यहाँ पर मनोमय कोश, मन ब्रह्म, मनस शक्ति, इच्छा शक्ति, मनाकाश और भाव में साधन पर बात होगी I और इस अध्याय में विज्ञानमय कोश, जीवात्मा, ज्ञान ब्रह्म, ज्ञान शक्ति, बुद्धता कोश, बुद्धत्व कोश, ज्ञानाकाश और महाकारण देह पर भी बात होगी I
इस अध्याय में बताए गए साक्षात्कार का समय, कोई 2007-2008 से लेकर 2011 तक का है I इतने वर्ष इसलिए लगे क्यूंकि इस अध्याय का मार्ग और साक्षात्कार कई सारी दशाओं से होकर ही जाता है I
पूर्व के सभी अध्यायों के समान, यह अध्याय भी मेरे अपने मार्ग और साक्षात्कार के अनुसार है I इसलिए इस अध्याय के बिन्दुओं के बारे किसने क्या बोला, इस अध्याय का उस सबसे और उन सबसे कुछ भी लेना देना नहीं है I
यह अध्याय भी उसी आत्मपथ या ब्रह्मपथ या ब्रह्मत्व पथ श्रृंखला का अभिन्न अंग है, जो पूर्व के अध्यायों से चली आ रही है।
यह भाग मैं अपनी गुरु परंपरा, जो इस पूरे ब्रह्मकल्प में, आम्नाय सिद्धांत से ही सम्बंधित रही है, उसके सहित, वेद चतुष्टय से जो भी जुड़ा हुआ है, चाहे वो किसी भी लोक में हो, उस सब को और उन सब को समर्पित करता हूं।
यह ग्रंथ मैं पितामह ब्रह्म को स्मरण करके ही लिख रहा हूं, जो मेरे और हर योगी के परमगुरु कहलाते हैं, जिनको वेदों में प्रजापति कहा गया है, जिनकी अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ ब्रह्म कहलाती है, जो अपने कार्य ब्रह्म स्वरूप में योगिराज, योगऋषि, योगसम्राट, योगगुरु, योगेश्वर और महेश्वर भी कहलाते हैं, जो योग और योग तंत्र भी होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र विज्ञानमय कोश में उनके अपने पिण्डात्मक स्वरूप में बसे होते हैं और ऐसी दशा में वह उकार भी कहलाते हैं, जो योगी की काया के भीतर अपने हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में होते हैं, जो योगी के ब्रह्मरंध्र के भीतर जो तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं उनमें से मध्य के बत्तीस दल कमल में उनके अपने ही हिरण्यगर्भात्मक (स्वर्णिम) सगुण आत्मब्रह्म स्वरूप में होते हैं, जो जीव जगत के रचैता ब्रह्मा कहलाते हैं और जिनको महाब्रह्म भी कहा गया है, जिनको जानके योगी ब्रह्मत्व को पाता है, और जिनको जानने का मार्ग, देवत्व, जीवत्व और जगतत्व से होता हुआ, बुद्धत्व से भी होकर जाता है।
ये अध्याय, “स्वयं ही स्वयं में” के वाक्य की श्रंखला का इकत्तीसवाँ अध्याय है, इसलिए जिसने इससे पूर्व के अध्याय नहीं जाने हैं, वो उनको जानके ही इस अध्याय में आए, नहीं तो इसका कोई लाभ नहीं होगा।
और इसके साथ साथ, ये भाग, पञ्चब्रह्म गायत्री मार्ग की श्रृंखला का सत्रहवाँ अध्याय है ।
मनोमय कोश क्या है, विज्ञानमय कोश क्या है, मनोमय कोश सगुण साकार और सगुण निराकार दोनों है, विज्ञानमय कोश सगुण साकार और सगुण निराकार दोनों है, … मनोमय कोश सगुण साकार है, विज्ञानमय कोश सगुण साकार है, मनोमय कोश सगुण निराकार है, विज्ञानमय कोश सगुण निराकार है, मनोमय कोश साकार और निराकार दोनों है, विज्ञानमय कोश साकार और निराकार दोनों है, मनोमय कोश सगुण है, विज्ञानमय कोश सगुण है, मनोमय कोश सगुणात्मक है, विज्ञानमय कोश सगुणात्मक है, मनोमय कोश निराकार है, विज्ञानमय कोश निराकार है, …
यदि इसको साधारण भाषा में बताया जाए, तो ऐसा कहा जा सकता है …
शरीर की प्रत्येक कोशिका का अपना मन और विज्ञान नामक सूक्ष्म भाग होता है I
स्थूल शरीर की कोशिकाओं के मनस नामक भाग का समूह मनोमय कोश है I
स्थूल शरीर की कोशिकाओं के विज्ञान नामक भाग का समूह विज्ञानमय कोश है I
अपनी वास्तविकता में स्थूल शरीर की कोशिकाओं के मन और विज्ञान नामक भाग के समूह निराकार हैं, लेकिन ऐसे होते हुए भी शरीर के भीतर यह साकार रूप में ही साक्षात्कार होंगे I
ऐसा होने के कारण, आंतरिक मार्गों (अर्थातआत्ममार्ग) के साक्षात्कारों में, स्थूल शरीर के भीतर का …
मनोमय कोश सगुण निराकार होता हुआ भी, सगुण साकार प्रतीत होता है I
विज्ञानमय कोश सगुण निराकार होता हुआ भी, सगुण साकार प्रतीत होता है I
यही कारण है, कि स्थूल शरीर के भीतर साक्षात्कार किया हुआ …
मनोमय कोश निराकारी होता हुआ भी, साकारी रूप में ही साक्षात्कार होगा I
विज्ञानमय कोश निराकारी होता हुआ भी, साकारी रूप में ही साक्षात्कार होगा I
इसलिए जब आत्ममार्ग में, अर्थात आंतरिक मार्ग में शरीर के भीतर …
मनोमय कोश का साक्षात्कार होगा, तो वो शरीरी ही होगा I
विज्ञानमय कोश का साक्षात्कार होगा, तो वो शरीरी ही होगा I
लेकिन ऐसा होने पर भी, अपनी वास्तविकता में …
मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश, दोनों सगुणात्मक और निराकारी ही हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का स्वरूप, मनोमय कोश का स्वरूप, विज्ञानमय कोश का स्वरूप, … मनाकाश क्या है, ज्ञानाकाश क्या है, मनोमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, विज्ञानमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, …
अब मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश के स्वरूपों का वर्णन करता हूँ …
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का चेतना विहीन स्वरूप, मनोमय कोश का चेतना विहीन स्वरूप, विज्ञानमय कोश का चेतना विहीन स्वरूप, …
मनोमय कोश का चेतना विहीन स्वरूप सुसुप्ति है, जिसका नाता तमोगुण से है I
विज्ञानमय कोश का चेतना विहीन स्वरूप अज्ञान है, जिसका नाता बिंदु शून्य से है I
बिंदु शून्य को ही जड़ प्रकृति कहते हैं I
तमोगुण ही अन्धकार है और जहाँ अन्धकार का नाता भी अज्ञान से ही है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का चेतना युक्त स्वरूप, मनोमय कोश का चेतना युक्त स्वरूप, विज्ञानमय कोश का चेतना युक्त स्वरूप, मनोमय कोश का चेतन स्वरूप, विज्ञानमय कोश का चेतन स्वरूप, …
मन का चेतना युक्त स्वरूप जागृत अवस्था है, जिसका नाता रजोगुण से है I
विज्ञानमय कोश चेतना युक्त स्वरूप ज्ञानमय है, जिसका नाता रचना से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का चेतन-अचेतन स्वरूप, मनोमय कोश का चेतन-अचेतन स्वरूप, विज्ञानमय कोश का चेतन-अचेतन स्वरूप, …
मनोमय कोश का चेतन-अचेतन स्वरूप स्वप्न है, जिसका नाता सत्त्वगुण से है I
विज्ञानमय कोश का चेतन-अचेतन स्वरूप समता है, जिसका नाता सम-ब्रह्म से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का अवचेतन स्वरूप, मनोमय कोश का अवचेतन स्वरूप, विज्ञानमय कोश का अवचेतन स्वरूप, …
मनोमय कोश का अवचेतन स्वरूप तुरिय है, जिसका नाता समाधि से है I
विज्ञानमय कोश का अवचेतन स्वरूप प्रणव है, जिसका नाता अद्वैत ज्ञान से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का गंतव्य स्वरूप, मनोमय कोश का गंतव्य स्वरूप, विज्ञानमय कोश का गंतव्य स्वरूप, …
मनोमय कोश का गंतव्य स्वरूप लय है, जिसका नाता अत्यन्तिक प्रलय से है I
विज्ञानमय कोश का गंतव्य स्वरूप मुक्ति है, जिसका नाता निर्गुण तुरीयातीत से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का प्राकृत स्वरूप, मनोमय कोश का प्राकृत स्वरूप, विज्ञानमय कोश का प्राकृत स्वरूप, …
मनोमय कोश का प्राकृत स्वरूप इच्छा है, जिसका नाता संस्कारिक् जगत से है I
विज्ञानमय कोश का प्राकृत स्वरूप अंकुश है, जिसका नाता विज्ञानमय प्रकृति से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, मनोमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, विज्ञानमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, …
मनोमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप मनाकाश है, जिसका नाता मन ब्रह्म से है I
विज्ञानमय कोश का ब्रह्माण्डीय स्वरूप ज्ञानाकाश है, जिसका नाता ज्ञान ब्रह्म से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का मूल स्वरूप, मनोमय कोश का मूल स्वरूप, विज्ञानमय कोश का मूल स्वरूप, …
मनोमय कोश का मूल स्वरूप चित्त है, जिसका नाता चेतन ब्रह्म से है I
विज्ञानमय कोश का मूल स्वरूप जीवात्मा है, जिसका नाता ओम से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का नवग्रह स्वरूप, मनोमय कोश का नवग्रह स्वरूप, विज्ञानमय कोश का नवग्रह स्वरूप, …
मनोमय कोश का नवग्रह स्वरूप चन्द्र है, जिसका नाता सर्वसम प्रजापति से है I
विज्ञानमय कोश का नवग्रह स्वरूप सूर्य है, जिसका नाता हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का योगमार्ग स्वरूप, मनोमय कोश का योगमार्ग स्वरूप, विज्ञानमय कोश का योगमार्ग स्वरूप, …
मनोमय कोश का योगमार्ग स्वरूप मनस चक्र है, जिसका नाता शून्याकाश से है I
विज्ञानमय कोश का योगमार्ग स्वरूप जीवात्मा है, जिसका नाता प्रणव से है I
- मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का योग सिद्धि स्वरूप, मनोमय कोश का योग सिद्धि स्वरूप, विज्ञानमय कोश का योग सिद्धि स्वरूप, …
मनोमय कोश का योग सिद्धि स्वरूप अर्धनारीश्वर है, जिसका नाता शिवत्व से है I
विज्ञानमय कोश के योग सिद्धि स्वरूप बुद्धत्व है, जिसका नाता ब्रह्मत्व से है I
आगे बढ़ता हूँ …
मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का सूक्ष्म शरीर से नाता, मनोमय कोश और सूक्ष्म शरीर, विज्ञानमय कोश और सूक्ष्म शरीर, … चेतना युक्त सूक्ष्म शरीर गमन में मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश का योगदान, सूक्ष्म शरीर गमन में मनोमय कोश का योगदान, सूक्ष्म शरीर गमन में विज्ञानमय कोश का योगदान, …
सूक्ष्म शरीर के उन्निस अंग हैं, जिनमें प्राण पञ्चक, कर्मेन्द्रिय पञ्चक, ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक और अन्तःकरण चतुष्टय (अर्थात मन, बुद्धि, चित्त अहम्) होते हैं I
अन्तःकरण चतुष्टय का मन, मनोमय कोश से संबंधित होता है, और बुद्धि विज्ञानमय कोश से, और सूक्ष्म शरीर के दृष्टिकोण से, यही मनोमय और विज्ञानमय कोश का नाता है I
इसलिए, जब सूक्ष्म शरीर ब्रह्माण्ड में गमन करता है, तब यह मन और बुद्धि जो सूक्ष्म शरीर के भीतर, उस सूक्ष्म शरीर के उन्निस अंगों में से ही होते हैं, वह साधक की काया के भीतर बसे हुए मनोमय और विज्ञानमय कोषों से संबंधित रहते हैं I
ऐसा होने के कारण ही सूक्ष्म शरीर गमन के समय, साधक वो सबकुछ देखता और सुनता है, जो उसका सूक्ष्म शरीर भी देख और सुन रहा होता है I
अंतःकरण के मन नामक भाग से जुड़ने के कारण, साधक अपनी इच्छा शक्ति से ही उस सूक्ष्म शरीर को दिशा और गति भी दे पाता है I और विज्ञानमय कोश के अंतःकरण के बुद्धि नामक भाग से जुड़ने के कारण, साधक उस सूक्ष्म शरीर गमन के समय, जो भी मन के इन्द्रियाँ नामक चक्षुओं से देखता और सुनता है, उसका विज्ञानमय अनुभव भी कर पाता है I
वैसे सूक्ष्म शरीर गमन के समय, मन और बुद्धि का योग भी होता ही है I
मनोमय कोश के गुण, मनोमय कोश की वृत्तियां, …
मनोमय कोश की गुण और वृत्ति भी होती हैं, तो अब इनको बताता हूँ …
- जीव जगत की सभी दशाओं से मनोमय कोश जुड़ा रहता है I ऐसा होने के कारण, मन एक स्थान से दुसरे पर कूदता ही रहता है I और यही कारण है मन की अस्थिरता का I
इस मनस वृत्ति का निवारण मार्ग योग त्राटक है… चाहे वह त्राटक आंतरिक हो या बाह्य और चाहे वो त्राटक योग चतुष्टय के किसी भी मार्ग से हो I
- त्रिकालों और उनके समस्त भागों से मन, एक ही समय पर जुड़ा होता है I इसलिए मन में यह क्षमता होती है, कि वो जो अब जान रहा है, उसको पूर्व कालों और भविष्य की दशाओं से जोड़ सके I
और ऊपर बताए गए दोनों बिंदुओं के कारण, मन एक ही समय पर, त्रिकाल और जीव जगत की समस्त दशाओं और भागों से जुड़ सकता है I यही मनस सिद्धि है जो योग मार्ग से ही पाई जाती है और इस सिद्धि से साधक के भाव में ही उसका साधन प्रकट हो जाता है I
- और इस कोश की एक और वृत्ति होती है, कि जिस भी दशा से यह कोश संबंधित होगा, उसी दशा के अनुसार यह अपने को ढाल लेगा I
इसलिए यह कोश यदि गंगा गया तो गंगाराम हो जाएगा और यदि यमुना गया तो यमुनाप्रसाद हो जाएगा I और इस कोश के ऐसे होने के कारण, अन्य कोषों पर भी प्रभाव पड़ेगा I
