इस अध्याय में, अहम् नाद से आला नाद की बात होगी I यह अध्याय भी पञ्च ब्रह्म मार्ग के अंतर्गत ही है I इस अध्याय के मार्ग पर साधक पूर्व में बतलाए गए अघोर (या अहम् नाद) से वामदेव ब्रह्म को जाता है, और वामदेव का साक्षात्कार करके तत्पुरुष ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, जिनमें वो साधक आला नाद (या आला शब्द) का साक्षात्कार करता है I यह मार्ग पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार का भी है I और इस मार्ग में जो तत्पुरुष नामक ब्रह्म है, वही पञ्च मुखी सदाशिव के साक्षात्कार में रुद्र देव कहलाते हैं I इसी साक्षात्कार के समय पर साधक, वेदों में बताए गए कृष्ण पिङ्गल रुद्र (कृष्ण पिङ्गला रुद्र या कृष्णपिङ्गला रुद्र या कृष्णपिङ्गल रुद्र) को भी जानता है, और इस साक्षात्कार के पश्चात, उस साधक को दो सिद्ध शरीर प्राप्त होते हैं, जिसको इस ग्रंथ में पिङ्गल शरीर (या नटराज शरीर) और कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर (या कृष्ण पिङ्गल शरीर या नमः शिवाय शरीर, हंस शरीर, परमहंस शरीर) भी कहा गया है I यहाँ अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म तक के मार्ग को बताया जाएगा, अर्थात अहम् नाद से आला नाद तक की बात होगी I इस मार्ग की मध्य दशा में उन वामदेव ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, जिनके बारे में इससे पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I इनही सब साक्षात्कारों से साधक माँ गायत्री का नीला धवला रक्ता नामक मुखों का भी साक्षात्कार कर पाता है I
इस अध्याय का साक्षात्कार भी 2007-2008 में ही हुआ था और इस अध्याय का मार्ग भी सदाशिव के अघोर मुख (अर्थात अघोर ब्रह्म) से ही प्रारम्भ होता है I लेकिन यहाँ बताए गए सिद्ध शरीरों की प्राप्ति का समय, कोई 2011-2012 ईस्वी का ही था, जब पञ्च मुखी सदाशिव का साक्षात्कार हुआ था I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं हैI
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का उन्नीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का पांचवा अध्याय है।
अहम् से आला का मार्ग, … अहम् से आला की यात्रा, … अहम् नाद से आला नाद की यात्रा, … अहम् नाद से आला नाद का मार्ग, … बुद्ध समंतभद्र से बुद्ध आला का मार्ग, … अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म की यात्रा, … अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म का मार्ग, … अघोर से तत्पुरुष का मार्ग, … अघोर से तत्पुरुष की यात्रा, … सदाशिव के अघोर मुख से रुद्र देव का मार्ग, … सदाशिव के अघोर मुख से रुद्र देव तक की यात्रा, …

इस चित्र में, अघोर से वामदेव और वामदेव से तत्पुरुष ब्रह्म तक के मार्ग को दिखाया गया है I
इस चित्र में जो भगवे रंग की दशा नीचे की ओर दिखाई गई है, वही पञ्च ब्रह्मोपनिषत के तत्पुरुष ब्रह्म हैं I
अब इस चित्र का वर्णन करूँगा …
- इस चित्र को एक सीध में बनाया गया है, लेकिन यह ऐसा नहीं है I
- इस चित्र का मार्ग, पञ्च ब्रह्म परिक्रमा का है, अर्थात इसमें साधक की चेतना दक्षिण मार्गी होकर, पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा करती है I लेकिन इस प्रदक्षिणा के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
- क्योंकि पञ्च मुखी गायत्री ही इन पञ्च ब्रह्म की दिव्यता है, इसलिए जब वो चेतना पञ्च ब्रह्म परिक्रमा करती है, तब ऐसी प्रदक्षिणा (प्ररिक्रमा) में वो चेतना पञ्च मुखा गायत्री के मुखों की प्रदक्षिणा भी स्वतः ही कर लेती है I पञ्च मुखी गायत्री प्रदक्षिणा के बारे में एक बद के अध्याय में बताया जाएगा I
- यह चित्र अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म तक के मार्ग को दर्शा रहा है I इसलिए पञ्चब्रह्म में से इस चित्र में केवल तीन ब्रह्म दिखाए गए हैं, जो अघोर, वामदेव और तत्पुरुष हैं I
- उन अघोर नामक ब्रह्म का नाद अहम् है, और उन तत्पुरुष नामक ब्रह्म का नाद आला है I और अघोर और तत्पुरुष के मध्य में जो वामदेव हैं, उनका नाद फुह है I
- इस चित्र में ऊपर की ओर नीले वर्ण के अघोर हैं, जिनका नाद अहम् है और जिनके बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I पूर्व के अध्याय में बताया था, कि सदाशिव का अघोर मुख ही तिब्बती बौद्ध पंथ के बुद्ध समंतभद्र हैं, और जो महादेव के नाम से भी पुकारे जाते हैं I
- इस चित्र में नीचे की ओर जो भगवे-लाल वर्ण की दशा है, उसका नाद आला है I इस भगवे वर्ण के आला नाद को ही वैदिक वाङ्मय में तत्पुरुष ब्रह्म कहा गया है I
- इन्ही आला नाद को इस्लाम में अल्लाह ताला कहा जाता है I
- इन्ही आला नाद को तिब्बती बौद्ध पंथ में, बुद्ध आला भी कहा जाता है I
- क्योंकि यह अहम् नाद और आला नाद, दोनों ही तिब्बती बार्दो मार्ग के अंग हैं, इसलिए इस चित्र का तिब्बतियों के बार्दो (Bardo) नामक मार्ग से भी वास्ता है, जिसको तिब्बतन बुक ऑफ़ डेड (Tibetan book of dead) भी कहा जाता है, जिसका ज्ञान देने वाले एक उच्च कोटि के योगी थे, जिनका नाम गुरु पद्मसंभव था I
- नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म (अर्थात अहम् नाद) और भगवे वर्ण के तत्पुरुष (अर्थात आला नाद) के मध्य में, जो नील वर्ण की नली जैसी दशा दिखाई गई है, उसी नली में तिब्बती बौद्ध पंथ के चार बुद्ध साक्षात्कार होते है I इसलिए तिब्बती कहते हैं, कि अब तक इस धरा पर चार बुद्ध हुए हैं और पांचवें बुद्ध का प्रादुर्भाव अभी शेष हैं I
- और उस नली से जाने के पश्चात, साधक की चेतना उस काले-श्वेत लोक में जाती है, जिसको वैदिक वाङ्मय में वामदेव ब्रह्म कहा गया है I
- वामदेव नामक ब्रह्म को चीनी सभ्यता में यिन यांग भी कहा जाता है I
- इस चित्र में दिखाए गए तीर, उस मार्ग को दर्शा रहे हैं, जिससे साधक की चेतना इस चित्र में दिखाई गई दशाओं में गमन करती है I
अघोर से वामदेव का मार्ग, … अघोर से वामदेव की यात्रा …
ऊपर के चित्र में, नीले वर्ण के अघोर हैं और श्वेत काले वर्ण के वामदेव I
पूर्व का अध्याय, जिसका नाम वामदेव ब्रह्म था, उसमें बताया गया था, कि वो चेतना …
- अघोर से एक नीले वर्ण की नली में जाती है I और उस नली को एक रात्रि के समान दशा ने घेरा होता है I
इस नली में वो चेतना चार बुद्ध का साक्षात्कार करती है I और उन चार बुद्धों से आगे जाकर, वो चेतना वामदेव नामक ब्रह्म तक पहुँचती है I
लेकिन जब वो चेतना उन चार बुद्धों को पार करती है, तो उसकी गति बहुत तीव्र हो जाती है और वो चेतना उलटी पुलटि होती हुई ही उस नली के समान दशा में यात्रा करती है I
ऐसी गति होने के कारण, उस चेतना को उसकी गति या दिशा पर नियंत्रण ही नहीं रहता, लेकिन ऐसा होने पर भी उसको पता होता है कि उसकी गति की दिशा दक्षिण मार्ग पर ही है, अर्थात दाहिने हस्त पर ही है I
ऐसे जाते जाते, वो चेतना वामदेव नामक ब्रह्म में प्रवेश करके, उनका साक्षात्कार करती है I
और इसी साक्षात्कार को इस अध्याय से पूर्व के एक अध्याय में भी बताया गया था I
वामदेव से तत्पुरुष में प्रवेश, … वामदेव ब्रह्म से तरपुरुष ब्रह्म का मार्ग, …
अब उन वामदेव से आगे बढ़ता हूँ I
वामदेव ब्रह्म में पहुंचकर, उन वामदेव के हीरे के समान प्रकाश के भाग से साधक की चेतना तत्पुरुष ब्रह्म में प्रवेश कर जाती है I
