जगद्गुरु शारदा, नेत्र में ब्रह्म, नेत्र में माँ शारदा, अनादि शक्ति, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था, ब्रह्माण्ड की बीजावस्था, तथागतगर्भ, त्रिनेत्र तंत्र, माँ शारदा के स्थान चतुष्टय, माँ शारदा ही ब्रह्म, अमानव पुरुष, शारदाम्बा, जगद्गुरु सिद्धि, देवी ही ब्रह्म, ब्रह्म ही देवी

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यहाँ पर नेत्र में ब्रह्म, जगद्गुरु शारदा, नेत्र में माँ शारदा, अनादि शक्ति, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था, ब्रह्माण्ड की बीजावस्था, तथागतगर्भ, त्रिनेत्र तंत्र,  माँ शारदा के स्थान चतुष्टय, माँ शारदा ही ब्रह्म, अमानव पुरुष, शारदाम्बा, जगद्गुरु सिद्धि, देवी ही ब्रह्म, ब्रह्म ही देवी आदि बिंदुओं पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला था I

ये ज्ञान मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती गौतम बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का एक अभिन्न अंग भी है।

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला थाI

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बावनवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

ये अध्याय, इस जगद्गुरु शारदा मार्ग का छठा अध्याय भी है ।

 

जगद्गुरु शारदा, नेत्र में ब्रह्म, अनादि शक्ति, तथागतगर्भ
जगद्गुरु शारदा, नेत्र में ब्रह्म, अनादि शक्ति, तथागतगर्भ

 

 

नेत्र में माँ शारदा के चित्र का वर्णन, … माँ शारदा का नेत्र में स्थान, नेत्र में माँ शारदा का स्थान, … नेत्र में ब्रह्म हैं, माँ शारदा ही ब्रह्म, ब्रह्मरूपिणी माँ शारदाम्बा, … जगद्गुरु शारदा कौन, जगद्गुरु शारदा का स्थान, नेत्र में माँ शारदा ही समस्त जीव जगत की गुरुमाई हैं, जगद्गुरु शारदा का स्थान, जगद्गुरु शारदा कौन, अनादि शक्ति कौन, माँ शारदा ही अनादि शक्ति हैं, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था क्या है, जगद्गुरु माँ शारदा, माँ शारदा ही ब्रह्माण्ड की मूलावस्था हैं, तथागतगर्भ क्या है, तथागतगर्भ किसे कहते हैं, तथागतगर्भ कहाँ है, शारदा ही त्रिनेत्र तंत्र की देवी हैंमाँ शारदा ही ब्रह्माण्ड बीज हैं, माँ शारदा ही ब्रह्माण्ड का मूल बीज हैं, माँ शारदा ही ब्रह्माण्ड की मूलावस्था हैं,

अब इस चित्र का वर्णन करता हूँ…

  • यह चित्र एक चमकदार, लेकिन हलके गुलाबी वर्ण का है I
  • यह चित्र भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर की ओर साक्षात्कार होता है I क्यूंकि इस चित्र के साक्षात्कार का स्थान आज्ञा चक्र से थोड़ा सा ऊपर की ओर बसे हुए माथे के चक्र के समीप है, इसलिए इस चित्र की दशा साधक की काया के भीतर ही साक्षात्कार होती है I
  • इस चित्र में माँ शारदा ही ब्रह्म हैं I
  • इस चित्र में माँ शारदा ही ब्रह्माण्ड की मूलावस्था हैं, मूल शक्ति हैं, ब्रह्माण्ड बीज हैं, ब्रह्माण्ड की मूल बीजावस्था हैं और वह बीज भी अनादि शक्ति स्वरूप में ही है I
  • यह दशा एक विशाल तंत्र का अंग है, जिसको त्रिनेत्र तंत्र कहा जाता था, परन्तु अब इस तंत्र का ज्ञान लुप्त हो चुका है I पूर्व के अध्याय में बताया गया आज्ञारंध्र इसी त्रिनेत्र तंत्र का अभिन्न अंग है I और वही आज्ञारंध्र इस तंत्र का गंतव्य भी है, जो निर्गुणयान पर गमन की पात्रता, उस निर्गुणयान की प्रारंभिक दशा और उस निर्गुणयान पर गमन करने की सिद्धि को भी दर्शाता है I
  • इस चित्र का नाता उस दशा से भी है जो तथागतगर्भ भी कहलाई थी I

तथागतगर्भ का अर्थ होता है, बुद्धत्व का गर्भ, बुद्धता का गर्भ, और जहाँ बुद्धता या बुद्धत्व उस दशा को दर्शाता है, जिसमें बसा हुआ साधक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को ऐसे देखता है, जैसे वह उन दिव्यताओं के समक्ष ही हो, उन दिव्यताओं का स्वरूपय ही हो, उन ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं से पूर्णतः सन्मुख होकर उनको जाना हुआ हो I

और तथागत शब्द का अर्थ होता है, वह हो ऐसे ही आया हो और वह जो ऐसे ही गया हो, इसलिए इस शब्द का यह भी अर्थ होता है, वह जो आवागमन (अर्थात जीवन मृत्यु से और उसके चक्र से) परे चला गया हो I और इस शब्द का यह भी अर्थ होता है, कि वह को जीवन मृत्यु चक्र से परे होता हुआ भी, ऐसे ही आया हो, और ऐसे ही गया हो I

और इस शब्द के यह भी अर्थ है, वह जो सर्वस्व से सन्मुख होकर ही सर्वस्व और उसके समस्त भागों को जाना हो I और इस शब्द का यह भी अर्थ है कि, वह जो ज्ञाता होकर तथ्य सहित उसको बताता हो, इत्यादि I

  • इस दशा में माँ शारदा, ब्रह्म रचना की अनादि शक्ति भी हैं I
  • यह नेत्र में ब्रह्म का जो माँ शारदा का चित्र है, उसकी दशा से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई थी, इसलिए यह दशा ब्रह्माण्ड बीज है I
  • इसी ब्रह्माण्ड बीज की दिव्यता को ही शारदा सरस्वती का जगद्गुरु स्वरूप कहा गया है, अर्थात इसी दशा में माँ शारदा समस्त जीव जगत की ही गुरुमाई कहलाई हैं I
  • यह चित्र साधक के शरीर के भीतर, माँ शारदा के अंतिम साक्षात्कार को दर्शाता है, जिसमें देवी शारदा अपने जगद्गुरु स्वरूप में होती हैं I
  • और इसी दशा में माँ शारदा को आम्नाय चतुष्टय सहित, कई और संप्रदायों में गुरुरूपिणी स्वरूप में अपनाया गया है I

शारदा सरदवाती विद्या ही वह जगद्गुरु हैं, जो आम्नाय चतुष्टय की प्रमुख दिव्यता हैं, और इनकी चतुराम्नाय नामक गुरुगद्दी पर विराजमान आचार्य चतुष्टय भी इनके अनुग्रह से ही जगद्गुरु कहलाए जाते हैं I

साधक के शरीर में इन जगद्गुरु माता, सरस्वती शारदा के चार स्थान होते हैं, जिनमें एक-एक चतुर्वेद से संबंधित एक-एक महावाक्य प्रकाशित हो रहा होता है और इन्हीं चार स्थानों के कारण, यह माँ शारदा आम्नाय चतुष्टय की गुरु हुई है, और ऐसा होने पर ही वह चतुराम्नाय से संबंधित मठों के पीठाधीश्वर भी जगद्गुरु ही कहलाए हैं I और इन चार पीठाधीश्वरों और उनके चार मठों की ऐसी दशा को ही “मठा चत्वारः आचार्य चत्वारः (अर्थात चार मठ और चार आचार्य)”, ऐसा बताया गया था I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और इस चित्र की जो दशा और साक्षात्कार मार्ग है, अब उसका वर्णन करता हूँ…

  • जैसे पूर्व में बताया था, कि इस चित्र की दशा का साक्षात्कार भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर की ओर होता है I
  • इस चित्र का साक्षात्कार भी तब ही होता है, जब साधक माँ शारदा के अन्य तीनों स्थानों का साक्षात्कार करके, उन जगद्गुरु माता के अनुग्रह से उन तीनो स्थानों से परे जाकर, इस चित्र की दशा का अपने नेत्र में ही साक्षात्कार करता है I
  • इस दशा में साधक की चेतना अपने भ्रूमध्य से थोड़ा ऊपर जो माँ शारदा का स्थान होता है, वहां चली जाती है I और उस स्थान पर पहुंचकर, वह साधक की चेतना, उस स्थान पर बसी हुई माँ शारदा के जगद्गुरु स्वरूप में ही लय होकर, उन जगद्गुरु माता का स्वरूप ही होकर, उस स्थान में बस जाती है I
  • यह दशा एक चमकदार लेकिन हलके गुलाबी टापू के सामान होती है, जिसके भीतर बहुत सूक्ष्म श्वेत वर्ण के प्रकाश की किरणें गति कर रही होती हैं I उन श्वेत वर्ण की किरणों की गति ज्या तरंग (अर्थात ज्यावक्रीय तरंग) के समान होती है और जहाँ यह ज्यावक्रीय तरंग की गति भी ऊपर-नीचे की दिशा में, उसी टापू जैसी दशा के भीतर ही होती है I और जहाँ उस टापू जैसी दशा ने भी एक विशालकाया निराकार शक्ति को धारण किया हुआ है I इस टापू जैसी दशा को ही इस चित्र के मध्य भाग में दिखाया गया है I
  • और यही टापू जैसी दशा, समस्त ब्रह्मरचना की अनादि शक्तिरूपिणी बीजावस्था है I
  • इस टापू को एक हलके गुलाबी वर्ण की बहुत गहरी खाई जैसी दशा ने घेरा हुआ होता है I
  • और उस खाई जैसी दशा को, जिसने इस चित्र में दिखाए गए टापू को घेरा हुआ होता है, एक और अतिविशालकाया हलके गुलाबी वर्ण की दशा ने घेरा हुआ होता है I यह अतिविशालकाया हलके गुलाबी वर्ण की दशा अव्यक्त प्रकृति की है, जो पितामह प्रजापति की माया शक्ति हैं और जिनको माँ महामाया भी कहा जाता है I
  • और क्यूंकि वह चौड़ी सी खाई जिसने उस टापू जैसी दशा को घेरा होता है, वह बहुत गहरी ही होती है, इसलिए जब साधक की चेतना उस टापू जैसी दशा पर विराजमान होती है, तब उसको समझ ही नहीं आता, कि इस खाईनुमा दशा को पार कैसे करना है I
  • और इसी विडम्बना में, वह चेतना उस विशालकाया सगुण निराकार हलके गुलाबी प्रकाश को, जिसने उस खाईनुमा दशा को घेरा हुआ होता है, और जो अव्यक्त प्राण (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) ही है, उसको आश्चर्यपूर्वक देखती रहती है I
  • और इसी विडम्बना में वह साधक की चेतना, उन जगद्गुरु माँ शारदा में लय होती है, जो उस टापू के मध्य भाग में विराजमान होती हैं I
  • उन जगद्गुरु माँ शारदा में लय हुई साधक की चेतना को ही ऊपर के चित्र में, एक गुलाबी वर्ण के शरीर स्वरूप में दिखाया गया है, जो उस टापू जैसी दशा के मध्य भाग में बैठा हुआ है I

 

माँ शारदा के स्थान चतुष्टय क्या हैं, माँ शारदा ही ब्रह्म क्या हैं, जगद्गुरु माँ शारदा के स्थान चतुष्टय क्या हैं, साधक की काया में माँ शारदा के चार स्थान कहाँ हैं, जगद्गुरु शारदा के चार स्थान कहाँ हैं, जगद्गुरु शारदा के चार स्थान क्या हैं, … माँ शारदा के स्थान पंचक, माँ शारदा साक्षात्कार के पांच स्थान, माँ शारदा का पांच स्थानों पर साक्षात्कार, …

जीव जगत के भीतर माँ शारदा का साक्षात्कार पांच स्थानों पर होता है I इन स्थान पंचक में से, चार स्थान साधक की काया के भीतर होते हैं, और पांचवां स्थान ब्रह्मलोक के समीप होता है I

 

तो अब मैं साधक की काया के भीतर, माँ शारदा के जो चार स्थान होते हैं, उनको बताता हूँ…

