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यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही संबंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूँ ।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूँ, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे-छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का अस्सी अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का नौवाँ अध्याय है I

 

 

टिप्पणियाँ: इस अध्याय में बताया गया…

  • रुद्र रौद्री योग, इस अध्याय से पूर्व की दशा है I और इस ग्रंथ में इस योग की क्रमगत गति, अव्यक्त प्रकृति के अध्याय से पूर्व की है I
  • ब्रह्माण्ड शरीर का भाग, इस अध्याय से भी बाद का है I यह महाकारण जगत के अध्याय से भी आगे का है I
  • निर्गुण शरीर का भाग अंतिम है, क्यूंकि यह उस अंतिम सिद्धि को दर्शाता है, जो ब्रह्मत्व की द्योतक होती है और जो वास्तव में सिद्धि न होती हुई भी, सिद्धि ही कही गई है I

इसलिए, इस ग्रंथ के अध्यायों की क्रमगत गति के दृष्टिकोण से, इस अध्याय में उस गति की खिचड़ी सी ही बनी हुई है I

 

 

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सर्वप्रथम स्वरूप और स्वरूप स्थिति के बारे में बताता हूँ…

साधक की प्राकृत आंतरिक दशा ही स्वरूप होता है I

साधक की तात्विक आंतरिक प्रकृति को स्वरूप कहते हैं I

अपने मूल स्वभाव में स्थित हुआ साधक ही स्वरूप स्थित है I

साधक का अपने मूल स्वरूप में स्थित होना ही स्वरूप स्थिति है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यहाँ जो साधक शब्द कहा गया है, वह समस्त जीवों का द्योतक है I

 

 

और ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

ब्रह्म रचना में कोई जीव है ही नहीं, जो अपनी आंतरिक दशा से साधक नहीं है I

 

 

और इसके अतिरिक्त, …

ब्रह्म रचना में कोई साधक है ही नहीं, जो अपने मूल स्वभाव से योगी नहीं है I

इसलिए, स्वरूप स्थिति की वास्तविकता योग सहित, योगी को भी दर्शाती है I

और इस स्वरूप स्थिति के सगुण गंतव्य का नाता योगेश्वर से ही है I

 

 

अब स्वरूप स्थिति के प्रकार और प्रभेद बताता हूँ…

ब्रह्म रचना की प्रत्येक प्रधान दशा का अपनाअपना सगुण स्वरूप होता है I

यह सगुण स्वरूप, सगुण निराकार होता हुआ भी, सगुण साकार पाया जाता है I

जब योगी सगुण निराकार को अपनी काया में पाएगा, तो वह सगुण साकार होगा I

और क्यूँकि ब्रह्म रचना में कई प्रकार की दशाएं है, इसलिए इस स्वरूप स्थिति के प्रकार भी होते हैं I और यह प्रकार उन दशाओं के देवत्व को दर्शाते हैं और उन दशाओं के देवत्व के अनुसार ही होते हैं I

 

 

इसलिए, …

ब्रह्म रचना में जितने प्रकार के देवत्व हैं, उतने ही उनके सगुण स्वरूप भी हैं I

ब्रह्म रचना के किसी प्रधान भाग का स्वरूप पाया योगी, सगुण स्वरूप स्थित है I

देवतागण भी ब्रह्म रचना के किसी न किसी भाग का स्वरूप पाकर, देवता हुए हैं I

इसलिए, स्वरूप स्थिति के अनेकानेक प्रकार भी होते हैं I

 

 

अब स्वरूप स्थिति के प्रभेद बताता हूँ I यह प्रभेद मुख्यतः दो प्रकार के ही होते हैं…

सगुण स्वरूप, ब्रह्म रचना की किसी सगुण दशा से संबद्ध होता है I

और निर्गुण स्वरूप स्थिति, निर्गुण निराकार ब्रह्म से ही संबद्ध होती है I

 

 

