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इस अध्याय में अतिमानव, पञ्च महामानव, पञ्च कृत्य, पञ्च देव, उत्पत्ति कृत्य, स्थिति कृत्य, संहार कृत्य, निग्रह कृत्य, तिरोधान कृत्य, अनुग्रह कृत्य, सर्ग कृत्य, सृष्टि कृत्य, लय कृत्य, उत्पत्ति स्थिति संहार निग्रह अनुग्रह, ब्रह्मा विष्णु रुद्र देवी गणेश, ब्रह्मा विष्णु महेश, गणपति आदि पर बात होगी I

यहाँ बताया गया साक्षात्कार, 2011 ईस्वी से लेकर 2012 ईस्वी तक का है I

यह अध्याय भी आत्मपथ, ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अंग है, जो पूर्व के अध्याय से चली आ रही है ।

यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।

यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।

यह अध्याय “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का तिरासीवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा ।

यह अध्याय, इस भारत भारती मार्ग का बारहवाँ अध्याय है I यह अध्याय पूर्व के अध्याय पञ्च मुखी सदाशिव का ही भाग है I

 

अतिमानव, पञ्च कृत्य, पञ्च देव, पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्र
अतिमानव, पञ्च कृत्य, पञ्च देव, पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्र, उत्पत्ति स्थिति संहार निग्रह अनुग्रह, ब्रह्मा विष्णु रुद्र देवी गणेश, ब्रह्मा विष्णु महेश, गणपति

 

टिप्पणी:

इस अध्याय में योगी की गति उन योगेश्वर की अर्धांगिनी श्री योगेश्वरी के आशीर्वाद से ही हो पाती है, जो महेश्वर की सनातन अर्धांगिनी श्री महेश्वरी हैं, जो योगमार्ग की सार्वभौम दिव्यता हैं, जो विष्णुनुजा श्री पार्वती है, जो श्री त्रिकाली की माताजी हैं, और जो ॐ मार्ग में उकार की दिव्यता अकार कहलाई गई हैं I

और जो बौद्ध पंथ में बुद्ध प्रज्ञापारमिता के नाम से सम्बोधित होती हैं, और जिनको ईसाई पंथ सूर्य का परिधान धारण करी हुई देवी कहता है I

और पञ्च विद्या में इन्ही श्री योगेश्वरी को सावित्री सरस्वती के नाम से भी पुकारा जाता है, जो ॐ मार्ग की सगुण साकार देवी रूप में दिव्यता हैं I

यह सब बाद के पंथों में आए नाम भी उन्हीं योगेश्वरी के हैं, जो साक्षात श्री आदि पराशक्ति ही हैं I

नमः योगेश्वरी I

नमः योगेश्वराय II

महामानव कौन, ऊर्जा प्रवाह समापन, ऊर्जा प्रवाह का समापन, ऊर्जा प्रवाह का स्तंभन, प्राणों का स्तंभन, प्राण प्रवाह का समापन, मैं ब्रह्माण्ड हूँ, मैं ब्रह्माण्डातीत हूँ, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्माण्ड में, …

 

पृथ्वी महाभूत से महामानव साक्षात्कार
पृथ्वी महाभूत से महामानव साक्षात्कार, भू महाभूत से महामानव साक्षात्कार, उज्जायी स्वास से महामानव साक्षात्कार, ब्रह्माण्ड के बाहर से महामानव साक्षात्कार

 

यह चित्र एक पूर्व के अध्याय का है, जिसका नाम पृथ्वी महाभूत, भू महाभूत, उज्जायी श्वास, उज्जायी नाद, चक्रवर्ती सम्राट और योग चक्रवर्त आदि था I

 

इस चित्र में …

  • जो अण्डाकार दशाएं दिखाई गई है, वो प्रत्येक दशा एक-एक ब्रह्माण्ड है I
  • उन अण्डाकार ब्रह्माण्डों के आकार भी शिवलिंग के समान ही है, इसलिए यह चित्र इस बात का प्रमाण भी है कि ब्रह्माण्ड शिवलिंगात्मक ही होते हैं I
  • क्यूंकि इस चित्र की दशा में, इन समस्त शिवलिंगात्मक ब्रह्माण्डों को पृथ्वी महाभूत के भीतर से जाना गया था, इसलिए इनका वर्ण भी पृथ्वी महाभूत के वर्ण का ही है, जो पीली मिट्टी जैसा ही होता है I
  • इस चित्र की दशा में साधक की चेतना, समस्त ब्रह्माण्डों से बहार निकलकर, उन ब्रह्माण्डों को बहार से ऐसे देखती है, जैसे आकाश में उड़ती चिड़िया धरती को देखेगी I इसलिए उन समस्त ब्रह्माण्डों के ऊपर जाकर ही इन ब्रह्माण्डों को जैसा देखा जाएगा, वैसा ही यह चित्र दर्शा रहा है I
  • इस चित्र में समस्त ब्रह्माण्डों के बाहर की ओर जो पीली मिटटी जैसा रंग दिखाया गया है, वो पृथ्वी महाभूत है I उसी पृथ्वी महाभूत के निराकार स्वरूप के भीतर, यह सभी ब्रह्माण्ड बसे हुए है I और ऐसे ही दशा से इस चित्र का साक्षात्कार हुआ है I
  • इस चित्र में जो हीरे के प्रकाश के समान नली दिखाई गई है, वो उन सर्वसम पितामह प्रजापति का ही प्रकाश है, जो इन ब्रह्माण्डों से जुड़ा हुआ है, क्यूंकि यह समस्त ब्रह्माण्ड उन्ही प्रजापति की उत्कृष्ट रचना ही हैं I
  • इस चित्र में यही हीरे के सामान प्रकाश जो ऊपर के भाग में दिखाया गया है, वह उन सर्वसम सगुण साकार प्रजापति के हीरे के समान प्रकाशमान सगुण निराकार लोक का है, जिसको वेद मनीषियों ने ब्रह्मलोक कहा था और जिसको सदाशिव का सद्योजात मुख भी कहा जाता है I
  • और क्यूंकि वो ब्रह्मलोक ही उन प्रकाश रहित, शून्य ब्रह्म (अर्थात नारायण) में निवास करता है, इसलिए इस चित्र के ऊपर के भाग में भी वही प्रकाश रहित शून्य ब्रह्म दिखाया गया है I

 

और इस चित्र में …

  • एक ब्रह्माण्ड से जुडी हुई, जो रात्रि के समान बहुत बड़ी नली लटकी हुई दिखाई गई है, वो एक महामानव है, जो उसके पूर्व कालों में, अपने उत्कर्ष मार्गों पर जाकर, ब्रह्माण्ड सरीका हो गया था (अर्थात वो ब्रह्माण्ड के समान ही शक्तिमान हो गया था) I
  • और ब्रह्माण्ड सरीका होने के पश्चात, वो ब्रह्माण्ड के भीतर रह ही नहीं पाया था I
  • ऐसी दशा के आने के पश्चात, उसनें ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के आदेश पर, अपनी शक्ति को स्तंभित करके, शून्य सरीका होके, अर्थात शून्य को धारण करके, शून्य ही होकर, वो महामानव उस ब्रह्माण्ड से ही बाहर निकल गया था, जिसके भीतर निवास करके वो महामानव पद को पाया था I
  • और ऐसी शून्यावस्था में, वो उसी ब्रह्माण्ड से जुड़ा भी रहा था I ऐसी दशा में वो महामानव इसलिए था, क्यूंकि वो मुक्ति का पात्र होकर भी, उसको मुक्ति से कुछ भी लेना-देना नहीं था I
  • यह रात्रि के समान नली जो एक ब्रह्माण्ड से जुडी हुई दिखाई गई है, वो उसी महामानव को दर्शा रही है, जो शून्य ही हो गया था, क्यूंकि वो उस ब्रह्माण्ड के समान होकर, जिसमें वो उस समय निवास कर रहा था, उस ब्रह्माण्ड के भीतर रह ही नहीं पाया था I
  • यह उस पिण्ड ब्रह्माण्ड योग का भी अंग है जिसको योग मनीषियों ने ऐसा भी कहा था…

यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे I

यद् ब्रह्माण्डे तद् पिण्डे I

जैसा पिण्ड है, वैसा ही ब्रह्माण्ड है I

और जैसा ब्रह्माण्ड है, वैसा ही पिण्ड है I

पिण्ड ही ब्रह्माण्ड है, और ब्रह्माण्ड ही पिण्ड है I

ब्रह्माण्ड ही पिण्ड रूप में है, पिण्ड ही ब्रह्माण्ड स्वरूप है I

इसी को उत्कृष्ट योगीजनों ने ,“मैं ब्रह्माण्ड हूँ” … ऐसा कहा है I

पिण्ड और ब्रह्माण्ड में पृथकता प्रतीत होने पर भी, दोनों एक ही हैं I

पिण्ड, ब्रह्माण्ड के भीतर और ब्रह्माण्ड, पिण्ड के भीतर ही निवास कर रहा है I

यही पिण्ड ब्रह्माण्ड योग है, जिसमें योगी पिण्ड रूप होता हुआ भी, ब्रह्माण्ड ही है I

आगे बढ़ता हूँ…

महामानव उसे कहते हैं, जो …

ब्रह्माण्ड में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्ड सरीका ही हो गया होगा I

अथवा जो ब्रह्माण्ड में निवास करता हुआ भी, ब्रह्माण्ड से ही बड़ा हो गया I

ऐसा योगी ब्रह्माण्ड में रहता हुआ भी, अपनी प्राणऊर्जा जो स्तंभित कर पाएगा I

अंततः ऐसा योगी ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर भी, उसी स्तंभित दशा में रह सकता है I

आगे बढ़ता हूँ…

पूर्व के किसी अध्याय में, महामानव के बारे में संक्षेप में ही सही, लेकिन बताया गया था, इसलिए वह पुनः नहीं बताऊंगा I और अध्याय का यह भाग, उस पूर्व के अध्याय से आगे की दशा का है I

 

पिण्ड ब्रह्माण्ड योग नामक सिद्धि से योगी…

पिण्ड रूपी शरीर में निवास करता हुआ भी, पिण्डातीत ही हो जाता है I

के पिण्ड रूपी शरीर में ब्रह्माण्ड अपनी पूर्णता में निवास कर रहा होता है I

की स्थूल काया भी अपनी ऐसी आंतरिक पूर्णता में ब्रह्माण्ड में निवास करती है I

जब योगी उत्कर्ष पथ पर गति करता हुआ, अपनी पिण्ड रूपी स्थूल काया के भीतर ही पिण्ड ब्रह्माण्ड योग को पूर्णतः सिद्ध करता है और ऐसा करने पर भी वह अपनी काया रूप में ब्रह्माण्ड के भीतर ही बसा रहता है, तब जैसे-जैसे उस योगी की उत्कर्ष गति आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे वह योगी शनैः शनैः ही सही, लेकिन जैसा हो जाएगा, उसको अब बताता हूँ…

वह योगी ब्रह्माण्ड सारिका ही हो जाएगा I

इसलिए उसकी दशा वैसी ही होगी जैसे ब्रह्माण्ड के भीतर ही ब्रह्माण्ड है I

ऐसी दशा में वह ब्रह्माण्ड जिसके भीतर योगी बसा होगा, उसको रख नहीं पाएगा I

 

जब यह दशा आएगी, तब योगी के पास बस यही दो विकल्प बचे हुए होंगे…

या तो वह योगी ब्रह्माण्डातीत गति को जाए I

और या वह ब्रह्माण्ड में बसा हुआ ही ब्रह्माण्ड से न्यून हो जाए I

 

यदि वह योगी…

ब्रह्माण्डातीत होगा, तो वह ब्रह्माण्ड से ही आगे चला जाएगा I

ब्रह्माण्ड से न्यून होगा, तो उसको अपने भीतर ऊर्जा प्रवाह स्तंभित करना होगा I

ऊर्जा प्रवाह का स्तंभन भी उतने ही अंश में होगा, जिससे वह ब्रह्माण्ड में रह पाए I

 

और इसके पश्चात वह योगी अपनी ऐसी ही…

ऊर्जा स्तंभित दशा में ब्रह्माण्ड के भीतर रहने लगेगा I

ऊर्जा प्रवाह का स्तंभन करके वह ब्रह्माण्ड की दशा से न्यून हो जाएगा I

और इसी स्वयं अपनायी हुई न्यून दशा में ही वह ब्रह्माण्ड में निवास कर पाएगा I

और ऐसी दशा में, जैसे-जैसे वह अपने आगे के उत्कर्ष पथ पर गति करेगा, वैसे-वैसे उसकी ऊर्जा में और भी वृद्धि होती जाएगी I

और जैसे-जैसे उसकी ऊर्जा में वृद्धि होती जाएगी, वैसी वैसे वह अपनी उस अधिक ऊर्जा को अपनी इच्छा शक्ति के आलम्बन से, स्तंभित भी करता ही चला जाएगा I

और अपनी ऐसी उत्कर्ष गति पर चलते हुए उसकी स्तंभित ऊर्जा की मात्रा भी बढ़ती चली जाएगी I

और ऐसी अर्ध स्तंभित गति में चलित हो रहे उस योगी के उत्कर्ष मार्ग पर अंततः एक दशा ऐसी भी आएगी, जहाँ उसकी धारण करी हुई ऊर्जा, उसी के द्वारा स्तंभित करी हुई ऊर्जा की तुलना में उतनी न्यून प्रतिशत में होगी, कि वह ब्रह्माण्ड जिसके भीतर वह योगी उस समय निवास कर रहा होगा, उसको कहने लगेगा, कि अब इससे आगे तुम मेरे भीतर निवास नहीं कर सकते हो I

 

और क्यूंकि ऐसे पिण्ड ब्रह्माण्ड सिद्ध योगी, मुक्ति के इच्छुक भी नहीं होते, इसलिए इस अमुक्ति इच्छा की दशा में उस योगी के पास बस एक ही विकल्प रहेगा और वह विकल्प भी ऐसा ही होगा…

योगी अपनी आंतरिक ऊर्जाओं को पूर्ण स्तंभित करके, शून्यसम ही हो जाएगा I

स्तंभित होकर उस ब्रह्माण्ड से बाहर जाएगा, जिसमें उसकी उत्कर्ष गति चली थी I

बाहर जाकर, वह शून्य स्वरूप होकर उस ब्रह्माण्ड के बाहर से उससे जुड़ा भी रहेगा I

यही दशा महामानव की होती है और इसी को एक पूर्व के अध्याय, जिसका नाम पृथ्वी महाभूत था, उसमें संक्षेप में बताया भी गया था I यही दशा ऊपर के चित्र भी दिखा रहा है I

 

ऐसा महामानव…

ब्रह्माण्ड के बाहर ही एक विशालकाय शून्य नाड़ी के समान लटका रहता है I

जब ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं को उसकी आवश्यकता पड़ती है, तब ही वह लौटता है I

लौटने के लिए, वह अपने स्तंभित ऊर्जाप्रवाह को पुनःजागृत करके ही लौट पाता है I

अपने निर्धारित कार्य पूर्ण करके, वह पुनः उसी पूर्ण स्तंभित दशा में चला जाता है I

अनंतकालों तक ऐसा तबतक चलेगा जबतक वह महामानव मुक्ति को ग्रहण न करे I

ऐसा होने के कारण इस ब्रह्मरचना के समस्त इतिहास में यह दुर्लभ सिद्धि ही है I

आगे बढ़ता हूँ…

जैसे-जैसे ऐसा महामानव योगी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के आग्रह से अपनी उस स्तंभित दशा से बाहर आता हुआ और अपने कार्य करता हुआ और पुनः उसी स्तंभित दशा में जाता रहेगा, उसकी ऊर्जा प्रवाह क्षमता में भी वृद्धि होती चली जाएगी I

और अपनी उस स्तंभित दशा में लम्बे समय तक निवास करने के कारण, उसकी ऊर्जा स्तंभन सिद्धि की दशा में भी गति आगे को ही जाएगी I

इसलिए अपने से शून्यसम से स्वरूप में भी वह और अधिक मात्रा की ऊर्जाओं का स्तंभन करने में सक्षम भी होता ही चला जाएगा I

अंततः वह महामानव, पञ्च कृत्य में से किसी एक को धारण भी करता है I

 

इसलिए महामानव वह है…

जिसने अपनी प्राण ऊर्जाओं को स्तंभित करा है I

जिसने एक या एक से अधिक, लेकिन पांच से कम कृत्यों को धारण किया है I

और इसी महामानव मार्ग पर गति करता हुआ, ऐसा उत्तम योगी अंततः…

सभी पञ्च कृत्य का धारक ही हो जाता है I

सभी पञ्च कृत्य का धारक ही अतिमानव कहलाता है I

और वह अतिमानव भी पञ्च मुखा सदाशिव स्वरूप ही होता है I

वह अतिमानव उन्ही पञ्च मुखा सदाशिव में पूर्णरूपेण लय हो जाता है I

वह अतिमानव पञ्चमुखी सदाशिव के पाँचों मुखो में समानरूपेण लय होता है I

आगे बढ़ता हूँ…

अपनी स्वेच्छा से प्राण ऊर्जाओं को स्तंभित करने के कई कारण होते हैं, तो अब इनमें से कुछ को ही सही, लेकिन बताता हूँ…

