इस अध्याय में तत्पुरुष ब्रह्म पर बात होगी, जिनका शब्द आला होता है और जिनको इस अध्याय में आला नाद (या आला का शब्द) भी कहा गया है I पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में, तत्पुरुष नामक ब्रह्म का साक्षात्कार वामदेव ब्रह्म के साक्षात्कार के पश्चात होता है I तिब्बती बौद्ध पंथ में इन्हीं तत्पुरुष को प्राचीन प्रकोपी बुद्ध आला (या प्रचीन क्रुद्ध बुद्ध आला) कहा गया है I इन आला बुद्ध (या तत्पुरुष) को मैं गुरुपिता आला भी कहता हूँ I राजयोग के पाशुपत मार्ग में, जो पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार का मार्ग भी है, यही तत्पुरुष नामक ब्रह्म, रुद्र देव कहलाते हैं जिनका स्वयंप्रादुर्भाव अघोर ब्रह्म से होता है, और इसीलिए रुद्र स्वयंभू कहलाए गए हैं I इन्हीं आला नाद (या आला शब्द) को इस्लाम पंथ में अल्लाह ताला भी कहा गया है, और क्यूँकि आला शब्द तत्पुरुष ब्रह्म का ही है, इसलिए पञ्च ब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष ही इस्लाम के अल्लाह हैं I इन्हीं तत्पुरुष की सगुण साकार अवस्था (अर्थात शरीरी अवस्था) को अमेरिका महाद्वीप के मूल निवासी लाल कचीना कहते हैं I इन्हीं तत्पुरुष को अज (अजा) भी कहा गया है I वेदों में इनका अथर्ववेद है, महावाक्य में इनका अयमात्मा ब्रह्म है, और सिद्ध शरीर में, इनका, भगवा रुद्र शरीर (या भगवा सिद्ध शरीर) है I तत्पुरुष की दिव्यता को ही माँ गायत्री का रक्ता मुख (माँ गायत्री का विद्रुमा मुख) कहा जाता है, और जिनका नाता रक्त चामुण्डा, लाल तारा आदि ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं से भी है I इनका नाता रजोगुण समाधी या अस्मिता समाधि से भी है, इसलिए तत्पुरुष ही रजोगुण सिद्धि या अस्मिता सिद्धि को दर्शाते हैं, और जिससे सर्वदृष्टा और त्रिकालदर्शी नामक सिद्धियों का मार्ग भी प्रशस्त होता है I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 का है I पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार हैI इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।
और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का छटा अध्याय है ।
वामदेव से तत्पुरुष का मार्ग, … वामदेव ब्रह्म से तत्पुरुष ब्रह्म का मार्ग, … पञ्च ब्रह्म प्रदक्षिणा मार्ग में वामदेव से आगे तत्पुरुष हैं, … तत्पुरुष शब्द का अर्थ, …
ऊपर के चित्र में, वामदेव से तत्पुरुष के मार्ग को नीले वर्ण के तीर से दिखाया गया है I
जब योगी की चेतना, दक्षिण मार्ग से (अर्थात दाहिने हस्त की दिशा में या दाहिने ओर के मार्ग से) वामदेव ब्रह्म से आगे की ओर जाती है, तब वो चेतना तत्पुरुष ब्रह्म में चली जाती है I
तो अब पञ्च ब्रह्मोपनिषद के उन तत्पुरुष नामक ब्रह्म को बताता हूँ I
वैसे एक बात बता दूं, कि इस चित्र में (और नीचे के चित्रों में भी) दिखाए गए तत्पुरुष ब्रह्म, मेरे गुरुपिता आला भी हैं I इनको मैंने आला इसलिए कहा है, क्यूंकि इनका मूल नाद ही ऐसा है, अर्थात इनका मूल नाद आला शब्द का ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
अब तत्पुरुष का अर्थ बताता हूँ I
तत्पुरुष का शब्द, दो शब्दों से बना है, जो ऐसे हैं …
- पहला शब्द, … तत्, … यह तत् शब्द सगुण ब्रह्म का वाचक है, अर्थात उन निर्गुण निराकार ब्रह्म की सगुणत्मक अभिव्यक्ति का सूचक है I
- दूसरा शब्द, … पुरुष, … पुरुष शब्द का अर्थ पिता आदि सहित, ब्रह्म की पुरुष स्वरूप में अभिव्यक्ति भी है I
इसलिए, …
- तत्पुरुष का अर्थ सगुण ब्रह्म, सगुण ईश्वर, परमपिता का सगुणत्मक स्वरूप इत्यादि ही है I
- और यही कारण है, कि जो भी मार्ग तत्पुरुष से संबंधित है, उनका देवता पुरुष स्वरूप में ही होगा I
- और क्यूंकि तत्पुरुष शब्द, सगुण ब्रह्म का ही द्योतक है, इसलिए इस शब्द से संबंधित देवता सगुण साकार (अर्थात शरीरी) और सगुण निराकार (अर्थात अशरीरी) दोनों ही स्वरूपों में होगा I
- और इस तत्पुरुष शब्द का देवता, लिंगात्मक स्वरूप में भी होगा I
लेकिन, क्यूंकि यह तत्पुरुष शब्द अपनी मुलात्मक दशा में निर्गुण निराकार भी होता है, इसलिए …
- यह तत्पुरुष का शब्द, निर्गुण ब्रह्म का भी द्योतक (या सूचक) है I
- लेकिन ऐसा यह सीधा सीधा नहीं है, बल्कि सांकेतिक रूप में ही है I
इसलिए, इस तत्पुरुष शब्द का सगुणत्मक होने के कारण, और तत्पुरुष का ऐसा होने के साथ साथ इस सगुण अवस्था में रहकर भी, उन निर्गुण ब्रह्म का द्योतक होने के कारण, यह तत्पुरुष शब्द जैसा होता है, वो अब बता रहा हूँ …
- तत्पुरुष का शब्द, सगुण ब्रह्म से सीधा सीधा नाता रक्ता है I
- और यही तत्पुरुष शब्द, निर्गुण ब्रह्म का द्योतक (या सूचक या लिंगात्मक स्वरूप) भी है I
इसलिए यह तत्पुरुष शब्द, सगुण ब्रह्म को दर्शाता हुआ भी, अर्थात सगुणत्मक स्वरूप में होता हुआ भी, वास्तव में निर्गुण ब्रह्म का द्योतक (या दशालिंग) ही है I
और इन्हीं तत्पुरुष का मूल शब्द, जो आला है, वो उन्ही निर्गुण ब्रह्म का शब्दात्मक द्योतक (या शब्द्लिंग) ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
तत्पुरुष ब्रह्म का वेद अथर्ववेद है, इसलिए अथर्ववेद का महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म भी तत्पुरुष को ही दर्शाता है I
और क्यूंकि यह महावाक्य, तत्पुरुष से ही संबंधित है, इसलिए अथर्ववेद का यह महावाक्य सगुण ब्रह्म को सीधा सीधा दर्शाता हुआ भी, निर्गुण ब्रह्म भी द्योतक (अर्थात शब्द्लिंगात्मक स्वरूप) भी है I
यही कारण है, कि अथर्ववेद का महावाक्य, अर्थात अयमात्मा ब्रह्म, सगुण और निर्गुण ब्रह्म, दोनों से ही जुड़ा हुआ है I
जो सगुण होता हुआ भी, निर्गुण का द्योतक (या शब्द्लिंग या लिंगात्मक स्वरूप) होता है, उसका ही एक स्वरूप लिंग के रूप में पूजा जाता है I और यह भी वो कारण है, कि जो लिंग होता है, वो …
- सगुण ब्रह्म में स्थित, और निर्गुण ब्रह्म का द्योतक होता हुआ भी, वास्तव में सगुण और निर्गुण ब्रह्म दोनों से ही संबंधित होता है I
- और ऐसा ही तत्पुरुष भी है I
तत्पुरुष के चित्र का वर्णन, तत्पुरुष ब्रह्म का वर्णन, … तत्पुरुष नामक ब्रह्म, तत्पुरुष कौन, तत्पुरुष कैसे दिखते हैं, तत्पुरुष का साक्षात्कार, तत्पुरुष का वर्णन, तत्पुरुष ब्रह्म का प्राथमिक साक्षात्कार, … जब चेतना तत्पुरुष के मध्य के पीले भाग से सुदूर खड़ी होती है, रुद्र देवऔर माँ गायत्री का विद्रुमा मुख, …
इस चित्र का वर्णन …
ऊपर के चित्र में तत्पुरुष ब्रह्म को दिखाया गया है I
लेकिन इस चित्र की दशा में साधक की चेतना इस चित्र के मध्य में दिखाए गए हलके पीले रंग से बहुत दूर खड़ी होकर ही इस चित्र का साक्षात्कार करती है I
इसका अर्थ हुआ कि यह चित्र उस दशा को दिख रहा है, जिसमें साधक की चेतना इस चित्र में दिखाए गए मटमैले पीले रंग की दशा से बहुत दूर खड़ी होती है, और ऐसी दशा से ही वो चेतना, इन तत्पुरुष को देखती है I
और इस चित्र की दशा में वो चेतना, बस तत्पुरुष में पहुंची ही होती है I इसलिए यह चित्र उस दशा का है, जिसमें वो चेतना, तत्पुरुष में बस प्रवेश करी ही होती है और तत्पुरुष के भीतर जो पीली मिट्टी के समान दशा है, उसकी ओर मुख करके उसको देख रही होती है I
और ऐसी स्थिति में बसकर ही वो चेतना इस चित्र में दिखाए गए तत्पुरुष नामक ब्रह्म का साक्षात्कार करती है I
तत्पुरुष ब्रह्म का साक्षात्कार, … तत्पुरुष ब्रह्म का समीप से साक्षात्कार, … जब चेतना तत्पुरुष के मध्य के पीले भाग से समीप खड़ी होती है, …
जब साधक की चेतना आगे बढ़ती है और तत्पुरुष के मध्य में जो पीली दशा है, उसके समीप खड़ी हो जाती है, तब उस चेतना को जो साक्षात्कार होता है, उसको ही यह चित्र दिखा रहा है I
ऐसी दशा में …
- तत्पुरुष ब्रह्म का वर्ण, निराकार भगवा पाया जाता है I और इस तत्पुरुष के साक्षात्कार के समय, इसी भगवे रंग के भूमि स्वरूप पर साधक की वो चेतना चल कर इस चित्र के मध्य में दिखाए गए पीले भाग के समीप जा रही होती है I
इस साक्षात्कार की दशा में साधक की चेतना ही भूमा होती है, जो तत्पुरुष के भगवे स्वरूप की भूमि पर चल कर इन तत्पुरुष का साक्षात्कार कर रही होती है I
और इसी साक्षात्कार की दशा में, जब साधक तत्पुरुष में स्थित हो जाता है, तो उन तत्पुरुष की दिव्यताएं ही उस साधक की चेतना का भूमत्व स्वरूप होती हैं I
इसलिए, यह वो दशा भी है, जिसमें वो चेतन स्वरूप में भूमा ही भूमि और भूमत्व हो जाता है I
लेकिन ऐसा तो ब्रह्माण्ड की कई सारी प्रधान दशाओं में भी पाया जाता है, इसलिए ऐसी स्थिति यहां बताए जा रहे तत्पुरुष तक ही सीमित नहीं होती I
- और उस भगवे रंग के भीतर, पिङ्गल वर्ण की कई सारी खड़ी हुई तारें होती है I
यह पिङ्गल वर्ण की तारें ऐसी पाई जाती हैं, जैसे साधक की चेतना किसी पिङ्गल वर्ण के गन्ने के खेत में उन गन्नों को देख रही है, और उन गणों के भीतर से ही आगे को जा रही है I
इन पिङ्गल वर्ण की तारों को भी ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
- इन पिङ्गल वर्ण की तारों के भीतर, एक हीरे के समान प्रकाश की नली होती है I
जब उस चेतना ने जो इस चित्र का साक्षात्कार कर रही थी, और उस चेतना ने इन तारों के भीतर झाँका, तब उसे हीरे के समान प्रकाश इन पिङ्गल वर्ण की तारों के भीतर दिखाई दिया था I
इस हीरे के समान प्रकाश को ऊपर के चित्र की पिङ्गल वर्ण की तारों के ऊपर के भाग में दिखाया गया है I
- तत्पुरुष के मध्य में एक लेटी हुई लिंग आकृति जैसी पीली दशा होती है I इस दशा का पीला रंग हलका होते हुए भी, चमकदार ही होता है I
- और जब वो चेतना उस पीले रंग के लेटे हुए लिंग का ध्यानपूर्वक अध्यन करती है, तब वो पाती है, कि उस पीले रंग की लिंग रूपी दशा के भीतर, कई सारी अर्धचन्द्राकार ऊर्जाएँ बह रही हैं, और यह सभी ऊर्जाएं हीरे के प्रकाश को धरण भी करी हुई हैं I
और यह सभी अर्धचन्द्राकार ऊर्जाएँ, एक दुसरे से जुडी भी हुई हैं, और उस पीले रंग के भीतर ऐसे प्रतीत भी हो रही हैं, जैसे दूध उबाल मार रहा है I
ऐसा ऊपर के चित्र में भी दिखाया गया है I
- और क्यूंकि तत्पुरुष जिनका नाद आला है, वही इस्लाम पंथ के अल्लाह हैं, इसीलिए इस्लाम में अर्धचन्द्राकार चिंन्ह देखा जाता है I
- यहाँ बताई गई सभी दशाएं, ऊपर दिखाए गए चित्र में प्रत्यक्ष या परोक्ष (सांकेतिक) रूप में दिखाई गई हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
साधक की वो चेतना जो ऊपर बताई गई दशाओं के साक्षात्कार कर रही होती है, वो इन तत्पुरुष के भगवे निराकार स्वरूप से भी आगे की ओर, एक अतिसूक्ष्म, सगुण निराकार हेमा वर्ण के प्रकाश को भी साक्षात्कार करती है, जिनके बारे में आगे के एक अध्याय में बताया जाएगा, और जिसका नाम सद्योजात ब्रह्म होगा I
तत्पुरुष से आगे की उस पीली निराकार दशा का नाता, ब्रह्मांडीय विज्ञानमय कोष से भी है, जिसके देवता देवराज इंद्र हैं I
इसलिए तत्पुरुष से आगे के पीले रंग का नाता, देवराज इंद्र से भी है I ऐसा होने के कारण ही पुरातन वेद मनीषियों ने, देवराज इन्द्र को परमात्मा तक कहा था I
लेकिन आज के वेद मनीषि और उनके ग्रन्थों ने तो इन्द्र देव को ऐयाश और विचित्र प्रकार का देवता ही बता दिया है, इसलिए इस बिंदु के वास्तविक स्वरूप को आज के कुपित मानव कितना मानेंगे…, वो तो वही जानते होंगे I
आगे बढ़ता हूँ और इन रंगों का अर्थ समझाता हूँ …
- पीला रंग, … यह बुद्धि (ज्ञान) का वाचक है I
- पिङ्गल रंग, … यह रजोगुण की तीव्र (तीक्ष्ण या तीखी) दशा का वाचक है I
- भगवा रंग, … जब पीले और पिङ्गल रंग का योग होता है, तो एक मणि के समान भगवे रंग का प्रादुर्भाव होता है, और जो एकादशवें रुद्र का और सनातन धर्म का भी द्योतक होता है I
- हीरे का रंग, … हीरे के समान प्रकाश सर्वसमता (macro-equanimity) का द्योतक है I
इसलिए तत्पुरुष ब्रह्म, रजोगुणी होते हुए भी, सर्वसमता, बुद्धि (ज्ञान), एकादशवां रुद्र और धर्म के द्योतक ही हैं I
टिपण्णी: बहुत वर्ष पूर्व जब मैंने यह चित्र एक योगाश्रम की प्रमुख दीदी को दिखाया था, तो वो स्तब्ध रह गई थी I और उनकी स्तब्द अवस्था में वो बोली भी थी, कि उनके मार्गानुसार, इस चित्र की दशा से आगे तो कुछ भी नहीं है (अर्थात उनके योगमार्ग के अनुसार, यही अंतिम साक्षात्कार है) I
तत्पुरुष के भगवे और लाल रंग का साक्षात्कार …
अब तक इस अध्याय में ऐसा बताया गया है …
- जब साधक की चेतना तत्पुरुष के मध्य के पीले रंग से दूर ही खड़ी होती है, तब वो चेतना तत्पुरुष को लाल वर्ण का ही साक्षात्कार करती है I और ऐसी दशा में वो चेतना तत्पुरुष के भीतर पड़े हुए पीले रंग को भी हल्का मटमैला ही देखती है I
- और जब वही चेतना आगे बढ़कर, तत्पुरुष के मध्य के पीले भाग के समीप पहुँच जाती है, तब वो तत्पुरुष को उनके वास्तविक स्वरूप में देखती है, जो भगवे वर्ण का होता है I और ऐसी दशा में तत्पुरुष के मध्य का पीला रंग, थोड़ा और चमकदार सा ही हो जाता है, जिसके भीतर हीरे के समान प्रकाश कई सारे अर्धचन्द्राकार स्वरूपों में प्रकाशित हो रहा होता है, और ऐसी दशा में उस हीरे के समान प्रकाश की ऊर्जा से वो पीला वर्ण दूध के उबाल के समान दिखाई देता है I
- और ऊपर बताए हुए बिन्दुओं के अतिरिक्त, इस साक्षात्कार में जैसे जैसे साधक की चेतना तत्पुरुष के मध्य के पीले भाग के समीप आती जाती है, वैसे वैसे वो पीला रंग चमकदार भी होता जाता है I
तो यह था तत्पुरुष का दो स्वरूपों में साक्षात्कार I एक जिसमें साधक की चेतना तत्पुरुष के मध्य के पीले भाग से सुदूर खड़ी होकर ही तत्पुरुष को देखती है, और दूसरा जिसमें वो चेतना आगे जाकर तत्पुरुष के मध्य भाग के पीले रंग के समीप ही खड़ी हो जाती है और ऐसी दशा में स्थित होकर वो चेतना तत्पुरुष का साक्षात्कार करती है I
तत्पुरुष में साधक कैसे जाता है, … तत्पुरुष में साधक के सिद्ध शरीर, … तत्पुरुष में साधक की शरीरी दशा, … तत्पुरुष शरीर, तत्पुरुष ब्रह्म शरीर, रुद्र शरीर, भगवा शरीर, … भगवा रुद्र शरीर, भगवा सिद्ध शरीर, …
यदि पूर्व के दिखाए गए दोनों चित्रों का अध्यन ध्यानपूर्वक करोगे, और उनको थोड़ा बड़ा करके देखोगे, तो इन चित्रों के नीचे के भाग में, आपको एक शरीर भी दिखेगा I
यही साधक का वो शरीर है, जो तत्पुरुष ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और उन तत्पुरुष के समान ही भगवे वर्ण का होता है I
यही साधक का वो सिद्ध शरीर है, अर्थात चेतनायुक्त शरीर है, जो तत्पुरुष का साक्षात्कार करता है I और तत्पुरुष में जाकर, यही शरीर साधक को प्राप्त भी होता है I
और इस ग्रन्थ में, इसी भगवे शरीर को रुद्र शरीर और एकादशवें रुद्र का शरीर…, ऐसा भी कहा गया है I
लेकिन इस ग्रन्थ में, इस भगवे शरीर का चित्र पृथक रूप में दिखाया ही नहीं गया है I इस बारे में बस जो भी है, इसी चित्र के नीचे के भाग में सांकेतिक रूप में ही सही…, लेकिन है I
स्थूल शरीर में तत्पुरुष की नाड़ी, तत्पुरुष की नाड़ी, … साधक के शरीर में रुद्र देव की नाड़ी, पिङ्गल नाड़ी, … त्रिनाड़ी और उनके देवता, … त्रिनाड़ी और उनके सिद्धि मार्ग, … आंतरिक अश्वमेध, आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, …
योग मार्ग में कई नाड़ियाँ होती हैं और उनकी संख्या तैंतीस करोड होती है I
इन तैंतीस करोड़ में से बहत्तर हजार प्रधान होती है I और इन बहत्तर हजार में से चौदाह प्रधान होती हैं I इन चौदह में से तीन प्रधान होती हैं I और इन तीन में से एक ही प्रधान होती है I
आगे बढ़ता हूँ …
और उन चौदाह में से जो तीन प्रधान नाड़ियां होती है, वो मेरुदंड की ओर होती हैं, और जो मेरुदंड के नीचे से उदय होकर, मस्तिष्क के ऊपर के सहस्र दल कमल में जाती हैं और त्रिनेत्र के कमल (अर्थात नैन कमल या आज्ञा चक्र) में भी जाती हैं I
इन नाड़ियों के भीतर बसे हुए देवत्व बिंदुओं के साक्षात्कार और इसके पश्चात उन देवत्व बिंदुओं की सिद्धि का एक ही मार्ग है I
तो अब उस मार्ग को बताता हूँ …
शरीर के नाभि से 2-3 ऊँगली नीचे और थोड़ा अधिक सा मेरुदण्ड की ओर, एक कलश होता है, जिसमें अमृत भरा हुआ होता है I
इस अमृत कलश का जो स्थान है, उसमें ही शरीर की तैंतीस कोटि (यहाँ कोटि का अर्थ प्रकार भी है और करोड भी) नाड़ियां मिलती हैं, और एक कलश का आकार बना लेती हैं I
सत्कर्मों, साधनाओं, भक्ति, योग और तप आदि से, यह कलश धीरे धीरे (इसमें कई जन्म भी लग सकते हैं) अमृत से भरता रहता है I
और एक दशा ऐसी आती है, जब यह कलश अमृत से भर भी जाता है I ऐसी दशा में यह कलश, अमृत कलश ही कहलाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब साधक की चेतना, राम नाद, अर्थात शिव तारक मन्त्र के मार्ग पर जाती है, जो रकार मार्ग कहलाता है, तो यह अमृत कलश, नाभि से ऊपर की ओर उठता है और सहस्र दल कमल में पहुँच जाता है I
इसके पश्चात, यह कलश, शिवरंध्र में चला जाता है I
और इस दशा के पश्चात, यदि साधक में जपबल, कर्मबल, साधनाबल, योगबल, तपबल और आत्मबल ही पर्याप्त मात्राएँ हैं, तो यह अमृत कलश शिवरंध्र से ऊपर उठकर, उस शिवरंध्र से ऊपर जो वज्रदण्ड चक्र है, उसमें पहुँच जाता है I
और अगर यह अमृत कलश और भी ऊपर उठेगा (यह बहुत विरले योगीजनों में होता है), तो यह कलश, वज्रदण्ड से भी ऊपर जो अष्टम चक्र है, उसमें पहुँच जाता है I