ऐसा होने के कारण, रचना और रचना के तंत्र की ज्ञान प्राप्ति के लिए यह एक प्रमुख कोश है I मुक्ति को प्राप्त होने के लिए भी यह एक अति महत्वपूर्ण कोश है I पहली दशा में यह कोश भौतिक भावों का होकर ही रह जाएगा, और दूसरी दशा के मार्ग में यही कोश वैराग्य भाव को पाएगा I
- मनोमय कोश आकाश के बसी हुई समस्त दशाओं के साथ एक ही समय पर योग करके बैठा होता है I और ऐसा होने पर भी उसको सत्य का पता नहीं चलता, जब तक वह साक्षी भाव को नहीं अपनाता I ऐसे साक्षी भाव में बसकर, सत्य का साक्षात्कार, मन में ही किया जा सकता है I और जहाँ इस साक्षात्कार का ज्ञान भी विज्ञानमय कोश के आलम्बन से ही पाया जाएगा I
ऐसे साक्षात्कार में साधक अपने मन को ही सर्वव्यापक पाएगा I
और यही कारण है कि मन की वास्तविक दशा सर्वव्यापक ब्रह्म ही है I
सर्वस्व से योग भी मनोमय कोश से ही होकर जाता है I और इस साक्षात्कार में जो साधक जानेगा, वो कुछ ऐसा ही होगा …
जो कुछ था, है या आगे कभी होगा, वो सबकुछ मैं ही हूँ I
जो भी है, जहाँ भी है, जब भी है, जैसा भी है, वो सबकुछ मैं ही हूँ I
और जहाँ मैं का शब्द भी, विशुद्ध अहम् का ही द्योतक है I
- धारणा जो योग का एक मूल बिंदु है, वह मन का ही गुण है I और क्यूँकि मन सर्वव्यापक ही है, इसलिए जब साधक की धारणा में ब्रह्माण्ड ही आ जाएगा, तब ही साधक ब्रह्माण्ड योग सिद्धि को पाएगा I
साधक जिस भी धारणा में जाता है, वह उसी से योग को पाता है I
और यह धारणा भी भावनात्मक ही होती है, जिसके कारण इसके मूल में भी यही मनोमय कोश है I
और इस ब्रह्माण्ड योग सिद्धि से योगी, समस्त लोकों का साक्षात्कार भी कर सकता है, क्यूंकि ऐसी योग सिद्धि के पश्चात, उस योगी का मन समस्त लोकों में एक ही समय पर व्याप्त हो जाएगा I
- आत्ममार्ग में, किसी भी योग सिद्धि का सबसे उत्कृष्ट माध्यम यह कोश ही है I और इसी कोश का आलम्बन लेके साधक उस मार्ग पर जाता है, जिसमें साधक के साक्षात्कार में, उसका आत्मा ही ब्रह्म होता है I
- मन ही वह स्थान है जहाँ निराकार ब्रह्म भी साकार ही पाया जाएगा, निराकार ज्ञान भी साकार ही हो जाएगा और निराकारी इन्द्रियां भी साकारी ही साक्षात्कार होंगी I
इसीलिए मन ही वो इन्द्रिय है, जो अतीन्द्रिय है, और जो निराकार को साकार और साकार को निराकार सा प्रतीत करवा सकती है I
- और साक्षात्कारों की अंतगति में, यही मन निरंग अनंत, अर्थात निर्गुण निराकार ही पाया जाएगा I
जबतक मन का लय ब्रह्म में नहीं होगा वह एक यात्री के समान ही रहेगा, मन एक सनतान यात्री है, मन का सनतान यात्री स्वरूप, …
जब तक मन का लय निर्गुण ब्रह्म में नहीं होगा, तबतक मन एक सनातन यात्री के समान ही रहेगा I
ऐसी दशा में चाहे वो जीव कहीं भी निवास करे, लेकिन उसका मन लोक लोकांतर में भ्रमण करता ही रहेगा I और चाहे यह गमन सुसुप्ति में ही हो, या स्वप्न या जागृत अवस्था में हो और या सूक्ष्म शरीर गमन में ही हो, लेकिन होता ही रहेगा I
और मन ऐसा इसलिए भी है, क्यूंकि वो सभी दशाओं में एक साथ और एक ही समय पर निवास कर सकता है I
और ऐसा होने के कारण, वो एक सनातन यात्री के समान ही रहता है I
सब मन में व्याप्त हैं, मन सबमें व्याप्त है, ब्रह्माण्ड में मन है, ब्रह्माण्ड मन में है, … मन ब्रह्माण्ड में निवास करता है, ब्रह्माण्ड मन में निवास करता है, … मनातीत ही निर्गुण ब्रह्म है, निर्गुण ब्रह्म ही मनातीत ही है, निर्गुणब्रह्म मनातीत है, … मन की इच्छा शक्ति है, भाव में साधन है, भाव में ही साधन है, भाव और साधन का नाता, …
सबकुछ मन में व्याप्त है और मन भी सबमें व्याप्त है I
जो व्यापक होता है, वही सबमें होता है और सब उसमें ही होते हैं I और ऐसा ही मनोमय कोश भी है I
ऐसा होने के कारण ही मन योगमार्ग के एक प्रमुख सूक्ष्म यंत्र है, जिसका आलम्बन लेके सर्वस्व से योग स्थापित किया जा सकता है I और जहाँ वह योग भी भावनात्मक ही होगा, अर्थात मन की इच्छा शक्ति से और मन की इच्छा शक्ति में ही होगा I
वास्तव में समस्त ब्रह्माण्ड में भी यही मन है, लेकिन ब्रह्माण्ड में मन अपने सगुण निराकार स्वरूप में ही होता है I और वही ब्रह्माण्डीय मन ही समस्त पिण्डों में है, लेकिन पिण्डों में वो मन, योग साक्षात्कारों के समय सगुण साकार में भी पाया जाता है I
मन का ऐसा होने के कारण, मन नमक परिधान में बसी हुई इन्द्रियां, वास्तव में सगुण निराकार होती हुई भी, साक्षात्कार में सगुण साकार ही प्रतीत होती हैं I
ब्रह्म के मन में ही यह जीव जगत है, और वही ब्रह्म का मन, मनोमय कोश के स्वरूप में साधक के भीतर प्रतिष्ठित हुआ है I
मन जीव जगत में है और जीव जगत का निवास स्थान भी मन ही है, इसलिए जब साधक मनातीत होता है, तब ही वह साधक मुक्ति को प्राप्त होता है I और जहाँ मनातीत ही निर्गुण ब्रह्म कहलाता है I
मनातीत के साक्षात्कार मार्ग में, मन के सगुण निराकार स्वरूप में ही ब्रह्माण्ड बसा हुआ है, और मन भी उसी सगुण निराकार ब्रह्माण्ड में बसा हुआ है I
मन ही मुक्तिमार्ग है, वैरागी मन ही एकमात्र मुक्तिमार्ग है, सर्वस्व से वैराग्य ही मुक्ति है, सर्वस्व वैराग्य ही मुक्ति है, वैराग्य मन की दशा है, संन्यास और मन, मन और संन्यास, … वैराग्य और मुक्तिमार्ग, वैराग्य और मुक्ति, संन्यास और मुक्तिमार्ग, संन्यास और मुक्ति, …
अब मन, वैराग्य (संन्यास), मुक्तिमार्ग और मुक्ति को बताता हूँ …
जब मन वैराग्य को धारण करता है, तब साधक मुक्तिपथ पर जाता है I
जब मन वैराग्य में स्थापित ही हो जाता है, तब उसी दशा को मुक्ति कहते हैं I
इसलिए, …
वैराग्य ही मुक्तिमार्ग है I
वैराग्य का गंतव्य ही मुक्ति है I
वैराग्य के गंतव्य में, साधक पूर्ण संन्यासी होता है I
पूर्ण संन्यास में, साधक संपूर्ण ब्रह्माण्ड से ही संन्यास लेता है I
संपूर्ण ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र से संन्यास ही कैवल्य कहलाता है I
ब्रह्मत्व पथ में कैवल्य मोक्ष के मूल में मन का पूर्ण वैरागी स्वरूप ही होता है I
इसलिए, मुक्तिमार्ग भी मनोमय कोश के वैराग्य भाव से ही स्वयं प्रकट होता है I
और मुक्ति उस पूर्णवैराग को कहते हैं, जिसमें मन, ब्रह्म रचना और रचना के तंत्र से भावनात्मक संन्यास लेता है I
यदि कोई साधक इस भावनात्मक संन्यास को अपने देहवसान के समय पर अंतिम स्वास पर भी पाएगा, तब भी वो मुक्ति को ही प्राप्त करेगा I
इसलिए यदि देहवसान के समय, अंतिम स्वास के समय पर ही मन भावनात्मक संन्यास को अपना ले, तब भी देहवसान के तुरंत बाद, साधक मुक्त ही होगा और जहाँ ऐसी मुक्ति विदेहमुक्ति ही कहलाएगी I
यदि यह भावनात्मक संन्यास जीवित ही प्राप्त हो जाए, तो साधक जीवित ही मुक्त हो जाएगा, और जहाँ वह मुक्ति भी जीवनमुक्ति ही कहलाएगी I
मनोमय कोश की गति, मनोमय कोश की अंतगति, तमोगुणी मन, रजोगुणी मन, ज्ञानमय मन, सगुण निर्गुण मन, सर्वसम मन, …
अपने उत्कर्ष पथ पर जाते जाते, जब साधक का मनोमय कोश अपनी अंतगति को पाएगा, तब जो दशाएं आएंगी, उनको अब बताता हूँ …
- यदि मन तमोमयी रहेगा, तो उस मन में नीले वर्ण के बिंदु दिखाई देंगे I
- यदि मन रजोगुणी होगा, तो उस मन में लाल वर्ण के बिंदु दिखाई देंगे I
- यदि मन सात्विक होगा, तो उस मन में श्वेत के बिंदु दिखाई देंगे I
इस दशा को पार करके, मन श्वेत ही हो जाएगा और ऐसी दशा में वह मन परा प्रकृति में विलीन भी होगा I
और इस दशा के पश्चात, वह मन ही अदि शक्ति स्वरूप हो जाएगा I
- और यदि साधक ज्ञानमार्ग पर गति करता हुआ साक्षात्कारी (ज्ञानी) ही हो जाएगा, तो उसके मन में पीले बिन्दु दिखाई देंगे I
- इसके पश्चात, वह मन यदि अव्यक्त मार्ग से ब्रह्मलोक गया, तो वो अव्यक्त प्राण के हलके गुलाबी वर्ण को धारण भी करेगा और हल्का गुलाबी ही हो जाएगा I इस दशा में मन ही अव्यक्त होगा I
- और अंत में, मन हीरे के समान प्रकाश को धारण करेगा, जिसके पश्चात वह ब्रह्मलोक में ही विलीन होगा और उसी सगुण निराकार ब्रह्मलोक के समान ही हो जाएगा I
और अब इस उत्कर्ष पथ के कुछ बिंदु बताता हूँ …
- किसी भी उत्कर्ष पथ में, मन के सबसे बड़े शत्रु अभिमानी देवता और उनके एकवादी (अर्थात मोनोथेइस्टिक) मार्ग हैं I
- और उन उत्कर्षपथों में, मन के सबसे बड़े मित्र अनाभिमानी देवता होते हैं I
मनोमय कोश की अंत दशा, मनोमय कोश का गंतव्य, मन का गंतव्य, मन का गंतव्य मन ब्रह्म है, मन ब्रह्म ही मन का गंतव्य है, … ब्रह्म ही मन है, मन ही ब्रह्म है, मन का ब्रह्म स्वरूप, मन ब्रह्म क्या?, …
अपनी गंतव्य दशा में, मन ही ब्रह्म है I
तो अब इसके कुछ मुख्य बिन्दु बताता हूँ …
- निर्गुण निराकार ब्रह्म और मन, मन और निर्गुण निराकार ब्रह्म, मन और निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म और मन, निर्गुण अनंत और मन, मन और निर्गुण अनंत, मन और निरंग अनंत, निरंग अनंत और मन, मन का सर्वाधार स्वरूप, मन का सर्वातीत स्वरूप, मन का सर्वाधार और सर्वातीत स्वरूप, … यह मन की ही निर्गुण अनंत दशा है, जिसमें मन निर्गुण ब्रह्म के समान, सर्वातीत होता हुआ भी, सर्व और सर्वाधार भी होता है I
और इस दशा में मन, निर्गुण ब्रह्म के समान रचना और रचना के तंत्र का मूल और गंतव्य दोनों ही होता है I
सर्वातीत ब्रह्म के दृष्टिकोण से, यही मन की अंतिम या गंतव्य दशा है I
और जीव जगत के दृष्टिकोण से, इसी दशा में मन सर्वाधार भी है I
और उत्पन्न हुए ब्रह्माण्ड के दृष्टिकोण से, मन ही रचना है, और रचना का तंत्र भी मन में ही चलित होता है I
- मन और सगुण निराकार ब्रह्म, सगुण निराकार ब्रह्म और मन, ब्रह्माण्डीय मन, मन का ब्रह्माण्ड रूप, मन का निराकार स्वरूप, ब्रह्म का सगुण निराकार रूप, ब्रह्म का ब्रह्माण्ड रूप, … यह मन की ब्रह्माण्डीय दशा है, जिसमें मन ब्रह्म की समस्त निराकारी अभिव्यक्तियों में समान रूप में और पूर्ण रूप में बसा हुआ होता है I
और वह समस्त निराकारी अभिव्यक्तियाँ भी उसी मन में बसी हुई होती हैं I
जगत रूपी अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से, यही मन की ब्रह्माण्ड रूपी दशा है I
इस दशा में, …
मन ही ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड ही मन I
मन में ही ब्रह्माण्ड है और ब्रह्माण्ड में ही मन I
मन ब्रह्माण्ड में बसा है और ब्रह्माण्ड भी मन में ही बसा हुआ है I
इसलिए जब मन ब्रह्मलीन होगा, तब न मन जीव रूप में बचेगा और न ही ब्रह्माण्ड रूप में I
मन के दृष्टिकोण से, जब न जीव रहा और न ही जगत… तो वही मुक्ति है I
- मन और सगुण साकार ब्रह्म, सगुण साकार ब्रह्म और मन, ब्रह्म का सगुण साकार स्वरूप, ब्रह्म का पिण्ड रूप, ब्रह्म का अणु रूप, मन का सगुण साकार स्वरूप, मन का पिंड रूप, मन का अणु रूप,… यह मन की जीव रूपी दशा है, जिसमें मन अणु जीव से लेकर सभी जीवों में बसा हुआ होता है और उन जीवों के उत्कर्ष पथ पर गमन में सहायता करता है I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि जहाँ तक उत्कर्ष पथ और योगमार्ग का नाता है, मन ही एकमात्र पूर्ण माध्यम है, जो सबको स्वयं से और स्वयं को सबसे जोड़कर रखता है I
जीव रूपी अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से, यही मन की पिण्ड रूपी दशा है I
जब मन अपने जीव रूप से अतीत होगा, तो वही मन स्वयं को ब्रह्माण्ड के समान निराकार पाएगा I
ऐसी दशा में मैं यही कहेगा, में ब्रह्माण्ड में बसा हुआ ब्रह्माण्ड ही हूँ, इसलिए ब्रह्माण्ड मेरा निवास है, और मैं ब्रह्माण्ड का ही निवास स्थान हूँ I
ब्रह्म की रचना में, और मन के दृष्टिकोण से, ब्रह्माण्ड ही ब्रह्माण्ड में बसता है I इसलिए, जो स्वयं ही ब्रह्माण्ड ही नहीं, वह ब्रह्माण्ड में बस ही नहीं पाएगा I
मन की शून्य में गति, मन की शून्य अनंत में गति, मन की शून्य ब्रह्म में गति, मन की सर्वसम ब्रह्म में गति, …
ऊपर का चित्र मन (मनोमय कोश) की उस दशा को दर्शा रहा है, जब मन अघोर ब्रह्म से संबद्ध होता है इसलिए नील वर्ण का होता है I और ऐसी दशा में मन उस घनघोर रात्रि के समान शून्य में गति करता है, और उसी शून्य में स्थापित होता है, और बस उस शून्य के अनंत रूप, अर्थात शून्य अनंत (या शून्य ब्रह्म) में लय होने ही वाला होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जैसे पूर्व में बताया था, कि जिस भी दशा के भीतर मन गमन करेगा (या निवास कर रहा होगा), मन उसी दशा के समान हो जाएगा I