  • स्थूल आदि शरीर की असक्षमता… स्थूल आदि शरीरों में इतनी क्षमता होती ही नहीं है कि वह किसी महामानव की ओर आती हुई ऊर्जा को धारण कर सकें I इसलिए ऐसा योगी यदि मोक्ष का इच्छुक नहीं होगा, तो उसके पास अपने स्थूल शरीर की रक्षा हेतु, ऊर्जा स्तंभन के अतिरिक्त कोई और विकल्प भी नहीं होगा I

और वह ऊर्जा स्तंभन भी उतनी ही मात्रा में होगा, जिससे वह योगी बस अपनी काया में रह सके I

 

  • योगी के कपाल का फटना, योगी के कपाल का विस्फोट, … उस विराट ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को पाकर, जो योगीजन इस स्तंभन प्रक्रिया के ज्ञानी नहीं होते, उनके कपाल ही फट जाते हैं I

ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि वह ऊर्जा योगी की काया में मेरुदण्ड के नीचे के भाग से ऊपर कपाल पर जाती ही रहती है I

और क्यूंकि उस महामानव के भीतर जो ऊर्जा गति करती है, उसकी मात्रा बहुत अधिक ही होती है, इसलिए यदि वह महामानव उस ऊर्जा के स्रोत्र को ही स्तंभित नहीं करेगा, तो वह ऊर्जा कपाल को ही फाड़ देने में सक्षम होती है I

यही कारण है कि इतिहास में कुछ योगीजनों के कपाल फटे थे I

 

  • ब्रह्माण्ड के उत्कर्ष पथ की रक्षा, ब्रह्माण्डीय जीवों के उत्कर्ष पथ की रक्षा, … यदि वह महामानव अपनी ऊर्जा को उचित मात्रा में स्तंभित नहीं करेगा, तो उस ब्रह्माण्ड में उत्कर्ष पथ ही अस्थिर हो जाएगा I

ऐसा होने से जीवों के उत्कर्ष पथ पर प्रगति भी अस्थिर हो जाएगी, जिसके कारण उस ब्रह्माण्ड में जीवोत्कर्ष और उसके मार्ग / प्रक्रिया की हानि भी होने लगेगी I

 

  • ब्रह्माण्ड का विस्फोट, ब्रह्माण्ड रक्षा, ब्रह्माण्डीय व्यवस्था की रक्षा, … जब कोई योगी ब्रह्माण्ड में उसकी अपनी कायाधारी दशा में ही ब्रह्माण्ड सरिका हो जाता है, तब जो दशा होती है वह ऐसी ही होती है…

ब्रह्माण्ड ही ब्रह्माण्ड में I

 

ऐसी दशा में…

ब्रह्माण्ड के भीतर ही एक और पूर्ण ब्रह्माण्ड बसा हुआ है, यही प्रतीत होगा I

 

और इस दशा में…

एक ही ब्रह्माण्ड में जो ऊर्जा होगी, वह इतनी होगी, कि ब्रह्माण्ड अस्थिर होकर, अव्यवस्थित हो जाएगा और इस अव्यवस्था की चरम स्थिति में उस ब्रह्माण्ड का विस्फोट भी हो भी सकता है I

और क्यूंकि ऐसा होना सभी जीव जगत के लिए हानिकारक है, इसलिए भी उस ब्रह्माण्ड की रक्षा हेतु, महामानव अपनी अधिक ऊर्जा को स्तंभित करता है I

वैसे यह अव्यवस्थित दशा उन सभी दशाओं में तो होती ही है, जैसे युग परिवर्तन, युग स्तंभन, पृथ्वी की सूर्य से संबंधित क्रान्ति में जब पृथ्वी सूर्य से सबसे समीप अथवा सबसे सुदूर होती है, पृथ्वी की ज्या तरंग रूप की गति में जब पृथ्वी इस तरंग के मध्य भाग को पार कर रही होती है और जिसका समय वैदिक इकाई में 12,000 का है और आज की समय इकाई में 12888 वर्ष का है,  इत्यादि I

इस दशा के आने से कुछ पूर्व वह ब्रह्माण्ड जिसके भीतर वह योगी निवास कर रहा होता है, उस योगी को पूर्ण स्तंभन के लिए बोलने लगता है I और ब्रह्माण्ड की इच्छानुसार भी वह योगी अपनी ऊर्जा को पूर्ण स्तंभित करता है I

और ऐसा करने के पश्चात, वह योगी अन्धकारमय शून्य सरीका, एक विशालकाय नाड़ी के रूप में उसी ब्रह्माण्ड के बाहर जाकर, उसी ब्रह्माण्ड से जुड़कर रहता है I और ऐसा तबतक रहेगा, जबतक ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं उसे किसी और ऐसे कर्म के लिए प्रेरित नहीं करेंगे, जो उस अथवा किसी और ब्रह्माण्ड में महामानव के सिवा किसी और के बस का भी नहीं होगा I

इस प्रेरणा के पश्चात, वह महामानव अपनी स्तंभित ऊर्जा को उतनी ही मात्रा में जागृत करेगा, जितना उसको वह कार्य करने के लिए चाहिए होगा I और अपना कार्य पूर्ण करके, वह पुनः स्तंभित दशा में लौट जाएगा I

 

और ऐसा वह महामानव तबतक करता ही जाएगा जबतक वह…

अतिमानव, अर्थात पञ्च कृत्यों का पूर्णरूपेण धारक हो जाएगा I

उस मुक्ति को जिसको आगे धकेलकर वह महामानव हुआ है, स्वीकार कर लेगा I

आगे बढ़ता हूँ…

जबतक योगी अपनी अधिक ऊर्जा को स्तंभित कर पाएगा, तबतक ही वह किसी एक ब्रह्माण्ड के भीतर अपनी काया में रह पाएगा I

और जब वह ऐसा नहीं कर पाएगा, तब उसके पास जो विकल्प रहेगा, वह अपनी ऊर्जा का पूर्ण स्तंभन ही होगा I

और पूर्ण स्तंभन के पश्चात वह महामानव, शून्य होकर ब्रह्माण्ड से बाहर जाकर, उस ब्रह्माण्ड से जुड़ी हुई एक विशालकाय शून्य नाड़ी के समान ही रहेगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब संक्षेप में ही सही, लेकिन उसके कुछ साधारण मार्ग बताता हूँ जिससे योगी अपनी मुक्ति को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन आगे की ओर ठेल सकता है…

  • तंत्र मार्ग का सम्भोग, काम योग,… जबकि इस प्रक्रिया से वह मुक्तात्मा अपनी मुक्ति को कुछ आगे के समय अथवा दशा में आगे ठेल तो सकता है, लेकिन वह उस मुक्ति को आगे के उस समय अथवा दशा में जाकर अवश्य ही पाएगा I

और यदि उस आगे के समय या दशा में जाकर भी वह मुक्तात्मा नहीं होना चाहेगा, तो वह उस मुक्ति को और भी आगे ठेल देगा I ऐसे मार्ग पर ही कोई भी महामानव गति करता रहता है I

लेकिन यह सम्भोग प्रक्रिया तो आंतरिक भी हो सकती है, जिसमें योगी अपनी काया के भीतर बसे हुए देव और देवी का योग करके भी वही फल पाएगा, जो उस सम्भोग से मिलता है जिसमें स्थूल शरीर का प्रयोग किया जाता है I

इसलिए यह मार्ग, मुक्ति से पूर्ण परिहार (पूर्ण वर्जन) का तो बिलकुल नहीं है, लेकिन इससे कुछ समय के लिए अथवा कुछ आगे की दशा तक वह योगी अपनी उस समय की मुक्ति और संभावित देहावसान को टाल अवश्य पाएगा I

 

  • ब्रह्मचर्य का टूटना, ब्रह्मचर्य को खण्डित करना, … लेकिन यह तो कोई महामानव तब ही करेगा, जब उसको पूरा पता हो कि अब उसकी देहातीत मुक्ति अथवा उसका देहावसान निकटतम और अवश्यंभावी ही है I

लेकिन इससे भी वह महामानव उसकी मुक्ति को उसके अगली बार लौटने तक ही टाल पाएगा I

 