और इन दो प्रकारों में भी उप प्रभेद होते हैं, जो ऐसे होते हैं…

सगुण निराकार स्वरूप ब्रह्म रचना की किसी प्रधान दशा से संबद्ध होता है I

सगुण साकार स्वरूप ब्रह्म रचना की उस दशा के देवता से संबद्ध होता है I

 

इन दोनों के अतिरिक्त, …

सगुण और निर्गुण की योगदशा का भी स्वरूप होता है I

यह स्वरूप स्थिति सगुण निर्गुण ब्रह्म से संबद्ध होती है I

इसके गंतव्य में सर्वसम पितामह प्रजापति का ही स्वरूप होता है I

सर्वसम स्वरूप स्थिति ही सगुण स्वरूप स्थिति की गंतव्य दशा होती है I

 

टिपण्णी: पूर्व का अध्याय जिसका नाम ब्रह्मलोक था, उसमें इस सर्वसम स्वरूप स्थिति के बारे में बताया गया है I

 

 

इसके अतिरिक्त, …

ब्रह्म रचना से संबद्ध भी एक स्वरूप स्थिति होती है I

और यह सगुण निराकार स्वरूप स्थिति का गंतव्य ही होती है I

इस स्वरूप स्थिति में योगी समस्त ब्रह्म रचना का ही स्वरूप हो जाता है I

इससे ऊपर न तो कोई स्वरूप हुआ है और न ही कोई सिद्धि, गति ही हुई है I

यह स्वरूप स्थिति गंतव्य है, क्यूंकि इसमें योगी ब्रह्मरचना और ब्रह्म, दोनों होगा I

जो योगी ब्रह्मरचना और ब्रह्म दोनों का स्वरूप ही है, वही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I

 

 

टिप्पणियाँ:

  • जो योगी इस पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को पाने हेतु जन्म लिया होगा, उसके विरुद्ध वह अभिमानी देवता हो ही जाएंगे, जिनके बारे में वह योगी उन बिंदुओं को प्रकाशित करता होगा, जो गुप्त ही रहे हैं, अथवा जिनकी सिद्धि वह उन देवताओं की इच्छा के बिना ही पाया होगा, अथवा जिनके लोक को ही उस योगी ने सिद्ध किया होगा I
  • उस योगी के विरुद्ध सभी देवता नहीं होंगे, लेकिन अभिमानी देवताओं में से बहुत सारे तो हो ही जाएंगे I
  • ऐसा इसलिए होगा, क्यूंकि देवता उससे ईर्ष्या और द्वेष करने लगते हैं, जब उनको उस योगी के बारे में पता चलता है, कि वह उनके लोक को, जो उस देवत्व से भी आगे के और उस देवता से संबद्ध देवत्व के ही सगुण निराकार स्वरूप को दर्शाता है, जिनके सगुण साकार स्वरूप वह देवता हैं I
  • और देवताओं की यह ईर्ष्या इसलिए भी होती है, क्यूंकि वह नहीं चाहते कि उनके कार्यों में कोई हस्तक्षेप करे I और क्यूंकि जो योगी पूर्ण ब्रह्म स्वरूप हुआ होगा, वह यह हस्तक्षेप तो करेगा ही जब देवतागण वह नहीं करेंगे, जिनके लिए उनको देवता का पद मिला था I
  • और क्यूंकि आज के समय में अधिकांश अभिमानी देवता वह कर ही नहीं रहे हैं, जिनके लिए उनको उनका पद मिला था, इसलिए यदि आज के समय कोई योगी पूर्णब्रह्म स्वरूप को पाएगा, उसके विरुद्ध बहुत सारे देवतागण हो जाएंगे I
  • यदि इस प्रयास में भी वह देवतागण नहीं सुधरे, तो वह पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हुआ योगी, या तो इन सभी देवताओं आदि को अपने साथ ही लेकर चला जाएगा और या उन देवताओं के स्थानों पर अन्य देवताओं को प्रतिष्ठित कर देगा, या वह योगी इन दोनों प्रक्रियाओं को एकसाथ ही क्रियान्वित कर देगा I
  • और कुछ ही समय में, उन सभी देवताओं के साथ भी ऐसा होने वाला है, जो अपने नियमित कार्य या तो नहीं कर रहे हैं और या अधूरे रूप में ही कर रहे हैं I
  • और जब ऐसा होगा, तो वह युग प्रकाशित हो जाएगा, जिसका वर्णन वैदिक वाङ्मय में है ही नहीं और जो पञ्चम् युग होगा, और गुरु युग कहलाएगा और जिसका वेद पञ्चम् वेद अर्थात बालवेद ही कहलाएगा, और जिसका मार्ग ब्रह्मत्व ही होगा I
  • जब यह देवता बदल दिए जाएंगे, तब उनके पद तो वही रहेंगे, किन्तु उन पदों पर कोई और देवता प्रतिष्ठित किए जाएंगे और जहाँ वह देवता भी पूर्व कालों के उत्कृष्ट योगीजन होंगे I
  • इसलिए वैदिक वाङ्मय में कोई बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आएगा I लेकिन वह परिवर्तन बिलकुल नहीं आएगा, ऐसा भी संभव नहीं होगा I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब रुद्र रौद्री सिद्ध शरीर, रौद्री रुद्र सिद्ध शरीर, रौद्री रुद्र योग शरीर, रुद्र रौद्री योग शरीर, रुद्र रौद्री योग सिद्धि, रौद्री रुद्र योग सिद्धि, रुद्र रौद्री सिद्धि, रौद्री रुद्र सिद्धि, के बारे में बताता हूँ …