जब यह अमृत कलश, इस अष्ठम चक्र जिसको सिद्धों ने निरालंबस्थान और निरालंब चक्र भी कहा है, उसको साढ़े तीन बार पार करता है, तो इस दशा को एक आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को करना…, ऐसा कहा जाता है I
एक आंतरिक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात, यदि साधक चाहे, तो वो कैवल्य मोक्ष को प्राप्त भी हो सकता है I और ऐसा ही अधिकांश साधकों के साथ होता भी है I
लेकिन कुछ साधक ऐसे भी होते हैं, जो इस आंतरिक अश्वमेध यज्ञ के पश्चात भी मुक्ति को नहीं चाहते (या पाते) हैं I
ऐसे साधक उनके आगामी जीवन कालों में, जिनकी समय सीमा कई महाकल्पों तक भी चल सकती है, इसी आंतरिक अश्वमेध यज्ञ को बारम बार करते जाते है I और तकतक इसको बार बार करते ही जाते हैं, जबतक उनकी इच्छा शक्ति में मुक्ति ही न आ जाए I
आगे बढ़ता हूँ …
तो अब यहाँ बताए गए बिन्दु के अनुसार, इन नाड़ियों और उनके देवत्व बिंदुओं की सिद्धि को बताता हूँ I
इन तीनों नाड़ियों में से …
- बाएं हाथ की नाड़ी, इड़ा नाड़ी कहलाती है जिसके देवता, देवराज इंद्र होते हैं I और इड़ा नाड़ी के देवता होने का कारण, इंद्र देवता को इड़ाद्र (इदंद्र) भी कहा जाता है I
जब यह नाड़ी जागृत होती है, तब यह नाड़ी पीले रंग की होती है I
लेकिन जबतक यह नाड़ी जागृत ही नहीं होती है, तबतक यह नाड़ी नीले रंग की होती है I
यह इड़ा नाड़ी ठण्डी नाड़ी होती है, इसलिए इसको चन्द्र नाड़ी भी कहा गया I इस नाड़ी की ऊर्जाएं, शरीर को ठण्डा रखती हैं I
और इसका मुख्य चक्र हृदय चक्र (अर्थात अनाहत चक्र) से थोड़ा नीचे (कोई 4-5 ऊँगली नीचे) मेरुदण्ड की बायीं ओर होता है, और चंद्र चक्र ही कहलाता है I
- दाएं हाथ की नाड़ी, पिङ्गल नाड़ी कहलाती है, जिसके देवता रुद्र देव होते हैं I और ऐसी दशा में वो रुद्र देव साधकों के स्थूल शरीर में पिङ्गल नाड़ी के भीतर ही निवास करते हैं I
यह पिङ्गल नाड़ी गरम नाड़ी होती है, अर्थात इसकी ऊर्जाएं शरीर को गरम रखती हैं I इसीलिए इसको सूर्य नाड़ी भी कहा गया है I
और इसका मुख्य चक्र, हृदय चक्र (अर्थात अनाहत चक्र) से थोड़ा नीचे (कोई 4-5 ऊँगली नीचे) मेरुदंड के दायीं ओर होता है, और सूर्य चक्र कहलाता है I
इस नाड़ी के जागृत होने पर, इसका रंग भगवा हो जाता है I ऐसी दशा में इस नाड़ी के देवता भगवे रुद्र, अर्थात एकादशवें रुद्र ही होते हैं I
और इस जागृत होने से पूर्व, इस नाड़ी का रंग पिङ्गल ही होता है, जिसके कारण इसका नाम भी पिङ्गल नाड़ी कहा गया है I ऐसी दशा में इस नाड़ी के देवता पिङ्गल रुद्र ही होते हैं I
- मेरुदंड के भीतर और ऊपर बनाई गई दोनों नाड़ियों के मध्य में, एक और नाड़ी होती है, जो सुषुम्ना नाड़ी कहलाती है I
जब ये नाड़ी जागृत नहीं होती, तो यह श्वेत वर्ण की होती है I और ऐसी दशा में इस नाड़ी की देवी, माँ सरस्वती उनके अपने अदि शक्ति, अर्थात देवी भारती सरस्वती स्वरूप में होती हैं I
और जब यह नाड़ी जागृत हो जाती है, तो यह नाड़ी सुनहरे रंग की होती है I और ऐसी दशा में इस नाड़ी की देवी माँ ब्राह्मणी सरस्वती ही होती हैं I और इस नाड़ी के देवता हिरण्यगर्भ ब्रह्म होते हैं I
क्यूँकि हिरण्यगर्भ की कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति ही योगेश्वर और महेश्वर कहलाती है, और क्यूंकि महेश्वर का शब्द, महादेव या शिव का ही द्योतक है, इसलिए किसी किसी योगतंत्र में इस नाड़ी को शिव की नाड़ी भी कहा गया है और ऐसी योगीजनों ने इस नाड़ी को चित्रिणी भी कहा है I
इस हिरण्यगर्भ नाड़ी के मध्य में, एक और नाड़ी होती है, जो हीरे के प्रकाश को धारण करी हुई होती है I यह नाड़ी ब्रह्म नाड़ी कहलाती है, क्यूंकि यह नाड़ी ब्रह्मा देव के सर्वसम, सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति स्वरूप को दर्शाती है I
तो अब इन तीन नाड़ियों के बारे में बताई गई बातों का आधार बनाके आगे बढ़ता हूँ …
- पिङ्गल नाड़ी सिद्धि, … रुद्र सिद्धि, रुद्र देव सिद्धि, … जब कोई साधक उसके अपने संपूर्ण जीव काल में, पहले बताया गया आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, 99 बार पूर्ण करता है, तो वो साधक रुद्र स्वरूप को पाता है I
और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में ऐसा साधक रुद्रा ही कहलाता है I
- इड़ा नाड़ी सिद्धि, … देवराज इंद्र सिद्धि, … इंद्र सिद्धि, इन्द्रासन सिद्धि, इन्द्रलोक सिद्धि, … और जब कोई साधक उसके अपने संपूर्ण जीव काल में, पहले बताया गया आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, 100 बार पूर्ण करता है, तो वो साधक इंद्र स्वरूप को पाता है I
ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में ऐसा साधक देवराज इंद्र स्वरूप ही कहलाता है I
और ऐसे साधकों में से कोई एक साधक, इन्द्रपद को पाता है, अर्थात इन्द्रासन सिद्धि को पाता है I
- सुषुम्ना नाड़ी सिद्धि, … ब्रह्मा सिद्धि, … ब्रह्मपद सिद्धि, ब्रह्मत्व सिद्धि, … और जब कोई साधक उसके अपने संपूर्ण जीव काल में, पहले बताया गया आंतरिक अश्वमेध यज्ञ, 101 बार पूर्ण करता है, तो वो साधक ब्रह्मा देव के स्वरूप को पाता है I
ऐसे योगीजनोंमें से ही एक योगी आगामी ब्रह्माण्डों में से किसी एक ब्रह्माण्ड का ब्रह्मा भी होता है I और ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में ऐसा साधक पितामह ब्रह्मा स्वरूप ही कहलाता है I
इसी को ब्रह्मपद सिद्धी भी कहा जाता है, और यही दशा साधक की ब्रह्मत्व प्राप्ति को भी दर्शाती है I
यदि ऐसा साधक इस सिद्धि के पश्चात, जीवित रह गया (अर्थात शरीर को रख पाए) तो उस साधक के शरीर पर ही सृष्टिकर्ता भगवान्, अर्थात चतुर्मुखा पितामह प्रजापति, अपने हिरण्यगर्भ ब्रह्म अभिव्यक्ति के कार्य ब्रह्म अभिव्यक्ति स्वरूप में, योगेश्वर होकर ही निवास करने लगते हैं I
और ऐसा साधक कभी भी बताएगा नहीं, कि उसकी काया के भीतर पितामह ब्रह्मा अपने योगेश्वर (कार्य ब्रह्म) स्वरूप में ही बैठे हुए हैं I
टिपण्णी: ऊपर जो पिङ्गला नाड़ी बताई गई है, यही उन तत्पुरुष ब्रह्म की नाड़ी है जिनके बारे में इसा अध्याय में बताया जा रहा है I
पञ्च ब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष ही पाशुपत मार्ग के रुद्र हैं, तत्पुरुष ब्रह्म ही रुद्र देव हैं, तत्पुरुष ही रुद्र हैं, … स्वयंभू रुद्र, रुद्र स्वयंभू हैं, अघोर से रुद्र का स्वयंप्रादुर्भाव, …
जिनको पञ्च ब्रह्मोपनिषत में तत्पुरुष ब्रह्म कहा गया है, वही पाशुपत मार्ग पर गमन करते राजयोगी के रुद्र देव हैं I
राजयोगियों के पाशुपत मार्ग के पञ्च मुखा सदाशिव साक्षात्कार मार्ग में, रुद्र देव की स्वयं अभिव्यक्ति, अघोर मुख (अर्थात महादेव) से ही हुई थी I
और यही कारण है, कि वेद मनीषियों ने रुद्र देव को स्वयंभू (अर्थात स्वयं अभिव्यक्त) भी कहा है I
टिपण्णी: वैसे तो पांचों के पांचों देवता ही स्वयंभू हैं, लेकिन यहाँ पर तो केवल रूद्र की ही बात हो रही है I
तत्पुरुष के भीतर की दशा, … आला, आला नाद, आला का शब्द, तत्पुरुष का नाद, तत्पुरुष का शब्द, तत्पुरुष का मूल शब्द, …
जब योगी की चेतना तत्पुरुष ब्रह्म में चली जाती है, तब वो योगी तत्पुरुष के भीतर एक हलके पीले वर्ण के प्रकाश का साक्षात्कार करता है I यह पीले वर्ण का प्रकाश कुछ-कुछ वैसा ही होता है, जैसा ऊपर के चित्रों में दिखाया गया है I
यह पीले वर्ण का प्रकाश, लेटे हुए शिवलिंग के समान होता है और वो पीले रंग का प्रकाश एक ओर से थोड़ा नोकीला भी होता है I
आगे बढ़ता हूँ और तत्पुरुष का मूल शब्द बताता हूँ …
तत्पुरुष में पहुँच कर वो चेतना एक नाद सुनती है, जो ऐसा होता है …
आआआआआआआला, … आआआआआआआला, … आआआआआआआला, …
इस ग्रन्थ में, इसी नाद को आला नाद और आला का शब्द कहा गया है और यही तत्पुरुष ब्रह्म का मूल नाद भी है I
इस आला नाद में, …
- आ का शब्द, … बहुत लम्बा होता है I
- और ला का शब्द, … छोटा होता है I
यह दोनों मूल शब्द (अर्थात आ और ला), एक के बाद एक सुनाई देते हैं I
तत्पुरुष के भीतर के साक्षात्कार में, यह दोनों मूल शब्द (अर्थात आ और ला), अखंड रूप में चलते ही रहते हैं, अर्थात जब एक शब्द समाप्त होता है, तब उसी समय दूसरा शब्द सुनाई देता है I
तत्पुरुष के भीतर के साक्षात्कार में, इन दोनों शब्दों का तालमेल, ऐसे अखण्ड रूप में ही चलता जाता है I
इसके कारण, तत्पुरुष के भीतर सुनाई देने वाला यह आला नाद, अखंड रूप में सुनाई देता ही जाता है और ऐसा लगता है, जैसे यह आला का शब्द अनादि कालों से चलता ही जा रहा है I
यही कारण है, कि इस ग्रन्थ में इन्हीं तत्पुरुष नामक ब्रह्म को, जो पाशुपत मार्ग में बसे हुए पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कारी राजयोगियों के रुद्र भी हैं, उनको आला शब्द (या आला नाद) से भी सम्बोधित किया गया है I
पञ्च ब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष ही इस्लाम के अल्लाह ताला हैं, तत्पुरुष ही अल्लाह हैं, तत्पुरुष ब्रह्म ही अल्लाह हैं, … पञ्च मुखा सदाशिव मार्ग के रुद्र देव ही अल्लाह हैं, रुद्र ही अल्लाह हैं, … इस्लाम के मूल में वैदिक धर्म, … इस्लाम के मूल में सनातन वैदिक आर्य धर्म है, इस्लाम वेदों के पृथक प्रतीत होता हुआ भी अपने देवत्व नामक मूल से वैदिक ही है, …
पूर्व के अध्याय में बताया गया था, कि जब वो चेतना अघोर मुख पर खड़ी हुई थी, तो उसने अघोर मुख को ऐसा कहा था …
मुझे अल्लाह से मिलना है I
लेकिन इस बिंदु को तो पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
और इस इच्छा के पश्चात ही उस चेतना की गति तत्पुरुष तक हुई थी I
इसलिए जब वो चेतना तत्पुरुष में पहुँच जाती है, और वो उन तत्पुरुष नामक ब्रह्म के आला नाद (अर्थात आला के शब्द) को सुनती है, तब वो जान जाती है, कि उसकी इच्छा पूर्ण हुई है I
वो चेतना आला नाद (अर्थात तत्पुरुष ब्रह्म) में इसलिए ही तो पहुंची थी, क्यूंकि उसने अघोर पर कह दिया था, कि मुझे अल्लाह से मिलना है I
ऐसी दशा में वो चेतना जान जाती है, कि पंचब्रह्मोपनिषत के तत्पुरुष ब्रह्म ही इस्लाम पंथ के अल्लाह ताला हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
इस साक्षात्कार के पश्चात मैं ऐसा ही सोचता हूँ …,
- जब इस्लाम के अल्लाह ही उस इस्लाम से कहीं पूर्व के ज्ञान, पंचब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष हैं, तो वैदिक धर्म इस्लाम का पूर्वज ही तो हुआ I
- और क्यूंकि यही सत्य है, तो आज के इस्लाम के लोग, हिंदुओं पर अत्याचार क्यों कर रहे हैं I क्या इस्लाम में अपने बाप दादा पर अत्याचार, कुफ्र नहीं कहलाता? I
- जब तत्पुरुष ही अल्लाह हैं, तो हिन्दू काफिर कैसे हो गए? I क्या अपने पूर्वजों को बुरा भला बोलने वाले, काफ़िर नहीं कहलाते? I
- और क्या इस्लाम में अपने पूर्वजों को ही काफिर कहना, कुफ्र नहीं होता? I और क्या ऐसा कहने वाले इस्लाम के लोग, कुफ्र नहीं कर रहे? I
- जो कुफ़्र करता है और बार बार करता ही जाता है, क्या वह इस्लाम का हो सकता है? I
और भी कुछ बताता हूँ …
- जब पूर्व के वेदों के तत्पुरुष ही बाद में आए इस्लाम के अल्लाह ताला हैं, को क्या गजवा-ए-हिंद सही था? …, और क्या इसको कुफ़्र नहीं कहते? I
- और क्या इतिहास में हिंदुओं पर इस्लाम के लोगों का अत्याचार सही था? I
- और क्या इतिहास में मुग़ल आदि सल्तनत का हिन्दुओं पर जज़िया-कर लगाना सही था? …, और क्या इसको कुफ़्र नहीं कहते? I
- क्या हिंदुओं को तलवार की नोक या आर्थिक तरीकों से इस्लाम में लाना सही था? …, और क्या इसको कुफ़्र नहीं कहते? I
- क्या कोई अपने पूर्वजों को हानि पहुंचके, पितृ दोष का पात्र नहीं बनेगा? …, और क्या पितृ दोष कुफ़्र नहीं होता? I
- और क्या अपने पूर्वजों की परम्पराओं को खंडन करना, छोड़ना और तोडना कुफ्र नहीं होता? I
- क्या इस्लाम के इतिहास में, उतने सारे और उतनी बार कुफ़्र में जाकर, इस्लाम को मानने वाले जन्नत को प् पाएंगे? I
- क्या यही सब वो कारण नहीं हैं, जिससे आज तक और इस्लाम के कोई 1450 वर्षों के इतिहास में भी, कोई भी इस्लाम को मानने वाला अपने ही देवत्व बिंदु केंद्र, अर्थात अल्लाह का साक्षात्कारी नहीं हुआ है I
ऐसे बहुत सारे कुकर्मों के कारण, में जानता हूँ, कि आगामी युग की दिव्यताएं इस्लाम को अपने में समाएंगी ही नहीं, जिसके कारण, बहुत शीघ्र (अर्थात कुछ ही वर्षों में) और अधिकांश रूप में इस्लाम नष्ट हो जाएगा I
और इसके पश्चात, जो इस्लाम में कुछ प्रतिशत लोग बचेंगे, वो अपने पूर्वजों के मार्ग (अर्थात निगम मार्ग या वेद मार्ग) पर जाने को बाध्य भी हो जाएंगे, क्यूंकि इसके सिवा, उन बचे हुए कुछ प्रतिशत लोगों के पास, उस समय खंड में कोई और विकल्प बचेगा ही नहीं I
मेरी एक बात मस्तिष्क खोल के जान लो, क्योंकि वो काल जिसके गर्भ में ही समस्त जीव जगत बसाया गया है, वो काल ही मुझे ऐसा संकेत दे रहा है, कि कुछ ही समय में, यह पृथ्वी सनातन वैदिक आर्य धर्म में लौटने वाली है I
और ऐसी दशा आने से कुछ समय पूर्व ही, कलयुग, कलयुग के समस्त तंत्र, और कलयुग में आए समस्त पंथ स्तंभित होने वाले हैं I
और एक बात, कि उस आगामी समय में, उन स्तम्भित पंथों की सूची में, केवल इस्लाम नामक पन्थ ही नहीं होगा…, बल्कि कुछ और भी होंगे I
आगे बढ़ता हूँ …
क्यूँकि पञ्च ब्रह्मोपनिषद का ज्ञान तो सतयुग में आया था और इस्लाम इस ज्ञान के कहीं बाद में ही आया था, और क्यूंकि मूल ही प्रधान होता है, इसलिए वो चेतना जान भी जाती है, कि …
- इस्लाम के मूल में सनातन वैदिक आर्य धर्म ही है I
- इस्लाम वेदों के पृथक दिखाई देता हुआ भी, अपने मूल से वैदिक ही है I
- लेकिन ऐसा होता हुआ भी, कलियुग की काली काय के प्रभाव के कारण, इस्लाम कुपित (दूषित) भी है, क्यूंकि कलियुग के कालखंड में (अर्थात 3102 ईसा पूर्व से) आये हुए समस्त मार्ग ऐसे ही हैं I
इस साक्षात्कार के पश्चात, वो चेतना यह भी जान जाती है, कि …
- क्यूंकि आगामी युग, वैदिक युग ही होगा, इसलिए आगामी समय में इस्लाम भी अपने मूल, अर्थात सनातन वैदिक आर्य धर्म में लौटेगा ही I
- क्यूंकि सबकुछ कालगर्भित ही होता है, इसलिए काल के प्रभाव को कभी भी खंडित (या रोका) नहीं किया जा सकता I
- इसलिए उस वैदिक युग (अर्थात गुरु युग) के प्रादुर्भाव से पूर्व के कालखंड में ही ऐसा होगा ही, जब इस्लाम अपने मूल धर्म, वेदमार्ग पर लौटने को बाध्य ही हो जाएगा I
- और क्यूँकि काल के प्रभाव को कभी भी काटा नहीं जा सकता, इसलिए आगामी कालखंड में ऐसा होना ही है…, चाहे ऐसा शान्ति से हो, या विप्लव से या युद्धादि कारणों से जाकर हो,… लेकिन ऐसा होना ही है, क्यूंकि काल की काट किसी भी देवादि सत्ता या ब्रह्माण्ड के पास है ही नहीं I
काल, मूल प्रकृति का अस्त्र होता है जिसको माँ मूल प्रकृति ने किसी को पूर्णरूपेण न तो कभी बांटा है, और न ही किसी को इसका पूर्ण ज्ञान ही दिया है I
इसलिए जब काल परिवर्तन होता है, तब किसी के पास भी उसको रोकने की काट होती ही नहीं है I
और ऐसे समय पर, माँ मूल प्रकृति एक जीव को उस लोक में भेजती भी हैं, जो उनका जीवित (अर्थात देहधारी) कालास्त्र भी होता है I
तत्पुरुष और अस्मिता, अस्मिता समाधि, … तत्पुरुष और रजोगुण, रजोगुण समाधि, तत्पुरुष का अभिमानी और अनाभिमानी स्वरूप, … पञ्च ब्रह्म का अभिमानी और अनाभिमानी स्वरूप, पंच देव का अभिमानी और अनाभिमानी स्वरूप, … पञ्च ब्रह्म को योगमार्ग से ही जाना जा सकता है, पंच देव को योगमार्ग से ही जाना जा सकता है, … अस्मिता समाधि, अस्मिता सिद्धि, रजोगुण समाधि क्या, रजोगुण सिद्धि, रजोगुण की सिद्धि, रजोगुण की समाधि, त्रिकाल दर्शी सर्वद्रष्टा सिद्धि, त्रिकाल दर्शी सिद्धि, सर्वद्रष्टा सिद्धि, … बहुवादी अद्वैत, …
कोई त्रिकाल दर्शी सर्वद्रष्टा वैदिक ऋषि या सिद्ध हुआ ही नहीं, जो रजोगुण को नहीं पाया था I
और जहाँ रजोगुण को पाने का मार्ग भी, उसी रजोगुण की समाधि से ही होकर जाता है, अर्थात रजोगुण समाधि से ही होकर जाता है I
और इसी समाधि की सिद्धि को अस्मिता भी कहते हैं, जिसके कारण यही रजोगुण समाधि, अस्मिता समाधि भी कहलाती है I
इस रजोगुण समाधि और उस समाधि की अस्मिता सिद्धि के मूल में, यही तत्पुरुष ब्रह्म हैं I
अस्मिता सिद्धि को पाये हुए योगी को किसी बाह्य ज्ञान या वास्तु या मार्ग का आलम्बन लेने की आवश्यकता भी नहीं होती है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि वो स्वयं ही स्वयं में परिपूर्ण होता है I
और इसी परिपूर्णता को तत्पुरुष ब्रह्म दर्शाते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
लेकिन आज के अनभिग्य योगीजन तो यही कहते हैं, कि रजोगुण को त्यागो I
उनके ऐसे कहने का कारण है, कि उनको ज्ञान ही नहीं है इस रजोगुण समाधि और उसकी अस्मिता सिद्धि की शक्ति का I
और जब कलियुग के प्रभाव के कारण, ऐसे अनभिज्ञ योगीजन ही गुरु कहलाते हैं, वो मानव जाती के उत्कर्ष मार्गों पर भी प्रश्नचिन्ह लग ही जाता है I
ऐसी दशा में, मानव जाति मनोलोकों के अपकर्ष रूपी मार्गों पर जाके, त्रासदियाँ को ही पाती है I
यह भी एक कारण है कि आज की कलियुगी मानव जाती के अधिकांश उत्कर्ष मार्गों के नाम पर, वो मानव जाती वास्तव में अपकर्ष की ओर ही जा रही है और इसीलिए समय समय पर विभिन्न प्रकार की त्रासदियाँ को ही पा रही है I
जब गुरु ही अनभिज्ञ होंगे, तो मानव जाती का उत्कर्ष मार्ग गंतव्य की ओर कैसे जाएगा? I
आगे बढ़ता हूँ …
ब्रह्माण्ड की स्वयं उत्पत्ति भी रजोगुण का आलम्बन लेकर ही हुई थी I
यही वो कारण है, कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए, ब्रह्मा को भी रजोगुणी होना पड़ गया था, और इसी कारणवश, पुराणों में ब्रह्मा को रजोगुणी और लाल रंग का ही कहा गया था I
उस रजोगुण के मूल में भी यहां बताए जा रहे तत्पुरुष ही हैं I
अब ध्यान देना …
रजोगुण समाधि के आभाव में, साधक सर्वद्रष्टा नहीं हो पाता I जो साधक सर्वद्रष्टा नहीं होता, वो त्रिकाल दर्शी भी नहीं होता I
जो योगी अस्मिता सिद्ध नहीं होता, वो अपने ज्ञान से ब्रह्म को परिपूर्ण रूप (अर्थात जहाँ तक संभव है) से जान भी नहीं पाता है I
कलियुग के कालखंड में आए पंथों में, रजोगुण के पूर्ण सिद्ध हुए ही नहीं हैं, बस किसी किसी ने रजोगुण के कुछ बिन्दुओं को धारण किया था I
और इसी कारण से, कलियुग में जितने भी पंथ या मार्ग आदि आए, वो सभी अपूर्ण ही थे I
यही कारण है, कि कलियुग के कालखंड में आए सभी पंथ और उनके मार्ग, विकृत एकवाद (अर्थात अंग्रेजी का मोनोथेइसम) में ही बसे हुए थे I
ऐसा होने के कारण, कलियुग के कालखंड में आए सभी मार्गों के देवता अभिमानी ही थे I
और क्यूँकि अभिमानी देवता स्वयं को सबसे बड़े मानते हैं और दूसरे देवताओं को मानते ही नहीं है, इसलिए इन अभिमानी देवताओं के समस्त मार्ग, झगडे, युद्ध, द्वैतवाद आदि में ही बसे होते हैं I
और ऐसा होने के कारण, यह सभी मार्ग किसी न किसी प्रकार की विकृति में ही बसे हुए होते हैं, जिसके कारण यह कलह कलेश के ही मार्ग होते हैं I
कलियुग के कालखंड में आए जितने भी मार्ग है, उनमें यह बिंदु मिलेगा ही I
इसलिए वेद मनीषी कह गए थे, कि अभिमानी देवताओं के मार्गों में नहीं जाना चाहिए I
और इसका भी वही कारण था, कि अभिमानी देवताओं के मार्ग, खंडित रूप में ही सही, लेकिन कलह कलेश की ओर ही लेके जाते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
यहाँ बताए जा रहे तत्पुरुष ब्रह्म, रजोगुणी होने पर भी, योगमार्ग में अभिमानी नहीं होते I
लेकिन जो मार्ग इन तत्पुरुष से संबंधित होते हुए भी, योग शब्द के अंतर्गत नहीं आते, वह सभी मार्ग, इन तत्पुरुष को अभिमानी देवता के स्वरूप में ही मानेंगे I
और यही बिंदु पञ्च ब्रह्म से संबंधित सभी देवादि सत्ताओं पर भी लागू होता है I
यही वो कारण था, कि वेद मनीषियों ने रुद्र देव को योगमार्गी ही बताया था I
और ऐसा कहने का कारण भी वही था, कि पंच देवों में से यदि आप किसी भी देवता को योगमार्ग से नहीं मानोगे, तो उस योग से विमुख मार्ग में, वो देवता अभिमानी नहीं होता हुआ भी, अभिमानी ही हो जाएगा I
और ऐसी दशा में वो देवता, कलह कलेश का कारण बने बिना भी नहीं रह पाएगा I
कलियुग की यही विडम्बना रही है, कि मानव जाती ने पञ्च ब्रह्म और उनके पांच देवों से संबंधित देवी देवताओं को योगमार्ग से नहीं माना था I और इसके कारण ही वो सभी देवी देवता, जो वास्तव में तो अनाभिमानी ही थे, लेकिन ऐसे योग से विमुख मार्गों में अभिमानी स्वरूप में ही प्रकट हुए थे I
और इस बिन्दु का प्रमाण एकवादी पंथ (अर्थात Monotheistic Religions) के ग्रंथों में भी स्पष्ट रूप में मिलता है I और इन एकवादी (अर्थात Monotheistic Religions) का ऐसा होना इस बात का भी प्रमाण है, कि उनके संस्थापकों को यहां बताए जा रहे बिन्दुओं का ज्ञान ही नहीं था I
जब संस्थापक ही उनके अपने प्रचारित देवताओं की वास्तविकता, अर्थात अनाभिमानी अवस्था से अनभिज्ञ होंगे, तो उनके स्थापित मार्ग कलह कलेश से सुदूर कैसे रहेंगे I
इसीलिए जब से यह एकवादी मत (अर्थात Monotheistic Religions) इस कलियुग में आए हैं, तभी से वो सब के सब एकवादी पंथ समय समय पर पृथक प्रकार के खंडित कलह कलेश के कारण भी बने हैं I
अब ध्यान देना …
यदि पञ्च ब्रह्म में से किसी भी पंच देव के मार्ग पर योगमार्ग से जाओगे, तो वो देवता अनाभिमानी होकर, बहुवादी अद्वैत की ओर ही लेके जाएगा I
इस बहुवादी अद्वैत शब्द में, बहुवाद का शब्द प्रकृति का द्योतक है और अद्वैत का शब्द, पुरुष का I
इसलिए यह बहुवादी अद्वैत का मार्ग, प्रकृति और पुरुष दोनों से संबंधित होता है, जिसके कारण यह मार्ग, समय समय पर प्रकट होने वाले कलह कलेश से भी रहित होता है I
यदि पञ्च ब्रह्म में से किसी भी पंच देव के मार्ग पर योगमार्ग से विमुख होकर जाओगे, तो वो देवता वास्तव में अनाभिमानी होता हुआ भी, अभिमानी ही पाया जाएगा I और ऐसा होने के कारण, उसका मार्ग कलह कलेश से युक्त ही पाया जाएगा I
इसीलिए वेद मनीषियों ने कहा भी था, कि अभिमानी देवताओं के मार्गों में नहीं जाना चाहिए और इसका तात्पर्य यह भी था, की योगमार्ग से ही किसी भी देवत्व बिंदु पर जाना चाहिए I
इसलिए, …
यदि तुमने स्वयं को और समस्त मानव जाती को अशांति की ओर लेके जाना है, तो पञ्च ब्रह्म और उनके देव बिन्दुओं को योगमार्ग से विमुख होकर जानो, क्यूंकि ऐसे योग विमुख (और योग विरोधी) मार्गों में त्रिताप भरपूर मिलेंगे I इन त्रितापों के कई कारणों में से, एक कारण भूत प्रेत पिशाच भी होंगे I
यदि तुमने स्वयं को और समस्त मानव जाती को शांति की ओर लेके जाना है, तो पञ्च ब्रह्म और उनके देव बिन्दुओं को योगमार्ग में जाकर ही जानो I ऐसे योग पद्दति से युक्त मार्गों में, त्रितापों का आभाव ही मिलेगा I और ऐसे मार्गों में, त्रितापों के अभाव का एक कारण, देवी देवताओं के अनाभिमानी स्वरूप का सानिध्य भी होगा I
तत्पुरुष के कई मार्गों में अनुयायी … तत्पुरुष ही रुद्र हैं, तत्पुरुष ब्रह्म ही रुद्र देव हैं, तत्पुरुष ही बौद्धों का आला बुद्ध हैं, तत्पुरुष ही बुद्ध आला हैं, तत्पुरुष ही लाल कचीना हैं, … तत्पुरुष का अजा स्वरूप, रुद्र का अजा स्वरूप, रुद्र अजा हैं, तत्पुरुष अजा हैं, … अल्लाह का कोई नाता या सम्बन्धी नहीं है, अल्लाह का कोई माता पिता नहीं हैं, अल्लाह का अजा स्वरूप, … स्वयं प्रकट, स्वयं उत्पन्न, स्वयं स्थित, स्वयं चलित, …
अब तत्पुरुष साक्षात्कार के कुछ बिंदु बताता हूँ I
तत्पुरुष को साक्षात्कार करती हुई वो चेतना यह भी जान जाती है, कि …
- यही तत्पुरुष, राजयोग में, पाशुपत मार्ग के अनुगामी और पञ्च मुखी सदाशिव के साक्षात्कारी योगीजनों के रुद्र देव भी हैं I
- और वो चेतना यह भी जान जाती है, कि वो रुद्र का मूल शब्द आला होने के कारण ही, उनको इस्लाम में अल्लाह कहा गया था I
- और वही आला नाद ही तिब्बती बौद्ध पंथ के बार्दो (Bardo) मार्ग में प्राचीन क्रुद्ध बुद्ध आला कहे गए हैं I
- और उन प्राचीन प्रकोपी बुद्ध आला (या आला बुद्ध) का मूल शब्द, आला होने के कारण, उनको ही इस्लाम में अल्लाह ताला कहा जाता हैI
इसलिए वो चेतना वो सब जान जाती है, जो नीचे गया है …
- पंचब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष ब्रह्म, पञ्च मुखा सदाशिव के पाशुपत मार्ग में बसे हुए राजयोगियों के रुद्र देव हैं I
- और रुद्र देव ही इस्लाम के अल्लाह हैं I
- और उन रुद्र (या अल्लाह) का मूल नाद भी आला ही है I
- इस आला नाद के कारण ही उनको तिब्बती बौद्ध पंथ के बार्दो (Bardo) मार्ग में, आला बुद्ध कहा गया है I
- और वही तत्पुरुष, जिनका मूल शब्द आला है, अमरीका महाद्वीप के मूल निवासियों के मार्ग में लाल कचीना भी कहलाते हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
- क्यूंकि तत्पुरुष का लाल रंग, रजोगुण को दर्शाता है, इसलिए तत्पुरुष अपने मूल स्वभाव से रजोगुणी ही हैं I
- और इसीलिए वो चेतना यह भी जान जाती है, कि तत्पुरुष से संबंधित जो समाधि है, जिसमें वो चेतना अभी बसी हुई है और तत्पुरुष का साक्षात्कार कर रही है, वो रजोगुण समाधि ही है I
- और क्यूँकि रजोगुण समाधि ही वो समाधि होती है, जिससे साधक अस्मिता सिद्धि को पाता है, और उस अस्मिता को पाकर, उसी अस्मिता सिद्धि का आलम्बन लेके वो साधक त्रिकाल दृष्टा, सर्व दृष्टा हो जाता है, इसलिए इस रजोगुण समाधि को अस्मिता समाधि भी कहा जाता है I
- अस्मिता समाधि को पाए हुए साधक को किसी से भी ज्ञान आदि दीक्षा लेने की आवश्यकता ही नहीं होती है, क्यूंकि अस्मिता सिद्धि को पाने के पश्चात, वो साधक जैसे जैसे ब्रह्माण्डीय दशाओं का साक्षात्कार करता जाएगा, वैसे वैसे वो साधक उन दशाओं के बारे में स्वतः ही जानता भी चला जाएगा I
इसलिए अस्मिता सिद्ध को किसी और से या किसी ग्रन्थ से, ज्ञानादि पाने की आवश्यकता भी नहीं होती I
वो अस्मिता सिद्ध साधक जैसे जैसे साक्षात्कार करता जाता है, वैसे वैसे वो साधक स्वयं और स्वतः ही उन सभी दशाओं के बारे में सबकुछ जानता भी जाता है I
यह जानना जैसे होता है, अब उसको बताता हूँ …
- आकाशवाणी या घटाकाश वाणी के द्वारा I
- उस साधक के शरीर के भीतर ही वो ग्रन्थ खुल गया, जो उस दशा को दर्शाता है और उसको पढ़कर साधक उस दशा के बारे में जान जाता है I
- उस साक्षात्कार करी हुई दशा के किसी किसी सिद्ध, ऋषि आदि ने आकर उस साधक को उस साक्षात्कार हो रही दशा के बारे में बता दिया I
- उस दशा के देवादि सत्ता ने ही उस साक्षात्कार होती हुई दशा के बारे में सबकुछ बता दिया I
- उस साधक के किसी पूर्व जन्म के साथी या गुरुदेव ने प्रकट होकर, उस साधक को उस साक्षात्कार करी जा रही दशा के बारे में सबकुछ बता दिया I
- इत्यादि …
इसलिए, यह रजोगुण समाधि, जिसको अस्मिता समाधि भी कहा जाता है, वो सर्व ज्ञानात्मक सिद्धि ही होती है, क्यूंकि अस्मिता सिद्ध योगी को किसी दूसरे से या किसी और के ग्रन्थ से कुछ भी जानने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है…, उसको साक्षात्कार करी हुई दशाओं के बारे में सबकुछ स्वयं ही और स्वतः ही पता चलते जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
पञ्च मुखा सदाशिव के साक्षात्कार में रुद्र देव ही अघोर मुख से स्वयंभू हुए थे I यही कारण है, कि रुद्र देव को स्वयंभू भी कहा गया है I
इसका अर्थ हुआ, कि रुद्र देव का स्वयं प्रादुर्भाव सदाशिव के दक्षिण दिशा को देखने वाले, अघोर मुख से हुआ था I
क्यूँकि रुद्र स्वयंभू हैं, और क्यूंकि स्वयंभू ही अज (अर्थात अजन्मा कहलाता है), इसलिए रुद्र को अजा देवता भी कहा जा सकता है I
अजा का न तो कोई माता होती है, और न ही पिता और न ही कोई नाता ही होता है I
और क्यूँकि रुद्र (या तत्पुरुष) ही इस्लाम के अल्लाह ताला हैं, इसलिए इस्लाम नामक पंथ में, अल्लाह को भी ऐसा ही कहा गया है, कि वो अजन्मा है (अर्थात अजा है), और उसका कोई नाता (या रिश्ता) नहीं है अर्थात कोई माता या पिता या कोई और नाता नहीं है I
आगे बढ़ता हूँ …
जो अजा होता है, वो नीचे कहा गया सबकुछ भी होता ही है …
- स्वयं उत्पन्न, स्वयं प्रकट, … इस शब्द का अर्थ है, कि उसको स्वयं को प्रकट या उत्पन्न करने के लिए, किसी और दशा आदि का आलम्बन लेने की आवश्यकता ही नहीं होती है I
- स्वयं स्थित, … इस शब्द का अर्थ है, कि उसको स्वयं को स्थापित करने के लिए, किसी और दशा आदि का आलम्बन लेने की आवश्यकता ही नहीं होती है I
- स्वयं चलित, … इसका अर्थ है, कि वो स्वयं ही चलित होता है, अर्थात उसको चलने के लिए उसको किसी और दशा आदि का आलम्बन लेने की आवश्यकता ही नहीं होती है I
योगीजन तत्पुरुष को क्रुद्ध क्यूँ कहते हैं, … योगीजन आला बुद्ध को गुस्से वाला क्यों कहते हैं, …
कई सारे मार्ग जो तत्पुरुष से संबंधित होते हैं या उनसे जुड़े हुए होते हैं, वो इन तत्पुरुष को और उनके आला नाद को क्रुद्ध (अर्थात गुस्से वाला) और प्रलयंकारी देवता कहते हैं I
लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता, क्यूंकि मुझे तत्पुरुष बहुत ही सरल, भोले और शांत लगे थे I और मुझे उनका आला नाद भी ऐसा ही शांत लगा था I
और मैं यह जान ही नहीं पाया, कि उन योगीजनों ने तत्पुरुष (अर्थात आला, या बुद्ध आला या रुद्र देव) को क्रुद्ध क्यूँ कहा है I मुझे तो आला नाद (अर्थात तत्पुरुष) बहुत ही शांत, सुखदायी और भले लगे I
लेकिन हो सकता है कि कुछ पूर्व कालों के योगीजनों के लिए आला बुद्ध प्रलयंकारी रहे हों…, पर मेरे साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं था I
लेकिन मैं कभी कभी सोचता हूँ…, कि क्या रजोगुणी होने के कारण उनको प्रलयंकारी, क्रुद्ध, गुस्से वाला…, ऐसा सब कहा गया है? I
आगे बढ़ता हूँ …
पर इन आला नाद में निवास करने वाले सिद्ध योगीजन, बातें बहुत करते हैं I इसलिए मैं सोचता हूँ, कि हो सकता यह अधिक बात करना भी रजोगुण का ही प्रभाव हो I
लेकिन ऐसा होने पर भी वो सभी मनीषी, बहुत उपकारी और मदादार ही थे, क्यूंकि मेरी चेतना को पकड़ पकड़ कर वो सिद्धगण, सारे तत्पुरुष लोक में घुमा रहे थे और बहुत प्रसन्नचित्त भी हो रहे थे, कि इतने सहस्र वर्षों के पश्चात कोई बाहर के लोकों का जीव, उन सबसे मिलने आया I
इन्हीं और कुछ और कारणों से मुझे तत्पुरुष (अर्थात बुद्ध आला या रुद्र देव) बिलकुल भी वैसे नहीं लगे, जैसा कुछ योगीजन पूर्व कालों में उनके बारे में कह गए हैं I
तत्पुरुष की दिव्यता माँ गायत्री का रक्ता मुख है, तत्पुरुष की दिव्यता माँ गायत्री का विद्रुमा मुख है, तत्पुरुष और माँ गायत्री का रक्ता मुख, माँ गायत्री का लाल मुख माँ गायत्री के रक्ता मुख ही तत्पुरुष की दिव्यता है, रुद्र और माँ गायत्री का रक्ता मुख, …
तत्पुरुष ब्रह्म की जो मूल दिव्यता हैं, उनको ही माँ गायत्री का रक्ता मुख (अर्थात माँ गायत्री का लाल रंग का मुख या माँ गायत्री का विद्रुमा मुख)) कहा जाता है I और जहाँ माँ गायत्री का लाल वर्ण का मुख, रजोगुण को ही दर्शाता है I
इसी मुख से कई सारी दैविक सत्ताओं का प्रादुर्भाव हुआ था, जैसे माँ रक्त चामुण्डा (लाल रंग की माँ चामुण्डा), माँ रक्त तारा (अर्थात लाल तारा माँ), इत्यादि I
माँ गायत्री का रक्ता मुक्त, उनका उग्र मुख है, अर्थात इस मुख की ऊर्जाओं का स्वरूप उग्र होता है I
अहम् और अस्मिता, अहम् और अस्मिता का नाता, अहम् नाद और आला नाद का नाता, … तमोगुण और रजोगुण का नाता, … अघोर और तत्पुरुष का नाता, … अघोर और रुद्र का नाता, …
यह समस्त विश्व (त्रिभुवन) तमोगुण में ही बसाया गया है, जो अघोर ब्रह्म का ही होता है और जिसका मूल शब्द, अहम् नाद का ही होता है I इसलिए इस जीव जगत को, महत तमोगुणी और महत अहंकारिका भी कहा जा सकता है I
क्यूंकि जीव जगत तमोगुण के भीतर ही बसाया गया है, इसलिए उस तमोगुण में बसे हुए जीव जगत के पास जब रजोगुण आता है, तो उस रजोगुण को भी, उसी तमोगुण से होकर जाना होता है I
तमोगुण के भीतर से जाने के कारण, रजोगुण की ऊर्जा न्यून भी हो जाती है, क्यूंकि उस ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग, तमोगुण में ही रह जाता है I
ऐसी ही दशा अघोर ब्रह्म के अध्याय में, उन अघोर के चित्र में भी दिखाई गई थी, जिसमें नीले वर्ण के तमोगुण के भीतर से ही लाल वर्ण का रजोगुण बाहर निकलता हुआ दिखाया गया है I
और उसी अघोर ब्रह्म नामक पूर्व अध्याय के चित्र में, बाहर निकलकर वो रजोगुण उस नीले वर्ण के सूक्ष्म शरीर की ओर आता हुआ भी दिखाया गया है I
ऐसा ही जीव जगत के प्रत्येक भाग के साथ भी होता है क्यूंकि जीव जगत तक आने से पूर्व, लाल वर्ण के रजोगुण को, नीले वर्ण के तमोगुण से होकर ही जाना होता है I
इसलिए, रजोगुण भी तमोगुण से होकर ही इस जीव जगत में आता है, और अपने प्रभाव दिखता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब रजोगुण की ऊर्जा, तमोगुण से टकरा के जीवों के पास आती है (क्यूँकि जीव जगत को तमोगुण में ही बसाया गया है) तब उस रजोगुण की तीव्र ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग, तमोगुण में ही समा के, तमोगुण ही हो जाता है I ऐसी दशा में, उस तमोगुण के भीतर ही रजोगुण और तमोगुण का योग होता है I
यही है तमोगुण और रजोगुण का नाता I
आगे बढ़ता हूँ …
यह तमोगुण अघोर का होता है, और रजोगुण तत्पुरुष का I तो इसी बिन्दु से अघोर और तरपुरुष का सनातन नाता भी जाना जा सकता है I
यह तमोगुण का नाद अहम् होता है और रजोगुण का नाद, आला ही होता है I तो इसी बिन्दु से अहम् और आला का सनातन नाता भी जाना जा सकता है I
आगे बढ़ता हूँ …
खगोल विज्ञान में बताए गए रेड शिफ्ट का कारण भी आला नाद ही है I और उसी खगोल विज्ञान का ब्लू शिफ्ट का कारण, अहम् नाद है I
क्यूंकि रेडशिफ्ट को ब्लूशिफ्ट संतुलित करती है, इसलिए ब्रह्माण्ड में अहम् नाद ही आला नाद का सन्तुलक है, अर्थात अघोर ब्रह्म ही तत्पुरुष ब्रह्म का सन्तुलक होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
पूर्व में बताया गया था, कि अहम् नाद (अर्थात अघोर) तमोगुण का धारक होता है और आला नाद (अर्थात तत्पुरुष) रजोगुण का धारक होता है I
और क्यूँकि रजोगुण और तमोगुण एक दुसरे से विपरीत होते हैं, इस कारण से भी अहम् नाद (जो तमोगुण का धारक अघोर है) और आला नाद (जो रजोगुण का धारक तत्पुरुष है) एक दुसरे को संतुलित करते हैं I
और क्यूंकि अघोर और तत्पुरुष ब्रह्माण्ड की व्यापक सत्ताएँ हैं, इसलिए यह दोनों ब्रह्माण्ड की गति और स्थिति के भी सन्तुलक होते हैं और जिसमें गति रजोगुणी तत्पुरुष की होती, और स्थिति तमोगुणी अहम् की I
और ऐसा होने के कारण, यह जीवों के भी सन्तुलक ही हैं I इन दोनों के संतुलन के बिना जीव का जीवन ही संकट में आ जाएगा I
तत्पुरुष की निरकार दशा का विस्तार, … तत्पुरुष के निराकारी स्वरूप का वर्णन, …
अपने विस्तार में, तत्पुरुष की दशा बहुत ही बड़ी होती है I लेकिन यह अनंत बिलकुल नहीं होती है, क्यूंकि तत्पुरुष गुणों में ही होता है I
अनंत न होने का कारण है, कि जो सगुण है वो कभी भी अनंत नहीं हो सकता I अनंत केवल निर्गुण ही होता है I
और क्यूंकि इस अध्याय के चित्र में दिखाया गया तत्पुरुष नामक ब्रह्म, सगुण निराकार ही है, इसलिए वो अनंत भी नहीं हो सकता I
सगुण निराकार के अनंत होने का प्रमाण मिलेगा ही नहीं, क्यूंकि अनंत केवल निर्गुण निराकार ही होता है I
और एक बात कि, ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण इतिहास में…,
- सगुण निराकार के अनंत होने का कोई भी प्रमाण नहीं है I
- और निर्गुण निराकार के अनंत न होने का भी कोई प्रमाण नहीं मिलेगा I
इसलिए…,
- सगुण निराकार अनंत है या नहीं, यह कोई भी नहीं जान पाएगा I ऐसा होने के कारण ही सगुण निराकार, अनंत कहलाया ही नहीं जा सकता I
- और निर्गुण निराकार ही अनंत कहलाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब साधक की चेतना ब्रह्माण्ड को पार कर रही होती है, तब उस ब्रह्माण्ड के विस्तार के अंत में जो दशाएं आती हैं, उन दशाओं में से, अंत से एक पूर्व की दशा तत्पुरुष की होती है I
वैदिक देवी देवता कौन, … वैदिक देव और अन्य सभी देवों में अंतर, … कौन है वैदिक देवी देवता, कौन वैदिक देवी देवता हो सकता है, वेदों में देवता कैसे होते हैं, वेदों का देवत्व बिंदु, वैदिक देवत्व बिंदु, …
वेदों के ऋषियों ने, केवल उन्हीं देवी देवताओं को वैदिक वांड्मय का अंग किया था, जो यहाँ बताए गए बिंदुओं में पूर्णरूपेण उत्तीर्ण होते थे I
तो अब मैं उन बिंदुओं को बताता हूँ …
- उस देवी देवता को ब्रह्माण्ड में और समस्त साधकों (अर्थात प्राणधारी जीवों) के पिंड के भीतर भी, समस्त कालखण्डों के समस्त समय पर, समान रूप में बसा होना होगा I
इसका अर्थ हुआ, कि उन देवी देवता को उस सनातन अखंड समय के सभी खण्डों में, साधकों के पिण्डों में और ब्रह्माण्ड में, एक साथ और समान रूप में बसा होना होगा I
ऐसा होने के कारण ही वेद मार्ग अखण्ड सनातन कहलाया गया था I
- उस देवी देवता को प्रकृति के किसी एक या एक से अधिक परिकर में भी अनादि कालों से बसा होना होगा, और प्रकृति के उस पार्रिकर की दिव्यताओं का धारक भी होना होगा I
ऐसा होने के कारण ही वेद मार्ग, प्रकृति से जाता हुआ भी, वास्तव में ब्रह्मपथ ही होता है I
और यही कारण है कि …
वेद मार्ग, प्रकृति के तारतम्य में बसा होने पर भी, वास्तव में ब्रह्मपथ ही है I
और इसीलिए वेदमार्ग में …,
प्रकृति और प्रकृति के भागों का आलम्बन लेके भी कैवल्य मोक्ष पाया जाता है I
ऐसा होने के कारण ही समस्त चतुर्दश भुवन में, वेद मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमें प्रकृति के तारतम्य में बसकर और उस तारतम्य का आलम्बन लेकर भी साधकगण कैवल्य मुक्ति को पाते हैं I
यही कारण था, की मेरे पूर्व जन्मों में, जो मुझे स्मरण भी हैं क्यूंकि मैं प्रबुद्ध योग भ्रष्ट हूँ…, प्रकृति के तत्त्वों पर भी साधनाएं होती थी I
इसीलिए, समस्त चतुर्दश भुवन में, वेद मार्ग ही ऐसा मार्ग है, जिसमें प्रकृति और पुरुष, दोनों के बिंदुओं को एक साथ आलम्बन लेने की क्षमता है I
- उस देवी देवता को पञ्च ब्रह्म में से किसी एक ब्रह्म से संबंध भी होना होगा I
यही कारण है, कि वैदिक देवी देवता एक दुसरे से जुड़े हुए हैं, अर्थात एक दुसरे के नातेदार (ये रिश्तेदार) भी हैं I
और इसी कारण से, देवी देवताओं और उनके मार्गों में तारतम्य होने पर भी, वो सभी देवी देवता और उनके मार्ग उसी ब्रह्म को जाते हैं I
इसलिए, वैदिक वांड्मय में …
मार्गों में तारतम्य होने पर भी, मूल और गंतव्य में वही अद्वैत ब्रह्म हैं I
मार्गों में तारतम्य होने पर भी, गंतव्य से किसी को वंचित नहीं रखा गया है I
- उस देवता की अर्धांगनी को भी पञ्च ब्रह्म में से किसी एक ब्रह्म की पुत्री होना होगा I
यही कारण है, कि वेद मार्ग में पुत्री, अर्धांगनी और समस्त स्त्रियां भी देवी ही मानी जाती हैं I
- और उस पञ्च ब्रह्म की पुत्री को भी पञ्चदेव में से किसी एक देवता की अनुजा होना होगा I
यही कारण है, कि रक्षा बंधन आदि सिद्धांता आए थे, और जहाँ उन रक्षा बंधन आदि सिद्धांतों के मूल में, वो देवी ही हैं, जो ब्रह्म की किसी एक देव रूपी अभिव्यक्ति की अनुजा होती हैं I
- उन देवता का लोक जो ब्रह्माण्ड में हैं, वही लोक साधक के पिंड में भी होना होगा I और उन्ही देवता के लोक में, उनकी शक्ति रूपी अर्धांगनी (या अनुजा या पुत्री या यह सभी) का सानिध्य भी होना ही होगा I
यही कारण है कि वैदिक देवत्व बिंदु, समान रूप में सर्वव्यापक और सर्वभौमिक भी माने जाते हैं I
- सभी देवी देवता को, समान रूप में उन्ही ब्रह्म की प्राथमिक अभिव्यक्तियों का अभिन्न अंग होना होगा I
यही कारण है, कि वेद मार्ग में, सभी देवी देवता उन्ही गंतव्य रूपी ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही माने जाते हैं I
ऐसा होने के कारण, वो ब्रह्म ही इन सभी देवताओं के मूल और अमूल गंतव्य में साक्षात्कार होते है, जिसके कारण अपनी वास्तविकता में समस्त वैदिक देवी देवता, वही ब्रह्मपथ होते हैं जो उन्ही अद्वैत ब्रह्म की ओर लेके जाता है I
इसलिए, वेदमार्ग में …
देवताओं और मार्गों में तारतम्य होने पर भी, उन देवी देवताओं के मूल और अमूल गंतव्य में तारतम्य नहीं होता I
इसलिए वेदमार्ग में …
देवत्व बिंदु और मार्ग आदि तारतम्य होने पर भी, अन्तः वही कैवल्य मोक्ष होता है I
तत्पुरुष में निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार …
यह भाग इस अध्याय का सबसे महत्वपूर्ण भाग है I
ऐसा इसलिए कहता हूँ, क्यूंकि इन तत्पुरुष में जाकर ही (अर्थात स्थित होकर ही) ही मैंने सर्वप्रथम निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार किया था I
और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात ही, अन्य सभी स्थूल, दैविक, कारण और संस्कारिक जगत की कई और दशाओं में वही निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार होते ही चले गए, जिससे मैं जान गया, की यदि कोई सर्वव्यापत सत्ता है, तो वो निर्गुण ब्रह्म ही हैं I
और उस साक्षात्कार के निर्गुण निराकार ब्रह्म ऐसे थे …
- वो निरंग झिल्ली के समान थे I
- वो निर्गुण ब्रह्म, वो स्वयंप्रकाश थे, जो सबको प्रकाशित करते हुए भी, इस साक्षात्कार से पूर्व, गुप्त ही थे I
- वो सबमें बसे हुए थे, और सब उनमें बसे हुए थे, और ऐसा होने पर भी इस साक्षात्कार से पूर्व की दशाओं में, वो गुप्त ही थे, अर्थात अदृश्य ही थे I
- वो स्वयं में ही स्थित थे, और स्वयं ही स्वयं में थे, और स्वयं ही स्वयं से सबको प्रकाशित भी कर रहे थे I और ऐसे होने पर भी, इस साक्षात्कार से पूर्व, वो स्वयं ही स्वयं में गुप्त थे, इसलिए इस साक्षात्कार से पूर्व, वो अदृश्य ही थे I
और जो मैंने इस साक्षात्कार के पश्चात पाया, वो मुझे अचंभित ही किया I
यह ऐसा ही था …
- वो निर्गुण ब्रह्म जो इस साक्षात्कार के पूर्व से भी सबमें बसे हुए थे, और इसके साथ सबकुछ उनमें ही बसे होने पर भी, और जो इस तत्पुरुष के भीतर के साक्षात्कार से पूर्व में गुप्त ही थे, वो अब सबमें साक्षात्कार होने लगे थे I
- इसका अर्थ हुआ, कि इस साक्षात्कार के पश्चात, वो निर्गुण ब्रह्म उन दशाओं में भी दिखाई देने लगे थे, जिनमे वो इस साक्षात्कार से पूर्व के कालों में, गुप्त थे, अर्थात दिखाई ही नहीं दिए थे I
- और इसके साथ साथ, वही निर्गुण निराकार ब्रह्म, इस साक्षात्कार के पश्चात सभी दशाओं में समान रूप में पाए जाने लगे थे (अर्थात साक्षात्कार होने लगे थे) I
- इसका अर्थ हुआ, कि इस साक्षात्कार के पश्चात, जहां भी और जिस भी दैविक, कारण आदि दशाओं में वो चेतना जाने लगी, उन सभी दशाओं में वही निर्गुण ब्रह्म दिखाई देने लगे थे I और वही निर्गुण ब्रह्म इस तत्पुरुष के साक्षात्कार से पूर्व की दशाओं में भी साक्षात्कार होने लगे थे I
- ऐसा होने के कारण, वो चेतना यह भी मानने लगी, कि जो निर्गुण है, वही सर्वव्यापक है, और वही अखंड सनातन, सर्वदिशा व्यापक, सर्वदशा व्यापक, और अनंत भी है I
- और ऐसे कई साक्षात्कारों के पश्चात, वो चेतना यह भी मानने लगी, कि वो निर्गुण ब्रह्म, अपनी संपूर्ण रचना (और रचना के समस्त भागों) में भी हैं, और समस्त रचना से परे भी हैं…, इसीलिए वो निर्गुण ब्रह्म ही वास्तव में सर्वव्याप्त और पूर्ण हैं I
और इस साक्षात्कार के पश्चात, उन सभी दशाओं में, वो निर्गुण ब्रह्म जैसे पाए गए थे, वो अब बता रहा हूँ …
- वो निरंग थे और एक झिल्ली के समान थे I
- उनका कोई प्रकाशक नहीं था…, लेकिन वो सबके प्रकाशक ही थे I
- और सबके प्रकाशक होते हुए भी, वो सबमे और सबसे परे भी थे …, लेकिन इस साक्षात्कार से पूर्व, वो अपने गुप्त रूप में ही थे I
- लेकिन इस साक्षात्कार के पशचात, वो अपने पूर्व के गुप्त रूप को त्यागकर, सबमे (अर्थात सभी साक्षात्कार करी हुई दशाओं में) समान रूप में ही साक्षात्कार होने लगे थे I
और ऐसे कुछ साक्षात्कारों के पश्चात, उस चेतना ने जो पाया, वो और भी अचंभित करने वाला था I
तो अब इस बिंदु को बताता हूँ …
- वो चेतना जो इस साक्षात्कार से पूर्व कालों में और इस साक्षात्कार के कुछ समय बाद तक, निरंग नहीं थी (अर्थात सगुण अवस्था में ही थी), वो स्वयं ही स्वयं को उन्ही निर्गुण ब्रह्म के समान, निरंग ही पाने लगी I
- ऐसे दशा में वो चेतना, सबको तो देख पाती थी, लेकिन स्वयं के शरीरी रूप को वो अब नहीं देख पा रही थी I
- और ऐसी दशा में, उस चेतना का जो रूप था, वही निराकार निरंग अरूप सा ही प्रतीत हो रहा था, जैसे वो निर्गुण ब्रह्म भी साक्षात्कार हो रहे थे I
- इसलिए उस चेतना की दशा उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के समान ही हो गई थी I
और इसी कारण, वो चेतना, स्वयं ही स्वयं के निरंग स्वरूप को, उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के समान ही सर्वव्याप्त पा रही थी I
इससे वो चेतना जो जानी थी, वो अब बता रहा हूँ …
तुम वही हो जिसका तुमने योगमार्ग से साक्षात्कार किया है I
साक्षात्कार भी तभी होता है, जब तुम साक्षात्कार से पूर्व, अपनी आंतरिक दशा में वही हो जाते हो, जिसका तुम साक्षात्कार करने ही वाले होते हो I
इसलिए वो चेतना यह भी जान गई, की पुरातन वैदिक योगी जनों ने ऐसा क्यों कहा था …
ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता है I
और ब्रह्म का ज्ञाता ब्रह्म ही होता है I
ब्रह्म हुआ बिना ब्रह्म को जाना ही नहीं जा सकता I
यदि तुमने ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक दशा में, ब्रह्म ही हो जाओ I
और कुछ बिंदु …
अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म होने का मार्ग ही ब्रह्मपथ कहलाता है I
वो ब्रह्मपथ भी स्वयं ही स्वयं में, के वाक्य से होकर जाता है I
जिसमें साधक का आत्मस्वरूप ही पूर्ण ब्रह्म कहलाता है I
और उस ब्रह्मपथ के गंतव्य को ही ब्रह्मत्व कहते हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
- जबकि पहली बार यह निर्गुण का साक्षात्कार 2007-2008 में तत्पुरुष ब्रह्म में बसकर ही हुआ था, लेकिन ऊपर के बिन्दुओं में बताई गई चेतना की दशा को आते आते, 2011-2012 इस्वी ही हो गई थी I
- इसका अर्थ हुआ, कि निर्गुण ब्रह्म के प्रथम साक्षात्कार से चेतना के ही निर्गुण होने तक का समय खंड, कोई 3 से 5 वर्षों का था I
- और इसी कालखंड के भीतर, उस चेतना ने, स्वयं को ब्रह्माण्डीय दशाओं में विलीन भी किया था और उन सभी दशाओं में उसी चेतना ने, उन्ही निर्गुण ब्रह्म को साक्षात्कार भी किया था I
इसका यह भी अर्थ हुआ, कि जो निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार तत्पुरुष से प्रारम्भ हुआ, वो उस साधक की चेतना को उस चेतना का ही वास्तविक स्वरूप, अर्थात निर्गुण स्वरूप देकर गया I
लेकिन इस प्रक्रिया में कोई 3 से 5 वर्ष लग गए थे I
यहाँ मैंने 3 से 5 वर्ष इसलिए लिखा है, क्यूँकि में इसको स्पष्ट रूप में बताना ही नहीं चाहता हूँ I
आए बढ़ता हूँ …
और क्यूँकि पञ्च ब्रह्मोपनिषद के तत्पुरुष जो अजा ही है, वही पाशुपत मार्ग के राजयोगियों के मार्ग के पञ्च मुखा सदाशिव साक्षात्कार के रुद्र है, इसलिए रुद्र के बारे में ऐसा भी कहा जाता है …
सर्वे रुद्रम भजनयेवा रुद्र: किंचिद भजेंनाहि।
स्वात्मा भक्तावातसलयाद भजत्येवा कदाचन।।
इसका भावार्थ है…,
सभी रुद्र की उपासना करते हैं, रुद्र किसी और की उपासना नहीं करता I
कभी अपने भक्तों पर अनुग्रह करता, रुद्र स्वयं ही स्वयं का उपासक है।।
अब इन बातों पर ध्यान दो…
जो योगी यहाँ बतलाई गयी अवस्थाओं का साक्षात्कारी होता है, वो योगी भी रुद्र के समान, स्वयं ही स्वयं को जाता है I
और जहाँ इस स्वयं ही स्वयं में के वाक्य के मार्ग में, उस योगी का आत्मस्वरूप ही सर्वात्मा होता है, अर्थात, समस्त जीव जगत का आत्मा होता है।
और अंततः, अपने ऐसे आंतरिक सर्वभौम मार्ग से वो योगी, अपने इस भीतर के मार्ग से, जीव जगत के समस्त विकारों को नष्ट भी करता है, क्यूंकि इस मार्ग की अंतगति में वो योगी स्वयं ही स्वयं के निर्गुण आत्मस्वरूप का साक्षात्कारी, स्वतः ही हो जाता है ।
और ऐसे योगी का ज्ञान और उसके शब्द ही उसके अस्त्र होते हैं, क्योंकि उसकी वाणी और शब्द ही शब्दात्माक होके, उसका शब्दास्त्र स्वरूप होती है।
वो शब्दब्रह्म को ज्ञान, क्रिया और चेतन स्वरूपों में पाके, उस शब्द ब्रह्म को अपनी इच्छा शक्ति के अस्त्र रूप में भी देखता है।
ऐसे योगी का आत्मा ही रुद्र होता है, जिसमें वो योगी, स्वयं ही स्वयं में रमण करता है।
लेकिन यहाँ कहे गए रुद्र शब्द को, ब्रह्म ही मानना चाहिए I
ऐसे योगी का …
- मूल मार्ग, … स्वयं ही स्वयं में, … ऐसा होता है। इस वाक्य में कहे गए स्वयं शब्द को सगुण साकार और सगुण निराकार ब्रह्म, दोनों ही मानना चाहिए।
- सिद्ध मार्ग, … रुद्र ही रुद्र में, … इस वाक्य की ओर जाता है। इस वाक्य में कहे गए रुद्र शब्द को सगुण साकार, सगुण निराकार और लिंगात्मक ब्रह्म, तीनों ही मानना चाहिए।
- और अंतगति में, ऐसा योगी के मार्ग का गंतव्य, … ब्रह्म ही ब्रह्म में, … ऐसा ही होगा। इस वाक्य में कहे गए, ब्रह्म शब्द को निर्गुण ब्रह्म ही मानना चाहिए।
और ऐसा योगी, अहम अस्मि के आत्मार्थ से होता हुआ, अहम् ब्रह्मास्मि के गंतव्य को भी पा जाता है।
ऐसे योगी का अहम् विशुद्ध होके, ब्रह्म ही होता है I
ऐसा योगी ही कहेगा, की विशुद्ध अहम् को ही ब्रह्म कहते हैं I
और ऐसे योगी की अस्मिता भी ब्रह्मलीन होके ब्रह्म ही होती है I
इसलिए ऐसा योगी यह भी कहेगा, की …
जब योगी के अहम् और अस्मिता विशुद्ध होते हैं, तब योगी ब्रह्मलीन होगा ही I
विशुद्ध अहम् और निष्कलंक अस्मिता, दोनों ही ब्रह्मअंग और ब्रह्मपथ हैं I
तमोगुण और रजोगुण, दोनों ब्रह्म भी हैं, और जीव जगत रूपी ब्रह्मपथ भी हैं I
अब आगे बढ़ता हूँ …
तत्पुरुष का मार्ग स्वयं ही स्वयं में होता है, … इस ग्रन्थ का स्वयं ही स्वयं में का मार्ग तत्पुरुष का ही है, स्वयं ही स्वयं में के मार्ग का तत्पुरुष से नाता, …
इस ग्रन्थ का जो मूल मार्ग है, और जिसको स्वयं ही स्वयं में, ऐसा कहा गया है, उसका मूल नाता तत्पुरुष ब्रह्म से ही है I
ऐसा होने का कारण है, कि पञ्च ब्रह्मोपनिषद के मार्ग पर गई उस चेतना ने ततपुरुष ब्रह्म में ही सबसे पहले निर्गुण निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार किया था I
और क्यूँकि निर्गुण निराकार ब्रह्म सर्वसाक्षी ही होते हैं, इसलिए वो निर्गुण ब्रह्म “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य को ही दर्शाते हैं और जहाँ यह स्वयं शब्द उन ब्रह्म की सर्वव्यापकता, अनादि अनन्त सनातन अखण्ड गंतव्य स्वरूप का वाचक भी है I
तत्पुरुष का मार्ग भी “स्वयं ही स्वयं में” होकर जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
और अब उस निर्गुण निराकार ब्रह्म साक्षात्कार के बारे में बताता हूँ, जो स्वयं ही स्वयं में के वाक्य को पूर्णरूपेण दर्शाते हैं I
इस वाक्य के मार्ग पर, साक्षात्कारों और उनके अनुभवों के अनुसार, इस स्वयं ही स्वयं के मार्ग पर अंततः, स्वयं शब्द का मूलार्थ ही ब्रह्म शब्द में परिवर्तित हो जाता है I
ऐसा होने पर जो होता है, वो अब बताता हूँ …
पूर्व का स्वयं ही स्वयं में का वाक्य, ब्रह्म ही ब्रह्म में, ऐसा प्रतीत होने लगता है I
इसलिए वो पूर्व का उत्कर्ष मार्ग जो स्वयं ही स्वयं में के वाक्य में बसा हुआ था, वो सार्वभौमिक और सर्वव्यापक होकर, ब्रह्म की रचना के भीतर और बाहर, दोनों में ही अखण्ड सरीका हो जाता है I
ऐसी दशा में, वो साधक जिस मार्ग पर जाता है, उसी को इस ग्रन्थ में…, ब्रह्म ही ब्रह्म में…, ऐसा कहा गया है I
शरीर में तत्पुरुष का प्रकाश, … शरीर के भीतर तत्पुरुष का प्रकाश, मस्तिष्क में तत्पुरुष का प्रकाश, …
शरीर में तत्पुरुष का जो स्थान होता है, वो शिवरंध्र और विष्णुरंध्र के मध्य में होता है I
इस शिवरंध्र और विष्णुरंध्र के मध्य स्थान पर तत्पुरुष का जो प्रकाश होता है, उसी को ऊपर का चित्र दिखा रहा है I
लेकिन इस प्रकाश के बारे में मैं इस चित्र से आगे बताना ही नहीं चाहता हूँ I
अब इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है, और इससे अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम उज्जयी नाद है I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaal Chakra
एकवाद, monotheism
बहुवादी अद्वैत, Pluralistic Monism
गुरुयुग, Guru Yuga