  • वह अपनी इच्छा मृत्यु नामक सिद्धि का प्रयोग भी कर सकता है I

 

  • योगमार्ग के और बहुत सूक्ष्म और दैविक विधान हैं, जिनके प्रयोग और मार्ग पर जाकर वह योगी अपनी मुक्ति को आगे टाल सकता है, और जो ब्रह्माण्डीय सिद्धांत और तंत्र से जुड़े हुए होते हैं I लेकिन यह अध्याय उनका है ही नहीं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अतिमानव कौन है, पञ्च महामानव कौन हैं, पञ्च महामानव कौन, महामानव के प्रभेद, महामानव सिद्धि के प्रभेद, पांच प्रकार के महामानव, कौन अतिमानव कहलाता है, अतिमानव किसे कहते हैं, पञ्च कृत्य क्या हैं, पञ्च देव कौन हैं, उत्पत्ति कृत्य क्या है, स्थिति कृत्य क्या है, संहार कृत्य क्या है, निग्रह कृत्य क्या है, तिरोधान कृत्य क्या है, अनुग्रह कृत्य क्या है, सर्ग कृत्य क्या है, सृष्टि कृत्य क्या है, लय कृत्य क्या है, उत्पत्ति स्थिति संहार निग्रह अनुग्रह क्या है, ब्रह्मा विष्णु रुद्र देवी गणेश कौन हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश कौन हैं, गणपति कौन हैं, ब्रह्मा कौन हैं, विष्णु कौन हैं, रुद्र कौन हैं, देवी कौन हैं, गणेश कौन हैं, पञ्च महाभूत क्या हैं, पञ्च तन्मात्र क्या हैं, पांच महाभूत, पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश ही पांच महाभूत हैं, पांच तन्मात्र, शब्द स्पर्श रूप रस गंध ही पांच तन्मात्र हैं, उत्कर्ष की छलांग, सूक्ष्म ब्रह्माण्डीय मुक्तिसंयोजक,अतिमानव का पथ, अतिमानव का मार्ग, संस्कार रहित चित्त ही ब्रह्म, निष्कलंक बुद्धि ही ब्रह्म, स्थिर मन ही ब्रह्म, ब्रह्मलीन अंतःकरण ही ब्रह्म, विसर्गी प्राण ही ब्रह्म, …

 

इस ब्रह्म रचना के किसी भी ब्रह्माण्ड में, जो महामानव…

उत्पत्ति कृत्य का धारक है, वह सृजन करेगा और पितामह ब्रह्मा होगा I

स्थिति कृत्य का धारक है, वह पालनहार होगा और श्री विष्णु कहलाएगा I

संहार कृत्य को धारण करेगा, वह कायाकल्प करेगा और रुद्र देव कहलाएगा I

निग्रह कृत्य का धारक है, वह तिरोधान करने वाला होगा और देवी कहलाएगा I

अनुराह कृत्य का धारक है, वह आर्शीवाद (मुक्ति) देने वाला गणपति देव कहलाएगा I

 

इसलिए ब्रह्म रचना में…

उत्पत्ति कृत्य, ब्रह्मा का है I

स्थिति कृत्य, श्री विष्णु का है I

संहार कृत्य, रुद्र देव का होता है I

तिरोधान या निग्रह कृत्य, देवी का ही है I

अनुग्रह या आशीर्वाद कृत्य, गणपति देव का है I

 

अब इन पञ्च कृत्यों के देवता का नाता पञ्च मुखी सदाशिव से बताता हूँ…

रुद्र के मूल में सदाशिव का अघोर मुख है I

देवी के मूल में सदाशिव का तत्पुरुष मुख है I

गणेश के मूल में सदाशिव का ईशान मुख है I

विष्णु के मूल में सदाशिव का वामदेव मुख है I

ब्रह्मा के मूल में सदाशिव का सद्योजात मुख है I

और जबकि इन महामानव के कर्म इनके अपने कृत्यों द्वारा ही होते हैं, लेकिन तब भी यह एक दुसरे को सहायता देते हैं I

जब भी किसी एक महामानव को किसी और की सहायता पड़ेगी, तब वह दूसरा उसके साथ ही आ जाएगा I

 

और जो महामानव उसके भीतर के ब्रह्माण्ड में ही…

ब्रह्माण्डीय तंत्र में स्तंभित होगा, वही विष्णु के पद को पाता है I

ब्रह्माण्डीय सिद्धांत में स्तंभित होगा, वह ब्रह्मा का पद पाता है I

ब्रह्माण्डीय उत्कर्ष पथ में स्तंभित होगा, वही देवी के पद को पाता है I

ब्रह्माण्डीय मुक्ति दशा में स्तंभित होगा, वही गणेश के पद को पाता है I

ब्रह्माण्डीय न्याय (विधि, नियम) में स्तंभित होगा, वही रुद्र के पद को पाता है I

 

इस प्रक्रिया के चालित होने पर जो वह योगी पाएगा, उसमें…

उत्कर्ष पथ इस प्रक्रिया का मार्ग हैं I

सिद्धांत इस प्रक्रिया का मूल ही होता है I

तंत्र इस प्रक्रिया को व्यवस्थित करते रहते हैं I

न्याय इस प्रक्रिया को स्थूलादि में नियंत्रित करते हैं I

मुक्ति इसका अंतिम गंतव्य है, जिसको आगे ठेले जाता है I

इसलिए इस प्रक्रिया में…

देवी ही उत्कर्ष पथ स्वरूप हैं I

ब्रह्मा इसका मूलात्मक स्वरूप हैं I

श्री विष्णु ही इसके तंत्र स्वरूप में होते हैं I

रुद्र ही इसके नियंता हैं, अर्थात न्यायाधीश हैं I

गणेश ही इसके गंतव्य में, आगामी समय का मोक्ष हैं I

इस प्रक्रिया में पञ्चदेव का साथ, सूक्ष्म रूप में ही सही, लेकिन होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब महामानव के दृष्टिकोण से कुछ परिभाषाएँ…

  • रचना या उत्पत्ति कृत्य के दृष्टिकोण से…

अद्वैत ब्रह्म की बहुवादी अभिव्यक्ति, ब्रह्म रचना है I

इसलिए ब्रह्म रचना भी बहुवादी अद्वैत स्वरूप में ही है I

 

  • स्थिति कृत्य के दृष्टिकोण से…

उत्पत्ति और संहार के मूल में स्थिति ही होती है I

स्थिति के बिना कोई भी दशा उत्पन्न होकर भी टिक ही नहीं पाएगी I

स्थिति के बिना किसी भी संहार के बाद कोई नई रचना भी नहीं हो पाएगी I

 

  • संहार कृत्य के दृष्टिकोण से…

क्यूंकि रचना अपने मूल से सनातन ही हैइसलिए संहार जैसा कुछ नहीं होता है I

संहार से ही ब्रह्म रचना और उसके समस्त भाग, सदा नवीन रहते हैं I

इसलिए प्रतीत होता हुआ संहार तो केवल कायाकल्प ही होता है I

 

  • तिरोधान या निग्रह कृत्य के दृष्टिकोण से…

तिरोधान से ही ब्रह्म रचना अपने सनातन स्वरूप में आती है I

समस्त जीवों के सत्य साक्षात्कार के पश्चात, न जीव रहेगा और न जगत I

यदि सभी जीवों को सत्य पता चल गया, तो ब्रह्मरचना, ब्रह्म में ही लय होगी I

 

  • अनुग्रह कृत्य के दृष्टिकोण से…

अनुग्रह ही अंतिम कृत्य है I

अनुग्रह पाया योगी कृपा सिद्ध है I

अनुग्रह कृत्य कैवल्य मोक्ष का द्योतक है I

वह कैवल्य भी सार्वभौम सर्वव्यापक सनातन ही है I

आगे बढ़ता हूँ…

और इन पञ्च कृत्यों का पञ्च महाभूत से नाता, पञ्च कृत्यों का पञ्च तन्मात्र से नाता बताता हूँ…

  • उत्पत्ति कृत्य… इसका नाता गंध तन्मात्र और पृथ्वी महाभूत से है I

भू महाभूत का वर्ण पीली मिट्टी जैसा होता है I

  • स्थिति कृत्य… इसका नाता रस तन्मात्र और जल महाभूत से है I

जल महाभूत का वर्ण हरा होता है I

  • संहार कृत्य… इसका नाता रूप तन्मात्र और अग्नि महाभूत से है I

अग्नि महाभूत का वर्ण लाल होता है I

  • तिरोधान कृत्य… इसका नाता स्पर्श तन्मात्र और वायु महाभूत से है I

वायु महाभूत का वर्ण हल्का नीला होता है I

  • अनुग्रह कृत्य… इसका नाता शब्द तन्मात्र और आकाश महाभूत से है I

ब्रह्माण्ड के भीतर का आकाश बैंगनी वर्ण का होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