ऊपर का चित्र रुद्र रौद्री योग को दर्शा रहा है I इस योग में रुद्र के भीतर ही रौद्री निवास करती हैं, और जहाँ वह रौद्री ही रुद्र देव की शक्ति होती हैं I

रुद्र भगवे वर्ण के और रौद्री श्वेत वर्ण की होती है, और जहाँ रौद्री का श्वेत वर्ण उनके आदिशक्ति स्वरूप का ही द्योतक है I

यह दशा वह है जिसमें साधक त्रिगुण से अतीत चला गया है और ऐसा होने पर भी वह त्रिगुणों के भीतर ही बसा हुआ है और वह त्रिगुण भी उसके भीतर ही बसे हुए हैं I

इसलिए यहां बताए जा रहे रुद्र रौद्री योग की दशा, …

त्रिगुणी भी है, त्रिगुणातीत भी है और त्रिगुणात्मक भी है I

 

और यही कारण है कि जबकि सगुण स्वरूप स्थिति में तो कई सारी सिद्धियां और दशाएं होती हैं लेकिन इस ग्रंथ में केवल इस सिद्धि को ही बताया गया है I

 

 

इस सिद्धि को पाया हुआ योगी, …

ब्रह्म रचना में बसा हुआ भी, समस्त ब्रह्म रचना से अतीत ही रहेगा I

ब्रह्म रचना योगी की काया के भीतर बसी हुई भी, योगी उससे अतीत ही रहेगा I

 

इसलिए इस सिद्धि को पाया हुआ योगी, …

रचना में बसा हुआ रहता है, और रचना भी उसके भीतर बसी हुई होती है I

और ऐसा होते हुए भी इस सिद्धि को पाया हुआ योगी, रचनातीत ही रहता है I

त्रिगुण उसमें और वह त्रिगुण में बसा हुआ भी, वह त्रिगुणात्मक त्रिगुणातीत रहता है I

जबकि सगुण स्वरूप स्थिति में तो कई सारे स्वरूप होते हैं, लेकिन ऊपर बताया गया कारण ही था कि इस ग्रंथ में, सगुण स्वरूप स्थिति के वर्णन के लिए इसी रूद्र रौद्री योग को चुना गया है I

क्यूंकि इन त्रिगुण में ही यह जीव जगत बसा हुआ है, और ऐसा होने पर भी त्रिगुण जीव जगत का अंग नहीं होते, इसलिए यह सिद्ध शरीर इस बात का द्योतक भी होता है कि इसका धारक योगी, त्रिगुणों के समान अपने भीतर उन त्रिगुणों सहित जीव जगत को बसाया हुआ भी, उस जीव जगत और त्रिगुणों से अतीत ही है I

