इस अध्याय में सदाशिव प्रदक्षिणा, सदाशिव परिक्रमा, चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा, चतुष्पाद सदाशिव परिक्रमा, निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा, निराकार सदाशिव परिक्रमा, अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा, अष्टपाद सदाशिव परिक्रमा, अष्टमुखी सदाशिव, अष्टमुखा सदाशिव, शिवलिंग प्रादक्षिणा, शिवलिंग परिक्रमा, अष्ट पाश, अष्टमुखा पशुपतिनाथ, अष्टमुखी पशुपतिनाथ आदि पर बात होगी I
यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I
यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का चौरासीवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का तेरहवाँ अध्याय है I यह अध्याय पूर्व के अध्याय. पञ्च मुखी सदाशिव का ही भाग है I
पाश युक्त जीव I
पाश मुक्त सदाशिव II
टिप्पणियाँ, भाग 1:
- सदाशिव तत्पुरुष ही योगेश्वर और महेश्वर कहलाए हैं I योगेश्वर ही उकार और कार्य ब्रह्म आदि नामों से पुकारे जाते हैं I
- हिरण्यगर्भ ब्रह्म की रजोगुणी अभिव्यक्ति ही कार्य ब्रह्म हैं, और कार्य ब्रह्म ही सृष्टिकर्ता कहलाते हैं I वह सृष्टिकर्ता ही इस ब्रह्म रचना के वास्तविक रचइता हैं I
- मेरा इस स्थूल काया में आगमन सदाशिव के तत्पुरुष मुख से, परकाया प्रवेश प्रक्रिया से और सावित्री विद्या के गर्भ से और उन्ही सावित्री विद्या द्वारा हुआ था I
- सावित्री सरस्वती ही कार्य ब्रह्म की अर्धांगिनी हैं I ॐ सावित्री मार्ग में वही श्री देवी ही अकार कहलाई गई हैं I
- श्री पार्वती, सदाशिव के वामदेव मुख की सुपुत्री हैं, विष्णुनुजा भी हैं, और जो आगे चलकर सदाशिव तत्पुरुष (अर्थात महेश्वर या योगेश्वर) से विवाह करके, महेश्वरी (और योगेश्वरी) कहलाई हैं, वही मेरी माता हैं जिनके गर्भ में जाकर, मैं तत्पुरुष लोक से इस स्थूल लोक में परकाया प्रवेश मार्ग से ही लाया गया हूँ I
- और वह कोई दस वर्ष का बालक, जो परकाया प्रवेश से पूर्व के समय में मेरे आज के माता पिता का पुत्र था और जिसके शरीर में मैं कोई चार दशक पूर्व आया हूँ, मेरे परिवार में ही पुनर्जन्म ले चुका है I
- क्यूंकि मेरे इस स्थूल काया में आगमन से पूर्व, मैं तत्पुरुष सदाशिव के लोक (अर्थात योगेश्वर लोक या महेश्वर लोक) में ही था, इसलिए मेरा इस जन्म का सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग भी तत्पुरुष सदाशिव से ही प्रारम्भ हो सकता है I यही कारण है कि ऊपर का चित्र भी ऐसा ही दिखा रहा है I
टिप्पणियाँ, भाग 2:
- लेकिन अन्य सभी जीव (साधकगण) जिनका आगमन परकाया प्रवेश प्रक्रिया से और महेश्वर लोक से नहीं हुआ है, उनके सदाशिव प्रदक्षिणा पथ के प्रारम्भ में सदाशिव का अघोर मुख ही होगा I
- और ऐसे जीवों (साधकगणों) का प्रदक्षिणा मार्ग भी वैसा ही होगा जैसा शिव पुराण में बताया गया है और जिसका वर्णन इसी अध्याय के आगे के भाग में किया जाएगा I
टिप्पणियाँ, भाग 3:
- इंद्र लोक के स्वयं प्रादुर्भाव के मूल में सदाशिव का तत्पुरुष मुख ही है I यही बिंदु एक पूर्व के अध्याय में बताया गया है, और उस अध्याय का नाम पञ्च मुखी सदाशिव था I
- क्यूंकि आंतरिक अश्वमेध को एक सौ बार पूर्ण करने पर, मैं पितामह ब्रह्मा का इंद्र देव को दिए हुए वचन का मान रखने हेतु ही स्वेच्छा से त्रिशंकु हुआ और क्यूंकि त्रिशंकु का नाता इंद्र लोक से ही होता है, और क्यूंकि अधिकांश जन्मों में मैंने यही निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा करी है, इसलिए मेरे इस जनम की प्रदक्षिणा का नाता इन्द्रलोक भी था I लेकिन ऐसा ऊपर के चित्र में नहीं दिखाया गया है I
- ऊपर का चित्र सदाशिव की निराकार प्रदक्षिणा का प्रारम्भ तत्पुरुष मुख से ही दिखा रहा है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इस जन्म से पूर्व में ही जब मैं पात्र हुआ तो मुझे इसी तत्पुरुष मुख लाया गया था I और इसके पश्चात ही मैं सावित्री विद्या सरस्वती के उस प्रकाशमान दैविक गर्भ से ही इस स्थूल काया में परकाया प्रवेश से आया था I
