यहाँ परकाया प्रवेश को बतलाऊँगा, जिसको निसंभोग जन्म और कुंवारी जन्म भी कहा जा सकता है। इस अध्याय में परकाया प्रवेश और माँ सावित्री, या कुँवारी जन्म और सावित्री विद्या का नाता भी बतलाया जाएगा। इस अध्याय में परकाया प्रवेश प्रक्रिया, अर्थात निःसंभोग जन्म प्रक्रिया या कुंवारी जन्म प्रक्रिया को भी कुछ सांकेतिक, और कुछ सीधे ही बतलाया जाएगा I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का पचपनवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, ओ३म् सावित्री मार्ग का तीसरा अध्याय है।
परकाया प्रवेश प्रक्रिया और सावित्री विद्या, … माँ सावित्री सरस्वती, … मदर मैरी, …
परकाया प्रवेश प्रक्रिया और सावित्री विद्या, माँ सावित्री सरस्वती, मदर मैरी,
इस चित्र में दिखलाई गई हिरण्य या सुनहरे वर्ण की देवी, सावित्री विद्या हैं, जिनको सावित्री सरस्वती, देवी सावित्री और माँ सावित्री भी कहा जाता है। पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वति में यह देवी चौथी विद्या हैं, जो अति उग्र स्वरूप की माता हैं I
बौद्ध मार्ग में इन्ही देवी को बुद्ध प्रज्ञापारमिता भी कहा गया है।
और यही देवी बाइबिल की मदर मैरी, वुमन ऑफ अपोकलीप्स, रहस्योद्घाटन वाली महिला या रहस्योद्घाटन की महिला, सूर्य के वस्त्र वाली महिला, और सूर्य के आवरण वाली महिला या सूर्य के वस्त्र को धारण की हुई महिला भी हैं।
इस ब्रह्मकल्प में, इस जन्म तक, मैं सौ से भी अधिक बार इस परकाया प्रवेश की प्रक्रिया और मार्ग से लौटा हूँ, या ये कहूँ, लौटाया गया हूँ। लेकिन यहाँ कहा गया “सौ से अधिक” का वाक्य, सांकेतिक ही है…, वास्तविक नहीं।
इस ग्रन्थ के अन्य सभी अध्यायों के समान , ये अध्याय भी मेरे अपने अनुभवों और साक्षात्कारों के अनुसार ही बताया जा रहा है, न कि किसी और के अनुभव से या किसी ग्रन्थ या शास्त्र में बतलाए गयी बातों से और न ही मनोलोक के किसी तथ्य से।
जैसा ये परकाया प्रवेश होता है, वैसे ही यहाँ बतलाया जाएगा, इसलिए इसको किसी और के बतलाए हुए बिन्दुओं या ग्रन्थ या शास्त्र से मत जोड़ना। मैं ये बात जानता हूँ, की इस कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, बहुत सारे शास्त्र और उनके बिंदु विकृत किए गए हैं।
यदि तुम्हारे शास्त्रों में, इसके या किसी और बिंदु के बारे में कुछ और कहा गया है, तो तुम अपने शास्त्रों को मानो, क्यूंकि मैं तो केवल अपने अनुभवों और साक्षात्कारों के आधार पर ही बतलाता हूँ। जो अनुभव में है, जो प्रत्यक्ष है, साक्षात्कार में है, उसको किसी और प्रमाण की कभी भी आवश्यकता नहीं पड़ती। मैं ऐसा मानता हूँ…, क्यूंकि मैं ऐसे ही जानता हूँ।
और मैं ऐसा भी मानता हूँ, की उस योगी को शास्त्रों से क्या लेना देना, जिसने अपनी साधनाओं में, अपने साक्षात्कारों में, वो गंतव्य को ही जान लिया है, जो किसी भी शास्त्र में बताया गया है। उसको किसी भी शास्त्र का क्या लाभ, जो शास्त्र के गंतव्य का ही साक्षात्कार कर बैठा है।
अस्वीकरण … जगत जीव शून्य कैसे होता है …
मेरी बताई हुई सारी बातों में, एक बात याद रखना, कि मैं कोई भी चित्र बिलकुल सही नहीं बनाता हूं, नहीं तो उस एक चित्र के कारण, ये सारा जगत, जीव शून्य हो जाएगा।
यदी किसी भी प्राथमिक या प्रधान दैविक दशा का चित्र, कोई भी योगी बिल्कुल वैसा ही बना देगा, जैसा वो वास्तविकता में है, तो जो भी जीव उस चित्र को देखेगा, वो मुक्त हो जाएगा।
और जैसे जैसे जीव मुक्त होते जाएंगे, वैसे वैसे और भी लोकों के जीव भी उस लोक में आएंगे, जिसमें किसी योगी ने ऐसा चित्र बनाया है और वो सभी जीव भी मुक्त होते चले जाएंगे। ऐसी स्थिति में, जब संपूर्ण जगत के सारे जीवों की ही मुक्ति हो जाएगी, तो ये जगत ही जीव शून्य हो जाएगा।
लेकिन क्योंकि माँ प्रकृति ऐसा होने ही नहीं देगी, इसलिए ऐसा चित्र बनाने पर, माँ प्रकृति उस लोक के समस्त जीवों का विनाश कर देगी, ताकि उस लोक के जीव किसी और लोक में भेजे जा सके, और उस नए लोक में रह कर, वो जीव अपने अपने उत्कर्ष मार्ग को पुन: प्रारंभ कर सके।
इसलिए, यह भी एक प्रमुख कारण होता है, किसी भी लोक के महाविनाश का I
माँ प्रकृति कभी भी नहीं चाहती, की जो मुक्ति का पात्र ही नहीं है, वो मुक्त हो I माँ प्रकृति के न्याय में मुक्ति केवल उसकी होनी चाहिए, जो उस मुक्ति का पात्र हो I
यह भी एक कारण था, की वैदिक गुरु शिष्य परंपरा में, जब तक कोई एक ज्ञानादि मार्ग का पात्र नहीं होता, तबतक उसको दीक्षा या शक्तिपात भी नहीं दिया जाता है I यही कारण है, की वैदिक गुरु शिष्य परंपरा एक गुप्त रूप में ही चलित होती है I और यही बिंदु वैदिक पारिवारिक परंपरा पर भी लागू होता है, इसलिए जो उस परिवार का नहीं होता, उसको भी उस परिवार के संगृहीत ग्रन्थ, ज्ञान, मार्ग आदि नहीं बताए जाते I
इसलिए जो वास्तविक योगी होते हैं, वो जानते हैं कि माँ प्रकृति के इस न्याय बिंदु का कभी भी उलंघन नहीं होना चाहिए, नहीं तो वो लोक ऐसी त्रासदी में चला जाएगा, जिसमें उस लोक की समस्त जीव सत्ता ही नष्ट हो जाएगी I और क्यूंकि, कोई भी वास्तविक योगी ऐसा कभी भी नहीं चाहेगा, इसलिए योगीजन इस न्याय बिन्दु का उलंघन भी नहीं करते हैं I
इस ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, किसी भी योगी ने, किसी दैविक सत्ता का वर्णन या चित्र बिलकुल वैसा नहीं किया है, जैसी वो दैविक सत्ता वास्तविकता में होती है। जो वास्तविक योगी होते हैं, उनको इस बिंदु का ज्ञान भी होता है।
और यही कारण है, कि किसी भी दैविक सत्ता की व्याख्या या चित्र, बिलकुल वैसे नहीं की जाती, जैसी वो दैविक सत्ता वास्तविक स्वरूप में होती है।
इसीलिए, ऐसी दैविक सत्ताओं की व्याख्या में या चित्रों में, कुछ न कुछ छुपा लिया जाता है, नहीं तो ऐसा योगी ही उस लोक के विनाश का कारण बन जाएगा, जिस लोक में उस योगी ने किसी दैविक सत्ता की व्याख्या पूर्णरूपेण की थी।
लेकिन इस बिंदु में एक बात और भी है, कि जो भी साधक उस छुपाई गई अवस्था को जानने का, साक्षातकार करने का, या मुक्त को प्राप्त होने का वास्तविक पात्र होगा, वो ऐसी व्याख्या या चित्र के होने पर भी, ऐसे चित्र या व्याख्या का अलम्बन लेने पर अपनी गंतव्य रूपी मुक्ति को पाएगा।
इसलिए, जबकी ये चित्र थोडा विकृत स्वरूप में है, और इसकी कुछ दिव्यता मैंने छुपाई भी है, लेकिन ऐसा होने के बाद भी, इसका विकृत प्रभाव किसी भी वास्तविक पात्र पर नहीं पड़ेगा।
और यही बात, मेरे बनाए हुए सारे चित्रों पर और मेरे द्वारा दी हुई समस्त व्याख्याओं पर भी लागू होती है, जिसके कारण, जो वास्तविक पात्र हैं, वो इन बातों का और उनके चित्रों का अलम्बन लेके, उनके अपने मार्ग में, उसी गंतव्य को जाएंगे, जिसको मैं अमुक अमुक स्वरूपों में, अमुक अमुक अध्यायों में, यहां पर बताऊंगा, और जिसपर मैं अब पहुँच चुका हूँ ।
अब आगे बढ़ता हूं…
और इस भाग के अंत में बोल रहा हूं, कि मेरे द्वारा कहा गया या लिखा हुआ जो भी है, जिस भी स्वरूप में है, वो मेरी गुरुदक्षिणा ही है।
मेरे पूर्व जन्म में, मेरे गुरुदेव भगवान बुद्ध ने ऐसा ही मांग लिया था। और इस जन्म में, मेरा परकाया प्रवेश के मार्ग से आगमन भी उनकी गुरुदक्षिणा के अनुसार ही हुआ है। और इसके साथ साथ, इस जन्म की अंतगति भी उन्हीं गुरुदेव की गुरुदक्षिणा रूपी अनुग्रह के अनुसार ही होगी, क्यूंकि मुझे पता है, कि उनकी गुरुदक्षिणा में ही उन्होंने उनका अनुग्रह स्थापित किया था I
एक और बात…
भगवान बुद्ध का जन्म, कोई चौथी, पांचवी, छठी, सातवीं या दसवीं शताब्दी ईसा पूर्व में नहीं हुआ था, बल्की उनका जन्म बीसवीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था। उनका जन्म 1914 ईसा पूर्व से, 2.7 वर्ष के भीतर ही हुआ था।
और क्योंकि मेरे इससे पूर्व जन्म के गुरुदेव, भगवान बुद्ध, ब्रह्मतेज के धारक थे, इसलिए जब उनकी आयु पचास वर्ष के समीप थी, अर्थात, उनकी आयु चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म की अभी की आयु के समीप थी, तब हम शिष्यों ने उनके प्रथम विग्रह को गया क्षेत्र में, अग्नि पुराण के अनुसार एक ब्राह्मण के घर पर स्थपित किया था। इस विग्रह को एक विश्व ब्राह्मण ने बनाया था और इस लोक में, यही भगवान बुद्ध का प्रथम विग्रह भी था।
उस विग्रह को बनाने के लिए, जब हम शिष्यों ने, गुरुदेव से उनकी अनुमति ली थी, तब उन्होंने अपने शरीर से ही एक भाग निकाल के हम शिष्यों को दिया था, जिसको हम शिष्यों उस विग्रह की धातुओं में मिला दिया था। वो विग्रह, ऐसे ही बनाया गया था।
उस पूर्व जन्म में भी मैंने ब्राह्मण वर्ण में परकाया प्रवेश प्रक्रिया से जन्म लिए था, और जब मैं छह से सात वर्षों का था, तब मेरे माता पिता ने मुझे भगवान बुद्ध को सौंप दिया था, जिसके पश्चात भगवान बुद्ध ने मुझे मैत्री (अर्थात मित्र) का नाम भी दिया था।
और ये नाम भी बुद्ध प्रज्ञापारमिता के नाम में कहे गए “मिता” शब्द पर था, जिसके अर्थ “मैत्री या मित्र” ही होता है। ये नाम भी भगवान बुद्ध ने इसलिए दिया था, क्यूंकि वो जानते थे, कि उस पूर्व के जन्म में भी, मैं इन्ही बुद्ध प्रज्ञापारमिता या माँ सावित्री का पुत्र था।
उस पूर्व के जन्म में भी इन्ही देवी सावित्री ने मुझे परकाया प्रवेश के मार्ग से एक शरीर प्रदान करवाके, जन्म दिया था, और वो पूर्व जन्म भी वैसा ही था, जैसा इस बार भी है।
इसी परकाया प्रवेश प्रक्रिया को मैं यहाँ पर बतलाऊँगा, जिसका आलंबन लेके में कई बार, किसी न किसी स्थूल शरीरी रूप में लौटाया गया हूँ।
परकाया प्रवेश क्या है …
परकाया प्रवेश पुनर्जन्म नहीं होता, ना ही ये वैसा कुछ होता है जिससे कोई जीवात्मा किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म लेती है।
परकाया प्रवेश के मार्ग में तो जन्म ही नहीं होता, क्यूंकि इस प्रक्रिया में, वो जीवात्मा एक बना बनाया शरीर धारण करती है, और उस शरीर को धारण करने के पश्चात वो जीवात्मा शरीरी हो जाती है।
ऐसी जीवात्मा जन्म नहीं लेती, वो बस किसी उपयुक्त शरीर को धारण करके, जन्मी हुई सी प्रतीत होती है। और क्यूंकि उसने जन्म तो लिया ही नहीं, इसलिए उसकी कैसी मृत्यु।
जो जन्मा है, वो ही तो मृत्यु को पाएगा I
लेकिन जो जन्मा ही नहीं, वो कैसे मरेगा।
ऐसी आत्मा तो बस जैसे आई थी, वैसे ही लौट जाएगी जब उसका कार्य संपन्न हो जाएगा।
और क्यूंकि ऐसा मनीषी किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्मा ही नहीं है, इसलिए ऐसा जन्म निसंभोग जन्म भी कहलाता है। अंग्रेजी में, इसको ही वर्जिन बरथ कहा जाता है।
अब आगे बढ़ता हूं…
परकाया प्रवेश दो शब्दों से बना है, पहला परकाया जिसके अर्थ “दूसरी काया, या दुसरे की काया या अपनी काया से पृथक काया” होता है, और प्रवेश शब्द का अर्थ तो साधरण है, तो इसको क्या बताना।
इसलिए, परकाया प्रवेश वो होता है, जिसमें किसी और काया में, अर्थात किसी और के शरीर में, प्रवेश किया जाता है, और ऐसे प्रवेश के पश्चात, वो काया जो किसी और की थी, उस परकाया प्रवेशी की हो जाती है।
वो काया जिसको योगी धारण करता है और जो उस योगी की ना हो, उसको परकाया प्रवेश कहा जाता है।
वो स्थूल शरीर जिसमें योगी ने जन्म न लिया हो, और इसके बाद भी वो योगी उस स्थूल शरीर में योगमार्ग से प्रवेश करके, उस शरीर को धारण करता है, ऐसी प्रक्रिया को ही परकाया प्रवेश कहते हैं।
ऐसी अवस्था को अजन्मा जन्म भी कहा जा सकता है, क्योंकि उस योगी ने जन्म तो लिया ही नहीं होता, वो तो बस किसी और की काया या शरीर में प्रवेश करके, उस काया या शरीर को धारण करके, उसमें निवास करने लगता है।
और वो उस शरीरी रूप में केवल तबतक ही निवास करता है, जबतक जिस कार्य के लिए उसको भेजा गया है, या वो लाया गया है या या वो आया है…, वो कार्य पूर्ण नहीं हो जाता।
लेकिन, परकाया प्रवेश कोई भूत पिशाच का खेल नहीं होता, क्योंकि दोनों में आकाश-पाताल का अंतर होता है।
परकाया प्रवेश से पूर्व की दशा …
जब किसी भी काल खंड के लिए, किसी योगी को परकाया प्रवेश के लिए, माँ प्रकृति की कोई अभिव्यक्ति, अर्थात कोई देवी चुनती हैं, तो उस योगी को बताती भी हैं, कि इतने समय के पश्चात, तुझे उस लोक में लौटना है, इसलिए अब उस नीचे के लोक में जाने को तैयार हो जा।
लेकिन नीचे के लोक में लेके जाने से पूर्व, कुछ समय के लिए वो देवी उस योगी को उस लोक की आकाश गंगा में बसा देती हैं, ताकी वो योगी उस लोक का अध्ययन कर ले, और उस लोक में किसी जन्मे हुए स्थूल शरीर में लौटाने का मन बना ले।
और यदि आकाश गंगा में में बसने के बाद उस योगी को उस लोक में जाने के लिए कोई भी आपत्ति है, तो वो आपत्ति का कारण भी बता दे, ताकि उस आपत्ती के कारण का निवारण भी हो सके।
जब योगी किसी पृथ्वी लोक की आकाश गंगा में बस के, उस पृथ्वी लोक का अध्ययन करता है, तो ऐसा समय 108 और 1 वर्ष तक भी हो सकता है।
यदि वो योगी बहुत ऊपर के लोकों से लौट रहा है, जैसे पञ्च मुखी सदाशिव का कोई मुख, या उस मुख का देवलोक, तो ऐसे योगी को उस आकाश गंगा में, अधिक समय चाहिए होगा, जिसके किसी स्थूल पृथ्वी लोक में वो लौटाया जा रहा है।
ये 108 और 1 वर्ष का समय, उस स्थूल शरीर के जन्म से पूर्व ही होगा, जिसमें उस योगी को परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटाया जाएगा।
परकाया प्रवेशी की जन्म मृत्यु … परकाया प्रवेशी का जन्म मरण नहीं होता …
क्योंकि वो योगी केवल लौटाया गया है, इसलिए उसने जन्म लिया है, ऐसा भी नहीं कह सकते।
वो तो केवल किसी और की काया में या किसी और के शरीर में प्रवेश करके, उस शरीर में ही निवास करने लगता है, इसलिए वो तो बस उस शरीर में प्रकट हुआ है, न कि जन्म लिया है।
क्योंकि उसने जन्म तो लिया ही नहीं, तो उसकी कैसी मृत्यु। जो जन्मा ही नहीं है, वो मरेगा कैसे। इसलिए ऐसा योगी, जन्म मरण से परे होता है।
वो तो बस आया है, उस शरीर में, जो पूर्व में कभी जन्मा था।
और अपना कार्य करके, वो योगी चला जाएगा, इसलिए उसका जन्म मरण से कुछ भी लेना देना नहीं है।
ऐसा योगी के जन्म को केवल इतना ही कह सकते हैं, कि वो किसी शरीरी रूप में प्रकट हुआ, या वो तो बस आ गया एक शरीर में।
और ऐसे योगी की मृत्यु को भी इतना ही कह सकते हैं, कि वो अब चला गया उस शरीर से, जिसमें वो पूर्व में आया था।
लेकिन ऐसे योगी को स्वयंभू भी नहीं बोल सकते, क्योंकि वो स्वयं प्रकट या स्वयंउत्पन्न नहीं हुआ था।
उसके किसी शरीर में प्रकट होने का मूल कारण, वो स्वयं नहीं था, इसलिए उसे स्वयंउत्पन्न नहीं बोला जा सकता।
परकाया प्रवेश के प्रकार …
परकाया प्रवेश के दो मुख्य प्रकार होते हैं, जिनको अब इनको बता रहा हूँ …
- पहले प्रकार का परकाया प्रवेश …
इसमें योगी जीवित होते हुए ही, अपनी काया को त्याग कर के, कुछ ही सीमित समय के लिए, किसी और की काया में प्रवेश करता है।
ऐसा योगी किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म लेता है, इसलिए वो जन्मा हुआ कहलाता है। इसलिए, उस योगी के स्थूल शरीर के जन्में हुए लोक के दृष्ट्विकोण से, ऐसे योगी का जन्म परकाया प्रवेश के मार्ग से माना ही नहीं जा सकता है।
और उस स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म लेने के पश्चात, वो योगी परकाया प्रवेश नामक सिद्धि से किसी और शरीर में, कुछ ही समय के लिए प्रवेश करता है।
लेकिन यहाँ पर ऐसे योगी की बात नहीं होगी, इसलिए अब दूसरा प्रकार बतलाता हूँ।
- दुसरे प्रकार का परकाया प्रवेश …
इसमें योगी किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म नहीं लेता है। वो परकाया प्रवेश से किसी और का शरीर धारण करता है।
इस दूसरे प्रकार में,या तो उस स्थूल शरीर का जन्म जिसको वो योगी धारण करता है, उसी योगी के लिए ही होता है, या वो परकाया प्रवेश से आने वाला योगी, उस स्थूल शरीर के निवासी से बात करके, एक समझौता करके, एक निश्चित समय पर, एक निश्चित स्थान पर, और एक निश्चित समय सीमा के भीतर, उस स्थूल शरीर में परकाया प्रवेश के मार्ग से आकर, उस स्थूल शरीर को धारण करता है। और इस प्रक्रिया में, उस स्थूल शरीर का मूल निवासी, अपने शरीर को ही दान में दे देता है, उस परकाया प्रवेशी को।