इसलिए, …
- जब इस जीव जगत और स्वयं में मन वह सबकुछ जान जाता है, जो जाना जा सकता है, तब मन यह भी जान जाता है, कि उसके स्वयं के अभिव्यक्त स्वरूप सहित, संपूर्ण जीव जगत ही द्वैतवादी है I
जीव जगत के दृष्टिकोण से, यही मन का सर्वोच्च ज्ञानमय स्वरूप है I
- और जब यह ज्ञान आ जाता है, तब मन शून्य में गति करता है, और अंततः शून्य सरीका ही हो जाता है I
प्रकृति के दृष्टिकोण से, यह मन की सर्वोच्च दशा है I
इस दशा में मन पूर्ण शांत (शब्दातीत, रागातीत और भावातीत) होता है, और समस्त जीव जगत का साक्षी होकर ही रहता है I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस दशा से योग के पश्चात, मन के समस्त द्वैतवाद ही शून्य (समाप्त) होते हैं I
यदि मन इसी दशा में रह गया, तो साधक का देहवसान निश्चित ही होगा… और कुछ ही समय में होगा I
- जब मन शून्य अनंत (या शून्य ब्रह्म) में गति करता है, तब वह (या शून्य ब्रह्म) सरीका ही हो जाता है I
भगवद तत्त्वों के दृष्टिकोण से, यही मन की सर्वोच्च दशा है I
- जब मन सर्वसमता (समता) को धारण करी हुई किसी भी दशा में गति करेगा, तब भी वह मन उसी समता (या सर्वसमता) के समान ही हो जाएगा I
मनस शक्ति के दृष्टिकोण से, यही मन की सर्वोच्च दशा है I
ऐसी दशा में मन की शक्ति, अर्थात मनस शक्ति, हीरे के समान प्रकाश को धारण करके, मन को उसी प्रकाश में बैठा देती है I यह मनस शक्ति प्राणों के सर्वसम स्वरूप की भी द्योतक है, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है, जिसका नाम प्राणमय कोष था I
इस दशा में मन ही उसी हीरे के समान प्रकाश को धारण करता है, और उस सर्वसमता को पाता है, जिसके आदिपति सर्वसम सगुण साकार चतुर्मुखा पितामह प्रजापति हैं I
ऐसी दशा में मन प्रजापति स्वरूप ही हो जाता है I और इसी दशा को नीचे का चित्र भी दिखा रहा है I
आगे बढ़ता हूँ …
- जब साधक की चेतना सहस्र दल कमल को पार करती है, तब मन शून्य में जाकर ही समस्त जीव जगत से अतीत होता है I
और मन, उसी शून्य में विलीन भी होता है I
- जब साधक की चेतना सहस्र दल कमल को पार करके, और भी ऊपर की ओर गति करती है और अंततः निरालम्ब चक्र में ही चली जाती है, तब मन शून्य ब्रह्म का साक्षात्कार करके, उन्ही शून्य ब्रह्म में विलीन होता है I
यह मन की वह दशा है, जिसमें मन ने ब्रह्म की समस्त ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्तियों सहित, प्रकृति के प्राथमिक शून्य स्वरूप को भी पार किया है I
- जब मन पञ्चब्रह्म प्रदक्षिणा पर जाता है, तब वह मन सर्वसम होकर ही, इस सर्वसमता नामक शक्ति को धारण करता है, और इस पञ्चब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा मार्ग पर जा पाता है I
इसलिए, सर्वसमता मन की शक्ति को भी दर्शाती है, अर्थात मन की सर्वसम इच्छा शक्ति की द्योतक भी है I
और क्यूंकि मन की यह सर्वसम दशा, वामदेव ब्रह्म से ही संबंधित है, इसलिए यह सर्वसम दशा, मन की दिव्यता को भी दर्शाती है, जिसके कारण इस जीव जगत में जो भी है, सब दिव्य ही है I
और जहाँ वह दिव्यता भी निर्गुण निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति ही है I
ऐसी सर्वसम दशा में, मन हीरे के प्रकाश जैसा ही हो जाता है I
मन के दृष्टिकोण से आत्मा, मन और आत्मा, मन और आत्मस्वरूप, …
इसको चक्रों के दृष्टिकोण से बताता हूँ …
- जब मन मूलाधार चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप जीवात्मा के समान माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही जीवात्मा कहलाता है I
- जब मन स्वादिष्ठान चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप प्राणात्मा के समान माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही अव्यक्त प्रकृति, अव्यक्त प्राण, माया आदि कहलाता है I
- जब मन मणिपुर चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप आत्मा के समान माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही आत्मा कहलाता है I
- जब मन सूर्य और चंद्र चक्र में निवास कर रहा होता है, तब उसका स्वरूप ग्रहात्मा के समान माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही अंतरिक्षात्मा कहलाता है I
- जब मन अनाहत चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप परमात्मा के समान माना जाना चाहिए I
ऐसी दशा में मन ही परमात्मा कहलाता है I
- जब मन विशुद्ध चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप देवात्मा के समान माना जाना चाहिए I
ऐसी दशा में मन ही देवात्मा कहलाता है और जहाँ उस देवात्मा का नाता गायत्री पञ्चब्रह्म सिद्धांत से ही है I
- जब मन आज्ञा चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप सगुण आत्मा के समान माना जाना चाहिए I
इसी दशा में मन ही अपनी सर्वसम मनस शक्ति से योग करके, अर्धनारिश्वर कहलाता है I
- जब मन आज्ञा चक्र से ऊपर जो माथे का चक्र है, उसमें निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप जगतात्मा के समान ही माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही जगत का आत्मा (जगदातमा) कहलाता है I
- इसी दशा के समीप जो सृष्टि का बीज रूप है, और जो तथागत गर्गः भी कहा गया है, जब मन उसमें निवास करता है तो वही मन तथागतात्मा कहलाता है I
मन के ऐसे स्वरूप को ही जगदगुरु शारदा सरस्वती का उत्कृष्टम स्वरूप कहा जाता है I
- जब मन ओमकार के बिंदु में ही विलीन होगा, तब उसका स्वरूप ओमात्मा ही माना जाना चाहिए I
यही मन का तात्त्विक ऊर्जावान, ब्रह्मतत्त्व और प्रणव स्वरूप है I
- जब मन सहस्र दल कमल (अर्थात सहस्रर) चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसका स्वरूप महात्मा के समान माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही महान आत्मा (महात्मा) कहलाता है, जो ब्रह्मत्व, विष्णुत्व, गणपत्व, देवीत्व (शाक्तत्व) और शिवत्व को समानरूप और पूर्णरूप में दर्शाता है, और पञ्चदेव के ही गंतव्य स्वरूप का द्योतक है I
- जब मन सहस्रर से थोड़ा ऊपर, जहाँ शिवरंध्र के नीचे की ओर, एक उल्टा लटका हुआ सुनेहरा लिंग होता है, वहाँ निवास कर रहा होता है, तो उसको हरिहार के समान ही माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन ही हरिहार रूपी सगुण आत्मा (हरिहारात्मा) कहलाता है I
- और जब मन शिवरंध्र से जाकर, सुनहरे वज्रदण्ड चक्र में निवास कर रहा होगा, तब उसको हिरण्यगर्भात्मक ही माना जाना चाहिए ही माना जाना चाहिए I
इस दशा में मन, हिरण्यगर्भ रूपी सगुण आत्मा (अर्थात हिरण्यगर्भात्मा) कहलाता है I
मन की इसी दशा को भगवान् राम कहते हैं I
इस दशा में मन, अपने सगुण स्वरूप में (अर्थात देहि या शरीरी स्वरूप में) रामलला कहलाता है, जिनका निवास स्थान, ब्रह्मरंध्र के भीतर के ललाना नामक चक्र में होता है I
- और जब मन अष्टम चक्र (या निरालंबस्थान) पर निवास कर रहा होगा, तब उसको निरालंब आत्मा (निरलम्ब ब्रह्म) ही माना जाना चाहिए I
ऐसी दशा में मन ही जगदीश्वर, एकेश्वर और सर्वेश्वर आदि शब्दों से पुकारा जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
अब तक की, और नीचे बताई गई कुछ दशाओ तक, वही मन देवदत्त नामक अश्व, गरुड़ नामक पक्षी, रतनमारु तलवार (नन्दक खडग), शुका नामक पक्षी (सर्वग्न), वासुकी नामक नाग, आदिशेष और क्षीर सागर नामक स्थान का आत्मा भी हो जाएगा I लेकिन इन सबके बारे में आगे के अध्यायों में बतलाऊँगा, यहाँ नहीं I
और ऐसे ही मन पर श्रीमन नारायण और श्री लक्ष्मी निवास करते हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
- और जब साधक का मन उस निरालम्ब चक्र को भी पार कर जाएगा और उस शून्य ब्रह्म में श्री कृष्ण के विराट रूप के समक्ष ही पहुँच जाएगा, तब उसी मन को आत्मकृष्ण कहते हैं I
ऐसी दशा में मन, श्री कृष्ण के उस काले वर्ण के (रात्रि के समान) विराट स्वरूप की दाहिनी हथेली पर बैठेगा, और श्रीकृष्ण के उस विराट रूप का साक्षात्कार भी करेगा I
और ऐसी दशा में श्रीकृष्ण भी उस मन को देख रहे होंगे, जो उन्ही विराट कृष्ण की दाहिनी हथेली पर बैठा होगा I
- और जब वही मन, उसी शून्य अनंत के भीतर निरंग प्रकाश के समान, निर्गुण निराकार ब्रह्म में ही स्थापित हो जाएगा, और स्वयं भी निर्गुण अनंत ही होगा, तब वही मन अवर्णनीय कहलाता है I
ऐसी दशा में उसका साक्षात्कार तो हो सकता है, लेकिन उसका वर्णन पूर्ण रूप में नहीं हो पाएगा I
जो मन बुद्धि चित्त अहम् और प्राण सहित, कर्मातीत, शब्दातीत और भावातीत भी है, उसका वर्णन कैसे करोगे I
आगे बढ़ता हूँ …
- और इस साक्षात्कार के पश्चात, जब मन पुनः उसी निरालम्ब चक्र पर लौटकर एक सुनहरे शरीर के स्वरूप में बैठ जाएगा, तो उसी मन को बुद्धात्मा कहते हैं I
यही बुद्धत्व सिद्धि है I
- और जब वो मन पुनः आज्ञा चक्र पर लौटेगा, तब उसे ही अजात्मा (अज आत्मा या अज स्वरूप आत्मा) कहते हैं I यही मन का निराकारी अज स्वरूप है I
ऐसे मन को त्रियम्बकात्मा भी कह सकते हैं I
- और आज्ञा चक्र से थोड़ा सा ऊपर के स्थान पर, जब वही मन पहुँचेगा, तो उसे ही कालात्मा कहते हैं I
इसी कालात्मा को महाकाल भी कहा गया है, जो अनादि अनंत, अर्थात सनातन काल को दर्शाता है I
वह काल नर भी है और नारी भी I वह काल सर्वचर भी है I और ऐसा होते हुए भी काल न नर है और न ही नारी, और न ही चलित ही है I
इसी कालात्मा रूपी मातृशक्ति के गर्भ में ही समस्त जीव जगत निवास करता है I
और यह काल रूपी मातृशक्ति ही अपने मूल सार्वभौम अद्वैत स्वरूप में माँ महाकाली हैं I इस जीव जगत की मूल शक्ति ही माँ महाकाली हैं I
वह कालात्मा, महाकाली महाकाल योग को भी दर्शाता है और जहाँ यह योग भी साधक की काया के भीतर, आज्ञा चक्र के समीप ही होता है I
यदि कालात्मा सिद्धि धारी योगी जन्म लेगा, तो वह अपने शरीरी रूप रहता हुआ भी, माँ प्रकृति का कालास्त्र ही होगा I
- और जब वो मन नेचे उत्तरता उत्तरता नाभि से 2-3 ऊँगली नीचे जहाँ अमृत कलश पड़ा होता है, वहां पर पुनः पहुँच जाएगा, तो उस मन को ही अमृतात्मा कहते हैं I
यही भगवान् जगन्नाथ हैं, और यही महाब्रह्म सिद्धि भी है I
- और जब मन पुनः मूलाधार में लौटेगा, और साधक के शरीर में ही हिरण्यगर्भात्मक ब्रह्म अपने लिंग चतुष्टय स्वरूप में स्वयंप्रकट हो जाएगा, तो उसी मन को कल्कि कहते हैं I
ऐसे मन को ही प्रज्ञानात्मा कहते हैं I
- इसके पश्चात ही मन की गति पञ्च मुखा सदाशिव में होती है I
- इसलिए जिस मन ने पञ्च मुखा सदाशिव प्रदक्षिणा ही पूर्ण कर ली, उसे ही ईशान ब्रह्म, सदाशिव का ईशान मुख, निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण निराकार ब्रह्म, कैवल्य मोक्ष, कैवल्य, मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य मुक्ति, निर्वाण आदि कहते हैं I
ऐसी प्रदक्षिणा के पूर्व, चाहे साधक इस दशा का साक्षात्कार ही क्यों न करले, लेकिन तब भी यह दशा सिद्ध नहीं हो पाएगी I
- और इसके पश्चात भी यदि वह मन मुक्ति को नहीं चाहेगा, तो वो समस्त ब्रह्माण्डीय मुद्राओं में बसकर, समस्त मुद्राओं का स्वरूप ही होकर, मुद्रात्मा कहलाता है I
इस मार्ग पर गमन करता वह मन ही एक एक करके, अप्सरागण, मातृकागण, भैरविगण, दस महाविद्या, नव दुर्गा, योगिनिगण, आदि का स्वरूप भी पाता है I
ऐसे मन को ही अन्न ब्रह्म कहते हैं I
ऐसा मन ही सभी ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं का अन्न होता है I
और यह सभी ब्रह्माण्डीय दिव्यताएं भी उसी मन का अन्न होती हैं I
ऐसे मन को ही अन्नात्मा कहते हैं I
- ऊपर बताई गई सभी दशाओं को पाए हुए मन को पूर्ण ब्रह्म कहा गया है I
ऐसे मन को ही योगेश्वर कहते हैं, और यही मन योगात्मा भी है I
ऐसे मन में ही बुद्धि, चित्त, अहम् और प्राण का योग होता है I इसलिए वह मन सा प्रतीत होता हुआ भी, वास्तव में पूर्ण ही होता है I