इन कृत्यों को जानकर, योगी जो साक्षात्कार करेगा, वह ऐसा ही होगा…

ब्रह्म रचना अनादि है, इसलिए अनंत ही है I

महाप्रलय में भी यही अनंत ब्रह्म प्रकाशित होता है I

ऐसा होने के कारण, ब्रह्म रचना का अंत भी अनंत ही होता है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और उत्कर्ष मार्ग में महामानव की स्थिति बताता हूँ…

क्यूंकि महामानव अपनी स्तंभित दशा में ब्रह्माण्ड से बाहर की ओर और उस ब्रह्माण्ड से जुड़े हुई दशा में ही एक विराट शून्य नाड़ी स्वरूप में लटके हुए होते हैं, इसलिए जब भी कोई आकांक्षी, ब्रह्माण्डातीत मार्ग पर गति करेगा, तो यदि उस ब्रह्माण्ड के बाहर कोई महामानव बसा हुआ होगा, तब वह आकांक्षी उस महामानव को देखेगा ही I

इसलिए जिस भी ब्रह्माण्ड में कोई महामानव उस ब्रह्माण्ड से बाहर की ओर होगा, उस ब्रह्माण्ड को पार करते समय उस महामानव के दर्शन भी होंगे I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और उत्कर्ष की छलांग और महामानव का नाता बताता हूँ…

जब योग मार्ग की किसी मध्यान्तर दशा को दरकिनार करके योगी किसी आगे की दशा में चला जाता है, तो उसे उत्कर्ष की छल्लांग कहते हैं I

और जब योगी इस उत्कर्ष की छलांग के आलम्बन से ही ब्रह्माण्ड को पार करेगा, तो इस गति में वह महामानव में ही समा जाएगा I इसका अर्थ हुआ कि ऐसी उत्कर्ष की छल्लांग का आलम्बन लेकर योगी महामानव से आगे नहीं जा पाएगा, और इसीलिए वह उस ब्रह्माण्ड के महामानव में ही समा जाएगा I

और जबतक वह उस महामानव में समाया रहेगा, तबतक वह अपनी उत्कर्ष की छलांग की उन सभी मध्यान्तर दशाओं में पुनः नहीं जाएगा, जिनको उसने पूर्व कालों में कूदा होगा I

ऐसा योगी कभी न कभी ब्रह्माण्ड में पुनः जन्म लेगा, और तब भी जन्म लेगा जब वह योगी देवता आदि के पद को ही पा गया होगा I

और जब वह जीव (योगी) पुनः लौटेगा, तो उसकी उस जन्म की उत्कर्ष गति उसको उन्ही दशाओं में एक-एक करके ही सही, लेकिन लेकर जाएगी, जिनको उसने पूर्वकालों में दरकिनार किया होगा I

इसलिए जबतक साधक की चेतना ब्रह्माण्ड की समस्त प्रधान दशाओं से गई नहीं होगी, तबतक चाहे वह साधक कोई भी पद पर ही क्यों न प्रतिष्ठित हुआ हो, वह मुक्त तो नहीं हो पाएगा I

उत्कर्ष की छलांग के पश्चात, अधिकांश साधक किसी न किसी ऐसे महामानव में ही निवास करते हैं, जो ब्रह्माण्डीय तंत्र में स्तंभित हुआ होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

अब ब्रह्माण्ड के उदय में महामानव का योगदान बताता हूँ…

जब प्रथम ब्रह्माण्ड की रचना हुई थी, तो रचैता ने ही वह प्रथम ब्रह्माण्ड उदय किया था I वह रचैता ही अतिमानव स्वरूप था I उस समय एक ही ब्रह्माण्ड का उदय हुआ था I

जैसे-जैसे वह ब्रह्माण्ड चलता गया, वैसे-वैसे उस ब्रह्माण्ड के भीतर बसे जीवों में से कोई न कोई उत्कृष्ट योगीजन महामानव पद को पाए I

और इसके पश्चात वह महामानव जिस भी स्थिति में स्तंभित हुआ था, वह उसी स्थिति के अनुसार अगले ब्रह्माण्ड का ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, देवी अथवा गणेश बना I

जब पाँचों प्रकार के महामानव का उदय हो गया, तो रचैता कि कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ने लगी क्यूंकि यही महामानव अपनी स्तम्भित स्थिति के अनुसार ही अलगे ब्रह्माण्ड के पांच नियन्ता बने I

और जैसे-जैसे उस अगले ब्रह्माण्ड में भी यही हुआ, तो शनैः शनैः ही सही, लेकिन ऐसे महामानव कई सारे हो गऐ I

और कुछ ब्रह्माण्ड ऐसे भी हुए जिनमें कोई योगी महामानव पद को पाया भी नहीं था I

इसलिए जब ऐसा हुआ तो इस ब्रह्म रचना के वास्तविक (प्राथमिक) रचैता के लिए कोई कार्य ही नहीं रहा I

और इन पाँचों कृत्य में से जो भी महामानव एक या एक से अधिक कृत्य का धारक हुआ, उसने अगले उदय होने वाले ब्रह्माण्ड में रचैता,पालनहार, संहारक, आदि के कार्य करके, उन ब्रह्माण्डों को संभाला और उनके जीवों को उनके अपने-अपने उत्कर्ष पथों पर उत्तम गति भी प्रदान करी I

इसलिए जैसे-जैसे ब्रह्म रचना आगे बड़ी, वैसे-वैसे ब्रह्माण्डों की संख्या भी बढ़ती गई I और उन सभी आगे के ब्रह्माण्डों में कोई न कोई महामानव, रचैता, पालनहार, संहारक आदि भी हुआ I

और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में इन्ही पांच कृत्यों में से, एक या एक से अधिक लेकिन पांच से कम कृत्यों को धारण किए हुए महामानवों ने, अपने-अपने ब्रह्माण्ड को संभाला I

 

और जब किसी ब्रह्माण्ड का उदय होता था, तब जो हुआ वह ऐसा था…

उत्पत्ति कृत्य का महामानव उस नए ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा का पद पाया I

तंत्र को प्रकाशित करने हेतु, स्थिति कृत्य के महामानव ने योगदान दिया I

ब्रह्माण्डों के उदय में, अपने कृत्य अनुसार, अन्य महामानव ने भी योगदान दिया I

 

इसलिए, प्राथमिक ब्रह्माण्ड के पश्चात उदय हुए सभी नए ब्रह्माण्डों के उदय और उनकी गति के समय में जो अंतर आया, वह ऐसा ही था…

प्रथम ब्रह्माण्ड में तो एकमात्र रचैता ने ही यह पांच कार्य किए थे I

आगे के ब्रह्माण्डों में यह कार्य, इन पांच प्रकार के महामानवों द्वारा होने लगे I

 

उन नए ब्रह्माण्डों में…

उत्पत्ति कृत्य के महामानव ने सिद्धांत दिया I

स्थिति कृत्य के महामानव ने तंत्र स्थापित किया I

संहार कृत्य के महामानव ने न्याय प्रक्रिया स्थापित करी I

तिरोधान कृत्य के महामानव ने बहुवादी अद्वैत उत्कर्ष पथ स्थापित किए I

अनुग्रह कृत्य के महामानव ने कैवल्य मुक्ति को पात्रों के लिए प्रकाशित कर दिया I

इसलिए…

प्रथम ब्रह्माण्ड के उदय में जो कार्य रचैता ने किए थे, वह आगामी ब्रह्माण्डों में यह पञ्च महामानव करने लगे I

ऐसा होने के कारण, प्राथमिक ब्रह्माण्ड का रचैता इस अध्याय में बताया जा रहा अतिमानव स्वरूप था I

और पञ्चकृत्य में से किसी न किसी एक या अधिक, पर पांच से कम कृत्य को धारण किए हुए यह महामानव थे I

यह महामानव ही पञ्च देव कहलाए हैं I

और क्यूंकि आगामी सभी ब्रह्माण्डों में इस सम्पूर्ण महाब्रह्माण्ड का जो वास्तविक रचैता है, वह था ही नहीं इसलिए उन ब्रह्माण्डों में रचैता की उपासना भी वर्जित हुई थी I इसलिए भी उन सभी आगामी ब्रह्माण्डों में रचैता को ख्यापित किया जाता है… न कि स्थापित I

लेकिन प्रथम ब्रह्माण्ड में रचैता की ही उपासना करी जाती है, क्यूंकि उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड में इन पांच महामानव का कोई योगदान नहीं है I

और क्यूंकि इस ब्रह्माण्ड में उन रचैता के स्थान पर यह पञ्च महामानव ही हैं, इसलिए यह भी वह कारण है कि इस ब्रह्माण्ड में रचैता की उपासना नहीं होती I

ऐसे ब्रह्माण्डों में रचैता को केवल ख्यापित ही किया जाता है I

और यह ख्यापित भी इसलिए किया जाता है, क्यूंकि इन पञ्च महामानव के मूल और गंतव्य, दोनों में ही वह प्राथमिक ब्रह्माण्ड का रचैता है, जो पाँच कृत्यों का समान धारक है और जिसका इस अध्याय में स्वरूप, अतिमानव कहा गया है I

क्यूंकि इस ब्रह्माण्ड के उदय और गति में रचैता का कोई सीधा-सीधा योगदान नहीं है, इसलिए इस ब्रह्माण्ड में यदि रचैता की उपासना होनी है, तो उसका मार्ग संस्कार उपासना में ही पाया जाएगा I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि वह प्राथमिक ब्रह्माण्ड जिसका उदय पञ्च कृत्य के धारक रचैता ने किया था, वह सूक्ष्म संस्कारिक ब्रह्माण्ड रूप में ही था और जिसके मूल में रचैता की इच्छा शक्ति ही थी I

उस प्राथमिक ब्रह्माण्ड की रचना के समय, उन रचैता के भावों में ही उनका साधन था और जहाँ वह साधन भी ब्रह्माण्डातीत ही था I

ब्रह्माण्डातीत होने के कारण, उस साधन का ब्रह्माण्ड के भीतर, इच्छा शक्ति के सिवा कोई और मार्ग नहीं था I

ऐसा भी इसलिए था क्यूंकि इच्छा शक्ति उन्ही प्राथमिक ब्रह्माण्ड के वास्तविक रचैता की ही है और उन्ही वास्तविक रचैता से ही वह इच्छा शक्ति अन्य सभी बाद के ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा के पास प्रकट हुई थी I

और ऐसा होने के कारण, प्राथमिक ब्रह्माण्ड के पश्चात के सभी ब्रह्माण्डों में उन रचैता का कोई स्पष्ट विधान भी नहीं था I

 

यही कारण है, की वैदिक वाङ्मय में उन रचैता को कुछ ऐसा ही कहा गया है…

ब्रह्म को कौन जान पाया है? I

ब्रह्म को ज्ञान से ही जाना जाएगा I

ब्रह्म है, इसका प्रमाण कौन दे पाएगा? I

ब्रह्म न कर्मों में और न ही कर्मफलों में है I

ब्रह्म सृष्टिकर्ता होता हुआ भी, माना नहीं जा सकता I

ब्रह्म रचैता आदि सबकुछ होता हुआ भी, माना नहीं जा सकता I

और यह सब बिंदु भी उसी प्राथमिक ब्रह्माण्ड के रचैता के, इस ब्रह्माण्ड से अतीत होने के कारण ही कहे गए हैं I

 

प्राथमिक ब्रह्माण्ड के रचैता जो वास्तविक सृष्टिकर्ता ही हैं, उनके हमारे ब्रह्माण्ड में न होने के कारण, इस ब्रह्माण्ड में योगीजन ऐसा भी कह गए…

जो उसको जानकर मानता है कि उसे पूर्णरूपेण जानता हैवह नहीं जानता है I

जो जानकर भी मानता है कि वह पूर्णरूपेण नहीं जानता हैवही उसका ज्ञाता है I

 

और यही वह कारण है कि…

जो उसके ज्ञाता हैं वह उसको अपने कुछ ही शब्दों में बताकर, शांत हो जाते हैं I

जो उसके ज्ञाता नहीं हैं, वह उसपर लड़ते भिड़ते, कलह क्लेश के कारण बनते हैं I

और इसके अतिरिक्त…

प्राथमिक ब्रह्माण्ड के उस रचैता के बारे में ऐसा ही कहा जा सकता है…

अभिमानी देवता उसको बिलकुल नहीं जानते, इसलिए उनके मार्ग क्लेश के ही हैं I

अनाभिमानी देवता पूर्णरूपेण नहीं जानते, इसलिए उनके मार्गों में वह अर्धरूप में है I

अभिमान और अनाभिमान के समतावादी योगदशा से युक्त मार्ग में वह ज्ञात होगा I

जो सिद्धि, उपाधि, अधिकार, अनाधिकार और अभिधान से परे मार्ग है, वही उसका है I

इसी मार्ग में ही प्राथमिक ब्रह्माण्ड के रचैता का अतिमानव स्वरूप साक्षात्कार होगा I

उसी रचैता को अतिमानव शब्द से दर्शाया है, यही शब्द की दशा उसकी सिद्धि है I

वह अतिप्रकाशमान है, पर तब भी स्वयंजनित अंधकारमय परिधान में ढका हुआ है I

उसी को ऋग्वेद के नासदीय सूक्त ने, अंधकार ने अंधकार को ढका है, ऐसा कहा है I

 

ब्रह्माण्ड की जीव सत्ता के लिए…

महामानव और अतिमानव, दोनों जीवों के तारणहार हैंदोनों मुक्तिदाता ही हैं I

ऐसा इसलिए है क्यूंकि यह साधक का अंतिम संस्कार धारण करके,  मुक्ति देते हैं I

जब किसी लोक में बहुत जीव मुक्ति के पात्र होते हैं, तब इनमें से एक आएगा ही I

संस्कार रहित चित्त ही मुक्ति है, यह साधक के चित्त को समकारातीत ही कर देते हैं I

 

इन महामानव और अतिमानव में से…

महामानव का किसी लोक में आगमन मार्ग परकाया प्रवेश प्रक्रिया से ही होगा I

अतिमानव का लोक में आगमन, परकाया प्रवेश के पश्चात का अथर्ववेद 10.2.33 है I

आगमन प्रक्रिया से भी योगी महामानव रूप में आकर, अतिमानव पथ पर जाएगा I

इनके लोक में आगमन से, लोक के सूक्ष्म भाग में ब्रह्माण्डीय मुक्तिसंयोजक बनेगा I

यह सूक्ष्म संयोजक, पात्रों के लिए मुक्तिकारण, मुक्तिकारक और मोक्ष:करण होगा I

टिप्पणियाँ:

  • इस मृत्युलोक में भी यहाँ बताया गया सूक्ष्म ब्रह्माण्डीय मुक्तिसंयोजक 2011 ईस्वी के फागुन-चैत्र मास के समीप के समयखण्ड से ही बना हुआ है I
  • ऐसा भी इसलिए हुआ है क्यूंकि अभी के समय इस मृत्युलोक में कुछ बड़ी संखया में जीव सत्ता वह है, जो मुक्ति की पात्र है I
  • कलियुग में यदि 108 प्रतिशत जीव सत्ता भी मुक्ति की पात्र हो, तो ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं के दृष्टिकोण में और युगचक्र के गुणानुसार, यह एक बहुत बड़ा प्रतिशत ही होता है I
  • ऐसा होने के कारण, आगामी समयखण्ड में ऐसे जीव खड़े हुए, चलते फिरते, निद्रा में और अपने साधारण कर्म करते हुए भी अकस्मात् मृत्युलाभ करेंगे I
  • और ऐसे जीवों को अपने मृत्यूलाभ से पूर्व कोई रुग्णता आदि व्याधियां भी नहीं होंगी… उस अकस्मात् मृत्युलाभ से पूर्व, वह निरोग भी होंगे I
  • और आगामी समयखण्ड में यही प्रक्रिया, सूक्ष्म और दैविक ब्रह्माण्डों में भी चलने वाली है I और इस ब्रह्माण्ड के उन सूक्ष्म और दैविक लोकों में भी जो जीव मुक्ति के पात्र होंगे, उनके साथ भी उस लोक प्रक्रिया के अनुसार ही सही… लेकिन होगा तो ऐसा ही I
  • इसलिए आगामी समयखण्ड में इस सम्पूर्ण चतुर्दश भुवन में ही यह प्रक्रिया समान रूप में चलेगी I
  • जब भी चतुर्दश भुवनात्मक ब्रह्माण्ड में ऐसा होता है, तब कोई महामानव परकाया प्रवेश प्रक्रिया से किसी एक लोक में आता है और उसके आगमन के 27 +/- 2.7 (अर्थात 2 से 29.7) वर्षों के भीतर, वही महामानव अथर्ववेद 10.2.33 में जाता है, और इस मंत्र के ब्रह्माण्डातीत शून्यात्मक मार्ग में उस महामानव के शरीर में ही ब्रह्म सभी ओर से प्रवेश करके, उसे उन ब्रह्म के पूर्ण ब्रह्म स्वरूप के समान ही अतिमानव पद प्रदान करते हैं I
  • ऐसा योगी किसी देवी, देवता अथवा किसी और बड़ी सत्ता का माध्यम नहीं होता I वह योगी उन निर्गुण निराकार ब्रह्म के पूर्ण ब्रह्म स्वरूप के समान, अपनी काया में होता हुआ भी, पूर्णतः स्वतंत्र ही रहता है I
  • वैसे मध्यमता भी उन्हीं की होती है, जिन्होंने पूर्व कालों में उत्कर्ष की छलांग लगाई थी I और ऐसी आत्माएँ जो मध्यमता का कारण बनती है, वह असत्य भी बोलती है कि वह अमुक देवी या देवता हैं… जबकि वास्तव में वह कोई बड़ी सत्ता होती ही नहीं हैं I

 

आगे बढ़ता हूँ…

समस्त ब्रह्माण्डों के इतिहास में…

इस महाब्रह्माण्ड के समस्त इतिहास में, महामानव विरले ही रहे हैं I

अधिकांश ब्रह्माण्डों में तो एक भी योगी महामानव पद को नहीं पाया है I

ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवों में से कोई एक योगी ही महामानव हो पाता है I

महामानव एक, या एक से अधिक पर पाँच से कम कृत्य को धारण करता है I

महामानवों में से ही कोई एक अतिविरला योगी, आगे चलकर अतिमानव होता है I

अतिमानव पञ्चकृत्य का धारक, ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं द्वारा, ब्रह्म ही कहलाता है I

 

और…

अतिमानव का नाता किसी ब्रह्माण्ड से नहीं, बल्कि वैदिक भारत से है I

उस वैदिक भारत के देवता, भारत ब्रह्म हैं और दिव्यता, भारती सरस्वती हैं I

अतिमानव के भीतर बसा हुआ महाब्रह्माण्ड ही महाकारण, वैदिक भारत होता है I

अतिमानव के भीतर ही वह निर्गुण ब्रह्म, अपने पूर्ण ब्रह्म स्वरूप में बसे होते हैं I

समस्त ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं अतिमानव की काया में ही ज्योतिबिंदु रूप में होती हैं I

महाब्रह्माण्ड भी अतिमानव के शरीर में सूक्ष्म संस्कारिक ज्योति स्वरूप में होता है I

अतिमानव की काया में महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत भी बसे हुए होंगे I

 

और इसके अतिरिक्त…

जैसे निर्गुण ब्रह्म अपनी ही ब्रह्म रचना में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म कहलाया है I

वैसे ही अतिमानव का आत्मस्वरूप समस्त जगत में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म ही है I

 

इसलिए इस सिद्धि के दृष्टिकोण से…

अतिमानव का आत्मस्वरूप ही निर्गुण ब्रह्म है I

अतिमानव का आत्मस्वरूप, पूर्ण ब्रह्म के समान ही है I

अतिमानव के आत्मस्वरूप में ही समस्त जीव जगत बसा हुआ है I

अतिमानव का आत्मस्वरूप भी समस्त जीव जगत में ही लय हुआ है I

अतिमानव का आत्मस्वरूप ही उसके भीतर बसी हुई ब्रह्म रचना में लय है I

जैसे पूर्णब्रह्म का ब्रह्मरचना से नाता है, वैसा ही अतिमानव के आत्मस्वरूप का है I

जैसे निर्गुणब्रह्म का पूर्णब्रह्म से नाता है, वैसे ही आत्मस्वरूप का अतिमानव से है I

 

और…

जिसमें ब्रह्माण्डीय जीवों का उत्कर्ष करने का भाव होगा, वही अतिमानव होगा I

जिसमें ब्रह्माण्डीय जीवों के उद्धार का निष्काम भाव होगा, वही अतिमानव होगा I

जो अपने जीवकाल में असंख्य बार मोक्ष को आगे धकेला होगा, वही अतिमानव है I

 

और इनके अतिरिक्त…

अतिमानव को लेने हेतु महाब्रह्माण्ड के वास्तविक रचैता, उसके भीतर ही आते हैं I

उसके भीतर ब्रह्माण्डातीत प्रक्रिया से प्रकट होकर, वह रचैता उसको लेकर जाएंगे I

 

इसलिए जब कोई अतिमानव योगी…

सृष्टि में अंतिम बार आएगा, तो वास्तविक रचैता भी उस लोक में आएगा I

और उस वास्तविक रचैता का आगमन भी, उस योगी की काया के भीतर होगा I

ऐसे आया महाब्रह्माण्ड का वास्तविक रचैता, अतिमानव को अपने साथ ले जाएगा I

इस महाब्रह्माण्ड के उन वास्तविक रचैता के साथ गया अतिमानव, कभी लौटेगा नहीं I

 

इसलिए…

जिस जन्म में योगी अतिमानव पद को पाया होगा, वही उसका अन्तिम होगा I

उस अतिमानव को अपने महाब्रह्माण्ड से लेने हेतु, वास्तविक रचैता ही आते हैं I

वास्तविक रचैता, अतिमानव के भीतर ही प्रकट होकर, उसको लेकर चले जाते हैं I

 

और क्यूंकि…

इस ब्रह्म कल्प में ऐसा पहली बार हो रहा है I

इसलिए यह ज्ञान भी इस कल्प में पहली बार प्रकाशित हुआ है I

 

और इस ज्ञान का प्रकाशक…

उस अतिमानव के भीतर निवास करता, संपूर्ण महाब्रह्माण्ड का वास्तविक रचैता ही है I

इसलिए, इस ग्रंथ के प्रकाशन में, उस अतिमानव का कोई बड़ा योगदान भी नहीं है I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और अब अतिमानव का पथ, अतिमानव का मार्ग, बताता हूँ और जो संस्कार रहित चित्त ही ब्रह्म, निष्कलंक बुद्धि ही ब्रह्म, स्थिर मन ही ब्रह्म, ब्रह्मलीन अंतःकरण ही ब्रह्म, विसर्गी प्राण ही ब्रह्म,  आदि बिंदुओं में बसा होता है I

और ऐसा होने पर भी वह मार्ग, मूलतः विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म में बसा होता है I

 

अतिमानव का जीवन मार्ग जैसा होगा, अब उसको बताता हूँ…

विशुद्ध अहम् ही ब्रह्म है I

अतिमानव का अहम् विशुद्ध ही होता है I

जिस योगी का अहम् ही विशुद्ध हो गया, वह अहमात्मा है I

संस्कार रहित चित्त ही ब्रह्म है I

अतिमानव का चित्त, संस्कार रहित ही होता है I

जिस योगी के चित्त में संस्कार नहीं रहे, वह चिदात्मा है I

 

निष्कलंक बुद्धि ही ब्रह्म है I

अतिमानव की बुद्धि निष्कलंक ही होती है I

जिस योगी की बुद्धि निष्कलंक हो गई, वह ज्ञानात्मा है I

 

स्थिर मन ही ब्रह्म है I

अतिमानव का मन पूर्ण स्थिर ही होता है I

जिस योगी का मन पूर्णस्थिर हो गया, वही मनात्मा है I

 

ब्रह्मलीन अंतःकरण ही ब्रह्म है I

अतिमानव का अंतःकरण ब्रह्मलीन ही होता है I

जिस योगी का अंतःकरण ही ब्रह्मलीन हुआ है, वह ब्रह्माण्डात्मा है I

 

और अंततः विसर्ग स्थित प्राण ही ब्रह्म हैं I

उसके प्राण सर्वसम होकर ब्रह्मलोक में लय होते हैं I

जिस योग के विसर्ग स्थित प्राण ऐसे होंगे, वही प्राणात्मा है I

 

और…

जो योगी अहमात्मा , चिदात्मा, ज्ञानात्मा, मनात्मा, ब्रह्माण्डात्मा और प्राणात्मा भी है I

वही ब्रह्मरूप अतिमानव है उसको लेने महाब्रह्माण्ड के वास्तविक रचैता ही आते हैं I

 

