वैदिक अंतिम संस्कार सिद्धांत, संस्कार विज्ञान, अंतिम संस्कार विज्ञान और आश्रम चतुष्टय, अंतिम संस्कार के प्रकार प्रभेद प्रक्रिया और स्वरूप, अंतिम पथ, अंतिम मार्ग, भू समाधि, जल समाधि, अग्निदाह, अंतिम भण्डारा

वैदिक अंतिम संस्कार सिद्धांत, संस्कार विज्ञान, अंतिम संस्कार विज्ञान और आश्रम चतुष्टय, अंतिम संस्कार के प्रकार प्रभेद प्रक्रिया और स्वरूप, अंतिम पथ, अंतिम मार्ग, भू समाधि, जल समाधि, अग्निदाह, अंतिम भण्डारा

यहाँ पर संस्कार विज्ञान, अंतिम संस्कार विज्ञान और आश्रम चतुष्टय, वैदिक अंतिम संस्कार के प्रकार प्रभेद प्रक्रिया और स्वरूप, अंतिम पथ, अंतिम मार्ग, भू समाधि, जल समाधि, अग्निदाह और अंतिम भण्डारा पर भी बात होगी I यह वैदिक अंतिम संस्कार सिद्धांत भी मुक्तिमार्ग का ही अंग है I

समस्त उत्कर्षमार्गों में योग ही मूल है, और ज्ञान ही गंतव्य I यहाँ जो भी बताया गया है, वह उसी योग नामक मूल के दृष्टिकोण से ही बताया गया है I

इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2011 ईस्वी के प्रारम्भ का है I

पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिंदुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं I

यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जुड़ा हुआ जो भी है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को, समर्पित करता हूं।

और ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह प्रजापति को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु महेश्वर कहलाते हैं, जो योगेश्वर, योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट और योगगुरु भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भत्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भत्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं, और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकेर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का बयालीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

और इसके साथ साथ, ये अध्याय आंतरिक यज्ञमार्ग की श्रृंखला का दसवां अध्याय है।

 

अंतिम संस्कार क्या है, अंतिम संस्कार विज्ञान क्या है, वैदिक अंतिम संस्कार क्या है, अंतिम संस्कार का स्वरूप क्या है, अंतिम संस्कार किसे कहते हैं, … संस्कार किसे कहते हैं, संस्कार क्या है, वैदिक अंतिम संस्कार किसे कहते हैं, संस्कार का भाव से नाता, संस्कार का कर्म से नाता, संस्कार का इच्छा से नाता, संस्कार फलित प्रक्रिया, संस्कार ही कर्म का आधार है, संस्कार ही कर्मफल है, कर्मफल ही संस्कार रूप में प्रकट होता है, कर्म फल ही कर्मों का कारण बनता है, कर्म फल ही कर्मों का कारण हैकर्म फल ही अगले कर्मों का कारण है, कर्म फल ही अगले कर्मों का कारक है, … यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे, यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे, …

सनातन गुरु बोले… यह अंतिम संस्कार चावल के दाने के समान लम्बा सा होता है, अष्टकोण होता है, नीचे से चपटा होता है, और ऊपर से थोड़ा नोकीला सा और थोड़ा गोलाकार भी होता है I इसका वर्ण पारदर्शी स्फटिक के समान होता है लेकिन कुछ उत्कृष्ट साधकगणों में यह अंतिम संस्कार निरंग (या निर्मल) स्फटिक के समान भी हो सकता है I

सनातन गुरु आगे बोले… यदि यह अंतिम संस्कार पारदर्शी होता है, तो यह उस बात का प्रमाण भी है कि साधक योग गंतव्य को नहीं पाया है I और यदि यह अंतिम संस्कार निरंग स्फटिक के समान होता है, तो यह प्रमाण भी है कि वह साधक एक ऐसा उत्कृष्टम योगी है, जो निर्गुण निराकार ब्रह्म का साक्षात्कारी है, और इसलिए वह साधक योग गंतव्य को भी पाया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह अंतिम संस्कार शिवरंध्र से बाहर आता है I यह वह संस्कार है जो अंतिम होता है और सबसे अंत में बचा रहता है I और साधक के उत्कर्षपथ में इसी अंतिम दशा को दर्शाने के कारण ही इस संस्कार को अंतिम संस्कार कहा गया है I मृत शरीर से इसको बाहर निकालने की प्रक्रिया को ही अंतिम संस्कार प्रक्रिया कहा जाता है I लेकिन इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया में भेद भी होते हैं, और इसके प्रकार भी हैं और इन बिंदुओं के अतिरिक्त इसी अंतिम संस्कार के स्वरूप भी होते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि यह सम्पूर्ण जगत जीवों की कर्मभूमि ही है, इसलिए प्रत्येक इच्छा, प्रत्येक विचार, प्रत्येक भावना अंततः कर्मों की ओर लेकर जाती है, जो आगे चलकर उस आकांक्षी के कारण शरीर (अन्तःकरण चतुष्टय) के चित्त मंडल (चित्त के गोले) के भीतर एक सूक्ष्म बीज रूपी छाप (संस्कार) उत्पन्न करती है।

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसी इच्छाएँ होती हैं, वैसे ही विचार और भावनाएँ होती हैं, वैसी ही कर्म होते हैं और वैसे ही उत्पन्न होने वाले संस्कार भी होते हैं I जितने व्यापक इच्छा, विचार और भाव होंगे, उतने ही व्यापक कर्म भी होंगे और उतने ही सूक्ष्म संस्कार भी चित्त मंडल में बनेंगे, और उतना ही आगे साधक की उत्कर्ष मार्ग में स्थिति भी हो जाएगी I इसलिए इस ब्रह्मरचना में, जिस साधक के संस्कार जितने सूक्ष्म होंगे, उस साधक की उत्कर्षपथ में दशा भी उतनी ही ऊंची होगी और उतना ही अधिक आंतरिक-एकत्व उस साधक का ब्रह्मरचना से भी होगा I इस प्रकार, नीचे की या अधम इच्छाएँ, अंततः नीचे के (या अधम) कर्मों की ओर ले जाती हैं, जो साधक के अंतःकरण के चित्त नामक भाग में नीचे के (या अधम) संस्कारों के उत्पन्न होने का कारण होते हैं…और इसके विपरीत दशा में भी यह कथन सत्य ही पाया जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… स्थूल नीचे की (या अधम) दशा को दर्शाता है, और सूक्ष्म ऊपर की (या उत्तम) दशा को दर्शाता है I अधम वह है जो एक व्यक्तित्व (या एक कोष या एक वास्तु या एक दशा इत्यादि) पर केंद्रित है, और इस प्रकार स्थूल (या नीचे का या अधम) शब्द व्यक्तिवादी पहलुओं को भी दर्शाता है, जैसे एक व्यक्तित्व या एक व्यक्तिगत कोष (जैसे एक धर्म, जीवन मार्ग, समूह, शहर, स्थान, देश, परिवार, दशा, ग्रंथ, वास्तु या कुछ और जो व्यक्तिवादी पहलुओं पर आधारित है) I इस प्रकार समग्ररूप से व्यक्तिवाद, एक स्थूल इकाई है I और इसके विपरीत, जो सर्वांगीणता (विस्तीर्णता या सर्वस्वत्या) से संबंधित है, वही पूर्णता का द्योतक है, और यही हमेशा अपनी प्रचुरता (विपुलता) में ही होता है, और जहाँ वह पूर्णता भी अपनी सर्वव्यापकता नामक संपत्ति को ऐसे दर्शाती है जिससे उसका प्रत्येक भाग भी पूर्ण ही कहलाता है, और यही दशा वास्तव में सूक्ष्मता का गंतव्य होती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… किसी इकाई (या वस्तु विशेष) का फैलाव (या विस्तार) जितना अधिक होगा, उतनी ही वह इकाई (या वस्तु विशेष) सूक्ष्म होगी I किसी इकाई (या वस्तु विशेष) का विस्तार जितना न्यून (छोटा या संकुचित) होगा, वह उतनी ही वह स्थूल भी होगी I किसी भी एक रूप (या किसी भी एक जन्म में) सूक्ष्म वस्तु की आयु स्थूल से अधिक होती है, इसलिए सूक्ष्म इकाई (या वस्तु विशेष या दशा विशेष) की आयु भी लंबी ही होती है I क्यूँकि ब्रह्मलोक सबसे सूक्ष्म होता है, इसलिए जीव जगत के परिपेक्ष में, वैदिक वाङ्मय में पितामह ब्रह्मा की आयु सबसे लम्बी बताई गई है I और यही सिद्धांत इच्छा, भाव आदि पर भी लागू होता है, क्यूंकि रचैता ने पृथक दशाओं, वस्तुओं, जीव या जगत के भागों के लिए कभी भी पृथक सिद्धांत या नियम आदि नहीं बनाए I और क्यूंकि यही इच्छा और भाव ही कर्ममूल होते हैं, इसलिए यही सिद्धांत इच्छा, भाव, और कर्म पर भी लागू होता है I यही कारण है कि वैदिक वाङ्मय में सर्वस्व को ध्यान में रखकर ही मंत्र और वाक्य आदि आए थे, जैसे सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, वसुधेव कुटुम्बकंम इत्यादि, क्यूंकि यह सब भी उसी सूक्ष्मता और उसके व्यापक स्वरूप को ही दर्शाते हैं, और उसी व्यापक स्वरूप की ओर साधकगणों को लेकर जाते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जबतक साधक की आंतरिक स्थिति भी वैसी ही नहीं होती, जैसे उसकी है जिसके साक्षात्कार का वह साधक इच्छुक है, तबतक वह साधक उस दशा के साक्षात्कार का पात्र भी नहीं माना जाएगा I और जबतक साधक पात्र नहीं माना जाएगा, तबतक उस साधक को उस दशा का साक्षात्कार भी नहीं हो पाएगा I इसका अर्थ हुआ, कि जबतक साधक की आंतरिक दशा की उस स्थिति के साथ समानता में नहीं है, जिसमें वह प्रवेश करना चाहता है (या जिसको वह साक्षात्कार करना चाहता है), तबतक वह साधक न तो उसको साक्षात्कार कर पाएगा और न ही उस दशा में प्रवेश कर पाएगा I इसलिए जिस सूक्ष्म और दैविक आदि दशा के साक्षात्कार के इच्छुक हो, उसी दशा के समान अपनी आंतरिक दशा को बनाओ I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यही सिद्धांत आत्मसाक्षात्कार पर भी लागू होता है और जहां साधक का वह आत्मस्वरूप ही ब्रह्म कहलाता है I इसी सिद्धांत के अनुसार, अपने आत्मस्वरूप ब्रह्म को जानने के लिए, अपनी आंतरिक स्थिति में ब्रह्म ही होना होगा I यही कारण था की पुरातन योगमनीषियों कहा था …

ब्रह्म ही ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डीय तंत्र हुआ है, इसलिए जो कुछ है, वह ब्रह्म ही हैं I

जिस साधक की आंतरिक स्थिति ब्रह्म के समान नहीं, वह ब्रह्म ज्ञाता भी नहीं I

यदि ब्रह्म को जानना है, तो अपनी आंतरिक अवस्था में ब्रह्म ही हो जाओ I

ब्रह्म ही ब्रह्म का ज्ञाता होता हैब्रह्म का ज्ञाता भी ब्रह्म ही होता है I

अपनी आंतरिक दशा में ब्रह्म होकर ही, ब्रह्म को जाना जा सकता है I

वास्तव में तुम वही होगे, जिसके साक्षात्कार के तुम पात्र हुए होगे I

वास्तव मेंतुम वही हो जिसका तुमने साक्षात्कार किया है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना …

देवादि के साक्षात्कार से उस देव का स्वरूप पाया जाता है I

इसलिए, किसी देव आदि का साक्षात्कारी भी वह देव ही होता है I

और उस साक्षात्कार से पूर्व भी अपनी आंतरिक दशा में वह देव ही होना होग

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरुदेव बोले… और चूँकि ब्रह्म निर्गुण अनंत सत्ता है, इसलिए जबतक ब्रह्म (या परब्रह्म) के आकांक्षी की आंतरिक प्रकृति उस ब्रह्म से समानता में नहीं होती, तबतक ब्रह्म (पूर्ण अस्तित्व) का आत्मबोध भी प्राप्त नहीं हो सकता है I आत्म बोध का मार्ग भी उसी ओर लेकर जाता है, जो चित्त की संस्कार रहित अवस्था है और जिसका प्रारंभिक मार्ग यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है, और जिसकी अंतगति निर्बीज समाधि की होती है I इसलिए यह हृदयाकाश गर्भ का मार्ग भी, अंततः साधक को  निर्बीज ब्रह्म में ही स्थापित कर देगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यही बात किसी भी सूक्ष्म और दैविक दशाओं के साक्षात्कार सहित, आत्म-बोध पर भी लागू होती है I और इसका कारण भी वही है, कि जबतक आप अपनी आंतरिक स्थिति में उस तत्त्व या बिंदु से समानता नहीं रखते, जिसे आप जानना चाहते हैं, तबतक आप उसका साक्षात्कार भी नहीं कर सकते। इस बिंदु के अनुसार किसी सूक्ष्म और दैविक आदि दशा के साक्षात्कार के लिए, अपनी आंतरिक स्थिति में उस दशा के समान बनना ही होगा I यह भी वह कारण है, कि ब्रह्मरचना में…

इस लोक का लोकी होने के लिए भी, इस लोक की काया को धारण करना पड़ता है I

लोक और उसकी काया का सूक्ष्मता (या स्थूलता) का अनुपात अंक, स्थिर ही रहा है I

किसी देवादि लोक का निवासी होने को, उस लोक की काया को भी पाना होगा I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसे पृथ्वी ग्रह पर निवास करने के लिए, आपको एक भौतिक शरीर रूपी वाहन की आवश्यकता होती है, और जो पृथ्वी की स्थूलता के समान होता है, वैसे ही किसी अन्य सूक्ष्म या दिव्य लोक पर निवास करने के लिए, आपको एक सूक्ष्म या दिव्य शरीर रूपी वाहन की आवश्यकता होगी  I और जहाँ उस सूक्ष्म या दिव्य शरीर रूपी वाहन की सूक्ष्मता और दिव्यता भी उस सूक्ष्म या दिव्य लोक के समान ही होनी होगी I जबतक साधक के शरीर रूपी दिव्य वाहन की सूक्ष्मता और स्थूलता उस लोक के समान नहीं होगी, जिस लोक में वह साधक निवास कर रहा होगा (या निवास करना चाहता होगा) तबतक वह साधक उस लोक का अनुभव भी नहीं कर पाएगा I और ऐसा तब भी होगा, जब वह साधक उसी लोक पर निवास कर रहा होगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए जिस लोक पर निवास करना चाहते हो, उस लोक के समान एक शरीर रूपी वाहन भी अपनी सिद्धि रूप में प्राप्त करना होगा I और अपनी साधनाओं में जब साधक को वह शरीर रूपी वाहन की प्राप्ति हो जाएगी, तब ही वह साधक उस वाहन के अनुसार जो स्थूल, सूक्ष्म और दैविक लोक आदि का होगा, उस लोक का साक्षात्कार करके उस लोक में निवास करने का पात्र बन पाएगा I  और ऐसा होने के पश्चात ही वह साधक उस लोक का निवासी कहला पाएगा क्यूंकि इसके पश्चात ही वह उस लोक में निवास करते हुए, उस लोक का अनुभव कर पाएगा… इससे पूर्व नहीं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन साधना मार्गों में, साधक इसी पृथ्वी लोक में निवास करता हुआ भी उन परा लोकों में प्रवेश कर सकता है I ऐसे प्रवेशों में साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही एक सूक्ष्म (या दैविक) शरीर स्वयं निर्मित होता है, और उस सूक्ष्म (या दैविक) शरीर का आलम्बन लेके वह साधक उस सूक्ष्म (या दैविक) लोक का साक्षात्कार करके, उसी परालोक के भीतर ही साधना मार्ग से निर्मित हुए उस सूक्ष्म (या दैविक) शरीर का परित्याग करके, उस परालोक में निवास करने लगता है I तो इसका यह यह भी अर्थ हुआ, कि साधना मार्ग से वह साधक इस पृथ्वी लोक के स्थूल शरीर में निवास करता हुआ भी, उस सूक्ष्म (या दैविक) लोक में निवास करने लगता है, जिस लोक से संबद्ध उसकी स्थूल काया के भीतर एक सूक्ष्म (या दैविक) शरीर स्वयं निर्मित हुआ है I यह भी वह कारण है, कि साधना मार्ग से साधक एक ही समय पर कई लोकों में निवास भी कर सकता है और इसी साधना मार्ग की गंतव्य दशा में, साधक इस ब्रह्मरचना के समस्त लोकों में एक ही समय पर समान रूप से, और पूर्णरूपेण निवास करने लगता है I लेकिन ऐसे साधकगण विरले ही होते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… पर यह सूक्ष्म (या दैविक) शरीर रूपी वाहन, जो साधनमार्गों से स्वयं निर्मित किया जाता है, ऐसे साधकों के भौतिक शरीर के भीतर ही निवास कर रहा होता है I उस सूक्ष्म (या दैविक) शरीर रूपी वाहन प्राप्ति मार्ग भी वह साधना मार्ग ही होता है, जिससे उस सूक्ष्म (या दैविक) आदि लोक से संबद्ध संस्कार उत्पन्न होता है, और इसी संस्कार के स्वयंप्रकट होने के पश्चात ही वह साधक उस सूक्ष्म (या दैविक) आदि लोक के सिद्ध शरीर को प्राप्त करके, उस लोक का साक्षात्कार करता है I और ऐसे साक्षात्कार के पश्चात ही वह साधक उस सूक्ष्म (या दैविक) लोक के सिद्ध शरीर को, उसी परालोक में त्याग करके, उस परालोक का निवासी कहलाने लगता है I इसलिए इस सिद्धि के मूल में साधना है, मार्ग में उस लोक से संबद्ध संस्कार है, और अंतगति में उस लोक से संबद्ध वह सिद्ध शरीर है, जो उस परालोक में जाकर उस लोक का ही लोकी हो जाता है I और ऐसा होने पर वह साधक इस पृथ्वी लोक से संबद्ध अपनी स्थूल काया में प्रतीत होता हुआ भी, इस लोक साहित उस परालोक का लोकी भी कहलाता है जिसमें उसका कोई सिद्ध शरीर विलीन हुआ होता है I इस बिंदु के अनुसार यह भी जाना जाता है, कि ऐसे साधना मार्गों में सूक्ष्म संस्कारों की आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसे साधक के आनंदमय कोष के चेतना कक्ष के भीतर बसे हुए संस्कारों की सूक्ष्मता या स्थूलता होती है, वैसे ही अपनी साधनाओं में साधक को बोध भी होता है I तो इसका अर्थ हुआ की साधनाओं में बोध भी अंतःकरण के चित्त नामक भाग में बसे हुए संस्कारों के अनुसार ही होता है I जैसे संस्कारों की सूक्ष्मता (या स्थूलता) होगी, वैसे ही बोध साधक को अपनी साधनाओं में भी होंगे I इस ब्रह्माण्ड से संबंधित इस ब्रह्माण्ड से संबंधित और चिरकालों से यह एक स्थिर नियम ही रहा है, और ऐसा ही यह सदैव रहेगा I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरुदेव बोले… यही वह कारण भी था, कि मेरी (अर्थात सनातन गुरु) की हृदय गुफा में प्रवेश करने के लिए तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) लगभग बारह वर्ष लग गए I और इतना समय लगने का कारण भी वही था, कि मेरी हृदय गुफा की सूक्ष्मता के अनुसार तुम्हें (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) अपने संस्कारों को लाने को यह समय लगा था I और जबतक तुम्हारे चित्त के संस्कारों की सूक्ष्मता मेरी हृदय गुफा के समान नहीं हुई थी, तबतक तुम मेरी हृदय गुफा में प्रवेश भी नहीं कर पाए थे I और ऐसा तब भी था, जब मैं तुम्हारे हृदय की गुफा में, जो मेरी गुफा ही है, अनादि कालों से भी बसा हुआ हूँ I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए जबतक अन्तःकरण के चित्त नामक भाग के संस्कार की सूक्ष्मता उस परालोक के समान नहीं होती, तबतक उस परालोक का साक्षात्कार भी नहीं होता है I और जबतक उस परालोक का साक्षात्कार ही नहीं होगा, तबतक वह साधक उस लोक का निवासी भी नहीं हो पाएगा I इसलिए पारलोकों में गति के मूल में यह संस्कार विज्ञान ही है I यह संस्कार विज्ञान पर आधारित समस्त उत्कर्षपथ भी हैं I ऐसे होने के कारण ही जब साधक सर्वातीत होने का पात्र होता है, तब ही वह साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाने का पात्र बनता है, और ऐसा होने के पश्चात ही मेरा स्वयं प्रकटीकरण उस साधक के गुरु स्वरूप में, उस साधक की हृदय गुफा में होता है I जबकि मैं उस साधक के हृदय में अनादि कालों से था ही, लेकिन तब भी जबतक साधक मेरा शिष्य होने का पात्र नहीं होता, तबतक उस साधक के हृदय में, मेरा गुरु स्वरूप में स्वयं प्रकटीकरण भी नहीं होता I और इस दशा के मूल मे भी यही संस्कार विज्ञान है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… चित्त के संस्कार इच्छाओं से उत्पन्न होते हैं, और उस बीजावस्था में उत्पन्न होने के पश्चात, तदनुरूप विचारों, फिर भावनाओं और कार्यों के जन्म होते हैं I और इस प्रक्रिया का अंतिम चरण कर्म है, जो प्रभावों (संस्कार) की पुनरुत्पत्ति का (अर्थात आगे फलित होकर एक नया सूक्ष्म स्वरूप धारण करने का) आधार है I यह संस्कार अंतःकरण के चित्त नामक कक्ष के भीतर रहते हुए भी, इन संस्कारों के प्रतिबिम्ब उस लोक की चित्त काया में भी होते हैं, जिस लोक में वह साधक कर्मरत होता है I और इसके अतिरिक्त उन्ही चित्त के संस्कारों के प्रतिबिम्ब ब्रह्माण्ड की चित्त काया में भी निवास करते हैं I जो योगीजन इस संस्कार विज्ञान में पारंगत होते हैं, वह ब्रह्माण्डीय और लोकी चित्त में बसे इन संस्कारों का अध्ययन करके, यह भी जान सकते हैं कि किस लोक के किस जीव (या जीव समूह) ने उस संस्कार को निर्मित किया था I और इस संस्कार विज्ञान के ज्ञाता, ऐसा तब भी जान सकते हैं, जब उस संस्कार को अरबों वर्ष पूर्व ही उत्पन्न किया गया होगा I इसलिए इसी संस्कार विज्ञान से यह भी जाना जा सकता है, कि ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव के पश्चात, किस कालखण्ड में क्या दशा रही होगी और उस दशा में क्या-क्या हुआ होगा I इसी कारण से यह संस्कार विज्ञान उस ब्रह्मत्व पथ का अंग भी है, जो ब्रह्म रचना से जाता हुआ सा प्रतीत होता हुआ भी, अंततः उन कैवल्य मोक्ष स्वरूप, निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त होने का ही मार्ग है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और चूँकि जीवों की उत्कर्षपथ की प्रक्रिया सदैव ही संस्कारों की अग्रदिशा की ओर, और प्रगतिशील सापेक्ष सूक्ष्मता की ओर ही लेके जाती है, इसलिए संस्कारों का विज्ञान भी उत्कर्षपथ की प्रक्रिया से ही संबंधित है I और चूँकि उत्कर्षपथ की प्रक्रिया भी संस्कारों से संबंधित है, इसलिए यही उत्कर्षपथ की प्रक्रिया अंततः नीचे की ओर लेके जाने वाली (या अपकर्ष मार्गी) इच्छाओं, विचारों, भावनाओं के नियंत्रण का कारण भी बनती है, जिससे साधक की उसके उत्कर्ष मार्ग पर गति भी तीव्र हो जाती है I लेकिन ऐसा तब ही होगा, जब संस्कार इतने सूक्ष्म हो जाएंगे, कि वह किसी दैविक आदि लोक के समान ही हो जाएँगे I इस संस्कार विज्ञान और इसकी प्रक्रिया से, और-भी अधिक सूक्ष्मता धारण किए हुए संस्कारों की उत्पत्ति होती जाती है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और जब वह साधक उस अंतगति में जाने का पात्र होता है जो ब्रह्मपथ कहलाती है, तब इसी संस्कार विज्ञान के भीतर से उस साधक के लिए अंतिम संस्कार विज्ञान का स्वयं प्रकटीकरण होता है, जिसकी प्रक्रिया में मेरा (अर्थात सनातन गुरु का) भी उस साधक की हृदय गुफे में स्वयं प्रकटीकरण, उस साधक के गुरु रूप में ही होता है I इस प्रक्रिया में साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाता है और अंततः उसके अंतःकरण के चित्त नामक गोले में केवल एक ही संस्कार शेष रह जाता है I जब साधक के समस्त संस्कारों का नाश हो जाता है, तब यह अंतिम संस्कार ही साधक की चित्त में शेष रह जाता है I और इसी अंतिम संस्कार को प्राप्त करने के मार्ग और विज्ञान को ही अंतिम संस्कार विज्ञान कहा गया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और इसके पस्चात, जब साधक संस्कारातीत होने का पात्र बनता है, तब यह अंतिम संस्कार जो उस साधक के चित्त में केवल होकर रहा था, वह साधक के कपाल के ऊपर के मध्य भाग के भीतर जो शिवरंध्र है, उस से बाहर निकलता है I और बाहर निकलकर, यह संस्कार कुछ ही समय में अपने कारण में लय होता है, जो पूर्ण और सर्वव्यापक ब्रह्म की सार्वभौम ब्रह्मशक्ति हैं, और जो उन निर्विकल्प निराधार और निर्बीज ब्रह्म की सनातन दिव्यता ही हैं, और जो मूल प्रकृति कहलाई गई हैं I जब ऐसा हो जाता है, तब…

साधक का आत्मस्वरूप, ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति, दोनों का ही द्योतक हो जाता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसे साधक की काया के भीतर ही समस्त कारण लोकों सहित, महाकारण लोक के भी सिद्ध शरीर स्वयं निर्मित होते हैं I और इसके पश्चात वह सभी सिद्ध शरीर, ब्रह्माण्ड में बसे हुए अपने अपने लोकों में गति करते हैं और अन्ततः उन्हीं लोकों में लोकों में जाकर, उनमें लय भी हो जाते हैं I जब ऐसा हो जाता है तब वह साधक इस पृथ्वी लोक का निवासी प्रतीत होता हुआ भी, केवल इसी लोक का लोकी नहीं होता I वह साधक समस्त ब्रह्म रचना और उस ब्रह्म रचना के समस्त भागों का भी हो जाता है I यह सिद्धि भी उस वैदिक वाक्य का अंग हैजिसको उत्कृष्ट योगीजनों ने ऐसा कहा था…

यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे

यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे

सनातन गुरु आगे बोले… ऐसे साधक के स्थूल शरीर के भीतर ही महाब्रह्माण्ड निवास करता है, लेकिन वह महाब्रह्माण्ड अपने सूक्ष्म संस्कारिक प्राथमिक ब्रह्माण्ड स्वरुप में ही होता है I ऐसा साधक अपने शरीर रूपी पिण्ड में प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में महाब्रह्माण्ड ही होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब साधक के शरीर के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड के समस्त भाग (या अंश), जो उस साधक के सिद्ध शरीरों के स्वरूप में, उस साधक की स्थूल काया के भीतर ही स्वयंप्रकट हुए थे, वह  अपने-अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में लय हो जाते है, तब वह साधक केवल होकर, ब्रह्मरचना और उस ब्रह्मरचना के तंत्र से पूर्णतः स्वतंत्रता को पाता है I और इस दशा में और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में जैसा वह साधक माना जाता है, वह अब बताता हूँ, इसलिए इसे ध्यान से सुनो…

ब्रह्माण्ड में होने पर भी, वह ब्रह्माण्डातीत रहता है I

पिण्ड रूप में होने पर भी, वह पिण्डातीत होता है I

साधक का आत्मस्वरूप ही ब्रह्म कहलाता है I

वह ब्रह्म ही कैवल्य मोक्ष कहलाया है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और ऐसा होने के साथ-साथ, क्यूंकि साधक के जो सिद्धादि दैविक शरीर थे, वह अपने अपने ब्रह्माण्डीय कारणों में ही लय हो जाते हैं, इसलिए वह कैवल्य मुक्ति साधक, अपने ऐसे स्वरूप में ब्रह्माण्डीय भी रह जाता है I इसलिए ऐसे साधक के लिए ऐसा भी कहा जा सकता है…

ब्रह्माण्डीय दशाओं में विलय हुए अपने शरीरों के अनुसार वह ब्रह्माण्डीय है I

अपने वास्तविक स्वरूप, आत्मस्वरूप के अनुसार वह ब्रह्माण्डातीत ही है I

ऐसा साधक ब्रह्माण्डीय हुआ भी, ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत में नहीं होता I

ऐसा साधक ब्रह्माण्डातीत होता हुआ भी, ब्रह्माण्डीय ही होता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और क्यूँकि ब्रह्माण्ड भी सनातन ही है, इसलिए ऐसे साधक के लिए यह भी कहा जा सकता है…

वह होता हुआ भी नहीं हैवह नहीं होता हुआ भी सदैव ही है I

ब्रह्माण्डीय दशाओं में लय हुए सिद्ध शरीरों के दृष्टिकोण सेवह है I

और अपने आत्मस्वरूप, कैवल्य मोक्ष ब्रह्म के दृष्टिकोण से वह नहीं है

इसलिए, ऐसा साधक कैवल्य मोक्ष भी है ही और बंधन भी वही साधक ही है I

यही ब्रह्म का पूर्णरूप भी है, जो निर्गुण कैवल्य होता हुआ भी जीव जगत हुआ है I

ऐसा साधक कैवल्य मोक्ष निर्गुणब्रह्म होता हुआ भी, जीव जगत भी वही साधक है I

जिन ब्रह्मशक्ति में अंतिम संस्कार लय हुआ है, वही उस साधक की मूल प्रकृति हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरु आगे बोले… वैदिक अंतिम संस्कार मार्ग की कपाल क्रिया भी इस अंतिम संस्कार को ध्यान में रखकर करी जाती है I अग्नि दाह के समय जब शरीर उबल रहा होता है, तब इसी कपाल क्रिया से कपाल को तोड़कर, इस अंतिम संस्कार को बाहर निकलने का मार्ग दिया जाता है I अग्नि दाह के समय कपाल क्रिया का यही मूल सिद्धांत है I जिस गृहस्त साधक में जपबल, तपबल, कर्मबल आदि होती हैं, उसके कपाल से यह संस्कार, कपाल क्रिया से बाहर भी निकल जाता है और ऐसा ऐसा बाहर निकलने के पश्चात, वह गृहस्त साधक भी उसी मुक्तिमार्ग पर चला जाता है, जिसपर उत्कृष्ट योगीजन अपने योगमार्ग से गमन करके, मुक्ति को प्राप्त होते हैं I शिवरंध्र से इस अंतिम संस्कार को बाहर निकलने के मार्ग देने हेतु ही कपाल क्रिया का सिद्धांत, वैदिक अंतिम संस्कार प्रक्रिया में आया था I वैदिक इतिहास में गृहस्त आश्रम से भी उत्कृष्ट योगीजन निकले हैं, इसलिए गृहस्त साधकगणों के लिए ही इस अग्नि दाह से संबंधित अंतिम संस्कार प्रक्रिया में कपाल क्रिया डाली गई थी, ताकि जो साधक अपनी मुक्ति के वास्तविक पात्र होंगे, लेकिन ऐसे होने पर भी, किसी कारणवश उनका अंतिम संस्कार उनके मस्तिष्क से बाहर नहीं निकल पाया होगा, वह भी इस कपाल क्रिया से अपने अंतिम संस्कार को अपनी मृत्यु के पश्चात ही सही, लेकिन कपाल से बाहर निकालकर मुक्ति को पा सकें I और इस मुक्ति को सुनिश्चित करने हेतु ही, इस कपाल क्रिया में उस मृत का कोई निकट वंशज ही इस कपाल क्रिया को करता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस अंतिम संस्कार का नाता वर्णाश्रम से भी है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि …

वेदमार्ग में वर्णाश्रमों में भेद होने पर भी, मुक्ति पर सबका समान अधिकार है I

वर्णाश्रम के कर्म आदि में भेद होने पर भी, मुक्ति पर सबका समान अधिकार है I

वर्णाश्रमों के कर्मादि प्रभेद भी उन प्रकृति के अनुसार हैं, जिनमें जीव जगत बसा है I

वर्णाश्रमों के कर्मादि मार्गों और सिद्धांतों में प्रभेद होते हुए भी, वह मुक्तिमार्ग ही हैं I

वैदिक वर्णाश्रम चतुष्ट्य में, कैवल्य मोक्ष से किसी को भी वंचित नहीं रखा गया है I

वर्णाश्रम व्यवस्था ने हीं कैवल्य मोक्ष के वास्तविक पात्र की मुक्ति निश्चित करी है I

वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था, प्रकृति के बहुवादी अद्वैत मूलरूप की लौकिक द्योतक है I

वैदिक वर्णाश्रम की प्राकृत व्यवस्था से प्रशस्त मुक्तिमार्ग ब्रह्मपथ को ही दर्शाता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… गृहस्त आश्रम में मुक्तिमार्ग देहवसान के पश्चात भी सुनिश्चित करने हेतु ही, अंतिम संस्कार प्रक्रिया अग्नि दाह से जाती है, और इसी प्रक्रिया में कपाल क्रिया का सिद्धांत आया है I और क्यूँकि बालक को इतना समय ही नहीं मिला होता है, कि वह कर्म और कर्म फल में जाकर, अपने कर्मों को कर पाया हो, इसलिए यदि किसी बालक की मृत्यु होती है, तो उसको भू समाधि दी जाती है, न की अग्नि समाधि (अर्थात अग्नि दाह) I यही कारण है कि उस भू समाधि में कपाल क्रिया भी नहीं होती है I पर यह अंतिम संस्कार विज्ञान बहुत ही विशाल विज्ञान है, इसलिए अब हम इसके अगले बिंदु पर जाते हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

