हृदय में मन की गुफा, मनस गुफा, मनस गुफा और इन्द्रियां, मनस गुफा और प्राण, योग और अयोग, योग मार्ग और अयोग मार्ग, योग मार्ग और सिद्धिमार्ग, अयोग मार्ग और मुक्तिमार्ग, अयोग और ब्रह्म, अयोग और कैवल्य मोक्ष

हृदय में मन की गुफा, मनस गुफा, मनस गुफा और इन्द्रियां, मनस गुफा और प्राण, योग और अयोग, योग मार्ग और अयोग मार्ग, योग मार्ग और सिद्धिमार्ग, अयोग मार्ग और मुक्तिमार्ग, अयोग और ब्रह्म, अयोग और कैवल्य मोक्ष

यहाँ पर हृदयाकाश गर्भ की मनस गुफा, उसके प्राणों और उपप्राणों से नाते पर, हृदय में मन की गुफा, मनस गुफा और इन्द्रियां, मनस गुफा और प्राण, योग और अयोग, योग मार्ग और अयोग मार्ग, योग मार्ग और सिद्धिमार्ग, अयोग मार्ग और मुक्तिमार्ग, अयोग और ब्रह्म, अयोग और कैवल्य मोक्ष पर भी बात होगी I इसी मनस गुफा के समान मस्तिष्क के आज्ञा चक्र के पीछे और थोड़ा सा ऊपर की ओर एक मन का गोला होता है, और वह भी वैसा ही होता है जैसा यहाँ बताया गया हृदयाकाश गर्भ का मन का गोला अपने प्राण और उपप्राण के साथ होता है I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चवालीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का बारहवाँ अध्याय है।

 

हृदयाकाश गर्भ में मनस गुफा का स्थान
हृदयाकाश गर्भ में मनस गुफा का स्थान

 

 

हृदय मनस गुफा, मस्तिष्क में मन का गोला, मन और प्राणों का नाता, मन की गुफा, मनस गुफा, मन, …

 

मनस गुफा अपने प्राण और उपप्राण के साथ
मनस गुफा अपने प्राण और उपप्राण के साथ

 

 

हृदयाकाश गर्भ की मनस गुफा की ओर जाते हुए, सनातन गुरु ने अपने नन्हे शिष्य से पूछा… मनस गुफा की ओर चलते चलते, तुम्हें क्या शब्द सुनाई दे रहा है I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, अहम् नाद… अ-हम् का शब्द I

सनातन गुरु ने पुछा… और तामस गुफा से? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, अहम् नाद… अ-हम् का शब्द I

सनातन गुरु बोले… हाँ, मनस गुफा और तमोगुण गुफा के शब्द अ-हम् ही हैं I तो अब बताओ, मनस गुफा का क्या रंग है? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, नीला I

सनातन गुरु ने पुछा… नीला, रजोगुण और तमोगुण गुफाओं की ओर? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, नीले को हलके गुलाभी ने घेरा हुआ है, किन्तु तब भी मनस गुफा का रंग नीला ही है I

सनातन गुरुदेव ने पुछा… और मनस गुफा के भीतर के रंग दिखाई दे रहे हैं? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, पञ्च प्राणों और पञ्च उपप्राणों के वर्ण दिखाई दे रहे हैं I

इसपर सनातन गुरुदेव बोले… ब्रह्माण्ड के इस भाग में मन नीला ही होता है, और उस मन के साथ और उस पञ्च के भीतर ही पञ्च प्राण और पञ्च उपप्राण होते हैं और इन्हीं प्राणों का अलमबम लेकर मन अपने कार्य करता है I प्राणों का नाता रजोगुण से होता है इसलिए प्राण, रजोगुण गुफा की ओर एकत्रित भी हुए होते हैं, अर्थात रजोगुण गुफा की ओर उन प्राणों के वर्ण अधिक चमकदार होते हैं I परन्तु ऐसा होने पर भी हृदयाकाश गर्भ में जो प्राण हैं, वह रजोगुण की ओर के प्राणों से अधिक सूक्ष्म ही होते हैं, और इसका कारण है कि रजोगुण की ओर जो प्राण दिखाई दे रहे हैं, वह कुछ मात्रा में इकट्ठे होकर ही रहते हैं I ऐसा तब भी है जब ब्रह्माण्ड के भीतर, प्राणों के प्रादुर्भाव के समय का नाता, रजोगुण से ही होता है I रजोगुण अपने वास्तविक स्वरूप में प्रत्याहार में ही बसा हुआ है, और यही रजोगुण की स्थाई दशा भी है, लेकिन ऐसा होने पर भी अपने कार्यों के अनुसार, वह ऐसा प्रतीत नहीं होता I और यही प्रत्याहार अन्य दोनों गुणों, अर्थात तमोगुण और सत्त्वगुण की भी वास्तविक दशा है I क्यूँकि प्राणों का नाता रजोगुण से और उपप्राणों का नाता, तमोगुण से होता है, इसलिए अपनी वास्तविक मूलदशा में यह प्राण भी प्रत्याहार में ही बसे हुए होते हैं I और ऐसा होने के कारण ही जब उत्कर्ष मार्गी साधक मुक्तिमार्ग पर जाने का पात्र होता हैं, तब यही प्राण और उपप्राण, साधक के मस्तिष्क के ऊपर के सहस्र दल कमल को पार करके, विसर्गी हो जाते हैं और जहाँ विसर्ग का शब्द भी प्रत्याहार के गंतव्य, मोक्ष को ही दर्शाता है I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, गुण क्या होता है, और उसका इस समस्त ब्रह्माण्ड के किसी और भाग से क्या अंतर या भेद होता है? I

सनातन गुरु ने उत्तर दिया… इस समस्त ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड रचना के दृष्टिकोण से, गुण ही वह धर्म है, जो ब्रह्म प्राप्ति का पथ है, और जहाँ वह पथ ही ब्रह्म की ओर जाने वाला मार्ग है, ब्रह्माण्ड का प्राकृत मूल है, और उस प्राकृत मूल का मार्ग भी है I

नन्हें विद्यार्थी को यह गुण समझ नहीं आया, इसलिए उसने बोला… गुरु चन्द्रमा, यह समझ नहीं आया, इसलिए कुछ और स्पष्टिकरण दीजिए I

सनातन गुरुदेव बोले… इसको ध्यान से सुनो…

जो गुण अनादि अनंत कालों से किसी व्यक्ति, वस्तु या दशा के साथ पूर्णरूपेण और समानरूपेण, परस्पर बना रहे, वही उस व्यक्ति, वस्तु या दशा का धर्म कहलाता है I

समस्त जीव जगत पर भीतर और बाहर, दोनों ओर से जो समान रूप में क्रियाशील होता है, वही वह गुण है जो धर्म ही है, और वही वह धर्म है जो गुण ही है I

गुण ही धर्म है, और धर्म ही वह गुण होता है, जो सनातन ब्रह्म का द्योतक है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… गुण इस जीव जगत को भेदता है और यह भेद भी इसलिए पाता है, क्यूंकि इसका मूल स्वरूप प्रत्याहार ही है I जबतक यह प्रत्याहार में रहता है, तबतक ही यह भेद पाता है, और जब यह अपने प्रत्याहार को त्यागता है, तब यह उसी जीव जगत स्वरूप में आ जाता है, जिसको यह पूर्व में भेज रहा था I यह वह भी यह कारण है, कि जीव जगत की उत्पत्ति का एक कारण, गुण भी है I

नन्हें विद्यार्थी को यह बिंदु समझ में आ गया, क्यूंकि उसने देखा ही था कि इस हृदयाकाश गर्भ में, सत्त्वगुण अन्य सभी गुफाओं को भेदता है, इसलिए वह सत्त्वगुण सभी गुफाओं के भीतर भी पाया जाता है I और ऐसा होने के पश्चात भी यह सत्वगुण, उन सभी गुफाओं से पृथक होकर, अपने प्रत्याहार में ही रहता है I और ऐसा ही अन्य दोनों गुणों का भी उनके अपने से नीचे की ओर की, अर्थात अपने से सापेक्ष स्थूलता की ओर की गुफाओं से नाता भी है I और ऐसा ही उस नन्हे शिष्य ने अपने गुरु को बोल दिया I

सनातन गुरुदेव ने कहा… हाँ, यह तीन गुण ही ब्रह्माण्ड के मूल धर्म हैं, और ब्रह्माण्ड की समस्त दिशाओं में इन्ही गुणों के प्रभाव को पाया जाता है, और ऐसा होने के पश्चात भी यह तीनों गुण, ब्रह्माण्ड से प्रत्याहार में ही रहते हैं I लेकिन ऐसा होने के लिए इनको पिण्डों के भीतर भी होना था, इसलिए सत्त्वगुण से चित्त का उदय हुआ था ताकि पिण्ड, चित्त को धारण करें और ऐसा होने के पश्चात भी, सत्त्वगुण अपने मूल स्वभाव प्रत्याहार में ही रह गया था I और इसके पश्चात बुद्धि का उदय हुआ था, जिससे सत्त्वगुण अपना पृथक स्वभाव बनाके रह सका, क्यूंकि इस बुद्धि और चित्त के उदय के पश्चात, सत्त्वगुण के लिए कोई कार्य बचा ही नहीं था I रजोगुण से ब्रह्माण्ड के भीतर प्राणों को और तमोगुण से उपप्राणों का प्रादुर्भाव हुआ था, और ऐसा तब भी था, जब यह पञ्च वायु और पञ्च उपवायु इससे पूर्व की दशा में भी थे ही I रजोगुण कर्म और अस्थिरता का और तमोगुण उसी ब्रह्माण्ड में अकर्म और स्थिरता का कारण था और उसी ब्रह्माण्ड के भीतर सत्त्वगुण, कर्मों और अकर्मों की समतावादी दशा में ही रहता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… महाभूतों के उदय का एक कारण भी यह त्रिगुण ही थे, और उन महाभूतों में से भी, आकाश महाभूत का उदय सर्वप्रथम हुआ था I बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत भी लाल रंग के रजोगुण और नीले वर्ण के तमोगुण की योगदशा से ही स्वयंप्रकट हुआ था I इसी आकाश महाभूत में ही समस्त जीव जगत बसा हुआ है, और यह आकाश ही जीवों के उस हृदयाकाश स्वरूप में होता है जिसके भीतर की गुफाओं का हम अध्ययन कर रहे हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि उत्कर्षपथ में भी पहले योग होता है और इस योग के पश्चात, उस योगदशा से ही प्रत्याहार को पाकर, उस पूर्व की योगदशा से आगे जाया जाता है I क्यूंकि प्रत्याहार के मूल में यह गुण ही हैं, इसलिए यह गुण उत्कर्ष पथ के मुख्य बिंदु भी हैं I जब कोई जीव, समस्त जीव जगत से ही प्रत्याहार में आ जाता है, तब ही वह जीव अपने मुक्तिपथ को पाता है I और क्यूंकि प्रत्याहार का एक मुख्य कारण भी यही गुण ही हैं, इसलिए यह गुण मुक्तिपथ के अंग भी हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… परन्तु मुक्ति तब ही होती है जब साधक इस समस्त जीव जगत से ही विमुख हो जाता है, और ऐसी दशा में वह साधक अपनी आंतरिक दशा के दृष्टिकोण से ही जीवातीत और जगतातीत हो जाता है I और जबकि मुक्ति को प्राप्त तो हो सकते हो, लेकिन उसकी दशा का वर्णन असंभव सा ही होगा I और ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि उस मुक्ति में न चित्त होगा और न ही बुद्धि अहम्, प्राण या मन ही होगा I और क्यूंकि इन्ही पञ्च बिंदुओं का आलम्बन लेकर किसी दशा का वर्णन किया जा सकता है, और क्यूंकि मुक्ति में साधक इनसब से अतीत ही होता है, इसलिए मुक्ति को प्राप्त हुआ वह साधक उस मुक्ति का पूर्णवर्णन भी कर नहीं पाएगा I जो भाव, शब्द और वाक्यों का अंग ही नहीं है, उसका वर्णन कैसे करोगे, इसलिए मुक्ति को प्राप्त तो हुआ जा सकता है, परन्तु उसका वर्णन असंभव सा ही होता है I पिण्ड रूप में, और ब्रह्माण्ड में ही बसकर, वह जो पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत है, उसका वर्णन कैसे किया जा सकता है? I

इस पर नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो फिर मन के प्रादुर्भाव का क्या कारण है?, और यदि वह मोक्ष दशा का वर्णन करने में काम ही न आए, तो मन का क्या लाभ है? I

 

मन के प्रादुर्भाव का कारण, मुक्तिपथ में मन का कार्य, उत्कर्ष पथ में मन का कार्य,  मन की विशेषता,

इसपर सनातन गुरुदेव बोले… जब वह एकदशा जो ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव से पूर्व में थी, उसने स्वयं को उन असंख्य भागों में विभाजित करा जो ब्रह्माण्ड के भीतर पिण्डों के रूप में प्रादुर्भाव हुए थे, तो इसके पश्चात कुछ तो चाहिए ही था जो इन सबको जोड़कर रख सके I जो इन सबको जोड़ने की क्षमता रखता था, वही मन था, इसलिए ब्रह्माण्ड के बहुवादी स्वरूप में भी जो योग और अद्वैत ब्रह्म का द्योतक होता है, वह मन है I और ऐसा होने के कारण, मन को आत्मा का सेवक, आत्मदुर्ग का द्वारपाल और आत्मा नामक सम्राट का सेनापति तक कहा जाता है I जबतक मन को ही प्राप्त नहीं हुए, तबतक उस आत्मा नामक सम्राट को कैसे प्राप्त हो पाओगे, क्यूंकि आत्मा नामक सम्राट के दुर्ग पर ही उनका द्वारपाल मन खड़ा हुआ है I इसलिए मन को पार करके ही तो आत्मा नामक सम्राट तक जा पाओगे I इसी कारण से मन ही आत्मा नामक सम्राट की ओर लेकर जाने वाला बिंदु भी होता है, जिसके कारण आत्मपथ में मन का योगदान होता ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस पिण्ड ब्रह्माण्ड के समस्त पृथक भागों को जो आपस में जोड़कर रखता है, वही मन है I और यही मन की विशेषता भी है, कि इस बहुवादी ब्रह्माण्ड के मूल और गंतव्य, दोनों के अद्वैत स्वरूप का ज्ञान भी मन का आलम्बन लेकर ही, ज्ञान मार्ग से प्राप्त होता है I और ऐसा होने के कारण, मन का मुक्तिमार्ग में योगदान भी है, और उस मुक्तिमार्ग में मन का कार्य भी है I यही मन के प्रादुर्भाव का मूल कारण भी हुआ था क्यूंकि मन के अभाव में, न उत्कर्ष पथ सार्वभौम होगा और न ही मुक्तिपथ इस ब्रह्मरचना में प्रादुर्भाव हुए जीव रूपी पिण्डों को उस सर्वव्यापक, पथहीन और भागहीन ब्रह्मपथ से जोड़ने का कार्य भी कर पाएगा I मन ही योग के सबसे उत्कृष्ट माध्यम स्वरूप में प्रकट हुआ था, क्यूंकि मन ही वह तत्त्व है, जो वास्तव में सनातन योगी है I इसलिए जिस साधक का मन पर नियंत्रण नहीं हुआ, उसका मन से योग भी नहीं हुआ होगा और ऐसा साधक, योगी भी नहीं कहलाया जा सकता I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन मन को ऐसा उत्कृष्ट माध्यम होने के लिए, मन में ही त्रिगुण, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण आदि बसे होने होंगे I और यही कारण था, कि यह सब भी मन में ही बसे हुए हैं I मन में ही पञ्च ज्ञानेंद्रियां और पञ्च कर्मेन्द्रियाँ बसी हुई हैं I और इन सबके मन में ही बसे होने के कारण और मन का इन सबसे योग होने के कारण, मन भटकता भी है I जब मन की भटकन समाप्त होती है, तब वह स्थिर मन ही ब्रह्मलीन हो पाता है, और मन की ऐसी दशा में ही साधक मुक्ति को पाता है I जब मन ही ब्रह्मलीन हो गया, तब बुद्धि, चित्त, अहम् भी ब्रह्मलीन हुए बिना नहीं रह पाते, और इसके साथ साथ, प्राण भी अपने कारण, मूल प्रकृति में ही लीन हो जाते हैं I मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राणों के दृष्टिकोण से, यही मुक्तिपथ है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया, लेकिन उसको एक और शंका हुई, इसलिए उसने गुरु से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, बुद्धि और चित्त का क्या नाता है? I

 

बुद्धि और चित्त का नाता, चित्त और बुद्धि का नाता, …

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… ब्रह्मरचना में बुद्धि और चित्त का प्रादुर्भाव लगभग एक साथ होता हुआ भी, चित्त का प्रादुर्भाव बुद्धि से थोड़ा पूर्व में ही हुआ था I और उस प्रादुर्भाव की दशा में चित्त, बुद्धि से सूक्ष्म ही था, इसलिए इन दोनों, चित्त और बुद्धि के प्रादुर्भाव के समय पर, चित्त उस बुद्धि को भेदकर, बुद्धि के भीतर ही बस गया था I इसलिए ब्रह्मरचना की इस स्थिति में पीले वर्ण की बुद्धि के भीतर, श्वेत वर्ण का चित्त दिखाई दे रहा था I ब्रह्मरचना की ऐसी दशा में चित्त का बुद्धि से सूक्ष्म होने के कारण, चित्त ही बुद्धि का चालक था, क्यूंकि सूक्ष्म ही स्थूल का चालक होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन ब्रह्मरचना के समय से ही चित्त ने ब्रह्माण्ड के संस्कारों को धारण करना प्रारम्भ कर दिया था I क्यूँकि ब्रह्मरचना के प्रारंभिक और उससे आगे के समय में जो संस्कार उदय हुए थे, वह चित्त जितने सूक्ष्म नहीं थे, इसलिए उन संस्कारों को धारण करने के पश्चात, चित्त की परिणामी सूक्ष्मता कम होती चली गई, और ऐसा होने के कारण चित्त भी अपनी पूर्व की सूक्ष्मता को त्यागता चला गया I और अंततः एक दशा ऐसी आई कि चित्त और बुद्धि की सापेक्ष सूक्ष्मता में, बुद्धि ही चित्त से सूक्ष्म हो गई I इस दशा के पश्चात, बुद्धि चित्त को भेदने लगी और चित्त के भीतर भी पाई जाने लगी I यह दशा ब्रह्मरचना में चित्त और बुद्धि के उदय के समय की सापेक्ष सूक्ष्मता से विपरीत ही थी I इस दशा में बुद्धि ही चित्त के संस्कारों की चालक हो गई, जिससे बुद्धि ही चित्त को उत्कर्ष पथ में दिशा संकेत देने लग गई I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यही कारण है कि वेद मनिषियों ने भी ऐसा ही माना है, कि बुद्धि ही मन और चित्त की चालक होती है I परन्तु ब्रह्म रचना की प्राथमिक दशा में ऐसा नहीं था, क्यूंकि उस समय चित्त, बुद्धि से सूक्ष्म होने के कारण, चित्त ही बुद्धि का चालक था I पर क्यूँकि चित्त ने ब्रह्माण्डोदय के समय से लेकर आगे के समय तक के समस्त संस्कार धारण किए थे, और क्यूंकि यह संस्कार, चित्त जितने सूक्ष्म भी नहीं थे, इसलिए इन संस्कारों को धारण करने के पश्चात, चित्त अपने नए परिणामी स्वरूप में आया था, जिसमें बुद्धि ही चित से सूक्ष्म हो गई थी, और जिसके कारण वह बुद्धि, चित्त के भीतर बस गई थी, और चित्त सहित, मन की भी चालक हो गई थी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब ध्यान देना क्यूँकि बुद्धि और चित्त के दृष्टिकोण से योगमार्ग, उत्कर्षपथ और मुक्तिपथ की परिभाषा बताई जा रही है…