इसलिए, ऐसा योगी जीव जगत का अंग होता हुआ भी और इसके अतिरिक्त समस्त जीव जगत भी उसका अंग होता हुआ भी, और वह योगी उस जीव जगत में रमण करता हुआ भी, उस जीव जगत का साक्षी मात्र ही रहता है I

 

 

इसलिए यहाँ बताई जा रही स्वरूप स्थिति, …

योगी की जीव जगत से पृथकता की द्योतक है I

और योगी की उसी जीव जगत से पूर्ण एकता की भी द्योतक है I

योगी का जीव जगत से योग और अयोग, दोनों को समान रूप में दर्शाती है I

उस दिशा की द्योतक है, जहाँ योगी ब्रह्मरचना से योग में होता हुआ भी, अतीत है I 

 

इसलिए यहां बताई जा रही स्वरूप स्थिति उस दिशा की द्योतक है जिसमें, …

ब्रह्म रचना और ब्रह्म का अद्वैत योग हुआ है I

जीव जगत और जीवातीत जागतातीत का अद्वैत योग है I

पिण्ड ब्रह्माण्ड और पिण्डातीत ब्रह्माण्डातीत का अद्वैत योग है I

 

इसलिए इस स्वरूप स्थिति की योगदशा में…

जीव ही जगत है और जगत ही जीव रूप में है I

ब्रह्मरचना ही ब्रह्म और ब्रह्म ही ब्रह्मरचना हुआ है I

पिण्ड ही ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड रूप में आया है I

जगत में जीव बसा है, और जगत भी जीव में ही बसा हुआ है I

ब्रह्माण्ड में पिण्ड बसे हुए हैं और पिण्ड में ब्रह्माण्ड बसे हुए हैं I

ब्रह्म में ब्रह्मरचना बसी हुई है और ब्रह्म भी ब्रह्मरचना में बसा है I

इस योगदशा में ब्रह्म और समस्त ब्रह्म रचना का अद्वैत योग होता है I

यह सब होते हुए भी, इस स्वरूप स्थिति का सिद्ध शरीर सगुण साकार ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इस सिद्ध शरीर की योगदशा में, …

सगुण साकार ही सगुण निराकार है I

सगुण निरकार भी सगुण साकार ही है I

यह दोनों निर्गुण निराकार की अभिव्यक्तियाँ हैं I

निर्गुण निराकार ब्रह्म भी इन्ही के भीतर बसा हुआ है I

यह अभिव्यक्तियाँ भी उसी निर्गुण निराकार के भीतर बसी हुई हैं I

 

इस योगदशा के ऐसे अद्वैत स्वरूप में, …

न तो वैयक्तिकता (व्यष्टित्व) रहेगी और न ही कोई समूह रह जाएगा I

न कोई मैं तुम यह वह आदि रहेंगे और न वे सब हम का कोई प्रपञ्च रहेगा I

न किसी दशा आदि से कोई अलगाव रहेगा और न ही कोई लगाव रह जाएगा I

सबकुछ एक ऐसे योग में आएगा, कि समझ ही नहीं आएगा, कि उसके क्या भाग हैं I

 

और इस भाग के अंत में…

इस योगदशा में, साधक की चेतना इतनी सूक्ष्म हो जाएगी, कि वह स्वयं को इस जीव जगत को भेदता हुआ पाएगा I

ऐसा होने के कारण जिस साधक ने यहां बताई जा रही सगुण स्वरूप स्थिति पाई होगी, वह न देवता हो पाएगा और न ही देवत्व का धारक… वह इन सभी प्रपञ्च से अतीत होकर ही शेष रह जाएगा I

और ऐसा साधक अपने देहावसान के पश्चात, ने जीव रूप में और न ही जगत रूप में ही पाया जाएगा… वह इन प्रपञ्च से भी अतीत होकर रहेगा I