योगात्मा जो योगेश्वर ही हैं, उनसे उत्कृष्ट कोई सिद्धि… न कभी थी, न ही कभी होगी I
योगमार्ग में यही अंत दशा है जिसमें …
वह योग जो पूर्व के उत्कर्षपथ का मूल था, वही ज्ञान रूपी गंतव्य हो गया I
जब मूल ही गंतव्य रूप में स्वयं परिवर्तित हो जाए, वही वास्तविक गंतव्य है I
टिपण्णी: ऊपर का वाक्य पूर्व के कई अध्यायों से सम्बंधित है, जहाँ बताया गया था, कि मूल में योग और गंतव्य में वेद (ज्ञान या आत्मज्ञान) होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
इसलिए मन से ही सबकुछ साक्षात्कार होता है (अर्थात जाना जा सकता है) I
और ऐसे साक्षात्कार मार्ग के अंत में, …
वह योगेश्वर ही सबका मन स्वरूप अभिव्यक्ता साक्षात्कार होगा I
सबकुछ उस योगेश्वर स्वरूप मन की ही अभिव्यक्ति स्वरूप में जाना जाएगा I
और सबकुछ उसी योगेश्वर में बसा होगा और वही योगेश्वर सबमें बसा हुआ होगा I
ऐसे अद्वैत तत्त्व के साक्षात्कारी योगी को ही योगात्मा कहा गया है I
ऊपर बताए गए साक्षात्कारों के कारण ही, मन को जानकार योगी ही उसके अपने सनातन आत्मस्वरूप, जो योगेश्वर ही हैं, उनका ज्ञान “स्वयं ही स्वयं में” पाता है I
और यहाँ वह योगेश्वर भी अपने उस हिरण्यगर्भात्मक लिंग चतुष्टय स्वरूप में ही साक्षात्कार होते हैं, जिसके बारे में एक बाद के अध्याय में बताया जाएगा I
ऐसा योगी उस प्राथमिक (या मूल) द्वैतवाद में भी नहीं होगा, जो बंधन और मुक्ति कहलाता है I
ऐसा योगी को न मुक्ति और न ही बंधन से कोई लगाव होगा, और न ही इनसे अलगाव होगा I
ऐसा योगी न मुक्त होता है और न ही बंधन में होता है, और न ही इनके मध्य में ही पाया जाएगा I
वह इन सबसे अतीत से भी अतीत दशा में निवास करता होगा, इसलिए अतीतातीत ही होगा I
मन ही चालक, मन ही चलित, मन ही चालक और चलित है, … मन ही भूमि, मन ही भूमा, मन ही भूधर, मन ही भूमत्व, मन ही भूमि है, मन ही भूमा है, मन ही भूधर है, मन ही भूमत्व है, मन भूमि है, मन भूमा है, मन भूधर है, मन भूमत्व है, …
उत्कर्ष पथ में, मन ही शरीर का चालक है I
और मन ही बुद्धि द्वारा चालित होता है I मन की गति, दिशा आदि बुद्धि के नियंत्रण में है I
इसलिए, मन ही चलित और मन ही चालक है I
और क्यूँकि मन के आवरण में बसे हुए चित्त के भीतर ही वह संस्कार है, जो मन चलित करता है, उस मन की ही चालक और चलित की भूमिकाओं में, इसलिए मन वह भूमि भी है, जहाँ यह चालक और चलित गतिशील हो रहे हैं I
आगे बढ़ता हूँ …
मन ही भूमि है, जिसपर वह चालक और चलित गतिशील हो रहे हैं I
और इसके अतिरिक्त वही मन भूमा भी है, जो इन सब का साक्षी मात्र ही है I
मन ने इन सबको धारण किया हुआ है, इसलिए मन इन सबका भूधर स्वरूप भी है I
और इन सभी दशाओं में समानरूपेण और पूर्णरूपेण बसकर, मन ही इन सबका भूमत्व सरीका प्रतीत होता है I
इसलिए, …
उत्कर्ष मार्ग में, मन ही भूमि भूमा भूधर और भूमत्व है I
आगे बढ़ता हूँ …
मनोमय कोश का लय स्थान, मनाकाश का स्वरूप, मनाकाश कैसा होता है, मनाकाश का नाता, … इच्छा शक्ति का स्वरूप, इच्छा शक्ति का गंतव्य, भाव में ही साधन, भाव में ही साधन का प्रकटीकरण, पितामह ब्रह्म की शक्ति, … मनाकाश का नाता, मनाकाश और वामदेव ब्रह्म, मनाकाश और माँ गायत्री का धवला मुख, … मन रूपी आत्मा, मन रूपी आत्मा, मन रूपी आत्मा ही मनात्मा है, मनात्मा ही ब्रह्म है, …
मनोमय कोश का लय स्थान, मनाकाश ही है I
जब मनोमय कोश मनाकाश में विलीन होता है, तब वही मनोमय कोश मनाकाश ही हो जाएगा और जहाँ वह मनाकाश ही ब्रह्म है, उस ब्रह्म के विश्व-मन रूपी, सगुण निराकार स्वरूप में I
ऐसा मनाकाश सर्वव्यापक होगा, अर्थात वह जीव और जगत, दोनों के भीतर समान और पूर्ण रूप में पाया जाएगा I
और इसके साथ साथ, उसी मनाकाश के भीतर समस्त जगत और जीव सत्ताएँ, समानरूपेण और पूर्णरूपेण निवास भी कर रही होंगी I
आगे बढ़ता हूँ …
जैसे स्थूल शरीर की कोशिकाओं के मनोमय नामक भाग का समूह, साधक का मनोमय कोश है, वैसे ही सम्पूर्ण जीव जगत के मनोमय कोश के समूह को ही, मनाकाश कहते हैं I
इसलिए, मनाकाश मन का वह स्वरूप है, जिसमें समस्त जीव जगत के मनोमय कोश नामक भाग निवास करते हैं I
संपूर्ण जीव जगत के मनोमय कोश के समूह को मनाकाश कहा गया है I
मनाकाश ही प्रजापति की इच्छा शक्ति का सर्वोच्च सगुण निराकार स्वरूप है I
उत्कर्ष पथ में, …
इच्छा शक्ति के मूल में अहमाकाश होता है, जो विशुद्ध अहम् को दर्शाता है I
मनाकाश के गंतव्य में चित्त शक्ति है, जो चिदाकाश की द्योतक है I
अहम् विशुद्धि का मार्ग, चित्त के संस्कार रहित अवस्था की ओर लेकर जाता है I
संस्कार रहित चित्त ही चेतन ब्रह्म है, जिनका निराकार स्वरूप चिदाकाश है I
और जीव जगत की उत्पत्ति के दृष्टिकोण से, इससे विपरीत ही मनाकाश का नाता ऊपर बताए गए बिंदुओं से पाया जाएगा I
और जहाँ, …
मनाकाश और उसकी इच्छा शक्ति, अहमाकाश और उसकी अहम् शक्ति, चिदाकाश और उसकी चित्त शक्ति… सब के सब ब्रह्म के ही द्योतक हैं I
इन सबके सिद्धि मार्ग के मूल में विशुद्ध अहम् है, जो अघोर ब्रह्म से संबद्ध है I
इसी मनाकाश से ही समस्त जीवों के मनोमय कोश जुड़े हुए होते हैं I इसलिए इस जीव जगत में क्या चल रहा है, मनाकाश को वो सबकुछ पता होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब योगी इस आकाश रूपी मन की सर्वव्यापक इच्छा शक्ति को सिद्ध करता है, तब वह योगी इस मनाकाश और उसकी इच्छा शक्ति के गंतव्य को प्राप्त होता है I
उस गंतव्य में, योगी के भाव में ही उसका साधन होता है I
और ऐसी भावनात्मक स्थिति में बसकर, वह योगी अपने भावों में प्रकट हुए संस्कारिक, दैविक (कारण) और सूक्ष्म साधनों का आलम्बन लेके, स्थूल जगत में वही परिवर्तन करता है, जैसे उसे चाहिए I
और जहाँ ऐसे योगी को जो चाहिए होगा, वह एक सर्वव्यापक मुक्तिमार्ग ही होगा, जिसको वो योगी उसकी इस सार्वभौम इच्छा शक्ति नामक सिद्धि से ही स्थापित करके, स्थूल जगत सहित, सूक्ष्म दैविक, कारण और संस्कारिक संस्कारिक जगत में भी व्यापक कर देगा I
यही इच्छा शक्ति की गंतव्य सिद्धि है, क्यूंकि इसकी प्राप्ति के पश्चात, ऐसा योगी जीव जगत का ही तारक हो जाएगा और जहाँ वह तारकमार्ग भी कुछ-कुछ मारण प्रक्रिया से ही जाएगा, जिसके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
जब भाव में ही साधन आ गया, तब ब्रह्म रचना के भीतर, जो चाहो प्रकट कर दो I
लेकिन यह प्रकटीकरण मार्ग भी संस्कारिक जगत से होता हुआ, दैविक या कारण जगत से जाता हुआ, सूक्ष्म जगत में गति करता हुआ ही स्थूल जगत में आएगा I
और इस इच्छा शक्ति नामक सिद्धि के गंतव्य में, यदि योगी पहुँच गया, तो वही योगी पितामह ब्रह्म स्वरूप हो जाएगा, और जहाँ वह स्वरूप ही पञ्चब्रह्म और गायत्री सरस्वति कहलाएगा I
यही ब्रह्म गायत्री प्रदक्षिणा की एक उत्कृष्ट सिद्धि है I
आगे बढ़ता हूँ …
मनाकाश और उसकी इच्छा शक्ति का नाता वामदेव ब्रह्म से है, इसलिए इसका नाता वामदेव ब्रह्म से संबद्ध माँ गायत्री के धवला मुख से भी है I
इस मनाकाश का आत्मा ही मनात्मा कहलाता है, और जहाँ वह मनात्मा ही ब्रह्म है I
सर्वयोग सिद्धि भी मनाकाश की ही होती है और इस सिद्धि के मूल में भी मनाकाश में बसी हुई योगी की इच्छा शक्ति ही होती है I
जिस इच्छा शक्ति से पितामह ब्रह्मा ने सबकुछ बनाया, उसी का आलम्बन लेके ही तो ब्रह्म रचना से योग कर पाओगे I
और उसी इच्छा शक्ति के किसी न्यून स्वरूप का आलम्बन लेके ही तो अन्य सभी योग सिद्धियों की प्राप्ति होती है I
आगे बढ़ता हूँ …
मन और शून्य, मनोमय कोश और शून्य, मनोमय कोश से शून्य का नाता, …
ब्रह्मरंध्र के भीतर तीन छोटे छोटे चक्र होते हैं, जो एक के ऊपर एक… ऐसे होते हैं I
इन तीन चक्रों में से सबसे ऊपर का चक्र, छह पत्तों वाला होता है I यही मनस चक्र है I
मनस चक्र से परे (अर्थात ऊपर) शून्य है I
जब मन इस मनस चक्र को पार करता है, तब शून्य का साक्षात्कार होता है I
जब मन शून्य का साक्षात्कार करता है, तब वह शून्य में विलीन होकर, उसी शून्य में बसे हुए मनाकाश का साक्षात्कार करके, उसी मनाकाश में विलीन हो जाता है I
इसलिए, मनकाश साक्षात्कार और मन का उसमें विलीन होने का मार्ग यही मनस चक्र है I
और जहाँ यह मनस चक्र भी शून्य के आकाश रूप के साक्षात्कार का मार्ग ही है I
इसलिए, जब साधक की चेतना ऊपर की ओर उठेगी और मनस चक्र को पार कर लेगी, तब वो इस शून्य साक्षात्कार के पश्चात ही उसी शून्य में विलीन होकर, मनाकाश को जान पाएगी I
आगे बढ़ता हूँ …
शून्य से मनाकाश का मार्ग निकलता है और मनाकाश से भी शून्य का मार्ग प्रशस्त होता है I इसलिए यह मनाकाश और शून्य, एक दुसरे के मार्ग के पूरक भी हैं I
और जहाँ यह मार्ग सर्वस्व धारणा से होता हुआ, सर्वस्व से भावनात्मक योग से जाता हुआ, अंततः उसी सर्वस्व से अयोग की ओर जाता है I
इसलिए, इस मार्ग में पहले ब्रह्माण्ड धारणा से ब्रह्माण्ड योग सिद्ध होना होगा, और इसके पश्चात उसी ब्रह्माण्ड को त्याग भाव में रखकर, उससे अयोग होगा I
जैसे ही यह अयोग होगा, वैसे ही साधक मनस चक्र को पार कर जाएगा और शून्य साक्षात्कार करेगा I
साधक की काया के भीतर बसे हुए ब्रह्माण्ड से परे, वह शून्य ही होता है जिसके साक्षात्कार को यहां बताया जा रहा है I
इसका एक और मार्ग भी हैं, जिसमें साधक हृदयाकाश में बसकर, उसी हृदयाकाश में बसे हुए ब्रह्माण्ड और उस ब्रह्माण्ड के मुख्य भागों को अपने हृदयाकाश की योग अग्नि (जो नचिकेताग्नि भी कहलाती है) में आहुति देता है I लेकिन इस हृदयाकाश गर्भ के यज्ञ मार्ग के बारे में एक आगे के अध्याय श्रंखला में बात होगी, जिसका नाम आंतरिक यज्ञ मार्ग (या आंतरिक अश्वमेध यज्ञ मार्ग) होगा I
इस शून्य के साक्षात्कार का एक और स्थान साधक के हृदय के भीतर बसी हुई कृष्ण गुफा है I परन्तु इस हृदय कृष्ण गुफा के बारे में एक आगे के अध्याय में ही बताया जाएगा I
मन का भावनात्मक योग और अयोग, योग से ही अयोग का मार्ग प्रशस्त होता है … योगमार्ग से अयोग, योग से अयोग प्रशस्त होता है, अयोग के मूल में योग है, धारणा से योग, योग के मूल में धारणा है, धारणा के मूल में भाव है, धारणा और भाव, भाव में ही इच्छा शक्ति है, भाव और इच्छा शक्ति, … मन और योग, मन और अयोग, योग का कारण मन है, मन ही योगी है, योगी का मन ही अयोगी है, योगी ही अयोगी है, मन ही अयोगी है, मन का गंतव्य आयोग है, योग का गंतव्य आयोग है, आयोग ही निर्गुण ब्रह्म है, …
जब तक किसी से योग के लिए धारणा नहीं बनेगी, उससे योग भी नहीं होगा I
योग के मूल में धारणा है, और इसी धारणा का आलम्बन लेके ही योग सिद्धि होती है I
लेकिन धारणा भी तो भावों में ही बसती है, इसलिए धारणा के मूल में भाव ही है I
और भाव भी तो इच्छा शक्ति से ही चलित होते हैं, इसलिए जब तक इच्छा शक्ति उस धारणा में चलित नहीं होगी, तबतक न धारणा सिद्ध होगी और न ही कोई योग सिद्धि I
और जहाँ इच्छा सिद्धि भी मनोमय कोश की ही होती है, जिसके कारण इन सभी बताई गई दशाओं के मार्ग में, मन ही पाया जाएगा I
और जब योग सिद्ध भी हो जाएगा, तब भी जो योगमार्ग पर गमन करेगा, वो मन ही होगा I
इसलिए साधक यह भी जान जाएगा, कि योग का कारण मन है, और वास्तव में तो, मन ही योगी है I
और उस योगी रूपी मन का वास्तविक आयोग स्वरूप ही निर्गुण ब्रह्म है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब तक किसी से योग ही नहीं हुआ, तबतक उसको त्यागोगे कैसे? I
जब उस पूर्व की योगावस्था को त्यागोगे, तो उसी से ही अयोग होगा? I
इसलिए, अयोग का मार्ग योग है I
योगशिखर को ही अयोग कहा जाता है, जो निर्गुण ब्रह्म को ही दर्शाता है I
निर्गुण ब्रह्म ही अयोगी है, इसलिए जो मन निर्गुण ब्रह्म में ही विलीन हुआ है, वही अयोगी है I
निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं रहता, इसलिए निर्गुण में योगी ही अयोगी है, और अयोगी ही योगी… योग ही आयोग है और आयोग ही योग I
जहाँ योग ही आयोग हुआ है और आयोग ही योग, वही निर्गुण निराकार ब्रह्म है, जो कैवल्य मोक्ष ही है I
कैवल्य मोक्ष न रचना और न ही रचना के तंत्र का अंग है… और न ही नहीं है I