ऐसा ही ऊपर के चित्र में तीरों द्वारा दिखाया गया है, क्योंकि इस साक्षात्कार का मार्ग भी ऐसा ही था I
अघोर से तत्पुरुष का मार्ग और कृष्ण पिङ्गला रुद्र का साक्षात्कार, … कृष्ण पिङ्गल रुद्र, कृष्ण पिङ्गला रुद्र, कृष्णपिङ्गला रुद्र, कृष्णपिङ्गल रुद्र, …
इस चित्र में दिखाया गया, अघोर का नीले रंग और तत्पुरुष का भगवे-लाल रंग की योगावस्था को ही वैदिक वाङ्मय में कृष्ण पिङ्गल कहा गया है, और जो रुद्र ही होता है I इसीलिए वैदिक वाङ्मय में कृष्ण पिङ्गल रुद्र का शब्द आया है I
इसलिए, यदि इस पूरे चित्र को एक साथ देखेंगे, तो यह चित्र वही कृष्ण पिङ्गल रुद्र का द्योतक हो जाएगा I
यही कारण है, कि ऊपर दिखाए गए चित्र से साधक कृष्ण पिङ्गल रुद्र सिद्धि को भी पा जाता है I
अघोर से तत्पुरुष का मार्ग और समंतभद्री समंतभद्र योग का साक्षात्कार …
तिब्बती बौद्ध पंथ में …,
- पुरातन शांत बुद्ध, समंतभद्र कहलाते है और वो नील वर्ण के होते हैं I
- और उनकी दिव्यता, जो बुद्ध समंतभद्री कहलाती हैं, वो श्वेत वर्ण की भी होती हैं, और लाल वर्ण की भी I
आगे बढ़ता हूँ …
जब नीले वर्ण के बुद्ध समंतभद्र का योग श्वेत वर्ण की समंतभद्री से होता है, तो वो जैसा होता है, वही नीचे के चित्र में है I

ऐसी दशा में, समंतभद्र बुद्ध के कपाल के ऊपर, एक श्वेत वर्ण का प्रकाश होता है, जैसे की इस चित्र में भी दिखाया गया है I
यह श्वेत वर्ण का प्रकाश, बुद्ध समंतभद्री का होता है, जो ऐसे समय पर समंतभद्र के शरीर के भीतर ही होती हैं और उन समंतभद्र के मेरुदण्ड के नीचे की ओर से ऊपर उठकर उनके मस्तिष्क को भी पार कर जाती हैं I
और कुछ साधकों के शरीर के भीतर भी यह योग संपन्न होता हैI मेरे साथ भी ऐसा 2011 ईसवी में हुआ था I लेकिन इस योगावस्था का मार्ग, राम नाद से ही होकर जाता हैI इस राम नाद के बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
जब यह दशा साधक के शरीर में होती है, तब यह दशा उस साधक को अर्धनारीश्वर योग की ओर ही लेके जाती है I अर्धनारिश्वर योग के बारे में एक बाद की अध्याय श्रंखला में बताया जाएगा, जिसके नाम रकार मार्ग होगा I
यह योग मनोमय कोष और प्राणमय कोष की योगावस्था को भी दर्शाता है, और इसके बारे में रकार मार्ग की श्रंखला में बात होगी I
यह योग पुरुष प्रकृति योग को भी दर्शाता है, और इसके बारे में भी रकार मार्ग की श्रंखला में बात होगी I
जब साधक के शरीर के भीतर ही इस चित्र में दिखाई गई योगावस्था होती है, तो वो साधक शून्य तत्त्व का साक्षात्कार भी कर लेता है I यह समंतभद्र समंतभद्री योग, सीधा-सीधा शून्यता की ओर लेके जाता है, और जहाँ वो शून्यता भी, साधक के सहस्रार चक्र से आगे (ऊपर) होती है I
और यह योग, इस चित्र में दिखाए गए नीले वर्ण के अघोर ब्रह्म और वामदेव ब्रह्म के हीरे के समान प्रकाश के साक्षात्कार से भी संपन्न होता है I
इसलिए जब साधक इस चित्र का साक्षात्कार करता है, तब वो साधक उस मार्ग पर भी चल पड़ता है, जिसमे उस साधक के शरीर के भीतर ही यहाँ बताया गया योग संपन्न होता है I
ऊपर के चित्र का योग, नीले वर्ण का समंतभद्र, अर्थात तमोगुणी समंतभद्र और श्वेत वर्ण की समंतभद्री, अर्थात सत्त्वगुणी समंतभद्री की योगावस्था को दर्शाता है I
यह योग भी ऊपर के अहम् से आला के मार्ग वाले चित्र में दिखाया गया है I
अब इसी समंतभद्री समंतभद्र योग की दूसरी दशा को बताता हूँ I
जब नीले वर्ण के समंतभद्र का योग लाल वर्ण की समंतभद्री से होता है, अर्थात रजोगुणी समंतभद्री से होता है, तब जो दशा होती है, वही इस चित्र में दिखाई गई है I

ऐसी दशा में, बुद्ध समंतभद्र के कपाल के ऊपर, एक पिङ्गल वर्ण का प्रकाश होता है, जैसे की इस चित्र में भी दिखाया गया है I
यह पिङ्गल वर्ण का प्रकाश, जो बुद्ध समंतभद्र के सर के ऊपर के भाग में दिखाई देता है, वो वास्तव में उन बुद्ध समंतभद्र के भीतर जागृत हुई रजोगुणी, अर्थात लाल वर्ण की समंतभद्री बुद्ध का है I
जब यह दशा साधक के शरीर के भीतर प्रकट होती है, तो यह दशा उस साधक को वैदिक वाङ्मय में बताए गए कृष्ण पिङ्गल रुद्र की ओर ही लेके जाती है I
वैसे तो इस चित्र में दिखाई गई सिद्धि की प्राप्ति तांत्रिक मार्ग की एक बहुत बड़ी उपलब्धि ही है, लेकिन मैंने कभी भी तंत्र मार्ग पर गमन नहीं किया I
जब मैंने कोई 2-3 दशक पूर्व एक मंत्र रटा था, तो मेरे गुदा से लेकर नाभि तक इतनी गर्मी आ गई थी, कि मुझे प्रतिदिन और बहुत समय तक, बर्फ के पानी में बैठने पड़ गया था I
और उसके पश्चात्, उसकी गर्मी से मुझे आँतों में एक ऐसी बीमारी आ गयी थी, जिसका कोई उपचार था ही नहीं, इसलिए उस बिमारी को मैंने ऐनीमा (अर्थात जल उपचार) से पार किया था I इसलिए इसके बाद मैंने कभी भी मंत्र मार्ग पर गमन नहीं किया I
और यही वो कारण था, कि मेरा मार्ग भावनात्मक हुआ था, जिसमे मेरे भाव में ही मेरे साधन, केवल मेरे लिए ही स्वयंप्रकट होते ही चले गए थे और जो मेरा साक्षात्कार मार्ग और उनकी सिद्धियों, दोनों के ही द्योतक और वाचक थे I
और क्योंकि इस चित्र की दशा मेरे शारीर के भीतर की ही है, इसलिए में यह स्पष्ट बता रहा हूँ, कि इस चित्र में दिखाई गई दशा की प्राप्ति उन योगमार्गों से भी होती है, जिनका तंत्र मंत्र और यंत्र से कुछ भी लेना देना नहीं I
इसलिए न तो मैं कभी तंत्र में गया, न ही मंत्र या यंत्र में, मेरा मार्ग भावनात्मक ही है, और वो मार्ग ब्रह्मसूत्र के प्रथम सत्र में भी पूर्णरूपेण बसा हुआ है I
और क्योंकि मंत्र तो कभी रटा ही नहीं, इसलिए मुझे कभी ग्रंथ पड़ने की भी आवश्यकता नहीं हुई I और इसी भावनात्मक मार्ग से, ग्रंथों के वो भाग जो मेरे किसी भी समय के साक्षात्कार से संबंधित होते थे, वो मेरे ही शरीर के भीतर खुल जाते थे जिससे में जान जाता था, कि अभी जो साक्षात्कार हुआ है, वो क्या है I और यही कारण हुआ, कि मेरा शरीर ही मेरा वो ग्रंथ हुआ, जो इस ग्रंथ में ब्रह्म ग्रंथ, प्रजापति ग्रंथ, महत्तम ग्रंथ और महानतम ग्रंथ आदि नामों से बताया गया है I
और वास्तव में तो ऐसा उत्कर्ष पथ ही आत्ममार्ग कहलाता है, जिसमें योगी स्वयं ही स्वयं में जाता हुआ, सर्वत्र को पाता है, और जहाँ वो सर्वत्र ही निर्गुण निराकार ब्रह्म सहित, उन ब्रह्म की समस्त उत्कृष्ट अभिव्यक्तियों में भी बसा होता है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
और जब ऊपर के चित्र में दिखाया गया योग साधक के शरीर के भीतर ही होता है, तो इस योग से साधक दो सिद्ध शरीरों को पा जाता है, जिनको इस ग्रंथ में …
- पिङ्गल रुद्र शरीर (या पिङ्गल शरीर या पिङ्गल सिद्ध शरीर) कहा गया है I
- और कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर (या कृष्ण पिङ्गल शरीर या कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर या कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर) भी कहा गया है I
रुद्र शरीर, रुद्र सिद्धि शरीर, रुद्र सिद्धि के शरीर, … रुद्र देव सिद्धि, रुद्र सिद्धि, …
तो अब ऊपर बताए गए दोनों रुद्र शरीरों को बताता हूँ …
पिङ्गल रुद्र शरीर, पिङ्गल शरीर, पिङ्गल सिद्ध शरीर, पिङ्गल रुद्र सिद्धि, … नटराज शरीर, नटराज सिद्धि शरीर, नटराज सिद्धि, … उन्नचास पवन सिद्धि, उन्नचास वायु सिद्धि, … उन्नचास बुद्ध सिद्धि, उन्नचास क्रुद्ध बुद्ध सिद्धि, उन्नचास भयंकर बुद्ध सिद्धि, उन्नचास प्रकोपि बुद्ध सिद्धि, …