- यह बिंदु बताने आवश्यक थे, क्यूंकि ऐसा न करने पर यह अध्याय जिसमें शिवलिंग प्रदक्षिणा की बात भी होगी, वह शास्त्र विरोधी ही हो जाएगा I
- जबकि मैंने इस जन्म में तो कोई शास्त्र नहीं पड़ा या जाना है, लेकिन तब भी मैं शास्त्र विरोधी तो कभी नहीं था I
- जब भी कोई साक्षात्कार होता है, तब या तो मेरे समक्ष वह शास्त्र ही आ जाता है जिसमें उसके बारे में बताया गया होगा, अथवा कोई देवी देवता या कोई सिद्धादि मनीषी सूक्ष्म रूप में ही सही लेकिन आकर उस साक्षात्कार के बारे में बता देता है, अथवा कोई देववाणी या आकाश वाणी या घटाकाश वाणी से मुझे उसके बारे में पता चल जाता है, अथवा प्रशस्त मानबिन्दुओं को धारण किए हुए शास्त्रों में बताया गया और उस साक्षात्कार से संबद्ध अंश मेरे स्थूल देह के भीतर अपने सूक्ष्म रूप में प्रकट होता है और मैं उसको पढ़कर अपने साक्षात्कार के बारे में जान जाता हूँ, अथवा इंटरनेट पर ही अकस्मात् कोई पृष्ठ खुलता है जिसमें उस साक्षात्कार करी हुई दशा का वर्णन मिल जाता है, अथवा मेरे खुले हुए नेत्रों के आगे ही किसी शास्त्र का वह पृष्ठ स्वयंप्रकट हो जाता है, इत्यादि I और इन सब और इनसे भी अतीत माध्यमों में से किसी एक माध्यम से मैं जान जाता हूँ I
- इसलिए मेरा इस जीवन का मार्ग, ब्रह्म और माँ प्रकृति की कृपा (अर्थात कृपा सिद्ध या अनुग्रह सिद्ध) का ही रहा है…मैं अबतक के कई सारे साक्षात्कारों में जाकर और उनके बारे में इन्हीं सब विचित्र, अविश्वसनीय और अधिकांशतः अकस्मात् ही प्रकट हुई प्रक्रियाओं में जाकर और इन्ही से जानकार, ऐसा ही मान बैठा हूँ I इस जन्म में बहुत कम बार ऐसा हुआ कि मुझे कोई स्थूल ग्रंथ खोलने की आवश्यकता पड़ी थी I
- इस पूरे ग्रंथ में और यहाँ बताए गए सभी बिंदु भी ब्रह्म और माँ प्रकृति की उसी कृपा का प्रमाण, स्पष्ट रूप में बताते हैं और यदि यह ही सत्य नहीं होता, तो मुझ जैसा अनभिज्ञ यह सब कैसे जान पाया होता I
टिप्पणियाँ, भाग 4:
- आकाशगंगा में सूर्य का उदय सदाशिव के पूर्व दिशा को देखने वाले और पूर्व दिशा की ओर के तत्पुरुष मुख से हुआ था I
- लेकिन आकाशगंगा के मध्य के अंधकारमय ऊर्जामय केन्द्र से उदय होकर भी वह सूर्य, उसी मध्य की अंधकारमय दशा में गति करता रह गया था I ऐसा होने के कारण वह सूर्य, आकाशगंगा के किसी भी ग्रह से दिखाई नहीं देता था I
- उदय के पश्चात सूर्य की गति भी घडी की सुई से विपरीत दिशा में थी, इसलिए सूर्य, पञ्च मुखा सदाशिव के पूर्वी मुख (अर्थात तत्पुरुष मुख) से उदय होकर, उन्ही सदाशिव के उत्तरी मुख (अर्थात सदाशिव का वामदेव मुख) की ओर गति, उसी मध्य के अन्धकारमय और ऊर्जामय दशा में करता गया था I और यह गुप्त रूप की गति भी तब तक रही थी, जब तक सूर्य उत्तर दिशा को देखने वाले सदाशिव के वामदेव मुख में नहीं पहुँच गया था I
- और सदाशिव के वामदेव मुख में जब सूर्य पहुँच गया, तो ही वह आकाशगंगा के मध्य के अंधकारमय भाग से बाहर निकलकर, आकाशगंगा में दिखाई देने लगा था I
- इसीलिए पूर्व का अध्याय जिसका नाम पञ्चमुखा सदाशिव था, उसमें सूर्य के उदय को उत्तर दिशा को देखने वाले सदाशिव वामदेव में बताया गया था I
- अभी के समय इस पृथ्वी लोक का सूर्य, आकाशगंगा के भीतर के अपने उदय स्थल से (जो सदाशिव का वामदेव मुख था) विपरीत दिशा में है, अर्थात अभी के समय सूर्य, आकाशगंगा के भीतर के सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले अघोर में ही खड़ा हुआ है I
- क्यूंकि किसी भी लोक के सूर्य का तब का स्थान ही प्रधान होता है, इसलिए इस लोक के लिए और अभी के समय अघोर सदाशिव की प्रधान मुख है I
- क्यूंकि सूर्य की आकाशगंगा में एक क्रान्ति का समय वैदिक काल इकाई में 6 करोड़ वर्षों का होता है, और जो आज की समय इकाई में 23.1984 करोड़ वर्षों का होता है, और इसके अतिरिक्त क्यूंकि सूर्य अभी के समय अपने उदय स्थल से 179 डिग्री के समीप ही है, अर्थात अघोर मुख पर ही है, इसलिए आगे के कोई 2.7 करोड़ वर्षों तक सूर्य की आकाशगंगा में क्रान्ति मार्ग के अनुसार, अघोर मुख ही प्रधान रहेगा I
