भू महाभूत, पृथ्वी महाभूत, उज्जयी श्वास, उज्जयी नाद, ब्रह्मा की श्वास, महाभूत पर विजय, महाभूत सिद्धि, महामानव, महाभूत और चक्रवर्त, योग चक्रवर्त, चक्रवर्ती सम्राट, ब्रह्माण्ड योग, ब्रह्माण्ड धारणा

भू महाभूत, पृथ्वी महाभूत, उज्जयी श्वास, उज्जयी नाद, ब्रह्मा की श्वास, महाभूत पर विजय, महाभूत सिद्धि, महामानव, महाभूत और चक्रवर्त, योग चक्रवर्त, चक्रवर्ती सम्राट, ब्रह्माण्ड योग, ब्रह्माण्ड धारणा

यहाँ पर पृथ्वी महाभूत के साथ साथ, भू महाभूत के नाद, उज्जयी नाद और उज्जयी श्वास सहित, ब्रह्मा की श्वास, महाभूत पर विजय, महाभूत सिद्धि, महामानव, महाभूत और चक्रवर्त, योग चक्रवर्त, चक्रवर्ती सम्राट, त्रिभुवन सम्राट, ब्रह्माण्ड योग और ब्रह्माण्ड धारणा पर भी बात होगी I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 का हैI पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इक्कीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का सातवाँ अध्याय है ।

 

भू महाभूत, पृथ्वी महाभूत, उज्जयी श्वास, उज्जयी नाद, महाभूत सिद्धि, महामानव, चक्रवर्ती सम्राट
भू महाभूत, पृथ्वी महाभूत, उज्जयी श्वास, उज्जयी नाद, महाभूत सिद्धि, महामानव, चक्रवर्ती सम्राट, ब्रह्मा की श्वास

 

इस पृथ्वी महाभूत के चित्र का वर्णन

इस चित्र में …

  • जो अण्डाकार दशाएं दिखाई गई है, वो प्रत्येक दशा एक एक ब्रह्माण्ड है I
  • उन अण्डाकार ब्रह्माण्डों के आकार भी शिवलिंग के समान ही है, इसलिए यह चित्र इस बात का प्रमाण भी है, कि ब्रह्माण्ड शिव लिंगात्मक ही होते हैं I
  • क्यूंकि इस चित्र की दशा में, इन समस्त शिवलिंगात्मक ब्रह्माण्डों को पृथ्वी महाभूत के भीतर से जाना गया था, इसलिए इनका वर्ण भी पृथ्वी महाभूत के वर्ण का ही है, जो पीली मिट्टी जैसा ही होता है I
  • इस चित्र की दशा में साधक की चेतना, समस्त ब्रह्माण्डों से बहार निकलकर, उन ब्रह्माण्डों को बहार से ऐसे देखती है, जैसे आकाश में उड़ती चिड़िया धरती को देखेगी I इसलिए उन समस्त ब्रह्माण्डों के ऊपर जाकर ही इन ब्रह्माण्डों को जैसा देखा जाएगा, वैसा ही यह चित्र दर्शा रहा है I
  • इस चित्र में समस्त ब्रह्माण्डों के बाहर की ओर जो पीली मिटटी जैसा रंग दिखाया गया है, वो पृथ्वी महाभूत है I उसी पृथ्वी महाभूत के निराकार स्वरूप के भीतर, यह सभी ब्रह्माण्ड बसे हुए है I और ऐसे ही दशा से इस चित्र का साक्षात्कार हुआ है I
  • इस चित्र में जो हीरे के प्रकाश के समान नली दिखाई गई है, वो उन सर्वसम पितामह प्रजापति का ही प्रकाश है, जो इन ब्रह्माण्डों से जुड़ा हुआ है, क्यूंकि यह समस्त ब्रह्माण्ड उन्ही प्रजापति की उत्कृष्ट रचना ही हैं I
  • इस चित्र में यही हीरे के सामान प्रकाश जो ऊपर के भाग में दिखाया गया है, वह उन सर्वसम सगुण साकार प्रजापति के हीरे के समान प्रकाशमान सगुण निराकार लोक का है, जिसको वेद मनीषियों ने ब्रह्मलोक कहा था I
  • और क्यूंकि वो ब्रह्मलोक ही उन प्रकाश रहित, शून्य ब्रह्म (अर्थात नारायण) में निवास करता है, इसलिए इस चित्र के ऊपर के भाग में वही प्रकाश रहित शून्य ब्रह्म भी दिखाया गया है I

 

और इन चित्र में …

  • एक ब्रह्माण्ड से जुडी हुई, जो रात्रि के समान बहुत बड़ी नली लटकी हुई दिखाई गई है, वो एक महामानव है, जो उसके पूर्व कालों में, अपने उत्कर्ष मार्गों पर जाकर, ब्रह्माण्ड सरीका हो गया था (अर्थात वो ब्रह्माण्ड के समान ही शक्तिमान हो गया था) I
  • और ब्रह्माण्ड सरीका होने के पश्चात, वो ब्रह्माण्ड के भीतर रह ही नहीं पाया था I
  • ऐसी दशा के आने के पश्चात, उसनें ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के आदेश पर, अपनी शक्ति को स्तम्भित करके, शून्य सरीका होके, अर्थात शून्य को धारण करके, शून्य ही होकर, वो महामानव उस ब्रह्माण्ड से ही बाहर निकल गया था, जिसके भीतर निवास करके वो महामानव पद को पाया था I
  • और ऐसी शून्यावस्था में, वो उसी ब्रह्माण्ड से जुड़ा भी रहा था I ऐसी दशा में वो महामानव इसलिए था, क्यूंकि वो मुक्ति का पात्र होकर भी,उसको मुक्ति से कुछ भी लेना देना नहीं था I
  • यह रात्रि के समान नली जो एक ब्रह्माण्ड से जुडी हुई दिखाई गई है, वो उसी महामानव को दर्शा रही है, जो शून्य ही हो गया था, क्यूंकि वो उस ब्रह्माण्ड के समान होकर, जिसमें वो उस समय निवास कर रहा था, उस ब्रह्माण्ड के भीतर रह ही नहीं पाया था I

 

भू महाभूत का साक्षात्कार, इस चित्र के मार्ग का वर्णन,

जब साधक की चेतना पूर्व के अध्याय, अर्थात तत्पुरुष से आगे की ओर जाती है, तो वो चेतना भू महाभूत में प्रवेश कर जाती है I

इसका अर्थ हुआ, कि पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा के मार्ग में, तत्पुरुष ब्रह्म से आगे और सद्योजात ब्रह्म से पूर्व, भू महाभूत का साक्षात्कार होता है I

यह भू महाभूत का वर्ण पीली मिट्टी के सामान होता है I

और कुछ विशेष कालखण्डों में, इस पीली मिट्टी के रंग में, हलके लाल रंग के कई सारे बिंदु भी दिखाई देते हैं I

यह लाल रंग, पृथ्वी की रजोगुणी अवस्था, अर्थात रजस्वला दशा को दर्शाता है I

जब पृथ्वी रजस्वला हो जाती है, तो भूकम्प आदि त्रासदियाँ आती हैं I ऐसी रजोगुणी दशा में, पृथ्वी तत्त्व ही परिवर्तन का मूल कारण बन जाता है I

इस साक्षात्कार के समय पर, पृथ्वी ऐसी राजस्वला ही थी, इसलिए मैं यह जानता हूँ, कि आगामी कालखंड कई बड़े भूकंपों का होगा I

और क्यूँकि पृथ्वी के भीतर ही अन्य चार महाभूत निवास करते हैं, इसलिए मैं यह भी जानता हूँ, कि इस साक्षात्कार के पश्चात के वर्षों में, पर्वतों का टूटना, जल त्रासदियाँ, अग्नि प्रकोप, वायु प्रकोप भी आएँगे, और इनकी मात्रा और तीव्रता भी बढ़ने वाली है I

और ऐसी सभी त्रासदियाँ के साथ साथ, सूर्य जो नवग्रह सम्राट हैं और आत्मा कारक देवता भी हैं, उनके अनुग्रह का समापन भी होने वाला है जिसके कारण आने वाले विभिन्न प्रकार के विप्लव आदि का भी आगामी समय प्रत्यक्ष प्रमाण देगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

भू महाभूत में समस्त ब्रह्माण्ड निवास करते हैं I और इस महाभूत के भीतर स्थित होकर, यदि उन ब्रह्माण्डों को देखा जाएगा, तो वो सब ब्रह्माण्ड शिवलिंगाकार ही दिखाई देंगे I

भू महाभूत के भीतर बसकर, वो सभी ब्रह्माण्ड पीली मिट्टी के रंग से ढके हुए दिखाई देते हैं I

यह चित्र उस दशा का है, जब साधक की चेतना भू महाभूत के भीतर बसकर, उन सभी ब्रह्माण्डों के ऊपर जाकर, उन ब्रह्माण्डों को ऐसे देखती है, जैसे कोई चिड़िया आकाश में उड़ान भरते समय पृथ्वी को देखेगी I

वो सभी ब्रह्माण्ड इसी पृथ्वी महाभूत के भीतर लटके हुए होते हैं I और उन ब्रह्माण्डों का जुड़ाव, पृथ्वी महाभूत से भी ऊपर की ओर, जो हीरे का प्रकाश दिखाया गया है, उसमें होता है I

यदि उनमें से किसी भी ब्रह्माण्ड के ऊपर जाकर, उनके इस जुड़ाव को देखा जाएगा, तो जब साधक की चेतना वहां के पृथ्वी तत्त्व को देखेगी, तब उसके भीतर भी वही हीरे के समान प्रकाश पाया जाएगा I

उस हीरे के प्रकाश को भी पृथ्वी महाभूत ने घेरा होता है, और इस चित्र में भी ऐसा ही दिखाया गया है I यह हीरे का प्रकाश, उस सर्वसमता को दर्शाता है जिसके अधिष्ठा देवता, वेदों के सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा प्रजापति ही हैं I

किसी किसी ब्रह्माण्ड में रात्रि के समान बहुत बड़ी नाली भी जुडी होती है I यह उस योगी की है जो महामानव पद को पाया होगा I ऐसे योगियों के प्रमुख प्रकारों के बारे में इस अध्याय के आगे के भाग में बताया जाएगा I

इस साक्षात्कार से पाया, कि इतने ब्रह्माण्ड हैं की उनको गिनना असंभव सा ही था, इसलिए इस चित्र में कुछ को ही दिखाया गया है I

ऊपर बताए गए बिंदु इस चित्र में भी दिखाए गए हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

लेकिन यह चित्र अधूरा बनाया गया है, ताकि जो पात्र हैं, वही इसको उनकी अपनी साधनाओं में पूर्णरूपेण साक्षात्कार करें I लेकिन वैदिक वाङ्मय में सबकुछ स्वर्ण का पत्तल पर परोस कर देने की परंपरा कब रही है? I

ऐसी परंपरा तो कभी थी ही नहीं, क्यूंकि गुरुजन कुछ मुख्य बिन्दुओं को बताके, शांत हो जाते थे I और इसके पश्चात, जो भी श्रोता या पाठक वास्तविक पात्र होते थे, वो उन नहीं बताए गए बिंदुओं को अपनी साधनाओं में साक्षात्कार करके, अपने ही गुरु के सामान ही गुरूजन कहलाते थे I

यही कारण है, कि जबकि वैदिक मार्गों में “गुरु शिष्य परंपरा” बताई जाती है, लेकिन वास्तव में यह “गुरु आगामीगुरु परंपरा” ही है, क्यूंकि सिद्ध योगी कभी भी शिष्य नहीं बनाता, बल्कि कुछ थोड़े से ही पात्र ढूँढ़कर, उन पात्रों को गुरु पद प्राप्ति का मार्ग दिखाता है I

वो सिद्ध योगी उसको ही दीक्षा देता है, जो आगामी गुरु होने की क्षमता रखता है और ऐसे आगामी गुरु को ही वो पात्र रूप में देखता है I

 

ऐसे होने के कारण, वैदिक गुरु शिष्य परंपरा में …

  • गुरु के दृष्टिकोण से शिष्य आगामी समय खंड का गुरु ही होता है I
  • और शिष्य के दृष्टिकोण से वो सदैव ही अपने गुरु का शिष्य रहता है I और यदि वो परंपरा उस अखंड सनातन वैदिक वाङ्मय की होगी, तो वो शिष्य ऐसा तब भी रहता है, चाहे वो आगामी ब्रह्माण्ड का पितामह ब्रह्मा ही क्यों न हो जाए I यही वो मूल कारण है, कि यह वैदिक परंपरा समस्त ब्रह्माण्डों में पाई जाती है, क्यूंकि इन ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा ने अपना पद भी इसी परंपरा में बसकर पाया था I

यह भी वो कारण है कि किसी भी सिद्ध ऋषि सत्ता से सम्बद्ध योगी ने, आज के गुरु रूप में बनियों के सामान, हजारों शिष्य कभी भी नहीं बनाए I

मेरे किसी भी पूर्व जन्म में 27 से अधिक शिष्य नहीं हुए…, और अधिकांश जन्मों में, 12 का अंक आते ही मैं रुक गया था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

तो अब वो बताता हूँ, जो इस चित्र में नहीं दिखाया गया है I

जो साधक वास्तविक पात्र हैं, उनके लिए ही यह बता रहा हूँ…, अन्य किसी के लिए भी नहीं …

