मंदिर कलश, गरुड, खड्ग, त्रिशूल, विष्णु लिंग, ब्रह्मदण्ड, त्रिदण्ड, धर्मदण्ड, देवदण्ड, नंदका, रत्न मारू, सुमेरु, खण्डा, उडुम्बरा, चक्रधर, पुष्पक विमान, महासिद्ध, देवदत्त अश्व, माथे का सर्प, विराट कृष्ण, वज्रास्त्र, भारत की सौ नदीयाँ, सौ बुद्ध, फ़रवहर, मूषक, मयूर, हंस, तैंतीस कोटि देवता

मंदिर कलश, गरुड, खड्ग, त्रिशूल, विष्णु लिंग, ब्रह्मदण्ड, त्रिदण्ड, धर्मदण्ड, देवदण्ड, नंदका, रत्न मारू, सुमेरु, खण्डा, उडुम्बरा, चक्रधर, पुष्पक विमान, महासिद्ध, देवदत्त अश्व, माथे का सर्प, विराट कृष्ण, वज्रास्त्र, भारत की सौ नदीयाँ, सौ बुद्ध, फ़रवहर, मूषक, मयूर, हंस, तैंतीस कोटि देवता

यहाँ पर मंदिर कलश, गरुड, वज्र, खड्ग, त्रिशूल, विष्णु लिंग, ब्रह्मदण्ड, त्रिदण्ड, धर्मदण्ड, देवदण्ड, नंदका, रत्न मारू, सुमेरु, खण्डा, उडुम्बरा पुष्प, चक्रधर, पुष्पक विमान, महासिद्ध, देवदत्त अश्व, माथे का सर्प, विराट कृष्ण, वज्रास्त्र, भारत की सौ नदीयाँ, सौ बुद्ध, सौ बीजाक्षर मंत्र, फ़रवहर, मूषक, मयूर, हंस आदि बिंदुओं पर बात होगी I इनके अतिरिक्त इसी अध्याय में वज्र, वज्रयान, होरस की आँख, रा की आँख, ओसिरिस, शिव का त्रिशूल, खंडा साहब, ईसा के मुख की तलवार, सहस्र सिंहों का नाद, सिंह द्वार, कैड्यूसियस, सर्प दण्ड, तैंतीस कोटि देवी देवता, तैंतीस कोटि देवता, फरवाहर,  फ़रवहार, फ़रवहार, फ़ोरुहार, मेरु, मेरु पर्वत, सिद्ध लोक, नाथ सिद्ध, ज़ेन बौद्ध, दिव्य अभिषेक, दिव्य राज्याभिषेक, सभोपदेशक 12:6-7, सूरत ज़लज़ला, योग चतुष्टय, सौ बीजाक्षर मंत्र, आदि पर भी बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान बस होने ही वाला था I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प (Brahma Kalpa) में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

यह भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और योगेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मस्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है ।

यह अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का उनसठवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस हिरण्यगर्भ ब्रह्माणी मार्ग का आठवाँ अध्याय है I

 

वज्रदण्ड की सिद्धियां, निरालम्ब चक्र की सिद्धियां, मनस चक्र की सिद्धियां
वज्रदण्ड की सिद्धियां, निरालम्ब चक्र की सिद्धियां, मनस चक्र की सिद्धियां

 

इस भाग के कई सारे उपभाग भी होंगे, इसलिए अब उनमें से कुछ हो ही सही, लेकिन एक-एक करके बताता हूँ…

 

कलश, कलश क्या है, अमृत कलश, अमृत कलश क्या है, अमृत लिंग, अमृत लिंग क्या है, मस्तक कलश, मस्तक का कलश, मस्तक कलश क्या है, नाभि कलश क्या है, नाभि कलश, मंदिर कलश क्या है, कलश क्या है, कलश सिद्धांत, मंदिर कलश सिद्धांत, आयुर्वेद का अमृत कलश, आयुर्वेद के अमृत कलश का सिद्धांत, नाभि का अमृत कलश,मंदिर ध्वज, मंदिर ध्वज क्या है, मंदिरध्वज देवता का केश है, …

यहाँ पर मंदिर और उस कलश पर भी बात होगी, जो मंदिर के शिखर पर स्थापित होता है I ऊपर के चित्र में…

  • राम नाद की दशा दिखाई गई है, और इस दशा में साधक के शरीर के भीतर ही शक्ति शिव योग हो रहा है I
  • साधक का नीले वर्ण का मन है I
  • और श्वेत वर्ण के प्राण हैं जो समतावाद को प्राप्त हुए हैं और सगुण निर्गुण ब्रह्म के शक्ति रूप (अर्थात आदिशक्ति स्वरूप) के द्योतक हैं I
  • ऊपर में जो सुनहरा दण्ड है, वह वज्रदण्ड चक्र है जो सहस्रार से भी ऊपर की दशा है I इसी वज्रदण्ड के भीतर राम का शब्द साक्षात्कार होता है I
  • वज्रदण्ड से ऊपर जो चतुर दल कमल है, वह निरालंब चक्र (निराधार चक्र या निरालंबस्थान) है, जिसका साक्षात्कार मार्ग अथर्ववेद 2.31, अथर्ववेद 10.2.32 और अथर्ववेद 10.2.32 से होकर जाता है I
  • क्यूंकि अभी के समय कलियुग चलित हो रहा है और क्यूँकि कलियुग के कालखण्ड में शरीर की लम्बाई साढ़े तीन हस्त की ही होती है, इसलिए इस चित्र में साधक का शरीर साढ़े तीन हस्त की लम्बाई को दर्शा रहा है I
  • और वज्रदण्ड की लम्बाई 12 हस्त की बताई जाती है I इसलिए इस चित्र में साधक के मस्तिष्क के ऊपर जो सुनहरा दण्ड (अर्थात वज्रदण्ड) है, वह 12 हस्त की लम्बाई को दर्शा रहा है I क्यूंकि शरीर ही आत्मा नामक ब्रह्म का मंदिर है, इसलिए ऐसी दशा में ही मंदिर का निर्माण किया जाता है I
  • उस निराधार चक्र (निराधारस्थान या ब्रह्म चक्र या ब्रह्मलोक चक्र) से ऊपर जो मटका दिखाया गया है, वह नाभि लिंग है जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया था और जिसको नाभि कलश, अमृत लिंग और अमृत कलश भी कहा जाता है I
  • जब यह नाभि लिंग, जो नाभि क्षेत्र में ही होता है, वह ऊपर उठकर चतुरदल कमल (अर्थात निरालंब चक्र) को पार कर जाता है, तब ऊपर के चित्र में दिखाई हुई दशा को साधक प्राप्त करता है I

अब साधक का शरीर और मंदिर का नाता बताता हूँ…

 

मंदिर कलश, मंदिर ध्वज, कलश, अमृत कलश, कलश सिद्धांत
मंदिर कलश, मंदिर ध्वज, कलश, अमृत कलश, कलश सिद्धांत, मंदिर सिद्धांत,

 

 

 

  • साधक का शरीर ही मंदिर का भुवन स्वरूप होता है I
  • साधक के शरीर का धड़ ही मंदिर के शिखर के नीचे के भाग होता है I
  • मुख और उससे ऊपर का वज्रदण्ड, और वज्रदण्ड से ऊपर के निरालंबस्थान तक का भाग, मंदिर के शिखर को दर्शाता है I
  • वज्रदण्ड से ऊपर का निरालंब चक्र, उस मंदिर के देवता (अर्थात भगवान्) के केश को दर्शाता है I इसी को मंदिर ध्वज स्वरूप में दर्शाया जाता है I
  • और इस अध्याय के प्रथम चित्र में, निरालंब स्थान के ऊपर जो कलश दिखाया गया है, वह मंदिर कलश का द्योतक है I
  • किन्तु ऐसा होने पर भी वैदिक मंदिर सिद्धांत में, कलश को वज्रदण्ड के ऊपर और निरालंब चक्र से नीचे ही दर्शाया जाता है, अर्थात वैदिक मंदिर सिद्धांत में कलश का स्थान, वज्रदण्ड और निरालंब चक्र के मध्य में ही होता है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि यदि कलश इस दशा को पार कर जाएगा, तो वह कर्ममुक्ति का ही द्योतक हो जाएगा, न कि उस उत्कर्ष मार्ग का जिसको कर्मों में ही ख्यापित करने हेतु मंदिर सिद्धांत को प्रकाशित करा गया था I

 

टिप्पणियाँ:

  • और यही कारण है की मंदिर सिद्धांत में कलश को ध्वज से नीचे ही दर्शाया जाता है I
  • और इसके विपरीत, इस अध्याय का प्रथम चित्र उसी अमृत कलश (अर्थात मंदिर कलश) को निरालंब चक्र (अर्थात भगवान् के केश) से ऊपर दिखाया गया है क्यूंकि इस चिरत की दशा में योगी की नाभि का नाभि कलश, ऊपर उठकर निरालंब चक्र को पार किया है और ऐसा साधक कर्ममुक्त हुआ है I
  • इसलिए इस अध्याय के प्रथम चित्र में दर्शाया गया अमृत कलश, साधक की कर्मातीत मुक्ति को ही दर्शा रहा है I और यही चित्र शरीर रूपी मंदिर का भी द्योतक है जिसमें साधक ही उस शरीर की भूमि, भूमा और भूमत्व है अर्थात साधक स्वयं ही क्षेत्र, क्षेत्रपति (क्षेत्री) और क्षेत्रज्ञ है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब मंदिर कलश के बारे में बताता हूँ…

जब साधक शिव शक्ति योग को अपनी काया के भीतर ही सिद्ध करता है, तब पूर्व के अध्याय में बताया गया नाभि कलश (अर्थात नाभि लिंग या आदिशक्ती लिंग) उस श्वेत वर्ण की ऊर्जा जो मेरुदण्ड के नीचे के भाग के समीप से ऊपर की ओर उठ रही होती है, उसके साथ ही नाभि से ऊपर की ओर उठना प्रारम्भ कर देता है I और ऊपर उठता हुआ वह नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश या  नाभि कलश) सहस्रार में पहुँच जाता है I

इस दशा में यदि साधक के पास उपयुक्त तपबल, साधनाबल, योगबल, भक्तिबल और आत्मबल आदि होगा, तो वह साधक उस अमृत कलश को सहस्रार से भी ऊपर धकेल पायेगा I और अंततः वह साधक इस नाभि कलश को ऊपर के चित्र में दिखाई गई दशा में (अर्थात निरालंब चक्र से भी ऊपर) ले जाएगा I

और यही उस नाभि कलश की वह गंतव्य दशा है, जो कर्ममुक्ति की द्योतक है और जिसके मार्ग को सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन कलश के स्वरूप में वैदिक मंदिरों के ऊपर प्रतिष्ठित करा जाता है I

और यही वैदिक मंदिर कलश सिद्धांत भी है, जिसके मूल में यहाँ बताए गए योगमार्ग के साक्षात्कार ही हैं I

 

टिप्पणियाँ:

  • आयुर्वेद में इसी नाभि कलश हो अमृत कलश भी कहा जाता है I
  • इस अमृत कलश का स्थान, नाभि से कोई 3-4 ऊँगली नीचे बताया जाता है I
  • और आयुर्वेद का यही अमृत कलश, जब वज्रदण्ड से ऊपर उठ जाता है, तब इसी को मंदिरों में कलश रूप में स्थापित किया जाता है I
  • ऐसी मंदिर कैलाश की दशा में यह अमृत कलश, वह कर्ममुक्त (कैवल्य मोक्ष) नहीं बल्कि कर्मों से युक्त, कर्म आदि योग से संयुक्त, उस उत्कर्ष मार्ग का द्योतक हो जाता है, जिसको मुक्तिमार्ग कहा जाता है I
  • और यह मंदिर कलश उन मंदिरों में स्थापित नहीं हो सकता, जिनके देवता कर्ममुक्त हैं, और ऐसा होने के कारण, इस जीव जगत में उनका सगुण साकार स्वरूप में प्रादुर्भाव हो ही नहीं सकता है I इसलिए ऐसे मंदिरों के शिखर पर, कलश नहीं बल्कि उस देवताओं से संबद्ध अन्य चिन्ह दिखाए जाते हैं… जैसे चक्र आदि I
  • जिस भी पंथ के देवस्थल के शिखर पर कोई भी कलश जैसी दशा स्थापित करी गई है, उसका नाता इसी वैदिक सिद्धांत से है I ऐसा होने के कारण उस पंथ के देवादि स्थलों के मूल में यही वैदिक मंदिर सिद्धांत पाया जाएगा I
  • ऊपर के चित्र में दिखाई गई, निरालंब चक्र को पार करती हुई अमृत कलश (अर्थात मंदिर कलश) की दशा, उस खकार नाद की भी द्योतक है, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
  • इस कलियुग के कालखण्ड में, क्यूँकि न खाकर, न डकार और न ही गकार नाद की दिव्यताओं को कलश स्थापना में प्रयोग करा जाता है, इसलिए भी आज के कलियुग में वैदिक मंदिर परंपराएं विकृत हुई हैं I और यही एक कारण भी रहा है जिससे वैदिक संप्रदाय और उनके देवता सहित, ब्राह्मण आदि गणों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराता रहा है I
  • और इसके अतिरिक्त, क्यूंकि वैदिक संप्रदाययों के स्थान भी मंदिर ही होते हैं, इसलिए ऐसा न करने से इस कलियुग के छोटे से कालखण्ड में ही बहुत सारे वैदिक संप्रदाय भी लुप्त हुए हैं I
  • वैदिक मंदिरों में वही देवता स्थापित करे जा सकते हैं जो सर्वव्यापक सत्ता को दर्शाते हैं I इसका अर्थ हुआ, कि केवल वह देवता जो साधक के शरीर के भीतर और शरीर से बाहर भी (अर्थात ब्रह्माण्ड में भी) समान रूप में बसे हुए हैं, उन्ही को वैदिक मंदिरों में स्थापित करा जा सकता है I और ऐसा भी इसलिए है, क्यूंकि वैदिक ऋषियों ने कोई ऐसा देवता वैदिक वाङ्मय का अंग बनाया ही नहीं, जो साधक के शरीर और ब्रह्माण्ड में, एक ही समय पर समानरूपेण और पूर्णरूपेण बसा हुआ नहीं हैं I

अब आगे बढ़ता हूँ और अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

वैदिक मंदिर का अर्चा विग्रह सिद्धांत, वैदिक मंदिर का सिद्धांत, … वैदिक मंदिर और साधक का शरीर, वैदिक मंदिर और कुल परंपरा, वैदिक मंदिर और ग्राम परंपरा, वैदिक मंदिर और गुरु शिष्य परंपरा, वैदिक मंदिर और साम्राज्य, वैदिक मंदिर और लोक, वैदिक मंदिर और ब्रह्माण्ड, … वैदिक अर्चा विग्रह और जीवात्मा, वैदिक अर्चा विग्रह और कुल देवता, वैदिक अर्चा विग्रह और और गुरु परंपरा, वैदिक अर्चा विग्रह और साम्राज्य सम्राट, वैदिक अर्चा विग्रह और लोकेश्वर, वैदिक अर्चा विग्रह और सर्वेश्वर, … 

अब इन सब बिंदुओं को एक एक करके बताता हूँ…

 

  • मंदिर की महिमा, वैदिक मंदिर की महिमा, मंदिर ही शरीर है, मंदिर ही साम्राज्य है, मंदिर ही राष्ट्र है, मंदिर ही ब्रह्माण्ड है, मंदिर ही लोक है, मंदिर का विग्रह ही जीवात्मा है, विग्रह ही जीवात्मा है, मंदिर का विग्रह ही साम्राज्य सम्राट है, विग्रह ही साम्राज्य सम्राट है, मंदिर का विग्रह ही सम्राट है, विग्रह ही सम्राट है, मंदिर का विग्रह ही सर्वेश्वर हैं, विग्रह ही सर्वेश्वर हैं, वैदिक अर्चा विग्रह ही जीवात्मा है, अर्चा विग्रह ही जीव है, विग्रह ही सर्वेश्वर है, विग्रह ही लोकेश्वर है, विग्रह ही राष्ट्र सम्राट है, अर्चा विग्रह ही सर्वेश्वर है, अर्चा विग्रह भक्त द्वारा प्रतिष्ठित भगवान का अवतार है, अर्चा विग्रह सिद्धांत, वैदिक मंदिर सिद्धांत, विग्रह सिद्धांत, मंदिर सिद्धांत, मंदिर ही भगवान् का शरीर है, विग्रह ही मंदिर के भीतर का जीवात्मा है, …

अब बताए गए बिंदुओं पर ध्यान देना…

  • साधक के शरीर के दृष्टिकोण से, मंदिर ही साधक का शरीर होता है I और उस मंदिर में स्थापित हुआ भगवद विग्रह, साधक के शरीर के भीतर बसा हुआ जीव होता है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही अपना शरीर मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को अपने ही शरीर के जीवात्मा रूप में देखकर, जैसे कोई कारागार में पड़ा हुआ मानव, उस कारागार के अध्यक्ष के समक्ष प्रार्थना करता है और अपनी पीड़ा बताता है, वैसे ही उन विग्रह स्वरूप में अपने कारागार अध्यक्ष को बताकर, उन अध्यक्ष को अपनी पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना उस कारागार (अर्थात शरीर सहित समस्त बंधनों) से मुक्त होने के लिए ही हो सकती है I

 

  • कुल के दृष्टिकोण से, मंदिर ही अनादि अनंत और अखण्ड सनातन कुल परंपरा है और उस मंदिर का विग्रह उस कुल परंपरा का देवता (अर्थात कुल देवता) है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही अपना कुल मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को अपनी कुल परंपरा के देवता स्वरूप में देखकर, जैसे कोई कुल का मनीषि अपने कुल देवता के समक्ष प्रार्थना करता है और अपनी पीड़ा बताता है, वैसे ही उन विग्रह स्वरूप में अपने कुल परंपरा के देवता को बताकर, उन कुल देवता को अपनी पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना उस कुल के उत्कर्ष मार्ग को प्रशस्त करने के लिए और उसको विशुद्ध रूप में स्थापित रखने के लिए ही ही हो सकती है I

