताओं को उसके भाव राज्य में लाता जाएगा, वैसे-वैसे वह सत्ताएँ उस योगी की काया के भीतर, जो उनके अपने-अपने स्थान हैं, उसमें प्रतिष्ठित भी होते ही चले जाएंगे I
और अंततः एक ऐसी दशा आएगी, जब वह योगी उस लोक साहित्, ब्रह्माण्ड की समस्त दैविक आदि सत्ताओं को अपने शरीर में ही प्रकट कर चुका होगा और जहाँ यह प्राप्ति भी उस योगी के भाव राज्य से ही चलित होती हुई होगी I
ऐसा योगी समस्त ब्रह्माण्ड की दिव्यादि सत्ताओं का डकैत ही होता है, क्यूंकि जब उसका देहावसान होगा, तो वह उन सभी सत्ताओं को अपने साथ ही लेकर चला जाएगा I
और एक बात…
प्रकृति अपने ब्रह्माण्डीय स्वरूप में बहुवादी ही हैं I
और प्रकृति अपने मूल और गंतव्य स्वरूप में अद्वैत ही हैं I
सर्वसम तत्त्व अद्वैत नामक शब्द का ब्रह्माण्डीय परिणामी सार भी है I
और यह सर्वसमता उसी अद्वैत शब्द की पराब्रह्माण्डीय स्थिति का अंग भी है I
इसलिए उसी सर्वसम तत्त्व में ही सबकुछ लय होता है और लय होने के पश्चात उसी सर्वसमता से वह लय हुई दशा निर्गुण को प्राप्त भी हो सकती है I
यही कारण है कि जिस योगी ने यह सर्वसमता नामक सिद्धि पाई होगी, उसके भीतर ही महाब्रह्माण्ड की समस्त मूल, प्रधान, प्रमुख और गंतव्य दिव्यताएं और उत्कृष्ट सत्ताएँ (जैसे ऋषिगण, सिद्धगण और साधकादि गण) लय होने के लिए उस योगी के सेवक सरीके ही हो जाते हैं, और वह योगी भी उनका सेवक रूप ही रहता है I
और उन सबका (जैसे ऋषिगण, सिद्धगण और साधकादि गण) सेवक रूप होता हुआ भी वह योगी उनको अपने भाव साम्राज्य में तबतक नहीं लाएगा, जबतक वह इसके पात्र नहीं हो जाएंगे I इस समस्त ब्रह्म रचना में इस सर्वसमता के सिवा कोई और दशा, स्थिति तथा सिद्ध है ही नहीं जो ऐसी होती है I
और यह सिद्धि तैंतीस कोटि देवी देवताओं में ही सबसे ऊपर के देवता (अर्थात अंतिम देवता) प्रजापति की ही होती है I महाब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं आदि उत्कृष्ट सत्ताओं के दृष्टिकोण में, इस सर्वसम तत्त्व को पूर्णरूपेण पाया हुआ योगी उन सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति का पूर्ण स्वरूप ही कहलाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ…
जो भी सत्ताएँ विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) की होती है, अथवा विकृत एकवाद से सम्बद्ध आदि होती है, वह सर्वसमता से भय में ही रहती हैं I
ऐसा इसलिए है क्यूंकि विकृत एकवाद पता है कि सर्वसम तत्त्व ही उनका वह काल है जो उनको नष्ट करने हेतु समय-समय पर, किसी का किसी योगी के स्वरूप में आता ही रहा है I
उनको यह भी पता होता है कि इस सर्वसम तत्त्व के योगी के आगमन के पश्चात, शनैः शनैः ही सही, लेकिन उन विकृत एकवादी सत्ताओं का अंत होता ही है I
और यही कारण है कि इस कलियुग के कालखण्ड में जितने भी विकृति एकवादी पंथ (अर्थात मोनोथेइस्टिक पंथ) आए, उन सब में उनके अन्तसमय का वर्णन किया ही गया है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि उन विकृत एकवादी सत्ताओं के प्रचारकों सहित, उनके देवताओं को भी यहाँ कहे गए बिंदु का पता ही था I
और इसलिए इस ग्रंथ में चतुर्युग नहीं, बल्कि गुरु युग की बात हुई है और उस गुरु युग को भी वैदिक युग ही कहा गया है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि उस आगामी गुरु युग जो इस विश्व के द्वार पर अभी के समय पर खड़ा हुआ है, उसका नाता वैदिक वाङ्मय में बताए गए चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा से ही है, जो सर्वसम तत्त्व के द्योतक भी है और जो वास्तव में सर्वसमता ही है I
और क्यूँकि सर्वसमता के आगे विकृत एकवाद टिक ही नहीं पाता है, इसलिए आगामी समय में इस कलियुग में आए हुए ही नहीं, बल्कि इससे भी पूर्व के कालखंडों के समय से जो भी विकृत एकवाद आया होगा, उसका नाश भी आगामी कुछ दशकों में हो जाना है I
और क्यूंकि सर्वसमता वैदिक वाङ्मय का ही अंग रही है और वह वैदिक वाङ्मय के चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा का अभिन्न भी गुण है, इसलिए आगामी गुरु युग भी वैदिक युग ही हो सकता है…आगामी गुरु युग कुछ और हो ही नहीं पाएगा I और चाहे कोई भी सत्ता कुछ भी कर ले, होना वैसा ही है जैसा यहाँ लिखा गया है I
आगे बढ़ता हूँ …
- वज्र सिद्ध शरीर के धारण के समय की पीड़ा, …
अब इस वज्र सिद्ध शरीर के धारण के समय की पीड़ा को बताता हूँ…
साधक की काया का अपना ऊर्जा प्रवाह होता है I यह ऊर्जा प्रवाव, पृथक नाड़ियों में पृथक स्वरूप में होता है I इसका अर्थ हुआ कि पृथक नाड़ियों में पृथक ऊर्जा प्रवाह बसा हुआ होता है I
लेकिन इस सर्वसम सिद्ध शरीर मैं तो केवल सर्वसम तत्व का ही ऊर्जा प्रवाह होता है I
और पूर्व में यह भी बताया गया था कि जब सर्वसमता किसी और को स्पर्श करती है, तो वह दूसरी दशा को भी सर्वसम ही बना देती है और जहाँ यह परिवर्तन एक क्षण में ही हो जाता है I
इसलिए, जब यह सर्वसम तत्त्व को दर्शाता हुआ सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर प्रकट होता है, तब यह साधक की काया के भीतर के समस्त भागों को, (जैसे पृथक नाडियों की पृथक ऊर्जाएं), सर्वसम बना देता है I
और जब ऐसा होता है तो साधक की काया के भीतर एक हीरे के समान प्रकाश भी व्यापक हो जाता है I
क्यूंकि सर्वसमता का एक गुण विद्युत् भी होता है, इसलिए जब यह सिद्ध शरीर साधक की काया में ही प्रकट होता है, तब साधक की काया में एक भयंकर विद्युत् प्रवाह चलित हो जाता है I
यह प्रवाह बहुत कष्टकारी भी होता है क्यूंकि इस सिद्ध शरीर के प्रकटीकरण के बाद, साधक की काया और काया के समस्त भागों को इस विद्युत् प्रवाह के आदी होने में समय भी लगता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सर्वसम सिद्ध शरीर की स्थूल काया से परे की गति, वज्रमणि शारीर की स्थूल काया से परे की गति, सर्वसम सिद्ध शरीर की स्थूल काया से परे की दशा, वज्रमणि शारीर की स्थूल काया से परे की दशा, …
और इस सर्वसम सिद्ध शरीर की स्थूल काया से परे गति की दशा बताता हूँ…
यदि यह सिद्ध शरीर साधक की काया के भीतर, एक बार भी अपने पूर्ण स्वरूप में प्रकट हो गया, तो यह स्थूल शरीर के भीतर ही निवास करता रहता है I और यह सिद्ध शरीर तबतक ऐसा ही रहता है, जबतक साधक की स्थूल काया का नाश नहीं हो जाता है I
लेकिन कुछ विरले साधकगण भी हुए हैं, जिनको वह मार्ग पता था जिससे वह इस सिद्ध शरीर को अपनी काया से बाहर निकाल सकते थे I इस भाग में इसी मार्ग को बताया जाएगा I
इस सिद्ध शरीर के प्रकटीकरण के पश्चात, मुझे मेरे स्थूल शरीर के भीतर चलित हो रहे उस बहुत भयंकर विद्युत् प्रवाह से छुटकारा भी पाना था I ऐसा इसलिए था क्यूंकि मैं जान चुका था कि यदि इससे छुटकारा नहीं मिला तो मुझे इसके विद्युत् और ऊर्जावान प्रवाह का आदी होना होगा और इस प्रक्रिया में बहुत समय भी लग सकता है I
और यह भी हो सकता है कि इस सिद्ध शरीर की प्रचंण्ड विद्युत् से तो मेरा देहावसान ही हो जाए, क्यूंकि प्रकृति के भीतर सर्वसम तत्त्व यदि बस गया, तो यह तत्त्व समस्त प्रकृति को ही सर्वसम बना देता है I
क्यूंकि आदी होने में समय ही लगेगा, इसलिए इससे छुटकारा पाना ही सरल और शीघ्र होने वाला मार्ग है I
तो एक रात्रि मैं इस शरीर को अपनी काया से बाहर निकलने के प्रयास करने लगा. लेकिन इस प्रवयास से कुछ सार्थक परिणाम नहीं मिल रहा था I
जब बहुत प्रयत्न करने पर भी मैं इस सिद्ध शरीर को अपनी काया से बाहर नहीं निकाल पाया, तो आवेश में आकर, मैंने इस सिद्ध शरीर को दो भादों में ही बाँट दिया (अर्थात दो टुकड़ों में तोड़ दिया) I और जब यह सिद्ध शरीर दो भागों में टूटा, तो यह कूल्हे की हड्डी के क्षेत्र से ही टूटा था I
और अपने शरीर के भीतर उस टूटे हुए भाग के समीप जाकर, जब मैंने उन दो भागों के टूटे हुए स्थान को देखा, तो उसमें कुछ रंगों के प्रकाश भी थे I यह प्रकाश लाल, पीला, हीरे के समान श्वेत और नेले वर्णों के थे I
जहाँ वह जो दो भाग टूटे थे, उनके जोड़ के क्षेत्र में इन्ही प्रकाशों की किरणें स्फुरित हो रही थी I
जब यह किरणें देखीं और मैंने इनके दैविक करणों का अध्ययन किया, तो मैं जो जाना, वह ऐसा ही था…
- लाल वर्ण का प्रकाश… तत्पुरुष ब्रह्म का है I और ऐसा होने के कारण इसकी दिव्यता माँ गायत्री का रक्ता मुख (अर्थात माँ गायत्री का विद्रुमा मुख) है I
- पीले वर्ण का प्रकाश… सद्योजात ब्रह्म का है I और ऐसा होने के कारण इसकी दिव्यता माँ गायत्री का हेमा मुख ही है I
- हीरे के वर्ण का प्रकाश… वामदेव ब्रह्म का है I और ऐसा होने के कारण इसकी दिव्यता माँ गायत्री का धवला मुख ही है I
- नीले वर्ण का प्रकाश… अघोर ब्रह्म का है I और ऐसा होने के कारण इसकी दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख ही है I
- और इन सभी प्रकाशों को भेदता और घेरता हुआ एक निरंग प्रकाश भी था, जिसका अध्ययन करके मैं यह जाना कि यह तो ईशान ब्रह्म का ही है I
- इसलिए इस अध्ययन में मैं यह जाना, कि यह सर्वसम सिद्धि को दर्शाता हुआ मेरा सिद्ध शरीर पञ्च ब्रह्म को ही अपने भीतर समाया हुआ है I
- और इस अध्ययन में मैं अंततः यही जाना, कि यह सर्वसम तत्त्व को दर्शाता हुआ मेरा सिद्ध शरीर, अपनी वास्तविकता में अपने भीतर ही पञ्च ब्रह्म को धारण किया हुआ है, इसलिए यह सिद्ध शरीर उन पञ्च ब्रह्म का ही द्योतक है I
- और ऐसा होने के कारण, यह सिद्ध शरीर उन पञ्च ब्रह्म की दिव्यता, जो पञ्च मुखा गायत्री ही है, उनको भी अपने भीतर ही समाया हुआ है I
- और इसी साक्षात्कार में मैं और कुछ बिंदुओं को भी जाना, जो ऐसे थे…
सर्वसम सिद्धि पञ्च प्राण की दशा है I
पञ्च प्राण का मूल नाता पञ्च ब्रह्म से है I
सर्वसमता सिद्धि को ही प्राण ब्रह्म कहा जाता है I
सर्वसमता सिद्धि के मूल में पञ्च प्राणों की सर्वसम दशा है I
सर्वसमता सिद्धि का गंतव्य नाता चतुर्मुखा पितामह प्रजापति से ही है I
चतुर्मुखा प्रजापति अपने सर्वसम तत्त्व के प्राण ब्रह्म स्वरूप से ही रचैता हुए हैं I
पञ्च ब्रह्म भी चतुर्मुखा पितामह प्रजापति के सर्वसम तत्त्व को धारण किए हुए हैं I
इसके पश्चात, यह सिद्ध शरीर मेरी स्थूल काया से बाहर भी अपने टूटे हुए स्वरूप में ही निकल गया I
और स्थूल काया से बाहर निकलकर, इसके दोनों भाग पुनः जुड़ भी गए, जिसके परिणाम स्वरूप यह सिद्ध शरीर पुनः वैसा ही हो गया जो तब था, जब यह मेरे स्थूल काया में बैठा हुआ था और जिसको इस अध्याय के एक चित्र में भी दिखाया गया है I
जब मेरी स्थूल काया से बाहर निकलकर यह दोनों भाग जुड़े, तो इस शरीर ने अपनी स्वाभाविक गति पकड़ी और यह ब्रह्मलोक में गया I ब्रह्मलोक का वर्णन भी इसी अध्याय में ही किया जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
परा प्रकृति क्या है, माँ आदि शक्ति कौन हैं, नवम आकाश क्या है, प्रकृति का नवम कोष, प्रकृति का नवम कोष क्या है, समता का कोष, सगुण निर्गुण कोष, सगुण निर्गुण ब्रह्म शक्ति, श्वेत प्रकृति, सत्त्वगुण, सत्त्वगुणी प्रकृति, नवम आकाश सिद्धि, …
यह चित्र परा प्रकृति के उस भाग का है जो हिरण्यगर्भ के समीप तक जाता है I जबकि परा प्रकृति हिरण्यगर्भ को स्पर्श नहीं करती, लकिन हिरण्यगर्भ तक जाने का मार्ग होने के कारण और हिरण्यगर्भ का प्रकाश परा प्रकृति के कुछ भाग में होने के कारण, हिरण्यगर्भ को ऊपर के चित्र में सांकेतिक रूप में दिखाया गया है I
तो अब इस चित्र को बताता हूँ I इस चित्र में…
- जो श्वेत वर्ण का गोला है, वह पुरुष है और पुरुष में ही मनस तत्त्व समाया हुआ है I इस गोले में जो गोलाकार श्वेत वर्ण की दशा दिखाई गई है, वह मन की वह दशा है जब वह इसको जान रहा होता है और इसलिए थोड़ा विचलित भी होता है I ऐसी दशा में पुरुष तत्त्व के भीतर मनस सगुण निराकार भी होता है और सगुण साकार भी I इस चित्र की दशा में पुरुष, प्रकृति के नवम कोष (परा प्रकृति) को भेदकर, उसके भीतर बसा हुआ है I
- जो हलके गुलाबी वर्ण का गोला है, वह अव्यक्त प्रकृति है, जो प्राण रूपी है I
- ऊपर की ओर जो सुनहरी दशा है, यह हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का प्रकाश है I इसी प्रकाश ने परा प्रकृति को भेदकर उन परा प्रकृति के भीतर भी अपना स्थान बना लिया है, और इसीलिए इस चित्र में वह सुनहरा प्रकाश व्यापक रूप में ही दिखाया गया है I
- जिस श्वेत पृष्ठाधार में यह चित्र बसा हुआ है, वह परा प्रकृति है I
- इस चित्र में पुरुष नामक भाग, एक श्वेत कमल के समान होता है और यदि साधक की चेतना इस भाग में चली गई, तो वह सीधा-सीधा ब्रह्म लोक के ऊपर के चार भागों में से, वह भाग जो पुरुषार्थ चतुष्टय के मोक्ष पुरुषार्थ का घातक होता है, उसमे ही गति कर जाती है… यही इस चित्र की सबसे बड़ी विशेषता है I
प्रकृति के नौ कोष होते हैं, इनमें से नीचे के आठ अपरा प्रकृति के हैं, जो ब्रह्माण्ड में व्यापक शक्ति ही हैं I और नौवाँ कोष, परा प्रकृति का है जो पुरुष की दिव्यता होती हैं I और जहाँ वह पुरुष भी सगुण निराकार स्वरूप में ही होता है I परा प्रकृति से ही प्रकृति के अन्य आठ कोष उदय हुए थे, और यह आठ कोष अपरा प्रकृति कहलाए गए थे I
जब सगुण शिव से प्रकृति और पुरुष का उदय हुआ था, तो प्रकृति और पुरुष दोनों ही सगुण निराकार स्वरूप में थे I यह चित्र भी ऐसा ही दर्शा रहा है I
इस दशा में साधक का जो सिद्ध शरीर गति करता है, वह अतिसूक्ष्म श्वेत वर्ण का होता है और उस सिद्ध शरीर का नाता भी परा प्रकृति से ही होता है I लेकिन उस शरीर को इस चित्र में नहीं दिखाया गया है I
उत्कर्ष पथ के प्रकृति से संबद्ध साक्षात्कारों में यह नवम आकाश ही अंतिम साक्षात्कार होता है I
परा प्रकृति को कई सारे नामों से बताया जाता है, तो अब इनको बताता हूँ…
- परा प्रकृति, … ब्रह्माण्ड अपरा प्रकृति, अर्थात प्रकृति के आठ नीचे के कोषों तक ही सीमित रहा है, और क्यूंकि यहाँ बताता जा रहा प्रकृति का कोष ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, जो अपरा प्रकृति हैं, उससे अतीत है, इसलिए योगीजनों ने इसको परा प्रकृति कहा था I
- उदयावस्था में प्रकृति का नवम कोष, उदयावस्था में प्रकृति का प्रथम कोश, उत्कर्ष पथ प्रकृति का नवम कोष, … क्यूंकि ब्रह्म रचना के समय, यह कोष प्रथम था इसलिए इसको प्रथम ही कहा गया है I और क्यूँकि उत्कर्ष पथ ब्रह्म रचना के उदय पथ से विपरीत ही होता है, और इसके अतिरिक्त प्रकृति के नौ कोष ही होते हैं, इसलिए उत्कर्ष पथ के अनुसार यही प्रकृति का अंतिम कोष पाया जाएगा और जो नौवाँ ही होगा I
- नवम आकाश, … बौद्ध पंथ में इस कोष को ऐसा ही कहा जाता है I
- माँ आदि शक्ति, आदि शक्ति कोष, … क्यूंकि इस कोष की दिव्यता आदि शक्ति हैं जो सगुण निराकार और सगुण साकार भी होती हैं, इसलिए इसको आदि शक्ति ही कहा गया है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि दिव्यता अपने दिव्य स्थान से पृथक नहीं होती I
- प्राचीन बुद्ध समन्तभद्री, बुद्ध समन्तभद्री, … तिब्बती बौद्ध तांत्रिक मार्ग में इन्ही को बुद्ध समन्तभद्री कहा गया है और जो प्राचीनतम बुद्ध ही हैं I
- बोधिसत्व का निवास स्थान, … क्यूंकि इस नवम कोष में बहुत सारे बोधिसत्व रहते हैं, इसलिए इसको ऐसा भी कहा गया है I
- सत्त्वगुण कोष, सत्त्वगुणी प्रकृति, … क्यूंकि नवम कोष ही सत्त्वगुण का मूल स्थान है, इसलिए इसको ऐसा ही कहा गया है I