इसलिए जो कैवल्य मोक्ष कहा जाता है, उसमें न बंधन है और न ही मुक्ति I वह इन दोनों बंधन और मुक्ति रूपी मूल द्वैतवादों से से भी परे है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब साधक ब्रह्माण्ड योग के पश्चात, ब्रह्माण्ड को ही त्यागता है, तब ही वो साधक उस शून्य के साक्षात्कार का पात्र बनता है, जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड बसा हुआ है और जो समस्त ब्रह्माण्ड में बसा हुआ है I
इसलिए …
शून्य साक्षात्कार का मार्ग भी ब्रह्माण्ड से योगावस्था से ही जाता है I
ब्रह्माण्ड भी साधक की काया के भीतर और बाहर, दोनों स्थानों में होगा I
ब्रह्माण्ड योग मार्ग में, साधक ब्रह्माण्ड में बसा होगा, और ब्रह्माण्ड साधक में I
कैवल्य मोक्ष रूपी निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार भी इसी ब्रह्माण्ड से होकर जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
ऊपर बताए गए बिंदुओं और उनके मार्ग में जाकर और उनको पार करके जो स्पष्ट होता है, वो अब बताता हूँ …
मन ही योगी है I
मन ही योग का माध्यम है I
मन के सिवा और कोई योगी है ही नहीं I
मन के योगी होने के मूल में मन के भी भाव हैं I
मन ही योग का कारक है, मन ही योग का कारण भी है I
मन के भाव से संबद्ध हुई धारणा ही योग कारक और कारण है I
योग सिद्धि के पश्चात, मन ही वह योगी है, जो उस योग से ही संन्यास लेगा I
और इन सबके साथ साथ …
उस संन्यास से मन, मनाकाश और शून्य से जाकर, निर्गुण स्वरूप पाएगा I
और वह निर्गुण निराकार जो ब्रह्म ही है, वही मन का वास्तविक स्वरूप भी है I
निर्गुण निराकार को ही अयोग कहा गया है, जो पूर्ण संन्यास का द्योतक होता है I
इस समस्त प्रक्रिया में, मन के भाव ही वो मूल थे, जिससे यह सब संभव हुआ था I
इसलिए, …
मन के भाव ही योग का मूल है I
उस भाव में ही धारणा प्रकट होती है I
वह धारणा ही योग सिद्धि का कारण बनती है I
आगे चलकर, योग सिद्धि ही अयोग का कारण बनती है I
और इन सबके मूल में, उसी मन की इच्छा शक्ति ही होती है I
मन ही एकमात्र योगी है और योग प्रक्रिया का सर्वोत्कृष्ट माध्यम है I
इसलिए, समस्त योगों सिद्धियों के मूल और गंतव्य में, मन की इच्छा शक्ति है I
आगे बढ़ता हूँ …
मनोमय कोश और शून्य अनंत सिद्धि, मनोमय कोश और शून्य ब्रह्म सिद्धि, मन और शून्य अनंत सिद्धि, मन और शून्य ब्रह्म सिद्धि, मन और शून्य अनंत, मन और शून्य ब्रह्म, … शून्यवादियों का शून्य ही पूर्णवादियों का पूर्ण है, शून्य ही अनंत है, अनंत ही शून्य है, मन में शून्य ही अनंत है, मन के भीतर शून्य ही अनंत होता है, मन में अनंत ही शून्य है, मन के भीतर अनंत ही शून्य होता है, … शून्य में मन अनंत स्वरूप को पाता है, शून्य में ही मन अनंत होता है, …
मन शून्य में विलीन होकर ही शून्य होता है I
शून्य साक्षात्कार के पश्चात, जब मन शून्य मे ही विलीन होगा, तब वह शून्य ही अनंत सरीका पाया जाएगा I
ऐसी दशा में, …
मन ही शून्य और अनंत दोनों हो जाएगा I
मन की ऐसी दशा ही शून्य अनंत सिद्धि कहलाती है I
उस शून्य अनंत या शून्य ब्रह्म में, …
शून्य ही अनंत ब्रह्म है I
अनंत ब्रह्म ही शून्य हुआ है I
मन में शून्य ही अनंत रूप का है I
मन के भीतर अनंत ही शून्य रूप में है I
मन के भीतर, शून्य ही अनंत रूप में होता है I
मन में अनंत ब्रह्म ही शून्य, और शून्य ही अनंत ब्रह्म है I
यही मनोमय कोश की वास्तविक अवस्था, शून्य अनंत सिद्धि है I
योगीजनों ने इसी शून्य अनंत या शून्य ब्रह्म को, श्रीमन नारायण तक कहा है I
और ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में, इसी शून्य अनंत को, शून्य में ही शून्य… ऐसा कहा गया है… यह भी मनोमय सिद्धि ही है I
इस साक्षात्कार से साधक यह भी जान जाता है, कि जब मन ही ब्रह्माण्डातीत होता है, तब वह कुछ अन्तरिम दशाओं से जाकर, शून्य अनंत में ही विलीन होता है I
ऐसे साक्षात्कार से साधक जो अंततः जानता है, वो अब बताता हूँ …
शून्यवादियों का शून्य ही पूर्ण वादियों का पूर्ण है I
शून्य ही पूर्ण है, पूर्ण ही शून्य रूप में अभिव्यक्त हुआ है I
शून्य अनंत में, शून्य प्रकृति है, और अनंत वह पूर्ण ब्रह्म है I
शून्य अनंत में, प्रकृति और ब्रह्म अपनी योगावस्था में एक ही हैं I
इसलिए, उस शून्य अनंत में, शून्य और पूर्ण का भेद ही समाप्त होता है I
शून्य अनंत (शून्य ब्रह्म) में, शून्य और पूर्ण, का तारतम्य नहीं होता I
यही मनोमय कोश का ब्रह्माण्डातीत स्वरूप है, जो शून्य ब्रह्म कहलाया है I
शून्य अनंत में प्रकृति और ब्रह्म में तारतम्य नहीं है,… वह लिंगभेद से अतीत है I
शून्य अनंत की योगदशा, नर भी है और नारी भी… और इन दोनों से अतीत भी है I
इस योगमार्ग में, …
शून्य साक्षात्कार शून्य समाधि से होगा I
अनंत का साक्षात्कार निर्विकल्प समाधि से होगा I
और शून्य ब्रह्म साक्षात्कार, असंप्रज्ञात समाधि से होगा I
और यदि इस योगदशा को पाया हुआ साधक, पुरुष और प्रकृति के योग से गया होगा, तो वह असम्प्रज्ञात समाधि ही निर्बीज समाधि का मार्ग होगी I
इसलिए, ऐसे साधक का मार्ग …
सम्प्रज्ञात समाधि से जड़ समाधि को जाएगा I
जड़ समाधि से होकर शून्य समाधि को जाएगा I
शून्य समाधि से असम्प्रज्यात समाधि को जाएगा I
असम्प्रज्यात समाधि से निर्बीज समाधि को जाएगा I
निर्बीज समाधि से ही निर्विकल्प समाधि को जाएगा I
टिपण्णी: जड़ समाधि ही बिंदु शून्य समाधि है I इसमें यदि चेतना स्थापित हो गई, तो साधक कायधारी होते हुए भी, बहुत लम्बे समय तक उसी अवस्था में रह जाता है I लेकिन ऐसा तब ही होगा, उस साधक पर माँ महाकाली का अनुग्रह नहीं होगा I जिस साधक पर माँ महाकाली का अनुग्रह होता है, वह इस समाधि में जाकर, इसका साक्षात्कार करके, पुनः जागृत अवस्था में लौट आता है I और यदि माँ महाकाली का अनुग्रह प्राप्त किया हुआ साधक, इस जड़ समाधि को जाएगा, तो ऐसा साधक आगे जाकर महाकाली महाकाल योग को भी उसकी अपनी काया के भीतर ही पाएगा I
और अंत में …
यही शून्य ब्रह्म, श्रीमन नारायण भी हैं, जो उस विशालकाय क्षीरसागर पर निवास करते हैं I
मन और आत्मा, मन और ब्रह्म, मन और मनात्मा, मनात्मा और ब्रह्म, मनात्मा ही ब्रह्म है, मन का गंतव्य ही आत्मा है, मन ही आत्मा है, मन का गंतव्य स्वरूप ही आत्मा है, मनात्मा का वास्तविक स्वरूप, मन और निर्गुण ब्रह्म, मन सगुण और निर्गुण है, मन निराकार और साकार है, मन रूपी आत्मा, मन रूपी ब्रह्म, मन ही ब्रह्म है, मनात्मा ही ब्रह्म है, …
इस भाग को कुछ ही शब्दों में बतलाऊँगा I
- मन शून्य से जाकर, शून्य ब्रह्म के साक्षात्कार से अंततः निर्गुण निराकार ब्रह्म में ही विलीन होता है I
- निर्गुण ब्रह्म में विलीन मन, समस्त जीव जगत को अपनी अभिव्यक्ति स्वरूप में ही देखता है I
- ऐसी दशा में, मन स्वयं को ब्रह्माण्डधर और ब्रह्माण्डातीत, दोनों स्वरूपों में पाता है I
- ऐसा ब्रह्माण्डधर और ब्रह्माण्डातीत मन ही आत्मा सरीका होता है I
- और उस मन रूपी आत्मा को ही मनात्मा कहा जाता है I
- मनात्मा ही ब्रह्म सहित, ब्रह्म की समस्त अभिव्यक्तितों का द्योतक है, और जहाँ वह मन रूपी आत्मा निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार, तीनों स्वरूपों में साक्षात्कार होगा I
- ऐसा मनात्मा जीव जगत भी है, और जीवातीत और जगतातीत भी I
- ऐसा मनात्मा ब्रह्माण्डधर भी है, और ब्रह्माण्डातीत भी I
- मनात्मा जीव और जगत होता हुआ भी, जीवातीत और जगतातीत ही है I
- वह मन रूपी आत्मा जो जीव जगत से अतीत होता हुआ भी, जीव जगत और जीव जगत का आधार भी हुआ है, वही आत्मा का पूर्ण स्वरूप है I
- ऐसा मन रूपी आत्मा अपने निर्गुण निराकार स्वरूप में निर्गुण निराकार ब्रह्म कहलाता है I
- मन में जब निर्गुण और निराकार नामक दशाओं का योग होता है, तो वह निराकार मन ही अनंत होता है I ऐसा मन ही आकाश के समान व्यापक होकर, मनाकाश कहलाता है I
- और वही मन रूपी आत्मा अपनी अभिव्यक्ति स्वरूप में, जीव जगत कहलाता है I और अपने वास्तविक स्वरूप में वही मन रूपी आत्मा, निर्गुण ब्रह्म है I
- वो मन, जो अपनी ब्रह्माण्ड रूपी अभिव्यक्ति को धारण किया हुआ भी, उससे अतीत है, वह उस निर्गुण ब्रह्म के समान ही है, जो जीव जगत का आधार होता हुआ भी, वास्तव में जीवातीत और जगतातीत ही है I
ऊपर बताए गए साक्षात्कारों से कुछ बिंदु स्पष्ट होते हैं… तो अब उनको बताता हूँ …
- मन की वास्तविकता सर्वव्यापक और सर्वातीत ब्रह्म ही है I यही मन की दशा होगी, जब मन निर्गुण निराकार ब्रह्म में ही विलीन हो जाएगा I
- वह निर्गुण ब्रह्म, जीव जगत और जीव जगत का आधार होता हुआ भी, अपनी वास्तविकता में जीवातीत और जगतातीत ही है I ऐसा ही वह मन भी होता है, जो निर्गुण निराकार ब्रह्म में विलीन हुआ है I
- उस सर्वव्यापक ब्रह्म की परिपूर्ण अभिव्यक्ति को ही जीव जगत कहा जाता है I
- इसलिए मन रूपी ब्रह्म, अर्थात मनात्मा ही जीव जगत है, जीव जगत का आधार है… और जीवातीत और जगतातीत भी वही मनात्मा है I
- मनात्मा रूप में वह योगी का मन, मनाकाश के समान सर्वव्यापक ही होगा I और ऐसा होने पर भी, वह मनात्मा उस मनाकाश से अतीत भी होगा I
- यही कारण है, कि जो योगी मन रूपी आत्मा, अर्थात मनात्मा ही हो गया, वही पूर्ण ब्रह्म को दर्शाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
मनात्मा स्वरूप में मन, समस्त जीव जगत और जीव जगत का आधार होता हुआ भी, जीव जगत से अतीत होता है I
यह वह दशा है, जिसमें …
- जीव जगत इस मनात्मा की ही अभिव्यक्ति रूप में होता है I
- इसलिए ऐसी दशा में वह मनात्मा ही जीव जगत का अभिव्यक्ता स्वरूप में होगा I
- और इसके साथ साथ, वह मन रूपी आत्मा की अभिव्यक्ति ही जीव जगत स्वरूप में पाई जाएगी I
- जब मन, निर्गुण ब्रह्म में विलीन होकर, निर्गुण निराकार ब्रह्म के समान ही हो जाएगा, तो वह मन रूपी आत्मा होकर, जीव जगत का अभिव्यक्ता (अर्थात निर्गुण ब्रह्म), जीव जगत का आधार (अर्थात जीवधर और जगतधर), जीव जगत से अतीत (अर्थात जीवातीत और जगतातीत) और जीव जगत भी होगा I
ऐसी योग दशा और उसके साक्षात्कार में, …
- यह जीव जगत ही मन रूपी आत्मा (अर्थात मनात्मा जो निर्गुण ब्रह्म ही है) की अभिव्यक्ति स्वरूप में साक्षात्कार होगा I
- और वही मनात्मा उस जीव जगत को धारण किया हुआ, जीवधर और जगतधर स्वरूप में भी साक्षात्कार होगा I
- और उसी मानात्मा की अभिव्यक्ति जीव जगत कहलाएगी I
आगे बढ़ता हूँ …
और मन रूपी आत्मा, अर्थात मनात्मा स्वरूप निर्गुण ब्रह्म सिद्धि को बताता हूँ …
- जब मन उत्कर्षातीत (अर्थात समस्त उत्कर्ष मार्गों से अतीत) होता है, तो वही मन आत्मा में विलीन होकर, मनात्मा कहलाता है I
आत्म उत्कर्ष मार्गों से अतीत ही है I
- और जब वह आत्मा स्वयं को निर्गुण ब्रह्म से योग में ही पाएगी, अर्थात निर्गुण अनंत स्वरूप में पाएगी, तब वही आत्मा, निर्गुण निराकार ब्रह्म स्वरूप में ही स्वयं को पाएगी I
- और इस निर्गुण निराकार ब्रह्म स्वरूप में वह मन रूपी आत्मा, ही जीवधर और जगतधर भी होगी, जीव जगत भी होगी और जीवातीत और जगतातीत भी होगी I
- और जहाँ वह जीव जगत उसी मन रूपी आत्मा की अभिव्यक्ति होगा, जिसका आधार भी वह मन रूपी आत्मा ही होगी I
- और इसके साथ साथ, वह मन रूपी आत्मा, अपने निर्गुण गंतव्य स्वरूप में ही उस जीव जगत का अभिव्यक्ता निर्गुण ब्रह्म भी होगी I
इसलिए, …
- मनात्मा स्वरूप में मन, निर्गुण ब्रह्म में विलीन होकर, जीव जगत, जीवधर और जगतधर होने के साथ साथ, और जीवातीत और जगतातीत, तीनों स्वरूप में ही साक्षात्कार होगा I
- ऐसा मनात्मा ही पूर्ण ब्रह्म का द्योतक होगा, जो निर्गुण निराकार, सगुण निराकार और सगुण साकार, तीनों स्वरूपों में ही साक्षात्कार होगा I
लेकिन यह सब साक्षात्कार भी तब ही होंगे, जब मन जीव जगत के तारतम्य से अतीत होकर, जीवातीत और जगतातीत ही हो जाएगा… इससे पूर्व नहीं I
इसलिए, यह सब तब ही साक्षात्कार होगा, जब मन ही मनात्मा स्वरूप को पाएगा… इससे पूर्व नहीं I
मन और उत्कर्ष मार्ग, मन और मुक्तिमार्ग, मन और मुक्तिपथ, मन का उत्कर्ष मार्गी स्वरूप, मन का मुक्तिपथ स्वरूप, मन का मुक्तिमार्ग स्वरूप, …
अब मन और उत्कर्ष पथ का नाता बताता हूँ …