  • समस्त महाभूत और उनके तन्मात्र साक्षात्कार के मार्ग के सूक्ष्म बिंदु भी, इसी पृथ्वी महाभूत के भीतर ही बसे हुए होते हैं I
  • पञ्च ब्रह्म के मार्ग के सूक्ष्म बिंदु भी इसी पृथ्वी महाभूत के भीतर साक्षात्कार होते हैं I
  • पञ्च कृत्य और उनके पञ्च देव के साक्षात्कार मार्ग के सूक्ष्म बिंदु भी इसी पृथ्वी महाभूत के चित्र के भीतर पाए जाएंगे I
  • जो कुछ भी इस जीव जगत में है, उन सबके साक्षात्कार मार्ग के सूक्ष्म बिंदु भी इसी पृथ्वी महाभूत के भीतर पाए जाएंगे I

इसलिए जो वास्तविक साधकगण हैं, वो ऊपर के बिंदुओं पर भी अपने अपने भावरूपी मार्ग आदि में बसकर जाएं I

और जो वास्तविक पात्र नहीं हैं, उनके लिए तो इस ग्रन्थ का कोई लाभ भी नहीं होगा…, इसलिए वो इस ग्रन्थ में न आएं…, और अपना समय व्यर्थ में ही व्यय न करें I

 

भू महाभूत, पृथ्वी महाभूत, उज्जयी नाद और ब्रह्मा की श्वास, उज्जयी श्वास, … महाभूत पर विजय, महाभूत सिद्धि, …

उज्जयी श्वास साधक की महाभूत पर विजयश्री को दर्शाती है I

यह श्वास उस विजय को दर्शाती है, जो पृथ्वी महाभूत पर होती है I

इसका अर्थ हुआ, कि पृथ्वी महाभूत का साक्षात्कार, पृथ्वी तत्त्व पर विजयश्री को दर्शाता है, और इस विजय का प्रमाण भी उज्जयी नाद रूप में ही होता है I

 

तो अब इस उज्जयी नाद को बताता हूँ …

यह नाद ऐसा होते है, कि कोई इस प्रकार से श्वास ले रहा है, जैसे वो उस श्वास को मुख की जड़ से (अर्थात तालु के सबसे भीतर के भाग से) मुख के अन्दर और बहार ले रहा है I

वैसे कुछ योग मनीषियों ने इस उज्जयी को रेचक से ही जोड़ा है, लेकिन वो उनका मत था जिससे इस ग्रन्थ का कुछ भी लेना देना नहीं I

इस उज्जयी श्वास का शब्द, हाहाहाहाहाहाहा…, ऐसा होता है I और इसमें हा शब्द का बहुत लम्बा होता है I और इसी को इस अध्याय में उज्जयी नाद भी कहा गया है I

इस प्रकार की श्वास प्रक्रिया, ब्रह्मा जी की श्वास को भी दर्शाती I

यह उज्जयी श्वास, साधक की पृथ्वी महाभूत पर विजय जो भी दर्शाती है I

और इसी विजय के पश्चात, साधक सद्योजात ब्रह्म के साक्षात्कार का पात्र बनता है…, इससे पूर्व नहीं I

जब साधक की चेतना पृथ्वी महाभूत का साक्षात्कार कर रही होती है, तब भी यही उज्जयी नाद अपने बहुत लम्बे रूप में सुनाई देता है I

 

ब्रह्मा की श्वास और योगतंत्र का पूरक कुंभक और रेचक, ब्रह्मा की श्वास और पूरक कुंभक और रेचक, ब्रह्मा की श्वास और प्राणायाम, … ब्रह्माण्ड के आकार का बढ़ना और घटना, ब्रह्माण्ड का विस्तार, ब्रह्मांड का लय, ब्रह्माण्ड के आकार का घटना, ब्रह्माण्ड के आकार का बढ़ना, …

योग सिद्धांत में, जो श्वास प्रक्रिया बताई गई हैं, वो ऐसी हैं …

  • पूरक, … यह वो प्रक्रिया है, जिसमें श्वास भीतर भरी जाती है I
  • कुम्भक, … यह वो प्रक्रिया है, जिसमें श्वास रोकी जाती है I
  • रेचक, … यह वो प्रक्रिया है जिसमें श्वास बाहर की ओर निकालि या छोड़ी जाती है I

इनको योगतंत्र में इसलिए अपनाया गया था, क्यूंकि इसी प्रक्रिया से ब्रह्माण्ड का आकार बढ़ता, स्थिर होता और घटता भी है और यही प्रक्रिया ब्रह्मा जी की श्वास प्रक्रिया की भी द्योतक है I

इन्ही तीनों में पितामह ब्रह्मा की श्वास भी होती है…, तो अब इसको बताता हूँ I

 

जब ब्रह्मा जी …

  • रेचक करते हैं, … तो ब्रह्माण्ड का आकार बढ़ता है, अर्थात ब्रह्माण्ड बढ़ता जाता है, और अंततः एक बहुत बड़े आकार का हो जाता है I

और इसी रेचक से ब्रह्माण्डों की उत्पत्ती भी होती है I ब्रह्मा जी का यह रेचक ही उज्जयी श्वास कहलाया था, जिसका अर्थ होता है, सर्वविजयी श्वास क्यूंकि इससे ही ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हुई थी I

  • कुम्भक करते हैं, … तो ब्रह्माण्ड स्थिर होने लगता है और अंततः, उस दशा में पहुँच जाता है, जिसमे उसका आकार धीरे धीरे बढ़ता है, और इसके पश्चात धीरे धीरे घटता भी है…, और ऐसा होते ही चला जाता है I

आज के समय पर, ब्रह्माण्ड धीरे धीरे बढ़ रहा है I ब्रह्मा जी के इसी कुम्भक से ब्रह्माण्ड, स्थित और स्थिरता को पाते हैं I

  • पूरक करते हैं, तो ब्रह्माण्ड सुकड़ता है, अर्थात छोटा होते होते, अंततः नष्ट हो जाता है I और इसी पूरक से ब्रह्माण्डों का नाश भी होता है I

क्यूंकि ब्रह्मा जी का पूरक, कुम्भक और रेचक एक के बाद एक चलता ही रहता है, इसलिए ब्रह्माण्डों में भी परिवर्तन आता ही रहता है I

जैसे ब्रह्मा की श्वास होती है, वैसी ब्रह्माण्ड की भी होती है, और वैसी ही जीवों की भी होती है I

ऐसा इसलिए है, क्यूंकि ब्रह्मा जी ने अपनी अभिव्यक्ति रूप में ही जीव जगत बनाया था, और अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक मार्ग पर भी नहीं चल पाती है I

रचना केवल उसी मार्ग पर चल पाती है, जो उसके अपने रचैता का है और यह भी वही मार्ग हो सकता है, जिसपर उसका रचैता उस समय चल रहा होगा I

इसलिए श्वास की प्रक्रिया के अनुसार, जीव जगत के रचैता और उनके जीव जगत में कोई भी विरोधाभास नहीं होता I जैसे रचैता की श्वास है, वैसी ही जीवों और जगत की भी होती है I

यही कारण था, की योगतंत्र में प्राणायाम प्रक्रिया को लाया गया था, और वो भी उन योगीजनों के द्वारा जिन्होंने अपनी साधनाओं में इस बिंदु को जाना था I

लेकिन इससे आगे जाने से पूर्व, मुझे पञ्च महाभूत और पञ्च तन्मात्र पर थोड़ा प्रकाश डालना होगाI

तो अब इनको बताता हूँ …

 

पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्र ,पञ्च देव सिद्धि मार्ग, त्रिदेव सिद्धि मार्ग, पञ्च ब्रह्म सिद्धि मार्ग,

पञ्च तन्मात्रों से पांच महाभूतों की उत्पत्ति हुई थी I

इस उत्पत्ति का क्रम ऐसा था …

  • सर्वप्रथम शब्द तन्मात्र से आकाश महाभूत की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए आकाश का गुण शब्द कहलाया गया है I
  • इसके पश्चात शब्द तन्मात्र से स्पर्श तन्मात्र उत्पन्न हुआ था, जिससे वायु महाभूत की उत्पत्ति I इसलिए वायु का गुण स्पर्श कहलाया गया है I
  • इसके पश्चात, स्पर्श तन्मात्र से रूप तन्मात्र उत्पन्न हुआ था, जिससे अग्नि महाभूत, या प्रकाश महाभूत या तेज महाभूत की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए अग्नि या प्रकाश या तेज का गुण रूप कहलाया गया है I
  • इसके पश्चात, रूप तन्मात्र से रस तन्मात्र उत्पन्न हुआ था, जिससे जल महाभूत की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए जल का गुण रस कहलाया गया है I
  • और अंत में (इन सबके पश्चात), रस तन्मात्र से गंध तन्मात्र उत्पन्न हुआ था, जिससे पृथ्वी महाभूत की उत्पत्ति हुई थी I इसलिए पृथ्वी का गुण गंध कहलाया गया है I

 

ऐसी प्रक्रिया होने के कारण, योगीजनों द्वारा महाभूतों की उत्पत्ति का क्रम भी ऐसा बायता गया है …

  • आकाश महाभूत से वायु उत्पन्न हुई थी I
  • वायु महाभूत से अग्नि उत्पन्न हुई थी I
  • अग्नि महाभूत से जल उत्पन्न हुआ था I
  • जल महाभूत से पृथ्वी महाभूत की उत्पत्ति हुई थी I

 

और क्यूँकि लय की प्रक्रिया, उत्पत्ति की प्रक्रिया से विपरीत मार्ग पर होती है, इसलिए, योगीजनों द्वारा महाभूतों के लय का क्रम भी ऐसा बताया गया है …

  • पृथ्वी का लय स्थान, जल है I
  • जल का लय स्थान, अग्नि है I
  • अग्नि का लय स्थान, वायु है I
  • वायु का लय स्थान, आकाश है I

जब योगी पृथ्वी महाभूत और उसके उज्जयी नाद का साक्षात्कार करता है, तब वो योगी लय प्रक्रिया में ही चला जाता है I

इस लय प्रक्रिया में, उस योगी के भीतर के महाभूत और उनके तन्मात्र, उनके अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों से योग करने लगते हैं I

और योगी के भीतर होती हुई उस प्रक्रिया में, अंततः वो योगी की काया के भीतर बसे हुए समस्त महाभूत, उन महाभूतों के अपने अपने ब्रह्माण्डीय महाभूतों में लय हो जाते हैं I

लेकिन प्रक्रिया में, अधिकांश योगीजन का देहावसान ही हो जाता है I पर कुछ ऐसे विरले योगी भी होते हैं, जो इस लय प्रक्रिया के पूर्ण होने के पश्चात भी अपनी काया को रख पाते हैं I

यदि इस लय प्रक्रिया के पूर्ण होने पर भी कोई योगी अपनी काया में रह जाता है, तो वो योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ब्रह्माण्डातीत कहलाता है, अर्थात जीवातीत और जगतातीत कहलाता है I

और ऐसा होने के पश्चात, चाहे वो योगी अपनी पूर्व की काया में ही क्यों न दिखाई दे रहा हो, लेकिन अपनी वास्तविकता में वो योगी, ब्रह्माण्डातीत अवस्था का होकर ही शेष रह जाता है I

 

ऐसे ब्रह्माण्डातीत योगी के लिए जो कहा जा सकता है, वो अब बता रहा हूँ …

वो योगी जीव होता हुआ भी, जीवत्व से ही परे, जीवातीत होता है I

वो योगी जगत में निवास करता हुआ भी, जगत से परे, जगतातीत ही होता है I

वो ब्रह्माण्ड में बसा हुआ भी, ब्रह्माण्डीय नहीं होता.., ब्रह्माण्डातीत ही होता है I

इसलिए, वो होता हुआ भी नहीं होता, … और नहीं होता हुआ भी सदैव ही होता है I

पर यह अवस्था तो शिवत्व का एक अंग है…, क्यूंकि गुरु शिव ऐसे ही हैं I

 

इसीलिए इस सिद्धि का मार्ग विष्णुत्व से शिवत्व को जाता है, और जहाँ वो विष्णुत्व और शिवत्व या सनातन योग ही हरिहर स्वरूप में ब्रह्मत्व कहलाता है I और जहाँ उन हरिहर का निवास स्थान भी योगी के शिवरंध्र के समीप ही होता है I

और जब त्रिदेव का ऐसा योग होता है, तो उस योगी के शरीर के भीतर, पञ्च देव में भी तारतम्य नहीं रहता I

यही कारण है, कि इस सिद्धि के मार्ग में, त्रिदेव का ही नहीं, पंच देव का भी तारतम्य नहीं होता I

और इस सिद्धि के मार्ग का प्रारम्भ भी इस अध्याय में बताए जा रहे उज्जयी श्वास और उसके तत्त्व, अर्थात पृथ्वी महाभूत से ही होता है I

यही कारण था, की इस अध्याय को इस ग्रन्थ में लाना पड़ा, क्यूंकि यह अध्याय ऊपर बताई गई सभी दशाओं की प्राप्ति का एक उत्कृष्ट मार्ग ही है I

और क्यूंकि इस लय प्रक्रिया में, अंततः आकाश महाभूत ही आता है, इसलिए इस ग्रन्थ में आकाश महाभूत का भी वर्णन मिलेगा, क्यूंकि गंतव्य को भी छोड़ा नहीं जा सकता है I

इन दोनों, अर्थात पृथ्वी और आकाश को इस ग्रन्थ में डालने का कारण है, कि यह स्थिर ही होते है I

इन दोनों में से पृथ्वी महाभूत सापेक्ष स्थिर है, और आकाश पूर्ण स्थिर I

इसीलिए इन दोनों को इस ग्रन्थ में बताया गया है I

और क्यूँकि बीच के तीन महाभूत, अर्थात जल, अग्नि और वायु सदैव चलित ही होते है, इसलिए इनके बारे में इस ग्रन्थ में बताया ही नहीं गया है I मैं सोचता हूँ, की अस्थिर बंधनकारी दशाओं में क्यूँ जाना I

इसलिए इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में, इन तीनों महाभूतों को इनके देवत्व बिंदुओं के दृष्टिकोण से बताया गया है…, ना कि इनकी भौतिक दशाओं से I

 

पृथ्वी महाभूत सिद्धि से पञ्च महाभूत सिद्धि, … पृथ्वी महाभूत सिद्धि से पञ्च तन्मात्र सिद्धि, …

जो महाभूत सबसे अंत में उत्पन्न होता है, उसके भीतर ही अन्य सभी महाभूत और उनके तन्मात्र, उनके अपने अपने सूक्ष्म बिन्दुओं में निवास करते हैं I

इसका अर्थ हुआ, कि जो महाभूत सबसे अंत में उत्पन्न होता है, उसका साक्षात्कार करके और उसके भीतर जाकर (अर्थात उसके भीतर बसकर) उससे पूर्व में उत्पन्न हुई सभी दशाओं और महाभूतों तन्मात्रों आदि का साक्षात्कार किया जा सकता है I

यही कारण है, कि यहाँ बताए जा रहे पृथ्वी महाभूत से अन्य चार महाभूत और पञ्च तन्मात्रों का साक्षात्कार भी किया जा सकता है I

यही कारण है, कि इस ग्रन्थ में महाभूतों के दृष्टिकोण से, पृथ्वी महाभूत को पूर्ण भी कहा गया है I

और यही बिंदु ब्रह्म की रचना में, अर्थात ब्रह्माण्ड में उत्पन्न हुई सभी दशाओं, वस्तुओं आदि पर भी लागू होता है I

 

इस सिद्धि में जो महाभूतों के रंग और अन्य कुछ बिंदु हैं, उनको बताता हूँ …

  • आकाश महाभूत, … इसका रंग बैंगनी (अर्थात वायलेट या violet) होता है I पंच देवों में इसके देवता गणपति होते हैं, जिनका कृत्य अनुग्रह होता है, और जो पञ्च मुखी सदाशिव के आकाश की ओर (अर्थात ऊपर की ओर) देखने वाले मुख, ईशान से संबंधित होते हैं I
  • वायु महाभूत, … इसका रंग हल्का नीला (मेघ जैसा रंग) होता है I पञ्च देवों में इसकी दिव्यता, देवी माँ (या माँ शक्ति) होती हैं, जिनका कृत्य तिरोधान होता है, और जो पञ्च मुखी सदाशिव के पूर्व दिशा को देखने वाले, तत्पुरुष मुख से संबंधित होती हैं I
  • अग्नि महाभूत, …, का प्रधान रंग लाल होता है, लेकिन पूर्ण रूप में सप्तरंगी ही होता है I पंच देवों में इसके देवता रुद्र होते हैं, जिनका कृत्य संहार होता है, और जो पञ्च मुखी सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले, अघोर मुख से संबंधित होते हैं I
  • जल महाभूत, … इसका रंग हलके से थोड़ा गाढ़ा हरा होता है I पञ्च देव में इसके देवता श्री विष्णु होते हैं, जिनका कृत्य स्थिति होता है, और जो पञ्च मुखी सदाशिव के उत्तर दिशा को देखने वाले, वामदेव मुख से संबंधित होते हैं I
  • पृथ्वी महाभूत, … इसका रंग पीली मिट्टी के सामान होता है I पञ्च देव में इसके देवता सूर्य रूप में ब्रह्मा जी होते हैं, जिनका कृत्य उत्पत्ति होता है, और जो पञ्च मुखी सदाशिव के पश्चिम दिशा को देखने वाले, सद्योजात मुख से संबंधित होते हैं I

 

टिप्पणियां :

  • लेकिन यह ज्ञान पञ्च ब्रह्म से नहीं, बल्कि पञ्च मुखा सदाशिव के मार्ग में साक्षात्कारों अनुसार है I
  • कुछ मैंने पञ्च ब्रह्म मार्ग पर जाकर जाना और कुछ पञ्च मुखा सदाशिव के मार्ग से जाना I
  • इसलिए इस ग्रन्थ में कहीं पर पंचब्रह्म मार्ग के अनुसार बताया जाएगा, और कहीं पर राजयोग में बसकर, पाशुपत मार्गानुसार, पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कारों के अनुसार बताया जाएगा I
  • और यदि किसी को इस टिपण्णी में बताई गई प्रक्रिया पर कोई भी आपत्ति है, तो वो इस ग्रन्थ को छोड़ दे, क्यूंकि इस ब्रह्मत्व नामक ग्रंथ में ब्रह्मा ही विष्णु शिव देवी और गणेश हैं I
  • और इस ग्रन्थ में, इन पंच देवों के कृत्यों में तारतम्य होने पर भी, इन पंच देवों के मूल और गंतव्य में कोई तारतम्य नहीं है, क्यूंकि इस ग्रन्थ में यह पांचों देव ही ब्रह्म है…, और यही पाँचों देव ब्रह्मशक्ति अर्थात माँ प्रकृति भी हैं I

 

भू महाभूत और उसके उज्जयी नाद की महिमा, उज्जयी श्वास सिद्धि महिमा,अतिमानव पद की प्राप्ति,
  • जब ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति करी जा रही थी, तो ब्रह्मा की जो श्वास उत्पन्न हुई थी, वही उज्जयी कहलाई थी I इसलिए इस श्वास के अधिष्ठा देवता, पितामह ब्रह्मा जी ही हैं I यही कारण है कि सदाशिव का तत्पुरुष मुख, जो पूर्व दिशा को देखता है, उसका महाभूत वायु है I
  • क्यूंकि इसी उज्जयी श्वास से ब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म और स्थूल रूपों में उत्पन्न हुआ था, इसलिए जिस साधक ने इस श्वास को सिद्ध किया होगा, वो साधक ही ब्रह्माण्ड सीध कहलायेगा I
  • जो कुछ भी ब्रह्मा जी की इस उज्जयी नामक श्वास के प्रकट होने के पश्चात, ब्रह्माण्ड में उत्पन्न हुआ होगा, उस सब की सिद्धि वो साधक पा जाएगा, जिसने इस उज्जयी नामक श्वास को सिद्ध किया होगा I

और यही इस उज्जयी श्वास की योगसिद्धि रूपी उत्कृष्ट महिमा भी है I

 

  • क्यूंकि इसी उज्जयी नामक श्वास से ब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म और स्थूल स्वरूपों में उत्पन्न हुआ था, इसलिए जिस भी साधक ने इस श्वास को सिद्ध किया होगा, वो ब्रह्म की रचना, अर्थात ब्रह्माण्ड का ज्ञाता भी होगा I

ऐसे साधकों को ब्रह्माण्ड द्रष्टा भी कहा जा सकता है I

और यही इस उज्जयी श्वास और उसके उज्जयी नाद की भौतिकी उत्कृष्ट महिमा भी है I

 

  • और क्यूंकि इस श्वास से ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ था, इसलिए जब साधक इस श्वास का सिद्ध होता है, तब ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, उस साधक ने अपने मार्गानुसार, उत्पत्ति से लेकर लय तक, एक पूरा चक्र लगा लिया है I

यही इस उज्जयी श्वास के मार्ग की एक उत्कृष्ट महिमा भी है I

 

  • और अब इस उज्जयी नाद की महिमा का अंतिम बिंदु बताता हूँ …

और पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा के मार्ग में, ऐसे पूर्ण चक्र लगाने के पश्चात ही साधक तत्पुरुष से आगे के ब्रह्म, सद्योजात में जाने का पात्र भी बनता है I

इसलिए जिस साधक का पंच ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग, इस उज्जयी श्वास में नहीं गया, वो साधक पञ्च ब्रह्म मार्ग पर तत्पुरुष से आगे के साक्षात्कार, सद्योजात ब्रह्म में जा भी नहीं पाएगा I

और ऐसा साधक पञ्च ब्रह्म मार्ग का सिद्ध भी नहीं कहलाएगा I

जिस साधक की पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा पूर्ण नहीं होती, वो साधक पांच कृत्यों का ज्ञाता, धारक और सिद्ध भी नहीं होता I इसलिए वो साधक अतिमानव पद को भी नहीं पाता, क्यूंकि अतिमानव का पद तब प्राप्त होता है, जब साधक पांच कृत्यों का साक्षात्कारी, ज्ञाता और धात्रक होता है I

पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, यह इस उज्जयी श्वास की सर्वोत्कृष्ट महिमा है क्यूंकि इस समस्त महाब्रह्माण्ड में, जिसमे इस ब्रह्माण्ड के समान असंख्य ब्रह्माण्ड होते है, इस अतिमानव से आगे का कोई पद है ही नहीं I

 

  • उज्जयी श्वास और नाद की गंतव्य दशा …

ब्रह्माण्डीय दिव्यतों के दृष्टिकोण में, ऐसा योगी ही सर्वविजयी कहलाता है I

इसलिए यह उज्जयी श्वास, उसी सार्विजय की द्योतक, सूचक होने के साथ साथ, उसी सार्विजयी दशा की श्वास और नाद रूप में, लिंग भी है I

और क्यूंकि यह उज्जयी श्वास और उसका नाद स्वरूप, एक सार्वभौम सिद्धि का द्योतक है, इसलिए इसको इस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक बताया गया है I

और यह भी एक कारण है, कि इस ग्रन्थ में अन्य चारों महाभूतों के नाद को नहीं बताया गया है, क्यूंकि साधक इसी भू महाभूत के नाद रूप, अर्थात उज्जयी से ही उन चारों महाभूतों का सिद्ध भी हो सकता है I

यही इस उज्जयी श्वास और नाद की गंतव्य दशा है I

 

भू महाभूत और योग चक्रवर्त, … भू महाभूत और चक्रवर्ती सम्राट,… उज्जयी नाद और योग चक्रवर्ती, .. उज्जयी श्वास और चक्रवर्ती सम्राट, … त्रिभुवन सम्राट, त्रिलोक सम्राट,

महाभूतों की सिद्धि से भी योग चक्रवर्त को पाया जाता है, और ऐसे मार्ग में, पृथ्वी महाभूत और उसके उज्जयी नाद का योगदान अतुल्य ही है I

यो योगी योग चक्रवर्त को पाकर, काल की प्रेरणा से और काल की दिव्यता महाकाली की शक्ति से, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा त्रिभुवन सम्राट रूप में प्रकाशित किया जाता है, वो ही वैदिक चक्रवर्ती सम्राट कहलाता है I

इसका अर्थ हुआ, की वैदिक चक्रवर्ती सम्राट को ब्रह्माण्ड की दिव्यताएं यह पद देती हैं, न कि कोई मानव I

ऐसे योगी का साम्राज्य भी त्रिभुवन ही होता है, न कि यह छोटा सा भीमण्डल I

और वो त्रिभुवन भी, उस योगी की काया के भीतर ही होता है, न कि उस योगी की काया से बहार I

अपने आंतरिक योगमार्ग से, इसी आंतरिक त्रिभुवन पर वो विजय पाता है और इस विजय के पश्चात, वो शांत चित्त होकर, बैठा रहता है क्यूंकि उसको पता चल जाता है, कि इससे आगे वैदिक राजतन्त्र में कुछ है ही नहीं I

और ऐसे कई योगीजनों में से, कोई योगी एक विशेष समय पर, अर्थात काल की प्रेरणा से, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा चुना जाता है और वो दिव्यताएं उस योगी को त्रिभुवन ही सौंपकर, उस त्रिभुवन का ही सम्राट बना देती हैं I

ऐसे होने पर वो योगी, ज्ञान शक्ति, चेतन शक्ति और क्रिया शक्ति को भी पाता है, जिसका आलम्बन लेके वो योगी, अपने त्रिभुवन रूपी साम्राज्य का स्वामी हो जाता है, अर्थात सम्राट कहलाता है I

और ऐसा होने पर भी, क्यूंकि वो साधक मूल से एक योगी ही है, इसलिए वो अपने कर्म और फल आदि, उन सनातन अखंड काल काल और काल की कालचक्र रूपी शक्ति या दिव्यता को ही समर्पित करता जाता है, जिनके निर्देश और अनुग्रह पर वो त्रिभुवन सम्राट हुआ था I

इसका कारण है, कि योग चक्रवर्ती को कर्मों और फलों की कभी भी लालसा नहीं रही है, क्यूंकि यह एक ऐसी सिद्धि है, जिसमें समस्त कर्म करता हुआ भी वो योगी, कर्मों में लिप्त नहीं होता है I

और वो कर्म भी उन ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के आदेश पर ही किए जाते हैं, जिन्होंने उस योगी को चुना था और सम्राट पद प्रदान किया था I

इसलिए वैदिक वाङ्मय में जो चक्रवर्ती सम्राट कहे गए हैं, वो इन कलियुगी राजाओं के समान नहीं थे, बल्कि ब्रह्म, ब्रह्म की रचना और रचना के तंत्र की दिव्यताओं में ही स्वयं समर्पित हुए योगी थे I

और ऐसा होने के कारण, यह वैदिक योग चक्रवर्त का सिद्धांत, पुरुषार्थ चतुष्टय के तृतीय पुरुषार्थ, काम को उसके निश्कलंक स्वरूप में भी दर्शाता है I

वैदिक वाङ्मय में बताया गया काम नामक पुरुषार्थ, निष्काम ही होता है I

जो काम निष्काम नहीं होता है, वो पुरुषार्थ चतुष्टय का काम भी नहीं होता है I

पुरुषार्थ चतुष्टय के काम पुरुषार्थ के …

  • मूल में, वो सनातन धर्म नामक पुरुषार्थ होता है, जिसमें समस्त जीव जगत बसाया गया है I
  • मार्ग में अर्थ नामक पुरुषार्थ होता है, जिसमें समस्त जीव जगत की शक्ति, माँ प्रकृति होती हैं I
  • और गंतव्य में कैवल्य मोक्ष स्वरूप में ब्रह्म होते हैं, जो समस्त रचना के गंतव्य ही हैं I

 

एक बात और जान लो, कि…

यह पुरुषार्थ चतुष्टय का सिद्धांत किसी ऋषि, सिद्धि या देवता आदि ने नहीं दिया है I

इस ब्रह्मकल्प में यह सिद्धांत स्वयम्भू मन्वंतर के एक वैदिक चक्रवती सम्राट ने दिया था, जिनका नाम प्रमीति था, और जो उस स्वयंभू मानवंतर के समय पर, मैं ही था I

वो सम्राट एक सप्त ऋषि का शिष्य भी था, और उन सप्तरिषि के अनुग्रह से ही वो पूर्व का योग चक्रवर्त का साधक, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा त्रिभुवन सम्राट बनाया गया था I

और वही प्रमिति अपने उस जन्म में, माँ मूल प्रकृति का वह अस्त्र भी था, जो कालास्त्र कहलाता है I

इस ब्रह्मकल्प में, उसी योग चक्रवर्त धारी सम्राट ने इस धरा पर सर्वप्रथम वैदिक साम्राज्य स्थापित किया था I

और अपने कार्य संपन्न करके, माँ मूल प्रकृति के आदेशानुसार,  अपने जीवन के अंत समय से कुछ वर्ष पूर्व, वो सबकुछ त्यागकर अवधूत होकर ही रहा था I

और अपनी काया के त्याग के पश्चात, वही प्रमिति उसकी माता मूल प्रकृति के पूर्ण अनुग्रह से, इस चतुर्दश भुवन का अवधूत भी हुआ था I

और इसके पश्चात, वो अवधूत प्रमिति कई बार इस चतुर्दश भुवन के किसी न किसी लोक में लौटाया भी गया है, और अपने ऐसे लौटाए गए कई जन्मों वो ब्रह्मवधूत भी कहलाया है I

और वही योगी उसके उस प्रमिति नामक जन्म से पूर्व जन्म में, स्वयंभू मनु का वो शिष्य था, जिसको गुरु महाराज जी ने गणित शब्द से पुकारा था I उस गणित के गुरुदेव ने उसको ऐसा इसलिए पुकारा था, क्यूंकि वो मनु शिष्य, शून्य, शून्य ब्रह्म और अनंत का साक्षात्कारी उसके गुरुदेव मनु महाराज द्वारा दर्शाए गए योगमार्ग पर जाकर ही हुआ था I इसलिए इस वैदिक राजधर्म और योग चक्रवर्त के मूल में उसके गणित नामक जनम के गुरुदेव स्वयंभू मनु ही हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

स्वयंभूमनु शिष्य जो गणित था, उसके योग साक्षात्कारों में …

  • बिन्दुशून्य को वो जड़ समाधि से जाना था I

बिंदु शून्य की दिव्यता दस हाथ वाली माँ महाकाली ही हैं I

पञ्च विद्या सरस्वती के दृष्टिकोण से इस बिंदु शून्य की देवी माता को ही ब्रह्माण्डीय ऊर्जा और दिव्यता, माँ भारती सरस्वती कहते हैं I

  • शून्य तत्त्व को वो अपने प्राणों को ही विसर्गी करके, शून्य समाधि से जाना था I

शून्य की दिव्यता माँ मूल प्रकृति ही हैं I पञ्च सरस्वती के दृष्टिकोण से इस शुन्य तत्त्व की देवी माता को ही सर्वगुरु और जगतगुरु, माँ शारदा सरस्वती कहते हैं I

शून्य ब्रह्म की दिव्यता वो श्रीमन नारायण ही हैं, जिनको पाशुपत मार्ग के राजयोगियों ने, विश्वगुरु विश्वकर्मा, विराट पारब्रह्म और पञ्च मुखा सदाशिव भी कहा है I

पञ्च सरस्वति के दृष्टिकोण से इस शून्य ब्रह्म की देवी माता को ही माँ पञ्च मुखा गायत्री कहते हैं I

निर्बीज का नाता उस प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से ही है, जिसकी  दिव्यता माँ सरस्वती की अभिव्यक्ति, माँ आदि पराशक्ति हैं I

पञ्च विद्या के दृष्टिकोण से इस निर्बीज की देवी माता को ही माँ सावित्री सरस्वती कहते हैं I

अनंत को ही निर्गुण निराकार ब्रह्म कहा जाता है, और जो कैवल्य मोक्ष ही हैं और जो ईशान ब्रह्म और सदाशिव का ईशान मुख भी कहलाते हैं I

पञ्च सरस्वती विद्या के दृष्टिकोण से इस अनंत की देवी माता को ही माँ ब्राह्मणी सरस्वती कहते हैं I

और क्यूंकि यह सभी गणित विज्ञान के बिंदु ही हैं, और क्यूँकि गणित मूल विज्ञान ही होता है…, इसलिए उसके उस समय के गुरुदेव ने उसको गणित नाम से पुकारा था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और वही स्वयंभू मनु का शिष्य जो गणित था, उसके अपने आगे के जन्मों में, …

  • चक्रवर्ति प्रमिति कहलाया था, जो अपने उस समय के जीवित स्वरूप में रहता हुआ भी, वास्तव में उसकी माता, माँ मूल प्रकृति का जीव रूपी कालास्त्र ही था I
  • और वही प्रमिति एक और जन्म में, ब्रह्मऋषि क्रतु का एक मनस पुत्र भी हुआ था I
  • वही प्रमिति वो योगी भी था, जो वेद द्रष्टा, जो पञ्च ब्रह्म द्रष्टा था और जिसका नाम पीपल के वृक्ष पर था, जिसके गुरु अघोर मुख (अर्थात महादेव) थे (और आज भी हैं) और जिसनें महादेव से प्राप्त करके ही इस लोक को पञ्च ब्रह्मोपनिषद दिया था, और जिसको पढ़कर आज वो सोचता है, कि हे परमगुरु शिव, आपके इस ज्ञान को इस कलियुग की काली काया ने क्या बना दिया I
  • और वही प्रमिति, वो चक्रवत्री सम्राट भी था जिसने इस महायुग में वैदिक राजतन्त्र दिया था, और जब उसी प्रमिति का नाम आकाश महाभूत के नाम पर था I

और उस जन्म में दिए हुए इस राजतन्त्र सिद्धांत के अंतर्गत, मेरे उस जन्म से कहीं पूर्व जन्म के गुरुदेव स्वयंभू मनु के बताए हुए बिन्दु थे, जैसे आश्रम व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था, गोत्र व्यवस्था, सुरक्षा, सेवा, शिक्षा, परंपरा, सम्प्रदाय, संस्कार, कृषि गोरक्ष (अर्थात संपूर्ण वाणिज्य) इत्यादि I

और इस वैदिक राजतन्त्र में, धर्म, निष्काम काम और मुक्तिमार्ग और मोक्ष अदि के मार्ग और प्रक्रियाएं भी वेद मनीषियों द्वारा स्थापित करवाई गईं थीं I

मैंने यह सब स्वयं ही स्थापित नहीं करी थी, बल्कि वेद मनीषियों द्वारा स्थापित करवाई थी, और सम्राट होने के कारण, मैं उस समय उन सभी मार्ग आदि का रक्षक ही था I

लेकिन इस कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, अब यह सभी लुप्त सी ही प्रतीत हो रही हैं I और यह भी वो कारण होगा, कि आगामी समय खंड में, मानव जाती कई प्रकार की त्रासदियाँ में जाएगी ही I

 

  • और वही प्रमिति इसी महायुग में वो चक्रवर्ती सम्राट भी था, जिसका नाम पृथ्वी महाभूत पर था, और जिसने इस धरा को कृषि गोरक्ष दिया था I

और जहाँ उस कृषि शब्द का अर्थ, अन्तःकरण चतुष्टय सहित, प्राण से भी सम्बद्ध था I

और इस कृषि गोरक्ष सिद्धांत में कहा गया कृषि शब्द, अन्न के समस्त प्रकारों का धारक था, जैसे स्थूल शरीर का भोजन रूपी अन्न, मन का अन्न जो भजन रूपी भाव होता है, और ऐसे ही बुद्धि का अन्न, चित्त का अन्न, अहम् का अन्न और प्राणों के अन्न के बिंदु भी इस कृषि गोरक्ष सिद्धांत के कृशि शब्द के अन्तर्गत बसाये गए थे I और ऐसे बसाने का कारण भी वही अन्न था, जिसको वेद मनीषियों ने ब्रह्म भी कहा था I

और जहाँ उस गोरक्ष शब्द में, गौ शब्द का अर्थ संपूर्ण प्रकृति ही था I उसी गोरक्ष शब्द में, रक्ष शब्द का अर्थ मूल प्रकृति से भी सम्बद्ध था, और जो योग चक्रवर्त के सिद्धांत में बसकर ही सिद्ध होती हैं I

इस कृषि गोरक्ष सिद्धांत में कहा गया गोरक्ष, माँ प्रकृति और उनके पर्रिकर पंचक का ही द्योतक था…, न कि यह सिद्धांत केवल पृथ्वी महाभूत तक ही सीमित था I

 

  • और वही प्रमिति, वो राजा भी था, जिसका नाम कार्यब्रह्म का द्योतक था, और जिसके शिष्यों की सूची में कई ऋषि गण भी थे I

और जो एक वानर के शरीर में घुसकर,  थोड़ा विलम्ब से ही सही लेकिन युद्ध में आए भी थे I

 

  • वही प्रमिति ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का वो शिष्य भी था, जो उस समय का सम्राट था, जिसकी दो पत्नियां थी और जो त्रिशंकु योगी हुआ था, क्यूंकि उसने इन्द्रासन को पाकर भी, उस इन्द्रासन से अपने को विमुख किया था, और जिसका कारण था, कि उस समय उसको उसके पितामह ब्रह्मा जी की वाणी आई थी, जिसमें पूर्व कालों में पितामह ने इंद्र को वचन दिया था, कि उसका इन्द्रासन कोई भी उससे ले नहीं पाएगा I

इस वाणी को सुनकर और पितामह का उनके ही ब्रह्माण्ड में मान रखने हेतु, उस त्रिसंकु ने अपने सौवें आंतरिक अश्वमेध यज्ञ सिद्धि, जिससे वो इन्द्रलोक गया था, उसका एक भाग ही त्याग दिया था, जिसके कारण वो न इस लोक का रह पाया था, और न ही उस लोक का, और न ही किसी और लोक का I

  • और वही प्रमिति भगवान् दत्तात्रेय के साथ वो कुक्करी बनकर भी आया था, जो ऋग्वेद को दर्शाती थी I

 

  • वही प्रमिति वो योगी भी था, जिसने अष्टांग योग को सिद्ध करके, उसको विषुद्ध करके इस जगत को और उसकी दिव्यतताओं को ही समर्पित किया था I

और जिसका नाम अंजलि रूपी पत्तल हुआ था, जो उसको भगवान् बालकृष्ण ने ही दिया था I इस नाम में वो स्वयं ही वो अंजलि हुआ था, जिसको भगवान् बालकृष्ण की लकड़ी की शय्या के एक सौ आठ पत्तों में से, एक पत्तल बनाया गया था I

इसलिए जब वो ऐसा हुआ था, तब बस 26 से 27 वर्षों के भीतर की आयु में ही उसने अपना देहत्याग करके, भगवान् बालकृष्ण की लकड़ी की शय्या पर उनके 108 पत्ते रूपी गद्दे में से, वो एक पत्ता बनकर उन भगवान् को, जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर हैं, अपने पत्ते रूपी शरीर पर बसाया था I

उसका यह जन्म इसी अग्रगमन चक्र में हुआ था, और इसकी समय सीमा 5,694 इसा पूर्व से, 27 और 2.7 वर्षों के भीतर थी I

सभी ब्रह्माण्डों और उन ब्रह्माण्डों की आकाश गंगाओं के मध्य दशा में, जो रात्रि के समान दिखाई देता हुआ, लेकिन अति सूक्ष्म शून्य तत्त्व ही होता है, और जिसकी ऊर्जा उफान मारती ही रहती हैं, उसी ऊर्जावान सागर में बालकृष्ण, एक नील हलके वर्ण का शरीर धारण करके जिसमे पिङ्गल वर्ण की रेखाएं होती है, एक लकड़ी जैसी शय्या पर, पीपल के 108 पत्तों के आसन रूपी गद्दे पर, अपनी टाँग पर टाँग चढ़ाकर, अपने जीव जगत को देखते देखते और प्रसनचित होते हुए, विश्राम करते ही रहते हैं I

 

  • और वही प्रमिति वो पक्षी भी था, जो महाभारत युद्ध में अर्जुन और पांडवों का नभोमारगी दूत था और जो सातवां रुद्र होकर भी, अर्जुन के रथ के ध्वज पर ही, एकादशवें रुद्र, भगवान् हनुमान के साथ बैठा करता था I
  • और वही प्रमिति चौरासी सिद्धों में से एक सिद्ध भी था, जिसका नाम पुरुषार्थ चतुष्टय के प्रथम पुरुषार्थ के नाम पर था I
  • और वही प्रमिति, भगवान बुद्ध का वो शिष्य भी था, जो बोधिसत्व भी था और महर्षि भी कहलाया था I और जिसको उसके गुरुदेव ने मित्र शब्द के नाम से भी पुकारा था I उन्ही गुरुदेव और भगवान् के गुरुदक्षिणा रूपी आदेश पर वो इस बार लौटाया गया है I

और जहाँ उन भगवान् गौतम बुद्ध का जन्म, 1914 इसा पूर्व से, 2.7 वर्षों के भीतर ही हुआ था I

वो प्रमिति कई और बार भी लौटा था, कभी इस धरा पर तो कभी किसी और पर I

लेकिन उनको यदि बतलाऊँगा, तो यह अध्याय बहुत ही लम्बा हो जाएगा I

और उसको यह भी पता है, कि इस कलियुग की काली काया के प्रभाव के कारण, ग्रंथों में विकृति आई है, जिसके कारण ऊपर बताए गए बिंदुओं पर ग्रंथों में बताए है कालखंडों से, कुछ विरोधाभास होगा ही I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और योग चक्रवर्ती का अभिषेक बताता हूँ …

यह अभिषेक भी योगमार्ग से ही होता है और वो भी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के द्वारा I

इस अभिषेक में किसी भी जीव सत्ता का कोई भी योगदान नहीं होता I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि यह अभिषेक उस योग चक्रवर्ती साधक और ब्रह्माण्ड की निराकारी दिव्यताओं में ही रहता है I

जब चेतना ब्रह्मरंध्र के भीतर के जो तीन छोटे छोटे चक्र होता हैं, उनमें से सबसे ऊपर के मनस चक्र से भी आगे को चली जाती है (अर्थात मनस चक्र से चेतना बाहर को निकल जाती है), तो इसके पश्चात साधक की कपाल के ऊपर के भाग में, एक हलके पीले चूने जैसा पदार्थ आ जाता है I

यह पदार्थ जो कपाल के ऊपर के भाग (कपाल से बाहर की ओर ही आता है), वो कुछ ही समय में, पिघल जाता है और गौ के घी के समान हो जाता है I

और ऐसा होने के पश्चात, वो गौ का घी सारे कपाल में फ़ैल जाता है I

और जब ऐसा हो जाए, तो यह ही उस योग चक्रवर्त धारण किये हुए योगी का ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा अभिषेक कहलाया जाता है I

और इसी अवस्था के पश्चात, ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, वो योगी त्रिभुवन का ही चक्रवर्ती सम्राट कहलाता है I और जहाँ वो त्रिभुवन भी उस योगी की काया के भीतर ही बसा होता है, न की काया से बाहर I

इसी अति प्राचीन वैदिक योग चक्रवर्त अभिषेक प्रक्रिया को पश्चिमी सभ्यताओं में भी अपनाया गया था, और उन सभ्यताओं में इसी अभिषेक को ऐनोइन्टमेन्ट (anointment) के शब्द से बताया जाता है I

लेकिन यह अभिषेक (ऐनोइन्टमेन्ट) दैविक प्रक्रिया है, न की वो जिसमे कुछ चुने हुए लोग, किसी मानव के सर पर तेल लगाते हैं और इसके पश्चात उसको राजा घोषित करते हैं I ऐसी प्रक्रिया तो प्रपञ्च ही है, क्यूंकि चक्रवर्ती सम्राट का अभिषेक तो ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं ही करती हैं…, न की कोई मानव I

और यह अभिषेक भी अनाभिमानी देवताओं द्वारा होता है I

इस अभिषेक के समय, उस योगी का सिद्ध शरीर उन सूर्य देवता के लोक में जाता है और उसी सूर्यलोक में यह अभिषेक होता है I

और यही अभिषेक उस योगी की काया में भी कुछ समय तक दिखाई देता है I

ऐसे समय पर योगी की काया के कपाल के ऊपर के भाग में, एक हलके पीले वर्ण का तेल युक्त चूर्ण दिखाई देता है, जो कुछ समय में ही पिघल कर तेल बन जाता है, और वो तेल उस योगी के कपाल पर फ़ैल हो जाता है I

लेकिन ऐसा तो तब भी होता है, जब चक्रवर्त मार्ग के योगी की चेतना सातवें चक्र को पार करती है I

 

और एक बात …

और इससे भी बड़ा अभिषेक वो होता है, जिसमें साधक की चेतना अष्टम चक्र को ही पार कर जाती है, जिसके बारे में अथर्ववेद के दसवें अध्याय के दूसरे खंड के मंत्र संख्या इकत्तीस, बत्तीस और तैंतीस में सांकेतिक रूप में बताया गया है I

अथर्ववेद की यह संख्या भी तैंतीस कोटि देवी देवताओं में, इकत्तीसवें देवता (अर्थात भगवे रुद्र), बत्तीसवें देवता (अर्थात देवराज इंद्र) और तैंतीसवें देवता (अर्थात प्रजापति) को दर्शाती है I

तो अब मैंने सांकेतिक ही सही, लेकिन जो बताना था…, वो बता दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और इस अष्ठम चक्र पर जाते समय, यदि वो योगी मान जाए, तो ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं उस योगी को चतुर्दश भुवन सम्राट भी बना देंगी I

लेकिन अष्टम चक्र के अधिकांश योगी ऐसे पद को धारण करने के लिए मानेंगे ही नहीं, क्यूंकि अष्टम चक्र का मार्ग ही शिव तारक मंत्र (अर्थात गुरु शिव का मुक्ति मंत्र) से होकर ही जाता है I

इस अष्ठम चक्र, शिव तरका मंत्र अदि के बारे में एक बाद की अध्यय श्रंखला में बात होगी I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और योग चक्रवर्त दीक्षा के एक मार्ग, जो अति पुरातन है, अब उसको बताता हूँ I

योग चक्रवर्त को धारण किये हुए योगी की श्वास ही ब्रह्मा की वो श्वास होती है, जिसको उज्जयी कहा गया है I

इसलिए, ऐसे योगी के समक्ष यदि कोई पात्र समर्पित होकर ही बैठ जाए, तो वो पात्र भी गंतव्य मार्गी हो जाएगा, अर्थात मुक्तिमार्ग पर चल पड़ेगा I

पुरातन कालों में, चक्रवर्त धारण किये हुए योगी की रेचक नामक श्वास को उसके शिष्य भी ग्रहण करते थे I

यह प्रक्रिया योग चक्रवर्त मार्ग में दी जाने वाली दीक्षा का ही एक अंग थी I

जिस योग सिद्धांत में गुरु की रेचक श्वास को ही दीक्षा मार्ग बनाया जाता है, वह केवल योग चक्रवर्त के उज्जयी नामक दीक्षामार्ग में ही होता है…, अन्य किसी भी मार्ग में नहीं I

इसलिए ऐसी दीक्षा केवल उज्जयी नाद सिद्ध चक्रवर्ती योगी ही देता है…, और कोई भी नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और बताता हूँ, की योग चक्रवर्त को पाकर वो योगी सम्राट पद को क्यों धारण करता है

हर एक साधक जो योग चक्रवर्त को पाया हुआ है, वो सम्राट नहीं होता I

लेकिन हर एक चक्रवर्ती सम्राट, योग चक्रवर्त सिद्ध योगी होगा ही I

इसका कारण है, कि हर एक योग चक्रवर्त सिद्ध को ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं चुन्ती ही नहीं हैं…, सम्राट पद के लिए I

और जबतक उस चक्रवर्त को पाए हुए योगी का अभिषेक ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं नहीं करेंगी, तबतक वो योग चक्रवर्त को पाया हुआ साधक, ब्रह्माण्ड में चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं कहलाया जाएगा I

और इसके अतिरिक्त, अधिकांश योगीजन तो योग चक्रवर्त को पाकर, अपनी काया को रख ही नहीं पाते हैं I इसलिए यदि काया ही नहीं रही, तो कौन सम्राट बनेगा…, या नहीं बनेगा I

और इसके अतिरिक्त, बहुत सारे योग चक्रवर्त को सिद्ध किये हुए योगी, संसार से ही इतने विमुख हो जाते हैं, कि उनके लिए सम्राट या प्रजा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता I

इन्ही कारणों से, प्रत्येक योग चक्रवर्त को पाया हुआ साधक, सम्राट नहीं बनता I लेकिन ऐसा होने पर भी, प्रत्येक चक्रवर्ती सम्राट को, योग चक्रवर्त सिद्ध होना ही होगा I

 

तो अब किस प्रकार का योगी चक्रवर्ती सम्राट बनता है, उसको जानते हैं …

  • जिस योग चक्रवर्त सिद्ध साधक को काल की प्रेरणा आएगी, वही आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट हो पाएगा I और ऐसे साधक के साथ, काल की दिव्यता, महाकाली भी होंगी ही I

पूर्व जन्मों में, मेरे साथ कई बार, ऐसा ही हुआ था I

  • जिस योगी को उसके गुरु, इष्ट आदि की आज्ञा होगी, वो भी इस पद से विमुख नहीं हो पाएगा I

मेरे साथ, कुछ पूर्व जन्मों में ऐसा हुआ है, इसलिए उन जन्मों में मैं इस सम्राट के पद को धारण किया था I

  • जब योगी पर पञ्च ब्रह्म में से कम से कम किसी एक का आदेश और अनुग्रह होगा, तो ही वो इस पद को धारण कर पाएगा…, अन्यथा नहीं I
  • जब योगी पंच महाभूतों में से किसी एक या एक से अधिक, लेकिन पांच से न्यून महाभूतों का सिद्ध होगा I

यह योग चक्रवर्त की सर्वोच्च दशा भी है क्यूंकि ऐसा चक्रवर्ती सम्राट महामानव पद को भी पाया होता है I

  • लेकिन योग चक्रवर्त को सम्राट रूप में फलित होने के लिए, योगी को ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में से किसी एक या अधिक का आदेश भी होना ही होगा I
  • इत्यादि I

 

लेकिन इस पद तो धारण करने के पश्चात भी, ऐसे चक्रवत्र के योगी बस उतने ही कर्म करते हैं, जीतना उनको आदेश हुआ है…, न इससे न्यून और न ही अधिक I

ऐसी कर्मों की सीमा इसलिए होती है, क्यूंकि ऐसे योगी को पता ही होता है, कि यदि उस दैविक या कारण जगत के आदेश से आगे कुछ भी किया जाएगा, तो उन अधिक कर्मों का भार भी स्वयं को ही उठाना पड़ेगा I

और ऐसी स्थिति में, उन अधिक कर्मों से जनित उस अनंत कर्म चक्र में फंसना भी पड़ेगा, जो वो चक्रवर्ती योगी पूर्व में ही त्याग चुका है I

इसलिए चक्रवर्ती सम्राट बस उतने ही कर्म करेगा और वो कर्म भी उतने ही बिन्दुओं में करेगा, जितना उसे ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा आदेश हुआ था I

इससे न्यून वो कर ही नहीं पाएगा…, और इससे अधिक वो स्वयं ही नहीं करेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और योग चक्रवर्ती सम्राट के कर्म और लक्षण बताता हूँ …

  • वो स्थिति कृत्य का होगा ही, … क्यूंकि यह कृत्य श्री विष्णु का है, जो ब्रह्माण्ड के सनातन सम्राट और सनातन गुरु भी हैं I

इस कृत्य के बिना सम्राट कैसा? I

और इसी कारण से, वो चक्रवर्ती सम्राट विश्व में वैष्णव ही होगा I

वो कर्मों और परिस्थिति अनुसार अन्य चार कृत्यों में से, किसी एक या एक से अधिक को, उन कर्मों को करने हेतु, धारण भी कर सकता है I

और उन धारण किये हुए कृत्यों के अनुसार ही उसके कर्मों की गति भी होगी I

और इन्ही कृत्यों के अनुसार, उसके कर्म और लक्षण भी दिखाई देंगे I

 

अब कुछ सांकेतिक बताता हूँ …

यदि ये चक्रवर्ती सम्राट शैव हुआ, तो ऐसा होगा …

भीतर से शैव, बहार से शाक्त, और इस धरा पर वैष्णव I

 

और यदि वो चक्रवर्ती सम्राट शाक्त हुआ, तो ऐसा होगा …

भीतर से शाक्त, बहार से शैव, और इस धरा पर वैष्णव I

 

इसलिए, चाहे वो जिस भी मार्ग या कृत्य का हो, धरा (अर्थात भू महाभूत) पर तो वैष्णव ही प्रतीत होगा I

और यही वैष्णव मार्ग, यहाँ बताई जा रही भू महाभूत सिद्धि का भी है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

अब चक्रवर्ती सम्राटों के आगमन का मुख्य समय बताता हूँ …

इसको बताने से पूर्व, युगों के बारे में बताना होगा …

जैसे देव युग या महायुग होते हैं, वैसे ही मानव युग होते हैं जो पृथ्वी के ही अग्रगमन चक्र में चलित होते हैं I

 

मानव युगों की आयु देवताओं के युगों से 360 गुना न्यून होती है I

जो मानव सत्युग देव कलियुग के समय में आता है, उसको ही गुरु युग कहते हैं I

गुरुयुग या वैदिक युग में, दो मानव सत्युग आपस में जुड़े होते हैं I

तो इस बिन्दु का आलम्बन लेके आगे बढ़ता हूँ …

चक्रवर्ती सम्राट जिस युग में आते ही हैं, वो गुरु युग है I

इस युग की आयु 10,000 वर्षों के समीप होती है I

लेकिन क्यूंकि गुरुयुग वो मानव सत्युग युग होता है जो देवताओं के कलियुग के कालखंड में ही, उस देव कलियुग के भीतर ही चलायमान होता है, इसलिए इस युग में यदि कोई योगी चक्रवर्त को पा भी गया, तब भी वो चक्रवर्ती सम्राट होगा या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं है I

ऐसा कहने का कारण है, कि गुरुयुगों में चक्रवर्त धारण किया हुआ योगी, तब ही सम्राट हो सकता है, जब उसे पूर्व में बताए गए बिन्दुओं के साथ साथ, काल की भी प्रेरणा मिले I

इसलिए, जबकि देवताओं के कलियुग में, जिसकी वैदिक समय इकाई में आयु 432,000 वर्षों की होती है,  मानव युगचक्र के अंतर्गत योग चक्रवर्त धारण किये हुए योगी हो सकते हैं, लेकिन वो सम्राट बनेंगे या नहीं, वो महाकाल और उनकी दिव्यता (माँ महाकाली) पर ही निर्भर करता है I

और गुरुयुग के पूर्ण होने के बाद भी, वैदिक समय इकाई में कोई 1200 वर्षों तक चक्रवर्ती सम्राट हो सकते हैं, लेकिन इसमें भी वही काल की प्रेरणा चाहिए होगी I

और यदि उस योग चक्रवर्त धारण किए हुए योगी को ऐसी प्रेरणा ही ना आए, तो वो बस अपना ज्ञान वितरण करके, शांत चित्त होक, अपने प्रारब्ध के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करता है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और योग चक्रवर्त से आगे की दशा बताता हूँ …

योग चक्रवर्त का नाता सात चक्रों से है I

लेकिन चक्र तो आठवाँ भी होता है, जिसको नाथ सिद्धों ने निरलम्बस्थान (या निरालम्ब चक्र) भी कहा है I

सातवें चक्र तक का योगी, एक लोक सम्राट होता है I और कुछ विशेष कारणों से वो योगी, त्रिभुवन तक का सम्राट हो सकता है I

और इसके अतिरिक्त, काल की प्रेरणा और उस योगी की सहमति, दोनों से यदि आठवें चक्र का योगी, चक्रवर्ती सम्राट बनाया जाएगा, तो वो चतुर्दश भुवन का सम्राट और अवधूत ही कहलायेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और चक्रवर्ती सम्राट का सूक्ष्म साम्रज्य को बताता हूँ …

पञ्च महाभूतों में से किसी भी महाभूत सिद्धि से चक्रवर्त को पाया जा सकता है I

और इस सिद्धि के पश्चात, यदि वो योगी चक्रवर्ती सम्राट बनाया जाता है, तो वो उन सभी दशाओं का भी सम्राट होगा, जो उस महाभूत से संबंधित हैं I

लेकिन क्यूंकि इन महाभूतों में ही चतुर्दश भुवन बसाया गया है, इसलिए वो योग चक्रवर्त धारण किया हुआ महाभूत सिद्ध योगी, चतुर्दश भुवन तक का सम्राट भी हो सकता है I

ऐसी दशा में वो किसी लोक पर शरीरी रूप में निवास करता हुआ भी, यदि सम्राट पद धारण नहीं करेगा, तो उसका साम्राज्य सूक्ष्म तत्त्वों तक ही सीमित रहेगा I

अधिकांश महाभूत सिद्ध योगी, ऐसे ही हुए हैं I

जब सूक्ष्म को जीता जाता है, तो स्थूल पर विजय स्वतः ही हो जाती है I इसका कारण है, की स्थूल का उदय, पूर्व की सूक्ष्म दशा से ही हुआ था I

 

आगे बढ़ता हूँ …

योग चक्रवर्ती वो योगी होता है, जिसने अपने सप्त चक्रों का साक्षात्कार करके, उन चक्रों की दिव्यताओं को भी सिद्ध किया है I

इसका अर्थ हुआ, कि योग चक्रवर्ती कोई ऐसा मानव नहीं होता, जो अस्त्र धारी होकर, मार काट मचाकर, इस भूमंडक पर कब्ज़ा करता है I

योग चक्रवर्ती वो योगी होता है, जिसने अपने भीतर के सप्त चक्र और उनकी दिव्यताओं का साक्षात्कार करके, उनको पार करने के पश्चात, उनको अपने भीतर धारण करके, उनकी सिद्धि पाई है I

और इस योग चक्रवर्त मार्ग में, वो योगी ग्रंथि-चतुष्टय का भी भेदन (या छेदन) करता है, और इन ग्रंथियों से भी पार चला जाता है I

यह चार ग्रंथियाँ, स्थूल शरीर के चार भागो मे होती है, जो नाभि क्षेत्र, हृदय क्षेत्र, कंठ क्षेत्र और त्रिनेत्र क्षेत्र हैं I

जैसे नाभि की ग्रंथि ब्रह्मा जी की होती है, वैसे ही अन्य तीन ग्रंथियां पंच देव में से एक-एक देव की होती हैं I

और योगी की चेतना जो इन सभी ग्रंथियों में से जाती है (अर्थात इन ग्रंथियों का भेदन और छेदन करके मेरुदण्ड के नीचे से मस्तिष्क की ओर जाती है), वही पंच देवों में देवी कही गई हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ …

और क्यूंकि शरीर के भीतर ही ब्रह्माण्ड होता है, इसलिए जिस योगी ने सप्त चक्रों को भेदा है, वो इन चक्रों की दिव्यताओं पर और ब्रह्माण्ड पर भी विजयश्री पाया होता है I ऐसे योगियों में से ही कोई एक योगी, जिसको ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं चुनती हैं, सम्राट पद को पाता है I

यही कारण था, कि योग मनिषियों ने चक्रवर्ती सम्राट नामक शब्द का प्रयोग किया है I

लेकिन वेदों का चक्रवर्ती सम्राट, अपना साम्राज्य ज़माने के लिए, अस्त्र उठकर सबको काटता हुआ नहीं जाता है I

वैदिक चक्रवर्ती सम्राट वो योगी होता है, जिसने अपनी योग सिद्धि में ही इस पद को पाया है I

ऐसा चक्रवर्ती इस कलियुग या इससे पूर्व के द्वापर युग के सम्राटों के सामान, गुंडा मवाली नहीं होता I

और वैदिक चक्रवर्ती सम्राट को यह पद, कोई मानव नहीं देता है, बल्कि यह पद ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा ही, योगमार्ग से प्रदान किया जाता है I

ऐसे वैदिक चक्रवर्ती सम्राट का अभिषेक भी कोई मानव काया धारी ऋषि, सिद्ध अदि नहीं करता, उसका अभिषेक भी योगमार्ग से ही ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा किया जाता है I

 

भू महाभूत और ब्रह्माण्ड योग, ब्रह्माण्ड धारणा और ब्रह्माण्ड योग,

योगी के शरीर में ही ब्रह्माण्ड होता है, और यह ब्रह्माण्ड भी इन सप्त चक्रों के मध्य में ही फैला होता है, अर्थात यह भीतर का सूक्ष्म ब्रह्माण्ड, अधिकांश रूप में मूलाधार चक्र से लेकर सहस्रार चक्र तक के क्षेत्र में होता है I

और जब योगी इन सप्त चक्रों का साक्षात्कार करके, उन चक्रों का भेदन करके, उनको सिद्ध करता है, तब वो योगी उस ब्रह्माण्ड से भी योग करता है, जो उस योगी की काया के भीतर ही बसा होता है I

ऐसे योग को ब्रह्माण्ड योग ही कहते हैं, जिसमें योगी अपने भीतर के ब्रह्माण्ड से ही योग लगके, ब्रह्माण्ड योगी कहलाता है I

जैसे ब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म रूप में तुम्हारी काया के भीतर है, वैसे ही वो स्थूल भूतात्मक ब्रह्माण्ड है जिसमें तुम्हारी काया बसी हुई है I

 

इसलिए जब भीतर के ब्रह्माण्ड से योग किया जाता है, तो उस ब्रह्माण्ड से जिसमें योगी की काया बसी होती है, उससे भी योग हो जाता है I यही ब्रह्माण्ड योग है I

इस जीव जगत के दृष्टिकोण से, ब्रह्माण्ड योग की गंतव्य योग है I

इस ब्रह्माण्ड योग का मार्ग भी ब्रह्माण्ड धारणा से होकर ही जाता है I

इसलिए, ब्रह्माण्ड धारणा ही ब्रह्माण्ड योग के मूल में होती है I

 

अब ब्रह्माण्ड योग से आगे की दशा बताता हूँ … ब्रह्माण्ड त्याग, सम्पूर्ण त्याग, …

जबतक किसी से योग नहीं होता, तबतक उसको त्यागोगे कैसे? I

इसलिए, वेदों में जो त्याग का मार्ग बताया गया है, वो योगमार्ग से भी आगे की दशा है I

यही कारण था, कि ऋषबदेव ने अयोग शब्द का प्रयोग किया था, और इस आयोग शब्द को योग शब्द से भी आगे की दशा बताया था I यह अयोग शब्द भी त्याग का सूचक है, जो योग सिद्ध होने के पश्चात, ही हो सकता है I

जबतक संपूर्ण जीव जगत को ही नहीं त्यागोगे, तबतक ब्रह्माण्डातीत कैसे होंगे? I

और जबतक ब्रह्माण्ड से ही अतीत नहीं होंगे, तबतक कैवल्य मोक्ष को कैसे पाओगे? I

इसलिए, वेदों में जो कैवल्य मोक्ष कहा गया है, उसका मार्ग ब्रह्माण्ड योग के पश्चात, संपूर्ण ब्रह्माण्ड को त्यागके, ब्रह्माण्डातीत अवस्था को पाके ही जाता है I

लेकिन वो ब्रह्माण्ड जिससे योग किया जाता है और जिसको त्यागा जाता है, वो तो साधक की काया के भीतर अपने सूक्ष्म सांस्कारिक स्वरूप में ही होता है I

इसलिए यहाँ जो भी बताया गया है, वो आंतरिक योगमार्ग (अर्थात आत्ममार्ग) का ही अंग है…, न कि किसी और योग पद्दति का I

और क्यूँकि आत्ममार्ग रुद्र देव का ही मार्ग है, इसलिए इसी आंतरिक योगमार्ग (या आत्ममार्ग) के मूल में रुद्र ही मिलेंगे I

और क्यूँकि रुद्र ही दस प्राण और साधक की आत्मशक्ति होते हैं, इसलिए इस आंतरिक योगमार्ग में, यह सभी जागृत भी होंगी I

 

टिप्पणियां: यहाँ जो …

  • त्रिलोक शब्द का प्रयोग हुआ है, वो भु, भुवः और स्वः लोक हैं I
  • जो चतुर्दश भुवन का प्रयोग हुआ है, वो संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही है I

 

महामानव कौन, महामानव का लौटना, महामानव का उदय

महामानव की कई श्रेणियां होती हैं, और इस पद को कई प्रकारों से पाया जा सकता है, जैसे …

  • वो योगी जो कम से कम एक महाभूत का सिद्ध होता है, लेकिन पाँचों महाभूतों का सिद्ध नहीं होता है, उसको भी महामानव ही कहते हैं I
  • वो योगी जो हृदय कैवल्य गुफा को पार किया हो, उसको भी महामानव कहते हैं I इस हृदय कैवल्य गुफा (या हृदय मोक्ष गुफा) के बारे में आगे की एक अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा I
  • वो योगी जो योग चक्रवर्त के मार्ग पर, सातवें चक्र को पार किया हो और चारों ग्रंथियों का भी उसने भेदन किया हो I
  • इत्यादि …

 

आगे बढ़ता हूँ …

  • यदि ऐसा योगी, जो महाभूत सिद्ध हो, वो इस सिद्धि के पश्चात भी उसी ब्रह्माण्ड के भीतर रह गया, जिसमें रहकर उसने महामानव पद को पाया था, तो उसकी शक्ति बढ़ती ही चली जाती है I
  • और क्यूंकि स्थूल काया में वो क्षमता ही नहीं होती, की वो इतनी शक्ति को भीतर ही समा ले, इसलिए जैसे जैसे उस योगी की शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे वैसे वो योगी उस शक्ति के उस अधिक भाग को, जिसको स्थूल शरीर धारण ही नहीं कर पाएगा, स्तम्भित भी करता चला जाता है I
  • और इस प्रक्रिया में, एक दशा ऐसी भी आती है, जिसमे उस योगी ने इतनी शक्ति स्तम्भित कर दी होगी, कि यदि वो चलायमान हो जाए, तो उस लोक को ही नष्ट कर देगी जिसमें वो योगी रहता है I

लेकिन ऐसी दशा आने के पश्चात भी यदि वो योगी ब्रह्माण्ड के भीतर अपनी स्थूल या सूक्ष्म काया में ही रह गया, तो उसकी चलित और उसके द्वारा चालित की गई शक्ति की मात्रा बढ़ते बढ़ते और कुल मिलाके उस ब्रह्माण्ड के सामान ही हो जाती है, जिसमें वो उस समय निवास कर रहा होता है I

ऐसी दशा आने के पश्चात, वो ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं ही उस योगी को बिनति करने लगती हैं, कि अब आप ब्रह्माण्ड से बाहर जाओ, क्यूंकि आप स्वयं ही ब्रह्माण्ड सरीके हो गए हो I और यदि आपका नियंत्रण आपके अपने भीतर बसी हुई स्तम्भित शक्ति से निकल गया, तो यह ब्रह्माण्ड ही नष्ट (फट) जाएगा, क्यूंकि दो पूरे ब्रह्माण्ड, एक दुसरे के भीतर नहीं रह सकते I

ऐसी दशा में वो योगी अपनी काया का परित्याग करके, उस ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर, अपनी संपूर्ण शक्ति को योगमार्ग से स्तम्भित करके, उस शून्य को धारण करता है, जिसके भीतर पञ्च महाभूतों सहित, संपूर्ण ब्रह्माण्ड बसाया गया है I

और ऐसा शून्य होकर, वो योगी उसी शून्य शक्ति के सामान, उसी ब्रह्माण्ड से जुड़ा रहकर, एक विराट नली के समान लटका रहता है I

यही महामानव पद की गंतव्य अवस्था है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

क्यूंकि ऐसा महामानव महाभूत सिद्ध ही होता है, इसलिए वो उस महाभूत से संबंधित कृत्य का भी धारक होता है I

इसका अर्थ हुआ, कि वो पांच कृत्यों में से किसी एक कृत्य का भी धारक होता है I

इस सिद्धि के बाद, वो चाहता तो मुक्ति को पा सकता था, लेकिन क्यूंकि उसको मुक्ति की इच्छा ही नहीं होती, इसलिए वो अपने प्राणों को ही स्तंभित करके, ब्रह्माण्ड से बहार निकलकर, उसी ब्रह्माण्ड के जुड़ा हुआ, एक विराट नली के समान, शून्यावस्था में ही लटका रहता है I

क्यूंकि शून्यावस्था रात्रि के समान होती है, इसलिए ऐसे ही एक शून्य स्थित, प्राण स्तम्भित योगी को ऊपर के चित्र में एक काले रंग की नली से दिखाया गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

इसलिए, ऐसे सभी योगी, अंततः अपनी काया के भीतर के तंत्रों को ही शून्य करके, उस ब्रह्माण्ड से ही अतीत होते हैं, जिसमे बसकर उन्होंने महामानव पद को पाया था I

और ऐसा महामानव योगी, उस ब्रह्माण्ड से बहार निकलकर, अपने सबकुछ को शून्य में ही स्थापित करके, उसी ब्रह्माण्ड से जुड़ा हुआ, उसी ब्रह्माण्ड के बाहर वैसे ही होता है, जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

 

अब महामानव का लौटना और महामानव के लौटने के कारण को बताता हूँ …

महामानव किसी लोक में तब लौटाया जाता है, जब उस लोक के अभिमानी देवता या तो विकृत हो चुके हों, या उनसे उस समय की परिस्थिति संभाली ही न जा रही हो I

और ऐसे समय पर, काल की प्रेरणा से और काल की शक्ति के अनुग्रह से, उस महामानव का उदय, परकाया प्रवेश के मार्ग से ही होता है I

 

अब मनमानव के तीन प्रमुख प्रकार बताता हूँ …

ऐसे योगी मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं …

  • वो जो उत्पत्ति कृत्य में ही स्तम्भित होते हैं, … ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को ऐसे योगी की आवश्यकता तब होती है, जब किसी ब्रह्माण्ड का (या ब्रह्माण्ड के भीतर किसी लोकादि का) उदय होना होता है I
  • वो योगी जो स्थिति कृत्य में स्तम्भित होते हैं, … ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को ऐसे योगी की आवश्यकता तब होती है, जब किसी ब्रह्माण्ड में (या ब्रह्माण्ड के भीतर किसी लोकादि में) स्थिति विकृत होने लगती हैं I
  • वो योगी जो संहार कृत्य में स्तम्भित होते हैं, … ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को ऐसे योगी की आवश्यकता तब होती है, जब किसी ब्रह्माण्ड में (या ब्रह्माण्ड के भीतर किसी लोकादि में) संहार प्रक्रिया चलित करनी हो I

 

इनमें से, स्थिति कृत्य का धारक योगी, उत्पत्ति और संहार कृत्य के योगिओं के साथ होता ही है I और इसका कारण है, कि …

  • यदि उत्पत्ति कृत्य से किसी भी दशा को उत्पन्न किया जाएगा, तो जबतक उस उत्पत्ति कृत्य के साथ स्थिति कृत्य नहीं होता, तबतक वो उत्पन्न हुई दशा, उत्पत्ति के पश्चात स्थापित हो ही नहीं पाएगी I

ऐसी दशा में उत्पत्ति होती रहेगी, लेकिन वो उत्पन्न हुई दशाएँ अपने उत्पन्न अवस्था में रह ही नहीं पाएंगी I

  • और यदि संहार कृत्य के चलित होने पर, उसके साथ स्थिति कृत्य नहीं होगा, तो जैसे ही किसी भी दशा (या लोक) का संहार किया जाएगा, तो इसी प्रक्रिया में समस्त ब्रह्माण्ड का ही संहार हो जाएगा I

इसलिए ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के आदेश पर, जब भी कोई उत्पत्ती या संहार कृत्य का धारक महामानव, अपनी शून्य अवस्था को त्यागकर, अपनी शक्ति को पुनः चलित करके, उत्पत्ति या संहार प्रक्रिया को चलायमान करता है, तो उसके साथ वो स्थिति कृत्य के महामानव की शक्ति भी होती ही है I

इसलिए, जब भी उत्पत्ति या संहार कृत्य को धारण किया हुआ महामानव अपनी शून्यस्वाथा से बाहर निकालकर, अपने कार्यों को करेगा, तो उसके साथ, वो महामानव जो स्थिति कृत्य का धारक होगा, उसकी शक्तियां भी आएँगी ही I

यही कारण है, कि उत्पत्ति और संहार के समय पर भी स्थिति कृत्य का धारक महामानव होता ही है I

यदि ऐसा नहीं हुआ तो वो उत्पन्न हुई दशा ब्रह्माण्ड में स्थापित ही नहीं होगी, और वो संहार की प्रक्रिया में, संपूर्ण ब्रह्माण्ड का ही संहार हो जाएगा I

 

अब महामानव का उदय बताता हूँ …

जब ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं उस शून्य रूपी महामानव, जो पूर्व कालों में अपनी शक्ति स्तम्भित करके, शून्य स्वरूप में ही हो गया था, उसको कहती हैं, कि अब आपकी आवश्यकता है, तब जो होता है, उसको अब बताता हूँ …

  • शून्य में जाने के लिए भी, बहुत समय लगता है, क्यूंकि कोई भी अपनी शक्ति को एकदम से स्तम्भित नहीं कर सकता I इसलिए शक्ति स्तम्भित भी धीरे धीरे ही होती है I
  • इसलिए जब किसी महामानव को पुनः लौटाया जाता है, तो उस शून्य से बहार निकलने की प्रक्रिया में और शक्ति तो पुनः चलायमान करने में भी अधिक समय ही लगता है I
  • यही कारण है, कि उस शून्य में भी शक्ति को पूर्ण रूप में स्तम्भित नहीं किया जाता I

और इसी कारण महामानव भी अपनी शक्ति के कुछ न्यून अंश को चलायमान ही रहने देते हैं हैं, जिसके कारण उनकी रात्रि के समान दशा की नली के भीतर भी थोड़ा प्रकाश रहता ही है I

  • और भी वो कारण है, कि यदि कोई पूर्ण रूपेण शून्य सरीका ही हो जाए, तो वो उस शून्य से पुनः अपनी पूर्व की दशा और सिद्धियों सहित लौट ही नहीं पाएगा I
  • इसलिए महामानव गण कभी भी अपने को पूर्ण स्तम्भित नहीं करते हैं, जिसके कारण वो महामानव गण उस स्तम्भित अवस्था से कुछ अधिक समय में ही सही, लेकिन लौट सकते हैं I

और ऐसा होने से, उस महामानव के लिए अपने को पुनः चलित रूपा में लाना भी इतना कठिन नहीं होता I

  • जब ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं उस महामानव को लौटने के लिए कहती हैं, तब वो महामानव उसकी उस समय की काली नली स्वरूप का विस्तार करके, उसमे अपनी स्तम्भित प्राण शक्ति को चलित करके, अपने कार्य करता है I
  • और ऐसी दशा में अपने कार्य करके, वो पुनः अपनी पूर्व की शक्ति स्तम्भित शून्यावस्था में लौट भी जाता है I

और इस दशा में वो तबतक रहता है, जबतक उसको ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा पुनः न बुलाया जाए I

  • लेकिन मनमानव शरीरी रूप में भी लौट सकते हैं I यदि ऐसा होगा, तो वो महामानव अपने पूर्ण शक्तिमय स्वरूप में नहीं लौट पाएगा, क्यूंकि शरीर में उतनी क्षमता ही नहीं होती है, कि वो उस महामानव की विराट शक्ति के पूर्ण चलित स्वरूप को अपने भीतर समा सके I

इसलिए जब कोई भी महामानव शरीरी रूप में लौटता है, तो शरीर की बाधा के कारण, वो अपनी शक्ति के कुछ अंश को ही धारण कर पाता है…, न कि अपनी शक्ति के पूर्ण स्वरूप को I

  • और क्यूंकि ब्रह्माण्ड के भीतर शरीरी रूप में लौटा हुआ वो महामानव, उस ब्रह्माण्ड का ही नहीं होता, इसलिए वो समाज में रहता हुआ भी, समाजी नहीं होता I

वो समाज के भीतर ही छुपा हुआ, अपने कार्य करता है I

और यदि इन कार्यों में उसको जन समाज के समक्ष आने की आवश्यकता ही न पड़े, तो वो गुप्त रूप में ही अपने कार्य संपन्न करके, अपनी काया का त्याग कर देगा, क्यूंकि इससे अधिक उसको उस ब्रह्माण्ड में निवास ही नहीं करना था I

और क्यूंकि ऐसे महामानव को कोई भी स्थूल देहि माता अपने गर्भ में धारण ही नहीं कर सकती, इसलिए उसका शरीरी रूप में आगमन भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही होता है I

और परकाया प्रवेश मार्ग से किसी स्थूल लोक में लौटने के कारण, उस लोक के दृष्टिकोण से उसका जन्म तो हुआ ही नहीं, इसलिए उस लोक की दिव्यताएं भी उसके आगमन को तबतक जान नहीं सकती हैं, जबतक वो किसी न किसी सांस्कारिक, कारण, दैविक, सूक्ष्म या स्थूल कर्मों के माध्यम से, अपना परिचय न दे I

यही कारण है, कि जब महामानव किसी भी लोक में लौटाए जाते हैं, तब उस लोक के देवी देव भी तबतक नहीं जान पाते हैं, जबतक वो महामानव स्वयं ही स्वयं का परिचय, उसके अपने ही चुने हुए माध्यम से न दे I

और क्यूँकि लोक के दृष्टिकोण से उसका जन्म तो हुआ ही नहीं, इसलिए जब वो महामानव अपनी काया को त्यागेगा, तो भी उसकी काया त्याग प्रक्रिया, मृत्यु नहीं कहलाएगी I

 

इसलिए, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से…,

उसका आगमन हुआ था और अब वो चला गया…, ऐसा ही माना जाएगा I

 

अब महामानव का महाभूतों में निवास स्थान बताता हूँ, महामानव का निवास स्थान, …

समस्त महामानव पृथ्वी महाभूत के भीतर ही निवास करते हैंI

इस वाक्य का अर्थ यह भी हुआ, कि चाहे वो महामानव किसी भी महाभूत का सिद्ध ही क्यों न हो, वो अपनी शक्ति स्तम्भित दशा में रहेगा पृथ्वी महाभूत के भीतर ही I ऐसे निवास के कारण, उसका नाता भू देवी से होगा ही I

इसका कारण है, कि पृथ्वी महाभूत के भीतर ही अन्य चारों महाभूतों के सूक्ष्म तत्त्व होते है I और इसलिए ही वो महामानव उसी पृथ्वी महाभूत के भीतर, उस तत्त्व (या महाभूत) से जुड़ा भी रहता है, जिसका वो सिद्ध है और जिसकी सिद्धि के कारण उसको यह महामानव पद ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं ने प्रदान किया था I

यही कारण है, कि ऊपर के चित्र में, उस शून्य रूपी विराट नली स्वरूप में, अपनी शक्ति को स्तम्भित किए हुए महामानव को दर्शाया गया है… और इसीलिए इस ग्रन्थ में, अन्य किसी भी महाभूत में ऐसा नहीं दर्शाया जाएगा I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और महामानव का प्रकृति से नाता बताता हूँ …

सारे महामानव, अपने को प्रकृति पुत्र ही मानते हैं I

और वो प्रकृति जो यहाँ बताई गई है, वो मूल प्रकृति है, अर्थात मूल ऊर्जा स्वरूप की प्रकृति है, न कि सूक्ष्म या दैविक या स्थूल प्रकृति I

इसलिए सारे महामानव मूल प्रकृति की ऊर्जाओं के ही धारक होकर लौटाए जाते हैं I

और क्यूँकि मूल का कोई और मूल भी नहीं होता, इसलिए मूल प्रकृति की ऊर्जा जिसको धारण करके यह महामानव किसी न किसी लोकादि में लौटाए जाते हैं, उनकी और उनके कार्यों की कोई कट ही नहीं होती I

और यह भी वो कारण है, कि उस महामानव को कोई भी ब्रह्माण्डीय सत्ता पराजित ही नहीं कर सकती I

और ऐसे होने पर भी सारे महामानव, दैविक प्रकृति अर्थात ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं की संतुष्टि के लिए ही कार्य करते हैं I

 

अब आगे बढ़ता हूँ और महामानव का भू देवी से नाता बताता हूँ …

महामानव विज्ञान का यह एक अनिवार्य बिन्दु है I

सभी महामानव भू महाभूत में ही निवास करते हैं, इसलिए वो सभी भू देवी परमपारा के होते ही हैं I

इसलिए, जो योगी भू देवी परंपरा का नहीं होगा, वो महामानव पद को भी नहीं पाएगा I

जबतक भू देवी किसी योगी को अपने कुल परंपरा में ही स्थान नहीं देती, तबतक वो योगी महामानव मार्ग पर भी नहीं जा पाएगा I

इसलिए, जितने भी महामानव हैं या आगे कभी भी होंगे, वो सभी भू देवी की कुल परंपरा के ही होंगे I

यही कारण है, जी जिस कुल की देवी, भू देवी नहीं होती, उस कुल में महामानव कभी भी नहीं लौट पाता I

 

अब महामानव का रुद्र देव से नाता बताता हूँ …

जब पृथ्वी महाभूत (अर्थात माँ धरती) रजोगुणी होती हैं (अर्थात रजस्वला होती हैं), तब भू महाभूत के भीतर लाल रंग के बिन्दु प्रकट होते हैं I

यह लाल रंग के बिंदु उस रजोगुण से संबंधित होते हैं, जिसके देवता रुद्र देव हैं I

इसलिए भू देवी के कुल परंपरा का होने के अतिरिक्त, महामानव को रुद्र देव की परंपरा का भी होना ही होगा I

इसीलिए, जिस कुल के देवता रुद्र नहीं होते, उस कुल में भी महामानव का आगमन नहीं होता I

 

अब महामानव का लिंग स्वरूप बताता हूँ

ब्रह्माण्ड से बहार शून्यावस्था में लटके हुए, उस महमानव की जो दशा होती है, वो लिंग रूप में ही होती है …

  • महामानव का लिंग रूप, … ब्रह्माण्ड से बाहर लटके हुए वो महामानव लिंग स्वरूप में ही प्रतीत होता है I

और ऐसा ही ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I

  • महामानव का शून्यलिंग स्वरूप, … और क्यूंकि यह लिंग स्वरूप, शून्य को ही धारण किया होता है, और शून्यावस्था में ही बसा होता है, इसलिए महामानव का वो शून्य स्वरूप, शून्यलिंग सरीका ही प्रतीत होता है I
  • महामानव का प्राकृत लिंग स्वरूप, … और क्यूंकि शून्य ही प्रकृति की प्राथमिक दशा है, इसलिए महामानव के ऐसे स्वरूप को प्राकृत लिंग भी कहा जा सकता है I
  • महामानव का प्रधान लिंग स्वरूप, … और क्यूँकि प्रकृति ही प्रधान कहलाती है, इसलिए महामानव के ऐसे स्वरूप को प्रधान लिंग भी कहा जा सकता है I
  • महामानव का शक्ति लिंग स्वरूप, महामानव का ब्रह्मशक्ति लिंग स्वरूप, … क्यूंकि ब्रह्माण्ड के उदय से पूर्व, प्रकृति शून्य स्वरूप ही थी, और क्यूंकि जो प्रकृति है वो ब्रह्मशक्ति ही होती है, इसलिए इसलिए महामानव का वो शून्यलिंग स्वरूप वास्तव में उन ब्रह्मशक्ति का ही लिंग होता है, अर्थात शक्ति लिंग होता है I
  • महामानव का ज्योतिर्लिंग स्वरूप, महामानव का ज्योतिर्मय स्वरूप, … क्यूंकि उस शून्यलिंग के भीतर, उस महामानव की शक्ति का कुछ अंश स्तम्भित नहीं होता (ऐसा पूर्व में भी बताया गया था), इसलिए बाहर से तो वो शून्यलिंग रात्रि के समान काला दिखाई देता है, लेकिन उस शून्य लिंग के भीतर, उस महामानव के द्वारा धारण करी हुई उस विराट शक्ति का कुछ भाग चलित भी होता है I और यह चलित भाग प्रकाशमान भी होता है, जिसके कारण उस काले राति के समान शक्ति लिंग के भीतर, प्रकाश भी छुपा होता है, जो बाहर से दिखाई नहीं देता है I

यही उस महामानव के शक्तिलिंग स्वरूप का ज्योतिर्मय स्वरूप या ज्योतिर्मय स्वरूप है I

  • महामानव का सगुण शिव स्वरूप, महामानव का पुरुष और प्रकृति से अतीत स्वरूप, … इसलिए जबकि वो महामानव जो एक विराट शून्यावस्था की काले रंग की नली के समान, उस ब्रह्माण्ड के बाहर, अपने स्तम्भित स्वरूप में लटका होता है, और उसी ब्रह्माण्ड से जुड़ा हुआ भी होता है जिसमें उसने अपने महामानव पद को पाया था, लेकिन वो अपनी भीतर की अवस्था में, ज्योति स्वरूप ही रहता है I

और यही उस महामानव के लिंग स्वरूप का ज्योतिर्मय रूप है I

और ऐसे ज्योतिर्मय स्वरूप में, वो शक्ति ही शिव और शिव ही शक्ति होते हैं I

जब शिव ही शक्ति हों और शक्ति ही शिव, तो यह दशा उन सगुण शिव की ही होती है, जिनसे पुरुष और प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ था I

 

अब महामानव एक विरला योगी होता है, इस बिंदु को बताता हूँ  …

ब्रह्म की रचना में मुट्ठी भर योगी भी नहीं हुए, जो मुक्ति के अधिकारी होने पर भी, मुक्ति से ही विमुख हुए हैं I

अधिकांश रूप में जब योगी मुक्ति का अधिकारी हो जाता है, तब वो मुक्ति को जाता ही है I

और ऐसे मुट्ठी भर योगियों में से, कई ब्रह्म वर्षों के बाद एक ऐसा योगी आता है, जो महामानव पद को पाता है I

और ब्रह्म की इसी रचना में, जिसमें असंख्य ब्रह्माण्ड बसे हुए हैं, कुछ ब्रह्माण्ड तो ऐसे भी हुए, जिनमें एक भी योगी महामानव पद को नहीं पाया है I

यही कारण है, कि महामानव एक अति विरला योगी होता है I

और अधिकांश महामानव वो होते हैं, जो अपने ही पूर्व समय में प्रबुद्ध योग भ्रष्ट भी रहे थे I

और ऐसे होने के कारण वो अपने संपूर्ण जीव रूपी इतिहास के एक बड़े भाग में, किसी भी स्थूल देह माता के गर्भ से जन्म भी नहीं ले पाए थे I

और इसीलिए वो कई बार और किसी न किसी लोक में, परकाया प्रवेश के मार्ग से अपने उस समय के शरीरी रूप में भी लौटाए गए थे I

यह जो अष्टांग योग, समर्पण और श्रद्धा आदि के सिद्धांत हैं, वो सभी महामानवों की दशाओं को जानकार और उनका अध्यन करकर, ही कुछ विशिष्ट योगीजनों द्वारा दिए गए हैं I इसलिए यह सब सिद्धांत ब्रह्माण्ड के भीतर की अवस्थाओं के है ही नहीं I

 

अब महामानव का उत्कर्ष मार्ग बताता हूँ …

पूर्व कालों में जीव का मार्ग चाहे बहार की दशाओं (जैसे कोई देवता या उनका लोक और उनका ग्रन्थ) से ही संबंधित क्यों न हो, लेकिन जब वो जीव अपने उत्कर्ष मार्ग पर वहाँ पहुँच जाएगा, जहाँ से उसको ब्रह्माण्डातीत होना होगा, तो उस जीव का मार्ग वही हो जाएगा, जिसको इस ग्रन्थ में “स्वयं ही स्वयं में” ऐसा कहा गया है और जो उस जीव के आत्ममार्गी दशा को ही दर्शाता है I

यही मार्ग उन सभी योगीजनों का भी होता है, जब वो महामानव पद प्राप्ति की ओर चलित होते हैं I

और जब कोई महामानव लौटता है, तब भी उसका मार्ग यही रहता है I

जो पंच देवों में से किसी एक देव के कृत्य का धारक होकर, उन देव का स्वरूप ही हो गया, वो किसी और की उपासना कैसे कर पाएगा? … थोड़ा सोचो तो I

जब वो महामानव ही शिव, या विष्णु, या ब्रह्मा, या गणपति या देवी में से किसी एक या एक से अधिक का स्वरूप ही हो गया, तो वो स्वयं के सिवा किसकी उपासना कर पाएगा? … थोड़ा सोचो तो I

और जो महामानव स्वयं ही सगुण शिव ही हो गया, तो उसका कौन उपास्य हो सकता है? … थोड़ा सोचो तो I

इसलिए उस महामानव का मार्ग, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य में ही स्थित होकर रह जाता है I

इसलिए इस ग्रन्थ का मार्ग भी, उन महामानवों के मूल मार्ग पर ही बसा हुआ है…, न कि किसी बाहर की अवस्था में I

इसका कारण है, की इस जन्म में भी, एक एक कृत्य के एक एक महामानव मेरे गुरुजन हैं I

 

अब महामानव का स्वरूप बताता हूँ …

महामानव, पंच देवों में से किसी एक या एक से अधिक लेकिन पांच से न्यून देव के कृत्य का धारक होता है, इसलिए वो उन देवता का ही स्वरूप होता है, जिसके कृति का वो धारक होता है I

यही कारण है, कि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से, वो महामानव पंच देवों में से उस देव का स्वरूप ही माना जाता है, जिनके कृत्य का वो धारक होता है I

लेकिन कुछ महामानव ऐसे भी होते हैं, जो एक से अधिक देव के कृत्यों के धारक होते हुए भी, पाँचों देव के पाँचों कृत्यों के धारक नहीं होते हैं I

जो महामानव पंच देव के पांच कृत्यों को ही धारण कर ले, वो योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से महामानव पद से भी आगे जा चुका होता है, और ऐसा योगी ही अतिमानव कहलाता है I लेकिन यहाँ पर अतिमानवों की बात नहीं हो रही है I

 

यह पञ्च देव और उनके कृत्य के स्वरूप ऐसे हैं …

  • ब्रह्मा स्वरूप, … ऐसा महामानव उत्पत्ति कृत्य का धारक होता है और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में ब्रह्मा स्वरूप ही कहलाता है I

ऐसे महामानव को तब लौटाया जाता है, जब कुछ नया उत्पन्न करना हो और वो महामानव उस उत्पन्न हुई दशा का ब्रह्मा भी होता है I

  • विष्णु स्वरूप, … ऐसा महामानव स्थिति कृत्य का धारक होता है और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में विष्णु ही कहलाता है I

ऐसे महामानव को तब लौटाया जाता है, जब कुछ स्थित करना हो (या बचाना हो) और वो महामानव उस स्थित हुई दशा के जीवों द्वारा, उन जीवों का पालनहार भी होता है I

  • रुद्र स्वरुप, ऐसा महामानव संहार कृत्य का धारक होता है और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में रुद्र ही कहलाता है I

ऐसे महामानव को तब लौटाया जाता है, जब कुछ संहार करना हो और वो महामानव उस संहार करी हुई दशा का रुद्र भी होता है I

  • देवी स्वरूप, ऐसा शाक्त मार्गी महामानव तिरोधान कृत्य (या निग्रह कृत्य) का धारक होता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में देवी ही कहलाता है I

ऐसे महामानव को तब लौटाया जाता है, जब उत्पत्ति, स्तिथी या संहार के पश्चात, सत्य को या सत्य के किसी भाग को छुपाना हो I

ऐसे महामानव को तब भी लौटाया जाता है, जब उत्पन्न, स्थित या संहार करी हुई किसी दशा को छुपाना हो (जैसे महाप्रलय के समय पर होता है) I

और लौटने के पश्चात, वो महामानव उस संहार करी हुई दशा का देवी या शक्ति स्वरूप स्वरूप भी होता है I

  • गणपति स्वरूप, … ऐसा महामानव अनुग्रह कृत्य (या आशीर्वाद कृत्य) का धारक होता है, और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में गणेश ही कहलाता है I

ऐसे महामानव को तब लौटाया जाता है, जब जीव जगत को कुछ विशेष अनुग्रह प्रदान करना हो, और वो महामानव उस अनुग्रह के पश्चात समस्त गणों का गणपति कहलाता है I

 

टिपण्णी: इन पाँच प्रकारों में से, चौथा और पांचवा प्रकार, यहाँ नहीं बताया गया है I इसलिए इस अध्याय में, पहले के तीन प्रमुख प्रकारों पर ही बात करी गई है I

अब आगे बढ़ता हूँ …

 

अब ऊपर के चित्र के अनुसार, ब्रह्माण्ड का लिंग स्वरूप, अर्थात ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, बताता हूँ …

ऊपर का चित्र भू महाभूत में बसे हुए कुछ ही ब्रह्माण्डों को दिखा रहा है…, न कि सभी ब्रह्माण्डों को I

भू महाभूत के भीतर बैठ कर, जैसे यह सभी ब्रह्माण्ड दिखते हैं, वही इस चित्र में भी दिखाया गया है I

क्यूंकि यह सभी ब्रह्माण्ड शिवलिंग स्वरूप में ही होते हैं, इसलिए इस अध्याय में दिखाया गया चित्र, ब्रह्माण्ड का लिंग स्वरूप, अर्थात ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, भी दर्शा रहा है I

 

तो इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है, और अगले पर जाता हूँ, जिसका नाम सद्योजात ब्रह्म है I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

 

लिंक:

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa

परंपरा, Parampara

ब्रह्म, Brahman

कालचक्र, Kaal Chakra

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