हृदयाकाश गर्भ तंत्र, महाकाश, लय मार्ग, तत्त्वाकाश, शून्य गुफा, तमस गुफा, तम गुफा, सनातन गुरु, श्री विष्णु, श्री हरि, श्रीमन नारायण, आंतरिक अवतरण, अनुग्रह सिद्ध, कृपा सिद्ध, निषेध मार्ग, गुरु शिष्य परंपरा

हृदयाकाश गर्भ तंत्र, महाकाश, लय मार्ग, तत्त्वाकाश, शून्य गुफा, तमस गुफा, तम गुफा, सनातन गुरु, श्री विष्णु, श्री हरि, श्रीमन नारायण, आंतरिक अवतरण, अनुग्रह सिद्ध, कृपा सिद्ध, निषेध मार्ग, गुरु शिष्य परंपरा

यहाँ पर हृदयाकाश गर्भ तंत्र (हृदय आकाश गर्भ तंत्र) पर बात होगी, जिसको घटाकाश मार्ग, महाकाश मार्ग, योग अग्नि मार्ग, आंतरिक यज्ञ मार्ग, योगाग्नि मार्ग, हृदय अग्नि मार्ग, हृदयाग्नि मार्ग, नचिकेताग्नि मार्ग आदि भी कहा जा सकता है I इस अध्याय में हृदय शून्य गुफा, हृदय तमस गुफा, हृदय तम गुफा, हृदय में सनातन गुरु, हृदय में सनातन गुरु श्री विष्णु, हृदय में गुरु श्री हरि, हृदय में श्री विष्णु, हृदय में श्री हरि, हृदय में सनातन गुरु श्री विष्णु, हृदय में श्रीमन नारायण, हृदय में सनातन गुरुदेव, आंतरिक अवतरण, वैदिक गुरु शिष्य परंपरा पर बात होगी I इसी हृदयाकाश गर्भ में तत्त्वकाश का साक्षात्कार होता है, लेकिन इस तत्त्वकाश के कुछ बिंदुओं को ही इस अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा… सभी को नहीं I इसी हृदयाकाश से जाकर, जीवात्मा उस मुक्तिमार्ग पर जाता है, जो ॐ साक्षात्कार से होकर भी जाता है I इसी हृदयाकाश से जाकर, जीवात्मा ॐ में लय होता है, इसलिए इसको विलय मार्ग, लय मार्ग का प्रारम्भ आदि भी कहा जा सकता है I इसी मार्ग से जीवात्मा, काया के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड पर ही विजय पाता है, इसलिए इसको ब्रह्माण्ड विजय मार्ग भी कहा जा सकता है I यह हृदयाकाश योग सुमेरु भी है, और उस सुमेरु का मार्ग भी है, इसलिए इसको सुमेरु मार्ग भी कहा जा सकता है और यही मार्ग है अनुग्रह सिद्ध या कृपा सिद्ध का I

 

लेकिन ऐसा लय मार्ग होने के कारण, इस आंतरिक यज्ञमार्ग की अध्याय श्रंखला में …

इस ज्ञान और मार्ग के पात्रों की संख्या बहुत न्यून ही होगी I

अधिकांश योगी और साधकगणों के लिए यह निषेध मार्ग ही रहेगा I

इस मार्ग का पात्र हुए बिना यदि इसपर जाओगे, तो पीड़ाओं को ही पाओगे I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I इसलिए इस अध्याय श्रृंखला के साक्षात्कार की समय सीमा, पञ्चब्रह्म मार्ग की श्रंखला के बाद की है I इस अध्याय के समस्त बिन्दुओं का साक्षात्कार, एक के बाद एक होता ही चला जाता है I लेकिन ऐसा होने पर भी, उस साधक को जो इस मार्ग का पात्र होगा, इस श्रंखला के बताए और कुछ नहीं भी बताए गए सभी बिंदुओं से जाने को, कोई एक माह लग जाएगा I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तैंतीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ ये अध्याय, आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का पहला अध्याय है।

अब मैं इस अध्याय श्रंखला का प्रारम्भ, हृदय गुफा में बसे हुए उन सनातन गुरु की वंदना से करता हूँ …

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेवो महेश्वर: I

गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम: II

 

दयाकाश गर्भ तंत्र, हृदयाकाश गर्भ, हृदयाकाश
ह्रदय आकाश गर्भ, ह्रदय आकाश गर्भ तंत्र, दयाकाश गर्भ तंत्र, हृदयाकाश गर्भ, हृदयाकाश,

 

हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सार, हृदयाकाशगर्भ तंत्र सार, हृदयाकाश गर्भ का स्थान, हृदयाकाश गर्भ कहाँ होता है, हृदयाकाश गर्भ का वर्णन, हृदय आकाश क्या है, हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सार, … हृदयाकाश ही घटाकाश है, हृदयाकाश ही घटाकाश का भाग है, घटाकाश ही महाकाश है, घटाकाश का महाकाश स्वरूप, हृदयाकाश का घटाकाश स्वरूप, हृदय का आकाश, हृदय का आकाश तत्त्व, हृदयाकाश और जीवनमुक्ति, हृदयाकाश और सद्योमुक्ति, हृदयाकाश और विदेहमुक्ति, … हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सार, हृदयाकाश गर्भ तंत्र की अंतगति, आंतरिक अवतरण, …

हृदय का एक स्थूल भाग होता है, जिसका नाता स्थूल शरीर से होता है I

लेकिन इसी हृदय का सूक्ष्म और दैविक भाग भी होता है, जिसका नाता आकाश महाभूत से और उस आकाश की दिव्यताओं, ऊर्जाओं, शक्तियों आदि से होता है I इसी सूक्ष्म और दैविक हृदय के भीतर जो आकाश है, उसकी गुफा की बात यहाँ पर होगी I

हृदय का यह आकाश से संबध भाग, आकाश के तत्त्व स्वरूप में होता है I हृदय के इस तात्त्विक भाग के भीतर ही आकाश तत्त्व की गुफा होती है, जिसमें आकाश बैंगनी वर्ण का पाया जाता है I

और जो कुछ भी ब्रह्माण्ड में है, वह सबकुछ इसी आकाश में बसा हुआ पाया जाता है I इसी को यहाँ पर हृदयाकाश कहा गया है, और इस हृदयाकाश का नाता घटाकाश, अर्थात शरीर के भीतर बसे हुए आकाश तत्त्व से ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

प्रारम्भ में तो यह हृदयाकाश छोटा सा ही दिखाई देता है, इसलिए ऐसी स्थिति और दशा में, यह शरीर रूपी घट के के भीतर के आकाश (या घटाकाश) स्वरूप में ही साक्षात्कार होता है I

लेकिन जब साधक की चेतना इस हृदयाकाश में बसकर इसका अध्ययन करती है, तब यही हृदयाकाश विशालकाय स्वरूप में पाया जाता है I इस साक्षात्कार से साधक जान जाता है, कि अपनी वास्तविकता में घटाकाश ही महाकाश है I

यही वह दशा है जब साधक के घट रूपी शरीर का आकाश तत्त्व (अर्थात घटाकाश) ही विशालकाय ब्रह्माण्डीय आकाश रूप में साक्षात्कार होगा I इसी विशालकाय आकाश को महाकाश कहा गया है I और इस महाकाश का वर्ण भी घटाकाश के सामान, बैंगनी ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यदि इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सार कुछ ही शब्दों में बतलाऊँगा, तो ऐसा कह सकता हूँ …

जब साधक के भीतर बसी हुई ब्रह्मरचना के समस्त भाग, उनके अपने-अपने प्राचीन, प्रधान और मुख्य कारणों में विलीन हो जाएंगे, तब साधक के आत्मा रूप में वही व्यापक, पूर्णसंन्यासी, सर्वसाक्षी निर्गुण ब्रह्म ही शेष रहेगा I

 

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि …

जब साधक की काया के भीतर बसा हुआ ब्रह्माण्ड और उसके समस्त भाग, उनके अपने-अपने कारणों में विलीन हो जाएंगे, तब जो शेष रहेगा, वह साधक के आत्मस्वरूप में, व्यापक, पूर्णसंन्यासी और सर्वसाक्षी निर्गुण ब्रह्म ही होगा I

इसलिए यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र, निर्गुणयान (या अद्वैतयान) का ही अंग है I

 

यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र का मार्ग, साधक की काया के भीतर बसी हुई ब्रह्म रचना के समस्त भागों को उसी ब्रह्मरचना में लौटाने का मार्ग है I

और जहाँ यह मार्ग, साधक के हृदय आकाश में निवास करती हुई साधक की योगाग्नि से होकर ही जाता है, और जहाँ उस योगाग्नि को ही नचिकेताग्नि कहा जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

यदि कोई साधक उसके देहावसान के समय (या उसके देहत्याग के तुरंत बाद) इस हृदयाकाश मार्ग पर जाकर, इस अध्याय श्रृंखला को पार करेगा, तो वह साधक हृदय मोक्ष गुफा, ॐ मार्ग, राम मार्ग, अष्टम चक्र मार्ग से जाकर, विदेहमुक्ति को पाएगा I

और यदि कोई साधक अपनी काया में निवास करते समय ही इस अध्याय श्रंखला में बताए जा रहे हृदयाकाश गर्भ से अकस्मात् ही और बिना किसी योगमार्गी पूर्व चेतावनी, संकेत, लक्षण आदि के ही परे चला जाएगा, तो वह साधक सद्योमुक्ति को ही पाएगा I

क्यूंकि सद्योमुक्ति के पश्चात, अधिकांश साधकगणों का देहावसान 3-4 सप्ताह में ही हो जाता है, इसलिए यदि ऐसा सद्योमुक्त अपनी काया को रख पाया, तो वह जीवन्मुक्त होकर ही रह पाएगा I

इसलिए इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र के मार्ग पर सद्योमुक्ति से ही जीवनमुक्ति होती है और वह जीवन्मुक्त भी अंततः विदेहमुक्त ही होता है I

किसी भी लोक में, कोई विरला योगी ही ऐसी सद्योमुक्ति से ही जीवनमुक्ति को पाकर, अंततः विदेहमुक्ति को पाया होता है, इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में ऐसा विदेहमुक्त एक अतिदुर्लभ योगी ही माना जाता है I

 

हृदयाकाश और घटाकाश, घटाकाश और महाकाश, घटाकाश ही महाकाश है, … घटाकाश क्या है?, महाकाश क्या है?, हृदय का आकाश क्या है?, घट का आकाश क्या है?, महा आकाश क्या है?, हृदयाकाश क्या है?, महाकाश क्या है?, हृदयाकाश और महाकाश क्या है?, हृदयाकाश और महाकाश, हृदयाकाश और महाकाश का नाता, हृदयाकाश और घटाकाश, हृदयाकाश क्या है?, हृदयाकाश ही घटाकाश है, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है, ब्रह्माण्ड ही पिण्ड है, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति है, ब्रह्माण्ड ही पिण्ड रूप में अभिव्यक्त हुआ है, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड है, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग मार्ग, पिण्ड ब्रह्माण्ड योग, यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे, यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे, यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे, यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे,

हृदय का आकाश जो घट रूप में प्रतीत होता है, वही महा आकाश है I लेकिन ऐसा तब ही पाया जाएगा, जब साधक हृदयाकाश से परे जाने का पात्र बन जाएगा I

इसका अर्थ हुआ, है, कि जब साधक की चेतना हृदय आकाश से परे जाने का पात्र बन जाएगी, तब ही वह घट रूप का हृदयाकाश, महाकाश रूप में साक्षात्कार होगा I

लेकिन इस अध्याय श्रंखला में हृदयाकाश के घटाकाश स्वरूप तक ही बताया जाएगा… महाकाश स्वरूप तक नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

जब भावों में साधक का शरीर रूपी घट टूटता है, तक उस घट के भीतर का आकाश भी महाकाश में विलीन हो जाता है I

महाकाश वह अनंत आकाश है, जिसमें वह घट रूपी शरीर उसके घटाकाश के साथ बसा होता है I

साधनाओं में जब घट रूपी शरीर ही दिखाई नहीं देता, तब इन दोनों आकाश (अर्थात घटाकाश और महाकाश) में कुछ भी भेद नहीं रहता I

ऐसी दशा में साधक जान जाएगा, कि घटाकाश ही महाकाश है और हृदयाकाश भी उसी घटाकाश का भाग है I इस साक्षात्कार में जाना जाएगा कि भाग अपने अंशी से पृथक नहीं होता, इसलिए इसी साक्षात्कार में साधक यह भी जान जाएगा कि अंशी अपने अंश से पृथक नहीं होता, जिसके कारण अंश ही अंशी होता, क्यूंकि अंशी ही अंश रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

ऐसे साक्षात्कार में साधक के शरीर रूपी पिण्ड और उस ब्रह्माण्ड में, जिसमें साधक का पिण्ड निवास कर रहा होता है, कोई अंतर नहीं रहता है और साधक पाता है, कि पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है, और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

ऐसी दशा में साधक नीचे लिखे गए बिन्दु का भी साक्षात्कार करेगा …

यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे

‘यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’

अर्थात, …

पिण्ड ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति, ब्रह्माण्ड ही है I

पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है… और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड है I

शरीर रूपी पिण्ड के भीतर ही ब्रह्माण्ड बसा हुआ है I

और शरीर रूपी पिण्ड भी ब्रह्माण्ड में ही बसा हुआ है I

 

और इसी साक्षात्कार का आलम्बन लेकर, कुछ आगे की साधनाओं में साधक यह भी जान जाता है कि …

आत्मा ही ब्रह्म है… ब्रह्म ही आत्मा है I

आत्मा और ब्रह्म नामक शब्दों में भेद होने पर भी, यह एक ही हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इन सब कारणों से यहाँ बताया जा रहा हृदय आकाश गर्भ तंत्र मुक्तिमार्ग ही है, क्यूंकि इसकी अंतगति जीवातीत और जगतातीत, अर्थात पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत दशाओं से ही संबंधित होती है I

इसलिए इस मार्गकी अंतगति में, …

बूँद ही सागर है और सागर ही बूँद है I

घटाकाश ही महाकाश है… और महाकाश ही घट रूप में अभिव्यक्त हुआ है I

शरीर रूपी घट में ही ब्रह्माण्ड बसा है… और ब्रह्माण्ड में ही शरीर बसा हुआ है I

ऐसा ही पाया जाएगा I

 

और इस साक्षात्कार में, …

वह बूँद साधक ही होगा… और सागर, ब्रह्माण्ड I

इसके साथ साथ, साधक का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म होगा I

 

ऐसे साक्षात्कार में एक और बिंदु भी साक्षात्कार होगा, जो ऐसा होगा …

सृष्टि का मूल ही सृष्टि और सृष्टि का गंतव्य हुआ है I

सृष्टि का मूल जो उसका गंतव्य ही है, वही सृष्टि हुआ है I

ब्रह्म ही पिण्ड और ब्रह्माण्ड और पिण्ड ब्रह्माण्ड तंत्र हुआ है I

रचैता ही रचना और रचना के तंत्र स्वरूप में अभिव्यक्त हुआ है I

इसलिए, पिंड ब्रह्माण्ड योग भी उसी ब्रह्मपथ का अभिन्न अंग ही है I

ऐसा होने का कारण ही, प्रकृति और प्रकृति का तंत्र भी मुक्तिमार्ग ही है I

यही कारण है, वह मुक्तिमार्ग भी बहुवादी अद्वैत नामक योग में बसा हुआ है I

इससे साधक यह भी जान जाएगा, कि प्रकृति और प्रकृति का तंत्र भी मुक्तिमार्ग का अंग है, और जहां मुक्तिमार्ग के मूल में प्रकृति नामक शक्ति है, और गंतव्य में निर्गुण ब्रह्म ही है I

 

हृदयाकाश ही सुमेरु मार्ग है, हृदयाकाश और सुमेरु, हृदयाकाश और गंतव्य मार्ग, … शून्य और शून्य ब्रह्म में समानता, शून्य और शून्य ब्रह्म में अंतर, शून्य और शून्य ब्रह्म में समानता और अंतर, शून्य ब्रह्म मार्ग का प्रारम्भ, शून्य मार्ग का प्रारम्भ, हृदयाकाश गर्भ तंत्र से प्राप्त हुआ अंतिम ज्ञान, हृदयाकाश गर्भ तंत्र का अंतिम ज्ञान, हृदयाकाश गर्भ तंत्र का अंतिम साक्षात्कार,

सुमेरु का अर्थ गंतव्य होता है I हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही योग सुमेरु का मार्ग है, क्यूंकि इसी से जाकर निरलम्बस्थान पर पहुँचने का मार्ग प्रारंभ होता है I

सुमेरु का अर्थ कैवल्य और मोक्ष भी होता है I हृदयाकाश गर्भ तंत्र इसी कैवल्य मोक्ष के मार्ग का प्रारंभ भी है I

स्वयं ही स्वयं के मार्ग में हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही ब्रह्मपथ का प्रारम्भ है I

जिस मार्ग से ब्रह्म रचना के वह भाग जो साधक की काया के भीतर है, उनको पुनः ब्रह्मरचना को लौटाया जाता है, वह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I और जहाँ इस लौटाए जाने का मार्ग भी हृदय में बसी हुई योगाग्नि गुफा से ही होता है I

जब साधक की काया के भीतर बसी हुई ब्रह्म रचना और उसके भाग उनके ब्रह्माण्डीय कारणों में लौट जाते हैं, तब साधक मुक्तात्मा कहलाता है I यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही उस लौटाने के मार्ग का प्रारम्भ है I

हृदयाकाश गर्भ तंत्र से ही शून्य ब्रह्म (या शून्य अनंत) के साक्षात्कार और शून्य ब्रह्म (या शून्य अनंत) में लय का मार्ग का प्रारम्भ है I जब शून्य ही अनंत सरीका और अनंत ही शून्य सरीका हो, वह शून्य ब्रह्म है I उस शून्य ब्रह्म में शून्य ही अनंत होता है, और अनंत ही शून्य I

बौद्ध पंथ में, इसी शून्य अनंत को, जो अनंत शून्य भी होता है, शून्यता कहा जाता था I इसी को वैष्णवगण श्रीमन नारायण कहते हैं I शैव मार्गों में यही सदाशिव हैं I

इस शून्य अनंत और अनंत शून्य के साक्षात्कार मार्ग का प्रारम्भ भी, यही हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I

 

आगे बढ़ता हूँ

अब शून्य और शून्य ब्रह्म की समानता और अंतर बताता हूँ

शून्य और शून्य ब्रह्म, दोनों ही प्रकाश रहित दशाएं हैं, अर्थात रात्रि के समान दशाएँ हैं I

शून्य ब्रह्म की उस रात्रि के समान दशा के भीतर एक निरंग प्रकाश भी होता है, लेकिन शून्य में ऐसा साक्षात्कार नहीं होता है I और यही निरंग प्रकाश का साक्षात्कार इन दोनों (अर्थात शून्य और शून्य ब्रह्म) का अंतर भी है I

शून्य ब्रह्म में साधक चेतना से पूर्णतः युक्त होती है, लेकिन शून्य साक्षात्कार में ऐसा नहीं होता है I

शून्य का साक्षात्कार मार्ग शून्य समाधि है, और शून्य अनंत का साक्षात्कार मार्ग, असंप्रज्ञात समाधि होती है I

 

आगे बढ़ता हूँ

हृदयाकाश गर्भ तंत्र से जाते हुए गंतव्य मार्ग से जाकर जो ज्ञान अंत में आएगा, वह ऐसा होगा …

अंत ही अनंत है, अनंत ही अंत है I

अनंत ही अंतहीन है, अंतहीन ही अंत है I

अनंत ही आरंभहीन है, आरंभहीन ही आरंभस्थान है I

अनंत का मार्ग भी आरंभहीन हीं है, इसलिए अंतहीन ही है I

आरम्भ ही अंतहीन है जो प्रारम्भ ही नहीं हुआ उसका कैसा अंत? I

आरंभहीन जो अंतहीन ही है, वही अज है अज में सबकुछ प्रारम्भ होता है I

अंततः उसी आरंभहीन और अंतहीन, अर्थात अज में ही सबकुछ विलीन होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ

ब्रह्म की प्रकृतिरूपी अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से, आरंभहीनअंतहीन ही शून्य है I

शून्य में ही सबकुछ बसा होता है, लेकिन वह सबकुछ व्यक्त नहीं हुआ है I

ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, शून्य ही ब्रह्माण्ड की अव्यक्त पूर्णावस्था है I

उस शून्य का साक्षात्कार शून्य समाधि से होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

शून्य अपने बिंदु रूप में भी होता है, जिसको बिंदु शून्य भी कहा जा सकता है I

बिंदु शून्य में समस्त ब्रह्माण्डीय और पराब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ बसी होती हैं I

बिंदु शून्य की दिव्यता (शक्ति), दस हाथ वाली माँ महाकाली हैं I

बिंदु शून्य का साक्षात्कार जड़ समाधि से होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ

ब्रह्म रचना के मूल के दृष्टिकोण से, आरंभहीन और अंतहीन ही शून्य ब्रह्म है I

शून्य ब्रह्म में शून्य बसा है, शून्य में ब्रह्माण्ड अपने अव्यक्त रूप में है I

उसी शून्य ब्रह्म के शून्य भाग से, ब्रह्माण्ड का प्रादुर्भाव होता है I

शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार असंप्रज्ञात समाधि से होता है I

शून्य साक्षात्कार का मार्ग, शून्य समाधि ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उसी शून्य ब्रह्म में ही अंततः सबकुछ लय हो जाता है I

यह लय प्रक्रिया निरलम्बस्थान पर ही लेकर जाती है I

यह लय मार्ग निर्बीज समाधि से प्रशस्त होता है I

आगे बढ़ता हूँ …

ब्रह्मरचना के गंतव्य के दृष्टिकोण से, वह आरंभहीनअंतहीन ही निर्गुण ब्रह्म है I

निर्गुण ब्रह्म ही सबका अभिव्यक्ता है, और सब निर्गुण ब्रह्म की अभिव्यक्ति I

निर्गुण ब्रह्म ही सबमें बसा हुआ है, और निर्गुण ब्रह्म में ही सब बसे हुए हैं I

निर्गुण ब्रह्म ही सबका आत्मस्वरूप है, जो सगुण भी है, और निर्गुण भी I

जब चेतना आरंभहीनअन्तहीन में चली जाए, वही कैवल्य मुक्ति है I

निर्गुण का तात्त्विक साक्षात्कार निर्विकल्प समाधि से होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन ऊपर बताए गए बिंदुओं का साक्षात्कार यहाँ बताए जा रहे हृदयाकाश गर्भ तंत्र से परे जाकर ही होता है, और एकएक करके हो होगा I

इसलिए जबकि यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही इन सब साक्षात्कारों के मार्ग का प्रारम्भ है, लेकिन यह सब साक्षात्कार इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में बसकर नहीं होते हैं I यह सभी साक्षात्कार हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पार करके एक-एक करके ही होते हैं I

 

हृदयाकाश गर्भ से परे जाकर, उस अंतगति में जो साक्षात्कार होता है, अब उसको बताता हूँ …

मैं सबका अभिव्यक्ता ब्रह्म हूँ, अभिव्यक्त रूप में मैं अपनी अभिव्यक्ति भी हूँ I

अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति हुआ है, इसलिए अभिव्यक्ति भी अभिव्यक्ता ही है I

अपनी पूर्णता में, मैं ही वह रचैता हूँ, मैं ही रचना और रचना का तंत्र भी हूँ I

मैं वह अथाह सागर रूपी ब्रह्म हूँ, और मैं उस सागर में बसी हुई बूँदें भी हूँ I

 

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि …

अपने सिवा, उस अभिव्यक्ता (ब्रह्म) ने कुछ और बनाया ही नहीं है I

इसका कारण है कि अपने सिवा वह ब्रह्म, कुछ और बना पाया ही नहीं है I

इसलिए, जीव जगत और उसके तंत्र स्वरूप में वही ब्रह्म प्रकाशित हो रहा है I

रचनारूप में निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सगुण साकार और सगुण निराकार हुआ है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसलिए, यह हृदयाकाश मार्ग भी स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य में बसा हुआ है I और इस मार्ग में साधक अपने ही आत्मस्वरूप में ऊपर बताए गए सभी बिंदुओं का साक्षात्कार करेगा I

और जहाँ,

यह साक्षात्कार मार्ग सर्वसमता से भी होकर जाएगा I

और जहाँ उस सर्वसमता का ज्ञान सम्प्रज्ञात समाधि से होता है I

और जहां वह सम्प्रज्ञात समाधि भी धर्ममेघ और ऋतम्भरा से होकर जाएगी I

इसलिए, इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र से जाकर और इसको पार करके, साधक उन दशाओं का साक्षात्कार भी करेगा, जिनके बारे में और उनकी समाधियों को संक्षेप में ही सही, लेकिन ऊपर बताया गया है I इन समाधियों के बारे में आगे के अध्यायों में बात होगी I

यही कारण है, कि …

यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र का मार्ग, समाधि मार्ग का प्रारंभ भी है I

 

इन सबसे परे जाने के पश्चात, साधक जो जानेगे, उसको अब बताता हूँ …

मैं सब दशाओं में हूँ, मैं सबसे परे भी हूँ I

दिशाओं में मैं गंतव्य दिशाअद्वैत मार्ग हूँ I

मैं आकाश के समान अथाह और व्यापक, अनंत हूं I

मैं ही वह सर्वव्यापक हूँ, जो सबमें है और जिसमें सब हैं I

मैं कालातीत सनातन समय हूं, अनादि, अंतहीन, शाश्वत हूं I

मैं सर्वसम हूँ, सगुण निर्गुण हूँ, शून्य और शून्य ब्रह्म भी मैं ही हूँ I

मैं निर्गुण निराकार हूँ, सगुण निराकार और सगुण साकार भी मैं ही हूँ I

मैं आच्छादित हूं, निरपेक्षता की सभी अवधारणाओं से परे हूं, मैं ही सबकुछ हूं I

मैं पूर्ण हूं, मैं परम हूं, मेरी अपनी सार्वभौम प्रकृति सहित, संपूर्णता में मैं ही हूँ I

 

ऐसा योगी अपनी वास्तविकता के बारे में वह भी जानेगा, जो नीचे बताया है …

मैं सर्वविध होता हुआ भी, इन सबसे परे ही हूँ I

मैं सर्वव्यापी सर्वजनक होता हुआ भी, रिश्तों से परे हूं I

मैं सर्वसक्षम होता हुआ भी, उसकी उपाधियों से अतीत हूँ I

मैं सब रूपोंअरूपों में होता हुआ भी, इन सबसे अतीत ही हूँ I

मैं भावातीत, शब्दातीत, ग्रंथातीत, मार्गातीतऔर दीक्षातीत हूँ I

मैं सर्वदिशा व्यापक होता हुआ भी, दिशाओं और मार्गों से परे हूँ I

मैं सर्वज्ञ हूं, फिर भी ज्ञान, भाषा और उनके शब्दों आदि से परे हूं I

मैं वह हूं जिसको जानकर भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता I

सब मुझमें और मैं ही सबमें होता हुआ भी, वास्तव में मैं सर्वातीत ही हूँ I

मैं सर्वरचैता हूं, पर सृजन प्रक्रिया, सृजित और स्रष्टा की अवधारणा से परे हूं I

मैं वह हूं जो सदैव हर जगह, हरचीज और हरचीज के भीतर और बाहर रहा हूं I

सब होने पर भी मैं स्वयं ही स्वयं में, अर्थात आत्मस्वरूप में हीं जाना जाता हूं I

मुझे ऐसी पूर्णता में, पूर्णरूपेण जानने का कोई और मार्ग या दशा हुई ही नहीं है I

 

ऐसा साधक यह भी कहेगा कि …

जो उस ब्रह्म को जानते हैं और मानते हैं कि जानते हैं, वह उसे नहीं जानते हैं I

जो ब्रह्म को जानकार भी मानते हैं कि उसे नहीं जानते हैं, वही उसके ज्ञाता हैं I

 

और ऐसा साधक यह भी कहेगा कि …

मैं जीव जगत रूपी ज्ञान, क्रिया और चेतना भी हूँ I

मैं जीव जगत का निरलम्ब आधार हूँ, मैं ही पूर्ण स्वतंत्र हूँ I

मैं शब्दों, ग्रंथों और मार्गों से परे, स्व:ज्ञान हूँ मैं ही परमज्ञान हूँ I

मैं कर्मों, फलों और संस्कारों से परे कर्मातीत, फलातीत और संस्कारातीत हूँ I

मैं स्वयं ही स्वयं का ज्ञाता हूँ मुझे जानने का मार्ग भी स्वयं ही स्वयं में है I

मैं सबमें हूँ, सब मुझमें ही हैं, और मैं सबसे परे भी हूँ, मैं ही परा से भी परे हूँ I

जब मैंने स्वयं ही अपनी वास्तविकता नहीं बताई, तबतक मुझे कौन जान पाएगा I

आगे बढ़ता हूँ …

 

हृदयाकाश गर्भ का मार्ग, हृदयाकाश गर्भ तंत्र की गति और दिशा, हृदयाकाश गर्भ तंत्र की प्रक्रिया, हृदयाकाश गर्भ तंत्र प्रक्रिया,

अब मैं इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र की प्रक्रिया को संक्षेप में बताता हूँ …

आंतरिक यज्ञ मार्ग हृदयाकाश गर्भ तंत्र का है I

स्वयं ही स्वयं को स्वयं में ही यज्ञ करने का मार्ग, हृदयाकाश तंत्र है I

जिस यज्ञ में स्वयं ही स्वयं में बसकर, स्वयं को ही आहुति रूप में अर्पण करा जाता है, वह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I

वह आंतरिक यज्ञ, जिसमें साधक स्वयं में ही स्वयं को, स्वयं के हृदय में बसी हुई योगाग्नि में आहुति देता है, वह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I

 

इसमें साधक जान जाएगा कि …

मैं ही यज्ञ, यज्ञाग्नि, यज्ञकुंड, यज्ञब्रह्मा, यज्ञऋषि, यज्ञकर्ता, यजमान, यज्ञ सामग्री, यज्ञ के देवत्व आदि बिंदु और यज्ञ की आहुती हूँ I

मैं मेरे भीतर की योगाग्नि में, स्वयं को ही ऐसे स्वरूप में जानकर, स्वयं ही स्वयं का स्व:इच्छात्मक, स्व:भावनात्मक और स्व:क्रियात्मक यज्ञ कर रहा हूँ I

अपने भीतर प्रज्वलित योगाग्नि में, मैं अपने आप को, अपने आप ही, अपने आप में ही आहुति रूप में जानकार, स्वयं ही स्वयं का बलिदान कर रहा हूँ I

इसलिए, हृदयाकाशगर्भ तंत्र का सिद्ध, सर्वविजयी होकर भी, सर्वातीत ही होता है I

 

इस आंतरिक यज्ञ मार्ग में साधक जो मानता है, उसको अब बताता हूँ …

मैं सबकुछ हूँ, इसलिए जब स्वयं ही स्वयं में बसकर, मैं स्वयं को ही आहुति रूप में अर्पण कर देता हूँ, तब मेरा आहुती स्वरूप ही ब्रह्म की समस्त रचना है I

इसलिए इस आंतरिक यज्ञ मार्ग में, मेरा स्वयं ही स्वयं को स्वयं के भीतर बसी हुई योगाग्नि में अर्पण करना, समस्त ब्रह्म रचना को अर्पण करने जैसा ही है I

वह ब्रह्म रचना मेरे भीतर ही पूर्णरूपेण बसी हुई है, और इसके साथ साथ, उसी ब्रह्म रचना में मैं अपनी काया आदि रूपों में भी समानरूपेण बसा हुआ हूँ I

मेरा स्वयं ही ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति की शाश्वत योगदशा है, और इसी में मैं अपने उस स्वयं को आहुति रूप में देख रहा हूँ, जिसका नाता इस महाब्रह्माण्ड, उसके समस्त पिण्डों और उनके तंत्र से भी है I

इसलिए, इस आंतरिक यज्ञ मार्ग में, मेरे भीतर और बाहर जो भी है, वह सब मैं ही हूँ, और मैं उस सबकुछ को अपने ही भीतर बसी हुई योगाग्नि, अर्थात नचिकेताग्नि में अर्पण कर रहा हूँ I

 

इस मार्ग में साधक यह भी जानता है, कि 

मैं स्वयं ही स्वयं में बसकर, स्वयं ही स्वयं को, स्वयं के ही योगाग्नि स्वरूप में आहुति देकर, स्वयं ही स्वयं से अतीत हो गया हूँ I

और ऐसा करने के पश्चात, में इस जीव जगत से छूट कर, अपने आत्मस्वरूप को ही पूर्णस्वतंत्र सर्वात्मा स्वरूप में पाया हूँ I

 

और इस साक्षात्कार के पश्चात साधक जो जानेगा, उसमें वह साधक ऐसा ही कहेगा …

मैं ही पञ्च कृत्य रूप में, उत्पत्ति, स्थिति, संहार, निग्रह और अनुग्रह भी हूँ I

मैं ही पञ्च महाभूत स्वरूप में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश भी हूँ I

मैं ही पञ्च तन्मात्र स्वरूप में, गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द भी हूँ I

मैं ही ज्ञानेन्द्रिय स्वरूप में, आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हूँ I

मैं ही पञ्च देव स्वरूप में, सूर्य, विष्णु, रूद्र, देवी और गणेश हूँ I

मैं ही कर्मेन्द्रिय स्वरूप में, हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग हूँ I

मैं ही पञ्च ब्रह्म हूँ, और मैं ही पञ्च मुखा सदाशिव हूँ I

आगे बढ़ता हूँ …

 

हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरु श्रीमन नारायण, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरु श्री हरी, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरु श्री विष्णु, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्री हरी, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्री विष्णु, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण, हृदयाकाश गर्भ और श्रीमन नारायण, हृदयाकाश गर्भ और श्री हरी, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरु, हृदयाकाश गर्भ और श्री विष्णु, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव,

हृदयाकाश में बसकर जो साधक की गुरु सत्ता होती है, अब उसको बताता हूँ …

हृदयाकाश गर्भ तंत्र मार्ग के देवता, सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण हैं I

हृदयाकाश गर्भ तंत्र मार्ग के मार्ग में, श्री हरि ही हृदयाकाश गर्भ सम्राट हैं I

हृदयाकाश गर्भ के आंतरिक यज्ञ में, श्रीहरि ही इस यज्ञ के गुरु और ऋषि हैं I

उन्ही श्री हरि का नन्हा शिष्य और प्रजा होकर ही इस मार्ग पर जाया जाता है I

आगे बढ़ता हूँ …

 

हृदयाकाश गर्भ तंत्र का मार्ग, हृदय शून्य गुफा, हृदयाकाश गर्भ तंत्र का मार्ग और हृदय शून्य गुफा, हृदय शून्य गुफा में प्रवेश, हृदय शून्य गुफा की दिव्यताएं, हृदय शून्य गुफा के देवी देवता, हृदय शून्य गुफा और सनातन गुरुदेव श्री विष्णु, हृदय शून्य गुफा और सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण, … हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्री विष्णु, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण, … साधक के हृदय में श्रीमन नारायण, साधक की ह्रदय शून्य गुफा में श्रीमन नारायण, हृदय शून्य गुफा में श्रीमन नारायण, हृदय तम गुफा में श्रीमन नारायण, हृदय तमस गुफा में श्रीमन नारायण, हृदयाकाश गर्भ और सनातन गुरुदेव श्री हरी, हृदयाकाश गर्भ और श्री विष्णु, हृदयाकाश गर्भ और श्रीमन नारायण, हृदयाकाश गर्भ और श्री हरी, … नारायण का आंतरिक अवतरण, श्री विष्णु का आंतरिक अवतरण, श्री हरी का आंतरिक अवतरण, आंतरिक अवतरण क्या है?, आंतरिक अवतरण में क्या होता है?, आंतरिक अवतरण क्या होता है?, आंतरिक अवतरण किसे कहते हैं?, … योगी का नन्हा विद्यार्थी स्वरूप में उदय, योगी नन्हा विद्यार्थी हो गया, अपनी ही हृदय गुफा में बसा हुआ नन्हा विद्यार्थी, योगी का श्री हरी प्रजा स्वरूप, योगी श्री हरी की प्रजा हो गया,… विशुद्ध सत्त्व का साक्षात्कार, विशुद्ध सत् का साक्षात्कार, विशुद्ध सत्त्व ही ब्रह्माण्ड का मूल है, विशुद्ध सत्त्व, विशुद्ध सत्अनुग्रह सिद्ध कौन है?, कृपा सिद्ध कौन है?, अनुग्रह सिद्ध कौन?, कृपा सिद्ध कौन?, अनुग्रह सिद्धि क्या है?, कृपा सिद्धि क्या है?, अनुग्रह सिद्धि क्या?, कृपा सिद्धि क्या?,

जैसा पूर्व की एक श्रृंखला, जिसका नाम आत्ममार्ग था, उसके किसी अध्याय में बताया था, कि बहुत वर्ष पूर्व एक साधना में मुझे, अपने हृदय से एक वाक्य सुनाई दिया था I

और उस वाक्य ने ऐसा बोला था, …

अब बस भी कर दे यार I

 

और जैसा उस पूर्व के अध्याय में बताया था, कि इस वाक्य को जानकर मैंने सोचा भी था, कि यह कौन है जो मेरे भीतर बसा हुआ है, और मुझसे यह वाक्य बोल रहा है I

मैंने उस पूर्व के अध्याय में ये भी बताया था, कि इस वाक्य को सुनने के पश्चात, मैंने सोचा भी था, कि उसके स्त्रोत्र को जाना पड़ेगा, जिसके कारण मेरा वह मार्ग प्रारम्भ हुआ, जिसको इस ग्रंथ में “स्वयं ही स्वयं में”… ऐसा कहा है I

और इस मार्ग पर बहुत वर्षों तक और कई विफलताओं के पश्चात, मैं इसी स्वयं ही स्वयं में के मार्ग पर गमन करते करते, हृदय की उस गुफा में पहुंच गया, जिसको इस अध्याय में हृदय शून्य गुफा भी कहा गया है I इसी हृदय शून्य गुफा के भीतर, एक और गुफा होती है जिसको इस ग्रन्थ में, हृदय तमस गुफा और हृदय तम गुफा भी कहा गया है I

इस शून्य गुफा को पार करके ही सनातन गुरुदेव श्रीमन नारायण के आशीर्वाद और सानिध्य से, साधक हृदयाकाश गर्भ में प्रवेश कर पाता है I

इसलिए हृदयाकाश गर्भ के मार्ग पर, साधक पहले हृदय शून्य गुफा से आगे जाकर, हृदय तमस गुफा (हृदय तम गुफा) गुफा में प्रवेश करके ही, सनातन गुरुदेव का सानिध्य पाएगा, और इसके पश्चात ही वह साधक हृदयाकाश गर्भ में उन्ही सनातन गुरुदेव का नन्हा शिष्य रूपी प्रजा होकर, उनका हाथ पकड़कर, उनके साथ चलकर ही जा पाएगा I

जैसे ही साधक की चेतना, सनातन गुरुदेव के समक्ष पहुँच जाती है, वैसे ही वह चेतना पाती है कि उसका आकार बहुत छोटा हो गया है, और ऐसा हो गया है, जैसे वह कोई सात वर्ष का बालक हो I

इसका अर्थ हुआ, कि जैसे ही वह चेतना सनातन गुरु के समक्ष पहुँच जाएगी, तब चाहे वह किसी बड़ी आयु के मनुष्य की ही क्यों न हो, लेकिन वह चेतना स्वयं को एक छोटे से बालक के सामान ही पाएगी I

वैसे ऐसा ही तो प्रत्येक शिष्य और गुरु का नाता भी होता है, जिसमें शिष्य चाहे वृद्ध पुरुष ही क्यों न हो, और गुरु कोई बालक ही क्यूँ का हो, लेकिन जब भी कोई शिष्य अपने गुरु के समक्ष जाएगा, तब उस शिष्य की मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति, उनके साम्राज्य के नन्हे से बालक सी ही होगी I

ऐसा ही उस चेतना के साथ भी हुआ था, जब वह चेतना हृदय गुफा के भीतर निवास करने वाले श्रीमान नारायण के समक्ष पहुँच गई थी, और उस चेतना ने उन नारायण को ही सनातन गुरु रूप में पा लिया था I

इसलिए, चाहे वह चेतना छह फुटिया मानव की ही क्यों नहीं थी, लेकिन जब वह सनातन गुरु के समक्ष खड़ी हुई थी, तब से ही उस मानव ने स्वयं को उन सनातन गुरुदेव का नन्हा सा, कोई सात वर्ष से भी छोटी आयु के विद्यार्थी स्वरूप में देखा था I

और ऐसा ही वह मानव, जो इस ग्रंथ को लिख रहा हैआज भी हैउन सनातन गुरुदेव का एक नन्हा विद्यार्थी और तुच्छ (महत्वहीन) प्रजा I

 

आगे बढ़ता हूँ

इस हृदय शून्य गुफा में जब मेरा प्रथम प्रवेश हुआ, तब मेरी चेतना उलटी होकर गई थी, अर्थात उस चेतना को ऐसा लगा जैसे उसका सर नीचे की ओर है, और चरण ऊपर की ओर हैं I

और जैसे ही वह चेतना इस हृदय शून्य गुफा में पूर्णरूपेण प्रवेश कर गई, वैसे ही वह सीधी भी हो गई थी I

जैसे ही वह चेतना सीधी हुई, उसने अपने सामने एक श्वेत वर्ण की मानव आकृति देखी I यह मानव आकृति एक योगी स्वरूप में थी, और उस मानव आकृति के पीछे और साथ, कुछ और दिव्तायें भी थी I

तो अब इस हृदय शून्य गुफा की उन दिव्यताओं में से कुछ को सही, लेकिन बताता हूँ …

  • ज्ञान गुरु, बुद्ध अवलोकितेश्वर, माँ आदि शक्ति का स्वरूप योगी, नवम कोष का सिद्ध योगी, परा प्रकृति का सिद्ध योगी, सगुण निर्गुण ब्रह्म का सिद्ध योगी, समता सिद्ध योगी, … वह श्वेत वर्ण के मानव जो इस हृदय शून्य गुफा में सर्वप्रथम दिखाई दिए थे, मैंने उनको ज्ञान गुरु कहा है I

ऐसा इसलिए कहा है क्यूंकि …

श्वेत वर्ण समता को दर्शाता है, अर्थात सगुण निर्गुण ब्रह्म को दर्शाता है I

और जो ज्ञान समतावादी नहीं होता, वह ज्ञान भी नहीं होता I

 

जो ज्ञान सगुण निर्गुण नहीं होता, वह उत्कर्ष पथ भी नहीं होता है, क्यूंकि वह शान्ति का मार्ग नहीं हो सकता है I

जो ज्ञान शान्तिदायक ही न हो, वह उत्कर्ष पथ कैसे हो सकता है? I

जिनको मैंने ज्ञान गुरु कहा है, उनको ही बौद्ध पंथ में बुद्ध अवलोकितेश्वर और बोधिसत्व अवलोकितेश्वर कहा गया है I

जैसे पूर्व के एक अध्याय में बताया था, कि प्रबुद्ध योगभ्रष्ट ही बोधिसत्व हो सकता है, इसलिए जिनको बौद्ध पंथ में बोधिसत्व कहा जाता है, वह सब वो योगभ्रष्ट हैं, जो प्रबुद्ध भी हैं I

 

  • हरी माँ, हरी माता, हरी तारा, जल महाभूत की दिव्यता, भवसागर की दिव्यता, … उन बुद्ध अवलोकितेश्वर, अर्थात ज्ञान गुरु के पीछे एक हरे वर्ण की माता खड़ी होती हैं I

बौद्ध पंथ में, इन हरी माताजी को ही हरी तारा कहा गया है I

हरी तारा, जल महाभूत की दिव्यता भी हैं, इसलिए यह भवसागर की दिव्यता ही हैं I

ऐसा होने के कारण, यही हरी तारा माँ भवसागर तारिणि ही हैं I

इनके अनुग्रह से ही साधक भवसागर को तार जाता है, अर्थात भवसागर को पार कर पाता है I

 

  • हलके पीले और भूरे वर्ण की माँ, भूरी माता, हलके पीले वर्ण की माँ, त्रिनेत्र धारण करी हुई माँ, हलके पीले और भूरे वर्ण की माता जिनके त्रिनेत्र से श्वेत प्रकाश निकलता है, योगी तारिणि माता, योगी को तारण करने वाली माता, योगी की रक्षक माता, योगी रक्षक माता, … उन हरी माता के साथ एक हलके पीले और भूरे वर्ण की संन्यासीनी माता खड़ी होती हैं I

इन माता जी के भ्रूमध्य से (अर्थात त्रिनेत्र से) एक श्वेत प्रकाश बाहर निकल रहा होता है I

यह माता जी संन्यासी परिधान में ही होती हैं, और योगीजनों की रक्षक हैं I

एक बार मेरी रक्षा इन माता जी ने तब करी थी, जब मैं देहावसान के कगार पर ही पहुँच गया था I

और इन माता जी ने, अपने त्रिनेत्र की ऊर्जा से, मेरे शरीर से बहुत कुछ बाहर निकाला था I

और उन सभी निकाली गई दशाओं को ऋषिकेश में जो परमार्थ आश्रम है, उसके समीप के एक पहाड़ की गुफा में बाँध कर रख दिया था I

कुछ दिवस के पश्चात जब मैं उस गुफा में सूक्ष्म शरीर गमन के मार्ग से गया, तब वही माता जी कुछ सूक्ष्म जगत के योगीजनों के साथ बैठी हुई थी, और मेरे शरीर से बहार निकाले हुए बिन्दुओं को बाँध कर बैठी हुई थी I

इसलिए मैं मानता ही हूँ, कि इन माता जी का स्थान ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम के समीप के एक पहाड़ की गुप्त गुफा में है, और यह माताजी उसी पहाड़ में कुछ उत्कृष्ट योगीजनों के साथ, जो उनके शिष्य से ही प्रतीत होते हैं, निवास करती हैं I

  • इन सबके साथ साथ, कुछ और दिव्यताएं भी उन ज्ञान गुरु के साथ और समीप बैठी या खड़ी हुई होती हैं, लेकिन मैं उन सबको बतलाऊँगा नहीं I जिनको उन दिव्यताओं को जानना है, वह गुरु पद्मसंभव द्वारा बताई गई तिब्बतन बुक ऑफ़ डेड (Tibetan book of dead) को पढ़ लें I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उस शून्य गुफा के शून्य का आकार बहुत-बहुत विशालकाय था I और इसी विशालकाय शून्य में ऊपर बताई गई सभी दिव्यताएं निवास कर रही थीं I और इन दिव्यताओं के समक्ष ही नन्हे विद्यार्थी के स्वरूप में जो साधक था, उसकी चेतना बैठी हुई थी, जो इस हृदय शून्य गुफा में प्रवेश बस कुछ समय पूर्व ही करी थी, और इन सब दिव्यताओं का साक्षात्कार कर रही थी I

उस हृदय शून्य गुफा में बसकर और ज्ञान गुरु के समक्ष बैठकर, जब ऊपर बताया गया सबकुछ साक्षात्कार कर लिया, तब उस चेतना ने जो पूछा, वह यह था …

आप सब कौन हैं और मेरे हृदय के भीतर क्या कर रहे हैं? I

 

तब ज्ञान गुरु ने जो उत्तर दिया, वह यह था …

धीरज रखो योगी, तुम शनैः शनैः सब जान जाओगे I

इस उत्तर के पश्चात, उस योगी की चेतना ने कभी भी उन दिव्यताओं से कुछ नहीं पूछा I और जो भी हृदय शून्य गुफा की उन दिव्यताओं ने उनकी अपनी इच्छा से बताया, बस उस सबको वह योगी की चेतना ग्रहण करती गई I

 

आगे बढ़ता हूँ

अब सनातन गुरुदेव से मिलन को बताता हूँ, अर्थात सनातन गुरु के योगी के हृदय में आंतरिक अवतरण के पश्चात की दशा को बताता हूँ …

वह चेतना कई बार हृदय की उस शून्य गुफा में प्रवेश करी और उस चेतना ने हृदय के भीतर बसी हुई उन दिव्यताओं का सानिध्य भी पाया और उन दिव्यताओं से शनैः शनैः ही सही, लेकिन बहुत कुछ सीखा भी I

और जब यह प्रक्रिया चलित थी, तब एक बार जब वह चेतना ज्ञान गुरु के समक्ष बैठी हुई थी, तो उन ज्ञान गुरु ने अपने हाथ की ऊँगली से एक दिशा दिखाई और कहा, …

वहां जाओ वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं I

 

मैं (अर्थात मेरी चेतना जो हृदय शून्य गुफा में पहुँच गई थी) समझा नहीं, लेकिन क्यूंकि जिन्होंने ऐसा बोला था, वह मेरे ज्ञान गुरु ही थे, इसलिए उन ज्ञान गुरु और उनके साथ की सभी दिव्यताओं को नमन करके, मैं अपने हृदय के भीतर ही, उस दिशा में चल पड़ा, जिसको उन ज्ञान गुरु ने उनकी ऊँगली से दिखाया था I

यह सब उसी शून्य में ही चल रहा था, जिसको मैंने हृदय शून्य गुफा कहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ

अब सनातन गुरु की गुफा को बताता हूँ …

उसी हृदय शून्य गुफा के भीतर के विशालकाय प्रकाश रहित शून्य में चलते चलते, मैं (अर्थात मेरी चेतना) एक स्थान पर पहुँच गई, जो बहुत काले वर्ण का था I

वह स्थान पर जाकर, मैंने देखा कि एक प्रकाश रहित गुफा है, जो इतनी घनघोर काली रात्रि के समान है, कि मैंने उसको हृदय तम गुफा (हृदय की तमस गुफा), ऐसा ही मान लिया I

लेकिन उस हृदय तमस गुफा के पास पहुँच कर, मैंने (अर्थात मेरी चेतना ने) पाया, कि उस तम के भीतर छुपे हुए ही सही, लेकिन बहुत सारे हीरे के प्रकाश के बिंदु से दिखाई दे रहे हैं और वह हीरे के प्रकाश जैसे बिंदु अमावस्या की रात्रि के बसे हुए तारों के समान, टिमटिमा ही रहे थे I

इससे में जान गया, कि इस ब्रह्माण्ड के रचैता द्वारा सबकुछ ब्रह्माण्डीय तम में ही बसाया गया है, और उस रचना का प्राथमिक स्वरूप हीरे के समान प्रकाश वाला, विशुद्ध सत्त्व ही है, जिसका नाता वामदेव ब्रह्म से है, और इसका नाता सदाशिव के सद्योजात मुख से भी है I

और उसी तमस गुफा के समीप खड़ा हुआ मैं (अर्थात मेरी चेतना जो यह सब साक्षात्कार कर रही थी) यह भी जाना कि विशुद्ध सत्त्व को रचैता ने अपनी अन्धकारमय शून्य रूपी रचना में छुपा कर रखा हुआ है, ताकि इसका साक्षात्कार वही योगी कर पाए, जो इसके वास्तविक पात्र हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ

यह सब जानकार, मैं उस हृदय तमस गुफा में प्रवेश कर गया I

प्रवेश करके उस गुफा के भीतर देखा, कि एक बहुत ही पतला सा, बहुत वृद्ध सा योगी, संन्यासी के परिधान में बैठा हुआ है I

जैसे ही मैंने उन योगी को देखा, उनको प्रणाम किया और उनके समक्ष ही खड़ा रहा I और जब उन योगी ने मुझे बैठने का संकेत दिया, तो मैं उनके समक्ष ही बैठ गया I

आगे चलकर और कुछ समय के पश्चात, मैंने उन्ही हृदय तमस गुफा में विराजमान योगी जी को सनातन गुरु कहा था, और वह भी तब, जब उन्होंने मुझे वह सबकुछ बताना प्रारम्भ किया, जो ऐसा गुरु ही बता सकता है, जो सनातन कालों से ही ऐसा रहा है I

और उन योगी के सानिध्य में मैंने जो कुछ ही सप्ताह में जाना, वह विराट ज्ञान कई जन्मों में भी नहीं जाना जा सकता है I

और जब मुझे ऐसा आभास हुआ कि जो मैंने उनके सानिध्य में जाना है, वह यदि मैं स्वयं ही (अर्थात अपने परिश्रम) से जानता, तो मुझे कई जन्म लग जाते, तो इस भाव के पश्चात तो मुझे शंका ही हो गई, की जिन वृद्ध योगी का सानिध्य मैंने पाया है, यह कोई साधारण योगी नहीं हैं… बल्कि कोई बहुत विशाल सत्ता हैं I

ऐसे शंका के कारण, एक समय ऐसा भी आया जब मैंने उनको नमन करके बोल भी दिया, कि मुझे आप कोई बहुत बड़ी सत्ता लगते हो, न कोई साधु बाबा जो मुझे दिखाई दे रहे हैं, इसलिए, भगवन मुझे अपने वास्तविक स्वरूप दिखाएं I

और जब उन महात्मा साधू बाबा ने मुझे अपने वास्तविक स्वरूप दिखाया, तो मैं बस इतना ही बोल पाया …

ॐ नमो नारायणाय I

तब ही मुझे पता चला, कि जो मेरे हृदय तमस गुफा में बहुत पतले से वृद्ध साधुबाबा बैठे हैं, और जिनसे में कुछ सप्ताह से ज्ञानार्जन कर रहा हूँ, वही मेरे सनतान गुरुदेव श्रीमन नारायण हैं, जिन्होंने मेरे हृदय के भीतर ही आंतरिक अवतरण किया है I

और इस जन्म में, वही सनातन गुरु और भगवान् नारायण मेरे गुरुदेव हुए हैं और मैं उनका शिष्य होने के साथ साथ, उनकी प्रजा भी हुआ हूँ I

 

आगे बढ़ता हूँ …

उन्ही नारायण के सानिध्य से, जो मेरे हृदय गुफा में अवतरण किये हैं, और उन्ही गुरु भगवान् का ही नन्हा विद्यार्थी बनकर, जो मैंने जाना, वही इस अध्याय श्रृंखला में उनके आदेश से ही बता रहा हूँ… क्यूंकि उन सनातन गुरुदेव ने ऐसा ही कहा था …

जब तुम गंतव्य पर चले जाओ, तो इस सबको मानव जाती को बाँट देना I

और क्यूँकि बांटने को कहा था, इसलिए इसको निशुल्क ही रखना पड़ेगा, जिसके कारण इसको प्रकाशित करने का मार्ग भी वेबसाइट ही हो सकती थी I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि आज का कोई भी बनिया-प्रकाशक, किसी ग्रंथ को प्रकाशित करके, उसको निशुल्क तो कभी भी नहीं बाँटेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ

और उन्ही सनातन गुरु ने जब मुझे (अर्थात उस चेतना को जो उनके समक्ष कई सप्ताह तक, प्रतिदिन जाती थी) वह सबकुछ बता दिया जो हृदयाकाश गर्भ तंत्र की आधार शिला ही था, तब गुरुदेव ने मुझे हृदयाकाश गर्भ में अकस्मात् ही प्रवेश करा दिया I

उसी हृदयाकाश गर्भ के तंत्र को इस अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा I

 

वैदिक गुरु शिष्य परंपरा, गुरु शिष्य परंपरा, नारायण जीव परंपरा, नारायण जगत परंपरा, …

यह समस्त जीव जगत श्रीमन नारायण का ही शिष्य है, और ऐसा ही यह अनादि कालों से रहा है, और ऐसा ही यह समस्त जीव जगत अनादि कालों तक रहेगा भी I इस जगत सहित, समस्त जीव भी उन्ही श्रीमन नारायण की प्रजा ही हैं I

इसलिए यदि कोई सत्ता इस जीव जगत की सनातन गुरु और सार्वभौम शाश्वत सम्राट है, तो वह श्रीमन नारायण ही हैं I

यह ग्रंथ, ज्ञान और इस ग्रंथ में बताई गई समस्त सिद्धि आदि दशाएँ, मेरी तो बिलकुल नहीं है I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि कोई भी विद्यार्थी उन बिंदुओं का श्रेय ले ही नहीं सकता है, जो उसने अपने गुरुदेव के अनुग्रह से पाया है I ऐसा विद्यार्थी (शिष्य) ही अनुग्रह सिद्ध (कृपा सिद्ध) कहलाता है I

और चाहे उन गुरुदेव की आज्ञा (अनुग्रह, कृपा) से ही विद्यार्थी गंतव्य को पाया हो, लेकिन गंतव्य प्राप्ति के पश्चात भी वह शिष्य, अपने गुरुदेव का नन्हा सा अनभिग्य विद्यार्थी ही रहेगा I

और ऐसा तब भी होगा, जब वही शिष्य उसके अपने गुरु के दृष्टिकोण में, गंतव्य पर बैठा हुआ एक उत्कृष्टम योगी ही होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और अब सनातन वैदिक गुरु शिष्य परंपरा के एक मुख्य बिंदु को बतलाता हूँ, जो आज लगभव लुप्त ही हो चुका है …

गुरु के दृष्टिकोण में, प्रत्येक शिष्य भावी गुरु ही होता है I

शिष्य के दृष्टिकोण में, वह सदैव ही अपने गुरु का शिष्य रहेगा I

और ऐसा तब भी होगा, जब वह शिष्य गंतव्य को प्राप्त हो गया होगा I

और जहाँ, …

किसी भी शिष्य का गंतव्य उसका गुरु ही होता है I

और जहाँ गुरु का मूल गुरुत्व, उसका अपना शिष्य ही होता है I

और जहाँ गुरु शिष्य परंपरा का मार्ग, मूल से गंतव्य को ही जाता है I

 

इसलिए वैदिक गुरु शिष्य परंपरा में, …

शिष्य ही गुरु होता है I

और गुरु ही माता, पिता, सखा, ज्येष्ठ, भगवती और भगवान् है I

 

और क्यूंकि उस नन्हे से शिष्य को, जिसके बारे में इस अध्याय श्रंखला में बात करी जाएगी, अपने सनातन गुरुदेव से ही इतना प्रेम हो गया, कि उसने बंधनों को ही नहीं, बल्कि अपनी भावी मुक्ति तक को ही त्याग दिया I

 

ऐसा उस नन्हे विद्यार्थी ने तब भी किया, जब उसके ही गुरु ने कहा था, कि …

इस ज्ञान से आगे न कोई देवत्व है, न बुद्धत्व, न जीवत्व और न ही जगत्व I

पुत्र, इससे आगे स्वयं ही स्वयं में, केवल होकर ही जाना होता है I

इसलिए, इससे आगे तो मैं भी नहीं मिलूंगा I

 

और क्यूंकि वैदिक आर्य मार्ग में, मनोलोक का ज्ञान नहीं होता, इसलिए गुरु आज्ञा के कारण, वह नन्हा विद्यार्थी गंतव्य को गया और गंतव्य को साक्षात्कार करके, वह उस गंतव्य को पाया भी I

और इस गंतव्य साक्षात्कार और प्राप्ति के पश्चात उस नन्हे विद्यार्थी ने स्वयं ही स्वयं को पथ भ्रष्ट (मार्ग भ्रष्ट) किया, और पतन मार्ग से लौटकर, अपने गुरुदेव के समक्ष पुनः आ गया I

ऐसे होने के पश्चात, वो न तो पूर्व के बंधनों में रह पाया, और न ही मुक्त हुआ I

इसलिए वह नन्हा विद्यार्थी बाँधनातीत भी हुआ और मुक्तितीत भी I

 

ऐसा पथ भ्रष्ट वो इसलिए हुआ, क्यूंकि गुरु आज्ञा का पालन शेष था (कि इस ग्रंथ को बांटो) I लेकिन वह नन्हा विद्यार्थी जानता ही था, कि वैदिक गुरु शिष्य परंपरा में, …

गुरु आज्ञा पालन हेतु, जो कुछ भी करना पड़े, उसे करो I

क्यूंकि सद्गुरु अपने शिष्य का पतन कभी होने ही नहीं देंगे I

इसलिए, चाहे वह गंतव्य को पाकर पतन मार्ग से ही क्यों न लौटा हो, लेकिन उसका पतन हो ही नहीं सकता I

और आज वही गंतव्य को पाया हुआ, और स्वयं के ही चुने हुए पतन मार्ग से लौटा हुआ नन्हा विद्यार्थी, इस ग्रंथ और इसके हृदयाकाश गर्भ तंत्र नामक अध्याय श्रंखला को, अपने हृदय गुफा में बैठे हुए सनातन गुरुदेव श्री हरी की आज्ञा से ही लिख रहा है I

टिपण्णी: इस ग्रंथ में इस हृदय शून्य गुफा और उसकी दिव्यताओं के चित्र नहीं बनाए हैं, क्यूँकि में सोचता हूँ कि यह तो साधकगणों को साक्षात्कार ही करना होगा I

 

हृदयाकाश गर्भ के भाग, हृदयाकाश गर्भ क्या है, हृदयाकाश गर्भ का चित्र, …

इसको जानने के लिए, इस अध्याय के प्रथम चित्र को देखो I

हृदयाकाश में कई सारे भाग होते हैं, जिनको अब बता रहा हूँ …

  • सत्त्वगुण गुफा, … ऊपर के चित्र में यह सबसे बायीं ओर दिखाई गई है I ऊपर के चित्र में यह ऊपर का सबसे बायीं ओर का गोला है I
  • विज्ञान गुफा, … ऊपर के चित्र में यह सत्त्वगुण गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I
  • चित्त गुफा, … ऊपर के चित्र में यह विज्ञान गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I
  • तृष्णा गुफा, … यह विज्ञान और चित्त की गुफा के मध्य में है I ऊपर के चित्र में यह दिखाई नहीं गई है I
  • प्राण गुफा, … ऊपर के चित्र में यह चित्त गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I
  • रजोगुण गुफा, … ऊपर के चित्र में यह प्राण गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I
  • मनस गुफा, … ऊपर के चित्र में यह रजोगुण गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I
  • तमोगुण गुफा, … ऊपर के चित्र में यह मनस गुफा के दायीं ओर दिखाई गई है I इस चित्र में यह सबसे ऊपर का और दायीं ओर का गोला है I

 

इन सबके अतिरिक्त, हृदयाकाश गर्भ में कुछ और भाग भी होते है, जिनको अब बता रहा हूँ

  • ब्रह्माण्डीय सिद्धांत गुफा, … इसका स्थान सत्त्वगुण गुफा की बायीं ओर है I इस चित्र में यह दिखाया नहीं गई है I
  • पञ्च महाभूत गुफा, … इसका स्थान तमोगुण गुफा की दायीं ओर है I इस चित्र में यह दिखाया नहीं गई है I
  • योगाग्नि गुफा, नचिकेताग्नि गुफा, … यह महाभूत गुफा के दायीं और नीचे की ओर है I हृदयाकाश गर्भ में जब साधक हृदय के आगे के भाग की ओर देख रहा होता है, तब यह योग अग्नि दायीं ओर ही होती है I इसी योगाग्नि को नचिकेताग्नि भी कहा जाता है I
  • ऊपर का हीरे के समान वर्ण, सर्वसमता को दर्शाता है I इसी सर्वसमता में यह हृदयाकाश गर्भ बसा होता है, अर्थात इस हीरे के समान प्रकाशमान सर्वसमता ने इस हृदयाकाश को घेरा होता है I
  • उस सर्वसमता को एक रात्रि के समान दशा ने घेरा होता है I यह दशा शून्य तत्त्व है I
  • इस चित्र के नीचे के मध्य भाग में बैठकर हृदयाकाशगर्भ तंत्र के मार्ग पर जाया जाता है I सनातन गुरु के साथ, मैं भी यहीं बैठा था I

इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है और मैं अगले पर जाता हूँ, जिसका नाम चित्त गुफा है I

 

असतो मा सद्गमय I

 

 

लिंक:

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa

परंपरा, Parampara

ब्रह्म, Brahman

कालचक्र, Kaalchakra

हृदयाकाश गर्भ तंत्र, Hridayaakash Garbh Tantra

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