- पुरुष साक्षात्कार कोष, … इसी नवम कोष से साधक पुरुष तत्त्व को साक्षात्कार करता है I
- गुण ब्रह्म का कोष, गुण ब्रह्म साक्षात्कार कोष, … क्यूंकि इसी कोष से गुण ब्रह्म साक्षात्कार होता है, इसलिए इसको ऐसा कहा गया हैI
- सगुण निर्गुण कोष, सगुण निर्गुण ब्रह्म कोष, … क्यूंकि श्वेत वर्ण की सत्त्वगुणी प्रकृति ही सगुण निर्गुण ब्रह्म होती है, इसलिए इस कोष को ऐसा कहा गया है I
- धर्ममेघ कोष, … क्यूंकि धर्ममेघ का इसी नवम कोष से संबंध होता है, इसलिए इसको ऐसा कहा गया है I
- अकारण कोष, प्रकृति का अकारण कोष, … क्यूंकि इस कोष में पहुँचने के पश्चात, पूर्व के समस्त कारण जिनका आलम्बन लेकर साधक इसमें पहुंचा था (अर्थात इसका साक्षात्कार किया था) वह सब के सब विलुप्त होते हैं, इसलिए इसको ऐसा कहा गया है I
- बोधिचित्त कोष, … क्यूंकि इसी कोष से बोधिचित्त प्राप्ति और साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होता है, इसलिए इसको ऐसा कहा गया है I
जबतक साधक रजोगुण और तमोगुण में से किसी से भी युक्त रहेगा, तबतक वह इस कोष का न तो साक्षात्कार कर पाएगा और न ही इसमें स्थित ही हो पाएगा I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस कोष के साक्षात्कार में साधक को सत्त्वगुणी ही होना होगा I
जैसा श्वेत वर्ण का यह कोष है वैसे ही साधक का सिद्ध शरीर भी होता है जब वह इस कोष का साक्षात्कार करता है और इसमें स्थित हो जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
पूर्व के अध्याय में बताया गया था कि साधक के हृदय क्षेत्र में अंतःकरण चतुष्टय होता है I यह अंतःकरण हृदय के एक ऐसे भाग में बसा हुआ होता है जो अंगुष्ट के ऊपर के भाग के समान एक गड्ढा सा होता है I और उस अंतःकरण चतुष्टय (अर्थात आनंदमय कोष) का प्रकाश इसी गड्ढे के भीतर तक ही पाया जाता है I
परन्तु जब साधक की चेतना प्रकृति के नवम कोष में गति करने लगती है, तब इस अंतःकरण का प्रकाश इस गड्ढे से बाहर की ओर भी निकलने लगता है, अर्थात हृदय के गड्ढे से बाहर की ओर भी दिखाई देने लगता है I
ऐसी दशा में चित्त के संस्कार जो अब तक साधक के कर्मों, कर्म फलों और साधक की उत्कर्ष पथ पर गति के बीज रूपी कारण ही थे, वह साधक के चित्त से पृथक होने लगते हैं I और जब ऐसा होने लगता है, तब साधक अकारण दशा को प्राप्त करने लगता है और जो अंततः साधक के चित्त की संस्कार रहित अवस्था की ही द्योतक होती है I
और क्यूँकि प्रकृति का नवम कोष तटस्थता का भी द्योतक होता है, इसलिए इस कोष में स्थित होने के पश्चात, वह साधक भी इस दशा को प्राप्त होता है I
नवम कोष उस दशा को दर्शाता है, जो अपरा प्रकृति से अतीत होती है I और क्यूँकि अपरा प्रकृति ही ब्रह्माण्ड की ऊर्जा है, इसलिए जब साधक की चेतना नवम कोष में स्थित होती है, तब वह साधक ब्रह्माण्ड के चतुष्टय स्वरूप से भी अतीत हो जाता है I और ऐसी दशा में यही कोष माँ प्रकृति की प्राचीन दिव्यता का द्योतक ही हो जाता है I ऐसा होने के कारण ही इस कोष को आदि शक्ति कहा गया था I
लेकिन क्यूंकि यह कोष सत्त्वगुणी प्रकृति से ही संबद्ध होता है, और प्रकृति सत्त्वगुणी होती हुई भी कैवल्य मोक्ष को नहीं दर्शाती हैं, इसलिए जो सिद्धगण इस कोष में निवास करते हैं, वह अपनी मुक्ति से पूर्व, एक बार तो किसी न किसी मृत्यु आदि नीचे के लोकों में लौटेंगे ही I और ऐसा तब भी होगा जब यह नवम कोष साधना मार्गों में और वास्तव में एक बहुत बड़ी उपलब्धि ही है I
आगे बढ़ता हूँ…
पुरुष प्रधानतः चेतन सिद्धांत के द्योतक हैं I
प्रकृति प्रधानतः क्रिया सिद्धांत की द्योतक होती हैं I
और ज्ञान सिद्धांत, इन दोनों को आपस में जोड़कर रखता है I
यह तीनों उन सगुण शिव के हैं जिनसे प्रकृति और पुरुष प्रादुर्भाव हुए थे I
बुद्धि का गंतव्य ज्ञान होता है, इसलिए जब बुद्धि का आलम्बन लेकर साधक ज्ञान मार्ग पर जाता है, तब साधक की काया में ही चेतन और क्रिया सिद्धांतों का बुद्धि के गंतव्य, अर्थात ज्ञान में ही योग हो जाता है I
ऐसी दशा में साधक सगुण शिव की तीनों दिव्यताओं (शक्तियों या सिद्धात्तों) का योग अपनी ज्ञानमय दशा में पाता है I और जहाँ वह ज्ञान उसी सत्त्वगुण से संबद्ध होता है, जो परा प्रकृति का होता है I
जब ऐसा होता है, तो साधक की काया के भीतर ही जो सगुण शिव का तत्त्व स्वरूप है, उसमें से प्रकृति और पुरुष का प्रादुर्भाव, साधक की काया के भीतर, अंशमात्र में ही सही, लेकिन हो ही जाता है I
और क्यूँकि प्रकृति का नौवाँ कोष सत्त्वगुण ही है, इसलिए यह सब जो बताया गया है, उसी नवम आकाश मैं ही पाया जाता है, जो साधक की काया के भीतर ही प्रादुर्भाव हुआ होता है I
इसलिए इस दृष्टिकोण से परा प्रकृति, सगुण शिव की ज्ञान शक्ति, चेतन शक्ति और क्रिया शक्ति की भी द्योतक होती है I और साधक इन्ही तीनों शक्तियों का अपनी बुद्धि में ही हुई योगावस्था का आलम्बन लेकर, परा प्रकृति का साक्षात्कार करके, ब्रह्मलोक का साक्षात्कार भी कर लेता है I
और जब ऐसा हो रहा होता है, तब ही हिरण्यगर्भ ब्रह्म का प्रकाश, साधक के भीतर बसी हुई परा प्रकृति में आने लगता है… इससे पूर्व नहीं I
और क्यूँकि हिरण्यगर्भ का प्रकाश ही बुद्धि कहलाती है, इसलिए जब यहाँ बताई गई दशा प्रकट होती है, तब बुद्धि भी सुनहरी ही हो जाती है ऐसी स्थिति में साधक भी ज्ञानमय अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जिसमें साधक प्रकृति का शक्ति रूप ही नहीं, बल्कि पुरुष को भी चेतन रूपमें ही जान जाता है I
और इसी दशा से वह साधक उन सगुण शिव को भी जानता है, जो इन दोनों (प्रकृति और पुरुष) के मूल भी हैं, और इस साक्षात्कार की अंतिम दशा भी हैं I लेकिन यह ज्ञान कुछ आगे जाकर ही आता है, और जिसका मार्ग भी पञ्च मुखा सदाशिव से ही होकर जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्माण्डीय काया चतुष्टय, ब्रह्माण्डीय काया का चतुष्टय स्वरूप, ब्रह्माण्डीय काया के चार भाग, …
और अब ब्रह्माण्डीय काया चतुष्टय को बताता हूँ…
हिरण्यगर्भ का प्रकाश जो परा प्रकृति में स्थापित हो जाता है, वह परा प्रकृति से सूक्ष्म ही पाया जाता है I इसी से साधक काया चतुष्टय को भी जानता है I
यह काया चतुष्टय, ब्रह्माण्ड की चार व्यापक काया स्वरूप हैं, जो ऐसे होते हैं…
- मनस काया, … यह ब्रह्माण्डीय मन का व्यापक काया स्वरूप है I
- बुद्धि काया, … यह ब्रह्माण्डीय बुद्धि का व्यापक काया स्वरूप है I
- चित्त काया, … यह ब्रह्माण्डीय चित्त का व्यापक काया स्वरूप है I
- आकाश काया, … यह ब्रह्माण्डीय आकाश का व्यापक काया स्वरूप है I और इसका नाता उस अहम् से होता है, जिसके भीतर पञ्च महाभूत बेस हुए होते हैं I
टिपण्णी: लेकिन इन चार काया में से, मनस और आकाश अन्य अध्यायों में बताये गए हैं, इसलिए इनको यहाँ पर नहीं बताया जाएगा I इसलिए यहाँ पर केवल बुद्धि और चित्त की ही बात होगी I और इसके साथ साथ नवम कोष का उदय भी बताया जाएगा I
- प्रकृति के नवम कोष का मार्ग, प्रकृति के नवम कोष से जाता हुआ मार्ग, … सगुण शिव से पुरुष का उदय हुआ था I और पुरुष और सगुण शिव के योग से प्रकृति के नवम कोष का उदय हुआ था और जहाँ प्रकृति ही पुरुष की दिव्यता थीं I यह पढ़ने में तो अटपटा सा ही लगेगा, किन्तु आत्ममार्ग में ऐसा ही पाया जाता है I
इसलिए इस उत्कर्ष मार्ग में, जो पुरुष साक्षात्कार को जाता है, वह नवम कोष से होकर ही जाता है I और ऐसे मार्ग पर जब साधक, पुरुष में प्रवेश करता है, तो उसमें दूध के उबाल जैसे बुलबुले जैसी ऊर्जा पाई जाती है, जो वास्तव में उस सत्त्वगुणी और प्राकृत मन की है जिसने पुरुष के भाग में प्रवेश किया है और उसका साक्षात्कार कर रहा है I
और इसी दशा से साधक की चेतना सीधे-सीधे ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से उस भाग में चली जाती है, जो कैवल्य मुक्ति का द्योतक होता है I इसलिए परा प्रकृति का साक्षात्कार मुक्तिमार्ग और मुक्ति, दोनों का ही द्योतक होता है I
- विज्ञानमय काया, बुद्धि काया, विज्ञानमय काया का उदय, बुद्धि काया का उदय, ब्रह्माण्ड में विज्ञानमय काया का उदय, ब्रह्माण्ड में बुद्धि काया का उदय, … ब्रह्माण्डीय बुद्धि काया, ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया, …
जब हिरण्यगर्भ का सुनहरा प्रकाश परा प्रकृति की श्वेत वर्ण की दशा के किसी भाग पर पड़ता है, तब परा प्रकृति का वह भाग पीले वर्ण का हो जाता है I
यही पीले वर्ण की बुद्धि काया है I ब्रह्माण्ड की बुद्धि काया को ही इन्द्रलोक कहते हैं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने जब जीवों को अपना ज्ञान दिया था, तो वह ज्ञान देवराज इन्द्र के सिंहासन में ही ब्रह्माण्डीय बुद्धि काया के स्वरूप में प्रतिष्ठित हुआ था I
- चित्त काया, चित्त काया का उदय, ब्रह्माण्ड में चित्त काया का उदय, ब्रह्माण्डीय चित्त काया, …
यह चित्र ब्रह्माण्डीय चित्त काया है I नीचे का भाग चलित ब्रह्माण्ड है और ऊपर का अंधकारमय भाग अचलित ब्रह्माण्ड है I और जो बिन्दु दिखाए गए हैं, वह ब्रह्माण्डीय चित्त, अर्थात चित्त काया में बसे हुए संस्कार हैं I
क्यूंकि यह चित्त काया, चलित ब्रह्माण्ड से लेकर अचलित ब्रह्माण्ड तक समान रूप में पाई जाती है, इसलिए ऊपर के चित्र में भी ऐसा ही दिखाया गया है I
इन संस्कारों में …
- काले संस्कार सबसे अधम गति को दर्शाते हैंI
- नीले संस्कार तमोगुण से युक्त कर्मादि के द्योतक हैं I
- लाल संस्कार रजोगुण से युक्त कर्मादि के द्योतक हैं I
- श्वेत संस्कार, सत्त्वगुण, सगुण निर्गुण और समता के द्योतक हैं I
- पीले संस्कार विज्ञान से युक्त कर्मादि के द्योतक हैं I
- चाँदी वर्ण के संस्कार सर्वसमता से संबद्ध दशाओं के द्योतक हैंI
- इत्यादि, …
जब पुरुष का योग परा प्रकृति से होता है, तब श्वेत वर्ण के चित्त का प्रादुर्भाव होता है I
इसी चित्त में ब्रह्माण्डीय दशाओं और जीवों द्वारा जनित संस्कार बसे हुए होते हैं I
और इन्ही संस्कारों को फलित करने हेतु ही समस्त कर्म आदि किए जाते हैं I
- बोधिचित्त की प्राप्ति, … बुद्धि और चित्त के योग को ही बोधिचित्त कहा जाता है I इस बोधिचित्त की प्राप्ति का मार्ग भी परा प्रकृति ही है I
क्यूंकि इस बोधिचित्त के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा, इसलिए इस भाग को उसी अध्याय में लिया जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
गायत्री परिवार के संस्थापक (श्रीराम शर्मा जी) की धर्म पत्नी इस परा प्रकृति सिद्धि (अर्थात अदि शक्ति सिद्धि) की धारक हैं I
और मजे की बात तो यह भी है, कि गायत्री परिवार के संस्थापक (श्रीराम शर्मा जी) अव्यक्त शरीर के धारक हैं I
अब देखो, इस जोड़े को, कि पति अव्यक्त सिद्धि के धारक हैं और उनकी पत्नी अदि शक्ति सिद्धि की धारक हैं I
गायत्री परिवार की संस्थापना करने वाला यह कोई साधारण जोड़ा हो सकता है क्या?… थोड़ा सोचो तो I
आगे बढ़ता हूँ …
ब्रह्मलोक क्या है, सद्योजात सदाशिव कौन, सदाशिव सद्योजात कौन, सदाशिव का सद्योजात मुख क्या है, वज्र लोक क्या है, सर्वसमता का लोक, सर्वसम लोक, ब्रह्मलोक के इक्कीस भाग क्या हैं, इक्कीस शून्य क्या हैं, सर्वसम ब्रह्मा कौन, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा कौन, चतुर्मुखा ब्रह्मा कौन, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति कौन, चतुर्मुखा प्रजापति कौन, पितामह सिद्धि, पितामह ब्रह्मा सिद्धि, ब्रह्मलोक सिद्धि, सर्वसम सरस्वती सिद्धि, सर्वसम सरस्वती, सर्वसम ज्ञान सिद्धि, पितामही सरस्वती, माँ सरस्वती, सनतकुमार ब्रह्मा कौन, बाका ब्रह्मा कौन, सहमपति ब्रह्मा कौन, सोऽहंपति ब्रह्मा, सोऽहंपति ब्रह्मा कौन, महाब्रह्मा कौन, पुरुषार्थ चतुष्टय का ब्रह्मलोक से नाता, ब्रह्मलोक और सोलह कला, चार महाब्रह्मा, चार ब्रह्मा और पुरुषार्थ चतुष्टय, ब्रह्मलोक और पुरुषार्थ चतुष्टय, ब्रह्मलोक और आश्रम चतुष्टय, चार ब्रह्मा और आश्रम चतुष्टय, सर्वसम ब्रह्मा, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, हीरे के प्रकाश का शरीर, पितामह ब्रह्मा सिद्धि, बुद्ध चतुष्टय, सोलह कला, सदाशिव सद्योजात, प्रजापति लोक, चतुर्मुखा ब्रह्मा कौन, चतुर्मुखा प्रजापति, ब्रह्मलोक के इक्कीस भाग, विशुद्ध सत् क्या है, सत्य लोक क्या है, ब्रह्मा सरस्वती का लोक, ब्रह्मलोक और इक्कीस शून्य, चार बुद्ध कौन, बुद्ध चतुष्टय कौन, सर्वसम स्वरूप स्थिति क्या है, …
अब ऊपर के चित्र का वर्णन करता हूँ…
- ब्रह्मलोक के सोलह नीचे के भाग (अर्थात उप-लोक) होता हैं I इस चित्र में इन सोलह भागों (अर्थात उप-लोकों) को दिखाया नहीं गया है I
- उन सोलह से ऊपर, चार भाग और होते हैं I इन्ही चार को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
- और इन चार भागों से भी ऊपर एक भाग होता है, जहाँ चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती, बस यही दोनों ही निवास करते हैं I
- इसलिए ब्रह्मलोक में इक्कीस भाग ही होते हैं I
- ब्रह्मलोक का वर्ण चमकदार हीरे के समान होता है I
- और यह नीचे के सोलह और ऊपर के चार भागों को एक दुसरे से जो पृथक रखती हैं, वह हलके गुलाबी वर्ण की अव्यक्त प्रकृति हैं, और जो पितामह ब्रह्मा की माया शक्ति ही हैं I इन्ही को ऊपर के चित्र में दिखाए गए चार भागों को पथक करते हुए हलके गुलाबी वर्ण से दर्शाया गया है I
- अव्यक्त का वर्ण हल्का गुलाबी होता है और ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
- और इस पूरे चित्र को शून्य ब्रह्म ने घेरा हुआ है I ऐसा होने के कारण इस ब्रह्मलोक के समस्त भागों (समस्त उप-लोकों) को एक अंधकारमय दशा ने घेरा हुआ होता है I लेकिन ऊपर के चित्र में उस अंधकारमय दशा (शून्य ब्रह्म) को दिखाया नहीं गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- अव्यक्त प्रकृति से जाता हुआ ब्रह्मलोक का मार्ग, अव्यक्त से ब्रह्मलोक का मार्ग, अव्यक्त से ब्रह्मलोक, ब्रह्मलोक का मार्ग, ब्रह्मलोक का वर्णन, …
और अब अव्यक्त प्रकृति से जाते हुए ब्रह्मलोक के मार्ग का और ब्रह्मलोक का वर्णन करता हूँ…
यहाँ बताया गया मार्ग वैसा ही बताया गया है, जैसा इस पृथ्वी लोक से ब्रह्मलोक जाने के समय होता है I
जब साधक की चेतना अव्यक्त प्रकृति से होती हुई ब्रह्मलोक को जाती है, तब वह चेतना जो साक्षात्कार करती है, वह ऐसा होता है I
वह चेतना देखती है कि ब्रह्मलोक में कुल मिलाकर इक्कीस उप-लोक (अर्थात इक्किस भाग) हैं I
पूर्व में बताया गया था कि ब्रह्मलोक के इन इक्कीस उप-लोकों में से, सोलह नीचे के होते हैं और चार ऊपर के I और अंततः इन सबसे ऊपर इक्कीसवाँ भाग है I
तो अब इन सब इक्कीस भागों को एक-एक करके बताता हूँ…
- ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह भाग, ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह उप-लो, सोलह कलाएं, …
अब ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह भाग, ब्रह्मलोक के नीचे के सोलह उप-लोक को बताता हूँ…
अव्यक्त प्रकृति से जाते हुए इन इक्कीस भागों में से नीचे के सोलह उप-लोक होते हैं I
जब साधक की चेतना अव्यक्त प्रकृति से ब्रह्मलोक में जा रही होती है तब इन नीचे के सोलह भागों में से उस चेतना के एक ओर आठ भाग होते हैं, और दूसरी ओर अन्य आठ भाग I