उत्कर्ष पथ के मूल में इच्छा शक्ति ही होती है I
उस इच्छा शक्ति का नाता भी भाव से ही होता है I
और उस भाव का नाता साधक की मनोदशा से होता है I
ऐसा होने से समस्त उत्कर्षपथों का नाता मन से ही होता है I
और इन सभी उत्कर्ष मार्गों के मूल और मार्ग में, मन ही पाया जाएगा I
इसलिए, जबतक साधक की इच्छा शक्ति ही उत्कर्ष गामी नहीं होगी, तबतक उस साधक के लिए कोई उत्कर्ष पथ भी प्रशस्त नहीं होगा I
यही मन, मन की इच्छा शक्ति और उत्कर्ष पथ (अर्थात मुक्तिपथ) का नाता भी दर्शाता है I
और यही कारण है, कि इच्छा शक्ति का आलम्बन लेके ही उत्कर्ष मार्ग पर जाया जाता है I
और जहाँ उस इच्छा शक्ति का वास्तविक निवास स्थान भी मनाकाश ही होता है I
यही कारण है, कि …
जबतक इच्छा शक्ति उत्कर्षमार्गी नहीं होती, तबतक मुक्तिमार्ग प्रशस्त नहीं होता I
जबतक मन के भाव में ब्रह्म नहीं, तबतक इच्छा शक्ति भी उत्कर्षमार्गी नहीं होगी I
आगे बढ़ता हूँ …
मन का संतुलक स्वरूप, मन में ही सबकुछ संतुलन पाता है, मन ही पञ्च कोश के संतुलन का कारण है, मन ही संतुलन का कारण है, मन ही पञ्च कोश का संतुलक है, … मन और उत्पत्ति, मन और स्थिति, मन और संहार, मन और तिरोधान, मन और निग्रह, मन और मुक्ति, मन और कैवल्य, मन और मोक्ष, मन और अनुग्रह, मन और कैवल्य मोक्ष, … मन के मूल में अहम् है, मन और अहंकार, … मन के कर्म में उत्पत्ति है, मन और उत्पत्ति, … मन की गति में स्थिति है, मन और स्थिति, … मन के मार्ग में तिरोधान (निग्रह) है, मन के मार्ग में निग्रह है, मन और तिरोधान, मन और निग्रह, … मन के गंतव्य में मुक्ति (अनुग्रह) है, … मन का त्रिगुणात्मक स्वरूप, मन में त्रिगुण का योग, त्रिगुण का मन में योग, मन और त्रिगुण, …
पञ्च कोश की तुलनात्मक सूक्ष्मता के दृष्टिकोण से, मन मध्य का है I
जो मध्य का होता है, उससे ही संतुलन होता है I
इसलिए मन ही पञ्च कोषों का संतुलक है I
और उसी मन का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, अर्थात मनाकाश ही ब्रह्माण्डीय दशाओं का संतुलक है I
आगे बढ़ता हूँ …
इसलिए, यदि मन में ही विकृति आ जाए, तो जीव जगत भी वियकृत हुए बिना नहीं रह पाएगा I
और जहाँ, मन की विकृतियों का मूल कारण, अहम् का कुपित (अर्थात संकुचित या छोटा) होना ही है I
अहम् तब संकुचित होता है, जब वह मेरे-तेरा, इसका-उसका जैसे भावों में चला जाता है I
जब अहम् छोटा होगा, तो वो अहम् उसके अपने वास्तविक विश्वव्यापक स्वरूप में नहीं रह पाएगा I
और अहम् की ऐसी विकृति के मूल में, कोई संकुचित (अर्थात विकृत) ज्ञान ही पाया जाएगा I
ज्ञान तब संकुचित होता है, जब वो ज्ञान उसके अपने व्यापक आकाश स्वरूप से नाता न रखे I ज्ञान तब ही ज्ञान होता है, जब वह ज्ञानकाश से संबंध रखता है, और सब को समदृष्टि से देखने का मार्ग बताता है I
विकृत ज्ञान एकवाद का भी होता है (अर्थात वो ज्ञान जो कहे कि वही सत्य है, और अन्य सभी असत्य) I
इसलिए, ऐसा ज्ञान ही सब विकृतियों का कारण बनता है I
यही कारण है कि कलियुग के समयखण्डों में, ऐसे विकृत (संकुचित) ज्ञान ही आते हैं, और इतने फ़ैल जाते हैं कि मानव जाती का अधिकांश भाग इन्ही विकृत (संकुचित) ज्ञान मार्गों में ही निवास करने लगता है I और जब ऐसा हो जाता है, तो यही विकृत मार्ग अधिकांश विप्लवों के कारण भी बन जाते हैं I
यही कारण है, की कलियुग के कालखंड में विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) ही प्रमुख उत्कर्ष पथ रूप में पाया जाता है I
और ऐसा होने के कारण, यही विकृत (संकुचित) एकवाद समय समय पर कलह कलेश का कारण बनता है I
आगे बढ़ता हूँ …
जीव जगत प्रकृति के आँचल में ही बसा हुआ है I
प्रकृति बहुवादी है और ऐसा होने पर भी, वह एक ही है, इसलिए अद्वैत है I यही कारण है की प्रकृति बहुवादी अद्वैत ही है I
जब जीवों का जीवन मार्ग विकृत एकवाद में ही चला जाता है, और इसके कारण वह जीव प्रकृति के साथ तालमेल नहीं बना पाते हैं, तब वह प्रकृति जो जीवों के भीतर भी बसी हुई है, जीवों के भीतर से ही विप्लव उत्पन्न करने लगती है, और जहाँ यह विप्लव भी समय समय पर आते ही जाते हैं I
और वही प्रकृति में तो जीव भी बसे हुए हैं, इसलिए वह प्रकृति ही समय समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं का कारण बन जाती है I
यही कारण है, की जब भी किसी भी लोक में ऐसे विकृत एकवाद आए हैं, तब उन लोकों में कलह कलेश होते ही हैं, और जहाँ यह कलह कलेश जीवों से, प्राकृतिक और दैविक कारणों से भी होते हैं I
दैविक विप्लव इसलिए आते हैं, क्यूंकि प्रकृति ही शक्ति रूपी ब्रह्म की दिव्यता है I
और क्यूंकि कलियुगों में ही ऐसे विकृत एकवाद आया करते हैं, इसलिए कलियुग कलह कलेश का युग ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
कलियुगों में यह विकृत एकवाद केवल धर्म का ही नहीं होता, बल्कि और स्वरूपों में भी होता है I
कलियुग के कालखंड में यह विकृत एकवाद, धार्मिक, आर्थिक, भौतिक, आध्यात्मिक, कार्मिक, भौगौलिक, राजनीतिक और भू- राजनीतिक, सुरक्षा से संबंधित, शिक्षा से सम्बंधित, सेवा से संबंधित, संविधानिक, आदि स्वरूप में भी पाया जाएगा I
और इसी विकृत एकवाद के अनुयायियों से समय समय पर कलह कलेश प्रकट होते ही रहते हैं I कलियुग के तंत्र का मुख्य कारण, यह विकृत एकवाद (अर्थात मोनोथेइसम) ही है I
और इसी विकृत एकवाद के कारण, मन अपनी संतुलक क्षमता की पूर्णता को भी खो बैठता है I
आगे बढ़ता हूँ …
ऐसे संतुलक स्वभाव के कारण, मन ही स्थिति का कारण होता है I
स्तिथि कृत्य का मूल कारण मन का संतुलक स्वभाव ही है I
स्थिति कृत्य के मूल में मन का सर्व-संतुलक गुण ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
और मन से जो उत्कर्ष मार्ग प्रशस्त होता है, अब उसको बताता हूँ …
मन की इच्छा शक्ति ही उत्पत्ति का कारण होती है I
यदि कुछ अच्छा उत्पन्न करना है, तो इच्छा शक्ति को स्वच्छ करो I
उस इच्छा शक्ति के मूल में, अहम् का ही विशुद्ध स्वरूप होता है I
इसलिए, यदि इच्छा को स्वच्छ करना है, तो सर्वप्रथम अहम् को विशुद्ध करो I
स्वच्छ इच्छा शक्ति की गति में स्थिति होती है, जिसका स्थान चित्त होता है I
इसलिए यदि गति उत्कर्ष मार्गी करनी है, तो योगमार्ग से ही चित्त का निरोध करो I
उस चित्त का निरोध, चित्त में ही बसे हुए संस्कारों के क्षय से होता है I
इसलिए यदि उत्कर्ष मार्ग में अखंड गमन करना है, तो संस्कारों का संहार करो I
उस चित्त निरोध के मार्ग में तिरोधान होता है, जिसका स्थान बुद्धि होती है I
इसलिए यदि तिरोधान से परे जाना है, तो बुद्धि को निश्कलंक (समतावादी) करो I
उस तिरोधान से परे अनुग्रह (मोक्ष) होता है, जिसको आत्मा और ब्रह्म कहते हैं I
यदि आत्मसाक्षात्कार करना है, तो अपने भावों में ही अंतःकरण को ब्रह्मलीन करो I
जो साधक यह सब कर पाएगा, उसके भाव में ही उसका मुक्तिसाधन प्रकट होगा I
वह भावनात्मक, स्वयंप्रकट हुआ साधन ही उस साधक का मुक्ति पथ कहलाएगा I
ऐसा साधक …
पञ्च कृत्य का सिद्ध होता हुआ भी, पञ्च कृत्य से परे ही खड़ा हो जाएगा I
इन पञ्च कृत्य से परे, वह कृत्यातीत (अर्थात देवातीत) कैवल्य मोक्ष है I
आगे बढ़ता हूँ …
मन का यह स्वरूप भी तमोगुण से युक्त, रजोगुण से संयुक्त और मन के ही मूल सत्त्वगुणी (सात्विक) स्वभाव से प्रकाशित होता है I
और ऐसे स्वरूप में मन, त्रिगुणात्मक भी होगा और त्रिगुणातीत भी पाया जाएगा I
और मन में ही इन दोनों दशाओं का योग होगा, जिससे मन सर्वसमता को ही प्राप्त हो जाएगा I
इसलिए, ऐसे स्वरूप में मन …
जीव जगत का त्रिगुणात्मक आधार होगा I
जीव जगत के स्वरूप में भी होगा, इसलिए त्रिगुण में ही बसा हुआ होगा I
और ऐसा होने पर भी, उस मन के गंतव्य में, वह मन त्रिगुणातीत ही होगा I
इसके पश्चात, मन में ही त्रिगुण और त्रिगुणातीत दशाओं का योग होगा, जिससे मन अपने वास्तविक सर्वसम स्वरूप को पाकर, चतुर्मुखा पितामह प्रजापति का साक्षात्कार करेगा और वो भी ब्रह्मलोक के इक्कीसवें भाग में, और जिसका एक अंग, सिद्धों द्वारा बताया गया इक्कीसवाँ शून्य भी है I
मैं इस साक्षात्कार को सर्वोच्च मानता हूँ I
मन और अन्न का नाता, अन्न और मन का नाता, …
अब मन और अन्न का नाता बताता हूँ …
जैसा अन्न ग्रहण करोगे, वैसा ही मन का स्वभाव हो जाएगा I
जैसा मन का स्वभाव हो जाएगा, वैसे ही हो कर्म भी किये जाएंगे I
और जैसे कर्म किये जाएंगे, वैसे ही समाज की दशा भी पाई जाएगी I
इसलिए, …
- यदि आपका अन्न हिंसा से संबंधित होगा, तो आप भी हिंसावादी हो जाओगे I
- यदि इस हिंसा से पशु पक्षियों को ही भोजन बनाया गया होगा, तो आप भी पशु स्वरूप ही हो जाओगे I
- पशुओं में कामुकता, हिंसा, अविद्या, अज्ञान, आदि वृत्तियाँ होती ही है, इसलिए यदि मानव अपने अन्न रूप में पशुओं का भक्षण करते होंगे, तो उनमें भी यही वृत्तियाँ पाई जाएंगी I
- जब मानव जाती का बड़ा भाग ऐसा विकृत अन्न ग्रहण करने लगेगा, तो मानव जाति में ही विभिन्न प्रकार के पशु स्वभाव से संबद्ध व्यवहार दिखाई देने लगेंगे I
- यही तो इस कलियुग में हुआ है I
इसलिए, …
यदि इस पृथ्वीलोक को हिंसा, काम, अविद्या, कुविद्या, अज्ञान, अराजकता, असभ्यता और तृष्णा आदि वृत्तियों से मुक्त करना है, तो सर्वप्रथम पशुओं का भक्षण समाप्त करना होगा I
इसका भी वही कारण है जो पूर्व में बताया था, कि …
जैसा अन्न वैसा मन I
जैसा मन वैसे कर्म I
टिपण्णी: यहाँ पर केवल स्थूल अन्न की बात करी गई है I लेकिन यही बिंदु उन सूक्ष्म अन्न पर भी लागू होते हैं, जो मन बुद्धि चित्त, अहम् और प्राणों से संबंधित होते हैं, और जिनके बारे में एक पूर्व के अध्याय में बताया जा चुका है I
मन और शरीर की आयु, मन ही आयु का कारण है, मन से ही शरीर की अवस्था होती है, …
जब मन अपने कारण में विलीन होता है, तब समाधि होती है I
ऐसी दशा में शरीर की आयु वृद्धि भी धीरे हो जाती है, क्यूंकि मन अपने कारण में विलीन होकर, अर्थात समाधिष्ट होकर, कालचक्र से ही अतीत खड़ा हो जाता है I
इसलिए, जब मन अपने कारण में विलीन होता है, तब आयु की वृद्धि भी अपनी सामान्य गति से न्यून ही हो जाती है I
और जब मन, जड़ समाधि में ही चला जाएगा, तब शरीर की आयु वृद्धि भी स्थम्बित हो जाएगी I
शरीर की आयु वृद्धि में मन एक प्रमुख भूमिका निभाता है I
मन का सर्वव्यापक स्वरूप, मन का व्यापक स्वरूप, ब्रह्माण्डीय मनस सिद्धि, मन का ब्रह्माण्डीय स्वरूप, मनाकाश सिद्धि का स्वरूप, मन और ब्रह्माण्ड योग, सर्वस्व योग और मन, … ब्रह्माण्डीय मनस सिद्धि, …
जब योगी का मन, मनाकाश से योग करता है, तो वह वह योगी स्वयं को मनाकाश के समान ही व्यापक पाता है I
यही मन का वह स्वरूप है, जिसमें सबकुछ मन में ही बसा होता है, और मन भी सबमें समानरूपेण और पूर्णरूपेण बसा होता है I
योगमार्ग के दृष्टिकोण से, यही ब्रह्माण्डीय मनस सिद्धि है I
और इसी सिद्धि में मन विशुद्ध अहम् से योग करके, यजुर्वेद के अहम् ब्रह्मास्मि नामक महावाक्य का साक्षात्कार, अपने ही व्यापक ब्रह्म रूप में करता है I
और जहाँ, ऐसे योगी का उत्कर्ष मार्ग भी सामवेद के महावाक्य तत् त्वम् असि की ओर ही जाता है I
और इस साक्षात्कार से भी योगी, जीवनमुक्ति को प्राप्त होता है I
टिप्पणियां:
- यहाँ पर प्राप्त होता है, ऐसा कहा गया है न कि प्राप्त करता है, ऐसा कहा गया है I
- इसका कारण है, कि जो तुम अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मस्वरूप में हो ही, उसको कैसे प्राप्त करोगे? I
- प्राप्त करना जो कर्मों से होता है, वह तो उसको किया जाता है, जो तुम नहीं हो I
- लेकिन जो तुम अनादि कालों से हो ही, उसको कैसे प्राप्त कर सकते हो? I
- इसलिए ऐसी दशा को केवल प्राप्त हुआ जाता है, और जहाँ वह प्राप्त होने का मार्ग भी ब्रह्म भावापन अवस्था से ही होकर जाता है I
- और जहाँ वह ब्रह्म ही तुम्हारा सनातन अजन्मा आत्मस्वरूप ही है I
- वास्तव में जितने जीव इस ब्रह्म रचना में चलित हुए हैं, वो चाहे आंतरिक या बाह्य मार्गों में ही क्यों न रमण कर रहे हो, वह सब अनादि कालों से अपने ही इस स्व को ही खोज रहे हैं I