जो पथ चित्त को बुद्धि से भी अधिक सूक्ष्मता की ओर ले जाए, वही उत्कर्षपथ है I

जो पथ चित्त को उसकी उदयावस्था की सूक्ष्मता में स्थापित करे, वह उत्कर्षपथ है I

जो पथ चित्त को उसके निराकार चिदाकाश स्वरूप में लेकर जाए, वह उत्कर्षपथ है I

जो पथ चित की प्राथमिक संस्कार रहित दशा को प्राप्त करवाए, वह मुक्तिपथ है I

जो पथ चित्त को उसकी गंतव्य चित्ततीत दशा में स्थापित करे, वह मुक्तिपथ है I

जो चित्त को संस्कारों सहित, अन्य सब वृत्तियों से सुदूर कर दे, वही योगमार्ग है I

जो चित्त की प्राथमिक सूक्ष्म उदयावस्था प्राप्ति का मार्ग हो, वही योगमार्ग है I

जिससे चित्त का ही निरोध होकर वह चिदाकाश ही हो जाए, वह योगमार्ग है I

जिससे पथ पर चित्त निरोध होकर, संस्कारातीत हो जाए, वही योगमार्ग है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… समस्त उत्कर्षपथ, चित्त को उसकी ब्रह्माण्ड में उदय के समय की दशा की सूक्ष्मता में लेकर जाते हैं I जो पथ, चित्त को उसकी प्राथमिक उदय दशा में स्थापित करते हैं, वही उत्कर्ष पथ कहलाते हैं I इसलिए चित्त और बुद्धि के नाते के अनुसार, जो पथ चित्त को बुद्धि से अधिक सूक्ष्म बनाने के मार्ग होते हैं, वही उत्कर्ष पथ कहलाते हैं I और जो पथ चित्त को उसकी प्राथमिक उदयावस्था के समान, संस्कार रहित दशा में स्थापित ही कर देते हैं, वही मुक्तिपथ कहलाते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… उदय होने के पश्चात, उत्कर्ष पथ जीवों के चित्त के संस्कारों को सूक्ष्म करते जाते हैं, और अंततः, उनके चित्त को ही संस्कार रहित बना देते हैं I इसका मार्ग भी ब्रह्माण्ड धारणा ही है, जो ब्रह्माण्ड योग को लेकर जाता है, और जिसमें अंततः ब्रह्माण्ड से ही अयोग किया जाता है, और जहाँ उस अयोग मार्ग में भी वह प्रत्याहार और पूर्ण त्याग ही होता है, जो मुक्तिपथ का अंग भी होता है I ब्रह्माण्ड धारणा ही इस मार्ग का कारण है, और उस ब्रह्माण्ड धारणा और ब्रह्माण्ड योग को क्रियान्वित भी मन से ही किया जाता है, क्यूंकि मन ही धारणा और उस धारणा से आगे जो योग है, उस योग का कारक और कारण भी होता है I उस संस्कार रहित चित्त को प्राप्त करने का एक उत्कृष्ट मार्ग यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I और इस मार्ग में भी चित्त और बुद्धि का वैसा ही नाता पाया जाता है, जैसा यहाँ पर बताया गया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… एक बार चित्त संस्कार रहित हो जाता है, तो वह बुद्धि से पुनः सूक्ष्म हो जाता है, और ऐसी दशा में वह चित्त अपनी प्राथमिक उदयावस्था की सूक्ष्मता को पाता है, जिसमें वह चित्त ही बुद्धि का चालक था I और ऐसी दशा में वह चित्त, बुद्धि को भेदकर बुद्धि के भीतर ही बस जाता है I यह वही दशा है जो तब थी जब इस ब्रह्मरचना में चित्त और बुद्धि का प्रादुर्भाव हुआ था I और इस दशा में श्वेत वर्ण का चित्त, पीले वर्ण की बुद्धि के भीतर ही और वैसे ही दिखाई देगा जैसे तब था, जब चित्त और बुद्धि का इस ब्रह्म रचना में उदय हुआ था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… बौद्ध पंथ में इसी दशा को बोधिचित्त कहा जाता है, और इस बोधिचित्त की दशा में, पीले वर्ण की बुद्धि भी रजोगुणी होती है, इसलिए उस पीले वर्ण के साथ, लाल वर्ण भी दिखाई देता है I ब्रह्मरचना में बुद्धि और चित्त के उदय होने से लेकर, उनके ब्रह्मरचना के भीतर रहने तक और अंततः उनके अपनी उदयावस्था को पुनः प्राप्त करने तक, यही उन दोनों का नाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया, परन्तु उसको एक और शंका थी, इसलिए उसने गुरु से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, मन का बुद्धि चित्त अहम् प्राण और त्रिगुण का क्या नाता होता है? I

 

मन का बुद्धि चित्त अहम् प्राण और त्रिगुण से नाता, …

सनातन गुरुदेव बोले… परन्तु यह संक्षेप में ही बताया जाएगा, क्यूंकि कुछ बिंदु साक्षात्कार के ही अंग रहे हैं I इसलिए इनपर ध्यान दो I इन्ही बिन्दुओं को आधार बनाकर साधकगण इनके बारे में सबकुछ जान सकते हैं I

  • ब्रह्मरचना की उदयावस्था में, सत्त्वगुण ही मूल था I उस दशा में सत्त्वगुण के एक ओर रजोगुण और दूसरी ओर तमोगुण था I ब्रह्माण्ड के भीतर, सत्त्वगुण से ही उन दोनों गुणों का प्रादुर्भाव हुआ था, और यह प्रादुर्भाव भी ऐसा ही हुआ था, जिसमें यह रजोगुण और तमोगुण एक दुसरे के सन्तुलक भी थे I रजोगुण क्रिया को दर्शाता है और तमोगुण अक्रिया को, और इन दोनों की मध्यावस्था में वह सत्त्वगुण होता है, जो समता को दर्शाता है I और जहाँ वह सत्त्वगुण इन दोनों गुणों, अर्थात रजोगुण और तमोगुण के मध्य में बसा हुआ, इन दोनों गुणों की क्रिया और अक्रिया का समतावादी स्वरूप ही है, इसलिए इसी सत्त्वगुण से यह दोनों गुण ब्रह्माण्डीय समता से जुड़े भी रहते हैं और ऐसा होने के कारण ही ब्रह्माण्ड में यह दोनों गुण (अर्थात रजोगुण और तमोगुण) एक दुसरे के सन्तुलक हो पाते हैं I इसी प्रक्रिया से इन त्रिगुणों का ब्रह्माण्ड के भीतर प्रादुर्भाव भी हुआ था और इसी बताई गई दिशा में यह तीनों गुण (अर्थात सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) सक्रिय भी रहते हैं I
  • रजोगुण का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से होता है, तमोगुण का नाता अघोर ब्रह्म से होता है और सत्त्वगुण का नाता वामदेव ब्रह्म से होता है I
  • रजोगुण की दिव्यता माँ गायत्री का विद्रुमा मुख है (अर्थात माँ गायत्री का रक्ता मुख है), तमोगुण की दिव्यता माँ गायत्री का नीला मुख है (अर्थात माँ गायत्री का नील मुख है) और सत्त्वगुण की दिव्यता माँ गायत्री का धवला मुख है I
  • लाल वर्ण के रजोगुण और श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण की योगदशा से ही गुलाबी वर्ण की अव्यक्त प्रकृति का प्रादुरवहाव हुआ था, जो अव्यक्त प्राण भी कहलाई थी और जिनको ब्रह्म की माया शक्ति, महामाया और जिनके गुरु स्वरूप को माँ शारदा सरस्वती भी कहा जाता है, और जो अपनी वास्तविकता में, इस समस्त ब्रह्म रचना की जगदगुरु ही हैं I
  • नील वर्ण के तमोगुण और श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण की योगदशा को ही नीले- श्वेत वर्ण के अर्धनारी कहा गया है, जो अर्थानारीश्वर भी कहलाते हैं, और जो अपनी वास्तविकता में सगुण आत्मा ही हैं I
  • नीले वर्ण के तमोगुण और लाल वर्ण के रजोगुण की योगदशा को ही कृष्ण पिङ्गल रुद्र कहा गया है I इस योग में कृष्णमय तमोगुण ने पिङ्गल वर्ण के रजोगुण को घेरा हुआ होता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • इन त्रिगुणों में से, श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण था, लाल वर्ण का रजोगुण था और नीले वर्ण का तमोगुण था I
  • ऐसा होने के पश्चात भी, जब ब्रह्माण्ड के भीतर से इन त्रिगुणों का अध्ययन करा जाएगा, तब ऐसा ही प्रतीत होगा जैसे की रजोगुण के दो अणु अंश, जब आपस में टकराते हैं और जब उनकी गति स्तम्भित हो जाती है, तब उस स्तम्भित हुए रजोगुण से ही तमोगुण का प्रादुर्भाव होता है I जब रजोगुण स्तम्भित होता है, तब उसी स्तम्भित दशा के गुण स्वरूप को तमोगुण कहा जाता है I
  • और जहाँ रजोगुण और तमोगुण के योग से आकाश महाभूत का प्रादुर्भाव होता है, और उसी आकाश के भीतर ही सबकुछ बसा हुआ पाया जाता है I जितना अधिक रजोगुण के अंशों का टकराव होगा, उतना ही अधिक तमोगुण का प्रादुर्भाव भी पाया जाएगा और ऐसा होने के कारण, उतना ही अधिक उस रजोगुण और तमोगुण का योग भी होगा, और उतना ही फ़ैलाव आकाश महाभूत का भी पाया जाएगा I
  • और इसी प्रक्रिया में, जैसे-जैसे रजोगुण बढ़ता है, वैसे-वैसे ही तमोगुण भी बढ़ता है, और उतना ही इन दोनों गुणों का योग भी होता है जिससे उतना ही अधिक आकाश महाभूत का फैलाव भी होता है, जिससे ब्रह्माण्ड भी बढ़ता हुआ, और भी बड़े आकार का दिखाई देने लगता है I
  • ब्रह्माण्ड के भीतर, रजोगुण से पञ्च प्राण का और तमोगुण से पञ्च उपप्राणों का प्रादुर्भाव भी प्रतीत होता है I इसलिए जब अभी बताई जा रही दशा चलित होती है, तब ब्रह्माण्ड के भीतर उतना ही इन पञ्च प्राणों और पञ्च उपप्राण का प्रादुर्भाव भी पाया जाता है I
  • और क्यूँकि सत्त्वगुण इन सबसे सूक्ष्म ही होता है, इसलिए इन सबके भीतर सत्त्वगुण का अतिसूक्ष्म, श्वेत मेघ के समान प्रकाश भी पाया जाता है I और जहाँ उस श्वेत मेघ स्वरूप में सत्त्वगुण ही प्रकृति का नवम कोष (अर्थात नवम आकाश) कहलाता है, जिसकी दिव्यता को माँ आदिशक्ति भी कहा जाता है I
  • जब इनका अध्ययन ब्रह्माण्ड के भीतर से करा जाएगा, तब ऐसा ही यह सब पाए जाएंगे I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना …

  • सत्त्वगुण से चित्त का प्रादुर्भाव हुआ है I जब सत्त्वगुण का श्वेत प्रकाश सुनहरे वर्ण के हिरण्यगर्भ के प्रकाश से योग होता है, तब सूक्ष्म पीले वर्ण की बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है I
  • जब लाल वर्ण के रजोगुण और नीले वर्ण के तमोगुण का योग समान मात्रा में होता है, तब आकाश महाभूत का उदय होता है I और जब इसी योग में तमोगुण अधिक होगा, तब मन का उदय होता है और उस मन को भेदता हुआ, उस मन के मध्य भाग में बसा हुआ सत्त्वगुण ही होता है, और ऐसा होने के कारण ही कुछ योग और वेदमनीषियों ने मन को सत्त्वगुणी कहा है I ऐसे सत्त्वगुणी मन का नाता भी वामदेव ब्रह्म से ही होता है और यही कारण है, कि मन को वामदेव से जोड़कर ही देखा जाता है I
  • अपनी उदयावस्था में, मन में तमोगुण की मात्रा अधिक होने के कारण, मन एक तमोगुणी दशा ही है, और ऐसा होने के कारण ही वह स्थिरता का कारण भी होता है I मन का मूल रूप स्थिरता ही है, लेकिन जब मन में तृष्णाएं अधिक हो जाती हैं, तब वही मन रजोगुणी होकर, इधर उधर भागने भी लगता है I
  • जब किसी भी दशा में रजोगुण अधिक होता है, तब वह दशा विप्लव को ही पाती है I
  • जब मन तमोमयी होता है, तो वह जड़ता की ओर जाता है I और जो मन रजोगुणी होता है, तब वह इधर उधर भागते हुए, शारीरिक आदि विप्लव का ही कारण बन जाता है I और यही वह कारण भी है, कि योग और वेदमनीषियों ने रजोगुण और तमोगुण, दोनों से ही सुदूर रहने को कहा है I
  • जब श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण की मात्रा, लाल वर्ण के रजोगुण की तुलना में अधिक होती है, तब हल्के गुलाभी वर्ण के अव्यक्त प्राण का उदय होता है और जहाँ वह अव्यक्त प्राण ही अव्यक्त प्रकृति कहलाई गई है I उसी अव्यक्त प्रकृति को बौद्ध मनीषियों ने तुसित लोक कहा था I
  • जब तमोगुण और सत्त्वगुण की समानता होती है, तब इसी योगदशा को सगुण आत्मा और अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है I इस दशा में तमोगुण का नीले वर्ण के शिव का द्योतक है और सत्त्वगुण का श्वेत वर्ण शक्ति का, इसलिए अर्धनारीश्वर ही शिव शक्ति योग के द्योतक हैं, जिससे वह सगुण आत्मा भी कहलाए गए हैं I स्थूल शरीर के दृष्टिकोण से, उन अर्धनारी का स्थान भ्रूमध्य में ही होता है, और इस स्थान पर, अर्धनारीश्वर, घड़ी की सुई की उलटी दिशा में गोल गोल घुमते ही रहते हैं I
  • जब लाल वर्ण के रजोगुण और पीले वर्ण की बुद्धि का योग होता है, तब भगवे वर्ण का उदय होता है I और जब इस भगवे वर्ण का योग सत्त्वगुण से होता है, तो इसी को रुद्र रौद्री योग कहा जा सकता है, और जहाँ यह योग ही सगुण स्वरूप स्थिति को दर्शाता है I
  • जब चित्त रजोगुणी होता है, तो उसके वर्ण में हल्का लाल रंग दिखाई देगा I जब चित्त तमोगुणी होगा, तो उसके वर्ण में हल्का नीला वर्ण दिखाई देगा I और जब वही चित्त सत्त्वगुणी हो जाएगा, तो वह खुरदरे श्वेत वर्ण का ही पाया जाएगा I गुणों के अनुसार, चित्त की यही तीन प्रधान दशाएं होती हैं I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब तक बताए गए बिन्दुओं को आधार बनाकर, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ…

  • मन प्राणों को भेदता है, और ऐसा तब भी है जब प्राण ही मन को गति प्रदान करते हैं I यह गति की दिशा बुद्धि निर्धारित करती है, और जहाँ दिशा का कारण भी चित्त के संस्कार ही होते हैं I
  • जिस संस्कार के फलित होने का समय आ गया, उसके अनुसार ही बुद्धि की दिशा होगी, और जहाँ बुद्धि ही मन को भेदती है, और मन की दिशा का कारण होती है I
  • इसलिए बुद्धि की दिशा का कारक चित्त के संस्कार होते हैं, और मन की दिशा का कारण बुद्धि ही होती है I
  • और मन सहित, बुद्धि की गति प्राणों द्वारा होती है I
  • और यह सब अहम् में बसकर ही अपने अपने कार्य करते हैं, जिससे इन सबके मूल में इनका अहम् भाव ही होता है I
  • और ऐसा तबतक होता है, जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होता I
  • जब अहम् विशुद्ध हो जाता है, तब वह अहम् ही ब्रह्म कहलाता है I
  • और उस विशुद्ध अहम् नामक ब्रह्म को प्राप्त होकर, बुद्धि निष्कलंक होती है, मन ब्रह्मलीन होता है, चित्त संस्कार रहित होता है और प्राण विसर्गी होते हैं I
  • ऐसी दशा में यह मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण, ब्रह्माण्ड से नाता ही नहीं रख पाते हैं, जिसके कारण इनका नाता त्रिगुणों से भी टूट ही जाता है I
  • यही दशा मुक्तिपथ सहित, कैवल्य मुक्ति की भी द्योतक होती है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • बुद्धि मन को भेदकर, मन की नियन्त्रक होती है I
  • लेकिन ऐसा होने पर भी मन ही सर्वस्व से योग का कारक होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि मन ही योगमाध्यम होता है और जहाँ मन की योगदशा में गति भी प्राणो के कारण ही होती है, और जहाँ इस गति के कारक रूप में में चित्त के वह संस्कार ही होते हैं, जिनके फलित होने का समय आ गया होता है I
  • इस फलित होने की प्रक्रिया से वह संस्कार सूक्ष्म भी होते हैं और सूक्ष्म होने के कारण उनके प्रभाव व्यापक भी हो जाते हैं I
  • और यह सब कुछ इन त्रिगुणों के आवर्ण में ही होता है, जिन्होंने इस समस्त जीव जगत को घेरा ही हुआ है, और इन्ही त्रिगुण ने इस जीव जगत को भेदा भी हुआ है I
  • और इस प्रक्रिया की सभी दशाओं में अहम् विशुद्धि प्रक्रिया ही कारण होती है, और इसी अहम् विशुद्धि के लिए ही यहाँ बताई गई संपूर्ण प्रक्रिया चलित भी होती है I
  • क्यूंकि अहम् का नाता अघोर ब्रह्म से होता है, जिनके नाता यजुर्वेद से होता है, और जिसके मध्य में नमः शिवाय ही कहा गया है, इसलिए इस सारी शुद्धिकरण प्रक्रिया का नाता शिवत्व से तो है ही I और जहां वह शिवत्व ही ब्रह्मत्व कहलाता है I इसलिए इस शुद्धिकरण प्रक्रिया, जिसके मूल में अहम् विशुद्धि ही है, उसमें शिव ही ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही शिव, जिसके कारण यह शैव मार्ग ही है I
  • ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस जीव जगत से जाते हुए उत्कर्ष पथ में, अहम् विशुद्धि ही मुक्ति कारक है, क्यूंकि जबतक अहम् ही विशुद्ध नहीं होगा, तब तक मुक्तिमार्ग भी अपने पूर्ण स्वरूप में प्रशस्त नहीं हो पाएगा I ऐसा भी इसलिए ही है, क्यूंकि विशुद्ध अहम् ही वह ब्रह्म कहलाया गया है, जिसका संकेत यजुर्वेद के महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि द्वारा, सूक्ष सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन दर्शाया गया है I

नन्हें विद्यार्थी ने समझ लिया और अपना सर हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

परन्तु वह विद्यार्थी पुनः सोचने लगा, कि यह सनातन गुरुदेव कोई साधारण से और पतले और बूढ़े से दिखने वाले साधुबाबा तो नहीं हो सकते… हो सकता है कि यह गुरुदेव कोई और बहुत बड़ी सत्ता ही हैं I

 

सनातन गुरुदेव ने अपने बारे में बताया, …

गुरु बोले… मेरी वास्तविकता मन ही है, और ऐसा होने पर भी मैं ही निर्गुण निराकार स्वरूप में व्यापक हूँ I और ऐसा होने पर भी मैं ही इस समस्त महाब्रह्माण्ड की सगुण निराकार मनस काया हूँ I और इसके साथ साथ, मैं ही सगुण साकार मनस हूँ, जो अंतःकरण में निवास करता है I और अपने ही एक और स्वरूप में, मैं समष्टि का मनोमय कोष भी हूँ I इसलिए मैं ही निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार भी मैं ही हूँ I पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत होता हुआ भी, अपने पिण्ड ब्रह्माण्ड स्वरूप में, मैं ही यह जीव जगत कहलाता हूँ I

नन्हें विद्यार्थी ने कहा… गुरु चन्द्रमा, परन्तु अंतःकरण का मन नामक भाग नीला भी होता है और अंततः श्वेत ही पाया जाता है और आपके अभी के स्वरूप के तो यह वर्ण है ही नहीं I