चेतना इन आठ और आठ भागों के मध्य में बसी हुई अव्यक्त प्रकृति से ही इनका साक्षात्कार करती हुई इनसे आगे (अर्थात ऊपर) की ओर जा रही होती है I
यह सोलह उप-लोक हीरे के समान प्रकाशमान होते हैं I और इन सब के हीरे के समान तल से अलग अलग रंगों की किरणें बाहर निकल रही होती हैं I यह सोलह लोक, सोलह कलाएं दर्शाते हैं I
इन सब के सब सोलह उप-लोकों को एक दुसरे से पृथक करके भी यही अव्यक्त प्रकृति ही रखती हैं, अर्थात ब्रह्मलोक के नीचे के इन सोलह लोकों को एक दुसरे से अलग करती हुई भी यही अव्यक्त प्रकृति ही हैं I
इन सोलह लोकों में मानव आत्माओं सहित, वह पशु आत्माएँ भी होती हैं जिनको ब्रह्मलोक प्राप्त हुआ है I इसलिए पितामह ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न किए गए जीवों में, इस ब्रह्मलोक पर केवल मानव मानव का ही अधिकार नहीं है I
ब्रह्मलोक के इन सोलह नीचे के भागों में तो पशु, पक्षी, मीन, वनस्पति और अन्य बहुत प्रकार पिण्ड जातियों तक की आत्माएं निवास करती हैं I
- ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भाग, ब्रह्मलोक के ऊपर के चार उप-लोक, …
अब ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भाग, ब्रह्मलोक के ऊपर के चार उप-लोक को बताता हूँ…
यही चार भाग ऊपर के चित्र में दिखाए गए हैं I
जब चेतना इन नीचे के सोलह उप-लोकों को पार करती है, तब वह उनसे ऊपर के चार भागों में पहुँच जाती है I इन्ही चार भागों को ही ऊपर का चित्र दिखा रहा है I
इन चार भागों को भी यही अव्यक्त प्राण एक दुसरे से पृथक करके रखते हैं, इसलिए इन लोकों के मध्य में भी यही अव्यक्त प्रकृति साक्षात्कर होती हैं और ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
जब साधक की चेतना इन चार उप-लोकों में से जा रही होती है, तब इनमें से तीन उप-लोक चेतना के एक ओर (दायीं ओर) होते हैं और एक उप-लोक दूसरी ओर (बायीं ओर) I ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
इन चार उप-लोकों में से दायीं ओर के तीन उप-लोक बहुत विशालकाया आकार के होते हैं और बायीं ओर वाला उप-लोक इन तीनों की तुलना में छोटा ही होता है I
यह छोटा उप-लोक एक चमकदार श्वेत वर्ण के कमल के समान होता है I और दायीं ओर के तीन उप-लोक अतिप्रकाशमान हीरे के समान ही होते हैं और इनका प्रकाश इतना होता है कि प्रारम्भ में तो वह चेतना दंग ही रह जाती है I
ब्रह्मलोक के ऊपर के इन चार उप-लोकों में से दायीं ओर के तीन उप-लोकों में तो बहुत सारे उत्कृष्ट योगीजन निवास करते हैं I किन्तु जो बायीं ओर का जो कमल के समान उप-लोक है, उसमें पूर्व कालों के बस चार योगीजन ही निवास करते हैं, जिनमें से एक मेरे इस जन्म से पूर्वजन्म के गुरुदेव बुद्ध भगवान् भी हैं I यहीं पर मेरे उस पूर्व जन्म की गुरुदक्षिणा, जब मैं भगवन बुद्ध का शिष्य था और जो मेरे इस जीवन का एक मुख्य कारण भी बनी थी, वह पूर्ण भी हुई थी I इसके बारे में इसी अध्याय में कुछ बाद में बताया जाएगा I
ऊपर के इन चार उप-लोकों में इनके चार नियंत्रक, मानव काया धारी और जीव रूप में ही होते हैं I मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव भगवान् बुद्ध ने इन चार दैविक जीवों को भी ब्रह्मा ही कहा था I
जब साधक की चेतना ऊपर के चार उप-लोकों में जाती है, तो उसकी गति ऊपर के चित्र में दिखाए गए दायीं ओर के सबसे नीचे के लोक से उसी दायीं ओर के सबसे ऊपर के लोक तक जाती है I और इसके पश्चात उस चेतना की गति, बायीं ओर के लोक में होती है I
और जैसे-जैसे वह चेतना ऐसी गति करती है, वैसे-वैसे वह इन लोकों और उनके नियन्त्रक दैविक जीवों का साक्षात्कार भी करती जाती है I
तो अब इस साक्षात्कार के बारे में बताता हूँ, लेकिन यहाँ मैंने जो नाम बताए हैं वह भगवान् बुद्ध के द्वारा ही दिए गए थे…
- सनत कुमार ब्रह्मा कौन, सनतकुमार ब्रह्मा कौन, सदैव युवा रूप के ब्रह्मा, ब्रह्म रचना के सदैव युवा रूप के कारण ब्रह्मा, प्रकृति के सदैव युवा रूप के कारक ब्रह्मा, ब्रह्मा सनतकुमार, सनतकुमार ब्रह्मा और धर्म पुरुषार्थ, ब्रह्मा सनतकुमार और धर्म पुरुषार्थ, सनतकुमार ब्रह्मा और ब्रह्मचर्य आश्रम, ब्रह्मा सनतकुमार और ब्रह्मचर्य आश्रम, ब्रह्मचर्य आश्रम के ब्रह्मा, धर्म पुरुषार्थ के ब्रह्मा, …
ऊपर के चित्र के सबसे नीचे के भाग का जो नियन्त्रक दैविक जीव हैं, वह एक बहुत सुन्दर, मनमोहक और अपनी ओर तीव्रता से आकर्षित करने वाले रूप के शरीर के धारक हैं I इसलिए मेरे पूर्वजन्म के गुरुदेव ने उनको सनतकुमार कहा था I
इस समस्त ब्रह्म रचना में यदि कोई अति सुन्दर युवा हैं, तो वह सनतकुमार ब्रह्मा ही होंगे I
प्रकृति सहित समस्त ब्रह्म रचना के सदैव युवावस्था के जो कारक हैं, वही सनतकुमार हैं I इन्ही सनतकुमार ब्रह्मा के कारण, न तो प्रकृति और न ही ब्रह्म रचना कभी वृद्धावस्था को पाइ है I
इन्ही सनतकुमार ब्रह्मा के आशिर्वाद को पाकर, वह चेतना उनके इस उप-लोक से आगे के उप-लोक, जो ऊपर के चित्र में दायीं ओर दिखाया गया मध्य लोक है… उसमें चली जाती है I
पुरुषार्थ चतुष्टय में ब्रह्मा सनतकुमार धर्म पुरुषार्थ को दर्शाती हैं I धर्म के सदैव युवावस्था का कारण भी ब्रह्मा सनतकुमार ही हैं I
आश्रम चतुष्टय में ब्रह्मा सनतकुमार ही ब्रह्मचर्य आश्रम के द्योतक हैं I
- बाका ब्रह्मा कौन, सबसे प्यारे ब्रह्मा, समता के कारक ब्रह्मा, बाका ब्रह्मा और गृहस्त आश्रम, बाका ब्रह्मा और अर्थ पुरुषार्थ, बाँका ब्रह्मा, गृहस्त आश्रम के ब्रह्मा, अर्थ पुरुषार्थ के ब्रह्मा, …
जब साधक की चेतना सनतकुमार ब्रह्मा से आगे के लोक में जाती है (अर्थात ऊपर के चित्र के दाईं ओर के मध्य भाग में जाती है) तब वह चेतना इन बाका ब्रह्मा के समक्ष चली जाती है I
बांका ब्रह्मा का स्वरूप न तो बहुत वृद्ध पुरुष का है और न ही बहुत छोटे बालक का है I इनका शरीर मध्यम आयु के मानव जैसा ही है और ऐसा होने पर भी वृद्ध योगी जैसे ही दिखाई देते हैं I
इनका दैविक शरीर बहुत चमकदार वज्रमणि के समान होता है I यह ब्रह्मा वज्रमणि के प्रकाश को धारण किए हुए श्वेत कमल पर विराजमान होते हैं और उस कमल में अरबों-खरबों हीरे के प्रकाश की किरणें होती हैं, और इनका लोक भी ऐसा ही होता है I
इनके शरीर और उस श्वेत कमल, दोनों से ही हीरे का बहुत चमकदार प्रकाश बाहर निकल रहा होता है I यह प्रकाश इतना चमकदार है कि इनकी ओर देखना भी कठिन सा ही हो जाता है I
क्यूंकि इन ब्रह्मा के दैविक शरीर बाँका सा होता हैं, इसलिए इनको भगवान् बुद्ध ने इस नाम से ही कहा था, और जहाँ यह नाम इनके शरीर के बाँके होने के कारण ही था I
लेकिन इनके शरीर का बाँकापन दायीं या बायीं ओर नहीं है, बल्कि आगे और पीछे की ओर ही होता है I और जब बाँका ब्रह्मा का साक्षात्कार होता है तो यह उस वज्रमणि के प्रकाश को धारण किए हुए कमल पर विराजमान होते हैं, उस कमल पर खड़े हुए होते हैं, और इनके शरीर के नीचे का भाग आगे की ओर होता है और ऊपर का भाग पीछे की ओर झुका हुआ होता है I इसलिए इनका बाँकापन दायीं और बायीं ओर नहीं बल्कि, आगे और पीछे की ओर ही होता है I
इनके दैविक शरीर से भी चमकदार हीरे के समान, बहुत प्रकाशमान चाँदी के वर्ण वर्ण के प्रकाश की असंख्या किरणें बाहर को ओर निकल रही होती हैं I और ऐसी ही किरणें उस कमल से भी बाहर निकल रही होती हैं, जिसपर यह विराजमान होते हैं (खड़े हुए होते हैं) I
इनकी हीरे के समान प्रकाशमान दाढ़ी है, और ऐसे ही प्रकाश को धारण किए हुए इनके आभूषण, वस्त्र आदि भी होते हैं I और इसके अतिरिक्त इनका जो दैविक शरीर उस कमल पर खड़ा हुआ होता है,वह भी ऐसा होता है I और ऐसा होने के कारण यह ब्रह्मा बहुत ही प्रकाशमान हैं और उनके साक्षात्कार में तो ऐसा ही लगता है जैसे वह उस दशा में पहुँच चुके हैं, जो इस जीव जगत से ही नहीं बल्कि देव सत्ताओं से भी परे है I
यहां बताए जा रहे ब्रह्मा चतुष्टय में से यह बाका ब्रह्मा ही सबसे प्यारे ब्रह्मा हैं I
जब मेरा वज्रमणि सिद्ध शरीर इनके लोक में गया, तो यह बाका ब्रह्मा उस सिद्ध शरीर के सामने अपने आप ही प्रकट हो गए और ऐसा बोले…
मैं तुम्हे मेरे इस लोक में निवास करने का निमंत्रण देता हूँ I
तुम्हारे माता पिता और उनसे चली हुई तीन पीढ़ियां भी यहीं आएंगी I
तुम इस जन्म के प्रारब्ध का समय पूर्ण करके मेरे इस लोक में आओगे I
इतना अभी जान लो, कि तुम्हारे देहावसान के पश्चात की अंतगति में मैं हूँ I
तुम्हारे इस जन्म से पूर्व जन्म के गुरु देव बुद्ध को भी मैंने ऐसा ही कहा था I
यदि तुम मेरे इस लोक से आगे भी जाओगे, तो भी यहाँ पर आकर ही जा पाओगे I
मुझे प्राप्त हुआ जीव, इस महाब्रह्माण्ड के किसी भी मृत्युलोक में पुनः नहीं लौटता है I
और बाका ब्रह्मा यह भी बोले थे…
योग, मूल सत्ता है I
संन्यास, गंतव्य सत्ता है I
योग शिखर सर्वस्व योग है I
संन्यास शिखर सर्वस्व त्याग है I
योग संन्यास शिखर आत्मज्ञान ही है I
और बाका ब्रह्मा यह भी बोले थे…
ब्रह्मचर्य ज्ञानार्जन का मार्ग है I
ब्रह्मचारी कभी योगी नहीं हुआ है I
वानप्रस्थ आश्रम आनंद मार्ग होता है I
वानप्रस्थी आनंदी कभी योगी नहीं हुआ है I
संन्यास आश्रम तो त्यागमार्ग ही कहलाता है I
संन्यासी त्यागी कभी भी योगी नहीं हो पाया है I
गृहस्त आश्रम में वास्तविक योगी उत्पन्न होते हैं I
संन्यासी तो महाब्रह्माण्ड का ही त्यागि हो जाता है I
गृहस्त आश्रम का योगी योगशिखर को प्राप्त होता है I
गृहस्त आश्रम का योग शिखर महाब्रह्माण्ड योग होता है I
उसी महाब्रह्माण्ड से योग ही योग शिखर कहलाया जाता है I
महाब्रह्माण्ड को प्राप्त योगी ही कारणोंतीत महाकारण होता है I
कारणोंतीत महाकारण को भी केवल गृहस्त का योगी ही पाता है I
और बाका ब्रह्मा यह भी बोले थे… इसीलिए…
योग संन्यास ही आंतरिक संन्यास के स्वरूप में होता है I
आत्मज्ञान नामक योगशिखर का मार्ग ही योग संन्यास है I
योग संन्यास में योग से संन्यास और संन्यास से योग होता है I
जब तुम निरालंबस्थान पर गए, तुमने भी आंतरिक संन्यास लिया था I
पर ऐसा संन्यास तब ही फलित होगा, तुम काया का त्याग कर रहे होगे I
काया त्याग तक योगी, योग को उसके कारण में लय कर, उसका साक्षी ही रहेगा I
ऐसी दशा में ही वह योगी अपना शेष जीवन व्यतीत करेगा… तुम भी ऐसे ही रहो I
और बाका ब्रह्मा यह भी बोले थे कि इस आंतरिक संन्यास मार्ग में…
जब योग, कारण में लय हो जाएगा, तब योगी योग और सिद्धियों का साक्षी रहेगा I
ऐसी दशा में वह योगी, सर्वसिद्ध होता हुआ भी, सिद्धियों का प्रयोग नहीं करेगा I
सिद्धि आदि की प्राप्ति के पश्चात, उनका प्रयोग ही बंधन का कारण बनता है I
जब योगी, योग और सिद्धियों का साक्षी रहेगा, वह अंततः मुक्तात्मा ही होगा I
मुक्त को सिद्धियों से क्या लेना देना… मुक्ति में क्या सिद्धि या असिद्धि I
और जो सिद्ध ही हुआ है, उसको मुक्ति अथवा बंधन से क्या लेना देना I
सिद्ध कभी मुक्त नहीं होता है… और मुक्त कभी सिद्ध नहीं होता है I
परन्तु आंतरिक संन्यास का योगी, सिद्ध और मुक्त दोनों ही होगा I
यही तो भारत भारती योग में योगी की सिद्धितीत दशा होती है I
यही वह दशा है, जिसमें योगी ब्रह्म और प्रकृति, दोनों होता है I
ऐसा योगी होता हुआ भी नहीं है, और नहीं होता हुआ भी है I
यही परिपूर्ण है, यही पूर्ण ब्रह्म मार्ग की गंतव्य दशा है I
इसी का व्यक्त रूप महाब्रह्माण्ड कहलाया जाता है I
अंततः, महाब्रह्माण्ड भी वही योगी ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
पुरुषार्थ चतुष्टय में बाका ब्रह्मा ही अर्थ पुरुषार्थ को दर्शाते हैं I अर्थ पुरुषार्थ के सदैव ही टेढ़े रूप में चालित होने का कारण भी यही बाका ब्रह्मा ही है I
संपूर्ण प्रकृति ही अर्थ है I
अर्थ पुरुषार्थ ही प्राकृत जगत है I
ब्रह्म रचना को ही अर्थ कहा जाता है I
इसलिए, प्रकृति के परिकर पंचक भी अर्थ ही हैं I
प्रकृति के परिकर पंचक भू, अप्, तेज, वायु और आकाश हैं I
जीव जगत के स्वरूप में, अर्थ पुरुषार्थ ही प्रकाशित हो रहा है I
सांख्य के चौबीस तत्व, चौसठ तत्त्व और छियानवे तत्त्व भी अर्थ ही हैं I
प्रकृति का वास्तविक स्वरूप दैविक, सूक्ष्म और स्थूल है… यह सब अर्थ ही है I
और इसके अतिरिक्त प्रकृति अपने मूल स्वरूप में ऊर्जा ही है… ऊर्जा भी अर्थ ही है I
ऊर्जा की गति भी कभी सीधी नहीं हुई है, और वह ऊर्जा घूमती फिरती ही जाती है और ऐसी ही गति प्रकृति के गतिशील परिकरों (अर्थात नीचे के चार महाभूत) की भी होती है I इसलिए अर्थ जो प्रकृति का ही अंग होता है, वह कभी भी सीधा नहीं चलता, बस टेढ़ा मेढ़ा ही चलित होता है I और उन अर्थ स्वरूप प्रकृति को दर्शाते हुए ही यह बाँका के ब्रह्मा हैं I
ब्रह्मलोक में बैठा हुआ और उन सार्वभौम ऊर्जात्मक शक्ति रूपी प्रकृति को दर्शाता हुआ दैविक सर्वसम स्वरूप ही बाँका ब्रह्मा हैं I
और इन्ही बाका ब्रह्मा के कारण ही प्रकृति में कुछ भी सीधी रेखा के स्वरूप में चलित, न तो अब तक कभी हुआ है और न ही आगे कभी होगा I प्रकृति की ऊर्जा अधिकांशतः घुमावदार ज्या तरंग (ज्यातरंग) के समान ही गति करती है I
आश्रम चतुष्टय में ब्रह्मा बाका ही गृहस्त आश्रम के द्योतक हैं I गृहस्त आश्रम के सदैव ही टेढ़े मेढ़े चलित होने का कारण भी बाका ब्रह्मा ही है I लेकिन ऐसा होने पर भी योग का नाता गृहस्त आश्रम और इस आश्रम के देवता, बाका ब्रह्मा से ही रहा है I
और इसके साथ-साथ अर्थ अपने दैविक, सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप में चलित होता हुआ भी, टेढ़ा मेढ़ा चालित होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी उस गृहस्त योग का नाता अर्थ के परिपूर्ण स्वरूप से होता ही है, और जहाँ इस अर्थ पुरुषार्थ के बाका ब्रह्मा नामक देवता, भी बाका ब्रह्मा ही रहे हैं I
टिपण्णी: क्यूंकि प्रकृति ही अर्थ है, इसलिए अर्थ पुरुषार्थ में मूल में माँ प्रकृति ही पूर्णरूपेण बसी हुई हैं I यही कारण भी है, कि जो अर्थ प्रकृति को विकृत करके चालित होता है, वह अनर्थ ही होता है I आज के समय अर्थ के नाम पर जो तंत्र चलित हो रहा है, वह वास्तव में अनर्थ ही है I और आगामी समय में, जैसे-जैसे यह कलियुग स्तम्भित करा जाएगा, और उस समय वह आगामी गुरु युग का उदय किया जाएगा, तब आज का समस्त अर्थ तंत्र भी स्तंभित होकर नष्ट ही हो जाएगा I ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि आगामी गुरु युग (अर्थात वैदिक युग) में आज के विकृत अर्थ तंत्र की तो छाया भी नहीं दिखेगी I
और यह सब साक्षात्कार करके, योगी ब्रह्मा बाका के आशीर्वाद को प्राप्त करके, उनके अनुग्रह से उसी ब्रह्म लोक में आगे गति करता है I और इस गति से वह योगी की चेतना ब्रह्मा के उप-लोक से अगले उप-लोक में जाती है, जिसको ऊपर के चित्र में दाहिने ओर के सबसे ऊपर के भाग में ही दिखाया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सहमपति ब्रह्मा, सोऽहंपति ब्रह्मा, ब्रह्मा सहमपति, ब्रह्मा सोऽहंपति, सहमपति ब्रह्मा कौन, सोऽहंपति ब्रह्मा कौन, वृद्ध ब्रह्मा, वृद्ध रूप में ब्रह्मा, … सहमपति ब्रह्मा और वानप्रस्थ आश्रम, सहमपति ब्रह्मा और काम पुरुषार्थ, ब्रह्मा सहमपति और वानप्रस्थ आश्रम, ब्रह्मा सहमपति और काम पुरुषार्थ, … सोऽहंपति ब्रह्मा और वानप्रस्थ आश्रम, सोऽहंपति ब्रह्मा और काम पुरुषार्थ, ब्रह्मा सोऽहंपति और वानप्रस्थ आश्रम, ब्रह्मा सोऽहंपति और काम पुरुषार्थ, … हंस स्वरूपम्, हंस स्वरूप क्या है, शरीर रूपी देवालय में जीवात्मा की गति ही सोऽहं हंस होती है, सहमपति शब्द की वास्तविकता, सोऽहंपति शब्द का ज्ञान …