अपने देहावसान के पश्चात, ऐसा साधक ब्रह्म रचना में ही नहीं पाया जाएगा… वह रचनातीत होकर ही शेष रहेगा I

इस ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में कोई अभिमानी देवता हुआ ही नहीं, जिसने इस सिद्धि को धारण किया है I

यह उस वृतिहीन दशा से संबद्ध सिद्धि है, जो आत्मस्थिति भी कहलाती है और ऐसा तब भी है, जब इसकी प्राप्ति सगुण साकार स्वरूप में ही होती है I

और क्यूंकि उस आत्मस्थिति का ब्रह्माण्ड से कोई नाता ही नहीं है, इसलिए इस सिद्धि का धारक योगी, ब्रह्माण्डातीत हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I

लेकिन उस ब्रह्माण्डातीत दशा का मार्ग, एक और दशा से होकर जाता है, जिसको ब्रह्माण्ड शरीर, विश्वरूप शरीर आदि भी कहा जा सकता है I इसलिए अब इस बिंदु को बताता हूँ I

 

 

आगे बढ़ता हूँ…

ब्रह्माण्ड शरीर क्या है, विश्वरूप शरीर क्या है, ब्रह्माण्ड स्वरूप स्थिति क्या है, ब्रह्म रचना शरीर क्या है, ब्रह्म रचना स्वरूप स्थिति क्या है, विश्वरूप स्वरूप स्थिति क्या है, विश्वरूप ब्रह्म स्वरूप स्थिति, ब्रह्माण्ड सिद्धि क्या है, विश्वरूप सिद्धि क्या है, ब्रह्माण्ड सिद्ध शरीर क्या है, ब्रह्म रचना सिद्धि क्या है, विश्वरूप सिद्ध शरीर क्या है, विश्वरूप सिद्ध शरीर, ब्रह्म रचना सिद्ध शरीर क्या है, … निर्गुण स्वरूप स्थिति क्या है, पूर्ण ब्रह्म स्वरूप स्थिति क्या है, …

इसका चित्र बनाना असंभव ही है क्यूंकि यह समस्त ब्रह्म रचना का ही शरीरी रूप है I ऐसा होने के कारण, इस दशा को सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही बताया जा सकता है I

 

 

क्यूंकि, …

ब्रह्म ही ब्रह्म रचना हुआ है I

और वह ब्रह्म रचना भी ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है I

और ब्रह्म रचना होकर वह ब्रह्म अपनी ही अभिव्यक्ति में लय भी हुआ है I

 

इसलिए, इस सिद्ध शरीर में साधक, …

समस्त ब्रह्म रचना को ही अपनी काया के भीतर साक्षात्कार करेगा I

और साधक का आत्मस्वरूप ही उस ब्रह्म रचना का अभिव्यक्ता होगा I

और ऐसा होने पर भी, वह आत्मस्वरूप उसी ब्रह्म रचना में लय हुआ होगा I

वह ब्रह्म रचना अपने प्रकट रूप में बहुवादी होगी और गंतव्य रूप में अद्वैत I  

और अद्वैत ने ही उस बहुवाद की समस्त दशाओं को भेदा और घेरा हुआ होगा I

और यह सब कुछ साधक अपनी काया के भीतर ही साक्षात्कार करेगा I

 

 

इस ब्रह्माण्ड से संबद्ध स्वरूप स्थिति में…

वह ब्रह्म रचना भी ब्रह्म से योग लगाई हुई होगी I

वह ब्रह्म रचना साधक की काया के भीतर ही पाई जाएगी I

उसी ब्रह्म रचना में साधक का ब्रह्म रूपी आत्मस्वरूप, लय हुआ होगा I

साधक के शरीर के भीतर, ब्रह्म और ब्रह्म रचना की योगावस्था साक्षात्कार होगी I

 

इस साक्षात्कार में, …

साधक का शरीर ही पिण्ड रूप में होगा I

साधक के पिण्ड रुपी शरीर में ही ब्रह्माण्ड होगा I

और वह ब्रह्माण्ड भी ब्रह्म की अभिव्यक्ति, ब्रह्म ही होगा I

 

ऐसे योगी की आंतरिक दशा जैसी होगी, वह अब बताता हूँ I वह योगी…

काया में बसा हुआ भी, कायातीत होगा I

पिण्ड रूप में होता हुआ भी, पिण्डातीत होगा I

किसी लोक में रहता हुआ भी, लोकातीत ही होगा I

ब्रह्माण्ड में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्डातीत होगा I

उसका आत्मरूप काया, पिण्डों, लोकों और ब्रह्माण्ड से अतीत होगा I

ऐसा होता हुआ भी, उसका आत्मस्वरूप इन सबके भीतर ही लय हुआ होगा I

और उसकी धारणा में समस्त ब्रह्म रचना सहित, ब्रह्म भी समान रूप में होगा I

आगे बढ़ता हूँ…

यही ब्रह्म रचना से संबंधित स्वरूप स्थिति है I

इसमें योगी यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे का सगुण साकार स्वरूप होता है I

योगी के भीतर की ब्रह्मरचना यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे का सगुण निराकार रूप होगी I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और निर्गुण शरीर, निर्गुण स्वरूप स्थिति के बारे में बताता हूँ…

योगमार्ग में जब जो पूर्व में पाया है, उसको त्यागोगे, तो ही उस दशा से आगे जाने का मार्ग प्रशस्त होगा I

इसलिए जब योगी उस ब्रह्माण्ड शरीर का त्याग करता है, तब उस योगी को एक निरंग व्यापक शरीर (निर्गुण शरीर) का साक्षात्कार होता है I

यही निर्गुण निराकार शरीर जो सर्वव्यापक ही होता है, निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं I

और यही योगी का निर्गुण आत्मस्वरूप है, जो निर्गुण स्वरूप स्थिति को दर्शाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और पूर्णब्रह्म स्वरूप स्थिति के बारे में बताता हूँ…

इस दशा के पश्चात, जब योगी इस निर्गुण सिद्ध शरीर को ब्रह्म रचना में लय करता है, तब वह उस पूर्ण ब्रह्म को जानता है, जो ब्रह्मशक्ति स्वरूप ब्रह्मरचना भी हैं और निर्गुण ब्रह्म भी वही हैं I

और इसी दशा से वह योगी लायमार्ग के शिखर पर जाता है, जो पूर्ण ब्रह्म हैं और जिनकी दशा पूर्णब्रह्म स्वरूप स्थिति ही है I

इस दशा को साक्षात्कार करके, और इसके पश्चात इसी में अपनी चेतना का लय करके होकर, योगी जान जाता है कि वैदिक मनीषियों के द्वारा कहे गए पूर्ण शब्द और उसका ब्रह्म नामक अर्थ क्या है I

 

 

और इस अध्याय के अन्त में…

यहाँ बताई गई…

पूर्ण ब्रह्म स्वरूप स्थिति का नाता पूर्ण ब्रह्म से है I

ब्रह्माण्ड स्वरूप स्थिति का नाता संपूर्ण ब्रह्म रचना से है I

निर्गुण स्वरूप स्थिति का नाता निर्गुण निराकार ब्रह्म से ही है I

सगुण स्वरूप स्थिति का नाता रुद्रलोक और ब्रह्मलोक के योग से है I

इसलिए, यह सगुण स्वरूप स्थिति, उत्पत्ति और संहार कृत्यों का योग है I

और इन्ही कृत्यों की योगदशा से अन्य सभी स्वरूप स्थिति का मार्ग निकलता है I

इस अध्याय और इस पूरे ग्रंथ में यह सभी स्वरूप स्थिति योगी के आत्मस्वरूप की ही द्योतक हैं I ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि तुम वही होते हो, जिसका तुमने साक्षात्कार किया होता है I

तो इस बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है, और अब मैं अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम पञ्च मुखी सदाशिव होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय I

 

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