ब्रह्माकाश, हृदय विसर्ग गुफा, गुहा विसर्ग , विसर्ग पथ, विसर्ग मार्ग, अनंताकाश

ब्रह्माकाश, हृदय विसर्ग गुफा, गुहा विसर्ग , विसर्ग पथ, विसर्ग मार्ग, अनंताकाश

यहाँ हृदय विसर्ग गुफा या हृदय की विसर्ग गुफा के पांचवे बिंदु, जो हृदय के सामने के भाग से ऊपर को उठते हुए एक विशालकाए प्रकाश को दर्शाता है, जिसको ब्रह्माकाश भी कहा जा सकता है…, उसका वर्णन होगा । यहाँ बताए गए मार्ग को विसर्ग पथ या विसर्ग मार्ग भी कहा जा सकता है । ये विसर्ग गुफा या गुहा विसर्ग, हृदय की सबसे अन्दर की गुफा होती है, जिसको योगी हृदय की समस्त गुफ़ाओं को पार करके ही साक्षात्कार करता है । अब इस कैवल्य गुफा या मुक्ति गुफा या मोक्ष गुफा या निर्वाण गुफा के साक्षात्कार और इस चित्र के पांचवे भाग को बतलाता हूं, जिसमें साधक इस मुक्ति गुफा का विशालकाय ब्रह्ममय स्वरूप साक्षात्कार करता है, जिसके कारण इसी मुक्ति गुफा को ब्रह्ममय गुफा, ब्रह्म गुफा और गुहा ब्रह्म भी कहा जा सकता है । इस हृदय गुफा के इसी भाग के साक्षात्कार से साधक, ब्रह्म के प्रकाश स्वरूप का साक्षात्कार करता है, और वो भी उस ब्रह्म के एक विशालकाय सागर रूपी प्रकाश स्वरूप में, जिसको ब्रह्माकाश और अनंताकाश भी कहा जा सकता है ।

इसी विशालकाए प्रकाश के भीतर, योगी उस निरंग, झिल्ली के समान प्रकाश का भी साक्षात्कार करता जिसको निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म और अद्वैत भी कहा जाता है, जो उस योगी का ही वास्तविक निराकार आत्मस्वरूप होता है, और जो न तो कर्ता है और न ही अकर्ता है ।

ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वो योगी की चेतना, निरंग ही होकर, उस योगी के ही पीले रंग के विज्ञानमय कोष से योग करके, आगे ॐ साक्षात्कार जो जाती है ।

इस गुफा के बारे में, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है, इसलिए जो भी साधक इस अध्याय श्रंखला, जिसको मैंने ॐ मार्ग कहा है, उसका साक्षात्कार करेगा, वो इस समस्त श्रंखला के ज्ञान के मूल में ब्रह्मऋषि और भगवान् वेद व्यास, और उनके ब्रहमसूत्र को ही पाएगा ।

ऐसे साक्षात्कार के समय, ये भी हो सकता है, कि गुरुदेव भगवान् वेद व्यास, साधक के नाक की नोक पर बैठे हों, और साधक को, एक उत्कृष्ट अनुग्रह दृष्टि से देख रहे हों I

यह कैवल्य गुफा या मोक्ष गुफा, मुक्तिमार्ग या मोक्ष मार्ग में गति की प्रारंभिक अवस्था को दर्शाती है, क्यूंकि इसी गुफा से ही ओ३म् साक्षात्कार का मार्ग प्रशश्त होता है।

ये ज्ञान मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती गौतम बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का एक अभिन्न अंग भी है।

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला थाI

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इक्यावनवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

ये अध्याय, इस जगद्गुरु शारदा मार्ग का पांचवा अध्याय भी है ।

और ये अध्याय, इस गुहा कैवल्य नामक शृंखला का पांचवा अध्याय भी है ।

 

विसर्ग गुफा, गुहा विसर्ग , विसर्ग पथ, विसर्ग मार्ग, ब्रह्माकाश, अनंताकाश …

 

ब्रह्माकाश, अनंताकाश
ब्रह्माकाश, अनंताकाश

 

अब इस चित्र के ऊपर के भाग के प्रकाश को देखो ।

ये प्रकाश, इस हृदय कैवल्य गुफा के सामने के भाग में, नीचे से उठता हुआ, ऊपर मस्तिष्क की ओर जाता है ।

मैंने पूर्व में बतलया था, कि, जब योगी की चेतना, अपने हृदय गुफा में ही बैठ कर, घटाकाश में बसे हुए स्वर्ण बिंदु का अध्ययन करती है, तो वो स्वतः ही वह उस बिंदु के समीप चला जाती है ।

इस समय पर वो स्वर्ण बिंदु को लिंग रूप में दिखाई देता है, जिसमें से हीरे जैसा प्रकश, बहार की ओर निकल रहा होता है ।

और मैंने पूर्व में बतलया था, कि इस अध्यन्न के बाद उसी स्वर्ण लिंग से, एक सुनेहरा शंख स्वयंप्रकट होता है । इस शंख में भी वही हीरे जैसा प्रकश होता है, जो बहार की ओर निकल रहा होता है ।

ये हीरे जैसा प्रकाश, सर्वसम सगुण निराकार ब्रह्मलोक का होता है, और योगी की सर्वसमता नामक सिद्धि को दर्शता है ।

तो अब इन सब पूर्व में बताई गई बातों का आलंबन लेके, आगे बढ़ता हूं ।

 

हृदय के सामने विशालकाय प्रकाश का उदय … अनंताकाश …

अब हृदय के सामने के विशालकाय प्रकाश के उदय को बताता हूं …

जैसे ही योगी, एक पूर्व का अध्याय में बतलाए गए लिंग और शंख का साक्षातकार करता है, वैसे ही उसके हृदय के सामने के भाग से, एक विशालकाय प्रकाश स्वयं उदय होता है ।

ये प्रकाश, हृदय के नीचे से आता है, और हृदय से ऊपर, मस्तिष्क की ओर ब्रह्मरंध्र की ओर जाता है ।

ऊपर की ओर जाने का अर्थ है, कि हृदय के नीचे से उदय होता है, और मस्तिष्क की ओर जाता है ।

