निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, हृदय निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण, अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप

निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, हृदय निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण, अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप

यहाँ हृदय निर्वाण गुफा या हृदय की निर्वाण गुफा के तीसरे बिंदु, जो अहंकार, साधक का अहम् भाव और साधक का अहंकार भी कहलाता है, उसका वर्णन होगा । यहाँ बताए गए मार्ग को निर्वाण पथ या निर्वाण मार्ग भी कहा जा सकता है । ये निर्वाण गुफा या गुहा निर्वाण, हृदय की सबसे अन्दर की गुफा होती है, जिसको योगी हृदय की समस्त गुफ़ाओं को पार करके ही साक्षात्कार करता है । अब इस कैवल्य गुफा या मुक्ति गुफा या निर्वाण गुफा के साक्षात्कार और चित्र के तीसरे भाग को बतलाता हूं, जो साधक का विशुद्ध अहंकार रुप और उसमें बसे हुए ब्रह्माण्ड के लिंगात्मक स्वरूप को भी दर्शाता है । ब्रह्माण्ड की रचना में, ब्रह्माण्ड को इसी विशुद्ध अहम् या विशुद्ध अहंकार में ही बसाया गया था, क्यूंकि ब्रह्माण्ड में विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म का ही द्योतक होता है ।

इस गुफा के बारे में, ब्रह्मसूत्र चतुर्थ अध्याय में सूक्ष्म सांकेतिक रूप में बताया गया है, इसलिए जो भी साधक इस अध्याय श्रंखला, जिसको मैंने ओम मार्ग कहा है, उसका साक्षात्कार करेगा, वो इस समस्त श्रंखला के ज्ञान के मूल में ब्रह्मऋषि और भगवान् वेद व्यास, और उनके ब्रहमसूत्र को ही पाएगा ।

ऐसे साक्षात्कार के समय, ये भी हो सकता है, कि गुरुदेव भगवान् वेद व्यास, साधक के नाक की नोक पर बैठे हों, और साधक को, एक उत्कृष्ट अनुग्रह दृष्टि से देख रहे होंI

यह कैवल्य गुफा या मोक्ष गुफा, मुक्तिमार्ग या मोक्ष मार्ग में गति की प्रारंभिक अवस्था को दर्शाती है, क्यूंकि इसी गुफा से ही ओम् साक्षात्कार का मार्ग प्रशश्त होता है।

ये ज्ञान मेरे पूर्व जन्म के गुरुदेव, जिनको आज की मानव जाती गौतम बुद्ध के नाम से पुकारती है, उनके हृदय प्रज्ञापारमिता सूत्र का एक अभिन्न अंग भी है।

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी के प्रारंभ की बात है, जब दिल्ली के जंतर मंतर पर, अन्ना हज़ारे का अभियान, बस होने ही वाला थाI

ये अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है।

ये भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समरपित करता हूं।

ये भाग मैं उन चतुर्मुखा पितामह ब्रह्म को ही स्मरण करके बोल रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जो योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनाकि अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म और कार्य ब्रह्म भी कहलाती है, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोष में उनके अपने पिंडात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वो उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक सगुण आत्मा स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व और जीवत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का उनतालीसवाँ अध्याय है, इसलिए, जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।

ये अध्याय, इस जगद्गुरु शारदा मार्ग शृंखला और इस हृदय कैवल्य गुफा श्रृंखला का तीसरा अध्याय है ।

 

निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप …

अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण,
अहमाकाश, ब्रह्माण्ड का लिंगात्मक स्वरूप, निर्वाण मार्ग, निर्वाण पथ, निर्वाण गुफा, गुहा निर्वाण,

 

अभी तक बतायी सभी अवस्थाओं के साक्षातकार के पश्चात, हृदय में बैठी हुई योगी की चेतना, उसी बैंगनी वर्ण के आकाश को घेरे हुए, एक बहुत गाढ़े नीले रंग के विशालकाय अर्ध गोलाकर प्रकाश को दिखती है, जो पूर्व के अध्याय में बतलाए गए घाटाकाश से आगे की ओर होता है ।

ये गाढ़े नीले रंग का प्रकाश, अहंकार को दर्शता है जिसमें संपूर्ण ब्रह्माण्ड बसाया गया था, इसलिए इस चित्र में दिखाया गया अहंकार, अर्थात इस हृदय गुफ़ा का अहंकार…, ब्रह्माण्ड का ही लिंगात्मक स्वरुप है ।

 

अब ध्यान से सुनो …

इस कैवल्य गुफ़ा का अहंकार, योगी के ही अहम तत्व को दर्शता है, जो अभी तक विशुद्ध नहीं है, इसलिए, निराकार होने के बाद भी, अनंत नहीं है।