इसके पश्चात ऊपर दिखाए गए चित्र के दाहिने ओर के सबसे ऊपर के उप-लोक में जब योगी पहुँचता है तो वह पाता है, कि वह लोक भी पूर्व के दोनों लोकों के समान, बहुत बड़े आकार का है I
यह लोक भी हीरे के समान प्रकाशमान ही है I और इसके नियंत्रक देवता एक अति वृद्ध साधु बाबा हैं, जिनका शरीर भी वज्रमणि के प्रकाश के समान चमकदार हैI
इनकी बड़ी सी दाढ़ी है, और यह एक वृद्ध पुरुष के समान दिखते हैं I यह एक अति गम्भीर स्वरूप के हैं, जो बहुत कम बोलते हैं I
जैसे गृहस्त के वृद्ध दादाजी होते हैं, जब वह वानप्रस्थ आश्रम में जा चुके होते हैं और इसके पश्चात वह गृहस्त से ही विमुख होकर, एक गम्भीर शांत स्वरूप धारण कर लेते हैं… वैसे ही स्वभाव के यह सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
यदि योगी की चेतना उनके उप-लोक में भी चली जाए, तब भी अधिकांशतः यह (ब्रह्मा सोऽहंपति) उस चेतना के समक्ष प्रकट ही नहीं होंगे I और यह प्रकट भी तबतक नहीं होंगे, जबतक इनको पता ही नहीं चल जाएगा, कि जो चेतना उनके पास और उनके लोक में आई है, वह उसी वास्तविक वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम में बसे हुए योगी की है, जो गृहस्थ से दूर हो चुका है I और जहाँ ऐसा सिदूर होना भी उस योगी के आंतरिक दशा से होना चाहिए… न की किसी और बाह्य अथवा व्यवहार आदि की प्रकट दशा से I
लेकिन गम्भीर और शांत स्वरूप के होते हुए भी यह बहुत अच्छे हैं I
पुरुषार्थ चतुष्टय में सहमपति ब्रह्मा, काम पुरुषार्थ के द्योतक है I और इनके यहाँ का काम पुरुषार्थ ही निष्काम होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि जिस योगी का काम ही निष्काम नहीं हुआ होगा, और निष्काम होकर वह काम भाव ही ब्रह्ममय नहीं हुआ होगा, उस योगी के समक्ष यह ब्रह्मा सहमपति प्रकट भी नहीं होंगे और ऐसा तब भी होगा, जब उस योगी की चेतना इनके लोक में ही पहुँच गई होगी I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि…
निष्काम काम ही पुरुषार्थक है I
निष्काम काम ही मुक्तिमार्ग होता है I
इसलिए, काम पुरुषार्थ से ही मोक्ष पुरुषार्थ आता है I
जब काम ही निष्काम हो जाएगा, तब मन भी ब्रह्ममय हो जाएगा I
मन के ब्रह्ममय होने से, अहम् बुद्धि और चित्त भी ब्रह्ममय हो जाते हैं I
ब्रह्मा सहमपति, मन बुद्धि चित्त और अहम् की ब्रह्ममय दशा के द्योतक ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ और सहमपति शब्द की वास्तविकता, सोऽहंपति शब्द का ज्ञान, बताता हूँ…
मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव भगवान् बुद्ध ने इन ब्रह्मा को सहमपति कहा था I इस नाम का नाता सोऽहंपति के शब्द सेभी है I
यह दोनों नाम, प्राणों के शरीर में ऊपर नीचे चलती हुई निरंतर गति के ही द्योतक हैं I इसलिए सोऽहंपति (या सहमपति) का यह नाम, प्राणों के स्वामी को भी दर्शाता है और जहाँ वह प्राण सर्वसमता को ही प्राप्त हो गए होते हैं I
इसका अर्थ हुआ कि…
प्राण ही ऊर्जा है और ऊर्जा ही प्राण है I
अपने मूल रूप में प्रकृति ही प्राणमय ऊर्जा हैं I
जीव जगत के मूल में भी यही ऊर्जात्मक प्राण ही हैं I
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा ही वह प्राण शक्ति हैं, जो देवी कहलाई हैं I
जिन देव के पास प्राणों का स्वामित्व है, वह सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
जिन देव के स्वामित्व से प्राण सर्वसम होते हैं, वह सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
जिन देव के स्वामित्व से प्राण सर्वसम ही हो जाते हैं, वह सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
यह दोनों नाम (अर्थात सोऽहंपति और सहमपति) कुण्डलिनी शक्ति के भी द्योतक हैं I और जहाँ वह कुण्डलिनी शक्ति भी मेरुदण्ड की ओर से और शरीर के सामने के भाग की ओर से, निरंतर ऊपर नीचे गति करती रहती है I इसलिए यह नाम कुण्डलिनी शक्ति के स्वामी को भी दर्शाता है I
क्यूंकि शाक्त मार्ग में तो प्राण ही वह ब्रह्म हैं, जो मोक्ष के द्योतक ही होते हैं, इसलिए यह दोनों नाम (अर्थात सोऽहंपति और सहमपति) मोक्ष के देवता के भी द्योतक होते हैं I ऐसा भी इसलिए है क्यूंकि…
सहमपति ब्रह्मा, जो निष्काम काम के द्योतक होते हैं, वह मुक्तिपथ ही हैं I
और ऐसा इसलिए है क्यूंकि…
पुरुषार्थ चतुष्टय के अनुसार काम का निष्काम स्वरूप ही मुक्तिमार्ग होता है I
निष्काम काम से ही साधक का मोक्ष पथ प्रशस्त होता है I
तो अब इन दोनों नामों के कारण को बताता हूँ…
सहमपति का शब्द सा, हम् और पति… इन तीन शब्दों से बना हुआ है I
सोऽहंपति का शब्द सोऽ, हम् और पति… इन तीन शब्दों से बना हुआ है I
और जहाँ, वह…
सा शब्द तब सुनाई देता है जब प्राण, मूलाधार से आज्ञा चक्र पर जाते हैं I
हम् शब्द तब सुनाई देता है जब प्राण, आज्ञा चक्र से मूलाधार पर जाते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि…
आज्ञा चक्र पर साधक सा शब्द सुनता है I
मूलाधार चक्र पर साधक हम् शब्द सुनता है I
इसलिए, …
प्राणों की मूलाधार से ऊपर आज्ञा चक्र तक की गति में हम–सा शब्द सुनता है I
प्राणों की आज्ञा चक्र से नीचे मूलाधार तक की गति में सा–हम शब्द सुनता है I
इसलिए सहमपति का नाम, प्राणों की ऊपर नीचे की गति का भी द्योतक है I
बुद्ध द्वारा दिए हुए सहमपति के नाम के मूल में सोऽहंपति शब्द ही है I
वेद मनीषियों और उत्कृष्ट योगीजनों ने यहाँ बताए गए…
सा–हम को सोऽहं कहा था I
हम–सा को ही हंस शब्द से कहा था I
हंस ही योगमार्ग का प्राण रूपी आत्मा है I
और इस आत्मा का स्वरूप भी प्राणात्मा ही है I
जो सोऽहं कहा गया है, वह आत्मब्रह्म का द्योतक है I
इन्ही आत्मब्रह्म को तो वैदिक महावाक्य भी दर्शाते रहे हैं I
ऐसा होने के कारण, …
सोऽहं ही अहम् ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, तत् त्वम् असि आदि से दर्शाया गया है I
ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में सोऽहं का साक्षात्कारी योगी ही हंस कहलाता है I
इस हंस नामक शब्द के देवता भी सोऽहंपति ब्रह्मा ही होते हैं I
अब ध्यान देना…
साधक का शरीर ही ब्रह्म का देवालय है I
इस देवालय में जीवात्मा रूपी प्राणों की गति होती है I
प्राण की यह गति ऊपर नीचे की ओर निरंतर होती ही रहती है I
इस ज्ञान से योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में हंस स्वरूप कहलाता है I
ऐसे योगी की कुण्डलिनी कैसी होती है, अब इसको बताता हूँ…
मूलाधार के समीप एक सर्प होता है I
यह सर्प मूलाधार से सहस्रार तक उठता है I
यह सर्प ही मूलाधार में बसी हुई कुण्डलिनी का मूल स्थान है I
सहस्रार में कुण्डलिनी रेचक और पूरक से अन्दर और बाहर गति करती है I
अब ध्यान देना…
सहस्रार में कुण्डलिनी की गति रेचक और पूरक कहलाई है… यही प्राण की गति है I
सहस्रार में कुण्डलिनी की गति बारह ऊँगली भीतर और आठ ऊँगली बाहर तक है I
कुण्डलिनी की कुल गति भी बीस ऊँगली है, जो ब्रह्मलोक के उप–लोकों का अंक है I
इसलिए एक दिवस और रात्रि के योग-समय में प्राण की 2,16,000 गतियां होती हैं, और इतनी ही बार साधक की काया में हंस और सोऽहं स्वरूप को धारण किया हुआ प्राण चलित होता है I
और ऐसा भी इसलिए ही है क्यूंकि…
इस हंस मार्ग में प्राण ही जीवात्मा है I
और जहाँ वह जीवात्मा भी सर्वसम हो चुका होता है I
बायीं ओर की नासिका इड़ा नाड़ी है, दायीं ओर की नासिका पिंडगला होती है I
इन्ही दोनों नाड़ियों में और इन्ही दोनों नाड़ियों से प्राण चालित होता है I और इनके भीतर हुई योगदशा में यह प्राण सर्वसमता को भी पाता है I
और भ्रूमध्य में जहाँ यह नाड़ियां मिलती हैं, वही त्रिकूट है I हंस मार्ग में त्रिकूट में ही कुम्भक होता है I
इन दोनों नाड़ियों के मध्य में सुषुम्ना नाड़ी होती है I कुम्भक की नाड़ी ही सुषुम्णा है I
इन त्रिनाड़ी के योग स्वरूप में …
इड़ा ही गंगा,पिंडगला ही यमुना और सुष्मुना नाड़ि ही सरस्वति नदी हैं I
इड़ा ही कैलाश गिरी, पिंडगला ही मंदर गिरि और कुम्भक नाड़ि ही महामेरु है I
इड़ा ही चंद्र नाड़ी है, पिंडगला नाड़ि ही सूर्य नाड़ी और सुषुम्ना ही ब्रह्मा नाड़ी है I
इस मार्ग पर हंस, परमहंस होकर योगी की काया में निरंतर चलित होता ही रहता है I
आगे बढ़ता हूँ..
इस हंसमार्ग का वह हंस नादबिन्दु और कालातीत है I
और वह हंस हा शब्द का द्योतक है, जो पुरुष को दर्शाता है I
और सा शब्द प्रकृति का द्योतक है, शक्ति है, ऊर्जा है, पुरुष की दिव्यता हैं I
वह प्रकृति मातृ रूप हैं, और इन्द्रियों (शरीर, उसके समस्त भाग) की द्योतक है I
अब और ध्यान देना…
हा और सा का योगी की काया में योग भी पुरुष प्रकृति योग ही है I
इस हंसयोग का स्थान भी वह बिंदु ही होता है, जो नाद स्वरूप में होता है I
उन प्रकृति और पुरुष के योगी की काया के भीतर योग को ही हंस कहते हैं I
इस हंस योग में…
पुरुष सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म व्यापक परमेश्वर ही हैं I
प्रकृति उन परब्रह्म की दिव्यता, शक्ति,अर्धांगनी, प्रेमिका, अर्धांगनी और दूती भी हैं I
और…
इन्ही दोनों के योग से साधक हंस स्वरूप होता है I
वह हंस ही साधक की वह शक्तिमय आत्मा है, जो ब्रह्म ही है I
वह आत्मा साधक की काया में ही “सोऽहं हंस:” में गति करती ही रहती है I
और जहाँ उस आत्मा की प्रत्येक गति में गायत्री के शब्द भी सुनाई देते रहते हैं I
शरीर के भीतर विराजमान हुआ यही आत्मस्वरूप हंस, निरंतर गति करता करता, उन्ही गायत्री का जप चौबीस घंटों के समयखण्ड में 2,16,000 बार, बिना रूके हुए आजीवन करता ही जाता है I
इन्ही तीन नाड़ियों से साधक के शरीर में स्थापित हुआ हंस, गायत्री का जाप निरंतर ही करता ही रहता है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब सोऽहं और हंस: तो जान लिया, इसलिए अब सहमपति (या सोऽहंपति) ब्रह्मा के मान को बताता हूँ…
ब्रह्मलोक में जो सोऽहं का स्वामी विराजा हुआ है, वही सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
जिनमें साधक के भीतर का हंस अंततः लय होता है, वही सहमपति ब्रह्मा हैं I
वह देव जो सोऽहं मार्ग, गति और गंतव्य का स्वामी है, वह सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
वह देवता जो हंस, मार्ग, गति और गंतव्य का स्वामी है, वही सहमपति ब्रह्मा हैं I
जिनमें जगत के समस्त हंस लय हो परमहंस कहलाते हैं, वही सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
और क्यूँकि ब्रह्मा सहमपति काम पुरुषार्थ के देवता भी हैं, और जहाँ उनका काम ही निष्काम होता है, इसलिए जिस साधक का काम ही पूर्णतः निष्काम नहीं हुआ है, वह साधक न तो उन ब्रह्मा सहमपति का साक्षात्कार कर पाएगा और न ही उनके लोक में ही जा पाएगा I
और क्यूँकि सहमपति ब्रह्मा वानप्रस्त आश्रम के भी देवता हैं, इसलिए जो साधक अपनी आंतरिक दशा से वानप्रस्त का नहीं होगा, वह भी उन सहमपति ब्रह्मा का न तो साक्षात्कार कर पाएगा और न ही उनके लोक में ही जा पाएगा I
और क्यूंकि…
वानप्रस्थ आश्रम से साक्षात्कार हुए ब्रह्म ही सच्चिदानन्द कहलाते हैं I
इसलिए, सच्चिदानंद ब्रह्म शब्द के योगार्थ में भी वही सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
वानप्रस्थी साधक का सच्चिदानन्द आत्मस्वरूप ही सहम्पति में लय होता है I
ऐसे साधक का मार्ग भी, सोऽहंपति ब्रह्मा के समान, निष्काम काम का होता है I
सोऽहंपति ब्रह्मा में लय हुआ साधक ही सोऽहं हंसः का स्वरूप कहलाया जाता है I
और इस भाग के योगमार्गी साक्षात्कार में यह भी पाया जाएगा, कि…
आनंद ब्रह्म, सच्चिदानंद ब्रह्म, आत्मस्थिति आदि महावाक्यों मूलों में सोऽहंपति हैं I
आनंद ब्रह्म, सच्चिदानंद ब्रह्म, आत्मस्थिति आदि महावाक्य मार्गों में सोऽहंपति हैं I
उन सोऽहंपति ब्रह्मा का यह मूल और मार्ग भी सर्वसमता से होकर जाता है I
सोऽहंपति ब्रह्मा की सर्वस्व से सम सर्वसमता ही विशुद्ध सत् कहलाती है I
उसी विशुद्ध सत् रूपी मूल में ही समस्त ब्रह्मलोक बसाया गया है I
ऐसा होने के कारण, ब्रह्मलोक साक्षात्कार ही सोऽहं हंसः है I
सोऽहं हंसः के स्वामी भी वही सोऽहंपति ब्रह्मा हैं I
पुरुषार्थ चतुष्टय में सहमपति ब्रह्माm काम पुरुषार्थ के द्योतक है I और सहमपति ब्रह्मा का काम पुरुषार्थ ही निष्काम होता है I
ऐसा इसलिए है क्यूंकि जिस योगी का काम ही निष्काम नहीं हुआ होगा, और निष्काम होकर वह काम भाव ही ब्रह्ममय नहीं हुआ होगा, उस योगी के समक्ष यह ब्रह्मा सहमपति प्रकट भी नहीं होंगे और ऐसा तब भी होगा, जब उस योगी की चेतना इनके लोक में ही पहुँच गई होगी I
यह सब जानकार चेतना इन्हीं सहमपति ब्रह्मा का आशीर्वाद प्राप्त करके आगे गई और इसी ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से सबसे अंतिम (अर्थात चौथे भाग) में पहुँच गई I
आगे बढ़ता हूँ…
- महाब्रह्मा कौन, महाब्रह्मा कौन, मोक्ष रूप में ब्रह्मा, मोक्ष पुरुषार्थ के ब्रह्मा, … महाब्रह्मा और संन्यास आश्रम, महाब्रह्मा और मोक्ष पुरुषार्थ, चार बुद्ध, बुद्ध चतुष्टय, योगी चतुष्टय, चार योगी, पूर्व कालों के चार बुद्ध, इस ब्रह्म कल्प के चार बुद्ध, गुरुदक्षिणा की पूर्ति, भगवान् बुद्ध के गुरुदक्षिणा, इस जन्म का कारण, इस जन्म की कारक गुरुदक्षिणा, … सम सम बुद्धत्व, सम सम बुद्ध, … भगवान् बुद्ध, बुद्ध भगवान्, इस कल्प के चार बुद्ध, इस कल्प के बुद्ध चतुष्टय, योग महारथ, योग महारथी, …
आगे जाती हुई चेतना पुनः अव्यक्त प्रकृति में गई और वहां से वह ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से चौथे भाग में पहुँच गई I
यह चौथा भाग अतिसूक्ष्म श्वेत प्रकाश से युक्त होता है, जिसमे से इसकी श्वेत वर्ण की किरणें बाहर की ओर निकल रही होती हैं और एक कमल जैसा आकार ले रही होती हैं I ऊपर के चित्र में इस भाग को ही बायीं ओर, एक गोलाकार रूप में दिखाया गया है I
ब्रह्मलोक के अब तक बताए गए सभी भागों (उप-लोकों) में से यह भाग सबसे छोटा भाग है I इस भाग को भी अव्यक्त प्रकृति ने घेरा हुआ होता है और ऐसा ही ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
यह ब्रह्मलोक से संबद्ध पुरुष तत्त्व का भाग है I
इसी अध्याय के एक चित्र के वर्णन में, जहाँ हिरण्यगर्भ की बात हुई थी उसमें हृदय के हिरण्यगर्भ ब्रह्म के भाग में जो श्वेत वर्ण का पुरुष तत्त्व और उसका बुलबुला स्वरूप बताया गया था, यदि साधक की चेतना उसमें चली जाए और उसके भीतर ही गति करी, तो अंततः वह चेतना यहाँ बताए जा रहे भाग में ही सीधा-सीधा पहुँच जाएगी I
पुरुषार्थ चतुष्टय में इस भाग का संबंध मोक्ष पुरुषार्थ से होता है I पुरुषार्थ के मोक्ष नामक भाग को दर्शाता हुआ ब्रह्मलोक का यह भाग, साधक की मुक्ति का ही द्योतक है I
आश्रम चतुष्टय में इस भाग का संबंध संन्यास आश्रम से होता है I ऐसा होने के कारण, जबतक योगी की आंतरिक दशा संन्यास की नहीं होगी, अर्थात योगी योग संन्यास को धारण करके उसमें ही स्थापित नहीं हो जाएगा, तबतक वह योगी इस भाग का साक्षात्कार नहीं कर पाएगा I
और इस भाग पर वह साधक तब ही पहुंचेगा, जब उस साधक के आंतरिक संन्यास का नाता समस्त ब्रह्म रचना से ही होगा I
इसलिए जिस साधक की आंतरिक दशा ही संन्यासी की नहीं हुई, अर्थात उसने अपने भावों में ही संन्यास नहीं लिया, और जहाँ वह संन्यास भी समस्त ब्रह्म रचना से ही होना होगा, वह साधक इस लोक को प्राप्त होने का पात्र भी नहीं हो सकता I
और योग मार्ग, ब्रह्मलोक के इस भाग से संबद्ध सिद्धियों और साक्षात्कारों में एक अकाट्य सिद्धांत भी है, जो ऐसा ही है…
पात्रता आंतरिक होती है I
योगमार्ग, पात्रता प्राप्ति मार्ग है I
पात्रता का नाता बाह्य जगत से नहीं है I
जो पात्र ही नहीं हुआ है, वह कुछ पाएगा भी नहीं I
जो पात्र ही हो गया, उसको कोई रोक भी नहीं पाएगा I
जो अब तक पाया नहीं, वह अब तक पात्र भी नहीं हुआ होगा I
दशा आदि की पात्रता प्राप्त करके ही उसकी साक्षात्कार, सिद्धि होती है I
लेकिन इस भाग के साक्षात्कार और साक्षात्कार के पश्चात इसमें स्थित होने के लिए योगी की आंतरिक दशा संन्यासी की ही होनी होगी I
आगे बढ़ता हूँ…
जैसे ही वह चेतना ब्रह्मलोक के इस भाग में गई, तो उस चेतना ने इस भाग में चार योगी बैठे हुए देखे I बौद्ध पंथ के यही चार बुद्ध भी हैं I
इन चार योगीजनों में से एक योगी मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान् बुद्ध भी हैं I
जैसे ही भगवान् बुद्ध ने मेरी चेतना को उनके लोक में आते हुए देखा, तो वह अपने आसन से उठे, और बहुत प्रसन्नचित दशा में वह मेरे पास दौड़कर आए (अर्थात मेरी चेतना के पास आए जो उनके लोक में गई थी) I
मैंने प्रणाम किया और प्रणाम करते समय, उनकी मानसिक वन्दना भी करी I
और इसके पश्चात, उन्होंने मेरा हस्त पकड़कर (अर्थात सगुण साकार चेतना जो उनके लोक में गई थी, उसका हस्त पकड़कर) मुझे अपने उस लोक के अन्य तीन योगीजनों से भी मिलवाया I
मैंने उन तीनों योग-महारथियों को, जो पूर्व कालों के सम-सम बुद्ध ही थे, पूर्ण आदर सहित प्रणाम किया और भगवान् बुद्ध ने जहाँ मुझे बैठने को कहा था, वहीँ पर मैं बैठ भी गया I
ब्रह्मलोक के ऊपर के उन चार लोकों में से यह सर्वोत्कृष्ट लोक ही था, इसलिए मैंने मान भी लिया, कि इस लोक में निवास करते हुए वह चार योग महारथी ही सर्वोत्कृष्ट योगीजन रहे होंगे I
यह तीन योगीजन पूर्व कालों के वह अति उत्कृष्ट ही थे, जो बुद्धत्व को पाए थे और वह तीनों अपने अपने समय खण्ड में बुद्धता को पाकर, अपने ज्ञान को उस ज्ञान की पात्रता को प्राप्त हुए अन्य साधकगणों को बाँटे भी थे I मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव (भगवान् बुद्ध), जो उन चार योग योग महारथीयों से से एक हैं, उन्होंने भी ऐसा ही किया था और इसी प्रक्रिया में ही तो मैं उनका नन्हा शिष्य हुआ था I
इसलिए मैं यह भी जाना, कि ब्रह्मलोक का यह उप-लोक उन्ही बुद्धत्व को पाए हुए योगीजनों का है, जो बुद्धता को प्राप्त करके, अपने ज्ञान आदि को उपयुक्त पात्रों को वितरण किए हैं I
और ऐसे सर्वज्ञाता योगीजनों को ही तो सम सम बुद्ध कहा जाता है I सम सम बुद्ध वह होता है जो बुद्धता को प्राप्त करके, अपने ज्ञान को योग्य (योगगुण-संपन्न) पात्रों को वितरण करता है और उस धरा पर कई सहस्र वर्षों के लिए एक ऐसा ज्ञानमय पथ स्थापित करता है, जिसका आलम्बन लेकर आगामी समय के योग मनीषि उत्कर्ष को प्राप्त होते ही रहते हैं I ब्रह्मलोक के इस उप-लोक में बैठे हुए वह चार योगी, पूर्व कालों के सम सम बुद्ध ही हैं I और इस लोक में इन चार योगीजनों के सिवा, कोई और है भी नहीं I
ब्रह्मलोक के उसी कमल स्वरूप भाग के समीप और उस भाग को छूती हुई अव्यक्त प्रकृति रूपी भूमि में ही इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में योग महारथ से सम्पन्न यह योगी चतुष्टय (अर्थात बुद्ध चतुष्टय) निवास करते हैं I
जबकि इस ब्रह्म कल्प में बुद्धत्व को तो बहुत सारे योगीजन पाए हैं, लेकिन उन योगीजनों ने अपना ज्ञान अन्य पात्रों को वितरण नहीं किया था, इसलिए वह सम सम बुद्धत्व को नहीं पाए थे I इस संपूर्ण ब्रह्म कल्प में यही चार सम सम बुद्ध हुए हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
ऐसे समय पर मेरी पूर्व जन्म की वह गुरुदक्षिणा जिसका नाता भगवान् बुद्ध से था और जिसके कारण मुझे इस जन्म में परकाया प्रवेश से ही सही, लेकिन आना पड़ गया था, वह गुरुदक्षिणा भी पूर्ण हुई I
पूर्व जन्म में, जब मैं भगवान् बुद्ध का शिष्य मैत्री था, तब मुझे बुद्ध भगवान् ने योग शिखर पर जाने से रोका था I
और जब मैंने उनको बहुत आग्रह किया, कि ऐसा मत करिये क्यूंकि मुझे अपनी त्रिशंकु की उस दुर्दशा में फंसे हुए बहुत लंबा समय व्यतीत हो चुका है और अब मैं इससे शीघ्रतम बाहर निकलना चाहता हूँ, तो वह मना ही करते गए… और ऐसा बोले थे…
महाब्रह्माण्ड में, एक ही समयखण्ड में, एक ही पूर्ण बुद्ध हो सकता है I
इसलिए, जिस योगशिखर पर तुम जाना चाहते हो, वह अभी असंभव ही है I
तुम उस योगशिखर पर अपने अगले जन्म में ही जा पाओगे… इससे पूर्व नहीं I
महाब्रह्माण्ड के सिद्धांत तंत्र और नियम सभी पर समान रूप में लागू होते हैं I
महाब्रह्माण्ड में वह क्षमता है ही नहीं, कि उसके योगशिखर पर दो योगी बैठ सकें I
और भगवान् बुद्ध कुछ ऐसा भी बोले थे कि…
वह आगामी जन्म ही तुम्हारा अंतिम जन्म होगा I
तुम्हारे उस आगामी जन्म में तुम जैसा चाहो रह सकते हो I
उस जन्म में तुम्हे योगशिखर पर जाने से कोई रोक भी नहीं पाएगा I
उस आगामी जन्म में तुम्हारा कोई गुरु हो या न हो, योग शिखर पर जाओगे ही I
लेकिन जब यह सब आश्वासन सुनकर भी मैं नहीं माना, और प्रतिदिवस इनको बोलता ही गया, कि अपने लगाए हुए निषेध से मुझे बाहर निकालिए और योग शिखर पर गति करने की आज्ञा दीजिए, तो अंततः गुरुदेव भगवान् ऐसा ही बोल गए थे…
तुम्हारा आगामी जन्म मेरी गुरुदक्षिणा ही मानो I
मेरी दक्षिणा के स्वरूप में ही तुम्हारा आगामी जन्म होगा I
दक्षिणा का प्रमाण भी उसी लोक में देना होगा, जिसमें मैं निवास कर रहा होऊंगा I
योग साधनाओं में यह सब जानकार में यह भी जान गया कि मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान् बुद्ध की गुरुदक्षिणा के लिए ही मेरा यह जन्म, चाहे परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही सही, लेकिन हुआ है I
और मैं यह भी जान गया, कि उन्ही पूज्य गुरुदेव की गुरुदक्षिणा की पूर्ती के प्रमाण के लिए ही मेरी वह चेतना उनके इस लोक में गई थी I और जहाँ मेरी चेतना का उनके लोक तक जाना भी उनके ही अनुग्रह से हुआ था, जो उन्होंने मुझे मेरे पूर्व जन्म में ही प्रदान किया था I
इसलिए इस सत्य को जानकार मैं यह भी जाना, कि अब तक इस ग्रंथ में जो भी बताया गया है, वह गुरु भगवान् बुद्ध का अनुग्रह ही है… इस ग्रंथ में और इसके मार्ग आदि पर मेरा न तो कोई नियंत्रण है और न ही इसमें मेरा कोई हाथ ही है… मेरे योगमार्ग में जो भी हुआ है और आगे भी जो भी होगा, उन्हीं गुरूदेव बुद्ध भगवान् का वह अनुग्रह ही है, जो मैंने उन गुरुदेवता रूपी भगवान् से अपने पूर्व जन्म में प्राप्त किया था I
मैं फालतू में ही स्वयं को ऐसा वैसा मान रहा था इसलिए मेरा यह भ्रम भी गुरुदेव के समक्ष बैठ बैठे ही टूट गया और मैं पुनः उनका वही नन्हा शिष्य हो गया, जो मैं पूर्व जन्म में भी था I ऐसी दशा में मैं यह भी जाना, कि…
अपनी मूर्खता का ज्ञान होने पर, वही मूर्खता, महामुर्खता जैसे पाई जाती है I
जब मूर्ख को अपनी मूर्खता का ज्ञान होगा, तब वह स्वयं को महामूर्ख ही पाएगा I
गुरुदेव बुद्ध के समक्ष बैठा हुआ मैं ही वह महामूर्ख था, जिसकी बात यहाँ हो रही है I
अब जो बता रहा हूँ, वह भी अकाट्य सत्य ही है…
अपनी मूढ़ता और मूर्खता का ज्ञान, योगी के समस्त अभिमानों को ध्वस्त करता है I
शिष्य चाहे जितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो जाए, उसके गुरुदेव उससे उत्कृष्ट रहेंगे I
रचना में जबतक गुरु या शिष्य रहेंगे, यह बिंदु अकाट्य सत्य ही पाए जाएंगे I
आगे बढ़ता हूँ…
लेकिन इस कल्प में मेरे प्रथम गुरुदेव तो स्वयंभू मनु ही हैं और प्रथम गुरुमाई माँ शतरूपा I
मेरे इस जन्म और इस सम्पूर्ण कलप के उन सभी जन्मों में, जो तब से हुए हैं जबसे मैं स्वयंभू मन्वन्तर में ब्रह्मर्षि क्रतु का मनस पुत्र हुआ था, वही ब्रह्मर्षि क्रतु ही रहे हैं I
और इस महायुग में त्रिशंकु की दशा से बाहर निकलने के मार्ग में और इस जन्म तक पहुँचने के मार्ग में तो ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ही रहे हैं I
इस जन्म की…
एक सौ एकवे आंतरिक अश्वमेध सिद्धि के मूल में भी ब्रह्मर्षि क्रतु ही रहे हैं I
और इस योगसिद्धि के मार्ग में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ही रहे हैं I
इस सिद्धि की प्राप्ति में भगवान् बुद्ध ही हैं I
ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों में से, इसी चौथे भाग में मैंने भगवान् बुद्ध की वह गुरुदक्षिणा भी पूर्ण करी, जिसके कारण मुझे इस जन्म में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही सही, लेकिन लौटाया गया था I
और मेरे उस पूर्व जन्म में जो गुरुदक्षिणा भगवान् बुद्ध ने कही थी, वह उसी प्रमाण रूप में पूर्ण हुई… जैसा भगवान् बुद्ध ने मुझसे पूर्व जन्म में कहा था I
और आश्चर्य की बात तो यह है कि इस गुरुदक्षिणा की पूर्ती भी उन्हीं गुरूदेव बुद्ध के आशीर्वाद से और उसी स्वरूप में परिपूर्ण हुई, जो उन्होंने मुझे मेरे पूर्व जन्म में दिया था I
आगे बढ़ता हूँ…
जब भगवान् बुद्ध की गुरुदक्षिणा और उसका प्रमाण जो गुरुदेव बुद्ध ने माँगा था, वह भी पूर्ण हुआ, तो मैं (अर्थात मेरी चेतना जो ब्रह्मलोक में गई थी) भी संतुष्ट हो गया कि अब इस जन्म का कोई ऐसा शेष कार्य नहीं है, जिसके कारण कोई और जन्म लेना पड़ेगा.., क्यूंकि ऐसे समय पर तो इस जीव जगत में यही गुरुदक्षिणा मेरे लिए अंतिम कार्य बचा हुआ था I
और इसके बाद कुछ समय तक भगवान् बुद्ध और उन अन्य तीन उत्कृष्ट योगीजनों के समक्ष बैठकर, उनसे योगादि मार्गों पर वार्तालाप भी हुआ और मैंने उनसे बहुत कुछ जाना I
और उनमें से किसी ने भी इस ज्ञानादि प्रदान करने के लिए मुझसे कुछ भी नहीं माँगा, बस जो मैं उनसे पूछता था, वह मुझे बताकर शांत हो जाते थे I इसके लिए मैं उन सबाका आभारी (कृतज्ञ) भी हूँ I
जब मैं पूर्ण सन्तुष्ट हो गया, तो इसके पश्चात मेरा वह सिद्ध शरीर जो ब्रह्मलोक के इन बीस लोकों में गया था, इसी ब्रह्मलोक में स्वतः ही लय भी हो गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
- चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा, पितामही सरस्वती, सर्वसम चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा, सर्वसम सगुण सकर चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा, ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग, … चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, पितामही सर्वा माता सरस्वती, सर्वसम चतुर्मुख का पितामह प्रजापति, सर्वसम सगुण सकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, ब्रह्मलोक का इक्कीसवा भाग, सतलोक का इक्कीसवाँ भाग, … पुरुषार्थातीत, पुरुषार्थातीत ब्रह्मा, पुरुषार्थातीत प्रजापति, पुरुषार्थातीत सरस्वती, …
टिपण्णी: इस ग्रंथ में न तो ब्रह्मलोक के इस इक्कीसवें भाग का चित्र बनाया गया है, और न ही पितामह अथवा पितामही का चित्र ही बनाया गया है I यदि किसी साधक, देवता आदि जीवगणों को यह बात अटपटी लगे अथवा इस बात पर कोई आपत्ति हो, तो इसके लिए मैं उन सबाका क्षमाप्रार्थी हूँ I
बुद्ध भगवान् की गुरुदक्षिणा के पूर्ण होने के पश्चात, मैं (अर्थात मेरी चेतना जो ब्रह्मलोक में गई थी), ब्रह्मलोक के उस इक्कीसवें भाग में गई जहाँ पितामह प्रजापति अपनी दिव्यता पितामही सरस्वती के साथ निवास करते हैं I
प्रजापति जो वेदों के तैंतीस कोटि देवी देवताओं में सबसे आगे (अर्थात ऊपर) के देवता ही हैं, वह…
वह ही सर्वसम हैं I
वह सगुण साकार स्वरूप में हैं I
वह ही चतुर्मुखा पितामह कहलाते हैं I
वह कोटि वज्रमणि के समान प्रकाशमान हैं I
वही महाब्रह्माण्ड में सर्वसम तत्त्व के उदय स्थान हैं I
उनकी दिव्यता भी सर्वसम ही है, और सरस्वती कहलाती हैं I
उनके इस लोक में केवल वह और उनकी अर्धांगिनी ही निवास करते हैं I
ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में, पितामाह और पितामही के सिवा कोई और है ही नहीं I
आगे बढ़ता हूँ…
जब मैं (अर्थात मेरी चेतना) उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और पितामही माँ सरस्वती के लोक में गया, तो मेरी चेतना उनके समक्ष पहुँच गई I उन दोनों को नमन करके, मैं (अर्थात मेरी चेतना जो उनके पास गई थी) उनके समक्ष ही बैठ गया I
पितामह के बायीं ओर पितामही बैठी हुई थीं, और दोनों कोटि कोटि हीरों के समान चमक रहे थे I
पितामह चतुर्मुखा ही हैं, मध्यम आयु से वृद्ध पुरुष तक की आयु के होंगे, उनकी लम्बी सी दाढ़ी मूछ है, और कपाल के ऊपर उनकी जटाएं बाँधी हुई हैं, वह आभूषणों को धारण किए हुए मुकुटधारी हैं, उनका दिव्य शरीर कोटि कोटि हीरों के समान प्रकाशमान है, और उनका परिधान और आभूषण भी ऐसे ही अतिप्रकाशमान है I
पितामही एक मुखी माता हैं, मध्यम आयु के समीप की होंगी, उनके घने और लम्बे केश हैं, उनका अति सुन्दर और मन को मोहित करने वाला मुख और डील डौल है I उनके पास बैठकर और उनको देखकर कोई भी जीव (साधक) मन ही मन उनका पौत्र (अथवा पुत्री) हुए बिना भी नहीं रह पाएगा, वह इतनी अच्छी ही हैं I वह बहुत सुन्दर आभूषणों से भरी हुई हैं I उनका शरीर, उनके वस्त्र और आभूषण भी अतिप्रकाशमान हीरे के प्रकाश जैसे ही हैं I
पितामह प्रजापति और पितामही सरस्वती के समक्ष बैठकर मैं (अर्थात मेरी चेतना) ऐसा ही जाना I
वहां बैठ कर मैं (अर्थात मेरी चेतना) पितामह और पितामही को देखकर इतना तो जान ही गया, कि मुझे मेरे समस्त जीव इतिहास के समस्त कालखण्डों में जहाँ पहुंचना था… वहां मैं अब पहुँच गया हूँ I
आगे बढ़ता हूँ…
मेरे उनके समक्ष बैठने के पश्चात, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और पितामही माता सरस्वती, दोनों मुझे (अर्थात मेरी चेतना को) देख कर खिलखिलाकर हस रहे थे I और मैं यह समझ ही नहीं पा रहा था, की वह हस क्यों रहे हैं I और ऐसा ही कुछ समय तक चला I
और अंततः मैंने उनसे पूछ ही लिया, कि आप दोनों इतने उत्साहित और प्रसन्न क्यों हैं? I
इसपर पितामही बोलीं,… मेरे पौत्र, इस संपूर्ण ब्रह्म कल्प में तुम ही हो जो यहाँ तक पहुँच पाए हो I
अधिकांश योगीजन तो ब्रह्मलोक के अन्य उप-लोकों में (अर्थात भागों में) पहुँच कर ही संतुष्ट हो जाते हैं, इसलिए वह ब्रह्मलोक के उन्हीं भागों में आसक्त होकर, वहीं फंस जाते हैं I
और कुछ विरलेयोगीजन तो उनमें से किसी न किसी भाग से अनासक्त होकर, वहीँ से अपनी काया में ही लौट जाते हैं I ऐसे योगी उसी भाग को संपूर्ण ब्रह्मलोक मान लेते हैं I
इसलिए, मेरे प्यारे पौत्र, इस कल्प में तुम ही रहे हो जो उन नीचे के बीस भागों में न आसक्त हुए थे और न ही अनासक्त हुए थे, और इसीलिए तुम इस सतलोक के उस अंतिम इक्कीसवें भाग तक पहुँच पाए हो, जहाँ हम दोनों (अर्थात पितामह और पितामही) तुम्हारे पितामह द्वारा ही रचित इस महाब्रह्माण्ड से ही सर्वसम और साक्षी सरीके ही होकर, निवास करते हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