ये प्रकाश, हिरण्यगर्भ ब्रह्म के, कार्य ब्रह्म स्वरूप का होता है, अर्थात, ये प्रकाश, जीव और जगत के रचैता का विशालकाय स्वरूप है, जो योगी के हृदय की कैवल्य गुफा के सामने के भाग में, स्वयंप्रकट होता है ।

 

हृदय के सामने विशालकाय प्रकाश का वर्णन

इस हृदय के सामने से, ऊपर की ओर उठते हुए प्रकाश में, अनगिनत किरणें होती हैं।

ये किरणें पीले और लाल रंग की होती है, और इस प्रकाश में, ये दोनो किरणें आपस में घुली मिली होती हैं ।

 

अब इस प्रकाश के पीले और लाल रंगों के बारे में बतलाता हूं…

  • इस प्रकाश में जो लाल रंग है, वो अपान प्राण का है, जो शरीर के नीचे के भाग का प्राण है, जिसका संबंध पिंगला नाड़ी से होता है, और जिसके देवता पिंगला वर्ण के रुद्र हैं । इसीलिए, आत्ममार्ग में, रुद्र को, पिंगला भी कहा जाता है ।
  • इस प्रकाश में जो पीला रंग है, वो हृदय के प्राण रूपी प्राण का होता है, जिसका संबंध इड़ा नाड़ी से होता है, जिसके देवता देवराज इंद्र हैं । इसीलिए, देवराज इंद्र का वास्तविक नाम इदंड्रा (इडआंध्र) है, जिसका आत्ममार्ग में अर्थ है, इड़ा नाड़ी का देवता ।

तो ये था, उस सामने से ऊपर की ओर उठाते हुए विशालकाय प्रकाश, के लाल और पीले रंगों का संक्षेप में वर्णन…, एक छोटा सा ज्ञान दर्शन।

पर इस नाड़ी विज्ञान के और बहुत सारे बिंदु होते हैं, लेकिन क्योंकि उनका इस चित्र से कोई संबंध नहीं है, इसलिए उन्हें कभी और बतलाऊंगा ।

 

महामानव कौन

अब महामानव शब्द को बतलाता हूँ …

जैसे ही ऐसा विशालकाय प्रकाश, योगी के हृदय के सामने के भाग में उदय होता है, वैसे ही योगी की चेतना, जो इस सब का साक्षातकार कर रही होती है…, उसको पंख लग जाते हैं।

योगी की चेतना, अकस्मात् ही, उड़ान भरने लगती है…, उसी विशालकाय प्रकाश की ओर जाने लगती है ।

ये उड़ान अकस्मात् होती है…, एकदम से होती है जिसपर योगी का कोई नियंत्रण भी बही होता है ।

उस योगी की उड़ान, इस कैवल्य गुफा के चित्र में दिखलाई गई दशाओं के ऊपर से होके, सामने के प्रकाश की ओर जाती है ।

जैसे ही योगी की चेतना, सामने वाले प्रकाश में पहुँच जाती है, वैसे ही वह योगी, उस प्रकाश में विलीन हो जाता है ।

ऐसा, स्वयं ही स्वयं में रमण करता, और उस प्रकाश में विलीन हुआ योगी, अंततः महामानव पद को पाता है ।

 

महामानव से अतिमानव की ओर जाने का मार्ग

लेकिन अधिकांश जोगिजन, इस सामने के प्रकाश में, मृत्यु के समय पर ही विलीन होते हैं । ऐसे योगी, अंततः, महामानव पद को पाते हैं ।

पर जो योगी, इस सामने के प्रकाश में, जीवित ही विलीन हो जाता है, वो महामानव योगी, और भी आगे की दशा, जिसे अतिमानव कहते हैं, उसको पाने का पात्र हो जाता है।

और ऐसे अतिमानव का मार्ग, ओम साक्षातकार से होकर जाता है, जिसकी नीव, मै इस कैवल्य गुफा के अध्याये में डाल रहा हूं ।

 

और इस बात के अंत में…

आत्ममार्ग के दृष्टिकोण से, ये सामने से उदय हुआ प्रकाश, हिरण्यगर्भ ब्रह्म के कार्य ब्रह्म स्वरूप की सिद्धि को दर्शता है ।

और उसी आत्मा मार्ग की और भी आगे की गति में, ये सामने से उदय होता हुआ विशालकाय प्रकाश, ऋग्वेद के महावाक्य, प्रज्ञानाम ब्रह्म की सिद्धि को भी दर्शता है, लेकिन, केवल ब्रह्म के सगुण निराकार स्वरूप में…, ब्रह्म के निर्गुण निराकार स्वरूप में नहीं ।

 

योगी की उड़ान और उस उड़ान की सिद्धियां

अब उस योगी की उड़ान और उस उड़ान की सिद्धियों को संक्षेप में बताता हूं …

इस उड़ान के कुछ चरण भी होते हैं, तो अब उनमें से कुछ प्रमुख बिंदुओं को बतलाता हूँ …

 

गाढ़े नीले रंग के अहंकार के ऊपर से उड़ान…

 

अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण,
अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण,

 

यह गाड़े नीले रंग का जो अहंकार है, वो विशुद्ध नहीं है ।

और क्योंकि ये अहंकार, विशुद्ध नहीं है, इसलिए, योगी की उड़ान इस अहंकार के ऊपर से होती है…, अहंकार के भीतर से नहीं होती है ।

उस उड़ान के समय, योगी, एक पक्षी के समान, इस अहंकार को अपने से नीचे की ओर देखता है ।

और इस उड़ान के समय, वह पक्षी के समान उड़ता हुआ योगी, इस अहंकार को घेरे हुए, एक बहुत सूक्ष्म, जैसे बिखरा हुआ कोई प्रकाश रहित तत्व हो, उसको देखता है…, और इसके भीतर ही उसकी यह उड़ान होती है ।

और इसी अति सूक्ष्म प्रकाश रहित तत्व के भीतर, उड़ान भरता हुआ वह योगी, उसके हृदय के सामने से उदय होते हुए प्रकाश की ओर चला जाता है, और अंततः उस विशालकाय प्रकाश में ही विलीन हो जाता है ।

और उस प्रकाश के सगुण निराकार स्वरूप सरीका ही होकर वो चेतनामय योगी, उस प्रकाश की किरणों का आलम्बन लेता हुआ, ऊपर मस्तिष्क की ओर उठता हुआ, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में पहुँच कर, ॐ के शब्दात्मक और लिपिलिंगात्मक स्वरूपों का एक साथ ही अद्वैत  साक्षात्कार करता है ।