- क्यूंकि शिवलिंग, शिव के साकार और निराकार, सगुण और निर्गुण चारों स्वरूपों का ही द्योतक है, और शिव का जो मुख अभी के समय से 7 करोड़ वर्षों से ही प्रधान हुआ है, वह अघोर मुख ही है, इसलिए वेद मनीषियों ने शिवलिंग प्रदक्षिणा का प्रारम्भ और अंत अघोर मुख से ही बताया था I
सदाशिव प्रदक्षिणा क्या है, सदाशिव परिक्रमा क्या है, चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा क्या है, चतुष्पाद सदाशिव परिक्रमा क्या है, निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा क्या है, निराकार सदाशिव परिक्रमा क्या है, … सदाशिव की परिक्रमा, सदाशिव की प्रदक्षिणा, … सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग, सदाशिव परिक्रमा मार्ग, चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग, चतुष्पाद सदाशिव परिक्रमा मार्ग, निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा मार्ग, निराकार सदाशिव परिक्रमा मार्ग, … पशुपतिनाथ की परिक्रमा, पशुपतिनाथ की प्रदक्षिणा, … पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा मार्ग, पशुपतिनाथ परिक्रमा मार्ग, चतुष्पाद पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा मार्ग, चतुष्पाद पशुपतिनाथ परिक्रमा मार्ग, निराकार पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा मार्ग, निराकार पशुपतिनाथ परिक्रमा मार्ग, …
क्यूंकि यहाँ बताए गए बिंदु, पूर्व के कई सारे अध्यायों में बताए जा चुके हैं, इसलिए इस भाग को मैं संक्षेप में और बिन्दु रूप में ही बतलाऊँगा I
यह मार्ग ऐसा था…
सर्वप्रथम चेतना की गति सदाशिव तत्पुरुष से प्रारम्भ हुई और अघोर मुख में गई जो आकाशगंगा के भीतर बसे हुए इस लोक की अभी की दशा में, शिव का प्रधान मुख है I
और इस लोक में जन्म लेकर, जिसका मुख्य मुख अघोर ही है, और उसके पश्चात जब यह प्रदक्षिणा पथ गति किया, और अंततः उन्ही सदाशिव के तत्पुरुष मुख से संबद्ध महाब्रह्माण्ड में चला गया, तब उसी महाब्रह्माण्ड से आगे चलकर, यह सदाशिव प्रदक्षिणा पूर्ण हुई I
इस सदाशिव प्रदक्षिणा से पूर्व उस चेतना ने पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा भी पूर्ण करी I पर क्यूँकि इस पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा को पूर्व के अध्याय में बताया गया है इसलिए यहाँ पर पुनः नहीं बताऊंगा I
आगे बढ़ता हूँ…
इस निराकार सदाशिव प्रदक्षिणा के चार पद थे I तो अब इन पाद चतुष्टय को बताता हूँ…
पहला पाद… सदाशिव के तत्पुरुष मुख से सदाशिव के अघोर मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए तत्पुरुष मुख से अघोर मुख के मार्ग में जो सिद्ध शरीर प्रकट हुए, वह ऐसे थे…
- ईेमाहो सिद्धि,… इसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- हिरण्यगर्भ शरीर, हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी शरीर, ब्रह्माणी शरीर, … इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- स्वर्णिम आत्मा, स्वर्णिम आत्मस्वरूप,… इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- सूर्य शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- नटराज शरीर, पिङ्गल शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- कृष्ण पिङ्गल शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- आकाश शरीर, नील मणि शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
स्थूल शरीर का नाता इसी मार्ग से है I
आगे बढ़ता हूँ…
दूसरा पाद… सदाशिव के अघोर मुख से सदाशिव के सद्योजात मुख तक की यात्रा,… दक्षिण पथ पर गति करते हुए अघोर मुख से सद्योजात मुख के मार्ग में जो सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हुए, वह ऐसे थे…
- भगवा शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- रुद्र रौद्री योग शरीर, सगुण स्वरूप स्थिति,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- परा प्रकृति शरीर,… इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- अव्यक्त शरीर, … इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- वज्रमणि शरीर, सर्वसम स्वरूप स्थिति,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
सूक्ष्म शरीर का नाता इसी मार्ग से है I
आगे बढ़ता हूँ…
तीसरा पाद… सदाशिव के सद्योजात मुख से सदाशिव के वामदेव मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए सद्योजात मुख से वामदेव मुख के मार्ग में जो सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हुए, वह ऐसे थे…
- महाकाल महाकाली सिद्धि, … इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- अर्धनारीश्वर शरीर, … इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- सगुण आत्मा,… इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- धूम्र शरीर,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
कारण शरीर का नाता इसी मार्ग से है I
आगे बढ़ता हूँ…
चौथा पाद… सदाशिव के वामदेव मुख से सदाशिव के तत्पुरुष मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए वामदेव मुख से तत्पुरुष मुख के मार्ग में जो सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हुए, वह ऐसे थे…
- ब्रह्माण्ड शरीर, ब्रह्माण्ड स्वरूप स्थिति,… इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- महाब्रह्माण्ड शरीर, महाब्रह्माण्ड स्वरूप स्थिति, … इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- महाकारण सिद्धि, … इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
महाकारण शरीर का नाता इसी मार्ग से है I
टिप्पणियाँ:
इन बताए गए शरीरों से और इनसे अतिरिक्त कुछ और सिद्ध शरीर भी हैं, जिनका नाता सदाशिव ईशान (अर्थात सदाशिव का ईशान मुख) से भी है, और ऐसे ही सिद्ध शरीर यहाँ बताए गए हैं I
और यहाँ पर एक सिद्धि और भी बताई है, जिसका नाता ईशान सदाशिव से सीधा सीधा भी है…
- शमशान काली महाकाली शरीर, … इसके बारे में भी सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- महाकाली महाकाल शरीर, महाकाली महाकाल योग, … इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- निरंग शरीर, निर्गुण शरीर, … इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- आकाश शरीर, नील मणि शरीर, … क्यूँकि आकाश महाभूत का नाता ईशान मुख से ही होता है, इसलिए इन दोनों सिद्धियों का नाता भी ईशान मुख से ही है I इसके बारे में भी एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
संक्षेप में ही सही, लेकिन यह थी चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा और उस प्रदक्षिणा पथ की कुछ प्रधान सिद्धियाँ जिनके बारे में इस ग्रंथ में बताया गया है I
लेकिन इस प्रदक्षिणा मार्ग पर और बहुत सिद्धियों की प्राप्ति होती है, जिनको न इस अध्याय में और न ही इस ग्रंथ के किसी और अध्याय में ही बताया गया है I
आगे बढ़ता हूँ…
अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा क्या है, अष्टपाद सदाशिव परिक्रमा क्या है, अष्टमुखी सदाशिव क्या है, अष्टमुखा सदाशिव क्या है, अष्ट पाश क्या हैं, अष्ट पाश का अर्थ, अष्ट पाश के नाम, अष्टमुखा पशुपतिनाथ कौन हैं, अष्टमुखी पशुपतिनाथ कौन हैं, अष्टमुखा पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा क्या है, अष्टमुखी पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा क्या है, अष्टमुखा पशुपतिनाथ परिक्रमा क्या है, अष्टमुखी पशुपतिनाथ परिक्रमा क्या है, साधना के दो मार्ग क्या हैं, शिवलिंग प्रादक्षिणा मार्ग, शिवलिंग परिक्रमा मार्ग, …
इस अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा का नाता अष्टमुखी पशुपतिनाथ से है I
इस प्रदक्षिणा मार्ग में साधक की चेतना पञ्चब्रह्म और पञ्चमुखी सदाशिव की योगदशा में गति करती है I
और क्यूँकि साधक की चेतना की गति भी दक्षिण दिशा की ओर ही होती है, इसलिए वह गति भी परिक्रमा मार्ग पर ही होती है I
क्यूंकि इस अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा में, पञ्चब्रह्म के चार दिशाओं के बिन्दुओं के साथ-साथ, पञ्चमुखा सदाशिव के भी चार दिशाओं को देखने वाले मुख एक साथ ही साक्षात्कार होते हैं, इसलिए इसको अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा कहा है I
और क्यूँकि सदाशिव ही पशुपतिनाथ रूप में है, इसलिए इस प्रदक्षिणा को भगवान् पशुपतिनाथ से भी जोड़ा गया है, और जहाँ अष्टमुखी सदाशिव ही अष्टमुखी पशुपतिनाथ हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
सर्वप्रथम अष्ट पाश क्या हैं, इसको बताता हूँ…
पाश का अर्थ है बंधन, लगाम, अधोगति के कारण, ऊर्ध्वगति के अवरोधक, पशु का व्यवहार, अपकर्ष के कारण, उत्कर्ष के अवरोधक, इत्यादि I यह पशुत्व लक्षण ही हैं और इन्ही से अतीत होने का मार्ग ही पाशुपत मार्ग कहलाता है I
यह अष्ट पाश, घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाती हैं I
इन अष्ट पाश का सदाशिव से भी नाता है और सदाशिव ही भगवान् पशुपतिनाथ कहलाते हैं I
तो अब इस नाते को अष्टमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा (अर्थात अष्टमुखी पशुपतिनाथ परिक्रमा) से बताता हूँ…
- घृणा, … इसका क्षय अघोर ब्रह्म के साक्षात्कार से होता है और जहाँ अघोर ब्रह्म, अष्टमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा के प्रथम पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में अघोर ब्रह्म को पार कर जाती है I
- शंका, … इसका क्षय वामदेव ब्रह्म के साक्षात्कार से होता है और जहाँ वामदेव ब्रह्म, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के दूसरा पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में वामदेव ब्रह्म को पार कर जाती है I
- भय, … इसका क्षय तत्पुरुष ब्रह्म के साक्षात्कार से होता है और जहाँ तत्पुरुष ब्रह्म, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के तीसरा पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में तत्पुरुष ब्रह्म को पार कर जाती है I
- लज्जा, … इसका क्षय तत्पुरुष ब्रह्म से आगे जो ॐ सावित्री मार्ग है, उसके साक्षात्कार से होता है और जहाँ ॐ, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा का चौथा पाद ही हैं और सद्योजात ब्रह्म के समीप दशा में ही साक्षात्कार होता है I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में ओंकार के चिंन्ह के लिपिलिंगात्मक स्वरूप के ऊपर के बिन्दु में लय होकर, स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है I
- जुगुप्सा, … इसका क्षय अघोर सदाशिव के साक्षात्कार से होता है और जहाँ अघोर सदाशिव, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के पाँचवाँ पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में अघोर सदाशिव को पार कर जाती है I
- कुल, … इसका क्षय सद्योजात सदाशिव के साक्षात्कार से होता है और जहाँ सद्योजात सदाशिव, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के छठा पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में सद्योजात सदाशिव, अर्थात ब्रह्मलोक को पार कर जाती है I
- शील, … इसका क्षय सदाशिव वामदेव के साक्षात्कार से होता है और जहाँ वामदेव सदाशिव, अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के सातवाँ पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में वामदेव सदाशिव को पार कर जाती है I
- जाती, … इसका क्षय महाब्रह्माण्ड के साक्षात्कार से होता है और जहाँ महाब्रह्माण्ड ही वह महाकारण लोक है जो अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के आठवाँ पाद ही हैं I और इससे मुक्ति तब होती है जब साधक की चेतना इस प्रदक्षिणा मार्ग में महाब्रह्माण्ड में ही लय हो जाती है I जैसे निर्गुण निराकार ब्रह्म अपनी ब्रह्म रचना में लय होकर ही पूर्ण कहलाया है, वैसे ही साधक की चेतना इस महा ब्रह्माण्ड में लय होती है I
और जब महाब्रह्माण्ड में ही यह लय होता है तब साधक इन अष्ट पाश से अतीत हो जाता है I
और अतीत होकर साधक, उन अष्ट पाश सदाशिव के स्वरूप को ही प्राप्त होता है I
यही आठ पाद ऊपर के चित्र में भी दिखाए गए हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
टिप्पणियाँ:
- पूर्व में बताता था कि परकाया प्रवेश से और सदाशिव के तत्पुरुष मुख से आगमन होने के कारण, मेरा प्रदक्षिणा मार्ग सदाशिव के अघोर मुख से नहीं, बल्कि सदाशिव के तत्पुरुष मुख से ही प्रारम्भ हुआ है I
- लेकिन जो जीव, परकाया प्रवेश मार्ग से नहीं लौटाए गए हैं, उनका प्रदक्षिणा पथ अघोर सदाशिव से ही प्रारम्भ होगा और उन्ही सदाशिव के अघोर मुख पर ही अंत होगा I और जहाँ वह परिक्रमा मार्ग, उस शिवलिंग प्रदक्षिणा पथ के समान ही होगा, जिसके बारे में इसी अध्याय में आगे बताया जाएगा I
अब अष्टमुखी सदाशिव प्रदक्षिणा के अष्ट पाद को बताता हूँ…
पहला पाद… सद्योजात ब्रह्म से अघोर ब्रह्म तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए सद्योजात ब्रह्म से अघोर ब्रह्म के मार्ग में कोई भी सिद्ध शरीर प्रकट नहीं हुए थे I
ऐसा इसलिए था क्यूंकि इसी मार्ग से ही मैं इस स्थूल देह में, परकाया प्रवेश से ही सही, लेकिन आया था I
आगे बढ़ता हूँ…
दूसरा पाद… अघोर ब्रह्म से वामदेव ब्रह्म तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए अघोर मुख से वामदेव ब्रह्म के मार्ग में कोई भी सिद्ध शरीर प्रकट नहीं हुए थे I
ऐसा इसलिए था क्यूंकि इस मार्ग में गति इतनी तीव्र और कलाबाजियों वाली थी कि पता ही नहीं चला क्या हुआ और क्या नहीं हुआ I बस कुछ ही जानती हुई वह चेतना इससे आगे की ओर गति करने लगी I
आगे बढ़ता हूँ…
तीसरा पाद… वामदेव ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए वामदेव ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म के मार्ग में जो सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हुए, वह ऐसे थे…
- ईसा सिद्ध शरीर, … इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
चौथा पाद… तत्पुरुष ब्रह्म से ओम तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए तत्पुरुष ब्रह्म से ओम के मार्ग में जो दशाएं साक्षात्कार हुई, वह ऐसी थीं…
- तत्पुरुष से आगे पृथ्वी महाभूत (भू महाभूत) का साक्षात्कार हुआ I इसके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- इस साक्षात्कार के कुछ वर्ष के पश्चात, ईमाहो का साक्षात्कार हुआ I इसके बारे में भी पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
- इस साक्षात्कार के कुछ वर्ष के पश्चात, चेतना आंतरिक यज्ञ मार्ग, जगदगुरु शारदा मार्ग और इसके पश्चात, क्रमशः ॐ सावित्री मार्ग और हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग में गई I इन सबके बारे में भी पूर्व की अध्याय श्रंखलाओं में बताया जा चुका है I
टिपण्णी:
- चेतना सद्योजात ब्रह्म का साक्षात्कार करके, उनके भीतर नहीं गई I
- और इस ॐ साक्षात्कार से ही वह चेतना, दाहिने हस्त पर मुड़कर, पुनः आगे गति करने लगी I
- और जहाँ उसकी गति भी पञ्च मुखी सदाशिव के अघोर मुख में थी जो इन अष्ट मुखी सदाशिव में उत्तर दिशा में था I
- और ऐसा होने पर भी सदाशिव का वह अघोर मुख दक्षिण दिशा की ओर ही देखता रहता है I
आगे बढ़ता हूँ…
पाँचवाँ पाद… ओ३म् से सदाशिव के अघोर मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए ओ३म् से सदाशिव के अघोर मुख के मार्ग में जो दशाएं साक्षात्कार हुई, वह ऐसी थीं…
- ऊपर बताए गए मार्गों को पार करते ही स्वर्णिम शरीर (अर्थात हिरण्यगर्भ ब्राह्मणी शरीर या स्वर्णिम आत्मा) ब्रह्मरंध्र के भीतर ही स्वयं प्रकट हुआ I
- इसके तुरंत बाद, चेतना सूर्य लोक में प्रवेश कर गई I उस समय सूर्य शरीर भी सिद्ध हुआ I
- इससे आगे स्थूल शरीर के भीतर ही जो शरीर प्रकट होते गए, उनका प्रकटीकरण क्रम ऐसा था… पिङ्गल सिद्ध शरीर (अर्थात नटराज शरीर) और कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर (अर्थात कृष्ण पिङ्गल शरीर) I इसके कारण चेतना इन सिद्ध शरीरों के सगुण निराकार लोकों में भी गति कर गई और ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि यह सिद्ध शरीर इनके लोकों के ही सगुण साकार स्वरूप थे I
- इसके पश्चात, आकाश महाभूत शरीर और नील मणि शरीर भी सिद्ध हुआ I इसके कारण चेतना इन सिद्ध शरीरों के सगुण निराकार लोकों में भी गति कर गई और ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि यह सिद्ध शरीर इनके लोकों के ही सगुण साकार स्वरूप थे I
- इन सबके बारे में भी पूर्व अध्यायों में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
छठा पाद… सदाशिव के अघोर मुख से सदाशिव के सद्योजात मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए सदाशिव के अघोर मुख से सदाशिव के सद्योजात मुख के मार्ग में जो दशाएं साक्षात्कार हुई, वह ऐसी थीं…
- ऊपर बताए गए मार्गों को पार करते ही चेतना “भगवे रुद्र” के लोक में प्रवेश कर गई I उस समय भगवा शरीर भी सिद्ध हुआ I
- इससे आगे स्थूल शरीर के भीतर ही जो शरीर प्रकट होते गए और उनका क्रम ऐसा था… रुद्र रौद्री सिद्ध शरीर (अर्थात सगुण स्वरूप स्थिति को दर्शाता हुआ सिद्ध शरीर), परा प्रकृति शरीर, अव्यक्त शरीर और वज्रमणि शरीर (अर्थात सर्वसम स्वरूप स्थिति को दर्शाता हुआ सिद्ध शरीर) I इसके कारण चेतना इन सिद्ध शरीरों के सगुण निराकार लोकों में भी गति कर गई और ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि यह सिद्ध शरीर इनके लोकों के ही सगुण साकार स्वरूप थे I इस मार्ग पर अव्यक्त प्रकृति और ब्रह्मलोक का साक्षात्कार भी हुआ I
- इन सबके बारे में भी पूर्व अध्यायों में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
सातवाँ पाद… सदाशिव के सद्योजात मुख से सदाशिव के वामदेव मुख तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए सदाशिव के सद्योजात मुख से सदाशिव के वामदेव मुख के मार्ग में जो दशाएं साक्षात्कार हुई, वह ऐसी थीं…
- ऊपर बताए गए मार्गों को पार करते ही वह बोधिचित्त प्राप्त हुआ, जो साधक की काया के भीतर बसा हुआ चिन्मय नेत्र. मेरु शिखर, सत्य कैलाश और नित्य वैकुण्ठ भी है I
- इससे आगे स्थूल शरीर के भीतर ही जो दशाएं स्वयं प्रकट होती गई, उनका क्रम ऐसा था… महाकाल महाकाली योग सिद्ध हुआ, फिर अर्धनारिश्वर लोक (और सगुण आत्मा) सिद्ध हुआ, और अंत में धूम्र वर्ण का सिद्ध शरीर स्वयं प्रकट हुआ जो सदाशिव के वामदेव मुख में प्रवेश करके, उसमें ही लय हुआ I
- इसके पश्चात, पूर्व के सभी सिद्ध शरीर जो पूर्व में इस स्थूल काया में स्वयं प्रकट हुए थे, वह भी अपने अपने कारणों में स्वतः ही लय होते चले गए I और यही इस अध्याय श्रंखला में बताए जा रहे लय मार्ग का व्यापक स्वरूप हुआ था I
- इन सबके बारे में भी पूर्व अध्यायों में बताया जा चुका है I
आगे बढ़ता हूँ…
आठवाँ पाद… सदाशिव के वामदेव मुख से महाब्रह्माण्ड तक की यात्रा, … दक्षिण पथ पर गति करते हुए सदाशिव के वामदेव मुख से महाब्रह्माण्ड तक की यात्रा के मार्ग में जो दशाएं साक्षात्कार हुई, वह ऐसी थीं…
- ऊपर बताए गए मार्गों को पार करते ही चेतना आगे बड़ी और ब्रह्माण्ड सिद्धि को पायी I
- इसके पश्चात वह चेतना महाब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गई I उस महाब्रह्माण्ड के अधिष्ठा ब्रह्म भारत हैं और दिव्यता भारती विद्या ही हैं I
- वह महाब्रह्माण्ड ही महाकारण लोक था, जो भारत भारती योग का द्योतक था I
- उसी महाब्रह्माण्ड के भीतर असंख्य ब्रह्माण्ड लिंगरूप में बसे हुए थे I
- इसके पश्चात, वह चेतना इसी महाब्रह्माण्ड में वैसे ही लय हो गई, जैसे ब्रह्म अपनी अभिव्यक्ति, जो ब्रह्म रचना ही है, उसमें लय हुआ है I और लय होकर ही वह निर्गुण ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म कहलाया है I
- इसलिए यही पूर्ण ब्रह्म स्वरूप भी है I
- और यही इस ग्रंथ में बताए जा रहे लय मार्ग का अंतिम पाद था स्वरूप हुआ था I
- और इसी सदाशिव अष्टपाद लिंगात्मक प्रदक्षिणा में साधक के अष्ट पाश भी अपने अपने कारणों में लय हो गए I
टिप्पणियाँ:
- यदि अष्टपाद प्रदक्षिणा और चतुष्पाद प्रदक्षिणा का मार्ग देखा जाएगा, तो उसमें सिद्धियां बहुत अधिक प्रतिशत और मात्रा में एक जैसी ही और एक ही क्रम में पाई जाएँगी I इसलिए सिद्धियों के और सिद्धियों की प्राप्ति के क्रम से इन दोनों मार्गों में कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है I
- लेकिन गंतव्य दशा में इनमें अंतर है I
- और वह अंतर यह है कि चतुष्पाद सदाशिव प्रदक्षिणा सिद्धियों में लेकर जाती है (अर्थात सिद्धि से आसक्ति अथवा अनासक्ति में लेकर जाती है), और अष्टपाद सदाशिव प्रदक्षिणा मोक्ष का मार्ग है, क्यूंकि उसमें साधक सर्वस्व का ही त्याग कर देता है I
- और जहाँ…
पूर्ण सिद्ध ही शून्य ब्रह्म है, जो पूर्ण ब्रह्म कहलाए हैं I
पूर्ण त्यागी, पूर्ण संन्यासी ही कैवल्य मोक्ष है, यही निर्गुण ब्रह्म हैं I
आगे बढ़ता हूँ…
अब शिवलिंग प्रादक्षिणा मार्ग, शिवलिंग परिक्रमा मार्ग बताता हूँ, …
जो जीव (साधकगण) गर्भ जन्म प्रक्रिया से लौटते हैं, उनकी प्रदक्षिणा का यही मार्ग होता है I इसका अर्थ हुआ कि यह प्रदक्षिणा मार्ग, दक्षिण से प्रारम्भ होकर, दक्षिण दिशा में ही जाता हुआ, अंततः दक्षिण दिशा में ही पूर्ण होता है I
इसी मार्ग में पूर्व में बताए गए अष्टमुखा सदाशिव प्रदक्षिणा के बिंदु भी डाले जा सकते हैं और यदि ऐसा किया गया, तो उन बिंदुओं का साक्षात्कार भी उसी क्रम में होगा, जैसे पूर्व का अष्टपाद पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा का चित्र दिखा रहा है I
इस चित्र में दिखाया गया प्रदक्षिणा मार्ग भी ऐसा इसलिए है क्यूंकि शिवलिंग से निकलती हुई गंगाजी की धरा को काटा नहीं जाता है I
आगे बढ़ता हूँ…
अब साधना के दो मार्ग बताता हूँ…
साधना के केवल दो ही मार्ग हैं…
- दिव्य मार्ग, अघोर मार्ग, … यह दक्षिण (दाहिने हस्त) मार्ग है I
- वीर मार्ग, वाम मार्ग, … यह वीर (बाएं हस्त) मार्ग है I
अब ऐसा होने का कारण पूर्व में बताए गए अष्टमुखी पशुपतिनाथ के चित्र से बताता हूँ…
- उस चित्र में साधक पूर्व दिशा को देख रहा होगा I
- ऐसी दशा में, केवल उत्तर और दक्षिण की दिशाओं में ही पञ्चब्रह्म और सदाशिव के मुख एक ही दिशा में देखते हैं I
- और इन दोनों (अर्थात उत्तर या वाम, और दक्षिण या दिव्य) दिशाओं में, पञ्चब्रह्म के दोनों मुख (अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म और अघोर ब्रह्म) और सदाशिव के दोनों मुख (अर्थात अघोर और वामदेव मुख) भीतर की ओर ही देख रहे हैं I
- और अन्य दोनों दिशाओं (अर्थात पूर्व और पश्चिम) में पञ्चब्रह्म के मुख और सदाशिव के मुख विपरीत दिशाओं में देख रहे हैं I
क्यूंकि…
जब साधक का मुख पूर्व की ओर होगा, तब दायां हस्त वाम है और बायां दक्षिण होगा I
उत्तर और दक्षिण दिशा ही हैं, जिनके दोनों मुख भीतर की ओर देखते हैं I
साधना के लिए वही मार्ग होता है, जिसमें कोई असमञ्जस न हो I
भीतर की दिशा आत्मपथ दर्शाती है, जो शिव (रुद्र) मार्ग है I
इसलिए…
साधना जिसका नाता इन दिशाओं से भी है, उसमे भी केवल दो ही मार्ग होते हैं I
और वह मार्ग भी दहिना (दक्षिण) हस्त और बाएं (वाम) हस्त का ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ…
सदाशिव प्रदक्षिणा और त्याग, त्याग और पशुपतिनाथ प्रदक्षिणा…
जबतक साधक का मूल भाव त्याग नहीं होता, तबतक उसे इस प्रदक्षिणा पथ पर कोई उच्च कोटि की सफलता आदि नहीं मिलती I
पूर्णत्यागी ही इस प्रदक्षिणा पथ पर सर्वस्व संन्यास लेकर, कैवल्य मुक्त हो पाएगा I
तो अब मैं इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त करके, अगले पर जाता हूँ जिसका नाम महाकारण, महाब्रह्माण्ड होगा I
मृत्योर्मा अमृतं गमय II
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परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaalchakra