हृदयाकाश की रजोगुण गुफा, रजोगुण गुफा, हृदयाकाश की रजस गुफा, रजस गुफा, हृदयाकाश की अस्मिता गुफा, अस्मिता गुफा

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इस अध्याय में हृदयाकाश की रजोगुण गुफा (हृदयाकाश की रजस गुफा, या हृदयाकाश की अस्मिता गुफा) पर बात होगी I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इकतालीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का नौवां अध्याय है।

 

हृदयाकाश गर्भ की रजोगुण गुफा, हृदयाकाश की रजोगुण गुफा
हृदयाकाश गर्भ की रजोगुण गुफा, हृदयाकाश की रजोगुण गुफा

 

 

हृदयाकाश की रजोगुण गुफा क्या है, रजोगुण गुफा क्या है, हृदयाकाश की रजस गुफा क्या है, रजस गुफा क्या है, अस्मिता गुफा क्या है, रजोगुण गुफा के कार्य, रजस गुफा के कार्य, अस्मिता गुफा के कार्य, रजोगुण गुफा का तंत्र, रजस गुफा का तंत्र, अस्मिता गुफा का तंत्र, … रजोगुण और तत्पुरुष ब्रह्म, रजोगुण और माँ गायत्री का विद्रुमा मुख, रजोगुण और माँ गायत्री का रक्ता मुख, …

 

हृदयाकाश गर्भ के मुख्य भाग और रजोगुण गुफा
हृदयाकाश गर्भ के मुख्य भाग और रजोगुण गुफा

 

हृदयाकाश के मध्य में बैठे हुए सनातन गुरु ने एक ओर ऊँगली से दिखाया और कहा… वह हृदयाकाश गर्भ की रजोगुण गुफा है, जो लाल रंग के प्रकाश से युक्त होती है I इसी को रजस गुफा और अस्मिता गुफा भी कहा जा सकता है I इस गुफा का नाता ब्रह्माण्डीय रजोगुण से होता है, जो समस्त ब्रह्माण्डीय तंत्रों का मूल होता है, इसलिए इस समस्त जीव जगत में रजोगुण से ही सबकुछ चलित होता है और चलायमान ही रहता है I जीवों के कर्मों के मूल में भी यह रजोगुण ही है I रजोगुण ही सबकुछ चलायमान रखने में सहायक होता है I रजोगुण ही इस ब्रह्माण्ड और उसके समस्त पिण्डों को कर्ममय, क्रियाशील और परिवर्तनशील रखता है, इसलिए इस ब्रह्माण्ड के क्रियामय स्वरूप के मूल में रजोगुण ही है I उस प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक जगत से, जो ब्रह्म की इच्छा शक्ति से स्वयंप्रकट हुआ था, दैविक या कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत को जो गुण चलायमान रखता है, वह रजोगुण ही है और उसी रजोगुण की यह गुफा है I संस्कार भी इसी रजोगुण गुफा के प्रभाव में आकर चलायमान होकर कर्मों के कारण बनते हैं I रजोगुण का नाता तत्पुरुष ब्रह्म से होता है I और रजोगुण का नाता माँ गायत्री के विद्रुमा मुख (अर्थात माँ गायत्री के रक्ता मुख) से भी है I

सनातन गुरु आगे बोले… यह जीव जगत तमोमयी है, क्यूंकि इसको तमोगुण में ही बसाया गया था I ऐसा इसलिए था क्यूंकि तमोगुण ही स्थिरता का कारण और कारक होता है I यदि जीव जगत को इस रजोगुण में बसाया जाता, तो वह उदय के कुछ ही समय में नष्ट ही हो जाता I तमोगुण में बसने के कारण, यह जीव जगत बहुत अधिक सीमा तक स्थिरता को पाया है I क्यूंकि तमोगुण से रजोगुण सूक्ष्म होता है, इसलिए तमोगुण में बसे हुए इस जीव जगत पर रजोगुण का प्रभाव आने के लिए, उस रजोगुण को तमोगुण से होकर ही जाना होता है I जब यह रजोगुण उस तमोगुण से होकर जीव जगत तक पहुँचता है, तो उस रजोगुण की बहुत अधिक क्षमता भी उसी तमोगुण में समा जाती है, जिसके कारण उस रजोगुण का प्रभाव भी बहुत क्षीण हो जाता है I तमोगुण का नाता अघोर ब्रह्म से होता है I और इस तमोगुण का नाता माँ गायत्री के नीला मुख से भी है I

सनातन गुरु आगे बोले… प्रभाव क्षीण होने के कारण वह रजोगुण विध्वंसक नहीं रह पाता I यदि ब्रह्माण्डीय रजोगुण अपने वास्तविक स्वरूप (शक्ति) में इस जीव जगत में सीधा ही आ जाएगा, तो इस जीव जगत में कुछ भी नहीं बचेगा, इसलिए जीव जगत को तमोगुण में ही बसाया गया था, जिसके कारण रजोगुण को इस जीव जगत में आने के लिए, तमोगुण के भीतर से होकर ही जाना होता है I और ऐसा होने से जीव जगत तक पहुँचते-पहुँचते, रजोगुण का प्रभाव भी बहुत अधिक मात्रा में क्षीण हो जाता है I लेकिन जब लाल वर्ण का रजोगुण, नीले वर्ण के तमोगुण के भीतर से जाकर, इस जीव जगत में आता है, तब इन दोनों गुणों के योग से उस बैंगनी वर्ण के आकाश महाभूत का प्रादुर्भाव भी होता है I इन्ही दोनों गुणों के समान योग को ही आकाश महाभूत कहा जाता है, और जो इस समस्त ब्रह्म रचना का प्रथम महाभूत ही है I

सनातन गुरु आगे बोले… इसी गुफा से समस्त संस्कार भी चलायमान रहते है I इस गुफा से जाकर वह संस्कार गति पकड़कर, मनस गुफा और तमोगुण से जाकर, ब्रह्माण्ड और उसके पिण्डों में प्रवेश करते हैं I यदि यह रजस गुफा ही नहीं होगी, तो संस्कार को इतनी गति ही नहीं मिलेगी, कि वह ब्रह्माण्ड और पिण्डों तक पहुँच पाएँ I और ऐसी दशा में ब्रह्माण्ड और उसके समस्त पिण्ड, संस्कारों के प्रयोग अपने कर्मों में कर ही नहीं पाएंगे, जिसके कारण वह कर्ममय ही नहीं रह पाएंगे I और क्यूंकि यह जीव जगत कर्मप्रदेश ही है, और कर्म ही इसके बने रहने के कारण हैं, इसलिए ऐसी दशा में जब जीव ही कर्ममय नहीं होंगे, तो यह समस्त जीव जगत कर्ममय न रहकर, नष्ट ही हो जाएगा I और क्यूँकि संस्कार ही कर्मों के कारण होते हैं, इसलिए यदि यह गुफा ही नहीं होगी, तो यह जीव जगत कर्ममय भी नहीं रह पाएगा और ऐसा होने के कारण यह गतिशील और परिवर्तनशील नहीं होगा और ऐसी दशा में यह जीव जगत अपने सूक्ष्मादि तंत्र को छोड़ देगा और जड़ सा ही हो जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… दृश्य और अदृश्य संस्कार इसी गुफा से जाकर अपने पथ बनाते हैं, और उनके ऐसे बनाए गए मार्गों से अन्य सभी संस्कार भी जाते ही रहते हैं I इसलिए इस गुफा में उन अदृश्य और दृश्य संस्कारों के पथ भी दिखाई देते हैं, जिनसे वह संस्कार पूर्व कालों में गए होंगे I संस्कारों को गति भी यही गुफा प्रदान करती है और इन्ही संस्कारों के कारण, इस जीव जगत में जो कुछ भी है, वह सब चालयमान ही रहता है I इन्ही पूर्व में बने हुए मार्गों से जाकर, संस्कार जीव जगत में पहुँचकर, चलित होते हैं I

सनातन गुरुदेव बोले… इसीलिए जब से तुम जीव रूप में आए हो, तब से जो संस्कार इस रजोगुण गुफ़ा से गए हैं, उन सबके मार्ग भी इसी गुफा में पाए जाएंगे I यही वह कारण है कि जबतक इस गुफा का शुद्धिकरण नहीं होता, तबतक चाहे साधक कुछ भी कर ले या कुछ भी क्यों न हो गया हो, वह साधक अपने संचित आदि कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है I और जो कर्म से ही मुक्त नहीं, वह मुक्तात्मा भी नहीं कहलाया जा सकता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा इसलिए है, क्यूंकि जब संस्कार इस रजोगुण गुफ़ा से जा रहे होते हैं, तो उनके कुछ सूक्ष्म बिंदु, जैसे उनकी ऊर्जाएं इस गुफा में, उन संस्कारों के मार्गों के भीतर ही समाहित हो जाती हैं I और जबतक यह ऊर्जाएँ रहेंगी, तबतक संस्कारों के प्रभाव भी शांत नहीं होंगे I और ऐसी दशा में, वह साधक संस्कारों के प्रभावों से पूर्णतः मुक्त या अतीत भी नहीं हो पाएगा I जबतक साधक संचित आदि कर्मों और उनके कर्मफल रूपी संस्कारों और उनके प्रभावों से अतीत ही नहीं होगा, तबतक वह साधक अपनी कैवल्य मुक्ती को भी नहीं पाएगा I इसलिए मुक्तिमार्ग के दृष्टिकोण से भी यह एक बहुत महत्वपूर्ण गुफा होती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि अभी के समय यह रजोगुण गुफा इन सभी संस्कारों, उनके मार्गों और ऊर्जाओं से भरी हुई है, इसलिए अभी हम इस रजोगुण गुफ़ा में प्रवेश नहीं कर सकते हैं, जिसके कारण इस गुफा का अध्ययन प्राण गुफा से ही करना पडेगा I यदि कोई योगी इस रजस गुफ़ा की अभी की दशा में चला जाएगा, तो इसके दुष्प्रभाव इतने होंगे कि उस योगी के लिए उसके मुक्तिमार्ग पर आगे जाना ही कठिन हो जाएगा, और जिसके कारण ऐसे योगी का पुनः प्रादुर्भाव असंख्य बार होता ही चला जाएगा I और यदि इस गुफा के शुद्धिकरण के पश्चात इस गुफा में प्रवेश करा जाएगा, तो वह योगी अपने मुक्तिमार्ग पर स्वतः ही चला जाएगा, और जहां वह मुक्तिमार्ग भी ज्ञानमय, चेतनमय और समाधिमय होगा I ऐसा योगी उस समाधि को भी पाता है, जिसको रजोगुण समाधि और अस्मिता समाधि भी कहा जाता है I इस समाधि को प्राप्त हुआ योगी उसकी अपनी साधनाओं में जिस भी दैविक आदि दशा का साक्षात्कार करता है, उसको उस दशा का ज्ञान भी स्वतः ही प्राप्त होता है, इसलिए यह रजोगुण समाधि (अस्मिता समाधि) सर्वज्ञता नामक सिद्धि का ही अंग होती हैं I पर इस सर्वज्ञता के लिए अन्य समाधियों से भी होकर जाना होता है, जो इस अध्याय का अंग नहीं हैं I लेकिन ऐसा होने पर भी अस्मिता समाधि के बिना, वह ज्ञान प्राप्त नहीं होता जो शून्य, शून्य ब्रह्म और अनंत सहित सर्वस्व का होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि अस्मिता का मार्ग भी संस्कारों और उनके मार्गों के नाश से ही होकर जाता है, और जो इसी रजोगुण गुफा में ही होते हैं, इसलिए हृदयाकाश गर्भ की यह रजोगुण गुफा एक बहुत महत्वपूर्ण गुफा ही है I जबतक रजोगुण समाधि की प्राप्ति नहीं होती, तबतक उस सर्वज्ञता का मार्ग भी नहीं खुल पाता है, जिसके गंतव्य को बुद्धता कहते हैं I

 

रजस गुफा में अरोक्ष प्रवेश, रजस गुफा का अरोक्ष अध्ययन, …

इसके पश्चात सनातन गुरु अपने नन्हें विद्यार्थी का हाथ पकड़कर, उठे और वह दोनों प्राण गुफा की ओर चलने लगे I

प्राण गुफा में व्यान प्राण पर पहुंचकर, सनातन गुरु बोले… अब यहाँ से ही इस रजोगुण गुफ़ा में संस्कारों के मार्गों का अध्ययन करो I

नन्हें विद्यार्थी ने अध्ययन करके बोला… गुरु चंद्रमा,  लेकिन ये मार्ग तीन प्रकार के हैं, एक जो सीधा हैं, दूसरा जो ज्यावक्रीय हैं, और तीसरा जो इन दोनों को जोड़ रहा है I

इसपर सनातन गुरु बोले… अब ध्यान से सुनो …

  • जो मार्ग सीधे से दिखाई दे रहे हैं, वह उन संस्कारों के हैं जो सत्त्वगुण से नाता रखे हैं I परन्तु इस समस्त जीव जगत में कुछ भी सीधा नहीं चलता, क्यूंकि चलायमान होने के लिए उसको रजोगुण से संबंध रखना ही पड़ेगा I इसलिए जब इन सीधे से दिखाई देते हुए मार्गों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करा जाएगा, तो हलकी सी ज्यावक्रीय दशा इन मार्गों में भी पाई जाएगी I और ऐसे ही सत्त्वगुण में बसे हुए भावों की गति भी होती है I
  • जो मार्ग ज्यावक्रीय दशा में हैं, वह उन संस्कारों के हैं जिनका नाता रजोगुण से है I
  • जो मार्ग इन दोनों को जोड़ रहे हैं, वह उन संस्कारों के हैं जिनका नाता तमोगुण से है I और क्यूंकि यह जीव जगत ही तमोमय है, इसलिए इस जीव जगत की समस्त दशाओं को जो जोड़कर रखता है, वह ही तमोगुण है I भावों और त्रिगुणों को भी तमोगुण ही जोड़कर रखता है, इसलिए यदि हम इन मार्गों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करेंगे, तो इनका नाता उन त्रिगुणों से ही पाया जाएगा, जिनके कारण यह प्राकृत जीव जगत त्रिगुणात्मक कहलाया गया है, और जहां वह त्रिगुण इस समस्त ब्रह्म रचना के मूल ही हैं I

सनातन गुरु बोले… अब देखो कि क्या यह सभी मार्गों का समूह एक मकड़ी के जाले रूपी आव्यूह के समान दिश्यमान हो रहा है? I

नन्हें विद्यार्थी ने देखा और कहा… जी गुरु चंद्रमा, ऐसा ही है क्यूंकि इन मार्गों का समूह रजोगुण में प्रवेश करके, सत्त्वगुणी मार्गों से संबद्ध होकर, तमोगुणी मार्गों में जाकर आव्यूह जैसा ही प्रतीत हो रहा है I