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सनातन गुरुदेव बोले… चित्त के संस्कार भी तभी त्यागे जाते हैं, जब साधक इच्छा शून्य हो जाता है, अर्थात अपनी आंतरिक स्थिति में वह साधक उस मार्ग पर चल पड़ता है, जो संन्यास आश्रम कहलाता है I यह संन्यास जीवित होते हुए भी धारण करा जाता है, और यह संन्यास उस समय भी धारण करा जा सकता है, जब साधक मृत्युशय्या पर बैठ चुका होता है I मृत्युशय्या पर यह संन्यास, इच्छा शक्ति का आलम्बन लेकर, भावों में ही धारण करा जाता है और ऐसा लिया हुआ संन्यास भी उत्कृष्ट ही होता है I इस मृत्यु शय्या पर धारण करे हुए संन्यास में साधक अपने भाव साम्राज्य में बस इतना ही बोलता है, कि मैं संन्यास लेता हूँ I ऐसा मृत्यु के समय पर धारण किया हुआ संन्यास भी उस पूर्ण संन्यास के समान होता है, जो साधक को समस्त जीव जगत से ही अतीत कर देता है I ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि मृत्युशय्या पर लिया हुआ संन्यास पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत, दोनों दशाओं के समान रूप में ही होता है I और यदि वह साधक उसकी मृत्यु प्रक्रिया में भी ऐसे भाव में बसकर ही रहता है, तो ऐसा साधक अंततः कैवल्य मोक्ष को ही प्राप्त हो जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस प्रक्रिया में साधक के चित्त में बस एक ही संस्कार शेष रह जाता है, और वही संस्कार अंतिम संस्कार कहलाता है I लेकिन ऐसा होने के लिए, साधक को त्याग मार्ग पर जाना ही होगा और जिसमें वह साधक अपने भीतर और बाहर के ब्रह्माण्ड का त्याग करता है, और जहां ऐसा त्याग भी भावों में ही होता है I जब कोई साधक ऐसा त्याग करके, उसी त्याग भाव में बसकर अपना देहवसान करता है, तो उस देहवसान प्रक्रिया में साधक के चित्त के समस्त संस्कार, इसी त्याग भाव से उत्पन्न हुए संस्कार से नष्ट होते हैं, और अन्ततः यह त्याग भाव से उत्पन्न हुआ संस्कार ही अंतिम संस्कार रूप में स्वयं प्रकट हो जाता है I और इस संस्कार की प्रकटिकरण प्रक्रिया भी वैसी ही होती है, जिसके बारे में हृदयाकाश गर्भ तंत्र में बताया जा रहा है I इसलिए इस अंतिम संस्कार की प्रकटीकरण प्रक्रिया में, साधक के चित्त के अन्य सभी संस्कार उसी योयगाग्नि गुफा में एक साथ जाकर, नष्ट होते हैं, और अंततः यही संस्कार जिसके मूल में साधक का संन्यास रूपी पूर्ण त्याग भाव ही था, वही अंतिम संस्कार स्वरूप में शेष रह जाता है I

सनातन गुरुदेव बोले… यह संस्कार जो मृत्युशय्या पर लेटे हुए साधक के भाव साम्राज्य से उत्पन्न और चलित होकर, अंतिम संस्कार स्वरूप में स्वयं प्रकट होता है, वह भी वही अंतिम संस्कार है, जो उत्कृष्ट योगीजन अपनी कठिनतम साधनाओं में पाते हैं I लेकिन उत्कृष्ट योगीजन इस संस्कार को जीवित ही अपने कपाल से बाहर निकाल सकते हैं I परन्तु वह साधक जो इस अंतिम संस्कार को मृत्युशय्या पर पाया होगा, वह अधिकांश रूप में इसको अपने मृत शरीर की अंतिम संस्कार प्रक्रिया के चलित होने पर के समय ही कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकाल पाते हैं I इसलिए भी वैदिक अंतिम संस्कार प्रक्रिया व्यहार में लाई गई थी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और क्यूंकि यह संस्कार ही अंतिम होना होगा, इसलिए भी तुम्हे (अर्थात नन्हें विद्यार्थी को) इस प्रक्रिया में एक ही संस्कार का बारम बार प्रयोग करने को कहा गया था I और ऐसा इसलिए कहा गया था, क्यूंकि अंततः बस यही संस्कार शेष रहना होगा, ताकि यह अंतिम संस्कार कहला सके और तुम्हारे मुक्तिमार्ग पर जाने के समय, यह संस्कार ही तुम्हारे चित्त का शेष संस्कार बने, जो तुम्हारे कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकले और तुम मुक्ति को स्वतः ही प्राप्त हो सको I इस मुक्ति का मार्ग भी यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब समस्त संस्कारों को नष्ट करने की प्रक्रिया में पूर्व के कर्मफलों को दर्शाते हुए किसी एक संस्कार का बारम बार प्रयोग किया जाता है, तो इस पूरी प्रक्रिया के पूर्ण होने के पश्चात (अर्थात अन्य सभी संस्कारों के नष्ट होने के पश्चात), बस वही एकमात्र संस्कार शेष थे जाता है, और इसीलिए यह अंतिम संस्कार कहलाता है I और यही संस्कार, लौकिक रूप में चलायमान अंतिम संस्कार प्रक्रिया में कपाल से बाहर निकाला जाता है, ताकि वह मृत शरीर की आत्मा अपनी मुक्ति को पा सके I और इस अंतिम संस्कार को प्रकट करने के लिए ही इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में एक ही संस्कार को बारम बार प्रयोग में लाया जाता है, ताकि जब यह प्रक्रिया समाप्त हो, तब वही एक संस्कार ही शेष रह जाए I और ऐसा करने से इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र में,  ऐसे बार-बार कर्मों और कर्म फलों के स्वरूप में फलित होता होता, वह एकमात्र संस्कार इतना सूक्ष्म हो जाता है कि उसको कोई भी देवत्व को दर्शाती हुई सत्ता धारण कर सकती है, जब वह अंतिम संस्कार कपाल से बाहर निकल जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और क्यूंकि इस संस्कार के शिवरंध्र से बाहर निकलने की प्रक्रिया भी स्वयं चलित ही होती है, इसलिए इस प्रक्रिया में साधक को कोई कर्म करने की आवश्यकता भी नहीं होती है I और ऐसा होने के कारण, साधक के लिए इस प्रक्रिया का कोई फल भी नहीं हो पाता है, जिसके कारण इस अंतिम संस्कार का उस साधक के कपाल से बाहर निकलने का मार्ग भी कर्मों और कर्म फलों में नहीं होता है I ऐसा इसलिए होता है, क्यूंकि इसके बाहर निकलने का मार्ग उस देवत्व सत्ता द्वारा ही चलित होता है जो अंततः इस अंतिम समकार को तब धारण करने वाली है, जब यह साधक के कपाल के शिवरंध्र नामक स्थान से बाहर निकल जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… क्यूंकि इस संस्कार को कपाल से बाहर निकलने में, कोई कर्म तो हुए ही नहीं, और इस अंतिम संस्कार की प्रकटिकरण प्रक्रिया में पूर्व के समस्त कर्म और कर्मफल और उनके संस्कार भी नष्ट हुए थे, इसलिए जब यह संस्कार कपाल से बाहर निकलता है, तो साधक समस्त कर्मों और कर्म फलों से ही मुक्त होकर, कर्ममुक्ति को ही प्राप्त हो जाता है I इसलिए वैदिक अंतिम संस्कार प्रक्रिया, कर्ममुक्ति का ही मार्ग होता है, और जहाँ वह कर्ममुक्ति भी निर्गुण ब्रह्म से संबंधित होती है क्यूंकि निर्गुण निराकार ब्रह्म ही वह कर्ममुक्त है, जो कैवल्य मोक्ष कहलाया गया है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब पूर्व के समस्त कर्म, कर्मफल और उनके संस्कार नष्ट होकर ही यह अंतिम संस्कार स्वयं प्रकट हुआ था, तो ऐसी दशा में साधक के समस्त कर्म (अर्थात संचित कर्म, आगामी कर्म, क्रियामान कर्म और प्रारब्ध कर्म) इसी अंतिम संस्कार में सिमट कर, एक रूप में ही रह जाते हैं I और जब साधक बिना कर्म और कर्म फल से, किसी उच्चतम देवत्व बिंदु के अनुग्रह से इस संस्कार को अपने कपाल से बाहर निकाल देता है, तो इस बाहर निकलने की प्रक्रिया में जो इस अंतिम संस्कार की प्रकटिकरण प्रक्रिया में, एकरूप कर्म था, वह भी नष्ट हो जाता है I यह नष्ट भी इसलिए होता है, क्यूंकि इस संस्कार के प्रकटीकरण के पश्चात, इस संस्कार के कपाल से बाहर निकलने (अर्थात त्यागने) की प्रक्रिया, साधक नहीं बल्कि वह उत्कृष्ट देवत्व सत्ता ही चलित करती है, और इसी के कारण इस प्रक्रिया में साधक का कोई कर्म नहीं होता, जिससे साधक के लिए कोई कर्म फल भी नहीं हो पाता I  और जब यह अंतिम संस्कार साधक के कपाल नामक भाग से बाहर निकल जाता है, तब वह देवत्व सत्ता ही इस संस्कार को धारण करती है, जिससे वह साधक उस कर्मातीत, फलातीत और संस्कारातीत दशा को पाता है, जो कैवल्य मोक्ष रूपी ब्रह्म कहलाता है, और जिसका मार्ग भी शिव तारक मंत्र से जाकर, निरालंबस्थान (या निरालम्ब चक्र) पर ही लेकर जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब ऐसा होता है, तब ही उस एकरूप कर्म का फल, जो यह अंतिम संस्कार ही होता है, वह साधक की कपाल से बाहर निकल जाता है और इसके पश्चात, वह साधक का न तो कोई कर्म शेष रहता है, न फल और न ही कोई संस्कार ही शेष रह जाता है I इस दशा के पश्चात ही साधक उस मार्ग पर जाता है, जिसको कैवल्य, मोक्ष, निर्वाण आदि कहा जाता है और जो अंततः निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही दर्शाता है I ऐसा साधक अंततः कैवल्य मोक्ष को ही प्राप्त हो जाता है I और क्यूंकि इस संस्कार के शिवरंध्र से बाहर निकलने की प्रक्रिया उस देवत्व बिन्दु से ही स्वयं चलित हुई थी, जो इस अंतिम संस्कार को अंततः धारण करने वाली है, इसलिए ऐसे साधक के अंतिम संस्कार के कपाल से बाहर निकलने के मार्ग में न कर्म थे, न कर्मफल और न ही कोई भाव आदि थे I ऐसा होने के कारण, ऐसे साधक का चित्त भी संस्कार रहित हो जाता है, जिसका मार्ग निर्बीज समाधि ही होता है I ऐसा होने के कारण, ऐसे साधक निर्बीज समाधि से भी जाते हैं I निर्बीज समाधि में साधक कर्मातीत, फलातीत और संस्कारातीत भी हो जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन निर्बीज समाधि को प्राप्त हुए साधक का मार्ग और गति, उसके वर्णाश्रम के अनुसार ही होती है I तो अब उसको बताता हूँ, इसलिए इसपर विशेष ध्यान दो…

  • जब ब्रह्मचर्य आश्रम में बसा हुआ कोई साधक इस निर्बीज समाधि को पाता है, तब इस निर्बीज समाधि के पश्चात उस साधक का मार्ग ज्ञान ब्रह्म से होकर ही उन निर्गुण निराकार ब्रह्म को जाता है, जो कैवल्य मोक्ष ही हैं I वह ज्ञान ब्रह्म भी ज्ञान कृष्ण को ही दर्शाते हैं I
  • जब गृहस्त आश्रम में बसा हुआ कोई साधक इस निर्बीज समाधि को पाता है, तब इस निर्बीज समाधि के पश्चात उस साधक का मार्ग काल ब्रह्म से होकर ही उन निर्गुण निराकार ब्रह्म को जाता है, जो कैवल्य मोक्ष ही हैं I वह काल ब्रह्म भी काल कृष्ण को ही दर्शाते हैं I
  • जब वानप्रस्थ आश्रम में बसा हुआ कोई साधक इस निर्बीज समाधि को पाता है, तब इस निर्बीज समाधि के पश्चात उस साधक का मार्ग आनंद ब्रह्म से होकर ही निर्गुण निराकार ब्रह्म को जाता है, जो कैवल्य मोक्ष ही हैं I और जहां वह आनंद ब्रह्म को ही सच्चिदानंद ब्रह्म कहा जाता है I उन आनंद ब्रह्म को ही आनंद कृष्ण कहा गया है I
  • जब संन्यास आश्रम में बसा हुआ कोई साधक इस निर्बीज समाधि को पाता है, तब इस निर्बीज समाधि के पश्चात उस साधक का मार्ग आत्मस्वरूप ब्रह्म से होकर ही निर्गुण निराकार ब्रह्म को जाता है, जो कैवल्य मोक्ष हैं I उन आत्मा ब्रह्म को ही आत्म कृष्ण कहा गया है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इसलिए, अब जो बोला जा रहा है, उसपर विशेष ध्यान दो…

वर्णाश्रम चतुष्टय उन प्रकृति का द्योतक है, जिनमें जीव जगत बसाया गया है I

वर्णाश्रम मार्गों में भेद होने पर भी, वह सब उसी निर्गुण ब्रह्म के द्योतक हैं I

वर्णाश्रम चतुष्टय की वास्तविकता, प्रकृति से जाता हुआ मुक्तिपथ ही है I

वर्णाश्रम व्यवस्था का मुक्तिमार्ग, अंततः उन्ही निर्गुण ब्रह्म का पथ है I

प्रकृति से जाता हुआ वह ब्रह्मपथ, वर्णाश्रम चतुष्टय में बसा हुआ है I

वह ब्रह्मपथ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय का है I

प्रकृति से जाता हुआ ब्रह्मपथ ही, ब्रह्मत्व पथ कहलाता है I

और ऐसे ब्रह्मत्व पथ का ब्रह्म ही पूर्ण कहलाया है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… वर्णाश्रम इसलिए ख्यापित किया गया था, ताकि मानव जाति साधारण जीवन शैली में बसकर भी, अर्थात किसी कठोर तपादि बिंदु में बिना जाए हुए भी, मुक्ति को प्राप्त हो सके I लेकिन इस कलियुग की काली काया ने इस मुक्ति सिद्धांत को विकृत करके, इसपर से अधिकांश मानव जाती का विशवास ही उठा दिया है, इसलिए अब तो वैदिक मनीषी भी इसका अनुसरण पूर्णरूपेण नहीं करते हैं I और यह भी वह कारण बना है, कि अब ब्रह्मशक्ति स्वरूप प्रकृति विचार कर रही हैं कि इस कलियुग को स्तम्भित करना ही होगा, ताकि मुक्तिमार्ग पुनर्स्थापित हो और कुछ समय तक सुरक्षित भी रह सकें I उन मुक्तिमार्गों में से एक मार्ग, वैदिक वर्णाश्रम चतुष्टय भी है, इसलिए जब आगामी समय खण्ड में काल आदि मूलस्त्रों के प्रयोग से इस देव कलियुग को स्तम्भित किया जाएगा, और इस चलते हुए देवताओं के कलियुग के भीतर ही एक मानव युग का उदय किया जाएगा, जो गुरुयुग कहलाएगा, तब यह वर्णाश्रम वयवस्था भी इसके व्यापक स्वरूप में पुनर्स्थापित करी जाएगी I और आगामी गुरुयुग नामक कालखण्ड में ऐसा ही पाया जाएगा I क्यूंकि सर्वमाता प्रकृति इसपर अभी विचाराधीन हैं, और जब प्रकृति, जो वास्तव में ब्रह्मशक्ति ही हैं, वह किसी मूलादि बिंदु पर विचाराधीन होती हैं, तब कुछ ही समय में वह इस जीव जगत को उसपर क्रियान्वित भी करती हैं, इसलिए आगामी कालखण्ड में ऐसा ही देखा भी जाएगा, जब प्रकृति वर्णाश्रम चतुष्टय सहित, आश्रम चतुष्टय को भी उनके अपने ही प्रकार से क्रियान्वित करेगी I और उस क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में ही, इस अंतिम संस्कार विज्ञान को वर्णाश्रम चतुष्टय और आश्रम चतुष्टय में भी प्रकाशित किया जाएगा I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… पूर्व में भी बताया था, कि यदि एक बार भी किसी भी जन्म में चित्त संस्कार रहित हो जाए, तो वह चित्त अनादि काल तक ऐसा ही रहता है I ऐसे चित्त में बीज रूपी संस्कार, जो पूर्व कर्मफलों के बीज रूपे ही थे, वह कभी भी फलित नहीं होते, जिसके कारण वह साधक न कर्मों में और न ही कर्मफलों में ही आसक्त या अनासक्त ही रह पाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह संस्कार रहित चित्त में संस्कारों का न फलित होना भी वैसी दशा है, जैसे किसी पूर्ण बंजर भूमि में अनाज के बीज नहीं उगाए जा सकते I इसलिए यदि कोई भी जीव रूपी साधक, अपने चित्त की संस्कार रहित दशा एक बार भी, किसी भी लोक में निवास करते समय, और किसी भी जनम में पा गया होगा, तो वह साधक अनादि कालों तक संस्कार रहित ही रहेगा I और क्यूँकि संस्कार का नाता कर्म और कर्म फल से ही होता है, इसलिए ऐसा साधक न कर्मों में और न ही कर्मफल में रह पाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब ध्यान देना…

ब्रह्म की इच्छा शक्ति से ही ब्रह्मरचना इस जीव जगत के स्वरूप में प्रकट हुई है I

उस ब्रह्मरचना का जो प्राथमिक स्वरूप था, वह सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड ही था I

सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से ही दैविक, सूक्ष्म और स्थूल जगत उत्पन्न हुए थे I

संस्कारातीत साधक उस प्राथमिक सूक्ष्म सांस्कारिक ब्रह्माण्ड से भी अतीत है I

संस्कारातीत ही वह ब्रह्माण्डातीत होता है, जो निर्गुण ब्रह्म कहलाया गया है I

जो साधक, चित्त की संस्कार रहित दशा को प्राप्त हुआ है, वह मुक्तात्मा है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब जो बताया जा रहा है, उसपर भी ध्यान दो…

अंतःकरण के चित्त भाग की संस्कार रहित दशा ही संस्कारातीत मुक्ति है I

जो संस्कारातीत होता है, वही तो कर्मातीत और फलातीत भी होता है I

जो कर्मातीत है, वही तो कैवल्य मोक्ष है, वही तो निर्गुण ब्रह्म है I

जो निर्गुण है, वही तो सिद्धितीत, गुणातीत और कालातीत है I

जो ऐसा है, वही तो रचनातीत, तन्मात्रातीत और भूतातीत है I

जो ऐसा है, वही तो जीवातीत, जगतातीत और सर्वातीत है I

और इन सबके मूल में चित्त की संस्कारातीत दशा है I

इस दशा का मार्ग भी यही हृदयाकाश गर्भ तंत्र है I

इसलिए हृदयाकाश गर्भ तंत्र, मुक्तिमार्ग ही है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

सनातन गुरु बोले… इन बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

जो सर्वातीत है, वही मनातीत, बुद्धितीत, चित्तातीत, अहमातीत और प्रणातीत है I

जो ऐसा है, वही तो सिद्धांतातीत, तंत्रातीत, न्यायातीत और नियमातीत ब्रह्म है I

उसी को तो निर्विकल्प, निराधार, निर्भाव, निरंजन, निर्गुण और निर्बीज कहते हैं I

वही तो अद्वैत है, जो सर्वमूल और सर्वगंतव्य होता हुआ भी, सर्वस्व हुआ है I

इसलिए, वह ब्रह्म रचैता होता हुआ भी, रचना और रचना का तंत्र हुआ है I

रचैता, रचना, रचना के तंत्र के अद्वैतबोध में, हृदयाकाश गर्भ तंत्र ही है I

जो रचैता, रचना और रचना का तंत्र भी है, वह पूर्णब्रह्म कहलाया है I

इस का सिद्ध योगी रचैता, रचना और रचना का तंत्र भी हो जाएगा I

इसलिए, यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र, मुक्तिमार्गों में सर्वोत्कृष्ट ही है I

देवादि उच्चलोकों में भी, इसके पात्र अतिदुर्लभ ही पाए जाते हैं I

इसलिए, अधिकांश जीवों के लिए यह निषेध मार्ग ही रहा है I

परन्तु आगामी गुरु युग में, इसके पात्र अवश्य मिलेंगे I

नन्हें विद्यार्थी ने प्रश्न किया… गुरु चंद्रमा, यदि अभी के समयखण्ड में यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र अधिकांश जीवों के लिए निषेध मार्ग ही है, तो इसको अभी के समय में प्रकाशित करने का क्या लाभ? I

इसपर सनातन गुरुदेव ने उत्तर दिया… यह ज्ञान अभी चलायमान हो रहे कलियुग के कालखण्ड में आई हुई अधिकांश मानव जाती के लिए तो है ही नहीं I यह ज्ञान उस आगामी गुरु युग के मानव जाती के लिए है, जो इस धरा पर तब आएगी, जब वह वैदिक युग (गुरुयुग) इस पृथ्वी लोक पर ही प्रारम्भ होने लगेगा I इसलिए अभी की मानव जाती मेरे आदेश पर और तुम्हारे द्वारा लिखे हुए इस ग्रंथ में बहुत न्यून मात्रा में ही आएगी I

नन्हें विद्यार्थी ने सोचा… चलो अच्छा है, क्यूंकि गुरु आदेश से मैंने इसको निशुल्क ही देना है, इसलिए किसी प्रकाशक के पास भी नहीं जा सकता, और इस कारण से इसको वेबसाइट पर ही डालना पड़ेगा I ऐसी दशा में, यदि इसपर बहुत कम लोग आएँगे, तो मेरे लिए भी अच्छा ही है,क्यूंकि मुझे अधिक प्रश्नों के उत्तर भी नहीं देने होंगे, खर्चा भी कम ही होगा, और मैं गुप्त होकर ही रहूँगा I परमात्मा करे मेरे जीवन काल में ऐसा ही हो I

नन्हें विद्यार्थी के हृदय में बसे हुए सनातन गुरु, जो उस नन्हें विद्यार्थी के भाव पढ़ रहे थे, बोले… उस वेबसाइट के पाठक इतने भी कम नहीं आएँगे, कि जो तुम सोच रहे हो, वह पूर्णरूपेण हो जाए I जब ऐसा ग्रंथ लिखा जाता है, तो उसकी बातें देवलोकों तक में होती हैं… समझ गए I परन्तु जब इस पृथ्वीलोक का उस गुरु युग में प्रवेश हो रहा होगा, तब अभिमानी और अनाभमानी देवताओं के लोकों सहित, अन्य बहुत सारे उच्च लोकों से साधकगण और योगीजन, बहुत बड़ी मात्रा में इस पृथ्वी लोक पर आएँगे, और ऐसा मनीषी ही इस मार्ग पर जाएंगे, जिसको तुम मेरे आदेश पर, ग्रंथ के स्वरूप में लिख रहे हो I और उस समय तुम इस लोक से प्रस्थान भी कर चुके होगे I

नन्हें विद्यार्थी ने सोचा… चलो अच्छा ही है, इस मानव देह में कोई मुझे जान नहीं पाएगा और मैं इस ज्ञान को ग्रंथ रूप में लिख कर, अपनी ही मस्ती में गुप्त सा ही रहूँगा I वैसे भी अभी के इस कलियुग में, जितना आज मानव जाती के विकृत भावों, इच्छाओं और कर्मों से सुदूर रहो, उतना ही सुखी रहोगे I

सनातन गुरु गरजकर बोले… ऐसा भी नहीं होगा, क्यूंकि न्यून मात्रा में ही सही, लेकिन कुछ उत्कृष्ट साधकगणों को तो तुम्हें अपना सानिध्य तो देना ही होगा I लेकिन अभी के समय पर और इस पृथ्वी लोक में, इस ज्ञान को पूर्णरूपेण धारण और सिद्ध करने वाले मानव, बहुत ही न्यून मात्रा में हैं I

नन्हें विद्यार्थी ने सोचा… अब करलो बात, कुछ मात्रा में तो फँस ही गए आज की इस विकृत मानव जाती में I

सनातन गुरु मंदहास धारण किए हुए हुए आगे बोले… और एक बिंदु, कि यदि कोई साधक इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्णरूपेण सिद्ध भी न कर पाए, और यदि इसके कुछ ही भागों पर चल पाया हो, तब भी उस साधक की उत्कर्ष गति में इसका परिणाम बहुत अच्छा ही होगा I ऐसा साधक भी उसके कुछ संस्कारों का नाश करके, उनसे पूर्णरूपेण छूट पाएगा, जिसके कारण उसका आगामी उत्कर्षपथ भी सरल ही हो जाएगा I लेकिन ऐसी दशा में साधक पुनः उन कर्मों में जा सकता है, और उनके फल भी पा सकता है, जिनके संस्कारों का नाश उसनें इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र की प्रक्रिया से किया होगा I इसलिए ऐसे साधकगणों को जिन्होंने इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र को पूर्ण सिद्ध नहीं किया होगा, इस बिंदु का विशेष ध्यान भी रखना होगा I

सनातन गुरु आगे बोले… और यदि कोई साधक, इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र से अंतिम संस्कार को ही पा गया, तो वह साधक सीधा उस ब्रह्मपथ पर ही चला जाएगा, जो ॐ से जाता हुआ, आंतरिक अश्वमेध यज्ञमार्ग से होता हुआ, अष्टम चक्र (निरलम्ब चक्र या ब्रह्म चक्र) से जाकर, सीधा-सीधा शून्य ब्रह्म में प्रवेश करके, गंतव्य (अर्थात निर्गुण ब्रह्म) को जाता है I केवल ऐसा साधक ही उस संस्कार रहित चित्त को पाएगा, जिसका वर्णन पूर्व में किया गया था I

सनातन गुरु आगे बोले… इसलिए इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सिद्ध योगी उस सुमार्ग पर जायेगा, जो जीव जगत और उसके तंत्र से अतीत जाने का ही मार्ग होता है I ऐसा ही यह इस हृदयाकाश गर्भ तंत्र का अंतिम पथ (अंतिम मार्ग) होता है, जिसपर योगी अकेले ही जाता है, अर्थात केवल होकर, स्वयं ही स्वयं में जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा श्रेयस्कर मार्ग, जो किसी भी जीव का अंतिम मार्ग कहलाता है, उसमें…

योगी केवल होकर, उन कैवल्य मोक्ष ब्रह्म को अपने ही आत्मस्वरूप में पाता है I

उन कैवल्य मोक्ष स्वरूप निर्गुण ब्रह्म का मार्ग भी, उनके समान केवल ही है I

केवल होकर ही कैवल्य मोक्ष स्वरूप निर्गुण ब्रह्म का मार्ग प्रशस्त होता है I

केवल मार्ग को उन पूर्ण संन्यासी निर्गुण ब्रह्म का मार्ग भी कहा गया है I

ऐसे केवल मार्ग पर ही हृदयाकाश गर्भ तंत्र का सिद्ध गमन करता है I

इस मार्ग में साधक, स्वयं ही स्वयं में, स्वयंकेवल होकर जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा कल्याणकारी मार्ग, जो किसी भी जीव का अंतिम मार्ग कहलाता है, उसमें…

स्वयं ही स्वयं में के मार्ग का योगी, सर्वातीत होता हुआ भी सर्वस्व होता है I

ऐसे साधक का स्वयं ही, ब्रह्म सहित, प्रकृति रूपी ब्रह्म शक्ति भी होता है I

जिस साधक का स्वयं, सर्वातीत होता हुआ भी सर्व है, वही पूर्ण ब्रह्म है

इसलिए ऐसे साधक का स्वयं, जीव जगत सहित निर्गुण ब्रह्म भी है I

ऐसे साधक का स्वयं, उसका आत्मस्वरूप ब्रह्म भी कहलाता है I

जैसा मार्ग का गंतव्य होगा, वैसा ही उसका मार्ग भी होगा I

ऐसे मार्ग में ही यह हृदयाकाश गर्भ तंत्र लेकर जाता है I

यह मार्ग ही जीवात्मा का अंतिम मार्ग कहलाता है I

इसको अपने जीवरूप का अंतिम पथ ही मानो I

अंतिम पथ का अंत ही अनंत कहलाता है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… किसी भी जीवात्मा के उत्कर्ष मार्ग पर, जो एकमात्र अंतिम पथ होता है, अब उसको बताता हूँ I इसलिए इसपर भी अपना विशेष ध्यान देना…

ब्रह्मरचना में, कोई भी मार्ग वैसा ही होता है, जैसे उस मार्ग का गंतव्य होता है I

मार्गमूल, मार्ग और उसके गंतव्य में तारतम्य होने पर भी, यह सब एक ही हैं I

इस समस्त ब्रह्मरचना में, मार्ग का गंतव्य ही उस मार्ग के मार्गस्वरूप में है I

जब मार्ग का उसके मूल और गंतव्य दोनों से भेद न रहे, वही अंतिम मार्ग है I

अंतिम मार्ग ही उस पूर्ण संयासी और शाश्वत, व्यापक ब्रह्म का मार्ग है I

उस व्यापक ब्रह्म का अंतिम मार्ग भी उसके समान भागहीन पथहीन है I

इस मार्ग पर योगी ब्रह्मभावपन होकर जाता है, न की किसी ग्रंथ से I

इस मार्ग की अंतगति में योगी का आत्मस्वरूप ही निर्गुण ब्रह्म है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… इसलिए …

देवत्व आदि बिंदुओं का मार्ग उसी देवत्व के गुणों आदि में बसा होता है I

निर्गुण सनातन अनंत व्यापक ब्रह्म का मार्ग भी उसके समान ही है I

निर्गुण का मार्ग भी भागहीन पथहीन है, और यही अंतिम मार्ग है I

इस अंतिम मार्ग पर ही हृदयाकाश गर्भ का सिद्ध जाता है I

इस मार्ग पर जाकर वह सिद्ध, निर्गुण निराकार होता है I

निर्गुण ही वह अंत है, जो अनंत हैवही सर्वव्यापक है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसे अंतिम मार्ग पर गया योगी, यही कहेगा…

इस मार्ग में मैं स्वयं ही स्वयं में, केवल होकर, स्वयं के ही ब्रह्मस्वरूप को गया हूँ I

इस मार्ग में मेरे सिवा न गुरु है, न इष्ट, न माता पिता, न देवी देव न ग्रंथादि हैं I

इस मार्ग में मैं अपना गुरु, इष्ट, माता, पिता, सखा, अपना देव देवी और ग्रंथ हूँ I

इस मार्ग में मैं ही ब्रह्म, ब्रह्मरचना और उसका तंत्रमैं ही पूर्ण कहलाया हूँ I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस अंतिम मार्ग पर जाकर साधक यह भी जानेंगे कि…

उसके लिए ग्रंथ मार्गों का क्या लाभ?, जो किसी उत्कर्षपथ पर चला ही नहीं है I

निर्गुण नामक शिखर पर बैठे हुए योगी के लिए ग्रंथों और मार्गों का क्या लाभ? I

उस साधक के लिए अंतिमपथ का क्या लाभ?, जो इसका पात्र ही नहीं हो पाया है I

अंतिम पथ, हृदयाकाश गर्भ तंत्र के इस अंतिम संस्कार विज्ञान से होकर ही जाता है I

 

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अंतिम पथ का सिद्ध, जब किसी कारणवश किसी धरा पर लौटाया जाता है, तब उस धरा के समस्त देवी देवता, सिद्ध और ऋषिगण भी, अपने अपने दुर्ग और स्थान त्यागकर, उस योगी के साथ ही खड़े हो जाते हैं I

सनातन गुरुदेव हँसते हुए नन्हें विद्यार्थी की ओर अपनी ऊँगली दिखाकर बोले… आगामी समय खण्डों में तुम भी इस बिंदु को प्रत्यक्ष अनुभव करोगे I

इन सब गुरुवाणियों को सुन्न होकर सुन रहे नन्हें विद्यार्थी ने गुरु का वह अंतिम वाक्य सुना और अनसुना कर दिया, क्यूंकि उस नन्हें विद्यार्थी को ऐसा लगा कि गुरुदेव उसकी अनभिज्ञता से आनंद ले रहे हैं I

 

अंतिम संस्कार का ज्ञान, अंतिम संस्कार का स्वरूप, …

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जिस साधक के चित्त में, उस साधक की जीवित अवस्था में ही यह अंतिम संस्कार निर्मित हो जाता है, वह साधक इस अंतिम संस्कार का त्याग भी कर देता है I ऐसा इसलिए है, क्यूंकि योगमार्ग में इस संस्कार के प्रकट होने के पश्चात, इसको त्याग भी जाता है I इसलिए जिस साधक के अंतःकरण के चित्त नामक भाग में यह संस्कार प्रकट हुआ होगा, वह साधक इसको त्यागे बिना भी नहीं रह पाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… यह अंतिम संस्कार का त्याग और उसका मार्ग भी बैसा ही है, जैसे किसी योग बिंदु की सिद्धि के पश्चात ही, उस योग के अनुसार, उस बिंदु से ही अयोग होता है I और जहां योग नामक सिद्धि के गंतव्य में ब्रह्म रचना होगी, अर्थात पिण्ड और ब्रह्माण्ड होगा… और अयोग नामक सिद्धितीत दशा में पिण्डातीत और ब्रह्माण्डातीत ब्रह्म होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जैसा पूर्व में बताया था कि यह अंतिम संस्कार चावल के दाने के समान ही होता है, यह लम्बा सा और पतला सा होता है, यह अष्टकोणी होता है, नीचे से थोड़ा चपटा सा होता है और ऊपर से थोड़ा नोकीला और थोड़ा गोलकार सा भी होता है I इसका वर्ण श्वेत होता है और ऐसी दशा में यह पारदर्शी स्फटिक सा भी पाया जाएगा I लेकिन अंततः, यह निरंग स्फटिक के समान ही पाया जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जब साधक इसको त्यागने का पात्र बनता है, तो यह संस्कार साधक के शिवरंध्र से बाहर निकलता है I और बाहर निकलकर, कुछ ही समय में यह गायब (लुप्त) भी हो ही जाता है I इस संस्कार का अंतिम लय उन निर्गुण ब्रह्म में ही होता है, जिनको सदासिव का ईशान मुख और ईशान ब्रह्म भी कहा जाता है, जो अज, सर्वव्यापक और शाश्वत कहलाए गए हैं I क्यूंकि इस संस्कार का नाता ईशान ब्रह्म से होता है, जो ऊपर की ओर, अर्थात गंतव्य की ओर देखते हैं, इसलिए जब यह संस्कार साधक के कपाल से बाहर निकल जाता है, तब कुछ समय तक साधक की चेतना भी अपने कपाल के ऊपर की ओर ही (अर्थात कपाल के भीतर से, लेकिन ऊपर की ओर या बाहर की ओर) देखती जाती है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस संस्कार के बाहर निकलने के पश्चात, यदि साधक अपने कपाल को बाहर से देखेगा, तो उसे एक स्फटिक वर्ण का मुख उसके कपाल से बाहर (ऊपर) की ओर देखता हुआ पाया जाएगा I इस मुख का न तो कभी चित्र बनाया गया है और न ही कुछ और I इसलिए जब तुम (अर्थात नन्हा विद्यार्थी) उस मुख को देखो, तो तुम भी न तो उसका कोई चित्र बनाना और न ही उसका किसी यंत्र से छायाचित्र ही किसी को दिखाना I बस स्वयं संतुष्ट होकर, यदि उसका यंत्र के माध्यम से छायाचित्र  लिया भी होगा, तो उसको काट देना I कपाल से बाहर की ओर देखते हुए उस मुख का चित्र या छायाचित्र किसी और को दिखाया नहीं जाता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह (कपाल से बाहर की ओर देखता हुआ मुख) उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के सगुण साकार मानव मुख स्वरूप का ही सीधा-सीधा द्योतक है I वह निर्गुण ब्रह्म जो साधक की काया के भीतर ही विराजमान हुए हैं, वह ईशान ब्रह्म ही हैं, और यह कपाल से बाहर की ओर देखता हुआ मुख, उन ईशान का ही सीधा-सीधा और पूर्ण द्योतक (अर्थात सगुण साकार मानव मुख रूप में लिंग) है I

इसके पश्चात सनातन गुरुदेव बोले… यहाँ बताया गया सबकुछ, तुम आगामी समय खण्ड में अपनी साधनाओं में ही साक्षात्कार करोगे I और वही साक्षात्कार वह सब साधक भी करेंगे, जो इस ज्ञान के वास्तविक पात्र होंगे, और इस विश्व की किसी भी पृथ्वी आदि लोकों में जन्म लिए होंगे, और अपने मुक्तिपथ को ढूँढ़ते ढूँढ़ते इस ग्रंथ में, अपनी पात्रता के बल पर ही आ जाएंगे और फिर इसके मार्ग पर भी जाएंगे I

नन्हें विद्यार्थी जो बिलकुल सुन्न होकर गुरुवाणी को ध्यानपूर्वक सुन रहा था, वह बिना कुछ कहे या संकेत दिए, बस अपने गुरु के मुख की ओर ही देखता गया I अपनी ऐसी आत्मिक दशा में वह न तो कुछ बोल पाया और न ही कुछ और ही कर पाया I

 

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सनातन गुरुदेव आगे बोले… अंतिम संस्कार के दो मुख्य प्रभेद होते हैं, और चार मुख्य प्रकार से अंतिम संस्कार किया जाता है I यह दो प्रभेद लौकिक और योगमार्गों के हैं, और यह चार प्रकार से चालित होते हैं I जो संस्कार अंतःकरण के चित्त भाग में अंत में एकमात्र रह जाता है, वही अंतिम संस्कार है I इसकी उत्पत्ति लौकिक और योग मार्ग दोनों से ही होती है, और यही इसके दो प्रभेद हैं I

सनातन गुरु आगे बोले… लौकिक मार्गों से यह संस्कार मृत्यु के समय अंतिम भाव से उत्पन्न हो जाता है I वह भाव भी कई प्रकार के हो सकते हैं जैसे जब मृत्युशय्या पर कोई मन में यह कह दे कि मैं संन्यास लेता हूँ, या किसी का मन मृत्यु समय पर ही किसी ऐसी देवत्व सत्ता में बस जाए जो मुक्ति या मुक्तिपथ को दर्शाती है, या कोई मृत्यु के समय पर जीव जगत से ही विमुख ही जाए, या मृत्यु समय पर कोई आत्म भावापन (या ब्रह्म भावापन) ही हो जाए, इत्यादि I ऐसे समय पर और इन भावों से जो संस्कार बनेगा, वही अंतिम संस्कार होगा I और इस अंतिम संस्कार का स्वरूप भी वही होगा, जो योगमार्ग से उत्कृष्टम योगीजनों द्वारा निर्मित किया जाता है I जिस साधक में यह संस्कार मृत्यु समय पर ही बन गया, वह भी उसी मार्ग पर चल पड़ता है, जिसपर उत्कृष्टम योगीजन गमन करके मुक्तात्मा होते हैं I

सनातन गुरु आगे बोले… योगमार्ग से जब अंतिम संस्कार को प्रकट किया जाता है, तब वह साधक हृदयाकाश गर्भ तंत्र में जाकर ही उसको प्रकट कर पाता है I परन्तु हृदयाकाश गर्भ तंत्र से तो यह संस्कार प्रकट होता है, न की लय I इस अंतिम संस्कार के लय होने का मार्ग, हृदयाकाश गर्भ तंत्र से भी आगे का है, जिसमें साधक हृदय कैवल्य गुफा (या हृदय मोक्ष गुफा या हृदय निर्वाण गुफा) में जाता है I और इसी हृदय निर्वाण गुफा से आगे जाकर, ॐ मार्ग पर जाकर, उस ॐ का पूर्ण साक्षात्कार करके, ॐ में ही लय होता है I और इसके पश्चात वह साधक राम नाद से जाता है जिसका स्थान सहस्रार (अर्थात सहस्र दल कमल) से भी ऊपर बसा हुआ वज्र दण्ड चक्र (या वज्रदण्ड चक्र) है I और इस वज्रदण्ड चक्र से जाकर वह साधक, उस अष्टम चक्र सिद्ध करता है, जिसको निरालम्ब चक्र और निरलम्बस्थान भी कहा जाता है I इसी निरालम्ब चक्र को निराधार चक्र भी कहा जाता है और यही ब्रह्म चक्र और ब्रह्मलोक चक्र भी कहलाता है I इस निरलम्बस्थान को पार करके साधक पञ्च मुखी सदाशिव के सभी मुखों को सिद्ध करता है, और अंततः वह साधक उन हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लय हो जाता है, जो महाकारण ही हैं I इसलिए इस अंतिम संस्कार की लय प्रक्रिया में साधक, अंततः महाकारण देह को भी धारण करता है, और जहाँ महाकारण देह ही वह सगुण निराकार हिरण्यगर्भ हैं, जो महेश्वर भी कहलाए गए हैं, और जिनसे सनातन काल उसके चक्र स्वरूप में स्वयंप्रकट हुआ था, और जिसके गर्भ में ये जीव जगत बसाया गया है, और जो योगीजनों के योगेश्वर, योग सम्राट, योग गुरु, योगर्षि, महायोगी, योग और योग तंत्र भी हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… इस निरालंबस्थान पर जाने के पश्चात ही यह अंतिम संस्कार साधक के कपाल के ऊपर के भाग के मध्य में बसे हुए शिवरंध्र से बाहर निकल पाता है I कपाल के शिवरंध्र से बाहर निकलने के कुछ ही समय में यह संस्कार ब्रह्माण्डीय चित्त काया में लौट जाता है, जिसकी प्रक्रिया में यह संस्कार अदृश्य ही हो जाता है I शिवरंध्र से बाहर निकलने के समय तो यह संस्कार एक अष्टकोण स्वरूप में लम्बा सा, चावल के दाने के समान होगा, और यह अंतिम संस्कार नीचे से चपटा होगा और ऊपर से थोड़ा नोकीला और थोड़ा गोलाकार भी होगा I लेकिन कपाल से बाहर निकलने के पश्चात, कुछ ही समय में यह संस्कार, अदृश्य हो जाएगा I जब यह अंतिम संस्कार कपाल के ऊपर के भाग से बाहर निकलता है, तब यह या तो पारदर्शी स्फटिक सा होगा, या निरंग स्फटिक सा I और यदि यह पारदारशी सा होगा, तो इसका मूल वर्ण भी श्वेत ही होगा जो उस सत्त्वगुण को दर्शाता है जिसका नाता परा प्रकृति से होता है, और जिसकी दिव्यता को माँ आदि शक्ति के नाम से पुकारा जाता है I और यदि यह अंतिम संस्कार निरंग होगा, तो ऐसी दशा में यह निर्गुण निराकार ब्रह्म का सीधा-सीधा द्योतक भी होगा I

सनातन गुरु आगे बोले… तो यह थे उस अंतिम संस्कार के दो प्रभेद और उस अंतिम संस्कार का प्रकटीकरण और लय प्रक्रिया I और अब इस भाग के अगले बिंदु पर बात करेंगे, जो इसी अंतिम संस्कार के प्रकार हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया है I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरुदेव बोले… अब आश्रम चतुष्टय के बारे में बात होगी, क्यूंकि इस सिद्धांत का भी इसी अंतिम संस्कार विज्ञान में लय होता है I इस संपूर्ण जीव जगत के किसी भी लोक में, जीवों के जीवन काल को चार बराबर भागों में बांटा गया है, इसलिए कोई भी आश्रम का समय जीवन काल का एक चौथाई ही है I क्यूँकि जीव जगत उन पितामह ब्रह्मा जी की ही रचना है, जिनकी आयु 100 ब्रह्म वर्ष होती है, इसलिए गणना के लिए, जीवों की आयु भी 100 लौकिक वर्ष की ही ली जाती है I क्यूँकि पृथक लोकों की समय इकाई भी पृथक ही होती है, इसलिए किसी एक लोक में जीवन के 100 वर्ष, अन्य लोकों के सौ वर्षों से पृथक ही होंगे I सूक्ष्म लोकों में एक सौ वर्ष, स्थूल लोकों के 100 वर्षों से अधिक ही होंगे क्यूंकि सूक्ष्म लोकों की समय इकाई स्थूल लोकों से बड़ी ही होती है I जितना कोई लोक सूक्ष्म होगा, उतनी ही बड़ी उसकी समय इकाई भी होगी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… आश्रम चतुष्टय में चार कालखण्ड हैं, जो ऐसा हैं…

  • प्रथम खण्ड, … ब्रह्मचर्य आश्रम, … बाल्यावस्था से लेकर विवाह से पूर्व का यह समय है I
  • द्वितीय खण्ड, … गृहस्त आश्रम, … विवाह के पश्चात का यह समय है I
  • तृतीय खण्ड, … वानप्रस्थ आश्रम, … अपने विवाहित जीवन के कर्तव्यों को पूर्ण करने के बाद का यह समय है, जिसमें साधक गृहस्त आश्रम से अतीत हो जाता है I
  • अंतिम खण्ड, … संन्यास आश्रम, … जीवन के अंत का यह काल है, जिसमें संन्यासी के समान रहा जाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ब्रह्मरचना का प्रत्येक अंश इस आश्रम चतुष्टय का अपनी दशा के अनुसार ही पालन करता है, इसलिए जबकि यह आश्रम चतुष्टय ब्रह्मरचना के प्रत्येक भाग पर समान रूप में लागू होते हैं, लेकिन तब भी वह सभी भाग अपने स्वरूप के अनुसार ही इसका पालन करते हैं I अणु से ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के प्रत्येक भाग और समस्त जीव इस आश्रम चतुष्टय का तब से पालन कर रहे हैं, जब से वह इस ब्रह्मरचना में अभिव्यक्त हुए हैं I पितामह ब्रह्मा जी से लेकर, समस्त लोकों के जीव भी इसी आश्रम चतुष्टय के आधीन हैं I और अपनी आयु के अनुसार, अभी के समय पर पितामह ब्रह्मा वानप्रस्त आश्रम में ही हैं I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

आगे बढ़ता हूँ …

सनातन गुरु बोले… अब इस अंतिम संस्कार के प्रकार और प्रक्रिया को बताता हूँ I यह प्रकार लौकिक ही होते हैं क्यूंकि योगमार्ग में इसकी न तो कोई सत्ता होती है और न कोई दशा I लेकिन लौकिक होने के पश्चात भी, इस अंतिम संस्कार के प्रकार और उनकी प्रक्रिया, साधक की चेतना को उसी योगमार्ग में लेकर जाने का बल रखती है, जिसका मार्ग संक्षेप रूप में ही सही, लेकिन ग्रंथ के इस भाग में बताया गया है I

सनातन गुरु आगे बोले… अंतिम संस्कार के लौकिक विज्ञान से यह भी जाना जा सकता है, कि जिसका अंतिम संस्कार किया जा रहा है, ब्रह्माण्ड में उसकी गति और स्थान क्या है? I किसी भी पंथ (या ग्रंथ) की अंतिम संस्कार प्रक्रिया से उस पंथ (या ग्रंथ) का काल में स्थान भी जाना जा सकता है I इसी प्रक्रिया से जाना जा सकता है, कि उस पंथ का ब्रह्माण्डीय काल या ब्रह्माण्ड की आयु में क्या स्थान है I और यह चार प्रकार से किया गया अंतिम संस्कार, वैदिक ही है I

सनातन गुरु आगे बोले… वैदिक अंतिम संस्कार की प्रक्रिया चार प्रकार से करी जाती है I और पृथक पंथों की इस प्रक्रिया के अनुसार यह भी जाना जाता है, कि ब्रह्माण्ड में उस पंथ की क्या महान्तशाही (या सोपानिकी या अधिक्रम) है I तो अब इसको वैदिक मार्ग के अनुसार ही बताता हूँ क्यूंकि वैदिक मार्ग ही ब्रह्माण्डीय प्रक्रियाओं का मूल मार्ग है, इसलिए लौकिक दृष्टिकोण से भी वैदिक आर्य मार्ग ही धर्म कहलाता है, क्यूंकि अन्य सभी पंथ होते हैं I वैसे कलियुग में तो इन पंथों को ही धर्म कहा जाता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता I

 

वैदिक अंतिम संस्कार का प्रथम प्रकार, … जल समाधि क्या है?,जल समाधि से अंतिम संस्कार, … संन्यासीयों का अंतिम संस्कार, काल के दृष्टिकोण से उत्कृष्ट जीवों का अंतिम संस्कार, उत्कृष्ट योगीजनों का अंतिम संस्कार, काल के दृष्टिकोण से वृद्ध जीवों का अंतिम संस्कार, …

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब बताए जा रहे सभी बिंदुओं पर ध्यान देना…

  • इस प्रक्रिया का नाता इस जीव जगत के पालनहार, श्री विष्णु से है I
  • इसमें मृत को विशेष मार्ग से जल में समर्पण करा जाता है, और इसी को जल समाधि कहते हैं I
  • इस पद्धति का उपयोग उन साधकों के लिए किया जाता है, जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है, और वह त्यागी भिक्षुओं और/या संन्यासीयों के रूप में रह रहे हैं I
  • इस पद्धति का उपयोग उन अत्यधिक विकसित साधकगणों के लिए भी किया जाता है जिन्होंने आध्यात्मिक उन्नति की उच्च स्थिति प्राप्त कर ली है, और जो ब्रह्माण्डीय उत्कर्ष मार्गों के पदानुक्रम के उच्च दशाओं में प्रवेश कर चुके हैं I
  • और इस विधि का उपयोग उन दुर्लभ साधकों के लिए भी किया जाता है, जो इस जीव जगत के उत्कर्ष मार्ग से जो कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है, वह उसे प्राप्त कर चुके हैं, और इस प्रकार वह साधक जीवित रहते हुए भी मुक्त हो चुके हैं (अर्थात इस विधि का उपयोग तब किया जाता है जब साधक अपनी स्थूल काया की मृत्यु से पूर्व ही जीवनमुक्ति प्राप्त कर चुका हो) I
  • और इस पद्धति का उपयोग उन साधकगणों के लिए भी किया जाता है जो विश्वरूप ब्रह्म में (अर्थात वैदिक भारत में या महाब्रह्माण्ड में) वैदिक आध्यात्मिक पदानुक्रम में उच्च स्थान प्राप्त कर चुके है, जैसे वैदिक या योग मार्ग के आचार्य I
  • यह उस साधक के लिए भी अंतिम संस्कार की विधि है, जिसने पहले तीन आश्रमों (या ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ) को पार कर लिया है और वह चौथे आश्रम में एक संन्यासी के रूप में रह रहा है I इसका अर्थ हुआ कि जिस साधक ने अपने जीवन के अंतिम आश्रम में प्रवेश किया है, उसका भी इस पद्धति से अंतिम संस्कार किया जा सकता है I
  • यह उसकी भी अंतिम संस्कार की विधि है, जो उत्कृष्ट योगी है I
  • यह उसकी भी अंतिम संस्कार की विधि है, जो सिद्ध हुआ है I

 

वैदिक अंतिम संस्कार का दूसरा प्रकार, … अग्नि समाधि क्या है?, अग्नि समाधि से अंतिम संस्कार, मृत शरीर का अग्निदाह, अग्नि दाह से अंतिम संस्कार, दाह संस्कार, … साधारण जीवों का अंतिम संस्कार, काल के दृष्टिकोण से साधारण जीवों का अंतिम संस्कार, काल के दृष्टिकोण से मध्यम वर्ग के जीवों का अंतिम संस्कार, …

सनातन गुरु आगे बोले… अब बताए जा रहे बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

  • इस प्रक्रिया का नाता इस जीव जगत के संहारकर्ता रुद्रदेव से है I
  • इसमें मृत शरीर को लकड़ी में रखा जाता है, और विशेष प्रक्रिया से आग से जला दिया जाता है I यह धार्मिक सम्प्रदायों (हिंदू , बौद्ध, जैन, सिख और आदिवासी) में दाह संस्कार की सबसे आम विधि है I
  • जब मृत शरीर को जलाया जा रहा होता है, तब सिर के विशिष्ट स्थान पर लकड़ी से प्रहार करके छेदा जाता है I यह स्थान शिवरंध्र का है I कपाल के ऊपर के भाग में जो मध्य होता है, वही शिवरंध्र है, जो परमगुरु शिव का गुप्त द्वार होता है I इस छेदन को कपाल क्रिया कहा जाता है I
  • जब मृत शरीर चिता पर जल रहा होता है, और कुछ देर बाद जब वह गर्म हो जाता है, तब प्राणमय कोष उत्तेजित हो जाता है I मृत शरीर को जलाने के कुछ ही समय के बाद, पञ्च प्राण के उत्तेजित होने के साथ-साथ शरीर में तरल पदार्थों का उबलना भी शुरू हो जाता है। जब पञ्च वायु और पञ्च उपवायु का उबाल आता है, तब सिर के शीर्ष पर जहां शिवरंध्र का स्थान होता है, उसपर चोट मारकर छेदा जाता है I
  • ऐसे समय पर यदि वह मृत साधक, मुक्ति का पात्र होगा, तो खोपड़ी की ऊपरी हड्डियों के टूटने के समय पर उस मृत साधक का अंतिम संस्कार भी उन उबलते हुए प्राणों से साथ, शिवरंध्र से बाहर निकल जाएगा I इस समय कुछ मात्रा में उबलता हुआ प्राण भी भौतिक शरीर के शिवरंध्र नामक भाग से से बाहर निकल जाता है, और यह प्राण अपने साथ अंतिम संस्कार को भी शिवरंध्र से बाहर निकाल देता है I प्राणों के शिवरंध्र से बाहर निकलने पर वह साधक विसर्ग नामक मोक्ष को प्राप्त होता है, और अंतिम संस्कार के बाहर निकलने पर, वह साधक निर्बीज नामक ब्रह्म को ही प्राप्त हो जाता है I और क्यूंकि इस प्रक्रिया में साधक के कोई कर्म ही नहीं होते, इसलिए इस प्रक्रिया में उस मृत साधक के लिए कोई कर्मफल भी नहीं होते, इसलिए जो दो मुक्ति के स्वरूप यहाँ बताए गए हैं, वह कर्मातीत मुक्ति से ही संबद्ध होते हैं I
  • जैसे ही यह अंतिम संस्कार बाहर निकलता है, वैसे ही वह मृत साधक मुक्त अवस्था को प्राप्त हो सकता है और ऐसी मुक्ति को भी विदेहमुक्ति ही कहा जाता है I
  • कपाल क्रिया के समय, यह सुनिश्चित करने के लिए कि कपाल छेदने वाले का भाव (भावनाएं) शुद्ध रहेंगे, उस मृत व्यक्ति के निकटतम परिजन, जैसे पुत्र या पौत्र इत्यादि को ही इस कार्य के लिए चुना जाता है I

 

सनातन गुरु आगे बोले… अब हम अग्नि दाह को जाने वाले पात्रों के बारे में बात करेंगे…

  • जो ब्रह्मचर्य आश्रम की बाल्यावस्था को पार किया है, और इसके पश्चात ही अपनी मृत्यु को पाया है I
  • जिसने गृहस्त आश्रम में बसकर अपना जीवनकाल पूर्ण किया है I ऐसा मनीषी गृहस्त आश्रम में बसा हुआ योगी भी हो सकता है I
  • जो वानप्रस्थ के चरण में प्रवेश नहीं कर पाए हैं I
  • जिन्होंने वानप्रस्थ की अवस्था को पार किए बिना अपना जीवनकाल पूरा कर लिया है, और इस प्रकार वह संन्यासी (त्यागी या भिक्षुक) नहीं रहे हैं।

 

सनातन गुरु आगे बोले… तो इस आधार पर…

  • अंतिम संस्कार की यह प्रणाली (या मृतकों का दाह संस्कार) उन सामान्य मनुष्यों के लिए है जिन्होंने अपना जीवन अपने परिवारों के भीतर अच्छी प्रकार से व्यतीत किया है, और जहां उनकी मृत्यु बाल्यावस्था को पार करके ही हुई है I
  • जिन्होंने अपना जीवन वैदिक विधाओं (या सनातन धर्म से जुड़ी किसी जीवन शैली) में जीया है, लेकिन उस प्रकार की आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त नहीं की है जिसके कारण वह साधक पूर्व में बताई गई जल समाधि (मृतकों का जल में विसर्जन) के लिए योग्य नहीं हो पाया है I

 

वैदिक अंतिम संस्कार का तीसरा प्रकार, …  भू समाधि से अंतिम संस्कार, भू समाधि क्या है?, बालक का अंतिम संस्कार, बाल्यावस्था की अंतिम संस्कार प्रक्रिया, …

सनातन गुरु आगे बोले… अब बताए जा रहे बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

  • इस मार्ग का नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है I
  • वैदिक मार्ग में बालक (बच्चे) का अंतिम संस्कार भू समाधि से होता है I इसका अर्थ हुआ कि बालक को दफनाया जाता है I
  • इसलिए जो पंथ अपने मृत को दफनाते हैं, वह काल और कालचक्र, दोनों के दृष्टिकोण से इस ब्रह्माण्ड में बालक ही हैं I उस अनादि अनंत सनातन काल के दृष्टिकोण से, वह सभी पंथ जो इस कलियुग के कालखण्ड में आए हैं, ऐसा बालक ही हैं, और इसीलिए ऐसे पंथों की परम्पराएं उनके मृतजनों को भू समाधि ही देती हैं I
  • यह भू समाधि नामक अंतिम संस्कार, जीव समाधि नहीं है I भु समाधि मृत को दी जाती है, जबकि जीव समाधि में जीवित होकर ही समाधिष्ट अवस्था में देह त्यागा जाता है, जिसके कारण जीव समाधि में स्वेच्छा से देह त्यागा जाता है I
  • यह भू समाधि नामक अंतिम संस्कार महासमाधि भी नहीं है, क्यूंकि महासमाधि में योगी स्वेच्छा से अपने प्राणों को कहीं पर भी त्याग सकता है और त्यागता भी है I इस प्रक्रिया में योगी अपने प्राणों की मस्तिष्क तक ऊपर उठाकर, उन प्राणों को विसर्गी बनाकर, उनको कपाल से बाहर निकालकर, विसर्गी बनाकर, उसी विसर्ग नामक ब्रह्म की द्योतक दशा में ही समा जाता है I और जहां इस महासमाधि को पाया हुआ योगी, अन्य पात्रों की मुक्ति का कारण और कारक भी बन सकता है I

 

वैदिक अंतिम संस्कार का चौथा प्रकार, … अंतिम भण्डारा क्या है, मृत शरीर का भण्डारा, भण्डारे से अंतिम संस्कार, … परित्यक्त शव का अंतिम संस्कार, त्यक्त शव का अंतिम संस्कार, …

सनातन गुरु आगे बोले… अब बताए जा रहे बिंदुओं पर भी ध्यान देना…

  • यह मार्ग उस मृत शरीर के लिए होता है, जो या तो परित्यक्त शव है और या उसके बारे में कुछ भी पता नहीं होता है I यह प्रक्रिया उन मृत शरीरों के लिए भी करी जा सकती है, जिनका न तो पंथ पता होगा और न ही वर्ण, आश्रम, परिवार, स्थान आदि ही पता होगा I जो अनाश्रित (का लावारिस) मृत शरीर होते हैं, उनका अंतिम संस्कार इस अंतिम भण्डारा नामक प्रक्रिया से किया जाता है I
  • इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया में साधक के शरीर का भण्डारा किया जाता है I
  • इस प्रक्रिया में साधक के शरीर किसी स्थान पर ले जाकर, उस शरीर को घाव देकर या काटकर, उन जीवों को भोजन रूप में दिया जाता है, जो ऐसा भोजन ग्रहण करते हैं I

 

सर्वोत्तम अंतिम संस्कार, … मृतक का गायब होना, साधक का तत्वों में विलीन होना, मृतक के शरीर का उसके मूल तत्त्वों में लय होना, … प्रकृति रूपी सार्वभौम ब्रह्मशक्ति को सिद्ध करे हुए योगी की अंतिम संस्कार प्रक्रिया, प्रकृति सिद्ध की अंतिम संस्कार प्रक्रिया, ब्रह्मशक्ति सिद्ध की अंतिम संस्कार प्रक्रिया, …

सनातन गुरु आगे बोले… अब बताए जा रहे बिंदुओं पर भी ध्यान देना… अंतिम संस्कार के इन चार प्रमुख प्रकारों के अतिरिक्त, एक और प्रकार होता है I किन्तु यह अन्तिम संस्कार प्रक्रिया का एक प्रकार होता हुआ भी, इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया के प्रकारों का अंग नहीं होता I और ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह मार्ग लौकिक प्रकार ही नहीं होता बल्कि यह योगमार्ग के अंतर्गत आता है I इसीलिए यह अंतिम संस्कार का प्रकार होता हुआ भी, नहीं होता है I तो अब इसको बताता हूँ…

  • इसमें वही योगी जाते हैं, जो उस दशा को पए होते हैं, जिसमें वह योगी तत्तवालीन हो चुका होगा I और ऐसा होने पर भी वह योगी, प्रकृति जो ब्रह्मशक्ति ही हैं, उन माँ प्रकृति का अनुग्रह प्राप्त करके ही उनका सिद्धि भी हुआ ही होगा I
  • इसमें योगी अपने मरणासन की दशा से पूर्व ही जान जाता है, कि उसके कायातीत होने का समय आने वाला है I ऐसी दशा में वह योगी किसी ऐसे स्थान पर जाता है, जो प्रकृति से संबध होता है, और शांत होता है I यह कोई दुर्गम और मानव शून्य स्थान हो सकता है जैसे कोई वन, पर्वत श्रंखला, या कोई गुफा या कंदरा भी हो सकती है, या उस योगी का वह निवास स्थान भी हो सकता है जिसमें शांत वातावरण हो I उस स्थान पर वह योगी भगवे वर्ण का उपयोग करता है, और उस वर्ण का ऐसा तम्बू सरीका बनता है, जिसमें वायु के आवागमन का मार्ग होता है I और इसके पश्चात, वह योगी उसमें बैठ जाता है I
  • लेकिन यदि उस योगी के पास इस तम्बू को बनाने के साधन न हो, तो वह प्रकृति से संबद्ध किसी स्थान पर जाकर (जैसे वन, पर्वत, गुफा, कन्दरा आदि कोई दुर्गम स्थान), अपने भाव साम्राज्य में ही ऐसा बनकर, उसमें बैठ जाता है I
  • इसके पश्चात, वह योगी अन्न जल आदि त्याग देता है, और साधनारत हो जाता है I और इसी साधनारत दशा में वह अपनी काया का परित्याग कर देता है I
  • काया के परित्याग के पश्चात, उसका मृत शरीर पञ्च महाभूतों में स्वतः लय होने लगता है, जिसके कारण उसके मृत शरीर का आकार दिन-प्रतिदिन छोटा होता चला जाता है I
  • और अंततः, उसका शरीर पञ्च तत्त्वों में ही लय हो जाता है I इस प्रक्रिया में इक्कीस दिवस तक लग सकते हैं I
  • ऐसा योगी पाँच वर्ण के प्रकाश (या छेह वर्ण के प्रकाश, यदि उस निर्गुण को भी लिया जाएगा, जो इन पांचों प्रकाश को भेदता भी है और जिसमें यह पांचो प्रकाश बसे हुए होते हैं) से युक्त एक गोलाकार प्रकाशमान सिद्ध शरीर को पाता है, और इस शरीर से वह योगी उस दशा में चला जाता है, जिसमें जाने का पात्र वह उसके जीवित होते हुए ही और उसके योगमार्ग की सिद्धि के अनुसार हुआ होगा I
  • वह दिशा जिसमें योगी चला जाता है, वो पञ्च महाभूत की हैं, इसलिए उस प्रकाशमान सिद्ध शरीर का वर्ण और गुण आदि भी पञ्च महाभूतों के अनुसार ही होता है I
  • वह प्रकाश से निर्मित सिद्ध शरीर जिसको वह साधक पाता है, उसमें नीला-बैंगनी वर्ण आकाश महाभूत को दर्शाता है, हल्का नीला वर्ण वायु महाभूत को दर्शाता है, लाल वर्ण अग्नि महाभूत को दर्शाता है, हरा वर्ण जल महाभूत को दर्शाता है, और हल्का पीला वर्ण पृथ्वी महाभूत को दर्शाता है I
  • इस प्रक्रिया में उस योगी का कुछ भी शेष नहीं बचता है, क्यूंकि उस शरीर का सबकुछ ही उस पञ्च रंगी प्रकाश में,शनैः शनैः ही सही, लेकिन पूर्णरूपेण बदल जाता है I लेकिन इस प्रक्रिया में, ऐसे योगी के शरीर के कुछ जड़ प्रकृति से जुड़े हुए भाग (जैसे नख, बाल, इत्यादि) बाकी भी रह सकते हैं I यदि यह जड़ प्रकृति से जुड़े हुए भाग शेष रह गए, तो इनकी जल समाधी ही हो सकती है I
  • ऐसे वह उत्कृष्ट योगी होते हैं, जिन्होंने प्रकृति के सर्वव्यापक मातृ और सार्वभौम ब्रह्मशक्ति स्वरूप को अपने योगमार्ग के साक्षात्कारों से ही पूर्णरूपेण जाना होगा I
  • और इस प्रकाश के शरीर का आलम्बन लेके, अंततः शाक्त मार्ग के ऐसे उत्कृष्ट योगी, इन पञ्च तत्त्वों से संबद्ध, पञ्च कृत्य और उनके पञ्च देव सहित, पञ्च ब्रह्म में भी लय हो जाते हैं I
  • इस लय प्रक्रिया में, उस प्रकाशमान सिद्ध शरीर का पीला वर्ण का प्रकाश सद्योजात ब्रह्म में लय होगा, हरे वर्ण का प्रकाश अघोर ब्रह्म में लय होगा, लाल वर्ण का प्रकाश तत्पुरुष ब्रह्म में लय होगा, हलके नीले वर्ण का प्रकाश वामदेव ब्रह्म में लय होगा और अंततः, वह बैंगनी वर्ण का प्रकाश अव्यक्त प्रकृति को जाकर, ईशान ब्रह्म में लय होगा I
  • और क्यूँकि पञ्च ब्रह्म के साथ उनकी दिव्यता, पञ्च मुखी गायत्री भी होती हैं, इसलिए पञ्च ब्रह्म में लय हुआ ऐसा योगी, उन पञ्च मुखा गायत्री में भी लय हो जाता है I
  • यही कारण है कि उस योगी के प्रकाशमान सिद्ध शरीर के पीला वर्ण का प्रकाश माँ गायत्री के हेमा मुख में लय होगा, हरे वर्ण का प्रकाश माँ गायत्री के नील मुख में लय होगा, लाल वर्ण का प्रकाश माँ गायत्री के विद्रुमा मुख में लय होगा, हलके नीले वर्ण का प्रकाश माँ गायत्री के धवला मुख में लय होगा और अंततः, वह बैंगनी वर्ण का प्रकाश अव्यक्त प्रकृति को जाकर, माँ गायत्री के मुक्ता मुख में लय होगा I
  • यही कारण है, कि यह मार्ग भी पञ्चब्रह्म गायत्री सिद्धांत के अंतर्गत ही है I
  • ऐसे होने के कारण, ऐसे पञ्च प्रकाश के सिद्ध शरीर को पाए हुए योगीजन, कभी भी किसी मृत्युलोक में योनिजन्म मार्ग से लौटकर नहीं आते हैं I और यदि ऐसे योगीजन किसी स्थूलादि काया रूप में लौटाए जाते हैं, तो वह किसी बिशेष कार्य को क्रियान्वित करने हेतु ही लौटाए जाते हैं, और जहां उनका आगमन भी परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही हो पाता है I
  • यही अंतिम संस्कार का उत्कृष्टम स्वरूप है, जिसमें वह योगी उसकी मृत्यु प्रक्रिया के समय ही चला जाता है और उसका शरीर इन प्रकाशों में परिवर्तित हो जाता है, और इस प्रक्रिया में उस योगी के स्थूल शरीर का आकार सिकुड़ते सिकुड़ते छोटा होता ही चला जाता है, और इस प्रक्रिया के अंत में उस योगी का शरीर अदृश्य ही हो जाता है I
  • यदि ऐसा योगी ब्रह्मद्रष्टा भी रहा होगा, तो इस प्रक्रिया के अंत में वह उस आत्मस्वरूप को पाएगा, जो पूर्णब्रह्म कहलाता है और जिसका नाता ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति, दोनों से ही सामान रूप में रहता है I यही दशा इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया की सर्वोत्कृष्ट दशा है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारक संकेत भी दिया I

 

अंतिम संस्कार से उत्कर्षपथ में गति और स्थिति का ज्ञान, अंतिम संस्कार से किसी भी पंथ या मार्ग की उत्कर्षपथ में गति और स्थिति जानी जा सकती है, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी भी पंथ या मार्ग की काल में स्थिति, …

सनातन गुरुदेव बोले… कलियुग के काली काया के दुष्प्रभाव के कारण, उस पुरातन वैदिक आर्य मार्ग का खण्डित स्वरूप प्रकट हुआ है, और जो आज के पृथक-पृथक पंथों के स्वरूप में प्रतीत भी हो रहा है I इसके कारण वह सनातन वैदिक आर्य मार्ग कई भागों में विभाजित हुआ सा भी प्रतीत हो रहा है I और आज के समय पर, जबकि यह भाग पृथक से ही दिखाई देते हैं, परन्तु तब भी यह सभी भाग, उसी पुरातन सनातन वैदिक आर्य धर्म के पृथक अंग होकर ही रहे हैं I और इस बिंदु का प्रमाण भी इन सभी पंथों की अंतिम संस्कार प्रक्रिया से जाना जाता है, क्यूंकि विभाजित होने पर भी, इनकी अंतिम संस्कार प्रक्रिया वैदिक वाङ्मय के अंतिम संस्कार प्रक्रिया के चतुष्टय स्वरूप में से किसी न किसी स्वरूप को ही धारण करके बैठी हुई है I और इसी अंतिम संस्कार प्रक्रिया के अध्ययन में यह बिंदु भी स्पष्ट रूप में उद्भासित होता है, कि यह सभी कलियुग के कालखण्ड में आए हुए पंथ, उसी सनातन वैदिक वाङ्मय से ही उत्पन्न हुए हैं, जिसके कारण यह सभी उसी सनातन वैदिक आर्य धर्म के अभिन्न अंग ही हैं I

हृदय में बसे हुए सनातन गुरुदेव आगे बोले… किसी भी पंथ (या मार्ग) की अंतिम संस्कार प्रक्रिया से उस पंथ (या मार्ग) का ब्रह्माण्डीय पदानुक्रम और ब्रह्माण्डीय काल में स्थिति को जाना जा सकता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि ब्रहम रचना में जो भी है, जिधर भी है, जिस भी गति और स्तिथि में है, जिस भी कालखण्ड में और काल इकाई में है, वह सब ब्रह्म के द्वारा रचित ब्रह्माण्ड में ही है I और ऐसा होने पर भी ब्रह्माण्ड सहित, इस ब्रह्मरचना में जो भी उत्पन्न हुआ है, वह सब उसी काल के गर्भ में स्थित है, जिसमें समस्त ब्रह्मरचना को बसाया गया था I और जहां वह काल का चक्र स्वरूप में प्रादुर्भाव भी उन्ही ब्रह्म के हिरण्यगर्भात्मक स्वरूप से हुआ था I तो अब जो बताया जा रहा है, उसको ध्यान से सुनो…

 

पहली परिस्थिति, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से पंथ और मार्ग की बाल्यावस्था का ज्ञान,  बाल्यावस्था से संबंधित पंथ, बाल्यावस्था का पंथ, काल के दृष्टिकोण से बाल्यावस्था का पंथ, … 

  • जो मार्ग या पंथ ब्रह्माण्डीय काल के दृष्टिकोण से बाल्यावस्था में हैं, उनकी अंतिम संस्कार प्रक्रिया भू समाधि की ही होती है I
  • क्यूंकि कलियुग ऐसे बालक पंथ और मार्गों का ही युग है, इसलिए कलियुग के कालखण्ड में ऐसे मार्गों का पालन करने वाले मानव, अधिक संख्या में ही होते हैं I यही कारण भी है कि इस कलियुग में भी मृत शरीर की भू समाधी को मानने वालों की संख्या भी बहुत अधिक ही है I
  • यही कारण है कि इस कलियुग के प्रकटीकरण से थोड़ा सा पूर्व समय से जितने भी पंथ और मार्ग आए और इस पृथ्वीलोक पर अधिक फैले, उन सब में मृत शरीर को दफनाया ही जाता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि कलियुग ही ऐसे बाल्यवस्था के पंथों का युग होता है I
  • ऐसे सब मार्ग और पंथ इस बात का प्रमाण भी देते हैं, कि उस सनातन काल के दृष्टिकोण में, वह सब बाल्यावस्था में ही है I
  • और यही प्रमाण उनके ग्रंथों के देवताओं में भी पाया जाता है, इसीलिए ऐसे सब मार्गों और पंथों के देवता भी अभिमानी ही होते हैं I उस ब्रह्माण्डीय काल के दृष्टिकोण से, जितनी छोटी बाल्यवस्था को वह मार्ग या पंथ दर्शाता होगा, उतना ही अभिमानी उसका देवता भी होगा और उतनी ही अराजकता (या अव्यवस्था) में बसा हुआ वह मार्ग भी होगा I
  • उस सनातन काल के दृष्टिकोण से ऐसे बाल मार्गों जो जानने की प्रक्रिया भी सरल ही है… बस इतना ही देखो कि वह मार्ग अपने देवता की ओर कितना घोर आकर्षण लाता है, उस मार्ग में अष्टांग योग के बिंदुओं का कितना उलंघन किया जाता है, और उस मार्ग के प्रकटीकरण के पश्चात, उसको इस धरा पर फैलाने के समय क्या-क्या दुष्कर्म किया गया था I
  • ऐसे मार्ग को मानने वाले बालकों के समान, सबकुछ अपने ही बनाना चाहते हैं, इसलिए उनमें यह सिद्धांत भी होगा ही, कि सबको अन्य सभी मार्गों से बाहर निकालकर, अपने मार्ग में लाओ और इसके लिए चाहे जो भी करना पड़े… उसको करो I
  • जैसे जन्म के पश्चात, बच्चे बहुत तीव्रता से बढ़ते हैं, वैसे ही यह मार्ग भी बढ़ते हैं I जैसे बच्चे तोड़ फोड़ मचाते ही रहते हैं, वैसे ही इन सभी बाल्यवस्था के मार्गों के अनुयायी भी होते हैं I
  • जैसे बच्चे बिना कमाए ही मान लेते हैं, कि उनके पूर्वजों का सबकुछ उनका ही है, वैसे ही यह सब पंथ भी होते हैं, जो अपने पूर्वजों की परंपराओं को उन पूर्वजों से संबद्ध नहीं, बल्कि अपना ही मानते हैं I जैसे बच्चे अपनी प्रशस्त परम्पराओं को नहीं जानते हुए भी, मानते हैं कि वह सब जानते हैं, और उन्हें मन घडन्त प्रकार से पालन करते हैं, वैसे ही इन बालक रूप पंथों के अनुयायी भी होते हैं I
  • जैसे बच्चे जानते तो कुछ नहीं हैं, पर तब भी मानते हैं कि उनकी मन घडन्त जीवन शैली ही सही है, वैसे ही इन पंथों के अनुयायी, ग्रंथ और उनके जीवन मार्ग भी होते हैं I
  • जैसे बच्चे घर में उद्धम मचते ही रहते हैं, वैसे ही इन बालक रूप पंथों के अनुयायी भी होते हैं, जो समय समय पर उद्धम मचते ही रहते हैं I
  • जैसे बच्चे बोलते हैं, की घर उनका है न की उनके पूर्वजों का, वैसे ही वैसे ही इन बालक रूप पंथों के अनुयायी भी होते हैं I
  • इसलिए ऐसे मार्गों में समय-समय पर इनको मानने वाले अराजकता को भी पाते हैं, जिसके कारण ऐसा मार्गों में कलह कलेश और फिर कुछ समय के लिए शान्ति… ऐसा चक्र चलता ही रहता है I
  • जो मार्ग अपने मृतकों को दफनाते हैं, वह ब्रह्माण्ड की आयु के दृष्टिकोण से बच्चों के समान हैं, और ऐसे होने के अतिरिक्त वह उसी ब्रह्माण्ड के उत्कर्ष पदानुक्रम के भीतर भी बच्चों के समान ही हैं। और जैसे बच्चे उद्धम मचाते हैं, वैसे ही यह मार्ग भी होते हैं I
  • क्यूंकि बच्चों को पता ही नहीं होता, कि ब्रह्म की रचना में बसे हुए उत्कर्षपथ अनादि अनंत और सनातन ही है, इसलिए ऐसे बालक रूप पंथों के ग्रंथ भी किसी अंत समय की बात करते हैं, जिसका वास्तविकता से कुछ भी लेना देना नहीं होता I यही कारण है कि ऐसे पंथों में कालचक्र नामक कोई ज्ञान नहीं होता, बल्कि केवल अंत समय का कोई ज्ञान होता है I ब्रह्मरचना की समय गणना में बाल्यावस्था में होने के कारण, ऐसे पंथों में न सद्योमुक्ति, न विदेहमुक्ति, और न ही जीवनमुक्ति का कोई सिद्धांत पाया जाएगा I

 

दूसरी परिस्थिति, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी पंथ और मार्ग की युवावस्था का ज्ञान, …

  • जो पंथ या मार्ग अपने मृतकों को अग्नि दाह करते हैं, वह ब्रह्माण्डीय काल के दृष्टिकोण से बालिग (या वयस्क) ही होते हैं I और जहां उस बालिग (या वयस्क) को संन्यास आश्रम में भी नहीं होना होगा I
  • ऐसे पंथ या मार्ग के देवता अभिमानि भी होते हैं और अनाभिमानी भी I इसलिए यह मार्ग अभिमानी और अनाभिमानी, दोनों प्रकार के देवताओं के होंगे I
  • ब्रह्माण्डीय काल के दृष्टिकोण में ऐसे पंथ, गृहस्त और वानप्रस्थ, दोनों ही आश्रमों के द्योतक होते हैं I

 

तीसरी परिस्थिति अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी पंथ और मार्ग की मार्गहीन दशा का ज्ञान, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी पंथ की लावारिस दशा का ज्ञान, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी पंथ और मार्ग की अस्वामिक दशा का ज्ञान, अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी पंथ और मार्ग की अनाश्रित दशा का ज्ञान, …

  • जो पंथ या मार्ग अपने मृतकों का भण्डारा करते हैं, वह ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण से अनाश्रित (लावारिस) ही माने जाते हैं I और ऐसा होने के कारण, ऐसे मार्ग और पंथ को ब्रह्माण्ड से ही तबतक परित्यक्त किया गया होगा, जबतक वह अपने को सुधार न लें I और इस सुधरने की भी एक समय सीमा होती है I
  • यदि जो निर्धारित समय इस मार्ग को दिया गया होगा, वह व्यतीत होने वाला होगा, तो इस मार्ग या पंथ को मानने वालों की संख्या वृद्धि में ही बाधा आने लगेगी, जिसके कारण ऐसे समय खण्ड में इस मार्ग को मानने वालों की संख्या तीव्रता से गिरने भी लग जाएगी I यह वह प्रमाण है, कि जो समय इस मार्ग या पंथ को सुधरने के लिए दिया गया था, वह पूर्ण होने वाला है I और उस कालखण्ड के समीप आने पर, ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं ऐसे मार्ग को मानने वालों को पुरुषार्थ के दृष्टिकोण से समृद्ध बनाती हैं, ताकि उस समृद्धि से ही सही, लेकिन वह अपने को सुधार लें I
  • जबतक ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं किसी पंथ या मार्ग को परित्याग नहीं करेंगी, तबतक उस मार्ग को मानने वालों में अंतिम भण्डारा की प्रथा भी उद्भासित नहीं होगी I अंतिम भण्डारा उनका ही होता है, जो किसी कारणवश, जैसे विकृत मार्गों पर जाकर, ब्रह्माण्ड द्वारा ही ठुकराए गए हैं I
  • क्यूंकि यह मार्ग ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा परित्याग करने के कगार पर ही खड़े हुए हैं, इसलिए यह न बहुवादी होते हैं और न ही अद्वैत I ऐसा होने के कारण यह उस ब्रह्म और उस ब्रह्म की सार्वभौम शक्ति, जो प्रकृति हैं, उन दोनों में से किसी के अंतर्गत भी पूर्णरूपेण नहीं आ पाते I
  • किसी भी कलियुग के कालखण्ड में, प्रथम विकृत एकवादी मार्ग (अर्थात मोनोथेइसम का प्रथम मार्ग) इन्ही परित्याग करे हुए मार्ग के मनीषियों द्वारा स्थापित किया जाता है I और यह स्थापित भी इसलिए होता है, क्यूंकि इस मार्ग को सुधारने का समय मिल सके I
  • ऐसे मार्गों को सुधरने की समय सीमा भी अधिकांशतः नौ हजार वर्षों ही होती है I
  • अधिकांशतः ऐसे मार्ग मानव कलियुग में या मानव कलियुग के समीप के कालखण्डों में ही प्रकट होते हैं, और वह भी तब, जब दर्शन रूपी गंतव्य मार्ग को दर्शाने वाली परदादी, जो सनातन वैदिक आर्य धर्म ही हैं, सुषुप्ति में जाने वाली होती हैं, और जहां उनकी सुषुप्ति भी 9000 वर्ष के कालखण्ड की ही होती है I
  • पृथ्वी का वह चक्र, जो विषुव का पूर्वगमन चक्र कहलाता है, और जिसकी पातालपुरी की इकाई में समय सीमा 25,920 वर्षों की होती है, इस समयकाल में यह सर्वदर्शन की परदादी, अर्थात आर्य वैदिक धर्म 9072 वर्षों तक सुसुप्ति में रहती हैं I और ऐसे समय पर ही विकृत एकवाद का उदय होता है I
  • पृथ्वी के अभी चल रहे विषुव के पूर्वगमन चक्र में, यह कालखण्ड 6,990 इसा पूर्व (+/- 7 वर्ष) में प्रारम्भ हुआ था I 1974 ईस्वी से 2.7 वर्षों में चलित हुए 108 वर्ष के कालखण्ड से, और अभी के समय खण्ड में यह दर्शन की परदादी जी, जागृत अवस्था को पाकर, अपने शयन शय्या पर ही बैठकर अपने ब्रह्माण्ड रूपी गृह की अव्यवस्था का अध्ययन कर रही हैं I और 2028.74 ईस्वी से 2.7 वर्षों के आते आते, यह समस्त मार्गों की परदादी अपने ब्रह्माण्ड रूपी गृह को सुधरने भी लग जाएंगी I और इस समय खण्ड तक यदि इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया को मानने वाले मनिषि नहीं सुधरे, तो आगामी गुरु युग में उनका कुछ भी नहीं बचेगा I
  • ऐसे मार्गों के मनीषी तबतक ही फलते-फूलते हैं, जबतक पृथ्वी का विषुव चक्र पाताल लोक में गमन करता है I यह समय खण्ड 786 ईस्वी में आया था I और इस समय के पश्चात, इनपर व्याधियां भी आती हैं, जिनसे यह पंथ के लोग अपने मूल स्थान को त्यागने पर भी बाध्य हो जाते हैं I
  • और जब गुरु युग का आगमन समय समीप आता है, तब यदि यह बहुवादी अद्वैत मार्गों में परिवर्तित नहीं होते, तो उस गुरुयुग की आगमन प्रक्रिया में ही इनका समूल नाश सा ही हो जाता है I इस दशा के आने से पूर्व, इनकी जनसँख्या भी गिरने लगती है I पृथ्वी के अभी के अग्रगमन चक्र में, यह दशा 1974 ईस्वी से चालित हुई थी I और जबतक इस समय से 108/2 वर्ष का समय आता है, जो अभी के समयखण्ड के अनुसार 2028 ईस्वी से 7 वर्षों के भीतर आएगा, तबतक यह बिंदु स्पष्ट भी हो जाएगा, कि इन मार्गों के अनुयायी यह अगले युग में जाएंगे… या नहीं I
  • यह पंथ और इनके मार्ग हिरण्यगर्भ ब्रह्म के कार्य ब्रह्म स्वरूप से जुड़े हुए होते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… अब इस भाग का निष्कर्ष सुनो I अंतिम संस्कार प्रक्रिया से किसी भी मार्ग या पंथ की ब्रह्माण्डीय काल में स्थिति को जाना जा सकता है I और इसी प्रक्रिया से उसके बारे में और बहुत कुछ जाना जा सकता है, जैसे उसकी उत्कर्षपथ पर गति और ब्रह्माण्डीय पदानुक्रम में स्थिति I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

कालखंडों के अंत में अंतिम संस्कार प्रक्रिया, …

सनातन गुरुदेव बोले… पृथक कालखण्डों के अंत में भी यही अंतिम संस्कार प्रक्रिया स्वतः ही किसी न किसी स्वरूप में चलित होती है I और ऐसे समयखण्डों में, इसी अंतिम संस्कार प्रक्रिया के स्वयं चलित हुए प्रकार से भी यह जाना जा सकता है कि उस समय के अधिकांश जीव उत्कर्ष की किस स्थिति और गति में हैं I तो अब इसके उदाहरणों को भी ध्यानपूर्वक सुनो…

 

प्रथम उदाहरण, … मन्वंतर का अंत समय और जीवों की जल समाधि, मन्वंतर के अंत में जल प्रलय का कारण, मन्वंतर के अंत में जल प्रलय, …

सनातन गुरु आगे बोले… मन्वंतर के अंत में जल विप्लव आता है I यह जल से आया हुआ विप्लव भी तब आता है, जब उस मन्वंतर के समय में अधिकांश जीव अपने उत्कर्ष मार्गों के अनुसार संन्यासी से ही हो गए होंगे I वह जीव जो उस मन्वंतर के प्रारम्भ में अपने उत्कर्षपथ पर चले होंगे, वह बहुत अधिक संख्या में त्याग भाव को पा चुके होंगे, जब मन्वंतर का अंत होगा I इसलिए ऐसे मन्वंतरों के अंत में जल प्रलय आता है, जिसके कारण ऐसे जीव, जल समाधि को पाते हैं और जो दर्शाती है कि उस मन्वंतर के अंत के जीव, अधिकांशतः संन्यास और त्याग भाव को पा चुके हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… जल समाधि इस बात का प्रमाण भी है, कि उस मन्वंतर के मनु ने अपना कार्य सम्पूर्ण कर लिया है, और जहां वह कार्य उन मन्वंतर के समय के जीवों के उत्कर्ष मार्ग पर प्रगति को भी दर्शा रहा होगा, जिसके कारण वह जीव त्याग भाव को पाए होंगे I और इसलिए ऐसे मन्वंतर के अंत में जल प्रलय आती ही है I यह उस बात का भी प्रमाण है, कि जो जीव उस मन्वंतर के मनु के साथ आए होंगे, उनके उत्कर्षपथ पर प्रगति से वह संन्यास के समान दशा को पा गए होंगे I और इस बात का प्रमाण भी उस मन्वंतर के अंत में आई जल प्रलय और उन जीवों की जल समाधि से ही मिलेगा I

सनातन गुरु आगे बोले… उस मन्वंतर के अंत में, केवल वह उत्कृष्ट जीव (योगीजन) ही शेष रहते हैं, जिन्होंने अगले मन्वंतर में जाने के लिए या तो स्वेच्छापूर्ण अनुमति दी होगी या उनको अगले मन्वंतर में जाने के बीज रूप जानकार, उनको बचाया जाएगा I इसलिए ऐसे मन्वंतरों के अंत में अधिकांश जीवों का देहवसान होता है, और वह भी एक विशालकाय जाल विप्लव और उसके कारण पाई गई जल समाधि से I

 

दूसरा उदहारण, … ब्रह्म कल्प का अंत समय और जीवों की अग्नि समाधि, ब्रह्मकल्प के अंत में अग्नि प्रलय का कारण, ब्रह्म कल्प के अंत में अग्नि प्रलय, ब्रह्म कल्प के अंत में अग्नि समाधि, …

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ब्रह्म कल्प के अंत में आकाश गंगाएं आपस में टकराती है, जिसको नेमित्तिक प्रलय कहा जाता है I इस टकराने में नीचे के तीन लोक नष्ट हो जाते हैं, जो भू:, भुवः और स्वः कहलाते हैं, और इसलिए ऐसे समय पर इस आकाश गंगा से तीन बार अन्य आकाशगंगाएं टकराती हैं I इस टकराने का समय भी कल्प के अंत से 1,728,000 वर्षों के भीतर ही होता है I

सनातन गुरु आगे बोले… ऐसे समय पर जब उस कल्प के और उन आकाश गंगाओं के अधिकाँश जीव गृहस्त आश्रम में ही बसे होते हैं, तब उन आकाश गंगाओं के आपस में टकराने से अग्नि प्रलय होता है, और इसके कारण उन आकाश गंगाओं के अधिकांश जीव अग्नि समाधि को पाते हैं I क्यूंकि उत्कर्षपथ के अनुसार, उन आकाश गंगाओं के सभी लोक जिनमें जीव निवास करते हैं, इस पृथ्वी लोक के समान उत्कृष्ट नहीं होते, इसलिए जब हम आकाश गंगा के दृष्टिकोण से उन जीवों के उत्कर्षपथ को देखेंगे, तब यही पाएंगे कि अधिकांश जीव उसी स्थिति में हैं, जहां वह गृहस्त आश्रम में ही पाए जाएंगे I और क्यूंकि, ब्रह्म कल्प के अंत में, उस ब्रह्मकल्प का चौदहवां (अर्थात अंतिम) मन्वंतर भी समाप्त हो रहा होगा, इसलिए जबकि इस पृथ्वी जैसे उत्कर्ष लोकों के जीव जल समाधि के पात्र ही होंगे, लेकिन तब भी आकाश गंगा के जीवों के परिपेक्ष में उनकी संख्या बहुमत की नहीं होगी, जिसके कारण कल्प के अंत में यह पृथ्वी लोक भी पहले के जल प्रलय से ही, आगे के अग्नि प्रलय को ही जाएगा I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ब्रह्म कल्प के अंत में, जबकि यह पृथ्वी लोक वास्तव में जल समाधि का पात्र होता है, लेकिन तब भी जब हम आकाश गंगा के समस्त लोकों के जीवों को देखते हैं, तो वह सभी जीव अधिकाँशतः और मुख्यतः जल समाधि नहीं, बल्कि अग्नि समाधि के ही पात्र पाए जाते हैं I यही कारण है कि कल्प के अंत में, जो अग्नि प्रलय आती है, उस अग्नि प्रलय से यह पृथ्वी लोक भी अछूता नहीं रह पाता है I और ऐसा तब ही होता है जब मन्वंतर के अंत होने के कारण, इस पृथ्वी लोक के जीवों को जल प्रलय ही प्राप्त होनी चाहिए थी, न की अग्नि प्रलय की I यही कारण है कि कल्प के अंत में जो नेमित्तिक प्रलय आती है, वह मुख्यतः अग्नि प्रलय से ही संबद्ध होती है I

 

तीसरा उदाहरण, … सूर्य परिक्रमण क्रांति चक्र और भू समाधि, सूर्य परिक्रमण क्रांति के अंत समय पर खण्ड प्रलय, सौर परिक्रमण क्रांति चक्र पर खण्ड प्रलय, आकाश गंगा वर्ष के अंत समय पर खण्ड प्रलय, … सौर परिक्रमण क्रांति चक्र और भू समाधि, सूर्य परिक्रमण क्रांति और खण्ड प्रलय, …

सनातन गुरुदेव बोले… आकाश गंगा में गति करते सूर्य की एक परिक्रमण क्रांति का काल की मध्यम इकाई में समय 21.6 करोड़ वर्ष का होता है I इस समय खण्ड में, जो आकाशगंगा के वर्ष को भी दर्शाता है, इस पृथ्वी नामक ग्रह के महाद्वीप टूट जाते हैं (अर्थात महाद्वीपीय बहाव प्रकट होता है) I और फिर इसी सौर परिक्रमण क्रांति चक्र के बाद के चरणों के दौरान, ये महाद्वीप जो पूर्व के समय खण्डों में एक दूसरे से पृथक हुए थे, वह सब आपस में जुड़ने लगते हैं, और अन्ततः जुड़ भी जाते हैं I इसलिए, इसी समयखण्ड में जो सूर्य की आकाश गंगा के भीतर हो रही परिक्रमण क्रांति का होता है, उसमें महाद्वीप एक दुसरे से पृथक भी होते हैं, और आगे के समय में वह एक दुसरे से पुनः जुड़ भी जाते हैं I जैसे-जैसे यह प्रक्रिया चलती रहती है, वैसे-वैसे इसी सौर परिक्रमण क्रांति चक्र के विशेष समयखण्डों में भूमिकम्प की भरमार आती है, जिससे इस ग्रह के जीव भी बहुत बड़ी संख्या में भू समाधि को पाते हैं I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… और इस प्रकार एक महाद्वीपीय बदलाव होता है जो सौर क्रांति चक्र के दौरान होता है I जब सूर्य आकाशगंगा के केंद्र के चारों ओर घूमता है, तब इस प्रक्रिया से ही, समय समय पर यह प्रलय आती है, और ऐसे समय पर इस पृथ्वी लोक के जीव बहुत अधिक मात्रा में, भू समाधि को पाते हैं I यह प्रलय भी या तो किसी मानव और देवादि युग के अंतिम कालखण्डों में आती है और या तब आती है जब वह युग कुछ समय के लिए स्तम्भित किया जा रहा होता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसा ही भूमि से संबद्ध प्रलय, जल प्रलय के साथ पृथ्वी के विषुव चक्र के पूर्ण होने के समय पर भी आता है I ऐसे समय पर, उन बहुमूकम्पों से ज्वालामुखी भी फटते हैं और जल प्रलय भी आती है,इसलिए जबकि ऐसा समय खण्ड मुख्यतः भु समाधि का ही होता है, परन्तु जो जीव जल समाधि और अग्नि समाधि के पात्र होंगे, वह इन्हीं समाधियों से जाऐंगे और जिन स्थानों पर ऐसे जीवों की मात्रा अधिक होगी, उन्हीं स्थानों पर उन जीवों में से अधिकांश की आंतरिक और उत्कर्ष स्थिति के अनुसार ही कोई प्रलय आएगी I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… ऐसे समय पर इस पृथ्वी लोक पर रहने वाले परग्रही जीव, जो इस पृथ्वी लोक के बाग़बान (अर्थात भू-बाग़बान) ही हैं, वह दिखाई देने लगते हैं क्यूंकि उनको पता चल जाता है, कि आगामी कालखण्ड में इस पृथ्वी लोक में भूमि आदि कंपन से बहुत बड़ी प्रलय आने वाली है, जिससे बचने के लिए उनको कुछ समय के लिए सावधान रहना पड़ेगा I अभी का कालखण्ड इसी प्रक्रिया का है, जिसमें भू, जल, अग्नि और वायु तत्त्व खंडित रूप में ही सही, लेकिन प्रलयंकारी स्वरूप धारण करेंगे I

 

चौथा उदहारण, … देवयुग चक्र के अंत समय पर जीवों की स्थिति और समाधि, …

सनातन गुरुदेव बोले… एक देवयुग चक्र या महायुग चक्र में चार देवयुग होते हैं I ऐसे युगों के अंत समय मे जीवों का अंतिम संस्कार इसपर निर्भर करता है, कि कौन सा युग अंत हो रहा है और कौन सा युग प्रारम्भ होने वाला है I इसलिए ऐसे समय पर, जीवों के अंतिम संस्कार प्रक्रिया का कोई निश्चित नियम नहीं है I इसलिए ऐसा समय पर, इस पृथ्वी लोक पर जिस भी स्थान के अधिकांश जीव जैसे उत्कर्षपथ और गति पर रहे होंगे, वैसी ही उनकी अंतिम संस्कार प्रक्रिया भी चलित हो जाएगी I इस पृथ्वी लोक के जिस स्थान के अधिकांश जीव अपनी उत्कर्ष गति के अनुसार जैसे होंगे, वैसे ही उनकी समाधि भी होगी I ऐसे समय पर श्री हरि के अवतार भी इस पृथ्वी लोक पर आते हैं और वही इस बिंदु की गति को भी सुनिश्चित करते हैं I

 

पांचवां उदहारण, … मानव युग चक्रों के अंत में जीवों की स्थिति और समाधि, …

सनातन गुरु बोले… मानव युग चक्र के भागों के अंत में, जीवों की समाधि के प्रकार और उनके अंतिम संस्कार भी इस बात पर ही निर्भर करते हैं कि उनके निवास स्थानों पर, अधिकांश जीवों की उत्कर्ष मार्ग में स्थिति और गति की क्या दशा है I जिस स्थान पर जिस प्रकार के जीव होंगे, उस स्थान पर वैसी ही अंतिम संस्कार प्रक्रिया चलेगी और इसी प्रक्रिया के अनुसार ही उस स्थान पर विप्लवों की बाढ़ भी आएगी I इसलिए ऐसे समय पर इस अंतिम संस्कार प्रक्रिया का भी कोई निश्चित नियम नहीं है I ऐसे समय पर कोई उत्कृष्ट योगी उस लोक में आता ही है, जिसमें मानव युग परिवर्तन प्रक्रिया या तो चालित होने वाली होती है और या चलित हो चुकी होती है I लेकिन जब गुरु युग का आगमन होना होता है, तब जो योगी आएगा वह महेश्वर के लोक से ही लौटाया जाएगा, जिसके कारण ऐसे योगी को महेश्वर का योगी भी कहा जा सकता है I

नन्हा विद्यार्थी समझ गया और उसने अपने गुरुदेव को अपना सर आगे पीछे हिलाकर इसका पुष्टिकारी संकेत भी दिया I

 

बालक, वयस्क, बुजुर्ग या परित्यक्ता तंत्र की अवस्था कैसे जानें, … किसी भी पंथ या मार्ग की स्थिति जानने का मार्ग ब्रह्मा जी की आयु है, किसी भी पंथ की स्थिति जानने का मार्ग ब्रह्मा जी की आयु है,  किसी भी मार्ग की स्थिति जानने का मार्ग ब्रह्मा जी की आयु है, …

सनातन गुरुदेव बोले… इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, अब तक अनंत ब्रह्मा आकर चले जा चुके हैं, और इसलिए, अनंत बार यह महाब्रह्माण्ड बनाया और नष्ट भी हुआ है I जब भी कोई पितामह ब्रह्मा अपना पद त्यागते हैं, तो वह त्याग भी संन्यासी होकर ही हो पाता है, इसलिए ब्रह्मा भी अपनी अंतगति में संन्यास आश्रम में जाते हैं, और वैदिक वाङ्मय द्वारा प्रशस्त किए हुए संन्यास आश्रम में बसकर ही वह अपना पद त्यागते हैं, जिसके कारण उनका निर्मित महाब्रह्माण्ड भी नष्ट हो जाता है, क्यूंकि उस महाब्रह्माण्ड के रचैता ने ही उस महाब्रह्माण्ड से संन्यास ले लिया होता है I और यही कारण होता है, कि अपने रचैता के समान वह महा ब्रह्माण्ड भी संन्यास को धारण करके, महाप्रलय को पाता है I

सनातन गुरुदेव आगे बोले… लेकिन इस बिंदु को पितामह ब्रह्मा जी की आयु के अनुसार ही जानना होता है, और जहाँ उन पितामह ब्रह्मा की आयु की समय इकाई भी ब्रह्म लोक की ही होती है I ब्रह्म लोक की इकाई में पितामह ब्रह्मा की आयु 100 वर्षों की है, और यही आयु जब इस पृथ्वी लोक की मध्यम इकाई (अर्थात वैदिक इकाई) में जानी जाएगी, तो वह आयु 311.040 लाख करोड़ वर्ष पाई जाएगी, इसलिए ब्रह्मा जी का एक वर्ष 3.1104 लाख करोड़ सूर्य वर्षों का होता है, और वह भी इस पृथ्वी लोक के समय की मध्यम इकाई में I

सनातन गुरु आगे बोले… अभी के समय पर पितामह ब्रह्मा जी का इक्यावनवाँ वर्ष चल रहा है, इसलिए इस दृष्टिकोण से, ब्रह्मा जी बस वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश ही करे हैं I तो अब ब्रह्मा जी की आयु के अनुसार यह जानते हैं, कि यहाँ बताई गई बाल्यवस्था, वयस्क, बुजुर्ग या परित्यक्ता की आयु कितनी होनी चाहिए, इसलिए इसपर ध्यान देना…

  • किसी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) की बाल्यावस्था तबतक ही होती है जबतक उस मार्ग या पंथ ने 25 ब्रह्मा वर्ष पार नहीं किये होते हैं I इसकी समय सीमा इस लोक के समय की मध्यम इकाई के अनुसार, 25 गुना 1104 सूर्य वर्षों की होगी I तो इसका अर्थ यह हुआ, कि जिस उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) की आयु ब्रह्मा जी के पच्चीस वर्षों के काम की होगी, वह बाल्यावस्था में ही है I इस अवस्था में बसे हुए मार्ग या पंथ को ब्रह्मचर्य आश्रम का ही माना जाता है I इसलिए जितने भी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) ब्रह्मा की 25 वर्ष की आयु के भीतर की आयु के होंगे और इतना ही समय वह इस ब्रह्माण्ड के भीतर रह चुके होंगे, वह सब के सब पंथ ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, ब्रह्मचर्य आश्रम के ही माने जाएंगे I
  • किसी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) की वयस्क अवस्था तबतक ही होती है जबतक उस उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) का ब्रह्माण्ड में प्रादुर्भाव समय 25 ब्रह्मा वर्ष से 50 ब्रह्मा वर्ष के भीतर होता है I इस अवस्था में बसे हुए उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) को गृहस्त आश्रम का ही माना जाता है I इसलिए जितने भी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) ब्रह्मा की 25 से 50 वर्ष की आयु जितना समय इस ब्रह्माण्ड के भीतर व्यतीत कर चुके होंगे, वह सब के सब पंथ ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, गृहस्त आश्रम के ही होंगे I
  • किसी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) की वानप्रस्थ अवस्था तबतक ही होती है जबतक उस उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) का ब्रह्माण्ड में समय 50 ब्रह्मा वर्ष से 75 ब्रह्मा वर्ष के भीतर होता है I इस अवस्था में बसे हुए उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) को वानप्रस्थ आश्रम का ही माना जाता है I इसलिए जितने भी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) ब्रह्मा की 50 से 75 वर्ष की आयु जितना समय इस ब्रह्माण्ड के भीतर व्यतीत कर चुके होंगे, वह सब के सब पंथ ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, वानप्रस्त आश्रम के ही होंगे I
  • किसी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) की वृद्धावस्था तब ही होती है जबतक वह उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) का ब्रह्माण्ड में प्रादुर्भाव समय 75 ब्रह्मा वर्ष से 100 ब्रह्मा वर्ष के भीतर होता है I इस अवस्था में बसे हुए मार्ग या पंथ को संन्यास आश्रम का ही माना जाता है I इसलिए जितने भी उत्कर्ष मार्ग (या पंथ या ग्रंथ) ब्रह्मा की 75 से 100 वर्ष की आयु जितना समय इस ब्रह्माण्ड के भीतर व्यतीत कर चुके होंगे, वह सब के सब पंथ ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में, संन्यास आश्रम के ही होंगे I

 

  • और यहाँ बताए गए आश्रमों के अनुसार ही उस समय का प्रधान ब्रह्माण्डीय अंतिम संस्कार मार्ग भी होगा I
  • क्यूंकि आज के समय खण्ड में पितामह ब्रह्मा जी अपने वानप्रस्त आश्रम में आ गए हैं, इसलिए इस समस्त महाब्रह्माण्ड में यही वानप्रस्थ ही प्रमुख आश्रम है I वैदिक आश्रम चतुष्टय के अनुसार, यह ब्रह्माण्ड भी वानप्रस्थी ही है I
  • और क्यूँकि वानप्रस्त के ब्रह्म को ही सच्चिदानंद कहा जाता है, इसलिए अभी के समय पर और उन ब्रह्मा जी के आगामी कोई 25 वर्षों तक, सच्चिदानंद ब्रह्म नामक वाक्य में बसा हुआ मुक्तिमार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग रहेगा I
  • और क्यूंकि वानप्रस्थ आश्रम का योगी संन्यासी नहीं हुआ होता, इसलिए इस आश्रम का प्रधान नाता गृहस्त से ही है I और ऐसा होने के कारण जब भी कोई विश्वव्यापक प्रलय आएगी, तो वह मुख्यतः अग्नि प्रलय ही होगी I
  • और क्यूंकि पितामह ब्रह्मा ही अभी वानप्रस्त आश्रम में हैं, इसलिए जो योगी संन्यास आश्रम में पूर्णरूपेण स्थित हो चूका होगा, वह लौकिक दृष्टिकोण से ब्रह्मा जी के आश्रम से भी ऊपर का होगा I यही कारण है कि वैदिक वाङ्मय में संन्यासी जन विशेष स्थान पाए हैं I
  • लेकिन ऐसा तबतक ही होगा, जबतक इस जीव जगत के रचैता पितामह ब्रह्मा उसी संन्यास आश्रम में, अपने ब्रह्म लोक की इकाई के अनुसार और ब्रह्मलोक की काल गणना से प्रविष्ट नहीं हो जाते… इसके पश्चात नहीं I

इसके पश्चात सनातन गुरु बोले… तो अब यह भाग भी समाप्त होता है और अब हम अगले भाग पर जाते हैं I

और वह नन्हा विद्यार्थी जो यह सभी गुरु वाणी ध्यानपूर्वक सुन रहा था, वह बस सुन्न होकर ही अपने गुरुदेव के मुख की ओर देखता गया I

उस नन्हें विद्यार्थी को तो यह समझ ही नहीं रहा था कि उसके ही हृदय में बैठे हुए उसके सनातन गुरुदेव, कोई मानव हैं, या कोई सिद्ध योगी या कोई ऋषि, या कोई और इन से भी बहुत बड़ी पञ्च देव या ब्रह्मशक्ति का कोई स्वरूप, या साक्षात् परब्रह्म के ही समान, कोई बहुत ही बड़ी सी सत्ता I

 

असतो मा सद्गमय I

 

 

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