- और जहाँ यह स्व भी उनका अपना आत्मस्वरूपा ब्रह्म ही है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब मन ब्रह्माण्डीय मनस सिद्धि को प्राप्त होगा, तो वो योगी पाएगा कि जिस भी दशा में उसका मन निवास कर रहा है, वह मन वैसा ही हो जाता है I और ऐसा होने के साथ साथ, मन अपने सर्वव्यापक स्वरूप में भी पाया जाएगा I
इसलिए ऐसी दशा में …
मन, जगत के समस्त भाग होता हुआ भी, संपूर्ण जगत भी होगा I
ऐसा होता हुआ भी, मन अपने मनाकाश रूप में, जगत का आधार भी होगा I
इसके साथ साथ, वही मन अपने गंतव्य स्वरूप में, व्यापक ब्रह्मरूप में होगा I
जो स्वयं ही जीव जगत, जीव जगत का आधार और गंतव्य है, वही तो ब्रह्म है I
जिस साधक ने ऐसा साक्षात्कार किया है, वह मन रूपी आत्मा है… वह मनात्मा है I
यह मानात्मा नामक सिद्धि भी उन ब्रह्म को दर्शाती है, जो पूर्ण कहलाया गया है I
उदहारण के लिए, इस साक्षात्कार में, …
- जब मन अघोर ब्रह्म में निवास कर रहा होगा, तो वो अघोर से समान नीले वर्ण का ही होगा I
- जब मन तत्पुरुष ब्रह्म में निवास कर रहा होगा, तो वो तत्पुरुष से समान लालिमा धारण किया हुआ होगा I
- जब मन सद्योजात ब्रह्म में निवास कर रहा होगा, तो वो सद्योजात से समान पीले वर्ण का ही होगा I
- जब मन वामदेव ब्रह्म में निवास कर रहा होगा, तो वो वामदेव से समान हीरे के समान वर्ण का ही होगा I
- जब मन शून्य में निवास कर रहा होगा, तो वो शून्य के रात्रि स्वरूप के सामान, काला ही होगा I
- और अन्य सभी ब्रह्माण्डीय दशाओं में भी मन, उन्ही दशाओं के समान साक्षात्कार होगा I
इसलिए ऐसे साक्षात्कार के पश्चात, वह योगी जान जाता है, कि मन की दशा और वर्ण वैसी ही होती है, जिस दशा में मन उस समय निवास कर रहा होता है I
और इस साक्षात्कार के पश्चात, योगी यह भी जान जाता है, कि वास्तव में मन सभी दिशाओं में व्याप्त, सर्वव्यापक ब्रह्म स्वरूप ही है I
और यही वो कारण भी है, कि सर्वस्व से योग (अर्थात ब्रह्माण्ड योग) और अन्य सभी योगों का प्रधान माध्यम, कारक और कारण मन ही होता है I
और यहाँ उन सभी योग सिद्धियों में साधक की भावनात्मक इच्छा शक्ति ही होती है I
और अब इस अध्याय के अगले भाग पर जाता हूँ, जो विज्ञानमय कोश है …
विज्ञानमय कोश का स्वरूप, विज्ञानमय कोश क्या है, विज्ञानमय कोश किसे कहते हैं, कोशिकाओं के विज्ञानमय कोश, विज्ञानमय कोश और कोशिका बुद्धि कोश, कोशिका बुद्धि कोश, कोशिका बुद्धिमता कोश, कोशिका प्रज्ञा कोश, कोशिकाओं की बुद्धिमता का समूह ही विज्ञानमय कोश है, कोशिकाओं के प्रज्ञा का समूह ही विज्ञानमय कोश है, कोशिकाओं के बुद्धि का समूह ही विज्ञानमय कोश है, … विज्ञानमय कोश का वर्णन, विज्ञानमय कोश का वर्ण, विज्ञानमय कोश और जीवात्मा, विज्ञानमय कोश ही जीवात्मा है, …
ऊपर दिखाया गया चित्र विज्ञानमय कोश की उस दशा का है, जिसमें साधक अपने विज्ञानमय कोश का साक्षात्कार अपने स्थूल शरीर के भीतर ही करता है I
इस विज्ञानमय कोश का नाता सद्योजात ब्रह्म, अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्म से है I
और इसका नाता देवराज इंद्र से भी है I ब्रह्माण्डीय विज्ञानमय काया को ही इन्द्रलोक कहा जाता है I
विजयानमय कोश अपने जीवात्मा स्वरूप में, प्रणव अर्थात ब्रह्मतत्त्व से भी नाता रखता है I ऐसा इसलिए है क्यूंकि अंततः जीवात्मा का लय स्थान शुद्ध चेतन तत्त्व (अर्थात ब्रह्मतत्त्व) में बसे हुए ॐ के लिपीलिंग में ही होता है I
ब्रह्मतत्त्व में बसे हुए ॐ के लिपीलिंग स्वरूप के ऊपर के बिन्दु में विलीन होकर, जीवात्मा स्वयं ही स्वयं को भी नहीं देख पाती है I
आगे बढ़ता हूँ …
प्रत्येक कोशिका का अपना विज्ञानमय कोश होता है (या बुद्धि या बुद्धिमता होती है) I
शरीर की समस्त कोशिकाओं की बुद्धिमता (बुद्धि या प्रज्ञा) के समूह को ही विज्ञानमय कोश कहा गया है I
क्यूंकि कोशिकाएं शरीर में निवास करती हैं, इसलिए उनका बुद्धि समूह जो विज्ञानमय कोश कहलाता है, उसका आकार भी शरीर के समान ही होता है I
और क्यूँकि बुद्धि (कोशिका बुद्धि सहित) का वर्ण पीला होता है, इसलिए विज्ञानमय कोश का वर्ण भी पीला ही होता है I
इसलिए, जब कोशिकाओं के बुद्धि नामक भाग के समूह को एक साथ देखा जाएगा, तो वही विज्ञानमय कोश कहलायेगा I
आगे बढ़ता हूँ …
विज्ञानमय कोश के पीले वर्ण का नाता सद्योजात ब्रह्म से होता है I
ऊपर का चित्र, विज्ञानमय कोश की उस दशा को दर्शा रहा है जब चित्त संस्कार रहित नहीं हुआ था I
जब चित्त संस्कार रहित होता है, तब यही विज्ञानमय कोश, जीवात्मा स्वरूप में स्वयं परिवर्तित होता है I
और वह जीवात्मा ही है जो अकार, उकार, मकार से होकर, ब्रह्मतत्त्व में जाकर अंततः ॐ के चिंन्ह में ही विलीन होती है I
इसलिए, …
जब चित्त संस्कार रहित नहीं होता, तब विज्ञानमय कोश शरीरी रूप में होता है I
जब चित्त संस्कार रहित हो जाएगा, तो विज्ञानमय कोश ही जीवात्मा कहलाएगा I
और जीवात्मा भी अंततः ॐ रूपी ब्रह्म में विलीन ही होता है I
आगे बढ़ता हूँ …
ॐ में विलीन होने के पश्चात जीवात्मा की दशा, ॐ विलीन जीवात्मा की दशा, वज्रदण्ड चक्र में जीवात्मा, वज्रदण्ड पार करने पर जीवात्मा, वज्रदण्ड पार करने पर जीवात्मा का स्वरूप, …
जब जीवात्मा ॐ में विलीन हो जाती है, तब वो स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाती है I
और इसके पश्चात, जब वह जीवात्मा, सहस्र दल कमल से ऊपर जो वज्रदण्ड है, उसमें जाकर, अष्टम चक्र के पार ही चली जाएगी, तब उसकी जो दशा होगी, वह सुनहरे वर्ण की हो जाएगी I इसी को ऊपर के चित्र में दिखाया गया है I
और जब जीवात्मा सुनहरे वर्ण में प्रकट होती है, तब उसकी दशा साधक के स्थूल शरीर के दर्पण में प्रतिबिंब के समान ही होती है I
इस दशा में वो सुनहरी जीवात्मा की दशा ऐसी दिखाई देगी, जैसे वो साधक के स्थूल शरीर का ही प्रतिबिम्ब हो, अर्थात जैसे हम दर्पण में स्वयं को देखते हैं, वैसी ही वो जीवात्मा दिखाई देगी I
अंतर केवल इतना है, कि वो दर्पण में प्रतिबिंब सुनहरा होगा, न कि स्थूल शरीर के वर्ण का I और इसके साथ साथ, उस सुनहरी जीवात्मा का आकार भी स्थूल शारीर की तुलना में छोटा ही होगा I
तो इसका यह भी अर्थ हुआ, कि ऐसी दशा में वो सुनहरी जीवात्मा साधक को ही देख रही होगी और उस जीवात्मा का आकार भी साधक के स्थूल शरीर से कहीं छोटा होगा I
ऊपर का चित्र उस दशा को दिखा रहा है, जब यह सुनहरी जीवात्मा स्थूल शरीर से बस बाहर निकली ही होती है, और ब्रह्माण्डीय दशाओं में गमन करने ही वाली होती है I
आगे बढ़ता हूँ …
जब विज्ञानमय कोश ॐ में विलीन होने को जा रहा होता है, तब वह विज्ञानमय कोश ही जीवात्मा कहलाता है और ऐसे समय पर, उस विज्ञानमय कोश का वर्ण सूक्ष्म होता है, और पीला होता है I
और जब वही विज्ञानमय कोश रूपी जीवात्मा, ॐ में विलीन होने के पश्चात, और भी ऊपर की ओर गति करेगा, और वज्रदण्ड चक्र और अष्ठम चक्र में पहुँच जाएगा, और इसके पश्चात वह स्थूल शरीर से बहार निकलकर ब्रह्माण्ड में गमन करने तो तैयार हो जाएगा, तो उसकी दशा ऊपर के चित्र में दिखाई गई सुनहरी आत्मा की दशा जैसी ही होगी I और ऐसा सुनहरा शरीर भी आत्मा ही कहलाया गया है I
आगे बढ़ता हूँ, …
- जबतक साधक के अंतःकरण का चित्त नामक भाग, संस्कार रहित नहीं होगा, तबतक साधक का विज्ञानमय कोश भी पीले वर्ण का विजयानमय कोश ही कहलाता है I
- जब साधक के अंतःकरण का चित्त नामक भाग, संस्कार रहित हो जाएगा, तब उस साधक का विज्ञानमय कोश ही जीवात्मा कहलायेगा I
और ऐसा जीवात्मा ही ॐ में विलीन हो पाएगा I ऐसी दशा में उस जीवात्मा का स्वरूप बहुत सूक्ष्म और पीले वर्ण का होता है I
- और जब वह जीवात्मा वज्रदण्ड चक्र को ही पार कर जाएगा, और साधक के स्थूल शरीर से बहार निकलकर ब्रह्माण्डीय दिव्यताओं में गमन करने को तैयार हो जाएगा, तब वही सुनहरे वर्ण का आत्मा कहलाएगा I
- इसी सुनहरे वर्ण के आत्मा को ही ऊपर का चित्र दिखा रहा है, और इस दशा में वो आत्मा भी साधक के स्थूल शरीर का छोटा स्वरूप होगा, और उस दशा में होगा, जैसे वो साधक के स्थूल शरीर को ही देख रहा है I
इसका अर्थ हुआ, कि जैसे हम स्वयं को किसी दर्पण में देखते हैं, वैसे ही वो सुनहरा आत्मा होगा जब वो स्थूल शरीर से बहार निकलकर, ब्रह्माण्ड में घूमने को तैयार होगा) I
टिप्पणियां:
- इसी को बाइबिल में कहा गया है, कि मानव को बाइबिल के भगवान् ने उनके अपने ही प्रतिबिम्ब स्वरूप में बनाया है I
- और यह वाक्य प्रमाण भी है, कि बाइबिल इस सुनहरी आत्मा को ही बता रही है I
- लेकिन यह तो उस बात का भी प्रमाण है, कि बाइबिल के लेखक ॐ मार्ग के योगीजन ही थे, क्यूंकि आत्मा का यह स्वरूप भी तो ॐ में विलीन होने के पश्चात और वज्रदण्ड को पार करने के पश्चात ही स्वयं उदय होता है I
- जब यही सत्य जब बाइबिल में बारम्बार सामने आया, तो मैं जान गया कि बाइबिल को आगम और निगम के योगीजनों और वेद मनिषियों ने या तो लिखा होगा, और या इस बाइबिल की मूल प्रेरणा में वैदिक आगम और निगम के मनीषी ही होंगे I
- और यदि इस कलियुग के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ है, तो बाइबिल एक ऐसा ग्रन्थ ही है, जिसको पश्चिमी सभ्यता ने वैदिक आगम और निगम नामक मार्गों से चुराया है I
- ऊपर बताए गए दो विकल्पों के सिवा, और कोई है भी तो नही I
आगे बढ़ता हूँ …
- ऐसी सुनहरी आत्मा का नाता भी हिरण्यगर्भ ब्रह्म के रजोगुणी स्वरूप, अर्थात कार्य ब्रह्म से है, और जहाँ वह कार्य ब्रह्म ही योगेश्वर हैं I
- इसलिए इस चित्र में दिखाया गया सुनेहरा आत्मा, योगेश्वर सिद्धि का भी वाचक है, और जहाँ वह योगेश्वर ही महेश्वर,कार्य ब्रह्म, सगुण ब्रह्म, उकार, धर्मकाया, सृष्टिकर्ता, सदाशिव का तत्पुरुष मुख आदि कहलाते हैं I
टिपण्णी: यहाँ केवल यह सिद्धि बताई गई है, न कि इसका मार्ग I इस सिद्धि के मार्ग को किसी आगे के अध्याय में बतलाऊँगा I
बुद्धि का रजोगुणी स्वरूप, रजोगुणी बुद्धि का स्वरूप, रजोगुणी विज्ञानमय कोश, … बुद्धि का तमोगुणी स्वरूप, तमोगुणी बुद्धि का स्वरूप, तमोगुणी विज्ञानमय कोश, … बुद्धि का सत्त्वगुणी स्वरूप, सत्त्वगुणी बुद्धि का स्वरूप, सत्त्वगुणी विज्ञानमय कोश, … बुद्धि का त्रिगुण से नाता, बुद्धि और त्रिगुण, बुद्धि पर त्रिगुण का प्रभाव, … विज्ञानमय कोश का रजोगुणी स्वरूप, रजोगुणी विज्ञानमय कोश का स्वरूप, रजोगुणी बुद्धि, … विज्ञानमय कोश का तमोगुणी स्वरूप, तमोगुणी विज्ञानमय कोश का स्वरूप, तमोगुणी बुद्धि, … विज्ञानमय कोश का सत्त्वगुणी स्वरूप, सत्त्वगुणी विज्ञानमय कोश का स्वरूप, सत्त्वगुणी बुद्धि, … विज्ञानमय कोश का त्रिगुण से नाता, विज्ञानमय कोश और त्रिगुण, विज्ञानमय कोश पर त्रिगुण का प्रभाव, …
इस जीव जगत में जो भी है, वह गुणाधीन ही है, अर्थात त्रिगुणों के आधीन है I इसलिए, बुद्धि पर त्रिगुण प्रभाव डालते ही हैं I
तो अब इन प्रभावों से बुद्धि में जो होता है, उसको बताता हूँ …
- रजोगुण का बुद्धि पर प्रभाव, बुद्धि से रजोगुण का योग, बुद्धि पर रजोगुण का प्रभाव, रजोगुण का विज्ञानमय कोश पर प्रभाव, विज्ञानमय कोश से रजोगुण का योग, विज्ञानमय कोश पर रजोगुण का प्रभाव, … जब बुद्धि (विज्ञानमय कोश) पर रजोगुण का प्रभाव आता है, तब उस पीले वर्ण की बुद्धि में लाल वर्ण के रजोगुण के बिंदु दिखाई देने लगते हैं I
यही दशा बुद्धि की होती है, जब वह ॐ नाद के साक्षात्कार करती है I
विज्ञानमय कोश की यही रजोगुणी दशा तब भी होती है, जब वह दैविक स्वरूप को पाकर, कारण जगत में रमण कर रही होती है I
और अंततः इन दोनों वर्णों के योग से भगवा वर्ण प्रकट भी होता है I
इसलिए रजोगुणी विज्ञानमय कोश (बुद्धि) का स्वरूप पीला होता है, जिसमें लाल वर्ण के रजोगुण के बिंदु दिखाई देते हैं I
और यदि वह बुद्धि बहुत लम्बे समय के लिए ऐसी ही रह गई, तो वह बुद्धि भगवा वर्ण की ही हो जाएगी I
और जब रजोगुण का प्रभाव समाप्त हो जाएगा, तब विज्ञानमय कोश (बुद्धि) पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाएगी, जो सूक्ष्म पीले वर्ण का है I