सनातन गुरु बोले… भाव ही कर्मों के मूल होता है, और वह भाव प्रधानतः सत्त्वगुणी ही होते है I लेकिन कर्मों में चलित होने के लिए, उन भावों को रजोगुण से योग करना ही होता है I इसलिए जो मार्ग इस रजोगुण गुफा में प्रवेश करते हैं, वह अधिकांशतः सत्त्वगुण से ही संबद्ध हैं I और जो मार्ग इस रजोगुण गुफा से बाहर निकलकर आगे जाते हैं, वह रजोगुण से संबद्ध ही होते हैं I और इन बाहर जाते हुए मार्गों का नाता, उस सत्त्वगुण से भी होता है, जो इस गुफा को भेदकर ही इस गुफा में प्रवेश करता है और ऐसा करके ही वह रजोगुण से संबद्ध हो पाता है I और ऐसा ही नाता इन संस्कार मार्गों का भी पाया जाएगा, क्यूंकि ब्रह्म रचना में किन्हीं दो दशाओं के लिए कभी भी दो सिद्धांत नहीं बनाए गए थे I

सनातन गुरु बोले… सत्त्वगुण, रजोगुण को भेदकर, उस रजोगुण के भीतर ही निवास करता है, और यह जोड़ा तमोगुण में प्रवेश करके उस तमोगुण के भीतर ही निवास करता है I ऐसा होने के कारण, तमोगुण के भीतर भी यह दोनों गुण (अर्थात रजोगुण और सत्त्वगुण) पाए जाते हैं I इस रजोगुण गुफ़ा के अध्ययन में तो ऐसा भी प्रतीत होगा जैसे सत्त्वगुण, इस रजोगुण में फंसा हुआ है I लेकिन ऐसा होता नहीं है, क्यूंकि सत्त्वगुण की सूक्ष्मता रजोगुण से अधिक होती है और जो सूक्ष्म होता है, वही अपने से स्थूल का ऐसा नियन्त्रक होता है, जो स्थूल के भीतर बैठकर ही उस स्थूल दशा का नियंत्रण और संचालन भी करता है I इसलिए रजोगुण के भीतर जो यह सत्त्वगुण बसा हुआ है, वही इस रजोगुण का नियंत्रक है और इसी के प्रभाब में आकर, रजोगुण समतावादी भी हो जाता है, जिसके कारण वह सर्वव्यापी भी होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जो किसी दशा के भीतर होता है, वह भीतर भी इसलिए हो पता है क्यूंकि वह जिसके भीतर बैठा हुआ है, उससे सन्मुख होता हुआ भी, उससे जुड़ता नहीं है I यदि जो किसी के भीतर है, वह उससे जुड़ गया, तो वह जिसके भीतर है, उसके जैसा ही हो जाएगा और ऐसी स्थिति में उसकी पारगम्य सत्ता भी नहीं रह जायेगा I और ऐसी दशा में वह सूक्ष्म सत्ता जो किसी दूसरी स्थूल सत्ता को भेद रही है, उसके पास वह सूक्ष्मता भी नहीं रहेगी और जिसके कारण वह (सूक्ष्म सत्ता) उसी स्थूल सत्ता जैसी ही हो जाएगी, जिसको वह भेद रही है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब कोई सूक्ष्म सत्ता, किसी स्थूल सत्ता को आर-पार भेद रही होती है, तो वह सूक्ष्म सत्ता, उस स्थूल के भीतर ही बैठी होती है I और ऐसी दशा में यदि वह सूक्ष्म सत्ता उस स्थूल से लगाव कर लेती है, तब वह सूक्ष्म सत्ता उसी स्थूल के समान हो जाती है I और ऐसा होने के पश्चात, वह पूर्व की सूक्ष्म सत्ता, उस स्थूल को भेद भी नहीं पाती है I ऐसी दशा में वह सूक्ष्म सत्ता भी उतनी ही स्थूल हो जाएगी, जितनी स्थूल वह सत्ता थी, जिसको वह पूर्व समयखण्डों में भेद रही थी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए जो भी सूक्ष्मता किसी स्थूल वस्तु को आर-पार भेदती है, वह उस वस्तु से विमुख होकर ही उसको भेद पाती है I और यदि वह ऐसी विमुख नहीं होगी, तो वह उसी के समान हो जाएगी, जिसको वह भेद रही है I यह भी वह कारण है, कि वह सूक्ष्म सत्ता जो किसी सापेक्ष स्थूल दशा या वस्तु को आर-पार भेदती है, वह द्रष्टा, दृष्टि और दृश्य से अतीत होकर, उस सापेक्ष स्थूल दशा (या वस्तु) का साक्षीमात्र होकर ही ऐसा कर पाती है I ऐसा साक्षी होकर ही सत्त्वगुण इस रजोगुण को भेदता है, और ऐसे भेदने के कारण ही सत्त्वगुण इस रजोगुण के भीतर बस पाता है I ब्रह्म भी ऐसा साक्षी ही है, जो सर्वस्व का ही साक्षी है, और इसीलिए ब्रह्म ही वह एकमात्र सत्ता है, जो इस समस्त जीव जगत के भीतर समान रूप में बसा हुआ है, और ऐसा ही साधक अपने साक्षात्कारों में भी पाता है इसीलिए तो योगमार्ग में त्याग, प्रत्याहार आदि सिद्धांत आए थे क्यूंकि इनके बिना, साधक की चेतना इस स्थूल और उस सूक्ष्म जगत को भेद ही नहीं पाएगी और ऐसी स्थिति में वह साधक इस भवसागर से अतीत होने के मार्ग को भी नहीं पाएगा I जब तक साधक उस मार्ग को ही नहीं पाएगा जो इस भवसागर से अतीत जाने का है, तबतक वह साधक उस मार्ग के शिखर, अर्थात मुक्ति को भी प्राप्त नहीं हो पाएगा I

सनातन गुरुदेव बोले… जबतक जो आर-पार भेद रहा है, वह उससे सूक्ष्म रहेगा जिसको वह भेद रहा है, तबतक ही वह भेद पाएगा I और ऐसा रहने के लिए, उस भेदने वाली सत्ता को भेदी गई सत्ता से पृथक ही रहना होगा I यदि ऐसा नहीं होगा, तो वह भेदने वाली सत्ता, भेदी जाने वाले के समान ही जो जाएगी और इसके पश्चात वह भेद भी नहीं पाएगी I यही भेदने वाले और जो भेद जाता है, उसका नाता है और ऐसे नाते में जो भेदता है, वह भेदी गई सत्ता से विमुख होकर ही उसको भेद पाता है I इसी सत्य को मूल बनाकर ही, योगतंत्र में समता, ब्रह्मचर्य, प्रत्याहार, त्याग और संन्यास के सिद्धांत आए थे I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि सत्त्वगुण ही रजोगुण को आर-पार भेदकर, उस रजोगुण के भीतर प्रतिष्ठित हुआ पाया जाता है, इसलिए लाल रंग के रजोगुण के भीतर, सत्त्वगुण का सूक्ष्म श्वेत वर्ण भी पाया जाएगा I और ऐसा ही इस रजोगुण गुफा में और इस गुफा के ज्यावक्रीय दशा में बसे हुए मार्गों में भी पाया जाएगा I इन ज्यावक्रीय मार्गों के अध्ययन में जो पाया जाएगा, उसमें सत्त्वगुण इन मार्गों में होगा ही I और यदि हम उन मार्गों का अध्ययन करेंगे, जो तमोगुण से संबंधित हैं, तो उन मार्गों में यह भी पाया जाएगा कि उनको रजोगुण आर-पार स्वरूप में भेद रहा है, और उस रजोगुण को सत्त्वगुण भी आर-पार स्वरूप में ही भेद रहा है I इसलिए ऐसे अध्ययन में यह भी पाया जाएगा कि तमोगुण के भीतर रजोगुण बसा हुआ है, और रजोगुण के भीतर सत्त्वगुण I और उस दशा में जहां लाल रंग के रजोगुण का नीले रंग के तमोगुण से मिलन होता है, वहां बैंगनी वर्ण का आकाश महाभूत ही पाया जाएगा I और इस रजोगुण और तमोगुण की योगदशा के भीतर, श्वेत वर्ण का सत्त्वगुण भी साक्षात्कार किया जाएगा I यही योगदर्शन, पारगम्यता और व्याप्तता के ब्रह्माण्डीय सिद्धांत को भी दर्शाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने गुरु को सर हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी किया I

 

रजोगुण गुफा और उससे अन्य पहलुओं का ज्ञान, रजोगुण गुफा से अन्य पहलुओं का ज्ञान, … रजोगुण गुफा और मनस विज्ञान, …

सनातन गुरुदेव बोले… इन सभी मार्गों का समूह जो मकड़ी के जाले रूपी आव्यूह सा प्रतीत होता है, वह अब बताई जा रही सभी दशाओं को भी दर्शाता है…

  • इस जीव जगत में इच्छा ही सर्वमूल है I
  • विचार और भावनाएं इसी इच्छा के आधीन होती है I
  • इच्छा ही विचार और भावना रूप में प्रकट होती है I
  • ऐसे प्रकटीकरण के पश्चात ही कर्मों की दशा आती है, जो कर्मफल के कारण बनते हैं I
  • और जहां वह कर्म फल भी अपने बीज रूप में संस्कारों के स्वरूप में ही होते हैं I
  • इन सबका नाता भी त्रिगुण से ही होता है, जो इस रजोगुण गुफ़ा में और इस गुफा के संस्कारों और उनके मार्गों के स्वरूप में भी दिखाई दे रहे हैं I समस्त संस्कार भी त्रिगुणमय ही होते हैं I
  • इन त्रिगुण में, तमोगुण ही सबकुछ जोड़कर रखता है, क्यूंकि इस जीव जगत को तमोगुण के भीतर ही स्थिर करके बसाया गया है I और इसीलिए इस जीव जगत को तमोमयी भी कहा जाता है I
  • ब्रह्माण्डीय नियम भी तमोगुण में ही बसे हुए हैं, लेकिन ऐसा होने पर भी यह रजोगुण से ही चलित होते हैं, और सत्त्वगुण से ब्रह्माण्डीय मूल समता को पाकर, सर्वव्यापक होते हैं I और यही ब्रह्माण्डीय नियमों की सार्वभौमिक प्रकृति और स्थिति का कारण भी है I
  • ऐसा इसलिए है क्यूंकि यदि जीवों के लिए एक प्रकार के नियम होंगे और ब्रह्माण्ड के लिए और प्रकार के, तो यह जीव, जगत में आने के पश्चात विप्लव को ही पाएंगे I ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि ऐसी दशा में इनके (अर्थात जीव और जगत के) मूल सिद्धांत ही समान नहीं होंगे, और जिसके कारण जीवों का जगत से तालमेल ही नहीं बैठेगा I
  • इसलिए जो एक जीव के लिए ब्रह्माण्डीय नियम हैं, वही अन्य सभी जीवों के लिए होते हैं और उन्हीं नियमों पर समस्त ब्रह्माण्ड भी गति करता है I ब्रह्माण्ड की पृथक दशाओं और ब्रह्माण्ड में बसे हुए पृथक जीवों के लिए पृथक नियम कभी हुए ही नहीं I इसलिए जो ब्रह्माण्डीय नियम आदि इस मृत्युलोक में लागू होते हैं, उन्हीं नियमों पर दैविक आदि लोक भी चलायमान हो रहे हैं I
  • यही कारण है कि जब कोई बड़ी सत्ता, जैसे कोई अवतार इस मृत्युलोक में अवतरित होता है, तो वह भी इन ब्रह्माण्डीय नियमों का पालन करने को बाध्य होता है I और यह सभी ब्रह्माण्डीय नियम मूलतः उसी तमोगुण में ही बसाए गए हैं, जिसमें यह समस्त जीव जगत भी बसा हुआ है I ऐसा होने के कारण ही यह ब्रह्माण्डीय नियम स्थिर रहे हैं, कयुँकि तमोगुण स्थिरता का कारण ही है I सार्वभौम और सर्वव्यापक होने के कारण, यह ब्रह्माण्डीय नियम मानव द्वारा बनाए गए नियमों और संविधानों के समान न तो पृथक होते हैं, और न ही परिवर्तनीय होते हैं, और न ही परिवर्तनशील ही होते हैं I
  • तमोगुण में बसे होने के कारण ही यह नियम स्थिर होते हैं I और इसके विपरीत, मानव द्वारा बनाए गए नियम और संविधान रजोगुणी होने के कारण परिवर्तनशील रहते हैं I
  • ऐसे होने का कारण भी वही है, कि ब्रह्माण्ड तमोमयी है, और इसके विपरीत, कर्ममय जीव रजोगुणी ही है I
  • और इन दोनों गुणों को भेदकर, इनसे आगे सत्त्वगुण में जाया जाता है, जिसका मार्ग भी समता ही है I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चंद्रमा,  ऐसा क्यों है कि इन संस्कार मार्गों के वर्ण एक दूसरे से पृथक है? I

सनातन गुरु बोले… इस जीव जगत के प्रादुर्भाव से पूर्व की दशा में, प्राण चेतना स्वरूप ही था, और ऐसी दशा में वह एक ही था, और हीरे के समान ऐसा प्रकाश रूप था जो सर्वसमता को ही दर्शाता था, और जो अद्वैत ब्रह्म के ही सर्वसम सगुण निराकार प्राथमिक ब्रह्मलोक स्वरूप का द्योतक था I उस समय जब जीव जगत का प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ था, तब यही प्राण की वास्तविक या मूल दशा थी I लेकिन जब जीव जगत के प्रादुर्भाव का समय आया, तब उस एक प्राण ने, जो उस समय भी था, बहुत होने की इच्छा करी I और इस इच्छा के प्रकटीकरण के पश्चात ही वह अद्वैत प्राण बहुत हो गया था, जिसके कारण वह अद्वैतवादी से बहुवादी हुआ था I बहुवादी होने के लिए उन प्राण को, जो इस जीव जगत की ऊर्जा ही है, गुणों को धारण भी करना पड़ गया और जहां उस गुणात्मक दशा के मूल में विज्ञान (बुद्धि) ही थी I क्यूंकि उस बहु होने की इच्छा से जो संस्कार प्रकट हुए थे, वह भी बहुवादी ही थे, इसलिए उनके वर्ण गुणादि भी बहुवादी ही हुए थे I यही कारण है कि पृथक संस्कारिक दशाओं का पृथक गुणों आदि से नाता होता है, इसलिए इन संस्कार मार्गों के पृथक वर्ण भी होते हैं I जैसे कर्म होंगे, वैसे ही उन कर्मों से संबद्ध संस्कारों के वर्ण भी होंगे I लेकिन संस्कारों के वर्ण विज्ञान का विषय यह भाग नहीं है, इसलिए इसको यहाँ पर नहीं बताया जाएगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरुदेव बोले… अब ध्यान देना …

  • स्थूल शरीर की प्रत्येक कोशिका का अपना मनस तत्त्व होता है I और इन कोशिकाओं के मनस तत्त्व के समूह को मनोमय कोष कहते हैं I
  • यह बिंदु प्रत्येक पिण्ड पर समान रूप में लागू होता है, और जहाँ वह पिण्ड भी कई प्रकार के ही होते हैं, क्यूंकि प्रकृति बहुवादी ही है I और ऐसी बहुवादी होती हुई भी वह प्रकृति, उसके अपने मूल और गंतव्य से अद्वैत ही है I
  • इन पिण्डों के मनोमय कोष के समूह को ही ब्रह्माण्डीय मनस कोष कहा जाता है, और ब्रह्माण्ड के भीतर, यह मनस काया के स्वरूप में व्यापक होता है I इसी ब्रह्माण्डीय मनोमय काया के अखंड भागों के रूप में सब पिण्डों के मनोमय कोष होते हैं I
  • यह भी वह कारण है कि ब्रह्माण्ड योग का एक उत्कृष्ट मार्ग, इस ब्रह्माण्डीय मनोमय कोष से भी होकर जाता है, क्यूंकि योगमार्ग में, मन जो सर्वव्यापक अतीन्द्रिय ही है, वह ही सर्वोत्कृष्ट योग माध्यम होता है I
  • जिस योगी ने अपने मन को जानकार, उसे पा लिया, वह इस ब्रह्माण्ड में एक उत्कृष्ट योगी हुए बिना भी नहीं रह पाता है I इसका कारण भी यही है, कि योगमार्ग के अनुसार मन ही सर्वोत्कृष्ट माध्यम होता है, और इस मन का सीधा-सीधा नाता भी ब्रह्माण्डीय मनस काया से ही होता है, जो इस ब्रह्म रचना की एक सर्वव्यापक काया ही है I
  • इस ब्रह्माण्डीय मनस काया को प्राप्त करने का मार्ग भी आंतरिक ही होता है, अर्थात योगी के भीतर से ही प्रशस्त होता है I और इस ब्रह्माण्डीय मनस काया नामक सिद्धि से उस योगी का मन ही ब्रह्माण्ड का मन हो जाता है I लेकिन ऐसी सिद्धि का मार्ग भी मन, बुद्धि, चित्त और अहम् को शान्त करके ही पाया जाता है, और यह दशा भी तब ही आती है जब योगी अपने संचित आदि समस्त संस्कारों का ही नाश कर देता है, और जिसका मार्ग भी यही हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I
  • इस नाश से योगी उस वृत्तिहीन अवस्था को पाता है, जिसको योगतंत्र में आत्मस्थिति भी कहा जाता है I
  • और इसको पाने का मार्ग भी उस ब्रह्माण्डीय रजोगुण से होकर जाता है, जिससे संबध यही हृदयाकाश की रजोगुण गुफा है I
  • जबतक संस्कारों का नाश नहीं होती, तबतक संस्कार रहित अवस्था की प्राप्ति भी नहीं होती I और जबतक ऐसा नहीं होता, तबतक गुणों और वर्णों आदि का तारतम्य भी समाप्त नहीं होता I और जब तक यह दशा नहीं आती, तब तक योगी उस मुक्तिमार्ग पर भी पूर्णरूपेण गमन करने का पात्र नहीं कहलाया जा सकता I

 

इसपर नन्हें विद्यार्थी ने कहा… जी गुरु चंद्रमा, ऐसी ही परिवर्तनशीलता तो शरीर के अंगों में भी तबसे दिखाई दे रही है जबसे हम शरीर के भीतर बैठकर इस अध्ययन में आए हैं I

सनातन गुरु आगे बोले… यह सदैव परिवर्तनशील वर्ण आदि दशाएँ जो शरीर के अंगों में दिखाई दे रही हैं, इनके मूल में उन अंगों के पृथक भाव और कर्म हैं I क्यूँकि पृथक अंग पृथक कर्म करते हैं, इसलिए उनके प्राणों के वर्ण भी पृथक दिखाई देते हैं I और क्यूँकि शरीर के अंगों के कर्मों में भी पृथकता होता है, इसलिए समय समय पर इन अंगों के प्राणों के रंगों में भी पृथकता ही पाई जाती है I और इन सब परिवर्तनों के मूल में, यही रजोगुण है जिसकी गुफा का अध्ययन अभी चल रहा है I अभी के समय पर इन रंगों के परिवर्तन की दर भी अधिक है, क्यूंकि रजोगुण गुफ़ा का शुद्धिकरण नहीं हुआ है, और इसका मूल कारण भी मनस गुफा का शुद्धिकरण नहीं होना है I जबतक मनस गुफा शुद्ध नहीं होगी, तबतक ऐसा ही रहेगा I

 

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नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चंद्रमा,  शरीर अपने कार्य कैसे करता है, इच्छा और भावों से या संस्कारों से? I

सनातन गुरुदेव बोले… इन सबके परिणामी स्वरूप से, जिसमें से कुछ को बताता हूँ I इच्छा से उन इच्छाओं के अनुसार संस्कार उत्पन्न होते हैं I वह उत्पन्न हुए संस्कार अगले भावों के और उन भावों के अनुसार किया जाने वाले कर्मों के कारण बनते हैं I कर्म से कर्मफल की प्राप्ति होती है I और कर्म फल भी बीज संस्कार स्वरूप में ही चित्त में बस जाता है और तबतक बसा रहता है जबतक इनको भोगकर, यही संस्कार अगले कर्मों का कारण नहीं बनता है I ऐसे अगले कर्मों का कारक बनने पर, यही कर्मफल रूपी बीज संस्कार, अगले कर्म करवाता है I यह कर्म और कर्म फल और उनके संस्कारों की प्रक्रिया, तबतक चलती ही रहती है जबतक चित्त ही संस्कार रहित नहीं हो जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… एक बार भी यदि चित्त संस्कार रहित हो गया, तो उसमे आगामी किसी भी समय में किये गए कर्मों से जनित बीज रूपी संस्कार फलित नहीं हो सकते I इसका अर्थ यह हुआ, कि कर्म, कर्म फल और उनके संस्कारों का नाता भी तबतक ही रहता है, जबतक चित्त संस्कार रहित नहीं होता है I और यदि चित्त एक बार भी संस्कार रहित हो गया, तो आगामी समय में उस साधक का इन कर्म, कर्मफल और उनके संस्कारों से कोई नाता भी नहीं रहता है और ऐसा तब भी रहेगा, जब वह साधक काया धारण करके, कर्म करता हुआ पाया जाएगा और उन कर्म के फलों को भोगता हुआ भी प्रतीत होगा I इसलिए चित्त की संस्कार रहित दशा से ही कर्मातीत हुआ जाता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव  को अपना सिर आगे पीछे हिलाकर, पुष्टिकरण संकेत भी दिया I

सनातन गुरु आगे बोले… इन संस्कारों की प्रत्येक फलित होने की दशा, इनको और भी सूक्ष्म बनाती जाती है, जिससे साधक के कर्म भी सार्वभौम होते जाते हैं क्यूंकि सूक्ष्मता और सार्वभौमता का अटूट नाता होता है जिसमें यह एक दुसरे से जुड़े हुए और एक दुसरे की दशा के अनुसार ही क्रियाशील होते हैं I और जब यह संस्कार पूर्णतः सूक्ष्म हो जाते हैं, तब साधक के भाव भी ब्रह्माण्ड से जुड़ने लगते हैं, जिससे साधक अपनी काया में अकेला सा कर्म करता हुआ भी, वास्तव में ब्रह्माण्ड और उसके समस्त जीवों के लिए ही कर्म करता है I यही ब्रह्माण्ड धारणा का कारण बन जाता है, जिससे साधक ब्रह्माण्ड योग को भी सिद्ध कर लेता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन सूक्ष्म संस्कारों के अनुसार ही सूक्ष्म भाव पाए जाते हैं जिनको आधार बनाकर ही समस्त जीव जगत के लिए कर्म किये जाते हैं I ऐसा साधक स्वयं कर्म करता हुआ भी, वास्तव में ब्रह्माण्ड धारणा में बसकर, इस समस्त जीव जगत के लिए कर्म करता है I यही उत्कृष्ट कर्म कहलाता है और उसके फल रूपी संस्कार भी अतिसूक्ष्म ही होते है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसे-जैसे वह सूक्ष्म संस्कार बनते हैं, जो उस स्थूल मृत्युलोक से ही नाता नहीं रखते, जिसमें साधक की स्थूल काया बसी होती है, तो वह साधक उस लोक की काया में बैठ हुआ भी, उस लोक से ही अतीत हो जाता है (जिसमे उस समय उस साधक की काया निवास कर रही होती है) I और उस साधक के दृष्टिकोण से, इसी दशा को लोकातीत कहा जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और इस दशा की गति में, अंततः साधक के संस्कार इतने सूक्ष्म हो जाते हैं, कि उन संस्कारों का नाता ब्रह्माण्ड से भी नहीं होता है I ऐसी दशा में वह साधक ब्रह्माण्डातीत होने के मार्ग पर ही गति करने लगता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इच्छा, भाव और संस्कारों में सनातन नाता होता है, इसलिए अब इसको समझाता हूँ…

  • सूक्ष्म इच्छा और भावों से सूक्ष्म संस्कार उत्पन्न होता हैं I
  • जितना सूक्ष्म भाव होगा, उतना ही अधिक वह जीव जगत से जुड़ा हुआ होगा और इसलिए उतनी ही उस जीव की चेतना सार्वभौम और व्यापक भी होगी I इसलिए सूक्ष्म संस्कारों से किए गए कर्म, जीव जगत से भी अधिक जुड़े हुए होते हैं, और इसलिए ऐसे कामों में जीव जगत से एकवाद भी अधिक ही होता है I
  • जितने व्यापक भाव होंगे, उतनी ही व्यापकता से साधक का नाता चिदाकाश से भी होगा, और उतनी ही व्यापक साधक की धारणा भी पाई जाएगी I
  • साधक का चित्त का जितना अधिक नाता चिदाकाश से होगा, उतनी ही ऊंची ब्रह्माण्ड में साधक की स्थिति भी होगी, और उतना व्यापक ही उस साधक का नाता अहमाकाश, मनाकाश और ज्ञानाकाश से भी होगा I
  • जितना व्यापक यह नाता होगा, उतना ही उत्कृष्ट वह साधक माना जाएगा, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में I
  • इच्छा अपने समान संस्कारों को अपनी ओर आकर्षित करती है, और संस्कार भी अपने समान इच्छाओं को अपने ओर आकर्षित करते हैं I भाव भी इच्छा के अनुसार ही होते है और यही नाता इच्छा और कर्मों का भी होता है I
  • और इन सबको गति प्रदान करना रजोगुण का कार्य होता है, जिसकी गुफा के बारे में यहाँ बताया जा रहा है I

सनातन गुरु बोले… इसी बिंदु पर रजोगुण गुफा का अध्ययन समाप्त होता है और अब हम अगले बिंदु पर जाएंगे जिसका नाम अंतिम संस्कार है I

 

असतो मा सद्गमय I

 

 

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