इस चित्र में पिङ्गल शरीर दिखाया गया है I
जबकि इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति कहीं बाद में होती है, लेकिन क्योंकि इसका नाता इस अध्याय के कृष्ण पिङ्गल रुद्र से है, इसलिए आपको यहाँ पर बताया जा रहा है I
जबकि इस पञ्च ब्रह्म के अध्याय पर मैं 2007-2008 ईस्वी में गया था, लेकिन इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति, 2011-2012 ईस्वी में ही हुई थी I इसका अर्थ हुआ, कि पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार के कोई 3 से 5 वर्षों के पश्चात ही इस सिद्धि की प्राप्ति हुई थी I
इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति तब होती है, जब साधक की चेतना राम नाद से जाकर, अष्टम चक्र को भी पार कर लेती है I
और साधक की चेतना की ऐसी गति के पश्चात ही यह सिद्ध शरीर, साधक के ही स्थूल शरीर के भीतर स्वयंप्रकट हो जाता है I
यह सिद्ध शरीर इस बात का प्रमाण भी है, कि योगी ने पिङ्गल रुद्रावस्था को प्राप्त किया है I ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसा योगी, पिङ्गल रुद्र ही कहलाता है I
और क्योंकि यह सिद्ध शरीर, नटराज शिव का भी द्योतक होता है, इसलिए इसको पाया हुआ योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में परमगुरु शिव का नटराज स्वरूप ही कहलाता है I
और क्योंकि भगवान् नटराज उनन्चास पवन सहित, उन उनन्चास पवन की दिव्यताओं के धारक भी होते हैं, इसलिए यह सिद्ध शरीर उनन्चास वायु सिद्धि को भी दर्शाता है I
और वैदिक तैंतीस कोटि देवी देवताओं के अनुसार, इस सिद्धि का वास्ता, एकादश रुद्र (अर्थात ग्यारह रुद्र) से भी है I साधक के शरीर में यह एकादश रुद्र, उस साधक के पञ्च प्राण, पञ्च उप-प्राण और साधक की आत्मा शक्ति के स्वरूप में ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
अब इस शरीर का वर्णन कर रहा हूँ, इसलिए इस शरीर के चित्र को देखो …
- यह शरीर पिङ्गल वर्ण का होता है I और इसकी ऊर्जा भी इसी वर्ण की होती है I
- इस शरीर के भीतर, मकड़ी के जाले के समान बहुत सारी पिङ्गल वर्ण की तारों में, अति भयंकर और अति कष्टकारक ऊर्जा बहती है I यह ऊर्जा रुद्र देव के नटराज स्वरूप की ऊर्जा की द्योतक है I
- यह मकड़ी का जाला जैसे होता है, उसको भी इस पिङ्गल रुद्र शरीर के चित्र के दाहिने ओर के भाग में दिखाया गया है I
- और ऐसे मकड़ी के कई सारे जाले इस शरीर में जुडी हुई अवस्था में होते हैं, और उन्हीं असंख्य मकड़ी के जालों से इस पिङ्गल रुद्र सिद्ध शरीर का निर्माण हुआ होता है (या यह कहूँ, कि ऐसा ही प्रतीत होता है) I
- और मुझे ऐसा भी प्रतीत होता है, कि जैसे असंख्य मकड़ी के जाले जुड़कर, इस शरीर का निर्माण करते हैं I और इन्ही जालों से यह सिद्ध शरीर निर्मित भी होता है I
- ऐसा होने के कारण, यह शरीर सा प्रतीत होता हुआ भी, शरीर के समान नहीं होता है I और यही कारण है, कि जब इसकी विकराळ कष्टकारी ऊर्र्जा से दुखी होकर, जब मैंने इस सिद्ध शरीर का नाश करने का प्रयत्न किया था, तो ऐसा ही प्रतीत हुआ था, कि इसका नाश संभव है ही नहीं I
- जिसका नाश ही न हो सके, वही तो अनश्वर कहलाता है I और जो अनश्वर होता है, उसका जन्म भी जैसे हो सकता है, वो तो स्वयंप्रकट ही होता है और इसीलिए वो स्वयम्भू कहलाता है I
और इसीलिए वो अनश्वर ही अनादि अनंत सनातन होता है I यह नटराज शरीर उसी सनातन बिंदु का एक द्योतक है I
तो अब इसके बारे में कुछ और बताता हूँ …
यह बहुत उपद्रव मचाने वाला सिद्ध शरीर है I जब यह शरीर साधक की काया के भीतर स्वयंप्रकट होता है, तो इसकी ऊर्जा गरमा-गरम बिजली जैसी, तीक्ष्ण और तीव्र भी होती है I
ऐसा होने के कारण, रुद्र का यह पिङ्गल शरीर, साधक के स्थूल शरीर के लिए अति पीडादायक ही होता है I
और ऐसा अति पीड़ादायक होने के कारण, स्थूल शरीर के लिए इस सिद्ध शरीर की ऊर्जाओं को नियंत्रित करना, या उन ऊर्जाओं का आदी होना भी बहुत कठिन है I
अधिकांश साधक जिनके स्थूल शरीर के भीतर यह पिङ्गल रुद्र शरीर स्वयंप्रकट होता है, मृत्यु लाभ ही करते हैं, क्योंकि इस सिद्ध शरीर की कष्टदायक ऊर्जाओं को झेलने असंभव सा ही है I
जैसे ही यह सिद्ध शरीर साधक के स्थूल शरीर में स्वयंप्रकट होता है, वैसे ही इस सिद्ध शरीर की ऊर्जाएं, समस्त नाड़ियों में प्रवेश करके, साधक की नाड़ियों का शोधन करने लगती है I
और क्योंकि स्थूल शरीर तमोगुणी ही होता है और इस सिद्ध शरीर की ऊर्जाएं तीक्ष्ण रजोगुणी, इसलिए इस शरीर की ऊर्जाएं, साधक के स्थूल शरीर की स्थिति से बिलकुल विपतीत ही होती हैं I
ऐसा विपरीत होने के कारण, इस सिद्ध शरीर के स्वयंप्रकट होने के पश्चात, अधिकांश साधकगण योगमार्ग से अपनी काया का ही त्याग करने में भलाई समझते हैं I
लेकिन इस सिद्ध शरीर की ऊर्जाओं के प्रकट और चलित होने पर भी, यदि साधक अपनी काया को बचा के रख पाए, तो इस शरीर की ऊर्जाएं समस्त नाड़ी तंत्र का पूर्णरूपेण शोधन करने में भी सक्षम होती है I
और इस शोधन प्रक्रिया में, साधक का पञ्च कोष, उस साधक के अन्तःकरण चतुष्टय सहित, पूर्ण शुद्ध ही हो जाता है I
ऐसा होने के कारण, साधक का मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण, पाँचों ही विशुद्धता को पाते हैं, जिसके कारण साधक की काया के भीतर ही और बहुत सारी दिव्तायें, जो इस शरीर के स्वयंप्रकट होने से पूर्व, सुषुप्ति में थी, वो सभी एक के बाद एक जागृत होने लगती हैं I
लेकिन यह शुद्धिकरण की प्रक्रिया, कई माह तक चलती है और बहुत कष्टदायक भी होती है I
मेरे तो पूरे स्थूल शरीर में एक बहुत गरम बिजली के सामान ऊर्जा घूमती थी, और नाड़ी तंत्र सहित पूरे स्थूल शरीर में ही उफान मचती थी, जैसे की कोई गरम वायु और बिजली के सामान ऊर्जा से युक्त चक्रवात, स्थूल शरीर में घूमने लगा है और वो मेरुदण्ड से मस्तिष्क की ओर बार बार और लगातार जाता ही जा रहा है I
और अंततः यह सिद्ध शरीर, साधक को उन्नचास पवन सिद्धि (अर्थात उन्नचास वायु सिद्धि) भी प्रदान करता है I
उन उन्नचास पवन के उन्नचास देवता भी होते हैं, और इन्ही उन्नचास देवता को तिबती बार्दो मार्ग में, उन्नचास भयानक बुद्ध ( अर्थात कष्टदायी बुद्ध) भी कहा गया है I
इन उन्नचास पवन के देवत्व बिंदु, जो तिब्बती बौद्ध पंथ के उन्नचास कष्टदायक बुद्ध (या उन्नचास भयंकर बुद्ध) हैं, उनका ज्ञान भी तिब्बतन बुक ऑफ़ डेड (Tibetan book of dead) में बताया गया है I
और उन उन्नचास प्रकोपि बुद्ध (या उन्नचास क्रुद्ध बुद्ध) में से जो सबसे प्राचीन बुद्ध (या सबसे ऊपर के या बड़े बुद्ध) हैं, उनको बुद्ध आला (या आला बुद्ध) कहा गया है I
तिब्बती बार्दो तंत्र के आला बुद्ध ही पञ्च ब्रह्म में तत्पुरुष कहलाते हैं, जिनके बारे में इससे बाद के अध्याय में बात होगी I
आगे बढ़ता हूँ …
यही सिद्ध शरीर, रुद्र देव के नटराज स्वरुप को भी दर्शाता है, इसलिए इसको नटराज शरीर भी कहा जा सकता है I
जब यह नटराज सिद्ध शरीर, साधक की काया के भीतर स्वयंप्रकट होता है, तब वो स्थूल शरीर के भीतर तांडव ही मचा देता है I
और उन नटराज को ऊर्जाओं को झेलने, असंभव तो नहीं होता है, लेकिन अतिकठिन अवश्य ही है I
यदि साधक की काया के भीतर, नटराज का यह सिद्ध शरीर अपने पूर्ण स्वरूप में आ जाए, तो जितनी ऊर्जा भगवान् शिव के नटराज स्वरूप में है, उतनी ही इस शरीर में भी हो सकती है I
और ऐसी दशा में साधक का स्थूल शरीर उस स्थिति में जाएगा, जहाँ वो न जीवित कहलायेगा और न ही मृत I
और यह दशा भी तबतक बनी रहेगी, जबतक साधक की काया के भीतर प्रकट हुआ यह नटराज शरीर, उस साधक के पञ्च कोषों को पूर्ण विशुद्ध नहीं कर देगा I
मुझे इस कष्टदायी स्थिति से बाहर निकलने में ग्यारह मास लग गए थे I
क्योंकि नटराज शिव ऊर्जा के मूल कोष, मूल प्रकृति के सनातन नृत्य को दर्शाते हैं, इसलिए जिस साधक के स्थूल शरीर में यह सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, उस साधक की काया के भीतर, उन ऊर्जाओं का नृत्य चलता ही रहता है और तबतक चलेगा, जबतक वो साधक अपनी स्थूल काया का परित्याग ही न कर दे I
इसलिए, उन ग्यारह माह के कष्टदायक समय के पश्चात भी, मेरे शरीर में इस नटराज शरीर की ऊर्जाओं का नृत्य समाप्त नहीं हुआ…, बस मेरा स्थूल शरीर उस सदैव चलायमान होते हुए नृत्य का आदी हो गया I
और आज भी वो नटराज शरीर की ऊर्जाओं का नृत्य, चलता ही रहता है…, कभी अधिक ऊर्जावान अवस्था में और कभी न्यून ऊर्जा की दशा में…, और मुझे पता भी है, कि शरीर के भीतर बसे हुए इस अध्याय में बताए जा रहे नटराज शरीर की उन ऊर्जाओं का नृत्य, तबतक समाप्त भी नहीं होगा, जबतक इस काया का ही परित्याग नहीं होगा I
आगे बढ़ता हूँ …
इस नटराज सिद्ध शरीर में ब्रह्मशक्ति रूपी मूल प्रकृति की समस्त ऊर्जाओं का निवास होता है, और यह निवास सूक्ष्म रूप में ही होता है I
इस नटराज शरीर की ऊर्जा का आलम्बन लेके, साधक वो सबकुछ कर सकता है जो इस जीव जगत की पवन (वायु तत्त्व) सहित अन्य तीन नीचे के तत्त्वों (अर्थात अग्नि, जल और पृथ्वी) को नियंत्रित करने के लिए किया जाएगा, जैसे चक्रवातों की दिशा परिवर्तन, बादलों की दिशा परिवर्तन, वायु प्रकोप से बचाव, भूकम्प स्थंबन, जल त्रासदी इत्यादि से बचाव I
लेकिन ऐसा होने पर भी इस नटराज शरीर के सिद्ध साधक ने कभी ऐसा किया होगा या नहीं…, यह वो साधक ही जानता होगा I
और एक बात…, यह शरीर जिस भी साधक में स्वयं प्रकट होता है, वो साधक एक नन्हा विद्यार्थी होकर ही शेष रह जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
क्योंकि जबतक साधक के पञ्च कोष विशुद्ध न हो जाएं, तकतक यह सिद्ध शरीर, साधक को रुदन ही करवाता रहता है, इसलिए यह रुद्र शरीर ही है…, और वो भी रुद्र देव के नटराज स्वरूप में I
तिब्बती बार्दो (Bardo) मार्ग के अनुसार, इसी पिङ्गल सिद्ध शरीर को बुद्ध आला का शरीर भी कहा जा सकता है I
बिरले साधक ही होते हैं, जो इस शरीर को पाकर भी जीवित रह पाते हैं I और ऐसे साधकों पर रुद्र देव का अनुग्रह (आशीर्वाद) होता ही है I
इस सिद्ध शरीर के स्वयंप्रकट होने के पश्चात, रुद्र देव के अनुग्रह के बिना, स्थूल शरीर को रख पाना (या स्थूल शरीर में रह पाना) असंभव सा ही है I
क्योंकि रुद्र भी सब पर अनुग्रह नहीं करते, इसलिए इस सिद्ध शरीर के धारक भी अतिविरले ही होते है I
और ऐसे साधकों से भी विरले वो होते हैं, जो इस शरीर को पाने के पश्चात, अपनी काया में रह जाते हैं I
इसका अर्थ हुआ, कि जो योगी जो इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति के पश्चात, जीवित रह पाते हैं, वो विरले से भी विरले ही होते हैं, और ऐसे योगी भी इसलिए जीवित रह पाते हैं, क्योंकि उनपर रुद्र देव का पूर्ण अनुग्रह बना होता है I
और रुद्र देव का ऐसा अनुग्रह भी इसीलिए होता है, क्योंकि वो साधक रुद्र मार्ग पर, जिसको इस अध्याय में स्वयं ही स्वयं में, कहा गया है…, उसपर ही चल रहा होगा I
आगे बढ़ता हूँ …
यह नटराज सिद्ध शरीर सबसे ऊर्जावान शरीर है I
और क्योंकि स्थूल शरीर जो मुख्य रूप में तमोमयी ही होता है, इस नटराज शरीर की ऊर्जा को धारण करने में तबतक सक्षम ही नहीं होता है, जबतक उस साधक पर रुद्र देव का अनुग्रह नहीं होता है, इसलिए इस नटराज शरीर की प्राप्ति के पश्चात, अधिकांश साधक मृत्यु लाभ ही करते हैं I
और क्योंकि रुद्र भी अपना अनुग्रह सब साधकों पर नहीं बरसाते हैं, इसलिए इस शरीर की प्राप्ति के पश्चात, जिस योगी पर रुद्र देव का पूर्ण अनुग्रह नहीं होगा, वो योगी बस कुछ ही सप्ताह में अपनी काया का परित्याग कर देता है I
बस कुछ ही योगी होते हैं, जो इस नटराज शरीर की प्राप्ति के पश्चात, अपनी काया को रख पाते हैं और ऐसे योगी, विरले से भी विरले होते हैं, क्योंकि उनपर नटराज शिव का ही अनुग्रह हो जाता है…, और वो भी तब, जब नटराज किसी को अनुग्रह में रखते ही नहीं है, क्योंकि अनुग्रह कृत्य तो शिव नटराज का होता ही नहीं है (वास्तव में तो अनुग्रह कृत्य गणपति का होता है) I नटराज शिव का तो अनुग्रह कृत्य से दूर दूर तक भी कोई लेना देना नहीं है I
इन बताए गए कारणों से यह सिद्ध शरीर साधक, स्थूल शरीर के जीवित रहने के लिए सबसे विप्लवकारी है… यह सबसे खतरनाक सिद्ध शरीर है I
अब ध्यान देना …
यह सिद्ध शरीर उसी साधक को प्राप्त होगा, जो सद्योमुक्त हुआ होगा I इसलिए न तो किसी जीवन्मुक्त के पास और न ही विदेहमुक्त के पास यह नटराज शिव का सिद्ध शरीर होगा I
और क्योंकि सद्योमुक्त, विरला से भी विरले योगी होता है, इसलिए यह सिद्ध शरीर भी विरले से भी विरले साधक को प्राप्त होता है I
और क्योंकि सद्यो मुक्ति के पश्चात्, 3 से 4 सप्ताह के भीतर ही योगी अपनी काया का योगमार्ग से ही परित्याग कर देता है, इसलिए जो विरले से भी विरले योगी इस नटराज शरीर को धारण करके भी, अपनी स्थूल काया को रख पाए होंगे, उनकी संख्या इतनी भी नहीं होगी, कि उनको उँगलियों पर ही पूर्णरूपेण गिना जा सके I
आगे बढ़ता हूँ …
इस पिङ्गल रुद्र सिद्ध शरीर का संबंध, सूर्य नाड़ी (या दाहिनी नाडी या पिङ्गल नाड़ी) से ही है I
इसलिए जब साधक के स्थूल शरीर के भीतर यह पिङ्गल सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, तो इसका स्वयं प्रकटीकरण भी पिङ्गल नाड़ी से ही होता है, और वो भी उस स्थान से, जहाँ वो पिङ्गल नाड़ी, मूलाधार चक्र से मिलती है I
इस सिद्ध शरीर का पिङ्गल नाडी से संबंधित होने के कारण, जिस साधक की काया के भीतर यह शरीर स्वयंप्रकट होता है, उस साधक की पिङ्गल नाड़ी में अग्नि और वायु प्रकोप आ जाता है I
इस अग्नि प्रकोप के कारण, उस साधक के मेरुदण्ड और मस्तिष्क की समस्त नाड़ियां, अति अग्निमय हो जाती हैं I
ऐसी स्थिति, किसी भी साधक के लिए एक बहुत बड़ी दुर्दशा ही है, क्योंकि ऐसी अवस्था में साधक कोई भी कार्य नहीं कर पाता, क्योंकि उस साधक का स्थूल शरीर पत्ते के समान कांपने लगता है I
साधक के स्थूल शरीर के भीतर, इस पिङ्गल शरीर के स्वयं प्रकटीकरण के पश्चात, साधक अपने किसी भी अंग का प्रयोग ही नहीं कर पाता…, बस निकम्मा ही शयन करता रहता है I
और यह दशा भी तबतक चलती है, जबतक उस साधक के पञ्च कोष ही विशुद्ध न हो जाएँ I
आगे बढ़ता हूँ …
इस शरीर का नाता, रौद्री देवी के क्रुद्ध स्वरूप से भी है I
इस शरीर का नाता, माँ प्रकृति के ऊर्जावान स्वरूप से भी है I
पञ्च विद्या में, इस शरीर का नाता माँ गायत्री के उग्र स्वरूप, रक्ता मुख से ही है I
और दस महाविद्या में इस शरीर का नाता, तारा माँ के रक्त स्वरूप (अर्थात लाल रंग की माँ तारा) से और माँ रक्त चामुण्डा (अर्थात लाल रंग की माँ चामुण्डा), दोनों से ही है I
और यदि साधक की मृत्यु नहीं होनी होगी, तब जब इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति होती है, तो ऊपर बताई गई माताओं के अतिरिक्त, और बहुत सारी माताएं जिनका नाता इस सिद्ध शरीर से है, वो भी साधक की काया के भीतर, अपने अपने स्थानों पर, साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही स्वयंप्रकट होती जाती हैं I
इस शरीर का नाता और बहुत सारी दिव्यताओं और माताओं से है, लेकिन क्योंकि यह अध्याय इन बातों का नहीं है, इसलिए अब मैं आगे के बिन्दुओं पर जाता हूँ I
आगे बढ़ता हूँ …
अब आगामी समय के साधकगणों को इस शरीर की ऊर्जाओं से अपनी काया को बचाने का मार्ग बताता हूँ …
देह अनात्मा, आत्मा अदेहा I
यह वाक्य भगवान वेद व्यास का है, और उन्होंने मुझे तब दिया था, जब में सूक्ष्म रूप में उनसे मिलने तब गया था, जब मेरे स्थूल शरीर के भीतर इस शरीर सहित, और कई सारे सिद्ध शरीरों का प्रकटीकरण हो चुका था, और इस और उन सभी सिद्ध शरीरों को ऊर्जाएँ, उफान मचा रखी थीं I
यह 2011 ईस्वी की बात है I
उस समय (अर्थात 2011 में) मैं भगवान् बादरायण को, आदिशङ्कराचार्य की समाधि के पास, केदारनाथ धाम क्षेत्र में मिला था I
और उस समाधि पर बैठे भगवान् कृष्ण बादरायण ने मुझे यह वाक्य बताया था, मेरी अपनी उस समय की पीड़ाओं से पार जाने के लिए…, क्योंकि उनसे मिलने के समय तक, मैं बिलकुल निकम्मा हो चुका था I
इस वाक्य के अनुसार, साधक को अपनी काया को और उस काया के भीतर सिद्ध शरीरों और उन सिद्ध शरीरों के लोकों को, साक्षी भाव में स्थित होकर ही देखना चाहिए I
इसलिए, इस वाक्य की दशा में साधक, स्वयं ही स्वयं का साक्षी हो जाता है, और यही साक्षीपन की गंतव्य अवस्था है I
अब ध्यान देना …
जो स्वयं ही स्वयं का साक्षी है, वही सर्वसाक्षी निर्गुण निराकार ब्रह्म है I
जो साधक स्वयं ही स्वयं का साक्षी हो गया, वही निर्गुण ब्रह्म का आत्मस्वरूप है I
ऐसे सर्वसाक्षी साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही …
समस्त ब्रह्माण्ड, उसके अपने सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक स्वरूप में पाया जाता है I
और जहाँ …
वो ब्रह्माण्ड भी उसी साधक के आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति मात्र ही होता है I
इसलिए, …
ऐसा साधक अपने पिण्ड रूपी शरीर को ही ब्रह्माण्ड रूप में देखता है I
और अपने पिंड के भीतर ब्रह्माण्ड को, अपनी आत्मा के पिण्डात्मक स्वरूप में I
वैदिक वाङ्मय में, यही दशा ब्रह्म की पूर्णता को दर्शाती है, जिसमें …
ब्रह्म ही ब्रमांड हुआ था…, ब्रह्माण्ड उन्ही ब्रह्म की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है I
और क्योंकि अभिव्यक्ति अपने अभिव्यक्ता से पृथक भी नहीं होती है, इसलिए यह दशा ही …
अभिव्यक्ता का अभिव्यक्ति…, अभिव्यक्ति के अभिव्यक्ता स्वरूप की द्योतक है I
ऐसे साक्षात्कार की दशा में …
अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ति होता है … और अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्त I
माँ प्रकृति ही सर्वसाक्षी भगवान् होती हैं…, और भगवान् ही शक्तिमय प्रकृति I
और इन दोनों स्वरूपों की अद्वैत सनातन योगावस्था में, साधक स्वयं को पाता है I
और ऐसा साधक ही …
स्वयं ही स्वयं में जाता हुआ, सर्वसाक्षी भगवान् सहित सर्वशक्तिमय प्रकृति होता है I
इसलिए वो साधक अपने आत्मस्वरूप को ही, …
सगुण और निर्गुण भगवान् और उनकी शक्तिमय प्रकृति, दोनों स्वरूपों में पाता है I
और इसके साथ साथ, वो साधक अपने आत्मस्वरूप को ही, …
साकारी, निराकारी और लिंगात्मक भगवान् और उनकी दिव्य प्रकृति, में भी पाता है I
और ऐसा होने के साथ साथ, उसी सर्वसाक्षी आत्मिक दशा भी है, …
साधक स्वयं ही स्वयं को ऐसे देखता है, जैसे वो सुदूर खड़ा हुआ देख रहा हो I
और क्योंकि जैसा पूर्व में बताया था, की …
जो स्वयं ही स्वयं का साक्षी नहीं, वो सर्वसाक्षी ब्रह्म भी नहीं I
और जो सर्वसाक्षी ब्रह्म नहीं, वो …
एक ही समय पर, एक साथ साकारी, निराकारी, लिंगात्मक और निर्गुण भी नहीं I
और जो ऐसा नहीं, वो सर्वव्यापक अनंत स्व:प्रकाश भी नहीं कहलाया जा सकता I
इसलिए ऐसे सर्वसाक्षी भाव में, जिसके गंतव्य को यहाँ बताया गया है, और जिसका साक्षात्कार मार्ग भी इस अध्याय के नटराज शरीर से ही प्रारम्भ होता है…,
साधक अपने आत्मस्वरूप में, उन सर्वसाक्षी स्व:प्रकाश ब्रह्म के समान ही होता है I
और ऐसा होने के कारण, वो साधक …
कर्मों में प्रतीत होता हुआ भी, कर्मों से लिप्त नहीं होता I
कर्मफलों को पाता और भोगता प्रतीत होता हुआ भी, उनमें लिप्त नहीं होता I
जब साधक की आंतरिक दशा ऐसी हो जाती है, तो वो साधक …
देवादि लोकों की कर्माधीन मुक्ति से भी परे जाकर…, कर्मातीत मुक्ति को पाता है I
और एक बात, की जो कर्मातीत होती है, वही फलातीत होती है और यही …
इंद्रियातीत, भूतातीत, तन्मात्रातीत, दिशातीत या मार्गातीत, कालातीत कहलाती है I
और इसी को दशातीत या लोकातीत, गुणातीत, कोषातीत, इत्यादि भी कहा गया है I
और जहाँ यह सभी शब्द, उसी आत्मा को दर्शाते हैं, जो तुरीयातीत, निर्गुण ब्रह्म है I
इसलिए, भगवान् वेदव्यास का वही पूर्व में बताया हुआ वाक्य, मेरा आत्ममार्ग भी हुआ था, जिसके मूल और गंतव्य दोनों में ही, उन्ही गुरुदेव भगवान् के दिए हुए ब्रह्मसूत्र का ही प्रथम सूत्र था, और जो मुझे उन सर्वसाक्षी ब्रह्म की ओर लेके गया…, और जो अंततः, मेरा ही आत्मस्वरूप हुआ I
सर्वसाक्षी ही तो निर्गुण ब्रह्म का ही द्योतक है, जिसकी ओर गुरुभगवान् बादरायण का यह वाक्य, अंततः साधक की चेतना को लेके जाता है I
ऐसा कहने का कारण है, कि …
निर्गुण ब्रह्म ही तो एकमात्र अद्वैत, सर्वव्यापक, सनातन सर्वसाक्षी है I
अंततः, वो निर्गुण ब्रह्म ही तो योगी का प्रज्ञान, स्व:प्रकाश आत्मस्वरूप होते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति के पश्चात जो होता है, वो अब बताता हूँ I
साधक का …
मन सर्वव्यापक होके, मनाकाश होके, ब्रह्मलीन होता है I
बुद्धि ज्ञानाकाश होके, निश्कलंक सर्वसाक्षी कालातीत स्वरूप होती है I
चित्त संस्कार रहित होके, चिदाकाश के सामान सर्वदिशा दर्शी होता है I
अहम् विशुद्ध अहमाकाश होके, अनंत होता है I
प्राण विसर्गी होकर, ब्रह्मरंध्र को पार करते हैं…, और शून्याकाश को पाते हैंI
ऐसे साधक की जो आंतरिक और आत्मिक दशा होती है, उसमें …
मन लोकातीत या दशातीत होके, सर्वव्यापक ब्रह्म का द्योतक होता है I
बुद्धि कालचक्र से परे सनातन होके, कालातीत ब्रह्म का द्योतक होती है I
चित्त संस्कार रहित होके, मार्गातीत या दिशातीत ब्रह्म का द्योतक होता है I
अहम् विशुद्ध होके, अनंत ब्रह्म का द्योतक होता है I
प्राण, पूर्ण विसर्ग शून्याकाश में स्थित होके, शून्य ब्रह्म का द्योतक होता है I
ऐसा उत्कृष्ट योगी उसके अपने …
मन से मन ब्रह्म का वाक्य होके, तत् त्वम् असि का द्योतक होता है I
बुद्धि से ज्ञान ब्रह्म का वाक्य होके, प्रज्ञानं ब्रह्म का द्योतक होता है I
चित्त से चित्त ब्रह्म का वाक्य होके, अयमात्मा ब्रह्म का द्योतक होता है I
अहम् से अहम् अस्मि का वाक्य होके, अहम् ब्रह्मास्मि का द्योतक होता है I
और प्राण से प्राण ब्रह्म का वाक्य होके, सोऽहम् का द्योतक होता है I
और अंततः, ऐसा साधक …
न तो अहम्–ता में रहता है…, और न ही नहीं रहता है I
न यह–ता (या वह–ता) में रहता है…, और न ही नहीं रहता है I
न है–ता (अर्थात सर्वता) में रहता है…, और न ही नहीं रहता है I
और न ही ना–ता (अर्थात शून्यता) में रहता है…, और न ही नहीं रहता है I
वो अपने तुरीयातीत आत्मस्वरूप में, इन सबमें होता हुआ भी…, अतीत होता है I
लेकिन यह सब, एकदम से नहीं होता है, बल्कि इसमें समय लगता ही है I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस सिद्ध शरीर की तीक्ष्ण और तीव्र ऊर्जाओं के प्रभाव से, साधक का पञ्च कोष ही विशुद्ध हो जाते हैं I
यह भी वो कारण है कि मैं इस शरीर को एक सिद्ध शरीर मानने के साथ साथ, ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य नामक सिद्धि का भी एक सिद्धि शरीर मानता हूँ I
स्वयम्भू मन्वन्तर के समयखण्ड में, मेरे पूर्व जन्म के मनस पिता, जिनको ब्रह्मऋषि क्रतु के नाम से पुकारा जाता था, वो भी ब्रह्माण्डीय आयुर्वेदाचार्य और ब्राह्म आयुर्वेदाचार्य नामक सिद्धियों के धारक थे I इसलिए मैं इस सिद्ध शरीर को, मेरे मनस पिता का सिद्ध शरीर (क्रतु सिद्धि) भी कहता हूँ I
इसीलिए, इन बताए गए बिंदुओं के कारण, यह नटराज शरीर एक बहुत बड़ी सिद्धि है I
और इसके साथ साथ, यह अति दुर्लभ सिद्धि भी है, क्योंकि ब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, इस सिद्धि के धारक योगी उतने हो होंगे, जिन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता होगा I
ऐसी दुर्लभ सिद्धि होने का कारण भी वही है, कि नटराज शिव बस कुछ ही अतिविरले पूर्ण श्रद्धावान और पूर्णसमर्पित योगीजनों के साथ निवास करना पसंद करते हैं I
इसलिए इस सिद्धि की प्राप्ति का मार्ग भी, पूर्ण श्रद्धा और समर्पण से होकर जाता है I
और जहाँ साधक यह श्रद्धा और समर्पण, किसी पर हो या न हो…, अपने गुरु पर तो होना ही होगा I
और जहाँ वो गुरुदेव, पञ्च देवों में से कोई एक या एक से अधिक देव भी हो सकते हैं I
इसलिए इस सिद्ध शरीर की प्राप्ति, वैदिक योगमार्ग की गुरु शिष्य परंपरा की चरम सीमा पर बैठे बैठे हुए साधक को ही होती है…, अन्य किसी को भी नहीं I
आगे बढ़ता हूँ …
अब आगामी गुरुयुग के समय के साधक शिष्यगणों के लिए कुछ बता रहा हूँ …
इस नटराज शरीर के स्वयंप्रकट होने के पश्चात, मैं कई सारे आश्रमों, मठों में गया, यह जानने के लिए कि मेरी काया वैसी निकम्मी क्यों हो गई है, जैसी उस समय थी, जब यह सिद्ध मेरी काया के भीतर शरीर स्वयंप्रकट हुआ था I
उन्होंने सबकुछ जानने के पश्चात, मुझे बस शब्दों आदि में ही घुमा फिरा के वापिस ही भेजा था I
तो इन सभी अनुभवों से मैं अब जो कह रहा हूँ, उसपर विशेष ध्यान देना …
इस शरीर के स्वयंप्रकट होने के पश्चात, किसी भी आश्रम, मठ, मंदिर, पैगोडा आदि में बैठे हुए साधुओं के पास जाने की आवश्यकता नहीं है I और अपने मन में भाव रखो ऐसा …
अपनी रचना में, ब्रह्म ने कुछ भी अनुचित नहीं बनाया I
इसका कारण है, कि वो निश्कलंक ब्रह्म, कुछ अनुचित बना ही नहीं पाया था I
इसलिए ब्रह्म की रचना में, कुछ भी अनुचित नहीं है I
इसलिए, जो भी है, जहाँ भी है, जैसा भी है, जब भी है…, सब उचित ही है I
उचित अनुचित तो हमारा मत होता है, और मत तो परिवर्तनशील ही होते हैं I
जो भी हो रहा है, जैसे भी हो रहा है, जहाँ भी हो रहा है…, सब उचित है I
ऐसे भाव में स्थित होकर ही इस शरीरर की ऊर्जाओं को झेला जा सकता है…, अन्यथा मृत्यु लाभ ही पाओगे I
ऐसे भावों के मूल को धारण करके भी, उस सर्वसाक्षी भाव का मार्ग प्रशस्त होता है, जिससे साधक इस नटराज शरीर के स्वयं प्रकटीकरण के पश्चात, अपनी काया को देहावसान से बचा पाता है I
और इन सभी वाक्यों के मूल में, मेरे गुरु और भगवान वेद व्यास का वही वाक्य है, जिसको पूर्व में ऐसा बताया गया था …
देह अनात्मं, आत्मा अदेहम् I
टिप्पणियां:
- यदि कोई भी वेदांत मार्गी साधक, मेरे गुरु भगवान् वेद व्यास के बताये हुए, ऊपर लिखे गए छोटे से वाक्य पर गूढ़ अध्यन करेगा, अर्थात इस वाक्य के भीतर ज्ञानमार्गी होकर जाएगा, तो वो भी जान पाएगा जो मैंने जाना है, कि इस अतिलघु वाक्य में, मूल और गंतव्य सहित, सम्पूर्ण वेदांत है I
- इसलिए यह अतिलघु वाक्य, मुक्ति मार्ग ही है, जो साधक की चेतना को, अंततः कैवल्य मोक्ष रूपी निर्गुण ब्रह्म का सीधा-सीधा आत्मस्वरूप में साक्षात्कार करवाने का शिवमय और शक्तिमय मार्ग भी है, अर्थात यह छोटा सा वाक्य, भगवान् और प्रकृति की योगावस्था में बसा हुआ मार्ग भी है I
- और जहाँ इस वाक्य के मार्ग में, शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव और जिनकी योगावस्था सगुण शिव से होकर, साधक की चेतना को निर्गुण शिव (अर्थात परमशिव) में ही स्थापित कर देती है I
- इसीलिए मैं भगवान् वेद व्यास को, जो 2011 ईस्वी के एक सूक्ष्म शरीर गमन में मुझे केदारनाथ में आदिशङ्कराचार्य समाधि पर ही बैठे हुए मिले थे, उनका जब भी स्मरण करता हूँ, तब उन्हें ऐसा ही नमन करता हूँ …
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः ।
गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
आगे बढ़ता हूँ …
अब इस नटराज शरीर के अंतिम लैय के बारे में बताता हूँ …
यह शरीर आला नाद, अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म में लय होता है I
और तत्पुरुष के भीतर इस शरीर का लय स्थान भी वो होता है, जिसको आला नाद (अर्थात तत्पुरुष नामक ब्रह्म) के अध्याय में पिङ्गल वर्ण के गन्ने के खेत सरीका बताया है I
इसलिए इस शरीर के लय स्थान को जानने के लिए, उन तत्पुरुष के अध्याय का अध्यन करना पड़ेगा, जो इस अध्याय से अगला अध्याय होगा I
कृष्ण पिङ्गला रुद्र सिद्धि, … कृष्ण पिङ्गला रुद्र शरीर, कृष्ण पिङ्गल शरीर … भद्री भद्र योग शरीर, भद्र भद्री योग शरीर, … अघोर तत्पुरुष योग शरीर, तत्पुरुष अघोर योग शरीर, … अघोर ब्रह्म का तत्पुरुष ब्रह्म से शरीरी स्वरूप में योग, तत्पुरुष ब्रह्म का अघोर ब्रह्म से शरीरी स्वरूप में योग, … अघोर ब्रह्म तत्पुरुष ब्रह्म योग शरीर, तत्पुरुष ब्रह्म तत्पुरुष ब्रह्म योग शरीर, … समंतभद्री समंतभद्र योग, समंतभद्र समंतभद्री योग, … नमः शिवाय शरीर, नमः शिवाय का शरीरी स्वरूप, नमः शिवाय सिद्धि शरीर, नमः शिवाय सिद्धि, … हंस शरीर, परमहंस शरीर, हंस सिद्धि, परमहंस सिद्धि, …

ऊपर दिखाया गया चित्र, कृष्ण पिङ्गल शरीर को दर्शा रहा है, जो साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही स्वयंप्रकट होता है I
वैदिक वाङ्मय के अनुसार, इस सिद्ध शरीर का नाता, मूलतः कृष्ण पिङ्गल रुद्र से भी है, और पञ्च देव से भी I
पञ्च देव विज्ञानं में, इस शरीर का नाता, अघोर ब्रह्म और तत्पुरुष ब्रह्म की योगावस्था से है I इसलिए यह सिद्ध शरीर, अघोर तत्पुरुष योग को भी दर्शाता है I
बौद्ध मार्गों के अनुसार, इस शरीर का नाता नीले वर्ण के समंतभद्र और रजोगुणी समंतभद्री (अर्थात रजस्वला समंतभद्री या लाल वर्ण की समंतभद्री) से है I
और क्योंकि बुद्ध समंतभद्री, जो देवी अर्थात माँ शक्ति का ही स्वरूप हैं, वो इस योगदशा में रजस्वला होती हैं, इसलिए यह शरीर उन पूर्ण राजस्वला बुद्ध समंतभद्री (अर्थात माँ शक्ति का एक स्वरूप) की अति ऊर्जावान दशा का साक्षात्कार भी करवाता है I
जबकि इस शरीर का स्वयं प्रकटीकरण पञ्च ब्रह्म साक्षात्कार के पश्चात ही हुआ था, लेकिन तब भी इसको इस पञ्च ब्रह्म मार्ग नामक श्रंखला में ही डाला गया है, क्योंकि इस सिद्ध शरीर का नाता अघोर ब्रह्म और तत्पुरुष ब्रह्म से ही है, जो पञ्च ब्रह्म का ही अभिन्न अंग हैं…, और पञ्च मुखा गायत्री से भी संबंधित हैं I
पञ्च ब्रह्म का साक्षात्कार 2007-2008 ईसवी में हुआ था I लेकिन इस शरीर का स्थूल शरीर के भीतर, जो स्वयं प्रकटीकरण हुआ था, वो 2011-2012 ईस्वी में अष्टम चक्र से परे जाने के पश्चात ही हुआ था I इसलिए इस पञ्च ब्रह्म मार्ग की श्रंखला से, इस सिद्ध शरीर के स्वयं प्रकटीकरण की समय दूरी कोई 3-5 वर्ष की है I
यह सिद्ध शरीर इस बात का प्रमाण भी है, की योगी ने कृष्ण पिङ्गल रुद्रावस्था को प्राप्त किया है I
ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से ऐसा योगी, कृष्ण पिङ्गल रुद्र ही कहलाता है, क्योंकि इस सिद्धि के धारक साधक के शरीर के भीतर, वही कृष्ण पिङ्गल रुद्र, उस साधक पर अनुग्रह करते हैं, और उस साधक को अपना ही स्वरूप प्रदान करते हैं I
इस सिद्ध शरीर की स्वयं प्राप्ति भी एक बहुत-बहुत उत्कृष्ट (अर्थात ऊपर की) और अतिविरली सिद्धि है, क्योंकि इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में, इस सिद्धि के धारक योगीजनों की संख्या इतनी भी नहीं हैं की उनको अपनी सारी उँगलियों पर गिना जा सके I
अब आगे बढ़ता हूँ …
इस कृष्ण पिङ्गल शरीर के नाम में …
– कृष्ण शब्द … काला और गाढ़ा नीले रंगों को दर्शाता है I
– पिङ्गल शब्द … पिङ्गल रंग को दर्शाता है I
इसलिए इस शरीर का रंग भी कृष्ण पिङ्गल ही कहा गया है, जिसमें जो पिङ्गल वर्ण है, वो कृष्ण वर्ण के भीतर ही बसा होता है I और ऐसा ही इस शरीर के चित्र में भी दर्शाया गया है I
और यह सिद्ध शरीर, वेदों के कृष्ण पिङ्गल रुद्र की सगुण सकार या शरीरी अवस्था का ही द्योतक है I
आगे बढ़ता हूँ …
साधक के स्थूल शरीर के भीतर, इस कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर का स्वयं प्रकटीकरण, मूलाधार चक्र (अर्थात मूल कमल, जो मेरुदंड के सबसे नीचे के भाग से थोड़ा ऊपर की ओर होता है) और विशुद्ध चक्र (अर्थात कंठ कमल) के क्षेत्र के मध्य में होता है I
इसलिए यह सिद्ध शरीर यजुर्वेद के माध्मय मंत्र, नमः शिवाय के संपूर्ण स्वरूप को भी अपने भीतर समा और बसा कर रखे हुए होता है I
और क्योंकि जब साधक की चेतना नमः शिवाय के मंत्र पर जाती है, तो वो साधक ही हंस को दर्शाता है, इसलिए यह सिद्ध शरीर भी उस हंस योगी का ही है I
जिस साधक की चेतना ने नमः शिवाय के पंचाक्षरों पर ही गमन नहीं किया, वो कैसा हंस?…, वो तो ढोंग रच रहा है I
और जब यह कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, तब उसकी जो दशा होती है, वही इसके चित्र में दिखाई गई है I
इस सिद्ध शरीर की गुणात्मक दशा में …
- पिङ्गल वर्ण भीतर होता है I
- और इस पिङ्गल वर्ण को एक भगवे रंग ने भी घेरा होता है, इसलिए उस पिङ्गल वर्ण में, भगवे रंग के अंश भी दिखाई देते हैं I
- वो पिङ्गल वरन एक बहुत चिकने (या हमवार या चौरस) स्वरूप में होता है, जैसे की कोई मणि ही शरीरी रूप में आ गई हो I
- और वो कृष्ण वर्ण, हलके से थोड़ा गाढे नील वर्ण में होता है, जिसने उस पिङ्गल वर्ण को घेरा होता है I
- और इस सिद्ध शरीर में, कृष्ण वर्ण के प्रकाश की असंख्य किरणें, साधक की काया से बहार निकलकर, बहुत दूर तक जा रही होती हैं I ऐसा ही इस सिद्ध शरीर के चित्र में भी दिखाया गया है I
आगे बढ़ता हूँ …
- बौद्ध मार्ग में, वेदों के इसी कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर को समंतभद्री समंतभद्र योग कहा गया है I
- यह समंतभद्री समंतभद्री योग साधक के शरीर के भीतर ही होता है I और इस योग में, बुद्ध समंतभद्री लाल वर्ण की होती है और बुद्ध समंतभद्र नील वर्ण के होते है I
क्योंकि इस योग के बारे में इसी अध्याय में पूर्व में बताया जा चुका है और इसी अध्याय में इस योगावस्था का चित्र भी दिखाया जा चुका है, इसलिए अब मैं अगले बिंदु पर जाता हूँ I
आगे बढ़ता हूँ …
पञ्च ब्रह्म मार्ग पर गति और साक्षात्कार का समय 2007-2008 ईस्वी का था I
और इसके कई वर्षों के पश्चात ही इस सिद्ध शरीर का स्वयं प्रकटीकरण मेरी काया के भीतर हुआ था I
इस सिद्ध शरीर का स्वयं प्रकटीकरण, अष्टम चक्र से जाकर ही होता है, जो इस पांच ब्रह्म मार्ग से कहीं आगे की (अर्थात बाद की) सिद्धि है और जिसके बारे में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में अथर्ववेद के दसवें अध्याय के द्वितीय खंड के इकत्तीसवें मंत्र में बताया गया है I
मैंने यह अष्ठम चक्र 2011-2012 ईस्वी में पार किया किया था और इसी समय अंतराल में यह कृष्ण पिङ्गल शरीर मेरी काया के भीतर स्वयंप्रकट हुआ था I
जबकि इस सिद्द्ध शरीर का स्वयं प्रकटीकरण, इस पञ्च ब्रह्म मार्ग से कहीं आगे जाकर होता है, लेकिन तब भी इसके बारे में यहीं बताया जा रहा है क्योंकि इसका नाता पञ्च ब्रह्म के अघोर और तत्पुरुष की योगावस्था से ही है I
और इस शरीर के स्वयं प्रकटीकरण का मार्ग राम नाद से भी जाना ही होगा, जिसके पश्चात वो साधक शिव शक्ति योग से भी होकर ही जाएगा और जहाँ वो शक्ति शिव योग भी साधक की काया के भीतर ही होगा I
इसलिए इस शरीर के स्वयं प्रकटीकरण का मार्ग, इस पञ्चब्रह्म मार्ग की श्रृंखला से कहीं आगे है I
आगे बढ़ता हूँ …
अब इस कृष्ण पिङ्गल शरीर के लय को बताता हूँ …
और अंततः, इस कृष्ण पिङ्गल शरीर का लैय कृष्ण पिङ्गल रुद्र में ही होता है I
और जहाँ वो कृष्ण पिङ्गल रुद्र भी, पञ्च ब्रह्म के मार्ग में सिद्ध करी हुई, अघोर और तत्पुरुष नामक ब्रह्म की योगावस्था को ही दर्शाते हैं I
जब साधक के स्थूल शरीर के भीतर, यह सिद्ध शरीर स्वयंप्रकट होता है, तो इसके स्वयं प्रकटीकरण के कुछ समय अंतराल के पश्चात, यह सिद्ध शरीर उन्ही कृष्ण पिङ्गल रुद्र में लय भी हो जाता है, जिनके बारे में इस अध्याय में बताया जा रहा है I
और जहाँ वो कृष्ण पिङ्गल रुद्र भी साधक के लाल वर्ण के मूलाधार चक्र और नीले वर्ण के विशुद्ध चक्र के मध्य में ही होते हैं I
और ऐसा होने पर भी उस कृष्ण पिङ्गल रुद्र का प्रभाव, साधक के आज्ञा चक्र (अर्थात भ्रूमध्य कमल या नैन कमल) तक जाकर, कपाल के पञ्च रंध्र तक भी जाता है I
इसका अर्थ हुआ, कि कृष्ण पिङ्गल रुद्र का प्रभाव, मेरुदंड के नीचे के भाग में बसे हुए मूलाधार चक्र से लेकर, मस्तिष्क के ऊपर बसे हुए कपाल के रंध्रों तक भी जाता है I
और क्योंकि मस्तिष्क के मंत्र ॐ ही है, इसलिए जब साधक ऐसा साक्षात्कार करता है, वो वो पूर्व के शिव पंचाक्षरी मंत्र से आगे जाकर उन्ही शिव के अष्टाक्षरी मंत्र को चला जाता है, जिसको ॐ नमः शिवाय कहा जाता है I यह परमहंस की दशा है, जो पूर्व में बताए गए हंस से भी आगे की होती है I इसलिए यह कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर, हंस और परमहंस दोनों ही को दर्शाता है और यह एकमात्र सिद्धि भी है, जो दोनों दशाओं की है I
और इसी क्षेत्र में यह कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर लय भी होता है, क्योंकि योगी की काया के भीतर, यही क्षेत्र कृष्ण पिङ्गल रुद्र का क्षेत्र भी है I
आगे बढ़ता हूँ …
क्योंकि मेरा मार्ग सर्वस्व त्याग का ही है, इसलिए मेरे समस्त सिद्ध शरीर जिनके बारे में इस ग्रंथ में बताया गया है (या आगे बताया जाएगा) वो अंततः अपने अपने मूल ब्रह्माण्डीय दैविक आदि कारणों में लय ही हुए थे I
और जहाँ वो मूल कारण मेरी काया के भीतर भी थे, और मेरी काया जिस ब्रह्माण्ड में बसी हुई है, उस निराकार ब्रह्माण्ड में भी थे I
इसलिए, मेरे उन सभी सिद्ध शरीरों का लय, उनके अपने मूल कारणों में पूर्ण रूपेण ही हुआ था I
लेकिन इस ग्रंथ में तो मैंने वो सारे सिद्ध शरीर बताए भी नहीं है…, बस कुछ सिद्ध शरीर ही बताए हैं I
लेकिन वो सिद्ध शरीर जिनके बारे में मैंने इस ग्रंथ में बताया नहीं है, वो भी अपने अपने मूल ब्रह्माण्डीय दैविक कारणों में ही लय हुआ हुए थे I
यह सभी सिद्ध शरीर ब्रह्माण्डीय मूल, दैविक, कारण और सांस्कारिक दशाओं को दर्शाते हैं, और इन सभी दशाओं के अंतर्गत ब्रह्माण्ड की (अर्थात ब्रह्म की रचना की) अन्य सभी दशाएं आती हैं I
इसलिए जब किसी योगी के सभी सिद्ध शरीर अपने अपने कारणों में लय हो जाते हैं, तब ऐसे योगी के ऊपर ब्रह्माण्ड की पकड़ भी समाप्त हो जाती है I
ऐसे लय होने के पश्चात, ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, वो ब्रह्माण्ड उस योगी से साथ पूर्व कालों के सामान, संबंधित भी नहीं होता है I
जब तुम्हारे भीतर के ब्रह्माण्ड की मुख्य दशाएँ, अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में ही विलीन हो गई, तब तुम ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से ब्रह्माण्डीय या जीव कैसे रहोगे?…, थोड़ा सोचो तो I
और ऐसा योगी कायाधारी होता हुआ भी, ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से निरकाया और स्वतंत्र (अर्थात मुक्तात्मा) ही कहलाता है I
ऐसी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, यदि कोई भी उस योगी के बारे में जानना चाहेगा, तो वो कभी भी जान नहीं पाएगा जबतक वो योगी स्वयं स्वयं ही स्वयं को न बताए I
इस न जान पाने का कारण है कि ऐसा स्वतंत्र योगी …
ब्रह्माण्ड के भीतर रहता हुआ भी, … ब्रह्माण्ड में नहीं होता है I
ब्रह्माण्ड के भीतर काया रूप में होता हुआ भी, ब्रह्माण्ड से परे ही होता है I
इसलिए, ब्रह्माण्ड और ब्रम्हांडीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से वो योगी …
होता हुआ भी … नहीं होता है I
और नहीं होता हुआ भी … सदैव ही रहेगा I
यही कारण है, कि जो योगी ऐसी स्वतंत्रता को पाया होगा, उसके बारे में तबतक कोई भी जान नहीं पाएगा, जबतक वो स्वयं ही स्वयं को ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के समक्ष उद्भासित नहीं करेगा I
और ऐसी स्वतंत्रता की प्राप्ति के मार्ग का एक प्रमुख बिंदु, यह कृष्ण पिङ्गल रुद्र और उनका यहाँ बताया जा रहा कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर भी है I
आगे बढ़ता हूँ …
यहाँ पर एक बात बता रहा हूँ, तो इसपर विशेष ध्यान देना …
यहाँ बताया जा रहा सिद्ध शरीर, उस आगामी गुरु युग में, साधकों के तपमार्ग का एक उत्कृष्ट बिंदु ही होगा I
और उस आगामी गुरु युग में, जिसकी समय सीमा समय गणना की वैदिक इकाइ में कोई 10,000 वर्षों की ही होगी, इसी शरीर के ज्ञान आलम्बन लेके, साधकगण उत्कर्ष मार्ग पर बहुत आगे तक जाएंगे I
उस आगामी गुरु युग में, यह सिद्ध शरीर जो कुछ वर्ष पूर्व, अपने मूल कारण में लौटाया जा चुका है, वो पुनः लौटेगा I
और उस समय पर, जो सभी साधक तपस्या मार्गों के वास्तविक पात्र होंगे, उनके गुरु स्वरूप होकर, उनको उत्कर्ष मार्ग पर बहुत आगे लेकर जाएगा I
और ऐसे ही वो सब सिद्ध शरीर होंगे, जिनके बारे में इस ग्रंथ में बताया गया है…, और वो शरीर भी लौटेंगे, जिनके बारे में कुछ कारण से, इस ग्रंथ में मैंने नहीं बताया है I
इस बिंदु पर, इससे अधिक मैं बताना ही नहीं चाहता हूँ, इसलिए अगले बिंदु पर जाता हूँ I
आगे बढ़ता हूँ …
और इस कृष्ण पिङ्गल शरीर का लैय बताता हूँ I
- कृष्ण अर्थात नीला भाग, आकाश महाभूत में लय होकर, अंततः अघोर ब्रह्म में ही लय होता है I
- पिङ्गल भाग … अर्थात पिङ्गल वर्ण का भाग, अंततः आला नाद या तत्पुरुष में लय होता है I
इसलिए जब यह कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर उस आगामी गुरु युग में, साधकगण के गुरु स्वरूप में लौटेगा, तब यह दोनों भाग पुनः गठित (या एकत्रित) होंगे I
और इसके पश्चात यह सिद्ध शरीर, अपने सूक्ष्म शरीरी रूप में आकर, उन साधकगण का गुरु स्वरूप होगा, जो वास्तविक पात्र होंगे I
आगे बढ़ता हूँ …
इसी कृष्ण पिङ्गल शरीर के भीतर वो सिद्ध शरीर होता है, जिसको इस अध्याय में पिङ्गल शरीर और नटराज शरीर के नामों से सम्बोधित किया गया है I
इसलिए, वो पूर्व में बताया गया पिङ्गल रुद्र शरीर (या नटराज रुद्र शरीर) भी इस कृष्ण पिङ्गल रुद्र शरीर के भीतर से स्वयंप्रकट होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
अघोर से तत्पुरुष का मार्ग और त्रिगुण …
अघोर से तत्पुरुष के मार्ग तक जो त्रिगुणों का स्वरूप होता है, वो अब बताता हूँ …
- अघोर जो नीले वर्ण का है, वो तमोगुण को दर्शाता है I तमोगुण का साक्षात्कार तमोगुण समाधि से होता है I
- अघोर के बाद जो साक्षात्कार होता है, वो वामदेव हैं … यह वामदेव शून्य और सत्त्व, दोनों को दर्शाते हैं I सत्त्वगुण का साक्षात्कार सत्त्वगुण समाधि से होता है और शून्य तत्त्व का साक्षात्कार, शून्य समाधि से I
- और वामदेव का पश्चात, जो तत्पुरुष का साक्षात्कार होता है, वो तत्पुरुष रजोगुण को दर्शाते हैं I रजोगुण का साक्षात्कार रजोगुण समाधि से होता है I
इसलिए, अघोर ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म का मार्ग, त्रिगुण समाधि और शून्य समाधि नामक सिद्धियां भी प्रदान करता है I
और क्योंकियह कृष्ण पिङ्गल सिद्ध शरीर भी अघोर से तत्पुरुष तक की गति को ही दर्शाता है, इसलिए इस सिद्ध शरीर का धारक योगी, त्रिगुण सिद्धि सहित, शून्य सिद्धि का भी धारक हो जाता है I
और अंततः, क्योंकि यह सिद्ध शरीर अपने कारणों में ही लय हो जाता है, इसलिए इस शरीर के लय होने के पश्चात, वही साधक जो पूर्व में त्रुगुण सिद्ध और शून्य सिद्ध था, वो त्रिगुणातीत (अर्थात गुणातीत) और शून्यतीत (अर्थात शून्य ब्रह्म या श्रीमन नारायण में स्थित) ही हो जाता है I
क्योंकि यह दशाएँ (अर्थात त्रिगुण और शून्य) प्रकृति के चौबीस तत्त्वों की ही नहीं है, इसलिए यह ब्रह्माण्डातीत ही हैं I
ऐसा ब्रह्माण्डातीत होने पर वो साधक …
ब्रह्म की समस्त रचना से ही स्वतंत्र हो जाता है I
इसीलिए, …
कृष्ण पिङ्गल रुद्र साक्षात्कार से साधक, अंततः मुक्तात्मा ही होता है I
और इसीलिए, वेदों में कृष्ण पिङ्गल रुद्र का स्थान, बहुत ऊंचा ही है I
और इस अध्याय के अंत में …
क्योंकि कृष्ण पिङ्गल शरीर का नाता त्रिगुणों से है, इसलिए यह सिद्ध शरीर साधक को सर्व-द्रष्टा नामक सिद्धि भी प्रदान करता है I
इस सिद्धि में साधक ब्रह्म की समस्त रचना को ऐसे देखता है, जैसे वो साधक समस्त रचना से ही पूर्ण-सन्मुख हो I
लेकिन मैं इस सिद्धि के बारे में बताना नहीं चाहता हूँ, इसलिए इस अध्याय को समाप्त करके, अगले अध्याय पर जा रहा हूँ, जिसका नाम तत्पुरुष ब्रह्म है I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
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