और क्यूंकि ऐसा योगी जन्म और मृत्यु के चक्र के बाहर से लौटाया जाता है, इसलिए वो जन्मा हुआ प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में जन्म मरण के चक्र से परे ही होता है। वो एक स्थूल शरीर में बैठा हुआ भी, जन्मा सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में अजन्मा ही होता है I
वो योगी ऐसा होता है, जो जन्म मरण के चक्र से बाहर होता हुआ भी, कुछ कार्य करने हेतु, किसी लोक के एक स्थूल देह में लौटाया जाता है।
ऐसे लौटाए गए योगी की प्रेरणा में, कोई भी देवी देवता हो सकता है, या कई सारे देवी देवता भी हो सकते हैं । उसकी प्रेरणा में, कई सिद्ध ऋषिगण जो उसके पूर्व जन्मों में उसके पिता माता गुरु आदि थे, वो भी हो सकते हैं। और ऐसे योगी की प्रेरणा में, माँ प्रकृति के कुछ तत्त्व या सारे तत्त्वों की दिव्यताएँ भी हो सकती है। और कुछ उत्कृष्ट योगी, जो परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटाए जाते हैं, उनकी प्रेरणा ब्रह्म या प्रकृति या दोनों भी हो सकते हैं I
लेकिन इन सब बिन्दुओं के साथ साथ, उस योगी की प्रेरणा में, प्रजापति की हिरण्यगर्भात्मक अभिव्यक्ति अवश्य होगी, अर्थात, उसकी प्रेरणा में हिरण्यगर्भ ब्रह्म होंगे ही।
परकाया प्रवेश और कालचक्र का सम्बन्ध …
क्यूँकि काल उसके ही कालचक्र स्वरूप में, हिरण्यगर्भ ब्रह्म से ही अभिव्यक्त हुआ था, इसलिए ऐसे योगी की प्रेरणा में, भगवान महाकाल और उनकी दिव्यता, माँ त्रिकाली या दस हाथ वाली माँ महाकाली अवश्य होंगी।
इसलिए, ऐसा योगी कालचक्र के अनुसार ही लौटाया जाता है।
जबतक कालचक्र में परकाया प्रवेश की आवश्यकता नहीं होती, तबतक चाहे कोई भी कुछ भी कर ले, वो योगी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से कभी भी लौटाया नहीं जा सकता।
और क्यूंकि वो कालचक्र के अनुसार ही आता है, और क्यूँकि ब्रह्म की रचना में, सबकुछ कालगर्भित ही है, इसलिए, उसके कार्य में, चाहे कोई भी बाधा आ जाए, कोई उसे रोकने के लिए कुछ भी कर ले, अंततः वो परकाया प्रवेशी सफल ही होता है।
और ये भी कारण है, की न कोई उस लोक का निवासी, न ही किसी और लोक का निवासी, और न ही कोई अलोक निवासी, उसे उसके कार्य में रोक पायेगा।
परकाया प्रवेश के मार्ग से कौन लौट सकता है …
परकाया प्रवेश वो योगी कर सकता है, जो जन्म मृत्यु से परे होता हुआ भी, मुक्ति को नहीं पाया है। ऐसे अधिकांश योगी, प्रबुद्ध योग भ्रष्ट ही होते हैं।
जो योगी अथर्ववेद के दशम काण्ड, दूसरे सूक्त, मन्त्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस के इकत्तीसवें, बत्तीसवें और तैंतीसवें मन्त्रों से पार चला गया है, वो ही जन्म मरण से परे होता है। और ऐसा होने के पश्चात भी, वो आता जाता रहता है।
मेरे पूर्व जन्म के कालों में, अथर्ववेद के इस मार्ग को आंतरिक अश्वमेध यज्ञ भी कहा जाता है। इस यज्ञ में योगी की चेतना, अष्टम चक्र को ही पार कर जाती है।
और इस अष्ठम चक्र से पार जाने का मार्ग, हृदयाकाश गर्भ से होता हुआ, कैवल्य गुफा से जाता हुआ, और वहां से, अकार, उकार, मकार और ब्रह्मतत्त्व को पार करके, ओमकार के बिन्दु में लय होके, वज्रदण्ड चक्र के भीतर राम नाद या शिव तारक मन्त्र से जाके, अष्टम चक्र को जाता है।
और इसके पश्चात, योगी की चेतना इस अंतिम चक्र या अष्टम चक्र को ही पार कर जाती है, और योगी की चेतना, पञ्च मुखा सदाशिव की प्रदक्षिणा करती है। जब ऐसा होता है, तब एक आंतरिक अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होता है।
और एक बात जान लो, जब कई जन्मों की तपस्या फलित होती है, तो ही वो योगी अष्टम चक्र को पार करके, सदाशिव प्रदक्षिणा पूर्ण करके, अश्वमेध सिद्धि को पाता है।
इसका अर्थ हुआ की इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को एक बार ही पूरा करने में, कई जन्म लग जायेंगे। और किसी किसी साधक को तो इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को एक बार ही पूर्ण करने में कई महाकल्प भी लग जाते हैं।
यदि इस आंतरिक अश्वमेध के बाद, ऐसा योगी कैवल्य को नहीं पाता है, तो वो समय समय पर, काल की प्रेरणा से, परकाया प्रवेश के मार्ग के द्वारा लौटाया जाता है।
ऐसी अवस्था में, जबतक वो योगी, इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को, एक सौ एक बार पूर्ण नहीं कर लेता है, तबतक वो परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटाया जा सकता है…, लेकिन इसके पश्चात नहीं।
परकाया प्रवेशी की माताएं और अंतिम गति …
और इसके साथ साथ, उसकी गति के अनुसार, वो योगी की माताएँ ऐसी होती हैं …
- जब वो योगी इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को निन्यानवी (99वी) बार करने को लौटाया जाता है, तब जो देवी उस योगी को उनके अपने दैविक गर्भ में धारण करके किसी स्थूल लोक में लाती हैं, और एक स्थूल शरीर प्रदान करती हैं, उनको वेदों में माँ रौद्री भी कहा गया है।
ऐसा योगी, एकादशवें रुद्र के लोक से लौटाया जाता है, और ऐसा योगी “रौद्री रुद्र योग” विद्या का धारक होता है, जिसको किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा।
ऐसे योगी के भीतर, उसके हृदय में रुद्र अपने एकादशवें स्वरूप में, भगवे रुद्र के लिंगात्मक स्वरूप में निवास करते हैं। इस रुद्र लिंगात्मक स्वरूप को एक पूर्व के अध्याय, जिसका नाम रुद्रत्मालिंग गुफा था, उसमें बतलाया जा चुका है।
ऐसे योगी के प्राणमय कोष में ही रुद्र और रौद्री अपने सनातन योगावस्था में निवास करते हैं।
और ऐसे योगी के हृदय में भी, रुद्र और रौद्री अपने सनातन योगावस्था में होते हैं।
और इसके साथ साथ, ऐसे योगी के ब्रह्मरंध्र प्राणमय कोष में, रुद्र अपनी अर्धांगनी रौद्री में ही निवास करते हैं।
और इसके साथ साथ, ऐसे योगी के मन में ही, प्राणों का योग होता है, जिसके कारण ऐसा योगी “शक्ति शिव योग” को अपनी काया के भीतर ही पाता है।
उसका मन शिव कहलाता है, जो तमोगुणी होता है, और इसलिए गाढ़े नीले रंग का होता है। और इसके साथ साथ, उसके प्राण ही शक्ति कहलाते हैं, जो सत्त्वगुणी होते हैं, इसलिए वो प्राण श्वेत वर्ण के होते हैं।
ऐसे योगी जब भी लौटेगा, वो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, रुद्र स्वरूप ही कहलाएगा।
- और जब वो योगी इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को सौवीं (100वी) बार सिद्ध करने को लौटाया जाता है, तब जो देवी उस योगी को उनके अपने दैविक गर्भ में धारण करके किसी स्थूल लोक में लाती हैं, और एक स्थूल शरीर प्रदान करती हैं, उनको वेदों में इन्द्राणी भी कहा गया था।
लेकिन इस ग्रन्थ में मैं, “इन्द्राणी इंद्र योग” को कभी नहीं बतलाऊँगा I इसका कारण है कि जिस भी योगी ने इसको पा लिया, वो इसको कभी भी नहीं बताएगा, क्यूंकि ये योग, देवराज और उनकी शक्ति का योग है, जो योगी की काया के भीतर ही होता है और जो अनादि कालों से गुप्त में ही रखा गया है।
ऐसे योगी के हृदय में, एक पीली रंग की नाड़ी का उदय होता है, जो उसके मस्तिष्क की ओर जाती है, और ये हेम वर्ण की नाड़ी की दिव्यताओं का आलंबन लेके, योगी की चेतना सीधा इन्द्रलोक को जाती है।
ऐसा योगी हृदयारंध्र विद्या के मार्ग में बसकर, देवयान नामक यान पर सवार होकर, इन्द्रलोक को जाता है, और इसके पश्चात, वो योगी इन्द्रलोक में ही निवास करता है।
और भविष्य में कुछ विशेष कार्य करने हेतु, जब वो योगी किसी नीचे के लोक में भेजा जाता है, तब वो इन्द्रलोक से ही लौटाया जाता है।
ऐसे योगी के विज्ञानमय कोष में ही देवरानी इन्द्राणी निवास करती हैं। ऐसे योगी के अन्तःकरण चतुष्टय में, उसकी बुद्धि ही देवराज इंद्र, और बुद्धि की दिव्यता या प्रकाश ही इन्द्राणी होती हैं।
ऐसा योगी इंद्र स्वरूप होके, त्रिशंकु ही हो जाता है, जिसके बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।
इस त्रिशंकु अवस्था को प्राप्त होने के पश्चात, जबतक वो योगी इसी अष्टम चक्र को एक सौ एक (101) बार पार नहीं कर लेता, तबतक वो योगी परकाया प्रवेश के मार्ग का आलंबन लेके इसी त्रिशंकु अवस्था में ही लौटता रहता है।
ऐसे योगी जब भी लौटेगा, वो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, देवराज इंद्र का स्वरूप ही कहलाएगा।
लेकिन आज के वेद मनीषि, इस त्रिशंकु की सिद्धि और अवस्था को इतने विकृत स्वरूप में बताते हैं, की इसका सिद्धि की वास्तविकता या सत्य ही लुप्त हो गया है।
और यही कारण है, की आज के मार्गों में, कोई भी योगी, इन्द्रपद को पा ही नहीं सकता है, क्यूँकि इन्द्रपद, त्रिशंकु अवस्था को ही लेकर जाता है और वो भी तबतक, जबतक वो त्रिशंकु योगी, पितामह ब्रह्मा के ही पद को नहीं पाता है।
पितामह ब्रह्मा के पद का मार्ग भी उसी आंतरिक अश्वमेध यज्ञ से जाता है, जिसमें योगी, उसके अपने जीव रूपी इतिहास में, उसी अष्टमचक्र को एक सौ एकवी (101वी) बार पार करता है, अर्थात सिद्ध करता है। और इसी सिद्धि से वो योगी, जगत पिता और जीवों के पितामह, या ब्रह्मा जी के पद को पाता है।
लेकिन आज इस सिद्धि का मार्ग भी लुप्त हो गया है, क्यूंकि इसको पाने की दशा, जो त्रिशंकु की होती है, उसको ही विकृत कर दिया गया है, और वो भी वेद मनीषियों के द्वारा।
- और जब वो योगी इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को, एक सौ एकवी (101वी) बार करने को लौटाया जाता है, तब जो देवी उस योगी को उनके अपने दैविक गर्भ में धारण करके किसी स्थूल लोक में लाती हैं, और एक स्थूल शरीर प्रदान करती हैं, वो देवी माता ही ॐ का प्रथम बीज शब्द, अकार कहलाती हैं, जिनको वेदों में, माँ सावित्री भी कहा गया है, और जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म के कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति की शक्ति, दिव्यता, दूती और अर्धांगनी हैं।
ऐसा योगी, हिरण्यगर्भ लोक से ही लौटाया जाता है। इस सिद्धि को भी नहीं बतलाऊँगा, क्यूंकि जिस भी योगी ने इसको पा लिया, वो इसको कभी भी नहीं बतलायेगा।
लेकिन ऐसा योगी जब भी लौटेगा, उसको ब्रह्माण्ड की दिव्यताएँ, प्रजापति का सगुण साकार, हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म स्वरूप ही मानेंगी।
ऐसे योगी के भीतर, वो हिरण्यगर्भ ब्रह्म, अपने लिंग चतुष्टय स्वरूप में भी निवास करते हैं।
और ऐसे योगी का आत्मस्वरूप भी एक सगुण साकार हिरण्य शरीर के समान होता है, जो उसके ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन छोटे छोटे चक्रों में से, मध्य वाले बत्तीस दल कमल में निवास करता है।
ये स्वरूप एक मानव शरीर में होता है, जो स्वर्ण वर्ण का होता है, और जो उस बत्तीस दल कमल में बैठे हुए, ऊपर की ओर, उस अनंत आकाश रूपी ब्रह्म को ही देखता रहता है।
जिस भी योगी की काया के भीतर, उसका ऐसा आत्मस्वरूप स्वयं प्रकट होता है, वो योगी की चेतना, उसके शरीर में होती हुई भी, ब्रह्मलीन हुए बिना नहीं रह पाती।
ऐसा योगी, ज्ञान ब्रह्म नामक सिद्धि से जाके, चेतन ब्रह्म, मन ब्रह्म, अहम् ब्रह्म और प्राण ब्रह्म जो जाता है, और अंततः, अपने आत्मस्वरूप में ही, अपने ब्रह्मत्व को पाता है। ऐसे योगी के भाव में ही उसका साधन होता है, और जब वो लौट के आते है, तो उसका मूल मार्ग ज्ञान योग का ही होता है।
अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …
जिस भी योगी ने अपने आंतरिक अश्वमेध यज्ञ में, इस अष्टमचक्र को, एक सौ एकवी (101वी) बार पार कर लिया, वो प्रजापति का ही सगुण साकार स्वरूप कहलाता है।
और इस सिद्धि के पश्चात, वो किसी भी लोक में, लौटाया भी नहीं जा सकता है, जिसके कारण वो परकाया प्रवेश के मार्ग से भी नहीं आ सकता है।
इसलिए, कोई माने या न माने, ऐसे योगी की अंतिम गति प्रजापति स्वरूप की ही होती है।
इस प्रजापति स्वरूप की प्राप्ति के पश्चात, वो योगी चाहे तो इस स्वरूप को धारण करके बैठा रहे, और किसी बाद के ब्रह्माण्ड का चतुर्मुखा ब्रह्म बन जाए…, या वो योगी उसके अपने भाव में ही कैवल्य मुक्त होके, निर्गुण निराकार ब्रह्म में ही लय हो जाए।
इस सिद्धि के पश्चात, वो योगी क्या चाहता है, वो उसपर ही रहेगा, क्यूंकि इस ब्रह्मपद नामक सिद्धि के पश्चात, पितामह ब्रह्म के इस समस्त चतुर्दश भुवन में, उस योगी को कोई भी, कुछ भी आदेश नहीं दे सकता।
इस ब्रह्मपद की सिद्धि के पश्चात, ऐसा योगी चाहे पितामह ब्रह्म के ब्रह्माण्ड में ही क्यों न रह जाए, तब भी वो योगी अपने भाव से लेकर, अपने कार्यों में, अनादि अनादि कालों तक पूर्ण स्वतंत्र ही रहेगा।
आज कल वेद मनीषी कहते है, कि अमुक अमुक देवी देवता पितामह ब्रह्म से बड़े हैं, लेकिन ये सब असत्य है, क्यूंकि ऐसी सभी बातें, उन वेद मनीषियों के विकृत मनोलोक की उत्पत्ति ही है, जिनका इस ब्रह्माण्ड की वास्तविक स्थिति से कुछ भी लेना देना नहीं है।
वास्तविकता तो ये है, की उन सर्वसम, सगुण साकार, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म के ब्रह्माण्ड और उनके द्वारा स्वयंउत्पन्न ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, पितामह ही सर्वेसर्वा हैं।
परकाया प्रवेशी और प्रबुद्ध योग भ्रष्ट …
प्रबुद्ध योग भ्रष्ट ही ऐसा योगी होता है, जो परकाया प्रवेश के मार्ग से और काल की प्रेरणा से लौटाया जाता है।
ब्रह्माण्ड के पूरे इतिहास में, ऐसे प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के सिवा, परकाया प्रवेश के मार्ग से न तो कभी कोई लौटाया गया है, और न ही कभी कोई लौट ही पायेगा।
यदि कोई भी जीव परकाया प्रवेश से जन्मा हुआ प्रतीत हो रहा है, तो वो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट ही हो सकता है। जो ऐसा नहीं है, उसके पास परकाया प्रवेश से किसी भी लोक में लौटने की क्षमता ही नहीं होगी।
इस क्षमता न होने का कारण है, कि उसको ऐसे नीचे के लोकों में लाने के लिए, कोई भी वैदिक देवी अपना गर्भदान ही नहीं करेगी। और जबतक कोई वैदिक देवी अपना गर्भदान नहीं करेगी, तबतक परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटा ही नहीं जा सकता है।
जबतक वो साधक अष्टमचक्र को कम से कम एक बार पार नहीं करेगा, और इसके साथ साथ वो साधक प्रबुद्ध योगभ्रष्ट नहीं हो जाएगा, तबतक कोई भी वैदिक देवी उसको अपने गर्भ में बसा कर, समस्त जीव जगत से ही छुपा कर, किसी नीचे के लोकों में लाएगी भी नहीं। और जबतक ऐसा नहीं होगा, तबतक वो साधक परकाया प्रवेश कैसे कर पायेगा।
और क्यूंकि, जैसे पहले के अध्याय में बताया गया था, की जितने भी योगी प्रबुद्ध योग भ्रष्ट हुए है, वो सब प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु के मनस पुत्र ही थे, इसलिए, इस ब्रह्म कल्प के पूरे समय में, जो भी परकाया प्रवेश से लौटा है, या भविष्य में कभी लौटेगा, वो योगी भी प्रजापति स्वरूप ब्रह्मऋषि क्रतु का ही मनस पुत्र होगा।
कम से कम इस कल्प में तो, अब तक ऐसे ही हुआ है…, और जबतक ये ब्रह्म कल्प चलेगा, आगे भी ऐसा ही होगा।
परकाया प्रवेशी का मूल …
इस पूरे कल्प में, जो भी प्रबुद्ध योगभ्रष्ट आए हैं, वो सभी प्रजापति स्वरूप, ब्रह्मऋषि क्रतु के 60,000 मानस पुत्रों में से ही थे।
और इसी ब्रह्मकल्प में, आगे भी जो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट आएंगे, वो भी उनके अपने मूल से ऐसे ही होंगे। और ये सारे प्रबुद्ध योगभ्रष्ट, परकाया प्रवेश से ही लौटाए जाते हैं।
इस परकाया प्रवेश की प्रक्रिया से लौटने का कारण है, कि जिस भी योगी ने यदि, एक बार भी अथर्ववेद के दासवे अध्याय के मंत्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस को योगमार्ग से पार कर लिया, तो वो योगी कभी भी,किसी भी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म नहीं ले सकता।
