हृदय में ब्रह्म, कैवल्य मार्ग, कैवल्य पथ, हृदय कैवल्य गुफा, गुहा कैवल्य, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग, हृदय में माँ शारदा, आत्मदिव्यता, सरस्वती शारदा ही ब्रह्म, ब्रह्मरूपिणी गुरुमाई शारदा, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय

हृदय में ब्रह्म, कैवल्य मार्ग, कैवल्य पथ, हृदय कैवल्य गुफा, गुहा कैवल्य, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग, हृदय में माँ शारदा, आत्मदिव्यता, सरस्वती शारदा ही ब्रह्म, ब्रह्मरूपिणी गुरुमाई शारदा, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय

यहाँ हृदय कैवल्य गुफा या हृदय की कैवल्य गुफा का वर्णन होगा । यहाँ बताए गए मार्ग को कैवल्य पथ या कैवल्य मार्ग भी कहा जा सकता है। यह कैवल्य गुफा या गुहा कैवल्य, हृदय की सबसे अन्दर की गुफा है, जिसको योगी हृदय की अन्य सभी गुफ़ाओं को पार करके ही साक्षात्कार करता है। इस गुफा के साक्षात्कार में, साधक अपने हृदय में ही अपरा प्रकृति, परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति का योग साक्षात्कार करके… हृदय में ब्रह्म, इस वाक्य का साक्षात्कारी और ज्ञाता हो जाता है I यहाँ जिन हृदय में ब्रह्म की बात करी गई है, वह हृदय में माँ शारदा ही हैं I इस अध्याय में बताए जा रहे कैवल्य मार्ग के साक्षात्कार में, साधक के हृदय के भीतर, साधक की ही आत्मदिव्यता होकर बैठी हुई शारदा विद्या को ही ब्रह्म कहा गया है I इस अध्याय के साक्षात्कारों में, सरस्वती शारदा ही साधक की आत्मदिव्यता होकर, साधक की ब्रह्मरूपिणी गुरुमाई शारदा होती हैं I और अपनी ऐसी ब्रह्मरूपिणी गुरुमाई दशा में साधक के हृदय में ही विराजमान हुई शारदा सरस्वती विद्या, साधक को उस कैवल्य मार्ग पर लेकर जाती है, जो इसी हृदय गुफा से प्रारम्भ होता है I लेकिन ऐसा होने पर भी इस अध्याय में दर्शाई जा रही दशा में वह शारदा सरस्वती, अपने जगदगुरु स्वरूप में नहीं होती, बल्कि वह अपने उस शिष्य रूपी साधक की ब्रह्मरूपिणी गुरु होती है, जो उस साधक की ही हृदय गुफा में स्वयं प्रकट होकर, उस साधक को अपना साक्षात्कार करवा कर, उसी साधक को अपना शिष्य बनाकर, इस हृदय कैवल्य गुफा से परे जाने के मार्ग पर लेकर जाती हैं I शारदा विद्या सरस्वती का वह जगदगुरु स्वरूप, एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा जिसका नाम “नेत्र में ब्रह्म” होगा I इस गुफा के बारे में, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है, इसलिए जो भी साधक इस अध्याय श्रंखला का साक्षात्कार करेगा, वो इस समस्त श्रंखला के ज्ञान के मूल में ब्रह्मऋषि और भगवान वेद व्यास, और उनके ब्रहमसूत्र को ही पाएगा ।

ऐसे साक्षात्कार में, यह भी हो सकता है, कि गुरुदेव भगवान् वेद व्यास, साधक के नाक की नोक पर बैठे हों, और साधक को, एक उत्कृष्ट अनुग्रह दृष्टि से देख रहे हों I

यह कैवल्य गुफा, कैवल्य मार्ग की प्रारंभिक अवस्था और उस मोक्ष मार्ग पर गति को भी दर्शाती है, और इसी गुफा से ॐ साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होता है।

यह ज्ञान मेरे पूर्वजन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती भगवान् बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का अभिन्न अंग भी है। भगवान् बुद्ध के “हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र” में जो हृदय शब्द आया है, वह ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में बताई गई इसी गुफा को दर्शाता है I और इसी सूत्र में जो प्रज्ञापारमिता शब्द आया है, वह वेद और योगमनीषियों द्वारा बताए गए अकार शब्द की दशा से ही संबद्ध है I और इसी सूत्र में जिस प्रज्ञापारमिता मंत्र को बताया गया है, वह आत्मपथ में, ॐ सावित्री मार्ग को ही दर्शाता है I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला थाI

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का सैंतालीसवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

ये अध्याय, इस जगद्गुरु शारदा मार्ग का प्रथम अध्याय है…, और हृदय कैवल्य गुफा का प्रथम अध्याय भी है।

 

 

कैवल्य मार्ग क्या है, कैवल्य पथ क्या है, कैवल्य गुफा क्या है, गुहा कैवल्य क्या है, ब्रह्मपथ पर गति, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय का मार्ग, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय का साक्षात्कार, … हृदय में ब्रह्म हैं, …

 

कैवल्य गुफा, … गुहा कैवल्य
कैवल्य गुफा, … गुहा कैवल्य

 

हृदय में कई सूक्ष्म गुफाएं होती हैं।

हृदय के सूक्ष्म तत्व में, भीतर से भी भीतर, एक विचित्र गुफा होती है, जिसको यहां पर गुहा कैवल्य या मोक्ष गुफा कहा गया है। दिखलाया गया चित्र, हृदय की कैवल्य गुफा का है, जिसका वर्णन यहां पर होगा।

इसी गुफा के भीतर से एक मार्ग, ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष को जाता है, जहां पर ओम साक्षात्कार होता है। इसलिए, इस हृदय की कैवल्य गुफा से ओम साक्षात्कार का मार्ग प्रारंभ होता है।

जबतक साधक इस गुफ़ा का साक्षात्कार करके, इस गुफ़ा से परे नहीं जाएगा, तबतक साधक ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष को जाके, ओ३म् को भी नहीं पाएगा।

सूक्ष्म रूप में, इस गुफ़ा के बारे में, ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में बतलाया गया है।

लेकिन मैंने इस चित्र को थोड़ा बदला है, ताकि जो इस ज्ञान का पात्र नहीं होगा, वो इसके तत्व को ना जान पाए। पर ऐसा होने पर भी, जो भी साधक, इस ज्ञान का वास्तविक पात्र होगा, वे अपनी साधनाओं में, इसमें जो बदली और छुपाई गई अवस्थाएं है, उनको जान जायेगा । जो पात्र नहीं होता, उसको नहीं बतलाया जाता… इसीलिए ऐसा किया है।

 

आगे बढ़ता हूँ…

यहां जो योगी शब्द कहा गया है, उसे साधक की चेतना ही मानना ​​चाहिए।

यहां जो कैवल्य शब्द कहा गया है, उसे, स्वतंत्र, जीव और जगत से अतीत, मुक्ति, निर्वाण, निर्गुण निराकार ब्रह्म, आत्मा और ब्रह्म… ऐसा ही मानना ​​चाहिए।

यहां जो आत्मा या ब्रह्म शब्द कहे गए हैं, उनको तुरीयातीत, गुणातीत, कालातीत, कुलातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत, इंद्रियातीत, मनातीत, बुद्धितीत, चित्तातीत, अहमातीत, जीवातीत, जगतातीत, पिण्डातीत, ब्रह्माण्डातीत, रचनातीत, इत्यादि… ऐसा मानना ​​चाहिए।

यह सब शब्द, उसी कैवल्य को दर्शाते हैं, जो निर्गुण निराकार कहलाता है और जो जीव और जगत, दोनो का गंतव्य है, और जिसे आत्मा और ब्रह्म शब्दों से कहा गया है।

इस चित्र में दिखलाई गई गुफा, कैवल्य मार्ग या मुक्ति मार्ग का अभिन्न अंग है। इसी गुफा को ब्रह्मपथ का वास्तविक प्रारंभ भी कह सकते हैं। और यह ब्रह्मपथ ही, ओम साक्षात्कार को लेकर जाता है।

 

कैवल्य गुफा के भाग पंचक, गुहा कैवल्य के भाग पंचक, गुहा कैवल्य के भाग, कैवल्य गुफा के भाग, गुहा कैवल्य के पांच भाग, कैवल्य गुफा के पांच भाग, …

हृदय के सूक्ष्म तत्व में, कई सारी गुफाएं होती हैं। इतनी होती हैं, कि उनको गिनना असम्भव सा ही है। लेकिन, यहां बातलाई जा रही हृदय कैवल्य गुफा, सबसे भीतर की गुफा है।

इस चित्र का साक्षात्कार तब होता है, जब साधक की चेतना, अपने हृदय में बैठ के, हृदय के आगे के भाग को देखती है।

इस कैवल्य गुफा के भाग पंचक होते हैं, जिनका अब संक्षेप में वर्णन कर रहा हूँ ।

  • परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति की योगावस्था. परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति की योगदशा, … यह इस गुफ़ा का प्रथम भाग है, जो इस चित्र में, सबसे नीचे दिखलाया गया है। इस भाग में परा प्रकृति श्वेत वर्ण की और अव्यक्त प्रकृति अपने अव्यक्त प्राण स्वरूप में एक ऐसे गुलाबी वर्ण की होती है, जैसे चन्दन का वर्ण होता है I
  • कैवल्य गुफा का आकाश महाभूत और हिरण्यगर्भ लिंग, … यह इस गुफा का दूसरा भाग है, जो बैंगनी रंग का होता है और पहले भाग को घेरे हुए होता है। इसमें एक सोने के रंग का बिन्दु होता है।
  • कैवल्य गुफा का अहंकार… यह इसका तीसरा भाग है… यह गाढ़े नीले रंग का होता है और यह अपरा प्रकृति का द्योतक है ।
  • कैवल्य गुफा का शून्य अनंत, कैवल्य गुफा का अनंत शून्य, कैवल्य गुफा का शून्य ब्रह्म, … यह इसका चौथा भाग है, जो प्रकाश रहित रात्रि के समान, अर्थात कृष्णमय अवस्था में होता है।
  • कैवल्य गुफा का ब्रह्म प्रकाश, कैवल्य गुफा के अग्रभाग का प्रकाश, कैवल्य गुफा का विशालकाय प्रकाश, कैवल्य गुफा के अग्रभाग में प्रकाश का विशालकाय सागर, कैवल्य गुफा का ब्रह्माकाश, … यह पंचम और अंतिम भाग है, जो इस चित्र में सबसे ऊपर की ओर दिखलाया गया है। यह हृदय के सामने से उठते हुए सागर रूपी प्रकाश के समान होता है। इसमें पीली और लाल रंग की, आपस में घुली-मिली असंख्य किरणें होती है।

अब इन पांच भागो को, एक-एक करके बताता हूँI

 

 

प्रथम भाग …

परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति, परा प्रकृति और अव्यक्त प्रकृति का योग, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग, आदि शक्ति और माया शक्ति का योग, ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय का साक्षात्कार, …

 

परा और अव्यक्त प्रकृति का योग
हृदय कैवल्य गुफा में परा और अव्यक्त प्रकृति का योग

 

यह प्रथम भाग, परा और अव्यक्त प्रकृति की योगावस्था का होता है, जिसमें परा प्रकृति श्वेत वर्ण की और अव्यक्त गुलाबी वर्ण की होती हैं ।

इसी में बैठकर, योगी इस गुफा के अन्य सभी भागों का का साक्षात्कार करता है।

इस चित्र में यह प्रथम भाग, सबसे नीचे की ओर दिखलाया गया है।

 

इस भाग में, दो अर्धगोलाकार प्रकाश होते हैं।

इन दोनो में से, अंदर का भाग, अतिसूक्ष्म होता है, श्वेत वर्ण का होता है, जो परा प्रकृति को दर्शाता है I परा प्रकृति को ही आदिशक्ति कहते हैं, और साधक के उत्कर्ष मार्ग में, यह प्रकृति का नवम कोष भी कहलाता है।

इसी श्वेत वर्ण की परा प्रकृति को घेरे हुए, एक बहुत हलके गुलाबी वर्ण का, अर्धगोलाकार प्रकाश होता है, जो अव्यक्त प्रकृति को दर्शाता है। अव्यक्त प्रकृति को, अव्यक्त प्राण और माया शक्ति भी कहते हैं, जो ब्रह्मशक्ति होती है।

इस दशा में, इन दोनों प्रकृति का योग होता है। यही योग इस चित्र के सबसे नीचे के भाग में दिखलाया गया है।

लेकिन यहां पर मैंने अर्ध गोलाकार शब्द का प्रयोग किया है। इसका कारण है, कि, इस चित्र में केवल हृदय के सामने के भाग को दिखाया गया है…, हृदय के पीछे के भाग को नहीं दिखलाया गया है।

और इस दशा में, क्योंकि यह दोनो प्रकृति योग में होती हैं, इसलिए इन दोनो को एक साथ ही दर्शाया गया है।

और इसी प्रकाश में बैठ कर, साधक की चेतना, इस चित्र में दिखलाई गई हृदय कैवल्य गुफा का साक्षात्कार करती है।

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

हृदय में ब्रह्म बसे होते हैं, हृदय में ब्रह्म हैं, जो हृदय में है वह ब्रह्म है, हृदय में ब्रह्मरूपिणी शारदा, अव्यक्ताकाश क्या है, अव्यक्त प्राणाकाश क्या है, हृदय में बैठी हुई गुरुमाई शारदा, हृदय में माँ शारदा का साक्षात्कार, हृदय में गुरुमाई शारदा, गुरुमाई शारदा, …

 

हृदय में ब्रह्म है
हृदय में ब्रह्म है, … जो हृदय में है वो ब्रह्म है, … अव्यक्ताकाश, …

 

अब इस वाक्य को बताता हूँ, जिसको हृदय में ब्रह्म कहा गया है । यह वाक्य भी इसी प्रथम भाग का अंग है, और यह चित्र इसी वाक्य का स्वरूप दिखलाता है।

जब योगी अपने ही हृदय की कैवल्य गुफा में, परा और अव्यक्त प्रकृति की योगावस्था में बैठा होता है, तब जैसा होता है, वह इस चित्र में दिखाया गया है।

इस दशा में योगी, एक परा अव्यक्त शरीर को सिद्ध करता है, और इसी सिद्ध शरीर का अलम्बन लेके, वह योगी, इस चित्र की बाकी सभी दशाओं का साक्षात्कार  करता है।

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह सिद्ध शरीर, योगी के हृदय में ही बैठी हुई माँ शारदा का होता है, और इसी सिद्ध शरीर को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I यह सिद्ध शरीर योगी के हृदय में बसी हुई, और उस योगी की गुरुमाई शारदा द्वारा ही प्रदान किया जाता है, ताकि वह योगी इस हृदय गुफा का साक्षात्कार पूर्णरूपेण कर सके I और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वह योगी इस हृदय गुफा को पार कर सके I

इसलिए इस अध्याय श्रंखला में जो भी बताया गया है, वह हृदय की माँ शारदा, जो उस योगी की गुरुमाई होकर, उस योगी की हृदय गुफा में स्वयंप्रकट होती हैं, उनके अनुग्रह से ही साक्षात्कार किया जाता है I

इस अध्याय के साक्षात्कार में योगी की चेतना, उस योगी के हृदय में, उस योगी के गुरु स्वरूप में ही बैठी हुई माँ शारदा में लय होकर, माँ शारदा ही होकर, इस हृदय गुफा का पूर्णरूपेण साक्षात्कार करती है I

इसलिए इस अध्याय के साक्षात्कार में, योगी की चेतना ही माँ शारदा हो जाती है और ऐसी दशा में ही वह योगी, अपने हृदय में बसकर, इस अध्याय श्रंखला का साक्षात्कार करता है I

जैसे कोई बूँद सागर में बसकर, सागर ही हो जाती है, वैसे ही वह योगी होता है जिसकी चेतना, हृदय में बैठी हुई ब्रह्मरूपिणी गुरुमाई शारदा में लय होकर, माँ शारदा ही हो जाती है I और ऐसी दशा को पाकर ही वह योगी इस हृदय कैवल्य गुफा सहित, इस सम्पूर्ण अध्याय श्रंखला का साक्षात्कार करता है I

इसका अर्थ हुआ कि जब योगी की चेतना, माँ शारदा में लय हो जाती है, तब वह योगी हृदय में बैठी हुई ब्रह्मरूपिणी माँ शारदा का ही स्वरूप होकर इस अध्याय की पूरी श्रंखला का साक्षात्कार कर पाता है… इससे पूर्व नहीं I और ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है जिसमें योगी ही अपनी गुरुमाई, शारदा होकर इस हृदय गुफा में बैठा हुआ है, और इस हृदय गुफा का वह साक्षात्कार कर रहा है, जो इस अध्याय श्रृंखला के इस और आगे के समस्त अध्यायों में बताया गया है I

जबतक यह परा-अव्यक्त शरीर सिद्ध नहीं होगा, तबतक वो योगी इस हृदय की कैवल्य गुफा को पूर्ण रूप से, ना तो साक्षात्कार कर पाएगा, ना ही इस कैवल्य गुफा से आगे ही जा पाएगा I

और क्यूंकि इस अध्याय श्रंखला से ही ॐ सावित्री मार्ग निकलता है, इसलिए जबतक योगी इस अध्याय श्रंखला के साक्षात्कार को पूर्ण करके, इससे आगे ही नहीं जाएगा, तबतक वह योगी ॐ का पूर्णरूपेण साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा ।

ऊपर के चित्र में जो सिद्ध शरीर दर्शाया गया है, वह उस योगी का है, जो माँ शारदा में लय होकर, माँ शारदा ही हुआ है I और जहां यह सिद्ध शरीर परा और अव्यक्त प्रकृति की योग दशा को भी दर्शाता है I

और जहां परा प्रकृति ही माँ आदिशक्ति हैं, जिनका लोक प्रकृति का नवम कोष (अर्थात परा प्रकृति) कहलाता है, और अव्यक्त प्रकृति ही पितामह ब्रह्म की माया शक्ति हैं, जो जगदगुरु माँ शारदा कहलाती हैं I लेकिन उन माँ शारदा के जगद्गुरु स्वरूप को यह चित्र नहीं दिखला रहा है, क्यूंकि माँ शारदा अपने जगदगुरु स्वरूप में हृदय में नहीं, बल्कि नेत्र में होती हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

योगी के इसी परा-अव्यक्त शरीर में, परा और अव्यक्त प्रकृति का, समानरूप में योग होता है। इसीलिए यह सिद्ध शरीर, परा अव्यक्त योगावस्था को भी दर्शाता है।

अव्यक्त प्रकृति, ब्रह्म की प्राथमिक प्राण शक्ति, अर्थात सर्वव्याप्त ऊर्जा रूपी अभिव्यक्ति होती है।

यही प्राण रूपी ब्रह्मशक्ति, ब्रह्म की ब्रह्माण्ड रूपी अभिव्यक्ति के मूल में होती है और इन्ही को अव्यक्त कहते हैं। इसीलिए, योगीजन, अव्यक्त प्रकृति को, अव्यक्त प्राण भी कहते हैं, क्योंकि प्रकृति की वास्तविक अवस्था, प्राण शक्ति अर्थात सर्वव्यापक ऊर्जा ही है।

इन्ही अव्यक्त को माँ महामाया भी कहा जाता है I बौद्ध पंथ में इन्ही अव्यक्त प्रकृति या अव्यक्त प्राण की एक दशा को तुसित लोक भी कहा गया है I तुसित का अर्थ संतोष, तुष्टि, तृप्ति, इतियादि होता है ।

और क्यूँकि अव्यक्त ने ही ब्रह्मलोक के समस्त भागों को घेरा हुआ होता है, और क्यूंकि अव्यक्त की गुरुरूपिणी दिव्यता ही माँ शारदा हैं, इसलिए माँ शारदा ही साधक की वह गुरुमाई हैं, जो साधक को उसके जीवित होते हुए भी ब्रह्मलोक तक में गमन करवा देती हैं I और इसी मार्ग को सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन ब्रह्मसूत्र के चौथे अध्याय में बताया गया है I

 

और यहाँ जो परा प्रकृति की बात करी गई है, वह ब्रह्म की सत्वगुणी, शक्ति रूपी अभिव्यक्ति हैं। ब्रह्म की रचना का मूल गुण, अर्थात सत्वगुण, इन्ही परा प्रकृति का स्वरूप होता है। ब्रह्म की रचना में इसी सत्वगुण से, समस्त जीव और जगत की अभिव्यक्ति हुई थी।

इसलिए जीव जगत के अभिव्यक्त रूप के मूल में, वह सत्त्वगुण ही होता है, जिसका निराकार समतावादी स्वरूप ही परा प्रकृति कहलाता है, और जिसकी दिव्यता को ही माँ आदिशक्ति कहा जाता है ।

वास्तव में गुण, ब्रह्म ही होते है। इसीलिए, त्रिगुणात्मक प्रकृति के साक्षात्कार का मार्ग भी, ब्रह्मपथ का अभिन्न अंग होता है।

इन दोनों प्रकृतियों के योग से निर्मित सिद्ध शरीर, ब्रह्म शक्ति (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) और आदिशक्ति (अर्थात परा प्रकृति), दोनो का ही वाचक है। और इस मार्ग में यह दोनों शक्तियां भी उन्ही ब्रह्म को दर्शाती है, जिसके कारण यह दोनों शक्तियां भी ब्रह्म ही कहलाती हैं I वैसे भी ब्रह्म अपनी ब्रह्मशक्ति से पृथक कभी नहीं हुआ है, इसलिए ब्रह्मशक्ति भी ब्रह्म ही है I

जिस मार्ग में, ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति रूपी प्रकृति का योग होता है, वो ही ब्रह्मपथ होता है।

 

इस चित्र जैसी अवस्था, त्रिनेत्र के समीप के एक स्थान में भी होती है, और उसी को मेरे पिछले जन्म के गुरु, भगवान् बुद्ध ने, तथागतगर्भ, नामक शब्द से बतलाया था ।

और इसी दशा को नेत्र में ब्रह्म भी कहा जा सकता है और जहां वह नेत्र के ब्रह्म भी शारदा शास्वती ही हैं, परन्तु ऐसी दशा में वह उनके अपने जगदगुरु स्वरूप में ही पाई जाएगी, न की इस अध्याय में बताए जा रहे, उस साधक के गुरु स्वरूप में जो अपने हृदय में बैठकर इनका साक्षात्कार करता है I

यह चित्र, न तो उस तथागतगर्भ को और न ही माँ शारदा सरस्वती के जगदगुरु स्वरूप को ही दिखा रहा है। इसको किसी बाद के अध्याय में बताया जाएगा ।

ऐसे योगी के लिए ही कहा गया है, कि “जो हृदय में है, वही ब्रह्म है” I और जहां वह ब्रह्म भी योगी की वह चेतना ही है, जो उस योगी के हृदय गुफा में बैठु हुई, ब्रह्मरूपिणी माँ शारदा सरस्वती में लय हुई है ।

 

प्रकृति की प्रमुख दशाएँ, अपरा प्रकृति क्या है, परा प्रकृति क्या है, अव्यक्त प्रकृति क्या है, अपरा परा और अव्यक्त प्रकृति किसे कहते हैं, अपरा प्रकृति किसे कहते हैं, परा प्रकृति किसे कहते हैं, अव्यक्त प्रकृति किसे कहते हैं, …

अब मैं एक-एक करके, प्रकृति की प्रमुख दशाओं को, जो अपरा, परा और अव्यक्त प्रकृति से जाते हुए मार्ग हैं, उनको संक्षेप में बताता हूँ I यह वर्णन भी इस प्रथम भाग का ही अंग है।

उत्कर्ष मार्ग में, प्रकृति के जो नौ कोष होते हैं, उनमें से नीचे के आठ, अपरा कहलाते हैं, और अंतिम नौवा कोष, परा है।

 

तो सबसे पहले अपरा प्राकृति को बताता हूँ…

उत्कर्ष मार्ग में, नीचे के 8 कोष, जो अपरा कहलाते हैं, वह प्रकृति के ब्रह्माण्डीय ऊर्जा स्वरूप को दिखलाते हैं, अर्थात इस जीव जगत की ऊर्जा (शक्ति या दिव्यता) को ही अपरा कहते हैं। जगत में, अपरा से बड़ी कोई शक्ति नहीं होती ।

जो कुछ भी ब्रह्मण्ड में है, उसको चलित रखने वाली प्रकृति रूपी शक्ति का नाम अपरा है। स्थूल और सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की शक्ति का नाम अपरा है।

शरीर के भीतर बसे हुए प्राणमय कोष में, अपरा प्रकृति के आठवें कोष की अभिव्यक्ति को उदान प्राण कहते हैं। और उसी अपरा प्रकृति के सातवें कोष की अभिव्यक्ति को अपान प्राण कहते हैं।

प्राण, समान और व्यान वायु के सिवा, बाकी जो 2 प्राण और 5 उपप्राण होते हैं, वह सभी अपरा प्रकृति के 8 कोषों से सम्बंधित होते हैं । और जो समान प्राण है, उसका नाता परा प्रकृति से भी है, और अपरा प्रकृति से भी होता है I

प्राणमय कोष में समान प्राण, परा प्रकृति की अभिव्यक्ति है, और व्यान प्राण, अव्यक्त प्रकृति की अभिव्यक्ति है I और प्राण वायु महाकारण लोक, अर्थात महाब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति होता है ।

 

अब परा प्रकृति के बारे में बतलाता हूँ…

परा प्रकृति, नवम आकाश, आदि शक्ति
परा प्रकृति, नवम आकाश, आदि शक्ति

 

प्रकृति का सबसे ऊपर वाला एकमात्र कोष, जो उत्कर्ष के मार्ग में, नौवा होता है, उसको परा प्रकृति कहते हैं।

चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड में, यह नौवां कोष, प्रकृति की प्रधान दिव्यता है, और मुख्य शक्ति भी है। अपरा शक्ति (या अपरा प्रकृति) के मूल में यही परा शक्ति होती है, जो इस चित्र में दिखलाई गई है। परा प्रकृति की दिव्यता को आदिशक्ति कहते हैं।

जिसकी उत्पत्ति को जाना ही नहीं जा सकता, उसे ही आदि कहते हैं। जो आदि है, वही सनातन है, क्योंकि उसका ना तो उदय, और ना ही अंत जाना जा सकता है।

जब ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त हुआ था, तब प्रकृति के नौ कोशों में से, परा प्रकृति की अभिव्यक्ति, सर्वप्रथम हुई थी।

क्योंकि उत्कर्ष मार्ग, अभिव्यक्ति के मार्ग से विपरीत होता है, इसीलिए उत्कर्ष मार्गों में साधक को परा प्रकृति का साक्षात्कार, अंत में ही होता है।

यह परा प्रकृति एक श्वेत, अति सूक्ष्म मेघ के समान होती है, इसीलिए बौद्ध ग्रंथों में, इसको नवम आकाश भी कहा गया है (नौवाँ बादल या cloud nine)।

क्योंकि ब्रह्माण्ड में बसे जीवों के उत्कर्ष मार्ग में, यह नौवाँ कोष, प्रकृति का अंतिम कोष होता है, इसलिए, जब किसी योगी की चेतना, इस परा प्रकृति में चली जाती है, तो यह कहा जा सकता है, कि उत्कर्ष मार्ग में ऐसा योगी, अब प्रकृति के अंतिम कोष को पा गया है।

इसका अर्थ है, कि ऐसा योगी अब उस दशा को पा गया है, जिसको पार करने के पश्चात, वे योगी इस भवसागर से ही अतीत हो जाएगा, क्योंकि प्रकृति के नवम कोश से ऊपर, यह भवसागर रूपी ब्रह्माण्ड या संसार ही नहीं होता।

प्रकृति के नवम कोष की सिद्धि यह भी दर्शाती है, कि अब योगी इस भवसागर से पार होने वाला है, इस संसार से अतीत होने वाला है, इसलिए, कुछ ही और समय में ऐसा योगी, मुक्ति को प्राप्त हो जाता है

यह परा प्रकृति सत्त्वगुण को दर्शाती है, अर्थात सत्त्वगुणी ही होती है और इसकी दिव्यता को ही आदि शक्ति कहा जाता है I

 

अब इस बात पर ध्यान दो…

मैंने यहां पर, मुक्ति को प्राप्त हो जाता है, ऐसा कहा है। मैंने यहां पर, मुक्ति को प्राप्त करता है, ऐसा नहीं कहा है।

ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह वाक्य, कर्मातीत मुक्ति को दर्शा रहा है… न कि कर्माधीन मुक्ति को।

कर्मातीत मुक्ति का संबंध, निर्गुण निराकार ब्रह्म से होता है। और कर्माधीन मुक्ति का संबंध, ब्रह्म के सगुण साकार और सगुण निराकार रूपी अभिव्यक्तियों से होती है।

कर्माधीन मुक्ति में किसी देव लोक, इत्यादि की प्राप्ति होती है।

लेकिन कर्मातीत मुक्ति की अवस्था, सभी देव आदि लोकों से अतीत होती है, क्योंकि इसमें, योगी किसी देवादि लोक का निवासी नहीं होता है।

इसी कर्मातीत मुक्ति को, पूर्ण संन्यास भी कहते हैं, और पञ्च मुखी सदाशिव के मार्ग में इसका नाता सदाशिव के ईशान मुख से होता है ।

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

इसलिए, जिस भी योगी की चेतना, इस नवम कोष को पार कर जाती है, वह योगी इस ब्रह्माण्ड से अतीत होके, कर्मातीत मुक्ति को ही पाता है। कर्मातीत मुक्ति का मार्ग भी ॐ सावित्री के साक्षात्कार से होकर ही जाता है।

मानव शरीर के भीतर, प्राणमय कोष में, परा प्रकृति की अभिव्यक्ति को, समान प्राण कहते हैं…, जो अतिसूक्ष्म श्वेत वर्ण का नाभि क्षेत्र का प्राण ही है ।

 

अव्यक्त प्रकृति …  अव्यक्ताकाश …

अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, तुसित लोक
अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, तुसित लोक

 

ऊपर दिखलाया गया चित्र, अव्यक्त प्रकृति का है।

हृदय की इस कैवल्य गुफ़ा में, परा प्रकृति के श्वेत प्रकाश को घेरे हुए, जो हल्का गुलाबी प्रकाश है, वो अव्यक्त प्रकृति को दर्शाता है।

अव्यक्त स्वरूप में, प्रकृति ही मूल प्राण (मूल शक्ति या मूल दिव्यता) होती है। इसलिए अव्यक्त प्रकृति को, अव्यक्त प्राण भी कहा जाता है।

प्राणमय कोष में, अव्यक्त की अभिव्यक्ति को व्यान प्राण भी कहते हैं। अव्यक्त का चक्र स्वाधिष्ठान ही है I

अपने अव्यक्त स्वरूप में, प्राण ही प्रधान शक्ति है। इसलिए, प्रधान नामक शब्द भी उसी अव्यक्त को दर्शाता है। अव्यक्त को ही माया शक्ति और महामाया कहते हैं, जो पितामह ब्रह्म की वास्तविक शक्ति है।

अव्यक्त प्रकृति रूपी माया शक्ति ही ब्रह्मलोक के सबसे समीप होती हैं… ब्रह्मलोक को घेरे हुए होती है, ताकी ब्रह्मलोक का साक्षात्कार कोई ऐसा मनीषी न कर पाए, जो इसका पात्र न हो।

जब योगी की चेतना, ब्रह्मलोक को जाती है, तो वो चेतना अव्यक्त प्राण से होती हुई, ब्रह्मलोक के नीचे के 16 लोकों से होकर, ऊपर के 4 लोकों में चली जाती हैं। ब्रह्मलोक के इन सभी 20 लोकों को, यही माया घेरे हुए होती है, अर्थात ब्रह्मलोक के इन 20 लोकों को माया छुपा कर (या ढक कर) रखती है।

और इन्ही ऊपर के चार भागों के आगे जाकर ब्रह्मलोक का वह इक्कीसवाँ भाग साक्षात्कार होता है, जिसमें सर्वसम, हीरे के प्रकाश को धारण किए हुए, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति और माँ सरस्वती निवास करते हैं I ब्रह्मलोक का यह इक्कीसवाँ भाग अव्यक्त सहित, ब्रह्मलोक के अन्य बीस भागों से कहीं आगे जाकर ही साक्षात्कार हो पाता है I

इसलिए जो योगी, माया को भेद नहीं पाता, वो योगी ब्रह्मलोक का साक्षात्कार भी कर नहीं पाता । और जहां माया को भी माया के अनुग्रह से भी भेदा जाता है, क्यूंकि जब तक माया शक्ति ने ही योगी पर अनुग्रह नहीं किया, तबतक वह योगी माया के भीतर ही बसे हुए उन सभी देवादि लोकों को पार करके, ब्रह्मलोक तक पहुँच ही नहीं पाएगा I

उत्कर्ष मार्ग में, ब्रह्मलोक के नीचे के 16 लोक, 16 कलाओं को दर्शाते है। और ऊपर के 4 लोक, पुरुषार्थ चतुष्टय को दर्शाते हैं, अर्थात, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को दर्शाते हैं। और उसी ब्रह्मलोक का इक्कीसवाँ भाग, वेदों में बताए गए तैंतीस कोटि देवताओं में से, तैंतीसवें देवता, प्रजापति का है I

ब्रह्मलोक का साक्षात्कार, इसी अव्यक्त को भेदकर होता है। और क्योंकि अधिकांश योगी इस माया को भेद ही नहीं पाते, इसलिए विरले योगी ही ब्रह्मलोक के साक्षात्कारी होते हैं।

जो साधक, जीवित होते हुए ही, ब्रह्मलोक का साक्षात्कार करता है, वो साधक मृत्यु के पश्चात ब्रह्मलोक को नहीं जाता है। इसका कारण है, कि जब किसी साधक ने कुछ जीवित दशा में ही पा लिया, तो उस साधक को उस दशा में मृत्युपरान्त क्यूँ जाना होगा? ।

और यही सिद्धांत, ब्रह्मा की माया शक्ति, अर्थात अव्यक्त पर भी लागू होता है।

यही अव्यक्त, बुद्धत्व प्राप्ति का मार्ग भी है… अव्यक्त जो माया है, उसको पार किए बिना, कैसा बुद्धत्व? । यही कारण है, कि बुद्धता का मार्ग, इसी अव्यक्त (माया या तुसित लोक) से होकर ही जाता है ।

इसी तुसित लोक से, समय समय पर, बुद्ध भी लौटते हैं ।

जिसने तुसित या माया या अव्यक्त, को नहीं साधा…, वो बुद्धता को भी नहीं पाएगा । जिस योगी ने, माया ही सिद्ध नहीं की, वो बुद्धत्व को भी नहीं पायेगा। बुद्ध शब्द का अर्थ होता है, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा इत्यादि ।

इसलिए, मार्ग पंचक में, बुद्धत्व का मार्ग, प्रकृति से सम्बद्ध, शाक्त होता ही है, अर्थात बुद्धत्व का मार्ग, देवी या शक्ति से सम्बद्ध होता ही है।

इस बात का अर्थ यह भी है, कि, बुद्धत्व प्राप्ति के मार्ग में, शाक्त बिन्दुओं का अनुस्ररण करना ही होगा।

 

अब मैं बुद्धत्व मार्ग को साधरण शब्दों में बताता हूँ…

जिस शक्ति मार्ग में सिद्ध, सांख्य और दर्शन, तीनों मार्गों का समानरूपेण समावेश हो, वह बुद्धत्व मार्ग है, और इस मार्ग की सिद्धि, बुद्धता कहलाती है

 

अब बतलायी गई बातें ध्यान से सुनो…

अव्यक्त सिद्धि ही वेदांत मार्ग की सर्वोच सिद्धि होती है।

मैंने यहां पर, सिद्धि की बात है, न कि गंतव्य की, और इसका कारण यह है कि वेदांत का गंतव्य वह निर्गुण निराकार ब्रह्म ही है, जो पूर्ण संन्यास, अर्थात कैवल्य मोक्ष को दर्शाता है ।

इस अव्यक्त सिद्धि में, योगी की सुषुम्ना नाड़ी, अव्यक्त के हल्के गुलाबी प्रकाश में बस जाती है। यह सिद्धि, एक अव्यक्त शरीर प्रदान करती है, जो हल्के गुलाबी रंग का होता है।

यही अव्यक्त शरीर के धारक, आदि शंकराचार्य भी हैं, जो मेरे इस जन्म में एक सूक्ष्म गुरु भी हैं, और जो शून्य ब्रह्म में निवास करते हैं। और मेरे इसी जन्म में, एक बार सूक्ष्म रूप में आकर, उन्होंने मेरा मार्गदर्शन भी किया था ।

इसी अव्यक्त शरीर के धारक, गायत्री परिवार के संस्थापक, श्रीराम शर्मा जी भी हैं। और उन श्रीराम शर्मा की अर्धांगनी, अर्थात माताजी ने परा शरीर धारण किया हुआ है I

और यही अव्यक्त शरीर, जगद्गुरु शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के पास भी था I क्यूंकि अव्यक्त प्रकृति ही माया शक्ति हैं, और माया शक्ति ही इस जीव जगत की दादीजी होती हैं, इसीलिए मैं इन सब को दादी जी भी मानता हूँ ।

यह सभी अव्यक्त सिद्ध योगी, उसी जीव और जगत की दादी जी, जिन्हें अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, अव्यक्त, महामाया, माया शक्ति, त्रिपुर सुंदरी और पराम्बा, आदि नामों से पुकारा जाता है, और जो मूल प्रकृति को ही दर्शाती हैं, उन्हीं में विलीन होके रहते हैं।

 

मूल प्रकृति की परिभाषा…

जो ब्रह्म की प्रथम अभिव्यक्ति, पूर्ण शक्ति, मूल ऊर्जा, सर्वव्याप्त दिव्यता, सनातन दूती है, उनको ही मूल प्रकृति कहते हैं।

उन्ही मूल प्रकृति को दुर्गा कहा गया है… मूल प्रकृति दुर्गा:।

उन मूल प्रकृति को ही पराम्बा कहा गया है… मूल प्रकृति पराम्बा:।

मूल प्रकृति को ही जगत जननी, जगत माता, त्रिपुर सुंदरी, इत्यादि कहा गया है।

और इन सभी के ज्ञान के मूल में, यही माँ शारदा हैं जो जगदगुरु कहलाई हैं और जिनके इस जगदगुरु स्वरूप को जानने का और प्राप्त होने का मार्ग का मार्ग इसी अध्याय से प्रारम्भ होता है I

जो योगी माँ शारदा का स्वरूप चतुष्टय सहित, उनके सगुण निराकारी माया शक्ति स्वरूप का भी ज्ञाता होता है, वही उन शारदा विद्या सरस्वती का स्वरूप होकर… जगदगुरु कहलाता है I

 

इन तीनों प्रकृति के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन, कभी और करूंगा…, जब सिद्ध शरीर की बात होगी ।

तो अब मैं इस भाग को यहीं पर समाप्त करता हूँ । अब मैं, इसी कैवल्य गुफा के दूसरे भाग पर जाता हूँ, जो आकाश महाभूत का घटाकाश रूप और उसमें बसे हुए हिरण्यगर्भ ब्रह्म के लिंगात्मक स्वरूप को बतलायेगा ।

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

 

लिंक:

अव्यक्त प्रकृति, तुसित लोक, महामाया, (Avyakta Prakriti),

निर्गुण निराकार ब्रह्म, (Nirguna Nirakara Brahman),

निर्गुण ब्रह्म, ब्रह्म, (Nirguna Brahman),

अव्यक्त शरीर, (Avyakta Sharira),

परा प्रकृति, आदि शक्ति,  (Para Prakriti),

नौवाँ बादल, नवम आकाश (Cloud Nine)

अपरा प्रकृति, आठवाँ आकाश, (Apra Prakriti)

तथागतगर्भ, तथागत गर्भ, (Tathagata Garbha, Tathagatagarbha)

मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य, मोक्ष, (Liberation, Moksha),

 

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