इसपर सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… अंतःकरण के मन नामक भाग का वर्ण वही होता है, जिससे उस समय साधक का योग हुआ होता है I इसलिए जो साधक प्रकृति के सप्तम कोष से योग किए होते हैं उनका मन लाल वर्ण का होता है, जो प्रकृति के अष्टम कोष से योग करे होते हैं उनका मन नीले वर्ण का होता है, और जो प्रकृति के नवम कोष से ही योगदशा में होते हैं उनका मन श्वेत वर्ण का ही होता है I इसलिए जिस दशा से साधक जुड़ा हुआ होगा, उसी दशा के अनुसार मन का वर्ण भी होगा I मन का स्वरूप उसकी उस समय की योगदशा के अनुसार ही होता है, इसलिए साधक के भीतर भी मैं उसी दशा में पाया जाता हूँ, जिस दशा से साधक उस समय जुड़ा हुआ होता है I जहाँ तक मेरे वास्तविक स्वरूप का प्रश्न है, मेरा वर्ण निरंग ही है I जो साधक मुझे जैसा मानता है, मैं उसके लिए वैसे ही स्वरूप में स्वयंप्रकट होता हूँ, और जहाँ मेरा प्रकटीकरण भी उस साधक की हृदय गुफा में, उस आंतरिक अवतरण मार्ग से होता है जो इस जीव जगत से अतीत है I इसलिए मैं निर्गुण भी हूँ और सगुण भी, मैं निराकार और साकार भी हूँ, मैं ही पञ्च महाभूत हुआ हूँ, मैं ही गुण हुआ हूँ I इस जीव जगत में और इससे परे भी, जो भी हैं, वह सबकुछ मैं ही हूँ I मेरे सिवा इस ब्रह्म रचना में, या इससे परे, और उस महाप्रलय की दशा में भी, न तो कुछ कभी था, न ही है और न ही कभी होगा, क्यूँकि में ही ब्रह्म रचना हूँ, मैं ही इस रचना का रचैता स्वरूप भी हूँ, और मैं ही इस ब्रह्म रचना से अतीत जाता हुआ मुक्तिमार्ग हूँ, और उस मुक्तिमार्ग की मुक्ति भी मैं ही हूँ I मैं ही उत्पत्ति स्थिति संघार निग्रह और अनुग्रह नामक कृत्यों में स्वयंप्रकट हुआ हूँ I मैं ही त्रिगुण, तन्मात्र और महाभूत कहलाया हूँ, में ही तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) भी हूँ I मैं ही काल कहलाया हूँ, और मैं ही उस काल की दिव्यता त्रिकाली भी हूँ I और इस जीव जगत के भीतर, मैं सनातन अखण्ड काल ही, कालचक्र के त्रिकाली स्वरूप में स्वयंप्रकट होकर, इस समस्त जीव जगत को अपने ही काल रूपी गर्भ स्वरूप में धारण किया हूँ I

नन्हें विद्यार्थी ने अपनी अचंभित दशा में प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो आप कौन हैं? I

 

सनातन गुरुदेव ने अपने नन्हें विद्यार्थी की ओर उंगली दिखाकर उत्तर दिया… मैं तुम्हारे अंतःकरण का मनस नामक भाग ही हूँ I और ऐसा होता हुआ भी मानव रूप धारण करके, तुम्हारे हृदय में उस ब्रह्माण्डातीत प्रक्रिया का आलम्बन लेकर, स्वयं ही स्वयं में, और स्वयं ही स्वयं से स्वयं-अवतरित हुआ हूँ I तुमने मुझे अपने ही हृदय में इतने पवित्र भावों से ढूंढा, कि मैं अपना वह सार्वभौम व्यापक सर्वोच्च और अनंत निराकार स्वरूप त्यागकर, तुम्हारे हृदय में अपने परमसिद्ध सनातन गुरु स्वरूप में ही आने को बाध्य हुआ हूँ I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… मैं अपने ब्रह्मत्व स्वरूप में ही तुम्हारे (अर्थात नन्हें विद्यार्थी के) भीतर स्वयं अवतरित हुआ हूँ, इसलिए मेरे दृष्टिकोण में, उस ब्रह्मत्व के “सगुण साकार प्राणधारी मानव लिंग रूप या द्योतक भी, तुम ही हो I इसलिए जबकि तुम्हें लगता है, कि तुम मेरे शिष्य हो, किन्तु वास्तविकता में तो मैं तुम्हारा शिष्य होकर ही आया हूँ I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा इसलिए है, क्यूंकि तुम मैं ही हुए हो, और मैं ही तुम हुआ हूँ I अभी के समय, मुझमें और तुममें भेद प्रतीत होता हुआ भी, वास्तविकता में तुम और मैं, अभेद ही हैं I इसलिए मेरे इस आंतरिक अवतरित स्वरूप में, मैं ही मेरा गुरु, और मैं मेरा शिष्य भी हुआ हूँ… मैं ही मेरा भक्त, और मैं मेरा इष्ट भी हुआ हूँ… मैं ही मेरा पुत्र पुत्री, और मैं मेरा माता पिता भी हुआ हूँ I इसीलिए, तुम्हारी काया में इस आंतरिक अवतरण के पश्चात, मैं ही यह त्रिकाया, इस त्रिकाया में बसा हुआ महाब्रह्माण्ड, इनके समस्त भाग और तंत्र, और इन सबका एकमात्र अद्वैत आत्मा नामक ब्रह्म भी हूँ I वास्तविक्ता में तो, मैं ही तुम हूँ, और तुम ही मैं I और जहां “मैं” का शब्दात्मक स्वरूप भी उन निर्गुण ब्रह्म का ही द्योतक है, जो विशुद्ध अहम् रूप में हम दोनों में अद्वैतरूपेण, पूर्णरूपेण और समानरूपेण ही अपने सर्वव्यापक सर्वसाक्षी सार्वभौम सर्वदिव्यात्मक स्वरूप में स्वयं-प्रकाशित हो रहे हैं, और जहां वह अद्वैत सर्वअद्वैतात्मक ब्रह्म भी मैं ही हूँ I

जबकि नन्हा विद्यार्थी अपने गुरु की इन बातों से संतुष्ट नहीं था, लेकिन उसने कहा कुछ भी नहीं, क्यूंकि उसके पास इन बातों के सत्य होने या न होने का कोई प्रमाण भी तो नहीं था I

 

जैसा है… आज के देवताओं से परे, …

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, क्या आप निर्बीज ब्रह्म हैं? I

सनातन गुरु मंदहास धारण करे हुए बोले…

मैं केवल हूँ, मैं ही कैवल्य हूँ I

केवल शब्द का अर्थ पूर्णस्वतंत्र  है I

केवल  को ही पूर्ण संन्यास कहा गया है I

पूर्ण स्वतंत्र ही पूर्ण संन्यासी, ब्रह्म होता है I

सब अपने अंतिम पथ पर केवल होकर ही जाते हैं I

उस केवल में साधक का किसी से भी कोई नाता नहीं होता I

स्वतंत्रता तबतक नहीं होती, जबतक समस्त जीव जगत से न हो I

 

सनातन गुरु आगे भी बोले…

केवल में न गुरु, न शिष्य, न इष्ट, न भक्त, न माता पिता, न ही कोई और नाता  है I

जब साधक स्वतंत्र होने का पात्र होता है, तब ही मैं उसके भीतर अवतरित होता हूँ

अवतरित होकर, मैं ही साधक को उस सर्वातीत दशा में लेकर जाता हूँ, जो मेरी है I

समस्त ब्रह्मरचना, ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, और ब्रह्म ही इसका अभिव्यक्ता I

मैं ही अभिव्यक्ता ब्रह्म का सर्वव्यापक, सर्वकल्याणकारी, सर्वात्मक गुरु स्वरूप हूँ I

और मैं ही इस अभिव्यक्ति रूपी ब्रह्मरचना का अनादि अनंत सनातन गुरु रहा हूँ I

देवादि समस्त लोकों के जीवों के हृदय में भी मेरा निवास हैमैं उनका भी गुरु हूँ I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब साधक उस अंतिम पथहीन भागहीन पथ पर जाता है, तब वह साधक केवल होकर ही जाता है I जो साधक उस पथ पर जाने का पात्र बन जाता है, उसके हृदय में ही मैं,उस साधक के गुरु स्वरूप में स्वयंप्रकट होता हूँ I और मेरे मार्गदर्शन से ही वह साधक, अंततः इस समस्त जीव जगत से, उस साधक के उसी जन्म में ही अतीत हो जाता है I और जहाँ वह अतीत दशा भी मेरी ही है क्यूंकि मैं ही वह सर्वातीत हूँ, जो सर्वमूल, सर्व और सर्वगंतव्य भी हुआ है I लेकिन उस अतीत दशा में तुम्हें मैं अपने इस स्वरूप में नहीं मिलूंगा, जिसमें मैं तुम्हारे हृदय गुफा में अवतरित हुआ हूँ I किसी विरले कालखण्ड में कोई विरला साधक ही होता है, जो उस सर्वातीत दशा को प्राप्त होकर, सर्वातीत ही हो पाता है I और सर्वातीत होकर भी उस साधक की चेतना व्यापक होकर, सर्वस्व में ही व्याप्त होती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा साधक ही पूर्णब्रह्म कहलाता है, जो होता हुआ भी नहीं होता है, और नहीं होता हुआ भी सदैव ही रहेगा I ऐसी दशा ही पूर्ण ब्रह्म कहलाती है, जो सर्वातीत होती हुई भी, सर्वमूल, सर्व औऱ सर्वगंतव्य भी समानरूप और पूर्णरूप में है I जब साधक इस पूर्ण ब्रह्म नामक परमतत्त्व को प्राप्त होने का पात्र बनता है, तब मैं ही उस साधक की काया के भीतर… स्वयं-अवतरित होता हूँ I

जो सर्वातीत होता हुआ भी सर्वस्व हुआ है, वही पूर्ण और ब्रह्म कहलाता है I

वह पूर्ण ब्रह्म तुम भी हो और मैं भी वही हूँसमस्त जीव जगत भी वही है I

इसलिए, हम दोनों पृथक से प्रतीत होते हुए भी, वास्तव में वही पूर्ण ब्रह्म ही हैं I

अंतर केवल इतना है कि मैं इस सत्य को जानता हूँ, और तुम इसको जाने नहीं हो I

आगामी कुछ ही समय में जब तुम सत्य को जानोगे, तब तुम, मैं होगे और मैं, तुम I

उस पूर्ण नामक सत्य को जानने का मार्ग, स्वयं ही स्वयं में, केवल होकर जाता है I

उस पूर्ण ब्रह्म को जानने के लिए, स्वयं ही स्वयं में, केवल होकर ही जाया जाता है I

जो मार्ग केवल का है, वही मुक्तिमार्ग है, जो अंतिम पथहीन भागहीन ब्रह्मपथ होता है I

 

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले…

सर्वस्व उसी केवल ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

केवल का वास्तविक अर्थ, सर्वस्व से पृथक ही होता है I

केवल का अर्थ, सर्वस्व होता हुआ भी, सर्वस्व से पृथक और परे भी होता है I

जो ऐसा केवल है,वह देवत्वादि को धारण किया हुआ भी, देवादि से अतीत है I

केवल, देवत्वादि को धारण किया हुआ भी, वास्तव में इसका साक्षी, देवातीत है I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि वह केवल सर्वस्व होता हुआ भी, सर्वातीत और सर्वसाक्षी ही है I

जो ऐसा है वही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैजिसका मार्ग पथहीनभागहीन ही होता है I

उस अंतिम पथहीन भागहीन मार्ग पर, स्वयं ही स्वयं में, केवल होकर जाया जाता है I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, क्या उस परे की दशा में, देवता आदि भी नहीं होते हैं? I

इसका उत्तर सनातन गुरु ने नहीं दिया, वह केवल मंदहास धारण करके ही अपने नन्हें विद्यार्थी की ओर देखते रहे I

नन्हें विद्यार्थी ने पुनः प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि देवता भी अभी तक मुक्त नहीं हुए हैं? I और क्या वह इस ब्रह्मरचना की किसी न किसी दशा में ही फंसे हुए हैं? I

 

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… इसको ध्यान से सुनो…

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब वह एक पंथ का देवता है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब वह किसी ग्रंथ का देवत्व है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब वह ब्रह्माण्ड में ही कार्यरत है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब वह किसी लोक का अधिष्ठा है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब उसका मार्ग पथहीन ही नहीं है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब उससे संबद्ध मंत्रादि अभी भी हैं? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब वह अभिमानी या अनाभिमानी ही है? I

जो वास्तव में मुक्त होता है, उसका संबंध इन सबसे कैसे हो सकता है? I

कोई मुक्त कैसे हो सकता है, जब उसके विरोध में कोई और खड़ा हुआ है? I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

मुक्ति तो भूतातीत, तन्मात्रातीत, गुणातीत, कालातीत, दिशातीत, दशातीत होती है I

मुक्ति तो परम्परातीत, मार्गातीत, संप्रदायातीत, मंत्रातीत, शब्दातीत, ग्रंथातीत होती है I

मुक्ति पिण्डातीत, लोकातीत, तंत्रातीत, सिद्धांतातीत, सिद्धितीत, ब्रह्माण्डातीत होती है I

जो ऐसी दशा नहीं है, वह कैसी मुक्ति?… जिसकी दशा ऐसा नहीं हो, वह कैसा मुक्त? I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, जब यह देवता मुक्ति को ही नहीं दर्शाते, तो इन सभी के मत, ग्रंथ, पंथ की क्या आवश्यकता थी? I कोई उस मार्ग को कैसे दर्शा सकता है, जब वह उसपर न तो स्वयं ही गया हो, और न ही उस मार्ग के गंतव्य में स्थित ही हुआ हो? I

सनातन गुरु ने उत्तर दिया… जबकि ये ग्रंथ, पंथ मत और उनके मार्ग एक दुसरे से पृथक ही हैं, लेकिन तब भी यह सब के सब उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही हैं I देवता सहित, उनके देवत्व और देवत्व मार्ग भी उन्ही पूर्णब्रह्म की अभिव्यक्ति ही हैं I और अभिव्यक्ति उसके अभिव्यक्ता से न तो पृथक होती है, और न ही किसी अभिव्यक्ति का मार्ग उसके अभिव्यक्ता से सिवा कहीं और ही जाता है I इसलिए ऐसे अमुक्त से प्रतीत होते हुए देवताओं और उनके ग्रंथों के मार्गादि में भी, जो साधक वास्तव में मुक्ति का पात्र होता है, वह उसी मुक्ति को ही प्राप्त हो जाता है, जो देवातीत, ग्रंथातीत और मार्गातीत ही होती है I इसलिए मुक्ति के वास्तविक पात्रों के लिए, इन देवताओं के समस्त मार्ग भी मुक्तिमार्ग ही हैं I और इसके अतिरिक्त, इन्ही देवताओं के ग्रंथ साधक को उस मुक्ति का पात्र होने का मार्ग भी देते हैं I ऐसा होने के कारण ही ब्रह्मरचना में इन देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ था I जब साधक किसी देवादि बिंदु की उपासना से मुक्ति की पात्रता पाता है और अंततः वह मुक्त होता है, तब वही साधक उस देवता, उसके मार्ग और लोकादि से भी अतीत हो जाता है, इसलिए जबकि देवता स्वयं मुक्त नहीं हैं, लेकिन क्यूंकि यह देवता उस देवत्व को दर्शाते हैं, जो मुक्ति का ही द्योतक होता है, इसलिए वह देवता और उनके मार्ग, मुक्ति के ही द्योतक हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यौगिक और वैदिक वाङ्मय में कोई देवता हुआ ही नहीं, जो देवत्व को धारण नहीं किया था, इसलिए यौगिक और वैदिक वाङ्मय मुक्तिमार्ग ही है, और इसके साथ साथ, मुक्ति का द्योतक भी है I ऐसा होने के कारण, यौगिक और वैदिक वाङ्मय के देवता और उनके देवत्व, समस्त पिण्डों सहित, संपूर्ण ब्रह्माण्ड में भी व्यापक ही होते हैं I जो देवता पिण्ड और ब्रह्माण्ड में समान रूप में और पूर्णरूपेण बसे हुए हैं, उनके ग्रंथ को ही यौगिक और वैदिक वाङ्मय कहा गया है I

मूल से ही गंतव्य को जाता उत्कर्षपथ प्रशस्त होता है I

ऐसे उत्कर्ष मार्ग के मूल में योग होता है और गंतव्य में वेद I

वेदमूल ही योग कहलाता है, और योगगंतव्य को ही वेद कहा जाता है I

समस्त उत्कर्षादि उत्कृष्ट मार्गों के मूल में योग और गंतव्य में वेद ही होता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि ब्रह्म की असंख्य अभिव्यक्तियां हैं, इसलिए इस ब्रह्मरचना में असंख्य मुक्तिमार्ग भी हैं I इसलिए कोई यह बोले कि उसका मार्ग ही मुक्तिमार्ग है और अन्य सभी मुक्तिमार्ग नहीं हैं, तो उसको मुर्ख ही मानना चाहिए I ऐसा इसलिए है क्योंकि ब्रह्म ने कुछ बनाया ही नहीं, जो उसकी ओर नहीं जाता है, इसलिए इस जीव जगत में, जो भी है, जिधर भी है, जिस भी कालखण्ड में बसा हुआ है, और जैसे भी स्वरूपदि बिन्दुओं को धारण करा हुआ है, वह सब मुक्तिमार्ग ही है I लेकिन ऐसा मुक्तिमार्ग वह उसी साधक के लिए और उस साधक की काया के भीतर से ही स्वयंप्रकट होगा, जो उस मुक्ति का पात्र होगा I यही कारण है, कि यह समस्त ब्रह्मरचना ही वह बहुवादी उत्कर्ष पथ है, जो उस अद्वैत ब्रह्म की ओर जाता हुआ मुक्तिमार्ग ही है I इसलिए यह समस्त ब्रह्म रचना, उन अद्वैत ब्रह्म की बहुवादी अभिव्यक्ति होने के साथ साथ, उसी अद्वैत ब्रह्म की ओर जाता हुआ ब्रह्मपथ भी है I यह इसलिए भी है, क्योंकि ब्रह्मरचना में कुछ ऐसा है ही नहीं, जो मुक्तिमार्ग नहीं है, और यह बिंदु उसपर भी लागू होता है, जो ऐसा नहीं माना जाता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इन सब से जाकर ही साधक उस उत्कर्ष गति को पाता है, जहाँ से उसका मुक्तिमार्ग प्रशस्त हो जाता है, और वह भी तब, जब वह साधक उस मुक्ति की पात्रता को ही पा जाता है I

 

इस पर नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो इसका क्या यह अर्थ हुआ कि देवतागण मुक्त नहीं हैं? I और क्या यही वह कारण है कि समय-समय पर इन देवताओं को मानने वाले पंथ ही कलह कलेश के कारण बन जाते हैं? … क्यूंकि ऐसा ही तो पूर्व के कुछ सहस्र वर्षों में हुआ है I

सनातन गुरुदेव मंदहास धारण किए हुए बोले… जब वह देवता जो स्वयं ही मुक्त नहीं हैं, मुक्ति की बात और मुक्तिमार्ग प्रदान करते हैं, तो उनको मानने वालों की मुक्ति नहीं हो पाती है I आत्माएँ जीव रूप में इसलिए आई थी, क्यूँकि उनको इस जीव जगत का अनुभव करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त होना था, इसलिए जब जीवों को वह वास्तविक मुक्तिमार्ग नहीं मिलता, तो वह उपद्रवी ही हो जाते हैं I और यही वह मुख्य कारण है, कि ऐसे देवताओं के मार्गों के अनुयायी ही विभिन्न प्रकारों के विप्लवों के कारण बन जाते हैं I किंतु यहां बताए गए बिंदु तो केवल विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम), उनके देवताओं और उनके बंधनकारी मार्गों पर ही लागू होते हैं… न की बहुवादी अद्वैत मार्गों पर I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन्ही विकृत एकवाद के मार्गों से समय-समय पर आते हुए मानव जनित विप्लवों से बचाव के लिए ही योग और वैदिक मार्गों को बहुवादी अद्वैत स्वरूप में ही बसाया गया था I और उस अद्वैत स्वरूप में, प्रकृति के बहुवादी मार्ग स्वरूप में बसे होने पर भी, उन सभी मार्गों के मूल में प्रकृति का ही अद्वैत ब्रह्मशक्ति स्वरूप था, और उन मार्गों के गंतव्य में वही अद्वैत ब्रह्म ही थे I और जहां ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म कहलाईं थीं, और ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति, जिसके कारण ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति था, और ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म थी I और ऐसा होने के कारण प्रकृति का ब्रह्मशक्ति स्वरूप और ब्रह्म, दोनों ही मुक्तिमार्ग और मुक्ति भी थे I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेज्म) के मार्गों में तो मुक्ति होती ही नहीं है, इसलिए ऐसा मार्ग कहते ही हैं, कि उनकी मुक्ति अंत समय में ही होगी I ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि ऐसे मार्गों में प्रकृति किसी देवतादि की बपौती ही मानी जाती है, न कि ब्रह्मशक्ति रूपी सार्वभौम सत्ता और मुक्तिमार्ग I जो पंथ प्रकृति के ऐसे स्वरूप को नहीं मानते, वह मुक्तिमार्ग नहीं होते क्यूँकि वास्तव में तो कोई देवता नहीं, बल्कि प्रकृति या देवी ही मुक्तिमार्ग है I ऐसा कहने का कारण भी यही है, कि यह सब मार्गों के देवता मुक्तिपथ की बात करते हुए भी, स्वयं ही मुक्त नहीं हैं क्यूंकि वह प्रकृति रूपी मुक्तिमार्ग पर कभी गमन ही नहीं किए हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और जो स्वयं ही मुक्त नहीं है, वह उस मुक्ति और उसके मार्ग का ज्ञाता भी नहीं होता, जिसके कारण उस देवता का मार्ग ही असत्य का होता है, और असत्य सदैव ही कलह कलेश का कारण बना है I मुक्ति की बात और उसके मार्ग का ज्ञान कोई कैसे दे सकता है, जब वह स्वयं ही मुक्त नहीं है I और अपने इस सत्य को छिपाने के लिए, ऐसा देवता अति अभिमानी होकर, अपने मार्ग पर प्रश्न करना भी बुरा ही मानते हैं, जिससे साधक गण बस पशुओं के समान ही हो जाते हैं I ऐसे मार्गों के साधक सोचते तो हैं, कि वह मुक्त होंगे, लेकिन ऐसा पशु स्वरूप मार्गों में न तो मुक्ति होती है, और न ही मुक्तिमार्ग अपने व्यापक और ब्रह्माण्डातीत स्वरूप में प्रशस्त ही हो सकता है I और यही दशा समय समय पर ऐसे मार्गों के अनुयायियों के द्वारा विप्लव के प्रकटीकरण का कारण भी बन जाती है I जब जीव उस मार्ग पर जाएगा ही नहीं, जिससे मुक्ति होती है, तो वह विप्लवकारी हिंसक पशु सा ही हो जाएगा I आगामी कुछ समय, भी ऐसे ही विप्लवों का होगा क्यूंकि जिस अंत की यह अभिमानी देवताओं के मार्ग बातें करते हैं, वही समय आ रहा है और वह अंत समय भी विप्लवों का ही होगा I यही वह कारण है, कि तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) इस ग्रंथ को लिखने और मानव जाती को बांटने के लिए कहा गया था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यही वह कारण भी था, कि वैदिक वाङ्मय में अभिमानी देवताओं से ध्यान रखने को कहा गया था I परन्तु यह अभिमानी देवता तो तब आते ही हैं, जब कलियुग चलित होता है, इसलिए अभी के समय पर अधिकांश मानव जाति ऐसा अभिमानी देवताओं और उनके मार्गों में ही गमन कर रही है I कलियुग उस कलह कलेश का युग भी इसलिए हुआ है,क्यूंकि इस युग में अभिमानी देवता और उनके मार्ग ही प्रधान हो जाते हैं… और क्यूंकि अन्य युगों में ऐसा नहीं होता, इसलिए उन युगों में इतने कलह कलेश भी नहीं होते I

 

परन्तु नन्हें विद्यार्थी को अपने प्रश्न का सीधा सीधा उत्तर चाहिए था, न कि वह घूमता हुआ उत्तर जो उसको उसके गुरुदेव से प्राप्त हुआ था, इसलिए उसने पुनः वही प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, क्या यह देवी देवता मुक्त हैं या नहीं? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… ब्रह्माण्डीय नियमादि ब्रह्माण्ड की समस्त निराकारी दशाओं से लेकर, सभी साकारी जीवों पर भी समान रूप में लागू होते हैं I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि ब्रह्माण्डीय नियम कभी भी कोई भेद-भाव नहीं करते, कि अमुक दशा या जीव की ब्रह्माण्ड में क्या सत्ता है, और क्या नहीं है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब ध्यान से सुनो…

  • कोई साकारी या निराकारी सत्ता ब्रह्माण्ड में निवास करते हुए भी, ब्रह्माण्डीय नियमादि से अतीत कैसे हो सकती है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई साकारी या निराकारी सत्ता ब्रह्माण्ड में बसी हुई है और ब्रह्माण्ड से अतीत दशाओं के बात या मार्ग बता सकती है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई अभिमानी या अनाभिमानी देवत्व सत्ता ब्रह्माण्ड के भीतर बसकर, किसी मार्ग का आधिष्ठा ही होकर, उस दशा की बात कर सकती है, जो ब्रह्माण्डातीत है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई निर्गुण निराकार ब्रह्म को प्राप्त होकर भी, किसी पंथ, ग्रंथ या मार्ग का सीमित सा और विकृत एकवादी मार्ग का अधिष्ठा हो सकता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई अभिमानी या अनाभिमानी सत्ता जो ब्रह्माण्डीय ही है, उस निर्गुण निराकार ब्रह्म के बारे में या उसके मार्ग को बता सकती है, जो इन सबसे अतीत ही है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई ब्रह्मरचना में सीमित हुआ है और वह ब्रह्माण्डातीत दशा के मार्ग के बारे में बता सकता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि जो उस मुक्ति को प्राप्त हुआ है, जो ग्रंथातीत और मार्गातीत ही है, वह किसी ग्रंथ में उसके मार्ग का देवता होकर रह रहा है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई उस सर्वातीत ब्रह्म और उसके मार्ग की बात कर सकता है, जब वह अपने लोक, अपनी सगुण दशा और अपनी दशा को जाने वाले मार्ग या ग्रंथादि की ही बात तक सीमित रहा है? I
  • निर्गुण ब्रह्म जो कैवल्य मुक्ति ही है, और जो सर्वव्यापक भी है, उसका कोई एक ग्रंथ या मार्ग कैसे हो सकता है और यदि है भी, तब भी उस ग्रंथातीत, वाक्यातीत, शब्दातीत ब्रह्म की बात शब्दों, वाक्यों और ग्रंथों आदि से, वैदिक महावाक्यों का आलम्बन लिए बिना कैसे करी जा सकती है ? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि मुक्ति जो निर्गुण ब्रह्म ही हैं, और जो शब्दातीत ग्रंथातीत वाक्यातीत दिशातीत मार्गातीत और दशातीत है, उनके बारे में कोई ग्रंथ पूर्णरूपेण या स्पष्टरूपेण बता सकता हो? I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब यह सब असंभव है है, तो ऐसा कैसे हो सकता है, कि जो देवता इनमें से किसी को भी धारण किया हुआ है, या इनके बारे में बताता है या इनके मार्ग और ग्रन्थादि आदि का अधिष्टा है, वह मुक्त कहलाता जा सकेगा? I

 

परन्तु नन्हें विद्यार्थी को अभी भी अपने प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं मिला था, इसलिए उसने अपने गुरुदेव से पुनः पूछा… गुरु चन्द्रमा, मुझ अनभिग्य पर कृपा करिये और स्पष्ट रूप में बताइए, कि क्या आज के किसी भी पंथ के अभिमानी या अनाभिमानी देवी देवता, मुक्तात्मा हैं… या नहीं? I

इसपर सनातन गुरुदेव ने मंदहास धारण करके उत्तर दिया… इन बिंदुओं पर भी ध्यान दो…

  • वह जो विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) से संबंधित किसी पंथ का देवता है, वह बहुवादी ब्रह्मरचना कैसे बना सकता है? I
  • वह जो विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) से संबंधित किसी पंथ या मार्ग का देवी देवता है, वह बहुवादी ब्रह्मरचना से अद्वैत मार्ग के बारे में कैसे उचित रूप में बता सकता है? I
  • वह जो अभिमानी या अनाभिमानी देवता है, वह उस निर्गुण ब्रह्म के मार्ग आदि के बारे में कैसे जान सकता है, जो इन दोनों अवस्थाओं से अतीत ही नहीं, बल्कि अतीतातीत है? I
  • वह जिसका स्वभाव ही सार्वभौम नहीं है, और जो सभी को अपना अखण्ड स्वरूप और अपना अटूट भाग ही नहीं मानता है, वह इस सार्वभौम प्रकृति का रचैता अथवा स्वामी कैसे हो सकता है? I
  • वह जिसने स्वयं ही प्रकृति के बहुवाद और ब्रह्म के एकवाद को समान रूप में और पूर्ण रूप में ही धारण नहीं किया, वह उस ब्रह्म की पूर्णता को कैसे दर्शा पाएगा और स्वयं में सिद्ध कैसे कर पाएगा? I
  • वह जिसने स्वयं ही उस व्यापक सत्य का साक्षात्कार नहीं किया, उस सत्य के बारे में कैसे बता पाएगा? I
  • वह जो ब्रह्म की अभिव्यक्ति स्वरूप को ही पार नहीं हुआ, उस सर्वातीत अभिव्यक्ता या उसके मार्ग के बारे में कैसे बता पाएगा? I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले…

  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत के रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के प्रत्येक भाग से एकवाद में नहीं है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के प्रत्येक भाग को ही धारण नहीं किया है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के समस्त उत्कर्ष पथों से संबद्ध नहीं है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के समस्त भागों की ओर सर्वसम भाव नहीं रखता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के किसी भाग को अच्छा कहता है और किसी को बुरा? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह अपने ही कृत (निर्मित) जीव जगत के भोगों की ओर द्वैतवादी भाव, अथवा व्यवहार रखता है I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह किसी एक ग्रंथ या मार्ग का ही समर्थक है, और अन्य सभी को खंडित भी करता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, की कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के सभी भागों की उस दिव्यता को नहीं जानता, जो वह स्वयं ही अपनी अभिव्यक्ति स्वरूप में है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह जीव जगत के सभी भागों और उनके मार्गों को समान दृष्टि से नहीं देखता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह देव और दैत्य के द्वैतवाद में फंसा हुआ है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह या उसके द्वारा प्रशस्त मार्ग अपने ही जीव जगत में समय समय पर कलह कलेश का कारक और कारण बन जाता है? I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी वह अपने जगत में व्यापक और सार्वभौम नहीं हो?, और ऐसा न होने के कारण, उसके अपने ही जीव जगत में ही, उसके विरोधी भी पाए जाते हैं I
  • ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई स्वयं को इस जीव जगत का रचैता कहता है, और इसके पश्चात भी उसके ही ग्रंथों में उसकी इन सभी बातों की असत्यता के प्रमाण भी पाए जाते हैं? I

 

सनातन गुरुदेव आगे भी बोले… अब ध्यान से सुनो और इन बिंदुओं पर स्वयं चिंतन करके ही अपने प्रश्न का उत्तर जानो…

  • वह जो पूर्ण ब्रह्म है, उसकी रचना भी पूर्ण ही हो सकती है, क्यूँकि पूर्ण अपनी पूर्णता के सिवा कुछ बना भी नहीं सकता है I
  • वह जो पूर्ण है, उसकी परिपूर्ण दिव्यता जो प्रकृति रूपी ब्रह्मशक्ति ही है, वह भी पूर्ण के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकती है I
  • और यदि उसके रचित ने, उसकी ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति रूपी पूर्णता को, उसके समान ही पाया होगा, तो वह भेद भाव, द्वन्द्व आदि कैसे कर सकता है? I
  • जो उसकी पूर्णता को नहीं पाया है, वही भेद भाव द्वन्द्व आदि में जाता है I
  • जो पूर्ण है वही तो सर्वव्यापक है, उसकी दिव्यता ही सार्वभौम है I
  • जो साक्षात कैवल्य मोक्ष ही है, उसकी दशा सर्वसाक्षी के सिवा कुछ और कैसे हो सकती है I
  • और जो प्रकृति रूपी ब्रह्म शक्ति और अपनी समस्त अभिव्यक्तियों सहित, अपना भी साक्षी मात्र ही है, उसका स्वभाव पूर्ण संन्यास से पृथक कैसे हो सकता है? I
  • और जो वह परमसत्ता सर्वव्यापक एकेश्वर है, वह सर्वातीत सर्वेश्वर पूर्ण संन्यासी ही है I वह जो सर्वसाक्षी ही है, जो सर्वमूल सर्व औऱ सर्वगंतव्य भी समान रूप में है, और कैवल्य मोक्ष ही है, वह भेद भाव, द्वंद्व आदि में कैसे जा सकता है? I
  • जिसकी अभिव्यक्त भी उसके समान पूर्ण ही है, वह भेद भाव, द्वंद्व आदि में कैसे जा सकता है? I
  • जो अपनी ही अभिव्यक्ति में पूर्ण है और जो उन अभिव्यक्ति रूपों में होता हुआ भी, उन अभिव्यक्ति रूपों के भीतर और उनसे परे भी समान रूप इन सब अभिव्यक्तियों का परमेश्वर भी है, वह भेद भाव, द्वंद्व आदि में कैसे जा सकता है? I
  • जो शून्य ब्रह्म, शून्य और सर्वसम, भी है, और जो जीव जगत स्वरूप में भी सर्वरूप और सर्वनाम में सर्वप्रकाशित हो रहा है, और जो इस जीव जगत के भीतर छिपा हुआ स्व:प्रकट, स्व:व्यापक, स्व:स्थित, स्व:प्रकाश भी है, और ऐसा होता हुआ भी वह स्व:तीत, स्व:साक्षी, सर्वसाक्षी और सर्वातीत ही है, वह भेद भाव, द्वंद्व आदि में कैसे जा सकता है? I

नन्हा विद्यार्थी अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था, क्यूंकि उसके प्रश्न के तो केवल सांकेतिक उत्तर ही दिए गए थे, न की कोई स्पष्ट उत्तर I

लेकिन इन संकेतों से भी वह स्पष्टता से, वह सब जान गया था, जो उसको जानना था, इसलिए वह अपने गुरुदेव के मुख की ओर ही देखता हुआ, अपने गुरु की दिव्यवाणी के प्रभाव से मुग्ध हुआ… शांत ही बैठा रहा I

 

मनस गुफा और प्राण, मनस गुफा और पञ्च प्राण, मन और पञ्च प्राण, मन और पञ्च प्राण, …

सनातन गुरुदेव ने अपने नन्हें विद्यार्थी का हाथ पकड़ा और कहा… अब हम मनस गुफा का अध्ययन रजोगुण गुफा से करेंगे I और इसके पश्चात, कुछ ही समय में, वह दोनों, गुरु और शिष्य रजोगुण गुफा में पहुंचकर, अध्ययन करने लगे I

सनातन गुरु ने प्रश्न किया… अभी क्या दिखाई दे रहा है? I

इस प्रश्न पर नन्हे शिष्य ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, प्राणों और उपप्राणों के सभी वर्ण मन के भीतर ही दिखाई दे रहे हैं I और इसके अतिरिक्त, मन के गोले से संबंधित कुछ नाडियों में भी यह प्राण दिखाई दे रहे हैं I पञ्च ज्ञानेंद्रियों और पञ्च कर्मेंद्रियों से संबंधित दशा में भी यह प्राण और उपप्राण दिखाई दे रहे हैं, और जहाँ यह पञ्च कर्मेंद्रियां और पञ्च ज्ञानदरियाँ भी उसी मन के गोले में, इन्हीं प्राणों और उपप्राणों के साथ निवास कर रही हैं I

इसके पश्चात, उस नन्हें विद्यार्थी ने अपने गुरु के मुख की ओर देखा, कि यह अध्ययन सही है या नहीं I

सनातन गुरुदेव ने संकेत किया, कि आगे बताओ, जिसके पश्चात नन्हा विद्यार्थी पुनः बोला… इन सभी ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के वर्ण भी इनसे संबद्ध प्राणों और उपप्राणों के समान ही हैं, और इन सभी को त्रिगुण, बुद्धि, चित्त और मनस की ऊर्जाएं भी भेद रही हैं I और अंततः इन सबको तमोगुण ने ही घेरा हुआ है, जिससे ऐसा प्रतीत भी हो रहा है, जैसे यह सब तमोगुण के भीतर ही निवास कर रहे हैं I

लेकिन नन्हें विद्यार्थी को इसका कारण समझ नहीं आया, इसलिए उसने अपने गुरु से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, ऐसी दशा क्यों है? I

इसपर गुरु ने उत्तर दिया… इसपर बाद में बताया जाएगा I

 

मन की दशा का अध्ययन, मन की दशा का मनस गुफा से नाता, मनस गुफा से मन की दशा का अध्ययन, …

सनातन गुरु ने प्रश्न किया… क्या इस मनस गुफ़ा में कोई दृश्य या अदृश्य संस्कार या कोई दृश्य या अदृश्य मार्ग दिखाई दे रहे हैं? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, अभी की स्थिति में ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे पूर्व में जो भी संस्कार या मार्ग नष्ट करे गए हैं, वह सब के सब अभी भी इस मनस गुफ़ा में हैं ही I परन्तु यह सब के सब काले बिन्दुओं के समान ही दिखाई दे रहे हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है, कि यह उन पूर्व के नष्ट हुए भागों की राख ही होगी, और जहाँ यह राख भी मनस गुफा में ही पड़ी हुई है I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… केवल विज्ञानमय आदि कर्मों से किया हुआ त्याग कभी भी पूर्ण नहीं होता I जबतक त्याग मन से नहीं होता, तबतक वह पूर्णरूपेण भी नहीं होता I जब योगी का त्याग पूर्णरूपेण हो जाता है, तब ही शून्य तत्त्व को प्राप्त हुआ जाता है I जबतक शून्यता ही नहीं पाई जाएगी, तबतक अस्मिता की अशुद्धियां, विकृतियाँ और वृत्तियाँ भी त्यागि नहीं जाएंगी I जबतक ऐसा त्याग अस्मिता से नहीं होता, तबतक अहंकार की अशुद्धियां, विकृतियाँ और वृत्तियाँ भी त्यागि नहीं जाएंगी I और जबतक यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं होती, तबतक न तो अनसक्तता को पाया जाएगा, न ही त्याग ही पूर्ण रूप में प्राप्त होगा I ऐसा होने का कारण भी मन के गोले में यह काले वर्ण के राख समान बिंदु दिखाई देते हैं I इसलिए जबतक इन राख के समान बिंदुओं का भी त्याग नहीं होता, तबतक कर्मों, कर्मफलों और उनके संस्कार और उनके मार्गों से अनसक्तता की परिपूर्णता को भी नहीं पाया जा सकता I और जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक वह त्याग जो संपूर्ण जीव जगत से होता है, वह भी परिपूर्ण स्वरूप में प्राप्त नहीं होता I जबतक सर्वस्व का ही त्याग नहीं होता, तबतक योगी कैवल्य मोक्ष को भी पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं होता I और जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक योगी जीव जगत से भी पूर्णरूपेण पृथक नहीं होता I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने सर हिलाकर अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

मन के शुद्धिकरण की प्रारंभिक दशा, मनस गुफा और प्राण का नाता, …

सनातन गुरुदेव ने नन्हें विद्यार्थी का हाथ पकड़कर कहा… अब हम हृदयाकाश के मध्य में जाऐंगे I

हृदयाकाश के मध्य में पहुंचकर, वह दोनों बैठ गए और मनस गुफा को देखते हुए, सनातन गुरु बोले… यह जो राख के समान दशाएँ मनस गुफा में हैं, उनका भी शुद्धिकरण करना होगा I यह राख के समान जो बिन्दु हैं, वह पूर्व में करे गए शुद्धिकरण की सफलता को दर्शाते हुए भी, अभी भी मन में पड़े हुए हैं, इसलिए इनको भी मन से पृथक करना होगा I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, यह कैसे होगा? I

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सनातन गुरु बोले… पूर्व की नाश प्रक्रिया से जो संस्कार और उनके मार्ग नष्ट हुए थे, वही यह राख के रूप में दिखाई दे रहे हैं I जबकि यह राख के बिंदु, जो पूर्व के नष्ट हुए संस्कार और उनके मार्ग ही हैं, वह आगामी समय में फलित नहीं हो सकते, पर तब भी इनका कुछ अंशमात्र में ही सही, लेकिन उसका नाता अभी भी उन पूर्व के कर्मों, उनके कर्मफलों और उनके संस्कारों से है I और क्यूंकि यह अभी भी मन में ही निवास कर रहे हैं, इसलिए ऐसी दशा में न उन पूर्व के कर्मों से, न उनके फलों से और न ही उनके संस्कार या संस्कार मार्गों से तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) पूर्णरूपेण पृथक हुए हो I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि पूर्व में नष्ट हुए संस्कार और उनके मार्ग अभी भी राख स्वरूप में मन की गुफा में हैं, इसलिए तुम्हारा नाता उन पूर्व कर्मों, उनके फल रूपी संस्कारों से पूर्ण रूपेण टूटा भी नहीं है I इसलिए जबकि यह राख तुम्हे उन पूर्व के कर्मों और उनके कर्म फ़ल रूपी संस्कारों में पुनः लेकर नहीं जा सकती है, लेकिन तब भी क्यूंकि यह राख के समान बिंदु अभी भी मन में बसे हुए हैं, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा नाता इनसे पूर्णरूपेण टूट गया है I ऐसा होने के कारण, यह भी नहीं कहा जा सकता कि अब तुमपर इनका प्रभाव शून्य हुआ है, या तुम इन सबसे मुक्त हुए हो I और क्यूंकि यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र की सिद्धि को नहीं दर्शाता, इसलिए मन के इन राख बिन्दुओं से पृथक भी होना होगा I और ऐसा तब भी करना होगा, जब यह राख रूपी बिन्दु, और उनसे संबद्ध जो कर्म और फलादि हैं, उनमें तुम अब जा भी नहीं सकते, क्यूंकि वह कर्म और फल, और उन कर्मफलों के संस्कार रूप और उनके मार्ग तो अब नष्ट होकर, राख ही हुए हैं I सदाशिव का अघोर मुख इस राख का ही द्योतक है, और क्यूँकि सदाशिव का अघोर मुख उस तमोगुण को दर्शाता है, जिसके भीतर यह समस्त जीव जगत बसा हुआ है, इसलिए मनस गुफा के भीतर बसी हुई यह राख यह भी दर्शाती है कि तुम अभी तक इस जीव जगत से अतीत नहीं हुए हो I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… मनस गुफा की ऐसी दशा का यह भी अर्थ हुआ कि जबकि वह पूर्व की इच्छाएं, भाव, तृष्णाएं, कर्म, कर्मफल और उनके संस्कार और मार्ग, सभी नष्ट हो चुके हैं, और तुम्हारा नाता इन सब से टूट भी चुका है, लेकिन तब भी क्यूँकि मन सर्वस्व से जुड़ने का माध्यम होता है, तो तुम्हारा नाता अभी तक सर्वस्व से टूटा नहीं है, जिसके अंतर्गत यह राख के समान बिंदु भी आते हैं I जब यह राख के समान बिंदु मन में फंसे हुए होते हैं, तो यह मन के तंत्र में किसी न किसी समय, कुछ बाधाएँ भी डाल सकते हैं, और ऐसा तब तो होगा ही जब योगी उस अंतिम पथहीन भागहीन मुक्तिपथ पर गमन करने लगेगा I ऐसा होने के कारण जब वह योगी अपने उस मुक्तिमार्ग पर जाएगा, तब उसको बहुत प्रकार की पीडाओं भी आ सकती हैं I इसलिए यह राख बिंदु, जो मनस गुफा में दिखाई दे रहे हैं, और जो पूर्व की संस्कार नाश प्रक्रिया का प्रमाण भी हैं, वही उस मुक्तिपथ में गमन करते योगी के लिए बाधा बन जाएंगे I और ऐसी दशा में यदि वह योगी मुक्ति को प्राप्त भी हो गया, तब भी उसका मार्ग बहुत अधिक व्याधियों से होकर ही जाएगा I और उन व्याधियों में उस योगी का देहावसान भी हो सकता है I इसलिए वास्तविकता तो यही है, कि अभी तक की प्रक्रिया को पूर्ण करने के पश्चात भी तुम, मुक्तिमार्ग पर गमन करने के पात्र नहीं कहलाए जा सकते I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, यह राख बिंदु जो पूर्व की संस्कार और उनके मार्गों की नाश प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप हैं, वह कैसी बाधा डालते हैं और उस बाधा को यह कैसे डालते हैं? I

इसपर सनातन गुरु ने उत्तर दिया… मन एक पतंग के समान है, जो उड़ती तो आकाश में है, लेकिन तब भी उसका नाता उस डोर से जुड़ा होता है, जो उसको पृथ्वी से जोड़कर रखती है I और उस समय जब मन अपने गंतव्य की उड़ान भर रहा होता है, तब यह राख के बिंदु उस मन को ऐसे नीचे के लोक से जोड़कर भी रखते हैं, और अन्ततः ऐसी जुडी होने की दशा में भी ले आते हैं, जिससे साधक उस अनंताकाश रूपी गंतव्य का साक्षात्कार करके भी, उसमें पूर्णरूपेण लय नहीं हो पाता I इसके कारण वह साधक उन निर्गुण निराकार का साक्षात्कारी होता हुआ भी, उनमें लय नहीं हो पाता I ऐसा होने के कारण, वह साधक उस बूँद के समान होता है, जो पड़ी तो सागर में ही  हुई भी, और जिसनें सागर का साक्षात्कार भी कर लिया है, परंतु तब भी उसकी अपनी चेतना के दृष्टिकोण से वह बूँद ही रह गई है, अर्थात सागर नहीं हो पाई है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जबतक इन राख रूपी बिन्दुओं को मन से बाहर नहीं निकाला जाएगा, अर्थात इनको पूर्णरूपेण त्यागा नहीं जाएगा, तबतक साधक का मन उस पूर्णस्थिर वृत्तिहीन दशा को भी नहीं पाएगा, जो आत्मा और ब्रह्म कहलाता है I और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक उस साधक का ब्रह्मपथ भी पूर्णरूपेण प्रशस्त और प्रतिष्ठित भी नहीं हो पाएगा I और ऐसी दशा में साधक यदि गंतव्य का साक्षात्कार भी कर गया, तब भी वह साधक, उस गंतव्य के समान होता हुआ भी, उस गंतव्य में लय नहीं हो पाएगा I ऐसे साधक उस बूँद के समान होगा, जो सागर में तो पड़ी हुई है, किन्तु तब भी वह सागर में लय नहीं हो पाई है, इसलिए वह सागर नहीं कहला पाई है I जब बूँद सागर में पड़ी हुई भी सागर में लय नहीं हो पाती है, तब उस बूँद की दशा, बूँद ही रह जाती है… सागर नहीं हो पाती है I और ऐसी ही उस साधक की दशा भी हो जाएगी, जो उस अनंताकाश रूपी ब्रह्म में बसा हुआ भी, उस ब्रह्म का साक्षात्कार करके भी, अपने आत्मस्वरूप में ही ब्रह्म को प्राप्त नहीं हो पाया है I और ऐसा होने का एक कारण, मनस गुफा में निवास करते यह राख के समान बिंदु भी हैं I

 

नन्हें विद्यार्थी के प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, मन तो शरीर रूपी वाहन का चालक होता है… है न? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… जबतक प्राण मन को गति प्रदान करते हैं, तबतक ही मन चालक हो पाता है I और जहाँ उस गति की दिशा बुद्धि द्वारा निर्धारित होती है, और जहां वह दिशा भी इसलिए आती है, क्यूंकि चित्त के संस्कारों को फलित होना होता है और जहां वह गति और दिशा, अहम् के अंतर्गत होकर ही अपने कार्य करती है I किन्तु न तो मन की, न बुद्धि या चित्त और न अहम् की, और न ही प्राणों की गति उस निर्गुण निराकार, कैवल्य मोक्ष को दर्शाते हुए ब्रह्म में होती है, क्यूंकि वह निर्गुण ब्रह्म तो इन सबसे अतीत ही हैं I इसलिए भी, जबतक मन का नाता सर्वस्व से नहीं टूटता, तबतक मन ब्रह्मलीन भी नहीं हो सकता और जबतक मन ही ब्रह्मलीन नहीं होता, तबतक साधक उन निर्गुण निराकार, कैवल्य मोक्ष को दर्शाते हुए ब्रह्म में लय भी नहीं होता I और जबतक साधक ऐसा लय नहीं होता, तबतक चाहे वह कुछ भी साक्षात्कार करके, कुछ भी स्वरूप प्राप्त कर ले, लेकिन वह मुक्तात्मा नहीं कहलाया जा सकता I और मन का सर्वस्व से नाता पूर्णरूपेण टूटने के लिए तो उस मन को इन राख रूपी बिन्दुओं से भी अतीत होना होगा I जबतक मन ही जीव जगत से पूर्णरूपेण अतीत नहीं है, तबतक कौन सी मुक्ति की बात हो सकती है? I

नन्हें विद्यार्थी समझ गया, इसलिए उसने अपने सर आगे पीछे हिलाकर, गुरु को इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

किन्तु उसको अभी भी शंका थी, इसलिए उसने गुरु से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, क्या मन को गति प्रदान करने हेतु ही यह प्राण, मनस गुफा में बसे हुए हैं? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… प्राण ही मन को उस दिशा में गति करवाते जिसके मूल में बुद्धि होती है, और ऐसा होने पर ही मन शरीर का चालक बनता है I यदि मन में बसी हुई इन राख रूपी बिन्दुओं की बाधाएं होती हैं, तो मन में प्राणों की जो ऊर्जाऐं आती हैं, उनका क्षीणन हो जाता है, अर्थात उनका कुछ भाग इन्ही राख रूपी बिन्दुओं में फंस जाता है I जब ऐसा होता है, तो न मन की गति गंतव्य तक जा पाती है, और न ही वह गति पूर्णरूपेण ही प्रकट हो पाती है I ऐसी दशा में न तो मन उस निष्कलंक ब्रह्म में लय (अर्थात ब्रह्मलीन) हो पाता है, और न ही मन की गति वृत्तिहीन हो पाती है, और न ही मन पूर्णरूपेण ब्रह्मपाथगामी ही हो पाता है I ऐसा होने पर मुक्तिमार्ग भी पूर्णरूपेण प्रशस्त नहीं हो पाता है, और जहां अपूर्ण रूप में प्रशस्त मुक्तिमार्ग भी विकृत हुए बिना नहीं रह पाता है I जबतक मन सभी विकृतियों से अतीत नहीं होता, तबतक मन न तो ब्रह्माण्ड योग का, और न ही ब्रह्माण्ड योग के पश्चात जो ब्रह्माण्ड त्याग की दशा है और जो मुक्तिपथ ही है, उनका कारण या कारक ही हो पाता है I और ऐसी दशा में मन जो योगकारक और योगकारण ही है, और इसके अतिरिक्त वही मन जो मुक्तिकारक और मुक्तिकारण भी है, वह अपने इन स्वभावों को भी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो पाता है I और जब ऐसा होता है, तब उत्कर्ष और मुक्तिमार्ग में ही बाधाएं आ जाती हैं I यही बाधाएँ इन राख के समान बिन्दुओं से भी आती है, जो तुम्हारी (अर्थात नन्हे विधार्थी की) मनस गुफा में अभी हैं I जबतक मन के भीतर के समस्त अवरोध ही नष्ट नहीं होंगे, तबतक साधक न तो मुक्तिपथ पर सरलता से गमन कर पाएगा और न ही उस मुक्तिपथ के गंतव्य, अर्थात अपनी मुक्ति को ही प्राप्त हो पाएगा I जबतक मन ही बँधानातीत नहीं होता, तब तक मन की मोक्षमार्ग पर गति भी  बाधातीत नहीं होती, और जब तक मुक्तिमार्ग की समस्त बाधाओं से मन अतीत नहीं होता, तबतक न तो साधक का मन योग का कारण और कारक बन पाता है, और न ही योग से आगे जो अयोग है, और जो कैवल्य मोक्ष स्वरूप ब्रह्म ही है, उसपर जाने का पात्र ही बन पाता है I

 

नन्हे शिष्य ने समझ लिया, कित्नु उसे एक और शंका हो गई, इसलिए उसने अपने गुरुदेव से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो क्या इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जिनके बारे में विभिन ग्रंथों में बताया गया है, कि वह पुनः लौटेंगे, उनकी मनस गुफा में भी इन राख के बिन्दुओं के समान कोई बाधा है? I

सनातन गुरुदेव बोले.. हाँ, यही उनके लौटने की भविष्यवाणियां के मूलकारण भी हैं, और इसलिए किसी भविष्य काल में ऐसे वह लौटेंगे भी I वास्तविकता तो यही है, कि जिनको आज की मानव जाति बहुत उच्च कोटि के जीव आदि बोलती है और ऐसा बोलने पर भी उनके किसी भविष्य काल में लौटने की बातें करती है, उन सबमें ऐसी ही कोई बाधा है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए उस आगामी किसी भी कालखण्ड में न लौटने के लिए, तुम्हारी मनस गुफा में बसे हुए इन राख रूपी बिन्दुओं को तुम्हें पूर्णरूपेण त्यागना होगा I इस त्याग के बिना उस कैवल्य मोक्ष स्वरूप निर्गुण निराकार सनातन ब्रह्म में स्वतः और पूर्णतः स्थापित होना भी असंभव ही हो जाएगा I इसलिए इस त्याग के बिना वह कर्ममुक्ति, जो सर्वस्व से मुक्ति को दर्शाती है, और जो कैवल्य और मोक्ष भी कहलाई गई है, उसमें स्वतः और पूर्णतः स्थापित होना भी असम्भव ही पाया जाएगा I यह बिन्दु भी उसी तत्त्व में बसे हुए हैं, जिनको ऐसा भी कहा जा सकता है…

जो त्यागी नहीं, वह मुक्तिमार्गी भी नहीं I

त्याग से ही मुक्तिमार्ग पूर्णरूपेण प्रशस्त हो पाया है I

योग और त्याग, दोनों का कारण और कारक भी मन ही होता है I

त्याग भी तब ही पूर्ण कहलाता है, जब वह सर्वस्व का त्याग हो जाता है I

पूर्णत्याग, अर्थात सर्वस्व त्याग ही सर्वातीत ब्रह्म को जाता हुआ मुक्तिमार्ग है I

इसलिए, जो सर्वस्व त्यागी नहीं, वह मुक्तिमार्ग पर गमन करने का पात्र भी नहीं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान पूर्णरूपेण केन्द्रित करो…

धारण करना ही योग है I

धारण सर्वस्व का होता है I

सर्वस्व त्याग ही अयोग है I

योगी ही त्यागी हो सकता है I

योग से आगे अयोग ही होता है I

योगातीत ही अयोग कहा जाता है I

पूर्णत्याग ही योगशिखर कहलाता है I

अयोग को ही योगशिखर कहा गया है I

सर्वस्व अयोग ही कैवल्य मोक्ष है, ब्रह्म है I

ब्रह्माण्ड योग से आगे ब्रह्माण्ड त्याग ही है I

ब्रह्माण्ड योग ही उत्कर्ष पथ का गंतव्य होता है I

और ब्रह्माण्ड अयोग ही मुक्तिमार्ग कहलाया जाता है I

ब्रह्माण्ड योग से आगे की दशा, ब्रह्माण्ड अयोग कहलाती है I

जिसका योग ही सिद्ध नहीं हुआ, वह साधक त्याग किसका करेगा I

सर्वस्व त्याग से पूर्व, सर्वस्व योग ही होता है, जो ब्रह्माण्ड योग कहलाता है I

मन से ही योगअयोग होता है, इसलिए मनस गुफा शुद्धिकरण अनिवार्य ही है I

ऐसा सुनकर, नन्हें विद्यार्थी ने गुरु को प्रणाम करते हुए कहा… गुरु चन्द्रमा, इस शुद्धिकरण का मार्ग बताएँ I

 

सनातन गुरुदेव द्वारा बताया गया योग और अयोग, योग और अयोग का नाता, योग मार्ग और अयोग मार्ग का नाता, योग मार्ग और सिद्धि मार्ग का नाता, अयोग मार्ग और मुक्तिमार्ग का नाता, योग मार्ग और सिद्धि मार्ग, अयोग मार्ग और मुक्तिमार्ग, योग मार्ग और सिद्धि, अयोग मार्ग और मुक्ति, योग और सिद्धि, अयोग और मुक्ति, योग और प्रकृति, योग और ब्रह्म शक्ति, योग और सिद्धिमार्ग,  अयोग और ब्रह्म, अयोग और कैवल्य मोक्ष, अयोग और मुक्ति का नाता, … योग सिद्धिकारक है, अयोग मुक्तिकारक है, … ब्रह्म और पूर्ण शब्द का नाता, ब्रह्म और पूर्ण, पूर्ण और ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म कौन, पूर्ण ब्रह्म क्या, पूर्ण ब्रह्म किसे कहते हैं, पूर्ण ब्रह्म और कैवल्य, पूर्ण ब्रह्म और कैवल्य मोक्ष, पूर्ण ब्रह्म और मोक्ष, …

सनातन गुरुदेव बोले… इससे पूर्व की मनस गुफा शुद्धिकरण मार्ग पर जाओ, इन बिंदुओं पर ध्यान दो…

जीव जगत अहम्मय ही है I

जीव जगत, अहम् में ही बसा है I

उस अहम् का गंतव्य अहमाकाश ही है I

अहमाकाश उन रचैता ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

अहमाकाश की ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति ही अहम है I

वह रचैता ब्रह्म, अहमाकाश भी है और अहमतीत भी I

रचैता ब्रह्म, अहमातीत होता हुआ भी अहमाकाश ही हुआ है I

यही अहम् का व्यापक विशुद्ध स्वरूप है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

अहम् के दृष्टिकोण से, जो अहमाकाश और अहमातीत भी है, वही पूर्ण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जीव जगत मनोमय ही है I

जीव जगत, मन में ही बसा है I

उस मन का गंतव्य मनाकाश ही है I

मनाकाश, रचैता ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

मनाकाश की ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति ही मन है I

वह रचैता ब्रह्म, मनाकाश भी है, और मनातीत भी है I

रचैता ब्रह्म, मनातीत होता हुआ भी मनाकाश ही हुआ है I

उस मनाकाश के अंतर्गत ही जीव जगत का मन बसा हुआ है I

यही मन का व्यापक विशुद्ध स्वरूप है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

मन के दृष्टिकोण से, जो मनाकाश और मनातीत भी है, वही पूर्ण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जीव जगत बुद्धिमय ही है I

जीव जगत, बुद्धि में ही बसा है I

उस बुद्धि का गंतव्य ज्ञानाकाश ही है I

ज्ञानाकाश, रचैता ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

ज्ञानाकाश की ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति बुद्धि है I

वह रचैता ब्रह्म, ज्ञानाकाश भी है, और बुद्धितीत भी I

रचैता ब्रह्म, बुद्धितीत होता हुआ भी ज्ञानाकाश ही हुआ है I

उस ज्ञानकाश के अंतर्गत ही जीव जगत की बुद्धि बसी हुई है I

यही बुद्धि का विशुद्ध व्यापक स्वरूप है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

बुद्धि के दृष्टिकोण से, जो ज्ञानाकाश है, और बुद्धितीत भी है, वही पूर्ण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जीव जगत चित्तमय ही है I

जीव जगत, चित्त में ही बसा है I

उस चित्त का गंतव्य चिदाकाश ही है I

चिदाकाश, रचैता ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

चिदाकाश की ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति चित्त काया है I

वही रचैता ब्रह्म, चिदाकाश भी है, और चित्तातीत भी है I

रचैता ब्रह्म, चित्तातीत होता हुआ भी चिदाकाश ही हुआ है I

उस चिदाकाश के अंतर्गत इस जीव जगत का चित्त बसा हुआ है I

यही चित्त का विशुद्ध व्यापक स्वरूप है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

चित्त के दृष्टिकोण से, जो चिदाकाश है और चित्तातीत भी है, वही पूर्ण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जीव जगत प्राणमय ही है I

जीव जगत, प्राण में ही बसा है I

उस प्राण का गंतव्य, प्राणाकाश ही है I

प्राणाकाश, रचैता ब्रह्म की अभिव्यक्ति है I

प्राणाकाश की ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति प्राण है I

वह रचैता ब्रह्म, प्राणाकाश भी है, और प्राणातीत भी है I

रचैता ब्रह्म प्राणातीत होता हुआ भी, प्राणाकाश ही हुआ है I

उस प्राणाकाश के अंतर्गत ही जीव जगत का प्राण बसा हुआ है I

यही प्राण का विशुद्ध व्यापक स्वरूप है, जो ब्रह्म कहलाया गया है I

प्राण के दृष्टिकोण से, जो प्राणाकाश है, और प्राणातीत भी है, वही पूर्ण ब्रह्म है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जो मनाकाश और मनातीत, दोनों है, वही मनात्मा हैजो मन ब्रह्म है I

जो ज्ञानाकाश और बुद्धितीत, दोनों है, वही ज्ञानात्मा हैजो ज्ञान ब्रह्म है I

जो चिदाकाश और चित्तातीत, दोनों ही है, वही चिदात्मा हैजो चेतन ब्रह्म है I

जो अहमाकाश और अहमातीत, दोनों ही है, वही अहमात्मा हैजो अहम ब्रह्म है I

और जो प्राणाकाश और प्राणातीत दोनों हुआ है, वही प्राणात्मा हैजो प्राण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जिसके प्राण विसर्गी होकर, प्राणाकाश हुए हैं, वह भी प्राणात्मा है, प्राण ब्रह्म है I

जिसका मन स्थिर होकर, मनाकाश ही हुआ है, वह भी मानात्मा है, मन ब्रह्म है I

जिसका अहम् विशुद्ध होकर, अहमाकाश हुआ है, वह भी अहमात्मा, अहम् ब्रह्म है I

जिसकी बुद्धि निष्कलंक होकर, ज्ञानाकाश हुई है, वह भी ज्ञानात्मा है, ज्ञान ब्रह्म है I

जिसका चित्त संस्काररहित होकर चिदाकाश हुआ है, वह भी चिदात्मा, चेतन ब्रह्म है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

पूर्ण स्थिर मन ही मनातीत ब्रह्म है I

निष्कलंक बुद्धि भी बुद्धितीत ब्रह्म ही है I

संस्कार रहित चित्त भी चित्तातीत ब्रह्म ही होता है I

विशुद्ध अहम् भी अहमातीत ब्रह्म ही कहलाया जाता है I

विसर्ग को प्राप्त हुए प्राण भी प्रणातीत ब्रह्म ही कहलाए जाते हैं I

जो योगी इनको प्राप्त है, वह पूर्ण ब्रह्म का सगुण साकार स्वरूप ही है I

इन सबके मार्ग के अंतिम बाधक, मन में पड़े हुए यह राख बिंदु ही होते हैं

इन राख बिन्दुओं की बाधा को हटाने का मुख्य साधन भी विशुद्ध अहम् ही है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

मन के दृष्टिकोण से मनाकाश ही योग सिद्धि है, जिसके आगे मनातीत ब्रह्म है I

बुद्धि दृष्टिकोण से, ज्ञानाकाश ही योग सिद्धि है, जिसके आगे बुद्धितीत ब्रह्म है I

चित्त के दृष्टिकोण से, चिदाकाश ही योग सिद्धि है, जिसके आगे चित्तातीत ब्रह्म है I

अहम् दृष्टिकोण से, अहमाकाश ही योग सिद्धि है, जिसके आगे अहमातीत ब्रह्म है I

प्राण के दृष्टिकोण से प्राणाकाश ही योग सिद्धि है, जिसके आगे प्रणातीत ब्रह्म है I

मन की इन राख बिंदुओं का मन से ही पूर्ण त्याग, इन सब की ओर लेकर  जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

मन के दृष्टिकोण से मनाकाश योग सिद्धि, और मनातीत ब्रह्म अयोग सिद्धि है I

बुद्धि दृष्टिकोण से ज्ञानाकाश योग सिद्धि, और बुद्धितीत ब्रह्म अयोग सिद्धि है I

चित्त दृष्टिकोण से, चिदाकाश ही योग सिद्धि, और चित्तातीत ब्रह्म अयोग सिद्धि है I

अहम् दृष्टिकोण से, अहमाकाश योग सिद्धि, और अहमातीत ब्रह्म अयोग सिद्धि है I

प्राण के दृष्टिकोण से प्राणाकाश योग सिद्धि, और प्रणातीत ब्रह्म अयोग सिद्धि है I

मन की इन राख बिंदुओं का मन से ही पूर्ण त्याग, इन सब की ओर लेकर  जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

मन ही योगी है मन ही अयोगी है I

ब्रह्म रचना में बसा हुआ मन, योगी है I

ब्रह्म रचना से अतीत हुआ मन, अयोगी है I

योगशिखर ही ब्रह्माण्ड योग कहलाया गया है I

योगातीत ही पूर्ण संन्यासी, कैवल्य मोक्ष  ब्रह्म है I

योगमूल, योग, योगतंत्र और योगशिखर में मन ही है I

इसके अतिरिक्त, योगातीत दशा में भी वही मन ही है I

मन ही रचना का मूल, रचना और रचना का गंतव्य भी है I

मन ही रचैता है, रचित है और रचनातीत भी मन ही होता है I

मन ही वह योगी है, जो अपनी योगातीत दशा में अयोगी होता है I

योगातीत जो अयोग ही है, वही पूर्ण संन्यासी ब्रह्म हैवही तो मन है I

अयोग नामक योगातीत को प्राप्त हुआ मन ही पूर्ण संन्यासी कहलाया है I

सर्वस्वयोग नामक योगशिखर को प्राप्त हुआ मन ही तो ब्रह्माण्ड कहलाया है I

सर्वस्व योग से अतीत, अर्थात योगातीत को प्राप्त हुआ भी तो वही मन होता है I

जो सर्वस्व योगी होता हुआ भी, सर्वस्व अयोग में भी समान रूप में है, वही मन है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन सारांश बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

जो मन पूर्ण संन्यासी नहीं हुआ, वही सर्वव्यापक, सर्वाधार, सर्वस्व कहलाया गया है I

जो मन पूर्ण संन्यासी है, वही ही तो स्व:प्रकाश, सर्वसाक्षी, सर्वातीत कहलाया गया है I

जो मन इन दोनों का पूर्ण और समान रूप है, वह पूर्णब्रह्म, कैवल्यमोक्ष, सर्वेश्वर है I

ऐसा सर्वेश्वर मन ही वह योगी है, जो अयोगी हैऔर वही अयोगी है, जो योगी है I

मन के राख रूपी बिंदुओं का पूर्णत्याग इस योग-अयोग की अद्वैतदशा का मार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन अंतिम बिंदुओं पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करो…

अभिव्यक्ता ब्रह्म ही अपनी प्रकृति रूपी अभिव्यक्ति हुआ है I

अभिव्यक्ति ही योगी है, और अभिव्यक्ता ही अयोगी कहलाया है I

मन ही उन अभिव्यक्ता अयोगी और अभिव्यक्ति प्रकृति की अद्वैतदशा है I

मन की अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ता की अद्वैतदशा ही पूर्ण ब्रह्म कहलाती है I

नन्हे विद्यार्थी को समझ में आ गया, इसलिए उसने अपने गुरुदेव को, सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

हृदयाकाश गर्भ में मनस गुफा का शुद्धिकरण, मनस गुफा का शुद्धिकरण, मन का शुद्धिकरण, …

सनातन गुरुदेव बोले… इन राख रूपी बिन्दुओं को झाड़ू सा मारते हुए हृदयाकाश गर्भ में लाओ और ऐसा लाने के पश्चात, उनके समस्त समूह को ही योगाग्नि गुफा में अर्पण करो I और यह कार्य इच्छा शक्ति के आलम्बन से ही होगा, परन्तु जब तुम ऐसा कर रहे होगे, तो इन राख रूपी संस्कारों की ओर देखना नहीं, इनको अपनी किसी भी इन्द्रिय से अनुभव नहीं करना, और योगाग्नि में अर्पित करने के पश्चात, इनके बारे में सोचना भी नहीं I और इस कार्य में अपने पूर्व के सारे शुद्धिकरण से जो एकमात्र संस्कार उत्पन्न हुआ था, उसका ही प्रयोग अपनी भाव शक्ति से करना I

सनातन गुरुदेव आगे गरजकर बोले… और जैसे ही यह कार्य प्रारम्भ हो, इसको मन से विमुख करके, शांत चित्त होकर, एक व्यापक साक्षी भाव में बसकर रहना I यदि कार्य प्रारम्भ से पूर्व ही इच्छा शक्ति में वह पूरा कार्य आ जाए, तो उस कार्य को करने के पश्चात, उससे विमुख हुआ जा सकता है I इसलिए कार्य प्रारम्भ से पूर्व ही, अपनी इच्छा शक्ति में उस सम्पूर्ण कार्य सहित, उसके गंतव्य तक उसको अपने भावों में ही धारण करना, और कार्य प्रारम्भ करते ही उससे विमुख हो जाना I और जबतक यह कार्य सम्पन्न न हो जाए, तबतक ऐसी आंतरिक विमुख्ता में, व्यापक साक्षी भाव में बसकर ही रहना I ऐसा करने से इस कार्य के आगे का कोई प्रभाव या फल नहीं होगा I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… कार्य करते समय, ऐसा कैसे हो सकता है कि उसकी ओर ध्यान न जाए, उसकी ओर न देखा जाए, उसको अनुभव न किया जाए और उसके बारे में सोचा भी न जाए? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… यह है तो कठिन, परंतु असंभव नहीं है I ऐसे कर्मों में उस कार्य को करने से पूर्व ही, उस कार्य के गंतव्य तक के भाग को इच्छा शक्ति में लाकर, जब यह कार्य प्रारंभ हो जाता है, तो अपने को विमुख कर देना होता है I इसी दशा से ही तो ब्रह्म अपनी रचना का एकमात्र रचैता, और अपनी समस्त रचना और उस रचना का समस्त तंत्र होता हुआ भी, उस रचना और रचना के तंत्र से अतीत ही रहा है I क्यूँकि मुक्तिमार्ग, रचना मार्ग से विपरीत होता हुआ भी, उन्ही ब्रह्म की इच्छा शक्ति में बसकर ही क्रियांवित और पूर्ण भी होता है, इसलिए तुम्हें भी ऐसा ही करने को कहा गया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसे ब्रह्म सर्व रचैता होता हुआ भी, सर्वातीत ही रहा है, वैसे ही इस मार्ग का योगी, अपना मुक्तिमार्ग “स्वयं ही स्वयं में” बसकर और “स्वयं ही स्वयं से” प्रशस्त करता हुआ भी, और उस मुक्तिमार्ग पर जाता हुआ भी, न उस मार्ग से, और न ही कुछ या किसी और से जुड़ा रहता है I और ऐसे मुक्तमार्ग की मुक्ति भी उन्ही कर्मातीत ब्रह्म की ओर लेकर जाती है, जो जीव जगत का रचैता होता हुआ भी, जीवातीत और जगतातीत ही रहा है I इसी भावनात्मक मार्ग से ब्रह्म अपनी रचना का एकमात्र रचैता होने के साथ-साथ, रचना और रचना का तंत्र होता हुआ भी, रचनातीत ही रह गया था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… एक बार इच्छा शक्ति में वह कार्य पूर्ण रूप में आ गया, तब विमुख होने पर भी वह कार्य उस दशा तक संपन्न हो जाएगा, जिस दशा तक उस पूर्व की इच्छा शक्ति का नाता रहा होगा I और विमुख होने का एक मार्ग वह भी है, जिसमें साधक उस विशवास में रहे, कि यह राख रूपी आदि समस्त बिन्दु हैं ही नहीं, और तुम केवल अपने इच्छा रूपी हस्त से हृदयाकाश में झाड़ू लगा रहे, न कि कोई कर्म ही कर रहे हो I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जो कर्म इच्छा शक्ति से किया गया है, न कि किसी और के आलम्बन से, वह इच्छा में ही फलित होता है I परन्तु जब कर्म, इच्छा शक्ति से करे जाने पर भी, जब वह कर्म प्रारम्भ हुआ भी नहीं है, तब से ही उस कर्म से विमुख होकर, उसका केवल साक्षी मात्र ही रहा जाएगा, तब वह न इच्छा में, न भाव में, न ही किसी और दशा से तुम्हारे साथ जुड़ पाएगा I और ऐसी दशा में वह कर्म फलित होता हुआ भी, फल प्रदान करता हुआ भी, तुम्हारे उत्कर्ष पथ के अनुसार न ही फलित कहलाएगा, और न ही तुम्हे कोई फल ही प्रदान कर पाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जो कर्म किसी साधक द्वारा करे जाने पर भी, किसी भी रूप में साधक के लिए फलित न हो, अर्थात उसका किसी भी दशा या प्रकार का साधक के लिए फल ही न बने, तो ऐसा एक ही बार किया गया कर्म, साधक को पूर्ण संस्कार रहित कर देता है I और संस्कार रहित दशा में तो, न मन में, न बुद्धि में, न चित्त अहम् या प्राणों में ही कोई संस्कार रह पाएगा I क्यूंकि ब्रह्म की इच्छा शक्ति से जो प्राथमिक ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव हुआ था,वह सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड ही था, इसलिए जब साधक संस्कार रहित होता है, तो उसकी दशा उस प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से भी अतीत ही होती है, जो ब्रह्म रचना में प्राथमिक ब्रह्माण्ड था I जो साधक प्राथमिक ब्रह्माण्ड को ही पार कर गया, वह ब्रह्माण्ड की अन्य किसी दशा में भी नहीं रह पाता है I उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड से आगे तो वह कर्मातीत ब्रह्म ही हैं, इसलिए जो साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सिद्ध हुआ होगा, वह वही कर्मातीत ब्रह्म है, जो इस जीव जगत का रचैता होता हुआ भी, और जीव जगत और उस जीव जगत का तंत्र होता हुआ भी, रचनातीत ही रहा है I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, और उस इच्छा शक्ति के कारण, जो संकल्प शक्ति, भाव शक्ति, कल्पना और कामना शक्ति आदि का प्रयोग होगा, उसका क्या होगा? I

सनातन गुरु ने उत्तर दिया… यह सब तबतक ही प्रकट रहेंगी, जबतक वह शुद्धिकरण कार्य प्रारम्भ नहीं होगा I और जब वह कार्य प्रारंभ हो जाएगा, तब जिस साधक की यह होती हैं, उसके ही सर्वविमुख होने के कारण, यह सब शून्य और निरर्थक ही हो जाएंगी…ऐसा ही पूर्व की सभी शुद्धिकरण प्रक्रियाओं में भी हुआ है I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… इच्छा शक्ति वाला भाग तो समझ में आ गया, क्यूंकि इसको मैंने इसके प्रभाव पूर्व की सभी शुद्धिकरण प्रक्रियाओं में देखा है, लेकिन संकल्प शक्ति, कामना शक्ति आदि के बिना ऐसा कार्य कैसे हो सकता है? और यदि हो भी जाएगा, तो यह शक्तियां कार्य से अनासक्त कैसे हो सकती हैं?… कार्य के समय पर ऐसा अनासक्त तो यह दोनों शक्तियां हो ही नहीं पाएंगी I ऐसा इसलिए है क्यूंकि समाधि के अतिरिक्त अन्य सभी दशाओं में, इन दोनों का प्रभाव तो रहता ही है I

सनातन गुरु ने उत्तर दिया… जब साधक समता के भाव में रहकर कार्य करता है, तो उस समता से वह उस सर्वसम तत्त्व में ही चला जाता है, जिसमें कोई द्वैतवाद नहीं होता I जब साधक कार्य प्रारम्भ से पूर्व में किसी शक्ति का प्रयोग करके, कार्य प्रारम्भ करते ही उस शक्ति से और उसके प्रभाव से विमुख हो जाता है, तब साधक अपनी आंतरिक दशा में सीधा-सीधा सर्वसमता में ही चला जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… किन्हीं भी दो दशाओं के योगमध्य में समता स्थापित होती ही है, और उस समता के मध्य में, सर्वसमता भी पाई जाती है I और यही सर्वसमता उन दशाओं के योगमध्य में भी पाई जाती है, जो एक दुसरे से विपरीत होती हैं I इसीलिए तो तुम्हे भी ऐसा ही कहा गया था, कि इस शुद्धिकरण प्रक्रिया में तुम्हे पहले इच्छा में ही कार्य पूर्ण करना है और ऐसा करने के पश्चात, उसी कार्य और उसके फल से ही अनासक्त रहना है I और यह इसलिए कहा गया है, क्यूंकि यह दोनों दिशाएं एक दूसरे के विपरीत ही हैं I इसलिए इनके मध्य में जब तुम बैठ जाओगे, तब वह सर्वसमता तुम्हारे स्थान पर प्रकट हुए बिना भी नहीं रह पाएगी I और सर्वसमता के प्रकट होने के कारण, तुम कर्म और कर्मफल से भी सर्वसम ही होगे, और उनके प्रभाव में तब भी नहीं आओगे, जब तुम ही इस कर्म के कर्ता ही थे I इसी सिद्धांत से ही तो ब्रह्म, रचैता, रचना और रचना का तंत्र होता हुआ भी… रचनातीत, तंत्रातीत और सिद्धांतातीत ही रहा है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और सर्वसमता में एक विशेषता भी होती है, कि उसको कुछ भी छुएगा, वह भी सर्वसम ही हो जाएगा I इसलिए जब ऐसी दशा में साधक अपनी आंतरिक दशा में सर्वसम होकर, उस कार्य से पृथक होता है, जो उसकी ही पूर्व की इच्छा शक्ति से चालित हुआ था, तो साधक इन दोनों विपरीत दिशाओं के मध्य में ही बस जाता है I और इन दोनों के मध्य में जो सर्वसम तत्त्व होता है, उसको ही वह साधक प्राप्त होकर, सर्वसम सरीका ही हो जाता है I और उसी सर्वसम तत्त्व में बसकर वह साधक, अकस्मात् ही शून्य तत्त्व का अनुभव करता है, जिसमें वह साधक अकस्मात् ही बस भी जाता है I ऐसी दशा में जब वह कार्य चल रहा होता है, तो उसमें न पूर्व की इच्छा शक्ति, न कोई संकल्प शक्ति और न ही कोई और शक्ति ही होती है I इसी दशा को प्राप्त होने हेतु ही तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) वैसा ही कहा गया था, जिसपर तुमनें यह प्रश्न किया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अपनी आंतरिक दशा में, शून्य में अकस्मात् ही बस जाने के कारण, ऐसा भी हो सकता है, कि उस साधक की आंतरिक दशा, उस शून्य ब्रह्म को ही चली जाए, जो ब्रह्माण्डातीत है I यदि तुम्हारे साथ भी ऐसा हुआ, तो इसका लाभ ही उठाना, और इसी शून्य ब्रह्म में अपने आंतरिक रूप में बैठकर, एक झटके में ही, जो कुछ भी है, उसको योगाग्नि में अर्पण कर देना I ऐसा इसलिए बोला जा रहा है, क्यूँकि जो योगी शून्य ब्रह्म में बसा हुआ है, उसके न कर्म हैं, न फल और न ही संस्कार या कुछ और I और यदि ऐसा हो गया, तो यही शुद्धिकरण तुम्हारा वह मार्ग ही हो जाएगा जो तुम्हारी चेतना को सीधे-सीधे गंतव्य को ही लेकर जाएगा I और यदि ऐसा हुआ, तो यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र, इसी मनस गुफा के शुद्धिकरण प्रक्रिया में ही संपूर्ण हो जाएगा… और ऐसी दशा में, इससे आगे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होगी I

 

नन्हें विद्यार्थी ने पुछा… गुरु चन्द्रमा, इस दशा से इन सबको योगाग्नि में कैसे अर्पण कर सकते हैं? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… इस संपूर्ण ब्रह्मरचना में, किन्हीं दो दशाओं के योगमध्य में, समता होती है I उस समता के मध्य में सर्वसमता होती है I उस सर्वसमता से शून्य, और उस शून्य से शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है I इस शून्य ब्रह्म के शब्द में, शून्य प्रकृति का द्योतक है और ब्रह्म का शब्द निर्गुण ब्रह्म को दर्शाता है, इसलिए यह शून्य ब्रह्म का शब्द, ब्रह्म और प्रकृति की उस अद्वैत योगदशा को दर्शाता है, जिसमें शून्य ही अनंत ब्रह्म है और ब्रह्म ही शून्य होता है और जो पूर्ण ब्रह्म का ही द्योतक है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… शून्य ब्रह्म विकारहीन, अर्थात वृत्तिहीन दशा है, और इसी को योगतंत्र में आत्मस्थिति कहा गया है I अपने मूलार्थ से आत्मस्थिति नामक दशा निर्गुण आत्मस्वरूप को नहीं, बल्कि आत्मा की उस पूर्णता को दर्शाती है, जो पूर्ण ब्रह्म कहलाया गया है I इसी की नीचे की दशाएं जो ब्रह्मरचना के मुख्य या प्रधान और मूल बिन्दुओं से संबद्ध होती हैं, जैसे अव्यक्त प्रकृति, ब्रह्मलोक, तैंतीस कोटि देवता इत्यादि, उनको या उनके लोकों को प्राप्त होने की दशा, सगुण स्वरूप स्थिति कहलाई गई हैं I और इन्ही शून्य ब्रह्म से आगे जो निरंग अनंत है, उसको प्राप्त होने की दशा निर्गुण स्वरूप स्थिति है I  और इन सब स्थितियों का नाता भी, इन्ही शून्य ब्रह्म नामक मूलावस्था से है, जो आत्मस्थिति की भी मूलावस्था है I अनंत ब्रह्म के प्रकृति रूप में अभिव्यक्त होने से पूर्व, तो वह प्रकृति ही शून्य थी I और जब वह अनंत ब्रह्म, शून्य रूपी प्रकृति स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ था, तो उस अनंत और शून्य के मध्य में वही अनंत ब्रह्म, शून्य अनंत स्वरूप में आया था I यही शून्य ब्रह्म कहलाया था, जिसमें वही अनंत ब्रह्म, शून्य रूपी प्रकृति भी था और अनंत स्वरूप ब्रह्म भी I और यही शून्य ब्रह्म, ब्रह्म रचना का मूल आत्मस्वरूप भी हुआ था, जिसके कारण जीवों का मूल आत्मस्वरूप भी यही शून्य ब्रह्म ही था, जो सदाशिव, विश्वकर्मा, हरि और नारायण आदि शब्दों से दर्शाया गया था I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब साधक का नाता शून्य ब्रह्म से ही हो जाता है, तब उस साधक की आत्मस्थिति में, साधक ही वह शून्य होता है, जो अनंत होता है I और इसके साथ साथ, उसी आत्मस्थिति में, वही साधक वह अनंत होता है, जो शून्य ही हुआ है I इस शून्य ब्रह्म में, न कर्म हैं, न फल हैं, न संस्कार और न ही कुछ और ही है, क्यूंकि वह इन सबसे अतीत दशा है I इसलिए जब इस शून्य ब्रह्म में बसकर, साधक कुछ भी क्रियान्वित करता है, तब न तो कोई कर्मफ़ल होगा, न संस्कार होगा, और न ही कुछ और होगा I और ऐसा होने पर भी, जो इस कर्म की अंत दशा होगी, वह हृदयाकाश गर्भ की समस्त दशाओं का पूर्ण शुद्धिकरण ही होगी और जहाँ यह शुद्धिकरण भी मन रूपी माध्यम से ही होगा, और जहां वह मन भी उसी शून्य ब्रह्म में ही बसा हुआ होगा I यही असम्प्रज्ञात समाधि में भी होता है, क्यूंकि मन की ब्रह्मलीन दशा को ही असम्प्रज्ञात कहा जाता है I और जहां  असम्प्रज्ञात का मार्ग भी शून्य समाधि से ही जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… मन की प्राथमिक लय प्रक्रिया शून्य में ही होती है, और शून्य से ही प्रारम्भ होती है, और अंततः मन का लय शून्य ब्रह्म में ही होता है I मन के ब्रह्माण्डातीत स्वरूप को शून्य ब्रह्म कहते हैं, और उसी मन के गंतव्य स्वरूप को निर्गुण ब्रह्म, और उसी मन का लय मार्ग शून्य कहलाता है जिसका नाता ब्रह्मरंध्र के भीतर बसे हुए उन तीन छोटे छोटे चक्रों में से सबसे ऊपर के चक्र से होता है, और जो मनस चक्र ही कहलाता है I क्यूँकि मनस चक्र को पार करके ही शून्य साक्षात्कार होता है और क्यूँकि मनस चक्र भी सहस्र दल कमल (अर्थात सहस्रार चक्र) का ही अंग होता है, इसलिए सहस्रार चक्र को शून्य चक्र भी कहा जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… मन का मूल स्वरूप शून्य ही होता है, और ऐसा होने के कारण अपने मूल स्वरूप में, मन सर्वस्य से पृथक ही होता है I शून्यता ही मन की मूल दशा है I मन की अंतिम लय दशा वह शून्य ब्रह्म ही है, जिसमें शून्य ही अनंत स्वरूप ब्रह्म होता है, और अनंत ही शून्य स्वरूप प्रकृति I और उसी मन की गंतव्य दशा निर्गुण ब्रह्म कहलाती है, जिसका मार्ग भी शून्य ब्रह्म से ही होकर जाता है, और जो शून्य तत्त्व का ही गंतव्य स्वरूप है, और इसी को सर्वशून्य कहा जाता है, और इसका मूल नाता वामदेव ब्रह्म से ही होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब इस शून्य ब्रह्म में बसकर, कुछ करा जाता है, तो वह करा गया कर्म सा प्रतीत होता हुआ भी, कर्म नहीं कहलाता I और ऐसा होने के कारण, उसका संस्कार रूपी फल भी साधक के लिए प्रकट नहीं हो पाता है I इसलिए, संस्कार शून्य दशा का मार्ग भी वही शून्य ब्रह्म है, और इसी दशा को संस्कार रहित कहा जाता है I संस्कार रहित दशा का नाता, न कर्म से है और न ही फल से, इसलिए यही दशा कर्म शून्य और फल शून्य कहलाती है I जब इस दशा में बसकर कोई कर्म करा जाएगा, तो उससे कोई फल ही उत्पन्न नहीं होगा, और इसलिए ऐसी फलातीत दशा की प्राप्ति में कर्म होता हुआ भी, कर्म नहीं कहलाएगा I इसीलिए, यही दशा से उस निर्गुण निराकार का मार्ग प्रशात होता है, जो कर्मातीत, फलातीत और संस्कारतीत ही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह जो राख के समान बिंदु मनस गुफा में दिखाई दे रहे हैं, वह सनातन ब्रह्माण्ड, अर्थात अचलित ब्रह्माण्ड से संबद्ध हैं, जो शून्य सरीका, रात्रि के समान होता हुआ भी, वास्तव में शून्य नहीं है, क्यूंकि यह उस शून्य से ही उदय हुई ब्रह्माण्डोदय की प्रथम दशा है I और इसके अतिरिक्त यह जो राख के समान बिंदु मनस गुफा में दिखाई दे रहे हैं, वह उस जड़ ब्रह्माण्ड को भी दर्शाते हैं, जो मूल प्रकृति कहलाती है और जो वह ब्रह्मांडीय ऊर्जा है, जो संकुचित होकर बिन्दु रूप में स्वयं प्रकट हुई है I शून्य ब्रह्माण्ड में बसे हुए जड़ ब्रह्माण्ड से ही जीव जगत स्वरूप में बसे हुए चलित ब्रह्माण्ड, अर्थात संसार का उदय होता है I और ब्रह्माण्ड की यह दोनों दशाएँ, अर्थात सनातन ब्रह्माण्ड और जड़ ब्रह्माण्ड भी उसी शून्य के भीतर ही बसी हुई हैं, जो स्वयं ही शून्य ब्रह्म के भीतर बसा हुआ है I और उस शून्य ब्रह्म को जो भेदता भी है, और घेरता हुआ भी है, वही निर्गुण निराकार कहलाया है I इसलिए शून्य ब्रह्म की समाधि दशा से, जो असंप्रज्ञात समाधी कहलाती है, स्व:प्रकाश ब्रह्म का साक्षात्कार भी हो सकता है I जड़ ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार जड़ समाधि से ही होता है और जहां वह जड़ ब्रह्माण्ड भी इसी शून्य ब्रह्माण्ड, अर्थात अचलित ब्रह्माण्ड के भीतर ही, असंख्य बिंदु रूपों में बसा हुआ पाया जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले…  इसलिए यह राख के समान बिंदु जो मनस गुफा में अभी दिखाई दे रहे हैं, वह उस सनातन ब्रह्माण्ड और जड़ ब्रह्माण्ड सिद्धि के ही बिन्दुरूपी द्योतक हैं I यह बिंदु उस सनातन ब्रह्माण्ड की सिद्धि को ही दर्शा रहे हैं, जिसके भीतर यह चलित हो रहा जीव जगत बसा हुआ है, और जो संसार कहलाता है I यह राख के समान बिंदु जो मनस गुफा में अभी दिखाई दे रहे हैं, इस बात का प्रमाण भी हैं, कि तुमनें उस सनातन ब्रह्माण्ड को ही सिद्ध कर लिया है जिसके भीतर यह जीव जगत चलित हो रहा है I और यह राख के समान बिंदु जो मनस गुफा में अभी दिखाई दे रहे हैं, इस बात का प्रमाण भी हैं, कि उस तुमनें उस जड़ ब्रह्माण्ड को ही सिद्ध कर लिया है, जिससे इस जीव जगत रूपी चलित ब्रह्माण्ड, अर्थात संसार का उदय हुआ है I और ऐसा इस कलियुग के कालखण्ड में पहली बार हुआ है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… किन्तु मुक्ति तो इससे भी अतीत दशा है, इसलिए अब उस सनातन ब्रह्माण्ड सहित, जड़ ब्रह्माण्ड, सर्वसम ब्रह्माण्ड और चलित ब्रह्माण्ड को भी त्यागना होगा I सनातन ब्रह्माण्ड  में ही वह दशा आती है, जिसमें जीवन मरण चक्र ही नहीं होता, इसलिए मनस गुफा के भीतर इन राख बिन्दुओं की अभी की दशा में यह प्रमाण भी मिल रहा है, कि तुम जीवन मरण चक्र से अतीत भी हो चुके हो I इसलिए अब तुम्हारा शरीर रहे या न रहे, जीवन मरण के चक्र में तो तुम हो ही नहीं I ऐसा होने के कारण तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) इस ब्रह्माण्ड चतुष्टय (अर्थात सनातन ब्रह्माण्ड सहित, जड़ ब्रह्माण्ड, सर्वसम ब्रह्माण्ड और चलित ब्रह्माण्ड) से ही अतीत हुए हो I जब योगी ऐसा पात्र बन जाता है, तो ही उसको जगदगुरु माता, शारदा सरस्वती का अनुग्रह प्राप्त होने लगता है, क्यूंकि इस माया जगत से पार करवाने वाली वही जगदगुरु माता, शारदा विद्या सरस्वती हैं I ऐसे योगी की काया के भीतर ही वह जगदगुरु माता, शारदा विद्या अपने जगदगुरु स्वरूप में ही प्रकट होती हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यदि शारदा सरस्वती विद्या के अनुग्रह को पाया हुआ योगी, गृहस्ती आश्रम में बसकर ही यह अनुग्रह पाया होगा, तो उसके समस्त परिवार को भी यह अनुग्रह शनैः शनैः ही सही, लेकिन प्राप्त हो जाता है, और आगामी वर्षों में तुम्हे भी इस बात का प्रमाण अपने परिवारजन से ही मिलेगा I और यदि वह योगी संन्यास आश्रम का रहा होगा, तो उस योगी के साथ के संन्यासीगण और उसके द्वारा स्थापित संपूर्ण परंपरा पर भी जगदगुरु माता का वही अनुग्रह बन जाता है, और जबतक उस स्थापित परंपरा के आचार्य उस योगी द्वारा स्थापित परंपरा के पूर्ण रूप में अनुयायी रहेंगे, तबतक यह अनुग्रह बना भी रहता है I और ऐसा ही अन्य दोनों आश्रमों पर, अर्थात ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के योगीजनों की परम्पराओं और उन परम्पराओं के अनुयायियों पर भी लागु होता है I और इस बिंदु के अंत में, यदि उन योगीजनों में से किसी एक योगी पर ही उन जगदगुरु माँ शारदा का अनुग्रह आ जाए, तो वह समस्त परंपरा और उस योगी के परिजन भी इस माया जगत से शनैः शनैः ही सही, लेकिन अंततः तार ही दिए जाते हैं, और आगामी समय में, ऐसा ही तुम्हें अपने द्वारा लिखित इस ग्रंथ से भी प्रमाण स्वरूप में प्राप्त होगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए अपनी अभी की दशा में इस बिंदु को ध्यान में रखो कि तुम्हारे अब न तो कोई पूर्व के कर्म रहे हैं, न कोई फल और न ही कोई संस्कार… तुम अपनी अभी की दशा में इन सबसे अतीत ही हो चुके हो I और जो यह राख के बिंदु मनस गुफा में दिखाइ भी दे रहे हैं, वह उस नन्हे बालक के हैं, जिसकी स्थूल काया में तुम्हें परकाया मार्ग से लाकर, इस मृत्युलोक का लोकि बनाया गया है, ताकि तुम वह कर्म पूर्ण कर सको, जिनके लिए तुम्हे महेश्वर के लोक से तुम्हारी वास्तविक माता, सावित्री सरस्वती द्वारा उसी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से, काल की प्रेरणा से, और तुम्हारे पूर्व कालों के गुरुजनों के अनुग्रह से और उन गुरुजनों की गुरु दक्षिणा पूर्ण करने हेतु ही लौटाया गया है I और तुम महापागलनाथ को उसी परिवार में ही लौटाया गया है, जो तुम्हारे एक बहुत पूर्व के कालखण्ड के जन्म के गुरु और गुरुमाई का है, जो आज तुम्हारे माता पिता होकर ही इस मृत्युलोक में आए हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… तुम्हारी गुरु दक्षिणा में तुम्हारा साथ देने हेतु ही, तुम्हारे पूर्व जन्म के गुरु और गुरुमाई, जो आज तुम्हारे माता पिता के स्वरूप में आए हैं, वह आज मूर्ख होकर आए हैं, जबकि उनकी वास्तविक सत्ता तो ब्रह्मलोक में ही है I अपने समय के यह पति पत्नी धुरन्धर ऋषि और ऋषि पत्नी ही थे, किन्तु आज इस कलियुग में वह अपने इस जन्म के लिए, सबकुछ अपने प्रारब्ध से ही त्यागकर, तुम्हारे माता पिता बनकर आए हैं I तुम्हारे उस पूर्व जन्म की गुरुमाई, जो आज तुम्हारी माँ हैं, उनकी गुरुदक्षिणा को पूर्ण करने हेतु भी तुम्हारा यह जन्म हुआ है, और जबतक तुम उनकी गुरु दक्षिणा ही पूर्ण नहीं करते, तबतक वह दोनों अपने प्राणों को त्यागेंगे भी नहीं, चाहे कोई कुछ भी कर ले, क्यूंकि तुम्हारे माता पिता, अपने समय के धुरंधर ऋषि और ऋषि पत्नी ही हैं, जिनसे कई सारी जीव कोटियों का उदय हुआ था, और जिनके आगे यह ब्रह्माण्ड सहित, इस ब्रह्माण्ड की दिव्यताएं भी नतमस्तक होती थी, और ऐसा होने के कारण वह ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं अपने पुत्र पुत्रियों को भी इन दोनों से दीक्षा लेने हेतु जन्म दिलवाया करती है, जिनमें से एक तुम्हारा आज का अनुज भी है, जो वरुण देव का ज्येष्ठ पुत्र है I

 

नन्हा विद्यार्थी इन बातों को सुनकर अचंभित हो गया और अपनी उस अचम्भित दशा में उसने अपने गुरुदेव से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो क्या यह सब शुद्धिकरण उस बालक के लिए हैं, जिसके शरीर में मैं परकाया प्रवेश मार्ग से कोई तीन दशक पूर्व लौटाया गया हूँ? I

सनातन गुरुदेव मंदहास धारण करके अपने नन्हे शिष्य की ओर उंगली दिखाकर बोले… कई महायुगों से तुम्हारे पास तो न कोई स्थूल, न सूक्ष्म और न ही कारण शरीर रहा है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि कई महायुग पूर्व ही तुम इस त्रिकाया से ही अतीत हुए थे I और ऐसा होने के कारण, जब भी तुम किसी भी लोक में लौटाए जाते हो, तो तुम्हें यह त्रिकाया, किसी और से लेकर ही प्रदान करी जाती है,क्यूंकि तुम्हारे पास तो यह त्रिकाया कई जन्मों से है ही नहीं I इस जन्म में भी तुम्हें जो त्रिकाया प्राप्त हुई है, वह उस नन्हे बालक की ही है, जिसके शरीर में आज तुम बैठे हो… और बैठी भी हो I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह बैठा और बैठी इसलिए कहा है, क्यूँकि निराकार लिंगतीत ही होता है I और लिंगतीत होता हुआ भी, उसको खयापित और प्रतिष्ठित करने का मार्ग लिंग ही होता है I वह लिंग चाहे किसी पत्थर या धातु लिंग रूप में ही हो, या सगुण साकार विग्रह रूप में, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, दोनों को ही खयापित और प्रतिष्ठित करने का मार्ग लिंग ही होता है I इसीलिए उस नन्हे बालक से लेकर, उसका ही लिंगशरीर तुम्हें दिया गया है, ताकि तुम इस मृत्युलोक में चाहे केवल इस जन्म के लिए ही सही, लेकिन इस मृत्युलोक के लोकि हो पाओ और अपनी पूर्व जन्मों की शेष गुरु दक्षिणाओं को पूर्ण कर सको, जिनमें से एक तुम्हारी इस जन्म की माता की भी है I जिस नन्हे बालक के शरीर में आज तुम बैठे और बैठी भी हुई हो, उस नन्हे बालक से लेकर ही, तुम्हे यह लिंग शरीर मिला है, और वह भी उस बालक से प्राप्त हुई भीक्षा रूप में I और तुम्हे यह लिंग शरीर इसलिए भी दिया गया है क्यूंकि इसके बिना तो किसी त्रिकायातीत योगी को शरीरी बना ही नहीं सकते हैं I क्यूंकि यह त्रिकाया ही तुम्हें उस नन्हे बालक से, उस नन्हे बालक की भीक्षा रूप में ही दिलवाई गई है, इसलिए यह जो राख रूपी बिन्दु हैं, यह भी तुम्हारे नहीं, बल्कि उस नन्हे बालक से तुम्हें उस नन्हे बालक के ही कर्म, कर्मफल और उन कर्मफलों के संस्कार रूप में मिले थे, जब तुम उसके शरीर में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से लौटाए गए थे I और ऐसा इसलिए हुआ था, क्यूंकि तुम त्रिकायातीत योगी के लिए, इस लोक का लोकि होने के लिए, इन सब का होना आवश्यक ही था I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, तो इस लोकि होने की दशा से पूर्व मेरे पास क्या था? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया…कुछ ही समय में तुम जान जाओगे I

नन्हे विद्तयार्थी समझ गया, कि हो सकता यह बिंदु आत्मसाक्षात्कार का ही अंग हो इसलिए गुरु बताना नहीं चाहते हैं, इसलिए वह गुरु के मुख की ओर देखता हुआ, शांत ही रहा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसके पश्चात उस नन्हें विद्यार्थी ने गुरु के पूर्व आदेशानुसार, वह कर्म किया जो मनस आदि गुफा के शुद्धिकरण का था I और इस प्रक्रिया में, वह विद्यार्थी स्वतः ही शून्य ब्रह्म में बस गया, और जैसे ही ऐसा हुआ, वैसे ही मनस गुफा ही नहीं, बल्कि हृदयाकाश के अन्य सभी भागों से भी वह संस्कार और उनके पथ, और भी बहुत कुछ जो वह नन्हा विद्यार्थी जान नहीं पाया कि वह क्या हैं, और जो अब तक छुपे हुए थे, वह सभी योगाग्नि की ओर दौड़ने लगे और अंततः उसी योगाग्नि में समाने भी लगे I

कुछ समय बीतने पर सनातन गुरुदेव बोले… यह कार्य सम्पन हुआ I

और सनातन गुरुदेव ने अपने नन्हे से शिष्य से प्रश्न किया… इस प्रक्रिया में तुमनें किस कारण दशा का प्रयोग किया? I

नन्हे शिष्य ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, कोई भी नहीं, बस इस प्रक्रिया के चलित होने के पूर्व में, इच्छा शक्ति में ही इस संपूर्ण प्रक्रिया को पूर्ण करके, जैसे ही यह प्रक्रिया चलित हुई, इससे विमुख ही हो गया I और इसके साथ साथ, जबतक आपने प्रश्न नहीं करा, तबतक अपनी उस पूर्व की इच्छा शक्ति से चलित इस कर्म का, और उस इच्छा शक्ति का भी साक्षी मात्र ही रहा I और इस दशा में मुझे किसी अनंत शून्य जैसी दशा ने भी घेरा हुआ था I इस प्रक्रिया के कारण स्वरूप में पूर्व की सभी शुद्धीकरण प्रक्रियाओं से उत्पन्न हुआ, वही एकमात्र संस्कार था I

इसपर सनातन गुरुदेव बोले… जब जो कर्म करता सा प्रतीत होता है, वह अपने कर्म के चलित होने पर, उस कर्म से ही विमुख हो जाता है, तब वह कर्म करता हुआ भी, उस कर्म का कर्ता नहीं रह पाता I ऐसी दशा में उस कर्म से जो फल उत्पन्न होता है, वह उस फल को न धारण कर पाता है और न ही उसका भोगता ही हो पाता है I जब फल को कोई धारण करने वाला और भोगने वाला ही नहीं रहता, तो वह फल भी उसी शून्यावस्था को पाता है, जो सर्वशून्य और शून्य ब्रह्म कहलाई गई है I और क्यूँकि शून्य ब्रह्म कर्मातीत, फलातीत और संस्कारतीत ही है, इसलिए वह पूर्व का कर्म, उसका फल और संस्कार, तीनों ही शून्य ब्रह्म में लय होकर, न कर्म स्वरूप में रह पाते हैं, न ही फल और न ही संस्कार स्वरूप में ही रह पाते हैं I जब किसी साधक के साथ ऐसा होता है, तो वह साधक कर्म और कर्मफल न्याय से ही नहीं, बल्कि इसके मूल प्रतीत्यसमुत्पाद नामक सिद्धांत (अर्थात आश्रित उत्पत्ति सिद्धांत) से भी अतीत ही हो जाता है I और क्यूंकि यह समस्त ब्रह्मरचना इसी प्रतीत्यसमुत्पाद नामक सिद्धांत में ही बसाई गई थी, इसलिए जो साधक इस सिद्धांत से ही अतीत हुआ है, वह समस्त ब्रह्मरचना से भी अतीत है… वह साधक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा ऐसा ही माना जाता है I

 

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव ने चित्त गुफा के भीतर बसे हुए उस अंतिम संस्कार की ओर ऊँगली करके कहा… देखो, उस अंतिम संस्कार को, जो अब समस्त जीव जगत से ही केवल हो गया है और इसीलिए वह बहुत चमक भी रहा है I

नन्हें विद्यार्थी ने उस अंतिम संस्कार को देखकर प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, जबकि यह संस्कार पारदर्शी ही है, पर तब भी इसका प्रकाश हीरे के समान क्यों है? I

इसपर सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… अपनी वास्तविक दशा में यह संस्कार ऐसा ही होता है, इसलिए जो अभी की दशा है, वही इसकी वास्तविक दशा है I परन्तु कुछ उत्कृष्ट साधकगणों में यह संस्कार निरंग भी पाया जाता है I इसलिए आगे चलकर यही संस्कार निरंग ही पाया जाएगा I इस संस्कार की अभी की दशा इस बात का प्रमाण भी है, कि यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र जिसमें तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) अभी चल रहे हो, वह अब कुछ ही समय में पूर्ण होने को है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… आगे चलकर और अपनी इसी दशा में यह अंतिम संस्कार तुम्हारे (अर्थात नन्हें विद्यार्थी के) कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर भी निकलेगा I इसलिए जहाँ तक इस अंतिम संस्कार की अभी की दशा है, उसके आगे और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है I यह उसी प्रचीन से भी प्रचीनतम दशा का द्योतक है, जो ब्रह्म की इच्छा शक्ति से उत्पन्न हुआ प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड कहलाया था, और जिससे ब्रह्माण्ड की अन्य सभी दशाएं, जैसे दैविक या कारण लोक, सूक्ष्म लोक और स्थूल लोकों की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए इस संस्कार की अभी की दशा, ब्रह्म की इच्छा शक्ति नामक सिद्धि की भी द्योतक है I जो योगी इस सिद्धि को पाया होगा, उसके भाव में ही उसका साधन स्वयंप्रकट हो जाएगा I जिस योगी के भाव में ही उसका साधन स्वयंप्रकट हुआ होगा, वह योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में ब्रह्म स्वरूप ही कहलाएगा I

 

नन्हें विद्यार्थी ने अपने पूज्यपाद गुरुदेव से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, यह अंतिम संस्कार अपनी अंत गति में कहाँ जाएगा?… कृपया उस अंतिम दशा के बारे मे और उसके मार्ग की मुख्य दशाओं के बारे में भी बताएं I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… इस ब्रह्म रचना की समस्त दशाओं से होकर ही यह संस्कार अपने गंतव्य पर जाएगा I और जहां वह दशाएं भी साधक की काया के भीतर ही होती हैं I उन दशाओं में से जो प्रधान हैं, उनमें से कुछ ऐसी होंगी… ॐ से शिव तारक मंत्र, से अष्टम चक्र या निरलम्ब चक्र,  से सर्वसम तत्त्व, से शून्य और शून्य ब्रह्म, से पञ्च मुखी सदाशिव, से हिरण्यगर्भ ब्रह्म… और इससे अंततः निर्गुण ब्रह्म I

सनातन गुरुदेव अपने नन्हे से शिष्य को बोले… किन्तु तुम्हे तो बस इस संस्कार को उस नन्हे बालक को लौटाना है, जिसने तुम्हें अपनी स्थूलादि काया भीक्षा में दी थी (अर्थात दान करी थी) I ऐसा इसलिए है क्यूंकि अंतिम संस्कार अपने गंतव्य पर तभी जाता है, जब उसका वास्तविक धारक उसको उसके गंतव्य पर लेकर जाता है I और क्यूँकि तुम तो केवल इस अंतिम संस्कार का शुद्धिकरण करके, इसको उस बालक को ही लटाओगे, जो इस अंतिम संस्कार का वास्तविक धारक है, इसलिए इस संस्कार को गंतव्य पर लेकर जाना तुम्हारा कार्य ही नहीं है I जब यह संस्कार तुम्हारे शिवरंध्र से बाहर चला जाएगा, तब यह कुछ ही समय अंतराल में लुप्त होकर, उस नन्हे बालक के चित्त में ही लौट जाएगा, जिससे तुम्हे यह त्रिकाया ही भीक्षा रूप में मिली थी I इस मार्ग में तुम आंतरिक अश्वमेध मार्ग (अर्थात योग अश्वमेध मार्ग) पर जाओगे, और पञ्च मुखा सदाशिव में पूर्णरूपेण लय होकर, उन हिरण्यगर्भ ब्रह्म में जाकर, जो महाकारण कहलाते हैं, अंततः उन निर्गुण ब्रह्म में लय हो जाओगे जो ईशान ब्रह्म कहलाए गए हैं I ईशान ब्रह्म ही सर्वाधार और सर्वस्व होते हुए भी, वास्तव में सर्वातीत कैवल्य मोक्ष हैं I जो सर्वस्व और सर्वाधार सहित, सर्वगंतव्य सर्वातीत भी होता है, वही पूर्ण ब्रह्म कहलाया गया है I तुम उन्ही पूर्ण ब्रह्म में लय होगे और इसीलिए परकाया प्रवेश से ही सही, लेकिन तुम इस स्थूल काया में लौटाए गए हो I जिस जन्म में योगी को जीवातीत और जगतातीत भी होना होता है, उस जन्म में उस योगी को अपना ज्ञान बाँटने की प्रेरणा भी दिलवाई जाती है… इस जन्म में तुम्हारे साथ भी यही हुआ है I

 

हृदयाकाश गर्भ की मनस गुफा का अध्ययन, मनस गुफा का अध्ययन, …

सनातन गुरु ने अपने नन्हे विद्यार्थी से पुछा… मनस गुफा का रंग क्या है? I

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, प्रकाशमान नीला जिसको हलके गुलाबी वर्ण ने घेरा हुआ है I

सनातन गुरुदेव ने मंदहास में बोले… ठीक, अब यहाँ से ही देखो, क्या इस मनस गुफ़ा में वह पूर्व के संस्कार, संस्कार पथ या उनके राख रूपी बिन्दु दिखाई दे रहे हैं?

नन्हें विद्यार्थी ने उत्तर दिया… गुरु चन्द्रमा, अब कुछ नहीं है I

सनातन गुरु मंदहास धारण किए हुए ही अपने नन्हे शिष्य को बोले… ठीक, चलो अब तुम्हारे मनस तत्त्व वृतिहीन हुआ है, इसलिए अब हम दोनों मनस गुफा में प्रवेश करके, उसका अध्ययन करेंगे I

 

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, वृतिहीन शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? I

सनातन गुरु ने नन्हे शिष्य का हाथ पकड़कर उठने को कहा, और इसके पश्चात वह दोनों मनस गुफा की ओर चलने लगे I

चलते चलते सनातन गुरु बोले… अब अपने प्रश्न का उत्तर ध्यानपूर्वक सुनो I

वृत्तिहीन शब्द का वास्तविक अर्थ आत्मस्थति है I

और जहां आत्मस्थिति को ही ब्रह्मस्थिति कहा जाता है I

इस शब्द का गंतव्य अर्थ है, कि योगी का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म है I

इसका अर्थ यह भी है कि त्रिगुण सहित, ब्रह्माण्ड भी विशुद्ध हो गया है I

वह जहां बह त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड भी योगी की काया के भीतर ही होता है I

इसका अर्थ यह भी है कि अब मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण विषुद्ध हो गए हैं I

इस शब्द का गंतव्य, योगी का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म और ब्रह्म रचना, दोनों होता है I

जो ब्रह्म और ब्रह्म रचना का विशुद्ध स्वरूप भी हुआ है, वही पूर्ण ब्रह्म होता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए…

इस वृत्तिहीन शब्द का ब्रह्माण्डातीत अर्थ, शून्य ब्रह्म ही है I

इस वृत्तिहीन शब्द का मूलार्थ, ब्रह्म और प्रकृति का योग है I

इस वृत्तिहीन शब्द का क्रियान्वित अर्थ ही ब्रह्म रचना है I

इस वृत्तिहीन शब्द का योगमार्ग से अर्थ आत्मस्थिति है I

इस वृत्तिहीन शब्द का वास्तविक अर्थ ही पूर्णब्रह्म है I

इस वृत्तिहीन शब्द का गंतव्य अर्थ निर्गुण ब्रह्म है I

इस वृत्तिहीन शब्द का प्राकृत अर्थ ही गुरुब्रह्म है I

यह सभी शब्द आत्मस्वरूप ब्रह्म के द्योतक हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस शब्द का यह भी अर्थ है, कि साधक के भीतर बसे हुए त्रिगुण सहित, ब्रह्माण्ड भी विशुद्ध हो गया है I और ऐसा होने के कारण, उस साधक के भीतर बसी हुई प्रकृति रूपी ब्रह्म शक्ति सहित, अन्य तेईस तत्त्व भी विशुद्ध हो गए हैं I इसलिए इस शब्द का तो यह भी अर्थ निकालता है, कि साधक ऐसे मृत्यु आदि लोकों में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्ड सहित किसी भी एक या किसी सीमित लोक आदि दशा का निवासी नहीं रहा है, बल्कि यह अपनी वृत्तिहीन आत्मस्थिति में संपूर्ण ब्रह्म रचना सहित ब्रह्म भी हुआ है I इसका यह भी अर्थ निकालता है, कि स्थूलकाया आदि का धारक होते हुए भी, उस साधक की आंतरिक दशा, उस कायातीत आत्मा की ही है, जो ब्रह्म कहलाया जाता है I

नन्हें विद्यार्थी इन बिंदुओं को समझ गया इसलिए उसने अपने गुरुदेव को सर हिलाकर, इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया भी दिया I

 

इसके पश्चात नन्हें विद्यार्थी ने गुरु से प्रश्न किया… गुरु चन्द्रमा, आपने पूर्व में कहा था, कि उस अंतिम संस्कार की अभी की दशा आने के कारण यह हृदयाकाश गर्भ भी अब पूर्ण होने को है, परन्तु अभी तो तमोगुण गुफा का शुद्धिकरण शेष है, इसलिए यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र पूर्ण कैसे हो सकता है? I

सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… नहीं, तमोगुण गुफा भी मनस गुफा की शुद्धिकरण प्रक्रिया में विशुद्ध हो जाती है, और ऐसा इसलिए है, क्यूंकि मन के पश्चात और कोई शुद्धिकरण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है, इसलिए जैसे ही मन विशुद्ध होता है, वैसे ही सब विशुद्ध हो जाता है I परन्तु क्यूँकि मन को सीधा-सीधा विशुद्ध भी नहीं करा जा सकता है, इसलिए मन विशुद्धि से पूर्व ही अन्य सभी गुफाओं और दशाओं को, जो मनस गुफा में आने के मार्ग के अभिन्न अंग ही हैं, उनको शुद्ध करा जाता हैं I यदि सीधा ही मन को शुद्ध करोगे, तो शरीर के भीतर त्राहिमाम ही मच जाएगा, और ऐसे साधक का देहावसान होना भी निश्चित ही हो जाएगा I

गुरु के यह सब वाक्य सुनकर, नन्हें विद्यार्थी को वह पूर्व की गुरूवाणी स्मरण में आई, जहाँ कहा गया था, कि मन ही एकमात्र योग माध्यम होता है, इसलिए उस नन्हें विद्यार्थी ने अपना सर आगे पीछे हिलाकर, अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरुदेव जो उस नन्हे शिष्य के भाव पढ़ रहे थे, बोले… हाँ, मन ही योग का एकमात्र और पूर्ण माध्यम है I मन ही उत्कर्ष का एकमात्र और पूर्ण माध्यम है I इसलिए जब साधक का मन ही विशुद्ध हो गया, तब शनैः शनैः ही सही, लेकिन सब कुछ विषुद्ध हुए बिना भी नहीं रह पाता है I इसीलिए जब तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) मनस गुफा का शुद्धिकरण कर रहे थे, तब यह भी पाया गया था, कि इस शुद्धिकरण प्रक्रिया में ही समस्त गुफाओं से बहुत सारी दशाएँ भी उसी योगाग्नि में स्वतः और अकस्मात् ही प्रवेश करने लगी थी I यह भी इसलिए हुआ था, क्यूंकि मन ही योगादि उत्कर्ष मार्गों के का एकमात्र और पूर्ण माध्यम है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यदि मन को अन्य गुफाओं से पूर्व या मन सहित अन्य सभी गुफाओं का शुद्धिकरण, एक साथ ही करा जाएगा, तो साधक के स्थूलादि शरीरों को बहुत बड़े झटके लगेंगे, जो साधक के स्थूलादि शरीरों में सूक्ष्म ऊर्जाओं के विस्फोट से ही होंगे, जिससे साधक का जीवन ही संकट में आ जाएगा I इसलिए भी इस हृदयाकाश गर्भ के भीतर बसी हुई गुफ़ाओं की शोधन प्रक्रिया में मन का शुद्धिकरण, अन्य सभी गुफाओं के शुद्धिकरण के पश्चात ही हुआ है I

नन्हें विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

मन के गोले का अध्ययन, मन के मस्तिष्क और हृदय के गोले का अध्ययन, …

चलते चलते सनातन गुरुदेव और उनका नन्हा शिष्य मनस गुफा में, तमोगुण की गुफा की ओर से प्रवेश किए, और प्रवेश करते ही सनातन गुरु बोले… यहाँ से हम मनस गुफा सहित, तमोगुण और रजोगुण की गुफाओं को भी देखेंगे I

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले… सभी प्राण और उपप्राण मन में प्रवेश करते हैं, और इन सबके पृथक-पृथक गोले भी मन में बन जाते हैं I प्राणों और उपप्राणों के इन्हीं गोलों से ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का नाता भी होता है I जब्कि मन के भीतर, यह ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बिंदु स्वरूप में सगुण साकार प्रतीत होती हैं, लेकिन तब भी अपनी वास्तविकता में, यह सगुण निराकार ही हैं I

इस पश्चात सनातन गुरुदेव आगे बोले… मन के गोले के भीतर, अपनी ऐसी सगुण साकार दशा में, इन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के जो छोटे छोटे गोले होते हैं, वह आधे तो मन के गोले के भीतर होते हैं, और आधे मन से बाहर को ओर ही दिखाई देते हैं I ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के वर्ण भी उनके प्राणों और उपप्राणों के समान ही होते हैं I इस आधी भीतर और आधी बाहर की दशा के कारण, यह पञ्च प्राण और उपप्राण और उनसे संबंधित पञ्च ज्ञानेंद्रियां और पञ्च कर्मेंद्रियां मन से जुडी होती हैं I इसी दशा से मन सबसे जुड़ने का माध्यम भी हो जाता है, और इसी स्थिति के कारण ही मन सदैव ही तबतक भटकता रहता है, जबतक बलपूर्वक उसको स्थिर न किया जाए I क्यूँकि मन योग माध्यम है, और क्यूँकि ब्रह्माण्ड के भीतर बसे हुए जीवों के दृष्टिकोण से ब्रह्माण्ड योग ही गंतव्य है, इसलिए मन तब तक स्थिर भी नहीं होता, जब तक ब्रह्माण्ड योग ही सिद्ध नहीं होता I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… मन के भीतर की ऊर्जा के प्रवाह एक प्राण से उसके उपप्राण तक जाते हैं, और इन सभी प्राणमय ऊर्जाओं के परिणामी प्रवाह का स्थान मन के गोला के मध्य भाग में ही होता है, इसलिए उस मध्य के स्थान में ही यह सभी ऊर्जा प्रवाह का आपस में मिलन भी होता है I इस मध्य भाग से वह परिणामी ऊर्जा प्रवाह, ज्ञानेन्द्रियों में जाता है और इसके पश्चात ही कर्मेन्द्रियों में पहुँच पाता है, और जहाँ इस ऊर्जा प्रवाह के भी असंख्य क्रम संचय और संयोजन आदि होते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

मन के गोले के मुख्य कर्म, मन के गोला का मुख्य कर्म, …

सनातन गुरुदेव बोले… अब हम मन के गोले के कुछ मुख्य कर्मों पर बात करेंगे…

  • मन के गोले का मूल कर्म एक सर्वमाध्यम का है, जैसे स्थूल और सूक्ष्म का माध्यम, इत्यादि I इस मध्यमता का एक मुख्य कार्य, प्राणों को मन में ही संगठित और संतुलित करके रखना है I
  • चाहे मन में किसी भी प्रकार का प्रवाह आ जाए, अपनी मूलावस्था में तो मन सदैव ही समता में रहता है, और ऐसा तबतक रहेगा, जबतक मन को इच्छा शक्ति आदि का आलम्बन लेकर छेड़ा नहीं जाएगा I मन के गोले के मध्य भाग में, जहाँ ऊर्जाओं का परिणामी प्रवाह होता है, वहां भी यही समता का निवास होता है I यही कारण है कि चाहे साधक का मन रजोगुणी या तमोगुणी ही क्यों न हो, उस मन के मध्य दशा समतामय, अर्थात सत्त्वगुणी ही रहती है I
  • किसी भी जीव का मन, उसका परममित्र भी हो सकता है, और परमशत्रु भी I मन जीव का मित्र तब होगा जब जीव समतावादी होगा, और इसके अतिरिक्त दशाओं में मन शत्रुरूप में ही होगा I समता की प्राप्ति बहुवादी अद्वैत मार्गों से ही होती है, अर्थात वैदिक मार्गों से ही होती है I इसी समता को प्राप्त करने हेतु ही वैदिक ऋषियों द्वारा, सम्प्रदाय बनाए गए थे I सम्प्रदाय शब्द का अर्थ भी यही था… “वह जो समता को प्रदान करवाए” I
  • चाहे कोई भी उत्कर्ष आदि पथ हो, उसमें मन ही उत्कर्ष और योग का कारण और कारक पाया जाएगा I जबतक मन का यह गुण चैतन्य अवस्था में अपनाया नहीं जाता, उत्कर्ष पथ भी अपने पूर्ण स्वरूप में प्रशस्त नहीं हो पाएगा, और यदि हो भी गया तो भी वह किसी न किसी अपूर्ण रूप में ही होगा I चाहे कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी माने, किसी भी मार्ग या जीवन शैली का हो, यह बिंदु सार्वभौम ही पाया जाएगा I

सनातन गुरु बोले… यह मनस गुफा का अध्ययन समाप्त हुआ… अब हम अगली गुफा पर जाएंगे, जो तमोगुण गुफा है I

 

असतो मा सद्गमय I

 

 

लिंक:

प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत, आश्रित उत्पत्ति सिद्धांत, dependent origination, interdependent origination,

कर्म और कर्म फल सिद्धान्त, Law of cause and effect,

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa

परंपरा, Parampara

ब्रह्म, Brahman

कालचक्र, Kaal Chakra

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