इन तीन मंत्रों के मार्ग और सिद्धि को ही आंतरिक अश्वमेध यज्ञ कहा जाता है। ये आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, राम नाद से होकर, अथर्ववेद का दासवे अध्याय की मंत्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस में सांकेतिक रूप में बतलाए गए अष्टमचक्र को जाता है, और इसके पश्चात, वो योगी अपने चेतन स्वरूप में, पंच मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा करके, एक अश्वमेध यज्ञ को पूर्ण करता है।
लेकिन जो ब्रह्मऋषि क्रतु के मनस पुत्र हैं, उनको तो इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को एक सौ एक (101) बार पूर्ण करना ही होगा, क्योंकि उनके मनस पिता ने उन सब को ऐसा ही आदेश दिया था।
और उनके मनस पिता ने तो ये भी कहा था, कि जबतक तुम सब, एक एक करके, ऐसा नहीं करोगे, तुम प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होके, लौटते ही रहोगे, किसी न किसी सगुण साकारी जीव स्वरूप में और तुम्हारे लौटने की प्रक्रिया, परकाया प्रवेश के मार्ग से ही होगी।
और उनके मनस पिता ने उन सब को ये भी कहा था, कि क्योंकि तुम मेरे मनस पुत्र हो, इसलिए तुम कभी भी किसी भी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म नहीं ले पाओगे। तुम जब भी, किसी भी लोक में लौटोगे या लौटाए जाओगे, तुम सब परकाया प्रवेश के मार्ग से ही आओगे।
और इसका कारण है, की किसी भी कल्प में, जो योगी उसके अपने मूल से प्रजापति के या उन प्रजापति के किसी स्वरूप का एक मनस पुत्र ही है, वो केवल परकाया प्रवेश के मार्ग से ही लौट सकता है। जो अपने मूल से ही जन्मा नहीं था, वो बाद की अवस्थाओं में, जब वो पुनः लौटके आएगा, किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म कैसे ले पाएगा?…, थोड़ा सोचो तो।
ऐसे योगी का किसी भी स्थूल देहि शरीर में लौटने का, कोई और मार्ग है भी तो नहीं।
परकाया प्रवेश के प्रभेद …
सभी परकाया प्रवेश से लौटे हुए योगी, एक जैसे नहीं होते, उनके भी प्रभेद होते हैं, जो सदाशिव के पंच मुख, और उनमें बसे हुए पंच देव और उनके पंच कृत्य के अनुसार होते हैं।
इससे आगे मैं इस बिंदु को बताना नहीं चाहता हूँ, इसलिए अगले बिंदु पर जाता हूँ।
परकाया प्रवेश … इस चित्र और दशा की व्याख्या …
ये चित्र उस परकाया प्रवेश का है, जैसा इस जन्म में हुआ था, लेकिन ये चित्र सांकेतिक रूप में दिखाया गया है।
ये चित्र उस समय का है, जब मैं परकाया प्रवेश के मार्ग से, इस स्थूल शरीर में आया था, जिसमें बैठ कर मैं ये सब बता रहा हूँ।
ये बात कोई 1981 और 1984 के बीच की है। मैं यहां पर इसका वास्तविक वर्ष, तिथि और समय नहीं बताना चाहता हूं, इसलिए 1981 से 1984 के बीच में, ऐसा बोला है।
उस समय पर, हम भारतीय वायु सेना विमानक्षेत्र (अर्थात, भारतीय वायु सेना स्टेशन) हलवारा, पंजाब में थे, और पापा वहां पर एक वायु सेना के बेड़े (स्क्वाड्रँन) के कमान अधिकारी (कमांडिंग ऑफिसर) भी थे।
हमारे उस समय के घर के पीछे की ओर रसोई घर था, जिसके द्वार से उस घर के पीछे के बगीचे में जाने का रास्ता था। और उस बगीचे में, उस घर की छत को छूता हुआ, एक आम का वृक्ष था।
उस आम के वृक्ष के नीचे, और घर के समीप, रसोई घर की एक नाली थी, जो प्रयोग में नहीं थी और वो कच्ची मिट्टी से लबालब भरी हुई थी।
वो ऐसा समय था जब आम कच्चे थे…, अम्बी के रूप में थे। मैं अब एक छोटा सा संकेत देता हूं, कि यहां कहा गया अम्बी शब्द का नाता, अंबा, अंबिका, एकाम्र ईश्वरी (भुवनेश्वर की दिव्यता या शक्ति) अदि शब्दों से भी है।
एक दिन जब विद्यालय से हम बच्चों की छुट्टी थी, मैं अपने घर की छत पर चढ़ गया, कुछ अँबियां तोडने के लिए। उस समय इस स्थूल शरीर की आयु, कोई दस वर्ष के अंदर अंदर ही थी।
और जब मैं उस छत्त के किनारे पर खड़ा होके अंबियां तोड़ रहा था, तो मुझे किसी ने छत से नीचे धक्का दे दिया, और मैं कालाबाजियां खाता हुआ नीचे गिरने लगा।
जब मैं कालाबाजियां खा रहा था और नीचे भूमि की ओर गिर रहा था, तो कुछ ही क्षणों के लिए, मेरी दृष्टि छत्त पर पड़ी, और मैंने देखा, कि काली रात्री के समान, एक भयानक जीव उस छत्त पर खड़ा हुआ था और मुझे नीचे गिरते देखकर वो बहुत प्रसन्न भी हो रहा था…, कि अब ये बच्चा तो गया।
इस दशा में मैंने माँ दुर्गा को पुकारा, कि माँ मदद करो इस भयावह जीव से।
जैसे ही मैंने अपने मन में पुकारा, वैसे ही ये स्थूल शरीर नीचे धरती पर धड़ाम गिरा। पहले तो मेरे घुटने और पैर नीचे की भूमि से लगे, और इसके बाद सर रसोईघर की सूखी नाली में पड़ी हुई कच्ची मिटटी से टकराया।
जैसे ही ऐसा हुआ, तो मैं सुन्न हो गया, क्योंकि चेतना शरीर में रहते हुए ही, तमोमय हो गई, अर्थात स्तंभित हो गयी।
और ऐसी चेतना युक्त लेकिन स्तम्भित तमोमय दशा में, मैं मुह के बल, उस रसोई घर की सूखी हुई नाली में पड़ा ही रह गया। यही दशा इस चित्र में दिखाई गई है I
ये दशा ऐसी थी, की मेरे को सूक्ष्म और दैविक जगत का बहुत कुछ दिखाई दे रहा था, लेकिन तब भी मेरा स्थूल शरीर हिलडुल नहीं पा रहा था। और उस दशा में, कुछ समय तक वो स्थूल शरीर भूमि पर बस ऐसा ही पड़ा रह गया।
और इस दशा में, जब मैं अधमरा सा पड़ा हुआ था और मेरी आंखें बंद थी, मेरी उस तमोमयी चेतना के आगे, इस चित्र में दिखलाई गई देवी माँ सावित्री आ गई, जिनके मुख पर बहुत सुंदर सी मुस्कान भी थी।
उसी अधमरी दशा में, नाली में पड़े हुए, मन ही मन मैंने उन देवी सावित्री को नमन किया और मन में सोचा, कि अब जो भी होता है, उसको होने दो…, क्यूंकि मेरी पुकार सुनकर, देवी माँ आ चुकी हैं।
अब आगे बढ़ता हूँ …
परकाया प्रवेश की देवी का वर्णन … परकाया प्रवेश के समय शरीर की अवस्था …
ये देवी सुनहरे रंग की हैं, उनके वस्त्र लाल रंग की साडी जैसे हैं, जिसमें से हीरे जैसा प्रकाश बाहर को निकल रहा होता है। ये हीरे जैसा प्रकाश दर्शाता है, की उन्होंने सर्वसम चतुर्मुखा प्रजापति के सर्वसम-तत्त्व को धारण किया हुआ है।
और इन देवी के शरीर के नीचे के वस्त्रों से, तीन प्रकाश निकल रहे होते है, जो लाल, नीले और श्वेत वर्णों के होते है, और जो दर्शाता हैं की इन देवी ने त्रिगुण को ही धारण किया हुआ है। इसका ये भी अर्थ हुआ, कि ये देवी त्रिगुणात्मिका हैं।
उनका सर ऊपर से उठा हुआ, नोकीला सा होता है, जैसे उन्होंने कोई सुनेहरा मुकुट धारण किया हुआ है, और जो उनकी उठी हुई चेतना को दर्शाता है।
इन्ही देवी को वैदिक और योग मनीषियों ने, ओ३म् का प्रथम बीज, अकार भी कहा है, और इनको पञ्च सरस्वति में, सावित्री सरस्वती के नाम से भी पुकारा गया है।
यही माँ सुभद्रा भी हैं (अर्थात भगवान जगन्नाथ की अनुजा) और यही देवी एकाम्र ईश्वरी, अम्बा, अम्बिका अदि भी कहलाती है I
इन्ही का एक स्वरूप माँ बगलामुखी (अर्थात माँ पीताम्बरा, माँ ब्रह्मास्त्र विद्या) भी है, जो 2019 से ही भारत के पूर्वी दिशा के क्षेत्रों में बैठी हुई हैं I
इस ब्रह्मास्त्र विद्या के लघु रूप के बारे में किसी और अध्याय में बतलाऊँगा, क्यूंकि वैदिक परंपरा में, इसका वास्तवकि स्वरूप कभी भी सार्वजनिक नहीं किया जाता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
उस समय वो देवी उस आम के पेड़ के नीचे, लेकिन धरती से और मुझसे थोड़ा सा ऊपर की ओर खड़ी हुई थी। मैंने उन देवी को देखा, लेकिन मैंकुछ कर नहीं पाया, क्योंकि मैं चेतनामय होता हुआ भी, अपने स्थूल शरीर के दृष्टिकोण से तमोमय अवस्था में ही था।
और मेरा शरीर बिलकुल भी हिलडुल ही नहीं पा रहा था, जिसके कारण में उठ कर खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। दाहिने पैर के जोड़ों और सर में बहुत भयानक पीड़ा हो रही थी, जैसे किसी ने गरम लोहा अंदर डाल दिया हो।
इस परकाया प्रक्रिया के पूर्ण होने के एक दो घंटे के बाद, जब हलवारा के फौजी अस्पताल (मिलिट्री हॉस्पिटल) में मेरी जांच हुई, तो पाया गया, कि दिमाग में चोट सा कुछ हुआ है, और मेरे दाहिने पैर की दो हदियां भी टूट गई हैं।
और इस दशा में, जब मेरा सर उस नाली के भीतर था, और मैं तमोमय होकर स्तम्भित सा ही पड़ा हुआ था, तब भी मैं पूरी चेतनामयी अवस्था में था, और उन देवी को देख रहा था, जो उस समय मेरी मदद की गुहार सुनकर आई थी।
उस समय, वो देवी मेरे दाहिने ओर खड़ी हुई थीं, और मेरा स्थूल शरीर भी उनके थोड़े दाहिने ओर, उस रसोई घर की सूखी नालि की कच्ची मिटटी में उल्टा होकर (अर्थात पेट के बल) पड़ा हुआ था I यही दशा इस चित्र में भी कुछ सांकेतिक, कुछ प्रत्यक्ष रूप में दिखाई गयी है।
और तब मैंने देखा, कि मेरे स्थूल शरीर से, मेरा नीले रंग का सूक्ष्म शरीर बाहर को निकल गया। और उसी तमोमयी लेकिन चेतन अवस्था में मैंने यह भी देखा, कि उन देवी ने उस सूक्ष्म शरीर को मेरे स्थूल शरीर से पृथक भी कर दिया, जिससे वो उसी स्थान पर सूक्ष्म शरीर गमन प्रक्रिया के अनुसार, मेरे स्थूल शरीर से बाहर खड़ा हुआ, घूमने फिरने लगा।
ये नीले रंग का सूक्ष्म शरीर भी इस चित्र में भी दिखाया गया है, लेकिन इस सूक्ष्म शरीर के बारे में, कभी बाद के अध्याय में बताऊंगा।
जैसे ही ऐसा हुआ, वैसे ही मेरे सर में, जहाँ ब्रह्मरंध्र (अर्थात पितामह ब्रह्म का द्वार) होता है, वहां पर एक तीव्र पीड़ा उठी, जैसे इस स्थान पर किसी ने सुई चुभा दी हो। और ये पीड़ा जो सर के ऊपर के भाग में, ब्रह्मरंध्र से प्रारम्भ होकर, शिवरंध्र से होकर, विष्णुरंध्र के स्थान तक गयी। और मस्तिष्क के आगे की ओर ओर ये पीड़ा देवीरन्ध्र से होकर, आज्ञारन्ध्र तक गई I और जब ऐसा हुआ, तो हृदयरंध्र और नाभिरंध्र तक उस तीव्र पीड़ा का कुछ भाग पहुंचा I
लेकिन नाभिरंध्र को इस ग्रन्थ में नहीं बतलाया गया है, क्यूंकि उस नाभिरंध्र में ही साधक की काया के भीतर, विष्णुनाभि होती है, जिससे पितामह ब्रह्म का स्वयंप्रादुर्भाव हुआ था, और जिनके स्वयंउदय के बारे में, उनकी रचना होकर, उनकी रचना में ही बैठ कर, बताया नहीं जा सकता I इसलिए उस नाभि रंध्र को किसी भी योगी ने अब तक नहीं बताया है, जिसके कारण ये एकमात्र रन्ध्र है, जो स्व:ज्ञान से ही जाना जाता है I लेकिन इस नाभिरंध्र के समीप, जो नाभि लिंग होता है, उसको रकार मार्ग के अध्याय में अवश्य बताया जाएगा I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और इसी समय पर, उन देवी के दाहिने ओर से, उन देवी के दैविक शरीर के नीचे के भाग से, एक सुनेहरा शरीर बाहर निकला और मेरे ब्रह्मरंध्र से होता हुआ, मेरे शरीर के अंदर घुस गया।
और इसके तुरंत बाद, उन देवी माँ ने मेरा सूक्ष्म शरीर, मेरे स्थूल शरीर से साथ पुनः जोड़ दिया। लेकिन इस प्रक्रिया मे, वही सुई चुभने की पीड़ा, जो पूर्व में भी हुई थी…, वो पुनः हुई।
ये सुनेहरा शरीर, ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से बीच वाले बत्तीस दल कमल में बैठ गया, और ब्रह्मरंध्र से ऊपर के उस शून्य अनंत स्वरूप के शून्याकाश को देखता ही चला गया।
इस चित्र के सुनहरे शरीर का वर्णन …
इस अध्याय में ये वर्णन संक्षेप में किया गया है, क्यूंकि इसका विस्तारपूर्वक ज्ञान किसी और अध्याय का अंग है।
इसी सुनहरे शरीर को सगुण साकार आत्मा (अर्थात आत्मा का ही सगुण साकार स्वरूप) और सगुण साकार ब्रह्म (अर्थात ब्रह्म का ही सगुण साकार स्वरूप) भी कहा गया है। इसी को मैं हिरण्यगर्भ शरीर, अर्थात, चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म का हिरण्यगर्भात्मक शरीर भी कहता हूं।
और मेरे इस जन्म के, राजयोग के पशुपत मार्ग के अनुसार, इसी शरीर को तत्पुरुष शरीर, महेश्वर शरीर, योगेश्वर शरीर, योगसम्राट शरीर, योग ऋषि शरीर, योग गुरु शरीर…, ऐसा भी कहा जा सकता है।
और मेरे पूर्व जन्म के दिए हुए ज्ञान में, जिसे पञ्च ब्रह्मोपनिषद कहा जाता है, इसी सुनहरे शरीर को, सद्योजात शरीर भी कहा जा सकता है।
इसी सुनहरे शरीर को, बुद्ध शरीर भी कहा जाता है, जो बुद्धत्व प्राप्ति का वाचक भी होता है।
और मेरे पूर्व जन्मों में, इसी सोने के समान प्रकाशमय, सिद्ध शरीर के धारक को, कुछ योगीजन ब्रह्मवधूत (ब्रह्म अवधूत) नमक सिद्धि की प्राप्ति का प्रमाण भी मानते थे। और इसी सुनहरे वर्ण के शरीर को, ब्रह्मत्व नमक सिद्धि का वाचक भी कहा जाता था।
जिसको पंच ब्रह्मोपनिषद के ज्ञान में, सद्योजात कहा गया है, वो ही पाशुपत मार्ग में, सदाशिव का तत्पुरुष मुख है। ये दोनो नाम एक ही सत्य को दर्शाते हैं।
इस सुनहरे शरीर के बारे में, कभी बाद में बात करूंगा, जब राज योग के पशुपत मार्ग के अंतरगत, पंच मुखा सदाशिव के तत्पुरुष मुख की बात होगी।
वैदिक इकाई में काल गणना के अनुसार, वो योगी जो उसके आगमन से पूर्व से ही, ऐसे सुनहरे शरीर के धारक होता है, उसका आगमन 24,000 वर्ष में बस एक ही बार होता है। और आज की काल इकाई में, ऐसा योगी का आगमन 25,776 से 25,777 वर्षों में होता है। ऐसा योगी महेश्वर का योगी, तत्पुरुष का योगी भी कहलाता है।
और ऐसा आगमन ब्रह्म के प्रकाश मार्ग से ही होता है, न कि और किसी मार्ग से।
अब आगे बढ़ता हूँ …
किसके शरीर में परकाया प्रवेश होता है …
जिसके शरीर में परकाया प्रवेश होता है, उसे पहले चुना जाता है, और उससे बात की जाति है, ताकी वो अपने स्थूल शरीर को परकाया प्रवेशी को दान करने के लिए मान जाए।
उस स्थूल शरीर के मूल निवासी से ऐसी बात करने का कारण है, कि जबतक उस शरीर का मूल निवासी, अर्थात जो उस शरीर के जन्म के समय पर जो उस शरीर में आया था, वो मूल निवासी ही उस शरीर को दान नहीं करेगा, तबतक उस शरीर में परकाया प्रवेश के मार्ग से कोई और कैसे आ सकता है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन यदि जिस आत्मा ने परकाया प्रवेश से लौटना है, वो उस उच्च श्रेणी का योगी है, जो सदाशिव के पंच मुखों में से किसी एक मुख से लौट रहा है, तो ऐसी आत्मा के परकाया प्रवेश के लिए, एक योगी को चुना जाता है।
और वो चुना हुआ योगी, उस उच्च कोटि की आत्मा के लिए, एक उचित स्थूल शरीर का निर्माण करने ले लिए ही जन्म लेता है I
और ऐसा उपयुक्त स्थूल शरीर को तैयार करने के बाद, जब वो स्थूल शरीर कुछ बड़ा हो जाता है, तब वो वो योगी अपने शरीर को उस परकाया प्रवेश मार्ग से आने वाले सदाशिव के योगी को ही दान करता है।
लेकिन ऐसा शरीर दान से पूर्व भी, उस शरीरी योगी और परकाया प्रवेश से लौटने वाले योगी के बीच में एक सूक्ष्म समझौता होता है, जिसमें परकाया प्रवेश प्रक्रिया का स्थान, तिथि और समय निर्धारित किया जाता है I
और जब परकाया प्रवेश के लिए, उसे वो शरीर दान करने को कहा जाता है, तब वो योगी उस स्थूल शरीर को दान करने के लिए शीघ्र ही मान भी जाता है, क्यूंकि उसका जन्म तो इसी कार्य के लिए हुआ था।
वो योगी जो एक उचित स्थूल शरीर का निर्माण करने के लिए चुना जाता है, उसे किसी स्थूल देहि माता के गर्भ से जन्म भी लेना पड़ता है, ताकि वो उस सदाशिव के योगी के लिए, एक शरीर तैयार कर सके जिसमें वो सदाशिव का योगी परकाया प्रवेश से लौटेगा और इस प्रक्रिया के पश्चात, वो सदाशिव का योगी शरीरी कहलाएगा।
ऐसी अवस्था में, जो योगी जन्म लेकर एक स्थूल शरीर तैयार करेगा, वो भी उच्च कोटि का ही होगा। और ऐसे योगी, एक स्थूल देही माता के गर्भ से जन्म लेके, उस सदाशिव के योगी के लिए एक उपयुक्त शरीर तैयार करने के लिए ही लौटाते हैं।
और जब उसका स्थूल शरीर तैयार हो जाता है, और आगे चलके जब वो स्थूल शरीर थोड़ा सबल भी हो जाता है, तब वो योगी उसका स्थूल शरीर, उस सदाशिव के योगी को दान करने की मन ही मन इच्छा प्रकट करता है, जिसके बाद परकाया प्रवेश करके, वो सदाशिव का योगी उस स्थूल शरीर में परकाया प्रवेश से आके, बिना जन्म लिए ही शरीरी कहलाता है।
यहां जो बात हो रही है, वो एक सदाशिव के योगी के परकाया प्रवेश मार्ग की ही हो रही है, जो हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म के लोक से लौटा है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन इसके अतिरिक्त भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया का एक और विकल्प होता है, जिसमें जो योगी परकाया प्रवेश से आता है, वो कोई बहुत उच्च दशा से लौट नहीं रहा होता है…, बल्कि किसी देवादि लोकों से लौट रहा होता है I