- तमोगुण का बुद्धि पर प्रभाव, बुद्धि से तमोगुण का योग, बुद्धि पर तमोगुण का प्रभाव, तमोगुण का विज्ञानमय कोश पर प्रभाव, विज्ञानमय कोश से तमोगुण का योग, विज्ञानमय कोश पर तमोगुण का प्रभाव, … जब बुद्धि पर तमोगुण का प्रभाव आता है, तब उस पीले वर्ण की बुद्धि में नीले वर्ण के तमोगुण के बिंदु दिखाई देने लगते हैं I
विज्ञानमय कोश (बुद्धि) की यही दशा होती है जब वह जीव जगत से संबद्ध होती है, अर्थात भौतिकवाद में रमण कर रही होती है I
और अंततः इन दोनों वर्णों के योग से हरा वर्ण प्रकट भी होता है, जो जल महाभूत का होता है, और जो स्थिति कृत्य का द्योतक है I
इसलिए तमोगुणी बुद्धि (विज्ञानमय कोश) का स्वरूप पीला होता है, जिसमें नीले वर्ण के तमोगुण के बिंदु दिखाई देते हैं I
और यदि वह बुद्धि बहुत लम्बे समय के लिए ऐसी ही रह गई, तो वह बुद्धि हरे वर्ण की ही हो जाएगी, और उस जल महाभूत की ही द्योतक हो जाएगी, जो भौतिक जगत का सूचक है I
ऐसी दशा में समस्त जीव जगत ही उस जल में स्थित पाया जाएगा और ऐसा पाया जाएगा, जैसे जो उस भवसागर स्वरूप जल महाभूत में तैर रहा है I
और जब तमोगुण का प्रभाव समाप्त हो जाएगा, तब बुद्धि (विज्ञानमय कोश) पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाएगी, जो सूक्ष्म पीले वर्ण का है I
- सत्त्वगुण का बुद्धि पर प्रभाव, बुद्धि से सत्त्वगुण का योग, बुद्धि पर सत्त्वगुण का प्रभाव, सत्त्वगुण का विज्ञानमय कोश पर प्रभाव, विज्ञानमय कोश से सत्त्वगुण का योग, विज्ञानमय कोश पर सत्त्वगुण का प्रभाव, … जब बुद्धि (विज्ञानमय कोश) पर सत्त्वगुण का प्रभाव आता है, तब उस पीले वर्ण की बुद्धि में श्वेत वर्ण के सत्त्वगुण के बिंदु दिखाई देने लगते हैं I
बुद्धि (विज्ञानमय कोश) की यही दशा होती है जब वह सत्त्व से संबद्ध होती है, अर्थात संस्कारिक जगत में रमण कर रही होती है I
और अंततः इन दोनों वर्णों के योग से अन्य दोनों गुण के प्रकटीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा I और इसी योग से पञ्च महाभूत के प्रकटीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा, जिसका प्रारम्भ आकाश महाभूत से होगा I
और जहाँ वह आकाश महाभूत संस्कारिक जगत, दैविक जगत (या कारण जगत), सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत, सब को दर्शाता है I
और जब सत्त्वगुण का प्रभाव समाप्त हो जाएगा, तब बुद्धि पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाएगी, जो सूक्ष्म पीले वर्ण का है I
बुद्धि और ज्ञानाकाश, ज्ञानाकाश का स्वरूप, ज्ञानाकाश क्या है, रचना और ज्ञानाकाश, विज्ञानमय कोश और ज्ञानाकाश, …
बुद्धि (विज्ञानमय कोश) ज्ञानाकाश में विलीन होती है I
ज्ञानाकाश सद्योजात ब्रह्म से संबंधित होता है, और सद्योजात ब्रह्म की दिव्यता ही माँ गायत्री का हेमा मुख है I
ज्ञानाकाश में ही ब्रह्मतत्त्व बसा होता है और ब्रह्मतत्त्व में ज्ञानाकाश I और ब्रह्मतत्त्व में ही ॐ अपने लिपीलिंग स्वरूप में बसा होता है I
जब ज्ञानाकाश में रजोगुण का योग होता है, तब रचना होती है I इस रचना को ही महाब्रह्माण्ड कहा गया है, जिसके देवता भारत ब्रह्म हैं और जिसकी देवी भारती विद्या सरस्वती (अर्थात भारतीय विद्या, या देवी भारती, या भारती सरस्वती) हैं I
जब ज्ञानाकाश का रजोगुण से योग होता है, तब इसी दशा को ब्रह्म का रचैता स्वरूप कहा जाता है I
इसी दशा को कार्य ब्रह्म कहा गया है, और जहाँ कार्य ब्रह्म, हिरण्यगर्भ ब्रह्म का रजोगुणी स्वरूप हैं I
कार्य ब्रह्म, जो योगेश्वर ही हैं, वह ज्ञानाकाश के रजोगुणी स्वरूप हैं I ज्ञानाकाश के रजोगुणी स्वरूप को ही महेश्वर और योगेश्वर कहा जाता है I
समस्त ज्ञान के व्यापक स्वरूप को ज्ञानाकाश कहा जाता है, और समस्त क्रिया के व्यापक स्वरूप रजोगुण I
जब रजोगुण और ज्ञान का योग होता है, तब यही योग को ब्रह्म का रचैता स्वरूप कहा जाता है I
आगे बढ़ता हूँ …
विज्ञानमय कोश का उत्कर्षमार्गी स्वरूप, विज्ञानमय कोश का उत्कर्षमार्ग में योगदान, … विज्ञानमय कोश का उत्कर्षमार्गी स्वरूप वैदिक है, … विज्ञानमय कोश और ब्रह्माण्ड धारणा, विज्ञानमय कोश और ब्रह्माण्ड योग, ब्रह्माण्ड धारणा और ब्रह्माण्ड योग, … विज्ञानमय कोश और ज्ञान ब्रह्म, विज्ञानमय कोश और ज्ञान शक्ति, …
विज्ञानमय कोश से ही मन पर संयम होता है, जिससे प्राणों पर संयम बनाया जाता है और जिससे महाभूतों से युक्त दशाओं पर नियंत्रण होता है I इन सबके योगदान से ही उत्कर्ष मार्ग प्रशस्त होते हैं I
क्यूंकि प्रकृति अपनी दशाओं से बहुवादी ही है, इसलिए उत्कर्ष मार्गी होने के लिए, साधक की बुद्धि (विज्ञानमय कोश) को बहुवादी ही होना पड़ेगा I
और क्यूँकि प्रकृति अपने भागों के अनुसार बहुवादी होती हुई भी, एक ही है, इसलिए उत्कर्षपथ गामी होने के लिए, उस बहुवादी बुद्धि को अद्वैत मार्गी भी होना होगा I
इसलिए, विज्ञानमय कोश के उत्कर्षमार्गी स्वरूप को, प्रकृति के बहुवादी अद्वैत में ही बसा होना होगा I
उस बहुवादी अद्वैत में, …
मार्ग बहुवादी होता है, और गंतव्य अद्वैत I
और क्यूँकि बहुवादी अद्वैत रूपी उत्कर्ष मार्ग को ही वैदिक वाङ्मय कहते हैं, इसलिए यदि विज्ञानमय कोश का आलम्बन लेके साधक को उत्कर्ष पथ पर जाना है, तो उस साधक के मार्ग भी वैदिक वाङ्मय के अंतर्गत ही होना होगा I
यही कारण है, कि यदि उत्कर्ष पथ पर गमन विजयानमय कोश का आलम्बन लेके करना है, वो ऐसा उत्कर्ष पथ, वैदिक वाङ्मय के अंतर्गत ही संभव हो सकता है I
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई और मार्ग है ही नहीं, जो विजयानमय कोश में बसा हुआ है और वैदिक नहीं पाया जाता I
आगे बढ़ता हूँ …
और ऐसा उत्कर्ष मार्ग भी सर्वस्व से एकवाद का ही हो सकता है, जिसके मूल में वही होगा जो नीचे कहा गया है, …
सब पथ ब्रह्म की अभिव्यक्ति, प्रकृति से संबद्ध हैं, और उसी ब्रह्म को जाते हैं I
उत्कर्षमार्गों में तारतम्य होने पर भी, सभी पथ उसी ब्रह्म की ओर जाते हैं I
ब्रह्म ने अपने ओर जाते हुए उत्कर्षमार्गों के सिवा कोई और मार्ग बनाया ही नहीं I
मार्ग चाहे कोई भी हो, किसी भी कालखंड में हो, अंततः सब ब्रह्म को ही जाते हैं I
ऐसा इसलिए है, क्यूंकि इस …
जीव जगत सहित, सभी उत्कर्ष आदि पथ भी उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति हैं I
ब्रह्म ही जीव जगत, उसका तंत्र और उस तंत्र का उत्कर्ष आदि पथ स्वरूप हुआ है I
लेकिन, ऐसे मार्ग में साधक को ब्रह्माण्ड धारणा में ही स्थित होना पडेगा I
इसलिए, विज्ञानमय कोश से संबंधित उत्कर्ष मार्गों के मूल में, ब्रह्माण्ड धारणा ही होनी होगी I
और क्यूंकि ब्रह्माण्ड धारणा ही ब्रह्माण्ड योग का मार्ग है, इसलिए विज्ञानमय कोश से संबंधित उत्कर्ष मार्ग, ब्रह्माण्ड योग की ओर लेके जाएगा ही I
और कुछ बातें …
जिस उत्कर्ष पथ में विज्ञानमय कोश ही प्रधान होगा, उसमें साधक आंतरिक रूप में शांत ही होगा I
ऐसा इसलिए होगा क्यूंकि ब्रह्माण्ड धारणा में बासकर जाता हुआ उत्कर्ष पथ, ऐसी शांति का ही होता है, जिसमें ब्रह्मांडीय द्वैतवादों के होते हुए भी, उनका साधक पर कोई प्रभाव नहीं होता है I
ऐसा इसलिए है क्यूंकि …
ऐसे मार्गों में साधक के भाव और धारणा में संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही बसा हुआ होता है I
ब्रह्माण्ड के भागों के गुण आदि तारतम्य होने पर भी, वह ब्रह्माण्ड एक ही होगा I
इसलिए, ऐसे विज्ञानमय भावनात्मक उत्कर्ष पथ में, …
भागों के गुणादि पृथक होने पर भी, ब्रह्माण्ड अद्वैत ब्रह्म का द्योतक ही है I
यही कारण है, कि जिस उत्कर्ष मार्ग में विज्ञानमय कोश ही प्रधान होगा, उसमें साधकगण अंततः गुणातीत ब्रह्म को ही पाएंगे I
और ऐसा उत्कर्षपथ आत्ममार्ग ही होगा I
और जहाँ उस आत्ममार्ग को यदि मैं एक वाक्य में बतलाऊँगा, तो यह कह सकता हूँ …
जो अपने भीतर के मणि को छोड़कर, बाह्य वस्तुओं में रमण करता है, उसको टूटे हुए कांच के टुकड़ों से सिवा, कुछ भी प्राप्त नहीं होता I
कलियुग के कालखंड में, विश्व की स्थिति इसी वाक्य की सत्यता का प्रमाण है I
इसलिए, यदि …
मुक्ति रूपी गंतव्य, अर्थात आत्मस्वरूप को पाना है, तो “स्वयं ही स्वयं में” जाओ I
कुछ और पाने की इच्छा है, तो कहीं भी जाओ… बस इस ग्रंथ में मत आओ I
आगे बढ़ता हूँ …
इस कोश की शक्ति को ज्ञान शक्ति कहा जाता है, जिसका संबंध ज्ञानाकाश से होता है, जो सद्योजात ब्रह्म से संबद्ध होता है I और ऐसा होने पर भी, वह ज्ञान शक्ति, अघोर ब्रह्म में ही साक्षात्कार होती है I
और जहाँ उस ज्ञान ब्रह्म का नाता ज्ञानात्मा नामक शब्द और उसकी सिद्धि से भी है I
आगे बढ़ता हूँ …
विज्ञानमय कोश का महाकारण देह किसे कहते हैं, महाकारण देह क्या है, महाकारणम् देहम्, महाकारण देहम्, विज्ञानमय कोश से महाकारण देह का उदय, … विज्ञानमय कोश और बुद्धत्व कोश, विज्ञानमय कोश और बुद्धता कोश, विज्ञानमय कोश और बुद्धत्व प्राप्ति, विज्ञानमय कोश और बुद्धता प्राप्ति, विज्ञानमय कोश और बुद्धता सिद्धि, विज्ञानमय कोश और बुद्धत्व सिद्धि, … विज्ञानमय कोश की अंतिम दशा, विज्ञानमय कोश की गंतव्य दशा, विज्ञानमय कोश का अंत, विज्ञानमय कोश का गंतव्य, …
जब विज्ञानमय कोश अकार, उकार, मकार, शुद्ध चेतन तत्त्व (अर्थात ब्रह्मतत्त्व) से जा रहा होता है, तब वह जीवात्मा कहलाता है I
और जब वह जीवात्मा ॐ के ऊपर के बिंदु में विलीन होता है, तब वह स्वयं ही स्वयं को देख नहीं पाता है I
इसके पश्चात्, वह जीवात्मा उस वज्रदण्ड चक्र में जाता है, जिसके भीतर का नाद राम है I
और इसे भी पार करके, अंततः वह जीवात्मा निरालंबस्थान में चला जाता है I
इस दशा में वह जीवात्मा, जो पूर्व में पीले वर्ण का था, सुनेहरा सा प्रतीत होता है, और यही हिरण्यगर्भ स्वरूप आत्मा है, जिसका वर्ण चमकदार पीला (अर्थात सुनहरा) होता है I
यही आत्मा, इंद्रलोक से जाकर, अंततः सद्योजात ब्रह्म में विलीन होकर और निराकार होकर, महाकारण देह कहलाता है I
यह महाकारणम् देहम् ही विज्ञानमय कोश की अंतिम (या गंतव्य) दशा है, और यही विज्ञानमय कोश से संबंधित सिद्धि का गंतव्य स्वरूप भी है I
इस महाकारणम् देहम् को आगे के एक अध्याय, जिसका नाम बोधिचित्त होगा, उसमें भी बताया जाएगा I
यह महाकारण देह, बुद्धत्व (अर्थात बुद्धता) को भी दर्शाता है I
इसी ज्ञान और सिद्धि को धर्मकाया भी कहा गया था I
विज्ञानमय कोश के गुण, विज्ञानमय कोश की वृत्तियां, बुद्धि के गुण, बुद्धि की वृत्तियां, …
बुद्धि (विज्ञानमय कोश) के गुण और वृत्ति भी होती है, तो अब इनको बताता हूँ …
- जीव जगत के विज्ञान से, अवचेतन रूप में बुद्धि (विज्ञानमय कोश) जुड़ा ही रहता है I
ऐसा होने के कारण ही साधक का विज्ञानमय कोश, समस्त विज्ञान को अपने चेतना युक्त रूप में पाना चाहता है I
इसलिए विज्ञान के दृष्टिकोण से यह कोश एक विज्ञान से दुसरे में कूदता ही रहता है I
और यही कारण है कि विज्ञानमय कोश भी चंचल सा ही रहता है I
इस वृत्ति का निवारण मार्ग ब्रह्मज्ञान है, चाहे वह ब्रह्मज्ञान दीक्षा आदि से आए या योगमार्गों से ही पाया जाए I
- त्रिकालों और उनके समस्त भागों का विज्ञान इस विज्ञानमय कोश से, एक ही समय पर जुड़ा होता है I
इसलिए इस कोश में क्षमता होती है, कि वो समस्त कालों के ज्ञान को अर्जित करके, संगठित कर सकता है I
- ऊपर बताए गए दोनों बिंदुओं के कारण, इस कोश के परिपक्व होने पर, साधक त्रिकाल ज्ञानी (त्रिकाल दर्शी) हो जाता है I
- इस कोश की एक और वृत्ति होती है, कि यदि यह किसी से बहुत ज्ञानमय लगाव या अलगाव ही कर ले, तो यही कोश साधक के उत्कर्ष पथ का गति अवरोधक और साधक के पतन का कारण भी बन जाता है, क्यूंकि ऐसी दशा में यही कोश साधक को द्वैतवाद और विकृत एकवाद में ही डाल देगा I
इसी बिंदु पर यह अध्याय समाप्त होता है और अब अगले अध्याय पर जाता हूँ जिसका नाम अंतःकरण चतुष्टय होगा I
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
लिंक:
मनोमय कोश, मन ब्रह्म – Manomaya kosha, Mind Sheath,
विज्ञानमय कोश, जीवात्मा, ज्ञान ब्रह्म, – Vigyanamaya kosha, Knowledge sheath.
ब्रह्मकल्प, Brahma Kalpa
परंपरा, Parampara
ब्रह्म, Brahman
कालचक्र, Kaal Chakra