इसके पश्चात पितामही ने मेरा (अर्थात मेरी सगुण चेतना) का हस्त अपने हस्त में लिया और बोलीं… चलो खड़े हो जाओ क्यूंकि मैं तुम्हें इस लोक में घुमाने लेकर जाना चाहती हूँ I
इस बात पर पितामह ने अपना समर्थन, अपना सर आगे पीछे हिलाकर दिया I
पितामही की शब्दात्मक वाणी से और पितामह के स्वीकारात्मक संकेत से मैं (अर्थात मेरी चेतना जो ब्रह्मलोक में गई थी), पितामही के साथ ब्रह्मलोक में खूब-खूब घूमा I और इस समस्त ब्रह्म रचना की उन सर्वपूज्य पितामही ने मुझे बहुत घुमाया और वहां का बहुत कुछ दिखाया I
और ऐसे समय पर जब भी मैं पितामही से कुछ पूछता था, तो वह खिलखिलाकर हंसती हुई ही मुझे (अर्थात मेरी चेतना को) उत्तर देती थीं I
वह पूरा लोक ही सहस्र नील कोटि (अर्थात असंख्य) हीरों के समान प्रकाशमान था और ऐसी ही पितामही और पितामाह भी थे I
आगे बढ़ता हूँ…
पितामही का हाथ पकड़ कर उस लोक में घूमते घूमते मैंने उनसे कई प्रश्न भी किए और पितामही ने खिलखिलाकर हँसते हुए मुझे जो उत्तर दिए, वह भी कुछ ऐसा ही थे…
मैंने उनसे पूछा, कि पितामाह की उपासना क्यों वर्जित हैं? I
इसपर पितामही बोलीं… क्यूंकि यदि सर्वसम की उपासना करोगे, तो सर्वसम हो जाओगे I और यदि सभी जीवों में से एक योगी भी सर्वसम हो जाएगा और ऐसा होने पर यदि वह योगी इस जीव जगत में प्रकाशित भी हो जाएगा, तो आगे चलकर समस्त ब्रह्म रचना भी सर्वसम हो जाएगी, जिसके कारण वह रचना अपने रचित विषम स्वरूप से अतीत होकर, नष्ट हो जाएगी I ब्रह्माण्ड जो रचित ही है, वह सर्वसम नहीं हो सकता है इसलिए जबतक पितामह की आयु संपूर्ण नहीं होने लगती, तबतक उनकी उपासना वर्जित रहती है I
पितामही के इस उत्तर पर मैंने सोचा कि जो समय पितामही ने बताया है उसमें तो अभी बहुत वर्ष (155 लाख करोड़ वर्ष से भी अधिक) शेष हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि इस समयखण्ड के अंत में ही पितामह ब्रह्मा की उपासना हो पाएगी I
मैंने एक और प्रश्न किया… पितामह के अधिक संख्या में मंदिर क्यों नहीं होते? I
और इसी के उत्तर में पितामही आगे बोली…
अपने ही रचैता को स्थापित कैसे करोगे? I
जीव अपने रचैता को केवल ख्यापित कर सकता है I
और यह ख्यापित करना का मार्ग भी ज्ञानोपदेश से ही हो सकता है I
जीव जगत में अपने रचैता को मंदर आदि में स्थापित करने की क्षमता ही नहीं है I
इसीलिए, वैदिक वाङ्मय में कहा गया है कि पितामह ब्रह्मा की उपासना वर्जित है I पितामह के मंदिर भी वहीँ बनाए जा सकते हैं, जहाँ उन्होंने पूर्व कालों में या तो कोई यज्ञ, उपासना अथवा योग किया होगा… अन्य स्थानों पर नहीं I
मैंने पितामही से एक और प्रश्न पूछा… मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि जीव रूप में मुझे जहाँ पहुंचना था, इस लोक में आकर मैं वहां पहुँच चुका हूँ? I
इसपर पितामही बोलीं… जब जीव अपने रचैता के समक्ष आता है, तब उसे ऐसा लगना स्वाभाविक है I जब कोई बूँद अपने उदय स्थान, जो सागर ही है उसमें अंततः चली जाती है (अर्थात लय होती है) तब उस बूँद की चेतना का ऐसा सोचना भी स्वाभाविक ही है I
इसपर मैंने एक और प्रश्न पूछा… पितामही, ऐसा क्यों है कि यहाँ पर आकर मुझे एक अथाह शांति का अनुभव हो रहा है? I
इसपर पितामही ने उत्तर दिया… जब जीव को अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का पता चलता है, तो वह सदैव के ही शांत हुए बिना भी नहीं रह पाता है I जब पर्वत आदि से उदय होकर नदी गति करती है, तब वह उधम मचाती हुई अपने साथ सबको लेकर जाने की चेष्टा से ही चलती है और ऐसा ही जीवों के नीचे की योनियों और उत्कर्ष गतियों में भी होता है I और जब वही नदी अपने लय स्थान जो सागर ही है, उसके समीप पहुँच जाती है, तो वह शांत होकर ही उस सागर में जाती है I तुम भी तो ऐसे होकर ही यहाँ आए हो और तुम्हारी आंतरिक शांति का प्रमाण भी तुम्हारा किसी भी लोक और उनके देवता से आसक्त और अनासक्त न होना ही था I यही तो सर्वसमता है जो ब्रह्मलोक की ओर गति करवाती है और ब्रह्मलोक इस इस अंतिम, इक्कीसवें भाग में स्थापित भी कर देती है I
पितामही के साथ ब्रह्मलोक में घूमते-घूमते, मैंने समस्त जीवों की पितामही से एक और प्रश्न पूछा… क्या यहाँ आकर जीव देवता अथवा भगवान् बन जाता है? I मैं इसलिए पूछ रहा हूँ, क्यूंकि यदि ऐसा है तो मैं पुनः मृत्युलोक में चला जाऊँगा, मुझे कोई देवता अथवा भगवान् या भगवती नहीं बनना है… मैं एक नन्हा विद्यार्थी ही रहना चाहता हूँI
इसपर पितामही ने मेरा कपाल थपथपाया और खिलखिलाकर हंसते हुए बोलीं… जो योगी देवता अथवा देवी अथवा भगवान् या भगवती बनना चाहेगा, वह तो यहाँ पहुँच ही नहीं पाएगा I जो योगी कोई भी उपाधि धारण करा होगा, वह भी यहाँ पहुँच नहीं पाएगा I जो सिद्ध होगा अथवा कोई भी सिद्धि आदि का धारक होगा, वह भी यहाँ नहीं पहुँच पाएगा I जो योगी ब्रह्म और ब्रह्म रचना का अथवा उनके किसी अभिव्यक्ति का (जैसे देवी देवता इत्यादि) एक नन्हा सा विद्यार्थी (या शिष्य) अथवा पुत्र (या पुत्री) अथवा हमारा (पितामही और पितामह) पौत्र (या पौत्री) होकर ही अपने उत्कर्ष पथ पर गति करता है और वह प्राप्त हुई सिद्धियों आदि से ही विमुख होकर और सर्वसम भाव में पूर्णतः स्थित होकर ही रमण करता है, वही यहाँ पहुँच पाता है… अन्य कोई भी नहीं I क्यूंकि तुम ऐसे ही रहे हो, इसलिए तुम यहाँ तक पहुँचे हो I और क्यूंकि इस समस्त कल्प में कोई उत्कृष्ट योगी ऐसा था ही नहीं, इसलिए तुम्हारे सिवा इस संपूर्ण ब्रह्म कल्प में कोई भी इस कल्प का योगी (जीव) यहाँ पर नहीं पहुँच पाया है I
मैंने पितामही से एक प्रश्न और पूछा… तो क्या मैं इस लोक के पश्चात पुनः मृत्युलोक में आता जाता रहूंगा, अथवा मेरे यहाँ आने का कोई और परिपेक्ष या गति है? I
इसपर पितामही ने मेरे (अर्थात सगुण चेतना के) कंधे पर हाथ रखा और कहा… मेरे पौत्र, इस संपूर्ण कल्प की अवधि में तुम एकमात्र हो जो यहाँ पहुँच पाए हो I अन्य सभी योगीजन तो नीचे के बीस लोकों में से ही किसी लोक में पहुँचे हैं I
और पितामही आगे भी बोलीं… मरे प्यारे पौत्र, अभी के समय तो तुम्हें इस बात का पता भी नहीं है कि तुम निराकार सदाशिव की शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा पथ पर गति कर रहे हो I और तुम्हारी उसी प्रदक्षिणा में ही यह ब्रह्मलोक आया है I इस कल्प में तुम प्रथम योगी हो जो इस शिवलिंगात्मक निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा पर गया है I और इसके अतिरिक्त, इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में कुछ ही अतिविरले योगी हुए हैं, जो इस प्रदक्षिणा पर गए हैं और उनमें से भी कुछ ही इसको पूर्ण कर पाए हैं I इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में जो योगी इस शिवलिंगात्मक निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा को पूर्ण कर पाए हैं, वह तो इतने भी नहीं हुए की उनको तुम अपने हस्त की उँगलियों पर ही गिन सको I जिस पर तुम अभी चल रहे हो, उसी प्रदक्षिणा मार्ग में यह सतलोक आता है I इसलिए इस लोक से न तो आसक्त होना और न ही अनासक्त, जैसा सर्वसम यह लोक हैं वैसे ही अपनी आंतरिक दशा में रहना I
इसपर मैंने पितामही से प्रश्न किया… निराकार सदाशिव की शिवलिंगात्मक प्रदक्षिणा क्या होती है? I
इसपर पितामही ने मेरे मुख के गालों को थपथपाकर और पुनः मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा… मेरे प्यारे पौत्र, यदि इस प्रदक्षिणा को संपूर्ण करोगे, तो ही उसको जान पाओगे I इस प्रदक्षिणा में समस्त देवी देवता, समस्त लोक, समस्त कृत्य, समस्त तत्त्व और रचना में जो कुछ भी है, वह पाया जाता है I इसलिए इसको स्वयं ही पूर्ण करके इसको स्वयं ही जानो I इस शिवलिंगात्मक निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा का मार्ग वैसा ही होता है जैसे शिव पुराण शिवलिंग परिक्रमा का मार्ग बताया गया है I इससे आगे मैं नहीं बताऊंगी, क्यूंकि इस निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा को योगी को स्वयं ही जानना होता है I
इसके पश्चात मैंने पितामही के चरण पर ही अपनी उस सगुण चेतना का माथा लगाकर उनको प्रणाम किया I और पितामही बोली… मेरे प्यारे पौत्र, तुम्हारी अब तक की सफलता के मूल में तुम्हारे असंख्य गुरूजनों और गुरुभाइयों, असंख्य ऋषिगण और सिद्ध, असंख्य देवी देवताओं, असंख्य जन्मों के माता पिता और उन जन्मों के ज्येष्ठा ज्येष्ठ आदि का आर्शीवाद रहा है I और इसके अतिरिक्त अब के बाद से तो यह ब्रह्म रचना ही तुम्हारे साथ खड़ी हो जाएगी, क्यूंकि तुम इस ब्रह्म रचना के रचैता (अर्थात चतुर्मुखा पितामह प्रजापति) और तुम्हारे उन पितामाह की सर्वसम ज्ञानमय चेतनमय और क्रियामय दिव्यता (अर्थात पितामही सरस्वती) के अनुग्रह से भी सुशोभित हुए हो I इसलिए जब तुम इस प्रदक्षिणा को पूर्ण करो, तो तुम्हारी प्रदक्षिणा का मार्ग तो बताना ही, लेकिन इसके साथ साथ शास्त्रों में बताया गया शिवलिंग प्रदक्षिणा मार्ग भी बताना I और इन दोनों के अभेद और इनके अन्य सभी प्रदक्षिणाओं से भेद का कारण भी बताना I
इसके पश्चात मैं (अर्थात मेरी चेतना जो पितामही के साथ उनके लोक में घूम रही थी) संतुष्ट हुआ I मुझे कुछ समय घूमकर तक अपने साथ ही घुमाकर, पितामही पुनः पितामह के समक्ष लेकर गई I
तब पितामाह बोले… मेरे प्यारे पौत्र, तुम्हारी पितामही जो सर्वसम सरस्वती हैं और जिनके साथ तुमनें यह लोक घूमा है, उन्ही की दिव्यता से यह ब्रह्माण्ड रचित हुआ है I वही तुम्हारे पितामह की इच्छा शक्ति कहलाती हैं, जो सर्वसम ही होती हैं I वही इच्छा शक्ति अपने सगुण साकार स्वरूप में, सरस्वती कहलाती हैं और ऐसे सगुण साकार स्वरूप में वही तुम्हारे पितामह की दिव्यता, अर्धांगनी और शक्ति भी हैं I वही एकमात्र ज्ञान है I इसलिए यह संपूर्ण महाब्रह्माण्ड सारस्वत ही है I इस बिंदु को स्मरण में रखकर अपने आगे के मार्ग पर जाओ I
पितामह के ऐसे शब्दों के पश्चात वह और पितामही शांत हो गए और मंदहास धारण करके, मुझे (अर्थात मेरी सगुण चेतना को) देखते गए I
पितामही और पितामह दोनों को शांत होकर बैठे हुए देखकर, मैं समझ गया कि अब मेरा अपने शरीर में लौटने का समय आ गया है I
इसलिए मैंने पितामह और पितामही को नमन किया, उनका आशीर्वाद पाया और अपनी स्थूल काया में, जो इसी मृत्युलोक में ही पड़ी हुई थी, उसमें लौट गया I
और अपने स्थूल शरीर में लौटकर जब मैंने इस साक्षात्कार का अध्ययन, चिंतन और मनन किया, तो मैं जाना, कि ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भाग तो पुरुषार्थ चतुष्टय के एक-एक बिंदु के द्योतक हैं, लेकिन…
ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग तो पुरुषार्थातीत ही है I
और ऐसे ही पुरुषार्थातीत, पितामाह प्रजापति और पितामही सरस्वती भी हैं I
और उस आत्मिक अध्ययन, चिंतन और मनन में मैं यह भी जाना कि ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भाग तो आश्रम चतुष्टय के एक-एक बिंदु के द्योतक हैं, लेकिन…
ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग तो आश्रमातीत ही है I
और ऐसे ही आश्रमातीत, पितामाह प्रजापति और पितामही सरस्वती भी हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
- पञ्च मुखी ब्रह्मा, पञ्च मुख के ब्रह्मा, ब्रह्मा का वास्तविक स्वरूप, … पञ्च मुखी प्रजापति, पञ्च मुख के प्रजापति, प्रजापति का वास्तविक स्वरूप, …
ब्रह्मलोक के ऊपर के चार उप-लोक (जो ऊपर के चित्र में दिखाए गए हैं), ब्रह्मा के चार मुख के द्योतक हैं I
इन चार मुखों में से, तीन मुख सामने की ओर से दिखाई देते हैं I जब साधक की चेतना ब्रह्मा जी के समक्ष बैठी होती है, तब चौथा मुख पीछे की ओर होने के कारण नहीं दिखता है I ऊपर के चित्र में भी ऐसा ही दिखाया गया है I
और इन चार ऊपर के उप-लोकों से भी ऊपर जो एक लोक है, जहाँ पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती निवास करते हैं, वह ब्रह्मा के पांचवें मुख का द्योतक है I इसी मुख के बारे में कहा गया था की शिव ने इसको काट दिया था I
और कटे होने के कारण, इस ब्रह्म कल्प में इस पांचवें मुख (अर्थात ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग) में, कोई भी योगी पहुँच नहीं पाया था I
यह भी वह कारण है कि जब मेरी चेतना पितामही सरस्वती के साथ ब्रह्मलोक के इस सबसे ऊपर के उप-लोक (अर्थात ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग) में थी, तब पितामही ने कहा भी था कि इस संपूर्ण कल्प के समय में, ब्रह्मलोक के इस इक्कीसवें भाग में (अर्थात ब्रह्मा के पांचवें मुख में) कोई भी योगी या जीव पहुँच नहीं पाया है I
इस इक्कीसवें भाग में न पहुँचने का कारण भी वही है जो पूर्व में बताया था, कि शिव ने इस मुख को काट दिया था I और काटने के कारण, यह मुख ब्रह्मा के अन्य किसी भी मुख से जुड़ा नहीं हुआ है I
यह भी वह कारण है कि जब ऊपर के चार उप-लोकों (अर्थात ब्रह्मा के चार मुखों) से चेतना इस अंतिम उप-लोक (या ब्रह्मा का सबसे ऊपर के मुख) को जाती है (अर्थात ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में जाती है) तो चेतना की ऐसी गति का मार्ग भी गुप्त ही होता है I
गुप्त होने के कारण, साधक की चेतना ब्रह्मलोक के इस इकीसवें भाग (अर्थात ब्रह्मा के पांचवें मुख) में तो पहुंच जाती है, लेकिन उस चेतना को इस मुख की ओर जाने वाला मार्ग पता ही नहीं चलता I
आगे बढ़ता हूँ…
- इक्कीस शून्य, शून्य के इक्कीस स्वरूप और ब्रह्मलोक के इक्कीस भाग, …
ब्रह्मलोक के इक्कीस भागों का नाता शून्य के उन इक्कीस स्वरूपों से है, जिसका वर्णन सिद्ध कर गए हैं I
शून्य के इन इक्कीस भागों में से, एक-एक भाग ब्रह्मलोक के इक्कीस उप-लोकों से संबद्ध होता है I
और शून्य के इक्कीसवें भाग का नाता, ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग से होता है I शून्य का इक्कीसवाँ भाग ही महाशून्य, शून्य ब्रह्म, शून्य अनंत, अनंत शून्य, सर्वशून्य, आदि कहलाता है I यही निराकार श्रीमन नारायण हैं, यही निराकार श्री हरी हैं और यही भगवान् जगन्नाथ भी हैं I
इन इक्कीस भागों में से नीचे के बीस भागों में जो शून्य साक्षात्कार होता है, वही शून्य की बीस मध्यवर्ती दिशाएं हैं I
इसका अर्थ हुआ कि ब्रह्मलोक के जो नीचे के सोलह और जो ऊपर के चार भाग हैं, उनसे संबद्ध ही शून्य की मध्यवर्ती बीस दशाएं होती हैं I और इन बीस दशाओं को पार करके ही साधक की चेतना ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग से संबद्ध इक्कीसवें शून्य का साक्षात्कार करती है I यह इक्कीसवाँ शून्य ही शून्य साक्षात्कार की अंतिम दशा होता है I
साधनामार्ग में, शून्य की इन्ही बीस मध्यावर्ती दशाओं को पार करके ही इक्कीसवें शून्य का साक्षात्कार होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- आज के बौद्ध पंथ की विडम्बना, बौद्धों के कथनी और करनी, बौद्धों के कथनी और करनी, …
पूर्व जन्मे मैं भगवान् बुद्ध का नन्हा सा शिष्य ही था और आज भी हूँ ही I और ऐसा होने पर भी कुछ बिंदु संक्षेप में डाल रहा हूँ I
आज के समय विडम्बना तो यहाँ हो गई कि बौद्ध पंथ के कुछ मार्ग, बुद्ध के आगमन को चौथी शदाब्दी इसा पूर्व में बताते हैं, कुछ पाँचवीं तो कुछ छठी और बौद्ध पंथ का कालचक्र मार्ग तो बुद्ध को दसवीं शताब्दी ईसा पूर्व में ही बता रहा है I