और ऐसे देवादि लोकों से परकाया प्रवेश मार्ग का आलम्बन लेके लौटने वाले के लिए, किसी विशेष योगी की आत्मा जो जन्म देकर, शरीर तैयार करने को नहीं बोला जाता I
ऐसी अवस्था में, क्यूंकि कोई आत्मा उस परकाया प्रवेश के लिए शरीर तैयार करने को नहीं आई होती है, इसलिए ऐसे परकाया प्रवेश में, उस शरीर के दानी के सूक्ष्म शरीर से एक समझौता भी होता है I
और ऐसा समझौता बहुत विचित्र सा भी हो सकता है, जो वाणी में होता हुआ भी, परकाया प्रवेश मार्ग से लौटने वाले और स्थूल शरीर के दानी, दोनों पर ही पूर्ण रूप में लागू होता है I
लेकिन अधिकांश समय पर, जो आत्मा किसी और उच्च कोटि के योगी के लिए एक स्थूल शरीर तैयार करने को जन्म लेती है, वो भी कुछ न कुछ समझौता करके ही अपने स्थूल शरीर का दान करती है I
मेरे किसी भी परकाया प्रवेश के समय पर, ऐसा कभी भी नहीं हुआ, की शरीर के दानी ने कुछ का कुछ बड़ा माँगा ही ना हो मेरे से I
हर शरीर का दानी, चाहे वो परकाया प्रवेशी के लिए ही शरीर तैयार करने को लौटा है, अर्थात जन्म लिया है, कुछ न कुछ बड़ा ही माँगेगा, परकाया प्रवेशी से I
और मेरे अपने अनुभवों से, कुछ शरीर के दानी तो उनके समस्त कर्म ही धारण करने को बोल देते है, जिसके कारण, परकाया प्रवेशी उसके सारे जीवन या जीवन के अधिकांश भाग में, विचित्र दुःखों, व्याधियों और पीड़ाओं में ही पड़ा रहता है I
और यदि ऐसा ही हो गया, तो उस परकाया प्रवेशी के स्थूल शरीर अंत भी बहुत अच्छा नहीं होगा I
तो अब मैं परकाया प्रवेश के समय से पूर्व किये जाने वाले अनुबंध या समझौता के बारे में बताता हूं…
परकाया प्रवेश से पूर्व शब्दों में या वाणी में किया गया अनुबंध या समझौता …
ये समझौता या अनुबंध वाणी में होता है, अर्थात, शब्दों से होता है, क्यूंकि ये अनुबंध लिखित में या किसी और माध्यम से तो हो ही नहीं सकता।
ये भाग उस दशा पर भी लागू होता, जिसमें कोई योगी किसी और उच्च कोटि की आत्मा के लिए जन्म लेके, एक उपयुक्त स्थूल शरीर तैयार करता है, ताकि वो उच्च कोटि की आत्मा, उसके लिए ही तैयार किये हुए स्थूल शरीर में परकाया प्रवेश से और काल की प्रेरणा से आ सके।
और इस परकाया प्रवेश के पश्चात, वो उच्च कोटि की आत्मा, जैसे कोई सदाशिव के मुखों से लौटने वाला योगी, वो कार्य कर सके जिसके लिए उसने ऐसे परकाया प्रवेश के मार्ग से जन्म ग्रहण किया था।
लेकिन ऐसी स्थिति में ये अनुबंध, उस आत्मा के साथ, जिसको एक उपयुक्त स्थूल शरीर तैयार करने को कहा जाता है, उसके जन्म से पूर्व ही हो जाता है…, ना की जन्म के पश्चात, जब परकाया प्रवेश प्रक्रिया होनी होती है।
तो इसका अर्थ हुआ, कि इससे पहले वो आत्मा जन्म लेकर, उस परकाया प्रवेशी के लिए कोई शरीर तैयार करेगी, ये समझौता हो जाता है।
लेकिन हर योगी जो परकाया प्रवेश करता है, वो ऐसा उच्च कोटि का योगी नहीं होता, इसलिए इस भाग में अब तक बताई गई सभी बातें ऐसे उच्च कोटि के योगीजनों पर लागू भी नहीं होती।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और उस समझौते को बताता हूँ जिसमें वैसे नहीं होता जैसा अभी बताया था, अर्थात वो दशा जिसमें कोई शरीर धारी किसी और के लिए, एक स्थूल शरीर तैयार करने को जन्म नहीं लेता।
और ऐसी दशा में, उसी लोक में, जिसमें परकाया प्रवेश होना है, किसी उपयुक्त शरीर धारी को ढूँढा जाता है, और उस शरीर धारी के सूक्ष्म शरीर से बात करके, एक उचित शब्दात्मक अनुबंध स्थापित करके, उस शरीर में परकाया प्रवेश करके, जन्म लिया जाता है।
तो अब इस प्रक्रिया को बताता हूँ … इसलिए अब मेरी बातों पर ध्यान देना …
जब हम सुषुप्ति में होते हैं, तब हमारा सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल कर ब्रह्माण्ड में घूमता है।
इस स्थूल शरीर रूपी वाहन का मूल चालक, सूक्ष्म शरीर ही होता है, जिसके उन्नीस बिंदु होते है, जो मैं अब बतला रहा हूँ …
- ज्ञानेन्द्रिय पंचक … अर्थात पाँच ज्ञानेंद्रियां।
- कर्मेन्द्रिय पंचक … अर्थात, पाँच कर्मेंद्रियां।
- प्राण पंचक … अर्थात, पाँच प्राण…, जो अपान, समान , प्राण, उड़ान और व्यान कहलाते हैं।
- और अंतःकरण चतुष्टय … अर्थात, चार अन्तःकरण, जो मन, बुद्धि, चित्त और अहम् कहलाते हैं।
- और यदि हम पाँच उप-प्राण भी लेंगे, तो ये बिंदु चौबीस हो जाएंगे।
- और ऐसी गणना में, पच्चीसवीं को आत्मा कहते हैं, जो उस अंतःकरण के मध्य में, एक बिंदु के समान, ज्योतिस्वरूप में ही साक्षात्कार होती है।
जबतक सूक्ष्म शरीर उसके स्थूल शरीर के भीतर होता है, तबतक ही उस स्थूल शरीर की जागृत अवस्था होती है। जागृत अवस्था में, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के भीतर होता है।
और जब वो सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकालता है, तब वो स्थूल शरीर को सुषुप्ति अवस्था की प्राप्ति होती है। सुषुप्ति अवस्था में वो सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलकर ब्रह्माण्ड में घूमता है। जबतक सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकलकर ब्रह्माण्ड में घूम रहा होता है, तबतक ही सुषुप्ति अवस्था चलती है।
और जैसे ही उस सूक्ष्म शरीर को, जो उस अथाह सागर रूपी अन्धकारमय ब्रह्माण्ड में घूम रहा होता है, कोई और या कुछ और मिलता है, तो उस मिले हुए जीव या दशा के अनुसार ही, उसकी स्वप्नावस्था आती है।
और जब वो सूक्ष्म शरीर, उसके अपने ही मूल कारण अर्थात सदाशिव के अघोर मुख से होकर, शून्य में लय होता है, तो ही वो वोगी जिसका वो सूक्ष्म शरीर होता है, समाधि या तुरीय अवस्था की प्राप्ति का पात्र बनता है…, इससे पूर्व नहीं I
तो ये था सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, जागृत, सुषुप्ति, स्वप्न और समाधि या तुरीय की अवस्थाओं का ज्ञान। मेरे पूर्व जन्मों में, इन चारों को ही चेतन चतुष्टय कहा जाता था I
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से बाहर निकल कर रमण कर रहा होता है, तो ऐसी दशा में जिसके शरीर में परकाया प्रवेश होता है, उसके सूक्ष्म शरीर से बात की जाती है।
ये बात भी इसलिए की जा सकती है, क्यूंकि सूक्ष्म शरीर में ही यहाँ बताए गए, सभी उन्नीस या चौबीस बिंदु होते हैं, जो उस सूक्ष्म शरीर को मनोमय, चेतनमय, बुद्धिमय या ज्ञानमय, कर्ममय और अहम्मय बनाते हैं।
जो ऐसा हो, उससे बात भी हो सकती है, और उन बातों के द्वारा, उस सूक्ष्म शरीर के साथ, कोई शब्द या वाणी में अनुबंध भी हो सकता है।
ये बात और अनुबंध, उस सूक्ष्म शरीर से तब होती है, जब वो सूक्ष्म शरीर, उसके ही स्थूल शरीर से बाहर निकल कर, ब्रह्मांड की दिव्यताओं में रमण कर रहा होता है जिसके कारण वो स्थूल शरीर का दानी, सुषुप्ति में होता है।
और ऐसी अवस्था में एक अनुबंध या समझौता होता है, उस स्थूल शरीर को दान करने वाले के सूक्ष्म शरीर, और परकाया प्रवेश करने वाले में।
और ये समझौता भी तब होता है, जब वो स्थूल शरीर को दान करने वाला सुषुप्ति में होता है, और ऐसी सुषुप्ति अवस्था में उसका सूक्ष्म शरीर उसके स्थूल शरीर से बाहर निकल कर, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में घूम रहा होता है, अर्थात, ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर रहा होता है।
इस अनुबंध या समझौते में, तिथि, समय और स्थान, तीनों को निर्धारित किया जाता है। और उसी निर्धारित तिथि, समय और स्थान पर ही, परकाया प्रवेश की प्रक्रिया चलायमान होती है।
लेकिन जब परकाया प्रवेश की प्रक्रिया चलती है, तो जो अपना स्थूल शरीर दान करता है, उसे एक स्तम्भित, लेकिन जागृत अवस्था में होना होता है…, नाकी सुषुप्ति अवस्था में।
परकाया प्रवेश समझौते के कुछ बिंदु और इस अनुबंध की अंतिम सीमा …
यहाँ बतलाई गए परकाया प्रवेश के अनुबंध या समझौते की सीमा के आगे, ये समझौता हो ही नहीं सकता, क्यूंकि उस सीमा के आगे, ये समझौता माँ प्रकृति में बसे हुए उत्कर्ष मार्ग की अंतिम सीमा का ही उलंघन कर देगा।
अब मैं उस परकाया प्रवेश के समझौते के कुछ बिन्दुओं को और इस समझौते की अंतिम सीमा को भी बतलाता हूँ।
इस समझौते में, कई बिंदु हो सकते है। लेकिन इन सब बिन्दुओं को बताना असंभव सा ही है, इसलिए यहाँ पर, मैं कुछ प्रमुख बिंदुओं को ही बतलाऊँगा।
तो अब जो मैं बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …
- पहला बिंदु कर्म और संस्कार का होता है … इस परकाया प्रवेश के वाणी अनुबंध या शब्द समझौते में, ये एक प्रमुख बिंदु होता है, क्यूंकि इसके बिना परकाया प्रवेश से पूर्व किया जाने वाला वाणी अनुबंध या शब्द समझौता हो ही नहीं सकता।
इसमें जो अपना स्थूल शरीर दान कर रहा होता है, वो अपनी कर्ममुक्ति के सिवा, कुछ भी मांग सकता है। और इस बिन्दु में, यहाँ बतलाई गई की सीमा के अन्तर्गत, जो भी माँगा जाएगा, वो परकाया प्रवेशी को देना ही पड़ेगा।
इस बिंदु के कारण, जिसने स्थूल शरीर में परकाया प्रवेश करके, शरीर धारी होना होता है, उसको वो सब कुछ मानना होता है, जो उससे इस वाणी अनुबंध या शब्द समझौते के अंतर्गत, अपने स्थूल शरीर को दान करने वाले के द्वारा माँगा जाएगा।
लेकिन इस समझौते में, इस बिंदु की सीमा जो पूर्व में बतलाई गई थी, उसका अतिक्रमण भी नहीं किया जा सकता I
इसलिए इस बिन्दु के अनुसार, जो शरीर का दान कर रहा है, वो अपनी कर्ममुक्ति को छोड़ कर, परकाया प्रवेशी से कुछ भी मांग सकता है। और इसके साथ साथ, वो जो परकाया प्रवेश करके शरीर धारी कहलाएगा, कुछ भी मना नहीं कर सकता, जबतक उससे कर्ममुक्ति ही ना मांग ली जाए।
इसका कारण है, कि कर्ममुक्ति जो निर्गुण ब्रह्म को दर्शाती है, वो परकाया प्रवेश के तंत्र से परे की दशा है। जो उस तंत्र से ही परे है, उसको उस तंत्र के द्वारा कैसे माँगा या दिया जा सकता है।
कर्ममुक्ति निर्गुण ब्रह्म में होती है, जो तन्त्रों से ही परे है, इसलिए इसको माँगा ही नहीं जा सकता…, ऐसी कर्मातीत मुक्ति को तो “स्वयं ही स्वयं में”, अर्थात “अपने ही आत्मस्वरूप में” जाना जाता है। जो तुम्हारा अपना वास्तविक स्वरूप, तुम्हारा अपना आत्मस्वरूप ही है…, उसको किसी और से कैसे माँगोगे।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और यही कारण है, कि अधिक से अधिक, वो शरीर को दान करने वाला, इतना ही कह सकता है की उसके समस्त कर्म, उनके कर्मफल और उनके संस्कार, वो परकाया प्रवेशी धारण करेगा।
लेकिन, ऐसी अवस्था में भी, उस शरीर को दान करने वाले का, अंतिम संस्कार, उस दानी के पास ही रहेगा, अर्थात, उसके अपने अंतःकरण के, चित्त के भाग में ही पड़ा रह जाएगा, जिसको वो दानी किसी और जन्म में फलित करके, कर्ममुक्ति को पाएगा।
और जबतक ये अंतिम संस्कार फलित नहीं होता, तबतक चाहे वो साधक कोई भी पद धारण कर ले, कितना भी महिमा मंडित हो जाए, उसकी कर्ममुक्ति नहीं होगी।
और यही वो संस्कार है, जिसको मृत मनीषि के शरीर से बाहर निकलने के लिए, मृत शरीर की अंतिम संस्कार प्रक्रिया में, कपाल क्रिया की जाती है।
और यही वो संस्कार है, जिसके सूक्ष्म सांकेतिक बिंदुओं पर, अघोर अदि मार्गों में, कपाल धारण प्रक्रिया की जाती है, जिसमें उस आत्मा को मुक्ति देकर ही, उसके पूर्व के शरीरी स्वरूप का कपाल धारण किया जाता है। और वो मुक्ति भी इसी अंतिम संस्कार से, एक सूक्ष्म रूप में सम्बंधित होती है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
यदि उस शरीर को दान करने वाले ने, ऐसा ही मांग लिया, तो उस परकाया प्रवेश करने वाले को, वो समस्त कर्म, उनके समस्त कर्मफ़ल और उनके संस्कारों को भी धारण करना पड़ेगा।
और ऐसे धारण करने के पश्चात, उन सभी संस्कारों को फलित भी करना पड़ेगा…, और वो भी उसी परकाया प्रवेश के “उसी-एक” जन्म में।
और क्यूंकि उन धारण किये हुए कर्मों को और उनके संस्कारों को तो कई सारे जन्मों में ही फलित होना था, लेकिन उनको धारण करने के बाद, उन सब को उसी जन्म में फलित करना पड़ेगा, इसलिए, जब वो परकाया प्रवेश के बाद, उन सभी कर्मों को फलित करेगा, तो उसको बहुत दुःख और कष्ट भी झेलने पड़ेंगे।
और क्यूंकि ऐसे अनुबंध में बसी हुई प्रक्रिया में, कई जन्मों के कर्म, एक ही जन्म में पूर्ण करने पड़ेंगे, इसलिए ऐसी दशा में, उस परकाया प्रवेशी के लिए, उन सभी जन्मों के दुःखों, कष्टों और व्याधियों का भी अंबार लग जाएगा।
और यही कारण है, की ऐसे योगी, एक ही जन्म में कई बार मरने की कगार पर खड़ा हो जाता है।
इन दुःखों का कारण है, कि कई सारे जन्मों के कर्म और उनकी व्याधियाँ, एक ही जन्म में आ जाएँगी।
ऐसी दशा में, उस परकाया प्रवेशी को उन सभी दुःखों का भार उठाना पड़ता है, जो कई जन्मों में आने थे, यदि उस शरीर के दानी ने अपने समस्त कर्म, उनके फल और उनके संस्कार उस परकाया प्रवेशी को दिए नहीं होते।
इस स्वयम्भू मन्वंतर के काल खंड से, मैं कई बार परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटा हूँ, और मेरा अनुभव तो यही है, कि अधिकांश स्थूल शरीर के दानी ऐसा ही कुछ मांगते हैं, जिसके कारण परकाया प्रवेश के समय से ही, दुःखों का पहाड़ आ जाता है, जिसको एक एक करके पार किया जाता है।
लेकिन क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योगभ्रष्ट हूँ, इसलिए मेरी मूल पारिवारिक और अखंड गुरु परंपरा वो ही रहती है, जो स्वयम्भू मन्वन्तर में मेरे गुरुदेव की थी, इसलिए वो परंपरा भी कुछ न कुछ कर्मों का भार हकला करती ही है।
जब वो योगी परकाया प्रवेश से लौटता है, तब से ही वो उस शरीर के दानी से लिए हुए कर्मों को, उन कर्मों के कर्मफलों को और उनके समस्त संस्कारों को निर्बीज करना प्रारम्भ करता है।
और यही स्थिति मैंने अधिकांश जन्मों के परकाया प्रवेश के बाद देखी है, क्यूंकि अपने स्थूल शरीरों के दानी वो मांग लेते हैं, जिनको पूर्ण करने के लिए, 27-28 वर्ष तक भी लग जाएंगे।
लेकिन इस जन्म के पश्चात, ऐसा कभी भी नहीं होगा, क्यूंकि इस जन्म के समय खंड में, मैंने अपने स्वयम्भू मन्वन्तर के मनस पिता की आज्ञा का पालन कर लिया है। उन्होंने कहा था, की तुम सभी मेरे 60,000 मनस पुत्र तबतक प्रबुद्ध योग भ्रष्ट होके, परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटते रहोगे, जबतक तुम आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, 101वी बार पूर्ण नहीं कर लोगे।
मैंने इस जन्म में इसको पूर्ण किया है, इसलिए, अब लौट नहीं पाऊंगा, क्यूंकि सदाशिव के ईशान मुख में जाना है, जो निर्गुण निराकार कहलाता है, और जो एक निरंग स्फटिक के समान, निरंग जल सरिका, सर्वव्याप्त निर्गुण ब्रह्म कहलाता है। ऐसे योगी का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म होता है, जो सगुण साकार, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार, तीनों में ही समान रूप में होता है।
ऐसा योगी प्रजापति स्वरूप होके, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, प्रजापति ही कहलाता है।
और जब वो जाता है, तब वो उन सब आत्माओं को लेके जाता है, जिन्होंने उसका साथ उसके गंतव्य मार्ग में, और उसकी गंतव्य प्राप्ति तक, कभी न कभी अपना योगदान दिया था।
और यही कारण है, की जब वो योगी उसके अंतिम जीव रूपी जन्म में आता है, तो उस समय वो सभी आत्माएं जिन्होंने उस योगी के उत्कर्ष मार्ग में, उसके किसी न किसी जन्म में, कभी न कभी साथ दिया था, वो सभी आत्माएं भी उसी लोक में जन्म लेके जीव रूप में आती हैं, जिसमें वो योगी उस अन्तिम जन्म में निवास कर रहा होता है I और ऐसी आत्माओं को वो योगी सूक्ष्म या स्थूल रूप में मार्गदर्शन करके, उन सबके अपने अपने कर्मानुसार, उच्च लोकों पर स्थापित होने का प्रेरणा मार्ग दिखाता है, या स्थापित ही कर देता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और कर्म के प्रकार बतलाता हूँ … कर्म चतुष्टय विज्ञान …
