हृदय गुफा में प्रवेश, हृदयात्मलिंग गुफा, अत्मलिंग गुफा

हृदय गुफा में प्रवेश, हृदयात्मलिंग गुफा, अत्मलिंग गुफा

इस भाग में मैं उस हृदय गुफा में प्रवेश के बारे में बतलाऊँगा, जिसके प्रयास में, अब तक बतलाया गया सब कुछ होता चला गया, लेकिन ये प्रवेश नहीं हुआ था। ये हृदय गुफा में प्रवेश भी अथाथो ब्रह्म जिज्ञासा को जानने के पश्चात ही हुआ था। हृदय गुफा में प्रवेश के समय,आत्मा का ही लिंगात्मक स्वरुप में साक्षात्त्कार होता है, इसलिए, इस गुफा को हृदयात्मलिंग गुफा और अत्मलिंग गुफा भी कहा जा सकता है। लेकिन ये अध्याय केवल इस गुफा के प्रवेश तक ही सीमित है, इसलिए इसके बारे में अगले अध्याय में बताऊंगा।

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु योगेश्वर कहलाते हैं, जो, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता, ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बारहवां अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाननेहैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

 

हृदय गुफा में प्रवेश … अत्मलिंग गुफा …

 

अत्मलिंग गुफा, हृदय गुफा में प्रवेश, हृदयात्मलिंग गुफा,
अत्मलिंग गुफा, हृदय गुफा में प्रवेश, हृदयात्मलिंग गुफा,

 

अब बात होगी, अथाथो ब्रह्म जिज्ञासा के सूत्र को जानने के बाद की दशा पर…

अब जो बता रहा हूं, वो 2010 ईस्वी के अंत और 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है।

जब ये सब जान लिया, तो अपनी साधनाओं में, सबसे पहले, अपने भीतर ही, एक उच्च भाव को प्रकट किया, और उसे स्थिर करके, उसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहम को बसा लिया। इसमें थोड़ा समय तो लगा, लेकिन अंततः हो ही गया।

और जब ऐसा हुआ, तो ऐसे भाव से, एक सूक्ष्म साधन मेरे भीतर ही स्वयंप्रकट हुआ, जो मेरा मुक्तिमार्ग हुआ, और जिससे यहां पर, मैंने ब्रह्मपथ कहा है। और यही साधन मेरा ब्रह्मत्व पथ भी हुआ।

इस साधन के बारे में बात नहीं करूंगा, क्योंकि ये मेरे भाव से स्वयं उत्पन्न हुआ है, इसलिए केवल मेरा है। इस पर किसी और का अधिकार ही नहीं।

इसी भाव से उत्पन्न साधन का अलम्बन लेके, कुछ ही और समय में, अपने हृदय में पहुंच गया।

 

हृदय की गुफा का मार्ग और साक्षात्कार … हृदयात्मलिंग गुफा …

हृदय गुफा, अत्मलिंग गुफा या हृदयात्मलिंग गुफा में प्रवेश का मार्ग ऐसा था…

  • हृदय की शून्य अनंत गुफा सबसे पहले, हृदय की शून्य अनंत गुफा आई थी … ये गुफा रात्री के समान, अनंत सरिकी गुफा होती है, जिसमें मेरी चेतना उल्टी होकर जाती है, अर्थात, इसमें प्रवेश के समय, साधक का जो चेतन शरीर इसमें जाता है, उसका सर नीचे की ओर होता है और पैर ऊपर की ओर होते हैं।

लेकिन प्रवेश करने का बाद, वो चेतना सीधी हो जाती है। मैने इस हृदय गुफा को शून्य अनंत और शून्य ब्रह्म की गुफा भी कहा है, क्यूंकि इस गुफा में, शून्य ही अनंत होता है और वो अनंत ही शून्य।

इसमें शून्य और अनंत ऐसे घुले मिले होते हैं, कि उनको पृथक रूप में जाना ही नहीं जा सकता है।

वो शून्य जो अनंत होता है और वो अनंत जो शून्य होता है, उसको ही ब्रह्म की वास्तविक अभिव्यक्ति भी कहते हैं।

इसी शून्य अनंत में समस्त जीव जगत बसाया गया है, और इसी शून्य अनंत से, शून्य का स्वयं प्रादुर्भाव हुआ था, और जो प्रकृति की मूलावस्था ही था। शून्य रात्रि के समान अंधकारमय होता है और अनंत स्वयं प्रकाश, इसलिए इस शून्य अनंत की गुफा में, शून्य और अनंत का योग भी ऐसा ही होता है।

इस योग के कारण, इस शून्य अनंत में, शून्य अनंत सरिका दिखाई देता है, और अनंत ही शून्य स्वरुप में होता है।

शून्य, प्रकृति का वाचक है और अनंत, ब्रह्म का। इसलिए शून्य और अनंत की योगावस्था में, प्रकृति ही ब्रह्म होती है, और ब्रह्म ही प्रकृति।

इस शून्य को शून्य समाधि से जाना जाता है, और शून्य अनंत को, असमप्रज्ञात समाधि से। और यही असमप्रज्ञात समाधि, निर्बीज समाधि का मार्ग भी होती है, जिसको पार करने के पश्चात ही निर्विकल्प समाधि को पाया जाता है।

इसी शून्य अनंत को मेरे और समस्त जीवों के सनातन गुरुदेव, श्रीमन नारायण का महाप्रलय स्वरूप भी कहते हैं।

और इसी शून्य अनंत को महाकाल भी कहा जा सकता है, क्यूंकि ये काल की सार्वभौम अखंड सनातन अवस्था को भी दर्शाता है।

यही शून्य अनंत, श्रीमन नारायण का ही कृष्णमयी स्वरुप है, जिसमें सभी देवी देवता, उनके सभी देवलोक सहित, समस्त जीव जगत बसा हुआ होता है, और इसलिए, ये शून्य अनंत को, विराट कृष्ण भी कहा जा सकता है।

 

अब आगे बढ़ता हूँ …

इसी शून्य अनंत में, एक निरंग झिली के समान प्रकाश दिखाता है, जो उस जल शब्द को दर्शता है, जिसका संकेत ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में, जल शब्द में भी आता है।

और इसी शून्य अनंत के भीतर जो निरंग झिली सा प्रकाश होता है, उससे ही निर्गुण निराकार को जाना जाता है, और जिसको जानने के पश्चात, और कुछ जानने योग्य भी नहीं रह पाता है।

इसी नासदीय सूक्त में जो अन्धकार शब्द का संकेत आता है, वो भी इसी असम्प्रज्ञात अवस्था को दर्शाता है, जिसमे शून्य ही अनंत होता है, और अनंत ही शून्य। इस शून्य अनंत में ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अन्धकार रूपी शून्य ने ही अन्धकार को घेरा हुआ है, अर्थात, अन्धकार में ही अन्धकार समाया हुआ है।

इसी शून्य अनंत गुफा में, मुझे कई सारी दैविक सत्ताएं मिली, जिन्हे मैंने गुरु शब्द से संबोधित किया था।

वैसे भी, अगर कोई दैविक, सिद्ध या गुरु सत्ता, मुझे अपना नाम स्वयं ही ना बता दे, तो मैं उनसे उनका नाम पूछता भी नहीं हूं, क्योंकि नाम में क्या रखा है। वास्तव में तो सब आत्मा ही होते हैं, और वो आत्मा भी तो ब्रह्म ही होता है।

और क्योंकि उनका वास्तविक नाम मुझे पता नहीं था, इसलिए मैंने उन सब को अपने ही नाम दिए, और उन दैविक सत्ताओं ने मेरे दिए हुए नाम ग्रहण भी किए।

उनमें से किसी ने भी मुझे कभी भी नहीं बोला, की ये मेरा नाम नहीं है। लेकिन बाद में कभी, मुझे उनके वास्तविक नाम भी पता चल गए।

 

जो दैविक सत्ताएं हृदय की गुफ़ाओं में रहती हैं, उनको मेरे दिए हुए कुछ नाम ऐसे थे।

  • हृदय के शिव स्वरूप गुरु को मैंने, ज्ञान गुरु कहा, जिनके बारे में मुझे बाद में पता चला कि वो बुद्ध अवलोकितेश्वर हैं।

उनके साथ 2 माता स्वरूप और 2 गुरुबाबा भी थे, जो बुद्ध हैं, और उनको भी मैंने अपने ही नाम दिए, जैसे हरी मां जो हरी तारा हैं, त्रिनेत्र मां जो मेरी रक्षक हैं क्योंकि उन्होंने मेरी कई बार रक्षा की।

ये सभी अमिताभ बुद्ध के परिवार के हैं और कुल मिलके 6 हैं। और इनमे से, जिन्हे बौद्ध मार्ग में, बुद्ध अमिताभ कहा गया है, वो ही वेदों के हिरण्यगर्भ ब्रह्म हैं।

  • इनके साथ साथ मुझे 5 और बौद्ध परिवार मिले, जिनमे 100 दैविक सत्ताएं थी, और जो बौद्ध मार्ग में, 100 बुद्ध कहलाते हैं, और जो वेद मार्ग में, भारत, जो साधक का शरीर होता है, उसकी 100 नदियां हैं।

इन 100 बुद्ध के बीज मंत्र, गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत में दिए थे, उनके अपने ग्रन्थ Tibetan book of dead में।

सुषुम्ना नाड़ी में, मेरुदंड के नीचे से लेकर, हृदय तक, 100 सूक्ष्म नाड़ियों का समूह होता है। इन सभी की अपनी अपनी दिव्यताएं होती हैं, जिनके वेदों में भारत की 100 नदियां कहा गया है।

लेकिन क्यूंकि नदियां भूधर ही होती हैं, इसलिए, ये साधक के भूमि रुपी शरीर के भीतर बसे हुए, 100 भूधर भी होते हैं।

और बौद्ध मार्ग में, इन 100 नदियों की ही दिव्यताओं को, 100 बुद्ध भी कहा जाता है।

  • अपने हृदय की उस शून्य अनंत की गुफा में, और भी बहुत सारे दैविक जीवों से मिला, जैसे … काली मां जो माँ काली हैं , गोरी माँ जो बाद में पता चला की परा प्रकृति आदि शक्ति हैं, नीली माँ जो बाद में पता चला की नील सरस्वती है, लाल माँ जो मुझे बाद में पता चला की लाल तारा माँ हैं, पीली माँ जो मुझे बाद में पता चला कि माँ पीतांबरा या माँ ब्रह्मास्त्र विद्या बगलामुखी हैं, धूम्र माँ जो बाद में पता चला की माँ शमशान काली हैं। और इसके अतिरिक्त और भी बहुत सारी माताएँ इसी हृदय की शून्य अनंत गुफा में मिली और ये सभी मेरी गुरुमाई हुई।
  • इनके अतिरिक्त, हृदय के उसी शून्य अनंत से जाकार, मैं एक समूह में गया, जिस्मे 64 माताएं थी, और मुझे बाद में पता चला की ये 64 योगिनी हैं। ये भी मेरी गुरुमाई हुई।
  • और भी कई समूह में गया, जैसे वो 8 गुस्से वाली माँ जिनके बारे में मुझे बाद में पता चला की की ये अष्टभैरवी हैं। इनमे से एक भैरवी, मेरे जन्मस्थान की भैरवि भी हैं।
  • और एक और समूह को मैं 8 खुश माँ भी कहता था, क्योंकि जब वो भी मुझे मिलती थी, मुझे बहुत खुशी होती थी, जो बाद में पता चला कि ये अष्ट मातृका हैं।
  • और उन पंच माताओं को को भी मिला, जो बाद में पता चला कि वो पंच विद्या हैं, जिनमें से एक मेरी वास्तविक माता भी हैं, जो मुझे अपने गर्भ में धारण करके इस मृत्युलोक में लायी थी और मुझे उन्होंने एक स्थूल शरीर भी प्रदान किया था, जिसमे परकाया प्रवेश के मार्ग से आकर, मैं आज भी निवास करता हूँ। ये सब भी मेरी माँ हैं।
  • और एक 10 माता के समूह को भी मिला, जो बाद में पता चला, की 10 महाविद्या हैं, जिनमे से एक पीली माँ भी है। ये सब भी मेरी गुरुमाई हुई।

और ऐसी बहुत सारे दैविक सत्ताएं अपने हृदय में मिली, या हृदय से कहीं और जाकार मिलती ही चली गई।

 

  • इसी हृदय गुफा से, मैं नवदुर्गा माँ को भी मिला।

उन नव दुर्गा में से, एक तो मेरी वास्तविक देवी मामा भी है, क्योंकि वो ही मुझे ब्रह्म के सद्योजात मुख से, इस लोक में लायी थी, और वो एक पंच विद्या भी है, और वो ही तो हिरण्यगर्भ ब्रह्म की अर्धांगिनी शक्ति है, और उनके बीज रूप को ही तो योगीजन अकार शब्द से संबोधित करते हैं, और वो ही तो सगुण साकार त्रिगुणात्मक ब्रह्मशक्ति हैं।

उनको ही तो माँ सावित्री भी कहा गया है। लेकिन गायत्री सावित्री साधना में, माँ गायत्री और माँ सावित्री एक ही हैं।

उनके बारे में ही तो बाइबिल में ऐसा कहा गया है, woman clothed with the sun, woman of apocalypse और उनको ही तो mother Mary भी कहते हैं।

बौद्ध मार्ग में, उन्ही देवी माँ को बुद्ध प्रज्ञापारमिता कहते हैं।

और मेरे जन्म स्थान के धामाधीश्वर की परंपरा में, भगवान जगन्नाथ की परंपरा में, वो ही तो माँ सुभद्रा कहलाती हैं।

यहाँ पर जिनको ब्रह्म का सद्योजात मुख कहा गया है, वो ही पाशुपत मार्ग में, पञ्च मुख सदाशिव का तत्पुरुष मुख कहलाता है, जो हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी होते हैं।

  • उसी शून्य अनंत से जाकार, बहुत सारी माताएं और गुरुबाबा के एक और बहुत बड़े समूह को मिला।

उस समूह की अध्यक्षा एक देवी माता जी हैं, जिनके सामने एक योगी, अपने दोनों हाथ जोड़ कर, हनुमान जी के समान, अर्ध वज्रासन में बैठा करता था।

और वो देवी माता जी उन योगी जी से पूछती भी थी, मेरे बारे में, कि ये कौन है?, आपको कुछ पता है क्या?”।

और वो देवी माता जी उन योगी जी को बोलती भी थी, की ये साधक जो ऊट पटांग की योग साधनाएं करता है, वो कौन है?।

और मुझे बाद में पता चला, कि वो तो माँ सीता हैं, और वो योगी, जो अपने हाथ जोड़ के, अर्ध वज्रासन में, उनके सामने बैठा है, वो ही तो हनुमान जी हैं।

तब मैं समझा, कि वास्तव में, हमारे अधिकतर देवी देवता, पूर्व कालों के योगी और योगिन ही हैं।

  • उसी हृदय गुफा से ऐसे ही बहुत सारी दैविक सत्ताओं को मिला, जैसे भैंस गुरुबाबा जिनके बारे में मुझे बाद में पता चला कि वो यमराज धर्मराज हैं, सात घोड़े के रथ वाले गुरुबाबा जिनके बारे में मुझे बाद में पता चला की वो सूर्यदेव हैं, वज्रा वाले गुरुबाबा जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और जिनके बारे में मुझे बाद में पता चला कि वो देवराज इंद्र हैं, पीले गुरुबाबा जो बाद में पता चला की गुरुदेव बृहस्पति हैं, भोजन माँ जो बाद में पता चला कि वो माँ अन्नपूर्णा हैं, पीली मिट्टी माँ जो बाद में पता चला की मेरी कुलदेवी भू देवी हैं। पिंगला गुरुबाबा जो बाद में पता चला कि मेरे कुल देव रुद्र हैं। इनके अतिरिक्त, और भी बहुत सारी दैविक सत्ताओं को, या तो अपने हृदय में मिला, या हृदय की किसी गुफा के मार्ग से जाकार मिला।
  • कुछ ऋषि सत्ता और सिद्ध सत्ता को भी मिला, और उनमें से कुछ तो मेरे पूर्व जन्मों के गुरुजन भी हैं।

इसी प्रक्रिया में, हृदय से बहार निकल गया, और एक लोक में पहुँच गया, जहाँ कुछ अब्रहम मार्ग के योगीजन को भी मिला, जैसा मूसा या मुहम्मद, इत्यादि।

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इन सब को मिलने के मूल कारण, मेरे सनातन गुरु नारायण ही थे, जो मेरे हृदय की एक गुफा में छुपके रहते हैं। उस गुफा को मैं घोर तमस की गुफा कहता हूं। इस घोर तमस की गुफा में, मुझे मेरे ज्ञान गुरु, शिव स्वरूप, बुद्ध अवलोकितेश्वर ने भेजा था जो तिब्बती पंथ के प्रधान देवता बुद्धा हैं, लेकिन इस हृदय गुफा में, वो श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये होते हैं।

उस हृदय की तमस गुफा में, जहाँ मेरे सनातन गुरु रहते हैं, वहां तमस इतना घोर है, की यदि कोई साधारण साधक इसमें चला जायेगा, तो निश्चित ही उसकी श्वास और हृदय, दोनों की गति ही रुक जाएगी। इसलिए इस घोर तमस की गुफा का न तो मैंने कोई चित्र बनाया है, न ही इस घोर तमस की गुफा को मैंने कुछ अधिक शब्दों में बतलाया है।

वो सनातन गुरु, एक गुरुबाबा स्वरूप में हैं, जो एक बहुत बुड्ढे से, बहुत ही पतले से साधुबाबा हैं, जिन्होनें मुझे ब्रह्माण्ड में बहुत स्थानों पर घूमा घूमा के, बहुत कुछ सिखाया।

और उनके साथ कुछ समय व्यतीत करने के पश्चात, मुझे आभास हुआ की, ये साधुबाबा के परिधान में, जो मेरे हृदय के भीतर की तमस गुफा में बैठे हुए हैं, वो कोई साधरण से साधुबाबा नहीं है।

मुझे तो उनके छलिया परिधान पर ही शक हो गया, कि ये कोई और हैं, जो मेरे हृदय में, एक साधुबाबा के परिधान में आये हैं।

मुझे तो ये भी संशय हो गया, कि ये कहीं वो श्रीमान कृष्ण नारायण तो नहीं हैं, जो एक साधु बाबाजी के वेश में, मेरे ही हृदय में आए हैं।

ये आभास होने के बाद, एक बार तो मैंने उनको कह ही दिया, कि मुझे आपका वास्तविक स्वरूप देखना है, क्योंकि मुझे आपके धारण किये हुए परिधान पर ही शक हो गया है, इसलिए कृपा करके, मुझे अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाओ।

मैंने उनको कह दिया, कि मुझे ऐसा लग रहा है, की आप कोई साधुबाबा नहीं हो, जो आप मुझे दिख रहे हो, और मुझे लगने लगा है, की वास्तव में आप कोई और बहुत बड़ी सत्ता हो।

और जब उन्होनें मुझे अपना वास्तविक स्वरूप दिखलाया, तो मैं पक्का जान गया, कि वो, वोही हैं, जिसका मुझे आभास हुआ था। और इसके बाद, मैंने नमो नारायण बोल ही दिया।

मुझे ये आभास इसलिए हुआ था, क्यूंकि मैंने सोचा, कि जो गुरु मेरे जैसे अधम से भी अधम जीव को, जिसने ना तो कभी कोई दीक्षा ली, ना ही कभी कोई ग्रंथ ही पूरा पड़ा, उसे ही उस सनातन मुक्तिमार्ग में डाल दे और बसा भी दे, जिसमें वो जीव बारम बार विफल होता ही चला जा रहा था, तो ऐसा गुरु तो नारायण हो सकता है,… और कोई भी नहीं।

उन सनातन गुरु ने मुझे हृदय के गर्भ में डाल दिया, और यही मेरा मुक्तिमार्ग हुआ, क्योंकि इसके बाद ही मैं उस हृदय गुफा में पहुंच गया, जिसे मैंने कैवल्य गुफा कहा है और जिसके बारे में किसी आगे के अध्याय में बतलाऊँगा।

और इसके बाद में ही मैं, अकार, उकार, मकार, ब्रह्मतत्त्व और ओंकार से जाकर, राम नाद या शिव तारक मंत्र को गया और अष्टम चक्र या निरालंब चक्र को भी पा गया।

और इसी मार्ग के बीच में, उस हृदय गुफा में भी पहुंच गया, जिसका वर्णन यहां पर किया जा रहा है।

 

अब आगे बढ़ता हूं…

मैं इसी ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र के भावार्थ का आलम्बन लेके, स्वयं ही स्वयं में रहके, अपने भीतर की यात्रा में, तेज गति से चल पड़ा।

जो भीतर की यात्रा कुछ ही समय पूर्व तक, बहुत दुर्गम और कठिन लग रही थी, वो एकदम सरल और छोटी सी लगने लगी।

अपने ही हृदय के सूक्ष्म तत्व के भीतर, उस सनातन गुरु नारायण को, एक बहुत और बुड्ढे संन्यासी, साधुबाबा के परिधान में पाकर, उनको मिलने के बाद, सब कुछ झट मांगनी, पट व्याह, ऐसा ही हो गया।

जिन दशाओं में मैं काई वर्षों से फंसा हुआ था, वो सभी फटा फट पार होने लगी, और उनसे आगे की दशाएं भी, बहुत फटा फट पार होने लगी।

बस हृदय की उस घोर तमस की गुफा में पहुंचो, और सनातन गुरु हाथ पकड़ते थे, और वो मुझे फुर्र कहीं और लेकर जाते थे, और वो बताते भी थे, कि इस दैविक दशा को ये कहते हैं, और इसकी सिद्धि ऐसी होती है और इसका प्रयोग ऐसे होता है।

अपनी साधनाओं में, इसी सूत्र के मुक्तिमार्ग तत्व को ज्ञानपूर्वक समझने के पश्चात, जिन भी दशाओं में, मैं कई वर्षों से फंसा हुआ था, वो सभी दशाएं बहुत शीघ्र ही, बड़ी ही सरलता से, स्वतः ही ऐसे पार हो गई, कि मुझे कुछ पता ही नहीं चला।

इसलिए, मैं अब मानता हूं, कि ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र, जिसको ब्रह्मऋषि और भगवान वेद व्यास, ने अथातो ब्रह्म जिज्ञासा कहा है, वो ही मेरे आत्ममार्ग रुपी  योगमार्ग का, मेरे “स्वयं ही स्वयं में” रमण करने के मार्ग का, केंद्रबिंदु ही हुआ है।

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

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