टिप्पणी: और यही सिद्धांत ग्राम देवता के लिए भी लागू होता है I

 

  • गुरु शिष्य परंपरा के दृष्टिकोण से, मंदिर ही वह परंपरा है और उस मंदिर का विग्रह उस गुरु शिष्य परंपरा का प्रथम आचार्य (संस्थापक देवता स्वरूप आचार्य) है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही अपनी गुरु शिष्य परंपरा और उसका केंद्र मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को अपनी गुरु शिष्य परंपरा के गुरुदेव स्वरूप में देखकर, जैसे कोई गुरु शिष्य परंपरा का मनीषि अपने गुरुदेव के समक्ष प्रार्थना करता है और अपनी पीड़ा बताता है, वैसे ही उन विग्रह स्वरूप में अपने गुरु शिष्य परंपरा के देवता-गुरु को बताकर, उन देवता-गुरु को अपनी पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना उस गुरु शिष्य परंपरा के उत्कर्ष और मुक्ति आदि मार्गों को प्रशस्त करने के लिए और उसको विशुद्ध रूप में स्थापित रखने के लिए ही हो सकती है I

 

  • साम्राज्य के दृष्टिकोण से, मंदिर ही साम्राज्य होता है I और उस मंदिर में स्थापित हुआ भगवद विग्रह, उस साम्राज्य का सम्राट होता है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही साम्राज्य मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को अपने ही सम्राट रूप में देखकर, जैसे कोई प्रजा अपने सम्राट के पास जाकर, अपनी पीड़ा बताता है, वैसे ही उन विग्रह स्वरूप में अपने साम्राज्य सम्राट को बताकर, उन सम्राट को अपनी पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना भी पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत ही होनी होगी I

 

  • लोक के दृष्टिकोण से, मंदिर ही लोक होता है I और उस मंदिर में स्थापित हुआ भगवद विग्रह, उस लोक का लोकेश्वर होता है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही अपना लोक मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को अपने ही लोकेश्वर रूप में देखकर, जैसे कोई लोक का निवासी उस लोक के ईश्वर के समक्ष, उस लोक में पाए जाने वाले कष्ट आदि के निवारण की प्रार्थना करता है और अपनी और उस लोक के निवासियों की पीड़ा बताता है, वैसे ही उन विग्रह स्वरूप में अपने ही लोकेश्वर को बताकर, उन लोकेश्वर को अपनी और अन्य लोक वासियों की पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना लोक और उस लोक के निवासियों के लिए ही हो सकती है I

 

  • ब्रह्म रचना के दृष्टिकोण से, मंदिर ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड होता है, और उस मंदिर में स्थापित हुआ भगवद विग्रह, उस संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सर्वेश्वर होता है I

इसलिए इस दृष्टिकोण से, मंदिर में गया भक्त उस मंदिर को ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड मानकर, उस मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह को सर्वेश्वर रूप में देखकर, जैसे ब्रह्माण्डीय जीव आदि सत्ताएँ उस ब्रह्माण्ड के ईश्वर के समक्ष, उस ब्रह्माण्ड में पाए जाने वाले कष्ट आदि के निवारण और सम्पूर्ण भवसागर से तारण के लिए प्रार्थना करते हैं और अपनी और उस ब्रह्माण्ड के समस्त दशाओं और उन दशाओं के निवासियों की पीड़ा बताते हैं, वैसे ही कोई भक्त उन विग्रह स्वरूप में उन सर्वेश्वर को जानकर, उन सर्वेश्वर को अपनी और अन्य सबकी पीड़ा के निवारण के किए प्रार्थना कर सकता है I लेकिन ऐसी प्रार्थना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड की समस्त दशाओं और उन दशाओं में बसी हुई जीवादी सत्ता के लिए ही हो सकती है I

 

टिप्पणियाँ:

  • जबकि यहाँ पर मंदिर के देवता आदि देवत्व बिंदुओं को पुल्लिंग रूप में ही दर्शाया गया है, किन्तु वह पुल्लिंग रूप में ही स्त्रीलिंग रूप की दिव्यताएं भी संहित होती है I और ऐसा इसलिए है क्यूंकि…

ब्रह्म अपनी दिव्यता, ब्रह्म शक्ति से पृथक कभी नहीं हुआ है I

इसलिए इन्ही बताए गए बिंदुओं को कुल देवी, ग्राम देवी, साम्राज्य की साम्राज्ञी (अर्थात महारानी), देवी, पित्री (मातृ), गुरुमाई, लोकेश्वरी और सर्वेश्वरी आदि शब्दों सभी जोड़ा जा सकता है I

  • इस मंदिर विज्ञान में, मंदिर, मंदिर के अर्चाविग्रह और उस मंदिर में गए हुए साधक की प्रार्थना का वास्तविक पदानुक्रम भी वैसा ही होता है, जैसा यहाँ पर बताया गया है I
  • इस पदानुक्रम में जाकर जब साधक, मंदिर को सर्वेश्वर का साम्राज्य (अर्थात संपूर्ण ब्रह्म रचना), अर्चाविग्रह को साक्षात सर्वेश्वर, और स्वयं सहित समस्त जीवादी सत्ताओं को ही को उन सर्वेश्वर की प्रजा मानने लगेगा, तो वह संपूर्ण ब्रह्म रचना उस साधक का शरीर ही हो जाएगी, और वह सर्वेश्वर उस साधक के ही आत्मस्वरूप में पाए जाएंगे I
  • यही वैदिक मंदिर के सिद्धांत के स्थापित होने का मूल था, और इसी के पदानुकरण से जाकर, वह साधक अपने आत्मस्वरूप को ही सर्वेश्वर और अपने शरीर के भीतर ही उन सर्वेश्वर के साम्राज्य (अर्थात संपूर्ण ब्रह्माण्ड) को पाएगा I
  • और ऐसा साधक उस “आंतरिक ब्रह्मरचना” सहित उस ब्रह्मरचना के उन “आत्मस्वरूप ब्रह्म” का द्रष्टा भी हो जाता है, जो पूर्ण शब्द से पुकारे जाते हैं, और जो उनके अपने सगुण निराकार और सगुण साकार स्वरूप में ही यह सम्पूर्ण जीव जगत हुए हैं I और ऐसा ही सगुण साकार और सगुण निराकार, उस साधक का आत्मस्वरूप भी हो जाएगा I
  • और आगे चलकर ऐसा साधक, उन्ही पूर्ण ब्रह्म के निर्गुण निराकार स्वरूप को भी अपने ही आत्मस्वरूप में, ज्ञानमय साक्षात्कार करेगा I और जहाँ वह निर्गुण ब्रह्म भी उसी अर्चाविग्रह रूप में प्रतिष्ठित, सर्वेश्वर का कैवल्य मोक्ष को दर्शाते हुए पाए जाएंगे I
  • यही मंदिर विज्ञान से पाया जाने वाला गंतव्य स्वरूप है, जिसमें साधक का आत्मस्वरूप ही उन पूर्ण ब्रह्म सर्वेश्वर के समान निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार, तीनों स्वरूपों में, समान रूप में ही पाया जाएगा I
  • मंदिर विज्ञान के इस पदानुक्रम के आलम्बन से साधक पूर्ण ब्रह्म स्वरूप को पाकर, वही जान जाता है, जिसको जानने के पश्चात कुछ और जानना शेष ही नहीं रह पाता है I
  • यही वैदिक मंदिर विज्ञान और वैदिक अर्चा विग्रह विज्ञान की महिमा है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

ऐसा होने के कारण, वैदिक मंदिर सिद्धांत के अनुसार…

तुम्हारा लोक ही वह मंदिर है, और लोकेश्वर उस मंदिर के देवता I

तुम्हारा ग्राम ही वह मंदिर है और ग्राम देवता उस मंदिर के देवता I

तुम्हारा कुल ही वह मंदिर है और कुल देवता ही उस मंदिर के देवता I

तुम्हारा शरीर वह मंदिर है और तुम्हारा आत्मा ही उस मंदिर के देवता I

तुम्हारी गुरु शिष्य परंपरा ही वह मंदिर है और गुरुदेव ही मंदिर के देवता I

तुम्हारा साम्राज्य ही वह मंदिर है, और साम्राज्य सम्राट उस मंदिर के देवता I

आंतरिक और बाह्य ब्रह्माण्ड ही वह मंदिर है, और सर्वेश्वर उस मंदिर के देवता I

 

और ऐसा होने के कारण, इस वैदिक मंदिर सिद्धांत में …

तुम वही देवता हो, जिसके मंदिर तुम में उपासना करते हो I

तुम ही कुल परंपरा हो, जिसके देवत्व को मंदिर में पूजन करते हो I

तुम ही लोक हो, जिसमें तुम बसे हो लोकेश्वर ही तुम्हारा आत्मा है I

तुम वही साम्राज्य हो जिसमें तुम बसे होसाम्राज्य सम्राट आत्मा ही है I

तुम ही वह गुरु शिष्य परंपरा हो, जिसका गुरुरूप मंदिर में स्थापना करे हो I

तुम वही ब्रह्माण्ड हो, जिसमें तुम निवास करते होसर्वेश्वर तुम्हारा आत्मा है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसलिए यदि किसी ने ऐसी धारणा पा ली जिसमें…

मंदिर ही शरीर, परंपरा (कुल और गुरु शिष्य), साम्राज्य, लोक और ब्रह्माण्ड हुआ है I

और मंदिर का देवता ही जीवात्मा, परंपरा देवता, सम्राट, लोकेश्वर और सर्वेश्वर है I

जो कर्म हैं, वह सब के सब इनके अद्वैत योग और सेवा में ही किए जाते हैं I

तो ऐसा योगी इसी धारणा से कैवल्य मोक्ष तक को प्राप्त हो सकता है I

 

इसीलिए…

जिस  कुल में कुल देव ही ग्राम देव, गुरु, सम्राट, लोकेश्वर, सर्वेश्वर रूप में माने जाते हैं, और इसके साथ वह इष्ट देवता भी हैं, वह कुल मुक्तात्माओं का ही होगा I

जिस ग्राम में ग्राम देव ही ग्राम देव, गुरु, सम्राट, लोकेश्वर, सर्वेश्वर रूप में माने जाते हैं और इसके साथ वह इष्ट देवता भी हैं, वह ग्राम मुक्तात्माओं का ही होगा I

जिस योगी का आत्मा ही कुल देव, ग्राम देव, गुरु, सम्राट, लोकेश्वर और सर्वेश्वर है, और वह इष्ट देवता भी हैं, वह योगी मुक्तात्मा हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I

यह सिद्धांत भीस्वयं ही स्वयं में के मार्ग का एक प्रधान बिंदु है, जिसके मूल में भी वैदिक मंदिर सिद्धांत ही है लेकिन वह मंदिर योगी का शरीर ही होता है I

आगे बढ़ता हूँ…

ऐसा होने के कारण वैदिक मंदिर सिद्धांत, किसी न किसी स्वरूप में “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य में ही बसा हुआ है I

और ऐसा होने के कारण, इस सिद्धांत के मूल में योगीजनों के वही साक्षात्कार हैं जिनका वर्णन यहाँ कर करा गया है I

 

और ऐसा होने के कारण, अंततः…

तुम स्वयं ही अपने शरीर रूपी मंदिर में जाकर, स्वयं की आत्मा का पूजन करते हो I

और इस मंदिर सिद्धांत में तुम्हारा शरीर और आत्मा, तुम्हारी गुरु शिष्य परंपरा, कुल परंपरा, ग्राम परंपरा, साम्राज्य परंपरा, लोक परंपरा और ब्रह्माण्ड परंपरा, सहित इन सबके देवी देवता और गुरु आदि बिंदुओं का समानरूप और पूर्णरूप में द्योतक होता है I

 

  • मंदिर स्थापना, अर्चाविग्रह स्थापना, मंदिर प्राण प्रतिष्ठा सिद्धांत, प्राण प्रतिष्ठा सिद्धांत, मंदिर स्थापना सिद्धांत, अर्चाविग्रह स्थापना सिद्धांत, मंदिर प्राण प्रतिष्ठा सिद्धांत, प्राण प्रतिष्ठा सिद्धांत, निराकार का मंदिर नहीं होता, सगुण निराकार का मंदिर नहीं होता, सगुण साकार ही भगवान् होते हैं, अर्चा विग्रह ही सगुण साकार सर्वेश्वर हैं, अर्चा विग्रह ही सगुण साकार आत्मा हैं, …

जैसा ऊपर बताया था, कि…

  • मंदिर ही भगवान् का शरीर होता है और विग्रह ही भगवान् का जीव रूप I
  • और जहाँ भगवान् और भगवान् का शरीर सगुण साकार सा प्रतीत होता हुआ भी, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार भी होता है I

 

और ऐसा इसलिए हैं क्यूंकि…

निर्गुण निराकार ब्रह्म ही, सगुण निराकार और सगुण साकार रूप में अभिव्यक्त हैं I

और जहाँ ब्रह्म अभिव्यक्ता हैं, और अभिव्यक्ति उनकी शक्ति रूपी ब्रह्म रचना I

वह जो अभिव्यक्ता ब्रह्म हैं, वह अपनी अभिव्यक्ति से पृथक भी नहीं होते हैं I  

वास्तव में अभिव्यक्ता ही अभिव्यक्ति है, और अभिव्यक्ति ही अभिव्यक्ता I

सगुण साकार मंदिर में सगुण निराकार प्राण को प्रतिष्ठित किया जाता है I

यह दोनों भी उन निर्गुण निराकार में बसी हुई उनकी अभिव्यक्ति हैं I

और इसके साथ वह निर्गुण निराकार भी इन दोनों में बसे हुए हैं I

यह सब बिंदु भी वैदिक मंदिर सिद्धांत में बसाए गए हैं I

 

इस मंदिर सिद्धांत में…

साधक अभिव्यक्ति होकर, अभिव्यक्ति रूप में ही अभिव्यक्ता जो जानता है I

और अभिव्यक्ता का अभिव्यक्ति स्वरूप, मंदिर और अर्चा विग्रह होता है I

और उन्हीं अभिव्यक्ता का अभिव्यक्ति स्वरूप, वह साधक भी होता है I

इसलिए यह अभिव्यक्तियों (साधक, मंदिर, अर्चा विग्रह) का योग है I

और जहाँ अभिव्यक्ति भी उसका अपना अभिव्यक्ता ही होती है I

 

इसलिए वैदिक मंदिर सिद्धांत में…

अभिव्यक्तियों (मंदिर, अर्चा विग्रह) का साधक की धारणा में योग होता है I

साधक की धारणा में योग ही अभिव्यक्ता की ओर जाता हुआ मार्ग है I

अंत में, साधक अपने आत्मस्वरूप को अभिव्यक्ता रूप में पाएगा I

इसलिए इस मंदिर सिद्धांत के अनुसार…

मंदिर, सगुण साकार होता हुआ भी, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार भी है I

देवता, सगुण साकार होता हुआ भी, सगुण निराकार और निर्गुण निराकार ही है I

और ऐसी ही उस सगुण साकार साधक (या भक्त) की वास्तविकता भी होती है I

लेकिन ऐसा होने पर भी…

  • मंदिर में भगवान् के निराकार स्वरूप की स्थापना नहीं होती I
  • मंदिर जो सगुण साकार ही होता है, उसमें भगवान् के विग्रह के सगुण निराकार स्वरूप में स्थापना नहीं हो सकती I यह भी वह कारण था कि विग्रह सिद्धांत आया था, जिसमें भगवान् सगुण साकार ही होते हैं I
  • जबकि उस सगुण साकार विग्रह में प्राण प्रतिष्ठा होती है, लेकिन वह प्राण जो प्रतिष्ठित किया जाता है, वह सगुण निराकार ही होता है I
  • और प्राण के सगुण निराकारी स्वरूप के कारण ही वह प्राण प्रतिष्ठा पूरे मंदिर परिसर में ही होती है I इसलिए प्राण प्रतिष्ठा मंदिर के अर्चाविग्रह (अर्थात भगवान् के जीव रूप) सहित, सम्पूर्ण मंदिर (अर्थात भगवान् के शरीर) की ही होती है I
  • मंदिर का अर्चाविग्रह ही उस शरीर रूपी मंदिर का जीव होता है I और जहाँ ऐसी प्राण प्रतष्ठा के पश्चात, जीव (अर्थात अर्चा विग्रह) सहित, मंदिर के जीव का शरीर (अर्थात मंदिर) अपनी वास्तविकता में निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार, तीनों ही हो जाते हैं I
  • मंदिर सिद्धांत में जब निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार का योग होता है, तो वह पूर्ण शब्द से दर्शाया गया ब्रह्म कहलाता है I इसलिए प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात, मंदिर ही पूर्ण ब्रह्म का द्योतक हो जाता है I
  • क्यूंकि ब्रह्म रचना के समय पर वह निर्गुण ब्रह्म ही सगुण निराकार और सगुण साकार हुए हैं, और इन्ही सगुण साकार ब्रह्म और सगुण निराकार ब्रह्म स्वरूप को ही जीव जगत कहा जाता है, इसलिए इसी सिद्धांत को मंदिर प्रतिष्ठा में सांकेतिक रूप से, शब्द ब्रह्म और वाणी ब्रह्माणी का आलम्बन लेकर ही सही, लेकिन ख्यापित करा गया है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

  • मंदिर सगुण साकार स्वरूप मे ही बनाया जा सकता है I
  • इसलिए मंदिर के भीतर, भगवान् का अर्चा विग्रह भी सगुण साकार ही हो सकता है I
  • ऐसा इसलिए है क्यूंकि यदि सगुण साकार मंदिर के भीतर, भगवान् का विग्रह सगुण निराकार में स्थापित करने का सोचोगे, तो यह तो वही बात होगी जिसमें चींटी के भीतर गज को स्थापित करने का प्रयास करा जाएगा I
  • इसलिए वैदिक मंदिर सिद्धांत में सगुण साकार ही भगवान् होते हैं, और जहाँ वह सगुण साकार भगवान् ही उस मंदिर के जीव रूप में, विग्रह स्वरूप में स्थापित होते हैं I
  • और उन भगवान् के भीतर, शब्द ब्रह्म और वाणी ब्रह्माणि का आलम्बन लेकर, जो प्राण प्रतिष्ठा करी जाती है, वही भगवान् का सगुण निराकार अप्रत्यक्ष स्वरूप है I
  • और इसके अतिरिक्त, यह सगुण साकार मंदिर और सगुण साकार अर्चा विग्रह, अंततः जिन निरंग अनंत ब्रह्म में निवास कर रहे होते हैं और जिनकी यह अभिव्यक्ति स्वरूप में ही स्थापित होते हैं, वही निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं I
  • और जहाँ वह निरंग अनंत ब्रह्म (अर्थात निर्गुण निराकार ब्रह्म) भी उस मंदिर, अर्चा विग्रह और उस मंदिर में गए हुए भक्त (या साधक) के भीतर भी निवास करते हैं I
  • इसलिए वैदिक मंदिर में निर्गुण निराकार ब्रह्म, सगुण निराकार ब्रह्म और सगुण साकार ब्रह्म, तीनों ही होते हैं I और ऐसा होने पर भी, वह मंदिर और अर्चाविग्रह, सगुण साकार स्वरूप में निर्माण और स्थापित होते हैं I और ऐसी ही उस मंदिर में गए हुए भक्त (या साधक) की वास्तविकता भी होती है I

आगे बढ़ता हूँ…

 

  • प्राण पूर्ण निर्मित शरीर में ही प्रतिष्ठित हो सकते हैं, अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती, अर्धनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती, मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा, मंदिर प्राण प्रतिष्ठा सिद्धांत, …

और क्यूँकि मंदिर ही भगवान् का शरीर है, और शरीर में ही प्राण प्रवेश होता है, इसलिए वैदिक प्राण प्रतष्ठा भगवान् के जीव रूपी विग्रह की नहीं, बल्कि भगवान के मंदिर रूपी शरीर की भी होती है I

जबतक समस्त शरीर में ही प्राण प्रवेश नहीं होता, तबतक वह शरीर जीवित भी नहीं कहलाया जाता I

और यदि अधूरे मंदिर में ही प्राण प्रतिष्ठा कर दी जाएगी, तो वह मंदिर रूपी भगवान् का शरीर विकलांग हुए बिना भी नहीं रह पाएगा I इसलिए भी अर्धनिर्मित मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा नहीं करी जाती है I

यही कारण है, कि जबतक मंदिर परिपूर्ण नहीं होता और उस मंदिर पर कलश स्थापित होकर, ध्वज नहीं लगा दिया जाता, तबतक उस मंदिर में कोई भगवद विग्रह न तो स्थापित किया जा सकता है, और न ही उस विग्रह की स्थापना और विग्रह सहित मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा ही हो सकती है I

यदि इस सिद्धांत का पालन नहीं करा जाएगा, तो ऐसी त्रुटि के पश्चात, कुछ ही समय में उस समाज में अराजकता ही आ जाएगी, और पृथक प्रकार के उपद्रव और विद्रोह भी होने लग जाएंगे I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि क्यूंकि उस मंदिर और अर्चा विग्रह में कोई देवत्व नहीं बल्कि कोई और विकृत दशा आदि ही बस जाएगी I

और यदि किसी लोक में वह मंदिर जिसकी प्राण प्रतिष्ठा में ऐसी त्रुटि हुई है, उसके देवता वह हैं जो साक्षात मोक्ष और / अथवा मोक्ष के किसी नाद स्वरूप को ही / भी दर्शाते हैं, तो ऐसे उपद्रव पूरे लोक में ही, पृथक-पृथक स्थानों पर एक अटूट क्रम में होते ही चले जाएंगे I और यह दशा मंदिर स्थापना के कुछ ही समय के पश्चात दिखाई भी देने लगेगी I

ऐसी दशा पुरुषार्थ नाश की ओर भी लेकर जाती है I और क्यूँकि कलियुग में पुरुषार्थ चतुष्टय में से (अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थों में से) केवल अर्थ पुरुषार्थ ही शेष रहता है (और चाहे यह अर्थ पुरुषार्थ एक विकृत स्वरूप में ही सही, किन्तु शेष रहता है) इसलिए इस सिद्धांत के पालन न करने से, आगामी समयखण्ड में अर्थ नाश भी पाया जाएगा I

यहाँ कहे गए अर्थ पुरुषार्थ का तात्पर्य केवल स्थूल-अर्थ (जैसे ऐश्वर्य, मान प्रतिष्ठा, धन धनाढ्य, कृषि, गोरक्ष और वाणिज्य इत्यादि) तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि इस अर्थ पुरुषार्थ के वह सूक्ष्म और कारण बिंदु भी होते हैं जिससे वह लोक और लोक के चर अचर जीवों सहित, ब्रह्माण्ड भी चलित हो रहा है I

क्यूंकि मंदिर का जो शिखर होता है, वह देह रूपी मंदिर का मस्तक होता है, इसलिए जबतक शिखर ही पूर्ण नहीं होता, तबतक यदि उस मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करी जाएगी, तो वह शरीर रूपी मंदिर में मस्तकहीन भगवान् की ही स्थापना हो जाएगी I यह एक ऐसी अवस्था को दर्शाएगी जिसमें भगवान् के शरीर (अर्थात मंदिर) में मस्तिष्क सहित, शरीर के वह अंग भी नहीं होंगे जो उस अधूरे मंदिर रूपी भगवान् के शरीर में निर्माण ही नहीं करे गए होंगे I

और यह दशा उस लोक और लोक के समस्त जीव समाज के लिए ही घातक हो जाएगी, क्यूंकि यह दशा धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक, पारम्परिक और आर्थिक आदि अराजकता का ही कारण बन जाती है I ऐसी अराजकता एक साथ नहीं आती, बल्कि समय समय पर प्रकट होती हुई, अंततः एक विकराल स्वरूप ही धारण कर लेती है I

लेकिन यह स्थापना सिद्धांत स्वयंभू विग्रह और स्वयंभू लिंग पर नहीं लागू होता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि जो स्वयंभू ही हुआ है, उसकी स्थापना की आवश्यकता ही नहीं होती है I इसलिए ऐसी स्थिति में, उस स्वयंभू लिंग अथवा स्वयंभू विग्रह के स्थान पर, और उसको बिना छेड़े हुए एक मंदिर निर्माण कर दिया जाता है I और उस स्वयंभू लिंग अथवा स्वयंभू विग्रह के निर्मित मंदिर की भी प्रतिष्ठा नहीं करी जाती I

इसका कारण है, कि …

जो देवत्व बिंदु स्वयंभू ही हुआ है, उसकी कैसी प्राण प्रतिष्ठा I

स्वयंभू लिंग या विग्रह की प्राणादि प्रतिष्ठा नहीं होती I

 

और क्यूंकि…

  • साधक के दृष्टिकोण से, मंदिर ही साधक का शरीर है और विग्रह साधक के भीतर विराजा हुआ जीव है I
  • कुल के दृष्टिकोण से, मंदिर ही कुल परंपरा है और उस मंदिर का विग्रह उस कुल परंपरा का कुल-देवता है I
  • ग्राम के दृष्टिकोण से, मंदिर ही ग्राम परंपरा है और उस मंदिर का विग्रह उस ग्राम परंपरा का ग्राम-देवता है I
  • गुरु शिष्य परंपरा के दृष्टिकोण से, मंदिर ही वह परंपरा है और उस मंदिर का विग्रह उस गुरु शिष्य परंपरा का प्रथम आचार्य (संस्थापक देवता) है I
  • साम्राज्य के दृष्टिकोण से, मंदिर ही साम्राज्य है और विग्रह ही उस साम्राज्य का सम्राट है I
  • लोक के दृष्टिकोण से, मंदिर ही लोक है और विग्रह ही उस लोक का लोकेश्वर है I
  • ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, मंदिर ही ब्रह्माण्ड है और विग्रह ही सर्वेश्वर है I

इसलिए यदि मंदिर प्रतिष्ठा में ही त्रुटि आ जाएगी, तो ऊपर बताए गए जिस भाव में बसकर कोई भक्त उस मंदिर में जाएगा, उसी दशा में त्रुटि का प्रादुर्भाव होने लगेगा I

और जैसे-जैसे समय बीतेगा, वैसे-वैसे उस त्रुटि का विकृत (विकराल और व्यापक) प्रभाव , शनैः शनैः ही सही, लेकिन दिखाई देने लगेगा I

ऐसी दशा में, उस शरीरधारी जीव में, उस कुल में, उस ग्राम में, उस गुरु शिष्य परंपरा या संप्रदाय में, उस राज्य और उसके सम्राट में, लोक में और ब्रह्माण्ड में भी वह त्रुटि दिखाई देने लगेगी I

 

आगे बढ़ता हूँ…

यह सिद्धांत भी योगमार्ग का ही है I  तो अब इस बिंदु को बताता हूँ I यदि…

  • किसी मंदिर की परंपरा ही विकृत हो जाएगी I
  • अथवा, मंदिर के निर्माण या अर्चा विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा (या स्थापना) प्रक्रिया में त्रुटि है I
  • अथवा, उस मंदिर में कुछ ऐसा होता जाएगा, जो नहीं होने चाहिए I

 

तो ऐसी दशा में…

  • जो शक्तियां धर्म विरोधी हैं I
  • अथवा धर्म की ज्ञाता होती हुई भी, अधर्म या विधर्म मार्गों पर ही चलती हैं I
  • अथवा, जो जीव, मानवता और उत्कर्ष विरोधी हैं I

वह इस बिन्दु का लाभ उठाकर, अराजकता, विप्लव, विपन्नता और अपकर्ष तक ला सकती हैं I और जहाँ यह अपकर्ष भी ऊपर बताई हुई सभी दशाओं में,समय समय पर दिखाई देने लगेगा I

यही कारण था कि इस परंपरा को धारण करने वालों (ब्राह्मणों आदि) पर, बहुत सारे अंकुश भी लगाए गए थे क्यूंकि इसको ख्यापित करने वालों को यह पता था, कि इस परंपरा में त्रुटि बहुत बड़े दुष्परिणाम का कारण बन सकती है I

अब आगे बढ़ता हूँ और अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

वज्रदण्ड चक्र की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड की सिद्धियाँ, रकार मार्ग की सिद्धियाँ, … देवराज इंद्र का वज्रास्त्र, वज्रास्त्र सिद्धि, वज्रदण्ड और वज्रास्त्र, वज्रयान, वज्रयान मार्ग, वज्र सिद्धि, वज्र क्या है, बौद्ध पंथ का वज्रयान, बौद्ध वज्रयान पंथ, …

वज्रदण्ड चक्र, वज्रदण्ड, वज्रास्त्र सिद्धि, वज्रयान मार्ग, वज्र सिद्धि
वज्रदण्ड चक्र, वज्रदण्ड, वज्रास्त्र सिद्धि, वज्रयान मार्ग, वज्र सिद्धि,

 

पृथक धर्म शास्त्रों में और उनकी परंपराओं में वज्रदण्ड से संबंधित सिद्धियों का वर्णन आता है I तो अब वज्रदण्ड से संबंधित सिद्धि आदि के बारे में बताता हूँ …

 

  • सिद्धों का वज्रदण्ड, सिद्धों का वज्रदण्ड चक्र,

सिद्धों ने जिस वज्रदण्ड और वज्रदण्ड चक्र के बारे में बताया है, उसका नाता भी ऊपर दिखाए गए सुनहरे दण्ड (अर्थात वज्रदण्ड) से है I

वज्रदण्ड का साक्षात्कार, शरीर के सहस्रार चक्र से भी आगे जाकर (अर्थात सहस्रार चक्र से ऊपर की ओर) होता है और ऐसा होने के कारण, इसको अधिकांश शाश्त्रों में बताया ही नहीं गया है I

आगम मार्गों के एक सौ चौदह चक्रों मैसे यह वज्रदण्ड चक्र का अंक एक सौ तेरह होता है I और यह वज्रदण्ड चक्र शरीर में नहीं, बल्कि शरीर से बाहर की ओर ही साक्षात्कार होता है I

इसका अर्थ हुआ, कि जब साधक की चेतना सहस्रार चक्र (अर्थात सहस्र दल कमल) से भी आगे निकल जाती है, तब ही इस सुनहरे वर्ण के वज्रदण्ड चक्र का साक्षात्कार हो पाता है I इस वज्रदण्ड चक्र का नाद, राम का शब्द है I

 

  • वज्रदण्ड और वज्रास्त्र का नाता, वज्रदण्ड और वज्र का नाता,

वेदों में इंद्र देव का जो वज्रास्त्र बताया गया है, उसका नाता भी वज्रदण्ड से ही है I वज्र का वर्ण वज्रमणि (अर्थात हीरे) के समान होता है और यह वज्रमणि के रंग का प्रकाश भी इसी सुनहरे वज्रदण्ड के भीतर ही पाया जाता है I इस हीरे के समान प्रकाश की सिद्धि का अस्त्र रूप वज्रास्त्र है I

 

  • बौद्धों का वज्र, बौद्धों का वज्रयान मार्ग, वज्रदण्ड और वज्रयान,
वज्
वज्,बौद्धों का वज्र, बौद्धों का वज्रयान मार्ग, वज्रदण्ड और वज्रयान, वज्रदण्ड और वज्रास्त्र का नाता, वज्रदण्ड और वज्र का नाता,

 

बौद्ध पंथ के वज्रयान मार्ग का नाता भी इसी वज्रदण्ड से है I

और इसके अतिरिक्त, बौद्ध पंथ के सुनहरे वज्र का नाता भी इसी वज्रदण्ड में गति करती हुई चेतना से होता है I जब चेतना वज्रदण्ड में प्रबवेश करके पुनः नीचे की ओर आती है, तब उसकी गति जैसी होती है, वही बौद्ध पंथ के वज्र का चिन्ह है I

जब चेतना मरुदण्ड से ऊपर उठती हुई वज्रदण्ड में चली जाती है, और इसके पश्चात जब वह चेतना पुनः नीचे की ओर लौट आती है, तब उस चेतना की ऐसी ऊपर और नीचे जाने वाली गति का जो मार्ग होता है, वही वज्र रूप में दर्शाया जाता है I और इसी को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

 

  • नंदक क्या है, नंदक, नंदक सिद्धि, नंदका, नंदका सिद्धि, नंदका तलवार, नंदक तलवार, रत्नमारू तलवार, रत्नसारू, रत्नसारू तलवार, खड्ग सिद्धि, नंदका तलवार क्या है, नंदक तलवार क्या है, रत्नमारू तलवार क्या है, रत्नसारू तलवार क्या है, खड्ग सिद्धि क्या है,

यहाँ बताई गई सिद्धियों का नाता शिवरंध्र और विष्णुरंध्र, दोनों से ही है I

वज्रदण्ड सिद्धि का नाता नंदका तलवार, नंदक तलवार, रत्नमारू तलवार, और खड्ग सिद्धि आदि से भी है I जब साधक की चेतना वज्रदण्ड से जा रही होती है, तब उस वज्रदण्ड से बाहर निकलने के लिए वह चेतना अपना दायां हाथ ऊपर की ओर उठाती है I और ऐसी दशा में साधक अपना तपबल, योगबल, साधनाबल, भक्तिबल और आत्मबल आदि एकत्रित करके, अपनी चेतना को ऊपर की ओर धकेल देता है I

ऐसी दशा में वह चेतना जो वज्रदण्ड में ही बसी हुई होती है, जैसे-जैसे वज्रदण्ड में ऊपर की ओर उठती है, वैसे-वैसे उसको नंदका तलवार (नंदक तलवार) आदि सिद्धियाँ प्राप्त भी होती हैं I यह सिद्धियाँ विष्णुरंध्र से संबद्ध होती हैं I विष्णुरंध्र से नाता होने के कारण, इस तलवार का नाता भी सनातन गुरु विष्णु से ही है I

इन सिद्धि के साथ-साथ, यदि उस साधक को इसी दशा की वह अस्त्र सिद्धि प्राप्त हो जाए, हो शिवरंध्र से संबंधित होती है, तो वह साधक एक और अस्त्र सिद्धि को पाएगा, जो रत्नमारू तलवार (रत्नसारू तलवार) सिद्धि कहलाती है I शिवरंध्र से नाता होने के कारण, इस तलवार का नाता भी परमगुरु शिव से ही है I

और अंततः जैसे ही वह चेतना निरालंब चक्र में चली जाती है, और उस निरालंबस्थान को पार करती है, तब उसको ख का शब्द सुनाई देता है I यही खड्ग सिद्धि का खकार नाद है I और इसके पश्चात जब वह चेतना उस निरालंब चक्र से नीचे की ओर लौटती है, तब उसको इसी खड्ग सिद्धि के अगले दो मूल शब्द, जो ड और ग हैं (अर्थात डकार और गकार हैं), वह सुनाई देते हैं I इन्ही तीन शब्दों (अर्थात खकार, डकार और गकार) की योगदशा ही खड्ग सिद्धि कहलाती है I और इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, इस खड्ग सिद्धि के धारक योगी अति विरल से भी विरले ही हुए हैं I

 

वज्रदण्ड के मार्ग की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड चक्र की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड चक्र मार्ग की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड साक्षात्कार मार्ग की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड चक्र के मार्ग से आगे की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड के मार्ग से आगे की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड चक्र से आगे की सिद्धियाँ, वज्रदण्ड से आगे की सिद्धियाँ, … त्रिदण्ड क्या है, त्रिशूल क्या है, विष्णु लिंग क्या है, ब्रह्मदण्ड क्या है, धर्मदण्ड क्या है, एकदण्ड क्या है, त्रिदण्ड और चेतना की गति, त्रिशूल और चेतना की गति, विष्णु लिंग और चेतना की गति, ब्रह्मदण्ड और चेतना की गति, एकदण्ड और चेतना की गति, धर्मदण्ड और चेतना की गति,शिव का त्रिशूल, शिव के त्रिशूल, शिव के त्रिशूल की सिद्धि, योगमार्ग का त्रिदण्ड, योगमार्ग का त्रिशूल, योगमार्ग का विष्णु लिंग, योगमार्ग का ब्रह्मदण्ड, योगमार्ग का धर्मदण्ड, योगमार्ग का एकदण्ड, योगमार्ग का शिव का त्रिशूल, योगमार्ग का त्रिशूल, … त्रिदण्ड किसे कहते हैं, ब्रह्मदण्ड किसे कहते हैं, धर्मदण्ड किसे कहते हैं, एकदण्ड किसे कहते हैं, … यूनानी देवदण्ड, प्राचीन यूनान सभ्यता के देवताओं का दण्ड, … यूनानी देवदण्ड, प्राचीन यूनान सभ्यता के देवताओं का दण्ड, …

यहाँ पर वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धियाँ और वज्रदण्ड की सिद्धियाँ, दोनों को बताया जाएगा I

क्यूंकि इस भाग के कई उपभाग हैं, इसलिए इनको एक एक करके बताता हूँ…

 

 

  • भारत की एक सौ नदीयाँ, भारत की सौ नदीयाँ, सौ बुद्ध, सौ बुद्ध, एक सौ बुद्ध, तिब्बतियों के सौ बुद्ध, सौ अक्षरों वाला मंत्र, सौ अक्षरों वाले मंत्र, सौ बीजाक्षर मंत्र, तिब्बतियों का सौ बीजाक्षर मंत्र, सौ बीज अक्षर मंत्र, एक सौ बीज अक्षर मंत्र, …

यह वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धि है I

शास्त्रों में भारत की जो सौ नदियाँ बताई गई है, उनका नाता भी यहां बताए जा रहे योग मार्ग से है I

जब साधक की चेतना मेरुदण्ड के नीचे के मूलाधार चक्र से हृदय कमल तक आती है, तब वह चेतना सौ उपनाड़ीयों से होकर ही जाती है I मेरुदण्ड से हृदय तक के मार्ग में सुषुम्ना नाडी से संब्ध सौ उपनाड़ियाँ होती है और यही शास्त्रों में बताई गई भारत की सौ नदियाँ है I

और इन सौ उपनाड़ीयों के पृथक-पृथक नाद और दिव्यताएं भी होती हैं जिनको तिब्बती बौद्ध पंथ में सौ बुद्ध कहा गया है I

इन नाड़ियों के सौ पृथक नाद को ही तिब्बती बौद्ध पंथ के सौ बीजाक्षर के मंत्र स्वरूप में बताया जाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

होरस की आँख, रा की आँख, यूनानी देवता ओसिरिस, यूनान का देवता ओसिरिस, … होरस की आँख क्या है, रा की आँख क्या है, यूनानी देवता ओसिरिस कौन हैं, यूनान का देवता ओसिरिस कौन हैं, …

 

होरस की आँख, रा की आँख,
होरस की आँख, रा की आँख,

 

यह वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धि है I

प्राचीन मिस्र सभ्यता में जिस होरस की आँख (रा की आँख) को बताया जाता है, उसका नाता भी वज्रदण्ड की ओर उठती उई चेतना से ही है I

जब चेतना मूलाधार से ऊपर उठकर उस स्थान पर चली जाती है जहाँ मस्तिष्क के मध्य भाग के समीप की शीर्षग्रंथि (अर्थात पीनियल ग्रंथि) होती है, तो साधक उस ग्रंथि के समीप ही यहाँ बताई जा रही होरस की आँख (और रा की आँख) का साक्षात्कार करता है I यही दशा का यूनानी देवता ओसिरिस से भी नाता होता है I

इसलिए इस साक्षात्कार और सिद्धि का नाता भी मूलाधार से लेकर सहस्रार तक के मार्ग में ही होता है I और इस दशा से आगे जाकर ही साधक वज्रदण्ड का साक्षात्कार कर पाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • त्रिदण्ड सिद्धि, त्रिदण्ड सिद्धि, क्या है, त्रिदण्ड की सिद्धि,

यह वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धि है I

जब चेतना मूलाधार से ऊपर उठती है और वह आज्ञा चक्र परपहुंच जाती है, तो साधक की आंतरिक ऊर्जाएं उस चेतना के साथ इड़ा, पिंडगला और सुषुम्ना नाड़ियों से मूलाधार चक्र से ऊपर उठती है, और अंततः आज्ञा चक्र में पहुँच जाती है I

और आज्ञा चक्र में इन ऊर्जाओं का योग होता है I

क्यूंकि यह ऊर्जा तीनों नाड़ीयों (अर्थात इड़ा, पिंडगला और सुषुम्ना) से होकर ही ऊपर की ओर जाती हैं और आज्ञा चक्र में इन इन तीनों नाड़ीयों और उनकी ऊर्जाओं का योग होता है, इसलिए ऐसी दशा में साधक की काया के भीतर ही एक प्रकाशमान ऊर्जा के दण्ड का उदय होता है, और यही त्रिदण्ड कहलाया गया है I

क्यूंकि यह दण्ड इन तीनों नाड़ियों की ऊर्जाओं के योगदशा का द्योतक होता है, इसलिए इसको त्रिदण्ड कहा गया है I

और योगमार्ग में यह त्रिदण्ड साधक की काया के भीतर ही, चरणों से लेकर मूलाधार और आज्ञा चक्र के थोड़ा सा ऊपर की ओर (अर्थात मस्तिष्क की ओर) ही प्रकट होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • शिव का त्रिशूल क्या है, योगमार्ग का त्रिशूल, त्रिशूल सिद्धि, त्रिशूल सिद्धि क्या है,

यह वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की सिद्धि है I

और जब यह तीनों नाड़ियों की ऊर्जाएं आज्ञा चक्र में योग करने के पश्चात, ब्रह्मरंध्र, शिवरंध्र और विष्णुरंध्र, तीनों में प्रवेश करती हैं, तो यह दशा शिव के त्रिशूल सिद्धि की द्योतक होती है I

इसी को त्रिशूल सिद्धि कहा जाता है I

और यह त्रिशूल भी साधक के चरणों से लेकर मूलाधार और सहस्रार चक्र तक ही प्रकट होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

 

  • विष्णु लिंग सिद्धि, ब्रह्मदण्ड सिद्धि, एकदण्ड सिद्धि, धर्मदण्ड सिद्धि, विष्णु लिंग सिद्धि क्या है, ब्रह्मदण्ड सिद्धि क्या है, एकदण्ड सिद्धि क्या है, धर्मदण्ड सिद्धि क्या है, …

यहाँ बताई गई सिद्धियाँ वज्रदण्ड चक्र के मार्ग और उससे आगे के मार्ग से भी संबद्ध हैं I

जब वह चेतना निरालंब स्थान पार करके, पुनः नीचे की ओर लौटती है, और ऐसी दशा में वह पुनः मूलाधार चक्र के समीप आ जाती है, तो वह चेतना साधक की काया के भीतर के ब्रह्माण्ड (अर्थात आंतरिक ब्रह्माण्ड) की प्रदक्षिणा भी पूर्ण कर चुकी होती है I

ऐसी दशा में पूर्व की उन तीनों ऊर्जाओं का आपस में योग होता है और वह एकदण्ड स्वरूप में प्रकट हो जाती है I

यही वह एकदण्ड सिद्धि है, जिसको वेदान्ती धारण करते हैं I और इसी सिद्धि का नाता विष्णु लिंग, धर्मदण्ड, ब्रह्मदण्ड आदि से भी है I

 

टिप्पणियां:

  • और ऐसी दशा के पश्चात, उस दण्ड की ऊर्जाएं पैरों से मूलाधार चक्र तक और मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक जाती ही रहती हैं I
  • इन सभी योग दण्ड की अंत दशा में, इन ऊर्जाएँ का प्रभाव पैरों के नीचे तक दिखाई देने लगता है I
  • यही वह कारण है कि इन दण्ड की लम्बाई भी पैरों से लेकर सहस्रार के समीप तक ही होती है I
  • और यदि यह ऊर्जाएं ऊपर बताए गए त्रिशूल रूप में आ जाएंगी, तो यह सहस्रार को भी पार कर जाएंगी I ऐसी दशा में सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन धारण करे हुए त्रिशूल की लम्बाई पैरों से लेकर, सहस्रार से थोड़ा सा ऊपर की ओर ही होनी होगी I
  • यहाँ बताए गए सभी दण्ड, ब्रह्मदण्ड ही कहलाते हैं और यह सब धर्मदण्ड सिद्धांत के ही अंग हैं I
  • यह सब के सब योगमार्ग की पृथक-पृथक सिद्धियाँ ही हैं I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

 

  • शिव तारक मंत्र, राम नाद, रा का शब्द,

वज्रदण्ड का नाद को ही राम कहा जाता है और राम का शब्द ही शिव तारक मंत्र है जो तब साक्षात्कार होता है, जब साधक की चेतना वज्रदण्ड चक्र के भीतर से गति कर रही होती है I

और इसी राम शब्द का वह भाग, जो रा शब्द का होता है, उसी को मिस्र की प्राचीन सभ्यता में सूर्य से जोड़कर बताया जाता था I

इसी रा शब्द का नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से भी होता है I राम का शब्द ही शिव तारक नाद कहलाता है I और इस राम शब्द का साक्षात्कार भी वज्रदण्ड में ही होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • खंडा साहिब, योगमार्ग का खंडा साहिब, खंडा साहब क्या है, खंडा साहिब क्या है, खण्डासाब, खण्डासाब क्या है, योगमार्ग का खण्डासाब , सिखों का खण्डा, खण्डा क्या है, योगमार्ग का खण्डा, खंडासाब, सिखों का खंडा, खंडा क्या है, योगमार्ग का खंडा,

सिख पंथ में जो खांड़साब बताया जाता है, उसका नाता भी वज्रदण्ड से ही है I वज्रदण्ड की लम्बाई 12 हाथ की होती है, और इसीलिए इसी लम्बाई का खांडा भी बताया जाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • यूनान सभ्यता का देवदण्ड, प्राचीन यूनान सभ्यता के देवताओं का दण्ड,मूसा का डंडा, मूसा का दण्ड, यूनान सभ्यता का देवदण्ड, प्राचीन यूनान सभ्यता के देवताओं का दण्ड, यूनान सभ्यता का देवदंड, देवदंड, देवदंड क्या है, सिनाई पर्वत, सिनाई पर्वत क्या है, यहूदियों का सिनाई पर्वत

यहाँ बताई गई सिद्धियाँ वज्रदण्ड चक्र के मार्ग और मनस चक्र तक की हैं I

प्राचीन यूनान आदि प्राचीन सभ्यता में कई सारे देवता थे जिनके हाथ में एक दण्ड दिखाया जाता था I इन सब देवदंड का नाता भी यहां बताए जा रहे दण्ड के न्यून स्वरूप से ही है I

इसके अतिरिक्त, मूसा का दण्ड जो उसको उसके देवता से प्राप्त हुआ था, वह भी यही देवदंड का लघु स्वरूप ही है I

इन देवदंड स्वरूपों में वह चेतना वज्रदण्ड में नहीं, बल्कि ब्रह्मरंध्र के भीतर के जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, उनमें से सबसे ऊपर के छह पत्तों वाले, मनस चक्र में प्रवेश करती है I

और ऐसी दशा में भी एक ऊर्जावान दण्ड स्वरूप साधक की काया के भीतर ही प्रकट होता है, जिसका वर्णन यूनानी, ईसाई और यहूदी, तीनों सभ्यताओं में पृथक रूप में पाया जाता है I

यह सब दण्ड भी योगमार्ग का ही अंग हैं I

यहूदियों का सिनाई पर्वत भी मनस चक्र ही होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • ईसा के मुख से निकलती हुई तलवार, ईसा के मुख की तलवार,

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं I

बाइबिल में इसा के मुख से एक तलवार बाहर निकलने की बात करी गई है और इसी तलवार से ईसा मसीह समस्त राष्ट्रों के राजाओं आदि को ध्वस्त करेंगे I

यह मुख से निकलती हुई तलवार भी वह शब्दात्मक सिद्धि है जिसका नाता वज्रदण्ड से ही होता है और जिसका शब्द एक पूर्व के अध्याय में राम नाद ही बताया गया था I

यह तलवार जो इसा के मुख से निकलती है और जिसे जिससे ईसा मसीह सभी राष्ट्रों को ध्वस्त करते हैं, वह राम के रा नामक बीज शब्द की ऊर्जा ही है I

क्यूंकि इस रा और ममम के शब्दों के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए इसको यहाँ पर पुनः नहीं बतलाऊँगा I

और क्यूंकि इस शब्दात्मक तलवार का नाता वेदों के भगवान् राम से ही है, इसलिए बाइबिल के इस वाक्य के मूल में वैदिक सिद्धांत ही है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

 

  • सहस्र सिंहों का नाद, सिंह द्वार, सहस्र सिंहों का नाद क्या है, सिंह द्वार क्या है,

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं I

पश्चिमी सभ्यता में सहस्र सिंहों के नाद की बात करी जाती है I

यह नाद भी रा के बीज शब्द का ही होता है जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I यह एक भयावह नाद रूप ही होता है I

इसके अतिरिक्त जो ग्रंथों में सिंह द्वार का वर्णन आता है, उसका नाता भी वज्रदण्ड के उस मार्ग से ही है, जो हरिहर लिंग से जाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

कैड्यूसियस, सर्प दण्ड, प्राचीन संदेशवाहकों का दण्ड, कैड्यूसियस क्या है, सर्प दण्ड क्या है, प्राचीन संदेशवाहकों का दण्ड क्या है,

 

कैड्यूसियस, सर्प दंड, प्राचीन संदेशवाहकों का दंड
कैड्यूसियस, सर्प दंड, प्राचीन संदेशवाहकों का दंड

 

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं और इसका नाता मानस चक्र से भी है I

कैड्यूसियस, सर्प दण्ड और प्राचीन संदेशवाहकों का दण्ड का नाता भी मनस चक्र से ही होता है, जिसके बारे में पूर्व में बताया जा चुका है I

जब चेतना त्रिनाड़ी (अर्थात इड़ा पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी) से ऊपर जाती है, तो उस चेतना की गति वैसे ही होती है जैसा ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I

और जब उस चेतना के साथ नाभि लिंग भी ऊपर की ओर उठ जाता है, और इससे आगे जब वह नाभि लिंग मनस चक्र को पार करके, शून्य में जाने लगता है (क्यूंकि मनस चक्र के ऊपर शून्य ही होता है), तब जो दशा आती है, वही कैड्यूसियस और सर्प दण्ड  कहलाई जाती है I

इस सिद्धि का नाता आयुर्वेद से भी है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • माथे का सर्प, मिस्र की सभ्यता का माथे का सर्प,

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं और इसका नाता मानस चक्र से भी है I

प्राचीन मिस्र सभ्यता में जिस सर्प को माथे पर दिखाया जाता है, उसका नाता भी मूलाधार चक्र से लेकर सहस्रार तक के मार्ग से है I

जब चेतना सहस्रारा पर जाकर, नीचे की और उतरने लगती है, तब जब वह माथे पर पहुँचती है, तो यह माथे के सर्प दशा का साक्षात्कार होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • तैंतीस कोटि देवी देवता, तैंतीस कोटि देवता, तैंतीस करोड़ देवी देवता, तैंतीस करोड़ देवता, इसा के तैंतीस वर्ष, इसा का तैंतीस वर्ष का जीवनकाल,

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं  और इसका नाता सहस्रार चक्र से भी है I

मेरुदण्ड के भीतर तैंतीस भाग होते हैं और इन्ही तैंतीस भागों के भीतर की सूक्ष्म दशाओं में ही तैंतीस कोटि वैदिक देवी देवता और उनके लोकों का साक्षात्कार होता है I

इसलिए ऐसे साक्षात्कार में यह देवता और उनके लोक, तैंतीस प्रकार के होते हैं I

इसके अतिरिक्त, इन्ही तैंतीस भागो से एक एक (अर्थात तैंतीस नाड़ी) बाहर निकलती हैं और इनमें से प्रत्येक नाड़ी में से आगे चलकर, शरीर में एक करोड़ भाग उत्पन्न हो जाते हैं जो उनके एक-एक करोड़ देवताओं के द्योतक होते हैं I  इसलिए ऐसे साक्षात्कार में तैंतीस करोड़ देवता ही होता हैं I

यही कारण है, की जब हम तैंतीस कोटि देवी देवता का शब्द बोलते हैं, तो इस शब्द का अर्थ प्रकार भी होता है, और करोड भी I

और यह तैंतीस कोटि नाड़ियाँ अंततः शरीर में घूमती-घूमती, पुनः नाभि क्षेत्र में आकर, और मेरुदण्ड के समीप अपनी ऊर्जाओं का योग करती हैं I इन्ही तैंतीस करोड़ नाडियों की ऊर्जाओं के योग से उस नाभि लिंग का प्राकट्य होता है, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है और जो नाभि क्षेत्र से ऊपर उठकर, इसी अध्याय के अमृत कलश के स्वरूप में प्रतिष्ठित भी होता है I

और क्यूँकि ईसा मसीह अपने सात वर्षों के गुप्त समय में भारत के वैदिक आदि मनीषियों के शिष्य ही हुए थे, और क्यूंकि भारत की मूल सभ्यता में तैंतीस कोटि देवी देवता ही हैं, इसलिए पश्चिमी सभ्यता ने उनकी आयु तैंतीस वर्ष की कही है I क्यूँकि पश्चिमी सभ्यता को इस बात का पता ही था, इसलिए उन्होंने ईसा मसीह की आयु भी तैंतीस वर्ष की भी बना दी थी I

और ऐसा तब भी है, जब इसा मसीह की वास्तविक आयु तो भारत के कश्मीर में ही पूर्ण हुई थी, और वह भी तब, जब वह इक्यासी वर्ष के थे I

टिपण्णी: कभी मैं बाइबिल पढ़कर सोचता भी था, कि यह ग्रंथ तो उससे कहीं पूर्व के वेदों के आगम निगम के अंशों को लेकर ही बनाया गया होगा I ऐसा मैं इसलिए भी सोचता था, क्यूंकि यदि मैं बाइबिल में से वैदिक वाङ्मय के अंश बाहर निकाल दूँ, तो उसमें कुछ विशेष बचेगा ही नहीं I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • फ़रवहर, फरवाहर, फ़रवहार, फ़रवहार, फ़ोरुहार, फ़रवहार क्या है, फरवाहर क्या हैफ़ोरुहार क्या है, फ़रवहर क्या है, योगमार्ग का फरवाहरयोगमार्ग का फ़ोरुहार, योगमार्ग का फ़रवहर,

यहाँ बताई गई सिद्धि वज्रदण्ड चक्र के मार्ग की हैं  और इसका नाता सहस्रार चक्र चक्र के भीतर बसे हुए तीन छोटे छोटे चक्रों में से, सबसे ऊपर के मानस चक्र से ही है I

मानस चक्र में छह पत्ते होते हैं और जब चेतना उस मानस चक्र से आगे चली जाती है, तब उस चक्र के छेह पत्ते, तीन तीन के दो भाग में आकर, दायीं और बायीं ओर साक्षात्कार होते हैं I यही दशा यहां बताए जा रहे फ़रवहार की है I

जबकि इस चित्र में फ़रवहार को श्वेत वर्ण का दिखाया गया है, लेकिन इसके साक्षात्कार में इसके पत्तों को हलके-नीले वर्ण ने घेरा होता है I

फ़रवहर, फरवाहर, फ़ोरुहार, योगमार्ग का फरवाहर, योगमार्ग का फ़ोरुहार, योगमार्ग का फ़रवहर
फ़रवहर, फरवाहर, फ़ोरुहार, योगमार्ग का फरवाहर, योगमार्ग का फ़ोरुहार, योगमार्ग का फ़रवहर

 

जब चेतना ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन छोटे चक्रों में से सबसे ऊपर के चक्र (मनस चक्र) में चली जाती है, और वह उस मनस चक्र जो षड दल कमल ही होता है, तो उस कमल को वह चेतना पार करने लगती है I

जब वह चेतना इस षड दल कमल (अर्थात छह पत्तों वाले कमल) को पार करती है, तो इस मनस चक्र (मनस कमल) के छह पत्ते, तीन और तीन के स्वरूप में आ जाते हैं I

जब साधक की चेतना मनस चक्र को पार कर जाती है तो वह पाती है कि इस छह पत्तों वाले कमल के तीन पत्ते दायीं ओर हैं और तीन पत्ते बायीं ओर हैं I ऐसी दशा में वह पत्ते श्वेत वर्ण के पाए जाते हैं और उन पत्तों को एक हलके नीले वर्ण ने घेरा हुआ होता है I

यही फ़रवहार सिद्धि है और इसका मार्ग भी मूलाधार चक्र से वज्रदण्ड चक्र की ओर जाते समय ही आता है और इसी मार्ग में साधक इस फ़रवहार का साक्षात्कार, उस साधक के अपने मनस चक्र में ही करता है I

ऐसी दशा में एक ओर के तीन पत्ते त्रिदेव के द्योतक होते हैं और दूसरी ओर के तीन पत्ते त्रिदेवी के I इसलिए भी फ़ारसी पंथ का फ़रवहार का चिन्ह, त्रिदेव त्रिदेवी योग का भी सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन द्योतक होता है I

 

तो इस बात पर वज्रदण्ड सिद्धि और इसके मार्ग की सिद्धियों का भाग समाप्त होता है I

वैसे तो इस मार्ग की कई और सिद्धियाँ होती हैं, लेकिन उनका यह अध्याय नहीं है I

इसलिए इसलिए अब मैं अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

अष्टम चक्र की सिद्धियाँ, निरालंब चक्र की सिद्धियाँ, निरालंबस्थान की सिद्धियाँ, निराधार चक्र की सिद्धियाँ, निराधारस्थान की सिद्धियाँ, …

पृथक धर्म शास्त्रों में और उनकी परंपराओं में निरालंब चक्र से संबंधित सिद्धियों का वर्णन आता है I

तो अब इस निरालंबस्थान से संबंधित सिद्धि आदि के बारे में बताता हूँ…

 

  • मेरु पर्वत, योग सुमेरु, योग मार्ग का सुमेरु, योगमार्ग का मेरु, मेरु, योगमार्ग का मेरू पर्वत, मेरु पर्वत क्या है, सुमेरु क्या है, मेरु क्या है, योग का मेरु पर्वत, योग का सुमेरु, योग का मेरु, …

मेरुदण्ड के मूलाधार चक्र से आगे जाकर जब चेतना अपने गंतव्य (अर्थात निराधार चक्र) पर पहुँच जाती है, तब वह साधक अपने मेरुदण्ड को एक पर्वत स्वरूप में पाता है, और यही योगमार्ग का मेरु पर्वत कहलाता है I

और क्यूंकि ऐसी दशा में साधक की चेतना स्वयं को एक पर्वत पर विराजमान हुआ सा पाती है और उस पर्वत शिखर पर बैठकर, वह चेतना इस समस्त जीव जगत को उसी पर्वत शिखर पर बैठकर, एक साथ देखती रहती है, इसलिए इसको वह सुमेरु भी कहा गया था, जिसमें सु का शब्द सद्गति पर गई हुई चेतना के गंतव्य पर ही स्थित होने की दशा की दर्शाता है I

 

टिप्पणियाँ:

  • यहाँ जिस दशा को बताया गया है, वह वैसे ही साक्षात्कार होता है, जैसा यहाँ कहा गया है I
  • ऐसा इसलिए कहता हूँ क्यूंकि इस सिद्धि में वह चेतना स्वयं को एक पर्वत की चोटी पर भी बैठी हुई पाती है I
  • और ऐसी दशा में उस चेतना के साथ कोई और अथवा कुछ और नहीं होता है I इसलिए ऐसी दशा में वह चेतना स्वयं को अकेली ही उस पर्वत शिखर पर बैठी हुई पाती है I
  • और उस पर्वत शिखर पर बैठकर, जब वह चेतना उस शिखर से नीचे की ओर देखती है, तो उसे यह समस्त जीव जगत दिखाई देता है I और इसके पश्चात जब वह चेतना ऊपर की ओर देखती है, तो उसे बस शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार होते हैं I
  • इसलिए ऐसी दशा में वह चेतना यह जान भी जाती है, कि उसकी अभी की दशा अब जीव जगत से संबद्ध नहीं है I
  • और इसके अतिरिक्त वह चेतना यह भी जान जाती है, कि उसकी अभी की दशा शून्य ब्रह्म से भी संबध नहीं है I
  • और ऐसी दशा में वह चेतना स्वयं को जीवातीत और जगतातीत पाती हुई भी, मुक्त नहीं होती I
  • और ऐसी दशा में वह चेतना उस मेरु पर्वत के शिखर पर विराजमान होकर, समस्त जीव जगत के उस समस्त प्रपञ्च का साक्षात्कार करती है, जो उस पर्वत की चोटी से नीचे की ओर चल रहा होता है I
  • उस प्रपञ्च को जानकार ही वह चेतना उस आगे के मार्ग पर जाती है जिससे वह शून्य ब्रह्म को प्राप्त होकर, निर्बीज ब्रह्म में जाकर अंततः निर्गुण ब्रह्म में ही लय हो जाती है I
  • क्यूंकि यह साक्षात्कार मार्ग मेरुदण्ड से होकर ही जाता है, और अंततः इस मार्ग में वह चेतना स्वयं को उस मेरु के पर्वत रूपी शिखर पर ही विराजमान पाती है, इसलिए इसको मेरु पर्वत कहा गया था I
  • और क्यूंकि उस मेरु शिखर पर विराजमान होकर, वह चेतना स्वयं को जीवातीत और जगतातीत ही पाती है इसलिए यह साक्षात्कार अतिसुखदायक होता है I ऐसा होने के कारण, इसको सुमेरु भी कहा गया था I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • जैन पंथ का सिद्ध लोक, सिद्ध लोक क्या है, सिद्ध आश्रम क्या है, सिद्ध आश्रम, सिद्ध लोक, सिद्ध आश्रम, …

जैन पंथ के सिद्ध लोक का नाता भी इसी निरालंब चक्र से है I और इसी निराधारस्थान (अर्थात निरालंबस्थान या निराधार चक्र या ब्रह्मलोक चक्र) की सिद्धि के पश्चात ही साधक इस बिन्दु का साक्षात्कार करता है I

और इसके अतिरिक्त सिद्ध आश्रम का नाता भी इसी निरालंबस्थान (अर्थात निराधारस्थान या ब्रह्म चक्र) से ही है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • देवदत्त अश्व सिद्धि, कल्कि देव का देवदत्त अश्व, इसा का श्वेत अश्व, इमाम मेहदी का श्वेत अश्व, योगमार्ग का देवदत्त अश्व, देवदत्त अश्व क्या है,

पूर्व के अध्याय जिसका नाम पञ्च प्राण था, उसमें बताया गया था कि कंठ से लेकर मस्तिष्क तक का प्रान उदान है और इस प्राण के उपप्राण को देवदत्त कहा जाता है I

जब अमृत कलश निरालंब चक्र में चला जाता है, तब उस कलश के साथ यह उदान वायु और देवदत्त उपप्राण भी इस निरालंबस्थान पर पहुँच जाता है I

ऐसी दशा में वह निरालंब चक्र अतिऊर्जित हो जाता है, और उसके भीतर का यह उदान प्राण और देवदत्त उपवायु भी उस अमृत कलश की सगुण निर्गुण ऊर्जा के प्रभाव से श्वेत वर्ण का हो जाता है I

जब देवदत्त लघुवात इस निरालंब चक्र में चली जाती है, तब इस चक्र के चार पत्ते बहुत बड़े आकार के हो जाते हैं I और देवदत्त के प्रभाव से यह पत्ते अश्व के समान हिलने लगते हैं I पूर्व के अध्याय में बताया था कि इस निराधार चक्र के चारों पत्ते श्वेत वर्ण के ही होते हैं, इसलिए जब यह पत्ते अश्व के समान चलित हो जाते हैं, तब वह श्वेत अश्व सा ही प्रतीत होने लगता है I

ऐसी दशा के पश्चात, यदि साधक की चेतना इस निरालंब चक्र के मध्य भाग में विराजमान हो जाएगी, तो उसे ऐसा लगेगा कि इस चक्र के चार पत्ते वैसे ही हिल रहे हैं जैसे कोई अश्व तीव्र गति से दौड़ रहा है I और यदि इसी चक्र के मध्य में बैठकर वह चेतना इस चक्र के पत्तों को देखेगी, तो वह चारों पत्ते भी अश्व के केश के समान ही हिलते हुए दिखाई देंगे I

और क्यूंकि यह दशा देवदत्त लघुप्राण के कारण होता है, इसलिए इस अश्व जैसी गति को देवदत्त नामक अश्व से जोड़कर ही कहा जाता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि जब चेतना इस चक्र के मध्य भाग में बैठ जाती है, तब उसको ऐसा लगता है जैसे वह किसी अश्व परसवार हो गई है, और वह अश्व तीव्र गति से दौड़ रहा है I

यही विष्णु के दसवें अवतार, श्री कल्किदेव के देवदत्त अश्व की सिद्धि है I

ऐसा योगी ही वह देवदत्त अश्व कहलाता है जो श्री कल्कि देव का वाहन होता है I ऐसे योगी के ऊपर बैठकर ही श्री कल्कि देव अपने संहार आदि कार्य करते हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसके अतिरिक्त, ईसाई पंथ में इसी को इसा का श्वेत अश्व और इस्लाम में इसी को इमाम मेहदी का श्वेत अश्व कहा जाता है I

और यह योगमार्ग की वह सिद्धि है जिसका नाता निरालंबस्थान से ही होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़, योगमार्ग का गरुड़, योग का गरुड़, गरुड़ कौन है, योग गरुड़ क्या है, गरुड़ क्या है, श्री विष्णु का वाहन, विष्णु का वाहन गरुड़, देवदूतों के पंख, स्वर्गदूतों के पंख,

 

गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़, श्री विष्णु का वाहन, विष्णु का वाहन गरुड़
गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़ सिद्धि, योग गरुड़, श्री विष्णु का वाहन, विष्णु का वाहन गरुड़

 

जब देवदत्त और उदान प्राण अष्टम चक्र में चले जाते हैं, और जब साधक की चेतना इस चक्र से भी ऊपर निकलकर, इस चक्र पर ही विराज जाती है, और जब ऐसा होता है तब इस निरालंब चक्र के चार पत्ते पक्षी के पंखों के समान ऊपर नीचे हिलने लगते हैं I और जैसा पूर्व में बताया गया था, कि इस चक्र के पत्ते बहुत बड़े आकार के भी हो जाते हैं, इसलिए इस दशा में ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह चेतना किसी विशालकाय पक्षी पर ही सवार है I

ऐसी दशा में वह चेतना जो स्वर्ण वर्ण की होती है (अर्थात हिरण्यगर्भ शरीर, स्वर्णिम आत्मा, हिरण्यमय आत्मा ही होती है) वह स्वयं को उस विशालकाय पक्षी पर बैठी हुई पाती है I यही योग गरुड़ नामक सिद्धि है I और जहाँ वह गरुड़, श्री विष्णु का वाहन ही होता है I

ऐसा योगी ही वह गरुड कहलाता है जो श्री विष्णु का वाहन होता है I ऐसे योगी के ऊपर बैठकर ही श्री विष्णु यात्रा करते हैं I

यह सब उसी आंतरिक अश्वमेध का ही अंग हैं जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया गया था I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इसी दशा को बाइबिल में ईसा मसीह के लौटने की दशा के रूप में दर्शाया गया है, जहाँ कहा गया है, कि जब ईसा मसीह दूसरी बार लौटेंगे, तो वह देवदूतों के पंख (स्वर्गदूतों के पंख) पर सवार होकर लौटेंगे I

बाइबिल के यह वाक्य, बाइबिल से कहीं पूर्व के वैदिक वाङ्मय के गरुड सिद्धांत से लिए गए हैं I और योगमार्ग में यही योग गरुड़ कहलाया है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • नाथ सिद्धों का विज्ञान, महासिद्धों का विज्ञान, नाथ सिद्ध, नाथ सिद्ध कौन, महासिद्ध कौन, नाथ कौन, महासिद्ध कौन, चौरासी नाथ, चौरासी सिद्ध,

इस अष्टम चक्र सिद्धि का नाता नाथ सिद्धों से भी है, और इन्ही को बौद्ध पंथ में महासिद्ध भी कहा जाता है I

नाथ सिद्धों ने ही इस अष्टम चक्र को निरालंब चक्र और निरालंबस्थान का नाम दिया है I

इसी चक्र की सिद्धि से साधक नाथ सिद्ध होता है, और ऐसे सिद्धों की संख्या चौरासी ही हुई है I और निरालंब चक्र की सिद्धि को प्राप्त हुए योगी को महासिद्ध भी कहा जाता है I

एक पूर्व जन्म में मैं इन चौरासी नाथ सिद्धों में से एक था, और जिसका नाम धर्म शब्द से था I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ

 

  • अष्टम चक्र ही ब्रह्मलोक चक्र है, ब्रह्मलोक चक्र और निरालंबस्थान, अष्टम चक्र ही ब्रह्म चक्र है, ब्रह्म चक्र और निरालंब स्थान,

अष्टम चक्र को ही ब्रह्मलोक चक्र कहा गया है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि ब्रह्मलोक में नीचे के सोलह लोक होते हैं, और ऊपर के चार लोक I इन ऊपर के चार लोकों को ही यह निराधार चक्र दर्शाता है I

और इन चार ऊपर के लोकों के भीतर से ही एक गुप्त मार्ग जाता है, जिससे साधक उसी ब्रह्मलोक के सबसे ऊपर के लोक में (अर्थात इक्कीसवें लोक में) पहुँच जाता है जहाँ वह साधक चतुर्मुखा पितामह ब्रह्मा और पितामही सरस्वती के समक्ष ही पहुँच जाता है I ब्रह्मलोक के बारे में एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • नासदीय सूक्त का अंधकार, असंप्रज्ञात समाधि मार्ग, महाशून्य का साक्षात्कार, इक्कीस शून्य, शून्यता, शून्य अनंत अनंत शून्य का साक्षात्कार, शून्य अनंत का साक्षात्कार, अनंत शून्य का साक्षात्कार, शून्य ब्रह्म साक्षात्कार, … उपनिषद् का वाक्य शून्यवादियों का शून्य ही पूर्णवादियों का पूर्ण है, शून्यवादियों का शून्य ही पूर्णवादियों का पूर्ण है, पूर्णवादियों का पूर्ण ही शून्यवादियों का शून्य है,

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जिस अंधकार की बात करी गई है, वह भी इसी साक्षात्कार का अंग है I

जब साधक की चेतना इस अष्टम चक्र को पार कर गई, वह साधक उस दशा में ही पहुँच जाता है जिसको नासदीय सूक्त में अंधकार ने अंधकार को घेरा हुआ है, ऐसा कहा गया है I इसलिए यह योगमार्ग उस अंधकार के साक्षात्कार का मार्ग भी है I

और वह अंधकार जिसका वर्णन नासदीय सूक्त में करा गया है, वह असंप्रज्ञात समाधि से ही साक्षात्कार होता है और जहाँ उस असंप्रज्ञात समाधि का मार्ग भी इसी निरालंब चक्र के साक्षात्कार से होकर जाता है I इस समाधि के बारे में एक आगे के अध्याय में बात होगी I

इसी समाधि से उस महाशून्य का भी साक्षात्कार होता है, जो इक्कीसवाँ शून्य कहा जाता है I शून्य के इन इक्कीस भागों का साक्षात्कार भी इसी अष्टम चक्र साक्षात्कार मार्ग का ही अंग है I इसी शून्य ब्रह्म को बौद्ध मनीषियों ने शून्यता कहा है I

और इसी महाशून्य को शून्य ब्रह्म या शून्य अनंत और अनंत शून्य भी कहा जा सकता है I इसके बारे में एक आगे के अध्याय में बात होगी I

नीचे कहा गया उपनिषद् का वाक्य भी इसी साक्षात्कार का अंग है I ऐसे साक्षात्कार में …

शून्यवादियों का शून्य ही पूर्ववादियों का पूर्ण है I

पूर्णवादियों का पूर्ण ही शून्यवादियों का शून्य होता है I

ऐसी दशा में शून्य ही पूर्ण होता है और पूर्ण ही शून्य होता है I

ऐसे साक्षात्कार में, शून्य ही अनंत होता है और अनंत ही शून्य होता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • अष्टम चक्र और बुद्धता, अष्टम चक्र और बुद्धता सिद्धि, अष्टम चक्र और बुद्धत्व सिद्धि, अष्टम चक्र और बुद्धत्व, …

क्यूंकि अष्टम चक्र के मार्ग से बुद्धत्व सिद्धि के बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए इस बिंदु को यहाँ पर दोबारा नहीं बतलाऊँगा I

 

टिपण्णी: लेकिन यहाँ पर इतना अवश्य कहूंगा कि बौद्ध पंथ कहता है

  • बुद्ध केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्णों में ही जन्म ले सकता है I
  • क्यूंकि यह ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण, वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के ही अंग हैं, इसलिए किसी भी बुद्ध का कुल, वैदिक हिन्दू ही हो सकता है I
  • इसका यह भी अर्थ हुआ, कि बुद्ध अपने मूल से वैदिक हिन्दू ही होते हैं I
  • और ऐसा कहने पर भी बौद्ध पंथ उस वैदिक वर्णाश्रम को ही नहीं मानता, जिसके अभिन्न अंग यह ब्राह्मण और क्षत्रिय कहे गए हैं I
  • और इसका तो यह भी अर्थ हुआ, कि अपने प्रचारक और संस्थापक बुद्ध की कुल रूपी मूलावस्था से बौद्ध पंथ, वैदिक वाङ्मय का अंग ही है I
  • और अपने मार्ग के अनुसार, बौद्ध पंथ अथर्ववेद का ही अंग है I और बुद्धत्व सिद्धि भी अथर्ववेद 2.31, अथर्ववेद 10.2.32, और अथर्ववेद 10.2.33 से होकर ही जाती है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • जापानी बौद्ध पंथ की सिद्धि, झेन बौद्ध पंथ की सिद्धि, ज़ेन बौद्ध पंथ की सिद्धि, ज़ेन बौद्ध पंथ, जापानी बौद्ध पंथ, झेन बौद्ध पंथ,

पूर्व के अध्याय में बताया गया था कि अमृत कलश निरालंबस्थान पर जाकर, पुनः नीचे की ओर लौटता है I

जब वह अमृत कलश निरालंब स्थान पर जाकर, पुनः नीचे की ओर लौटता है और नाभि क्षेत्र में ही पहुँच जाता है, तब यही दशा बौद्ध ज़ेन पंथ की सिद्धि को दर्शाती है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • दिव्य अभिषेक, दिव्य राज्याभिषेक, योग चक्रवर्त सिद्धि, चक्रवर्ती सम्राट सिद्धि, दिव्य अभिषेक क्या है, दिव्य राज्याभिषेक क्या है, योगमार्ग का दिव्य अभिषेक, योगमार्ग का दिव्य राज्याभिषेक,

पूर्व का एक अध्याय में बताया गया था, कि अमृत कलश निरालंब स्थान पर चला जाता है, और उस निरालंब चक्र को साढ़े तीन बार पार करता है, और ऐसा करके वह अमृतकलश पुनः नीचे की ओर आता है I

जब ऐसे होता है तब साधक की काया के भीतर एक श्वेत हिमपात जैसा प्रकाश मेरुदण्ड के नीचे से, ऊपर की ओर उठता है I

और जब यह प्रकाश सहस्रार पर आता है,तब उसकी ऊर्जा के साथ, वह नाभि लिंग अपने अमृत सहित सहस्रार पर पहुँच जाता है I इसके पश्चात वह नाभि कलश उस सहस्रार से भी ऊपर जो निरालंब चक्र है, उसपर जाकर उसको पार भी करता है I

और इसके पश्चात, वह अमृत लिंग (नाभि लिंग) पुनः नीचे आने लगता है I ऐसी दशा में साधक के कपाल के ऊपर के भाग में एक हल्का पीला मलाईदार चूर्ण (तैलाक्त चूर्ण) जैसा पदार्थ दिखाई देता है I

और ऐसा दिखने के कुछ ही समय में वह पदार्थ तेल बन जाता है I और कुछ ही समय में यह तेल साधक के कपाल के ऊपर फैल जाता है I यही दिव्य राज्यभिषेक है जिसका वर्णन कई सारे मार्गों में करा गया है I

अष्टम चक्र सिद्धि के पश्चात, यह पदार्थ कुछ समय तक कपाल के ऊपर के भाग से बाहर निकलता ही रहता है और बाहर निकलने के पश्चात, यह पिघलकर तेल जैसे पदार्थ में परिवर्तित भी हो जाता है I यही दिव्य अभिषेक कहलाता है I

इस प्रक्रिया का योगमार्ग का अंग होने के कारण, जिस दिव्य राज्याभिषेक के बारे में कुछ ग्रंथ बताते हैं, वह किसी मानव द्वारा नहीं, बल्कि योगमार्ग की प्रक्रिया होती है, और उस प्रक्रिया का नाता भी उस अष्टम चक्र सिद्धि से होता है जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I यह दशा योग चक्रवर्त (चक्रवर्त सिद्धि) का अंग ही होती है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • संस्कार रहित चित्त सिद्धि, इंद्रपुरी सिद्धि, अष्टम चक्र सिद्धि और अंतिम संस्कार प्रक्रिया, चित्त की संस्कार रहित अवस्था की प्राप्ति, संस्कार रहित चित्त की प्राप्ति, …

पूर्व के अध्याय में बताया गया था, कि जब अमृत कलश निराधार चक्र से ऊपर जाता है, तो एक अष्टकोण (अर्थात आठ कोनों वाले) लम्बा सा पारदर्शी (अथवा निरंग) संस्कार कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकलता है I

पूर्व के अध्यायों में इसी को चित्त का अंतिम संस्कार कहा गया था I और जब यह संस्कार कपाल से बाहर निकल जाता है, तब वह साधक संस्कार रहित चित्त को पाता है I

और कपाल से बाहर निकलने के पश्चात, वह संस्कार कुछ ही समय में लुप्त भी हो जाता है I

और जब यह संस्कार कपाल से बाहर निकल जाता है और कुछ समय के पश्चात वह ओझल भी हो जाता है, तब साधक अपने चित्त की संस्कार रहित अवस्था को पाता है I

इस सिद्धि का नाता इंद्रपुरी से भी है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • शून्य समाधि की प्राप्ति, असंप्रज्ञात समाधि की प्राप्ति, निर्बीज समाधि की प्राप्ति,

यह तीनों समाधिओं की प्राप्ति का मार्ग भी निराधार चक्र सिद्धि का ही अंग है I इन समाधि के बारे में आगे के अध्यायों में बताया जाएगा I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • सदाशिव के ईशान मुख की सिद्धि, ईशान सदाशिव की सिद्धि, ईशान ब्रह्म की सिद्धि, निर्गुण निराकार ब्रह्म साक्षात्कार, निर्गुण ब्रह्म का सगुणत्मक स्वरूप, निर्गुण ब्रह्म का मुख स्वरूप, निर्गुण ब्रह्म का ईशान मुख स्वरूप, …

पूर्व का एक अध्याय में बताया गया था कि जब निराधारस्थान (निरालंब चक्र) को सिद्ध कर लिया था, तो इसके पश्चात जब मैंने अपने कपाल के ऊपर के भाग का छाया चित्र लिया, तो मुझे एक स्पटिक के समान मुख, कपाल के ऊपर के मध्य भाग से (अर्थात शिवरंध्र के स्थान से) बाहर की ओर (अर्थात ऊपर की ओर) देखता हुआ दिखाई दिया I

यही ईशान ब्रह्म की सिद्धि होती है I और यह सिद्धि ही उन निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुणत्मक मुख स्वरूप है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • अष्ट सिद्धि,

अष्ट सिद्धियाँ भी इसी अष्टम चक्र के योग मार्ग की सिद्धि से प्राप्त होती है, लेकिन मैं इनके बारे में बताना नहीं चाहता हूँ I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • सभोपदेशक 12:6-7, बाइबिल का सभोपदेशक 12:6-7, योगमार्ग का सभोपदेशक 12:6-7, बाइबिल के सभोपदेशक 12:6-7, …

बाइबिल के ऐसा कहा गया है…

इससे पहले कि चाँदी की रस्सी खुल जाए, या सोने का कटोरा टूट जाए, या फव्वारे पर घड़ा टूट जाए, या कुएँ पर पहिया टूट जाए, अपने रचयिता को याद कर लो… तब धूल वैसे ही धरती पर वापस आ जाएगी जैसे वह थी और आत्मा उस परमेश्वर के पास वापस आ जाएगी जिसने इसे दिया I

 

बाइबिल के इस वाक्य का नाता भी उसी रकार मार्ग से है, अर्थात शक्ति शिव योग (अर्थात भद्री भद्र योग) की उस दशा से है जब यह योग साधक की काया के भीतर ही चलित हो जाता है I इसका नाता अथर्ववेद 10.2.31, अथर्ववेद 10.2.32 और अथर्ववेद 10.2.33 से भी है I

 

अब इस वाक्य के बिंदुओं को एक एक करके समझाता हूँ I यहाँ पर जो…

चांदी की रस्सी, … का वाक्य कहा गया है वह वज्रदण्ड के भीतर का वज्रमणि सा प्रकाश है I क्यूंकि इसके बारे में इसी अध्याय श्रंखला में बताया जा चुका है, इसलिए इसको पुनः यहाँ पर नहीं बतलाऊँगा I वज्रदण्ड के भीतर इसी वज्रमणि के प्रकाश को यहाँ पर चाँदी की रस्सी (या चांदी की तार) कहा गया है I यह चांदी की रस्सी गोलाकार नहीं बल्कि त्रिकोणाकार होती है I जितने इस त्रिकोण के तीन भाग समान लम्बाई के होंगे, उतना उत्कृष्ट वह साधक भी होगा I

सोने का कटोरा… जब वह श्वेत वर्ण का अमृत कलश सुनहरे वज्रदण्ड से जा रहा होता है, तो वह कलश उस वज्रदण्ड के प्रकाश से घिरा होता है I ऐसी दशा में वह कलश भी सुनहरा ही दिखाई देता है I इसी दशा को यहाँ पर सोने का कटोरा कहा गया है I

फव्वारे पर घड़ा टूट जाए… पूर्व में बताया था कि इस निरालंब चक्र सिद्धि के योगमार्ग में साधक की काया के भीतर से और मेरुदण्ड के नीचे के भाग से एक श्वेत वर्ण के हिमपात जैसी ऊर्जा ऊपर की ओर उठती है I और ऊपर की ओर उठती हुई यह ऊर्जा ब्रह्मरंध्र तक पहुँच जाती है I क्यूंकि यह ऊर्जा के साथ जो श्वेत वर्ण के हिमपात वाला भाग होता है, वह मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ऊपर की ओर उठता है, इसलिए वह फव्वारे के समान होता है I इस दशा को यहाँ पर ऐसा ही बताया गया है I

पूर्व के अध्याय में यह भी बताया गया था कि वह अमृत कलश निरालंब चक्र पर जाकर पुनः नीचे की ओर आता है I

और जैसे ही वह कलश नीचे गिरता है, वैसे ही उसका अमृत छलक जाता है I इसी को घड़ा टूटना कहा गया है I

 

कुएँ पर पहिया टूट जाए… जब वह अमृत कलश नीचे की ओर आता है, तब यही दशा को कुऑं कहा गया है I और क्यूंकि ऐसी दशा में उस अमृत कलश ने शरीर के भीतर के ब्रह्माण्ड का एक पूरा चक्कर लगा लिया है, इसलिए इसी दशा को पहिया कहा गया है I

और क्यूंकि इसी दशा में उस अमृत कलश का अमृत भी छलक जाता है, इसलिए उसका चक्र भी अब टूट जाता है, और इसी को यहाँ पर सांकेतिक रूप में बताया गया है I

ऐसी दशा में साधक का नाता चक्र चतुष्टय (अर्थात कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र और दशाचक्र) से नहीं रह पता है I और इस दशा को पाने के पश्चात ही वह साधक निर्बीज समाधि की प्राप्ति का पात्र बन पाता हैI

कुछ वैदिक मंदिरों में भी चक्र की ऐसी दशा दर्शाई जाती है, और ऐसे मंदिरों के शिखर पर कलश नहीं बल्कि चक्र स्थापित किया जाता है I है इस बात का संकेत होता है कि ऐसे मंदिर चक्र चतुष्टय से अतीत गए हुए देवत्व के हैं I इसलिए यह मंदिर मोक्ष के द्वार ही हैं I

ऐसे मंदिरों के शिखर पर जो चक्र बैठाया जाता है, वह अष्ट धातु से ही निर्मित किया होता है और ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि अष्ट धातु, अष्ट चक्र के ही प्रतीकात्मक हैं I और ऐसे मंदिर इस बात का भी संकेत देते हैं कि उनके देवता अष्ट चक्र से भी परे की दशाओं के हैं I

यहाँ पर जो कुआँ बताया गया है, वह अमृत का कुआँ ही है I इस कुँए का स्थान भी मेरुदण्ड के नीचे के भाग में होता है I जब वह अमृत कलश नीचे की ओर आता है और उसका कुछ अमृत छलक कर नीचे गिरता है, तब वह अमृत मेरुदण्ड के नीचे के भाग में पहुँच जाता है I ऐसी दशा में उस मेरुदण्ड के नीचे के भाग में जो बलगम आदि तरल पदार्थ जमा होते हैं, वह भी अमृत बन जाते है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि किसी भी दशा में यदि एक बूँद अमृत डाल दिया जाए, तो वह दशा ही अमृत बन जाती है, और ऐसा ही मेरुदण्ड के नीचे के कुँए के बलगम आदि तरल पदार्थ के साथ भी होता है I

 

तब धूल वैसे ही धरती पर वापस आ जाएगी जैसे वह थी… जब ऊपर बताई गई प्रक्रिया पूर्ण होती है, तब साधक की काया में पृथक ब्रह्माण्डीय दशाओं से संबद्ध सिद्ध शरीर स्वतः ही प्रकट होते जाते हैं I

और जैसे-जैसे यह सिद्ध शरीर प्रकट होते हैं, वैसे-वैसे यह अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय भी होते जाते हैं I

यह सिद्ध शरीर ही उन धरती रूपी ब्रह्माण्डीय दशाओं के धूल रूप हैं I इन सिद्ध शरीरों के बारे में एक आगे की अध्यय श्रंखला में बताया जाएगा I

ब्रह्म रचना में निर्गुण ब्रह्म ही सगुण निराकार स्वरूप में अभिव्यक्त हुए हैंI और उस सगुण निराकार स्वरूप से ही सगुण साकार की अभिव्यक्ति हुई है I इसलिए उत्पत्ति के अनुसार, निर्गुण निराकार से सगुण निराकार और सगुण निराकार से सगुण साकार की उत्पत्ति हुई है I इसलिए इस उत्पत्ति क्रम के अनुसार, सगुण निराकार ही सगुण साकार का जनक है I

और क्यूँकि लय प्रक्रिया उत्पत्ति प्रक्रिया से विपरीत होती है, इसलिए जब साधक पुनः मुक्तिमार्ग पर जाता है, तब उसकी काया के भीतर जो ब्रह्माण्ड के भाग है, वह सिद्ध शरीरों के स्वरूप में प्रकट होते हैं और प्रकटीकरण के तुरंत बाद, वह अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में स्वतः ही लय भी हो जाते हैं I

इन्ही सिद्ध शरीर रूपी ब्रह्माण्डीय भागों को यहाँ पर धूल कहा गया है, और उन सिद्ध शरीरों की ब्रह्माण्ड दशाओ को धरती से जोड़ा गया है I

और यहाँ पर धूल धरती में लौट जाएगी, ऐसा इसलिए कहा गया है क्यूंकि अपने प्रकटिकरण के पश्चात, यह सभी धूल के कणों के समान सिद्ध शरीर अपने अपने धरती रूपी ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाते हैं I

 

टिपण्णी: बाइबिल को पढ़कर, कभी कभी तो मैं यही सोचता हूँ,  कि यह बाइबिल नामक ग्रंथ उससे कहीं पूर्व के वैदिक आगमनिगम से लिया हुआ ग्रंथ ही हो सकता है I उस अध्ययन में एक बात तो स्पष्ट होती ही है, कि बाइबिल के मूल में वैदिक वाङ्मय ही है I

 

आत्मा उस परमेश्वर के पास वापस आ जाएगी जिसने इसे दिया… आत्मा उन ब्राह्म (अर्थात परमेश्वर) का भी अभिन्न अंग रहा है, इसलिए वेद मनीषी कह गए की आत्मा ही ब्रह्म है I

जब ऊपर बताई गई प्रक्रिया पूर्ण होती है, जिसमें साधक की काया के भीतर के ब्रह्माण्डीय भाग (अर्थात सिद्ध शरीर) अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाते हैं, तो जो बच जाता है, वह साधक का आत्मस्वरूप ही होता है I

और क्यूंकि वह आत्मस्वरूप, ब्रह्म रचना से ही स्वतंत्र होता है, इसलिए वह ब्रह्म ही होता है I इसलिए बाइबिल का यह वाक्य, अपने मूल रूप में अथर्ववेद के महावाक्य अयमात्मा ब्रह्म के साक्षात्कार को ही दर्शा रहा है I

 

आगे बढ़ता हूँ… जब इस साक्षात्कार और इसकी दशा से साधक…

  • मृत्यु के समय जाता है… तो वह साधक विदेहमुक्ति को पाता है I
  • जीवित होते हुए ही इस वाक्य के भागों के साक्षात्कार की एक क्रमबद्ध प्रक्रिया से चला जाता है, तो वह साधक जीवनमुक्ति को पाता है I
  • जीवित होते हुए ही अकस्मात् चला जाता है, तो वह साधक सद्योमुक्ति को पाता है I
  • जबकि बाइबिल के मूल में जो वैदिक वाङ्मय ही है, जिसके गंतव्य स्वरूप में अभिमानी देवताओं का मार्ग नहीं है, लेकिन तब भी क्यूँकि बाइबिल के ग्रंथ को अभिमानी देवता से जोड़ा गया है, और क्यूँकि अभिमानी देवताओं के मार्ग में न तो जीवनमुक्ति होती है और न ही सद्योमुक्ति ही होती है, इसलिए आज की बाइबिल के मार्ग में केवल विदेहमुक्ति का ही सिद्धांत है और जहाँ वह विदेहमुक्ति भी अंत समय में ही होती है I
  • और इसके अतिरिक्त, बाइबिल का देवता, अभिमानी होने के कारण, इस ग्रंथ के मार्ग में कर्मातीत मुक्ति (कर्ममुक्ति) भी नहीं हो सकती है I इसलिए जबकि बाइबिल के ग्रंथ के मूल में उससे कहीं पूर्व के वैदिक और योग मनीषियों का ज्ञान ही है, जिसमें कर्ममुक्ति सम्भव होती है, लेकिन तब भी क्यूंकि बाइबिल को अभिमानी देवता से जोड़कर रखा गया है, इसलिए ऐसा होने के कारण बाइबिल ग्रंथ के मार्ग में, केवल कर्माधीन मुक्ति की पाई जा सकती है I
  • ऐसा होने के कारण, मुक्ति के प्रकार के अनुसार, बाइबिल ग्रन्थ का मार्ग सीमित ही पाया जाता है I
  • और ऐसा तब भी है जब बाइबिल के मूल और उस मूल के मार्ग (अर्थात वेदों) में, ऐसी सीमित दशा न कभी थी, न आज है और न ही आगे कभी होगी I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • सूरह ज़लज़ला, सूरत ज़लज़ला, सूरत अल-ज़लज़ला, सूरह अल-ज़लज़ला, योगमार्ग का सूरह अल-ज़लज़ला, कुरान शरीफ का सूरह अल-ज़लज़ला,

कुरान शरीफ के सूरह अल-ज़लज़ला में ऐसा कहा गया है

जब आख़िरकार पृथ्वी पूरी हिल जायेगी और अपना बोझ उतार फेंकेगी और मनुष्य कहेगा, यह सब क्या हो रहा है, तब जान लेना कि तुम्हारे प्रभु ने ही उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है।

 

यह दशा भी अष्टम चक्र सिद्धि के मार्ग में ही आती है I तो अब योगमार्ग के अनुसार इसको बताता हूँ…

पूर्व के अध्याय में बताया गया था कि जब साधक उस विकराल दशा में जाता है, जो राम नाद (अर्थात शिव शक्ति योग) की होती है, तो उस साधक को कुछ समझ ही नहीं आता है कि उसके साथ अकस्मात् ही यह क्या हो गया है I

ऐसी दशा में साधक सभी देवी देवताओं को स्मरण करके उनसे मदद की गुहार लगाता है I

और पूर्व के अध्याय में यह भी बताया गया था कि इस विकराल दशा में साधक के भीतर की प्रकृति के समस्त भाग हिल से जाते है I इसलिए इस दशा में साधक के मन बुद्धि चित्त अहम्, सब के सब हिल जाते हैं I

यहाँ पर बताए गए सूरत अल-ज़लज़ला में, धरती शब्द साधक के भीतर की प्रकृति है और जब वह आंतरिक प्रकृति की दशाएं हिलने लगती है, तो साधक को कुछ भी समझ नहीं आता है कि उसके साथ क्या हो रहा है I और ऐसी दशा में ही साधक समस्त देवी देवताओं से मदद की गुहार लगाता है I इसी दशा को यहाँ पर सूक्ष्म सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताया गया है I

पूर्व के अध्याय में यह भी बताया गया था, कि इस शिव शक्ति योग (अर्थात भद्र भद्री योग) से जाकर, उस साधक के भीतर का अमृत कलश वज्रदण्ड से जाकर, अंततः निरालंब चक्र से परे चला जाता है I जब ऐसा होते है तब साधक के प्राण, जो प्रकृति की मूलावस्था (अर्थात प्रकृति के शक्ति स्वरूप) के ही द्योतक होता है, वह भी विसर्गी हो जाते हैं (अर्थात वह प्राण, सहस्रार को पार कर जाते हैं) I यही दशा को पृथ्वी बोझ उतार फेंकेगी, ऐसा कहा गया है I

यहाँ पर पृथ्वी का शब्द प्रकृति का द्योतक है और जहां वह प्रकृति की मूलावस्था प्राण हैं, और प्रकृति की प्रकट दशा अमृत कलश है I और जहाँ यह दोनों ही सहस्रार को पार कर जाते हैं (जिसको इस आयत में धरती अपना बोझ उतार फेंकेगी, ऐसा कहा गया है) I

इस दशा से साधक का मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राणों के समस्त भार समाप्त हो जाते हैं, और इसी दशा को इस सूरा अल-ज़लज़ला में सांकेतिक रूप में ही सही, लेकिन बताया गया है I

 

टिप्पणियाँ:

  • वैदिक वाङ्मय में जो गौ शब्द आया है, वह गौ माता (अर्थात गौ का जीव रूप) सहित, पृथ्वी (अर्थात भू देवी) और समस्त प्रकृति का ही द्योतक है I
  • ऐसा इसलिए है क्यूंकि पृथ्वी (और प्रकृति) से ही वह अमृत स्वरूप गव्य प्राप्त होते हैं, जिनसे जीवों का जीवन चलित होता है I
  • और इस सूरत में जो बोझ कहा गया है, वह प्रकृति के चलित हो रहे प्रपञ्च को भी को दर्शाता है, जिसके परे जाने से साधक मोक्ष को पाता है I
  • प्रकृति के प्रपंच से अतीत दशा को ही तोमुक्तिकेहते हैं I इसलिए आंतरिक योगमार्ग के अनुसार, यह सूरत मुक्तिमार्ग को भी दर्शाती है I
  • और जहाँ उस मुक्तिमार्ग का नाता अथर्ववेद 2.31, अथर्ववेद 10.2.32 और अथर्ववेद 10.2.33 से भी है I

इसलिए इस सूरत के मूल में भी, कुरान के प्राकट्य से कहीं पूर्व के अथर्ववेद का ज्ञान ही है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ …

 

  • अष्टम चक्र और तुरीयातीत योगी, अष्टम चक्र और तुरीयातीत सिद्धि, अष्टम चक्र और तुरीयातीत आत्मा, अष्टम चक्र और तुरीयातीत ब्रह्म,

अष्टम चक्र सिद्धि ही तुरीयातीत अवस्था की प्राप्ति का मार्ग है I और जहाँ वह तुरीयातीत को ही आत्मा और ब्रह्म कहा जाता है I

क्यूंकि तुरीयातीत के बारे में पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, इसलिए इसको यहाँ पर पुनः नहीं बतलाऊँगा I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • अष्टम चक्र सिद्धि और योग चतुष्टय,

अष्टम चक्र सिद्धि को योग चतुष्टय के किसी भी अंग के मार्ग से जाकर प्राप्त किया जा सकता है I

योग चतुष्टय में चार भाग होते हैं, और वह भाग…

ज्ञान योग… यह ज्ञान का मार्ग है I

भक्ति योग… यह श्रद्धा और समर्पण की योगदशा से जाता हुआ मार्ग है I

कर्म योग… यह निष्काम कर्म का मार्ग है I

राज योग… यह कठोर योग साधनाओं का मार्ग है और इसी में कई सारे योगमार्ग भी आते हैं I

इन चारों में से किसी एक या इनके चार भागों के योग से जो मार्ग प्रकट होता है, उससे जाकर इस अध्याय श्रंखला में बताया गया हिरण्यगर्भ ब्राह्मणी योग और उसकी समस्त सिद्धियों को (जो यहाँ बताई जा रही हैं, और वह सिद्धियाँ भी जो यहाँ जान बूझकर नहीं बताई गई हैं) प्राप्त करा जा सकता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • उदुम्बरा, उदुम्बरा पुष्प, उडुंबरा, उडुंबरा पुष्प, उडुंबरा सिद्धि, उदुम्बरा सिद्धि, चक्रधर कौन, योगमार्ग का चक्रधर, चक्रधर सिद्धि, पुष्पक विमान, पुष्पक विमान क्या है, पुष्पक विमान सिद्धि, योगमार्ग का पुष्पक विमान, …

अब इन तीनों को एक एक करके बताता हूँ …

 

उदुम्बरा क्या है, उदुम्बरा कब प्रकट होता है, उदम्बरा और अष्टम चक्र सिद्धि, उदुम्बरा और बुद्धत्व, उदुम्बरा और बुद्धता, … उडुंबरा क्या है, उडुंबरा कब प्रकट होता है, उडुंबरा का प्रकटीकरण, उडुंबरा और अष्टम चक्र सिद्धि, उडुंबरा और बुद्धत्व, उदुम्बरा और बुद्धता, …

जब कोई ऐसा योगी जन्म लेता है जिसने अष्टम चक्र को सिद्ध करना होता है अथवा जब कोई योगी अष्टम चक्र को सिद्ध ही कर लेता है, तब यह उदुम्बरा का पुष्प उस लोक में प्रकाशित होने लगता है I

यह पुष्प किसी स्थूल लोक का होता ही नहीं है, बल्कि यह एक दैविक पुष्प ही है जो उस योगीसे नाता रखता है, जिसनें अष्टम चक्र सिद्धि की पात्रता पाई है I

और उस योगी के अष्टम चक्र पर जाने से कोई 14-15 वर्ष पूर्व से ही यह पुष्प शनैः शनैः ही सही, लेकिन उस लोक के पृथक स्थानों पर अकस्मात् ही दिखाई देने लगता है I

क्यूंकि अष्टम चक्र का मार्ग, राम नाद से ही जाता है, इसलिए उस योगी के राम नाद से जाने से कोई 14-15 वर्ष पूर्व से ही यह पुष्प उस लोक में पाया जाने लगता है I

इतने वर्ष इसलिए होते हैं, क्यूंकि यह पुष्प भगवान् राम के बनवास के प्रारम्भ को भी दर्शाता है, और जहाँ वह भगवान राम अपने शब्दात्मक स्वरूप (अर्थात नाद स्वरूप) में योगी के वज्रदण्ड चक्र में ही निवास कर रहे होते हैं I

14 वर्ष के बनवास को पार करके ही भगवान राम अयोध्या पुरी में पुनः लौटे थे और जहाँ योगमार्ग की वह अयोध्या पुरी भी साधक की काया ही होती है, और जहाँ भगवान राम के शब्दात्मक स्वरूप (अर्थात राम नाद) का साक्षात्कार स्थान भी योगी के वज्रदण्ड में ही होता है I

जब योगी राम नाद का साक्षात्कार कर लेता है, तब यह दशा भगवान् राम के अयोध्यापुरी में लौटने की दशा को दर्शाती है, और इस दशा से कोई 14-15 वर्ष पूर्व से ही यह दिव्य पुष्प उस लोक में दिखाई देने लगता है जिसमें वह योगी निवास कर रहा होता है I

इसलिए यह पुष्प भगवान् राम के बनवास से संबद्ध है और जहाँ भगवान् राम भी योगी की काया के भीतर, उस योगी की ही स्वर्मिण आत्म स्वरूप में अपने बनवास का समय पूरा करके ही स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं I

उदुम्बरा शब्द का संधि विच्छेद, उड़ और अम्बरा है I इसलिए इस शब्द का अर्थ है, वह जो अम्बर (आकाश) की ओर गति कर गया I

यहाँ अम्बर शब्द का अर्थ उत्कर्ष मार्गों का गंतव्य ही होता है, और इस गंतव्य के अर्थ में सर्वसिद्धि और कैवल्य मोक्ष, दोनों ही आते हैं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यहाँ बताए जा रहे योगमार्ग के गंतव्य शब्द में, ब्रह्म और ब्रह्म शक्ति दोनों ही समानरूप और पूर्णरूप में बसे हुए होते हैं I और इसीलिए यहाँ कहा गया गंतव्य शब्द, पूर्ण ब्रह्म का ही द्योतक है, जो निर्गुण निराकार ब्रह्म भी हैं, सगुण निराकार और ऊर्जा स्वरूप प्राण और जगत भी हैं, और सगुण साकार जीव भी वही पूर्ण ब्रह्म ही हैं I

उदुम्बरा का यह शब्द उस योगी को ही दर्शाता है जो आकाश की ओर गति कर गया और इस गति को भू लोक में अन्य सभी को सांकेतिक रूप में बताने हेतु ही यह पुष्प उस लोक में दिखाई देने लगता है, जिसमें वह योगी उस समय अपनी काया में ही निवास कर रहा होता है I

इसलिए किसी भी लोक में उदुम्बरा का प्रथम प्रादुर्भाव, इस बात का संकेत ही है कि कोई ऐसा योगी जन्म ले चुका है और उसकी अष्टम चक्र सिद्धि को अब केवल 14-15 वर्ष ही शेष रहे हैं I और यह 14-15 वर्ष का समय उस योगी के बनवास तुल्य ही होगा, जिसमें उसके शरीर के भीतर ही वह आंतरिक रामायण चलेगी और अंततः वह योगी उसी राम के शब्द से जाकर, उस आंतरिक रामायण को पूरा भी करेगा I और इसके पश्चात ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से उसका स्थूल शरीर ही अयोध्यापुरी कहलाएगा और उसकी हिरण्यगर्भात्मा (अर्थात हिरण्यगर्भ स्वरूप आत्मा या सुनहरी आत्मा), राम स्वरूप I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

अष्टम चक्र और चक्रधर, अष्टम चक्र और चक्र चतुष्टय, अष्टम चक्र और चक्रधर सिद्धि, चक्रधर कौन, चक्रधर सिद्धि, चक्र सिद्धि, बोधिचित्त सिद्धि, अष्टम चक्र और भगवान् राम का अयोध्यापुरी लौटना, अष्टम चक्र और चतुर्दश भुवन पर विजय,

चक्रधर शब्द का अर्थ होता है, चक्र का धारक I यह चक्र, कालचक्र, आकाशचक्र, दिशाचक्र  और दशाचक्र होते है, अर्थात चक्र चतुष्टय ही होते हैं I

इसी चक्र चतुष्टय में समस्त ब्रह्म रचना बसी हुई है और वह चक्र चतुष्टय भी समस्त ब्रह्म रचना में बसे हुए हैं, और जहाँ वह ऊर्जात्मक और मूल स्वरूप में ब्रह्म रचना भी चक्र चतुष्टय स्वरूप में ही है I ऐसा होने के कारण मैं इस चक्र चतुष्टय सिद्धि को मूल सिद्धि ही मानता हूँ, क्यूंकि इसका नाता सार्वभौम और सर्वमाता मूल प्रकृति से ही है I

जब योगी को यह सिद्धि प्राप्त होती है, तो वह इन सभी चक्रों के प्रक्रिया को सिद्ध करके, अंततः इन सभी के गंतव्य को पाता है I

ऐसी दशा में जो होता है, अब उसको बताता हूँ

  • कालचक्र का गंतव्य सनातन ब्रह्म होता है I
  • आकाशचक्र का गंतव्य अनंत ब्रह्म होता है I
  • दिशाचक्र का गंतव्य सर्वदिशा दर्शी ब्रह्म होता है I
  • और दशाचक्र का गंतव्य सर्वव्यापक ब्रह्म होता है I
  • और इन्हीं सबका स्वरूप वह योगी हो जाता है I
  • और उस योगी का आत्मस्वरूप इन चक्रों और इनके गंतव्य, दोनों में ही समानरूपेण और पूर्णरूपेण बसा हुआ होता है I
  • ऐसा होने के कारण, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में वह योगी चक्र चतुष्टय और इनके गंतव्य, दोनों का ही स्वरूप माना जाता है I

क्यूंकि यह चक्र ब्रह्माण्ड मूल, ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के गंतव्य (अर्थात ब्रह्माण्डातीत ब्रह्म) तीनों को समानरूपेण और पूर्णरूपेण दर्शाते हैं, इसलिए ऐसा ही उस योगी का आत्मस्वरूप भी होता है I

ऐसा योगी चक्र चतुष्टय में बसा हुआ भी, चक्रातीत ही होता है I

चक्रधर का शब्द श्री विष्णु का भी वाचक है, ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह सिद्धि सुदर्शन चक्र की भी द्योतक है I और जहाँ वह सुदर्शन चक्र योगी की काया के भीतर ही बोधिचित्त स्वरूप में प्रकट होता है I इस बोधिचित्त के बारे में एका आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

पुष्पक विमान, कुबेर सिद्धि, कुबेर देव का पुष्पक, योगमार्ग का पुष्पक विमान,

पुष्पक शब्द, पुष्प से आया है, इसलिए यहाँ बताया गया पुष्पक का शब्द, योगमार्ग के पुष्प से ही नाता रखता है I

वह पुष्प, अष्ट चक्र ही होते हैं और जिनके गंतव्य में अष्टम चक्र (अर्थात निरालंब चक्र) ही होता है I

जब योगी की चेतना निरालंब चक्र पर विराजमान होकर, उस चक्र को देखती है, तो वह पाती है कि उस चक्र के चार पत्ते, बहुत बड़े आकार के हो गए हैं I

और ऐसी दशा में वह चेतना यह भी पाती है, कि निराधार चक्र के वह चार पत्ते ऊपर नीचे की और वैसे ही हिल रहे हैं, जैसे कोई विशालकाय पक्षी उड़ता है I

उस विशालकाय पक्षी के समान निरालंब चक्र पर बैठी हुई वह चेतना, निरालंब चक्र को एक पुष्प से निर्मित विमान के समान ही पाती है I और यही साधक की काया के भीतर चलित हो रही आंतरिक रामायण का पुष्पक विमान भी है I

और इसी विशालकाय विमान का आलम्बन लेकर साधक की हिरण्यगर्भ स्वरूप आत्मा (अर्थात स्वर्णिम आत्मा) साधक की काया के भीतर की अयोध्यापुरी के उस सिंहासन पर विराजमान होती है, जो ब्रह्मरंध्र के भीतर के तीन छोटे छोटे कमल में से मध्य का बत्तीस दल कमल होता है और जो तैंतीस कोटि देवताओं में तैंतीसवें देवता, पितामह प्रजापति के हिरण्यगर्भ स्वरूप का ही आसान होता है I इसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I

निरालंब चक्र का यह पुष्पक विमान स्वरूप उस स्वर्णिम दण्ड (अर्थात वज्रदण्ड) से आगे जाकर ही पाया जाता है I और उस स्वर्णिम दण्ड का नाता, स्वर्ण (अर्थात धन) के देवता कुबेर से भी है I इसलिए पुष्पक विमान को कुबेर से भी जोड़ा जाता है और यही कारण है, कि पुष्पक विमान को कुबेर देव का विमान भी कहा जाता है I

यह इस्क्किसवें रुद्राक्ष की सिद्धि भी है, और जिसके मार्ग में इंद्राक्षी माला के समस्त भाग भी आते हैं I परमगुरु शिव के अनुग्रह से मैं इस इंद्राक्षी माला का धारक भी हूँ I

यहाँ जो धन शब्द कहा गया है, वह अष्टम चक्र के योगमार्ग से जाकर, साक्षात्कार से प्राप्त हुआ वह स्वर्णिम (अर्थात उत्कृष्टम) इच्छामय, चेतनमये, कर्ममय और ज्ञानमय धन है… न की स्थूल जगत का स्वर्ण पदार्थ रूपी धन I

और क्यूँकि कुबेर का नाता अथर्ववेद 10.2.31 के यक्ष से भी है, इसलिए कुबेर के इस विमान को यक्ष का विमान भी कहा जाता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब अष्टम चक्र और भगवान् राम का अयोध्या पुरी को लौटना बताता हूँ…

पूर्व के अध्ययन में बताया गया था, कि चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड साधक की काया में ही बसा हुआ होता है I इसलिए जब साधक की चेतना अपने साथ नाभि लिंग (अर्थात अमृत कलश) को लेकर अष्टम चक्र पर जाती है, और इसके पश्चात वह पुनः नीचे की ओर लौटती है, तब साधक उसकी काया के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा भी कर बैठता है I

और इसी आंतरिक ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा के समय, वह साधक ब्रह्माण्ड के चतुर्दश स्वरूप से जाता हुआ, ब्रह्माण्ड पर विजय भी प्राप्त करता है I

इसके पश्चात ही साधक का वह स्वर्ण शरीर (स्वर्णिम आत्मा) निरालंब चक्र पर विराजमान हो पाता है I

इसलिए यह अष्टम चक्र सिद्धि, साधक की अपनी काया के भीतर ही बेस हुए आंतरिक ब्रह्माण्ड पर विजय को भी दर्शाती है I

और क्यूंकि इस सिद्धि का नाता भी भगवान् राम से ही है, इसलिए योगमार्ग के राम ही ब्रह्माण्ड सम्राट कहलाते हैं, अर्थात चतुर्दश भुवन के सम्राट भगवान् राम ही हैं I

और इस विजय के पश्चात ही वह स्वर्णीमात्मा (अर्थात आत्मा राम) ब्रह्मरंध्र के भीतर के बत्तीस दल कमल में लौटकर, वहीँ पर विराजमान होता है I यही बत्तीस दल कमल आंतरिक अयोध्यापुरी के सम्राट, बालक राम का सिंहासन है (अर्थात योगमार्ग की अयोध्यापुरी है) I

 

अष्टम चक्र और मूषक सिद्धि, मूषक सिद्धि, गणेश का मूषक, भगवान् गणेश का मूषक, भगवान् गणपति का मूषक, गणपति का वाहन, गणपति के वाहन की सिद्धि, गणपति का मूषक वाहन, गणेश का मूषक वाहन, ब्रह्माण्ड भ्रमण सिद्धि, समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण करने की क्षमता, गणेश की शिव पार्वती परिक्रमा, गणेश की शिव पार्वती प्रदक्षिणा, गणपति की शिव पार्वती परिक्रमा, गणपति की शिव पार्वती प्रदक्षिणा, शिव शक्ति की प्रदक्षिणा, शिव शक्ति की परिक्रमा, योग मूषक, योगमार्ग का मूषक, …योग मयूरयोगमार्ग का मयूर, मयूर सिद्धि, कार्तिकेयन की मयूर सिद्धि, भगवान् कार्तिकेयन की मयूर सिद्धि, कार्तिक की मयूर सिद्धि, भगवान् कार्तिक की मयूर सिद्धि, हंस सिद्धि, योग हंस, हंस योग, हंस योगी, योगमार्ग का हंस, योगमार्ग की हंस सिद्धि, …

इस भाग को बताने से पूर्व, इसका आधार डालना होगा I तो अब इस भाग के आधार को बताता हूँ…

पूर्व के अध्याय में नमः शिवाय (अर्थात शिव पंचाक्षर मंत्र) का योगमार्ग बताया गया था I और उसी अध्याय में शिव षडाक्षर मंत्र (ॐ नमः शिवाय) भी योगमार्ग से बताया गया था I उस पूर्व के अध्याय में इन मंत्रों के साक्षात्कर मार्ग को ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा भी कहा गया था I

और एक और पूर्व के अध्याय में यह भी बताया गया था, कि वास्तव में…

शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव I

 

और इस भाग के परिपेक्ष में, यहाँ कहा गया शक्ति का शब्द, विष्णुनुजा माँ पार्वती का ही द्योतक है, और जहाँ माँ पार्वती पराशक्ति भी कहलाती हैं I

और जब वह विष्णुनुजा माँ पार्वती, महेश्वर से विवाह कर लेती हैं, तब वही विष्णु अनुजा, महेश्वरी कहलाती हैं… अर्थात इस स्थिति में माँ पार्वती, योगेश्वरी ही हो जाती है और शिव भी योगेश्वर (अर्थात महेश्वर) ही कहलाते हैं I

पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग में यह योग भी सद्योजात ब्रह्म (अर्थात पूर्वी आम्नाय) की दिशा में ही होता है, और पञ्च मुखी सदाशिव के मार्ग में यही योग कार्य ब्रह्म की दिशा में होता है I पञ्च मुखा सदाशिव को पाशुपत मार्गानुसार, एक आगे के अध्याय में बताया जाएगा I

 

अब हंस सिद्धि को बताता हूँ…

जब साधक की चेतना मूलाधार चक्र से निरालंब चक्र और इसके पश्चात निरालंब चक्र से पुनः मूलाधार चक्र में लौट आती है, तब वह साधक शिव पंचाक्षर मंत्र और शिव षडाक्षर मंत्र, दोनों को ही सिद्ध करता है I इसी गति को उत्कृष्ट योगीजनों ने सोऽहं और हंसा,ऐसा भी कहा है I यही हंस सिद्धि है और इसी को प्राप्त करके योगी, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा हंस कहलाता है I

और इस दशा में क्यूंकि शिव ही शक्ति हैं और शक्ति ही शिव, इसलिए ऐसी दशा में साधक शिव शक्ति की प्रदक्षिणा ही पूर्ण करता है I

और क्यूंकि यही मार्ग ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा का भी द्योतक होता है, इसलिए इसी मार्ग में साधक की आंतरिक ब्रह्माण्ड परिक्रमा भी पूर्णतः संपन्न होती है I

 

तो इसी आधार से अब मूषक सिद्धि और मयूर सिद्धि को बताता हूँ…

एक समय शिव शक्ति ने अपने दोनों पुत्रों, गणेश और कार्तिक को कहा, कि ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा करो I

तब भगवान् कार्तिक ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा प्रारम्भ करी और भगवान् गणेश ने अपने माता पिता (अर्थात शक्ति और शिव) को ही सर्वस्व मानकर, उनकी प्रदक्षिणा कर ली I

 

यह दोनों प्रदक्षिणा भी आंतरिक रूप में ऐसे हो सकती है…

  • शिव षडाक्षर मंत्र में ब्रह्माण्ड प्रदक्षिणा संभव होती है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि शिव षडाक्षर मंत्र के योगमार्ग में, इसी मंत्र के चक्रों से संबद्ध बीजाक्षरों में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही बसा हुआ है I
  • और उसी शिव षडाक्षर मंत्र में, शिव शक्ति की प्रदक्षिणा भी हो जाती है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि शिव षडाक्षर के योगमार्ग में, इसी मंत्र के चक्रों से संबद्ध बीजाक्षरों में शिव और शक्ति अपनी अद्वैत योगदशा में निवास करते हैं I

 

इसलिए, जब माता पिता का आदेश आया, तो…

  • भगवान् कार्तिक ने ब्रह्माण्ड को ही अपने माता पिता की अभिव्यक्ति मानकर, उस ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा कर ली I
  • और भगवान गणेश ने अपने माता पिता को ही ब्रह्माण्ड मानकर उनकी ही प्रदक्षिणा कर ली I
  • और आंतरिक योगमार्ग में यह दोनों प्रदक्षिणा, शिव षडाक्षर मंत्र (अर्थात ॐ नमः शिवाय) से ही होती हैं I
  • ऐसा इसलिए है, क्यूंकि पुत्र (और पुत्री) के दृष्टिकोण से, माता ही भगवती (शक्ति) हैं, और पिता ही भगवान् (शिव) और उनकी योगदशा ही वह मूल ब्रह्माण्ड है, जो दैविक, सूक्ष्म और स्थूल जीव जगत का आधार होता है I

 

अब आगे बढ़ता हूँ…

और इसी प्रदक्षिणा के पश्चात, गणेश जी को एक यंत्र भी प्राप्त हुआ, जिसका नाम मूषक (अर्थात चूहा) था I और जिसमें बैठकर गणेशजी संपूर्ण ब्रह्म रचना में कहीं पर भी, क्षणभर में ही जा सकते थे I

जब साधक यहाँ बताए गए आंतरिक योगमार्ग से जाता है, तब उस साधक के शरीर में और मेरुदण्ड की ओर उसे ऐसा लगता है, जैसे चूहा धड़-धड़ करता हुआ, मेरुदण्ड के नीचे से ऊपर की ओर और ऊपर से नीचे की ओर दौड़ रहा है I

और इस दशा में साधक उस बाह्य ब्रह्माण्ड की प्रदक्षिणा भी करने लगता है, और इस प्रदक्षिणा में, यदि साधक चाहे तो वह संपूर्ण ब्रह्माण्ड को एक ही क्षण में घूमकर, वापिस भी लौट सकता है I

यही मूषक सिद्धि है और इसी को गणेश भगवान् ने अपने माता पिता की प्रदक्षिणा करके प्राप्त किया था I

उस मूषक की गति मेरुदण्ड के नीचे से लेकर, शिवरंध्र तक होती है I और ऐसी गति के पश्चात, वह मूषक पुनः शरीर के अग्रभाग से नीचे भी आता है I

और उस साधक के शरीर में ऐसा ही चलता रहता है जिसमें गणपति देव अपने इस मूषक नामक वाहन (दैविक यंत्र) पर विराजकर, अपने माता पिता की प्रदक्षिणा करते ही रहते हैं I

 

अब मयूर सिद्धि को बताता हूँ…

जब साधक यहाँ बताए गए आंतरिक योगमार्ग से जाता है, तब उस साधक के शरीर में और मेरुदण्ड की ओर उसे ऐसा लगता है, जैसे किसी अग्निमय मयूर ने अपने पंख फैला रखे हैं, और ऐसा होने से मेरुदण्ड और शरीर के पीछे के भाग में बहुत सारी गरम (अग्निमय वायु से युक्त और विद्युत् से संयुक्त) चींटियां दौड़ रही हैं I

इसलिए यह  सिद्धि, अग्नि, वायु और विद्युत् तीनों के मिश्रण की होती है और इसका फैलाव मेरुदंड की ओर, और शरीर के पीछे के पूरे भाग में होता है I इन पंखों की ऊर्जाओं का वर्ण भी मयूर पंख के समान ही होता है I

यही वह मयूर सिद्धि है, जो भगवान् कार्तिक धारण करते हैं और जो वास्तव में कवच भी है… और अस्त्र भी I

इस सिद्धि में शिव और विष्णु, एक ही हैं I ऐसा इसलिए है क्यूंकि प्रदक्षिणा तो कार्तिक जी ने ब्रह्माण्ड को अपने माता पिता के आदेश से और ब्रह्माण्ड को अपने माता पिता ही मन कर करी थी, लेकिन यह सिद्धि उनको भगवन विष्णु से ही प्राप्त हुई थी I इसलिए इस सिद्धि का नाता हरिहर लिंग से भी होता है, जिसका वर्णन एक पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है I

यह योग मयूर, मेरुदण्ड (अर्थात शरीर के पीछे) की ओर खड़ा हो जाता है I

और जैसे-जैसे वह आंतरिक मयूर (अर्थात साधक के शरीर के भीतर बसा हुआ मोर) अपने पंख आगे पीछे हिलाते है, वैसे-वैसे उस मयूर की अग्निमय वायु से युक्त और विद्युत् से संयुक्त उर्जा, साधक के शरीर के आगे के भागों में भी जाने लगती है I

और उस मयूर का केन्द्र साधक का मेरुदण्ड ही होता है, और उस मोर का मुख, शिवरंध्र के नीचे हरिहर लिंग में ही स्थापित होता है I और उस मयूर के चरण साधक के चरण में ही स्थापित होते हैं I

यह एक ऐसी सिद्धि है, जिसमें साधक कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन अधमरा सा ही हो जाता है I

अब अगले बिंदु पर जाता हूँ…

 

  • अष्टम चक्र और विराट कृष्ण का साक्षात्कार, अष्टम चक्र और विराट कृष्ण, अष्टम चक्र और भगवान् कृष्ण, अष्टम चक्र और भगवान् कृष्ण का साक्षात्कार, विराट कृष्ण के दाहिने हस्त पर बैठा हुआ साधक, भगवान् का दाहिना हस्त, भगवान् के दाहिने हस्त पर विराजमान हुआ साधक, भगवान् के दाहिने हस्त पर बैठना, कृष्ण ही शून्य ब्रह्म, कृष्ण का नारायण स्वरूप, कृष्ण नारायण का साक्षात्कार, अष्टम चक्र और विराट पुरुष, विराट, विराट पुरुष, …

इस अष्टम चक्र सिद्धि के पश्चात एक और साक्षात्कार भी होता है I

इस साक्षात्कार में साधक की चेतना, एक काली रात्रि के समान, अति विशालकाय मानव के दाहिने हस्त पर ही बैठ जाती है I

वह अति विशालकाय मानव, काले वर्ण के (अर्थात कृष्णमय) विराट पुरुष ही हैं, अर्थात कृष्ण भगवान का विराट स्वरूप ही हैं I

जब साधक की चेतना उन विराट कृष्णा की दाहिनी हथेली पर बैठी होती है, तो विराट की तुलना में उस चेतना का आकार एक चींटी से भी छोटा होता है I

और उन भगवान् की खुली हुई दाहिनी हथेली पर बैठी हुई चेतना जब ऊपर की ओर, भगवान् के मुख को देखती है, तो वह काले वर्ण का विराट पुरुष, मंदहास धारण करे हुए, उस चेतना को ही देख रहे होते हैं I

इसी साक्षात्कार से में साधक की वह चेतना, वैदिक वाङ्मय मे कहे गए विराट शब्द का वास्तविक अर्थ भी जान जाती है I  और वह चेतना यह भी जान जाती है, कि शून्य ब्रह्म (अर्थात श्रीमन नारायण) ही विराट स्वरूप में अभिव्यक्त हुए हैं I

और ऐसी दशा में वह चेतना यह भी जान जाती है, कि बाइबिल में कहे गए “भगवान के दाहिने हस्त पर बैठना” का वास्तविक अर्थ क्या है I

 

इस साक्षात्कार के पश्चात वह साधक जान जाता है, कि…

कृष्ण ही शून्य ब्रह्म कहलाए है I

अर्थात शून्य से अनंत तक कृष्ण ही हैं I

शून्य ब्रह्म ही कृष्ण अवतार में आए थे I

और कृष्ण ही वह शून्य है, जो अनंत होता है I

और कृष्ण ही वह अनंत है, जो शून्य ही होता है I

इसी शून्य और अनंत के अद्वैत योग का नाम ही कृष्ण है I

 

और इसी शून्य और अनंत के मध्य में ही यह समस्त ब्रह्म रचना बसी हुई है I और इसी साक्षात्कार से वह साधक यह भी जान जाता है, कृष्ण ही भगवान् नारायण कहलाए है जो स्थिति कृत्य के धारक हैं और जिनके भीतर ही यह ब्रह्म रचना बसी हुई है I

और ऐसा होते हुए भी वास्तव में श्रीमन नारायण के शून्य ब्रह्म स्वरूप, पञ्च कृत्यों को समानरूपेण और पूर्णरूपेण धारण किया हुआ है I

और ऐसा जानकार, उस साधक को पुराण के वह वाक्य भी समझ में आता है, जिसमें कहा गया है…

कृष्ण तू भगवान् स्वयं I

 

वैसे इस अध्याय के मार्ग में कितनी सिद्धियां हैं, कि केवल इसी अध्याय को आधार बनकर मैं कई सारे ग्रन्थ ही लिख सकता हूँ, लेकिन यह तो वही बात हो जाएगी, कि उस अथाह सागर स्वरूप विराट पुरुष और उनके ही शून्य ब्रह्म स्वरूप को एक साथ ही किसी एक बूंद में समाहित करने की चेष्टा करी जाए I

लेकिन ऐसा तो मूर्ख ही कर सकते हैं, इसलिए अब मैं इसी बिंदु पर मैं यह अध्याय समाप्त करता हूँ और अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम समाधि होगा I

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

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