कर्मों के प्रधानतः चार प्रकार होते हैं, जो मेरे पूर्व जन्मों में कर्म चतुष्टय कहलाते थे I
तो अब इन कर्म चतुष्टय को बतलाया हूँ …
पहला प्रकार … क्रियामान कर्म कहलाता है … ये वो कर्म हैं, जो किसी भी समय चल रहे होते हैं, और इसीलिए, उस समय पर ये क्रियमान कहलाते हैं I
दूसरा प्रकार … आगामी कर्म कहलाता है … ये वो कर्म है, जो आगामी समय खंड में फलित होंगे, और इसीलिए, ये आगामी कहलाते हैं I
तीसरा प्रकार … संचित कर्म कहलाता है … ये वो कर्म हैं, जो उस जीव के समस्त इतिहास में एकत्रित हुए हैं, अर्थात संचित हुए हैं, और इसीलिए ये संचित कर्म कहलाते हैंI
चौथा प्रकार … प्रारब्ध कर्म … ये वो कर्म हैं, जो उस जीव के उस जन्म का प्रारब्ध बनकर आए हैं, इसलिए ये प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं I
अब जो बोल रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …
कर्म में ही कर्मफल संहित होता है, लेकिन वो कर्मफल, कर्मों को करने के पश्चात ही फलित होता है, अर्थात दिखाई देता है I
इसलिए, कर्म ही कर्मफल के कारण होते हैं, और इसके साथ साथ, कर्मों का ही एक स्वरूप, कर्मफ़ल कहलाता है I
और उस कर्मफल में ही अगले कर्मों को करने का कारण संहित होता है, अर्थात पूर्व के कर्मफल ही अगले कर्मों के कारण होते हैं I
इसलिए, पूर्व के कर्मफल का आलम्बन लेके ही आगामी समय के कर्म किए जाते हैं, जिसके कारण कर्मफलों का एक स्वरुप, कर्म कहलाता है I
इधर बताये हुए बिन्दुओं के कारण, कर्म ही कर्मफल के कारक होते हैं, और पूर्व के कर्मफल ही आने वाले समय के कर्मों के कारक बनते हैं I
अब और आगे बढ़ता हूँ …
पूर्व के क्रियामान कर्म के फल, आगे किए जाने वाले आगामी कर्म में परिवर्तित होते हैं I
और उन आगामी कर्मों में से, जो कुछ फलित होने को बचा रह जाता है, उसे ही संचित कर्म कहते हैं I
और उन संचित कर्मों के अथाह सागर में से, जब कुछ कर्म एक जन्म का मूल बनकर, उस जन्म पर मूल रूप में लागू होते हैं, तो उन्हें ही प्रारब्ध कर्म कहा जाता है I
अब इसपर भी ध्यान देना …
सभी कर्मफल, संस्कारिक बीज रूप में साधक के अंतःकरण चतुष्टय के चित्त के भाग में, बीज रूप में बसे होते हैं I
और सभी कर्मफलों और उनके सांस्कारिक स्वरुप से परे जाने के मार्ग को ही निर्बीज समाधि कहते हैं I
निर्बीज समशी में और उसके पश्चात, चित्त कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों से शून्य होके, अर्थात परे जाके, संस्कार रहित होता है I
चित्त के इसी संस्कार रहित अवस्था को कर्ममुक्ति कहा जाता है I
इसलिए, कर्ममुक्ति का मार्ग भी निर्बीज समाधी से ही होकर जाता है I
और निर्बीज समाधि के मार्ग में, साधक की चेतना हृदय कैवल्य गुफा से जाकर और उसको पार करके, ॐ मार्ग से होकर, रकार मार्ग से जाकर, अंततः अष्टम चक्र में ही फलित होती है, जिसको सूक्ष्म रूप में अथर्ववेद के दशम काण्ड, दूसरे सूक्त, मन्त्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस में बताया गया है I लेकिन इसके बारे में विस्तारपूर्वक किसी बाद के अध्याय में ही बताया जाएगा I
कर्मातीत को ही ब्रह्म कहते हैं I
- अब दूसरा बिंदु बतलाता हूँ, जो मन और इच्छा का होता है …
यदि शरीर दान के समय तक, उस शरीर को दान करने वाले की कोई इच्छा, उसके जन्म के प्रारब्ध के अनुसार अधूरी रह जाती है या रह गई हो, तो ऐसा शरीर का दानी अपनी वो अधूरी इच्छा की पूर्ति, परकाया प्रवेशी से करवा सकता है।
और ऐसी दशा में, जब वो परकाया प्रवेशी उस शरीर को धारण करेगा, तो उस अधूरी इच्छा को भी पूर्ण करेगा। लेकिन ये बिंदु तब ही लागू होगा, जब वो शरीर के दानी की इच्छा, उसके उसी जन्म के प्रारब्ध से सम्बंधित हो…, अन्यथा नहीं।
लेकिन ऐसा करने के लिए, परकाया प्रवेशी को “मन ब्रह्म” नामक सिद्धि का मार्ग अपनाना ही पड़ेगा, जिसमें अपने मन को सर्वतत्व रूप में देखना पड़ेगा, और ऐसी अवस्था पा कर, अपने मन को उसी सर्वतत्व ब्रह्म में ही स्थिर करके, आगे बढ़ाना पड़ेगा, ताकी इस बिन्दु की पूर्ति हो सके।
और उस सर्वव्याप्त अनंत लेकिन तब भी एकतत्त्व से जोड़ती हुई, या उसकी ओर अग्रसर करती हुई साधक की साधक भावनात्मक और इच्छात्मक अवस्था ही ब्रह्मपथ का मूल कहलाती है और जिसकी अंतिम अवस्था, सर्वत्याग की ही होती हैI
सर्वतत्व मन, सर्वव्यापत होता हुआ भी, एकतत्त्व ही होता है I
सर्वतत्व एकतत्त्व मन को ही ब्रह्म कहते हैं I
- अब तीसरा बिंदु बतलाता हूँ जो बुद्धि और ज्ञान का होता है …
यदि शरीर दान के समय तक, उस शरीर के दानी के प्रारब्ध के अनुसार, उसकी कोई ज्ञान प्राप्ति अधूरी रह गई हो, तो वो शरीर का दानी, अपनी वो ज्ञान प्राप्ति, परकाया प्रवेशी से करवा सकता है।
और ऐसी दशा में, जब वो परकाया प्रवेशी उस दान किए हुए शरीर को धारण करेगा, तो उस ज्ञान पूर्ति के लिए भी कर्म करेगा और इस बिंदु को पूर्ण करने के पश्चात, उसके फल को उसी शरीर के दानी को ही दान कर देगा।
लेकिन ये बिंदु भी तभी लागू होगा, जब ये उस शरीर के दानी के उस जन्म के प्रारब्ध से सम्बंधित होगा…, अन्यथा नहीं।
लेकिन ऐसा करने के लिए, उस परकाया प्रवेशी को ज्ञान ब्रह्म का मार्ग अपनाना ही पड़ेगा और अपनी बुद्धि को देवराज इंद्र में ही स्थिर करके, वृत्तिहीन अवस्था में लेके जाना पड़ेगा, ताकि इस बिंदु की पूर्ति हो सके।
वृत्तिहीन बुद्धि को ही ब्रह्म कहते हैं।
- अब चौथा बिन्दु बतलाता हूँ जो अहम् और स्थिति प्राप्ति का होता है …
यदि शरीर दान के समय तक, उस शरीर के दानी के प्रारब्ध के अनुसार, उसकी कोई स्थिति प्राप्ति अधूरी रह गयी हो, तो ऐसा शरीर का दानी, अपनी वो स्थिति पूर्ती, परकाया प्रवेशी से करवा सकता है।
और ऐसी दशा में, जब वो परकाया प्रवेशी उस शरीर को धारण करेगा, तो वो उस स्थिति पूर्ती के लिए भी कर्म करेगा, और इस बिंदु को पूर्ण करने के पश्चात, उसके फल को उस शरीर के दानी को ही दान कर देगा।
लेकिन ये बिंदु भी तभी लागू होगा, जब ये उस शरीर के दानी के उस जन्म के प्रारब्ध से सम्बंधित होगा…, अन्यथा नहीं।
लेकिन ऐसा करने के लिए, उस परकाया प्रवेशी को विशुद्ध अहम् का मार्ग अपनाना ही पड़ेगा।
ऐसे योगी को अपने अहम् को सर्वव्यापत जान कर, उसी सर्वव्यापत में ही स्थिर होकर, इस बिंदु की पूर्ती के लिए कर्म करना पड़ेगा।
विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं।
- अब पांचवा बिंदु बतलाता हूँ जो प्राण और प्रारब्ध तंत्र का होता है …
यदि शरीर दान के समय तक, उस शरीर के दानी के प्रारब्ध के अनुसार, उसका कोई प्रारब्ध तंत्र अधूरा रह गया हो, तो ऐसा शरीर का दानी, अपनी वो तंत्र पूर्ती परकाया प्रवेशी से करवा सकता है।
और ऐसी दशा में, जब वो परकाया प्रवेशी उस शरीर को धारण करेगा, तो वो उस तंत्र पूर्ती के लिए भी कार्य करेगा। और इस बिंदु को पूर्ण करने के पश्चात, उसके फल को उस शरीर के दानी को ही दान कर देगा।
लेकिन ये बिंदु भी तभी लागू होगा, जब ये उस शरीर के दानी के उस जन्म के प्रारब्ध से सम्बंधित होगा…, अन्यथा नहीं।
लेकिन ऐसा करने के लिए, उस परकाया प्रवेशी को सार्वभौम शक्ति का मार्ग अपनाना ही पड़ेगा।
ऐसे योगी को अपने प्राण को ही सार्वभौम शक्ति मान कर, उसी सार्वभौम में ही स्थिर करके, इस बिंदु की पूर्ती के लिए कर्म करना पड़ेगा।
सार्वभौम शक्ति को ही ब्रह्म कहते हैं।
सदाशिव से लौटने वाला परकाया प्रवेशी …
जो योगी सदाशिव के पाँच मुखों में से, किसी भी मुख से लौटता है, उसके पास न तो मन होता है, न ही बुद्धि, चित्त या अहम् ही होता है।
इसका कारण है, की उसके मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण, पांचो ही उस पञ्च मुखा सदाशिव के पाँच मुखों में विलीन हो चुके होते हैं।
इसलिए, पहले बताए गए सभी बिंदुओं को मानने के बाद, ऐसा सदाशिव का योगी, उस दानी के मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण को भी उस शरीर के दानी से, उस शरीर को चलने के लिए मांग सकता है।
लेकिन ऐसा तभी हो सकता है, जब उस परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटने वाले योगी के पास न मन हो, न ही बुद्धि, चित्त, अहम् या प्राण ही हो…, अन्यथा नहीं।
यहाँ कहा गया, न मन, न बुद्धि, न चित्त, न अहम् और न प्राण से तात्पर्य है, कि उस योगी के यह सभी बिंदु, उनके अपने कारणों में विलीन हो चुके हैं, और इसीलिए, अब उसके पास उसका अपना कुछ भी नहीं है I
शरीर को दान करने वाला क्या मांग सकता है और क्या नहीं मांग सकता …
परकाया प्रवेश के वाणी अनुबंध या शब्द समझौते में, शरीर का दानी बस एक ही वस्तु नहीं मांग सकता…, और वो है उसकी कैवल्य मुक्ति, अर्थात कर्ममुक्ति।
यहाँ कहे गए कर्ममुक्ति शब्द का सम्बन्ध, कर्मातीत मुक्ति, गुणातीत मुक्ति, दशातीत मुक्ति या लोकातीत मुक्ति, दिशातीत मुक्ति या मार्गातीत मुक्ति, भूतातीत मुक्ति, तन्मात्रातीत मुक्ति, कालातीत मुक्ति, कैवल्य मुक्ति, अदि शब्दों से भी है।
सीधा सीधा बोलूं, तो अपनी कर्माधीन मुक्ती तक वो शरीर का दानी, कुछ भी मांग सकता है।
इस कैवल्य मुक्ति के सिवा, वो शरीर का दानी, उस परकाया प्रवेशी से बाकी कुछ भी मांग सकता है, और परकाया प्रवेशी को वो मांगी हुई बिंदु या वस्तु देनी भी पड़ेगी, चाहे इस देने की प्रक्रिया में, उस परकाया प्रवेशी को कितने ही कष्टों, व्याधियाँ या दु:खों से क्यों न जाना पड़े।
और क्यूंकि वो शरीर को दान करने वाला, उस कैवल्य मुक्ति को नहीं मांग सकता, जिसका सम्बन्ध अंतिम संस्कार से होता है, इसलिए, उस शरीर के दानी का अंतिम संस्कार उसे स्वयं ही फलित करना पड़ेगा, जिसके लिए उसे बाद में कभी, कम से कम एक जन्म तो लेना ही पड़ेगा।
अंतिम संस्कार और उसके वैदिक विज्ञान के बारे में किसी बाद के अध्याय में बताऊंगा।
तो अब आगे बढ़ता हूँ …
परकाया प्रवेश प्रक्रिया के सहायक …
सहायकों के बिना, परकाया प्रवेश हो ही नहीं सकता। परकाया प्रवेश में, कुछ सहायक तो चाहिए ही होते हैं।
ये सहायक ऋषि या सिद्ध के मनीषी हो सकते हैं, या कोई देवी देवता भी हो सकते हैं।
ये परकाया प्रवेश प्रक्रिया के सहायक, अमानव पुरुष भी हो सकते हैं, और ब्रह्म राक्षस भी हो सकते हैं।
जितने ऊपर के लोक से वो परकाया प्रवेशी लौटेगा, उतने बड़ी सत्ता के ये सहायक भी होंगे।
जिस भी सत्ता से वो परकाया प्रवेशी लौटेगा, उसी सत्ता के कुछ सहायक होने ही होंगे, नहीं तो वो परकाया प्रवेश की प्रक्रिया पूर्ण ही नहीं हो पायेगी। और ऐसी अवस्था में, जिस शरीर को परकाया प्रवेश से धारण करना है, उसका ही देहांत हो जाएगा।
और इन बिन्दुओं के साथ साथ, जिस भी सत्ता से वो परकाया प्रवेशी लौटेगा, उसी सत्ता की मूल देवी ने भी उस योगी को उनके अपने दिव्य गर्भ में धारण करना ही होगा, नहीं तो वो योगी जो परकाया प्रवेश से लौटाया जाना है, वो अपने लोक से उस नीचे के लोक में आ ही नहीं पाएगा।
तो अब मैं कुछ दशाओं के सहायकों के बारे में थोड़ा सा बतलाता हूँ …
- जो परकाया प्रवेशी अपरा प्रकृति आठ कोषों में से, किसी एक कोष से लौटता है, उसको उस प्रकृति के कोष की देवी या दिव्यता उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी परा प्रकृति से लौटता है, उसको अपने गर्भ में, माँ आदि शक्ति उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोका में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी किसी भी पञ्च महाभूत से लौटता है, उसको उस महाभूत की देवी या भैरवी उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी शून्य से लौटता है, उसको शून्य की कोई भी एक भैरवी उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी, शून्य अनंत से लौटता है, उसको अपने गर्भ में नारायणी धारण करती हैं, और इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी मूल प्रकृति से लौटता है, उसको कोई भी एक नव दुर्गा उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी, दस प्राणों में से, किसी भी एक प्राण से लौटता है, उसको दस महाविद्या में से, कोई एक महाविद्या उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी, गुणों की चौबीस दशाओं में से, किसी एक दशा से लौटता है, उसको दस हाथ वाली महाकाली उनके अपने गर्भ मे धारण करके इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं। ऐसे परकाया प्रवेश की प्रक्रिया, ऐसी शक्ति प्रदान करती है, जो अतुल्य होती है और ऐसा योगी कुछ भी कर सकता है।
मैं अपने एक पूर्व जन्म में, ऐसे ही लौटा था, जब इस चतुर्दश भुवन में वेदों की स्थापना होनी थी, और जब मैं चक्रवर्ती प्रमिति कहलाया था। प्रमिति शब्द का अर्थ, आगे बढ़ने वाली बुद्धि, उत्कर्ष की ओर लेके जाने वाला ज्ञान और वेद ज्ञान भी होता है।
- जो परकाया प्रवेशी अव्यक्त से लौटता है, उसको महामाया उनके अपने गर्भ मे धारण करके, इस या किसी और नीचे के लोक में लाती हैं।
- जो परकाया प्रवेशी सदाशिव के पाँच मुखों में से किसी एक मुख से लौटता है, तो उसको पञ्च विद्या में से, उस मुख की विद्या, उनके अपने गर्भ में धारण करती हैं, और उस सदाशिव के मुख से किसी नीचे लोक में लाती हैं, और उसको एक स्थूल शरीर में प्रवेश भी करवाती है। ऐसा योगी उस पञ्च विद्या का पुत्र ही कहलाता है।
लेकिन जो योगी, सदाशिव के किसी भी एक मुख से लौटता है, उसके साथ, समस्त सिद्ध और ऋषि सत्ताएँ, देव सत्ताएँ भी होती हैं।
और सदाशिव से लौटे हुए योगी के साथ, महामाया भी होती हैं, जो उसे ढक कर, छुपा छुपा कर रखती है। और महामाया उसे तबतक ऐसा रखती है, जबतक वो तैयार न हो जाए।
और जब वो तैयार हो जाता है, तो उसके साथ, महामाया सहित, समस्त देवी गण, समस्त भैरव और भैरवी गण, समस्त मुद्राएं, महा विद्याएं, पञ्च विद्याएं, नव दुर्गाएं, समस्त मातृकाएं, यक्ष और यक्षिणियों सहित समस्त वैदिक सत्ताएं भी होती ही हैं।
और जैसे जैसे इन सत्ताओं को पता चलता जाता है, वैसे वैसे वो अपने अपने दुर्ग को त्याग कर, उस योगी के साथ आ जाती हैं। इन सब में से, कुछ उसके गुरु बनती हैं, कुछ उसके और कुछ बनती हैं…, लेकिन ये सब उसके साथ ही होती हैं।
और लौटने के पश्चात, यदि वो योगी, प्रजापति स्वरूप ही हो जाएगा, तो ऐसी दशा में समस्त दिव्य सत्ताएं भी उसके पास आती ही चली जाएँगी, और उसकी सहायता भी करेंगी। और इन सबके साथ साथ, ऐसे योगी के साथ तो वो सत्ताएँ भी होंगी, जिनके बारे में कभी भी, किसी भी मार्ग या ग्रन्थ में, बताया ही नहीं गया।
ऐसा योगी कालास्त्र, गुणास्त्र, भूतास्त्र, तन्मात्रास्त्र, दिशास्त्र, दशास्त्र अदि अस्त्रों का धारक भी होगा ही। जो कुछ भी जीव जगत में है, या जीव जगत के स्वरूप में है, वो सब उसका अस्त्र ही होगा।
परकाया प्रवेश में सहायकों की भूमिका …
परकाया प्रवेश में, जो जीव उस स्थूल शरीर में है, उसको बाहर जाना होता है, और उसी समय पर, जो परकाया प्रवेश करके उस शरीर को धारण करता है, उसको उस शरीर में आना होता है।
और इस पूरी प्रक्रिया की जो समय सीमा होती है, वो कुछ ही क्षण की होती है।
परकाया प्रवेश की समय सीमा तबसे प्रारम्भ होती है, जबसे वो शरीर का मूल निवासी बाहर निकलने लगेगा, और उसके बाहर निकलने के बाद, परकाया प्रवेशी उस शरीर में घुस कर, उस शरीर को चलाने लगेगा।
यदि इस प्रक्रिया की समय सीमा अधिक हो जाएगी, तो परकाया प्रवेश के बाद, उस शरीर को चलायमान रखना भी उतना ही कठिन हो जाएगा।
जितना लम्बा समय इस प्रक्रिया में लगेगा, उतना ही कठिन उस शरीर को चलाना भी हो जाएगा, जब ये प्रक्रिया पूर्ण होगी।
अब ध्यान से सुनो …
हमारे शिवरन्ध्र के ऊपर एक सुनहरी नाड़ी निकलती है। ये हिरण्यगर्भ नाड़ी और ब्रह्मा नाड़ी भी कहलाती है। ये नाड़ी ब्रह्मत्व की होती है और इसी ब्रह्मत्व को दर्शाती है।
और इस सुनहरी नाड़ी के भीतर, एक और हीरे जैसे प्रकाश की नाड़ी होती है। इस नाड़ी को चित्रिणी नाड़ी कहा गया है। ये नाड़ी शिवत्व की होती है और इसी शिवत्व को दर्शाती है।