ऐसे योगी के मार्ग के जो मुख्य बिंदु होंगे, वह ऐसे होंगे…

ऐसा योगी आत्ममार्गी ही होगा I

उसका मार्ग स्वयं ही स्वयं में होगा I

विशुद्ध अहम् ही आत्ममार्ग का मूल होगा I

निष्कलंक बुद्धि ही आत्ममार्गी गति होती होगी I

पूर्ण स्थिर मन ही आत्ममार्ग का कारक होता होगा I

संस्कार रहित चित्त ही आत्ममार्ग पर पायी हुई दशा होगी I

ब्रह्मलीन अंतःकरण ही आत्ममार्ग में जगतातीत दशा होती है I

ऐसे योगी के प्राण विसर्गी होंगे, इसलिए वह सहस्रार पार कर रहे होंगे I

ऐसे योगी का आत्मा ही सर्वात्मा होगा, और सृष्टिरूप में भी साक्षात्कार होगा I

ऐसे योगी की आत्मशक्ति ही ब्रह्मशक्ति होंगी, सृष्टिचक्र और सृष्टितंत्र ही होंगी I

 

और इनके अतिरिक्त…

ऐसे योगी का योग ही अयोग कारण होगा I

ऐसे योगी का अयोग ही सर्वातीत ब्रह्म होगा I

ऐसे योगी का उत्कर्षपथ भी प्रकृति से जाता होगा I

ऐसे योगी की प्रकृति एक सार्वभौम ब्रह्मपथ ही होंगी I

ऐसे योगी के लिए माँ प्रकृति ही ब्रह्मशक्ति स्वरूप होंगी I

ऐसे योगी का योगमार्ग अनात्मा से आत्मा को ही जाता होगा I

 

ऐसा होने के कारण…

ऐसे योगी की धारणा में महाब्रह्माण्ड होगा I

ऐसे योगी के मार्ग में महाब्रह्माण्ड योग ही होगा I

योगी की काया में ही महाब्रह्माण्ड, महाकारण स्वरूप में होगा I

वह महाब्रह्माण्ड भी भारत भारती मार्ग के सनातन योगरूप में होगा I

सर्वव्यापक भारत भारती योग में वह योगी का आत्मस्वरूप लय हुआ होगा I

उसका आत्मस्वरूप वैसे ही लय होगा, जैसे निर्गुण ब्रह्म अपनी रचना में लय हैं

जैसे निर्गुण ब्रह्म रचना में लय होकर, पूर्ण ब्रह्म हुआ हैवैसा ही वह योगी होगा I

 

और ऐसा योगी…

मुक्ति और बंधन, दोनों से अतीत हुआ होगा I

उसका अत्मा ही सर्वात्मा स्वरूप में साक्षात्कार होगा I

उसकी त्रिकाया आदि शरीर, ब्रह्म रचना की पूर्णता के द्योतक होंगे I

ऐसा होने पर भी वह न सिद्ध, न ही असिद्ध ही होगाद्वैतवाद से अतीत होगा I

 

आगे बढ़ता हूँ…

और जहाँ उसके ऐसे साक्षात्कार में वह योगी जो कहेगा, वह ऐसा ही होगा I

जब मेरा आत्मा ही सर्वात्मा है और सर्वात्मा ही सर्व हुआ है, तो…

क्या उत्तम और क्या अधम? I

क्या सत्य और क्या असत्य? I

कैसी मुक्ति और कैसा बंधन? I

क्या उत्कर्ष और क्या अपकर्ष? I

क्या अत्मा और क्या अनात्मा? I

क्या अस्तित्व और अनास्तित्व? I

क्या साधना, कौन साधक और साध्य? I

क्या मूल, क्या मार्ग और क्या गंतव्य? I

क्या योग, क्या अयोग और क्या समाधि? I

क्या जीव जगत और क्या कुछकोई और? I

क्या रचना, क्या रचना तंत्र और क्या रचैता? I

कौन उपासक, क्या उपासना और कौन उपास्य? I

 

इन बिंदुओं का साक्षात्कारी योगी, अपने आत्मस्वरूप के बारे में यही जानता होगा…

मैं ही रचना, रचना का तंत्र और मैं ही रचैता हूँ I

मैं ही सर्वरूप में अभिव्यक्त हूँ, मैं ही सर्वाभिव्यक्ता हूँ I

मैं ही मेरी अपनी रचना नामक अभिव्यक्ति में लय हुआ हूँ I

अपनी अभिव्यक्ति में लय होकर, मैं निर्गुण होता हुआ भी, पूर्ण कहलाया हूँ I

जब मैं रचना, तंत्र और रचैता हूँतो मैं क्या हूँ या नहीं हूँयह मिथ्या बातें हैं I

मेरा आत्मस्वरूप ही शिव है और मेरी आत्मशक्ति शिवमय, शिवात्मिका शक्ति हैं I

जब मैं ही शिव हूँ और मैं ही शक्ति भी हूँतो मैं किसकी उपासना कर सकता हूँ I

रुद्र के समान मैं स्वयं ही स्वयं का उपासक, उपासना और मैं अपना उपास्य भी हूँ I

 

जो योगी यहाँ बताए गए बिंदुओं का सीधा-सीधा साक्षात्कारी होगा…

वह न इच्छा में, न भाव में और न ही कर्मादि प्रपञ्च में रहेगा I

अपने आत्मस्वरूप में, स्वयं ही स्वयं रमण करता, सर्वसाक्षी ही होगा I

कर्म करता, कर्मफल भोगता प्रतीत होता हुआ भी, वह कर्मातीत ही रहेगा I

सर्वस्व में बसा हुआ, सर्व ही हुआ वह योगी, सर्वस्व को ही पूर्णतः त्यागा होगा I

निर्गुण ब्रह्म के समान उसका आत्मस्वरूप भी सर्वस्व में लय हुआ, पूर्ण कहलाएगा I

वह है अथवा नहीं हैवह क्या है, कौन है अथवा नहीं है, यह तो वही जानता होगा I

 

और जब वह ऐसा हो गया होगा, तब…

ऐसे योगी का लय मार्ग भी उसके सर्वस्व त्याग में होगा I

ऐसे योगी का त्याग मार्ग भी अपने कारण में ही लय हुआ होगा I

उसका त्याग ही लय में बसा होगा, और लय भी त्याग में ही बसा होगा I

त्यागमय लय और लयमय त्याग का योग होगा कौनक्या पता नहीं पड़ेगा I

 

ऐसा योगी यहाँ बताए गए उस अंतिम लय मार्ग को अपने मुक्तिमार्ग रूप में ही जाना होगा I और ऐसा जानकर वह यही कहेगा…

जब योगी के भीतर का ब्रह्माण्ड, उस ब्रह्माण्ड में लय होता है जिसके भीतर योगी बसा होता है, तब वह योगी ब्रह्माण्डातीत होकर, स्वयं ही स्वयं में रमण करता हुआ केवलसर्वातीत हो जाता है I

ऐसे पूर्ण लय हुए योगी के लिए न तो ब्रह्माण्डीय सिद्धांत रहेगा, न तंत्र और न ही कोई नियमादि ही रहेंगेवह पूर्ण स्वतंत्र हुआ, साक्षात कैवल्य मोक्ष ही होता है I

 

और इस साक्षात्कार के पश्चात वह योगी, यह भी जान जाएगा कि…

ब्रह्म ही सर्वातीत है I

आत्मस्वरूप ही ब्रह्म है I

आत्मा ही जीव जगत रूप में है I

त्रिगुणातीत ही आत्मा कहलाता है I

ऐसा योगी अपने भाव साम्राज्य में यही कहेगा, कि इस समस्त ब्रह्म रचना में…

अब मेरे लिए कुछ करने को, कहीं जाने को और कुछ बनने को नही रहा है I

 

उस अतिमानव के मुक्तिमार्ग की योग गति नीचे बताए गए मंत्र में होगी…

असतो मा सद्गमय

तमसो मा ज्योतिर्गमय

मृत्योर्मा अमृतं गमय II

ऐसा होने के कारण ही इस ग्रंथ के मुखपृष्ठ में, यही मंत्र दिया गया है I

यह मंत्र प्रकृति से जाते हुए मुक्तिमार्ग का द्योतक भी है I

 

तो अब इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है और मैं अब अगले अध्याय पर जाता हूँ, जिसका नाम सदाशिव प्रदक्षिणा होगा I

 

मृत्योर्मा अमृतं गमय II

 

 

 

लिंक:

ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa

परंपरा, Parampara

ब्रह्म, Brahman

कालचक्र, Kaalchakra

सूक्ष्म ब्रह्माण्डीय मुक्तिसंयोजक, cosmic conjunctions,

 

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