इसलिए, ॐ साक्षात्कार का मार्ग भी इसी हृदय गुफा से होकर जाता है, जिसके कारण, मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, गौतम बुद्ध ने हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का ज्ञान दिया था ।

 

अहंकार पर उड़ान और कृष्ण पिंगला रुद्र सिद्धि

 

कृष्ण पिंगला रुद्र सिद्धि, कृष्ण पिंगला रुद्र शरीर, कृष्ण पिंगला रुद्र सिद्ध शरीर
कृष्ण पिंगला रुद्र सिद्धि, कृष्ण पिंगला रुद्र शरीर, कृष्ण पिंगला रुद्र सिद्ध शरीर

 

इस चित्र में दिखलाया गया सिद्ध शरीर, कृष्ण पिंगल रुद्र  शरीर कहलाता है ।

नीला रंग, कृष्ण वर्ण है और उसके भीतर जो पिंगला रंग है, वह उस नीले कृष्ण तत्व की शक्ति है ।

तिब्बत के बौद्ध धर्म में, इसी को समंतभद्र समंतभद्री योग कहते हैं, जो योगी के शरीर में ही होता है, और इस समंतभद्र समंतभद्री योग की सिद्धि का प्रमाण भी यही सिद्ध शरीर के रूप में मिलता है । लेकिन इसके बारे में, कभी और बतलाऊंगा, जब कृष्ण पिंगल रुद्र की बात होगी ।

इस सिद्ध शरीर का धारक योगी, कृष्ण पिंगल रुद्र का ही, सगुण साकार या मानव रूप कहलाता है । ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसे योगी को कृष्ण पिंगल रुद्र ही माना जाता है ।

 

तो अब इसी कृष्ण पिंगल रुद्र नामक बिंदु पर आगे बढ़ता हूं…

इसको ध्यान से सुनो, क्योंकि इसमें मैं कुछ संकेतिक बात भी बताऊंगा …

इस उड़ान के समय, उस योगी को एक नाद सुनाई देता है, जो एक बीज शब्द रूप में होता है, और अअअअअअ, इस शब्द के स्वरूप में होता है ।

और इस शब्द के साथ-साथ, उस पक्षी के समान उड़ते हुए योगी को, एक और शब्द, सुदूर से आता हुआ अनुभव होता है ।

ये शब्द हम्म्म्म्म्… ऐसा होता है ।

ऐसे समय पर, योगी के हृदय की कैवल्य गुफा में, ये दोनो “अ और हम” के बीज शब्द, आपस में योग करते हैं…, अर्थात, एक साथ सुनाई देते हैं ।

जब ये दोनों शब्द एक साथ सुनाई देते है, तब जो शब्द होता है, वह ऐसा होता है…

अअअअअअहम्म्म्म्म् … अअअअअअहम्म्म्म्म् …

मेरे पूर्व के जन्मों में, इसी अअअअअअहम्म्म्म्म् … के शब्द को, “अहम् नाद” भी कहते थे ।

ये अहम शब्द का, शिव के नीले वर्ण के, दक्षिण की ओर देखते हुए, अघोर मुख से सम्बंधित होता है, जिसकी आम्नाय पीठ, श्रृंगेरी शारदा मठ है, जिसका वेद यजुर्वेद है, जिसका कृत्य संहार है और जिसका महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि होता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

उन पुरातन कालों ​​में, जो मेरे पूर्व जन्मों में थे, वैदिक और योग मनीषियों ने इसी नाद के साक्षातकार को “अहम अस्मि” के वाक्य से बाताया था, जिसका अर्थ होता है … मैं हूं, मेरा अस्तित्व है और अंग्रेजी में, I Am ।

यही “अहम् नाद”, जो अहम अस्मि के वाक्य के द्वारा बतलाया गया है, उसमें अहंकार और अस्मिता का योग होता है, अर्थात तमोगुण और रजोगुण का योग होता है।

और इन दोनों गुणों के योग के अंत स्वरूप में वो योगी, अपनी काया के भीतर ही प्रकृति के नवम कोष या नवम आकाष या परा प्रकृति से सम्बद्ध सत्त्वगुण को प्राप्त होता है ।

तो अब इस अहंकार और अस्मिता के योग को बताता हूं।

लेकिन ये सब, राजयोग में स्थित होके, पाशुपत मार्ग से बतलाया जा रहा है ।

  • अहंकार, गाड़े नीले, या कृष्ण वर्ण का होता है । इसका मुख्य गुण, तमोगुण होता है । इसका साक्षातकार, तमोगुण समाधि से होता है, जो शिव के अघोर मुख की समाधि होती है, और जो महादेव कहलाता है ।
  • और उस अहंकार के भीतर, अस्मिता होती है, जो पिंगल वर्ण की होती है । इसका मुख्य गुण, रजोगुण होता है । इसका साक्षातकार, रजोगुण समाधि से होता है, जो अस्मिता समाधि भी कहलाती है, जो शिव के अघोर मुख से स्वयंभू हुए, रुद्र की होती है, और जो घोर कहलाता है ।
  • इसका अर्थ हुआ, कि अहम अस्मि शब्द, जो मेरे कुलदेव रुद्र देव के ही कृष्ण पिङ्गल स्वरूप से सम्बंधित है…, उसमें तमोगुण रूपी अहमकार और रजोगुण रूपी अस्मिता, का योग होता है।
  • और इस अहम असमी के योग में, पिंगल वर्ण की अस्मिता, गाड़े नीले या कृष्ण वर्ण के अहम, के भीतर होती है ।
  • और इसी, कृष्ण वर्ण के अहम और पिंगल वर्ण की अस्मिता, के योग को वेदों में कृष्ण पिंगल कहा गया है, जो रुद्र कहलता है । इसीलिए, वेदों में, रुद्र देव को कृष्ण पिंगल नामक शब्द से भी संबोधित किया गया है ।
  • इसलिए, इस उड़ान के समय, ऐसा योगी, कृष्ण पिंगल रुद्रावस्था को पाने का पात्र भी बन जाता है । लेकिन, पात्र बनने के बाद भी, ये कृष्ण पिंगल सिद्धि कुछ बाद में ही आती है ।

 

अब ध्यान से सुनो…

जो वेदों का कृष्ण पिंगल रुद्र है, वो ही अहम असमी के वाक्य की सिद्धि का गंतव्य है ।

जिस भी योगी ने ऐसा साक्षातकार किया, वह योगी कृष्ण पिंगल रुद्र का, सगुण साकार स्वरूप या मानव स्वरूप हो जाता है ।

और ऐसे योगी का अहम, विशुद्ध हुए बिना नहीं रह पाता ।

इसलिए, वेदों का वाक्य, जो अहम अस्मि बतलाया गया है, वो विशुद्ध अहम सिद्धि को भी दर्शता है ।

 

अब और थोड़ा ध्यान देना…

विशुद्ध अहम को ही ब्रह्म कहते हैं ।

वो ही विशुद्ध अहम्, कृष्ण पिंगल रुद्र कहलाता है, जो वास्तव में ब्रह्म ही होता है ।

यजुर्वेद का महावाक्य, जो अहम् ब्रह्मास्मि बतलाया गया है, जिसका अर्थ है, कि मैं ही ब्रह्म हूं या मेरी आत्मा ही ब्रह्म है, उसमें अहम् या मैं शब्द, विशुद्ध अहम् को दर्शता है, जो वास्तव में ब्रह्म ही होता है ।

श्रीमद भगवद गीता में, श्री कृष्ण ने, जो अहम शब्द बोला है,  वो भी उनकी अपनी विशुद्ध अहमावस्था का ही वाचक है ।

 

अहम् और अस्मिता

अब मैं और आगे बढ़ता हूं, अहम् और अस्मिता को संक्षेप में बतलाने के लिए ।

 

तो पहले … अहम् शब्द का वर्णन करता हूं

 

अहम् नाद, अहम्
अहम् नाद, अहम्

 

पहले तो इस चित्र को बतलाता हूँ,  जिसके साक्षात्कार कोई 2007-2008 में हुआ था ।

इस चित्र में, जो बाएं हाथ पर नीले रंग का प्रकाश है, वो सदाशिव का अघोर मुख है, जिसके शब्द अहम होता है, जो तमोगुणी होता है, और जो महादेव कहलाता है ।

यही अघोरेश्वर महादेव, एक पूर्व जनम में, मेरे गुरुदेव भी थे, जब मैं पीपल के वृक्ष के नाम वाला ऋषि कहलाया था, और जिसके दिए हुए ज्ञान पर, उस समय पर, आम्नाय चायुष्टय बसाई गयी थी । लेकिन इस  मुख को विस्तार से बाद में बतलाऊँगा, जब निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा पर बात होगी ।

इसी चित्र में, जो दाएँ हाथ पर शरीर दिखलाया गया है, वो सूक्ष्म शरीर है, जो अंतः, शिव के अघोर मुख में ही विलीन होता है ।

इसी चित्र में दाएँ हाथ पर, जो निराकार बैगनी वर्ण का प्रकाश दिखलाया गया है, वो आकाश महाभूत है।

इसी चित्र में जो लाल वर्ण की किरणें हैं, वो रजोगुण है। और जो श्वेत वर्ण की किरणें हैं, वो सत्वगुण है ।

इस जनम में, मेरी साधनाओं में, यही अघोरेश्वर महादेव मेरे गुरुपिता हैं ।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

अपने गंतव्य में, अहम नामक बीज शब्द, अहंकार के विशुद्ध स्वरूप को दर्शता है, जो वास्तव में ब्रह्म ही है, क्योंकि विशुद्ध अहम को ही ब्रह्म कहते हैं ।

इस दशा का नाद, अअअअहम… अअअअहम…, ऐसा होता है ।

लेकिन, इस त्रिगुणात्मक जीव और जगत के दर्शाताकोण से, इसी अहम की मूलावस्था का स्वरूप, तमोगुण का होता है, जो गाड़े नीले रंग का होता है ।

इस अहम् शब्द का गंतव्य ज्ञान, शिव के दक्षिण मुख, अघोर से सम्बद्ध होता है, इस्लिए ये अहम् नामक बीज शब्द, यजुर्वेद का गंतव्य मार्ग भी है ।

 

सूक्ष्म शरीर का बीज नाद भी, अअअअहम, अअअअहम…, ऐसा ही होता है ।

सूक्ष्म शरीर के 19 बिन्दु होते हैं, जो अब बताता हूं …

  • पंच ज्ञानेंद्रिय …
  • पंच कर्मेंद्रिय …
  • पंच प्राण …
  • अंत:करण चतुष्टय, अर्थात, मन, बुद्धि, चित्त और अहम ।
  • लेकिन सूक्ष्म शरीर के इन सभी 19 बिंदुओं में, मन ही प्रधान बिंदु होता है ।

 

पंच कोश में, सूक्ष्म शरीर का प्रधान बिंदु, जो गाड़े नीले रंग का मनोमय कोष होता है, वह भी इसी अहम शब्द का धारक होता है ।

इसलिए, ऐसा योगी, अपने मन में ही, अहम् शब्द के विशुद्ध स्वरूप को पाता है, जिसके पश्चात,वो योगी का मन ब्रह्ममय होकर, अंतः ब्रह्मलीन होता है ।

और मेरे पूर्व जन्मों में, ऐसी दशा को, योगी जन, “मन ब्रह्म” की सिद्धि भी कहते थे ।

“मन ब्रह्म” का अर्थ होता है, कि मन, उस विशुद्ध अहम स्वरूप ब्रह्म में विलीन होके…, ब्रह्म ही हो गया ।

इसी अहम शब्द का गंतव्य, जो यहां पर विशुद्ध अहम कहा गया है, यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि के अर्थ का, पूर्ण साक्षातकार भी करवा देता है ।

लेकिन ऐसे साक्षातकार के लिए, योगी का मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में”, इस वाक्य में बसा होना चहिये । यहां जो स्वयं शब्द कहा गया है, वह आत्मा का ही वाचक है, और जहाँ योगी का आत्मा ही सर्वात्मा ब्रह्म होता है ।

ऐसे मार्ग में, वह योगी, अहम् ब्रह्मास्मि नामक महावाक्य का, सगुण साकार, या मानव स्वरूप हो जाता है । ऐसा योगी, यजुर्वेद के गंतव्य को, अपने ही विशुद्ध अहम् स्वरूप में, अपनी आत्मा में ही पाता है ।

जब योगी का अहम, विशुद्ध होता है, तब वो योगी शिव के अघोर मुख में विलीन होके, उस निरकार अघोर के ही समान हो जाता है, जिसका नाद भी अअअअहम, अअअअहम…, ऐसा होता है ।

और क्योंकि अहम नाद का, गंतव्य साक्षातकार, शिव के अघोर मुख में ही होता है, और क्योंकि अघोर ही महादेव कहलाता है, इसलिए, जिस भी योगी का अहम विशुद्ध हो जाता है, वह योगी, महादेव का मानव या सगुण साकार स्वरूप होके ही शेष रह जाता है ।

अपने मानव या सगुण साकार स्वरूप में, ऐसा योगी ही गुरुशंकर कहलाता है ।

ऐसे योगी का विशुद्ध अहम, सर्वव्याप्त होता है, और समक्ष जीव जगत घनात्मक होकर, समस्त जीव जगत में, समान रूप में बसा हुआ होता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

सारी सृष्टि, इसी अहम शब्द में बसी हुई है, जिसके मूल गुण, तमोगुण है, जो नीले रंग का होता है । इसीलिए, मेरे पूर्व जन्मों में, जो अधिकांश मुझे स्मरण है, क्योंकि मैं योग भ्रष्ट हूं, और प्रबुद्ध भी हूं, योगिजन कहते थे, कि, ये समस्त श्रृष्टि, महत् अहंकारिका है ।

लेकिन इस अहम शब्द का गंतव्य, उसी तमोगुण समाधि से होकर जाता है, जिसके बारे में, कभी और बताउंगा, जब त्रिगुणात्मक समाधि की बात होगी, जो गुण ब्रह्म की सिद्धि प्रदान करती है, और जिसकी अन्त दशा, गुणात्मा कहलाती है, और वो योगी उस ब्रह्म सरीका गुणातीत होकर ही शेष रह जाता है ।

जो योगी, इस तमोगुण समाधि को पा गया, वह अपने भीतर ही, समस्त जीव जगत को देखता है । और इसके साथ साथ, इस समस्त जीव जगत के भीतर भी, वो योगी स्वयं को ही देखता है ।

 

और इस अहम पर बात के अंत में …

मस्तिष्क के ऊपर के भाग में, जो सहस्र दाल कमल होता है, उसमें ये शब्द जिस स्थान पर सुनाई देता है, वह स्थान, शिवरंध्र और ब्रह्मरंध्र के बीच में होता है ।

लेकिन, रंध्र विज्ञान पर कभी और बात करूँगा ।

तो ये था, अहम् शब्द का, संक्षेप में वर्णन ।

तो अब, अस्मिता शब्द को बतलाता हूं।

 

अब अस्मिता को बतलाता हूँ

अस्मिता, आला नाद
अस्मिता, आला नाद

 

अपने गंतव्य में, अस्मिता नामक शब्द, अस्मि के वृत्तिहीन स्वरूप को दर्शता है ।

इसका नाद, आआआला … आआआला…, ऐसा होता है।

इस जनम में, यह मेरा गुरुपिता का ही एक निष्कलंक स्वरूप है ।

त्रिगुणात्मक जीव और जगत के दर्शाताकोण से, इसी अस्मिता का मूल स्वरूप, रजोगुण का होता है, जो लाल वर्ण का होता है, जिसका प्रधान स्वरूप भगवा रंग होता है, और एक और स्वरूप, पिंगला वर्ण का भी होता है ।

इसी “आला” शब्द का गंतव्य ज्ञान भी शिव के दक्षिण मुख, अघोर से सम्बद्ध होता है, इसलिए, ये “आला” नामक शब्द भी यजुर्वेद से ही सम्बद्ध है ।

 

अब ये बात ध्यान से सुनो…

जबतक साधक की अस्मिता, वृत्तिहीन नहीं होती, तबतक उस साधक का अहम भी विशुद्ध नहीं होता ।

इसका अर्थ हुआ, की, वृत्तिहीन अस्मिता ही, विशुद्ध अहम का मार्ग होती है ।

और जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक वह साधक अहम् ब्रह्मास्मि के महावाक्य का, सगुण साकार या मानव स्वरूप भी नहीं होता ।

 

अब इसी अस्मिता सिद्धि की अवस्था में, आगे बढ़ता हूं…

पंच कोश में, जब बुद्धि, अस्मिता को प्राप्त होती है, तो ही वृत्तिहीन अस्मिता का मार्ग प्रशस्त होता है ।

और इसके पश्चात ही, अहम विशुद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है ।

इसलिए, अहम् विशुद्धि का मार्ग, अस्मिता की वृत्तिहीन अवस्था से होकर जाता है ।

लेकिन, अस्मिता के वृत्तिहीन अवस्था का मार्ग, रजोगुण समाधि से होकर जाता है, इसीलिए, रजोगुण समाधि को, अस्मिता समाधि भी कहते हैं ।

जो भी योगी अस्मिता समाधि का सिद्ध होता है, उसे कोई भी ग्रंथ पड़ने या जानने की आव्श्यक्ता नहीं होती ।

इसका कारण है, कि ऐसा अस्मिता सिद्ध योगी, अपनी साधनाओं में, जो भी साक्षातकार करता है, उस अवस्था का पूर्ण ज्ञान भी, उसके भीतर ही स्वयंप्रकट हो जाता है ।

उसके शरीर में ही, वैदिक और योग मार्ग के ग्रंथ खुलने लगते हैं ।

जैसे जैसे वो अस्मिता सिद्ध योगी, साक्षातकार करता जाता है, वैसे वैसे उनसे सम्बंधित ग्रंथ या वाक्य, उसके शरीर में खुलने लगते हैं ।

और वो योगी, उन्हीं शरीर के भीतर के ग्रंथों का अध्ययन करके या उनके वाक्यों को सुनकर, उन सभी स्थितियों का ज्ञान, “स्वयं ही स्वयं में” रहकर ही प्राप्त कर लेता है ।

ऐसे अस्मिता सिद्ध योगी को किसी गुरु की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि वो “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता हुआ योगी, अपने ही आत्मस्वरूप में…, अपना ही गुरु होता है ।

और इसके साथ साथ, वो योगी, अपने के ही साधक स्वरूप में, अपने ही आत्मस्वरूप का शिष्य भी होता है ।

वो अपना ही साधक और अपना इष्ट भी होता है ।

उसका आत्मस्वरूप ही उसका इष्ट होता है । और वो अपने साधक स्वरूप में, अपनी आत्मा का ही उपासक होता है । और उसकी ऐसी साधनाओं में, उसका आत्मा ही सर्वात्मा होता है ।

ऐसा योगी, अपना ही शिष्य और अपना ही गुरु भी होता है । साधक स्वरूप में, वह अपने आत्मस्वरूप का ही, शिष्य होता है । और अपने ही गंतव्य आत्मस्वरूप में, वह अपना ही गुरु होता है । उसका आत्मस्वरूप ही, उसका गुरु होता है ।

ऐसा “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता हुआ योगी, रुद्र मार्गी होता है, क्योंकि रुद्र ही एक मात्र देवता है, जो स्वयं ही स्वयं का साधक और आराध्य भी होता है ।

ऐसे योगी के आत्मस्वरूप में ही, जीव और जगत बसा होता है । और इसके साथ साथ, वो अपने आत्मस्वरूप में ही, समस्त जीव जगत में, समान रूप में बसा भी होता है ।

ऐसे योगी के लिए, मूल भेद भी नहीं होते ।

इसीलिए, उसके लिए प्रकृति और पुरुष में भी कोई भेद नहीं होता, क्योंकि उसके आत्मस्वरूप में यह दोनों, एक दुसरे के पूरक होते है, समान रूप में उसके उपास्य होते हैं ।

और उस योगी की काया के भीतर ही, उसकी अपनी ऐसी योगावस्था में, यह दोनों, प्रकृति और पुरुष, निर्विकल्प ही होते हैं ।

इसीलिए ऐसा योगी अवश्य कहता है, कि मेरा शरीर ही मेरा ग्रंथ है, जो प्रजापति द्वारा रचा हुआ, उस पितामह ब्रह्म का ही मूल ग्रंथ है, प्राथमिक ब्रह्मग्रंथ है, जिससे सारे ग्रंथ उदय हुए हैं ।

और इस अस्मिता पर बात के अंत में…

मस्तिष्क के ऊपर के भाग में, जो सहस्र दल कमल होता है, उसमें ये आआआआआला, आआआआआला का शब्द, जिस स्थान पर सुनाई देता है, वह स्थान, शिवरंध्र और विष्णुरंध्र के बीच में होता है ।

लेकिन, रंध्र विज्ञान पर कभी और बात करूँगा ।

तो ये था, अस्मिता शब्द का, संक्षेप में वर्णन ।

 

अस्मिता समाधि की रुद्र सिद्धि के, कुछ स्वरूप …

अब अस्मिता समाधि की रुद्र सिद्धि के, कुछ स्वरूपों को बतलाता हूं…

अस्मिता शब्द रुद्र का है, इसलिए, अपनी अंत गति में, अस्मिता सिद्धि, रुद्र की ओर ही लेके जाती है।

शिव के अघोर मुख से, रुद्र स्वयंप्रकट हुए थे, इसीलिए रुद्र देव को स्वयंभू भी कहा गया है।

अस्मिता सिद्धि, रुद्र स्वरूप प्रदान करती है। लेकिन, उस रुद्र स्वरूप में, वो रुद्र, जैसा होता है, वो बताता हूं…

 

सबसे पहले … पिंगल रुद्र…

पिंगल वर्ण का सिद्ध शरीर, पिंगल रुद्र शरीर, पिंगल रुद्र सिद्ध शरीर, पिंगल सिद्ध शरीर,
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इस सिद्धि में, उस योगी के ही शरीर में, एक पिंगल वर्ण का सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, जो रुद्र का होता है ।

और ऐसा योगी, पिंगल रुद्र का सगुण स्वरूप हुए बिना नहीं रह पाता है ।

इसके बारे में कभी बाद में बात करूंगा। लेकिन अभी इतना बोल रहा हूं, कि ये बहुत खतरनाक सिद्ध शरीर है, क्योंकि इसमें इतनी अगिन या तेज रूपी ऊर्जा होती है, कि उसे नियंत्रित करने में, पूरा आत्माबल लग जाएगा ।

एक बात और सुन लो, कि जो योगी इस अगिन या तेज रूपी ऊर्जा को नियंत्रित कर नहीं पाएगा, उसका देहांत होना ही है ।

 

अब दूसरा … जो कृष्ण पिंगल रुद्र है …

कृष्ण पिंगल रुद्र सिद्धि, कृष्ण पिंगल रुद्र शरीर, कृष्ण पिंगल रुद्र सिद्ध शरीर
कृष्ण पिंगल रुद्र सिद्धि, कृष्ण पिंगल रुद्र शरीर, कृष्ण पिंगल रुद्र सिद्ध शरीर

 

इसकी सिद्धि में, उसी योगी के शरीर में, एक कृष्ण पिंगल वर्ण का सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, जो रुद्र की कृष्ण पिंगल अवस्था का होता है ।

और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, ऐसा योगी, कृष्ण पिंगल रुद्र का ही सगुण स्वरूप कहलाता है ।

 

  • और अब तीसरा जो भगवा रुद्र है 

 

भगवा रुद्र का सिद्ध शरीर, भगवा रुद्र सिद्ध शरीर,
भगवा रुद्र का सिद्ध शरीर, भगवा रुद्र सिद्ध शरीर,

 

ये दशा योगी के हृदय में ही होती है, जिसमे तीन दैविक जीव, एक भगवे पिंड को केंद्र बनाके, उसकी उपासना कर रहे होते हैं ।

ये भगवा पिंड, रुद्रात्मक है, अर्थात, योगी की रुद्र रूपी आत्मा का ही लिंगात्मक स्वरूप है ।

लेकिन, इसके बारे में, पूर्व में ही बतला चुका हूं, इसीलिए, अब आगे बढ़ता हूं…

 

कैवल्य गुफा की कुछ सिद्धियां…

मैंने यहां पर “कुछ” नामक शब्द कहा है, क्योंकि कुछ ही सिद्धियां बताउंगा…

 

  • तो पहली सिद्धि को जानो, जो आदिशेष सिद्धि होती है

जब वो योगी, अपने हृदय के सामने वाले, विशालकाए प्रकाश में विलीन हो रहा होता है, तो उस समय पर उससे एक शब्द सुनता है ।

ये शब्द, श्श्श्श्श्श्श, ऐसा होता है…, जिसको मैं श्श्श्श्श नाद कहता हूं।

लेकिन यह श्श्श्श्श नाद, केवल हृदय की इस दशा में ही सुनाई नहीं देता है, बल्कि और भी कई सारी दशाओं में भी, जब योगी विलीन होता है, तब भी उससे यही शब्द सुनाई देता है ।

यह शब्द और भी कई सारी दशाओं में साक्षातकार होता है । इसलिए, यहां बतलायी जा रही सिद्धि, इस श्श्श्श्श नाद की गंतव्य अवस्था नहीं है ।

आत्मा मार्ग में, इसकी गंतव्य अवस्था, ब्रह्मरन्ध्र विजयानमय कोश में बसे हुए, ब्रह्मतत्त्व में साक्षात्कार होती है ।

 

इस शब्द को सुनने के पश्चात, वो योगी उस ह्रिदय के सामने वाले विशालकाए प्रकाश में ऐसा विलीन होता है, कि वो स्वयं ही स्वयं को, उस प्रकाश से पृथक् नहीं देख पाता ।

इसलिए, ऐसा विलीन योगी, वो विशालकाए प्रकाश ही हो जाता है ।

इस श्श्श्श्श नाद को ही, आदिशेष सिद्धि कहा गया है ।

और यही विशालकाए प्रकाश, जो योगी के हृदय के सामने के भाग में उदय होता है, उसे ही आत्ममार्ग के दर्शाताकोण से, शेषनाग या आदिशेष कहते हैं, जिसकी शैय्या पर, श्री विष्णु निवास करते हैं, और जो इस जगत के परपितामह कहलाते हैं ।

 

अब इस हृदय के सामने वाले प्रकाश के, आदिशेष तत्व का वर्णन करता हूं

पूर्व में बतलाया गया था, कि ये विशालकाए प्रकाश, अनगिनत किरणों का समूह होता है, और ये किरणें, हृदय के नीचे से उठती हुई, ऊपर मस्तिष्क की ओर जाती हैं ।

जब ये किरणें मस्तिष्क में पहुँच जाती हैं, तब ये सहस्र दल कमल के विज्ञानमय कोश में प्रवेश कर जाती हैं ।

और यहां से, अकार, उकार और मकार के बीज शब्दों से होती हुई, शुद्ध चेतन तत्व या ब्रह्मतत्व या प्रणव में समा जाती हैं, अर्थात लय हो जाती हैं ।

इस दशा से, यह किरणें योगी के सर के पीछे के उस भाग में पहुंच जाति हैं, जहां पर विष्णुरंध्र होता है ।

और इस स्थान पर पहुँच कर, ये किरणें, सर्प के कई मुखों के समान हो जाती हैं ।

और वो अनंत मुखी सर्प, शिखर के पीछे के भाग में, विष्णुरंध्र से ऊपर उठता हुआ, योगों के कपाल के भीतर से ही, सर के आगे को ब्रह्मरंध्र की ओर देखता है ।

इसी दशा को आदिशेष कहा गया है, जो आत्ममार्ग में, योगी के शरीर में ही होता है ।

और यहां पर भी, उसी आदिशेष का बीज शब्द, श्श्श्श्श…, ऐसा ही होता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

ऐसा योगी, अपने ब्रह्मरंध्र के शुद्ध चेतन तत्व में, आदिशेष सिद्धि को पाता है ।

और इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, वो योगी अपनी सिद्धि के अनुसार, आदि शेष ही कहलाता है । और ऐसी सिद्धि को पाया हुआ योगी, श्रीमन नारायण के किसी अगले या भविष्य के अवतारी आगमन का वाहन होता है और उन श्रीमन नारायण के आगमन के पश्चात, उनका सिंहासन भी होता है ।

और क्योंकि आदि शेष, उसी अनंत नारायण का अंश होता है और नारायण ही उसके अंशी होते हैं, इसीलिए, जब ऐसा अंश किसी काया में जन्म लेता है, तो नारायण भी उसके भीतर, उसके ही अंशी स्वरूप में स्वयंप्रकट होते हैं, और उस योगी रूपी सिंहासन पर ही निवास करते हैं ।

ऐसे योगी ही कहता है, की श्रीमन नारायण ही उसके सनतान गुरुदेव हैं और वो योगी उन श्रीमन नारायण का नन्हा विद्यार्थी ।

इसीलिए, इस सिद्धि की प्राप्ति के पश्चात, श्रीमन नारायण का आंतरिक अवतार, उस योगी के भीतर ही, उस योगी के आत्मस्वरूप में होता है ।

 

गरुड़ सिद्धि

आदि शेष सिद्धि  से, गरुड़ सिद्धि का मार्ग…

यदी ऐसा आदिशेष सिद्ध योगी, इसी दशा से, राम नाद को जाके, अष्टम चक्र को भी पार कर जाता है, तो वह योगी, नारायण के वाहन, गरुड़ के समान भी हो जाता है ।

और ऐसे गरुड़ स्वरूप योगी पर, श्रीमन नारायण, अपने ही पूर्ण स्वरूप में निवास करते हैं ।

इसी अष्टम चक्र को, सिद्धों ने निरालंब चक्र और निरालंबस्थान भी कहा है, और जहाँ निरालम्ब शब्द भी उसी शून्य ब्रह्म को दर्शाता है, जिसको वेद मनीषियों ने श्रीमन नारायण कहा है ।

और मैं इसी अष्टम चक्र को, ब्रह्मलोक चक्र भी कहता हूं, क्योंकि इस चक्र के पत्ते, ब्रह्मलोक के ऊपर के चार लोकों के समान होते हैं ।

लेकिन, ब्रह्मलोक पर बाद में बात होगी, जब सदाशिव के सद्योजात मुख को बतलाया जाएगा ।

ये, राम नाद और अष्टम चक्र, जो यहां बताए गए हैं…, इनपर विस्तारपूर्वक बात , कभी और होगी ।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

ऐसा योगी, जो गरुड़ कहलाता है, वो श्रीमन नारायण का वाहन भी होता है ।

इसी योगगरुड़ रूपी वाहन पर बैठ कर, नारायण ऐसे योगी के लोक में आते हैं ।

ऐसे योगी को, उस निराकार नारायण को लाने के लिए ही, किसी लोक में भेजा जाता है…, जन्म दिया जाता है ।

उन पुरातन कालों में, जो मेरे पूर्व जन्म के थे, ऐसे अवतरण को, योगीजन पूर्ण अवतारन कहते थे ।

और क्योंकि नारायण ऐसे ही किसी भी समय नहीं आते हैं, इसलिए ऐसे योगगरुड़ को भी तब जन्म दिया जाता है, जब उस निराकार नारायण के आने का समय समीप होता है ।

अपने ही द्वारा, निर्धारित समय पर, वो निराकार नारायण, ऐसे योगगरुड़ के शरीर में ही आते है, और ऐसी दशा में, वो भगवत तत्त्वों के भी भगवान्, पूर्ण अवतार कहलाते हैं ।

और क्योंकि गरुड़ देव, नारायण के अंश होते हैं, इसीलिए, ऐसा योगगरुड़, उसी अनंत नारायण के पूर्ण अवतार का, अंश अवतार भी होता है ।

अब आगे बढ़ता हूं …

 

विशालकाय प्रकाश में विलीन होने के पश्चात …

जब योगी उस हृदय के सामने वाले विशालकाय प्रकाश में विलीन हो जाता है, तो उन प्रकाश की किरणों का आलम्बन लेके, अपने ही मस्तिष्क की ओर उठता जाता है, जहां वो ओम का शब्दात्मक और लिपि लिंगात्मक, दोनों स्वरूपों में ही साक्षातकार करता है ।

इसका अर्थ ये हुआ, कि जबतक योगी, इस कैवल्य गुफा के सामने वाले प्रकाश में विलीन नहीं होगा, तबतक वो योगी, ओम साक्षातकार का पत्र भी नहीं होगा ।

यही मार्ग, मेरे पिछले जन्म के गुरुदेव, भगवान् गौतम बुद्ध ने, अपने हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र नामक ग्रंथ में बतलाया था, जिसपर किसी बाद के अध्याय में बात होगी ।

 

हृदय कैवल्य गुफा में, बूंद और सागर का योग…

और इस अध्याय के अंत में …

हृदय के सामने वाले सागर रूपी विशालकाय प्रकाश में विलीन योगी, उस प्रकाश के समान ही हो जाता है ।

यदि इस दशा को कुछ ही शब्दों में बताऊंगा, तो ऐसा कह सकता हूं …

 

बूंद तबतक ही बूंद होती है, जबतक सागर में विलीन ना हो ।

जब बूंद सागर में विलीन हो जाती है, तब वो बूंद सागर कहलाती हैं.., बूंद नहीं ।

इसी कैवल्य गुफा के मार्ग से, वह बूंद रूपी योगी, सागर रूपी ब्रह्म में चला जाता है, और इसी कैवल्य गुफा के मार्ग से, वो ॐ साक्षातकार करके, ॐ रूपी ब्रह्म होके ही शेष रह जाता है ।

 

अब इस अध्याय की बातों से, मैंने, उस निराधार ओम मार्ग और ओम साक्षातकार का, आधार डाल दिया है, जिसके बारे में, अगले कुछ अध्यायों में बात होगी ।

इसलिए अगले अध्याय तक, मैं इस ज्ञानमार्ग को विराम देता हूं ।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

 

 

लिंक:

 

हिरण्यगर्भ ब्रह्म (Hiranyagarbha, Hiranyagarbha Brahma),

अपान प्राण (Apaan Pran, Apana Prana),

रुद्र (Rudra Deva, Rudra),

प्राण रूपी प्राण (Prana Prana),

महामानव (Mahamanav, Mahamanava),

अतिमानव (Ati Manav, Atimanava),

अहंकार, (Ahankara, Ahamkara)

सिद्ध शरीर (Siddha Shareer, Siddha Sharira),

कृष्ण पिंगल रुद्र  शरीर (Krishna Pingala Rudra Sharira, Krishna Pingalam Sharira)

कृष्ण पिंगल (Krishna Pingala),

अहम् नाद (Ahum Naad, Aham Nada),

अहम अस्मि (Ahum Asmi, Aham Asmi),

अस्मिता (Asmi, Asmita)

विशुद्ध अहम (Vishuddh Aham, Vishuddha Aham),

अघोर मुख (Aghora face, Aghor, Aghora)

आकाश महाभूत, (Akash Mahabhoot, Akasha Mahabhuta),

त्रिगुण (Trigun, Tri Guna, Triguna),

सूक्ष्म शरीर (Sookshma Shareer, Sukshma Sharira),

अंत:करण चतुष्टय (Antahkarana, Antahkarana Chatushtaya),

मन ब्रह्म (Mann Brahm, Mann Brahma),

गुणात्मा (Guna Atma, Gunatma)

आला (ALA Naada, ALA Nada, ALA Naad),

रजोगुण समाधि, अस्मिता समाधि (Asmita Samadhi, Rajoguna Samadhi),

पिंगल रुद्र (Pingla Rudra, Pingala Sharira)

ब्रह्मतत्त्व (Brahma Tattva, Brahmatattva),

प्रणव (Pranav, Pranava),

निरालंब चक्र और निरालंबस्थान (Niralambasthana, Niralamba Chakra)

ब्रह्मलोक (Brahma Loka, Brahmaloka)

निराकार (Nirakaar, Nirakara),

गौतम बुद्ध (Gautam Buddh, Gautama Buddha)

प्रज्ञापारमिता (Prajnaparamita sutra, Prajnaparamita)

ब्रह्मकल्प, कल्प (Kalpa, Brahma Kalpa),

ब्रह्माण्ड (Brahmand, Brahmanda, Macrocosm)

ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म (Brahm, Nirgun Nirakaar Brahm, Brahman),

निर्गुण निराकार (Nirgun Nirakaar, Nirguna Nirakara),

पंच मुखा सदाशिव (Panch Mukha Sadashiva, Pancha Mukha Sadashiva),

सगुण साकार (Sagun Sakaar, Saguna Sakara),

सगुण निराकार (Sagun Nirakaar, Saguna Nirakara),

ब्रह्मतत्त्व (Brahma Tattva, Brahmatattva),

प्राण (Pran, Prana)

महावाक्य (Maha Vakya, Mahavakya),

अहम् ब्रह्मास्मि (Aham Brahm Asmi, Aham Brahmasmi),

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