मेरे उन पूर्व जन्मों के पुरातन कालों में, जिनके बारे में आज मानव जाती जानती ही नहीं है, इसी शिवत्व की नाड़ी को योगीजन, उस सर्वसमता को बसे हुए प्रजापति की नाड़ी भी कहते थे। तो इस दृष्टिकोण से, ये पितामह ब्रह्म की नाड़ी भी होती है, और जिसके कारण ये नाड़ी ब्रह्मत्व की नाड़ी भी होती है।
इसलिए अब जो बता रहा हूँ, उसपर ध्यान देना …
योगमार्ग में …
- शिव ही ब्रह्म है, और ब्रह्म ही शिव।
- सर्व कल्याणकारी, सर्वव्याप्त, सर्व दशा स्थित, सर्व दिशा दर्शी, सार्वभौम सनातन सत्ता को ही शिव कहते हैं।
- और शिव की ये सत्ता, कालात्मक, गुणात्मक, भूतात्मक, जीवात्मक, जगातात्मक होती हुई भी, इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, लिंगात्मक भी होती है। इसीलिए, शिव ही लिंग हैं और लिंग ही शिव है। शिव ही लिंगात्मक हैं, और लिंग ही शिवात्मक होता है।
- शिव सगुण साकार, सगुण निराकार, सगुण निर्गुण सकार, सगुण निर्गुण निराकार और निर्गुण निराकार होते हुए भी…, शून्य और शून्य ब्रह्म भी हैँ। इसलिए, वो जो एकमात्र अनादि अनंत, सनातन, त्रिकाल की अद्वैत सत्ता है, और इसके साथ साथ, नहीं भी है…, वो ही वो अद्वैत सत् है, जो वेदों में शिव कहलाया गया है।
- शिव ही आत्मा हैं, जो वास्तव में ब्रह्म ही है। इसलिए शिव ही ब्रह्मात्मक हैं।
- शिव ही शक्ति हैं, और शक्ति ही शिव है। जैसे सूर्य और उसके प्रकाश को पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही शिव और उनकी शक्ति को भी पृथक नहीं किया जा सकता।
इसलिए जो शिव को पा गया, वो शक्ति को भी पाएगा, और इसके साथ साथ, जो शक्ति को पा गया, वो शिव को भी पाएगा।
शिव शक्तिमय होते हैं, और शक्ति ही शिवमय होती हैं, इसलिए वैदिक वाङ्मय में, जो मूल शक्ति हैं, अर्थात ज्ञान शक्ति हैं, उन माँ शक्ति को शिवात्मिका भी कहा गया है।
- और क्यूंकि ये मार्ग, ज्ञान योग का ही है, इसलिए इस मार्ग की मूल शक्ति को ही शिवानुजा, माँ सरस्वती कहा गया है। और इस ग्रन्थ में, उनको पञ्च सरस्वती और पञ्च विद्या भी कहा गया है। इस मार्ग में, सभी देवियां, माँ सरस्वती के स्वरूप में ही पाई जाएंगी, अर्थात सभी देवियां, माँ सरस्वती के स्वरूप में ही साक्षात्कार होंगी।
और क्यूंकि, इस मार्ग में शिव ही ब्रह्मात्मक हैं, इसलिए कुछ योगी उस सत्य को पञ्च ब्रह्म के नाम से पुकारते हैं, और कुछ और योगी उन्ही पञ्च ब्रह्म को, पञ्च मुखा शिव कहके पुकारते हैं।
शिवत्व और ब्रह्मत्व में कोई अधिक अंतर नहीं होता, बस कुछ ही बिन्दुओं का होता है, और वो अंतर भी मार्ग का होता है, न कि इन दो शब्दों के गंतव्य का। वास्तव में, अपने अपने गंतव्य में, ये दोनों शब्द … एक ही हैं।
अब आगे बढ़ता हूँ …
हर जीव में यह हीरे जैसी चमक की नाड़ी, उस जीव के शिवरन्ध्र से बाहर की ओर निकलती है, और शिवरन्ध्र से परे (अर्थात, ऊपर) शून्य ब्रह्म में बसे हुए, उस निरंग ब्रह्माकाश को जाती है।
ये नाड़ी एक सोने जैसे रंग के प्रकाश में बसी हुई होती है, और इसके साथ साथ, वो सुनहरा प्रकाश भी इस हीरे जैसे रंग में ही बसा हुआ होता है।
तो अब मैं इस हिरण्यगर्भात्मक नाडी के बारे में संक्षेप में बताता हूँ …
परकाया प्रवेश का मार्ग … सर के ऊपर के भाग की नाड़ी का वर्णन …
वेदों के हिरण्यगर्भ को ही महेश्वर, योगेश्वर, योग सम्राट, योग गुरु, योगऋषि, योग और योग तंत्र कहते हैं। महेश्वर ही समस्त योगियों के ईश्वर हैं। वास्तव में तो, जो साधक महेश्वर का नहीं है, वो योगी भी नहीं हो सकता।
यहाँ पर जिस नाड़ी के बारे में बतलाया जा रहा है, वो उन्ही महेश्वर, योगेश्वर, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की नाड़ी है, जिसका शब्द राम है, और जिसका मंत्र शिव तारक मंत्र कहलाता है।
लेकिन, इस राम नाद के बारे में, किसी बाद के अध्याय में बतलाऊँगा।
अब आगे बढ़ता हूँ …
ये चित्रिणी नाड़ी का चित्र है, जिसको ब्रह्म नाड़ी भी कहा जाता है। ये चित्र चित्रणी नाड़ी के भीतर की अवस्था को दर्शाता है।
ये नाड़ी शिवरंध्र से ऊपर, अर्थात, बाहर की ओर जाती है, और साधक की चेतना को अष्ठम चक्र को लेके जाती है, जो शून्य ब्रह्म में ही बसा हुआ एक चक्र होता है और जिसका सूक्ष्म सांकेतिक वर्णन, अथर्वेद के दशम काण्ड, दूसरे सूक्त, मन्त्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस में भी है।
इसके पश्चात साधक, उस शून्य ब्रह्म के भीतर बसे हुए निरंग ब्रह्माकाश का साक्षात्कार भी करता है।
सिद्धों ने इसी अष्ठम चक्र को, निरालम्ब चक्र और निरालम्बस्थान के नाम से भी बतलाया था। एक पूर्व जन्म मे मै भी उस सिद्ध मार्ग का था, जिसमें चौरासी सिद्ध हैं, और उस जन्म में मेरा नाम, धर्म शब्द पर था।
लेकिन अपने मूल से, ये साक्षात्कार और ज्ञान अथर्ववेद का है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
सर के ऊपर के भाग के बीच में, सहस्रार चक्र से, एक हीरे के समान प्रकाशित नाड़ी बाहर की ओर निकलती है, अर्थात, सर से भी ऊपर की ओर या सर से बाहर की ओर जाती है।
उस हीरे के समान प्रकाश की नाड़ी को घेरे हुए हैं, एक और सुनहरे रंग की नाड़ी होती है।
और क्यूंकि, यह नाड़ी ब्रह्मरंध्र के भी ऊपर होती है, इसलिए ब्रह्मरंध्र अंतिम चक्र भी नहीं होता है। ब्रह्मरंध्र के ऊपर भी साक्षात्कार की अवस्थाएं होती हैं।
इस नाड़ी को ही योगीजन, वज्र, वज्रदंड और वज्रदंड चक्र भी कहते हैं। और इसी नाड़ी को कुछ योगियों ने, विद्युत लोक से भी सम्बंधित बताया है।
और इसी हीरे और सुनहरे प्रकाश के नाड़ी समूह को, कुछ योगियों ने ब्रह्म नाड़ी, चित्रिनी नाड़ी, इत्यादि भी कहा है।
और इसी नाड़ी को बाइबिल में, सिल्वर कॉर्ड (Silver cord) भी कहा गया है।
इसी नाड़ी को पारसी लोग भी संकेतिक रूप में मानते हैं, उनके चिन्ह फ़रावहार में।
इस नाड़ी का बीज शब्द, संस्कृत भाषा का रर्ररा नामक अक्षर होता है, जिसे रकार भी कहते हैं।
और इसी रकार को मिस्र की पुरातन सभ्यता में, सूर्य कहा गया था।
और यही रर्ररा का शब्द, तिब्बती बौद्ध पंथ में, एक–सौ बुद्ध के बीज शब्दों के मंत्र में भी बताया गया है।
इसी नाड़ी को वेद मनीषियों ने, हिरण्यगर्भ ब्रह्म की नाड़ी भी कहा था।
इसी नाड़ी के भीतर का शब्द, राम कहलाता है, जो मेरे परमगुरु शिव का तारक मंत्र भी है। इसीलिए, इस नाड़ी को पुरुषोत्तम नाड़ी भी कहा जा सकता है, निष्कलंक भगवान की नाड़ी भी कहा जा सकता है, खालिस नाड़ी भी कहा जा सकता है, क्योंकि राम भगवान वह एकमात्र “खालिस के भी खालिस” होते हैं।
खालिस शब्द का अर्थ होता है, निष्कलंक, पवित्र, सोने जैसा खरा, इत्यादि।
और इसी नाड़ी को गुरु गोबिंद सिंह जी ने “खंडा साहब” भी कहा था, जो सर के ऊपर, बारह हाथ की लंबाई का होता है, और जो ब्रह्माकाश की ओर लेके जाता है।
ये नाड़ी ही साधक के ब्रह्मरंध्र को, ब्रह्माकाश से जोड़ता है।
वो ब्रह्माकाश भी शून्य ब्रह्म के भीतर ही बसा होता है, और इसके साथ साथ, वो शून्य ब्रह्म भी इसी ब्रह्माकाश के भीतर बसा होता है। इसीलिए ब्रह्माकाश और शून्य ब्रह्म, दोनों ही एक दुसरे से योग में होते हैं।
वो शून्य ब्रह्म ही मेरे सनातन गुरुदेव, श्रीमन नारायण हैं। और उन्ही श्रीमन नारायण को पञ्च मुखा सदाशिव, भगवान् विश्वकर्म, विराट परब्रह्म इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है।
इस कलियुग के स्तम्भित होने के पशचात, जो युग प्रारम्भ होगा, और जो गुरु युग भी कहलाएगा, वो गुरुयुग या वैदिक युग भी इन्ही भगवान् विश्वकर्म का है। और उस आम्नाय युग या वैदिक युग की आयु कोई दस हजार वर्षों की होगी।
अब आगे बढ़ता हूँ …
इसी नाड़ी का संबंध, कडूसीअस (Caduceus) या सर्पदंड के चिन्ह से है, स्टाफ ऑफ मोसेस (Staff of Moses) से है, और पुरातन यूनान सभ्यता के कई देवताओ के हाथ में जो डंडा दिखाया जाता था, वो भी इसी नाड़ी से सम्बंधित होता था।
और वैदिक वाङ्मय के देवी देवताओं से, इस नाड़ी का संबंध खड़क नामक शब्द से भी है।
वेदान्तियों का एकदंड, जो विष्णुलिंग कहलाता है, वो भी इसी नाड़ी से सम्बंधित होता है।
इसी नाड़ी के शिखर पर, जो अष्टम चक्र है, उसे मेरु और सुमेरु भी कहा गया है, इसलिए इस नाड़ी का सम्बन्ध, उस मेरु या सुमेरु से भी है।
और इसी नाड़ी का संबंध, गरुड़ देव, रत्नसारू (रत्नमारू) तलवार और देवदत्त नामक अश्व से भी है।
इस नाड़ी की वो महिमा है, कि यदि मैं बताने लगूंगा, तो ये अध्याय अनंत हो जाएगा, और उन सनातन गुरु, श्रीमन नारायण तक ही पहुंचा देगा।
लेकिन इस सबके पश्चात भी, ये नाड़ी, परमगुरु शिव की ही नाड़ी होती है, क्योंकि योग ज्ञान से जो ही पाया जाता है, वो सब उसके मूल रूप में, उन्ही योगेश्वर, महेश्वर का होता है…, और किसी का भी नहीं।
इसलिए, अब इस वर्णन को विराम देता हूं, और आगे बढ़ता हूं … और इसपर किसी और अध्याय में लौटूँगा।
अब आगे बढ़ता हूं …
अब इस हिरण्यगर्भात्मक नाड़ी का परकाया प्रवेश प्रक्रिया से सम्बन्ध बताता हूँ …
परकाया प्रवेश के समय पर, शरीर को दान वाले की इस नाड़ी को, उसके शरीर से काट दिया जाता है, जिसके कारण वो शरीर को दान करने वाला जीव, उस शरीर से पृथक या अलग हो जाता है।
और जैसे ही उस दानी जीव की नाड़ी कट जाती है, तो उसी समय, परकाया प्रवेश करते हुए जीव की नाड़ी को, उस स्थूल शरीर से जोड़ दिया जाता है।
और क्यूंकि यह प्रक्रिया, एक दो क्षण में ही पूर्ण होती है, इसलिए इसमें सहायक चाहिए होते हैं, जो इस नाड़ी को, उसके स्थान को और उसके तंत्र को जानते है।
इन सहायकों का काम केवल परकाया प्रवेशी की नाड़ी को स्थूल शरीर से जोड़ने तक ही होता है…, इसके पश्चात नहीं।
और जैसे ही परकाया प्रवेशी की वो नाड़ी उस स्थूल शरीर के उचित स्थान पर जुड़ जाती है, वैसे ही वो सभी सहायक अपने अपने लोकों में लौट जाते हैं।
नाड़ी जोड़ने के बाद, वो परकाया प्रवेशी अपने आप आगे बढ़ता है, क्यूंकि इस दशा के बाद, उसके पास कोई भी दिव्य सहायक नहीं होता है।
और क्यूंकि ये प्रक्रिया, कुछ ही क्षणों में पूर्ण होनी होती है, इसलिए इन सहायकों की एक बहुत बड़ी भूमिका भी होती ही है।
अब आगे बढ़ता हूं …
उस सुनहरी नाड़ी को, उन देवी माँ नें, और उनके साथ आए हुए दिव्य सहायकों नें, शरीर को दान करने वाले के नीले रंग के सूक्ष्म शरीर से अलग किया…, और इसके तुरंत बाद, अनहोने उस नाड़ी को सुनहरे शरीर की नाड़ी के साथ जोड़ दिया।
ये सुनहरा शरीर भी इस चित्र में दिखाया गया है, और ये सुनहरा शरीर यहाँ बताये जा रहे परकाया प्रवेशी का था, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लोक से परकाया प्रवेश मार्ग से लौटाया जा रहा था I
इस नाड़ी तोड़ने और जोड़ने की प्रक्रिया में, मेरे मस्तिष्क के ऊपर के बीच के भाग में, एक भयानक शूलसम पीड़ा उठी, और इसके कारण मैं पूर्ण स्तम्भित हो गया।
और ऐसी स्तम्भित दशा में, मैं तो बस उन देवी के मुस्कान भरे मुख को ही देखता रह गया।
जैसे ही ये प्रक्रिया पूर्ण हुई, वो देवी और उनके साथ आए हुए कुछ ऋषि गण, सिद्ध गण और देव गण लौट के चले भी गए। और इसके बाद मैं उस रसोई घर की नाली में स्तम्भित पड़ा हुआ …, अकेला ही रह गया।
इन देवी को ही योगीजन अकार कहते हैं, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म के कार्य ब्रह्म स्वरूप की अर्धांगिनी और शक्ति हैं, और माँ सावित्री कहलाती हैं, जो त्रिगुणों के साथ साथ चौबीस तत्वों की भी स्वामीनी हैं, और जो पंच विद्याओं में, चौथी विद्या हैं।
बौद्ध मार्ग में, इन्ही देवी माँ को, बुद्ध प्रज्ञापारमिता भी कहा जाता है।
और बाइबिल में, इन्हीं देवी माँ को, सूर्य के वस्त्र धारण करने वाली नारी, अपोकलीप्स की नारी और माँ मरियम (मदर मैंरी) भी कहा जाता है।
अपोकलीप्स शब्द का अर्थ, त्रसादि या विनाश नहीं होता। इस अपोकलीप्स शब्द का अर्थ होता है, उस ज्ञान का प्रकाश होना, जो युगों से छुपा हुआ था। इस शब्द का अर्थ ये भी होता है, कि, उस मुक्ति मार्ग का उदय होना, जो युगों से ढका हुआ था I इस शब्द का अर्थ ये भी होता है, कि, उस उत्कर्ष तंत्र का उदय या पुनरोदय होना जो लुप्त सा हो गया था।
और इन्ही देवी माँ को, महाभारत ग्रंथ के भाष्यकार ने, मैया मोरी नामक शब्द से भी बतलाया गया है।
कई जन्मों से यही देवी माँ, जो योगेश्वर हिरण्यगर्भ ब्रह्म, की कार्य ब्रह्म नामक अभिव्यक्ति की अर्धांगनी हैं…, मेरी वास्तविक माँ भी हैं।
अब आगे बढ़ता हूं …
अब इन सब बातों को आधार बनाके, मैं परकाया प्रवेश को बताता हूं, लेकिन इस अध्याय में, मैं कुछ ही बिंदुओं को बताऊंगा, सारे बिंदुओं को नहीं। वैसे भी आज की विकृत मानव जाती, चाहे वो स्थूल लोकों में हो या सूक्ष्म लोकों में, इस ज्ञान की पात्र भी तो नहीं है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
परकाया प्रवेश के समय पर शूलसम वेदना …
जब ये नाड़ी टूटती है, तो उस समय पर मस्तिष्क के भीतर एक बहुत तीव्र वेदना होती है।
ऐसे समय पर, ऐसा लगता है, जैसे मस्तिष्क के बीच के भाग में, किसी ने गर्म सुई चुभा दी है। और इस पीड़ा का कुछ भाग, हृदय तक भी जाता है I
और ऐसी ही शुलसम वेदना तब भी होती है, जब परकाया प्रवेशी की नाड़ी उस स्थूल शरीर से जोड़ी जाती है।
परकाया प्रवेश के समय क्या होता है …
परकाया प्रवेश जागृत अवस्था में होता है, अर्थात, जो जीव शरीर को दान करके उस शरीर से बाहर जाएगा, वो जागृत अवस्था में ही होना चाहिए।
लेकिन जब ये प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, तब उस शरीर को दान करने वाले को जागृत अवस्था में होता हुआ भी, उस जागृत स्थिति में ही स्तम्भित होना होगा।
ऐसा तब होता है, जब सर पर कोई भारी मार लगती है, और इस मार के बाद, वो जीव जागृत तो होता है, लेकिन कुछ क्षण के लिए, वो जागृत स्थिति में ही स्तम्भित सा हो जाता है।
ऐसी स्थिति में, जो कुछ भी हो रहा होता है, वो उसको देखता तो है, लेकिन कुछ भी कर नहीं पाता है।
वो बस उसी स्थान पर, जहाँ वो स्तम्भित हुआ था, किसी घोर तम रूपी चेतना से बंधा हुआ, स्तम्भित ही पड़ा रहता है, और एक सूक्ष्म दृष्टि से, जो उसको उस समय प्राप्त होती है…, जो भी हो रहा होता है, वो उस सब को देखता भी रहता है।
और ऐसे घोर तम रूपी चेतना से बंधे हुए, जागृत अवस्था में ही स्तम्भित हुए शरीर में, परकाया प्रवेश की प्रक्रिया का प्रारम्भ होता है, और जो क्षण भर या थोड़ा अधिक में पूर्ण भी हो जाती है।
शरीर दान करने वाले और परकाया प्रवेशी की दशा …
जैसे ही शरीर को दान करने वाले की नाड़ी, उस शरीर से काटी जाती है, वैसे ही वो जीव उस शरीर से पृथक हो जाता है, और उसके अपने कर्मों के अनुसार, किसी न किसी लोक को प्राप्त हो जाता है।
और जैसे ही परकाया प्रवेशी की नाड़ी उस शरीर से जोड़ी जाती है, वैसे ही वो परकाया प्रवेशी जागृत अवस्था में ही हिलने डुलने लगता है, अर्थात वो उसकी पूर्व की स्तम्भित अवस्था से बाहर आ जाता है।
और इसके पश्चात वो परकाया प्रवेशी, उस स्थूल शरीर के लोक का हो जाता है, और उसी लोक के निवासियों के समान, स्थूल शरीर धारी या शरीरी कहलाता है।
और वो तबतक ही उस शरीर के लोक का रहता है, जबतक वो उस शरीर में रहता है। और शरीर त्यागने के पश्चात, वो या तो उस लोक का होता है जहाँ से वो पूर्व में शरीरी स्वरूप में लौटा था या उससे भी ऊपर के किसी लोक में चला जाता है।
परकाया प्रवेश से आने वाले का वर्ण, गोत्र, कुलदेव और कुलदेवी …
जो भी जीव परकाया प्रवेश से लौटेगा, उसका वर्ण ब्राह्मण का ही होगा।
वो या तो ब्राह्मण ब्राह्मण होगा, या ब्राह्मण क्षत्रिय या क्षत्रिय ब्राह्मण या ब्राह्मण वैश्य या वैश्य ब्राह्मण होगा। इन वर्ण पंचक के सिवा, उसका कोई और वर्ण हो ही नहीं सकता।
और इस ब्रह्म कल्प में, उस परकाया प्रवेशी का मूल गोत्र भी क्रतु ही होगा। इसके सिवा, उसका और कोई गोत्र भी हो नहीं सकता।
और जो परकाया प्रवेश करेगा, उसकी कुलदेवी भी भूदेवी ही होंगी और उसके कुलदेव रूद्र देव ही होंगे। इनके सिवा और कोई कुलदेव और कुलदेवी भी हो नहीं सकते।