और वास्तविकता तो यह है कि बुद्ध अवतार का आगमन 1914 इसा पूर्व से कोई 2.7 वर्षों के भीतर ही हुआ था I और जब बुद्ध भगवान् कोई पचास वर्ष के रहे होंगे, तो हम शिष्यों ने उनका प्रथम विग्रह बोधगया क्षेत्र के एक ब्राह्मण के घर में और एक विश्वब्राह्मण से बनवा कर स्थापित किया था I मैं ऐसा इसलिए कह रहा क्यूंकि मेरा इस जन्म से पूर्व का जन्म, बुद्ध भगवान् के शिष्य रूप में ही था और मुझे ही भगवान् बुद्ध ने मित्र का नाम दिया था, जो आगे चलकर मैत्री आदि हो गया था I
आज के समय तो और बहुत विडम्बना हो गई, जो ऐसी ही है…
बौद्ध कहते हैं, की बुद्ध का स्थान ब्रह्मा जी से ऊपर होता है I तो ऐसा क्यों है कि बुद्ध भगवान् ब्रह्म लोक के ऊपर के चार लोकों में से चौथे लोक में निवास कर रहे हैं I और ऐसा ही मैंने इस अध्याय में भी बताया है I
बौद्ध कहते हैं कि बुद्ध ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण में ही हो सकता है, और ऐसा कहने पर भी वह स्वयं को वर्णाश्रम में नहीं रखते I चलो इतना भी थी ठीक था, लेकिन वह तो पूर्णरूपेण वर्णसंकरण ही हो गए हैं I और मैं ऐसा लगभग आधे बौद्ध जगत से भी ऊपर में घूमकर बता रहा हूँ I
और क्यूँकि बौद्ध पंथ में तो वह वर्णाश्रम सिद्धांत है ही नहीं जिसमें ब्राह्मण और क्षत्रिय होते हैं… यह तो वैदिक सिद्धान्त है I
और क्यूँकि वर्णसंकरणता में तो बुद्ध आएँगे ही नहीं, तो क्या इसका यही अर्थ हुआ कि जैसे पूर्व कालों में बुद्ध भगवान् हिन्दू वर्णाश्रम से सुसज्जित परिवार में ही आए थे, वैसे ही अगले बुद्ध के साथ भी तो होना है I
बुद्ध भगवान् का मार्ग ही अहिंसा में बसा हुआ था I लेकिन आज के बौद्ध साधुगण भी माँसाहारी ही हो गए हैं I यह कैसी मन-घडन्त मार्ग पालन प्रक्रिया है I तो इसका यह भी तो अर्थ हुआ कि अगले बुद्ध तो इन बौद्ध साधुगणों का भी खण्डन ही करेंगे I मैंने तो कुछ बौद्ध देशों में यह भी देखा कि जितने जलचर, भूचर और नभचर पशु पक्षी मीन आदि हैं, उन सबाका भक्षण यह बौध जगत कर रहा है और ऐसा करने के कारण, इनकी स्वास और शरीरों से भी इतनी बॉस आती है कि आप इनके साथ तक खड़े नहीं हो सकते I
बुद्ध भगवान् का मार्ग काम वासनाओं की शांति का था, लेकिन आज तो लगभग पूरा बौद्ध जगत कामुखता की पराकाष्ठा रूपी सिंहासन पर ही बैठा हुआ है I
बौद्ध और भी बहुत कुछ कहते हैं किन्तु जब मैं उन बौद्ध प्रधान प्रदेशों में गया, तो वह कहते तो ठीक थे, लेकिन पालन नहीं करते थे I
मैं इतने देशों में गया और मैंने इन बौद्धों को देखा और जाना, कि यह बस नाम के ही बौद्ध रह गए हैं I इनके पास न तो मेरे गुरुदेव द्वारा बताया गया मूल सुरक्षित रहा है, न मार्ग और न ही वर्ण, न व्यवहार, न आचरण और न ही इनमें से कोई भी बौद्ध, यहां बताए जा रहे बौद्ध पंथ के गंतव्य को ही पाएगा I
और आगामी बुद्ध इन सबाका खण्डन करे बिना भी नहीं रह पाएगा, क्यूंकि वह उन्ही बुद्ध का शिष्य भी था, जिनको आज के बौद्ध मनीषि मन-घडन्त रूप में ही मानते हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्मलोक ही सद्योजात सदाशिव हैं, ब्रह्मलोक ही सदाशिव सद्योजात हैं, ब्रह्मलोक ही सदाशिव का सद्योजात मुख है, सतलोक ही सद्योजात सदाशिव हैं, सतलोक ही सदाशिव सद्योजात हैं, सतलोक ही सदाशिव का सद्योजात मुख है, सदाशिव का पश्चिम दिशा को देखने वाला मुख, पशुपतिनाथ का पश्चिमी मुख, ब्रह्मलोक का सनातन स्वरूप, सत लोक का सनातन स्वरूप, सत्य लोक का सनातन स्वरूप, …
यह भाग भी संक्षेप में ही बताया जाएगा…
ब्रह्मा जी का समय 311.040 लाख करोड वर्ष का है I
ब्रह्मा आते जाते हैं, परन्तु ब्रह्मलोक सनातन ही रहा है I
जब ब्रह्मा अपना समय पूर्ण करते हैं, तब महाप्रलय आती है I
और उस महाप्रलय में जाकर भी ब्रह्मलोक सुरक्षित ही रहता है I
महाप्रलय का समय भी पूर्व के ब्रह्मा की आयु के समान ही होता है I
महाप्रलय समाप्ति पर, उसी सुरक्षित ब्रह्मलोक में एक नए ब्रह्मा आते हैं I
नए ब्रह्मा उसी ब्रह्मलोक को धारण कर, एक नए जीव जगत का उदय करते हैं I
उदय भी उसी दशा में होगा, जो नाश हुए जीव जगत की महाप्रलय से पूर्व में थी I
तो इसका अर्थ हुआ कि जिस दशा में…
जगत महाप्रलय में गया था, उसी में वह महाप्रलय के पूर्ण होने पर उदय भी होगा I
जीव महाप्रलय में गए थे, उसी में वह महाप्रलय के पूर्ण होने पर उदय भी होंगे I
तो इसका अर्थ हुआ, कि महाप्रलय आने के कारण…
सृष्टिचक्र टूटा हुआ सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में अटूट ही है I
जीवों का उत्कर्ष पथ टूटा हुआ सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में अटूट ही है I
और उस महाप्रलय के समय में…
जगत का जो भाग मुक्ति का पात्र होगा, वह मुक्त हो जाएगा I
जो जीव मुक्ति का पात्र होंगे, वह भी मुक्त ही हो जाएंगे I
इसलिए, महाप्रलय के समय में भी मुक्तिलाभ होता है I
इसलिए…
जगत के जितने भाग महाप्रलय में गए, उससे कम ही बाद के जगत में पाए जाएंगे I
जितने जीव महाप्रलय में गए होंगे, उससे कम ही बाद के जगत में पाए जाएंगे I
ऐसा भी इसीलिए संभव है, क्यूंकि महाप्रलय में सतलोक सुरक्षित रहता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सदाशिव के सद्योजात मुख से ब्रह्मा का स्वयंभू होना, ब्रह्मा स्वयंभू देवता है, स्वयंभू ब्रह्मा, सर्वसम ब्रह्मा, सर्वसम प्रजापति, प्रजापति ही ब्रह्मा का सर्वसम रचैता स्वरूप है, प्रजापति स्वयंभू देवता है, स्वयंभू प्रजापति, वेदों के तैंतीस कोटि देवता में से सबसे ऊपर के देवता, वेदों के तैंतीस कोटि देवता में से तैंतीसवें देवता, ब्रह्मलोक और अद्वैत सिद्धांत, ब्रह्मलोक से ही अद्वैत है, अद्वैत का सगुण निराकार स्वरूप ब्रह्मलोक है, अद्वैत का सगुण साकार स्वरूप पितामह ब्रह्मा हैं, …
इस भाग को भी बिंदु रूप, संक्षेप और कुछ-कुछ सांकेतिक ही बताया जाएगा…
सद्योजात सदाशिव ही ब्रह्मलोक हैं I
ब्रह्मलोक के भीतर ही ब्रह्मा स्वयंभू हुए थे I
ब्रह्मलोक का सगुण साकार स्वरूप भी ब्रह्मा हैं I
पितामह ब्रह्मा का सगुण निराकार स्वरूप ही ब्रह्मलोक है I
ब्रह्मा और ब्रह्मलोक, दोनों निर्गुण ब्रह्म की प्रत्यक्ष अभिव्यक्तियाँ हैं I
ब्रह्मा और ब्रह्मलोक, दोनों अभिव्यक्तियाँ आत्मिक होने के कारण स्वयंभू हैं I
यही कारण है कि यहाँ पर ब्रह्मा और ब्रह्मलोक, दोनों को स्वयंभू ही कहा गया है I
और ऐसा होने का मूल कारण भी वही है जो पूर्व में बताया था, कि…
सगुण निराकार ब्रह्मलोक का सगुण साकार स्वरूप ही ब्रह्मा है I
सगुण साकार ब्रह्मा के सगुण निराकार स्वरूप को ही ब्रह्मालोक कहते है I
यही निर्गुण ब्रह्म का ब्रह्मा और उनके ब्रह्मलोक के रूप में अद्वैत स्वरूप है I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्मलोक और ब्रह्मा के सर्वसम स्वरूप की महिमा, ब्रह्मलोक के सर्वसम स्वरूप की महिमा, ब्रह्मा के सर्वसम स्वरूप की महिमा, विशुद्ध सत् की महिमा, सर्वसमता की महिमा, सर्वसम की महिमा, सतलोक की महिमा, ब्रह्मलोक की महिमा, प्रजापति के सर्वसम स्वरूप की महिमा, प्रजापति की महिमा, …
इस भाग को भी संक्षेप रूप में ही बताया जाएगा…
ब्रह्मा और ब्रह्मलोक, दोनों सर्वस्व से सम, सर्वसम हैं I
सर्वसमता के कारण वह ब्रह्म रचना की विसमता से अतीत हैं I
सर्वसमता वह है जो सगुण और निर्गुण, दोनों से ही समता में होती है I
जो सगुण और निर्गुण से समता में है, वह ब्रह्मरचना से भी समता में होगा I
और इसके अतिरिक्त…
सर्वसम का नाता मन से है I
मन का गुण ही सर्वसम होता है I
मन की इच्छा शक्ति सर्वसम होती है I
इच्छा शक्ति का गंतव्य गुण, सर्वसम होता है I
सर्वसमता का नाता मन की इच्छा शक्ति से होता है I
सर्वसमता उत्पत्ति स्थिति संहार निग्रह और अनुग्रह, सभी से समता में है I
ऐसा होने पर भी सर्वसमता, प्रजापति की इच्छा शक्ति है, और उत्पत्ति कृत्य है I
सर्वसमता जीव जगत से ही सम है, और ऐसी होती हुई भी प्रजापति का मन ही है I
इसीलिए पञ्च मुखा सदाशिव साक्षात्कार के समय, मन सर्वसम होता है और ऐसा होकर ही वह मन उस ब्रह्मलोक में लय होता है, जिसको पञ्च मुखी सदाशिव मार्ग में सदाशिव का सद्योजात मुख कहा जाता है I
मन के यही सर्वसम स्वरूप के मूल में, प्राणों का सर्वसम स्वरूप ही होता है और यही वज्रमणि शरीर है I
मन की इच्छा शक्ति ही वह प्राणमय कोष है, जो सर्वसम तत्व को को पाया है I जब प्राणमय कोष सर्वसम तत्त्व में स्थित होकर, सर्वसम ही हो जाता है, तब साधक का मन भी सर्वसम हुए बिना नहीं रह पाता है I
ब्रह्मलोक में मन ही लय होता है और जहाँ वह मन ही उस सर्वसमता को पाए हुए प्राणों को धारण करके, सर्वसम होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि…
सर्वसमता का वर्ण वज्रमणि के समान है I
वज्रमणि का प्रकाश ही प्रजापति का द्योतक होता है I
सर्वसमता का न उदय, न गति और न ही अंत पाया जाएगा I
यदि कुछ भी सर्वसमता को छूएगा, तो वह भी सर्वसम हो जाएगा I
जब सर्वसम प्राण, मन में गति करते हैं, तब मन भी सर्वसम हो जाता हैं I
सर्वसमता को पाया हुआ मन, अंततः सद्योजात सदाशिव (सतलोक) में लय होता है I
ऐसा होने के कारण…
सर्वसमता सनातन ही है I
वज्रमणि शरीर भी सनातन ही है I
प्रजापति और उनका ब्रह्मलोक भी सनातन है I
यही ब्रह्मा और ब्रह्मलोक, दोनों की सनातन महिमा है I
सर्वसम ब्रह्मलोक में वेदों के तैंतीसवें देवता निवास करते हैं I
सर्वसम तत्त्व न प्रकृति के चौबीस तत्त्वों में है, और न ही त्रिगुण में I
सर्वसम न रजोगुण, न तमोगुण और न सत्त्वगुण में है… वह इनसे अतीत है I
सर्वसम तत्त्व प्राण में और प्राण सर्वसमता में बसे हुए भी, सर्वसम मनातीत ही है I
सर्वसम तत्त्व मन में और मन सर्वसमता में बसा हुआ भी, सर्वसम मनातीत ही है I
और इस भाग के अंत में…
यही सर्वसमता, मनातीत ब्रह्म हैं I
यही सर्वसमता, मनातीत सिद्धि ही है I
यही सर्वसमता ब्रह्मलीन मन कहलाती है I
यही सर्वसमता, विशुद्ध इच्छा शक्ति भी है I
यही सर्वसमता में मन अंततः लय हो जाता है I
यही सर्वसमता का शाक्त स्वरूप सर्वसम प्राण हैं I
यही सर्वसमता का सगुण निराकार स्वरूप ब्रह्मलोक है I
यही सर्वसमता का ब्रह्माण्डीय स्वरूप सर्वसम ब्रह्माण्ड है I
यही सर्वसमता का सगुण साकार स्वरूप पितामह प्रजापति हैं I
यही सर्वसमता, चतुर्मुखा प्रजापति की दिव्यता, पितामही सरस्वती हैं I
यही सर्वसमता का उत्कर्ष पथ स्वरूप ही बहुवादी अद्वैत वैदिक वाङ्मय है I
यही सर्वसमता का मार्ग बहुवादी है, परन्तु इसका गंतव्य अद्वैत ब्रह्म ही है I
यही सर्वसमता अपने मूल, मार्ग और गंतव्य, तीनों रूपों में अनादि अनंत सनातन है I
जैसी सर्वसमता है, वैसे ही पितामह प्रजापति, पितामही सरस्वती और उनका लोक है I
यही सर्वसमता, पितामह प्रजापति, पितामही सरस्वती और उनके सतलोक की महिमा भी है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सतलोक ही प्रजापति का दिव्य शरीर है, सतलोक भी ब्रह्मा का दिव्य शरीर है, ब्रह्मलोक ही ब्रह्म का दिव्य शरीर है, ब्रह्मलोक और ब्रह्मा के दिव्य शरीर का नाता, ब्रह्मलोक ही ब्रह्मका दिव्य शरीर है, ब्रह्मलोक और ब्रह्मा के दिव्य शरीर का नाता, पञ्च मुखी ब्रह्मा, चतुर्मुखी ब्रह्मा, चतुर्मुखा ब्रह्मा, पञ्च मुखा ब्रह्मा, चतुरमुखा प्रजापति, चतुर्मुखी प्रजापति, पञ्च मुखा प्रजापति, पञ्च मुखी प्रजापति, …
यह भाग भी संक्षेप में ही बताया जाएगा I
क्यूंकि…
लोक उसके अधिपति देवता से पृथक नहीं होता I
लोक ही उसके अधिपति देवता का निराकार शरीर होता है I
लोक की दिव्यता उसके अधिपति की दिव्यता से पृथक नहीं होती I
लोक की दिव्यता ही उसके अधिपति देवता की निराकार दिव्यता होती है I
इसलिए…
पितामह प्रजापति का निराकार दिव्य शरीर ही ब्रह्मलोक है I
पितामह प्रजापति के ब्रह्मलोक की दिव्यता पितामही सरस्वती ही हैं I
ऐसा होने पर भी पितामह और पितामही सगुण साकार ही साक्षात्कार होते हैं I
और इस भाग के अंत में…
लोक के जीव भी उस लोक के देवता के अभिन्न अंग होते हैं I
लोक के जीव भी उस लोक के देवता की दिव्यता में बसे हुए होते हैं I
जिस योगी का शरीर ब्रह्मलोक में लय हुआ होगा, वह योगी ब्रह्मरूप होगा I
उस योगी की दिव्यता रूप में पितामही सर्वसम सरस्वती प्रकाशित हो रही होंगी I
टिपण्णी: किसी भी साधक का सिद्ध शरीर किसी दिव्य लोक में तब ही लय हो पाता है, जब उस साधक ने उस दिव्य लोक का पूर्णरूपेण साक्षात्कार करके, उस लोक के मूल, प्रकट (अथवा प्रतिष्ठित) और गंतव्य तत्त्वों को अपने भीतर समानरूपेण धारण कर लिया होता है I ऐसा होने पर ही साधक का वह सिद्धि शरीर उसके मूल कारण, जो वह दिव्य लोक है, उसमें लय हो पाएगा I और लय होकर वह साधक का सिद्ध शरीर, उसी लोक के समान सगुण निराकार ही हो जाएगा I क्यूँकि सिद्ध शरीर भी वह साधक ही होता है, इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वह साधक ही वह लोक, उस लोक का देवता और उस लोक की दिव्यता का स्वरूप माना जाएगा I
आगे बढ़ता हूँ…
ब्रह्मलोक और आयाम चतिष्टाय, चतुर्मुखी ब्रह्म और आयाम चतुष्टय, चतुर्मुखी प्रजापति और आयाम चतुष्टय, प्रजापति के चार मुख और चार वेद, ब्रह्मा के मुख चतिष्टाय और वेद चतुष्टय, चार ब्रह्मा और चार आयाम
, …
इस भाग को भी संक्षेप में ही बतलाऊँगा I इस भाग का नाता ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों से है (जिनका चित्र इस अध्याय में बनाया गया है) I
इस अध्याय के पूर्व में ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों और उनके देवताओं को बताया गया था I और इस भाग में उन्ही का आधार बनाकर बात करी जाएगी I
आयाम चतुष्टय का मूल नाता भी ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों से होता है I तो अब इस नाते को बताता हूँ…
- सनतकुमार ब्रह्मा और दिशा आयाम, ब्रह्मा सनतकुमार और दिशा आयाम, … सनतकुमार ब्रह्मा का लोक पूर्व में बताया जा चुका है I इस लोक का आयाम दिशा होता है I
दिशा का अर्थ उत्कर्ष पथ ही होता है I
जैसे ब्रह्मा सनतकुमार सनातन कुमार हैं, वैसी ही दिशाएं भी होती है जो सदैव की अपनी कुमारावस्था में रहती है I
ऐसे होने के कारण, दिशाओं (अर्थात उत्कर्ष पथ) का परिवर्तन होते ही रहते है I यदि ऐसा नहीं होगा, तो दिशाएं (अर्थात उत्कर्ष पथ) वृद्ध ही हो जाएंगे और ऐसा होने पर उनका नाता ब्रह्मा सनतकुमार से भी नहीं रह जाएगा I
यही कारण है इस इस लोक सहित, अन्य सभी लोकों में (जहाँ जीव निवास कर रहे होते हैं) समय-समय पर और समय की ही प्रेरणा से, कोई न कोई योगी लौटाया ही जाता है और लौटने के पश्चात वह योगी, उत्कर्ष पथ को एक नया स्वरूप प्रदान करके, उत्कर्ष पथ (अर्थात दिशा आयाम) को विशुद्ध भी करता है, और नवीन भी करता है I
और ऐसा भी इसलिए ही होता है क्यूंकि दिशा का नाता सदैव ही कुमारावस्था में रहने वाले, ब्रह्मा सनतकुमार से है I
ऐसा नाता होने के कारण दिशाएं (अर्थात उत्कर्ष पथ) नवीन ही रखे जाते हैं और जिसका एक मार्ग… उत्कर्ष पथ का शोधन और उसके नए स्वरूप का प्रकटीकरण भी है I
और यही कारण है की समय समय पर नए मार्ग विशिष्ट योगीजनों द्वारा प्रकट भी करे जाते हैं, और जो मार्ग वृद्ध होते जाते हैं उनको नष्ट भी किया ही जाता है I
और इसके अतिरिक्त…
जैसे दिशाएं अपनी वास्तविकता में असंख्य ही होती है, वैसे ही असंख्य उत्कर्ष पथ भी होते हैं I
जैसे दिशाएँ एक बिंदु से उदय होकर, सभी ओर गति करती हैं, वैसे ही उत्कर्ष पथ उसी अद्वैत मूल से उदय होकर, सर्वस्व में गति करते हुए पाए जाते हैं I
जैसे दिशाएं अनंत तक गति करती हैं, वैसे ही समस्त उत्कर्ष मार्गों की अंत गति अनंत में होती है I
इसलिए दिशाओं (अर्थात उत्कर्ष मार्गों) के दृष्टिकोण से…
मूल तो अद्वैत ही होता है, पर उस मूल से उदय हुए मार्ग बहुवादी ही होंगे I
दिशाओं के दृष्टिकोण से मार्ग तो बहुवादी ही हैं, पर गंतव्य अद्वैत ही होगा I
अब ध्यान देना…
दिशा के प्रकट स्वरूप में असंख्य दिशाएं होती है I इसलिए उत्कर्ष पथ भी असंख्य ही रहे हैं I
दिशा के गंतव्य में सर्वदिशा व्यापक ब्रह्म ही हैं I इसलिए उत्कर्ष पथ से आगे जो मुक्तिपथ है, वह इन सर्वदिशाओं में व्यापक ही होता है जिनसे साधक अपने उत्कर्ष मार्ग पर पूर्व में गया होता है I
सनतकुमार का नाता अथर्ववेद से है I इसलिए पूर्व के चित्र में जो ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोक दिखाए गए हैं, उनमें से दाएं हस्त का सबसे नीचे का लोक अथर्ववेद का स्थान है I
दिशा आयाम का मूल अथर्ववेद का ही अंग है I
इसलिए दिशा के गंतव्य में जिस महावाक्य का ज्ञानमय साक्षात्कार होगा, वह अयमात्मा ब्रह्म ही होगा I
अयमात्मा ब्रह्म ही सर्वदिशा व्याप्त है I यही महावाक्य सर्वदिशा व्यापक आत्मस्वरूप का द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ…
- बाका ब्रह्मा और दशा आयाम, ब्रह्मा बाका और दशा आयाम, … दशा आयाम का नाता बाका ब्रह्मा से है I
जैसे बाका ब्रह्मा टेढ़े से होते हैं, वैसी ही दशाएँ (दशा आयाम) भी होती है I यही कारण है कि दशा कभी भी पूर्णरूपेण स्वस्थ नहीं हुई, उसमें कोई ने कोई टेढ़ापन होता ही है I
जिसे बाका ब्रह्मा मध्यम आयु के समीप के होते हैं, वैसे दशाएं भी होती है I यही कारण है कि दशाएं न बहुत वृद्ध होंगी और न ही बहुत जवान I दशा न जवान और न ही वृद्ध होती है, और इसका कारण भी वही है कि दशा के मूल में बाका ब्रह्मा ही हैं I
जैसे बाका ब्रह्मा सबसे प्यारे ब्रह्मा ही है, वैसे ही आयाम चतुष्टय में दशा ही सबसे प्यारी होती है I
किसी दशा की प्राप्ति के पश्चात जो सुख का अनुभव मिलता है, वैसे ही बाका ब्रह्मा के पास पहुंचकर, साधक की चेतना प्रसन्नचित हो जाती है I
जैसे बाका ब्रह्मा किसी योगी को उनके लोक में निवास करने का निमंत्रण देते हैं, वैसे ही दशा आयाम ने तब भी दिया था, जब जीव जगत की रचना हो रही थी और यह दशा आयाम का प्रादुर्भाव उसके अपने दैविक, सूक्ष्म और स्थूल रूपों में हुआ था I इसी निमन्त्रण के कारण ही समस्त जीव जगत इसी दशा आयाम की किसी न किसी स्थिति में ही बसा हुआ है I
दशा के प्रकट स्वरूप में असंख्य दशाएँ होती है I और ऐसे होने के बाद भी दशा के तीन मुख्य स्वरूप ही होते हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म और दैविक हैं I और यह तीनों दशाएँ सदैव ही मध्यम आयु की होती है, अर्थात यह न तो बहुत वृद्ध होंगी, न बहुत जवान ही पाई जाएंगी I
इसलिए जीवों की मध्यम आयु का कालखण्ड ही सबसे अच्छा समय होता है, क्यूंकि न तो बहुत बाल रूप में वह जीव प्रसन्न रहता है, और न ही बहुत वृद्धावस्था में ही प्रसन्न रह पाता है I
दशा के गंतव्य में सर्वव्यापक ब्रह्म ही हैं I सर्वव्यापक ब्रह्म भी मध्यम अवस्था के गुणों से युक्त ही पाए जाएंगे I
अब ध्यान देना…
बाका ब्रह्मा का नाता सामवेद से है I इसलिए वह समतावादी ब्रह्मा हैं जिसके कारण वह उन सब योगीजनों से, जो उनके लोक में पहुँच जाते हैं, प्रकट होकर बातें भी करते हैं और उनके मन को मोहित भी कर लेते हैं I यही कारण है कि सामवेद के समान, यह सबसे प्यारे ब्रह्मा ही हैं I
दशा आयाम का मूल सामवेद का ही अंग है I
इसलिए दिशा के गंतव्य में जिस महावाक्य का ज्ञानमय साक्षात्कार होगा, वह तत् त्वम् असि ही होगा I
तत् त्वम् असि ही दशा आयाम का सर्वव्यापक स्वरूप है I यही महावाक्य सर्वव्यापक आत्मस्वरूप का द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ…
- सहमपति ब्रह्मा और आकाश आयाम, ब्रह्मा सहमपति और आकाश आयाम, …
सहमपति ब्रह्मा का नाता आकाश आयाम से होता है I सहमपति एक वृद्ध मनीषी के रूप में हैं I इसलिए इस समस्त ब्रह्म रचना में आकाश भी वृद्ध ही है I
पूर्व में बताया गया था, कि सोऽहंपति ब्रह्मा का नाता सोऽहं के योग साक्षात्कार से ही है I सर्वसम ब्रह्माकाश ही सोऽहं का साक्षात्कार क्षेत्र है I और उस सर्वसम आकाश में ही समस्त जीव जगत और इस संपूर्ण ब्रह्म रचना की ऊर्जाएं, दिव्यताएं और शक्तियां पाई जाती हैं I
आकाश का गंतव्य अनंत ही होता है, और वैसी ही सोऽहं शब्द का साक्षात्कारी दशा भी होती है I सोऽहं का महावाक्य ही वृद्ध शब्द का द्योतक है और जहाँ इस वृद्ध शब्द का नाता भी योग शिखर से ही होता है I
आकाश में ही ऊर्जाएँ निवास करती हैं I इसलिए आकाश ही ऊर्जा का केंद्र है I आकाश की ऊर्जाएं एक दुसरे से पृथक होती हुई भी, अपने मूल और गंतव्य में सर्वसम ही हैं I यही ऊर्जा का सर्वसम स्वरूप जब साधक की काया में मूलाधार से सहस्रार तक उठता है, तो वह सर्वसमता को धारण करके ही ऐसा कर पाता है और इस मार्ग के साक्षात्कार में सोऽहं का ज्ञानमय-योगमय स्वरूप ही साक्षात्कार होता है I
जैसा पूर्व में बताया था कि सहमपति ब्रह्मा वृद्धावस्था में हैं, और एक गंभीर स्वरूप में होते हैं, इसलिए जीवों की वृद्धावस्था में भी जीव ऐसे ही हो जाते हैं I
आकाश के गंतव्य में अनंत ब्रह्म ही हैं I अनंत ब्रह्म भी वृद्धावस्था के गुणों से युक्त ही पाए जाएंगे I और ऐसी ही स्थिति को ब्रह्मा सहमपति भी दर्शाते हैं I
अब ध्यान देना…
सहमपति ब्रह्मा का नाता यजुर्वेद से है I आकाश आयाम का मूल, यजुर्वेद का ही अंग है I
इसलिए आकाश के गंतव्य में जिस महावाक्य का ज्ञानमय साक्षात्कार होगा, वह अहम् ब्रह्मास्मि ही होगा I
अहम् ब्रह्मास्मि ही आकाश आयाम का अनंत स्वरूप है I यही महावाक्य अनंत आत्मस्वरूप का द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ…
- महाब्रह्मा और काल आयाम, महाब्रह्मा और काल आयाम, …
महाब्रह्मा का नाता काल आयाम से है I
महाब्रह्मा न बालक हैं, न जवान, न मध्यम आयु के हैं और न ही वृद्ध हैं I वह तो एक श्वेत वर्ण के प्रकाशमान सूक्ष्म कमल रूप में ही साक्षात्कार होते हैं I
काल के चक्र स्वरूपी गर्भ में ही सबकुछ बसा हुआ है I काल का गंतव्य स्वरूप ही सनातन है I
महाब्रह्मा इसी काल के गंतव्य स्वरूप सनातन के साक्षात्कार के मूल हैं I
अब ध्यान देना…
काल का प्रकट स्वरूप में कालचक्र ही है जिसमें असंख्य प्रकार होते हैं, और असंख्य कालखण्ड और इकाइयाँ भी होती हैं I
इसलिए ब्रह्माण्ड के प्रत्येक भाग का काल और उसकी इकाई पृथक ही पाई जाएगी क्यूंकि प्रत्येक भाग पर वही कालचक्र अपने पृथक स्वरूप में होता है I
जो काल की इकाई ब्रह्माण्ड के इस भाग में पाई जाएगी, वह ब्रह्माण्ड के किसी और भाग में नहीं पाई जाएगी I और ऐसा होने के कारण कालचक्र का जो स्वरूप यहाँ है, वह और कहीं नहीं मिलेगा I
और क्यूंकि इस लोक में बसे हुए हम, इसी लोक के कालचक्र और काल इकाइयों के अनुसार ही गणना करते हैं, इसलिए हमारी गणनाओं में पृथक लोकों के पृथक कालखण्ड और आयु भी पाई जाती है I यही कारण है कि मानव की आयु देवताओं की आयु से पृथक है और देवताओं की आयु ब्रह्माजी की आयु से पृथक ही पाई जाती है I और ऐसा ही ब्रह्माण्ड के प्रत्येक भाग की पृथकता के स्वरूप में भी पाया जाता है I
काल ही जीव जगत का गर्भ है I काल के गंतव्य में सनातन ब्रह्म ही हैं I
इसलिए जबकि यह जीव जगत काल के चक्र रूपी सदैव परिवर्तनशील गर्भ में बसकर, गतिशील होता है, लेकिन इस जीव जगत के गंतव्य में सनातन ब्रह्म ही हैं और जहाँ यह सनातन शब्द भी ब्रह्म का ही द्योतक है, जो साधक का सनातन आत्मस्वरूप है I
आत्मस्वरूप इस कमल की दशा के समान न तो बालक, न जवान, न मध्य आयु का और न ही वृद्ध होता है, जो अनादि अनश्वर होता है और सनातन कहलाया जाता है I और यही कारण है कि इसी कमल के साक्षात्कार के पश्चात,साधक का वह वज्रमणि शरीर भी ब्रह्मलोक में लय हो जाता है (और ऐसा ही इस अध्याय के पूर्व भाग में बताया गया था) I ऐसा इसलिए है क्यूंकि सनातन के मूल लोक में जाकर, सिद्धियाँ अपने कारण में लय हुए बिना भी नहीं रह पाएंगी I
सनातन शब्द मोक्ष का ही द्योतक है I
और मोक्ष का शब्द पूर्ण ब्रह्म को ही दर्शाता है I
वैदिक आर्य धर्म के शब्द के मूल में काल का यही गंतव्य है, जो सनातन कहलाया जाता है I
महाब्रह्मा का नाता ऋग्वेद से है I काल का नाता भी ऋग्वेद से ही होता है I इसलिए पूर्व के चित्र में जो ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोक दिखाए गए हैं, उनमें से बाएं हस्त का लोक ऋग्वेद का स्थान ही है I
काल आयाम का मूल ऋग्वेद का ही अंग है I
इसलिए, काल के गंतव्य में जिस महावाक्य का ज्ञानमय साक्षात्कार होगा, वह प्रज्ञानं ब्रह्म ही होगा I
प्रज्ञानं ब्रह्म ही सनातन ब्रह्म हैं I
यही महावाक्य सनातन आत्मस्वरूप का द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्मलोक साक्षात्कार और अद्वैत ज्ञान, …
इस भाग को भी संक्षेप में ही बताया जाएगा I
साक्षात्कार मार्ग भी साक्षात्कार करी हुई दशा का अभिन्न अंग होता है I
ब्रह्मलोक साक्षात्कार का जो मार्ग है, वह भी ब्रह्मलोक का ही अंग होता है I
ऐसा इसलिए है क्यूंकि…
साधनमार्गों में, मार्ग और मार्ग से साक्षात्कार हुई दशा में योग होता है I
मार्ग और मार्ग के साक्षात्कार में पृथकता होती हुई भी, वह एक ही होते हैं I
मार्ग से जाकर ही साक्षात्कार होता है, क्यूंकि मार्ग भी साक्षात्कार का अंग होता है I
और इसके अतिरिक्त साधना मार्गों में…
वही साधक उस मार्ग पर जा पाएगा, जो उसका पात्र होगा I
वही साधक मार्ग के गंतव्य का साक्षात्कार कर पाएगा, जो उसका पात्र होगा I
और इसके अतिरिक्त…
मार्ग पात्रता तब प्रामाणित होगी, जब योगी अपनी आंतरिक दशा में वह मार्ग होगा I
साक्षात्कार पात्रता तब प्रामाणित होगी, जब योगी अपनी आंतरिक दशा में साक्षात्कार होगा I
साधनात्मक साक्षात्कारों में, साधक ही वह साक्षात्कार मार्ग और उसकी दशा होता है I
इसका कारण भी वही है, जो पूर्व के अध्यायों में बताया था…
तुम वही होगे जिसके साक्षात्कार मार्ग पर तुम चल रहे हो I
तुम वही हो जिसका साक्षात्कार तुम किए हो I
इसी को पूर्व के अध्यायों में कुछ ऐसा बताया गया था…
ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
ब्रह्म का ज्ञाता ही ब्रह्म होता है I
वास्तव में तो ब्रह्मपथ भी ब्रह्म ही है I
ब्रह्म को ब्रह्म के सिवा कोई और नहीं जान पाया है I
अपनी आंतरिक स्थिति में ही ब्रह्म हुए बिना, ब्रह्म को नहीं जान पाओगे I
इसलिए यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक अवस्था में ब्रह्म ही हो जाओ I
यही बातें समस्त देवत्व आदि बिंदुओं के मार्ग और उनके साक्षात्कारों पर भी समान रूप में लागू होते हैं I
और यह सिद्धांत…
ब्रह्मलोक साक्षात्कार का सिद्धांत ही है I
अन्य सभी साधनात्मक साक्षात्कारों पर भी समानरूपेण लागू होता है I
कोई उत्कर्ष मार्ग या साक्षात्कार है ही नहीं, जिसपर यह सिद्धांत लागू नहीं होगा I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों का निरलम्बस्थान से नाता,…
यह भाग भी संक्षेप में ही बताया जाएगा I
पूर्व के अध्याय श्रंखला जिसका नाम हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग था, उसमें निरालम्ब चक्र के चित्र को दिखाया गया था I
यदि इस अध्याय में दिखाए गए ब्रह्मलोक के ऊपर के चार भागों को और उस पूर्व के अध्याय के निरलम्बस्थान (अर्थात निरालम्ब चक्र) की दशा को देखोगे… तो पाओगे, कि इन दोनों चित्रों में समानता ही है I
इन दोनों दशाओं में तीन भाग एक ओर हैं और एक भाग दूसरी ओर I
इसीलिए इस पूर्व की अध्यय श्रंखला में अष्टम चक्र को (अर्थात निरालम्ब चक्र को) ब्रह्म चक्र और ब्रह्मलोक चक्र भी कहा गया था I
इसलिए, निरालम्ब चक्र भी ब्रह्मलोक के ऊपर के चित्र में दिखाए गए चार भागों का ही द्योतक होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
- ब्रह्म ब्रह्मा ब्रह्मलोक और ब्रह्म रचना, ब्रह्म ब्रह्मा ब्रह्मलोक और जीव जगत, … ब्रह्म ही अद्वैत, अद्वैत ही ब्रह्म, ब्रह्म अद्वैत स्वरूप, अद्वैत ब्रह्म, …
इस भाग को कुछ ही बिन्दुओं में बता रहा हूँ…
ब्रह्म का व्यापक सगुण निराकार और सगुण साकार स्वरूप ही ब्रह्म रचना है I
ब्रह्म का प्राथमिक सर्वसम सगुण साकार स्वरूप ही पितामह ब्रह्मा हैं I
ब्रह्म का प्राथमिक सर्वसम सगुण निराकार स्वरूप ही ब्रह्मलोक है I
सगुण निराकार ब्रह्मलोक का सगुण साकार स्वरूप ही ब्रह्मा हैं I
ब्रह्मलोक की सगुण साकार दिव्यता ही सर्वसम सरस्वती हैं I
सर्वसम पितामही सरस्वती ही ब्रह्म रचना की दिव्यता हैं I
अपने दिव्य रूप में यह जीव जगत सारस्वत ही है I
ब्रह्मलोक साक्षात्कार का यही अद्वैत तत्त्व है I
ब्रह्मलोक के समस्त भागों में और उन भागों में निवास कर रहे इस समस्त ब्रह्म रचना के उन उत्कृष्टम जीवों में, चतुर्मुखी ब्रह्मा में और उनकी इस समस्त ब्रह्म रचना में और इस ब्रह्म रचना के समस्त पिण्डों में यही अद्वैत ब्रह्म, एक व्यापक निरंग प्रकाश रूप में साक्षात्कार होते हैं I
यह व्यापक निरंग प्रकाश ही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं, जिन्होंने ब्रह्मलोक सहित समस्त जीवों और जगत को भी भेदा हुआ है I और इसके अतिरिक्त ब्रह्मलोक सहित समस्त जीव जगत भी इसी सर्वव्यापक निरंग प्रकाश में बसा हुआ है I
निर्गुण ब्रह्म ही निरंग व्यापक प्रकाश रूप में हैं I
निर्गुण ब्रह्म ही समस्त जीव जगत के भीतर बसा है I
निर्गुण ब्रह्म के भीतर ही समस्त जीव जगत बसा हुआ है I
इसी निरंग प्रकाश का सगुण साकार सर्वसम स्वरूप प्रजापति हैं I
इसी निरंग प्रकाश की सर्वसम सगुण साकार दिव्यता ही सरस्वती हैं I
इसी निरंग प्रकाश का सगुण निराकार सर्वसम स्वरूप ही ब्रह्मलोक है I
सगुण निराकार ब्रह्मलोक का सगुण साकार सर्वसम स्वरूप ही प्रजापति हैं I
सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक की सगुण साकार दिव्यता ही माँ सरस्वती हैं I
रचना में गुप्तरूप में जो सर्वसम तत्त्व निरंतर प्रकाशित होता है, वह सरस्वती हैं I
रचना की दिव्यता में जो रचैता गुप्त रूप में प्रकाशित हैं, वह पितामह प्रजापति ही हैं I
इसलिए…
जब हम सर्वसम तत्त्व का सगुण साकार स्वरूप जानेंगे, तो प्रजापति को ही पाएंगे I
जब सर्वसम तत्त्व की दिव्यता को जानेंगे, तो सगुण साकार सरस्वती को ही पाएंगे I
इसके पश्चात, रचना के समस्त भागों को पितामाह और पितामही में लय ही पाएंगे I
और…
ब्रह्मलोक के समस्त भागों के साक्षात्कार के पश्चात, साधक यही पाएगा कि जीव जगत के समस्त भागों में वही एकमात्र ब्रह्म अपने सर्वव्यापक निर्गुण स्वरूप में प्रकाशित हो रहा है I
योगमार्ग में यही योग गंतव्य का साक्षात्कार होता है, और जिसका मार्ग भी योगी ब्रह्मलोक से ही लय हो जाने पर पाता है I
तो इसी बिंदु पर में यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय पर जाता हूँ जिसका नाम बोधिचित्त होगा I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
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ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra