ब्रह्म ग्रंथ, प्रजापति ग्रंथ, आत्म ग्रन्थ, महानतम ग्रन्थ, महत्तम ग्रन्थ

ब्रह्म ग्रंथ, प्रजापति ग्रंथ, आत्म ग्रन्थ, महानतम ग्रन्थ, महत्तम ग्रन्थ

इस भाग में मैं शरीर के ग्रंथ स्वरूप का वर्णन करूंगा। वास्तव में मानव शरीर ही ब्रह्म ग्रंथ या ब्रह्मग्रंथ, प्रजापति ग्रंथ (Scripture of creator) या आत्म ग्रन्थ होता है। इस मानव शरीर से उत्तम कोई और ग्रंथ भी नहीं होता, जिसके कारण मानव शरीर को महानतम ग्रंथ, महत्तम ग्रंथ भी कहा जा सकता है।

ये अध्याय भी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व का अध्याय से चली आ रही है।

इस मार्ग को आत्ममार्ग, ब्रह्ममार्ग, कैवल्यमार्ग और मुक्तिमार्ग भी कह सकते हैं, जो साधक के भीतर से ही प्रशस्त होता हुआ, स्वज्ञान या स्वयं के ज्ञान की ओर लेकर जाता है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में”, इस वाक्य की श्रंखला के मार्ग का दूसरा अध्याय है।

 

शरीर ब्रह्म ग्रंथ या प्रजापति ग्रंथ है

इस अध्याय को प्रारम्भ करने से पूर्व, मैं एक बात बताना चाहता हूं, कि मुझसे अपने शास्त्रों की बात मत करना, क्योंकि मैंने कुछ पड़ा ही नहीं।

बस कुछ ही वाक्य, कभी सामने आ गए, तो पड़ लिए। लेकिन मैं शास्त्र विरोधी भी नहीं हूं, बस उन शास्त्रों को पड़ा नहीं है, क्योंकि कभी ऐसी आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

वास्तव में साधक का पिंड रूपी शरीर ही एकमात्र ग्रंथ होता है, जिसे प्रजापति ने ही लिखा है, और जो उसी प्रजापति के ब्रह्मग्रंथ स्वरूप में होता है।

इसी शरीर रुपी ब्रह्मग्रंथ का आलम्बन लेके ही, समस्त ग्रंथ बतलाए गए हैं, जिसके कारण ये शरीर ही एकमात्र मूलग्रंथ भी होता है।

इसी शरीर रुपी ग्रंथ में, प्रजापति की समस्त रचना, उनकी रचना का तंत्र और स्वयं प्रजापति भी साधक के आत्मास्वरूप में होते हैं।

इसी शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ में, समस्त तत्व और उनकी दिव्यताएं भी होती हैं, जिसके कारण यही शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ, पूर्णग्रंथ भी होता है।

इसी शरीर में समस्त वेद शस्त्रों की वाणी भी चलती है, और इसलिए, यही शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ, ब्रह्म वाणी, अर्थात, वेदवाणी का स्थान भी होता है, जो इसी शरीर में घटाकाश वाणी के स्वरुप में ही सुनाई देती है।

इसी शरीर रुपी ब्रह्मग्रंथ में, समस्त वेद ग्रन्थ भी खुल जाते हैं या कोई वाणी प्रकट हो जाती है, या कोई दैविक, सिद्ध या ऋषि सत्ता भी प्रकट हो सकती है, जिससे साधक जान सकता है, की उसके साक्षात्कार का अर्थ क्या है।

इस शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ में, पुरुष और प्रकृति अपने सनातन योग में होते हैं, इसलिए ये शरीर ही उनका योगदुर्ग भी है।

ये शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ ही उस रचैता, उसकी रचना और उसकी रचना के तंत्र को भी धारण किया हुआ होता है।

इस शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ में, अपने मूल रूप में, वो सब कुछ है, जो मुक्तिमार्ग का अंग होता है, इसलिए जिस भी योगी ने इसको पढ़ लिया, अर्थात इसमें बसी हुई सूक्ष्म दिव्यताओं को जान लिया, वो कैवल्य मार्गी हुए बिना रह ही नहीं पाएगा।

इसी शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ के मूल में योग होता है, और गंतव्य में वेदज्ञान या आत्माज्ञान ही होता है। इसलिए, इस पिंडात्मक ब्रहग्रंथ को पढ़ने और जानने के लिए, साधक को योगमार्गी तो होना ही पड़ेगा।

और जब साधक इस शरीर रूपी प्रजापति ग्रंथ के गंतव्य को पाएगा, तो वो वैदिक हुए बिना भी नहीं रह  पाएगा।

ये शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ वो वेद भी है, जिसमें प्रजापति अपने ही पंच स्वरूपों में बसे होते हैं।

और इसलिए, जिसने भी इस शरीर रूपी प्रजापति के ग्रंथ का अध्ययन किया है या आगे कभी करेगा, वो प्रजापति को उनके पूर्ण स्वरूप में, अपनी ही आत्मा में पाएगा, और कैवल्य मुक्ता कहलेगा।

इस शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ से उत्कृष्ट ग्रन्थ न कभी लिखा गया है और न ही कभी लिखा जायेगा।

जो साधक इस शरीर रूपी ब्रह्मग्रंथ को उसकी अपनी साधनाओं में पढ़ चुका है या जान चुका है, वो ही ज्ञानी है, और ऐसे ज्ञानी साधक को किसी और ग्रन्थ की कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ती है।

जिसने शास्त्रों के मूल और गंतव्य, दोनों को ही जान लिया, उसको शास्त्रों से क्या लेना देना। ऐसे स्व:ज्ञानी के लिए शास्त्रों का क्या लाभ।

ऐसा ज्ञानी साधक तो बस, “स्वयं ही स्वयं में” रमण करता है।

ये अध्याय उस “स्वयं ही स्वयं में” रमण करने के मार्ग और सिद्धि का एक मुख्य पद भी है, जो इस मानवशरीर रुपी प्रजापति ग्रन्थ में रहकर ही धारण की जाती है।

जो धारण करने योग्य होता है, वो ही धारण किया जा सकता है। और धारण करने के पश्चात ही तो, वो धारण किया हुआ, उस धारक का धर्म कहलाता है।

 

तो अब मै धर्म शब्द की साधारण परिभाषा देता हूँ …

वो गुण जो प्रत्येक जीव के साथ, प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु के साथ, और प्रत्येक काल, दिशा और दशा के साथ, अनादि काल से अनन्त कालों तक, परस्पर बना रहता है, वो गुण ही उस जीव, व्यक्ति, वास्तु, कालखंड, दिशा और दशा का धर्म कहलाता है। जो गुण ऐसा नहीं होता, उसको सनातन कालों में और सनातन कालों तक धारण भी नहीं किया जा सकता, और इसीलिए, उसको धर्म शब्द में परिभाषित भी नहीं किया जा सकता।

इसलिए ये अध्याय, एक मुख्य धर्मबिंदु भी है, जो “स्वयं ही स्वयं में” होकर ही पाया जाता है, क्यूंकि इसका कोई और मार्ग है भी तो नहीं।

 

शरीर रुपी ब्रह्मग्रंथ या प्रजापतिग्रंथ या आत्म ग्रन्थ का मार्ग

साधक के शरीर रुपी प्रजापति के ग्रन्थ का मार्ग, असतो मा सद्गमय से प्रारम्भ होता है, अर्थात देवत्व और जीवत्व से प्रारम्भ होता है, तमसो मा ज्योतिर्गमय को लेके जाता है, अर्थात बुद्धत्व की ओर लेके जाता है, और अंततः, मृत्योर्मा अमृतं गमय में ही बसा देता है, अर्थात ब्रह्मत्व में ही बसा देता है।

इस ब्रह्मग्रंथ के मार्ग में, असतो मा सद्गमय का वाकय, मन, बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण के आंतरिक और बाहा शुद्धिकरण से जुड़ा हुआ होता है, तमसो मा ज्योतिर्गमय का वाक्य, समाधी अदि ज्ञानमय यौगिक साक्षात्कारों से जुड़ा होता है, और मृत्योर्मा अमृतं गमय का वाकय, मनातीत, बुद्धितीत, चित्तातीत, अहमातीत और प्राणातीत अवस्थाओं से जुड़ा होता है, और जो चेतन चतुष्टय से परे भूतातीत, गुणातीत, कालातीत, दिशातीत या मार्गातीत, दशातीत या लोकातीत, कर्मातीत या संस्करातीत, और तुरियातीत मुक्तात्मा कहलाता है।

ऐसे साधक की मृत्यु भी मृत्यु नहीं होती, क्यूंकि वो मृत्यु भी आत्यंतिक प्रलय सरिकी ही होती है, जो साधक को मुख्यतः, सद्योमुक्ति ही प्रदान करती है, और जिसकी दिव्यता या देवी या शक्ति पञ्च विद्या या पञ्च सरस्वती ही होती हैं।

जो साधक वास्तव में असतो मा सद्गमय के आत्मार्थ में बस गया, वो साधक ही इस शरीर रुपी ब्रह्मग्रंथ की दिव्यताओं को जानने का पात्र होता है, इसलिए, ये वैदिक वाक्य ही इस ब्रह्मग्रंथ या प्रजापतिग्रन्थ के मार्ग का मूल है।

इस वैदिक वाक्य में बसे बिना, कोई भी साधक इस शरीर रुपी ब्रह्मग्रंथ या प्रजापतिग्रंथ के मार्ग में बस ही नहीं पायेगा।  इसलिए, यदि किसी ने इस ब्रह्मग्रंथ के मार्ग में जाना है, तो इस वाक्य में बसना ही पड़ेगा, क्यूंकि इस वाक्य के सिवा और कोई मार्ग विकल्प है ही नहीं।

इस वैदिक मंत्र का मार्ग, प्रजापति ग्रन्थ या ब्रह्म ग्रन्थ से सम्बंधित है, जो साधक का शरीर ही होता है, इसलिए इसका मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है।

तो अब मै “स्वयं ही स्वयं में”, इस वाक्य के मार्ग में आगे बढ़ता हूँ।

 

प्रजापति ग्रन्थ या महानतम ग्रंथ या महत्तम ग्रंथ के पात्र विरले होते हैं

इस अध्याय के अंत में, जो मैं बोल रहा हूं, उसपर सभी साधकगण और योगीगण ध्यान दें।

जो साधक वास्तविक योगी होते हैं, वो कभी भी नहीं चाहते, कि उनको या उनकी साधनाओं को, या साधना मार्ग को, कोई भी जाने।

वो अपनी साधनाओं को सभी जीवों से छुपा कर रखते हैं, चाहे वो जीव स्थूल, सूक्ष्म, दैविक या कारण जगत के ही क्यों न हों।

ऐसे साधक ये भी नहीं चाहते, कि वो महिमा मंडित हों।

वो तो अपनी साधनाएं भी ऐसे गुप्त रूप में करते हैं, कि उनके अपने अपने परिवार को भी पता नहीं चलता, क्यूंकि वो जानते हैं, की दूसरों के भाव, वाणी और कर्मों से भी तो उन गेहरी साधनों में बाधाएं आती हैं, और ये बाधाएं भी तबतक ही होती हैं, जबतक वो साधक गंतव्य को ही न पा जाये।

वो स्वयं को एक ऐसे तिरोधन या निग्रह में डाल के रखते हैं, कि उनका व्यवहार भी उनकी वास्तविकता से विपरीत होता है।

जीव और जगत का मूल योग होता है, जो प्रकृति और पुरुष के योग स्वरूप में ही होता है। और जीव जगत का गंतव्य, आत्मा ज्ञान होता है, जो कैवल्य मोक्ष रूपी, साधक का ही आत्मस्वरूप, ब्रह्म कहलाता है।

इसलिए, जो साधक वास्तविक योगी होते हैं, जो योग शिखर पर बैठ चुके होते हैं, जो उनके अपने साक्षातकार में उनके अपने गंतव्य, आत्मस्वरूप को भी पा चुके होते हैं, वो ऐसे साक्षातकार के पश्चात शांत चित्त होके, अपने उस जन्म के प्रारब्ध के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं।

लेकिन मेरे इस जन्म में, जो मुझे मेरी गुरुदक्षिणा के अनुसार, परकाया प्रवेश से लौटने के पश्चात ही मिला है, मेरे पास इस मार्ग को बतलाने के सिवा कोई और विकल्प ही नहीं था, क्योंकि मेरे पूर्व जन्म के गुरु और मेरे सनातन गुरु, जो मेरे हृदय की एक गुफा में ही रहते हैं, उन दोनों ने ही कहा था, कि इस ज्ञान को प्रकाशित कर।

 

इसलिए, जो मैं अब बोल रहा हूं, उसपर ध्यान देना…

यदि कोई आज का या आगमी समय का साधक, इस मार्ग के गंतव्य को पा जाए, और यदि उसे मेरे समान कोई विशेष कारण न हो, तो उसे इस बारे में किसी को भी नहीं बताना चाहिए, और ऐसे साधक को, बस शांत चित्त होके, अपने प्रारब्ध के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

वैसे एक बात बता दूं, कि इस मार्ग में, अधिकांश साधकों का तो प्रारब्ध भी नष्ट हो जाता है। लेकिन, यदि वो साधक गृहस्थ आश्रम में ही हो, तो ऐसी दशा में अधिकतर साधकों के कर्म नष्ट होने के पश्चात, उनके परिवार जनों के समस्त कर्म, कर्मफल और प्रारब्ध तक, कुछ ही समय में नष्ट हो सकते हैं।

लेकिन, इस मार्ग के पात्र बहुत ही विरले होते हैं। कई नील ख़रब जीवों में से, कोई एक जीव इस मार्ग का पात्र हुआ तो हुआ।

इसलिए, यदि कोई आज का या किसी आगमी समय का साधक, यहां बतलाए गए मार्ग में सद्योमुक्ति को ही पा जाए, और यदि ऐसे होने के पश्चात, उसे मेरे समान शरीर को रखने का, या अपने देहावसान को कुछ समय के लिए टालने का, कोई विशेष कारण न हो, तो ऐसे साधक को उसकी सद्योमुक्ति के तुरत बाद, अपनी काया का स्वेच्छा से ही त्याग कर देना चाहिए।

मेरा ऐसा कहने का कारण ये है, कि, जिस मूल कारण से कोई आत्मा, जीव रूप में आया था, और जब वो जीव उस मूल कारण से ही अतीत हो गया, तो उसे अपने जीव स्वरूप को पकडे रखने का क्या अभिप्राय?।

जिस योगी ने गंतव्य को पा लिया, जो जीवत्व और जगतत्व, दोनों से ही अतीत हो गया, तो ऐसे योगी को इस जगत में, जीवरूप में रहने का क्या अभिप्राय?।

जिस मूल कारण से कोई आत्मा, जीवरूप में अभिव्यक्त हुआ था, जब वो कारण ही नहीं बचा, तो उस जीवरूप को व्यार्थ ही पकड़ के रखने का क्या अभिप्राय?।

जिस कारणवश कोई जीव इस जगत के बंधनचक्र में फंसा हुआ था, लेकिन जब वो बंधनचक्र ही टूट गया, तो उसे अपने जीव रूप में, इस जगत में रहने का क्या अभिप्राय?।

जो साधक जीवत्व और जगतत्व से अतीत हो गया, और जो देवत्व और बुद्धत्व से भी अतीत हुआ, तो उसे इस जीव जगत में रहने का क्या अभिप्राय?।

तो अब इन बिंदुओं को भी आधार बनाके, मैं इस “स्वयं ही स्वयं में”, के मार्ग को कुछ आगमी अध्यायों में बताऊँगा।

लेकिन मुझे पता है, कि चाहे इसको कोई भी पढ़े या सुने, लेकिन इस मार्ग पर वोही जाएगा, जो इसका वास्तविक पात्र होगा, और जो कई नील ख़रब जीवों में, एक अति बिरला, वास्तविक साधक होगा।

और बाकी किसी जीव के लिए तो मैं इसको बता भी नहीं रहा हूँ।

असतो मा सद्गमय

error: Content is protected !!