और यही कारण है, कि परकाया प्रवेश से आगमन, कोई भी नहीं कर सकता, जबतब उस जीवात्मा की स्थिति वैसी ही होगी, जैसी यहाँ पर बतलायी गयी है।
परकाया प्रवेश का कालचक्र से नाता …
जब कोई जीवात्मा का आगमन, परकाया प्रवेश के मार्ग से होता है, तो उसके आने की मूल प्रेरणा में, काल ही होता है। इसलिए, यदि कोई जीव परकाया प्रवेश के मार्ग से आया है, तो वो काल की प्रेरणा से ही आया होगा।
शक्ति रूप में, काल की प्रेरणा ही माँ महाकाली कहलाती हैं, जो दस हाथ वाली होती हैं और जिनके दस हाथ, इन चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, दसों दिशाओं को दर्शाते हैं। इसलिए ऐसे योगी के आगमन की मूल प्रेरणा में, महाकाल और महाकाली…, दोनों ही मिलेंगे।
और यही कारण है, कि परकाया प्रवेश से आगमन भी तब ही हो सकता है, जब वो कालचक्र के अनुसार हो, अर्थात, इस परकाया प्रवेश प्रक्रिया की मूल प्रेरणा में, काल के ही किसी बिंदु की मांग या आवश्यकता हो।
परकाया प्रवेश से लौटने का लौकिक कारण …
जो भी जीव सोचता है, करता है, उस से उस जीव के अन्तःकरण के चित्त के भाग में, एक सूक्ष्म संस्कार बन जाता है।
और जैसे जैसे और भी जीव उसी इच्छा को सोचते हैं, या उसकी पूर्ती के लिए अपने कर्म करते हैं, तब उसी इच्छा या कर्म के अनुसार, उनके अंतःकरण के चित्त के भाग में भी, वही अर्थात, उसी प्रकार का सूक्ष्म संस्कार बन जाता है।
जैसे जीव का चित्त होता है, वैसे ही ब्रह्माण्ड और उसके प्रत्येक लोक का भी एक चित्त होता है। और ये सभी चित्त, एक दुसरे से जुड़े हुए होते हैं, क्यूंकि ये सब उसी ब्रह्माण्ड चित्त के अभिन्न अंग होते है।
इसलिए यदि इनमे से किसी की भी चित्त में कोई भी संस्कार बनेगा, तो वही संस्कार ब्रह्माण्ड की चित्त में भी दिखेगा।
यही कारण है, कि जो योगी ब्रह्माण्ड की चित्त को पढ़ना जानता है, वो योगी ये भी जान जाएगा, की किस लोक के किस जीव या जीवों ने, उस संस्कार को या उस संस्कार समूह को बनाने में भाग लिया है।
इसका एक साधारण सा उदहारण दूँ तो, मैं कह सकता हूँ, की, जैसे मानव की चित्त होती है, वैसे ही पृथ्वी की भी एक चित्त होती है, जो सूर्य मण्डल की चित्त के भीतर बसी होती है और जो आकाश गंगा की चित्त के भीतर बसी हुई होती है और जो ब्रह्माण्ड की चित्त के भीतर बसी हुई होती है।
और क्यूंकि ये सभी चित्त, ब्रह्माण्ड की चित्त का ही अभिन्न अंग होते हैं, इसलिए उस ब्रह्माण्ड की चित्त से जुडी हुए भी होते हैं।
इसलिए, जिस योगी ने ये संस्कार विज्ञान जान लिया, वो योगी ये भी जान सकता है, की किस लोक से, और किन किन जीवों से वो संस्कार या संस्कार समूह बना है।
और क्यूंकि ये सभी चित्त, एक ही होती है, जो ब्रह्माण्ड की चित्त के अखण्ड भाग होते हैं, इसलिए, मानव या किसी भी जीव के चित्त में जो भी संस्कार बना है, वो उस लोक, उस सूर्य मंडल, उस आकाश गंगा और उस ब्रह्माण्ड की चित्त के भीतर भी समान रूप में पाया जाएगा।
तो ये ज्ञान उसका आधार था, जो मैं अब बताने वाला हूँ …
जैसे जैसे जीव जाती, त्रस्त होती जाती है, वैसे वैसे वो जीव जाती, उस सर्वात्मा या परमात्मा की जिस भी अभिव्यक्ति को मानती है, उसके पास, भाव रूप में एक गुहार लगाती ही जाती है, कि भगवान् हमारी मदद करो, अब हम फँस गए हैं, अब तो हमारी सरकारों और सन्तों से भी नहीं हो पायेगा…, इसलिए आप जो हमारे भगवान् हैं, हमारी मदद करो।
जैसे जैसे हजारो, लाखों और करोड़ों की संख्या में, उस लोक के जीव उनकी अपनी पृथक भाषाओँ में, पृथक शब्दों में और पृथक मार्गों में, ऐसी गुहार लगाते ही जाते हैं, वैसे वैसे उस पृथ्वी लोक के चित्त में उन संस्कारों की संख्या बढ़ती ही जाती है, जो उन जीवों के एक मूल भाव को दर्शाते हैं, कि आप जो हमारे भगवान् हैं, हमारी मदद करो।
और ऐसा होने पर, उस पृथ्वी लोक की चित्त में उन सूक्ष्म संस्कारों की संख्या और जीवों की उस मदद की गुहार का ऊर्जा रूपी वजन या मात्रा, भी बढ़ता ही जाता है। समस्त प्रकृति मूल में जो भी है, वो सब उसमे मूल से ऊर्जा ही है इसलिए ये वजन या मात्रा भी ऊर्जा का ही होता है I
और एक ऐसी दशा आने लगती है, जिसके पश्चात उस लोक की चित्त, उन संस्कारों की और अधिक संख्या या और अधिक वजन नहीं ले पाती है। और ऐसी दशा के पश्चात, जो कुछ भी उन संस्कारों के बनने का कारण था, और उनके बनने के समय का मूल भाव था, उसको उस पृथ्वी लोक में फलित होना ही पड़ेगा जहाँ के जीवों के भाव से ही उन संस्कारों का निर्माण हुआ था।
ये अवस्था कुछ कुछ वैसी ही होती है, जैसे जब मेघों में भाप का बहुत वजन हो जाता है, तो वही भाप वर्षा बनकर बरस जाती है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
जब ऐसी अवस्था आने लगती है, तो ही ब्रह्माण्ड की दिव्यताएँ जानने लग जाती हैं, कि अब किसी योगी को चुनना पड़ेगा और उस योगी को, उस पृथ्वी लोक में भेजना पड़ेगा, ताकि उस बने हुए संस्कार रूपी समुद्र के मूल कारण का निवारण हो सके…, और वो संस्कार समूह एक साथ फलित हो सके।
लेकिन आगमन के बाद, ऐसा योगी बस उतना ही देगा, जितना उस संस्कार समूह में से माँगा गया है। न इससे कुछ अधिक…, और न ही इससे कुछ कम ही दे पाएगा।
और यदि ऐसा योगी, उसके आगमन से पूर्व से ही, संस्कार रहित अवस्था को पाया हुआ हो, तो वो चित्त के समस्त संस्कारों को ध्वस्त करने का मार्ग भी, उसके अपने ही ढंग से देगा, और जिस मार्ग से वो योगी स्वयं भी जाएगा, ताकि वो उन संस्कारों से मुक्त हो सके, जो उसने उसके शरीर के दानी से धारण किए थे, और वो भी तब, जब उसने परकाया प्रवेश की प्रक्रिया से शरीरी रूप में अपना जन्म लिया था।
जिस योगी ने किसी भी जन्म में, अगर एक बार भी चित्त की संस्कार रहित अवस्था को पा लिया, तो वो हर एक हर लोक में, हर एक जन्म में, संस्कार रहित ही रहता है।
चित्त की संस्कार रहित अवस्था, एक ऐसी अवस्था है, जिससे नीचे नहीं आया जाता। इसलिए एक बार इसको पा लिया, तो बस सदैव के लिए ही पा लिया।
इस संस्कार रहित अवस्था को पाने के पश्चात, यदि वो योगी किसी आगामी समय में किसी और के संस्कार धारण भी करेगा, जैसे परकाया प्रवेश के समय पर होता ही है, तब भी उसके उस परकाया प्रवेश से पाए हुए जन्म के पूर्ण होने से पूर्व ही, वो योगी कुछ विशेष क्रियाओं का आलम्बन लेके, पुनः संस्कार रहित हो जाएगा I इस संस्कार रहित चित्त को पुनः पाने की प्रक्रिया में, उसका साथ कुछ दैविक सत्ताएं भी देती हैं I
चित्त की संस्कार रहित अवस्था को ही कर्ममुक्ति कहा जाता है, और जिसका मार्ग निर्बीज समाधी से ही होकर जाता है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
यही नियम अन्तःकरण चतुष्टय के बाकी तीन अंगों पर भी लागू होता है I यह बाकी तीन अंग मन, बुद्धि और अहम् कहलाए गए हैं।
जिस भी योगी ने, इन तीनों में से किसी के भी गंतव्य को, किसी भी जन्म में पाया है, वो भी उस गंतव्य से नीचे नहीं आ सकता, चाहे वो कुछ भी कर ले, किसी भी अधम लोक में लौट आये, या उसके साथ कोई भी, कुछ भी कर ले।
इसलिए, जिसने बस एक ही बार, यदि अन्तःकरण चतुष्टय के किसी भी बिंदु के गंतव्य को पा लिया, तो उसे उस गंतव्य से, कभी भी नीचे नहीं गिराया जा सकता, चाहे वो या कोई और सत्ता…, कुछ भी कर ले।
सदाशिव के किसी भी मुख से लौटे हुए परकाया प्रवेशी की स्थिति …
लेकिन यहाँ पर मैं विशेषकर सदाशिव के तत्पुरुष मुख, अर्थात पूर्वी मुख की बात करूंगा, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म, योगेश्वर कहलाता है, और जो अंततः गुरु युग का संस्थापक या युग स्थापक भी होता है I
समस्त जीव और जगत, जिसके अंतर्गत तुम सब भी आते हो, और तुम्हारे सभी उत्कर्ष मार्ग भी आते हैं, उसी एक परमात्मा की अभिव्यक्ति है।
और तुम सब उसी एक परमात्मा को, तुम्हारे अमुक अमुक ग्रंथों में, अमुक अमुक नामों से पुकारते हो और उसी एक परमात्मा की ओर ही तुम सब, अपने पृथक मार्गों से जा रहे हो।
लेकिन इस प्रबुद्ध योगभ्रष्ट की एक बात याद रखो, की शब्दों से, भाषाओँ से, नामों से, मार्गों से, तंत्रों से उस परमात्मा को कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता, क्यूंकि जबतक तुम्हारे भाव में वो एकमात्र परमात्मा ही रहेगा, तबतक चाहे तुम्हारा मार्ग या ग्रन्थ या भाषा या तंत्र कुछ भी हो, तुम सब को फल भी एक जैसा ही मिलेगा।
इसलिए, उसको तुम किसी भी नाम से, भाषा से, मार्ग से या तंत्र से मदद के लिए पुकारो, और उसके पुनरागमन को कोई भी नाम या काल खंड दो, लेकिन जबतक तुम्हारे भाव में वही बात होगी, और जबतक तुम सब उसी पृथ्वी पर निवास कर रहे होगे, तबतक जो भी आएगा तुम्हारे कष्टों के निवारण का मार्ग लेके…, वो एक ही होगा…, अनेक नहीं।
उस एक के बारे में ही सभी मार्ग और उनके ग्रन्थ बोलते होंगे, लेकिन अपने अपने पृथक प्रकार से…, और पृथक भाषाओँ से और वाक्यों में।
जो चित्त के ऐसे सांस्कारिक भार को कम करने को, परकाया प्रवेश के मार्ग से आता है, वो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट ही होगा, जो अपने जीव रूपी इतिहास में, सभी मार्गों को पार कर चुका होगा, इसलिए, वो एक होता हुआ भी, सभी मार्गों के मूल का होगा।
इसलिए, उसके आने के पश्चात, ये बात तो उठेगी ही, कि वो इस ग्रन्थ के अनुसार आया है या उस ग्रन्थ के अनुसार। वो इस धर्म का है, या उस धर्म का।
लेकिन एक बात याद रखो, कि जो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट, परकाया प्रवेश से आता है, वो समस्त ब्रह्माण्ड और उसके समस्त लोकों के मार्गों के साथ, समान रूप में योग लगाके बैठा होता है, इसलिए, वो एक दीखता हुआ भी, सभी मार्गों का और समस्त ग्रंथों का एक साथ ही होगा। लेकिन वो कभी भी तांत्रिक, मांत्रिक या यांत्रिक नहीं होगा क्यूंकि प्रबुद्ध योगभ्रष्ट के भाव में ही उसका मार्ग और साधन, दोनों होते हैं I
इसका कारण है, कि वो प्रबुद्ध योग भ्रष्ट, उसके जीव रूपी इतिहास में, सभी मार्गों और उनके लोकों से होकर, उनसे पार भी जा चुका होगा। इसलिए, वो उस समय के समस्त ग्रंथों के गंतव्य लोकों का भी ज्ञाता होगा।
तो अब ध्यान से सुनो, क्यूंकि अब मैं इस अध्याय को समाप्ति की ओर लेके जा रहा हूँ …
जबतक वैदिक युग नहीं आता, अर्थात अर्थात, गुरु युग नहीं आता, तबतक जो यहाँ बताया गया है, वो भी नहीं हो सकता।
वैदिक इकाई में, देवताओं के कलियुग की समय सीमा 432,000 वर्षों की होती है और उसी वैदिक इकाई में, मानव सत्युग जो पृथ्वी के अग्रगमन चक्र में चलता है, उसकी समय सीमा 9,600 वर्षों की होती है।
जब देवताओं के कलियुग को स्तम्भित करके, उस देव कलियुग के भीतर ही मानव सत्युग का उदय किया जाता है, तो वो मानव सत्युग ही गुरु युग कहलाता है…, वैदिक युग कहलाता है।
उस गुरुयुग को प्रकट करने हेतु, महेश्वर योगेश्वर या हिरण्यगर्भ लोक से, एक योगी परकाया प्रवेश के मार्ग से आता है, जो ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में महेश्वर का योगी ही कहलाता है, जो उस गुरु युग का बीज रूप होता है। और उस परकाया प्रवेशी योगी रूपी सगुण साकार बीज से ही, उस गुरुयुग का उदय होता है।
पर क्यूंकि आज मानव युगचक्र का विज्ञान ही लुप्त हो गया है, इसलिए वो गुरुयुग, जो इस पृथ्वी लोक में दस्तक देने वाला है, उसके बारे में अब कोई भी नहीं जानता।
जबतक किसी पृथ्वी लोक में, युग परिवर्तन या युग स्तम्भित प्रक्रिया चलने का समय नहीं आता…, तबतक परकाया प्रवेश भी नहीं होता।
इसका कारण भी वही है, कि परकाया प्रवेश से किसी योगी का आगमन, केवल काल की प्रेरणा से ही होता है…, और किसी भी प्रेरणा से नहीं।
लेकिन यदि वो परकाया प्रवेश से आया योगी, हिरण्यगर्भ लोक से लौटाया गया हो, तो उसके साथ पंच कृत्य के धारक कुछ ऋषि और सिद्ध गण सहित, कुछ ऐसे सिद्ध योद्धा भी होते हैं, जो उन अस्त्रों को धारण किए हुए होते हैं, जिनको गुणास्त्र, भूतास्त्र, दिशास्त्र, दशास्त्र, इतियादी शब्दों से कहा जाता है।
और क्यूँकि काल की अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भा ब्रह्म से हुई थी, इसलिए वो परकाया प्रवेशी जो काल की प्रेरणा से ही लौटाया गया है, वो उसके अपने सगुण साकार, अर्थात मानव रूप में ही कालास्त्र होगा, जिसको स्वयं माँ मूल प्रकृति ने ही धारण किया होगा।
काल से बड़ी कोई शक्ति भी नहीं होती, इसलिए वो परकाया प्रवेशी भीतर से शाक्त होगा।
अपने आचरण से कल्याणकारी होगा, इसलिए वो बाहर से शैव होगा।
और क्यूंकि वो उस लोक में स्थिति कृत्य स्थापित करने को आया होगा, इसलिए उस धरा पर वैष्णव ही पाया जाएगा।
और क्यूँकि सदाशिव का पूर्वी मुख, जिससे वो लौटा है, और जो हिरण्यगर्भ कहलाता है, वो तिरोधान कृत्य का धारक होता है, इसलिए, जबतक वो ना चाहे, उसे कोई भी जान नहीं पायेगा।
और क्यूँकि सदाशिव के पूर्वी मुख को पार करने के पश्चात, सभी मुखों के भीतर बसे हुए ईशान मुख को जाया जाता है, जो निरंग स्फटिक के समान, स्वच्छ जल के समान, जो निर्गुण निराकार कहलाता है, और जो अनुग्रह कृत्य का धारक होता है, इसलिए उसका दिया हुआ गंतव्य, उस अनुग्रह को ही लेके जाएगा, जिसके गंतव्य स्वरूप को ही कैवल्य मोक्ष कहा जाता है, और जो कर्मातीत मुक्ति को ही दर्शाता है।
और क्यूंकि हिरण्यगर्भा ही एकमात्र देवता है, जो अभिमानी और अनभिमानी दोनों ही, समान रूप में होते हैं, इसलिए, वो योगी जो हिरण्यगर्भ या योगेश्वर के लोक से परकाया प्रवेश के मार्ग का आलम्बन लेके लौटा है, वो कभी अभिमानी पाया जाएगा, और कभी तो वो सारे अभिमानों से विमुख हुआ, विशुद्ध अनभिमानी ही पाया जाएगा।
ऐसे योगेश्वर महेश्वर, जो वेदों के प्रजापति की विशुद्ध अनभिमानी लेकिन कार्मिक अभिव्यक्ति स्वरूप में, हिरण्यगर्भ ब्रह्म ही हैं, उनके लोक से लौटा हुआ परकाया प्रवेशी, दिखने में तो एक होगा, लेकिन यदि कोई भी उसके साथियों की संख्या जान लेगा, तो वो अनेकों का भी अनेक होगा।
इसलिए, उस पृथ्वी लोक में, जिसमें वो लौटा है, उसका साथ कोई दे या न दे…, वो जिस कार्य के लिए आया है…, उसको अंततः कर ही लेगा।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और उस परकाया प्रवेशी की सूक्ष्म लौकिक स्थिति को बताता हूँ …
ऐसे परकाया प्रवेश से लौटे हुए, उस योगेश्वर, महेश्वर या हिरण्यगर्भा के योगी का …
- मन ब्रह्मत्व में बसा हुआ होगा I
- अहम् शिवत्व में बसा हुआ होगा I
- उसकी बुद्धि बुद्धत्व में होगी I
- और उसका संस्कार रहित चित्त, जीवत्व और जगतत्व, दोनों में ही सामान रूप में बसा होगा। इसलिए उसका चित्त, स्थिति कृत्या में बसा हुआ, विष्णुत्व में होगा I
- इसलिए, उसका उत्कर्ष मार्ग संस्कार रहित चित्त से होके, ब्रह्मस्थिर मन को पाके, विशुद्ध अहम् में जाके, सर्वोच्च ज्ञान या आत्मज्ञान का ही होगा।
ऐसा महेश्वर, योगेश्वर या हिरण्यगर्भा से लौटा हुआ प्रबुद्ध योगभ्रष्ट परकाया प्रवेशी, स्वयं ही स्वयं में रहेगा, और अपने समस्त कार्य, अपने भाव से उत्पन्न हुए साधन का आलम्बन लेके ही करेगा। और इसके सिवा उसका और कोई मार्ग ही नहीं होगा।
इसलिए, उसके अपने कार्य में, उसको किसी और का साथ मिले या न मिले…, जिस कार्य के लिए वो लौटा है…, वो कार्य तो वो संपन्न कर ही लेगा।
परकाया प्रवेश पूर्ण होने के बाद की दशा …
जैसे ही परकाया प्रवेश संपन्न होता है, और परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटा हुआ जीव जागृत अवस्था में लौट आता है, वैसे ही उसको उस शरीर को चलाना भी पड़ेगा।
लेकिन उस समय पर, उसको वो स्थूल शरीर चिपचिपा सा लगता है, जैसे चिप चिप करते, किसी ठण्डे से, गीले गीले, दुर्गन्ध से भरे कीचड में वो पड़ा हुआ है।
उस शरीर में से गुड़ गुड़ करती हुई, कुछ ध्वनियाँ भी आ रही होती है, जैसे बहुत सारी नालियों में, थोड़ा गाढ़ा सा पानी बह रहा है।
और इस सब के साथ साथ, उसको ऐसा लगता है, जैसे उसको किसी ने एक पिंजरे में बंद कर दिया, क्यूंकि उसको वो स्थूल शरीर पिंजरे जैसा ही लगता है, जिसमें वो अपने को फंसा हुआ सा पाता है।