क्योंकि अनंत शब्द, ब्रह्म को दर्शता है, इसलिए इस चित्र में दिखलाया गया निराकार अहंकार, ब्रह्ममय भी नहीं है ।

जब तक योगी स्वयं ही स्वयं में रहकर, अर्थात आत्ममार्ग में बसकर, इस चित्र के अहंकार को साक्षात्कार करके, उस अहंकार से ही विमुख नहीं होगा, अर्थात उस अहंकार को त्यागेगा नहीं जो उस योगी के हृदय मुक्ति गुफा में है, तबतक उस योगी का अहंकार भी विशुद्ध नहीं होगा । योगी के अहंकार की इसी दशा को, यहाँ दिखाया गया है ।

इस हृदय गुफा में बैठा हुआ योगी, जब अपने अहम् को त्यागता है, तो ही वो अहम् विशुद्ध होता है, और इसके पश्चात ही वो योगी को आगे के अध्यायों में बतलाई गई दशाओं के साक्षात्कार का पात्र बनता है…, इससे पूर्व नहीं ।

और ऐसे विशुद्ध अहम् को पाकर, वो हृदय के अहम् तत्त्व से एक शब्द आता है, जो संस्कृत भाषा का अ शब्द होता है, और जिसका आलम्बन लेके योगी की चेतना इस अहंकार के ऊपर से उड़कर, हृदय के सामने से ऊपर को उठने वाले विशालकाय प्रकाश में विलीन होती है ।

इसके पश्चात वो योगी, समस्त ब्रह्माण्ड की दिव्यताओं में, महामानव कहलाता है ।

 

अहंकार, … अहम् , … विशुद्ध अहंकार, … विशुद्ध अहम्, … अहमाकाश …

अब इन बातों पर ध्यान देना …

विशुद्ध अहम को ही ब्रह्म कहते हैं।

जिसका अहम विशुद्ध हो गया, उसका अहम, सर्वव्याप्त अहमाकाश होता है, अनंत होता है।

ये शब्द, सर्वव्याप्त, अहमाकाश और अनंत, ब्रह्म को ही दर्शाते है ।

यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि में, जो अहम् शब्द कहा गया है, वो विशुद्ध अहम् को दर्शता है, जो अनंत ब्रह्म ही होता है ।

 

विशुद्ध अहम का धारक योगी, अंतः, ब्रह्मलीन होता है ।

विशुद्ध अहम का मार्ग, योगी की ब्रह्म भावापन अवस्था से प्रशस्त होता है ।

लेकिन ब्रह्म भावापन अवस्था को यदि पाना है, तो जीव भावापन तो होना ही पड़ेगा, क्यूंकि जीव भावापन अवस्था ही संघ का गंतव्य होती है, जिसको पार करके ही ब्रह्म भावापन अवस्था को पाया जाता है ।

जो साधक ऐसा जीव भावापन नहीं होता, वो संघ के गंतव्य को नहीं पाता ।

जिस संघ में, ब्रह्माण्ड और उसके समस्त जीव नहीं होते, वह संघ, पूर्ण भी नहीं होता।

ऐसा अपूर्ण संघ, ब्रह्म भावापन अवस्था की प्राप्ति का मार्ग भी नहीं होता। और इसका कारण है, कि प्रथम जीव, पितामह ब्रह्मा ही है ।

इसलिए, जब तक योगी, अपने भीतर से ही जीव भावापन नहीं होता, वह ब्रह्म भावापन भी नहीं हो पाता ।

और जब तक वह योगी, ब्रह्म भावापन नहीं होता, उसका अहम विशुद्धि का मार्ग भी, उसके भीतर से प्रशस्त नहीं होता।

ऐसे योगी का अहम् भी विशुद्ध नहीं होता, इसलिए इसका अहम्, ब्रह्म सरीका नहीं होता, जिसके कारण ऐसा योगी ब्रह्मत्व को भी नहीं पाता।

जो ब्रह्मत्व को नहीं पाता, वो ब्रह्मलीन है…, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।

जो योगी अपने भीतर से, स्वयं ही ब्रह्मलीन नहीं होता, वह मुक्तात्मा भी नहीं होता ।

जो मार्ग ब्रह्मलीन अवस्था को नहीं जाता, वह उत्कर्ष का मार्ग भी नहीं होता ।

जिस मार्ग में, कैवल्य रूपी गंतव्य की प्राप्ति नहीं होती, वो वास्तव में उत्कर्ष मार्ग भी नहीं होता ।

 

और एक बात …

मार्ग गंतव्य का तब होता है, जब उस मार्ग मे, प्रकृति और पुरुष का सनातन योग होता है ।

लेकिन, प्रकृति और पुरुष के सनातन योग का मार्ग, विशुद्ध अहम से ही होकर जाता है ।

इन सभी बातों का साक्षातकारी योगी, कहेगा ही, कि जिस मार्ग में अहम विशुद्ध नहीं होता, उसमें अपना दुर्लभ मानव जीवन, व्यार्थ में ही, व्यय नहीं करना चाहिए ।

ऐसा योगी ये भी कहेगा, कि जिस मार्ग में प्रकृति और पुरुष का सनातन योग नहीं होता, वो कैवल्य मार्ग नहीं होता, इसलिए ऐसे मार्गों में भी अपना दुर्लभ मानव जीवन, व्यार्थ में ही, व्यय नहीं करना चाहिए ।

 

विशुद्ध अहम क्या है

अब इस शब्द, विशुद्ध अहम को बतलाता हूं ।

जब साधक का अहम भाव, ब्रह्म में विलीन होके, अनंत हो जाता है, तो वह अहम, साधक तक ही सीमित नहीं रहता…, सर्वव्याप्त हो जाता है।

अहम की ऐसी अनंत, सर्व व्याप्त अवस्था को, विशुद्ध अहम कहते हैं, क्योंकि अहम की ऐसी अवस्था, उसी अनंत ब्रह्म को दर्शाती है, जो यहां बतलाए गए, विशुद्ध शब्द का गंतव्य भी होता है ।

जिस साधक का अहम, अनंत हो गया, वो साधक यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि के मूलार्थ साक्षात्कार का पात्र होता है…, और कोइ भी नहीं ।

यजुर्वेद का महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि…, विशुद्ध अहम् को ही दर्शता है ।

जैसे जैसे साधक, अपनी साधनाओं में, अपना अहम विशुद्ध करता जाता है, वैसा वैसा उसका अहम, अनंत सरीका भी होता जाता है । यही कारण है, की अहम् विशुद्धि भी गंतव्य मार्ग ही है, अर्थात ब्रह्मपथ ही है ।

और क्यूंकि साधक का अहम् विशुद्धि मार्ग, साधक के ही आत्मस्वरुप को लेके जाता है, जो ब्रह्म का ही विशुद्ध अहम् स्वरूप कहलाता है, इसलिए ये मार्ग आत्ममार्ग ही है, जो स्वयं ही स्वयं में, इस वाक्य से भी होकर जाता है ।

जब साधक का अहम, पूर्ण विशुद्ध हो जाता है, तब ही वो साधक यजुर्वेद के महावाक्य, अहम् ब्रह्मास्मि के ज्ञान का पात्र बनता है…, इससे पूर्वा नहीं ।

लेकिन इस चित्र में दर्शाया गया अहम, पूर्ण विशुद्ध नहीं है, इसलिए, बहुत विशालकाय होने के पश्चात भी, वो अनंत नहीं है ।

इसलिए, यहां दर्शाया गया अहम, अनंत या नारायण का वाचक भी नहीं है ।

 

अब इस चित्र के चौथे भाग को बतलाता हूं, जो शून्य तत्व का अनंत स्वरूप है, शून्य अनंतः, अनंत शून्यः है और जिसे शून्य ब्रह्म कहते हैं ।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

 

 

लिंक:

अहंकार (Ahamkara, Ahankara)

ब्रह्माण्ड (Brahmanda, Brahmand, Macrocosm),

विशुद्ध अहम् (Vishuddha Ahamkara, Vishuddha Aham),

ओम् (OM, AOM, Omkar, AUM),

गौतम बुद्ध (Gautam Buddh, Gautama Buddha),

परंपरा (Param Para, Parampara),

ब्रह्मकल्प, कल्प (Kalpa, Brahm Kalpa, Brahma Kalpa),

निराकार (Nirakaar, Nirakara),

महामानव (Mahamanav, Mahamanava),

अहम् ब्रह्मास्मि (Ahum Brahmasmi, Aham Brahmasmi),

जीव भावापन (Jeev Bhavapan, Jeeva Bhavapan),

ब्रह्मपथ (Brahmanpath, Brahmpath),

शून्य तत्व, शून्य (Shoonya, Shunya, Shunya Tattva),

शून्य अनंतः, (Shoonya Anant, Shunya Ananta),

अनंत शून्यः (Anant Shoonya, Ananta Shunya),

शून्य ब्रह्म (Shoonya Brahman, Shunya Brahm, Shunya Brahman),

ब्रह्म (Brahm, Brahma, Brahman),

सर्वव्याप्त (Omni Present, Omnipresent),

कैवल्य (Keval, Kaivalya)

प्रज्ञापारमिता सूत्र, प्रज्ञापारमिता (Prajnaparamita sutra, Prajnaparamita)

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