  • प्रथम स्थान… स्वाधिष्ठान चक्र में है… इस स्थान पर यह देवी पितामह ब्रह्म की शक्ति होती है, और बिंदु स्वरूप में होती है I इस स्थान पर यह देवी अपने योगमूल नामक स्वरूप को दर्शाती है I इसी चक्र में बसी हुई देवी शारदा का अनुग्रह से साधक योगमार्ग पर अपनी उत्कर्ष गति प्रारम्भ करता है I और उस उत्कर्ष गति में साधक की चेतना, मूलाधार चक्र से ऊपर की ओर उठने लगती है (और ऊपर की ओर उठती हुई वह चेतना, उन्ही माँ शारदा के चतुर्थ स्थान पर पहुँच जाती है, जिसका वर्णन इस अध्याय और उसके चित्र में किया गया है) I

और उस उत्कर्ष पथ पर योगगति प्रारम्भ करने से पूर्व, वह साधक स्वाधिष्ठान चक्र में बिंदुरूप में बसी हुई माँ शारदा के अनुग्रह से ही, अपनी उस ब्रह्म ग्रंथि को भेदता है, जो स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों के मध्य में होती है I इस ब्रह्म ग्रंथि को भेदने का मार्ग भी साधक के स्वाधिष्ठान चक्र में बसी हुई माँ शारदा के अनुग्रह से  प्राप्त होता है I

इसलिए स्वाधिष्ठान चक्र में बसी हुई बिन्दुरूपिणी माँ शारदा, साधक की उत्कर्ष गति के प्रारम्भ को दर्शाती हैं I

जब साधक उस ब्रह्म ग्रंथि को भेदता है, तब ही उस साधक की चेतना मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र, दोनों से ऊपर की ओर जाने की पात्र बनती है I और यह पात्रता भी माँ शारदा के उस बिंदु स्वरूप के अनुग्रह से ही प्राप्त होती है, जो स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य भाग में होता है I

  • द्वितीय स्थान… व्यान प्राण में है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण निराकार प्राणमय और व्यापक स्वरूप में होती हैं, और अपने सिद्ध मार्गी स्वरूप को दर्शाती हैं I यह व्यान प्राण शरीर से बाहर की ओर गति करता है, अर्थात शरीर के प्राणों को ब्रह्माण्डीय ऊर्जाओं (या प्राणों) से जोड़ता है I

जब साधक इस व्यान वायु को सिद्ध कर लेता है, तब उस साधक को अपनी काया में रहते हुए भी, अपनी साधनाओं में देवलोकों और सिद्धादि लोकों के दर्शन होने लगते हैं I इसलिए साधनाओं में जो साधकगणों को सिद्ध और देवादि दशाओं के साक्षात्कार होते हैं, उन साक्षात्कारों के मूल में इन्ही माँ शारदा का व्यान प्राण स्वरूप है I

  • तृतीय स्थान… हृदय क्षेत्र में है और यहाँ बसी हुई माँ शारदा, साक्षात ब्रह्म ही हैं… इस स्थान पर यह देवी सगुण साकार स्वरूप, अर्थात मानव स्वरूप में होती हैं I

इस स्थान पर यह देवी उस उत्कर्ष पथ को दर्शाती हैं, जो इस जीव जगत से अतीत जाता हुआ मुक्तिमार्ग कहलाता है, और जिसका सूक्ष्म सांकेतिक वर्णन ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में करा गया है, और जिसका वर्णन इसी श्रृंखला के एक पूर्व के अध्याय में किया गया था, जिसका नाम हृदय कैवल्य गुफा था और जिसमें यह शारदा विद्या, परा और अव्यक्त प्रकृति का योग भी दर्शाती हैं, जो अनादि अनंत, सनातन योग ही है I

इस स्थान पर बसी हुई माँ शारदा साधक की चेतना को उस विष्णु ग्रंथि से आगे लेकट जाती हैं, जो मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र के मध्य में बसी हुई है I और क्यूंकि यह विष्णु ग्रंथि, पिङ्गला नाड़ी के भीतर बसे हुए सूर्य चक्र और इड़ा नाड़ी के भीतर बसे हुए चंद्र चक्र के समीप ही होती है, इसलिए इस स्थान पर बैठी हुई माँ शारदा, साधक की चेतना को इन दोनों चक्रों को भेदने की भी प्रेरणा और उस भेदना के लिए अपना आशीर्वाद भी देती हैं I

और इसी आशीर्वाद से साधक की चेतना इस विष्णु ग्रंथि को भेदकर, हृदय कमल में चली जाती है I

और ऐसा होने के पश्चात ही वह चेतना, इसी हृदय क्षेत्र में माँ शारदा के सगुण साकार स्वरूप का साक्षात्कार करके, हृदय विसर्ग गुफा और उससे आगे जाने की पात्र भी बन जाती है I

  • चतुर्थ स्थान… नैन कमल, अर्थात आज्ञा चक्र से थोड़ा सा ऊपर है… इस स्थान पर यह देवी अपने सगुण साकार और सगुण निराकार, दोनों ही स्वरूपों में होती हैं, और ऐसी दशा में यह देवी अपने जगद्गुरु स्वरूप को दर्शाती है I

और इनकी ऐसी दशा के साक्षात्कार मार्ग भी उस रुद्र ग्रंथि से होकर जाता है, जो विशुद्ध चक्र और आज्ञा चक्र केमध्य में होती है I

इन्ही देवी के इस जगद्गुरु स्वरूप के अनुग्रह से ही वह चेतना इस रूद्र ग्रंथी को भेदती है, और उस रूद्र ग्रंथि से आगे गति करने की पात्र बनती है I

इसलिए रुद्र ग्रंथि की भेदन प्रक्रिया में माँ शारदा के इस चतुर्थ, अर्थात जगद्गुरू स्वरूप का अनुग्रह होता ही है I

और माँ शारदा के इस जगद्गुरु स्वरूप के अनुग्रह से इस रूद्र ग्रंथी को भेदकर ही वह चेतना, अब तक बताए गए चक्रों से आगे के आज्ञा चक्र पर पहुँच पाती है I

जब यहां बताई गई ग्रंथियों और चक्रों को वह चेतना पार करने वाली होती है और जब वह चेतना पार कर रही होती है, तो इन सभी चक्रों और ग्रंथियों में ऊर्जा का विस्फोट होते हैं I और इन्ही विस्फोटों से वह चक्र और ग्रंथियाँ भेदी जाती हैं I

साधक के उत्कर्ष पथ में, जो ऊर्जाओं के विस्फोट मूलाधार चक्र से सहस्र दल कमल तक होते हैं, वह इन चक्रों और ग्रंथियों को भेदने की प्रक्रिया में सहायक होते है I  और यह ऊर्जाओं के विस्फोट भी माँ शारदा का आशीवाद ही है I

इस चतुर्थ स्थान पर माँ शारदा अपने जगद्गुरु नामक स्वरूप में ही होती हैं I इसका अर्थ है कि इस चतुर्थ स्थान पर माँ शारदा समस्त पिण्डों और ब्रह्माण्डों (अर्थात महाब्रह्माण्ड में जो भी पिण्ड और ब्रह्माण्ड हैं) के गुरु स्वरूप में होती हैं, अर्थात अपने इस स्वरूप में यह देवी ही सार्वभौम सर्वव्यापक जगद्गुरु होती हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

तो यह था जगद्गुरु माँ शारदा का साधक के पिण्ड रूपी शरीर में स्थान चतुष्टय I और शारदा विद्या के पांचवें स्थान का वर्णन एक बाद के अध्याय में तब किया जाएगा, जब इस ग्रंथ की गति ब्रह्मलोक के समीप ही पहुंच जाएगी I

इस पांचवें स्थान को ही अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, माया शक्ति, महामाया आदि नामों के पुकारा जाता है I और यह स्थान ऊर्जात्मक होता हुआ भी, सगुण निराकार स्वरूप में होता है I और यह भी तब ही साक्षात्कार होता है, जब साधक की चेतना ब्रह्मलोक में पहुँचने ही वाली होती है I

 

जगद्गुरु माता और साधक का नाता, जगद्गुरु शारदा का अपने स्थान पर पहुंचे हुए साधक से नाता, …

किसी भी साधक का कार्य केवल माँ शारदा के चतुर्थ स्वरूप, अर्थात जगद्गुरु स्वरूप पर पहुँचने तक ही सीमित होता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि इससे आगे किसी भी साधक का किसी भी साधना मार्ग में, कोई कार्य नहीं होता I

इस चतुर्थ स्थान से आगे इन्ही जगद्गुरु माँ शारदा का माया जगत प्रारम्भ होता है I

और जब साधक इन शारदा विद्या के उस जगद्गुरु स्वरूप तक पहुँच जाता है,  जो साधक के नैन कमल (अर्थात आज्ञा चक्र) से थोड़ा सा ऊपर होता है, तब उस साधक का उसके योग साधना आदि मार्गों में कार्य भी समाप्त हो जाता है I

यह इसलिए कहा गया है क्यूंकि इसके पश्चात यही माँ शारदा उस योगी का हस्त पकड़कर, उस योगी की गुरु ही होकर, उस योगी को अपना सम्पूर्ण माया जगत पार करवाती हैं, जो उन जगद्गुरु माता के आज्ञा चक्र के समीप स्थान से ऊपर (या आगे) की ओर, अर्थात सहस्रार चक्र की ओर होता है  I

और अंततः यह जगद्गुरु देवी उस योगी को, उनके अपने लोक में ही स्थापित करती हैं, जो ब्रह्मलोक के साथ जुड़ा हुआ होता है, और अव्यक्त प्रकृति कहलाता है I और इन्ही देवी के इसी अव्यक्त लोक से जाकर, वह योगी अंततः ब्रह्मलोक में ही चला जाता है I

इसलिए, इस चतुर्थ स्थान पर विराजमान माँ शारदा ही वह जगद्गुरु हैं, जिनके पास यदि कोई योगी पहुँच गया, तो उस योगी का इस समस्त भवसागर से तारण होना भी निश्चित ही हो जाता है I

और यह भी वह कारण है, कि किसी भी योगादि उत्कर्ष मार्गों में, माँ शारदा के इस चतुर्थ स्थान पर पहुँचने के पश्चात, योगी का कोई और कार्य ही शेष नहीं रहता है I इसलिए योगी के आंतरिक योगमार्ग में किए गए कर्मों के दृष्टिकोण से, उन जगद्गुरु शारदा का यह चतुर्थ स्थान, कर्म गंतव्य ही है I इससे आगे वह योगी कर्म ही नहीं करता, उसको कोई कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं होती क्यूंकि उसका हाथ पकड़कर, शारदा विद्या सरस्वती उसको अपने माया जगत से ही पार ले जाती हैं I

और जिस योगी के साथ ऐसा हुआ होगा, वह गंतव्य स्थित अनुग्रह सिद्ध ही कहलाएगा, क्यूंकि वह उस गंतव्य पर अपने कर्मों से नहीं, बल्कि जगद्गुरु माता, शारदा विद्या सरस्वती के अनुग्रह से ही गया होगा I

 

अनादि शक्ति और अमानव पुरुष, अमानव पुरुष कैसा होता है, अमानव पुरुष किसे कहते हैं, अमानव पुरुष का वर्णन, अमानव पुरुष कौन होता है, अमानव पुरुष की दशाएं, किन् दशाओं में अमानव पुरुष निवास करता है, ब्रह्माण्ड में अमानव पुरुष के लोक, अमानव पुरुष का वर्णन, अमानव पुरुष कौन है, अमानव पुरुष कैसा दिखता है, … अमानव पुरुष और शारदाम्बा का नाता, जगद्गुरु सिद्धि क्या है, आम्नाय पीठ और जगद्गुरु सिद्धि, आम्नाय चतुष्टय और जगद्गुरु सिद्धि, मठा चत्वार: और जगद्गुरु सिद्धि, मठा चत्वार: आचार्य चत्वार, … ब्रह्माण्ड की बीजावस्था और जगद्गुरु माँ शारदा, ब्रह्माण्ड बीज और जगद्गुरु माँ शारदा, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था और जगद्गुरु माँ शारदा, … तथागतगर्भ और जगद्गुरु माँ शारदा, …

ब्रह्माण्ड में प्रधानतः छह दशाएँ ही हैं, जिनमें अमानव पुरुष होता है, इसलिए अब उन छह दशाओं को बताता हूँ…

  • अहम् नाद (सदाशिव के अघोर मुख)… इस दशा को एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I इसमें अमानव पुरुष निवास करता है I
  • आला नाद (तत्पुरुष ब्रह्म)… आला नाद के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I इसी दशा को रुद्र का सगुण निराकार स्वरूप भी कहा गया था और यही तत्पुरुष ब्रह्म भी है I इस दशा में अमानव पुरुष निवास करता है I
  • विद्युत् लोक… यह विद्युत् लोक तब साक्षात्कार होता है, जब साधक की चेतना देवयान (अर्थात महायान) मार्ग पर जाती है I इस महायान के बारे में भी एक पूर्व के अध्याय जिसका नाम रंध्र विज्ञान था, उसमें बताया जा चुका है I इस दशा में अमानव पुरुष निवास करता है I
  • सदाशिव के वामदेव मुख… यह लोक धूम्र वर्ण का विशालकाया स्वरूप में, ब्रह्माण्डीय यज्ञकुण्ड सा होता है I इस को एक आगे के अध्याय जिसका नाम सदाशिव के वामदेव मुख है, उसमें बताया जाएगा I इस लोक का नाता वैकुण्ठ नामक शब्द से भी होता ही है I यहाँ पर भी अमानव पुरुष का स्थान आता है I
  • अनादि शक्ति… अर्थात इस अध्याय में बताई जा रही दशा I जब साधक की चेतना इस दशा में ही स्थित हो जाती है, तब ही वह चेतना इस दशा के अमानव पुरुष को जान पाती है I
  • अव्यक्त प्रकृति… अव्यक्त प्रकृति को कई सारे नामों से पुकारा जाता है, जैसे ब्रह्मा की माया शक्ति, माँ महामाया, तुसित लोक, अव्यक्त प्राण, प्रकृति, इत्यादि I यह अव्यक्त ही माँ शारदा सरस्वती की सगुण निराकारी मूलऊर्जा है, जिससे यह समस्त ब्रह्म रचना हुई है I यही दशा माँ शारदा की वह पांचवी दशा है, जिसका वर्णन इस अध्याय में नहीं, बल्कि एक बाद के अध्याय में किया जाएगा I

प्रधानतः इन्ही छह दशाओं में अमानव पुरुष पाया जाता है I

और साधक के आत्ममार्ग में, इन छह में से यह अनादि शक्ति ही एकमात्र दशा है जो साधक की काया के भीतर, भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर की ओर विराजमान होती हैं, और यहीं पर वह अनादि शक्ति स्वरूप जगद्गुरु शारदाम्बा, अपने पूर्ण स्वरूप, अर्थात अव्यक्त शक्ति के स्वरूप में निवास करती हैं I

और वह भ्रूमध्य के थोड़ा सा ऊपर निवास करती हुई अनादि शक्ति, जो जगद्गुरु शारदा ही हैं, अपने ही अमानव स्वरूप में साधक की उस चेतना को, जो उनके भ्रूमध्य से थोड़ा सा ऊपर के लोक में पहुंच कर, निवास कर चुकी होती है, उसका हाथ पकड़कर उसे अपने संपूर्ण माया जगत से पार लेकर जाती हैं I परन्तु यहाँ कहा गया “हाथ पकड़कर” का शब्द, मैंने सांकेतिक ही कहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब अमानव पुरुष का वर्णन करता हूँ…

ऊपर बताई गई छह दशाओं में, यह अमानव पुरुष एक ऊर्जावान हाथ के सामान अकस्मात् ही प्रकट होता है I जब साधक की चेतना उस अमानव पुरुष की दशा में निवास कर चुकी होती है, तब यह हाथ के सामान अमानव पुरुष, उस चेतना को उठाकर उस दशा से आगे की ओर लेकर जाता है, अर्थात वह अमानव पुरुष जो एक सूक्ष्म ऊर्जावान और बहुत बड़े हाथ का सामान होता है, वह साधक की चेतना को उस दशा से पार लेकर जाता है I लेकिन यह तब ही पार लेकर जाएगा, जब वह साधक पार जाने का वास्तविक पात्र हो जाएगा… इससे पूर्व नहीं I

मैंने यहाँ पर अमानव पुरुष को एक बहुत बड़े आकार के हाथ जैसा कहा है, क्यूंकि मेरे साक्षात्कारों में मुझे ऐसा ही अनुभव हुआ है I यह समस्त ग्रंथ मेरी अपनी साधनाओं के अनुभवों पर ही आधारित है, इसलिए यह बिन्दु भी अनुभव के अनुसार ही बताया गया है I

जैसे किसी दशा का वर्ण गुणादि होता है, वैसा ही वर्ण और गुणादि उस बड़े से हाथ के रूप के अमानव पुरुष का भी होता है I

और क्यूंकि यहाँ बताई गई छह पृथक दशाओं के छह पृथक वर्ण गुणादि होते हैं, इसलिए इन छह देशों के अमानव पुरुष भी पृथक से ही पाए जाते हैं I और यही कारण है, कि यहाँ पर केवल उन छह दशाओं को ही बताया गया है, जिनमें छह अमानव पुरुष होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और अमानव पुरुष के बारे में कुछ और बिंदु बताता हूँ…

अमानव पुरुष रूप और अरूप का योग हैं, अर्थात यह निराकार होते हुए भी, अपने कर्मों को करने हेतु आकारी स्वरूप धारण करते हैं, और जैसे ही वह कर्म समाप्त होता है, वैसे ही यह अपने निराकारी स्वरूप में पुनः आ जाते हैं I

 

इसलिए जहाँ तक इन अमानव पुरुषों की बात है, उनमें…

रूप ही अरूप होता है, और अरूप ही रूप I

मूल में अरूप होता है, और प्रकट स्वरूप में रूप I

मूल में सगुण निराकार होता है और प्रकाट्य में सगुण साकार I

सगुण निराकार होता हुआ भी, कर्म करने हेतु सगुण साकार स्वरूप लेता है I

अनादिशक्ति नामक निराकारी ऊर्जा होता हुआ भी, वह एक हस्त रूप में आता है I

आगे बढ़ता हूँ …

अब अमानव पुरुष कैसी दशाओं में होते हैं, उसको बताता हूँ…

ब्रह्म रचना में यह अमानव पुरुष केवल उन्हीं देशों में पाए जाएंगे, जिनमें गति करती हुई साधक की चेतना पर अविरल (स्वतःस्फूर्त), अदम्य (अवज्ञा का) और बहुत बड़ी ऊर्जा का प्रभाव आ सकता है I ब्रह्म रचना की अन्य किसी भी दशा में अमानव पुरुष नहीं पाए जाएंगे I यहाँ पर अमानव पुरुष की बताई गई छह दशाओं में से सबसे ऊर्जावान दशा अघोर ब्रह्म की ही है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब मैं इन अमानव पुरुष की दशाओं के एक प्रमुख बिंदु के बारे में बताता हूँ…

किसी भी अमानव पुरुष की दशा में, किसी एक समय पर बस एक ही योगी निवास कर सकता है I इसका अर्थ हुआ, कि किसी की एक समय में, जिस योगी पर अमानव पुरुष का प्रभाव आना होगा, वह ही अकेला उस प्रभाव में उस समयखण्ड में आ पाएगा I

अमानव पुरुष ही अपनी दशा से उस योगी को पार लगाता है I उस दशा में, जिसमें अमानव पुरुष का प्रभाव होता है, किसी भी एक समय पर, एक ही योगी निवास कर सकता है I और जबतक उस निवास कर रहे योगी को वह अमानव पुरुष, उसकी अपनी (अर्थात उस अमानव पुरुष की) दशा से ही आगे नहीं लेकर जाएगा, तबतक उस दशा में कोई और योगी निवास भी नहीं कर पाएगा I

और इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि वह दशा (या किसी दशा का वह भाग) जिसमें किसी अमानव पुरुष का प्रभाव होता है (या जिसमें कोई अमानव पुरुष निवास करता है), उसमें किसी एक समयखण्ड में, बस एक ही योगी निवास कर सकता है I और जबतक वह योगी उस दशा से आगे नहीं जाएगा (अर्थात उस दशा को पार नहीं कर जाएगा) तबतक समस्त ब्रह्माण्ड में कोई भी और जीवादी सत्ता, उस दशा में निवास नहीं कर सकती है I और ऐसी दशा में उस अमानव पुरुष की दशा से नीचे की जितनी भी दशाएं हैं, वह उस योगी के नियंत्रण में ही आ जाती है, जो उस अमानव पुरुष की दशा में निवास कर रहा होता है I

और क्यूँकि जीवों की काया के भीतर बसी हुई अमानव पुरुषों की दशाओं में से, सबसे ऊपर में यहां बताई जा रही अनादि शक्ति की दशा ही है, इसलिए जो योगी इस अनादि शक्ति की दशा में एक बार बैठ जाता है, वही समस्त जीवों के उत्कर्ष मार्गों का ही नियंत्रक हो जाता है I

और क्यूंकि इस दशा में तो शारदा सरस्वती अपने जगद्गुरु और अनादि शक्ति स्वरूप में, काल के सभी कालखण्डों में निवास करती है, इसलिए अपने ऐसे जगद्गुरु स्वरूप में माँ शारदा ही जीवों की तारक हो जाती हैं I

और क्यूँकि तारक ही गुरु होता है, और क्यूंकि माँ शारदा ही समस्त जीवों की ऐसी गुरु हैं, जो उन जीवों के भीतर ही अपने अनादि शक्ति स्वरूप में निवास कर रही हैं, इसलिए ऐसा होने के कारण ही जब माँ शारदा जीवों के भ्रूमध्य के क्षेत्र में निवास कर रही होती हैं, तो इस स्वरूप में वह शारदाम्बा ही जगद्गुरु कहलाई हैं I और जहाँ वह जगत भी जीवों के भीतर बसा हुआ सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड ही है, और इसके साथ साथ, वह ब्रह्माण्ड भी है, जिसके भीतर समस्त जीव सत्ताएँ बसी हुई हैं I

क्यूंकि यह भ्रूमध्य का क्षेत्र शरीर में बसी हुई माँ शारदा के चार क्ष्रत्रों में से सबसे ऊपर का है, इसलिए जब माँ शारदा इस भ्रूमध्य के क्षेत्र में बैठ जाती हैं, तब ही वह जगद्गुरु कहलाती हैं… अन्य किसी भी दशा में नहीं I

और इस भ्रूमध्य के क्षेत्र में जो अमानव पुरुष है, वही माँ शारदा की ऊर्जा शक्ति का हास्त रूप है I और माँ शारदा का यह हस्त स्वरूप, जो भ्रूमध्य में बैठी हुई साधक की चेतना को उस माया जगत से पार करवाता है, वही जगद्गुरु माँ शारदा का उस साधक पर अनुग्रह स्वरूप होता है I

इसलिए भ्रूमध्य में जो माँ शारदा के अनादि शक्ति स्वरूप का वर्णन यहाँ करा जा रहा है, और जिसका प्राकट्य अमानव पुरुष स्वरूप में होता है, वही जीव जगत से तारण करने वाला स्वरूप है I

जैसे इस अनादि शक्ति स्वरूप में माँ शारदा की तारक शक्ति उनका अमानव पुरुष स्वरूप ही है, वैसे ही अन्य पांचों दिशाओं के अमानव पुरुष भी होता हैं, जो अपने अपने देवत्व बिंदुओं के (अर्थात देवी देवताओं के) तारक शक्ति स्वरूप ही होते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब मैं उन दशाओं को बताता हूँ, जो अमानव पुरुष की होती हैं, लेकिन तब भी उनमें कई सारे साधक दिखाई देते हैं…

जब साधक की चेतना उस दशा में चली जाती है, जिसमें अमानव पुरुष निवास कर रहा होता है और इसके पश्चात जब वह चेतना, उस दशा के अमानव पुरुष द्वारा उस दशा से परे भेजी जाती है, तब उस चेतना का एक सूक्ष्म निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूप, उस दशा में अनादि कालों तक दिखाई देता रहता है I

यह निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूप उस साधक की चेतना के, उस अमानव पुरुष की दशा से परे जाने का प्रमाण स्वरूप होता है, और इसी स्वरूप के साक्षात्कार से आगामी सभी कालखण्डों में, जो भी साधक उस दशा में जाएगा (या उस दशा से परे जाएगा), वह उन पूर्व के सभी साधकगणों के सूक्ष्म निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूपों को देखेगा जिन्होंने उस दशा को पार किया होगा और ऐसा तब भी दिखेगा, जब उस दशा को किसी पूर्व कालों के साधक ने बहुत समय पहले ही पार किया होगा I

इसका यह भी अर्थ हुआ कि ब्रह्म रचना के उदय होने के पश्चात, यदि कोई साधक किसी भी अमानव पुरुष की दशा को, किसी भी कालखण्ड में पार किया होगा, तो उस साधक का एक सूक्ष्म निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूप, उस पार करी हुई दशा में तब तक दिखाई देता रहेगा, जब तक यह ब्रह्म रचना ही महाप्रलय को नहीं चली जाती है I

और जहाँ यह सूक्ष्म निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूप ही उस साधक के उस दशा से परे जाने का वह प्रमाण भी होगा, जिसको जो भी साधक, उस दशा में किसी भी आगामी समयखण्ड में जाएगा, वह देखेगा और जान जाएगा, कि अमुक साधक जो ऐसा दिखता था, उसने इस दशा को पार किया है I

इसलिए जबकि इन बताई गई सभी छह दशाओं में, किसी एक समय पर बस एक ही साधक (अर्थात साधक की चेतना) निवास कर सकता हैं, लेकिन तब भी उस साधक को बहुत सारे साधकगणों के सूक्ष्म निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूपों के साक्षात्कार भी होंगे, जिन्होंने पूर्व के किसी भी कालखण्ड में उस दशा को पार किया होगा I

और ऐसा होने पर भी, यहाँ बताई जा रही अनादि शक्ति की दशा में, जो मध्य का टापू होता है, उसपर बस एक ही साधक निवास कर रहा होगा, जिसके कारण अन्य सभी पूर्व के साधकगणों के निर्गम (अर्थात उद्गम या उद्भव) स्वरूप, अनादि शक्ति के उस टापू जैसी स्थिति के भीतर नहीं पाए जाएंगे I इसका अर्थ तो यह भी हुआ, कि यहाँ बताई जा रही अनादि शक्ति के मध्य के टापू रूपी दशा में, बस एक ही साधक की चेतना एक समय पर निवास करती हुई पाई जाएगी और वह साधक भी वही होगा, जो उस कालखण्ड में उस टापू रूपी दशा पर जगद्गुरु माँ शारदा के अनुग्रह से ही बैठ होगा, या यह कहूँ, जगद्गुरु माँ शारदा के अनुग्रह के प्रभाव में आकर ही उन जगद्गुरु द्वारा ही बैठाया गया होगा, और वह भी उन जगद्गुरु माँ शारदा के ही स्वरूप में I इसीलिए, ऊपर के चित्र में बस एक ही काया दिखाई गई है और जहाँ वह अकेली काया भी उन्ही  जगद्गुरु शारदा की है, जिनमें साधक की चेतना लय होकर, जगद्गुरु स्वरूप को ही प्राप्त हुई थी I

इसका यह भी अर्थ हुआ, कि इस दशा को प्राप्त हुआ साधक अपनी मानव स्थूल काया में होता हुआ भी, जगद्गुरु माँ शारदा का ही स्वरूप होगा I और इसलिए, जबतक वह अपनी मानव स्थूल काया में रहेगा, तबतक वह साधक ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में जगद्गुरु शारदा सरस्वती का सगुण साकार मानव स्वरूप ही कहलाएगा I यही जगद्गुरु सिद्धि कहलाती है I

यही सिद्धि चतुराम्नाय में बसाई गई थी और इसी सिद्धि का धारक योगी मठा चत्वार: का एकमात्र जगद्गुरु होने का पात्र होता है I अभी से कोई धाइ सहस्र वर्ष पूर्व के काल में, इसी सिद्धि के धारक जगद्गुरु आदि शंकराचार्य थे I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इस जगद्गुरु सिद्धि के धारक के बारे में बताता हूँ…

अपने मूल से इस सिद्धि का धारक केवल शैव होगा I

और अपने मूल से ऐसा होता हुआ भी, वह साधक जो इस सिद्धि को पाया होगा, शाक्त भी, वैष्णव भी, सौर्य भी और गणपत्य भी होगा ही I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस सिद्धि का धारक साधक मूल से शैव होता हुआ भी, समय समय पर अन्य चारों मार्गों का अनुयायी भी होता है I

ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि इस जगदुरु सिद्धि में समस्त उत्कर्ष पथ आते हैं, न की केवल वह मूल का शैव मार्ग I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और माँ शारदा के अनादि शक्ति रूपी ब्रह्माण्ड बीज, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था और तथागतगर्भ स्वरूप को बताता हूँ…

यह अनादि शक्ति जो जगद्गुरु माँ शारदा ही हैं, वही ब्रह्माण्ड का बीज हैं, ब्रह्माण्ड की मूलावस्था हैं, ब्रह्माण्ड की बीजावस्था हैं, और ऐसा भी इसलिए हैं, क्यूंकि इस बीजावस्था से समस्त ब्रह्म रचना का प्रादुर्भाव हुआ है I

और इसीलिए…

ब्रह्म रचना की मूलावस्था में माँ शारदा का अनादि शक्ति स्वरूप है I

ब्रह्म रचना की बीजावस्था ही जगद्गुरु शारदा सरस्वती हैं I

और जहाँ वह बीजावस्था ही ब्रह्मशक्ति कहलाई है I

ब्रह्माण्डोदय के मूल में अनादि शक्ति ही है I

और क्यूंकि वह अनादि शक्ति भी माँ शारदा का जगद्गुरु स्वरूप ही हैं, और क्यूँकि ब्रह्म रचना में जीवों का उत्कर्ष पथ, उनके और ब्रह्माण्ड के प्रकाट्य से विपरीत ही होता है, इसलिए…

जब उत्कर्षपथ अंतगति को जाएगा, तब वह साधक अनादि शक्ति में समाएगा I

अनादि शक्ति शारदा में समाने के पश्चात वह साधक जगद्गुरु ही हो जाएगा I

माँ शारदा ही उत्कर्ष पथ का वह बीज हैं, जिनके अनुग्रह से तारण होता है I

ब्रह्माण्ड के समस्त कालखण्ड में कोई उत्कर्ष पथ हुआ ही नहीं, जिसका नाता इस सिद्धांत से नहीं था… और आगे भी कभी नहीं होगा I

इसलिए यदि कोई पथ वास्तव में उत्कर्ष का ही पथ है, तो उसका नाता माँ शारदा के जगद्गुरु स्वरूप, अर्थात अनादि शक्ति स्वरूप या ब्रह्माण्ड बीज स्वरूप से तो होना ही है I

ऐसा इसलिए भी है, क्यूंकि माया जगत को पार यही जगद्गुरु ही करवाती हैं और जहाँ वह माया जगत भी इन्ही देवी शारदा का ही एक स्वरूप है I

और जबतक साधक की चेतना ने माया जगत ही पार नहीं किया, तबतक उसकी कैसी मुक्ति? I

इसलिए जब भी किसी भी साधक का उत्कर्ष पथ, उसके मुक्तिपथ स्वरूप में प्रकट होता है, तब ही वह साधक इस अध्याय में बताई गई दशा को प्राप्त होने का पात्र बन पाता है I

और जब साधक इस अध्याय में बताई गई दशा को प्राप्त होता है, तब ही वह साधक मुक्तिपथ में गमन करने का पात्र बन पाता है I

और इसके अतिरिक्त, जब वह साधक उस मुक्तिपथ में गमन करने का पात्र बनता है, तब ही उस साधक का हाथ पकड़कर, यह जगद्गुरु शारदा ही उसको माया जगत से परे लेकर जाती हैं I और जहाँ वह माया जगत भी in जगद्गुरु शारदा का ही एक स्वरूप हैं I

और जब साधक उस माया जगत को पार करने वाला होता है, तब ही वह साधक इन जगद्गुरु माँ शारदा के महामाया (अर्थात ब्रह्मा की माया शक्ति) रूपी अव्यक्त प्रकृति में जा पाता है I और ऐसा होने के पश्चात ही वह साधक ब्रह्मलोक में पहुँच पाता है I

इसलिए उस मुक्तिमार्ग में, ब्रह्मलोक तक साधक के साथ यही जगद्गुरु रहती हैं और यह जगद्गुरु माता उस साधक को ब्रह्मलोक में ही बैठा कर दम लेती हैं I

ऐसा होने के कारण मैं यही मानता हूँ कि यदि एक बार किसी भी साधक पर इन जगद्गुरु शारदा का अनुग्रह आ गया, तो वह साधक को यह जगद्गुरु माता तबतक नहीं छोड़ेंगे, जबतक वह साधक सारा माया जगत पार करके, ब्रह्मलोक में ही नहीं पहुँच जाएगा I

इसलिए माँ शारदा अपने अनादि शक्ति जगद्गुरु स्वरूप में एकमात्र माता हैं, जिन्होंने यदि किसी भी योगी को बस एक बार भी पकड़ लिया, तो वह उसको तबतक नहीं छोड़ती जबतक वह उस योगी की चेतना को ब्रह्मलोक में ही स्थापित नहीं कर देती I

और यही वह कारण था, कि वैदिक पीठों और गुरुगद्दियों में माँ शारदा ही गुरु हुई हैं I और माँ शारदा के इन वैदिक गुरुगद्दीयों से जुड़ने के कारण ही इन आम्नाय चतुष्टय (अर्थात चार वैदिक मठ) के प्रधानाचार्यों को जगद्गुरु शब्द से पुकारा जाता रहा है I और एक बात की जिस गुरुगद्दी पर माँ शारदा का पूर्ण अनुग्रह नहीं आया, उसके पीठाधीष्वर को यह अधिकार भी नहीं होता, कि वह अपने लिए जगद्गुरु शब्द का प्रयोग कर ले I

और आम्नाय चतुष्टय के यह आचार्य चतुष्टय भी इस जगद्गुरु शब्द की उपाधि को तब तक ही धारण कर सकते हैं, जबतक कोई और योगी इस अध्याय में बताए गए जगद्गुरु माँ शारदा के समस्त स्वरूपों का धारक नहीं हो जाता I

और जब ऐसे योगी का जन्म जो जाता है, तब इन आम्नाय चतुष्टय के जगद्गुरु आचार्यों की महिमा भी खण्ड-खण्ड होने लगती है I आगामी समय में ऐसा ही पाया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अमानव पुरुष अपने लोकों के देवता नहीं होते I

और जिन लोकों में यह अमानव पुरुष निवास करते हैं, उन लोकों के देवता भी अभिमानि या अनाभिमानी नहीं होते I

इसका अर्थ हुआ, कि जबकि यह अमानव पुरुष उनके लोक में विराजमान साधक की चेतना को आगे का मार्ग दिखाते हैं, लेकिन तब भी यह अमानव पुरुष उन लोकों के देवता नहीं होते I

और इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जिन लोकों में यह अमानव पुरुष निवास करते हैं, उन लोकों के यदि देवता भी हुए, तब भी वह देवता, अभिमानी या अनाभिमानी देवता नहीं होते I

और अधिकांश लोकों में जहाँ यह अमानव पुरुष निवास करते हैं, उनके देवता नहीं, बल्कि देवियाँ होती हैं I

और वह देवियाँ भी सार्वभौम दिव्यताएं ही होती हैं, अर्थात वह जीवों के भीतर भी निवास करती हुई पाई जाएंगी, और जगत में भी समान रूप में पाई जाएँगी I

और जहाँ वह देवियाँ भी मातृ शक्ति के गुरु स्वरूप में होती हैं I

और वह देवियाँ भी माँ सरस्वती की कोई न कोई अभिव्यक्ति ही होती हैं…

 

इस बात के उदहारण के लिए…

  • अहम् नाद (अर्थात सदाशिव का अघोर मुख) की देवी, माँ नील सरस्वती हैं I
  • आला नाद (अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म) की देवी, माँ रक्त सरस्वती (अर्थात लाल सरस्वती) हैं I
  • विद्युत् लोक (जिसका नाता वामदेव ब्रह्म से है) की देवी, माँ श्वेत सरस्वति हैं I
  • सदाशिव के वामदेव मुख की देवी, माँ धूम्र सरस्वती हैं I
  • अनादि शक्ति की देवी जगद्गुरु शारदा सरस्वति हैं I
  • अव्यक्त लोक (अर्थात अव्यक्त प्रकृति) की देवी, सर्वसम सगुण सकार चतुर्मुख पितामह ब्रह्मा की माया शक्ति नामक सरस्वति हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और उन अमानव पुरुष की छह दशाओं में उनके गुण वर्णादि बताता हूँ…

  • अहम् नाद के अमानव पुरुष का वर्ण नीला होता है I
  • आला नाद के अमानव पुरुष का वर्ण लाल-भगवा होता है I
  • विद्युत् लोक के अमानव पुरुष का वर्ण हीरे के समान होता है I
  • सदाशिव के वामदेव मुख के अमानव पुरुष का वर्ण, यज्ञकुण्ड से ऊपर उठते हुए धुएं के समान होता है I
  • अनादि शक्ति के अमानव पुरुष का वर्ण, ऐसा हल्का लेकिन चमकदार गुलाबी होता है, जिसमें श्वेत वर्ण का एक सूक्ष्म प्रकाश भी होता है I
  • अव्यक्त प्रकृति के अमानव पुरुष का वर्ण, बहुत ही हल्का गुलाबी और ऊर्जावान होता है… और ऐसा ऊर्जामय होता हुआ भी, शांत सा ही होता है I

 

अनादि शक्ति का साक्षात्कार मार्ग, जगद्गुरु माँ शारदा का साक्षात्कार मार्ग, …

शरीर में प्रधानतः सप्तचक्र होते है I इन सप्त चक्रों में से…

  • मूलाधार चक्र… सबसे नीचे के चक्र होता है, जो पितामह ब्रह्मा के रजोगुणी रचैता स्वरूप को दर्शाता है I
  • स्वाधिष्ठान चक्र… मूलाधार से 2 से 4 ऊँगली ऊपर होता है, जो इस जीव जगत की मूल शक्ति, अर्थात पितामह ब्रह्मा की शक्ति, माया देवी को दर्शाता है I इस चक्र से जुड़े हुए माँ शारदा के बिंदु स्वरूप के बारे में पूर्व में बताया गया था I और इसी चक्र से माँ शारदा का व्यान प्राण नामक स्वरूप भी जुड़ा हुआ होता है I
  • मणिपुर चक्र… यह नाभि क्षेत्र में होता है, जो पितामह ब्रह्मा के हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप को दर्शाता है I

स्थूल शरीर की नाभि से कोई 2-3 ऊँगली नीचे और मेरुदंड के समीप, एक शिवलिंगात्मक अमृत कलश होता है, जिसके बारे में एक आगे की अध्यय श्रंखला, जिसका नाम योग अश्वमेध मार्ग होगा, उसमें बताया जाएगा I

पञ्च विद्या में, मूलाधार से मणिपुर चक्र की देवी माँ भारती सरस्वती हैं I

  • अनाहत चक्र… मणिपुर से ऊपर, हृदय क्षेत्र में यह चक्र होता है, जो ब्रह्म के ही परब्रह्म स्वरूप को दर्शाता है I

अनाहत चक्र में माँ शारदा की दशा पारा और अव्यक्त प्रकृति का योग दर्शाती है और इसी अनाहत चक्र की दशा में माँ शारदा ही ब्रह्म कहलाती हैं I

पञ्च सरस्वती में, इस चक्र की देवी माँ शारदा सरस्वती ही हैं, और अपनी इस चक्र में ब्रह्ममय और ब्रह्मरूप दशा के कारण ही वह ब्रह्म और परब्रह्म भी कहलाई हैं I

  • विशुद्ध चक्र… कंठ के क्षेत्र में यह कमल होता है, जो ब्रह्म के संपूर्ण देवत्व को दर्शाता है I

पञ्च विद्या में, इस चक्र की देवी माँ गायत्री सरस्वती ही हैं I

  • आज्ञा चक्र… भ्रूमध्य के क्षेत्र में होता है, जो ब्रह्म के शिवात्मक और शक्तिमय स्वरूपों की योगदशा को दर्शाता है I इस आज्ञा चक्र के समीप (अर्थात इसके थोड़ा सा ऊपर) ही माँ शारदा का वह जगद्गुरु स्वरूप विराजमान होता है, जो इस अध्याय में बताया गया है I

पञ्च विद्या सरस्वती में, इस स्वयंजागृत चक्र की देवी माँ सावित्री सरस्वती ही हैं, और माँ उन सावित्री सरस्वती का स्थान इस चक्र से थोड़ा सा ऊपर और मस्तिष्क के थोडा सा पीछे जो ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष होता है, उसमें ही होता है I

  • सहस्रार चक्र… यह मस्तिष्क के ऊपर के भाग में होता है, जो साधक के शरीर में ही उन ब्रह्म के उस महाब्रह्म स्वरूप का द्योतक है, जो लिंग भेद से ही अतीत होता है, और उनका व्यापक स्वरूप ही होता है I

इस चक्र को पार करके ही माँ शारदा के माया शक्ति, अर्थात अव्यक्त प्रकृति (या अव्यक्त प्राण) स्वरूप का साक्षात्कार होता है, और जिसका मार्ग, सूर्य लोक से होकर ही जाता है I

पञ्च सरस्वती विद्या में, इस सहस्रार चक्र (अर्थात मस्तिष्क के ऊपर के सहस्र दल कमल) की देवी माँ ब्रह्माणि सरस्वती हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और माँ शारदा सरस्वती के जगद्गुरु स्वरूप के साक्षात्कार मार्ग को बताता हूँ…

साधक के नाभि के थोड़ा सा नीचे और पीछे की ओर, अर्थात मेरुदण्ड की ओर, एक लिंगरूप होता है, जो अमृत कलश कहलाया गया है I और यही कलश अमृत लिंग और नाभि लिंग कहलाया जाता है I इस कलश का नाता वामदेव ब्रह्म से भी है और हिरण्यगर्भ ब्रह्म से भी होता ही है, जिसके कारण यह अमृत कलश, इन दोनों (अर्थात हिरण्यगर्भ और वामदेव) के मध्य के ईशान ब्रह्म का भी द्योतक माना जाता है I इस कलश में श्वेत वर्ण का अमृत तत्त्व पड़ा हुआ होता है और योगमार्ग में अंततः यह कलश भी श्वेत वर्ण का ही पाया जाता है I

योग साधनाओं में, एक दशा ऐसी आती है, जब यह अमृत कलश जो नाभि क्षेत्र में पड़ा हुआ होता है, वह एक खुरदुरे श्वेत वर्ण का हो जाता है, और यह दशा ऐसी होती है जैसे किसी ने इस शिवलिंग रूपी अमृत कलश पर भर-भर के श्वेत वर्ण का चूना ही डाल दिया हो I

इस दशा के पश्चात, वह अमृत कलश ऊपर की ओर उठता है I

परन्तु इस उठने की प्रक्रिया के चलित होने से पूर्व, उस अमृत कलश की ऊर्जाएं ही माँ शारदा के भ्रूमध्य के स्थान पर, (अर्थात उन शारदा विद्या सरस्वती के अनादि शक्ति, जगद्गुरु स्वरूप के स्थान पर) पहुँच जाती हैं I

जब ऐसा होता है, तब ही साधक की चेतना माँ शारदा सरस्वती के जगद्गुरु भ्रूमध्य में बसे हुए स्थान का साक्षात्कार करके, उन्ही माँ शारदा के इस स्थान पर जाकर, उन माँ शारदा सरस्वती के जगद्गुरु स्वरूप में ही विलीन हो जाती है I

ऐसी विलीन हुई दशा को ही इस अध्याय का चित्र दर्शा रहा है I

और यहाँ बताया हुआ मार्ग ही उन जगद्गुरु माता शारदा सरस्वती विद्या का साक्षात्कार मार्ग भी है I

इसी बताए गए योगमार्ग से वह साधक, माँ शारदा सरस्वती के भ्रूमध्य स्थान में लय होकर, माँ शारदा का स्वरूप पाकर, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, जगद्गुरु पद को प्राप्त भी कर सकता है I यही उन जगद्गुरु माता, शारदा विद्या से जाता हुआ सिद्ध मार्ग है I

और यदि वह साधक मुमुक्षु ही होगा, तो जब वह साधक भ्रूमध्य में जाकर, जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वति में लय हो जाएगा, तो यही जगद्गुरु माता उस साधक को अपने माया जगत से पार लेकर जाती हैं, और ब्रह्मलोक में ही स्थापित करके… उस साधक को मोक्ष नामक पद ही प्रदान कर देती हैं I

इसलिए उनके ऐसा जगद्गुरु स्वरूप में, माँ शारदा सरस्वती विद्या, सिद्धमार्ग और मुक्तिमार्ग, दोनों ही उत्कृष्ट मार्गों की अद्वैत गुरु हैं I

 

अब थोड़ा भटक रहा हूँ ताकि उन जगद्गुरु शारदा माता द्वारा प्रदान किए गए मुक्तिपद के मार्ग को संक्षेप में ही सही, लेकिन बता सकूँ…

और उन्ही योगमार्गी साधनाओं में, एक दशा ऐसी ही आ जाती है जब यह कलश अपने नाभि क्षेत्र के स्थान से ऊपर उठकर, सहस्रार चक्र को ही पार करके, निरालंबस्थान (अर्थात निरलम्ब चक्र) में ही चला जाता है I

जब ऐसा होता है, तब इस कलश की ऐसी गंतव्य पर स्थित दशा को ही वैदिक मंदिरों के ऊपर कलश रूप में दिखाया जाता है I

ऐसा इसलिए दिखाया जाता है, क्यूंकि देवता का वैदिक मंदिर (अर्थात प्रासाद या देवदुर्ग)) ही देवता का शरीर होता है, और उन देवता का अर्चाविग्रह (या लिंगरूप) ही उन देवता की आत्मस्वरूप (अर्थात जीवात्मा स्वरूप) होता है I

जब यह नाभि लिंग (अमृत कलश) निरालंबस्थान पर ही चला जाता है, तो यही नाभि का अमृत कलश उन देवता के जीव रूप में ही उस देवत्व को दर्शाता है, जो पञ्च कृत्य का धारक होता है, और जिनको सर्वेश्वर नारायण कहा जाता है I

इसका अर्थ हुआ, कि वैदिक मंदिर के ऊपर जो अमृत कलश है, वह पञ्च कृत्य को धारण करे हुए साधक का आत्मस्वरूप… श्रीमन नारायण का कलश रूप में ही द्योतक है I

जिस साधक की ऐसी सिद्धि होगी, उसका अमृत कलश ही सभी वैदिक मंदिरों में सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन प्रतिष्ठित हुआ पाया जाएगा I और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, उसी कालखण्ड से (जब ऐसा होगा), सभी वैदिक मंदिरों के ऊपर जो अमृत कलश बसाए गए होंगे, वह सब के सब उसी साधक के माने जाएंगे I और ऐसा भी तबतक ही माना जाएगा, जबतक कोई और साधक इसी सिद्धि को यहाँ बताई गई दिशा में पूर्णरूपेण ही नहीं पाएगा I और किसी आगे के समयखण्ड में, जब कोई और साधक इसी सिद्धि को पुनः और पूर्णरूपेण पाएगा, तब ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं भी वैदिक मंदिरों के ऊपर के समस्त अमृत कलश, उस साधक के ही मानेंगी I

और इसी गंतव्य दशा से यह अमृत कलश, उन शून्य ब्रह्म में प्रवेश करके, शून्य ब्रह्म ही हो जाता है I योग मार्गों में शून्य ब्रह्म को ही शून्य अनंत, अनंत शून्य, शून्याकाश, शून्यता की परिपूर्णता, परिपूर्णता की शून्यता, शून्य अनंत:, अनंत शून्य: आदि कहा गया है I

और उन्ही शून्य ब्रह्म को श्रीहरि, श्रीमन नारायण, सदाशिव और गुरु विष्वकर्मा भी कहा गया है I

वह शून्य ब्रह्म ही पञ्च कृत्य का धारक होता है I

पञ्च कृत्य के धारक को ही अतिमानव कहा जाता है, और ऐसा दशा ही इस भाग के साक्षात्कारी साधक भी होती है I और ऐसा इसलिए ही कहा गया है, क्यूंकि…

तुम वही हो जिसका तुमनें साक्षात्कार किया है I

तुम साक्षात्कार भी उसी का करोगे, जिसकी स्वरूप स्थिति का तुम पात्र हुए हो I

टिपण्णी: परन्तु यह वर्णन तो संक्षेप में ही था, इसलिए इसके बारे में एक आगे की अध्यय श्रंखला में, विस्तारपूर्वक बताया जाएगा I

आगे बढ़ता हूँ…

 

अनादि शक्ति सिद्धि और ब्रह्माण्डधर सिद्धि, अनादि शक्ति सिद्धि और पिण्डधर सिद्धि, अनादि शक्ति सिद्धि और जीवधर सिद्धि, अनादि शक्ति सिद्धि और जगतधर सिद्धि, … अनादि शक्ति सिद्ध योगी की दशा, … जगद्गुरु शारदा सरस्वती का गंतव्य अनुग्रह, जगद्गुरु शारदा सरस्वती का अनुग्रह, जगद्गुरु शारदा सरस्वती का अनुग्रह और अतिमानव, जगद्गुरु शारदा सरस्वती का अनुग्रह और पञ्च कृत्य सिद्धि, …

जब किसी योगी को जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती अपना पूर्ण अनुग्रह प्रदान करती हैं, तो वह योगी मुक्तात्मा ही हो जाता है I

किन्तु इतिहास में ऐसा भी हुआ है, कि इस मुक्तात्मा पद से पूर्व, और जबतक वह योगी अपने उस जन्म का प्रारब्ध ही पूर्ण नहीं करता और प्रारब्ध पूर्ण करके वह निरकाया नहीं हो जाता, माँ शारदा उसको वह सिद्धियाँ ही दे देती हैं, जो समस्त जीव जगत के उद्धार का की कारण बन जाती हैं I

और यह सिद्धियाँ उस योगी को अकस्मात् ही इस जीव जगत का धारक ही बना देती है I और जहाँ वह जीव जगत भी अपने मूल सूक्ष्म संस्कारिक स्वरूप में, उस योगी की काया के भीतर ही स्वयंप्रकट हो जाता है I

ऐसा योगी उन सिद्धियों को ही पा जाता है, जिनको ब्रह्माण्डधर सिद्धि (या जगतधर सिद्धि), और पिण्डधर सिद्धि (या जीवधर सिद्धि) भी कहा जाता है I

ऐसा योगी जिस भी लोक में रहेगा, वह उस लोक में भूधर सा ही प्रतीत होगा और ऐसा होने पर भी वह योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, ब्रह्माण्डधर (या जगतधर) और पिण्डधर (या जीवधर) ही माना जाएगा I

और इन सिद्धियों को जगद्गुरु माँ शारदा के अनुग्रह से प्राप्त करने के पश्चात, इस चतुर्दश भवन के समस्त भूधर, उनके अपने-अपनी दिव्य स्वरूपों में, उस योगी के साथ ही खड़े हो जाएंगे I

ऐसा योगी शाक्त हो होता है, और जहाँ वह शक्ति जिसको वह धारण किया होता है, vयह शिवमय, विष्णुमय, ब्रह्ममय तीनों ही होती है I

और यदि उस योगी पर जगद्गुरु माँ शारदा का पूर्ण अनुग्रह ही आ गया, तो ऐसा योगी अपनी स्थूल काया में निवास करता हुआ भी, अदि पराशक्ति और परमशिव, अर्थात ब्रह्मशक्ति और ब्रह्म, दोनों का ही सगुण साकार मानव रूप ही जाएगा, और उसकी काया के भीतर ही ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति के सगुण निराकार स्वरूप का योग भी होगा, जो उन ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति के अपने ब्रह्माण्डीय दिव्य स्वरूप में पाया जाएगा I और ऐसा होने पर भी, वह योगी अपने गंतव्य स्वरूप में निर्गुण निराकार ही होगा I जिस योगी ने ऐसा स्वरूप पाया होगा, वह ब्रह्माण्डीय देवताओं के दृष्टिकोण में, उसके अपने शारीर रूप में होता हुआ भी, पूर्ण ब्रह्म का लिंगात्मक स्वरूप ही माना जाएगा I

ऐसा योगी पञ्च कृत्य को भी पूर्णरूपेण और समानरूपेण धारण कर सकता है, किंतु वह अपनी इन सिद्धियों का न तो प्रदर्शन करेगा, और न की दूसरों को बताकर उनका प्रयोग ही करेगा I जिस योगी ने पञ्च कृत्य नामक सिद्धि को प्राप्त कर लिया होगा, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्ट्विकों में वही अतिमानव कहलाया जाता है I

 

अनादि शक्ति और ब्रह्म राक्षस लोक, अनादि शक्ति और ब्रह्म राक्षस, …

साधक यहाँ बताए गए बिंदु पर विशेष ध्यान दें… नहीं तो उनके योगमार्ग में लेने के देने भी पड़ जाएंगे I

पूर्व में मैंने ब्रह्म राक्षस के बारे में बताया है, और उस अध्याय में यह भी बताया था, कि इस चतुर्दश भवन में केवल छह ब्रह्म राक्षस ही हैं I

चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में, उन ब्रह्म राक्षसों का लोक इस अनादि शक्ति से थोड़ा सा नीचे की ओर हैं I इसका अर्थ हुआ, कि यदि साधक ब्रह्माण्डीय अनादि शक्ति में जाएगा, तो वहां तक की गति में साधक को ब्रह्माण्ड में बसे ब्रह्मराक्षस के लोक से होकर ही जाना होगा I

और इसके विपरीत, जब साधक आंतरिक मार्ग पर जाकर, उसी अनादि शक्ति को अपनी काया के भीतर (अर्थात भ्रूमध्य के समीप के स्थान पर) साक्षात्कार करेगा, तो इस मार्ग में ब्रह्म राक्षस का वह लोक नहीं आएगा I

यही कारण है कि इस अनादि शक्ति की दशा को काया के भीतर, अर्थात आत्ममार्ग से ही सिद्ध किया जाना चाहिए I और ऐसे सिद्ध करके ही साधक की चेतना को इसी अनादि शक्ति की ब्रह्माण्डीय बीजावस्था में जाना चाहिए I

यदि ऐसा नहीं किया जाएगा, तो साधक की चेतना उस ब्रह्माण्डीय बीजावस्था के मार्ग पर जाते समय, ब्रह्म राक्षस के लोक में ही फँस सकती है I और यदि उन छह ब्रह्म राक्षसों ने अपनी विराट शक्तियों का आलम्बन लेकर, उस साधक की चेतना पर प्रहार कर दिया, तो उस साधक को लेने के देने ही पड़ जाएंगे I इसलिए भी यह अध्याय आंतरिक मार्ग का ही अंग है, ना की किसी और बाह्य मार्ग का I

यही कारण है, कि इस अध्याय में बताई गई अनादि शक्ति को काया से परे कभी भी सिद्ध नहीं किया जाना चाहिए I इसका मार्ग, आंतरिक योगमार्ग (अर्थात आत्ममार्ग) में ही बसा होना चाहिए I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस अनादि शक्ति के ब्रह्माण्ड बीज की ओर जाता हुआ मार्ग, उन छह ब्रह्म राक्षसों के लोक से होकर ही जाता है, जिसके बारे में संक्षेप में ही सही, लेकिन एक पूर्व के अध्याय में बताया गया है I

ब्रह्म राक्षस भी अधिकांशतः महाकाल और महाकाली के उपासक ही होते हैं I इस माकाली महाकाल योग के बारे में एक आगे के अध्याय बताया जाएगा, क्यूंकि इसका मार्ग उन पञ्च मुखी सदाशिव का है, जो गुरु विष्वकर्मा स्वरूप में अपने साधक के मार्गदर्शक होते हैं I और ऐसा होने के कारण, इन ब्रह्म राक्षसों की शक्ति और क्षमता इस चतुर्दश भुवन में अतुल्य ही होती है I जो योगी इन ब्रह्म राक्षसों के द्वारा अनुचित माने जाने वाले भाग में बसकर, इनके समक्ष चला गया, वह विप्लव में ही चला जाएगा I

इसलिए भी इस अध्याय का मार्ग आंतरिक ही कहा गया है I

अपने योगमार्ग से मैं इन ब्रह्म राक्षसों के लोक में कई बार गया हूँ, इसलिए ऐसा बोल रहा हूँ I

 

अनादि शक्ति का वर्णन, विभिन्न मार्गों में अनादि शक्ति का वर्णन, … देवी ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही देवी है, ब्रह्म ही देवी हुआ है, प्रकृति ही देवी हैं, देवी ही प्रकृति हैं, देवी ही प्राकृत ब्रह्माण्ड हैं, देवी ही प्राकृत ब्रह्माण्ड हुई हैं, ब्रह्माण्ड के मूल में देवी ही हैं, देवी ही ऊर्जा हैं, देवी ही शक्ति हैं, देवी ही ब्रह्मशक्ति हैं, ब्रह्मशक्ति ही देवी हैं, ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति हैं, ब्रह्म के मूल में ब्रह्मशक्ति, ब्रह्मशक्ति के मूल में ब्रह्म, ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड हुआ है, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्म है, अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति हुआ है, अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता है, अद्वैत मार्ग की द्विव्यता जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती ही हैं, उत्कर्षमार्ग और जगद्गुरु माँ शारदा, …

इस अनादि शक्ति का वर्णन कई प्रकार से किया गया है, तो अब उनमें से कुछ को बताता हूँ…

  • सिध्दों ने आज्ञा चक्र के समीप एक चक्र बताया है, जिसका वर्ण लाल और श्वेत के मिश्रण का होता है I इस अध्याय में दिखाया गया चित्र वही है I
  • शास्त्रों में ब्रह्माण्ड और पिण्ड के एकत्व की बात करी गई है I ऐसे साक्षात्कार भी इसी अध्याय के चित्र की दशा में, जो ब्रह्माण्ड बीज ही है, उसमें हो सकता है I
  • सिद्धों ने पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड, ऐसा कहा है I यह साक्षात्कार भी इसी अध्याय के चित्र की दशा में हो सकता है I
  • शास्त्रों में देवी को त्रिकालातीत कहा गया है I वह देवी भी जगद्गुरु स्वरूप में अनादि शक्ति की दिव्यता, देवी शारदा ही हैं I
  • जो त्रिकाल से ही अतीत है, और इसके साथ साथ, त्रिकाल में भी बसी हुई है, वही गुणातीत होती हुई भी गुणों की मूल, भूततीत होती हुई भी पञ्च महाभूत की मूल, तन्मात्रातीत होती हुई भी पञ्च तन्मात्र की मूल, सर्वस्व में व्यापक होती हुई ही सर्वस्य से अतीत, सर्वातीत ही है I वह देवी जो ऐसी ही है, वही इस अध्याय में बताई गई जगद्गुरु माँ, शारदा सरस्वति हैं I
  • सिद्धों ने मुक्तिमार्ग की बात की है, और कुछ और ने सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन किसी ब्रह्माण्ड बीज दशा के बारे में बताया गया है I वह मुक्तिमार्ग जो ब्रह्माण्ड की बीजावस्था से जाता है, इसी अध्याय के चित्र से होकर ही जाता है I
  • शास्त्रों में देवी को सार्वभौम अपराजिता ब्रह्मशक्ति कहा गया है I वह देवी जो ऐसा ही है, वह जगद्गुरु माँ शारदा विद्या ही हैं I
  • शास्त्रों में अव्यक्त को ही प्रकृति रूपी ब्रह्मशक्ति की सर्वोच्च दशा बताया गया है I वह प्रकृति रूपी ब्रह्मशक्ति, जो अव्यक्त कहलाती हैं, वह भी जगद्गुरु माँ शारदा विद्या सरस्वती ही हैं I
  • शास्त्रों में माया शक्ति, माँ महामाया आदि देवियों के जो नाम बताए गए हैं, उन सब नामों का किसी न किसी स्वरूप में नाता इन्ही से पाया जाएगा, अर्थात यह सब के सब नाम किसी न किसी स्वरूप में जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती विद्या को ही दर्शाते हैं I
  • आम्नाय आदि समस्त वेद और योग पीठों की जो मुख्य देवी हैं, वह भी जगद्गुरु माँ शारदा विद्या सरस्वती ही हैं I
  • इस सम्पूर्ण चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में कोई मुक्तिमार्ग हुआ ही नहीं, जिसका नाता देवी शारदा से नहीं हुआ है I
  • सिद्धों और वेद मनीषियों ने कहा है, कि देवी ही ब्रह्म हैं I वह देवी जिनके ब्रह्म कहा गया है, वह इस अध्याय की जगद्गुरु शारदा सरस्वती ही हैं I
  • योगीजनों और वेद मनिषियों के वाक्य जैसे देवी ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही देवी है, ब्रह्म ही देवी हुआ है, प्रकृति ही देवी हैं, देवी ही प्रकृति हैं, देवी ही प्राकृत ब्रह्माण्ड हैं, ब्रह्माण्ड के मूल में देवी ही हैं, देवी ही ऊर्जा हैं, देवी ही शक्ति हैं, देवी ही ब्रह्मशक्ति हैं, ब्रह्मशक्ति ही देवी हैं, ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति हैं, ब्रह्म के मूल में ब्रह्मशक्ति, ब्रह्मशक्ति के मूल में ब्रह्म, इत्यादि के मूल में जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती और उनकी दशाओं के साक्षात्कार ही हैं I
  • योगीजनों और वेद मनिषियों के वाक्य जैसे ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड हुआ है, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्म है, अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति हुआ है, अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता है, … इन सब के मूल में जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती और उनकी दशाओं के साक्षात्कार ही हैं I
  • समस्त अद्वैत मार्गों, मुक्तिपथ, उत्कर्ष मार्गों, सिद्धमार्गों और वेदमार्गों आदि की एकमात्र दिव्यता भी यही जगद्गुरु माँ शारदा सरस्वती ही हैं I कोई उत्कर्ष मार्ग हुआ ही नहीं, जिसका नाता इन जदद्गुरु देवी शारदा से नहीं रहा है I
  • योगीजनों और वेद मनीषियों ने जो सर्वमाता आदि उत्कृष्ट शब्द कहे हैं, वह सब के सब भी इन्ही जगद्गुरु शारदा को दर्शाते हैं I
  • योग चक्रावर्त तक के और इसके आगे के भी जो मार्ग हैं, उनकी गुरुमाई भी शारदा विद्या ही हैं I सिद्धि मार्गों का भी ऐसा कोई उत्कर्ष पथ हुआ ही नहीं, जिसका नाता इन देवी के जगद्गुरु स्वरूप से नहीं होगा I
  • और इस अध्याय में बताए गए अनादि शक्ति स्वरूप में, यही माँ शारदा जीव जगत की मूल दिव्यता भी हैं I
  • इन जगद्गुरु की सिद्धि का जो गंतव्य स्वरूप होता है, उसमें साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही एक हलके गुलाबी रंग का सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट हो जाता है I ऐसा साधक ही जगद्गुरु माँ शारदा का पूर्ण जगद्गुरु स्वरूप कहलाता है I लेकिन ऐसा योगी तो विरला ही होगा, क्यूंकि ब्रह्माण्डीय इतिहास में माँ शारदा अपना ऐसा पूर्ण स्वरूप तो बहुत कम जीवों को ही प्रदान करी हैं I
  • और ब्रह्माण्डीय इतिहास में, यदि योगीजनों को यह जगदगुरु अपना ऐसा पूर्ण स्वरूप प्रदान भी करी होगी, तो अधिकांशतः उनके मृत्युपरान्त ही प्रदान करी करी होगी I इसका अर्थ हुआ, कि जिस योगी ने अपने जीवित समय में ही माँ शारदा का पूर्ण स्वरूप पाया होगा, वह इस ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण इतिहास में अतिविरला ही होगा I
  • परन्तु कुछ साधकगणों को यह माँ शारदा, अपना अर्ध स्वरूप प्रदान करती हैं, और ऐसे साधकगणों की सुषुम्ना नाड़ी को इन जगद्गुरु माता का हल्का गुलाबी वर्ण का प्रकाश घेर लेता है, और जो इनकी अर्ध सिद्धि को दर्शाता है I

अब आगे बढ़ता हूँ…

 

अनादि शक्ति और उत्कर्ष अवरोध, उत्कर्ष अवरोध, उत्कर्ष पथ के अवरोध, … अनादि शक्ति और उससे आगे की दशा, अनादि शक्ति को पार करने की दशा, अनादि शक्ति को पार करने का मार्ग, अनादि शक्ति को पार करने में सहायक, … अनादि शक्ति से आगे की गति, अनादि शक्ति से आगे का मार्ग, …

इसको मैं कुछ ही बिन्दुओं में बतलाऊँगा…

जब साधक (अर्थात योगी की चेतना) इस अध्याय के चित्र की दशा में पहुँच जाता है, तो वह कुछ समय तक वहाँ पर अकेला ही निवास करता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस दशा में एक समय पर, एक साधक ही निवास कर सकता है I

यही कारण है, कि यदि साधक की चेतना अनादि कालों यहाँ पर ही रह गई, तो इस दशा में कोई और साधक इस दशा तक पहुँच ही नहीं पाएगा I

और क्यूँकि जगद्गुरु माँ शारदा का यह अनादि शक्ति स्वरूप ही ब्रह्मलोक तक जाने का मार्ग होता है, इसलिए यदि कोई साधक यहाँ पर पहुँच कर इसी अनादि शक्ति में ही रह गया, अर्थात इससे आगे नहीं गया, तो समस्त ब्रह्म रचना में कोई और साधक (या योगी) ब्रह्मलोक तक भी नहीं जा पाएगा I

और जब ऐसा हो जाएगा, तो इन अनादि शक्ति में अनादि कालों तक बैठा हुआ वह साधक ही समस्त जीवों के उत्कर्ष पथ का अवरोध बन जायेगा I और ऐसा भी इसलिए होगा क्यूंकि जीवों का वह उत्कर्ष पथ जो सतलोक (अर्थात ब्रह्मलोक) को जाता है, वह इस अनादि शक्ति की दशा से होकर ही जाता है I

इसलिए जो साधक यह सोचेगा कि वह इसी दशा में अनंत कालों तक रहेगा, वह कई सारे ब्रह्माण्डीय सिद्धांतों का विरोधी हो जाता है, जैसे सनातन उत्कर्ष सिद्धांत, समानता से गतिहीनता का सिद्धांत, सनातन परिवर्तन के स्थायी स्वरूप का सिद्धांत, ब्रह्माण्डीय दशाओं का पदानुक्रम सिद्धांत, इत्यादि I

इसलिए जब मेरी चेतना इस अध्याय के बिन्दुओं और चित्र के स्थान पर बैठी हुई थी, तब मुझे ऐसा ही आदशा हुआ था, जो अध्याय के इस भाग में बताया है I और ऐसा आदशा होने के पश्चात, में इस दशा से आगे जाने का मार्ग भी ढूंढने लगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जैसा पूर्व में बताया था, की जिस दशा में अमानव पुरुष निवास करता है, उस दशा से आगे जाने का मार्ग भी वह अमानव पुरुष ही प्रशस्त करता है I

क्यूंकि अनादि शक्ति की इस टापू जैसी दशा को एक बहुत बड़ी सी खाई ने घेरा हुआ है, इसलिए इस दशा को पार करना असम्भव ही है I यही कारण है कि यहाँ पर मेरी चेतना पहुँच तो गई, लेकिन यहाँ से आगे का मार्ग वह ढूंढ ही नहीं पा रही थी इसलिए वह कुछ समय तक वहीँ पर बैठी रही I

और जब इस अध्याय की दशा से आगे जाने की पात्रता आई, तब एक विशालकाय हाथ के समान आकृति आई आता है और उसने उस को उठाकर, इस दशा से आगे पहुंचा दिया I

और क्यूंकि उस खाई को अव्यक्त प्रकृति ने ही घेरा हुआ है, इसलिए जब इस दशा को पार किया जाएगा, तब साधक की चेतना, उस अव्यक्त प्रकृति में ही चली जाएगी I यहाँ जो अव्यक्त प्रकृति कही गई है, वाही पितामह प्रजापति की माया शक्ति है और उन्हीं को माँ महामाया भी कहा जाता है, और वह महामाया भी माँ शारदा सरस्वती का ही सगुण निराकार, शक्तिमय, प्राणमय और ऊर्जामय स्वरूप है I

और क्यूंकि उस अव्यक्त से वह चेतना सीधे सीधे ब्रह्मलोक को ही जाती है, इसलिए ऐसा ही उस साधक के साथ भी होता है, अर्थात जब साधक की चेतना जो इस अनादि शक्ति में बैठी हुई थी, वह इसको पार करके अव्यक्त में चली जाती है, तब उस अव्यक्त से वह चेतना, सीधे-सीधे ब्रह्मलोक में ही पहुँच जाती है I

 

अनादि शक्ति के साक्षात्कार की पात्रता, जगद्गुरु शारदा साक्षात्कार की पात्रता, … जगद्गुरु शारदा का पारिवारिक महात्म्य, … जगद्गुरु शारदा का गुरु परंपरा में महात्म्य, … परंपराओं की गुरुदेवी माँ शारदा, पारिवारिक परंपरा और जगद्गुरु शारदा, गुरु शिष्य परंपरा और जगद्गुरु शारदा, …

जबतक साधक किसी दशा के साक्षात्कार का पात्र नहीं होता, तबतक उसको वह साक्षात्कार भी नहीं होता I इसलिए पात्रता ही साक्षात्कार का कारण होती है I

इस दशा की पात्रता भी तब सिद्ध होती है, जब साधक के चित्त में अंतिम संस्कार के सिवा, अन्य सभी संस्कार नष्ट हो जाते हैं I

और ऐसा होने पर जब उस साधक की चित्त में बस एक संस्कार ही रह जाता है, तब ही वह साधक इस अध्याय श्रंखला में गति करने का पात्र माना जाता है I जब ऐसा होता है, तब ही वह साधक शारदा सरस्वती के जगद्गुरु स्वरूप के साक्षात्कार का पात्र बनता है I

इसका अर्थ हुआ कि जब साधक की चित्त में केवल वह अंतिम संस्कार ही शेष रहेगा, तब साधक इस अध्याय की दशा के साक्षात्कार का पात्र बन जाएगा… इससे पूर्व नहीं I

इसलिए इस अध्याय का साक्षात्कार इस बात का प्रमाण भी है, कि उस साधक के चित्त में बस वह अंतिम संस्कार ही शेष रहा है I

और चाहे वह साधक उस अंतिम संस्कार को योगमार्ग से अथवा कष्टों से (जैसे कोई भयंकर रोग, व्याधि और पीड़ा जो मृत्यु तुल्य संकट लेके आए) जाते हुए मार्ग से ही क्यों न प्राप्त करे, लेकिन जबतक साधक की चित्त में वह अंतिम संस्कार ही एकमात्र शेष नहीं रहेगा, तबतक वह साधक इस अध्याय की दशा का न तो साक्षात्कार कर पाएगा, न ही इस दशा में बैठ पाएगा (अर्थात इस दशा को सिद्ध कर पाएगा) और न ही इस दशा से आगे जाने की पात्रता ही पाएगा I ऐसे साधक इस अध्याय में बताए गए माँ शारदा के जगद्गुरु स्वरूप का साक्षात्कार भी नहीं कर पाएगा I

जो साधक इस अध्याय के साक्षात्कार का पात्र बनकर, इस अध्याय का पूर्णरूपेण साक्षात्कार किया होगा, वह इस चतुर्दश भुवन स्वरूप ब्रह्माण्ड में एक अतिविरला योगी ही होगा I

 

अब विशेष ध्यान देना…

और जो साधक इस अध्याय का साक्षात्कार करके, इस अध्याय में बताई गई दशा से आगे भी चला गया होगा, उसके परिवार का उत्कर्ष मार्ग भी माँ शारदा अपने जगद्गुरु स्वरूप में ही प्रशस्त करती हैं I

ऐसे साधक का सम्पूर्ण परिवार, जैसे उसके माता पिता, उसके सगे भाई बहन, उस साधक के और उसके सगे भाई बहन के पुत्र पुत्री पर भी माँ शारदा के जगद्गुरू स्वरूपा का अनुग्रह आ ही जाएगा, इसलिए इस अध्याय के साक्षात्कारी साधक के परिवारजन भी इसी बिंदु का, उनके अपने जीवन में कभी न कभी प्रमाण देंगे I और अंततः उस साधक के उसी जनम के परिवारजन भी उसी ब्रह्मलोक में जाएंगे, जिसके मार्ग को माँ शारदा का यही जगद्गुरू स्वरूप प्रशस्त करता है I

ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि जगद्गुरु माँ शारदा, केवल किसी साधक की गुरु नहीं होती, वह उस परिवार की भी गुरु होती हैं, जो उस साधक का होता है, जिसने इस अध्याय की दशा को साक्षात्कार और सिद्ध करा होगा I और ऐसे साधक को इस बिन्दु का प्रमाण भी उसके सगे पारिवारिक जनों से ही मिलेगा I

और यहाँ जो परिवार का शब्द कहा गया है, वह केवल उस साधक के शरीरी माता पिता, उस साधक के सगे भाई बहन, और उस साधक के माता पिता से उत्पन्न हुए पुत्र पुत्री के आगे के पुत्र पुत्री तक ही सीमित है… अन्य किसी और परिवारिक दशा तक नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और ऐसा ही उस गुरुपरम्परा में भी पाया जाता है, जिसमें किसी साधक ने इस अध्याय को सिद्ध करा होता है, और उसके पश्चात उस साधक ने माँ शारदा को केन्द्र बनाकर, गुरु परंपरा स्थापित करी होती है I

और क्यूंकि बहुत सारे सिद्ध मार्गी और वेद मनिषियों ने भी ऐसा ही किया है, इसलिए उनकी परम्पराओं में भी इन्ही जगद्गुरु माँ शारदा का महात्म्य बसा हुआ है I

परन्तु ऐसी गुरु शिष्य परम्पराओं में यदि 2592 से 108 वर्ष कम तक, किसी और साधक ने इस अध्याय में बताई गई सिद्धि पूर्णरूपेण नहीं पाई होगी, तो इसी 108 वर्ष के समय अंतराल के भीतर (अर्थात उस परंपरा के स्थापित होने के 2592-108= 2484 वर्षों के पश्चात), वह परंपरा खंडित भी होने लग जाती है I

और ऐसी दशा में उस परंपरा की प्रथाओं को उस परंपरा का आचार्य और गुरुजन सहित, उस समय के मानव और उनके राजागण ही विकृत करने लगते हैं I

और यह भी तब ही होता है, जब उस पूर्व के सिद्ध द्वारा स्थापित परंपरा में उस समय के आचार्य और उनकी परंपरा के मनीषी व्यापारी हो जाते हैं I

जहां तक मशारदा सरस्वती से संबद्ध परम्पराओं की बात है, उनमें योगी बनिये नहीं हो सकते और बनिया कभी भी योगी नहीं हो सकता I इसलिए इन परम्पराओं के आचार्यगण, पीठें और मनीषी योग और वेद के व्यापारी नहीं हो सकते I

इसलिए माँ शारदा सरस्वती का अनुग्रह पाई हुई गुरु शिष्य और पारिवारिक परम्पराओं में, न तो योग का न ही वेद (अर्थात ज्ञान) का प्रत्यक्ष या परोक्ष, अथवा किसी और प्रकार का व्यापार ही हो सकता है I और यदि इस बिन्दु का पालन नहीं करा जाएगा, तो वह गुरु शिष्य और पारवारिक परम्पराएं ही विप्लव में चली जाएंगी और अंततः इसी बिंदु के कारण, लुप्त ही हो जाएंगी I

परन्तु ऐसी विकृतियां तब ही प्रकट होंगी, जब उस पूर्व की स्थापित गुरु शिष्य परंपरा में, उस परंपरा के पूर्व के स्थापक के बाद, किसी और ने इस अध्याय में बताए गए बिंदुओं को सिद्ध नहीं करा होगा… और जहाँ उस पूर्व के सिद्ध से 2484 सूर्य वर्ष से अधिक समय व्यतीत भी हो चुका होगा I

टिप्पणी: यहाँ बताया गया समयखण्ड, आज के समय परलागु होती हुई काल इकाई में है, न कि वैदिक काल इकाई में I यदि वैदिक काल इकाई को जानना है, तो यहां गए अंकों को 72 से भाग करके, 66.6666667 के गुणा करो I

 

इसलिए, अब जो बता रहा हूँ, उसपर विशेष ध्यान देना…

  • किसी भी गुरु शिष्य परंपरा पर माँ शारदा के जगद्गुरू स्वरूप का अनुग्रह, उस परंपरा के स्थापित होने के समय से, केवल उतने ही वर्षों तक रहता है, जितना इस भाग में बताया गया है I
  • और किसी भी पारिवारिक परंपरा पर माँ शारदा के उसी जगद्गुरु स्वरूप का अनुग्रह भी उतने ही अंश में रहता है, जितना इस भाग में बताया गया है I
  • यही कारण है, कि पारिवारिक परंपरा की तुलना में, गुरु शिष्य परंपरा में बैठी हुई माँ शारदा, अधिक जीवों का उत्कर्ष करती हैं I
  • और ऐसा इसलिए है, क्यूंकि पारिवारिक परंपरा में तो यह प्रभाव तो बस उस सिद्ध के माता पिता की योगदशा से चलने वाले परिवार तक ही सीमित होता है, और जहाँ यह प्रभाव भी उस सिद्ध के माता पिता से चले हुए उस परिवार के सगे नवासा और नवासी तक जो वंशावली आएगी, उसी सीमा तक ही सीमित होता है… इससे आगे की वंशावली में नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जब कोई साधक इस अध्याय की दशा से परे चला जाता है, तब वह साधक इस जीव जगत के समस्त बंधनों से अतीत हो जाता है I

और क्यूंकि इस अध्याय और इसकी सिद्धि का नाता माँ शारदा के जगद्गुरु स्वरूप से है, और क्यूंकि इस अध्याय की सिद्धि में जगद्गुरु शारदा उस सिद्ध साधक के माता पिता के सगे पुत्र-पुत्री और सगे पौत्री-पौत्री तक के परिवार या/और उस सिद्ध साधक के द्वारा स्थापित गुरु शिष्य परंपरा की भी गुरु ही होती हैं (लेकिन गुरु परंपरा में केवल 2592 – 108 = 2484 वर्षों तक), इसलिए इन दोनों परंम्पराओं में जो भी होगा, उसका उद्धार भी इन्ही जगद्गुरु माता से ही होगा I

और गुरु शिष्य परम्परा में इसका कोई अंतर नहीं पड़ता, कि वह परंपरा किस मार्ग की है, क्यूंकि यदि उस सिद्ध साधक के द्वारा वह परंपरा स्थापित हुई होगी, तो उस परंपरा में जो भी आएगा, उसका उद्धार तो होना ही है I

लेकिन यदि वह सिद्ध साधक ऐसी गुरु शिष्य परंपरा को स्थापित नहीं करेगा, तो उसकी यह सिद्धि का प्रभाव केवल उसके परिवार के उत्कर्ष तक ही सीमित रह जाएगा I और वो उत्कर्ष भी उस सिद्ध साधक के माता-पिता, उन माता-पिता से जन्म लिए उनके पुत्र-पुत्री और उन माता-पिता के पुत्र-पुत्री से उत्पन्न हुए उनके पौत्र पौत्री तक ही सीमित रहेगा… इससे अधिक वह प्रभाव नहीं होगा I

 

जगद्गुरु शारदा और सिद्ध लोकों के साक्षात्कार, जगद्गुरु शारदा और सिद्ध लोकों के दर्शन, …

जैसे पूर्व में बताया था, कि साधक की स्थूल काया में व्यान प्राण भी माँ शारदा के स्थान चतुष्टय में से एक स्थान है I

जब साधक की चेतना व्यान प्राण में चली जाती है, तब वह साधक अपनी स्थूल काया में होता हुआ भी, समस्त सिद्ध और देवादि लोकों का साक्षात्कार कर लेता है I

ऐसा साक्षात्कार इस अध्याय के सिद्ध साधक को होगा ही I

 

ब्रह्मरूपिणी शारदा सरस्वती, जगद्गुरु शारदा विद्या, जगद्गुरु शारदा विद्या सरस्वती, जगद्गुरु शारदा सरस्वती, जगद्गुरु शारदा सरस्वती विद्या, माँ शारदा सिद्धि और पितामह ब्रह्मा, नेत्र में ब्रह्म बसे हैं, शारदा सरस्वती ही नेत्र में ब्रह्मरूपिणी होकर बैठी हुई हैं, नेत्र में माँ शारदा, …

इस भाग को मैं सांकेतिक ही रखूंगा, इसलिए इसको बिन्दुओं में ही बतलाऊँगा…

जैसे सूर्य की दिव्यता ही सूर्य का प्रकाश होता है, और जैसे सूर्य के प्रकाश को सूर्य से पृथक नहीं किया जा सकता, वैसे ही ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति का नाता है I

ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति, अर्थात देव और देवी का अद्वैत योग ही ब्रह्मत्व पथ कहलाता है, जिसके गंतव्य में ब्रह्म उनके ही पूर्ण स्वरूप में साक्षात्कार होते हैं I

और जहाँ वह पूर्ण स्वरूप ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है, जो निर्गुण ब्रह्म और उनकी ब्रह्म शक्ति, जो उनकी दिव्यता स्वरूप अभिव्यक्ति ही हैं, उनकी अद्वैत योगावस्था को ही दर्शाता है I इसलिए पूर्ण ब्रह्म के साक्षात्कार में ब्रह्म ही ब्रह्मशक्ति होते हैं और ब्रह्मशक्ति ही ब्रह्म I

और वैसे ही जगद्गुरु माँ शारदा ही वह पूर्ण ब्रह्म हैं, जिसको इस अध्याय का सिद्ध साधक ही साक्षात्कार कर पाएगी I और जहां वह साक्षात्कार भी सीधा सीधा आंतरिक योग मार्ग से ही होगा, जिसमें ऐसे सिद्ध साक्षात्कारी का आत्मस्वरूपा भी पूर्ण ब्रह्म केलाएगा I

ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में ऐसा साक्षात्कारी साधक ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I और उस पूर्ण ब्रह्म का साथ देने हेतु, इस संपूर्ण चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड के समस्त देवगण, उनके देवत्व बिंदु (अर्थात उनके तत्त्व बिंदु), उनकी दिव्यताएं (अर्थात देवीगण) और उनकी मुद्राएँ, अपने अपने दुर्गों (अर्थात लोकों, मंदिरों और पीठों) को त्यागकर, खड़ी हो जाती हैं I

ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि इस चतुर्दश भुवन रूपी ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में कभी हुआ ही नहीं, कि कोई योगी उन पूर्ण ब्रह्म को उसके अपने ही आत्मस्वरूप में पाया हैऔर उसका साथ देने हेतु इस चतुर्दश भुवन के समस्त देवत्व बिंदु, देवी और देवता और मुद्राएँ… नहीं आई हैं I

और इस सिद्धि के मूल में उन्ही माँ शारदा सरस्वती का वही जगद्गुरु स्वरूप है, जिसको इस अध्याय में बताया जा रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

जैसे शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव, वैसे ही ब्रह्म और जगद्गुरु माँ शारदा का नाता है I

इसलिए इस अध्याय का सिद्ध, ब्रह्म भी होगा और ब्रह्मशक्ति भी होगा ही I और जहाँ वह ब्रह्मशक्ति ही माया शक्ति और अन्य सभी देवियों के स्वरूप सहित, जगद्गुरु माँ शारदा के स्वरूप में भी होंगी I

यही कारण है, कि इस अध्याय की सिद्धि उन पूर्ण ब्रह्म, अर्थात निर्गुण ब्रह्म और उनकी ब्रह्मशक्ति की अद्वैत और सनातन योगदशा को ही दर्शाती है… और ऐसी योगदशा ही इस अध्याय के साक्षात्कारी सिद्धि की काया के भीतर होगी I

और जहाँ यह योग भी उस सिद्ध की स्थूल काया के भीतर से चालित होकर, उस सिद्ध के बहुत सारे सिद्ध शरीरों से जाता हुआ, अंततः इस ब्रह्म रचना की उत्पत्ति-मूल की दशा (अर्थात शून्य ब्रह्म), उत्पत्ति के पश्चात प्रकट हुई प्राथमिक दशा (अर्थात सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड) और इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड की अन्य सभी प्रधान दशाओं में भी हो जाएगा I

इसका अर्थ यही हुआ कि यह अध्याय पूर्ण ब्रह्म नामक सिद्धि के मार्ग का ही प्रारम्भ है I इसका यह भी अर्थ हुआ, कि यह अध्याय उसी ब्रह्मत्व पथ का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसका वर्णन यह ग्रन्थ कर रहा है I

इसलिए यह अध्याय उस मार्ग का प्रारम्भ है, जो अंततः उन पूर्ण ब्रह्म और उनकी सार्वभौम ब्रह्मशक्ति की योगदशा को जाएगा I और इस अध्याय को पार करते ही वह साधक, अव्यक्त प्रकृति में ही पहुँच जाएगा, जो पितामह ब्रह्म की ही माया शक्ति हैं और जिससे आगे भी यही जगद्गुरु माता, उस साधक की चेतना को लेकर जाती हैं I

अब इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ I

जय जगद्गुरु शारदा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

 

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