इसके साथ साथ, उसको ऐसा भी लगता है, जैसे उसको किसी ने सर पर मारा था, जिसके कारण उसको बहुत पीड़ा भी हो रही होती है।
परकाया प्रवेश के कुछ क्षणों तक, वो हिल डुल भी नहीं पाता है, ना ही उसकी वाणी निकलती है।
वो ये भी देखता है, कि पूर्ण रूप में उसकी श्वास नहीं चल रही है। उसकी श्वास कुछ दबी दबी हुई सी चल रही है…, पूरी नहीं चल रही है।
उसके हाथ पैर भी काम नहीं कर रहे हैँ। वो जान जाता है, की वो स्तम्भित हो चुका है।
वो प्रयत्न करता है, की आवाज़ देके किसी को बुलाऊं, लेकिन उसकी वाणी ही नहीं निकलती, बस ऐसा लगता है, कि मुँह चल रहा है, लेकिन उसकी जिह्वा हिल ही नहीं रही है।
वो जान जाता है, की उसकी कर्मेन्द्रिय और ज्ञानदरियाँ में से कुछ तो अवश्य ही स्तम्भित हो चुकी हैं, लेकिन तब भी वो देखता है, कि उस शरीर में बाकी बहुत कुछ ठीक से काम कर रहा है।
इन सभी संकेतों से वो जान जाता है, की परकाया प्रवेश पूर्ण हो चुका है, और अब वो स्थूल शरीर उसका हो चुका है, इसलिए अब उसको ही उस स्थूल शरीर को चलना पड़ेगा।
परकाया प्रवेश के बाद स्थूल शरीर को चलाने की प्रक्रिया …
जब स्थूल शरीर को दान करने वाला जीव, उस स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है और इसके साथ साथ, जब परकाया प्रवेशी उस स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाता है, तो उसी क्षण, जितने भी उस परकाया प्रवेश प्रक्रिया के सहायक अदि होते हैं, वो सभी चले जाते हैं, उनके अपने अपने लोकों में जहाँ से वो सब आये थे, उस परकाया प्रवेश में सहायक की भूमिका निभाने के लिए।
इसके पश्चात, वो परकाया प्रवेशी अकेला हो जाता है, और वो जान जाता है, की उसको अब अपने आप ही इस स्थूल शरीर को चलाना होगा।
अब कुछ सांकेतिक बता रहा हूँ …
ऐसे समय पर उसकी स्थिति वैसी ही होती है, जैसे कोई वाहन चालक की होती है, जब वो बस उस वाहन में बैठा ही होता है, और उस वाहन को चलाने की चाबी ढून्ढ रहा होता है, और उस वाहन चालक को कहीं पर शीघ्र पहुंचना भी होता है, नहीं तो उसको बहुत बड़ी हानि हो जाएगी।
और जबतक उस वाहन चालक को उस वाहन की चाबी नहीं मिल जाती है, तबतक वो छटपटा रहता है।
बस ऐसा ही कुछ उस परकाया प्रवेशी के साथ भी होता है, जबतक उसे भी उस शरीर रूपी वाहन को चलाने की चाबी, अर्थात प्रक्रिया मिल नहीं जाती है।
क्यूंकि वो एक सौ से भी अधिक बार परकाया प्रवेश करके लौटा है, तो उसको पता भी होता है, कि हर एक वाहन रूपी शरीर, एक जैसा दिखने के बाद भी, एक ही सिद्धांत पर बसा होने के बाद भी, उसके सूक्ष्म तत्त्वों में अपने ही प्रकार का होता है। और इसीलिए, उन सब वाहनों को चलने की प्रक्रिया भी, एक दुसरे से थोड़ी पृथक सी ही होती है।
इसलिए, वो उस वाले शरीर रूपी वाहन को चलाने का प्रयत्न करने लगता है, क्यूंकि उसे पता है, कि यदि शीघ्र ही वो उसको चला नहीं पाया, तो कुछ ही समय में, वो वाहन सदैव के लिए बंद हो जाएगा।
और ऐसा होने पर, उस परकाया प्रवेशी को पुनः उसके अपने लोक में ही लौटना पड़ जाएगा, लेकिन केवल तबतक, जबतक उसके लिए एक और उपयुक्त वाहन ढूंड न लिया जाए।
और इस वाहन चलाने के प्रयत्न में, उसको अबतक जो भी पता है, वो सारे के सारे तिगड़म लगाना प्रारम्भ करता है, ताकि वो वाहन चल पड़े और वो उस वाहन के माध्यम से, वो परकाया प्रवेशी उन कामों को कर सके, जिसके लिए वो लौट के आया है, कलियुग से ग्रसित इस अधम लोक में।
अब आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन जबतक उसे उस स्थूल शरीर रूपी जीव वाहन की चाबी, अर्थात प्रक्रिया नहीं मिलती, उस परकाया प्रवेशी की स्थिति जैसी होती है, वो अब बता रहा हूँ …
वो उस शरीर के भीतर बैठा हुआ, छटपटा रहा होता है, क्यूंकि न उसे श्वास ही पूरी आ रही होती है, और न ही उसकी इन्द्रियां पूरा काम कर रही होती हैं।
वो उस शरीर को हिलाने डुलाने का प्रयत्न प्रयत्न भी करता है, लेकिन क्यूंकि इन्द्रिया स्थम्बित हो चुकी होती हैं, इसलिए वो इस प्रयास में विफल ही होता है।
मस्तिष्क के भीतर जो गोलाकार रूप में मन होता है, उसमे ही ये इन्द्रियां स्तंभित हो चुकी होती हैं I
इसलिए वो सोचता है, की यदि और कुछ समय में, वो स्थूल शरीर रूपी वाहन चला ही नहीं, तो वो शरीर बेकार हो जाएगा…, उस शरीर की मृत्यु ही हो जाएगी, क्यूंकि उसमे तो अभी श्वास भी पूरी नहीं आ रही है।
जैसे जैसे क्षण बीतते जाते है, वो परकाया प्रवेशी, जो उस शरीर के भीतर नया नया ही बैठा होता है, वो छटपटाने लगता है, क्यूंकि उसको पता है कि थोड़ा ही समय है उसके पास, उस शरीर की श्वास और उसके तंत्र चलाने को।
और उसको पता है, कि यदि उस शरीर की श्वास नहीं चली, तो वो शरीर मर जाएगा और इसके साथ साथ, यदि उस शरीर का कोई मुख्य तंत्र नहीं चल पाया, तो भी वो शरीर त्यागना पड़ेगा, क्यूंकि ऐसे शरीर से वो कर्म नहीं हो सकते, जिनको करने को वो परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटा है।
और जैसे ही उसे चाबी मिल जाती है, अर्थात उसको शरीर को चलाने की प्रक्रिया का पता चलता है, और उस शरीर रूपी वाहन में श्वास पूरे रूप में चल पड़ती है, तो इसके बाद, तुरंत ही वो परकाया प्रवेशी उस शरीर के तंत्र चलाने का प्रयास करने लगता है।
जैसे ही उस शरीर के तंत्र चलने लगते हैं, वैसे ही उस शरीर रूपी वाहन के भीतर, कुछ गड़गड़ाहट सुनाई देने लगती है, और वो परकाया प्रवेशी जान जाता है, कि अब वो शरीर रूपी वाहन चल पड़ा है, और वो उसका चालक बन चुका है।
वो उस शरीर की इंद्रियों को भी देखता है, कि वो चल भी रही हैं…, या नहीं।
और जब वो संतुष्ट हो जाता है, की उसका शरीर रूपी वाहन चल पड़ा, तो कुछ समय तक शांत होके उस शरीर के समस्त तंत्रों को जांच करता है, कि सारे चल रहे है…, या नहीं।
और जब उसकी इस पड़ताल में, वो शरीर ठीक ठाक निकलता है, तो ही वो आगे के कर्मों को करने का मार्ग ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ता है…, और उठ खड़ा होता है।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और ऐसे आगमन के पश्चात, जबतक जिन कर्मों के लिए वो लौटा है, उनको वो पूर्ण नहीं कर लेगा, तबतक वो चैन से बैठेगा भी नहीं।
और उन कर्मों के अनुसार, जो भी दिव्यताएँ उसे चाहिए होंगी, वो उनको उनके अपने लोकों से नीचे लाने में लग जाता है, और जब वो नीचे आ जाती है, तो वो उनको उस शरीर में धारण भी करता है।
और क्यूंकि उन सभी दिव्यताओं को एक ही झटके में धारण नहीं कर सकते, इसलिए उसकी ये प्रक्रिया कई वर्षों तक चलती है, जिसके बारे में वो किसी को भी नहीं बताता।
स्थूल शरीर सबसे कमजोर शरीर होता है, इसलिए इसमें इतना दम ही नहीं होता, की वो उस परकाया प्रवेशी की दिव्यताओं को एक साथ धारण कर ले।
यदि वो दिव्यताएँ एक झटके में धरण होंगी, तो स्थूल शरीर को तीव्रग्राहिता आघात होंगे और इसके बाद वो कर्म करने का सामर्थ गवां देगा।
इसलिए, ये कर्मों के अनुसार दिव्यता को धारण करने की प्रक्रिया भी धीरे धीरे ही चलती है और इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए, कई वर्ष भी लग ही जाते हैं।
परकाया प्रवेश के पश्चात कार्य प्रारम्भ करने की समय सीमा …
सभी लोक एक जैसे नहीं होते, कुछ सूक्ष्म होते हैं, और कुछ स्थूल।
इन सभी सूक्ष्म और स्थूल लोकों में भी तारतम्य होता है, भेद होते हैं, क्यूंकि कुछ लोक अधिक सूक्ष्म होते है और कुछ अधिक स्थूल होते हैं।
और जहाँ तक इस स्थूल पृथ्वी लोक का प्रश्न है, परकाया प्रवेश का मार्ग, सूक्ष्म से स्थूल में आने का मार्ग है, अर्थात, ऊपर के लोकों से, नीचे के लोकों में आने का मार्ग है।
और क्यूँकि परकाया प्रवेशी उन अति सूक्ष्म सत्ताओं का मनीषि होता है, इसलिए जब कोई योगी परकाया प्रवेश के मार्ग से, किसी नीचे के या स्थूल लोक में लौटता है, तो वो एकदम से अपना कार्य प्रारम्भ नहीं कर सकता है।
परकाया प्रवेश के बाद, उसको समय चाहिए होता है, उस स्थूल लोक में अपने आप को ढालने के लिए।
इसका कारण है, की जिन कार्यों को करने हेतु वो उस नीचे के लोक में लौटा है, उन कार्यों के अनुसार उसको, उसके अपने सूक्ष्म लोकों से, वो सारी दिव्यताएँ और उनके तत्त्व भी, उस नीचे के लोक में लाने होते है।
और ऐसा करने के पश्चात, उस योगी को उन सभी दिव्यताओं को और उनके तत्त्वों को, स्थूल पृथ्वी से निर्मित उस शरीर में भी धारण करना होता है, ताकि वो अपने कार्यों को कर सके।
और ऐसा करने को, समय तो लगता ही है।
अब इन बातों पर ध्यान देना …
जितना बड़ा सूक्ष्मता का अंतर होगा, उस परकाया प्रवेशी के लोक में जहाँ से वो लौटा है, और उस नीचे के लोक में जहाँ वो लौटा है, उतना ही अधिक समय भी लगेगा उस परकाया प्रवेशी को उन दिव्यताओं और उनके तत्त्वों को उस नीचे के लोक में लाने के लिए, और इसके बाद उन दिव्यताओं को अपने ही स्थूल शरीर में धारण करने के लिए।
इसलिए, जो योगी बहुत ऊपर के लोकों से आते हैं, जैसे सदाशिव के पांच मुख, उनको लौटने के बाद, बहुत अधिक समय भी लगता है, अपना कार्य प्रारम्भ करने के लिए।
और इसी कारण उसको बहुत अधिक समय भी लगता है, अपने को उन कामों के लिए तैयार करने को, जिनके लिए वो लौटा है, उस नीचे के लोक में।
और इन सभी सूक्ष्म और दिव्य लोकों में से, जो योगी प्रजापति के हिरण्यगर्भ ब्रह्म लोक से लौटता है, उसको सबसे अधिक समय लगता है, उन कार्यों के लिए स्वयं को तैयार करने के लिए, जिनके लिए वो लौटाया गया है।
लेकिन ऐसे समय की अधिक से अधिक सीमा भी होती है, जो 27 और 1 वर्षों की होती है, अर्थात वो योगी अपने परकाया प्रवेश के बाद, 27 से 28 वर्षों के भीतर ही तैयार हो पायेगा। इतना समय, उस योगी को लगेगा ही, जो हिरण्यगर्भ लोक से परकाया प्रवेश के मार्ग का आलम्बन लेकर, इस मृत्युलोक में लौटेगा।
जो योगी हिरण्यगर्भ लोक से लौटता है, वो लौटने से पूर्व से ही, एक ऐसे सिद्ध शरीर का धारक भी होता है, जो स्वर्ण वर्ण का होता है, अर्थात सोने के रंग का होता है और जिसको हिरण्यगर्भ ब्रह्म शरीर भी कह सकते हैं।
परकाया प्रवेशी की मनोस्थिति …
परकाया प्रवेशी, उस स्थूल धरा का प्राणी नहीं होता जहाँ वो लौटाया जाता है। वो उसी लोक का रहता है, जहाँ से वो लौटता होता है, किसी के स्थूल देह में।
इसलिए, अपने मन में वो परकाया प्रवेशी कहता भी है, की मैं तो इस धरती पे बस कुछ कर्म करने को और घूमने को आया हूँ इसलिए ये धरती लोक मेरा पर्यटन स्थल ही है।
ये पृथ्वी लोक सहित ये संपूर्ण विश्व ही मेरा नहीं है, और मैं इस विश्व का भी नहीं हूँ। इस जन्म के पश्चात, जबतक मुझे पुनः यहाँ पर भेजा नहीं जाएगा, तबतक मेरा इस लोक सहित, इस संपूर्ण विश्व से कुछ भी लेना देना नहीं होगा।
मैं तो बस एक यात्री हूँ, जिसको इस विश्व की कुछ प्राथमिक दिव्यताओं ने यहाँ पर कुछ कार्य करने के लिए भेजा है, और वो भी कुछ ही समय के लिए…, सदैव के लिए नहीं।
अब आगे बढ़ता हूँ …
और मन ही मन, वो परकाया प्रवेशी ये भी कहता है, कि जिस लोक से मैं आया हूँ, उस लोक में, इस स्थूल के लोक के समान, गन्दगी भी नहीं होती।
और मन ही मन, वो परकाया प्रवेशी ये भी कहता है, कि मेरे लोक में तो न मन, न बुद्धि, न चित्त, न अहंकार और न ही प्राणो की गंदगी होती है।
इसीलिए, वो परकाया प्रवेशी मन ही मन ये भी कहता है, कि ये लोक जहाँ पर मुझे देवी माँ सरस्वती ने, परकाया प्रवेश के मार्ग से लौटाया है, ये मेरा तो कभी हो ही नहीं सकता, क्यूंकि ये मृत्यु लोक मेरे लोक से बिलकुल विपरीत है।
और उस हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म के लोक से लौटे हुए परकाया प्रवेशी की दृष्टि में, यदि कोई नर्क है, तो वो नर्क इस कलियुग में फंसा हुआ, ये पृथ्वीलोक ही होगा।
और अपने पूर्व जन्मों के ज्ञान के आधार पर, वो जानता भी है, कि वो कई बार इस पृथ्वी लोक पर लौटाया गया था, और हर बार वो मानव जनित गंदगी में ही फंसा था।
अपने पूर्व जन्मों के ज्ञान के आधार पर, वो जानता भी है, कि इस गंदे लोक में, कभी वो रस्सी पर झुलाया गया, और कभी वो काटा गया, कभी उसको उसकी जीवित अवस्था ही जानवरों का भोजन बनाया गया, कभी उसके शरीर पर भारी पत्थर बाँध कर उसे जल में डुबाया गया, कभी उसको जीवित ही अग्नि में जलाया गया, तो कभी उसको पहाड़ों से नीचे गिराया गया…, और कभी कभी तो वो परकाया प्रवेशी लकड़ियों पर ही लटका दिया गया और वो भी हजारों वर्षों के लिए।
इस पृथ्वी लोक में, उसके साथ जो भी हुआ, भूला तो वो कुछ भी नहीं…, उसे सब याद है, क्यूंकि वो योग भ्रष्ट है, और प्रबुद्ध भी है।
और ऐसा सब होने के बाद भी, वो कभी भी, किसी के साथ भी,किसी को भी, कुछ भी न तो कुछ अनुचित बोला, न ही किया, क्यूंकि उसको उसके हर एक जन्म में पता था, की वो इस मृत्युलोक का नहीँ है।
लेकिन इस बार वो सोच रहा है … कि अब बस…, बहुत हो गया।
इस बार, उसने मन में दृढ़ निश्चय भी कर लिया है, कि चाहे कोई भी देवी देवता या कोई और ब्रह्माण्डीय या अन्य कोई सत्ता, उसको इस या किसी और मृत्युलोक में लौटने को बोलेगी, तो वो मना ही कर देगा।
बस यही अंतिम बार है…, इसके बाद तो बिलकुल भी नहीं।
मन ही मन, वो परकाया प्रवेशी ये भी कहता है, कि यहाँ से प्रस्थान करने के पश्चात, उसका इस लोक से, या ऐसे किसी भी लोक के निवासियों से, कोई नाता नहीं होगा, क्यूंकि इस बार वो अपने समस्त संबंधों को समाप्त करके ही जाएगा।
इस लोक से जाने के पश्चात, वो अपनी कुलदेवी भू देवी को उनके तत्त्वरूप में ही सेवा करेगा, न कि उनके इस स्थूल भूत रूप में, जहाँ पर इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सबसे कुपित, दूषित और भयानक जीव रहता है…, जो कलियुगी मानव कहलाता है।
और ये कलियुगी मानव रूपी जीव, इतना भयानक भी इसलिए हो गया, क्यूंकि उसको उसके उत्कर्ष मार्ग का मूल सिद्धांत ही नहीं पता है, कि … जो कुछ भी इस जीव जगत में है, वो ब्रह्म की अभिव्यक्ति स्वरूप में ही है…, और अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक, न तो कभी हो पाई है, और न ही कभी हो पाएगी।
और अब इस अध्याय के समापन की ओर जाता हूँ …
इस भाग को एक वाकय बोलके समाप्त करता हूँ … ये वाकय मेरे गुरुदेव भगवान व्यास का है, जो उन्होंने मुझे कहा था, और वो भी तब, जब मेरा एक सिद्ध शरीर उनके समक्ष गया था।
उस समय भगवान वेद व्यास ने ऐसा बोला था …
देह अनात्मं आत्मा अदेहं
कोई भी साधक, बस इस एक वाक्य को ही पूर्ण रूप में जान ले, तो वो अपने आत्मस्वरूप में ही ब्रह्मत्व को पाये बिना नहीं रह पायेगा।
यह भगवान वेद व्यास की वाणी द्वारा ही बताया गया है, इसलिए इस वाक्य के मूल और गंतव्य दोनों पितामह ब्रह्म की ओर ही लेके जाएंगे।
अब साधक गण को, कुछ और बातें बता के अपनी वाणी को विराम दूंगा …
भगवान वेद व्यास के इस वाक्य के …
- मूल में, वो पूर्ण ब्रह्म शक्ति, माँ प्रकृति मिलेंगी, और वो भी उस साधक की अपनी ही आत्मशक्ति स्वरूप में…, अर्थात आत्मदिव्यता के स्वरूप में।
- गंतव्य में, वो निर्गुण निराकार ब्रह्म ही मिलेंगे, और वो भी उस साधक के अपने ही आत्मस्वरूप में।
- और इस वाक्य के उत्कर्ष मार्ग में, वही शिव शक्ति उनकी अपनी अनादि अनंत योगावस्था के अत्मलिंग स्वरूप में, साधक के हृदय में ही साक्षात्कार होंगे।
और इसके पश्चात, वो साधक बोल ही बैठेगा, अयम् आत्मा ब्रह्म, क्यूंकि उस दशा में, जिसके मार्ग पर वो साधक स्वतः ही चला जाएगा, उसमें इस महावाक्य की ओर ही जाने और इस महावाक्य को पूर्णरूपेण जानने के सिवा, उस साधक के पास कोई और विकल्प होगा ही नहीं।
भगवान वेद व्यास का बोला हुआ वाकय, अथर्ववेद के इसी महावाक्य, अयमात्मा ब्रह्म की ओर लेके जाता है।
तो अब ये अध्याय समाप्त करता हूँ, और अगले अध्याय पर जाता हूँ, जहाँ पर उकार या ओकार, जो ओ३म् के बीच वाला बीज शब्द होता है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की कार्य ब्रह्म नमक अभिव्यक्ति का वाचक होता है…, उसको बतलाया जाएगा।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra